नपुंसक : भाग 1- नौकरानी के जाल में कैसे फंस गए रंजीत

लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह

रंजीत को जिस तरह साजिश रच कर ठगा गया था, उस से वह हैरान तो थे ही उन्हें गुस्सा भी बहुत आया था. उस गुस्से में उन का शरीर कांपने लगा था. कंपकंपी को छिपाने के लिए उन्होंने दोनों हाथों की मुट्ठियां कस लीं, लेकिन बढ़ी हुई धड़कनों पर वह काबू नहीं कर पा रहे थे.

उन्हें डर था कि अगर रसोई में काम कर रही ममता आ गई तो उन की हालत देख कर पूछ सकती है कि क्या हुआ जो आप इतने परेशान हैं. एक बार तो उन के मन में आया कि सारी बात पुलिस को बता कर रिपोर्ट दर्ज करा दें लेकिन तुरंत ही उन की समझ में आ गया कि गलती उन की भी थी. सच्चाई खुल गई तो वह भी मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे.

पत्नी के डर से उन्होंने मेज पर पड़ी अपनी मैडिकल रिपोर्ट अखबारों के नीचे छिपा दी थी. मोबाइल उठा कर उन्होंने प्रौपर्टी डीलर को प्लौट का सौदा रद्द करने के लिए कह दिया. उस की कोई भी बात सुने बगैर रंजीत ने फोन काट दिया था. हमेशा शांत रहने वाले रंजीत मल्होत्रा जितना परेशान और बेचैन थे, इतना परेशान या बेचैन वह तब भी नहीं हुए थे, जब उन्हें साजिश का शिकार बनाया गया था. फिर भी वह यह दिखाने की पूरी कोशिश कर रहे थे कि वह जरा भी परेशान या विचलित नहीं हैं.

रंजीत मल्होत्रा एक इज्जतदार आदमी थे. शहर के मुख्य बाजार में उन का ब्रांडेड कपड़ों का शोरूम तो था ही, वह साडि़यों के थोक विक्रेता भी थे. कपड़ा व्यापार संघ के अध्यक्ष होने के नाते व्यापारियों में उन की प्रतिष्ठा थी. उन के मन में कोई गलत काम करने का विचार तक नहीं आया था. उन के पास पैसा और शोहरत दोनों थे. इस के बावजूद उन में जरा भी घमंड नहीं था. वह अकेले थे, लेकिन हर तरह से सफल थे.

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उन की तरक्की से कई लोग ईर्ष्या करते थे. इतना सब कुछ होते हुए भी उन्हें हमेशा इस बात का दुख सालता था कि शादी के 12 साल बीत जाने के बाद भी वह पिता नहीं बन सके थे. उन की पत्नी ममता की गोद अभी तक सूनी थी.

रंजीत और ममता की शादी के बाद की जिंदगी किसी परीकथा से कम नहीं थी. हंसीखुशी से दिन कट रहे थे. जब उन की शादी हुई थी तो ममता की खूबसूरती को देख कर उन के दोस्त जलभुन उठे थे. उन्होंने कहा था, ‘‘भई आप तो बड़े भाग्यशाली हो, हीरोइन जैसी भाभी मिली है.’’

ममता थी ही ऐसी. शादी के 12 साल बीत जाने के बाद भी उन की सुंदरता में कोई कमी नहीं आई थी. शरीर अभी भी वैसा ही गठा हुआ था. पिछले 10 सालों से रंजीत के यहां देवी नाम की लड़की काम कर रही थी. जब वह 10-11 साल की थी, तभी से उन के यहां काम कर रही थी. देवी हंसमुख और चंचल तो थी ही, काम भी जल्दी और साफसुथरा करती थी. इसलिए पतिपत्नी उस से खुश रहते थे. अपने काम और बातव्यवहार से वह दोनों की लाडली बनी हुई थी.

घर में कोई बालबच्चा था नहीं, इसलिए पतिपत्नी उसे बच्चे की तरह प्यार करते थे. जहां तक हो सकता था, देवी भी ममता को कोई काम नहीं करने देती थी. हालांकि वह इस घर की सदस्य नहीं थी, फिर भी अपने बातव्यवहार और काम की वजह से घर के सदस्य जैसी हो गई थी. पतिपत्नी उसे मानते भी उसी तरह थे. जब उस की शादी हुई तो ममता पर तो कोई फर्क नहीं पड़ा, लेकिन रंजीत पूरी तरह बदल गए थे.

देवी की शादी रंजीत के लिए किसी कड़वे घूंट से कम नहीं थी. उस की शादी को 2 साल हो चुके थे. इन 2 सालों में रंजीत के जीवन में कितना कुछ बदल गया था, जिंदगी में कितने ही व्यवधान आए थे. शादी के 10 साल बीत जाने पर गोद सूनी होने की वजह से ममता काफी हताश और निराश रहने लगी थी.

वह हर वक्त खुद को कोसती रहती थी. ईश्वर में जरा भी विश्वास न करने वाली ममता पूरी तरह आस्तिक हो गई थी. किसी तरह उस की गोद भर जाए, इस के लिए उस ने तमाम प्रयास किए थे. इस सब का कोई नतीजा नहीं निकला तो ममता शांत हो कर बैठ गई.

शादी के 4 सालों बाद दोनों को लगा कि अब उन्हें बच्चे के लिए प्रयास करना चाहिए. इस के बाद उन्होंने प्रेग्नेंसी रोकने के उपाय बंद कर दिए. बच्चे के लिए उन्हें जो करना चाहिए था, किया. दोनों को पूरा विश्वास था कि उन का प्रयास सफल होगा. उन्हें अपने बारे में जरा भी शंका नहीं थी, क्योंकि दोनों ही नौरमल और स्वस्थ थे.

इस तरह उम्मीदों में समय बीतने लगा. आशा और निराशा के बीच कोशिश चलती रही. रंजीत ममता को भरोसा देते कि जो होना होगा, वही होगा. उन्होंने डाक्टरों से भी सलाह ली और तमाम अन्य उपाय भी किए. पर कोई लाभ नहीं हुआ. पति समझाता कि चिंता मत करो. हम दोनों आराम से रहेंगे लेकिन पति के जाते ही अकेली ममता हताश और निराश हो जाती. रंजीत का पूरा दिन तो कारोबार में बीत जाता था, लेकिन वह अपना दिन कैसे बिताती.

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सारे प्रयासों को असफल होते देख डाक्टर ने रंजीत से अपनी जांच कराने को कहा. अभी तक रंजीत ने अपनी जांच कराने की जरूरत महसूस नहीं की थी. वह दवाएं भी कम ही खाते थे. रंजीत ऊपर से भले ही निश्चिंत लगते थे, लेकिन संतान के लिए वह भी परेशान थे. चिंता की वजह से रंजीत का किसी काम में मन भी नहीं लगता था. चिंता में वह शारीरिक रूप से भी कमजोर होते जा रहे थे.

काम करते हुए उन्हें थकान होने लगी थी. खुद पर से विश्वास भी उठ सा गया था. शांत और धीरगंभीर रहने वाले रंजीत अब चिड़चिड़े हो गए थे. बातबात पर उन्हें गुस्सा आने लगा था. घर में तो वह किसी तरह खुद पर काबू रखते थे, पर शोरूम पर वह कर्मचारियों से ही नहीं, ग्राहकों से भी उलझ जाते थे.

घर में भी ममता से तो वह कुछ नहीं कहते थे, पर जरा सी भी गलती पर नौकरानी देवी पर खीझ उठते थे. देवी भी अब जवान हो चुकी थी, इसलिए उन के खीझने पर ममता उन्हें समझाती, ‘‘पराई लड़की है. अब जवान भी हो गई है, उस पर इस तरह गुस्सा करना ठीक नहीं है.’’

‘‘तुम ने ही इसे सिर चढ़ा रखा है, इसीलिए इस के जो मन में आता है, वह करती है.’’ रंजीत कह देते. बात आईगई हो जाती. जबकि देवी पर इस सब का कोई असर नहीं पड़ता था. वह उन के यहां इस तरह रहती और मस्ती से काम करती थी, जैसे उसी का घर है. ममता भले ही देवी का पक्ष लेती थी, लेकिन वह भी महसूस कर रही थी कि अब वह काफी बदल गई है.

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रस्मे विदाई: भाग 1- क्यों विदाई के दिन नहीं रोई मिट्ठी

‘‘यह क्या है मिट्ठी? 2 दिन रह गए हैं तुम्हारी विदाई को और तुम यहां बैठी खीखी कर रही हो, नाक कटवाओगी क्या? तुम लड़कियों को कुछ काम नहीं है क्या? अरे, शादी का घर है, सैंकड़ों काम पड़े हैं, थोड़े हाथपैर चलाओगी तो छोटी नहीं हो जाओगी,’’ नीरा ने अपनी बेटी मिट्ठी और उस की सहेलियों को इस तरह लताड़ा कि सब सकते में आ गईं. सहेलियां उठ कर कमरे से बाहर निकल गईं और इधरउधर कार्य करने का दिखावा करने लगीं. मिट्ठी वहीं बैठी रही और अपनी मां को अपलक देखती रही.

