Romantic Story In Hindi: सुधा का सत्य- भाग 2- कौनसा सच छिपा रही थी सुधा

लेखिका- रमा प्रभाकर   

पता नहीं ऐसा क्यों होता था. सुधा जब भी परेशान होती थी, उस के सिर में दर्द शुरू हो जाता था. इस समय भी वह हलकाहलका सिरदर्द महसूस कर रही थी. अभी वह अलमारी में कपड़े जैसेतैसे भर कर कमरे से बाहर ही आई थी कि पीछे से विनीत आ गया.

‘‘मां, मैं सारंग के घर खेलने जाऊं?’’ उस ने पूछा.

‘‘नहीं, तुम कहीं नहीं जाओगे. बैठ कर पढ़ो,’’ सुधा ने रूखेपन से कहा.

‘‘लेकिन मां, मैं अभी तो स्कूल से आया हूं. इस समय तो मैं रोज ही खेलने जाता हूं,’’ उस ने अपने पक्ष में दलील दी.

‘‘तो ठीक है, बाहर जा कर खेलो,’’ सुधा ने उसे टालना चाहा. वह इस समय कुछ देर अकेली रहना चाहती थी.

‘‘पर मां, मैं उसे कह चुका हूं कि आज मैं उस के घर आऊंगा,’’ विनीत अपनी बात पर अड़ गया.

‘‘मैं ने कहा न कि कहीं भी नहीं जाना है. अब मेरा सिर मत खाओ. जाओ यहां से,’’ सुधा झल्ला गई.

‘‘मां, बस एक बार, आज उस के घर चले जाने दो. उस के चाचाजी अमेरिका से बहुत अच्छे खिलौने लाए हैं. मैं ने उस से कहा है कि मैं आज देखने आऊंगा. मां, आज मुझे जाने दो न,’’ विनीत अनुनय पर उतर आया.

पर सुधा आज दूसरे ही मूड में थी. उस का गुस्सा एकदम भड़क उठा, ‘‘बेवकूफ, मैं इतनी देर से मना कर रही हूं, बात समझना ही नहीं चाहता. पीछे ही पड़ गया है. ठीक है, कहने से बात समझ में नहीं आ रही है न तो ले, तुझे दूसरे तरीके से समझाती हूं…’’

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सुधा ने अपनी बात खत्म करने से पहले ही विनीत के गाल पर चटचट कई चांटे जड़ दिए. मां के इस रूप से अचंभित विनीत न तो कुछ बोला और न ही रोया, बस चुपचाप आंखें फाड़े मां को ताकता रहा.

चांटों से लाल पड़े गाल और विस्मय से फैली आंखों वाले विनीत को देख कर सुधा अपने होश में लौट आई. विनीत यदाकदा ही उस से पूछ कर सारंग के घर चला जाता था. आज सुधा को क्या हो गया था, जो उस ने अकारण ही अपने मासूम बेटे को पीट डाला था. सारा क्रोध धीरेंद्र के कारण था, पर उस पर तो बस चला नहीं, गुस्सा उतरा निर्दोष विनीत पर.

उस का सारा रोष निरीहता में बदल गया. वह दरवाजे की चौखट से माथा टिका कर रो दी.सुधा की यह व्यथा कोई आज की नई व्यथा नहीं थी. धीरेंद्र के शादी से पहले के प्रेमप्रसंगों को भी उस के साथियों ने मजाकमजाक में सुना डाला था. पर वे सब उस समय तक बीती बातें हो गई थीं, लेकिन ललिता वाली घटना ने तो सुधा को झकझोर कर रख दिया था. बाद में भी जब कभी धीरेंद्र के किसी प्रेमप्रसंग की चर्चा उस तक पहुंचती तो वह बिखर जाती थी. लेकिन ललिता वाली घटना से तो वह बहुत समय तक उबर नहीं पाई थी.

तब धीरेंद्र ने भी सुधा को मनाने के लिए क्या कुछ नहीं किया था, ‘बीती ताहि बिसार दे’ कह कर उस ने कान पकड़ कर कसमें तक खा डाली थीं, पर सुधा को अब धीरेंद्र की हर बात जहर सी लगती थी.

तभी एक दिन सुबहसुबह मनीष ने नाचनाच कर सारा घर सिर पर उठा लिया था, ‘‘भैया पास हो गए हैं. देखो, इस अखबार में उन का नाम छपा है.’’

धीरेंद्र ने एक प्रतियोगी परीक्षा दी थी. उस का परिणाम आ गया था. धीरेंद्र की इस सफलता ने सारे बिखराव को पल भर में समेट दिया था. अब तो धीरेंद्र का भविष्य ही बदल जाने वाला था. सारे घर के साथ सुधा भी धीरेंद्र की इस सफलता से उस के प्रति अपनी सारी कड़वाहट को भूल गई. उसे लगा कि यह उस के नए सुखी जीवन की शुरुआत की सूचना है, जो धीरेंद्र के परीक्षा परिणाम के रूप में आई है.

इस के बाद काफी समय व्यस्तता में ही निकल गया था. धीरेंद्र ने अपनी नई नौकरी का कार्यभार संभाल लिया था. नई जगह और नए सम्मान ने सुधा के जीवन में भी उमंग भर दी थी. उस के मन में धीरेंद्र के प्रति एक नए विश्वास और प्रेम ने जन्म ले लिया था. तभी उस ने निर्णय लिया था. वह धीरेंद्र के इस नए पद के अनुरूप ही अपनेआप को बना लेगी. वह अपनी पढ़ाई फिर से शुरू करेगी.

सुधा के इस निर्णय पर धीरेंद्र ने अपनी सहमति ही जताई थी. अब घर के कामों के लिए उन्हें नौकर रखने की सुविधा हो गई थी. इसलिए सुधा की पढ़ाई शुरू करने की सुविधा जुटते देर नहीं लगी. वह बेफिक्र हो कर प्राइवेट बी.ए. करने की तैयारी में जुट गई.

कभी ऐसा भी होता है कि मन का सोचा आसानी से पूरा नहीं होता. सुधा के साथ यही हुआ. उस की सारी मेहनत, सुविधा एक ओर रखी रह गई. सुधा परीक्षा ही नहीं दे सकी. पर इस बाधा का बुरा मानने का न तो उस के पास समय था और न इच्छा ही थी. एक खूबसूरत स्वस्थ बेटे की मां बन कर एक तो क्या, वह कई बी.ए. की डिगरियों का मोह छोड़ने को तैयार थी.

विनीत 2 साल का ही हुआ था कि उस की बहन निधि आ गई और इन दोनों के बीच सुधा धीरेंद्र तक को भूल गई. उन के साथ वह ऐसी बंधी कि बाहर की दुनिया के उस के सारे संपर्क ही खत्म से हो गए.

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घर और बच्चों के बीच उलझी सुधा तक धीरेंद्र की गतिविधियों की उड़ती खबर कभीकभी पहुंच जाती थी कि वह अपने दफ्तर की कुछ महिला कर्मचारियों पर अधिक ही मेहरबान रहता है. पिछले कुछ सालों के धीरेंद्र के व्यवहार से सुधा समझ बैठी थी कि अब उस में उम्र की गंभीरता आ गई है और वह पुराने वाला दिलफेंक धीरेंद्र नहीं रहा है. इसलिए उस ने इन अफवाहों को अधिक महत्त्व नहीं दिया.

एक दिन सुहास आया, तब धीरेंद्र घर पर नहीं था. उस ने सुधा को घंटे भर में ही सारी सूचनाएं दे डालीं और जातेजाते बोल गया, ‘‘दोस्त के साथ गद्दारी तो कर रहा हूं, लेकिन उस की भलाई के लिए कर रहा हूं. इसलिए मन में कोई मलाल तो नहीं है. बस, थोड़ा सा डर है कि यह बात पता लगने पर धीरेंद्र मुझे छोड़ेगा तो नहीं. शायद लड़ाई ही कर बैठे. लेकिन वह तो मैं भुगत लूंगा. अब भाभीजी, आगे आप उसे ठीक करने का उपाय करें.’’

उस दिन सुधा मन ही मन योजनाएं बनाती रही कि किस तरह वह धीरेंद्र को लाजवाब कर के माफी मंगवा कर रहेगी. लेकिन जब उस का धीरेंद्र से सामना हुआ तो शुरुआत ही गलत हो गई. धीरेंद्र ने उस के सभी आक्रमणों को काट कर बेकार करना शुरू कर दिया. अंत में जब कुछ नहीं सूझा तो सुधा का रोनाधोना शुरू हो गया. बात वहीं खत्म हो गई, लेकिन सुधा के मन में उन लड़कियों के नाम कांटे की तरह चुभते रहे थे. तब उन नामों में पल्लवी का नाम नहीं था.

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Romantic Story In Hindi: सुधा का सत्य- भाग 1- कौनसा सच छिपा रही थी सुधा

लेखिका- रमा प्रभाकर   

‘‘यह किस का प्रेमपत्र है?’’ सुधा ने धीरेंद्र के सामने गुलाबी रंग का लिफाफा रखते हुए कहा.

‘‘यह प्रेमपत्र है, तो जाहिर है कि किसी प्रेमिका का ही होगा,’’ सुधा ने जितना चिढ़ कर प्रश्न किया था धीरेंद्र ने उतनी ही लापरवाही से उत्तर दिया तो वह बुरी तरह बिफर गई.

‘‘कितने बेशर्म इनसान हो तुम. तुम ने अपने चेहरे पर इतने मुखौटे लगाए हुए हैं कि मैं आज तक तुम्हारे असली रूप को समझ नहीं सकी हूं. क्या मैं जान सकती हूं कि तुम्हारे जीवन में आने वाली प्रेमिकाओं में इस का क्रमांक क्या है?’’

सुधा ने आज जैसे लड़ने के लिए कमर कस ली थी, लेकिन धीरेंद्र ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया. दफ्तर से लौट कर वह फिर से बाहर निकल जाने को तैयार हो रहा था.

कमीज पहनता हुआ बोला, ‘‘सुधा, तुम्हें मेरी ओर देखने की फुरसत ही कहां रहती है? तुम्हारे बच्चे, तुम्हारी पढ़ाई, तुम्हारी सहेलियां, रिश्तेदार इन सब की देखभाल और आवभगत के बाद अपने इस पति नाम के प्राणी के लिए तुम्हारे पास न तो समय बचता है और न ही शक्ति.

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‘‘आखिर मैं भी इनसान हूं्. मेरी भी इच्छाएं हैं. मुझे भी लगता है कि कोई ऐसा हो जो मेरी, केवल मेरी बात सुने और माने, मेरी आवश्यकताएं समझे. अगर मुझे यह सब करने वाली कोई मिल गई है तो तुम्हें चिढ़ क्यों हो रही है? बल्कि तुम्हें तो खुशी होनी चाहिए कि अब तुम्हें मेरे लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है.’’

धीरेंद्र की बात पर सुधा का खून खौलने लगा, ‘‘क्या कहने आप के, अच्छा, यह बताओ जब बच्चे नहीं थे, मेरी पढ़ाई नहीं चल रही थी, सहेलियां, रिश्तेदार कोई भी नहीं था, मेरा सारा समय जब केवल तुम्हारे लिए ही था, तब इन देखभाल करने वालियों की तुम्हें क्यों जरूरत पड़ गई थी?’’ सुधा का इशारा ललिता वाली घटना की ओर था.

