जेठ जीजाजी: ससुराल के रिश्तों में उलझी प्रशोभा की कहानी

Serial Story: जेठ जीजाजी – भाग 4

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

 पूर्वकथा : अभी तक आप ने पढ़ा कि प्रशोभा अपने पति राघव के साथ देवर माधव की शादी के लिए ससुराल पहुंचती है. ससुराल में शादी की तैयारियों में सब जुटे थे. प्रशोभा ने महसूस किया कि उस के जेठ ऊधव उस का कुछ खास ही खयाल रख रहे हैं. वे कोशिश कर रहे थे कि प्रशोभा उन से खुले. लेकिन प्रशोभा रिश्तों की मर्यादा जानती थी.

अविवाहित जेठ का शादी न करने का फैसला उसे अपनी ननद किरण से पता चलता है कि कंचन नाम की लड़की से पिता ने विवाह न होने दिया तो उन्होंने शादी न करने की जिद ठान ली.

किरण और प्रशोभा को ब्यूटीपार्लर जाना था तो सास कहती हैं कि ऊधव औफिस जाते वक्त तुम्हें वहां छोड़ देगा. ऊधव को जब पता चलता है कि प्रशोभा के साथ किरण भी जा रही है तो उस के चेहरे पर चमक गायब हो जाती है. क्या प्रशोभा जेठजी के जज्बातों को समझ रिश्तों को नया रूप देने की सोच रही थी? पढि़ए आगे :

पीले कलर की छोटी सी कार भाईसाहब ने मेन्टेन कर रखी थी. एक तरफ का दरवाजा खोल कर दीदी बैठ गईं. जेठजी ड्राइविंग सीट पर बैठ चुके थे. अपनी साइड का दरवाजा खोल कर मैं बैठने चली, तो देखा, ड्राईक्लीनर के यहां से लाए हुए बड़ेबड़े 3-4 पैकेट्स इस साइड रखे थे.

दीदी मेरे लिए जगह बनाने के इरादे से उन पैकेटों को अंदर ही अंदर अगली खाली सीट पर रखने चलीं तो जेठजी तेजी से बोले, ‘‘किरण, उन पैकेटों को डिस्टर्ब न करो और प्रशोभा, तुम मेरे पास वाली सीट पर बैठो.’’

मैं ने दीदी की तरफ देखा, फिर उन का इशारा पा कर पीछे का दरवाजा बंद किया और आगे वाली सीट पर भाईसाहब की बगल में बैठ गई.

मुझे महसूस हुआ कि मुझे पास में  बैठा कर कार ड्राइव करते हुए भाईसाहब की कुछ ऐसी हालत थी कि मानो वे मेरा हरण करने में सफल हो गए हों. इस समय उन के चेहरे की प्रसन्नता देखते ही बनती थी.

पीछे दीदी न बैठी होतीं तो शायद अपनी मनोव्यथा और मेरी सुंदरता का बखान करते न थकते वे. पूरा रास्ता मौन संदेश देता बीत गया. ब्यूटीपार्लर के सामने हमें उतार कर बड़ी प्रसन्न मुद्रा में मुझे देखते वे चले गए.

ब्यूटीपार्लर से औटो में लौटते हुए मैं ने छेड़ा, ‘‘दीदी, मुझे लगता है कि भाईसाहब को भी अब एक लाइफपार्टनर की जरूरत है.’’

‘‘हां, मैं भी ऐसा ही महसूस करती हूं. पर अपनी ऐंठ और पिताजी को दुख दे कर पता नहीं उसे क्या मिल रहा है. आजीवन कुंआरा रह कर जाने क्या सिद्ध करना चाहता है. प्रशोभा, हाउसिंग बोर्ड में सर्विस लगने के बाद इस के कितने ही रिश्ते आए, पर एक ही रट कि आप ने मेरी शादी कंचन से नहीं होने दी, इसलिए अब किसी से भी शादी नहीं करूंगा, आजीवन कुंआरा रहूंगा.’’

‘‘दीदी, अगर आप कहो तो मैं उन्हें शादी कर लेने लिए राजी करूं?’’

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‘‘अरे कुछ नहीं होगा प्रशोभा. जो मनोरोगी हो जाते हैं वे किसी की बात नहीं सुनते. कितने ही रिश्ते तो तेरे जीजाजी ने बताए, मामाजी, बूआजी और भी कई लोगों ने इसे समझाया पर कुछ असर नहीं हुआ.’’

‘‘दीदी, एक बार राघव और मैं प्रयास कर के देखते हैं.’’

‘‘तेरी नजर में कोई लड़की हो तो कर प्रयास लेकिन मुझे पता है कि परिणाम क्या होगा.’’

घर पहुंच कर मांजी के साथ हम और दीदी कल होने वाले लेडीज संगीत के प्रोग्राम में निमंत्रित महिलाओं की मांजी द्वारा तैयार की गई 2 पन्नों की लिस्ट का एकएक पन्ना ले कर बैठ गए और अपनेअपने मोबाइलों से उन्हें रिमाइंडर देने में जुट गए.

शाम की चाय से पहले राघव और माधव आ गए थे. पर भाईसाहब नहीं लौटे थे.

राघव ने आते ही पिताजी को बता दिया, ‘‘कल लेडीज संगीत निबट ही जाएगा और परसों सवेरे ठीक 8 बजे मिनी बस दरवाजे पर आ कर खड़ी हो जाएगी. इसलिए होटल में साथ ले जाने वाला सारा सामान याद कर के टोकरियों व पेटियों में भर कर तैयार रखना होगा.’’

फिर उस ने मां से कहा, ‘‘और मां, जो कीमती सामान वाली अटैची और बक्सा होगा, वह हमारे साथ सूमो से चला जाएगा. होटलरूम हमें 10 बजे तक खाली हो कर मिल जाएगा.

माधव ने वास्तव में दोनों बहुत अच्छे होटल बुक कराए हैं. दसों कमरे एयरकंडीशन वाले हैं और जिस हौल में सारे फंक्शन होंगे वह भी अच्छा व बड़ा है तथा उस में भी एसी फिट है.’’

‘‘उन का होटल भी अच्छा ही होगा?’’ दीदी ने पूछ लिया.

‘‘दीदी, उन के लिए जो कमरे बुक हैं वे तो हमारे से भी अच्छे और बड़े हैं. एयरकंडीशंड हैं. सब से बड़ी बात कि रिसैप्शन वाला लौन बहुत बड़ा व सुंदर है. जयमाला स्टेज, फेरों वाला प्लेस सज कर बहुत मस्त लगेगा.’’

रात के खाने के समय तक जेठजी भी आ गए थे. कानपुर के घंटाघर के पास किसी प्रसिद्ध मिठाई की दुकान से रबड़ीमलाई वे सब के लिए लेते आए थे और रबड़ीमलाई से भरी मिट्टी की हंडिया मुझे पकड़ाते हुए बोले थे, ‘‘प्रशोभा, यह कानपुर के प्रसिद्ध कुंदन हलवाई की रबड़ीमलाई है. खाना खाने के बाद हम सब खाएंगे.’’

खाना खाते समय राघव ने भाईसाहब को भी परसों तक की सारी गतिविधियों से अवगत करा दिया और हम सब उन के द्वारा लाई हुई स्वादिष्ठ रबड़ीमलाई खा कर अपनेअपने कमरों में सोने चले गए.

अपने कमरे के दरवाजे पर ठिठक कर रुकते हुए उन्होंने राघव से कहा, ‘‘तुम लोग तो अपनी अटैची आराम से लगा लोगे, पर मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि कौन से सूट और कपड़े ले चलूं? मन तो कह रहा है कि जिस दिन जयमाला और फेरे हों उसी दिन सीधे शादी में पहुंचूं.’’

‘‘अरे भाईसाहब, आप के बिना कैसी शादी? वहां सब आप को पूछेंगे तो हम क्या जवाब देंगे? आप ऐसा मत सोचिए. आप को तो माधव की शादी में हर हालत में सदा ही उपस्थित रहना है.’’

‘‘राघव, तुम तो जानते ही हो कि मुझे शादी शब्द से ही नफरत है. 2 दिलों का मिलन साधारण तरीके से भी हो सकता है.’’

‘‘भाईसाहब, मेरी तो समझ में यह आता है कि कोई व्यक्ति जब किसी बात से वंचित रह जाता है तो उसे समाज के हर रीतिरिवाज बोझ लगते हैं. जबकि सच यह है कि ये सारी व्यवस्थाएं और इस में निहित सारी रस्में 2 परिवारों की खुशी के लिए दस्तावेज का काम करती हैं,’’ मैं जाने किस रौ में इतना बोल गई.

भाईसाहब मुझे गौर से देखने लगे, फिर राघव से बोले, ‘‘तेरी प्रशोभा तो बड़ी गंभीर बातें कर लेती है. और शायद इसीलिए मुझे इस का स्वभाव बहुत अच्छा लगता है.’’

राघव ने बात खत्म करने के इरादे  से कहा, ‘‘भाईसाहब, मैं कुछ नहीं जानता, आप को शादी में सब के साथ चलना है.’’

‘‘लेकिन मेरी अटैची कौन लगाएगा, मुझ से तो लग नहीं पाएगी.’’

‘‘लेडीज संगीत के बाद आप की अटैची भी प्रशोभा लगा देगी.’’

‘‘तब ठीक है. क्यों प्रशोभा, तुम्हें तो कोई एतराज नहीं है?’’ भाईसाहब ने कहा तो राघव मेरे चेहरे की तरफ देखने लगा.

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मैं ने राघव की आंखों में झांकते हुए मौन संकेत से पूछा, ‘‘अब क्यों मेरी तरफ देख रहे हो? किसी बात की हामी भरने से पहले मुझ से पूछने की जरूरत नहीं थी क्या?’’

उस ने आंखों से ही मनुहार भरी और मैं ने भाईसाहब की अटैची लगाने का बीड़ा अपने सिर ले लिया.

रात में सोने से पहले मेरे करीब लेटते हुए राघव अपनी सफाई में स्वयं ही बताने लगा, ‘‘प्रशोभा, आज मैं और माधव, भाईसाहब के कारण ही इंजीनियर बन पाए. उन्होंने प्रतियोगी परीक्षाओं में हमारे साथ रातरातभर जाग कर तैयारी करवाई थी.’’

‘‘तो खुद क्यों अपना कैरियर खराब कर के बैठ गए और हाउसिंग बोर्ड में बड़े बाबू बन कर रह गए?’’

‘‘प्रशोभा, इंटर की परीक्षा देने के बाद भाईसाहब ने भी इंजीनियरिंग का एग्जाम पास कर लिया था और उन का मेकैनिकल शाखा में एडमिशन भी हो गया था लेकिन उसी बीच एक लड़की से इश्क के पागलपन में इन्होंने अपना कैरियर बरबाद कर लिया.

‘‘उस से शादी न कर पाने के कारण अपनी जिद में इंजीनियरिंग की पढ़ाई अधूरी छोड़ दी और बड़ी मुश्किल से ग्रेजुएशन कर के कानपुर हाउसिंग बोर्ड में नौकरी पाई.’’

‘‘वह सब तो ठीक है पर शादी न करने का प्रण इस घर में आने वाली नई बहू के लिए भारी पड़ सकता है.’’

‘‘तुम ऐसा किस आधार पर कह रही हो?’’

राघव ने पूछा तो मैं ने कहा, ‘‘ह्यूमन साइकोलौजी कहती है कि इंसान अपने भीतर के जिस विचार से जितना दूर भागने का नाटक करता है वह उसी विचार में परिस्थिति आने पर फिर जकड़ जाता है.’’

इतना कह कर मैं ने साड़ी और इत्र वाले दोनों किस्से विस्तार से राघव को बता दिए, फिर कहा, ‘‘राघव, तुम कहो तो मैं भाईसाहब के मन को शादी के लिए तैयार करूं?’’

‘‘लेकिन उन के पसंद की लड़की कहां से लाओगी?’’

‘‘देखो राघव, मेरी बातें सुन कर तुम इतना तो समझ चुके ही होगे कि वे मेरे चेहरे से प्रभावित हो कर मुझे अपने करीब ही देखना चाहते हैं. और मेरे जैसी कदकाठी व चेहरेमोहरे वाली इस संसार में कोई है तो तुम्हारी प्रिय साली शोभा है. याद है, पहली बार उस से मिल कर तुम भी तो चकित हो कर रह गए थे.’’

आगे पढ़ें- राघव ने यह कहा तो मैं ने सारी परिस्थितियों पर…

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Serial Story: जेठ जीजाजी – भाग 3

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

अभी तक आप ने पढ़ा प्रशोभा अपने पति राघव के साथ देवर माधव की शादी के लिए ससुराल पहुंचती है. ससुराल में शादी की तैयारियां चल रही होती हैं. प्रशोभा ने गौर किया कि उस के जेठ ऊधव उस का कुछ खास ही खयाल रख रहे हैं और उस के नजदीक रहना पसंद करते हैं.

प्रशोभा को अपनी ननद किरण से पता चलता है कि जेठ ऊधव कंचन नाम की लड़की से  प्रेम करते थे लेकिन पिता के मना करने पर उन्होंने कभी भी शादी न करने का प्रण ले लिया था.

