रंग और रोशनी: शादी की बात सुन प्रिया सकपका क्यों गई?

मनीष अपनी पत्नी मुक्ता के साथ बरामदे में बैठा शाम की चाय की चुसकियां ले रहा था. दफ्तर में बीते दिन के  कुछ रोचक पल मुक्ता को सुना रहा था. मुक्ता भी उस के साथ अपने दिन भर के अनुभव बांट रही थी. अरेंज्ड मैरिज और नईनई गृहस्थी के अनुभव. बहुत कुछ था दोनों के बीच साझा करने को.

‘‘वाह, एक तो तुम्हारे हाथ के बने समोसे और वे भी एअर फ्रायर में. स्वाद भी और सेहत भी. एक अच्छी पत्नी का फर्ज तुम बढि़या ढंग से निभा रही हो.’’

मनीष के कथन पर मुक्ता शरमाते हुए हंसी ही थी कि तभी मनीष का दोस्त गोपाल आ गया.

‘‘आओ गोपाल, बैठो. मुक्ता 1 कप चाय गोपाल के लिए भी हो जाए.’’

मनीष के कहते ही मुक्ता फुरती से रसोई की ओर चल दी.

‘‘क्या दोस्त, मेरे आते ही भाभी को भगा दिया? खैर, अच्छा ही किया. आज मैं तुझे एक समाचार देने आया हूं. तेरी प्रिया अपनी मां के घर वापस आ गई है. मुझे आज बाजार में मिली थी. मैं ने जैसे ही तेरे बारे में खबर दी तो, वह तेरा फोन नंबर मांगने लगी… कहने लगी उस का फोन चोरी हो गया था, इसलिए तेरा नंबर खो गया.’’

आगे गोपाल ने क्या कहा, वह मनीष को सुनाई नहीं दिया. वह तो प्रिया का नाम सुनते ही अतीत की गहरी खाई में गिरता चला गया. 6 माह पहले तक इस नाम के इर्दगिर्द ही उस का पूरा जीवन सिमटा था. उस की प्रिया, उस की जान, उस का प्यार…

कमल की पार्टी में प्रिया अलग ही चमक रही थी. कौन था ऐसा पार्टी में जिस की नजर उस पर न पड़ी हो. मनीष अपने शरमीले स्वभाव के कारण बस दूर से ही उसे निहार कर खुश था. पर पार्टी के बाद जब पता चला कि प्रिया का घर मनीष के रास्ते में आता है, तो उसे घर छोड़ने का काम उस ने सहर्ष स्वीकार लिया. प्रिया की आंखों और मुसकराहट में भी तो कुछ महसूस किया था उस ने. रास्ते में पता चला कि प्रिया कालेज में पढ़ती है. मनीष कालेज की पढ़ाई के बाद प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी कर रहा था.

‘‘तब तो तुम बहुत मेधावी होगे. मुझे जो समझ न आया करे उसे क्या तुम से समझने आ जाया करूं?’’

‘‘जब तुम्हारा मन करे,’’ मनीष ने बिना देर किए कहा. आखिर अंधा क्या चाहे 2 आंखें.

मनीष अपने मातापिता की इकलौती संतान थी. उस के पिताजी नौकरी के सिलसिले में अकसर दौरे पर रहते थे और मां इतनी सीधी थीं कि प्रिया का घंटों मनीष के कमरे में रहना उन्हें जरा भी नहीं अखरता था. प्रिया के घर जाने में मनीष को किसी बहाने की जरूरत न थी. प्रिया की मां अकसर घर से बाहर रहती थीं. पति से उन का तलाक हो चुका था.

धीरे-धीरे मनीष और प्रिया के संबंधों में प्रगाढ़ता आने लगी. कुछ दोष उम्र का भी था. कच्ची उम्र, सतरंगी सपने. बिना आई लव यू कहे भी दोनों एकदूसरे को अपने दिल का हाल सुनाने में सक्षम थे. दोनों को एकदूसरे का साथ बहुत भाता. जब साथ न

होते तब व्हाट्सऐप पर हरपल की खबर रहती. प्रिया मनीष की हर बात में अपनी हां मिलाती. मनीष उसे नित नए कपड़े, नेलपौलिश, लिपस्टिक, परफ्यूम इत्यादि देता रहता. यहां तक कि प्रिया की औनलाइन शौपिंग के लिए उसे क्रैडिट कार्ड भी मनीष ने ही दिया था. इस के बदले में प्रिया ने मनीष की हर कमी को पूरा कर दिया था. उस ने कभी मनीष को स्वयं को हाथ लगाने से नहीं रोका था. शायद मनीष का शरमीला स्वभाव उसे आगे बढ़ने की स्वीकृति नहीं देता यदि प्रिया ने उस दोपहर अपने अकेले घर में स्वयं को मनीष को न सौंप दिया होता. उस अनुभव के बाद मनीष का मन प्रिया के बिना कहीं लगता ही नहीं था. दोनों एकदूसरे के घर, कमरे में एकांत तलाशते. एकदूसरे के बिना स्वयं को अकेला पाते.

‘‘प्रिया, मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता. तुम्हारे मेरी जिंदगी में आने से पहले मेरा जीवन कितना सूना था. तुम ने उस में रंग और रोशनी भर दी.’’

मनीष प्रिया के प्रेम की लहर में बह जाता-

‘‘जीना हराम कर रखा है मेरी इन आंखों ने,

खुली हों तो तलाश तेरी और बंद हों तो ख्वाब तेरे.’’

इस प्रेम का असर मनीष की निजी जिंदगी में तो हो ही रहा था, उस की पढ़ाई पर भी पड़ने लगा था. उस की प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी में न तो वह लगन थी और न ही मेहनत, जिस की जरूरत होती है. प्रिया की सूरत और उस के सपने कभी उसे अकेला न छोड़ते. इस का नतीजा यह रहा कि वह परीक्षा में असफल रहा. अब चूंकि घर पिताजी की पेंशन पर चल रहा था, इसलिए मनीष को जेबखर्ची, क्रैडिट कार्ड इत्यादि सब बंद करने पड़े.

मनीष को आज भी अच्छी तरह याद है जब उस के मित्र परीक्षा में अनुत्तीर्ण रह जाने पर अफसोस करने आए थे. सब के साथ प्रिया भी आई थी पर उस के चेहरे पर अफसोस का कोई भाव न था, बल्कि जब उस के एक मित्र ने यह कहा कि मनीष प्रिया के कारण परीक्षा में पूरी मेहनत न कर सका तो कितनी बेहयाई से हंसते हुए उस ने कहा था कि वाह, एक तो फेल हो गए, उस पर तुर्रा यह कि इलजाम किसी और के सिर मढ़ दो. यह अच्छा है यानी उस के स्वर में हमदर्दी की जगह व्यंग्य था.

मनीष को प्रिया की यह बात बुरी अवश्य लगी थी, पर वह इसे प्रिया का अल्हड़पन समझ कर टाल गया था. अभी तक उस ने प्रिया से अपने जीवन का हिस्सा बनने की बात भी कहां छेड़ी थी. जब वह उस के जीवन में शामिल हो जाएगी, तभी तो एक की स्थिति की जिम्मेदारी दूसरे की भी होगी. उसे विश्वास था कि प्रिया के साथ से वह जीवन में अवश्य सफल होगा. इसीलिए जल्द ही बिना देर किए मनीष ने प्रिया के समक्ष शादी का प्रस्ताव रख दिया.

प्रिया स्तब्ध सी उसे देखती रह गई. फिर उस ने साफसाफ कह दिया, ‘‘कैसी बातें कर रहे हो मनीष? माना कि तुम मुझे अच्छे लगते हो,

पर शादी? शादी की क्या जरूरत है, मैं तो तुम्हारी हूं ही.’’

‘‘पर प्रिया ऐसे कब तक चलेगा? मेरे मातापिता मेरी शादी की सोचेंगे और आखिर तुम्हारी मां भी कब तक इंतजार करेंगी. उन्हें भी तो तुम्हारी शादी की चिंता होगी. मैं ने सोचा है कि कोई छोटीमोटी नौकरी तो मुझे मिल ही जाएगी. पिताजी ने एक जगह बात चलाई है, छोटी ही सही पर गृहस्थी का बोझ मैं उठा लूंगा.’’

‘‘छोटीमोटी नौकरी? समझने की कोशिश करो मनीष… पैसे के बिना जीवन क्या है? देखो, आजकल तुम न तो मुझे कोई उपहार दे पाते हो और न ही मेरी खरीदारी करा पाते हो. ऐसे में भला शादी की कैसे सोच सकते हो? वैसे भी शादी का मतलब है खाना पकाना, घर संभालना, बच्चे पैदा करना और फिर उन का पालनपोषण और भविष्य की चिंता में घुलते रहना. बदले में एक ढर्रे की जिंदगी. मुझे इन सब से चिढ़ है. मैं एक स्वतंत्र विचारों की लड़की हूं. मेरी मां को ही देख लो. आज अकेले कितनी प्रसन्न और मस्त हैं. मैं भी वैसा ही जीवन चाहती हूं.’’

प्रिया के इस उत्तर ने मनीष को निरुत्तर कर दिया. उस दिन के बाद से मनीष को न जाने ऐसा क्यों लगने लगा जैसे प्रिया उस से कतराने लगी है, जैसे उस का व्यवहार ठंडा पड़ने लगा है, वह उस से किनारा करने लगी है. वह कई दिनों तक उस से न मिलती, न ही फोन पर संपर्क करती. कहीं टकरा जाने पर बहानों की कतार लगा देती, ‘‘बस इतना ही जान पाए अपनी प्रिया को तुम मनीष? मैं तुम्हें कैसे भूल सकती हूं? मैं स्वयं को भूल सकती हूं पर तुम मेरी हर सांस में बसते हो…’’

बात इमोशनल ब्लैकमेल तक पहुंच जाती. मनीष पूछना चाहता कि इतनी चाहत है, तो छलकती क्यों नहीं है तुम्हारे चेहरे पर? पर डरता था कि कहीं बात साफ करतेकरते वह प्रिया को खो न बैठे. उसे इंतजार मंजूर था पर अपने सुनहरे स्वप्नों की उड़ान में दरार नहीं.

‘प्रिया को पाने से पहले मुझे जीवन में कुछ और बुलंदियां भी हासिल करनी होंगी,’ सोच उस नेएक बार फिर प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी. अब की बार उस ने शुरू से ही पूरा परिश्रम करने की ठानी थी. कभीकभार फोन पर प्रिया से बात कर वह स्वयं को हलका महसूस कर लेता था.

फिर एक दिन प्रिया ने बताया, ‘‘मैं अपने मामा के घर जा रही हूं… तुम यों परेशान हो रहे हो जैसे मेरी शादी हो रही है. तुम क्या समझते हो मैं तुम्हारे बिना खुश रह सकूंगी? पर मैं यह सब तुम्हारे लिए कर रही हूं. मेरे यहां रहते तुम पढ़ाई में मन नहीं लगा पाओगे. यह हमारी परीक्षा की घड़ी है. मनीष इस में हमें पास हो कर दिखाना है.’’

बड़ी मुश्किल से मनीष का मन शांत हो पाया था.

प्रिया के जाने के बाद सुहावना मौसम भी बोझिल लगता. मानो अंदर का बुझापन बाहर की रौनक पर हावी हो गया हो. लेकिन समय अपनी गति कब छोड़ता है? परीक्षा की तारीख पास आ रही थी. किसी तरह मनीष ने अपना ध्यान पढ़ाई में लगाया. पर प्रिया के पत्र का इंतजार उसे रोज रहता. अंतत: 3 महीने बाद उस का पत्र आया. पत्र में प्रिया की मजबूरियों का बखान था…. मनीष के बिना वह कितनी अधूरी थी, कितनी तनहा. प्रिया की तड़प पढ़ कर मनीष की आंखें भर आईं कि क्यों वह बारबार प्रिया के प्यार पर अविश्वास की परत चढ़ा देता है? हर किसी का प्यार करने और जताने का ढंग अलगअलग होता है और फिर प्रिया एक लड़की है. कुछ शर्म, कुछ हया उस के व्यक्तित्व का हिस्सा है. जरूरी तो नहीं हर बात कही जाए, कुछ महसूस भी की जाती है. एक सच्ची प्रेमिका पा कर वह स्वयं को धन्य मान रहा था.

परीक्षा समाप्त हो गई. कुछ ही समय बाद परिणाम भी आ गया. इस बार मांपिताजी की प्रसन्नता का ठिकाना न था. घर पर दोस्तों के लिए एक छोटी सी दावत रखी थी. उस शाम मनीष को प्रिया की कमी बहुत खली थी. वह प्रिया को यह खुशखबरी स्वयं सुनाना चाहता था. उस के चेहरे की खुशी को वह अपनी आंखों से देखना चाहता था. फोन पर खबर दे कर वह इस दृश्य को खोना नहीं चाहता था.

मनीष ने कमल से प्रिया का पता मांगते

हुए, जो उस के अलावा प्रिया का भी दोस्त था कहा, ‘‘यार, प्रिया को यह खुशखबरी दे दूं…

सच कहूं तो मैं उस से शादी करना चाहता हूं.

