Father’s Day 2023: अंतराल

25 साल बाद जरमनी से भेजा सोफिया का पत्र मिला तो पंकज आश्चर्य से भर गए. पत्र उन के गांव के डाकखाने से रीडाइरेक्ट हो कर आया था. जरमन भाषा में लिखे पत्र को उन्होंने कई बार पढ़ा. लिखा था, ‘भारतीय इतिहास पर मेरे शोध पत्रों को पढ़ कर, मेरी बेटी जूली इतना प्रभावित हुई है कि भारत आ कर वह उन सब स्थानों को देखना चाहती है जिन का शोध पत्रों में वर्णन आया है, और चाहती है कि मैं भी उस के साथ भारत चलूं.’

‘तुम कहां हो? कैसे हो? यह वर्षों बीत जाने के बाद कुछ पता नहीं. भारत से लौट कर आई तो फिर कभी हम दोनों के बीच पत्र व्यवहार भी नहीं हुआ, इसलिए तुम्हारे गांव के पते पर यह सोच कर पत्र लिख रही हूं कि शायद तुम्हारे पास तक पहुंच जाए. पत्र मिल जाए तो सूचित करना, जिस से भारत भ्रमण का ऐसा कार्यक्रम बनाया जा सके जिस में तुम्हारा परिवार भी साथ हो. अपने मम्मीपापा, पत्नी और बच्चों के बारे में, जो अब मेरी बेटी जूली जैसे ही बडे़ हो गए होंगे, लिखना और हो सके तो सब का फोटो भी भेजना ताकि हम जब वहां पहुंचें तो दूर से ही उन्हें पहचान सकें.’

पत्नी और बेटा अभिषेक दोनों ही उस समय कालिज गए हुए थे. पत्नी हिंदी की प्रोफेसर है और बेटा एम.बी.ए. फाइनल का स्टूडेंट है. शनिवार होने के कारण पंकज आज बैंक से जल्दी घर आ गए थे. इसलिए मन में आया कि क्यों न सोफिया को आज ही पत्र लिख दिया जाए.

पंकज ने सोफिया को जब पत्र लिखना शुरू किया तो उस के साथ की पुरानी यादें किसी चलचित्र की तरह उन के मस्तिष्क में उभरने लगीं.

तब वह मुंबई के एक बैंक में प्रोबेशनरी अधिकारी के पद पर कार्यरत थे. अभी उन की शादी नहीं हुई थी इसलिए वह एक होस्टल में रह रहे थे.

सोफिया से उन की मुलाकात एलीफेंटा जाते हुए जहाज पर हुई थी. वह भारत में पुरातत्त्व महत्त्व के स्थानों पर भ्रमण के लिए आई थी और उन के होस्टल के पास ही होटल गेलार्ड में ठहरी थी. सोफिया को हिंदी का ज्ञान बिलकुल नहीं था और अंगरेजी भी टूटीफूटी ही आती थी. उन के साथ रहने से उस दिन उस की भाषा की समस्या हल हो गई तो वह जब भी ऐतिहासिक स्थानों को घूमने के लिए जाती, उन से भी चलने का आग्रह करती.

सोफिया को भारत के ऐतिहासिक स्थानों के बारे में अच्छी जानकारी थी. उन से संबंधित काफी साहित्य भी वह अपने साथ लिए रहती थी, इसलिए उस के साथ रहने पर चर्चाओं में उन को आनंद तो आता ही था साथ ही जरमन भाषा सीखने में भी उन्हें उस से काफी मदद मिलती.

साथसाथ रहने से उन दोनों के बीच मित्रता कुछ ज्यादा बढ़ने लगी. एक दिन सोफिया ने अचानक उन के सामने विवाह का प्रस्ताव रख उन्हें चौंका दिया, और जब वह कुछ उत्तर नहीं दे पाए तो मुसकराते हुए कहने लगी, ‘जल्दी नहीं है, सोच कर बतलाना, अभी तो मुझे मुंबई में कई दिनों तक रहना है.’

यह सच है कि सोफिया के साथ रहते हुए वह उस के सौंदर्य और प्रतिभा के प्रति अपने मन में तीव्र आकर्षण का अनुभव करते थे पर विवाह की बात उन के दिमाग में कहीं दूर तक भी नहीं थी, ऐसा शायद इसलिए भी कि सोफिया और अपने परिवार के स्तर के अंतर को वह अच्छी तरह समझते थे. कहां सोफिया एक अमीर मांबाप की बेटी, जो भारत घूमने पर ही लाखों रुपए खर्च कर रही थी और कहां सामान्य परिवार के वह जो एक बैंक में अदने से अधिकारी थे. प्रेम के मामले में सदैव दिल की ही जीत होती है, इसलिए सबकुछ जानते और समझते हुए भी वह अपने को सोफिया से प्यार का इजहार करने से नहीं रोक पाए थे.

उन दिनों मां ने अपने एक पत्र में लिखा था कि आजकल तुम्हारे विवाह के लिए बहुत से लड़की वालों के पत्र आ रहे हैं, यदि छुट्टी ले कर तुम 2-4 दिन के लिए घर आ जाओ तो फैसला करने में आसानी रहेगी. तब उन्होंने सोचा था कि जब घर पहुंच कर मां को बतलाएंगे कि मुंबई में ही उन्होंने एक लड़की सोफिया को पसंद कर लिया है तो मां पर जो गुजरेगी और घर में जो भूचाल उठेगा, क्या वह उसे शांत कर पाएंगे पर कुछ न बतलाने पर समस्या क्या और भी जटिल नहीं हो जाएगी…

तब छोटी बहन चारू ने फोन किया था, ‘भैया, सच कह रही हूं, कुछ लड़कियों की फोटो तो बहुत सुंदर हैं. मां तो उन्हें देख कर फूली नहीं समातीं. मां ने कुछ से तो यह भी कह दिया कि मुझे दानदहेज की दरकार नहीं है, बस, घरपरिवार अच्छा हो और लड़की उन के बेटे को पसंद आ जाए…’

बहन की इन चुहल भरी बातों को सुन कर जब उन्होंने कहा कि चल, अब रहने दे, फोन के बिल की भी तो कुछ चिंता कर, तो चहकते हुए कहने लगी थी, ‘उस के लिए तो मम्मीपापा और आप हैं न.’

मां को अपने आने की सूचना दी तो कहने लगीं, ‘जिन लोगों के प्रस्ताव यहां सब को अच्छे लग रहे हैं उन्हें तुम्हारे सामने ही बुला लेंगे, जिस से वे लोग भी तुम से मिल कर अपना मन बना लें और फिर हमें आगे बढ़ने में सुविधा रहे.’

‘नहीं मां, अभी किसी को बुलाने की जरूरत नहीं है. अब घर तो आ ही रहा हूं इसलिए जो भी करना होगा वहीं आ कर निश्चित करेंगे…’

‘जैसी तेरी मरजी, पर आ रहा है तो कुछ निर्णय कर के ही जाना. लड़की वालों का स्वागत करतेकरते मैं परेशान हो गई हूं.’

घर पहुंचा तो चारू चहकती हुई लिफाफों का पुलिंदा उठा लाई थी, ‘देखो भैया, ये इतने प्रपोजल तो मैं ने ही रिजेक्ट कर दिए हैं…शेष को देख कर निर्णय कर लो…किनकिन से आगे बात करनी है.’

उन्होंने उन में कोई रुचि नहीं दिखाई, तो रूठने के अंदाज में चारू बोली, ‘क्या भैया, आप मेरा जरा भी ध्यान नहीं रखते. मैं ने कितनी मेहनत से इन्हें छांट कर अलग किया है, और आप हैं कि इस ओर देख ही नहीं रहे. ज्यादा भाव खाने की कोशिश न करो, जल्दी देखो, मुझे और भी काम करने हैं.’

जब वह उन के पीछे ही पड़ गई तो वह यह कहते उठ गए थे कि चलो, पहले स्नान कर भोजन कर लें…मां भी फ्री हो जाएंगी…फिर सब आराम से बैठ कर देखेंगे. मां ने भी उन का समर्थन करते हुए चारू को डपट दिया, ‘भाई ठीक ही तो कह रहा है, छोड़ो अभी इन सब को, आया नहीं कि चिट्ठियों को ले कर बैठ गई.’

दोपहर में चारू तो अपनी सहेली के साथ बाजार चली गई, मां को फुरसत में देख, वह उन के पास जा कर बैठ गए और बोले, ‘मां, आप से कुछ बात करनी है.’

‘ऐसी कौन सी बात है जिसे मां से कहने में तू इतना परेशान दिख रहा है?’

‘मां…दरअसल, बात यह है कि मुझे मुंबई में एक लड़की पसंद आ गई है.’

मां कुछ चौंकीं तो पर खुश होते हुए बोलीं, ‘अरे, तो अब तक क्यों नहीं बताया? कैसी लगती है वह? बहुत सुंदर होगी. फोटो लाया है? क्या नाम है? उस के मांबाप भी क्या मुंबई में ही रहते हैं? क्या करते हैं वे?’

मां की उत्सुकता और उन के सवालों को सुन कर वह तब मौन हो गए थे. उन्हें इस तरह खामोश देख कर मां बोली थीं, ‘अरे, चुप क्यों हो गया? बतला तो, कौन है, कैसी है?’

‘मां, वह एक जरमन लड़की है, जो रिसर्च के सिलसिले में मुंबई आई हुई है और मेरे होस्टल के पास ही होटल में रहती है. हमारी मुलाकात अचानक ही एक यात्रा के दौरान हो गई थी. मां, कहने को तो सोफिया जरमन है पर देखने में उस का नाकनक्श सब भारतीयों जैसा ही है.’

अपने बेटे की बात सुन कर मां एकदम सकते में आ गई थीं. कहने लगीं, ‘बेटा, तुम्हारी यह पसंद मेरी समझ में नहीं आई. तुम्हें अपने परिवार में सब संस्कार भारतीय ही मिले पर यह कैसी बात कि शादी एक विदेशी लड़की से करना चाहते हो? क्या मुंबई जा कर लोग अपनी परंपराओं और संस्कृति को भूल कर महानगर के मायाजाल में इतनी जल्दी खो जाते हैं कि जिस लड़की से शादी करनी है उस के घरपरिवार के बारे में जानने की जरूरत भी महसूस नहीं करते? क्या अपने देश में सुंदर लड़कियों की कोई कमी है, जो एक विदेशी लड़की को हमारे घर की बहू बनाना चाहते हो?’

फिर यह कहते हुए मां उठ कर वहां से चली गईं कि एक विदेशी बहू को वह स्वीकार नहीं कर पाएंगी.

शाम को चाय पर फिर एकसाथ बैठे तो मां ने समझाते हुए बात शुरू की, ‘देखो बेटा, शादीविवाह के फैसले भावावेश में लेना ठीक नहीं होता. तुम जरा ठंडे दिमाग से सोचो कि जिस परिवेश में तुम पढ़लिख कर बड़े हुए और तुम्हारे जो आचारविचार हैं, क्या कोई यूरोपीय संस्कृति में पलीबढ़ी लड़की उन के साथ सामंजस्य बिठा पाएगी? माना कि तुम्हें मुंबई में रहना है और वहां यह सब चलता है पर हमें तो यहां समाज के बीच ही रहना है. जब हमारे बारे में लोग तरहतरह की बातें करेंगे तब हमारा तो लोगों के बीच उठनाबैठना ही मुश्किल हो जाएगा. फिर चारू की शादी भी परेशानी का सबब बन जाएगी.’

‘मां, आप चारू की शादी की चिंता न करें,’ वह बोले थे, ‘वह मेरी जिम्मेदारी है और मैं ही उसे पूरी करूंगा. लोगों का क्या? वे तो सभी के बारे में कुछ न कुछ कहते ही रहते हैं. रही बात सोफिया के विदेशी होने की तो वह एक समझदार और सुलझेविचारों वाली लड़की है. वह जल्दी ही अपने को हमारे परिवार के अनुरूप ढाल लेगी. मां, आप एक बार उसे देख तो लें, वह आप को भी अच्छी लगेगी.’

बेटे की बातों से मां भड़कते हुए बोलीं, ‘तेरे ऊपर तो उस विदेशी लड़की का ऐसा रंग चढ़ा हुआ है कि तुझ से कुछ और कहना ही अब बेकार है. तुझे जो अच्छा लगे सो कर, मैं बीच में नहीं बोलूंगी.’

पापा के आफिस से लौटने पर जब उन के कानों तक सब बातें पहुंचीं, तो पहले वह भी विचलित हुए थे फिर कुछ सोच कर बोले, ‘बेटे, मुझे तुम्हारी समझदारी पर पूरा विश्वास है कि तुम अपना तथा परिवार का सब तरह से भला सोच कर ही कोई निर्णय करोगे. यदि तुम्हें लगता है कि सोफिया के साथ विवाह कर के ही तुम सुखी रह सकते हो, तो हम आपत्ति नहीं करेंगे. हां, इतना जरूर है कि विवाह से पहले एक बार हम सोफिया और उस के मातापिता से मिलना अवश्य चाहेंगे.’

पापा की बातों से उन के मन को तब बहुत राहत मिली थी पर वह यह समझ नहीं पाए थे कि उन की बातों से आहत हुई मां को वह कैसे समझाएं?

उन के मुंबई लौटने पर जब सोफिया ने उन से घर वालों की राय के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने कहा था, ‘मैं ने तुम्हारे बारे में मम्मीपापा को बताया तो उन्होंने यही कहा यदि तुम खुश हो तो उन की भी सहमति है और तुम्हारे मम्मीपापा के भारत आने पर उन से मिलने वे मुंबई आएंगे.’

सोफिया से यह सब कहते हुए उन्हें अचानक ऐसा लगा था कि सोफिया के साथ विवाह का निर्णय कर कहीं उन्होंने कोई गलत कदम तो नहीं उठा लिया? लेकिन सोफिया के सौंदर्य और प्यार से अभिभूत हो जल्दी ही उन्होंने अपने इस विचार को झटक दिया था.

उन के मुंबई लौटने के बाद घर में एक अजीब सी खामोशी छा गई थी. मां और चारू दोनों ही अब घर से बाहर कम ही निकलतीं. उन्हें लगता कि यदि किसी ने बेटे की शादी का जिक्र छेड़ दिया तो वे उसे  क्या उत्तर देंगी?

पापा यह कह कर मां को समझाते, ‘मैं तुम्हारी मनोस्थिति को समझ रहा हूं, पर जरा सोचो कि मेरे अधिक जोर देने पर यदि वह सोफिया की जगह किसी और लड़की से विवाह के लिए सहमत हो भी जाता है और बाद में अपने वैवाहिक जीवन से असंतुष्ट रहता है तो न वह ही सुखी रह पाएगा और न हम सभी. इसलिए विवाह का फैसला उस के स्वयं के विवेक पर ही छोड़ देना हम सब के हित में है.’

कुछ दिन बाद उन के फोन करने पर पापा, मां और चारू को ले कर मुंबई आ गए थे क्योंकि सोफिया के मम्मीपापा भी भारत आ गए थे.

