नया पड़ाव: भाग 3- जब पत्नी को हुआ अपनी गलती का अहसास

कभीकभी मैं रोज के क्रम से ऊब कर कुछ मनोरंजन चाहती, छुट्टी वाले रोज राकेश को बच्चों के साथ कहीं पिकनिक पर चलने को कहती तो वे बगैर कुछ बोले विद्रूपता से हंस कर अकेले ही बाहर चले जाते. मैं उदासी से ऊब कर बच्चों से ही दिल बहला लेती.

इसी तरह दिन बीतते गए. पिंकी जब 3 साल की हो गई तो मैं ने उसे भी स्कूल में

डाल दिया. अब दोपहर का थोड़ा सा वक्त मुझे खाली मिल जाता था, पर मैं तब अपने पर ध्यान न दे कर बच्चों के कपड़े सीती, स्वैटर बुनती या फिर सो जाती.

शाम को बच्चे आते तो मैं फिर उन में रम जाती. गरम खाना बना कर देती. घर में मक्खन से घी बना कर पौष्टिक खाने का इंतजाम करती. उन्हें पढ़ाती और उस से वक्त बचता तो फटेउधड़े कपड़े ठीक करती.

अब तक मोबाइल भी चलाना सीख लिया था. मोबाइल पर बहनों, चचेरी बहनों, बूआ से खूब बातें करती क्योंकि वे सब या तो बच्चों की बातें करतीं या तीजत्योहार और पंडितों की. मुझे जैसी कसबाई लड़की को यही अच्छा लगता. पड़ोस में कोई भी खास संबंध नहीं बना क्योंकि हम लोग पिछड़ी जाति के माने जाते थे और पासपड़ोस के लोग ऊंची जातियों के थे जो घास नहीं डालते थे हमें.

राकेश रात को लौटते, थकेथके से, चुपचुप से. मैं समझती, काम की अधिकता इनसान को चुप रहना सिखा देती है. झटपट उन्हें गरम खाना परोस कर देती और एकाध बात का हांहूं में जवाब दे कर बिस्तर में घुस जाते. मैं जब तक सब कुछ समेट कर कमरे में आती, तब तक राकेश सो जाते.

बच्चे अपने पिता के आने पर सहम कर चुप हो जाते थे क्योंकि राकेश ने कभी उन्हें प्यार से पुचकार कर गोद में नहीं उठाया और न कोई लाड़प्यार किया. बच्चों को प्यार की कोई कमी महसूस न हो, इसलिए मैं उन्हें और भी ज्यादा प्यार करती, उन्हीं में रमी रहती.

राकेश के पिता भी ऐसे ही थे. हां राकेश ने शादी के शुरू के महीनों में बताया था कि शहर आने पर उसे पता चला कि मांबाप किस तरह बच्चों के दोस्त बन जाते हैं पर हमारे परिवारों में यह संभव नहीं था.

बच्चे धीरेधीरे बड़े होने लगे थे. मुझे एक दिन उड़तीउड़ती खबर मिली कि राकेश अपने दफ्तर की स्टैनोग्राफर के साथ शाम गुजारते हैं. सुन कर बहुत अटपटा सा लगा.

गृहस्थी चलाने में क्या सजसंवर कर औरत

प्रेमप्यार का नाटक कर सकती है भला? मुझे लगा, मर्द की इस विविधता की चाह तो मिटा पाना असंभव है. पत्नी आखिर पत्नी है और प्रेमिका प्रेमिका ही यही सोच कर मैं चुप्पी साध गई कि बात खुल जाने पर बच्चों पर हमारी बहस का बुरा प्रभाव पड़ेगा.

राकेश अकसर दफ्तर की तरफ से 3-4 दिनों के लिए टूर पर जाया करते थे. पर इस बात के पता चलने पर उन के दौरे पर जाने के बाद मन कहीं टिकता ही न था. क्या पता इस वक्त राकेश क्या कर रहे हों. यही सोचसोच कर मैं रातरातभर जागती रहती. 2-4 बार फोन आने पर वे हांहूं कर के बाद बंद कर देते. उन के  लौटने पर ही मन कुछ संयत होता.

दिन गुजरते रहे और मैं राकेश से दूर होती चली गई. रंजू और पिंकी दोनों अब जवान हो

गए थे. रंजू तो पिता से ज्यादा बात ही नहीं करता था. उन के आने पर चुपचाप अपने कमरे में खिसक जाता.

मगर एक दिन पिंकी ने पिता से पूछ ही लिया, ‘‘पिताजी, आप रात को इतनी देर से घर क्यों आते हैं? आखिर हमें भी तो आप थोड़ा वक्त दिया कीजिए. मेरी सब सहेलियों के पिता तो उन के साथ कैरम, बैडमिंटन बगैरा खेलते हैं.’’

तब राकेश झेंपते हुए बोले थे, ‘‘हां भई, अब तुम कहती हो तो जल्दी आ जाया करेंगे, अभी तक तुम्हारी मां ने तो हम से कभी कहा ही नहीं कि जल्दी आया करो. न तुम्हारी मां के पिता ने उन से कभी बात की होगी न मेरे पिता ने. अब जमाना बदल रहा है पर हम वहीं रह गए.’’

मैं तब कट कर रह गई. मगर उस दिन से राकेश शाम को जल्दी आने लगे थे. फिर भी बच्चों के सामने राकेश के सम्मुख मैं कम ही पड़ती थी. न जाने क्यों हीनता की भावना घर

कर गई थी मुझ में. राकेश की इधरउधर की ताक?ांक से भी मन कुछ चिढ़ सा गया था.

मौन गुस्सा दिखा कर राकेश को उन के व्यवहार की गलती बतातीबताती मैं उन से छिटकती

चली गई.

कही अनकही: मां- बेटी के रिश्ते की कहानी

सूर्योदय से पहले उठ जाने की मेरी आदत नौकरी से अवकाश प्राप्त   करने के बाद भी नहीं बदली थी. लालिमा के बीच धीरेधीरे निकलता सूर्य का सुर्ख गोला मुझे बहुत भाता था. पक्षियों का कलरव और हवा की सरसराहट में जैसे रात का रहस्यमय मौन घुलने लगता. तन को छूती ठंडी हवा मेरे मनप्राण को शांति और सुकून से भर देती.

हर दिन की तरह मैं लौन में बैठी इस अद्भुत अनुभूति में खोई आम के उस पौधे को निहार रही थी जिस का बिरवा आदित्य ने लगाया था. उसे भी मेरी तरह भिन्नभिन्न प्रकार के पौधे लगाने का शौक है. जब आदित्य को 1 वर्ष के लिए आफिस की तरफ से न्यूयार्क जाना पड़ा तो जाने से पहले वह मुझे हिदायतें देता रहा, ‘मां, 1 साल के लिए अब मेरे इन सारे पौधों की देखभाल की जिम्मेदारी आप पर है. खयाल रखिएगा, एक भी पौधा मुरझाने न पाए.’

सिर्फ 6 महीने अमेरिका में व्यतीत करने के बाद उस ने वहीं रहने का मन बना लिया. पौधे तो पौधे उसे तो अपनी मां तक की चिंता न हुई कि उस के बिना कैसे उस के दिन गुजरेंगे. अब यह सब सोचने की उसे फुरसत ही कहां थी. वह तो सात समंदर पार बैठा अपने भौतिक सुख तलाश रहा था. बस, दिल को इसी बात से सुकून मिलता कि बेटा जहां भी है सुखी है, खुश है, अपने सपनों को पूरा कर रहा है.

मेरे पति समीर भी अपने व्यापार के काम में व्यस्त हो कर अपना ज्यादातर समय शहर से बाहर ही बिताते जिस से मेरा अकेलापन दिनोदिन बढ़ता ही जा रहा था.

तभी ऊपर के कमरे से आती तेज आवाज के कारण मेरी तंद्रा भंग हो गई. लगा था तन्वी आज किसी बात को ले कर एक बार फिर अपनी मम्मी नेहा से उलझ गई. तन्वी का इस तरह अपनी मां से उलझना मुझे अचंभित कर जाता है. न जाने इस नई पीढ़ी को क्या होता जा रहा है. न बड़ों के मानसम्मान का खयाल रहता है न बात करने की तमीज.

नेहाजी मेरे मकान के ऊपर वाले हिस्से में बतौर किराएदार रहती थीं. इस से पहले मैं ने कभी अपना मकान किराए पर नहीं दिया था, लेकिन पति और बेटे दोनों के अपनीअपनी दुनिया में व्यस्त हो जाने के कारण मैं काफी अकेली पड़ गई थी. जीवन में फैले इस एकाकीपन को दूर करने के लिए मैं ने घर के ऊपर का हिस्सा किराए पर दे दिया.

नेहा और उन की बेटी तन्वी ये 2 ही लोग रहने आए. नेहा किसी मल्टीनैशनल कंपनी में उच्च अधिकारी थीं और तन्वी बी.ए. द्वितीय वर्र्ष की छात्रा. मेरी सोच के विपरीत नेहा इतनी नापतौल कर बातें करतीं कि चाह कर भी मैं उन के साथ बातों का सिलसिला बढ़ा नहीं पाती. न जाने क्यों दोनों मांबेटी गाहेबगाहे उलझती रहतीं, जो कभीकभी तो गहन युद्ध का रूप ले लेता.

तभी उन की बेटी तन्वी कंधे पर बैग टांगे दनदनाती हुई सीढि़यां उतरी और गेट खोल कर सड़क की तरफ बढ़ गई. पीछेपीछे उस की मां उसे रोकने की कोशिश करती गेट तक आ गईं. पर तब तक वह आटोरिकशा में बैठ वहां से जा चुकी थी.

नेहा का सामना करने से बचने के लिए मैं क्यारियों में लगे फूलों को संवारने में व्यस्त हो गई, जैसे वहां जो घटित हो रहा था, उस से मैं पूरी तरह अनजान थी. लाख कोशिशों के बावजूद हम दोनों की नजरें टकरा ही गईं. नेहा एक खिसियाई सी हंसी के साथ जाने क्या सोच कर मेरे बगल में पड़ी कुरसी पर आ बैठीं. धीरे से मुझे लक्ष्य कर के बोलीं, ‘‘क्या बताऊं, आजकल के बच्चे छोटीछोटी बातों में भी आवेश में आ जाते हैं. इन लोगों के बड़ों से बात करने के तौरतरीके इतने बदल गए हैं कि इन के द्वारा दिया गया सम्मान भी, सम्मान कम अपमान ज्यादा लगता है. हमारे समय भी जेनेरेशन गैप था, मतभेद थे पर ऐसी उच्छृंखलता नहीं थी.’’

मैं भी उन के साथ हां में हां मिलाती हंसने की नाकाम कोशिशें करती रही. हंसी के बीच भी नेहा की भर आई आंखें और चेहरे पर फैली विषाद की रेखाएं, स्पष्ट बता रही थीं कि बात को हंसी में उड़ा देने की उन की चेष्टा निरर्थक थी. लड़की के अभद्र आचरण की अवहेलना से मां को गहरा सदमा लगा था.

तभी सुमन 2 कप कौफी रख गई. हम दोनों चुपचाप बैठे कौफी पीते रहे. कभीकभी निस्तब्ध चुप्पी भी वह सारी अनकही कह जाती है, जिसे शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल होता है. हम दोनों के बीच भी कुछ वैसी ही मौन संवेदनाओं का आदानप्रदान हो रहा था.

उस दिन के बाद नेहाजी आतेजाते कुछ देर के लिए मेरे पास बैठ जाती थीं. धीरेधीरे वे अपनी निजी बातें भी मुझ से शेयर करने लगीं. टुकड़ोंटुकड़ों में उन्हीं से पता चला कि उन का अपने पति रंधीर के साथ तलाक तो नहीं हुआ है, लेकिन वह इसी शहर में अलग रहता है. 8 वर्ष की तन्वी को छोड़ कर जाने के बाद से न कभी उस से मिलने आया और न ही उस ने उस की कोई जिम्मेदारी उठाई.

तन्वी की बढ़ती उद्दंडता और स्वच्छंदता नेहाजी के लिए चिंता, तनाव और भय का कारण बन गई थी. दिनोदिन तन्वी के दोस्तों में बढ़ते लड़कों की संख्या और सिनेमा तथा पार्टियों का बढ़ता शौक देख नेहा का सर्वांग सिहर उठता लेकिन वे तन्वी के सामने असहाय थीं. अपनी ढेरों कोशिशों के बावजूद तन्वी पर नियंत्रण रखना उन के लिए संभव नहीं था.

मैं भी उन की कोई मदद नहीं कर पा रही थी. उस उद्दंड, घमंडी और निरंकुश लड़की के चढ़े तेवर देख कर ही मेरा मन कुंठित हो उठता. एक दिन सुबह से ही बिजली गायब थी. दोपहर तक टंकी का पानी समाप्त हो गया. मैं यों ही बैठी एक पत्रिका के पन्ने पलट रही थी कि तभी दस्तक की आवाज सुन दरवाजा खोलते ही मैं अचंभित रह गई, सामने पानी का जग लिए तन्वी खड़ी थी.

‘‘क्या थोड़ा सा पानी…’’

मैं बीच में ही उस की बात काटते हुए बोली, ‘‘क्यों नहीं, मैं हमेशा कुछ पानी टब में जमा कर के रखती हूं.’’  मैं जब पानी ले कर लौटी तो अचानक ही मेरा ध्यान उस की अंगारों सी दहकती आंखों और क्लांत शरीर की तरफ गया. पानी लेते समय जैसे ही उस का हाथ मेरे हाथों से सटा, उस के हाथों की तपन से मुझे आभास हो गया कि इसे तेज बुखार है.

अनायास ही मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘अरे, तुम्हें तो तेज बुखार है,’’ और खुदबखुद मेरा हाथ उस के सिर पर चला गया. अचानक ही जैसे उसे बिजली का झटका लगा. वह तेजी से दरवाजे की तरफ पलटते हुए बोली, ‘‘आप चिंता न करें, मैं अपना खयाल खुद रख सकती हूं. मुझे इस की आदत है.’’

जैसे तेजी से धूमकेतु सी प्रकट हुई थी वैसे ही तेजी से वह गायब हो गई.

तेज बुखार में तन्वी का अकेले रहना ठीक नहीं था, पर जिस तरह वह उद्दंड लड़की अपने तेवर दिखा गई, मेरा मन नहीं कर रहा था कि उस के पास जाऊं. थोड़ी देर के अंतर्द्वंद्व के बाद मैं 1 कप तुलसी की चाय बना कर उस के पास जा पहुंची. दरवाजा खुला था. सामने ही पलंग पर वह मुंह तक चादर खींचे लेटी अपने कांपते शरीर का संतुलन बनाने की कोशिश कर रही थी. उस के पास ही पड़े एक दूसरे कंबल से मैं ने उस का शरीर अच्छी तरह ढक, उस से गरम चाय पी लेने का अनुरोध किया तो उस ने चुपचाप चाय पी ली.

इस बीच बिजली भी आ गई थी. मैं फ्रिज से ठंडा पानी ला कर उस के सिर पर पट्टियां रखने लगी. थोड़ी ही देर में उस का बुखार उतरने लगा और वह पहले से काफी स्वस्थ नजर आने लगी. नेहाजी को सूचित करना जरूरी था, इसलिए मैं ने सामने पड़ा फोन उठा कर उन का नंबर जानना चाहा तो एकाएक उठ कर उस ने मेरे हाथों से फोन झपट लिया.

‘‘नहीं, मिसेज मीनू…आप ऐसा नहीं कर सकतीं.’’

मैं हतप्रभ खड़ी रह गई.

‘‘क्यों…वे तुम्हारी मां…’’

वह बीच में ही मेरी बात काटती हुई बोली, ‘‘मानती हूं, आज आप ने मेरे लिए बहुत कुछ किया फिर भी आप से अनुरोध है कि आप हमारे निजी मामलों में दखलंदाजी न करें.’’

तन्वी की रूखी और कठोर वाणी से मैं तिलमिला उठी, थोड़ी देर को रुकी, फिर अपने कमरे में वापस लौट गई. फ्रिज से सूप निकाल कर गरम कर बे्रड के साथ खाने बैठी तो मुझे तन्वी का मुरझाया चेहरा याद आ गया. सोचा, पता नहीं उस ने कुछ खाया भी है या नहीं. सूप लिए हुए एक बार फिर मैं उस के पास जा पहुंची.

‘‘तुम्हें शायद मेरा यहां आना पसंद न हो, फिर भी मैं थोड़ा सा गरम सूप लाई हूं, पी लो.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं…’’ तन्वी धीरे से बोली और सूप पीने लगी. सूप समाप्त करने के बाद, उस के चेहरे पर बच्चों जैसी एक तृप्ति भरी मासूम मुसकान दौड़ गई.

‘‘थैंक्स… मिसेज मीनू, सूप बहुत ही अच्छा बना था.’’

अब मुझ से रहा नहीं गया सो बोली, ‘‘कम से कम मेरी उम्र का लिहाज कर. तुम मुझे आंटी तो कह ही सकती हो.’’

उस की शांत और मासूम आंखों में फिर से वही विद्रोही झलक कौंध उठी.

‘‘मैं किसी रिश्ते में विश्वास नहीं करती इसलिए किसी को भी अपने साथ रिश्तों में जोड़ने की कोशिश नहीं करती.’’

उस की कुटिल हंसी ने उस की सारी मासूमियत को पल में धोपोंछ कर बहा दिया.

मैं भी उस का सामना करने के लिए पहले से ही तैयार थी.

‘‘हर बात को भौतिकता से जोड़ने वाले नई पीढ़ी के तुम लोग क्या जानो कि आदमी के लिए जिंदगी में रिश्तों की क्या अहमियत होती है. अरे, रिश्ता तो कच्चे धागे से बंधा प्यार का वह बंधन है जिस के लिए लोग कभीकभी अपने सारे सुख ही नहीं, अपनी जिंदगी तक कुरबान कर देते हैं.’’

तभी नेहाजी आ गईं और मैं उन्हें संक्षेप में तन्वी के बीमार होने की बात बता कर लौट आई. इस घटना के करीब 2 दिन बाद मैं बैठी सूखे कपड़ों की तह लगा रही थी कि अचानक तन्वी मेरे सामने आ खड़ी हुई. वह सारे संकोच त्याग सहज ही मुसकराते हुए मेरे बगल में आ बैठी. उस लड़की की सारी उद्दंडता जाने कहां गुम हो गई थी. उस का सहज व्यवहार मुझे भी सहज बना गया.

‘‘कहो तन्वी, आज तुम्हें मेरी याद कैसे आ गई?’’

