लेखिका- स्नेहा सिंह
आदमकद आईने के सामने खड़ी अदिती स्वयं के ही प्रतिबिंब को मुग्धभाव से निहार रही थी. उस ने कान में पहने डायमंड के इयरिंग को उंगली से हिला कर देखा. खिड़की से आ रही धूप इयरिंग से रिफ्लैक्ट हो कर उस के गाल पर पड़ रही थी, जिस से वहां इंद्रधनुष चमक रहा था. अदिती ने आईने में दिखाई देने वाले अपने प्रतिबिंब पर स्नेह से हाथ फेरा. फिर वह अचानक शरमा सी गई. इसी के साथ वह बड़बड़ाई, ‘‘वाऊ, आज तो हिमांशु मुझे जरूर कौंप्लीमैंट देगा.’’
फिर उस के मन में आया कि यदि यह बात मां सुन लेतीं, तो कहती कि हिमांशु कहती है? वह तेरा प्रोफैसर है.
‘‘सो ह्वाट?’’ अदिती ने कंधे उचकाए और आईने में स्वयं को देख कर एक बार फिर मुसकराई. अदिती शायद कुछ देर तक स्वयं को इसी तरह आईने में देखती रहती, लेकिन तभी मां की आवाज उस के कानों में पड़ी, ‘‘अदिती, खाना तैयार है.’’
‘‘आई मम्मी,’’ कह कर अदिती बाल ठीक करते हुए डाइनिंग टेबल की ओर भागी.
अदिती का यह लगभग रोज का कार्यक्रम था. प्रोफैसर साहब के यहां जाने से पहले आईने के सामने वह अपना अधिक से अधिक समय स्वयं को निहारते हुए बिताती थी. शायद आईने को भी ये सब अच्छा लगने लगा था, इसलिए वह भी अदिती को थोड़ी देर बांधे रखना चाहता था. इसीलिए तो वह उस का इतना सुंदर प्रतिबिंब दिखाता था कि अदिती स्वयं पर ही मुग्ध हो कर निहारती रहती.
आईना ही क्यों अदिती को तो जो भी देखता, देखता ही रह जाता. वह थी ही इतनी सुंदर. छरहरी, गोरी काया, बड़ीबड़ी मछली काली आंखें, घने काले लंबे रेशम जैसे बाल. वह हंसती, तो सुंदरता में चार चांद लगाने वाले उस के गालों में गड्ढे पड़ जाते थे.
उस की मम्मी उस से अकसर कहती थीं, ‘‘तू एकदम अपने पापा जैसी लगती है. एकदम उन की कार्बन कौपी.’’
इतना कहतेकहते अदिती की मम्मी की आंखें भर आतीं और वे दीवार पर लटक रही अदिती के पापा की तसवीर को देखने लगतीं. अदिती जब 2 साल की थी, तभी उस के पापा का देहांत हो गया था. अदिती को तो अपने पापा का चेहरा भी ठीक से याद नहीं था. उस की मम्मी जिस स्कूल में नौकरी करती थीं, उसी स्कूल में अदिती की पढ़ाई हुई थी. अदिती स्कूल की ड्राइंग बुक में जब भी अपने परिवार का चित्र बनाती, उस में नानानानी, मम्मी और स्वयं होती थी. अदिती के लिए उस का इतना ही परिवार था.
अदिती के लिए पापा यानी घर दीवार पर लटकती तसवीर से अधिक कुछ नहीं थे. कभी मम्मी की आंखों से पानी बन कर बहते, तो कभी अलबम के ब्लैक ऐंड ह्वाइट तसवीर में स्वयं की गोद में उठाए खड़ा पुरुष यानी पापा. अदिती की क्लासमेट अकसर अपनेअपने पापा के बारे में बातें करतीं.
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टैलीविजन के विज्ञापनों में पापा के बारे में देख कर अदिती शुरूशुरू में कच्ची उम्र में पापा को मिस करती थी, परंतु धीरेधीरे उस ने मान लिया कि उस के घर में 2 स्त्रियां वह और उस की मम्मी रहती हैं और आगे भी वही दोनों रहेंगी.
