दुनियादारी

Serial Story: दुनियादारी– भाग 1

ताऊजी के लिखे इस पत्र ने अनायास ही घर में खलबली मचा दी थी. मां का रोनाधोना शुरू हो गया था, ‘‘अब जा कर उन्हें सुध आई है. जब यह 12वीं पास हुई थी तब कितना कहा था उन से कि शहर में पढ़ा दो इस को. तब तो चुप लगा गए और अब जब लड़की के ब्याह का समय आया तो कहते हैं कि इसे शहर भेज दूं नौकरी करने. कोई जरूरत नहीं है, इस के भाग्य में जो लड़का होगा, वही इसे मिलेगा.’’

पापा ने शांत स्वर में कहा, ‘‘मैं ने ही उन को लिखा था कि शेफाली के लिए कोई अच्छा लड़का हो तो बताएं. उन्होंने यही तो लिखा है कि आजकल सब नौकरीशुदा लड़की को ही तरजीह देते हैं. इसलिए इसे सुनंदा के पास भेज दो. जब तक लड़का नहीं मिलता, कहीं कोई नौकरी कर लेगी.’’

‘‘तो क्या बेटी के ब्याह का दहेज बेटी की कमाई से ही जोड़ोगे? हमें नहीं भेजना है इसे शहर. अब तक जैसे निबाहा है, आगे भी निभ जाएगी. लेकिन जवान बेटी को इतनी दूर नहीं भेजूंगी. आएदिन कैसीकैसी खबरें आती रहती हैं. दिल्ली भेजने को मन नहीं मानता.’’

‘‘अरे, अकेले थोडे़ रहेगी. सुनंदा के यहां रहेगी.’’

‘‘बेटी दामाद पर बोझ बनेगी. क्या कहेंगे दामादजी.’’

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‘‘अरे, तो मैं ने थोड़ी उन से कहा था. यह भाई साहब का सुझाव है. कोई अच्छा लड़का मिल जाएगा तो इस के हाथ पीले कर देंगे. नहीं जंचा तो हाथ जोड़ कर माफी मांग लेंगे. अब इस मामले में ज्यादा बहस मत करो.’’

दूसरी तरफ उस पत्र ने शेफाली के युवा मन को स्वप्निल पंख दे दिए थे. उस ने भी मां को मनाना शुरू कर दिया, ‘‘मां, मुझे एक बार जाने दो न. कौन सा मैं नौकरी करने की सोच रही थी. लेकिन अगर मौका मिल रहा है तो हर्ज क्या है? अगर काम जंच गया तो तुम आ कर मेरे साथ रहना. हम अलग घर ले लेंगे. सोचो न मां, आगे छोटूबंटू के लिए भी नए रास्ते खुल जाएंगे.’’

रोतीबिसूरती मां मान गईं. शेफाली के जाने की तैयारी शुरू हो गई. आंसू भरी आंखों से विदाई देते हुए मां ने सावधानी से रहने की ढेरों हिदायतें दे डाली थीं.

ट्रेन की खिड़की से ‘नई दिल्ली रेलवे स्टेशन’ का बोर्ड पढ़ते ही शेफाली के दिल की धड़कनें एक नई ताल में धड़क उठी थीं. उसे लेने सुनंदा दीदी के पति संदीप जीजाजी स्टेशन आए थे. बड़ा ही आकर्षक व्यक्तित्व था उन का. उस ने बढ़ कर पैर छूने चाहे तो उन्होंने बीच में ही रोक दिया. वह भी झिझक उठी. जब दीदी का विवाह हुआ था तब वह 8वीं में पढ़ती थी. लेकिन अब ग्रेजुएट हो गई थी.

स्टेशन से दीदी के घर तक का उस का सफर कितना रोमांचक और उत्सुकता से भरा था. वह अपने जीवन के इन सुखद क्षणों को सराहे बिना नहीं रह सकी, जिस ने उसे इतनी बड़ी कार में बैठने का मौका दिया था, अचानक एहसास हुआ कि इसी दुनिया में लोग इस तरह भी शान से जीते हैं.

खिड़की से बाहर झांकती शेफाली अपने देश की राजधानी के एकएक कोने के परिचय को आत्मसात करती जा रही थी. चौड़ी सड़कें, बडे़छोटे हर आकार के घर. बच्चों के खेलने के लिए जहांतहां बने पार्क. बढि़या होटल, सजीधजी दुकानें देख उस का मनमयूर नाच उठा. वह सोचने लगी कि यहां लड़कियां कितनी आजाद हैं. आराम से जींसपैंट, स्कर्ट और झलकता हुआ टौप पहन कर घूमती हैं. अपनेआप आटो रोक कर चढ़ जाती हैं. सब अपने में निश्ंिचत, बेधड़क घूम रही हैं. उसे आजादी का यह माहौल देख कर बहुत अच्छा लगा.

उस की सोच को विराम तब लगा जब जीजाजी ने जोर से हौर्न बजाया. गाड़ी एक बडे़ से फाटक के सामने रुकी थी. वरदी पहने एक चुस्त आदमी ने आ कर गेट खोला. पार्किंग में एकसाथ कई तरह की गाडि़यां खड़ी थीं. रंगबिरंगे कपड़ों में सजेसंवरे, दौड़ते बच्चों को खेलते देख कर उस ने अंदाजा लगाया कि यहां सब अमीर लोग रहते हैं.

जीजाजी का घर छठी मंजिल पर था. लिफ्ट से निकलते हुए पापा हड़बड़ा गए, ‘कहीं फंस गए तो इसी में रह जाएंगे,’ कह कर उन्होंने अपनी झेंप मिटाई थी. आमनेसामने कुल मिला कर 4 मकान थे. जीजाजी ने आगे बढ़ कर घंटी दबाई. घंटी दबाते ही एक मीठी फिल्मी धुन हवा में तैर गई.

हर घर के बाहर की सजावट वहां रहने वालों के कलात्मक शौक को दर्शा रही थी. दीदी के यहां दरवाजे के दोनों तरफ मिट्टी के बडे़बडे़ छेद वाले घडे़ रखे थे. मोटा मखमली पायदान, कतारों में लगे पौधे.

अंदर से किसी के आने की आहट हुई तो वह सहज हो गई. थोड़ी देर में दरवाजा खुला और एक अजनबी चेहरा नजर आया.

‘‘निर्मला, सामान उठाना,’’ कह कर जीजाजी भीतर चले गए थे.

‘‘मेमसाब बाथरूम में हैं,’’ कह कर निर्मला भी परदे के पीछे चली गई.

दोनों बापबेटी, सामने बिछे कालीन को पार कर, सोफे में धंस गए. घर किसी फिल्मी सेट की तरह सजा हुआ था. हर चीज इतनी कीमती कि दोनों कीमत का अंदाजा भी नहीं लगा सकते थे. बड़ा सा टीवी, लेदर का सोफा, शीशे की गोल सेंटर टेबल, बढि़या कालीन, चमकदार भारी परदे. सजावट की अलमारी में रखी महंगीमहंगी चीजें, सुंदरसुंदर बरतन, अनेक प्रकार के कप और ग्लास, रंगबिरंगी मूर्तियां और सुनहरे फ्रेम में जड़ी बड़ीबड़ी पेंटिंग.

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अपने 2 कमरे वाले सरकारी घर को याद कर शेफाली सकुचा उठी थी. आंखों के सामने अपने घर की बेतरतीबी पसर गई. यहां आने से पहले वही घर शेफाली को कितना अच्छा लगता था. गृहप्रवेश वाले दिन सब की बधाइयां लेते हुए मां का कलेजा गर्व से कितना चौड़ा हो गया था. लेकिन कितना फर्क था इन 2 घरों की हैसियत में. ताऊजी के शहर आने से उन के परिवार के सदस्यों के रहनसहन के स्तर में कितना परिवर्तन आ गया था.

पल भर में ही निर्मला ट्रे में शीशे के चमचमाते गिलास में ठंडा पानी डाल कर ले आई. उस के बाद चाय और मिठाईनमकीन से सजी प्लेट रख गई. वह अपने काम में कुशल थी. अभी तक दीदी नहीं आईं. वक्त जैसे उन के इंतजार में रुक गया था. कितनी देर हो गई. वह तो जानती थीं कि आज हम आ रहे हैं फिर भी…जीजाजी भी अंदर जा कर गायब हो गए. ये भी कोई बात है. उस ने उकता कर पापा की तरफ देखा.

भतीजी के घर की शानोशौकत ने उन की आंखें फैला दी थीं. उन के चेहरे की खुशी और उत्कंठा के भाव बता रहे थे कि वह मां को सब बताने के लिए बेचैन हो रहे थे.

सच है, जिस लक्ष्मी को शेफाली के पापा ने सदा ज्ञान के आगे तुच्छ समझा था वही आज अपने भव्य रूप में उन्हें लुभा रही थी. सदा के संतोषीसुखी, पितापुत्री अपनी गरीबी को सोच कर आपस में ही संकुचित हो रहे थे.

‘‘अरे, चाय ठंडी हो रही है, लीजिए न चाचाजी.’’

मुसकुराती हुई, खुशबू बिखेरती हुई सुनंदा दीदी की मीठी आवाज गूंजी. कितनी गोरी, कितनी सुंदर, कितनी स्मार्ट लग रही थीं. उन्होंने आगे बढ़ कर पापा के पैर छुए.