‘‘अब हम क्या करें, मां, कुछ काम भी तो करने नहीं देती हैं आप? हमारे हंसनेबोलने से आप की नाक कटने का खतरा कैसे पैदा हो गया, यह भी हमारी समझ में नहीं आया.’’

‘‘हांहां, तुम्हारी समझ में क्यों आने लगा. अकेले में तुम्हें समझा सकूं, इसीलिए उन लड़कियों को यहां से भगा दिया. हमारे जमाने में तो विवाह से

10-12 दिनों पहले से ही लड़कियां धीरेधीरे स्वर में रोने लगती थीं. आनेजाने वाले भी लड़की से गले मिल कर दो आंसू बहा लेते थे कि लड़की अब पराई होने जा रही है. माना, अब नया जमाना है पर 2 दिन पहले तो धीरेधीरे रो ही सकती हो. नहीं तो लोग क्या कहेंगे कि लड़की को शादी की बड़ी खुशी है.’’

‘‘वाह मां, किस युग की बातें कर रही हैं आप, आजकल विदाई के समय कोई नहीं रोता. हमारी बात तो आप जाने दीजिए, पर आजकल की अधिकतर लड़कियां पढ़ीलिखी हैं, अपने पैरों पर खड़ी हैं. वे इन पुराने ढकोसलों में विश्वास नहीं करतीं.’’

‘‘बदल गया होगा जमाना, पर इस महल्ले में तो सब जैसे का तैसा है, यहां लोग अभी भी पुरानी परंपराओं का पालन करते हैं. हर विवाह के बाद वर्षों यह चर्चा चलती रहती है कि लड़की विदाई के समय कितना रोई. उसी से तो मायके के प्रति लगाव का पता चलता है. अच्छा, मैं चलती हूं, ढेरों काम पड़े हैं, पर अब ठहाके सुनाई न दें, इस का ध्यान रखना,’’ कहती हुई नीरा चली गई थीं.

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उन के जाते ही मिट्ठी का मन हुआ कि वह इतना जोर से खिलखिला कर हंसे कि सारा घर कांप जाए. विदाई के समय रोने की प्रथा को इतनी गंभीरता से तो शायद ही कभी किसी ने लिया हो. 40 वर्ष की उम्र के करीब पहुंच रही है मिट्ठी, अब क्या रोना और क्या हंसना. लेकिन मां नहीं समझेंगी.

आज भी वह दिन मिट्ठी की यादों में उतना ही ताजा है, जब पहली बार उसे वर पक्ष के लोग देखने आए थे. उन दिनों तो उस का अपना अलग ही स्वप्निल संसार था और वास्तविकता से उस का दूरदूर कोई वास्ता नहीं था. घूमनाफिरना, सिनेमा देखना और उत्सवों व विवाहों में भाग लेना, यही उस की दिनचर्या थी. कालेज जाना भी इस में शामिल था पर उस में पढ़ाई से अधिक महत्त्व सहेलियों, फिल्मों और गपशप का था. कालेज जाना तो विवाह होने तक के समय का सदुपयोग मात्र था.

भावी वर को देख कर तो उस की आंखें चौंधिया गई थीं. वैसा सुदर्शन युवक आज तक उस की नजरों के सामने से नहीं गुजरा. साथ ही ऊंची नौकरी, संपन्न परिवार, उस की तो मानो रातोंरात काया ही पलट गईर् थी.

पर जब एक सप्ताह बीतने पर भी उधर से कोई जवाब नहीं मिला था तो सब का माथा ठनका था. शीघ्र ही देवदत्त बाबू से, जो मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे थे, संपर्क किया गया तो वे स्वयं ही चले आए और आते ही मिट्ठी के पिता को ऐसी खरीखोटी सुनाई थी कि बेचारे के मुख से आवाज नहीं निकली थी.

‘इतने ऊंचे स्तर का घरवर और आप ने उन्हें अच्छे दहेज तक का प्रलोभन नहीं दिया? पूरी बिरादरी में कहीं देखा है ऐसा सजीला युवक?’ देवदत्त बाबू बोले थे.

‘लेकिन देवदत्त बाबू, देखनेसुनने में तो अपनी मिट्ठी भी किसी से कम नहीं है,’ उस के पिता सर्वेश्वर बाबू बोले.

‘हां जी, आप की मिट्ठी तो परी है परी. कल कोई राजकुमार आएगा और फोकट में उसे ब्याह कर ले जाएगा.’ देवदत्त बाबू के स्वर ने अंदर अपने कमरे में बैठी मिट्ठी को पूरी तरह से लहूलुहान कर दिया था और पता नहीं सर्वेश्वर बाबू पर क्या बीती थी.

‘मैं ने तो फोकट में विवाह करने की बात कभी की नहीं, मैं ने आप से पहले ही कहा था कि हम 3 लाख रुपए तक खर्च करने को तैयार हैं,’ सर्वेश्वर बाबू दबे स्वर में बोले थे.

‘सच कहूं? 3 लाख रुपए की बात सुन कर देर तक हंसते रहे थे लड़के के घर वाले. लड़के की मां ने तो सुना ही दिया कि 3 लाख रुपए में कहीं शादी होती है. अरे, इतने में तो ठीक से बरात की खातिरदारी भी नहीं हो सकेगी,’ देवदत्त बाबू ने एक और वार किया था.

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‘इस से अधिक तो मेरे लिए संभव नहीं हो सकेगा. आप तो जानते हैं कि मिट्ठी से छोटे 4 और भाईबहन हैं. बहुत कोशिश करने पर 3 का साढ़े 3 लाख रुपए हो जाएगा.’

‘फिर तो आप उसी स्तर का वर ढूंढ़ लीजिए अपनी मिट्ठी के लिए. आप तो जानते ही हैं कि जितना गुड़ डालोगे उतना ही मीठा होगा. वैसे भी उस लड़के का संबंध तय हो गया और 15 लाख रुपए पर बात पक्की हुईर् है. 5-6 लाख रुपए का तो केवल तिलक आएगा,’ कहते हुए देवदत्त बाबू उठ खड़े हुए थे.

मिट्ठी ने बीए पास कर एमए में दाखिला ले लिया था. उधर सर्वेश्वर बाबू ने वर खोजो अभियान तेज कर दिया था. हर माह 2-3 भावी वर और उस के मातापिता उसे देखने आते. पर कुछ न कुछ ऐसा हो जाता था कि बात बनतेबनते रह जाती. सर्वेश्वर बाबू ने अब यह कहना भी बंद कर दिया था कि वे दहेज प्रथा में विश्वास नहीं करते और प्रस्तावित दहेज की रकम बढ़ा कर 4 लाख रुपए कर दी थी. पर जब सभी प्रयत्नों के बाद भी वह बेटी के लिए एक अदद वर नहीं ढूंढ़ पाए तो सब का क्रोध मिट्ठी पर उतरने लगा था. उस की दादीमां ने तो एक दिन खुलेआम ऐलान भी कर दिया था कि घर में कन्या पैदा होने से बड़ा अभिशाप कोई और नहीं है.

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परिवर्तन: भाग 1- राहुल और कवि की कहानी

लेखक- खुशीराम पेटवाल

‘‘पर कवि, भगवान तो है ही न.’’

‘‘मैं तुम्हें पहले भी कई बार कह चुकी हूं कि अपना भगवान अपने पास रखो,’’ कवि झुंझला कर बोली, ‘‘वह तुम्हारा है, सिर्फ तुम्हारा. तुम्हारी पत्नी होने के नाते वह मेरा भी है, यह तुम्हारी धारणा गलत है. मैं तुम से कई बार कह चुकी हूं कि तुम्हारा भगवान मंदिरों में ही ठीक लगता है जहां वह मानसिक और शारीरिक रूप से कमजोर इनसानों की दया पर निर्भर है. तुम्हें शायद याद नहीं, यही गुजरात है जहां के सोमनाथ मंदिर को महमूद गजनवी ने लूटा था. वह भी एक इनसान था और उस के हाथों पिटा तुम्हारा भगवान. सर्वशक्तिमान हो कर भी कुछ न कर सका. लुटवा दी सारी संपदा, तुड़वा दी अपनी मूरत.’’

‘‘कवि, तुम बातों को सहज रूप में नहीं लेती हो. तुम्हें तो जो तर्क की कसौटी पर सही लगता है उसे ही तुम सही मानती हो. तुम ईश्वर का अस्तित्व वैज्ञानिक धरातल पर तलाशती हो. पर इतना जरूर कहूंगा कि कोई ऐसी एक ताकत जरूर है जो इस संसार को गतिमान कर रही है.’’

‘‘यह तो प्रकृति है जो यहां पहले से ही मौजूद है. ये सब अनादि काल से ऐसा ही चल रहा है.’’

‘‘ठीक है, तो इन में जीवन का संचार कौन कर रहा है?’’

‘‘कौन से क्या मतलब? जीवन का संचार सूर्य से है. सूर्य से ही ऊर्जा मिलती है. गहरे अर्थों में जाओ तो हाइड्रोजन हीलियम में बदलती है और बदलाव से ऊर्जा मिलती है जो सूर्य के अंदर मौजूद है और ऊर्जा से ही यह सारा संसार चलता है.’’