बिना बाप की छत्रछाया में पलीबढ़ी अदिती कालेज की अपनी पढ़ाई पूरी कर के कब कमाने लगी, उसे पता ही नहीं चला. वह फाइनल ईयर में पढ़ रही थी, तभी वह अपने एक प्रोफैसर हिमांशु के यहां पार्टटाइम नौकरी करने लगी थी.
डा. हिमांशु एक जानेमाने साहित्यकार थे. यूनिवर्सिटी में हैड औफ डिपार्टमैंट. अदिती इकौनोमिक ले कर बीए करना चाहती थी. परंतु हिमांशु का लैक्चर सुनने के बाद उस ने हिंदी को अपना मुख्य विषय चुना था. डा. हिमांशु अदिती में व्यक्तिगत रुचि लेने लगे थे. उसे नईनई पुस्तकें सजैस्ट करते, किसी पत्रिका में कुछ छपा होता, तो पेज नंबर सहित रैफरैंस देते. यूनिवर्सिटी की ओर से प्रमोट कर के 1-2 य्ेमिनारों में भी अदिती को भेजा था. अदिती डा. हिमांशु की हर परीक्षा में प्रथम आने के लिए कटिबद्ध रहती थी. इसीलिए डा. हिमांशु० अदिती से हमेशा कहते थे कि वे उस में बहुत कुछ देख रहे हैं. वह जीवन में जरूर कुछ बनेगी.
डा. हिमांशु जब भी अदिती से यह कहते, तो कुछ बनने की लालसा अदिती में जोर मारने लगती. उन्होंने अदिती को अपनी लाइब्रेरी में पार्टटाइम नौकरी दे रखी थी. डा हिमांशु जानेमाने नाट्यकार, उपन्यासकार और कहानीकार थे. उन की हिंदी की तमाम पुस्तकें पाठ्यक्रम में लगी हुई थीं. उन का लैक्चर सुनने और मिलने वालों की भीड़ लगी रहती थी. वे यूनिवर्सिटी से घर आते, तो रात 10 बजे तक उन से मिलने वालों की लाइन लगी रहती. नवोदित लेखकों से ले कर नाट्य जगत, साहित्य जगत और फिल्मी दुनिया के लोग भी उन से मिलने आते थे.
अदिती यूनिवर्सिटी में डा. हिमांशु को मात्र अपने प्रोफैसर के रूप में जानती थी. डा. हिमांशु पूरी क्लास को मंत्रमुग्ध कर देते हैं, यह भी उसे पता था. उसी क्लास में अदिती भी तो थी. अदिती डा. हिमांशु की क्लास कभी नहीं छोड़ती थी.
लंबे, स्मार्ट, सुदृढ़ शरीर वाले डा. हिमांशु की आंखों में एक अजीब सा तेज था. सामान्य रूप से वे हलके रंग की शर्ट और ब्लू डैनिम पहनने वाले डा. हिमांशु पढ़ने के लिए सुनहरे फ्रेम वाला चश्मा पहनते, तो अदिती मुग्ध हो कर उन्हें ताकती ही रह जाती. जब वे अदिती के नोट्स या पेपर्स की तारीफ करते, तो उस दिन अदिती हवा में उड़ने लगती.
फाइनल ईयर में जब डा. हिमांशु की क्लास खत्म होने वाली थी, तो एक दिन प्रोफैसर साहब ने उसे मिलने के लिए डिपार्टमैंट में बुलाया.
अदिती उन के कक्ष में पहुंची, तो उन्होंने कहा, ‘‘अदिती मैं देख रहा हूं कि इधर तुम्हारा ध्यान पढ़ाई में नहीं लग रहा है. तुम अकसर मेरी क्लास से गायब रहती हो. पहले 2 सालों में तुम फर्स्ट क्लास आई हो. यदि तुम्हारा यही हाल रहा, तो इस साल तुम पिछले दोनों सालों की मेहनत पर पानी फेर दोगी.’’
अदिती कोई भी जवाब देने के बजाय रो पड़ी.