मुंबई पहुंचने पर निश्चित हुआ कि अगले दिन लंच सब लोग एक ही होटल में करेंगे और दोनों परिवार वहीं एकदूसरे से मिल कर विवाह की संक्षिप्त रूपरेखा तय कर लेंगे. दोनों परिवार जब मिले तो सामान्य शिष्टाचार के बाद पापा ने ही बात शुरू की थी, ‘आप को मालूम ही है कि आप की बेटी और मेरा बेटा एकदूसरे को पसंद करते हैं. हम लोगों ने उन की पसंद को अपनी सहमति दे दी है. इसलिए आप अपनी सुविधा से कोई तारीख निश्चित कर लें जिस से दोनों विवाह सूत्र में बंध सकें.

पापा के इस सुझाव के उत्तर में सोफिया के पापा ने कहा था, ‘पर इस के लिए मेरी एक शर्त है कि शादी के बाद आप के बेटे को हमारे साथ जरमनी में ही रहना होगा और इन की जो संतान होगी वह भी जरमन नागरिक ही कहलाएगी. आप अपने बेटे से पूछ लें, उसे मेरी शर्त स्वीकार होने पर ही इस शादी के लिए मेरी अनुमति हो सकेगी.’

उन की शर्त सुन कर सभी चौंक गए थे. सोफिया को भी अपने पापा की यह शर्त अच्छी नहीं लगी थी. उधर वह सोच रहे थे कि नहीं, इस शर्त के लिए वह हरगिज सहमत नहीं हो सकते. वह क्या इतने खुदगर्ज हैं जो अपनी खुशी के लिए अपने मांबाप और बहन को छोड़ कर विदेश में रहने चले जाएं? पढ़ते समय वह सोचा करते थे कि जिस तरह मम्मीपापा ने उन के जीवन को संवारने में कभी अपनी सुखसुविधा की ओर ध्यान नहीं दिया, उसी तरह वह भी उन के जीवन के सांध्यकाल को सुखमय बनाने में कभी अपने सुखों को बीच में नहीं आने देंगे.

उन्होंने दूर खड़ी उदास सोफिया से कहा, ‘तुम्हारे पापा की शर्त के अनुसार मुझे अपने परिवार और देश को छोड़ कर जाना कतई स्वीकार नहीं है, इसलिए अब आज से हमारे रास्ते अलग हो रहे हैं, पर मेरी शुभकामनाएं हमेशा तुम्हारे साथ हैं.’

दरवाजे की घंटी बजी तो अपने अतीत में खोए पंकज अचानक वर्तमान में लौट आए. देखा, पोस्टमैन था. पत्नी की कुछ पुस्तकें डाक से आई थीं. पुस्तकें प्राप्त कर, अधूरे पत्र को जल्द पूरा किया और पोस्ट करने चल दिए.

कुछ दिनों बाद, देर रात्रि में टेलीफोन की घंटी बजी. उठाया तो दूसरी ओर से सोफिया की आवाज थी. कह रही थी कि पत्र मिलने पर बहुत खुशी हुई. अगले मंडे को बेटी के साथ वह मुंबई पहुंच रही है. उसी पुराने होटल में कमरा बुक करा लिया है, पर व्यस्तता के कारण केवल एक सप्ताह का समय ही निकाल पाई है. उम्मीद है आप का परिवार भी घूमने में हमारे साथ रहेगा.

टेलीफोन पर हुई पूरी बात, सुबह पत्नी और बेटे को बतलाई. वे दोनों भी घूमने के लिए सहमत हो गए. सोफिया के साथ घूमते हुए पत्नी को भी अच्छा लगा. अभिषेक और जूली ने भी बहुत मौजमस्ती की. अंतिम दिन मुंबई घूमने का प्रोग्राम था. पर सब लोगों ने जब कोई रुचि नहीं दिखाई तो अभिषेक व जूली ने मिल कर ही प्रोग्राम बना लिया.

रात्रि में दोनों देर से लौटे. सोते समय सोफिया ने अपनी बेटी से पूछा, ‘‘आज अभिषेक के साथ तुम दिन भर, अकेले ही घूमती रहीं. तुम्हारे बीच बहुत सी बातें हुई होंगी? क्या सोचती हो तुम उस के बारे में? कैसा लड़का है वह?’’

‘‘मम्मी, अभि सचमुच बहुत अच्छा और होशियार है. एम.बी.ए. के पिछले सत्र में उस ने टाप किया है. आगे बढ़ने की उस में बहुत लगन है.’’

‘‘इतनी प्रशंसा? कहीं तुम्हें प्यार तो नहीं हो गया?’’

‘‘हां, मम्मी, आप का अनुमान सही है.’’

‘‘और वह?’’

‘‘वह भी.’’

‘‘तो क्या अभि के पापा से तुम दोनों के विवाह के बारे में बात करूं?’’

‘‘हां, मम्मी, अभि भी ऐसा ही करने को कह रहा था.’’

‘‘पर जूली, तुम्हारे पापा को तो ऐसा लड़का पसंद है, जो उन के साथ रह कर बिजनेस में उन की मदद कर सके. क्या अभि इस के लिए तैयार होगा.’’

‘‘क्यों नहीं, यह तो आगे बढ़ने की उस की इच्छा के अनुकूल ही है. फिर वह क्यों मना करने लगा?’’

‘‘भारत छोड़ देने पर, क्या उस के मम्मीपापा अकेले नहीं रह जाएंगे?’’

‘‘तो क्या हुआ? भारत में इतने वृद्धाश्रम किस लिए हैं?’’

‘‘क्या इस बारे में तुम ने अभि के विचारों को जानने का भी प्रयत्न किया?’’

‘‘हां, वह इस के लिए खुशी से तैयार है. कह भी रहा था कि यहां भारत में रह कर तो उस की तमन्ना कभी पूरी नहीं हो सकती. लेकिन मम्मी, अभि की इस बात पर आप इतना संदेह क्यों कर रही हैं?’’

‘‘कुछ नहीं, यों ही.’’

‘‘नहीं मम्मी, इतना सब पूछने का कुछ तो कारण होगा? बतलाइए.’’

‘‘इसलिए कि बिलकुल ठीक ऐसी ही परिस्थितियों में अभि के पापा ने भारत छोड़ने से मना कर दिया था.’’

‘‘पर तब आप ने उन्हें समझाया नहीं?’’

‘‘नहीं, शायद इसलिए कि मुझे भी उन का मना करना गलत नहीं लगा था.’’

‘‘ओह मम्मी, आप और अभि के पापा दोनों की बातें और सोच, मेरी समझ के तो बाहर की हैं. मैं तो सो रही हूं. सुबह जल्दी उठना है. अभि कह रहा था, वह सुबह मिलने आएगा. उसे आप से भी कुछ बातें करनी हैं.’’

बेटी की सोच और उस की बातों के अंदाज को देख, सोफिया को लग रहा था कि पीढ़ी के ‘अंतराल’ ने तो हवा का रुख ही बदल दिया है.

Father’s day 2023: जिंदगी फिर मुस्कुराएगी- पिता ने बेटे को कैसे रखा जिंदा

रात के 3 बजे थे. इमरजैंसी में एक नया केस आया था. इमरजैंसी में तैनात डाक्टरों और नर्सों ने मुस्तैदी से बच्चे की जांच की. बिना देरी किए उसे पीडियाट्रिक आई.सी.यू. में ऐडमिट कराने के लिए स्ट्रेचर पर लिटा कर नर्स व वार्ड- बौय तेजी से चल पड़े. पीछेपीछे बच्चे के मातापिता बदहवास से चल रहे थे.

पीडियाट्रिक आई.सी.यू. में भी अफरातफरी मच गई. बच्चे को बैड पर लिटा कर 4-5 डाक्टरों की टीम उस की चिकित्सा में लग गई.

‘‘टैल मी द हिस्ट्री,’’ डा. सिद्धार्थ ने कहा.

‘‘बच्चा 3 साल का है. यूरिनरी इन्फैक्शन हुआ था. डायग्नोसिस में बहुत देर हो गई. बच्चे को बहुत तेज बुखार की शिकायत है. इन्फैक्शन पूरे शरीर में फैल गया है पर इस से महत्त्वपूर्ण यह है कि 8 दिन पहले गिरने के कारण बच्चे को सिर में गहरी चोट लगी थी. ब्लड सर्कुलेशन के साथ इन्फैक्शन दिमाग में चला गया है. कल सुबह इन्फैक्शन के कारण ब्रेन हैमरेज भी हो गया,’’ पीडियाट्रिक्स इमरजैंसी के डा. शांतनु ने संक्षेप में बताया.

‘‘माई गुडनैस,’’ डा. सिद्धार्थ ने कहा, ‘‘मुझे सीटी स्कैन दिखाओ.’’

एक नर्स बच्चे के मातापिता के पास सीटी स्कैन लेने दौड़ी. बच्चे के पिता ने तुरंत सीटी स्कैन और रिपोर्ट नर्स को दे दी और पूछा, ‘‘बच्चा कैसा है सिस्टर. क्या कर रहे हैं अंदर. हम उसे देख सकते हैं क्या?’’

‘‘डाक्टर जांच कर रहे हैं. इलाज चल रहा है. एक बार बच्चे की हालत स्थिर हो जाए फिर आप को बुला लेंगे,’’ कह कर नर्स अंदर चली गई.

बच्चे के मातापिता बेबस से बाहर खड़े रह गए. बच्चे की मां मीनल के तो आंसू नहीं थम रहे थे. बच्चे की चोट वाली जगह से खून की एक लकीर पीछे तक गई थी.

‘‘सर, बच्चे के हाथ में लगा कैनूला ब्लौक हो गया है,’’ नर्स बोली, ‘‘चेंज करना पड़ेगा.’’

‘‘चेंज करो और फौरन आई.वी. ऐंटीबायोटिक और सलाइन शुरू करो. बच्चे का टैंपरेचर अभी कितना है?’’ डा. सिद्धार्थ ने पूछा.

नर्स ने तुरंत थर्मामीटर लगा कर बच्चे का बुखार देखा और कांपते स्वर में बोली, ‘‘सर, 106 से ऊपर है.’’

‘‘दिमाग के इन्फैक्शन में तो यह होना ही था. बच्चे को तुरंत कोल्ड वाटर स्पंज दो. हथेलियों, बगल में, पैर के तलवों और घुटनों के नीचे कोल्ड गौज या कौटन रखो और लगातार उन्हें बदलती रहना. ए.सी. के अलावा एक और पंखा ला कर बच्चे की ओर लगाओ ताकि बुखार आगे न जाने पाए,’’ डा. सिद्धार्थ ने हिदायत दी.

डेढ़ घंटे की जद्दोजहद के बाद कहीं बच्चे का बुखार 103 डिगरी तक आया, तब डा. सिद्धार्थ ने चैन की सांस ली. 2 नर्सों को बच्चों के पास छोड़ कर और इलाज के बारे में समझा कर डा. सिद्धार्थ ने बच्चे के मातापिता को बुला लाने को कहा. पीडियाट्रिक आई.सी.यू. के डाक्टर और नर्सें वापस अपनीअपनी ड्यूटी पर चले गए.

प्रशांत और मीनल दौड़ेदौड़े अंदर आए तो डा. सिद्धार्थ ने कहा, ‘‘हम ने बच्चे का इलाज शुरू कर दिया है. बुखार भी अब कम हो गया है. लेकिन बच्चे के दिमाग में जो इन्फैक्शन हो गया है उस के लिए न्यूरोलौजिस्ट को बुला कर चैकअप करवाना पड़ेगा.’’

‘‘हमारा बच्चा ठीक तो हो जाएगा न?’’ मीनल ने कांपते स्वर में पूछा.

‘‘हम अपनी ओर से पूरी कोशिश करेंगे. कल सुबह डा. बनर्जी दिमाग का उपचार शुरू कर देंगे तो उम्मीद है बुखार कंट्रोल में आ जाएगा. और हां, आप दोनों में से कोई एक ही आई.सी.यू. में बच्चे के पास बैठ सकता है.’’

मीनल ने बच्चे की ओर देख कर उसे पुकारा. थोड़ी देर बाद सोनू ने कमजोर स्वर में ‘हूं’ कहा. बुखार से सोनू बेदम हो रहा था. बीचबीच में अचानक कांप उठता और अजीब से स्वर में कराहने लगता. मीनल बच्चे की यह दशा देख कर रोने लगी.

प्रशांत ने पत्नी के कंधे पर हाथ रख कर उसे तसल्ली दी और अपने आंसू पोंछ कर बोला, ‘‘अपनेआप को संभालो मीनल. हमें उस का पूरा ध्यान रखना है. उसे ठीक करना है. अगर तुम ही टूट जाओगी तो सोनू की देखभाल कौन करेगा?’’

मीनल ने हामी भरते हुए अपने आंसू पोंछे और सोनू का हाथ थाम लिया. सोनू की कमजोर उंगलियों ने मीनल की उंगलियां थाम लीं तो मीनल का दिल भर आया. मस्तिष्क में संक्रमण से सोनू खुल कर रो नहीं पा रहा था और बोल भी नहीं पा रहा था. बस, रहरह कर उस का शरीर कांपता और वह घुटेघुटे स्वर में कराहने लगता.

सोनू का हाथ सहलाते हुए मीनल के सामने बेटे के जन्म से ले कर अब तक की घटनाएं चलचित्र की भांति घूमने लगीं. कितनी खुश थी वह मां बन कर. सोनू के जन्म के बाद उस के पालनपोषण में कब दिन गुजर जाता पता ही नहीं चलता. प्रकृति ने सारे जहां की खुशियां मीनल की झोली में डाल दी थीं. जीवन में खुशियां ही खुशियां थीं. सोनू था भी बहुत प्यारा बच्चा. सारा दिन ‘मांमां’ कहता मीनल का आंचल थामे उस के आगेपीछे घूमता रहता. पर अचानक उन के सुखी संसार में न जाने कहां से दुख के बादल घिर आए.

6 महीने पहले सोनू को बुखार आना शुरू हुआ. प्रशांत उसे डाक्टर के पास ले गया. दवाइयों से 5 दिनों में सोनू ठीक हो गया. मीनल और प्रशांत निश्चिंत हो गए. पर 15 दिन बाद ही सोनू को फिर बुखार आया तो उन्हें चिंता हुई और डाक्टर ने दवा दे कर कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है, सभी बच्चों को बदलते मौसम से यह परेशानी हो रही है.

इसी तरह 5 महीने गुजर गए. सोनू को महीने भर तक जब लगातार बुखार के साथ पेट में दर्द, पेशाब में जलन की शिकायत होने लगी तब कसबे के डाक्टर ने उसे बड़े शहर में जा कर चाइल्ड स्पैशलिस्ट को दिखाने को कहा.

मीनल और प्रशांत तुरंत सोनू को शहर ले आए. वहां चाइल्ड स्पैशलिस्ट ने सोनू की खून और यूरिन की सभी जरूरी जांच करवाईं और कल्चर करवाया. कल्चर ड्रग सैंसेटिविटी जांच से पता चला कि अब तक जो ऐंटीबायोटिक सोनू को दी जा रही थीं उन दवाइयों ने सोनू पर कुछ असर ही नहीं किया था और संक्रमण बढ़तेबढ़ते गुर्दों तक फैल गया.