‘‘पर तुम्हारा सूर्य भी तो किसी ने बनाया होगा?’’

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‘‘तुम प्रश्न तो गढ़ते हो पर यह क्यों नहीं मानते कि ये चीजें पहले से ही यहां मौजूद हैं जो निरंतर विकास की अवस्था से गुजरते हुए, अनादि काल से बिना किसी भगवान के सहारे यहां तक पहुंची हैं और आगे भी इसी तरह कुदरती बदलावों के साथ चलती रहेंगी.

‘‘भगवान न कभी था, न है और न होगा. बस, उस के नाम पर धंधा करने वाले लोग एक ढोल बजा कर, भगवान है…भगवान है का शोर इसलिए मचा रहे हैं ताकि वे अपनी गलतियों को ढक सकें. कुछ गलत हो गया तो ‘भगवान की ऐसी ही इच्छा थी.’ जो नहीं जानते उस के लिए ‘भगवान ही जानें.’ कुछ बस में नहीं हुआ तो ‘भगवान’ को आगे कर दिया. कमजोर प्राणी ही भगवान की शरण ढूंढ़ता है.

‘‘हेमंत, तुम भगवान के प्रति इतनी आस्था मत रखा करो. तुम्हें खुद पर विश्वास नहीं है इसलिए तुम अपने टेस्टों में फेल होते हो. मेहनत नहीं कर पाते तो दोष भगवान के माथे मढ़ते हो.’’

‘‘रहने दो कवि, मैं मानता हूं कि मुझ में कहीं कोई कमी है. मैं तुम्हारे आगे हथियार डालता हूं. वैसे इस समय मैं सोने के मूड में हूं क्योंकि सारी रात राहुल ने सोने नहीं दिया है. कान दर्द बताता रहा.’’

‘‘यह कान दर्द भी तुम्हारे भगवान ने दिया होगा. यह क्यों नहीं कहते कि रात को स्टार मूवीज की गरमागरम फिल्म देख रहे थे और बहाना राहुल का बना रहे हो. इस में भी तुम्हारा कोई दोष नहीं क्योंकि भगवान के प्रति आस्था रखने वाले झूठ का सहारा तो लेते ही हैं.’’

‘‘कवि, राहुल उठ गया है उसे ले लो तो मैं थोड़ी देर तक दिल्ली में चल रही गणतंत्रदिवस परेड देख लूं.’’

राहुल को पालने में लिटा कर कवि उस के लिए दूध बनाने रसोईघर में घुसी. दूध बनाने के बाद बोतल से राहुल को दूध पिलाने लगी. घड़ी की टनटन की आवाज के साथ उस ने देखा तो  साढ़े 8 बज गए थे. वह सोचने लगी कि आया भी अभी तक नहीं आई. जाने कब आएगी. आती तो मुझे फुरसत मिलती इस राहुल से.

राहुल की आंखों में कवि की गोद में आने का आग्रह था, पर वह इस लालच में कभी पड़ी ही नहीं. उसे डर था कि यदि बच्चे को मां की गोद में रहने की आदत पड़ गई तो उस के लिए बड़ी दिक्कत हो जाएगी. राहुल हाथपैर हिलाहिला कर दूध पीता रहा.

कवि हेमंत के लिए चाय बना कर उसे प्याले में उड़ेलने लगी. यह क्या, चाय बाहर क्यों गिर रही है? मुझे किस ने धक्का दिया? कहीं मुझे चक्कर तो नहीं आ रहा है? राहुल पालने में जोरजोर से क्यों झूल रहा है? उसे कौन झुला रहा है और ये बरतन हिलते हुए दूसरी तरफ क्यों जा रहे हैं? ओह नो, भूकंप…

कवि घबराई हुई राहुल पर झपटी. उसे गोद में ले कर बेडरूम में भागी, हेमंत उठो, ‘‘भूकंप. गिरजा को लो.’’

शायद हेमंत भी स्थिति को समझ गया था. वह तेजी से गिरजा को गोदी में ले कर भागा. दोनों अपनीअपनी गोद में बच्चों को ले कर सीढि़यों की तरफ भागे. कवि ने देखा कि हेमंत 5-6 सीढि़यां ही उतर पाया था कि अचानक वह सीढि़यों के साथ नीचे गिरता चला गया. कवि के मुंह से चीख निकली, ‘‘हेमंत, बचो,’’ पर यह क्या मैं भी…और मेरे ऊपर भी दीवार भयानक ढंग से नीचे आ रही थी. कवि को बस, उस समय यही लगा था कि सारी बिल्ंिडग नीचे धंस रही है.

अचानक कवि जागी उसे लगा कि सिर और पैर में तेज दर्द है. सिर पर हाथ फिरा कर देखा तो कुछ चिपचिपा सा लगा. पैर में भी चोट आई थी. ‘मैं कहां हूं,’ कवि ने खुद से पूछा तो उसे याद आया कि वह तो राहुल को ले कर नीचे की ओर भागी थी…राहुल, वह कहां है?

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अपने अगलबगल टटोला तो उस से थोड़ी ही दूरी पर राहुल पड़ा था. वह शायद सो रहा था. कवि ने उसे उठाया. सिर से पैर तक उस के अंगों को टटोल कर देखा. अचानक उस के मुंह से निकला, मेरे बच्चे, ‘तुम ठीक तो हो.’ और इस के बाद कवि उसे बेतहाशा चूमने लगी. यह बच्चे के जीवित रहने की खुशी थी जो प्यार बन कर उस के समूचे बदन को चूम रही थी. उस ने टटोल कर देखा तो बच्चे का अंगप्रत्यंग सलामत था. उस के बदन पर कहीं खरोंच तक न थी. मां के शरीर का स्पर्श पा कर राहुल जाग गया और उस के मुंह से निकला, ‘मां…’

कवि ने उसे अपने सीने से चिपका लिया. उस की आंखों से आंसू टपकने लगे. अचानक उसे गिरजा का खयाल आया और किसी अनहोनी की आशंका से वह सिहर गई. ‘गिरजा…’ वह तो हेमंत के हाथों में थी. हेमंत सीढि़यों सहित नीचे जा गिरा था. वह कहां है, जिंदा भी है या…

और एक अज्ञात भय से

कवि कांप गई. जोर  से चिल्लाई, ‘‘हेमंत…हे…मं…त… गिरजा… गि… र… जा…हे…मं….त…’’

आगे पढ़ें- राहुल रो रहा था. उसे शायद…

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शहीद: भाग 1- क्या था शाहदीप का दीपक के लिए फैसला

ऊबड़खाबड़ पथरीले रास्तों पर दौड़ती जीप तेजी से छावनी की ओर बढ़ रही थी. इस समय आसपास के नैसर्गिक सौंदर्य को देखने की फुरसत नहीं थी. मैं जल्द से जल्द अपनी छावनी तक पहुंच जाना चाहता था.

आज ही मैं सेना के अधिकारियों की एक बैठक में भाग लेने के लिए श्रीनगर आया था. कश्मीर रेंज में तैनात ब्रिगेडियर और उस से ऊपर के रैंक के सभी सैनिक अधिकारियों की इस बैठक में अत्यंत गोपनीय एवं संवेदनशील विषयों पर चर्चा होनी थी अत: किसी भी मातहत अधिकारी को बैठक कक्ष के भीतर आने की इजाजत नहीं थी.

बैठक 2 बजे समाप्त हुई. मैं बैठक कक्ष से बाहर निकला ही था कि सार्जेंट रामसिंह ने बताया, ‘‘सर, छावनी से कैप्टन बोस का 2 बार फोन आ चुका है. वह आप से बात करना चाहते हैं.’’

मैं ने रामसिंह को छावनी का नंबर मिलाने के लिए कहा. कैप्टन बोस की आवाज आते ही रामसिंह ने फोन मेरी तरफ बढ़ा दिया.

‘‘हैलो कैप्टन, वहां सब ठीक तो है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां सर, सब ठीक है,’’ कैप्टन बोस बोले, ‘‘लेकिन अपनी छावनी के भीतर भारतीय सैनिक की वेशभूषा में घूमता हुआ पाकिस्तानी सेना का एक लेफ्टिनेंट पकड़ा गया है.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता चला कि वह पाकिस्तानी सेना का लेफ्टिनेंट है? वह छावनी के भीतर कैसे घुस आया? उस के साथ और कितने आदमी हैं? उस ने छावनी में किसी को कोई नुकसान तो नहीं पहुंचाया?’’ मैं ने एक ही सांस में प्रश्नों की बौछार कर दी.

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‘‘सर, आप परेशान न हों. यहां सब ठीकठाक है. वह अकेला ही है. उस से बरामद पहचानपत्र से पता चला कि वह पाकिस्तानी सेना का लेफ्टिनेंट है,’’ कैप्टन बोस ने बताया.

‘‘मैं फौरन यहां से निकल रहा हूं तब तक तुम उस से पूछताछ करो लेकिन ध्यान रखना कि वह मरने न पाए,’’ इतना कह कर मैं ने फोन काट दिया.

