Serial Story: मैट्रिमोनियल– भाग 2

चायवाय पी कर पंकज वापस चला गया. सबकुछ तो ठीक था पर एक बात थी जो अजीब लग रही थी उसे. आखिर उन लोगों को रिनी में ऐसी कौन सी खासियत नजर आ गई थी जो वे शादी के लिए एकदम तैयार हो गए. बहरहाल, शादीब्याह तो जहां होना है वहीं होगा, फिर भी चलतेचलते उस ने इतना कह ही दिया कि आप एक बार मुंबई जा कर परिवार, फैक्टरियां वगैरह देख आइए. कम से कम तसल्ली तो हो जाएगी. उन्होंने जाने का वादा किया.

अगले शनिवार रामचंदर बाबू ने पंकज को फोन किया.

‘‘अरे, कहां हो भाई? क्या हाल है?’’ मुझे उन का स्वर उत्तेजित लगा.

‘‘मैं घर पर ही हूं,’’ पंकज ने कहा, ‘‘क्या हुआ. सब ठीक तो है.’’

‘‘हां, सब ठीक है. कल का कोई प्रोग्राम तो नहीं है?’’

‘‘नहीं. पर हुआ क्या, तबीयत वगैरह तो ठीक है न?’’

‘‘तबीयत तो ठीक है. अरे, वह रिनी वाला संबंध है न. वही लोग कल आ रहे हैं.’’

‘‘आ रहे हैं? पर क्यों?’’

‘‘अरे, लड़की देखने भाई. सब ठीक रहा तो कोई रस्म भी कर देंगे.’’

‘‘जरा विस्तार से बताइए. पर रुकिए, क्या आप मुंबई हो आए, घरपरिवार देख आए क्या?’’

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‘‘अरे, कहां? मैं बताता हूं. तुम्हारे जाने के बाद उन का फोन आ गया था. काफी बातें होती रहीं. पौलिटिक्स पर भी उन की अच्छी पकड़ है. बडे़ बिजनैसमैन हैं. 2-2 फैक्टरियां हैं. पौलिटिक्स पर नजर तो रखनी ही पड़ती है. फिर मैं ने उन से कहा कि अपना पूरा पता बता दीजिए, मैं आ कर मिलना चाहता हूं. कहने लगे आप क्यों परेशान होते हैं. लेकिन आना चाहते हैं तो जरूर आइए. वर्ली में किसी से भी स्टील फैक्टरी वाले जितेंद्रजी पूछ लीजिएगा, घर तक पहुंचा जाएगा. कहने लगे कि फ्लाइट बता दीजिए, ड्राइवर एयरपोर्ट से ले लेगा.’’

‘‘बहुत बढि़या.’’

मैं ने कहा, हवाईजहाज से नहीं, मैं तो ट्रेन से आऊंगा. तो बोले टाइम बता दीजिएगा, स्टेशन से ही ले लेगा. बल्कि वे तो जिद करने लगे कि हवाईजहाज का टिकट भेज देता हूं. 2 घंटे में पहुंच जाइएगा. मैं ने किसी तरह से मना किया.’’

‘‘फिर?’’

‘‘फिर क्या. मैं रिजर्वेशन ही देखता रह गया और कल सुबहसुबह ही उन का फोन आ गया.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘हां. उन्होंने बताया कि वे 15 दिनों के लिए स्वीडन जा रहे हैं. वहां उन का माल एक्सपोर्ट होता है न. पत्नी भी साथ में जा रही हैं. पत्नी की राय से ही उन्होंने फोन किया था. उन की पत्नी का कहना था कि जाने से पहले लड़की देख लें. और ठीक हो तो कोई रस्म भी कर देंगे. सो, बोले हम इतवार को आ रहे हैं.’’

‘‘बड़ा जल्दीजल्दी का प्रोग्राम बन रहा है. क्या लड़का भी साथ में आ रहा है?’’

‘‘ये लो. लड़का नहीं आएगा भला. बड़ा व्यस्त था. पर जितेंद्रजी ने कहा कि आप ने भी तो नहीं देखा है. लड़कालड़की दोनों एकदूसरे को देख लें, बात कर लें, तभी तो हमारा काम शुरू होगा न.’’

‘‘यह तो ठीक बात है. कहां ठहराएंगे उन्हें.’’ पंकज जानता था कि रामचंदर बाबू का मकान बस साधारण सा ही है. एसी भी नहीं है. सिर्फ कूलर है.

‘‘ठहरेंगे नहीं. उसी दिन लौट जाएंगे.’’

‘‘पर आएंगे तो एयरपोर्ट पर ही न.’’

‘‘नहीं भाई, बड़े लोग हैं. उन की पत्नी ने कहा कि जब जा ही रहे हैं तो लुधियाना में अपने भाई के यहां भी हो लें. अब उन का प्रोग्राम है कि वे आज ही फ्लाइट से लुधियाना आ जाएंगे. ड्राइवर गाड़ी ले कर लुधियाना आ जाएगा. कल सुबह 8 बजे घर से निकल कर 11 बजे तक दिल्ली पहुंच जाएंगे व लड़की देख कर लुधियाना वापस लौट जाएंगे. वहीं से मुंबई का हवाईजहाज पकडेंगे. ड्राइवर गाड़ी वापस मुंबई ले जाएगा.’’

‘‘बड़ा अजीब प्रोग्राम है. उन के साले के पास गाड़ी नहीं है क्या, जो मुंबई से ड्राइवर गाड़ी ले कर आएगा. उस की भी तो लुधियाना में फैक्टरी है.’’

‘‘बड़े लोग हैं. क्या मालूम अपनी गाड़ी में ही चलते हों.’’

‘‘क्या मालूम. लेकिन आप जरा घर ठीक से डैकोरेट कर लीजिएगा.’’

‘‘अरे, मैं बेवकूफ नहीं हूं भाई, मेरा घर उन के स्तर का नहीं है. होटल रैडिसन में 6 लोगों का लंच बुक कर लिया है. पहला इंप्रैशन ठीक होना चाहिए.’’

‘‘चलिए, यह आप ने अच्छा किया. नीरज तो है ही न.’’

‘‘वह तो है, पर भाई तुम आ जाना. बड़े लोग हैं. तुम ठीक से बातचीत संभाल लोगे. मैं क्या बात कर पाऊंगा. तुम रहोगे तो मुझे सहारा रहेगा. तुम साढ़े 10 बजे तक रैडिसन होटल आ जाना. हम वहीं मिल जाएंगे.’’

‘‘मैं समय से पहुंच जाऊंगा. आप निश्चित रहें.’’

सारी बातें उसे कुछ अजीब सी लग रही थीं. पंकज ने मन ही मन तय किया कि रामचंदर बाबू से कहेगा कि कल कोई रस्म न करें. जरा रुक कर करें और हो सके तो मुंबई से लौट कर करें.

पंकज घर से 10 बजे ही होटल रैडिसन के लिए निकल गया. आधा घंटा तो लग ही जाना था. आधे रास्ते में ही था कि मोबाइल की घंटी बजी. नंबर रामचंदर बाबू का ही था.

‘‘क्या हो गया रामचंदर बाबू. मैं रास्ते में हूं, पहुंच रहा हूं.’’

‘‘अरे, जल्दी आओ भैया, गजब हो गया.’’

‘‘गजब हो गया? क्या हो गया.’’

‘‘तुम आओ तो. लेकिन जल्दी आओ.’’

‘‘मैं बस 10 मिनट में रैडिसन पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘रैडिसन नहीं, रैडिसन नहीं. घर आओ, जल्दी आओ.’’

‘‘मैं घर ही पहुंचता हूं, पर आप घबराइए नहीं.’’

अगले स्टेशन से ही उस ने मैट्रो बदल ली. क्या हुआ होगा. फोन उन्होंने खुद किया था. घबराए जरूर थे पर बीमार नहीं थे. कहीं रिनी ने तो कोई ड्रामा नहीं कर दिया.

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दरवाजा नीरज ने खोला. सामने ही सोफे पर रामचंदर बाबू बदहवास लेटे थे. उन की पत्नी पंखा झल रही थीं व रिनी पानी का गिलास लिए खड़ी थी. पंकज को देखते ही झटके से उठ कर बैठ गए.

‘‘गजब हो गया भैया, अब क्या होगा.’’

‘‘पहले शांत हो जाइए. घबराने से क्या होगा. हुआ क्या है?’’

‘‘ऐक्सिडैंट…ऐक्सिडैंट हो गया.’’

‘‘किस का ऐक्सिडैंट हो गया?’’

‘‘जितेंद्रजी का ऐक्सिडैंट हो गया भैया. अभी थोड़ी देर पहले फोन आया था. अरे नीरज, जल्दी जाओ बेटा. देरी न करो.’’

नीरज ने जाने की कोई जल्दी नहीं दिखाई.

‘‘एक मिनट,’’ पंकज ने रामचंदर बाबू को रोका. ‘‘पहले बताइए तो क्या ऐक्सिडैंट हुआ, कहां हुआ. कोई सीरियस तो नहीं है?’’

‘‘अरे, मैं क्या बताऊं,’’ रामचंदर बाबू जैसे बिलख पड़े, ‘‘कहीं वे मेरी रिनी को मनहूस न समझ लें. अब क्या होगा भैया.’’

‘‘मैं बताता हूं अंकल,’’ नीरज बोला जो कुछ व्यवस्थित लग रहा था, ‘‘अभी साढ़े 9-10 बजे के बीच में जितेंद्र अंकल का फोन आया था. उन्होंने बताया कि ठीक 8 बजे वे लुधियाना से दिल्ली अपनी कार से निकल लिए थे. उन की पत्नी व बेटा भी उन के साथ थे. दिल्ली से करीब 45 किलोमीटर दूर शामली गांव के पहले उन की विदेशी गाड़ी की किसी कार से साइड से टक्कर हो गई. कोई बड़ा एक्सिडैंट नहीं है. सभी लोग स्वस्थ हैं. किसी को कोई चोट नहीं आई है.’’

‘‘तब समस्या क्या है, वे आते क्यों नहीं?’’

‘‘कार वाले ने समस्या खड़ी कर दी. वह पैसे मांग रहा है. कोई दारोगा भी आ गया है.’’

‘‘फिर?’’

‘‘कार वाले से 50 हजार रुपए में समझौता हुआ है.’’

‘‘तो उन्होंने दे दिया कि नहीं.’’