तब उन के विवाह को साल भर ही हुआ था. एक दिन भोलू की मां धुले कपड़े छत पर सुखा कर नीचे आई तो चौके में काम करती सुधा को देख कर चौंक गई, ‘अरे, बहूरानी, तुम यहां चौके में बैठी हो. ऊपर तुम्हारे कमरे में धीरेंद्र बाबू किसी लड़की से बतिया रहे हैं.’

भोलू की मां की बात को समझने में अम्मांजी को जरा भी देर नहीं लगी. वह झट अपने हाथ का काम छोड़ कर उठ खड़ी हुई थीं, ‘देखूं, धीरेंद्र किस से बात कर रहा है?’ कह कर वह छत की ओर जाने वाली सीढि़यों की ओर चल पड़ी थीं.

सुधा कुछ देर तक तो अनिश्चय की हालत में रुकी रही, पर जल्दी ही गैस बंद कर के वह भी उन के पीछे चल पड़ी थी.

ऊपर के दृश्य की शुरुआत तो सुधा नहीं देख सकी लेकिन जो कुछ भी उस ने देखा, उस से स्थिति का अंदाजा लगाने में उसे तनिक भी नहीं सोचना पड़ा. खुले दरवाजे पर अम्मांजी चंडी का रूप धरे खड़ी थीं. अंदर कमरे में सकपकाए से धीरेंद्र के पास ही सफेद फक चेहरे और कांपती काया में पड़ोस की ललिता खड़ी थी.

इस घटना का पता तो गिनेचुने लोगों के बीच ही सीमित रहा, लेकिन इस के परिणाम सभी की समझ में आए थे. पड़ोसिन सुमित्रा भाभी ने अपनी छोटी बहन ललिता को एक ही हफ्ते में पढ़ाई छुड़वा कर वापस भिजवा दिया था. उस के बाद दोनों घरों के बीच जो गहरे स्नेहिल संबंध थे, वे भी बिखर गए थे.

अभी सुधा ने उसी घटना को ले कर व्यंग्य किया था. धीरेंद्र इस पर खीज गया. बोला, ‘‘पुरानी बातें क्यों उखाड़ती हो? उस बात का इस से क्या संबंध है?’’

‘‘है क्यों नहीं? खूब संबंध है. वह भी तुम्हारी प्रेमिका थी और यह भी जैसा तुम कह रहे हो, तुम्हारी प्रेमिका है. बस, फर्क यही है कि वह तीसरी या चौथी प्रेमिका रही होगी और यह 5वीं या छठी प्रेमिका है,’’ सुधा चिल्लाई.

‘‘चुप करो, सुधा, तुम एक बार बोलना शुरू करती हो तो बोलती चली जाती हो. पल्लवी को तुम इस श्रेणी में नहीं रख सकतीं. तुम क्या जानो, वह मेरा कितना ध्यान रखती है.’’

‘‘सब जानती हूं. और यह भी जानती हूं कि अगर ये ध्यान रखने वालियां तुम्हारे जीवन में न आतीं तो भी तुम अच्छी तरह जिंदा रहते. तब कम से कम दुनिया के सामने दोहरी जिंदगी जीने की मजबूरी तो न होती.’’

सुधा को लगा कि वह अगर कुछ क्षण और वहां रुकी तो रो पड़ेगी. धीरेंद्र के सामने वह अब कमजोर नहीं पड़ना चाहती थी. पहले भी जब कभी धीरेंद्र के प्रेमप्रसंग के भेद खुले थे, वह खूब रोईधोई थी, लेकिन धीरेंद्र पर इस का कोई विशेष असर कभी नहीं पड़ा था.

धीरेंद्र तो अपनी टाई ठीक कर के, जूतों को एक बार फिर ब्रश से चमका कर घर से निकल गया, लेकिन सुधा के मन में तूफान पैदा कर गया. अंदर कमरे में जा कर सुधा ने सारे ऊनी कपड़े और स्वेटर आदि फिर से अलमारी में भर दिए.

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सर्दियां बीत चुकी थीं. अब गरमियों के दिनों की हलकीहलकी खुनक दोपहर की धूप में चढ़नी शुरू हो गई थी. आज सुधा ने सोचा था कि वह घर भर के सारे ऊनी कपड़े निकाल कर बाहर धूप में डाल देगी. 2 दिन अच्छी धूप दिखा कर ऊनी कपड़ों में नेप्थलीन की गोलियां डाल कर उन्हें बक्सों में वह हर साल बंद कर दिया करती थी.

आज भी धूप में डालने से पहले वह हर कपड़े की जेब टटोल कर खाली करती जा रही थी. तभी धीरेंद्र के स्लेटी रंग के सूट के कोट की अंदर की जेब में उसे यह गुलाबी लिफाफा मिला था.

बहुत साल पहले स्कूल के दिनों में सुधा ने एक प्रेमपत्र पढ़ा था, जो उस के बगल की सीट पर बैठने वाली लड़की ने उसे दिखाया था. यह पत्र उस लड़की को रोज स्कूल के फाटक पर मिलने वाले एक लड़के ने दिया था. उस पत्र की पहली पंक्ति सुधा को आज भी अच्छी तरह याद थी, ‘सेवा में निवेदन है कि आप मेरे दिल में बैठ चुकी हैं…’

धीरेंद्र के कोट की जेब से मिला पत्र भी कुछ इसी प्रकार से अंगरेजी में लिखा गया प्रेमपत्र था. बेहद बचकानी भावुकता में किसी लड़की ने धीरेंद्र को यह पत्र लिखा था. पत्र पढ़ कर सुधा के तनमन में आग सी लग गई थी.

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आज फिर तुम पे प्यार आया है : भाग 4- किस बेगुनाह देव को किस बात की मिली सजा

इधर बेटे के गम में कल्याणी की हार्टफेल हो जाने से मृत्यु हो गई और कुछ साल बाद जय भी इस दुनिया को छोड़ कर चले गए. पूरा घर तितरबितर हो गया. निखिल भी अपने परिवार के साथ कहीं और रहने चला गया.

देव की बदचलनी की बात सुन कर तनिका के मातापिता ने भी उस की शादी कहीं और कर दी. अपनी दयनीय स्थिति पर स्वयं देव को भी तरस आ रहा था. सोचता वह कि आखिर उस ने ऐसा किया ही क्यों रमा के साथ? अगर नहीं किया होता तो आज सबकुछ सही होता. कोसता रहता वह अपनेआप को. मन तो करता उस का कि खूब चीखेचिल्लाए और कहे कि उसे फांसी पर लटका दिया जाए क्योंकि अब उसे जीने का कोई हक नहीं है.

अपने दोस्त मनोज को याद कर के वह रो पड़ता और सोचता कि शायद वह भी मुझ से घृणा करने लगा है. नहीं तो क्या एक बार भी वह मुझ से मिलने नहीं आता? लेकिन उस रोज मनोज आया उस से मिलने और जो उस ने बताया उसे सुन कर देव के पैरों तले की जमीन खिसक गई.

बताने लगा वह कि देव गलत नहीं है बल्कि उसे फंसाया गया है और यह सब रमा का कियाधरा है.

‘‘पर तुम्हें यह सब कैसे पता?’’

देव के पूछने पर मनोज कहने लगा कि एक दिन जब किसी काम से वह उस के घर गया, तब रमा को प्रीति से कहते सुना, ‘‘देख लिया न दीदी, मु?झो न कहने का अंजाम. अरे, मैं उस देव से प्यार करती थी सच्चा प्यार और वह उस तनिका से शादी के सपने देखने लगा. तो बताओ मैं कैसे बरदाश्त कर पाती. पहले तो सुन कर मैं घर वापस चली गई और बहुत रोईकलपी, फिर लगा जो मेरा नहीं हो पाया उसे मैं किसी और का बनता कैसे देख सकती हूं भला. बस उसी दिन ठान लिया मैं ने कि मु?झो क्या करना है.’’

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‘‘क्या किया तुम ने?’’ आश्चर्य से प्रीति ने पूछा.

प्रीति के पूछने पर पहले तो वह हंसी, फिर कहने लगी, ‘‘उस संगीत वाली रात उस ने देव की कौफी में नशे की गोलियां मिला दी थीं और जब घर में सब सो गए तो वह किसी तरह देव को अपने कमरे तक ले आई और फिर खुद ही अपने सारे कपड़े उतार दिए और वह सब करवाया उस ने देव से जो चाहा. नशे में धुत्त देव को होश कहां था कि वह कहां है और क्या कर रहा है और फिर क्या हुआ वह तो आप सब को पता ही है दीदी,’’ अपने मुंह से अंगारे उगलते हुए रमा ठहाके लगा कर हंसने लगी.

प्रीति भाभी हतप्रभ उसे देखने लगी. उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि देव की बरबादी के पीछे रमा का हाथ है.

अपनी बहन के गाल पर तड़ातड़ थप्पड़ बरसाते हुए प्रीति भाभी कहने लगी, ‘‘क्यों, क्यों किया तुम ने ऐसा? सिर्फ बदला लेने के लिए? बरबाद कर दिया मेरे हंसतेखेलते परिवार को तुम ने सिर्फ अपनी जिद के कारण? अरे, देव तो तुम्हारी इज्जत करता था और तुमने… अगर निखिल को यह बात पता चल गई न तो वह मु?झो अपनी जिंदगी से बेदखल कर देगा रमा? बताओ क्यों ऐसा किया तुम ने?’’ बोल कर प्रीति भाभी वहीं नीचे बैठ गई और रोने लगी. फिर बोली, ‘‘गलती मेरी थी जो मैं ने तुम्हें अपने घर में रखा. अगर तुम पर दया कर मैं तुम्हें यहां न लाई होती तो आज हमारा परिवार हमारे साथ होता,’’ बोल कर भाभी फिर रोने लगी.

मगर उस कमीनी रमा को अपनी बहन पर भी दया न आई. बोली, ‘‘हां, तो क्यों बुलाया मु?झो और निखिल जीजाजी को बताएगा कौन, तुम? तो बता दो मु?झो किसी से कोई डरवर नहीं और ऐसा कर के तुम अपनी ही गृहस्थी खराब करोगी,’’ कह कर उस ने अपना मुंह फेर लिया.

यह देख कर प्रीति भाभी सकते में आ गई और फिर रमा को धक्के दे कर अपने घर से बाहर निकालते हुए कहा कि अब उस का उन से कोई वास्ता नहीं है.

सच सुन कर देव के पैरों तले की जमीन खिसक गई, ‘‘तो रमा ने यह सब जानबुझ कर किया? सिर्फ मुझ से बदला लेनेके लिए उस ने मेरा पूरा घरपरिवार बरबाद कर दिया? कह देती एक बार तो मैं तनिका से मिलना ही छोड़ देता, पर वह ऐसा जुल्म तो न करती हमारे साथ,’’ कह कर देव फूटफूट कर रोने लगा.

‘‘अरे भाई, उतरना नहीं है क्या? यह आखिरी स्टेशन है,’’ एक यात्री की आवाज से देव चौंक पड़ा और यादों के भंवर से बाहर आ गया. पूछने पर कि कौन सा स्टेशन है तो उस आदमी ने बताया कि यह अहमदाबाद स्टेशन है. गाड़ी से उतरते हुए सोचने लगा देव कि कितनी जल्दी रास्ता तय हो गया? काश, यह ट्रेन यों ही चलती रहती और वह पूरी उम्र इसी ट्रेन में गुजार देता. ट्रेन से उतरते ही अपने वादे अनुसार सब से पहले उस ने एसटीडी फोन से अपने दोस्त को यह बताने के लिए फोन घुमा दिया कि वह अहमदाबाद पहुंच गया है.