श्रीनगर से 85 किलोमीटर दूर छावनी तक पहुंचने में 4 घंटे का समय इसलिए लगता है क्योंकि पहाड़ी रास्तों पर जीप की रफ्तार कम होती है. मैं अंधेरा होने से पहले छावनी पहुंच जाना चाहता था.

मेरे छावनी पहुंचने की खबर पा कर कैप्टन बोस फौरन मेरे कमरे में आए.

‘‘कुछ बताया उस ने?’’ मैं ने कैप्टन बोस को देखते ही पूछा.

‘‘नहीं, सर,’’ कैप्टन बोस दांत भींचते हुए बोले, ‘‘पता नहीं किस मिट्टी का बना हुआ है. हम लोग टार्चर करकर के हार गए लेकिन वह मुंह खोलने के लिए तैयार नहीं है.’’

‘‘परेशान न हो. मुझे अच्छेअच्छों का मुंह खुलवाना आता है,’’ मैं ने अपने कैप्टन को सांत्वना दी फिर पूछा, ‘‘क्या नाम है उस पाकिस्तानी का?’’

‘‘शाहदीप खान,’’ कैप्टन बोस ने बताया.

इन 2 शब्दों ने मुझे झकझोर कर रख दिया था.

मैं ने अपने मन को सांत्वना दी कि इस दुनिया में एक नाम के कई व्यक्ति हो सकते हैं किंतु क्या ‘शाहदीप’ जैसे अनोखे नाम के भी 2 व्यक्ति हो सकते हैं? मेरे अंदर के संदेह ने फिर अपना फन उठाया.

‘‘सर, क्या सोचने लगे,’’ कैप्टन बोस ने टोका.

‘‘वह पाकिस्तानी यहां क्यों आया था, यह हर हालत में पता लगाना जरूरी है,’’ मैं ने सख्त स्वर में कहा और अपनी कुरसी से उठ खड़ा हुआ.

कैप्टन बोस मुझे बैरक नंबर 4 में ले आए. उस पाकिस्तानी के हाथ इस समय बंधे हुए थे. नीचे से ऊपर तक वह खून से लथपथ था. मेरी गैरमौजूदगी में उस से काफी कड़ाई से पूछताछ की गई थी. मुझे देख उस की बड़ीबड़ी आंखें पल भर

के लिए कुछ सिकुड़ीं फिर उन में एक अजीब बेचैनी सी समा गई.

मुझे वे आंखें कुछ जानीपहचानी सी लगीं किंतु उस का पूरा चेहरा खून से भीगा हुआ था इसलिए चाह कर भी मैं उसे पहचान नहीं पाया. मुझे अपनी ओर घूरता देख उस ने कोशिश कर के पंजों के बल ऊपर उठ कर अपने चेहरे को कमीज की बांह से पोंछ लिया.

खून साफ हो जाने के कारण उस का आधा चेहरा दिखाई पड़ने लगा था. वह शाहदीप ही था. मेरे और शाहीन के प्यार की निशानी. हूबहू मेरी जवानी का प्रतिरूप.

मेरा अपना ही खून आज दुश्मन के रूप में मेरे सामने खड़ा था और उस के घावों पर मरहम लगाने के बजाय उसे और कुरेदना मेरी मजबूरी थी. अपनी इस बेबसी पर मेरी आंखें भर आईं. मेरा पूरा शरीर कांपने लगा. एक अजीब सी कमजोरी मुझे जकड़ती जा रही थी. ऐसा लग रहा था कि कोई सहारा न मिला तो मैं गिर पड़ ूंगा.

‘‘लगता है कि हिंदुस्तानी कैप्टन ने पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट से हार मान ली, तभी अपने ब्रिगेडियर को बुला कर लाया है,’’ शाहदीप ने यह कह कर एक जोरदार कहकहा लगाया.

यह सुन मेरे विचारों को झटका सा लगा. इस समय मैं हिंदुस्तानी सेना के ब्रिगेडियर की हैसियत से वहीं खड़ा था और सामने दुश्मन की सेना का लेफ्टिनेंट खड़ा था. उस के साथ कोई रिआयत बरतना अपने देश के साथ गद्दारी होगी.

मेरे जबड़े भिंच गए. मैं ने सख्त स्वर में कहा, ‘‘लेफ्टिनेंट, तुम्हारी भलाई इसी में है कि सबकुछ सचसच बता दो कि यहां क्यों आए थे वरना मैं तुम्हारी ऐसी हालत करूंगा कि तुम्हारी सात पुश्तें भी तुम्हें नहीं पहचान पाएंगी.’’

‘‘आजकल एक पुश्त दूसरी पुश्त को नहीं पहचान पाती है और आप सात पुश्तों की बात कर रहे हैं,’’ यह कह कर शाहदीप हंस पड़ा. उस के चेहरे पर भय का कोई निशान नहीं था.

मैं ने लपक कर उस की गरदन पकड़ ली और पूरी ताकत से दबाने लगा. देशभक्ति साबित करने के जनून में मैं बेरहमी पर उतर आया था. शाहदीप की आंखें बाहर निकलने लगी थीं. वह बुरी तरह से छटपटाने लगा. बहुत मुश्किल से उस के मुंह से अटकते हुए स्वर निकले, ‘‘छोड़…दो मुझे…मैं…सबकुछ…. बताने के लिए तैयार हूं.’’

‘‘बताओ?’’ मैं उसे धक्का देते हुए चीखा.

‘‘मेरे हाथ खोलो,’’ शाहदीप कराहा.

कैप्टन बोस ने अपनी रिवाल्वर शाहदीप के ऊपर तान दी. उन के इशारे पर पीछे खड़े सैनिकों में से एक ने शाहदीप के हाथ खोल दिए.

हाथ खुलते ही शाहदीप मेरी ओर देखते हुए बोला, ‘‘क्या पानी मिल सकता है?’’

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मेरे इशारे पर एक सैनिक पानी का जग ले आया. शाहदीप ने मुंह लगा कर 3-4 घूंट पानी पिया फिर पूरा जग अपने सिर के ऊपर उड़ेल लिया. शायद इस से उस के दर्द को कुछ राहत मिली तो उस ने एक गहरी सांस भरी और बोला, ‘‘हमारी ब्रिगेड को खबर मिली थी कि कारगिल युद्ध के बाद हिंदुस्तानी फौज ने सीमा के पास एक अंडरग्राउंड आयुध कारखाना बनाया है. वहां खतरनाक हथियार बना कर जमा किए जा रहे हैं ताकि युद्ध की दशा में फौज को तत्काल हथियारों की सप्लाई हो सके. उस कारखाने का रास्ता इस छावनी से हो कर जाता है. मैं उस की वीडियो फिल्म बनाने यहां आया था.’’

इस रहस्योद्घाटन से मेरे साथसाथ कैप्टन बोस भी चौंक पड़े. भारतीय फौज की यह बहुत गुप्त परियोजना थी. इस के बारे में पाकिस्तानियों को पता चल जाना खतरनाक था.

‘‘मगर तुम्हारा कैमरा कहां है जिस से तुम वीडियोग्राफी कर रहे थे,’’ कैप्टन बोस ने डपटा.

शाहदीप ने कैप्टन बोस की तरफ देखा, इस के बाद वह मेरी ओर मुड़ते हुए बोला, ‘‘आज के समय में फिल्म बनाने के लिए कंधे पर कैमरा लाद कर घूमना जरूरी नहीं है. मेरे गले के लाकेट में एक संवेदनशील कैमरा फिट है जिस की सहायता से मैं ने छावनी की वीडियोग्राफी की है.’’

इतना कह कर उस ने अपने गले में पड़ा लाकेट निकाल कर मेरी ओर बढ़ा दिया. वास्तव में वह लाकेट न हो कर एक छोटा सा कैमरा था जिसे लाकेट की शक्ल में बनाया गया था. मैं ने उसे कैप्टन बोस की ओर बढ़ा दिया.

उस ने लाकेट को उलटपुलट कर देखा फिर प्रसंशात्मक स्वर में बोला, ‘‘सर, भारतीय सेना के हौसले आप जैसे काबिल अफसरों के कारण ही इतने बुलंद हैं.’’

‘काबिल’ यह एक शब्द किसी हथौड़े की भांति मेरे अंतर्मन पर पड़ा था. मैं खुद नहीं समझ पा रहा था कि यह मेरी काबिलीयत थी या कोई और कारण जिस की खातिर शाहदीप इतनी जल्दी टूट गया था. मेरे सामने मेरा खून इस तरह टूटने के बजाय अगर देश के लिए अपनी जान दे देता तो शायद मुझे ज्यादा खुशी होती.

‘‘सर, अब इस लेफ्टिनेंट का क्या किया जाए?’’ कैप्टन बोस ने यह पूछ कर मेरी तंद्रा भंग की.

‘‘इसे आज रात इसी बैरक में रहने दो. कल सुबह इसे श्रीनगर भेज देंगे,’’ मैं ने किसी पराजित योद्धा की भांति सांस भरी.

