नई कालोनी: जब महरी को दिखा तेंदुआ

आधुनिक स्कूलों की जाती एसी बसों में भारी बस्ते लिए बच्चे चढ़ रहे थे. उन की मौडर्न मांएं कैपरीटीशर्ट के ऊपर लिए दुपट्टे को संभालती हुई बायबाय कर रही थीं. कारें दफ्तरों, कारोबारों की तरफ रवाना हो रही थीं. पिछली सीट पर अपने सैलफोन में व्यस्त साहब लोग गार्ड्स के सलाम ठोकने को आंख उठा कर नहीं देखते. 11, 13 और 15 बरस की महरियां काम पर आ रही थीं और कालोनी के सुरक्षा गार्ड्स उन्हें छेड़ रहे थे.

पौश कालोनी के सामने हाईवे सड़क की झडि़यों पर फूल सी कोमल धूप खिल ही रही थी. उस में आज फिर धूल के तेज गुबार आआ कर मिल उठ गए थे. उस पार कलोनाइजर की मशीनी फौज उधर के बचे जंगल को मैदान में बदल रही थी. हाईवे सड़क के आरपार 2 ऊंचे बोर्ड थे. निर्माणाधीन नील जंगल सिटी, नवनिर्मित नील झरना सिटी.

कालोनी द्वार के सजीले पाम वृक्षों की चिडि़यां न जाने क्यों अचानक चुप लगा गई थीं. बाकी सब ठीक चल रहा था. दूसरी कतार के तीसरे बंगले में रहने वाली गृहिणी अपने दोनों बच्चों को स्कूल बस में और पति को कार में विदा कर ऊपरी बैडरूम में कांच के सजीले जग में पानी रख चुकी थी. अब दोनों जरमन शेफर्ड कुत्तों को खाने में उबला मीट दे रही थी. वह चुप और उदास दिख रही थी. हिंदुस्तानियों को ऐसी स्त्रियां हमेशा ही बहुत पसंद रही हैं जो अलसुबह उठ कर सब के जाने की तैयारी, जाने के बाद उन के जूठे बरतन और बिस्तर पर छूटे गीले तौलिए, कपड़े समेटना, आने पर सब का सत्कार और गैरमौजूदगी में घर की सुव्यवस्था आदि करती हैं. परिचित पड़ोसी, नातेरिश्तेदार कौन नहीं जो इस गृहिणी की मिसाल अपनी स्त्रियों को न देता हो.

कवर्ड कैंपस कालोनी के बीचोंबीच के गार्डन पार्क, स्याह रेशम सड़कों के किनारों के फूलों वाले बौने पेड़ों और कुल जमा प्राकृतिक माहौल ने न जाने क्यों एकाएक दम साध लिया. बाकी सब अच्छा चल रहा है. पहली कतार के पहले ही बंगले में रहने वाले अतिवृद्ध दंपती अपनी बालकली में बैठे थे. वे नए प्राप्त स्मार्टफोन पर, इतनी ऊंची आवाज में, अपने बेटों से बतिया रहे थे जैसे बिना फोन के भी वे उन की बात सुन लेंगे आस्टे्रलिया या नौर्वे या फिर लंदन में.

तभी अचानक पर्षियन बिल्ली पता नहीं क्यों रो उठी है जबकि उस की बूढ़ी,

एकाकी, रिटायर्ड मालकिन उस के पास ही पार्क में फ्लाश के 2 पेड़ों तले जौगिंग कर रही थी, ये पेड़ अपने टेढ़मेढे़पन की कलात्मकता के कारण कभी बख्श दिए गए थे.

पूरा जीवन अपनी पसंद की सर्वोच्चता के साथ बिताने के बाद अब सफल स्त्री के पास बात करने को सिर्फ यह पर्षियन बिल्ली ही बची थी. अपने शरीर की अतिस्थूलता से थकती व्यायाम करने बैठी थी और सोच रही थी कि बिल्ली को आज डाक्टर के पास ले जाएगी.

एक डुपलैक्स के बाहर से हवा की तरह गुजर गए किसी को, किसी ने नहीं देखा. इस घर में बड़ी व्यस्तता है. परसों ब्याही गई दुलहन बेटी पगफेरे के लिए मायके लौटेगी आज. बेटी से ज्यादा दामाद के स्वागत की तैयारियां चल रही थीं. पिता अलसुबह ही निकल गए थे फूल लाने के लिए. मां कितने ही पकवान बनाते नहीं थक रही थीं और छोटा भाई पटाखों की पेटी लिए आ रहा था. उस ने दीदी से कभी नहीं कहा कि वह उन से मम्मी जितना ही प्यार करता है.

दूसरी कतार के दूसरे बंगले वाली कामकाजी युवा मां आज फिर लेट हो गई थी औफिस जाने को. आया को आने में देर हो गई आज भी. टिफिन, लैपटौप, फाइलें साधतीसमेटती वह दौड़ कर कार तक आई. अपनी अतिव्यस्तता में आज भी वह पलट कर बाय करना भूल गई आया की गोद में से उसे देख रही 10 माह की बेटी से. लिव इन रिश्ते से पैदा इस संतान की बेहतर परवरिश के लिए ही युवा मां ने कभी शादी न करने का निर्णय लिया था और उसे अपनेआप में लगता था कि यों इस संतान की अकेले परवरिश एक महान पथ है जिस पर वह चल पड़ी है.

जैसे कोई है, कोई जो इंसानी ताकतों से बेखौफ रहता है, कुछ घटित होने वाला है, ईको चुप हो कर चीख रहा है जैसे और तो सब, हर दिन की तरह बढि़या चल रहा है कालोनी में. अड़ोसीपड़ोसी दोनों लड़के वार्षिकोत्सव के बहाने स्कूली छुट्टी होने से, सेलफोन में डूब कर औनलाइन गेम खेल रहे हैं, नाश्ता ले कर, मां को भी उन्होंने कमरे के दरवाजे से ही लौटा दिया है… निजता का आग्रह इतना प्रबल है कि मातापिता भी मौका देख कर ही सलाह देते हैं.

यहां का जीवन अपनी तात्कालिकताओं में इतना खपा हुआ कि छठी इंद्री की प्राकृतिक शक्ति सुन्न हो चुकी थी. कुछ भांपा नहीं जा सका था. सुरक्षा के भ्रम में बेपरवाह लोग दैनिक कामों की बावत आवाजाही कर रहे थे. कालोनी के मुख्यद्वार पर एक जानेपहचाने से आगंतुक की लंबी कार की ओर सलाम करते गार्ड्स आज भी बंद होंठों में मुसकरा रहे हैं. हर दिन की तरह पौश कालोनी अपने ऐश्वर्य में व्यस्त दिखाई दे रही थी.

अब एक डुपलैक्स के सजीले ड्राइंगरूम में 11 साल की महरी वैक्यूमक्लीनर चला रही थी. सोफे के कोने में भूसा भरी हिरन देह सजी थी. ऐन उस के पीछे बैठे तेंदुए पर उस की नजर पड़ी. चलता वैक्यूमक्लीनर उस की ओर बढ़ाने से पहले एक पल को उस का मन उस से खेलने को हुआ मालिक दंपती के बेटों ने अब की जो सजावटी सामान डिलिवर करवाया था, नन्ही महरी का मन उस से खेलने को हुआ या पर मां ने सम?ाया कि किसी तरह के लालच में न आना काम वाले घर में.

‘‘अरे. यह तो एकदम सचमुच का लग रहा है,’’ वेक्यूमक्लीनर लिए वह उस की तरफ अभी बढ़ी ही थी कि उसे तेंदुआ और ज्यादा सचमुच का लगने लगा और देखते ही देखते उस खिलौने ने आक्रमण की मुद्रा बना ली. तब जा कर बच्ची महरी को पता लगा कि यह तो सचमुच का तेंदुआ है. फिर जान बचा कर बाहर को भागी.

‘‘तेंदुआतेंदुआ… कोई बचाओ. घर में तेंदुआ घुस आया है,’’ मां ने सिखाया था कि किसी मुसीबत में फंस जाओ तो भागने की कोशिश करना, चीखने की कोशिश करना.

बच्ची महरी की चीखों से एलीटमौन वाली कालोनी गूंज गई.

‘‘तेंदुआ है, अंदर तेंदुआ है, तेंदुआ है.’’

सुस्ताते लोग हड़बड़ा कर इधरउधर भागने लगे. हर हाथ में फोन था, पर सू?ा किसी को नहीं कि उस का इस्तेमाल करना है. वे सब उसी ओर भागे जिधर तेंदुए की खबर थी.

बच्ची महरी भाग खड़ी हुई. भीड़ डुपलैक्स के बाहर इकट्ठी हो रही थी और अति

वृद्ध दंपती ऊपरी मंजिल पर ही रह गए थे. निचली मंजिल में तेंदुआ होगा. दूर खड़े लोग मदद पर विचारविमर्श कर रहे थे.

‘‘कोई सौ नंबर डायल करो.’’

‘‘नहीं पुलिस नहीं, वन विभाग को फोन करो.’’

‘‘कोई इन के बच्चों को फोन करो.’’

‘‘लंदन?’’

‘‘नहीं, नौर्वे.’’

वृद्ध दंपती कांपते हाथों से नया फोन एकदूसरे को बारबार लेदे रहे हैं. उन्हें सम?ा नहीं आ रहा था कि अपने किस बेटे को फोन करें इस घड़ी में. 3 बहुत सफल पुत्रों के मातापिता से इसी घबराहट में फोन छूटा और बालकनी से नीचे गिर कर टूट गया.

ऊपरी बालकनी में अति वृद्ध दंपती और निचली मंजिल में मौजूद तेंदुआ ही इस समय का सच था.

8-10 मिनट हो चुके लोगों को आए पर तेंदुए को किसी ने देखा नहीं था. सो अब तक

वह सब के लिए कम यकीन की चीज होता जा रहा था. कोई तो बच्ची महरी के लिए यह भी कह रहा था कि ये गरीब लोग अपनी तरफ ध्यान आकर्षित करने के लिए किसी की हत्या भी कर सकते हैं.

बहरहाल, गार्ड्स को आगे किया गया. तीनों ने हौसला कर दरवाजे से झंका. तेंदुआ कहीं दिखाई नहीं दिया.

‘‘हम अंदर नहीं जाएंगे.’’

‘‘तब तुम लोग हो किसलिए?’’

‘‘सलाम ठोकने, भिखारी रोकनेटोकने को बोला था बिल्डर साहब ने. तेंदुआ पकड़ने की नौकरी थोड़े है,’’ कह कर पिछले ही महीने शहर आया अप्रशिक्षित तरुण गार्ड पीछे हट गया.

‘‘तुम लोगों के नाम पर हम कितनी ज्यादा सोसायटी मैंटेनैंस देते हैं.’’

‘‘साहब, हमारी बंदूकें असली नहीं

एअरगनें हैं.’’

‘‘क्या?’’

लोग चौंके कि इन अप्रशिक्षित, चिडि़यामार बंदूकचियों के हाथों उन के जानमाल की हिफाजत रही है अब तक.

दुलहन के छोटे भाई ने पटाखों की एक सुलगती लड़ी उस ड्राइंगरूम में उछाल दी थी.

जब तेंदुआ भीतर से निकला लोगों में हड़कंप मच गया.

असल तेंदुए को अपने बीच पा कर लोगों के होश उड़ गए. वह भीतर से दौड़ कर भीड़ की तरफ उछला. चीखते खौफजदा लोग हड़बड़ाते हुए एकदूसरे पर गिरने लगे. एक आदमी के सिर पर पंजा रख तेंदुआ

निकला तो गंजे सिर पर पंजे से गहरी खरोचें बन गईं. तेंदुआ दूसरी तरफ दौड़ा तो उस से आगे दौड़ते अति स्थूलधारी को अस्थमा का दौरा पड़ गया.

कोई हड़बड़ाहट में भागती हुई तेंदुए से ही टकरा गई. इस से तेंदुआ और भी बदहवास हो उठा. किसी ने उठा कर एक गमला मारा तब तेंदुए के मुंह से उस की गरदन छूटी.

सब कामों के लिए बहुत व्यवस्थित लोगों ने मौत से साक्षात्कार के बारे में कभी सोचा ही नहीं था. बदहवास एकाकी मालकिन अपनी पर्शियन बिल्ली को खोज रही थी. बिल्ली दिखाई नहीं दे रही थी.

तेंदुआ बदहवास सा कभी इधर तो भी उधर दौड़ रहा था. फिर वह एक खुले डुपलैक्स में जा घुसा.

‘‘ बेबी अंदर है… बेबी अंदर है,’’ आया चीख रही थी. बाहर शोर सुन कर वह बिना दरवाजा बंद किए चली आई थी. 10 माह की बच्ची भीतर पालने में सो रही थी.

बेहद घबराई आया बारबार फोन लगा रही थी. सिंगलपेरैंट युवा मां अपनी कंपनी के बहुराष्ट्रीय क्लाइंट्स के सामने खड़ी प्रस्तुतीकरण दे रही थी, अपनी पूरी प्रतिभा और योग्यता ?ांक कर. पानी पीने के बहाने आधे पल को उसने फोन में देखा. घर के सीसीटीवी कैमरों में बेटी सुकून से सोई दिखाई दी. आया की कौल उस ने फिर से काट दी.

13 साल का लड़का दोस्त को अपना स्मार्टफोन दे कर, दौड़ता हुआ डुपलैक्स में घुस गया. सोशल मीडिया पर लाइव बहादुरी दिखा कर हीरो बन जाने का इस से अच्छा अवसर भला क्या होगा. 3 मिनट बाद बच्ची को गोद में उठाए वह बाहर आ गया. लोग तालियां बजाने लगे.

अब दोस्त उस से पूछ रहा था, ‘‘क्या वहां तुम्हारा सामना उस तेंदुए से हुआ?’’

‘‘क्या अंदर तेंदुआ था? मुझे तो लगा बच्ची आग में फंसी होगी,’’ और दोस्त ने लाइव वीडियो बंद कर दिया.

सब तेंदुए से इधर फूलों के छोटे गमलों के पीछे एकाकी मालकिन को अपनी पर्शियन बिल्ली मिल गई. मालकिन उसे सीने से चिपटाए वहीं बैठ गई.

किसी ने दौड़ कर डुपलैक्स का दरवाजा बंद कर दिया. कुछ देर बाद तेंदुआ ऊपरी बालकनी से पास की दूसरी बालकनी में कूद गया.

तेंदुआ एकदम फ्लैट में बैठे जोड़े के सामने जा पड़ा. एक पल को तो जोड़े की दशा ऐसी हो गई जैसे गृहिणी का पति सामने आ खड़ा हुआ हो. तेंदुए से ज्यादा फिक्र नीचे से आती सामूहिक आवाजों की थी, लोग शायद इधर ही को इकट्ठा हो चले थे.

कुछ समय पहले तक प्रेमिका जिस की बांहों में खुद को सुरक्षित महसूस कर रही थी, अब उस की उपस्थिति ही तेंदुए से अधिक असुरक्षित कर रही थी. अब न तो भागा जा सकता था और न ही कपड़े पहन पाने का समय था. इस से पहले कि तेंदुआ कुछ कर पाता गृहिणी ने इधरउधर देखा और फिर पानी से भरा कांच का जग उठा कर दे मारा.

तेंदुआ हड़बड़ा कर बालकनी से नीचे गिर गया बाउंड्री में खुले 2 जरमन शेफर्ड के बीच. तगड़े भेडि़ए सरीखे कुत्ते अब तक के अपने जीवन में किसी से न डरे थे. वे खतरनाक प्रशिक्षण पाए और केवल गोश्त पर पले हैं और सामने जंगल का तेंदुआ था.

दोनों शिकारी कुत्तों ने एकसाथ हमला बोला, जंगल के उस शानदार शिकारी पर जो इस समय अपने दुरुस्त हाल में नहीं था. एक ओर सर्वश्रेष्ठ प्रशिक्षित जोड़ी है तो दूसरी तरफ जंगल में पली प्रतिभा. वह प्रतिभा जोकि मां द्वारा छोड़ दिए गए अबोधों में जंगल तराशती है किसी क्रूरतम पिता की तरह.

उन तीनों में खूनी संघर्ष शुरू हो चुका था. दूर खड़ी भीड़ में बहुतेरे ऐसे हैं जिन्होंने डब्ल्यूडब्ल्यूई और ऐनीमल चैनल्स से बाहर सच्ची हिंसा आज पहली बार देखी है. कुछेक अपनी चरम उत्तेजना में, फायर ब्रिगेड, पुलिस, वन विभाग, टीवी चैनल जिसे जो नंबर याद आ रहा था, कौल लगा रहे थे. लोग मदद को पुकार रहे थे. बच्चे जो चले आए थे उन्हें खींच कर वापस ले जाने को उन की मांएं दौड़ी चली आ रही थीं.

5वें डुपलैक्स वाली को आता देख बहुतों का ध्यान तेंदुए से हट गया. वह जो सब से ग्लैमरस चेहरा है इस कालोनी का और सब से फैशनेबल भी ओह, बिना साजशृंगार, घरेलू कपड़ों में वह कितनी साधारण दिख रही थी और कुछ उम्रदराज भी.

