कल्पना ससुराल वापस आ गई. वातावरण काफी बदला हुआ था. रिश्तेदार जा चुके थे. घर की औरतें उसे अछूत समझ कर न बात करतीं न ढंग से उस की बात का उत्तर देतीं. खाना बनाने से ले कर बरतन साफ करने तक का सारा काम कल्पना को अकेले करना पड़ता था. दिन भर की थकी जब वह अपने कमरे में जाती तो मरणासन्न हो जाती पर उसे काम करने में एक संतोष, एक आशा की किरण दिखाई दे रही थी. हो न हो उस की सेवा सभी के दिलों को जीत ले और वह उसे माफ कर दें.
विधानसभा के चुनाव की तारीख घोषित हो चुकी थी. चौधरीजी के घर गहमागहमी शुरू हो गई थी. तमाम नेता बैठक में विचारविमर्श कर रहे थे कि आज की राजनीति में सबकुछ अनिश्चित है. मतदाता विस्मय से बदलते परिदृश्यों को देख रहा है. थोडे़थोडे़ समय में होने वाले चुनावों में उस का विश्वास नहीं रहा. अब की बार कोई नया मुद्दा होना चाहिए जो लोगों के दिलों में उतर जाएं. फिर कुछ नेता चौधरीजी की ओर मुखातिब हो कर बोले, ‘‘क्या रखा जाए मुद्दा, चौधरीजी.’’
‘‘हमारा नारा होगा, ‘समर्थ, गरीब कन्याओं को वधू बनाएं, नई रोशनी घर में लाएं.’’’ चौधरीजी सीना तान कर बोले, ‘‘इस का असर जादू की तरह होगा. दुर्बल समुदाय का वोट हमारी पार्टी की झोली में गिरेगा क्योंकि यह सत्य पर आधारित है. आप लोगों को तो पता ही है मैं ने अपने बेटे की शादी….’’
चौधरी की बात पूरी होने से पहले एकसाथ कई आवाजें हवा में गूंजीं.
‘‘जीहां, जीहां. आप के बेटे ने तो बिना ननुकर किए आप की पसंद को अपनी पसंद बना लिया…नहीं तो आजकल के लड़के बिना देखे, बात किए राजी कहां होते हैं.’’
चौधरीजी इस पर टीकाटिप्पणी करने के बजाय आगे बोले, ‘‘अन्य सभी राजनीतिक दलों के बारे में यह जान लिया गया है कि वे जो कहते हैं वह करते नहीं हैं. हर राजनीतिक पार्टी झूठ और वचन भंग के दलदल में धंसती पाई गई है. हमारे संकल्पों में एक तरह की फौलादी ताकत दिखाई पड़ती है. भारतीय स्वयं कमजोर हैं पर सचाई की कद्र करते हैं.’’
चुनाव का दिन भी आ गया. चौधरीजी का नारा हट कर था. घिसेपिटे नारे जाति, धर्म, भ्रष्टाचार से बिलकुल अलग. लोग भी घिसेपिटे नारे पुराने रेकार्डों की तरह सुन कर थक गए थे. एक नया नारा ‘उद्धार’ अपने नए आकर्षण के साथ लोगों के दिलों में उतर गया. नौजवानों में एक नई लहर दौड़ गई और वोट चौधरीजी के पक्ष में खूब गिरे.
राजनीति में एक परंपरा सी बन गई है. आकर्षक नारा दे कर जीतो और उस के बाद उस नारे का खून कर दो. चौधरीजी के विचार इस से इतर न थे. परंपरा का निर्वाह करना वह बखूबी जानते थे. राजनीति का चस्का ही ऐसा होता है कि कुरसी के लिए लोग अपनी बीवीबच्चों तक को दांव पर लगा देते हैं. स्वार्थ और लोभ राजनीति को कठोर व बेशर्म बना देते हैं.