हम दोनों ने अलग रह कर बहुत कठिन परीक्षा दी है. यह त्याग उस ने मेरी सफलता के

लिए दिया और अब जब मैं अपने पैरों पर खड़ा हूं तो…’’

‘‘अरे मनीष, तुम्हारे जैसा सुशील और लायक लड़का प्रिया जैसी तितली के जाल में फंस जाएगा यह तो मैं सोच भी नहीं सकता था. प्रिया जैसी लड़की सैरसपाटे के लिए ठीक है

पर शादी के लिए नहीं. क्यों अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार रहा है?’’

कमल ने मनीष के मन की शांत झील में पहला पत्थर मारा था. उस ने प्रिया के बारे में जो कुछ भी बताया उसे सुन कर मनीष स्तब्ध रह गया.

‘‘प्रिया के प्रियों की संख्या का भान है तुझे? आए दिन वह किसी न किसी से रासलीला रचा रही होती है… उस की मां भी तो वैसी ही,’’ और फिर आगे कुछ कहने के बजाय कमल हंसने लगा.

‘‘बदलता है रंग आसमान कैसेकैसे.’’

मनीष की नायिका अचानक खलनायिका बना दी गई थी. उस के मन में उथलपुथल

मची थी कि क्या सच में वह बेवकूफ बन रहा था या प्रिया जैसी प्रेमिका के कारण कमल उस से जल रहा है? उस का मन बेचैन हो उठा था. यह उस के जीवन का अहम निर्णय था. इसलिए उस ने खुद छानबीन करने की ठानी. मनीष ने काफी पूछताछ की. जितनी जानकारी मिलती गई, उस का मन उतना ही खिन्न होता गया. वह कितना पागल था प्रिया के प्यार में. प्रिया की रस घुली बातों में आने में उसे जरा भी देर न लगती थी.

‘‘ख्वाहिशों के काफिले भी बड़े अजीब होते हैं, वे गुजरते वहीं से हैं जहां रास्ते नहीं होते हैं.’’

अब मनीष की सफलता का परिणाम सुन कर शायद प्रिया शादी के लिए फौरन हामी भर

दे. विरह में बीते दिनरातों की व्यथा सुनाए. पर आंखों देखी मक्खी किस से निगली जाती है भला? इसलिए मां के बारबार पूछने पर मनीष ने उन की पसंद की लड़की से शादी के लिए हां कह दी.

उसी सप्ताहांत मनीष अपने मांपिताजी के साथ लड़की देखने उन के घर पहुंचा. लड़की सुंदर थी. उन्हें भी मनीष पसंद आया. रिश्ता पक्का हो गया. किंतु मनीष अपनी जीवनसंगिनी से अपने जीवन का अतीत अंधेरे में नहीं रखना चाहता था. अत: उस ने मुक्ता से अकेले में बात करने की इच्छा व्यक्त की. संकोचवश मुक्ता कुछ असहज थी.

मनीष ने ही शुरुआत की, ‘‘जब हम दोनों अपना पूरा जीवन साथ गुजारने का निर्णय लेने जा रहे हैं, तो हमें अपना अतीत भी साझा कर लेना चाहिए. मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं. पहले सुन लो, फिर जो तुम्हारा निर्णय होगा, मुझे मान्य होगा,’’ और फिर मनीष ने मुक्ता को प्रिया के बारे में पूरी ईमानदारी से सब बता दिया.

कुछ क्षण चुप रहने के बाद मुक्ता बोली, ‘‘चलिए, खट्टा ही सही पर आप को प्यार में अपना निर्णय लेने का मौका तो मिला… ताउम्र यह गिला तो नहीं रह जाएगा कि किसी से प्यार ही न कर सके. मेरा भी मन था कि मैं लव मैरिज करूं पर हमारे यहां तो लड़कियों का आंख उठाना भी वर्जित है.’’

‘‘तो तुम क्या इसलिए उदास लग रही हो?’’

मुक्ता चुप रही, लेकिन उस की आंखों ने हामी भर दी थी.

‘‘अच्छा किया तुम ने अपने दिल की बात मुझ से कही. हमारे बीच कोई संकोच नहीं होना चाहिए.’’

‘‘दरअसल, मैं भी चाहती थी कि जो खुशी प्यार में पड़े लोगों को महसूस होती है,

उसे मैं भी अनुभव कर पाती… प्यार में जिंदगी बदल देने वाले वे…’’ बोलते ही मुक्ता रुक गई. फिर जीभ काटते हुए कहने लगी, ‘‘माफ कीजिए, मैं भी पागल हूं, पता नहीं क्याक्या बोल रही हूं.’’

मगर उस की बातें सीधे मनीष के दिल तक पहुंचीं. कितनी साफगोई से मुक्ता ने अपनी ख्वाहिश उस पर जाहिर कर दी थी. ठीक ही तो है मनीष ने अपनी मरजी कर के देख ली और अब मातापिता की इच्छा से शादी कर रहा था. किंतु मुक्ता को अपनी मरजी का अवसर कहां मिला?

मनीष ने उसी दिन से मुक्ता के जीवन में प्यार का रंग और प्यार के  खुमार की रोशनी भरने की जिम्मेदारी उठा ली. उस ने हर प्रयास कर के मुक्ता को प्यार में मिलने वाली हर खुशी दी. यहां तक कि शादी होने तक मुक्ता को लगने लगा कि जैसे उस की लव मैरिज हो रही हो.

सच कहते हैं कि शादियां ऊपर तय होती हैं. यहां जमीन पर तो हम सिर्फ उन का मेल कराते हैं. मनीष और मुक्ता असल मानों में हमसफर बने.

आज गोपाल फिर उसी भूकंप की खबर लाया था, जिस से कभी मनीष का संसार डोल जाया करता था. पर आज वह शांत था. उस का संसार प्रसन्नता के झूले में झूल रहा था और इस की डोर थी मुक्ता के हाथों में. दोनों प्यार में जिंदगी बदल देने वाले रंग और रोशनी अनुभव कर रहे थे.

कभी अपने लिए

विमान ने उड़ान भरी तो मैं ने खिड़की से बाहर देखा. मुंबई की इमारतें छोटी होती गईं, बाद में इतनी छोटी कि माचिस की डब्बियां सी लगने लगीं. प्लेन में बैठ कर बाहर देखना मुझे हमेशा बहुत अच्छा लगता है. बस, बादल ही बादल, उन्हें देख कर ऐसा लगता है कि रुई के गोले चारों तरफ बिखरे पड़े हों. कई बार मन होता है कि हाथ बढ़ा कर उन्हें छू लूं.

मुझे बचपन से ही आसमान का हलका नीला रंग और कहींकहीं बादलों के सफेद तैरते टुकड़े बहुत अच्छे लगते हैं. आज भी इस तरह के दृश्य देखती हूं तो सोचती हूं कि काश, इस नीले आसमान की तरह मिलावट और बनावट से दूर इनसानों के दिल भी होते तो आपस में दुश्मनी मिट जाती और सब खुश रहते.

दिल्ली पहुंचने में 2 घंटे का समय लगना था. बाहर देखतेदेखते मन विमान से भी तेज गति से दौड़ पड़ा, एअरपोर्ट से बाहर निकलूंगी तो अभिराम भैया लेने आए हुए होंगे, वहां से हम दोनों संपदा दीदी को पानीपत से लेंगे और फिर शाम तक हम तीनों भाईबहन मां के पास मुजफ्फरनगर पहुंच जाएंगे.

हम तीनों 10 साल के बाद एकसाथ मां के पास पहुंचेंगे. वैसे हम अलगअलग तो पता नहीं कितनी बार मां के पास चक्कर काट लेते हैं. अभिराम भैया दिल्ली में हृदयरोग विशेषज्ञ हैं. संपदा दीदी पानीपत में गर्ल्स कालेज की पिं्रसिपल हैं और मैं मुंबई में हाउसवाइफ हूं. 10 साल से मुंबई में रहने के बावजूद यहां के भागदौड़ भरे जीवन से अपने को दूर ही रखती हूं. बस, पढ़नालिखना मेरा शौक है और मैं अपना समय रोजमर्रा के कामों को करने के बाद अपने शौक को पूरा करने में बिताती हूं. शशांक मेरे पति हैं. मेरे दोनों बच्चे स्नेहा और यश मुंबई के जीवन में पूरी तरह रम गए हैं. मां के पास तीनों के पहुंचने का यह प्रोग्राम मैं ने ही बनाया है. कुछ दिनों से मन नहीं लग रहा था. लग रहा था कि रुटीन में कुछ बदलाव की जरूरत है.

स्नेहा और यश जल्दी कहीं जाना नहीं चाहते, वे कहीं भी चले जाते हैं तो दोनों के चेहरों से बोरियत टपकती रहती है, शशांक सेल्स मैनेजर हैं, अकसर टूर पर रहते हैं. एक दिन अचानक मन में आया कि मां के पास जाऊं और शांति से कम से कम एक सप्ताह रह कर आऊं. शशांक या बच्चों के साथ कभी जाती हूं तो जी भर कर मां के साथ समय नहीं बिता पाती, इन्हीं तीनों की जरूरतों का ध्यान रखती रह जाती हूं, इस बार सोचा अकेली जाती हूं. मां वहां अकेली रहती हैं, हमारे पापा का सालों पहले देहांत हो चुका है. मां टीचर रही हैं. अभी रिटायर हुई हैं.

हम तीनों भाईबहनों ने उन्हें साथ रहने के लिए कई बार कहा है लेकिन वे अपना घर छोड़ना नहीं चाहतीं, उन्हें वहीं अच्छा लगता है. सुबहशाम काम के लिए राधाबाई आती है. सालों से वैसे भी मां ने अपने अकेलेपन का रोना कभी नहीं रोया, वे हमेशा खुश रहती हैं, किसी न किसी काम में खुद को व्यस्त रखती हैं.

हां, तो मैं ने ही दीदी और भैया के साथ यह कार्यक्रम बनाया है कि हम तीनों अपनेअपने परिवार के बिना एक सप्ताह मां के साथ रहेंगे. अपनी हर व्यस्तता, हर जिम्मेदारी से स्वयं को दूर रख कर. कभी अपने लिए, अपने मन की खुशी के लिए भी तो कुछ सोच कर देखें, बस कुछ दिन.

अभिराम भैया को अपने मरीजों से समय नहीं मिलता, दीदी कालेज की गतिविधियों में व्यस्त रह कर कभी अपने स्वास्थ्य की भी चिंता नहीं करतीं, मेरा एक अलग निश्चित रुटीन है लेकिन मेरे प्रस्ताव पर दोनों सहर्ष तैयार हो गए, शायद हम तीनों ही कुछ बदलाव चाह रहे थे. शशांक तो मेरा कार्यक्रम सुनते ही हंस पड़े, बोले, ‘हम लोगों से इतनी परेशान हो क्या, सुखदा?’

मैं ने भी छेड़ा था, ‘हां, तुम लोगों को भी तो कुछ चेंज चाहिए, मैं जा रही हूं, मेरा भी चेंज हो जाएगा और तुम लोगों का भी, बोर हो गई हूं एक ही रुटीन से,’ शशांक ने हमेशा की तरह मेरी इच्छा का मान रखा और मैं आज जा रही हूं.

एअरहोस्टैस की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई, मैं काफी देर से अपने विचारों में गुम थी. दिल्ली पहुंच कर जैसे ही एअरपोर्ट से बाहर आई, अभिराम भैया खड़े थे, उन्होंने हाथ हिलाया तो मैं तेजी से बढ़ कर उन के पास पहुंच गई, उन्होंने हमेशा की तरह मेरा सिर थपथपाया, बैग मेरे हाथ से लिया. बोले, ‘‘कैसी हो सुखदा, मान गए तुम्हें, यह योजना तुम ही बना सकती थीं, मैं तो अभी से एक हफ्ते की छुट्टी के लिए ऐक्साइटेड हो रहा हूं, पहले घर चलते हैं, तुम्हारी भाभी इंतजार कर रही हैं.’’

रास्ते भर हम आने वाले सप्ताह की प्लानिंग करते रहे. भैया के घर पहुंच कर स्वाति भाभी के हाथ का बना स्वादिष्ठ खाना खाया. अपने भतीजे राहुल के लिए लाए उपहार मैं ने उसे दिए तो वह चहक उठा. भैया बोले, ‘‘सुखदा, थोड़ा आराम कर लो.’’

मैं ने कहा, ‘‘बैठीबैठी ही आई हूं, एकदम फ्रैश हूं, कब निकलना है?’’

भाभी ने कहा, ‘‘1-2 दिन मेरे पास रुको.’’

‘‘नहीं भाभी, आज जाने दो, अगली बार रुकूंगी, पक्का’’

‘‘हां भई, मैं कुछ नहीं बोलूंगी बहनभाई के बीच में,’’ फिर हंस कर कहा, ‘‘वैसे कुछ अलग तरह का ही प्रोग्राम बना है इस बार, चलो, जाओ तुम लोग, मां को सरप्राइज दो.’’