डाक्टर ने उसे तुरंत ऐडमिट कर लिया. 7 दिन तक उसे आई.वी. ऐंटीबायोटिक का कोर्स देने के बाद जब उस का बुखार सामान्य तक आ गया तो उसे जरूरी निर्देश दे कर डिस्चार्ज दे दिया.

मीनल और प्रशांत सोनू को ले कर घर आ गए. 2-3 दिन ठीक रहने के बाद सोनू को फिर से हलकाहलका बुखार रहने लगा. एक दिन घर के सामने पड़ोस के बच्चे खेल रहे थे. सोनू की जिद पर मीनल ने उसे खेलने भेज दिया.

मीनल आंगन में खड़ी हो कर बेटे को देख रही थी कि अचानक एक बच्चे को पकड़ने के लिए दौड़ने की कोशिश करता सोनू लड़खड़ा कर गिर गया. उस का सिर तेजी से एक नुकीले पत्थर से टकराया. खून की धार फूट पड़ी. मीनल घबरा कर जल्दी से उसे डाक्टर के यहां ले कर दौड़ी. डाक्टर ने दवा लगा कर पट्टी बांध दी.

घटना के 5वें दिन अचानक सोनू बेचैन हो कर हाथपैर पटकने लगा, अजीब तरह से कराहने लगा. मीनल ने उस का बदन छुआ तो उसे तेज बुखार था. मीनल ने तुरंत प्रशांत को फोन लगाया. प्रशांत औफिस से उसी समय घर आया और वे सोनू को शहर के चाइल्ड स्पैशलिस्ट के पास ले गए. उन्होंने तुरंत उसे ऐडमिट करवाया. उस का सीटी स्कैन करवाया तो पता चला कि चोट से शरीर में मौजूद संक्रमण मस्तिष्क तक चला गया है और तेज बुखार व संक्रमण के चलते सोनू को ब्रेन हैमरेज हो गया है.

मीनल तो यह सुन कर होश ही खो बैठी. कुछ दिनों तक वे लोग अपने शहर में इलाज कराते रहे लेकिन सोनू की स्थिति में सुधार न होता देख डाक्टर ने प्रशांत से सोनू को दिल्ली ले जाने के लिए कहा. मीनल और प्रशांत तुरंत सोनू को दिल्ली ले आए.

सोनू का हाथ थामे मीनल ने गहरी सांस ली. सोनू अब भी बेचैनी और दर्द से हाथपैर पटक रहा था और एक मां बेबस सी बैठी थी. सच, कुदरत के आगे इंसान कितना लाचार है.

सुबह 8 बजे डा. बनर्जी अपनी टीम सहित सोनू का निरीक्षण करने आ पहुंचे. उन्होंने सोनू को देखा और उस की रिपोर्ट की जांच की. डाक्टर व नर्सों को कुछ नई दवाइयों के बारे में बताया और फिर प्रशांत को बुलवाया.

‘‘देखिए, हम ने मस्तिष्क के संक्रमण के लिए एक नई दवा स्टार्ट कर दी है. जरूरत पड़ी तो एकदो दिन में एक सीटी स्कैन करवा लेंगे,’’ डा. बनर्जी ने प्रशांत और मीनल से कहा.

‘‘सोनू कब तक ठीक हो जाएगा डाक्टर साहब?’’ प्रशांत ने पूछा.

‘‘हम ने मस्तिष्क के संक्रमण के लिए जो नई ऐंटीबायोटिक शुरू की है, 2-3 दिन इस को देखते हैं, क्या असर होता है फिर आगे के इलाज की योजना बनाएंगे,’’ कह कर डा. बनर्जी वहां से दूसरे मरीज के पास चले गए.

अगले 2 दिनों तक सोनू की स्थिति में कोई सुधार नहीं दिखा तो डा. बनर्जी ने फिर से सोनू का सीटी स्कैन करवाया. संक्रमण फैलने की वजह से अब की बार उस के मस्तिष्क के पिछले हिस्से भी क्षतिग्रस्त नजर आए.

दूसरे दिन मीनल और प्रशांत हताश से बैठे थे कि रात में 8 बजे अचानक सोनू तेज आवाज में खींचखींच कर सांस लेने लगा. मीनल उस के सीने पर हाथ फेरने लगी. सिस्टर जल्दी से डाक्टर को बुला लाई. डाक्टर ने सोनू की स्थिति को देखते ही सिस्टर से कहा, ‘‘पेशेंट को तुरंत वैंटीलेटर पर शिफ्ट करना पड़ेगा. सिस्टर, डा. यतिन को फौरन बुलाओ और जब तक यतिन आते हैं तब तक बाकी सब तैयारी हो जानी चाहिए.’’

डा. यतिन ने पहुंचते ही मीनल से कहा, ‘‘आप प्लीज बाहर वेट करिए. हमें सोनू को वैंटीलेटर पर शिफ्ट करना पड़ेगा. बाद में हम आप को बुलवा लेंगे.’’

मीनल चुपचाप बाहर आ गई. उस ने प्रशांत को सबकुछ बताया. दोनों धीरज रख कर बाहर बैठे रहे.

करीब 2 घंटे बाद डा. यतिन ने प्रशांत और मीनल को बुलवाया और बताया, ‘‘सोनू खींचखींच कर सांस ले रहा था. इस का अर्थ है कि उस के दिमाग में ब्रीदिंग कंट्रोल करने वाला भाग डैमेज हो गया है. मस्तिष्क के किसी भी भाग की क्षति स्थायी होती है. आई एम सौरी. देखते हैं,’’ डा. यतिन ने प्रशांत का कंधा थपथपाया और चले गए.

अगले 2 दिनों में डा. बनर्जी ने फिर से सोनू का सीटी स्कैन करवाया और रिपोर्ट देख कर प्रशांत से बोले, ‘‘कल रात में इस का एक और बार ब्रेन हैमरेज हो चुका है. संक्रमण की वजह से मस्तिष्क के ज्यादातर हिस्से क्षतिग्रस्त हो कर काम करना बंद कर चुके हैं. हमें अफसोस है, हम सोनू के लिए कुछ नहीं कर पाए.’’

स्तब्ध सी मीनल धड़ाम से कुरसी पर गिर पड़ी. प्रशांत ने उस के कंधे पर अपना कांपता हुआ हाथ रख दिया. उन के घर का चिराग बस बुझने को ही है और वे नियति के हाथों कितने मजबूर हैं, लाचार हैं.

तीसरे दिन सुबह डा. लतिका ने प्रशांत और मीनल को अपने कैबिन में बुलवाया. डा. लतिका भी डा. यतिन की तरह ही पीडियाट्रिक्स की सीनियर डाक्टर थीं. उन्होंने पहले तो मीनल और प्रशांत को पानी पिलाया और फिर कहना प्रारंभ किया :

‘‘देखिए, आप सोनू की हालत तो जानते ही हैं. संक्रमण की वजह से उस के ब्रेन के ज्यादातर हिस्सों ने काम करना बंद कर दिया था. आज सुबह न्यूरोलौजिस्ट ने उस की जांच की तो पता चला कि उस के पूरे मस्तिष्क की क्रियाशीलता खत्म हो चुकी है. डाक्टरी भाषा में कहें तो सोनू की ब्रेन डैथ हो चुकी है.’’

‘‘नहीं…’’ मीनल चीत्कार कर उठी. प्रशांत भी सुबक उठा. करीब 15 मिनट बाद मीनल और प्रशांत के दुख का ज्वार कुछ कम हुआ तो प्रशांत ने पूछा, ‘‘सोनू की सांस और धड़कन तो चल रही है, डाक्टर.’’

‘‘जी, वह बस वैंटीलेटर (सिस्टोलिक ब्लडप्रैशर) के कारण चल रही है. अगर हम अभी वैंटीलेटर हटा लेते हैं तो उस की सांस और धड़कन बंद हो जाएगी. ब्रेन डैथ के मामले में हम 12 घंटे बाद दोबारा सारी जांच कर के यह तय करते हैं कि कहीं जीवन का लक्षण बाकी है या नहीं. तभी हम वैंटीलेटर हटाते हैं,’’ डा. लतिका ने समझाया, ‘‘लेकिन अगर आप चाहें तो सोनू का दिल हमेशा धड़कता रह सकता है.’’

‘‘जी? वह कैसे?’’ मीनल और प्रशांत ने एकसाथ अचरज से पूछा.

‘‘बात यह है कि हमारे अस्पताल में एकदो मरीज हैं जिन्हें तुरंत हार्ट ट्रांसप्लांट की जरूरत है. यदि आप सोनू का हार्ट डोनेट कर सकें तो उन में से जिस के साथ भी क्रास मैचिंग हो जाए उस में सोनू का हार्ट ट्रांसप्लांट किया जा सकता है. इस तरह से आप के बच्चे के जाने के बाद भी उस का दिल इस दुनिया में धड़कता रहेगा,’’ डा. लतिका ने कहा.

‘‘नहींनहीं. आप यह कैसी बातें कर रही हैं,’’ मीनल तड़प कर बोली, ‘‘आप मेरे सोनू के शरीर से…आप को एक मां के दर्द का जरा सा भी एहसास नहीं है.’’

डा. लतिका ने मीनल के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘मैं भी एक मां हूं, मुझे तुम्हारे दर्द का पूरा एहसास है, मीनल.

‘‘तुम्हारे सोनू की जगह उस दिन मेरा ही बेटा था. हां, मीनल यह घटना 6 साल पहले की है. मेरे 18 बरस के बेटे का जन्मदिवस था. वह अपने दोस्तों के साथ एक रैस्टोरैंट में गया था. लौटते समय उस की बाइक का ऐक्सीडैंट हो गया. सिर में लगी गंभीर चोट की वजह से उस की ब्रेन डैथ हो चुकी थी. मैं उस के दिल की धड़कन को हमेशा के लिए बरकरार रखना चाहती थी पर देश में उस समय हार्ट ट्रांसप्लांट के लिए मरीज उपलब्ध नहीं था.’’

डा. लतिका ने अपने आंसू पोंछ कर फिर कहना शुरू किया, ‘‘मेरे बेटे की धड़कन तो मैं नहीं बचा पाई लेकिन हम ने उस की दोनों किडनी और आंखें डोनेट कर दीं. आज कहीं न कहीं उस की आंखें यह दुनिया देख रही हैं. उस के गुर्दों ने तब मौत के मुंह में जाते 2 लोगों को बचा लिया था.’’

कुछ देर के मौन के बाद प्रशांत ने हिम्मत कर के पूछा, ‘‘आप हार्ट किस को डोनेट करेंगे?’’

‘‘क्षमा कीजिएगा, कुछ नियमों के कारण हम आप को यह जानकारी तो नहीं दे सकते. यह बात दोनों ही परिवारों से गुप्त रखी जाती है. मुझे भी अपने बेटे के समय ट्रांसप्लांट सर्जन ने यह जानकारी नहीं दी थी. लेकिन ट्रांसप्लांट सफल हुआ है या नहीं, वह सूचना हम आप को अवश्य देंगे,’’ डा. लतिका ने स्पष्ट किया.

प्रशांत और मीनल डा. लतिका से विदा ले कर आई.सी.यू. में आ कर सोनू के पास बैठ गए. वैंटीलेटर के मौनिटर पर सोनू की धड़कनों का रिकौर्ड आ रहा था. उसे देखते ही प्रशांत बिलख कर बोले, ‘‘हां कह दो मीनल. अपने सोनू की धड़कनों के सिलसिले को रुकने मत दो. डाक्टर की बात मान लो.’’

मीनल हैरानी से पति को देख कर बोली, ‘‘तुम भी यही कह रहे हो, प्रशांत? बताओ, मैं कैसे अपने मासूम बच्चे की चीराफाड़ी…’’ आगे के शब्द मीनल के आंसुओं से बह गए.

‘‘जरा सोचो मीनल, कुछ घंटे बाद ब्रेन डैथ कन्फर्म होने के बाद यों भी ये लोग वैंटीलेटर हटा देंगे. तब तो सोनू की सांस और धड़कन सबकुछ खत्म हो जाएगा. हम भी उसे श्मशान ले जा कर जला देंगे. सबकुछ राख हो जाएगा. आज डाक्टर ने हमें कितना बड़ा मौका दिया है कि हम उस की धड़कन को, उस की आंखों की रोशनी को हमेशा के लिए बरकरार रख सकते हैं. हमारा सोनू किसी न किसी रूप में आगे भी जीवित रहेगा.’’

प्रशांत की नजरें अभी भी सोनू की धड़कनों पर थीं.

‘‘मुझे क्या करना है दुनिया से,’’ मीनल बोली, ‘‘मैं अपने मासूम बच्चे के साथ ऐसा नहीं कर सकती.’’

‘‘ऐसा न कहो मीनल,’’ प्रशांत ने उस के कंधे पर हाथ रख कर समझाया, ‘‘डा. लतिका ने कहा न सोनू जल्द ही तुम्हारे पास आ जाएगा. सोनू को बचाने में हम ने कोई कसर बाकी नहीं रखी. परंतु सोनू के जाने के बाद भी उस की धड़कन और आंखों की रोशनी को बरकरार रख कर हमें मानवता की इतनी बड़ी सेवा करने का मौका मिला है.’’

मीनल चुपचाप सुबकती रही. प्रशांत फिर बोले, ‘‘देश और देशवासियों की रक्षा के लिए मांएं अपने जवान बेटों को सीमा पर हंसतेहंसते कुरबान कर देती हैं. क्या उन्हें अपने बेटों को खोने का गम नहीं होता होगा? पर देश, समाज और इंसानियत की रक्षा के लिए वे हंस कर यह दर्द, यह तकलीफ सह लेती हैं. उन का ध्यान करो. अपने बच्चों को खोते समय वे भी तो नहीं जानतीं कि किन लोगों के लिए उन्हें कुरबान कर रही हैं. जिन की रक्षा में उन के बच्चे अपने प्राण गंवाते हैं उन को सैनिकों की मांएं कहां पहचानती हैं.

‘‘तुम भी यह मत सोचो कि सोनू का दिल या आंखें किस में ट्रांसप्लांट होंगी. बस, मानवता के प्रति अपना कर्तव्य समझ कर हां कर दो,’’ प्रशांत ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे समझाने की आखिरी कोशिश की.

मीनल ने अपना हाथ सोनू के सीने पर रखा. उस का दिल अपनी लय में धड़क रहा था. उस की धड़कन महसूस करते ही मीनल फफक पड़ी और रोते हुए बोली, ‘‘आप ठीक कहते हैं. मैं मां हूं. अपने बच्चे की धड़कन को भला कैसे रुकने दे सकती हूं. नहींनहीं, आप डा. लतिका से कह दीजिए कि मेरे सोनू के दिल की धड़कन हमेशा चलती रहेगी. उस की आंखें भी यह दुनिया देखती रहेंगी.’’

मीनल को गले लगाते हुए प्रशांत खुद फफक कर रो दिया.