‘‘उन के पास नकद 25 हजार रुपए ही हैं. उन्होंने बताया कि पास में ही एक एटीएम है. पर अंकल का कार्ड चल ही नहीं रहा है.’’

‘‘अरे, तुम जा कर उन के खाते में 25 हजार डाल क्यों नहीं देते बेटा.’’ रामचंदर बाबू कलपे, ‘‘अब तक तो डाल कर आ भी जाते.’’

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Serial Story: मैट्रिमोनियल– भाग 3

पंकज ने प्रश्नसूचक दृष्टि से नीरज की तरफ देखा.

‘‘अंकल के ड्राइवर का एटीएम कार्ड चल रहा है. पर उस के खाते में रुपए नहीं हैं. अंकल ने पापा से कहा है कि वे ड्राइवर के खाते में 25 हजार रुपए जमा कर दें, वे दिल्ली आ कर मैनेज कर देंगे. ड्राइवर का एटीएम कार्ड भारतीय स्टेट बैंक का है. मैं वहीं जमा कराने जा रहा हूं.’’

‘‘एक मिनट रुको नीरज. मुझे मामला कुछ उलझा सा लग रहा है. रामचंदर बाबू आप को कुछ अटपटा नहीं लग रहा है?’’

‘‘कैसा अटपटा?’’

‘‘उन्होंने अपने साले से लुधियाना, जहां रात में रुके भी थे, रुपया जमा कराने के लिए क्यों नहीं कहा?’’

‘‘शायद रिश्तेदारी में न कहना चाहते हों.’’

‘‘तो आप से क्यों कहा? आप से तो नाजुक रिश्तेदारी होने वाली है.’’

‘‘शायद मुझ पर ज्यादा भरोसा हो.’’

‘‘कैसा भरोसा? अभी तो आप लोगों ने एकदूसरे का चेहरा भी नहीं देखा है. फिर 2-2 फैक्टरियों के किसी मैनेजर को फोन कर के रुपया जमा करने को क्यों नहीं कहा?’’

‘‘अरे, दिल्ली से 45 किलोमीटर दूर ही तो हैं वे. मुंबई दूर है.’’

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‘‘क्या बात करते हैं? कंप्यूटर के लिए क्या दिल्ली क्या मुंबई. लड़का भी तो साथ है. उस का भी कोई कार्ड नहीं चल रहा है. आजकल तो कईकई क्रैडिटडैबिट कार्ड रखने का फैशन है.’’

‘‘क्या मालूम?’’ रामचंदर बाबू भी सोच में पड़ गए.

‘‘किसी का कार्ड नहीं चल रहा है. सिर्फ ड्राइवर का कार्ड चल रहा है. बात जरा समझ में नहीं आ रही है.’’

‘‘तो क्या किया जाए भैया. बड़ी नाजुक बात है. अगर सच हुआ तो बात बिगड़ी ही समझो.’’

‘‘इसीलिए तो मैं कुछ बोल नहीं पा रहा हूं?’’

‘‘नहीं. तुम साफ बोलो. अब बात फंस गई है.’’

‘‘यह फ्रौड हो सकता है. आप रुपया जमा करा दें और फिर वे फोन ही न उठाएं तो आप उन्हें कहां ढूंढ़ेंगे?’’

‘‘25 हजार रुपए का रिस्क है,’’ नीरज धीरे से बोला.

‘‘मेरा तो दिमाग ही नहीं चल रहा है. इसीलिए तो तुम्हें बुलाया है. बताओ, अब क्या किया जाए?’’

‘‘नीरज, तुम्हें अकाउंट नंबर तो बताया है न.’’

‘‘हां, ड्राइवर का अकाउंट नंबर बताया है. स्टेट बैंक का है. इसी में जमा करने को कहा है.’’

‘‘चलो, सामने वाले पीसीओ पर चलते हैं. तुम उन को वहीं से फोन करो और कहो कि बैंक वाले बिना खाता होल्डर की आईडी प्रूफ के रुपया जमा नहीं कर रहे हैं. कह देना मैं मैनेजर साहब के केबिन से बोल रहा हूं. आप इन्हीं के फैक्स पर ड्राइवर की आईडी व अकाउंट नंबर फैक्स कर दें. वैसे, ऐसा कोई नियम नहीं है. 25 हजार रुपए तक जमा किया जा सकता है. हो सकता है वे ऐसा कुछ कहें. तो कहना, लीजिए, मैनेजर साहब से बात कर लीजिए. तब फोन मुझे दे देना. मैं कह दूंगा कि अब यह नियम आ गया है.’’

‘‘इस से क्या होगा?’’

‘‘आईडी और अकाउंट नंबर का फैक्स पर आ गया तो रुपया जमा कर देंगे, वरना तो समझना फ्रौड है.’’

‘‘अगर वहां फैक्स सुविधा न हुई तो?’’ रामचंदर बाबू बोले.

‘‘जब एटीएम है तो फैक्स भी होगा. फिर उन्हें तो कहने दीजिए न.’’

‘‘ठीक है. ऐसा किया जाए. इस में कोई बुराई नहीं है.’’ रामचंदर बाबू के दिमाग में भी शक की सूई घूमी. पंकज व नीरज पीसीओ पर आए. उस का फैक्स नंबर नोट किया व फिर नीरज ने फोन मिलाया.

‘‘अंकल नमस्ते,’’ नीरज बोला, ‘‘मैं रामचंदरजी का बेटा नीरज बोल रहा हूं.’’

उधर से कुछ कहा गया.

‘‘नहीं अंकल, बैंक वाले रुपए जमा नहीं कर रहे हैं. कह रहे हैं अकाउंट होल्डर का आईडी प्रूफ चाहिए. मैं बैंक से ही बोल रहा हूं,’’ नीरज उधर की बात सुनता रहा.

‘‘लीजिए, आप मैनेजर साहब से बात कर लीजिए,’’ नीरज ने फोन काट दिया.

‘‘क्या हुआ,’’ मैं ने दोबारा पूछा.

‘‘उन्होंने फोन काट दिया,’’ नीरज बोला.

‘‘काट दिया? पर कहा क्या?’’

‘‘मैं ने अपना परिचय दिया तो अंकल ने पूछा कि रुपया जमा किया कि नहीं. मैं ने बताया कि बैंक वाले जमा नहीं कर रहे हैं, तो अंकल बिगड़ गए, बोले कि इतना सा काम नहीं हो पा रहा है. मैं ने जब कहा कि लीजिए बात कर लीजिए तो फोन ही काट दिया.’’

‘‘फिर मिलाओ.’’

नीरज ने फिर से फोन मिलाया लेकिन लगातार स्विच औफ आता रहा.

पंकज ने राहत की सांस ली. ‘‘अब चलो.’’

वे दोनों वापस घर आ गए व रामचंदर बाबू को विस्तार से बताया.

‘‘हो सकता है गुस्सा हो गए हों, परेशान होंगे,’’ वे सशंकित थे.

‘‘आप मिलाइए.’’ रामचंदर बाबू ने भी फोन मिलाया पर स्विच औफ आया.

‘‘15 मिनट रुक कर मिलाइए.’’

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15-15 मिनट रुक कर 4 बार मिलाया गया. हर बार स्विच औफ ही आया.

‘‘ये साले वाकई फ्रौड थे,’’ आखिरकार रामचंदर बाबू खुद बोले, ‘‘नहीं तो हमारी रिनी कौन सी ऐसी हूर की परी है कि वे लोग शादी के लिए मरे जा रहे थे. उन का मतलब सिर्फ 25 हजार रुपए लूटना था.’’

‘‘ऐसे नहीं,’’ पंकज ने कहा, ‘‘अभी और डिटेल निकालता हूं.’’

उस ने अपने दोस्त अखिल को फोन किया जो एसबीआई की एक ब्रांच में था. उस ने उस अकाउंट नंबर बता कर खाते की पूरी डिटेल्स बताने को कहा. उस ने देख कर बताया कि उक्त खाता बिहार के किसी सुदूर गांव की शाखा का था.

‘‘जरा एक महीने का स्टेटमैंट तो निकालो,’’ पंकज ने कहा.

‘‘नहीं यार, यह नियम के खिलाफ होगा.’’

पंकज ने जब उसे पूरा विवरण बताया तो वह तैयार हो गया. ‘‘बहुत बड़ा स्टेटमैंट है भाई. कई पेज में आएगा.’’

‘‘एक हफ्ते का निकाल दो. मैं नीरज नाम के लड़के को भेज रहा हूं. प्लीज उसे दे देना.’’

‘‘ठीक है.’’

नीरज मोटरसाइकिल से जा कर स्टेटमैंट ले आया. एक सप्ताह का स्टेटमैंट 2 पेज का था. 6 दिनों में खाते में 7 लाख 30 हजार रुपए जमा कराए गए थे व सभी निकाल भी लिए गए थे. सारी जमा राशियां 5 हजार से 35 हजार रुपए की थीं. उस समय खाते में सिर्फ 1,300 रुपए थे. स्टेटमैंट से साफ पता चल रहा था कि सारे जमा रुपए अलगअलग शहरों में किए गए थे. रुपए जमा होते ही रुपए एटीएम से निकाल लिए गए थे. अब तसवीर साफ थी. रामचंदर बाबू सिर पकड़ कर बैठ गए.

‘‘देख लिया आप ने. एक ड्राइवर के खाते में एक हफ्ते में 7 लाख से ज्यादा जमा हुए हैं. फैक्टरियां तो उसी की होनी चाहिए.’’

‘‘मेरे साथ फ्रौड हुआ है.’’

‘‘बच गए आप. कहीं कोई लड़का नहीं है. कोई बाप नहीं है. कोई फैक्टरी नहीं है. यहीं कहीं दिल्ली, मुंबई या कानपुर, जौनपुर जगह पर कोई मास्टरमाइंड थोड़े से जाली सिमकार्ड वाले मोबाइल लिए बैठा है और सिर्फ फोन कर रहा है. सब झूठ है.’’

‘‘मैं महामूर्ख हूं. उस ने मुझे सम्मोहित कर लिया था.’’

‘‘यही उन का आर्ट है. सिर्फ बातें कर के हर हफ्ते लाखों रुपए पैदा

कर रहे हैं. इस की तो एफआईआर होनी चाहिए.’’

रामचंदर बाबू सोच में पड़ गए और बोले, ‘‘जाने दो भैया. लड़की का मामला है. बदनामी तो होगी ही, थाना, कोर्टकचहरी अलग से करनी पड़ेगी. फिर हम तो बच गए.’’