मैं ने भाभी से विदा ले कर अपना बैग उठाया, भैया ने अपना सामान तैयार कर रखा था. हम भैया की गाड़ी से ही पानीपत बढ़ चले. वहां संपदा दीदी हमारा इंतजार कर रही थीं. ढाई घंटे में दीदी के पास पहुंच गए, वहां चायनाश्ता किया, जीजाजी हमारे प्रोग्राम पर हंसते रहे, अपनी टिप्पणियां दे कर हंसाते रहे, बोले, ‘‘हां, भई, ले जाओ अपनी दीदी को, इस बहाने थोड़ा आराम मिल जाएगा इसे,’’ फिर धीरे से बोले, ‘‘हमें भी.’’ सब ठहाका लगा कर हंस पड़े. दीदी की बेटियों के लिए लाए उपहार उन्हें दे कर हम मां के पास जाने के लिए निकल पड़े. पानीपत से मुजफ्फरनगर तक का समय कब कट गया, पता ही नहीं चला.

मुजफ्फरनगर में गांधी कालोनी में  जब कार मुड़ी तो हमें दूर से ही  अपना घर दिखाई दिया, तो भैया बच्चों की तरह बोले, ‘‘बहुत मजा आएगा, मां के लिए यह बहुत बड़ा सरप्राइज होगा.’’

हम ने धीरे से घर का दरवाजा खोला. बाहरी दरवाजा खोलते ही गेंदे के फूलों की खुशबू हमारे तनमन को महका गई. दरवाजे के एक तरफ अनगिनत गमले लाइन से रखे थे और मां अपने बगीचे की एक क्यारी में झुकी कुछ कर रही थीं. हमारी आहट से मुड़ कर खड़ी हुईं तो खड़ी की खड़ी रह गईं, इतना ही बोल पाईं, ‘‘तुम तीनों एकसाथ?’’

हम तीनों ही मां के गले लग गए और मां ने अपने मिट्टी वाले हाथ झाड़ कर हमें अपनी बांहों में भरा तो पल भर के लिए सब की आंखें भर आईं, फिर हम चारों अंदर गए, दीदी ने कहा, ‘‘यह कार्यक्रम सुखदा ने मुंबई में बनाया और हम आप के साथ पूरा एक हफ्ता रहेंगे.’’

मां की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था, हमारे सुंदर से खुलेखुले घर में मां अकेली ही तो रहती हैं. हां, एक हिस्सा उन के किराएदार के पास है. मां के मना करने पर भी हम दोनों मां के साथ किचन में लग गईं और भैया थोड़ी देर सो गए. इतनी देर गाड़ी चलाने से उन्हें कुछ थकान तो थी ही. फिर हम चारों ने डिनर किया, अपनेअपने घर सब के हालचाल लिए. सोने को हुए तो बिजली चली गई, मां को फिक्र हुई, बोलीं, ‘‘तुम तीनों को दिक्कत होगी अब, इनवर्टर भी खराब है, तुम लोगों को तो ए.सी.  की आदत है. मैं तो छत पर भी सो जाती हूं.’’

संपदा  दीदी ने कहा, ‘‘मां, मुझ से छत पर नहीं सोया जाएगा.’’

भैया बोले, ‘‘फिक्र क्यों करती हो दीदी, चल कर देखते हैं.’’ और हम चारों अपनीअपनी चटाई ले कर छत पर चले गए. हम छत पर क्या गए, तनमन खुशी से झूम उठा. क्या मनमोहक दृश्य था, फूलों की मादक खुशबू छाई हुई थी, संदली हवाओं के बीच धवल चांदनी छिटकी हुई थी. हम सब खुले आसमान के नीचे चटाई बिछा कर लेट गए, फ्लैटों में तो कभी छत के दर्शन ही नहीं हुए थे. खुले आकाश के आंचल में तारों का झिलमिल कर टिमटिमाना बड़ा ही सुखद एहसास था. बचपन में मां ने कई बार बताया था, ठीक 4 बजे भोर का तारा निकल आता है.

‘‘प्रकृति में कितना रहस्य व आनंद है लेकिन आज का मनुष्य तो बस, मशीन बन कर रह गया है. अच्छा किया तुम लोग आ गए, रोज की दौड़भाग से तुम लोगों को कुछ आराम मिल जाएगा,’’ मां ने कहा.

प्राकृतिक सुंदरता को देखतेदेखते हम कब सो गए, पता ही नहीं चला जबकि ए.सी. में भी इतना आनंद नहीं था. सब ने सुबह बहुत ही तरोताजा महसूस किया. जैसे हम में नई चेतना, नए प्राण आ गए थे. गमले के पौधों की खुशबू से पूरा वातावरण महक रहा था. रजनीगंधा व बेले की खुशबू ने तनमन दोनों को सम्मोहित कर लिया था. हम नीचे आए, मां नाश्ता तैयार कर चुकी थीं. भैया अपनी पसंद के आलू के परांठे देख कर खुश हो गए. उत्साह से कहा, ‘‘आज तो खा ही लेता हूं, बहुत हो गया दूध और कौर्नफ्लेक्स का नाश्ता.’’

मैं ने कहा, ‘‘मां, मुझे तो कुछ हलका ही दे दो, मुझे सुबह कुछ हलका ही लेने की आदत है.’’

दीदी भी बोलीं, ‘‘हां, मां, एक ब्रैडपीस ही दे दो.’’

अभिराम भैया ने टोका, ‘‘यह पहले ही तय हो गया था कि कोई खानेपीने के नखरे नहीं करेगा, जो बनेगा सब एकसाथ खाएंगे.’’

मां हंस पड़ीं, ‘‘क्या यह भी तय कर के आए हो?’’

दीदी बोलीं, ‘‘हां, मां, सुखदा ने ही कहा था, दीदी आप अपना माइग्रेन भूल जाना और मैं कमरदर्द तो मैं ने इस से कहा था, तू भी फिगर और ऐक्सरसाइज की चिंता मुंबई में ही छोड़ कर आना.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, चलो, चारों नाश्ता करते हैं.’’

हम ने डट कर नाश्ता किया और फिर मां के साथ किचन समेट कर खूब बातें कीं.

राधाबाई आई तो हम तीनों बाजार घूमने चले गए. दिल्ली, मुंबई के मौल्स में घूमना अलग बात है और यहां दुकानदुकान जा कर खरीदारी करना अलग बात है. हम तीनों ने अपनेअपने परिवार के लिए कुछ न कुछ खरीदा, फोन पर सब के हालचाल लिए और फिर अपनी मनपसंद जगह ‘गोल मार्किट’ चाट खाने पहुंच गए. हमारा डाक्टर भाई जिस तरह से हमारे साथ चाट खा रहा था, कोई देखता तो उसे यकीन ही नहीं होता कि वह अपने शहर का प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ है. ढीली सी ट्राउजर पर एक टीशर्ट पहने दीदी को देख कर कौन कह सकता है कि वे एक सख्त पिं्रसिपल हैं, मैं ये पल अपने में संजो लेना चाहती थी, दीदी ने मुझे कहीं खोए हुए देख कर पूछा भी, ‘‘चाट खातेखाते हमारी लेखिका बहन कोई कहानी ढूंढ़ रही है क्या?’’ मैं हंस पड़ी.

हम तीनों ने मां के लिए साडि़यां खरीदीं और खाने का काफी सामान पैक करवा कर घर आए. बस, अब हम तीनों मां के साथ बातें करते, चारों कभी घूमतेफिरते ‘शुक्रताल’ पहुंच जाते कभी बाजार. भैया ने अपने मरीजों से, दीदी ने कालेज से और मैं ने अपने गृहकार्यों से जो समय निकाल लिया था, उसे हम जी भर कर जी रहे थे. शाम होते ही हम अपनी चटाइयां ले कर छत पर पहुंच जाते, इनवर्टर ठीक हो चुका था लेकिन छत पर सोने का सुख हम खोना नहीं चाहते थे. अपनी मां के साथ हम तीनों छत पर साथ बैठ कर समय बिताते तो हमें लगता हम किसी और ही दुनिया में पहुंच गए हैं.

मैं सोचती महानगर में सोचने का वक्त भी कहां मिलता है, अपनी भावनाओं को टटोलने की फुरसत भी कहां मिलती है. शाम की लालिमा को निहार कर कल्पनाओं में डूबने का समय कहां मिलता है, सुबह सूरज की रोशनी से आंखें चार करने का पल तो कैद हो जाता है कंकरीट की दीवारों में.

दीदी अपना माइग्रेन और मैं अपना कमरदर्द भूल चुकी थी. आंगन में लगे अमरूद के पेड़ से जब भैया अमरूद तोड़ कर खाते तो दृश्य बड़ा ही मजेदार होता.

छठी रात थी. कल जाना था, छत पर गए तो लेटेलेटे सब चुप से थे, मेरा दिल भी भर आया था, ये दिन बहुत अच्छे बीते थे, बहुत सुकून भरे और निश्चिंत से दिन थे, ऐसा लगता रहा था कि फिर से बचपन में लौट गए थे, वही बेफिक्री के दिन. सच ही है किसी का बचपन उम्र बढ़ने के साथ भले ही बीत जाए लेकिन वह उस के सीने में सदैव सांस लेता रहता है. यह संसार, प्रकृति तो नहीं बदलती, धूपछांव, चांदतारे, पेड़पौधे जैसे के तैसे अपनी जगह खड़े रहते हैं और अपनी गति से चलते रहते हैं. वह तो हमारी ही उम्र कुछ इस तरह बढ़ जाती है कि बचपन की उमंग फिर जीवन में दिखाई नहीं देती.

मां ने मुझे उदास और चुप देखा तो मेरे लेखन और मेरी प्रकाशित कहानियों की बातें छेड़ दीं क्योेंकि मां जानती हैं यही एक ऐसा विषय है जो मुझे हर स्थिति में उत्साहित कर देता है. मुझे मन ही मन हंसी आई, बच्चे कितने भी बड़े हो जाएं, मां हमेशा अपने बच्चों के दिल की बात समझ जाती है. मां ने मेरी रचनाओं की बात छेड़ी तो सब उठ कर बैठ गए. मां, दीदी, भैया वे सब पत्रिकाएं जिन में मेरी रचनाएं छपती रहती हैं जरूर पढ़ते हैं और पढ़ते ही सब मुझे फोन करते हैं और कभीकभी तो किसी कहानी के किसी पात्र को पढ़ते ही समझ जाते हैं कि वह मैं ने वास्तविक जीवन के किस व्यक्ति से लिया है. फिर सब मुझे खूब छेड़ते हैं. कुछ हंसीमजाक हुआ तो फिर सब का मन हलका हो गया.

जाने का समय आ गया, दिल्ली से ही फ्लाइट थी. मां ने पता नहीं क्याक्या, कितनी चीजें हम तीनों के साथ बांध दी थीं. हम तीनों की पसंद के कपड़े तो पहले ही दिलवा लाईं. अश्रुपूर्ण नेत्रों से मां से विदा ले कर हम तीनों पानीपत निकल गए, रास्ते में ही अगले साल इसी तरह मिलने का कार्यक्रम बनाया, यह भी तय किया परिवार के साथ आएंगे, यदि बच्चे आ पाए तो अच्छा होगा, हमें भी तो अपने बच्चों का प्रकृति से परिचय करवाना था, हमें लगा कहीं महानगरों में पलेबढ़े हमारे बच्चे प्रकृति के उस रहस्य व आनंद से वंचित न रह जाएं जो मां की बगिया में बिखरा पड़ा था और अगर बच्चे आना नहीं चाहेंगे तो हम तीनों तो जरूर आएंगे, पूरे साल से बस एक हफ्ता तो हम कभी अपने लिए निकाल ही सकते हैं, मां के साथ बचपन को जीते हुए, प्रकृति की छांव में.

मेरे बेटे की गर्लफ्रैंड

बेटे राहुल के स्वभाव में मुझे कुछ बदलाव साफ दिखाई दे रहे थे, ये बदलाव तो प्राकृतिक थे इसलिए इस में कुछ हैरानी की बात नहीं थी और जब राहुल के 14वें जन्मदिन पर मैं ने घर पर उस के दोस्तों के लिए पार्टी रखी तो उस के ग्रुप में पहली बार 2-3 लड़कियां आईं. विजय मेरे कान में फुसफुसाए, ‘अरे वाह, बधाई हो, तुम्हारा लड़का जवान हो गया है.’ मैं ने उन्हें घूरा फिर मुसकरा दी. मुझे उन लड़कियों को देख कर अच्छा लगा. छोटी सी बच्चियां कोने में बैठ गईं, मैं ने उन्हें दिल से अटैंड किया. लड़के- लड़कियां आजकल साथ पढ़ते हैं, साथ खेलते हैं, मैं उन की दोस्ती को बुरा भी नहीं मानती.

उन तीनों में से 1 लड़की स्वाति कुछ ज्यादा ही संकोच में बैठी थी. बाकी 2 मुझे देख कर मुसकराती रहीं, दोचार बातें भी कीं, लेकिन स्वाति ने मुझ से नजरें भी नहीं मिलाईं तो मुझे बहुत अजीब सा लगा. मैं ने अपनी 17 वर्षीया बेटी स्नेहा से कहा भी, ‘‘यह लड़की इतना शरमा क्यों रही है?’’

स्नेहा बोली, ‘‘अरे मम्मी, छोड़ो भी, इतने बच्चों में 1 लड़की के व्यवहार पर इतना क्यों सोच रही हैं?’’ मेरी तसल्ली नहीं हुई. मैं ने विजय से कहा, ‘‘वह लड़की तो कुछ भी नहीं खा रही है, बहुत संकोच कर रही है, सब बच्चों को देखो, कितनी मस्ती कर रहे हैं.’’