वह थोड़ी देर चुपचाप बैठी रही जैसे अपने अंदर बोलने का साहस जुटा रही हो, फिर बोली, ‘‘आंटी, मैं अपनी उस दिन की उद्दंडता के लिए आप से माफी मांगने आई हूं. आप ने ठीक ही कहा था कि मुझे किसी भी रिश्ते की अहमियत नहीं मालूम. जिंदगी में किसी ने पहली बार निस्वार्थ भाव से मेरी देखभाल की, मेरा खयाल रखा पर मैं ने उस प्यार और ममता के बंधन को भी स्वयं ही नकार दिया. सचमुच, आंटी मैं बहुत बुरी हूं.’’

‘‘तन्वी बेटा, तुम ने तो मेरी बातों को दिल से ही लगा लिया. तुम चिंता मत करो, मैं तुम्हारे जैसे मासूम बच्चों की बातों का बुरा नहीं मानती.’’

‘‘सच, आंटी, मैं आप को खोना नहीं चाहती,’’ और खुशी से किलकते हुए उस ने अपनी दोनों बांहें मेरे गले में डाल दीं. आज पहली बार तन्वी मुझे बेहद निरीह लगी.

‘‘एक बात बता, तू ने अपने पास इतने सारे विषबाण कहां से जमा कर रखे हैं. जब चाहा, जिस पर जी चाहा, तड़ से चला दिया.’’

वह खिलखिला कर हंस पड़ी. फिर कुछ गंभीर होती हुई बोली, ‘‘हां, आंटी, आज मैं भी आप से वे सारी कहीअनकही बातें कहना चाहती हूं जिन्हें आज तक मैं किसी के सामने नहीं कह पाई.

‘‘शायद आप को पता नहीं, मेरे मम्मीपापा ने अपने सारे रिश्तेनाते तोड़ प्रेमविवाह किया था. पहले दोनों एक ही आफिस में काम करते थे. पापा की अपेक्षा मम्मी शुरू से ही ज्यादा जहीन, मेहनती और योग्य थीं. इसलिए उन की शीघ्रता से पदोन्नति होती गई. वहीं पापा की पदोन्नति काफी धीमी गति से होती रही थी. पदों के बीच बढ़ती दूरियों ने दोनों को पतिपत्नी से प्रतिस्पर्द्धी बना दिया. धीरेधीरे मम्मीपापा के बीच तनाव बढ़ता गया. उसी तनाव भरे माहौल में मेरा जन्म हुआ.

‘‘मेरा जन्म भी दोनों की महत्त्वा- कांक्षाओं पर अंकुश नहीं लगा सका. वे पहले की तरह अपनीअपनी नौकरियों में व्यस्त रहते. मेरा पालनपोषण आयाओं के सहारे हो रहा था. जब मैं बीमार पड़ती तो मम्मी व पापा में इस बात पर जंग छिड़ जाती कि छुट्टियां कौन लेगा. दोनों में से किसी के पास मेरे लिए टाइम नहीं था. बीमार अवस्था में भी मुझे आया या फिर डाक्टरों के क्लीनिक में नर्सों के सहारे रहना पड़ता.

‘‘मम्मी के अतिव्यस्त रहने के कारण उन के द्वारा रखी गई आया मुझे तरहतरह से प्रताडि़त करती. ख्याति, यश और वैभव की कामना ने मम्मी को अंधा और बहरा बना रखा था. अपनी बेटी की अंतर्वेदना उन्हें सुनाई नहीं देती थी. मैं आयाओं के व्यवहार से क्रोध, विवशता और झुंझलाहट से पागल सी हो जाती. धीरेधीरे जीवन को अपनाने और संसार में घुलमिल जाने की चेष्टा घटती चली गई और मैं अपनेआप में सिमट कर रह गई, जिस ने मुझे असामाजिक बना दिया.

‘‘मेरी स्थिति से बेखबर मेरे मातापिता लड़तेझगड़ते एक दिन अलग हो गए. बिना किसी दर्द के पापा मुझे छोड़ कर चले गए. मम्मी की मजबूरी थी, उन्हें मुझे झेलना ही था. मैं एक आश्रिता थी, आश्रयदाता पापा हैं कि मम्मी, मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता था. निरर्थक, उद्देश्यहीन मेहनत ने मुझे पढ़ाई में भी सफल नहीं होने दिया. यही मेरे भटकाव की पहली सीढ़ी थी.’’

तन्वी थोड़ी देर को रुकी. वह उठी और बड़े अधिकार से फ्रिज को खोला. उस में से बोतल निकाल कर पानी पिया, फिर बोतल को एक तरफ रखते हुए मेरे पास आ कर बैठ गई और बोलने लगी :

‘‘धीरेधीरे मम्मी और पापा के प्रति मेरे मन में एक गहरी असंतुष्टि  हलचल मचाए रहती और एक अघोषित युद्ध का गंभीर घोष मेरे अंदर गूंजता रहता. मैं मम्मीपापा की सुखशांति को, मानसम्मान को यहां तक कि अपनेआप को भी तहसनहस करने के लिए बेचैन रहती. हर वह काम लगन से करती जो मम्मीपापा को दुखी करता… मेरी उद्दंडता और आवारागर्दी की कहानी पापा तक पहुंच कर उन्हें दुखी कर रही है, यह जान कर मुझे असीम सुख मिलता. आज भी मेरी वही मानसिकता है, दूसरे को चोट पहुंचाना. शायद इसी कारण मैं ऐसी हूं.

‘‘मेरे बीमार पड़ने पर जिस प्यार और अपनेपन से आप ने मेरी देखभाल की वह मेरे दिल को छू गया. मुझे लगा आप ही वह पात्र हैं जिस के सामने मैं अपने दिल की व्यथा उड़ेल सकती हूं. अब सबकुछ जानने के बाद आप से मिली सलाह ही मेरी पथप्रदर्शक होगी. इसलिए प्लीज, आंटी, मेरी मदद कीजिए. मैं बहुत कन्फ्यूज्ड हूं.’’

तन्वी सबकुछ उगल चुपचाप बैठ गई. उस के गालों पर ढुलक आए आंसुओं को अपने आंचल से पोंछ कर मैं बोली थी, ‘‘कितनी मूर्ख हो तुम. बिना गहराई से परिस्थितियों का अवलोकन किए, तुम ने अपनी मां को ही अपना दुश्मन मान लिया और उन के दुखदर्द और शोक का कारण बनी रहीं. अपनी मम्मी की तरफ से सोचो कि वे अपनी मरजी से शादी कर, अपने सारे रिश्तों को खो चुकी थीं. वे मजबूर थीं. आवश्यकताओं की लंबी फेहरिस्त, दिल्ली जैसे महानगर के बढ़ते खर्चे, तुम्हारी देखभाल, सभी के लिए ज्यादा से ज्यादा पैसों की जरूरत थी और इस के लिए वे जीतोड़ कोशिशें कर रही थीं.

‘‘वहीं नौकरी में तुम्हारी मां का दिनोदिन बढ़ता कद तुम्हारे पापा के पुरुषार्थ के अहं को आहत कर रहा था. एक दिन वे अपने अहं की तुष्टि के लिए सारी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ कर परिवार से ही पलायन कर गए. रह गईं अकेली तुम्हारी मां, जिन्हें तुम्हारे साथसाथ नौकरी की भी जिम्मेदारी संभालनी थी. फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी… पर तकदीर की विडंबना देखो कि जिस बेटी के लिए वे इतना संघर्ष कर रही थीं, वही उन की व्यथा को समझने में सर्वदा असमर्थ रही और उन्हें चोट पहुंचा कर अपनी नादानियों से सबकुछ नष्ट करने पर उतारू हो गई.’’

तन्वी चुपचाप बड़े ही ध्यान से मेरी बातें सुन रही थी.

‘‘कभी तुम ने सोचा है कि जिंदगी बिगाड़ना बहुत आसान है पर जो एक बार बिगड़ गया, उसे संभालने में कभीकभी बरसों और कभीकभी तो पूरी जिंदगी निकल जाती है. खुद को चोट दे कर अपनों को दुख पहुंचाना कहां की बुद्धिमानी है. मेरी नानी अथर्ववेद का एक वाक्य मुझे हमेशा सुनाया करती थीं :

‘‘प्राच्यो अगाम नृत्ये हंसाय.’’

(अर्थात यह जीवन हंसतेखेलते हुए जीने के लिए है. चिंता, भय, शोक, क्रोध, निराशा, ईर्ष्या और तृष्णा में बिलखते रहना मूर्खता है.)

‘‘तुम्हारे जीवन में जो घटा वह तुम्हारे बस में नहीं था. वह वक्त का कहर था, मगर अब जो घट रहा है यह सब तुम्हारी विपरीत सोच का परिणाम है, जो तुम्हारी मां की खुशियों को ही नहीं तुम्हें भी बरबाद कर रहा है. जब कोई खुशियों का इंतजार करतेकरते अचानक दुखों को न्योता देने लगे तो समझो वह परिवार के विनाश को बुलावा दे रहा है. तुम विनाश का कारण क्यों बनना चाहती हो? क्या मिलेगा दुख बांट कर? एक बार सुख बांट कर देखो, तुम्हारे सारे दर्द मिट जाएंगे.

‘‘अपने सारे आक्रोश त्याग कर, बीते समय को भुला कर, अपनी खुशियों के लिए सोचो, उन्हें पाने की कोशिश करो तो तुम्हारे सारे मनस्ताप खुदबखुद धुल जाएंगे. वक्त का कर्म तुम्हारे साथ होगा, अगर तुम ने अब भी देर कर दी और वक्त को मुट्ठी में नहीं लिया तो धीरेधीरे समय तुम्हें तोड़ देगा. बस, मुझे इतना ही कहना है. अब फैसला तुम्हारे हाथों में है.’’

वह धीरे से उठी और मेरी गोद में सिर रख कर फर्श पर बैठ गई. प्यार से उस के बालों में उंगलियां फिराते ही वह निशब्द रोने लगी. मैं ने भी उसे रोका नहीं, जी भर रो लेने दिया. थोड़ी देर बाद शांत हो कर बोली, ‘‘आंटी, आज आप ने मेरी जिंदगी की उलझनों को कितनी आसानी और सरलता से सुलझाया, मेरे अंदर भरे गलतफहमियों के जहर को दूर कर दिया. अपनी गलतियों के एहसास ने तो मेरी सोच ही बदल दी. अब तक तो मैं सभी के दुख का कारण बनी रही, लेकिन अब सुख का कारण बनने की कोशिश करूंगी.’’

दूसरे दिन मैं बरामदे में बैठी सुन रही थी. वह बालकनी में खड़ी वहीं से अपने दोस्तों को लौट जाने के लिए कह रही थी.

‘‘नहींनहीं…तुम लोगों के साथ मुझे कहीं नहीं जाना. मुझे पढ़ना है.’’

उस के दोस्तों ने साथ चलने के लिए काफी मिन्नतें कीं, पर वह नहीं मानी. एक दिन मैं नेहाजी के साथ लौन में बैठी बातें कर ही रही थी कि तभी तन्वी हाथ में ट्रे ले कर पहुंच गई. 2 कप चाय के साथ पकौड़ों की प्लेट भी थी.

‘‘आंटी, आज मैं ने पकौड़े किताब पढ़ कर बनाए हैं. जरा चख कर तो देखिए.’’

अनाड़ी हाथों के अनगढ़ पकौड़ों में मुझे वह स्वाद आया जो आज से पहले कभी नहीं आया था. बेटी के बदले रूप को देख, नेहा की आंखों में मेरे लिए कृतज्ञता के आंसू झिलमिला रहे थे.

मैं खुद पर इतराई थी

मुकम्मल जहां तो आज तक किसी  को भी नहीं मिला, कहीं कुछ  कमी रह गई तो कहीं कुछ. तुम चाहो तो सारी उम्र गुजार लो, जितनी चाहो कोशिश कर लो…कभी यह दावा नहीं कर सकते कि सब पा लिया है तुम ने.

शुभा का नाम आते ही कितनी यादें मन में घुमड़ने लगीं. मुझे याद है कालेज के दिनों में मन में कितना जोश हुआ करता था. हर चीज के लिए मेरा लपक कर आगे बढ़ना शुभा को अच्छा नहीं लगता था. ठहराव था शुभा में. वह कहती भी थी :

‘जो हमारा है वह हमें मिलेगा जरूर. उसे कोई भी नहीं छीन सकता…और जो हमारा है ही नहीं…अगर नहीं मिल पाया तो कैसा गिलाशिकवा और क्यों रोनाधोना? जो मिला है उस का संतोष मनाना सीखो सीमा. जो खो गया उसे भूल जाओ. वे भी लोग हैं जो जूतों के लिए रोते हैं…उन का क्या जिन के पैर ही नहीं होते.’

बड़ी हैरानी होती थी मुझे कि इतनी बड़ीबड़ी बातें वह कहां से सीखती थी. सीखती थी और उन पर अमल भी करती थी. सीखने को तो मैं भी सीखती थी परंतु अमल करना कभी नहीं सीखा.

‘अपनी खुशी को ऐसी गाड़ी मत बनाओ जो किसी दूसरी गाड़ी के पीछे लगी हो. जबजब सामने वाली गाड़ी अपनी रफ्तार बढ़ाए आप को भी बढ़ानी पड़े. जबजब वह ब्रेक लगाए आप को भी लगाना पड़े, नहीं तो टकरा जाने का खतरा. अपना ही रास्ता स्वयं क्यों नहीं बना लेते कि अपनी मरजी चलाई जा सके. आप की खुशियां किसी दूसरे के हावभाव और किसी अन्य की हरकतों पर निर्भर क्यों हों? आप के किसी रिश्तेदार या मित्र ने आप से प्यार से बात नहीं की तो आप दुखी हो गए. उस का ध्यान कहीं और होगा, हो सकता है उस ने आप को देखा ही न हो. आप ऐसा सोचो ही क्यों, कि उस ने आप को अनदेखा कर दिया है. क्या अपने आप को इतना बड़ा इंसान समझते हो कि हर आनेजाने वाला सलाम ठोकता ही जाए. अपने को इतना ज्यादा महत्त्व देते ही क्यों हो?’

‘आत्मसम्मान नाम की कोई चीज होती है न…क्या नहीं होती?’ मैं पूछती.

‘आत्मसम्मान तब तक आत्मसम्मान है जब तक वह अपनी सीमारेखा के अंदर है, जब वह सामने वाले को दबाने लगे, उस के आत्मसम्मान पर प्रहार करने लगे, तब वह अहम बन जाता है… व्यर्थ की अकड़ बन जाती है और जब दोनों पक्ष दुखी हो जाएं तब समझो आप ने अपनी सीमा पार कर ली. अपने मानसम्मान को अपने तक रखो, किसी दूसरे के गले का फंदा मत बनाओ, समझी न.’

‘कैसे भला?’

‘वह इस तरह कि मैं यह उम्मीद ही क्यों करूं कि तुम मेरी सारी बातें मान ही लो. जरूरी तो नहीं है न कि तुम वही करो जो मैं कहूं. मेरी अपनी सोच है, मेरी अपनी इच्छा है. ऐसा तो नहीं है न, कि मेरा ही कहा माना जाए. तुम मेरा कहा न मानो तो मेरा आत्मसम्मान ही ठेस खा जाए. तुम्हारा भी तो आत्मसम्मान है. तुम्हें सुनना पसंद है, मुझे नहीं. जरूरी तो नहीं कि तुम मेरी खुशी के लिए गजल सुनने लगो ‘हर इंसान का अपना शौक है. अपना स्वाद है. कुदरत ने सब को अलगअलग सांचे में ढाल कर उन का निर्माण किया है. कोई गोरा है, कोई काला है. कोई मोटा है कोई पतला. किसी पर सफेद रंग जंचता है किसी पर काला रंग. अपनीअपनी जगह सब उचित हैं, सब सुंदर हैं. सब का मानसम्मान आदरणीय है, सभी इंसान उचित व्यवहार के हकदार हैं.

‘हम कौन हैं जो किसी को नकार दें या उसे अपने से कम या ज्यादा समझें? अपना सम्मान करो लेकिन दूसरे का सम्मान भी कम मत होने दो. अपनी मरजी चलाओ, लेकिन यह भी ध्यान रखो कि किसी और की मरजी में तो आप का दखल नहीं हो रहा है. सोचो जरा.’

‘आप की दोस्त थी न शुभा,’ मेरे देवर मुझ से पूछ रहे थे.

‘हमारे नए मैनेजर की पत्नी हैं. कल ही हम उन से मिले थे. बातों में बात निकली तो मेरे मुंह से निकल गया कि मेरी भाभी भी जम्मू की हैं. आप का नाम लिया तो इतनी खुश हो गईं कि मेरी बांह ही पकड़ ली. वे तो यह भी भूल गईं कि उन के पति मेरे अफसर हैं. आप को बहुत याद कर रही थीं. बड़ी सीधी सी महिला हैं…बड़ी ही सरल…मेरा पता ले लिया है. कह रही थीं कि जरा घर संभल जाए तो वे आप से मिलने आ जाएंगी.’

सोम शुभा के बारे में बता कर चले गए और मैं सोचने लगी कि क्या सचमुच शुभा मुझ से मिलने आएगी? जब मेरी शादी हुई तब उस के पिताजी का तबादला हो चुका था. मेरी शादी में वह आ नहीं पाई थी और जब उस की शादी हुई थी तो मैं अपने ससुराल में व्यस्त थी. कभीकभार उस की कोई खबर मिल जाती थी. मेरे पति सफल बिजनैसमैन हैं. नौकरी करना उन्हें पसंद नहीं. यह अलग बात है कि मेज के उस पार बैठने वाले की जरूरत उन्हें कदमकदम पर पड़ती है. मेरे देवर का बैंक में नौकरी करना उन्हें पसंद नहीं आया था. चाहते थे वे भी उन के साथ ही हाथ बंटाएं लेकिन देवर की स्पष्टवादिता भी कहीं न कहीं सही थी.

‘नहीं भाई साहब, वेतनभोगी इंसान को अपनी चादर का पता होता है. मैं अपनी चादर का छोटाबड़ा होना पसंद नहीं कर पाऊंगा.’

चादर से याद आया कि शुभा भी कुछ ऐसा ही कहा करती थी. चादर से बाहर पैर पसारना उसे भी पसंद नहीं आता था. मेरे देवर से उस की सोच मिलतीजुलती है. शायद इसीलिए उन्हें भी शुभा अच्छी लगी थी. मेरे पिताजी को भी शुभा बहुत पसंद थी. एक बार तो उन की इच्छा इतनी प्रबल हो गई थी कि उन्होंने शुभा को अपनी बहू बनाने का भी विचार किया था. मेरे भैया अमेरिका से आए थे शादी करने. हमारा घर शुभा के घर से बीस ही था. उन्नीस होते हुए भी शुभा ने मना कर दिया था.

