संतुलित सहृदया: भाग 1- एक दिन जब समीरा से मिलने आई मधुलिका

समीरा की पहली ऐनिमेशन फिल्म के पुरस्कृत होने पर उसे बधाई देने उस के सहपाठी अनंत के साथ उस का दोस्त मयंक भी आया था. ‘‘मयंक सुबह ही मुंबई से आया है… मेरे पास ठहरा है,’’ अनंत ने कहा, ‘‘तुम्हें मुबारक देने आना जरूरी था, लेकिन मयंक को अकेला कैसे छोड़ता, इसलिए साथ ले आया.’’

‘‘बहुत अच्छा किया. मुझे भी इन से मिल कर अच्छा लगा,’’ समीरा मयंक की ओर मुड़ी, ‘‘वैसे दिल्ली किस सिलसिले में आना हुआ?’’ ‘‘नौकरी की तलाश में…’’

‘‘बेहतर नौकरी की तलाश कह यार,’’ अनंत ने बात काटी, ‘‘यह उस लोकप्रिय टीवी चैनल में प्रोग्राम प्लैनर है, जिस के सीरियल वर्षों तक चलते हैं और भाई को कुछ नया करने को नहीं मिलता. इसीलिए चैनल बदल रहा है.’’ ‘‘अच्छा तो आप भी हमारी ही बिरादरी के हैं.’’ ‘‘जी हां, तभी तो अनंत से दोस्ती है.’’

‘‘तुम्हारे से भी हो सकती है अगर तुम इसे भी इनाम मिलने की खुशी की दावत में शामिल कर लो,’’ अनंत ने कहा, ‘‘और मुझे तो दावत आज ही चाहिए समीरा.’’ ‘‘जरूर. पहले घर पर ही सीता काकी के बनाए गाजर के हलवे से मुंह मीठा करो, फिर खाना खाने बाहर चलेंगे,’’ समीरा चहकी.

फिर कुछ ही देर में एक प्रौढ़ महिला चाय और नाश्ता ले आई. ‘‘मजा आ गया,’’ मयंक ने नाश्ता करते हुए कहा, ‘‘बाहर कहीं खाने जाने के बजाय घर पर ही क्यों न खाना खाएं अनंत? भई मैं तो रोजरोज बाहर खाना खा कर आजिज आ चुका हूं.’’

‘‘अगर समीरा को खिलाने में परेशानी न हो तो मैं भी बाहर के बजाय घर पर ही अरहर की दाल और चावल खाना पसंद करूंगा.’’ ‘‘बिटिया को काहे की परेशानी? मैं हूं न सब बनाने को,’’ सीता काकी बोली, ‘‘दालचावल के साथ और क्या बनाऊं?’’

‘‘भुनवा आलूप्याज का रायता और रोटी,’’ कह कर मयंक समीरा की ओर मुड़ा, ‘‘सीता काकी तुम्हारे साथ ही रहती हैं समीरा?’’ ‘‘हां, काकी के रहने से घर वाले भी निश्चिंत हो गए हैं.’’

‘‘यानी अब शादी का तकाजा नहीं करते?’’ मयंक ने चुटकी ली. ‘‘उस का अभी सवाल ही नहीं उठता… मेरे बड़े भाई की शादी के बाद मेरी तरफ ध्यान देंगे… भैया सिर्फ मेरी पसंद की लड़की से शादी करेंगे और फिलहाल तो मैं अपने कैरियर में पैर जमाने में इतनी व्यस्त हूं कि भैया के लिए लड़की पसंद करने की फुरसत ही नहीं है.’’

‘‘भैया तुम्हारी पसंद की लड़की ही क्यों चाहते हैं?’’ अनंत ने पूछा. ‘‘क्योंकि मम्मीपापा के बाद हम दोनों भाईबहन ही एकदूसरे का सहारा होंगे, इसलिए हमारे जीवनसाथी हमारी पसंद के होने चाहिए. भैया ने किताबीकीड़ा होने की वजह से कभी लड़कियों में दिलचस्पी नहीं ली, मगर अब पत्नी ऐसी चाहते हैं, जो घरपरिवार के साथसाथ उन के बिजनैस का भी दायित्व संभाले और सोसायटी में उभरते उद्योगपति की सुंदर, स्मार्ट पत्नी भी लगे.’’

‘‘लगता है आप की फैमिली भी मेरे परिवार की ही तरह सोचती है,’’ मयंक ने कहा, ‘‘बड़े भैया के लिए लड़की दीदी और मैं पसंद करेंगे और मेरी बीवी सिर्फ भाभी, क्योंकि परिवार की संयुक्तता तो देवरानीजेठानी के तालमेल पर ही निर्भर करती है.’’ ‘‘तेरा तो यार दिनरात लड़कियों से पाला पड़ता है… कोई पसंद आ गई तो क्या करेगा?’’ अनंत ने चुटकी ली.

‘‘तभी तो लड़कियों से हायबाय तक बहुत संभल कर करता हूं… खड़ूस, नकचढ़ा, अकड़ू न जाने कितने उपनाम हैं मेरे… भाभी आ जाएं फिर आंखों से मांबहन का चश्मा उतार कर आसपास देखूंगा कि कोई भाभी की कसौटी पर उतरने लायक है या नहीं,’’ मयंक हंसा. दोनों दोस्तों ने चटखारे लेले कर खाना

खाया और फिर मयंक ने कहा, ‘‘पेट तो भर गया काकी, लेकिन आंखें नहीं भरीं… कल वापस मुंबई जा रहा हूं, लेकिन जब भी आऊंगा खाना यहीं खाऊंगा.’’ कुछ सप्ताह के बाद अनंत ने बताया कि मयंक रविवार सुबह दिल्ली आ रहा है.

‘‘उफ, शुक्रवार शाम को मैं आगरा जा रही हूं,’’ समीरा के मुंह से बेखास्ता निकला, ‘‘भैया के लिए एक रिश्ता आया है… लड़की भैया के लिए उपयुक्त है, लेकिन रिश्ता पक्का मेरे पसंद करने के बाद होगा. इसलिए मेरा जाना जरूरी है.’’ ‘‘वापस कब आओगी?’’

‘‘रविवार की रात को. अगर किसी रस्मवस्म के लिए रुकना पड़ा तो सोमवार को.’’ ‘‘रस्म दिन में करवा कर रविवार की शाम को ही वापस आ जाओ,’’ अनंत ने आग्रह किया, ‘‘मयंक तुम्हारे न होने पर सोचेगा कि मैं ने तुम्हें उस का संदेशा नहीं दिया.’’

‘‘कौन सा संदेशा?’’ समीरा के दिल की धड़कनें तेज हो गई. ‘‘होमली फील करने के लिए शाम तुम्हारे घर गुजारेगा.’’

थोड़ी सी मायूसी तो हुई, मगर फिर सोचा कि अनंत से और क्या कहलवाता? इतना इशारा तो कर ही दिया कि मेरा घर अपना सा लगता है. ‘‘मैं रविवार की शाम तक जरूर आ जाऊंगी,’’ समीरा ने कह तो दिया, मगर वह जानती थी कि अगर शादी तय हो गई तो जल्दी लौटना नहीं हो सकेगा. वह रास्ते भर इसी बारे में सोचती रही.

‘‘सुनील को मधुलिका का विवरण और फोटो इतना अच्छा लगा कि उस ने और जगह मना करवा दिया. कहने लगा कि मेरी पसंद समीरा को भी जरूर पसंद आएगी,’’ मैं ने बताया तभी मधुलिका के मामा जो रिश्ता करवा रहे थे का फोन आया, ‘‘देखिए, कृपाशंकरजी आप के इस आश्वासन पर कि आज आप की बेटी आ जाएगी मैं ने देवराज जीजाजी को सपरिवार बुला लिया है…’’ ‘‘मेरी बेटी आ गई है, राघवजी,’’ कृपाशंकर ने बात काटी, ‘‘शाम को मिल लें.’’

‘‘दोपहर को लंच पर आ जाएं ताकि शाम तक तय हो जाए,’’ राघव ने कहा, ‘‘असल में एक अजीब सी शर्त है मधु की शादी के लिए… उसे भरीपूरी क्लोजनिट फैमिली चाहिए. ऐसे ही एक और परिवार का प्रस्ताव भी है जीजाजी के पास… अगर आप के यहां बात नहीं बनती तो जीजाजी उन लोगों से तुरंत मिलना चाहते हैं. इसीलिए जल्दी में हैं.’’ ‘‘देखिए, हम ने तो तसवीर पसंद कर के ही मिलने का फैसला किया है,’’ स्पष्टवादी पापा ने कहा, ‘‘समीरा की व्यवस्तता के कारण मिलने में देर हो गई. खैर, लंच पर मिलते हैं.’’

समीरा ने राहत की सांस ली. दूसरी पार्टी भी जल्दी में है, इसलिए रोके की रस्म तो आज ही हो जानी चाहिए ताकि काम का बहाना बना कर वह कल ही दिल्ली लौट आए. मधुलिका तसवीर से भी अधिक आकर्षक थी. तटस्थ लगने की कोशिश करने के बावजूद सुनील की मुखमुद्रा से तो लग रहा था कि वह उस पर मर मिटा है.

मधुलिका का छोटा भाई मोहित समीरा से बड़ी दिलचस्पी से ऐनिमेशन फोटोग्राफी के बारे में पूछ रहा था. ‘‘लगता है फोटोग्राफी का बहुत शौक है तुम्हें?’’ समीरा ने पूछा.

‘‘हमारे यहां सभी को फोटोग्राफी का शौक है. मधु दीदी से तो पापा ने एमबीए करने के बजाय फोटोग्राफी का प्रोफैशनल कोर्स करने को कहा भी था.’’ ‘‘फिर आप ने किया क्यों नहीं? समीरा ने मधुलिका से पूछा.’’

जिंदगी जीने का हक : केशव के मन में उठी थी कैसी ललक

प्रणव तो प्रिया को पसंद था ही लेकिन उस से भी ज्यादा उसे अपनी ससुराल पसंद आई थी. हालांकि संयुक्त परिवार था पर परिवार के नाम पर एक विधुर ससुर और 2 हमउम्र जेठानियां थीं. बड़ी जेठानी जूही तो उस की ममेरी बहन थी और उसी की शादी में प्रणव के साथ उस की नोकझोक हुई थी. प्रणव ने चलते हुए कहा था, ‘‘2-3 साल सब्र से इंतजार करना.’’

‘‘किस का? आप का?’’

‘‘जी नहीं, जूही भाभी का. घर की बड़ी तो वही हैं, सो वही शादी का प्रस्ताव ले कर आएंगी,’’ प्रणव मुसकराया, ‘‘अगर उन्होंने ठीक समझा तो.’’

‘‘यह बात तो है,’’ प्रिया ने गंभीरता से कहा, ‘‘जूही दीदी, मुझे बहुत प्यार करती हैं और मेरे लिए तो सबकुछ ही ठीक चाहेंगी.’’

प्रणव ने कहना तो चाहा कि प्यार तो वह अब हम से भी बहुत करेंगी और हमारे लिए किसे ठीक समझती हैं यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन चुप रहा. क्या मालूम बचपन से बगैर औरत के घर में रहने की आदत है, भाभी के साथ तालमेल बैठेगा भी या नहीं.

अभिनव के लिए लड़की देखने से पहले ही केशव ने कहा था, ‘‘इतने बरस तक यह मकान एक रैन बसेरा था लेकिन अभिनव की शादी के बाद यह घर बनेगा और इस में हम सब को सलीके से रहना होगा, ढंग के कपड़े पहन कर. मैं भी लुंगीबनियान में नहीं घूमूंगा और अभिनव, प्रभव, प्रणव, तुम सब भी चड्डी के बजाय स्लीपिंग सूट या कुरतेपाजामे खरीदो.’’

‘‘जी, पापा,’’ सब ने कह तो दिया था लेकिन मन ही मन डर भी रहे थे कि पापा का एक भरेपूरे घर का सपना वह पूरा कर सकेंगे कि नहीं.

केशव मात्र 30 वर्ष के थे जब उन की पत्नी क्रमश: 6 से 2 वर्ष की आयु के 3 बेटों को छोड़ कर चल बसी थी. सब के बहुत कहने के बावजूद उन्होंने दूसरी शादी के लिए दृढ़ता से मना कर दिया था.

वह चार्टर्ड अकाउंटेंट थे. उन्होंने घर में ही आफिस खोल लिया ताकि हरदम बच्चों के साथ रहें और नौकरों पर नजर रख सकें. बच्चों को कभी उन्होंने अकेलापन महसूस नहीं होने दिया. आवश्यक काम वह उन के सोने के बाद देर रात को निबटाया करते थे. उन की मेहनत और तपस्या रंग लाई. बच्चे भी बड़े सुशील और मेधावी निकले और उन की प्रैक्टिस भी बढ़ती रही. सब से अच्छा यह हुआ कि तीनों बच्चों ने पापा की तरह सीए बनने का फैसला किया. अभिनव के फाइनल परीक्षा पास करते ही केशव ने ‘केशव नारायण एंड संस’ के नाम से शहर के व्यावसायिक क्षेत्र में आफिस खोल लिया. अभिनव के लिए रिश्ते आने लगे थे. केशव की एक ही शर्त थी कि उन्हें नौकरीपेशा नहीं पढ़ीलिखी मगर घर संभालने वाली बहू चाहिए और वह भी संयुक्त परिवार की लड़की, जिसे देवरों और ससुर से घबराहट न हो.