डा. हिमांशु अपनी कुरसी से उठ कर अदिती के पास आ कर खड़े हो गए. उन्होंने अपना एक हाथ अदिती के कंधे पर रख दिया. उन के हाथ रखते ही अदिती को लगा, जैसे वह हिमालय के हिमाच्छादित शिखर के सामने खड़ी है. उस के कानों में घंटियों की आवाजें गूंजने लगी थीं.
‘‘तुम्हें किसी से प्रेम हो गया है क्या?’’ प्रोफैसर हिमांशु ने पूछा.
अदिती ने रोतेरोते गरदन हिला कर इनकार कर दिया.
‘‘तो फिर?’’
‘‘सर मैं नौकरी करती हूं. इसलिए पढ़ने के लिए समय कम मिलता है.’’
‘‘क्यों?’’ डा. हिमांशु ने आश्चर्य से कहा, ‘‘शायद तुम्हें शिक्षा के महत्त्व का पता नहीं है. शिक्षा केवल कमाई का साधन ही नहीं है. शिक्षा संस्कार, जीवनशैली और हमारी परंपरा है. कमाने के चक्कर में तुम्हारी पढ़ाई में रुचि खत्म हो गई है. इस तरह मैं ने तमाम विद्यार्थियों की जिंदगी बरबाद होते देखी है.’’
‘‘सर…’’ अदिती ने हिचकी लेते हए कहा, ‘‘मैं पढ़ना चाहती हूं, इसीलिए तो नौकरी करती हूं.’’
डा. हिमांशु ने अदिती के सिर पर हाथ रख कर कहा, ‘‘आई एम सौरी… मुझे पता नहीं था.’’
‘‘इट्स ओके सर.’’
‘‘क्या काम करती हो?’’
‘एक वकील के औफिस में टाइपिस्ट हूं.’’
‘‘मैं नई किताब लिख रहा हूं. मेरी रिसर्च असिस्टैंट के रूप में काम करोगी?’’ डा. हिमांशु ने पूछा तो अदिती ने आंसू पोंछते हुए ‘हां’ में गरदन हिला दी.
उसी दिन से अदिती डा. हिमांशु की रिसर्च असिस्टैंट के रूप में काम करने लगी. इस बात को आज 2 साल य्हो गए हैं. अदिती ग्रेजुएट हो गयी है. वह फर्स्ट क्लास फर्स्ट आई थी यूनिवर्सिटी में. डा. हिमांशु एक किताब खत्म होते ही अगली पर काम शुरू कर देते. इस तरह अदिती का काम चलता रहा. अदिती ने एमए में एडमीशन ले लिया था.
डा. हिमांशु अकसर उस से कहते, ‘‘अदिती, तुम्हें पीएचडी करनी है. मैं तुम्हारे नाम के आगे डाक्टर लिखा देखना चाहता हूं.’’
फिर तो कभीकभी अदिती बैठी पढ़ रही होती, तो कागज पर लिख देती, डा. अदिती हिमांशु. फिर शरमा कर उस कागज पर इतनी लाइनें खींचती कि वह नाम पढ़ने में न आता. परंतु बारबार कागज पर लिखने की वजह से यह नाम अदिती के हृदय में इस तरह रचबस गया कि वह एक भी दिन डा. हिमांशु को न देखती, तो उस का समय काटना मुश्किल हो जाता.
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पिछले 2 सालों में अदिती डा. हिमांशु के घर का एक हिस्सा बन गई थी. सुबह घंटे डेढ़ घंटे डा. हिमांशु के घर काम कर के वह उन के साथ यूनिवर्सिटी जाती. फिर 5 बजे उन के साथ ही उन के घर आती, तो उसे अपने घर जाने में अकसर रात के 8-9 बज जाते. कभीकभी तो 10 भी बज जाते. डा. हिमांशु मूड के हिसाब से काम करते थे. अदिती को भी कभी घर जाने की जल्दी नहीं होती थी. वह तो डा. हिमांशु के साथ अधिक से अधिक समय बिताने का बहाना ढूंढ़ती रहती थी.
