पसंद अपनी-अपनी

आजकल लड़कियों की कदकाठी, रूपरंग, चेहरे की बनावट, आंखों का आकारप्रकार, बालों की लंबाई व चमक आदि को ले कर चर्चाएं होती हैं. लड़कियां सोचती हैं कि अधिक से अधिक सुंदर दिखना आज उन की जरूरत बन गई है.

इसलिए लड़कियां अधिक से अधिक खूबसूरत दिखने के लिए ऐसे विज्ञापनों और सौंदर्य प्रसाधनों की ओर भागती रहती हैं जो कुछ ही सप्ताह में सांवला रंग गोरा करने का दावा करते हैं.

खासकर, उत्तर भारत में गोरे रंग को काफी मान्यता मिल गईर् है. शादी के लिए लड़की का गोरा होना आज पहली शर्त है. वैवाहिक विज्ञापनों के अनुसार सभी लड़कों को गोरी लड़कियां ही चाहिए. मैं तो उन विज्ञापनों की हमेशा तलाश में रहती हूं जिन में गोरे, काले, सांवले, गेहुंए का सवाल न हो.

मेरी मां सांवली थीं और पापा गोरे थे. मैं मम्मी पर गई थी और सोमेश दादा पापा पर. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि सांवली मम्मी की शादी गोरे पापा से कैसे हो गई. मैं अकसर यह सवाल पापा से कर बैठती थी कि उन्होंने सांवली मम्मी के साथ शादी कैसे कर ली.

एक दिन मेरी बात सुन कर पापा खिलखिला कर हंस पडे़ थे.

‘‘उस समय लड़की देखने का रिवाज नहीं था, सब कुछ मांबाप ही तय करते थे. लड़के तो सुहागरात में ही पत्नी का दीदार कर पाते थे, वह भी दीपक के प्रकाश में. जिस लड़के की शादी तय हो जाती थी वह इतना खुश हो जाता था जैसे पहली बार थियेटर देखने जा रहा हो.’’

‘‘आप भी उसी तरह खुश हुए थे, पापा?’’

उत्तर में पापा की तेज हंसी से पूरा घर गूंज उठा था, जिस में मेरा सवाल डूब गया था. पापा ने बात बदल कर कहा, ‘‘देखना तेरी शादी गोरे लड़के से ही होगी…’’

पापा जब एक बार बोलना शुरू करते थे तो अपनी वाणी को विराम देना ही भूल जाते थे. अभी मैं ने विज्ञान विषय में इंटर ही किया था कि पापा ने मेरे लिए लड़के की तलाश शुरू कर दी थी. पर मेरा गहरा सांवला रंग देख कर लड़के बिदक जाते थे.

अब तक पापा के खोजे 10 लड़के मुंह बिचका कर जा चुके थे. मैं अपनी पढ़ाई में लगी रही. मम्मी, पापा से कहतीं, ‘‘अगर क्षमा की शादी नहीं हो पा रही है तो आप सोमेश की शादी क्यों नहीं कर देते?’’

22 साल की होतेहोते मैं ने एम.बी.बी.एस. कर लिया था. सोमेश दादा एल.एल.एम. कर के एक डिगरी कालिज में लेक्चरर हो गए थे. पापा मेरे लिए लड़के की तलाश अब भी कर रहे थे.

एक दिन पापा जब कालिज से पढ़ा कर लौटे तो बहुत खुश थे. आते ही उन्होंने घर में घोषणा कर दी, ‘‘क्षमा के लिए लड़के की तलाश पूरी हो गई है. लड़का चार्टर्ड एकाउंटेंट है. कल ही वह अपने मातापिता के साथ क्षमा को देखने आ रहा है. किसी प्रकार के तकल्लुफ की जरूरत नहीं है.’’

दूसरे दिन लड़का अपने मम्मीपापा के साथ मुझे देखने आया. गोराचिट्टा, 6 फुट लंबा, 15 मिनट के साक्षात्कार में मुझे पसंद कर लिया गया. मैं अविश्वासों से घिर गई थी. सोचने लगी, जरूर कोई खास बात होगी, या तो उस में कोई कमी होगी या उस के दिमाग का कोई स्क्रू ढीला होगा.

खैर, मेरी शादी हो गई. पापा के लिए तो लड़का सर्वगुण संपन्न था ही. आशंकाएं तो सिर्फ मुझे थीं. नाना प्रकार की आशंकाओं में घिरी मैं अपनी ससुराल पहुंची. घर के  सभी लोगों ने मुझे पलकों पर बैठा लिया. उस से मेरी आशंकाएं और बढ़ गईं. सुहागसेज पर मैं ने रवि से पूछा, ‘‘आप ने मुझ जैसी लड़की को कैसे पसंद किया?’’

रवि ने मुसकरा कर मेरी ओर देखा. बड़ी देख तक वह मुझे निहारते रहे. फिर कहने लगे, ‘‘दरअसल, क्षमा, गोरी लड़कियां मुझे अच्छी नहीं लगतीं. ज्यादातर गोरी लड़कियों के चेहरों की बनावट अच्छी नहीं होती. दांत तो खासतौर पर अच्छे नहीं होते. इसीलिए मुझे तुम्हारी जैसी लड़की की तलाश थी. दूसरी बात यह कि पतिपत्नी के रूपरंग में भिन्नता होनी चाहिए. जानती हो, यह सारी प्रकृति भिन्नता के आधार पर निर्मित हुई है इसीलिए इस में इतना आकर्षण है. भिन्नता इसलिए भी जरूरी है ताकि पतिपत्नी का व्यक्तित्व अलग दिखे. एकरूपता में सौंदर्य उतना नहीं झलकता जितना भिन्नता में,’’ कह कर रवि ने बत्ती बुझा दी.

मैं ने पहली बार नारीपुरुष का भेद समझा था. सुबह काफी देर से आंख खुली. मैँ ने देखा कि रवि बेड पर नहीं हैं. मैं अलसाई आंखों से इधरउधर उन्हें ढूंढ़ने लगी थी. इतने में कमरे का परदा हिला. उसी के साथ रवि एक छोटी सी टे्र में चाय के 2 प्यालों के साथ कमरे में दाखिल हुए.

‘‘आप…’’ मैं अचकचा कर बोली.

‘‘मैं ने निश्चय किया था कि पहली चाय मैं ही बना कर तुम्हें पिलाऊंगा.’’

मुझे कोई उत्तर नहीं सूझा था. मैं रवि को निहारती रह गई थी.

अपने हिस्से की धूप: भाग 2- क्या था उस ब्रीफकेस

नुपुर चुपचाप मांबेटे की बहस सुन रही थी. ‘‘बात तुम्हारी पसंद या नापसंद की नहीं, परंपरा की है. तुम्हारी दादी और बूआ को तुम्हारी बातें समझ आएंगी. कौन नूपुर से कुछ ले लेगा, बस मान देने की बात है. नूपुर तुझे कोई दिक्कत तो नहीं? यह तो कुछ समझता ही नहीं. चार अक्षर क्या पढ़ लिए मां को ही पढ़ाने लगे.’’

नूपुर ने मम्मीजी की आवाज में एक खलिश महसूस की थी. वह समझ नहीं पा रही थी. वह अपनी नईनवेली सास और नएनवेले पति के बीच फंस गई थी.

‘‘नूपुर, इस की छोड़ इसे दुनियादारी समझ नहीं आती. तू तो समझदार है तुझे कोई दिक्कत तो नहीं?’’

‘‘जी कोई बात नहीं,’’ नूपुर ने मद्धिम स्वर में कहा.

सिद्धार्थ नूपुर के इस फैसले से कुछ खास खुश नजर नहीं आ रहा था. बोला, ‘‘जो मन में आए करो फिर मुझ से कोई कुछ मत कहना.’’

‘‘नूपुर मैं सब को इसी कमरे में बुला लूंगी, तुम नहाधो कर तैयार हो जाओ. रात में रिसैप्शन भी है. सिद्धार्थ तू मेरे कमरे में नहा ले, बहू को तैयार होने दे,’’ मम्मीजी कमरे से बाहर जाने लगी, तभी उन्हें कुछ याद आया. बोली, ‘‘आज दिनभर पूजापाठ और रीतिरिवाज में ही निकल जाएगा. हलवाई को अभी सब का नाश्ता बनाने में समय लगेगा. तुम कुछ खा लो, तुम्हारे लिए चायनाश्ता भेजती हूं.’’

‘‘जी,’’ नूपुर ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

अब कमरे में सिद्धार्थ और नूपुर ही रह गए थे. उस की चूडि़यों की खनखनाहट के अलावा कोई आवाज नहीं आ रही थी. नूपुर ने पर्स खोला और ब्रीफकेस की चाबी निकाली.

‘‘मैं कुछ मदद करूं?’’ सिद्धार्थ ने कहा.

नूपुर कुछ कहती उस से पहले ही सिद्धार्थ ने ब्रीफकेस उठा कर बैड पर रख दिया. नूपुर ने ब्रीफकेस खोला और घाटचोला की साड़ी, उसी का मैचिंग ब्लाउज और पेटीकोट निकाला. फिर उस ने धीरे से सिद्धार्थ की ओर देख कर वाशरूम पूछा.

सिद्धार्थ ने उंगली से इशारा किया. वाशरूम से ताजा पेंट और सीमेंट की खुशबू आ रही थी. उस ने वाशरूम में कदम बढ़ाया ही था कि सिद्धार्थ ने पीछे से आवाज दी, ‘‘एक मिनट रुको,’’ सिद्धार्थ ने उस का रास्ता रोक लिया और वाशरूम में घुस गया, ‘‘नूपुर इधर आओ यह गीजर का पौइंट है, यहां से औन होगा.’’

सबकुछ नयानया सा लग रहा था जिसे नूपुर को अपना बनाना था. नया टूथपेस्ट, 2 टूथब्रश, शैंपू, तेल की शीशी, क्रीम, कपड़े धोने और नहाने के नए साबुन के पैकेट. उस ने हाथ में पकड़े शैंपू और साबुन के पैकेट को अपने कपड़ों में छिपा लिया, मैं ने 1-1 चीज याद करकर के रखी है. ससुराल में किस से मांगने जाएगी, खुद इंतजाम कर के चलो. धीरेधीरे जब समझ में आने लगेगा, तब मंगवा लेना.’’

मां ने 1-1 चीज वैनिटी बौक्स में कितने जतन से सजो कर रखी थी. मां को याद कर उस का मन भारी हो गया. नए घर में अपना कहने वाला कोई नहीं था पर उन नए लोगों को अब अपना बनाना था.

‘‘तुम जल्दी से तैयार हो जाओ, मैं भी नहा कर आता हूं. कमरे का दरवाजा अंदर से बंद कर लेना कोई तुम्हें डिस्टर्ब नहीं करेगा,’’ सिद्धार्थ ने बड़ी सहजता से कहा.

नूपुर के चेहरे पर एक मुसकान आ गई. उस ने दरवाजा बंद करने के लिए ऊपर की ओर हाथ बढ़ाया. वहां चिटकनी नहीं थी. ओह, आदत भी कितनी खराब चीज है… नूपुर तू ससुराल में है उस ने आप से कहा. सागौन की पौलिश से दरवाजे पर औटोमैटिक लौक लगा हुआ था. एक, दो और तीन उस ने 3 बार उस के कान उमेठ दिए और बैड पर आ कर बैठ गई. कितनी देर से गला सूख रहा था. रात में खाना खाते वक्त ही पानी पीया था. उस ने इधरउधर नजर दौड़ाई, बैड के सिरहाने जग और स्टील के

2 गिलास उलटे रखे थे. बहुत तेज प्यास लगी थी. उस ने गिलास को झट से भर लिया और होंठों को तेजी से लगाया. जितना तेजी से उस ने होंठों को गिलास से लगाया था उतनी ही तेजी से उस ने गिलास से हटा भी लिए. उस के चेहरे का रंग बदल गया था, ‘‘कैसा स्वाद है इस का.’’

2 घूंट पानी पीने के बाद नूपुर ने गिलास वैसे ही छोड़ दिया. जीवन के साथसाथ अब उसे उस पानी के साथ भी एडजस्ट करना था. उस ने कपड़े समेटे और वाशरूम की ओर बढ़ गई.

नूपुर ने वाशरूम में कपड़े टांगने के लिए खूंटी ढूंढ़ी, किसी नामी कंपनी की रैक वाली स्टील की खूंटी टाइल्स पर चमचमा रही थी. ऊपरी हिस्से पर नरम, नए और मुलायम 2 तौलिए रखे थे. उसे अपना वाशरूम याद आ गया, बुध बाजार से वह पूरे घर के वाशरूम के लिए कार्टून और दिल के आकार की कई चिपकाने वाली खूंटियां ले आई थी तब पापा ने कितना डांटा था, ‘‘ताड़ की तरह बड़ी हो गई पर अभी बचपना नहीं गया. तुम ही लगाओ अपने वाशरूम में कीड़ेमकोड़े वाली खूंटियां हमारे लिए तो ये स्टील वाली ही ठीक हैं.’’

न जाने क्या सोच कर नूपुर की आंखें मुसकराने लगीं. अब सिद्धार्थ की पसंद ही उस की पसंद है. एक अपरिचित लड़के का हाथ पकड़ेपकड़े वह दूसरे संसार में प्रवेश कर गई थी इस उम्मीद के साथ कि अब जीवन भर उस के साथ रहना है. उस के सुख और दुख मेरे होंगे और मेरे सुख और दुख उस के  वह शावर के नीचे खड़ी हो गई. शावर की तेज धार से उस के मनमस्तिष्क की सारी उलझनें सुलझती चली गईं.

अब यही घर उस का है. अब इस घर में ही उसे रहना है और इस घर को भी उस घर की तरह अपनाना, सजाना और संवारना है. कमरे में ड्रैसिंग टेबल रखी थी. उस पर गिनती का कुछ सामान था. उस के चेहरे पर मुसकान आ गई. सिद्धार्थ भी और लड़कों की तरह ही थे. एक महीन दांत वाली कंघी, एक डिओड्रैंट, क्रीम और तेल की शीशी उन के वैनिटी बौक्स के नाम पर बस इतनी ही जमा पूंजी थी.

वह सोच रही थी कि शृंगार के नाम पर उस ने न जाने कितनी चीजें जुटाई थीं इन 6 महीनों में. लिपस्टिक के न जाने कितने शेड और न जाने कितने प्रकार थे. उस की पिटरिया में लिक्विड, मैट, पैंसिल, क्रीम बेस्ड. इसी तरह कंघियां भी विभिन्न प्रकार और साइज की थीं. महीन दांत वाली, बाल सुल?ाने के लिए चौड़े दांत वाली ब्रश, रोलर और नोक वाली.

