अनोखा रिश्ता- भाग 1: कौन थी मिसेज दास

जयशंकर से गले मिल कर जब मैं अपनी सीट पर जा कर बैठा तो देखा मनीषा दास आंचल से अपनी आंखें पोंछे जा रही थीं. उन के पांव छूते समय ही मेरी आंखें नम हो गई थीं. धीरेधीरे टे्रन गुवाहाटी स्टेशन से सरकने लगी और मैं डबडबाई आंखों से उन्हें ओझल होता देखता रहा.

इस घटना को 25 वर्ष बीत चुके हैं. इन 25 वर्षों में जयशंकर की मां को मैं ने सैकड़ों पत्र डाले. अपने हर पत्र में मैं गिड़गिड़ाया, पर मुझे अपने एक पत्र का भी जवाब नहीं मिला. मुझे हर बार यही लगता कि श्रीमती दास ने मुझे माफ नहीं किया. बस, यही एक आशा रहरह कर मुझे सांत्वना देती रही कि जयशंकर अपनी मां की सेवा में जीजान से लगा होगा.

मेरे लिए मनीषा दास की निर्ममता न टूटी जिसे मैं ने स्वयं खोया, अपनी एक गलती और एक झूठ की वजह से. इस के बावजूद मैं नियमित रूप से पत्र डालता रहा और उन्हें अपने बारे में सबकुछ बताता रहा कि मैं कहां हूं और क्या कर रहा हूं.

एक जिद मैं ने भी पकड़ ली थी कि जीवन में एक बार मैं श्रीमती दास से जरूर मिल कर रहूंगा. असम छोड़ने के बाद कई शहर मेरे जीवन में आए, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली, देहरादून फिर मास्को और अंत में बर्लिन. इन 25 वर्षों में मुझ से सैकड़ों लोग टकराए और इन में से कुछ तो मेरी आत्मा तक को छू गए लेकिन मनीषा दास को मैं भूल न सका. वह जब भी खयालों में आतीं  मेरी आंखें नम कर जातीं.

मां की तबीयत खराब चल रही थी. 6 सप्ताह की छुट्टी ले कर भारत आया था. मां को देखने के बाद एक दिन अनायास ही मनीषा दास का खयाल जेहन में आया तो मैं ने गुवाहाटी जाने का फैसला किया और अपने उसी फैसले के तहत आज मैं मां समान मनीषा दास से मिलने जा रहा हूं.

गुवाहाटी मेल अपनी रफ्तार से चल रही थी. मैं वातानुकूलित डब्बे में अपनी सीट पर बैठा सोच रहा था कि यदि श्रीमती दास ने मुझे अपने घर में घुसने नहीं दिया या फिर मुझे पहचानने से इनकार कर दिया तब? इस प्रश्न के साथ ही मैं ने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया कि चाहे जो हो पर मैं अपने मन की फांस को निकाल कर ही आऊंगा.

मेरे जेहन में 25 साल पहले की वह घटना साकार रूप लेने लगी जिस अपराधबोध की पीड़ा को मन में दबाए मैं अब तक जी रहा हूं.

मैं गुवाहाटी मेडिकल कालिज में अपना प्रवेश फार्म जमा करवाने गया था. रास्ते में मेरा बटुआ किसी ने निकाल लिया. उसी में मेरे सारे पैसे और रेलवे के क्लौक रूम की रसीद भी थी. इस घटना से मेरी तो टांगें ही कांपने लगीं. मैं सिर पकड़ कर प्लेटफार्म की एक बेंच पर बैठ गया.

इस परदेस में कौन मेरी बातों पर भरोसा करेगा. मुझे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. तभी एक लड़का मेरे पास समय पूछने आया. मैं ने अपनी कलाई उस की ओर बढ़ा दी. वह स्टेशन पर किसी को लेने आया था. समय देख कर वह भी मेरे बगल में बैठ गया. थोड़ी देर तक तो वह चुप रहा फिर अपना परिचय दे कर मुझे कुरेदने लगा कि मैं कहां से हूं, गुवाहाटी में क्या कर रहा हूं? मैं ने थोड़े में उसे अपना संकट सुना डाला.

थोड़ी देर की खामोशी के बाद वह बोला, ‘धनबाद का किराया भी तो काफी होगा.’

‘हां, 100 रुपए है.’ यह सुन कर वह बोला कि यह तो अधिक है. पर तुम  अपना जी छोटा न करो. मां को आने दो उन से बात करेंगे.

तभी एक टे्रन आने की घोषणा हुई और वह लड़का बिना मुझ से कुछ कहे उठ गया. उस की बेचैनी मुझ से छिपी न थी. ट्रेन के आते ही प्लेट-फार्म पर ऐसी रेलपेल मची कि वह लड़का मेरी आंखों से ओझल हो गया.

15 मिनट बाद जब प्लेटफार्म से थोड़ी भीड़ छंटी तो मैं ने देखा कि वह लड़का अपनी मां के साथ मेरे सामने खड़ा था. मैं ने उठ कर उन के पांव को छुआ तो उन्होंने धीरे से मेरा सिर सहलाया और बस, इतना ही कहा, ‘जयशंकर बता रहा था कि तुम्हारा सूटकेस क्लौक रूम में है जिस की रसीद तुम गुम कर चुके हो. सूटकेस का रंग तो तुम्हें याद है न.’

मैं उन के साथ क्लौक रूम गया. अपना पता लिखवा कर वह सूटकेस निकलवा लाईं. जयशंकर ने अपनी साइकिल के कैरियर पर मेरा सूटकेस लाद लिया और मैं ने उस की मां का झोला अपने कंधे से लटका लिया. पैदल ही हम घर की तरफ चल पड़े.

आगेआगे जयशंकर एक हाथ से साइकिल का हैंडल और दूसरे से मेरा सूटकेस संभाले चल रहा था, पीछेपीछे मैं और उस की मां. जयशंकर का घर आने का नाम ही न ले रहा था. रास्ते भर उस की मां ने मुझ से एक शब्द तक न कहा, वैसे जयशंकर ने मुझे पहले ही बता दिया था कि मेरी मां सोचती बहुत हैं बोलती बहुत कम हैं. तुम इसे सहज लेना.

रास्ते भर मैं जयशंकर की मां के लिए एक नाम ढूंढ़ता रहा. उन के लिए मिसेज दास से उपयुक्त कोई दूसरा नाम न सूझा.

आखिरकार हम एक छोटी सी बस्ती में पहुंचे, जहां मिसेज दास का घर था, जिस की ईंटों पर प्लास्टर तक न था. देख कर लगता था कि सालों से घर की मरम्मत नहीं हुई है. छत पर दरारें पड़ी हुई थीं. कई जगहों से फर्श भी टूटा हुआ था पर कमरे बेहद साफसुथरे थे. दरवाजों और खिड़कियों पर भी हरे चारखाने के परदे लटक रहे थे. इन 2 कमरों के अलावा एक और छोटा सा कमरा था जिस में घर का राशन बड़े करीने से सजा कर रखा गया था.

मिसेज दास ने मुझे एक तौलिया पकड़ाते हुए हाथमुंह धोने को कहा. जब मैं बाथरूम से बाहर निकला तो संदूक पर एक थाली में कुछ लड्डू और मठरी देखते ही मेरी जान में जान आ गई.

मिसेज दास ने आदेश देते हुए कहा, ‘तुम जयशंकर के साथ थोड़ा नाश्ता कर लो फिर उस के साथ बाजार चले जाना. जो सब्जी तुम्हें अच्छी लगे ले आना. तब तक मैं खाने की तैयारी करती हूं.’

नाश्ता करने के बाद मैं जयशंकर के साथ सब्जी खरीदने के लिए बाजार चला गया. वापस लौटने तक मिसेज दास पूरे बरामदे की सफाई कर के पानी का छिड़काव कर चुकी थीं. दोनों चौकियों पर दरियां बिछी हुई थीं और वह एक गैस के स्टोव पर चावल बना रही थीं. घर वापस आते ही जयशंकर अपनी मां के साथ रसोई में मदद करने लगा और मैं वहीं बरामदे में बैठा अपनी वर्तमान दशा पर सोचता रहा. कब आंख लग गई पता ही न चला.

भटकाव के बाद: परिवार को चुनने की क्या थी मुकेश की वजह

संजीव का फोन आया था कि वह दिल्ली आया हुआ है और उस से मिलना चाहता है. मुकेश तब औफिस में था और उस ने कहा था कि वह औफिस ही आ जाए. साथसाथ चाय पीते हुए गप मारेंगे और पुरानी यादें ताजा करेंगे. संजीव और मुकेश बचपन के दोस्त थे, साथसाथ पढ़े थे. विश्वविद्यालय से निकलने के बाद दोनों के रास्ते अलग हो गए थे. मुकेश ने प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से केंद्र सरकार की नौकरी जौइन कर ली थी. प्रथम पदस्थापना दिल्ली में हुई थी और तब से वह दिल्ली के पथरीले जंगल में एक भटके हुए जानवर की तरह अपने परिवार के साथ जीवनयापन और 2 छोटे बच्चों को उचित शिक्षा दिलाने की जद्दोजहद से जूझ रहा था. संजीव के पिता मुंबई में रहते थे. शिक्षा पूरी कर के वह वहीं चला गया था और उन के कारोबार को संभाल लिया. आज वह करोड़ों में नहीं तो लाखों में अवश्य खेल रहा था. शादी संजीव ने भी कर ली थी, परंतु उस के जीवन में स्वच्छंदता थी, उच्छृंखलता थी और अब तो पता चला कि वह शराब का सेवन भी करने लगा था. इधरउधर मुंह मारने की आदत पहले से थी.

अब तो खुलेआम वह लड़कियों के साथ होटलों में जाता था. कारोबार के सिलसिले में वह अकसर दिल्ली आया करता था. जब भी आता, मुकेश को फोन अवश्य करता था और कभीकभार मौका निकाल कर उस से मिल भी लेता था, परंतु आज तक दोनों की मुलाकात मुकेश के औफिस में ही हुई थी. मुकेश की जिंदगी कोल्हू के बैल की तरह थी, बस एक चक्कर में घूमते रहना था, सुबह से शाम तक, दिन से ले कर सप्ताह तक और इसी तरह सप्ताह-दर-सप्ताह, महीने और फिर साल निकलते जाते, परंतु उस के जीवन में कोई विशेष परिवर्तन होता दिखाई नहीं पड़ रहा था. नौकरी के बाद उस के जीवन में बस इतना परिवर्तन हुआ था कि दिल्ली में पहले अकेला रहता था, शादी के बाद घर में पत्नी आ गई थी और उस के बाद 2 बच्चे हो गए थे परंतु जीवन जैसे एक ही धुरी पर अटका हुआ था. निम्नमध्यवर्गीय जीवन की वही रेलमपेल, वही समस्याएं, वही कठिनाइयां और रातदिन उन से जूझते रहने की बेचैनी, कशमकश और निष्प्राण सक्रियता, क्योंकि कहीं न कहीं उसे यह लगता था कि उस के पारिवारिक जीवन में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं होने वाला है, सो जीवन के प्रति ललक, जोश और उत्तेजना दिनोंदिन क्षीण होती जा रही थी.

उधर से संजीव ने कहा था, ‘‘अरे यार, इस बार मैं तेरे औफिस नहीं आने वाला हूं. आज 31 दिसंबर है और तू मेरे यहां आएगा, मेरे होटल में. आज हम दोनों मिल कर नए साल का जश्न मनाएंगे. मेरे साथ मेरे 2 दोस्त भी हैं, तुझे मिला कर 4 हो जाएंगे. सारी रात मजा करेंगे. बस, तू तो इतना बता कि मैं तेरे लिए गाड़ी भेजूं या तू खुद आ जाएगा?’’ मुकेश सोच में पड़ गया. सुबह घर से निकलते समय उस के बच्चों ने शाम को जल्दी घर आने के लिए कहा था. वह दोनों शाम को बाहर घूमने जाना चाहते थे. घूमफिर कर किसी रेस्तरां में उन सब का खाना खाने का प्रोग्राम था. वह जल्दी से कोई जवाब नहीं दे पाया, तो उधर से संजीव ने अधीरता से कहा, ‘‘क्या सोच रहा है यार. मैं इतनी दूर से आया हूं और तू होटल आने में घबरा रहा है.’’

उस ने बहाना बनाया, ‘‘यार, आज बच्चों से कुछ कमिटमैंट कर रखा है और तू तो जानता है, मैं कुछ खातापीता नहीं हूं. तुम लोगों के रंग में भंग हो जाएगा.’’ ‘‘कुछ नहीं होगा, तू भाभी और बच्चों को फोन कर दे. बता दे कि मैं आया हुआ हूं. और सुन, एक बार आ, तू भी क्या याद करेगा. तेरे लिए स्पैशल इंतजाम कर रखा है.’’ उस की समझ में नहीं आया कि संजीव ने उस के लिए क्या स्पैशल इंतजाम कर रखा है. स्पैशल इंतजाम के रहस्य ने उस की निम्नमध्यवर्गीय मानसिकता की सोच के ऊपर परदा डाल दिया और वह ‘स्पैशल इंतजाम’ के रहस्य को जानने के लिए बेताब हो उठा. उस ने संजीव से कहा कि वह आ रहा है परंतु उस से वादा ले लिया कि उसे 10 बजे तक फ्री कर देगा. फिर पूछा, ‘‘कहां आना है?’’ संजीव ने हंसते हुए कहा, ‘‘तू एक बार आ तो सही, फिर देखते हैं. पहाड़गंज में होटल न्यू…में आना है. मेन रोड पर ही है.’’ मुकेश ने कहा कि वह मैट्रो से आ जाएगा और फिर फोन कर के पत्नी से कहा कि घर आने में उसे थोड़ी देर हो जाएगी. वह घर में ही खाना बना कर बच्चों को खिलापिला दे. आते समय वह उन के लिए चौकलेट और मिठाई लेता आएगा. उस की बात पर पत्नी ने कोई एतराज नहीं किया. वह जानती थी कि उस का पति एक सीधासादा इंसान है और बेवजह कभी घर से बाहर नहीं रहता. उसे अपनी पत्नी और बच्चों की बड़ी परवा रहती है.