‘अपने देश की मिट्टी छोड़ कर मैं अमेरिका क्यों जाऊं. क्या यहां रोटी नहीं है खाने को?’

‘जिंदगी एक बार मिलती है शुभा, उसे ऐशोआराम से काटना नहीं चाहोगी?’

‘यहां मुझे कोई कमी है क्या? मैं तो बहुत सुखी हूं. प्रकृति ने मेरे हिस्से में जो था, मुझे दे रखा है और वक्त आने पर कल भी मुझे वह सब मिलेगा जिस की मैं हकदार हूं. मैं कुदरत के विरुद्ध नहीं जाना चाहती. उस ने इस मिट्टी में भेजा है तो क्यों कहीं और जाऊं?’ शुभा का साफसाफ इनकार कर देना मुझे चुभ गया था. मेरा आत्म सम्मान, हमारे परिवार का आत्मसम्मान ही मानो छिन्नभिन्न हो गया था. भला, लड़की की क्या औकात जो मना कर दे. मुझे लगा था कि उस ने मेरा अपमान किया है, मेरे भाई का तिरस्कार किया है.

‘रिश्ता विचार मिला कर करना चाहिए, सीमा. समान विचारों वाले इंसान ही साथ रहें तो अच्छा है. सुखी तभी होंगे जब सोच एक जैसी होगी. विपरीत स्वभाव मात्र तनाव और अलगाव पैदा करता है. क्या तुम चाहोगी कि तुम्हारा भाई दुखी रहे? मैं वैसी नहीं हूं जैसा तुम्हारा भाई है. न मैं चैन से रह पाऊंगी न वही अपना जीवन चैन से बिता पाएगा.’

‘तुम हमारा अपमान कर रही हो, शुभा.’

‘इसे मान व अपमान का प्रश्न न बनाओ सीमा. तुम्हारा मान बचाने के लिए अपने जीवन की गाड़ी मैं तुम्हारी इच्छा के पीछे तो नहीं लगा सकती न. तुम्हारी खुशी के लिए क्या मैं अपने विचार बदल लूं.’

शुभा का समझाना सब व्यर्थ गया था. 15 साल हो गए उस बात को. उस प्रसंग के बाद जल्दी ही उस के पिता का तबादला हो गया था. अपनी शादी में मैं ने अनमने भाव से ही निमंत्रण भेज दिया था मगर वह आ नहीं पाई थी. उस के भी किसी नजदीकी रिश्तेदार की शादी थी. वह किस्सा जो तब समाप्त सा हो गया था, आज पुन: शुरू हो पाएगा या नहीं, मुझे नहीं पता…और अगर शुरू हो भी जाता है तो किस दिशा में जाएगा, कहा नहीं जा सकता.

वैचारिक मतभेद जो इतने साल पहले था वह और भी चौड़ा हो कर खाई का रूप ले चुका  होगा या वक्त की मार से शून्य में विलीन हो चुका होगा, पहले से ही अंदाजा लगाना आसान नहीं था.

शुभा के बारे में हर पल मैं सोचती थी. अपनी हार को मैं भूल नहीं पाई थी जबकि शुभा भी गलत कहां थी. उस का अपना दृष्टिकोण था जिसे मैं ने ही मान- अपमान का प्रश्न बना लिया था. अपना पूरा जीवन, अपनी पसंद, मात्र मेरी खुशी के लिए वह दांव पर क्यों लगा देती. मैं तो किसी की पसंद का लाया रूमाल तक पसंद नहीं करती. अपने पति से बहुत प्यार है मुझे, लेकिन उन की लाई एक साड़ी मैं आज तक पहन नहीं पाई क्योंकि वह मुझे पसंद नहीं है.

सच कहती थी शुभा. एक सीमा के बाद हर इंसान की सिर्फ अपनी सीमा शुरू हो जाती है जिस का सम्मान सब को करना चाहिए, किसी को बदलने का हमें क्या अधिकार जब हम किसी के लिए जरा सा भी बदल नहीं सकते. हमारा स्वाभिमान अगर हमें बड़ा प्यारा है तो क्या किसी दूसरे का स्वाभिमान उसे प्यारा नहीं होगा. किसी ने अपनी इच्छा जाहिर कर दी तो हमें ऐसा क्यों लगा कि उस ने हमारे स्वाभिमान को ठोकर लगा दी.

‘‘भाभी, शुभाजी आप से मिलना चाहती हैं. फोन पर हैं. आप से बात करना चाहती हैं,’’ कुछ दिन बाद एक शाम मेरे देवर ने आवाज दी मुझे. महीना भर हो चुका था शुभा को मेरे शहर में आए. मेरे मन में उस से मिलने की इच्छा तो थी पर एक अकड़ ने रोक रखा था. चाहती थी वही पहल करे. नाराजगी तो मुझे थी न, मैं क्यों पहल करूं.

एक दंभ भी था कि मैं उस से कहीं ज्यादा अमीर हूं. मेरे पति उस से कहीं ज्यादा कमाते हैं. रुपयापैसा और अन्य नेमतों से मेरा घर भरा पड़ा है. पहले वही आए मेरे घर पर और मेरा वैभव देखे. वह मेरे भाई के बारे में जाने. उसे भी तो पता चले कि उस ने क्याक्या खो दिया है. बारबार पुकारा मेरे देवर ने. मैं ने हाथ के इशारे से संकेत कर दिया.

‘‘अभी व्यस्त हूं, बाद में बात करने को कह दो.’’

अवाक् था मेरा देवर. उस के अफसर की पत्नी का फोन था. क्या कहता वह. इस से पहले कि वह कोई उत्तर देता, शुभा ने ही फोन काट दिया. बुरा लगा होगा न शुभा को. उसे पीड़ा का आभास दिला कर अच्छा लगा था मुझे.

कुछ दिन और बीत गए. संयोग से एक शादी समारोह में जाना हुआ. गहनों से लदी मैं पति के साथ पहुंची. काफी लोग थे वहां. हम जैसों की अच्छीखासी भीड़ थी जिस में ‘उस की साड़ी मेरी साड़ी से सुंदर क्यों’ की तर्ज पर खासी जलन और नुमाइश थी. कहीं किसी की साड़ी ऐसी तो नहीं जो दूसरी बार पहनी गई हो. पोशाक को दोहरा कर पहनना गरीबी का संकेत होता है न हमारी सोसायटी में.

‘‘कैसी हो, सीमा? पहचाना मुझे?’’

किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा. चौंक कर मैं ने देखा तो सामने शुभा खड़ी थी. गुलाबी रेशमी साड़ी जिस की किनारी सुनहरी थी. गले में हलकी सी मटरमाला और हाथों में सोने की 4 चूडि़यां.

‘‘कैसी हो, सीमा? पहचाना नहीं क्या?’’

28 हजार की मेरी साड़ी थी और लाखों के थे मेरे शरीर पर जगमगाते हीरे. इन की चमक में मुझे अपनी गरीब सी दिखने वाली सहेली भला कहां नजर आती. थोड़ी सी मोटी भी हो गई थी शुभा. दर्प से अकड़ गई थी मेरी गर्दन.

‘‘आइए मैडम, मेरे साथ…’’

तभी श्रीमान ग्रोवर हमारे पास चले आए. शहर के करोड़पति आसामी हैं. उन का झुक कर शुभा का अभिवादन करना बड़ा अजीब सा लगा मुझे.

‘‘आइए, नवविवाहित जोड़े से मिलाऊं. आप शहर में नएनए आए हैं. जरा सी जानपहचान हो जाए.’’

‘‘पहले पुरानी पहचान से तो पहचान हो जाए. मेरी कालेज के जमाने की मित्र है. पहचान ही नहीं पा रही मुझे.’’

वही अंदाज था शुभा का. मैं जैसे उसे न पहचानने ही का उपक्रम कर रही थी.

‘‘जल्दी चलो शुभा, देर हो रही है. जल्दी से दूल्हादुलहन को शगुन दो. रात के 12 बज रहे हैं. घर पर बच्चे अकेले हैं.’’

एक बहुत ही सौम्य व्यक्ति ने पुकारा शुभा को. आत्मविश्वास से भरा था दोनों का ही स्वरूप. दोनों ठिठक कर मुझे निहारने लगे. अच्छा लग रहा था मुझे. मेरा उसे न पहचानना कितनी तकलीफ दे रहा होगा न शुभा को. इतने लोगों की भीड़ में कितना बुरा लग रहा होगा शुभा को. बड़ी गहरी नजरें थीं शुभा की. सब समझ गई होगी शायद. शायद मेरा हाथ पकड़ कर मुझे याद दिलाएगी और कहेगी :

‘सीमा, याद करो न, मैं शुभा हूं. जम्मू में हम साथसाथ थे न. मैं ने तुम्हारा मन दुखाया था…तुम्हारा कहा नहीं माना था. कैसे हैं तुम्हारे भैया. अभी भी अमेरिका में ही हैं या कहीं और चले गए?’

‘‘बरसों पहले खो दिया था मैं ने अपनी प्यारी सखी को…आज भी बहुत याद आती है. पता चला था इसी शहर में है. आप को देख कर उस का धोखा हो गया, सो बुला लिया. आप वह नहीं हैं… क्षमा कीजिएगा.’’

मुसकरा दी शुभा. एक रहस्यमयी मुसकान. हाथ जोड़ कर उस ने माफी मांगी और दोनों पतिपत्नी चले गए. स्तब्ध रह गई मैं. शुभा ने नजर भर कर न मुझे देखा, न मेरे गहनों को. सादी सी शुभा की नजरों में गहनोंकपड़ों की कीमत कल भी शून्य थी और आज भी. कल भी वह संतोष से भरी थी और आज भी उस का चेहरा संतोष से दमक रहा था. सोचा था, मैं उसे पीड़ा पहुंचा रही हूं, नहीं जानती थी कि वही मुझे नकार कर इस तरह चली जाएगी कि मैं ही पीडि़ता हो कर रह जाऊंगी.

खुशियों के फूल: क्या था लिपि के पिता का विकृत चेहरा?

‘‘रश्मि आंटी ई…ई…ई…’’ यह पुकार सुन कर लगा जैसे यह मेरा सात समंदर पार वैंकूवर में किसी अपने की मिठास भरी पुकार का भ्रम मात्र है. परदेस में भला मुझे कौन पहचानता है?  पीछे मुड़ कर देखा तो एक 30-35 वर्षीय सौम्य सी युवती मुझे पुकार रही थी. चेहरा कुछ जानापहचाना सा लगा. हां अरे, यह तो लिपि है. मेरे चेहरे पर आई मुसकान को देख कर वह अपनी वही पुरानी मुसकान ले कर बांहें फैला कर मेरी ओर बढ़ी.

इतने बरसों बाद मिलने की चाह में मेरे कदम भी तेजी से उस की ओर बढ़ गए. वह दौड़ कर मेरी बांहों में सिमट गई. हम दोनों की बांहों की कसावट यह जता रही थी कि आज के इस मिलन की खुशी जैसे सदियों की बेताबी का परिणाम हो.

मेरी बहू मिताली पास ही हैरान सी खड़ी थी. ‘‘बेटी, कहां चली गई थीं तुम अचानक? कितना सोचती थी मैं तुम्हारे बारे में? जाने कैसी होगी? कहां होगी मेरी लिपि? कुछ भी तो पता नहीं चला था तुम्हारा?’’ मेरे हजार सवाल थे और लिपि की बस गरम आंसुओं की बूंदें मेरे कंधे पर गिरती हुई जैसे सारे जवाब बन कर बरस रही थीं.

मैं ने लिपि को बांहों से दूर कर सामने किया, देखना चाहती थी कि वक्त के अंतराल ने उसे कितना कुछ बदलाव दिया.

‘‘आंटी, मेरा भी एक पल नहीं बीता होगा आप को बिना याद किए. दुख के पलों में आप मेरा सहारा बनीं. मैं इन खुशियों में भी आप को शामिल करना चाहती थी. मगर कहां ढूंढ़ती? बस, सोचती रहती थी कि कभी तो आंटी से मिल सकूं,’’ भरे गले से लिपि बोली.

‘‘लिपि, यह मेरी बहू मिताली है. इस की जिद पर ही मैं कनाडा आई हूं वरना तुम से मिलने के लिए मुझे एक और जन्म लेना पड़ता,’’ मैं ने मुसकरा कर माहौल को सामान्य करना चाहा.

‘‘मां के चेहरे की खुशी देख कर मैं समझ सकती हूं कि आप दोनों एकदूसरे से मिलने के लिए कितनी बेताब रही हैं. आप अपना एड्रैस और फोन नंबर दे दीजिए. मैं मां को आप के घर ले आऊंगी. फिर आप दोनों जी भर कर गुजरे दिनों को याद कीजिएगा,’’ मिताली ने नोटपैड निकालते हुए कहा.

‘‘भाभी, मैं हाउसवाइफ हूं. मेरा घर इस ‘प्रेस्टीज मौल’ से अधिक दूरी पर नहीं है. आंटी को जल्दी ही मेरे घर लाइएगा. मुझे आंटी से ढेर सारी बातें करनी हैं,’’ मुझे जल्दी घर बुलाने के लिए उतावली होते हुए उस ने एड्रैस और फोन नंबर लिखते हुए मिताली से कहा.

‘‘मां, लगता है आप के साथ बहुत लंबा समय गुजारा है लिपि ने. बहुत खुश नजर आ रही थी आप से मिल कर,’’ रास्ते में कार में मिताली ने जिक्र छेड़ा.

‘‘हां, लिपि का परिवार ग्वालियर में हमारा पड़ोसी था. ग्वालियर में रिटायरमैंट तक हम 5 साल रहे. ग्वालियर की यादों के साथ लिपि का भोला मासूम चेहरा हमेशा याद आता है. बेहद शालीन लिपि अपनी सौम्य, सरल मुसकान और आदर के साथ बातचीत कर पहली मुलाकात में ही प्रभावित कर लेती थी.

‘‘जब हम स्थानांतरण के बाद ग्वालियर शासकीय आवास में पहुंचे तो पास ही 2 घर छोड़ कर तीसरे क्वार्टर में चौधरी साहब, उन की पत्नी और लिपि रहते थे. चौधरी साहब का अविवाहित बेटा लखनऊ में सर्विस कर रहा था और बड़ी बेटी शादी के बाद झांसी में रह रही थी,’’ बहुत कुछ कह कर भी मैं बहुत कुछ छिपा गई लिपि के बारे में.

रात को एकांत में लिपि फिर याद आ ग. उन दिनों लिपि का अधिकांश समय अपनी बीमार मां की सेवा में ही गुजरता था. फिर भी शाम को मुझ से मिलने का समय वह निकाल ही लेती थी. मैं भी चौधरी साहब की पत्नी शीलाजी का हालचाल लेने जबतब उन के घर चली जाती थी.

शीलाजी की बीमारी की गंभीरता ने उन्हें असमय ही जीवन से मुक्त कर दिया. 10 वर्षों से रक्त कैंसर से जूझ रही शीलाजी का जब निधन हुआ था तब लिपि एमए फाइनल में थी. असमय मां का बिछुड़ना और सारे दिन के एकांत ने उसे गुमसुम कर दिया था. हमेशा सूजी, पथराई आंखों में नमी समेटे वह अब शाम को भी बाहर आने से कतराने लगी थी. चौधरी साहब ने औफिस जाना आरंभ कर दिया था. उन के लिए घर तो रात्रिभोजन और रैनबसेरे का ठिकाना मात्र ही रह गया था.

लिपि को देख कर लगता था कि वह इस गम से उबरने की जगह दुख के समंदर में और भी डूबती जा रही है. सहमी, पीली पड़ती लिपि दुखी ही नहीं, भयभीत भी लगती थी. आतेजाते दी जा रही दिलासा उसे जरा भी गम से उबार नहीं पा रही थी. दुखते जख्मों को कुरेदने और सहलाने के लिए उस का मौन इजाजत ही नहीं दे रहा था.

मुझे लिपि में अपनी दूर ब्याही बेटी  अर्पिता की छवि दिखाई देती थी.  फिर भला उस की मायूसी मुझ से कैसे बर्दाश्त होती? मैं ने उस की दीर्घ चुप्पी के बावजूद उसे अधिक समय देना शुरू कर दिया था. ‘बेटी लिपि, अब तुम अपने पापा की ओर ध्यान दो. तुम्हारे दुखी रहने से उन का दुख भी बढ़ जाता है. जीवनसाथी खोने का गम तो है ही, तुम्हें दुखी देख कर वे भी सामान्य नहीं हो पा रहे हैं. अपने लिए नहीं तो पापा के लिए तो सामान्य होने की कोशिश करो,’ मैं ने प्यार से लिपि को सहलाते हुए कहा था.

पापा का नाम सुनते ही उस की आंखों में घृणा का जो सैलाब उठा उसे मैं ने साफसाफ महसूस किया. कुछ न कह पाने की घुटन में उस ने मुझे अपलक देखा और फिर फूटफूट कर रोने लगी. मेरे बहुत समझाने पर हिचकियां लेते हुए वह अपने अंदर छिपी सारी दास्तान कह गई, ‘आंटी, मैं मम्मी के दुनिया से जाते ही बिलकुल अकेली हो गई हूं. भैया और दीदी तेरहवीं के बाद ही अपनेअपने शहर चले गए थे. मां की लंबी बीमारी के कारण घर की व्यवस्थाएं नौकरों के भरोसे बेतरतीब ही थीं. मैं ने जब से होश संभाला, पापा को मम्मी की सेवा और दवाओं का खयाल रखते देखा और कभीकभी खीज कर अपनी बदकिस्मती पर चिल्लाते भी.

‘मेरे बड़े होते ही मम्मी का खयाल स्वत: ही मेरी दिनचर्या में शामिल हो गया. पापा के झुंझलाने से आहत मम्मी मुझ से बस यही कहती थीं कि बेटी, मैं बस तुम्हें ससुराल विदा करने के लिए ही अपनी सांसें थामे हूं. वरना अब मेरा जीने का बिलकुल भी जी नहीं करता. लेकिन मम्मी मुझे बिना विदा किए ही दुनिया से विदा हो गईं.