नूपुर ने ड्रैसिंग टेबल के शीशे के सामने अपनेआप पर एक भरपूर नजर डाली. मांग में लाल सिंदूर चमक रहा था. कितनी सुंदर दिख रही थी वह शायद यह सिंदूर का ही कमाल था. खिड़की पर मोटेमोटे परदे पड़े थे. नूपुर ने इधरउधर देखा और परदे को खींच कर एक तरफ कर दिया. खिड़की के शीशों पर हलकी गुलाबी धूप चमक रही थी. उस ने हाथों का दबाव दे शीशे को पीछे की तरफ धकेल दिया. शायद खिड़कियां काफी दिनों से नहीं खुली थीं.

कमरे की खिड़कियों को खोल उस ने धूप को आने दिया जैसे वह अपने हिस्से की धूप को इकट्ठा कर लेना चाहती हो. कहीं न कहीं जिंदगी का फलसफा भी तो नहीं है. खुशियां भी तो कुछ ऐसी ही होती हैं अपनेअपने हिस्से की खुशियां. उस ने एक गहरी सांस ली और साफ हवा को अपने मनमस्तिष्क में भरने दिया. कितनी अलग थी इस कमरे की दीवारें एकदम शांत नए रंगरूटों की तरह जिन की उंगलियां कुछ करने को छटपटा रही हों.

अनोखा रिश्ता- भाग 4: कौन थी मिसेज दास

मिसेज दास के आने तक घर में एक अजीब सन्नाटा छाया रहा. जयशंकर चुपचाप उदास अपनी पढ़ाईलिखाई की मेज पर जा बैठा और मैं अपना अपराधबोध लिए बरामदे में आ कर चुपचाप तखत पर लेट गया.

करीब साढ़े 4 बजे मिसेज दास आईं और मुझे बरामदे में लेटा देख कर बोलीं, ‘इस गरमी में तुम बरामदे में क्यों लेटे हो? जयशंकर वापस नहीं आया है क्या?’

कमरे से अब सिर्फ जयशंकर की आवाज आ रही थी. वह असमी भाषा में पता नहीं क्याक्या अपनी मां को बताए जा रहा था. मैं अपनेआप को बड़ा उपेक्षित महसूस कर रहा था.

मिसेज दास कमरे से बाहर निकलीं. मैं अपना सिर नीचा किए रोए जा रहा था. उन्होंने बढ़ कर मेरा चेहरा अपने दोनों हाथों में ले कर पेट से लगा लिया और पीठ सहलाने लगीं. फिर अपने आंचल से मेरी आंखें पोंछ कर मुझे कमरे में ले गईं और पीने को एक गिलास पानी दिया. उस के बाद वह सारे सामान को खोल कर देखने लगीं. उन के इशारे पर जयशंकर भी अपने कपड़े नापने उठा. पैंट और कमीज दोनों उस के नाप के थे. शाल और चप्पल भी मिसेज दास को बड़े पसंद आए. वह सब्जियां और मिठाइयां सजासजा कर रखने लगीं. बारबार मुझे बस इतना ही सुनने को मिलता था, ‘इतना क्यों खरीदा? गुवाहाटी के सारे बाजार कल से उठने वाले थे क्या?’

मैं खुश था कि कम से कम घर का तनाव थोड़ा कम तो हुआ.

उस रात खाना खाने के बाद मुझे मिसेज दास ने अपने कमरे में बुलाया. वह चारपाई पर बैठी अपनी चप्पलों को पैर से इधरउधर सरका रही थीं. पास  ही जयशंकर एक कुरसी पर चुपचाप बैठा छत के पंखे को देखे जा रहा था. मिसेज दास ने इशारे से अपने पास बुलाया और मुझे अपने बगल में बैठने को कहा. बड़ा समय लिया उन्होंने अपनी चुप्पी तोड़ने में.

‘जयशंकर बता रहा था कि तुम्हारे परिचित ने तुम्हें आज 600 रुपए दिए थे, यह बताओ कि हम पर तुम ने कितने पैसे खर्च कर डाले?’

‘करीब 300 रुपए.’

‘बाकी के 300 रुपए तो तुम्हारे पास हैं न?’

मैं ने शेष 300 रुपए जेब से निकाल कर उन के सामने रख दिए.

अब मिसेज दास ने अपना फैसला चंद शब्दों में मुझे सुना दिया कि तुम कल सुबह जयशंकर के साथ जा कर धनबाद के लिए किसी भी ट्रेन में अपना आरक्षण करवा लो. तुम्हारी मां घबरा रही होंगी. अपने परिचित का पता मुझे लिखवा दो. जब तुम्हारे बाबा का पैसा आ जाएगा तब मैं जयशंकर के हाथ यह 600 रुपए वापस करवा कर शेष रुपए तुम्हारे बाबा के नाम मनीआर्डर कर दूंगी. तुम्हें हम पर भरोसा तो है न?’

मुझे पता था कि यह मिसेज दास का अंतिम फैसला है और उसे बदला नहीं जा सकता. अपने एक झूठ को छिपाने के लिए मुझे मिसेज दास को एक मनगढ़ंत पता देना ही पड़ा.

दूसरे दिन मुझे एक टे्रन में आरक्षण मिल गया. मेरी टे्रन शाम को 7 बजे थी. मैं बुझे मन से घर वापस लौटा. खाना खाने के बाद मैं मिसेज दास की चारपाई पर लेट गया और मिसेज दास जयशंकर को साथ ले कर मेरी विदाई की तैयारी में लग गईं. वह मेरे रास्ते के लिए जाने क्याक्या पकाती और बांधती रहीं. हर 10 मिनट पर जयशंकर मुझ से चाय के लिए पूछने आता था पर मेरे मन में एक ऐसा शूल फंस गया था जो निकाले न निकल रहा था.

ट्रेन अपने नियत समय पर आई. मैं मिसेज दास के पांव छू कर और जयशंकर के गले मिल कर अपनी सीट पर जा बैठा.

कुछ दिनों के बाद बाबूजी का भेजा रुपया धनबाद के पते पर वापस आ गया. मनीआर्डर पर मात्र मिसेज दास का पता भर लिखा था.

मेरा यह अक्षम्य झूठ 25 वर्षों तक एक नासूर की तरह आएदिन पकता, फूटता और रिसता रहा था.

सोच के इस सिलसिले के बीच जागतेसोते मैं गुवाहाटी आ गया. रिकशा पकड़ कर मैं मिसेज दास के घर की ओर चल दिया. घर के सामने पहुंचा तो उस का नक्शा ही बदला हुआ था. कच्चे बरामदे के आगे एक दीवार और एक लोहे का फाटक लग गया था. छोटे से अहाते में यहांवहां गमले, बरामदे की छत तक फैली बोगनबेलिया की लताएं, एक लिपापुता आकर्षक घर.

मुझे पता था कि मिस्टर दास का अधूरा सपना बस, जयशंकर ही पूरा कर सकता है और उस ने पूरा कर के दिखा भी दिया.

फाटक की कुंडी खटखटाने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं हुआ. मैं यहां किसी तरह की कोई उम्मीद ले कर नहीं आया था. बस, मुझे मिसेज दास से एक बार मिलना था. खटका सुन कर वह कमरे से बाहर निकलीं. शायद इन 25 सालों के बाद भी मुझ में कोई बदलाव न आया था.

उन्होंने मुझे देखते ही पहचान लिया. बिना किसी प्रतिक्रिया केझट से फाटक खोला और मुझे गले से लगा कर रोने लग पड़ीं. फिर मेरा चेहरा अपनी

आंखों के सामने कर के बोलीं, ‘‘तुम तो बिलकुल अंगरेजों की तरह गोेरे

लगते हो.’’

मैं उन के पांव तक न छू पाया. वह मेरा हाथ पकड़ कर घर के अंदर ले गईं. कमरों की साजसज्जा तो साधारण ही थी पर घर की दीवारें, फर्श और छतें सब की मरम्मत हुई पड़ी थी. मिसेज दास रत्ती भर न बदली थीं. न तो उन की ममता में और न उन की सौम्यता में कोई बदलाव आया था. बस, एक बदलाव मैं उन में देख रहा था कि उन के स्वर अब आदेशात्मक न रहे.

मेरे लिए यह बिलकुल अविश्वसनीय था. एम.एससी. करने के बाद जयशंकर अपनी इच्छा से एक करोड़पति की लड़की से शादी कर के डिब्रूगढ़ चला गया था. उस ने मां के साथ अपने सभी संबंध तोड़ डाले, जिस की मुझे सपनों में भी कभी आहट न हुई.

मिसेज दास की बड़ी बहन अब दुनिया में न रहीं. वह अपनी चल और अचल संपत्ति अपनी छोटी बहन के नाम कर गई थीं जो तकरीबन डेढ़ लाख रुपए की थी. जिस का

एक भाग उन्होंने अपने घर की मरम्मत में लगाया और बाकी के सूद और

अपनी सीमित पेंशन से अपना जीवन निर्वाह एक तरह से सम्मानित ढंग से कर रही थीं.

अब वह मेरे लिए मिसेज दास न थीं. मैं उन्हें खुश करने के लिए बोला, ‘‘मां, आप के हाथ की बनी रोहू मछली खाने का मन कर रहा है.’’

यह सुनते ही उन की आंखों से सावनभादों की बरसात शुरू हो गई. वह एक अलमारी में से मेरी चिट्ठियों का पूरा पुलिंदा ही उठा लाईं और बोलीं, ‘‘तुम्हारी एकएक चिट्ठी मैं अनगिनत बार पढ़ चुकी हूं. कई बार सोचा कि तुम्हें जवाब लिखूं पर शंकर मुझे बिलकुल तोड़ गया, बेटा. जब मेरी अपनी कोख का जन्मा बेटा मेरा सगा न रहा तो तुम पर मैं कौन सी आस रखती? फिर भी एक प्रश्न मैं तुम से हमेशा ही पूछना चाहती थी.’’

‘‘कौन सा प्रश्न, मां?’’

‘‘तुम्हें वह 600 रुपए मिले कहां से थे?’’

अब मुझे उन्हें सबकुछ साफसाफ बताना पड़ा.

सबकुछ सुनने के बाद उन्होंने मुझ से पूछा, ‘‘और एक बार भी तुम्हारा मन तुम्हें पैसे पकड़ने से पहले न धिक्कारा?’’

‘‘नहीं, क्योंकि मुझेअपने मन की चिंता न थी. मुझे आप के अभाव खलते थे पर अगर मुझे उन दिनों यह पता होता कि मैं अपने उपहारों के बदले आप को खो दूंगा तो मैं उन पैसों को कभी न पकड़ता. आप से कभी झूठ न बोलता. आप का अभाव मुझे अपने जीवन में अपनी मां से भी अधिक खला.’’

मिसेज दास चुपचाप उठीं और अपने संदूक से एक खुद का बुना शाल अपने कंधे पर डाल कर वापस आईं.

‘‘आओ, बाजार चलते हैं. तुम्हें मछली खानी है न. मेरे साथ 1-2 दिन तो रहोगे न, कितने दिन की छुट्टी है?’’

मैं उन के साथ 4 दिन तक रहा और उन की ममता की बौछार में अकेला नहाता रहा.

5वें दिन सुबह से शाम तक वह अपने चौके में मेरे रास्ते के लिए खाना बनाती रहीं और मुझे स्टेशन भी छोड़ने आईं. पूरे दिन उन से एक शब्द भी न बोला गया. बात शुरू करने से पहले ही उन का गला रुंध जाता था.

अब जब भी बर्लिन में मुझे उन की चिट्ठी मिलती है तो मैं अपना सारा घर सिर पर उठा लेता हूं. कई दिनों तक उन के पत्र का एकएक शब्द मेरे दिमाग में गूंजता रहता है, विशेषकर पत्र के अंत में लिखा उन का यह शब्द ‘तुम्हारी मां मनीषा.’

मैं उन्हें जब पत्र लिखने बैठता हूं अनायास मेरी भाषा बच्चों जैसी नटखट  हो जाती है. मेरी उम्र घट जाती है. मुझे अपने आसपास कोहरे या बादल नजर नहीं आते. बस, उन का सौम्य चेहरा ही मुझे हर तरफ नजर आता है.

दो भूत : उर्मिल से तालमेल क्या बैठा पाई अम्माजी

लेखिका- सरोज गोयल

मेरी निगाह कलैंडर की ओर गई तो मैं एकदम चौंक पड़ी…तो आज 10 तारीख है. उर्मिल से मिले पूरा एक महीना हो गया है. कहां तो हफ्ते में जब तक चार बार एकदूसरे से नहीं मिल लेती थीं, चैन ही नहीं पड़ता था, कहां इस बार पूरा एक महीना बीत गया. घड़ी पर निगाह दौड़ाई तो देखा कि अभी 11 ही बजे हैं और आज तो पति भी दफ्तर से देर से लौटेंगे. सोचा क्यों न आज उर्मिल के यहां ही हो आऊं. अगर वह तैयार हो तो बाजार जा कर कुछ खरीदारी भी कर ली जाए. बाजार उर्मिल के घर से पास ही है. बस, यह सोच कर मैं घर में ताला लगा कर चल पड़ी. उर्मिल के यहां पहुंच कर घंटी बजाई तो दरवाजा उसी ने खोला. मुझे देखते ही वह मेरे गले से लिपट गई और शिकायतभरे लहजे में बोली, ‘‘तुझे इतने दिनों बाद मेरी सुध आई?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘मैं तो आखिर चली भी आई पर तू तो जैसे मुझे भूल ही गई.’’

‘‘तुम तो मेरी मजबूरियां जानती ही हो.’’

‘‘अच्छा भई, छोड़ इस किस्से को. अब क्या बाहर ही खड़ा रखेगी?’’

‘‘खड़ा तो रखती, पर खैर, अब आ गई है तो आ बैठ.’’

‘‘अच्छा, क्या पिएगी, चाय या कौफी?’’ उस ने कमरे में पहुंच कर कहा.

‘‘कुछ भी पिला दे. तेरे हाथ की तो दोनों ही चीजें मुझे पसंद हैं.’’

‘‘बहूरानी, कौन आया है?’’ तभी अंदर से आवाज आई.

‘‘उर्मिल, कौन है अंदर? अम्माजी आई हुई हैं क्या? फिर मैं उन के ही पास चल कर बैठती हूं. तू अपनी चाय या कौफी वहीं ले आना.’’