‘‘आप 25 हजार रुपए लुटाने पर भी कुछ नहीं करते. कोई नहीं करता. किसी ने नहीं किया. लड़की का मामला है सभी के लिए. कोई कुछ नहीं करेगा. यह वे लोग जानते हैं और इसी का वे फायदा उठा रहे हैं.’’

‘‘हम लोग तुम्हारी वजह से बच गए.’’

‘‘एक बार फोन तो मिलाइए रामचंदर बाबू. हो सकता है वे लोग रैडिसन में इंतजार कर रहे हों.’’

रामचंदर बाबू ने फोन उठा कर मिलाया व मुसकराते हुए बताया, ‘‘स्विच औफ.’’

बाद में पंकज ने अखिल को पूरी बात बता कर बैंक में रिपोर्ट कराई व खाते को सीज करा दिया. पर एक खाते को सीज कराने से क्या होता है.

और बाद में, करीब 6 महीने बाद रिनी की शादी एक सुयोग्य लड़के से हो गई. मजे की बात विवाह इंटरनैट के मैट्रिमोनियल अकाउंट से ही हुआ. रिनी अपनी ससुराल में खुश है.

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Serial Story: मैट्रिमोनियल– भाग 1

पंकज कई दिनों से सोच रहा था कि रामचंदर बाबू के यहां हो आया जाए, पर कुछ संयोग ही नहीं बना. दरअसल, महानगरों की यही सब से बड़ी कमी है कि सब के पास समय की कमी है. दिल्ली शहर फैलता जा रहा है.

15-20 किलोमीटर की दूरी को ज्यादा नहीं माना जाता. फिर मैट्रो ने दूरियों को कम कर दिया है. लोगों को आनाजाना आसान लगने लगा है. पंकज ने तय किया कि  कल रविवार है, हर हाल में रामचंदर बाबू से मुलाकात करनी ही है.

किसी के यहां जाने से पहले एक फोन कर लेना तहजीब मानी जाती है और सहूलियत भी. क्या मालूम आप 20 किलोमीटर की दूरी तय कर के पहुंचें और पता चला कि साहब सपरिवार कहीं गए हैं. तब आप फोन करते हैं. मालूम होता है कि वे तो इंडिया गेट पर हैं. मन मार कर वापस आना पड़ता है. मूड तो खराब होता ही है, दिन भी खराब हो जाता है. पंकज ने देर करना मुनासिब नहीं समझा, उस ने मोबाइल निकाल कर रामंचदर बाबू को फोन मिलाया.

रामचंदर बाबू घर पर ही थे. दरअसल, वे उम्र में पंकज से बड़े थे. वे रिटायर हो चुके हैं. उन्होंने 45 साल की उम्र में वीआरएस ले लिया था. आज 50 के हो चुके हैं.

‘‘हैलो, मैं हूं,’’ पंकज ने कहा.

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‘‘अरे वाह,’’ उधर से आवाज आई, ‘‘काफी दिनों बाद तुम्हारी आवाज सुनाई दी. कैसे हो भाई.’’

‘‘मैं ठीक हूं. आप कैसे हैं?’’

‘‘मुझे क्या होना है. बढि़या हूं. कहां हो?’’

‘‘अभी तो औफिस में ही हूं, कल क्या कर रहे हैं, कहीं जाना तो नहीं है?’’

‘‘जाना तो है. पर सुबह जाऊंगा. 10-11 बजे तक वापस आ जाऊंगा. क्यों, तुम आ रहे हो क्या?’’

‘‘हां, बहुत दिन हो गए.’’

‘‘तो आ जाओ. मैं बाद में चला जाऊंगा या नहीं जाऊंगा. जरूरी नहीं है.’’

‘‘नहीं, नहीं. मैं तो लंच के बाद ही आऊंगा. आप आराम से जाइए. वैसे जाना कहां है?’’

‘‘वही, रिनी के लिए लड़का देखने. नारायणा में बात चल रही थी न. तुम्हें बताया तो था. फोन पर साफ बात नहीं कर रहे हैं, टाल रहे हैं. इसलिए सोचता हूं एक बार हो आऊं.’’

‘‘ठीक है, हो आइए. पर मुझे नहीं लगता कि वहां बात बनेगी. वे लोग मुझे जरा घमंडी लग रहे हैं.’’

‘‘तुम ठीक कह रहे हो. मुझे भी यही लगता है. कल फाइनल कर ही लेता हूं. फिर तुम अपनी भाभी को तो जानते ही हो.’’

‘‘ठीक है, बल्कि यही ठीक होगा. भाभीजी कैसी हैं, उन का घुटना अब कैसा है?’’

‘‘ठीक ही है. डाक्टर ने जो ऐक्सरसाइज बताई है वह करें तब न.’’

‘‘और नीरज आया था क्या?’’

‘‘अरे हां, आजकल आया हुआ है. एकदम ठीक है. तुम्हारे बारे में आज ही पूछ भी रहा था. खैर, तुम कितने बजे तक आ जाओगे?’’

‘‘मैं 4 बजे के करीब आऊंगा.’’

‘‘ठीक है. चाय साथ पिएंगे. फिर खाना खा कर जाना.’’

‘‘रिनी की कहीं और भी बात चल रही है क्या? देखते रहना चाहिए. एक के भरोसे तो नहीं बैठे रहा जा सकता न.’’

‘‘चल रही है न. अब आओ तो बैठ कर इत्मीनान से बात करते हैं.’’

‘‘ठीक है. तो कल पहुंचता हूं. फोन रखता हूं, बाय.’’

मोबाइल फोन का यही चलन है. शुरुआत में न तो नमस्कार, प्रणाम होता है और न ही अंत में होता है. बस, बाय कहा और बात खत्म.

रामचंदर बाबू के एक लड़का नीरज व लड़की रिनी है. रिनी बड़ी है. वह एमबीए कर के नौकरी कर रही है. साढे़ 6 लाख रुपए सालाना का पैकेज है. नीरज बीटैक कर के 3 महीने से एक मल्टीनैशनल कंपनी में जौब कर रहा है. रामचंदर बाबू रिनी की शादी को ले कर बेहद परेशान थे. दरअसल, उन के बच्चे शादी के बाद देर से पैदा हुए थे. पढ़ाई, नौकरी व कैरियर के कारण पहले तो रिनी ही शादी के लिए तैयार नहीं थी, जब राजी हुई तब उस की उम्र 28 साल थी. देखतेदेखते समय बीतता गया और रिनी अब 30 वर्ष की हो गई, लेकिन शादी तय नहीं हो पाई. नातेरिश्तेदारों व दोस्तों को भी कह रखा था. अखबारों में भी विज्ञापन दिया था. मैट्रिमोनियल साइट्स पर भी प्रोफाइल डाल रखा था. अब जब अखबार ने उन का विज्ञापन 30 प्लस वाली श्रेणी में रखा तब उन्हें लगा कि वाकई देर हो गई है. वे काफी परेशान हो गए.

पंकज जब उन के यहां पहुंचा तो 4 ही बजे थे. रामचंदर बाबू घर पर ही थे. पंकज का उन्होंने गर्मजोशी से स्वागत किया. उन के चेहरे पर चमक थी. पंकज को लगा रिनी की बात कहीं बन गई है.

‘‘क्या हाल है रामचंदर बाबू,’’ पंकज ने सोफे पर बैठते हुए पूछा.

‘‘हाल बढि़या है. सब ठीक चल रहा है.’’

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‘‘रिनी की शादी की बात कुछ आगे बढ़ी क्या?’’

‘‘हां, चल तो रही है. देखो, सबकुछ ठीक रहा तो शायद जल्द ही फाइनल हो जाएगा.’’

‘‘अरे वाह, यह तो बहुत अच्छा हुआ. नारायणा वाले तो अच्छे लोग निकले.’’

‘‘नारायणा वाले नहीं, वे लोग तो अभी भी टाल रहे हैं. मैं गया था तो बोले कि 2-3 हफ्ते में बताएंगे.’’

‘‘फिर कहां की बात कर रहे हैं?’’

रामचंदर बाबू खिसक कर उस के नजदीक आ गए.

‘‘बड़ा बढि़या प्रपोजल है. इंटरनैट से संपर्क हुआ है.’’

‘‘इंटरनैट से? वह कैसे?’’

‘‘मैं तुम्हें विस्तार से बताता हूं. इंटरनैट पर मैट्रिमोनियल की बहुत सी साइट्स हैं. वे लड़के और लड़कियां की डिटेल रखते हैं. उन पर अकाउंट बनाना होता है, मैं ने रिनी का अकाउंट बनाया था. मुंबई के बड़े लोग हैं. बहुत बड़े आदमी हैं. अभी पिछले हफ्ते ही तो मैं ने उन का औफर एक्सैप्ट किया था.’’

‘‘लड़का क्या करता है?’’

‘‘लड़का एमटैक है आईआईटी मुंबई से. जेट एयरवेज में चीफ इंजीनियर मैंटिनैंस है. 22 लाख रुपए सालाना का पैकेज है. तुम तो उस का फोटो देखते ही पसंद कर लोगे. एकदम फिल्मी हीरो या मौडल लगता है. अकेला लड़का है. कोई बहन भी नहीं है.’’

‘‘चलिए, यह तो अच्छी बात है. उस का बाप क्या करता है?’’

‘‘बिजनैसमैन हैं. मुंबई में 2 फैक्टरियां हैं.’’

‘‘2 फैक्टरियां? फिर तो बहुत बड़े आदमी हैं.’’

‘‘बहुत बड़े. कहने लगे इतना कुछ है उन के पास कि संभालना मुश्किल हो रहा है. लड़के का मन बिजनैस में नहीं है, नहीं तो नौकरी करने की कोई जरूरत ही नहीं है. कह रहे थे बिजनैस तो रिनी ही संभालेगी, एमबीए जो है. घर में 3-3 गाडि़यां हैं,’’ रामचंदर बाबू खुशी में कहे जा रहे थे.

‘‘इस का मतलब है कि आप की बात हो चुकी है.’’

‘‘बात तो लगभग रोज ही होती है. एक्सैप्ट करने के बाद साइट वाले कौंटैक्ट नंबर दे देते हैं. जितेंद्रजी कहने लगे कि जब से आप से बात हुई है, दिन में एक बार बात किए बिना चैन ही नहीं मिलता. कई बार तो रात के 12 बजे भी उन का फोन आ जाता है. व्यस्त आदमी हैं न.’’

‘‘कुछ लेनदेन की बात हुई है क्या?’’