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झूठ से सुकून: भाग 3- शशिकांतजी ने कौनसा झूठ बोला था

लेखक- डा. मनोज मोक्षेंद्र

पर कुलदीपा कहां मानने वाली? वह मुंह फुला कर बड़बड़ाती हुई कोपभवन में चली गई. ‘शराब के धंधे में कुछ गड़बड़झाला होगा तो उमाकांतजी ही भुगतेंगे,’ वह बच्चों की तरह बड़बड़ा रही थी. मैं समझ गया कि अब मुझे उमाकांतजी का काम कराना ही पड़ेगा, नहीं तो, जिद्दी बीवी दानापानी तक के लिए हम सब को परेशान कर देगी.

अपार्टमैंट में आए हुए कोई 3 महीने गुजर गए थे. इस दौरान, मेरी ख्याति अपनी वैलफेयर सोसायटी के एक सफल कार्यकर्ता के रूप में चतुर्दिक फैल गई थी. मेरी मेहनत की बदौलत, बिल्डर निरंजन ने घुटने टेक दिए थे और नगरनिगम के अधिकारी

हमारे अपार्टमैंट में दूसरी कालोनियों की अपेक्षा बेहतर सुविधाएं देने लगे थे. मैं ने अपार्टमैंट के लोगों के कई प्राइवेट काम भी कराए जिस से मैं उन का सब से बड़ा खैरख्वाह बन गया. लोगबाग मेरा फेवर पाने के लिए तरहतरह के तिकड़म अपनाने लगे. कभी चाय पर बुला लेते तो कभी डिनर पर. शाम को औफिस से लौटने के बाद, मैं जैसे ही घर में दस्तक देता, अपार्टमैंट वालों का हुजूम बारीबारी से उमड़ पड़ता. अब तो कुलदीपा भी एकदम से ऊबने लगी थी क्योंकि उसे हर आगंतुक के लिए चायपान जो तैयार करना पड़ता था, उन की बेवक्त खातिरदारी जो करनी पड़ती थी. पर वह भी मजबूर थी, उन के खिलाफ कुछ भी नहीं बोलती क्योंकि उस ने ही तो मुझे महज कालोनी में महत्त्वपूर्ण व्यक्ति साबित करने के लिए उन की खिदमत में उन के सामने पेश किया था जिस से वे ढीठ बनते गए. ऐसे में जब मैं उमाकांत, नीलेश, लाल और भीमसेन आदि की नुक्ताचीनी करता तो वह खामोश रहती या अपराधबोध के कारण अंदर रसोई में चली जाती.

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चुनांचे, मेरे साथ सब से बुरी बात यह हुई कि मैं औफिस के काम में कोताही बरतने के कारण एक ऐसे बिगड़े हुए अधिकारी के रूप में जाना जाने लगा जो औफिस में काम को गंभीरता से नहीं लेता है, अपने अधीनस्थों को दबा कर रखता है और अनियमितताएं करने में संकोच नहीं करता. इस का खमियाजा भी मुझे ही भुगतना पड़ा. वर्ष के अंत में, वार्षिक रिपोर्ट में मेरी जो उपलब्धियां दर्शाई गईं, वे अत्यंत निराशाजनक थीं, उस कारण मेरे उच्चाधिकारी मुझ से नाराज रहने लगे और कार्यप्रणाली में बारबार कमियां निकालने लगे, रुकावटें डालने लगे. तनाव इतना बढ़ता गया कि इस बाबत मैं ने कुलदीपा को भी बतलाने की बारबार कोशिश की. पर वह हर बार मुंह बिचका कर कोई जवाब नहीं देती.

एक दिन, एक अजीबोगरीब घटना ने हमें जैसे नींद से जगा दिया. हमारे किशोर बेटे सुमित्र की आलमारी से शराब की बोतल बरामद हुई जो आधी खाली थी. कुलदीपा तो आपे से बाहर हो गई. जब सुमित्र की पिटाई हुई तो उस ने स्वीकार किया कि यह बोतल खुद उमाकांत अंकल ने उसे बुला कर यह कहते हुए दी कि इस के सेवन से कद बढ़ता है और छाती चौड़ी होती है. मैं आवेश में उमाकांत के पास जाने वाला ही था कि कुलदीपा ने मेरा हाथ पकड़ लिया, ‘‘अब झगड़ाफसाद करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा. मैं जानती हूं कि वह शरीफ आदमी नहीं है. आप कुछ कहेंगे तो वह लड़ने पर उतारू हो जाएगा. क्या आप को मालूम नहीं है कि वह अपार्टमैंट में सब को कैसे दबा कर रखता है? कुछ दिनों से वह आप की गैरहाजिरी में मेरे फ्लैट में किसी न किसी बहाने से आने की ताक में रहने लगा है. मुझे उस का इरादा नेक नहीं लगता है.’’

कुलदीपा के शब्द सुन कर मेरे पैर के नीचे से जमीन खिसकती सी लगी. मैं तो यह पहले ही भांप गया था कि उमाकांत गिरा हुआ इंसान है, पर इस बात का बिलकुल अंदाजा नहीं था कि उस की गंदी नजर मेरे ही घर पर है. लिहाजा, उस दिन शाम को जब मैं थकामांदा औफिस से घर लौटा तो मैं ने बेटे सुमित्र को बता दिया कि यदि सोसायटी का कोई आदमी किसी काम से आए तो कह देना कि पापा की तबीयत ठीक नहीं है और वे सो रहे हैं. अभी मैं ने मुश्किल से आंखें झपकाई ही थीं कि बाहर उठे अचानक शोर से मैं बेचैन हो उठा. कुछ लोगों के बीच लड़ाई के अंदाज में जोरजोर से बातचीत हो रही थी जिस में नीलेश की आवाज ज्यादा ऊंची थी. मैं हड़बड़ा कर बाहर निकला तो यह देख कर दंग रह गया कि नीलेश ने उमाकांत की गरदन जोर से दबोच रखी है. जब मैं उन के पास पहुंचा तो नीलेश, उमाकांत को अपनी पकड़ से मुक्त करते हुए बोल उठा, ‘‘देखिए शशिकांत साहब, उमाकांतजी मेरे साथ धोखाधड़ी कर रहे हैं. कोई 6 महीने पहले मैं ने इन्हें शराब का ठेका खोलने के लिए 4 लाख रुपए दिए थे, पर अब तो ये साफ कह रहे हैं कि मैं ने इन्हें एक धेला भी नहीं दिया है. दोस्ती के नाम पर मैं ने किसी कागज पर इन से कुछ भी नहीं लिखवाया. मैं ने कभी नहीं सोचा था कि मेरा इतने बड़े दगाबाज आदमी से पाला पड़ेगा.’’

उमाकांतजी ने भी बारबार कहा कि नीलेश दोस्ती का वास्ता दे कर मुझ से झूठमूठ के रुपए ऐंठना चाहता है. मुझे तो दोनों बेहद बेईमान लग रहे थे. पर उस घटना में मैं आखिर तक खामोश रहा. दोनों थाने गए तो भी मैं उन के साथ नहीं गया. दोनों अलगअलग मुझ से पैरवी करने के लिए गिड़गिड़ाए, पर मैं टस से मस नहीं हुआ. आखिर मैं किस का साथ देता? इसी बीच, कुलदीपा ने आ कर इशारे से बुला लिया.

नीलेश और उमाकांत के साथ क्या हुआ, यह जानने की जहमत मैं ने नहीं उठाई. लेकिन उस रात मैं बिलकुल सो नहीं सका. अपार्टमैंट का माहौल बेहद खराब था. बच्चे भी बिगड़ रहे थे. 12 साल की बेटी तनु भी मुझ से कई बार शिकायत कर चुकी थी कि अपार्टमैंट के बच्चे उसे कमीजसलवार में देख कर ‘बहनजी, आंटीजी’ कह कर छेड़ते हैं क्योंकि मैं ने ही उसे सख्त हिदायत दे रखी थी कि उसे सलीके के कपड़े पहनने चाहिए. कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि नीलेश और उमाकांत के बीच किसी न किसी तरह सुलह हो चुकी है और दोनों फिर से साथसाथ रहने लगे हैं. इस दरम्यान, मैं वैलफेयर सोसायटी से बारबार कन्नी काट कर कभी किसी मेहमान के यहां चला जाता तो कभी औफिस से काफी देर बाद लौटता. सोसायटी वालों को मुझ से मुलाकात करने का मौका ही न मिलता.

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रविवार का दिन था. कुलदीपा मुझे देख, कुछकुछ अचंभित थी क्योंकि कई दिनों के बाद मैं शाम को घर जल्दी आया था. उस ने आते ही कहा, ‘‘आज दिन में सोसायटी की जनरल बौडी की मीटिंग थी जिस में आप की गैरहाजिरी में आप की सहमति के बिना आप को सोसायटी का प्रैसिडैंट चुना गया है. उमाकांतजी का बेटा राहुल कई बार आप को बुलाने आ चुका है.’’ मैं मुसकरा उठा, ‘‘अब जल्दीजल्दी सारे सामानअसबाब की पैकिंग कर लो, मैं ने यह फ्लैट बेच कर कविनगर में एक नया विला खरीद लिया है. अब मुझे यहां एक पल के लिए भी रहना बरदाश्त नहीं हो रहा है. अभी चंद मिनट में कुछ मजदूर बाहर खड़े ट्रक में हमारा सामान लादने के लिए आ रहे हैं.’’ जब तक कि मजदूर घर में घुस नहीं आए, तनु और सुमित्र सोच रहे थे कि मैं कोई पहेली बुझा रहा हूं. उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि हम इस गंदे अपार्टमैंट को छोड़ किसी विला में जा रहे हैं और आखिर पापा ने इतना कुछ इतने चुपके से किया.