अंदर पहुंच कर मैं ने अम्माजी को प्रणाम किया और पूछा, ‘‘तबीयत कैसी है अब आप की?’’

‘‘बस, तबीयत तो ऐसी ही चलती रहती है, चक्कर आते हैं. भूख नहीं लगती.’’

‘‘डाक्टर क्या कहते हैं?’’

‘‘डाक्टर क्या कहेंगे. कहते हैं आप दवाएं बहुत खाती हैं. आप को कोई बीमारी नहीं है. तुम्हीं देखो अब रमा, दवाओं के बल पर तो चल भी रही हूं, नहीं तो पलंग से ही लग जाती,’’ यह कह कर वे सेब काटने लगीं.

‘‘सेब काटते हुए आप का हाथ कांप रहा है. लाइए, मैं काट दूं.’’

‘‘नहीं, मैं ही काट लूंगी. रोज ही काटती हूं.’’

‘‘क्यों, क्या उर्मिल काट कर नहीं देती?’’

‘‘तभी उर्मिल ट्रे में चाय व कुछ नमकीन ले कर आ गई और बोली, ‘‘यह उर्मिल का नाम क्यों लिया जा रहा था?’’

‘‘उर्मिल, यह क्या बात है? अम्माजी का हाथ कांप रहा है और तुम इन्हें एक सेब भी काट कर नहीं दे सकतीं?’’

‘‘रमा, तू चाय पी चुपचाप. अम्माजी ने एक सेब काट लिया तो क्या हो गया.’’

‘‘हांहां, बहू, मैं ही काट लूंगी. तुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं है,’’ तनाव के कारण अम्माजी की सांस फूल गई थी.

मैं उर्मिल को दूसरे कमरे में ले गई और बोली, ‘‘उर्मिल, तुझे क्या हो गया है?’’

‘‘छोड़ भी इस किस्से को? जल्दी चाय खत्म कर, फिर बाजार चलें,’’ उर्मिल हंसती हुई बोली.

मैं ठगी सी उसे देखती रह गई. क्या यह वही उर्मिल है जो 2 वर्ष पूर्व रातदिन सास का खयाल रखती थी, उन का एकएक काम करती थी, एकएक चीज उन को पलंग पर हाथ में थमाती थी. अगर कभी अम्माजी कहतीं भी, ‘अरी बहू, थोड़ा काम मुझे भी करने दिया कर,’ तो हंस कर कहती, ‘नहीं, अम्माजी, मैं किस लिए हूं? आप के तो अब आराम करने के दिन हैं.’

तभी उर्मिल ने मुझे झिंझोड़ दिया, ‘‘अरे, कहां खो गई तू? चल, अब चलें.’’

‘‘हां.’’

‘‘और हां, तू खाना भी यहां खाना. अम्माजी बना लेंगी.’’

मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, ‘‘उर्मिल, तुझे हो क्या गया है?’’

‘‘कुछ नहीं, अम्माजी बना लेंगी. इस में बुरा क्या है?’’

‘‘नहीं, उर्मिल, चल दोनों मिल कर सब्जीदाल बना लेते हैं और अम्माजी के लिए रोटियां भी बना कर रख देते हैं. जरा सी देर में खाना बन जाएगा.’’

‘‘सब्जी बन गई है, दालरोटी अम्माजी बना लेंगी, जब उन्हें खानी होगी.’’

‘‘हांहां, मैं बना लूंगी. तुम दोनों जाओ,’’ अम्माजी भी वहीं आ गई थीं.

‘‘पर अम्माजी, आप की तबीयत ठीक नहीं लग रही है, हाथ भी कांप रहे हैं,’’ मैं किसी भी प्रकार अपने मन को नहीं समझा पा रही थी.

‘‘बेटी, अब पहले का समय तो रहा नहीं जब सासें राज करती थीं. बस, पलंग पर बैठना और हुक्म चलाना. बहुएं आगेपीछे चक्कर लगाती थीं. अब तो इस का काम न करूं तो दोवक्त का खाना भी न मिले,’’ अम्माजी एक लंबी सांस ले कर बोलीं.

‘‘अरे, अब चल भी, रमा. अम्माजी, मैं ने कुकर में दाल डाल दी है. आटा भी तैयार कर के रख दिया है.’’

बाजार जाते समय मेरे विचार फिर अतीत में दौड़ने लगे. बैंक उर्मिल के घर के पास ही था. एक सुबह अम्माजी ने कहा, ‘मैं बैंक जा कर रुपए जमा कर ले आती हूं.’

‘नहीं अम्माजी, आप कहां जाएंगी, मैं चली जाऊंगी,’ उर्मिल ने कहा था.

‘नहीं, तुम कहां जाओगी? अभी तो अस्पताल जा रही हो.’

‘कोई बात नहीं, अस्पताल का काम कर के चली जाऊंगी.’

और फिर उर्मिल ने अम्माजी को नहीं जाने दिया था. पहले वह अस्पताल गई जो दूसरी ओर था और फिर बैंक. भागतीदौड़ती सारा काम कर के लौटी तो उस की सांस फूल आई थी. पर उर्मिल न जाने किस मिट्टी की बनी हुई थी कि कभी खीझ या थकान के चिह्न उस के चेहरे पर आते ही न थे.

उर्मिल की भागदौड़ देख कर एक दिन जीजाजी ने भी कहा था,

‘भई, थोड़ा काम मां को भी कर लेने दिया करो. सारा दिन बैठे रहने से तो उन की तबीयत और खराब होगी और खाली रहने से तबीयत ऊबेगी भी.’

इस पर उर्मिल उन से झगड़ पड़ी थी, ‘आप भी क्या बात करते हैं? अब इन की कोई उम्र है काम करने की? अब तो इन से तभी काम लेना चाहिए जब हमारे लिए मजबूरी हो.’

बेचारे जीजाजी चुप हो गए थे और फिर कभी सासबहू के बीच में नहीं बोले.  मैं इन्हीं विचारों में खोई थी कि उर्मिल ने कहा, ‘‘लो, बाजार आ गया.’’ यह सुन कर मैं विचारों से बाहर आई.

बाजार में हम दोनों ने मिल कर खरीदारी की. सूरज सिर पर चढ़ आया था. पसीने की बूंदें माथे पर झलक आई थीं. दोनों आटो कर के घर पहुंचीं. अम्माजी ने सारा खाना तैयार कर के मेज पर लगा रखा था. 2 थालियां भी लगा रखी थीं. मेरा दिल भर आया.

अम्माजी बोलीं, ‘‘तुम लोग हाथ धो कर खाना खा लो. बहुत देर हो गई है.’’

‘‘अम्माजी, आप?’’  मैं ने कहा.

‘‘मैं ने खा लिया है. तुम लोग खाओ, मैं गरमगरम रोटियां सेंक कर लाती हूं.’’

मैं अम्माजी के स्नेहभरे चेहरे को देखती रही और खाना खाती रही. पता नहीं अम्माजी की गरम रोटियों के कारण या भूख बहुत लग आने के कारण खाना बहुत स्वादिष्ठ लगा. खाना खा कर अम्माजी को स्वादिष्ठ खाने के लिए धन्यवाद दे कर मैं अपने घर लौट आई.

कुछ दिनों बाद एक दिन जब मैं उर्मिल के घर पहुंची तो दरवाजा थोड़ा सा खुला था. मैं धीरे से अंदर घुसी और उर्मिल को आवाज लगाने ही वाली थी कि उस की व अम्माजी की मिलीजुली आवाज सुन कर चौंक पड़ी. मैं वहीं ओट में खड़ी हो कर सुनने लगी.

‘‘सुनो, बहू, तुम्हारी लेडीज क्लब की मीटिंग तो मंगलवार को ही हुआ करती है न? तू बहुत दिनों से उस में गई नहीं.’’

‘‘पर समय ही कहां मिलता है, अम्माजी?’’

‘‘तो ऐसा कर, तू आज हो आ. आज भी मंगलवार ही है न?’’

‘‘हां, अम्माजी, पर मैं न जा सकूंगी. अभी तो काम पड़ा है. खाना भी बनाना है.’’

‘‘उस की चिंता न कर. मुझे बता दे, क्याक्या बनेगा.’’

‘‘अम्माजी, आप सारा खाना कैसे बना पाएंगी? वैसे ही आप की तबीयत ठीक नहीं रहती है.’’

‘‘बहू, तू क्या मुझे हमेशा बुढि़या और बीमार ही बनाए रखेगी?’’

‘‘अम्माजी मैं…मैं…तो…’’

‘‘हां, तू. मुझे इधर कई दिनों से लग रहा है कि कुछ न करना ही मेरी सब से बड़ी बीमारी है, और सारे दिन पड़ेपड़े कुढ़ना मेरा बुढ़ापा. जब मैं कुछ काम में लग जाती हूं तो मुझे लगता है मेरी बीमारी ठीक हो गई है और बुढ़ापा कोसों दूर चला गया है.’’

‘‘अम्माजी, यह आप कह रही हैं?’’ उर्मिल को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ.

‘‘हां, मैं. इधर कुछ दिनों से तू ने देखा नहीं कि मेरी तबीयत कितनी सुधर गई है. तू चिंता न कर. मैं बिलकुल ठीक हूं. तुझे जहां जाना है जा. आज शाम को सुधीर के साथ किसी पार्टी में भी जाना है न? मेरी वजह से कार्यक्रम स्थगित मत करना. यहां का सब काम मैं देख लूंगी.’’

‘‘ओह अम्माजी,’’  उर्मिल अम्माजी से लिपट गई और रो पड़ी.

‘‘यह क्या, पगली, रोती क्यों है?’’ अम्माजी ने उसे थपथपाते हुए कहा.

‘‘अम्माजी, मेरे कान कब से यह सुनने को तरस रहे थे कि आप बूढ़ी नहीं हैं और काम कर सकती हैं. मैं ने इस बीच आप से जो कठोर व्यवहार किया, उस के लिए क्षमा चाहती हूं.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. चल जा, जल्दी उठ. क्लब की मीटिंग का समय हो रहा है.’’

‘‘अम्माजी, अब तो नहीं जाऊंगी आज. हां, आज बाजार हो आती हूं. बच्चों की किताबें और सुधीर के लिए शर्ट लेनी है.’’

‘‘तो बाजार ही हो आ. रमा को भी फोन कर देती तो दोनों मिल कर चली जातीं.’’

‘‘अम्माजी, प्रणाम. आप ने याद किया और रमा हाजिर है.’’

‘‘अरी, तू कब से यहां खड़ी थी?’’

‘‘अभी, बस 2 मिनट पहले आई थी.’’

‘‘तो छिप कर हमारी बातें सुन रही थी, चोर कहीं की.’’

‘‘क्या करती? तुम सासबहू की बातचीत ही इतनी दिलचस्प थी कि अपने को रोकना जरूरी लगा.’’

‘‘तुम दोनों बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ अम्माजी रसोई की ओर बढ़ गईं.

मैं अपने को रोक न पाई. उर्मिल से पूछ ही बैठी, ‘‘यह सब क्या हो रहा था? मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया. यह माफी कैसी मांगी जा रही थी?’’

‘‘रमा, याद है, उस दिन, तू मुझ से बारबार मेरे बदले हुए व्यवहार का कारण पूछ रही थी. बात यह है रमा, अम्माजी के सिर पर दो भूत सवार थे. उन्हें उतारने के लिए मुझे नाटक करना पड़ा.’’

‘‘दो भूत? नाटक? यह सब क्या है? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा. पहेलियां न बुझा, साफसाफ बता.’’

‘‘बता तो रही हूं, तू उतावली क्यों है? अम्माजी के सिर पर चढ़ा पहला भूत था उन का यह समझ लेना कि बहू आ गई है, उस का कर्तव्य है कि वह प्राणपण से सास की सेवा और देखभाल करे, और सास होने के नाते उन का अधिकार है दिनभर बैठे रहना और हुक्म चलाना. अम्माजी अच्छीभली चलफिर रही होती थीं तो भी अपने इन विचारों के कारण चायदूध का समय होते ही बिस्तर पर जा लेटतीं ताकि मैं सारी चीजें उन्हें बिस्तर पर ही ले जा कर दूं. उन के जूठे बरतन मैं ही उठा कर रखती थी. मेरे द्वारा बरतन उठाते ही वे फिर उठ बैठती थीं और इधरउधर चहलकदमी करने लगती थीं.’’

‘‘अच्छा, दूसरा भूत कौन सा था?’’

‘‘दूसरा भूत था हरदम बीमार रहने का. उन के दिमाग में घुस गया था कि हर समय उन को कुछ न कुछ हुआ रहता है और कोई उन की परवा नहीं करता. डाक्टर भी जाने कैसे लापरवाह हो गए हैं. न जाने कैसी दवाइयां देते हैं, फायदा ही नहीं करतीं.’’

‘‘भई, इस उम्र में कुछ न कुछ तो लगा ही रहता है. अम्माजी दुबली भी तो हो गई हैं,’’ मैं कुछ शिकायती लहजे में बोली.

‘‘मैं इस से कब इनकार करती हूं, पर यह तो प्रकृति का नियम है. उम्र के साथसाथ शक्ति भी कम होती जाती है. मुझे ही देख, कालेज के दिनों में जितनी भागदौड़ कर लेती थी उतनी अब नहीं कर सकती, और जितनी अब कर लेती हूं उतनी कुछ समय बाद न कर सकूंगी. पर इस का यह अर्थ तो नहीं कि हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाऊं,’’ उर्मिल ने मुझे समझाते हुए कहा.

‘‘अम्माजी की सब से बड़ी बीमारी है निष्क्रियता. उन के मस्तिष्क में बैठ गया था कि वे हर समय बीमार रहती हैं, कुछ नहीं कर सकतीं. अगर मैं अम्माजी की इस भावना को बना रहने देती तो मैं उन की सब से बड़ी दुश्मन होती. आदमी कामकाज में लगा रहे तो अपने दुखदर्द भूल जाता है और शरीर में रक्त का संचार बढ़ता है, जिस से वह स्वस्थ अनुभव करता है, और फिर व्यस्त रहने से चिड़चिड़ाता भी नहीं रहता.’’

मुझे अचानक हंसी आ गई. ‘‘ले भई, तू ने तो डाक्टरी, फिलौसफी सब झाड़ डाली.’’