विजय ने कहा, ‘‘हां, कुछ ज्यादा ही चुप है. खैर, छोड़ो, बाकी बच्चे तो मस्त हैं न.’’

राहुल ने केक काटा तो हमें खिलाने के बाद उस की नजरें सीधे स्वाति पर गईं तो मैं ने राहुल की मुसकराहट में एक पल के लिए कुछ नई सी बात नोट की, मां हूं उस की लेकिन किसी से कुछ कहने की बात नहीं थी. खैर, कुछ गेम्स फिर डिनर के बाद बच्चे खुशीखुशी अपने घर चले गए. मैं ने बाद में राहुल से पूछा, ‘‘सिया और रश्मि तो सब से अच्छी तरह बात कर रही थीं, यह स्वाति क्यों इतना शरमा रही थी?’’

राहुल मुसकराया, ‘‘हां, उसे शरम आ रही थी.’’

‘‘क्यों? शरमाने की क्या बात थी?’’

‘‘अरे मम्मी, हमारे सब दोस्त हम दोनों का साथ नाम ले कर खूब चिढ़ाते हैं न.’’

मैं चौंकी, ‘‘क्या? क्यों चिढ़ाते हैं?’’

‘‘अरे, आप को भी न हर बात समझा कर बतानी पड़ती है मम्मी. सब दोस्त एकदूसरे को किसी न किसी लड़की का नाम ले कर छेड़ते हैं.’’ मैं अपने युवा होते बेटे के समझाने के इतने स्पष्ट ढंग पर कुछ हैरान सी हुई, फिर मैं ने कहा, ‘‘यह कोई उम्र है इन मजाकों की, पढ़नेलिखने, खेलने की उम्र है.’’

‘‘लीव इट, मम्मी, आप हर बात को इतना सीरियसली क्यों लेती हैं…सभी ऐसी बातें करते हैं.’’

फिर मैं ने आने वाले दिनों में नोट किया कि राहुल का फोन पर बात करना बढ़ गया है. कई बार मैं उठाती तो फोन काट दिया जाता था, फिर राहुल के उठाने पर बात होती रहती थी. मेरे पूछने पर राहुल साफ बताता कि स्वाति का फोन है. मैं कहती, ‘‘इतनी क्या बात करनी होती है तुम दोनों को.’’

राहुल नाराज हो जाता, ‘‘मेरी फ्रैंड है, क्या मैं उस से बात नहीं कर सकता?’’ धीरेधीरे यह सब बढ़ता ही जा रहा था.

स्वाति हमारी ही सोसायटी में रहती थी. उस के मम्मीपापा दोनों नौकरीपेशा थे. मैं उन से कभी नहीं मिली थी. राहुल और स्वाति एक ही स्कूल में थे, एक ही बस में जाते थे. दोनों के शौक भी एक जैसे थे. राहुल अपने स्कूल की फुटबाल टीम का बहुत अच्छा प्लेयर था और स्वाति उस के हर मैच में उस का साहस बढ़ाने के लिए उपस्थित रहती. मैं विजय से कहती, ‘‘कुछ ज्यादा ही हो रहा है दोनों का.’’ विजय कहते, ‘‘तुम यह सब नहीं रोक पाओगी. अब तो उस की ऐसी उम्र भी नहीं है कि ज्यादा डांटडपट की जाए.’’

अब तक हमेशा 90 प्रतिशत से ऊपर अंक लाने वाला मेरा बेटा कहीं पढ़ाई में न पिछड़ जाए, इस बात की मुझे ज्यादा चिंता रहती. मैं रातदिन अब राहुल की हरकतों पर नजर रखती और महसूस करती कि मैं किसी भी तरह राहुल और स्वाति को एकदूसरे से मिलने से रोक ही नहीं सकती, सारा दिन तो साथ रहते थे दोनों. कुछ और समय बीता. राहुल और स्वाति दोनों ने 10वीं की बोर्ड की परीक्षाओं में 85 प्रतिशत अंक प्राप्त किए तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा.

विजय कहते, ‘‘देखा? इतने दिन तुम अपना खून जलाती रहीं, पढ़ाई तो दोनों ने अच्छी की.’’

मैं कुछ कह नहीं पाई. राहुल को हम ने गिफ्ट में एक मोबाइल फोन ले दिया तो वह बहुत खुश हुआ, कई दिनों से कह रहा था कि उसे फोन चाहिए. फिर मैं ने ही धीरेधीरे अपने मन को समझा लिया कि स्वाति राहुल की गर्लफ्रैंड है और मैं उसे कुछ नहीं कह सकती. सांवली सी, पतलीदुबली स्वाति महाराष्ट्रियन थी, हम उत्तर भारतीय कायस्थ. वह मुझ से अब भी कतराती थी. एक ही सोसायटी थी, कई बार सामना होता तो वह नजरें चुरा लेती. मुझे गुस्सा आता. राहुल से कहती, ‘‘और भी तो लड़कियां हैं, सब हायहलो करती हैं और इस लड़की को इतनी भी तमीज नहीं कि कभी विश कर दे.’’

राहुल तुरंत उस की साइड लेता, ‘‘वह आप से डरती है, मम्मी.’’

‘‘क्यों? क्या मैं उसे कुछ कहती हूं?’’

‘‘नहीं, मैं ने उसे बताया है कि आप को उस की और मेरी दोस्ती के बारे में पता है और आप को यह सब बिलकुल पसंद नहीं है.’’

मैं कहती, ‘‘दोस्ती को मैं थोड़े ही बुरा समझती हूं लेकिन हद से बाहर कुछ दिखता है तो गुस्सा तो आता ही है. सब खबर है मुझे.’’

राहुल पैर पटकता चला जाता. कुछ समय और बीता, दोनों की 12वीं भी हो गई. इस बार राहुल के 91 प्रतिशत और स्वाति के 93 प्रतिशत अंक आए. हम सब बहुत खुश थे. अब राहुल ने कौमर्स ली, स्वाति ने साइंस. अब तो कई मेरी करीबी सहेलियां सोसायटी के गार्डन में सैर करते हुए स्वाति को आतेजाते देख कर मुझे कोहनी मारतीं, ‘‘देख, तेरे बेटे की गर्लफैं्रड जा रही है.’’ मैं ऊपर से मुसकरा देती और दिल ही दिल में सोचती, इस का मतलब अच्छे- खासे मशहूर हैं दोनों. मुझे अच्छी तरह पता चल गया था कि दोनों एकदूसरे को बहुत सीरियसली लेते हैं. अब मैं ही विजय से कहती, ‘‘बचपन से ये दोनों साथ हैं, मुझे तो लगता है अपने पैरों पर खड़ा होने पर ये विवाह भी करेंगे.’’

विजय मेरी इतनी गंभीरता से कही गई बात को हलकेफुलके ढंग से लेते और हंस कर कहते, ‘‘वाह, क्या हमारे घर में महाराष्ट्रियन बहू आ रही है? क्या बुराई है?’’ अब तो मैं भी मानसिक रूप से उसे बहू के रूप में देखने के लिए तैयार हो गई थी. मन ही मन कई बातें उस के बारे में सोचती रहती. स्नेहा कभी अपनी टिप्पणी देती, कभी चुपचाप हमारी बात सुनती. वह भी हमें राहुल और स्वाति की कई बातें बताती रहती.

वक्त अपनी रफ्तार से चल रहा था. राहुल का यहीं मुंबई में ऐडमिशन हुआ, स्वाति का कोटा में. मैं सोचती अब तो बस फोन ही माध्यम होगा इन की बातचीत का. स्वाति कोटा चली गई. राहुल कई दिन चुप व गंभीर सा रहा. फोन पर बात कर रहा होता तो मैं समझ जाती उधर कौन है. वह कई बार फोन पर दोस्तों से बात करता लेकिन जब वह स्वाति से बात करता तो उस के बिना बताए मैं उस के चेहरे के भावों से समझ जाती कि उधर स्वाति है फोन पर.

अब राहुल बीकौम के साथसाथ सीए भी कर रहा था. मैं ने आश्चर्यजनक रूप से एक बड़ा परिवर्तन महसूस किया. अब किसी अवनि के फोन आने लगे थे. राहुल की बातों से पता चला कि उस की क्लासफैलो अवनि उस की खास दोस्त है. 1-2 बार वह उसे किसी प्रोजैक्ट की तैयारी के लिए 2-3 दोस्तों के साथ घर भी लाया. उन की दोस्ती साधारण दोस्ती से हट कर लगी. अवनि ने मुझ से पूरे कौन्फिडैंस से बात की, किचन में मेरा हाथ बंटाने भी आ गई. वह साउथइंडियन थी, स्मार्ट थी. जब तक घर में रही, राहुलराहुल करती रही. मैं चुपचाप उस की भावभंगिमाओं का निरीक्षण करती रही और इस नतीजे पर पहुंची कि जो संबंध अब तक राहुल का स्वाति से था, वही आज अवनि से है.

मुझे मन ही मन राहुल पर गुस्सा आने लगा कि यह क्या तमाशा है, कभी किसी लड़की से इतनी दोस्ती तो कभी किसी और से. वह अवनि के साथ फोन पर गप्पें मारता रहता. मैं ने 1-2 बार पूछ ही लिया, ‘‘स्वाति कैसी है?’’

‘‘ठीक है, क्यों?’’

‘‘उस से बात तो होती रहती होगी?’’

‘‘हां, कभी फ्री होता हूं तो बात हो जाती है, वह भी बिजी है, मैं भी.’’

मैं ने मन ही मन सोचा, ‘हां, मुझे पता है तुम कहां बिजी हो.’

मैं ने इतना ही कहा, ‘‘तुम्हारी तो वह अच्छी फ्रैंड है न, उस के लिए तो टाइम मिल ही जाता होगा.’’

वह झुंझला गया, ‘‘तो क्या उस से रोज बात करता रहूं? और रोजरोज कोई क्या बात करे.’’

मैं हैरान उस का मुंह देखती रह गई और वह पैर पटकता वहां से चला गया.

अब राहुल पर मुझे हर समय गुस्सा आता रहता. अवनि कभी भी उस के दोस्तों के साथ आ जाती, लंच करती, हम सब से खूब बातें करती. रात को बैडरूम में विजय को देखते ही मेरे मन का गुबार निकलना शुरू हो जाता, ‘‘हुंह, पुरुष है न, किसी लड़की की भावनाओं से खेलना अपना हक समझता है, बचपन से जिस के साथ घूम रहा है, जिस के साथ सोसायटी में अच्छेखासे चर्चे हैं, अब इतने आराम से उसे भूल कर किसी और लड़की से दोस्ती कर ली है, आवारा कहीं का.’’

विजय कहते, ‘‘प्रीति, तुम क्यों बच्चों की बातों में अपना दिमाग खराब करती रहती हो. यह उम्र ही ऐसी है, ज्यादा ध्यान मत दिया करो.’’

मैं चिढ़ जाती, ‘‘हां, आप तो उसी की साइड लेंगे, खुद भी तो एक पुरुष हो न.’’

‘‘अरे, हम तो हमेशा से आप के गुलाम हैं, कभी शिकायत का मौका दिया है,’’ विजय नाटकीय स्वर में कहते तो भी मैं चुप रहती.

मेरा ध्यान स्वाति में रहता. मैं उसी के बारे में सोचती. कोई भी काम करते हुए मुझे उस का ध्यान आ जाता कि बेचारी को राहुल का व्यवहार कितना खलता होगा, उसे राहुल का बचपन का साथ याद आता होगा.

काफी समय बीतता चला गया. स्नेहा एमबीए कर रही थी, राहुल का भी सीए पूरा होने वाला था. यह पूरा समय मुझे स्वाति का ध्यान आता रहा था. राहुल के किसी फोन से मुझे अब यह न लगता कि वह स्वाति के संपर्क में भी है. अवनि से उस की घनिष्ठता बढ़ गई थी. एक दिन मुझे शौपिंग के लिए जाना था, विजय ने कहा, ‘‘तुम शाम को 6 बजे कैफे कौफी डे पहुंच जाना, वहीं कुछ खापी कर शौपिंग करने चलेंगे.’’

मैं वहां पहुंची, एक कार्नर में बैठ गई. विजय को फोन कर के पूछा कि कितनी देर में आ रहे हो. उन्होंने कहा, ‘‘तुम और्डर दे दो, मैं भी पहुंच ही रहा हूं.’’

मैं ने और्डर दे कर यों ही नजरें इधरउधर दौड़ाईं तो मैं चौंक पड़ी, स्वाति एक टेबल पर एक लड़के के साथ बैठी थी और दोनों चहकते हुए आसपास के माहौल से बेखबर अपनी बातों में व्यस्त थे. मैं गौर से स्वाति को देखती रही, वह काफी खुश लग रही थी. मेरी नजरें स्वाति से हट नहीं रही थीं, शायद उसे भी किसी की घूरती निगाहों का एहसास हुआ हो, उस ने इधरउधर देखा, चौंक कर उस लड़के को कुछ कहा, फिर उठ कर आई, मेरी टेबल के पास खड़ी हुई, मुझे नमस्ते की. मैं ने उसे बैठने का इशारा करते हुए उस के हालचाल पूछे.