‘‘मैं ने इशारे में पूछा था. कहने लगे, कुछ नहीं चाहिए. न सोना, न रुपया, न कपड़ा. बस, सादी शादी. बाकी वे लोग बाद में किसी होटल में पार्टी करेंगे. होटल का नाम याद नहीं आ रहा है. कोई बड़ा होटल है.’’

‘‘घर में और कौनकौन है?’’

‘‘बस, मां हैं और कोई नहीं है. नौकरचाकरों की तो समझो फौज है.’’

‘‘आप ने रिश्तेदारी तो पता की ही होगी. कोई कौमन रिश्तेदारी पता चली क्या?’’

‘‘मैं ने पूछा था. दिल्ली में कोई नहीं है. मुंबई में भी सभी दोस्तपरिचित ही हैं. वैसे बात तो वे सही ही कह रहे हैं. अब हमारी ही कौन सी रिश्तेदारियां बची हैं. एकाध को छोड़ दो तो सब से संबंध खत्म ही हैं. मेरे बाद नीरज और रिनी क्या रिश्तेदारियां निबाहेंगे भला. खत्म ही समझो.’’

‘‘चलिए, ठीक ही है. बात आगे तो बढ़े.’’ वैसे मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है, ‘‘शादीब्याह का मामला है, कुछ सावधानियां तो बरतनी ही पड़ती हैं.’’

‘‘हां, सो तो है ही. मैं सावधान तो हूं ही. पर सावधानी के चक्कर में इतना अच्छा रिश्ता कैसे छोड़ दूं. रिनी की उम्र तो तुम देख ही रहे हो.’’

‘‘नहीं, मेरा यह मतलब नहीं था. फिर भी जितना हो सके बैकग्राउंड तो पता कर ही लेना चाहिए.’’

‘‘वो तो करूंगा ही भाई.’’

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जूठन: क्या प्रेमी राकेश के साथ गृहस्थी बसा पाई सीमा?

Serial Story: जूठन– भाग 3

वंदना को 2 प्लेटों में खाना लगाते देख सीमा ने पूछा, ‘‘तुम्हारे अलावा और किस ने खाना नहीं खाया है, वंदना?’’

‘‘यह दूसरी प्लेट का खाना सामने रहने वाली मेरी सहेली निशा के लिए है,’’ वंदना ने खिड़की की तरफ उंगली उठा कर सीमा को अपनी सहेली का घर दिखाया.

‘‘वह यहीं आएगी क्या?’’

‘‘नहीं, मेरा बड़ा बेटा सोनू प्लेट उस के घर दे आएगा.’’

‘‘तुम्हारे दोनों बेटों से तो मैं मिली ही नहीं हूं. कहां हैं दोनों?’’

‘‘छोटे भानू को खांसीबुखार है. वह अंदर कमरे में सो रहा है. सोनू को मैं बुलाती हूं. वह सुबह से निशा के यहां गया हुआ है.’’

वंदना ने पीछे का दरवाजा खोल कर सोनू को आवाज दी. कुछ मिनट बाद सोनू निशा के घर से भागता हुआ बाहर आया.

अपनी मां के कहने पर उस ने सीमा आंटी को नमस्ते करी. बड़ी सावधानी से निशा के लिए लगाई गई खाने की प्लेट दोनों हाथों में पकड़ कर वह फौरन निशा के घर लौट गया.

‘‘बहुत प्यारा बच्चा है,’’ सीमा ने सोनू की तारीफ करी.

‘‘निशा भी उसे अपनी जान से ज्यादा चाहती है… बिलकुल एक मां की तरह. सोनू को 2 मांओं का प्यार मिल रहा है,’’ वंदना ने सीमा की आंखों में झांकते हुए गंभीर लहजे में कहा.

पीछे के बरामदे में एक गोल मेज के इर्दगिर्द 4 कुरसियां रखी थीं. वे दोनों वहीं बैठ गईं. वंदना ने धीरेधीरे खाना खाना शुरू कर दिया.

‘‘क्या निशा के पास अपना बेटा नहीं है?’’ सीमा ने वार्त्तालाप आगे बढ़ाया.

‘‘उस ने तो शादी ही नहीं करी है… तुम्हारी तरह अविवाहित रहने का फैसला कर रखा है

उस ने. हर औरत के सीने में मां का दिल मौजूद होता है. निशा उस दिल में भरी ममता खुले हाथों मेरे सोनू पर लुटाती है, ’’ वंदना ने मुसकराते हुए कहा.

कुछ देर खामोश रह कर सीमा बोली, ‘‘यह सच है कि कभी मैं ने शादी न करने का

फैसला किया था, लेकिन अब मैं किसी के साथ मैं अपनी बाकी जिंदगी गुजारना चाहती हूं. इसी सिलसिले में तुम से कुछ बातें करने आई हूं.’’

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‘‘मैं निशा को भी हमेशा कहती हूं कि शादी कर ले, पर वह सुनती ही नहीं. कहती है कि शादी किए बिना ही मुझे सोनू जैसा प्यारा बेटा मिल गया है, तो मैं बेकार किसी अनजान आदमी से जुड़ कर अपनी स्वतंत्रता क्यों खोऊं. मेरा सोनू उस के बुढ़ापे का सहारा बनेगा, यह विश्वास उस के मन में बहुत मजबूती से बैठ गया है,’’ सीमा के कहे को अनसुना कर वंदना ने निशा और सोनू के संबंध में बोलना जारी रखा.

‘‘राकेश और मैं एकदूसरे को साल भर से ज्यादा समय से जानते हैं. उन से मिलने के बाद ही मेरे जीवन में खुशियां लौटीं, नहीं तो बड़ी नीरस हुआ करती थी मेरी जिंदगी,’’ वंदना के कहे में दिलचस्पी न दिखा कर सीमा ने भी

अपने मन की बातें उसे बताने का सिलसिला

जारी रखा.

‘‘इस निशा की जिंदगी में खुशियों का उजाला मेरे सोनू के कारण है. आए दिन कुछ न कुछ उपहार सोनू को उस से मिल जाता है.’’

‘‘राकेश और मेरे संबंध अच्छी दोस्ती की सीमा को लांघ कर और ज्यादा गहरे हो चुके हैं. वे मुझे बहुत प्रेम करते हैं,’’ सीमा ने वंदना से एक झटके में अपने दिल की बात कह ही दी.

वंदना उदास सी मुसकान अपने होंठों पर ला कर बोली, ‘‘मेरे सोनू का दिल

जीतने को इस निशा ने उसे बहुत बड़ा लालच दे रखा है. खूब पैसे खर्च कर के उस ने सोनू को बाजार की चटपटी चीजें खाने का चसका लगवा दिया है. अब मेरे बेटे को घर का खाना फीका लगता है.’’

‘‘सोनू की बात छोड़ कर तुम राकेश के बारे में मुझ से बातें क्यों नहीं कर रही हो?’’ सीमा चिढ़ उठी.

बड़े अपनेपन से सीमा का कंधा दबाने के बाद वंदना ने उसी सुर में बोलना जारी रखा, ‘‘निशा को अच्छा खाना बनाना नहीं आता है. उस के घर की रसोई सूनी पड़ी रहती है. सोनू अगर उस का अपना बेटा होता, तो क्या वह अपनी घरगृहस्थी को सजानेसंवारने की जिम्मेदारियों से यों बचती? अपने बेटे को अपने हाथों से बढि़या खाना बना कर खिलाना क्या उसे तब बोझ लगता?’’

‘‘एक मां को अपने बेटे की इच्छाएं पूरा करना बोझ नहीं लगता है.’’

‘‘जिस से प्रेम हो, उस की खुशी के लिए कुछ भी करना बोझ नहीं हो सकता. यह निशा तो मेरे सोनू को कानूनन गोद लेने को भी मुझ पर आएदिन दबाव डालती रहती है.’’

‘‘और इस विषय में तुम्हारा जवाब क्या है, वंदना?’’

वंदना धीमे से हंसने के बाद बोली, ‘‘बिना प्रसव पीड़ा भोगे क्या कोई स्त्री सच्चे अर्थों में मां बन सकती है? घरगृहस्थी के झंझटों व चुनौतियों का सामना करने की शक्ति, खुद कष्ट उठा कर अपने बच्चों की हर सुखसुविधा का ध्यान रखने का जज्बा एक मां के ही पास होता है… किसी मौसी, चाची, आंटी या आया के बस का नहीं है दिल से उतनी मेहनत करना.’’

‘‘यह तो तुम ठीक ही कह रही हो. मैं भी अब अपनी घरगृहस्थी बसाने…’’

वंदना ने उसे टोक कर चुप किया और गंभीर लहजे में आगे बोली, ‘‘मेरे सोनू को निशा कितना भी प्यार करे, पर वह हमेशा मेरा बेटा ही रहेगा… सारा समाज उसे मेरे बेटे के नाम से ही जानता है. निशा के गिफ्ट, उस का सोनू के लिए खूब खर्चा करना, सोनू की उस के घर पर जाने की चाह जैसी बातें इस तथ्य को कभी बदल नहीं सकतीं कि वह मेरा बेटा है. मैं तुम से एक बात पूछूं?’’

‘‘पूछो,’’ सीमा अचानक गंभीर हो गई, क्योंकि उसे पहली बार यह एहसास हुआ कि वंदना सोनू और निशा की बातें कर के उस से कुछ खास कहना चाह रही है.

‘‘मैं अपने कलेजे के टुकड़े को निशा को गोद देने के लिए मजबूरन राजी भी हो जाऊं, तो क्या वह सचमुच मेरे बेटे की मां बन जाएगी? सोनू को जन्म देने का आनंद उसे कैसे मिलेगा? उस के साथ अब तक बिताए 8 सालों की पीड़ा व खुशियां देने वाली जो यादें मेरे पास हैं, उन्हें निशा कहां से लाएगी? क्या मुझे रुला कर वह हंस पाएगी?’’ वंदना की आंखों में अचानक आंसू छलक आए.

सीमा एक गहरी सांस खींच कर बोली, ‘‘तुम्हारा दिल दुखाए बिना निशा सोनू को नहीं पा सकती है और तुम्हारी सहेली होने के नाते उसे सोनू को बेटा बनाने की चाह छोड़ देनी चाहिए. मुझे भी तुम से मिलने नहीं आना चाहिए था. तुम्हारे व्यक्तित्व को जानने के बाद मेरे मन की बेचैनी व असंतोष और ज्यादा बढ़ा है.’’