‘‘तू चाहे जो कह ले, असली बात तो यही है. अम्माजी को अपने दो भूतों के दायरे से निकालने का एक ही उपाय था कि…’’

‘‘तू उन की अवहेलना करे, उन्हें गुस्सा दिलाए जिस से चिढ़ कर वे काम करें और अपनी शक्ति को पहचानें. यही न?’’  मैं ने वाक्य पूरा कर दिया.

‘‘हां, तू ने ठीक समझा. यद्यपि गुस्सा और उत्तेजना शरीर और हृदय के लिए हानिकारक समझे जाते हैं पर कभीकभी इन का होना भी मनुष्य के रक्तसंचार को गति देने के लिए आवश्यक है. एकदम ठंडे मनुष्य का तो रक्त भी ठंडा हो जाता है. बस, यही सोच कर मैं अम्माजी को जानबूझ कर उत्तेजित करती थी.’’

‘‘कहती तो तू ठीक है.’’

‘‘तू मेरे नानाजी से तो मिली है न?’’

‘‘हां, शादी से पहले मिली थी एक बार.’’

‘‘जानती है, कुछ दिनों में वे 95 वर्ष के हो जाएंगे. आज भी वे कचहरी जाते हैं. जितना कर पाते हैं, काम करते हैं. कई बार रातरातभर अध्ययन भी करते हैं. अब भी दोनों समय घूमने जाते हैं.’’

‘‘इस उम्र में भी?’’  मुझे आश्चर्य हो रहा था.

‘‘हां, उन की व्यस्तता ही आज भी उन्हें चुस्त रखे हुए है. भले ही वे बीमार से रहते हैं, फिर भी उन्होंने उम्र से हार नहीं मानी है.’’

मैं ने आंख भर कर अपनी इस सहेली को देखा जिस की हर टेढ़ी बात में भी कोई न कोई अच्छी बात छिपी रहती है. ‘‘अच्छा एक बात तो बता, क्या जीजाजी को पता था? उन्हें अपनी मां के प्रति तेरा यह रूखा व्यवहार चुभा नहीं?’’

‘‘उन्होंने एकदो बार कहा, पर मैं ने उन्हें यह कह कर चुप करा दिया कि यह सासबहू का मामला है, आप बीच में न ही बोलें तो अच्छा है.’’

मैं चाय पीते समय कभी हर्ष और आत्मसंतोष से दमकते अम्माजी के चेहरे को देख रही थी, कभी उर्मिल को. आज फिर एक बार उस का बदला रूप देख कर पिछले माह की उर्मिल से तालमेल बैठाने का प्रयत्न कर रही थी.

अपने हिस्से की धूप: भाग 1- क्या था उस ब्रीफकेस

कुहरे में लिपटी एक नई सुबह नए जीवन में नूपुर का स्वागत कर रही थी. खेतों की तरफ किसान राग मल्हार गाते चले जा रहे थे. गेहूं और सरसों की फसलें फरवरी की इस गुलाबी ठंड में हलकीहलकी बहती शीतल, सुगंधित बयार के स्पर्श को पा कर खिलखिलाने लगी थीं. नूपुर की आंखें नींद से मुंदी जा रही थीं. इन सब के बीच 2 मन आपस में चुपकेचुपके कार की पहली सीट पर लगे बैक मिरर में एकदूसरे को देख आंखों ही आंखों में बतियाने  का प्रयास कर रहे थे. शरीर थकान से टूट रहा था, विदाई का मुहूर्त सुबह का ही था. ससुराल में पहला दिन था उस का. टिटपुट रीतिरिवाजों के बाद उसे कमरे में बैठा दिया गया था. उस की आंखें उनींदी हो रही थीं. कितने दिन हो गए थे उसे मन भर सोए हुए. सोती भी कैसे घर रिश्तेदारों से जो भरा हुआ था.

‘‘नूपुर. सो जा वरना चेहरा सोयासोया लगेगा. फोटो अच्छे नहीं आएंगे,’’ कहते सब जरूर थे पर कैसे? इस बात का किसी के पास कोई जवाब नहीं था. जिसे देखो वही हाथ में ढोलक ले कर उस के सिर पर आ कर बैठ जाता.

‘‘इन्हें देखो महारानी की खुद की शादी है और यह फुर्रा मार कर सो रही हैं. अरे भाई शादीब्याह रोजरोज थोड़े होता है. अभी मजे ले लो फिर तो बस यादें ही रह जाती हैं.’’

मन मार कर उसे भी शामिल होना ही पड़ता. अभी तो ससुराल के रीतिरिवाज बाकी थे.

उस ने खिड़की के बाहर झंक कर देखा, सड़कें सो रही थीं और वह जाग रही थी. दबेदबे पांवों से वह हौलेहौले एक नई जिंदगी में प्रवेश कर रही थी. एक ही मासमज्जा से बने हर इंसान की देह में एक अलग खुशबू होती है जो उसे दूसरों से अलग करती है. शायद घरों की भी अपनी एक देह और एक अलग खुशबू होती है जो उन्हें दूसरों से अलग करती है. नूपुर इस खुशबू से बिलकुल अपरिचित और अनजान थी. उस के घर खुशबू उस के पीहर से बिलकुल अलग थी जिसे उसे अपनाना और अपना बनाना था.

‘‘अरे भई कोई अपनी भाभी का सामान कमरे में पहुंचा दो,’’ सासूमां ने आवाज लगाई.

नूपुर की आंखें तेजी से अपने सामान को ढूंढ़ रही थीं. कल रात से 15 किलोग्राम का लहंगा पहनेपहने अब तो उस का शरीर भी जवाब देने लगा था. कितने शौक से लिया था उस ने.

‘‘जितना तेरा खुद का वजन नहीं है जितना लहंगे का है. कैसे संभालेगी?’’ पापा ने चिंतित स्वर में कहा था.

‘‘अरे पापा लेटैस्ट फैशन है.’’

‘‘लेटैस्ट… यह भी कोई रंग है. मरामरा सा रंग लाई हो. अरे लेना ही था तो लालमैरून लेती, दुलहन का रंग. तुम्हारी मां ने भी अपनी शादी में लाल रंग की साड़ी पहनी थी,’’ पापा ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘अब ये सब रंग कौन पहनता है… यह एकदम लेटैस्ट और ट्रैडी कलर है. आलिया भट्ट ने भी यही रंग अपनी शादी में पहना था.’’

‘‘वे सब हीरोइनें हैं, कुछ भी पहनें सब अच्छा लगता है पर अपने समाज में तो दुलहन का रंग वही सब माना जाता है.’’

‘‘पापा शादी कोई रोजरोज थोड़ी होती है.’’

‘‘मैं भी तो नहीं कह रहा हूं कि शादी रोजरोज होती है. कम से कम शादी के दिन सुहाग का रंग तो पहनना चाहिए.’’

‘‘इतना महंगा लहंगा सिर्फ एक दिन के लिए तो नहीं खरीद सकती थी. ऐसा रंग लिया है कि आगे भी यूज में आ जाए,’’ नूपुर ने दलील दी.

‘‘सुन रही हो नूपुर की मां तुम्हारी बिटिया की पंचवर्षीय योजना है. यहां जिंदगी का भरोसा नहीं और यह आगे तक की योजना बना कर चल रही है.’’

मम्मी चुपचाप बापबेटी की चिकचिक सुनती रही. जानती थी कुछ भी बोलने का कोई फायदा नहीं है. अभी आपस में लड़ेंगे, बहस करेंगे और फिर खुद ही एक हो जाएंगे और वह विलेन बन कर रह जाएगी.

तभी किसी के कदमों की आहट से नूपुर का ध्यान टूटा. उस के दोनों देवर हाथ में ब्रीफकेस ले कर कमरे में घुसे.

‘‘कितना भारी है भाभी, पत्थर भर कर लाई है क्या?’’

नूपुर मुसकरा दी. क्या कहती महीनों से खरीदारी की थी. कहांकहां से ढूंढ़ढूंढ़ कर सामान इकट्ठा किया था. उस ने तेजी से सामान को

गिनना शुरू किया. 3 ब्रीफकेस, 1 एअर बैग और 1 वैनिटी बैग और वह गुलाबी वाला ब्रीफकेस. वह नदारद था. पापा से कहा तो था कि उसे भी अपने साथ ले कर जाएगी. जीवन की नई शुरुआत हुई थी, हर तरह के रंग और स्वाद से भर गई थी उस की जिंदगी. सबकुछ तो ले कर आई थी वह पर क्या सबकुछ पीछे बहुत कुछ छूट गया था.

‘‘भैया एक पिंक कलर का ब्रीफकेस भी होगा.’’

‘‘पिंक?’’

छोटे देवरों के चेहरे पर शरारत उभर आई,

‘‘आप को भी पिंक कलर पसंद है? वह तो पापा की परियों को पसंद होता है?’’

‘‘तुम लोग फिर से शुरू हो गए,’’ मम्मीजी ने दोनों की मीठी ?िड़की देते हुए कहा.

‘‘भाभी. उस पर बार्बी डौल बनी हुई थी क्या?’’

‘‘हांहां वही. देखा क्या आप ने?’’ उस की आंखों में जुगनू चमक उठे.

‘‘कब से पूरे घर में टहल रहा था समझ ही नहीं आ रहा था कि पता नहीं किस का सामान भाभी के सामान के साथ चला आया है.’’

‘‘जी, वह मेरा ही है,’’ नूपुर ने संकुचाते हुए कहा.

वे दोनों उस भीड़ में कहीं खो गए और थोड़ी देर में अलादीन के चिराग की तरह उस का वह पिंक ब्रीफकेस ले कर हाजिर हो गए.

‘‘यह लीजिए आप की अमानत और कोई आदेश?’’ दोनों ने सीने पर हाथ रख बांएं पैर को पीछे मोड़ सिर को हलका सा झुका कर बड़ी अदा से कहा.

‘‘भाभी को बड़ा मक्खन लगाया जा रहा है. इन की सेवा करोगे तभी तुम्हारा कल्याण होगा,’’ सिद्धार्थ ने कमरे में घुसते हुए कहा.

वैसे तो सिद्धार्थ से शादी से पहले नूपुर की 2-4 बार ही मुलाकात और टेलीफोन पर बातें हुई थीं पर उन अनजान चेहरों के बीच नूपुर को वह चेहरा बहुत अपना सा लगा.

‘‘अपनी भाभी को कुछ खाने को पूछा या बस बातें ही बना रहे हो,’’ सिद्धार्थ ने शेरवानी उतारते हुए कहा, ‘‘इन से बातें बनवा लो, काम धेले भर का नहीं करते.’’

मम्मीजी ने कहा, ‘‘नूपुर तुम जल्दी से नहा लो. मेहमानों का आना शुरू हो जाएगा, कुछ रीतिरिवाज भी करने हैं और यह मायके से जो तुम्हारे लिए सामान आया है उसे भी दो.’’

‘‘क्या मां आप से कहा था न मुझे यह सब पसंद नहीं. उस का सामना है, किसी से क्या मतलब है. नूपुर के घर वालों ने दिया उस ने लिया, उस से हमें क्या?’’ सिद्धार्थ के चेहरे पर नाराजगी साफ झलक रही थी.

अनोखा रिश्ता- भाग 3: कौन थी मिसेज दास

वह मुझे ले कर एक कैफे में गए जहां हम ने समोसे के साथ कौफी पी.  वहीं उन्होंने मुझे बताया कि जिस दक्षिण भारतीय के घर वह ठहरे हैं वह लखपति आदमी है. मैं घर से बाहर निकला नहीं कि जेब में 200 रुपए जबरन ठूंस देता है.

‘तुम अपने दोस्त से मिलने आए हो?’ उन्होंने पूछा तो मैं ने हां में अपनी गरदन हिला दी.

‘क्या करता है तुम्हारा दोस्त?’

‘बी.एससी. कर रहा है, सर.’

‘उस के मांबाप मालदार हैं?’

‘नहीं, वह विधवा मां का इकलौता बेटा है. मां एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती हैं. फिर मैं ने उन्हें मिसेज दास के बारे में थोड़ाबहुत संक्षेप में बताया. कैफे के बाहर अचानक शर्माजी ने मुझ से पूछा, ‘आज शाम को तुम क्या कर रहे हो?’

‘कुछ खास नहीं.’

‘तुम 9 बजे के आसपास मुझ से शहर में कहीं मिल सकते हो?’

‘पर कहां? यहां तो मैं पहली बार आया हूं.’

वह कुछ सोचते हुए बोले, ‘ऐसा करो, तुम आज मेरा इंतजार रात के 9 बजे गुवाहाटी स्टेशन के पुल पर करना जो सारे प्लेटफार्मों को जोड़ता है. तुम समय से वहां पहुंच जाना क्योंकि मेरे पास शायद तब उतना समय न होगा कि तुम्हारे  किसी सवाल का जवाब दे सकूं.’

आशंकाओं की धुंध लिए मैं घर वापस आया. मिसेज दास खाना बना रही थीं. जयशंकर उन की मदद कर रहा था. मुझे देखते ही जयशंकर कहने लगा, ‘अगर तुम आने में थोड़ा और देर करते तो मां मुझे तुम्हारी खोज में भेजने वाली थीं. दोपहर का खाना भी तुम ने नहीं खाया.’

मैं माफी मांग कर हाथमुंह धोने चला गया. मेरे दिमाग में बस, एक ही सवाल कुंडली मारे बैठा था कि मिसेज दास को कौन सी कहानी गढ़ के सुनाऊं ताकि वह निश्ंिचत हो कर मुझे शर्माजी से मिलने की अनुमति दे दें.

हाथमुंह धो कर मैं बरामदे में आ गया और आ कर चौकी पर चुपचाप बैठ गया. इस शर्मा से मेरा कोई कल्याण होने वाला है, यह भनक तो मुझे थी पर मैं मिसेज दास को कौन सा बहाना गढ़ कर सुनाऊं, यह मेरे दिमाग में उमड़घुमड़ रहा था.

खाने के बाद मैं ने मिसेज दास को अपनी गढ़ी कहानी सुना दी कि आज अचानक शहर में मुझे मेरे ननिहाल का एक आदमी मिला. स्टेशन के पास ही उस का अपना एक निजी होटल है. मुझे उस से मिलने 9 बजे जाना है.

मिसेज दास चौंकीं, ‘इतनी रात में क्यों?’

इस सवाल का जवाब मेरे पास था…‘होटल के कामों में वह दिन भर व्यस्त रहते हैं. उन के पास समय नहीं होता.’