‘‘तू जहां भी है जल्दी वापस आ जा, जल्दी,’’ मनोज ने जब कहा तो देव डर गया. लगा उसे कि कहीं उस के भाभीभाई को तो कुछ नहीं हो गया? जोर दे कर पूछने पर मनोज ने इतना ही कहा कि वह उसी कौफी हाउस में पहुंच जाए जहां तनिका से मिला करता था. रास्ते भर वह इसी उलझन में रहा कि आखिर बात क्या हो सकती है… जो सफर कुछ देर पहले उसे छोटा लग रहा था, अब वही रास्ता उसे लंबा लगने लगा था.

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कौफी हाउस पहुंचते ही जब उस की नजर तनिका पर पड़ी, तो वह हतप्रभ रह गया, ‘‘तुम?’’ उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि जो वह देख रहा है वह सच है. बड़ी गौर से उस ने फिर तनिका को देखा. न तो उस के गले में मंगलसूत्र था और न ही मांग में सिंदूर.

‘‘क्या देख रहा है देव? यह तनिका है तुम्हारी तनिका,’’ मनोज ने उसे झक?झोरते हुए कहा.

‘‘पर तुम्हारी तो शादी…’’

‘‘हां देव, पर हुई नहीं. मैं आज भी तुम्हारी हूं देव,’’ कह कर वह अपने देव से लिपट गई.

दोनों के आंसू रुक नहीं रहे थे. बताने लगी तनिका कि उसे तो पहले से पता था कि लोग जो भी कहें, पर उस का देव सही था और है. रही बात शादी करने की तो मंडप तक गई वह, पर फिर यह बोल कर उठ गई कि उस की सगाई यानी आधी शादी तो हो चुकी है देव से, तो फिर कैसे वह किसी और की हो सकती है अब?

‘‘देव, आखिर आज मैं ने तुम्हें पा ही लिया. अब हमें एकदूसरे से कोई जुदा नहीं कर पाएगा देव,’’ कह कर छलकते नयनों से फिर वह अपने देव के सीने से लग गईर् और देव ने भी कस कर उसे अपने आगोश में ले लिया.

आज फिर उन के दिल में असीम खुशी और उमंगें हिलोरें मारने लगी थीं. फिर दोनों एकदूसरे के साथ भविष्य के असंख्य सुनहरे सपने देखने लगे. आज फिर उन्हें एकदूसरे पे प्यार आया.

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आज फिर तुम पे प्यार आया है : भाग 1- किस बेगुनाह देव को किस बात की मिली सजा

आजदेव उस सजा से आजाद हो गया जो अपराध उस ने किया ही नहीं, बल्कि उस से करवाया गया था. इन 7 सालों में उस से उस का हंसताखेलता परिवार तो छिन ही गया, उस का प्यार भी हमेशा के लिए उस से दूर चला गया. जब वह जेल से बाहर निकला तो उस का एक मित्र मनोज उस के लिए खड़ा था. कितना कहा उस ने कि वह अपने घर न सही उस के घर चले, पर देव ने यह बोल कर जाने से इनकार कर दिया कि अब उस का अपना बचा ही कौन है इस शहर में जो वह यहां रहे पर यह भी बोला उस ने कि वह जहां भी जाएगा, उसे जरूर बताएगा.

कुछ पैसे उसे जेल काटने के दौरान काम करने पर मिले, कुछ मनोज ने दिए. टिकट ले कर जो पहली ट्रेन मिली उस पर चढ़ गया. कहां जाना है, क्या करना है उसे कुछ पता नहीं चल रहा था. बस निकल पड़ा एक अनजान रास्ते की ओर. आसपास लोगों की भीड़ और शोरशराबे में भी वह अपने ही विचारों में मग्न था. जैसेजैसे ट्रेन की गति बढ़ने लगी वैसेवैसे देव अपनी पिछली जिंदगी के पन्ने पलटने लगा…

अपनी मां का लाड़ला बेटा देव था. वैसे देव का एक बड़ा भाई भी था निखिल, जो काफी शांत स्वभाव का था और वह वही करता जो उस के मांपापा कहते उस से. पढ़ाई में जरा कमजोर निखिल ने जहां बीए करते ही रेलवे में नौकरी पा ली, वहीं देव इंजीयरिंग पढ़ने के लिए बैंगलुरु चला गया. लेकिन देव के पापा की बड़ी इच्छा थी कि बड़ा बेटा न सही, कम से कम छोटा बेटा तो डाक्टर बन जाता, पर देव की तो डाक्टर की पढ़ाई मोटीमोटी किताबें देख कर ही तबीयत खराब होने लगती थी और जब उस के एक दोस्त के भाई ने, जोकि मैडिकल की पढ़ाई कर रहा था, बताया कि मोटीमोटी किताबें पढ़ने के साथसाथ उसे मेढक और मरे हुए इंसान के शरीर की भी चीरफाड़ करनी पड़ेगी, तो सुन कर ही उसे चक्कर सा आने लगा और उसी वक्त उस ने प्रण कर लिया कि चाहे जो हो जाए वह डाक्टर तो कभी नहीं बनेगा. आखिर देव के मातापिता को उस की जिद के आगे झकना पड़ा और उसे इंजीनियरिंग पढ़ने के लिए बैंगलुरु भेज दिया.

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एक रोज जब कल्याणी ने देव को मोबाइल पर फोन किया तो उस का जवाब सुन  कर बोली, ‘‘अरे, ऐसे कैसे छुट्टी नहीं मिलेगी और क्या अब तुम अपने बड़े भाई की शादी पर भी नहीं आओगे?’’

कल्याणी से देव ने यह बोल कर शादी में आने से मना कर दिया था कि अगले महीने ही उस की फाइनल परीक्षा होनी है तो शायद वह न आ पाए.

‘‘मत रुकना ज्यादा दिन, बस आना और शादी खत्म होते ही चले जाना.’’

‘‘ठीक है मां, देखता हूं अगर छुट्टी मिल गई तो आने की कोशिश करूंगा,’’ देव की आवाज आई.

‘‘देखनावेदना कुछ नहीं, आना ही है तुम्हें,’’ बोल कर जैसे ही कल्याणी पलटी, तो अवाक रह गई क्योंकि सामने ही देव खड़ा था.

‘‘तो तो तुम मुझ से…’’ कल्याणी की बात अभी पूरी भी नहीं हो पाई थी कि सब ठहाके लगा कर हंसने लगे.

‘‘अच्छा तो आप सब जानते थे कि  देव आज आने वाला है और जानबूझ कर मु?झो उल्लू बनाया जा रहा था, है न?’’ मुंह फुलाते हुए जब कल्याणी बोली तो सभी और जोरजोर से हंसने लगे. फिर कल्याणी भी कहां रुकने वाली था उस की भी हंसी फूट पड़ी और पूरे घर का वातावरण हंसीठहाकों से गूंज उठा.

ऐसा ही था जय और कल्याणी का हंसताखेलता छोटा सा परिवार और वे चाहते थे कि बस बहू भी उसी तरह की मिल जाए तो उस का घर स्वर्ग बन जाए और सच में, ससुराल में पांव रखते ही प्रीति ने सब का मन जीत लिया. देव को तो वह छोटे बबुआ कह कर ही बुलाती थी और अपने सासससुर की भी वह बड़े मन से सेवा करती थी. घर में किसी को भी प्रीति से कोई शिकायत नहीं थी.

मगर इधर प्रीति के ससुराल चले जाने से अब उस के पिता को अपनी छोटी बेटी रमा की चिंता सताने लगी. उन्हें लगता वे दिनभर औफिस में रहते हैं और घर में जवान बेटी है, तो कहीं उस के साथ कोई अनहोनी न हो जाए? अब मां होती तो बेटी की देखरेख करती, लेकिन वह तो इस दुनिया में नहीं थी. वैसे भी शुरू से ही दोनों बहनों में काफी जुड़ाव था. साथ रहते हुए कभी उसे किसी सहेली की जरूरत नहीं पड़ी. लेकिन जब से प्रीति अपनी ससुराल चली गई, रमा बहुत उदास रहने लगी थी. आती थी अपनी बहन के घर कभीकभार पर फिर उसे अपने घर जाने का मन ही नहीं करता और यह बात कल्याणी अच्छी तरह समझती थी.

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‘‘प्रीति बहू, क्यों न रमा का दाखिला यहां के ही कालेज में करवा दे? वैसे भी अकेली लड़की है और जमाना भी तो ठीक नहीं है,’’ जब कल्याणी ने कहा तो जैसे प्रीति की मुराद पूरी हो गई. आखिर वही तो वह चाहती थी पर कहने की उस में हिम्मत नहीं थी. निखिल से कहा था 1-2 बार पर उस ने, ‘ये सब तो मां जाने’ बोल कर चुप्पी साध ली थी तो फिर प्रीति भी चुप हो गई थी पर आज जब कल्याणी ने वही बात कही तो प्रीति की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

‘‘जी मां जी, मैं आज ही पापा से इस बारे में बात करती हूं.’’

इंजीनिरिंग के बाद एमबीए कर दिल्ली की ही एक बड़ी कंपनी में देव की नौकरी लग गई. घर में उस की नौकरी को ले कर खूब जश्न मनाया गया. स्मार्ट प्रभावशाली व्यक्तित्व के साथ एमबीए इंजीनियर और वह भी ऊंचे पद पर आसीन देव को देखते ही रमा उस पर फिदा हो गई. उसे लगने लगा देव ही उस के सपनों का राजकुमार है. उस का साथ रमा को बहुत प्रिय लगता. मजाक का रिश्ता था इसलिए देव भी कभीकभार उस से हंसीमजाक कर लेता था, पर उसे लेकर उस के मन में कोई भाव नहीं था. लेकिन रमा उसे अपना प्यार समझने लगी थी. देव को रिझने के लिए हमेशा उस के इर्दगिर्द मंडराती रहती. जानबूझ कर अपना दुपट्टा नीचे गिरा देती और जब वह उस दुपट्टे को लेने के लिए नीचे झकती तो उस के दोनों स्तन दिखने लगते. वह देव को चोर निगाहों से देखती कि वह उसे देख रहा है या नहीं.

मगर देव तो अपने में ही खोया रहता. वह चाहती कि देव भी उस के साथ छेड़छाड़ करे, उसे छूए. लेकिन देव की तरफ से कोई पहल न होते देख रमा उस के और करीब आने लगी. वह अब उस के खानेपीने का खयाल रखने लगी और उसी दौरान उसे यहांवहां छूने भी लगती. कभी वह उस के बालों में अपनी उंगलियां फिराने लगती तो कभी उस का कोई सामान जो उस के हाथ में होता, ले कर भाग जाती और जब देव उस के पीछे भागता, तो जानबूझ कर वह छत पर चली जाती.

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आज फिर तुम पे प्यार आया है : भाग 2- किस बेगुनाह देव को किस बात की मिली सजा

फिर देव को सामने देख कहती, ‘‘छूओ, देखो मेरा कलेजा कैसे धकधक कर रहा है,’’ कह कर वह उस का हाथ अपने सीने पर रख देती.