पापा ने गद्गद कंठ से आशीर्वाद दिया.

शेफाली जैसे ही दीदी के पैर छूने को झुकी, उन्होंने उसे गले लगा लिया. उस के मन की सारी आशंकाएं खत्म हो गईं. वह सोच रही थी कि पहले से ही दर्पभरी दीदी इस वैभवऐश्वर्य को पा कर और घमंडी हो गई होंगी, लेकिन वह बदल गई हैं…यह भी नहीं सोचा कि रास्ते की गर्दधूल से सनी है मेरी देह. चाय पीते हुए दीदी ने सब का हाल पूछा. फिर उस का कमरा दिखाया.

‘‘बेटा, इतने प्यार से सुनंदा तुम को रख रही है, तुम भी उसे पूरा मानसम्मान देना. अच्छे से रहना. तुम्हारी मां सुनेगी तो खुश हो जाएगी. मुझे भी तसल्ली हुई कि तुम्हें यहां कोई कष्ट नहीं होगा.’’

भीतर से जीजाजी तैयार हो कर निकले. उन्हें आफिस जाना था. वह नाश्ता कर के विदा ले कर चले गए.

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‘‘आप लोग भी नहाधो लीजिए और नाश्ता कर के आराम कीजिए,’’ कह कर दीदी फोन पर व्यस्त हो गईं.

आगे पढ़ें- खाना खा कर पापा जा कर लेट गए. उन्हें…

Serial Story: दुनियादारी– भाग 2

खाना खा कर पापा जा कर लेट गए. उन्हें शाम की गाड़ी से लौटना था. उसे भी आराम करने को कह कर दीदी अपने कमरे में चली गईं.

शाम को दीदी ने पापा से कहा, ‘‘चाचाजी, मैं कुछ कपडे़ लाई थी, छोटूबंटू के लिए और चाचीजी के लिए साडि़यां. इन्हें रख लीजिए. मैं थोड़ा बाजार से आती हूं, फिर आप को स्टेशन छोड़ कर आफिस निकल जाऊंगी.’’

‘‘अभी शाम को आफिस, बिटिया,’’ पापा कहते हुए हिचके.

‘‘हां, चाचाजी, मैं एक काल सेंटर में नौकरी करती हूं. मेरे सारे क्लाइंट्स अमेरिकन हैं. अब भारत और अमेरिका में तो दिनरात का अंतर होता ही है. इसीलिए रात को नौकरी करनी पड़ती है. वैसे शिफ्ट बदलती रहती हैं. कंपनी सारी सुविधाएं देती है. आनेजाने के लिए कार पिकअप, खानापीना सब. सुबह 12 बजे मैं घर आ जाती हूं,’’ दीदी ने सहज हो कर जवाब दिया.

‘‘और दामादजी?’’

‘‘वह कंप्यूटर की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में सिस्टम एनालिस्ट हैं. उन की ड्यूटी सुबह 10 से शाम 7 बजे तक होती है. वह 8 बजे शाम तक आएंगे. आप से भेंट नहीं हो पाएगी.’’

‘‘दीदी, आप अमेरिकियों से किस भाषा में बात करती हैं?’’ शेफाली ने जिज्ञासा जाहिर की.

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‘‘अमेरिकन इंग्लिश में, जिस की कर्मचारियों को ट्रेनिंग दी जाती है,’’ दीदी ने मुसकरा कर कहा, ‘‘तुम भी सब सीख जाओगी. निर्मला, खाना जल्दी बना लेना. चाचाजी को जाना है.’’

‘‘घर की सारी व्यवस्था नौकरानी के हाथों में है. ऐसी नौकरी का क्या फायदा,’’ पापा बोले, ‘‘शेफाली, तुम ऐसी नौकरी मत करना, चाहे कितना भी पैसा मिले. हम लोग तो शहर के रहने वाले नहीं हैं. तुम्हारा ब्याहशादी सब बाकी है अभी, समझी न.’’

शेफाली ने हामी भरी, ‘‘आप बेफिक्र रहें, पापा.’’

पापा के जाने के बाद शेफाली ने निर्मला से पूछा, ‘‘मिंटी नजर नहीं आ रही है.’’

‘‘आज देर से आई है और तब आप सो रही थीं. अभी वह सो रही है.’’

निर्मला ने खाना बना कर टेबल पर रखा, फटाफट रसोई साफ की और बोली, ‘‘साहब आएंगे तो आप लोग खा लेना.’’

जीजाजी आते ही अपने कमरे में चले गए. वहां से टीवी चलने की आवाज आती रही. उस से उन्होंने बात भी नहीं की. वह अपनेआप को उपेक्षित महसूस करने लगी. रात को बिना खाए ही सो गई.

सुबह निर्मला के आने पर शेफाली की नींद टूटी. उस ने आते ही मिंटी का नाश्ता बनाया. फिर उसे उठाया, तैयार किया और 8 बजे स्कूल बस में चढ़ा आई. फिर जीजाजी के नाश्ते की तैयारी में लग गई. 10 बजे तक जीजाजी भी चले गए.

बेहद जल्दीजल्दी निर्मला काम निबटा रही थी. झाड़ ूपोंछा, बिस्तर झाड़ना, सोफे, परदे, खिड़की, दरवाजे, शोकेस सब की डस्ंिटग की. फिर फटाफट खाना बनाया. मशीन में कपड़े डाले. 12 बजे तक उस ने तमाम काम निबटा लिए, नहाधोकर शैंपू किए हुए बालों को फहराते हुए वह कपडे़ सुखाने लगी.

एकदम घड़ी की सुईयों से बंधा था निर्मला का एकएक काम. इतने काम में तो मां का सारा दिन निकल जाता है और फिर भी वह अस्तव्यस्त सी घूमती रहती हैं. मां ही क्या ज्यादातर औरतों का यही हाल है.

निर्मला का पति एक पब्लिक स्कूल में चौकीदार है. 7 साल की एक बेटी भी है, जो उसी स्कूल में पढ़ती है. घर में कूलर है, रंगीन टीवी है, टेप है. ये दीदी का घर संभालती है और इस का घर इस की सास संभालती है. आखिर निर्मला भी काम- काजी बहू है.

दरवाजे की घंटी ने मधुर स्वर छेड़ा, दीदी आ गईं. नींद से उन की आंखें लाल थीं. उन्होंने किसी तरह चाय के साथ एक टोस्ट निगला. ठंडे स्वर में उस का हाल पूछा और निर्मला को डिस्टर्ब न करने का निर्देश दे कर बेडरूम में चली गईं.

थोड़ी ही देर में मिंटी आ गई. जैसेतैसे निर्मला ने उस के कपडे़ बदले, खाना खिलाया, फिर मिंटी टीवी पर कार्टून देखने बैठ गई. निर्मला बीचबीच में उसे आवाज कम करने को कहती रहती. 4 बजे निर्मला उठी, चाय बनाई, खुद पी, शेफाली को दी, फिर मिंटी को घुमाने पार्क में ले गई. वहां से आ कर दूध पिलाया, खाना खिलाया और 6 बजे उसे सुला दिया.

शेफाली ने निर्मला से पूछा, ‘‘दीदी कब उठेंगी?’’

‘‘नींद टूटेगी तो उठ जाएंगी. इसीलिए बेबी को सुला दिया है, नहीं तो तंग करती है और मेमसाब गुस्सा हो जाती हैं.’’

वह यह देख कर हैरान रह गई कि 4 साल की बच्ची पूरी तरह आया के भरोसे परवरिश पा रही थी. मां बेखबर सो रही थी. पापा का फोन आया, बातें कीं, फिर वह बोर होने लगी. एक ही दिन में नीरसता सताने लगी. आ कर अपने कमरे में लेट गई. कैसी शांति है यहां, 4 कमरे, 4 आदमी. न कोई बातचीत, न ठहाके. उसे अपने घर की याद आ गई और रुलाई फूट पड़ी. जाने कब आंख लग गई.

घंटी बजी तो वह जागी. जीजाजी आए थे. वह बाथरूम से हाथमुंह धो कर बाहर निकली और ठिठक कर वापस अपने कमरे में चली गई. दीदीजीजाजी ड्राइंगरूम में ही टीवी के सामने एकदूसरे से लिपटे, एकदूसरे के होंठों को बेतहाशा चूम रहे थे, जैसे फिल्मों में देखती है. जीजाजी के हाथ दीदी के उभारों पर… शेफाली की कनपटी गरम हो गई.

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दीदी ने थोड़ी देर बाद निर्मला को आवाज दे कर चाय लाने को कहा. वह शर्म से पानीपानी हो गई. निर्मला सब जानतीदेखती होगी. वह थरथरा गई.

दीदी ने उस के बारे में पूछा, निर्मला बोली, ‘‘सो रही हैं.’’

शेफाली ने सुकून महसूस किया कि चलो, सामने नहीं जाना पड़ेगा. निर्मला चली गई. थोड़ी देर बाद दीदी भी. जीजाजी दरवाजे तक छोड़ने गए थे. उस ने परदे के पीछे से साफ उन का आलिंगन और चूमना देखा. अब रह गए जीजाजी और शेफाली. डर और संकोच से सराबोर वह सामने पड़ने से कतराती रही.

