जैसे को तैसा: क्या विवशता थी समीर की, जो सबकुछ जानते हुए खामोश था?

शाम दफ्तर से छूट कर समीर संध्या के साथ रेस्तरां में चाय पी रहा था. तभी उस का मोबाइल बजा. उस ने मुंह बिगाड़ कर फोन उठाया, ‘‘बोल क्या है? अभी दफ्तर में हूं. काम है. 1 घंटा और लगेगा,’’ उस ने अनमने भाव से बीवी जलपा को उत्तर दिया.

‘‘कौन पत्नी?’’ संध्या ने हंस कर पूछा.

‘‘ये आजकल की बीवियां होती ही ऐसी हैं. जरा सी देर क्या हुई फोन करने लगती हैं. तुम अच्छी हो जो शादी नहीं हुई वरना तुम्हारा

पति तुम्हें भी देरी होने पर फोन कर के डिस्टर्ब करता रहता.’’

‘‘हरगिज नहीं,’’ संध्या ने तपाक से उत्तर दिया, ‘‘मर्द ऐसे शक्की नहीं होते जितनी औरतें होती हैं.’’

‘‘बिलकुल सही कहा तुम ने,’’ समीर ने सहमति जताई, ‘‘जलपा को देखो न. जरा सी देर क्या होती है, फोन करने लगती है और घर पहुंचने पर दफ्तर में क्याक्या किया, किस के साथ घूमे, क्या बात हुई वगैरहवगैरह सवालों की बौछार कर देती है.’’

‘‘क्या आप ने उसे मेरे बारे में बताया है?’’ संध्या ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘तुम्हें क्या लगता है?’’ समीर ने हंस कर उलटा पूछा, ‘‘तुम्हारा जिक्र कर के उस के शक्कीपन को मुझे और बिलकुल नहीं बढ़ाना है.’’

‘‘आप मर्द हैं न इसलिए,’’ संध्या ने कुछ नाराजगी जताई, ‘‘सभी मर्द ऐसे ही होते हैं. खुद बीवी से छिपा कर अकेलेअकेले कुंआरी लड़कियों से मौजमस्ती करते हैं और बीवी अगर पूछताछ करे तो उसे शक्की कहते हैं.’’

‘‘तुम जलपा का पक्ष ले रही हो,’’ समीर हंस पड़ा, ‘‘लड़की जो ठहरी,’’ फिर उस ने पूछा, ‘‘तो क्या तुम्हें हमारी दोस्ती पसंद नहीं?’’

‘‘मैं तुम्हारी दोस्त जरूर हूं पर प्रेमिका नहीं,’’ संध्या ने भी व्यंग्य किया और फिर दोनों बेतहाशा हंस पड़े.

इसी दौरान समीर का फोन फिर से बजा. बोला, ‘‘अरे, पहुंचता हूं. बोला न. क्यों दिमाग खा रही हैं,’’ उस ने चिढ़ कर बोला.

कुछ देर वह संध्या के चेहरे की ओर देखता  या सोचता रहा कि संध्या उस के साथ रहे संबंधों को स्वीकृत कर रही थी या उन पर ऐतराज जता रही थी. खैर, अब तक तो उस के व्यवहार में सहमति ही दिखाई पड़ रही थी. कुछ भी हो, उसे संध्या के साथ घूमना अच्छा लगता था और संध्या भी उस के खुश और मजाकिए स्वभाव के कारण उस की ओर आकृष्ट हो चली थी.

घर पहुंचने पर समीर ने देखा दरवाजे पर ताला था. उस ने स्वयं के पास रखी चाबी से ताला खोला और बैठक में लगे सोफे पर लेट कर जलपा का इंतजार करने लगे. जब 1 घंटा बिताने पर भी जलपा नहीं आई तो उस ने फोन लगाया, ‘‘अरे कहां हो? मैं तो कब से घर पहुंच गया हूं. तुम कहां हो?’’ फिर कुछ देर जलपा की बातें सुन कर उस ने फोन रख दिया.

फिर जब जलपा लौटी तो उस ने गुस्से में पूछा, ‘‘कहां घूमने निकल जाया करती हो? वैसे थोड़ी देर होने पर मुझे फोन करती रहती हो.’’

‘‘सब्जी मंडी गई थी. आलू खत्म हो गए थे,’’ जलपा ने सफाई दी.

फिर न जाने क्यों जलपा को खुश करने के लिए समीर बोला, ‘‘आजकल ज्यादा ही बनठन कर बाजार जा रही हो. माजरा क्या है?’’

‘‘कहां बनठन कर जाती हूं,’’ जलपा ने मुंह बिगाड़ कर कहा, ‘‘हम औरतों का क्या. हम थोड़े ही तुम मर्दों की तरह शादी के बाद भी अफेयर करने लगते हैं.’’

‘‘तो तुम्हें लगता है मेरा अफेयर चल रहा है,’’ समीर के चेहरे पर गुस्सा उतर आया, ‘‘इसी कारण बारबार फोन करती रहती हो. हर पल यह जानने की कोशिश करती रहती हो कि मैं कहां हूं, किस के साथ हूं.’’

जलपा ने घूर कर उस की तरफ देखा, ‘‘बीवी हूं तुम्हारी. इतना तो हक बनाता ही है मेरा. आजकल की औरतें बड़ी चालाक होती हैं. दफ्तर में काम कम करती हैं, शादीशुदा मर्दों को फंसाने की तरकीब करती रहती हैं. फिर मर्दों के साथ अफेयर करना तो आजकल की कामकाजी औरतों के लिए एक फैशन बन गया है और तुम तो हो ही इश्कमिजाज.’’

समीर झोंप सा गया. लगा जलपा ने मानो उसे रंगे हाथ पकड़ लिया हो. क्या सचमुच उसे मेरे और संध्या के अफेयर के बारे में पता है या वह यों ही हवा में तीर फेंक रही है. वह सोचने लगा. क्या उसे सतर्क रहना चाहिए. न जाने क्यों उस दिन के बाद समीर संध्या के साथ घूमते हुए कुछकुछ डर सा महसूस करने लगा. पहले तो वह संध्या के साथ घूमते हुए  बेझिझक उस का हाथ थाम लेता था और बातोंबातों में मौका देखते ही उसे चूम भी लेता था. दोनों दफ्तर में भी समीर के अलग चैंबर में काम के बहाने घंटों अकेले बैठे रहते. दफ्तर के अन्य कर्मचारी भी उन के संबंधों के बारे में सबकुछ जानते थे मगर उन्हें इस की बिलकुल परवाह नहीं थी. संध्या भी समीर का साथ पा कर खुश थी. उस ने भी समीर के बरताव में हो रहे बदलाव को भांप लिया था.

‘‘लगता है तुम्हें पत्नी ने तुम्हें धमकी दे डाली है,’’ वह हंस कर बोली.

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है,’’ समीर ने अपना बचाव किया, मगर यह अनुमान लगाना बड़ा मुश्किल हो रहा है कि उसे अपने संबंधों के बारे में पता चल गया है या नहीं,’’ समीर के चहेरे पर परेशानी उभर आई.

‘‘अगर उसे अपने संबंधों के बारे में पता चल गया तो?’’ संध्या ने पूछ लिया.

समीर कुछ देर गहरी सोच में पड़ गया. फिर बोला, ‘‘तब देखा जाएगा. आखिर वह मेरी बीवी है. क्या कर लेगी. तलाक थोड़े ही दे देगी,’’ समीर के चंहरे पर चालाकी से भरी कृत्रिम हंसी आ गई जिसे देख संध्या गंभीर हो गई.

उस रोज समीर को आश्चर्य हुआ जब जलपा का फोन नहीं आया. दफ्तर से छूटने के बाद संध्या के साथ बाजार में घूमते हुए उसे काफी देर हो चुकी थी. उस ने फोन लगाया, ‘‘क्या कर रही हो? फोन नहीं किया? मैं तो इंतजार कर रहा था,’’ उस ने मजाक किया.

फिर कुछ देर जलपा का प्रत्युत्तर सुन कर वह बोला, ‘‘कोई बात नहीं. मुझे देरी होगी. खाने के लिए मेरा इंतजार मत करना. करीब 10 बजे आऊंगा,’’ कह कर फिर एक झटके से फोन काट कर उस ने संध्या का हाथ थाम लिया और खुशी से बोला, ‘‘चलो आज आराम से घूमते हैं. अच्छे रेस्तरां में खाना खाते हैं. मल्टीप्लैक्स में पिक्चर देखेंगे और आराम से रात 12 बजे तक घूमेंगे.’’

दोनों ने फिर शहर के महंगे होटल ग्रांड भगवती में खाना खाया. पास में ही मौल था जहां वे शौपिंग के लिए चले गए. दोनों ने एकदूसरे की पसंद के कपड़े खरीदे. फिर मौल में ही एक रेस्तरां मे आइसक्रीम खाने लगे.

आइसक्रीम खातेखाते ही समीर का ध्यान अचानक मौल के पहली मंजिल पर गया जहां लोगों की भीड़ के बीच जलपा दिखाई दी. वह किसी मर्द के हाथों में हाथ डाले हुए घूम रही थी. उस को झटका सा लगा. आइसक्रीम का निवाला वह मुंह में डाल न सका.

‘‘संध्या, यह मैं क्या देख रहा हूं,’’ वह हक्काबक्का सा बोल पड़ा, ‘‘जलपा किसी

गैरमर्द के साथ यहां घूम रही है. वहां देख,’’ उस ने इशारा किया और संध्या ने पहले मंजिल पर निगाह डाली.

‘‘देख वह ज्वैलरी के शौप के सामने ब्लू सलवार पर सफेद दुपट्टा डाले हुए उस मर्द के साथ खड़ी है. मुझे यकीन नहीं हो रहा. वह यहां कैसे. फोन पर तो बोला था मैं घर पर ही हूं,’’ समीर बुरी तरह चौंक उठा. उस ने शीघ्र ही अपनी जेब से मोबाइल निकाला और दूर उस पर अपनी निगाह जमाते हुए फोन लगाया.

जलपा ने अपनेआप को साथ रहे मर्द की बांहों से छुड़ाते हुए अपने पर्स में से फोन निकाला और बात करती हुए नजर आई.

समीर ने पूछा, ‘‘कहां हो?’’

जलपा ने बोला, ‘‘मैं घर पर ही हूं’’

‘‘मुझे आने में देर होगी. तू ने खाना खा लिया,’’ समीर ने पूछा.

जलपा ने झठ बोलना जारी रखा. समीर को आघात लगा. उस के पेरों तले से जमीन खिसकने लगी. उस ने फोन रखते हुए चिंतित हो कर मन ही मन सोचा. यह कैसे हो सकता है. जलपा किसी गैरमर्द के साथ इतनी रात को बेखटके घूम रही है. क्या उस का किसी मर्द के साथ अफेयर चल रहा है और इस की उसे भनक तक नहीं पड़ी. वह भी कितनी चालाक है. छिपछिप कर अपने यार से मिल रही होगी और इस का उसे पता तक नहीं. फिर वह तो बारबार फोन कर के अपने पति को वह कहां है, किस के साथ है और घर आने में कितना वक्त लगेगा, क्यों देरी हो रही है ऐसे सवाल पूछ कर परेशान कर देती थी. उस की ऐसी हरकत से ही वह तंग आ चुका था और उसे शक्की दिमाग की समझने लगा था. कहीं ऐसा तो नहीं कि वह उसे बारबार फोन कर के यह जानने की कोशिश करती रहती कि मैं कब घर लौट रहा हूं और तभी वह अपने यार से मिलने का वक्त निकाल लेती होगी. उसे याद आया एक रात वह घर पहुंचा तब वह घर पर नहीं थी और करीब आधे घंटे बाद लौटी थी. पूछने पर बताया था कि पड़ोस में ही दीपा के वहां बैठी थी. तब उसे शक जरूर हुआ था मगर उस ने ध्यान नहीं दिया था. उस का बारबार फोन करना क्या एक चाल थी. यह जानने के लिए वह कब घर लौट रहा है ताकि वह उस की गैरमैजदगी में अपने यार से मिल कर वापस आ जाए.

समीर का पूरा तन अब सिहर उठा. आंखों में गुस्सा उतर आया. इतना बड़ा झठ. इतनी गहरी चाल. सीधीसादी लग रही जलपा इतनी बदमाश. बेशरम. ऐसी घिनौनी हरकत करने की इतनी हिम्मत. एक पल तो उस के जी में आया उसी वक्त उठ कर जाए और जलपा को रंगे हाथ उस के यार के साथ रंगरलियां करते हुए पकड़ कर उस के मुंह पर एक तमाचा जड़ दे. मगर वह गुस्सा पी गया. क्या करता. वह स्वयं अपनी गर्लफ्रैंड संध्या के साथ घूम रहा था.

संध्या ने देखा अब समीर का मूड बिगड़ चुका था. अपनी बीवी को गैरमर्द के साथ घूमते देख कर वह बुरी तरह भीतर से आगबबूला हो चुका था. समीर के गुस्से को ठंडा करना जरूरी था. अत: वह हंस कर व्यंग्यात्मक स्वर में बोली, ‘‘छोड़ो भी यार. उसे भी अपने प्रेमी के साथ घूमने दो. आखिर बीवी है तुम्हारी. कहते हैं पतिपत्नी साथ में रहते हैं तो एकदूसरे की आदतें अवश्य ग्रहण कर लेते हैं. आप इश्कियामिजाज के हैं तो स्वाभाविक है जलपा भी वही होगी.’’

यह सुनते ही समीर ने हलके से संध्या के गाल पर चपत मारते हुए चिढ़ कर कहा, ‘‘मेरे जले पर नमक छिड़क रही हो.’’

‘‘नमक नहीं छिड़क रही हूं. तुम्हें सचाई का आईना बता रही हूं,’’ संध्या ने उस की आंखों में आंखें डाल कर डांटते हुए कहा, ‘‘जैसे आप वैसी आप की जलपा. दोनों रोमांटिक. अब गुस्सा थूक कर चुपचाप उस के अफेयर को स्वीकृत कर लो. कहते हैं आदर्श पतिपत्नी एकदूसरे की बुराइयों को छिपाते हैं, उन का डंका नहीं बजाते.’’ न जाने क्यों संध्या की बात सुन कर समीर को भी हंसी आ गई. उस का गुस्सा गायब हो गया. संध्या ने ठीक ही तो कहा. जलपा भी बिलकुल वैसी ही थी जैसा वह. फिर झगड़ा कैसा.

सास बहू और टोटके सास के साथ आप के रिश्तों में सुधार आप के अच्छे व्यवहार से होगा. मगर पंडेपुजारियों और धर्म के तथाकथित पुजारियों ने यहां भी अंधविश्वास फैलाने की कोशिश में बहुत सारे तरीके बताते रहते हैं. जरा इन टोटकों पर गौर करें??:

यदि बहू रोज सुबह सूर्य भगवान को गुड़ मिला हुआ जल चढ़ाएं तो उन की सास उन से खुश रहेगी.

सास से अपने संबंध अच्छे करने के लिए मंगलवार को सूजी का हलवा बना कर उसे मंदिर के बाहर बैठे गरीबों में बांटें. अगर दोनों में लड़ाइयां ज्यादा हो रही हैं तो दोनों गले में चांदी की चेन पहनें.

वास्तु शास्त्र के नियम अनुसार दक्षिणपश्चिम कोण में सास को सोना चाहिए, उस के बाद बड़ी बहू को पश्चिम दिशा में और उस से छोटी बहु को पूर्व दिशा में शयन करना चाहिए. इस से घर की स्त्रियों में प्रेम बना रहेगा. सासससुर का कमरा सदैव दक्षिणपश्चिम दिशा में ही होना चाहिए और बेटेबहू का कमरा पश्चिमी या दक्षिण दिशा में. अगर बेटेबहू का रूम दक्षिणपश्चिम में होता है, तो उन का सासससुर से झगड़ा बना ही रहेगा, घर में आए दिन क्लेश रहेगा. परिवार पर अपना नियंत्रण रखने के लिए इस दिशा में घर के बड़ों को ही रहना चाहिए..

यदि सास और बहु में पटती नहीं है तो बहू सास को 12 लाल और 12 हरी कांच की चूडि़यां प्रसन्न मन से भेंट करें. इस उपाय से सास का मन बदल जाएगा और सास अपनी बहू की सहेली बन जाएगी.

अगर बहू को सास की तरफ से समस्या है तो बहू सास से मधुर संबंध बनाने के लिए एक भोजपत्र पर लाल चंदन की स्याही से सास का नाम लिख कर उसे शहद में डूबो कर उसे रविवार को छोड़ कर किसी भी दिन सूर्यास्त से पहले पीपल के पेड़ के नीचे गाड़ दें और पीपल देवता से अपनी सास से संबंध अच्छे हो जाने के लिए प्रार्थना करें.

इस परिस्थिति से बचने के लिए बृहस्पतिवार के दिन भोजपत्र पर गायत्री मंत्र चंदन से लिखें और उस के 2 ताबीज बना कर पीले कपड़े में एक अपनी माता के और एक पत्नी के दांईं कलाई पर बांध दें.

रोज एक तांबे के लोटे में जल भरें और पहले अपनी माता के हाथ से और बाद में पत्नी के हाथ से उसे स्पर्श करा कर तुलसी के पौधे में डाल दें. यह क्रिया रविवार के दिन नहीं करें.

रोज 1 रोटी में गुड़ और चने डाल कर शाम को अपनी माता व पत्नी से स्पर्श करा कर शाम को गाय को खिला दें.

रोज 2 तुलसी के पत्ते पानी से धो कर पूजा में रखें और 21 बार गायत्री मंत्र पढ़ कर एक पत्ता माता को व एक पत्नी को खिला दिया करें. रविवार को छोड़ कर.

अब बताइए क्या इस तरह के फुजूल के उपायों से सासबहू का रिश्ता सुधर सकता है? सामाजिक रिश्तों में ऐसे धर्म और टोटके का मकसद केवल धर्मभीरु और अंधविश्वासी लोगों से बहाने रुपए लूटना होता है. कभी दानधर्म के नाम पर और कभी दक्षिणा के नाम पर. कुछ लोग इतने नासमझ होते हैं कि घर की शांति की सही वजह समझने के बजाए इस के लिए अपनी जेबें ढीली करते रहते हैं.

Father’s day 2023: ले बाबुल घर आपनो- भाग 1

न जाने शंभुजी को क्या हो गया था, इतनी बड़ी कोठी, कार, नौकरचाकर, पैसा देखते ही चौंधिया गए थे. शायद उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन उन के दामन में इतनी दौलत आएगी कि जिसे समेटने के लिए उन्हें स्वार्थ के दरवाजे खोल कर बुद्धि के दरवाजे बंद कर देने पड़ेंगे.

‘‘मुझे जीवनसाथी की जरूरत है, पापा, दौलत पर पहरा देने वाले पहरेदार की नहीं,’’ सीमा ने साफ शब्दों में अपनी बात कह दी.