जूही के आते ही मानो घर में बहार आ गई. सभी बहुत खुश और संतुष्ट नजर आते थे लेकिन केशव अब प्रभव की शादी के लिए बहुत जल्दी मचा रहे थे. प्रभव ने कहा भी कि उसे इत्मीनान से परीक्षा दे लेने दें और वैसे भी जल्दी क्या है, घर में भाभी तो आ ही गई हैं.

‘‘तभी तो जल्दी है, जूही सारा दिन घर में अकेली रहती है. लड़की हमें तलाश करनी है और तैयारी भी हमें ही करनी है. तुम इत्मीनान से अपनी परीक्षा की तैयारी करते रहो. शादी परीक्षा के बाद करेंगे. पास तो तुम हो ही जाओगे.’’

अपने पास होने में तो प्रभव को कोई शक था ही नहीं सो वह बगैर हीलहुज्जत किए सपना से शादी के लिए तैयार हो गया. लेकिन हनीमून से लौटते ही यह सुन कर वह सकते में आ गया कि पापा प्रणव की शादी की बात कर रहे हैं.

‘‘अभी इसे फाइनल की पढ़ाई इत्मीनान से करने दीजिए, पापा. शादीब्याह की चर्चा से इस का ध्यान मत बटाइए,’’ प्रभव ने कहा, ‘‘भाभी की कंपनी के लिए सपना आ ही गई है तो इस की शादी की क्या जल्दी है?’’

‘‘यही तो जल्दी है कि अब इस की कोई कंपनी नहीं रही घर में,’’ केशव ने कहा.

‘‘क्या बात कर रहे हैं पापा?’’ प्रभव हंसा, ‘‘जब देखिए तब मैरी के लिटिल लैंब की तरह भाभी से चिपका रहता है और अब तो सपना भी आ गई है बैंड वैगन में शामिल होने को.’’

सपना हंसने लगी.

‘‘लेकिन देवरजी, भाभी के पीछे क्यों लगे रहते हैं यह तो पूछिए उन से.’’

‘‘जूही मुझे बता चुकी है सपना, प्रणव को इस की ममेरी बहन प्रिया पसंद है, सो मैं ने इस से कह दिया है कि अपने ननिहाल जा कर बात करे,’’ कह कर केशव चले गए.

‘‘जब बापबेटा राजी तो तुम क्या करोगे प्रभव पाजी?’’ अभिनव हंसा, ‘‘काम तो इस ने पापा के साथ ही करना है. पहली बार में पास न भी हुआ तो चलेगा लेकिन जूही, तुम्हारे मामाजी तैयार हो जाएंगे अधकचरी पढ़ाई वाले लड़के को लड़की देने को?’’

‘‘आप ने स्वयं तो कहा है कि देवरजी को काम तो पापा के साथ ही करना है सो यही बात मामाजी को समझा देंगे. प्रिया का दिल पढ़ाई में तो लगता नहीं है सो करनी तो उस की शादी ही है इसलिए जितनी जल्दी हो जाए उतना ही अच्छा है मामाजी के लिए.’’

जल्दी ही प्रिया और प्रणव की शादी भी हो गई. कुछ लोगों ने कहा कि केशव जिम्मेदारियों से मुक्त हो गए और कुछ लोगों की यह शंका जाहिर करने पर कि बच्चों के तो अपनेअपने घरसंसार बस गए, केशव के लिए अब किस के पास समय होगा और वह अकेले पड़ जाएंगे, अभिनव बोला, ‘‘ऐसा हम कभी होने नहीं देंगे और होने का सवाल भी नहीं उठता क्योंकि रोज सुबह नाश्ता कर के सब इकट्ठे ही आफिस के लिए निकलते हैं और रात को इकट्ठे आ कर खाना खाते हैं, उस के बाद पापा तो टहलने जाते हैं और हम लोग टीवी देखते हैं, कभीकभी पापा भी हमारे साथ बैठ जाते हैं. रविवार को सब देर से सो कर उठते हैं, इकट्ठे नाश्ता करते हैं…’’

‘‘फिर सब का अलगअलग कार्यक्रम रहता है,’’ केशव ने अभिनव की बात काटी, ‘‘यह सिलसिला कई साल से चल रहा है और अब भी चलेगा, फर्क सिर्फ इतना होगा कि अब मैं भी छुट्टी का दिन अपनी मर्जी से गुजारा करूंगा. पहले यह सोच कर खाने के समय पर घर पर रहता था कि तुम में से जो बाहर नहीं गया है वह क्या खाएगा लेकिन अब यह देखने को सब की बीवियां हैं, सो मैं भी अब छुट्टी के रोज अपनी उमर वालों के साथ मौजमस्ती और लंचडिनर बाहर किया करूंगा.’’

‘‘बिलकुल, पापा, बहुत जी लिए… आप हमारे लिए. अब अपनी पसंद की जिंदगी जीने का आप को पूरा हक है,’’ प्रणव बोला.

‘‘लेकिन इस का यह मतलब नहीं है कि पापा बाहर लंचडिनर कर के अपनी सेहत खराब करें,’’ प्रभव ने कहा, ‘‘हम में से कोई तो घर पर रहा करेगा ताकि पापा जब घर आएं तो उन्हें घर खाली न मिले.’’

‘‘हम इस बात का खयाल रखेंगे,’’ जूही बोली, ‘‘वैसे भी हर सप्ताह सारा दिन बाहर कौन रहेगा?’’

‘‘और कोई रहे न रहे मैं तो रहा करूंगा भई,’’ केशव हंसे.

‘‘यह तो बताएंगे न पापा कि जाएंगे कहां?’’ प्रणव ने पूछा.

‘‘कहीं भी जाऊं, मोबाइल ले कर जाऊंगा, तुझे अगर मेरी उंगली की जरूरत पड़े तो फोन कर लेना,’’ केशव प्रिया की ओर मुड़े, ‘‘प्रिया बेटी, इसे अब अपना पल्लू थमा ताकि मेरी उंगली छोड़े.’’

लेकिन कुछ रोज बाद प्रिया ने खुद ही उन की उंगली थाम ली. एक रोज जब रात के खाने के बाद वह घूमने जा रहे थे तो प्रिया भागती हुई आई बोली, ‘‘पापाजी, मैं भी आप के साथ घूमने चलूंगी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि आप सड़क पर अकेले घूमते हैं और मैं छत पर तो क्यों न हम दोनों साथ ही टहलें?’’ प्रिया ने उन के साथ चलते हुए कहा.

‘‘मगर तुम छत पर अकेली क्यों घूमती हो?’’

‘‘और क्या करूं पापाजी? प्रणव को तो 2-3 घंटे पढ़ाई करनी होती है और मुझे रोशनी में नींद नहीं आती, सो जब तक टहलतेटहलते थक नहीं जाती तब तक छत पर घूमती रहती हूं.’’

‘‘टीवी क्यों नहीं देखतीं?’’

‘‘अकेले क्या देखूं, पापाजी? सब लोग 1-2 सीरियल देखने तक रुकते हैं फिर अपनेअपने कमरों में चले जाते हैं.’’

‘‘अब तो बस कुछ ही महीने रह गए हैं प्रणव की परीक्षा में,’’ केशव ने दिलासे के स्वर में कहा, ‘‘तुम चाहो तो इस दौरान मायके हो आओ.’’

‘‘नहीं, पापाजी, उस की जरूरत नहीं है. बस, रात को यह थोड़ा सा वक्त अकेले गुजारना मुश्किल हो जाता है लेकिन अब इस समय आप के साथ घूमा करूंगी, गपें मारते हुए.’’

‘‘मैं बहुत तेज चलता हूं. थक जाओगी.’’

‘‘चलिए, देखते हैं.’’

कुछ दूर जाने के बाद, एक कौटेज में से एक प्रौढ़ महिला निकलती हुई दिखाई दीं. प्रिया पहचान गई. मालिनी नामबियार थीं, जो उस की शादी की दावत में आई थीं तब पापाजी ने बताया था कि ये सब भाई आज जो कुछ भी हैं मालिनीजी की कृपा से हैं. यह इन की गणित की अध्यापिका और स्कूल की प्राचार्या हैं, बहुत मेहनत की है इन्होंने इन सब पर.

मगर पापाजी ने जिस कृतज्ञता से आभार प्रकट किया था, किसी भी भाई ने मालिनीजी की खातिर में उतनी रुचि नहीं दिखाई थी.

उन्हें देख कर मालिनीजी रुक गईं. पापाजी ने उस का परिचय करवाया. मालिनीजी भी उन के साथ टहलते हुए प्रिया से बातें करने लगीं. कुछ देर के बाद केशव को टांगें घसीटते देख कर बोलीं, ‘‘थक गए? चलिए, कौफी पी जाए.’’

‘‘मगर कौफी यहां कहां मिलेगी?’’ प्रिया ने पूछा.

‘‘मेरे घर पर.’’

प्रिया ने केशव की ओर देखा, वह बगैर कुछ कहे मालिनी के पीछे उस के घर में चले गए. जब मालिनीजी कौफी लाने अंदर गईं तो प्रिया ने पूछा, ‘‘आप पहले भी यहां आ चुके हैं, पापा?’’

केशव सकपकाए.

‘‘बच्चों की पढ़ाई के सिलसिले में आना पड़ता था. इसी तरह जानपहचान हो गई तो आनाजाना बना हुआ है.’’

‘‘आंटी ने शादी नहीं की?’’

‘‘अभी तक तो नहीं.’’

प्रिया ने कहना चाहा कि अब इस उम्र में क्या करेंगी लेकिन तब तक मालिनीजी कौफी की ट्रौली धकेलती हुई आ गईं. जितनी जल्दी वह कौफी लाई थीं उस से लगता था कि तैयारी पहले से थी. प्रिया को कच्चे केले के चिप्स बहुत पसंद आए.

‘‘किसी छुट्टी के दिन आ जाना, बनाना सिखा दूंगी,’’ मालिनी ने कहा.

‘‘तरीका बता देने से भी चलेगा, आंटी. अब तो रोज घूमते हुए आप से मुलाकात हुआ करेगी सो किसी रोज पूछ लूंगी,’’ प्रिया ने चिप्स खाते हुए कहा.

मालिनी ने चौंक कर उस की ओर देखा.

‘‘तुम रोज सैर करने आया करोगी?’’

‘‘हां, आंटी?’’

‘‘अरे, नहीं, 2 रोज में ऊब जाएगी,’’ केशव हंसे.

‘‘नहीं, पापाजी. ऊबी तो अकेले छत पर टहलते हुए हूं.’’

‘‘तुम छत पर अकेली क्यों टहलती हो?’’ मालिनी ने भौंहें चढ़ा कर पूछा.

जवाब केशव ने दिया कि प्रणव परीक्षा की तैयारी के लिए रात को देर तक पढ़ता है और तब तक समय गुजारने को यह टहलती रहती है. टीवी कब तक देखे और उपन्यास पढ़ने का इसे शौक नहीं है.

‘‘मगर प्रणव रात को क्यों पढ़ता है?’’

‘‘सुबह जल्दी उठ कर पढ़ने की उसे आदत नहीं है और दिन में आफिस जाता है,’’ केशव ने बताया.

‘‘आफिस में 5 बजे के बाद आप सब मुवक्किल से मिल कर उन की समस्याएं सुनते हो न?’’ मालिनीजी ने पूछा, ‘‘अगर चंद महीने प्रणव वह समस्याएं न सुने तो कुछ फर्क पड़ेगा क्या? काम तो उसे वही करना है जो आप बताओगे. सो कल से उसे 5 बजे से पढ़ने की छुट्टी दे दो ताकि रात को मियांबीवी समय से सो सकें.’’

‘‘यह तो है…’’

‘‘तो फिर कल से ही प्रणव को स्टडी लीव दो ताकि किसी का भी रुटीन खराब न हो,’’ मालिनीजी का स्वर आदेशात्मक था, होता भी क्यों न, प्राचार्य थीं.

प्रिया ने सिटपिटाए से केशव को देख कर मुश्किल से हंसी रोकी.

‘‘हां, यही ठीक रहेगा. लाइबे्ररी तो आफिस में ही है. वहीं से किताबें ला कर घर पर पढ़ता है, कल कह दूंगा कि दिन भर लाइबे्ररी में बैठ कर पढ़ता रहे, कुछ जरूरी काम होगा तो बुला लूंगा,’’ केशव बोले.