वह बैठी तो नहीं लेकिन आज पहली बार वह मुझ से बात कर रही थी. मैं ने उस की पढ़ाई के बारे में पूछा. उस से बात करतेकरते मेरी नजर उस के पीछे आ कर खड़े हुए लड़के पर पड़ी. स्वाति ने उस से परिचय करवाया, ‘‘आंटी, यह आकाश है, कोटा में मेरे कालेज में ही है. यहीं मुंबई में ही रहता है.’’ मैं ने दोनों से कुछ हलकीफुलकी बात की, फिर वे दोनों ‘बाय आंटी’ कह कर चले गए.

मैं स्वाति को हंसतेमुसकराते जाते देखती रही. मैं सोच रही थी, यह लड़की कभी नहीं जान पाएगी कि यह कितने दिनों से मेरे दिमाग पर छाई थी. मैं ने मन ही मन पता नहीं क्या रिश्ता बना लिया था इस से, पता नहीं इस की कितनी भावनाओं से मेरा मन जुड़ गया था, लेकिन आज मैं स्वाति को खुश देख कर बेहद खुश थी.

अनजाने पल: भाग 4- क्यों सावित्री से दूर होना चाहता था आनंद

मैं ने अभी तक अपनी घर की स्थिति के बारे में पिताजी को कुछ नहीं बताया था. सोचा, उन्हें क्यों परेशानी में डालूं. मां तो थी नहीं. पिताजी वैसे भी व्यापार के सिलसिले में हमेशा ही दौरे पर रहते थे. अभी मैं सोच ही रही थी कि पिताजी से मिल आऊं कि आनंद का पत्र आ गया. पत्र देख कर मेरा मन आनंदित हो गया.

बड़े ही उत्साह से मैं ने पत्र खोला. अब तो मैं नौकरी छोड़ कर भी अपनी बच्ची और पति के पास लौटने के लिए बेताब हो रही थी. कितनी अजीब होती है नारी, अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करते हुए परिवार से अलग हुई थी. अब उसी प्रकार परिवार से जुड़ने के लिए सबकुछ छोड़ने को उद्यत हो गई. लेकिन पत्र पढ़ते ही मेरा चेहरा फक पड़ गया. ऐसा लगा, मानो हजारों बरछियां शरीर को छलनी कर रही हों. बड़े ही अनुनयविनय से कड़वी दवा पर मीठी टिकिया का लेप चढ़ा कर पत्र भेजा था. सारांश यही था कि वह माया से विवाह करना चाहता है. माया के गर्भ में उस का बच्चा है. वह मुझ से तलाक चाहता है.

मेरी समझ में सारी बातें आ गईं. मुझ से अलगाव रखना, चिट्ठी न लिखना और खिंचेखिंचे रहने के पीछे क्या कारण था. यह मैं समझ गई. उस कायर की दुर्बलता पर मुझे हंसी आई. साफसाफ कह देता तो क्या मैं मुकर जाती.

मुझे नीलिमा के लिए डर लगने लगा था. परंतु उस ने लिखा था, नीलिमा माया से बहुत प्यार करती है. इसलिए वह  हमारे साथ ही रहेगी. मैं ने अपने दिल को कठोर बना कर तलाक के कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए, कानूनी कार्यवाही के बाद 4 वर्षों में तलाक भी हो गया. मैं पिता के पास चेन्नई लौट आई.

मैं ने व्यापार में पिताजी का हाथ बंटाने का निश्चय कर लिया. दिल्ली की नौकरी से भी इस्तीफा दे दिया. चेन्नई में हमारी कंपनी खूब अच्छी चल रही थी. मैं ने पूरी निष्ठा से अपने को काम में समर्पित कर दिया. पर पिताजी वह सदमा झेल न पाए. तलाक होने के 2 महीने बाद ही हृदयगति रुक जाने से उन की मृत्यु हो गई.

मेरी जिंदगी की गाड़ी मंथर गति से आगे बढ़ने लगी. मैं कई मर्दों से व्यापार के दौरान मिलती. परंतु किसी से भी व्यापारिक चर्चा के अलावा कोई बात न करती. लोग मुझ से कहते भी कि तुम दोबारा विवाह क्यों नहीं कर लेतीं. परंतु मैं ने पुनर्विवाह न करने का दृढ़ संकल्प कर लिया था.

एक दिन जब मैं फैक्टरी से कार में लौट रही थी तो एक शराबी मेरी गाड़ी से टकरा कर गिर पड़ा. मैं ने गाड़ी रोकी और उसे अस्पताल ले गई. उस का इलाज करवाया. बाद में परिचय पूछने पर उस ने अपना नाम विकास बताया. उस ने बताया कि उस की पत्नी किरण कुछ दिनों पहले मर गई है. शादी हुए 2 साल ही हुए थे कि वह गुजर गई. उस के वियोग को सहन न कर पाने के कारण विकास ने शराब पीना शुरू कर दिया था.

विकास का भी कपड़े का व्यापार था. पर उस ने किरण के गुजर जाने के बाद उस की तरफ ध्यान नहीं दिया था. दुखी ही दुखियारे का दुख समझ सकता है. मैं ने विकास को सहारा दिया, उस के अंदर प्रेरणा जगाई. धीरेधीरे विकास मुझ से प्रेम करने लगा. उस ने शादी का प्रस्ताव रखा तो मैं झिझकी. तब उस ने कहा, ‘मुझे अपने पर विश्वास नहीं है. अगर तुम ने मुझे ठुकरा दिया तो मैं फिर से कहीं शराबी न बन जाऊं.’

मैं ने सोचा, दिशाहीन चलती अपनी जीवननैया को अगर खेवैया मिल रहा हो तो इनकार नहीं करना चाहिए. हम दोनों को एकदूसरे की जरूरत भी थी ही.

पर मन ने सचेत किया, ‘आज इसे मेरी जरूरत है, कल जरूरत न पड़े तो आनंद की तरह ही दूध की मक्खी के समान फेंक दे तो…’

मैं ने उस के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया. हम दोनों का व्यापार एकजैसा होने के कारण हम अकसर मिलते. परंतु विकास ने दोबारा मुझ से इस बारे में चर्चा नहीं की. हम दोनों होटल में व्यापार के सिलसिले में ही एक गोष्ठी में भाग लेने गए थे. विकास ने मुझे विचारों के घेरे से बाहर निकाला, ‘‘सावित्री, तुम ने कुछ भी नहीं खाया है. सारे लोग खा कर जा चुके हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘ओह, मुझे माफ कर दो, विकास. पुरानी यादों में मैं खो गई थी.’’

‘‘मैं समझ गया था. मैं ने उन लोगों से कह दिया है कि तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है. चलो, हम यहां से सीधे आनंद के पास चलते हैं.’’

‘‘अभी वे लोग हमें आनंद से मिलने देंगे?’’

‘‘कम से कम नीलिमा से तो मिल लोगी.’’

‘‘मैं तुम्हें परेशान नहीं करना चाहती, स्वयं ही चली जाऊंगी. तुम गोष्ठी में जाओ.’’

उस ने मेरी बात न मानी. अपने सहायक को सारी बातें समझा कर वह मेरे साथ चल पड़ा. उस ने अपने ड्राइवर से गाड़ी घर भेज देने को कह दिया.

जब हम अस्पताल पहुंचे तो नीलिमा बाहर ही खड़ी मिली. वह रो पड़ी थी. अश्रुपूरित नेत्रों से उस ने हम से जुदा होने के बाद की कहानी सुनाई. जब माया ने आनंद से विवाह किया तो नीलू बहुत खुश थी. माया उस से बहुत प्यार करती थी. आनंद भी बहुत खुश था.

परंतु नीलू को माया का धीरेधीरे आंनद के करीब आना अच्छा न लगा. वह थी भी जिद्दी. आनंद का प्यार उस के लिए कम होने पर वह सह नहीं पाई. माया को वह कभी आनंद के साथ कहीं न जाने देती और उस के करीब भी न जाने देती. इस बात को ले कर हर रोज झगड़ा होता, तकरार होती, परंतु अंत में जीत नीलू की ही होती.

जब माया का बेटा हुआ तो नीलू को बहुत अच्छा लगा, लेकिन माया गुड्डू को सदा नीलू से दूरदूर ही रखती. एक दिन गुड्डू पालने में सो रहा था. माया रसोई में खाना बना रही थी. अचानक वह जाग गया और रोने लगा.

नीलू अपने कमरे से भाग कर आई और गुड्डू को गोद में उठाना चाहा. वह नीचे गिरने को हुआ तो माया ने उसे उठा लिया. माया ने सोचा कि वह गुड्डू को पालने से नीचे गिराना चाह रही थी. नीलू ने कितना समझाने की कोशिश की, परंतु न तो वह समझी, न ही उस ने आनंद को समझाने का मौका दिया. आनंद के ऐसे कान भरे कि रात में उस ने नीलू को मारा भी.

इस घटना के बाद उस परिवार में एक दरार उत्पन्न हो गई, जो बढ़ती ही गई. ऐसे ही वातावरण में दुखी, तिरस्कृत, उपेक्षित, प्यार के लिए तरसतीबिलखती नीलू बड़ी होती गई. मुझे सोच कर हैरानी होती है कि आनंद ने अपने ही खून को इस तरह लाचार, विवश और दुखी क्यों बनाया?

इस घटना के बाद जब से आनंद का तबादला चेन्नई हुआ, तब से नीलू हर रोज यही सोचती कि उस की मां उसे दोबारा मिल जाए.

मैं ने अश्रुपूरित नेत्रों से बेटी को देखा. 9 साल की उम्र में उस ने क्याकुछ नहीं देखा और सहा था. आनंद और माया हर जगह गुड्डू को ले जाते और नीलिमा को घर पर छोड़ जाते. इस बार भी डिजनीलैंड से लौटते समय कार दुर्घटना में यह हादसा हो गया था. माया की मौत हो गई थी और आनंद भी बुरी तरह जख्मी हो जीवन व मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहा था. गुड्डू को तनिक भी चोट नहीं आई थी.

नीलिमा जब यह सब बता रही थी, उसी दौरान आनंद भी गुजर गया. उस से कुछ कहनेसुनने का मौका भी न मिला. मैं दोनों बच्चों को घर ले आई. विकास ने आनंद के अंतिम संस्कार में मेरी काफी मदद की. पूछताछ के दौरान पता चला कि माया का कोई रिश्तेदार नहीं था. मैं किस रिश्ते से बच्चे को यहां रखती. स्कूल में उस का क्या नाम देती. सोच में डूबी हुई थी कि नीलू अंदर आई. उस ने पूछा, ‘‘मां, क्या तुम गुड्डू की भी मां बनोगी?’’

मैं ने कहा, ‘‘मैं गुड्डू की मां ही तो हूं.’’

‘‘मैं ने आप को कितना गलत समझा था मां,’’ नीलू आत्मग्लानि से भर कर बोली.

‘‘मेरी भी तो कुछ गलती थी.’’

‘‘मैं ने आप से मिलने की बहुत कोशिश की, पर पिताजी और माया आंटी ने मौका ही नहीं दिया.’’

‘‘बेटी, जो गुजर गए, उन के बारे में अपशब्द नहीं कहते.’’

गुड्डू रोता हुआ वहां आया. 3 बरस का गोलमटोल गुड्डू बहुत प्यारा लगता था. तोतली जबान में जब उस ने पुकारा ‘दीदी’, तो नीलू ने उसे अपनी बांहों में समेटते हुए कहा, ‘‘गुड्डू, ये हमारी मां हैं.’’

मैं ने उसे गोद में ले कर पुचकारा. वह बहुत देर तक ‘मम्मीमम्मी’ कह कर रोता रहा. मैं सोचने लगी, जिस पति ने मुझे मेरी बेटी से इसलिए अलग किया था, क्योंकि उस के अनुसार, मुझ में ममता नहीं थी, स्नेह नहीं था, और अब समय का खेल देखिए उस के बच्चे मेरी गोद में आ गए.

इतने में विकास भीतर आया और बोला, ‘‘आज इन बच्चों की परवरिश के लिए पिता का स्थान मुझे दे सकोगी?’’

मैं ने कहा, ‘‘हमारे बच्चे होंगे तो क्या होगा?’’

‘‘सरकार के परिवार नियोजन का बोर्ड नहीं देखा. 2 बच्चे बस, 2 से अधिक नहीं. मैं ने औपरेशन करवा लिया है,’’ वह बोला.

‘‘अगर मैं विवाह से इनकार कर देती तो…तुम ने ऐसा क्यों किया?’’

‘‘तुम इनकार कर दो, तब भी ये बच्चे हमारे ही रहेंगे. इन बच्चों को हम ने साथसाथ ही पाया है. इसलिए मैं ने इन का संरक्षक बन कर जीवन गुजारने का निश्चिय कर लिया है.’’

इस से आगे मुझ में इनकार करने की शक्ति नहीं थी. परंतु मैं ने नीलिमा को बुला कर पूछा, ‘‘विकास अंकल को पापा कह सकोगी?’’

‘‘अगर गुड्डू के लिए तुम मां हो तो अंकल हम दोनों के पापा हुए न…’’

हम उस अनजाने पल में एकदूसरे से पूरी तरह बंध चुके थे. मैं ने कृतज्ञताभरी दृष्टि से विकास की ओर देखा. मेरी नजरों में छिपी सहमति विकास की नजरों से छिप न सकी.