प्रशांत के फैसले पर उस का हाथ पकड़ कर डा. लतिका ने आंखों में आंसू भर कर रुंधे गले से कहा, ‘‘तुम ने अपने बच्चे को अंधेरे में खो जाने से बचा लिया. तुम नहीं जानती हो कि तुम ने कितना बड़ा काम किया है. मानवता की कितनी बड़ी सेवा की है. कितने घरों के चिराग रोशन कर दिए. मैं तुम्हें दिल से दुआ देती हूं, तुम्हारा सोनू जल्द ही तुम्हारे पास वापस आएगा,’’ डा. लतिका ने मीनल को गले लगा लिया.

अगले दिन प्रशांत और मीनल अपने घर में रिश्तेदारों से घिरे बैठे थे. तभी प्रशांत को डा. लतिका का फोन आया. सोनू का हार्ट उपलब्ध मरीजों में से एक के साथ मैच कर गया तथा उस बच्चे में प्रत्यारोपित कर दिया गया. प्रत्यारोपण सफल रहा है.

इस के एक माह बाद डा. लतिका का फिर से फोन आया. सोनू का हार्ट जिस बच्चे में प्रत्यारोपित किया गया था उस के शरीर ने सोनू के दिल को स्वीकार कर लिया है. बच्चा अब पूरी तरह से स्वस्थ हो कर अपने घर जा रहा है. आप के सोनू का दिल सफलतापूर्वक धड़क रहा है और आगे भी धड़कता रहेगा. सोनू की आंखें भी 2 लोगों को लगाई जा चुकी हैं.

प्रशांत और मीनल ने एकदूसरे की ओर देखा. दोनों के मन ने एक अजीब सा संतोष महसूस किया. उन का सोनू आज भी जीवित है, उन्होंने सोनू को राख बन कर बिखर जाने से बचा लिया. उन का सोनू अमर हो गया.

इतने दिनों की भागादौड़ी और दुख में मीनल ने अपनी ओर ध्यान ही नहीं दिया था. उस का सोनू तो कभी कहीं गया ही नहीं था. वह तो रूप बदल कर पहले से चुपचाप मीनल की कोख में छिप कर बैठा था. डा. लतिका की दुआ सच हुई. जिंदगी फिर मुसकरा रही थी.

दूरी: भाग 3- जब बेटी ने किया पिता को अस्वीकार

अकेले नन्ही बच्ची की जिम्मेदारी बिना किसी अच्छी नौकरी के कैसे उठाती? अधूरी सी जिंदगी कैसे जी पाती वह? पर पलक का कहना भी पूरी तरह गलत नहीं. क्या सचमुच वह स्वार्थी नहीं हो गई थी? अपना अधूरापन दूर करने और पुरुष के संबल की चाह में ही तो उस ने प्रकाश का साथ स्वीकारा और इस कोशिश में बच्चे की खुशियों की अनदेखी कर दी. यदि वह मजबूत होती तो प्रकाश की तरफ झुकाव नहीं होता. वह देर तक इसी उधेड़बुन में रही. और आज प्रकाश ने पहली दफा पलक पर हाथ उठाया था. क्या पता अब पलक की प्रतिक्रिया कैसी होगी? कहीं वह सचमुच घर छोड़ कर चली गई तो? जवान लड़की है, कुछ भी हो सकता है उस के साथ. नहींनहीं… उसे पलक को समझना पड़ेगा. पर कैसे? वह समझती कहां है? हालात और बिगड़ते जा रहे थे. क्या करे वह? क्या है समाधान? पूरा दिन उस ने बेचैनी में गुजारा. पलक को फोन किया तो मोबाइल औफ मिला चिंता से उस का सिर दुखने लगा.

शाम को प्रकाश आया तो उदास सा था. मेघा ने

उसे बताया कि पलक अब तक नहीं लौटी है. कहीं कुछ कर न बैठे… कहतेकहते उस की आंखों में आंसू आ गए.

प्रकाश बिना कुछ बोले अपने कमरे में चला गया और दरवाजा बंद कर लिया. मेघा बेटी को फोन करकर परेशान थी. रात 9 बजे पलक लौटी तो मेघा ने दौड़ कर उसे सीने से लगा लिया. पर पलक मेघा को खुद से अलग कर अपने कमरे में बंद हो गई. मेघा का मन कर रहा था चीखचीख कर रोए. इस घुटन भरी जिंदगी से वह आजिज आ गई थी.

सुबह जब प्रकाश औफिस के लिए निकला तो उस के हाथ में सूटकेस था. उस ने मेघा को बताया कि वह औफिशियल टूर पर देहरादून जा रहा है. घर और पलक का खयाल रखना. कह कर मेघा को सीने से लगा लिया. ठीक वैसे ही जैसे मिहिर टूर पर जाते वक्त लगा था. मेघा दूर तक उसे जाते

देखती रही.

तभी पलक भी बिना कुछ कहे कालेज के लिए निकलने

लगी. दादीमां ने उसे प्यार से पकड़ते हुए कहा, ‘‘बेटा, प्लीज शाम को जल्दी घर आ जाना वरना मैं मर जाऊंगी.’’

पलक ने शिकायती लहजे में मां के बेबस चेहरे की तरफ देखा और चुपचाप निकल गई.

दुखी मन से मेघा अपने कमरे में आ गई. अपने बैड पर पत्र रखा देख कर वह चौंकी. पत्र प्रकाश का था. लिखा था,

‘‘डियर मेघा, हमारा रिश्ता बहुत पाकसाफ और खूबसूरत है जिसे कोई और नहीं सम?ा सकता. बेटी भी नहीं. इस बात का दर्द तो हमेशा रहेगा पर बच्चे के भविष्य के लिए हमें इस से भी बड़े दर्द भरे दौर से गुजरना पड़ेगा. दरअसल,

मैं नहीं चाहता कि मेरी वजह से पलक तुम से दूर हो. तुम पहले

एक मां का दायित्व अच्छी तरह निभाओ. पलक की शादी कर लो. फिर हम मिलेंगे. तब तक के लिए मैं तुम से दूर जा रहा हूं क्योंकि

यह दूरी हमारी बच्ची के लिए जरूरी है.’’

मेघा ने कई बार उस खत को पढ़ा. फिर निढाल सी सोफे पर बैठ गई. उसे लगा जैसे वह आज फिर से अधूरी हो गई है. प्रकाश के बगैर वह जीने की कल्पना भी कैसे

कर पाएगी?

प्रकाश ने भी तो कितनी मुश्किल से यह फैसला लिया

होगा. पर उस ने सही ही किया है. हमारे बीच यह दूरी जरूरी है. मेघा खत बंद कर देर तक खामोश बैठी रही. खुद को अधूरा महसूस करने के बावजूद वह दुखी नहीं थी, क्योंकि यह अधूरापन फिलहाल जरूरी था, दायित्वों को पूरा करने के लिए.

Father’s day 2023: अकेले होने का दर्द- भाग 3

मैं ने कहा, ‘‘आइए आंटी, कहां से आ रही हैं इस समय?’’ ‘‘दिल्ली हाट तक गई थी, थोड़ी देर हो गई. सामने की दुकान से कोई पानी देने तो नहीं आया था?’’ ‘‘नहीं, अच्छा तो आप भीतर तो आइए…मेरे से एक बोतल पानी ले जाइए,’’ कहते हुए मैं वापस खाने की टेबल पर आ गई, ‘‘खाना खाएंगी न आंटी.’’ ‘‘नहीं बेटा, आज मन नहीं है.’’ मैं ने पापा को उन का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘पापा, यह मीरा आंटी हैं. सामने के फ्लैट में रहती हैं. बेहद मिलनसार और केयरिंग भी. राहुल को जब भी कुछ नया खाने का मन करता है आंटी बना देती हैं.’’ ‘‘अरे, बस बस,’’ कह कर वह सामने आ कर बैठ गईं. मैं ने उन की तरफ प्लेट सरकाते हुए कहा, ‘‘अच्छा, कुछ तो खा लीजिए. हमारा मन रखने के लिए ही सही,’’ और इसी के साथ उन की प्लेट में मैं ने थोड़े चावल और दाल डाल दी. ‘‘लगता है आप यहां अकेली रहती हैं?’’ पापा ने पूछा. ‘‘हां, पापा,’’ इन के पति आर्मी में हैं. वहां इन को साथ रहने की कोई सुविधा नहीं है,’’ राहुल ने कहा. ‘‘फिर तो आप को बड़ी मुश्किल होती होगी अकेले रहने में?’’ ‘‘नहीं, अब तो आदत सी पड़ गई है,’’ आंटी बेहद उदासीनता से बोलीं, ‘‘बेटीदामाद भी कभीकभी आते रहते हैं, फिर जब कभी मन उचाट हो जाता है मैं उन से स्वयं मिलने चली जाती हूं.’’ ‘‘पापा, इन की बेटीदामाद दोनों डाक्टर हैं और चेन्नई के अपोलो अस्पताल में काम करते हैं,’’ मैं ने कहा. बातों का सिलसिला देर तक यों ही चलता रहा. जातेजाते आंटी बोलीं, ‘‘मैं सामने ही रहती हूं…किसी वस्तु की जरूरत हो तो बिना संकोच बता दीजिएगा.’’

‘‘आंटी, पापा को सुबह इंजेक्शन लगवाना है. किसी को जानती हैं आप, जो यहीं आ कर लगा सके.’’ ‘‘अरे, इंजेक्शन तो मैं ही लगा दूंगी…बेटी ने इतना तो सिखा ही दिया है.’’ ‘‘ठीक है आंटी, मैं सुबह इंजेक्शन भी ले आऊंगी और पट्टी भी,’’ कहते- कहते मैं भी उठ गई. ‘‘हां, बेटा, यह तो मेरा सौभाग्य होगा,’’ कह कर आंटी चली गईं. शाम को मैं आफिस से आई और पापा का हालचाल पूछा. आज वह थोड़ा स्वस्थ लग रहे थे. कहने लगे, ‘‘सुबह इंजेक्शन और डे्रसिंग के बाद थोड़ा रिलैक्स अनुभव कर रहा हूं. फिर शाम को सामने पार्क में भी घूमने गया था.’’ मैं चाहती थी पापा कुछ दिन और यहां रहें. हर रोज कोई न कोई बहाना बना कर वह जतला देते थे कि वह वापस जाना चाहते हैं. यहां रहना उन के सिद्धांतों के खिलाफ है. मेरी शंका जितनी गहरी थी पर समाधान उतना ही कठिन. मैं ने और राहुल ने भरसक प्रयत्न किया कि उन्हें यहीं पास में कोई और मकान ले देते हैं पर वह किसी भी तरह नहीं माने. फिर हम ने उन्हें इस बात के लिए मना लिया कि 1 महीने के बाद दीवाली आ रही है तब तक वह यहीं रहें.

हमारी आशाओं के अनुकूल उन्होंने यह स्वीकार कर लिया था. मुझे थोड़ी सी तसल्ली हो गई. उस दिन मैं और राहुल प्रगति मैदान जाने का मन बना रहे थे, जहां गृहसज्जा के सामान की प्रदर्शनी लगी हुई थी. मैं ने पापा को भी साथ चलने के लिए कहा. उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि मैं वहां जा कर क्या करूंगा. ‘‘पापा, आप साथ चलेंगे तो हमें अच्छा लगेगा. मानसी कई दिनों से माइक्रोवेव लेने का मन बना रही थी. आप रहेंगे तो राय बनी रहेगी,’’ राहुल ने विनती करते हुए कहा. ‘‘तुम्हारा मुझे इतना मान देने के लिए शुक्रिया बेटा…पर जा नहीं पाऊंगा, क्योंकि पार्क में आज इस कालोनी के बुजुर्गों की एक बैठक है.’’ हम दोनों ही वहां चले गए. प्रगति मैदान से आने के बाद जैसे ही हम ने कार पार्क की कि मीरा आंटी के घर से डाक्टर अवस्थी को निकलते देखा. मैं एकदम घबरा गई और तेजी से जा कर पूछा, ‘‘डाक्टर साहब, क्या हुआ मीरा आंटी को? सब ठीक तो है न.’’ ‘‘हां, अब सब ठीक है. उन के घर में किसी की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी.’’ इस से पहले कि मैं कुछ सोच पाती, मीरा आंटी सामने से आती हुई बोलीं, ‘‘तुम्हारे पापा इधर हैं, तुम लोग अंदर आ जाओ.’’ ‘‘क्यों, क्या हुआ उन को?’’ ‘‘दरअसल, तुम्हारे जाने के बाद उन्होंने मेरी घंटी बजा कर कहा था कि उन्हें बहुत घबराहट हो रही है. मैं थोड़ा घबरा गई थी.

मैं उन्हें सहारा दे कर अपने यहां ले आई और डाक्टर को फोन कर दिया. उन का ब्लडप्रैशर बहुत बढ़ा हुआ था. शायद गैस हो रही होगी. अभी उन्हें सोने का इंजेक्शन और कुछ दवाइयां दी हैं,’’ कहते हुए उन्होंने मुझे वह परचा पकड़ा दिया. ‘‘आंटी, बुढ़ापा नहीं, पापा अकेलेपन का शिकार हैं,’’ कहतेकहते मैं पापा के पास ही बैठ गई, ‘‘62 साल की उम्र भी कोई बुढ़ापे की होती है.’’ राहुल जब तक अपने फ्लैट से फ्रेश हो कर आए आंटी ने चाय बना दी. मैं पुन: पापा की इस हालत से चिंतित थी और परेशान भी. वह पूरी रात हम ने उन के पास बैठ कर बिताई. कुछ दिन और बीत गए. पापा अब फिर सामान्य हो गए थे. आंटी का हमारे घर निरंतर आनाजाना बना रहता था. हम पापा में फिर से उत्साह पैदा करने की कोशिश करते रहे. एक पल वह खुश हो जाते और दूसरे ही पल उदास और गंभीर. रविवार को हम सवेरे बरामदे में बैठे चाय पी रहे थे. बातोंबातों में राहुल ने आंटी का उदाहरण देते हुए कहा कि वह कितने मजे से जिंदगी काट रही हैं.

‘‘सचमुच वह बहुत ही भद्र और मिलनसार महिला हैं. इस उम्र में तो उन के पति को भी रिटायरमेंट ले लेना चाहिए. कब से वह अकेली जिंदगी जी रही हैं और आजकल के हालात देखते हुए एक अकेली औरत…’’ पापा बोले. ‘‘पापा, आप को एक बात बताऊं,’’ राहुल ने सारा संकोच त्याग कर कहा, ‘‘मैं ने पहले दिन आप से झूठ बोला था कि आंटी के पति आर्मी में हैं. दरअसल, उन के पति की मृत्यु 8 साल पहले हो चुकी है. तब उन की बेटी मेडिकल कालिज में पढ़ती थी. बड़ी मुश्किलों से आंटी ने उसे पढ़ाया है. पिछले ही साल उस की शादी की है.’’ ‘‘ओह, यह तो बहुत बुरा हुआ. उन्होंने कभी बताया भी नहीं.’’ ‘‘सभी लोगों को उन्होंने यही बता रखा है जो मैं ने आप को बताया था. एक अकेली औरत का सचमुच अकेला रहना कितना कठिन होता है, यह उन से पूछिए. इसलिए मैं जब भी आंटी को देखती हूं मुझे आप की चिंता होने लगती है. औरत होने के नाते वह तो अपना घर संभाल सकती हैं पर पुरुष नहीं.