वह और जीजाजी रात को अकेले…आगे शेफाली सोच नहीं पाई. अब यहां रहना है तो निर्मला की तरह अनजान बन कर रहना होगा. इन के घर की निजता का खयाल रखना होगा.

कुछ ही दिनों में शेफाली यहां के माहौल में रम गई. अब स्कूल से आते ही मिंटी मौसीमौसी करने लगती. कहानियां सुनतेसुनते वह कब खा लेती पता ही नहीं चलता. दीदीजीजाजी भी निश्ंिचत हो कर मिंटी की प्यारी गप्पें सुनते. अब उसे सुलाने की जल्दी किसी को नहीं रहती.  शेफाली के पास छोड़ दोनों एकांत में वक्त बिताते. निर्मला भी निश्ंिचत हो काम निबटाती. घर के औपचारिक माहौल में एक स्वाभाविकता आ गई थी.

एक दिन दीदी ने सलाह दी, ‘‘शेफाली, तुम संदीप से कंप्यूटर सीख लो.’’ तो उस ने हिचक के साथ इस प्रस्ताव को स्वीकारा था. दीदी और निर्मला के जाने के बाद जब मिंटी सो जाती तो दोनों बैठ कर कंप्यूटर पर नया साफ्टवेयर सीखते. जीजाजी के बदन से उठती परफ्यूम की खुशबू उस को उस दृश्य की याद दिला देती थी.

कंप्यूटर के नामी इंस्टीट्यूट जो कोर्स 6 महीने में सिखाते हैं वह जीजाजी से कुछ ही दिनों में शेफाली सीख गई. कंप्यूटर टाइपिंग, ई-मेल करना, इंटरनेट पर काम करना, सर्च करना आदि.

फोन पर ये सब सुन कर मां भावुक हो उठीं, ‘‘तुम्हारे पापा कह रहे थे कि क्या हुआ जो उसे सुनंदा की तरह कानवेंट में नहीं पढ़ा पाए. समझदारी और दुनियादारी तो कोई भी शिक्षा सिखा देती है. शेफाली अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी तो भैया जैसा अच्छा दामाद हमें भी मिल जाएगा. दामादजी को भी तुम्हारा व्यवहार अच्छा लगा तो वह भी बढ़ कर मदद कर देंगे?’’

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जल्द ही शेफाली की मर्केंडाइजर की नौकरी लग गई. अब वह भी व्यस्त हो गई. अकसर जीजाजी उसे साथ ले आते.

फ्रेश हो कर वह अपने और जीजाजी के लिए कौफी बनाती. दिन भर के काम के बाद घर आ कर जीजाजी का साथ उसे भाने लगा था. दोनों साथ टीवी देखते. अब अटपटे दृश्यों पर चैनल नहीं बदले जाते थे. न ही कोई उस समय उठ कर जाता. सब कितना सामान्य लगने लगा था. शेफाली इसे मैच्योर होना कहती. फिर जहां ऐसा खुलापन चलता है तो क्या हर्ज है. दीदी तो उस के सामने सिगरेट भी पीने लगी थीं.

आगे पढ़ें- अपने आफिस के माहौल और वहां इस्तेमाल…

Serial Story: दुनियादारी– भाग 3

उस ने दीदी को कुछ दिन पहले एक लेख पढ़ने को दिया था, ‘धूम्रपान का गर्भ पर असर.’ दीदी हंस दी थीं, ‘‘अब कौन सा बच्चा पैदा करना है मुझे, एक हो गया न, और कौन सा मैं मिंटी के सामने पीती हूं्. देख न, इसीलिए रात की नौकरी  करती हूं. रात में तो सब सोते ही हैं. घर में रहो न रहो, क्या फर्क पड़ता है. दिन में मैं घर में ही रहती हूं ताकि मिंटी मां को मिस न करे.’’

साहस कर शेफाली बोल पड़ी, ‘‘लेकिन दीदी, जीजाजी…’’

दीदी हंसीं, ‘‘देख, मर्दों को दिन में एक बार या हफ्ते में औसतन 2-3 बार काफी होता है. मैं अपने पति को पूरा मजा देती हूं. संदीप ने कुछ कहा क्या? क्यों नहीं साली आधी घरवाली होती है.’’

यह कह कर दीदी ने आंख दबाई तो वह तिलमिला गई थी. छोटी बहन से इतना गंदा मजाक, ‘‘छी: दीदी, आप कैसी भाषा का इस्तेमाल करती हैं. जीजाजी बहुत अच्छे हैं. आप इस तरह बोलेंगी तो फिर मैं यहां नहीं रहूंगी…’’

वह खिलखिला पड़ीं, ‘‘यू विलेज गर्ल…जानती है, हमारे यहां क्या होता है…’’

और उन्होंने अपने आफिस के माहौल और वहां इस्तेमाल होने वाली भाषा का जो वर्णन किया, उसे वह सुन नहीं पाई.

‘‘दीदी, आप छोड़ दो ऐसी नौकरी.’’

वह हंसीं, ‘‘लाइफ इज मस्त आउट देअर. आजकल सब चलता है. आज का फंडा है, जिंदगी एक बार ही मिलती है, इसे भरपूर जीओ और ज्यादा अगरमगर की मत सोचो.’’

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तभी जीजाजी आए. अब दोनों उस के सामने ही ‘किस’ कर लेते. दीदी हंसहंस कर बोलीं, ‘‘शेफाली को तुम्हारी बहुत चिंता है. कह रही थी कि मैं रात की नौकरी छोड़ दूं. तुम अकेले हो जाते हो, क्यों?’’

शेफाली उठ कर भीतर चली गई. छी:, जरा भी लाजलिहाज नहीं है दीदी में. यह बात उन्हें कहनी चाहिए थी. या तो उन दोनों का आपस में बहुत विश्वास और खुलापन था या फिर दीदी की नजर में मेरी कोई अहमियत ही नहीं. जीजाजी की नजरें कितनी अजीब हो गई थीं.

उस रात मिंटी को बुखार आ गया लेकिन क्लाइंटविजिट की वजह से दीदी को जाना पड़ा. मिंटी के सोने के बाद जैसे ही वह उठी, जीजाजी बोले, ‘‘शेफाली, कौफी बनाओगी.’’

वह काफी बना लाई. जीजाजी एकाएक बोले, ‘‘तुम्हारे आने के बाद घर घर लगने लगा है. तुम्हारे आने से मिंटी को मां मिल गई. अब काम खत्म कर के मन करता है, सीधा तुम्हारे पास आऊं. काश, सुनंदा में भी तुम्हारे जैसी संवेदनशीलता होती, तो मेरी जिंदगी यों तन्हा नहीं होती. देखा, तुम तो समझ गईं वह जान कर भी नहीं समझना चाहती मेरा अकेलापन, मेरी तनहाई. दिन भर का थकाहारा घर आता हूं तो न पत्नी मिलती है और न बच्ची का साथ. तुम ने आ कर मेरी जिंदगी के बिखराव को संभाल लिया.’’

‘‘आप दीदी से कहिए न कि वह दूसरी नौकरी ढूंढ़ लें.’’

‘‘अब सिंपल ग्रेजुएट और 12वीं पास लोगों को इतने पैसे वाली नौकरी कौन देता है. बड़ीबड़ी डिगरी वाले तो मार्केट में घूमते हैं. यहां क्या योग्यता चाहिए, बस अच्छी अंगरेजी का ज्ञान और प्रकृति के नियमों के खिलाफ जीने की आदत. और बदले में मिलता है पैसा, कमीशन, पार्टियां, पिज्जाबर्गर और कोल्डड्रिंक्स. उसे जिंदगी की रंगीनियां चाहिए. और मैं ठहरा पार्टीपिकनिक से परहेज करने वाला.’’

शेफाली खामोश उन्हें निहार रही थी. मन मचलने लगा था. कैसी संवेदनशील थीं वे आंखें. अंदर तक कुछ शून्य सा पसर गया था. क्या वह मेरी तरफ आकर्षित हैं. मैं उन्हें अच्छी लगती हूं. वह मुझ से प्रेम करते हैं. रोमरोम में उठती ये कैसी सिहरन थी. आंखें मूंदे शेफाली अपनी देह की कंपन पर काबू पाने की चेष्टा करने लगी. जीजाजी ने उस के हाथों पर अपना हाथ धर दिया.

कप उठा कर वह किचन में चली गई. ये क्या हो रहा है उसे. जो बात कुंआरी हो कर वह समझ पाई क्या दीदी नहीं समझ पाती होंगी? दीदी ने तो कहा था कि वह हफ्ते के एवरेज का खयाल रखती हैं…तो…फिर…जीजाजी को मुझ से यह सब कहने की क्या जरूरत है…वह मेरी प्रशंसा कर क्या चाहते हैं…मुझ से यह सब क्यों कह रहे हैं…मुझे पाने के लिए…इतनी शिकायत है दीदी से तो फिर प्रेम प्रदर्शन क्यों करते हैं. दीदी का विरोध क्यों नहीं करते?

दीदी के व्यवहार में तो उस ने कभी जीजाजी के प्रति उपेक्षा महसूस नहीं की. अंदर दोनों में क्या बातें होती हैं वह नहीं जानती पर उस दिन जो ड्राइंगरूम में उस ने देखा था वह तो झूठ नहीं था. बिना चाहत, बिना प्रेम भी ऐसी उत्तेजना जगती है भला.