‘ठीक है, तुम जयशंकर को साथ ले कर जाना. वह यहां के बारे में ठीक से जानता है. गुवाहाटी इतना सुरक्षित नहीं है. मैं इतनी रात में तुम्हें अकेले कहीं भी जाने की अनुमति नहीं दे सकती.’

मैं ने इस बारे में पहले सोच लिया था अत: बोला, ‘मिसेज दास, मैं बच्चा थोड़े ही हूं जो आप इतना घबरा रही हैं. हो सकता है कि अगला कुछ खानेपीने को कहे, ऐसे में अच्छा नहीं लगता किसी को बिना आमंत्रण के साथ ले जाना.’

मेरी बात सुन कर मिसेज दास की पेशानी पर बल पड़े पर उन्हें सबकुछ युक्तिसंगत लगा.

‘ठीक है, समय से तैयार हो जाना. मैं एक रिकशा तुम्हारे लिए तय कर दूंगी. वह तुम्हें वापस भी ले आएगा.’

ठीक साढ़े 8 बजे मिसेज दास एक रिकशे वाले को बुला कर लाईं. मैं उस पर बैठ कर स्टेशन की ओर चल पड़ा. स्टेशन के सामने वह मुझे उतार कर बोला, ‘मैं अपना रिकशा स्टैंड पर लगा कर स्टेशन

के सामने आप का इंतजार करूंगा.’

9 बजने में अभी 5 मिनट बाकी थे. अंदर से मैं थोड़ा घबरा रहा था. प्लेटफार्मों को जोड़ने वाले पुल पर आधी गुवाहाटी अपने चिथड़ों में लिपटी सो रही थी. घुप अंधेरा था. यह शर्मा कहीं किसी षड्यंत्र में मुझे फंसाने तो नहीं जा रहा, सोचते ही मेरी रीढ़ की हड्डी तक सिहर गई थी. अचानक मुझे पुल पर एक आदमी लगभग भागता हुआ आता दिखा. इस घुप अंधेरे में भी शर्माजी की आंखें मुझे पहचानने में धोखा न खाईं… ‘ये हैं 600 रुपए. इन्हें संभालो और फटाफट अपना रास्ता नाप लो.’

मैं आननफानन में सारे रुपए अपनी जेब में ठूंस कर वहां से चल दिया. बाहर आते ही मेरा रिकशा वाला मुझे मिल गया. मैं ने एक घंटे का समय ले रखा था. हम घर की तरफ वापस लौट पड़े. रास्ते भर पुलिस की सीटियों और चोरचोर पकड़ो का स्वर मेरे कानों में गूंजता रहा.

घर पर मेरी असहजता कोई भी भांप न पाया. मिसेज दास और जयशंकर दोनों जागे हुए थे. बरामदे के सामने रिकशे के रुकते ही दोनों बरामदे में आ गए, ‘क्या हुआ, इतनी जल्दी वापस क्यों आ गए?’

वह बिहारी होटल में था ही नहीं तो मैं उस के नाम एक परची पर यहां का पता लिख कर वापस आ गया. कब तक मैं उस का इंतजार करता. आप भी देर होने पर घबरातीं.

‘चाय पीओगे,’ बड़ी आत्मीयता से मिसेज दास बोलीं.

मैं यह भी नहीं चाहता था कि मिसेज दास मेरी असहजता भांप लें. थकावट का बहाना बना कर बरामदे में आ गया और अपनी चौैकी पर लेट कर एक पतली सी चादर अपने चेहरे तक तान ली. नींद तो मुझे आने से रही.

रात भर बुरेबुरे खयाल तसवीर बन कर मेरी आंखों के सामने आते रहे और एक अनजाने भय से मैं रात भर बस, करवटें ही बदलता रहा. रात में 2-3 बार मिसेज दास मेरी मच्छरदानी ठीक करने आईं. मैं झट अपनी आंखें मूंद लेता था. ये शर्माजी के 600 रुपए अभी तक मेरी दाईं जेब में ठुंसे पड़े थे जिन्हें सहेजने की मेरे पास हिम्मत न थी.

सुबह होते ही रात का भय जाता रहा. रोज की तरह अपनी दिनचर्या शुरू हुई. 10 बजे के बाद मैं अकेला था.

मैं बाहर निकला तो नुक्कड़ पर मुझे वही रिकशे वाला टकरा गया जो स्टेशन ले गया था. उस के रिकशे पर बैठ कर मैं पास के एक बाजार में गया. 2 घंटे की खरीदारी में मिसेज दास के लिए मैं ने एक ऊनी शाल खरीदी और एक जोड़ी ढंग की चप्पल भी.

जयशंकर के लिए एक रेडीमेड पैंट और कमीज खरीदी. इस के अलावा मैं ने तरहतरह की मौसमी सब्जियां, सेब, नारंगी, मिठाइयां और एक किलो रोहू मछली भी खरीदी. इस खरीदारी में 300 रुपए खर्च हो गए पर रास्ते भर मैं बस, यही सोच कर खुश होता रहा कि इतने सारे सामानों को देख कर मिसेज दास और जयशंकर कितने खुश होंगे.

जयशंकर कालिज से वापस घर आया तो सामान का ढेर देखते ही पूछा, ‘बाबा, का पैसा आ गया क्या?’

मैं ने उसे बताया कि मेरे ननिहाल वाला आदमी आया था. जबरदस्ती मेरे हाथ पर 600 रुपए रख गया. मेरे नाना से वापस ले लेगा. तुम मिठाई खाओ न.

जयशंकर बिना कोई प्रतिक्रिया दिखाए अपने कपड़े बदल कर दोपहर का खाना लगाने लगा. मैं उसे कुरेदता रहा पर वह बिना एक शब्द बोले सिर झुकाए खाना खाता रहा.

जब मैं थोड़ा सख्त हुआ तो वह कहने लगा. बस, तुम ने हमारा स्वाभिमान आहत किया है. इतने पैसे खर्च करने से पहले तुम्हें मां से बात कर लेनी चाहिए थी. मां को उपहारों से बड़ी घबराहट होती है.’

हाय हाय बिदाई कैसे आए रुलाई

आज बन कर आ ही गया मेरी शादी का वीडियो. सारे फंक्शन, 1-1 रीतिरिवाज सच कितना मजा आ रहा है देखने में… सब से आखिर में बिदाई की रस्म. ‘उफ, कितनी रोई हूं मैं…’ सोचतेसोचते मेरा बावला मन शादी के मंडप के नीचे जा खड़ा हुआ…

‘‘देख, अभी से समझा देती हूं कि बिदाई के वक्त तेरा रोना बहुत जरूरी है वरना हमारी बड़ी बदनामी होगी. लोग कहेंगे कि बेटी को कभी प्यार न दिया होगा तभी तो जाते वक्त बिलकुल न रोई. अच्छी तरह समझ ले वरना पता चला उस वक्त भी खीखी कर के हंस रही है,’’ मंडप के नीचे किसी बात पर मेरे जोर से हंसने पर मां का प्रवचन शुरू  था.

‘‘पर क्यों मां, अकेला लड़का वह भी मेरी पसंद का… अच्छी जौब और पैसे वाला. सासससुर इतने सीधे कि अगर मैं रोई तो वे भी मेरे साथ रोने लगेंगे. फिर क्यों न हंसतेहंसते बिदा हो जाऊं.’’

‘‘अरी नाक कटवाएगी क्या? शुक्ला खानदान की लड़कियां बिदाई के समय पूरा महल्ला सिर पर उठा लेती हैं. देखा नहीं था कुछ साल पहले अपनी शादी में तेरी बूआ कितनी रोई थीं?’’

‘‘मां, बूआ तो इसलिए रोई थीं कि तुम लोगों ने उन की शादी उन की पसंद से न करा कर दुहाजू बूढ़े खड़ूस से करवा दी थी… बेचारी बुक्का फाड़ कर न रोतीं तो क्या करतीं?’’

‘‘अपनी मां की सीख गांठ बांध ले लड़की… हमारे खानदान में बिदाई में न रोने को अपशकुन मानते हैं,’’ दादी ने भी मां की बात का समर्थन करते हुए आंखें तरेरीं.

मरती क्या न करती. बिदाई का तो मालूम नहीं पर फिलहाल मुझे यह सोच कर ही रोना आ रहा था कि बिदाई पर कैसे रोऊंगी.

‘‘बता न रिंकू, क्या करूं जिस से मुझे रोना आ जाए?’’ मैं ने अपनी सहेली को झंझोड़ा.

‘‘अरे यह भला मैं कैसे बता सकती हूं… थोड़ी सी प्रैक्टिस कर शायद काम बन जाए.’’

‘‘क्या बताऊं, कई बार आईने में देख कर रोने की प्रैक्टिस कर चुकी हूं, मगर हर बार नाकाम रही. क्या करूं यार, नहीं रोई तो बड़ा बवाल मच जाएगा. दादी, बूआ, चाची यहां तक कि मम्मी ने भी खास हिदायतें दी हैं कि स्टेज पर बैठी खाली खीसें न निपोरती रहूं, बल्कि बिदाई पर कायदे से रोऊं भी.’’

‘‘यह कायदे से रोना क्या होता है? रोना तो रोना होता है और फिर मैं ने रोने के विषय पर कोई पीएचडी थोड़े ही कर रखी है, जो तुझे टिप्स दूं,’’ रिंकू चिढ़ गई.

‘‘कुछ तो कर यार, अगर बिदाई में न रोई तो बड़ी जगहंसाई होगी. मेरे यहां जब तक महल्ले के आखिरी घर तक रोने की चीखें न पहुंच जाएं तब तक बिदाई की रस्म पूरी नहीं मानी जाती. मेरी मामी की लड़की तो गए साल इतना रोई

ी कि सुबह की बरात दोपहर तक बिदा हो पाई थी. हां, यह बात अलग है कि उस का लफड़ा कहीं और चल रहा था और शादी कहीं और हो रही थी. पर मैं क्या करूं, मेरी तो शादी भी मेरी पसंद से हो रही है. कहीं कोईर् रुकावट नहीं, कोई जबरदस्ती नहीं. तो आखिर रोऊं कैसे मैं?’’ मैं ने अपना दुखड़ा सुनाते हुए उस से विनती की. ‘‘ठीक है देखती हूं कि क्या किया जा सकता है,’’ रिंकू ने सीरियस होते हुए कहा.

2 दिन बाद ही रिंकू ने चहकते हुए घर में प्रवेश किया, ‘‘खुशखबरी है तेरे लिए. मिल गई रोने की जादुई चाबी. चल मेरे साथ. वैसे तो 7 दिन की ट्रेनिंग है, पर मैं ने बात की है कि हमें थोड़ी जल्दी है. लिहाजा, डबल चार्ज पर वे हमारा रजिस्ट्रेशन कर लेंगी.’’ ‘‘क्या बात कर रही है ट्रेनिंग और वह भी रोने की?’’ मेरा मुंह हैरानी से खुला का खुला रह गया.

‘‘हां मेरी जान,’’ हंसी से रिंकू दोहरी हुई जा रही थी, ‘‘बिदाई में सही से रोने की यह समस्या अब सिर्फ तुम्हारी नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय समस्या बन गई है… आजकल दुलहनों को अपनी पसंद के दूल्हे जो मिलने लगे हैं. अब उन्हें रुलाई आए भी तो कैसे? इसी समस्या से छुटकारा दिलाता यह ट्रेनिंग सैंटर. यह दुलहन के साथसाथ उस की सखियों को भी सिखाता है कि बिदाई पर कैसे रोना है.’’

‘‘इस का मतलब अब मैं सही से रो सकूंगी,’’ मेरी खुशी का कोई ठिकाना न था. कुछ ही देर में हम शहर के मशहूर मौल के अंदर खुले उस ट्रेनिंग सैंटर में थे.

‘‘देखिए, सब से पहले इस चार्ट को अच्छी तरह स्टडी कीजिए. इस में रोने के कई तरीकों का उल्लेख है. हर रुलाई का अलगअलग चार्ज है,’’ रिसैप्शन पर बैठी मैडम ने मुसकराते हुए हमें एक चार्ट पकड़ाया.

रोने के तरीकों को देख कर हमारी आंखें चौड़ी होती चली गईं: सिंपल रुलाई यानी शालीनता से धीरेधीरे रोना. चार्ज 5000. मगरमच्छी रुलाई यानी बिना एक भी आंसू टपकाए सिर्फ रोने की आवाज निकालना. चार्ज 4000. सैलाबी रुलाई यानी इतने जोर से रोना मानो सैलाब आ गया हो. चार्ज 3500. दहाड़ेंमार रुलाई यानी रुकरुक कर दहाड़ें मारना जैसे कहीं बम के धमाके हो रहे हों. चार्ज क्व3000.

सिसकी रुलाई यानी सिसकते हुए रोना. चार्र्ज 2500. मिलीजुली रुलाई यानी सभी सखियों सहित एकसाथ रोना. चार्ज 2000. बहुत देर विमर्श करने के बाद मैं ने मगरमच्छी रुलाई का चुनाव किया, क्योंकि मेरा तो लक्ष्य ही आवाज कर के रोने

का था. अपने कीमती आंसू तो मैं एक भी नष्ट नहीं करना चाहती थी. अत: डबल चार्ज यानी क्व8000 जमा कर मैं ने रोने का अभ्यास शुरू कर दिया.

एक बड़े हौल में शीशे के पार्टीशन थे. बनने वाली दुलहनें उन में अपनेअपने तरीके से रोने में लगी थीं. एक बात तो पक्की थी कि बहुतों की फूहड़ रुलाई देख सामने वाली की हंसी छूटना तय था. खैर, मुझे इस से क्या…

आखिर बिदाई का वह शुभ दिन आ गया. लेकिन शादी की सभी रस्में निभाने और रातभर जागते रहने के कारण मेरी हालत पहले ही इतनी खराब हो गई थी कि रोना आने लगा. अगर उसी वक्त बिदाई का समय तय होता तो कसम से मैं बेपनाह रोती, लेकिन बिदाई के मुहूर्त में अभी कुछ समय शेष था.

एहतियातन मैं ने तय कर रखा था कि बिदाई के वक्त मेरा घूंघट खूब लंबा रहेगा ताकि मैं आराम से रोने की आवाजें निकाल सकूं.

ऐन बिदाई के वक्त मां रोती हुईं मुझ से लिपट कर मुझे भी रोने के लिए उकसाने लगीं. मैं ने भी अचानक भरपूर आवाज में रोना शुरू कर दिया पर वौल्यूम कुछ अधिक होने से लोगों के साथसाथ मुझे भी अपनी आवाज थोड़ी अजीब लगी. अत: 1-2 लोगों से मिल कर थोड़ी देर बाद मैं चुप हो गई.