एकदो ऐसी घटनाएं हुईं कि प्रशोभा को लगा कि जेठ ऊधव उस के प्रति आकर्षित हैं. क्या प्रशोभा अपने जेठ ऊधव की मनोस्थिति समझ रही थी? पढि़ए आगे…

मैं उन की आंखों में उभरते उन्माद को लगातार परख रही थी. फिर जब दूरी एक मीटर के आसपास की रह गई तो मेरी आंखों की स्थिरता व चेहरे की दृढ़ता देख कर वे वहीं रुक कर बोले, ‘‘तुम्हें मुझ से डरने की जरूरत नहीं है. तुम मेरे कमरे में बेहिचक चली आया करो. देखो, मैं ने अपने कमरे को आधुनिक रूप से बनवा लिया है. यहां अटैच्ड लैट्रीनबाथरूम में मैं ने गीजर, शौवर और सारी लैटेस्ट फिटिंग्स के साथ कमरे में एसी भी लगवा रखा है.’’

तभी नीचे से राघव की आवाज आई, ‘‘अरे प्रशोभा, कहां रह गईं, एक साड़ी लाने में इतनी देर?’’

राघव की आवाज सुन कर मैं ने तुरंत जवाब दिया, ‘‘बस, 2 मिनट में आ रही हूं.’’

फिर धीरे से जेठजी से बोली, ‘‘भाईसाहब, अभी साड़ी आप अपने पास ही रखिए. मुझे जिस दिन पहननी होगी, आप से मांग लूंगी,’’ इतना कह कर मैं तुरंत वहां से हट गई और पास के उस  कमरे में तेजी से घुस गई जहां मेरा सामान रखा हुआ था.

अंदर से दरवाजा बंद कर के पहले बाथरूम में घुसी. यह बाथरूम भी अटैच्ड और साफसुथरा था लेकिन जैसी व्याख्या भाईसाहब ने अपने बाथरूम की की थी वैसा नहीं था और एसी की जगह कमरे में कूलर लगा था.

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फ्रैश हो कर मैं ने जल्दी से अटैची खोल कर अपनी होने वाली देवरानी को देने वाली इलाहाबाद से खरीदी हुई साड़ी व चांदी की करधनी निकाली तथा फिर से अटैची बंद कर के दरवाजा खोल कर भाईसाहब के कमरे के सामने से तेजी से गुजरती हुई सीढि़यों से नीचे उतर गई.

मैं ने महसूस कर लिया था कि भाईसाहब मुझे रोकने या मुझ से कुछ कहने के इरादे से अपने कमरे के दरवाजे पर ही खड़े हैं. पर इस बात से अनजान होने का नाटक करते हुए मैं फटाफट सीढि़यां उतर कर मां वाले कमरे में पहुंची.

बड़ी देर तक मैं और राघव मां के साथ बैठ कर शादी की तैयारियां करते रहे. फिर कल पूरे दिन की योजना बना कर सीढि़यां चढ़ कर अपने कमरे में आ गए.

भाईसाहब ने एसी चला कर अपना कमरा बंद कर लिया था और पता नहीं सो रहे थे या जग रहे थे. कूलर आवाज बहुत कर रहा था. मैं अपना नाइट गाउन पहन कर राघव के पास आ कर लेटी ही थी और अभी कुछ देर पहले का जेठजी वाला किस्सा बताने जा ही रही थी कि ऐसा लगा कि बाहरी दरवाजे पर कोई दस्तक दे रहा है.

राघव बोला, ‘‘लग रहा है कोई दरवाजा खटखटा रहा है. देखता हूं  उठ कर.’’

राघव दरवाजे की ओर बढ़ने लगा तो मैं ने कहा, ‘‘अगर भाईसाहब हों तो तुम उन को कमरे के अंदर लिए न चले आना. मैं गाउन पहन चुकी हूं. ज्यादा देर तक बात करनी हो तो उन्हीं के कमरे में चले जाना. मुझे पूछें तो कह देना सो गई है.’’

इतना कह कर मैं चादर के भीतर घुस गई और मुंह ढक कर लेट गई. राघव ने दरवाजा खोला, जेठजी ही थे. राघव को देखते ही बोले, ‘‘प्रशोभा सो गई क्या?’’

शायद राघव ने हां कहा होगा क्योंकि कूलर की आवाज में शब्द स्पष्ट नहीं सुनाई दे रहे थे. फिर भी जो मेरे कानों में पड़ा उस से मैं ने अनुमान लगाया कि वे कह रहे थे, ‘‘बड़ी जल्दी सो गई. मैं तो तुम दोनों को अपने कमरे में सोने के लिए बुलाने आया था. चलो, कोई बात नहीं. अब तुम भी सो जाओ, कल सवेरे बातें करेंगे.’’

मैं ने कमरे का दरवाजा बंद होने की आवाज सुनी तो अपने मुंह पर ढकी चादर हटाते हुए राघव को देखा, फिर उसे कमरे की लाइट बंद करने का इशारा किया.

जब वह मेरे पास आ कर उसी चादर में घुस गया तो मैं उस से चिपट कर लेट गई.

मेरे अनुमान से रात को एक तो बज ही गया होगा, इसलिए मैं भाईसाहब से हुई अपनी बातचीत राघव को इस समय भी न बता पाई. बस, उस की बांहों में सिमट कर सो गई.

सवेरे दरवाजा खटकने की आवाज से मेरी और राघव की एकसाथ ही आंख खुल गई. राघव तो कूलर बंद कर के दरवाजा खोलने बढ़ गया और मैं इस आशंका से कि कहीं जेठजी न हों, उठ कर सीधी बाथरूम में घुस गई.

जेठजी ही थे क्योंकि उन की आवाज मेरे कानों में स्पष्ट आ रही थी, ‘‘कितना सोते हो तुम लोग, 8 बजने वाले हैं, मैं बैड टी पीने के बाद कब से तुम दोनों का इंतजार कर रहा हूं. चलो, नीचे चल कर चाय पीते हैं.’’

‘‘भाईसाहब, आप चलो, हम फ्रैश होने के बाद ब्रश कर के अभी आते हैं,’’ राघव की आवाज थी.

‘‘मैं तुम दोनों के साथ ही नीचे उतरूंगा.’’

‘‘लेकिन भाईसाहब, अभी तो प्रशोभा बाथरूम में घुसी है. नहा कर ही निकलेगी. वह निकलेगी, तभी मैं नहाने के बाद तैयार हो कर ही नीचे उतरूंगा. आज माधव के साथ जा कर बहुत से काम करने हैं. आप चलो भाईसाहब, हम पहुंचते हैं.’’

‘‘मुझे पता है कि तुम नहाने में कितना समय लगाते हो. तुम ऐसा करो कि अपना तौलिया वगैरह ले लो और चल कर मेरे बाथरूम में नहा लो. आओ चलो.’’

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‘‘ठीक है भाईसाहब, ऐसा ही करते हैं.’’ इस के बाद एकदम से चुप्पी छा गई. मैं ने पदचाप से अनुमान लगाया कि राघव ने कमरे में आ कर बैग से अपना टूथब्रश और तौलिया आदि लिया और भाईसाहब के साथ उन के कमरे में फ्रैश होने चला गया.

बाहर कमरे की शांति से निश्ंिचत हो कर मैं धीरे से बाथरूम से बाहर निकली, अटैची में से जल्दी से अपनी ब्रा, पेटीकोट, ब्लाउज और तौलिया ले कर गुसलखाने में घुस गई. साड़ी निकाल कर पलंग पर यह सोच कर रख दी कि नहाने के बाद बाहर निकल कर ढंग से पहनूंगी.

नहाधो कर मैं तौलिए से सिर के बाल पोंछती हुई पेटीकोट व ब्लाउज पहने जब बाहर निकली तो ड्रैसिंग टेबल के पास से आवाज आई, ‘‘प्रशोभा, वास्तव में तुम बहुत सुंदर हो. देखो, मैं तुम्हारे लिए बहुत अच्छी खुशबू वाला सैंट कन्नौज से लाया था जब दिव्या को देखने गया था. नहाने के बाद बदन पर स्प्रे करने से दिनभर मन प्रसन्न रहता है,’’ कह कर वे मुझे इत्र देने के बहाने बढ़े तो मैं एकदम से घबरा गई.

मेरा इधर तो ध्यान ही नहीं था कि राघव को अपने बाथरूम में नहाने के लिए भेज कर जेठजी इस कमरे में आ कर मुझे इस रूप में देखने के इरादे से आ कर बैठ सकते हैं. मैं यह भी जानती थी कि राघव इतनी जल्दी नहा कर निकलने वाला नहीं है.

इसलिए मेरे पास एक ही विकल्प बचा था कि मैं उन की कुदृष्टि से अपने को बचाने के लिए फिर बाथरूम में घुस जाऊं, इसलिए मैं तेजी से पलटी और बाथरूम में घुस गई.

पीछे से मैं ने भाईसाहब की आवाज सुनी, ‘‘प्रशोभा, पता नहीं तुम मुझ से इतना क्यों घबराती हो. मुझ से डरने की क्या जरूरत है. अरे, मैं राघव का बड़ा भाई हूं, कोई भूतप्रेत नहीं. लो, मैं जा रहा हूं. सैंट की शीशी साड़ी के पास रखे जा रहा हूं.’’

गरमी के दिनों में नहाने के बाद गुसलखाने में फिर यों घुस जाने के कारण मेरा बदन पसीने से भीगने लगा था और मैं अपनी गलती पर पछताने लगी कि जब अटैची से कपड़े निकालने आई थी तो बढ़ कर कमरे का दरवाजा भी बंद कर लेना चाहिए था.

तभी मुझे बाथरूम के बाहर कमरे के अंदर से माधव की आवाज सुनाई दी. वह आवाज लगा रहा था, ‘‘भैया, भाभी, आप दोनों को नीचे दीदी, मांजी और बाबूजी पूछ रहे हैं. बड़े भैया भी नीचे पहुंच गए हैं. मैं आप दोनों को बुलाने आया हूं.’’

माधव की आवाज सुन कर मुझे राहत मिली और मैं अंदर से चिल्लाई, ‘‘माधव भैया, वहां पलंग पर पड़ी मेरी साड़ी मुझे पकड़ा दो. और भाईसाहब के कमरे में जा कर उन के बाथरूम का दरवाजा खटखटा दो वरना तुम्हारे राघव भैया दिनभर नहाते ही रहेंगे.’’

मुझे साड़ी पकड़ा कर माधव यह कहते हुए चला गया, ‘‘भाभी, जितनी जल्दी हो सके, तैयार हो कर नीचे आ जाओ. मैं भैया को भी उस बाथरूम से निकालता हूं.’’

उस के जाते ही मैं बाथरूम से निकली. कमरे का कूलर चलाया और जल्दी से तैयार हो गई. पलंग पर पड़ी सैंट की शीशी को उठाया और कूलर की तरफ कर के कई बार हवा में स्प्रे कर दिया. अपने कपड़ों पर छिड़कने की इच्छा ही नहीं हुई. तभी राघव भी फ्रैश हो कर आ गया. कमरे में फैली सुगंध को सांसों में भरता हुआ बोला, ‘‘अरे वाह, बड़ी मस्त खुशबू है. यह स्प्रे तुम ने कब खरीदा?’’

मैं ने नहीं खरीदा, इसी कमरे में रखा था. शादी के घर में कोई नया उपद्रव न खड़ा हो जाए, इसलिए मैं असली बात छिपा गई और बोली, ‘‘तुम जल्दी से तैयार हो जाओ, नीचे सब लोग नाश्ते पर हमारा इंतजार कर रहे हैं.’’

नाश्ते की मेज पर इस समय आठों कुरसियां भरी थीं. मांपिताजी, जेठजी, दीदी, नितिन और माधव के साथसाथ जब मैं और राघव भी बैठ गए तो हमारा ज्यादा इंतजार न करते हुए मांजी, पिताजी, दीदी और नितिन ने तो नाश्ता शुरू कर दिया था और लगभग खत्म पर था.

माधव ने भी स्लाइस बटर का पीस उठा कर खाना शुरू कर दिया था. पर जेठजी अपनी प्लेट में नाश्ता परोसे बैठे थे. मैं ने जानबूझ कर उन की तरफ नहीं देखा. लेकिन मुझे आभास था कि वे मेरे चेहरे के भाव पढ़ने का प्रयास कर रहे थे. तभी पिताजी ने माधव से पूछा, ‘‘बेटे, आज का क्या प्रोग्राम बनाया? अब हमारे पास 2 दिन ही बचे हैं. हमें रिश्तेदारों के आने से पहले सारे जरूरी सामान के साथ कानपुर पहुंच कर होटल में शिफ्ट हो जाना है.’’

‘‘हां पिताजी, मैं और राघव भैया नाश्ता कर के निकल रहे हैं. बड़े भैया को कैटरर से मिल कर मैरिज वाले दिन का पूरा मीनू सैट करना है.’’

माधव ने जैसे ही अपनी बात खत्म की, जेठजी बोल पड़े, ‘‘मैं ने फोन पर कैटरर को सारे मीनू डिक्टेट कर दिए हैं. तुम लोगों को परेशान होने की जरूरत नहीं है.’’

भाईसाहब ने अपनी बात खत्म की ही थी कि दीदी बोल पड़ीं, ‘‘फिर भी ऊधव, एक बार कैटरर से मिल लेने में कोई बुराई तो नहीं है. आखिर घर में बैठे रहने से तो अच्छा है कि शादी की सारी तैयारियां पुख्ता कर ली जाएं. अब दिन ही कितने रह गए हैं.’’

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जेठजी को पता नहीं दीदी के द्वारा कही हुई हर बात से इतनी चिढ़ क्यों थी, तपाक से बोल पड़े, ‘‘तुम्हें तो मेरे हर काम में, हर चौइस में खोट ही दिखता है.’’

‘‘इस में खोट की क्या बात है. लड़की वालों ने जब सारी जिम्मेदारी हम को दे दी है और सारी व्यवस्थाओं के लिए रुपए भी पकड़ा गए हैं तो हमारा कर्तव्य भी कुछ बनता है.’’