लौटते हुए केशव ने प्रिया से कहा कि वह प्रणव को न बताए कि मालिनीजी ने उस की स्टडी लीव की सिफारिश की है, नहीं तो चिढ़ जाएगा.

‘‘टीचर से सभी बच्चे चिढ़ते हैं और स्कूल छोड़ने के बाद तो उन की हर बात हस्तक्षेप लगती है.’’

‘‘यह बात तो है, पापाजी. वैसे यह बताने की भी जरूरत नहीं है कि हम मालिनीजी से मिले थे,’’ प्रिया ने केशव को आश्वस्त किया.

अगले रोज से प्रणव ने रात को पढ़ना छोड़ दिया. प्रिया ने मन ही मन मालिनीजी को धन्यवाद दिया. जिस रोज प्रणव की परीक्षा खत्म हुई, रात के खाने के बाद केशव ने उस से पूछा, ‘‘अब क्या इरादा है, कहीं घूमने जाओगे?’’

‘‘जाना तो है पापा, लेकिन रिजल्ट निकलने के बाद.’’

‘‘तो फिर कल मुझ से पूरा काम समझ लो, वैसे तो तुम सब संभाल ही लोगे फिर भी कुछ समस्या हो तो इन दोनों से पूछ लेना,’’ केशव ने अभिनव और प्रभव की ओर देखा, ‘‘तुम लोगों के पास वैसे तो अपना बहुत काम है लेकिन इसे कुछ परेशानी हो तो वक्त निकाल कर देख लेना, कुछ ही दिनों की बात है. मैं जल्दी आने की कोशिश करूंगा.’’

‘‘आप कहीं जा रहे हैं, पापा?’’ सभी ने एकसाथ चौंक कर पूछा.

‘‘हां, कोच्चि,’’ केशव मुसकराए, ‘‘शादी करने और फिर हनीमून…’’

‘‘शादी और आप… और वह भी अब?’’ अभिनव ने बात काटी, ‘‘जब करने की उम्र थी तब तो करी नहीं.’’

‘‘क्योंकि तब तुम सब को संभालना था. अब तुम्हें संभालने वालियां आ गई हैं तो मैं भी खुद को संभालने वाली ला सकता हूं. कोच्चि के नाम पर समझ ही गए होंगे कि मैं मालिनी की बात कर रहा हूं,’’ कह कर केशव रोज की तरह घूमने चले गए.

‘‘अगर पापा कोच्चि का नाम न लेते तो भी मैं समझ जाता कि किस की बात कर रहे हैं,’’ प्रभव ने दांत पीसते हुए कहा, ‘‘वह औरत हमेशा से ही हमारी मां बनने की कोशिश में थी. मैं ने आप को बताया भी था भैया और आप ने कहा था कि आप इस घर में उस की घुसपैठ कभी नहीं होने देंगे.’’

‘‘तो होने दी क्या?’’ अभिनव ने चिढ़े स्वर में पूछा, ‘‘वह हमारे घर न आए इसलिए कभी अपनी या तुम्हारे जन्मदिन की दावत नहीं होने दी. हालांकि त्योहार के दिन किसी रिश्तेदार के घर जाना मुझे बिलकुल पसंद नहीं था लेकिन उस औरत से बचने के लिए मैं बारबार बूआ या मौसी के घर जाने की जलालत भी झेल लेता था. अगर पता होता कि हमारी शादी के बाद वह हमारी मां की जगह ले लेगी तो मैं न अपनी शादी करता न तुम्हें करने देता.’’

‘‘लेकिन अब तो हम सब की शादी हो गई है और पापा अपनी करने जा रहे हैं,’’ प्रणव बोला.

‘‘हम जाने देंगे तब न? हम अपनी मां की जगह उस औरत को कभी नहीं लेने देंगे,’’ प्रभव बोला.

‘‘सवाल ही नहीं उठता,’’ अभिनव ने जोड़ा.

‘‘मगर करोगे क्या? अपनी शादियां खारिज?’’ प्रणव ने पूछा.

‘‘उस से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा,’’ जूही बोली, ‘‘क्योंकि पापाजी की जिम्मेदारी आप लोगों को सुव्यवस्थित करने तक थी, जो उन्होंने बखूबी पूरी कर दी. अब अगर आप उस में कुछ फेरबदल करना चाहते हो तो वह आप की अपनी समस्या है. उस से पापाजी को कुछ लेनादेना नहीं है.’’

‘‘उस सुव्यवस्था में फेरबदल हम नहीं पापा कर रहे हैं और वह हम करने नहीं देंगे,’’ अभिनव ने कहा.

‘‘मगर कैसे?’’ प्रणव ने पूछा.

‘‘कैसे भी, सवाल मत कर यार, सोचने दे,’’ प्रभव झुंझला कर बोला. फिर सोचने और सुझावों की प्रक्रिया बहस में बदल गई और बहस झगड़े में बदलती तब तक केशव आ गए, वह बहुत खुश लग रहे थे.

‘‘अच्छा हुआ तुम सब यहीं मिल गए. मैं और मालिनी परसों कोच्चि जा रहे हैं, शादी तो बहुत सादगी से करेंगे मगर यहां रिसेप्शन में तो तुम लोग सादगी चलने नहीं दोगे,’’ केशव हंसे, ‘‘खैर, मैं तुम लोगों को अपनी मां के स्वागत की तैयारी के लिए काफी समय दे दूंगा.’’

‘‘मगर पापा…’’

‘‘अभी मगरवगर कुछ नहीं, अभिनव. मैं अब सोने या यह कहो सपने देखने जा रहा हूं,’’ यह कहते हुए केशव अपने कमरे में चले गए.

‘‘पापाजी बहुत खुश हैं,’’ जूही ने कहा, ‘‘मुझे नहीं लगता वह आप के कहने से अपना इरादा बदलेंगे.’’

‘‘आप ठीक कहती हैं सो बदलने को कह कर हमें उन की खुशी में खलल नहीं डालना चाहिए,’’ सपना बोली.

‘‘और चुपचाप उन्हें अपनी मां की जगह उस औरत को देते हुए देखते रहना चाहिए?’’ अभिनव ने तिक्त स्वर में पूछा.

‘‘उन मां की जगह जिन की शक्ल भी आप को या तो धुंधली सी याद होगी या जिन्हें आप तसवीर के सहारे पहचानते हैं? उन की खातिर आप उन पापाजी की खुशी छीन रहे हैं जो अपनी भावनाओं और खुशियों का गला घोंट कर हर पल आप की आंखों के सामने रहे ताकि आप को आप की मां की कमी महसूस न हो?’’ अब तक चुप बैठी प्रिया ने पूछा, ‘‘महज इसलिए न कि मालिनीजी आप की टीचर थीं और उन्हें या उन के अनुशासन को ले कर आप सब पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं?’’

कोई कुछ नहीं बोला.

‘‘जूही दीदी, सपना भाभी, सास के आने से सब से ज्यादा समस्या हमें ही आएगी न?’’ प्रिया ने पूछा, ‘‘क्या पापाजी की खुशी की खातिर हम वह बरदाश्त नहीं कर सकतीं?’’

‘‘पापाजी को अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने का पूरा हक है और हम उन के लिए कुछ भी सह सकती हैं,’’ सपना बोली.

‘‘सहना तब जब कोई समस्या आएगी,’’ जूही ने उठते हुए कहा, ‘‘फिलहाल तो चल कर इन सब का मूड ठीक करो ताकि कल से यह भी पापाजी की खुशी में शामिल हो सकें.’’

तीनों भाइयों ने मुसकरा कर एकदूसरे को देखा, कहने को अब कुछ बचा ही नहीं था.

साठ पार का प्यार – भाग 1

सुबहसुबह रजाई से मुंह ढांपे समीर  काफी देर तक जब पत्नी के उठाने का और गरमागरम चाय के कप का इंतजार करतेकरते थक गए तो रजाई से धीरे से मुंह निकाल कर बाहर झांका, ‘अभी तक कहां है सुहानी’ तो जो कुछ नजर आया, उस पर यकीन करना मुश्किल हो गया.

उलटेसीधे गाउन पर 2-3 स्वेटर पहने, मुंह और सिर भी शौल से लपेटे रहने वाली सुहानी आज गुलाबी रंग का चुस्त ट्रैक सूट पहने, ड्रैसिंग मिरर के सामने खुद को कई एंगल से निहारनिहार कर खुश हो रही थी.

‘‘यह क्या कर रही हो सुहानी,’’ समीर हैरानी से पलकें झपकाते हुए बोले.

‘‘ओह, उठ गए तुम. मैं जौगिंग पर जा रही हूं.’’ वह ‘जौगिंग’ शब्द पर जोर डालती हुई मीठी मुसकराहट के साथ आगे बोली, ‘‘मैं ने चाय पी ली, तुम्हारी रखी है, गरम कर के पी लेना.’’

‘‘लेकिन तुम इतने कम कपड़े पहन कर कहां जा रही हो, सर्दी लग जाएगी. वाक पर तो रोज ही जाती हो, आज यह जौगिंग की क्या सूझी,’’ समीर उठ कर बैठते हुए बोले. उन्हें सामने खड़ी सुहानी पर अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था.

‘‘डार्लिंग,’’ सुहानी प्यार से उन के गालों पर हलकी सी चिकौटी काटती, दिलकश मुसकराहट बिखेरती हुई बोली, ‘‘पहले सारे किस्सेकहानियों में फोर्टीज की बात होती थी, अब सिक्सटीज की बात होती है. सुना नहीं, ‘लव इन सिक्सटीज?’ ’’

वह थोड़ा सा उन से सट कर बैठती हुई आगे बोली, ‘‘मैं ने सोचा, लव दूसरे से करना जरूरी है क्या, क्यों न खुद से ही शुरुआत की जाए. पहले खुद से, फिर तुम से,’’ उस ने रोमांटिक अंदाज में समीर के होंठों पर उंगली फेरने के साथ उन की आंखों में झांका.

समीर को गले से थूक निगलना पड़ा. 64 साल की उम्र में भी बांछें खिल गईं. मन ही मन सोचने लगे, ‘वैसे तो हाथ ही नहीं आती है…अब उम्र हो गई है, ये है, वो है. बिगड़ी घोड़ी सी बिदक जाती है. आज क्या हो गया.’

‘‘लेकिन इतने कम कपड़ों में तुम्हें ठंड नहीं लगेगी,’’ बुढ़ापे में चिंता स्वाभाविक थी.

‘‘अंदर से सारा इंतजाम किया हुआ है,’’ वह अंदर पहने कपड़े दिखाती हुई बोली, ‘‘ठंड नहीं लगेगी. अब तुम भी रजाई फेंक कर उठ जाओ और चाय गरम कर के पीलो,’’ उस ने फिर एक बार समीर के होंठों को हौले से छूने के साथ मस्तीभरी नजरों से देखा.

समीर को लगा कि शायद सुहानी कहीं मस्ती में उन के होंठों को चूम ही न ले. पर सुहानी का इतना नेक इरादा न था. वह उठ खड़ी हुई.

उस ने एकदो बार अपनी ही जगह पर खड़े हो कर जूते फटकारे. थोड़ी उछलीकूदी.

‘‘यह क्या कर रही हो?’’ समीर की हैरानी अभी भी कम नहीं हो रही थी.

‘‘बौडी को वार्मअप कर रही हूं डियर,’’ कह कर, तीरे नजर उन पर डाल कर, उन्हें खुश करती, 2 उंगलियों से बाय करती, बलखाती हुई सुहानी बाहर निकल गई.

समीर बेवकूफों की तरह थोड़ी देर वैसे ही बैठ कर उस भिड़े दरवाजे को देखते रहे जो अचानक लगे धक्के से अभी भी हिल रहा था. फिर हकीकत में वे रजाई फेंक कर उठ खड़े हो गए.

सड़क पर सुहानी हलकी चाल से दौड़ रही थी. उस का पहला दिन था. एक तय चाल से वाक करना और हलकी चाल से दौड़ना, दोनों बातें अलग थीं. अधिक थकान न हो, इसलिए वह बहुत एहतियात बरत रही थी. समीर को रिटायर हुए 4 साल हो गए थे. रिटायर होने के बाद भी 2 साल तक वे छिटपुट इधरउधर जौब करते रहे, पर 2 साल से पूरी तरह घर पर ही थे. समीर को सेहत का पाठ पढ़ातेपढ़ाते सुहानी थक चुकी थी. समीर सेहत के मामले में लापरवाह थे.

सुहानी अपनी सेहत का पूरा खयाल रखती थी, रोज वाक पर जाती थी, खाने में परहेज करती थी. पर समीर के पास हर बात के लिए कारण ही कारण थे. कभी नौकरी की व्यस्तता का बहाना, फिर कभी रिटायरमैंट केबाद कुछ समय आराम करने का बहाना. 2 साल से हर तरह से खाली होने के बावजूद समीर को सुबह की सैर पर ले जाना टेढ़ी खीर था. वे आलसी इंसान थे. आराम से उठो, सब तरह का खाना खाओपियो, ऐश करो.