मुकेश होटल पहुंचा तो संजीव उसे लौबी में ही मिल गया. बड़ी गर्मजोशी से मिला. हालचाल पूछे और कमरे की तरफ जाते हुए होटल के मैनेजर से परिचय कराया. मैनेजर बड़ी गर्मजोशी से मिला जैसे मुकेश बहुत बड़ा आदमी था. कमरे में उस के 2 दोस्त बैठे बातें कर रहे थे. संजीव ने उन से मुकेश का परिचय कराया. वे दोनों दिल्ली के ही रहने वाले थे. मुकेश से बड़ी खुशदिली से मिले, परंतु मुकेश शर्म और संकोच के जाल में फंसा हुआ था. होटल के बंद माहौल में वह अपने को सहज नहीं महसूस कर पा रहा था. इस तरह के होटलों में आना उस के लिए बिलकुल नया था. ऐसा कभी कोई संयोग उस के जीवन में नहीं आया था. कभीकभार पत्नी और बच्चों के साथ छोटेमोटे रेस्तराओं में जा कर हलकाफुलका खानापीना अलग बात थी. संजीव अपने दोस्तों की तरफ मुखातिब होते हुए बोला, ‘‘चलो, कुछ इंतजाम करो, मेरा बचपन का दोस्त आया है. आज इस की तमन्नाएं पूरी कर दो. बेचारा, कुएं का मेढक है. इस को पता तो चले कि दुनिया में परिवार के अतिरिक्त भी बहुतकुछ है, जिन से खुशियों के रंगबिरंगे महल खड़े किए जा सकते हैं.’’ फिर उस ने मुकेश की पीठ में धौल जमाते हुए कहा, ‘‘चल यार बता, तेरी क्याक्या इच्छाएं हैं, तमन्नाएं और कामनाएं हैं, आज सब पूरी करवा देंगे. यह मेरे मित्र का होटल है और फिर आज तो साल का अंतिम दिन है. कुछ घंटों के बाद नया साल आने वाला है. आज सारे बंधन तोड़ कर खुशियों को गले लगा ले.’’

संजीव कहता जा रहा था. ‘पहले तो कभी इतना अधिक नहीं बोलता था,’ मुकेश मन ही मन सोच रहा था. पहले वह भी मुकेश की तरह शर्मीला और संकोची हुआ करता था. दोनों एक कसबेनुमां गांव के रहने वाले थे. उन के संस्कारों में नैतिकता और मर्यादा का अंश अत्यधिक था. मुकेश दिल्ली आ कर भी अपने पंख नहीं फैला सका था. पिंजरे में कैद पंछी की तरह परिवार के साथ बंध कर रह गया था, जबकि संजीव ने मुंबई जा कर जीवन को खुल कर जीने के सभी दांवपेंच सीख लिए थे. सच कहा गया है, संपन्नता मनुष्य में बहुत सारे गुणअवगुण भर देती है, परंतु उस के अवगुण भी दूसरों को सद्गुण लगते हैं. जबकि गरीबी मनुष्य से उस के सद्गुणों को भी छीन लेती है. उस के सद्गुण भी दूसरों को अवगुण की तरह दिखाई पड़ते हैं. संजीव के एक दोस्त अमरजीत ने कहा, ‘‘आप के मित्र तो बड़े संकोची लगते हैं, लगता है, कभी घर से बाहर नहीं निकले.’’

मुकेश वाकई संकोच में डूबा जा रहा था. जिस तरह की बातें संजीव कर रहा था, उस तरह के माहौल से आज तक वह रूबरू नहीं हुआ था. वह किसी तरह के झमेले में पड़ने के लिए यहां नहीं आया था. वह तो केवल संजीव के जोर देने पर उस से मिलने के लिए आ गया था. उस ने सोचा था, कुछ देर बैठेगा, चायवाय पिएगा, गपशप मारेगा, और फिर घर लौट आएगा. रास्ते में बच्चों के लिए केक खरीद लेगा, वह भी खुश हो जाएंगे. दिसंबर की बेहद सर्द रात में भी मौसम इतना गरम था कि उसे अपना कोट उतारने की इच्छा हो रही थी. पर मन मार कर रह गया. सभी सोचते कि वह भी मौजमस्ती के मूड में है. उस ने संजीव के मुंह की तरफ देखा. वह उसे देख कर मुसकरा रहा था, जैसे उस के मन की बात समझ गया था. बोला, ‘‘सोच क्या रहा है? कपड़े वगैरह उतार कर रिलैक्स हो जा. अभी तो मजमस्ती के लिए पूरी रात बाकी है.’’ संजीव का एक दोस्त मोबाइल पर किसी से बात कर रहा था और दूसरा दोस्त इंटरकौम पर खानेपीने का और्डर कर रहा था. संजीव स्वयं मुकेश से बात करने के अतिरिक्त मोबाइल पर बीचबीच में बातें करता जा रहा था. गोया, उस कमरे में मुकेश को छोड़ कर सभी व्यस्त थे. उन की व्यस्तता में कोई चिंता, परेशानी या उलझन नहीं दिखाई दे रही थी. मुकेश व्यस्त न होते हुए भी व्यस्त था, उस के दिमाग में चिंता, उलझन और परेशानियों का लंबा जाल फैला हुआ था, जिस में वह फंस कर रह गया था. उस के जाल में उस की पत्नी फंसी हुई थी, उस के मासूम बच्चे फंसे हुए थे. उस के बच्चों की आंखों में एक कातर भाव था, जैसे मूकदृष्टि से पूछ रहे हों, ‘पापा, हम ने आप से कोई बहुत कीमती और महंगी चीज तो नहीं मांगी थी. बस, एक छोटा सा केक लाने के लिए ही तो कहा था. वह भी आप ले कर नहीं आए. पापा, आप घर कब तक आएंगे? हम आप का इंतजार कर रहे हैं.’

मुकेश के मन में एक तरह की अजीब सी बेचैनी और दिल में ऐसी घबराहट छा गई. जैसे वह अपने ही हाथों अपने बच्चों का गला घोंट रहा था, उन के अरमानों को चकनाचूर कर रहा था. पत्नी के साथ छल कर रहा था. वह उठ कर खड़ा हो गया और संजीव से बोला, ‘‘यार, मुझे घर जाना है, आप लोग एंजौय करो. वैसे भी मैं आप लोगों का साथ नहीं दे पाऊंगा.’’ ‘‘तो क्या हो गया? जूस तो ले सकता है, चिकन, मटन, फिश तो ले सकता है.’’

‘‘क्या 10 बजे तक फ्री हो जाऊंगा?’’ मुकेश ने जैसे हथियार डालते हुए कहा. ‘‘क्या यार, तुम भी बड़े घोंचू हो. बच्चों की तरह घर जाने की रट लगा रखी है. पत्नी और बच्चे तो रोज के हैं, परंतु यारदोस्त कभीकभार मिलते हैं. नए साल का जश्न मनाने का मौका फिर पता नहीं कब मिले,’’ संजीव थोड़ा चिढ़ते हुए बोला. थोड़ी देर में चिकनमटन की तमाम सारी तलीभुनी सामग्री मेज पर लग गई. मुकेश मन मार कर बैठा था, मजबूरी थी. अजीब स्थिति में फंस गया था. न आगे जाने का रास्ता उस के सामने था, न पीछे हट सकता था. संजीव उस की मनोस्थिति नहीं समझ सकता था. अपनी समझ में वह अपने दोस्त को जीवन की खुशियों से रूबरू होने का मौका भी प्रदान कर रहा था. परंतु मुकेश की स्थिति गले में फंसी हड्डी की तरह थी, जो उसे तकलीफ दे रही थी.

मुकेश के हाथ में जूस का गिलास था, परंतु जब भी वह गिलास को होंठों से लगाता, जूस का पीला रंग बिलकुल लाल हो जाता. खून जैसा लाल और गाढ़ा रंग देख कर उसे उबकाई आने लगती और बड़ी मुश्किल से वह घूंट को गले से नीचे उतार पाता. संजीव और उस के दोस्त बारबार उसे कुछ न कुछ खाने के लिए कहते और वह ‘हां, खाता हूं’ कह कर रह जाता, चिकनमटन के लजीज व्यंजनों की तरफ वह हाथ न बढ़ाता. उस के कानों में सिसकियों की आवाज गूंजने लगती, अपने बच्चों के सिसकने की आवाज… कितने छोटे और मासूम बच्चे हैं, अभी 7 और 5 वर्ष के ही तो हैं. इस उम्र में बच्चे मांबाप से बहुत ज्यादा लगाव रखते हैं. उन की उम्मीदें बहुत छोटी होती हैं, परंतु उन के पूरा होने पर मिलने वाली खुशी उन के लिए हजार नियामतों से बढ़ कर होती है.

तभी एक सुंदर, छरहरे बदन की युवती ने वहां कदम रखा. उस ने हंसते हुए संजीव के बाकी दोनों दोस्तों से हाथ मिलाया, फिर प्रश्नात्मक दृष्टि से मुकेश की तरफ देखने लगी. संजीव ने कहा, ‘‘मेरा यार है, बचपन का, थोड़ा संकोची है.’’ बीना ने अपना हाथ मुकेश की तरफ बढ़ाया. उस ने भी हौले से बीना की हथेली को अपनी दाईं हथेली से पकड़ा. बीना का हाथ बेहद ठंडा था. उस ने बीना की आंखों में देखा, वह मुसकरा रही थी. उस का चेहरा ही नहीं आंखें भी बेहद खूबसूरत थीं. चेहरे पर कोई मेकअप नहीं था, होंठों पर लिपस्टिक नहीं थी, बावजूद इस के वह बहुत सुंदर लग रही थी. मुकेश अपनी भावनाओं को छिपाते हुए बोला, ‘‘संजीव, अगर बुरा न मानो तो मुझे जाने दो. तुम लोग एंजौय करो. मैं कल तुम से मिलूंगा,’’ कह कर उठने का उपक्रम करने लगा. हालांकि यह एक दिखावा था, अंदर से उस का मन रुकने के लिए कर रहा था, परंतु मध्यवर्गीय व्यक्ति मानमर्यादा का आवरण ओढ़ कर मौजमस्ती करना पसंद करता है. बदनामी का भय उसे सब से अधिक सताता है, इसीलिए वह जीवन की बहुत सारी खुशियों से वंचित रहता है.

संजीव ने उस की बांह पकड़ कर फिर से कुरसी पर बिठा दिया, ‘‘बेकार की बातें मत करो.’’ संजीव की बात सुन कर मुकेश का हृदय धाड़धाड़ बजने लगा, जैसे किसी कमजोर पुल के ऊपर से रेलगाड़ी तेज गति से गुजर रही हो. वह समझ नहीं पाया कि यह खुशी के आवेग की धड़कन है या अनजाने, आशंकित घटनाक्रम की वजह से उस का हृदय तीव्रता के साथ धड़क रहा है? बीना ने मुकेश की तरफ देख कर आंख मार दी. वह झेंप कर रह गया.

संजीव बाहर निकलते हुए बोला, ‘‘चलो, जल्दी करो. मुकेश को घर जाना है.’’ संजीव बगल वाले कमरे में चला गया. मुकेश कमरे में अकेला रह गया, विचारों से गुत्थमगुत्था. उस ने अपने दिमाग को बीना के सुंदर चेहरे, पुष्ट अंगों और गदराए बदन पर केंद्रित करना चाहा, परंतु बीचबीच में उस की पत्नी का सौम्य चेहरा बीना के चंचल चेहरे के ऊपर आ कर बैठ जाता. उस के मन को बेचैनी घेरने लगती, परंतु यह बेचैनी अधिक देर तक नहीं रही. मुकेश चाहता था, वह बीना के शरीर की ढेर सारी खुशबू अपने नथुनों में भर ले, ताकि फिर जीवन में किसी दूसरी स्त्री के बदन की खुशबू की उसे जरूरत न पड़े. परंतु यहां खुशबू थी कहां? कमरे में एक अजीब सी घुटन थी. उस घुटन में मुकेश तेजतेज सांसें लेता हुआ अपने फेफड़ों को फुला रहा था और एकटक बीना के शरीर को ताक रहा था, जैसे बाज गौरैया को ताकता है. परंतु यहां बाज कौन था और गौरैया कौन, यह न मुकेश को पता था, न बीना को.

बीना तंदरुस्त लड़की थी और उस के हावभाव से लग रहा था कि वह किसी भले घर की नहीं थी. उस ने हाथ पकड़ कर मुकेश को खड़ा किया और बोली, ‘‘क्या खूंटे की तरह गड़े बैठे हो? कुछ डांसवांस नहीं करोगे? जल्दी करो. आज सारी रात जश्न मनेगा,’’ उस ने मुकेश के सामने खड़े हो कर अपने बाल संवारते हुए कुछ तल्खी से कहा. वह चुप बैठा रहा तो बीना ने बेताब हो कर अपने हाथों से उसे उठाते हुए कहा,  ‘‘आओ, अब डांस करो.’’ वह अचानक उठ खड़ा हुआ, जैसे उस के शरीर में कोई करंट लगा हो.

बीना बोली, ‘‘यह क्या? तुम्हें तो कुछ आता ही नहीं, वैसे के वैसे खड़े हो, खंभे की तरह…’’ परंतु मुकेश ने उस की तरफ दोबारा नहीं देखा. लपक कर वह बाहर आ गया. संजीव से भी मिलने की उस ने आवश्यकता नहीं समझी. गैलरी में आ कर उस ने इधरउधर देखा. इक्कादुक्का वेटर कमरों में आजा रहे थे. बाहर का वातावरण शांत था और हवा में हलकीहलकी सर्दी का एहसास था. वह होटल के बाहर आ गया. होटल के बाहर आ कर उसे चहलपहल का एहसास हुआ. उस ने समय देखा, 10 बजने में कुछ ही मिनट शेष थे. गोल मार्केट की दुकानें खुली होंगी, यह सोच कर वह गोल मार्केट की ओर चल दिया. साढ़े 10 बजे के लगभग जब हाथ में केक और मिठाई का डब्बा ले कर वह घर पहुंचा तो उस के मन में अपराधबोध था. आत्मग्लानि के गहरे समुद्र में वह डुबकी लगा रहा था. पत्नी ने जब दरवाजा खोला तो वह उस से नजरें चुरा रहा था. पत्नी को सामान पकड़ा कर वह अंदर आया. दोनों बच्चे उसे जगते हुए मिले. वे टीवी पर नए साल का कार्यक्रम देख रहे थे. उसे देख कर एकदम से चिल्लाए, ‘‘पापा आ गए, पापा आ गए. क्या लाए पापा हमारे लिए?’’

उस ने पत्नी की तरफ इशारा कर दिया. बच्चे मम्मी की तरफ देखने लगे तो उस ने लपक कर बारीबारी से दोनों बच्चों को चूम लिया. तब तक उस की पत्नी ने सामान ला कर मेज पर रख दिया, ‘‘वाउ, मिठाई और केक…अब मजा आएगा.’’ मुकेश के मन में एक बहुत बड़ी शंका घर कर गई थी. और वह शंका धीरेधीरे बढ़ती जा रही थी. उसे तत्काल दूर करना आवश्यक था. वह इंतजार नहीं कर सकता था. मुकेश दोनों बच्चों को नाचतागाता छोड़ कर पत्नी के पीछेपीछे किचन में आ गया. पत्नी ने उसे ऐसे आते देख कर कहा, ‘‘आप जूतेकपड़े उतार कर फ्रैश हो लीजिए. मैं पानी ले कर आती हूं.’’ ‘‘वह बाद मे कर लेंगे,’’ कह कर उस ने पत्नी को पीछे से पकड़ कर अपनी बांहों में भर लिया. पत्नी के हाथ से गिलास छूट गया. फुसफुसा कर बोली, ‘यह क्या कर रहे हैं आप?  ऐसा तो पहले कभी नहीं किया, बिना जूतेकपड़े उतारे और वह भी किचन में…’

‘‘पहले कभी नहीं किया, इसीलिए तो कर रहा हूं,’’ उस ने पूरी ताकत के साथ पत्नी के शरीर को भींच लिया. उस के शरीर में जैसे बिजली प्रवाहित होने लगी थी.