इधर चौधरीजी चुनाव जीते उधर योजना के अनुसार कल्पना को खत्म करने के लिए कई हथकंडे अपनाए गए. पर हर बार वह साफ बच गई. उसे खरोंच तक न लगी. चौधरीजी का परिवार तो यही सोचता कि पता नहीं कौन सा रहस्यमयी चमत्कार हो जाता है जो वह बच जाती है पर हकीकत तो यह थी कि पुलिस में सालों नौकरी कर कल्पना यह तो जान ही गई थी कि उस के खिलाफ घर में षड्यंत्र रचा गया है अत: वह अपना हर कदम फूंकफूंक कर रखती थी.
एक बार उस को छत पर सूख रहे कपड़ोें को लाने भेजा गया और पीछे सीढि़यों पर मोबिल आयल डाल दिया गया पर वह कपड़ों का गट्ठर सुरक्षित ले कर उतर आई. यहां भी कल्पना की सूझबूझ काम आई. इसी प्रकार टांड़ पर आगे 10 लिटर का भारी कूकर रख बाहर से एग्जास्ट फैन के छेद से डंडे द्वारा कुकर को जोर से ठेला गया ताकि सीधे नीचे खड़ी कल्पना के सिर पर गिरे जो उस समय रोटी बना रही थी पर जैसे ही डंडे को कुकर की तरफ बढ़ते उस ने देखा अपने हाथ की लोई गिरा कर उसे उठाने के लिए वह आगे सरक गई. इतने में कुकर ठीक उसी जगह गिरा जहां वह खड़ी थी.
कल्पना ने इस घटना पर सब के सामने यही जाहिर किया कि कुकर गिरने के पीछे बिल्ली की करतूत है, क्योंकि एक दिन रात में उस ने ज्यों रसोई की बत्ती जलाई थी कि ऊपर से यही कुकर गिरा था. ऊपर नजर डाली तो मोटी बिल्ली थी जो उसी छेद से भाग गई थी. इस के बाद खुद मेज पर चढ़ कर कल्पना ने उस कुकर को आगे से हटा कर पीछे दीवार के सहारे लगा दिया था.
दरअसल, घर के लोग कल्पना को कुछ इस तरह जान से मारना चाह रहे थे कि उन की बदनामी न हो. ऐसा लगे कि वह कोई हादसा था और उस हादसे के बाद चौधरीजी मन ही मन सोच रहे थे कि वह कल्पना की प्रतिमा गांव के चौराहे पर लगवा देंगे और उस प्रतिमा का अनावरण उस की मां से करा देंगे. वोट तो जो उन के पक्ष में पड़ने थे वह पड़ ही गए हैं. अब दुर्घटना की खबर मिलते ही एक कुशल एक्टर की भूमिका थोड़ी देर जनता के सामने करनी है और इसी का रिहर्सल मन ही मन वह करने लगे.
अपने खयालों में खोए चौधरीजी यह भूल गए कि वह रफ्तार से सड़क पर गाड़ी चला रहे हैं. सामने से आता एक ट्रक चौधरीजी की गाड़ी पर अनियंत्रित हो कर टक्कर मार गया.
आग की तरह उन की दुर्घटना की खबर चारों ओर फैल गई. चौधरीजी काफी घायल हो गए थे. उन का दाहिना टखना इतनी बुरी तरह कुचल गया था कि उसे काटना डाक्टरों की मजबूरी बन गई थी. बड़ी मुश्किल से उन्हें होश आया था. होश आने पर उन्होंने देखा कि उन के हाथों पर प्लास्टर चढ़ा है और घर पर उन्हें कम से कम 6 माह तक विश्राम करना था.
शुरुआत में तो बेटे, पत्नी और परिवार के दूसरे लोगों ने उन की देखभाल की पर धीरेधीरे सभी अपने रोजमर्रा के कामों में मशगूल हो गए क्योंकि घर पर बैठना किसी को रास नहीं आ रहा था.
चौधरी की मजबूरी थी बिस्तर पर पडे़ रहना. घर पर नर्स, नौकर व कल्पना ही बचते थे. चौधरीजी का मलमूत्र बाहर फेंकने में नर्स नखरे दिखाती थी. जमादार कभी आता कभी नहीं आता. ऐसे में कल्पना चुपचाप पौट बाहर ले कर जाती और फिर साफ कर वापस उन की चारपाई के नीचे रख देती.