समीर का बढ़ता वजन, बढ़ता पेट देख कर सुहानी को चिंता होती. उन का बढ़ता ब्लडप्रैशर, कभीकभी शुगर का बढ़ना उस की पेशानी में बल डाल देता. वह सोच में पड़ जाती कि कैसे समीर को अपनी सेहत पर ध्यान देने की आदत डाले, कैसे समझाए समीर को, कैसे उन का आलसीपन दूर करे.

इसी कशमकश में डूबतीउतराती सुहानी की नजर एक दिन पत्रिका में छपे एक लेख ‘लव इन सिक्सटीज’ पर पड़ी. वाह, कितना रोमांचक और रोमैंटिक टाइटल है. उस लेख को पढ़ कर पलभर के लिए उसे भी रोमांच हो आया. उस का दिल किया कि थोड़ा रोमांस वह भी कर ले समीर से. पर समीर के थुलथुलेपन को देख कर उस का सारा रोमांस काफूर हो गया.

बात सिर्फ सेहत के प्रति लापरवाही की होती, तो भी एक बात थी, पर घर में दिनभर खाली रहने के चलते समीर को हर छोटीछोटी बात पर टोकने की आदत पड़ गई थी. घर में काम वाली, धोबी, प्रैसवाला, माली सभी समीर के इस रवैए से परेशान रहने लगे थे.

‘ठीक से काम नहीं करती हो तुम, पोंछा ऐसे लगाते हैं क्या, बरतन भी कितने गंदे धोती हो. प्रैस कितनी गंदी कर के लाता है यह प्रैसवाला, लगता है बिना प्रैस किए ही तह कर दिए कपड़े.’’ कभी माली के पीछे पड़ जाते, ‘‘कुछ काम नहीं करता यह माली, बस आता है और फेरी लगा कर चला जाता है. तुम भी इसे देखती नहीं हो…’’

कभी सुहानी के ही पीछे पड़ जाते, ‘‘तुम कामवाली को गरम पानी क्यों देती हो काम करने के लिए? गीजर चला कर बरतन धोती है, गरम पानी से पोंछा लगाती है. उस से बिजली का बिल बढ़ता है. कामवाली को सर्दी की वजह से आने में देर हो जाती तो समीर की भुनभुनाहट शुरू हो जाती. रोज देर से आने लगी है, तुम इसे कुछ कहती क्यों नहीं, लगता है इस ने सुबह कहीं काम पकड़ लिया है?’’

पोंछा लगा कर कामवाली कमरे का पंखा चला देती तो वे हर कमरे का पंखा बंद कर के बड़बड़ाते रहते, ‘मैं तो नौकर हूं न, पंखे बंद करना मेरा काम है. सर्दी हो या गरमी, इसे पंखे जरूर चलाने हैं.’

माली से जब वे अपने हिसाब से काम कराने लगते तो उसे कुछ समझ नहीं आता और वह भाग खड़ा होता. जब सुहानी कई बार फोन कर के मिन्नतें करती तब जा कर वह आता. कामवाली डांट खा कर जबतब छुट्टी कर लेती. प्रैसवाला कईकई दिनों के लिए गायब हो जाता. सुहानी को काम करने वालों को रोकना मुश्किल हो रहा था. पर समीर थे कि अपने निठल्लेपन से बाज नहीं आ रहे थे.

काम वाले जबतब सुहानी से साहब की शिकायत करते रहते. सुहानी समीर को कई बार समझाती, ‘इन के पीछे क्यों पड़े रहते हो समीर. तुम अपने काम से काम रखा करो. इन सब को जैसे मैं इतने सालों से हैंडिल कर रही थी, अब भी कर लूंगी. तुम्हारे ऐसे रवैए से ये सब किसी दिन भाग खड़े होंगे.’

कौन है वो: क्यों किसी को अपने घर में नही आने देती थी सुधा

जैसे ही डोरबैल बजी तो अधखुले दरवाजे में से किसी ने अंदर से ही दबे स्वर में पूछा, ‘‘जी कहिए?’’

रितिका की पैनी नजर अधखुले दरवाजे में से अंदर तक झांक रही थी. शायद कुछ तलाश करने की कोशिश कर रही थी, किसी के अंदर होने की आहट ले रही थी. जब उस ने देखा पड़ोसिन तो अंदर आने के लिए आग्रह ही नहीं कर रही तो बात बनाते हुए बोली, ‘‘आज कुछ बुखार जैसा महसूस हो रहा है. क्या आप के पास थर्मामीटर है? मेरे पास है पर उस की बैटरी लो है.’’

जी अभी लाती हूं कह कर दरवाजा बंद कर सुधा अंदर गई और फिर आधे से खुले दरवाजे से बाहर झांक कर उस ने थर्मामीटर अपनी पड़ोसिन रितिका के हाथ में थमा दिया.

रितिका चाह कर भी उस के घर की टोह नहीं ले पाई. घर जाते ही उस ने अपनी सहेली को फोन किया और रस ले ले कर बताने लगी कि कुछ तो जरूर है जो सुधा हम से छिपा रही है. अंदर आने को भी नहीं कहती.

अपार्टमैंट में यह अजब सा तरीका था. महिलाएं अकसर अकेले में एकदूसरे के घर जातीं लेकिन मेजबान महिला से कह देतीं कि वह किसी को बताए नहीं कि वह उस के घर आई थी वरना लोग बहुत लड़ातेभिड़ाते हैं.

कई दिन तो यह समझ ही नहीं आया कि आखिर वे ऐसा क्यों करती हैं? सभी एकसाथ मिल कर भी तो दिन व समय निश्चित कर मिल सकती हैं, किट्टी पार्टी भी रख सकती हैं.

अकसर जब वे मिलतीं तो सुधा व उस की बेटी संध्या के बारे में जरूर चर्चा करतीं. उन्हें शक था कि कोई तीसरा जरूर है उन के घर में जिसे वह छिपा रही है.

एक महिला ने बताया ‘‘मेरी कामवाली कह रही थी कि कोई ऐक्सट्रा मेंबर है उस के घर में. पहले खाने के बरतन में 2 प्लेटें होती थीं, अब 3 लेकिन कोई मेहमान नजर नहीं आता. न ही कोई सूटकेस न कोई जूते. पर हां, हर दिन 3 कमरों में से एक कमरा बंद रहता है, जिस की साफसफाई सुधा उस से नहीं करवाती. इसलिए कोई है जरूर.’’

‘‘मुझे भी शक हुआ था एक रात. उस के घर की खिड़की का परदा आधा खुला था. मैं बालकनी में खड़ी थी. मुझे लगा कोई पुरुष है जबकि वहां तो मांबेटी ही रहती हैं.’’

‘‘कैसी बातें करती हो तुम? क्या उन के कोई रिश्तेदार नहीं आ सकते कभी?’’

‘‘तुम सही कहती हो. हमें इस तरह किसी पर शक नहीं करनी चाहिए.’’

‘‘शक तो नहीं करनी चाहिए पर फिर वह घर का दरवाजा आधा ही क्यों खोलती है? किसी को अंदर आने को क्यों नहीं कहती?’’

‘‘अरे, उन की मरजी. कोई स्वभाव से एकाकी भी तो हो सकता है.’’

‘‘तुम बड़ा पक्ष ले रही हो उन का, कहीं तुम्हारी कोई आपसी मिलीभगत तो नहीं?’’ और सब जोर से ठहाका मार कर हंस पड़ीं.

रितिका अपनी कामवाली से खोदखोद कर पूछती, ‘‘कुछ खास है उस घर में. क्यों सारे दिन दरवाजा बंद रखती है यह मैडम?’’

‘‘मुझे क्या पता मैडम, मैं थोड़े ही वहां काम करती हूं,’’ कामवाली कभीकभी खीज कर बोलती.

पर तुम्हें खबर तो होगी, ‘‘जो उधर काम करती है. क्या तुम और वह आपस में बात नहीं करतीं? तुम्हारी सहेली ही तो है वह,’’ रितिका फिर भी पूछती.

रितिका का अजीब हाल था. कभी रात के समय खिड़की से अंदर झांकने की कोशिश करती तो कभी दरवाजे के बाहर से आहट लेने की. मगर सुधा हर वक्त खिड़की के परदे को एक सिरे से दूसरे सिरे तक खींच कर रखती और टीवी का वौल्यूम तेज रहता ताकि किसी की आवाज बाहर तक न सुनाई दे.

घर की घंटी बजी तो रितिका ने देखा ग्रौसरी स्टोर से होम डिलीवरी आई है. उस का सामान दे कर जैसे ही डिलीवरी बौय ने सामने के फ्लैट में सुधा की डोरबेल बजाई रितिका ने पूछा, ‘‘शेविंग क्रीम किस के लिए लाया है?’’

‘‘मैडम ने फोन से और्डर दिया. क्या जाने किस के लिए?’’ उस ने हैरानी से जवाब दिया.

अब तो जैसे रितिका को पक्का सुराग मिल गया था. फटाफट 3-4 घरों में इंटरकौम खड़का दिए, ‘‘अरे, यह सुधा शेविंग क्रीम कब से इस्तेमाल करने लगी?’’

‘‘क्या कह रही हो तुम?’’

‘‘हां, सच कह रही हूं. ग्रौसरी स्टोर से शेविंग क्रीम डिलिवर हुआ है आज फ्लैट नंबर 105 में,’’ जोर से ठहाका लगाते हुए उस ने कहा.

‘‘वाह आज तो खबरी बहुत जबरदस्त खबर लाई है, दूसरी तरफ से आवाज आई.’’

‘‘पर देखो तुम किसी को कहना नहीं. वरना सुधा तक खबर गई तो मेरी खटिया खड़ी कर देगी.’’

लेकिन उस के स्वयं के पेट में कहां बात टिकने वाली थी. जंगल की आग की तरह पूरे अपार्टमैंट में बात फैला दी. अब तो वाचमैन भी आपस में खुसरफुसर करने लगे थे, ‘‘कल मैं ने इंटरकौम किया तो फोन किसी पुरुष ने उठाया. शायद सुधा मैडम घर में नहीं थीं. वहां तो मांबेटी ही रहती हैं. तो यह आदमी कौन है?’’ एक ने कहा.

‘‘तो तूने क्यों इंटरकौम किया 105 में?’’

अरे कूरियर आया था. फिर मैं ने कूरियर डिलिवरी वाले लड़के से भी पूछा तो वह बोला कि ‘‘हां, एक बड़ी मूछों वाले साहब थे घर में.’’

‘‘बौयफ्रैंड होगा मैडम सुधाजी का. आजकल बड़े घरों में लिवइन रिलेशन खूब चलते हैं. अपने पतियों को तो ये छोड़ देती हैं, फिर दूसरे मर्दों को घर में बुलाती हैं. फैशन है आजकल ऐसा,’’ एक ने तपाक से कहा.

अगले दिन जैसे ही सुधा ने ग्रौसरी स्टोर में फोन किया और सामान और्डर किया तो शेविंग ब्लैड सुनते ही उधर से आवाज आई ‘‘मैडम यह तो जैंट्स के लिए होता है. आप क्यों मंगा रही हैं?’’ शायद उस लड़के ने जानबूझ कर यह हरकत की थी.

सुधा घबरा गई पर हिम्मत रखते हुए बोली, ‘‘तुम से मतलब? जो सामान और्डर किया है जल्दी भिजवा दो.’’

पर इतने में कहां शांति होने वाली थी. डिलिवरी बौय अपार्टमैंट में ऐंट्री करते हुए सिक्योरिटी गार्ड्स को सब खबर देते हुए अंदर गया.

शाम को जब सुधा की बेटी संध्या अपार्टमैंट में आई तो वाचमैन उसे कुछ संदेहास्पद निगाहों से देख रहे थे. फिर क्या था वाचमैन से कामवाली बाई और उन से हर घर में फ्लैट नंबर 105 की खबर पहुंच गई थी.

अपार्टमैंट की तथाकथित महिलाओं में यह खबर बढ़चढ़ कर फैल गई. सब एकदूसरे को इंटरकौम कर के या फिर चोरीचुपके घर जा कर मिर्चमसाला लगा कर खबर दे रही थीं और हर खबर देने वाली महिला दूसरी को कहती कि देखो मैं तुम्हें अपनी क्लोज फ्रैंड मानती हूं. इसीलिए तुम्हें बता रही हूं. तुम किसी और को मत बताना. विभीषण का श्राप जो ठहरा महिलाओं को चुप कैसे कर सकती थीं. कानोकान बात बतंगड़ बनती गई. सभी ने अपनीअपनी बुद्घि के घोड़े दौड़ाए. एक ने कहा कि सुधा का प्रेमी है जरूर. अपने पति को तो छोड़ रखा है. बेटी का भी लिहाज नहीं. इस उम्र में भला कोई ऐसी हरकत करता है क्या? तो दूसरी कहने लगी कि एक दिन मेरी कामवाली बता रही थी कि उस की सहेली फ्लैट नंबर 105 में काम करती है. कोई लड़का है घर में जरूर, बेटी का बौयफ्रैंड होगा.