वर्किंग हसबैंड: दीपा ने अपनी जरुरतो के लिए सहारा क्यों चुना?

दीपा अपने औफिस की सीढि़यां चढ़ते हुए सोच रही थी, एक दिन मैं भी इस औफिस की बौस बनूंगी. तभी मोबाइल पर आशीष का फोन आ गया, ‘‘तुम कानन की नोटबुक कहां रख कर गई हो?’’

दीपा झंझला कर बोली, ‘‘यार ढूंढ़ लो,

अब औफिस से भी मैं घर के काम मौनिटर करूं?’’ आशीष ने झेंपी हुई हंसी के साथ मोबाइल काट दिया.

दीपा 26 वर्ष की बेहद महत्त्वाकांक्षी और आकर्षक नवयुवती थी. उस की उड़ान बेहद ऊंची थी, पर उस की शादी एक ऐसे इंसान से हो गई थी जो बेहद कमजोर था. मगर इस से दीपा की उड़ान पर कोई फर्क नहीं पड़ा था.

दूसरी बेटी के जन्म के बाद बढ़ते हुए खर्च को मद्दे नजर दीपा ने बड़ी बड़ी कंपनियों में अप्लाई करना शुरू कर दिया था और जल्द ही उसे कामयाबी भी मिल गई थी. आज उसी बड़ी कंपनी में दीपा का पहला दिन था.

दीपा ने अपने वर्क स्टेशन पर बैग रखा और इधरउधर जायजा लिया. उस ने देखा 2 बेहद ही मामूली शक्लसूरत की लड़कियां और 3 उजड़ से युवक उस की टीम में थे. दीपा को लगा इन देहातियों और मामूली शक्लसूरतों के बीच उस का काम आसान हो गया है.

अगले दिन पूरी टीम की टीम मैनेजर के साथ मीटिंग थी. दीपा ने घर आ कर शाम की चाय पी और फिर कमरा बंद कर के प्रेजैंटेशन में लग गई थी. दीपा को अच्छे से मालूम था कि कौन सा दांव कब खेलना है.

शाम के 7 बजे जब आशीष आया तो दोनों बच्चियों को नानी के साथ देख कर

बोला, ‘‘अरे, मम्मी कहां है तुम्हारी?’’

दीपा की मम्मी बोली, ‘‘अरे, मेरी लड़की तो दिनरात इस घर के लिए मेहनत कर रही है.

जो काम तुम्हें करने चाहिए थे, मेरे बेटी कर

रही है.’’

आशीष चाह कर भी कुछ बोल नहीं पाया. वह जिंदगी को ऐसे ही जीने का आदि था.

आशीष को मेहनत करने से, रिस्क लेने से डर लगता था, एक ही लीक पर चलने का नाम

ही आशीष के लिए जिंदगी है. मगर दीपा की सोच बहुत अलग थी. बहरहाल, आशीष ने कभी दीपा को किसी भी फैसले पर सवाल नहीं किया. वह अलग बात है कि आशीष के इस रवैए के कारण दीपा और आशीष के बीच दूरी बढ़ती जा रही थी.

अगले दिन दफ्तर में हरकोई दीपा को ही देख रहा था. काले रंग के ट्यूब टौप और लाल रंग की मिनी स्कर्ट में वह कहर बरपा रही थी. प्रेजैंटेशन के बाद टीम का प्रोजैक्ट मैनेजर अजय दीपा का मुरीद हो गया.

अजय ने दीपा के अंदर वही कामयाबी की भूख महसूस करी जो उस के अंदर थी. उसे समझ आ गया कि दीपा के साथ वह इस कंपनी को ऊंचाइयों पर ले जा सकता है.

अगले दिन अजय ने दीपा को अपने कैबिन में बुलाया और उस से बातचीत करी. दीपा के परिवार के बारे में जान कर अजय का दिल बुझ सा गया.

अजय ने गला खंखारते हुए कहा, ‘‘दीपा, तुम्हें मैं अपने प्रोजैक्ट में टीम लीड बनाने की सोच रहा था, मगर शायद छोटे बच्चों के साथ तुम्हें दिक्कत होगी.’’

दीपा पलकें झपकाते हुए बोली, ‘‘सर,

मेरी प्रोफैशनल और पर्सनल लाइफ अलग हैं. आप एक बार मौका दीजिए. मैं आप को निराश नहीं करूंगी.’’

दीपा की मेहनत, लगन, कामयाबी की भूख और उस का आकर्षक व्यक्तित्व सभी कुछ उस की फेवर में था. धीरेधीरे दीपा अजय के लिए जरूरी हो गई.

1 ही साल के भीतर दीपा की सैलरी दोगुनी हो गई. उस ने एक अच्छी सोसायटी में फ्लैट बुक करा लिया और एक सैकंड हैंड छोटी कार भी अपने आनेजाने के लिए खरीद ली.

दीपा सुबह 10 बजे से रात के

10 बजे तक औफिस में बिताती थी. अजय औफिस में दीपा की छोटीछोटी जरूरतों का बहुत ध्यान रखता था. उसे दीपा के साथ समय गुजारना बेहद पसंद था. वहीं दीपा को भी औफिस में घर जैसा लगने लगा था.

दीपा जब तक घर आती तब तक आशीष बच्चों को खाना खिला कर सुला देता था और खुद भी

आधी नींद में ही रहता था. दीपा का कितना मन करता था कि वह आशीष को दफ्तर की बातें बताए, मगर आशीष सुनीअनसुनी कर देता था.आशीष की दुनिया ही अलग थी. वह

उन मर्दों में से नहीं था जो बीवी की तरक्की से जलता बल्कि आशीष ने पूरी जिम्मेदारी दीपा

के कंधों पर डाल कर बैक सीट ले ली थी.

दफ्तर के बाद आशीष कुछ समय बच्चों के साथ बीतता और बाकी पंडेपुजारियों और भजन मंडली के साथ.

परिवार और रिश्तेदारों में दीपा और

आशीष एक ऐसे जोड़े के रूप में मशहूर थे जो औरों से जुदा थे. पूरी रिश्तेदारी में इस बात का डंका बजता था कि आशीष ने अपनी पत्नी दीपा के कैरियर के कारण खुद अपना कैरियर बलिदान कर दिया है. मगर असलियत क्या है यह बस दीपा ही जानती थी.

ऐसे में धीरेधीरे ही सही दीपा का झुकाव अजय की तरफ बढ़ता जा रहा था. जहां पूजापाठ, व्रत, कीर्तनों और पत्नी की बेरुखी के कारण आशीष पतिपत्नी के रिश्ते से विमुख होता जा रहा था वहीं दीपा अब अपनी शारीरिक जरूरतों के लिए भी अजय के ऊपर आश्रित थी.

अजय दीपा के लिए वर्किंग हसबैंड बन गया था. उस के सपनों का साथी. वे सपने जिन का साथी उस का अपना हसबैंड कभी नहीं बन पाया था. समाज में आशीष दीपा के पति के

रूप में जाना जाता था. रात के जिस भी पहर दीपा घर आती थी आशीष उस का खाना लगा कर देता, दीपा को बच्चों की प्रोग्रैस रिपोर्ट बताता और फिर रात के पूजापाठ में लग जाता. बस दीपा और आशीष का रिश्ता इन्हीं बैसाखियों पर घिसट रहा था.

आशीष एक छोटी सी कंपनी में छोटी सी नौकरी में था. आगे बढ़ने की, तरक्की करने की आशीष को कोई चाह नहीं थी. ऐसा भी कह सकते हैं वह अपनी कमजोरी को पूजापाठ के पाखंड के परदे के पीछे ढक लेता था.

जब भी दीपा आशीष को नौकरी बदलने को कहती वह बात को अपने ग्रहों की बुरी

दशा पर डाल देता था. उस का यह ढुलमुल रवैया दीपा को अजय के और करीब कर देता था.

दीपा जहां दफ्तर में अजय के साथ

जितनी पावरफुल महसूस करती थी वहीं घर आ कर वह आशीष के साथ बेहद लाचार महसूस करती थी.

दीपा की बड़ी बेटी आरना अब  4 साल

की हो रही थी. मगर अब तक भी आराना ठीक से न तो चल पा रही थी और न ही बोल पा रही. दीपा जब भी आशीष से इस बारे में बात करती उस का एक ही जवाब होता, ‘‘मैं पंडितजी से बात कर रहा हूं. तुम क्व5 हजार दे दो. मैं आरना के पाठ करवा दूंगा.’’

दीपा अब तक 3 बार पाठ के लिए पैसे खर्च कर चुकी थी.

एक बार ऐसे ही जब दीपा ने औफिस में अजय से इस बात का जिक्र किया तो उस ने दीपा से रुखाई से कहा, ‘‘पढ़लिख कर क्यों जाहिलों जैसी बात कर रही हो.’’

‘‘आज शाम बेटी को आशीर्वाद हौस्पिटल ले कर आ जाना, मैं डाक्टर को दिखा दूंगा.’’

शाम को दीपा व आशीष नियत समय पर आरना को लेकर पहुंच गए. अजय ने पहले से ही डाक्टर से अपौइंटमैंट ले रखा था. डाक्टर से बातचीत में भी अजय ही आगे रहा. दीपा को ऐसा लग रहा था मानो आरना अजय की बेटी हो.

आशीष की पैनी नजरें यह भांप गई थीं कि अजय दीपा का बौस भी से कुछ ज्यादा ही है, मगर उसे लगा जब फ्री में बिना कुछ करे काम हो रहा है तो क्या फर्क पड़ता हैं.

कार में बैठते ही आशीष बड़ी बेशर्मी से बोला, ‘‘दीपा देखा पाठ का कमाल, अजयजी जैसा फरिश्ता भेज दिया भगवान ने हमारी आरना के लिए.’’

अजय मन ही मन सोच रहा था कि दीपा का पति तो उस की सोच से भी अधिक घटिया है.

अगले दिन औफिस में दीपा

अजय से डाक्टर की फीस के बारे में पूछ रही थी.

अजय दीपा का हाथ हाथों में लेते हुए बोला, ‘‘आरना मेरी बेटी ही है, मैं यह अपनी खुशी के लिए कर रहा हूं. आरना को पूजा की नहीं डाक्टर की जरूरत हैं. डाक्टर और फिजियोथेरैपी की मदद से देखना आरना जल्द ही ठीक हो जाएगी.’’

आरना की कंडीशन के कारण अब अजय का दीपा के घर में आनाजाना बढ़ गया था. अजय अब अकसर डिनर दीपा के यहां ही करता.

रिश्तेदारों में जब इस बात को ले कर कानाफूसी होने लगी तो आशीष बोला, ‘‘मैं  20वीं शताब्दी का पति नहीं हूं, जब साथ काम करते हैं तो साथ उठनाबैठना भी होगा.’’

आशीष ने अपनी आंखों पर दौलत की पट्टी बांध ली थी. वह मन ही मन जानता था कि अजय और दीपा का रिश्ता दोस्ती से कहीं बढ़ कर है मगर अजय के जीवन में रहने से आशीष के परिवार की जिंदगी में जो सहूलितें बढ़ गई थीं वे आशीष की आंखों से छिपी नहीं थीं.

मगर जब अजय की पत्नी संस्कृति को

दीपा के बारे में पता चला तो अजय ने बड़ी सफाई से दीपा और अपने रिश्ते को प्रोफैशनल करार कर दिया.

उस दिन के बाद से अजय ने दीपा के

घर आनाजाना कम कर दिया. दीपा को मालूम

था ये सब अजय अपने परिवार के कारण कर

रहा है. इसलिए दीपा भी अजय से उखड़ीउखड़ी रहने लगी.

अजय एक दिन दीपा से बोला, ‘‘तुम आजकल आरना को डाक्टर के पास ले कर क्यों नहीं जा रही हो? डाक्टर का फोन आया था.’’

दीपा बोली, ‘‘कब जाऊं मैं, रात के 8 बजे तो यहीं से वापस जाती हूं.’’

अजय बोला, ‘‘तुम्हारे और मेरे बीच क्या बौस इंप्लोई वाला रिश्ता है?’’

दीपा रूखी आवाज में बोली, ‘‘हमारे बीच  प्रोफैशनल रिश्ता ही तो है तो फिर मैं कैसे आप से कुछ उम्मीद रख सकती हूं?’’

अजय हंसते हुए बोला, ‘‘अरे मैं आरना

को अपनी बेटी ही मानता हूं, तुम एक बार कहो तो सही मैं खुद उसे डाक्टर के पास ले कर जाऊंगा. मुझे मालूम है तुम मु?ा से नाराज हो. मगर दीपा मैं ने तुम से कभी कोई वादा नहीं

किया था. मैं संस्कृति को चाह कर भी नहीं

छोड़ सकता हूं. उस ने मेरा साथ तब दिया था

जब मेरी जिंदगी मैं कोई नहीं था. उस के

परिवार ने मुझे हर तरह से सपोर्ट किया है. प्यार जैसा कुछ नहीं है मगर फिर भी मैं उसे छोड़

नहीं सकता हूं. तुम क्या आशीष से अलग हो सकती हो?’’