थोड़ी आहट के बाद किचन की बत्ती बंद हो गई. जीजाजी ने आ कर उसे बांहों में भर लिया. ये खुशबू, ये आलिंगन, ये स्पर्श, संदीप उसे पागलों की तरह चूमने लगे. उस का रोमरोम सिहर उठा. वह खुद को छुड़ाना नहीं चाहती थी. उस के बदन में चींटियां रेंगने लगीं. कितना अच्छा लग रहा है…

तभी फोन की घंटी बजी. दीदी का फोन था. मिंटी का हाल पूछ रही थीं. वह जैसे सोते से जागी. ये क्या करने जा रही थी वह? अपने ही हाथों अपना सर्वनाश. इस क्षणिक भावुकता का अंत क्या होने वाला था. उस के हाथ क्या लगता? कल को कुछ हो गया तो आरोप तो उस के ही सर आएगा. बढ़ावा भी तो उसी ने दिया था. वही दीदी से बात करने गई थी, उन के दांपत्य जीवन पर.

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दीदी के सामने शराफत का ढोंग करने वाले जीजाजी तो अपना मुंह तक नहीं खोलेंगे. उस की बात उसी के खिलाफ इस्तेमाल की जाएगी. क्या वह जानती थी कि ये फांस उसी के गले में अटकेगी. कितने चालाक निकले जीजाजी. मेरी कोमल भावनाओं को उकसा कर, मात्र मेरा उपयोग करना चाहते थे. आज अपने ही घर में अपनों के हाथ छली जाती. ऐसे ही अनचाहे तो हादसे हो जाते हैं.

अपनी उखड़ी सांसों को संयत करते हुए वह मिंटी के पास आ गई. दीदी को मिंटी की चिंता है और वह कैसे उन पर लापरवाही का आरोप लगा रहे थे.

फोन रखने के बाद जीजाजी ने उसे कमरे में आने का इशारा किया. उसे खुद से घृणा होने लगी. शेफाली ने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया और मिंटी के पास ही सो गई. सुबह निर्मला के आने पर ही दरवाजा खोला.

मिंटी का बुखार और बढ़ गया था. दीदी ने आफिस से हफ्ते भर की छुट्टी ले ली. दिनरात बच्ची के पास ही बैठी रहतीं. अपने हाथों से उसे खिलातीं. उस के साथ बातें करतीं. उस के सामने दीदी का नया रूप उजागर हुआ था. सच कहते हैं, मां आखिर मां ही होती है और पुरुष, सिर्फ पुरुष.

शेफाली ने आननफानन में फैसला लिया और आफिस के एक सहयोगी की मदद से अलग घर ढूंढ़ लिया. सुनंदा दीदी हैरान रह गईं, ‘‘अचानक क्या हो गया, शेफाली? तुम्हारे आने से हम लोगों को कितना अच्छा लगने लगा है, मिंटी कितनी खुश रहने लगी है. मेरी लाइफ भी स्मूथ हो गई है. अब चाचाचाची क्या कहेंगे?’’

शेफाली ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘दीदी, आफिस दूर पड़ता है. फिर कितने दिन आप पर बोझ रहूंगी. इतने महीनों से तो आप ही के पास रह रही हूं. अब तो नौकरी भी कर रही हूं…’’

‘‘आई नो…पर तुम्हारी शादी तक चाचाजी ने कहा था, तुम यहीं रहोगी.’’

‘‘दीदी, शादी कब होगी, पता नहीं. कोई अच्छा लड़का मिलेगा तो जरूर करूंगी. पर अब कुछ साल नौकरी कर लूं. आप की तरह आत्मनिर्भर बन जिंदगी का मजा ले लूं. इस दिशा में कुछ होगा तो कहना. मैं आती रहूंगी…संपर्क में रहूंगी.’’

उस के होंठों पर मुसकराहट थी पर स्वर काफी सपाट था.

दीदी ने उलझे स्वर में ही जवाब दिया, ‘‘अब तुम ने सोच ही लिया है तो मैं क्या कहूं. पर मुझे अचानक इस फैसले का कारण समझ में नहीं आया. जीजाजी भी यहां नहीं हैं. उन से आ कर मिल लेना या फिर फोन कर देना.’’

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दीदी कभी जानें या न जानें पर उस रात कहां ले जातीं उस की ये भावनाएं… निश्चित ही पतन की ओर…मांबाप का गर्व भंग होता, भाई का उपहास, समाज में अनादर…सब से उबर गई. अपनों के बीच हुए किसी हादसे का शिकार होने से बच गई.

मां की कही बात याद आ गई, ‘‘समझदारी और दुनियादारी तो कोई भी शिक्षा सिखा देती है.’’

उपहार: आनंद ने कैसे बदला फैसला?

Serial Story: उपहार– भाग 1

लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत

‘‘तुम कहां थी. मेरा मन कितना घबरा रहा था. घड़ी देखो इरा, 8 बज चुके हैं. तुम से हजार बार कह चुकी हूं कि अंधेरा होने के बाद मुझे तुम्हारा घर से बाहर रहना पसंद नहीं है…’’ ‘‘सौरी,’’ यह कह कर मैं अपने कमरे में जा कर गुस्से में लेट गई. ‘कौन सा मैं घूमने गई थी. नोट्स ही तो बना रही थी शुभ्रा के घर. थोड़ी सी देर हो जाए तो हंगामा शुरू. हम अकेले रहते हैं तो क्या, मैं ने कहा था अकेले रहने के लिए’, मन ही मन मैं बड़बड़ाए जा रही थी कि मां ने आवाज लगाई, ‘‘इरा, खाना लग चुका है, आ जाओ.’’

इच्छा न होते हुए भी मैं किचन की ओर बढ़ गई. खाना खाते हुए मैं ने मां से पूछा, ‘‘मम्मा, कल हमारी क्लास पिकनिक पर जा रही है, मैं भी…’’

‘‘नहीं इरा, यह संभव नहीं है और प्लीज नो डिस्कशन.’’

‘‘तो ठीक है, मैं कल से घर पर ही रहूंगी, कालिज जाना बंद. वैसे भी घर से सुरक्षित जगह और कोई नहीं हो सकती. शहर भर में गुंडे मुझे ही तो ढूंढ़ रहे हैं…’’

मैं इस से आगे कुछ कहती कि मां ने मुझे गुस्से से देखा और मैं खाना छोड़ कर अपने कमरे में चली गई.

अगर मां जिद्दी हैं तो मैं भी उन की बेटी हूं, कल से कालिज नहीं जाऊंगी और यह निश्चय कर के मैं सो गई. सुबह जब आंख खुली तो 9 बज चुके थे. आज मेरी खैर नहीं. मां ने आज गुस्से में मुझे उठाया नहीं, लगता है… यह सोच ही रही थी कि मां की आवाज सुनाई दी, ‘‘इरा, मैं आफिस जा रही हूं, तुम्हारा नाश्ता मेज पर रखा है.’’

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मैं ने उठ कर दरवाजा बंद किया और मां के कमरे की ओर मुड़ गई. देखा तो मां जल्दी में अलमारी की चाबी भूल गईं थीं. न जाने क्यों मैं ने मां की अलमारी खोल ली, देखा तो सामने लाल रंग की डायरी रखी थी. उत्सुकतावश मैं ने उसे उठाया और डायरी ले कर बाहर बालकनी में आ कर बैठ गई. मैं ने हिचकते हुए उसे पढ़ना शुरू किया.

‘शेखर, तुम्हें इस दुनिया से गए आज पूरे 2 महीने बीत गए हैं. तुम्हारे बगैर जीने की कतई इच्छा नहीं है पर तुम मुझे जीने की वजह दे गए हो. मेरी कोख में तुम्हारी निशानी है. घर का माहौल तनावग्रस्त रहता है. अम्मांबाबूजी को एक ओर तो तुम्हारे जाने का गम है, दूसरी ओर मेरे पापामम्मी का बढ़ता हुआ दबाव. पापा चाहते हैं कि मैं अपनी कोख को खत्म कर दूं जिस से वह मेरी दोबारा शादी कर सकें.

‘मैं जानती हूं इस संसार में सब से बड़ा दुख संतान का होता है. उन की बेटी छोटी सी उम्र में विधवा हो गई, यह दुख पहाड़ से भी बड़ा है और यही वजह है वह मेरी शादी करना चाहते हैं, पर मैं ऐसा नहीं चाहती. मैं भी तो मां बनने जा रही हूं. कैसे अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए अपने बच्चे को…मैं ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकती. तुम ने जो मुझे प्यार दिया है मैं उस के सहारे अपना सारा जीवन निकाल लूंगी.’

10 जनवरी, 1984.

‘अम्मांबाबूजी मेरा बहुत ध्यान रखते हैं. उन की आंखें हर पल, तुम्हारे  रूप में अपने पोते का इंतजार कर रही हैं पर डर लगता है कि अगर उन की यह इच्छा पूरी नहीं हुई तो क्या होगा?’

15 अप्रैल, 1984.