‘पापा को मैं ने पहले कभी घर पर शराब पीते नहीं देखा था लेकिन अब पापा घर पर ही शराब की बोतल ले कर बैठ जाते हैं. जैसेजैसे नशा चढ़ता है, पापा का बड़बड़ाना भी बढ़ जाता है. इतने सालों से दबाई अतृप्त कामनाएं, शराब के नशे में बहक कर बड़बड़ाने में और हावभावों से बाहर आने लगती हैं. पापा कहते हैं कि उन्होंने अपनी सारी जवानी एक जिंदा लाश को ढोने में बरबाद कर दी. अब वे भरपूर जीवन जीना चाहते हैं. रिश्तों की गरिमा और पवित्रता को भुला कर वासना और शराब के नशे में डूबे हुए पापा मुझे बेटी के कर्तव्यों के निर्वहन का पाठ पढ़ाते हैं.

‘मेरे आसपास अश्लील माहौल बना कर मुझे अपनी तृप्ति का साधन बनाना चाहते हैं. वे कामुक बन मुझे पाने का प्रयास करते हैं और मैं खुद को इस बड़े घर में बचातीछिपाती भागती हूं. नशे में डूबे पापा हमारे पवित्र रिश्ते को भूल कर खुद को मात्र नर और मुझे नारी के रूप में ही देखते हैं.

‘अब तो उन के हाथों में बोतल देख कर मैं खुद को एक कमरे में बंद कर लेती हूं. वे बाहर बैठे मुझे धिक्कारते और उकसाते रहते हैं और कुछ देर बाद नींद और नशे में निढाल हो कर सो जाते हैं. सुबह उठ कर नशे में बोली गई आधीअधूरी याद, बदतमीजी के लिए मेरे पैरों पर गिर कर रोरो कर माफी मांग लेते हैं और जल्दी ही घर से बाहर चले जाते हैं.

‘ऊंचे सुरक्षित परकोटे के घर में मैं सब से सुरक्षित रिश्ते से ही असुरक्षित रह कर किस तरह दिन काट रही हूं, यह मैं ही जानती हूं. इस समस्या का समाधान मुझे दूरदूर तक नजर नहीं आ रहा है,’ कह कर सिर झुकाए बैठ गई थी लिपि. उस की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी थी.

मैं सुन कर आश्चर्यचकित थी कि चौधरी साहब इतना भी गिर सकते हैं. लिपि अपने अविवाहित भाई रौनक के पास भी नहीं जा सकती थी और झांसी में उस की दीदी अभी संयुक्त परिवार में अपनी जगह बनाने में ही संघर्षरत थी. वहां लिपि का कुछ दिन भी रह पाना मुश्किल था.  घबरा कर लिपि आत्महत्या जैसे कायरतापूर्ण अंजाम का मन बनाने लगी थी. लेकिन आत्महत्या अपने पीछे बहुत से अनुत्तरित सवाल छोड़ जाती है, यह समझदार लिपि जानती थी. मैं ने उसे चौधरी साहब और रौनक के साथ गंभीरतापूर्वक बात कर उस के विवाह के बाद एक खुशहाल जिंदगी का ख्वाब दिखा कर उसे दिलासा दी. अब मैं उसे अधिक से अधिक समय अपने साथ रखने लगी थी.  मुझे अपनी बेटी की निश्चित डेट पर हो रही औपरेशन द्वारा डिलीवरी के लिए बेंगलुरु जाना था. मैं चिंतित थी कि मेरे यहां से जाने के बाद लिपि अपना मन कैसे बहलाएगी?

यह एक संयोग ही था कि मेरे बेंगलुरु जाने से एक दिन पहले रौनक लखनऊ से घर आया. मेरे पास अधिक समय नहीं था इसलिए मैं उसे निसंकोच अपने घर बुला लाई. एक अविवाहित बेटे के पिता की विचलित मानसिकता और उन की छत्रछाया में पिता से असुरक्षित बहन का दर्द कहना जरा मुश्किल ही था, लेकिन लिपि के भविष्य को देखते हुए रौनक को सबकुछ थोड़े में समझाना जरूरी था.  सारी बात सुन कर उस का मन पिता के प्रति आक्रोश से?भर उठा. मैं ने उसे समझाया कि वह क्रोध और जोश में नहीं बल्कि ठंडे दिमाग से ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचे जो लिपि के लिए सुरक्षित और बेहतर हो.

अगली सुबह मैं अकेली बेंगलुरु के लिए रवाना हो गई थी और जा कर अर्पिता की डिलीवरी से पूर्व की तैयारी में व्यस्त हो गई थी कि तीसरे दिन मेरे पति ने फोन पर बताया कि तुम्हारे जाने के बाद अगली शाम रौनक लिपि को झांसी भेजने के लिए स्टेशन गया था कि पीछे घर पर अकेले बैठे चौधरी साहब की हार्टअटैक से मृत्यु हो गई.

रौनक को अंदर से बंद घर में पापा टेबल से टिके हुए कुरसी पर बैठे मिले. बेचारे चौधरी साहब का कुछ पढ़ते हुए ही हार्ट फेल हो गया. लिपि और उस की बहन भी आ गई हैं. चौधरी साहब का अंतिम संस्कार हो गया है और मैं कल 1 माह के टूर पर पटना जा रहा हूं.’

चौधरी साहब के निधन को लिपि के लिए सुखद मोड़ कहूं या दुखद, यह तय नहीं कर पा रही थी मैं. तब फोन भी हर घर में कहां होते थे. मैं कैसे दिलासा देती लिपि को? बेचारी लिपि कैसे…कहां… रहेगी अब? उत्तर को वक्त के हाथों में सौंप कर मैं अर्पिता और उस के नवजात बेटे में व्यस्त हो गई थी.

3माह बाद ग्वालियर आई तो चौधरी साहब के उजड़े घर को देख कर मन में एक टीस पैदा हुई. पति ने बताया कि रौनक चौधरी साहब की तेरहवीं के बाद घर के अधिकांश सामान को बेच कर लिपि को अपने साथ ले गया है. मैं उस वक्त टूर पर था, इसलिए जाते वक्त मुलाकात नहीं हो सकी और उन का लखनऊ का एड्रैस भी नहीं ले सका.

लिपि मेरे दिलोदिमाग पर छाई रही लेकिन उस से मिलने की अधूरी हसरत इतने सालों बाद वैंकूवर में पूरी हो सकी.  सोमवार को नूनशिफ्ट जौइन करने के लिए तैयार होते समय मिताली ने कहा, ‘‘मां, मेरी लिपि से फोन पर बात हो गई है. मैं आप को उस के यहां छोड़ देती हूं. आप तैयार हो जाइए. वह आप को वापस यहां छोड़ते समय घर भी देख लेगी.’’

लिपि अपने अपार्टमैंट के गेट पर ही हमारा इंतजार करती मिली. मिताली के औफिस रवाना होते ही लिपि ने कहा, ‘‘आंटी, आप से ढेर सारी बातें करनी हैं. आइए, पहले इस पार्क में धूप में बैठते हैं. मैं जानती हूं कि आप तब से आज तक न जाने कितनी बार मेरे बारे में सोच कर परेशान हुई होंगी.’’

‘‘हां लिपि, चौधरी साहब के गुजरने के बाद तुम ग्वालियर से लखनऊ चली गई थीं, फिर तुम्हारे बारे में कुछ पता ही नहीं चला. चौधरी साहब की अचानक मृत्यु ने तो हमें अचंभित ही कर दिया था. प्रकृति की लीला बड़ी विचित्र है,’’ मैं ने अफसोस के साथ कहा.

‘‘आंटी जो कुछ बताया जाता है वह हमेशा सच नहीं होता. रौनक भैया उस दिन आप के यहां से आ कर चुप, पर बहुत आक्रोशित थे. पापा ने रात को शराब पी कर भैया से कहा कि अब तुम लिपि को समझाओ कि यह मां के गम में रोनाधोना भूल कर मेरा ध्यान रखे और अपनी पढ़ाई में मन लगाए.

‘‘सुन कर भैया भड़क गए थे. पापा के मेरे साथ ओछे व्यवहार पर उन्होंने पापा को बहुत खरीखोटी सुनाईं और कलियुगी पिता के रूप में उन्हें बेहद धिक्कारा. बेटे से लांछित पापा अपनी करतूतों से शर्मिंदा बैठे रह गए. उन्हें लगा कि ये सारी बातें मैं ने ही भैया को बताई हैं.

‘‘भैया की छुट्टियां बाकी थीं लेकिन वे मुझे झांसी दीदी के पास कुछ दिन भेज कर किसी अन्य शहर में मेरी शिक्षा और होस्टल का इंतजाम करना चाहते थे. वे मुझे झांसी के लिए स्टेशन पर ट्रेन में बिठा कर वापस घर पहुंचे तो दरवाजा अंदर से बंद था.

‘‘बारबार घंटी बजाने पर भी जब दरवाजा नहीं खुला तो भैया पीछे आंगन की दीवार फांद कर अंदर पहुंचे तो पापा कुरसी पर बैठे सामने मेज पर सिर के बल टिके हुए मिले. उन के सीधे हाथ में कलम था और बाएं हाथ की कलाई से खून बह रहा था. भैया ने उन्हें बिस्तर पर लिटाया. तब तक उन के प्राणपखेरू उड़ चुके थे. भैया ने डाक्टर अंकल और झांसी में दीदी को फोन कर दिया था. पापा ने शर्मिंदा हो कर आत्महत्या करने के लिए अपने बाएं हाथ की कलाई की नस काट ली थी और फिर मेरे और भैया के नाम एक खत लिखना शुरू किया था. ‘‘होश में रहने तक वे खत लिखते रहे, जिस में वे केवल हम से माफी मांगते रहे. उन्हें अपने किए व्यवहार का बहुत पछतावा था. वे अपनी गलतियों के साथ और जीना नहीं चाहते थे. पत्र में उन्होंने आत्महत्या को हृदयाघात से स्वाभाविक मौत के रूप में प्रचारित करने की विनती की थी.

‘‘भैया ने डाक्टर अंकल से भी आत्महत्या का राज उन तक ही सीमित रखने की प्रार्थना की और छिपा कर रखे उन के सुसाइड नोट को एक बार मुझे पढ़वा कर नष्ट कर दिया था.

‘‘हम दोनों अनाथ भाईबहन शीघ्र ही लखनऊ चले गए थे. मैं अवसादग्रस्त हो गई थी इसलिए आप से भी कोई संपर्क नहीं कर पाई. भैया ने मुझे बहुत हिम्मत दी और मनोचिकित्सक से परामर्श किया. लखनऊ में हम युवा भाईबहन को भी लोग शक की दृष्टि से देखते थे लेकिन तभी अंधेरे में आशा की किरण जागी. भैया के दोस्त केतन ने भैया से मेरा हाथ मांगा. सच कहूं, तो आंटी केतन का हाथ थामते ही मेरे जीवन में खुशियों का प्रवेश हो गया. केतन बहुत सुलझे हुए व्यक्ति हैं. मेरे दुख और एकाकीपन से उबरने में उन्होंने मुझे बहुत धैर्य से प्रेरित किया. मेरे दुख का स्वाभाविक कारण वे मम्मीपापा की असामयिक मृत्यु ही मानते हैं.

‘‘मैं ने अपनी शादी का कार्ड आप के पते पर भेजा था. लेकिन बाद में पता चला कि अंकल के रिटायरमैंट के बाद आप लोग वहां से चले गए थे. मैं और केतन

2 वर्ष पहले ही कनाडा आए हैं. अब मैं अपनी पिछली जिंदगी की सारी कड़ुवाहटें भूल कर केतन के साथ बहुत खुश हूं. बस, एक ख्वाहिश थी, आप से मिल कर अपनी खुशियां बांटने की. वह आज पूरी हो गई. आप के कंधे पर सिर रख कर रोई हूं आंटी. खुशी से गलबहियां डाल कर आप को भी आनंदित करने की चाह आज पूरी हो गई.’’

लिपि यह कह कर गले में बांहें डाल कर मुग्ध हो गई थी. मैं ने उस की बांहों को खींच लिया, उस की खुशियों को और करीब से महसूस करने के लिए.

‘‘आंटी, मैं पिछली जिंदगी की ये कसैली यादें अपने घर की दरोदीवार में गूंजने से दूर रखना चाहती हूं, इसलिए आप को यहां पार्क में ले आई थी. आइए, आंटी, अब चलते हैं. मेरे प्यारे घर में केतन भी आज जल्दी आते होंगे, आप से मिलने के लिए,’’ लिपि ने उत्साह से कहा और मैं उठ कर मंत्रमुग्ध सी उस के पीछेपीछे चल दी उस की बगिया में महकते खुशियों के फूल चुनने के लिए.

नमस्ते जी: भाग 3- नितिन ने कैसे तोड़ा अपनी पत्नी का भरोसा?

सुबह के समय नितिन के फैक्टरी जाने से पहले वह आने लगी थी ताकि अंकिता को वह संभाल सके और मैं उन के लिए अच्छे से नाश्ता तैयार कर सकूं. जब कभी नितिन आयशा के सामने आ जाते तो वह हलका सा मुसकराती हुई कहती-‘नमस्ते जी.’

उस का मुसकराने का अंदाज बड़ा ही शर्मीला था. नितिन भी उसी के अंदाज में मुसकराते हुए जवाब देते थे. आयशा जब भी मेरे पास बैठती तो हमारे बारे में ही पूछती. कभी पूछती थी कि आंटीजी आप की ‘लवमैरिज’ है क्या? कभी कहती थी कि आंटीजी, अंकलजी बहुत ‘स्मार्ट’ हैं, आप ने कहां से ढूंढ़ा इन्हें? जाने कब भोलेपन में मैं ने वे सारी बातें नितिन को बता दी थीं. वक्त गुजरता जा रहा था.

एक दिन रविवार की शाम को मैं रसोई में खाना पका रही थी और नितिन पहली मंजिल पर अपने बैडरूम में टेलीविजन देख रहे थे. मांजी रसोई के साथ लगते अपने कमरे में बैठ कर कोई किताब पढ़ रही थीं. अंकिता को भी आयशा के साथ पहली मंजिल पर बच्चों के कमरे में खेलने के लिए छोड़ा हुआ था. मुझे अचानक याद आया कि नितिन रात के खाने में कभीकभार प्याज तो खा ही लेते हैं इसलिए सोचा कि चलो क्यों न काटने से पहले पूछ ही लिया जाए. पहले तो आवाज लगाई थी. नितिन ने टेलीविजन की आवाज इतनी तेज कर रखी थी कि कोई फायदा न जान मैं सीढि़यां चढ़ते हुए अपने बैडरूम की तरफ चल दी थी. मैं ने जैसे ही कमरे में प्रवेश किया तो जो देखा उसे देखने के साथ तो मेरी सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गई थी. मैं कभी स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थी, जो मेरे सामने हो रहा था.

आयशा अंकिता को फर्श पर खिलौने के साथ छोड़ कर खुद सोफे पर नितिन के होंठों में होंठ लगाए अनंत आनंद की यात्रा में तल्लीन थी. नितिन ने एक हाथ से आयशा को पूरी तरह से कसकर भींच रखा था तो उन का दूसरा हाथ आयशा के शरीर का मंथन कर रहा था.

अपनी बेटी की देखभाल व रक्षा के लिए रखी गई दूसरे की बेटी के जिस्म का यह कैसा मंथन था? मैं देख कर सन्न रह गई थी. कुछ पलों के बाद जब मुझे वहां अपने खड़े रहने का आभास हुआ तो मैं जोर से चिल्लाई थी, ‘नितिन.’

नितिन की नजर जब मुझ पर पड़ी तो उन का पूरा शरीर कांप उठा था. ठंडे पड़ते बदन में अब इतनी भी हिम्मत नहीं रही थी कि वे आयशा को अपने से अलग कर सके. आयशा ने पलट कर मेरी तरफ देखा तो वह झटके से उठ कर बाथरूम की तरफ भाग गई. और फिर बाथरूम की टोटी से पानी गिरने की आवाजें आने लगी थीं. उस पल पता नहीं मेरे मन में क्या आया, मैं ने अपनी चप्पल पैर से निकाली थी और नितिन के मुंह में ठूंस दी थी. फिर जोर से चिल्लाई थी, ‘गंदगी में ही मुंह मारना है तो लो मैं ही खिला देती हूं तुम्हें.’

तभी नीचे से मांजी की आवाज आई थी, ‘बहू क्या हुआ?’

मांजी की आवाज सुनते ही नितिन मेरे पैरों में पड़ गए थे. वे कुछ ही क्षणों में वह सबकुछ कह गए थे जो एक पत्नी को अपने पति के अहम को तोड़ने के लिए काफी होता है. मांजी जब तक सीढि़यां चढ़ कर हमारे बैडरूम में पहुंचीं तब तक नितिन वापस सोफे पर बैठ चुके थे व मैं ने अंकिता को गोद में उठा लिया था.

‘बहू, क्या हुआ था जो इतनी जोर से चिल्लाई?’

‘कुछ नहीं मांजी, बैडरूम से कुछ गिरने की आवाज आई थी. मैं ने आ कर देखा तो अंकिता बैड से नीचे गिरी हुई थी. उसे देख कर मेरे मुंह से चीख निकल गई.’

‘आयशा कहां है?’ मांजी के पूछने पर मैं ने कह दिया कि वह बाथरूम में है. मेरा जवाब सुन कर मांजी यह कहते हुए वापस अपने कमरे की तरफ चली गई थीं कि पता नहीं आजकल के मांबाप क्या करते रहते हैं? 2 बच्चों की भी ढंग से देखभाल नहीं कर सकते. उस के लिए भी अलग से कामवालियां. अरे, हम ने भी तो बच्चे पाले हैं, एक नहीं…

मांजी के जाने के बाद मैं ने आयशा को बाथरूम से जल्दी बाहर निकलने को कहा था. वह जब तक बाथरूम से बाहर नहीं आई, मैं अंकिता को गोद में लिए फनफनाती हुई बाथरूम के आगे ही उस की प्रतीक्षा में चक्कर लगाती रही. बाथरूम की कुंडी खुली तो मेरी निगाहें दरवाजे पर जा कर अटक गई थीं. आयशा ने जिन कपड़ों को पहन रखा था वह उन्हीं कपड़ों में नहा कर बाथरूम से बाहर निकल आई थी. उस को देखने से ऐसा आभास हो रहा था कि जैसे उस के तनबदन में अब भी कामाग्नि हिलौरे ले रही थी. आयशा की आंखों में कहीं भी अपराधबोध, आत्मग्लानि व पश्चात्ताप के भाव नजर नहीं आ रहे थे. तब मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने उस के गीले गाल पर अपने उलटे हाथ का एक जोरदार थप्पड़ जड़ते हुए कहा था, ‘आयशा, जल्दी से कपड़े बदल कर मेरे कमरे में आओ.’