शंभुजी कोलकाता से लौट कर आए तो उन्हें बड़ी हैरानी हुई. हमेशा दरवाजे पर स्वागत करने वाली सीमा आज कहीं भी नजर नहीं आ रही थी. मैसेज तो उन्होंने कोलकाता से चलने से पहले ही उस के मोबाइल पर भेज दिया था. क्या उस ने पढ़ा नहीं? लेकिन वे तो हमेशा ही ऐसा करते हैं. चलने से पहले मैसेज कर देते हैं और उन की लाड़ली बेटी सीमा दरवाजे पर मिलती है. उस का हंसता चेहरा देखते ही वे अपनी सारी थकान, सारा अकेलापन पलभर में भूल जाते हैं. शंभुजी का मन उदास हो गया. कहां गई होगी सीमा? मोबाइल भी घर पर छोड़ गई. किस से पूछें वे? और उन्होंने एकएक कर के सारे नौकरों को बुला लिया. पर किसी को पता नहीं था कि सीमा कहां है. सब का एक ही जवाब था, ‘‘सुबह घर पर थी, फिर पता नहीं बिटिया कहां गई.’’

शंभुजी ने सीमा का मोबाइल चैक किया. उन का मैसेज उस ने पढ़ लिया था. फिर भी सीमा घर में नहीं रही. क्या होता जा रहा है उसे? पिछले कई महीनों से वे देख रहे हैं, सीमा में कुछ परिवर्तन होते जा रहे हैं. न वह उन के साथ उतना लाड़ करती है, न उन्हें अपने मन की कोई बात ही बताती है और न ही अब उन से कुछ पूछती है. पिछली बार जब वे कोलकाता जा रहे थे, तो उन्होंने कितना पूछा था, ‘क्यों, बेटे, तुम्हें कुछ मंगवाना है वहां से?’ तो बस, केवल सिर हिला कर उस ने न कर दी थी और वहां से चली गई थी.

पहले जब वे कहीं जाते थे, तो कैसे उन के गले में बांहें डाल कर लटक जाती थी, और मचल कर कहती थी, ‘पापा, जल्दी आ जाइएगा, इतने बड़े सूने घर में हमारा मन नहीं लगता.’

उन का भी कहां इस घर में मन लगता है. यह तो सीमा ही है, जिस के पीछे उन्होंने इतने बरस हंसतेहंसते काट दिए हैं और अपनी पत्नी मीरा को भी भुला बैठे हैं. जबजब वे सीमा को देखते हैं, उन्हें हमेशा यही संदेह होता है, मीरा लौट आई है. और वे अपने अकेलेपन की खाई को सीमा की प्यारीप्यारी बातों से पाट देते हैं.

एक दिन सीमा भी तो पूछ बैठी थी, ‘पापा, मेरी मां बहुत सुंदर थीं?’

‘हां बेटा, बहुत सुंदर थी?’

‘बिलकुल मेरी तरह?’

‘हां, बिलकुल तेरी तरह.’

‘वे आप से रूठती भी थीं?’

‘हां बेटा.’

‘मेरी तरह?’

‘आज तुम्हें क्या हो गया है, सीमा? यह सब तुम्हें किस ने बताया है?’ वे नाराज हो गए थे.

‘15 नंबर कोठी वाली रेखा चाची हैं न, उन्होंने कहा था, मां बहुत अच्छी थीं. आप उन की बात नहीं मानते थे तो वे रूठ जाती थीं,’ सीमा बड़े भोलेपन से बोली थी.

‘तू वहां मत जाया कर, बेटी. अपने घर में क्यों नहीं खेलती? कितने खिलौने हैं तेरे पास?’ उन्होंने प्यार से समझाया था.

‘वहां शरद है न, वह मेरे साथ कैरम खेलता है, बैडमिंटन खेलता है, यहां मेरे साथ कौन खेलेगा? आप तो सारा दिन घर से बाहर रहते हैं,’ वह रोआंसी हो आई थी.

वे उस छोटी सी बेटी को कैसे बताते कि उस की मां उन से क्यों रूठ जाती थी. वे तो आज तक अपने को कोसते हैं कि मीरा की वे कोई भी इच्छा पूरी न कर सके. कितनी स्वाभिमानी थी वह? इतनी बड़ी जायदाद की भी उस की नजर में कोई कीमत न थी. हमेशा यही कहती थी कि वह सुख भी किस काम का जिस से हमेशा यह एहसास होता रहे, यह हमारा अपना नहीं, किसी का दिया हुआ है.

यह जो आज इतना बड़ा राजपाट है, यह सब उन्हें मीरा की बदौलत ही तो मिला था. लेकिन मीरा ने कभी इस राजपाट को प्यार नहीं किया. न जाने शंभुजी को क्या हो गया था, इतनी बड़ी कोठी, कार, नौकरचाकर, पैसा देखते ही चौंधिया गए थे. शायद उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन उन के दामन में इतनी दौलत आ आएगी कि जिसे समेटने के लिए उन्हें स्वार्थ के दरवाजे खोल कर बुद्धि के दरवाजे बंद कर देने पड़ेंगे.

बहुत बड़ा कारोबार था मीरा के पिताजी का. कितने ही लोग उन के दफ्तर में काम करते थे. शंभुजी भी वहीं काम करते थे. वे बहुत ही स्मार्ट, होनहार और ईमानदार व्यक्ति थे. अपनी मेहनत और लगन से उन्होंने मीरा के पिता का मन जीत लिया था. शंभुजी से उन की कोई बात छिपी नहीं थी, और शंभुजी भी उन की बात को अपनी बात समझ कर न जाने पेट के किस कोने में रख लेते थे, जिस से कोई जान तक नहीं पाता था. मीरा की मां ने ही एक दिन पति को सुझाव दिया था, ‘क्योंजी, तुम तो दिनरात शंभुजी की प्रशंसा करते हो. अगर हम अपनी मीरा की शादी उन से कर दें, तो कैसा रहेगा? गरीब घर का लड़का है, अपने घर रह जाएगा.’

‘मैं भी कितने दिनों से यही सोच रहा था. मुझे भी ऐसा लड़का चाहिए जो मेरा कारोबार भी संभाल ले, और हमारी बेटी भी हमारे पास रह जाए,’ मीरा के पिता ने बात का समर्थन किया था.

‘मेरी चिंता दूर हुई. लेदे कर एक ही तो औलाद है, वही आंखों से दूर हो जाए तो यह तामझाम किस काम का?’

‘लड़का हीरा है, हीरा. चरित्रवान, स्मार्ट, मेहनती, ईमानदार, यह समझ लो, चिराग ले कर ढूंढ़ने से भी ऐसा लड़का हमें नहीं मिलेगा.’

‘तो बात पक्की कर लो. यह जरूर जतला देना, घरजमाई बन कर रहना पड़ेगा. उसे मंजूर हो तो बस चट मंगनी पट ब्याह वाली बात कर ही डालो,’ मीरा की मां ने पुलकित हो कर कहा था.

बात पक्की हो गई थी. बड़ी धूमधाम से मीरा और शंभुजी की शादी हुई थी. शंभुजी के पांव धरती पर नहीं पड़ते थे. पहले तो दफ्तर में काम करने वाले सभी साथियों ने ईर्ष्या की थी, लेकिन धीरेधीरे वे सब के लिए छोटे मालिक हो गए थे. मीरा के पिता तो जैसे उन्हें पा कर पूरी तरह निश्ंिचत हो गए थे. धीरेधीरे सारा कारोबार ही उन्होंने शंभुजी को सौंप दिया था.

Father’s day 2023: त्रिकोण का चौथा कोण- भाग 3

निरुपमा से पहले अनु की शादी की खबर मिलने के बाद मोहित भी कुछ विचलित हो गया था. अनु की शादी निरुपमा से पहले क्यों करनी पड़ी? निरुपमा को किसी ने पसंद नहीं किया यह तो कभी हो ही नहीं सकता. फिर क्या निरुपमा स्वयं तैयार नहीं है? कुछ दिन दुखी रहने के बाद आम लड़कियों की तरह

ही निरुपमा की भी शादी हो जाएगी, यह तो सोचा था मोहित ने, पर अब निरुपमा के अविवाहित रहने की खबर ने उसे अपराधबोध से ग्रस्त कर दिया.

हिम्मत कर एक दिन मोहित ने निरुपमा के घर फोन मिलाया, ‘‘हैलो… हैलो…’’ उधर से आवाज आई.

दास आंटी की आवाज वह पहचान रहा था. बड़ी मुश्किल से उस ने साहस जुटा कर कहा, ‘‘नमस्ते आंटी, मैं मोहित बोल रहा हूं, कैसे हैं आप लोग?’’

अचानक मोहित के फोन से निरुपमा की मां हड़बड़ा गईं पर अगले ही क्षण स्वयं को संयत कर बोलीं, ‘‘ठीक हैं, फोन कैसे किया?’’

‘‘आंटी, अनु की शादी की खबर मिली तो रहा नहीं गया… निरुपमा से पहले…?’’ आगे कुछ नहीं बोल पाया मोहित, शब्द गले में ही अटक कर रह गए.

‘‘हां, निरुपमा से पहले करनी पड़ी, क्योंकि वह शादी करना ही नहीं चाहती. अब क्यों, यह तो बताना नहीं पड़ेगा तुम्हें,’’ पल भर दोनों ओर से फोन पर चुप्पी छाई रही, फिर वे बोलीं, ‘‘कहती है विवाह तो मन का गठबंधन है, जो जीवन में केवल एक बार होता है, दोबारा कैसे कर लूं…’’

‘‘जी…’’ अस्फुट से शब्द मोहित के गले में ही दब कर रह गए. पूरी रात वह सो नहीं सका. ये क्या पागलपन है निरुपमा का? पिछले 8 वर्षों से मैं उस से बेखबर हो अपने जीवन में मगन हो गया था. मैं ने तो दीप्ति से विवाह के बाद पीछे मुड़ कर एक बार भी नहीं देखा कि आखिर निरुपमा कहां है, किस हाल में है. और वह अब तक मेरे प्यार की लौ में जल रही है, वह भी बिना किसी शिकवेशिकायत के. कैसे काटे होंगे निरुपमा ने ये दिनरात. 8 वर्ष लंबा नहीं, तो छोटा अरसा भी नहीं होता.

अगली ही सुबह मोहित ने फिर निरुपमा के घर फोन लगाया, ‘‘आंटी, यदि आप को एतराज न हो तो मुझे निरुपमा का मोबाइल नंबर चाहिए. आंटीजी, निरुपमा के इस एकाकीपन के लिए मैं ही जिम्मेदार हूं. मैं उस से एक बार बात करना चाहता हूं. मैं खुद उसे तैयार करूंगा शादी के लिए.’’

वर्षों प्रयास कर हार चुकी निरुपमा की मां की आंखें नई आस से चमक उठीं. शायद मोहित ही उस के इरादों को बदल दे.

‘‘हां बेटा, तुम बात कर के देख लो…,’’ कहते हुए उन्होंने झट से निरुपमा का मोबाइल नंबर मोहित को दे दिया.

8 वर्षों से संयम का जो बांध निरुपमा ने अपने मन के इर्दगिर्द बांधा था, वह मोहित की आवाज मात्र से भरभरा कर गिरने लगा. हमदर्दी से पुन: शुरू हुई मुलाकातों में मोहित व निरुपमा की निकटता बढ़ने लगी. इस से भावनाओं के बहाव ने भी गति पकड़ ली. कुछ वर्षों में ढेर सारा पैसा कमा चुके मोहित पर से पैसे का नशा अब धीरेधीरे कम हो चुका था, पर जवानी का सुरूर अभी बाकी था.

युवावस्था में पिता के भाषणों के प्रभाव की वजह से अपने प्रेम से विमुख हुए मोहित को वर्षों बाद निरुपमा के अपने प्रति प्रेम ने अंदर तक पिघला दिया. फिर वही होता

चला गया, जो सामाजिक तौर पर गलत था, अवैध था.

‘अपने सहारे ही जी लूंगी’ वाला निरुपमा का दंभ मोहित की निकटता में कमजोर पड़ गया. इतने वर्षों से एकाकीपन झेलतेझेलते निरुपमा का जीवन नीरस ही नहीं अस्वाभाविक भी हो चला था. न प्रेम जताने को हमसफर, न अधिकार जताने को साथी और न दुख तथा कष्टों में आंसू बहाने के लिए किसी अपने का मजबूत कंधा.

मोहित के आर्थिक सहारे की उसे जरूरत और चाह भी नहीं थी, पर मन का विरह व जीवन में चारों ओर व्याप्त हो रही मानसिक रिक्तता को भरने के लिए एक पुरुष का संग प्रत्यक्ष रूप से नकारते हुए भी वह शिद्दत से महसूस करने लगी थी. ऐसे में मोहित के कुछ क्षण चुराने में उसे झिझक नहीं होती थी, बल्कि खुल कर वह उन्हें जी लेती थी.

निरुपमा से प्रेम करने के बावजूद मोहित उसे पत्नी का स्थान नहीं दे सका था, जिस की हर एक स्त्री समाज में रहने के लिए कामना करती है. न ही निरुपमा को वह घरगृहस्थी, बच्चों का सुख दे पाया था. इस अपराधबोध से उबरने का इस से अच्छा उपाय और क्या हो सकता था मोहित के लिए. उसे कुछ क्षण चाहिए… उस का हक बनता है, इसलिए तो वह निरुपमा के पास जाता है.

अपनी इच्छा से या अपनी जरूरत के लिए वह निरुपमा के पास जाता है, यह सत्य मन ही मन वह नकार देता था. स्वीकारता तो शायद निरुपमा के समक्ष एक नया अपराधबोध जन्म लेता. मोहित खुद अपने हिसाब से गुणाभाग करता. अंत में किसी तरह ‘मैं ठीक ही कर रहा हूं’ के निष्कर्ष तक स्वयं को पहुंचा कर वह निश्चिंत हो जाता.

निरुपमा ने भी उस से अधिक अपेक्षा नहीं रखी. उस के लिए यही काफी था कि मोहित के मन में अब भी उस के लिए एक स्थान सुरक्षित है, फिर भले ही सामाजिक तौर पर वह उस की जीवनसंगिनी नहीं बन पाई हो. अपने इस स्वार्थ के पीछे वह नीतिअनीति को उपेक्षित कर बैठी थी. किसी विवाहिता के अधिकार क्षेत्र में वह घुसपैठ कर रही है, इस ओर उस ने कभी ध्यान ही नहीं दिया.

बच्चा गलती कर बैठे तो मांबाप प्यार से समझाते हैं, गलती दोहराने पर हिदायत देते हैं. उस पर भी न माने तो थप्पड़ दिखा कर डराते हैं, धमकाते हैं, सजा देते हैं. पर जब युवावस्था पार कर चुकी 30 वर्ष की बेटी पथभ्रष्ट हो

कर अनैतिकता की ओर बढ़ने पर आमादा हो जाए, तो मांबाप सिर्फ समझा सकते हैं. मानसम्मान व इज्जत का हवाला दे कर विनती ही कर सकते हैं और उस पर भी न माने, तो चुप रहने के लिए विवश हो जाते हैं. बेटी की यह स्थिति ज्यादा दिनों तक नहीं देख, सह पाए निरुपमा के पिताजी और एक दिन हार्टअटैक से चल बसे. अनु अपने पति के साथ विदेश से आई और 10 दिन मां व दीदी के साथ रह कर लौट गई.

घर में शेष रह गईं मां और बेटी. अब तो खुलेतौर पर मोहित उन के घर आनेजाने लगा. बेटी पर पूरी तरह आश्रित आखिर कहां तक उस का विरोध करतीं. सब कुछ जानतेसमझते हुए भी निरुपमा की मां कभी अपनी बेटी को यह नहीं समझा सकीं कि वह जो कुछ भी कर रही है, वह पूरी तरह गलत है. निरुपमा के दुखोंतकलीफों को देखने वाली उस की मां ने बरसों बाद उस के चेहरे पर खुशी की लकीरों को जन्म लेते देखा था. चुपचुप रहने वाली निरुपमा बोलनेबतियाने लगी थी. उम्र के इस पड़ाव पर अब जब कहीं कोई उम्मीद शेष नहीं रही थी निरुपमा के विवाह की. ऐसे में जो थोड़ाबहुत सुख मोहित की वजह से उस की झोली में गिर रहा था, उसे पुत्री प्रेम में स्वार्थी हो कर वे गिरने से रोक न सकी थीं.

दीप्ति को तो मोहित ने स्वयं अपने मुंह से यह सच बता डाला था. ऐसा कड़वा सच, जो किसी भी विवाहिता के लिए जहर के घूंट से भी अधिक जहरीला होता है. वैवाहिक जीवन में कहीं कोई दुरावछिपाव नहीं होना चाहिए का तर्क दे कर स्वयं को पूरी ईमानदारी का हिमायती बना कर उस ने अपने पूर्वप्रेम की दास्तान और निरुपमा के समर्पण का ऐसा बखान कर डाला कि सुन कर भरे गले से दीप्ति केवल इतना भर कह पाई थी, ‘‘जब प्रेम किया था, तो आप को हिम्मत से तभी निभाना चाहिए था. गलती तो आप की ही ही है…’’

पर अपनी विवशताओं को गिनवा कर मोहित ने दीप्ति को अच्छी तरह समझा लिया कि उस वक्त उस ने जो किया वह परिस्थिति के अनुसार ठीक था और अब वह जो कुछ भी कर रहा है, वह भी परिस्थिति की ही मांग है.

वैवाहिक जीवन के इस पड़ाव पर 2 छोटे बच्चों को ले कर घरगृहस्थी में रमी हुई दीप्ति अचानक बगावत करती भी तो किस के दम पर? अपने हिस्से के सुख और दुख भोगने ही पड़ते हैं मान कर जिंदगी से समझौता कर लिया था उस ने. पति उसे भरपूर सुख दे रहा है, इस भ्रमजाल को उस ने स्वयं ही अपने चारों ओर बिछा लिया था.

उस सुख की परिभाषा भी तो मोहित ने स्वयं ही उस के समक्ष गढ़ दी थी- रहने के लिए अच्छा घर है, ऐशोआराम के सारे सामान, समाज में मोहित की पत्नी का सम्मानजनक दर्जा, 2 प्यारे बच्चे, खर्च के लिए दौलत व प्रेम के नाम पर बदलाव के तौर पर ही सही, तुम्हारे साथ बिताए जाने वाले क्षण. कुल मिला कर ये सब कुछ कम नहीं है.

दीप्ति के मानने न मानने का प्रश्न ही नहीं उठा. परिस्थिति की मांग ने उसे सब कुछ यथावत मानने को विवश कर दिया था. दीप्ति केवल पत्नी ही नहीं मां भी थी. पत्नी की हैसियत के लिए तर्कवितर्क कर परिवार से बाहर निकल कर दांपत्य की अवहेलना करना एक मां के लिए असंभव नहीं तो भी कठिन अवश्य था. इस बंधन को कमजोर न पड़ने देना ही एकमात्र विकल्प था दीप्ति के पास.

वह बिलकुल अकेली है, उसे मेरी सख्त जरूरत है, कह कर मोहित बेधड़क दीप्ति के सामने ही निरुपमा के पास जाने के लिए चल देता व जब कभी निरुपमा के लंबे सामीप्य से एकरसता उत्पन्न हो जाती, तो बच्चों की जरूरत का हवाला दे कर बेखौफ दीप्ति के पास वापस लौट आता. दीप्ति और निरुपमा रूपी 2 नावों पर बड़ी सावधानी से सवार हो कर मोहित ने इतने वर्ष गुजार दिए थे.