कुछ देर के भीषण संघर्ष के बाद खून से लथपथ तेंदुआ खड़ा हुआ किसी विश्व विजेता रैस्लर की तरह. दोनों शिकारी कुत्तों को मरणासन्न छोड़ कर कूदा और कवर्ड कैंपस के बीचोंबीच बौने फूलों के बीच से गुजरता गार्डन की अेमरिकन दूब पर जा बैठा.

लोग तेंदुआ पकड़ने के लिए आ रही रैस्क्यू टीम को फोन लगालगा कर हलकान हुए जा रहे थे.

यों हाईवे सड़क के धूलगुबारों से गुजर कर पाम वृक्षों की चिडि़यों को भयभीत करता, पर्षियन बिल्ली को अपनी मौजूदगी से आक्रांत करता, कुल प्राकृतिक माहौल को सजग करता, हवा की तरह दौड़ता और ईको में अपनी उपस्थिति महसूस करवाता वह जो यहां तक चला आया, वह तेंदुआ अब शांत बैठा था. उस की देह की खरोचों से रिस्ते खून को दूब तले की जमीन सोख रही थी.

यही जमीन जिस पर कभी एक तन्वी नदी ‘नील ?ारना’ बहती थी. उस वक्त की निशानी अब बस पलाश के ये 2 पेड़ बचे हैं और तेंदुए को लौटने की एकदम सही राह याद आ गई नदी में पानी पी कर इन पेड़ों तले से, जंगल लौट जाने की राह.

तेंदुआ कूदताफांदता, कालोनी, भव्यद्वार, हाईवे सड़क पार करता, नील जंगल के पेड़ों को मार डालती मशीनी फौज के बीच से गुजरता बचेखुचे जंगल में जा कर ओ?ाल हो गया.

इधर कालोनी में एक कोलाहल उठ कर शांत हो गया और उधर जंगल में क्या हुआ किसे पता.

रिश्ते की अहमियत:क्या निकिता और देवेश एक हो पाए

सुबहके समय जब मेड आती और घंटी बजाती तो  निकिता नींद से जागती थी पर आज मेड के छुट्टी होने के कारण सुबह उस की नींद देर से खुली.

उनींदीं आंखों से सामने दीवार घड़ी में समय देखा 8 बज गए थे. निकिता हबड़बड़ी में उठी कि मेड आने पर तो 7 बजे उठना ही पड़ता था, सारे काम आराम से निबट जाते थे, लेकिन अब सब कैसे मैनेज होगा? झाड़ूपोंछा, बरतन उस पर देवेश के लिए लंच भी बनाना है.

बेटे मयंक की औनलाइन क्लास का भी समय हो रहा है. उसे नाश्ता भी देना है. लंच में तो आज उसे पिज्जा खाना था. मैं तो कैंटीन से ले कर कुछ खा लूंगी, लेकिन देवेश का क्या करूं. उन्हें तो घर का खाना ही चाहिए. मन में सोचा, देवेश को बोलती हूं कि आज लंच के समय औफिस की कैंटीन से कुछ ले कर खा लेंगे.

यही सोचतेसोचते निकिता ने देवेश को आवाज लगाई, लेकिन रिस्पौंस नहीं मिला. सोचा शायद सुना नहीं होगा. निकिता ने फिर आवाज लगाई. नो रिस्पौंस.

निकिता को गुस्सा आ गया कि सारा काम  पड़ा है और ये जनाब हैं कि सुन ही नहीं रहे हैं जैसे कानों में रूई ठुंसी हो.

वह लिविंगरूम की ओर गई. अंदर जाने पर देखा यह क्या? सारा कमरा ही अस्तव्यस्त है, लिविंगरूम के वार्डरोब से आधे कपड़े अंदर और आधे बाहर बिखरे पड़े हैं और देवेश फोन पर किसी से बात कर रहे हैं.

यह सब देख निकिता ने हाथ झटक तलखी में बोला, ‘‘देवेश यह सब क्या है?’’

देवेश ने निकिता की ओर ध्यान नहीं दिया और फोन पर ही बात करते रहे. जवाब नहीं मिल ने पर निकिता ने फिर बोला, लेकिन देवेश फोन पर ही लगे रहे.

फिर तो निकिता भड़क गई और कहा,

‘‘मैं कब से बोले जा रही हूं और आप हैं कि

फोन पर लगे हैं. अरे, हूंहां कुछ तो बोलो,’’ निकिता ने गुस्से से देवेश के हाथ से फोन छीन लिया.

देवेश को यह अच्छा नहीं लगा. गुस्से में बोला, ‘‘यह क्या बतमीजी है?’’

‘‘अच्छा यह बतमीजी है और मैं जो इतनी देर से भुंके जा रही हूं उस का जवाब देने का मतलब नहीं? वह तहजीब है? मुझ से कह रहे हैं यह क्या बतमीजी है?’’

‘‘मैं फोन पर बात कर रहा था. दिख नहीं रहा था तुम्हें? इतनी भी तसल्ली नहीं रही तुम में?’’

‘‘दिख रहा था, लेकिन हूंहां तो.’’

‘‘बोलो इतनी भी क्या आफत आ गई?’’

‘‘बोलूं क्या? बात तो लंच के लिए करनी थी, लेकिन पहले वार्डरोब और रूम की हालत देखो. अभी 2 दिन पहले ही तो ठीक किया था सब. फिर तुम ने कपड़े इधरउधर फेंक दिए.

‘‘अरे कोई तो काम ढंग से कर लिया करो.’’

देवेश ने फोन म्यूट कर दिया था. उस की फोन पर मीटिंग चल रही थी. उसे औफिस भी जल्दी जाना था.

देवेश को निकिता से ऐसे लहजे की उम्मीद नहीं थी. उसे इस तरह बोलने पर

देवेश भी भड़क गया और बोला, ‘‘यह बात आराम से भी तो की जा सकती थी?’’

‘‘हां, की जा सकती थी, लेकिन सुना जाए तब न.’’

‘‘खबरदार जो कल से मेरी अलमारी को हाथ भी लगाया तो. कर लूंगा अपनेआप सब. सम?ाती क्या हो अपने को,’’ देवेश बोला.

‘‘अजी कल से क्या आज ही से और

अभी से. हाथ नचाते हुए मैं भी तो देखूं,’’

निकिता बोली.

‘‘पता नहीं आज इसे क्या हो गया जो सुबहसुबह ही लड़ने बैठ गई. देखो निकिता अब बहुत हो गया. मेरी जरूरी मीटिंग है और मुझे औफिस जाना है, मेरा मूड मत खराब करो.’’

‘‘तो जाओ न किस ने रोका है. मुझे तो

जैसे औफिस जाना ही नहीं. एक तुम ही हो औफिस वाले.’’

‘‘देखो निकिता मैं एक बार फिर तुम्हें समझ रहा हूं ये जो तुम्हारे मुंह के बोल हैं न

वही दूरियां पैदा कर रहे हैं. अपने बोले गए शब्दों को सुधारो. इन शब्दों का ही हमारे जीवन में ‘अहम’ किरदार है समझ. तुम्हें इतनी सी

बात समझ में क्यों नहीं आती? जहां तक नौकरी की बात है? मैं ने नहीं कहा कि तुम नौकरी करो? यह तुम्हारा अपना शौक था. मैं ने तो तुम्हें सपोर्ट किया और हमेशा से करता आया हूं.’’

इसे सपोर्ट करना कहते हैं जनाब. कपड़े बिखरे पड़े हैं, अखबार कहीं पड़ा है. और तो और बैड पर तौलिया भी पड़ा है. ये सपोर्ट है?’’

देवेश गुस्से से बोला, ‘‘जब देखो डंडा

लिए फिरेगी.’’

‘‘हां मैं तो डंडा लिए फिरती हूं. अभी तक तो लिया नहीं, अब देखना कल से डंडा लिए

ही फिरूंगी.’’

‘‘मैं उस डंडे की बात नहीं कर रहा, अरे मुंह ही तेरा डंडा है.’’

निकिता के तनबदन में आग लग गई, ‘‘क्या कहा तुम ने मुंह ही डंडा

है? तो गूंगी ले आते. देवेश मुझे क्या पागल

कुत्ते ने काटा है? कोई कसर नहीं छोड़ती नीचा दिखाने में.’’

‘‘निकिता पता नहीं मां ने क्या देख कर मेरी शादी तुम से कर दी.’’

‘‘मां को दोष मत दो, तुम्हारी रजामंदी भी थी. तब ही यह रिश्ता हुआ था.’’

‘‘अरे मैं ही निभा रहा हूं तुम जैसी को.’’

‘‘क्या कहा तुम जैसी?’’

‘‘हांहां तुम जैसी?’’

‘‘अच्छा तो अब मैं जनाब के लिए तुम

जैसी हो गई. मेरी तारीफ करते तो मुंह नहीं सूखता था जनाब का. अब इतनी कड़वाहट? चलो कोई बात नहीं, देखना ‘यह तुम जैसी’ क्याक्या कर सकती है. लगता है मुझे भी आज तो औफिस ड्रौप करना पड़ेगा.’’

देवेश ने भी घड़ी देखते हुए कहा, ‘‘ऊफ, औफिस को देर हो गई,’’ और फिर बार्डरोब से कमीज निकाल कर प्रैस करने लगा कि तभी लाइट चली गई.

‘‘ऊफ, लाइट को भी अभी जाना था,’’ कह कर दूसरी कमीज निकाली तो उस का बटन टूटा था. सूईधागा ढूंढ़ कर बटन लगाया. बटन टांकने के बाद जूते पौलिश किए.

यह सब देख निकिता मन ही मन कुढ़ रही थी. गरदन झटकते हुए बोली कि चलो

कोई बात नहीं करने दो बच्चू को पता तो चले यह ‘तुम जैसी’ क्याक्या कर सकती है.

देवेश के नहाने जाने पर अपनी चिढ़न उतारने के लिए निकिता ने एक ब्लेड ला कर जो बटन देवेश ने टांका था, उस बटन के धागे पर कट लगा दिया और फिर जूतों पर कौलगेट फेर कर मन ही मन हंसने लगी.

देवेश ने बाथरूम से निकल कर शर्ट पहन कर बटन चढ़ाया तो वह हाथ में आ गया. वह बड़बड़ाया कि अरे यह क्या अभी तो मैं ने लगाया था. शायद ठीक से लगा नहीं होगा. और यह

जूतों को क्या हुआ. अभी तो पौलिश किए थे. कहीं यह निकिता ने तो नहीं किया… अच्छा अब समझ में आया.

खैर छोड़ो बेकार में झगड़ा और बढ़ेगा. अब ऐसा करता हूं औफिस फोन कर देता हूं कि आज नहीं आऊंगा मीटिंग रवि अटैंड करेगा.

यह देख निकिता को बहुत मजा आ रहा था. मन ही मन कह रही थी कि बच्चू मेरे संग पंगा लिया तो ऐसे ही होगा. यह ‘तुम जैसी’ बहुत कुछ कर सकती है. मान लो गलती वरना पछताओगे.

बेटे मयंक की औनलाइन क्लास चल रही थी. अंदर से बहुत शोर आ रहा था. वह पढ़ नहीं पा रहा था. मयंक को गुस्सा आ गया. वह गुस्से से बाहर आया और चीखता हुआ सा बोला, ‘‘फिर झगड़ा, बिना झगड़े आप लोगों का दिन नहीं गुजरता, आप दोनों कब समझेंगें? मैं परेशान हो गया हूं मौमडैड. मेरे फ्रैंड्स के पेरैंट्स को देखो कितने प्यार से रहते हैं. मैं गिल्टी फील करने लगा हूं. यह बात मैं आप दोनों को पहले भी बता चुका हूं. आप दोनों की झगड़ते झगड़ते रात होती है और झगड़ते झगड़ते सुबह. कब तक चलेगा ये सब. मेरी पढ़ाई सफर कर रही है मेरे मार्क्स कम आने लगे हैं. आप दोनों को मेरी और मेरी पढ़ाई की चिंता नहीं. कब सोचेंगे मेरे बारे में बोलो,’’ मयंक एक सांस बोलता चला गया.

निकिता ने गुस्से से एक थप्पड़ जड़ दिया, और कहा, ‘‘यह तरीका है पेरैंट्स से बात करने का?’’

मयंक रोंआसा बोला, ‘‘मौम, तरीके की बात तो आप रहने ही दो,’’ और फिर डैड की ओर मुखातिब हो बोला, ‘‘डैड, मैं जानना चाहता हूं आखिर अब क्या हुआ?’’

‘‘बेटे, अपनी मौम से बात करो इस बारे में.’’

‘‘मौम कहती हैं डैड से बात करो, डैड कहते हैं मौम से बात करो. मैं क्या पागल हूं? मौम कुछ बता रही हो या नहीं?’’

‘‘क्यों डैड के मुंह में दही जम गया? कहने में तो कोई कसर नहीं छोड़ी उन्होंने. अंदर जा कर देख कमरे की हालत,’’ कह कर निकिता ने मंयक का झटके से हाथ खींचा और कमरे की ओर ले गई, फिर कहा, ‘‘देख.’’

‘‘ऊफ मौम यह भी कोई तरीका है? मेरे हाथ में भी दर्द कर दिया. मौम, यह बात आराम से भी तो की जा सकती थी. इस बात पर इतना बड़ा हंगामा? वैसे मैं आप को बता दूं कि यह सब मैं ने किया था. मु?ो देर हो रही थी. मैं पहले ही पढ़ाई में पिछड़ रहा हूं, कपड़े नहीं मिल रहे थे, इसलिए यह सब हुआ इस के लिए सौरी. बेचारे पापा गाज उन पर गिरी.’’

‘‘हांहां 2 ही तो बेचारे हैं- एक तुम और एक तुम्हारे पापा.’’

देवेश बोल पड़ा, ‘‘पानी तो आग की गरमी पा कर ही गरम होता है उस का अपना स्वभाव तो ठंडा होता है.’’

‘‘बड़े आए ठंडे स्वभाव वाले. खड़ूस कही के.’’

‘‘मौम, डैड अब बस भी करो. बहुत हो गया. कब तक चलेगा,’’ मयंक सिर पकड़ते

हुए गुस्से से बोला, ‘‘मैं जा रहा हूं मैं अपने

दोस्त स्पर्श के घर. यहां मेरी पढ़ाई हो ही नहीं सकती और न ही मैं इस माहौल में अपने फ्रैंड्स को बुला सकता,’’ और वह आननफानन में हाथ झटकता, पैर पटकता बैग और लैपटौप ले कर चला गया.

देवेश ने आवाज लगाई, ‘‘मयंक बेटा ऐसा मत करो,’’ मगर अब तक मयंक सीढि़यां उतर चुका था.

यह देख निकिता बिना चप्पलें पहने मयंक को आवाज लगाते हुए भागी. उसे पकड़ने की कोशिश भी की, लेकिन वह हार गई.

देवेश को ऐसी उम्मीद नहीं थी. वह छटपटा कर रह गया. समझ नहीं पाया कि क्या करूं. कमरे में जा कर तकिए से मुंह ढांप कर रोने लगा. फिर बेचैनी में न्यूज पेपर पढ़ने लगा. पेपर पढ़ने में दिल नहीं लगा. ध्यान दिया तो देखा पेपर ही उलटा पकड़ा हुआ था.

सोचने लगा कि यह क्या होता जा रहा है. बेकार में झगड़ा बढ़ गया. पहले झगड़े होते थे, लेकिन इतने नहीं. इन 10 सालों में हमारी जिंदगी नर्क बन कर रह गई. दिन पर दिन झगड़े बढ़ते ही जा रहे हैं. नहींनहीं हम अपने उलझे हुए रिश्तों को और नहीं उलझने देंगे. हमारा बेटा सफर कर रहा है.

फिर सोचने लगा कि निकिता भी कहां गलत थी. ठीक ही तो कह रही थी. घर में कितने काम होते हैं. उस पर मेड भी छुट्टी पर थी. उस को भी जौब पर जाना था, बेटे मंयक को भी देखना होता है.

उधर निकिता भी मयंक को जाने से नहीं रोक पाई थी. खीजीखीजी बिस्तर पर जा कर लेट गई और सोचने लगी, यह तो रोज की ही बातें थीं, सबकुछ मुझे ही मैनेज करना होता था. देवेश तो शुरू से ही ऐसे थे. उन्हें घर के काम में हाथ बंटाने की आदत ही कहां थी, फिर आज मुझे इतना गुस्सा क्यों आया? पता नहीं कभीकभी मुझे इतना गुस्सा क्यों आता है.