‘बच्चे देख लेंगे?’ पत्नी फिर फुसफुसाई. मुकेश के मन में हजार रंगों के फूल खिल कर मुसकराने लगे. उस के मन का भटकाव खत्म हो चुका था. अब उस के मन में कोई शंका नहीं थी, परंतु मुकेश को एक बात समझ में नहीं आ रही थी. कहते हैं कि आदमी को पराई औरत और पराया धन बहुत आकर्षित करता है. इन दोनों को प्राप्त करने के लिए वह कुछ भी कर सकता है. मुकेश को पराई नारी वह भी इतनी सुंदर, बिना किसी प्रयत्न के सहजता से उपलब्ध हुई थी, फिर वह उसे क्यों नहीं भोग पाया? यह रहस्य कोई मनोवैज्ञानिक ही सुलझा सकता था. मुकेश के लिए यह रहस्य एक बड़ा आश्चर्य था.

टकराती जिंदगी: क्या कसूरवार थी शकीला

लेखक- एच. भीष्मपाल

जिंदगी कई बार ऐसे दौर से गुजर जाती है कि अपने को संभालना भी मुश्किल हो जाता है. रहरह कर शकीला की आंखों से आंसू बह रहे थे. वह सोच भी नहीं पा रही थी कि अब उस को क्या करना चाहिए. सोफे पर निढाल सी पड़ी थी. अपने गम को भुलाने के लिए सिगरेट के धुएं को उड़ाती हुई भविष्य की कल्पनाओं में खो जाती. आज वह जिस स्थिति में थी, इस के लिए वह 2 व्यक्तियों पर दोष डाल रही थी. एक थी उस की छोटी बहन बानो और दूसरा था उस का पति याकूब.

‘मैं क्या करती? मुझे उन्होंने पागल बना दिया था. यह वही व्यक्ति था जो शादी से पहले मुझ से कहा करता था कि अगर मैं ने उस से शादी नहीं की तो वह खुदकुशी कर लेगा. आज उस ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि मैं अपना शौहर, घर और छोटी बच्ची को छोड़ने को मजबूर हो गई हूं. मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा कि मैं अब क्या करूं,’ शकीला मन ही मन बोली.

‘मैं ने याकूब को क्या नहीं दिया. वह आज भूल गया कि शादी से पहले वह तपेदिक से पीडि़त था. मैं ने उस की हर खुशी को पूरा करने की कोशिश की. मैं ने उस के लिए हर चीज निछावर कर दी. अपना धन, अपनी भावनाएं, हर चीज मैं ने उस को अर्पण कर दी. सड़कों पर घूमने वाले बेरोजगार याकूब को मैं ने सब सुख दिए. उस ने गाड़ी की इच्छा व्यक्त की और मैं ने कहीं से भी धन जुटा कर उस की इच्छा पूरी कर दी. मुझे अफसोस इस बात का है कि उस ने मेरे साथ यह क्यों किया. मुझे इस तरह जलील करने की उसे क्या जरूरत थी? अगर वह एक बार भी कह देता कि वह मेरे से ऊब गया है तो मैं खुद ही उस के रास्ते से हट जाती. जब मेरे पास अच्छी नौकरी और घर है ही तो मैं उस के बिना भी तो जिंदगी काट सकती हूं.

‘बानो मेरी छोटी बहन है. मैं ने उसे अपनी बेटी की तरह पाला है, पर उसे मैं कभी माफ नहीं कर सकती. उस ने सांप की तरह मुझे डंस लिया. पता नहीं मेरा घर उजाड़ कर उसे क्या मिला? मुझे उस के कुकर्मों का ध्यान आते ही उस पर क्रोध आता है.’ बुदबुदाते हुए शकीला सोफे से उठी और बाहर अपने बंगले के बाग में घूमने लगी.

20 साल पहले की बात है. शकीला एक सरकारी कार्यालय में अधिकारी थी. गोरा रंग, गोल चेहरा, मोटीमोटी आंखें और छरहरा बदन. खूबसूरती उस के अंगअंग से टपकती थी. कार्यालय के साथी अधिकारी उस के संपर्क को तरसते थे. गाने और शायरी का उसे बेहद शौक था. महफिलों में उस की तारीफ के पुल बांधे जाते थे.

याकूब उत्तर प्रदेश की एक छोटी सी रियासत के नवाब का बिगड़ा शहजादा था. नवाब साहब अपने समय के माने हुए विद्वान और खिलाड़ी थे. याकूब को पहले फिल्म में हीरो बनने का शौक हुआ. वह मुंबई गया पर वहां सफल न हो सका. फिर पेंटिंग का शौक हुआ परंतु इस में भी सफलता नहीं मिली. उस के पिता ने काफी समझाया पर वह कुछ समझ न सका. गुस्से में उस ने घर छोड़ दिया. दिल्ली में रेडियो स्टेशन पर छोटी सी नौकरी कर ली. कुछ दिन के बाद वह भी छोड़ दी. फिर शायरी और पत्रकारिता के चक्कर में पड़ गया. न कोई खाने का ठिकाना न कोई रहने का बंदोबस्त. यारदोस्तों के सहारे किसी तरह से अपना जीवन निर्वाह कर रहा था. शरीर, डीलडौल अवश्य आकर्षक था. खानदानी तहजीब और बोलने का लहजा हर किसी को मोह लेता था.

और फिर एक दिन इत्तेफाक से उसे शकीला से मिलने का मौका मिला. एक इंटरव्यू लेने के सिलसिले में वह शकीला के कार्यालय में गया. उस के कमरे में घुसते ही उस ने ज्यों ही शकीला को देखा, उस के तनबदन में सनसनी सी फैल गई. कुछ देर के लिए वह उसे खड़ाखड़ा देखता रहा. इस से पहले कि वह कुछ कहे, शकीला ने उस से सामने वाली कुरसी पर बैठने का अनुरोध किया. बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ. शकीला भी उस की तहजीब और बोलने के अंदाज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी. इंटरव्यू का कार्य खत्म हुआ और उस से फिर मिलने की इजाजत ले कर याकूब वहां से चला गया.

याकूब के वहां से चले जाने के बाद शकीला काफी देर तक कुछ सोच में पड़ गई. यह पहला मौका था

जब किसी के व्यक्तित्व ने उसे

प्रभावित किया था. कल्पनाओं के समुद्र में वह थोड़ी देर के लिए डूब गई. और फिर उस ने अपनेआप को झटक दिया और अपने काम में लग गई. ज्यादा देर तक उस का काम में मन नहीं लगा. आधे दिन की छुट्टी ले कर वह घर चली गई.

शकीला उत्तर प्रदेश के जौनपुर कसबे के मध्य-वर्गीय मुसलिम परिवार की कन्या थी. उस की 3 बहनें और 2 भाई थे. पिता का साया उस पर से उठ गया था. 2 भाइयों और 2 बहनों का विवाह हो चुका था और वे अपने परिवार में मस्त थे. विधवा मां और 7 वर्षीय छोटी बहन बानो के जीवननिर्वाह की जिम्मेदारी उस ने अपने ऊपर ले रखी थी. उस की मां को अपने घर से विशेष लगाव था. वह किसी भी शर्त पर जौनपुर छोड़ना नहीं चाहती थी. उस की गुजर के लिए उस का पिता काफी रुपयापैसा छोड़ गया था. घरों का किराया आता था व थोड़ी सी कृषि भूमि की आय भी थी.

शकीला के सामने समस्या बानो की पढ़ाई की थी. शकीला की इच्छा थी कि वह अच्छी और उच्च शिक्षा प्राप्त करे. वह उसे पब्लिक स्कूल में डालना चाहती थी जो जौनपुर में नहीं था. आखिरकार बड़ी मुश्किल से उस ने अपनी मां को रजामंद कर लिया और वह बानो को दिल्ली ले आई. शकीला बानो से बेहद प्यार करती थी. बानो को भी अपनी बड़ी बहन से बहुत प्यार था.

याकूब और शकीला के परस्पर मिलने का सिलसिला जारी रहा. कुछ दिन कार्यालय में औपचारिक मिलन के बाद गेलार्ड में कौफी के कार्यक्रम बनने लगे. शकीला ने न चाह कर भी हां कर दी. बानो के प्रति अपनी जिम्मेदारी महसूस करते हुए भी वह याकूब से मिलने के लिए और उस से बातचीत करने के लिए लालायित रहने लगी. उन दोनों को इस प्रकार मिलते हुए एक साल हो गया. प्यार की पवित्रता और मनों की भावनाओं पर दोनों का ही नियंत्रण था. परस्पर वे एकदूसरे के व्यवहार, आदतों और इच्छाओं को पहचानने लगे थे.

एक दिन याकूब ने उस के सामने हिचकतेहिचकते विवाह का प्रस्ताव रखा. यह सुन कर शकीला एकदम बौखला उठी. वह परस्पर मिलन से आगे नहीं बढ़ना चाहती थी. यह सुन कर वह उठी और ‘ना’ कह कर गेलार्ड से चली गई. घर जा कर वह अपने लिहाफ में काफी देर तक रोती रही. वह समझ नहीं पा रही थी कि वह जिंदगी के किस दौर से गुजर रही है. वह क्या करे, क्या न करे, कुछ सोच नहीं पा रही थी.

इस घटना का याकूब पर बहुत बुरा असर पड़ा. वह शकीला की ‘ना’ को सुन कर तिलमिला उठा. इस गम को भुलाने के लिए उस ने शराब का सहारा लिया. अब वह रोज शराब पीता और गुमसुम रहने लगा. खाने का उसे कोई होश न रहा. उस ने शकीला से मिलना बिलकुल बंद कर दिया. शकीला के इस व्यवहार ने उस के आत्मसम्मान को बहुत ठेस पहुंचाई.

उधर शकीला की हालत भी ठीक न थी. बानो के प्रति अपने कर्तव्य को ध्यान में रखते हुए वह याकूब को ‘ना’ तो कह बैठी, परंतु वह अपनी जिंदगी में कुछ कमी महसूस करने लगी. याकूब के संपर्क ने थोडे़ समय के लिए जो खुशी ला दी थी वह लगभग खत्म हो गई थी. वह खोईखोई सी रहने लगी. रात को करवटें बदलती और अंगड़ाइयां लेती परंतु नींद न आती. शकीला ने सोने के लिए नींद की गोलियों का सहारा लेना शुरू किया. चेहरे की रौनक और शरीर की स्फूर्ति पर असर पड़ने लगा. वह कुछ समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे. वह इसी सोच में डूबी रहती कि बानो की परवरिश कैसे हो. यदि वह शादी कर लेगी तो बानो का क्या होगा?

अत्यधिक शराब पीने से याकूब की सेहत पर असर पड़ने लगा. उस का जिगर ठीक से काम नहीं करता था. खाने की लापरवाही से उस के शरीर में और कई बीमारियां पैदा होने लगीं. याकूब इस मानसिक आघात को चुपचाप सहे जा रहा था. धीरेधीरे शकीला को याकूब की इस हालत का पता चला तो वह घबरा गई. उसे डर था कि कहीं कोई अप्रिय घटना न घट जाए. वह याकूब से मिलने के लिए तड़पने लगी. एक दिन हिम्मत कर के वह उस के घर गई. याकूब की हालत देख कर उस की आंखों से आंसू बहने लगे. याकूब ने फीकी हंसी से उस का स्वागत किया. कुछ शिकवेशिकायतों के बाद फिर से मिलनाजुलना शुरू हो गया. अब जब याकूब ने उस से प्रार्थना की तो शकीला से न रहा गया और उस ने हां कर दी.

शादी हो गई. शकीला और याकूब दोनों ही मजे से रहने लगे. हर दम, हर पल वे साथ रहते, आनंद उठाते. 3 वर्ष देखते ही देखते बीत गए. बानो भी अब जवान हो गई थी. उस ने एम.ए. कर लिया था और एक अच्छी फर्म में नौकरी करने लगी थी.

शकीला ने बानो को हमेशा अपनी बेटी ही समझा था. शादी से पहले शकीला और याकूब ने आपस में फैसला किया था कि जब तक बानो की शादी नहीं हो जाती वह उन के साथ ही रहेगी. याकूब ने उसे बेटी के समान मानने का वचन शकीला को दिया था. शकीला ने कभी अपनी संतान के बारे में सोचा भी नहीं था. वह तो बानो को ही अपनी आशा और अपने जीवन का लक्ष्य समझती थी.

याकूब कुछ दिनों के बाद उदास रहने लगा. यद्यपि बानो से वह बेहद प्यार करता था परंतु उसे अपनी संतान की लालसा होने लगी. वह शकीला से केवल एक बच्चे के लिए प्रार्थना करने लगा. न जाने क्यों शकीला मां बनने से बचना चाहती थी परंतु याकूब के इकरार ने उसे मां बनने पर मजबूर कर दिया. फिर साल भर बाद शकीला की कोख से एक सुंदर बेटी ने जन्म लिया. प्यार से उन्होंने उस का नाम जाहिरा रखा.

शकीला और याकूब अपनी जिंदगी से बेहद खुश थे. जाहिरा ने उन की खुशियों को और भी बढ़ा दिया था. जाहिरा जब 3 वर्ष की हुई तो याकूब के पिता नवाब साहब आए और उसे अपने साथ ले गए. जाहिरा को उन्होंने लखनऊ के प्रसिद्ध कानवेंट में भरती कर दिया. याकूब और शकीला दोनों ही इस व्यवस्था से प्रसन्न थे.

कार्यालय की ओर से शकीला को अमेरिका में अध्ययन के लिए भेजने का प्रस्ताव था. वह बहुत प्रसन्न हुई परंतु बारबार उसे यही चिंता सताती कि बानो के रहने की व्यवस्था क्या की जाए. उस ने याकूब केसामने इस समस्या को रखा. उस ने आश्वासन दिया कि वह बानो की चिंता न करे. वह उस का पूरा ध्यान रखेगा. इन शब्दों से आश्वस्त हो कर शकीला अमेरिका के लिए रवाना हो गई.