‘‘किरण, तुम मुझे कर्तव्य न समझाओ,’’ जेठजी गुस्से में आ गए. शायद मेरी उपस्थिति के कारण वे दबना नहीं चाहते थे. दीदी और उन की उम्र में कोई डेढ़ साल का अंतर था जबकि उन दोनों के बाद राघव 5 साल और राघव के 2 साल बाद माधव हुआ था. इसलिए किरण दीदी को बचपन से ही वे बराबर का सा समझते थे.

बात बढ़ती देख माताजी ने दोनों को डांट कर चुप कराया, फिर बेटी को समझाते हुए बोलीं, ‘‘किरण, तू चुप रहा कर. जानती है न कि यह बातों में तुझ से दबने वाला नहीं है.’’

राघव और माधव उन से काफी छोटे होने के कारण चुपचाप नाश्ता करते रहे और पिताजी ने वहां से उठ जाना उचित समझा.

उन्होंने उठ कर ड्राइंगरूम की तरफ कदम बढ़ाते हुए राघव और माधव से कहा, ‘‘तुम दोनों नाश्ता कर के मुझ से मिलते हुए जाना.’’

पिताजी के उठते ही जेठजी भी उठ खड़े हुए, फिर मांजी से बोले, ‘‘मां, इस को समझा दो, यह मुझे राय न दिया करे. सारा मूड खराब कर देती है,’’ थोड़ा रुक कर वे मांजी से फिर बोले, ‘‘अब मैं कुछ देर के लिए औफिस जाऊंगा, तभी मूड ठीक होगा.’’

‘‘लेकिन तू ने तो पूरे 10 दिन की छुट्टी ले रखी है?’’

‘‘घर में बैठ कर भी क्या करूंगा, कौन है जो यहां मेरी कद्र कर रहा है?’’

मैं ने इतनी देर में एक बार भी उन की तरफ देखने का प्रयास नहीं किया था. जैसे ही उन के मुंह से ये शब्द निकले, मैं ने उन की तरफ देखा. उन्होंने दीदी के साथसाथ मुझ पर भी व्यंग्य कसा था. मैं कसमसा कर रह गई. मन तो हुआ कि बोल दूं कि भाईसाहब, कद्र तो इंसान के व्यवहार और आचरण से होती है. पर शादी के घर में मेरी बात कोई बुरा असर न डाल दे, इसलिए चुप रह गई.

राघव और माधव भी नाश्ता कर के उठ खड़े हुए. जेठजी, पहले किरण को, फिर मुझे घूरते हुए सीढि़यां चढ़ कर ऊपर चले गए.

उन के जाते ही दीदी ने मां से कहा, ‘‘ऊधव के व्यवहार के कारण ही मेरा मायके आने का मन ही नहीं करता  है. पता नहीं क्यों अब तक वह  अपने कुंआरे रहने का कारण मुझे ही समझता है.’’

‘‘छोड़ इन बातों को, उस का स्वभाव ही ऐसा है. तू, बस, यह शादी निबट जाने दे, फिर मैं निश्ंिचत हो जाऊं. यह तो शादी करने से रहा.’’

‘‘कितनी उम्र हो गई होगी भाईसाहब की?’’ मैं ने मांजी से पूछा.

‘‘किरण से डेढ़ साल ही तो छोटा है. किरण 33 साल की हुई है तो यह 31 तो पूरे कर ही चुका है. पढ़ने में भी तेज था. पर कंचन के चक्कर में अपना जीवन बरबाद कर के बैठ गया,’’ कहते हुए मांजी भी उठ खड़ी हुईं और अपने कमरे की तरफ बढ़ती हुई बोलीं, ‘‘प्रशोभा, आज तुझे दिव्या का शृंगार बक्सा तैयार करना है.’’

‘‘हां मां, आप निश्ंिचत रहो,’’ मैं ने उन्हें तसल्ली दी.

वह दिन अभी आधा ही गुजरा था. जेठजी करीब 2 घंटे बाद ऊपर से बाहर जाने के लिए तैयार हो कर उतरे. हो सकता है उन्होंने मेरा इंतजार किया हो कि शायद मैं किसी काम से ऊपर अपने कमरे में आऊं. लेकिन पता नहीं क्यों, भाईसाहब के अकेला होने तथा एक अज्ञात सी आशंका के कारण मैं नहीं गई.

जाने से पहले जेठजी सासुमां के कमरे में आए, मुझे घूरा और जब मैं ने नजरें उठा कर उन्हें देखा तो वे बोले, ‘‘प्रशोभा, तुम्हें बाजार से तो कुछ नहीं मंगाना है?’’

‘‘नहीं भाईसाहब, परसों तो हमें कानपुर शिफ्ट होना ही है और राघव बता रहे थे कि जहां हमारा होटल बुक है वहीं पास में मार्केट है. मुझे जो भी लेना होगा वहीं राघव के साथ जा कर ले आऊंगी.’’

जेठजी लगातार मुझे देखे जा रहे थे. मैं ने मुसकराते हुए अपनी बात जारी रखी, ‘‘भाईसाहब, आप परेशान न हों और औफिस जाएं. वैसे, अगर समय हो तो दीदी और मुझे यहां के ब्यूटीपार्लर में छोड़ दें. दीदी कह रही थीं कि भोगनीपुर में जो लेडीज ब्यूटीपार्लर है वहां कानपुर ब्यूटीपार्लर के मुकाबले बहुत बढि़या व सस्ता काम हो जाता है.’’

असल में अभी कुछ देर पहले ही जब दीदी यहां नाश्ते के बाद मेरे और मांजी के पास आ कर बैठी थीं तभी हम ने तय कर लिया था कि कल तो लेडीज संगीत है और परसों यहां से कानपुर शिफ्ट होने में हमारा समय निकल जाएगा. फिर वहां अगले 2 दिन में ही सारे फंक्शन, जैसे मेहंदी, मढ़ा, हल्दीतेल, कंगन बंधाई, भात, रिसैप्शन, फेरेबिदाई आदि होंगे तो पता नहीं समय मिले न मिले. फेशियल, थ्रैडिंग, वैक्ंिसग आदि का काम आज ही निबटा लिया जाए. इसलिए दीदी तैयार होने के लिए उठ कर अपने कमरे चली गई थीं.

फिर जब मां ने धीरे से दीदी से कहा, ‘प्रशोभा तो नहाधो कर तैयार है, तू जल्दी से तैयार हो जा, तो मैं ऊधव से कह दूंगी वह जाते हुए अपनी कार से तुम दोनों को छोड़ देगा, वरना धूप में औटो ढूंढ़ती फिरोगी.’ इसलिए मैं ने जब जेठजी से ऐसा बोला तो एक क्षण को उन के चेहरे पर इस बात से प्रसन्नता छा गई कि मैं उन की कार में बैठूंगी लेकिन किरण दीदी भी साथ होंगी, इस विचार से उन के चेहरे पर आई चमक लुप्त हो गई.

तभी दीदी भी तैयार हो कर एक हाथ में पर्स लटकाए हुए आ गईं, नितिन को मांजी के पास छोड़ा और बोलीं, ‘‘चलो प्रशोभा.’’

मैं ने उठते हुए दीदी को शरारतभरी मुसकान चेहरे पर लाते हुए बताया, ‘‘भाईसाहब हमें छोड़ते हुए अपने औफिस जाने को तैयार हैं,’’ यह कह कर मैं सीढि़यों की तरफ बढ़ते हुए बोली, ‘‘दीदी, मैं अपना पर्स ले कर 2 मिनट में आई.’’

यह सुन कर भाईसाहब बोल पड़े, ‘‘जब किरण जा रही है तो तुम्हें पैसे खर्च करने की जरूरत क्या है?’’ और यह कहने के बाद भाईसाइब किरण को देख कर इस तरह खिलखिलाए जैसे उन्होंने मेरे सामने अपनी बहन के रुपए खर्च करने को मजबूर कर के कोई किला फतेह कर लिया हो. अच्छा यह हुआ कि दीदी कुछ बोलीं नहीं, भाईसाहब की ओर शांत भाव से देख कर रह गईं.

-क्रमश:

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Serial Story: जेठ जीजाजी – भाग 5

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

राघव एकदम से उछल कर बैठ गया जैसे प्रसन्नता का कोई करंट उसे लग गया हो लेकिन तुरंत ही कुछ सोच कर उस के चेहरे पर उदासी छा गई और मेरी बगल में धीरे से फिर लेटते हुए बोला, ‘‘लेकिन पैरों के बारे जान कर वे शायद ही राजी हों?’’

राघव ने यह कहा तो मैं ने सारी परिस्थितियों पर विचार करते हुए कहा, ‘‘राघव, कल तुम बस, इतना करो कि शोभा के जितने भी फोटो तुम्हारे मोबाइल में हैं उन्हें किसी बहाने भाईसाहब को दिखाओ. बाकी सब मुझ पर छोड़ दो.’’

राघव किसी सोच में डूब गया. उसे सोच में डूबा देख कर मैं ने उठ कर कमरेदरवाजे की सांकल को चैक किया. वे बंद थीं. फिर कमरे की सारी बत्तियां बुझा कर राघव की आगोश में आ कर लेट गई. राघव ने मुझे चूमना शुरू कर दिया.

सवेरे मेरी आंख जल्दी ही खुल गई थी. सास ने कहा था कि कल जल्दी उठ जाना क्योंकि लेडीज संगीत में महल्ले की सभी आमंत्रित महिलाएं आएंगी तो घर थोड़ा व्यवस्थित और सजासंवरा दिखना चाहिए.

इसलिए मैं राघव को सोता छोड़ कर नहाईधोई, फिर तैयार हो कर नीचे पहुंच गई. जेठजी के कमरे का दरवाजा बंद था. मैं ने अनुमान लगा लिया कि वे अभी उठे नहीं थे.

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दीदी के साथ मिल कर घर को खूब सुसज्जित कर के जब खाली हुई तो सास ने अपने कमरे में ले जा कर मुझे एक बहुत ही सुंदर जौर्जेट की साड़ी ब्लाउज पेटीकोट के साथ देते हुए कहा, ‘‘लेडीज संगीत में तुम्हें यह नई साड़ी ही पहन कर बैठना है. ब्लाउज मैं ने तुम्हारे पुराने नाप से थोड़ा बीस सिलवा लिया था. मुझे उम्मीद है ठीक आएगा.’’

सास द्वारा प्यार से दी गई उस लाल बौर्डर वाली सुनहरी साड़ी पहन कर मैं बहुत खुश थी तथा सुंदर और आकर्षक दिख रही थी और अब मेरे पास भाईसाहब की उस साड़ी को न पहनने का ठोस बहाना था.

नीचे दीदी के कमरे में ही मैं सास वाली साड़ी पहन कर तैयार हो गई थी. खूब जम कर लेडीज संगीत हुआ. ढोलक पर खूब बन्ने गाए गए. ढोलक बजाने में सास को महारत हासिल थी. मुझ से भी विवाह के गीत सुने गए.

जलपान के साथ मिठाई का डब्बा दे कर सब मेहमानों को जब हम ने विदा कर दिया तब मैं ऊपर आई.

राघव भाईसाहब के कमरे में बैठ अपने मोबाइल से उन्हें शोभा की उन तसवीरों को दिखा रहा था जो शोभा की अकेले की भी थीं और राघव के साथ की भी.

मैं राघव को उस कमरे में देख कर दरवाजे पर ही ठिठक कर रुक गई तो राघव बोला, ‘‘आओ, अंदर आओ प्रशोभा. खत्म हो गया तुम लोगों का संगीत कार्यक्रम?’’

भाईसाहब, जो मोबाइल की फोटोज देखने में मशगूल थे, मुझे सुंदर सी साड़ी पहने देख कर देखते ही रह गए, फिर बोल पड़े, ‘‘राघव, वास्तव में बहुत खुश हो क्योंकि प्रशोभा जितनी सुंदर प्रत्यक्ष दिखती है, उस से ज्यादा इन फोटोज में. वास्तव में तुम दोनों की जोड़ी बहुत अच्छी लगती है.’’

मुझे भी दीदी ने मिठाई का डब्बा  पकड़ा दिया था जिसे हाथ में लिए हुए मैं राघव के पास रखी कुरसी पर आ कर बैठ गई और मिठाई भाईसाहब की तरफ बढ़ाते हुए बोली, ‘‘भाईसाहब, आप मिठाई खाइए. फिर मुझ से आप अपनी कसम तोड़ने का वादा करें तो मैं आप की भी अपने से बढि़या जोड़ी बनवा सकती हूं.’’

‘‘ऐसा नहीं हो सकता प्रशोभा, क्योंकि मुझे अपने जीवन में कंचन के बाद कोई अच्छा लगा तो वह तुम और तुम मेरे प्रिय भाई राघव की जीवनसंगिनी हो. तो अब मेरा जीवन ऐसे ही बीत जाएगा,’’ यह कह कर भाईसाहब फिर मोबाइल की फोटोज को देखने लगे.

मैं ने राघव की तरफ देख कर इशारे से उन फोटोज की सचाई बताने की इजाजत ली. फिर भाईसाहब से पूछा, ‘‘अच्छा भाईसाहब, एक बात बताइए, राघव के साथ जिस की फोटोज आप देख रहे हैं, यह आप को मिल जाए तो आप अपनी शादी न करने वाली हठ छोड़ देंगे?’’

‘‘राघव देख रहे हो प्रशोभा को. मजाक करने के लिए ये जेठ ही  मिले थे.’’

‘‘भाईसाहब, प्रशोभा सच कह रही है, मेरे साथ इन फोटो में जो लड़की है, वह आप को मिल सकती है. बस, आप को अपनी हठ छोड़नी होगी.’’