वंदना ने उस के हाथ पर हाथ रखा और भरे गले से बोली, ‘‘सीमा, तुम्हें अपनी छोटी बहन मान कर कुछ अपने दिल की बातें कहती हूं. मुझे अपने बच्चों, पति व घरगृहस्थी से ज्यादा प्यारा और कुछ नहीं है. राकेश को छोड़ने की कल्पना करना भी मेरे लिए असहनीय है.

‘‘राकेश मुझ से ज्यादा तुम्हें चाहते हैं, जो मेरे लिए ठीक नहीं है, उन की हर सुखसुविधा का खयाल मैं खुशीखुशी रखती हूं. अपने बेटों को वे अपनी जान से ज्यादा चाहते हैं. उन के कारण वे सदा इस घर से जुड़े रहेंगे, यह बात मेरे मन को गहरा संतोष और सुरक्षा देती है.’’

‘‘तुम उतनी सीधीसादी हो नहीं, जितना दिखती हो. मैं तुम्हारे पास और ज्यादा देर नहीं बैठना चाहती,’’ सीमा अचानक उठ खड़ी हुई.

वंदना ने उदास लहजे में जवाब दिया, ‘‘अगर तुम मेरे दिल में झांकने की क्षमता पैदा

कर सको, तो तुम्हें मुझ से सहानुभूति होगी.

मुझ पर दया आएगी. प्रेम के बदले प्रेम न पाने

की पीड़ा में लाख कोशिश कर के भी नहीं भुल पाती हूं.’’

‘‘राकेश और सोनू के व्यवहार में बड़ी समानता है. मेरे पति तुम से और बेटा निशा से अपनी खुशियों की खातिर जुड़े हुए हैं, लेकिन इस घर से संबंध तोड़ने में दोनों की कतई दिलचस्पी नहीं है.

बाजार का खाना मेरे बेटे की सेहत के लिए बुरा है, यह जानते हुए भी मैं

सोनू की खुशी की खातिर चुप रहती हूं. राकेश तुम से जुड़े हैं, इस की शिकायत भी मैं कभी उन से नहीं करूंगी.

‘‘मेरे बेटे व मेरे पति से मेरा संबंध मेरी मौत ही तोड़ सकती है. मैं तो हर हाल में इन के साथ संतुष्ट रह लूंगी, पर निशा को या तुम्हें इन के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ कर क्या मिल रहा है? उसे बेटा या तुम्हें जीवनसाथी चाहिए, तो दोनों बिलकुल नई शुरुआत क्यों नहीं करती हो? दूसरे की कितनी भी स्वादिष्ठ जूठन खाने की तुम दोनों को जरूरत ही क्या है?’’

कई पलों तक खामोश खड़ी रह कर सीमा वंदना को आंसू बहाते देखती रही. फिर आगे बढ़ कर उस ने वंदना का माथा चूम कर एक शब्द मुंह से निकाला, ‘‘थैंक यू.’’

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आगे और कुछ बोले बिना सीमा झटके से मुड़ी और ड्राइंगरूम की दिशा में बढ़ गई.

ड्राइंगरूम में राकेश अभी भी दीवान पर सो रहा था. सीमा ने अपना पर्स मेज पर से उठाया और राकेश से अलविदा कहे बिना उस के घर से बाहर चली आई.

राकेश से हमेशा के लिए अपना अवैध प्रेम संबंध समाप्त करने का फैसला पलपल उस के मन में अपनी जड़ें मजबूत करता जा रहा था.

Serial Story: जूठन– भाग 2

‘‘मैं तुम्हारे साथ तुम्हारी प्रेमिका व दोस्त बन कर रहने को तैयार हूं, पर शादी कर के साथसाथ जिंदगी गुजारने का मजा ही कुछ और होगा. इस बारे में क्या कहते हो राकेश?’’ करीब महीना भर पहले सीमा ने राकेश के फ्लैट में उसे बैड टी पेश करते हुए यह सवाल पूछ ही लिया था.

‘‘तुम तैयार हो तो मैं तुम से आज ही दूसरी शादी करने को तैयार हूं,’’ राकेश ने उस के सवाल का जवाब मजाकिया अंदाज में दिया.

‘‘वैसा करना तो खुद को धोखा देना होगा, राकेश,’’ सीमा गंभीर बनी रही.

‘‘अगर तुम ऐसा समझती हो, तो शादी करने की बात क्यों उठा रही हो?’’

‘‘अपने मन की इच्छा तुम्हें नहीं, तो किसे बताऊंगी.’’

‘‘वह ठीक है, पर हमारी शादी होने का कोई रास्ता है भी तो नहीं.’’

‘‘तुम मुझे दिल की गहराइयों से प्रेम करते हो न?’’

‘‘बिलकुल,’’ राकेश ने उस के होंठों को चूम लिया.

‘‘तुम ने हमेशा मुझ से कहा है कि तुम्हारी पत्नी वंदना नहीं, बल्कि मैं तुम्हारे दिल पर राज करती हूं. यह सच है न?’’

‘‘हां, वंदना मेरे दोनों बेटों की मां है. वह सीधीसादी औरत वैसे आकर्षक व्यक्तित्व की मालकिन नहीं जैसी मैं चाहता था. अपने मातापिता की पसंद से मुझे शादी नहीं करनी चाहिए थी, पर अब मैं अपना कर्तव्य समझ कर वंदना के साथ जुड़ा हुआ हूं,’’ राकेश ने गंभीर लहजे में उस से अपने मन की बात कही.

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‘‘क्या हमारी खुशियों की खातिर तुम वंदना को तलाक नहीं दे सकते हो?’’ सीमा ने तनावग्रस्त लहजे में अपनी इच्छा बयान कर ही दी.

‘‘नहीं, और इस बारे में तुम मुझ पर कभी दबाव भी मत बनाना, सीमा. वंदना मुझे छोड़ने का फैसला कर ले, तो बात जुदा है. उस से तलाक लेने की बात करते हुए मैं अपनी नजरों में बुरी तरह गिर जाऊंगा, क्योंकि वह तो मेरे प्रति पूरी तरह से समर्पित है. बिना कुसूर उसे तलाक की पीड़ा से गुजारना बिलकुल अन्यायपूर्ण होगा,’’ राकेश के बोलने का लहजा ऐसा कठोर था कि सीमा ने इस विषय पर आगे एक शब्द नहीं कहा.

उसी दिन सीमा ने वंदना से मिलने का फैसला मन ही मन कर लिया था. ऐसा करने का कोई साफ मकसद उसे समझ नहीं आया, पर वह वंदना के व्यक्तित्व को समझने की इच्छुक जरूर थी. मन के किसी कोने में शायद यह उम्मीद छिपी थी कि वंदना खुद राकेश से अलग हो जाए और इस लक्ष्य को पूरा करने का कोई रास्ता इस मुलाकात के जरीए सीमा के हाथ लग जाए.

वंदना उसे बहुत सीधीसादी साधारण सी महिला लगी. उस ने सीमा का खुले दिल से स्वागत किया, तो सीमा के लिए उस के प्रति अपने मन में चिड़, नाराजगी व दुश्मनी के भाव पैदा करना मुश्किल हो गया.

वंदना के प्रति उसे राकेश का व्यवहार जरूर अजीब लगा. अगर वह राकेश से प्रेम न करती होती, तो उसे अपने प्रेमी का उस की पत्नी से व्यवहार सरासर गलत, घटिया और अन्यायपूर्ण लगता.

अपने घर में राकेश उस के साथ खूब खुल कर हंसबोल रहा था. उसे न सीमा का हाथ पकड़ने से परहेज था, न रोमांटिक वाक्य मुंह से निकालने से. कहीं वंदना यह सब देख न ले, इस बात का भय सिर्फ सीमा को था, राकेश को नहीं. जब एक मौके पर राकेश ने उसे अचानक बांहों में भर कर उस के होंठों को चूमा, तो सीमा बहुत घबरा उठी.

‘‘यह क्या कर रहे हो राकेश? अगर वंदना ने हमें ऐसी गलत हरकत करते देख लिया, तो कम से कम मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस होगी,’’ वह सचमुच परेशान और नाराज हो उठी.

‘‘रिलैक्स, सीमा,’’ राकेश लापरवाह अंदाज में मुसकराया, ‘‘मेरे दिल में तुम्हारे लिए सच्चा प्यार है. तुम मेरे लिए सिर्फ वासनापूर्ति का साधन नहीं हो. जो वंदना से कभी नहीं मिली, वह खुशी तुम से जुड़ कर पाई है मैं ने.’’

‘‘लेकिन यहां… वंदना की मौजूदगी में… उस के घर में तुम मुझे प्यार करो, यह मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा.’’

‘‘अब कुछ गड़बड़ नहीं करूंगा, पर तुम एक बात का ध्यान रखो.’’

‘‘किस बात का?’’

‘‘वंदना से डरो मत. अगर कभी उस ने मुझे मजबूर किया, तो मैं तुम्हारा साथ चुनूंगा और उसे छोड़ दूंगा,’’ राकेश की अत्यधिक भावुकता सीमा को अच्छी तो लगी, पर उस के दिल का एक कोना बेचैन भी हो उठा.

सीमा के मन में वंदना के साथ वार्त्तालाप करने की इच्छा अचानक बहुत बलवती हो गई. उस के व्यक्तित्व, उस की खूबियों व कमियों को जाननासमझना सीमा के लिए अहम था. ऐसा किए बिना वह राकेश को उस से अलग करने का कोई रास्ता नहीं ढूंढ़ सकती थी.

उसे अपने मन की इच्छा पूरी होती नजर आ रही थी. राकेश एक पल के लिए उस के पास से उठने के मूड में नहीं था. उस की दिलचस्पी वंदना को बुला कर उसे वार्त्तालाप में शामिल करने में रत्ती भर न थी. वंदना भोजन की तैयारी में व्यस्त थी. सीमा का मन कह रहा था कि वह जानबूझ कर उन दोनों से दूर रहने को अति व्यस्तता का बहाना बना रही थी.

वंदना ने उन के साथ खाना भी नहीं खाया. सीमा ने काफी जोर लगाया, पर वह साथ खाने नहीं बैठी.

‘‘वंदना हमेशा मुझे खिला कर खाना खाती है. तुम शुरू करो, यह बाद में खा लेगी,’’ राकेश लापरवाही से बोला और फिर बड़े उत्साह के साथ सीमा की प्लेट भरने में लग गया.