‘जिस का डर था वही हुआ. अम्मांबाबूजी की उम्मीद टूट गई. मैं अपनी गोद में इरा को पा कर बहुत खुश हूं. तुम भी तो यही चाहते थे. शेखर, इरा चांद का टुकड़ा है पर चांद की तरह उस पर भी दाग है. दुर्भाग्य का दाग. इस संसार में वह बच्चा दुर्भाग्यशाली ही तो कहलाएगा जिस के पास पिता की छांव न हो. शेखर, मुझे अम्मांबाबूजी का व्यवहार पीड़ा पहुंचाता है. इरा को वह गोदी में लेना पसंद नहीं करते. उन की नजरों में वह मनहूस है जो इस दुनिया में आने से पहले अपने पिता को खा गई.’

10 अगस्त, 1984.

‘शेखर, आज मैं ने बाबूजी का घर छोड़ दिया क्योंकि मुझ से पलपल अपनी बेटी का अपमान बरदाश्त नहीं होता. इरा अभी तो छोटी है पर जिस पल उसे खुद के लिए अम्मांबाबूजी की नफरत समझ में आएगी वह टूट जाएगी. अम्मां ने कल रात को उसे अपने कमरे से यह कह कर भगा दिया कि वह मनहूस है. मैं नहीं चाहती कि मेरी बच्ची इतनी नफरत के बीच में पले.’

25 जुलाई, 1986.

मां के लिखे एकएक शब्द मेरे अस्तित्व को झकझोर रहे थे. मैं ने डायरी का अगला पन्ना पलटा.

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‘शेखर, मैं बहुत थकने लगी हूं. पिता और मां दोनों की जिम्मेदारियों का निर्वाह करतेकरते मैं खुद क्या हूं भूल जाती हूं. इरा, अपने दादादादी के बारे में पूछती है. उस की खुशी के लिए मैं ने एक दिन घर फोन कर के आने के लिए पूछा था पर बाबूजी ने कहा कि हम दोनों उन के लिए मर चुके हैं.

‘रिश्तों की भीड़ में हम अकेले हैं. मम्मीपापा के पास चाह कर भी नहीं जा सकती, क्योंकि वहां भाभी की शंकित निगाहें मुझे भीतर तक टटोल लेना चाहती हैं कि कहीं मैं उन के घर पर कब्जा जमाने तो नहीं आ गई. मम्मीपापा बेबसी से मुझे देखते हैं. वह स्वयं भैयाभाभी पर निर्भर हैं. अब इरा ही मेरा संसार है.’

30 अगस्त, 1990.

‘आज पहली बार मैं ने इरा पर हाथ उठाया है. मुझे इस का बहुत दुख है. क्या करूं, उस के परीक्षा में नंबर कम आए हैं. अगले साल बोर्ड है, अगर ऐसा ही रहा तो मैं क्या करूंगी? हर तरफ सिर्फ एक ही बात होगी कि बिन बाप की बच्ची है इसलिए ऐसा हुआ. मैं हर पल सूली पर खड़ी होती हूं, जहां मेरा चरित्र, मेरे गुणअवगुण, मेरा सबकुछ मेरे अकेले होने से मापा जाता है, यहां तक कि मेरा मातृत्व भी हमेशा प्रश्नों के कटघरे में खड़ा रहता है.’

30 अप्रैल, 1999.

‘आज इरा का कालिज का पहला दिन है. शेखर, तुम्हारी बिटिया बड़ी हो गई है और मैं कमजोर. अभी तक तो मैं ने उसे अपने आंचल में छिपा कर रखा था पर क्या अब मैं उसे समाज की गंदगी से दूर रख पाऊंगी. वह भी तो दूसरी लड़कियों की तरह जीना चाहेगी, क्या मैं उसे यह आजादी दे पाऊंगी. आज बहुत डर लग रहा है. इरा अगर भटक गई… नहींनहीं, ऐसा नहीं हो सकता…मैं यह क्या सोच रही हूं.’

1 जुलाई, 2001.

‘आज का दिन मेरे लिए बहुत बुरा था. आज आफिस में मिसेज भटनागर कह रही थीं कि मुझे इरा पर कड़ी निगाह रखनी चाहिए, बिन बाप की बच्ची कहीं भटक…मैं इस से आगे कुछ कह नहीं पाई. क्या मुझ से भूल हो गई है? क्या मुझे पापामम्मी की बात मान लेनी चाहिए थी? मैं ने खुद के लिए कभी न खत्म होने वाला अकेलापन चुना जिस से मेरी बच्ची सुरक्षित रहे, पर क्या मेरी सुरक्षा की परिभाषा गलत थी? क्या मेरे साथसाथ मेरी बच्ची को भी हरपल अग्नि परीक्षा देनी होगी? नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूंगी, पर कैसे?’

9 नवंबर, 2001.

‘इरा 22 साल की हो गई है. मुझे उस के भविष्य की चिंता हो रही है. कुछ ही सालों में वह अपने घर चली जाएगी. कैसे उस के लिए एक अच्छा जीवनसाथी खोजूं. काश, तुम मेरे पास होते. इरा के जाने के बाद मैं क्या करूंगी. कितना अकेलापन होगा, सोच कर भी डर लगता है.’

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15 अगस्त, 2006.

यह आखिरी पन्ना था. नजरें उठा कर देखा तो 4 बजने को थे. मेरा मन ग्लानि से भरा हुआ था. क्यों नहीं समझ पाई मैं अपनी मां की तकलीफ? मां के प्रति अपने किए गए हर बुरे बरताव पर मुझे शर्मिंदगी हो रही थी.

आगे पढें- अपने कमरे में कपड़े रख कर मैं पलटी ही थी कि…

Serial Story: उपहार– भाग 2

लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत

अब ऐसा नहीं होगा. मां, मैं आप का सहारा बनूंगी और आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी. मन में यह संकल्प कर मैं ने मां की डायरी यथावत अलमारी में रख दी. हमेशा से बिलकुल अलग मैं मां का हर बोझ कम करना चाहती थी. इसलिए छत पर सूखे हुए कपड़े उतारने गई तो ट्रक की आवाज सुन कर मैं चौंकी. पर देखा तो पड़ोस के घर में सामान उतर रहा था. होगा कोई, यह सोच कर कपड़े ले कर मैं नीचे आ गई.

अपने कमरे में कपड़े रख कर मैं पलटी ही थी कि कालबेल बजी. साढे़ 5 बज गए, मां ही होंगी यह सोच कर दरवाजे की ओर बढ़ी. दरवाजा खोला तो सामने मां की उम्र के व्यक्ति खड़े थे.

‘‘नमस्ते बेटा, मैं डा. सिद्धांत हूं. मैं ने आप का पड़ोस वाला घर खरीदा है. क्या आप के पास 5 सौ रुपए के खुले होंगे,’’ उन के इस प्रश्न पर मैं ने ‘हां’ में गरदन हिलाई और थोड़ी देर में उन्हें 100-100 के 5 नोट ला कर दे दिए. इस पहले परिचय के बाद अब डा. सिद्धांत से हर सुबह मेरी मुलाकात कालिज जाते हुए होती. मैं उन्हें नमस्ते करती और वह मुसकरा कर कहते, ‘‘खुश रहो बेटा.’’

मैं अब पहले वाली इरा नहीं रही थी. मेरी मां, मेरे जीवन का केंद्रबिंदु बन गई थीं. उन के आफिस से लौटने से पहले मैं हर हालत में कालिज से लौट आती और मां के आते ही चाय बना कर लाती. जब वह खाना बनातीं तो उन के साथ किचन में उन का हाथ बंटाती. मेरा यह व्यवहार शुरू में मां को अटपटा जरूर लगा और उन्होंने 1-2 बार पूछा भी, ‘‘इरा, क्या बात है, कालिज से जल्दी आ जाती हो, किसी दोस्त से झगड़ा हो गया है क्या?’’ मां के इस सवाल पर मैं सिर्फ मुसकरा कर रह जाती.

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एक दिन जब मैं कालिज से लौट कर आई तो देखा, मां घर पर हैं. अभी तो सिर्फ 3 ही बजे हैं और मां घर पर, सब ठीक तो है? यह सोच कर मैं सीधे मां के कमरे की ओर गई. देखा, मां बिस्तर पर सो रही थीं. मैं ने जैसे ही उन्हें उठाने के लिए हाथ लगाया तो पाया कि उन्हें तेज बुखार है.

‘‘मम्मा, आप को तो बुखार है,’’ मेरे स्पर्श से मां जाग गई थीं.

‘‘हां बेटा, पर मैं जल्दी ठीक हो जाऊंगी. मैं ने दवा ले ली है.’’

रात को मां ने जैसे मुझे समझाया वैसे मैं ने उन के लिए दलिया भी बनाया.

‘‘पहली बार तुम ने कुछ बनाया है. मेरी बिटिया अब बड़ी हो गई है,’’ यह कह कर मां ने मेरे माथे को चूम लिया था. मैं रात को मां के पास ही सो गई. थोड़ी देर बाद मां के कराहने की आवाज सुन कर मेरी नींद खुली. मैं ने लाइट जलाई और घड़ी की ओर देखा तो रात के 1 बज रहे थे. मां को छू कर देखा तो उन का बदन भट्ठी की तरह तप रहा था. समझ में नहीं आया कि क्या करूं. दौड़ कर डा. सिद्धांत के घर गई.