इन 2 सालों में अदिती ने देखा था कि डा. हिमांशु को जानने वाले तमाम लोग थे. उन से मिलने भी तमाम लोग आते थे. अपना काम कराने और सलाह लेने वालों की भी कमी नहीं थी. फिर डा. हिमांशु एकदम अकेले थे. घर से यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी से घर… यही उन की दिनचर्या थी.
वे कहीं बाहर जाना या किसी गोष्ठी में भाग लेना पसंद नहीं करते थे. बड़ी मजबूरी में ही वे
किसी समारोह में भाग लेने जाते थे. अदिती को ये सब बड़ा आश्चर्यजनक लगता था क्योंकि डा. हिमांशु का लैक्चर सुनने के लिए अन्य यूनिवर्सिटी के स्टूडैंट आते थे, जबकि वे पढ़ाई के अलावा किसी से भी कोई फालतू बात नहीं करते थे.
अदिती उन के साथ लगभग रोज ही गाड़ी से आतीजाती थी. परंतु इस आनेजाने में शायद ही कभी उन्होंने उस से कुछ कहा हो. दिन के इतने घंटे साथ बिताने के बावजूद डा. हिमांशु ने काम के अलावा कोई भी बात अदिती से नहीं की थी. अदिती कुछ कहती, तो वे चुपचाप सुन लेते. मुसकराते हुए उस की ओर देख कर उसे यह आभास करा देते कि उन्होंने उस की बात सुन ली है.
किसी बड़े समारोह या कहीं से डा. हिमांशु वापस आते, तो अदिती बड़े ही अहोभाव से उन्हें देखती रहती. उन की शाल ठीक करने के बहाने, फूल या किताब लेने के बहाने, अदिती उन्हें स्पर्श कर लेती. टेबल के सामने डा. हिमांशु बैठ कर लिख रहे होते, तो अदिती उन के पैर में अपना पैर स्पर्श करा कर संवेदना जगाने का प्रयास करती.
डा. हिमांशु भी उस की नजरों और हावभाव से उस के मन की बात जान गए थे. फिर भी उन्होंने अदिती से कभी कुछ नहीं कहा. अब तक अदिती का एमए हो गया था. वह डा. हिमांशु के अंडर ही रिसर्च कर रही थी. उस की थिसिस भी अलग तैयार ही थी.
अदिती को भी आभास हो गया था कि डा. हिमांशु उस के मन की बात जान गए हैं. फिर भी वे ऐसा व्यवहार करते हैं, जैसे उन्हें कुछ पता ही न हो. डा. हिमांशु के प्रति अदिती का आकर्षण धीरेधीरे बढ़ता ही जा रहा था. आईने के सामने खड़ी स्वयं को निहार रही अदिती ने निश्चय कर लिया था कि आज वह डा. हिमांशु से अपने मन की बात अवश्य कह देगी. फिर वह मन ही मन बड़बड़ाई कि प्रेम करना कोई अपराध नहीं है. प्रेम की कोई उम्र भी नहीं होती.
इसी निश्चय के साथ अदिती डा. हिमांशु के घर पहुंची. वे लाइब्रेरी में बैठे थे. अदिती उन के सामने रखी रैक से टिक कर खड़ी हो गई. उस की आंखों से आंसू बरसने की तैयारी में थे. उन्होंने अदिती को देखते ही कहा, ‘‘अदिती बुरा मत मानना, मेरे डिपार्टमैंट में प्रवक्ता की जगह खाली है. सरकारी नौकरी है. मैं ने कमेटी के सभी सदस्यों से बात कर ली है. तुम अपनी तैयारी कर लो. तुम्हारा इंटरव्यू फौर्मल ही होगा.’’
‘‘परंतु मुझे यह नौकरी नहीं करनी है,’’ अदिती ने यह बात थोड़ी ऊंची आवाज में कही. उस की आंखों में आंसू भर आए थे.
डा. हिमांशु ने मुंह फेर कर कहा, ‘‘अदिती, अब तुम्हारे लिए हमारे यहां काम नहीं है.’’
‘‘सचमुच?’’ अदिती ने उन के एकदम नजदीक जा कर पूछा.
‘‘हां, सचमुच,’’ अदिती की ओर देखे बगैर बड़े ही मृदु और धीमी आवाज में डा. हिमांशु ने कहा, ‘‘अदिती वहां वेतन बहुत अच्छा मिलेगा.’’