वह थोड़ी देर के बाद हमारे बैडरूम में हम दोनों के बीच थी, मगर कोई शिकन उस के चेहरे पर नहीं थी. मैं उस के इस रूप को देख कर हैरान व परेशान थी. मैं ने ही मन में सोचा कि इस लड़की को नितिन ने ऐसा कौन सा पाठ पढ़ा दिया है जो यह इतनी बड़ी भूल करने के बाद भी बिलकुल सामान्य हो कर खड़ी है.

मैं ने एकाएक आयशा से पूछा, ‘आयशा, यह सब कब से चल रहा है?’

‘मुझ से क्या पूछती हो आंटी, अंकल से पूछो न.’

उस का यह उत्तर सुन कर मैं ने अपना रुख नितिन की ओर किया तो नितिन ने अपना मुंह नीचे फर्श पर गड़ा दिया. मुझे लगा था कि नितिन का मन पश्चात्ताप के कुएं में डुबकियां मार रहा था.

आयशा का दाहिना हाथ पकड़ कर उसे दूसरे कमरे में ले गई और वहां उसे एक सोने की लौंग व 3-4 पुराने सूट दे कर कहा, ‘अपना सारा सामान अभी समेट लो…और ध्यान से सुन, तू इस बात का किसी से भी जिक्र नहीं करेगी…और हां, अपनी मां को कह देना कि अब हमें तुम्हारी जरूरत नहीं रही.’

आयशा वाली घटना को अभी 7-8 महीने ही हुए होंगे कि नितिन ने रात को देर से आना शुरू कर दिया था. पूछने पर कहा था, ‘आजकल आर्डर अधिक हैं, सो रात वाली शिफ्ट में भी लेबर से काम होता है.’

तब नितिन ने मेरी आंखों पर मेहनत की बातों का ऐसा चश्मा चढ़ाया था कि जब तक मेरी आंखों ने परदे के पीछे की सचाई को देखना शुरू किया तब तक नितिन एक और सांवलीसलोनी के साथ जाने कब ऐसे घुलमिल गए जैसे पानी के साथ चीनी. और उस सावंलीसलोनी औरत के साथ नितिन न जाने अपनी कितनी रातें रंगीन कर चुके थे. बाद में पता लगा था कि उस औरत को उस के पति ने छोड़ रखा था और वह ऐसे ही शिकार की तलाश में रहती थी.

मेरा जब कभी भी फैक्टरी में जाना होता तो वह औरत हलकी सी हंसी होंठों पर ला कर बड़े ही अंदाज से ‘नमस्तेजी’ कहती थी.

मेरी यादों में जीवित होहो कर उन सब की ‘नमस्तेजी’ अब भी व्यंग्य कसती है मुझ पर. मैं आज तक उन हादसों से अपनेआप को नहीं निकाल पाई हूं. पति पर शक करना अपनी गृहस्थी में कांटे बोना जैसा होता है. पर जब शक विश्वास में बदल जाए तो जिंदगी नीरस हो कर रह जाती है.

मैं शादी के बंधन से ही विश्वास खो बैठी हूं और शायद, तभी से खुद को वैसा कभी नहीं पाया जैसा विश्वास टूटने से पहले…बस, गृहस्थी की डगर पर चलती जा रही हूं. शायद यह सोच कर कि वैवाहिक जीवन के आधे से अधिक का रास्ता तय करने के बाद भारतीय नारी के लिए पलट कर वापस पहले छोर पर जाने की गुंजाइश कहां रहती है, क्योंकि इसी रास्ते पर हमारे पीछेपीछे कुछ नन्हेनन्हे पांव भी चल रहे होते हैं. अगर कदम वापस लिए तो ये नन्हेनन्हे पांव असंतुलित हो, हम से भी पहले गिर सकते हैं और कुचल भी सकते हैं.

यह सब सोच कर ही मैं नहीं रुकने देती गृहस्थी के पहिए को…और चलती जा रही है नितिन के साथसाथ मेरी जिंदगी की गाड़ी सुनसान मोड़ों पर, ऊबड़खाबड़, पथरीले रास्तों से गुजरती हुई एक अनजान मंजिल की तरफ.

आज चेहरा दूसरा है. आयशा की जगह धोबी की लड़की है. मगर ‘नमस्ते जी’ के पीछे छिपे अभिप्राय को मैं जहां तक समझ पाई हूं, वह केवल एक ऐसा मर्द ढूंढ़ना है जो सभ्यता व संस्कार का मुखौटा लगाए तलाश में रहता है प्रतिपल एक नए संबोधन की कि कोई मुसकराए और धीरे से कहे,

‘‘नमस्ते जी.’’

नया पड़ाव: भाग 2- जब पत्नी को हुआ अपनी गलती का अहसास

राकेश रात के 8 बजे लौटे. मुझे अनदेखा कर के बोले, ‘‘खाना तैयार हो तो

ले लाओ नहीं तो कल से खाना भी बाहर खा लिया करूंगा. फिर तुम्हें रंजू के लिए और ज्यादा वक्त मिल सकेगा.’’

मुझे गुस्सा तो बहुत आया परंतु चुप रहना ही उचित समझ खाना परोस कर ले आई. इतने व्यंग्य सुन कर मेरी भूख मिट गई थी. गले में ग्रास अटके जाते थे, पर जैसेतैसे खाना निबटा कर मैं उठ गई. राकेश ने मेरे कम खाने पर कुछ नहीं पूछा तो मन और उदास हो गया क्योंकि ऐसा पहली बार ही हुआ था.

सोचा, रात के एकांत में राकेश जरूर मुझे प्यार करेंगे. अपनी गलती के लिए कुछ कहेंगे परंतु बरतन समेट कर कमरे में आई तब तक राकेश सो चुके थे. उस पूरी रात मैं ठीक से सो भी नहीं सकी. आंखें बारबार भीगती रहीं.

मन में यह भी विचार आया कि राकेश कहीं किसी चक्कर में तो नहीं फंस गए. पर अंत में यह सोच कर कि आगे से राकेश के आने के वक्त से ठीक से तैयार हो जाया करूंगी, मैं हलकी हो कर सो गई.

सुबह देर से आंख खुली. रंजू बेतहाशा रो रहा था और राकेश अखबार पढ़ रहे थे. मैं ?ाटके से उठी. रंजू को उठाया और राकेश से बोली, ‘‘इतनी देर से रो रहा है, क्या यह सिर्फ मेरा

ही बेटा है जो आप इस की ओर जरा भी ध्यान नहीं देते.’’

राकेश चिढ़ कर बोले, ‘‘अलार्म का

काम कर रहा था तुम्हारा सुपूत, सो मैं बैठा

रहा ताकि तुम उठ कर चाय तो तैयार करो.

अब इस के होने पर न जाने क्याक्या बंद होने वाला है मेरा.’’

जैसे मुझे खिजाते हुए वे दोबारा अखबार पढ़ने लगे. मैं ने उठ कर रंजू को दूध दिया. फिर स्वयं बाथरूम से निबट कर चाय बना कर लाई तो राकेश बोले, ‘‘अब बैड टी तो गोल यह नाश्ते का वक्त है, कुछ साथ में ले आती तो नाश्ता गोल होने से बच जाता.’’

राकेश के इस तरह के व्यवहार की क्या वजह थी मुझे समझ में नहीं आ रहा था. फिर सुबहसुबह लड़ाई कर के बात बढ़ाना बेकार समझ मैं ने राकेश को घूर कर बिस्कुट का डब्बा पकड़ा दिया और चुपचाप चाय पीने लगी.

अभी बेइंतहा काम मेरा इंतजार कर रहा था. पहले ही काफी देर हो गई थी. मैं खाली चाय पी कर रसोई में आ गई. राकेश के लिए लंच बाक्स तैयार करना था.

रंजू को वाकर में बैठा कर मैं रसोई में ही ले आई. झटपट सब्जी बनाई और आटा गूंध कर परांठे तैयार किए. तब तक राकेश तैयार हो चुके थे.

मैं ने चुपचाप लंच बौक्स राकेश को पकड़ा दिया. बाहर तक छोड़ने आई तो राकेश मेरी ओर बगैर ध्यान दिए चल दिए.

सारा दिन मन बुझ रहा. अंदर का खालीपन और गहरा हो गया. रंजू की तबीयत

अब थोड़ी ठीक थी. मैं सारा काम चुपचाप करती रही. दिन में मां को पूरी बात बताई तो उन्होंने अपनी पुरानी कहानी शुरू कर दी कि पति की सेवा ही स्त्री का धर्म है. पति को कैसे भी मना और भूल कर भी लड़ना नहीं. शाम हुई तो मैं तैयार हो कर राकेश का इंतजार करने लगी.

मगर राकेश शाम के 7 बजे आए. मैं ने अच्छी साड़ी पहनी थी पर  उसे रंजू ने 3 बार गीला कर दिया था और वह जगहजगह से मुस गई थी. गोदी में उछलउछल कर उस ने मेरे बाल भी अस्तव्यस्त कर दिए थे.

राकेश देर से आने की कैफियत दिए बगैर बोले, ‘‘भारत की औरतों में एक बात है. बच्चों के पीछे सरी जिंदगी तबाह कर देती हैं. गीली साड़ी, उलझे बाल, खुरदुरे हाथ और मुरझया चेहरा. बस, बच्चों के बाद यही तसवीर मिलेगी औरतों की. अरे बाहर की औरतों को भी देखो, कैसे बच्चे पालती हैं. घर का काम भी करती हैं, बाहर का भी. फिर भी फूल की तरह मुसकराती रहती हैं.’’

मैं बिना कुछ कहे हिचकियां भरभर कर रोने लगी. रोतेरोते ही बोली, ‘‘सारा दिनभर खप कर काम किया है. फिर सज कर आप का इंतजार करती रही. इतनी देर से आए और अब भाषण देने लगे. बच्चों के लिए बड़ी आयानौकरानी रख दी है न, जो सारा दिन फूल सा मुककराता चेहरा ले कर आप के आगेपीछे घूमती रहूं. बरतन, सफाई, कपड़े, रंजू की देखभाल सब मेरे जिम्मे है. आप को तो सिर्फ बातें बनानी आ गई हैं… काम से लौट कर जख्मी तीर चला देते हो. अब रंजू को आप ही संभालो, मैं कुछ दिनों के लिए मायके

जा रही हूं,’’ कह कर मैं सचमुच अपने कपड़े समेटने लगी.

राकेश सिटपिटा कर बोले, ‘‘अरे भई, मैं तो मजाक कर रहा था. तुम्हारे बगैर कहीं मेरा गुजारा है. छोड़ो भी यार, हम तो कहते हैं हमारा भी कुछ खयाल रख लिया करो, बस.’’

मैं पिघल गई. राकेश ने उस रात मुझे खूब प्यार किया. खाना खा कर राकेश टहलने गए तो मेरे लिए एक कोल्ड क्रीम और हैंड लोशन खरीद लाए. बोले, ‘‘काम के बाद इन्हें इस्तेमाल किया करो, हाथ खराब नहीं होंगे.’’

सुन कर मुझे लगा कि राकेश अब भी मुझे बहुत प्यार करते हैं. मैं ही बुरी हूं जो उन का ध्यान नहीं रखती.

कुछ दिन मैं ने राकेश का खूब ध्यान रखा. थोड़ा जल्दी सुबह उठने से राकेश के लिए वक्त निकल आता था. पर थोड़े दिनों बाद मैं इस क्रम से ऊब गई क्योंकि दिनभर रंजू मुझे सोने नहीं देता था और रात को भी जगाता था. नींद पूरी न हो पाने से मैं चिड़चिड़ी हो गई और हार कर मैं ने सुबह देर से उठना शुरू कर दिया.

सारा दिन फिर उसी क्रम से सब काम देर से होते गए और शाम तक राकेश के लौटने तक मैं कामों में ही उलझ रहने लगी. स्वयं अपने पर ध्यान देने और सजने के लिए वक्त निकालने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था.

कभी राकेश किसी पत्रिका में त्वचा की देखभाल या हाथपैरों की सुरक्षा पर कोई लेख पढ़ कर मुझे पढ़ने को कहते तो पढ़ने पर मुझे लगता कि वे सब किताबी बातें हैं, क्योंकि ढेर से काम निबटाने के बाद जब रात होती तो सिर्फ जल्दी से बिस्तर में घुसना ही याद रहता. गरम पानी से हाथपैर साफ कर के उन पर क्रीम और लोशन मलने में आधा घंटा भी गुजारना मुझे व्यर्थ लगता. सुबह फिर उसी क्रम से व्यस्तता शुरू हो जाती. इस व्यस्तता ने मेरे हाथपैर और चेहरे को बेरौनक कर दिया था. पर मैं सोचती इस में मैं क्या कर सकती हूं. घर का सारा काम भी तो मुझे ही निबटाना है.

राकेश ने देर से घर आना शुरू कर दिया

था. पर रंजू की देखभाल और घर की व्यवस्था

में उलझ मैं राकेश के देर से आने को कभी महत्त्व नहीं दे पाई क्योंकि उन के जल्दी घर

आने का मतलब था कि मैं भी साथ तैयार हो कर कहीं घूमने निकलूं, जो मुझे खलने लगा था. बच्चों के साथ कहीं ये सब संभव है? अच्छी साड़ी की दुर्दशा से बचने के लिए मैं अकसर गाउन ही पहने रहती.

राकेश ने अब कहना छोड़ दिया था. मैं ने भी कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि राकेश घर क्यों देर से आते हैं.

रंजू 3 साल का हो गया था. काम कुछ कम होता, इस से पहले ही पिंकी पैदा हो गई और फिर मैं उसी क्रम से उल?ाती चली गई. घर, बच्चे और मैं. न जाने कब सुबह होती और कब रात. काम खत्म होने को ही नहीं आते थे. बच्चों के मोह में अटकी में सारा दिन उन के आगेपीछे घूम कर खानापीना या दूध दिया करती. नहीं  खाते तो हाथ से ग्रास बनाबना कर खिलाती.

रंजू अब स्कूल जाने लगा था. उसे पढ़ाने का काम और बढ़ गया था. राकेश सुबह दफ्तर जाते तो रात के 7-8 बजे ही घर लौटते और फिर खापी कर सो जाते.

नया पड़ाव: भाग 1- जब पत्नी को हुआ अपनी गलती का अहसास

उस दिन मेरा मन बहुत बुझाबुझा सा था. मेरी बेटी पिंकी 4 साल का मैडिकल कोर्स करने के लिए कजाकिस्तान चली गई थी. जातेजाते वह घर को बुरी तरह फैला गई थी. न जाने कहांकहां उस का सामान पड़ा रहता था. बड़ी मुश्किल से जुगाड़ लगा कर 8-10 लाख रुपए का लोन ले कर उसे भेजा था. महीनों वह इस तरह के कालेजों में एडमिशन की जानकारी लेती रही थी. मैरिट में उस को वह रैंक नहीं मिली थी कि इतने में भारतीय निजी कालेज में पढ़ाई कर सके.

8 दिन बाद मेरा बेटा रंजू भी जब अपनी नौकरी पर देहरादून चला गया तो मैं काफी अकेलापन महसूस करने लगी थी. पर फिर भी घर समेटने में मुझे 8 दिन और लग गए.

शादी के 2-3 दिन बाद राकेश ने भी दफ्तर जाना शुरू कर दिया था. उस दिन मुझे सुबह से लग रहा था कि अब कोई काम ही नहीं है.

अब तक अपने वैवाहिक जीवन में मैं हमेशा काम समेटने के चक्कर में, घर चलाने व सुव्यवस्थित रखने की हायतोबा में और बच्चे पालनेपोसने में ही जिंदगी जीती आई थी. शांति से बैठने, अपने बारे में सोचने का कभी वक्त ही नहीं मिला. हमारी शादी अरैंज्ड मैरिज थी पर बच्चे जल्दी हो गए और मैं बिहार के एक कसबे से दिल्ली आ गई. अपने शहर में कभी ब्यूटीपार्लर नहीं गई थी. शादी के टाइम पहली बार गई थी. पिंकी बहुत बार कहती कि ममा चलो. पर मुझे लगता था कि मैं ऐसे ही ठीक हूं.

जब भी किसी पत्रिका में हाथों की देखभाल, पांवों की सुरक्षा या त्वचा की देखभाल पर कोई लेख पढ़ती थी तो लगता था ये सब खाली वक्त के चोंचले हैं या फिर उन लोगों के लिए हैं जिन के घर में नौकरचाकर हैं अथवा उन के लिए हैं जो मौडलिंग करती हैं.

मगर अब जिंदगी के इस मोड़ पर पहुंच कर जब मैं दोनों बच्चों की शादियां निबटा चुकी थी फुरसत के क्षण जैसे मेरे आगेपीछे बिखर गए हैं. अब जब मैं ने अपने खुरदुरे हाथों और बिवाई पड़े पैरों पर निगाह डाली तो हैरानी हुई है कि इन पर कभी ध्यान क्यों नहीं गया?

मैं उठ कर शीशे के आगे जा खड़ी हो

गई. उफ क्या यह मैं ही हूं. बाल किस कदर कालेसफेद हो गए हैं. चेहरे की रौनक खत्म

हो गई है. झुर्रियां और आंखों के नीचे का कालापन मेरी लापरवाही का संकेत है या मैं सचमुच बूढ़ी हो गई हूं. दिमाग पर जोर दिया तो याद आया अगले दिन ही तो पूरे 39 वर्ष की हो जाऊंगी मैं. सोच कर उदासी की परत और गहरी हो गई.

अब न मैं बूढ़ी कही जा सकती थी और न ही जवान. बच्चे अपनेअपने ठिकानों पर जा चुके थे और राकेश अपने में ही मस्त थे. रह गई थी

तो सिर्फ मैं. अपनी जिंदगी के अकेलेपन का एहसास होते ही वीरानी और निराशा सी महसूस करने लगी.

अतीत को टटोला तो लगा अपनी नासमझ या फिर जिद्दीपन या दोनों ही की वजह से मैं अपने बच्चों की सिर्फ मां बन सकी हूं, एक अच्छी पत्नी नहीं. राकेश भी बिहार से दिल्ली आया था और उस के विवाह के पहले के बहुत से दोस्त थे. कई तो कई साल तक रूममेट भी थे. उन के साथ उसे अपनापन लगता था.

फिर सोचा, खैर जो हुआ सो हुआ अब अपना फुरसत का साथी अपने पति को ही बनाना होगा. बच्चों के पीछे तो सारी जिंदगी ही बिना दी मैं ने.

तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया. मैं ने विचारों की केंचुली से निकल कर दरवाजा खोला. देखा, मेरे पति राकेश दफ्तर से लौट आए हैं. मैं ने मुसकरा कर उन का स्वागत किया.