‘‘तो क्या तुम मेरे लिए इस को छोड़ दोगे?’’

‘‘मैं अपनी प्यारी प्रशोभा को क्यों छोड़ दूंगा, यह मुझे ब्याही है और मेरी  ही रहेगी.’’

‘‘तो फिर कैसे?’’ भाईसाहब परेशान थे और मुझे तथा राघव को मजा आ रहा था. मैं ने उन से कहा, ‘‘भाईसाहब, आप पहले मुझ से वादा तो करें. मैं आप की बात इस फोटो वाली लड़की से व्हाट्सऐप वीडियो कौल के जरिए अभी करा सकती हूं लेकिन उस से पहले आप को स्पष्ट रूप से मेरे और राघव के सामने कहना होगा कि हां, मैं इस लड़की से शादी करने को राजी हूं.’’

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‘‘ठीक है, मैं इस लड़की से शादी करने को राजी हूं.’’

‘‘पक्का?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां भई, बिलकुल पक्का.’’

‘‘तो भाईसाहब, सचाई यह है कि यह मेरी हमशक्ल बड़ी बहन है शोभा. राघव की साली. और सही मानो में मुझ से भी ज्यादा सुंदर है. यह पढ़ने में बहुत मेधावी रही है. बीए, बीएड कर के केंद्रीय विद्यालय में टीचर है.’’

‘‘भाईसाहब, प्रशोभा सच कह रही है. यह शोभा है, प्रशोभा की बड़ी बहन. बहुत ही सुशील और सुंदर. लेकिन मेरा रिश्ता होने से पहले जरा सी बात के कारण कई लड़कों ने उस से शादी करने से इनकार  कर दिया और इस ने भी आप की तरह कसम खा ली कि आजीवन शादी नहीं करेगी.’’

‘‘किस बात के कारण?’’

‘‘भाईसाहब, आप अगर 1-2 फोटो में गौर से उस के पैरों को देखेंगे तो एक जूते का तल्ला 2 इंच मोटा है क्योंकि उस का एक पैर दूसरे से 2 इंच छोटा है. साड़ी पहनती है तो छिप जाता है.’’

‘‘ओह, आश्चर्य…’’ भाईसाहब के मुंह से निकला. तभी मैं ने अपने मोबाइल में शोभा को व्हाट्सऐप की वीडियो कौल लगा दी और कमरे से बाहर आ कर पहले उस को सब बता कर जेठजी से बात करने को राजी कर लिया. फिर उन के पास आ कर मोबाइल पकड़ाती हुई बोली, ‘‘लीजिए भाईसाहब, आप शोभा से बात कर लीजिए.’’

भाईसाहब कुछ सैकंड तक तो मोबाइल में लाइव शोभा को देख कर उस के चेहरे से मेरे चेहरे का मिलान करते रहे, फिर कमरे से निकल कर 15 मिनट तक उस से बतियाते रहे.

जब कमरे में आए तो मोबाइल राघव को पकड़ा दिया और बोले, ‘‘वास्तव में प्रशोभा से कितनी शक्ल मिलतीजुलती है, मैं तो समझ रहा था तुम दोनों मजाक कर रहे हो.’’

राघव अपनी जगह पर बैठे हुए ही मोबाइल अपने हाथ में ले कर स्क्रीन पर शोभा को देख कर हंसते हुए बोला, ‘‘शोभा, ये मेरे बड़े भाई हैं, कैसे लगे?’’

उधर से शोभा ने बिना बोले शायद राघव से कुछ इशारों में कहा होगा क्योंकि मैं ने गौर किया कि राघव ने हाथ हिला कर मुसकराते हुए मोबाइल डिस्कनैक्ट कर दिया.

तभी भाईसाहब हम दोनों को देखते हुए बोल पड़े, ‘‘मैं अपनी जिद छोड़ता हूं और माधव की शादी के बाद तुम दोनों के साथ अपनी कार से इलाहाबाद चलता हूं. अब मैं शोभा से कोर्ट मैरिज करूंगा. बरात लाने व ले जाने के चोंचले में नहीं पड़ूंगा. पिताजी को सीधे अपनी बहू ला कर दिखा दूंगा. तब तक तुम दोनों किसी को कुछ न बताना.’’

माधव की शादी बड़े धूमधाम से संपन्न हुई. दिव्या खुशमिजाज थी और उस के व्यवहार से मैं समझ गई थी कि वह माधव के साथ खुश रहेगी.

राघव की छुट्टियां भी खत्म हो रही थीं लेकिन जब भाईसाहब ने अपनी कार से हमारे साथ चलने का मन बनाया तो राघव ने फोन कर के 3 दिनों की छुट्टी बढ़ा ली.

मैं ने और राघव ने इस बीच शोभा से मोबाइल पर बात कर ली थी. वह भी शादी के लिए राजी थी. मेरे मम्मीपापा तो यह बात सुन कर ही खुश हो गए थे और भाई ने हमारे स्वागत की सारी व्यवस्थाएं कर रखी थीं.

जैसा जेठ भाईसाहब ने सोचा हुआ था, इलाहाबाद की कोर्ट में उन की मैरिज संपन्न हुई. एक होटल में हम सब ने डिनर किया. मेरे मम्मीपापा उसी रात वापस भैया के साथ सिराथू चले गए. मेरे 2 कमरों वाले नैनी कैमिकल फैक्ट्री के क्वार्टर के एक कमरे में जेठजी की सुहागरात मनी और अगले सवेरे भाईसाहब अपनी दुलहन को उसी साड़ी में हमारे पास से विदा करा, कार में बिठा कर कानपुर चले गए.

चलते समय मैं ने जेठजी को भाईसाहब न कह कर कहा, ‘‘जीजाजी, अब तो मेरे और आप के 2 पक्के रिश्ते हो गए. अब आप मेरे जेठ भी हुए और जीजाजी भी. आप इस में किस रिश्ते को ज्यादा पसंद करेंगे?’’ मैं ने चुहुल करते हुए पूछा.

‘‘तुम जिसे अच्छा समझो?’’ वे हंसते हुए बोले तो मैं ने भी खिलखिलाते हुए कहा, ‘‘आप मुझे जो भी पुकारें पर मैं तो आज और अभी से आप का नामकरण करती हूं, जेठ-जीजाजी.’’

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मैं ने यह कहा तो राघव, शोभा और भाईसाहब के साथ मैं भी हंस पड़ी. कार फैक्ट्री कैंपस से बाहर जा चुकी थी.

मेरी खुशी का कोई ठिकाना न था. राघव से मेरी खुशी छिपी न थी. उसे मुझ पर गुमान भी हो रहा था और प्यार भी आ रहा था. आखिरकार मैं ने वह कर दिखाया था जिस के लिए सब ने हार मान ली थी.

Serial Story: जेठ जीजाजी – भाग 2

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

दरवाजे पर से जेठजी के हटते ही सास बोलीं, ‘‘जा पहले कुछ खा ले. राघव भी तेरा इंतजार कर रहा होगा. मु झे पता है अपने पिता के पास ही वह रुक गया होगा. जाने कब से उस का इंतजार कर रहे थे वे, कह रहे थे कि राघव आ जाए तो उसे शादी की जिम्मेदारियां दे कर निश्ंिचत हो जाऊंगा,’’ सास की बातों से लग रहा था जैसे ऊधव पर उन्हें बिलकुल भरोसा नहीं हो.

सास के कहने पर मैं वहां से उठ कर आंगन पार करती हुई सामने बाहरी बैठक की ओर इस आशय से जा ही रही थी कि राघव अभी बाबूजी के पास ही बैठा होगा, तभी दाहिनी तरफ बने कमरों के बाहर कवर्ड बरामदे में पड़ी बड़ी डाइनिंग टेबल के चारों ओर पड़ी 8 कुरसियों

में से एक पर बैठे जेठजी की आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘‘अरे प्रशोभा,

इधर आओ.’’

मेरी नजर उधर गई तो देखा राघव भी वहीं बैठे हैं और मेज पर ताजी बनी नमकअजवायन की पूरियां, उबले आलू की सूखी सब्जी, अन्य प्लेटों में मठरियां, बालूशाही, बेसन के सेव और शकरपारे सजे रखे थे.

मैं भी जा कर वहीं बैठ गई. तभी किरण दीदी अपने 4 साल के बच्चे नितिन का हाथ पकड़े उसी बरामदे के पास बने एक कमरे से निकल कर आईं. मैं जब 2 साल पहले शादी हो कर इस घर में आई थी तो उसी कमरे में मेरी सुहागरात मनी थी और किरण दीदी को जीजाजी तथा दोनों छोटे बच्चों के साथ ऊपर वाले कमरे में टिकाया गया था. मां के कमरे को मिला कर 3 कमरे नीचे बने थे और 2 ऊपर. डाइंगरूम बाहर की तरफ अलग था.

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दीदी ने कुरसी पर बैठते हुए मु झ से पूछा, ‘‘प्रशोभा, इलाहाबाद में भी ऐसी ही गरमी पड़ रही है या कुछ राहत है? यहां तो जब से आई हूं, बुरा हाल है, कूलर की हवा भी बेकार है.’’

तभी मेज पर काकी चाय भरी केतली रख गईं. मैं ने उन्हें गौर से देखा तो जेठ बोल पड़े, ‘‘शादी के घर में मैं ने उन्हीं काकी को लगा लिया जो तुम्हारी शादी में लगी थीं. बहुत बढि़या खाना, नाश्ता आदि बनाती हैं.’’

अपनी प्लेट में नाश्ता ले कर भाईसाहब इस इंतजार में बैठे थे कि मैं भी परोस लूं तो वे खाना शुरू करें.

तभी राघव ने अपनी प्लेट में सब्जीपूरी स्वयं परोसते हुए किरण दीदी से पूछा, ‘‘दीदी, जीजाजी साथ नहीं आए?’’

दीदी कुछ उत्तर देने जा ही रही थीं कि मेरी चिंता करते हुए जेठजी बोल पड़े, ‘‘अरे प्रशोभा, तुम भी कुछ लो न. इन दोनों को बस बातें करने को मिल जाएं तो यह भी नहीं देखेंगे कि दूसरा कुछ खा भी रहा है या नहीं.’’

‘‘भाईसाहब, मैं सब ले लूंगी, आप परेशान न हों,’’ मैं ने कहा तो भाईसाहब किरण की तरफ देखते हुए बोले, ‘‘पता नहीं इस का ध्यान कहां रहता है. घर की बड़ी है, तो इस का भी कुछ कर्तव्य…’’

तभी  राघव बोल पड़े, ‘‘प्रशोभा, तुम अपनी प्लेट में जो भी मन करे, ले लो.’’

मैं ने अपनी प्लेट में नाश्ता ले कर खाना शुरू कर दिया. डाइनिंग टेबल के आसपास कुछ देर को चुप्पी छा गई, जिसे भंग करते हुए मैं ने भी दीदी से पूछा, ‘‘दीदी, आप ने बताया नहीं कि जीजाजी साथ क्यों नहीं आए?’’

‘‘तुम्हारे जीजाजी अपने बैंक का औडिट करवाने में फंसे थे, उन्हें छुट्टी न मिली तो मु झे पहले भेज दिया. अब वे शादी से एक दिन पहले ही आ पाएंगे.’’

दीदी की बातें सुनते हुए मैं ने 1-2 बार जेठ की तरफ देखा, वे नाश्ता तो कर रहे थे पर उन का पूरा ध्यान मु झ पर था. अपनी तरफ से उन का ध्यान हटाने के लिए मैं ने उन की तरफ देखते हुए पूछा, ‘‘भाईसाहब, माधव भैया नाश्ता नहीं कर रहे हैं, कहां हैं वे?’’

‘‘अरे, वह अपनी दुनिया में व्यस्त होगा, जब से शादी तय हुई है, बस, दिव्या से चैट करने में ही लगा रहता है.’’

‘‘तो इस में क्या बुराई है. यही तो दिन होते हैं जब चैटिंग का अलग ही मजा होता है,’’ किरण दीदी बोल पड़ीं तो जेठजी से बरदाश्त न हुआ. खी झते हुए वे बोले, ‘‘ऐसा भी क्या मजा जो सारी बातें शादी होने से पहले ही  कर डालो?’’

‘‘तुम नहीं सम झोगे इन बातों को क्योंकि तुम इस दौर से नहीं गुजर पाए.’’

‘‘अरे, वह तो तू आड़े आ गई और पिताजी अड़ गए कि घर में बड़ी बहन बैठी है, इसलिए तेरी शादी मैं उस से पहले नहीं कर सकता.’’

‘‘तो ऊधव, इस में पिताजी ने क्या बुरा सोचा. एक बार को मान लो, मैं उन को इस बात के लिए मना भी लेती कि मेरी शादी से पहले वे तुम्हारी शादी कर दें लेकिन तब तक तुम्हारी नौकरी भी तो नहीं लगी थी और तुम शादी की जिद पकड़ कर बैठ गए थे. फिर मु झे तो कभी ऐसा नहीं लगा कि कंचन तुम से उतना प्यार करती थी जितना तुम उस के दीवाने हो गए थे,’’ दीदी ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा.

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उन दोनों की बहस बढ़ती देख कर राघव बोल पड़ा, ‘‘दीदी, इस बहस का अब क्या मतलब है. अब तो उस की शादी हुए भी कई साल हो गए हैं.’’

‘‘राघव, अब तुम्हीं बताओ, क्या दुनिया में लड़कियों की कमी है, लेकिन पिता से ऐंठ और खुद से प्रण करे बैठे हैं कि मु झे शादी नहीं करनी है. यह भी कोई प्रण हुआ, यह तो मांबाप को दुख देना हुआ.’’