‘‘इतनी रात को, सब ठीक तो है बेटा?’’ उन्होंने मुझे देखते ही पूछा.

‘‘अंकल, मम्मा को बहुत तेज बुखार है. प्लीज, आप घर…’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं…’’ यह कह कर वह अंदर गए और अपना बैग ले कर मेरे साथ घर आ गए. मां की हालत देख कर बोले, ‘‘अच्छा किया बेटा जो तुम ने मुझे बुला लिया. थोड़ी देर में इन का बुखार उतर जाएगा. मैं ने इंजेक्शन लगा दिया है.’’

‘‘अंकल, सौरी, मैं ने आप को इतनी रात गए…’’

‘‘अंकल कहती हो तो सौरी कहने की जरूरत नहीं,’’ उन की मुसकराहट में अपनत्व का वही एहसास था जिसे मैं कितने ही दिनों से महसूस कर रही थी.

रात भर डा. सिद्धांत, मां के पास बैठे रहे और जब मैं ने उन से उन के घर जाने को कहा तो उन्होंने कहा कि जब मां का बुखार पूरी तरह उतर जाएगा तभी वह जाएंगे.

सुबह तक मां का बुखार उतर गया. तब जा कर सिद्धांत अंकल अपने घर जाने के लिए उठे पर जातेजाते वह मां को आफिस न जाने की हिदायत दे गए.

दिन में मां को दोबारा बुखार चढ़ गया. शाम को जब डा. सिद्धांत मां को देखने आए तो बोले, ‘‘बेटा, अच्छा होगा कि हम आप की मम्मा का ब्लड टेस्ट करवा लें.’’

मां का ब्लड टेस्ट हो गया और रिपोर्ट से पता चला कि उन को टाइफायड हो गया है. डा. सिद्धांत मां को देखने सुबहशाम आते. मां धीरेधीरे ठीक होने लगीं.

‘‘इरा बेटा, आप की मम्मी की तबीयत में काफी सुधार है पर मेरा तो नुकसान होने वाला है,’’ उस दिन

डा. सिद्धांत हंसते हुए बोले थे.

‘‘वो कैसे अंकल?’’ मेरे इस सवाल पर वह मुसकरा कर बोले, ‘‘भई, जब रुद्राजी पूरी तरह ठीक हो जाएंगी तो शाम को चाय मुझे खुद बना कर अकेले पीनी पड़ेगी.’’

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‘‘नहीं डा. सिद्धांत, ऐसा नहीं होगा. आप को हर शाम हास्पिटल से सीधे हमारे घर आना होगा,’’ मां की इस बात को सुन कर मैं चौंकी, क्योंकि आज पहली बार उन्होंने किसी व्यक्ति से साधिकार बात की थी.

मां पूरी तरह ठीक हो गईं. डा. सिद्धांत रोज शाम को हमारे घर आते. इस तरह महीना बीत गया. मां और डा. सिद्धांत को मैं ने कभी ज्यादा बात करते नहीं देखा. डा. सिद्धांत अपने हास्पिटल के किस्से सुनाते और मां मुसकराती रहतीं. मां ने कभी डा. सिद्धांत से उन के परिवार के बारे में नहीं पूछा और न ही डा. सिद्धांत ने अपने बारे में कुछ बताया.

एक दिन शाम को मां का फोन आया कि उन्हें आफिस से आने में देर हो जाएगी. अभी मैं ने फोन रखा ही था कि कालबेल बजी. दरवाजा खोल कर देखा तो सिद्धांत अंकल खड़े थे.

‘‘रुद्राजी नहीं आईं?’’

‘‘नहीं अंकल, आज मम्मा को आफिस में कुछ काम है थोड़ी देर से आएंगी.’’

‘‘कोई बात नहीं, मम्मा को आ जाने दो, तभी चाय पीएंगे, तब तक मैं अपनी बिटिया के साथ बैठ कर ढेर सारी बातें करूंगा,’’ और यह कह कर डा. सिद्धांत ने मुझे भी सोफे पर बैठने का इशारा किया.

‘‘अंकल, क्या मैं आप से कुछ पूछ सकती हूं?’’

‘‘कुछ नहीं बेटा, बहुत कुछ पूछ सकती हो,’’ और यह कह कर डा. सिद्धांत खिलखिला कर हंस दिए.

‘‘अंकल, आंटी…’’ मैं आगे कुछ कहती इस से पहले वह बोले, ‘‘वह इस दुनिया में नहीं हैं. जब विभोर 4 साल का था तभी एक सड़क दुर्घटना…’’

‘‘आई एम सौरी अंकल, विभोर आप का बेटा है, पर वह कहां है?’’

मेरे इस सवाल को सुन कर उन्होंने कहा, ‘‘वह अमेरिका में अपनी वाइफ के साथ है.’’

‘‘आप नहीं गए उस के पास?’’

‘‘नहीं बेटा, जीवन की सांझ मैं अपने देश में ही रह कर निकाल देना चाहता हूं.’’

‘‘अंकल, मैं बहुत छोटी हूं पर फिर भी आप से पूछना चाहती हूं कि आप ने आंटी के जाने के बाद दोबारा शादी क्यों नहीं की?’’ यह सवाल मैं ने अपनी सारी हिम्मत जुटा कर पूछा था. डा. सिद्धांत ने बड़ी ही सहजता से कहा, ‘‘विभोर की खातिर. मैं डरता था कि कहीं सौतेली मां उस के साथ बुरा व्यवहार न करे.’’

‘‘अंकल, मैं आप की बात से असहमत नहीं हूं, फिर भी मुझे लगता है मां तो मां होती है, सौतेली तो उसे समाज बना देता है. जिस बच्चे को मां अपनी कोख से जन्म नहीं देती यदि उस बच्चे की भलाई के लिए या किसी गलती के लिए उसे डांट देती है तो हम सब उस के पीछे का कारण उस का सौतेला होना ढूंढ़ते हैं.’’ इस के आगे डा. सिद्धांत कुछ कहते कि कालबेल बजी, ‘लगता है मम्मा आ गईं,’ यह कहते हुए मैं दरवाजे की ओर बढ़ी.

‘‘रुद्राजी, आज आप को बहुत देर हो गई. रात को अकेले आना ठीक नहीं है,’’ यह बात सुन कर मैं जोर से हंस दी. अभी तक जो बात मैं अपने लिए मां से सुनती आई थी, आज मां को वही बात सुनने के लिए मिल रही थी.

आगे पढें- मेरी बात को सुन कर मां बोलीं…

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Serial Story: उपहार– भाग 3

लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत

दूसरे दिन जब मैं कालिज गई तो शालिनी मुझ से 6 से 9 वाले शो की मूवी देखने को बोली. मैं ने हां कर दी. पर फिर सोचने लगी कि कैसे मम्मा को मनाऊंगी. कालिज से मैं सीधे डा. सिद्धांत के घर गई. मेरी परेशानी सुन कर उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि वह मम्मा को मना लेंगे. थोड़ी देर में जब वह घर आए तो मैं ने जानबूझ कर उन्हीं के सामने मूवी देखने जाने की बात की.

मेरी बात को सुन कर मां बोलीं, ‘‘इरा, तुम जानती हो यह संभव नहीं है उस पर रात का शो तो बिलकुल नहीं.’’

‘‘रुद्राजी, जाने दीजिए, मेरी बेटी बड़ी हो गई है. आप रात की चिंता मत कीजिए. मैं इरा को लेने चला जाऊंगा.’’

डा. सिद्धांत की बात को सुन कर मां ने मौन स्वीकृति दे दी. मुझे पहली बार एहसास हो रहा था कि पिता रूपी सुरक्षा कवच क्या होता है.

मुझे डा. सिद्धांत के साथ बिताया हर पल बहुत खुशी देता. क्या मां को भी

डा. सिद्धांत का साथ सुकून देता है, यह सवाल बारबार मुझे परेशान करता. मां अपने मन की हर बात अपनी डायरी में लिखती हैं यह सोच कर मां के आफिस जाने के बाद मैं ने चुपचाप अलमारी से मां की डायरी निकाली और पढ़नी शुरू की.

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‘इरा, आज पहली बार अपनी सहेलियों के साथ इतनी रात गए बाहर गई है पर आज मुझे डर नहीं लगा. क्या इस का कारण डा. सिद्धांत हैं? उन्होंने मुझे आफिस से देर से आने पर टोका. मुझे उन का टोकना बुरा क्यों नहीं लगा? बरसों बाद लगा कि मैं भी जीतीजागती इनसान हूं, जिस की किसी को परवा है. यह एहसास एक अजीब सा सुकून दे रहा है. कहीं मैं गलत तो नहीं? शेखर, क्या मैं तुम्हारी यादों के साथ अन्याय कर रही हूं? यह सब क्या है, कुछ समझ नहीं आ रहा.’

1 मई, 2007.

मैं ने डायरी बंद कर के रख दी. शाम को डा. सिद्धांत जब घर आए तो मां उन से बोलीं, ‘‘डा. सिद्धांत, इरा बड़ी हो गई है, अगर आप की नजर में कोई अच्छा लड़का हो तो…’’

‘‘मुझे शादी नहीं करनी,’’ मैं ने मां की बात काटते हुए कहा.

‘‘क्यों बेटी?’’