तभी 8-10 साल के एक शैतान बच्चे ने कमैंट किया, ‘‘अभी तो आप इतनी जोर से रो रही थीं… अब क्यों नहीं रो रहीं?’’

शायद मेरे रोने पर उसे मजा आ रहा था. गुस्सा तो उस के ऊपर इतना आया कि एक तो इतनी मुश्किल से रो रही और उस का भी यह मजाक उड़ा रहा सब के सामने. पर वक्त की नजाकत देख मैं ने कोई प्रतिक्रिया न दी.

तभी अचानक चाची ने खींच कर मुझे अपने सीने से चिपटा लिया और आ… आ… आ… की आवाजों के साथ मैं चीख पड़ी.

‘‘इतना न रो मेरी लाडो, हम तुझे जल्द ही बुलवा लेंगे,’’ कहते हुए चाची ने देर तक मुझे अपने से लिपटाए रखा बिना यह जाने कि उन की साड़ी में लगी सेफ्टीपिन इतनी तेजी से मुझे चुभे जा रही है… जैसेतैसे उन से जान छूटी और मैं पलटी तो देखा वही शैतान बच्चा मेरे घूंघट के अंदर झांक रहा है. मैं ने उसे घूर कर भगाने की कोशिश की कि कहीं फिर से कुछ उलटासीधा न बक दे, पर वह मुझ से डरने के बजाय उलटा मुझे घूर कर देखता रहा.

आखिरकार मैं वहां से चल दी. तभी उस ने टंगड़ी फंसा कर मुझे मुंह के बल गिरा दिया. अब मेरी बहुत भद्द उड़ चुकी थी. मुझे गिराने के बाद वह जोरजोर से हंस रहा था.

उसे हंसता देख मुझे अपनी हार का दर्दनाक एहसास हुआ और चोट भी काफी लग चुकी थी. अत: अब मुझे असली रोना आने लगा और मैं बुक्का फाड़ कर रोने लगी. लोग आते गए और गले लगा कर मुझे चुप कराते गए, पर मुझे न चुप होना था और न हुई.

सब से ज्यादा आश्चर्य मेरी सखी रिंकू को हो रहा था कि सब के रोने पर ठहाका लगा कर हंसने वाली मैं आखिर अपनी बिदाई पर इतना रियल कैसे रो पाई. लेकिन उस वक्त जो भी हुआ भला हो उस बच्चे का कि मेरी बिदाई को उस ने यादगार बना दिया और फिर हमारा वीडियो भी क्या खूब बना.

अनोखा रिश्ता- भाग 2: कौन थी मिसेज दास

जयशंकर के बुलाने पर मैं बरामदे से कमरे में पहुंचा और दरी पर पालथी मार कर बैठ गया. मिसेज दास सारा खाना कमरे में ही ले आईं और मेरे सामने अपने पैर पीछे की तरफ मोड़ कर बैठ गईं. जहां हम बैठे थे उस के ऊपर बहुत पुराना एक पंखा घरघरा रहा था. खाने के दौरान ही मिसेज दास ने कहना शुरू किया, ‘बेटा, हम तो गुवाहाटी में बस, अपनी इज्जत ढके बैठे हैं. 100-200 रुपए की सामर्थ्य भी हमारे पास नहीं है. मुझे दीदी को लिखना होगा. पैसे आने में शायद 8-10 दिन लग जाएं. तुम कल सुबह जयशंकर के साथ जा कर अपने घर पर एक टेलीग्राम डाल दो वरना तुम्हारे मातापिता चिंतित होंगे.’

मेरा मन भर आया. सहज होते ही मैं ने उन से कहा, ‘इतने दिनों में तो मेरे घर से भी पैसे आ जाएंगे. आप अपनी दीदी को कुछ न लिखें. मैं तो यह सोच कर परेशान हूं कि 8-10 दिन तक आप पर बोझ बना रहूंगा…’

‘तुम ऐसा क्यों सोचते हो,’ मिसेज दास ने बीच में ही मुझे टोकते हुए कहा, ‘जो रूखासूखा हम खाते हैं तुम्हारे साथ खा लेंगे.’

दूसरे दिन सुबह मैं जयशंकर के साथ पोस्टआफिस गया. मैं ने घर पर एक टेलीग्राम डाल दिया. जब हम वापस आए, मिसेज दास बरामदे में खाना बना रही थीं. मैं ने उन के हाथ पर टेलीग्राम की रसीद और शेष पैसे रख दिए. मैं इस परिवार में कुल 6 दिन रहा था. इन 6 दिन में एक बार मिसेज दास ने मीट बनाया था और एक बार मछली.

एक दिन शाम को जयशंकर ने ही मुझे बताया कि बाबा के गुजरने के बाद मेरे चाचा एक बार मां के पास शादी का प्रस्ताव ले कर आए थे पर मां ने उसे यह कह कर ठुकरा दिया कि मेरे पास जयशंकर है जिसे मैं बस, उस के बाबा के साथ ही बांट सकती हूं और किसी के साथ नहीं. जयशंकर को अगर आप मार्गदर्शन दे सकते हैं तो दें वरना मुझे ही सबकुछ देखना होगा. मैं अपने पति की आड़ में उसे एक ऐसा मनुष्य बनाऊंगी कि उसे दुनिया याद करेगी.

मिसेज दास का असली नाम मनीषा मुखर्जी था और उन के पति का नाम प्रणव दास. जब मैं उन से मिला था तब मेरी उम्र 21 साल की थी और वह 42 वर्ष की थीं. उन के कमरे की मेज पर पति की एक मढ़ी तसवीर थी. मैं अकसर देखता था कि बातचीत के दौरान जबतब उन की नजर अपने पति की तसवीर पर टिक जाती थी, जैसे उन्हें हर बात की सहमति अपने पति से लेनी हो.

यह गुवाहाटी में मेरा तीसरा दिन था. मिसेज दास स्कूल जा चुकी थीं. जयशंकर भी कालिज जा चुका था. मैं घर पर अकेला था सो शहर घूमने निकल पड़ा. घूमतेघूमते स्टेशन तक पहुंच गया. अचानक मेरी नजर एक होटल पर पड़ी, जिस का नाम रायल होटल था. कभी  बचपन में अपने ममेरे भाइयों से सुन रखा था कि बगल वाले गांव के एक बाबू साहब का गुवाहाटी रेलवे स्टेशन के समीप एक होटल है. मैं बाबू साहब से न कभी मिला था और न उन्हें देखा था. मैं तो उन का नाम तक नहीं जानता था. पर मुझे यह पता था कि शाहाबाद जिले के बाबू साहब अपने नाम के पीछे राय लिखते हैं.

होटल वाकई बड़ा शानदार था. मैं ने एक बैरे को रोक कर पूछा, ‘इस होटल के मालिक राय साहब हैं क्या?’

‘हां, हैं तो पर भैया, यहां कोई जगह खाली नहीं है.’

‘मैं यहां कोई काम ढूंढ़ने नहीं आया हूं. तुम उन से जा कर इतना कह दो कि मैं चिलहरी के कौशल किशोर राय का नाती हूं और उन से मिलना चाहता हूं.’

थोड़ी देर बाद वह बैरा मुझे होटल के एक कमरे तक पहुंचा आया, जहां बाबू साहब अपने बेड पर एक सैंडो बनियान और हाफ पैंट पहने नाश्ता कर रहे थे. गले में सोने की एक मोटी चेन पड़ी थी. बड़े अनमने ढंग से उन्होंने मुझ से कुछ पीने को पूछा और उतने ही अनमने ढंग से मेरे नाना का हालचाल पूछा.

मुझे ऐसा लग रहा था कि जग बिहारी राय को बस, एक डर खाए जा रहा था कि कहीं मैं उन से कोई मदद न मांग लूं. अब उस कमरे में 2 मिनट भी बैठना मुझे पहाड़ सा लग रहा था. संक्षेप में मैं अपने ननिहाल का हालचाल बता कर उन्हें कोसता कमरे से बाहर निकल आया.

जयशंकर के पास बस, 2 जोड़ी कपड़े थे. बरामदे के सामने वाले कमरे की मेज उस के पढ़नेलिखने की थी पर उस की साफसफाई मिसेज दास खुद ही करती थीं. मैं उन्हें मां कह कर भी बुला सकता था पर मैं उन की ममता का एक अल्पांश तक न चुराना चाहता था. वैसे तो जयशंकर थोड़े लापरवाह तबीयत का लड़का था पर उसे यह पता था कि उस की मां के सारे सपने उसी से शुरू और उसी पर खत्म होते हैं. मिसेज दास हमारी मसहरी ठीक करने आईं. मैं अभी भी जाग रहा था तो कहने लगीं. ‘नींद नहीं आ रही है?’

‘नहीं, मां के बारे में सोच रहा था.’

‘भूख तो नहीं लगी है, तुम खाना बहुत कम खाते हो.’

मैं उठ कर बैठ गया और बोला, ‘मिसेज दास, मेरा मन घबरा रहा है. मैं आप के कमरे में आऊं?’

‘आओ, मैं अपने और तुम्हारे लिए चाय बनाती हूं.’

फिर मैं उन्हें अपने और अपने परिवार के बारे में रात के एक बजे तक बताता रहा और बारबार उन्हें धनबाद आने का न्योता देता रहा.

अगले दिन गुवाहाटी के गांधी पार्क में मेरी मुलाकात एक बड़े ही रहस्यमय व्यक्ति से हुई. वह सज्जन एक बैंच पर बैठ कर अंगरेजी का कोई अखबार पढ़ रहे थे. मैं भी जा कर उन की बगल में बैठ गया. देखने में वह मुझे बड़े संपन्न से लगे. परिचय के बाद पता चला कि उन का पूरा नाम शिव कुमार शर्मा था. वह देहरादून के रहने वाले थे पर चाय का व्यवसाय दार्जिलिंग में करते थे. व्यापार के सिलसिले में उन का अकसर गुवाहाटी आनाजाना लगा रहता था.

2 दिन पहले जिस ट्रेन में सशस्त्र डकैती पड़ी थी, उस में वह भी आ रहे थे अत: उन्हें अपने सारे सामान से तो हाथ धोना ही पड़ा साथ ही उन के हजारों रुपए भी लूट लिए गए थे. उन्हें कुछ चोटें भी आईं, जिन्हें मैं देख चुका था. डकैतों का तो पता न चल पाया पर एक दक्षिण भारतीय के घर पर उन्हें शरण मिल गई जो गुवाहाटी में एक पेट्रोल पंप का मालिक था.

मैं ने उन की पूरी कहानी तन्मय हो कर सुनी. अब अपने बारे में कुछ बताने में मुझे बड़ी झिझक हुई. यह सोच कर कि जब मैं उन की बातों का विश्वास न कर पाया तो वह भला मेरी बातों का भरोसा क्यों करते? उन्हें बस, इतना ही बताया कि धनबाद से मैं यहां अपने एक दोस्त से मिलने आया हूं.

 

औरत की औकात: प्रौपर्टी में फंसे रिश्तों की कहानी

लेखक- आशीष दलाल

कल रात से ही वह अपनी सास से हुई बहस को ले कर परेशान थी. उस पर सोते वक्त पति के सामने अपना दुखड़ा रो कर मन हलका करना चाहा तो उस के मुंह से रमा सहाय का नाम सुन कर पति का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. सारी रात आंखों में ही कुछ समझते हुए और कुछ न समझ आने पर उस पर गहन विचार करते हुए उस ने गुजार दी.

सुबह उठी तो आंखें बोझिल हो रही थीं और सिर भारी हुआ जा रहा था. रात को सास और फिर पति के संग हुई बहस की वजह से आज उस का मन किसी से भी बात करने को न हो रहा था. न चाहते हुए भी भारी मन से पति के लिए टिफिन बना कर उन्हें नौकरी के लिए विदा किया और फिर आंखें बंद कर बैठ गई. वैसे भी इंसान को अपनी समस्याओं का कोई हल नहीं मिलता तो अंतिम सहारे के रूप में वह आंख बंद कर प्रकृति के बारे में सोचने लगता है.

“अब बंद भी कर यह नाटक और रसोई की तैयारी कर.” तभी उस के कानों में तीखा स्वर गूंजा.

अपनी सास की बात का कोई जवाब न दे कर वह हाथ जोड़ कर अपनी जगह से खड़ी हो गई. सास से उस की नजरें मिलीं. एक क्षण वह वहां रुकी और फिर चुपचाप रसोई में आ गई. उस के वहां से उठते ही उस की सास अपनी रोज की क्रिया में मग्न हो गई.

अभी भी कल वाली ही बात पर विचार कर वह अनमनी सी रसोई के प्लेटफौर्म के पास खड़ी हुई थी. तभी रसोई के प्लेटफौर्म की बगल वाली खिड़की से उस की नजर बाहर जा कर टिक गई. रसोईघर के बाहर खाली पड़ी जगह में पड़े अनुपयोगी सामान के ढेर पर कुछ दिनों से कबूतर का एक जोड़ा तिनकातिनका जोड़ कर घोंसला बनाने की कोशिश कर रहा था लेकिन थोड़े से तिनके इकट्ठे करने के बाद दोनों में न जाने किस बात को ले कर जोरजोर से अपने पंख फड़फड़ाते व सारे तिनके बिखर कर जमीन पर आ गिरते. जैसेतैसे आपस में लड़तेझगड़ते और फिर एक हो कर आखिरकार घोंसला तो उन्होंने तैयार कर ही लिया था और कबूतरी घोंसले में अपने अंडों को सेती हुई कई दिनों से तपस्यारत इत्मीनान से बैठी हुई थी. उसे आज घोंसले में कुछ हलचल नजर आई. अपनी जिज्ञासा मिटाने के लिए वह खिड़की के पास के दरवाजे से बाहर गई और अपने पैरों के पंजों को ऊंचा कर घोंसले में नजर डालने लगी. उस की इस हरकत पर घोंसले में बैठी हुई कबूतरी सहम कर अपनी जगह से थोड़ी सी हिली. 2 अंडों में से एक फूट चुका था और एक नन्हा सा बच्चा मांस के पिंड के रूप में कबूतरी से चिपका हुआ बैठा था. सहसा उस के चेहरे पर छाई उदासी की लकीरों ने खुदबखुद मुड़ कर मुसकराहट का रूप ले लिया. उस ने अपना हाथ बढ़ा कर कबूतरी को सहलाना चाहा लेकिन कबूतरी उस के इस प्रयास को अपने और अपने बच्चे के लिए घातक जान कर गला फुला कर अपनी छोटी सी चोंच से उसे दूर खदेड़ने का यत्न करने लगी.