उन्हें सचमुच एक सहारे की जरूरत होती है. पापा, आप को लगता है कि आप यों अकेले जीवन बिता पाएंगे…मैं बेटी हूं आप की…मम्मी के बाद आप का ध्यान रखना मेरा फर्ज है…मेरा अधिकार भी है और कर्तव्य भी…मैं जो कह रही हूं आप समझ रहे हैं न पापा…मैं मीरा आंटी की बात कर रही हूं.’’ मैं अपनी बात कह चुकी थी. और अब पापा के चेहरे पर घिर आए भावों को पढ़ने की कोशिश करने लगी. ‘‘मानसी ठीक कह रही है, पापा,’’ राहुल बोले, ‘‘बहुत दिनों तक सोचने के बाद ही डरतेडरते हम ने आप से कहने की हिम्मत जुटाई है. बात अच्छी न लगे तो हमें माफ कर दीजिए.’’ ‘‘बेटे, इस उम्र में शादी. मैं कैसे भूल पाऊंगा तुम्हारी मम्मी को, और फिर लोग क्या सोचेंगे,’’ पापा का स्वर किसी गहरे दुख में डूब गया. ‘‘पापा, लोग बुढ़ापे के लिए तो एकदूसरे का सहारा ढूंढ़ते हैं. इस उम्र में आप को कई बीमारियों ने आ घेरा है, उपेक्षित से हो कर रह गए हैं आप. अब जो हो गया उस पर हमारा जोर तो नहीं है. फिर लोगों से हमें क्या लेनादेना. आप दोनों तैयार हों तो हमें दुनिया से क्या लेना.’’

‘‘मीरा से भी तुम ने बात की है?’’ उन्होंने बेहद संजीदगी से पूछा. ‘‘हां, पापा, हम ने उन्हें भी मुश्किल से मनाया है. यदि आप तैयार हों तो…आप हमारा हमेशा ही भला चाहते रहे हैं. क्या आप चाहते हैं कि हम सदा आप के लिए चिंतित रहें. बहुत सी बातें आप छिपा भी जाते हैं. मैं पहले भी आप से इस बारे में बात करना चाहती थी मगर हर बार संकोच की दीवार सामने आ जाती थी.’’ वह कुछ असहज भी थे और असामान्य भी, किंतु जिस लाड़ भरी निगाहों से उन्होंने मुझे देखा, मुझे लगा मेरी यह हरकत उन्हें अच्छी लगी है. ‘‘पापा, प्लीज,’’ कह कर मैं उन के पास आ कर बैठ गई, ‘‘आप को सुखी देख कर हम लोग कितनी राहत महसूस करेंगे. यह मैं कैसे बताऊं . आप की ऐसी हालत देख कर मेरा जी भर आता है. मैं आप को बहुत प्यार करती हूं पापा,’’ कहतेकहते मैं रो पड़ी. पापा धीरे से मुसकराए. शिष्टाचार के सभी बंधन तोड़ कर मैं उन से लिपट गई. महीनों से खोई हुई उन की हंसी वापस उन के चेहरे पर थी. उन का ठंडा मीठा स्पर्श आज अर्से बाद मुझे मिला था. ‘‘थैंक्स, पापा,’’ कहतेकहते मेरी आवाज आंसुओं के चलते भर्रा गई.

दूरी: भाग 2 – जब बेटी ने किया पिता को अस्वीकार

मेघा की आंखों के आगे उस का अतीत तैरने लगा…

कितना हंसताखेलता खुशहाल परिवार था उस का. बहुत गुमान था उसे अपनी कंप्लीट लाइफ पर. जिसे प्यार किया, उस से शादी कर ली. भरापूरा परिवार मिला, गोद में एक नन्ही परी सी बेटी आ गई. घर में धनसंपत्ति की कोई कमी नहीं थी. कंप्लीट हैप्पी फैमिली थी उस की. पर अचानक वक्त ने ऐसी करवट ली कि पल भर में सब कुछ बदल कर रख दिया.

मिहिर एक सड़क हादसे का शिकार हो गए और वह अधूरी सी रह गई. मिहिर का जाना उस के जीवन में अंधेरा कर गया था. उस की आंखों के आंसू सूखते ही नहीं थे. वह ऐसा वक्त था कि साससुर भी उसे हौसला नहीं दे सकते थे, क्योंकि जवान बेटे के गम में वे खुद ही टूट से गए थे. दोनों बीमार भी रहने लगे थे. मेघा को विधवा के रूप में देख कर और भी दर्द बढ़ जाता. पर मेघा को पलक की खातिर मजबूत बनना पड़ा. काफी कोशिश कर के उस ने एक प्राइवेट स्कूल में टीचर की जौब ढूंढ़ ली. 8-9 माह यों ही गुजर गए. वह जी रही थी पर बिना किसी उमंग के. घर वालों ने मेघा की दूसरी शादी करने के बारे में भी सोचा पर मेघा ने साफ इनकार कर दिया.

 

इसी बीच मिहिर का छोटा भाई, प्रकाश, जो होस्टल में रह कर पढ़ रहा था, पढ़ाई खत्म कर घर वापस आ गया. थोड़ी कोशिश से उस की अच्छी नौकरी भी लग गई. वह काफी चुलबुला और खुले दिमाग का था. आते ही वह पूरे घर को संभालने और मिहिर की कमी दूर करने का प्रयास करने लगा. उम्र में छोटा होने के बावजूद वह दिमाग से बेहद सम?ादार और सुलझ हुआइंसान था. काफी हद तक मिहिर जैसा था. शायद यही वजह थी कि मेघा उस की तरफ खिंचाव महसूस करती.

उधर प्रकाश के दिल में भी मेघा के लिए खास स्थान था. वह कोशिश करता कि मिहिर को याद कर मेघा की आंखों में कभी आंसू न आएं. इस लिहाज से वह हमेशा मेघा के आसपास ही रहता और उसे खुश रखने का प्रयास करता. दोनों ही युवा थे. जाहिर है एकदूसरे के प्रति शारीरिक आकर्षण पैदा होने लगा. यहां तक कि प्रकाश मेघा को दिल ही दिल में चाहने भी लगा. पर मेघा मैच्योर थी. वह अपने मन को बांधना जानती थी. वह प्रकाश तो क्या खुद को भी कभी यह एहसास नहीं होने देती कि उन के बीच ऐसा कुछ हो सकता है.

मिहिर की मृत्यु को 1 साल हो गया था. उस की बरसी का दिन था. मेघा को पुरानी बातें याद आ रही थीं. जब रहा नहीं गया तो छत पर जा कर फूटफूट कर रोने लगी. प्रकाश ने उसे छत पर जाते हुए देख लिया था. वह पीछेपीछे वहां आ गया. मेघा को रोता देख कंधे पर सहानुभूति भरा हाथ रखा और ठीक वैसे ही सिर पर हाथ फेरने लगा जैसे मिहिर फेरता था. मेघा भावातिरेक में अचानक प्रकाश के सीने से लग कर फफक पड़ी. प्रकाश ने उसे अपनी बांहों का सहारा दिया. उस एक पल में मेघा को लगा जैसे वह फिर से संपूर्ण हो उठी हो. इस एहसास को महसूस कर वह अंदर तक कांप उठी.

यह सच नहीं हो सकता… फिर ऐसा क्यों लग रहा है जैसे मिहिर ही सामने खड़ा हो? यह सवाल कौंधते ही बेचैन हो कर उस ने प्रकाश की तरफ देखा तो देखती ही रह गई. वही झाल सी गहरी आंखों में तैरता प्यार और विश्वास का समंदर… अपनत्व के हिलोरों में कैद होती सांसें… किसी जादुई एहसास के वशीभूत हो कर वह प्रकाश की बांहों में समा गई.

वह दिन मेघा की जिंदगी को फिर से बदल गया था. अब प्रकाश की ?ि?ाक भी दूर हो गई थी. वह मेघा के प्रति अपने प्रेमभाव को उजागर करने लगा. इस की खबर घर में किसी और को नहीं थी.

फिर दबीदबी सी इस चाहत को हवा तब लगी जब दोनों घर में बिलकुल अकेले थे. दरअसल, सासससुर को अचानक भतीजी को देखने जाना पड़ा जो सीढि़यों से गिर कर घायल हो गई थी और अस्पताल में भरती थी. प्रकाश वैसे तो 2 दिनों के लिए वाराणसी के लिए निकला हुआ था पर किसी कारणवश उसे जल्दी लौटना पड़ा. उस वक्त बेटी स्कूल में थी और घर पर केवल मेघा थी. दोनों ने लाख कोशिश की कि खुद को कमजोर न पड़ने दें पर जज्बातों का ऐसा सैलाब उमड़ा कि दोनों ही उस में बह गए और मर्यादा की सीमारेखा पार कर गए. जब होश आया तो मेघा को बेहद ग्लानि महसूस हुई कि यह उस ने क्या कर दिया. खुद से 10 साल छोटे देवर के साथ कैसा रिश्ता जुड़ गया है? क्या कोई उसे स्वीकार कर पाएगा?

डर और ग्लानि से वह रोने लगी तो एक बार फिर प्रकाश के समझने पर थोड़ी संयत हुई और घर के कामों में लग गई. पर उस के चेहरे पर बिछी बेचैनी की रेखाएं सासूमां से छिपी न रह सकीं. उन के पूछने पर मेघा ने बड़ी कुशलता से बात टाल दी.

धीरेधीरे वक्त गुजरता गया और प्रकाश का हौसला बढ़ता गया. उस ने तय कर लिया कि वह मेघा से शादी करेगा. एकबारगी तो मेघा यह सुन कर विचलित हो गई पर फिर उसे भी यही ठीक लगा. प्रकाश ने घर में जब यह बात कही तो बवंडर सा उठ गया.

सासससुर प्रकाश के लिए लड़की देख रहे थे. वे इस रिश्ते के लिए सहमत न थे. वे तो मेघा को मायके भेजना चाहते थे. पर हां, बच्चे पर हक जरूर जमा रहे थे. उधर मेघा के मायके वाले काफी सम?ादार निकले. उन्हें लगा कि मेघा का देवर से शादी कर लेना आर्थिक दृष्टि से मेघा के पक्ष में रहेगा वरना प्रकाश की कमाई पर तो मेघा का कोई हक नहीं होगा. नई बहू न जाने कैसी हो? वह मेघा को रहने भी दे या नहीं? सासससुर मेघा से नाता तोड़ते देर नहीं लगाएंगे. जबकि प्रकाश से शादी करने पर मेघा घर की इकलौती बहू बन जाएगी. बस उन्होंने जीतोड़ कोशिश कर इस शादी का समर्थन किया. अंतत: शादी हो गई पर बेटी पलक ने प्रकाश को पिता कहने से साफ इनकार कर दिया. वह नए पापा से कटीकटी रहती. बाकी कसर पासपड़ोस वालों और रिश्तेदारों ने पूरी कर दी. यहां तक कि दादादादी भी इस रिश्ते को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे. उन्होंने बच्ची के मन में नए पापा के लिए नफरत भरी दी. वह कभी भी प्रकाश से सीधे मुंह बात नहीं करती. यदि प्रकाश उस के लिए कुछ ले कर आता तो वह उसे हाथ तक नहीं लगाती. और आज तो जैसे पलक के मन में पल रही नफरत फट पड़ी.

मेघा पलक का यह रौद्र रूप देख कर सोच में पड़ गई थी. उसे सम?ा नहीं आ रहा था कि किसे दोष दे? प्रकाश ने उस का हमेशा साथ दिया. यदि प्रकाश न होता तो शायद वह इतनी अच्छी तरह उसे पाल न पाती. प्रकाश कहीं से भी दोषी नहीं. दोष तो परिस्थितियों का था. मिहिर के बाद कितनी बेबस और तनहा हो गई थी वह.

Father’s day 2023: ले बाबुल घर आपनो- भाग 3

कुछ दिन तक तो वे समय पर घर पहुंचते रहे थे. लेकिन क्रम टूटते ही घर में तूफान आ जाता था. एक बार तो सीमा ने हद कर दी थी. महाराज के बारबार खाने के लिए बुलाने पर उस ने खाने की मेज ही उलट कर रख दी थी, और चिल्ला कर कहा था,

‘मैं शीला चाची के यहां जा रही हूं. डाक्टर साहब के साथ शतरंज खेलूंगी. पिताजी से कह देना, जिस समय मेरा मन होगा, मैं वापस आऊंगी. मुझे वहां लेने आने की कोई जरूरत नहीं.’ और वह दनदनाती हुई चली गई थी.

जब शंभुजी को पता चला तो वे चाह कर भी उसे लेने नहीं जा सके थे. उन्हें डर था, ‘जिद्दी लड़की है, वहीं कोई नाटक न शुरू कर दे.’

12 बजे के करीब डाक्टर साहब का बेटा दीपक उसे छोड़ने आया था तो वह बिना उन्हें देखे अपने कमरे में चली गई थी. पीछेपीछे भारी कदमों से उन्हें उस के कमरे में जाना पड़ा था, ‘खाना नहीं खाओगी, बेटी?’

‘मैं ने खा लिया है,’ वह लापरवाही से बोली थी.

‘तुम डाक्टर साहब के यहां रात को क्यों गई थी?’ उन्होंने सख्ती से पूछा था.

‘आप भी तो वहां जाते हैं. वे भी हमारे घर आते हैं,’ वह भी सख्त हो गई थी.

‘वे मेरे मित्र हैं, बेटी. तुम समझती क्यों नहीं? तुम अब बड़ी हो गई हो. रात को अकेले तुम्हें…’ आगे वे बात पूरी नहीं कर सके थे.

‘मैं वहां जरूर जाऊंगी. दीपक मुझे घुमाने ले जाता है. मेरा खयाल रखता है. वह भी मेरा दोस्त है. जब आप को फुरसत नहीं मिलती तो मैं अकेली क्या करूं?’

इतना सुनते ही उन का सिर चकराने लग गया था. इन बातों का तो उन्हें पता ही नहीं था. वे तो अपने काम में ही इतने व्यस्त रहते थे कि बाहर क्या हो रहा है, कुछ जानते ही न थे. डाक्टर साहब जरूर उन्हें कभीकभी खींच कर पार्टियों में या क्लब में ले जाते थे.

फिर उन्हें यह भी जानकारी मिली कि, सीमा दीपक के साथ फिल्म देखने भी जाती है तो वे बड़े परेशान हो गए थे. पहले तो उन्हें सीमा पर गुस्सा आया था कि कभी मुझ से पूछती तक नहीं, लेकिन फिर वे स्वयं पर भी नाराज हो उठे थे, उन्होंने ही बेटी से कब, कुछ जानना चाहा था.

सीमा कुछ और सयानी हो गई थी. उन्होंने भी सोचा था, ‘दीपक अच्छा लड़का है. अगर सीमा उसे पसंद करती है तो वे उस की इस खुशी को जरूर पूरा करेंगे. सीमा के सिवा उन का है ही कौन? यह घर, यह कारोबार किसी को तो संभालना ही है. फिर दीपक तो बड़ा ही प्यारा लड़का है.’ और वे निश्ंिचत हो गए थे.