राकेश बोले, ‘‘ओह, आज यह सूरज कहां से उगा है? तुम और फुरसत से मुसकरा कर मेरा स्वागत करो? क्यों भई, तुम्हें तो इस वक्त रसोई में होना चाहिए था या मोबाइल पर भाभी या फिर मां से चुगली करने में व्यस्त.’’

राकेश का व्यंग्य मुझेअंदर तक कचोट गया. सारा उत्साह बटोर कर बोली, ‘‘अब दोनों बच्चे चले गए. आखिर कभी तो फुरसत होनी

ही चाहिए.’’

‘‘पर मुझे अब फुरसत नहीं है. मेरे फुरसत के क्षणों पर मेरे उन दोस्तों का अधिकार हो गया है, जो शादी से पहले साथ थे,’’ राकेश बोले. फिर कुछ उदास से हो कर आगे कहने लगे, ‘‘मैं ने कितना चाहा कि तुम मेरे साथ रहो. मेरी हमदम रहो शादी के पहले साल ही रंजू हो गया, पर तुम्हें तो बस बच्चों के आगे कभी कुछ सू?ा ही नहीं. मैं ने कहा भी था कि गर्भपात करा लो पर तुम्हारी दकियानूसी मां नहीं मानी. अब मैं मजबूर हूं. चाहो तो रोज की तरह रसोई से चाय बना कर पिंकी के हाथ भेज दो. मैं तब तक तैयार हो रहा हूं. आधे घंटे में हम सब अपने छड़े दोस्त के फ्लैट पर मिल रहे हैं.’’

राकेश मुझे आहत कर के दूसरे कमरे में चले गए. मैं हताश सी दूसरे कमरे से निकल कर रसोई में आ गई. राकेश यह भी भूल गए थे कि रोज उन्हें चाय पहुंचाने वाली पिंकी अब ससुराल जा चुकी है.

चाय बनातेबनाते मैं सोचती रही कि आज राकेश उस के जाने के बाद पहली बार दफ्तर

गए हैं, इसीलिए शायद रोज के क्रम को याद कर रहे हैं.

चाय बना कर मैं ने राकेश को दे दी. प्याला पकड़ते हुए वे बोले, ‘‘ओह, मैं तो भूल ही गया था पिंकी तो अब है ही नहीं.’’

मुझे ऐसा लगा जैसे मैं रो पड़ूंगी, पर रोई नहीं. जैसेतैसे चाय समाप्त हो गई. राकेश भी चुपचाप चाय पी कर मेरे हाथों में प्याला

पकड़ाते हुए बोले, ‘‘खैर, मैं चलता हूं, देर हो

रही है.’’

मैं ने निरीह सी हो कर उन के जाने के बाद दरवाजा बंद कर लिया.

मुझे राकेश पर बहुत गुस्सा आया. एक तो मैं इतना अकेलापन महसूस कर रही थी, उस पर व्यंग्यबाण चला कर मुझे और आहत कर गए. निढाल सी पड़ कर मैं अनायास रोने लगी कि

एक दिन दोस्तों के साथ महफिल न सजाते तो क्या हो जाता. यही सोचसोच कर मैं काफी देर तक रोती रही.

फिर मुझे लगा कि शायद ऐसी स्थिति पर पहुंचने के लिए मैं स्वयं जिम्मेदार हूं. आज कुछ नया तो नहीं घटा. फिर 17 वर्षों के बाद ही क्यों मुझे राकेश का इस तरह जाना खल रहा है.

ऐसा तो हर शाम होता था, पर मुझे कभी कुछ खास नहीं लगा या शायद बच्चों के झंझटों से निकल कर मैं ने कभी इस बात पर ज्यादा गौर ही नहीं किया. लगा कि अब शायद सचमुच मैं बहुत फुरसत में हूं. तभी तो 19 वर्ष पूर्व के अपने सुनहले रुपहले दिन याद आने लगे थे.

मैं 22 की थी, राकेश 28 के. राकेश से जिस वक्त मेरी शादी हुईर् थी उस वक्त मैं और

राकेश एकदूसरे में ही खोए रहते थे. राकेश के दफ्तर जाने तक मैं उन के आगेपीछे ही घूमती रहती थी. उन की हर जरूरत का ध्यान रखती. राकेश तब मुझे पा कर फूले न समाते थे. इतना खयाल तो कभी उन की मां ने भी नहीं किया था. ऐसा उन का कहना था. हम लोग एक बड़े कसबे से आए थे. अच्छी पढ़ाईलिखाई के बावजूद मुझे घर में रहना ही पसंद था. राकेश ने बहुत कहा कि कोई नौकरी कर लो पर मैं नहीं मानी कि बच्चों को कौन देखेगा.

शुरूशुरू में दिनभर मैं राकेश के इंतजार में उन की मनपसंद चीजें बनाती रहती. आने का वक्त होता तो सजधज कर उन का स्वागत करती और फिर हम चाय पी कर घूमने निकल जाते. छुट्टी वाले रोज कभी कहीं घूमते, कभी कहीं. कभी पिक्चर तो कभी पिकनिक.

पड़ोसी तब हमें ‘युगल कपोत’ कहा करते थे क्योंकि मैं शादी के 1 साल में ही गर्भवती हो गई. इच्छा पूरी होती तो मैं ने उस की एहतियात के लिए घूमनाफिरना काफी कम कर दिया. राकेश को घूमने और पिक्चर देखने का बेहद शौक था, पर मैं उन्हें, ‘‘थोड़े ही दिन की तो बात है,’’ कह कर उन प्रोग्रामों को टालने लगी.

फिर 9 महीने बाद रंजू जब मेरी गोद में आया तो मानो मुझे सबकुछ मिल गया. राकेश भी खुश थे. हम ने प्यार से उस का नाम रंजू रखा.

40 दिन के आराम के बाद राकेश ने

पिक्चर का प्रोग्राम बनाया तो मैं ने यह कह कर मना कर दिया, ‘‘वहां रंजू रोएगा. बीच में उस

के दूध का वक्त होगा. वहां कैसे पिलाऊंगी.

आप का बहुत मन हो तो किसी दोस्त के साथ चले जाओ.’’

राकेश उस दिन मन मार कर अकेले

पिक्चर देख आए थे. पर फिर यह एक दिन का क्रम नहीं रहा. मैं रंजू के मोह में धीरेधीरे फंसती चली गई और मेरे घूमनेफिरने पर एकदम पाबंदी सी लग गई.

जब कभी राकेश उत्साहित हो कर कहीं चलने का प्रोग्राम बनाते तो मु?ो लगता बच्चे के साथ बाहर निकलना बहुत मुश्किल है. सर्दी

होती तो कहती, ‘‘रंजू को सर्दी लग जाएगी, बाहर बहुत हवा है. गरमी होती तो उसे लू लग जाने का भय बताती और बरसात होने पर उस के भीग जाने का.’’

सुन कर राकेश कभीकभी चिढ़ जाते थे. कभीकभी राकेश अपनी कमीज के बटन टूटने

की ओर ध्यान दिलाते तो मैं मुसकरा कर

कहती, ‘‘वक्त ही नहीं मिला आप के लाडले से. सारा दिन नचाए रखता है. अच्छा आज जरूर लगा दूंगी.’’

अकसर मैं उन के बताए काम भूल जाती. उन के आगेपीछे घूमना तो

मैं ने छोड़ ही दिया था. इस तरह रंजू की देखभाल में मैं न जाने कब राकेश को खोती चली गई, इस का मुझे पता ही नहीं चला.

राकेश के साथ घूमने में जो मजा आता था, उस से ज्यादा मजा मुझे रंजू को गोद में ले कर निहारते रहने में आता.

दिनभर रंजू के साथ कब गुजर जाता, मुझे पता ही न चलता. यह भी याद न रहता कि राकेश के आने का वक्त हो गया है.

एक दिन की बात है. राकेश ने दफ्तर जाते वक्त मुझे से पैंटकमीज निकाल देने को कहा. उस वक्त रंजू अपने नैपकिन को गोली कर के रो रहा था. मैं बोली कि रंजू हो रहा है, तुम जरा अपनेआप निकाल लो, तब तक मैं इस का नैपकिन बदल देती हूं.

मैं गुनगुनाती हुई रंजू का काम करने लगी. राकेश ने अपनेआप कपड़े तो निकाल कर पहन लिए, परंतु नाश्ते के वक्त मुझ से बिलकुल नहीं बोले, ‘‘आप को तो खुश होना चाहिए कि मैं आप के ही खून की अपने हाथों से देखभाल करती हूं, किसी आया या नौकरानी पर नहीं छोड़ती. अब बच्चे के साथ काम तो बढ़ ही जाता है. ऐसे में उलटे आप को चाहिए कि मेरा हाथ बंटाओ, कभीकभार सब्जी कटवा दो, चाय बना दो या रंजू का कोई काम कर दो. अपने कपड़े तो अपनेआप निकालने ही चाहिए आप को. अब पहले की तरह मैं खाली तो हूं नहीं जो हर वक्त आप के आगेपीछे घूमती रहूं.’’

सुन कर राकेश मुझे घूरते रहे. फिर दफ्तर चले गए. मैं ने बाहर जा कर उन्हें विदा भी नहीं किया… रंजू ने उलटी कर दी थी. उसे ही साफ करने में लगी रही.

उस दिन रंजू ने कई बार उलटियां कीं. घबरा कर मैं उसे डाक्टर के पास ले गई. दवा पीने के बाद वह आराम से सो पाया.

मैं ने रंजू की उलटियों से खराब हुए कपड़े धोने शुरू ही किए थे कि राजेश दफ्तर से लौट आए. शाम के 5 बज गए थे. मुझे पता ही नहीं चला था.

उलझे बालों और भीगे गाउन से मैं ने दरवाजा खोला तो राकेश् को फिर गुस्सा आ गया. बगैर मुझ से बोले ही वे अंदर दाखिल हो गए.

रंजू तब तक जाग गया था. मैं राकेश से बोली, ‘‘राकेश रंजू को उठा लो. मैं तब तक कपड़े सूखने डाल कर आप के लिए चाय बना देती हूं.’’

सुन कर राकेश बोले, ‘‘सारा दिन दफ्तर

में काम करतेकरते थक कर घर आया हूं, अब क्या यहां की नौकरी बजाऊं? तुम चाय रहने दो. तुम्हें तो अब इतनी भी फुरसत नहीं कि अपने बाल संवारो, वक्त पर कपड़े धोओ और मेरे

लिए कुछ वक्त निकालो. मैं कहीं बाहर ही चाय पी लूंगा.’’

राकेश मेरी दिनभर की व्यस्तता का लेखाजोखा लिए बगैर बाहर चले गए. मेरा दिल रोने को हो आया. दरवाजा बंद कर के रोतेरोते रंजू को उठा कर मैं ने चुप कराया. उसे दूध गरम कर पिलाया, दवा दी. वह खेलने लगा तो मैं ने फटाफट कपड़े धो कर सूखने डाल दिए. शाम की चाय अकेले ही पी.

अब तक मैं सुबह से काम करतेकरते थक गईर् थी, परंतु रात का खाना अभी तैयार करना था. जल्दीजल्दी वह भी काम निबटाया और स्वयं तैयार हो कर राकेश का इंतजार करने लगी.

नमस्ते जी: भाग 2- आज उस ने अपनी बड़ी लड़की को काम पर क्यों भेजा…

एक दिन दोपहर में लगभग ढाई बजे के आसपास जब मैं अंकिता को दूध पिला रही थी तो प्रीति मेरे पास कमरे में आई. वैसे तो यह समय उस का आराम करने का होता था. उस की सांस कुछ फूली हुई सी थी और उस के सिर के बाल बेतरतीब से फैले हुए थे. मैं ने उस को नीचे से ऊपर तक निहारा तो लगा कि उस के साथ कुछ हुआ है. मैं ने पूछा था, ‘प्रीति, तुम इतनी घबराई हुई सी क्यों लग रही हो? क्या बात है?’

‘मेमसाहिब, आप कोई और काम करने वाली ढूंढ़ लो. मैं अब आप के घर काम नहीं कर सकती.’

‘क्यों प्रीति, ऐसा क्या हुआ जो तुम अचानक इस तरह दोपहर में काम छोड़ कर जा रही हो? तुम्हारे साथ हम सब अच्छे से बरताव करते हैं. तुम्हें यहां किसी तरह की कोई रोकटोक भी नहीं है. अपनी इच्छा से काम करती हो. जब मन में आता है तब घर घूम आती हो. फिर आज अचानक ऐसा क्यों…’

प्रीति तब कुछ नहीं बोल पाई थी. बस, वापस मुड़ कर अपनी चुनरी के एक कोने को मुंह में दबाए भाग ली थी वह. मैं कुछ भी नहीं समझ पाई थी. अंकिता को सोता छोड़ कर मैं दूसरे कमरे में आ गई थी जहां नितिन सोए थे. मैं ने उन्हें जगाया तो आंख भींचते हुए बोले, ‘क्या बात है छुट्टी वाले दिन तो आराम कर लेने दिया करो?’

मैं ने सारा वृतांत उन्हें सुनाते हुए पूछा, ‘तुम्हें कुछ समझ में आ रहा है कि प्रीति ऐसे अचानक क्यों भाग गई?’

‘प्रीति अपने घर चली गई? मैं आराम करने के लिए जब कमरे में आया था तब तो वह बरामदे में लेटी हुई थी. हो सकता है सोते हुए उस ने कोई बुरा स्वप्न देख लिया हो. शायद डर गई हो, बेचारी. कहीं तुम ने या मां ने तो कुछ नहीं कह दिया? काम करते वक्त उसे कुछ कह तो नहीं दिया आज सुबह या कल शाम को?’

‘नहीं तो, इतने दिन हो गए भला आज तक कुछ कहा है, जो आज. हां, हो सकता है सोते हुए उस ने कोई बुरा स्वप्न देखा हो. खैर, चलो छोड़ो, मैं शाम को उस के घर हो आऊंगी.’

यह कह कर मैं अपने कमरे में आ तो गई लेकिन मुझे चैन नहीं पड़ा रहा था. मैं बैड पर लेटेलेटे सोचती रही कि आखिर ऐसा क्या हुआ होगा जो वह भरी दोपहर में घर वापस जाने को मजबूर हो गई? मांजी से पूछा तो उन्होंने कह दिया कि उन की तो आज प्रीति से कोई बात ही नहीं हुई.

मुझे जब असमंजस में और अधिक नहीं रहा गया तो मैं प्रीति के घर पहुंच गई थी. प्रीति एक कोने में अलग सी बैठी थी. मुझे दहलीज पर देख कर भी कुछ नहीं बोली, वैसे ही बैठी रही थी, वरना तो उठ कर मेरा स्वागत करती थी. मैं ने जब काम छोड़ने के बारे में जानना चाहा तो उस की मां ने इतना ही कहा था, ‘मेमसाहिब, अब प्रीति तुम्हारे घर काम नहीं करेगी. अब यह गांव जाएगी इस की वहां शादी तय हो गई है.’

‘ऐसे अचानक, कैसे?’

‘बस, मेमसाहिब, हम गरीब लोगों के साथ कब, कैसे, क्या गुजर जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता. आप ठहरे बड़े आदमी, हम छोटे लोग भला क्या कह सकते हैं? बाकी अब प्रीति आप के घर नहीं जाएगी.’

मेरी लाख कोशिशों के बावजूद प्रीति ने काम छोड़ने का कारण नहीं बतलाया और मैं अपना सा मुंह ले कर वापस घर आ गई थी. घर आ कर मैं कुछ देर तक सोचती रही थी.

‘आखिर ऐसा क्या हुआ होगा जो प्रीति यों काम छोड़ कर चली गई और अब उस की शादी करने की बातें हो रही हैं. जिस के लिए उसे गांव भेजा जा रहा है. अभी तो प्रीति की उम्र 13 वर्ष की ही होगी, फिर इतनी जल्दी वह भी एकाएक.’

जब समझ में कुछ नहीं आया तो मैं नितिन के पास आ गई और उन से किसी दूसरी काम वाली लड़की का इंतजाम करने को कहा.

अनमने मन से नितिन ने कहा, ‘हां, देखता हूं. इतनी जल्दी थोड़ी ही काम वाली लड़कियां मिलती हैं, वह भी तुम्हारी पसंद की.’

तब मैं ने कहा था, ‘कोई बात नहीं. कैसी भी ले आओ, चलेगी. बच्चों का ध्यान कैसे रखना है, वह सबकुछ मैं समझा दूंगी.’

अगले ही दिन नितिन ने अपनी जानकारी में कइयों को काम वाली के बारे में कह दिया था. उस के 4-5 दिन के बाद शर्माजी के यहां काम करने वाली बाई ने ‘डोर बेल’ बजाई तो सास ने उस के पास जा कर पूछा था, ‘हां रमा, क्या बात है. कैसे आई हो?’

‘बीबीजी को एक लड़की चाहिए न बच्चों की देखभाल के लिए, सो उसी की खातिर आई थी.’

मैं ने घर के अंदर से ही कह दिया था. ‘हां रमा, चाहिए. लेकिन कौन है?’

‘मेमसाहिब, मेरी बड़ी लड़की 14-15 साल की है मगर…’

‘मगर क्या?’ सास ने पूछा था.

‘जी वह पैर से थोड़ी अपाहिज है. लेकिन घर का सारा काम कर लेती है. मेरी 4 लड़कियां उस से छोटी हैं. वही मेरे पीछे से घर का सारा काम करती है और अपनी छोटी बहनों की देखभाल भी. अब खर्चा बढ़ गया है न. शर्माजी की बीवी ने कहा था कि आप को तो सिर्फ काम वाली 2 घंटे सुबह और 2 घंटे शाम को चाहिए तो वह इतना वक्त निकाल लेगी.’

तब तक मैं भी अपनी सास के पास आ कर खड़ी हो गई थी. मैं ने उस से पूछा था कि महीने के हिसाब से कितने पैसे लोगी? हम उसे दोनों समय खाना तो देंगे ही साथ में कपड़े भी दे देंगे.

उस ने कहा था कि जो मरजी दे देना मांजी. वैसे मैं एक घर में बरतन करने का 300 रुपए लेती हूं.

मैं ने तपाक से कहा था, ‘अच्छा चल, कुल मिला कर महीने के 500 रुपए दे देंगे. अगर ठीक है तो आज शाम से ही भेज दो.’

500 रुपए सुन कर उस ने झट से हां की और हमारा अभिवादन कर के चली गई.