एक छोटा सा नजारा उस के मन को अपार खुशी से भर गया. वह वापस अंदर रसोई में आने को मुड़ी और उस के होंठों से अनायस ही उस का पसंदीदा गाना, मधुर आवाज के साथ, निकल कर उस के मन के तारों को झंकृत करने लगा.

“न समय देखती है न बड़ों का लिहाज करती है. यह कोई समय है फिल्मी गाना गाने का? गाना ही है तो भजन गा तो मेरी पूजा भी सफल हो जाए,” सास का यह नाराजगीभरा स्वर सुन कर उस की आवाज बंद होंठों के अंदर सिमट गई और चेहरे पर कुछ देर पहले छाई हुई मुसकराहट को उदासी ने वापस अपनी आगोश में समा लिया. हाथ धो कर उस ने फ्रिज खोला और उस में रखा पत्तागोभी निकाल कर अनमने भाव से उसे काटने लगी.

तभी डोरबैल बजने पर उस ने जा कर दरवाजा खोला तो अपने सामने एक अपरिचित व्यक्ति को खड़ा पा कर अचरज से उस से कुछ पूछने जा ही रही थी कि तभी पीछे से आ कर उस की सास ने उस व्यक्ति को नमस्ते करते हुए अंदर आने को कहा. उस ने भगवा धोतीकुरता पहने उस व्यक्ति को गौर से देखा. उस के माथे पर लंबा तिलक लगा हुआ था और उस ने गले में रुद्राक्ष की माला पहन रखी हुई थी. उस की सास उस पंडितवेशधारी व्यक्ति से कुछ दूरी बना कर उस के साथ सोफे पर बैठ गई और उसे पानी लाने के लिए कहा.

पानी देने के बाद खाली गिलास ले कर वह अंदर जाने को हुई तो सास ने उसे टोका, “यहां पंडितजी के पास बैठ. ये बहुत बड़े ज्ञानी है और हाथ देख कर सारी समस्याओं का हल बता देते हैं.”

सास की बात सुन कर वह चौंक गई. उस ने मना करना चाहा लेकिन फिर कल रात परिवार में हुई अनबन को याद कर बात को और आगे न बढ़ाने के लिए वह पंडितजी से कुछ दूरी बना कर उन के पास बैठ गई. पंडितजी ने मुसकरा कर उस की तरफ देखा और उसे अपना सीधा हाथ आगे बढ़ाने को कहा. उस ने झिझकते हुए अपने सीधे हाथ की हथेली उन के आगे कर दी. पंडितजी ने उस की हथेली को छूते हुए उस पर हलका सा दबाव डाला. उस ने अपनी हथेली पीछे करनी चाही पर उस के ऐसा करने से पहले ही पंडित उस की हथेली पर अपनी उंगलिया फेरते हुए उस की सास से पूछने लगे, “तो यह आप की बहू है?”

“जी पंडितजी,” उस की सास हां में सिर हिलाते हुए जवाब दिया तो पंडितजी आगे बोले, “समय की बहुत बलवान है आप की बहू. इस के हाथ की रेखाएं बता रही हैं कि इसे अपने पिता की संपत्ति से बहुत बड़ी धनराशि प्राप्त हुई है और उसी धनराशि से आप सब के समय संवरने वाले हैं.”

उस ने पंडित पर एक नजर डाली. पंडितजी बड़े ही ध्यान से उस की हथेली की रेखाओं को देख कर उस का वर्तमान बता रहे थे.

“जी पंडितजी. आप तो ज्ञानी हैं. गांव में इस के पिता की कई एकड़ जमीन बुलेट ट्रेन के प्रोजैक्ट में सरकार ने ले ली है. इस का कोई भाई या बहन तो है नहीं, तो उसी के पैसे से इस के पिता ने इस के नाम 20 लाख रुपए की एफडी कर दी है,” उस की सास ने पंडितजी की बात का जवाब दिया तो उस ने अपनी सास की तरफ देखा. उसे अपनी सास का पंडितजी के सामने इस तरह अपनी निजी बातें शेयर करना पसंद नहीं आया लेकिन वह उन की उम्र का लिहाज कर कुछ भी न बोल पाई.

तभी पंडितजी ने कहा, “यह अपने पिता की इकलौती संतान है, इसी से इस के हाथ की रेखाएं बता रही हैं कि भविष्य में इसे अपने पिता से और भी बड़ी रकम मिलने की उम्मीद है.”

पंडितजी की बात सुन कर उस की सास के चेहरे पर मुसकान तैर गई और वह खुश होते हुए बोली, “यह तो बड़ी अच्छी बात बताई पंडितजी आप ने, लेकिन अब मैं ने जो समस्या आप से कही थी उस का समाधान भी तो बताइए.”

“समाधान तो एक ही है. उन पैसों को मिला कर जो घर आप का बेटा ले रहा है वह आप के बेटे की राशि और ग्रहों को देखते हुए आप के नाम ही होना चाहिए. अगर वह घर आप के बेटे के नाम हुआ तो उसे भविष्य में बहुत ज्यादा ही आर्थिक नुकसान होगा. यह सब साफसाफ मैं आप की बहू के हाथ की लकीरों में देख पा रहा हूं.”

पंडितजी की कही यह बात उस के लिए असहनीय थी. वह नहीं चाहती थी कि घर के निजी मामलों में बाहर का कोई भी इंसान दखलंदाजी करे. उस ने पंडितजी की बात सुन कर एक झटके से अपनी हथेली उन की पकड़ से छुड़ाई और गुस्से से बोली, “यह हमारे घर का निजी मामला है और इस में आप को कोई भी सलाहसूचन करने का कोई अधिकार नहीं है. मैं बिलकुल भी नहीं विश्वास करती हाथ की लकीरों पर.”

अपनी बहू का यह रवैया देख कर सास गुस्से से लाल हो गई और उस ने उसे डांटते हुए कहा, “बहू, माफी मांग पंडितजी से. मेरे कहने पर राकेश ने ही इन को घर आने का निमंत्रण दिया था.”

“मैं माफी चाहती हूं पंडितजी आप से. आप से मुझे कोई शिकायत नहीं है लेकिन मेरे पिता से मिली संपत्ति पर सिर्फ मेरा अधिकार है और उस के बारे में कोई भी फैसला लेने का हक़ सिर्फ मेरा ही है. आप तो क्या, घर के किसी भी सदस्य को इस बारे में बहस करने का कोई अधिकार नहीं है,” उस ने बड़े ही तीखे मिजाज से पंडितजी की तरफ देखते हुए कहा और फिर गुस्से से अंदर रसोई में आ कर वापस अपना काम करने लग गई.

उस की सास को अपनी बहू का इस तरह पंडितजी का अपमान करना और उन्हें पंडितजी की निगाहों में नीचा दिखाना बिलकुल भी पसंद न आया. पंडितजी के सामने तो वह उसे कुछ न बोल पाई लेकिन कुछ देर पंडितजी से बातें कर उन्हें तगड़ी फीस दे कर विदा करने के बाद वह खुद रसोई में आ गई.

“यह तूने ठीक नहीं किया बहू. पैसों की गरमी से अपनी धाक जमाना बंद कर दे, वरना बहुत पछताना पड़ेगा.”

अपनी सास की धमकीभरी आवाज सुन कर उस ने अपनी आंखों से बह रहे आंसुओं को पोंछते हुए जवाब दिया, “अपने हक की बात ही तो कर रही हूं. क्या बुरा कह दिया मैं ने जो नया मकान अपने नाम पर करवाने की बात कह दी तो? पैसा भी तो मेरा ही ज्यादा लग रहा है उसे खरीदने में. राकेश तो केवल 10 लाख ही दे रहे है और वह भी लोन ले कर.”

“हमारे खानदान में जमीनजायदाद पति के जीतेजी औरत के नाम नहीं की जाती है. जिस पैसे की तू बात कर रही है उस पर तेरा पति होने के नाते राकेश का भी बराबर का हक है तो एक तरह से वह पैसा भी राकेश का ही हुआ,” सास ने सख्ताई से जवाब देते हुए उस से कहा.

“यह तो किसी कानून में नहीं लिखा है कि पत्नी की संपत्ति पर पति का हक बिना कोई कानूनी कार्यवाही के होता है. पर फिर भी मैं ऐसा नहीं कह रही हूं कि मेरे पापा के दिए पैसों पर राकेश का कोई हक नहीं है. मैं, बस, नया मकान अपने नाम करवाना चाहती हूं क्योंकि इस में ज्यादा पैसा मेरा लग रहा है. शादी से पहले नौकरी का जो पैसा जमा किया था वह भी तो राकेश ने निकलवा कर नया मकान लेने में डलवा दिया. इस तरह तो मेरे नाम कोई आर्थिक संबल रहेगा ही नहीं,” उस ने अपनी बातों से सास को समझाने का यत्न किया.

उस की बात सुन कर सास ने मुंह बिगाड़ते हुए कहा, “उस रमा सहाय ने जाने क्या पट्टी पढ़ा दी तुझे जो मुझे कानूनी धौंस देने चली है. तेरी वकील चाहे जो कुछ कहे पर नया मकान तो तेरे नाम न ही होगा बहू.”

“ठीक है, आप अपने मन की कीजिए. मुझे जो ठीक लगेगा मैं वही करूंगी,” उस ने जवाब दिया और ज्यादा बहस में न पड़ते हुए चुपचाप सब्जी काटने लगी.

शाम को राकेश के औफिस से आने तक सासबहू के बीच कोई भी बातचीत न हुई लेकिन उस ने अपनी वकील रमा सहाय से फोन पर बात कर इस मामले में कानूनी सलाह ले कर मन ही मन एक फैसला ले लिया था.

शाम को राकेश के आने पर चायनाश्ता करते हुए नया मकान अपने नाम लेने के मुद्दे पर फिर उन तीनों के बीच बहस शुरू हो गई.

“आखिर तुम्हें मकान मेरे नाम पर लेने में परेशानी क्या है राकेश?” उस ने झुंझलाते हुए चाय का खाली कप टेबल पर रखते हुए राकेश से पूछा.

“बात परेशानी की नहीं है नेहा. आज तक हमारे खानदान में कभी भी पुरुष के रहते औरत के नाम पर जमीनजायदाद नहीं हुई है. यह परंपरा रही है हमारे खानदान की. पति के रहते पत्नी के नाम जमीनजायदाद करना शुभ नहीं माना जाता,” राकेश ने साफ शब्दों में न कहते हुए उसे जवाब दिया.

“शुभअशुभ कुछ नहीं होता राकेश. समय की नजाकत को समझते हुए गलत परंपराएं और जिद छोड़ी जा सकती है राकेश. तुम्हारे और मम्मीजी के कहने पर शादी के बाद मैं ने अपनी जिद छोड़ कर नौकरी छोड़ दी थी न, तो कम से कम अब तुम भी तो थोड़ा झुको,” पिछली बातें याद कर जवाब देते हुए उस की आंखें गीली हो रही थीं.

“बहू, खानदानी परंपरा तोड़ी नहीं जाती. बात अगर जिद छोड़ने की ही है तो झुकना तो तुझे ही चाहिए. पुरुष कभी औरत के आगे नहीं झुकता,” उस की बात सुन कर सास ने अपना मन्तव्य रखा.

“देखो नेहा, तुम पिछले 10 दिनों से इस बात को ले कर घर का माहौल तंग बनाए हुए हो. कल रात से तो हद ही कर दी है तुम ने. मेरे पूछे बिना तुम ने उस वकील …क्या नाम था… हां … विभा सहाय को अपने घर के मामले में डाला तब मैं ने कुछ नहीं कहा लेकिन अब तो पानी सिर से ऊपर जा रहा है. मम्मी कह रही थीं तुम ने आज सुबह पंडितजी को भी भलाबुरा कह कर उन की हाजिरी में मम्मी की इन्सल्ट की. अपनी औकात में रहना सीखो वरना मुझे भी अपनी उंगली टेढ़ी करना आती है,” राकेश ने जला देने वाली नजर उस की तरफ डाली तो एक पल को वह सहम गई लेकिन फिर अगले ही क्षण विभा सहाय की दी गई सलाह उस के जेहन में तैर गई और वह पूरे आत्मविश्वास से बोलने लगी, “ठीक है, मैं अपनी औकात में ही रहूंगी लेकिन मेरी औकात क्या है, यह मैं खुद तय करूंगी.”

“तुम्हारे कहने का मतलब क्या है? धमकी दे रही हो या समझौता कर रही हो?” राकेश ने उस का जवाब सुन कर शंकाभरी नजर उस पर डाली.

उस ने अब एक ठंडी आह भरी और आगे कहा, “जिंदगी में पैसा झगड़ा करवाता है. यह बात सुन रखी थी लेकिन अब अनुभव भी कर ली है. पापा के मुझे दिए गए पैसों को ले कर हमारे घर की सुखशांति भंग हो रही है, तो सोच रही हूं उन का दिया सारा पैसा उन्हें वापस कर दूं. इस से घर में शांति तो बनी रहेगी. नया मकान आज नहीं तो दसपन्द्रह साल बाद तुम खुद अपनी कमाई से ले ही लोगे.”

जैसे ही उस ने अपनी बात पूरी की, राकेश का चेहरा सफेद पड़ गया. वह हड़बड़ाता हुआ बोला, “तुम ऐसा हरगिज नहीं कर सकतीं.”

“क्यों नहीं कर सकती? मैं यह फैसला ले सकूं, इतनी तो औकात है मेरी राकेश,” जवाब देते हुए उस ने राकेश को घूरा तो उस के तेवर और आत्मविश्वास देख कर राकेश तुरंत कुछ नहीं बोल पाया. उस ने अपनी मम्मी की तरफ देखा और उन की आंखों से एक इशारा पा कर वह बिगड़ी हुई बात संभालते हुए उसे समझाने लगा, “यह समय आवेश में आ कर इस तरह का फैसला लेने का नहीं है. इस वक्त तुम गुस्से में हो, अपने परिवार का हित ध्यान में रख कर फिर से सोचो और हम फिर किसी दिन इस बारे में बात करेंगे.”

“वह दिन कभी नहीं आएगा राकेश. मैं अच्छी तरह से समझ गई हूं. मेरे नाम से संपत्ति कर देने से तुम खुद को इनसिक्योर या छोटा फील करोगे, इसी से तुम यह फैसला नहीं ले पा रहे हो लेकिन मैं अपने फैसले पर अडिग हूं या तो मकान मेरे नाम से होगा या फिर मैं अपने पापा का सारा पैसा उन्हें लौटा दूंगी.”