अब वे सीमा से हमेशा दीपक के बारे में पूछा करते थे. वे यह भी देख रहे थे, सीमा धीरेधीरे गंभीर होती जा रही है.

एक दिन बातोंबातों में सीमा ने कहा था, ‘पिताजी, आप क्यों नहीं किसी को अपने विश्वास में ले लेते? उसे सारा काम समझा दीजिए, तो आप का कुछ बोझ तो हलका हो ही जाएगा. आप को कितना काम करना पड़ता है.’

‘हां, बेटा, मैं भी कई दिनों से यही सोच रहा था. पहले तुम्हारे हाथ पीले कर दूं, फिर कारोबार का बोझ भी अपने ऊपर से उतार फेंकूं. अब मैं भी बहुत थक गया हूं, बेटी.’

‘आप एक चैरिटेबल ट्रस्ट क्यों नहीं बना देते? उस से जितना भी लाभ हो, गरीबों की सहायता में लगा दिया जाए. गरीबों के लिए एक अस्पताल बनवा दीजिए. एक स्कूल खुलवा दीजिए. इतने पैसों का आप क्या करेंगे?’

‘बेटी, अपना हक यों बांट देना चाहती हो,’ वे हैरानी से बोले थे.

‘मैं भी इतना पैसा क्या करूंगी. आदमी की जरूरतें तो सीमित होती हैं, और उसी में उसे खुशी होती है. इतना पैसा किस काम का जो किसी दूसरे के काम न आ सके, बैकों में पड़ापड़ा सड़ता रहे. सब बांट दीजिए, पापा.’

‘कैसी बातें करती हो, मैं ने सारी जिंदगी क्या इसी लिए खूनपसीना एक किया है कि मैं कमा कर लोगों में बांटता फिरूं. तुम नहीं जानतीं. मैं ने इसी व्यापार को बढ़ाने की खातिर क्या कुछ खोया है?’

‘मुझे सब पता है, पापा. इसी लिए तो कहती हूं, आप समेटतेसमेटते फिर कुछ न खो बैठें. एक बार बांट कर तो देखिए, आप को कितना सुख मिलता है. जो खुशी दूसरों के लिए कुछ कर के हासिल होती है, वह खुद के लिए समेट कर नहीं होती.’

‘यह तुम क्या कह रही हो?’

‘डाक्टर चाचा भी तो यही कहते हैं, पापा, देखिए न, वे गरीबों का मुफ्त इलाज करते हैं. वे हमेशा यही कहते हैं, बस, जितने की मुझे जरूरत होती है, मैं रख लेता हूं, बाकी दूसरों को दे देता हूं, ताकि मेरे साथसाथ दूसरों का भी काम चलता रहे.’

वे बेटी का मुंह देखते रह गए थे. अच्छा हुआ सीमा ने बात खोल दी, नहीं तो वे कितनी बड़ी गलती कर बैठते. नहीं, नहीं, उन्हें तो ऐसा लड़का चाहिए जो व्यापार को संभाल सके. वे इस तरह अपनी दौलत को कभी नहीं लुटाएंगे. और उन्होंने निश्चय किया था, वे अपनी तरफ से तलाश शुरू कर देंगे. यह काम जल्दी ही करना होगा.

जल्दी काम करने का नतीजा भी सीमा की नजरों से छिपा नहीं रहा. शंभुजी के औफिस की टेबल पर उस ने जब कई लड़कों के फोटो देखे तो वह सबकुछ समझ गई थी. उसी दिन वे कोलकाता जाने वाले थे. सीमा ने सबकुछ देखने के बाद केवल इतना ही कहा था, ‘पापा, आप इतनी जल्दी न करें, तो अच्छा है.’

‘तुम्हें मेरे फैसले पर कोई आपत्ति है.’

‘मेरा अपना भी तो कोई फैसला हो सकता है,’ उस ने दृढ़ता से कहा था.

‘मुझे तुम्हारे फैसले पर आपत्ति नहीं, बेटी. दीपक मुझे भी पसंद है. लेकिन मेरी भी तो कुछ खुशियां हैं, कुछ इच्छाएं हैं. तुम जानती हो, दीपक को शादी के बाद…’

‘आप पहले कोलकाता हो आइए. इस बारे में हम फिर बात करेंगे,’ उस ने उन की बात काट दी थी.

वे निश्ंिचत हो कर चले गए थे, और आज वापस आए थे. लेकिन दरवाजे पर इंतजार करती सीमा कहीं नजर नहीं आ रही थी.

वे तेजी से उस के कमरे में गए, शायद उस ने कोई मैसेज छोड़ा हो लेकिन कहीं कुछ भी नहीं था. सबकुछ व्यवस्थित था. तभी नौकर ने आ कर धीरे से कहा, ‘‘सीमा बिटिया आ गई है.’’

सीमा जब उन के सामने आ कर खड़ी हुई थी तो वे उसे अपलक देखते रह गए थे. इन 6 दिनों में सीमा को क्या हो गया है. लगता है, जैसे इतने दिनों तक सोई ही न हो, ‘‘कहां गई थी, बेटी?’’

‘‘रमेशजी के यहां, मां की तबीयत ठीक नहीं थी. उन्होंने बुलवा भेजा था.’’

‘‘मां…कौन मां?’’ वे हैरान थे.

‘‘रेखा चाची, यानी शरदजी की मां. शरदजी की भी तबीयत ठीक नहीं है. मैं यही बताने आई थी, कहीं आप चिंता न करने लगें. मुझे अभी फिर वापस जाना है. उन की देखभाल करने वाला कोई नहीं. दोनों बीमार हैं. शायद मुझे रात को भी वहीं रहना पड़े.’’

‘‘उन का नौकर उन की…’’ वे बात पूरी नहीं कर सके थे.

‘‘जितनी सेवा कोई अपना कर सकता है, उतनी सेवा क्या नौकर करेगा? मेरा मतलब तो आप समझ गए न, मैं ने कहा था न, पिताजी मेरा भी कोई फैसला हो सकता है.’’

‘‘और डाक्टर का बेटा दीपक?’’ वे हैरान थे.

‘‘वह तो बचपन की पगडंडियों पर लुकाछिपी खेलने वाला दोस्त था, जो जवानी के मोड़ पर आ कर आप की दौलत से भी आंखमिचौली खेलना चाहता था. मुझे जीवनसाथी की जरूरत है, पापा, दौलत पर पहरा देने वाले पहरेदार की नहीं. मैं जानती हूं, आप को मेरी बातों से दुख हो रहा है. लेकिन यह भी तो सोचिए, लड़की के जीवन में एक वह भी समय आता है जब वह बाबुल का घर छोड़ कर पति के घर जाने के लिए आतुर हो जाती है. इसी में उसे जिंदगी का सुख मिलता है. मांबाप की भी तो यही खुशी होती है कि लड़की अपने घर में सुखी रहे. आप शरद को भी बचपन से जानते हैं, आप भी अपना फैसला बदल डालिए, इसी में मेरी खुशी है और आप का सुख,’’ और वह जाने को तैयार हो गई.

‘‘रुक जाओ, बेटी, मुझे तुम्हारा फैसला मंजूर है. तुम ने तो एकसाथ मेरे दोदो बोझ हलके कर दिए हैं. बेटी का बोझ और धन का बोझ. इसे भी अपनी मरजी से ठिकाने लगा देना, बेटी, जिस से कइयों को खुशियां मिलती रहें,’’ कहतेकहते उन की आंखें नम हो गई थीं.

‘‘पापा,’’ वह भाग कर मुद्दत से प्यासे पापा के हृदय से लग कर रो पड़ी थी.

Father’s day 2023: अकेले होने का दर्द- भाग 2

देर तक फोन की घंटी बजती रही और उधर से कोई उत्तर नहीं मिला. फिर मैं ने कई बार फोन किया और हर बार यही हाल रहा. मेरी घबराहट स्वाभाविक थी. तरहतरह के कुविचारों ने मन में डेरा डाल लिया. पड़ोस में रहने वाली कविता आंटी को फोन किया तो उन का भी यही उत्तर था कि घर पर शायद कोई नहीं है. मेरी आंखों मेें आंसू आ गए. पापा तो कभी कहीं जाते नहीं थे. मेरी हालत देख कर राहुल बोले, ‘‘तुम घबराओ नहीं. थोड़ी देर में फिर से फोन करना. नहीं तो कुछ और सोचते हैं.’’ ‘‘मेरा दिल बैठा जा रहा है राहुल,’’ मैं ने कहा. ‘‘थोड़ा धीरज रखो, मानसी,’’ कह कर राहुल मेज पर अखबार रख कर बोले, ‘‘हम इतनी दूर हैं कि चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे और पापा यहां आना नहीं चाहते, तुम वहां जा नहीं सकतीं…’’ ‘‘तो उन को ऐसी ही हालत में छोड़ दें,’’ मैं सुबक पड़ी, ‘‘जानते हो, पापा को कुछ भी नहीं आता है. बाजार से आते ही पर्स टेबल पर छोड़ देते हैं. अलमारी में भी चाबियां लगी छोड़ देते हैं. अभी पिछले दिनों उन्होंने नई महरी रखी है…कहीं उस ने तो कुछ…आजकल अकेले रह रहे वृद्ध इन वारदातों का ही निशाना बन रहे हैं.’’ इतने में फोन की घंटी बजी. पापा की आवाज सुनी तो थोड़ी राहत महसूस हुई, मैं ने कहा, ‘‘कहां चले गए थे आप पापा, मैं बहुत घबरा गई थी.’’ ‘‘तू इतनी चिंता क्यों करती है, बेटी. मैं एकदम ठीक हूं.

तेरी मम्मी आज के दिन अनाथाश्रम के बच्चों को वस्त्र दान करती थी सो उस का वह काम पूरा करने चला गया था.’’ ‘‘पापा, आप एक मोबाइल ले लो. कम से कम चिंता तो नहीं रहेगी न,’’ मैं ने सुझाव दिया. ‘‘इस उम्र में मोबाइल,’’ कहतेकहते पापा हंस पड़े, ‘‘तू मेरी चिंता छोड़ दे बस.’’ दिन बीतते गए. उन की जिंदगी उन के सिद्धांतों और समझौतों के बीच टिक कर रह गई. मैं लगातार पापा के संपर्क में बनी रही. मुझे इस बात का एहसास हो गया कि वह लगातार सेहत के प्रति लापरवाह होते जा रहे हैं. अंगरेजी दवाओं के वह खिलाफ थे इसलिए जो देसी दवाओं का ज्ञान मुझे मां से विरासत में मिला था मैं उन्हें बता देती. कभी उन को आराम आ जाता तो कभी वह चुप्पी साध लेते. एक दिन सुबह कविता आंटी ने फोन पर बताया कि पापा सीढि़यों से फिसल गए हैं. अभी पापा को वह अस्पताल छोड़ कर आई हैं. एक दिन वह डाक्टरों की देखरेख में ही रहेंगे. शायद फ्रैक्चर हो. ‘‘उन के साथ कोई है?’’ मैं ने चिंतित होते हुए पूछा.

‘‘आईसीयू में किसी की जरूरत नहीं होती. डाक्टर को वह जानते ही हैं,’’ कविता आंटी ने बेहद लापरवाह स्वर में कहा. कविता आंटी की बातें सुन कर मुझे दुख भी हुआ और बुरा भी लगा. इनसान इतना स्वार्थी कैसे हो सकता है. मेरा मन पापा से मिलने के लिए तड़पने लगा. राहुल ने मेरी मनोस्थिति भांपते हुए कहा, ‘‘मानसी, तुम इस तरह न अपने घर पर ध्यान दे सकोगी और न ही उन का.’’ ‘‘उन का मेरे सिवा और कोई करने वाला भी तो नहीं है. मैं ने कहीं पढ़ा था कि एक औरत की दुनिया में 2 ही मर्द सब से ज्यादा अहमियत रखते हैं. एक उस का पति जो उस की अस्मत की रक्षा करता है, दूसरा उस का पिता जो उस के वजूद का निर्माता होता है. तुम्हें तो मैं अपने से भी ज्यादा प्यार करती हूं, पर उन्हें क्या यों ही तिलतिल मरता छोड़ दूं?’’ ‘‘तो इस बार उन्हें किसी न किसी बहाने यहां ले आओ फिर सोचेंगे,’’ राहुल ने निर्देश दिया. मैं अगले ही दिन पापा के पास रवाना हो गई. अस्पताल में मैं ने उन्हें देखा तो विश्वास ही नहीं हुआ.

पापा की दयनीय स्थिति देख कर कलेजा मुंह को आ गया. वह सफेद चादर में लिपटे हुए दूसरी तरफ मुंह किए लेटे थे. डाक्टर से पता चला कि पापा हाई ब्लडपै्रैशर के मरीज हो गए हैं और उन का वजन भी घट कर अब आधा रह गया था. मैं उन के पास जा कर बैठ गई. पापा मुझे देखते ही बोले, ‘‘मानसी, तुझे किस ने बताया?’’ ‘‘पापा, तो क्या यह बात भी आप मुझ से छिपा कर रखना चाहते थे. मैं तो समझती थी कि आप ने धीरेधीरे खुद को संभाल लिया होगा…और यहां तो…’’ मेरा गला रुंध गया. बाकी के शब्द होंठों में ही फंस कर रह गए. ‘‘मैं सब बताता रहता तो तू मेरी चिंता करती…राहुल क्या सोचेगा?’’ ‘‘ठीक है पापा, मैं भी तब तक राहुल के पास नहीं जाऊंगी जब तक आप मेरे साथ नहीं चलेंगे. मेरा घर उजड़ता है तो उजड़े. मैं आप को यों अकेला छोड़ कर नहीं जा सकती.’’ ‘‘मानसी, यह क्या कह दिया तू ने,’’ कह कर वह थोड़ा उठने को हुए. तभी नर्स ने आ कर उन्हें फिर लिटा दिया. सीढि़यों से फिसलने के बाद पापा को चोट तो बहुत आई थी पर कोई फ्रैक्चर नहीं हुआ. मैं उन्हें अस्पताल से घर ले गई और बिस्तर पर लिटा दिया.

मेरी निगाहें घर के चारों तरफ दौड़ गईं. घर की हालत देख कर लगता ही नहीं था कि यहां कोई रहता है. बड़े बेढंगे तरीके से कपड़ों को समेट कर एक तरफ रखा हुआ था. पापा के बिस्तर की बदरंग चादर, सिंक में रखे हुए गंदे और चिकने बरतन, गैस पर अधपके खाने के टुकड़े और चींटियों की कतारें, समझ में नहीं आ रहा था काम कहां से शुरू करूं. आज मेरी समझ में आ रहा था कि सुचारु रूप से चल रहे इस घर में मम्मी का कितना सार्थक श्रम और निस्वार्थ समर्पण था. इस हालत में पापा को अकेले छोड़ कर जाना ठीक नहीं था. इसलिए मैं पापा को ले कर वापस अपने घर दिल्ली आ गई. 1-2 दिन मैं पूरे समय पापा के साथ ही रही. आफिस जाते हुए मुझे संकोच हो रहा था पर पापा मन की बात जान गए और निसंकोच मुझे आफिस जाने के लिए कह दिया. राहुल और मैं एक ही समय साथसाथ आफिस जाते थे. उस दिन शाम को हम लोग खाना खा रहे थे, तभी दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने दरवाजा खोला, सामने मीरा आंटी खड़ी थीं.