‘‘मैं वेतन के लिए नौकरी नहीं करती?’’ अदिती और भी ऊंची आवाज में बोली, ‘‘सर, आप ने मुझे कभी समझ ही नहीं.’’
डा. हिमांशु कुछ कहते, उस के पहले ही अदिती उन के एकदम करीब पहुंच गई. दोनों के बीच अब मात्र हथेली भर की दूरी रह गई थी. उस ने डा. हिमांशु की आंखों में आंखें डाल कर कहा, ‘‘सर, मैं जानती हूं, आप सबकुछ जानतेसमझते हैं… प्लीज इनकार मत कीजिएगा.’’
अदिती की आंखों के आंसू आंखों से निकल कर उस के कपोलों को भिगोते हुए नीचे तक बह गए थे. वह कांपते स्वर में बोली, ‘‘आप के यहां काम नहीं है? इस अधूरी पुस्तक को कौन पूरा करेगा? जरा बताइए तो चार्ली चैपलिन की आत्मकथा कहां रखी है? बायर की कविताएं कहां हैं? विष्णु प्रभाकर या अमरकांत की नई किताबें कहां रखी हैं?’’
डा. हिमांशु चुपचाप अदिती की बातें सुन रहे थे. उन्होंने दोनों हाथ बढ़ा कर अदिती के गालों के आंसू पोंछे और एक लंबी सांस ले कर कहा, ‘‘तुम्हारे आने के पहले मैं किताबें ही खोज रहा था. तुम नहीं रहोगी, तो भी मैं किताबें ढूंढ़ लूंगा.’’
अदिती को लगा कि उन की आवाज यह कहने में कांप रही है.
उन्होंने आगे कहा, ‘‘इंसान पूरी जिंदगी ढूंढ़ता रहे, तो भी शायद उसे न मिले और यदि मिले भी, तो इंसान ढूंढ़ता रहे. उसे फिर भी प्राप्त न हो सके ऐसा भी हो सकता है.’’
‘‘जो अपना हो, उस का तिरस्कार कर के,’’ इतना कह कर अदिती दो कदम पीछे हटी और चेहरे को दोनों हाथों में छिपा कर रोने लगी. फिर लगभग चीखते हुए बोली, ‘‘क्यों?’’
डा. हिमांशु ने थोड़ी देर तक अदिती को रोने दिया. फिर उस के नजदीक जा कर कालेज में पहली बार जिस सहानुभूति से उस के कंधे पर हाथ रखा था, उसी तरह उस के कंधे पर हाथ रखा. अदिती को फिर एक बार लगा कि हिमालय के शिखरों की ठंडक उस के सीने में समा गई है. कानों में घंटियां बजने लगीं. उस ने स्नेहिल नजरों से डा. हिमांशु को देखा. फिर आगे बढ़ कर अपनी दोनों हथेलियों में उन के चेहरे को भर कर चूम लिया.
फिर वह डा. हिमांशु से लिपट गई. वह इंतजार करती रही कि उन की बांहें उस के इर्दगिर्द लिपटेंगी. परंतु ऐसा नहीं हुआ. उस ने डा. हिमांशु की ओर देखा. वे चुपचाप बिना किसी प्रतिभाव के आंखें फाड़े उसे ताक रहे थे. उन का चेहरा शांत, स्थितप्रज्ञ और निर्विकार था.
‘‘आप मुझ से प्यार नहीं करते?’’
डा. हिमांशु मात्र उसे देखते रहे.
‘‘मैं आप के लायक नहीं हूं?’’
डा. हिमांशु के होंठ कांपे, पर शब्द नहीं निकले.
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‘‘मैं अंतिम बार पूछती हूं,’’ अदिती की आवाज के साथ उस का शरीर भी कांप रहा था. स्त्री हो कर स्वयं को समर्पित कर देने के बाद भी पुरुष के इस तिरस्कार ने उस के पूरे अस्तित्व को हिला कर रख दिया था. उस की आंखों से आंसुओं की जलधारा बह रही थी.