निकिता को मां के कहे शब्द याद आ गए. मां की दी सीख आज फिर से ताजा हो गई कि बेटी तुम पराए घर जाओगी, बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ेगा, हिम्मत मत हारना. मैं जानती हूं, तुम हर हाल में अपनेआप को ऐडजस्ट कर लोगी, धैर्य रखना. एकदूसरे को माफ करना ही, दांपत्य के लिए अच्छा है. अगर कोई बात हो भी जाती है, तो एक बार को चुप रहना, बाद में दिमाग ठंडा होने पर अपनी बात रखोगी तो अच्छा रहेगा. दोनों बोलोगे तो बात बढ़ती जाएगी. ऐडजस्टमैंट बहुत जरूरी है. अपनी प्रौब्लम शेयर करोगी तो दिल जीत लोगी वरना दूरियां बढ़ेंगी. काले बादल कितने भी घने क्यों न हों उन्हें छंटना ही पड़ता है बेटी. हां, लेकिन गलत को बरदाश्त मत करना, वहां कमजोर मत पड़ना.

उस पर मैं ने कहा था कि अरे मां चिंता मत करो, अभी तो मैं तुम्हारे पास ही हूं. मां, मैं तेरी शिक्षा हमेशा याद रखूंगी. फिर निकिता ने अपने से सवाल किया कि मैं मां की दी शिक्षा कैसे भूल गई?

फिर सोचने लगी कि नहींनहीं हम अपने उलझे हुए रिश्ते को और नहीं उल?ाएंगे. एक के बाद एक तसवीरें उस के मानसपटल पर घूम गईं…

हमारे पड़ोस में नए किराएदार आए थे. उन के बेटे थे देवेश. धीरेधीरे पड़ोसियों से घनिष्ठता बढ़ी और आनाजाना शुरू हो गया था. बातोंबातों में पता चला था कि देवेश इंजीनियर थे. वे एमएनसी में एक अच्छी पोस्ट पर थे. अपने मातापिता की अकेली औलाद थे.

उन के पिता बैंक में मैनेजर की पोस्ट पर थे. वे ट्रांसफर हो कर हमारे पड़ोस में आ बसे थे. देवेश बहुत केयरिंग थे. एक बार मेरी मां के बीमार होने पर देवेश ने रातदिन एक कर दिया था. तभी से मेरी मां देवेश को पसंद करने लगी थी. सोचती थी, मेरे लिए देवेश से अच्छा कोई और लड़का हो ही

नहीं सकता. उसी के बाद से मां मुझे शिक्षा देती रहती. मैं भी मन ही मन देवेश को पसंद करने लगी थी.

देवेश के पेरैंट्स भी मुझे पसंद करने लगे थे. बातोंबातों में अंकलआंटी ने मेरे बारे में सारी जानकारी ले कर मेरा मन टटोलना चाहा और कहा कि देवेश ने होस्टल में रह कर पढ़ाई की है बेटी, बाहर रह कर भी उसे काम करने की आदत नहीं पड़ी. वह जब चाहे कपड़े इधरउधर छोड़ देता है.

उस का कहना है कि हम होस्टल में ऐसे ही रहते हैं. वह घर में आ कर 1 गिलास पानी ले कर भी नहीं पीता है. क्या तुम उस के साथ ऐडजस्ट कर पाओगी? नौकरी के साथ घर की जिम्मेदारी निभा पाओगी?

उस समय मेरी हया कुछ कह न पाई और होंठों पर हलकी सी मुसकान तैर गई थी. वह मुसकान ‘हां’ का सबब बनी.

बेकार में इतना सबकुछ हो गया. देवेश को घर के काम करने की आदत ही कहां थी. बस अब और नहीं, बेटा हम से दूर हो रहा है. उस को भी गुस्सा बहुत आने लगा है.

फिर निकिता ने सोचा कि हम अपनी जिंदगी की नई शुरुआत करेंगे. देखा देवेश कमरा बंद किए हैं.

उधर देवेश के हृदय में अनेक सवाल उठ रहे थे, जो भी हुआ ठीक नहीं हुआ. वह उठा दरवाजा खोला. देखा दरवाजे के बाहर खड़ी निकिता आंसू बहा रही थी. दोनों की आंखें चार हुईं. निकिता आगे बढ़ी और देवेश को दोनों बांहों में भर कर रोने लगी, ‘‘अब और नहीं देवेश हमारा बेटा नाराज हो कर चला गया. देवेश चलो मयंक को ले आएं.’’

देवेश ने निकिता की गिरफ्त से अपनेआप को हटाया और कहा, ‘‘उस से पहले

मैं तुम से बात करना चाहता हूं. देखो निकिता, पतिपत्नी का रिश्ता एक धागे की तरह होता है. धागा टूटा तो सम?ा लो गांठ पड़ते देर नहीं लगेगी. अभी भी वक्त है, हमारी समझदारी इसी में है कि हम अपने रिश्ते को बचाएं और अपने रिश्ते की अहमियत को समझें.

‘‘कहते हैं कि त्याग और समर्पण से ही आपसी प्यार बढ़ता है. हम यह भूल गए और लड़ाईझगड़े करने लगे. अब जब रिश्ता टूटने की कगार पर हुआ तब हमें समझ आया. हमारी कड़वाहट भी अपनी चरम सीमा तक पहुंच गई. इस में अकेली तुम दोषी नहीं हो. मैं भी उतना ही दोषी हूं. पता नहीं कहां कमी रह गई.’’

निकिता ने देवेश के होंठों पर हाथ रखा  और कहा, ‘‘हम कोशिश करेंगे देवेश, अपने बेजान रिश्ते में जान डालने की. चलो आज फिर से हम एक नई शुरुआत करते हैं. सब बातों को भूल आज से और अभी से अपने परिवार को नए ढंग से सजाते हैं. चलो देवेश हम अपने बेटे मयंक को ले आएं.

उसे किस ने मारा- भाग 1: क्या हुआ था आकाश के साथ

आज आकाश चला गया…लोग कहते हैं, उस की मौत हार्ट अटैक से हुई है पर मैं कहती हूं कि उसे जमाने ने मौत के आगोश में धकेला है, उसे आत्महत्या के लिए मजबूर किया है. हां, आत्महत्या… आप लोग समझ रहे होंगे कि आकाश की मृत्यु के बाद मैं पागल हो गई हूं…हां…हां मैं पागल हो गई हूं…आज मुझे लग रहा है, इस दुनिया में जो सही है, ईमानदार है, कर्मठ है, वह शायद पागल ही है…यह दुनिया उस के रहने लायक नहीं है.

आज भी ऐसे पागल इस दुनिया में मौजूद हैं, जो अपने उसूलों पर चलते हुए शायद वे भी आकाश की तरह ही सिसकतेसिसकते मौत को गले लगा लें, इस से दुनिया को क्या फर्क पड़ने वाला है. वह तो यों ही चलती जाएगी. सिसकने के लिए रह जाएंगे उस बदनसीब के घर वाले.

दीपाली का प्रलाप सुन कर वसुधा चौंकी थी. दीपाली उस की प्रिय सखी थी. उस के जीवन का हर राज उस का अपना था. यहां तक कि उस के घर अगर एक गमला भी टूटता तो उस की खबर भी उसे लग ही जाती. उन में इतनी अंतरंगता थी.

लेकिन क्या आकाश की हालत के लिए वह स्वयं जिम्मेदार नहीं थी. वह आकाश की जीवनसाथी थी. उस के हर सुखदुख में शामिल होने का हक ही नहीं, उस का कर्तव्य भी था पर क्या वह उस का साथ दे पाई? शायद नहीं, अगर ऐसा होता तो इतनी कम उम्र में आकाश का यह हश्र न होता.

आकाश एक साधारण किसान परिवार से था. पढ़ने में तेज, धुन का पक्का, मन में एक बार जो ठान लेता उसे कर के ही रहता था. अच्छा खातापीता परिवार था. अभाव था तो सिर्फ शिक्षा का…उस के पिताजी ने उस की योग्यता को पहचाना. गांव में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपने घर वालों के विरोध के बावजूद बेटे को उच्च शिक्षा के लिए शहर भेजा, तो शहर की चकाचौंध से कुछ पलों के लिए आकाश भ्रमित हो गया था.

यहां की तामझाम, गिटरपिटर अंगरेजी बोलते बच्चों के बीच उसे लगा था कि वह सामंजस्य नहीं बिठा पाएगा पर धीरेधीरे अपने आत्मविश्वास के कारण अपनी कमियों पर आकाश विजय प्राप्त करता गया और अव्वल आने लगा. जहां पहले उस के शिक्षक और मित्र उस के देहातीपन को ले कर मजाक बनाते रहते थे, अब उस की योग्यता देख कर कायल होने लगे. हायर सेकंडरी में जब वह पूरे राज्य में प्रथम आया तो पेपर में नाम देख कर घर वालों की छाती गर्व से फूल उठी.

उसी साल उस का इंजीनियरिंग कालिज इलाहाबाद में चयन हो गया. पिता ने अपनी सारी जमापूंजी लगा कर उस का दाखिला करवा दिया. बस, यही बात उस के बड़े भाइयों को खली, कुछ सालों से फसल भी अच्छी नहीं हो रही थी. भाइयों को लग रहा था, मेहनत वे करते हैं पर उन की कमाई पर मजा वह लूट रहा है.

कहते हैं न कि ईर्ष्या से बड़ा जानवर कोई नहीं होता. वह कभीकभी इनसान को पूरा निगल जाता है. उस के भाइयों का यही हाल था और उन के वहशीपन का शिकार उस के मातापिता बन रहे थे. छुट्टियों में जब आकाश घर गया तो उस की पारखी नजरों से घर में फैला विद्वेष तथा मां और पिताजी के चेहरे पर छाई दयनीयता छिप न सकी. मां ने अपने कुछ जेवर छिपा कर उसे देने चाहे तो उस ने लेने से मना कर दिया.

एक दृढ़ निश्चय के साथ आकाश इलाहाबाद लौट गया था. कुछ ट्यूशन कर ली, साथ ही इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष में प्रथम आने के कारण उसे स्कालरशिप भी मिलने लगी. अब उस का अपना खर्चा निकलने लगा. इंजीनियरिंग करते ही उसे सरकारी नौकरी मिल गई.

नौकरी मिलते ही वह अपने मातापिता को साथ ले आया. भाइयों ने भी चैन की सांस ली. पर पानी होते रिश्तों को देख कर आकाश का मन रोने लगा था.

सरकारी नौकरी मिली तो शादी के लिए रिश्ते भी आने शुरू हो गए. वैसे आकाश अभी कुछ दिन विवाह नहीं करना चाहता था पर मां की आंखों में सूनापन देख कर उस ने बेमन से ही विवाह की इजाजत दे दी.

मातापिता के साथ रहने की बात जान कर कुछ लोगों ने आगे बढ़ अपने कदम पीछे खींच लिए थे. रिश्तों में आती संवेदनहीनता को देख कर उस का मन बहुत आहत हुआ था. मातापिता को इस बात का एहसास हुआ तो वे खुद को दोषी समझने लगे, तब आकाश ने उन को दिलासा देते हुए कहा था, ‘आप स्वयं को दोषी क्यों समझ रहे हैं, यह तो अच्छा ही हुआ कि समय रहते उन की असलियत खुल गई, जो रिश्तों का सम्मान करना नहीं जानते. वे भला अन्य रिश्ते कैसे निभा पाएंगे. रिश्तों में स्वार्थ नहीं समर्पण होना चाहिए.’

आखिर एक ऐसा परिवार मिल ही गया. मातापिता के साथ में रहने की बात सुन कर लड़की का भाई विवेक बोला, ‘हम ने मातापिता का सुख नहीं भोगा. पर मुझे उम्मीद है कि आप के सान्निध्य में मेरी बहन को यह सुख नसीब हो जाएगा.’

विवेक और दीपाली के मातापिता बचपन में ही मर गए थे. उन के चाचाचाची ने उन्हें पाला था पर धीरेधीरे रिश्तों में आती कटुता ने उन्हें अलग रहने को मजबूर कर दिया. विवेक ने जैसेतैसे एक नौकरी तलाशी तथा बहन को ले कर अलग हो गया. नौकरी करतेकरते ही उस ने अपनी पढ़ाई जारी रखी, बहन को पढ़ाया और आज वह स्वयं एक अच्छी जगह नौकरी कर रहा था.

दीपाली आकाश को अच्छी लगी. अच्छे संस्कारिक लोग पा कर विवाह के लिए वह तैयार हो गया. दीपाली ने घर अच्छी तरह से संभाल लिया था. मातापिता भी बेहद खुश थे. घर में सुकून पा कर आफिस के कामों में भी मन रमने लगा. अभी तक तो उसे काम सिखाया जा रहा था पर अब स्वतंत्र विभाग उस को दे दिया गया.

आकाश ने जब अपने विभाग की फाइलों को पढ़ा और स्टोर में जा कर सामान का मुआयना किया तो सामान की खरीद में हेराफेरी को देख कर वह सिहर उठा. पेपर पर दिखाया कुछ जाता, खरीदा कुछ और जाता. कभीकभी आवश्यकता न होने पर भी सामान खरीद लिया जाता. सरप्लस स्टाक इतना था कि उस को कहां खपाया जाए, वह समझ नहीं पा रहा था. अपने सीनियर से इस बात का जिक्र किया तो उन्होंने कहा, ‘अभी नएनए आए हो, इसलिए परेशान हो. धीरेधीरे इसी ढर्रे पर ढलते जाओगे. जहां तक सरप्लस सामान की बात है, उसे पड़ा रहने दो, कुछ नहीं होगा.’

एक दिन आकाश अपने आवास पर आराम कर रहा था कि एक सप्लायर आया और उसे एक पैकेट देने लगा. उस ने पूछा, ‘यह क्या है?’

उपहार: डिंपल ने पुष्पाजी को क्या दिया?

कैलेंडर देख कर विशाल चौंक उठा. बोला, ‘‘अरे, मुझे तो याद ही नहीं था कि कल 20 फरवरी है. कल मां का जन्मदिन है. कल हम लोग अपनी मां का बर्थडे मनाएंगे,’’ पल भर में ही उस ने शोर मचा दिया.

पुष्पाजी झेंप गईं कि क्या वे बच्ची हैं, जो उन का जन्मदिन मनाया जाए. फिर इस से पहले कभी जन्मदिन मनाया भी तो नहीं था, जो वे खुश होतीं.

अगली सुबह भी और दिनों की तरह ही थी. कुमार साहब सुबह की सैर के लिए निकल गए. पुष्पाजी आंगन में आ कर महरी और दूध वाले के इंतजार में टहलने लगीं. तभी विशाल की पत्नी डिंपल ने पुकारा, ‘‘मां, चाय.’’

आज के भौतिकवादी युग में सुबहसवेरे कमरे में बहू चाय दे जाए, इस से बड़ा सुख और कौन सा होगा? पुष्पाजी, बहू का मुसकराता चेहरा निहारती रह गईं. सुबह इतमीनान से आंगन में बैठ कर चाय पीना उन का एकमात्र शौक था. पहले स्वयं बनानी पड़ती थी, लेकिन जब से डिंपल आई है, बनीबनाई चाय मिल जाती है. अपने पति विशाल के माध्यम से उस ने पुष्पाजी की पसंदनापसंद की पूरी जानकारी प्राप्त कर ली थी.

बड़ी बहू अंजू सौफ्टवेयर इंजीनियर है. सुबह कपिल और अंजू दोनों एकसाथ दफ्तर के लिए निकलते हैं, इसलिए दोनों के लिए सुविधाएं जुटाना पुष्पाजी अपना कर्तव्य समझती थीं.

छोटे बेटे विशाल ने एम.बी.ए. कर लिया तो पुष्पाजी को पूरी उम्मीद थी कि उस ने भी कपिल की तरह अपने साथ पढ़ने वाली कोई लड़की पसंद कर ली होगी. इस जमाने का यही तो प्रचलन है. एकसाथ पढ़ने या काम करने वाले युवकयुवतियां प्रेमविवाह कर के अपने मातापिता को ‘मैच’ ढूंढ़ने की जिम्मेदारी से खुद ही मुक्त कर देते हैं.

लेकिन जब विशाल ने उन्हें वधू ढूंढ़ लाने के लिए कहा तो वे दंग रह गई थीं. कैसे कर पाएंगी यह सब? एक जमाना था जब मित्रगण या सगेसंबंधी मध्यस्थ की भूमिका निभा कर रिश्ता तय करवा देते थे. योग्य लड़का और प्रतिष्ठित घराना देख कर रिश्तों की लाइन लग जाती थी. अब तो कोई बीच में पड़ना ही नहीं चाहता. समाचारपत्र या इंटरनैट पर फोटो के साथ बायोडाटा डाल दिया जाता है. आजकल के बच्चों की विचारधारा भी तो पुरानी पीढ़ी की सोच से सर्वथा भिन्न है. कपिल, अंजू को देख कर पुष्पाजी मन ही मन खुश रहतीं कि दोनों की सोच तो आपस में मिलती ही है, उन्हें भी पूरापूरा मानसम्मान मिलता है.