दूरी: भाग 1- जब बेटी ने किया पिता को अस्वीकार

‘क्यादिया है आप ने मुझे सिवा नफरत, घुटन, दर्द और तनहाई के? और हां, याद आया, एक बेनाम, थोपा हुआ रिश्ता भी तो दिया है आप ने. वह शख्स मेरा पिता नहीं, पर आप कहती हैं, उसे पिता कहूं…’’

आज पलक के सीने में भरा गुस्सा जैसे लावा बन कर फूट रहा था और मेघा चुपचाप बेटी का यह रौद्र रूप देख रही थी. उस की बातें मेघा के सीने में नश्तर की तरह चुभ रही थीं.

‘‘मेरी सहेलियां मु?ा पर हंसती हैं. हमेशा यही पूछती हैं, तुम्हारी मां ने अपने से

10-12 साल छोटे देवर से शादी कैसे कर ली? तुम्हें अजीब नहीं लगता? मैं चुप रह जाती हूं. क्या कहूं उन्हें? कैसा लगा था मु?ो, जिस शख्स को बचपन से चाचा कहती आई थी, वही अचानक मेरा बाप बन गया. मेरी मां का पति बन गया. लगता है जैसे रिश्ते भी बाजार में बिकने लगे हैं…’’ पलक गुस्से से बोले जा रही थी.

‘‘पलक, तमीज से बात करो, बहुत सुन लिया मैं ने,’’ मेघा ने अपने कान बंद करते

हुए कहा.

पर पलक पूरी जिरह के मूड में थी. बोली, ‘‘क्या सुना है आप ने? आप को तो लोगों की व्यंग्य भरी हंसी, उन के ताने कभी सुनाई ही नहीं देते… न ही अपनी बेटी के आंसू दिखते हैं. आप ने अपनी आंखें, अपने कान सब कुछ बंद कर रखा है. शर्म नहीं आई थी, आप को उस देवर से शादी करते, जिसे कभी हाथ पकड़ कर सड़क पार करना सिखाया था… जूतों के तसमे बांधने सिखाए थे? यह भी नहीं सोचा कि लोग

क्या कहेंगे?’’

‘‘लोगों के सोचने का मतलब यह तो नहीं कि हम जीना छोड़ दें. जब मैं घुटघुट कर आंसू बहाती थी, तो कौन आया था मुझे संभालने? किस ने की थी मेरी चिंता? बोलो आया था क्या तुम्हारा यह समाज जब एक विधवा औरत छोटे बच्चे के साथ अकेली रह गई थी? लाचार ससुर और बेबस सास के साथ, जो नहीं चाहते थे कि बहू उन के साथ रहे, क्योंकि उस की सूनी मांग उन्हें बेटे की मौत की पलपल याद दिलाती थी. ऐसे में कहां जाती वह, क्या करती? उस के अपने मांबाप की भी इतनी हैसियत नहीं थी कि पूरी उम्र विधवा बेटी और उस की बच्ची को साथ रख पाते. मैं इतनी ज्यादा पढ़ीलिखी भी नहीं थी कि तु?ो अपने बल पर पाल लेती. ऐसे में प्रकाश मेरे जीवन में रोशनी ले कर आया, मेरा हाथ थमा, मु?ो सहारा दिया तो भला मैं ने उस से शादी कर के क्या गलत किया, बोलो?’’

‘‘और मैं… मेरे बारे में सोचा आप ने? नहीं न? एक सौतेला बाप ला कर मेरे जीवन में ग्रहण लगा दिया… आप को सिर्फ अपना जीवन, अपनी जरूरत सम?ा में आई मेरा भविष्य नहीं. बहुत स्वार्थी औरत हैं आप…’’

इस बार जोरदार तमाचा पड़ा था पलक के गाल पर. वह तड़प उठी. मेघा ने चौंकते हुए सामने देखा. प्रकाश खड़ा था. उसे मेघा ने इतने क्रोध में कभी नहीं देखा था.

‘‘इस औरत को स्वार्थी कह रही हो, जिस ने अपनी हर सांस यह सोचते हुए ली कि पलक को कैसे खुश रखूं? उस के होंठों पर मुसकान कैसे सजाऊं? और एक पलक है कि मां के लिए अपनी जबां से 2 मीठे बोल नहीं बोल सकती…’’

प्रकाश के इस तरह बीच में आने पर पलक तिलमिला उठी. उस की आंखों में आंसू आ गए. चीखती हुई बोली, ‘‘न पापा न ममा… कोई नहीं है मेरा…’’ और फिर फफकफफक कर रो पड़ी.

मेघा ने बढ़ कर सीने से लगाना चाहा तो हाथों को ?ाटकती हुई वह अपने कमरे में घुस गई और फिर तुरंत ही कालेज चली गई.

प्रकाश ने मेघा के कंधे पर सांत्वना भरा हाथ

रखा और फिर खुद ही सिसक पड़ा, ‘‘क्या करूं मेघा… कुछ सम?ा में नहीं आता कि मैं सही हूं या गलत? अपनी सारी जिंदगी तुम्हारे और पलक के नाम कर दी फिर भी सुकून नहीं मिला. अपनी खुशियों और जरूरतों की परवाह न कर सिर्फ जिम्मेदारियां निभाईं पर कभी ऐसा नहीं लगा कि यह मेरा परिवार है. लगता है जैसे कुछ गलत कर दिया मैं ने.’’

‘‘घर में बेटी के तो बाहर रिश्तेदारों और दोस्तों के व्यंग्यबाणों ने मु?ो हमेशा छलनी किया. सिर्फ इस वजह से कि मैं तुम से प्यार करता हूं. मैं तुम्हें दुखी नहीं देख सकता. पर देखो न, मैं ही तुम्हारे इन आंसुओं का कारण भी बनता रहा हूं. क्या करूं मैं, कुछ सम?ा नहीं आता. मेरी जिंदगी मेरे लिए ही ऐसी अबू?ा पहेली बन गई है… जितना आगे बढ़ता हं, उतना ही उल?ाता जाता हूं.’’

मेघा धीरेधीरे प्रकाश का सिर सहला रही थी. फिर मेघा ने उसे सहारा दे कर बैठाया. दोनों काफी देर तक खामोश बैठे रहे… अनगिनत सवालों के जवाब ढूंढ़ रहे थे पर जवाब दोनों के ही पास नहीं थे. फिर मेघा ने कौफी बनाई. कौफी पी कर प्रकाश औफिस चला गया. मेघा दरवाजा बंद कर अपने कमरे में चली आई और पलक के बारे में सोचने लगी…

सचमुच कितनी शर्मिंदगी महसूस होती होगी किशोरवय पलक को जब रिश्तेदार उस के विवाहित चाचा के लिए रिश्ते ले कर आते और व्यंग्यभरी नजरों से मुसकराते हुए उस की तरफ देखते होंगे. उस वक्त खुद को कितना असुरक्षित, कितना असहज महसूस करती होगी वह.

मेघा को वह शाम याद आई जब वह किचन में काम कर रही थी और पड़ोस में रहने वाली सुधा बूआ आ कर उस की सास के कानों में कुछ खुसुरफुसुर करने लगी थीं. पहले तो मेघा ने ध्यान नहीं दिया, मगर फिर जब वह चाय ले कर बाहर आई तो देखा बूआ किसी लड़की की तसवीर दिखाते हुए कह रही थीं, ‘‘इस लड़की के साथ प्रकाश की जोड़ी खूब जमेगी. आखिर कितने दिनों तक अपनी मां की उम्र की पत्नी और उस की बच्ची का बो?ा उठाता फिरेगा… उस के भी तो हंसनेबोलने के दिन आने चाहिए… उस का भी तो दिल करता होगा किसी नईनवेली का घूंघट उठाने का,’’ बूआ बेधड़क कहे जा रही थीं.

तभी मम्मीजी ने मेघा को सामने खड़ा देख उन्हें इशारा किया तो वे तुरंत खामोश होती हुई फोटो छिपाने लगीं. मेघा सम?ा न सकी कि क्या प्रतिक्रिया दे. चुपचाप दूसरी तरफ देखने लगी तो देखा दरवाजे के पीछे पलक खड़ी सारी बातें सुन रही थी और उस की आंखें भर आई थीं. मेघा से नजरें मिलते ही उस की आंखों में वही सवाल दौड़ गया जो उस ने मेघा से पूछा था.

फिर उस शाम जब पलक के जन्मदिन पर मेघा ने एक

छोटी पार्टी रखी थी, उस ने अपनी कुछ सहेलियों को भी इनवाइट किया था जिन के बच्चे पलक के बराबर थे. केक काटने के बाद पलक सहेलियों को गिफ्ट खोल कर दिखा रही थी तो उर्वशी की बेटी ने पलक से पूछा, ‘‘तुम्हारी मम्मी ने तुम्हें क्या गिफ्ट दिया?’’

पलक कुछ कहती, उस से पहले ही उर्वशी ने व्यंग्य से कहा, ‘‘और क्या गिफ्ट चाहिए… मम्मी ने सौतेला बाप तो दे ही दिया है गिफ्ट में. जो स्मार्ट भी है और कम उम्र का भी. अधिक समय तक बेटी का खयाल रख सकेगा.’’

इतनी तीखी बात कह कर उस ने कुटिलता से मुसकराते हुए मेघा की तरफ देखा तो वह अंदर तक सहम गई. उस ने पलक की तरफ देखा. उस का चेहरा भी उतर गया था. वह चुपचाप अपने कमरे में चली गई. मेघा ने उर्वशी से गुस्से में कहा, ‘‘यह क्या कहा तुम ने… थोड़ा भी नहीं सोचती हो कि बच्ची के आगे इस तरह की बातें नहीं कहते?’’

उर्वशी ने ढिठाई से मेघा को जवाब देते हुए कहा, ‘‘अरे यार, आज तू मुझे रोक रही है, कल दूसरे लोग कहेंगे… किसकिस का मुंह बंद करोगी? आखिर तू ने गलत ही तो किया है न? सौतेला बाप ही ढूंढ़ना था तो कम से कम हमउम्र तो ढूंढ़ती. भई मैं ने तो खरी बात कही है. अब तुझे बुरा लगे या अच्छा पर पलक को उम्र भर ऐसे ताने तो सुनने ही पड़ेंगे.’’ मेघा से फिर कुछ कहते नहीं बना.

उस रात पलक ने मेघा के प्यार से उठते हाथ को बुरी तरह झटक दिया था और मेघा के पास सोने के बजाय उठ कर दादी के पास चली गई थी. मेघा को लगा था जैसे आज उस की अपनी बेटी उस से दूर हो गई. वह मां को ही दुश्मन समझने लगी थी…

Father’s day 2023: ले बाबुल घर आपनो- भाग 2

मीरा भी उन जैसा पति पा कर गर्व से फूल उठी थी और मन ही मन उस ने अपने मातापिता की बुद्धि को सराहा भी था. कुछ समय तक तो सबकुछ ठीकठाक चलता रहा था, लेकिन बाद में मीरा महसूस करने लगी थी जैसे पिताजी ने, दामाद नहीं, गुलाम खरीदा हो. शंभुजी सोए हों, या उस से प्रेमालाप कर रहे हों, बस पिताजी का एक बुलावा आया नहीं कि वे उठ कर चल देते. ऐसे में मीरा प्यार से उन्हें समझाती और कहती, ‘पिताजी से कह क्यों नहीं देते कि वक्तबेवक्त न बुलाया करें.’

‘अरे भई, काम होता है, तभी तो बुलाते हैं, और काम कोई वक्त देख कर तो नहीं आता,’ शंभूजी भी प्यार से जवाब देते.

‘पहले भी तो वे स्वयं काम संभालते थे, अब क्यों नहीं संभालते?’ मीरा उखड़ जाती.

‘इसी लिए तो उन्होंने तुम जैसी पत्नी का मुझे पति बना दिया है, ताकि मैं उन का बोझ हलका करूं,’ शंभुजी हंस कर टाल देते.

‘फिर उन्हें बेटी देने की क्या जरूरत थी. बोझ हलका करने के लिए तुम्हें रुपयों से खरीदा भी जा सकता था. तुम नहीं बोल सकते तो मैं पिताजी से कहूंगी कि आप साथसाथ काम करने के लिए कोई दूसरा नौकर रख लीजिए,’ मीरा नाराज हो जाती.

‘तुम तो बहुत भावुक हो, मीरा. जितनी मेहनत और ईमानदारी से अपने घर का आदमी काम कर सकता है, कोई दूसरा करेगा क्या?’ वे तर्क देते.

‘यह क्यों नहीं कहते कि तुम बिक गए हो. तुम्हें पत्नी की नहीं, सिर्फ दौलत की जरूरत थी,’ और मीरा फफक कर रो पड़ी थी.

शंभुजी कितने ही प्यार से क्यों न समझाते लेकिन मीरा को यह कतई पसंद नहीं था कि वे घरदामाद बन कर रहें. वह हमेशा यही कहती थी, ‘घरदामाद तो पालतू कुत्ते की तरह होता है, जो टुकड़े खा कर दिनरात वफादारी करता है. तुम क्यों नहीं अलग मकान ले लेते. तुम जैसे भी रखोगे, मैं उसी तरह रहूंगी. तुम से कभी गिला नहीं करूंगी. मुझे यह तो एहसास रहेगा, मेरा अपना घर है, तुम मेरे हो. यहां तो हमेशा मुझे ऐसा लगता है जैसे हम पिताजी की दया पर पल रहे हैं और तुम भी सोचते होगे कि यदि मैं ने कहीं विद्रोह किया, तो पिताजी रोजी ही न छीन लें.’

‘न जाने तुम क्यों गलत ढंग से सोचने लगी हो? मैं ने तो कभी इस तरह सोचा भी नहीं. मीरा, तुम पहले भी तो इस घर में रहती थीं, तब तुम ऐसा क्यों नहीं सोचती थीं?’

‘तब मैं कुआंरी थी. कुआंरी लड़की हमेशा अपनी नई दुनिया बसाने के सपने देखती है. एक ऐसे पति का सपना, जो उसे घर देगा, उस के सुखदुख का भागीदार होगा, और वह उस के हर सुखदुख की चादर अपने ऊपर ओढ़ लेगी. बताओ, क्या दिया तुम ने मुझे अपनी ओर से? बाकी सब छोड़ भी दें तो प्यार और विश्वास भी तुम नहीं दे सके, जिस समय भी मेरे पास होते हो, तुम्हें यही खयाल रहता है कि पिताजी के कहे काम सब पूरे हो गए कि नहीं, कहीं वे यह न सोचें, शादी होते ही लापरवाह हो गया है.’