एक लंबी सांस ले कर वह बोली, ‘‘मैं पूछती हूं, आप मुझे प्यार करते हैं या नहीं या फिर मैं आप के लिए केवल एक तेजस्विनी विद्यार्थिनी से अधिक कुछ नहीं हूं,’’ फिर उन की कालर पकड़ कर झकझरते हुए बोली, ‘‘सर, मुझे अपनी बातों के जवाब चाहिए.’’
डा. हिमांशु उसी तरह जड़ बने थे. अदिती ने लगभग धक्का मार कर उन्हें छोड़ दिया. रोते हुए वह उन्हें अपलक ताक रही थी. उस ने दोनों हाथों से आंसू पोंछे. पलभर में ही उस का हावभाव बदल गया. उस का चेहरा सख्त हो गया. उस की आंखों में घायल बाघिन का जनून आ गया था. उस ने चीखते हुए कहा, ‘‘मुझे इस बात का हमेशा पश्चात्ताप रहेगा कि मैं ने एक ऐसे आदमी से प्यार किया, जिस में प्यार को स्वीकार करने की ताकत ही नहीं है. मैं तो समझती थी कि आप मेरे आदर्श हैं, समर्थ्यवान हैं, परंतु आप में एक स्त्री को सम्मान के साथ स्वीकार करने की हिम्मत ही नहीं है.
‘‘जीवन में यदि कभी समझ में आए कि मैं ने आप को क्या दिया है, तो उसे स्वीकार कर लेना. जिस तरह हो सके, उस तरह क्योंकि आज के आप के तिरस्कार ने मुझे छिन्नभिन्न कर दिया है. जो टीस आप ने मुझे दी है, हो सके तो उसे दूर कर देना क्योंकि इस टीस के साथ जीया नहीं जा सकता,’’ इतना कह कर अदिती तेजी से पलटी और बाहर निकल गई. उस ने एक बार भी पलट कर नहीं देखा.
कुछ दिनों बाद अदिती अखबार पढ़ रही थी, तो अखबार में छपी एक सूचना पर उस
की नजर अटक गई. सूचना थी ‘प्रसिद्ध साहित्यकार, यूनिवर्सिटी के हैड आफ दि डिपार्टमैंट डा. हिमांशु की हृदयगति रुकने से मृत्यु हो गई है उन का…’
अदिती ने इतना पढ़ कर पन्ना पलट दिया. रोने का मन तो हुआ, लेकिन जी कड़ा कर के उसे रोक दिया. अगले दिन अखबार में डा. हिमांशु के बारे में 3-4 लेख छपे थे, परंतु अदिती ने उन्हें पढ़े बगैर ही उस पन्ने को पलट दिया.
इस के 4 दिन बाद ही पाठ्य पुस्तक मंडल की ओर से ब्राउन पेपर में लिपटा एक पार्सल अदिती को मिला. भेजने वाले का नाम उस पर नहीं था. अदिती ने जल्दीजल्दी उस पैकेट को खोला तो उस में वही पुस्तक थी, जिसे वह अधूरी छोड़ आई थी. अदिती ने प्यार से उस पुस्तक पर हाथ फेरा. लेखक का नाम पढ़ा. उस ने पहला पन्ना खोला, किताब के नाम आदि की जानकारी… दूसरा पन्ना खोला…
‘‘‘अर्पण…’ मेरे जीवन की एकमात्र स्त्री को, जिसे मैं ने हृदय से चाहा, फिर भी उसे कुछ दे न सका. यदि वह मेरी एक पल की कमजोरी को माफ कर सके, तो मेरी इस पुस्तक को अवश्य स्वीकार कर लेना.’’
उस किताब को सीने से लगाने के साथ ही अदिती एकदम से फफक कर रो पड़ी. पूरा औफिस एकदम से चौंक पड़ा. सभी उठ कर उस के पास आ गए. हरकोई एक ही बात पूछ रहा था, ‘‘क्या हुआ अदिती? क्या हुआ?’’
रोते हुए अदिती मात्र गरदन हिला रही थी. उसे खुद पता नहीं था कि उसे क्या हुआ.
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