शायद किरण दीदी की यह बात भाईसाहब को चुभ गई थी. इसलिए वे उठे और उसी बरामदे से ऊपर जाने वाली सीढि़यों से चढ़ कर अपने कमरे में चले गए.

नाश्ता कर के मैं और राघव मां के पास जा कर बैठ गए. दीदी, नितिन को ले कर अपने कमरे में चली गई थीं.

मां राघव को देखते ही खुश हो गईं. मां के पैर छू कर जैसे ही राघव उन के पास बैठा, वे बोल पड़ीं, ‘‘अब मैं निश्ंिचत हो गई हूं. बहू मेहमानों को संभाल लेगी और तू बरातियों के ठहरने व उन की आवभगत की व्यवस्था संभाल लेगा.’’

‘‘हां मां, मैं बड़े भैया के साथ मिल कर सब संभाल लूंगा. तुम चिंता  मत करो.’’

‘‘तुम अपने बड़े भैया के चक्कर में न रहना. बातें ज्यादा करता है, काम कम. वह तो माधव ने कानपुर में नवीन मार्केट के पास 2 अलगअलग होटलों में समय रहते कमरे बुक न करा लिए होते तो इस समय हम परेशान हो जाते,’’ मां ने बताया.

‘‘ठीक है मां, पर बरात कन्नौज जाती तो ज्यादा मजा आता.’’ मैं ने अपने मन की बात कही तो सास बोलीं, ‘‘अरे बेटी, सब तेरे पिताजी की तरह नहीं सोचते हैं कि लड़की की बरात द्वारे आनी चाहिए. अब उन्होंने रोका के समय रुपए हमें पकड़ा दिए और जनवासा, बैंड, घोड़ी, कैटरिंग आदि की सब व्यवस्था कह कर कानपुर से ही शादी करने को कह दिया.

‘‘राघव के पिताजी ने भी उन की बात मान ली और बोले, ‘‘ठीक है फिर हम भी शादी से 2 दिनों पहले कानपुर के होटल में शिफ्ट हो जाएंगे.’’

अपनी बातें पूरी कर के सास चुप हुईं. तो राघव ने मां को तसल्ली दी, ‘‘ठीक है मां, अच्छा ही हुआ. भोगनीपुर में कानपुर जैसी व्यवस्था हो भी नहीं पाती. पिताजी ने ठीक ही किया. अब मैं आ गया हूं, कल माधव के साथ कानपुर जा कर सारी व्यवस्था सम झ लेता हूं.’’

फिर राघव मु झे बहू के नए सूटकेस में साडि़यां जमाते देख कर बोला, ‘‘अरे प्रशोभा, मां को कांजीवरम की वह साड़ी भी तो ला कर दिखाओ जो हम दिव्या को देने जा रहे हैं और चांदी की करधनी भी लेती आना.’’

राघव ने कहा तो मैं उठ कर ऊपर चली गई जहां हमारा सामान रखवा दिया गया था. ऊपर पहुंच कर मैं जेठ के कमरे के सामने से गुजरती हुई अपने कमरे की ओर बढ़ ही रही थी कि मेरे पैरों से चलने के कारण बजने वाली पायल की आवाज सुन कर जेठजी ने कमरे के भीतर से पुकारा, ‘‘अरे, प्रशोभा, इधर आओ, तुम्हारे लिए एक सरप्राइज है.’’

मैं उन के कमरे के दरवाजे पर खड़ी हो कर बोली, ‘‘कैसा सरप्राइज भाईसाहब?’’

‘‘अरे अंदर तो आओ,’’ कह कर वे पलंग से उठ कर खड़े हुए और अपनी वार्डरोब से एक पैकेट निकाल कर मु झे देते हुए बोले, ‘‘यह बनारसी साड़ी है और इस के साथ पेटीकोट व ब्लाउज भी है. शायद यह तुम्हारे लिए ही अब तक रखी है. इसे शादी वाले दिन जब तुम पहनोगी तो शायद ही पूरी बरात में तुम से सुंदर कोई और दिखाई दे. और वैसे भी, कंचन के बाद अगर कोई मु झे अच्छा लगा तो वह तुम ही हो.’’

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‘‘लेकिन भाईसाहब, राघव ने मु झे इलाहाबाद से मेरी पसंद का बहुत ही सुंदर लंहगाचोली सैट दिलवाया है, मैं तो बरात वाले दिन वही पहनूंगी.’’

मैं ने यह कहा तो उन के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे. वार्डरोब बंद कर के मेरी ओर बढ़ते हुए बोले, ‘‘ठीक है इसे परसों लेडीज संगीत वाले दिन पहन लेना कितने प्यार से मैं ने अब तक इसे संभाले रखा है. अब मेरी तो दुलहन आने से रही, तुम्हीं इसे पहन लो.’’

भावनाओं में बहकते हुए वे मेरी ओर साड़ी का पैकेट लिए बढ़ते चले आ रहे थे.      -क्रमश:

Serial Story: जेठ जीजाजी – भाग 1

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

सवेरे जब मैं उठी तो राघव सो रहा था. मैं ने उसे उठाना चाहा पर रुक गई. एक ही तो बाथरूम था, उसे उठा दूंगी तो  फिर वह मु झे भीतर नहीं जाने देगा और खुद अंदर घुस गया तो निकलने में घंटों लगा देगा. पता नहीं उसे नहानेधोने व फ्रैश होने में इतनी देर क्यों लगती है.

कल सवेरे फैक्ट्री जाने से पहले राघव ने अपने छोटे भाई माधव की शादी में एक हफ्ता पहले पहुंचने की प्लानिंग की थी और मेरे लिए शादी के बाद अपनी ससुराल जाने का पहला मौका था. शादी होते ही राघव मु झे अपने साथ ही यहां ले आया था. तब से एक साल बीत चुका था और हम कानपुर नहीं जा पाए थे. जबकि, मायके तो राघव को ले कर मैं शादी के बाद इन सालों में कई बार हो आई थी. राघव मु झे वहां 1-2 दिन रहने के लिए छोड़ भी देता था.

मु झे मायके जल्दीजल्दी मिला लाने के पीछे उस की एक लालसा थी, अपनी एकमात्र और मु झ से 2 साल बड़ी अविवाहित साली से चुहलबाजी करने का अवसर मिलना.

मेरी बड़ी बहन शोभा की शक्लसूरत बहुतकुछ मु झ से मिलती थी. पर बचपन से ही एक पैर दूसरे पैर के मुकाबले 2 इंच छोटा होने के कारण स्पैशल जूते या चप्पल पहनने के बाद ही यह ऐब छिप पाता था. लेकिन चाल में हलकी लंगड़ाहट नहीं छिप पाती थी.

शोभा पढ़ने में बहुत तेज थी. बीए व बीएड करने के बाद उस की केंद्रीय विद्यालय में टीचिंग जौब लग गई थी. लेकिन शादी करने के बहुत प्रयत्न करने के बाद मेरे मातापिता निराश हो कर बैठ गए थे.

फिर जब मैं ने साइकोलौजी से एमए कर लिया तो जो रिश्ता आता उन लोगों का पिताजी से यही जवाब होता, ‘देखिए, आप की बड़ी बेटी यों तो छोटी से सुंदर बहुत है पर उस के पैर के दोष के कारण हम अपने लड़के से उस की शादी करने में असमर्थ हैं. हां, अगर आप चाहें तो हम आप की छोटी बेटी को बहू बनाने को तैयार हैं.

इस का असर यह हुआ कि शोभा ने अपने दिल से शादी का खयाल निकाल दिया और मातापिताजी से स्पष्ट कह दिया, ‘आप लोग मेरी शादी के लिए परेशान न हों और प्रशोभा की शादी कर दीजिए.’

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फिर पिताजी भी चाहते थे कि सेवानिवृत्ति से पहले कम से कम एक लड़की की शादी तो कर ही दें.

रिश्ते बहुत से आए पर अब शोभा ने लड़के वालों के सामने आने से ही मना करना शुरू कर दिया और जब राघव का रिश्ता आया तो उस ने मु झे अपने कमरे में बुलाया और कहा, ‘प्रशोभा, मेरे कारण तू अपनी उम्र के सुंदर वर्ष क्यों खराब किए जा रही है. देख, यह लड़का नैनी कैमिकल फैक्ट्री में कैमिकल इंजीनीयर है और सुंदर भी है. तु झे मेरी कसम जो मेरे कारण तू ने इस रिश्ते से इनकार किया.’

और मेरी शादी राघव से हो गई. राघव दिल का बहुत अच्छा था. जब उसे मैं ने शोभा के बारे में बताया तो वह उस के प्रति आदर व सम्मान के भावों से भर गया और पहली बार में ही शोभा से ऐसी दोस्ती कर ली कि दोनों  खूब बतियाते.

मैं शोभा को हंसतेखिलखिलाते देख कर इसलिए खुश हो जाती कि कम से कम राघव से मिल कर उस के चेहरे पर ऐसी प्रसन्नता तो दिखती जिस का उस के जीवन में अकाल पड़ चुका था.

राघव के साथ वह अपने को बहुत ही सहज पाती थी, इसलिए अपने मोबाइल कैमरे से जब मैं उन दोनों की फोटो खींच कर उसे दिखाती तो वह बहुत खुश हो जाती.

ससुराल के मुकाबले मायका इलाहाबाद से करीब भी था. सिराथू, इलाहाबाद से 63 किलोमीटर दूर, कानपुर रूट पर था.

राघव के साथ बाइक पर पीछे बैठ कर हम 2 घंटे में सिराथू पहुंच जाते थे. जबकि, कानपुर के पास भोगनीपुर तहसील में ससुराल था जहां पहुंचने के लिए कानपुर तक ट्रेन से जाना उचित रहता था.

हमें सवेरे 7 बजे इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से ट्रेन पकड़नी थी, क्योंकि राघव की एक हफ्ते की छुट्टी स्वीकृत हो गई थी.

इसलिए सवेरे मैं जब उठ गई तो चाय की चिंता छोड़ कर अपने कपड़े ले कर बाथरूम में घुस गई. यह नैनी में स्थापित कैमिकल फैक्ट्री से मिला हुआ 2 छोटे कमरे, एक ड्राइंगरूम, किचन और एक बाथरूम वाला आवंटित फ्लैट था.

बाथरूम के साथ ही अटैच्ड टौयलेट था. मैं ने घड़ी देखी, 5.30 बज रहे थे. फटाफट फ्रैश हो कर नहाईधोई और तैयार हो कर राघव को जगाया. बस, बाल काढ़ने रह गए थे. मु झे पता था कि जब तक वह बाथरूम से निकलेगा, मेरे बाल भी कढ़ जाएंगे और चायनाश्ता भी तैयार हो जाएगा.

अटैची और बैग तो मैं ने कल रात ही तैयार कर लिए थे.

सोते हुए राघव को मैं ने तेजी से हिला कर जगाया, ‘सोते रहोगे क्या? उठो, ट्रेन पकड़नी है, समय हो रहा है.’

वह कुनमुना कर उठ बैठा. उसे उठता देख कर मैं ने पलट कर वापस ड्रैसिंग टेबल की तरफ बाल संवारने हेतु कदम बढ़ाया ही था कि उस ने मेरा हाथ पकड़ कर मु झे बिस्तर पर खींच लिया और दबोच कर 4-5 चुंबन ले डाले.

‘अरे, यह भी कोई समय है यह सब करने का. जल्दी से उठो और तैयार हो जाओ वरना ट्रेन छूट जाएगी,’ मैं उठ कर साड़ी ठीक करते हुए बोली.

‘मन तो नहीं कर रहा है उठने का पर तुम कहती हो तो उठना ही पड़ेगा,’ कहते हुए वह पलंग से उतरा, जम्हाई लेते हुए दोनों हाथ ऊपर कर के एक अंगड़ाई ली और समय देखता हुआ बाथरूम में घुस गया.

रोज के मुकाबले आज राघव बाथरूम से थोड़ा जल्दी निकल आया और तुरंत कपड़े पहन कर तैयार हुआ.

नाश्ता कर के हम ने घर लौक किया और औटो कर के सामान समेत समय से थोड़ा पहले स्टेशन पहुंच कर ट्रेन में बैठ गए.

शाम को समय से 45 मिनट लेट ट्रेन कानपुर पहुंची. वहां उतर कर हम टैम्पो कर के भोगनीपुर पहुंचे.

मेरे जेठ ऊधव और देवर माधव दोनों हमें देखते ही प्रसन्न होते हुए घर से बाहर निकल आए. जेठ पर नजर पड़ते ही मैं ने दुपट्टा सिर पर डाला और उन के पैर छूने को  झुकी तो पीछे हटते हुए उन्होंने हाथ बढ़ा कर मु झे रोकते हुए कहा, प्रशोभा, ‘‘तुम तो मु झे नमस्ते या फिर हैलोहाय ही किया करो. ये पैरवैर छूना मु झे ओल्ड फैशन लगता है. अब यह इंटरनैट, मोबाइल, व्हाट्सऐप, फेसबुक और यूट्यूब का जमाना है.’’

‘‘राघव पैर छुए और मैं हैलोहाय करूं, यह शोभा नहीं देता भाईसाहब,’’ कहते हुए मैं फिर उन के पैर छूने के लिए बढ़ी तो उन्होंने तेजी से कहा, ‘‘मु झे अपने पैर नहीं छुआने हैं.’’

‘‘तो फिर राघव से क्यों छुआए?’’

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‘‘उस की बात अलग है. अच्छा, अब घर के अंदर चलो,’’ कहते हुए वे माधव को हमारा सामान ऊपर उन के कमरे के बगल वाले कमरे में रखवाने का निर्देश देते हुए घर के अंदर चले गए.