उस के ऐसे आचारण से घबरा कर देव वहां से भाग खड़ा होता. कभी जब देव अपने ही खयालों में खोया होता तो अचानक पीछे से वह उस के गले में बांहें डाल कर झल जाती और वह घबरा कर उठ बैठता. कहता कि कोई देख लेगा तो क्या सोचेगा? तो रमा कहती कि वही जो सोचना चाहिए और फिर खिलखिला कर हंस पड़ती. देव उसे देख कर सोचने लगता कि कैसी पकाऊ लड़की है यह देव ने कभी उसे उस नजर से नहीं देखा, पर वह थी कि उस के पीछे ही पड़ी थी.

कभीकभी तो वह देव के कमरे में ही आ कर जम जाती और फिर देर रात तक बैठी रहती. हार कर देव को कहना पड़ता कि भई जाओ अपने कमरे में अब तो वह यह बोल कर देव से चिपक जाती कि क्या हरज है अगर आज रात वह उसी के कमरे में सो जाए तो?

‘‘और अगर कोई शरारत हो गई मुझ से तो?’’ खीजते हुए देव कहता.

‘‘तो डरता कौन है आप की शरारतों से? कर के देखो तो एक बार,’’ अपनी एक आंख दबा कर रमा कहती तो देव ही शरमा जाता.

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समझ में आने लगा था देव को कि रमा अपनी बहन जैसी बिलकुल नहीं है और वह उस के एक इशारे पर अपना सबकुछ समर्पित कर सकती और शायद बाद में वह उस का फायदा भी उठाना चाहे, इसलिए अब वह उस से दूरी बना कर चलने लगा. औफिस से आते ही वह या तो अपने किसी दोस्त के घर जा कर बैठ जाता या फिर अपने कमरे में ही बंद हो जाता यह बोल कर कि आज वह बहुत थका हुआ है तो आराम करना चाहता है. लेकिन इतनी ढीठ थी रमा कि दरवाजा खटखटा कर उस के कमरे में घुस आती और ऊलजलूल बातें करने लगती. अब तो चिढ़ होने लगी थी देव को उस के छिछले आचरण से पर कहे तो किस से भला?

जब कभी किसी काम से देव मार्केट जाता, तो रमा भी उस के पीछे पड़ जाती. यह बोल कर वह उस की बाइक पर बैठ जाती कि उसे भी बाजार से कुछ जरूरी सामान खरीदना है. जब देव कोई बहाना बनाने लगता तो कल्याणी यह बोल कर कि ले जा इसे भी साथ उसे चुप करा देती, लेकिन उसे शर्र्म आती जब वह बाइक पर उस से चिपक कर बैठती और जब देव ब्रेक लगाता तो जानबूझ कर वह उस पर लद जाती.

एक रोज देव के दोस्त मनोज ने दोनों को एकसाथ बाइक पर बैठे देख कर बोल भी दिया, ‘‘क्या बात है बड़ी मस्ती चल रही आजकल तेरी तो? दीदी का देवर दीवाना हो गया क्या?’’

उस की बात पर जहां देव सकुचा कर रह गया वहीं रमा उस से और चिपट गई. जब भी रमा उस के साथ होती, जानबूझ कर देव अपने दोस्तों से कटता फिरता ताकि बात का बतंगड़ न बन जाए. लेकिन रमा तो मन ही मन उस की पत्नी बनने का खयाली पुलाव पका रही थी.

गोरीचिट्टी, हाथ लगाए तो मैली हो जाए, साथ ही इंजीनियर, एमबीए की डिगरी के साथ तनिका जब पूर्व की कंपनी में आई तो सब उसे देखते रह गए. औफिस का हर बंदा उस से दोस्ती करना चाहता था, पर वह थी कि बस ‘हाय’ का जवाब दे कर मुसकरा भर देती. उस का और देव का कैबिन आमनेसामने थी, जिस कारण अकसर दोनों की आंखें चार होतीं, तो अनायास ही उस की खामोश निगाहें बहुत कुछ ब्यां कर जातीं. तनिका को देख कर देव को लगता वह उस से पहले भी मिल चुका है, शायद सपनों में मन में ही बोल कर वह मुसकरा देता और जब उस की नजर तनिका से टकराती तो वह ?झोंप जाता जैसे उस के मन की बात उस ने सुन ली हो. तनिका को ले कर उस के मन में हलचल पैदा हो चुकी थी और कब तनिका भी उस की ओर आकर्षित होने लगी थी यह तो उसे भी खबर नहीं थी.

एक रोज शाम से ही काले बादल उमड़घुमड़ रहे थे. लग रहा था जोर की बारिश होगी. कुछ ही देर में मूसलाधार बारिश शुरू हो गई. देव अपनी गाड़ी से आया था. पर वह औटो का इंतजार कर रही थी.

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‘‘कोई बात नहीं, आप मेरे साथ मेरी गाड़ी में चलिए मैं आप को आप के घर तक छोड़ दूंगा,’’ देव ने कहा तो तनिका थोड़ी सकुचाई, पर फिर वह गाड़ी में बैठ गई.

बातोंबातों में पता चला कि तनिका इलाहाबाद से है और वह यहां 2 कमरों का घर ले कर कुछ लड़कियों के साथ रह रही है.

‘‘अरे वाह, फिर तो आप मेरी पड़ोसिन हो गईं,’’ वह बोला. देव ने जब कहा कि उस का घर बिहार में है पर वह वहां कभीकभार ही जा पाता है तो तनिका भी बताने लगी कि बिहार उस की नानी का घर है और वह  भी कई बार वहां जा चुकी है.

‘‘बस मेरा घर आ गया. यहीं उतार दीजिए.’’

‘‘काफी दूर है आप का घर. औफिस के लिए तो घर से जल्दी निकलना पड़ता होगा आप को? वैसे हमारे घर के पास भी कई घर ऐसे हैं जहां नौकरी करने और पढ़ने वाली लड़कियां रहती हैं. अगर आप कहें तो..’’

‘‘नहींहीं,’’ बीच में ही वह बोल पड़ी, ‘‘जरूरत होगी तो बता दूंगी,’’ और फिर घर तक पहुंचाने के लिए देव को धन्यवाद दे कर वह चली गई.

कुछ समय बाद तनिका देव के घर के करीब ही रहने आ गई और फिर औफिस दोनों साथ आनेजाने लगे थे. धीरेधीरे उन की जानपहचान गहरी दोस्ती में तबदील हो गई. दोनों एकदूसरे के सान्निध्य में बहुत सहज महसूस करते और पसंद भी दोनों की बहुत मिलतीजुलती थी.

‘‘वाकई, दिल्ली बहुत ही अच्छा शहर है,’’ एक रोज यूं ही देव के साथ दिल्ली की सड़कें नापते हुए तनिका बोली.

‘‘अरे वाह, क्या बात है पर लोग तो इसे बेदिल दिल्ली कहते हैं,’’ बोल कर देव हंस पड़ा तो तनिका को भी हंसी आ गई.

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अकसर देव तनिका के खयालों में खोया रहता और जब कल्याणी उस का कारण पूछती तो बहुत काम का बहाना बना कर बात को टाल जाता. सोचता कि क्यों न एक बार तनिका को कौल कर लूं? पर फिर सोचता कि क्या सोचेगी वह उस के बारे में?

जब एक दिन तनिका ने ही फोन कर के उस से कहा कि उसे नींद नहीं आ रही है. क्या वे कहीं बाहर चल सकते हैं? अब अंधे को क्या चाहिए, दो आंखें ही न? धीरेधीरे उन की निकटता बढ़ने लगी और वे एकदूसरे की जरूरत महसूस करने लगे. तनिका के मन में भी देव के लिए प्यार पनत चुका था क्योंकि एक दिन की भी जुदाई उसे बेचैन कर देती और जब तनिका कभी छुट्टियों में अपने घर जाती तो देव भी पागलों की तरह यहांवहां भटकता फिरता.

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आज फिर तुम पे प्यार आया है : भाग 3- किस बेगुनाह देव को किस बात की मिली सजा

इधर रमा की कालेज की पढ़ाई अब पूरी होने वाली थी और यह सोचसोच कर प्रीति परेशान हुए जा रही थी कि वह वहां अकेली कैसे रहेंगी? ‘अगर देव का ब्याह मेरी रमा से हो जाए तो कितना अच्छा होगा न? दोनों बहनें साथसाथ रहेगी और फिर छोटे बबुआ भी तो मेरी रमा को पसंद करते हैं?’ अपने मन में ही सोच प्रीति खिल उठती पर उस की हिम्मत नहीं होती यह बात किसी से कहने की, निखिल से भी नहीं, पर कोशिश में जरूर थी वह कि ऐसा हो जाए.

‘अगर रमा से देव की शादी हो जाए, तो कितना अच्छा रहेगा न? अच्छीभली और जानीपहचानी लड़की है और सब से बड़ी बात कि दोनों बहनें प्यार से घर को संभाले रखेंगी. घरसंपत्ति का कोई बंटबारा भी नहीं होगा. लेकिन क्या देव की मरजी जाने बिना उस का रिश्ता किसी भी लड़की से तय करना उचित होगा?’ कल्याणी अपनेआप से ही सवालजवाब करती और फिर चुप हो जाती.

मगर प्रीति जब भी देव की शादी का जिक्र छेड़ती तो कल्याणी कहती, ‘‘जब और जिस से मन मिलेगा हो ही जाएगी एक दिन.’’

मगर रमा को तो पूर्ण विश्वास था कि उस की शादी देव से ही होगी क्योंकि वह उसे पसंद करता है, पर देव के दिल के दरवाजे पर तो तनिका दस्तक दे चुकी थी और रमा इस बात से कोरी अनजान थी.

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जहां रमा के लिए देव एक तृष्णा था वहीं देव के लिए तनिका एक तृप्ति थी. तनिका को ले कर जो भाव देव के मन में जागा था, रमा को ले कर कभी जागा ही नहीं. दोनों का प्यार उस सागर की भांति था जो पूर्णिमा के चांद को देखते ही उद्वेलित हो जाता है.

‘‘शादी के बारे में क्या सोचा है देव? अब उम्र भी तो हो गई है तुम्हारी और फिर हमें भी तो अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना है,’’ जब एक रोज कल्याणी ने यह बात कही तो झट से बिना वक्त गंवाए देव ने अपने और तनिका के रिश्ते के बारे में उन्हें बता दिया और कहा कि दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं और शादी भी करना चाहते है.

बिना कोई सवालजवाब किए कल्याणी और जय ने तनिका और उस के परिवार से मिलने की इच्छा जताई. लेकिन प्रीति का चेहरा देव और तनिका की शादी को सुनते ही मलिन हो गया और रमा तो ऐसे भागी वहां से जैसे गधे के सिर से सिंग. वैसे उस का चले जाना देव को बहुत अच्छा लगा. लगा उसे जैसे बला टली.

तनिका के मांपापा से मिलने के बाद, दोनों परिवारों की सहमति से देव और तनिका का रिश्ता तय हो गया. सगाई के कुछ दिन बाद ही शादी का दिन भी तब हो गया. अपने आने वाले सुनहरे भविष्य को ले कर दोनों रंगबिरंगे सपनें सजाने लगे. लगने लगा उन्हें जैसे वे नीले आसमान में विचरण करने लगे हों. उन्होंने तो यह भी तय कर लिया कि शादी के बाद हनीमून पर कहां जाएंगे. जैसेजैसे उन की शादी के दिन नजदीक आते जा रहे थे देव की धड़कन बढ़ती जा रही थी. पता नहीं क्यों, पर उसे लगता कि सब कुछ ठीक से तो हो जाएगा न? ‘‘यह अच्छा है हमारे देव के जो उसे उस की पसंद की लड़की मिल गई. हर मायने में मु?झो तनिका देव से मेल खाती लगी,’’ कल्याणी ने कहा तो जब कहने लगे कि उन्हें तो बच्चों की खुशी में ही अपनी खुशी झलकती है. बाहर खड़ी प्रीति दोनों की बातें सुन कर सोचने लगी कि ‘वह भी कितनी पागल है. अरे, शादी ब्याह भी क्या जोरजबरदस्ती की बात है? यह तो मन का मिलन है और रिश्ते तो ऐसा ही बनते हैं.’