सभी की नजरें फ्लैट नंबर 105 पर टिकी थीं. किसी ने सुधा से आड़ेटेढ़े ढंग से छानबीन करने की कोशिश भी की पर सुधा ने बिजी होने का बहाना किया और वहां से खिसक ली.

अब जब बात चली ही थी तो ठिकाने पर भी पहुंचनी ही थी. इसलिए पहुंच गई सोसायटी के सेक्रैटरी के पास, जो एक महिला थीं. उन्हें भी सुन कर बड़ा ताज्जुब हुआ कि गंभीर और सुलझी हुई सी दिखने वाली सुधा ने अपने घर में किसे छुपा रखा है? न तो कोई दिखाई देता है और न ही कभी खिड़कीदरवाजे खुलते हैं.

कोई आताजाता भी नहीं है. उन्होंने भी सिक्युरिटी हैड को सुधा के घर आनेजाने वालों पर नजर रखने की हिदायत दे दी. ‘‘कोई भी आए तो पूरी ऐंट्री करवाओ और मैडम को इंटरकौम करो. किसी पर कुछ शक हो तो तुरंत औफिस में बताना.’’

वाचमैन को तो जैसे इशारे का इंतजार था. मौका आ भी गया जल्द ही.

एक नई महिला आई फ्लैट नंबर 105 में. देखने में पढ़ीलिखी, टाइट जींस और शौर्टटौप पहन कर, एक हाथ में लैपटौप बैग था, दूसरे में एक छोटा कैबिन साइज सूटकेस. लेकिन जब वह गई तो बैग उस के हाथ में नहीं था. जाहिर था, सुधा के घर छोड़ आई थी. मतलब कुछ सामान देने आई थी.

रात के समय सुधा कुछ कपड़े हैंगर में डाल कर सुखा रही थी वाचमैन ने अपनी पैनी नजर डाली तो देखा हैंगर में कुछ जैंट्स शर्ट्स सूख रहे हैं. तो कामवाली से क्यों नहीं सुखवाए ये कपड़े?

अगले दिन जब सुबह हुई वाचमैन ने फिर देखा शर्ट रस्सी से गायब थे. वाचमैन ने यह खबर झट सेक्रैटरी मैडम तक पहुंचा दी, ‘‘मैडम कोई तो मर्द है इस घर में पर नजर आता नहीं.’’ आप कहें तो हम उन के घर जा कर पूछताछ करें?

‘‘नहीं इस सब की आवश्यकता नहीं,’’ सेक्रैटरी महोदया ने कहा.

अगले ही दिन सोसायटी औफिस में कुछ लोग बातचीत करने आए और वे उस महिला के बारे में पूछताछ करने लगे जो सुधा के घर बैग छोड़ गई थी. औफिस मैनेजर ने वाचमैन से पूछा तो बात खुल गई कि वह महिला सुधा के घर आई थी और 1 घंटे में वापस भी चली गई थी. उन लोगों ने सुधा के बारे में मैनेजर व वाचमैन से जानकारी ली. दोनों ने बहुत बढ़चढ़ कर चटखारे लेले कर सुधा के बारे में बताया और सुधा के घर में किसी पुरुष के छिपे होने का अंदेशा जताया. आज उन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे उन्होंने किसी अवार्ड पाने के लिए काम किया है. उन्होंने उसी समय पुलिस को बुलवाया और सुधा के घर की तलाशी का आदेश जारी कर दिया.

वाचमैन, मैनेजर व पुलिस समेत वे लोग फ्लैट नं. 105 में पहुंच गए. जैसे ही घंटी बजी सुधा ने अधखुले दरवाजे से बाहर झांका. इतने सारे लोगों और पुलिस को साथ देख उस के होश उड़ गए. उस ने झट से दरवाजा बंद करने की कोशिश की पर पुलिस के बोलने पर दरवाजा खोलना पड़ा.

जैसे ही घर की तलाशी ली गई बड़ी मूछों वाले महाशय सामने आए. सुधा बहुत डर गई थी. उस के मुंह से घबराहट के कारण एक शब्द भी नहीं निकला. सामने के फ्लैट में रितिका को जैसे ही कुछ आवाज आई. वह बाहर निकल कर सुधा के घर में ताकझांक करने लगी. वह समझ गई थी आज कुछ तो खास होने वाला है. पुलिस भी है और अपार्टमैंट का सैक्युरिटी हैड व मैनेजर भी. वह झट से अंदर गई और कुछ खास सहेलियों को इंटरकौम पर सूचना दे दी. बाहर जो नजारा देखा उस का पूरा ब्यौरा भी दे दिया.

एक से दूसरे व दूसरे से तीसरे घर में इंटरकौम के मारफत खबर फैली और साथ में यह चर्चा भी कि वह पुरुष सुधा का प्रेमी है या उस की बेटी संध्या का बौयफ्रैंड? फिर भी अपने घर के बंद दरवाजे के आईहोल से वह देखने की कोशिश कर रही थी कि बाहर क्या चल रहा है. थोड़ी ही देर में मूछों वाले साहब पुलिस की गिरफ्त में थे और न के साथ रवाना हो गए थे.

पूरे अपार्टमैंट में सनसनी फैल गई थी और अब अगले ही दिन अखबार में खबर आई तो 3 महीनों से छिपा राज खुल गया था.

हकीकत यह थी कि बड़ी मूछों वाले साहब जिन्हें सुधा ने अपने घर में छिपा कर रखा था, वे उन के पुराने पारिवारिक मित्र थे और किसी प्राइवैट बैंक में मैनेजर के तौर पर काम कर रहे थे और अपना टारगेट पूरा करने के लिए लोगों को अंधाधुंध लोन दे रहे थे. लोन के जरूरी कागजात भी पूरी तरह से चैक नहीं कर रहे थे. सिर्फ वे ही नहीं उन के साथ बैंक के कुछ अन्य कर्मचारी भी इस घपले में लिप्त थे.

यह बात तब खुली जब उन के कुछ क्लाइंट्स लोन चुकाने में असमर्थ पाए गए. बैंक के सीनियर्स ने जब इस की जांच की तो बड़ी मूछों वाले मिस्टर कालिया और उन के कुछ साथियों को इस में शामिल पाया. जांच हुई तो पाया गया कि कागजात भी पूरे नहीं थे. बल्कि लोन लेने वालों के द्वारा ये लोग कमीशन भी लिया करते थे ताकि लोन की काररवाई जल्दी हो जाए.

मिस्टर कालिया के अन्य साथी तो पकड़े गए थे पर इन्हें तो सुधा ने दोस्ती के नाते अपने घर में पनाह दी हुई थी. वह टाईट जींस और शौर्टटौप वाली महिला इन की पत्नी हैं. बैंक वाले पुलिस की मदद से मिसेज कालिया को ट्रैक कर रहे थे और वे सुधा के घर आए तो उन्हें समझ आ गया था कि हो न हो मिस्टर कालिया जरूर इसी अपार्टमैंट में छिपे हैं

इस बहाने एक बैंक में बैंक कर्मियों द्वारा किए गए घोटाले का परदाफाश हुआ और मजे की बात यह कि अपार्टमैंट की बातूनी महिलाओं, वाचमैन और ग्रौसरी स्टोर के लड़कों को अब चटखारे ले कर सुनाने के लिए एक नया किस्सा भी मिल गया.

अनोखा रिश्ता: कौन थी मिसेज दास

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पहचान: पति की मृत्यु के बाद वेदिका कहां चली गई- भाग 1

वेदिकाने उठ कर दीवारों की सरसराहट का मकसद जानने की कोशिश की, फिर धीरे से दरवाजा खोल कर बाहर ?ांका. वहां कोई नहीं था. तभी हवा में तैरती एक तरंग उस का नाम ले कर आई तो वेदिका ने कान लगा कर सुनने की कोशिश की.

मम्मीजी के कमरे से जेठजी की आवाज आ रही थी, ‘‘अब उस का यहां क्या काम है? विदित चला गया…अब उस का यहां रहने का कोई हक नहीं बनता.’’

‘‘तो क्या करें घर से निकाल दें? उस के मांबाप ने तो विदित के जाने पर अफसोस करने आना भी जरूरी नहीं सम?ा…अब उसे उठा कर सड़क पर तो फेंक नहीं सकते,’’ यह मम्मीजी का स्वर था.

‘‘पर मम्मीजी जब उस के मातापिता तक उस से संबंध रखने को तैयार नहीं हैं, तो हम भला क्यों इस पचड़े में पड़ें? आज उसे और कल को उस के बच्चे को भी हम कब तक खिलाएंगे? हमारा खाएगी और कल को हम से ही हिस्सा मांगने खड़ी हो जाएगी. क्या हक बनता है उस का? मैं तो कहती हूं कि उसे अभी घर से निकाल दो. जहां जाना जाए. चाहे मांबाप के घर या और कहीं…यह तो विदित से भाग कर शादी करने से पहले सोचना था,’’ यह भाभी की आवाज थी. वही भाभी जो उस की और विदित की शादी से नाखुश हो कर भी विदित के साथ मुंह में मिस्री घोल कर बतियाती थीं. मगर आज मिस्री थूक कर दिल में इकट्ठा किया जहर को जबान पर ले आई थीं.

‘‘बस करो…तुम लोग बस एकतरफा सोचते और बोलते हो. ऐसे ही घर से निकाल दोगे तो जाएगी कहां? अभी विदित को गए महीना भी नहीं हुआ. थोड़ा धीरज धरो, फिर सोचेंगे कि क्या करना है?’’ बाबूजी ने कहा.

4 महीने पहले उस ने और विदित ने घर से भाग कर शादी कर ली थी. वेदिका एमबीए की मेधावी छात्रा थी और विदित एक मशहूर वकील. किसी सेमिनार में दोनों का परिचय हुआ तो पहली ही नजर में प्यार हो गया. 6 महीनों में स्थिति एकदूसरे के बिना न जीने की हो गई. परिवारों के मानने की संभावना नहीं के बराबर थी, इसलिए दोनों ने हां न के पचड़े में पड़ने की जरूरत नहीं सम?ा. हां, शादी कर के वे सब से पहले वेदिका के घर पहुंचे थे जहां पहले रिवाज के तौर पर उन के मुंह पर दरवाजा बंद कर दिया गया. वहां से निकलते ही वेदिका की रुलाई फूट पड़ी. ऐसी विदाई की तो उस ने कल्पना भी नहीं की थी. विदित देर तक उसे धैर्य बंधाता रहा. विदित के घर पहुंचने के पहले ही कोई यह खबर पहुंचा आया था. घर का दरवाजा नौकर ने खोला और आशीर्वाद के नाम पर सुनने को मिला कि तुम ने हमारी नाक कटवा दी…कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा.

विदित ने वेदिका के डूबते दिल को सहारा दिया. उस ने अगले ही दिन कश्मीर के टिकट बुक करा लिए. 15 दिन दोनों दीनदुनिया से दूर एकदूसरे में खोए दिलों के घाव को भरने में लगे रहे, जो उन के अपनों ने दिए थे.

वापस आने पर भी ज्यादा कुछ नहीं बदला था. विदित उस की ढाल बना रहा. मम्मीजी और भाभी का व्यवहार बेइज्जती की हद तक रूखा था, लेकिन वेदिका धीरज से सब सहती रही. उसे विश्वास था कि एक दिन वह सब का दिल जीत लेगी. पढ़ाई शुरू करने का विदित का प्रस्ताव भी उस ने इसीलिए टाल दिया था, क्योंकि अभी वक्त कच्चे रिश्तों को संवारने का था. रिश्ते संवरते उस के पहले ही एक दुर्घटना में विदित की जिंदगी की डोर कच्चे धागे की तरह टूट गई और इसी के साथ वेदिका की भी हर आस टूट गई.

15 दिनों तक मेहमानों का आनाजाना लगा रहा. जिन मेहमानों को दुलहन के रूप में मुंहदिखाई का अवसर नहीं मिला था, नियति ने आज उन्हें उस के जख्मों को कोचने का अवसर दे दिया था. वेदिका ने पथराए मन से सब ?ोला. वह भावनाओं से भीगे एक कोमल कंधे के सहारे के लिए छटपटाती रही.

8 दिन पहले सुबहसुबह वेदिका चक्कर खा कर गिर पड़ी. जब आंख खुली तो डाक्टर को यह कहते सुना, ‘‘प्रैगनैंसी कन्फर्म करने के लिए कुछ टैस्ट लिख रहा हूं जल्द ही करवा लें.’’