बड़े होते दोनों बच्चों, अंकित व अपूर्वा में मगन दीप्ति अब उन दुखती रगों को स्वयं ही अनछुआ छोड़ देती थी, क्योंकि जानती थी कि छेड़ने से पुराने घाव ठीक तो होते नहीं बल्कि और अधिक रिसने लगते हैं. रिसने की उस टीस को सहते हुए ही तो इतने वर्ष गुजार दिए थे उस ने. 50 पार कर चुका था मोहित, बालों में जहांतहां सफेदी छा गई थी, फिर भी अच्छाखासा आकर्षण था उस के व्यक्तित्व में. आज उसी आकर्षक व्यक्तित्व के पोरपोर में पीड़ा समा गई थी. टेबल पर रखे फोन की घंटी घनघना उठी, तो मोहित की तंद्रा टूटी.

‘‘हैलो…’’ कहते ही उधर से निरुपमा की आवाज आई.

‘‘हैलो मोहित? अपना सेल फोन क्यों बंद कर रखा है… मैं कब से कोशिश कर रही हूं… बात क्या है?’’

‘‘कुछ नहीं नीरू… अभी थोड़ा व्यस्त हूं मीटिंग में, बाद में बात करूंगा,’’ साफ झूठ बोल गया मोहित.

मन में छिड़ा द्वंद्व अभी भी ज्यों का त्यों था. किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहा था मोहित. वर्षों से दीप्ति व निरुपमा को उस ने अपने दाएंबाएं हाथों की तरह ऐसा संतुलित कर रखा था कि मन ही मन अपने इस संतुलन कौशल पर वह फख्र करता रहा था. अंतर्मन में जबतब ये भाव उठा करते थे कि लोग तो एक को संतुष्ट नहीं कर पाते, मैं ने तो दोदो संभाल रखी हैं वह भी बिना किसी झिकझिक के.

पर आज वर्षों बाद इस सधे त्रिकोण का कोई चौथा कोण इस तरह अंकित के रूप में उभरेगा, उस ने कभी सोचा भी नहीं था.

दीप्ति ने जितना सुख व इज्जत मुझ से पाई उस में संतोष कर लिया. निरुपमा ने इज्जत का हवाला दे कर अपने रिश्ते की वैधता के लिए कभी मुझे विवश नहीं किया. शायद इसलिए मैं यह कभी जान ही नहीं सका कि मेरे कर्तव्य किस के प्रति क्या हैं. आज उसी इज्जत का हवाला दे कर अंकित मेरे सामने प्रश्न बन कर खड़ा हो गया है. उसे तो उत्तर देना ही पड़ेगा.

यह कैसी विडंबना थी कि वर्षों पूर्व जिन पैसों और बिजनैस का हवाला दे कर पिता ने मोहित को अपने प्रेम को भूल जाने के लिए मजबूर कर दिया था, आज उन्हीं पैसों और बिजनैस को छोड़ने की अंकित पूरी तैयारी कर बैठा है. क्या आज पुन: उसे अपने प्रेम से, निरुपमा के साथ अपने अवैध ही सही पर रिश्तों से दोबारा मुंह मोड़ना पड़ेगा? भौतिक और सामाजिक स्तर पर तो निरुपमा अकेली थी, परंतु उम्र के आखिरी पड़ाव पर अपने स्वार्थ की खातिर पुन: उसे अकेला छोड़ देना तो बेमानी होगा.

निरुपमा मेरे जीवन का हिस्सा बन चुकी है. उस के साथ मैं दोबारा धोखाधड़ी नहीं कर सकता और दीप्ति? वह क्या वर्षों से अपने बेटे के सामर्थ्यवान होने की प्रतीक्षा में ही थी? वर्षों मेरे साथ बिना उफ किए जीती आ रही दीप्ति की विवशताओं व दुखों को जानतेबूझते मैं अवहेलना करता आया हूं, यही तो कहा था अंकित ने. उस का एकएक शब्द घनघना कर मेरे मस्तिष्क में बज रहा था. क्या सच इतना कड़वा होता है?

दीप्ति और बच्चों से ही तो मेरी सामाजिक प्रतिष्ठा, मानसम्मान सब कुछ है. अंकित और दीप्ति का मुझ से अलग होना मेरा समाज से बहिष्कृत होना होगा. वर्षों से समाज में प्राप्त मानप्रतिष्ठा अंत:करण में एक दायित्व का बोध उत्पन्न कर रही थी, जिसे निभाना अत्यंत जरूरी था. अपने लिए न सही पर कम से कम विवाह योग्य हो रही अपनी बेटी अपूर्वा की खातिर तो था ही.

मोहित को लगा जैसे शतरंज की बिसात पर सभी मुहरे एकदूसरे से मारकाट करने पर आमादा हो रहे हैं. अब तक इस बिसात को दोनों ओर से खेलने वाला वह अकेला ही तो खिलाड़ी था. सारी स्थितियां उस की स्वयं की बनाई हुई थीं. विचारों के भंवर में फंसा मोहित लगातार यही सोच रहा था. लेकिन इस जटिल गणित का हल नहीं मिल पा रहा था. क्या करूं, क्या न करूं का द्वंद्व मस्तिष्क में घूम रहा था. मोहित को लगा सिर की नसें अब फट जाएंगी.

मन ही मन स्वयं को बादशाह समझने का दंभ रखने वाला मोहित आज स्वयं को किसी सिंह के मुख में फंसे मेमने की भांति निरीह व बेबस महसूस कर रहा था, जो अपने अंत के लिए प्रतीक्षारत होता है. आंखों में भय, व्याकुलता इस कदर उतर आई थी कि घबराहट के मारे वह टेबल पर रखा पानी का गिलास भी नहीं उठा पा रहा था. अचानक ही शरीर की सारी नसों में तनाव व्याप्त हो गया. पसीने से लथपथ शरीर उसे टनों भारी लगने लगा. थोड़ी ही देर में उस के चारों ओर गहरा अंधकार छा गया. हृदय खट से बंद हो गया. तभी उस के हृदय की गति रुक गई.

मोहित प्रगाढ़ निद्रा में लीन हो गया था. अब उसे अंकित के समक्ष उत्तर नहीं देना पड़ेगा… किसी को भी उत्तर नहीं देना पड़ेगा. मोहित स्वयं अपनेआप में एक प्रश्न बन कर समाज के सामने पड़ा हुआ था.

Father’s day 2023: त्रिकोण का चौथा कोण- भाग 2

एक तरफ निरुपमा उस की प्रेमिका, उस के सुखदुख की सच्ची साथी, हमदर्द, जिस ने उस के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर दिया और बदले में कुछ नहीं चाहा था. समाज भले ही उसे मोहित की रखैल कह कर पुकारे पर मोहित स्वयं जानता था कि यह सत्य से परे है. रखैल शब्द में तो कई अधिकार निहित होते हैं. उसे रखने के लिए तो एक संपूर्ण व्यवस्था की आवश्यकता होती है. रोटी, कपड़ा, मकान सभी कुछ जुटाना होता है. बस एक वैधता का सर्टिफिकेट ही तो नहीं होता, लेकिन क्या इतना आसान होता है रखैल रखना?

पर मोहित के लिए आसान था सब कुछ. उस के पास धनदौलत की कमी नहीं थी. वह चाहता तो निरुपमा जैसी 10 रख सकता था. पर निरुपमा स्वाभिमानी, आत्मनिर्भर स्त्री थी. वह स्वयं के बलबूते पर जीवनयापन करने का माद्दा रखती थी. वर्षों से सिंचित इस संबंध को एक ही झटके में नकारना मोहित के लिए आसान नहीं था.

दूसरी तरफ थी दीप्ति, जो विधिविधान से मोहित की पत्नी बन उस के जीवन में आई थी. पति के सुख में सुख और दुख में दुख मानने वाली दीप्ति ने कभी अपने ‘स्व’ को अस्तित्व में लाने की कोशिश ही नहीं की. जब परस्त्री की पीड़ा दीप्ति के चेहरे पर आंसुओं के रूप में हावी हो जाती, तो मोहित तमाम ऊंचीनीची विवशताओं का हवाला दे कर उसे शांत कर देता.

वर्षों से निरुपमा और दीप्ति के बीच खुद को रख दोनों में बखूबी संतुलन कायम किया था मोहित ने. स्वयं को दोनों की साझी संपत्ति साबित कर दोनों का विश्वास हासिल करने में सफल रहा था वह. नीति को हाशिए पर रख नियति का हवाला दे कर मोहित स्वयं के अपराधबोध को भी मन ही मन साफ करता रहा था.

इस वक्त मोहित औफिस की चेयर पर आगे की ओर फिसल कर, पैर पसारे, आंखें मूंदे विचारों में खोया था… काश ऐसा होता… काश वैसा होता.

कालेज में पढ़ने वाला उत्साही, जोशीला, गठीला, सजीला मोहित सब को अपनी ओर आकर्षित करने का सामर्थ्य रखता था. उन दिनों बरसात का मौसम था. कालेज की शुरुआत के दिन थे वे, जब कालेज में पढ़ाई कम मस्ती ज्यादा होती है. एक दिन मोहित अपने मित्र रोहन के साथ कालेज से दोपहर 2 बजे निकला, तो बारिश की तेज झड़ी शुरू हो गई. अपनी मोटरसाइकिल को किसी पेड़ की ओट के नीचे रोकने से पहले ही मोहित और उस का मित्र दोनों ही पूरी तरह भीग गए. अब रुकने से क्या फायदा, हम भीग तो चुके हैं सोच कर मोहित ने रोहन को उस के स्टौप पर छोड़ा व अपने घर का रुख किया.

वह अगले बस स्टौप से ज्योंही आगे निकला. अचानक उस की नजरें बस स्टौप पर खड़ी एक छुईमुई सी लड़की पर पड़ीं. उसे लगा, जैसे इसे कहीं देखा है. उस ने तुरंत ब्रेक लगा कर मोटरसाइकिल मोड़ी व पलट कर बस स्टौप तक आ गया. छुईमुई सी लड़की घबरा कर उसे ही देख रही थी. पुराने टूटे बस स्टाप से टपकते पानी और हवा के झोंकों के कारण पानी की बौछारें उसे बुरी तरह भिगो चुकी थीं. तेज बारिश और बस स्टौप का सन्नाटा उस के अंदर भय पैदा कर रहा था. अपने पर्स को

दोनों हाथों से सीने से चिपकाए वह सहमी हुई खड़ी थी.

मोहित ने पास आते ही पहचान लिया कि यह लड़की तो उसी के कालेज की है. 2-4 दिन से उस ने यह नया चेहरा कालेज में देखा था.

‘‘ऐक्सक्यूज मी… मे आई हैल्प यू?’’ मोहित ने अदब से पूछा.

पर सहमी सी आवाज में प्रत्युत्तर मिला, ‘‘नो थैंक्स… मेरी 12 नंबर की बस आने ही वाली है…’’

नए शहर में अनजान व्यक्ति से दूर रहने की मम्मी की हिदायतें उसे याद आ गईं. फिर ये तो लड़का है, पता नहीं इस के मन में क्या हो. आजकल चेहरे से तो सभी शरीफ नजर आते हैं… मन ही मन वह सोचने लगी.

‘‘12 नंबर बस यानी संचार नगर? मैं

वहीं जा रहा हूं… चलिए, आप को छोड़ दूं… इतनी बारिश में अकेली कब तक खड़ी

रहेंगी आप?’’

मोहित का उद्देश्य केवल मदद करने का ही था, पर शायद अब भी विश्वास नहीं जम पाया तो लड़की ‘न’ में गरदन हिला कर दूसरी ओर देखने लगी.

लड़की की मासूमियत पर मोहित को तरस आ रहा था और हंसी भी. मैं क्या इतना लोफर, आवारा नजर आता हूं… उस ने मन ही मन सोचा और मुसकरा कर अपनी मोटरसाइकिल वहीं खड़ी कर दी व स्वयं भी बस स्टौप के नीचे खड़ा हो गया.

लड़की को संशय भरी निगाहों से अपनी ओर देखते ही वह बोल पड़ा, ‘‘12 नंबर बस आने तक तो खड़ा हो सकता हूं? पूरी सड़क सुनसान है, आप मुसीबत में पड़

सकती हैं यहां पर. चिल्लाने पर एक परिंदा भी नहीं आएगा.’’

सुन कर लड़की ने कोई भाव व्यक्त नहीं किया व चुप्पी साधे बस आने की दिशा की ओर टकटकी लगाए देखती रही. ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी उसे. 5 मिनट में ही 12 नंबर बस आ गई और वह बस में चढ़ गई. बस में चढ़ते ही उस ने पलट कर मुसकरा कर धन्यवाद भरे भाव से मोहित की ओर ऐसे देखा, जैसे क्षण भर पूर्व मोहित के साथ शुष्क व्यवहार के लिए माफी चाहती हो. बस के गति पकड़ते ही मोहित ने भी प्रत्युत्तर में अविलंब अपना हाथ लहरा दिया.

यही थी मोहित और निरुपमा की पहली भेंट, जिस में दोनों एकदूसरे का नाम भी नहीं जान पाए थे. 2 दिन बाद ही अपार्टमैंट के छठे माले से मोहित लिफ्ट से जैसे ही नीचे उतरा, तो सामने की सीढि़यों से नीचे उतरती उस अनजान लड़की को देख कर सुखद आश्चर्य से भर गया.

‘‘अरे, आप यहां?’’ लड़की ने मुसकरा कर पूछा. आज उस के चेहरे पर उस दिन वाले डर और असुरक्षा के भाव नहीं थे.

‘‘हां, मैं इसी अपार्टमैंट के छठवें माले पर रहता हूं. मेरा नाम मोहित है… मोहित साहनी. मैं बी.कौम. फाइनल ईयर का स्टूडैंट हूं आप के ही कालेज में. पर आप यहां कैसे?’’

‘‘मैं भी इसी अपार्टमैंट के दूसरे माले पर रहती हूं… निरुपमा दास… बी.एससी. प्रथम वर्ष में इसी साल प्रवेश लिया है. दरअसल, हमें यहां आए अभी 2 ही हफ्ते हुए हैं.’’

‘‘ओह… मतलब इस शहर में आप लोग नए हैं. उस दिन ठीक से पहुंच गई थीं आप?’’ मोहित ने पूछा तो निरुपमा ने मुसकरा कर हामी भर दी.

‘‘दरअसल, उस दिन आप अपरिचित थे… फिर नए शहर में अनजान व्यक्ति पर इतनी जल्दी भरोसा नहीं किया जा सकता न…’’ निरुपमा ने सफाई देते हुए कहा.

‘‘हां ये तो है… वैसे अब तो हम अपरिचित नहीं हैं… आप यदि कालेज जा रही हैं, तो मेरे साथ चल सकती हैं.’’

‘‘आज तो नहीं, बस स्टौप पर मेरी सहेली मेरा इंतजार कर रही होगी,’’ निरुपमा ने घड़ी देखते हुए मुसकरा कर कहा और निकल गई.

अपार्टमैंट में होने वाले कार्यक्रमों के दौरान मोहित और निरुपमा का परिवार निकट आ गया. दोनों का एकदूसरे के घर आनाजाना भी शुरू हो गया. मोहित और निरुपमा की मित्रता धीरेधीरे तब और अधिक परवान चढ़ी, जब दोनों के पिताओं में दोस्ती प्रगाढ़ हो गई. दरअसल, दोनों के पिताओं के बीच एक कौमन फैक्टर था शतरंज, जो दोनों को निकट ले आया था. अकसर किसी न किसी एक के घर शतरंज की बाजी लग जाती थी और एकसाथ मिलबैठ कर खातेपीते और मौजमस्ती करते.

दास दंपती की 2 बेटियां थीं, निरुपमा और उस से 5 वर्ष छोटी अनुपमा. मोहित अपने मांबाप का इकलौता बेटा था. दोनों परिवार के बीच संबंध गहराते जा रहे थे. पारिवारिक निकटता, उम्र का प्रभाव, अधिक सान्निध्य जैसी परिस्थितियां अनुकूल थीं. नतीजतन मोहित और निरुपमा के बीच प्रेमांकुर तो फूटने ही थे. दोनों परिवारों के बीच के ये संबंध तब अचानक टूट गए, जब मोहित के पिता ने उस का रिश्ता कहीं और तय कर दिया.

निरुपमा ने सुना तो वह चुप हो गई, पर उसे विश्वास था मोहित पर कि वह इस रिश्ते से इनकार कर देगा. मोहित ने भरसक प्रयास किया पर पिताजी अड़े रहे.

‘‘मैं मेहराजी से वादा कर चुका हूं. इसी भरोसे पर वे अपना अगला कौंट्रैक्ट अपनी कंपनी को सौंप चुके हैं. अब बिना वजह मना नहीं किया जा सकता. मेहराजी की बेटी दीप्ति पढ़ीलिखी, सुंदर और समझदार लड़की है. फिर मना करने के लिए कोई जायज वजह भी तो हो.’’

निरुपमा वजह तो थी पर मोहित के पिता के लिए विशेष वजह नहीं बन सकी.

‘‘प्यारव्यार इस उम्र में उठने वाला ज्वारभाटा है. यह जीवन का आधार नहीं बन सकता. प्यार तुम्हारा पेट नहीं भरेगा मोहित. थोड़ा व्यावहारिक बन कर सोचना और जीना सीखो. तुम्हें मेरे साथ काम शुरू किए अभी केवल 6 माह हुए हैं. बिजनैस के गुर अभी तुम ने सीखे ही कितने हैं? मेहरा से मिला कौंट्रैक्ट कोई ऐसावैसा नहीं है, बल्कि लाखों का प्रोजैक्ट है. तुम खुद सोचो इस बारे में. निरुपमा से शादी करोगे तो तुम्हें मेरे बिजनैस में से एक कौड़ी भी नहीं मिलेगी. तुम्हें मुझ से अलग हो कर कमानाखाना और जीना होगा. अगर दम है तो अपना रास्ता नाप सकते हो और यदि समझदार हो तो मेरे खयाल से अपने पैर पर खुद कुल्हाड़ी मारने का काम नहीं करोगे.’’

न जाने मोहित पर पिताजी की उन बातों का क्या प्रभाव रहा कि उस ने उसी दिन से निरुपमा से कन्नी काट ली.

निरुपमा के लिए यह सदमा बरदाश्त से बाहर था. रोरो कर बेहाल हो गई वह. बेटी की खुशियों की खातिर दास दंपती अपने स्वाभिमान को ताक पर रख कर मोहित के घर अपनी झोली फैलाए पर सिवा दुख और जिल्लत के उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ.

निरुपमा ने स्वयं को कमरे में बंद कर लिया. बाहर आनाजाना, मिलनाजुलना, हंसनाबोलना सब बंद. कुछ दिनों में दुख से उबर जाएगी, यही सोचा था दास दंपती ने. पर दुख और सदमे से निरुपमा अपना मानसिक संतुलन खो बैठी फिर शुरू हुआ मानसिक चिकित्सालयों के चक्कर काटने का सिलसिला. पूरे 2 साल बाद निरुपमा की दिमागी हालत में सुधार हो पाया था. धीरेधीरे सामान्य स्थिति की ओर लौट रही थी वह. उस के होंठों पर लगी चुप्पी धीरेधीरे खुलने लगी और उस ने पुन: स्वयं को कालेज की गतिविधियों में व्यस्त कर लिया.

