Serial Story: दुनियादारी– भाग 3

उस ने दीदी को कुछ दिन पहले एक लेख पढ़ने को दिया था, ‘धूम्रपान का गर्भ पर असर.’ दीदी हंस दी थीं, ‘‘अब कौन सा बच्चा पैदा करना है मुझे, एक हो गया न, और कौन सा मैं मिंटी के सामने पीती हूं्. देख न, इसीलिए रात की नौकरी  करती हूं. रात में तो सब सोते ही हैं. घर में रहो न रहो, क्या फर्क पड़ता है. दिन में मैं घर में ही रहती हूं ताकि मिंटी मां को मिस न करे.’’

साहस कर शेफाली बोल पड़ी, ‘‘लेकिन दीदी, जीजाजी…’’

दीदी हंसीं, ‘‘देख, मर्दों को दिन में एक बार या हफ्ते में औसतन 2-3 बार काफी होता है. मैं अपने पति को पूरा मजा देती हूं. संदीप ने कुछ कहा क्या? क्यों नहीं साली आधी घरवाली होती है.’’

यह कह कर दीदी ने आंख दबाई तो वह तिलमिला गई थी. छोटी बहन से इतना गंदा मजाक, ‘‘छी: दीदी, आप कैसी भाषा का इस्तेमाल करती हैं. जीजाजी बहुत अच्छे हैं. आप इस तरह बोलेंगी तो फिर मैं यहां नहीं रहूंगी…’’

वह खिलखिला पड़ीं, ‘‘यू विलेज गर्ल…जानती है, हमारे यहां क्या होता है…’’

और उन्होंने अपने आफिस के माहौल और वहां इस्तेमाल होने वाली भाषा का जो वर्णन किया, उसे वह सुन नहीं पाई.

‘‘दीदी, आप छोड़ दो ऐसी नौकरी.’’

वह हंसीं, ‘‘लाइफ इज मस्त आउट देअर. आजकल सब चलता है. आज का फंडा है, जिंदगी एक बार ही मिलती है, इसे भरपूर जीओ और ज्यादा अगरमगर की मत सोचो.’’

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तभी जीजाजी आए. अब दोनों उस के सामने ही ‘किस’ कर लेते. दीदी हंसहंस कर बोलीं, ‘‘शेफाली को तुम्हारी बहुत चिंता है. कह रही थी कि मैं रात की नौकरी छोड़ दूं. तुम अकेले हो जाते हो, क्यों?’’

शेफाली उठ कर भीतर चली गई. छी:, जरा भी लाजलिहाज नहीं है दीदी में. यह बात उन्हें कहनी चाहिए थी. या तो उन दोनों का आपस में बहुत विश्वास और खुलापन था या फिर दीदी की नजर में मेरी कोई अहमियत ही नहीं. जीजाजी की नजरें कितनी अजीब हो गई थीं.

उस रात मिंटी को बुखार आ गया लेकिन क्लाइंटविजिट की वजह से दीदी को जाना पड़ा. मिंटी के सोने के बाद जैसे ही वह उठी, जीजाजी बोले, ‘‘शेफाली, कौफी बनाओगी.’’

वह काफी बना लाई. जीजाजी एकाएक बोले, ‘‘तुम्हारे आने के बाद घर घर लगने लगा है. तुम्हारे आने से मिंटी को मां मिल गई. अब काम खत्म कर के मन करता है, सीधा तुम्हारे पास आऊं. काश, सुनंदा में भी तुम्हारे जैसी संवेदनशीलता होती, तो मेरी जिंदगी यों तन्हा नहीं होती. देखा, तुम तो समझ गईं वह जान कर भी नहीं समझना चाहती मेरा अकेलापन, मेरी तनहाई. दिन भर का थकाहारा घर आता हूं तो न पत्नी मिलती है और न बच्ची का साथ. तुम ने आ कर मेरी जिंदगी के बिखराव को संभाल लिया.’’

‘‘आप दीदी से कहिए न कि वह दूसरी नौकरी ढूंढ़ लें.’’

‘‘अब सिंपल ग्रेजुएट और 12वीं पास लोगों को इतने पैसे वाली नौकरी कौन देता है. बड़ीबड़ी डिगरी वाले तो मार्केट में घूमते हैं. यहां क्या योग्यता चाहिए, बस अच्छी अंगरेजी का ज्ञान और प्रकृति के नियमों के खिलाफ जीने की आदत. और बदले में मिलता है पैसा, कमीशन, पार्टियां, पिज्जाबर्गर और कोल्डड्रिंक्स. उसे जिंदगी की रंगीनियां चाहिए. और मैं ठहरा पार्टीपिकनिक से परहेज करने वाला.’’

शेफाली खामोश उन्हें निहार रही थी. मन मचलने लगा था. कैसी संवेदनशील थीं वे आंखें. अंदर तक कुछ शून्य सा पसर गया था. क्या वह मेरी तरफ आकर्षित हैं. मैं उन्हें अच्छी लगती हूं. वह मुझ से प्रेम करते हैं. रोमरोम में उठती ये कैसी सिहरन थी. आंखें मूंदे शेफाली अपनी देह की कंपन पर काबू पाने की चेष्टा करने लगी. जीजाजी ने उस के हाथों पर अपना हाथ धर दिया.

कप उठा कर वह किचन में चली गई. ये क्या हो रहा है उसे. जो बात कुंआरी हो कर वह समझ पाई क्या दीदी नहीं समझ पाती होंगी? दीदी ने तो कहा था कि वह हफ्ते के एवरेज का खयाल रखती हैं…तो…फिर…जीजाजी को मुझ से यह सब कहने की क्या जरूरत है…वह मेरी प्रशंसा कर क्या चाहते हैं…मुझ से यह सब क्यों कह रहे हैं…मुझे पाने के लिए…इतनी शिकायत है दीदी से तो फिर प्रेम प्रदर्शन क्यों करते हैं. दीदी का विरोध क्यों नहीं करते?

दीदी के व्यवहार में तो उस ने कभी जीजाजी के प्रति उपेक्षा महसूस नहीं की. अंदर दोनों में क्या बातें होती हैं वह नहीं जानती पर उस दिन जो ड्राइंगरूम में उस ने देखा था वह तो झूठ नहीं था. बिना चाहत, बिना प्रेम भी ऐसी उत्तेजना जगती है भला.

थोड़ी आहट के बाद किचन की बत्ती बंद हो गई. जीजाजी ने आ कर उसे बांहों में भर लिया. ये खुशबू, ये आलिंगन, ये स्पर्श, संदीप उसे पागलों की तरह चूमने लगे. उस का रोमरोम सिहर उठा. वह खुद को छुड़ाना नहीं चाहती थी. उस के बदन में चींटियां रेंगने लगीं. कितना अच्छा लग रहा है…

तभी फोन की घंटी बजी. दीदी का फोन था. मिंटी का हाल पूछ रही थीं. वह जैसे सोते से जागी. ये क्या करने जा रही थी वह? अपने ही हाथों अपना सर्वनाश. इस क्षणिक भावुकता का अंत क्या होने वाला था. उस के हाथ क्या लगता? कल को कुछ हो गया तो आरोप तो उस के ही सर आएगा. बढ़ावा भी तो उसी ने दिया था. वही दीदी से बात करने गई थी, उन के दांपत्य जीवन पर.

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दीदी के सामने शराफत का ढोंग करने वाले जीजाजी तो अपना मुंह तक नहीं खोलेंगे. उस की बात उसी के खिलाफ इस्तेमाल की जाएगी. क्या वह जानती थी कि ये फांस उसी के गले में अटकेगी. कितने चालाक निकले जीजाजी. मेरी कोमल भावनाओं को उकसा कर, मात्र मेरा उपयोग करना चाहते थे. आज अपने ही घर में अपनों के हाथ छली जाती. ऐसे ही अनचाहे तो हादसे हो जाते हैं.

अपनी उखड़ी सांसों को संयत करते हुए वह मिंटी के पास आ गई. दीदी को मिंटी की चिंता है और वह कैसे उन पर लापरवाही का आरोप लगा रहे थे.

फोन रखने के बाद जीजाजी ने उसे कमरे में आने का इशारा किया. उसे खुद से घृणा होने लगी. शेफाली ने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया और मिंटी के पास ही सो गई. सुबह निर्मला के आने पर ही दरवाजा खोला.

मिंटी का बुखार और बढ़ गया था. दीदी ने आफिस से हफ्ते भर की छुट्टी ले ली. दिनरात बच्ची के पास ही बैठी रहतीं. अपने हाथों से उसे खिलातीं. उस के साथ बातें करतीं. उस के सामने दीदी का नया रूप उजागर हुआ था. सच कहते हैं, मां आखिर मां ही होती है और पुरुष, सिर्फ पुरुष.

शेफाली ने आननफानन में फैसला लिया और आफिस के एक सहयोगी की मदद से अलग घर ढूंढ़ लिया. सुनंदा दीदी हैरान रह गईं, ‘‘अचानक क्या हो गया, शेफाली? तुम्हारे आने से हम लोगों को कितना अच्छा लगने लगा है, मिंटी कितनी खुश रहने लगी है. मेरी लाइफ भी स्मूथ हो गई है. अब चाचाचाची क्या कहेंगे?’’

शेफाली ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘दीदी, आफिस दूर पड़ता है. फिर कितने दिन आप पर बोझ रहूंगी. इतने महीनों से तो आप ही के पास रह रही हूं. अब तो नौकरी भी कर रही हूं…’’

‘‘आई नो…पर तुम्हारी शादी तक चाचाजी ने कहा था, तुम यहीं रहोगी.’’

‘‘दीदी, शादी कब होगी, पता नहीं. कोई अच्छा लड़का मिलेगा तो जरूर करूंगी. पर अब कुछ साल नौकरी कर लूं. आप की तरह आत्मनिर्भर बन जिंदगी का मजा ले लूं. इस दिशा में कुछ होगा तो कहना. मैं आती रहूंगी…संपर्क में रहूंगी.’’

उस के होंठों पर मुसकराहट थी पर स्वर काफी सपाट था.

दीदी ने उलझे स्वर में ही जवाब दिया, ‘‘अब तुम ने सोच ही लिया है तो मैं क्या कहूं. पर मुझे अचानक इस फैसले का कारण समझ में नहीं आया. जीजाजी भी यहां नहीं हैं. उन से आ कर मिल लेना या फिर फोन कर देना.’’

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दीदी कभी जानें या न जानें पर उस रात कहां ले जातीं उस की ये भावनाएं… निश्चित ही पतन की ओर…मांबाप का गर्व भंग होता, भाई का उपहास, समाज में अनादर…सब से उबर गई. अपनों के बीच हुए किसी हादसे का शिकार होने से बच गई.

मां की कही बात याद आ गई, ‘‘समझदारी और दुनियादारी तो कोई भी शिक्षा सिखा देती है.’’

उपहार: आनंद ने कैसे बदला फैसला?

Serial Story: उपहार– भाग 1

लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत

‘‘तुम कहां थी. मेरा मन कितना घबरा रहा था. घड़ी देखो इरा, 8 बज चुके हैं. तुम से हजार बार कह चुकी हूं कि अंधेरा होने के बाद मुझे तुम्हारा घर से बाहर रहना पसंद नहीं है…’’ ‘‘सौरी,’’ यह कह कर मैं अपने कमरे में जा कर गुस्से में लेट गई. ‘कौन सा मैं घूमने गई थी. नोट्स ही तो बना रही थी शुभ्रा के घर. थोड़ी सी देर हो जाए तो हंगामा शुरू. हम अकेले रहते हैं तो क्या, मैं ने कहा था अकेले रहने के लिए’, मन ही मन मैं बड़बड़ाए जा रही थी कि मां ने आवाज लगाई, ‘‘इरा, खाना लग चुका है, आ जाओ.’’

इच्छा न होते हुए भी मैं किचन की ओर बढ़ गई. खाना खाते हुए मैं ने मां से पूछा, ‘‘मम्मा, कल हमारी क्लास पिकनिक पर जा रही है, मैं भी…’’

‘‘नहीं इरा, यह संभव नहीं है और प्लीज नो डिस्कशन.’’

‘‘तो ठीक है, मैं कल से घर पर ही रहूंगी, कालिज जाना बंद. वैसे भी घर से सुरक्षित जगह और कोई नहीं हो सकती. शहर भर में गुंडे मुझे ही तो ढूंढ़ रहे हैं…’’

मैं इस से आगे कुछ कहती कि मां ने मुझे गुस्से से देखा और मैं खाना छोड़ कर अपने कमरे में चली गई.