यह सुन सब के मुंह में जैसे कुनैन घुल गई और शायद सब ने यही कामना की होगी कि टैस्ट नैगेटिव आए. खुद वेदिका भी नहीं सम?ा पाई थी कि इस खबर पर खुश होए या रोए. बस पेट पर हाथ रखे सुन्न सी बैठी रही. हां, एक आस सी जरूर जागी थी कि शायद इस बच्चे की वजह से इस घर में उसे थोड़ी सी जगह मिल जाए.

उसे हर जगह सिर्फ वीरानगी ही नजर आई. एक अजीब सी तटस्थता जैसे वह बच्चा सिर्फ और सिर्फ वेदिका का है.

सारी रात वेदिका सिसकियां भरती रही. सुबह बिस्तर से उठने लगी तो टांगों ने सहारा देने से इनकार कर दिया. 10 मिनट लगे होंगे उसे व्यवस्थित होने में. कमरे से बाहर आई तो उस के पैर वहीं ठिठक गए. 4 महीनों में पहली बार किसी अपरिचित चेहरे पर उसे एक जोड़ी आंखों में करुणा नजर आई. उन आंखों की मालकिन को तो वह नहीं जानती थी, लेकिन संवेदना की डोर से वह उन फैली बांहों तक खिंची चली आई. उस की पीठ सहलाते हाथों के कोमल स्पर्श ने अनकही संवेदना को उस तक पहुंचा दिया. तभी घूरती कठोर नजरों ने उसे यथार्थ में ला पटका. वह छिटक कर अलग हो गई. काम करते भी कई बार उस ने उन नजरों की तरलता महसूस की. हालांकि उन का परिचय वह अब तक नहीं जान सकी थी. भाभी से पूछा भी था, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला.

आधी रात के लगभग वेदिका की नींद खुली. दरवाजे पर खटखट की आवाज हुई थी. दुविधा में उस ने दरवाजा खोला तो वही 2 आंखें नजर आईं. हाथों ने कोमलता से उसे धक्का दे कर अंदर किया और दरवाजा बंद हो गया. लाइट जलाने के लिए बढ़ते हाथों को दृढ़ता से रोक दिया गया. नाइट बल्ब के धीमे प्रकाश में उसे चुप रहने का इशारा करते हाथों ने हाथ थाम कर अपने पास बैठा लिया.

‘‘मैं विदित के मामा की बेटी राधिका हूं. विदित से बहुत क्लोज थी. तुम से शादी के बारे में विदित ने सिर्फ मु?ो बताया था. मैं हमेशा उस का साथ दूंगी, यह मेरा उस से वादा था. अब विदित तो रहा नहीं, लेकिन तुम तो हो, इसलिए अब तुम्हारे बुरे वक्त में तुम्हारी मदद कर के अपना वादा निभाना चाहती हूं. इसी के इंतजाम में लगी थी, इसलिए यहां 1 महीने बाद आई,’’ फुसफुसाते स्वर में उस ने अपने आने का मकसद बताया.

फिर कुछ देर चुप रहने के बाद आगे बोली, ‘‘तुम तो एमबीए कर रही थीं न? तुम्हारी मार्कशीट और बाकी सारे पेपर्स कहां हैं?’’

‘‘मेरे पास हैं,’’ वेदिका ने भी अपनी आवाज को भरसक धीमा करते हुए कहा.

‘‘विदित का अकाउंट और उस का एटीएम? कितने पैसे हैं उस के अकाउंट में?’’

‘‘मेरे पास है. लगभग 2 लाख रुपए होंगे,’’ उस के स्वर में उल?ान थी.

‘‘तुम्हारे गहने या और कुछ भी हैं?’’

‘‘एक सैट डायमंड का है…यही कोई 80-90 हजार रुपए का. उस के अलावा कुछ खास नहीं.’’

मां का बटुआ: कुछ बातें बाद में ही समझ आती हैं

मैं अकेली बैठी धूप सेंक रही हूं. मां की कही बातें याद आ रही हैं. मां को अपने पास रहने के लिए ले कर आई थी. मां अकेली घर में रहती थीं. हमें उन की चिंता लगी रहती थी. पर मां अपना घर छोड़ कर कहीं जाना ही नहीं चाहती थीं. एक बार जब वे ज्यादा बीमार पड़ीं तो मैं इलाज का बहाना बना कर उन्हें अपने घर ले आई. पर पूरे रास्ते मां हम से बोलती आईं, ‘हमें क्यों ले जा रही हो? क्या मैं अपनी जड़ से अलग हो कर तुम्हारे यहां चैन व सुकून से रह पाऊंगी? किसी पेड़ को अपनी जड़ से अलग होने पर पनपते देखा है. मैं अपने घर से अलग हो कर चैन से मर भी नहीं पाऊंगी.’ मैं उन्हें समझाती, ‘मां, तुम किस जमाने की बात कर रही हो. अब वो जमाना नहीं रहा. अब लड़की की शादी कहां से होती है, और वह अपने हसबैंड के साथ रहती कहां है. देश की तो बात ही छोड़ो, लोग अपनी जीविका के लिए विदेश जा कर रह रहे हैं. मां, कोई नहीं जानता कि कब, कहां, किस की मौत होगी. ‘घर में कोई नहीं है. तुम अकेले वहां रहती हो. हम लोग तुम्हारे लिए परेशान रहते हैं. यहां मेरे बच्चों के साथ आराम से रहोगी. बच्चों के साथ तुम्हारा मन लगेगा.’

कुछ दिनों तक तो मां ठीक से रहीं पर जैसे ही तबीयत ठीक हुई, घर जाने के लिए परेशान हो गईं. जब भी मैं उन के पास बैठती तो वे अपनी पुरानी सोच की बातें ले कर शुरू हो जातीं. हालांकि मैं अपनी तरफ से वे सारी सुखसुविधाएं देने की कोशिश करती जो मैं दे सकती थी पर उन का मन अपने घर में ही अटका रहता. आज फिर जैसे ही मैं उन के पास गई तो कहने लगीं, ‘सुनो सुनयना, मुझे घर ले चलो. मेरा मन यहां नहीं लगता. मेरा मन वहीं के लिए बेचैन रहता है. मेरी सारी यादें उसी घर से जुड़ी हैं. और देखो, मेरा संदूक भी वहीं है, जिस में मेरी काफी सारी चीजें रखी हैं. उन सब से मेरी यादें जुड़ी हैं. मेरी मां का (मेरी नानी के बारे में) मोतियों वाला बटुआ उसी में है. उस में तुम लोगों की छोटीछोटी बालियां और पायल, जो तुम्हारी नानी ने दी थीं, रखी हैं. तुम्हारे बाबूजी की दी हुई साड़ी, जो उन्होंने पहली तनख्वाह मिलने पर सब से छिपा कर दी थी, उसी संदूक में रखी है. उसे कभीकभी ही पहनती हूं. सोचा था कि मरने के पहले तुझे दूंगी.’

मैं थोड़ा झल्लाती हुई कहती, ‘मां, अब उन चीजों को रख कर क्या करना.’ आज जब उन्हीं की उम्र के करीब पहुंची हूं तो मां की कही वे सारी बातें सार्थक लग रही हैं. आज जब मायके से मिला पलंग किसी को देने या हटाने की बात होती है तो मैं अंदर से दुखी हो जाती हूं क्योंकि वास्तव में मैं उन चीजों से अलग नहीं होना चाहती. उस पलंग के साथ मेरी कितनी सुखद स्मृतियां जुड़ी हुई हैं.

मैं शादी कर के जब ससुराल आई तो कमरे का फर्श हाल में ही बना था, इसलिए फर्श गीला था. जल्दीजल्दी पलंग बिछा कर उस पर गद्दा डाल कर उसी पर सोई थी. आज भी जब उस पलंग को देखती हूं या छूती हूं तो वे सारी पुरानी बातें याद आने लगती हैं. मैं फिर से वही 17-18 साल की लड़की बन जाती हूं. लगता है, अभीअभी डोली से उतरी हूं व लाल साड़ी में लिपटी, सिकुड़ी, सकुचाई हुई पलंग पर बैठी हूं. खिड़की में परदा भी नहीं लग पाया था. चांदनी रात थी. चांद पूरे शबाब पर था और मैं कमरे में पलंग पर बैठी चांदनी रात का मजा ले रही हूं. कहा जाता है कि कभीकभी अतीत में खो जाना भी अच्छा लगता है. सुखद स्मृतियां जोश से भर देती हैं, उम्र के तीसरे पड़ाव में भी युवा होने का एहसास करा जाती हैं. पुरानी यादें हमें नए जोश, उमंग से भर देती हैं, नब्ज तेज चलने लगती है और हम उस में इतना खो जाते हैं कि हमें पता ही नहीं चलता कि इस बीच का समय कब गुजर गया. मैं बीचबीच में गांव जाती रहती हूं. अब तो वह घर बंटवारे में देवरजी को मिल गया है पर मैं जाती हूं तो उसी घर में रहती हूं. सोने के लिए वह कमरा नहीं मिलता क्योंकि उस में बहूबेटियां सोती हैं.

मैं बरामदे में सोती हुई यही सोचती रहती हूं कि काश, उसी कमरे में सोने को मिलता जहां मैं पहले सोती थी. कितनी सुखद स्मृतियां जुड़ी हैं उस कमरे से, मैं बयान नहीं कर सकती. ससुराल की पहली रात, देवरों के साथ खेल खेलने, ननदों के साथ मस्ती करने तक सारी यादें ताजा हो जाती हैं. अब हमें भी एहसास हो रहा है कि एक उम्र होने पर पुरानी चीजों से मोह हो जाता है. जब मैं घर से पटना रहने आई तो मायके से मिला पलंग भी साथ ले कर आई थी. बाद में नएनए डिजाइन के फर्नीचर बनवाए पर उन्हें हटा नहीं सकी. और इस तरह सामान बढ़ता चला गया. पुरानी चीजों से स्टोररूम भरता गया. बच्चे बड़े हो गए और पढ़लिख कर सब ने अपनेअपने घर बसा लिए. पर मैं ने उन के खिलौने, छोटेछोटे कपड़े, अपने हाथों से बुने हुए स्वेटर, मोजे और टोपियां सहेज कर रखे हुए हैं. जब भी अलमारी खोलती हूं और उन चीजों को छूती हूं तो पुराने खयालों में डूब जाती हूं. लगता है कि कल ही की तो बातें हैं. आज भी राम, श्याम और राधा उतनी ही छोटी हैं और उन्हें सीने से लगा लेती हूं. वो पुरानी चीजें दोस्तों की तरह, बच्चों की तरह बातें करने लगती हैं और मैं उन में खो जाती हूं.

वो सारी चीजें जो मुझे बेहद पसंद हैं, जैसे मांबाबूजी, सासूमांससुरजी व दोस्तों द्वारा मिले तोहफे भी. सोनेचांदी और आभूषणों की तो बात ही छोडि़ए, मां की दी हुई कांच की प्लेट भी मैं ने ड्राइंगरूम में सजा कर रखी हुई है. मां का मोती वाला कान का फूल और माला भी हालांकि वह असली मोती नहीं है शीशे वाला मोती है पर उस की चमक अभी तक बरकरार है. मां बताती थीं कि उन को मेरी नानी ने दी थी. मैं ने उन्हें भी संभाल कर रखा हुआ है कि नानी की एकमात्र निशानी है. और इसलिए भी कि पुरानी चीजों की क्वालिटी कितनी बढि़या होती थी. आज भी माला पहनती हूं तो किसी को पता नहीं चलता कि इतनी पुरानी है. वो सारी स्मृतियां एक अलमारी में संगृहीत हैं, जिन्हें मैं हर दीवाली में झाड़पोंछ कर फिर से रख देती हूं. राधा के पापा कहते हैं, ‘अब तो इन चीजों को बांट दो.’ पर मुझ से नहीं हो पाता. मैं भी मां जैसे ही सबकुछ सहेज कर रखती हूं. उस समय मैं मां की कही बातें व उन की भावनाएं नहीं समझ पाती थी. अब मेरे बच्चे जब अपने साथ रहने को बुलाते हैं तो हमें अपना घर, जिसे मैं ने अपनी आंखों के सामने एकएक ईंट जोड़ कर बनवाया है, को छोड़ कर जाने का मन नहीं करता. अगर जाती भी हूं तो मन घर से ही जुड़ा रहता है. पौधे, जिन्हें मैं ने वर्षों से लगा रखा है, उन में बच्चों जैसा ध्यान लगा रहता है. इसी तरह और भी कितनी ही बेहतरीन यादें सुखदुख के क्षणों की साक्षी हैं जिन्हें अपने से अलग करना बहुत कठिन है.