डा. सिद्धांत के इस सवाल पर मैं बोली, ‘‘मैं ने शादी कर ली तो मां बिलकुल अकेली हो जाएंगी.’’

‘‘ओह, तो यह बात है. तुम चिंता मत करो, मैं हूं ना,’’ डा. सिद्धांत यह कह कर एकदम से सकपका गए और उन्होंने तुरंत मां की ओर देखा. मां को तो जैसे सांप सूंघ गया.

‘‘मैं चलता हूं,’’ यह कह कर

डा. सिद्धांत उठ कर चले गए, मां भी अपने कमरे में चली गईं. रात को खाना खाते हुए मां और मेरे बीच बिलकुल बात नहीं हुई. मैं रात भर सो नहीं सकी. कभी मेरी नजरों के सामने डा. सिद्धांत आते और कभी मां.

अगले दिन मैं सुबहसुबह

डा. सिद्धांत के घर पहुंच गई और बोली, ‘‘अंकल, इस मदर्स डे पर मैं मम्मा को ऐसा तोहफा देना चाहती हूं जो आज तक किसी बेटी ने अपनी मां को नहीं दिया हो. अब आप ही मेरी सहायता कर सकते हैं.’’

‘‘इरा बेटा, तुम्हें मुझ से जैसी सहायता चाहिए, बोलो, मैं अपनी बेटी के लिए सबकुछ कर सकता हूं.’’

‘‘क्या आप मेरे पापा बनेंगे?’’ मैं ने डा. सिद्धांत की आंखों में झांकते हुए पूछा.

‘‘हां बेटा,’’ और यह कह कर उन्होंने मुझे गले लगा लिया. मेरी आंखों से अविरल आंसू बहने लगे. ऐसा लग रहा था कि मेरे चारों ओर एक बेहद मजबूत सुरक्षा कवच बन गया है.

‘‘इरा, क्या रुद्राजी मानेंगी?’’

‘‘उन्हें मैं मनाऊंगी अंकल.’’

मुझे हिम्मत जुटाने में कुछ समय लगा था. रविवार होने की वजह से मां उस दिन देर से उठीं. ‘‘गुडमार्निंग मम्मा,’’ मैं चाय ले कर सुबह जब उन के कमरे में पहुंची तो मां ने हैरानगी से मुझे देखा.

‘‘क्या बात है इरा, आज कोई खास बात है क्या?’’

‘‘हां, मां, मुझे आज आप से कुछ चाहिए. पर मैं मांगूंगी तभी जब आप यह विश्वास दिला दें कि मना नहीं करेंगी.’’

मां ने मुझे हां में भरोसा दिया तो मैं तपाक से बोली, ‘‘मां, मुझे पापा चाहिए.’’

‘‘तुम्हें होश भी है कि तुम क्या कह रही हो?’’

‘‘होश में हूं मां, मैं चाहती हूं कि सिद्धांत अंकल मेरे पापा बन जाएं.’’

‘‘बेटा, ऐसे हर कोई पिता नहीं बन जाता.’’

‘‘आप सही कह रही हैं मम्मा, हर कोई पिता नहीं बन सकता पर सिद्धांत अंकल हर कोई नहीं हैं. अगर हालात ने मेरे जन्मदाता को मुझ से छीन लिया तो मैं जीवन भर पिता की छांव से क्यों वंचित रहूं. मम्मा, पापा वह होते हैं जो अपने बच्चे को जीवन की हर परेशानी में थाम लें. आज सिद्धांत अंकल ने मुझे वह सुरक्षा और प्यार दिया है. एक बच्चे के लिए अगर मां ममता की छांव होती है तो पिता सुरक्षा कवच,’’ मैं ने मां को समझाते हुए कहा.

‘‘बेटा, इस का मतलब मैं तुम्हारा पापा नहीं बन पाई,’’ यह कहतेकहते मां के चेहरे पर उदासी छा गई.

‘‘नहीं, मम्मा, ऐसा नहीं है, मैं सिर्फ आप को यह बताना चाहती हूं कि आप ने अपना सारा जीवन मेरे लिए समर्पित कर दिया पर अब मैं चाहती हूं कि आप अकेले न रहें.’’

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‘‘इरा, तुम सचमुच बड़ी हो गई हो. बेटा, मेरा सारा जीवन तो निकल चुका है और बाकी का जीवन…’’

‘‘ऐसा क्यों मां,’’ मैं ने मां की बात को बीच में काट कर कहा, ‘‘क्या आप सिर्फ मेरे व पापा के लिए जीना चाहती हैं. मम्मा, यही उम्र होती है जब सच्चे मानों में जीवनसाथी की जरूरत होती है. जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और अपने जीवन में मशगूल हो जाते हैं तब पतिपत्नी ही एक दूसरे का सहारा बनते हैं. मां, यादों के सहारे जीवन नहीं निकलता. जीवन जीने के लिए जीतेजागते इनसान की जरूरत होती है. आप समझ रही हैं न.’’

‘‘हां बेटा, मैं समझ रही हूं. मुझे कुछ वक्त चाहिए.’’

अगले दिन सुबह जब मैं ने अपनी आंखें खोली तो मां मेरे सामने खड़ी थीं.

‘‘हैप्पी मदर्स डे मां,’’ यह कह कर मैं मां के गले लग गई. ‘‘मां, मैं आप को क्या तोहफा दूं?’’ मैं ने मां की ओर देखते हुए पूछा.

‘‘तुम तो मुझे कल ही तोहफा दे चुकी हो. किसी मां के लिए इस से बड़ा उपहार क्या हो सकता है कि उस की बेटी छोटी सी उम्र में जीवन का सार जान ले.’’

‘‘अगर मैं गलत नहीं तो अब गिफ्ट लेने की मेरी बारी है,’’ मैं चहक कर बोली.

‘‘बिलकुल,’’ मां के चेहरे की मुसकान ने जैसे सबकुछ कह दिया और मैं सिद्धांत अंकल…नहींनहीं अपने पापा के पास दौड़ पड़ा.

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जेठ जीजाजी: ससुराल के रिश्तों में उलझी प्रशोभा की कहानी

Serial Story: जेठ जीजाजी – भाग 4

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

 पूर्वकथा : अभी तक आप ने पढ़ा कि प्रशोभा अपने पति राघव के साथ देवर माधव की शादी के लिए ससुराल पहुंचती है. ससुराल में शादी की तैयारियों में सब जुटे थे. प्रशोभा ने महसूस किया कि उस के जेठ ऊधव उस का कुछ खास ही खयाल रख रहे हैं. वे कोशिश कर रहे थे कि प्रशोभा उन से खुले. लेकिन प्रशोभा रिश्तों की मर्यादा जानती थी.

अविवाहित जेठ का शादी न करने का फैसला उसे अपनी ननद किरण से पता चलता है कि कंचन नाम की लड़की से पिता ने विवाह न होने दिया तो उन्होंने शादी न करने की जिद ठान ली.

किरण और प्रशोभा को ब्यूटीपार्लर जाना था तो सास कहती हैं कि ऊधव औफिस जाते वक्त तुम्हें वहां छोड़ देगा. ऊधव को जब पता चलता है कि प्रशोभा के साथ किरण भी जा रही है तो उस के चेहरे पर चमक गायब हो जाती है. क्या प्रशोभा जेठजी के जज्बातों को समझ रिश्तों को नया रूप देने की सोच रही थी? पढि़ए आगे :

पीले कलर की छोटी सी कार भाईसाहब ने मेन्टेन कर रखी थी. एक तरफ का दरवाजा खोल कर दीदी बैठ गईं. जेठजी ड्राइविंग सीट पर बैठ चुके थे. अपनी साइड का दरवाजा खोल कर मैं बैठने चली, तो देखा, ड्राईक्लीनर के यहां से लाए हुए बड़ेबड़े 3-4 पैकेट्स इस साइड रखे थे.

दीदी मेरे लिए जगह बनाने के इरादे से उन पैकेटों को अंदर ही अंदर अगली खाली सीट पर रखने चलीं तो जेठजी तेजी से बोले, ‘‘किरण, उन पैकेटों को डिस्टर्ब न करो और प्रशोभा, तुम मेरे पास वाली सीट पर बैठो.’’

मैं ने दीदी की तरफ देखा, फिर उन का इशारा पा कर पीछे का दरवाजा बंद किया और आगे वाली सीट पर भाईसाहब की बगल में बैठ गई.

मुझे महसूस हुआ कि मुझे पास में  बैठा कर कार ड्राइव करते हुए भाईसाहब की कुछ ऐसी हालत थी कि मानो वे मेरा हरण करने में सफल हो गए हों. इस समय उन के चेहरे की प्रसन्नता देखते ही बनती थी.

पीछे दीदी न बैठी होतीं तो शायद अपनी मनोव्यथा और मेरी सुंदरता का बखान करते न थकते वे. पूरा रास्ता मौन संदेश देता बीत गया. ब्यूटीपार्लर के सामने हमें उतार कर बड़ी प्रसन्न मुद्रा में मुझे देखते वे चले गए.

ब्यूटीपार्लर से औटो में लौटते हुए मैं ने छेड़ा, ‘‘दीदी, मुझे लगता है कि भाईसाहब को भी अब एक लाइफपार्टनर की जरूरत है.’’