शाम को उस ने अपनी बड़ी लड़की को हमारे यहां काम के लिए भेज दिया था. लड़की का हुलिया दयनीय था. मोटेमोटे काले होंठ, उभरे हुए दांत जिन पर गंदगी साफ देखी जा सकती थी, मैलेकुचैले कपड़े. छाती पर इतना ही उभार था कि बस यह महसूस किया जा सके कि लड़की है. मेरे नाम पूछने पर उस ने अपना नाम आयशा बतलाया था. उसे देख कर मैं मन ही मन सोचने लगी कि ‘यह क्या काम करेगी? पहले तो मुझे ही इस के लिए कुछ करना पड़ेगा.’

मैं ने तब नहाने का साबुन व बदलने के लिए दूसरे कपड़े देते हुए उसे ताकीद की थी कि पहले तुम अच्छे से नहा कर आओ और दांत साफ करना मत भूलना. उस ने मुझ से कपड़े और साबुन लिए और पूछा, ‘आंटीजी, बाथरूम किस तरफ है?’

मैं चौंक गई थी. ‘अरे, तुम अपने घर जा कर नहा कर आओ.’

तब उस ने कहा था कि आंटी, हमारे घर बाथरूम कहां. मैं तो अंधेरा होने पर ही घर के आंगन में नहा लेती हूं या फिर सूरज निकलने से पहले.

मैं सोच में पड़ गई थी कि क्या करूं, क्या न करूं? यह कैसी मुसीबत आ गई. मांजी को पता चल गया तो. खैर, उसे चुपचाप बाथरूम में भेज मैं आंगन में बिछी चारपाई पर अंकिता को ले कर बैठ गई थी. वह थोड़ी ही देर में नहा कर बाहर आ गई थी. मैं ने उसे उस का सारा काम समझाते हुए उस से पहले बाथरूम की जम कर सफाई करवाई थी.

आयशा मेरी सोच से अधिक समझदार निकली. जो भी कहती वह उसे आगे से आगे, बिना ज्यादा बुलवाए, पूरा कर देती थी. जब भी उस को समय मिलता तो वह अंकिता को ले मेरे पास आ बैठती और कहती थी, ‘आंटी आप कितनी सुंदर हैं. आप क्या लगाती हैं अपने मुंह पर? कौन सी क्रीम लगाती हैं? कौन सा तेल इस्तेमाल करती हैं? आप के बालों से बहुत अच्छी महक आती रहती है.’

आयशा मेरी तारीफ करनी शुरू कर देती थी तो रुकती ही नहीं. मैं उसे अब अकसर शैंपू, तेल, साबुन, क्रीम दे दिया करती. उसे नए कपड़े भी सिलवा कर दे दिए थे. मेरे कहने से दांत मंजन करतेकरते न जाने कब आयशा आंख में अंजन भी करने लगी थी.

अपने अपने सच: भाग 3- पहचान बनाने के लिए क्या फैसला लिया स्वर्णा की मां ने?

मेरा एक कमरे वाला घर आ गया तो उन्होंने स्वयं नीचे उतर कर मेरी तरफ की खिड़की खोली, ‘आओ, स्वर्णा…’ इतना सम्मान…

‘चाय नहीं लेंगे सर?’ मैं ने संकोच छोड़ आग्रह सा किया, ‘मां दरवाजे पर खड़ी हैं, उन से नहीं मिलेंगे…?’

वे सिर्फ मुसकराते रहे. फिर कभी आने को कह गाड़ी आगे बढ़ा ले गए.

लतिका के पापा को देख कर मां बहुत खुश हुईं और पूछ बैठीं, ‘कौन था यह आलीशान गाड़ी वाला?’

‘मेरी सहेली लतिका के पापा,’ मैं उत्साह से सराबोर थी, ‘मैं ने जिंदगी में ऐसा शानदार बंगला नहीं देखा मम्मी, जैसा इन का है…और पता है मम्मी, इन्होंने नाश्ते में मुझे क्याक्या खिलाया?’ इस तरह मां को मैं बहुत कुछ बता गई. पर उन की जांघ मेरी नंगी जांघ से सटी रही, मुझे यह छुअन अद्भुत लगी, इस बात को मैं ने छिपाए रखा और इस अनुभव को मैं गोल कर गई.

मैं सोच रही थी कि देर से आने के लिए मां मुझे जरूर डांटेंगी पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, उलटे वे बहुत खुश हुईं और बोलीं, ‘चलो, बड़े लोगों के संपर्क में आ कर तुझे कुछ उठनेबैठने का ढंग आ जाएगा.’

उस के बाद कई बार लतिका के साथ मैं और उस के पापा रेस्तराओं में गए. किताबों के मेले में गए. किला और जू देखने गए. हर जगह वे जिद कर के कुछ न कुछ मुझे खरीदवा देते जिसे एक संकोच के साथ ही मैं घर ला पाती.

जीवन में अपने पापा का अभाव ऐसे में मुझे बेहद खलता. काश, लतिका की तरह मुझे भी पापा का लाड़प्यार मिला होता. मेरी मां अगर ऐसा न करतीं तो हम भी अपने पापा के साथ कितने खुश होते. दूसरे क्षण ही, मैं यह भी सोच जाती कि लतिका के पापा एक तरह से मेरे  भी तो पापा ही हुए. पापा जितनी ही उम्र होगी इन की. बस, व्यवहार बहुत अलग किस्म का है. एकदम लाड़प्यार भरा.

एक दिन मां ने खुश हो कर मुझे बताया, ‘ले, तेरी एक और इच्छा मैं पूरी कर रही हूं. हम जल्दी ही एक छोटे लेकिन अपने फ्लैट में जाने वाले हैं.’

‘फ्लैट और वह भी हमारा अपना… इतने पैसे कहां से आए आप के पास?’ मैं ने कुपित स्वर में मां से पूछा तो वे अचकचा गईं.

‘तुझे आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से?’ उन्होंने एक प्रकार से मुझे डांटा और कहा, ‘बस, कल तक उस फ्लैट में हमें पहुंचना है, इसलिए आज से ही अपना सामान ठीक से समेटना शुरू कर दे…लतिका के पापा ने तुझे ढेरों कपड़े ले दिए हैं…उन को ठीक से पैक करना…’

एक दिन लतिका ने स्कूल में बताया,

‘हम लोग बाहर पिकनिक पर चलेंगे. पापा अपनी गाड़ी से हमें ले चलेंगे…खूब मजा करेंगे हम लोग…’

सुन कर मैं एकदम उत्साह और खुशी से उछल पड़ी, ‘लेकिन मम्मी पता नहीं तैयार होंगी मुझे कहीं भेजने को.’

‘उन्हें मना लेना,’ लतिका बोली, ‘कहना, मैं साथ चल रही हूं, पापा साथ होंगे फिर डर किस बात का…?’

नए फ्लैट की एक चाबी मां के पास रहती थी, और दूसरी मेरे पास. हम लोग अपनेअपने वक्त पर आजादी के साथ नए घर में आजा सकते थे. मुझे देर होती तो, मां चिंता नहीं करती थीं, वे जानती थीं कि मेरे साथ लतिका होगी, या उस के पापा.

उस दिन अपने खयालों में खोई मैं ने धीरे से दरवाजा खोला तो एकदम चौंक सी गई. मां बिस्तर पर किसी के साथ सोई थीं. मैं एकदम हड़बड़ा कर अपने कमरे में चली गई. वहां देर तक थरथर कांपती रही. जो देखा क्या वह सच था? कहीं आंखों को धोखा तो नहीं हुआ था? मां के साथ कोई आदमी ही था या वे अकेली थीं?

लेकिन मां तो इस समय अस्पताल में होती हैं. यहां कैसे आ गईं? इस आदमी को इस से पहले तो कभी मां के साथ नहीं देखा. फिर…? अनजाने भय और आशंका ने मुझे जकड़ लिया. चुपचाप कांपती मैं देर तक कमरे में बैठी रही.

जब कमरे से बाहर निकली तो सामने मां एकदम सहज सी दिखीं. मुझे देख कर मुसकराईं, ‘आज तू स्कूल से जल्दी आ गई.’

‘हां, किसी की मौत हो गई तो स्कूल में छुट्टी हो गई.’

मैं उदास थी पर मां हंस रही थीं. मन हुआ पूछूं, कौन था वह? पर पूछने का साहस नहीं जुटा सकी.

‘कभीकभी ये आया करेंगे…’ मेज पर खाना लगाती हुई मां बोलीं. मैं समझ गई थी, मां उसी आदमी के बारे में कह रही हैं, ‘यह फ्लैट इन्होंने ही दिया है हमें…दिल्ली के बड़े बिल्डर हैं. बहुत अच्छे आदमी हैं.’

खाने के बाद मैं बोली, ‘मैं लतिका के साथ इन छुट्टियों में पहाड़ पर घूमने जाऊंगी…लतिका के पापा, मैं और लतिका…आप जाने देंगी?’ फिर कुछ सोच कर मैं बोली, ‘लतिका के पापा ने कहा है कि खर्चे की फिक्र न करूं मैं… लतिका के साथ होटल में रहूंगी. उस के पापा अलग कमरे में रहेंगे…गरम कपड़े वे ही खरीद देंगे.’

जाने क्यों यह सब सुन कर मां बहुत खुश हुईं और बोलीं, ‘बहुत अच्छे आदमी लगते हैं लतिका के पापा…एकदम लतिका की तरह ही तुझे प्यार करते हैं.’

मेरा मन हुआ कि मैं मां से अपने भीतर का सच उगल दूं… वे भले ही मुझे अपनी बेटी लतिका की तरह प्यार करते हों पर मुझे न जाने क्यों बहुत अच्छे लगते हैं… इतने अच्छे कि जी चाहता है उन्हें बांहों में भर कर सीने में भींच लूं.

हालांकि अपने इस निजी एहसास से मैं स्वयं झेंप जाती. मेरी रगों में गरम खून लावे की तरह धधकने लगता.

लतिका के पापा के साथ भेजने के लिए मां इतनी उतावली क्यों हो रही हैं? इसलिए तो नहीं कि पीछे उन्हें भी अकेले रहने का मौका मिलेगा और वह ‘बिल्डर’ मां के पास दिन में भी बेखटके आ सकेगा. यह सोचते ही मन में अजीब सी कसमसाहट हुई. पर मेरे पास उन्हें रोकने के लिए कोई तर्क नहीं था. कैसे रोकती?

लतिका के पापा लतिका और मुझे ले कर एक मौल में गए. गरम कपड़े खरीदवाए. मैं तो चुप ही रही. बड़े महंगे कपड़े थे…एकदम नए फैशन के.

‘तुम अपनी पसंद क्यों नहीं बतातीं, स्वर्णा…?’ लतिका के पापा ने जिन नजरों से मेरी ओर देखा, उस से मैं लाल पड़ गई, ‘आप की पसंद खुद ही बहुत अच्छी है…आप को जो ठीक लगे, ले दीजिए…’ कहती हुई मैं झेंप गई.

लतिका अपनी कोई खास ड्रैस पसंद करने जब दूसरी गैलरी में गई तो वे मौका पा कर नजदीक आ कर हौले से बोले, ‘मैं चाहता हूं कि तुम यह ड्रैस मेरे साथ एक दिन पहाड़ पर पहनो…पर लतिका को न दिखाना,’ ड्रैस देख कर मैं एकदम सकपका सी गई.

मन में आया, कहूं कि लतिका को न दिखाया तो पहाड़ पर पहन भी कैसे सकूंगी? वह तो साथ होगी…और वह साथ होगी तो देखेगी ही. फिर भी मैं ने चुपचाप एक बड़े बैग में वह ड्रैस रख ली.

मौल से वापसी के समय मैं लतिका और उस के पापा के बीच बैठी. मुझे उन का साथ बहुत अच्छा लग रहा था. एकदम गुनगुना, प्यार भरा, अपनत्व भरा और तनबदन महकादहका देने वाला.

लतिका चहक रही थी कि उस ने बहुत अच्छी ड्रैसें अपने लिए पसंद की हैं.

पहाड़ की यात्रा पर भी मैं लतिका और उस के पापा के बीच में ही बैठी. जाने क्यों ऐसा करने से मैं अपने को रोक नहीं पा रही थी. मैं हर समय उन के संग का सुख चाहती थी. आदमी का साथ, आदमी का कामुक स्पर्श कितना मादक होता है, उस का कैसा जादू भरा असर तन और मन पर होता है, इस का अनुभव जीवन में मैं पहली बार कर रही थी.

कहीं मन में गहरे यह भी चाह उठ रही थी कि काश, इस वक्त बस मैं होती और लतिका के पापा होते…

पहाड़ पर पहुंचतेपहुंचते लतिका को पता नहीं क्या हो गया कि उस का गला बैठ गया. शायद उसे सर्दी लग गई. माथा हलका गरम हो गया. होटल के कमरे में पहुंच कर पापा ने डाक्टर को बुला कर दिखाया तो डाक्टर ने फ्लू जैसा अंदेशा बता हमें डरा ही दिया. दवा दे कर लतिका को आराम करने के लिए कह दिया.

लतिका को अफसोस होने लगा कि इतने उत्साह के साथ वह पहाड़ पर आई और बीमार पड़ गई. वह बोली, ‘पर स्वर्णा, तू अपना मजा क्यों खराब करेगी? तू पापा के साथ घूमफिर… यहां सबकुछ देखने लायक है. पापा कई बार आ चुके हैं. तुझे सबकुछ बहुत अच्छी तरह घुमा देंगे…है न पापा…?’

 

लतिका आराम से रात भर सो सके इस के लिए डाक्टर ने उसे ऐसी दवा दे दी कि खाते ही वह नींद में बेसुध हो गई. मैं उस के पास पड़े सोफे पर बैठी रही और वहीं सोफे पर ही सोने के बारे में सोचने लगी कि कमरे का दरवाजा धीरे से खुला. लतिका के पापा थे. नजदीक आ कर बैठ गए. इधरउधर की बातों के बाद बोले, ‘लतिका सो गई?’ वे लगातार मेरी आंखों में देखे जा रहे थे. आदमी की निगाहों में ऐसा कौन सा सम्मोहन होता है कि लड़की का दिल उस के सीने से निकल कर आदमी के कदमों में जा गिरता है?

उन्होंने अपना एक हाथ बढ़ा कर मेरी कमर के इर्दगिर्द हौले से कसा और मुझे अपनी तरफ खींचा. मैं चाह कर भी उन्हें रोक न पाई. न जाने क्या हुआ कि मैं ने अपना सिर उन के कंधे पर रख दिया. वे देर तक मेरे बाल, मेरे गाल, मेरे होंठ, मेरी गरदन सहलाते रहे और फिर एकाएक उन्होंने झुक कर मेरी ठुड्डी ऊपर उठाई और मेरे नरमनरम होंठों का चुंबन ले लिया.

शायद यह मेरे अपनेआप को रोके रखने की अंतिम सीमा थी. उन के गले में बांहें डाल कर उन के सीने से सट कर मैं ने अपने चेहरे को छिपा लिया.

‘लतिका सोती रहेगी. तुम मेरे कमरे में चल सकती हो?’ उन्होंने मेरे कान में फुसफुसाते हुए कहा.

मैं ने जवाब नहीं दिया. सिर्फ उठ कर उन के साथ चलने को तैयार हो गई.

पूरा गलियारा पार कर उन का कमरा था. उन्होंने मुझे सीधे अपने बिस्तर पर बैठा लिया और ताबड़तोड़ मेरे होंठ, मेरा माथा, मेरा सिर, मेरी गरदन, मेरी हथेलियां, मेरी उंगलियां चूमते चले गए और मैं उन्हें रोकना चाह कर भी नहीं रोक सकी.

धौंकनी की तरह चलती अपनी सांसों पर किसी तरह काबू पा कर अपना तपता चेहरा एकदम उन के नजदीक ले जा कर पूछा, ‘मुझे आप हमेशा इतना ही प्यार  करेंगे?’

‘मैं तो हैरान हूं जो इस उम्र में तुम्हारी जैसी कमसिन लड़की बांहों में भरने को मिल गई.’

उठ कर लतिका के पापा ने फूलदान में से गुलाब के कई फूल निकाले और मेरे पैरों में रखे.

अंतिम सीमा थी यह. रुक नहीं सकी फिर. उन्हें अपने साथ बिस्तर पर खींच लिया और बोली, ‘इतना मान मत दीजिए मुझे…इस काबिल नहीं हूं…अपने पांव की धूल को सिर पर जगह मत दीजिए…’

‘तुम्हारी जगह कहां है यह तुम क्या जानो मेरी जान,’ वे तड़प उठे. उन की थरथराती उंगलियों ने मेरे सारे कपड़े एकएक कर उतारने शुरू कर दिए और मैं अपनी आंखों को बंद किए लजाती- शरमाती, अपनी अनछुई काया को अपने हाथों से ढांपने का असफल प्रयास करती रही.

अपने साथ कंबल में दबोच लिया उन्होंने मुझे और मैं उन के सीने में समा कर अपना होश खो बैठी.

‘मुझे इतना ही प्यार करोगी, स्वर्णा? ऐेसे ही देहसुख दोगी?’ वे बोले, ‘हालांकि शुरू में मुझे अजीब लग रहा था…मेरी बेटी लतिका की सहेली हो, उसी की हमउम्र. मन में बहुत संकोच हो रहा था, पर जब तुम्हारी आंखों में भी अपने लिए चाहत देखी तो हौसला हुआ और मैं ने तुम्हारी तरफ हाथ बढ़ा दिया…’

‘जीवन में पिता का अभाव बहुत गहरे अनुभव किया है, सर…हमेशा हसरत रही कि कोई पिता जैसा व्यक्ति मेरे जीवन में भी हो जो मेरी हर इच्छा, चाहत को पूरी करे…मेरी परवा एक संरक्षक की तरह करे और मैं उस की बांहों में अपना सर्वस्व भूल जाऊं…खो जाऊं…मुझे गहरी सुरक्षा का एहसास हो…और आप की वे बांहें जब मेरी तरफ उठीं तो मैं उन में समा गई.’

‘जानती हो स्वर्णा…मुझे पत्नी का सुख पिछले कई साल से नहीं मिला,’ वे मुझे अपनी बांहों में कसे चूमते रहे. मेरे बाल कानों पर टांकते रहे, ‘पैसे की कमी नहीं है. चाहता तो बाजार में एक से एक कमसिन लड़कियां आजकल मिल जाती हैं…पर मन नहीं हुआ. बहुत बड़ा एहसान है मुझ पर तुम्हारा कि तुम्हारी जैसी लड़की मुझे मन से मिली…यह एहसान मैं ताजिंदगी नहीं भुला सकूंगा…’

वे मेरे सीने के उभारों से खेलते रहे. मैं इठलाती, हंसती उन की तरफ ताकती रही. वे बोले, ‘लतिका 2 साल की थी जब पत्नी को दिल की बीमारी ने जकड़ लिया. डाक्टर ने मना कर दिया…शारीरिक संबंध मत बनाना. उस से उत्तेजना उत्पन्न होगी. बिस्तर पर ही मर जाएगी…इसलिए भयवश उसे तब से छुआ तक नहीं…और…स्वर्णा…कोई आदमी बिना औरत के जिस्म को पाए कब तक अपने को रोके रख सकता है? एक विश्वामित्र ही क्यों…अनेक कई विश्वामित्र होंगे दुनिया में जो औरत की आंच से मोम की तरह पिघल कर बहे होंगे.’