अगर मां जिद्दी हैं तो मैं भी उन की बेटी हूं, कल से कालिज नहीं जाऊंगी और यह निश्चय कर के मैं सो गई. सुबह जब आंख खुली तो 9 बज चुके थे. आज मेरी खैर नहीं. मां ने आज गुस्से में मुझे उठाया नहीं, लगता है… यह सोच ही रही थी कि मां की आवाज सुनाई दी, ‘‘इरा, मैं आफिस जा रही हूं, तुम्हारा नाश्ता मेज पर रखा है.’’

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मैं ने उठ कर दरवाजा बंद किया और मां के कमरे की ओर मुड़ गई. देखा तो मां जल्दी में अलमारी की चाबी भूल गईं थीं. न जाने क्यों मैं ने मां की अलमारी खोल ली, देखा तो सामने लाल रंग की डायरी रखी थी. उत्सुकतावश मैं ने उसे उठाया और डायरी ले कर बाहर बालकनी में आ कर बैठ गई. मैं ने हिचकते हुए उसे पढ़ना शुरू किया.

‘शेखर, तुम्हें इस दुनिया से गए आज पूरे 2 महीने बीत गए हैं. तुम्हारे बगैर जीने की कतई इच्छा नहीं है पर तुम मुझे जीने की वजह दे गए हो. मेरी कोख में तुम्हारी निशानी है. घर का माहौल तनावग्रस्त रहता है. अम्मांबाबूजी को एक ओर तो तुम्हारे जाने का गम है, दूसरी ओर मेरे पापामम्मी का बढ़ता हुआ दबाव. पापा चाहते हैं कि मैं अपनी कोख को खत्म कर दूं जिस से वह मेरी दोबारा शादी कर सकें.

‘मैं जानती हूं इस संसार में सब से बड़ा दुख संतान का होता है. उन की बेटी छोटी सी उम्र में विधवा हो गई, यह दुख पहाड़ से भी बड़ा है और यही वजह है वह मेरी शादी करना चाहते हैं, पर मैं ऐसा नहीं चाहती. मैं भी तो मां बनने जा रही हूं. कैसे अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए अपने बच्चे को…मैं ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकती. तुम ने जो मुझे प्यार दिया है मैं उस के सहारे अपना सारा जीवन निकाल लूंगी.’

10 जनवरी, 1984.

‘अम्मांबाबूजी मेरा बहुत ध्यान रखते हैं. उन की आंखें हर पल, तुम्हारे  रूप में अपने पोते का इंतजार कर रही हैं पर डर लगता है कि अगर उन की यह इच्छा पूरी नहीं हुई तो क्या होगा?’

15 अप्रैल, 1984.

‘जिस का डर था वही हुआ. अम्मांबाबूजी की उम्मीद टूट गई. मैं अपनी गोद में इरा को पा कर बहुत खुश हूं. तुम भी तो यही चाहते थे. शेखर, इरा चांद का टुकड़ा है पर चांद की तरह उस पर भी दाग है. दुर्भाग्य का दाग. इस संसार में वह बच्चा दुर्भाग्यशाली ही तो कहलाएगा जिस के पास पिता की छांव न हो. शेखर, मुझे अम्मांबाबूजी का व्यवहार पीड़ा पहुंचाता है. इरा को वह गोदी में लेना पसंद नहीं करते. उन की नजरों में वह मनहूस है जो इस दुनिया में आने से पहले अपने पिता को खा गई.’

10 अगस्त, 1984.

‘शेखर, आज मैं ने बाबूजी का घर छोड़ दिया क्योंकि मुझ से पलपल अपनी बेटी का अपमान बरदाश्त नहीं होता. इरा अभी तो छोटी है पर जिस पल उसे खुद के लिए अम्मांबाबूजी की नफरत समझ में आएगी वह टूट जाएगी. अम्मां ने कल रात को उसे अपने कमरे से यह कह कर भगा दिया कि वह मनहूस है. मैं नहीं चाहती कि मेरी बच्ची इतनी नफरत के बीच में पले.’

25 जुलाई, 1986.

मां के लिखे एकएक शब्द मेरे अस्तित्व को झकझोर रहे थे. मैं ने डायरी का अगला पन्ना पलटा.

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‘शेखर, मैं बहुत थकने लगी हूं. पिता और मां दोनों की जिम्मेदारियों का निर्वाह करतेकरते मैं खुद क्या हूं भूल जाती हूं. इरा, अपने दादादादी के बारे में पूछती है. उस की खुशी के लिए मैं ने एक दिन घर फोन कर के आने के लिए पूछा था पर बाबूजी ने कहा कि हम दोनों उन के लिए मर चुके हैं.

‘रिश्तों की भीड़ में हम अकेले हैं. मम्मीपापा के पास चाह कर भी नहीं जा सकती, क्योंकि वहां भाभी की शंकित निगाहें मुझे भीतर तक टटोल लेना चाहती हैं कि कहीं मैं उन के घर पर कब्जा जमाने तो नहीं आ गई. मम्मीपापा बेबसी से मुझे देखते हैं. वह स्वयं भैयाभाभी पर निर्भर हैं. अब इरा ही मेरा संसार है.’

30 अगस्त, 1990.

‘आज पहली बार मैं ने इरा पर हाथ उठाया है. मुझे इस का बहुत दुख है. क्या करूं, उस के परीक्षा में नंबर कम आए हैं. अगले साल बोर्ड है, अगर ऐसा ही रहा तो मैं क्या करूंगी? हर तरफ सिर्फ एक ही बात होगी कि बिन बाप की बच्ची है इसलिए ऐसा हुआ. मैं हर पल सूली पर खड़ी होती हूं, जहां मेरा चरित्र, मेरे गुणअवगुण, मेरा सबकुछ मेरे अकेले होने से मापा जाता है, यहां तक कि मेरा मातृत्व भी हमेशा प्रश्नों के कटघरे में खड़ा रहता है.’

30 अप्रैल, 1999.

‘आज इरा का कालिज का पहला दिन है. शेखर, तुम्हारी बिटिया बड़ी हो गई है और मैं कमजोर. अभी तक तो मैं ने उसे अपने आंचल में छिपा कर रखा था पर क्या अब मैं उसे समाज की गंदगी से दूर रख पाऊंगी. वह भी तो दूसरी लड़कियों की तरह जीना चाहेगी, क्या मैं उसे यह आजादी दे पाऊंगी. आज बहुत डर लग रहा है. इरा अगर भटक गई… नहींनहीं, ऐसा नहीं हो सकता…मैं यह क्या सोच रही हूं.’

1 जुलाई, 2001.

‘आज का दिन मेरे लिए बहुत बुरा था. आज आफिस में मिसेज भटनागर कह रही थीं कि मुझे इरा पर कड़ी निगाह रखनी चाहिए, बिन बाप की बच्ची कहीं भटक…मैं इस से आगे कुछ कह नहीं पाई. क्या मुझ से भूल हो गई है? क्या मुझे पापामम्मी की बात मान लेनी चाहिए थी? मैं ने खुद के लिए कभी न खत्म होने वाला अकेलापन चुना जिस से मेरी बच्ची सुरक्षित रहे, पर क्या मेरी सुरक्षा की परिभाषा गलत थी? क्या मेरे साथसाथ मेरी बच्ची को भी हरपल अग्नि परीक्षा देनी होगी? नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूंगी, पर कैसे?’

9 नवंबर, 2001.

‘इरा 22 साल की हो गई है. मुझे उस के भविष्य की चिंता हो रही है. कुछ ही सालों में वह अपने घर चली जाएगी. कैसे उस के लिए एक अच्छा जीवनसाथी खोजूं. काश, तुम मेरे पास होते. इरा के जाने के बाद मैं क्या करूंगी. कितना अकेलापन होगा, सोच कर भी डर लगता है.’

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15 अगस्त, 2006.

यह आखिरी पन्ना था. नजरें उठा कर देखा तो 4 बजने को थे. मेरा मन ग्लानि से भरा हुआ था. क्यों नहीं समझ पाई मैं अपनी मां की तकलीफ? मां के प्रति अपने किए गए हर बुरे बरताव पर मुझे शर्मिंदगी हो रही थी.

आगे पढें- अपने कमरे में कपड़े रख कर मैं पलटी ही थी कि…

Serial Story: उपहार– भाग 2

लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत

अब ऐसा नहीं होगा. मां, मैं आप का सहारा बनूंगी और आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी. मन में यह संकल्प कर मैं ने मां की डायरी यथावत अलमारी में रख दी. हमेशा से बिलकुल अलग मैं मां का हर बोझ कम करना चाहती थी. इसलिए छत पर सूखे हुए कपड़े उतारने गई तो ट्रक की आवाज सुन कर मैं चौंकी. पर देखा तो पड़ोस के घर में सामान उतर रहा था. होगा कोई, यह सोच कर कपड़े ले कर मैं नीचे आ गई.

अपने कमरे में कपड़े रख कर मैं पलटी ही थी कि कालबेल बजी. साढे़ 5 बज गए, मां ही होंगी यह सोच कर दरवाजे की ओर बढ़ी. दरवाजा खोला तो सामने मां की उम्र के व्यक्ति खड़े थे.

‘‘नमस्ते बेटा, मैं डा. सिद्धांत हूं. मैं ने आप का पड़ोस वाला घर खरीदा है. क्या आप के पास 5 सौ रुपए के खुले होंगे,’’ उन के इस प्रश्न पर मैं ने ‘हां’ में गरदन हिलाई और थोड़ी देर में उन्हें 100-100 के 5 नोट ला कर दे दिए. इस पहले परिचय के बाद अब डा. सिद्धांत से हर सुबह मेरी मुलाकात कालिज जाते हुए होती. मैं उन्हें नमस्ते करती और वह मुसकरा कर कहते, ‘‘खुश रहो बेटा.’’

मैं अब पहले वाली इरा नहीं रही थी. मेरी मां, मेरे जीवन का केंद्रबिंदु बन गई थीं. उन के आफिस से लौटने से पहले मैं हर हालत में कालिज से लौट आती और मां के आते ही चाय बना कर लाती. जब वह खाना बनातीं तो उन के साथ किचन में उन का हाथ बंटाती. मेरा यह व्यवहार शुरू में मां को अटपटा जरूर लगा और उन्होंने 1-2 बार पूछा भी, ‘‘इरा, क्या बात है, कालिज से जल्दी आ जाती हो, किसी दोस्त से झगड़ा हो गया है क्या?’’ मां के इस सवाल पर मैं सिर्फ मुसकरा कर रह जाती.

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एक दिन जब मैं कालिज से लौट कर आई तो देखा, मां घर पर हैं. अभी तो सिर्फ 3 ही बजे हैं और मां घर पर, सब ठीक तो है? यह सोच कर मैं सीधे मां के कमरे की ओर गई. देखा, मां बिस्तर पर सो रही थीं. मैं ने जैसे ही उन्हें उठाने के लिए हाथ लगाया तो पाया कि उन्हें तेज बुखार है.

‘‘मम्मा, आप को तो बुखार है,’’ मेरे स्पर्श से मां जाग गई थीं.

‘‘हां बेटा, पर मैं जल्दी ठीक हो जाऊंगी. मैं ने दवा ले ली है.’’

रात को मां ने जैसे मुझे समझाया वैसे मैं ने उन के लिए दलिया भी बनाया.

‘‘पहली बार तुम ने कुछ बनाया है. मेरी बिटिया अब बड़ी हो गई है,’’ यह कह कर मां ने मेरे माथे को चूम लिया था. मैं रात को मां के पास ही सो गई. थोड़ी देर बाद मां के कराहने की आवाज सुन कर मेरी नींद खुली. मैं ने लाइट जलाई और घड़ी की ओर देखा तो रात के 1 बज रहे थे. मां को छू कर देखा तो उन का बदन भट्ठी की तरह तप रहा था. समझ में नहीं आया कि क्या करूं. दौड़ कर डा. सिद्धांत के घर गई.

‘‘इतनी रात को, सब ठीक तो है बेटा?’’ उन्होंने मुझे देखते ही पूछा.