दीपा थके स्वर में बोली, ‘‘मैं यह दोहरी जिंदगी जीते हुए थक गई हूं. मैं आशीष से

अलग होने को तैयार हूं तुम बताओ, तुम तैयार हो हमारे रिश्ते को कानूनी रूप से अपनाने को?’’

अजय ने डूबते स्वर में कहा,

‘‘मैं तुम्हारा वर्किंग हसबैंड तो हो सकता हूं दीपा मगर लीगल हसबैंड नहीं.’’

दीपा ने कुछ नहीं कहा मगर पूरा दिन वह इसी उधेड़बुन में रही कि क्या ऐसी जिंदगी जीना जायज है जैसी वह जी रही है?

पूरे 1 माह तक दीपा ने अजय से दूरी बना

कर रखी. अपनी शारीरिक इच्छाओं को उस ने काम की बलि चढ़ा दिया. मगर अजय ने दीपा के इस फैसले का सम्मान किया था. उस ने कभी इस बाबत दीपा से कोई सवाल नहीं किया. दीपा ने इस दौरान आशीष से दूरियां खत्म करने का भी भरसक प्रयास किया. मगर आशीष पर कोई फर्क नहीं पड़ा.

पहले जो काम दीपा अजय की मदद से कर लेती थी अब उसे अकेले करने पड़ रहे थे. मगर एक रात अचानक दीपा की छोटी बेटी के पेट में बहुत तेज दर्द हुआ. दीपा अकेले ही उसे हौस्पिटल ले कर भागी क्योंकि आशीष अपनी भक्त मंडली के साथ किसी दूरदराज इलाके में गया हुआ था.

हौस्पिटल में जा कर दीपा 1 घंटे तक इधर से उधर डाक्टर के चक्कर लगाती रही मगर जब कोई और राह नहीं सु?ाई दी तो उस ने झिझकते हुए रात के 1 बजे अजय को फोन किया. उसे समझ नहीं आ रहा था कि अजय इतनी रात गए कौल उठाएगा भी या नहीं.

मगर अजय ने न केवल कौल उठाई वह

20 मिनट में दीपा के साथ था. अजय ने डाक्टर से बातचीत करी तो पता लगा कि बच्ची की इमरजैंसी में सर्जरी करनी पड़ेगी क्योंकि उसे इंटेस्टाइनल ओब्सट्रक्शन हो गया है. 1 लाख रुपेय का खर्च था. अजय ने बिना दीपा से पूछे सर्जरी के लिए हां कर दी.

दीपा बस चुपचाप सब सुन रही थी. उस ने अजय से बस इतना कहा, ‘‘मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं.’’

बेटी की सर्जरी हो गई थी. अजय ने आशीष को भी फोन किया था मगर उस ने खीसें निपोरते हुए कहा, ‘‘मैं अपनी बेटी के लिए यहां से प्रार्थना कर रहा हूं, भगवान सब भला करेंगे.’’

जब दीपा की बेटी वापस घर आ गई तो अजय ने दीपा के लिए 1 माह तक वर्क फ्रौम होम की इजाजत भी दे दी.

दीपा को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करती अगर अजय उस की जिंदगी में नहीं होता. दीपा को समझ आ गया था कि उस की जिंदगी में लीगल हसबैंड से अधिक वर्किंग हसबैंड की जरूरत है. दीपा ने सहीगलत की परिभाषा को गृहस्थी के हवनकुंड में स्वाहा कर दिया.

दीपा ने समझता कर लिया कि अपने बच्चों और अपने भविष्य के लिए अजय जैसे वर्किंग हसबैंड का साथ बहुत जरूरी है. अत: धीरेधीरे फिर से अजय और दीपा के बीच नजदीकियां बढ़ने लगीं.

मगर इस बार अजय ने भी दीपा के घर

की देहरी नहीं लाघी. और न ही दीपा

ने अजय से कोई उम्मीद बांधी. दोनों ने ही

शायद अपने इस वर्किंग रिश्ते को स्वीकार कर लिया.

1 माह बाद जब दीपा औफिस पहुंची तो अजय मुसकराते हुए बोला, ‘‘बहुत दिनों बाद औफिस में जिंदगी वापस आई है.’’

दीपा ने अजय को कौफी का मग पकड़ते हुए कहा, ‘‘चलो अब काम पर जुटते हैं वर्किंग हसबैंड.’’

‘‘मुझे तुम्हारे साथ मिल कर इस कंपनी को नई ऊंचाइयों पर ले जाना है.’’

 

अपने अपने सच: पहचान बनाने के लिए क्या फैसला लिया स्वर्णा की मां ने?

अनजाने पल: भाग 3- क्यों सावित्री से दूर होना चाहता था आनंद

अपनी पीएचडी की समाप्ति पर प्रफुल्लचित, उत्साहित मैं जयपुर चल पड़ी. मन मुझे दोषी ठहराने लगा. मैं ने इन 6 महीनों में उन लोगों की कोई खोजखबर नहीं ली थी. उन लोगों ने भी मुझे कोई पत्र नहीं लिखा था. मैं सोचने लगी कि मेरी बेटी नीलिमा को भी क्या मेरी याद कभी नहीं आई होगी. पर मैं ने ही कौन सा उसे याद किया. पीएचडी की तैयारी इतनी अजीब होती है कि व्यक्ति सबकुछ भूल जाता है. परंतु इस में गलती ही क्या है? आनंद भी जब कंपनी की तरफ से ट्रेनिंग के लिए 6 महीने के लिए विदेश गया था तो उस ने भी तो कोई खोजखबर नहीं ली थी.

मैं भी तो व्यस्त थी. आनंद मेरी मजबूरी जरूर समझ गया होगा. मैं जब घर जाऊंगी तो वे लोग बहुत खुश होंगे. सहर्ष मेरा स्वागत करेंगे. मन में आशा की किरण जागी, लेकिन तुरंत ही निराशा के बादलों ने उसे ढक दिया, ‘क्या सचमुच वे मेरा स्वागत करेंगे? मुझे अगर घर में प्रवेश ही नहीं करने दिया तो?’ संशय के साथ ही मैं ने जयपुर पहुंच कर ननद के घर में प्रवेश किया.

ननद विधवा हो गई थी. अपना कोई नहीं था. नीलिमा से उसे बहुत प्यार था. बहुत रईस भी थी, इसलिए बड़ी शान से रहती थी. घर में नौकरचाकरों की कमी नहीं थी. मैं ने डरतेडरते भीतर प्रवेश किया. आनंद बाहर बरामदे में खड़ा था. उस ने मुझे देखते ही व्यंग्यभरी मुसकराहट के साथ कहा, ‘मेमसाहब को फुरसत मिल गई.’

मैं ने जबरदस्ती अपने क्रोध को रोका और मुसकराते हुए अंदर प्रवेश किया. अंदर से ननद की कठोर व कर्कश आवाज ने मुझे टोका, ‘जिस परिवार से तुम ने 6 महीने पहले रिश्ता तोड़ दिया था, अब वहां क्या लेने आई हो?’

‘मैं ने…मैं ने कब रिश्ता तोड़ा था?’

ननद बोली, ‘जब बच्ची को मेरे सुपुर्द कर दिया तो क्या संबंध तोड़ना नहीं हुआ?’

मैं ने हैरान हो, बरबस अपनी भावनाओं को काबू में रखते हुए, कहा, ‘दीदी, मैं आप से अपना अधिकार जताने या लड़ने नहीं आई हूं. नीलिमा कानूनन आज भी मेरी ही बेटी है. मैं केवल उसे लेने आई हूं.’

सफर की थकान और मई की लू के थपेड़ों ने मुझे पहले ही पस्त कर दिया था. ऊपर से आनंद के शब्दों ने मुझे और भी व्यथित कर दिया. उस ने बेरुखी से कहा, ‘नीलिमा को ले जाने का खयाल अपने दिल से निकाल दो. वह तुम से कोई संबंध रखना ही नहीं चाहती.’

मैं ने आपा खोते हुए कहा, ‘क्या रिश्ते कच्चे धागों के बने होते हैं, जो इतनी जल्दी टूट जाते हैं?’

इतने में नीलिमा बाहर आई. मैं ने सोचा था कि वह मुझ से गले मिलेगी, रोएगी. अगर वह मुझे कोसती, रूठती, रोती, कुछ भी करती तो मैं खुश हो जाती. परंतु उस की बेरुखी ने मुझे परेशान कर दिया.

उसी ने कहा, ‘मां, क्या लेने आई हो यहां?’

‘शुक्र है, तुम मुझे अब भी मां तो मानती हो. मैं तुम्हारे पास आई हूं. मेरी पीएचडी पूरी हो गई है. जून से मुझे प्रिंसिपल का पद मिल जाएगा. कालेज के कैंपस में ही हमारा घर होगा. तुम्हें वहां बहुत अच्छा लगेगा. अब हम साथसाथ रहेंगे.’

‘पिताजी हमारे साथ नहीं चलेंगे. और मैं उन के बगैर रह नहीं सकती. क्या आप हमारे साथ यहां नहीं रह सकतीं?’

मैं कुछ भी न कह पाई. मेरा वजूद मुझे नौकरी छोड़ने से रोक रहा था. मैं तबादले की कोशिश करने को तैयार थी. प्रिंसिपल का पद छोड़ने को भी तैयार थी, परंतु नौकरी छोड़ कर बैठे रहना मुझे मंजूर नहीं था. अगर मर्द का अहं इतना तन जाए तो नारी ही क्यों झुके? हम दोनों ने अपनेअपने अहं के चलते बच्ची के भविष्य की बात सोची ही नहीं.

मैं ने फिर विनम्रता और स्नेह से कहा, ‘बेटी, मैं तबादले की कोशिश करूंगी. तब तक तुम मेरे साथ रहो. एक साल के भीतर हम यहीं आ जाएंगे.’

नीलिमा ने पलट कर पिता की ओर देखा, ‘क्यों, मंजूर है?’

आनंद बोला, ‘सोच लो. मैं वहां नहीं रहूंगा. तुम्हें घर में अकेले दीवारों से बातें करते हुए रहना पड़ेगा. फिर तुम्हारी मां के कथन में न जाने कितनी सचाई. बाद में मुकर जाए तो…’

मुझे आनंद पर बहुत क्रोध आया कि न जाने भाईबहन ने नीलिमा से मेरे विरुद्ध  क्या कुछ कह दिया था. वह बेचारी अपने नन्हे से मस्तिष्क में विचारों का बवंडर लिए चुप रह गई.

मेरी ननद ने कहा, ‘अभी बच्ची को ले जाने की क्या जरूरत है. जब तबादला हो जाए तब देख लेंगे. अभी तो वह यहां बहुत खुश है.’

मुझे यह सलाह ठीक लगी. मैं अगली ट्रेन से ही दिल्ली लौट

आई. मेरे मन में भी आगे के कार्यक्रमों के बारे में योजनाएं बनने लगी थीं. मैं ने लौटते ही अपने तबादले के बारे में सैक्रेटरी से अनुरोध किया तो उन्होंने कहा, ‘तुम्हारी प्रिंसिपल की नौकरी के लिए सिफारिश आई है. क्या यह सबकुछ छोड़ कर जयपुर जाना चाहोगी?’

मैं ने कहा, ‘परिवार की खुशी के लिए नारी को थोड़ा सा त्याग करना ही पड़ता है. तभी तो वह नारी होने का दायित्व निभा पाती है.’

मुझे लोगों ने बहुत समझाया, पर मैं टस से मस न हुई. लेकिन तबादले की अर्जी देते ही तो तबादला नहीं हो जाता. सरकारी विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षकों का आदानप्रदान हो सकता है. यूनिवर्सिटी में उत्तरपुस्तिकाओं की जांच के दौरान मेरी रजनी से मुलाकात हुई. उस के पति का दिल्ली तबादला हो गया था और वह भी यहां आना चाहती थी. जयपुर कालेज से दिल्ली आने की उस की उत्सुकता देख मैं भी अत्यंत प्रसन्न हुई. हम दोनों ने ही आदानप्रदान के सारे कागजात जमा करवा दिए.

फिर मैं 4 दिनों की छुट्टी ले जयपुर गई. जयपुर से मेरे पति के पत्र नियमित रूप से नहीं आते थे. ननद तो कभी लिखती ही नहीं थी. मैं अपने खयालों में खोई हुई यह सोच भी नहीं पाई कि शायद वे लोग मुझ से कन्नी काट रहे हैं.

जयपुर पहुंचने पर पता चला कि ननद को कैंसर था. जब तक पता चला, काफी देर हो चुकी थी. उन की देखभाल के लिए माया नाम की 20-21 वर्षीय नर्स रख ली गई थी. मैं ने पति से पूछा, ‘मुझे सूचना क्यों नहीं दी, क्या मैं इतनी गैर हो गई थी?’

आनंद ने कहा, ‘पता नहीं, तुम छुट्टी ले कर आतीं या नहीं. और इस बीमारी में इलाज भी काफी दिनों तक चलता रहता है.’

मैं ने उस समय भी यही सोचा कि शायद उस ने मेरे बारे में ठीक ही निर्णय लिया होगा. मैं ने अपने तबादले के बारे में उस से जिक्र किया तो वह बोला, ‘इस समय तुम्हारा तबादला कराना ठीक नहीं होगा. दीदी बहुत बीमार हैं. माया उन की देखभाल अच्छी तरह कर ही लेती है. वह इलाज के बारे में सबकुछ जानती भी है. नीलू भी उस से काफी हिलमिल गई है.’