सीमा ने नोट किया कि सारी चीजें राकेश की पसंद की और स्वादिष्ठ बनी थीं.

‘‘खाना कैसा बना है?’’ राकेश ने यह सवाल वंदना की उपस्थिति में सीमा से पूछा.

‘‘बहुत बढि़या,’’ सीमा ने उत्साहित लहजे में सचाई बयान करी.

‘‘वंदना वाकई बहुत अच्छा खाना बनाती है. इसी कारण मैं वजन नहीं कम कर पाता हूं.’’

सीमा ने देखा कि राकेश के मुंह से अपनी जरा सी तारीफ सुन कर वंदना का चेहरा फूल सा खिल उठा. राकेश उस की तरफ देख भी नहीं रहा था, पर वंदना की प्यार भरी नजरों का केंद्र वही था.

‘वंदना राकेश को बहुत चाहती है. शायद यह उसे तलाक देने को कभी राजी नहीं होगी,’ सीमा के मन में यह विचार अचानक उभरा और वह बेचैनी से भर गई.

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खाना खाने के बाद राकेश ड्राइंगरूम में पड़े दीवान पर लेट गया. कुछ देर सीमा से बातें करने के बाद उस की आंख लग गई. सीमा उस के पास से उठ कर वंदना से मिलने रसोई में पहुंच गई.

आगे पढ़ें- वंदना को 2 प्लेटों में खाना लगाते देख सीमा ने पूछा, ‘‘तुम्हारे…

Serial Story: जूठन– भाग 1

मेरठ पहुंचने के बाद सीमा को राकेश का घर ढूंढ़ने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई. कार से उतर कर वह मुख्य दरवाजे की तरफ चल पड़ी. इस वक्त ऊपर से शांत व सहज नजर आने के बावजूद अंदर से उस का मन काफी बेचैन था.

दरवाजा खोलने वाली स्त्री से नमस्ते कर के उस ने पूछा, ‘‘क्या राकेश घर पर हैं?’’

‘‘तुम सीमा हो न?’’ उस स्त्री की आंखों में एकदम से पहचानने के भाव उभरे और फिर मुसकरा दी.

‘‘हां, पर आप ने कैसे पहचाना?’’

‘‘एक बार इन्होंने औफिस के किसी फंक्शन की तसवीरें दिखाई थीं. अत: याद रह गई. आओ, अंदर चलो,’’ सीमा का हाथ अपनेपन से पकड़ वह उसे घर के भीतर ले गई.

‘‘मैं कौन हूं यह तो तुम समझ ही गई होगी. मेरा नाम…’’

‘‘वंदना है,’’ सीमा ने उसे टोका, ‘‘मैं भी आप को पहचानती हूं. राकेश के फ्लैट में जो फैमिली फोटो लगा है, उसे मैं ने कई बार देखा है.’’

सीमा के कहे पर कोई खास प्रतिक्रिया व्यक्त न कर के वंदना ने सहज भाव से पूछा, ‘‘इन की बीमारी के बारे में कैसे पता चला?’’

‘‘राकेश मेरे सीनियर हैं. उन से रोज मुझे फोन पर बात करनी पड़ती है. अब कैसी तबीयत है उन की?’’ जवाब देते हुए सीमा की आवाज में झिझक या घबराहट के भाव नहीं थे.

‘‘तुम्हारे इस सवाल का जवाब वे खुद देंगे. मैं उन्हें भेजती हूं. बस यह बता दो कि तुम चायकौफी पीओगी या ठंडा?’’

‘‘कौफी मिल जाए तो बढि़या रहेगा.’’

‘‘तुम हमारी खास मेहमान हो, सीमा. आज तक इन के औफिस के किसी अन्य सहयोगी से

मैं नहीं मिली हूं. तुम्हारी खातिरदारी में मैं कोई कसर नहीं छोड़ूंगी. मैं उन्हें भेजती हूं,’’ बड़े दोस्ताना अंदाज में अपनी बात कह कर वंदना अंदर चली गई.

अकेली बैठी सीमा ने ड्राइंगरूम में चारों तरफ नजर दौड़ाई. हर चीज

साफसुथरी व करीने से सजी थी. वंदना एक कुशल गृहिणी है, यह बात ड्राइंगरूम की हालत साफ दर्शा रही थी.

फिर उस का मन वंदना के व्यक्तित्व के बारे में सोचने लगा. उस के नैननक्श सुंदर होने के कारण सांवला चेहरा भी आकर्षित करता था.

2 बेटों की मां बनने के कारण शरीर कुछ ज्यादा भरा था, पर वह पूरी तरह चुस्त व स्वस्थ नजर आती थी.

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सीमा को पता था कि वह सिर्फ 10वीं कक्षा तक पढ़ी है. उस का यह अनुमान गलत निकला कि वंदना घरगृहस्थी के झंझटों में उलझी परेशान व थकीहारी सी स्त्री निकलेगी. सुबह के 10 बजे उस ने उसे उचित ढंग से तैयार व आत्मविश्वास से भरा पाया था.

कुछ देर बाद राकेश ने ड्राइंगरूम में प्रवेश किया. सीमा के बिलकुल पास आ कर उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुम्हें यहां देख कर बड़ी सुखद हैरानी हो रही है. कल फोन पर तुम ने बताया क्यों नहीं कि यहां आओगी?’’

‘‘मैं बताती, तो क्या तुम मुझे आने देते?’’ सीमा उस के हाथ पर हाथ रख कर शरारती अंदाज में मुसकराई.

‘‘शायद नहीं.’’

‘‘तभी मैं ने बताया नहीं और चली आई. आज तबीयत कैसी है?’’

‘‘पिछले 2 दिनों से बुखार नहीं आया, पर कमजोरी बहुत है.’’

‘‘दिख भी बहुत कमजोर रहे हो. अभी कुछ दिन आराम करो.’’

‘‘नहीं, परसों सोमवार से ड्यूटी पर आऊंगा. तुम से ज्यादा दिन दूर रहना अच्छा भी नहीं लग रहा है.’’

‘‘जरा धीमे बोलो वरना तुम्हारी श्रीमतीजी सुन लेंगी. वैसे एक बात पूछूं?’’

‘‘पूछो.’’

‘‘क्या वंदना को हमारे प्यार के बारे में अंदाजा है?’’

‘‘होगा ही, पर उस ने अपने मुंह से कभी कुछ कहा नहीं है,’’ राकेश ने लापरवाही से कंधे उचका कर जवाब दिया.

‘‘उन के अच्छे व्यवहार से तो मुझे ऐसा लगा कि उन के मन में मेरे प्रति कोई शिकायत या नाराजगी नहीं है.’’

‘‘तुम मेरी परिचित और सहयोगी हो, और इसी कारण वह तुम से गलत व्यवहार करने की हिम्मत नहीं कर सकती. तुम मेरे घर में बिलकुल सहज हो कर हंसोबोलो, सीमा. वंदना को ले कर मन में किसी तरह की टैंशन मत पैदा करो,’’ उस का गाल प्यार से थपथपाने के बाद राकेश सामने वाले सोफे पर बैठ गया.

राकेश उस से औफिस की गतिविधियों के बारे में पूछने लगा. कुछ देर बाद वंदना कौफी व नाश्ते का सामान मेज पर रख कर चली गई. सीमा ने उसे साथ में कौफी पीने को कहा, पर रसोई के काम का बहाना बना वंदना उन के पास नहीं बैठी.

अपने प्रेमी राकेश से कई दिनों बाद आमनेसामने बैठ कर बातें करते हुए सीमा वंदना को भूल सी गई. वंदना मेज से कपप्लेट उठा कर ले जाने के बाद ड्राइंगरूम में साथ बैठने आई भी नहीं.

सीमा को राकेश के प्रेम में पड़े 1 साल से ज्यादा समय हो चुका था. उस के आकर्षक व्यक्तित्व ने पहली मुलाकात से ही उस के दिलोदिमाग पर जादू सा कर दिया था. दुनिया के कहने की परवाह न करते हुए उस ने कुछ सप्ताह बाद ही अपना तनमन राकेश को समर्पित कर दिया था.

उन के प्रेम संबंध की जानकारी जब सीमा के मातापिता को मिली, तब उन्होंने खूब शोर मचाया.

‘‘मैं अब 30 साल की हो रही हूं. मुझे छोटी लड़की समझ कर रातदिन समझाने की आदत छोड़ दीजिए आप दोनों,’’ सीमा ने एक शाम उन दोनों को सख्त लहजे में समझा दिया, ‘‘मेरी शादी की फिक्र न करें, क्योंकि उचित समय पर इस काम को अंजाम देने में आप दोनों असफल रहे हैं. अपने भविष्य के सुखदुख की चिंता मैं खुद कर लूंगी. अगर मुझे राकेश से मेरे संबंध को ले कर आप दोनों ने परेशान करना जारी रखा, तो मैं अपने रहने का अलग इंतजाम कर लूंगी.’’

सीमा की ऐसी धमकी के बाद उस के मातापिता ने नाराजगी भरी खामोशी इख्तियार कर ली. अपनी कमाऊ व जिद्दी बेटी से जबरदस्ती कुछ करवा या मनवा लेना उन के लिए अतीत में भी कभी संभव नहीं रहा था.

उम्र बढ़ती गई और जब कोई मनपसंद जीवनसाथी सामने नहीं आया तो सीमा ने मन ही मन अविवाहित रहने का फैसला कर लिया था. लेकिन अकेले जिंदगी काटना आसान नहीं होता. अपने परिवार से दूर अकेले रह रहे सुंदर व स्मार्ट राकेश ने प्रयास कर के उस के दिल में प्रेम की जगह बना ही ली थी.

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इस प्रेम संबंध ने सीमा की नीरस जिंदगी में खुशी, संतोष और मौजमस्ती का रस भर दिया. राकेश उस के दिलोदिमाग पर ऐसा छा गया कि उस के साथ जिंदगी गुजारने की इच्छा सीमा के मन में धीरेधीरे मजबूत जड़ें पकड़ने लगी.

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दुनियादारी

Serial Story: दुनियादारी– भाग 1

ताऊजी के लिखे इस पत्र ने अनायास ही घर में खलबली मचा दी थी. मां का रोनाधोना शुरू हो गया था, ‘‘अब जा कर उन्हें सुध आई है. जब यह 12वीं पास हुई थी तब कितना कहा था उन से कि शहर में पढ़ा दो इस को. तब तो चुप लगा गए और अब जब लड़की के ब्याह का समय आया तो कहते हैं कि इसे शहर भेज दूं नौकरी करने. कोई जरूरत नहीं है, इस के भाग्य में जो लड़का होगा, वही इसे मिलेगा.’’