शकीला एक साल तक अमेरिका में रही और जब वापस दिल्ली के हवाई अड्डे पर उतरी तो याकूब और बानो ने उस का स्वागत किया. कुछ दिन बाद शकीला ने महसूस किया कि याकूब कुछ बदलाबदला सा नजर आता है. वह अब पहले की तरह खुले दिल से बात नहीं करता था. उस के व्यवहार में उसे रूखापन नजर आने लगा. उधर बानो भी अब शकीला से आंख मिलाने में कतराने लगी थी. शकीला को काफी दिन तक इस का कोई भान नहीं हुआ परंतु इन हरकतों से वह कुछ असमंजस में पड़ गई. याकूब को अब छोटीछोटी बातों पर गुस्सा आ जाता था. अब वह शकीला के साथ बाहर पार्टियों में भी न जाने का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ लेता. वह ज्यादा से ज्यादा समय तक बानो के साथ बातें करता.

एक दिन शकीला को कार्यालय में देर तक रुकना पड़ा. जब वह रात को अपने बंगले में पहुंची तो दरवाजा खुला था. वह बिना खटखटाए ही अंदर चली आई. वहां उस ने जो कुछ देखा तो एकदम सकपका गई. बानो का सिर याकूब की गोदी में और याकूब के होंठ बानो के होंठों से सटे हुए थे. शकीला को अचानक अपने सामने देख कर वे एकदम हड़बड़ा कर उठ गए. उन्हें तब ध्यान आया कि वे अपनी प्रेम क्रीड़ाओं में इतने व्यस्त थे कि उन्हें दरवाजा बंद करना भी याद न रहा.

शकीला पर इस हादसे का बहुत बुरा असर पड़ा. वह एकदम गुमसुम और चुप रहने लगी. याकूब और बानो भी शकीला से बात नहीं करते थे. शकीला को बुखार रहने लगा. उस का स्वास्थ्य खराब होना शुरू हो गया. उधर याकूब और बानो खुल कर मिलने लगे. नौबत यहां तक पहुंची कि अब बानो ने शकीला के कमरे में सोना बंद कर दिया. वह अब याकूब के कमरे में सोने लगी. दफ्तर से याकूब और बानो अब देर से साथसाथ आते. कभीकभी इकट्ठे पार्टियों में जाते और रात को बहुत देर से लौटते. शकीला को उन्होंने बिलकुल अलगथलग कर दिया था. शकीला उन की रंगरेलियों को देखती और चुपचाप अंदर ही अंदर घुटती रहती. 1-2 बार उस ने बानो को टोका भी परंतु बानो ने उस की परवा नहीं की.

शकीला की सहनशक्ति खत्म होती जा रही थी. रहरह कर उस को अपनी मां की बातें याद आ रही थीं. उस ने कहा था, ‘बानो अब बड़ी हो गई है. वह उसे अपने पास न रखे. कहीं ऐसा न हो कि वह उस की सौत बन जाए. मर्द जात का कोई भरोसा नहीं. वह कब, कहां फिसल जाए, कोई नहीं कह सकता.’

इस बात पर शकीला ने अपनी मां को भी फटकार दिया था, पर वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थी कि याकूब इस तरह की हरकत कर सकता है. वह तो उसे बेटी के समान समझता था. शकीला को बड़ा मानसिक कष्ट  था, पर समाज में अपनी इज्जत की खातिर वह चुप रहती और मन मसोस कर सब कुछ सहे जा रही थी.

बानो के विवाह के लिए कई रिश्तों के प्रस्ताव आए. शकीला की दिली इच्छा थी कि बानो के हाथ पीले कर दे परंतु जब भी लड़के वाले आते, याकूब कोई न कोई कमी निकाल देता और बानो उस प्रस्ताव को ठुकरा देती. आखिर शकीला ने एक दिन याकूब से साफसाफ पूछ लिया. यह उन की पहली टकराहट थी. तूतू मैंमैं हुई. याकूब को भी गुस्सा आ गया. गुस्से के आवेश में याकूब ने शकीला को बीते दिनों की याद दिलाते हुए कहा, ‘‘शकीला, मैं यह जानता था कि तुम ने पहले रिजवी से निकाह किया था. जब वह तुम्हारे नाजनखरे और खर्चे बरदाश्त नहीं कर सका तो वह बेचारा बदनामी के डर से कई साल तक इस गम को सहता रहा. तुम ने मुझे कभी यह नहीं बताया कि तुम्हारे एक लड़के को वह पालता रहा. आज वह लड़का जवान हो गया है. तुम ने उस के साथ जैसा क्रूर व्यवहार किया उस को वह बरदाश्त नहीं कर सका. कुछ अरसे बाद सदा के लिए उस ने आंखें मूंद लीं.

‘‘तुम्हें याद है जब मैं ने तुम्हें उस की मौत की खबर सुनाई थी तो तुम केवल मुसकरा दी थीं और कहा था कि यह अच्छा ही हुआ कि वह अपनी मौत खुद ही मर गया, नहीं तो शायद मुझे ही उसे मारना पड़ता.’’

शकीला की आंखों से आंसू बहने लगे. फिर वह तमतमा कर बोली, ‘‘यह झूठ है, बिलकुल झूठ है. उस ने मुझे कभी प्यार नहीं किया. वह निकाह मांबाप द्वारा किया गया एक बंधन मात्र था. वह हैवान था, इनसान नहीं, इसीलिए आज तक मैं ने किसी से इस का जिक्र तक नहीं किया. फिर इस की तुम्हें जरूरत भी क्या थी? तुम ने मुझ से, मेरे शरीर से प्यार किया था न कि मेरे अतीत से.’’

‘‘शकीला, जब से मैं ने तुम्हें देखा, तुम से प्यार किया और इसीलिए विवाह भी किया. तुम्हारे अतीत को जानते हुए भी मैं ने कभी उस की छाया अपने और तुम्हारे बीच नहीं आने दी. आज तुम मेरे ऊपर लांछन लगा रही हो पर यह कहां तक ठीक है? तुम एक दोस्त हो सकती हो परंतु बीवी बनने के बिलकुल काबिल नहीं. मैं तुम्हारे व्यवहार और तानों से तंग आ चुका हूं. तुम्हारे साथ एक पल भी गुजारना अब मेरे बस का नहीं.’’

याकूब और शकीला में यह चखचख हो ही रही थी कि बानो भी वहां आ गई. बानो को देखते ही शकीला बिफर गई और रोतेरोते बोली, ‘‘मुझे क्या मालूम था कि जिसे मैं ने बच्ची के समान पाला, आज वही मेरी सौत की जगह ले लेगी. मां ने ठीक ही कहा था कि मैं जिसे इतनी आजादी दे रही हूं वह कहीं मेरा घर ही न उजाड़ दे. आज वही सबकुछ हो रहा है. अब इस घर में मेरे लिए कोई जगह नहीं.’’

बानो से चुप नहीं रहा गया. वह भी बोल पड़ी, ‘‘आपा, मैं तुम्हारी इज्जत करती हूं. तुम ने मुझे पालापोसा है पर अब मैं अपना भलाबुरा खुद समझ सकती हूं. छोटी बहन होने के नाते मैं तुम्हारे भूत और वर्तमान से अच्छी तरह वाकिफ हूं. तुम्हारे पास समय ही कहां है कि तुम याकूब की जिंदगी को खुशियों से भर सको. तुम ने तो कभी अपनी कोख से जन्मी बच्ची की ओर भी ध्यान नहीं दिया. आराम और ऐयाशी की जिंदगी हर एक गुजारना चाहता है परंतु तुम्हारी तरह खुदगर्जी की जिंदगी नहीं. याकूब परेशान और बीमार रहते हैं. उन्हें मेरे सहारे की जरूरत है.’’

बानो के इस उत्तर को सुन कर शकीला सकपका गई. अब तक वह याकूब को ही दोषी समझती थी परंतु आज तो उस की बेटी समान छोटी बहन भी बेशर्मी से जबान चला रही थी. अगले दिन ही उस ने उन के जीवन से निकल जाने का निर्णय कर लिया.

शकीला जब अगले दिन अपने कार्यालय में पहुंची तो उस की मेज पर एक कार्ड पड़ा था. लिखा  था, ‘शकीला, हम साथ नहीं रह सकते.

सच्चाई: क्या सपना सचिन की शादी के लिए घरवलों को राजी कर पाई- भाग 3

‘‘आप मिली हैं न, जीजाजी से भी तो मिलवाना है इसे,’’ सचिन बोला, ‘‘आप घर पर ही आराम करिए, मैं सिमरन को ले कर वहीं आ जाऊंगा.’’

‘‘इस से अच्छा और क्या होगा, जरूर आओ,’’ सपना मुसकराई, ‘‘खाना हमारे साथ ही खाना.’’

शाम को सचिन और सिमरन आ गए. सलिल की चुटकियों से शीघ्र ही वातावरण अनौपचारिक हो गया. जब किसी काम से सपना किचन में गई तो सचिन उस के पीछेपीछे आया.

‘‘आप ने मम्मी से बात की दीदी?’’

‘‘हां, हालचाल पूछ लिया सब का.’’

‘‘बस हालचाल ही पूछा? जो बात करनी थी वह नहीं की? आप को हो क्या गया है दीदी?’’ सचिन ने  झल्ला कर पूछा.

‘‘तजरबा, सही समय पर सही बात करने का. सिमरन कहीं भागी नहीं जा रही है, शादी करेगी तो तेरे से ही. जहां इतने साल सब्र किया है थोड़ा और कर ले.’’

‘‘इस के सिवा और कर भी क्या सकता हूं,’’ सचिन ने उसांस ले कर कहा.

इस के बाद सपना ने सिमरन से और भी आत्मीयता से बातचीत शुरू कर दी. यह सुन कर कि सचिन औफिस के काम से मुंबई जा रहा है, सपना उस शाम सिमरन के घर चली गई. उस का घर बहुत ही सुंदर था. लगता था बनवाने वाले ने बहुत ही शौक से बनवाया था.

‘‘बहुत अच्छा किया तुम ने यह घर न बेच कर सिमरन. जाहिर है, शादी के बाद भी यहीं रहना चाहोगी. सचिन तैयार है इस के लिए?’’

‘‘सचिन तो बगैर किसी शर्त के मेरी हर बात मानने को तैयार है, लेकिन मैं बगैर उस के मम्मीपापा की रजामंदी के शादी नहीं कर सकती. मांबाप से उन के बेटे को विमुख कभी नहीं करूंगी. प्रेम तो विवेकहीन और अव्यावहारिक होता है दीदी. उस के लिए सचिन को अपनों को नहीं छोड़ने दूंगी.’’

‘‘यह तो बहुत ही अच्छी बात है सिमरन. चाचाचाचीजी यानी सचिन के मम्मीपापा भी बहुत अच्छे हैं. अगर उन्हें ठीक से सम झाया जाए यानी तुम्हारी शर्त का कारण बताया जाए तो वे भी सहर्ष मान जाएंगे. लेकिन सचिन ने उन्हें कारण बताया ही नहीं है.’’

‘‘बताता तो तब न जब उसे खुद मालूम होता. मैं ने उसे कई बार बताने की कोशिश की, लेकिन वह सुनना ही नहीं चाहता. कहता है कि जब मेरे साथ हो तो भविष्य के सुनहरे सपने देखो, अतीत की बात मत करो. मु झे भी अतीत याद रखने का कोई शौक नहीं है दीदी, मगर अतीत से या जीवन से जुड़े कुछ तथ्य ऐसे भी होते हैं जिन्हें चाह कर भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, उन के साथ जीना मजबूरी होती है.’’

‘‘अगर चाहो तो उस मजबूरी को मु झ से बांट सकती हो सिमरन,’’ सपना ने धीरे से कहा.

‘‘मैं भी यही सोच रही थी दीदी,’’ सिमरन ने जैसे राहत की सांस ली, ‘‘अकसर देर से जाने और बारबार छुट्टी लेने के कारण न नौकरी पर ध्यान दे पा रही थी न पापा के इलाज पर, अत: मैं नौकरी छोड़ कर पापा को इलाज के लिए मुंबई ले गई थी. वहां पैसा कमाने के लिए वैक्यूम क्लीनर बेचने से ले कर अस्पताल की कैंटीन, साफसफाई और बेबी सिटिंग तक के सभी काम लिए. फिर मम्मीपापा के ऐतराज के बावजूद पैसा कमाने के लिए 2 बार सैरोगेट मदर बनी.

 

तब तो मैं ने एक मशीन की भांति बच्चों को जन्म दे कर पैसे देने वालों को पकड़ा

दिया था, लेकिन अब सोचती हूं कि जब मेरे अपने बच्चे होंगे तो उन्हें पालते हुए मुझे जरूर उन बच्चों की याद आ सकती है, जिन्हें मैं ने अजनबियों पर छोड़ दिया था. हो सकता है कि विचलित या व्यथित भी हो जाऊं और ऐसा होना सचिन और उस के बच्चे के प्रति अन्याय होगा. अत: इस से बेहतर है कि यह स्थिति ही न आने दूं यानी बच्चा ही पैदा न करूं. वैसे भी मेरी उम्र अब इस के उपयुक्त नहीं है. आप चाहें तो यह सब सचिन और उस के परिवार को बता सकती हैं. उन की कोई भी प्रतिक्रिया मु झे स्वीकार होगी.’’

‘‘ठीक है सिमरन, मैं मौका देख कर सब से बात करूंगी,’’ सपना ने सिमरन को आश्वासन दिया.

सिमरन ने जो कहा था उसे नकारा नहीं जा सकता था. उस की भावनाओं का खयाल रखना जरूरी था. सचिन के साथ तो खैर कोई समस्या नहीं थी, उसे तो सिमरन हर हाल में ही स्वीकार थी, लेकिन उस के घर वालों से आज की सचाई यानी सैरोगेट मदर बन चुकी बहू को स्वीकार करवाना आसान नहीं था. उन लोगों को तो सिमरन की बड़ी उम्र बच्चे पैदा करने के उपयुक्त नहीं है कि दलील दे कर सम झाना होगा. सचिन के प्यार के लिए इतने से कपट का सहारा लेना तो बनता ही है.

उसे किस ने मारा: क्या हुआ था आकाश के साथ

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दाग का सच : क्या था ललिया के कपड़ों में दाग का सच

पूरे एक हफ्ते बाद आज शाम को सुनील घर लौटा. डरतेडरते डोरबैल बजाई. बीवी ललिया ने दरवाजा खोला और पूछा, ‘‘हो गई फुरसत तुम्हें?’’

‘‘हां… मुझे दूसरे राज्य में जाना पड़ा था न, सो…’’ ‘‘चलिए, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

ललिया के रसोईघर में जाते ही सुनील ने चैन की सांस ली. पहले तो जब सुनील को लौटने में कुछ दिन लग जाते थे तो ललिया का गुस्सा देखने लायक होता था मानो कोई समझ ही नहीं कि आखिर ट्रांसपोर्टर का काम ही ऐसा. वह किसी ड्राइवर को रख तो ले, पर क्या भरोसा कि वह कैसे चलाएगा? क्या करेगा?