अखबार में विज्ञापन के साथसाथ इंटरनैट पर भी विशाल का बायोडाटा डाल दिया था. कई प्रस्ताव आए. पुष्पाजी की नजर एक बायोडाटा को पढ़ते हुए उस पर ठहर गई. लड़की का जन्मस्थान उन्हें जानापहचाना सा लगा. शैक्षणिक योग्यता बी.ए. थी. कालेज का नाम बालिका विद्यालय, बिलासपुर देख कर वे चौंक उठी थीं. कई यादें जुड़ी हुई थीं उन की इस कालेज से. वे स्वयं भी तो इसी कालेज की छात्रा रह चुकी थीं.

उसी कालेज में जब वे सितारवादन का पुरस्कार पा रही थीं तब समारोह के बाद कुमारजी ने उन का हाथ मांगा, तो उन के मातापिता ने तुरंत हामी भर दी थी. स्वयं पुष्पाजी भी बेहद खुश थीं. ऐसे संगीतप्रेमी और कला पारखी कुमार साहब के साथ उन की संगीत कला परवान चढ़ेगी, इसी विश्वास के साथ उन्होंने अपनी ससुराल की चौखट पर कदम रखा था.

हर क्षेत्र में अव्वल रहने वाली पुष्पाजी के लिए घरगृहस्थी की बागडोर संभालना सहज नहीं था. जब शादी के 4-5 माह बाद उन्होंने अपना सितार और तबला घर से मंगवाया था तो कुमारजी के पापा देखते ही फट पड़े थे, ‘‘यह तुम्हारे नाचनेगाने की उम्र है क्या?’’

उन की निगाहें चुभ सी रही थीं. भय से पुष्पाजी का शरीर कांपने लगा था. लेकिन मामला ऐसा था कि वे अपनी बात रखने से खुद को रोक न सकी थीं, ‘‘पापा, आप की बातें सही हैं, लेकिन यह भी सच है कि संगीत मेरी पहली और आखिरी ख्वाहिश है.’’

‘‘देखो बहू, इस खानदान की परंपरा और प्रतिष्ठा के समक्ष व्यक्तिगत रुचियों और इच्छाओं का कोई महत्त्व नहीं है. तुम्हें स्वयं को बदलना ही होगा,’’ कह कर पापा चले गए थे.

पुष्पाजी घंटों बैठी रही थीं. सूझ नहीं रहा था कि क्या करें, क्या नहीं. शायद कुमारजी कुछ मदद करें, मन में जब यह खयाल आया तो कुछ तसल्ली हुई थी. उस दिन वे काफी देर से घर लौटे थे.

तनिक रूठी हुई भावमुद्रा में पुष्पाजी ने कहा, ‘‘जानते हैं, आज क्या हुआ?’’

‘‘हूं, पापा बता रहे थे.’’

‘‘तो उन्हें समझाइए न.’’

‘‘पुष्पा, यहां कहां सितार बजाओगी. बाबूजी न जाने क्या कहेंगे. जब कभी मेरा तबादला इस शहर से होगा, तब मैं तुम्हें सितार खरीद दूंगा. तब खूब बजाना,’’ कह कुमारजी तेजी से कमरे से बाहर निकल गए.

आखिर उन का तबादला भोपाल हो ही गया. कुमारजी को मनचाहा कार्य मिल गया. जब घर पूरी तरह से व्यवस्थित हो गया और एक पटरी पर चलने लगा तो एक दिन पुष्पाजी ने दबी आवाज में सितार की बात छेड़ी.

कुमारजी हंस दिए, ‘‘अब तो तुम्हारे घर दूसरा ही सितार आने वाला है. पहले उसेपालोपोसो. उस का संगीत सुनो.’’

कपिल गोद में आया तो पुष्पाजी उस के संगीत में लीन हो गईं. जब वह स्कूल जाने लगा तब फिर सितार की याद आई उन्हें. पति से कहने की सोच ही रही थीं कि फिर उलटियां होने लगीं. विशाल के गोद में आ जाने के बाद तो वे और व्यस्त हो गईं. 2-2 बच्चों का काम. अवकाश के क्षण तो कभी मिलते ही नहीं थे. विशाल भी जब स्कूल जाने लगा, तो थोड़ी राहत मिली.

एक दिन रेडियो पर सितारवादन चल रहा था. पुष्पाजी तन्मय हो कर सुन रही थीं. पति चाय पी रहे थे. बोले, ‘‘अच्छा लगता है न सितारवादन?’’

‘‘हां.’’

‘‘ऐसा बजा सकती हो?’’

‘‘ऐसा कैसे बजा सकूंगी? अभ्यास ही नहीं है. अब तो थोड़ी फुरसत मिलने लगी है. सितार ला दोगे तो अभ्यास शुरू कर दूंगी. पिछला सीखा हुआ फिर से याद आ जाएगा.’’

‘‘अभी फालतू पैसे बरबाद नहीं करेंगे. मकान बनवाना है न.’’

मकान बनवाने में वर्षों लग गए. तब तक बच्चे भी सयाने हो गए. उन्हें पढ़ानेलिखाने में अच्छा समय बीत जाता था.

डिंपल का बायोडाटा और फोटो सामने आ गया तो उस ने फिर से उन्हें अपने अतीत की याद दिला दी थी.

लड़की की मां का नाम मीरा जानापहचाना सा था. डिंपल से मिलते ही उन्होंने तुरंत स्वीकृति दे दी थी. सभी आश्चर्य में पड़ गए. विशाल जैसे होनहार एम.बी.ए. के लिए डिंपल जैसी मात्र बी.ए. पास लड़की?

पुष्पाजी ने जैसा सोचा था वैसा ही हुआ. डिंपल अच्छी बहू सिद्ध हुई. घर का कामकाज निबटा कर वह उन के साथ बैठ कर कविता पाठ करती, साहित्य और संगीत से जुड़ी बारीकियों पर विचारविमर्श करती तो पुष्पाजी को अपने कालेज के दिन याद आ जाते.

आज भी पुष्पाजी रोज की तरह अपने काम में लग गईं. सभी तैयार हो कर अपनेअपने काम पर चले गए. किसी ने भी उन के जन्मदिन के विषय में कोई प्रसंग नहीं छेड़ा. पुष्पाजी के मन में आशंका जागी कि कहीं ये लोग उन का जन्मदिन मनाने की बात भूल तो नहीं गए? हो सकता है, सब ने यह बात हंसीमजाक में की हो और अब भूल गए हों. तभी तो किसी ने चर्चा तक नहीं की.

शाम ढलने को थी. डिंपल पास ही खड़ी थी, हाथ बंटाने के लिए. दहीबड़े, मटरपनीर, गाजर का हलवा और पूरीकचौड़ी बनाए गए. दाल छौंकने भर का काम उस ने पुष्पाजी पर छोड़ दिया था. पूरी तैयारी हो गई. हाथ धो कर थोड़ा निश्चिंत हुईं कि तभी कपिल और अंजू कमरे में मुसकराते हुए दाखिल हुए. पुष्पाजी ने अपने हाथ से पकाए स्वादिष्ठ व्यंजन डोंगे में पलटे, तो डिंपल ने मेज पोंछ दी. तभी शोर मचाता हुआ विशाल कमरे में घुसा. हाथ में बड़ा सा केक का डब्बा था. आते ही उस ने म्यूजिक सिस्टम चला दिया और मां के गले में बांहें डाल कर बोला, ‘‘मां, जन्मदिन मुबारक.’’

पुष्पाजी का मन हर्ष से भर उठा कि इस का मतलब विशाल को याद था.

मेज पर केक सजा था. साथ में मोमबत्तियां भी जल रही थीं, कपिल और अंजू के हाथों में खूबसूरत गिफ्ट पैक थे. यही नहीं, एक फूलों का बुके भी था. पुष्पाजी अनमनी सी आ कर सब के बीच बैठ गईं. उन की पोती कृति ने कूदतेफांदते सारे पैकेट खोल डाले थे.

‘‘यह देखिए मां, मैं आप के लिए क्या ले कर आई हूं. यह नौनस्टिक कुकवेयर सैट है. इस में कम घीतेल में कुछ भी पका सकती हैं आप.’’

अंजू ने दूसरा पैकेट खोला, फिर बेहद विनम्र स्वर में बोली, ‘‘और यह है जूसर अटैचमैंट. मिक्सी तो हमारे पास है ही. इस अटैचमैंट से आप को बेहद सुविधा हो जाएगी.’’

कुमारजी बोले, ‘‘क्या बात है पुष्पा, बेटेबहू ने इतने महंगे उपहार दिए, तुम्हें तो खुश होना चाहिए.’’

पति की बात सुन कर पुष्पाजी की आंखें नम हो गईं. ये उपहार एक गृहिणी के लिए हो सकते हैं, मां के लिए हो सकते हैं, पर पुष्पाजी के लिए नहीं हो सकते. आंसुओं को मुश्किल से रोक कर वे वहीं बैठी रहीं. मन की गहराइयों में स्तब्धता छाती जा रही थी. सामने रखे उपहार उन्हें अपने नहीं लग रहे थे. मन में आया कि चीख कर कहें कि अपने उपहार वापस ले जाओ. नहीं चाहिए मुझे ये सब.

रात होतेहोते पुष्पाजी को अपना सिर भारी लगने लगा. हलकाहलका सिरदर्द भी महसूस होने लगा था. कुमारजी रात का खाना खाने के बाद बाहर टहलने चले गए. बच्चे अपनेअपने कमरे में टीवी देख रहे थे. आसमान में धुंधला सा चांद निकल आया था. उस की रोशनी पुष्पाजी को हौले से स्पर्श कर गई. वे उठ कर अपने कमरे में आ कर आरामकुरसी पर बैठ गईं. आंखें बंद कर के अपनेआप को एकाग्र करने का प्रयत्न कर रही थीं, तभी किसी ने माथे पर हलके से स्पर्श किया और मीठे स्वर में पुकारा, ‘‘मां.’’

चौंक कर पुष्पाजी ने आंखें खोलीं तो सामने डिंपल को खड़ा पाया.

‘‘यहां अकेली क्यों बैठी हैं?’’

‘‘बस यों ही,’’ धीमे से पुष्पाजी ने उत्तर दिया.

डिंपल थोड़ा संकोच से बोली, ‘‘मैं आप के लिए कुछ लाई हूं मां. सभी ने आप को इतने सुंदरसुंदर उपहार दिए. आप मां हैं सब की, परंतु यह उपहार मैं मां के लिए नहीं, पुष्पाजी के लिए लाई हूं, जो कभी प्रसिद्ध सितारवादक रह चुकी हैं.’’

वे कुछ बोलीं नहीं. हैरान सी डिंपल का चेहरा निहारती रह गईं.

डिंपल ने साहस बटोर कर पूछा, ‘‘मां, पसंद आया मेरा यह छोटा सा उपहार?’’

चिहुंक उठी थीं पुष्पाजी. उन के इस धीरगंभीर, अंतर्मुखी रूप को देख कर कोई यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि कभी वे सितार भी बजाया करती थीं, सुंदर कविताएं और कहानियां लिखा करती थीं. उन की योग्यता का मानदंड तो रसोई में खाना पकाने, घरगृहस्थी को सुचारु रूप से चलाने तक ही सीमित रह गया था. फिर डिंपल को इस विषय की जानकारी कहां से मिली? इस ने उन के मन में क्या उमड़घुमड़ रहा है, कैसे जान लिया?

‘‘हां, मुझे मालूम है कि आप एक अच्छी सितारवादक हैं. लिखना, चित्रकारी करना आप का शौक है.’’

पुष्पाजी सोच में पड़ गई थीं कि जिस पुष्पाजी की बात डिंपल कर रही है, उस पुष्पा को तो वे खुद भी भूल चुकी हैं. अब तो खाना पकाना, घर को सुव्यवस्थित रखना, बच्चों के टिफिन तैयार करना, बस यही काम उन की दिनचर्या के अभिन्न अंग बन गए हैं. डिग्री धूल चाटने लगी है. फिर बोलीं, ‘‘तुम्हें कैसे मालूम ये सब?’’

‘‘मालूम कैसे नहीं होगा, बचपन से ही तो सुनती आई हूं. मेरी मां, जो आप के साथ पढ़ती थीं कभी, बहुत प्रशंसा करती थीं आप की.’’

‘‘कौन मीरा?’’ पुष्पाजी ने अपनी याद्दाश्त पर जोर दिया. यही नाम तो लिखा था बायोडाटा में. बचपन में दोनों एकसाथ पढ़ीं. एकसाथ ही ग्रेजुएशन भी किया. पुष्पाजी की शादी पहले हो गई थी, इसलिए मीरा के विवाह में नहीं जा पाई थीं. फिर घरगृहस्थी के दायित्वों के निर्वहन में ऐसी उलझीं कि उलझती ही चली गईं. धीरेधीरे बचपन की यादें धूमिल पड़ती चली गईं. डिंपल के बायोडाटा पर मीरा का नाम देख कर उन्होंने तो यही सोचा था कि होगी कोई दूसरी मीरा. कहां जानती थी कि डिंपल उन की घनिष्ठ मित्र मीरा की बेटी है. बरात में भी गई नहीं थीं. जातीं तो थोड़ीबहुत जानकारी जरूर मिल जाती उन्हें. बस, इतना जान पाई थीं कि पिछले माह, कैंसर रोग से मीरा की मृत्यु हो गई थी.

डिंपल अब भी कह रही थी, ‘‘ठीक ही तो कहती थीं मां कि हमारे साथ पुष्पा नाम की एक लड़की पढ़ती थी. वह जितनी सुंदर उतनी ही होनहार और प्रतिभाशाली भी थी. मैं चाहती हूं, तुम भी बिलकुल वैसी ही बनो. मेरी सहेली पुष्पा जैसी.’’

पुष्पाजी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. ऐसा लग रहा था, उन की नहीं, किसी दूसरी ही पुष्पा की प्रशंसा की जा रही है, लेकिन सच को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता. कानों में डिंपल के शब्द अब भी गूंज रहे थे. तो वह पुष्पा, अभी भी खोई नहीं है. कहीं न कहीं उस का वजूद अब भी है.

पुष्पाजी का मन भर आया. शायद उन का अचेतन मन यही उपहार चाहता था. फिर भी तसल्ली के लिए पूछ लिया था उन्होंने, ‘‘और क्या कहती थीं तुम्हारी मां?’’

‘‘यही कि तुझे गर्व होना चाहिए जो तुझे पुष्पा जैसी सास मिली. तुझे बहुत अच्छी ससुराल मिली है. तू बहुत खुश रहेगी. मां, सच कहूं तो मुझे विशाल से पहले आप से मिलने की उत्सुकता थी.’’

‘‘पहले क्यों नहीं बताया?’’ डिंपल की आंखों में झांक कर पुष्पाजी ने हंस कर पूछा.

‘‘कैसे बताती? मैं तो आप के इस धीरगंभीर रूप में उस चंचल, हंसमुख पुष्पा को ही ढूंढ़ती रही इतने दिन.’’

‘‘वह पुष्पा कहां रही अब डिंपल. कब की पीछे छूट गई. सारा जीवन यों ही बीत गया, निरर्थक. न कोई चित्र बनाया, न ही कोई धुन बजाई. धुन बजाना तो दूर, सितार के तारों को छेड़ा तक नहीं मैं ने.’’

‘‘कौन कहता है आप का जीवन यों ही बीत गया मां?’’ डिंपल ने प्यार से पुष्पाजी का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, ‘‘आप का यह सजीव घरसंसार, किसी भी धुन से ज्यादा सुंदर है, मुखर है, जीवंत है.’’

‘‘घरर तो सभी का होता है,’’ पुष्पाजी धीरे से बोलीं, ‘‘इस में मेरा क्या योगदान है?’’

‘‘आप का ही तो योगदान है, मां. इस परिवार की बुलंद इमारत आप ही के त्याग और बलिदान की नींव पर टिकी है.’’

अभिभूत हो गईं पुष्पाजी. मंत्रमुग्ध हो गईं कि कौन कहता है भावुकता में निर्णय नहीं लेना चाहिए? उन्हें तो उन की भावुकता ने ही

डिंपल जैसा दुर्लभ रत्न थमा दिया. यदि डिंपल न होती, तो क्या बरसों पहले छूट गई

पुष्पा को फिर से पा सकती थीं? उस के दिए सितार को उन्होंने ममता से सहलाया जैसे बचपन के किसी संगीसाथी को सहला रही हों. उन्हें लगा कि आज सही अर्थों में उन का जन्मदिन है. बड़े प्रेम से उन्होंने दोनों हाथों में सितार उठाया और सितार के तार एक बार

फिर बरसों बाद झंकार से भर उठे. लग रहा था जैसे पुष्पाजी की उंगलियां तो कभी सितार को भूली ही नहीं थीं.

नथनी: क्या खत्म हुई जेनी की सेरोगेट मदर की तलाश

मायूस मुसकान: आजिज का क्या था फैसला

लेखिका- रोचिका अरुण शर्मा

 

ममता का आंगन: मां के लिए कैसे बदली निशा की सोच

विदाई की बेला… हर विवाह समारोह का सब से भावुक कर देने वाला पल. सुंदर से लहंगे में आभूषणों से लदी निशा धीरेधीरे आगे कदम बढ़ा रही थी. आंसुओं से उस का चेहरा भीगा जा रहा था. सहेलियां और भाभियां उलाहना दे रहीं थीं, “अरे इतना रोओगी तो मेकअप धुल जाएगा.” इसी तरह की चुहलबाजी हो रही थी.