‘‘अंकल, मम्मा को बहुत तेज बुखार है. प्लीज, आप घर…’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं…’’ यह कह कर वह अंदर गए और अपना बैग ले कर मेरे साथ घर आ गए. मां की हालत देख कर बोले, ‘‘अच्छा किया बेटा जो तुम ने मुझे बुला लिया. थोड़ी देर में इन का बुखार उतर जाएगा. मैं ने इंजेक्शन लगा दिया है.’’

‘‘अंकल, सौरी, मैं ने आप को इतनी रात गए…’’

‘‘अंकल कहती हो तो सौरी कहने की जरूरत नहीं,’’ उन की मुसकराहट में अपनत्व का वही एहसास था जिसे मैं कितने ही दिनों से महसूस कर रही थी.

रात भर डा. सिद्धांत, मां के पास बैठे रहे और जब मैं ने उन से उन के घर जाने को कहा तो उन्होंने कहा कि जब मां का बुखार पूरी तरह उतर जाएगा तभी वह जाएंगे.

सुबह तक मां का बुखार उतर गया. तब जा कर सिद्धांत अंकल अपने घर जाने के लिए उठे पर जातेजाते वह मां को आफिस न जाने की हिदायत दे गए.

दिन में मां को दोबारा बुखार चढ़ गया. शाम को जब डा. सिद्धांत मां को देखने आए तो बोले, ‘‘बेटा, अच्छा होगा कि हम आप की मम्मा का ब्लड टेस्ट करवा लें.’’

मां का ब्लड टेस्ट हो गया और रिपोर्ट से पता चला कि उन को टाइफायड हो गया है. डा. सिद्धांत मां को देखने सुबहशाम आते. मां धीरेधीरे ठीक होने लगीं.

‘‘इरा बेटा, आप की मम्मी की तबीयत में काफी सुधार है पर मेरा तो नुकसान होने वाला है,’’ उस दिन

डा. सिद्धांत हंसते हुए बोले थे.

‘‘वो कैसे अंकल?’’ मेरे इस सवाल पर वह मुसकरा कर बोले, ‘‘भई, जब रुद्राजी पूरी तरह ठीक हो जाएंगी तो शाम को चाय मुझे खुद बना कर अकेले पीनी पड़ेगी.’’

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‘‘नहीं डा. सिद्धांत, ऐसा नहीं होगा. आप को हर शाम हास्पिटल से सीधे हमारे घर आना होगा,’’ मां की इस बात को सुन कर मैं चौंकी, क्योंकि आज पहली बार उन्होंने किसी व्यक्ति से साधिकार बात की थी.

मां पूरी तरह ठीक हो गईं. डा. सिद्धांत रोज शाम को हमारे घर आते. इस तरह महीना बीत गया. मां और डा. सिद्धांत को मैं ने कभी ज्यादा बात करते नहीं देखा. डा. सिद्धांत अपने हास्पिटल के किस्से सुनाते और मां मुसकराती रहतीं. मां ने कभी डा. सिद्धांत से उन के परिवार के बारे में नहीं पूछा और न ही डा. सिद्धांत ने अपने बारे में कुछ बताया.

एक दिन शाम को मां का फोन आया कि उन्हें आफिस से आने में देर हो जाएगी. अभी मैं ने फोन रखा ही था कि कालबेल बजी. दरवाजा खोल कर देखा तो सिद्धांत अंकल खड़े थे.

‘‘रुद्राजी नहीं आईं?’’

‘‘नहीं अंकल, आज मम्मा को आफिस में कुछ काम है थोड़ी देर से आएंगी.’’

‘‘कोई बात नहीं, मम्मा को आ जाने दो, तभी चाय पीएंगे, तब तक मैं अपनी बिटिया के साथ बैठ कर ढेर सारी बातें करूंगा,’’ और यह कह कर डा. सिद्धांत ने मुझे भी सोफे पर बैठने का इशारा किया.

‘‘अंकल, क्या मैं आप से कुछ पूछ सकती हूं?’’

‘‘कुछ नहीं बेटा, बहुत कुछ पूछ सकती हो,’’ और यह कह कर डा. सिद्धांत खिलखिला कर हंस दिए.

‘‘अंकल, आंटी…’’ मैं आगे कुछ कहती इस से पहले वह बोले, ‘‘वह इस दुनिया में नहीं हैं. जब विभोर 4 साल का था तभी एक सड़क दुर्घटना…’’

‘‘आई एम सौरी अंकल, विभोर आप का बेटा है, पर वह कहां है?’’

मेरे इस सवाल को सुन कर उन्होंने कहा, ‘‘वह अमेरिका में अपनी वाइफ के साथ है.’’

‘‘आप नहीं गए उस के पास?’’

‘‘नहीं बेटा, जीवन की सांझ मैं अपने देश में ही रह कर निकाल देना चाहता हूं.’’

‘‘अंकल, मैं बहुत छोटी हूं पर फिर भी आप से पूछना चाहती हूं कि आप ने आंटी के जाने के बाद दोबारा शादी क्यों नहीं की?’’ यह सवाल मैं ने अपनी सारी हिम्मत जुटा कर पूछा था. डा. सिद्धांत ने बड़ी ही सहजता से कहा, ‘‘विभोर की खातिर. मैं डरता था कि कहीं सौतेली मां उस के साथ बुरा व्यवहार न करे.’’

‘‘अंकल, मैं आप की बात से असहमत नहीं हूं, फिर भी मुझे लगता है मां तो मां होती है, सौतेली तो उसे समाज बना देता है. जिस बच्चे को मां अपनी कोख से जन्म नहीं देती यदि उस बच्चे की भलाई के लिए या किसी गलती के लिए उसे डांट देती है तो हम सब उस के पीछे का कारण उस का सौतेला होना ढूंढ़ते हैं.’’ इस के आगे डा. सिद्धांत कुछ कहते कि कालबेल बजी, ‘लगता है मम्मा आ गईं,’ यह कहते हुए मैं दरवाजे की ओर बढ़ी.

‘‘रुद्राजी, आज आप को बहुत देर हो गई. रात को अकेले आना ठीक नहीं है,’’ यह बात सुन कर मैं जोर से हंस दी. अभी तक जो बात मैं अपने लिए मां से सुनती आई थी, आज मां को वही बात सुनने के लिए मिल रही थी.

आगे पढें- मेरी बात को सुन कर मां बोलीं…

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Serial Story: उपहार– भाग 3

लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत

दूसरे दिन जब मैं कालिज गई तो शालिनी मुझ से 6 से 9 वाले शो की मूवी देखने को बोली. मैं ने हां कर दी. पर फिर सोचने लगी कि कैसे मम्मा को मनाऊंगी. कालिज से मैं सीधे डा. सिद्धांत के घर गई. मेरी परेशानी सुन कर उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि वह मम्मा को मना लेंगे. थोड़ी देर में जब वह घर आए तो मैं ने जानबूझ कर उन्हीं के सामने मूवी देखने जाने की बात की.

मेरी बात को सुन कर मां बोलीं, ‘‘इरा, तुम जानती हो यह संभव नहीं है उस पर रात का शो तो बिलकुल नहीं.’’

‘‘रुद्राजी, जाने दीजिए, मेरी बेटी बड़ी हो गई है. आप रात की चिंता मत कीजिए. मैं इरा को लेने चला जाऊंगा.’’

डा. सिद्धांत की बात को सुन कर मां ने मौन स्वीकृति दे दी. मुझे पहली बार एहसास हो रहा था कि पिता रूपी सुरक्षा कवच क्या होता है.

मुझे डा. सिद्धांत के साथ बिताया हर पल बहुत खुशी देता. क्या मां को भी

डा. सिद्धांत का साथ सुकून देता है, यह सवाल बारबार मुझे परेशान करता. मां अपने मन की हर बात अपनी डायरी में लिखती हैं यह सोच कर मां के आफिस जाने के बाद मैं ने चुपचाप अलमारी से मां की डायरी निकाली और पढ़नी शुरू की.

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‘इरा, आज पहली बार अपनी सहेलियों के साथ इतनी रात गए बाहर गई है पर आज मुझे डर नहीं लगा. क्या इस का कारण डा. सिद्धांत हैं? उन्होंने मुझे आफिस से देर से आने पर टोका. मुझे उन का टोकना बुरा क्यों नहीं लगा? बरसों बाद लगा कि मैं भी जीतीजागती इनसान हूं, जिस की किसी को परवा है. यह एहसास एक अजीब सा सुकून दे रहा है. कहीं मैं गलत तो नहीं? शेखर, क्या मैं तुम्हारी यादों के साथ अन्याय कर रही हूं? यह सब क्या है, कुछ समझ नहीं आ रहा.’

1 मई, 2007.

मैं ने डायरी बंद कर के रख दी. शाम को डा. सिद्धांत जब घर आए तो मां उन से बोलीं, ‘‘डा. सिद्धांत, इरा बड़ी हो गई है, अगर आप की नजर में कोई अच्छा लड़का हो तो…’’

‘‘मुझे शादी नहीं करनी,’’ मैं ने मां की बात काटते हुए कहा.

‘‘क्यों बेटी?’’

डा. सिद्धांत के इस सवाल पर मैं बोली, ‘‘मैं ने शादी कर ली तो मां बिलकुल अकेली हो जाएंगी.’’

‘‘ओह, तो यह बात है. तुम चिंता मत करो, मैं हूं ना,’’ डा. सिद्धांत यह कह कर एकदम से सकपका गए और उन्होंने तुरंत मां की ओर देखा. मां को तो जैसे सांप सूंघ गया.

‘‘मैं चलता हूं,’’ यह कह कर

डा. सिद्धांत उठ कर चले गए, मां भी अपने कमरे में चली गईं. रात को खाना खाते हुए मां और मेरे बीच बिलकुल बात नहीं हुई. मैं रात भर सो नहीं सकी. कभी मेरी नजरों के सामने डा. सिद्धांत आते और कभी मां.

अगले दिन मैं सुबहसुबह

डा. सिद्धांत के घर पहुंच गई और बोली, ‘‘अंकल, इस मदर्स डे पर मैं मम्मा को ऐसा तोहफा देना चाहती हूं जो आज तक किसी बेटी ने अपनी मां को नहीं दिया हो. अब आप ही मेरी सहायता कर सकते हैं.’’

‘‘इरा बेटा, तुम्हें मुझ से जैसी सहायता चाहिए, बोलो, मैं अपनी बेटी के लिए सबकुछ कर सकता हूं.’’

‘‘क्या आप मेरे पापा बनेंगे?’’ मैं ने डा. सिद्धांत की आंखों में झांकते हुए पूछा.

‘‘हां बेटा,’’ और यह कह कर उन्होंने मुझे गले लगा लिया. मेरी आंखों से अविरल आंसू बहने लगे. ऐसा लग रहा था कि मेरे चारों ओर एक बेहद मजबूत सुरक्षा कवच बन गया है.

‘‘इरा, क्या रुद्राजी मानेंगी?’’

‘‘उन्हें मैं मनाऊंगी अंकल.’’

मुझे हिम्मत जुटाने में कुछ समय लगा था. रविवार होने की वजह से मां उस दिन देर से उठीं. ‘‘गुडमार्निंग मम्मा,’’ मैं चाय ले कर सुबह जब उन के कमरे में पहुंची तो मां ने हैरानगी से मुझे देखा.

‘‘क्या बात है इरा, आज कोई खास बात है क्या?’’

‘‘हां, मां, मुझे आज आप से कुछ चाहिए. पर मैं मांगूंगी तभी जब आप यह विश्वास दिला दें कि मना नहीं करेंगी.’’

मां ने मुझे हां में भरोसा दिया तो मैं तपाक से बोली, ‘‘मां, मुझे पापा चाहिए.’’

‘‘तुम्हें होश भी है कि तुम क्या कह रही हो?’’

‘‘होश में हूं मां, मैं चाहती हूं कि सिद्धांत अंकल मेरे पापा बन जाएं.’’

‘‘बेटा, ऐसे हर कोई पिता नहीं बन जाता.’’

‘‘आप सही कह रही हैं मम्मा, हर कोई पिता नहीं बन सकता पर सिद्धांत अंकल हर कोई नहीं हैं. अगर हालात ने मेरे जन्मदाता को मुझ से छीन लिया तो मैं जीवन भर पिता की छांव से क्यों वंचित रहूं. मम्मा, पापा वह होते हैं जो अपने बच्चे को जीवन की हर परेशानी में थाम लें. आज सिद्धांत अंकल ने मुझे वह सुरक्षा और प्यार दिया है. एक बच्चे के लिए अगर मां ममता की छांव होती है तो पिता सुरक्षा कवच,’’ मैं ने मां को समझाते हुए कहा.