दास दंपती ने चैन की सांस ली. बेटी दुख से उबर गई, यही उन के लिए बहुत था. अब जल्द से जल्द वे निरुपमा का विवाह कर देना चाहते थे. पर इस संबंध में चर्चा छिड़ते ही फिर से घर में कर्फ्यू जैसा लग गया. निरुपमा ने एलान कर दिया कि वह विवाह नहीं करेगी, सारी उम्र कुंआरी रहेगी. आत्मनिर्भर बनेगी, कमाएगी और मांबाप का सहारा बनेगी.

मां ने सुना तो वे बौखला गईं, ‘‘पागल मत बनो नीरू, ऐसा भी कहीं होता है. शादी तो करनी होगी बेटी. फिर जब तक तुम्हारी शादी नहीं होती, तब तक हम अनु की शादी के बारे में भी नहीं सोच सकेंगे. आखिर उस की भी तो शादी करनी है हमें.’’

‘‘तो मैं कहां रोक रही हूं? बेहतर होगा कि आप लोग मेरे भविष्य के बारे में सोचना छोड़ दें. अनु की शादी कर दें…’’ निरुपमा क्रोध और तनाव से तमतमा उठी.

‘‘पर नीरू ऐसे कब तक चलेगा… हमारे बाद कोई सहारा तो होना चाहिए न…’’

‘‘नहीं मां, मुझे नहीं चाहिए किसी का सहारा. मैं अकेली ही काफी हूं खुद के लिए…’’

निरुपमा जिद पर अड़ी रही. पूरे 6 वर्षों तक मांबाप उसे मनाने का भरसक प्रयास

करते रहे पर उस ने अपनी जिद नहीं छोड़ी. अंतत: अनु की शादी निरुपमा से पहले ही कर देनी पड़ी.

पिता का नाम: भाग 3- एक बच्चा मां के नाम से क्यों नहीं जाना जाता

तापस ने मानसी से कहा, “वह एक ऐसी लड़की से शादी नहीं कर सकता जो शादी से पहले ही अपनी इज्जत गंवा बैठी हो, वह उस के क्या, किसी की भी पत्नी बनने के लायक नहीं है. जो अपनी मानमर्यादा और सम्मान की रक्षा नहीं कर सकती, शादी से पहले मां बनने वाली हो, वह उस के कुल की प्रतिष्ठा का क्या मान रख पाएगी.”

इतना सब तापस से सुनने के बाद मानसी में इतनी शक्ति ही नहीं बची कि वह कुछ कहे या सुने, मानसी रोती हुई खुद को और उस क्षण को कोसती हुई अपने फ्लैट लौट आई जब उस ने अपना सर्वस्व तापस को समर्पित कर दिया था.

मानसी ने अपनेआप को कमरे में बंद कर लिया. कभी उस का जी मर जाने को करता तो कभी तापस को जान से मार देने को. वह अभी खुद को संभाल नहीं पाई थी कि मानसी की मां का फोन आ गया और उन्होंने मानसी को बताया कि तापस के मातापिता ने रिश्ता तोड़ दिया है और कारण ठहराया है मानसी का वर्जिन नहीं होना.

मानसी की मां भी उसे समझने या संबल देने के बजाय उस पर ही सवालों की झड़ी लगा दी और मानसी को ही बुरा कहने लगी कि उस ने उन्हें समाज में मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा, अपनी इज्जत गंवा बैठी और ना जाने क्या क्या…? मानसी चुपचाप सुनती रही और फिर उस ने फोन रख दिया.

अगली सुबह मानसी के मातापिता बैंगलुरु उस के फ्लैट पर आ पहुंचे और उसे एबौर्शन के लिए मजबूर करने लगे लेकिन मानसी इस के लिए तैयार न हुई. एबौर्शन के लिए राजी न होने पर मानसी के मातापिता उस से यह कह कर नागपुर लौट ग‌ए कि उन्हें समाज में रहना है तो समाज के बनाए नियमों के अनुरूप ही चलना पड़ेगा और समाज बिन ब्याही मां को स्वीकार नहीं करता, उसे सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता और न ही उस से जुड़े लोगों को. इसलिए यदि वह एबौर्शन करा सकती है तो वह नागपुर अपने घर आ सकती है वरना उसे अपनी सूरत दिखाने की जरूरत नहीं.

मानसी को सच्चे दिल से प्यार करने की, खुद से ज्यादा अपने होने वाले जीवनसाथी पर विश्वास करने की सज़ा मिली थी. आज वह बिलकुल अकेली पड़ गई थी. सब ने उस का साथ छोड़ दिया था. वह अब यह जान चुकी थी कि समाज के ठेकेदारों के संग यह उस की अपनी लड़ाई है. समाज के बनाए नियमों के खिलाफ उसे अकेले ही लड़ना पड़ेगा. पगपग पर उसे बेइज्जत, लज्जित और गिराया जाएगा लेकिन उसे फिर खुद उठना होगा, खड़ा होना होगा और अपने व अपने बच्चे के लिए लड़ना होगा.

दुनिया और समाज से अकेली लड़ती हुई मानसी ने बेटे को जन्म दिया. मानसी के मातापिता उस से मिलने तक को नहीं आए. वक्त बीतता गया और फिर धीरेधीरे मानसी की बात अपने मातापिता से फोन पर होने लगी. मानसी का काम और व्यवहार इतना अच्छा था कि उस के व्यक्तित्व के आगे लोग झुकने लगे. औफिस में उसे सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा. मानसी का प्रमोशन भी हो गया और वह दिल्ली आ गई.

यों ही 5 साल बीत ग‌ए. मानसी का बेटा विवान 3 साल का हो गया. तापस ने फिर कभी मानसी की ओर मुड़ कर भी न देखा. इस बीच मानसी की सचाई को जानतेसमझते हुए उसे शादी के कुछ रिश्ते भी आए लेकिन मानसी फिर कभी किसी रिश्ते में नहीं बंधी. एक दिन अचानक सुबहसुबह डोरबैल बजी. दरवाजा खोलते ही मानसी हैरान रह ग‌ई. 5 सालों बाद आज पहली बार उस के मातापिता सामने खड़े थे. मानसी की आंखें नम हो गईं और वह झट से अपनी मां के गले लग गई लेकिन अगले ही पल तापस और उस के मातापिता को देख मानसी का खून खौल उठा. तभी मानसी की मां ने झट से उस का हाथ थाम लिया और बोली, “बेटा, सुन तो ले हम यहां क्यों आए हैं. तापस तुझ से कुछ कहना चाहता है.”

इतना सुन कर मानसी दरवाजे से हट ग‌ई और सब अंदर आ ग‌ए. तापस अपने दोनों हाथों को जोड़ कर बोला, “मानसी, मुझे माफ़ कर दो. मैं अपनी गलती सुधारना चाहता हूं. मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. मैं अपने बेटे को अपना का नाम देना चाहता हूं. तुम तो जानती हो उस बच्चे का कोई भविष्य नहीं होता जिस के साथ पिता का नाम नहीं जुड़ा होता.”

यह सुन मानसी बड़े शांतभाव बोली, “अचानक यह हृदय परिवर्तन क्यों? अखिर ऐसा क्या हुआ कि तुम वाल्मीकि बनने चले? तुम इतने दिनों बाद आज क्यों अपनी गलती सुधारना चाहते हो? मुझे और मेरे बच्चे को अब क्यों अपनाना चाहते हो? क्या आज तुम्हें अपनी मान, मर्यादा और कुल की प्रतिष्ठा का ख़याल नहीं है या यह भूल गए हो कि मैं वर्जिन नहीं हूं एक बिनब्याही मां हूं.”

तापस सिर झुकाए सबकुछ सुनता रहा. उस के पास मानसी को देने के लिए कोई जवाब नहीं था. तभी तापस की मां बोली, “मानसी बेटा, इसे माफ कर दो. इसे अपने किए की सज़ा कुदरत ने दे दी है. एक सड़क दुघर्टना में यह अपना सबकुछ गवां चुका है, यहां तक कि अपना पुरुषत्व भी. अब यह कभी भी पिता नहीं बन सकता. तुम्हारा बेटा हमारे घर का चिराग है. उसे हमें लौटा दो. तुम्हें भी तापस से शादी के बाद तुम्हारा खोया हुआ मानसम्मान मिल जाएगा और तुम्हारे बेटे को पिता का नाम.”

होंठों पर मुसकान लिए मानसी बोली, “शादी कर के मुझे झूठा मानसम्मान नहीं चाहिए और रही बात पिता के नाम की, तो ऐसा है जब एक गीतकार गीत बनाता है तो उसे अपना नाम देता है, चित्रकार जब चित्र बनाता है उस के नीचे अपना नाम लिखता है और एक लेखक जब कोई रचना लिखता है तो उस के नीचे भी वह अपना ही नाम लिखता है. हर रचना रचनाकार के नाम से जानी जाती है तो फिर जब एक मां नौ महीने अपने बच्चे को अपने गर्भ में रखती है, गर्भ में रह कर ही बच्चा अपना आकार पाता है, स्वरूप पाता है तो जन्म लेते ही उस बच्चे के साथ पिता का नाम क्यों जरूरी हो जाता है. एक बच्चा अपनी मां के नाम से क्यों नहीं जाना जा सकता…? मेरा बेटा मेरे ही नाम से जाना जाएगा. उसे किसी पिता के नाम की जरूरत नहीं, आप सब जा सकते हैं.”

इतना कह कर मानसी दरवाजे के पास आ कर खड़ी हो गई. किसी ने कोई जवाब नहीं दिया. सब सिर झुकाए घर से बाहर निकल ग‌ए और मानसी ने अपने घर का दरवाजा बंद कर दिया.

पैंसठ पार का सफर: क्या कम हुआ सुरभि का डर

टेलीविजन का यह विज्ञापन उन्हें कहीं  बहुत गहरे सहला देता है, ‘झूठ बोलते हैं वे लोग जो कहते हैं कि उन्हें डर नहीं लगता. डर सब को लगता है, प्यास सब को लगती है.’ अगर वे इस विज्ञापन को लिखतीं तो इस में कुछ वाक्य और जोड़तीं, प्यास ही नहीं, भूख भी सब को लगती है… हर उम्र में…इनसान की देह की गंध भी सब को छूती है और चाहत की चाहत भी सब में होती है.

उम्र 65 की हो गई है. मौत का डर हर वक्त सताता है. यह जानते हुए भी कि मौत तो एक दिन सबको आती है. फिर उस से डर क्यों? नहीं, गीता की आत्मा वाली बात में उन की आस्था नहीं है कि आत्मा को न आग जला सकती है, न मौत मार सकती है, न पानी गला सकता है…सब झूठ लगता है उन्हें. शरीर में स्वतंत्र आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं लगता और शरीर को यह सब व्यापते हैं तो आत्मा को भी जरूर व्यापते होंगे. धर्मशास्त्र आदमी को हमेशा बरगलाया क्यों करते हैं? सच को सच क्यों नहीं मानते, कहते? वे अपनेआप से बतियाने लगती हैं, दार्शनिकों की तरह…

चौथी मंजिल के इस फ्लैट में सारे सुखसाधन मौजूद हैं. एक कमरे में एअरकंडीशनर, दूसरे में कूलर. काफी बड़ी लौबी. लौबी से जुडे़ दोनों कमरे, किचन, बाथरूम. बरामदे में जाने का सिर्फ एक रास्ता, बरामदे में 3 दूसरे फ्लैटों के अलावा चौथा लिफ्ट का दरवाजा है.

इस विशाल इमारत के चारों तरफ ऊंची चारदीवारी, पक्का फर्श, गेट पर सुरक्षा गार्ड. गार्ड रूम में फोन. गार्ड आगंतुक से पूछताछ करते हैं, दस्तखत कराते हैं. फोन से फ्लैट वाले से पूछा जाता है कि फलां साहब मिलने आना चाहते हैं, आने दें?

इस फ्लैट मेंऐसा क्या है जो पति उन्हें न दे कर गए हों? मौत से पहले उन्होंने उस के लिए सब जुटा दिया और एक दिन हंसीहंसी में कहा था उन्होंने, ‘आराम से रहोगी हमारे बिना भी.’

तब वह कु्रद्ध हो गई थीं, ‘ठीक है कि मुझे धर्मकर्म के ढोंग में विश्वास नहीं है पर मैं मरना सुहागिन ही चाहूंगी…मेरी अर्थी को आप का कंधा मिले, हर भारतीय नारी की तरह यह मेरी भी दिली आकांक्षा है.’ पर आकांक्षाएं और चाहतें पूरी कहां होती हैं?

उन के 2 बेटे हैं. एक ने आई.आई.टी. में उच्च शिक्षा पाई तो दूसरे ने आई.आई.एम. में. लड़की ने रुड़की से इलेक्ट्रोनिक इंजीनियरिंग में शिक्षा पाई. तीनों में से कोई भी अपने देश में रुकने को तैयार नहीं हुआ. सब को आज की चकाचौंध ने चौंधिया रखा था. सब कैरियर बनाने विदेश चले गए और उन की चाहत धरी की धरी रह गई. पति से बोली भी थीं, ‘लड़की को शादी के बाद ही जाने दो बाहर…कोई गलत कदम उठ गया तो बदनामी होगी,’ पर लड़की का साफ कहना था, ‘वहीं कोई पसंद आ गया तो कर लूंगी शादी. अपने जैसा ही चाहिए मुझे, सुंदर, स्मार्ट, पढ़ालिखा, वैज्ञानिक दृष्टि वाला.’

लड़कों ने भी उन की नहीं सुनी. पहले कैरियर बाद में शादी, यह कह कर विदेश गए और बाद में शादी कर ली पर बाप से पूछना तक मुनासिब नहीं समझा.

इस फ्लैट में अकेले वे दोनों ही रह गए. उस रात अचानक पति के सीने में दर्द उठा. वह घबराईं, डाक्टर को फोन किया. अस्पताल से एंबुलेंस आए उस से पहले ही उन्होंने अंतिम सांस ले ली. बच्चों को फोन किया तो दोनों ने फ्लाइट्स न मिलने की बात कही और बताया कि आने  में एक सप्ताह लगेगा, सबकुछ खुद ही निबटवा लें किसी तरह. उन्होंने पूछा भी था कि कैसे और किस से कराएं दाहसंस्कार? पर कोई उत्तर नहीं मिला उन्हें.

बच्चे आए. बाकी के कर्मकांड जल्दी से निबटाए और फिर एक दिन बोले, ‘पापा लापरवाह आदमी थे. इस उम्र में तेल, घी छोड़ देना चाहिए था, पर वह तो हर वक्त यहां दीवान पर लेटेलेटे या तो किताबें, अखबार पढ़ते या फिर टीवी पर खबरें सुनते रहते. उन्होंने तो कहीं आनाजाना भी छोड़ दिया था. ऐसे लाइफ स्टाइल का यही हश्र होना था. वह तो सब्जीभाजी तक नौकरानी से मंगाते. इस्तेमाल की चीजें दुकानों से फोन कर के मंगवा लेते. कहीं इस तरह जीवन जिया जाता है?’

कहते तो ठीक थे बच्चे पर उन के अपने तर्क होते थे. वह कहते, ‘यह महानगर है, सुरभि. यहां बेमतलब कोई न किसी से मिलता है न मिलना पसंद करता है. किसे फुर्सत है जो ठलुओं से बतियाए?’

‘ठलुए’ शब्द उन्हें बहुत खलता. आखिर उन के अपने दफ्तर के भी तो लोग हैं. उन में  भी 2-3 रिटायर व्यक्ति हैं. उन्हीं के पास जा बैठें. अगर ये ठलुए हैं तो वे कौन सा पहाड़ खोद रहे होंगे?

कहा तो बोले, ‘सब ने कोई न कोई पार्ट टाइम जौब पकड़ लिया है. किसी को फुर्सत नहीं है.’

‘तो आप भी ऐसा कुछ करने लगिए,’ सुरभि ने कहा था.

‘नहीं करना. अपने पास अब सब है. पेंशन तुम्हें भी मिलती है, मुझे भी. बच्चे सब बड़े हो गए. विदेश जा बसे. उन्हें हमारे पैसे की जरूरत नहीं है. अपने पास कोई कमी नहीं है, फिर क्यों इस उम्र में अपने से काफी कम उम्र के लोगों की झिड़कियां सुनें?’

जबरन ही कभीकभी शाम को खाने के बाद सुरभि पति को अपने साथ लिवा जातीं. सड़क पार एक बड़ा पार्क था, उस में चहलकदमी करते. वहां बच्चों का हुल्लड़ उन्हें पसंद न आता. खासकर वे जिस तरह धौलधप्प करते, गेंद खेलते, भागदौड़ में गिरतेपड़ते. कभीकभी उन की गेंद उन तक आ जाती या उन्हें लग जाती तो झुंझला उठते, ‘यह पार्क ही रह गया है तुम लोगों को हुल्लड़ मचाने के लिए?’

वह पति की कोहनी दबा देतीं, ‘तो कहां जाएं बेचारे खेलने? सड़क पर वाहनों की रेलपेल, घरों में जगह नहीं, स्कूल दूर हैं. कहां खेलें फिर?’

‘भाड़ में,’ वह चीख से पड़ते. यह उन का तकिया कलाम था. जब भी, जिस पर भी वह गुस्सा होते, उन के मुंह से यही शब्द निकलता.

आखिर उन की बात सच निकली… बच्चे हम से बहुत दूर, विदेश के भाड़ में चले गए और स्वयं भी वह चिता के भाड़ में और जीतेजी वह भी इस फ्लैट में अकेली भाड़ में ही पड़ी हुई हैं.

शाम को जब बर्तन मांजने वाली बर्तन साफ कर जाती तो वह अकसर सामने के पार्क में चली जातीं…इस भाड़ से कुछ देर को तो बाहर निकलें.

घूमती टहलती जब थक जातीं तो सीमेंट की बेंच पर बैठ जातीं. एक दिन बैठीं तो एक और वृद्धा उन के निकट आ बैठी. इस उम्र की औरतों का एकसूत्री कार्यक्रम होता है, बेटेबहुओं की आलोचना करना और बेटियों के गुणगान, अपने दुखदर्द और बेचारगी का रोना और बीमारियों का बढ़ाचढ़ा कर बखान करना. यह भी कि बहू इस उम्र में उन्हें कैसा खाना देती है, उन से क्याक्या काम कराती है, इस का पूरा लेखाजोखा.

बहुत जल्दी ऊब जाती हैं वह इन बुढि़यों की एकरस बातों से. सुरभि उठने को ही थीं कि वह वृद्धा बोली, ‘आजकल मैं सुबह टेलीविजन पर योग और प्राणायाम देखती हूं. पहले सुबह यहां घूमने आती थी, पर जब से चैनल पर यह कार्यक्रम आने लगा, आ ही नहीं पाती. आप को भी जरूर देखना चाहिए. सारे रोगों की दवा बताते हैं. अब आसन तो इस उमर में हो नहीं पाते मुझ से, पर हाथपांव को चलाना, घुटनों को मोड़ना, प्राणायाम तो कर ही लेती हूं.’

‘फायदा हुआ कुछ इन सब से आप को?’ न चाहते हुए भी सुरभि पूछ बैठीं.