‘‘क्या सोच रहे है छोटे बबुआ? अपनी तनिका के बारे में?’’ बड़े प्यार से देव के सिर पर अपने हाथ फेरते हुए प्रीति ने पूछा तो विचारा में मग्न, देव सकपका गया.

बोला, ‘‘न नहीं भाभी, ऐसी कोई बात नहीं है. वैसे सारे मेहमान तो आ गए न?’’ देव के पूछने पर प्रीति ने ‘हां’ में जवाब दिया और फिर बड़े प्यार से उस के सिर को सहलाने लगी, एक मां की तरह. प्रीति का व्यवहार सामान्य देख कर देव को भी अच्छा लगा. लेकिन रमा का जा कर फिर वापस आ जाना और यह कहना कि वह शादी में अपने नाचगाने से धूम मचा देगी. वह बात उसे कुछ हजम नहीं हुई पर फिर शादी की शौपिंग और घर में मेहमानों की भीड़ के बीच यह सब बातें आईगई हो गयी. रमा फिर पहले की तरह देव से हंसनेबतियाने लगी और घर  के कामों में भी अपनी बहन की मदद करने लगी. शादी में पहनने के लिए उस ने भी अपने लिए लहंगा और जेवर लिए. डांसगाने की प्रेक्टिस भी खूब हो रही थी सब की. कौन कब क्या पहनेगा और किस गाने पर कौन डांस करेगा घर में बस इसी की बातें चल रही थी पर देव तो यह सोचसोच कर ही उत्साहित हो उठता कि अब इस चार दिन बाद तनिका उस की हो जाएगी और वह तनिका का.

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संगीत वाली रात सारी औरतों के साथ प्रीति और रमा भी खूब थिरक रही थीं और साथ में देव भी. चायकौफी और कोल्डड्रिंक्स का दौर चलता रहा और साथ में नाचगाना भी. लेकिन देव को खुमारी सी आने लगी तो वह अपने कमरें में सोने चला गया और बाकी के लोग भी धीरेधीरे कर के सो गए. लेकिन सुबह जब देव की नींद खुली और उस ने घर में हंगामा होते सुना तो चौंक कर उठ बैठा. देखा तो रमा एक कोने में दुबकी सिसक रही थी और प्रीति भी रो रही थी. कल्याणी भी अपने सिर थामे एक तरफ खड़ी थी और घर में आए सारे मेहमान एकदूसरे से फुसफुसा कर बातें कर रहे थे और देव को अजीब नजरों से देखे जा रहे थे. कुछ समझ नहीं आ रहा था देव को कि यह सब हो क्या रहा है और उस का सिर क्यों इतना भारीभारी सा लग रहा है?

मगर जब तक वह कुछ समझ पाता, पुलिस उसे रमा के बलात्कार के केस में हथकड़ी लगा कर ले जा चुकी थी. कहता रहा वह कि उस ने रमा का रेप नहीं किया है और सब को कोई गलतफहमी हुई है. लेकिन जब इंस्पैक्टर ने कहा कि रिपोर्ट के अनुसार बलात्कार हुआ है और देव ने ही किया है तो उस का माथा घूम गया कि वह ऐसा कैसे कर सकता है? कहीं ऐसा तो नहीं कि नींद में मैं ने रमा को तनिका समझ कर? नहींनहीं, मैं ऐसा कर ही नहीं सकता हूं. तो फिर वह सब…सवालों के कठघरे में खड़ा देव, खुद से ही सवाल करता और खुद ही जवाब भी देता पर उस का दिल यह मानने को बिलकुल तैयार नहीं था कि उस ने जानबूझ कर रमा के साथ ऐसा किया होगा?

खैर, जो भी हो पर सारे सुबूत और गवाह देव के खिलाफ थे. कोर्ट केस चला और देव को रमा के बलात्कार के इलजाम में 7 साल की सजा हो गई.

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Romantic Story In Hindi: हमकदम- भाग 1- अनन्या की तरक्की पर क्या था पति का साथ

अधिक खुशी से रहरह कर अनन्या की आंखें भीग जाती थीं. अब उस ने एक मुकाम पा लिया था. संभावनाओं का विशाल गगन उस की प्रतीक्षा कर रहा था. पत्रकारों के जाने के बाद अनन्या उठ कर अपने कमरे में आ गई. शरीर थकावट से चूर था पर उस की आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था. एक पत्रकार के प्रश्न पर पति द्वारा कहे गए शब्द कि इन की जीत का सारा श्रेय इन की मेहनत, लगन और दृढ़ इच्छाशक्ति को जाता है, रहरह कर उस के जेहन में कौंध जाते.

कितनी आसानी से चंद्रशेखर ने अपनी जीत का सेहरा उस के सिर बांध दिया. अगर कदमकदम पर उसे उन का साथ और सहयोग नहीं मिला होता तो वह आज विधायक नहीं गांव के एक दकियानूसी जमींदार परिवार की दबीसहमी बहू ही होती.

इस मंजिल तक पहुंचने में दोनों पतिपत्नी ने कितनी मुश्किलों का सामना किया है यह वे ही जानते हैं. जीवन की कठिनाइयों से जूझ कर ही इनसान कुछ पाता है. अपने वजूद के लिए घोर संघर्ष करने वाली अनन्या सिंह इस महत्त्वपूर्ण बात की साक्षी थी.

उस का मन रहरह कर विगत की ओर जा रहा था. तकिए पर टेक लगा कर अधलेटी अनन्या मन को अतीत की उन गलियों में जाने से रोक नहीं पाई जहां कदमकदम पर मुश्किलों के कांटे बिछे पड़े थे.

बचपन से ही अनन्या का स्वभाव भावुक और संवेदनशील था. वह सब के आकर्षण का केंद्र बन कर रहना चाहती थी. दफ्तर से घर आने पर पिता अगर एक गिलास पानी के लिए कहीं उस के छोटे भाई या बहन को आवाज दे देते तो वह मुंह फुला कर बैठ जाती. पूछो तो होंठों पर बस, एक ही जुमला होता, ‘पापा मुझ से प्यार नहीं करते.’

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बातबात पर उसे सब के प्यार का प्रमाण चाहिए था. कभीकभी मां बेटी की हठ देख कर चिंतित हो उठतीं. एक बार उन्होंने अनन्या के पिता से कहा भी था, ‘अनु का स्वभाव जरा अलग ढंग का है. अगर इसे आप इतना सिर पर चढ़ाएंगे तो कल ससुराल में कैसे निबाहेगी? न जाने कैसा घरपरिवार मिलेगा इसे.’

‘तुम चिंता क्यों करती हो, समय सबकुछ सिखा देता है. हम से जिद नहीं करेगी तो किस से करेगी?’ अनु के पिता ने पत्नी को समझाते हुए कहा था.

एक दिन अनन्या के मामा ने उस के लिए चंद्रशेखर का रिश्ता सुझाया तो उस के पिता सोच में पड़ गए.

‘अभी उस की उम्र ही क्या हुई है शिव बाबू, इंटर की परीक्षा ही तो दी है. इस साल आगे पढ़ने का उसे कितना चाव है.’

‘देखिए जीजाजी, इतना अच्छा रिश्ता हाथ से मत निकलने दीजिए, पुराना जमींदार घराना है. उन का वैभव देख कर भानजी के सुख की कामना से ही मैं यह रिश्ता लाया हूं. अनन्या के लिए इस से अच्छा रिश्ता नहीं मिलेगा,’ शिवप्रकाशजी ने समझाया तो अनन्या के पिता राजी हो गए.

पहली मुलाकात में ही चंद्रशेखर और उस का परिवार उन्हें अच्छा लगा था. उन्होंने बेटी को समझाते हुए कहा था, ‘चंद्रशेखर एक नेक लड़का है, तुम्हारी इच्छाओं का वह जरूर आदर करेगा.’

शादी के बाद अनन्या दुलहन बन कर ससुराल चली आई. गांव में बड़ा सा हवेलीनुमा घर, चौड़ा आंगन, लंबेलंबे बरामदे, भरापूरा परिवार, कुल मिला कर उस के मायके से ससुराल का परिवेश बिलकुल अलग था. मायके में कोई रोकटोक नहीं थी पर ससुराल में हर घड़ी लंबा घूंघट निकाले रहना पड़ता था. आएदिन बूढ़ी सास टोक दिया करतीं, ‘बहू, घड़ीघड़ी तुम्हारे सिर से आंचल क्यों सरक जाता है? ढंग से सिर ढंकना सीखो.’

चंद्रशेखर अंतर्मुखी प्रवृत्ति का इनसान था. प्रेम के एकांत पलों में भी वह मादक शब्दों के माध्यम से अपने दिल की बात कह नहीं पाता था और बचपन से ही बातबात पर प्रमाण चाहने वाली अनन्या उसे अपनी अवहेलना समझने लगी थी.

पुराना जमींदार घराना होने के कारण उस की ससुराल वाले बातबात पर खानदान की दुहाई दिया करते थे और उन के गर्व की चक्की में पिस जाती साधारण परिवार से आई अनन्या. सुनसुन कर उस के कान पक गए थे.

एक दिन अनन्या ने दुखी हो कर पति से कहा, ‘आप के जाने के बाद मैं अकेली पड़ी बोर हो जाती हूं. गांव में कहीं आनेजाने और किसी के साथ खुल कर बातें करने का तो सवाल ही नहीं उठता. मैं समय का सदुपयोग करना चाहती हूं. आप तो जानते ही हैं कि मैं ने प्रथम श्रेणी में इंटर पास किया है. मैं और आगे पढ़ना चाहती हूं, पर मुझे नहीं लगता यह संभव हो पाएगा. बातबात पर खानदान की दुहाई देने वाली मांजी, दादी मां, बाबूजी क्या मुझे आगे पढ़ने देंगे?’

चंद्रशेखर ने पत्नी की ओर गहरी नजर से देखा. पत्नी के चेहरे पर आगे पढ़ने की तीव्र लालसा को महसूस कर उस ने मन ही मन परिवार वालों से इस बारे में सलाह लेने की सोच ली.

उधर पति को चुपचाप देख कर अनन्या सोच में पड़ गई. उस के अंतर्मन की मिट्टी से पहली बार शंका की कोंपल फूटी कि यह मुझ से प्यार नहीं करते तभी तो चुप रह गए. आखिर खानदान की इज्जत का सवाल है न.

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अनन्या 2-3 दिनों तक मुंह फुलाए रही. चंद्रशेखर ने भी कुछ नहीं कहा. एक दिन आवश्यक काम से चंद्रशेखर को पटना जाना पड़ा. लौटा तो चेहरे पर एक अनजानी खुशी थी.