‘‘बेटा, इस का मतलब मैं तुम्हारा पापा नहीं बन पाई,’’ यह कहतेकहते मां के चेहरे पर उदासी छा गई.

‘‘नहीं, मम्मा, ऐसा नहीं है, मैं सिर्फ आप को यह बताना चाहती हूं कि आप ने अपना सारा जीवन मेरे लिए समर्पित कर दिया पर अब मैं चाहती हूं कि आप अकेले न रहें.’’

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‘‘इरा, तुम सचमुच बड़ी हो गई हो. बेटा, मेरा सारा जीवन तो निकल चुका है और बाकी का जीवन…’’

‘‘ऐसा क्यों मां,’’ मैं ने मां की बात को बीच में काट कर कहा, ‘‘क्या आप सिर्फ मेरे व पापा के लिए जीना चाहती हैं. मम्मा, यही उम्र होती है जब सच्चे मानों में जीवनसाथी की जरूरत होती है. जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और अपने जीवन में मशगूल हो जाते हैं तब पतिपत्नी ही एक दूसरे का सहारा बनते हैं. मां, यादों के सहारे जीवन नहीं निकलता. जीवन जीने के लिए जीतेजागते इनसान की जरूरत होती है. आप समझ रही हैं न.’’

‘‘हां बेटा, मैं समझ रही हूं. मुझे कुछ वक्त चाहिए.’’

अगले दिन सुबह जब मैं ने अपनी आंखें खोली तो मां मेरे सामने खड़ी थीं.

‘‘हैप्पी मदर्स डे मां,’’ यह कह कर मैं मां के गले लग गई. ‘‘मां, मैं आप को क्या तोहफा दूं?’’ मैं ने मां की ओर देखते हुए पूछा.

‘‘तुम तो मुझे कल ही तोहफा दे चुकी हो. किसी मां के लिए इस से बड़ा उपहार क्या हो सकता है कि उस की बेटी छोटी सी उम्र में जीवन का सार जान ले.’’

‘‘अगर मैं गलत नहीं तो अब गिफ्ट लेने की मेरी बारी है,’’ मैं चहक कर बोली.

‘‘बिलकुल,’’ मां के चेहरे की मुसकान ने जैसे सबकुछ कह दिया और मैं सिद्धांत अंकल…नहींनहीं अपने पापा के पास दौड़ पड़ा.

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जेठ जीजाजी: ससुराल के रिश्तों में उलझी प्रशोभा की कहानी

Serial Story: जेठ जीजाजी – भाग 4

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

 पूर्वकथा : अभी तक आप ने पढ़ा कि प्रशोभा अपने पति राघव के साथ देवर माधव की शादी के लिए ससुराल पहुंचती है. ससुराल में शादी की तैयारियों में सब जुटे थे. प्रशोभा ने महसूस किया कि उस के जेठ ऊधव उस का कुछ खास ही खयाल रख रहे हैं. वे कोशिश कर रहे थे कि प्रशोभा उन से खुले. लेकिन प्रशोभा रिश्तों की मर्यादा जानती थी.

अविवाहित जेठ का शादी न करने का फैसला उसे अपनी ननद किरण से पता चलता है कि कंचन नाम की लड़की से पिता ने विवाह न होने दिया तो उन्होंने शादी न करने की जिद ठान ली.

किरण और प्रशोभा को ब्यूटीपार्लर जाना था तो सास कहती हैं कि ऊधव औफिस जाते वक्त तुम्हें वहां छोड़ देगा. ऊधव को जब पता चलता है कि प्रशोभा के साथ किरण भी जा रही है तो उस के चेहरे पर चमक गायब हो जाती है. क्या प्रशोभा जेठजी के जज्बातों को समझ रिश्तों को नया रूप देने की सोच रही थी? पढि़ए आगे :

पीले कलर की छोटी सी कार भाईसाहब ने मेन्टेन कर रखी थी. एक तरफ का दरवाजा खोल कर दीदी बैठ गईं. जेठजी ड्राइविंग सीट पर बैठ चुके थे. अपनी साइड का दरवाजा खोल कर मैं बैठने चली, तो देखा, ड्राईक्लीनर के यहां से लाए हुए बड़ेबड़े 3-4 पैकेट्स इस साइड रखे थे.

दीदी मेरे लिए जगह बनाने के इरादे से उन पैकेटों को अंदर ही अंदर अगली खाली सीट पर रखने चलीं तो जेठजी तेजी से बोले, ‘‘किरण, उन पैकेटों को डिस्टर्ब न करो और प्रशोभा, तुम मेरे पास वाली सीट पर बैठो.’’

मैं ने दीदी की तरफ देखा, फिर उन का इशारा पा कर पीछे का दरवाजा बंद किया और आगे वाली सीट पर भाईसाहब की बगल में बैठ गई.

मुझे महसूस हुआ कि मुझे पास में  बैठा कर कार ड्राइव करते हुए भाईसाहब की कुछ ऐसी हालत थी कि मानो वे मेरा हरण करने में सफल हो गए हों. इस समय उन के चेहरे की प्रसन्नता देखते ही बनती थी.

पीछे दीदी न बैठी होतीं तो शायद अपनी मनोव्यथा और मेरी सुंदरता का बखान करते न थकते वे. पूरा रास्ता मौन संदेश देता बीत गया. ब्यूटीपार्लर के सामने हमें उतार कर बड़ी प्रसन्न मुद्रा में मुझे देखते वे चले गए.

ब्यूटीपार्लर से औटो में लौटते हुए मैं ने छेड़ा, ‘‘दीदी, मुझे लगता है कि भाईसाहब को भी अब एक लाइफपार्टनर की जरूरत है.’’

‘‘हां, मैं भी ऐसा ही महसूस करती हूं. पर अपनी ऐंठ और पिताजी को दुख दे कर पता नहीं उसे क्या मिल रहा है. आजीवन कुंआरा रह कर जाने क्या सिद्ध करना चाहता है. प्रशोभा, हाउसिंग बोर्ड में सर्विस लगने के बाद इस के कितने ही रिश्ते आए, पर एक ही रट कि आप ने मेरी शादी कंचन से नहीं होने दी, इसलिए अब किसी से भी शादी नहीं करूंगा, आजीवन कुंआरा रहूंगा.’’

‘‘दीदी, अगर आप कहो तो मैं उन्हें शादी कर लेने लिए राजी करूं?’’

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‘‘अरे कुछ नहीं होगा प्रशोभा. जो मनोरोगी हो जाते हैं वे किसी की बात नहीं सुनते. कितने ही रिश्ते तो तेरे जीजाजी ने बताए, मामाजी, बूआजी और भी कई लोगों ने इसे समझाया पर कुछ असर नहीं हुआ.’’

‘‘दीदी, एक बार राघव और मैं प्रयास कर के देखते हैं.’’

‘‘तेरी नजर में कोई लड़की हो तो कर प्रयास लेकिन मुझे पता है कि परिणाम क्या होगा.’’

घर पहुंच कर मांजी के साथ हम और दीदी कल होने वाले लेडीज संगीत के प्रोग्राम में निमंत्रित महिलाओं की मांजी द्वारा तैयार की गई 2 पन्नों की लिस्ट का एकएक पन्ना ले कर बैठ गए और अपनेअपने मोबाइलों से उन्हें रिमाइंडर देने में जुट गए.

शाम की चाय से पहले राघव और माधव आ गए थे. पर भाईसाहब नहीं लौटे थे.

राघव ने आते ही पिताजी को बता दिया, ‘‘कल लेडीज संगीत निबट ही जाएगा और परसों सवेरे ठीक 8 बजे मिनी बस दरवाजे पर आ कर खड़ी हो जाएगी. इसलिए होटल में साथ ले जाने वाला सारा सामान याद कर के टोकरियों व पेटियों में भर कर तैयार रखना होगा.’’

फिर उस ने मां से कहा, ‘‘और मां, जो कीमती सामान वाली अटैची और बक्सा होगा, वह हमारे साथ सूमो से चला जाएगा. होटलरूम हमें 10 बजे तक खाली हो कर मिल जाएगा.

माधव ने वास्तव में दोनों बहुत अच्छे होटल बुक कराए हैं. दसों कमरे एयरकंडीशन वाले हैं और जिस हौल में सारे फंक्शन होंगे वह भी अच्छा व बड़ा है तथा उस में भी एसी फिट है.’’

‘‘उन का होटल भी अच्छा ही होगा?’’ दीदी ने पूछ लिया.

‘‘दीदी, उन के लिए जो कमरे बुक हैं वे तो हमारे से भी अच्छे और बड़े हैं. एयरकंडीशंड हैं. सब से बड़ी बात कि रिसैप्शन वाला लौन बहुत बड़ा व सुंदर है. जयमाला स्टेज, फेरों वाला प्लेस सज कर बहुत मस्त लगेगा.’’

रात के खाने के समय तक जेठजी भी आ गए थे. कानपुर के घंटाघर के पास किसी प्रसिद्ध मिठाई की दुकान से रबड़ीमलाई वे सब के लिए लेते आए थे और रबड़ीमलाई से भरी मिट्टी की हंडिया मुझे पकड़ाते हुए बोले थे, ‘‘प्रशोभा, यह कानपुर के प्रसिद्ध कुंदन हलवाई की रबड़ीमलाई है. खाना खाने के बाद हम सब खाएंगे.’’

खाना खाते समय राघव ने भाईसाहब को भी परसों तक की सारी गतिविधियों से अवगत करा दिया और हम सब उन के द्वारा लाई हुई स्वादिष्ठ रबड़ीमलाई खा कर अपनेअपने कमरों में सोने चले गए.

अपने कमरे के दरवाजे पर ठिठक कर रुकते हुए उन्होंने राघव से कहा, ‘‘तुम लोग तो अपनी अटैची आराम से लगा लोगे, पर मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि कौन से सूट और कपड़े ले चलूं? मन तो कह रहा है कि जिस दिन जयमाला और फेरे हों उसी दिन सीधे शादी में पहुंचूं.’’

‘‘अरे भाईसाहब, आप के बिना कैसी शादी? वहां सब आप को पूछेंगे तो हम क्या जवाब देंगे? आप ऐसा मत सोचिए. आप को तो माधव की शादी में हर हालत में सदा ही उपस्थित रहना है.’’

‘‘राघव, तुम तो जानते ही हो कि मुझे शादी शब्द से ही नफरत है. 2 दिलों का मिलन साधारण तरीके से भी हो सकता है.’’

‘‘भाईसाहब, मेरी तो समझ में यह आता है कि कोई व्यक्ति जब किसी बात से वंचित रह जाता है तो उसे समाज के हर रीतिरिवाज बोझ लगते हैं. जबकि सच यह है कि ये सारी व्यवस्थाएं और इस में निहित सारी रस्में 2 परिवारों की खुशी के लिए दस्तावेज का काम करती हैं,’’ मैं जाने किस रौ में इतना बोल गई.

भाईसाहब मुझे गौर से देखने लगे, फिर राघव से बोले, ‘‘तेरी प्रशोभा तो बड़ी गंभीर बातें कर लेती है. और शायद इसीलिए मुझे इस का स्वभाव बहुत अच्छा लगता है.’’

राघव ने बात खत्म करने के इरादे  से कहा, ‘‘भाईसाहब, मैं कुछ नहीं जानता, आप को शादी में सब के साथ चलना है.’’

‘‘लेकिन मेरी अटैची कौन लगाएगा, मुझ से तो लग नहीं पाएगी.’’

‘‘लेडीज संगीत के बाद आप की अटैची भी प्रशोभा लगा देगी.’’

‘‘तब ठीक है. क्यों प्रशोभा, तुम्हें तो कोई एतराज नहीं है?’’ भाईसाहब ने कहा तो राघव मेरे चेहरे की तरफ देखने लगा.

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मैं ने राघव की आंखों में झांकते हुए मौन संकेत से पूछा, ‘‘अब क्यों मेरी तरफ देख रहे हो? किसी बात की हामी भरने से पहले मुझ से पूछने की जरूरत नहीं थी क्या?’’

उस ने आंखों से ही मनुहार भरी और मैं ने भाईसाहब की अटैची लगाने का बीड़ा अपने सिर ले लिया.