‘पहले हाथ ऊपर उठाने में बहुत तकलीफ होती थी. घुटने भी काम नहीं करते थे. यहां पार्क में ज्यादा चलफिर लेती तो टीस होने लगती थी पर अब ऐसा नहीं होता. टीस कम हो गई है, हाथ भी ऊपर उठने लगे हैं, जांघों का मांस भी कुछ कम हो गया है.’

‘सब प्रचार है बहनजी. दुकानदारी कहिए,’ वह मुसकराती हैं, ‘कुछ बातें ठीक हैं उन की, सुबह उठने की आदत, टहलना, घूमनाफिरना, स्वच्छसाफ हवा में अपने फेफड़ों में सांस खींचना…कुछ आसनों से जोड़ चलाए जाएंगे तो जाम होने से बचेंगे ही. पर हर रोग की दवा योग है, यह सही नहीं हो सकता.’

पास वाली बिल्डिंग के तीसरे माले पर एक बूढ़े दंपती रहते थे. उन्होंने 15-16 साल का एक नौकर रख रखा था. बच्चे विदेश से पैसा भेजते थे. नौकर ने एक दिन देख लिया कि पैसा कहां रखते हैं. अपने एक सहयोगी की सहायता से नौकर ने रात को दोनों का गला रेत दिया और मालमता बटोर कर भाग गए. पुलिस दिखावटी काररवाई करती रही. एक साल हो गया, न कोई पकड़ा गया, न कुछ पता चला.

सुरभि और उन के पति ने तब से नियम बना रखा था कि पैसा और जेवर कभी नौकरों के सामने न रखो, जरूरत भर का ही बैंक से वह पैसा लाते थे. खर्च होने पर फिर बैंक चले जाते थे. किसी को बड़ी रकम देनी होती तो हमेशा यह कह कर दूसरे दिन बुलाते थे कि बैंक से ला कर देंगे, घर में पैसा नहीं रहता.

मौत सचमुच बहुत डराती है उन्हें. पति के जाने के बाद जैसे सबकुछ खत्म हो गया. क्या आदमी जीवन में इतना महत्त्व रखता है? कई बार सोचती हैं वह और हमेशा इसी नतीजे पर पहुंचती हैं. हां, बहुत महत्त्वपूर्ण, खासकर इस उम्र में, इन परिस्थितियों में, ऐसे अकेलेपन में…कोई तो हो जिस से बात करें, लड़ेंझगड़ें, बहस करें, देश और दुनिया के हालात पर अफसोस करें.

इसी इमारत में एक अकेले सज्जन भाटिया साहब अपने फ्लैट में रहते हैं, बैंक के रिटायर अफसर. बेटाबहू आई.टी. इंजीनियर. बंगलौर में नौकरी. बूढ़े का स्वभाव जरा खरा था. देर रात तक बेटेबहू का बाहर क्लबों में रहना, सुबह देर से उठना, फिर सबकुछ जल्दीजल्दी निबटा, दफ्तर भागना…कुछ दिन तो भाटिया साहब ने बरदाश्त किया, फिर एक दिन बोले, ‘मैं अपने शहर जा कर रहूंगा. यहां अकेले नहीं रह सकता. कोई बच्चा भी नहीं है तुम लोगों का कि उस से बतियाता रहूं.’

‘बच्चे के लिए वक्त कहां है पापा हमारे पास? जब वक्त होगा, देखा जाएगा,’ लड़के ने लापरवाही से कहा था.

भाटिया साहब इसी बिल्ंिडग के अपने  फ्लैट में आ गए.

भाटिया साहब के फ्लैट का दरवाजा एकांत गैलरी में पड़ता था. किसी को पता नहीं चला. दूध वाला 3 दिन तक दूध की थैलियां रखता रहा. अखबार वाला भी रोज दूध की थैलियों के नीचे अखबार रखता रहा. चौथे दिन पड़ोसी से बोला, ‘भाटिया साहब क्या बाहर गए हैं? हम लोगों से कह कर भी नहीं गए. दूध और अखबार 3 दिन से यहीं पड़ा है.’

पड़ोसी ने आसपास के लोगों को जमा किया. दरवाजा खटखटाया. कोई जवाब नहीं. पुलिस बुलाई गई. दरवाजा तोड़ा गया. भाटिया साहब बिस्तर पर मृत पड़े थे और लाश से बदबू आ रही थी. पता नहीं किस दिन, किस वक्त प्राण निकल गए. अगर भाटिया साहब की पत्नी जीवित होतीं तो यों असहाय अवस्था में न मरते.

ऐसी मौतें सुरभि को भी बहुत डराती हैं. कलेजा धड़कने लगता है जब वह टीवी पर समाचारों में, अखबारों या पत्रिकाओं में अथवा अपने शहर या आसपास की इमारतों में किसी वृद्ध को ऐसे मरते या मारे जाते देखती हैं. उस रात उन्हें ठीक से नींद नहीं आती. लगता रहता है, वह भी ऐसे ही किसी दिन या तो मार दी जाएंगी या मर जाएंगी और उन की लाश भी ऐसे ही बिस्तर पर पड़ी सड़ती रहेगी. पुलिस ही दरवाजा तोड़ेगी, पोस्टमार्टम कराएगी, फिर अड़ोसीपड़ोसी ही दाहसंस्कार करेंगे. बेटेबहू या बेटीदामाद तो विदेश से आएंगे नहीं. इसी डर से उन्होंने अपने तीनों पड़ोसियों को बच्चों के पते और टेलीफोन नंबर तथा मोबाइल नंबर दे रखे हैं…घटनादुर्घटना का इस उम्र में क्या ठिकाना, कब हो जाए?

अखबार के महीन अक्षर पढ़ने में अब इस चश्मे से उन्हें दिक्कत होने लगी है. शायद चश्मा उतर गया है. बदलवाना पड़ेगा. पहले तो सोचा कि बाजार में चश्मे वाले स्वयं कंप्यूटर से आंख टेस्ट कर देते हैं, उन्हीं से करवा लें और अगर उतर गया तो लैंस बदलवा लें. पर फिर सोचा, नहीं, आंख है तो सबकुछ है. अगर अंधी हो गईं तो कैसे जिएंगी?

पिछली बार जिस डाक्टर से आंख टेस्ट कराई थी उसी से आंख चैक कराना ठीक रहेगा. खाने के बाद वह अपनी कार से उस डाक्टर के महल्ले में गईं. काफी भीड़ थी. यही तो मुसीबत है अच्छे डाक्टरों के यहां जाने में. लंबी लाइन लगती है, घंटों इंतजार करो. फिर आंख में दवा डाल कर एकांत में बैठा देते हैं. फिर बहुत लंबे समय तक धुंधला दिखाई देता है, चलने और गाड़ी चलाने में भी कठिनाई होती है.

वह लंबी बैंच थी जिस के कोने में थोड़ी जगह थी और वह किसी तरह ठुंसठुंसा कर बैठ सकती थीं. खड़ी कहां तक रहेंगी? शरीर का वजन बढ़ रहा है.

बैठीं तो उन का ध्यान गया, बगल में कोई वृद्ध सज्जन बैठे थे. उन की आंखों में शायद दवा डाली जा चुकी थी, इसलिए आंखें बंद थीं और चेहरे को सिर की कैप से ढक लिया.

Father’s day 2023: त्रिकोण का चौथा कोण- भाग 1

मोबाइल की हर घंटी के साथ मोहित की कशमकश बढ़ती जा रही थी. लगातार 8 मिस्ड कौल के बाद जैसे ही पुन: घंटी बजी, तो मोहित ने अपना मोबाइल उठा लिया. इस बार भी निरुपमा का ही कौल था. क्षण भर सोच कर उस ने मोबाइल का स्विच औफ कर दिया. अब आगे क्या करना है, किस से क्या कहे क्या न कहे, वह सोच नहीं पा रहा था. आज जीवन के सभी नियंत्रण सूत्र उसे अपने हाथ से फिसलते नजर आ रहे थे. विचारों की उधेड़बुन में फंसा मोहित औफिस के कैबिन में पिछले 2 घंटे से तनाव कम करने का असफल प्रयास कर रहा था.

जीवन के इस मुकाम पर उस का अपना बेटा अंकित ही उसे इस दोराहे पर ला कर खड़ा कर देगा, यह तो मोहित ने कभी नहीं सोचा था. वर्षों से सब कुछ व्यवस्थित ही चल रहा था. मोहित ने अपने हिसाब से जीवन के सारे समीकरण सरल बना लिए थे, परंतु अंकित सब कुछ उलझा कर जटिल कर देगा, इस का उसे जरा भी अंदेशा नहीं था.

मोहित अपनी नई कंस्ट्रक्शन कंपनी अंकित के नाम से ही शुरू करने जा रहा था. उद्घाटन को केवल 2 दिन शेष थे. सोमवार को सुबह 10 बजे नए कंस्ट्रक्शन की नींव का पहला पत्थर मोहित की पत्नी दीप्ति के हाथों रखा जाना था. लेकिन अंकित ने अचानक उस के समक्ष ऐसी शर्त रख दी, जिस ने उस के अस्तित्व को हिला कर रख दिया था.

मोहित को निरुपमा के साथ अपने सभी संबंधों को हमेशा के लिए तोड़ना होगा… उन के बीच किसी प्रकार का कोई नाता नहीं रहेगा… यही शर्त थी अंकित की. वरना पिता के बिजनैस को छोड़ कर वह पूरे तौर पर अलग होने के लिए तैयार बैठा था.

मोहित की मदद के बिना भी वह जिंदा रह सकता है और अपनी मां को भी एक बेहतर जिंदगी दे सकता है, जो उस के हिसाब से वे उन्हें कभी दे ही नहीं सके थे. एक ऐसी सम्मानजनक जिंदगी, जिस सें सुख हो, संतोष हो. जीवन में ज्यादा या कम जो कुछ भी हिस्से में लिखा हो वह पूरापूरा अपना हो. अपने अस्तित्व के बंटवारे की कसक न हो. यही तो कहा था अंकित ने.

बेटे के मुंह से यह सब सुनने को मानसिक रूप से मोहित कभी तैयार न था. उस के जीवन के ढकेछिपे अध्याय को उघाड़ कर इस विषय को ले कर आज अचानक अंकित का मुंह खोलना उस के लिए एक प्रकार का सदमा ही था. भौचक्का मोहित लटकी सी सूरत ले कर विवश हो गया था वह सब कुछ सुनने के लिए, जो उसे वर्षों पहले ही सुनना चाहिए था. पर जिसे हक था यह सब कहने का यानी उस की धर्मपत्नी दीप्ति, वह तो चुप्पी ही साधे रही. अपने नाम के अनुरूप स्वयं जलजल कर मोहित के जीवन को प्रकाशित करती रही. यह उस की पतिभक्ति थी या पत्नीधर्म की विवशता, इस पर मोहित ने विचार ही कब किया था.

जीवन रूपी शतरंज के सभी मुहरों को अपनी सहूलियत से जमाने के आदी मोहित को अंकित का हस्तक्षेप सकपका गया. स्तब्ध रह गया मोहित, जब सुबह अंकित ने औफिस आ कर कहा, ‘‘पापा, मैं आप से जरूरी बात करना चाहता हूं. आज ही, अभी.’’

‘‘हांहां बोलो, नई कंपनी की शुरुआत को ले कर तुम थोड़ा नर्वस हो रहे हो, टैंशन में हो, मैं समझता हूं पर चिंता मत करो बेटे, मुझे तुम पर पूरा भरोसा है. देखना, तुम मेरी मदद के बिना ही इस कंपनी को अच्छी तरह चला लोगे. और इतना ही नहीं, मेरी इस पुरानी कंस्ट्रक्शन कंपनी से तुम कई गुना आगे निकल जाओगे.’’

मोहित अपनी ही रौ में बोल रहा था कि अंकित ने कहा, ‘‘नहीं पापा, मुझे आप से नई कंपनी के बारे में नहीं, बल्कि कुछ पर्सनल बातें करनी हैं. अपनी मम्मी की, आप की… समझ लीजिए हम सब की…’’ अंकित अटकअटक कर टूटते शब्दों को जोड़ कर बोलने का क्रम बना रहा था.

‘‘ओह…’’ मोहित के होंठों पर तिरछी मुसकान फैल गई और आंखों में गर्व के साथ शरारत उभर आई, ‘‘कोई लड़कीवड़की का चक्कर है क्या? भई, पहले बिजनैस तो सैट कर लो. लड़कियां कहां भागी जा रही हैं? वैसे कौन है हमारे साहबजादे की पसंद जरा हम भी तो जानें. अरे भई, हम बाप हैं तुम्हारे, तुम ने वह कहावत नहीं सुनी बाप सेर तो बेटा सवा सेर…’’ मोहित ने जोरदार ठहाका लगाया.

पर अंकित के चेहरे पर पसरे गंभीरता के भावों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, बल्कि आवाज की दृढ़ता और अधिक बढ़ गई. शुष्क लहजे में अंकित पुन: बोल पड़ा, ‘‘पापा, मैं अपने संबंधों की चर्चा करने नहीं आया हूं.’’

सुनते ही मोहित के चेहरे पर विस्मय के साथ कई प्रश्न एकसाथ उभर आए.

‘‘मैं आप के और निरुपमाजी के अवैध संबंधों के बारे में बात करने आया हूं.’’

अगले ही क्षण जैसे मोहित की जबान तालू से चिपक गई. ये क्या कह रहा है अंकित.

‘‘आप को निरुपमाजी से अपने सभी संबंधों को तोड़ना होगा और पूरी तरह से हमारे बीच हमारा बन कर रहना होगा, वरना…’’

वरना क्या? पूछना चाहता था मोहित पर अपने बेटे के समक्ष अपराधियों की तरह उस की आवाज जाने कहां खो गई.

उस के पूछे बिना ही अंकित ने अपनी बात पूरी कर दी, ‘‘वरना पापा, मेरा आप के साथ और अधिक साथ नामुमकिन है.’’

‘‘क्यों?’’ मोहित से अधिक उस से बोला भी नहीं गया. निजी जीवन में अपनी सुविधा से जमाए गए गणित के बारे में युवा पुत्र को मां से नहीं, तो बाहरी दुनिया से सब कुछ पता चल ही गया होगा, इस का एहसास तो था मोहित को, पर अंतर्मुखी और संकोची स्वभाव का अंकित एक दिन इस तरह विरोध में उस के समक्ष आईना ले कर खड़ा हो सकता है, इस बात का उसे तनिक भी अनुमान नहीं था. जब पत्नी ने मुझे पूरे गुणदोषों के साथ स्वीकार कर लिया है, तो अब कोई समस्या ही नहीं रही, यही तो मोहित सोचता रहा था.

‘‘आप कारण जानना चाहते हैं?’’ भौंहों को ऊपर चढ़ाते हुए अंकित ने पलट कर प्रश्न किया. प्रश्न के साथ ही एक उपहास भरी हंसी उस के होंठों पर उभरी तो मोहित ने अपनी नजरें इधरउधर कर लीं, मानो अंकित की भेदती नजरों से बच कर भाग जाना चाहता हो.

‘‘क्योंकि पापा मैं एक सम्मान भरी जिंदगी जीना चाहता हूं और ऐसी ही जिंदगी भविष्य में अपने परिवार को भी देना चाहूंगा. एक ऐसी जिंदगी, जिस में बेखौफ, बेधड़क हो लोगों के बीच मैं और मेरे बच्चे सिर उठा कर उठबैठ सकें. जहां लोगों की कटाक्ष भरी नजरें व व्यंग्य भरे तानों के तीर मेरे मन को छलनी न करते हों. जहां हर वक्त यह डर न सताए कि कहीं कोई ऐसा अप्रिय प्रश्न न पूछ बैठे, जिस से इज्जत के तारतार होने के साथ ही बारबार दिल भी टूटताजुड़ता रहे. मैं इस टूटनेजुड़ने की प्रक्रिया से मुक्त होना चाहता हूं पापा…’’ एक सांस में मन का गुबार अंकित ने निकाल दिया.

इतना कह कर एक लंबी गहरी सांस ले कर अंकित नि:शब्द खड़ा रहा. थोड़ी देर के लिए दोनों के बीच मौन पसर गया.

फिर अंकित ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘आप को शर्त मंजूर न हो तो अपने साथ मैं मां को भी ले जाना चाहूंगा. मैं ने मां से बात कर ली है. वे तैयार हैं मेरे भरोसे जीवन की शाम गुजारने को. मैं ने उन्हें चांदसितारे या सूरज ला कर देने का वादा तो नहीं किया पर हां, इतना विश्वास जरूर दिलाया है कि कुछ सुकून भरे पल उन्हें जरूर दूंगा. आप की नई कंस्ट्रक्शन कंपनी को शुरू होने में अभी 2 दिन बाकी हैं. आप चैन से सोच सकते हैं अपने बारे में, अपने बचे हुए भविष्य के बारे में…’’

जिस दृढ़ता के भाव के साथ अंकित मोहित के सामने आया था, उसी आत्मविश्वास के साथ वह अपनी बात स्पष्ट कर निकल गया. चाह कर भी मोहित कुछ न कह सका. कहता भी क्या? स्वयं को चक्रव्यूह का निर्माता समझने वाला मोहित आज छिन्नभिन्न हो कर स्वयं उस व्यूह रचना में फंस गया था. इस व्यूह से बाहर निकलने का कोई रास्ता उसे सूझ नहीं रहा था.

खोखली रस्में

ओह…यह एक साल, लमहेलमहे की कसक ताजा हो उठती है. आसपड़ोस, घरखानदान कोई तो ऐसा नहीं रहा जिस ने मुझे बुराभला न कहा हो. मैं ने आधुनिकता के आवेश में अपनी बेटी का जीवन खतरे के गर्त में धकेल दिया था. रुपए का मुंह देख कर मैं ने अपनी बेटी की जिंदगी से खिलवाड़ किया था और गौने की परंपरा को तोड़ कर खानदान की मर्यादा तोड़ डाली थी. इस अपराधिनी की सब आलोचना कर रहे थे. परंतु अंधविश्वास की अंधेरी खाइयों को पाट कर आज मेरी बेटी जिंदा लौट रही है. अपराधिनी को सजा के बदले पुरस्कार मिला है- अपने नवासे के रूप में. खोखली रस्मों का अस्तित्व नगण्य बन कर रह गया.

कशमकश के वे क्षण मुझे अच्छी तरह याद हैं जब मैं ने प्रताड़नाओं के बावजूद खोखली रस्मों के दायरे को खंडित किया था. मैं रसोई में थी. ये पंडितजी का संदेश लाए थे. सुनते ही मेरे अंदर का क्रोध चेहरे पर छलक पड़ा था. दाल को बघार लगाते हुए तनिक घूम कर मैं बोली थी, ‘देखो जी, गौने आदि का झमेला मैं नहीं होने दूंगी. जोजो करना हो, शादी के समय ही कर डालिए. लड़की की विदाई शादी के समय ही होगी.’

‘अजीब बेवकूफी है,’ ये तमतमा उठे, ‘जो परंपरा वर्षों से चली आ रही है, तुम उसे क्यों नहीं मानोगी? हमारे यहां शादी में विदाई करना फलता नहीं है.’

‘सब फलेगा. कर के तो देखिए,’ मैं ने पतीली का पानी गैस पर रख दिया था और जल्दीजल्दी चावल निकाल रही थी. जरूर फलेगा, क्योंकि तुम्हारा कहा झूठ हो ही नहीं सकता.’