रात का खाना खाने के बाद चंद्रशेखर भी अपने बाबूजी के साथ टहलने चला गया. थोड़ी देर में बाबूजी का तेज स्वर गूंजा, ‘शेखर की मां, देखो, तुम्हारा लाड़ला क्या कह रहा है.’

‘क्या हुआ, क्यों आसमान सिर पर उठा रखा है?’ चंद्रशेखर की मां रसोई से बाहर आती हुई बोलीं.

‘यह कहता है कि बहू आगे पढ़ने कालिज जाएगी. विश्वविद्यालय जा कर एडमिशन फार्म ले भी आया है. कमाता है न, इसलिए मुझ से पूछने की जरूरत भी क्या है?’ ससुरजी फिर भड़क उठे थे.

‘लेकिन बाबूजी, इस में गलत क्या है?’ चंद्रशेखर ने पूछा तो मां बिदक कर बोलीं, ‘तेरा दिमाग चल गया है क्या? हमारे खानदान की बहू पढ़ने कालिज जाएगी. ऐसी कौन सी कमी है महारानी को इस घर में, जो पढ़लिख कर कमाने की सोच रही है?’

‘मां, तुम क्यों बात का बतंगड़ बना रही हो? यह तुम से किस ने कहा कि यह पढ़लिख कर नौकरी करना चाहती है? इसे आगे पढ़ने का चाव है तो क्यों न हम इसे बी.ए. में दाखिला दिलवा दें,’ चंद्रशेखर ने कहा तो अपने कमरे में परदे के पीछे सहमी सी खड़ी अनन्या को जैसे एक सहारा मिल गया.

पास ही खड़ी बड़ी भाभी मुंह बना कर बोलीं, ‘देवरजी, हम भी तो रहते हैं इस घर में, बी.ए. करो या एम.ए., आखिरकार चूल्हाचौका ही संभालना है.’

‘छोड़ो बहू, यह नहीं मानने वाला, रोज कमानेखाने वाले परिवार की बेटी ब्याह कर लाया है. छोटे लोग, छोटी सोच,’ अनन्या की सास ने कहा और भीतर चली गईं.

दरवाजे के पास खड़ी अनन्या सन्न रह गई, छोटे लोग छोटी सोच? यह क्या कह गईं मांजी? क्या अपने भविष्य के बारे में चिंतन करना छोटी सोच है? बातबात पर खानदान की दुहाई देने वाली मांजी यह क्यों भूल जाती हैं कि अच्छे खानदान की जड़ में अच्छे संस्कार होते हैं और शिक्षित इनसान ही अच्छे संस्कारों को हमेशा जीवित रखने का प्रयास करते हैं.

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Romantic Story in hindi: अर्पण- क्यों रो पड़ी थी अदिति

लेखिका- स्नेहा सिंह

आदमकद आईने के सामने खड़ी अदिती स्वयं के ही प्रतिबिंब को मुग्धभाव से निहार रही थी. उस ने कान में पहने डायमंड के इयरिंग को उंगली से हिला कर देखा. खिड़की से आ रही धूप इयरिंग से रिफ्लैक्ट हो कर उस के गाल पर पड़ रही थी, जिस से वहां इंद्रधनुष चमक रहा था. अदिती ने आईने में दिखाई देने वाले अपने प्रतिबिंब पर स्नेह से हाथ फेरा. फिर वह अचानक शरमा सी गई. इसी के साथ वह बड़बड़ाई, ‘‘वाऊ, आज तो हिमांशु मुझे जरूर कौंप्लीमैंट देगा.’’

फिर उस के मन में आया कि यदि यह बात मां सुन लेतीं, तो कहती कि हिमांशु कहती है? वह तेरा प्रोफैसर है.

‘‘सो ह्वाट?’’ अदिती ने कंधे उचकाए और आईने में स्वयं को देख कर एक बार फिर मुसकराई. अदिती शायद कुछ देर तक स्वयं को इसी तरह आईने में देखती रहती, लेकिन तभी मां की आवाज उस के कानों में पड़ी, ‘‘अदिती, खाना तैयार है.’’

‘‘आई मम्मी,’’ कह कर अदिती बाल ठीक करते हुए डाइनिंग टेबल की ओर भागी.

अदिती का यह लगभग रोज का कार्यक्रम था. प्रोफैसर साहब के यहां जाने से पहले आईने के सामने वह अपना अधिक से अधिक समय स्वयं को निहारते हुए बिताती थी. शायद आईने को भी ये सब अच्छा लगने लगा था, इसलिए वह भी अदिती को थोड़ी देर बांधे रखना चाहता था. इसीलिए तो वह उस का इतना सुंदर प्रतिबिंब दिखाता था कि अदिती स्वयं पर ही मुग्ध हो कर निहारती रहती.

आईना ही क्यों अदिती को तो जो भी देखता, देखता ही रह जाता. वह थी ही इतनी सुंदर. छरहरी, गोरी काया, बड़ीबड़ी मछली काली आंखें, घने काले लंबे रेशम जैसे बाल. वह हंसती, तो सुंदरता में चार चांद लगाने वाले उस के गालों में गड्ढे पड़ जाते थे.

उस की मम्मी उस से अकसर कहती थीं, ‘‘तू एकदम अपने पापा जैसी लगती है. एकदम उन की कार्बन कौपी.’’

इतना कहतेकहते अदिती की मम्मी की आंखें भर आतीं और वे दीवार पर लटक रही अदिती के पापा की तसवीर को देखने लगतीं. अदिती जब 2 साल की थी, तभी उस के पापा का देहांत हो गया था. अदिती को तो अपने पापा का चेहरा भी ठीक से याद नहीं था. उस की मम्मी जिस स्कूल में नौकरी करती थीं, उसी स्कूल में अदिती की पढ़ाई हुई थी. अदिती स्कूल की ड्राइंग बुक में जब भी अपने परिवार का चित्र बनाती, उस में नानानानी, मम्मी और स्वयं होती थी. अदिती के लिए उस का इतना ही परिवार था.

अदिती के लिए पापा यानी घर दीवार पर लटकती तसवीर से अधिक कुछ नहीं थे. कभी मम्मी की आंखों से पानी बन कर बहते, तो कभी अलबम के ब्लैक ऐंड ह्वाइट तसवीर में स्वयं की गोद में उठाए खड़ा पुरुष यानी पापा. अदिती की क्लासमेट अकसर अपनेअपने पापा के बारे में बातें करतीं.

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टैलीविजन के विज्ञापनों में पापा के बारे में देख कर अदिती शुरूशुरू में कच्ची उम्र में पापा को मिस करती थी, परंतु धीरेधीरे उस ने मान लिया कि उस के घर में 2 स्त्रियां वह और उस की मम्मी रहती हैं और आगे भी वही दोनों रहेंगी.

बिना बाप की छत्रछाया में पलीबढ़ी अदिती कालेज की अपनी पढ़ाई पूरी कर के कब कमाने लगी, उसे पता ही नहीं चला. वह फाइनल ईयर में पढ़ रही थी, तभी वह अपने एक प्रोफैसर हिमांशु के यहां पार्टटाइम नौकरी करने लगी थी.

डा. हिमांशु एक जानेमाने साहित्यकार थे. यूनिवर्सिटी में हैड औफ डिपार्टमैंट. अदिती इकौनोमिक ले कर बीए करना चाहती थी. परंतु हिमांशु का लैक्चर सुनने के बाद उस ने हिंदी को अपना मुख्य विषय चुना था. डा. हिमांशु अदिती में व्यक्तिगत रुचि लेने लगे थे. उसे नईनई पुस्तकें सजैस्ट करते, किसी पत्रिका में कुछ छपा होता, तो पेज नंबर सहित रैफरैंस देते. यूनिवर्सिटी की ओर से प्रमोट कर के 1-2 य्ेमिनारों में भी अदिती को भेजा था. अदिती डा. हिमांशु की हर परीक्षा में प्रथम आने के लिए कटिबद्ध रहती थी. इसीलिए डा. हिमांशु० अदिती से हमेशा कहते थे कि वे उस में बहुत कुछ देख रहे हैं. वह जीवन में जरूर कुछ बनेगी.

डा. हिमांशु जब भी अदिती से यह कहते, तो कुछ बनने की लालसा अदिती में जोर मारने लगती. उन्होंने अदिती को अपनी लाइब्रेरी में पार्टटाइम नौकरी दे रखी थी. डा हिमांशु जानेमाने नाट्यकार, उपन्यासकार और कहानीकार थे. उन की हिंदी की तमाम पुस्तकें पाठ्यक्रम में लगी हुई थीं. उन का लैक्चर सुनने और मिलने वालों की भीड़ लगी रहती थी. वे यूनिवर्सिटी से घर आते, तो रात 10 बजे तक उन से मिलने वालों की लाइन लगी रहती. नवोदित लेखकों से ले कर नाट्य जगत, साहित्य जगत और फिल्मी दुनिया के लोग भी उन से मिलने आते थे.

अदिती यूनिवर्सिटी में डा. हिमांशु को मात्र अपने प्रोफैसर के रूप में जानती थी. डा. हिमांशु पूरी क्लास को मंत्रमुग्ध कर देते हैं, यह भी उसे पता था. उसी क्लास में अदिती भी तो थी. अदिती डा. हिमांशु की क्लास कभी नहीं छोड़ती थी.

लंबे, स्मार्ट, सुदृढ़ शरीर वाले डा. हिमांशु की आंखों में एक अजीब सा तेज था. सामान्य रूप से वे हलके रंग की शर्ट और ब्लू डैनिम पहनने वाले डा. हिमांशु पढ़ने के लिए सुनहरे फ्रेम वाला चश्मा पहनते, तो अदिती मुग्ध हो कर उन्हें ताकती ही रह जाती. जब वे अदिती के नोट्स या पेपर्स की तारीफ करते, तो उस दिन अदिती हवा में उड़ने लगती.

फाइनल ईयर में जब डा. हिमांशु की क्लास खत्म होने वाली थी, तो एक दिन प्रोफैसर साहब ने उसे मिलने के लिए डिपार्टमैंट में बुलाया.

अदिती उन के कक्ष में पहुंची, तो उन्होंने कहा, ‘‘अदिती मैं देख रहा हूं कि इधर तुम्हारा ध्यान पढ़ाई में नहीं लग रहा है. तुम अकसर मेरी क्लास से गायब रहती हो. पहले 2 सालों में तुम फर्स्ट क्लास आई हो. यदि तुम्हारा यही हाल रहा, तो इस साल तुम पिछले दोनों सालों की मेहनत पर पानी फेर दोगी.’’

अदिती कोई भी जवाब देने के बजाय रो पड़ी.

डा. हिमांशु अपनी कुरसी से उठ कर अदिती के पास आ कर खड़े हो गए. उन्होंने अपना एक हाथ अदिती के कंधे पर रख दिया. उन के हाथ रखते ही अदिती को लगा, जैसे वह हिमालय के हिमाच्छादित शिखर के सामने खड़ी है. उस के कानों में घंटियों की आवाजें गूंजने लगी थीं.

‘‘तुम्हें किसी से प्रेम हो गया है क्या?’’ प्रोफैसर हिमांशु ने पूछा.

अदिती ने रोतेरोते गरदन हिला कर इनकार कर दिया.

‘‘तो फिर?’’

‘‘सर मैं नौकरी करती हूं. इसलिए पढ़ने के लिए समय कम मिलता है.’’