रात में सोने से पहले मेरे करीब लेटते हुए राघव अपनी सफाई में स्वयं ही बताने लगा, ‘‘प्रशोभा, आज मैं और माधव, भाईसाहब के कारण ही इंजीनियर बन पाए. उन्होंने प्रतियोगी परीक्षाओं में हमारे साथ रातरातभर जाग कर तैयारी करवाई थी.’’

‘‘तो खुद क्यों अपना कैरियर खराब कर के बैठ गए और हाउसिंग बोर्ड में बड़े बाबू बन कर रह गए?’’

‘‘प्रशोभा, इंटर की परीक्षा देने के बाद भाईसाहब ने भी इंजीनियरिंग का एग्जाम पास कर लिया था और उन का मेकैनिकल शाखा में एडमिशन भी हो गया था लेकिन उसी बीच एक लड़की से इश्क के पागलपन में इन्होंने अपना कैरियर बरबाद कर लिया.

‘‘उस से शादी न कर पाने के कारण अपनी जिद में इंजीनियरिंग की पढ़ाई अधूरी छोड़ दी और बड़ी मुश्किल से ग्रेजुएशन कर के कानपुर हाउसिंग बोर्ड में नौकरी पाई.’’

‘‘वह सब तो ठीक है पर शादी न करने का प्रण इस घर में आने वाली नई बहू के लिए भारी पड़ सकता है.’’

‘‘तुम ऐसा किस आधार पर कह रही हो?’’

राघव ने पूछा तो मैं ने कहा, ‘‘ह्यूमन साइकोलौजी कहती है कि इंसान अपने भीतर के जिस विचार से जितना दूर भागने का नाटक करता है वह उसी विचार में परिस्थिति आने पर फिर जकड़ जाता है.’’

इतना कह कर मैं ने साड़ी और इत्र वाले दोनों किस्से विस्तार से राघव को बता दिए, फिर कहा, ‘‘राघव, तुम कहो तो मैं भाईसाहब के मन को शादी के लिए तैयार करूं?’’

‘‘लेकिन उन के पसंद की लड़की कहां से लाओगी?’’

‘‘देखो राघव, मेरी बातें सुन कर तुम इतना तो समझ चुके ही होगे कि वे मेरे चेहरे से प्रभावित हो कर मुझे अपने करीब ही देखना चाहते हैं. और मेरे जैसी कदकाठी व चेहरेमोहरे वाली इस संसार में कोई है तो तुम्हारी प्रिय साली शोभा है. याद है, पहली बार उस से मिल कर तुम भी तो चकित हो कर रह गए थे.’’

आगे पढ़ें- राघव ने यह कहा तो मैं ने सारी परिस्थितियों पर…

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Serial Story: जेठ जीजाजी – भाग 3

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

अभी तक आप ने पढ़ा प्रशोभा अपने पति राघव के साथ देवर माधव की शादी के लिए ससुराल पहुंचती है. ससुराल में शादी की तैयारियां चल रही होती हैं. प्रशोभा ने गौर किया कि उस के जेठ ऊधव उस का कुछ खास ही खयाल रख रहे हैं और उस के नजदीक रहना पसंद करते हैं.

प्रशोभा को अपनी ननद किरण से पता चलता है कि जेठ ऊधव कंचन नाम की लड़की से  प्रेम करते थे लेकिन पिता के मना करने पर उन्होंने कभी भी शादी न करने का प्रण ले लिया था.

एकदो ऐसी घटनाएं हुईं कि प्रशोभा को लगा कि जेठ ऊधव उस के प्रति आकर्षित हैं. क्या प्रशोभा अपने जेठ ऊधव की मनोस्थिति समझ रही थी? पढि़ए आगे…

मैं उन की आंखों में उभरते उन्माद को लगातार परख रही थी. फिर जब दूरी एक मीटर के आसपास की रह गई तो मेरी आंखों की स्थिरता व चेहरे की दृढ़ता देख कर वे वहीं रुक कर बोले, ‘‘तुम्हें मुझ से डरने की जरूरत नहीं है. तुम मेरे कमरे में बेहिचक चली आया करो. देखो, मैं ने अपने कमरे को आधुनिक रूप से बनवा लिया है. यहां अटैच्ड लैट्रीनबाथरूम में मैं ने गीजर, शौवर और सारी लैटेस्ट फिटिंग्स के साथ कमरे में एसी भी लगवा रखा है.’’

तभी नीचे से राघव की आवाज आई, ‘‘अरे प्रशोभा, कहां रह गईं, एक साड़ी लाने में इतनी देर?’’

राघव की आवाज सुन कर मैं ने तुरंत जवाब दिया, ‘‘बस, 2 मिनट में आ रही हूं.’’

फिर धीरे से जेठजी से बोली, ‘‘भाईसाहब, अभी साड़ी आप अपने पास ही रखिए. मुझे जिस दिन पहननी होगी, आप से मांग लूंगी,’’ इतना कह कर मैं तुरंत वहां से हट गई और पास के उस  कमरे में तेजी से घुस गई जहां मेरा सामान रखा हुआ था.

अंदर से दरवाजा बंद कर के पहले बाथरूम में घुसी. यह बाथरूम भी अटैच्ड और साफसुथरा था लेकिन जैसी व्याख्या भाईसाहब ने अपने बाथरूम की की थी वैसा नहीं था और एसी की जगह कमरे में कूलर लगा था.

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फ्रैश हो कर मैं ने जल्दी से अटैची खोल कर अपनी होने वाली देवरानी को देने वाली इलाहाबाद से खरीदी हुई साड़ी व चांदी की करधनी निकाली तथा फिर से अटैची बंद कर के दरवाजा खोल कर भाईसाहब के कमरे के सामने से तेजी से गुजरती हुई सीढि़यों से नीचे उतर गई.

मैं ने महसूस कर लिया था कि भाईसाहब मुझे रोकने या मुझ से कुछ कहने के इरादे से अपने कमरे के दरवाजे पर ही खड़े हैं. पर इस बात से अनजान होने का नाटक करते हुए मैं फटाफट सीढि़यां उतर कर मां वाले कमरे में पहुंची.

बड़ी देर तक मैं और राघव मां के साथ बैठ कर शादी की तैयारियां करते रहे. फिर कल पूरे दिन की योजना बना कर सीढि़यां चढ़ कर अपने कमरे में आ गए.

भाईसाहब ने एसी चला कर अपना कमरा बंद कर लिया था और पता नहीं सो रहे थे या जग रहे थे. कूलर आवाज बहुत कर रहा था. मैं अपना नाइट गाउन पहन कर राघव के पास आ कर लेटी ही थी और अभी कुछ देर पहले का जेठजी वाला किस्सा बताने जा ही रही थी कि ऐसा लगा कि बाहरी दरवाजे पर कोई दस्तक दे रहा है.

राघव बोला, ‘‘लग रहा है कोई दरवाजा खटखटा रहा है. देखता हूं  उठ कर.’’

राघव दरवाजे की ओर बढ़ने लगा तो मैं ने कहा, ‘‘अगर भाईसाहब हों तो तुम उन को कमरे के अंदर लिए न चले आना. मैं गाउन पहन चुकी हूं. ज्यादा देर तक बात करनी हो तो उन्हीं के कमरे में चले जाना. मुझे पूछें तो कह देना सो गई है.’’

इतना कह कर मैं चादर के भीतर घुस गई और मुंह ढक कर लेट गई. राघव ने दरवाजा खोला, जेठजी ही थे. राघव को देखते ही बोले, ‘‘प्रशोभा सो गई क्या?’’

शायद राघव ने हां कहा होगा क्योंकि कूलर की आवाज में शब्द स्पष्ट नहीं सुनाई दे रहे थे. फिर भी जो मेरे कानों में पड़ा उस से मैं ने अनुमान लगाया कि वे कह रहे थे, ‘‘बड़ी जल्दी सो गई. मैं तो तुम दोनों को अपने कमरे में सोने के लिए बुलाने आया था. चलो, कोई बात नहीं. अब तुम भी सो जाओ, कल सवेरे बातें करेंगे.’’

मैं ने कमरे का दरवाजा बंद होने की आवाज सुनी तो अपने मुंह पर ढकी चादर हटाते हुए राघव को देखा, फिर उसे कमरे की लाइट बंद करने का इशारा किया.

जब वह मेरे पास आ कर उसी चादर में घुस गया तो मैं उस से चिपट कर लेट गई.

मेरे अनुमान से रात को एक तो बज ही गया होगा, इसलिए मैं भाईसाहब से हुई अपनी बातचीत राघव को इस समय भी न बता पाई. बस, उस की बांहों में सिमट कर सो गई.

सवेरे दरवाजा खटकने की आवाज से मेरी और राघव की एकसाथ ही आंख खुल गई. राघव तो कूलर बंद कर के दरवाजा खोलने बढ़ गया और मैं इस आशंका से कि कहीं जेठजी न हों, उठ कर सीधी बाथरूम में घुस गई.

जेठजी ही थे क्योंकि उन की आवाज मेरे कानों में स्पष्ट आ रही थी, ‘‘कितना सोते हो तुम लोग, 8 बजने वाले हैं, मैं बैड टी पीने के बाद कब से तुम दोनों का इंतजार कर रहा हूं. चलो, नीचे चल कर चाय पीते हैं.’’

‘‘भाईसाहब, आप चलो, हम फ्रैश होने के बाद ब्रश कर के अभी आते हैं,’’ राघव की आवाज थी.

‘‘मैं तुम दोनों के साथ ही नीचे उतरूंगा.’’

‘‘लेकिन भाईसाहब, अभी तो प्रशोभा बाथरूम में घुसी है. नहा कर ही निकलेगी. वह निकलेगी, तभी मैं नहाने के बाद तैयार हो कर ही नीचे उतरूंगा. आज माधव के साथ जा कर बहुत से काम करने हैं. आप चलो भाईसाहब, हम पहुंचते हैं.’’

‘‘मुझे पता है कि तुम नहाने में कितना समय लगाते हो. तुम ऐसा करो कि अपना तौलिया वगैरह ले लो और चल कर मेरे बाथरूम में नहा लो. आओ चलो.’’

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‘‘ठीक है भाईसाहब, ऐसा ही करते हैं.’’ इस के बाद एकदम से चुप्पी छा गई. मैं ने पदचाप से अनुमान लगाया कि राघव ने कमरे में आ कर बैग से अपना टूथब्रश और तौलिया आदि लिया और भाईसाहब के साथ उन के कमरे में फ्रैश होने चला गया.

बाहर कमरे की शांति से निश्ंिचत हो कर मैं धीरे से बाथरूम से बाहर निकली, अटैची में से जल्दी से अपनी ब्रा, पेटीकोट, ब्लाउज और तौलिया ले कर गुसलखाने में घुस गई. साड़ी निकाल कर पलंग पर यह सोच कर रख दी कि नहाने के बाद बाहर निकल कर ढंग से पहनूंगी.

नहाधो कर मैं तौलिए से सिर के बाल पोंछती हुई पेटीकोट व ब्लाउज पहने जब बाहर निकली तो ड्रैसिंग टेबल के पास से आवाज आई, ‘‘प्रशोभा, वास्तव में तुम बहुत सुंदर हो. देखो, मैं तुम्हारे लिए बहुत अच्छी खुशबू वाला सैंट कन्नौज से लाया था जब दिव्या को देखने गया था. नहाने के बाद बदन पर स्प्रे करने से दिनभर मन प्रसन्न रहता है,’’ कह कर वे मुझे इत्र देने के बहाने बढ़े तो मैं एकदम से घबरा गई.

मेरा इधर तो ध्यान ही नहीं था कि राघव को अपने बाथरूम में नहाने के लिए भेज कर जेठजी इस कमरे में आ कर मुझे इस रूप में देखने के इरादे से आ कर बैठ सकते हैं. मैं यह भी जानती थी कि राघव इतनी जल्दी नहा कर निकलने वाला नहीं है.

इसलिए मेरे पास एक ही विकल्प बचा था कि मैं उन की कुदृष्टि से अपने को बचाने के लिए फिर बाथरूम में घुस जाऊं, इसलिए मैं तेजी से पलटी और बाथरूम में घुस गई.

पीछे से मैं ने भाईसाहब की आवाज सुनी, ‘‘प्रशोभा, पता नहीं तुम मुझ से इतना क्यों घबराती हो. मुझ से डरने की क्या जरूरत है. अरे, मैं राघव का बड़ा भाई हूं, कोई भूतप्रेत नहीं. लो, मैं जा रहा हूं. सैंट की शीशी साड़ी के पास रखे जा रहा हूं.’’