पापा ने शांत स्वर में कहा, ‘‘मैं ने ही उन को लिखा था कि शेफाली के लिए कोई अच्छा लड़का हो तो बताएं. उन्होंने यही तो लिखा है कि आजकल सब नौकरीशुदा लड़की को ही तरजीह देते हैं. इसलिए इसे सुनंदा के पास भेज दो. जब तक लड़का नहीं मिलता, कहीं कोई नौकरी कर लेगी.’’

‘‘तो क्या बेटी के ब्याह का दहेज बेटी की कमाई से ही जोड़ोगे? हमें नहीं भेजना है इसे शहर. अब तक जैसे निबाहा है, आगे भी निभ जाएगी. लेकिन जवान बेटी को इतनी दूर नहीं भेजूंगी. आएदिन कैसीकैसी खबरें आती रहती हैं. दिल्ली भेजने को मन नहीं मानता.’’

‘‘अरे, अकेले थोडे़ रहेगी. सुनंदा के यहां रहेगी.’’

‘‘बेटी दामाद पर बोझ बनेगी. क्या कहेंगे दामादजी.’’

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‘‘अरे, तो मैं ने थोड़ी उन से कहा था. यह भाई साहब का सुझाव है. कोई अच्छा लड़का मिल जाएगा तो इस के हाथ पीले कर देंगे. नहीं जंचा तो हाथ जोड़ कर माफी मांग लेंगे. अब इस मामले में ज्यादा बहस मत करो.’’

दूसरी तरफ उस पत्र ने शेफाली के युवा मन को स्वप्निल पंख दे दिए थे. उस ने भी मां को मनाना शुरू कर दिया, ‘‘मां, मुझे एक बार जाने दो न. कौन सा मैं नौकरी करने की सोच रही थी. लेकिन अगर मौका मिल रहा है तो हर्ज क्या है? अगर काम जंच गया तो तुम आ कर मेरे साथ रहना. हम अलग घर ले लेंगे. सोचो न मां, आगे छोटूबंटू के लिए भी नए रास्ते खुल जाएंगे.’’

रोतीबिसूरती मां मान गईं. शेफाली के जाने की तैयारी शुरू हो गई. आंसू भरी आंखों से विदाई देते हुए मां ने सावधानी से रहने की ढेरों हिदायतें दे डाली थीं.

ट्रेन की खिड़की से ‘नई दिल्ली रेलवे स्टेशन’ का बोर्ड पढ़ते ही शेफाली के दिल की धड़कनें एक नई ताल में धड़क उठी थीं. उसे लेने सुनंदा दीदी के पति संदीप जीजाजी स्टेशन आए थे. बड़ा ही आकर्षक व्यक्तित्व था उन का. उस ने बढ़ कर पैर छूने चाहे तो उन्होंने बीच में ही रोक दिया. वह भी झिझक उठी. जब दीदी का विवाह हुआ था तब वह 8वीं में पढ़ती थी. लेकिन अब ग्रेजुएट हो गई थी.

स्टेशन से दीदी के घर तक का उस का सफर कितना रोमांचक और उत्सुकता से भरा था. वह अपने जीवन के इन सुखद क्षणों को सराहे बिना नहीं रह सकी, जिस ने उसे इतनी बड़ी कार में बैठने का मौका दिया था, अचानक एहसास हुआ कि इसी दुनिया में लोग इस तरह भी शान से जीते हैं.

खिड़की से बाहर झांकती शेफाली अपने देश की राजधानी के एकएक कोने के परिचय को आत्मसात करती जा रही थी. चौड़ी सड़कें, बडे़छोटे हर आकार के घर. बच्चों के खेलने के लिए जहांतहां बने पार्क. बढि़या होटल, सजीधजी दुकानें देख उस का मनमयूर नाच उठा. वह सोचने लगी कि यहां लड़कियां कितनी आजाद हैं. आराम से जींसपैंट, स्कर्ट और झलकता हुआ टौप पहन कर घूमती हैं. अपनेआप आटो रोक कर चढ़ जाती हैं. सब अपने में निश्ंिचत, बेधड़क घूम रही हैं. उसे आजादी का यह माहौल देख कर बहुत अच्छा लगा.

उस की सोच को विराम तब लगा जब जीजाजी ने जोर से हौर्न बजाया. गाड़ी एक बडे़ से फाटक के सामने रुकी थी. वरदी पहने एक चुस्त आदमी ने आ कर गेट खोला. पार्किंग में एकसाथ कई तरह की गाडि़यां खड़ी थीं. रंगबिरंगे कपड़ों में सजेसंवरे, दौड़ते बच्चों को खेलते देख कर उस ने अंदाजा लगाया कि यहां सब अमीर लोग रहते हैं.

जीजाजी का घर छठी मंजिल पर था. लिफ्ट से निकलते हुए पापा हड़बड़ा गए, ‘कहीं फंस गए तो इसी में रह जाएंगे,’ कह कर उन्होंने अपनी झेंप मिटाई थी. आमनेसामने कुल मिला कर 4 मकान थे. जीजाजी ने आगे बढ़ कर घंटी दबाई. घंटी दबाते ही एक मीठी फिल्मी धुन हवा में तैर गई.

हर घर के बाहर की सजावट वहां रहने वालों के कलात्मक शौक को दर्शा रही थी. दीदी के यहां दरवाजे के दोनों तरफ मिट्टी के बडे़बडे़ छेद वाले घडे़ रखे थे. मोटा मखमली पायदान, कतारों में लगे पौधे.

अंदर से किसी के आने की आहट हुई तो वह सहज हो गई. थोड़ी देर में दरवाजा खुला और एक अजनबी चेहरा नजर आया.

‘‘निर्मला, सामान उठाना,’’ कह कर जीजाजी भीतर चले गए थे.

‘‘मेमसाब बाथरूम में हैं,’’ कह कर निर्मला भी परदे के पीछे चली गई.

दोनों बापबेटी, सामने बिछे कालीन को पार कर, सोफे में धंस गए. घर किसी फिल्मी सेट की तरह सजा हुआ था. हर चीज इतनी कीमती कि दोनों कीमत का अंदाजा भी नहीं लगा सकते थे. बड़ा सा टीवी, लेदर का सोफा, शीशे की गोल सेंटर टेबल, बढि़या कालीन, चमकदार भारी परदे. सजावट की अलमारी में रखी महंगीमहंगी चीजें, सुंदरसुंदर बरतन, अनेक प्रकार के कप और ग्लास, रंगबिरंगी मूर्तियां और सुनहरे फ्रेम में जड़ी बड़ीबड़ी पेंटिंग.

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अपने 2 कमरे वाले सरकारी घर को याद कर शेफाली सकुचा उठी थी. आंखों के सामने अपने घर की बेतरतीबी पसर गई. यहां आने से पहले वही घर शेफाली को कितना अच्छा लगता था. गृहप्रवेश वाले दिन सब की बधाइयां लेते हुए मां का कलेजा गर्व से कितना चौड़ा हो गया था. लेकिन कितना फर्क था इन 2 घरों की हैसियत में. ताऊजी के शहर आने से उन के परिवार के सदस्यों के रहनसहन के स्तर में कितना परिवर्तन आ गया था.

पल भर में ही निर्मला ट्रे में शीशे के चमचमाते गिलास में ठंडा पानी डाल कर ले आई. उस के बाद चाय और मिठाईनमकीन से सजी प्लेट रख गई. वह अपने काम में कुशल थी. अभी तक दीदी नहीं आईं. वक्त जैसे उन के इंतजार में रुक गया था. कितनी देर हो गई. वह तो जानती थीं कि आज हम आ रहे हैं फिर भी…जीजाजी भी अंदर जा कर गायब हो गए. ये भी कोई बात है. उस ने उकता कर पापा की तरफ देखा.

भतीजी के घर की शानोशौकत ने उन की आंखें फैला दी थीं. उन के चेहरे की खुशी और उत्कंठा के भाव बता रहे थे कि वह मां को सब बताने के लिए बेचैन हो रहे थे.

सच है, जिस लक्ष्मी को शेफाली के पापा ने सदा ज्ञान के आगे तुच्छ समझा था वही आज अपने भव्य रूप में उन्हें लुभा रही थी. सदा के संतोषीसुखी, पितापुत्री अपनी गरीबी को सोच कर आपस में ही संकुचित हो रहे थे.

‘‘अरे, चाय ठंडी हो रही है, लीजिए न चाचाजी.’’

मुसकुराती हुई, खुशबू बिखेरती हुई सुनंदा दीदी की मीठी आवाज गूंजी. कितनी गोरी, कितनी सुंदर, कितनी स्मार्ट लग रही थीं. उन्होंने आगे बढ़ कर पापा के पैर छुए.

पापा ने गद्गद कंठ से आशीर्वाद दिया.

शेफाली जैसे ही दीदी के पैर छूने को झुकी, उन्होंने उसे गले लगा लिया. उस के मन की सारी आशंकाएं खत्म हो गईं. वह सोच रही थी कि पहले से ही दर्पभरी दीदी इस वैभवऐश्वर्य को पा कर और घमंडी हो गई होंगी, लेकिन वह बदल गई हैं…यह भी नहीं सोचा कि रास्ते की गर्दधूल से सनी है मेरी देह. चाय पीते हुए दीदी ने सब का हाल पूछा. फिर उस का कमरा दिखाया.

‘‘बेटा, इतने प्यार से सुनंदा तुम को रख रही है, तुम भी उसे पूरा मानसम्मान देना. अच्छे से रहना. तुम्हारी मां सुनेगी तो खुश हो जाएगी. मुझे भी तसल्ली हुई कि तुम्हें यहां कोई कष्ट नहीं होगा.’’

भीतर से जीजाजी तैयार हो कर निकले. उन्हें आफिस जाना था. वह नाश्ता कर के विदा ले कर चले गए.

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‘‘आप लोग भी नहाधो लीजिए और नाश्ता कर के आराम कीजिए,’’ कह कर दीदी फोन पर व्यस्त हो गईं.

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Serial Story: दुनियादारी– भाग 2

खाना खा कर पापा जा कर लेट गए. उन्हें शाम की गाड़ी से लौटना था. उसे भी आराम करने को कह कर दीदी अपने कमरे में चली गईं.