और कौन सा सुनील बाकी ट्रक वालों की तरह बाहर जा कर धंधे वालियों के अड्डे पर मुंह मारता है. चाहे जितने दिन हो जाएं, घर से ललिया के होंठों का रस पी कर जो निकलता तो दोबारा फिर घर में ही आ कर रसपान करता, लेकिन कौन समझाए ललिया को. वह तो इधर 2-4 बार से इस की आदत कुछकुछ सुधरी हुई है. तुनकती तो है, लेकिन प्यार दिखाते हुए.

चाय पीते समय भी सुनील को घबराहट हो रही थी. क्या पता, कब माथा सनक उठे. माहौल को हलका बनाने के लिए सुनील ने पूछा, ‘‘आज खाने में क्या बना रही हो?’’

‘‘लिट्टीचोखा.’’ ‘‘अरे वाह, लिट्टीचोखा… बहुत बढि़या तब तो…’’

‘‘हां, तुम्हारा मनपसंद जो है…’’ ‘‘अरे हां, लेकिन इस से भी ज्यादा मनपसंद तो…’’ सुनील ने शरारत से ललिया को आंख मारी.

‘‘हांहां, वह तो मेरा भी,’’ ललिया ने भी इठलाते हुए कहा और रसोईघर में चली गई. खाना खाते समय भी बारबार सुनील की नजर ललिया की छाती पर चली जाती. रहरह कर ललिया के हिस्से से जूठी लिट्टी के टुकड़े उठा लेता जबकि दोनों एक ही थाली में खा रहे थे.

‘‘अरे, तुम्हारी तरफ इतना सारा रखा हुआ है तो मेरा वाला क्यों ले रहे हो?’’ ‘‘तुम ने दांतों से काट कर इस को और चटपटा जो बना दिया है.’’

‘‘हटो, खाना खाओ पहले अपना ठीक से. बहुत मेहनत करनी है आगे,’’ ललिया भी पूरे जोश में थी. दोनों ने भरपेट खाना खाया. ललिया बरतन रखने चली गई और सुनील पिछवाड़े जा कर टहलने लगा. तभी उस ने देखा कि किसी की चप्पलें पड़ी हुई थीं.

‘‘ये कुत्ते भी क्याक्या उठा कर ले आते हैं,’’ सुनील ने झल्ला कर उन्हें लात मार कर दूर किया और घर में घुस कर दरवाजा बंद कर लिया. सुनील बैडरूम में पहुंचा तो ललिया टैलीविजन देखती मिली. वह मच्छरदानी लगाने लगा.

‘‘दूध पीएंगे?’’ ललिया ने पूछा. ‘‘तो और क्या बिना पीए ही रह जाएंगे,’’ सुनील भी तपाक से बोला.

ललिया ने सुनील का भाव समझ कर उसे एक चपत लगाई और बोली, ‘‘मैं भैंस के दूध की बात कर रही हूं.’’

‘‘न… न, वह नहीं. मेरा पेट लिट्टीचोखा से ही भर गया है,’’ सुनील ने कहा. ‘‘चलो तो फिर सोया जाए.’’

ललिया टैलीविजन बंद कर मच्छरदानी में आ गई. बत्ती तक बुझाने का किसी को होश नहीं रहा. कमरे का दरवाजा भी खुला रह गया जैसे उन को देखदेख कर शरमा रहा था. वैसे भी घर में उन दोनों के अलावा कोई रहता नहीं था.

सुबह 7 बजे सुनील की आंखें खुलीं तो देखा कि ललिया बिस्तर के पास खड़ी कपड़े पहन रही थी. ‘‘एक बार गले तो लग जाओ,’’ सुनील ने नींद भरी आवाज में कहा.

‘‘बाद में लग लेना, जरा जल्दी है मुझे बाथरूम जाने की…’’ कहते हुए ललिया जैसेतैसे अपने बालों का जूड़ा बांधते हुए वहां से भाग गई. सुनील ने करवट बदली तो ललिया के अंदरूनी कपड़ों पर हाथ पड़ गया.

ललिया के अंदरूनी कपड़ों की महक सुनील को मदमस्त कर रही थी.

सुनील ललिया के लौटने का इंतजार करने लगा, तभी उस की नजर ललिया की पैंटी पर बने किसी दाग पर गई. उस का माथा अचानक से ठनक उठा. ‘‘यह दाग तो…’’

सुनील की सारी नींद झटके में गायब हो चुकी थी. वह हड़बड़ा कर उठा और ध्यान से देखने लगा. पूरी पैंटी पर कई जगह वैसे निशान थे. ब्रा का मुआयना किया तो उस का भी वही हाल था. ‘‘कल रात तो मैं ने इन का कोई इस्तेमाल नहीं किया. जो भी करना था सब तौलिए से… फिर ये…’’

सुनील का मन खट्टा होने लगा. क्या उस के पीछे ललिया के पास कोई…? क्या यही वजह है कि अब ललिया उस के कई दिनों बाद घर आने पर झगड़ा नहीं करती? नहींनहीं, ऐसे ही अपनी प्यारी बीवी पर शक करना सही नहीं है. पहले जांच करा ली जाए कि ये दाग हैं किस चीज के. सुनील ने पैंटी को अपने बैग में छिपा दिया, तभी ललिया आ गई, ‘‘आप उठ गए… मुझे देर लग गई थोड़ी.’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ कह कर सुनील बाथरूम में चला गया. जब वह लौटा तो देखा कि ललिया कुछ ढूंढ़ रही थी.

‘‘क्या देख रही हो?’’ ‘‘मेरी पैंटी न जाने कहां गायब हो गईं. ब्रा तो पहन ली है मैं ने.’’

‘‘चूहा ले गया होगा. चलो, नाश्ता बनाओ. मुझे आज जल्दी जाना है,’’ सुनील ने उस को टालने के अंदाज में कहा. ललिया भी मुसकरा उठी. नाश्ता कर सुनील सीधा अपने दोस्त मुकेश के पास पहुंचा. उस की पैथोलौजी की लैब थी.

सुनील ने मुकेश को सारी बात बताई. उस की सांसें घबराहट के मारे तेज होती जा रही थीं. ‘‘अरे, अपना हार्टफेल करा के अब तू मर मत… मैं चैक करता हूं.’’

सुनील ने मुकेश को पैंटी दे दी. ‘‘शाम को आना. बता दूंगा कि दाग किस चीज का है,’’ मुकेश ने कहा.

सुनील ने रजामंदी में सिर हिलाया और वहां से निकल गया. दिनभर पागलों की तरह घूमतेघूमते शाम हो गई. न खाने का होश, न पीने का. वह धड़कते दिल से मुकेश के पास पहुंचा.

‘‘क्या रिपोर्ट आई?’’ मुकेश ने भरे मन से जवाब दिया, ‘‘यार, दाग तो वही है जो तू सोच रहा है, लेकिन… अब इस से किसी फैसले पर तो…’’

सुनील जस का तस खड़ा रह गया. मुकेश उसे समझाने के लिए कुछकुछ बोले जा रहा था, लेकिन उस का माथा तो जैसे सुन्न हो चुका था. सुनील घर पहुंचा तो ललिया दरवाजे पर ही खड़ी मिली.

‘‘कहां गायब थे दिनभर?’’ ललिया परेशान होते हुए बोली. ‘‘किसी से कुछ काम था,’’ कहता हुआ सुनील सिर पकड़ कर पलंग पर बैठ गया.

‘‘तबीयत तो ठीक है न आप की?’’ ललिया ने सुनील के पास बैठ कर उस के कंधे पर हाथ रखा. ‘‘सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा है.’’

‘‘बैठिए, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कहते हुए ललिया रसोईघर में चली गई. सुनील ने ललिया की पैंटी को गद्दे के नीचे दबा दिया.

चाय पी कर वह बिस्तर पर लेट गया. रात को ललिया खाना ले कर आई और बोली, ‘‘अजी, अब आप मुझे भी मार देंगे. बताओ तो सही, क्या हुआ? ज्यादा दिक्कत है, तो चलो डाक्टर के पास ले चलती हूं.’’

‘‘कुछ बात नहीं, बस एक बहुत बड़े नुकसान का डर सता रहा है,’’ कह कर सुनील खाना खाने लगा. ‘‘अपना खयाल रखो,’’ कहते हुए ललिया सुनील के पास आ कर बैठ गई.

सुनील सोच रहा था कि ललिया का जो रूप अभी उस के सामने है, वह उस की सचाई या जो आज पता चली वह है. खाना खत्म कर वह छत पर चला गया. ललिया नीचे खाना खाते हुए आंगन में बैठी उस को ही देख रही थी.

सुनील का ध्यान अब कल रात पिछवाड़े में पड़ी चप्पलों पर जा रहा था. वह सोचने लगा, ‘लगता है वे चप्पलें भी इसी के यार की… नहीं, बिलकुल नहीं. ललिया ऐसी नहीं है…’ रात को सुनील ने नींद की एक गोली खा ली, पर नींद की गोली भी कम ताकत वाली निकली.

सुनील को खीज सी होने लगी. पास में देखा तो ललिया सोई हुई थी. यह देख कर सुनील को गुस्सा आने लगा, ‘मैं जान देदे कर इस के सुख के लिए पागलों की तरह मेहनत करता हूं और यह अपना जिस्म किसी और को…’ कह कर वह उस पर चढ़ गया.

ललिया की नींद तब खुली जब उस को अपने बदन के निचले हिस्से पर जोर महसूस होने लगा. ‘‘अरे, जगा देते मुझे,’’ ललिया ने उठते ही उस को सहयोग करना शुरू किया, लेकिन सुनील तो अपनी ही धुन में था. कुछ ही देर में दोनों एकदूसरे के बगल में बेसुध लेटे हुए थे.

ललिया ने अपनी समीज उठा कर ओढ़ ली. सुनील ने जैसे ही उस को ऐसा करते देखा मानो उस पर भूत सा सवार हो गया. वह झटके से उठा और समीज को खींच कर बिस्तर के नीचे फेंक दिया और फिर से उस के ऊपर आ गया.

‘‘ओहहो, सारी टैंशन मुझ पर ही उतारेंगे क्या?’’ ललिया आहें भरते हुए बोली. सुनील के मन में पल रही नाइंसाफी की भावना ने गुस्से का रूप ले लिया था.

ललिया को छुटकारा तब मिला जब सुनील थक कर चूर हो गया. गला तो ललिया का भी सूखने लगा था, लेकिन वह जानती थी कि उस का पति किसी बात से परेशान है.

ललिया ने अपनेआप को संभाला और उठ कर थोड़ा पानी पीने के बाद उसी की चिंता करतेकरते कब उस को दोबारा नींद आ गई, कुछ पता न चला. ऐसे ही कुछ दिन गुजर गए. हंसनेहंसाने वाला सुनील अब बहुत गुमसुम रहने लगा था और रात को तो ललिया की एक न सुनना मानो उस की आदत बनती जा रही थी.

ललिया का दिल किसी अनहोनी बात से कांपने लगा था. वह सोचने लगी थी कि इन के मांपिताजी को बुला लेती हूं. वे ही समझा सकते हैं कुछ. एक दिन ललिया बाजार गई हुई थी. सुनील छत पर टहल रहा था. शाम होने को थी. बादल घिर आए थे. मन में आया कि फोन लगा कर ललिया से कहे कि जल्दी घर लौट आए, लेकिन फिर मन उचट गया.

थोड़ी देर बाद ही सुनील ने सोचा, ‘कपड़े ही ले आता हूं छत से. सूख गए होंगे.’ सुनील छत पर गया ही था कि देखा पड़ोसी बीरबल बाबू के किराएदार का लड़का रंगवा जो कि 18-19 साल का होगा, दबे पैर उस की छत से ललिया के अंदरूनी कपड़े ले कर अपनी छत पर कूद गया. शायद उसे पता नहीं था कि घर में कोई है, क्योंकि ललिया उस के सामने बाहर गई थी.

यह देख कर सुनील चौंक गया. उस ने पूरी बात का पता लगाने का निश्चय किया. वह भी धीरे से उस की छत पर उतरा और सीढि़यों से नीचे आया. नीचे आते ही उस को एक कमरे से कुछ आवाजें सुनाई दीं.

सुनील ने झांक कर देखा तो रंगवा अपने हमउम्र ही किसी गुंडे से दिखने वाले लड़के से कुछ बातें कर रहा था. ‘‘अबे रंगवा, तेरी पड़ोसन तो बहुत अच्छा माल है रे…’’

‘‘हां, तभी तो उस की ब्रापैंटी के लिए भटकता हूं,’’ कह कर वह हंसने लगा. इस के बाद सुनील ने जो कुछ देखा, उसे देख कर उस की आंखें फटी रह गईं. दोनों ने ललिया के अंदरूनी कपड़ों पर अपना जोश निकाला और रंगवा बोला, ‘‘अब मैं वापस उस की छत पर रख आता हूं… वह लौटने वाली होगी.’’

‘‘अबे, कब तक ऐसे ही करते रहेंगे? कभी असली में उस को…’’ ‘‘मिलेगीमिलेगी, लेकिन उस पर तो पतिव्रता होने का फुतूर है. वह किसी से बात तक नहीं करती. पति के बाहर जाते ही घर में झाड़ू भी लगाने का होश नहीं रहता उसे, न ही बाल संवारती है वह. कभी दबोचेंगे रात में उसे,’’ रंगवा कहते हुए कमरे के बाहर आने लगा.

सुनील जल्दी से वापस भागा और अपनी छत पर कूद के छिप गया. रंगवा भी पीछे से आया और उन गंदे किए कपड़ों को वापस तार पर डाल कर भाग गया.

सुनील को अब सारा मामला समझ आ गया था. रंगवा इलाके में आएदिन अपनी घटिया हरकतों के चलते थाने में अंदरबाहर होता रहता था. उस के बुरे संग से उस के मांबाप भी परेशान थे. सुनील को ऐसा लग रहा था जैसे कोई अंदर से उस के सिर पर बर्फ रगड़ रहा है. उस का मन तेजी से पिछली चिंता से तो हटने लगा, लेकिन ललिया की हिफाजत की नई चुनौती ने फिर से उस के माथे पर बल ला दिया. उस ने तत्काल यह जगह छोड़ने का निश्चय कर लिया.

ललिया भी तब तक लौट आई. आते ही वह बोली, ‘‘सुनिए, आप की मां को फोन कर देती हूं. वे समझाएंगी अब आप को.’’ सुनील ने उस को सीने से कस कर चिपका लिया, ‘‘तुम साथ हो न, सब ठीक है और रहेगा…’’

‘‘अरे, लेकिन आप की यह उदासी मुझ से देखी नहीं जाती है अब…’’ ‘‘आज के बाद यह उदासी नहीं दिखेगी… खुश?’’

‘‘मेरी जान ले कर ही मानेंगे आप,’’ बोलतेबोलते ललिया को रोना आ गया.