मगर वह चाह कर भी अपने आंसू नहीं रोक पा रही थी. खुद को दोराहे पर खड़ा महसूस कर रही थी आज वह.

सजीधजी सुंदर सी कार उसे पिया के घर ले जाने के लिए तैयार खड़ी थी. अजय कार में बैठ चुका था. निशा ने कनखियों से देखा तो लगा कि अजय बेसब्री से उस का इंतजार कर रहा था, मानो कह रहा हो, “अब बस भी करो निशा… नए घर में भी लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.”

वह एक कदम आगे बढ़ती तो दो कदम पीछे वाली स्थिति थी. पापाभैया पास में ही खड़े थे. निशा पलट कर पापा के गले लग कर रोने लगी. भाई उसे प्यार से सहला रहा था, मानो पापा से छुड़ाना चाह रहा हो और कह रहा हो,” दीदी, एक नई सुंदर सी दुनिया तुम्हारी प्रतीक्षा में है. उस का स्वागत करो.”

तभी उस ने देखा कि मां किसी अपराधिनी सी दूर खड़ी अपने ढुलकते आंसुओं को छिपाने का असफल प्रयास कर रही थी. दोनों तरफ से स्थिति कमोबेश एक सी ही थी.

मां आगे बढ़ कर उसे गले लगाने का साहस नहीं कर पा रही थी क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं निशा नाराज ना हो जाए. ये अधिकार निशा ने उन्हें आज तक दिया ही नहीं था.

इधर, निशा भी चाहते हुए ममत्व की प्यास को सहलाने में नाकाम साबित हो रही थी. बड़ी ही मुश्किल से मां धीरेधीरे आगे आ कर खड़ी हो गई. मौसी, बुआ सभी से निशा प्रेम से गले मिल रही थी, तभी अचानक मां के दिल में गहरा दर्द का सैलाब उमड़ पड़ा और उसे जोर की रुलाई आ गई.

यह देख कर निशा से रहा नहीं गया. वह मां की तरफ बढ़ी. दोनों मांबेटी इस तरह गले मिलीं जैसे दोनों को एकदूसरे से कोई शिकवाशिकायत ही ना हो. शब्द साथ नहीं दे रहे थे. बस कुछ देर एकदूसरे से लिपट कर दोनों पूर्ण हो गई थी. अब निशा को जाना ही था, क्योंकि कार काफी देर से स्टार्ट हो कर खड़ी थी.

नए घर में पहुंच कर निशा को बहुत प्यारसम्मान मिला. शुरू के कुछ दिनों में उसे किसी भी काम में हाथ नहीं लगाने दिया. उस की छोटी प्यारी सी ननद अपनी मां के हर काम में हाथ बंटाती. धीरेधीरे हाथों की मेहंदी का रंग छूटने के साथसाथ नेहा भी घरपरिवार की जिम्मेदारियों में शामिल हो गई. जबकि मां के घर में वह कोई भी काम नहीं करती थी, मगर ससुराल तो ससुराल ही होता है. शुरुआत में कुछ कठिनाई भी आई. कई बार वह रो पड़ती थी कि अपनी समस्या किसे बताए.. क्योंकि अपनी मां को तो उस ने पूर्ण रूप से तिरस्कृत किया हुआ था

मां ने कई बार प्रयास किया था कि निशा घर के थोड़े बहुत काम सीख ले, परंतु ढाक के वही तीन पात. जब कुछ छोटी थी तो पापा के लाड़प्यार की वजह से और फिर बड़ी होने पर मां से एक अनकही रंजिश होने के नाते. यूं निशा को काम करने में कोई परेशानी नहीं थी, परंतु वह मां से कुछ नहीं सीखना चाहती थी. न जाने क्यों उन्हें अपना दुश्मन समझने लगी थी वह.

विवाह को लगभग 20 दिन बीत चुके थे. निशा की सास उसे एक बड़ा सा डब्बा देते हुए बोली, “बेटा, यह बौक्स तुम्हारी मां ने तुम्हें सरप्राइस के तौर पर दिया है. तुम्हीं इसे खोलना और देखना कि इस में क्या है. अपने सारे जेवर डब्बे में रख देना. लौकर में रखवा देंगे. घर में रखना सुरक्षित नहीं होगा.”

शाम को जब निशा अपने जेवर डब्बे में करीने से संभाल रही थी, तो उस ने वह बौक्स भी खोला. वह देख कर अवाक रह गई. डब्बे में सुंदर से सोने और हीरे के जेवरात थे और साथ में एक पत्र भी.

यह पत्र उस की मां रीता ने लिखा था, “प्यारी निशा, तुम्हारे पापा का मुझ से शादी करने का मकसद सिर्फ इतना था कि उन की अनुपस्थिति में मैं तुम्हारी देखभाल कर सकूं. अब तुम्हारा विवाह हो चुका है. समय के साथ धीरेधीरे समझ जाओगी कि एक पिता के लिए अकेले संतान को पालना कितना मुश्किल होता है. मां तो सिर्फ मां होती है. यह सौतेला शब्द तो हमारे समाज ने ही गढ़ा है. पूर्वाग्रह से ग्रसित यह भावना किसी स्त्री को जाने समझे बगैर ही खलनायिका बना देती है. तुम्हारा विदाई के समय मुझ से लिपटना मुझे उम्रभर की खुशी दे गया.

“मेरा बचपन भी कुछ तुम्हारी ही तरह बीता है. सदा सुखी रहना.

“और हां, अपनी मां से मिलने कब आ रही हो?”

वह सोच में पड़ गई. उस की आंखों से आंसू बहने लगे. उसे इन गहनों में से ममत्व की सुगंध आने लगी. वह काफी देर तक उन्हें देखती रही. इन में से कुछ गहने उस की अपनी मां के थे और अधिकतर नई मां के, जिसे उस ने मां तो कभी माना ही नहीं.

दरअसल, निशा के जीवन में दुखद मोड़ तब आया, जब 12 साल की उम्र में उस की मां की मृत्यु हो गई थी. लाड़प्यार से पली एकलौती संतान कुदरत के इस अन्याय को सहने की समझ भी नहीं रखती थी. पिता राजेश भी परेशान. एक तो पत्नी की असमय मृत्यु का गम, दूसरा 12 साल की बिटिया को पालने की जिम्मेदारी. ऐसी कच्ची उम्र में जब बच्चे कई तरह के शारीरिक और मानसिक परिवर्तनों से गुजरते हैं, एक पिता के लिए बहुत ही मुश्किल हो जाता है, ऐसे में खासकर बिटिया का लालनपालन करना.

कुछ लोगों ने सलाह दी कि वह निशा की मौसी से विवाह कर ले. क्योंकि अपनी बहन की संतान को जितने प्यार से वह पालेगी, ऐसा कोई दूसरी महिला नहीं कर सकती. परंतु निशा की मौसी उस के पिता से उम्र में बहुत छोटी थी, इसलिए राजेश को यह मंजूर नहीं था. खैर, समय की मांग को देखते हुए रीता के साथ निशा के पिता राजेश का पुनर्विवाह सादे समारोह में हो गया.

मां को गए अभी सिर्फ एक ही साल हुआ था. निशा की यादों में मां की हर बात जिंदा थी. इकलौती संतान होने की वजह से मातापिता का संपूर्ण प्यार उसी पर निछावर था.

राजेश ने रीता के साथ विवाह तो किया, परंतु निशा को किसी भी मनोवैज्ञानिक संकट में वह नहीं डालना चाहते थे. रीता भी खुद बहुत समझदार थी. इधर निशा भावनात्मक मानसिक और शारीरिक तौर पर आने वाले बदलावों से गुजर रही थी.

मां उसे भावनात्मक सहारा देने का भरसक प्रयास करती, परंतु निशा हर बार मां को ठुकरा देती है. अकेलीअकेली उदास सी रहती थी वह. नई मां कभी पिता से हंस कर, खिलखिला कर बात करती, तो निशा परेशान हो उठती. उसे लगता कि इस महिला ने आ कर उस की मां की जगह ले ली है.

निशा की मां की साड़ियां राजेश के कहने पर अगर रीता ने पहन लीं, तो निशा आगबबूला हो उठती. यह सब देख कर रीता ने अपनेआप को बहुत संयमित कर लिया था. वह नहीं चाहती थी कि किशोरावस्था में किसी बच्चे के दिमाग पर कोई गलत असर पड़े. समय के साथसाथ निशा का अकेलापन दूर करने के लिए एक छोटा भाई आ चुका था. आश्चर्य कि छोटे भाई से निशा को कोई शिकायत नहीं थी. वह उस के साथ खेलती और अब थोड़ा खुश रहने लगी थी. लेकिन मां के प्रति अपने व्यवहार को वह नहीं बदल पाई थी.

22 साल की उम्र पूरी होने पर घर वालों से विचारविमर्श के बाद निशा का विवाह तय कर दिया गया. निशा ने भी कोई अरुचि नहीं दिखाई. वह तो मानो नई मां से छुटकारा पाना चाहती थी.

आज इन गहनों को संभालते वक्त वह सोचने लगी कि अपनी मां की साड़ी तक वह नई मां को नहीं पहनने देती थी और इस अनचाही मां ने तो उसे खूब लाड़प्यार से पाला. कभी अपने बेटे और उस में कोई फर्क नहीं किया.

विवाह के समय अपनी सुंदर कीमती साड़ियां और भारी गहने सब उसी को सौंप दिए, जैसा कोई असली मां करती है.

तभी सासू मां ने उसे आवाज दे कर दरवाजे पर अपनी उपस्थिति का एहसास कराया. निशा का उदासीन चेहरा देख कर वह बोली, “अरे बेटा, क्या बात है…? मैं ने लौकर वाली बात कह कर तुम्हारा दिल तो नहीं दुखाया… दरअसल, घर में इतना कीमती सामान रखना असुरक्षित है इसीलिए मैं ने ऐसा कह दिया.”

“अरे नहीं मम्मी, ऐसी बात नहीं है,” कह कर वह रुक गई. आगे और कहती भी क्या..? कैसे कह देती कि जिस मां ने अपना सर्वस्व उस के लालनपालन में लुटा दिया, उस से वह इतनी नफरत करती थी कि पश्चाताप करने की भी कोई राह ही नहीं सूझ रही है.

खैर, सासू मां समझदार थी. सब जानते हुए भी वे अनजान ही बनी रहीं. इधर निशा के अंदर उधेड़बुन चलती रही.

शाम को अजय आ कर बोला,”अगले 2-3 दिन में हम तुम्हारे घर मम्मीपापा से मिलने चल रहे हैं.”

दरअसल, अजय की मां ने ही उसे निशा को मां के घर ले जाने की सलाह दी थी. वह धीरे से बोली, “ठीक है.” मगर मन ही मन बड़ी शर्मिंदा हो रही थी कि कैसे सामना करूंगी मां का.

अगले दिन सुबह मौसी का फोन आया. निशा आत्मग्लानि से भरी हुई थी. उस ने मौसी से मां का जिक्र किया. तब मौसी ने ही उसे बताया कि अजय के साथ उस का विवाह उस की मां रीता ने ही तय किया था. दरअसल, अजय की मां रीता की बचपन की सहेली थी. अजय की मां का विवाह तो समय से हो गया, परंतु यह रीता का दुर्भाग्य था कि बहुत ही छोटी उम्र में उस की मां की मृत्यु हो गई. पिता ने दूसरा विवाह नहीं किया. पारिवारिक सदस्यों के साथ मिल कर खुद ही अपनी बेटी को पालने की जिम्मेदारी ली. परिवार के बीच में रीता की परवरिश तो ठीकठाक हो गई, परंतु उस के विवाह में देरी होती रही, क्योंकि दादादादी की मृत्यु हो चुकी थी. ताऊताई अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए थे. अब रह गए थे रीता और उस के पिता. वह पिता को छोड़ कर कहीं नहीं जाना चाहती थी.

अधिक उम्र हो जाने पर भी लड़की के लिए लड़का मिलना कभीकभी मुश्किल काम साबित हो जाता है. इसीलिए जब राजेश की पहली पत्नी की मृत्यु हुई, तब रीता का विवाह उन के साथ इस शर्त पर हुआ कि उन की बेटी निशा को अपनी बेटी की तरह मान कर पालेगी. और रीता ने यह जिम्मेदारी बखूबी निभाई. कुछ साल बाद अपना बेटा होने के बावजूद भी उस ने दोनों बच्चों में कभी कोई फर्क नहीं किया. और आज भी यह रीता ही थी, जिस ने निशा का रिश्ता अपनी सहेली के बेटे अजय से करवाया था, ताकि वह स्वयं अपनी बेटी के भविष्य को ले कर आशान्वित रहे. परंतु यह बात परिवार के किसी भी सदस्य ने निशा को नहीं बताई थी, क्योंकि उसे तो नई मां से अत्यधिक बैर था. फिर वह ये बात कैसे बरदाश्त करती…?

यह जान कर निशा अत्यधिक दुखी और शर्मिंदा थी. उस ने साहस कर के मां को फोन मिलाया.

उधर से मां की प्यारी सी आवाज आई,” बेटा, रिश्तों को सहेजने की कोई उम्र नहीं होती. जब भी अवसर मिले, इन्हें संवार लो.”

शायद मां इस से आगे कुछ नहीं बोल पाई और इधर निशा मायके जाने की तैयारी में जुट गई, क्योंकि उधर ममता का आंगन बांह पसारे उस के इंतजार में था.

विजया: क्या हुआ जब सालों बाद विजय को मिला उसका धोखेबाज प्यार?

विजयकी समझ में नहीं आ रहा था कि  जया ने उस के साथ ऐसा क्यों किया? इतना बड़ा धोखा, इतनी गलत सोच, इतना बड़ा विश्वासघात, कोई कैसे कर सकता है? क्या दुनिया से इंसानियत और विश्वास जैसी चीजें बिलकुल उठ चुकी हैं? वह जितना सोचता उतना ही उलझ कर रह जाता. जया से विजय की मुलाकात लगभग 2 वर्ष पूर्व हुई थी. एक व्यावसायिक सेमिनार में, जोकि स्थानीय व्यापार संघ द्वारा बुलाया गया था. जया अपनी कंपनी का प्रतिनिधित्व कर रही थी, जबकि विजय खुद की कंपनी का, जिस का वह मालिक था और जिसे वह 5 वर्षों से चला रहा था. विजय की कंपनी यद्यपि छोटी थी, लेकिन अपने परिश्रम से उस ने थोड़े समय में ही एक अच्छा मुकाम हासिल कर लिया था और स्थानीय व्यापारी समुदाय में उस की अच्छी प्रतिष्ठा थी, जबकि जया एक प्रतिष्ठित कंपनी में सहायक मैनेजिंग डाइरैक्टर के पद पर थी. जया का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि विजय उस के प्रति आकर्षित होता चला गया. उस के बाद दोनों अकसर एकदूसरे से मिलने लगे.

इसे संयोग ही कहा जाए कि अभी तक दोनों अविवाहित थे और उन के जीवन में किसी और का पदार्पण नहीं हुआ था. जया के पिता का देहांत उस के बचपन में ही हो गया था और उस के बाद उस की मां ने ही उसे पालपोस कर बड़ा किया था और ऐसे संस्कार दिए जिन से बचपन से ही अपनी पढ़ाई के अतिरिक्त किसी अन्य चीज की ओर उस का ध्यान नहीं गया. उस ने देश के एक बड़े संस्थान से मैनेजमैंट की डिगरी हासिल की और उस के बाद एक अच्छी कंपनी में उसे जौब मिल गई. जया अपने परिश्रम, लगन और योग्यता के द्वारा वह उसी कंपनी में सहायक मैनेजिंग डाइरैक्टर के रूप में कार्यरत थी.

बढ़ती उम्र के साथ जया की मां को उस की शादी की चिंता सताने लगी थी,

परंतु जया ने इस दिशा में ज्यादा नहीं सोचा था या यों कहें कि कार्य की व्यस्तता में ज्यादा सोचने का अवसर ही नहीं मिला. अपने कार्य में इतना मशगूल थी कि उस ने कभी इस बात की चिंता नहीं की और शायद यही उस की सफलता का राज भी था. ऐसा नहीं था कि किसी ने उस से मिलने या निकट आने की कोशिश नहीं की हो, लेकिन जया ने किसी भी को एक सीमा से आगे नहीं बढ़ने दिया. वह एक आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी थी, उस से जो भी मिलता उस के निकट आने का प्रयास करता, परंतु जया हमेशा एक दूरी बना कर रखती.