राघव से 5 साल बड़े जेठ ऊधव ने पिता के आड़े आ जाने के कारण अपनी प्रेमिका से शादी न हो पाने की खुन्नस में आजीवन कुंआरा रहने का प्रण ले लिया था.

देवर माधव कंप्यूटर साइंस से बीई करने के बाद कानपुर औद्योगिक विकास प्राधिकरण में डाटा औपरेटर था.

माधव की शादी कन्नौज के इत्र व्यापारी की लड़की दिव्या से तय हो गई थी और लड़की वाले कानपुर आ कर ही शादी कर रहे थे.

माधव ने हमारा सामान ऊपर वाले कमरे में पहुंचवा दिया. यह ससुर को विरासत में मिला 5 कमरों और एक ड्राइंगरूम तथा बीच में आंगन व बरामदे वाला बड़ा सा पैतृक मकान था.

मैं ने बाहरी बैठक के कोने में पड़े एक बड़े से मोटे गद्दे और सुंदर से कालीन बिछे दीवान पर बैठे अपने ससुर के पास राघव के साथ जा कर उन के पांव छुए और फिर सास से मिलने अंदर कमरे में पहुंची तो वे अपनी बड़ी बेटी के साथ नई बहू का संदूक तैयार करने में जुटी हुई थीं.

मैं ने ननद के भी पैर छुए और फिर सास के पास जैसे ही बैठी, उन्होंने मेरा हालचाल पूछने के बाद कहा, ‘‘बड़ा अच्छा हुआ तू आ गई. मैं और किरण नई बहू की अटैची तैयार करने में जुटे थे, तेरे आ जाने से मेरा काम अब आसान हो जाएगा.’’

मां की बात खत्म होते ही ननद किरण, ‘‘मां, मैं अभी आई’’ कह कर कमरे से बाहर चली गई. उन के जाते ही मैं मां के साथ अटैची सजाने में जुट गई.

सास ने बताना शुरू किया, ‘‘प्रशोभा, मैं ने सोने के आभूषण जितने तु झे चढ़ाए थे उतने ही माधव की बहू दिव्या को भी चढ़ा रही हूं. उस की मेकअप किट भी तु झे ही सजानी है…’’

सास ये सब बातें कर ही रही थीं कि जेठ उसी कमरे में आ कर मां से बोले, ‘‘क्या मां, प्रशोभा को आते ही आप ने काम पर लगा दिया. उस ने चाय नहीं पी, हाथमुंह तक नहीं धोया…’’

मैं ने उन की बात काटते हुए कहा, ‘‘भाईसाहब, मैं इलाहाबाद से नहाधो कर चली थी.’’

इस पर वे बोले, ‘‘हांहां प्रशोभा, जानता हूं नहा कर ही चली होगी लेकिन सफर कर के आ रही हो, इसलिए पहले कुछ खापी लो, फिर काम में जुटना. हमेशा याद रखो, पहले पेटपूजा फिर काम दूजा.’’

इतना कह कर वे बहुत धीरे से बड़बड़ाए, ‘यह किरण तो शादी के बाद इतनी कामचोर हो गई है कि थोड़ी देर और मां के पास नहीं बैठ सकती थी. जैसे ही देखा, प्रशोभा आ गई है, बस, मां के पास से भाग ली.’

आगे पढ़ें- सास के कहने पर मैं वहां से उठ कर….

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जारी है सजा: पति की हरकतों से कैसे टूट गई श्रीमती गोयल

Serial Story: जारी है सजा– भाग 1

मजदूर सारा सामान उतार कर जा चुके थे. बिखरा सामान रेलवे प्लेटफार्म का सा दृश्य पेश कर रहा था. अब शुरू कहां से करूं, यही समझ नहीं पा रही थी मैं. बच्चे साथ होते तो काफी बोझ अब तक घट भी गया होता. पूरी उम्र जो काम आसान लगता रहा था, अब वही पहाड़ जैसा भारीभरकम और मुश्किल लगने लगा है. 50 के आसपास पहुंचा मेरा शरीर अब भला 30-35 की चुस्ती कहां से ले आता. अपनी हालत पर रोनी सूरत बन चुकी थी मेरी.

‘‘कोई मजदूर ले आऊं, जो सामान इधरउधर करवा दे?’’ पति का परामर्श कांटे सा चुभ गया.

‘‘अब रसोई का सामान मजदूरों से लगवाऊंगी मैं, अलमारियों में कपड़े और बिस्तर कोई मजदूर रखेगा…आप ही क्योें नहीं हाथ बंटाते.’’

‘‘मेरा हाथ बंटाना भी तो तुम्हें नहीं सुहाता, फिर कहोगी पता नहीं कहां का सामान कहां रख दिया.’’

‘‘तो जब आप का सामान रखना मुझे नहीं सुहाता तो कोई मजदूर कैसे…’’

झगड़ पड़े थे हम. हर 3 साल के बाद तबादला हो जाता है. 4-5 हफ्ते तो कभी नहीं लगे थे नई जगह में सामान जमाने में मगर इस घर में काफी समय लग गया. एक तो घर छोटा था उस पर बारबार नई व्यवस्था करनी पड़ रही थी.

यों भी पूरी उम्र बीत गई है तरहतरह के घरों में स्वयं को ढालने में. इस का हमें फर्क ही नहीं पड़ता. पिछले घर का सुख नए घर में नहीं होता फिर भी नए घर में कुछ ऐसा जरूर मिल जाता है जो पिछले घर में नहीं होता.

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नया घर छोटा है…बाकी घर इतने पासपास हैं कि साथ के घर में हंसतेबोलते लोग इतना एहसास अवश्य दिला जाते हैं कि आप अकेली नहीं हैं.

घर के बाहर आतेजाते, सब्जी बेचने वाले से सब्जी खरीदते चेहरे जानेपहचाने लगने लगे हैं. सामने सुंदर पार्क है. बेटी की शादी हो चुकी है और बेटा बाहर पढ़ता है. पति की नौकरी ऐसी है कि रात को 8 बजे से पहले वे कभी नहीं आते.

पुरानी जगह पर थे तब बड़ा घर मुसीबत लगता था, बाई न आए तो साफसफाई ही मुश्किल हो जाती थी. बड़े घर में रहने का शौक पूरा हो गया था. इतना बड़ा घर भी किस काम का जो भुतहा महल जैसा लगे.

धीरधीरे आसपड़ोस में एकदो परिवारों से जानपहचान हो गई. बगल के परिवार के छोटेछोटे बच्चे अति स्नेह देने लगे. अब दादीनानी बनने की उम्र है न मेरी, बहुत अच्छा लगता है जब छोटेछोटे बच्चे आगेपीछे घूमें.

घर के बिलकुल सामने एक बुजुर्ग दंपती नजर आते हैं. उन का घर अकसर बंद ही रहता, सुबह जब बाई काम करने आती तभी वह गेट खुलता. सामने नजर आती है बड़ी सी महंगी गाड़ी और बड़ा सा सुंदर गमला जिस में रंगबिरंगे फूल नजर आते हैं. इस से आगे कभी मेरी नजर ही न जाती.

घर की मालकिन का स्वभाव मुझे यहीं से समझ में आता है. शौकीन तबीयत और साफसुथरा मिजाज अवश्य ही इस महिला के चरित्र का अभिन्न अंग होगा. पता चला कि इन के बच्चे अच्छे हैं, ऊंचे ओहदों पर हैं और मांबाप का बहुत खयाल रखते हैं. कभीकभार उन की गाड़ी बाहर निकलती तो लगभग 75 साल की उम्र में भी इस महिला का बननासंवरना उस की जिंदा- दिली दर्शा जाता.

‘‘देखा न, इसे कहते हैं जीना. मैं बाल काले करता हूं तो तुम मना करती हो.’’

‘‘आंखों पर केमिकल्स का असर होता है इसलिए मना करती हूं.’’

‘‘तुम अभी से अपने को बूढ़ी मानती हो…वह देखो, इन के पोतेपोती भी सुना है कालेज में पढ़ते हैं…तुम तो अभी न दादी बनी हो न नानी और इतने हलके रंग के कपड़े पहनती हो.’’

‘‘बस, मुझे किसी से मत मिलाओ. वो वो हैं और मैं मैं.’’

पति हाथ हिला कर नहाने चले गए. सुबहसुबह और बहस करने का न मेरे पास समय था और न ही इन के पास. मगर यह सत्य है कि इन का बाल काले करना मुझे पसंद नहीं.

सर्दी से पहले दीवाली पर बेटा घर आया तो दीवान गेट के पास सजा कर धूप की व्यवस्था कर गया. सर्दी बढ़ने लगी और धीरधीरे मेरा समय दीवान पर ही बीतने लगा.

एक रात सहसा किसी के झगड़े से नींद खुली. कोई भद्दीभद्दी गालियां दे रहा था. घड़ी देखी तो रात के 2 बजे थे. कौन हो सकता है. नींद ऐसी उखड़ी कि फिर देर तक सो ही नहीं पाए हम. दूसरे दिन अपने नन्हेमुन्ने मित्रों की मां से बात की. हाथ हिला कर हंस दी वह.

‘‘अरे दीदी, वह सामने वाला जोड़ा है. हां, इस बार दौरा जरा देर से पड़ा है इसलिए आप को पता नहीं चला वरना तो ये दोनों रोज ही महल्ले भर का मनोरंजन करते हैं. दरअसल, महीने भर से अंकल घूमनेफिरने बाहर गए थे, सो शांति से वक्त बीत गया.’’

अवाक् सी मैं बीना से बोली, ‘‘75-80 साल का जोड़ा जिस की एक टांग कब्र में है और दूसरी इस जहान में, क्या वह इतनी बेशर्मी से लड़ता है.’’

‘‘अरे दीदी, पिछले कई वर्षों से हम इन्हें इसी तरह लड़तेझगड़ते देख रहे हैं. जब मैं शादी कर के आई थी तभी से इन का तमाशा देख रही हूं. अब तो आसपास वालों को भी आदत सी हो गई है. कोई भी गंभीरता से नहीं लेता इन्हें.’’

‘‘लेकिन लड़ाई की वजह क्या है?’’ मैं ने कहा, ‘‘इन के पास सबकुछ तो है.’’

?‘‘खाली दिमाग शैतान का घर होता है दीदी, कहते हैं न जब शरीर की ताकत का उचित उपयोग न हो सके तो वह ताकत गलत कामों में खर्च होने लगती है.’’

बीना कालेज में मनोविज्ञान की प्राध्यापिका है. उम्र में मुझ से 15-16 साल छोटी होगी लेकिन बात इतनी गहराई से समझाने लगी कि मानना ही पड़ा मुझे.

‘‘3 बेटे हैं इन के. एक तो शहर का मशहूर डाक्टर है, दूसरा अमेरिका में और तीसरा मनोविज्ञान का प्रोफेसर है. 2 बेटे इसी शहर में हैं. प्रोफेसर बेटा तो मेरा ही वरिष्ठ सहयोगी है. अकसर मेरी उन से बात होती रहती है. इन दोनों का हालचाल मैं उन्हें बताती रहती हूं.’’

‘‘बच्चे मांबाप के साथ क्यों नहीं रहते?’’

‘‘उन के बड़े होते बच्चे हैं दीदी, दादादादी का झगड़ा उन का दिमाग खराब कर देगा.’’

‘‘अरे, झगड़ा किस घर में नहीं होता. मेरे पति और मैं भी दिन में एक बार उलझ ही जाते हैं.’’

‘‘आप की उलझन का कारण कोई बाहर की औरतें तो नहीं होंगी न.’’

‘‘तुम्हारा मतलब इस उम्र में अंकल का कहीं बाहर…’’

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‘‘जी हां, कोई पुराना रिश्ता उम्र भर साथ चलता रहे तो भी समझ में आता है कि पुरुष जबान का पक्का है. प्यार को भी दरबदर नहीं कर रहा, बीवी को भी निभा रहा है और सारी तोहमतें सिर पर ले कर भी प्रेमिका का हाथ नहीं छोड़ा. सभ्य समाज में खुलेआम इसे भी स्वीकारा नहीं जाता फिर भी एक पुरुष का चरित्र जरा सा तो समझ में आता है न. कहीं वह जुड़ा है, किसी के साथ तो बंधा है, मरेगा तो आंसू बहाने वाली 1 नहीं 2 होंगी. इन महाशय की तरह तो नहीं होगा कि मरेंगे और घर वाले शुक्र मनाएंगे. हजारों गोपियां हैं इन की. कौनकौन रोएंगी? जो सब का हो कर जीता है वह वास्तव में किसी का नहीं होता.’’

शाम को पति से इस बारे में बात की तो उन्होंने गरदन हिला दी और बोले, ‘‘मैं ने भी कुछ ऐसी ही कहानियां सुनी हैं इन के बारे में, जहां इन के बेटे का नाम आता है वहीं इस नालायक पिता के बारे में बताने से भी लोग नहीं चूकते. मुझे भी आज ही पता चला है कि मशहूर डाक्टर विजय गोयल इन्हीं का बेटा है.’’

‘‘क्या? वही जिसे आप अपनी बीमारी दिखाने गए थे?’’

कुछ दिन पहले पति की कमर में अकड़न सी थी जिसे वह हड्डी विशेषज्ञ को दिखाने गए थे. बेटा संसार भर की हड्डियां ठीक करता है और कितनी बड़ी विडंबना है कि अपने ही घर की रीढ़ की हड्डी का इलाज नहीं कर सकता.