इसी तरह तकरार और प्यार में वर्ष छलांगें लगाते निकल रहे थे. मीरा की गोद में सीमा भी आ गई थी. सीमा को पा कर मीरा काफी हद तक सहज हो गई थी. उन्होंने सोचा था, ‘मीरा सीमा को पा कर तनाव से शायद मुक्त हो गई है.’ लेकिन यह उन की भूल थी.

सीमा जैसेजैसे बड़ी होती गई, मीरा की खामोशी बढ़ती गई. वह हमेशा देखती, सीमा की हर जरूरत पिताजी पूरी करते हैं, उस का भविष्य कैसे संवारना है, यह भी पिताजी सोचते हैं. बिलकुल उसी तरह, जिस तरह उन्होंने उस के लिए सोचा था.

शंभुजी ने तो एक दिन भी यह महसूस नहीं किया कि बाप का अपनी संतान के लिए क्या कर्तव्य होता है. मीरा की जरूरत पिताजी आ कर पूछते. शंभुजी को इस से कोई अंतर नहीं पड़ता था. बस, उन्हें यही संतोष था कि पिताजी के होते उन्हें चिंता करने की क्या आवश्यकता है, या पिताजी उन पर कितने प्रसन्न हैं, क्योंकि उन्होंने उन का व्यापार और बढ़ा दिया था. मीरा की हर बात चिकने घड़े पर पड़े पानी की तरह उन के ऊपर से फिसल जाती थी.

एक दिन बेहद गुस्से में मीरा ने कहा था, ‘इन सुखों की खातिर तुम ने अपनेआप को बेच दिया है. अपनी आजादी, अपने आदर्शों तक को दांव पर लगा दिया है.’

‘तुम सुखी रहो, इसी लिए तो यह सब किया है मैं ने, वरना मैं अकेला तो दो रोटी और दो कपड़ों में ही प्रसन्न था. यदि तुम्हारी खुशी के लिए स्वयं मुझे भी बिकना पड़ा तो भी मैं पीछे नहीं हटूंगा, मीरा,’ शंभुजी ने हंस कर बात टालनी चाही थी.

‘मेरा नाम ले कर झूठ मत बोलो. तुम जानते हो इस पैसे की दुनिया से मुझे कभी प्यार नहीं रहा जहां आदमी आजादी से अपनी कोई इच्छा ही पूरी न कर सके, जहां आगेपीछे नौकरों की फौज खड़ी हो. मैं खुली हवा में सांस लेना चाहती हूं. प्लीज, मुझे अलग ले जाओ, ताकि मैं अपना छोटा सा संसार बना सकूं, और सोच सकूं, यह घर मेरा है, जहां सुकून हो, जहां तुम हो, हमारी बच्ची हो, और मैं होऊं,’ और मीरा रो पड़ी थी.

‘ठीक है, मीरा. मैं वचन देता हूं, हम उसी तरह रहेंगे जैसे तुम चाहती हो. मैं पिताजी से जरूर बात करूंगा,’ उन्होंने मीरा को प्यार से थपथपा दिया था.

जब मीरा ने देखा कि यह तकरार भी चिकने घड़े की बूंद बन गई है तो वह हमेशा के लिए चुप हो गई थी. शायद उस ने ‘जो है, सो ठीक है,’ समझ कर ही संतोष कर लिया था.

दूसरे बच्चे के समय मीरा की तबीयत बहुत बिगड़ गई थी. डाक्टरों की भीड़ भी उसे नहीं बचा सकी थी. तब यही शंभुजी सीमा को छाती से लगा कर फूटफूट कर रो पड़े थे. उन्होंने मन ही मन मीरा से कितनी बार माफी मांगी थी और वादा किया था, ‘तुम्हारी सीमा की मैं हर इच्छा पूरी करूंगा. मैं स्वयं उस का खयाल रखूंगा, उसे मां बन कर पालूंगा.’

कितना स्नेह और ममत्व उन्होंने बेटी को दिया था. उस के उठने से ले कर सोने तक, हर बात का ध्यान वे खुद रखते थे. बाहर जाना भी कितना कम कर दिया था. लेकिन कभीकभी जब सीमा उन्हें टकटकी लगाए देखने लगती थी तो न जाने वे क्यों सिहर उठते थे. उन्हें महसूस होता था, ये निगाहें सीमा की नहीं, मीरा की हैं, जो उन से कुछ कहना चाह रही हैं, तो वे घबरा कर यह पूछ बैठते, ‘कुछ कहना है, बेटी?’

‘कुछ नहीं, पापा,’ जब सीमा कहती तो उन की सांस की गति ठीक होती.

समय के साथ सीमा बड़ी हुई. मीरा के मातापिता का साथ छूटा. सारा कारोबार फिर एक बार शंभुजी पर आ पड़ा. यह वही जिम्मेदारी थी जो किसी को दी नहीं जा सकती थी और फिर धीरेधीरे वे पहले की तरह व्यस्तता के बीच खोने लगे थे.

एक दिन जब वे काफी रात गए घर लौटे थे, तो यह देख कर हैरान हो गए थे कि जल्दी सो जाने वाली सीमा, आज बालकनी में खड़ी उन का इंतजार कर रही है. वे हैरानी से बोले थे, ‘सोई क्यों नहीं?’

‘आप जल्दी क्यों नहीं आते? अकेले मेरा मन नहीं लगता,’ सीमा गुस्से में थी.

‘मेरा बहुत काम होता है, इसी लिए देर हो जाती है. आज कोई पहली बार तो मैं देर से नहीं आया?’ उन्होंने प्यार से समझाया था.

‘इतनी रात तक किसी का काम नहीं होता. आप झूठ बोलते हैं. आप पार्टियों में जाते हैं, शराब पीते हैं, इसी लिए आप को देर हो जाती है.’

‘सीमा,’ वे नाराज हो गए थे.

‘डांटिए मत, मैं कालेज से देर से आऊंगी, तब आप को अच्छा लगेगा?’ वह भी सख्ती से बोली थी, ‘मैं कहे देती हूं, अब आप देर से आएंगे तो मैं खाना नहीं खाऊंगी.’ और वह पैर पटकती हुई चली गई थी.

वे हैरान से खड़े देखते रह गए थे. मीरा और सीमा में कितना साम्य है. वह अगर हवा का तेज झोंका थी तो यह सबकुछ हिला देने वाली तेज आंधी.

Father’s day 2023: अकेले होने का दर्द- भाग 1

वातावरण में औपचारिक रुदन का स्वर गहरा रहा था. पापा सफेद कुरतेपजामे और शाल में खड़े थे. सफेद रंग शांति का प्रतीक माना जाता है पर मेरे मन में सदा से ही इस रंग से चिढ़ सी थी. उस औरत ने समाज का क्या बिगाड़ा है जिस के पति के न होने पर उसे सारी उम्र सफेद वस्त्रों में लिपटी रहने के लिए बाध्य किया जाता है. मेरे और पापा के साथ हमारे कई और रिश्तेदार कतारबद्ध खड़े थे. धीरेधीरे सभी लोग सिर झुकाए हमारे सामने से चले गए और पंडाल मरघट जैसे सन्नाटे में तबदील हो गया. हमारे दूरपास के रिश्तेनाते वाले भी वहां से चले गए. सभी के सहानुभूति भरे शब्द उन के साथ ही चले गए.

कुछ अतिनिकट परिचितों के साथ हम अपने घर आ गए. पापा मूक एवं निरीह प्राणी की तरह आए और अपने कमरे में चले गए. बाकी बचे परिजनों के साथ मैं ड्राइंगरूम में बैठ गई. कुछ औपचारिक बातों के बाद मैं किचन से चाय बनवा कर ले आई. एक गिलास में चाय डाल कर मैं पापा के पास गई. वह बिस्तर पर लेटे हुए सामने दीवार पर टंगी मम्मी की तसवीर को देखे जा रहे थे. उन की आंखों में आंसू थे. ‘‘पापा, चाय,’’ मैं ने कहा. पापा ने मेरी तरफ देखा और पलकें झपका कर आंसू पोंछते हुए बोले, ‘‘थोड़ी देर के लिए मुझे अकेला छोड़ दो, मानसी.’’ उन की ऐसी हालत देख कर मेरे गले में रुकी हुई सिसकियां तेज हो गईं. मैं भी पापा को अपने मन की बात बता कर उन से अपना दुख बांटना चाहती थी, पर लगा था वह अपने ही दुख से उबर नहीं पा रहे हैं. किसे मालूम था कि मम्मी, पापा को यों अकेला छोड़ कर इस संसार से प्र्रस्थान कर जाएंगी. इस हादसे के बाद तो पापा एकदम संज्ञाशून्य हो कर रह गए. मैं ने अपनी छोटी बहन दीप्ति को अमेरिका में तत्काल समाचार दे दिया. पर समयाभाव के कारण मां के पार्थिव शरीर को वह कहां देख पाई थी. पापा इस दुख से उबरते भी कैसे. जिस के साथ उन्होंने जिंदगी के 40 वर्ष बिता दिए, मां का इस तरह बिना किसी बीमारी के मरना पापा कैसे भूल सकते थे. कई दिनों तक रोतेरोते क्रमश: रुदन तो समाप्त हो गया पर शोक शांत न हो सका. पापा की ऐसी हालत देख कर मैं ने धीरे से उन का दरवाजा बंद किया और वापस ड्राइंग- रूम में आ गई, जहां मेरे पति राहुल बैठे थे.

चाचाजी वहां बैठे हुए हलवाई, टैंट वाले, पंडितजी आदि का हिसाब करते जा रहे थे. मुझे देखते ही उन्होंने कहा, ‘‘आजकल छोटे से छोटे कार्य में भी इतना खर्च हो जाता है कि बस…’’ यह कहतेकहते उन्होंने राहुल को सारे बिल पकड़ा दिए. मैं ने राहुल को इशारे से सब का हिसाब चुकता करने को कहा. पापा अपने गम में इतने डूबे हुए थे कि उन से कुछ भी इस समय कहने का साहस मुझ में न था. ‘‘अच्छा, मानसी बिटिया, अब मैं चलता हूं. कोई काम हो तो बताना,’’ कहते हुए चाचाजी ने मुझे इस अंदाज से देखा कि मैं कोई दूसरा काम न कह दूं और उन के साथ ही कालोनी की 3-4 महिलाएं भी चल दीं. मुझे इस बात से बेहद दुख हुआ कि मम्मी इतने वर्षों से सदा सब के सुखदुख में हमें भी नजरअंदाज कर उन का साथ देती थीं, लेकिन आज सभी ने उन के गुजरने के साथ ही अपने कर्तव्यों से भी इतिश्री मान ली थी. शाम को खाने की मेज पर मैं ने राहुल से पूछा, ‘‘तुम्हारा क्या प्रोग्राम है अब?’’ ‘‘मैं तो रात को ही वापस जाना चाहता हूं. तुम साथ नहीं चल रही हो क्या?’’ राहुल ने पूछा. ‘‘पापा को ऐसी हालत में छोड़ कर कैसे चली जाऊं,’’ मैं ने रोंआसी हो कर कहा, ‘‘लगता है ऐसे ही समय के लिए लोग बेटे की कामना करते हैं.’’ ‘‘पापा को साथ क्यों नहीं ले चलतीं,’’ राहुल बोले, ‘‘थोड़ा उन के लिए भी चेंज हो जाएगा.’’ ‘‘नहीं बेटा,’’

तब तक पापा अपने कमरे से आ चुके थे, ‘‘तुम लोग चले जाओ, मैं यहीं ठीक हूं.’’ ‘‘पापा, आप को तो ठीक से खाना बनाना भी नहीं आता…मां होतीं तो…’’ और इतना कहतेकहते मैं रो पड़ी. ‘‘क्यों, महरी है न. तुम चिंता क्यों करती हो?’’ ‘‘पापा, वह तो 9 बजे आती है. आप की बेड टी, अखबार, दूध, नहाने के कपड़े, दवाइयां कुछ भी तो आप को नहीं मालूम…आज तक आप ने किया हो तो पता होता.’’ ‘‘उस ने मुझे इतना अपाहिज बना दिया था…पर अब क्या करूं? करना तो पडे़गा ही न…कुछ समझ में नहीं आएगा तो तुम से पूछ लूंगा,’’ कहतेकहते पापा ने मेरी तरफ देखा. उन का स्वर जरूरत से ज्यादा करुण था. ‘‘अब क्यों रुलाते हो, पापा,’’ कहते हुए मैं खाना छोड़ कर उन से लिपट गई. मेरे सिर पर स्नेहिल स्पर्श तक सीमित होते हुए पापा ने कहा, ‘‘उसी ने अभी तक सारे परिवार को एकसूत्र में बांध कर रखा था.

पंछी अपना नीड़ छोड़ कर उड़ चला और यह घोंसला भी एकदम वीराने सा हो गया…मैं क्या करूं,’’ कातरता झलक रही थी उन के स्वर में. ‘‘पापा, आप हिम्मत मत हारो, कुछ दिनों के लिए ही सही, हमारे साथ ही चलो न.’’ ‘‘नहीं बेटे, जब अकेले जी नहीं पाऊंगा तो कह दूंगा,’’ फिर एक लंबी सांस लेते हुए बोले, ‘‘अभी तो यहां बहुत काम हैं, तुम्हारी मम्मी का इंश्योरेंस, बैंक अकाउंट, उन के फिक्स्ड डिपोजिट सभी को तो देखना पड़ेगा न.’’ ‘‘जैसी आप की इच्छा, पापा,’’ कह कर राहुल अपने कमरे में चले गए. अगले दिन महरी को सबकुछ सिलसिलेवार समझा कर मैं थोड़ी आश्वस्त हो गई. 2 दिन बाद… मेरी सुबह की ट्रेन थी. जाने से एक रात पहले मैं पापा के पास जा कर बोली, ‘‘पापा, कल सुबह आप मुझे छोड़ने नहीं जाएंगे.

नहीं तो मैं जा नहीं पाऊंगी,’’ इतना कह मैं भरे कंठ से वहां से चली आई थी. सुबह जल्दीजल्दी उठी. तकिये के पास पापा के हाथ की लिखी चिट पड़ी थी, ‘जाने से पहले मुझे भी मत उठाना…मैं रह नहीं पाऊंगा. साथ ही 500 रुपए रखे हैं इन्हें स्वीकार कर लेना. वैसे भी यह सारे आडंबर तुम्हारी मां ही संभालती थी.’ मैं ही जानती हूं कि मैं ने वह घर कैसे छोड़ा था. मैं हर रोज पापा को फोन करती. उन का हाल जानती, फिर महरी को हिदायतें देती. मैं अपनी सीमाएं भी जानती थी और दायरे भी. राहुल को मेरी किसी बात का बुरा न लगे इसलिए पापा से आफिस से ही बात करती. कभीकभी वह छोटीछोटी चीजों को ले कर परेशान हो जाते थे. ऊपर से सामान्य बने रहने के बावजूद मैं भांप जाती कि वह दिल से इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. वह वहां रहने के लिए विवश थे. उन की दुनिया उन्हीं के इर्दगिर्द सिमट कर रह गई थी. एक दिन सुबह मैं ने पापा को उन के जन्मदिन की बधाई देने के लिए फोन किया.

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