गरमी के दिनों में नहाने के बाद गुसलखाने में फिर यों घुस जाने के कारण मेरा बदन पसीने से भीगने लगा था और मैं अपनी गलती पर पछताने लगी कि जब अटैची से कपड़े निकालने आई थी तो बढ़ कर कमरे का दरवाजा भी बंद कर लेना चाहिए था.

तभी मुझे बाथरूम के बाहर कमरे के अंदर से माधव की आवाज सुनाई दी. वह आवाज लगा रहा था, ‘‘भैया, भाभी, आप दोनों को नीचे दीदी, मांजी और बाबूजी पूछ रहे हैं. बड़े भैया भी नीचे पहुंच गए हैं. मैं आप दोनों को बुलाने आया हूं.’’

माधव की आवाज सुन कर मुझे राहत मिली और मैं अंदर से चिल्लाई, ‘‘माधव भैया, वहां पलंग पर पड़ी मेरी साड़ी मुझे पकड़ा दो. और भाईसाहब के कमरे में जा कर उन के बाथरूम का दरवाजा खटखटा दो वरना तुम्हारे राघव भैया दिनभर नहाते ही रहेंगे.’’

मुझे साड़ी पकड़ा कर माधव यह कहते हुए चला गया, ‘‘भाभी, जितनी जल्दी हो सके, तैयार हो कर नीचे आ जाओ. मैं भैया को भी उस बाथरूम से निकालता हूं.’’

उस के जाते ही मैं बाथरूम से निकली. कमरे का कूलर चलाया और जल्दी से तैयार हो गई. पलंग पर पड़ी सैंट की शीशी को उठाया और कूलर की तरफ कर के कई बार हवा में स्प्रे कर दिया. अपने कपड़ों पर छिड़कने की इच्छा ही नहीं हुई. तभी राघव भी फ्रैश हो कर आ गया. कमरे में फैली सुगंध को सांसों में भरता हुआ बोला, ‘‘अरे वाह, बड़ी मस्त खुशबू है. यह स्प्रे तुम ने कब खरीदा?’’

मैं ने नहीं खरीदा, इसी कमरे में रखा था. शादी के घर में कोई नया उपद्रव न खड़ा हो जाए, इसलिए मैं असली बात छिपा गई और बोली, ‘‘तुम जल्दी से तैयार हो जाओ, नीचे सब लोग नाश्ते पर हमारा इंतजार कर रहे हैं.’’

नाश्ते की मेज पर इस समय आठों कुरसियां भरी थीं. मांपिताजी, जेठजी, दीदी, नितिन और माधव के साथसाथ जब मैं और राघव भी बैठ गए तो हमारा ज्यादा इंतजार न करते हुए मांजी, पिताजी, दीदी और नितिन ने तो नाश्ता शुरू कर दिया था और लगभग खत्म पर था.

माधव ने भी स्लाइस बटर का पीस उठा कर खाना शुरू कर दिया था. पर जेठजी अपनी प्लेट में नाश्ता परोसे बैठे थे. मैं ने जानबूझ कर उन की तरफ नहीं देखा. लेकिन मुझे आभास था कि वे मेरे चेहरे के भाव पढ़ने का प्रयास कर रहे थे. तभी पिताजी ने माधव से पूछा, ‘‘बेटे, आज का क्या प्रोग्राम बनाया? अब हमारे पास 2 दिन ही बचे हैं. हमें रिश्तेदारों के आने से पहले सारे जरूरी सामान के साथ कानपुर पहुंच कर होटल में शिफ्ट हो जाना है.’’

‘‘हां पिताजी, मैं और राघव भैया नाश्ता कर के निकल रहे हैं. बड़े भैया को कैटरर से मिल कर मैरिज वाले दिन का पूरा मीनू सैट करना है.’’

माधव ने जैसे ही अपनी बात खत्म की, जेठजी बोल पड़े, ‘‘मैं ने फोन पर कैटरर को सारे मीनू डिक्टेट कर दिए हैं. तुम लोगों को परेशान होने की जरूरत नहीं है.’’

भाईसाहब ने अपनी बात खत्म की ही थी कि दीदी बोल पड़ीं, ‘‘फिर भी ऊधव, एक बार कैटरर से मिल लेने में कोई बुराई तो नहीं है. आखिर घर में बैठे रहने से तो अच्छा है कि शादी की सारी तैयारियां पुख्ता कर ली जाएं. अब दिन ही कितने रह गए हैं.’’

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जेठजी को पता नहीं दीदी के द्वारा कही हुई हर बात से इतनी चिढ़ क्यों थी, तपाक से बोल पड़े, ‘‘तुम्हें तो मेरे हर काम में, हर चौइस में खोट ही दिखता है.’’

‘‘इस में खोट की क्या बात है. लड़की वालों ने जब सारी जिम्मेदारी हम को दे दी है और सारी व्यवस्थाओं के लिए रुपए भी पकड़ा गए हैं तो हमारा कर्तव्य भी कुछ बनता है.’’

‘‘किरण, तुम मुझे कर्तव्य न समझाओ,’’ जेठजी गुस्से में आ गए. शायद मेरी उपस्थिति के कारण वे दबना नहीं चाहते थे. दीदी और उन की उम्र में कोई डेढ़ साल का अंतर था जबकि उन दोनों के बाद राघव 5 साल और राघव के 2 साल बाद माधव हुआ था. इसलिए किरण दीदी को बचपन से ही वे बराबर का सा समझते थे.

बात बढ़ती देख माताजी ने दोनों को डांट कर चुप कराया, फिर बेटी को समझाते हुए बोलीं, ‘‘किरण, तू चुप रहा कर. जानती है न कि यह बातों में तुझ से दबने वाला नहीं है.’’

राघव और माधव उन से काफी छोटे होने के कारण चुपचाप नाश्ता करते रहे और पिताजी ने वहां से उठ जाना उचित समझा.

उन्होंने उठ कर ड्राइंगरूम की तरफ कदम बढ़ाते हुए राघव और माधव से कहा, ‘‘तुम दोनों नाश्ता कर के मुझ से मिलते हुए जाना.’’

पिताजी के उठते ही जेठजी भी उठ खड़े हुए, फिर मांजी से बोले, ‘‘मां, इस को समझा दो, यह मुझे राय न दिया करे. सारा मूड खराब कर देती है,’’ थोड़ा रुक कर वे मांजी से फिर बोले, ‘‘अब मैं कुछ देर के लिए औफिस जाऊंगा, तभी मूड ठीक होगा.’’

‘‘लेकिन तू ने तो पूरे 10 दिन की छुट्टी ले रखी है?’’

‘‘घर में बैठ कर भी क्या करूंगा, कौन है जो यहां मेरी कद्र कर रहा है?’’

मैं ने इतनी देर में एक बार भी उन की तरफ देखने का प्रयास नहीं किया था. जैसे ही उन के मुंह से ये शब्द निकले, मैं ने उन की तरफ देखा. उन्होंने दीदी के साथसाथ मुझ पर भी व्यंग्य कसा था. मैं कसमसा कर रह गई. मन तो हुआ कि बोल दूं कि भाईसाहब, कद्र तो इंसान के व्यवहार और आचरण से होती है. पर शादी के घर में मेरी बात कोई बुरा असर न डाल दे, इसलिए चुप रह गई.

राघव और माधव भी नाश्ता कर के उठ खड़े हुए. जेठजी, पहले किरण को, फिर मुझे घूरते हुए सीढि़यां चढ़ कर ऊपर चले गए.

उन के जाते ही दीदी ने मां से कहा, ‘‘ऊधव के व्यवहार के कारण ही मेरा मायके आने का मन ही नहीं करता  है. पता नहीं क्यों अब तक वह  अपने कुंआरे रहने का कारण मुझे ही समझता है.’’

‘‘छोड़ इन बातों को, उस का स्वभाव ही ऐसा है. तू, बस, यह शादी निबट जाने दे, फिर मैं निश्ंिचत हो जाऊं. यह तो शादी करने से रहा.’’

‘‘कितनी उम्र हो गई होगी भाईसाहब की?’’ मैं ने मांजी से पूछा.

‘‘किरण से डेढ़ साल ही तो छोटा है. किरण 33 साल की हुई है तो यह 31 तो पूरे कर ही चुका है. पढ़ने में भी तेज था. पर कंचन के चक्कर में अपना जीवन बरबाद कर के बैठ गया,’’ कहते हुए मांजी भी उठ खड़ी हुईं और अपने कमरे की तरफ बढ़ती हुई बोलीं, ‘‘प्रशोभा, आज तुझे दिव्या का शृंगार बक्सा तैयार करना है.’’

‘‘हां मां, आप निश्ंिचत रहो,’’ मैं ने उन्हें तसल्ली दी.

वह दिन अभी आधा ही गुजरा था. जेठजी करीब 2 घंटे बाद ऊपर से बाहर जाने के लिए तैयार हो कर उतरे. हो सकता है उन्होंने मेरा इंतजार किया हो कि शायद मैं किसी काम से ऊपर अपने कमरे में आऊं. लेकिन पता नहीं क्यों, भाईसाहब के अकेला होने तथा एक अज्ञात सी आशंका के कारण मैं नहीं गई.

जाने से पहले जेठजी सासुमां के कमरे में आए, मुझे घूरा और जब मैं ने नजरें उठा कर उन्हें देखा तो वे बोले, ‘‘प्रशोभा, तुम्हें बाजार से तो कुछ नहीं मंगाना है?’’

‘‘नहीं भाईसाहब, परसों तो हमें कानपुर शिफ्ट होना ही है और राघव बता रहे थे कि जहां हमारा होटल बुक है वहीं पास में मार्केट है. मुझे जो भी लेना होगा वहीं राघव के साथ जा कर ले आऊंगी.’’

जेठजी लगातार मुझे देखे जा रहे थे. मैं ने मुसकराते हुए अपनी बात जारी रखी, ‘‘भाईसाहब, आप परेशान न हों और औफिस जाएं. वैसे, अगर समय हो तो दीदी और मुझे यहां के ब्यूटीपार्लर में छोड़ दें. दीदी कह रही थीं कि भोगनीपुर में जो लेडीज ब्यूटीपार्लर है वहां कानपुर ब्यूटीपार्लर के मुकाबले बहुत बढि़या व सस्ता काम हो जाता है.’’

असल में अभी कुछ देर पहले ही जब दीदी यहां नाश्ते के बाद मेरे और मांजी के पास आ कर बैठी थीं तभी हम ने तय कर लिया था कि कल तो लेडीज संगीत है और परसों यहां से कानपुर शिफ्ट होने में हमारा समय निकल जाएगा. फिर वहां अगले 2 दिन में ही सारे फंक्शन, जैसे मेहंदी, मढ़ा, हल्दीतेल, कंगन बंधाई, भात, रिसैप्शन, फेरेबिदाई आदि होंगे तो पता नहीं समय मिले न मिले. फेशियल, थ्रैडिंग, वैक्ंिसग आदि का काम आज ही निबटा लिया जाए. इसलिए दीदी तैयार होने के लिए उठ कर अपने कमरे चली गई थीं.

फिर जब मां ने धीरे से दीदी से कहा, ‘प्रशोभा तो नहाधो कर तैयार है, तू जल्दी से तैयार हो जा, तो मैं ऊधव से कह दूंगी वह जाते हुए अपनी कार से तुम दोनों को छोड़ देगा, वरना धूप में औटो ढूंढ़ती फिरोगी.’ इसलिए मैं ने जब जेठजी से ऐसा बोला तो एक क्षण को उन के चेहरे पर इस बात से प्रसन्नता छा गई कि मैं उन की कार में बैठूंगी लेकिन किरण दीदी भी साथ होंगी, इस विचार से उन के चेहरे पर आई चमक लुप्त हो गई.

तभी दीदी भी तैयार हो कर एक हाथ में पर्स लटकाए हुए आ गईं, नितिन को मांजी के पास छोड़ा और बोलीं, ‘‘चलो प्रशोभा.’’

मैं ने उठते हुए दीदी को शरारतभरी मुसकान चेहरे पर लाते हुए बताया, ‘‘भाईसाहब हमें छोड़ते हुए अपने औफिस जाने को तैयार हैं,’’ यह कह कर मैं सीढि़यों की तरफ बढ़ते हुए बोली, ‘‘दीदी, मैं अपना पर्स ले कर 2 मिनट में आई.’’