यह देख कर सुनील की आंखों से भी आंसू छलकने लगे थे. वह सिसकते हुए बोला, ‘‘अब मैं ड्राइवर रख लूंगा और खुद तुम्हारे पास ज्यादा से ज्यादा समय…’’ प्यार उन के चारों ओर मानो नाच करता फिर से मुसकराने लगा था.

विश्वासघात: जूही ने कैसे छीना नीता का पति

नीला आसमान अचानक ही स्याह हो चला था. बारिश की छोटीछोटी बूंदें अंबर से टपकने लगी थीं. तूफान जोरों पर था. दरवाजों के टकराने की आवाज सुन कर जूही बाहर आई. अंधेरा देख कर अतीत की स्मृतियां ताजा हो गईं…

कुछ ऐसा ही तूफानी मंजर था आज से 1 साल पहले का. उस दिन उस ने जीन्स पर टौप पहना था. अपने रेशमी केशों की पोनीटेल बनाई थी. वह बहुत खूबसूरत लग रही थी. उस ने आंखों पर सनग्लासेज चढ़ाए और ड्राइविंग सीट पर बैठ गई.

कुछ ही देर में वह बैंक में थी. मैनेजर के कमरे की तरफ बढ़ते हुए उसे कुछ संशय सा था कि उस का लोन स्वीकृत होगा भी या नहीं, पर मैनेजर की मधुर मुसकान ने उस के संदेह को विराम दे दिया. उस का लोन स्वीकृत हो गया था और अब वह अपना बुटीक खोल सकती थी. आननफानन उस ने मिठाई मंगवा कर बैंक स्टाफ को खिलाई और प्रसन्नतापूर्वक घर लौट आई.

शुरू से ही वह काफी महत्त्वाकांक्षी रही थी. फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करते ही उस ने लोन के लिए आवेदन कर दिया था. पड़ोस के कसबे में रहने वाली जूही इस शहर में किराए पर अकेली रहती थी और अपना कैरियर गारमैंट्स के व्यापार से शुरू करना चाहती थी.

अगले दिन उस ने सोचा कि मैनेजर को धन्यवाद दे आए. आखिर उसी की सक्रियता से लोन इतनी जल्दी मिलना संभव हुआ था. मैनेजर बेहद स्मार्ट, हंसमुख और प्रतिभावान था. जूही उस से बेहद प्रभावित हुई और उस की मंगाई कौफी के लिए मना नहीं कर पाई. बातोंबातों में उसे पता चला कि वह शहर में नया आया है. उस का नाम नीरज है और शहर से दूर बने अपार्टमैंट्स में उस का निवास है.

धीरेधीरे मुलाकातें बढ़ीं तो जूही ने पाया कि दोनों की रुचियां काफी मिलती है. दोनों को एकदूसरे का साथ काफी अच्छा लगने लगा. लगातार मुलाकातों में जूही कब नीरज से प्यार कर बैठी, पता ही न चला. नीरज भी जूही की सुंदरता का कायल था.

बिजली तो उस दिन गिरी जब बुटीक की ओपनिंग सेरेमनी पर नीरज ने अपनी पत्नी नीता से जूही को मिलवाया. नीरज के विवाहित होने का जूही को इतना दुख नहीं हुआ, जितना नीता को उस की पत्नी के रूप में पा कर. नीता जूही की सहपाठी रही थी और हर बात में जूही से उन्नीस थी. उस के अनुसार नीता जैसी साधारण स्त्री नीरज जैसे पति को डिजर्व ही नहीं करती थी.

सहेली पर विजय की भावना जूही को नीरज की तरफ खींचती गई और नीता से अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के चक्कर में जूही का नीरज से मिलनाजुलना बढ़ता गया. नीता खुश थी. अकेले शहर में जूही का साथ उसे बहुत अच्छा लगता था. वह हमेशा उस से कुछ सीखने की कोशिश करती, पर इन लगातार मुलाकातों से जूही और नीरज को कई बार एकांत मिलने लगा.

दोनों बहक गए और अब एकदूसरे के साथ रहने के बहाने खोजने लगे. नीता को अपनी सहेली पर रंच मात्र भी शक न था और नीरज पर तो वह आंख मूंद कर विश्वास करती थी. विश्वास का प्याला तो उस दिन छलका, जब पिताजी की बीमारी के चलते नीता को महीने भर के लिए पीहर जाना पड़ा.

सरप्राइज देने की सोच में जब वह अचानक घर आई, तो उस ने नीरज और जूही को आपत्तिजनक हालत में पाया. इस सदमे से आहत नीता बिना कुछ बोले नीरज को छोड़ कर चली गई.

जूही अब नीरज के साथ आ कर रहने लगी. कहते हैं न कि प्यार अंधा होता है, पर जब ‘एवरीथिंग इज फेयर इन लव ऐंड वार’ का इरादा हो तो शायद वह विवेकरहित भी हो जाता है.

समय अपनी गति से चलता रहा. जूही और नीरज मानो एकदूसरे के लिए ही बने थे. जीवन मस्ती में कट रहा था. कुछ समय बाद जूही को सब कुछ होते हुए भी एक कमी सी खलने लगी.

आंगन में नन्ही किलकारी खेले, वह चाहती थी, पर नीरज इस के लिए तैयार नहीं था. उस का कहना था कि ‘लिव इन रिलेशन’ की कानूनी मान्यता विवादास्पद है, इसलिए वह बच्चे का भविष्य दांव पर नहीं लगाना चाहता. जूही इस तर्क के आगे निरुत्तर थी.

जूही का बुटीक अच्छा चल रहा था. नाम व  कमाई दोनों ही थे. एक दिन अचानक ही एक आमंत्रणपत्र देख कर वह सकते में आ गई. पत्र नीरज की पर्सनल फाइल में था. आमंत्रणपत्र महक रहा था. वह था तो किसी पार्लर के उद्घाटन का, पर शब्दावली शायराना व व्यक्तिगत सी थी. मुख्य अतिथि नीरज ही थे.

जूही ने नीरज को मोबाइल लगाना चाहा पर वह लगातार ‘आउट औफ रीच’ आता रहा. दिन भर जूही का मन काम में नहीं लगा. बुटीक छोड़ कर वह जा नहीं सकती थी. रात को नीरज के आते ही उस ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

कुछ देर तो नीरज बात संभालने की कोशिश करता रहा पर तर्कविहीन उत्तरों से जब जूही संतुष्ट नहीं हुई, तो दोनों का झगड़ा हो गया. नीरज पुन: किसी अन्य स्त्री की ओर आकृष्ट था. संभवत: पत्नी के रहते जूही के साथ संबंध बनाने ने उसे इतनी हिम्मत दे दी थी.

मौजूदा दौर में स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता ने उस के वजूद को बल दिया है. इतना कि कई बार वह समाज के विरुद्ध जा कर अपनी पसंद के कार्य करने लगती है. नीरज जैसे पुरुष इसी बात का फायदा उठाते हैं.

उन्होंने पढ़ीलिखी, बराबर कमाने वाली स्त्री को अपने समान नहीं माना, बल्कि उपभोग की वस्तु समझ कर उस का उपयोग किया. अपने स्वार्थ के लिए जब चाहा उन्हें समान दरजा दे दिया और जब चाहा तब सामाजिक रूढि़यों के बंधन तोड़ दिए. विवाह उन के लिए सुविधा का खेल हो गया.

इस आकस्मिक घटनाक्रम के लिए जूही तैयार नहीं थी. उस ने तो नीरज को संपूर्ण रूप से चाहा व अपनाया था. नीरज को अपनी नई महिला मित्र ताजा हवा के झोंके जैसी दिख रही थी. उस के तन व मन दोनों ही बदलाव के लिए आतुर थे.

जूही को अपनी भलाई व स्वाभिमान नीरज का घर छोड़ने में ही लगे. कुछ महीनों का मधुमास इतनी जल्दी व इतनी बेकद्री से खत्म हो जाएगा, उस ने सोचा न था. नीरज ने उस को रोकने का थोड़ा सा भी प्रयास नहीं किया.

शायद जूही ने इस कटु सत्य को जान लिया था कि पुरुष के लिए स्त्री कभी हमकदम नहीं बनती. वह या तो उसे देवी बना कर उसे नैसर्गिक अधिकारों से दूर कर देता है या दासी बना कर उस के अधिकारों को छीन लेता है. उसे पुरुषों से चिढ़ सी हो गई थी.

नीरज के बारे में फिर कभी जानने की उस ने कोशिश नहीं की, न ही नीरज ने उस से संपर्क साधा.

आज बादलों के इस झुरमुट में पिछली यादों के जख्मों को सहलाते हुए वह यही सोच रही थी कि विश्वासघात किस ने किस के साथ किया था?

 

लकीर मत पीटो: क्या बहु बेटी बन पाई

मेरी जांच करने आए डाक्टर अमन ने कोमल स्वर में कहा, ‘‘अनु, बेहोश हो जाने से पहले तुम ने जो भी महसूस किया था, उसे अपने शब्दों में मुझए बताओ.’’

डाक्टर अमन के अलावा मेरे पलंग के इर्दगिर्द मेरे सासससुर, ननद नेहा और मेरे पति नीरज खड़े थे. इन सभी के चेहरों पर जबरदस्त टैंशन के भाव पढ़ कर मेरे लिए गंभीरता का मुखौटा ओढ़े रखना आसान हो गया.

‘‘सर, मम्मीजी मुझे किचन में कुछ समझ रही थीं. बस, अचानक मेरा मन घबराने लगा. मैं ने खुद को संभालने की बहुत कोशिश करी पर तबीयत खराब होती चली गई. फिर मेरी आंखों के आगे अंधेरा सा छाया. इस के बाद मुझे अपने और हाथ में पकड़ी ट्रे के गिरने तक की बात ही याद है,’’ मरियल सी आवाज में मैं ने डाक्टर को जानकारी दी.

‘‘तुम ने सुबह से कुछ खाया था?’’

‘‘जी, नाश्ता किया था.’’

‘‘पहले कभी इस तरह से चक्कर आया है.’’

‘‘जी, नहीं.’’

उन्होंने कई सवाल पूछे पर मेरे चक्कर खा कर गिरने का कोई उचित कारण नहीं समझ सके. मेरे ससुर से बस उन्हें यह काम की बात जरूर पता चली कि मेरी सास उस वक्त मुझे कुछ समझने  के बजाय बहुत जोर से डांट रही थीं.

‘‘इसे गरम दूध पिलाइए. कुछ देर आराम करने से इस की तबीयत बेहतर हो जाएगी. ब्लड प्रैशर कुछ बढ़ा हुआ है. अब ऐसी कोई बात न करें जिस से इस का मन दुखी या परेशान हो,’’  ऐसी हिदायते दे कर डाक्टर साहब चले गए.

उन्हें बाहर तक छोड़ कर आने के बाद मेरे ससुरजी कमरे मे लौटे और मेरी सास से नाराजगीभरे अंदाज में बोले, ‘‘बहू के साथ डांटडपट जरा कम किया करो. उस के पीछे पड़ना नहीं छोड़ोगी तो यह बिस्तर से लग जाएगी. कुछ ऊंचनीच हो गई तो देख लेना सब कहीं के नहीं रहेगे.’’

‘‘इन से फालतू बात करने की जरूरत नहीं है, जी. घर में गलत काम होते देख कर मैं तो चुप नहीं रह सकती हूं और मैं ने ऐसा कुछ कहा भी नहीं था इसे जो यह गश खा कर गिर पड़े. इसे किसी दूसरे डाक्टर को दिखाओ,’’ मेरी सास ससुर पर गुर्रा पड़ीं.

ससुरजी के कमरे से जाने के बाद नीरज मेरा सिर दबाने लगे. साथ ही साथ मुझे टैंशन न लेने के लिए समझते भी जा रहे थे.

मन ही मन उन के हाथों के स्पर्श का आनंद लेती हुई मैं कुछ देर पहले घटी घटना के बारे में सोचने लगी…

मुझे इस घर में बहू बन कर आए हुए अभी दूसरा महीना भी पूरा नहीं हुआ है. शादी से पहले ही मुझे बहुत से लोगों ने बता दिया था कि मेरी सास स्वभाव की बहुत तेज हैं. तभी मेरी जेठानी उन से तंग आ कर अपनी शादी के 6 महीने बाद ही घर से अलग हो कर किराए के मकान में रहने चली गई थी.

मैं ने सोच लिया था कि सासससुर को छोड़ कर नहीं जाऊंगी क्योंकि हम दोनोें के प्रेमविवाह में बहुत सी अड़चनें आई थीं. पंडितों ने मेरी कुंडली में हजार दोष निकाल दिए थे और मातापिता फालतू में पैसे दे कर दोष निवारण करते रहे थे.

मेरी सास ने तो एक ही वाक्य बोला था, ‘‘नीरज को पसंद है तो और क्या देखना. बाकी मैं संभाल लूंगी.’’

तब तो मुझे बाकी में संभाल लूंगी का मतलब समझ नहीं आया था पर अब समझ आने लगा था.

मेरी सास ने पहले दिन से ही मुझ पर अपना रोब जमाने का अभियान छेड़ दिया था. मेरे पहननेओढ़ने, उठनेबैठने और हंसनेबोलने के ढंग में उन्हें कोई न कोई कमी जरूर नजर आ जाती थी.

उन की अब तक की टोकाटाकी को मैं किसी तरह बरदाश्त करती रही पर आज तो अति हो गई.

‘‘इस की मां ने इसे कुछ नहीं सिखाया. हमारे पल्ले कैसी फूहड़ बहू पड़ी है. इस की सुंदर शक्लसूरत को अब क्या हम चाटें. यह नीरज भी न जाने कैसे इसे पसंद कर बैठा,’’ मेरी सास मुझे और मेरे मायके वालों को लगातार बेइज्जत किए जा रही थीं और नीरज को भी कोसती जा रही थीं.

मेरी गलती बहुत बड़ी नहीं थी. आलूगोभी की सब्जी आंच पर रख कर मैं नहाने चली गई थी. मुझे ध्यान नहीं रहा और नहा कर आने के बाद में मोबाइल पर लग गई. तब तब सब्जी जल गई.

सासूजी ने वौक से लौटते ही मौके का फायदा उठाया और मुझे व मेरे मातापिता को जम कर कहना शुरू कर दिया.

मैं डाइनिंगटेबल से टे्र में कपप्लेट रख कर ला रही थी जब मेरे सब्र का बांध टूटा तो मारे गुस्से से मेरे हाथपैर कांपने लगे. क्रोध से उबलता खून हाथ में पकड़ी ट्रे को दीवार पर दे मारने के लिए मेरे मन को उकसा रहा था.

अपने गुस्से को काबू में रखने के लिए मुझे पूरी ताकत लगानी पड़ रही थी. मेरे अंदर चल रहे तूफान से अनजान सासूजी लगातार बोले जा रही थीं.

मैं ने अपनी नजरों को फर्श पर गड़ा लिया. अगर मैं उन की तरफ देखने लगती तो फिर कुछ भी अनहोनी घट सकती थी.