चौधरीजी की पत्नी सजसंवर कर पर्स लटका जब घर से निकलतीं तो ऐसा लगता मानो उन के न जाने से बाहर का कामकाज सब ठप हो जाएगा.
कहते हैं कि विपरीत परिस्थिति में लोगों के ज्ञानचक्षु काम करने लगते हैं. उस की तार्किक शक्ति बढ़ जाती है. सभी बातें दर्पण की तरह उसे साफ दिखाई पड़ने लगती हैं. वह अपने को भी जानने लगता है और आसपास के वातावरण की सचाई को भी पहचानने लगता है. इनसान मीठी चुपड़ी बातों से अनुकूल समय में धोखा खा सकता है पर विषम दशा में मन सिर्फ सच को देखता है. कोई धोखा कोई बातें अपना जादू चलाने में सफल नहीं होतीं.
चौधरीजी को पत्नी, बेटे सब स्वार्थी जान पड़ रहे थे. सब मतलब के यार जिन्हें सिर्फ उन से मिलने वाले लाभ से सरोकार था. बस, कोई अपना समय उन के पास बैठ कर बरबाद नहीं करना चाहता था. सभी का सुबह घर से निकलने के पहले मानो हाजिरी देना जरूरी हो, उन के कमरे में आते और कभी नर्स को कभी कल्पना को निर्देश दे कर चले जाते ताकि सुनने वाले को ऐसा लगे कि उन्हें कितनी चिंता है.
चौधरीजी इस झूठे दिखावे से भीतर से दुखी तो होते थे पर इसे भी वह अपने कर्मों का दंड मानने लगे थे. अब वह पहले वाले चौधरी नहीं थे. मौत के मुंह से क्या निकले उन की पूरी काया ही पलट गई थी. बाहर भोलीभाली जनता को ठगने वाला यदि अपने ही लोगों से ठगा जाए तो क्या बुराई है. जो फसल बोई है उसे काटना तो पडे़गा ही न. यह सोच सबकुछ जानसमझ कर भी वह परिवार वालों के सामने अनजान बने रहते.
इस भीड़ में कल्पना द्वारा की गई सच्ची सेवा व उन के प्रति उस की निष्ठा अपनी अलग पहचान बना गई. जो देखभाल चौधरीजी की घर पर कल्पना ने की उस से वह द्रवित हुए बिना न रह सके. एक दिन सब के जाने के बाद बिस्तर पर पडे़ चौधरीजी ने अपने दोनों हाथ जोड़ कल्पना से कहा, ‘‘बेटी, मुझे माफ कर दो.’’
उन के बोलने में प्रायश्चित की पीड़ा थी. वह समझ रहे थे कि इस लड़की पर क्याक्या अत्याचार नहीं किए गए पर उस ने उफ् तक न किया. क्या यह जानती न होगी कि घर भर के लोग उस के साथ क्या खेल रच रहे हैं.
कल्पना जान कर भी अनजान बनते हुए बोली, ‘‘आप मेरे पिता समान हैं. मुझ से माफी मांग कर शर्मिंदा न कीजिए.’’
चौधरीजी मन ही मन अपने को धिक्कारने लगे. क्या उन का निखट्टू बेटा दूध का धुला है. आवारा आज भी ऐयाशी करता है. उस के पास उन की बनाई जायदाद के अलावा अपना क्या है? आज घर से निकाल दिया जाए तो दानेदाने को तरसे. उस की क्या मजबूरी है जो ऐयाशी करता है.
सारे दिन आवारा घूमने के अलावा उस को आता भी क्या है. इस त्यागमयी सुंदर पत्नी को छोड़ने की कल्पना भी कैसे कर सकता है. यह तो उस निठल्ले को भी धीरेधीरे राह पर ले आएगी. ऐसी कार्यकुशल पत्नी पा कर तो उसे धन्य हो जाना चाहिए. किसी मजबूरी में उठा गलत कदम यदि अपनी सही राह पकड़ ले तो दूसरों का पथप्रदर्शक बन सकता है. वह कल्पना के साथ अब अपने जीते जी अन्याय न होने देंगे. सोचतेसोचते चौधरी की आंख लग गई. उन का चेहरा तनावमुक्त था.