दरअसल, मैं ने उन्हें कुछ कहनेसुनने का मौका ही नहीं दिया क्योंकि तब तक मजदूर आ कर घर का सामान उठाउठा कर ट्रक में रखने लगे थे और कुलदीपा भी उन्हें सामानों को हिफाजत से रखने की हिदायतें देने लगी थी. आधे घंटे में घर खाली हो गया. तब तक अपार्टमैंट के पड़ोसी मूकदर्शक बने ये सब कुछ देख रहे थे. कुछ लोग फुसफुसा रहे थे कि शशिकांतजी साहब ने तो यह फ्लैट पिछले साल ही खरीदा था, फिर क्या वे इस फ्लैट को किराए पर उठाने जा रहे हैं. तभी नीलेश और उमाकांत आते दिखे. उमाकांतजी मुझे कुछ पल चुपचाप देखते रहे, फिर मैं ने उन की चुप्पी तोड़ी, ‘‘उमाकांतजी, कल इस फ्लैट में एक दूसरे साहब आ रहे हैं. पर वे न तो कोई सरकारी अफसर हैं, न ही कोई कानूनदां. हां, वे बिल्डर निरंजन के साढ़ू भाई हैं. अगर हो सके तो आप लोग उन्हें ही सोसायटी का प्रैसिडैंट चुन लेना.’’

उमाकांतजी हकला उठे, ‘‘पर, शशिकांत साहब, आप हमें छोड़ कर जा कहां रहे हैं? अपना पताठिकाना तो देते जाइए. अभी तो आप के जरिए मुझे ढेरों काम करवाने हैं. आप से अब मिलना कहां होगा? मैं आप से संपर्क में कैसे बना रहूंगा.’’

मैं ने कहा, ‘‘उमाकांतजी, मेरा तबादला तो विदेश में हो गया है. अगर आप वहां आ सकें तो मैं अभी आप को अपना पताठिकाना नोट कराए देता हूं.’’ मैं अपनी जिंदगी का वह पहला झूठ बोल कर इसी शहर के महल्ले में सुकून से रह रहा हूं. कभीकभार उमाकांतजी, भीमसेनजी या नीलेशजी रास्ते में टकरा जाते हैं तो मैं उन से बड़ी सफाई से कतरा कर तेजी से कहीं और निकल जाता हूं और अगर मजबूरन उन से बात करनी भी पड़ जाती है तो मैं एक दूसरा झूठ दाग देता हूं कि अरे भई, किसी जरूरी सरकारी काम से इंडिया आया था. कल सुबह की ही फ्लाइट से वापस जा रहा हूं.

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एक मौका और : भाग 1- हमेशा होती है अच्छाई की जीत

लेखिका- मरियम के. खान

कमाल खान के पिता स्क्रैप कारोबारी थे. कमाल अपने मांबाप की एकलौती संतान था इसलिए लाड़प्यार में वह पढ़ नहीं सका तो पिता ने उसे अपने धंधे में ही लगा लिया. कमाल ने जल्द ही अपने पिता के धंधे को संभाल लिया.

अपनी मेहनत और होशियारी से उस ने अपने पिता से ज्यादा तरक्की की. जल्दी ही वह लाखोंकरोड़ों में खेलने लगा. उस ने अपनी काफी बड़ी फैक्ट्री भी खड़ी कर ली. यह देख पिता ने उस की जल्द ही शादी भी कर दी. कमाल जिस तरह पैसा कमाता था, उसी तरह अय्याशी और अपने दूसरे शौकों पर लुटाता भी था. पिता ने उसे बहुत समझाया पर उस ने उन की बातों पर ध्यान नहीं दिया. इसी वजह से पत्नी से भी उस की नहीं बनती थी, जिस से वह बहुत तनाव में रहने लगी थी.

इस का नतीजा यह हुआ कि 10-12 साल बाद ही बीवी दुनिया ही छोड़ गई. कमाल के पिता दिल के मरीज थे, पर कमाल ने साधनसंपन्न होने के बावजूद न तो उन का किसी अच्छे अस्पताल में इलाज कराया और न ही उन की देखभाल की, जिस से उन की भी मौत हो गई.

पिता की मृत्यु के बाद कमाल पूरी तरह से आजाद हो गया था. अब वह अपनी जिंदगी मनमाने तरीके से गुजारने लगा. एक बार उसे ईमान ट्रस्ट के स्कूल में चीफ गेस्ट के तौर पर बुलाया गया था. वहां उस की नजर नूर नाम की छात्रा पर पड़ी जो सिर्फ 15 साल की थी और वहां 11वीं कक्षा में पढ़ती थी.

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कमाल खान उस पर जीजान से फिदा हो गया. उस ने फैसला कर लिया कि वह नूर से शादी करेगा. जल्द ही उस ने पता लगाया तो जानकारी मिली कि वह रहमत की बेटी है. रहमत चाटपकौड़ी का ठेला लगाता था. इस काम से उस के परिवार का गुजारा बड़ी मुश्किल से होता था.

इसी बीच अचानक एक दिन रात को उस के ठेले को किसी ने आग लगा दी. वही ठेला उस की रोजीरोटी का सहारा था. रहमत बहुत परेशान हुआ. उस के परिवार की भूखों मरने की नौबत आ गई. ऐसे वक्त पर कमाल खान एक फरिश्ते की तरह उस के पास पहुंचा. उस ने रहमत की खूब आर्थिक मदद की. इतना ही नहीं, उस ने उसे एक पक्की दुकान दिला कर उस का कारोबार भी जमवा दिया.

रहमत हैरान था कि इतना बड़ा सेठ उस पर इतना मेहरबान क्यों है. लेकिन रहमत की अनपढ़ बीवी समझ गई थी कि कमाल खान की नजर उस की बेटी नूर पर है.

जल्दी ही कमाल खान ने नूर का रिश्ता मांग लिया. रहमत इतनी बड़ी उम्र के व्यक्ति के साथ बेटी की शादी नहीं करना चाहता था, पर उस की बीवी ने कहा, ‘‘मर्द की उम्र नहीं, उस की हैसियत और दौलत देखी जाती है. हमारी बेटी वहां ऐश करेगी. फौरन हां कर दो.’’

रहमत ने पत्नी की बात मान कर हां कर के शादी की तारीख भी तय कर दी. नूर तो वेसे ही खूबसूरत थी, पर उस दिन लाल जोड़े में उस की खूबसूरती और ज्यादा बढ़ गई थी. मांबाप ने ढेरों आशीर्वाद दे कर नूर को घर से विदा किया.

कमाल खान उसे पा कर खुश था. अब नूर की किस्मत भी एकदम पलट गई थी. अभावों भरी जिंदगी से निकल कर वह ऐसी जगह आ गई थी, जहां रुपएपैसे की कोई कमी नहीं थी. नूर से निकाह करने के बाद कमाल खान में भी सुधार आ गया था.

उस ने अब बाहरी औरतों से मिलना बंद कर दिया. वह नूर को दिलोजान से प्यार करने लगा. उस के अंदर यह बदलाव नूर की मोहब्बत और खिदमत से आया था. कमाल ने सारी बुरी आदतें छोड़ दीं.

जिंदगी खुशी से बसर होने लगी. देखतेदेखते 5 साल कब गुजर गए, उन्हें पता ही नहीं चला. उन के यहां 2 बेटे और एक बेटी पैदा हो गई. कमाल खान ने अपने बच्चों की अच्छी परवरिश की. इसी दौरान कमाल अपने आप को कमजोर सा महसूस करने लगा. पता नहीं उसे क्यों लग रहा था कि वह अब ज्यादा नहीं जिएगा. एक दिन उस ने नूर से कहा, ‘‘नूर, तुम अपनी पढ़ाई फिर से शुरू कर दो.’’

पति की यह बात सुन कर नूर चौंकते हुए बोली, ‘‘यह आप क्या कह रहे हैं. मैं अब इस उम्र में पढ़ाई करूंगी? यह तो बेटे के स्कूल जाने का वक्त है.’’

‘‘देखो नूर, मेरे बाद तुम्हें ही अपना सारा बिजनैस संभालना है. तुम बच्चों पर कभी भरोसा मत करना. मुझे उम्मीद है कि मेरे बच्चे भी मेरी तरह ही खुदगर्ज निकलेंगे.’’ कमाल खान ने पत्नी को समझाया.