‘औरत भी तो आदमी की देह की आंच से ऐसे ही पिघल कर बहने लगती है जैसे मैं बहकती हुई बह गई…पागल बनी,’ हंसने लगी मैं.

बस, इस के बाद मैं ने उन के सीने में मुंह छिपा लिया और आराम से निश्ंिचत हो सोने लगी. उन की मजबूत बांहें मुझे कसती रहीं. निचोड़ती रहीं. भींचभींच कर पीसती रहीं और मुझे लगता रहा जैसे कोई सलमान खान जैसा हृष्टपुष्ट जवान हीरो मुझे अपनी मांसल बांहों में चिडि़या के बच्चे की तरह दबोचे है.

काफी रात गए आंख खुली तो बोली, ‘अब आप मुझे अपने कमरे में जाने दीजिए. लतिका जाग गई तो क्या सोचेगी?’

‘ठीक है. जाओ, पर याद रखना, अब हर रात हमारी ऐसे ही बीते…और मौका मिलते ही तुम बिना मेरी प्रतीक्षा किए मेरे पास चली आना…’ ढिठाई से हंसने लगे तो मैं ने झुक कर उन के होंठ चूम लिए, ‘गुड नाइट, सर.’

3 दिन की योजना बना कर आए थे. पूरे 2 दिन तो लतिका बिस्तर पर ही पड़ी रही. मजबूरन उस के पापा के साथ मैं अकेली ही घूमने गई. और घूमी क्या… सच तो यह है कि आदमी का पूरा सुख लेने की चाहत ने मुझे बाहर के नजारे देखने ही नहीं दिए. हर वक्त मन में होता, वे बांहों में कस लें, चूम लें. वे मेरे बाल सहलाएं. गाल सहला कर मेरे रसीले होंठ पी डालें.

तीसरे दिन लतिका किसी तरह साथ चली पर ऐसे स्थानों पर ही जहां उसे ज्यादा चढ़नाउतरना नहीं पड़े. वह जल्दी थक कर बैठ जाती थी. हम लोग मजे करते किसी ऐसे एकांत में पहुंच जाते जहां से वह दिखाई न देती और हम एकदूसरे की बांहों में खो जाते.

हंस दिए लतिका के पापा, ‘तुम्हें नहीं लगता स्वर्णा कि हम लोग यहां हनीमून पर आए हैं और तुम मेरी बीवी हो.’

वापस लौटने पर मां ने मुझे बहुत गहरी नजरों से एक बार ऊपर से नीचे तक देखा तो मैं सिहर सी गई. क्या देख रही हैं मां? कहीं सबकुछ जान तो नहीं लेंगी? बहुत तेज नाक है उन की. जहां कोई गंध नहीं होती वहां भी गंध सूंघ लेने में माहिर…

‘ऐसे क्या देख रही हैं आप?’ न जाने क्यों झेंपती हुई हंस दी.

‘3 दिन में ही तू एकदम औरत बन कर लौटी है स्वर्णा,’ वे हंस दीं, ‘लग रहा है, टूर पर नहीं गई थी, हनीमून पर गई थी लतिका के पिता के साथ…’

‘नहीं, मम्मी, वह बात नहीं…’ हकला गई मैं. फिर मेरी नजरें अपने फ्लैट में वह सब ढूंढ़ने लगीं जो मां से गलती से छूट गया होगा, उस आदमी…उस बिल्डर के साथ रहते हुए…रात को और दिन को भी. पीछे कोई रोकटोक तो थी नहीं…मुझ से कह रही हैं कि मैं लड़की से एकदम औरत बन कर लौटी हूं और वे खुद क्या बन गई होंगी इस बीच…?

2 दिन भी लतिका के पापा से बिना मिले बिताना मेरे लिए कठिन हो गया. मन हर वक्त चाहता कि किसी बहाने उन के पास पहुंच जाऊं. उन की बांहों में समा जाऊं…क्या एक बार प्यास जागने पर हर औरत की यही दशा होती है?

4 दिन बाद मैं खुद ही लतिका से बोली, ‘आज तेरे घर चलूंगी.’

एक बार पैनी नजरों से लतिका ने मुझे देखा, ‘क्यों…? क्या पापा की याद सता रही है?’ और एकदम हंस पड़ी.

‘कैसे हैं पापा…?’ यह पूछते ही मेरी सांस की गति तेज हो गई.

‘शाम को संग चल कर खुद देख लेना…फिर वही तुझे तेरे घर पहुंचा देंगे…’ और लतिका ने मुझे मोबाइल फोन पकड़ाया, ‘पापा ने दिया है तेरे लिए. कहा है, जब मन करे, उन से बात कर लिया कर.’

लतिका के साथ उस के घर पहुंची तो उस के पापा वहीं थे. लतिका की मम्मी की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई थी. डाक्टर आए हुए थे. दवा दे रहे थे. लतिका उन के पास चली गई.

मैं अकेली लौबी में छूट गई. ऐसा अकेलापन मुझे अपनी अवहेलना-सा प्रतीत हुआ. लगा, सब मुझे अनदेखा कर रहे हैं, मैं अनचाहे वहां मौजूद हूं. उठ कर जाने की सोचने लगी कि लतिका के पापा डाक्टरों को छोड़ने के लिए बाहर निकले.

वापस आए तो मेरी तरफ देख कर पहले की तरह मुसकराए नहीं. गंभीर बने रहे.

‘क्या मम्मी की तबीयत ज्यादा गड़बड़ है?’ मैं ने पूछा.

‘अपनी मां से जा कर पूछना?’ लतिका के पापा कठोर स्वर में बोले, ‘यहां आईं और लतिका की मम्मी से न जाने क्याक्या कह गईं. मैं सामने पड़ा तो सीधे सौदे पर उतर आईं…मुझे नहीं पता था, वे अपनी बेटी का सौदा मुझ से करेंगी…धंधा करती हैं क्या? घर में चकला खोल कर बैठ जाओ तुम लोग… खूब आमदनी होगी मांबेटी की. दोनों अभी जवान हो, पूरी दिल्ली लूट लो…’

बोलते चले गए लतिका के पापा. मैं हड़बड़ा कर उठी और बिना कुछ और आगे सुने, उन के बंगले से बाहर भाग आई…जो आटो मिल गया, उसी में बैठ कर घर आई.

मां सामने पड़ गईं तो एकदम अपनी सारी किताबें उन के ऊपर फेंक कर मार दीं, ‘आप लतिका की मम्मी से मिलने गई थीं?’

‘हां, गई थी. तेरी तरह और तेरे बाप की तरह बेवकूफ नहीं हूं मैं,’ मां भी गुस्से से बोलीं, ‘मुफ्त में बूढ़े बिलौटे को अपनी मलाई चाटने दूं, यह कच्ची गोली मैं नहीं खेलती, समझी…मुझे इस मलाई की कीमत चाहिए…बिना मोल तो आजकल शुद्ध हवा और पानी तक नहीं मिलता…तू तो जवान होती लड़की है…वह खूसट मुझे बिना कुछ दिए मेरा खजाना लूटेगा? हरगिज नहीं.’

यह मेरी ही मां हैं? फटीफटी आंखों से उन के तमतमाए चेहरे की तरफ कुछ पल देखती रही…फिर न जाने क्या सोच कर घर छोड़ कर बाहर निकल आई. निकल तो आई पर बाहर आ कर सोचने लगी कि अब जाऊं कहां? दिल्ली है यह. एक से एक दुराचारी, दुष्ट, हत्यारे और बलात्कारी सड़कों पर घात लगाए डोल रहे हैं.

कुछ सोच कर पापा को फोन लगाया तो पता चला कि उन का ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया है. जिस ने फोन उठाया था उसी से पापा का नया नंबर मिला था. पापा का फोन देर से लगा. दूसरी ओर से हलो होते ही मैं सुबक उठी, ‘पापा…मैं बहुत अकेली रह गई हूं. कोई नहीं है अब मेरे साथ…प्लीज, मुझे अपने पास बुला लीजिए,’ और पापा ने इनकार नहीं किया. यहां, उन के पास आ गई.

नमस्ते जी: भाग 1- शाम को अचानक एक फोन आया और फिर..

हम दोनों पतिपत्नी सुबह बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजने के बाद सैर करने की नीयत से जैसे ही कोठी के बाहर निकले कि पति की निगाहें गली में खड़ी धोबी की लड़की पर जा कर ठहर गईं. वह लड़की अकसर इस्तरी के लिए आसपास की कोठियों से कपड़े लेने आती थी. उसे देख कर नितिन का अंदाज बड़ा ही रोमांटिक हो आया. वे गाना ‘तुम को देखा तो ये खयाल आया, जिंदगी धूप तुम घना साया…’ गाते हुए उस की बगल से गुजरने लगे तो वह भी अपने एक खास अंदाज में मुसकरा दी. उन दोनों की नजरें मिलीं तो धोबी की लड़की ने धीरे से कहा, ‘‘नमस्ते जी.’’

नितिन की बाछें खिल उठीं. मानो कोई अप्सरा स्वर्ग से उतर कर उस के सामने खड़ी, उस का अभिनंदन कर रही हो. नितिन के कदम कुछ क्षणों के लिए ठहर से गए. बदले में उस ने भी मुसकराहट के साथ उस का अभिवादन स्वीकार करते हुए पूछा, ‘‘कैसी हो?’’

वह शोख अंदाज में फिर मुसकराई और धीरे से बोली, ‘‘ठीक हूं.’’

मुझे यह सब ठीक नहीं लगा तो थोड़ा आगे चलने के बाद मैं ने नितिन को टोक दिया.

‘‘तुम एक फैक्टरी के मालिक और एक हैसियतदार आदमी हो. तुम्हारा बस नमस्ते कहना ही काफी था. मगर गाना गाना, हंसना और ज्यादा मुंह लगाना ठीक नहीं. खासकर इस तरह की लड़कियों को. देखो, धोबी की लड़की है. इस्तरी के लिए घरघर कपड़े मांग रही है और हाथ में 8-10 हजार का मोबाइल लिए है…उसे देख कर कौन कहेगा कि यह धोबी की लड़की है.’’

‘‘तुम तो बस किसी के भी पीछे पड़ जाती हो. अरे, तुम्हारे जैसी किसी ‘मेम’ ने पुराना सूट दे दिया होगा और फिर फैशन करना कौन सी बुरी बात है? यह मोबाइल तो अब  आम हो गया है.’’

नितिन ने उस के पक्ष में यह सब कहा तो मुझे 3-4 दिन पहले का वह वाकया याद हो आया जब नितिन ने मुझे बालकनी में बुला कर कहा था.

‘देख निक्की, इस धोबी की लड़की को. यह जब हंसती है तो इस के दोनों गालों पर पड़ते हुए डिंपल कितने प्यारे लगते हैं? कितनी अच्छी ‘हाइट’ है इस की, उस पर छरहरा बदन कितनी सैक्सी लगती है यह?’ मेरे दिमाग में फिर एक और दास्तान ताजा हो आई थी.

अभी बच्चों की गरमियों की छुट्टियों में  मैं 15-16 दिन गांव में रह कर आई थी. पीछे से नितिन अकेले ही रहे थे. मैं जब गांव से वापस आई तो देखा कि साहब ने ढेर सारे कपड़े इस्तरी करा रखे थे. यहां तक कि जिन कपड़ोें को पहनना छोड़ रखा था, वे भी धुल कर इस्तरी हो चुके थे.

मैं ने चकित भाव से नितिन से पूछा, ‘‘ये इतने कपड़े क्यों इस्तरी करा रखे हैं? इन कपड़ों को दे कर तो मुझे बरतन लेने थे और तुम ने इन को धुलवा कर इस्तरी करवा दिया. और तो और जो पहनने…’’

मेरी बात को बीच में ही काट कर नितिन ने झट से कहा, ‘‘वह सब छोड़ो, एक बात याद रखना कि मेरे कपड़े इस्तरी करने के लिए उस लड़के को मत देना. वह ठीक से इस्तरी नहीं करता. वह जो सांवली लड़की कपड़े लेने के लिए आती है, उसे दिया करो. वह इस्तरी भी बढि़या करती है और समय पर वापस भी दे जाती है.’’

मैं कुछ परेशान सी यह सब अपने मन में याद करती हुई चली जा रही थी कि अचानक मेरी नजर नितिन के चेहरे पर पड़ी तो देखा कि वह मंदमंद मुसकरा रहे हैं. मैं ने टोक दिया, ‘‘क्या बात है, बड़े मुसकरा रहे हो. मेरी बात पर गौर नहीं किया क्या?’’

‘‘कौन सी बात?’’

‘‘यही कि थोड़ा रौब से रहा करो.’’

बात पूरी होने से पहले ही नितिन बोल पड़े, ‘‘निक्की, अगर तुम बुरा न मानो तो एक बात कहूं. तुम थोड़ी मोटी हो गई हो और वह धोबी की लड़की सैक्सी लगती है, शायद इसलिए.’’

यह सुन कर मेरा मूड खराब हो गया. मैं वापस घर चली आई. ऐसे ही दिन गुजर गया, रात हो आई. न मैं ने बात की न ही नितिन ने.

2 दिन बाद शाम को जालंधर से इन की किसी परिचित का फोन आ गया. नितिन व उस के बीच लगभग 6 मिनट फोन पर बातचीत चली थी. बातों को सुन कर पता चला कि किसी की बेटी का पी.जी. के तौर पर गर्ल्स हास्टल में रहने का प्रबंध कराना था. जब मैं ने पूछा कि कौन थी? किसे पी.जी. रखवाने की बात हो रही थी? तो नितिन टाल गए. मैं ने भी बात को अधिक बढ़ाना उचित नहीं समझा और घर के काम में लग गई.

नितिन कभी जूते पालिश नहीं करते. हमेशा मैं ही करती हूं लेकिन अगले दिन सुबह उठ कर खुद उन को जूते चमकाते देखा तो अचरज सा हुआ. मैं ने पूछा, ‘‘आज शूज बड़े चमकाए जा रहे हैं, क्या बात है?’’

‘‘गर्ल्स हास्टल का पता करने कई जगह जाना है.’’

यह सुन कर मैं ने अपनी मंशा जाहिर करते हुए कहा, ‘‘कहो तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूं, एक से भले दो.’’

‘‘रहने दो, तुम नाहक ही थक जाओगी, फिर आजकल धूप भी तेज होती है.’’

‘‘हां, भई हां, मेरा तो रंग काला पड़ जाएगा. मैं छुईमुई की तरह हूं जो मुरझा जाऊंगी. साफसाफ यह क्यों नहीं कहते कि मुझे अकेले जाना है. मैं सब जानती हूं लेकिन पिछली बार जब मेरी सहेली ने अपनी बेटी को पी.जी. रखवाने के लिए फोन किया था तो तुम उन्हें ले कर अकेले ही गए थे. अब की बार मैं तुम्हारे साथ चलूंगी. मुझे अच्छा नहीं लगता, तुम्हारा जवान लड़कियों के ‘हास्टल’ में जा कर पूछताछ करना. मैं औरत हूं, मेरा पूछना हमारी सभ्यता के लिहाज से ठीक है.’’

‘‘नहीं…नहीं, मैं अकेला ही पता कर के आऊंगा,’’ यह कह कर नितिन गाना गाने लगे, ‘‘अभी तो मैं जवान हूं…अभी तो मैं…’’

नितिन को चिढ़ाने के अंदाज में मैं ने कहा, ‘‘अगर आज तुम अकेले गए तो मैं भी तुम्हारे पीछेपीछे आऊंगी और तुम यह मत सोचना कि मैं तुम्हें अब गुलछर्रे उड़ाने का मौका आसानी से दे दूंगी.’’

यह सुन कर नितिन एकदम गंभीर हो गए और सख्त लहजे में बोले, ‘‘बस निक्की, अब तुम आगे एक भी शब्द नहीं बोलोगी. अगर कुछ उलटा बोला तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा.’’

‘‘हां…हां, जानती हूं, और तुम कर भी क्या सकते हो, मुझ कमजोर को पीटने के अलावा. मगर आज मैं तुम्हें अकेले पी.जी. के बारे में पता करने नहीं जाने दूंगी, चाहे कुछ भी हो जाए. तुम जरा अकेले जा कर तो देखो?’’

एकदो भद्दी गाली देने के साथ दोचार थप्पड़ मार कर नितिन ने मुझे घसीटते हुए ला कर बिस्तर पर पटक दिया और दरवाजे को जोर से बंद करते हुए घर से बाहर निकल गए.

बौखलाहट में मुझ पर न जाने कहां से पागलपन सा सवार हो गया. मैं ने उठ कर अपनी व नितिन की फ्रेमजडि़त तसवीर ली और फर्श पर दे मारी तथा साथ में रखा हुआ गुलदान दीवार पर और गुस्से में शादी वाली सोने की अंगूठी उतार कर दूर फेंकते हुए बैड पर धड़ाम से गिर पड़ी. फिर न जाने कब मैं अतीत की स्मृतियों के गहरे सागर में डूबती चली गई.

धीरेधीरे मुझे वे दिन याद आने लगे जब मात्र डेढ़ साल के अंतराल में मैं दूसरी बार मां बनी थी और मैं ने फूल सी कोमल नन्ही गुडि़या को जन्म दिया था. मेरी ननद 10 दिन से अधिक नहीं रुक पाई थीं. वैसे भी उन से जच्चा का काम नहीं होता था. अंकुर व अंकिता, दोनों को एकसाथ संभालना मेरे वश से बाहर था.

मैं ने अपने लिए किसी काम वाली को रखने की बात नितिन से कही तो उन्होंने पड़ोसियों के यहां काम करने वाली निर्मला की 12-13 साल की बेटी प्रीति को घर में मेरी मदद करने के लिए रख लिया था. धीरेधीरे बेटी गोद को समझने लगी थी. दिन छिपने के बाद वह तब तक चुप नहीं होती थी जब तक उसे कोई उठा कर छाती से न लगा ले. प्रीति के साथ वह हिलमिल गई थी. उस का स्पर्श पाते ही अंकिता एकदम चुप हो जाती थी जैसे कि उसे उस की मां ही मिल गई हो.

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