शाम को दीदी ने पापा से कहा, ‘‘चाचाजी, मैं कुछ कपडे़ लाई थी, छोटूबंटू के लिए और चाचीजी के लिए साडि़यां. इन्हें रख लीजिए. मैं थोड़ा बाजार से आती हूं, फिर आप को स्टेशन छोड़ कर आफिस निकल जाऊंगी.’’

‘‘अभी शाम को आफिस, बिटिया,’’ पापा कहते हुए हिचके.

‘‘हां, चाचाजी, मैं एक काल सेंटर में नौकरी करती हूं. मेरे सारे क्लाइंट्स अमेरिकन हैं. अब भारत और अमेरिका में तो दिनरात का अंतर होता ही है. इसीलिए रात को नौकरी करनी पड़ती है. वैसे शिफ्ट बदलती रहती हैं. कंपनी सारी सुविधाएं देती है. आनेजाने के लिए कार पिकअप, खानापीना सब. सुबह 12 बजे मैं घर आ जाती हूं,’’ दीदी ने सहज हो कर जवाब दिया.

‘‘और दामादजी?’’

‘‘वह कंप्यूटर की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में सिस्टम एनालिस्ट हैं. उन की ड्यूटी सुबह 10 से शाम 7 बजे तक होती है. वह 8 बजे शाम तक आएंगे. आप से भेंट नहीं हो पाएगी.’’

‘‘दीदी, आप अमेरिकियों से किस भाषा में बात करती हैं?’’ शेफाली ने जिज्ञासा जाहिर की.

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‘‘अमेरिकन इंग्लिश में, जिस की कर्मचारियों को ट्रेनिंग दी जाती है,’’ दीदी ने मुसकरा कर कहा, ‘‘तुम भी सब सीख जाओगी. निर्मला, खाना जल्दी बना लेना. चाचाजी को जाना है.’’

‘‘घर की सारी व्यवस्था नौकरानी के हाथों में है. ऐसी नौकरी का क्या फायदा,’’ पापा बोले, ‘‘शेफाली, तुम ऐसी नौकरी मत करना, चाहे कितना भी पैसा मिले. हम लोग तो शहर के रहने वाले नहीं हैं. तुम्हारा ब्याहशादी सब बाकी है अभी, समझी न.’’

शेफाली ने हामी भरी, ‘‘आप बेफिक्र रहें, पापा.’’

पापा के जाने के बाद शेफाली ने निर्मला से पूछा, ‘‘मिंटी नजर नहीं आ रही है.’’

‘‘आज देर से आई है और तब आप सो रही थीं. अभी वह सो रही है.’’

निर्मला ने खाना बना कर टेबल पर रखा, फटाफट रसोई साफ की और बोली, ‘‘साहब आएंगे तो आप लोग खा लेना.’’

जीजाजी आते ही अपने कमरे में चले गए. वहां से टीवी चलने की आवाज आती रही. उस से उन्होंने बात भी नहीं की. वह अपनेआप को उपेक्षित महसूस करने लगी. रात को बिना खाए ही सो गई.

सुबह निर्मला के आने पर शेफाली की नींद टूटी. उस ने आते ही मिंटी का नाश्ता बनाया. फिर उसे उठाया, तैयार किया और 8 बजे स्कूल बस में चढ़ा आई. फिर जीजाजी के नाश्ते की तैयारी में लग गई. 10 बजे तक जीजाजी भी चले गए.

बेहद जल्दीजल्दी निर्मला काम निबटा रही थी. झाड़ ूपोंछा, बिस्तर झाड़ना, सोफे, परदे, खिड़की, दरवाजे, शोकेस सब की डस्ंिटग की. फिर फटाफट खाना बनाया. मशीन में कपड़े डाले. 12 बजे तक उस ने तमाम काम निबटा लिए, नहाधोकर शैंपू किए हुए बालों को फहराते हुए वह कपडे़ सुखाने लगी.

एकदम घड़ी की सुईयों से बंधा था निर्मला का एकएक काम. इतने काम में तो मां का सारा दिन निकल जाता है और फिर भी वह अस्तव्यस्त सी घूमती रहती हैं. मां ही क्या ज्यादातर औरतों का यही हाल है.

निर्मला का पति एक पब्लिक स्कूल में चौकीदार है. 7 साल की एक बेटी भी है, जो उसी स्कूल में पढ़ती है. घर में कूलर है, रंगीन टीवी है, टेप है. ये दीदी का घर संभालती है और इस का घर इस की सास संभालती है. आखिर निर्मला भी काम- काजी बहू है.

दरवाजे की घंटी ने मधुर स्वर छेड़ा, दीदी आ गईं. नींद से उन की आंखें लाल थीं. उन्होंने किसी तरह चाय के साथ एक टोस्ट निगला. ठंडे स्वर में उस का हाल पूछा और निर्मला को डिस्टर्ब न करने का निर्देश दे कर बेडरूम में चली गईं.

थोड़ी ही देर में मिंटी आ गई. जैसेतैसे निर्मला ने उस के कपडे़ बदले, खाना खिलाया, फिर मिंटी टीवी पर कार्टून देखने बैठ गई. निर्मला बीचबीच में उसे आवाज कम करने को कहती रहती. 4 बजे निर्मला उठी, चाय बनाई, खुद पी, शेफाली को दी, फिर मिंटी को घुमाने पार्क में ले गई. वहां से आ कर दूध पिलाया, खाना खिलाया और 6 बजे उसे सुला दिया.

शेफाली ने निर्मला से पूछा, ‘‘दीदी कब उठेंगी?’’

‘‘नींद टूटेगी तो उठ जाएंगी. इसीलिए बेबी को सुला दिया है, नहीं तो तंग करती है और मेमसाब गुस्सा हो जाती हैं.’’

वह यह देख कर हैरान रह गई कि 4 साल की बच्ची पूरी तरह आया के भरोसे परवरिश पा रही थी. मां बेखबर सो रही थी. पापा का फोन आया, बातें कीं, फिर वह बोर होने लगी. एक ही दिन में नीरसता सताने लगी. आ कर अपने कमरे में लेट गई. कैसी शांति है यहां, 4 कमरे, 4 आदमी. न कोई बातचीत, न ठहाके. उसे अपने घर की याद आ गई और रुलाई फूट पड़ी. जाने कब आंख लग गई.

घंटी बजी तो वह जागी. जीजाजी आए थे. वह बाथरूम से हाथमुंह धो कर बाहर निकली और ठिठक कर वापस अपने कमरे में चली गई. दीदीजीजाजी ड्राइंगरूम में ही टीवी के सामने एकदूसरे से लिपटे, एकदूसरे के होंठों को बेतहाशा चूम रहे थे, जैसे फिल्मों में देखती है. जीजाजी के हाथ दीदी के उभारों पर… शेफाली की कनपटी गरम हो गई.

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दीदी ने थोड़ी देर बाद निर्मला को आवाज दे कर चाय लाने को कहा. वह शर्म से पानीपानी हो गई. निर्मला सब जानतीदेखती होगी. वह थरथरा गई.

दीदी ने उस के बारे में पूछा, निर्मला बोली, ‘‘सो रही हैं.’’

शेफाली ने सुकून महसूस किया कि चलो, सामने नहीं जाना पड़ेगा. निर्मला चली गई. थोड़ी देर बाद दीदी भी. जीजाजी दरवाजे तक छोड़ने गए थे. उस ने परदे के पीछे से साफ उन का आलिंगन और चूमना देखा. अब रह गए जीजाजी और शेफाली. डर और संकोच से सराबोर वह सामने पड़ने से कतराती रही.

वह और जीजाजी रात को अकेले…आगे शेफाली सोच नहीं पाई. अब यहां रहना है तो निर्मला की तरह अनजान बन कर रहना होगा. इन के घर की निजता का खयाल रखना होगा.

कुछ ही दिनों में शेफाली यहां के माहौल में रम गई. अब स्कूल से आते ही मिंटी मौसीमौसी करने लगती. कहानियां सुनतेसुनते वह कब खा लेती पता ही नहीं चलता. दीदीजीजाजी भी निश्ंिचत हो कर मिंटी की प्यारी गप्पें सुनते. अब उसे सुलाने की जल्दी किसी को नहीं रहती.  शेफाली के पास छोड़ दोनों एकांत में वक्त बिताते. निर्मला भी निश्ंिचत हो काम निबटाती. घर के औपचारिक माहौल में एक स्वाभाविकता आ गई थी.

एक दिन दीदी ने सलाह दी, ‘‘शेफाली, तुम संदीप से कंप्यूटर सीख लो.’’ तो उस ने हिचक के साथ इस प्रस्ताव को स्वीकारा था. दीदी और निर्मला के जाने के बाद जब मिंटी सो जाती तो दोनों बैठ कर कंप्यूटर पर नया साफ्टवेयर सीखते. जीजाजी के बदन से उठती परफ्यूम की खुशबू उस को उस दृश्य की याद दिला देती थी.

कंप्यूटर के नामी इंस्टीट्यूट जो कोर्स 6 महीने में सिखाते हैं वह जीजाजी से कुछ ही दिनों में शेफाली सीख गई. कंप्यूटर टाइपिंग, ई-मेल करना, इंटरनेट पर काम करना, सर्च करना आदि.

फोन पर ये सब सुन कर मां भावुक हो उठीं, ‘‘तुम्हारे पापा कह रहे थे कि क्या हुआ जो उसे सुनंदा की तरह कानवेंट में नहीं पढ़ा पाए. समझदारी और दुनियादारी तो कोई भी शिक्षा सिखा देती है. शेफाली अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी तो भैया जैसा अच्छा दामाद हमें भी मिल जाएगा. दामादजी को भी तुम्हारा व्यवहार अच्छा लगा तो वह भी बढ़ कर मदद कर देंगे?’’

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जल्द ही शेफाली की मर्केंडाइजर की नौकरी लग गई. अब वह भी व्यस्त हो गई. अकसर जीजाजी उसे साथ ले आते.

फ्रेश हो कर वह अपने और जीजाजी के लिए कौफी बनाती. दिन भर के काम के बाद घर आ कर जीजाजी का साथ उसे भाने लगा था. दोनों साथ टीवी देखते. अब अटपटे दृश्यों पर चैनल नहीं बदले जाते थे. न ही कोई उस समय उठ कर जाता. सब कितना सामान्य लगने लगा था. शेफाली इसे मैच्योर होना कहती. फिर जहां ऐसा खुलापन चलता है तो क्या हर्ज है. दीदी तो उस के सामने सिगरेट भी पीने लगी थीं.

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