‘‘क्यों?’’ डा. हिमांशु ने आश्चर्य से कहा, ‘‘शायद तुम्हें शिक्षा के महत्त्व का पता नहीं है. शिक्षा केवल कमाई का साधन ही नहीं है. शिक्षा संस्कार, जीवनशैली और हमारी परंपरा है. कमाने के चक्कर में तुम्हारी पढ़ाई में रुचि खत्म हो गई है. इस तरह मैं ने तमाम विद्यार्थियों की जिंदगी बरबाद होते देखी है.’’

‘‘सर…’’ अदिती ने हिचकी लेते हए कहा, ‘‘मैं पढ़ना चाहती हूं, इसीलिए तो नौकरी करती हूं.’’

डा. हिमांशु ने अदिती के सिर पर हाथ रख कर कहा, ‘‘आई एम सौरी… मुझे पता नहीं था.’’

‘‘इट्स ओके सर.’’

‘‘क्या काम करती हो?’’

‘एक वकील के औफिस में टाइपिस्ट हूं.’’

‘‘मैं नई किताब लिख रहा हूं. मेरी रिसर्च असिस्टैंट के रूप में काम करोगी?’’ डा. हिमांशु ने पूछा तो अदिती ने आंसू पोंछते हुए ‘हां’ में गरदन हिला दी.

उसी दिन से अदिती डा. हिमांशु की रिसर्च असिस्टैंट के रूप में काम करने लगी.  इस बात को आज 2 साल य्हो गए हैं. अदिती ग्रेजुएट हो गयी है. वह फर्स्ट क्लास फर्स्ट आई थी यूनिवर्सिटी में. डा. हिमांशु एक किताब खत्म होते ही अगली पर काम शुरू कर देते. इस तरह अदिती का काम चलता रहा. अदिती ने एमए में एडमीशन ले लिया था.

डा. हिमांशु अकसर उस से कहते, ‘‘अदिती, तुम्हें पीएचडी करनी है. मैं तुम्हारे नाम के आगे डाक्टर लिखा देखना चाहता हूं.’’

फिर तो कभीकभी अदिती बैठी पढ़ रही होती, तो कागज पर लिख देती, डा. अदिती हिमांशु. फिर शरमा कर उस कागज पर इतनी लाइनें खींचती कि वह नाम पढ़ने में न आता. परंतु बारबार कागज पर लिखने की वजह से यह नाम अदिती के हृदय में इस तरह रचबस गया कि वह एक भी दिन डा. हिमांशु को न देखती, तो उस का समय काटना मुश्किल हो जाता.

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पिछले 2 सालों में अदिती डा. हिमांशु के घर का एक हिस्सा बन गई थी. सुबह घंटे डेढ़ घंटे डा. हिमांशु के घर काम कर के वह उन के साथ यूनिवर्सिटी जाती. फिर 5 बजे उन के साथ ही उन के घर आती, तो उसे अपने घर जाने में अकसर रात के 8-9 बज जाते. कभीकभी तो 10 भी बज जाते. डा. हिमांशु मूड के हिसाब से काम करते थे. अदिती को भी कभी घर जाने की जल्दी नहीं होती थी. वह तो डा. हिमांशु के साथ अधिक से अधिक समय बिताने का बहाना ढूंढ़ती रहती थी.

इन 2 सालों में अदिती ने देखा था कि डा. हिमांशु को जानने वाले तमाम लोग थे. उन से मिलने भी तमाम लोग आते थे. अपना काम कराने और सलाह लेने वालों की भी कमी नहीं थी. फिर डा. हिमांशु एकदम अकेले थे. घर से यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी से घर… यही उन की दिनचर्या थी.

वे कहीं बाहर जाना या किसी गोष्ठी में भाग लेना पसंद नहीं करते थे. बड़ी मजबूरी में ही वे

किसी समारोह में भाग लेने जाते थे. अदिती को ये सब बड़ा आश्चर्यजनक लगता था क्योंकि डा. हिमांशु का लैक्चर सुनने के लिए अन्य यूनिवर्सिटी के स्टूडैंट आते थे, जबकि वे पढ़ाई के अलावा किसी से भी कोई फालतू बात नहीं करते थे.

अदिती उन के साथ लगभग रोज ही गाड़ी से आतीजाती थी. परंतु इस आनेजाने में शायद ही कभी उन्होंने उस से कुछ कहा हो. दिन के इतने घंटे साथ बिताने के बावजूद डा. हिमांशु ने काम के अलावा कोई भी बात अदिती से नहीं की थी. अदिती कुछ कहती, तो वे चुपचाप सुन लेते. मुसकराते हुए उस की ओर देख कर उसे यह आभास करा देते कि उन्होंने उस की बात सुन ली है.

किसी बड़े समारोह या कहीं से डा. हिमांशु वापस आते, तो अदिती बड़े ही अहोभाव से उन्हें देखती रहती. उन की शाल ठीक करने के बहाने, फूल या किताब लेने के बहाने, अदिती उन्हें स्पर्श कर लेती. टेबल के सामने डा. हिमांशु बैठ कर लिख रहे होते, तो अदिती उन के पैर में अपना पैर स्पर्श करा कर संवेदना जगाने का प्रयास करती.

डा. हिमांशु भी उस की नजरों और हावभाव से उस के मन की बात जान गए थे. फिर भी उन्होंने अदिती से कभी कुछ नहीं कहा. अब तक अदिती का एमए हो गया था. वह डा. हिमांशु के अंडर ही रिसर्च कर रही थी. उस की थिसिस भी अलग तैयार ही थी.

अदिती को भी आभास हो गया था कि डा. हिमांशु उस के मन की बात जान गए हैं. फिर भी वे ऐसा व्यवहार करते हैं, जैसे उन्हें कुछ पता ही न हो. डा. हिमांशु के प्रति अदिती का आकर्षण धीरेधीरे बढ़ता ही जा रहा था. आईने के सामने खड़ी स्वयं को निहार रही अदिती ने निश्चय कर लिया था कि आज वह डा. हिमांशु से अपने मन की बात अवश्य कह देगी. फिर वह मन ही मन बड़बड़ाई कि प्रेम करना कोई अपराध नहीं है. प्रेम की कोई उम्र भी नहीं होती.

इसी निश्चय के साथ अदिती डा. हिमांशु के घर पहुंची. वे लाइब्रेरी में बैठे थे. अदिती उन के सामने रखी रैक से टिक कर खड़ी हो गई. उस की आंखों से आंसू बरसने की तैयारी में थे. उन्होंने अदिती को देखते ही कहा, ‘‘अदिती बुरा मत मानना, मेरे डिपार्टमैंट में प्रवक्ता की जगह खाली है. सरकारी नौकरी है. मैं ने कमेटी के सभी सदस्यों से बात कर ली है. तुम अपनी तैयारी कर लो. तुम्हारा इंटरव्यू फौर्मल ही होगा.’’

‘‘परंतु मुझे यह नौकरी नहीं करनी है,’’ अदिती ने यह बात थोड़ी ऊंची आवाज में कही. उस की आंखों में आंसू भर आए थे.

डा. हिमांशु ने मुंह फेर कर कहा, ‘‘अदिती, अब तुम्हारे लिए हमारे यहां काम नहीं है.’’

‘‘सचमुच?’’ अदिती ने उन के एकदम नजदीक जा कर पूछा.

‘‘हां, सचमुच,’’ अदिती की ओर देखे बगैर बड़े ही मृदु और धीमी आवाज में डा. हिमांशु ने कहा, ‘‘अदिती वहां वेतन बहुत अच्छा मिलेगा.’’

‘‘मैं वेतन के लिए नौकरी नहीं करती?’’ अदिती और भी ऊंची आवाज में बोली, ‘‘सर, आप ने मुझे कभी समझ ही नहीं.’’

डा. हिमांशु कुछ कहते, उस के पहले ही अदिती उन के एकदम करीब पहुंच गई. दोनों के बीच अब मात्र हथेली भर की दूरी रह गई थी. उस ने डा. हिमांशु की आंखों में आंखें डाल कर कहा, ‘‘सर, मैं जानती हूं, आप सबकुछ जानतेसमझते हैं… प्लीज इनकार मत कीजिएगा.’’

अदिती की आंखों के आंसू आंखों से निकल कर उस के कपोलों को भिगोते हुए नीचे तक बह गए थे. वह कांपते स्वर में बोली, ‘‘आप के यहां काम नहीं है? इस अधूरी पुस्तक को कौन पूरा करेगा? जरा बताइए तो चार्ली चैपलिन की आत्मकथा कहां रखी है? बायर की कविताएं कहां हैं? विष्णु प्रभाकर या अमरकांत की नई किताबें कहां रखी हैं?’’

डा. हिमांशु चुपचाप अदिती की बातें सुन रहे थे. उन्होंने दोनों हाथ बढ़ा कर अदिती के गालों के आंसू पोंछे और एक लंबी सांस ले कर कहा, ‘‘तुम्हारे आने के पहले मैं किताबें ही खोज रहा था. तुम नहीं रहोगी, तो भी मैं किताबें ढूंढ़ लूंगा.’’

अदिती को लगा कि उन की आवाज यह कहने में कांप रही है.

उन्होंने आगे कहा, ‘‘इंसान पूरी जिंदगी ढूंढ़ता रहे, तो भी शायद उसे न मिले और यदि मिले भी, तो इंसान ढूंढ़ता रहे. उसे फिर भी प्राप्त न हो सके ऐसा भी हो सकता है.’’

‘‘जो अपना हो, उस का तिरस्कार कर के,’’ इतना कह कर अदिती दो कदम पीछे हटी और चेहरे को दोनों हाथों में छिपा कर रोने लगी. फिर लगभग चीखते हुए बोली, ‘‘क्यों?’’

डा. हिमांशु ने थोड़ी देर तक अदिती को रोने दिया. फिर उस के नजदीक जा कर कालेज में पहली बार जिस सहानुभूति से उस के कंधे पर हाथ रखा था, उसी तरह उस के कंधे पर हाथ रखा. अदिती को फिर एक बार लगा कि हिमालय के शिखरों की ठंडक उस के सीने में समा गई है. कानों में घंटियां बजने लगीं. उस ने स्नेहिल नजरों से डा. हिमांशु को देखा. फिर आगे बढ़ कर अपनी दोनों हथेलियों में उन के चेहरे को भर कर चूम लिया.

फिर वह डा. हिमांशु से लिपट गई. वह इंतजार करती रही कि उन की बांहें उस के इर्दगिर्द लिपटेंगी. परंतु ऐसा नहीं हुआ. उस ने डा. हिमांशु की ओर देखा. वे चुपचाप बिना किसी प्रतिभाव के आंखें फाड़े उसे ताक रहे थे. उन का चेहरा शांत, स्थितप्रज्ञ और निर्विकार था.

‘‘आप मुझ से प्यार नहीं करते?’’

डा. हिमांशु मात्र उसे देखते रहे.

‘‘मैं आप के लायक नहीं हूं?’’

डा. हिमांशु के होंठ कांपे, पर शब्द नहीं निकले.

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‘‘मैं अंतिम बार पूछती हूं,’’ अदिती की आवाज के साथ उस का शरीर भी कांप रहा था. स्त्री हो कर स्वयं को समर्पित कर देने के बाद भी पुरुष के इस तिरस्कार ने उस के पूरे अस्तित्व को हिला कर रख दिया था. उस की आंखों से आंसुओं की जलधारा बह रही थी.