‘जी हां, इसीलिए,’ व्यंग्य का जवाब व्यंग्यात्मक लहजे में ही मैं ने दिया.

‘क्योंकि अब हमारी ऐसी औकात नहीं है कि गौने के पचअड़े में पड़ कर 80-90 हजार रुपए का खून करें. सीधे से ब्याह कीजिए और जो लेनादेना हो, एक ही बार लेदे कर छुट्टी कीजिए.’ मैं ने अपनी नजरें थाली पर टिका दीं और उंगलियां तेजी से चावल साफ करने लगीं, कुछ ऐसे ही जैसे मैं परंपरा के नाम पर कुरीतियों को साफ कर हटाने पर तुली हुई थी. एक ही विषय को ले कर सालभर तक हम दोनों में द्वंद्व युद्ध छिड़ा रहा. ये परंपरा और मर्यादा के नाम पर झूठी वाहवाही लूटना चाहते थे. विवाह के सालभर बाद गौने की रस्म होती है, और यह रस्म किसी बरात पर होने वाले खर्च से कम में अदा नहीं हो सकती. मैं इस थोथी रस्म को जड़ से काट डालने को दृढ़संकल्प थी. क्षणिक स्थिरता के बाद ये बेचारगी से बोले, ‘विमला की मां, तुम समझती क्यों नहीं हो?’

‘क्या समझूं मैं?’ बात काटते हुए मैं बिफर उठी, ‘कहां से लाओगे इतने पैसे? 1 लाख रुपए लोन ले लिए, कुछ पैसे जोड़जोड़ कर रखे थे, वे भी निकाल लिए, और अब गौने के लिए 80-90 हजार रुपए का लटका अलग से रहेगा.’

‘तो क्या करूं? इज्जत तो रखनी ही पड़ेगी. नहीं होगा तो एक बीघा खेत ही बेच डालूंगा.’

‘क्या कहा? खेत बेच डालोगे?’ लगा किसी ने मेरे सिर पर हथौड़े का प्रहार किया हो. क्षणभर को मैं इज्जत के ऐसे रखरखाव पर सिर धुनती रह गई. तीखे स्वर में बोली, ‘उस के बाद? सुधा और अंजना के ब्याह पर क्या करोगे? तुम्हारा और तुम्हारे लाड़लों के भविष्य का क्या होगा? तुम्हारे पिताजी तो तुम्हारे लिए 4 बीघा खेत छोड़ गए हैं जो तुम रस्मों के ढकोसले में हवन कर लोगे, लेकिन तुम्हारे बेटे किस का खेत बेच कर अपनी मर्यादा की रक्षा करेंगे?’ सत्य का नंगापन शायद इन्हें दूर तक झकझोर गया था. बुत बने ये ताकते रह गए. फिर तिक्त हंसी हंस पड़े, ‘तुम तो ऐसे कह रही हो, विमला की मां, मानो 4 ही बच्चे तुम्हारे अपने हों और विमला तुम्हारी सौत की बेटी हो.’

‘हांहां, क्यों नहीं, मैं सौतेली मां ही सही, लेकिन मैं गौना नहीं होने दूंगी. शादी करो तब पूरे खानदान  को न्योता दो, गौना करो तब फिर पूरे खानदान को बुलाओ. कपड़ा दो,  गहना दो, यह नेग करो वह जोग करो. सिर में जितने बाल नहीं हैं उन से ज्यादा कर्ज लादे रहो, लेकिन शान में कमी न होने पाए.’ इन के होंठों पर विवश मुसकान फैल गई. जब कभी मैं ज्यादा गुस्से में रहती हूं, इसी तरह मुसकरा देते हैं, मानो कुछ हुआ ही न हो. इन के होंठों की फड़कन कुछ कहने को बेताब थी, परंतु कह नहीं सके. उठ खड़े हुए और आंगन पार करते हुए कमरे की ओर चले गए. जब से विमला की शादी तय हुई, शादी संपन्न होने तक यही सिलसिला जारी रहा. ये कंजूसी से ब्याह कर के समाज में अपनी तौहीन करवाने को तैयार नहीं थे, और मैं रस्मों के खोखलेपन की खातिर चादर से पैर निकालने को तैयार नहीं थी. ‘गौने की रस्म अलग से करनी ही होगी. सदियों से यह हमारी परंपरा रही है,’ मैं इस थोथेपन में विश्वास करने को तैयार न थी.

छोटी ननद के ब्याह पर ही मैं ने यह निर्णय कर के गांठ बांधी थी. याद आता है तो दिल कट कर रह जाता है. ब्याह पर जो खर्च हुआ वह तो हुआ ही, सालभर घर बिठा कर उस का गौना किया गया तो 80 हजार रुपए उस में फूंक दिए गए. गौना करवाने आए वर पक्ष के लोगों की तथा खानदान वालों की आवभगत करतेकरते पैरों में छाले पड़ गए, तिस पर भी ‘मुरगी अपनी जान से गई, खाने वालों को मजा न आया’ वाली बात हुई. चारों ओर से बदनामी मिली कि यह नहीं दिया, वह नहीं दिया. ‘अरे, इस से अच्छी साड़ी तो मैं अपनी महरी को देती हूं… कंजूस, मक्खीचूस’ तथा इसी से मिलतीजुलती असंख्य उपाधियां मिली थीं.

मुझे विश्वास था कि मैं वर्तमान स्थिति और परिवेश में गौना करने में आने वाली कठिनाइयां बता कर इन्हें मना लूंगी. जल्दी ही मुझे इस में सफलता भी मिल गई. मेरी सलाह इन के निर्णय में परिवर्तित हो गई, किंतु ‘ये नहीं फलता है’ की आशंका से ये उबर नहीं पाए. विवाह संबंधी खरीदफरोख्त की कार्यवाहियां लगभग पूरी हो चुकी थीं. रिश्तेदारों और बरातियों का इंतजार ही शेष था. रिश्तेदारों में सब से पहले आईं इन की रोबदार और दबंग व्यक्तित्व वाली विधवा मौसी रमा, खानदानभर की सर्वेसर्वा और पूरे गांव की मौसी. दोपहर का समय था. विवाह हेतु खरीदे गए गहने, कपड़े एकएक कर मैं मौसीजी को दिखा रही थी. बातों ही बातों में मैं ने अपना फैसला कह सुनाया. सुनते ही मौसीजी ज्वालामुखी की तरह फट पड़ीं. क्रोध से भरी वे बोलीं, ‘क्यों नहीं करोगी तुम गौना?’

‘दरअसल, मौसीजी, हमारी इतनी औकात नहीं कि हम अलग से गौने का खर्च बरदाश्त कर सकें,’ मैं ने गहनों का बौक्स बंद कर अलमारी में रख दिया और कपड़े समेटने लगी.

‘अरे वाह, क्यों नहीं है औकात?’ मौसीजी के आग्नेय नेत्र मेरे तन को सेंकने लगे, ‘क्या तुम जानतीं नहीं कि शादी के समय विदाई करना हमारे खानदान में अच्छा नहीं समझा जाता?’

‘लेकिन इस से होता क्या है?’

‘होगा क्या…वर या वधू दोनों में से किसी एक की मृत्यु हो जाएगी. सालभर के अंदर ही जोड़ा बिछुड़ जाता है.’ मैं तनिक भी नहीं चौंकी. पालतू कुत्ते की तरह पाले गए अंधविश्वासों के प्रति खानदान वालों के इस मोह से मैं पूर्वपरिचित थी.

अलमारी बंद कर पायताने की ओर बैठती हुई मैं ने जिज्ञासा से फिर पूछा, ‘लेकिन मौसीजी, हमारे खानदान में शादी के समय विदाई करना अच्छा क्यों नहीं समझा जाता, इस का भी तो कोई कारण अवश्य होगा?’

‘हां, कारण भी है, तुम्हारे ससुर के चचेरे चाचा की सौतेली बहन हुआ करती थीं. विवाह के समय ही उन का गौना कर दिया गया था. बेचारी दोबारा मायके का मुंह नहीं देख पाईं. साल की कौन कहे, महीनेभर में ही मृत्यु हो गई.’’

अब क्या कहूं, सास का खयाल न होता तो ठठा कर हंस पड़ती. तर्कशास्त्र की अवैज्ञानिक परिभाषा याद हो आई. किसी घटना की पूर्ववर्ती घटना को उस कार्य का कारण कहते हैं. आज वैज्ञानिक धरातल पर भी यह परिभाषा किसी न किसी रूप में जिंदा है. परंतु मुंहजोरी से कौन छेड़े मधुमक्खियों के छत्ते को. मैं सहज स्वर में बोली, ‘लेकिन मौसीजी, उन से पहले जो विवाह के समय ही ससुराल जाती थीं क्या उन की भी मृत्यु हो जाया करती थी?’

‘अरे, नहीं,’ अपने दाहिने हाथ को हवा में लहराती हुई मौसीजी बोलीं, ‘उन के तो नातीपोते भी अब नानादादा बने हुए हैं.’ प्रसन्नता का उद्वेग मुझ से संभल न सका, ‘फिर तो कोई बात ही नहीं है, सब ठीक हो जाएगा.’

‘कैसे नहीं है कोई बात?’ मौसीजी गुर्राईं, ‘गांवभर में हमारे खानदान का नाम इसीलिए लिया जाता है…दूरदूर के लोग जानते हैं कि हमारे यहां शादी से भी बढ़चढ़ कर गौना होता है. देखने वाले दीदा फाड़े रह जाते हैं. तेरी फूफी सास के गौने में परिवार की हर लड़की को 2-2 तोले की सोने की जंजीर दी गई थी और ससुराल वाली लड़कियों को जरी की साड़ी पहना कर भेजा गया था.’ तब की बात कुछ और थी, मौसीजी. तब हमारी जमींदारी थी. आज तो 2 रोटियों के पीछे खूनपसीना एक हो जाता है. महीनेभर नौकरी से बैठ जाओ तो खाने के लाले पड़ जाएं. फिर गौना का खर्च हम कहां से जुटा पाएंगे?’

इसे अपना अपमान समझ कर मौसीजी तमतमा कर उठ खड़ी हुईं, ‘ठीक है, कर अपनी बेटी का ब्याह, न हो तो किसी ऐरेगैरे का हाथ पकड़ा कर विदा कर दे, सारा खर्च बच जाएगा. आने दे सुधीर को, अब मैं यहां एक पल भी नहीं रह सकती. जहां बहूबेटियों का कानून चले वहां ठहरना दूभर है.’ मौसीजी के नेत्रों से अंगार बरस रहे थे. वे बड़बड़ाती हुईं अपने कमरे की ओर बढ़ीं तो मैं एकबारगी सकते में आ गई. मैं लपक कर उन के कमरे में पहुंची. वे अपनी साड़ी तह कर रही थीं. साड़ी उन के हाथ से खींच कर याचनाभरे स्वर में मैं बोली, ‘मौसीजी, आप तो यों ही राई का पर्वत बनाने लगीं. मेरी क्या बिसात कि मैं कानून चलाऊं?’

‘अरे, तेरी क्या बिसात नहीं है? न सास है, न ननद है, खूब मौज कर, मैं कौन होती हूं रोकने वाली?’ उन की आवाज में दुनियाजहान की विवशता सिमट आई. उन की आंखों में आंसू आ गए थे. लगा किसी ने मेरा सारा खून निचोड़ लिया हो. मैं विनम्र स्वर में बोली, ‘मौसीजी, आज तक कभी हम लोगों ने आप की बात नहीं टाली है. मैं हमेशा आप को अपनी सास समझ कर आप से सलाहमशविरा करती आई हूं. फिर भी आप..

परंतु मौसीजी का गुस्सा शांत नहीं हुआ. मैं उन का हाथ पकड़ कर उन्हें आंगन में ले आई और उन्हें आश्वस्त करने का प्रयत्न करने लगी. ये शाम को आए. मौसीजी बैठी हुई थीं. दोपहर का सारा किस्सा मैं ने सुना डाला. मौसीजी का क्रोध सर्वविदित था. ये हारे हुए जुआरी के स्वर में बोले, ‘तब?’

‘तब क्या?’ मैं बोली, ‘50 हजार रुपए मौसीजी से बतौर कर्ज ले लीजिए. 60-70 हजार रुपए चाचाजी से ले लेना. मिलाजुला कर किसी तरह कर दो गौना. मैं और क्या कहूं अब?’

‘बेटी मेरी है, उन्हें क्या पड़ी है?’

‘क्यों नहीं पड़ी है?’ मेरा रोष उमड़ आया, ‘जब बेटी के ब्याह की हर रस्म उन लोगों की इच्छानुसार होगी तो खर्च में भी सहयोग करना उन का फर्ज बनता है.’ संभवतया मेरे व्यंग्य को इन्होंने ताड़ लिया था. बिना उत्तर दिए तौलिया उठा कर बाथरूम में घुस गए. रात में भोजन करने के बाद ये और मौसीजी बैठक में चले गए. बच्चे अपने कमरे में जा चुके थे. पप्पू को सुलाने के बहाने मैं भी अपने कमरे में आ कर पड़ी रही. दिमाग की नसों में भीषण तनाव था. सहसा मैं चौंक पड़ी. मौसीजी का स्वर वातावरण में गूंजा, ‘अरे सुधीर, तेरी बहू कह रही थी कि गौना नहीं होगा. अब बता भला, जब विवाह में विदाई करना हमारे यहां फलता ही नहीं है तब भला गौना कैसे नहीं होगा?’

‘अब तुम से क्या छिपाना, मौसी?’ यह स्वर इन का था, ‘मैं सरकारी नौकर जरूर हूं, लेकिन खर्च इतना ज्यादा है कि पहले ही शादी में 1 लाख रुपए का कर्ज लेना पड़ गया. 2 और बेटियां ब्याहनी हैं सो अलग. 20-30 हजार रुपए से गौने में काम चलना नहीं है, और इतने पैसों का बंदोबस्त मैं कर नहीं पा रहा हूं.’ मौसीजी के मीठे स्वर में कड़वाहट घुल गई, ‘अरे, तो क्या बेटी को दफनाने पर ही तुले हो तुम दोनों? इस से तो अच्छा है उस का गला ही घोंट डालो. शादी का भी खर्च बच जाएगा.’

‘अरे नहीं, मौसीजी, तुम समझीं नहीं. गौना तो मैं करूंगा ही. देखो न, विवाह से पहले ही मैं ने गौने का मुहूर्त निकलवा लिया है. अगले साल बैसाख में दिन पड़ता है.’

‘सच?’ मौसीजी चहक पड़ीं.

‘और नहीं तो क्या? 50 हजार रुपए तुम दे दो, 60-70 हजार रुपए चाचाजी से ले लूंगा. कुछ यारदोस्तों से मिल जाएगा, ठाठ से गौना हो जाएगा.’

‘क्या, 50 हजार रुपए मैं दे दूं?’ मौसीजी इस तरह उछलीं मानो चलतेचलते पैरों के नीचे सांप आ गया हो.

‘अरे, मौसी, खैरात थोड़े ही मांग रहा हूं. पाईपाई चुका दूंगा.’

‘वह तो ठीक है, लेकिन इतने रुपए मैं लाऊंगी कहां से? मेरे पास रुपए धरे हैं क्या?’ मेरी आंखें उल्लास से चमकने लगीं. भला मौसी को क्या पता था कि परंपरा की दुहाई उन की भी परेशानी का कारण बनेगी? मैं दम साधे सुन रही थी. इन का स्वर था, ‘अरे, मौसी, दाई से कहीं पेट छिपा है? तुम हाथ झाड़ दो तो जमीन पर नोटों की बौछार हो जाए. हर कमरे में चांदी के रुपए गाड़ रखे हैं तुम ने, मुझे सब मालूम है.’ ‘अरे बेटा, मौत के कगार पर खड़ी हो कर मैं झूठ बोलूंगी? लोग पराई लड़कियों का विवाह करवाते हैं, और मैं अपनी ही पोती के ब्याह पर कंजूसी करूंगी? लौटाने की क्या बात है, जैसे मेरा श्याम है वैसे तू भी मेरा बेटा है.’ मेरी हंसी फूट पड़ी. लच्छेदार शब्दों के आवरण में मन की बात छिपाना कोई मौसीजी से सीखे. भला उन की कंजूसी से कौन नावाकिफ था.

क्षणिक निस्तब्धता के बाद इन की थकी सी आवाज फिर उभरी, ‘तब तो मौसी, अब इस परंपरा का गला घोंटना ही होगा. न मैं इतने रुपए का जुगाड़ कर पाऊंगा और न ही गौने का झंझट रखूंगा. बोलो, तुम्हारी क्या राय है?’ ‘जो तुम अच्छा समझो,’ जाने किस आघात से मौसीजी की आवाज को लकवा मार गया और वह गोष्ठी समाप्त हो गई. दूसरे दिन चाचाजी का भी सदलबल पदार्पण हुआ. परंपरा और रस्मों के खंडन की बात उन तक पहुंची तो वे भी आगबबूला हो उठे, ‘सुधीर, यह क्या सुन रहा हूं? मैं भी शहर में रहता हूं. मेरी सोसाइटी तुम से भी ऊंची है. लेकिन हम ने कभी अपने पूर्वजों की भावना को ठेस नहीं पहुंचाई. तुम लोग लड़की की जिंदगी से खिलवाड़ कर रहे हो.’

‘चाचाजी, आप गलत समझ रहे हैं,’ ये बोले थे, ‘गौने के लिए तो मैं खूब परेशान हूं. लेकिन करूं क्या? आप लोगों की मदद से ही कुछ हो सकता है.’

चाचाजी के चेहरे पर प्रश्नचिह्न लटक गया. उन की परेशानी पर मन ही मन आनंदित होते हुए ये बोले, ‘मैं चाहता था, यदि आप 80 हजार रुपए भी बतौर कर्ज दे देते तो शेष इंतजाम मैं खुद कर लेता और किसी तरह गौना कर ही देता. आप ही के भरोसे मैं बैठा था. मैं जानता हूं कि आप पूर्वजों की मर्यादा को खंडित नहीं होने देंगे.’ चाचाजी का तेजस्वी चेहरा सफेद पड़ गया. उन के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. थूक निगलते हुए बोले, ‘तुम तो जानते ही हो कि मैं रिटायर हो चुका हूं. फंड का जो रुपया मिला था उस से मकान बनवा लिया. मेरे पास अब कहां से रुपए आएंगे?’ सुनते ही ये अपना संतुलन खो बैठे. क्रोधावेश में इन की मुट्ठियां भिंच गईं. परंतु तत्काल अपने को संभालते हुए सहज स्वर में बोले, ‘चाचाजी, जब आप लोग एक कौड़ी की सहायता नहीं कर सकते, फिर सामाजिक मर्यादा और परंपरा के निर्वाह के लिए हमें परेशान क्यों करते हैं? यह कहां का न्याय है कि इन खोखली रस्मों के पीछे घर जला कर तमाशा दिखाया जाए? मुझ में गौना करने की सामर्थ्य ही नहीं है.’ इतना कह कर ये चुप हो गए. चाचाजी निरुत्तर खड़े रहे. उन के होंठों पर मानो ताला पड़ गया था. थोड़ी देर पहले तक जो विमला के परम शुभचिंतक बने हुए थे, अब अपनीअपनी बगले झांक रहे थे. अब कोई व्यक्ति मेरी बेटी के प्रति सहानुभूति प्रकट करने वाला नहीं था. आज विमला भरीगोद लिए सहीसलामत अपने मायके लौट रही है. अंधविश्वास और खोखली रस्मों की निरर्थकता पाखंडप्रेमियों को मुंह चिढ़ा रही है. शायद वे भी कुछ ऐसा ही निर्णय लेने वाले हैं.