यह मेरी मजबूरी थी कि मैं अपनी सास को उलट कर जवाब नहीं दे सकती थी. उन के कड़वे, तीखे शब्द सुनते हुए अचानक मेरा सिर बुरी तरह से भन्नाया और मैं ने ट्रे जानबूझ कर हाथों से छोड़ दी.

कपप्लेट टूटने की आवाज ने मेरे मन में उठ रहे हिंसा के तूफान को कुछ कम किया. अगर मैं ऐसा न करती तो मुझे लग रहा था कि तेज गुस्से को दबाने के चक्कर में मेरे दिमाग की कोई नस जरूर फट जाएगी.

‘‘क्या हुआ. क्या हुआ?’’ ऐसा शोर मचाते मेरे ससुर, नेहा और नीरज भागते हुए रसोई में पहुंच गए.

मेरी सास की समझ में कुछ नहीं आया. वे हक्कीबक्की सी मेरी तरफ देख रही थीं. टूटे कपप्लेट देख कर मुझे भी अब घबराहट हो रही थी. इस कठिन समय में कालेज के दिनों में एक नाटक में किया अभिनय मेरे काम आया.

उस नाटक के एक दृश्य में मुझे बेहोश होने का अभिनय करना था. मैं ने उसी सीन को याद किया और आंखें मूंदने के बाद फर्श पर गिर पड़ी. सासूजी के जहरीले शब्दों की मार से बचने का मुझे उस वक्त यही रास्ता सूझ था.

मेरे घर वालों, रिश्तेदारों और दोस्तों के बीच मेरी छवि ऐसी तेजतर्रार लड़की की है जो गलत और अन्यायपूर्ण बात को बिलकुल बरदाश्त नहीं करती. मुझे नाजायज दबाने की कोशिश इन सब को बड़ी महंगी पड़ती थी. फिर मैं अपनी सास के अन्याय को चुपचाप सहने को क्यों मजबूर हूं, इस के पीछे भी एक कहानी है.

गुस्से में किसी से भी भिड़ जाने की मेरी आदत से परेशान मेरी मां मुझे हमेशा समझती थीं, ‘‘अनु, दफ्तर में जा कर शांत रहियो. तेरी नई बौस खड़ूस है. तेरी सहेली ही कह रही थी. तू उस से बिलकुल मत उलझना. वह कुछ भी कहे पर तू पलट कर जवाब देना ही मत.’’

जब शादी की बात हुई और मैं नीरज को बुला कर लाई तो मां ने कदम हां कर दी और फिर सब हमारे घर आए थे. वहीं मां को पता चला कि नीरज के मांबाप पहले उसी बिल्डिंग में रहते थे जहां मेरी मौसी रहती हैं. मां ने मौसी से पता किया तो पता चला कि नीरज की मां जरूर थोड़ी तेजतर्रार हैं पर न उन्हें रीतिरिवाजों के ढकोसलों से मतलब है, न दहेज से.

मां ने कहां भी था, ‘‘तेरी सास भी तेरी बौस की तरह गुस्से वाली है.’’

मैं ने कहा, ‘‘मां क्या मेरी बौस से कोई लड़ाई हुई है? यहां भी संभाल लूंगी.

‘‘मां, तुम मेरी इतनी फिक्र मत करो. मैं सब संभाल लूंगी. अगर मेरी सास सेर हैं तो मैं सवा सेर हूं. नाजायज दबाया जाना मैं न यहां बरदाश्त करती हूं, न वहां करूंगी,’’ मैं निडर, लापरवाह अंदाज में ऐसा जवाब देती तो मां की आंखों में गहरी चिंता के भाव उभर आते.

मगर मेरी शादी से महीनाभर पहले उन्हें दिल के हलके से दौरे का शिकार बना दिया. इस अवसर का पूरा फायदा उठाते हुए मां ने आईसीयू में पलंग पर लेटे हुए मुझ से एक बचन ले लिया था, ‘‘अनु, तेरी मुझे बहुत चिंता है. मैं चाहती हूं कि शादी के बाद तू अपनी ससुराल मेें बहुत सुखी रहे. बेटी, मेरे मन की शांति के लिए मुझे बचन दे कि तू अपनी सास को कभी पलट कर जवाब नहीं देगी. उन के सामने कभी अपनी आवाज ऊंची नहीं करेगी.’’

मां के स्वास्थ्य को ले कर उस वक्त मैं बहुत भावुक हो रही थी. बिना सोचेसमझे मैं ने मां को अपनी भावी सास के साथ कभी सीधे न टकराने का वचन दे दिया.

इंसान गलत बात का विरोध न कर सके तो ज्यादा परेशान रहता है. सासूजी की सहीगलत डांटफटकार को मां को दिए बचन के कारण मजबूरन खामोश रह कर सहना मुझे भी बहुत परेशान और दुखी कर रहा था.

यह बात गलत है कि चुप रहने से टेढ़ी सास का उस के साथ दुर्व्यवहार कम हो जाता है पर मेरी खामोशी ने मेरी सास को मुझे और मेरे मातापिता का अपमान करने की खुली छूट दे दी.

आज की घटना हम सब के लिए नई थी. मैं मानसिक तनाव के कारण बेहोश हो गई, इस गलत सोच के चलते सारा दिन सब ने मेरा बहुत ध्यान रखा. सासूजी ने मुझ पूरा दिन पलंग से उतरने नहीं दिया. ससुरजी मेरी कमजोरी दूर करने के लिए बाजार से 2 डब्बे जूस ले कर आए. नीरज लगातार मेरे पास बैठे मुझे प्यार से निहारते रहे थे.

कोई इंसान आसानी से अपना मूलभूत स्वभाव बदल नहीं सकता है. कोई 3-4 दिन सब ठीकठाक चला पर फिर मेरी सास ने अपने पुराने रंग में लौटना शुरू कर दिया.

कुछ दिन तक उन्होंने हिचकिचाते से अंदाज में मेरे साथ पुराने अंदाज में टोकाटाकी शुरू कर दी. जब उन्होंने देखा कि मैं सहीसलामत हूं तो उन्होंने गियर बदला और मेरे साथ उन का व्यवहार फिर पहले जैसा खराब और गलत होने लगा.

मुझे खासकर तब बहुत गुस्सा आता जब वे मौका मिलते ही मेरी पुरानी गलतियों का रोना शुरू कर देतीं. पता नहीं मुझे बातबेबात शर्मिंदा और बेइज्जत करने में उन्हें क्या मजा आता था.

मां को दिए वचन ने एक तरफ मेरा मुंह सिला हुआ था और दूसरी तरफ सासूजी के जहरीले शब्दों ने मेरी सुखशांति नष्ट कर रखी थी. तब बहुत तंग हो कर मैं ने एक रात अपनेआप से कहा कि अनु, ऐसे काम नहीं चलेगा. चींटी को दबाओ तो वह भी काट लेती है. तूने अपना बचाव नहीं किया तो पागल हो जाएगी.

अगले दिन ड्राइंगरूम और रसोई की साफसफाई को ले कर सासूजी ने मुझे शाम को डांटना शुरू किया. कुछ देर तक मैं चुपचाप सब सुनती रही, फिर चाय की ट्रे पकड़े हुए मैं ने ड्राइंगरूम में प्रवेश किया और अचानक झटके से रुक पत्थर की मूर्ति की तरह अपनी जगह खड़ी की खड़ी रह गई.

मेरी नजरें फर्श की तरफ झुकी थीं पूरे बदन में हलका सा कंपन होता दिख रहा था. इस कारण ट्रे में रखे कपप्लेट आपस में टकरा कर आवाज करने लगे.

उस वक्त वहां घर के सारे सदस्य मौजूद थे. मेरी अजीब सी मुद्रा देख कर उन सभी को मेरे अचानक बेहोश हो जाने वाली घटना जरूर याद आ गई होगी. तभी नेहा ने भाग कर मेरे हाथ से ट्रे ले ली और ससुरजी ने जोर से डांट कर मेरी सास को चुप करा दिया.

नीरज ने मुझे सहारा दे कर सोफे पर बैठाया. मैं सिर ?ाकाए गुमसुम सी बैठी रही.

‘‘कैसा महसूस कर रही हो?’’ मेरी सास को छोड़ कर हर व्यक्ति मुझ से बारबार यही सवाल पूछे जा रहा था.

मेरे ससुरजी ने मेरे सिर पर प्यार से हाथ रख कर पूछा, ‘‘बहू चक्कर तो नहीं आ रहा है? क्या डाक्टर को बुलाएं?’’

मैं ने इनकार में सिर हिलाया और बड़े दुखी और अफसोस भरे लहजे में बोली, ‘‘पापा, मैं मम्मी को बहुत दुख देती हूं. मैं बहुत फूहड़ हूं. मुझे कुछ नहीं आता है.’’

‘‘नहींनहीं, तुम बिलकुल फूहड़ नहीं हो. अरे, धीरेधीरे तुम सब सीख जाओगी. अपने मन में किसी तरह की टैंशन मत रखो,’’ ससुरजी ने मुझे कोमल स्वर में सम?ाया.

मैं ने सासूजी की तरफ देखते हुए भावुक अंदाज में डायलौग बोलने चालू रखे, ‘‘मैं आप से

सबकुछ सीखना चाहती हूं मम्मीजी, पर मैं जब गलत काम कर रही होती हूं, जब मेरा काम आप को अधूरा लगता है, तब उसी वक्त आप मेरा मार्गदर्शन क्यों नहीं करती हैं?

‘‘सांप के निकल जाने के बाद आप जब लकीर पीटते हुए मुझ पर गुस्सा होती हैं तो मुझ बहुत दुख और अफसोस होता है. अपनेआप से नफरत सी होने लगती है.

‘‘फिर मुझ अपना सिर घूमता लगता है. जोर से चक्कर आने शुरू हो जाते हैं. आप मुझे तब कितना भी डांट लो जब मैं काम गलत ढंग से कर रही होती हूं पर बाद में डांट खाना…’’ रोआंसी सी हो कर मैं झटके से चुप हो गई. फिर मैं ने अपने हाथ फैलाए तो मेरी सासूजी को आगे बढ़ कर मुझे अपने बदन से लिपटाना पड़ा.

‘‘बहू बिलकुल ठीक कह रही है,’’ मेरे ससुरजी एकदम जोश से भर उठे, ‘‘सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटना बेवकूफी है. आगे से इस घर में कोईर् भी अगर किसी को कुछ समझाए या डांटे तो यह काम उसी वक्त हो जब काम चल रहा हो. बाद में गड़े मुरदे उखाड़ते हुए घर का माहौल खराब करने की किसी को कोई जरूरत नहीं है.’’

ससूरजी के विरोध में आवाज उठाने की किसी की हिम्मत नहीं हुई. मेरी आंखों में नजर आ रहे आंसुओं को देख कर मेरी सास का मन भी पसीजा और वे मुझे देर तक प्यार करती रहीं.

‘सांप के निकल जाने के बाद लकीर मत पीटो’ उस दिन के बाद से घर के अंदर यह वाक्य बहुत ज्यादा बोला जाने लगा.

कोई भी पुरानी बात उठा कर किसी से उलझने की कोशिश करता तो उसे फौरन यही वाक्य सुना कर चुप करा दिया जाता. मुझे इन शब्दों को बोलने की जरूरत नहीं पड़ती थी. मेरा तो पत्थर की मूर्ति वाली मुद्रा बना लेना ही काफी रहता और मेरी सास फौरन नारजगी भरे अंदाज में खामोश हो जाती थीं.

एक शाम उन्होंने मुझे सुबह देर से उठ कर आने के लिए डांटना चालू ही रखा तो उन्हें ससुरजी से जोरदार डांट पड़ गई.

‘‘मेरी इस घर में जो कोई इज्जत नहीं रह गई है उस के लिए सिर्फ आप जिम्मेदार हो,’’ सासूजी ने अपने पति से नाराजगी जाहिर करते हुए अचानक रोना शुरू कर दिया, ‘‘जिंदगीभर मुझ से यह इंसान कभी ढंग से नहीं बोला. कभी मुझे प्यार नहीं दिया.’’

‘‘यह शिकायत तब करना जब प्यार लेनेदेने का मौका सामने हो. मैं ने तुम्हारे सारे गिलेशिकवे दूर न कर दिए तो कहना. अरे, सांप के निकल जाने के बाद लकीर पीटने की यह आदत तू न जाने कब छोड़ेगी.’’

ससुरजी के इस मजाक पर जब हम सब ठहाका मार कर हंसे तो मैं ने अपनी सासूजी का चेहरा पहली बार लाजशर्म से गुलाबी होते देखा.

‘‘बहू आ गई है घर में पर इन से ये घटिया मजाक नहीं छूटे,’’ सासूजी ने बुरा सा मुंह बनाया और फिर मेरे पीछे मुंह छिपा कर खूब हंसीं.

उस दिन के बाद से मेरी सास मेरी सहेली भी बन गई हैं. इस में कोई शक नहीं कि लकीर न पीटने के फौर्मूले ने हम सब के आपसी रिश्तों को मधुर बना कर घर के अंदर सुखशांति और हंसीखुशी को बढ़ा दिया है.

उसे किस ने मारा- भाग 3: क्या हुआ था आकाश के साथ

इसी की आशंका जाहिर करते हुए मैं ने जबजब दीपाली को समझाना चाहा तबतब एक ही उत्तर मिलता, ‘यह बात मैं भी समझती हूं वसुधा, पर केवल दालरोटी से ही तो काम नहीं चलता. अभी बच्चे छोटे हैं, बड़े होंगे तो उन की पढ़ाई, शादीविवाह में भी तो खर्चा होगा, अगर अभी से कुछ बचत नहीं कर पाए तो आगे कैसे होगा.

रोधो कर जिंदगी घिसटती ही गई. पहला झटका आकाश को तब लगा जब उस के पिताजी को हार्ट अटैक आया. डाक्टर ने आकाश से पिता की बाईपास सर्जरी करवाने की सलाह दी. उस समय आकाश के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह खुद के खर्चे पर उन का इलाज करवा पाता. उस के पिताजी उस पर ही आश्रित थे, अत: कानून के अनुसार उन की बीमारी का खर्चा आकाश को कंपनी से मिलना था. उस ने एडवांस के लिए आवेदन कर दिया, पर कागजी खानापूर्ति में ही लगभग 2 महीने निकल गए.

आकाश पिताजी को ले कर अपोलो अस्पताल गया. आपरेशन के पूर्व के टेस्ट चल रहे थे कि उन्हें दूसरा अटैक आया और उन्हें बचाया नहीं जा सका. डाक्टरों ने सिर्फ इतना ही कहा कि इन्हें लाने में देर हो गई.

मां पिताजी से बिछड़ने का दुख सह नहीं पाईं और कुछ ही महीनों के अंतर पर उन की भी मृत्यु हो गई.