‘‘हां, मैं भी ऐसा ही महसूस करती हूं. पर अपनी ऐंठ और पिताजी को दुख दे कर पता नहीं उसे क्या मिल रहा है. आजीवन कुंआरा रह कर जाने क्या सिद्ध करना चाहता है. प्रशोभा, हाउसिंग बोर्ड में सर्विस लगने के बाद इस के कितने ही रिश्ते आए, पर एक ही रट कि आप ने मेरी शादी कंचन से नहीं होने दी, इसलिए अब किसी से भी शादी नहीं करूंगा, आजीवन कुंआरा रहूंगा.’’

‘‘दीदी, अगर आप कहो तो मैं उन्हें शादी कर लेने लिए राजी करूं?’’

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‘‘अरे कुछ नहीं होगा प्रशोभा. जो मनोरोगी हो जाते हैं वे किसी की बात नहीं सुनते. कितने ही रिश्ते तो तेरे जीजाजी ने बताए, मामाजी, बूआजी और भी कई लोगों ने इसे समझाया पर कुछ असर नहीं हुआ.’’

‘‘दीदी, एक बार राघव और मैं प्रयास कर के देखते हैं.’’

‘‘तेरी नजर में कोई लड़की हो तो कर प्रयास लेकिन मुझे पता है कि परिणाम क्या होगा.’’

घर पहुंच कर मांजी के साथ हम और दीदी कल होने वाले लेडीज संगीत के प्रोग्राम में निमंत्रित महिलाओं की मांजी द्वारा तैयार की गई 2 पन्नों की लिस्ट का एकएक पन्ना ले कर बैठ गए और अपनेअपने मोबाइलों से उन्हें रिमाइंडर देने में जुट गए.

शाम की चाय से पहले राघव और माधव आ गए थे. पर भाईसाहब नहीं लौटे थे.

राघव ने आते ही पिताजी को बता दिया, ‘‘कल लेडीज संगीत निबट ही जाएगा और परसों सवेरे ठीक 8 बजे मिनी बस दरवाजे पर आ कर खड़ी हो जाएगी. इसलिए होटल में साथ ले जाने वाला सारा सामान याद कर के टोकरियों व पेटियों में भर कर तैयार रखना होगा.’’

फिर उस ने मां से कहा, ‘‘और मां, जो कीमती सामान वाली अटैची और बक्सा होगा, वह हमारे साथ सूमो से चला जाएगा. होटलरूम हमें 10 बजे तक खाली हो कर मिल जाएगा.

माधव ने वास्तव में दोनों बहुत अच्छे होटल बुक कराए हैं. दसों कमरे एयरकंडीशन वाले हैं और जिस हौल में सारे फंक्शन होंगे वह भी अच्छा व बड़ा है तथा उस में भी एसी फिट है.’’

‘‘उन का होटल भी अच्छा ही होगा?’’ दीदी ने पूछ लिया.

‘‘दीदी, उन के लिए जो कमरे बुक हैं वे तो हमारे से भी अच्छे और बड़े हैं. एयरकंडीशंड हैं. सब से बड़ी बात कि रिसैप्शन वाला लौन बहुत बड़ा व सुंदर है. जयमाला स्टेज, फेरों वाला प्लेस सज कर बहुत मस्त लगेगा.’’

रात के खाने के समय तक जेठजी भी आ गए थे. कानपुर के घंटाघर के पास किसी प्रसिद्ध मिठाई की दुकान से रबड़ीमलाई वे सब के लिए लेते आए थे और रबड़ीमलाई से भरी मिट्टी की हंडिया मुझे पकड़ाते हुए बोले थे, ‘‘प्रशोभा, यह कानपुर के प्रसिद्ध कुंदन हलवाई की रबड़ीमलाई है. खाना खाने के बाद हम सब खाएंगे.’’

खाना खाते समय राघव ने भाईसाहब को भी परसों तक की सारी गतिविधियों से अवगत करा दिया और हम सब उन के द्वारा लाई हुई स्वादिष्ठ रबड़ीमलाई खा कर अपनेअपने कमरों में सोने चले गए.

अपने कमरे के दरवाजे पर ठिठक कर रुकते हुए उन्होंने राघव से कहा, ‘‘तुम लोग तो अपनी अटैची आराम से लगा लोगे, पर मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि कौन से सूट और कपड़े ले चलूं? मन तो कह रहा है कि जिस दिन जयमाला और फेरे हों उसी दिन सीधे शादी में पहुंचूं.’’

‘‘अरे भाईसाहब, आप के बिना कैसी शादी? वहां सब आप को पूछेंगे तो हम क्या जवाब देंगे? आप ऐसा मत सोचिए. आप को तो माधव की शादी में हर हालत में सदा ही उपस्थित रहना है.’’

‘‘राघव, तुम तो जानते ही हो कि मुझे शादी शब्द से ही नफरत है. 2 दिलों का मिलन साधारण तरीके से भी हो सकता है.’’

‘‘भाईसाहब, मेरी तो समझ में यह आता है कि कोई व्यक्ति जब किसी बात से वंचित रह जाता है तो उसे समाज के हर रीतिरिवाज बोझ लगते हैं. जबकि सच यह है कि ये सारी व्यवस्थाएं और इस में निहित सारी रस्में 2 परिवारों की खुशी के लिए दस्तावेज का काम करती हैं,’’ मैं जाने किस रौ में इतना बोल गई.

भाईसाहब मुझे गौर से देखने लगे, फिर राघव से बोले, ‘‘तेरी प्रशोभा तो बड़ी गंभीर बातें कर लेती है. और शायद इसीलिए मुझे इस का स्वभाव बहुत अच्छा लगता है.’’

राघव ने बात खत्म करने के इरादे  से कहा, ‘‘भाईसाहब, मैं कुछ नहीं जानता, आप को शादी में सब के साथ चलना है.’’

‘‘लेकिन मेरी अटैची कौन लगाएगा, मुझ से तो लग नहीं पाएगी.’’

‘‘लेडीज संगीत के बाद आप की अटैची भी प्रशोभा लगा देगी.’’

‘‘तब ठीक है. क्यों प्रशोभा, तुम्हें तो कोई एतराज नहीं है?’’ भाईसाहब ने कहा तो राघव मेरे चेहरे की तरफ देखने लगा.

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मैं ने राघव की आंखों में झांकते हुए मौन संकेत से पूछा, ‘‘अब क्यों मेरी तरफ देख रहे हो? किसी बात की हामी भरने से पहले मुझ से पूछने की जरूरत नहीं थी क्या?’’

उस ने आंखों से ही मनुहार भरी और मैं ने भाईसाहब की अटैची लगाने का बीड़ा अपने सिर ले लिया.

रात में सोने से पहले मेरे करीब लेटते हुए राघव अपनी सफाई में स्वयं ही बताने लगा, ‘‘प्रशोभा, आज मैं और माधव, भाईसाहब के कारण ही इंजीनियर बन पाए. उन्होंने प्रतियोगी परीक्षाओं में हमारे साथ रातरातभर जाग कर तैयारी करवाई थी.’’

‘‘तो खुद क्यों अपना कैरियर खराब कर के बैठ गए और हाउसिंग बोर्ड में बड़े बाबू बन कर रह गए?’’

‘‘प्रशोभा, इंटर की परीक्षा देने के बाद भाईसाहब ने भी इंजीनियरिंग का एग्जाम पास कर लिया था और उन का मेकैनिकल शाखा में एडमिशन भी हो गया था लेकिन उसी बीच एक लड़की से इश्क के पागलपन में इन्होंने अपना कैरियर बरबाद कर लिया.

‘‘उस से शादी न कर पाने के कारण अपनी जिद में इंजीनियरिंग की पढ़ाई अधूरी छोड़ दी और बड़ी मुश्किल से ग्रेजुएशन कर के कानपुर हाउसिंग बोर्ड में नौकरी पाई.’’

‘‘वह सब तो ठीक है पर शादी न करने का प्रण इस घर में आने वाली नई बहू के लिए भारी पड़ सकता है.’’

‘‘तुम ऐसा किस आधार पर कह रही हो?’’

राघव ने पूछा तो मैं ने कहा, ‘‘ह्यूमन साइकोलौजी कहती है कि इंसान अपने भीतर के जिस विचार से जितना दूर भागने का नाटक करता है वह उसी विचार में परिस्थिति आने पर फिर जकड़ जाता है.’’

इतना कह कर मैं ने साड़ी और इत्र वाले दोनों किस्से विस्तार से राघव को बता दिए, फिर कहा, ‘‘राघव, तुम कहो तो मैं भाईसाहब के मन को शादी के लिए तैयार करूं?’’

‘‘लेकिन उन के पसंद की लड़की कहां से लाओगी?’’

‘‘देखो राघव, मेरी बातें सुन कर तुम इतना तो समझ चुके ही होगे कि वे मेरे चेहरे से प्रभावित हो कर मुझे अपने करीब ही देखना चाहते हैं. और मेरे जैसी कदकाठी व चेहरेमोहरे वाली इस संसार में कोई है तो तुम्हारी प्रिय साली शोभा है. याद है, पहली बार उस से मिल कर तुम भी तो चकित हो कर रह गए थे.’’

आगे पढ़ें- राघव ने यह कहा तो मैं ने सारी परिस्थितियों पर…

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