दूसरी ओर विजय एक अच्छे और संपन्न परिवार से संबंध रखता था. उस के पिता एक प्रतिष्ठित व्यापारी थे. एक ऐक्सीडैंट में उस ने अपने मातापिता दोनों को खो दिया था. एक छोटी बहन है जो अभी कालेज में पढ़ रही है. विजय एक हंसमुख स्वभाव का, लेकिन गंभीर युवक था. पिता के देहांत के बाद उस ने खुद की अपनी कंपनी बनाई जिस का वह खुद सर्वेसर्वा था. कई लड़कियों ने उस से निकटता स्थापित करने की कोशिश की, परंतु वह अपनी कंपनी के काम में इतना व्यस्त रहता था कि किसी को अवसर ही नहीं मिला. कोई दोस्त या रिश्तेदार उस से शादी की बात करना भी चाहता तो उस का छोटा सा उत्तर होता कि पहले बहन रमा की शादी, फिर अपने बारे में सोचूंगा.

विजय और जया पहली मुलाकात के बाद अकसर मिलने लगे थे और उन्हें अंदरहीअंदर यह एहसास होने लगा था कि वे एकदूसरे की दोस्ती को शादी के बंधन में बदल देंगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं, शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था. दोनों प्राय: एक ही रैस्टोरैंट में नियत समय पर मिलते थे.

लगभग 1 वर्ष पूर्व की बात है. एक दिन जब जया मिलने आई तो वह कुछ परेशान सी लग रही थी. दोनों की निकटता कुछ ऐसी थी कि विजय को समझते देर नहीं लगी. उस ने जानने का प्रयास किया, लेकिन जया ने कुछ बताया नहीं. विजय से जया की उदासी देखी नहीं जा रही थी. बहुत दबाव देने पर जया ने बताया कि वह नई कंपनी खोलने की सोच रही थी. कुछ रुपए उस के पास थे और लगभग 20 लाख रुपए कम पड़ रहे थे.

जया ने बताया कि उस ने बैंक से लोन लेने का प्रयास किया, परंतु बिना सिक्यूरिटी के बैंक ने लोन देने से मना कर दिया था. विजय ने उस की परेशानी जान कर यह सलाह दी कि जो रुपए कम पड़ रहे हैं, उन्हें वह विजय से ले ले, परंतु जया तैयार नहीं हो रही थी. विजय के बहुत समझाने और जोर देने पर कि वह उधार समझ कर ले ले और बाद में ब्याज सहित लौटा दे. इस बात पर जया मान गई और विजय ने उसे 20 लाख रुपए दे दिए.

वास्तविक परेशानी तो रुपए लेने के बाद शुरू हुई. रुपए लेने के बाद जया अपनी कंपनी के काम में लग गई. दोनों का मिलनाजुलना भी थोड़ा कम हो गया. कई दिन बाद भी जब जया मिलने नहीं आई तो विजय ने उसे फोन लगाया, परंतु उस का मोबाइल बंद था. विजय ने सोचा शायद वह अपने काम में ज्यादा व्यस्त होगी, क्योंकि नईर् कंपनी खोलना और उसे चलाना आसान काम नहीं था, विजय को इस चीज का अनुभव था. उस ने 2-3 दिन बाद पुन: जया को फोन करने का प्रयास किया, परंतु उस का फोन बंद ही मिला. उस ने जया की कंपनी में संपर्क किया तो पता चला कि वह कंपनी से त्यागपत्र दे कर वहां से जा चुकी है. कहां गई, यह किसी को नहीं पता.

विजय जब जया के घर गया तो पड़ोसियों ने बतया कि वह किसी और शहर में चली गई है, लेकिन कहां किसी को नहीं मालूम था. किराए का मकान था, अत: किसी ने ज्यादा ध्यान भी नहीं दिया था.

विजय बहुत दुखी था. उसे रुपयों की उतनी चिंता नहीं थी, जितनी जया की. उसे जया से इस व्यवहार की उम्मीद बिलकुल नहीं थी. जितना भी वह जया के विषय में सोचता, उतना ही बेचैन और दुखी हो जाता. दिन बीतते रहे और उस की बेचैनी बढ़ती गई. इसी बेचैनी में वह शराब भी पीने लगा था. व्यापार अलग से खराब हो रहा था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह जया को कहां ढूंढ़े.

लेकिन विजय का व्यक्तित्व इतना कमजोर भी नहीं था कि वह टूट जाए. उस ने फिर से अपने व्यवसाय पर ध्यान देना शुरू किया और उसे पुन: वापस पटरी पर ले आया. परंतु शराब की लत उसे पड़ चुकी थी और वह रोज शाम को उसी रैस्टोरैंट में पहुंच जाता. जया को भूलना उस के लिए मुश्किल था. वह रोज शाम को शराब पीता और घर जाता. उस की छोटी बहन रमा उस से पूछती, परंतु वह कोई उचित जवाब नहीं दे पाता. रमा भी कई बार जया से मिल चुकी थी, बल्कि उस ने तो जया को मन ही मन अपनी होने वाली भाभी के रूप में स्वीकार भी कर लिया था.

रमा को जया स्वभाव से अच्छी लगी थी. उसे भी जया से ऐसे व्यवहार की कतई उम्मीद नहीं थी. उस ने कई बार भाई को समझाने की कोशिश भी की. उस ने कहा भी कि जया की जरूर कोई मजबूरी होगी, किंतु विजय पर कोई असर नहीं पड़ा.

इस बात को लगभग 1 वर्ष हो चुका था, परंतु विजय की दिनचर्या नहीं बदली. वह अभी भी रोज शाम को उस रैस्टोरैंट में जरूर जाता, जैसे उसे लगता कि आज जया कहीं से वहां आ जाएगी.

एक दिन वह जब अंदर बैठ कर रोज की भांति कुछ खापी रहा था, तो उसे ऐसा महसूस हुआ कि जया उस रैस्टोरैट के द्वार पर खड़ी हो. वह तुरंत उठा और बाहर निकला. उस ने इधरउधर देखा, परंतु जया उसे कहीं नहीं दिखी. परेशान हो कर वापस लौटा और बाहर खड़े गार्ड से पूछा, ‘‘क्या कोई मैडम यहां आई थी?’’

गार्ड ने बताया, ‘‘एक मैडम टैक्सी रुकवा कर अंदर आई और फिर तुरंत बाहर निकल कर उसी टैक्सी से चली गई.’’

विजय सोच में पड़ गया कि अगर वह जया थी तो क्या करने आई थी और क्यों उस से बिना मिले, बिना कुछ कहे चली गई? गार्ड ने यह भी बताया था कि मैडम उस के बारे में पूछ रही थी कि क्या साहब रोज शाम को यहां आते हैं? गार्ड की बात सुन कर विजय ने अनुमान लगा लिया था कि वह निश्चित रूप से जया ही थी.

उस की समझ में यह नहीं आ रहा था कि जया वहां क्या करने आई थी, शायद यह

देखने आई थी कि मैं जिंदा भी हूं या नहीं. उस का मन कड़वाहट से भर गया, उस के मुंह से निकला कि विश्वासघाती, धोखाबाज. यह सामान्य मानव स्वभाव है कि जब वह किसी के बारे में जैसा सोचता है, उस के संबंध में वैसी ही धारणा भी बन जाती है.

यही सब सोचते हुए वह घर पहुंच गया. प्राय: वह बाहर से शराब पी कर ही घर लौटता था, रमा उसे खाना दे कर चुपचाप अपने रूम में चली जाती थी. मगर आज रमा ने विजय को कुछ अधिक ही परेशान देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है भैया, आप इतने परेशान क्यों हो?’’

न चाहते हुए भी विजय ने गुस्से में जया को बुराभला कहते हुए सारी बात रमा को बता दी.

उस की बात और गुस्से को देख कर रमा सिर्फ इतना ही बोली, ‘‘भैया, जया भाभी ऐसी नहीं है… जरूर कोई मजबूरी होगी.’’

‘‘मत कहो उसे भाभी, उस के लिए मेरे मन में कोई जगह नहीं है,’’ विजय गुस्से से बोला. फिर कुछ सोच कर उस ने जया को फोन लगाया. उस का मोबाइल आज बंद नहीं था, परंतु जया ने फोन उठाया नहीं. विजय ने कई बार किया, परंतु उस ने फोन उठाया नहीं. विजय गहरी सोच में डूब गया.

अगले दिन पुन: अपनी रोज की तरह वह फिर उसी रैस्टोरैंट में जाने को तैयार था. आज तो वह अपने औफिस भी नहीं गया था, जब वह घर से निकलने लगा तो रमा भी साथ चलने की जिद करने लगी, परंतु उस ने मना कर दिया, भला वह उस के सामने कैसे शराब पी सकता था. पता नहीं रोज शाम को उस के कदम स्वत: ही उस रैस्टोरैंट की ओर उठ जाते और वह यंत्रचालित सा वहां पहुंच जाता.

रैस्टोरैंट पहुंच कर वह अपनी निर्धारित टेबल पर पहुंचा ही कि सुखद

आश्चर्य से भर उठा, क्योंकि वहां पहले से ही सामने वाली कुरसी पर जया विराजमान थी. खुशी, दुख, अवसाद, घृणा और आश्चर्य जैसी भावनाएं जब एकसाथ किसी मनुष्य के अंदर उत्पन्न होती हैं तो सहसा वह कुछ भी नहीं बोल पाता. बस वह जया को एकटक घूरे जा रहा था. उस ने महसूस किया कि जया पहले से थोड़ी कमजोर हो गई है, परंतु उस की सुंदरता, चेहरे के आकर्षण और व्यक्तित्व में कोई कमी नहीं आई थी.

जया ने ही पहल की, ‘‘कैसे हो विजय?’’

विजय कुछ नहीं बोल पाया. इस बीच वेटर रोज की तरह विजय का खानेपीने का सामान ला कर रख गया था, जिसे देख कर जया बोली, ‘‘सुनो, इसे हटाओ और 2 कोल्ड ड्रिंक ले कर आओ और सुनो आज से ये सब बंद.’’

वेटर चुपचाप सब उठा कर ले गया. विजय अभी भी भरीभरी आंखों से जया को घूरे जा रहा था.

जया ही फिर बोली, ‘‘कुछ तो बोलो विजय, कैसे हो.’’

विजय अब भी चुप ही था.

‘‘अच्छा पहले यह अपनी अमानत वापस ले लो, पूरे 20 लाख ही हैं,’’ और एक बैग विजय की ओर बढ़ा दिया.

‘‘रुपए किस ने मांग थे?’’ विजय भर्राए गले से बोला, ‘‘तुम इतने दिन कहां थीं, कैसी थीं?’’ वह इतना ही बोल पाया.

‘‘विजय,’’ जया एक गहरी सांस भर कर बोली. उस के चेहरे पर दर्द की वेदना साफ दिखाई पड़ रही थी,’’ सुनो विजय मैं तुम्हारी अपराधी अवश्य हूं, परंतु मैं ने आज तक किसी को कुछ नहीं बताया कि मैं कहां थी, क्यों थी?’’

जया थोड़ी देर के लिए रुकी, फिर बोलना शुरू किया, ‘‘वास्तव में मुझे तुम्हें पहले ही बता देना चाहिए था, लेकिन तुम से रुपए लेने के बाद मैं इस स्थिति में नहीं थी कि तुम से कुछ कहूं. तुम से पैसे लेने के बाद मैं ने अपनी कंपनी का काम शुरू किया, काम अभी प्रारंभिक अवस्था में ही था कि अचानक मां की तबीयत बहुत ज्यादा खराब हो गई. मैं कंपनी का काम भी ठीक से नहीं कर पा रही थी. अंत में मुझे कंपनी का काम बीच में ही छोड़ना पड़ा. मां के इलाज में तुम से लिए रुपए और मेरे खुद के रुपए खर्च हो गए, काफी रुपए नई कंपनी के प्रयास में पहले ही खर्च हो चुके थे, परंतु खुशी सिर्फ इस बात की है कि मैं ने मां को बचा लिया.’’

विजय बोला, ‘‘तुम इतनी परेशान थीं, तो तुम ने मुझे क्यों याद नहीं किया? क्या तुम मुझे अपना नहीं समझती हो या तुम्हें मेरी याद ही नहीं आई? मांजी तो अब ठीक हैं न?’’

जया बोली, ‘‘हां अब ठीक हैं और रही तुम्हारी याद आने की बात, तो याद नहीं आती तो मैं आज यहां क्यों होती. रुपए खत्म हो रहे थे, परंतु जिंदगी तो चलानी ही थी. मैं ने यहां से दूर दूसरे बड़े शहर में नौकरी के लिए आवेदन किया. मेरे पुराने रिकौर्ड को देख कर मुझे नई कंपनी में सहायक डाइरैक्टर की जौब मिल गई. लगभग 1 वर्ष के कठिन परिश्रम के द्वारा ये रुपए एकत्र करने के बाद मैं तुम से मिलने का साहस जुटा पाई हूं. इन के बिना मेरा जमीर तुम से मिलने की इजाजत नहीं दे रहा था.’’

‘‘जया तुम ने इतना कुछ अकेले क्यों सहा? क्या तुम्हें मेरे ऊपर विश्वास नहीं था या तुम मुझे अपना ही नहीं समझती हो?’’ विजय का गला भर्रा गया था और उस ने जया का हाथ थाम लिया था.

जया की आंखें भी भर आई थीं. बोली, ‘‘अपना न समझती तो यहां होती?’’

तभी विजय बोला, ‘‘अच्छा बताओ मांजी कहां हैं?’’

‘‘मैं यहीं एक होटल में मांजी के साथ रुकी हूं,’’ जया ने जवाब दिया, ‘‘थोड़ी कमजोर हैं, लेकिन अब स्वस्थ हैं.’’

‘‘बताओ घर होते हुए भी मांजी को होटल में रखा है. बताओ यह कहां का अपनापन है?’’ विजय उलाहना भरे स्वर में बोला.

‘‘कुछ सोच कर मैं ने तुम्हें नहीं बताया… मन में बहुत सारी उलझनें थीं,’’ जया मुसकरा कर बोली.

‘‘क्या उलझनें थीं? शायद तुम सोच रही थीं कि अगर मैं ने शादी कर ली होगी तो? अगर तुम नहीं मिलतीं तो मैं ने सोच लिया था कि मैं शादी ही नहीं करूंगा,’’ विजय बोला.

‘‘मुझे माफ कर दो विजय, मैं तुम्हारी गुनहगार हूं, मैं ने तुम्हें बहुत कष्ट पहुंचाया है,’’ कह कर जया ने विजय के कंधे पर अपना सिर रख दिया.

विजय ने धीरे से उस का सिर सहलाया, दोनों की आंखें भर आई थीं. कुछ

देर मूर्तिवत खड़े रहे. फिर अचानक विजय ने जया को अलग किया, ‘‘अरे, यह तो बताओ कि मेरी अमानत तो वापस ले आई हो, परंतु उस का ब्याज कौन देगा?’’

‘‘अरे भैया ब्याज में तो भाभी खुद आ गई हैं,’’ अचानक रमा की आवाज सुन कर दोनों चौंक पड़े. पता नहीं कब वह भी वहां आ गई थी. दोनों एकदूसरे से बातचीत में इस कदर खोए हुए थे कि उन का ध्यान उधर गया ही नहीं.

जया ने आगे बढ़ कर रमा को गले लगा लिया.

‘‘अच्छा जया बहुत हुआ, अब तुम अपने घर चलो, अब तुम्हें नौकरी के लिए कहीं नहीं जाना. पहले हम लोग होटल चलेंगे… मांजी को साथ लाएंगे, फिर घर तुम्हारा, कंपनी तुम्हारी और यह परिवार हमारा,’’ विजय बोला.

विजय की बात सुन कर तीनों हंस पड़े और फिर रमा की खुशियों से परिपूर्ण आवाज गूंज उठी, ‘‘आज से विजय भैया और जया भाभी अलग नहीं रहेंगे, अब दोनों साथसाथ विजया बन कर रहेंगे, क्यों भाभी है न?’’

रमा की बात पर तीनों हंस पड़े.

मुखौटा: समर का सच सामने आने के बाद क्या था संचिता का फैसला

भारतीयलड़कियों की किसी अमेरिकन या अंगरेज लड़के से शादी करने के बाद क्या हालत होती है इस का वर्णन करना आसान नहीं है. वे धोखा केवल इसलिए खाती हैं क्योंकि उन के परिवार वाले शादी से पहले लड़के की ठीक से तहकीकात नहीं करते.

निर्मला पुणे की रहने वाली हैं. उन की माता और महिला मंडल में आने वाली वत्सलाजी से अच्छी जानपहचान थी. एक दिन बातोंबातों में संचिता की शादी का जिक्र किया तब वत्सलाजी ने उन्हें अपने अमेरिका में रहने वाले भतीजे समर के बारे में बताया जो शादी के लायक हो गया था.

फिर दोनों अपनेअपने घर में इस बारे में बात करती हैं. संचिता अमेरिका में रहने वाले लड़के से शादी के लिए तैयार हो जाती है. वत्सलाजी भी समर को फोन कर के उस की राय मांगती है. तब वह भी शादी के लिए राजी हो जाता है. दोनों वीडियो चैट करते हैं तो सब ठीकठाक लगता है.