अब समझ में आता है कि कितनी गलत थी मैं. मेरी शादी गांव में हुई. पति के ट्रांसफरेबुल जौब के चलते इधरउधर बहुत जगह इन के साथ रही. सो, अब जब से पटना में घर बनाया और रहने लगी तो अब कहीं रहने का मन नहीं होता. जब मुझे इतना मोह व लगाव है तो मां बेचारी तो शादी कर जिस घर में आईं उस घर के एक कमरे की हो कर रह गईं. वे तो कभी बाबूजी के साथ भी रहने नहीं गई थीं. इधर आ कर सिर्फ घूमने के लिए ही घर से बाहर गई थीं. पहले लोग बेटी के यहां भी नहीं जाते थे. सो, वे कभी मेरे यहां भी नहीं आई थीं. घर से बाहर पहली बार रह रही थीं. ऐसे में उन का मन कैसे लगता. आज उन सारी बातों को सोच कर दुख हो रहा है कि मैं मां की भावनाओं की कद्र नहीं कर पाई. क्षमा करना मां, कुछ बातें एक उम्र के बाद ही समझ में आती हैं.

अरविंद संग अनीता: शादी की अलबम देखने के बाद क्या हुआ

‘‘हैलो…    हां सुनो.’’

‘‘हां बोलो.’’

‘‘बारात बड़ी धूमधाम से निकल गई है.’’

‘‘क्या? जरा जोर से कहो कुछ सुनाई नहीं दे रहा.’’

‘‘अरे मैं बोल रहा हूं कि बरात निकल

गई है.’’

‘‘अच्छा. इतने शोरशराबे में तुम्हारी अवाज ठीक से सुनाई नहीं दे रही थी.’’

‘‘यहां सब बहुत मस्ती कर रहे हैं. सब बैंड वाले से अपनीअपनी फरमाइश कर उसे परेशान कर रहे हैं.’’

तभी घोड़ी चढ़े दूल्हे राजा का किसी ने फोन झपटा.

‘‘हैलो मैं सविता भाभी बोल रही हूं. देवरानीजी. आज के लिए मेरे देवरजी को छोड़ दो, फिर कल से तो आप के ही हो कर रह जाएंगे. जल्दी मिलते हैं नमस्ते.’’

‘‘अरविंद भैया, यह संभालो अपने शरारती चीकू को और यह फोन अब अपने भैया से ही वापस लेना. हम सब को थोड़ा जश्न मनाते तो देख लो.. उस के बाद तो आप का ही ढोल बजना है,’’ सविता भाभी आज अलग ही मूड में थीं.

खुश वह भीतर से इसलिए भी थीं क्योंकि उन्हें अपनी शादी में पहना हुआ वह 9 किलोग्राम का जोड़ा आज भी बिना अल्टर किए फिट हो रहा था. वे सच में आज किसी दुलहन से कम नहीं लग रही है. वे अपने 4 साल के बेटे को उन की घोड़ी में चढ़ा इठलाते हुए उन का फोन ले उड़ीं.

अरविंद मुसकराता बच्चों से ले कर बूढ़ों तक सब का एकसाथ जबरदस्त उत्साह देख प्रफुल्लित होने लगा.

‘‘चीकू आज क्या है पता है?’’

‘‘आज मेरी शादी है,’’ चीकू अपने चाचा से कहने लगा.

‘‘चीकू, आज तेरी नहीं मेरी शादी है.’’

‘‘नहीं मेरी है… मम्मी से पूछ लो…’’ चीकू ये कह रोंआसा सा होने लगा.

‘‘अच्छा अच्छा ठीक है तेरी ही शादी है. अब तो खुश हो जा.’’

बड़ी मुश्किल से चीकू का मूड ठीक हुआ और बैंड वाले ने ‘आज मेरी यार की शादी है…’ गाना शुरू कर दिया. इसे सुन अरविंद के सारे दोस्त खूब नाचने लगे और वही वीडियो वाला उन सब के हावभाव कैद करने में दिलोजान से जुट गया.

‘दीदी तेरा देवर दीवाना…’ ने जहां रोजमर्रा की भागदौड़ में हैरानपरेशान रहने वाली सभी भाभियों को अपनीअपनी सास को नजरअंदाज कर, साड़ी को कमर में कस ठुमके पर ठुमके लगाने शुरू कर दिए. वहीं ‘मेहंदी लगा के रखना…’ पर सभी नएपुराने जोड़े रोमांटिक हो एकसाथ रंग बिखेरने लगे.

पर हर गाने पर बच्चा पार्टी का कोई मुकाबला नहीं. वे छोटेछोटे हीरो कोई धुन बजी नहीं की कि पूरी ताकत से हाथपैर बिना तालमेल के हिलाते.

उन सब के हर्षोउल्लास देख घोड़ी पर बैठे दोनों दूल्हों अरविंद और चीकू को बड़ा मजा आ रहा था. अरविंद की छोटी बूआ पीछे भीड़ के साथ हौलेहौले छिप कर चलते दूल्हे के पिताजी व अपने भाई को खोज कर खींच कर सभी के बीच ले आई.

वे न न करते रह गए पर सब की जिद्द के सामने कभी न ठुमकने वाले अपने पिताजी को दोनों हाथ ऊपर कर बेफिक्री में गोलमोल घूमते हुए देख अरविंद भावविभोर हो उठा.

वीडियो वाला इन खूबसूरत पलों को भी कैद करने में सफल रहा. बरात में सब से आगे बाल कलाकार व युवावर्ग, उन के पीछे बैंड वाले. उस के पीछे घोड़ी पर बैठे अरविंद और चीकू, उन के पीछे बरात के साथ चलते 50 वर्ष के ऊपर बराती और उन के पीछे एक वीआईपी गाड़ी भी चल रही थी, जिस में ताईजी और बड़े फूफा, जिन्हें शुगर तो पहले से थी ही ऊपर से अभीअभी घुटनों के नए औपरेशन का दर्द. उफ, वे किसे कितनी ज्यादा तकलीफ है की प्रतिस्पर्धा करते आराम से भीतर विराजमान बैठे थे.

‘‘अरे पिंकी, रिंकू कहां रह गईं. बरात द्वार पर आ गई. जरा अनु को देख आओ. वह तैयार हुई कि नहीं…’’ दुलहन की मां सुषमा ने चिंतित हो अपनी दोनों भतीजियों से कहा.

वे सिर से पैर तक रंगीन चमकदार कपड़े पहन सजीं. अपनाअपना घाघरा नजाकत से कुछ इंच उठा अपने सुनहरे सैंडल की टकटक करतीं अपनी दीदी के कमरे की ओर बढ़ गईं.

‘‘अनीता दीदी आप तैयार हो गई?’’ भीतर बैठी अनीता के कानो में पिंकीरिंकू की बांसुरी सी आवाज पड़ी.

‘‘हां 1 मिनट रुको फोटोग्राफर फोटो ले

रहे हैं.’’

‘‘दीदी हमें भी देखना है, हमें भी देखना है,’’ वे खुशी से उछलती हुई कहने लगीं.

‘‘भैया जरा दरवाजा खोल कर इन्हें आने देना.’’

कभी कुरसी पर बैठ, कभी आडे़तिरछे खड़े हो, कभी गजरा पकड़े मेहंदी देखते. अनीता को मुसकराते पोज देते मारते देख पिंकीरिंकू कहीं अपनीअपनी शादी के सपनों में गोते मारने लगीं.

‘‘तुम किसी काम से आई थीं?’’ अनीता ने अपने फोटो सैशन के बीच में पूछा.

‘‘अरे हां दीदी, वह बरात आ चुकी है हम वही बताने आई थीं.’’

‘‘उफ, इतनी देर से क्यों नहीं बताया? भैया आप खत्म करो बस हो गया,’’ अनीता अपनेआप को आईने में निहारते हुए जल्दीजल्दी चुन्नी, मेकअप ठीक करने लगी.

बाहर से किसी ने दरवाजे को खटखटाते हुए कहा, ‘‘दीदी जल्दी करो… जीजाजी स्टेज पर पहुंच गए हैं…’’

‘‘हां, बस हो गया. चलो…’’ शरमाती, घबराती अनीता बारबार अपनी सहेलियों से एक ही सवाल पूछती रही. ‘‘मैं अच्छी तो दिख रही हूं न? मैं अच्छी तो दिख रही हूं न?’’

2-4 बार, ‘हां तू बहुत सुंदर दिख रही है…’ सुनने के बाद अचानक अनीता का आत्मविश्वास बढ़ गया.

अनीता की सहेलियां, भाईबहन बड़े प्रेम से उसे धीरेधीरे खुले आसमान के नीचे हरे लौन में, हौलेहौले चलती पवन के बीच, लाल कालीन से गुजरते, उसे फूलों से सजे स्टेज की ओर बढ़ाने लगे.

वहीं डीजे वाले बाबू ने उन्हें आते देख अपनी धुन झट से बदल कर ‘बहारो फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है…’ बजाया.

यह सुन वरवधू दोनों ओर के वीडियो व फोटोग्राफर अरविंद को अकेला छोड़ तुरंत अनीता की तरफ भागे.

एक उसे आहिस्ताआहिस्ता चलने को कहने लगा तो दूसरा थोड़ा ऊपर देखो थोड़ा ओर बसबस थोड़ा सा नीचे कहने लगा.

लड़की के पिता केशवजी दूर से बेटी को दुलहन सजी देख अपने जज्बातों पर काबू न कर पाए और वे अपने दिल पर हाथ रख कुरसी पर धम्म से बैठ गए.

‘मेरी बेटी इतनी सी थी. कैसे इतनी जल्दी बड़ी हो गई. आज बाप का आंगन छोड़ कर अपने पिया के घर चली जाएगी मेरी बच्ची,’ मन ही मन सोच वे रोंआसे हो गए.

अपनी लाडली अनु को आज ऐसे देख कर उन की हालत जरूर ऐसी होनी है, यह उन की पत्नी बरसों पहले से जानती थी.

‘‘आप अपनेआप को संभालो. इसी शहर में तो विदा हो रही है. देखना उस का एक पैर मायके और दूसरा ससुराल में होगा,’’ सुषमाजी उन के कंधे को थपथपाते हुए कहने लगीं.

‘‘आज तुम्हारे बाबूजी को नमन सुषमा. एक बाप के लिए कितना कठिन पल होता है. अपने कलेजे के टुकड़े को किसी और को सौंपना.’’

‘‘यह तो विधि का विधान है… हर पिता को करना होता है. अब चलिए आंसू पोंछो खुशी का मौका है. ऐसे उदास होना अच्छा लगता है क्या?’’

स्टेज पर थर्मोकोल पर बने दिल आकार पर तीर चीरते के बीच लिखित, ‘अरविंद संग अनीता’ की सजावट के सामने खड़ी नवजोड़ी स्टेज पर आतेजाते मेहमानों के साथ फोटो खिंचवा रही थी तो चीकू बारबार उन के बीच घुसने की कोशिश कर रहा था.

चीकू को संभालने के लिए सविता भाभी को बुलवाया गया. वे उसे आइसक्रीम का लालच दे स्टेज से अखिरकार उतारने में कामयाब रहीं. फिर भी चीकू कई फोटो में खुद को कैद कराने में सफल रहा.

फोटोग्राफर के कहे अनुसार मोहक अंदाज में एक के बाद एक फोटो खिंचवाता रहा. इन पलों में नवजोड़ा अपनेआप को किसी सैलिब्रिटी से कम नहीं समझ रहा था.

जिन्हें जाने की जल्दी थी वे एक कुरसीटेबल पर बैठे रजिस्टरपैन थामे समाज के वरिष्ठ की ओर अपनाअपना लिफाफा लिए बढ़ते चले गए. उन में उतना ही नेग था जितना कि केशवजी द्वारा उन के यहां की शादी में दिया गया था. उस का रिकौर्ड उन सभी के पास ऐसे ही शादी वाले रजिस्टर में लिखा हुआ था.

जो शादी का भरपूर आनंद उठाने आए थे वे बरात आने के पहले ही आधे व्यंजनों का स्वाद चख चुके थे और अब उन की प्लानिंग एक राउंड और मारने की थी.

जो पहली बार केशवजी के किसी समारोह में शामिल हुए थे वे अपने लिफाफे की राशि शादी पर किए हुए खर्च को देख बढ़ातेघटाते रहे और अधिकतर मेहमान जिनके सभी बच्चों की शादियों निबट गई थीं वे अपने घर की शादियों में मिले उपहार जिन में अधिकांश ठंडे पानी की बोतल, हौट केस सैट, डिनर सेट इत्यादि को उसी पैकिंग की हटाई गई टेप को फिर से लगा कर नजाकत से अपना नाम बड़ी कलाकृति से लिख कर दूल्हेदुलहन को टीका लगा कर गिफ्ट दे मुसकराते फोटो खिंचवाते आगे बढ़ते गए.

अब यही प्रथा अरविंदअनीता अन्य की शादियों में करते दिखाई देंगे. संपूर्ण शादी के उपहारों के बीच शायद ही कुछ ऐसे तोहफे होंगे जिन्हें सच में उन की शादी के लिए विशेष खरीदा गया होगा और जो उन के किसी काम के होंगे.