“तुम गलत समझ रही हो नेहा. बात खुद को छोटा फील करने वाली नहीं है. जब तक मैं हूं तब तक संपत्ति वगैरह जैसे लफड़ो में तुम्हें नहीं पड़ना चाहिए,” राकेश ने उस की बात का जवाब दिया तो नेहा ने अब विस्तार से कहा, “अगर तुम्हारा सोचना ऐसा ही है तो तुम गलत हो राकेश. अपने जीवनसाथी को जीवन की आवश्यक चीजों से दूर रख कर तुम उसे केवल औरत होने के नाम पर कमजोर बना रहे हो. याद करो वह दिन जब पापाजी के जाने के बाद गांव वाली जमीन को ले कर कितनी दिक्कतें हुई थीं. मम्मीजी को उस बारे में थोड़ा भी पता होता तो वह जमीन तुम्हारे ताऊजी हड़प न कर पाते.”

उस की बात सुनकर कुछ देर के लिए कोई कुछ नहीं बोला. वह अपनी जगह से उठ कर चायनाश्ते की खाली प्लेट्स ले कर रसोई में जाने लगी. तभी पीछे से उसे उस की सास की आवाज सुनाई दी, “राकेश, बहू की बात कुछ हद तक सही तो है. तेरे पापा ने मकान-संपत्ति के मामले में मुझे बिलकुल अनजान रखा था, इसी से आज जो कुछ हमारा होना था वह हमारे पास नहीं है. बहू को कम से कम अपने अधिकारों के बारे में तो पता है और अपने अधिकार को ले कर अगर वह अपनों से भी लड़ रही है तो कुछ गलत नहीं कर रही है.”

“लेकिन मम्मी…मकान उस के नाम…” राकेश ने कुछ कहना चाहा तो उन्होंने उसे टोकते हुए आगे कहा, “तुम दोनों एक ही गाड़ी के दो पहिए हो. क्या फर्क पड़ता है अगर घर बहू के नाम भी हुआ तो… आखिर मकान को घर तो उसे ही बनाना है.”

अपनी मम्मी के फैसले पर सहमति जताते हुए राकेश आगे कुछ नहीं बोला. नेहा ने पीछे पलट कर उसे देखा तो उस की तरफ देख कर वह मुसकरा दिया.

नीलोफर: क्या दोबारा जिंदगी जी पाई नीलू

लेखिका- शर्मिला चौहान

खिड़कीके सामने अशोक की झांकती टहनी पर छोटा सा आशियाना बना रखा था उस ने. जितनी छोटी वह खुद थी, उस के अनुपात से बित्ते भर का उस का घर. मालती जबजब शुद्ध हवा के लिए खिड़की पर आती, उसे देखे बिना वापस न जाती. वह थी ही इतनी खूबसूरत चिकनीचमकती, पीठ जहां खत्म होती वहीं से पूंछ शुरू. भूरे छोटे परों पर 2-4 नीले परों का आवरण चढ़ा था, यही नीला आवरण उसे दूसरी चिडि़यों से अलग करता था. उस छोटी सी मादा को भी अपनी सब से खूबसूरज चीज पर अभिमान तो जरूर ही था.

खाली समय में चोंच से नीले परों को साफ करती, अपनी हलकी पीलापन लिए भूरी आंखों से चारों ओर का जायजा लेती कि उस के सुंदर रूप को कोई निहार भी रहा है या नहीं. उस छोटी, नन्ही चिडि़या के परों के कारण मालती ने उस का नाम ‘नीलोफर’ रख दिया था.

‘‘मम्मी, नीलोफर ने शायद अंडे दिए हैं… वह उस घोंसले से हट ही नहीं रही,’’ मालती की 24 साल की बेटी नीलू ने उसी खिड़की के पास से मालती को आवाज दी.

‘‘मुझे भी ऐसा ही लगता है, इसलिए इतनी मेहनत कर के घर बनाया उस ने,’’ कहती हुई मालती भी खिड़की के  बाहर झांकने लगी.

नीलू को बाहर टकटकी बांधे देख कर मालती नीलू के बालों पर उंगलियों से कंघी

करने लगी.

‘‘आप ने इस चिडि़या का नाम नीलोफर क्यों रखा मम्मी?’’ नीलू अभी भी उस छोटी चिडि़या में गुम थी.

‘‘उस के नीले पर कितने प्यारे हैं, बस इसीलिए वह नीलोफर हो गई,’’ मालती ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘मेरा नाम नीलू क्यों रखा?’’ नीले ने अगला सवाल किया.

‘‘इसलिए कि तुम्हारी नीली आंखें झील सी पारदर्शी हैं. तुम्हारे मन की बात आंखें कह देती

हैं तो तुम नीलू हो,’’ मालती ने कहा और फिर नीलू की ह्वीलचेयर को धकेल कर बैठक की ओर ले गई.

नीलू ने रिमोट से टैलीविजन चालू किया और कुछ पजांबी डांस वाले गानों का मजा लेने लगी. किसी त्योहार का दृश्य था और रंगबिरंगी पोशाकें पहने लड़कियां ढोल की थाप पर झूमझूम कर नाच रही थीं. मालती ने कनखियों से नीलू को देखा, वह तन्मय हो कर गाना गा रही थी और कमर के ऊपर के शरीर को नाचने की मुद्रा में ढालने में लगी थी.

उसे गाने के बोल और नत्ृय की मुद्राओं

में तल्लीन देख कर मालती उस के बचपन में

खो गई…

‘‘मम्मी, मुझे क्लासिकल डांस नहीं

सीखना है, मुझे तो डांस वाले फिल्मी गाने पसंद हैं,’’ 7 साल की नीलू ने जिद कर के बौलीवुड गानों पर नाचना शुरू किया था.

‘‘क्या है मम्मी, यह दिनभर बंदरिया की तरह उछलकूद मचाती रहती है… आईने के

सामने मटकती रहती है और कोई काम नहीं

है क्या इसे?’’ नीलू से 4 साल बड़ा शुभम झल्लाता रहता.

‘‘आप भी नाचो न, आप को तो आता ही नहीं,’’ कहती नीलू उसे और चिढ़ाती.

समय पंख लगा कर उड़ता गया और नीलू

9 साल की हो गई.

‘‘कल सबुह बस से शुभम की स्कूल पिकनिक जा रही है. हम उसे स्कूल बस तक छोड़ आएंगे,’’ मालती ने अपने पति से कहा.

‘‘मैं भी जाऊंगी भैया को छोड़ने,’’ नीलू ने रात को ही कह दिया था.

सुबह सब कार से शुभम को स्कूल बस

तक छोड़ कर वापस आ रहे थे.

‘‘पापा, रुको न, हम वहां रुक कर कुछ खाते हैं. मेरी फ्रैंड्स कहती हैं कि सुबह यहां वड़ा पाव, इडलीडोसा और सैंडविच बहुत अच्छे मिलते हैं,’’ स्कूल के रास्ते पर एक छोटे से रैस्टोरैंट के आगे नीलू ने कहा.

सब अभी उतर ही रहे थे कि नीलू दौड़ कर सड़क पार करने लगी.

‘‘नीलू… बेटा रुको…’’ मालती की आवाज बाजू से गुजरती कार के ब्रेक मारने में दब गई.

मिनटों में पासा पलट गया था. लहूलुहान नीलू अस्पताल में बेहोश पड़ी थी. तब से आज तक कभी खड़ी नहीं हो पाई. खेलताकूदता, दौड़ता, नाचता बचपन कमर के नीचे से शांत हो गया. ह्वीलचेयर में उस की दुनिया समा गई थी.

‘‘मम्मी, भैया को आज वीडियोकौल करेंगे तो मुझे उन से एक बैग मंगवाना है,’’ नीलू की आवाज से चौंक कर मालती वर्तमान में आ गई.

‘‘हां, आज करते हैं शुभम को कौल,’’ अमेरिका में जौब कर रहे बेटे शुभम के बारे में बात हो रही थी.

दूसरे दिन सुबहसुबह भाई से बात कर के अपने लिए एक मल्टीपर्पज बैग लाने को कह कर नीलू ह्वीलचेयर ले कर खिड़की पर आ गई.

पापा और भाई की सलाह से नीलू ने अपनी पढ़ाई तो चालू रखी ही, साथ ही हस्तकला की सुंदर चीजें भी बनाती रही. कुदरत ने उस के पैरों की सारी शक्ति मानो हाथों को दे दी. बारीक धागों, सीपियों, मोतियों, जूट से खूबसूरत बैग और वाल हैगिंग बनाती थी.

उस के काम में मदद करने के लिए मालती तो थी ही, साथ ही एक और लड़की को रखा था जो सामान उठाने, रखने में मदद करती थी. बड़ेबड़े बुटीक से और्डर आते थे और सब मिल कर उन्हें समय पर पूरा करते. धीरेधीरे जिंदगी अपनी गति फिर पकड़ने लगी थी.

‘‘मम्मी, आप को मेरी बहुत चिंता होती रहती है न?’’ एक चिरपरिचित से अंदाज में नीलू कहा करती थी.

‘‘नहीं तो, मैं क्यों करूंगी चिंता? तू

तो खुद समझदार है, अपने काम कर लेती है. बुटीक के और्डर भी संभालती है और पढ़ाई

भी कर रही है,’’ मालती हमेशा उसे प्रोत्साहित करती.

‘‘चेहरे पर इतनी झुर्रियां आ गई, आंखों के नीचे काले निशान हो गए. अब भी कहोगी कि कोई चिंता नहीं,’’ नीलू की गहरी नीली आंखें अंदर तक भेद जातीं.

नीलू की कमर से निचले अंगों की स्वच्छता, कपड़े पहनाने का काम मालती खुद करती थी. एक जवान लड़की को किसी दूसरे के हाथों से ये सब काम करवाने की स्थिति का सामना रोज ही दोनों करते थे.

अचानक, चींचीं, चींचीं की आवाज के साथ कांवकांव का शोर होने लगा.

‘‘मम्मी देखो. नीलोफर के घोंसले में एकसाथ 3-4 कौए आ गए. उसे परेशान कर रहे हैं. बचाओ मम्मी, नीलोफर को, उस के अंडों को,’’ नीलू की आवाज दर्दनाक थी जैसे कोई उस पर घात कर रहा हो.

मालती रसोई से भाग कर कमरे की खिड़की पर आ गई. नीलू की ओर देखा, वह पसीने से तरबतर हो रही थी.

‘‘मम्मी, प्लीज नीलोफर को बचा लो. ये कौए उसे मार डालेंगे. आप ने जैसे मुझे बचा लिया, इस को भी बचा लो मम्मा…’’ नीलू की आवाज कुएं से बाहर आने का प्रयास कर रही थी. एक अंधकार जिस में वह खुद जी रही थी, एक सन्नाटा जिस को वह झेल रही थी. दूरदूर तक आशाओं का क्षितिज था, जो हमेशा मुट्ठी से फिसलने को लालायित रहता.

‘‘बेटा, हरेक को अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ती है. कोई दूसरा कुछ मदद तो कर सकता है पर जीवनभर साथ नहीं दे सकता,’’ मालती ने नीलू का हाथ थाम लिया, ‘‘नीलोफर की लड़ाई उस की अपनी है. हम सिर्फ कुदरत से प्रार्थना कर सकते हैं कि उसे शक्ति दे.’’

‘‘आप तो उन कौओं को भगा सकती हो न, मैं तो उठ कर उन्हें नहीं मार सकती,’’ नीलू की आवाज कंपकंपा रही थी.

‘‘अपने अंडों की चिंता हम से ज्यादा नीलोफर को खुद है. तुम देखो, वह कैसे अपनी लड़ाई लड़ेगी,’’ मालती ने बेटी को दिलासा तो दे दिया परंतु एक नन्ही सी चिडि़या की शक्ति पर उस को विश्वास नहीं था. अत: अंदर से एक बड़ी लकड़ी ले आई.

‘‘सामने देख कर हत्प्रभ रह गई कि

4 कौओं से अकेली नीलोफर पूरे विश्वास से

जूझ रही थी. अपनी छोटी परंतु नुकीली चोंच से, कौए की आंखों पर वार करकर के 2 कौओं को भगा दिया उस ने. एक नजर अपने अंडों पर डाली, पंख फड़फड़ा शक्ति का संचार किया,

परंतु यह क्या.. उस के नीले चमकीले पंखों में से 2 गिर गए.

एक भरपूर निगाह गिरे पंखों पर डाल कर वह तेजी से चींचीं, चींचीं करती हुई बचे दोनों कौओं पर वार करने लगी.

सांस थाम कर खिड़की से मालती और

नीलू उस नन्ही सी चिडिंया का हौसला

बढ़ा रहे थे. पक्षी मन की बात समझ लेते हैं

जिसे जुबान के रहते मनुष्य नहीं समझ पाते. संबल देती 4 आंखों ने नीलोफर को बिजली सी गति दे दी.

उड़उड़ कर वह अपनी चोंच से लगातार

वार करती रही. कौओं की बड़ी, मोटी चोंच से खुद को बचाना छोड़ दिया उस ने और आक्रामक हो गई.

आखिर एक मां के आगे वे दोनों हार गए और भाग खड़े हुए. लंबी सांस भर कर नीलोफर ने अपने घोंसले में सुरक्षित अंडों को प्रेम से जीभर देखा. उस की नजर खिड़की पर रुक गई, जहां दोनों मादा तालियां बजा कर उस का अभिनंदन कर रही थीं.

नीलोफर अपने क्षतिग्रस्त शरीर का मुआयना करने लगी. जगहजगह कौओं की चोंच से घाव हो गए थे.

उस के चमकीले, नीले पंख अब शरीर छोड़ कर नीचे गिर गए थे. उस की आखों में एक बंदू सी चमकने लगी.

‘‘नीलोफर, तुम दुनिया की सब से

खूबसूरत चिडि़या हो, तुम्हें नीले पंखों की जरूरत ही नहीं है. आज तुम्हारी खूबसूरती को मैं ने महसूस किया है,’’ नीलू की बात, उस छोटे से पंछी ने कितनी समझी पता नहीं पर खुशी से चिचियाने लगी.

नीलू ने घूम कर मालती की ओर देखा. मम्मी के दमकते चेहरे पर आज कोई झर्री आंखों के नीचे कोई कालापन नहीं दिखाई दिया.

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