समर 2 महीनों के लिए भारत आ गया और झट मंगनी पट ब्याह हो गया. समर की

कोई भी तहकीकात किए बिना सिर्फ वत्सलाजी के भरोसे संचिता के मातापिता उस का ब्याह समर से कर दिया. वैसे वत्सलाजी पर भरोसा करने के पीछे एक वजह और थी और वह यह कि समर को वत्सलाजी ने ही पालपोस कर बड़ा किया था. समर  जब छोटा था तब उस के मातापिता की एक दुर्घटना में मौत हो गई थी.

समर की जिम्मेदारी उठाने के लिए कोई तैयार नहीं था. पर जब समर के अमीर मातापिता की प्रौपर्टी में से समर का पालनपोषण करने

वाले व्यक्ति क ो हर महीने 25 हजार रुपए देने की बात सामने आई, जोकि उन की प्रौपर्टी के पैसों के ब्याज में दिए जाने थे, वत्सलाजी उसे संभालने के लिए आगे आ गईं. वत्सलाजी विधवा थीं, उन्हें बच्चे भी नहीं थे और उन्हें मिलने वाली पैंशन से वे सिर्फ अपना ही गुजारा कर सकती थीं, इसलिए वे पहले समर को पालने के लिए मना पर 25 हजार रुपए महीने मिलने की बात सुन कर वे समर को पालने के लिए राजी हो गई.

वत्सलाजी ने समर के पालनपोषण में कोई कमी नहीं छोड़ी. उसे अच्छे स्कूल में पढ़ायालिखाया. उसे सौफ्टवेयर इंजीनियर बनाया. समर के 18 बरस का होने के बाद उस की प्रौपर्टी उस के नाम कर दी गई और 21 साल का होने के बाद उस के हाथों सौंप दी गई. पर पैसा मिलते ही समर की ख्वाहिशें बढ़ने लगीं और वह अमेरिका में बसने के सपने देखने लगा और फिर उस ने वैसा ही किया.

सौफ्टवेयर इंजीनियर बनते ही वह एक कंपनी में नौकरी के जरीए अमेरिका चला गया और वहीं पर बस गया. अब शादी के सिलसिले में वह भारत आया और संचिता के साथ शादी कर के उसे भी अमेरिका ले गया. समर के साथ खुशीखुशी कब 2 साल बीत गए संचिता को पता ही नहीं चला. उसे लगने लगा था मानो समर के साथ उसे दुनिया के सारे सुख मिल रहे हैं. ऐसे में ही उसे अपने गर्भवती होने का एहसास हुआ. डाक्टर के पास चैकअप करा कर इस बात की तसल्ली कर ली और फिर समर के आने की राह देखने लगी. वह जल्द से जल्द यह खुशखबरी समर को बताना चाहती थी.

शाम को समर के घर आते ही उस ने सब से पहले उसे यही खुशखबरी दी. पर उस के चेहरे पर खुशी की जगह और ही भाव नजर

आने लगे. उस का बदला रूप देख कर संचिता पलभर के लिए कांप गई. लेकिन कुछ ही क्षणों में समर संभल गया और संचिता को बांहों में भरते हुए बोला, ‘‘मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा है मैं बाप बनने वाला हूं. सच कहूं तो तुम ने जब यह खुशखबरी दी तब मुझे कुछ सूझा ही नहीं. अब तुम आराम करो. कल हम अपनी अच्छी पहचान वाली लेडी डाक्टर के पास जाएंगे ताकि वह अच्छी तरह तुम्हारा चैकअप करें.’’

दूसरे दिन संचिता ने जब आंखें खोली तब उसे अपनी कमर के नीचे का भाग कुछ भारीभारी सा लग रहा था. उस ने कमरे का निरीक्षण किया तब उसे ऐसा लगा कि वह किसी अस्पताल के कमरे में है. उस ने उठने की कोशिश की तो उस से उठा भी नहीं जा रहा था. तब एक नर्स दौड़ती हुई उस के पास आई और बोली, ‘‘अब थोड़ी देर और आराम करो. 2-3 तीन घंटे बाद तुम उठ सकती हो.’’

संचिता ने जब उस से पूछा कि उसे क्या हुआ तब नर्स ने उसे हैरानी से देखते हुए कहा कि तुम्हारा अबौर्शन हुआ है. सुनते ही संचिता के पांवों के नीचे से जमीन खिसक गई क्योंकि वह तो सिर्फ चैकअप के लिए आई थी. डाक्टर ने

उसे कोलड्रिंक पीने के लिए दिया था. उस के बाद उसे गहरी नींद आने लगी और वह सो गई. पर अब उसे सब पता चल गया था. कुछ घंटों बाद समर आ कर उसे ले गया. घर जाने के

बाद उस ने शाम को संचिता से बस इतना ही कहा कि अभी वह बच्चे के लिए तैयार नहीं है. उसे अभी बहुत कुछ करना है. अगर वह उसे गर्भपात कराने को कहता तो शायद वह कभी तैयार नहीं होती, इसलिए उस ने यह रास्ता अपनाया.

अब संचिता के पास झल्लाने के सिवा कुछ नहीं बचा था. उस ने समर से बात करना छोड़ दिया. पहले समर के प्रति उस के मन में जो प्यार और आदर की भावना थी उस की जगह अब उस पर घृणा, तिरस्कार और चिड़ आने लगी थी. पर यहां विदेश में समर से बैर लेना उस ने उचित नहीं समझ क्योंकि यहां उस का कोई नहीं था. न कोई दोस्त न रिश्तेदार न पड़ोसी. अपना दर्द वह किसे सुनाती.

तभी एक दिन दोपहर को वत्सला बूआ का फोन आया. उन्होंने उसे बताया कि पिछले 15 दिनों में समर का 3 बार फोन आ चुका है और वह हर बार 25 लाख रुपए उस के अमेरिका के खाते में जमा करने की बात कह रहा है. उस ने बूआ को यह कहा कि  उस ने अपनी नौकरी छोड़ दी है और खुद का कोई कारखाना शुरू करना चाहता है, जिस के लिए उसे पैसों की सख्त जरूर है. पर बूआ को दाल में कुछ काला नजर आया, इसलिए उन्होंने संचिता से इस बारे में पूछना चाहा. पर संचिता को तो इस बारे में कुछ भी पता नहीं था. उलटा उस ने जब समर द्वारा धोखे से उस का गर्भपात कराने की बात वत्सला बूआ को बताई तब वे और भी हैरान रह गईं.

अब तो संचिता को समर से डर लगने लगा था. उस की सारी सचाई सामने आने लगी थी. विदेश में उस से बैर लेना मुनासिब नहीं था और मामापिता को सचाई बता कर वह उन्हें मुश्किल में नहीं डालना चाहती थी.

दूसरे दिन अब आगे क्या करना है, इस कशमकश में डूबी संचिता भारतीय

भूल के अमेरिका में रह रहे लोगों के लिए निकाले जा रहे अखबार के पन्ने पलट रही थी. तब एक तसवीर देख कर उस के हाथ रुक गए और उस ने वह खबर पढ़ी. प्रणोती, क्राइम विभाग की पत्रकार ने अपनी हिम्मत और दिमाग से बड़े सैक्स रैकेट का परदाफाश किया और सफेदपोश कहे जाने वाले भारत और पाकिस्तान के काले दरिंदों को सलाखों के पीछे पहुंचा दिया. उस ने 2-3 बार वह खबर पढ़ी. उसे आशा की किरण नजर आने लगी. उस ने तुरंत अखबार के कार्यालय में फोन लगाया और प्रणोती के घर का पता और फोन नंबर ले लिया. प्रणोती उस की सहपाठी निकली. दोनों पूना में एकसाथ पढ़ा करती थीं. उस के पिताजी नौकरी के सिलसिले में अमेरिका गए और उस की मां को भी साथ ले गए और फिर हमेशा के लिए अमेरिका में ही बस गए.

संचिता ने फोन कर के प्रणोती से संपर्क किया और उस से मिलने की इच्छा जाहिर की. प्रणोती ने उसे तुरंत अपने घर बुला लिया. अमेरिका में भी उस का अपना कोई है यह जान कर संचिता को बहुत अच्छा लगा. प्रणोती से मिल कर उस ने उस के साथ जो कुछ घटा और वत्सला बूआ ने 25 लाख रुपयों के बारे में जो कुछ कहा वह सब बताया.

प्रणोती ध्यान से उस की बातें सुनती रही. लगभग 2 घंटे दोनों में इस बात पर चर्चा चली. फिर प्रणोती से विदा ले कर संचिता अपने घर चली गई. प्रणोती ने उसे आश्वासन दिया कि वह मामले की तह तक जाएगी.

इधर संचिता रातभर समर की राह देखती रही पर वह घर नहीं आया. फिर कब उस की आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला. पर सुबह भी वह नहीं आया. उस ने झट से चाय बना कर पी और नहाधो कर प्रणोती से मिलने जाने की तैयारी की. उस की गैरहाजिरी से समर घर आ सकता था, इसलिए उसे जाते एक चिट्ठी छोड़ दी कि वह मार्केट जा रही है.

प्रणोती के घर जाते ही प्रणोती ने उसे बैठाया और कहा, ‘‘आज मैं जो बताने जा रही हूं उसे धैर्य से सुनना. तुम ने मुझे समर के औफिस का पता और उस के बारे में जो जरूरी जानकारी दी थी उस के आधार पर मैं ने कल ही उस की तहकीकात शुरू कर दी थी. संचिता, कल रात समर को खून के मामले में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है. वह शबर के पुलिस लौकअप में बंद है. दूसरी बात उस ने नौकरी से इस्तीफा नहीं दिया बल्कि उसे नौकरी से निकाला गया है क्योंकि उस ने औफिस में भारतीय मुद्रा के रूप में 25 लाख रुपयों का गबन किया था. वत्सला बूआ से उस ने सब झठ कहा था. कल सुबह उस के खाते में पैसे जमा होते ही उस ने वे पैसे कंपनी में भर कर खुद को छुड़ा लिया.

‘‘फिर दिनभर यहांवहां भटक कर शराब के नशे में धुत्त हो कर वह देर रात को कैसिनो में पहुंचा. वह हमेशा का ग्राहक था इसलिए कैसिनो के मालिक ने उसे जुआ खोलने के लिए 2 लाख रुपए उधार दिए, पर समर घंटेभर में ही सारे

पैसे हार गया और उस ने कैसिनो के मालिक से फिर से पैसों की मांग की. पर कैनो के मालिक ने उसे पहले के दो लाख रुपए 24 घंटों के अंदर वापस करने की बात कहते हुए और

पैसे देने से मना कर दिया. तब दोनों में इस बात को ले कर झगड़ा हो गया और झगड़ा बढ़तेबढ़ते लड़ाई में बदल गया जिस में समर के हाथों कैसिनो के मालिक का खून हो गया. वह वहां

से भागने की फिराक में था पर कैसिनो के बाउसरों ने उसे पकड़ लिया और पुलिस के हवाले कर दिया.

‘‘और अब मैं जो कहने जा रही हूं वह सुन कर तुम्हारे पांवों तले की जमीन खिसक जाएगी. तुम्हारी शादी से 6 महीने पहले उस ने एक जरमन लड़की से शादी की पर उस लड़की ने समर की चालढाल देख कर उसे छोड़ दिया. दोनों का अब तक कानूनी तौर पर तलाक भी नहीं हुआ है. इसलिए तुम्हारी शादी गैरकानूनी मानी जा सकती है. तुम्हारा गर्भपात कराने के पीछे भी शायद यही मंशा थी कि तुम्हारी और तुम्हारे बच्चे की वजह से वह मुश्किल में पड़ सकता था.

‘‘संचिता, समर पूरी तरह फ्रौड निकला. उस पर दया करने की कोई जरूरत नहीं है. तू जैसे भी हो अपनेआप को उस के चंगुल से छुड़ा ले. मैं अपने वकील से बात करती हूं. देखते हैं वे क्या सलाह देते हैं. कल दोपहर को समर को कोर्ट में हाजिर किया जाएगा. हम वहां अपने वकील के साथ जाएंगे. अभी तुम अपने घर जाओ और तुम्हारा जितना सामान, जेवरात और पैसे हैं उन्हें ले कर मेरे घर आ जाओ. यहां तुम्हारी सारी चीजें बिलकुल महफूज रहेंगी और मामला पूरी तरह से निबटने तक तुम मेरे घर मेरी सहेली, मेरी बहन बन कर रह सकती हो.’’

संचिता ने आंसू पोंछे और प्रणोती के हाथों पर हाथ रख कर हां में सिर हिलाते हुए चली गई. घर पहुंचते ही संचिता ने तुरंत अपनी बैग निकाला और सारे कपड़े उस में भर दिए.

अपने जेवर सहीसलामत देख कर उसे राहत महसूस हुई. उस ने जेवर, नकद रुपए, अपने सारे कागजात और पासपोर्ट व वीजा भी बैग में रखा. फिर पूरे घर पर एक नजर डाल कर अपना बैग उठा कर प्रणोती के घर चल दी.

दूसरे दिन समर को कोर्ट में हाजिर किया गया. संचिता प्रणोती के साथ वहीं खड़ी थी. कोर्ट से बाहर आने के बाद संचिता ने समर का कौलर पकड़ कर उस से पूछा कि उस ने

ऐसा क्यों किया, पर समर ने कोई जवाब नहीं दिया और पुलिस की गाड़ी में जा बैठा. संचिता प्रणोती के साथ मिल कर उस जरमन लड़की से भी मिली जिसे समर ने धोखा दिया था. समर के कारनामे सुन कर वह लड़की हैरान रह गई. उस ने संचिता से सहानुभूति दिखाई और कहा कि समर से छुटकारा पाने के लिए अगर उसे उस से कोई मदद चाहिए तो वह उस की जरूर मदद करेगी.

अब संचिता को विश्वास हो गया कि वह समर से आसानी से छुटकारा पा लेगी. लेकिन समर का केस पूरे डेढ़ साल तक चला. समर को 10 साल की कैद की सजा सुनाई गई. इस बार संचिता ने उस के सामने तलाक के कागजात रख दिए और समर ने भी बिना कुछ कहे उन पर साइन कर दिए. संचिता आजाद हो चुकी थी. उस ने प्रणोती को बहुतबहुत धन्यवाद दिया.

समर के काले कारनामों की पूरी जानकारी संचिता ने वत्सला बूआ और अपने मातापिता को दे दी. उन सभी को गहरा आघात लगा. वत्सला बूआ ने संचिता के मातापिता से माफी मांगी. लेकिन इस में वत्सला बूआ की कोई गलती नहीं थी और वे भी समर के धोखे की शिकार हुई थीं, इसलिए संचिता के मातापिता ने उन्हें माफ कर दिया.

अगले हफ्ते संचिता मुंबई के सहारा हवाईअड्डे पर उतर रही थी. उस के मातापिता और वत्सला बूआ उस के स्वागत के लिए खड़े थे, उस ने समर के चेहरे पर लगा झठ का मुखौटा जो निकाल फेंका था और उस का असली चेहरा दुनिया के सामने लाया था. ऐसे और भी कितने समर इस दुनिया में मौजूद हैं, जिन के चेहरे पर चढ़ा झठ का मुखौटा निकाल फेंकने के लिए खुद महिलाओं को ही आगे आना होगा.

सैयद साहब की हवेली

गांव हालांकि छोटा था, लेकिन थोड़ीबहुत तरक्की कर रहा था. पहले 70-100 मकान थे, पर अब गांव के बाहर भी घर बनने लगे थे. सरकारी जमीन पर भी, जहां ढोरमवेशी चराए जाने के लिए जगह छोड़ी गई थी, निचली जाति के लोगों ने उस पर कब्जे कर लिए थे. झोंपड़ों के मकड़जाल की यह खबर हवेली तक भी पहुंच गई. हवेली में सैयद फैयाज मियां हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे और उन के पैरों को हज्जाम घासी मियां सहला रहे थे. उन्होंने ही धीमी रफ्तार से पूरे गांव की सब खबरें सुनानी शुरू कर दी थीं. गांव में मुसलिमों के एक दर्जन से कम घर थे, लेकिन बड़ी हवेली सैयद साहब की ही थी. सब से ज्यादा जमीन, नौकरचाकर भी उन्हीं की हवेली में थे.

1-2 भिश्ती और पिंजारों के परिवार के लोग भी उन की खिदमत के लिए आ कर बस गए थे. पूरे गांव में उन की मालगुजारी होने से दबदबा भी बहुत था, लेकिन कोई उन के गांव में आ कर बस जाए और उन्हें खबर भी न करे या बस जाने की इजाजत लेने की जहमत भी न उठाए, यह कैसे हो सकता था. जब इतनी जमीन, इतनी बड़ी हवेली और इतने लोग थे, तो कुछ पहलवान भी थे, जो पहलवान कम गुंडे ज्यादा थे. उन का पलनारहना भी लाजिमी था. जैसे कोई भी बस्ती कहीं भी बस जाए बिना चाहे, बिना बुलाए दोचार कुत्ते आ ही जाते हैं, उसी तरह ये गुंडे भी हवेली के टुकड़ों पर पल रहे थे. कोई आता तो लट्ठ ले कर उसे अंदर लाते थे और कभीकभी कुटाई भी कर देते थे. थाने से ले कर साहब लोगों तक सैयद साहब की खूब पकड़ थी. सैयद साहब का एक बाड़ा था, जहां उन के जन्नतनशीं हो चुके रिश्तेदार कयामत के इंतजार में कब्र में पड़े थे. उसी बाड़े से लगा एक और कब्रिस्तान था, जो 7-10 घरों के भिश्ती मेहतरों के लिए था.