नूर को शौहर की बात माननी पड़ी और उस ने पढ़ाई शुरू कर दी. 4 साल में उस ने ग्रैजुएशन पूरा कर लिया. अब उस की बेटी भी स्कूल जाने लगी थी. नूर अपने बच्चों से बहुत प्यार करती थी. कालेज के बाद वह अपना सारा वक्त उन्हीं के साथ गुजारती थी. बच्चों की पढ़ाई भी महंगे स्कूलों में हो रही थी.

कमाल खान ने नूर के मायके वालों को भी इतना कुछ दे दिया था कि वे सभी ऐश की जिंदगी गुजार रहे थे. नूर के सभी भाईबहनों की शादियां हो गई थीं. नूर के ग्रैजुएशन के बाद कमाल खान ने उस का एडमिशन एमबीए की ईवनिंग क्लास में करा दिया था.

सुबह वह उसे अपने साथ नई फैक्ट्री ले जाता, जहां वह उसे कारोबार की बारीकियां बताता. नूर काफी जहीन थी. जल्दी ही वह कारोबार की सारी बारीकियां समझ गई.

उस का एमबीए पूरा होते ही कमाल ने उसे बोर्ड औफ डायरेक्टर्स का मेंबर बना दिया और कंपनी के एकतिहाई शेयर उस के नाम कर दिए. नूर समझ नहीं पा रही थी कि पति उसे फैक्ट्री के कामों में इतनी जल्दी एक्सपर्ट क्यों बनाना चाहते हैं.

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इस के पीछे कमाल खान का अपना डर और अंदेशा था कि जिस तरह वह स्वार्थ और खुदगर्जी की वजह से अपने पिता की देखभाल नहीं कर पाया तो उस के बच्चे उस की सेवा नहीं करेंगे, क्योंकि स्वार्थ व लालच के कीटाणु उस के बच्चों के अंदर भी आ गए होंगे. इसलिए वह नूर को पूरी तरह से परफेक्ट बनाना चाहता था.

नूर ने फैक्ट्री का सारा काम बखूबी संभाल लिया था. एक दिन अचानक ही उस के शौहर की तबीयत खराब हो गई. उसे बड़े से बड़े डाक्टरों को दिखाया गया. पता चला कि उसे फेफड़ों का कैंसर है. पत्नी इलाज के लिए उसे सिंगापुर ले गई. वहां उस का औपरेशन हुआ. उसे सांस की नकली नली लगा दी गई.

औपरेशन कामयाब रहा. ठीक हो कर वह घर लौट आया. वह फिर से तंदुरुस्त हो कर अपना कामकाज देखने लगा. हालांकि वह पूरी तरह स्वस्थ था, इस के बावजूद भी उसे चैन नहीं था. उस ने धीरेधीरे कंपनी के सारे अधिकार और शेयर्स पत्नी नूर के नाम कर दिए. अपनी सारी प्रौपर्टी और बंगला भी नूर के नाम कर दिया.

इस के 2 साल बाद कैंसर उस के पूरे जिस्म में फैल गया. लाख इलाज के बावजूद भी वह बच नहीं सका. उस के मरते ही उस के रिश्तेदारों ने नूर के आसपास चक्कर काटने शुरू कर दिए. पर नूर ने किसी को भी भाव नहीं दिया, क्योंकि पति के जीते जी उन में से कोई भी रिश्तेदार उन के यहां नहीं आता था.

वैसे भी कमाल खान जीते जी पहले ही प्रौपर्टी का सारा काम इतना पक्का कर के गया था कि किसी बाहरी व्यक्ति के दखलंदाजी करने की कोई गुंजाइश नहीं थी. उस का मैनेजर भी मेहनती और वफादार था. इसलिए बिना किसी परेशानी के नूर ने सारा कारोबार खुद संभाल लिया.

नूर के बच्चे भी अब बड़े हो चुके थे. एक बार की बात है. कारोबार की बातों को ले कर नूर की अपने तीनों बच्चों से तीखी नोंकझोंक हो गई. उसी दौरान नूर की बेटी हुमा एक गिलास में जूस ले आई.

नूर ने जैसे ही जूस पिया तो उस का सिर चकराने लगा और आंखों के सामने अंधेरा छा गया. वह बिस्तर पर ही लुढ़क गई. जब होश आया तो उस ने खुद को एक अस्पताल में पाया.

नूर ने पास खड़ी नर्स से पूछा कि उसे यहां क्यों लाया गया है तो उस ने बताया कि आप पागलों की तरह हरकतें कर रही थीं, इसलिए आप का यहां इलाज किया जाएगा.

नूर आश्चर्यचकित रह गई क्योंकि वह पूरे होशोहवास में थी. तभी अचानक उसे लगा कि यह सब उस के बच्चों ने किया होगा. नूर ने नर्स को काफी समझाने की कोशिश की कि वह स्वस्थ है, लेकिन नर्स ने उस की एक नहीं सुनी. वह उसे एक इंजेक्शन लगा कर चली गई. इस के बाद नूर फिर से सो गई.

जब नूर की आंखें खुलीं तो उसे सामने वाले कमरे में एक आदमी दिखा, जिस की उम्र करीब 45 साल थी पर उस के बाल सफेद थे. बाद में पता लगा कि उस का नाम सोहेल है. उस ने सफेद कुरतापायजामा पहन रखा था. वह बेहद खूबसूरत और स्मार्ट था. सामने खड़ा फोटोग्राफर उस के फोटो खींच रहा था.

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एक नन्हा जीवनसाथी: भाग 1- पति के जाने के बाद सुलभा की जिंदगी में कौन आया

बस की प्रतीक्षा में वह स्टौप के शेड में बैठी थी. गरमी के कारण पसीने से लथपथ…सामने की मुख्य सड़क से लगातार ट्रैफिक भर्राता गुजर रहा था, कारें, सामान से लदे वाहन, आटो, सिटी बसें…हाथ के बैग से उस ने मिनरल वाटर की छोटी बोतल निकाली और 3-4 घूंट पानी पी कर गला तर किया.

कुछ राहत मिली तो उसे सहसा मां के कहे वाक्य स्मरण हो आए :

‘बुरे से बुरे हालात में भी जीवन जीने के लिए कुछ न कुछ ऐसा संबल हमें मिल जाता है कि हम व्यर्थ हो गए जीवन में भी अर्थ खोज लेते हैं. हालांकि बुरे हालात का दिमाग पर इतना असर होता है कि जीने की सारी आशाएं ही जीवन से फिसल जाती हैं और आदमी हो या औरत, आत्महिंसा रूपी भावनाएं दिलोदिमाग पर हावी हो जाती हैं. जिंदगी को इसलिए हमें कस कर थामे रखने वाले साहस की जरूरत होती है. साहस बाहर से नहीं, हमें अपने भीतर ही पैदा करना होता है. वादा करो, निराशा में कोई ऐसा गलत कदम नहीं उठाओगी जो मुझे बहुत अखरे और तुम्हें अपनी बेटी कहनेमानने पर पछताना पड़े कि मैं एक कमजोर दिमाग की लड़की की मां थी. विषम स्थितियों में भी हमें अच्छी स्थितियों की तलाश करनी चाहिए. निराशा जीवन का लक्ष्य नहीं होती, आशा की डोर हमेशा हमें थामे रहना चाहिए.’

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इस महानगर के भर्राते ट्रैफिक के ही शिकार हो गए थे मनीष. अपनी मोटरसाइकिल पर सुबह दफ्तर के लिए निकले थे और आधे घंटे बाद ही अस्पताल से फोन आया था, ‘तुम्हारे पति मनीष की बस से टक्कर होने से मृत्यु हो गई है. अस्पताल में आइए, पुलिस से खानापूरी करवा कर पति का शव ले जाइए.’ विश्वास नहीं हो रहा था कि वह जो सुन रही है, वह वास्तव में सच है. हड़बड़ाई सुलभा अस्पताल के लिए निकल गई, निपट अकेली.

बेतहाशा भागते ट्रैफिक के पार, सड़क के उस तरफ बने गुलाबी रंग के अस्पताल में कुछ देर पहले वह डाक्टर शर्मा के पास बैठी थी. जांच करवाने आई थी. उसे पूर्ण विश्वास था कि वह गर्भवती है. वह सोचती थी बच्चे के सहारे वह अपनी सूनी और नीरस जिंदगी को शायद ठीक से समेटने में सफल हो जाए. जीने का संबल मिल जाएगा तो जीवन का अर्थ भी खोज लेगी वह. परंतु डा. शर्मा ने जांच करने के बाद उस से साफ कह दिया, ‘सौरी मिसेज मनीष, आप गर्भवती नहीं हैं. आप को गलतफहमी है.’

‘ऐसा कैसे हो सकता है, डाक्टर?’ वह हताशा के बावजूद अविश्वास से बोली थी, ‘3 महीने से मुझे पीरियड नहीं आया है. ऐसा मेरे साथ पहले कभी नहीं हुआ. आप के जांच में कहीं कोई गड़बड़ी तो नहीं, डाक्टर?’

‘नहीं. अपने पति मनीष की मौत के हादसे ने आप के दिलोदिमाग पर बहुत गहरा असर डाला है. हार्मोनल असंतुलन के कारण कभीकभी कुछ महिलाओं को पीरियड्स में इस तरह की गड़बडि़यां झेलनी पड़ती हैं. जब दिलोदिमाग संतुलित हो जाएंगे तो हार्मोनल साइकिल भी सही हो जाएगी और सबकुछ सामान्य हो जाएगा.’