जब कभी भी श्रीमती गोयल भीनी सुगंध महकाती गाड़ी में बैठ कर निकलती हैं तो मन होता कि उन से मिलूं और पूछूं कि कैसे जीती हैं वे जिन का पति परिवार का मानसम्मान गंदी नाली में डाल अपना और परिवार का सर्वनाश कर रहा है.

एक दिन ऐसा संयोग हुआ कि उन से मुलाकात हो गई. उन के घर की बिजली गुल हो गई थी. वे मेरे घर पूछने आई थीं कि क्या मेरी भी बिजली नहीं है या सिर्फ उन की ही गुल है.

‘‘आइए न श्रीमती गोयल, कृपया अंदर आइए,’’ यह कहते हुए उन का हाथ पकड़ कर मैं उन्हें कमरे में ले आई थी. मेरी मां की उम्र की हैं, लेकिन रखरखाव और वेशभूषा वास्तव में इतनी अच्छी थी कि मैं उन के सामने फीकी लगूं.

‘‘हम नए आए हैं न महल्ले में, बहुत इच्छा थी कि आप से मिलूं. पड़ोस में दोस्ती होनी चाहिए न. रिश्तेदारों से पहले तो पड़ोसी ही काम आते हैं.’’

‘‘हां, हां, बेटा, क्यों नहीं. तुम्हीं आ जातीं. चाय साथसाथ पीते. मैं भी तुम से मिलना चाहती थी. अकसर छत से तुम्हें अचार का मर्तबान कभी धूप में तो कभी छाया में रखते देखती हूं.’’

‘‘जी, कुछ बेटी के घर भेजूंगी, कुछ आप को भी दूंगी. कौन सा अचार पसंद है आप को.’’

अचार का सिरा पकड़ जो बात शुरू हुई तो सीधी श्रीमती गोयल तक जा पहुंची. बातचीत का दौर चला तो सारी परतें खुलती चली गईं. कुछ ही दिन में मेरी मां की उम्र की महिला मेरी अंतरंग दोस्त बन गईर्ं. वे अकसर मेरे साथ ही धूप सेंकतीं और मन की पीड़ा बांटतीं.

‘‘शर्म आती थी पहले घर से बाहर निकलते हुए. सोचती थी लोग क्या कहेंगे. घर के अंदर तो पतिपत्नी कुत्तेबिल्ली की तरह लड़ते हैं और जब पत्नी सजसंवर कर बाहर निकलती है तो किस नजर से सब से नजर मिलाती है. यह तो भला हो मेरे बेटों का जिन्होंने मुझे जिंदा रखा वरना इस आदमी की वजह से कब की मर गई होती मैं.’’

‘‘क्या गोयल साहब सदा से इसी चरित्र के हैं?’’

‘‘हां, वे सदा से औरतबाज हैं…सच पूछो तो इस सीमा तक बेशर्म भी कि अपनी रासलीला चटकारे लेले कर मुझे ही सुनाते रहते हैं…उस पर दलील यह कि मैं उन का साथ नहीं दे पाती, इसीलिए जरूरत पूरी करने के लिए बाहर जाते हैं.’’

‘‘80 साल की उम्र में भी उन की जरूरत क्या इतनी तीव्र है कि मानमर्यादा सब ताक पर रख कर वे बाहर जाते हैं?’’

मां समान औरत से ऐसा प्रश्न पूछना मैं चाहती तो नहीं थी पर एक लेखिका होने के नाते मैं इस लोभ से उठ नहीं पाई कि जान पाऊं उस महिला की मानसिक स्थिति, जिस का पति ऐसा बदचलन है और जिस के सामने यह प्रश्न कोई माने नहीं रखता कि कोई उस के बारे में क्या सोचता है. समाज का डर ही तो है, जो इनसान को मर्यादा में बांधता है.

‘‘80 साल के तो वे अब हैं, जब 30 साल के थे तब तो मैं साथ देती ही थी न. तब भी तो बाहर का स्वाद उन के लिए सर्वोपरि था.’’

उन की आंखें भर आई थीं. फूटफूट कर रो पड़ी थीं वे. मेरा मन भी भर आया था उन की हालत पर.

‘‘सदा पति की रंगबिरंगी प्रेम कहानियां ही सुनती रही मैं. मेरी अपनी तो कोई प्रेम कहानी बनी ही नहीं, पति के साथ भी मैं इसी तरह जीती रही जैसे कोई पड़ोसी हो… ऐसा बदचलन पड़ोसी जो जब जी चाहे दीवार फांद कर आए और मेरा इस्तेमाल कर चलता बने.’’

‘‘तब तलाक का फैशन कहां था जो छोड़ कर ही चली जाती. 3-3 बच्चों के साथ कहां जा कर रहती. यह तो अच्छा हुआ जो मेरे घर बेटी न हुई. बेटी हो जाती तो कौन स्वीकारता उसे? जिस का ऐसा पिता हो उस से कौन इज्जतदार नाता बांधता.’’ आंखें पोंछ ली थीं श्रीमती गोयल ने.

‘‘कहते हैं न जीवन में सब का अपनाअपना हिस्सा होता है. शायद ऐसा पति ही मेरा हिस्सा था. जैसा मिला उसी को निभा रही हूं. बस, प्रकृति की आभारी हूं जो बेटे चरित्रवान और मेधावी निकल गए वरना मेरा बुढ़ापा भी जवानी की तरह ही रोतेपीटते निकल जाता. जो सुख मुझे अपने पति से मिलना चाहिए था वह मेरी बहुएं और मेरे बच्चे मुझे देते हैं.’’

‘‘मेरी मां समझाया करती थीं कि सदा बनसंवर कर रहा करूं ताकि पति पल्लू से बंधा रहे. वैसा ही आज तक कर रही हूं…पर जिस को नहीं बंधना होता वह कभी नहीं बंध सकता. घाटघाट का पानी ही जिसे तृप्ति दे उसे एक ही बरतन का जल कभी संतुष्ट नहीं कर सकता.’’

‘‘अंकल के पास इतने पैसे कहां से आते हैं. क्या बाहर का शरीरसुख मुफ्त में मिल जाता है और फिर इस उम्र में आदमी रुपए ही तो लुटाएगा, जवानी और खूबसूरती उन के पास है कहां, जिस पर कोई कम उम्र की लड़की फिसले.’’

‘‘भविष्यनिधि की अपनी सारी रकम लगा कर उन्होंने एक अलग घर बनाया है. ज्यादा समय तो वे वहीं गुजारते हैं. घर आते हैं तो वही गालीगलौज.’’

‘‘गालीगलौज की वजह क्या है?’’

‘‘वजह यह है कि मैं जिंदा क्यों हूं. मर जाऊं तो वे बाहरवालियों के साथ चैन से इस घर में रह सकते हैं न…अब मैं मर कैसे जाऊं, तुम्हीं बताओ. पहले ही इतना संताप सह रही हूं, पता नहीं वह मेरे किस दुष्कर्म का फल है. अब आत्महत्या कर के पाप का बोझ क्या और बढ़ा लूं? एकदो बार तो वे मुझे मारने की कोशिश भी कर चुके हैं. मगर मैं हूं ही इतनी सख्तजान कि मेरी जान नहीं निकलती.’’

इतना कह कर श्रीमती गोयल फिर रोने लगी थीं.

– क्रमश:

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Serial Story: जारी है सजा– भाग 2

पूर्व कथा

श्रीमान गोयल की रंगीनमिजाजी के चलते उन के बेटेबहुएं साथ नहीं रहते. पति से बहुत ही लगाव रखती व उन की खूब इज्जत करती श्रीमती गोयल के पास पति की गलत आदतोंबातों को सहने के अलावा चारा न था, जबकि उन के बच्चे पिता की गंदी हरकतों से बेहद क्रोधित रहते थे. उन के अपने बच्चों पर श्रीमान गोयल की छाया न पड़े, इसलिए वे मातापिता से अलग रहते हैं. लेकिन उन में मां की ममता में कोई कमी न थी. वे मां को बराबर पैसे भेजते रहते हैं ताकि उन के पिता, उन की मां को तंग न करें. उधर, श्रीमती गोयल का अपनी नई पड़ोसन शुभा से संपर्क हुआ तो उन्हें लगा कि गैरों में भी अपनत्व होता है. जबतब दोनों में मुलाकातें होती रहतीं और श्रीमती गोयल उन्हें पति का दुखड़ा सुना कर संतुष्ट हो लेतीं. शुभा के पूछने पर श्रीमती गोयल ने बताया, ‘‘गोयल साहब औरतबाज हैं, इस सीमा तक बेशर्म भी कि बाजारू औरतों के साथ मनाई अपनी रासलीला को चटकारे लेले कर मुझे ही सुनाते रहते हैं,’’ श्रीमती गोयल पति के साथ इस तरह जीती रहीं जैसे पड़ोसी. ऐसा बदचलन पड़ोसी जो जब जी चाहे, दीवार फांद कर आए और उन का इस्तेमाल कर चलता बने. श्रीमती गोयल सोचती हैं कि शायद ऐसा पति ही उन के जीवन का हिस्सा था, जैसा मिला है उसी को निभाना है. श्रीमती गोयल न जाने कौन सा संताप सहती रहीं जबकि उन का पति क्षणिक मौजमस्ती में मस्त रहा. कुछ भी गलत न करने की कैसी सजा वे भोग रही हैं वहीं, कुकर्म करकर के भी श्रीमान गोयल बिंदास घूम रहे हैं. लेकिन…

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अब आगे…

बातों का सिलसिला चल निकलता तो उन का रोना भी जारी रहता और हंसना भी.

‘‘आप के घर का खर्च कैसे चलता है?’’

‘‘मेरे बच्चे मुझे हर महीने खर्च भेजते हैं. बाप को अलग से देते हैं ताकि वे मुझे तंग न करें और जितना चाहें घर से बाहर लुटाएं.’’

मैं स्तब्ध थी. ऐसे दुराचारी पिता को बच्चे पाल रहे हैं और उस की ऐयाशी का खर्च भी दे रहे हैं.

अपने बच्चों के मुंह से निवाला छीन कर कौन इनसान ऐसे बाप का पेट भरता होगा जिस का पेट सुरसा के मुंह की तरह फैलता ही जा रहा है.

‘‘आप लोग इतना सब बरदाश्त कैसे करते हैं?’’

‘‘तो क्या करें हम. बच्चे औलाद होने की सजा भोग रहे हैं और मैं पत्नी होने की. कहां जाएं? किस के पास जा कर रोएं…जब तक मेरी सांस की डोर टूट न जाए, यही हमारी नियति है.’’

मैं श्रीमती गोयल से जबजब मिलती, मेरे मानस पटल पर उन की पीड़ा और गहरी छाप छोड़ती जाती. सच ही तो कह रही थीं श्रीमती गोयल. इनसान रिश्तों की इस लक्ष्मण रेखा से बाहर जाए भी तो कहां? किस के पास जा कर रोए? अपना ही अपना न हो तो इनसान किस के पास जाए और अपनत्व तलाश करे. मेकअप की परत के नीचे वे क्याक्या छिपाए रखने का प्रयास करती हैं, मैं सहज ही समझ सकती थी. जरूरी नहीं है कि जो आंखें नम न हों उन में कोई दर्द न हो, अकसर जो लोग दुनिया के सामने सुखी होने का नाटक करते हैं ज्यादातर वही लोग भीतर से खोखले होते हैं.

इसी तरह कुछ समय बीत गया. मुझ से बात कर वे अपना मन हलका कर लेती थीं.

उन्हीं दिनों एक शादी में शामिल होने को मुझे कुल्लू जाना पड़ा. जाने से पहले श्रीमती गोयल ने मुझे 5 हजार रुपए शाल लाने के लिए दिए थे. मैं और मेरे पति लंबी छुट्टी पर निकल पड़े. लगभग 10 दिन के बाद हम वापस आए.

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रात देर से पहुंचे थे इसलिए खाना खाया और सो गए. अगले दिन सुबह उठे तो 10 दिन का छोड़ा घर व्यवस्थित करतेकरते ही शाम हो गई. चलतेफिरते मेरी नजर श्रीमती गोयल के घर पर पड़ जाती तो मन में खयाल आता कि आई क्यों नहीं आंटी. जब हम गए थे तो उन्होंने सफर के लिए गोभी के परांठे साथ बांध दिए थे. गरमगरम चाय और अचार के साथ उन परांठों का स्वाद अभी तक मुंह में है. शाम के बाद रात और फिर दूसरा दिन भी आ गया, मैं ने ही उन की शाल अटैची से निकाली और देने चली गई, लेकिन गेट पर लटका ताला देख मुझे लौटना पड़ा.

अभी वापस आई ही थी कि पति का फोन आ गया, ‘‘शुभा, तुम कहां गई थीं, अभी मैं ने फोन किया था?’’

‘‘हां, मैं थोड़ी देर पहले सामने आंटी को शाल देने गई थी, मगर वे मिलीं नहीं.’’

वे बात करतेकरते तनिक रुक गए थे, फिर धीरे से बोले, ‘‘गोयल आंटी का इंतकाल हुए आज 12 दिन हो गए हैं शुभा, मुझे भी अभी पता चला है.’’

मेरी तो मानो चीख ही निकल गई. फोन के उस तरफ पति बात भी कर रहे थे और डर भी रहे थे.

‘‘शुभा, तुम सुन रही हो न…’’

ढेर सारा आवेग मेरे कंठ को अवरुद्ध कर गया. मेरे हाथ में उन की शाल थी जिसे ले कर मैं क्षण भर पहले ही यह सोच रही थी कि पता नहीं उन्हें पसंद भी आएगी या नहीं.

‘‘वे रात में सोईं और सुबह उठी ही नहीं. लोग तो कहते हैं उन के पति ने ही उन्हें मार डाला है. शहर भर में इसी बात की चर्चा है.’’