लेखिका- मंजुला

पिता का नाम: भाग 2- एक बच्चा मां के नाम से क्यों नहीं जाना जाता

फिर एक दिन अचानक मानसी जब कालेज से लौटी तो उस ने देखा तापस अपने मातापिता के साथ उस के घर पर है. इतने दिनों में मानसी तापस को पहचानने तो लगी थी और नाम भी जान गई थी.

तापस बैंगलुरु की एक अच्छी कंपनी में है. उस के मातापिता नागपुर में ही सैटल्ड हैं. सबकुछ अच्छा है. यह देख कर मानसी के मातापिता ने यह रिश्ता सहर्ष स्वीकार कर लिया लेकिन मानसी अभी अपना एमबीए कंपलीट करना चाहती थी, वह जौब करना चाहती थी, अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी. मानसी ने जब सब के समक्ष अपने मन की यह बात रखी तो कोई कुछ कहता, इस से पहले ही तापस ने उस पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी और फिर उन दोनों की सगाई हो गई.

दोचार प्रश्नों के पश्चात कुशाग्र बुद्धि की धनी मानसी का सेलैक्शन मैनेजमैंट द्वारा कर लिया गया. मानसी यह खुशखबरी सब से पहले अपने मम्मीपापा से शेयर करना चाहती थी, इसलिए उस ने फौरन घर पर फोन लगा कर अपने सेलैक्ट होने की खबर दी. यह खबर सुनते ही अमिता ने मन ही मन ठान लिया कि अब वह मानसी की शादी जल्द से जल्द करवा कर ही दम लेगी.

उस के बाद जैसे ही मानसी ने तापस को यह बताया कि वह कैंपस सेलैक्शन में सेलैक्ट हो गई, तापस ने उस से कहा, “तुम वहीं रुको, मैं अभी आता हूं.” और कुछ देर में तापस कालेज कैंपस के बाहर था. तापस को देखते ही मानसी उस से लिपट गई, बोली, “जल्दी घर चलो, मुझे मम्मीपापा को एक बहुत ही इम्पौर्टेंट बात बतानी है और उन के चेहरे का एक्सप्रैशन देखना है.”

यह सुनते ही तापस बोला, “अरे पहले मुझे तो बताओ वह इम्पौर्टेंट बात क्या है?”

मानसी दोबारा तापस के गले लगती हुई बोली, “मेरी पोस्टिंग बैंगलुरु में हुई है.”

“वाऊ, नाइस. तब तो डबल सैलिब्रेशन होना चाहिए क्योंकि अब मुझे तुम से मिलने के लिए दिन नहीं गिनने पड़ेंगे,” तापस अपनी खुशी का इजहार करते हुए बोला.

“सैलिब्रेशन…” मानसी हंसती हुई बोली.

“यस माई लव, सैलिब्रेशन तो बनता ही है तुम्हारी पोस्टिंग बैंगलुरु में जो हो गई है. इसलिए, अब हम सीधे चलेंगे मेरे फेवरेट कैफे.”

“लेकिन…”

“लेकिनवेकिन कुछ नहीं माई डियर, लेट्स हैव अ सैलिब्रेशन.”

मानसी कैफे नहीं जाना चाहती थी लेकिन तापस की खुशी की खातिर वह चुप रही. मानसी अब तक अपनी हर खुशी अपनी सहेलियों के संग कालेज के चौराहे पर लगे नत्थूलाल के ठेले पर जा कर आलूटिक्की की चाट व पानीपूरी खा कर ही सैलिब्रेट करती आई थी.

कैफे में जा कर तापस ने मानसी से बिना उस की पसंद जाने ही चीज़पिज़्ज़ा और कोल्डकौफी और्डर कर दिया. तापस, जो आजीवन मानसी का होने वाला साथी था, ने यह जानने की कोशिश न की कि मानसी क्या चाहती है. मानसी का मन उदास हो गया. उस पर तापस का कैफे में सब के बीच बेबाक होना, उसे बार बार छूना बिलकुल भी अच्छा नहीं लग रहा था, इसलिए मानसी ने तुरंत घर चलने की ज़िद पकड़ ली और वे घर आ गए.

घर पर सभी को यह जान कर बेहद खुशी हुई कि मानसी की पोस्टिंग बैंगलुरु में हुई है. दोनों के मातापिता यही चाहते थे कि मानसी और तापस की शादी जल्द से जल्द करा दी जाए ताकि शादी के बाद दोनों साथ रह सकें लेकिन तापस अपने नागपुर वाले प्रोजैक्ट में बिजी था और मानसी की नईनई नौकरी थी, इसलिए शादी 6 महीने के लिए पोस्टपोन्ड कर दी ग‌ई.

जौइनिंग लैटर मिलते ही मानसी बैंगलुरु पहुंच गई. तापस ने सारा इंतजाम कर रखा था. वह चाहता था जब शादी के बाद दोनों को साथ रहना ही है तो क्यों न अभी से साथ रहें. लेकिन मानसी ने इनकार दिया और वह एक अलग फ्लैट किराए पर ले कर रहने लगी.

जब भी तापस का मन करता या उसे समय मिलता, वह मानसी से मिलने उस के फ्लैट आ जाता. वीकैंड और छुट्टी का दिन तो दोनों साथ में ही बिताते. क‌ई दफा तापस मानसी के ही फ्लैट में रुक जाता और दोनों रातें भी साथ ही गुजारते लेकिन मानसी कभी भी अपनी मर्यादा न लांघती. मानसी का यों तापस के इतने करीब रह कर भी दूर रहना तापस के अंदर की तपिश को और बढ़ा देता और तापस हर बार अधीर हो उठता, अपना संयम खोने लगता परंतु मानसी उसे रोक देती. इस वजह से दोनों के बीच तकरारें भी होतीं और तापस खफा हो जाता लेकिन फिर धीरे से मानसी उसे मना लेती.

शादी को अभी मात्र 3 महीने ही बचे थे कि इसी बीच तापस एक रविवार मानसी से मिलने उस के फ्लैट पहुंचा और उस ने जो देखा उसे देख कर उस की आंखें खुली की खुली रह गईं. उस की नजरें मानसी पर आ कर यों थमीं कि वह अपने होश गंवा बैठा. उसी वक्त मानसी नहा कर निकली थी और उस के बालों से गिरेते पानी मोतियों की तरह चमक रहे थे. मानसी के घुटनों से नीचे के पांव संगमरमर की तरह चिकने व खूबसूरत लग रहे थे. आज मानसी बाथिंग गाउन में बाकी दिनों से ज्यादा खूबसूरत लग रही थी. यह देख तापस ने मानसी को कुछ इस तरह अपनी बांहों में भर लिया कि दोनों के दिल में उमड़तेघुमड़ते प्यार के बादल और तेज हवाओं में शरमोहया की दीवारें कांपने लगीं और थोड़ी ही देर में सारी हदें पार हो गईं.

मानसी को पा कर तापस के चेहरे पर एक ओर जहां जीत के भाव थे तो वहीं इस के विपरीत मानसी खुद से थोड़ी खफा थी. उस दिन के बाद से तापस के व्यवहार में बदलाव आने लगा. वह बहुत कम मानसी से मिलने लगा. तभी अचानक एक रोज़ मानसी की तबीयत बिगड़ ग‌ई और डाक्टर से चैक‌अप कराने पर पता चला कि वह मां बनने वाली है. यह सुनते ही मानसी के पैरोंतले जमीन खिसक गई. मानसी ने फौरन तापस को फोन लगाया परंतु उस ने फोन नहीं उठाया. मानसी की बेचैनी बढ़ने लगी और वह तापस से मिलने उस के फ्लैट जा पहुंची.

वहां जो हुआ उस ने मानसी को पूरी तरह से तोड़ दिया. यहां तापस का एक अलग ही रूप मानसी को देखने को मिला जिस की कल्पना कभी मानसी ने अपने सपने में भी नहीं की थी. जब मानसी ने अपनी प्रैग्नैंसी और शादी की बात तापस से कही तो वह शादी करने से मुकर गया और उस ने जो कहा उस से तापस के घटिया विचारों का उजागर हुआ जिसे सुन कर मानसी आवाक रह गई.

मखमली पैबंद: एक अधूरी प्रेम कहानी

मेरी उंगलियां गिटार के तारों पर लगातार थिरक रही थीं और कंठ किसी मशहूर इंगलिश सिंगर के गानों की लय में डूबता चला जाता था. मेरे सामने एक छोटी सी बच्ची जिस की उम्र लगभग 5 वर्ष रही होगी उस इंगलिश गाने की धुन पर थिरक रही थी. उस के गोलमटोल चेहरे पर घुंघराले बालों का एक गुच्छा बारबार लटक आता था जिसे वह बड़ी ही बेपरवाही से पीछे की ओर झटक देती और बीचबीच में कभी अपनी मम्मी तो कभी पापा की उंगलियों को थाम अपने साथ डांस करने के लिए सामने की मेज से खींच लाती.

बच्ची के मातापिता की आंखों में अपनी बच्ची के इंगलिश गानों के प्रति प्रेम व लगाव से उत्पन्न गर्व उन की आंखों से साफ झलक रहा था. इन इंगलिश गानों का अर्थ वह बच्ची कितना समझ पा रही थी, यह तो नहीं पता, परंतु हां फाइवस्टार होटल के उस डाइनिंगहौल में उपस्थित सभी मेहमानों के लिए वह बच्ची आकर्षण का केंद्र अवश्य बनी हुई थी.

मैं इस समय नील आइलैंड के एक फाइवस्टार होटल के डाइनिंगहौल में गिटार थामे होटल के मेहमानों के लिए उन की फरमाइशी गीतों को गा रहा था. यह डाइनिंगहौल होटल के बीच में केंद्रित था और इस से करीब 20 गज की दूरी पर कौटेज हाउस बने हुए थे, जिन की संख्या लगभग 25 से 30 होगी. लोगों के लिए गाना गा कर उन का दिल बहलाना मेरा शौक नहीं, बल्कि मेरा पेशा  था. हां, संगीत का यह शौक कालेज के दिनों में मेरे लिए महज टाइम पास हुआ करता था.

संगीत के इसी शौक ने तो नायरा को मेरे करीब ला दिया था. वह मुझ से अकसर गानों की फरमाइश करती रहती थी और मैं तब दिल खोल कर बस उस के लिए ही गाता था. कालेज की कैंटीन में जब उस दिन भी मैं कालेज में होने वाले वार्षिक समारोह के लिए अपने दोस्तों के साथ किसी गाने की प्रैक्टिस कर रहा था. तभी तालियों की आवाज ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा. नायरा से कालेज की कैंटीन में मेरी वह पहली मुलाकात थी. कालेज की पढ़ाई खत्म करने के बाद जहां मुझे  किसी कंपनी में फाइनैंस ऐग्जिक्यूटिव की जौब मिली, वहीं नायरा किसी मल्टीनैशनल कंपनी में एचआर मैनेजर के पद पर तैनात हुई. हम दोनों एक ही शहर मुंबई में ही 2 अलगअलग कंपनियों में कार्यरत थे. हम ने किराए का फ्लैट ले लिया था जिस में हम साथ रहते थे. हम लिव इन में 4 सालों से थे.

एक दिन अचानक मेरा तबादला कोलकाता हो गया. कोलकाता आने पर भी हमारा साथ पूर्ववत बना रहा. वीकैंड में कभी वह कोलकाता आ जाती तो कभी मैं मुंबई पहुंच जाता और साथ में अच्छा समय व्यतीत करने के बाद वापस अपनेअपने कार्यस्थल लौट जाते. लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि मेरी जौब चली गई और धीरेधीरे नायरा का साथ भी. जौब जाने के बाद से ही वह मुझ से कटीकटी सी रहने लगी थी. हमारे बीच की दूरियां लगातार बढ़ती जा रही थीं. हालांकि मेरी पूरी कोशिश रही कि हमारे बीच की दूरियां मिट जाएं.

खैर, आज मैं इस छोटे से आइलैंड के बड़े से होटल में गिटार बजा रहा हूं और मेरा शौक ही अब मेरा पेशा बन गया है.

‘‘ऐक्स्क्यूज मी’’ मैं ने पानी पी कर गिलास साइड की टेबल पर रखा ही था कि तभी एक महिला की आवाज सुनाई दी जिस ने मुसकराते हुए ‘कैन यू सिंग दिस सौंग’ बोल कर कागज का एक टुकड़ा जिस पर किसी हिंदी गाने की कुछ पंक्तियां लिखी हुई थीं. मेरी और बढ़ाते हुए कहा. उस की उम्र करीब 28 वर्ष की रही होगी.

उस ने अपने सवाल फिर से दोहराया, ‘‘क्या आप यह हिंदी गाना गा सकते हैं? यह उन की फरमाइश है,’’ यह कहते हुए उस महिला ने अपनी उंगली से एक ओर इशारा किया.

मेरी आंखों ने उस की उंगली का अनुकरण किया. मेरी नजर मेरे से कुछ दूरी पर मेरी दाईं तरफ की मेज पर बैठी उस महिला से जा टकराई. उस की आंखों में गजब का आकर्षण था. वह बड़े प्यार से मेरी ओर देखते हुए मुसकराई तो मैं ने हामी में सिर हिला दिया और फिर मेरी उंगलियों ने गिटार के तारों पर थिरकना शुरू कर दिया.

मैं ने उस महिला की फरमाइश के गीत को अभी खत्म ही किया था कि उस ने एक और हिंदी गाने की फरमाइश कर दी. इस बार वह महिला स्वयं मेरे सामने खड़ी थी. इस से पहले उस महिला की सहेली थी. गाने के बोल थे, ‘‘नीलेनीले अंबर पे…’’

धीरेधीरे रात बीतती जा रही थी और होटल का डाइनिंगहौल भी एकएक कर खाली होने लगा था, लेकिन वह महिला अब भी वहीं बैठी हुई थी.  मंत्रमुग्ध सी मेरी ओर देखे जा रही थी. उस का इस प्रकार मुझे एकटक देखना मेरे अंदर झिझक  पैदा कर रहा था. मैं ने अपने गिटार पैक किए और चलने की तैयारी की. उस महिला की बाकी सहेलियां भी जा चुकी थीं और शायद अब वह भी डाइनिंगहौल से बाहर निकलने ही वाली थी कि अचानक मौसम बेहद खराब हो चला. बाहर तेज गरज के साथ बारिश शुरू हो गई थी. आइलैंड पर अचानक साइक्लोन का आना और मौसम का इस तरह खराब होना सामान्य बात थी.

मुझे इस बात का पूर्व अंदेशा था फिर भी अपने किराए के कमरे से करीब 4 किलोमीटर की दूरी पर यहां आना मेरी मजबूरी थी. यह आइलैंड न तो  बहुत बड़ा है और न ही यहां की आबादी ही इतनी ज्यादा है. यहां की जितनी आबादी है उतनी तो मेरे शहर कोलकाता में किसी शादी में बरात में ही लोग आते होंगे. खैर, अमूमन यहां हरकोई एकदूसरे को पहचानता था. वैसे मेरी जानपहचान यहां के लोगों से उतनी अधिक अभी नहीं हुई थी क्योंकि यहां रहते हुए मुझे बामुश्किल 1 महीना हुआ होगा और दूसरा मैं अपनी शर्मीले  स्वभाव के कारण लोगों से कम ही घुलतामिलता हूं.

‘‘कृपया आप इस छाते के अंदर आ जाइए बाहर बारिश बहुत तेज है,’’ मैं जैसे ही डाइनिंगहौल से कांच के बने उस दरवाजे से बाहर निकला कि वह महिला उस बड़े से छाते का एक हिस्सा मेरी ओर करते हुए मु?ा से छाते के अंदर आने का आग्रह करने लगी.

‘‘जी धन्यवाद, मेरे पास खुद का रेनकोट है, आप बेकार में परेशान न हों,’’ मैं ने अपने बैग को टटोला, लेकिन यह क्या रेनकोट आज मैं घर पर ही भूल आया था. मुझे अपनी लापरवाही पर गुस्सा आया.

‘‘कोई बात नहीं आप इस छाते के अंदर आ सकते हैं. वैसे भी यह काफी बड़ा है. आप इतनी रात गए इस तूफान में वापस कैसे जाएंगे?’’ उस ने मेरे प्रति चिंता जाहिर करते हुए पूछा, ‘‘मेरे विचार से, आप जब तक मौसम ठीक नहीं हो जाता कुछ घंटे मेरे साथ मेरे कौटेज हाउस में रुक सकते हैं तूफान थमने के बाद वापस जा सकते हैं. वैसे आप के पास घर जाने का क्या कोई साधन है?’’

मैं ने खामोशी से इनकार में सिर हिलाया. संजोग से मेरी बाइक को भी आज ही खराब होना था.

‘‘इस वक्त आप को कोई औटोरिकशा भी शायद ही मिले,’’ उस की बातों में सचाई थी.  सच में ऐसे मौसम में बाहर किसी भी तरह की सवारी का मिल पाना मुश्किल था. चारों ओर  सन्नाटा पसरा था. मैं ने नोटिस किया डाइनिंगहौल खाली हो चुका था. मैं ने कलाई घड़ी पर नजर दौड़ाई. रात के 11:30 बज रहे थे. अब मैं बिना कोई सवाल किए उस के साथसाथ चल पड़ा. हम दोनों डाइनिंगहौल वाले एरिया से निकल कर थोड़ी दूर आ चुके थे.

 

सामने गार्डन में लगा पाम ट्री बड़ी तेजी के साथ हिल रहा था. हवा का तेज झोका मानो जैसे उस की मजबूती को बारंबार चुनौती दे रहा था. तेज तूफानी हवा जब उस के ऊपर से हो कर गुजरती तो वह एक ओर झक जाता और फिर वापस उसी मजबूती के साथ तन कर खड़ा हो जाता. मालूम नहीं, वह इस तूफान का मुकाबला कब तक कर पाएगा? तेज हवा का एक गीला झोंका हमारे ऊपर से हो कर निकला और छाते  को अपने साथ उड़ा ले गया.

‘‘मौसम तो बहुत ही ज्यादा खराब हो चला है,’’ कह वह महिला मेरे करीब आ गई थी.

मैं ने गौर से देखा बारिश की तेज बौछार के कारण वह महिला बिलकुल भीग चुकी थी. बिजली की तेज कौंध से उस का चेहरा चमक उठता था और उस के होंठ शायद सर्द हवाओं के कारण कांप रहे थे. मैं ने एक सभ्य और शालीन पुरुष की भूमिका अदा करते हुए अपना कोट उतार कर उस के कंधों पर टिका दिए जोकि लगभग गीले हो चुके थे.

मेरे द्वारा ऐसा करने पर वह महिला खिलखिला कर हंस पड़ी और मेरा कोट वापस मुझे पकड़ाते हुए बोली, ‘‘इस की कोई जरूरत नहीं.’’