‘मेरे आने से इस में क्या रुकावट आ सकती है?’

‘डाक्टरों का कहना है कि दीदी महीने, 2 महीने से ज्यादा रहेंगी नहीं. फिर मैं भी जयपुर में रहना नहीं चाहता. मेरा अगला तबादला जहां होगा, तुम वहीं आ जाना. यही ठीक रहेगा.’

मैं समझ ही नहीं पाई कि वह मुझ से पीछा छुड़ाना चाह रहा है या मेरी भलाई चाहता है. मैं नीलू से जब भी कुछ बोलना चाहती, वह  ‘मां, मुझे परेशान मत करो’, कह कर भाग जाती.

माया दिल की अच्छी लगती थी, देखने में भी सुंदर थी. नीलू से वह बहुत प्यार करती थी. परंतु मैं ने पाया कि वह मेरे पति और बेटी के कुछ ज्यादा ही करीब है. वातावरण कुछ बोझिल सा लगने लगा. ननद मुझ से ठीक तरह से बोलती ही नहीं थी. वह बोलने की स्थिति में थी भी नहीं, क्योंकि काफी कमजोर और बीमार थी.

मैं वहां 2 दिनों से ज्यादा रुक न पाई. जाने से पहले मैं ने रजनी को अपनी मजबूरी बताते हुए फोन कर दिया था.

जब दिल्ली लौटी तो मन में दुविधा थी, ‘क्या मुझे जबरदस्ती वहां रुक जाना चाहिए था. पर किस के लिए रुकती? सब तो मुझे अजनबी समझते थे.’ कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था.

मुश्किल से 10 दिन बीते होंगे कि आनंद का पत्र आया. ‘दीदी की मृत्यु उसी दिन हो गई थी, जिस दिन तुम दिल्ली लौटी. मैं ने यहां से तबादले के लिए अर्जी भेजी है. आगे कुछ नहीं लिखा था. मैं ने संवेदना प्रकट करते हुए जवाब भेज दिया. इस के बाद एक महीना बीत गया. आनंद ने मेरे किसी भी पत्र का जवाब नहीं दिया.

मैं ने चिंतातुर जब बैंक मुख्यालय को फोन किया तो पता चला कि आनंद 15 दिन पहले ही तबादला ले कर मुंबई जा चुका है. उस ने जाने की मुझे कोई खबर नहीं दी थी.

मेरा मन आनंद की तरफ से उचट गया. मुझे मर्दों से नफरत सी होने लगी. इस प्रकार मुझ से दूरी बनाए रखने का क्या कारण हो सकता है, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था.

आस्था के आयाम : क्यों उड़ गए अभय के होश

जून का अंतिम सप्ताह और आकाश में कहीं बादल नहीं. अभय को आज हर हाल में रामपुर पहुंचना है वरना ऐसी गरमी में वह क्यों यात्रा करता? वह तो स्टेशन पहुंचने से ले कर रिजर्वेशन चार्ट में अपना नाम ढूंढ़ने तक में ही पसीनापसीना हो गया. पर अपने फर्स्ट क्लास एसी डब्बे में पहुंचते ही उस ने राहत की सांस ली. सामने की सीट पर एक सुंदर महिला बैठी थी. यात्रा में ऐसे सहयात्री का सान्निध्य अच्छा लगता है.

‘‘सामान सीट के नीचे लगा दो,’’ अभय ने पानी की बोतल को खिड़की के पास की खूंटी से टांगते हुए कुली से कहा.

अभय ने महिला को कनखियों से देखा. वह एक बार उन लोगों को उचटती नजर से देख कुछ पढ़ने में व्यस्त हो गई है. इस बीच कुली ने सामान सीट के नीचे रख दिया. जेब से पर्स निकाल कर कुली को मुंहमांगी मजदूरी के साथसाथ अभय ने 10 रुपए बख्शिश भी दी. कुली के डब्बे से उतरते ही गाड़ी ने रेंगना शुरू कर दिया. गाड़ी स्टेशन, शहर पीछे छोड़ती जा रही थी. अब बेफिक्र हो कर अभय ने पूरे डब्बे में नजर दौड़ाई. पूरे डब्बे में सिर्फ वे दोनों ही थे. ऐसा सुखद संयोग पा कर अभय खुश हो उठा. थोड़ी देर बाद अपने जूते उतार कर, बाल संवार कर वह बर्थ पर इस प्रकार टेक लगा कर बैठा कि उस महिला को भलीभांति निहार सके. महिला वास्तव में सुंदर थी. वह लगभग 34-35 वर्ष की तो रही होगी पर देखने से काफी कम आयु की लग रही थी.

अभय उस महिला से संवाद स्थापित करने हेतु व्यग्र हो उठा. पर महिला अपने आसपास के वातावरण से बेखबर पढ़ने में व्यस्त थी. उस की बर्थ पर एक ओर कई समाचारपत्र और पत्रिकाएं रखी हुई थीं और वह एक पुस्तक खोले उस से अपनी नोटबुक में कुछ नोट करती जा रही थी. अभय के बैग में भी 2-3 पत्रिकाएं रखी थीं. पर उन्हें निकालने के बजाय महिला से संवाद करने के उद्देश्य से उस ने शालीनता से पूछा, ‘‘ऐक्सक्यूज मी मैडम, क्या मैं यह मैगजीन देख सकता हूं?’’ महिला ने एक बार सपाट नजर से उसे देखा. 36-37 वर्ष का स्वस्थ, ऊंचे कद का व्यक्ति, गेहुआं रंग और उन्नत मस्तक. कुल मिला कर आकारप्रकार से संभ्रांत और सुशिक्षित दिखाई देता व्यक्ति. महिला ने बिना कुछ कहे मैगजीन उस की ओर बढ़ा दी. तभी अचानक उसे लगा कि इस व्यक्ति को उस ने कहीं देखा है? पर कब और कहां?

दिमाग पर जोर देने पर भी उसे कुछ याद नहीं आया. थक कर उस ने यह विचार मन से झटक दिया और पुन: अपने काम में मशगूल हो गई. गाड़ी लखनऊ स्टेशन पर रुक रही थी. महिला को अपना सामान समेटते देख कर अभय इस आशंका से भयभीत हो उठा कि कहीं यह सुखद सान्निध्य यहीं तक का तो नहीं? अभी तो कोई बात भी नहीं हो पाई है. तभी महिला ने दूसरी नोटबुक और किताब निकाल ली और पुन: कुछ लिखने में व्यस्त हो गई. अभय ने यह देख राहत की सांस ली.

अचानक डब्बे का दरवाजा खुला. टीटी ने अंदर झांका और फिर सौरी कह कर दरवाजा बंद कर दिया. दरवाजा फिर खुला और सफेद वरदी में एक व्यक्ति, जो उस महिला का अरदली था और द्वितीय श्रेणी में यात्रा कर रहा था, ने आ कर उस महिला से सम्मान से पूछा, ‘‘मेम साहब, चाय, कौफी या फिर ठंडा लाऊं?’’

‘‘हां, स्ट्रौंग कौफी ले आओ,’’ महिला ने बिना नजरें उठाए कहा.

जब अरदली जाने लगा तो अभय ने उसे आवाज दे कर बुलाया, ‘‘सुनो, 1 कप कौफी मेरे लिए भी ले आना.’’

अरदली ने ठिठक कर महिला की ओर देखा और उस की मौन स्वीकृति पा कर चला गया. महिला अब अभय के बारे में सोचने लगी कि पुरुष मानसिकता की कितनी स्पष्ट छाप है इस की हर गतिविधि में. थोड़ी ही देर में अरदली 2 कप कौफी दे कर लौट गया. अभय ने कौफी का सिप लेते ही कहा, ‘‘कौफी अच्छी बनी है.’’

मगर महिला बिना कुछ बोले कौफी पीती रही. अभय समझ नहीं पा रहा था कि अब वह महिला से कैसे संवाद स्थापित करे. वह कुछ बोलने ही जा रहा था कि तभी बैरा अंदर आ गया. उस ने पूछा, ‘‘साहब, लंच कहां सर्व किया जाए?’’

‘‘लखनऊ में तो दूसरा बैरा आया था, अब तुम कहां से आ गए?’’ अभय ने पूछा.

‘‘नहीं तो साहब… लखनऊ में भी मैं ही इस डब्बे के साथ था.’’

दोनों के वार्त्तालाप के मध्य हस्तक्षेप कर महिला ने कहा, ‘‘वह बैरा नहीं, मेरा अरदली था.’’ यह सुन कर अभय लज्जित हो उठा. उस ने बैरे को फौरन लंच के लिए और्डर दे कर विदा कर दिया. महिला ने पहले ही अपने लिए कुछ भी लाने को मना कर दिया था. वह मन ही मन सोच रहा था कि उच्चपदासीन होने के बावजूद उस के जीवन में अब तक ऐसी कोई महिला नहीं आई, जिस से संवाद स्थापित करने की ऐसी प्रबल इच्छा होती. कार और सुंदर बंगला मिलने के प्रलोभन में ऐसी पत्नी मिली, जिस से उस का मानसिक स्तर पर कभी अनुकूलन न हो सका. ‘काश, ऐसी महिला आज से कुछ वर्ष पहले मेरे जीवन में आई होती.’

अभय ने पुन: वार्त्ता का सूत्र जोड़ने का प्रयास किया, ‘‘मैडम, आप ने लंच और्डर नहीं किया. क्या आप हरदोई या शाहजहांपुर तक ही जा रही हैं?’’

महिला ने उसे ध्यान से देखा. उसे खीज हुई कि यह व्यक्ति उस की रुखाई के बावजूद निरंतर उस से बात करने का प्रयास किए जा रहा है. ‘इसे पहले कहीं देखा है’ एक बार फिर इस प्रश्न के कुतूहल ने सिर उठाया, पर व्यर्थ. उसे कुछ याद नहीं आ रहा था. फिर अपने दिमाग पर अनावश्यक जोर देने के बजाय उस ने संक्षिप्त उत्तर दिया, ‘‘नहीं, मैं बरेली तक जा रही हूं.’’

‘‘क्या वहां आप का मायका है?’’

‘‘नहीं, मेरा मायका तो फैजाबाद में है. दरअसल, मैं बरेली में एडीशनल मजिस्ट्रेट के पद पर तैनात हूं.’’

यह सुनते ही अभय के मन में एक हूक सी उठी. फिर उस ने लुभावने अंदाज में कहा, ‘‘आप जैसी शख्सीयत से मिलने पर बहुत खुशी हो रही है.’’

फिर अभय सहसा अपने बारे में बताने के लिए बेचैन हो उठा. बोला, ‘‘मैडम, मैं भी जनपद फैजाबाद का रहने वाला हूं. इस समय मैं हरिद्वार में पीडब्लूडी में अधीक्षण अभियंता के पद पर हूं. अभय प्रताप सिंह नाम है मेरा. मेरे पिता ठाकुर विक्रम प्रताप सिंह भी अपने क्षेत्र के नामी ठेकेदार हैं.

‘‘मेरा विवाह सुलतानपुर के एक संभ्रांत ठाकुर घराने में हुआ है. मेरे ससुर भी हाइडिल विभाग में उच्चाधिकारी हैं,’’ अभय नौनस्टौप बोले जा रहा था.

पर ठाकुर विक्रम प्रताप सिंह का नाम सुनते ही महिला को कुछ और सुनाई देना बंद हो गया. एक झटके से विस्मृति के सारे द्वार खुल गए. उसे अपने जीवन की घनघोर पीड़ा का वह अध्याय याद हो आया, जिसे वह अब तक भूल न सकी थी. फिर एक गहरी सांस छोड़ कर महिला ने सोचा कि कुदरत जो करती है, अच्छा ही करती है.

एक दिन इसी अभय से उस की सगाई हुई थी. वह तो मन ही मन उसे अपना पति मान चुकी थी, पर धनसंपदा के प्रलोभन में अभय के पिता ने यह सगाई तोड़ दी थी. बड़ा अपमान हुआ था उस के सीधेसादे बाबूजी का. मगर उसी अपमान के तीखे दंश उसे निरंतर आगे बढ़ने को प्रेरित करते रहे. अपने बाबूजी के खोए सम्मान को वापस पाने हेतु उस ने कड़ी मेहनत की. आज उस के पास सब कुछ है फिर भी उस में एक अजब सा वैराग्य आ गया है, जो शायद इसी व्यक्ति के प्रति कभी रहे उस के गहन अनुराग को ठुकराए जाने का परिणाम है. पर आज अभय की आंखों में अपने प्रति सम्मान और प्रशंसा देख कर उस की सारी गांठें जैसे अपनेआप खुलती चली गईं. गाड़ी बरेली स्टेशन पर रुकी. अरदली ने महिला का सामान उठाया. महिला डब्बे से बाहर जाने के लिए बढ़ी, फिर अनायास अभय की ओर मुड़ी और बोली, ‘‘पहचानते हैं मुझे? मैं उन्हीं ठाकुर विजय सिंह की बेटी निकिता हूं, जिस से कभी आप की सगाई हुई थी,’’ और फिर अभय को अवाक छोड़ डब्बे से उतर गई. बाहर उस के पति और बच्चे उसे रिसीव करने आए थे.

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