यह सुन कर भाईसाहब बोल पड़े, ‘‘जब किरण जा रही है तो तुम्हें पैसे खर्च करने की जरूरत क्या है?’’ और यह कहने के बाद भाईसाइब किरण को देख कर इस तरह खिलखिलाए जैसे उन्होंने मेरे सामने अपनी बहन के रुपए खर्च करने को मजबूर कर के कोई किला फतेह कर लिया हो. अच्छा यह हुआ कि दीदी कुछ बोलीं नहीं, भाईसाहब की ओर शांत भाव से देख कर रह गईं.

-क्रमश:

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Serial Story: जेठ जीजाजी – भाग 5

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

राघव एकदम से उछल कर बैठ गया जैसे प्रसन्नता का कोई करंट उसे लग गया हो लेकिन तुरंत ही कुछ सोच कर उस के चेहरे पर उदासी छा गई और मेरी बगल में धीरे से फिर लेटते हुए बोला, ‘‘लेकिन पैरों के बारे जान कर वे शायद ही राजी हों?’’

राघव ने यह कहा तो मैं ने सारी परिस्थितियों पर विचार करते हुए कहा, ‘‘राघव, कल तुम बस, इतना करो कि शोभा के जितने भी फोटो तुम्हारे मोबाइल में हैं उन्हें किसी बहाने भाईसाहब को दिखाओ. बाकी सब मुझ पर छोड़ दो.’’

राघव किसी सोच में डूब गया. उसे सोच में डूबा देख कर मैं ने उठ कर कमरेदरवाजे की सांकल को चैक किया. वे बंद थीं. फिर कमरे की सारी बत्तियां बुझा कर राघव की आगोश में आ कर लेट गई. राघव ने मुझे चूमना शुरू कर दिया.

सवेरे मेरी आंख जल्दी ही खुल गई थी. सास ने कहा था कि कल जल्दी उठ जाना क्योंकि लेडीज संगीत में महल्ले की सभी आमंत्रित महिलाएं आएंगी तो घर थोड़ा व्यवस्थित और सजासंवरा दिखना चाहिए.

इसलिए मैं राघव को सोता छोड़ कर नहाईधोई, फिर तैयार हो कर नीचे पहुंच गई. जेठजी के कमरे का दरवाजा बंद था. मैं ने अनुमान लगा लिया कि वे अभी उठे नहीं थे.

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दीदी के साथ मिल कर घर को खूब सुसज्जित कर के जब खाली हुई तो सास ने अपने कमरे में ले जा कर मुझे एक बहुत ही सुंदर जौर्जेट की साड़ी ब्लाउज पेटीकोट के साथ देते हुए कहा, ‘‘लेडीज संगीत में तुम्हें यह नई साड़ी ही पहन कर बैठना है. ब्लाउज मैं ने तुम्हारे पुराने नाप से थोड़ा बीस सिलवा लिया था. मुझे उम्मीद है ठीक आएगा.’’

सास द्वारा प्यार से दी गई उस लाल बौर्डर वाली सुनहरी साड़ी पहन कर मैं बहुत खुश थी तथा सुंदर और आकर्षक दिख रही थी और अब मेरे पास भाईसाहब की उस साड़ी को न पहनने का ठोस बहाना था.

नीचे दीदी के कमरे में ही मैं सास वाली साड़ी पहन कर तैयार हो गई थी. खूब जम कर लेडीज संगीत हुआ. ढोलक पर खूब बन्ने गाए गए. ढोलक बजाने में सास को महारत हासिल थी. मुझ से भी विवाह के गीत सुने गए.

जलपान के साथ मिठाई का डब्बा दे कर सब मेहमानों को जब हम ने विदा कर दिया तब मैं ऊपर आई.

राघव भाईसाहब के कमरे में बैठ अपने मोबाइल से उन्हें शोभा की उन तसवीरों को दिखा रहा था जो शोभा की अकेले की भी थीं और राघव के साथ की भी.

मैं राघव को उस कमरे में देख कर दरवाजे पर ही ठिठक कर रुक गई तो राघव बोला, ‘‘आओ, अंदर आओ प्रशोभा. खत्म हो गया तुम लोगों का संगीत कार्यक्रम?’’

भाईसाहब, जो मोबाइल की फोटोज देखने में मशगूल थे, मुझे सुंदर सी साड़ी पहने देख कर देखते ही रह गए, फिर बोल पड़े, ‘‘राघव, वास्तव में बहुत खुश हो क्योंकि प्रशोभा जितनी सुंदर प्रत्यक्ष दिखती है, उस से ज्यादा इन फोटोज में. वास्तव में तुम दोनों की जोड़ी बहुत अच्छी लगती है.’’

मुझे भी दीदी ने मिठाई का डब्बा  पकड़ा दिया था जिसे हाथ में लिए हुए मैं राघव के पास रखी कुरसी पर आ कर बैठ गई और मिठाई भाईसाहब की तरफ बढ़ाते हुए बोली, ‘‘भाईसाहब, आप मिठाई खाइए. फिर मुझ से आप अपनी कसम तोड़ने का वादा करें तो मैं आप की भी अपने से बढि़या जोड़ी बनवा सकती हूं.’’

‘‘ऐसा नहीं हो सकता प्रशोभा, क्योंकि मुझे अपने जीवन में कंचन के बाद कोई अच्छा लगा तो वह तुम और तुम मेरे प्रिय भाई राघव की जीवनसंगिनी हो. तो अब मेरा जीवन ऐसे ही बीत जाएगा,’’ यह कह कर भाईसाहब फिर मोबाइल की फोटोज को देखने लगे.

मैं ने राघव की तरफ देख कर इशारे से उन फोटोज की सचाई बताने की इजाजत ली. फिर भाईसाहब से पूछा, ‘‘अच्छा भाईसाहब, एक बात बताइए, राघव के साथ जिस की फोटोज आप देख रहे हैं, यह आप को मिल जाए तो आप अपनी शादी न करने वाली हठ छोड़ देंगे?’’

‘‘राघव देख रहे हो प्रशोभा को. मजाक करने के लिए ये जेठ ही  मिले थे.’’

‘‘भाईसाहब, प्रशोभा सच कह रही है, मेरे साथ इन फोटो में जो लड़की है, वह आप को मिल सकती है. बस, आप को अपनी हठ छोड़नी होगी.’’

‘‘तो क्या तुम मेरे लिए इस को छोड़ दोगे?’’

‘‘मैं अपनी प्यारी प्रशोभा को क्यों छोड़ दूंगा, यह मुझे ब्याही है और मेरी  ही रहेगी.’’

‘‘तो फिर कैसे?’’ भाईसाहब परेशान थे और मुझे तथा राघव को मजा आ रहा था. मैं ने उन से कहा, ‘‘भाईसाहब, आप पहले मुझ से वादा तो करें. मैं आप की बात इस फोटो वाली लड़की से व्हाट्सऐप वीडियो कौल के जरिए अभी करा सकती हूं लेकिन उस से पहले आप को स्पष्ट रूप से मेरे और राघव के सामने कहना होगा कि हां, मैं इस लड़की से शादी करने को राजी हूं.’’

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‘‘ठीक है, मैं इस लड़की से शादी करने को राजी हूं.’’

‘‘पक्का?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां भई, बिलकुल पक्का.’’

‘‘तो भाईसाहब, सचाई यह है कि यह मेरी हमशक्ल बड़ी बहन है शोभा. राघव की साली. और सही मानो में मुझ से भी ज्यादा सुंदर है. यह पढ़ने में बहुत मेधावी रही है. बीए, बीएड कर के केंद्रीय विद्यालय में टीचर है.’’

‘‘भाईसाहब, प्रशोभा सच कह रही है. यह शोभा है, प्रशोभा की बड़ी बहन. बहुत ही सुशील और सुंदर. लेकिन मेरा रिश्ता होने से पहले जरा सी बात के कारण कई लड़कों ने उस से शादी करने से इनकार  कर दिया और इस ने भी आप की तरह कसम खा ली कि आजीवन शादी नहीं करेगी.’’

‘‘किस बात के कारण?’’

‘‘भाईसाहब, आप अगर 1-2 फोटो में गौर से उस के पैरों को देखेंगे तो एक जूते का तल्ला 2 इंच मोटा है क्योंकि उस का एक पैर दूसरे से 2 इंच छोटा है. साड़ी पहनती है तो छिप जाता है.’’

‘‘ओह, आश्चर्य…’’ भाईसाहब के मुंह से निकला. तभी मैं ने अपने मोबाइल में शोभा को व्हाट्सऐप की वीडियो कौल लगा दी और कमरे से बाहर आ कर पहले उस को सब बता कर जेठजी से बात करने को राजी कर लिया. फिर उन के पास आ कर मोबाइल पकड़ाती हुई बोली, ‘‘लीजिए भाईसाहब, आप शोभा से बात कर लीजिए.’’

भाईसाहब कुछ सैकंड तक तो मोबाइल में लाइव शोभा को देख कर उस के चेहरे से मेरे चेहरे का मिलान करते रहे, फिर कमरे से निकल कर 15 मिनट तक उस से बतियाते रहे.

जब कमरे में आए तो मोबाइल राघव को पकड़ा दिया और बोले, ‘‘वास्तव में प्रशोभा से कितनी शक्ल मिलतीजुलती है, मैं तो समझ रहा था तुम दोनों मजाक कर रहे हो.’’

राघव अपनी जगह पर बैठे हुए ही मोबाइल अपने हाथ में ले कर स्क्रीन पर शोभा को देख कर हंसते हुए बोला, ‘‘शोभा, ये मेरे बड़े भाई हैं, कैसे लगे?’’

उधर से शोभा ने बिना बोले शायद राघव से कुछ इशारों में कहा होगा क्योंकि मैं ने गौर किया कि राघव ने हाथ हिला कर मुसकराते हुए मोबाइल डिस्कनैक्ट कर दिया.

तभी भाईसाहब हम दोनों को देखते हुए बोल पड़े, ‘‘मैं अपनी जिद छोड़ता हूं और माधव की शादी के बाद तुम दोनों के साथ अपनी कार से इलाहाबाद चलता हूं. अब मैं शोभा से कोर्ट मैरिज करूंगा. बरात लाने व ले जाने के चोंचले में नहीं पड़ूंगा. पिताजी को सीधे अपनी बहू ला कर दिखा दूंगा. तब तक तुम दोनों किसी को कुछ न बताना.’’

माधव की शादी बड़े धूमधाम से संपन्न हुई. दिव्या खुशमिजाज थी और उस के व्यवहार से मैं समझ गई थी कि वह माधव के साथ खुश रहेगी.

राघव की छुट्टियां भी खत्म हो रही थीं लेकिन जब भाईसाहब ने अपनी कार से हमारे साथ चलने का मन बनाया तो राघव ने फोन कर के 3 दिनों की छुट्टी बढ़ा ली.

मैं ने और राघव ने इस बीच शोभा से मोबाइल पर बात कर ली थी. वह भी शादी के लिए राजी थी. मेरे मम्मीपापा तो यह बात सुन कर ही खुश हो गए थे और भाई ने हमारे स्वागत की सारी व्यवस्थाएं कर रखी थीं.

जैसा जेठ भाईसाहब ने सोचा हुआ था, इलाहाबाद की कोर्ट में उन की मैरिज संपन्न हुई. एक होटल में हम सब ने डिनर किया. मेरे मम्मीपापा उसी रात वापस भैया के साथ सिराथू चले गए. मेरे 2 कमरों वाले नैनी कैमिकल फैक्ट्री के क्वार्टर के एक कमरे में जेठजी की सुहागरात मनी और अगले सवेरे भाईसाहब अपनी दुलहन को उसी साड़ी में हमारे पास से विदा करा, कार में बिठा कर कानपुर चले गए.

चलते समय मैं ने जेठजी को भाईसाहब न कह कर कहा, ‘‘जीजाजी, अब तो मेरे और आप के 2 पक्के रिश्ते हो गए. अब आप मेरे जेठ भी हुए और जीजाजी भी. आप इस में किस रिश्ते को ज्यादा पसंद करेंगे?’’ मैं ने चुहुल करते हुए पूछा.

‘‘तुम जिसे अच्छा समझो?’’ वे हंसते हुए बोले तो मैं ने भी खिलखिलाते हुए कहा, ‘‘आप मुझे जो भी पुकारें पर मैं तो आज और अभी से आप का नामकरण करती हूं, जेठ-जीजाजी.’’