इतने सन्नाटे में और ऐसी स्थिति में उस का इतने जोर से हंसना मुझे बिलकुल पसंद नहीं आया. हालांकि तभी मुझे अपनी इस बेवकूफी

पर गुस्सा भी आया. मैं ने गंभीर होते हुए पूछा, ‘‘आप का कौटेज हाउस कौन सा है?’’ क्योंकि होटल के डाइनिंग एरिया से 20 गज की दूरी पर करीब 25 से 30 की संख्या में कौटेज हाउस बने हुए हैं, जिन में से हरेक कौटेज एकदूसरे से लगभग 50 कदम की दूरी पर स्थित है.

होटल समुद्र किनारे था. अत: लहरों का शोर उस सन्नाटे में सिहरन पैदा कर रहा था. स्ट्रीट लाइट के धुंधले से प्रकाश में हम दोनों एकदूसरे को सहारा देते हुए तेज कदमों के साथ चल रहे थे. थोड़ी ही देर में हम कौटेज के बाहर थे. उस ने दरवाजे का लौक खोला और कमरे के अंदर जाते हुए मुझे भी हाथ के संकेत से अंदर आने के लिए कहा. मैं संकोचवश दरवाजे पर ही खड़ा रहा.

‘‘आप अंदर आ जाइए,’’ उस ने जब फिर से मुझे अंदर आने के लिए कहा तो मैं थोड़ा सोचते हुए कमरे के अंदर आ गया.

‘‘आप की सहेलियां क्या आप के साथ नहीं ठहरी हैं?’’ मैं ने देखा कि इतने बड़े कौटेज हाउस में वह महिला अकेली ठहरी हुई थी.

‘‘हम सभी अलगअलग ठहरे हुए हैं. मैं यहां अकेली ही ठहरी हूं. हम सभी पोर्ट ब्लेयर से साथ आई थीं. हमारा किट्टी ग्रुप है, हर एज की महिलाएं हैं. कुछ तो अपने बच्चों को भी साथ लाई हैं, लेकिन मुझे जरा शांत और अकेले रहना पसंद है इसलिए मैं ने यहां कौटेज हाउस लिया है. आप चिंता न करें आप के यहां रुकने से मुझे कोई परेशानी नहीं है,’’ कहते हुए वह महिला बाथरूम में चली गई और मैं वहां लगे सोफे पर पसर गया, जोकि उस के बैडरूम के साथ ही लगा था. थोड़ी देर में जब वह चेंज कर के लौटी तब भी मैं उस सोफे पर था, न जानें किस गहरी सोच में डूबा हुआ. ‘‘आप ने अभी तक चेंज नहीं किया? आप के कपड़े तो बिलकुल गीले हो चुके हैं.’’ ‘‘नहीं, मैं अपने साथ…’’ मैं कहने ही वाला था कि मेरे पास ऐक्स्ट्रा कपड़े नहीं हैं.   उस ने अपना ट्रैक सूट मुझे थमाते हुए कहा, ‘‘आप इसे तब तक पहन सकते हैं जब तक आप के कपड़े सूख नहीं जाते.’’ मैं मना नहीं कर सका क्योंकि मेरे पास इस के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था. थोड़ी देर बाद मैं लेडीज ट्रैक सूट में था जोकि मेरी माप का बिलकुल नहीं था.

मैं ने अपनी पतलून और शर्ट वहीं चेयर पर पंखे के नीचे फैला दी.

‘‘आप के पति क्या काम करते हैं?’’ मैं ने उस के गले में लटकते मंगलसूत्र की ओर देखते हुए पूछा. हालांकि मुझे यह खुद भी पता नहीं था कि क्या मैं सच में इस सवाल का उत्तर जानना चाहता था, लेकिन शायद माहौल को सहज बनाने के लिए, बातचीत की पहल के लिए मैं ने यह सवाल किया.

इस का जवाब उस ने बड़े ही शांत भाव से दिया, ‘‘बिजनैस?’’ उत्तर काफी संक्षिप्त था. इस के बाद कुछ पल के लिए कमरे में खामोशी छाई रही.

मैं उस के बैड से कुछ ही दूरी पर लगे एक बड़े से सोफे पर पैर पसारे हुए सिर को सोफे की दूसरे छोर पर कुशन के सहारे टिकाए लेटा था, जहां से मैं उस के चेहरे की भावभंगिमाओं को अच्छी तरह से पढ़ पा रहा था. उस के चेहरे पर एक अजीब सी उदासी नजर आ रही थी. न जाने क्यों मुझे उस की हंसी में एक खोखलापन नजर आ रहा था. उस की खुशी बनावटी प्रतीत हो रही थी. वह जब भी जोर से हंसती तो ऐसा महसूस होता कि जैसे वह अपने अंदर के किसी खालीपन को ढकने की कोशिश कर रही है, कोई दर्द जो उस ने अपने अंदर समेटा हुआ है. मालूम नहीं कैसे?

उस कमरे में उस के साथ कुछ घंटे व्यतीत करने के बाद ही मुझे उस की वास्तविक आंतरिक स्थिति का एहसास होने लगा था. उस की आंखों में छिपे दर्द को मैं महसूस करने लगा था. मैं अभी तक उस के नाम से वाकिफ नहीं था और न ही वह मेरे विषय में ज्यादा कुछ जानती थी, फिर भी हम दोनों कमरे में साथ थे.

‘‘आप किसी बात से परेशान हैं क्या…’’  मैं ने कमरे में छाई चुप्पी को तोड़ना चाहा.

‘‘मेरा नाम राधिका है,’’ उस ने मेरे अधूरे वाक्य को पूरा करते हुए अपना परिचय दिया.

‘‘और आप समीर? मैं ने आप के आईडैंटटी कार्ड मैं आप का नाम देखा था,’’ और फिर से वह किसी गहरी सोच में डूब गई.

‘‘वैसे मुझे पूछने का हक तो नहीं, लेकिन माफ कीजिएगा मैं फिर भी पूछ रहा हूं. कुदरत ने तो आप के झाले में रुपएपैसे, सारे ऐशोआराम दिए हैं, फिर भी पिछले कुछ घंटों से मैं ने एक बात नोटिस की है कि आप के चेहरे की खुशी बनावटी है. आप की हंसी मालूम नहीं क्यों मुझे लगती है?’’

‘‘खुशी, ऐशोआराम, रुपएपैसे,’’ उस ने मेरे द्वारा कहे गए इन सारे शब्दों को दोहराते हुए एक गहरी सांस ली, ‘‘मैं तुम से एक सवाल पूछना चाहती हूं, धनदौलत, रुपएपैसे का तुम्हारी जिंदगी में क्या अहमियत है? चलो तुम्हें ये सब मैं दे दूं तो भी क्या तुम इन से सुखशांति खरीद लोगे?’’

‘‘बिलकुल, धनदौलत से सबकुछ हासिल किया जा सकता है. मेरी समझ से जिंदगी में अगर एक इंसान के पास धनदौलत है तो उस के पास सबकुछ है. नायरा ने इन्हीं वजहों से तो मुझे छोड़ा था, जब मेरी नौकरी चली गई थी, मैं आर्थिक तंगी से गुजर रहा था. नायरा और हमारे बीच आई दूरियों की वजह तो यही रुपएपैसे थे.’’

‘‘मेरा मतलब प्रेम से था, सच्चे प्रेम से, क्या तुम रुपएपैसे की बदौलत सच्चे प्रेम को खरीद  सकते हो या ठीक इस के विपरीत कहूं तो यदि मैं तुम्हें रुपएपैसे, धनदौलत दे दूं, तो क्या बदले में तुम मुझे सच्चा प्रेम दे सकते हो? क्या दे सकोगे  मुझे सच्चा प्रेम? मेरे पास धन, दौलत, रुपएपैसे सबकुछ है परंतु नहीं है तो सच्चा प्रेम जो मेरी जिंदगी के खालीपन को भर सके.’’

‘‘क्यों? क्या आप के पति आप से प्रेम नहीं करते?’’ मैं ने अचानक सवाल पूछा.

‘‘उन का बहुत बड़ा कारोबार है, बहुत सारी संपत्ति है और नहीं है तो एक औलाद जो उन के बाद उन की संपत्ति का मालिक बन सके औलाद की चाहत में उन्होंने अपनी पहली पत्नी को तलाक दे दिया. पैसों के बल पर मुझे से 50 वर्ष की आयु में शादी कर ली, जबकि मेरी उम्र उस वक्त 22 साल थी. मेरे पिता जोकि उन के यहां एक साधारण सी नौकरी करते थे ने मेरी मां के इलाज के लिए काफी पैसे उधार ले लिए थे,’’ बोलतेबोलते वह अचानक चुप हो गई.

कुछ देर की खामोशी के बाद उस ने आगे बताना जारी रखा, ‘‘मेरी शादी के कुछ ही महीने बाद मेरी मां की मृत्यु हो गई और उन की मृत्यु के कुछ महीने बाद ही अपने पिता भी चल बसे. मेरे पास सबकुछ है और जो नहीं है वह है प्रेम, सच्चा प्रेम जिस के अभाव में जीवन निरर्थक लगता है. अपने पति के लिए मैं सिर्फ एक साधन हूं. एक ऐसा साधन जो उन के लिए संतान की प्राप्ति करा सकता है, उन की अपार संपत्ति का वारिस दिला सकता है. हमारी शादी के 5 वर्ष बीत गए हैं, लेकिन संतान की प्राप्ति नहीं हुई. वे इस सब का जिम्मेदार मुझे ठहराते हैं, जबकि कमी उन के अंदर है. मैं आज अच्छीखासी संपत्ति की मालकिन हूं. फिर भी जिंदगी में एक खालीपन है, खोखलापन है.’’

वह बिलकुल मेरे नजदीक बैठी थी. मैं सोफे पर शांत बैठा हुआ उस की बातों को सुन रहा था. न जाने कब मेरा हाथ उस के हाथों में आ गया. मेरे हाथ पर पानी की बूंद सा कुछ टपका तो मैं ने देखा उस की आंखों में आंसू भरे थे.

मैं ने सोफे पर बैठेबैठे पीछे खिड़की पर से परदे को थोड़ा सरका कर कांच से बाहर झंकते हुए मौसम का मुआयना किया. बाहर अभी भी तेज हवा के साथ जोरदार बारिश हो रही थी.

‘‘मौसम अभी भी काफी खराब है,’’ मैं ने टौपिक चेंज करने की कोशिश की.

‘‘क्या तुम मेरे लिए कुछ गा सकते हो?’’

‘‘अभी इस वक्त?’’ मैं ने घड़ी देखी रात के 2 बज रहे थे.

‘‘क्या तुम मुझे कुछ पल की खुशी दे सकते हो? ऐसी खुशी जिसे मैं ताउम्र संजो कर रख सकूं? कुछ ऐसे लमहे जिन की मखमली यादों से मैं अपनी जिंदगी की इस रिक्तता को भर सकूं? मैं तुम्हें मुंहमांगे पैसे दे कर इन लमहों को तुम से खरीदना चाहती हूं.’’

अचानक उस ने अपना सिर मेरे सीने पर टिका दिया. मैं उस की तेज धड़कन को साफसाफ सुन पा रहा था, उस की गरम सांसों को महसूस कर रहा था. उस ने अपने होंठ मेरे होंठों पर रख दिए.

बाहर बिजली की कड़कड़ाहट के साथ एक तेज आवाज हुई. शायद पाम का वह वृक्ष जो अभी तक अपनी जड़ों पर मजबूती के साथ खड़ा था, उसे इस तूफान ने उखाड़ गिराया था. मैं ने जीवन में पहली बार नायरा से बेवफाई की. हम सारी रात एकदूसरे के आगोश में थे.

सुबह जब आंख खुली तो बारिश थम चुकी थी. मैं ने कांच की खिड़की से परदे को सरका कर बाहर देखा. बारिश थम चुकी थी. हवा के हलकेहलके झांके बाहर खूबसूरत फूलपत्तियों को सहला रहे थे. हवा के इस प्रेमस्पर्श से लौन में लगे पेड़ों की पत्तियां थिरकथिरक कर जैसे खुशी का इजहार कर रही थीं.

सामने दीवार पर लटकी उस मोटी तार पर बारिश के पानी की एक अकेली बूंद अपने अकेलेपन की बेचैनी को एक ओर झटकते हुए नीचे टपकने को आतुर था. सामने किसी वृक्ष के डाल पर एक छोटी सी चिडि़या कहीं से उड़ती आई और फुदकफुदक कर अपने गीले पंखों को फड़फड़ाते हुए सुखाने की चेष्टा करने लगी मानो जैसे खुले आसमान में वापस उड़ने की तैयारी कर रही हो.

‘‘आप चाय लेंगे या कौफी?’’

‘‘नहीं, मैं अब जाना चाहूंगा,’’ यह कहता  हुआ मैं उठ खड़ा हुआ और बाहर निकलने की तैयारी करने लगा तो उस ने मेरे हाथों में एक विजिटिंग कार्ड पकड़ा दिया और कहा, ‘‘यदि आप कोलकाता आएं तो इस पते पर अवश्य संपर्क करें.’’

मैं ने आश्चर्य से उस की ओर देखा.

‘‘मैं इस कंपनी की मालकिन हूं. दरअसल,  यह कंपनी मेरे ही नाम है. आप को आप की पसंद की पोस्ट मिल जाएगी और तनख्वाह आप जितना कहें क्योंकि मेरे पति के बहुत सारे बिजनैस हैं. अलगअलग शहरों में कई कंपनियां हैं, तो उन में से यह एक कंपनी मेरे नाम है. शादी के इतने सालों में मैं ने यही एक समझदारी का काम किया है कि मैं ने खुद को आर्थिक रूप से मजबूत बनाया वरना यह जालिम दुनिया,’’ और वह कुछ कहतेकहते अचानक चुप हो गई, फिर आगे बोली, ‘‘इस जिंदगी ने मुझे बहुत कुछ सिखाया है. वैसे आप चाहें तो पोर्ट ब्लेयर में भी आप को काम मिल सकता है क्योंकि मैं पोर्ट ब्लेयर में भी एक बिजनैस जल्द ही शुरू करने वाली हूं. आप के लिए यहां भी मौका है.’’

मैं कुछ दिनों बाद कोलकाता वापस आ गया. वादे के मुताबिक मुझे नौकरी भी मिल गई और ऊंची तनख्वाह भी. धीरेधीरे वक्त अपनी गति से बीतता चला गया.

‘‘हैलो, मैं कोलकाता वापस आ रही हूं,’’ एक दिन अचानक नायरा ने मुझे फोन कर के अपने आने की सूचना दी और उस के अगली सुबह वह मेरे घर आ गई. मैं ने कोलकाता के पौश एरिया में एक बड़ा सा फ्लैट खरीद लिया था. एक नई गाड़ी भी खरीद ली थी. ऐशोआराम की सारी सुखसुविधा अब हमारे पास थी. अब नायरा मुझ से शादी करना चाहती थी. नायरा के  मांबाप भी जोकि पहले हमारी शादी के पक्ष में नहीं थे क्योंकि वह अपनी बेटी की शादी किसी बेरोजगार से नहीं करा सकते थे और नायरा अपने मांबाप की मरजी के खिलाफ मुझ से शादी नहीं कर सकती थी. परंतु अब नायरा और उस के मांबाप जल्द से जल्द शादी के पक्ष में थे.

वैसे मुझे भी शादी से कोई ऐतराज नहीं था. जल्द ही शादी की तारीख भी तय हो गई और हमारी ऐंगजेमैंट भी हो गई. जिंदगी वापस पटरी पर दौड़ने लगी थी. ऐंगजेमैंट के बाद नायरा वापस मुंबई आ गई थी क्योंकि शादी में अभी कुछ दिन बाकी थे. मैं वीकैंड पर नायरा से मिलने मुंबई गया हुआ था. मैं और नायरा साथ में एक अच्छा टाइम स्पैंड कर रहे थे ताकि मैं किसी औफिस कौल में बिजी न हो जाऊं, नायरा ने मेरे फोन को साइलैंट मोड पर कर के फोन अपने पास ही रख लिया था.

मैं इस बात से बेखबर था कि उस दिन राधिका के 10 फोन आए थे. फोन नहीं उठा पाने के कारण राधिका ने वाट्सऐप मैसेज सैंड कर दिया, ‘‘मुबारक हो मैं ने बेटे को जन्म दिया है. मुझे इतनी बड़ी खुशी मिली है कि संभाले नहीं संभल रही है. इस खुशी का सारा श्रेय आप को जाता है. मेरे दामन को खुशियों से भरने के लिए आप का बहुतबहुत शुक्रिया. मुझे भनक तक नहीं लगी और यह मैसेज नायरा ने पढ़ लिया. उस दिन मेरे और नायरा के बीच काफी बहस हुई. बात वापस संबंधविच्छेद तक आ गई, लेकिन मैंने हार नहीं मानी.

मैं ने नायरा को समझना जारी रखा. मैं ने उसे बड़े शांतभाव और प्रेमपूर्वक समझाया, ‘‘नायरा, मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति जो प्रेम है वह सिर्फ तुम्हें ही समर्पित है. मैं तुम्हें दिल की गहराइयों से प्यार करता हूं. तुम्हारे प्रति मेरा यह प्रेम कभी खत्म नहीं हुआ. हां, मैं ने उन में से कुछ लमहे किसी को सौंप कर तुम्हारे लिए जीवनभर की खुशियां ही तो खरीदी हैं. तुम्हारा जीवनभर का साथ ही तो चाहा है. अब तुम ही बताओ जब मेरे पास नौकरी नहीं थी, पैसे नहीं थे, सुखसुविधा नहीं थी तब तुम ने ही मेरा साथ छोड़ा था.’’

नायरा चुप थी क्योंकि उस के पास मेरे सवालों के जवाब नहीं थे.

मैं ने राधिका की सारी सचाई, सारी बातें नायरा के समक्ष रख दीं. सारी बातें जानने के बाद नायरा ने मुझे माफ कर दिया. अब मैं और नायरा शादी के बंधन में बंध कर एक खुशहाल जिंदगी व्यतीत कर रहे हैं. बच्चे की पहली सालगिरह पर राधिका ने हमें भी आमंत्रित किया है और उन के पति कन्हैया भी इस सचाई से अब तक वाकिफ हो चुके हैं फिर भी वे अपनी खुशी का इजहार कर रहे हैं. हालांकि वे अपनी आंतरिक पीड़ा को लोगों के समक्ष प्रकट करने से  कतराते नजर आ रहे हैं. अपने चेहरे पर खुशी ओढ़े हुए वे मेहमानों की आवभगत में लगे हुए हैं. यह सचाई हालांकि कन्हैया के पुरुषरूपी अहंकार पर प्रहार तो अवश्य कर रही है, लेकिन दुनिया के समक्ष इन बातों से ऊपर उन के लिए एक पुत्र का पिता कहलाने का गौरव और उस की महत्ता अधिक हो गई थी.

नायरा और मैं बच्चे को प्यार और दुलार कर गिफ्ट पकड़ा कर केक, मिठाई और स्वादिष्ठ व्यंजनों की दावत उड़ा कर अपने घर लौट रहे थे. इस मौके पर राधिका बेहद खुश दिख रह थी. उस ने नायरा से खूब सारी बातें कीं और हमें गेट तक छोड़ने कन्हैया भी राधिका के साथ आए.

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