जब हज्जाम मियां ने गांव में बस रहे झोंपड़ों की जानकारी दी, तो सैयद साहब के माथे पर बल पड़ गए थे. वे जानते थे कि ये छोटी जाति के लोग आने वाले वक्त में गांव के बाशिंदे बन कर वोट बैंक को बिगाड़ देंगे. आज की तारीख में तो सरपंच से ले कर विधायक तक हवेली में सलाम करने आते हैं, उस के बाद जीतहार तय होती है. तकरीबन 200-250 वोट एकतरफा पड़ते हैं, फिर आसपास के गांवों में उन के पाले हुए गुंडे सब संभाल लेते हैं. पूरा गांव ही नहीं, आसपास के गांव वाले भी जानते थे कि सैयद साहब से दुश्मनी लेना यानी हुक्कापानी बंद. फिर किसी दूसरे गांव में किसी ने पनाह दे भी दी, तो समझो कि उस बंदे की खैर नहीं. सैयद साहब की थोड़ी उम्र भी हो चली थी. दाढ़ी के बाल पकने लगे थे, लेकिन उमंगें आज भी जवान थीं. उन की 2 बेटियां, एक बेटा भी था, जो धीरेधीरे जवानी में कदम रख रहे थे.

बेटे में भी सारे गुण अपने अब्बा के ही थे. नौकरों से बदतमीजी से बात करना, स्कूल न जाना, दिनभर आवारागर्दी करना और तालाब पर मछली मारने के लिए घंटों बैठे रहना. पूरे गांव के लोग उसे सलाम करते थे. वह भी अपने साथ 3-4 लड़कों को रखता था, लेकिन उस ने कभी भी गांव की किसी लड़की की ओर आंख उठा कर भी नहीं देखा. इस का मतलब यह नहीं था कि उस की उमंगें कम थीं. जोकुछ वह सोचता, खानदान की इज्जत की खातिर सपने में पूरी कर लेता था. इसी छोटी बस्ती में हसन कुम्हार ने आ कर झोंपड़ा तान लिया था. एक तो मुसलिम, ऊपर से बड़ी हवेली सैयद की. बस, इसी वजह से उस के आसपास के लोग उस से डर कर रहते थे. वह भी न जाने कौन सी जगह से आ कर बस गया था, लेकिन सलाम करने वह हवेली नहीं पहुंचा था.

हज्जाम मियां ने उस की शिकायत भी कर दी थी. सैयद साहब ने सोचा, ‘अपनी जाति वाले से शुरू करें, तो यकीनन दूसरे हिंदू तो डर ही जाएंगे.’ उन का पहलवान हसन मियां को बुला लाया. हसन मियां दुबलापतला चुंगी दाढ़ी वाला था, लेकिन साथ में जो उस का बेटा आया था, वह गबरू जवान था. सलाम कर के हसन मियां वहां बड़े ही अदब से खड़े हो गए. सैयद साहब दीवान पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे. 1-2 पहलवान लट्ठ लिए खड़े थे. हसन मियां इंतजार कर रहा था कि सैयद साहब कुछ सवाल करें, लेकिन सैयद साहब तो अपने में मगन हो कर कुछ गुनगुना रहे थे. थोड़ी देर बाद हसन मियां ने कहा, ‘‘हुजूर, इजाजत हो, तो मैं चला जाऊं?’’

सैयद साहब चौंके, फिर कह उठे, ‘‘अरे हां… क्यों रे, क्या नाम है तेरा?’’

‘‘हसन.’’

‘‘और… यह कौन है?’’

‘‘हुजूर, मेरा बेटा है.’’

‘‘काम क्या करते हो?’’

‘‘हुजूर, मिट्टी का काम है.’’

‘‘मतलब.’’

‘‘हुजूर, पहले जिस गांव में था, वहां कब्रें खोदता था, लेकिन कुछ कमाई कम थी, इस वजह से काम बदल लिया.’’

‘‘अब क्या करते हो’’

‘‘हुजूर, अब मिट्टी के बरतन बनाने का काम करता हूं.’’

‘‘और यह तेरा बेटा क्या करता है?’’

‘‘हुजूर, मदद करता है.’’

‘‘गूंगा है?’’

‘‘नहीं हुजूर… सैयद साहब के हाथ चूम कर आओ बेटा.’’ हसन मियां का बेटा आगे बढ़ा और बड़े अदब से हाथ को सिरमाथे लगा कर हाथ चूम कर खड़ा हो गया.

‘‘यहां बसने से पहले तुम इजाजत लेने क्यों नहीं आए?’’

‘‘हुजूर, सोचा था कि झोंपड़ा तन जाए, तब पूरे खानदान के साथ सलाम करने आते, लेकिन आप का बुलावा तो पहले ही आ गया,’’ बहुत ही नरमी से हसन मियां जवाब दे रहा था. वह जानता था कि एक बात भी जबान से कुछ फिसली तो सैयद साहब और उन के पले कुत्ते उन्हें छोड़ेंगे नहीं, फिर इस गांव को छोड़ कर कहीं और जगह ढूंढ़नी होगी.

‘‘क्यों रे, यहां कुछ काम करेगा?’’

‘‘कैसा काम?’’

‘‘यहां भी मुसलिम रहते हैं… कोई गमी हो गई, तो कब्र खोद देगा?’’

‘‘क्यों नहीं हुजूर.’’

‘‘कितने रुपए लेता है?’’

‘‘हुजूर, महंगाई है… सोचसमझ कर दिलवा देना.’’

‘‘चल, ठीक है, 2 सौ रुपए मिलेंगे… मंजूर है?’’

‘‘आप का दिया सिरआंखों पर.’’

‘‘तो खयाल रखना कि आज के बाद गांव में किसी के यहां गमी हुई, तो तुझे खबर मिल जाएगी. तू और तेरा यह लड़का कब्र खोदने का काम करेगा. कोई दिक्कत तो नहीं है?’’

‘‘बिलकुल नहीं,’’ हसन मियां ने खुश होने का ढोंग किया. दरअसल, हसन की बीवी और उस के इस बेटे को कब्र खोदने का काम बिलकुल पसंद नहीं था. बीवी चाहती थी कि उन का बेटा आदिल पढ़लिख कर इस गंदे काम से पार हो जाए. आदिल भी जानता था कि उन के घर का दानापानी मरने वालों से ही चलता है. एकदो मर गए, तो 3-4 सौ रुपए मिल जाते थे, वरना एकएक हफ्ता निकल जाता था. बड़ी अजीब सी दलदली, गंदी जिंदगी हो गई थी. उधर कब्र खोदने के काम को छोड़ने का मन बना कर इस गांव में आए और यहां भी सैयद साहब यह काम करवाने पर तुले हैं, लेकिन डर के मारे उस ने कुछ कहा नहीं. सैयद साहब ने जाने का इशारा किया, तो वे सलाम कर के लौट गए.

अगले कुछ दिनों में हवेली में छोटी जाति के तमाम लोगों का बुलावा हो गया. सब अपनी दुम टांगों में दबा कर आए और ‘जो आने वाले वक्त में मालिक कहेंगे’. इस बात पर सहमत हो गए. किसी की हिम्मत नहीं थी कि इतनी बड़ी हवेली के खिलाफ कुछ कहें या दिल में सोचें. अभी हसन मियां सो कर भी नहीं उठे थे कि हवेली से खबर आ गई कि कब्र खोदने के लिए बुलाया है. हसन मियां की तबीयत ठीक नहीं थी. उस ने आदिल से कहा, ‘‘इस काम को निबटा कर आ जाए.’’ आदिल बगैर इच्छा के कंधे पर गमछा रख कर चला गया. हवेली का पूरा माहौल गमगीन था. सैयद साहब की बेटी कमरे में रो रही थी. बेटा बहुत उदास बैठा था. सैयद साहब कमरे से बाहर आए और पहलवान को इशारा किया. वह आदिल को बाड़े से लगे कब्रिस्तान में ले गया, जहां दूसरी मुसलमान जाति के लोगों को दफन किया जाता था. एक जगह देख कर पहलवान ने कहा, ‘‘यहीं कब्र खोद लो. कम से कम 2 फुट चौड़ी और 5 फुट गहरी.’’

‘‘जनाब, कोई बच्चा खत्म हो गया क्या?’’ आदिल ने बहुत अदब से पूछा.

‘‘जितना कहा है, उतना सुन लो.’’

आदिल कब्र खोदने लगा. पूरी कब्र खोद कर उस ने माथे का पसीना पोंछा ही था कि तभी हज्जाम मियां आए और उसे बुला कर हवेली में ले गए और एक ओर पड़ी कुत्ते की लाश को बता कर कहा, ‘‘इसे उठा कर दफन कर आओ.’’

‘‘इस कुत्ते की लाश को?’’ हैरत से आदिल ने पूछा. उस को जवाब मिलता, उस के पहले  ही एक पहलवान ने आदिल की कमर पर एक लात रसीद कर दी.

‘‘सैयद साहब की औलाद थी वह और तू उसे जानवर कहता है.’’ आदिल झुका, उस जानवर तक हाथ बढ़ाया, फिर उस ने कहा, ‘‘लेकिन, यह काम हमारा नहीं है…’’ उस की बात खत्म भी नहीं हुई थी कि एक लात उस के पुट्ठे पर पड़ी और आदिल कुत्ते पर जा गिरा. ‘वह कुत्ता था. जानवर था, मर गया था. उसे कोई भी एहसास नहीं था, इसलिए वह धूप में पड़ा था. लेकिन मैं तो जिंदा हूं. मुझे तो लातों का दर्द, बेइज्जती का एहसास हो रहा है. ‘‘अगर मैं जिंदा हूं, तो मुझे जिंदा होने का सुबूत देना होगा,’ यह सोच कर आदिल बेदिली से उठा. उस ने देखा कि कमरे के बाहर दीवान पर सैयद साहब बैठ गए थे. उस ने बड़े दरवाजे पर नजर डाली. वह खुला हुआ था. उस ने  हिम्मत बटोरी और एक पल में ही दौड़ कर बाहर भाग गया.

पहलवान और सैयद साहब भौंचक्के रह गए थे कि आखिर हो क्या गया?

आदिल अपने झोंपड़े में नहीं गया. वह जानता था कि उसे पकड़ लिया जाएगा. वह दूसरी दिशा में भाग खड़ा हुआ था. पहलवान हसन मियां के घर पहुंचे. आदिल तो मिला नहीं. वे हसन मियां को पकड़ लाए. उसे भी 2-3 लातें मारीं और उस ने मरे जानवर को उठा कर कब्र में दफन किया. तबीयत भी ठीक नहीं थी. घर आ कर बिस्तर पर लेट गया. आदिल जब घर लौटा, तो अब्बा की हालत उस से छिपी नहीं रही. आदिल ने मुट्ठी भींची और पुलिस थाने चला गया. थाना शहर के पास था. आदिल अपनी चोटों के साथ, धूल सने कपड़ों के साथ थाने में पहुंचा. वहां रिपोर्ट लिखने वाला कोई सिपाही बैठा था. उसी की बगल में कोई न्यूज रिपोर्टर भी बैठ कर चाय पी रहा था. आदिल ने रोते हुए सारी बातें बताईं और कहा, ‘‘मेरे अब्बा को मारा, उन से मरा जानवर उठवाया, दफन करवाया, एक रुपया भी मेहनताना नहीं दिया, बेइज्जती अलग से की.’’

न्यूज रिपोर्टर एक अच्छी स्टोरी के चक्कर में था. उस ने भी सैयद साहब की हवेली के बहुत से किस्से सुन रखे थे. उस ने रिपोर्ट लिखने वाले सिपाही से कहा, ‘‘यार, यह देश की नौजवान पीढ़ी है. इसे इंसाफ मिलना चाहिए.’’

‘‘यार, तुम संभाल लेना,’’ सिपाही झिझकते हुए बोला.

‘‘आप चिंता मत करो, लेकिन इस की रिपोर्ट लिख लो.’’

उस ने रजिस्टर उठाया, उस की बात को लिखा, फिर एफआईआर काटी और एक पुलिस वाले को भेज कर उस का मैडिकल करने भेज दिया. देखते ही देखते लोकल चैनल पर सैयद साहब की हवेली, मारपीट, उन की हिंसा के जोरदार किस्से टुकड़ोंटुकड़ों में बयां होने लगे. सैयद साहब को भी खबर लग गई. उन का पारा सातवें आसमान पर था. एक मजदूर की औलाद की इतनी हिम्मत? तुरंत हसन मियां को बुलाने पहलवान भेज दिए. हसन मियां को 2 पहलवान पकड़ कर ले आए. उसे भी उड़तीउड़ती खबर लग गई थी कि आदिल ने मामला गड़बड़ कर दिया है. जब हवेली में वह हाजिर हुआ, रात हो गई थी. सुबह की बेइज्जती का दर्द दिल पर से अभी पूरी तरह से हटा नहीं था.

‘‘हसन, तू जानता है कि तुझे क्यों बुलाया है?’’

‘‘हुजूर,’’ घबराते हुए इतना ही मुंह से निकला.

‘‘तेरी औलाद ने हमारी इज्जत को मिट्टी में मिला दिया है.’’

‘‘हुजूर…’’

‘‘उसे अभी बुला और अपनी रिपोर्ट वापस लेने को कह. समझा कि नहीं?’’ सैयद साहब ने चीख कर कहा. पूरी हवेली उन की आवाज से कांप गई थी. हसन मियां भी ठान कर आया था कि वह तो मजदूर है, कहीं भी कमाखा लेगा. उस ने कहा, ‘‘हुजूर, बेटा तो अभी तक लौटा नहीं है.’’

‘‘कहां है वह?’’

‘‘शहर में ही है.’’

‘‘जा कर ले आ, वरना इस गांव में रह नहीं पाएगा,’’ सैयद साहब ने गुस्से से कांपते हुए कहा.

हसन मियां ने कहा, ‘‘हुजूर, रातभर की बात है, सुबह हम गांव छोड़ देंगे.’’

‘‘मुंह चलाता है…’’ सैयद साहब चीखे. उसी के साथ 2-3 लातघूंसे हसन मियां के मुंह पर पड़ गए. वह गिर पड़ा. रोते हुए वह बाहर आया. वह अपने झोंपड़े की ओर बढ़ा, तो देखा कि सैयद साहब के गुंडे उस के झोंपड़े को आग लगा रहे थे. सैयद साहब एक ओर जीप में बैठे थे. आदिल की अम्मी झोंपड़े के बाहर खड़ी रो रही थी. तभी एक मोटरसाइकिल पर आदिल उस रिपोर्टर के साथ आया. उस ने अपने कैमरे से सब शूट करना शुरू कर दिया. सैयद साहब भी उस शूट में दिखाई दे रहे थे. तुरंत वह न्यूज भी दिखाई जाने लगी. सुबह पुलिस आदिल की अम्मी, अब्बू को ले गई. रिपोर्ट लिखवाई और दोपहर होतेहोते हवेली में पुलिस अंदर घुस गई. पूरे गांव में हल्ला मच गया था. दोपहर में पुलिस पहलवानों और सैयद साहब को पकड़ कर ले गई. आदिल गांव में आया. अब्बा के साथ अपना झोंपड़ा दोबारा बनाया और मेहनतमजदूरी में जुट गया. बड़ेबड़े वकीलों ने सैयद साहब की जमानत कराई. पूरे एक महीने तक जेल में रह कर वे वापस लौटे. सैयद साहब के चेहरे की रौनक चली गई थी. बापदादाओं की इज्जत पर पानी फिर गया था. हसन मियां को भी मालूम पड़ गया था कि सैयद साहब आ गए हैं. अब तो उन्हें बहुत होशियारी से रहना होगा. सैयद साहब को बेइज्जती का ऐसा धक्का लगा कि उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया और पूरा एक महीना भी नहीं गुजरा कि इस दुनिया से चले गए. जैसे ही हसन मियां को मालूम हुआ, वह आदिल के साथ ईमानदारी के साथ कब्र खोदने जा पहुंचा. कब्र खोदतेखोदते आदिल ने अपने अब्बा को देखा, तो अब्बा ने पूछा, ‘‘क्यों, क्या बात हुई?’’

‘‘अब्बा, जो कुछ हुआ, उस पर किसी का जोर नहीं है, लेकिन एक बात तो है…’’

‘‘क्या?’’

‘‘कोई कितना भी बड़ा आदमी मरे, कब्र तो मजदूर ही खोदता है. देखो न, हम ने सैयद साहब की कब्र खोद दी.’’ हसन मियां फटी आंखों से आदिल का चेहरा देख रहा था.

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