आकाश टूट गया था. उसे इस बात का ज्यादा दर्द था कि पैसों के अभाव में वह अपने पिता का उचित उपचार नहीं करा पाया. जबजब इस बात से उस का मन उद्वेलित होता, पिताजी की सीख उस के इरादों को और मजबूत कर देती. अंगरेजी की एक कहावत है ‘ग्रिन एंड बियर’ यानी सहो और मुसकराओ, यही उस के जीने का संबल बन गई थी.

मांपिताजी को तो वह खो चुका था. पल्लव तो अभी छोटा था पर अब बड़ी होती अपनी बेटी की ठीक से परवरिश न कर पाने का दोष भी उस पर लगने लगा था. डोनेशन की मोटी मांग के लिए रकम वह न जुटा पाने के कारण उस स्कूल में बेटी स्मिता का दाखिला नहीं करा पाया जिस में कि दीपाली चाहती थी.

जिस राह पर आकाश चल रहा था उस पर चलने के लिए उसे बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही थी, दुख तो इस बात का था कि उस के अपने ही उसे नहीं समझ पा रहे थे. तनाव के साथ संबंधों में आती दूरी ने उसे तोड़ कर रख दिया. मन ही मन आदर्श और व्यावहारिकता में इतना संघर्ष होने लगा कि वह हाई ब्लडप्रेशर का मरीज बन गया.

अपने ही अंत:कवच में आकाश ने खुद को कैद कर लिया पर दीपाली ने उस की न कोई परवा की और न ही पति को समझना चाहा. उसे तो बस, अपने आकांक्षाओं के आकाश को सजाने के लिए धन चाहिए था. वह रोकताटोकता तो दीपाली सीधे कह देती, ‘अगर तुम अपने वेतन से नहीं कर पाते हो तो लोन ले लो. जिस समाज में रहते हैं उस समाज के अनुसार तो रहना ही होगा. आखिर हमारा भी कोई स्टेटस है या नहीं, तुम्हारे जूनियर भी तुम से अच्छी तरह रहते हैं पर तुम तो स्वयं को बदलना ही नहीं चाहते.’

यह वही दीपाली थी जिस ने मधुयामिनी की रात साथसाथ जीनेमरने की कसमें खाई थीं, सुखदुख में साथ निभाने का वादा किया था. पर जमाने की कू्रर आंधी ने उन्हें इतना दूर कर दिया कि जब मिलते तो लगता अपरिचित हैं. बस, एहसास भर ही रह गया था. बच्चे भी सदा मां का ही पक्ष लेते. मानो वह अपने ही घर में परित्यक्त सा हो गया था.

अपनी लड़ाई आकाश स्वयं लड़ रहा था. प्रमोशन के लिए इंटरव्यू काल आया. इंटरव्यू भी अच्छा ही रहा. पैनल में उस का नाम है, यह पता चलते ही कुछ लोगों ने बधाई देनी भी शुरू कर दी पर जब प्रमोशन लिस्ट निकली तो उस में उस का नाम नहीं था, देख कर वह तो क्या पहले से बधाई देने वाले भी चौंक गए. पता चला कि उस का नाम विजीलेंस से क्लीयर नहीं हुआ है.

उस पर एक सप्लायर कंपनी को फेवर करने का आरोप लगा है, इस के लिए चार्जशीट दायर कर दी गई है. वैसे तो आकाश फाइल पूरी तरह पढ़ कर साइन किया करता था पर यहां न जाने कैसे चूक हो गई. रेट और क्वालिटी आदि की स्कू्रटनी वह अपने जूनियर से करवाया करता था. उन के द्वारा पेश फाइल पर जब वह साइन करता तभी आर्डर प्लेस होता था.

इस फाइल में कम रेट की उपेक्षा कर अधिक रेट वाले को सामान की गुणवत्ता के आधार पर उचित ठहराते हुए आर्डर प्लेस करने की सिफारिश की गई थी. साइन करते हुए आकाश यह भूल गया था कि वह किसी प्राइवेट कंपनी में नहीं एक सरकारी कंपनी में काम करता है जहां सामान की क्वालिटी पर नहीं सामान के रेट पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है.

नियम तो नियम है. इसी बात को आधार बना कर कम रेट वाले कांटे्रक्टर ने आकाश को दोषी ठहराते हुए एक शिकायती पत्र विजीलेंस को भेज दिया था.

नियमों के अनुसार तो गलती उन से हुई थी क्योंकि उन्होंने नियमों की अनदेखी की थी पर उस में उन का अपना कोई स्वार्थ नहीं था वह तो सिर्फ बनने वाले सामान की क्वालिटी में सुधार लाना चाहता था.

आफिस में कानाफूसी प्रारंभ हो गई, ‘बड़े ईमानदार बनते थे. आखिर दूध का दूध पानी का पानी हो ही गया न.’

‘अरे, भाई ऐसे ही लोगों के कारण हमारा विभाग बदनाम है. करता कोई है, भरता कोई है.’

दीपाली के कानों तक जब यह बात पहुंची तो वह तिलमिला कर बोली, ‘तुम तो कहते थे कि मैं किसी का फेवर नहीं करता. जो ठीक होता है वही करता हूं, फिर यह गलती कैसे हो गई. कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम मुझ से छिपा कर पैसा कहीं और रख रहे हो.’

उस के बाद उस से कुछ सुना नहीं गया, उसी रात उसे जो हार्ट अटैक आया. हफ्ते भर जीवनमृत्यु से जूझने के बाद आखिर उस ने दम तोड़ ही दिया.

खबर सुन कर वसुधा एवं सुभाष, आकाश के साथ बिताए खुशनुमा पलों को आंखों में संजोए आ गए. सदा शिकायतों का पुलिंदा पकड़े दीपाली को इस तरह रोते देख कर, आंखें नम हो आई थीं. पर बारबार मन में यही आ रहा था कि सबकुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया?

मां को रोते देख कर मासूम बच्चे अलग एक कोने में सहमे से दुबके खड़े थे, शायद उन की समझ में नहीं आ रहा कि मां रो क्यों रही हैं तथा पापा को हुआ क्या है. मां को रोता देख कर बीचबीच में बच्चे भी रोने लगते. उन्हें ऐसे सहमा देख कर, दीपाली स्वयं को रोक नहीं पाई तथा उन्हें सीने से चिपका कर रो पड़ी. उसे रोता देख कर नन्हा पल्लव बोला, ‘आंटी, ममा भी रो रही हैं और आप भी लेकिन क्यों. पापा को हुआ क्या है, वह चुपचाप क्यों लेटे हैं, बोलते क्यों नहीं हैं?’

उस की मासूमियत भरे प्रश्न का मैं क्या जवाब देती पर इतना अवश्य सोचने को मजबूर हो गई थी कि बच्चों से उन की मासूमियत छीनने का जिम्मेदार कौन है? एक जिंदादिल, उसूलों के पक्के इनसान को किस ने मारा.

उसे किस ने मारा- भाग 2: क्या हुआ था आकाश के साथ

‘स्वयं देख लीजिए सर.’

पैकेट खोला तो उस के अंदर रखी रकम देख कर आकाश का खून जम गया.

‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, यह रकम मुझे पकड़ाने की.’

‘सर, आप नए हैं, इसलिए जानते नहीं हैं, यह आप का हिस्सा है.’

‘पर मैं इसे नहीं ले सकता.’

‘यह आप की मर्जी सर, पर ऐसा कर के आप बहुत बड़ी भूल करेंगे. आखिर घर आई लक्ष्मी को कोई ऐसे ही नहीं लौटाता है.’

‘अब तुम यहां से जाओ वरना मैं पुलिस को बुलवा कर तुम्हें रिश्वत देने के आरोप में गिरफ्तार करवा दूंगा.’

‘ऐसी गलती मत कीजिएगा. यह आरोप तो मैं आप पर भी लगा सकता हूं,’ निर्लज्जता से मुसकराते हुए वह बोला.

अगले दिन आकाश ने अपने सहयोगी से बात की तो वह बोला, ‘इस में तुम या मैं कुछ नहीं कर सकते. यह तो वर्षों से चला आ रहा है. जो भी इस में अड़ंगा डालने का प्रयत्न करता है उस का या तो स्थानांतरण करवा देते हैं या फिर झूठे आरोप में फंसा कर घर बैठने को मजबूर कर देते हैं, वैसे भी घर आई लक्ष्मी को दुत्कारना मूर्खता है.’

उस ने उसी समय निर्णय लिया था कि लोग चाहे जो भी करें पर वह इस पाप की कमाई को हाथ नहीं लगाएगा. वैसे भी पहली बार नौकरी पर जाने से पहले जब वह पिताजी से आशीर्वाद लेने गया था, तो उन्होंने कहा था, ‘बेटा, जिंदगी की डगर बड़ी कठिन है, जो कठिनाइयों को पार कर के आगे बढ़ता जाता है निश्चय ही सफल होता है. कामनाओं की पूर्ति के लिए ऐसा कोई काम मत करना जिस के लिए तुम्हें शर्मिंदा होना पड़े. जितनी चादर हो उतने ही पैर फैलाना.’

वह उन की बातों को दिल में उतार कर जीवन की नई डगर पर नई आशाओं के साथ चल पड़ा था. अपनी पत्नी दीपाली को अपना फैसला सुनाया तो उस ने भी उस की बात का समर्थन कर दिया. तब उसे लगा था कि जीवनसाथी का सहयोग जीवन की कठिन से कठिन राहों पर चलने की प्रेरणा देता है.

काम को आकाश ने बोझ समझ कर नहीं बल्कि अपनी जिम्मेदारी समझ कर अपनाया था, इसलिए काम को संपूर्ण करने के लिए वह ऐसे जुट जाता था कि न दिन देखता न ही रात, इस के लिए उसे अपने परिवार से भी भरपूर सहयोग मिला.

सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. ऊंचा ओहदा, सम्मान, सुंदर पत्नी, पल्लव और स्मिता जैसे प्यारे 2 बच्चे, बूढ़े मांबाप का सान्निध्य. अपने काम के साथ मातापिता की जिम्मेदारी भी वह सहर्ष निभा रहा था. आखिर उन्होंने ही तो उसे इस मुकाम पर पहुंचने में मदद की थी.

दीपाली और वसुधा साथसाथ पढ़ी थीं. यही कारण था कि विवाह हो जाने के बाद भी हमेशा वे एकदूसरे के संपर्क में रहीं. यहां तक कि वर्ष में एक बार दोनों परिवार मिल कर एकसाथ कहीं घूमने चले जाते. वसुधा के पति सुभाष को भी आकाश का साथ अच्छा लगता. जी भर कर बातें होतीं. लगता, समय यहीं ठहर जाए पर समय कभी किसी के लिए रुका है?

जैसेजैसे खर्चे बढ़ने लगे दीपाली अपने वादे से मुकरने लगी. महीने का अंत होता नहीं था कि हाथ खाली होने लगता था, उस पर बूढ़े मातापिता के साथ 2 बच्चों का खर्चा अलग से बढ़ गया था. दीपाली अकसर अपनी परेशानी का जिक्र वसुधा से करती तो वह उसे संयम से काम लेने के लिए कहती, पर उस पर तो जैसे कोई जनून ही सवार हो गया था, आकाश की बुराई करने का.

यह वही दीपाली है जो एक समय आकाश की तारीफ करते नहीं थकती थी और अब बुराई करते नहीं थकती है. इनसान में इतना परिवर्तन कब, क्यों और कैसे आ जाता है, समझ नहीं पा रही थी वसुधा. आखिर कोई औरत अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए पति से वह सबकुछ क्यों करवाना चाहती है जो वह करना नहीं चाहता. दीपाली और आकाश के बीच की दूरी बढ़ती जा रही थी और वसुधा चाह कर भी कुछ कर नहीं पा रही थी.

दीपाली कहती, ‘वसुधा, आखिर इन की ईमानदारी से किसी को क्या फर्क पड़ता है. जो इन की सचाई पर विश्वास करते हैं वह इन्हें गलत प्रोफेशन में आया कह कर इन का मजाक बनाते हैं और जो नहीं करते वे भी कह देते हैं कि भई, हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और. भला आज के जमाने में ऐसा भी कहीं हो सकता है.’

बाहर तो बाहर आकाश घर में भी शिकस्त खाने लगा था. पत्नी और बच्चों के चेहरे पर छाई असंतुष्टि अकसर सोचने को मजबूर करती कि कहीं वह गलत तो नहीं कर रहा है, पर आकाश के अपने संस्कार उस को कुछ भी गलत करने से सदा रोक देते.

वह बच्चों की किसी मांग को अगले महीने के लिए टाल देने को कहता तो उस की 5 वर्षीय बेटी स्मिता ही कह देती, ‘इस का मतलब आप खरीदवाओगे नहीं. अगले महीने फिर अगले महीने पर टाल दोगे.’

आकाश कभी दीपाली को उस का वादा याद दिलाता तो वह कह देती,  ‘वह तो मेरी नादानी थी पर अब जब दुनिया के रंगढंग देखती हूं तो लगता है कि तुम्हारे इस खोखले दंभ के कारण हम कितना सफर कर रहे हैं. तुम्हारे जैसे लोग जहां आज नई गाड़ी खरीदने में जरा भी नहीं सोचते, वहीं हमें रोज की जरूरतों को पूरा करने के लिए अगले महीने का इंतजार करना पड़ता है. कार भी खरीदी तो वह भी सेकंड हैंड. मुझे तो उस में बैठने में भी शर्म आती है.’

‘दीपाली, इच्छाओं की तो कोई सीमा नहीं होती. वैसे भी घर सामानों से नहीं उस में रहने वालों के आपसी प्यार और विश्वास से बनता है.’

‘प्यार और विश्वास भी वहीं होगा, जहां व्यक्ति संतुष्ट होगा, उस की सारी इच्छाएं पूरी हो रही होंगी.’

‘तो क्या तुम सोचती हो जिन्हें तुम संतुष्ट समझ रही हो, उन में कोई असंतुष्टि नहीं है. वहां जा कर देखो तो पता चलेगा कि वे हम से भी ज्यादा असंतुष्ट हैं.’

‘बस, रहने भी दीजिए…कोरे आदर्शों के सहारे दुनिया नहीं चलती.’

‘अगर ऐसा है तो तुम आजाद हो, अपनी नई दुनिया बसा सकती हो, जैसे चाहे रह सकती हो.’

तब तिलमिला कर उस ने कहा था, ‘बस, अब यही तो सुनने को रह गया था.’

यह कह कर दीपाली तो चली गई पर आकाश वहीं बैठाबैठा अपने सिर के बाल नोंचने लगा. उस बार उन दोनों के बीच लगभग हफ्ते भर अबोला रहा. उन के झगड़े अब इतने बढ़ गए थे कि बच्चे भी सहमने लगे थे, कभीकभी लगता कहीं इन दोनों की तकरार के कारण बच्चे अपना स्वाभाविक बचपन न गंवा बैठें.

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