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मैं ने यह कहा तो राघव, शोभा और भाईसाहब के साथ मैं भी हंस पड़ी. कार फैक्ट्री कैंपस से बाहर जा चुकी थी.

मेरी खुशी का कोई ठिकाना न था. राघव से मेरी खुशी छिपी न थी. उसे मुझ पर गुमान भी हो रहा था और प्यार भी आ रहा था. आखिरकार मैं ने वह कर दिखाया था जिस के लिए सब ने हार मान ली थी.

Serial Story: जेठ जीजाजी – भाग 2

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

दरवाजे पर से जेठजी के हटते ही सास बोलीं, ‘‘जा पहले कुछ खा ले. राघव भी तेरा इंतजार कर रहा होगा. मु झे पता है अपने पिता के पास ही वह रुक गया होगा. जाने कब से उस का इंतजार कर रहे थे वे, कह रहे थे कि राघव आ जाए तो उसे शादी की जिम्मेदारियां दे कर निश्ंिचत हो जाऊंगा,’’ सास की बातों से लग रहा था जैसे ऊधव पर उन्हें बिलकुल भरोसा नहीं हो.

सास के कहने पर मैं वहां से उठ कर आंगन पार करती हुई सामने बाहरी बैठक की ओर इस आशय से जा ही रही थी कि राघव अभी बाबूजी के पास ही बैठा होगा, तभी दाहिनी तरफ बने कमरों के बाहर कवर्ड बरामदे में पड़ी बड़ी डाइनिंग टेबल के चारों ओर पड़ी 8 कुरसियों

में से एक पर बैठे जेठजी की आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘‘अरे प्रशोभा,

इधर आओ.’’

मेरी नजर उधर गई तो देखा राघव भी वहीं बैठे हैं और मेज पर ताजी बनी नमकअजवायन की पूरियां, उबले आलू की सूखी सब्जी, अन्य प्लेटों में मठरियां, बालूशाही, बेसन के सेव और शकरपारे सजे रखे थे.

मैं भी जा कर वहीं बैठ गई. तभी किरण दीदी अपने 4 साल के बच्चे नितिन का हाथ पकड़े उसी बरामदे के पास बने एक कमरे से निकल कर आईं. मैं जब 2 साल पहले शादी हो कर इस घर में आई थी तो उसी कमरे में मेरी सुहागरात मनी थी और किरण दीदी को जीजाजी तथा दोनों छोटे बच्चों के साथ ऊपर वाले कमरे में टिकाया गया था. मां के कमरे को मिला कर 3 कमरे नीचे बने थे और 2 ऊपर. डाइंगरूम बाहर की तरफ अलग था.

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दीदी ने कुरसी पर बैठते हुए मु झ से पूछा, ‘‘प्रशोभा, इलाहाबाद में भी ऐसी ही गरमी पड़ रही है या कुछ राहत है? यहां तो जब से आई हूं, बुरा हाल है, कूलर की हवा भी बेकार है.’’

तभी मेज पर काकी चाय भरी केतली रख गईं. मैं ने उन्हें गौर से देखा तो जेठ बोल पड़े, ‘‘शादी के घर में मैं ने उन्हीं काकी को लगा लिया जो तुम्हारी शादी में लगी थीं. बहुत बढि़या खाना, नाश्ता आदि बनाती हैं.’’

अपनी प्लेट में नाश्ता ले कर भाईसाहब इस इंतजार में बैठे थे कि मैं भी परोस लूं तो वे खाना शुरू करें.

तभी राघव ने अपनी प्लेट में सब्जीपूरी स्वयं परोसते हुए किरण दीदी से पूछा, ‘‘दीदी, जीजाजी साथ नहीं आए?’’

दीदी कुछ उत्तर देने जा ही रही थीं कि मेरी चिंता करते हुए जेठजी बोल पड़े, ‘‘अरे प्रशोभा, तुम भी कुछ लो न. इन दोनों को बस बातें करने को मिल जाएं तो यह भी नहीं देखेंगे कि दूसरा कुछ खा भी रहा है या नहीं.’’

‘‘भाईसाहब, मैं सब ले लूंगी, आप परेशान न हों,’’ मैं ने कहा तो भाईसाहब किरण की तरफ देखते हुए बोले, ‘‘पता नहीं इस का ध्यान कहां रहता है. घर की बड़ी है, तो इस का भी कुछ कर्तव्य…’’

तभी  राघव बोल पड़े, ‘‘प्रशोभा, तुम अपनी प्लेट में जो भी मन करे, ले लो.’’

मैं ने अपनी प्लेट में नाश्ता ले कर खाना शुरू कर दिया. डाइनिंग टेबल के आसपास कुछ देर को चुप्पी छा गई, जिसे भंग करते हुए मैं ने भी दीदी से पूछा, ‘‘दीदी, आप ने बताया नहीं कि जीजाजी साथ क्यों नहीं आए?’’

‘‘तुम्हारे जीजाजी अपने बैंक का औडिट करवाने में फंसे थे, उन्हें छुट्टी न मिली तो मु झे पहले भेज दिया. अब वे शादी से एक दिन पहले ही आ पाएंगे.’’

दीदी की बातें सुनते हुए मैं ने 1-2 बार जेठ की तरफ देखा, वे नाश्ता तो कर रहे थे पर उन का पूरा ध्यान मु झ पर था. अपनी तरफ से उन का ध्यान हटाने के लिए मैं ने उन की तरफ देखते हुए पूछा, ‘‘भाईसाहब, माधव भैया नाश्ता नहीं कर रहे हैं, कहां हैं वे?’’

‘‘अरे, वह अपनी दुनिया में व्यस्त होगा, जब से शादी तय हुई है, बस, दिव्या से चैट करने में ही लगा रहता है.’’

‘‘तो इस में क्या बुराई है. यही तो दिन होते हैं जब चैटिंग का अलग ही मजा होता है,’’ किरण दीदी बोल पड़ीं तो जेठजी से बरदाश्त न हुआ. खी झते हुए वे बोले, ‘‘ऐसा भी क्या मजा जो सारी बातें शादी होने से पहले ही  कर डालो?’’

‘‘तुम नहीं सम झोगे इन बातों को क्योंकि तुम इस दौर से नहीं गुजर पाए.’’

‘‘अरे, वह तो तू आड़े आ गई और पिताजी अड़ गए कि घर में बड़ी बहन बैठी है, इसलिए तेरी शादी मैं उस से पहले नहीं कर सकता.’’

‘‘तो ऊधव, इस में पिताजी ने क्या बुरा सोचा. एक बार को मान लो, मैं उन को इस बात के लिए मना भी लेती कि मेरी शादी से पहले वे तुम्हारी शादी कर दें लेकिन तब तक तुम्हारी नौकरी भी तो नहीं लगी थी और तुम शादी की जिद पकड़ कर बैठ गए थे. फिर मु झे तो कभी ऐसा नहीं लगा कि कंचन तुम से उतना प्यार करती थी जितना तुम उस के दीवाने हो गए थे,’’ दीदी ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा.

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उन दोनों की बहस बढ़ती देख कर राघव बोल पड़ा, ‘‘दीदी, इस बहस का अब क्या मतलब है. अब तो उस की शादी हुए भी कई साल हो गए हैं.’’

‘‘राघव, अब तुम्हीं बताओ, क्या दुनिया में लड़कियों की कमी है, लेकिन पिता से ऐंठ और खुद से प्रण करे बैठे हैं कि मु झे शादी नहीं करनी है. यह भी कोई प्रण हुआ, यह तो मांबाप को दुख देना हुआ.’’

शायद किरण दीदी की यह बात भाईसाहब को चुभ गई थी. इसलिए वे उठे और उसी बरामदे से ऊपर जाने वाली सीढि़यों से चढ़ कर अपने कमरे में चले गए.

नाश्ता कर के मैं और राघव मां के पास जा कर बैठ गए. दीदी, नितिन को ले कर अपने कमरे में चली गई थीं.

मां राघव को देखते ही खुश हो गईं. मां के पैर छू कर जैसे ही राघव उन के पास बैठा, वे बोल पड़ीं, ‘‘अब मैं निश्ंिचत हो गई हूं. बहू मेहमानों को संभाल लेगी और तू बरातियों के ठहरने व उन की आवभगत की व्यवस्था संभाल लेगा.’’

‘‘हां मां, मैं बड़े भैया के साथ मिल कर सब संभाल लूंगा. तुम चिंता  मत करो.’’

‘‘तुम अपने बड़े भैया के चक्कर में न रहना. बातें ज्यादा करता है, काम कम. वह तो माधव ने कानपुर में नवीन मार्केट के पास 2 अलगअलग होटलों में समय रहते कमरे बुक न करा लिए होते तो इस समय हम परेशान हो जाते,’’ मां ने बताया.

‘‘ठीक है मां, पर बरात कन्नौज जाती तो ज्यादा मजा आता.’’ मैं ने अपने मन की बात कही तो सास बोलीं, ‘‘अरे बेटी, सब तेरे पिताजी की तरह नहीं सोचते हैं कि लड़की की बरात द्वारे आनी चाहिए. अब उन्होंने रोका के समय रुपए हमें पकड़ा दिए और जनवासा, बैंड, घोड़ी, कैटरिंग आदि की सब व्यवस्था कह कर कानपुर से ही शादी करने को कह दिया.

‘‘राघव के पिताजी ने भी उन की बात मान ली और बोले, ‘‘ठीक है फिर हम भी शादी से 2 दिनों पहले कानपुर के होटल में शिफ्ट हो जाएंगे.’’

अपनी बातें पूरी कर के सास चुप हुईं. तो राघव ने मां को तसल्ली दी, ‘‘ठीक है मां, अच्छा ही हुआ. भोगनीपुर में कानपुर जैसी व्यवस्था हो भी नहीं पाती. पिताजी ने ठीक ही किया. अब मैं आ गया हूं, कल माधव के साथ कानपुर जा कर सारी व्यवस्था सम झ लेता हूं.’’

फिर राघव मु झे बहू के नए सूटकेस में साडि़यां जमाते देख कर बोला, ‘‘अरे प्रशोभा, मां को कांजीवरम की वह साड़ी भी तो ला कर दिखाओ जो हम दिव्या को देने जा रहे हैं और चांदी की करधनी भी लेती आना.’’

राघव ने कहा तो मैं उठ कर ऊपर चली गई जहां हमारा सामान रखवा दिया गया था. ऊपर पहुंच कर मैं जेठ के कमरे के सामने से गुजरती हुई अपने कमरे की ओर बढ़ ही रही थी कि मेरे पैरों से चलने के कारण बजने वाली पायल की आवाज सुन कर जेठजी ने कमरे के भीतर से पुकारा, ‘‘अरे, प्रशोभा, इधर आओ, तुम्हारे लिए एक सरप्राइज है.’’

मैं उन के कमरे के दरवाजे पर खड़ी हो कर बोली, ‘‘कैसा सरप्राइज भाईसाहब?’’

‘‘अरे अंदर तो आओ,’’ कह कर वे पलंग से उठ कर खड़े हुए और अपनी वार्डरोब से एक पैकेट निकाल कर मु झे देते हुए बोले, ‘‘यह बनारसी साड़ी है और इस के साथ पेटीकोट व ब्लाउज भी है. शायद यह तुम्हारे लिए ही अब तक रखी है. इसे शादी वाले दिन जब तुम पहनोगी तो शायद ही पूरी बरात में तुम से सुंदर कोई और दिखाई दे. और वैसे भी, कंचन के बाद अगर कोई मु झे अच्छा लगा तो वह तुम ही हो.’’

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‘‘लेकिन भाईसाहब, राघव ने मु झे इलाहाबाद से मेरी पसंद का बहुत ही सुंदर लंहगाचोली सैट दिलवाया है, मैं तो बरात वाले दिन वही पहनूंगी.’’

मैं ने यह कहा तो उन के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे. वार्डरोब बंद कर के मेरी ओर बढ़ते हुए बोले, ‘‘ठीक है इसे परसों लेडीज संगीत वाले दिन पहन लेना कितने प्यार से मैं ने अब तक इसे संभाले रखा है. अब मेरी तो दुलहन आने से रही, तुम्हीं इसे पहन लो.’’

भावनाओं में बहकते हुए वे मेरी ओर साड़ी का पैकेट लिए बढ़ते चले आ रहे थे.      -क्रमश:

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