एक दिन की चमकदमक के लिए अपनी सालों की जमापूंजी स्वाहा करने वाले दोनों पक्ष, अपने करीबियों को आधी रात नवदंपती को 7 फेरे लेते देख, उन्हें ऊंघते और शादी में कमियां गिनाते गौर से देखतेसुनते रहे. सुबह हुई, बेटी विदा हुई. दोनों के मांबाप ‘कुदरत ने सब अच्छे से निबटा दिया,’ कह उसे धन्यवाद देते रहे.

अगले दिन दोनों घरों के सभी मेहमानों के चले जाने के बाद एक एकांत कमरे में घर के भरोसेमंद को पूरे नेग का कुल निकालने की जिम्मेदारी सौंपी गई जो अपनेआप में बड़े सम्मान की बात होती है. फिर उसी राशि से अधिकतम शादी के बचे खर्च का भुगतान किया जाता है.

कुछ दिनों बाद उन की शादी का अल्बम और वीडियो हाथों में पहुंच गया, जिसे सब बड़े चाव से उन सभी खूबसूरत यादों को बारबार देख कर ताजा करने का क्रम महीनों चलाते रहे. अब आगे घर आने वाले मेहमानों को चाय के साथ अलबम भी परोसा जाना निश्चित है.

सच में भारतीय शादियों की अपनी अलग खट्टीमीठी कहानियां होती हैं. कितने अनगिनत रिश्ते दूर के रिश्तेदारों द्वारा दूसरों की शादियों में ही तय किए जाते हैं. कई युवाओं के दिल भी आपस में मिल जाते हैं. सालों न मिलने वाले रिश्तेदारप्रियजन शादी का एक निमंत्रणपत्र पा कर प्रफुल्लित हो उठते हैं. इसीलिए तो शादी किसी उत्सव से कम कहां कहलाती है. ऐसी कई बातें हमें अपनीअपनी शादी की आजीवन स्मरण रहती हैं, जो कभी गुदगुदाती है तो कभी जिन से हम बिछड़ गए होते हैं उन की तसवीरें हमें रुलाती भी हैं. आप अपनी शादी का कोई खूबसूरत वाकेआ हम से जरूर साझ करिएगा.

अपने हिस्से की धूप: भाग 3- क्या था उस ब्रीफकेस

नूपुर ने दीवारों पर हाथ फेर कर अपनेपन की खुशबू को महसूस करने की कोशिश की. कितना अलग था उस का यह कमरा उस के पीहर के कमरे से. उस ने औनलाइन अपने कमरे की दीवार के लिए स्टिकर मंगवाए थे. पिंजरे से निकल कर उड़ती ढेर सारी चिडि़यांएं. अजीब सी खुशी मिलती थी उसे उन्हें देख कर. पापा हमेशा कहते हैं लड़कियां भी तो चिडि़यों की तरह होती हैं. एक दिन उड़ जाती हैं. तू भी उड़ जाएगी इन की तरह छत पर रेडियम के चमकते सितारे अंधेरे में कितने टिमटिमाते थे मानो खुले आसमान के नीचे सो रहे हों. कभीकभी लगता जैसे वह खुली आंखों से सपने देख रही हो.

नूपुर ने एक गहरी सांस ली. पीछे बगीचा था. हलवाई के बरतनों के आवाज उसे अब साफसाफ सुनाई दे रही थी. उस ने खिड़की को खुला ही रहने दिया और परदों को खींच कर हलका बंद कर दिया.

तभी दरवाजे पर किसी ने धीरे से खटखटाया, ‘‘नूपुर… नूपुर.’’

‘‘कौन?’’ नूपुर ने पूछा और यह सवाल कर के वह खुद ही अचकचा गई. वह इस वक्त सिद्धार्थ के घर में थी और वह उन्हीं से पूछ रही थी.

‘‘नूपुर मैं हूं सिद्धार्थ,’’ एक भारी आवाज आई. आवाज में नूपुर के लिए हक था.

‘‘जी, आती हूं,’’ वह खुद ही कह कर शरमा गई, उस ने अपनेआप को समझाया कि अब उसे इन सब चीजों की आदत डालनी होगी.

‘‘तैयार हो गई तुम?’’ सिद्धार्थ ने एक भरपूर नजर उस पर डाली. उस की आंखों में ऐसा कुछ था कि नूपुर की आंखें नीचे गईं.

‘‘ये परदे किस ने खोल दिए?’’ सिद्धार्थ का ध्यान परदों की ओर गया.

‘‘वह बड़ा स्फोकेशन हो रहा था. मैं ने खिड़कियां खोल दी थीं. औक्सीजन कैसे मिलेगी, क्रौस वैंटिलेशन भी तो जरूरी है. मुझे उलझन होने लगती है,’’ नूपुर एक सांस में बोल गई.

‘‘तुम दोनों तैयार हो गए? लो जल्दीजल्दी नाश्ता कर लो दादी और बूआजी तुम लोगों को पूछ रही थी,’’ मम्मीजी हाथ में चायनाश्ते की ट्रे ले कर कमरे में घुसीं, ‘‘कुछ हुआ है क्या? तुम दोनों ऐसे शांत क्यों खड़े हो?’’

‘‘कुछ नहीं मम्मी नूपुर को बंद कमरे में उल?ान हो रही थी. उस ने खिड़की खोल दी, कह रही थी औक्सीजन कैसे मिलेगी, क्रौस वैंटिलेशन भी तो जरूरी है. उसे उल?ान होने लगती है.’’

मम्मी ठहाका मार कर हंस पड़ी, ‘‘अब इस घर में एक नहीं 2 लोग हो गए खिड़की खोल कर सोने वाले मैं और नूपुर.’’

नूपुर को मांबेटे की बात समझ नहीं आ रही थी.

‘‘जानती हो नूपुर सिद्धार्थ और उस के पापा को खिड़की खोलना बिलकुल पसंद नहीं कहते हैं बाहर का शोर अंदर आता है. मुझे तो बंद कमरे में बिलकुल नींद नहीं आती. लगता है सांस घुट रही है. अब तो तेरी बीवी भी मां के रंग में रंगी आ गई है. अब तू क्या करेगा सिद्धार्थ?’’ मम्मी मंदमंद मुसकरा रही थी और उन की बात सुन नूपुर भी मुसकराने लगी.

‘‘चलो अब समय बरबाद मत करो और जल्दी से नाश्ता कर लो. तेरी बूआ और दादी भी उठ गए हैं. तुम लोग कमरा ठीक कर लो. मैं भी काम देख कर आती हूं, हलवाई ने नाश्ता बनाना शुरू किया या नहीं.’’

‘‘मम्मी आप ने नाश्ता किया या नहीं. अभी बीपी लो हो जाएगा, तबीयत खराब हो जाएगी,’’ सिद्धार्थ के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ पढ़ी जा सकती थीं.

‘‘सुन रही हो नूपुर इस की बात. अभी पूरा घर मेहमानों से भरा पड़ा है और सब से पहले मैं ही नाश्ता करने बैठ जाऊं लोग क्या कहेंगे.’’

सिद्धार्थ ने मम्मीजी का हाथ पकड़ कर उन्हें जबरदस्ती अपने पास बैठा लिया, ‘‘कोई कुछ नहीं कहेगा. नूपुर तुम भी जल्दी से नाश्ता कर लो. मम्मी तुम भी साथ खा लो, कौन देखने आ रहा है सब सो रहे हैं.’’

मम्मीजी ने कैशरोल से पोहा निकाल कर प्लेट में परोस दिया और सिद्धार्थ ने चाय का प्याला नूपुर की ओर बढ़ा दिया. नूपुर बैड के एक कोने में बैठ चाय पीने लगी.

‘‘चाय ठीक बनी है न? मीठा ज्यादा तो नहीं हो गया? इतना सामान फैला हुआ है कुछ मिल ही नहीं रहा था.’’

‘‘जी ठीक है मैं थोड़ा चीनी हलकी पीती हूं,’’ कहने को तो नूपुर ने कह दिया पर वह कशमकश में पड़ गई कि पता नहीं उसे यह बात कहनी भी चाहिए थी या नहीं. मम्मी ने कितनी बार सम?ाया था वह ससुराल है कुछ भी मुंह में आए तो बोल मत देना पर वह भी तो आदत से मजबूर थी. कहने से पहले एक बार भी नहीं सोचती.

‘‘ओह? मुझे पता नहीं था बेटा दूसरी बना देती हूं.’’

‘‘नहींनहीं आंटीजी. इस की कोई जरूरत नहीं है.’’

‘‘आंटी नहीं मम्मी कहना सीखो,’’ मम्मीजी की आवाज में एक मनुहार के साथ एक आदेश भी था. नूपुर का चेहरा उतर गया. बोली, ‘‘मुश्किल है पर धीरेधीरे आदत पड़ जाएगी,’’ मां के अलावा कभी किसी को मां नहीं कहा तो़़़…’’ मां को याद कर उस की आंखें सजल हो आईं.

‘‘सम?ा सकती हूं कि इतना आसान नहीं है पर धीरेधीरे आदत पड़ जाएगी,’’ मम्मीजी ने धैर्य बंधाया, ‘‘तुम लोग जल्दी से नाश्ता खत्म कर लो और अपना सामान बैड पर सजा दो. मैं पहले देख लूंगी, उस के बाद दादी और सारे लोगों को भी बुला कर दिखा देती हूं.’’

सिद्धार्थ के चेहरे पर अभी भी नाराजगी थी पर अब वह इस विषय में कुछ भी कहना नहीं चाह रहा था.

‘‘सिद्धार्थ जरा नूपुर की मदद कर दे, मुझे और भी काम हैं.’’

सिद्धार्थ की मदद से नूपुर ने सारे ब्रीफकेस के सामान को बैड पर सजा दिया.

‘‘नूपुर, क्या इस अटैची का सामान भी सजाना है?’’ सिद्धार्थ ने पिंक ब्रीफकेस की ओर इशारा करते हुए कहा.

नूपुर समझ नहीं पा रही थी सिद्धार्थ की बात का वह क्या जवाब दे.

उसे असमंजस में देख सिद्धार्थ ने कहा, ‘‘क्या हुआ कुछ खास है क्या इस में कुछ कीमती?’’

‘‘खास. मेरे दिल के बहुत करीब है पर क्या इसे भी लगाना जरूरी है?’’

तभी मम्मीजी ने कमरे में प्रवेश किया, ‘‘क्या हुआ सब लगा दिया न बेटा?’’

‘‘मम्मी बस यह एक ब्रीफकेस रह गया है. शायद कुछ पर्सनल सामान है नूपुर का.’’

‘‘नहीं पर्सनल जैसा कुछ भी नहीं है पर…’’ नूपुर की आवाज में संकोच उभर आया.

मम्मीजी की आंखों में प्रश्न तैर रहे थे. नूपुर समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे. शायद इसी स्थिति से बचाने के लिए पापा ने उसे इस ब्रीफकेस को ले जाने के लिए मना किया था. क्या नए घर में नए लोगों के बीच इस ब्रीफकेस को खोलना ठीक होगा पर अगर नहीं खोला तो उन की आंखों में उग आए प्रश्नों के जवाब उन्हें कैसे मिलेंगे.

‘‘मम्मी रहने दो. अगर नूपुर नहीं चाहती है कि इस ब्रीफकेस को खोला जाए तो हरज क्या है?’’

मम्मीजी खुद असमंजस की स्थिति में थीं. बात बिगड़ते देख नूपुर ने उस ब्रीफकेस को खोल दिया और एक किनारे खड़ी हो गई. अटैची में कुछ किताबें, हाथ से बनी हुई गुडि़या, टैडी बियर, दिल के आकार का पैन स्टैंड, मम्मीपापा का फोटो, कुछ गुलाबी लिफाफे और एक फीरोजी दुपट्टा मुसकरा रहा था.

सिद्धार्थ उस के सामान को देख कर हंसने लगा, ‘‘बहुत कीमती सामान है इस में, सच कहा था तुम ने.’’

मम्मीजी घुटने के बल बैठ गईं और उन्होंने उस सामान पर बड़े प्यार से हाथ फेरा. वे भी तो अपने ब्याह के समय एक ऐसा ही ब्रीफकेस ले कर आई थीं.

‘‘सिद्धार्थ सचमुच बहुत कीमती सामान है

इस अटैची में. इस में नूपुर की नादानियां हैं, खामियां हैं, चुलबुलापन है. बेबाकपन है और हां अल्हड़पन है. सच कहूं तो वह इस ब्रीफकेस में अपने साथ अपने अंदर की लड़की को ले कर भी आई है. नूपुर अपने हिस्से की धूप ले कर आई है,’’ मां बोली.

नूपुर की आंखों में खुशी के आंसू थे. खुली खिड़कियों से धूप बैडरूम के फर्श पर दस्तक दे रही थी. धूप की इस कुनकुनी गरमाहट में सारे सवाल और गलतफहमियां भाप बन कर उड़ रही थीं.

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