एक लंबी सांस ले कर वह बोली, ‘‘मैं पूछती हूं, आप मुझे प्यार करते हैं या नहीं या फिर मैं आप के लिए केवल एक तेजस्विनी विद्यार्थिनी से अधिक कुछ नहीं हूं,’’ फिर उन की कालर पकड़ कर झकझरते हुए बोली, ‘‘सर, मुझे अपनी बातों के जवाब चाहिए.’’

डा. हिमांशु उसी तरह जड़ बने थे. अदिती ने लगभग धक्का मार कर उन्हें छोड़ दिया. रोते हुए वह उन्हें अपलक ताक रही थी. उस ने दोनों हाथों से आंसू पोंछे. पलभर में ही उस का हावभाव बदल गया. उस का चेहरा सख्त हो गया. उस की आंखों में घायल बाघिन का जनून आ गया था. उस ने चीखते हुए कहा, ‘‘मुझे इस बात का हमेशा पश्चात्ताप रहेगा कि मैं ने एक ऐसे आदमी से प्यार किया, जिस में प्यार को स्वीकार करने की ताकत ही नहीं है. मैं तो समझती थी कि आप मेरे आदर्श हैं, समर्थ्यवान हैं, परंतु आप में एक स्त्री को सम्मान के साथ स्वीकार करने की हिम्मत ही नहीं है.

‘‘जीवन में यदि कभी समझ में आए कि मैं ने आप को क्या दिया है, तो उसे स्वीकार कर लेना. जिस तरह हो सके, उस तरह क्योंकि आज के आप के तिरस्कार ने मुझे छिन्नभिन्न कर दिया है. जो टीस आप ने मुझे दी है, हो सके तो उसे दूर कर देना क्योंकि इस टीस के साथ जीया नहीं जा सकता,’’ इतना कह कर अदिती तेजी से पलटी और बाहर निकल गई. उस ने एक बार भी पलट कर नहीं देखा.

कुछ दिनों बाद अदिती अखबार पढ़ रही थी, तो अखबार में छपी एक सूचना पर उस

की नजर अटक गई. सूचना थी ‘प्रसिद्ध साहित्यकार, यूनिवर्सिटी के हैड आफ दि डिपार्टमैंट डा. हिमांशु की हृदयगति रुकने से मृत्यु हो गई है उन का…’

अदिती ने इतना पढ़ कर पन्ना पलट दिया. रोने का मन तो हुआ, लेकिन जी कड़ा कर के उसे रोक दिया. अगले दिन अखबार में डा. हिमांशु के बारे में 3-4 लेख छपे थे, परंतु अदिती ने उन्हें पढ़े बगैर ही उस पन्ने को पलट दिया.

इस के 4 दिन बाद ही पाठ्य पुस्तक मंडल की ओर से ब्राउन पेपर में लिपटा एक पार्सल अदिती को मिला. भेजने वाले का नाम उस पर नहीं था. अदिती ने जल्दीजल्दी उस पैकेट को खोला तो उस में वही पुस्तक थी, जिसे वह अधूरी छोड़ आई थी. अदिती ने प्यार से उस पुस्तक पर हाथ फेरा. लेखक का नाम पढ़ा. उस ने पहला पन्ना खोला, किताब के नाम आदि की जानकारी… दूसरा पन्ना खोला…

‘‘‘अर्पण…’ मेरे जीवन की एकमात्र स्त्री को, जिसे मैं ने हृदय से चाहा, फिर भी उसे कुछ दे न सका. यदि वह मेरी एक पल की कमजोरी को माफ कर सके, तो मेरी इस पुस्तक को अवश्य स्वीकार कर लेना.’’

उस किताब को सीने से लगाने के साथ ही अदिती एकदम से फफक कर रो पड़ी. पूरा औफिस एकदम से चौंक पड़ा. सभी उठ कर उस के पास आ गए. हरकोई एक ही बात पूछ रहा था, ‘‘क्या हुआ अदिती? क्या हुआ?’’

रोते हुए अदिती मात्र गरदन हिला रही थी. उसे खुद पता नहीं था कि उसे क्या हुआ.

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Romantic Story In Hindi: प्रेम लहर की मौत

Romantic Story In Hindi: प्रेम लहर की मौत- भाग 1

लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह 

लड़की मेरे सामने वाली विंडो सीट पर बैठी थी. जबकि लड़का खिड़की की रौड पकड़कर प्लेटफार्म पर खड़ा था. दोनों मूकदृष्टि से एकदूसरे को देख रहे थे. लड़की अपने दाहिने हाथ की सब से छोटी अंगुली से लड़के के हाथ को बारबार छू रही थी, मानों उसे महसूस करना चाहती हो. दोनों में कोई भी कुछ नहीं बोल रहा था. बस, अपलक एकदूसरे को ताके जा रहे थे. ट्रेन का हार्न बजा. धक्के के साथ ट्रेन खिसकी तो दोनों एक साथ बोल पड़े, ‘‘बाय…’’ और इसी के साथ लड़की की आंखों में आंसू छलक आए.

  ‘‘टेक केयर. संभल कर जाना.’’ लड़के ने कहा.

लड़की ने सिर्फ हांमें सिर हिला दिया. आंखों से ओझल होने तक दोनों की नजरें एकदूसरे पर ही टिकी रहीं. जहां तक दिखाई देता रहा, दोनों एकदूसरे को देखते रहे. न चाहते हुए भी मैं उन दोनों के व्यक्तिगत पलों को अनचाहा साझेदार बन कर देखता रहा. लड़की अभी भी खिड़की से बाहर की ओर ही ताक रही थी. मैं अनुभव कर रहा था कि वह आंखों के कोनों में उतर आए आसुंओं को रोकने का निरर्थक प्रयास कर रही है.

मुझ से रहा नहीं गया, मैं ने बैग से पानी की बोतल निकाल कर उस की ओर बढ़ाई. उस ने इनकार में सिर हिलाते हुए धीरे से थैंक्सकहा. इस के बाद वक्त गुजारने के लिए मैं मोबाइल में मन लगाने की कोशिश करने लगा. पता नहीं क्यों, उस समय मोबाइल की अपेक्षा सामने बैठी लड़की ज्यादा आकर्षित कर रही थी.

मोबाइल मेरे हाथ में था, पर न तो फेसबुक खोलने का मन हो रहा था. न किसी दोस्त से चैट करने में मन लगा. मेरा पूरा ध्यान उस लड़की पर था.

खिड़की से आने वाली हवा की वजह से उस के बालों की लटें उस के गालों को चूम रही थीं. वह बहुत सुंदर या अप्सरा जैसा सम्मोहन रखने वाली तो नहीं थी, फिर भी उस में ऐसा तो कुछ था कि उस पर से नजर हटाने का मन नहीं हो रहा था.

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आंखों में दर्द लिए मध्यम कदकाठी की वह लड़की सादगी भरे हलके गुलाबी और आसमानी सलवार सूट में बहुत सुंदर लग रही थी. उस ने अपना एक हाथ खिड़की पर टिका रखा था और दूसरे हाथ की अंगुली में अपने लंबे काले घुंघराले बालों को अंगूठी की तरह ऐसे लपेट और छोड़ रही थी, जैसे मन की किसी गुत्थी को सुलझाने का प्रयास कर रही हो.

कोई जानपहचान न होने के बावजूद ऐसा लग रहा था, जैसे वह मेरी अच्छी परिचित हो. शायद इसीलिए मुझ से रहा नहीं गया और मैं ने उस से पूछ लिया, ‘‘लगता है, आप ने अपने किसी बहुत करीबी को खोया है, कोई अप्रिय घटना घटी है क्या आप के साथ?’’

बाहर की ओर से नजर फेर कर उस ने मेरी ओर देख कर कहा, ‘‘हां, अकाल बाल मृत्यु हुई है, इस के बाद धीरे से बोली, ‘‘मेरे प्रेम की.’’

उस के ये शब्द मुझे अंदर तक स्पर्श कर गए थे. उस ने जो कुछ कहा वह मेरी समझ में नहीं आया था. इसलिए मैं ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘क्याऽऽ?’’

  ‘‘अकाल बाल मृत्यु हुई है मेरे प्यार की.’’ उस ने फिर वही बात कही. और इसी के साथ उस की आंखों से आंसू छलक कर गालों पर आ गए. उस ने अश्रुबिंदु को अंगुली पर लिया और खिड़की के बाहर उड़ा दिया.

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मैं ने खुद को रोकने का काफी प्रयास किया, पर मुझ से रहा नहीं गया और मैं ने अंत में पूछ ही लिया, ‘‘आप का क्या नाम है?’’

उस ने मेरी ओर देख कर बेफिक्री से कहा, ‘‘क्या करेंगे मेरा नाम जान कर? वैसे असीम मुझे अनु कहता था.’’

  ‘‘मैं आप की कोई मदद…?’’ मैं ने बात को आगे बढ़ाने की कोशिश में पूछा, पर मेरी बात पूरी होने के पहले ही वह बीच में बोल पड़ी, ‘‘मेरी मदद…? शायद अब कोई भी मेरी मदद नहीं कर सकता.’’

  ‘‘पर इस तरह आप यह दर्द कब तक सहन करती रहेंगी? मैं अजनबी हूं, पर आप चाहें तो अपना दर्द मुझे बता सकती हैं. कहते हैं दर्द बयां कर देने से कम हो जाता है.’’ मैं ने कहा.

वह भी शायद हृदय का दर्द कम करना चाहती थी, इसलिए उस ने बताना शुरू किया, ‘‘मैं और वैभवी रूममेट थीं. दोनों नौकरी करती थीं और पीजी में रहती थीं. असीम निकी का दोस्त था. दोस्त भी ऐसावैसा नहीं, खास दोस्त. दोनों की फोन पर लंबीलंबी बातें होती थीं. एक दिन शाम को निकी कमरे में नहीं थी, पर उस का मोबाइल कमरे में ही पड़ा था, तभी उस के फोन की घंटी बजी. मैं ने फोन रिसीव कर लिया. असीम से वह मेरी पहली और औपचारिक बातचीत थी.

  ‘‘हम दोनों एकदूसरे से परिचित थे. यह अलग बात थी कि हमारी बातचीत कभी नहीं हुई थी. निकी मुझ से असीम की बातें करती रहती थी तो असीम से मेरी. इस तरह हम दोनों एकदूसरे से परिचित तो थे ही. यही वजह थी कि पहली बातचीत में ही हम घुलमिल गए थे. हम दोनों ने मोबाइल नंबर भी शेयर कर लिए थे.

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  ‘‘इस के बाद फोन पर बातचीत और मैसेज्स का सिलसिला चल निकला था. औफिस की, घर की, दोस्ती की, पसंदनापसंद, फिल्में, हौबी हमारी बातें शुरू होतीं तो खत्म ही नहीं होती थीं. मुझे लिखने का शौक था और असीम को पढ़ने का शौक. मैं कविता या कहानी, कुछ भी लिखती, असीम को अवश्य सुनाती और उस से चर्चा करती.

  ‘‘हम लगभग सभी बातें शेयर करते. हमारी मित्रता में औरत या मर्द का बंधन कभी आड़े नहीं आया. इस तरह हम कब आपसे तुमपर आ गए और कब एकदूसरे के प्रेम में डूब गए. पता ही नहीं चला. फिर भी हम ने कभी अपने प्रेम को व्यक्त नहीं किया. जबकि हम दोनों ही जानते थे लेकिन दोनों में से किसी ने पहल नहीं की.

आगे पढ़ें- हम दोनों के इस प्यार की मूक साक्षी थी निकी…

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