धम्म से वहीं बैठ गई मैं, पड़ोस की बीना भी इस समय घर नहीं होगी…किस से बात करूं? किस से पूछूं अपनी सखी के बारे में. भाग कर मैं बाहर गई और एक बार फिर से ताले को खींच कर देखने लगी. तभी उधर से गुजरती हुई एक काम वाली मुझे देख कर रुक गई. बांह पकड़ कर फूटफूट कर रोने लगी. याद आया, यही बाई तो श्रीमती गोयल के घर काम करती थी.

‘‘क्या हुआ था आंटी को?’’ मैं ने हिम्मत कर के पूछा.

‘‘बीबीजी, जिस दिन सुबह आप गईं उसी रात बाबूजी ने सिर में कुछ मार कर बीबीजी को मार डाला. शाम को मैं आई थी बरतन धोने तो बीबीजी उदास सी बैठी थीं. आप के बारे में बात करने लगीं. कह रही थीं, ‘मन नहीं लग रहा शुभा के बिना.’ ’’

आंटी का सुंदर चेहरा मेरी आंखों के सामने कौंध गया. बेचारी तमाम उम्र अपनेआप को सजासंवार कर रखती रहीं. चेहरा संवारती रहीं जिस का अंत इस तरह हुआ. रो पड़ी मैं, सत्या भी जोर से रोने लगी. कोई रिश्ता नहीं था हम तीनों का आपस में. मरने वाली के अपने कहां थे हम. पराए रो रहे थे और अपने ने तो जान ही ले ली थी.

दोपहर को बीना आई तो सीधी मेरे पास चली आई.

‘‘दीदी, आप कब आईं? देखिए न, आप के पीछे कैसा अनर्थ हो गया.’’

रोने लगी थी बीना भी. सदमे में लगभग सारा महल्ला था. पता चला श्रीमान गोयलजी तभी से गायब हैं. डाक्टर बेटा आ कर मां का शव ले गया था. बाकी अंतिम रस्में उसी के घर पर हुईं.

‘‘तुम गई थीं क्या?’’

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‘‘हां, अमेरिका वाला बेटा भी आजकल यहीं है. तीनों बेटे इतना बिलख रहे थे कि  क्या बताऊं आप को दीदी. गोयल अंकल ने यह अच्छा नहीं किया. गुल्लू तो कह रहा था कि बाप को फांसी चढ़ाए बिना नहीं मानेगा लेकिन बड़े दोनों भाई उसे समझाबुझा कर शांत करने का प्रयास कर रहे हैं.’’

गुल्लू अमेरिका में जा कर बस जाना ज्यादा बेहतर समझता था, इसीलिए साथ ले जाने को मां के कागजपत्र सब तैयार किए बैठा था. वह नहीं चाहता था कि मां इस गंदगी में रहें. घर का सारा वैभव, सारी सुंदरता इसी गुल्लू की दी हुई थी. सब से छोटा था और मां का लाड़ला भी.

आगे पढें- आंखें पोंछती हुई बीना चली गई. दिल…

Serial Story: जारी है सजा– भाग 3

हर सुबह मां से बात करना उस का नियम था. आंटी की बातों में भी गुल्लू का जिक्र ज्यादा होता था.

‘‘तुम चलोगी मेरे साथ बीना, मैं उन के घर जा कर उन से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘इसीलिए तो आई हूं. आज तेरहवीं है. शाम 4 बजे उठाला हो जाएगा. आप तैयार रहना.’’

आंखें पोंछती हुई बीना चली गई. दिल जैसे किसी ने मुट्ठी में बांध रखा था मेरा. नाश्ता वैसे ही बना पड़ा था जिसे मैं छू भी नहीं पाई थी. संवेदनशील मन समझ ही नहीं पा रहा था कि आखिर आंटी का कुसूर क्या था, पूरी उम्र जो औरत मेहनत कर बच्चों को पढ़ातीलिखाती रही, पति की मार सहती रही, क्या उसे इसी तरह मरना चाहिए था. ऐसा दर्दनाक अंत उस औरत का, जो अकेली रह कर सब सहती रही.

‘एक आदमी जरा सा नंगा हो रहा हो तो हम उसे किसी तरह ढकने का प्रयास कर सकते हैं शुभा, लेकिन उसे कैसे ढकें जो अपने सारे कपड़े उतार चौराहे पर जा कर बैठ जाए, उसे कहांकहां से ढकें…इस आदमी को मैं कहांकहां से ढांपने की कोशिश करूं, बेटी. मुझे नजर आ रहा है इस का अंत बहुत बुरा होने वाला है. मेरे बेटे सिर्फ इसलिए इसे पैसे देते हैं कि यह मुझे तंग न करे. जिस दिन मुझे कुछ हो गया, इस का अंत हो जाएगा. बच्चे इसे भूखों मार देंगे…बहुत नफरत करते हैं वे अपने पिता से.’

गोयल आंटी के कहे शब्द मेरे कानों में बजने लगे. पुन: मेरी नजर घर पर पड़ी. यह घर भी गोयल साहब कब का बेच देते अगर उन के नाम पर होता. वह तो भला हो आंटी के ससुर का जो मरतेमरते घर की रजिस्ट्री बहू के नाम कर गए थे.

शाम 4 बजे बीना के साथ मैं डा. विजय गोयल के घर पहुंची. वहां पर भीड़ देख कर लगा मानो सारा शहर ही उमड़ पड़ा हो. अच्छी साख है उन की शहर में. इज्जत के साथसाथ दुआएं भी खूब बटोरी हैं आंटी के उस बेटे ने.

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तेरहवीं हो गई. धीरेधीरे सारी भीड़ घट गई. आंटी की शाल मेरे हाथ में कसमसा रही थी. जरा सा एकांत मिला तो बीना ने गुल्लू से मेरा परिचय कराया. गुल्लू धीरे से उठा और मेरे पास आ कर बैठ गया. सहसा मेरा हाथ पकड़ा और अपने हाथ में ले कर चीखचीख कर रोने लगा.

‘‘मैं अपनी मां की रक्षा नहीं कर पाया, शुभाजी. पिछले कुछ हफ्तों से मां की बातों में सिर्फ आप का ही जिक्र रहता था. मां कहती थीं, आप उन्हें बहुत सहारा देती रही हैं. आप वह सब करती रहीं जो हमें करना चाहिए था.’’

‘‘जिस सुबह आप कुल्लू जाने वाली थीं उसी सुबह जब मैं ने मां से बात की तो उन्होंने बताया कि बड़ी घबराहट हो रही है. आप के जाने के बाद वे अकेली पड़ जाएंगी. ऐसा हो जाएगा शायद मां को आभास हो गया था. हमारा बाप ऐसा कर देगा किसी दिन हमें डर तो था लेकिन कर चुका है विश्वास नहीं होता.’’

दोनों बेटे भी मेरे पास सिमट आए थे. तीनों की पत्नियां और पोतेपोतियां भी. रो रही थी मैं भी. डा. विजय हाथ जोड़ रहे थे मेरे सामने.

‘‘आप ने एक बेटी की तरह हमारी मां को सहारा दिया, जो हम नहीं कर पाए वह आप करती रहीं. हम आप का एहसान कभी नहीं भूल सकते.’’

क्या उत्तर था मेरे पास. स्नेह से मैं ने गुल्लू का माथा सहला दिया.

सभी तनिक संभले तो मैं ने वह शाल गुल्लू को थमा दी.

‘‘श्रीमती गोयल ने मुझे 5 हजार रुपए दिए थे. कह रही थीं कि कुल्लू से उन के लिए शाल लेती आऊं. कृपया आप इसे रख लीजिए.’’

पुन: रोने लगा था गुल्लू. क्या कहे वह और क्या कहे परिवार का कोई अन्य सदस्य.

‘‘आप की मां की सजा पूरी हो गई. मां की कमी तो सदा रहेगी आप सब को, लेकिन इस बात का संतोष भी तो है कि वे इस नरक से छूट गईं. उन की तपस्या सफल हुई. वे आप सब को एक चरित्रवान इनसान बना पाईं, यही उन की जीत है. आप अपने पिता को भी माफ कर दें. भूल जाइए उन्हें, उन के किए कर्म ही उन की सजा है. आज के बाद आप उन्हें उन के हाल पर छोड़ दीजिए. समयचक्र कभी क्षमा नहीं करता.’’

‘‘समयचक्र ने हमारी मां को किस कर्म की सजा दी? हमारी मां उस आदमी की इतनी सेवा करती रहीं. उसे खिला कर ही खाती रहीं सदा, उस इनसान का इंतजार करती रहीं, जो उस का कभी हुआ ही नहीं. वे बीमार होती रहीं तो पड़ोसी उन का हालचाल पूछते रहे. भूखी रहतीं तो आप उसे खिलाती रहीं. हमारा बाप सिर पर चोट मारता रहा और दवा आप लगाती रहीं…आप क्या थीं और हम क्या थे. हमारे ही सुख के लिए वे हम से अलग रहीं सारी उम्र और हम क्या करते रहे उन के लिए. एक जरा सा सहारा भी नहीं दे पाए. इंतजार ही करते रहे कि कब वह राक्षस उन्हें मार डाले और हम उठा कर जला दें.’’

गुल्लू का रुदन सब को रुलाए जा रहा था.

‘‘कुछ नहीं दिया कालचक्र ने हमारी मां को. पति भी राक्षस दिया और बेटे भी दानव. बेनाम ही मर गईं बेचारी. कोई उस के काम नहीं आया. किसी ने मेरी मां को नहीं बचाया.’’

‘‘ऐसा मत सोचो बेटा, तुम्हारी मां तो हर पल यही कहती रहीं कि उन के  बेटे ही उन के जीने का सहारा हैं. आप सब भी अपने पिता जैसे निकल जाते तो वे क्या कर लेतीं. आप चरित्रवान हैं, अच्छे हैं, यही उन के जीवन की जीत रही. बेनाम नहीं मरीं आप की मां. आप सब हैं न उन का नाम लेने वाले. शांत हो जाओ. अपना मन मैला मत करो.

‘‘आप की मां आप सब की तरफ से जरा सी भी दुखी नहीं थीं. अपनी बहुओं की भी आभारी थीं वे, अपने पोतेपोतियों के नाम भी सदा उन के होंठों पर होते थे. आप सब ने ही उन्हें इतने सालों तक जिंदा रखा, वे ऐसा ही सोचती थीं और यह सच भी है. ऐसा पति मिलना उन का दुर्भाग्य था लेकिन आप जैसी संतान मिल जाना सौभाग्य भी है न. लेखाजोखा करने बैठो तो सौदा बराबर रहा. प्रकृति ने जो उन के हिस्से में लिखा था वही उन्हें मिल गया. उन्हें जो मिला उस का वे सदा संतोष मनाती थीं. सदा दुआएं देती थीं आप सब को. तुम अपना मन छोटा मत करो… विश्वास करो मेरा…’’

मेरे हाथों को पकड़ पुन: चीखचीख कर रो पड़ा था गुल्लू और पूरा परिवार उस की हालत पर.

समय सब से बड़ा मरहम है. एक बुरे सपने की तरह देर तक श्रीमती गोयल की कहानी रुलाती भी रही और डराती भी रही. कुछ दिनों बाद उन के बेटों ने उस घर को बेच दिया जिस में वे रहती थीं.

श्रीमान गोयल के बारे में भी बीना से पता चलता है. बच्चों ने वास्तव में पिता को माफ कर दिया, क्या करते.

उड़तीउड़ती खबरें मिलती रहीं कि श्रीमान गोयल का दिमाग अब ठीक नहीं रहा. बाहर वालियों ने उन का घर भी बिकवा दिया है. बेघर हो गया है वह पुरुष जिस ने कभी अपने घर को घर नहीं समझा. पता नहीं कहां रहता है वह इनसान जिस का अब न कोई घर है न ठिकाना. अपने बच्चों के मुंह का निवाला जो इनसान वेश्याओं को खिलाता रहा उस का अंत भला और कैसा होता.

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एक रात पुन: गली में चीखपुकार हुई. श्रीमान गोयल अपने घर के बाहर खड़े पत्नी को गालियां दे रहे थे. भद्दीगंदी गालियां. दरवाजा जो नहीं खोल रही थीं वे, शायद पागलपन में वे भूल चुके थे कि न यह घर अब उन का है और न ही उन्हें सहन करने वाली पत्नी ही जिंदा है.

चौकीदार ने उन्हें खदेड़ दिया. हर रोज चौकीदार उन्हें दूर तक छोड़ कर आता, लेकिन रोज का यही क्रम महल्ले भर को परेशान करने लगा. बच्चों को खबर की गई तो उन्होंने साफ कह दिया कि वे किसी श्रीमान गोयल को नहीं जानते हैं. कोई जो भी सुलूक चाहे उन के साथ कर सकता है. किसी ने पागलखाने में खबर की. हर रात  का तमाशा सब के लिए असहनीय होता जा रहा था. एक रात गाड़ी आई और उन्हें ले गई. मेरे पति सब देख कर आए थे. मन भर आया था उन का.

‘‘वह आंटीजी कैसे सजासंवार कर रखती थीं इस आदमी को. आज गंदगी का बोरा लग रहा था…बदबू आ रही थी.’’

आंखें भर आईं मेरी. सच ही कहा है कहने वालों ने कि काफी हद तक अपने जीवन के सुख या दुख का निर्धारण मनुष्य अपने ही अच्छेबुरे कर्मों से करता है. श्रीमती गोयल तो अपनी सजा भोग चुकीं, श्रीमान गोयल की सजा अब भी जारी है.

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