‘लेकिन मेरे लिए यह सूचना मेरे पति की मौत से कम भयानक नहीं है, डाक्टर.’ वह आंसू भरी आंखों से डाक्टर की तरफ देख रही थी. उसे अस्पताल के उस कक्ष में सबकुछ डबडबाता व डगमगाता नजर आ रहा था. पानी में तैरता, डूबता और बहता सा. सिर को हलके हाथों थपक दिया था डाक्टर ने, ‘जो सच है, उसे तो स्वीकारना ही पड़ता है, मिसेज मनीष. मनीष की मृत्यु मेरे लिए भी एक बड़ा हादसा है और अपूर्णीय क्षति है. अकसर दफ्तर से लौटते वक्त मनीष हमारे पास अस्पताल में कुछ देर बैठता था. हमारा सहपाठी रहा था वह. यह दूसरी बात है कि मैं ने मैडिकल लाइन पकड़ी और उस ने कंप्यूटर विज्ञान की लाइन.’

अस्पताल से हताशनिराश निकली सुलभा. बाहर आते ही उस ने मां को फोन लगाया, ‘डाक्टर ने जांच कर के बताया कि मुझे भ्रम है. मां, कुछ नहीं है. अब क्या होगा? कैसे और किस के सहारे जीने का मन बनाऊंगी? सिवा अंधकार के अब मुझे कुछ नजर नहीं आ रहा.’

मां फोन पर बिसूरती बेटी को तरहतरह से तसल्ली देती रही थीं. और कर भी क्या सकती थीं. हालांकि उन के दिमाग में यह बात भी आई थी कि बेटी मां नहीं बन रही तो इस के पीछे भी कुछ न कुछ अच्छा ही होगा. जब उस का गम कुछ हलका होगा और जिंदगी पटरी पर लौटेगी तो वह दूसरी शादी के बारे में सोच सकती है. पति के बीमे की रकम कितने दिनों तक उस के जीवन का आधार बनेगी? आखिर तो उसे कोई नौकरी पकड़नी पड़ेगी और बिखरे जीवन को फिर से समेटना पड़ेगा. बहुत संभव है कि उसे फिर कोई उपयुक्त जीवनसाथी मिल जाए. बच्चे वाली महिला से दूसरी शादी करने में लोग अकसर हिचकते हैं.

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मां ने भले कुछ ऐसा सोचा हो पर सुलभा के लिए डाक्टर द्वारा दी गई सूचना बेहद मारक थी और निराशा के गर्त में डूब जाने के लिए बहुत ज्यादा.

मनीष के मित्र डाक्टर ने सुलभा से कई बार कहा था, ‘घर पर दिनभर पड़ीपड़ी क्या करती हो? हमारा अस्पताल जौइन कर लो. नर्स की ट्रेनिंग ले रखी है तुम ने. किस दिन काम आएगी यह?’ परंतु मनीष ने ही डाक्टर के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था तब, ‘क्या करेगी सुलभा वह मामूली नौकरी कर के? मेरी अच्छीखासी तनख्वाह है. घर संभालो. कुछ नई हौबीज के बारे में सोचो. किसी सामाजिक एनजीओ में अपने लिए उपयुक्त भूमिका तलाशो. नर्स के जौब में तुम्हें कोई आत्मसंतोष नहीं मिलेगा जिस की जरूरत हम मध्यवर्गीय लोगों को सब से ज्यादा रहती है.’

हालांकि आज जब वह डाक्टर के अस्पताल में गई तो डाक्टर ने उस के सामने वह पुराना प्रस्ताव नहीं दोहराया, परंतु सुलभा जानती है, जब चाहेगी, डाक्टर के उस अस्पताल को जौइन कर लेगी और अपना गम भुलाने में उसे सहूलियत हो जाएगी.

सहसा उस ने सामने दहाडे़ं मारते गुजरते टै्रफिक के बीच देखा कि एक सफेद रंग के बड़ेबड़े झबरीले बालों वाले पमेरियन ने सड़क पार करनी शुरू कर दी है. वह हालांकि काफी सावधान है परंतु जानवर आदमी जैसा सावधान कैसे हो सकता है? उसे लगा, अभी कुछ ही क्षणों में वह सफेद पमेरियन सड़क पर किसी वाहन के पहियों से कुचल जाएगा और उस का शव सफेद से लाल खूनी रंग में रंग जाएगा. एक दर्दभरी छोटी सी चीख निकलेगी और सबकुछ खत्म हो जाएगा. ऐसा ही हुआ होगा मनीष के साथ भी. हैलमैट के बावजूद सिर बुरी तरह कुचल गया था. पहचानने में नहीं आ रहे थे. मोटरसाइकिल की तरह ही उन के शरीर के भी परखचे उड़ गए थे. वही कुछ इस सफेद पमेरियन के साथ कुछ ही पलों में होने जा रहा है.

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एक नन्हा जीवनसाथी: भाग 2- पति के जाने के बाद सुलभा की जिंदगी में कौन आया

एकदम उछल कर वह सड़क की तरफ दौड़ पड़ी और बिना अपनी जान की परवा किए वह उस पमेरियन को बचाने का जोखिम उठा बैठी.

दायीं तरफ से आती लंबी कार ने जोर से ब्रेक लगाई. चीखती गाड़ी थमतेथमते भी उस तक आ लगी. शीशा नीचा कर उस में बैठा अफसरनुमा व्यक्ति जोर से चिल्लाया, ‘‘क्या कर रही हैं आप? बेवकूफ हैं क्या? एक कुत्ते को बचाने के लिए अपनी जान झोंक दी. मरना है तो जा कर यमुना या रेलगाड़ी चुनिए. हम लोगों को क्यों आफत में डालती हैं? आप तो निबट जाएंगी पर हम पुलिस और कोर्ट के चक्कर लगातेलगाते परेशान हो जाएंगे.’’

परंतु सुलभा जैसे कुछ सुन ही नहीं रही थी. उस ने सड़क पर से उस सफेद सुंदर पमेरियन को उठा लिया और गोद में लिए वापस बस स्टौप के उस शेड में आ बैठी. अब वह हांफ रही थी और उस कार वाले की बात को गंभीरता से ले रही थी. कह तो वह सही रहा था. एक कुत्ते के लिए उसे ऐसे अपनी जान जोखिम में नहीं डालनी चाहिए थी. पता नहीं, सड़क के इस पार की कालोनी में किस मकान का पालतू जानवर है यह. दुर्घटना जो अभी होतेहोते टली, उस के विषय में सोचते हुए उस के रोएं खड़े हो गए. सचमुच वह बालबाल बची. अगर उस कार चालक ने पूरी ताकत से ब्रेक न लगाया होते तो आज वह इस पमेरियन के साथ ही सड़क पर क्षतविक्षत लाश बनी पड़ी होती.

पमेरियन को गोद में उठाए सुलभा स्टौप के शेड के पास ही खोखे में रखी कोल्ड ड्रिंक और नमकीनों की दुकान की तरफ बढ़ गई. एक वृद्ध दुकानदार के रूप में वहां बैठा था, ‘‘आप ने जैसी बेवकूफी आज की है वैसी फिर कभी न करिएगा,’’ उस वृद्ध ने सुलभा को हिदायत दी, ‘‘इस शहर का टै्रफिक बहुत बेरहम है. वह तो कार वाला भला आदमी था जो उस ने ब्रैक लगा ली और आप बच गईं वरना जो होने जा रहा था वह बहुत बुरा होता. आप के पति और बच्चे आप को खो कर बहुत पछताते. अच्छीखासी युवती हैं आप. ऐसा कैसे कर बैठीं?’’

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उस वक्त इस नन्ही जान को बचाने के अलावा मैं और कुछ सोच ही नहीं पाई. अब उस सब को सोचती हूं तो भय से मेरे रोएं खड़े हो जाते हैं. सचमुच मैं गलत कर बैठी थी, परंतु मुझे संतोष भी है कि मैं इस कुत्ते की जान बचाने में सफल हो गई. यह सब सोच कर हंस दी सुलभा.

एक बार को उसे लगा, उस ने अद्भुत साहस का परिचय दिया है आज. वह जीवन में जोखिम भी उठा सकती है, इस का भान हो गया उसे. अच्छा भी लगा, गर्व भी महसूस हुआ. क्या वह इस जानवर को बचा कर अपने पति को बचाने की कल्पना कर रही थी? या फिर इस नन्ही जान को बचाने के पीछे अपनी कोख में न आए नन्हे बच्चे को बचाने के लिए दौड़ी थी? अवचेतन में आखिर ऐसी कौन सी बात थी, जिस ने उसे अचानक स्टौप की बैंच से उछाल कर सड़क के बीचोंबीच पहुंचा दिया?

‘‘क्या आप बता सकते हैं, बाबा कि इस पीछे वाली कालोनी में किस घर का यह पालतू कुत्ता है? सड़क के उस पार यह भटकता हुआ पहुंच गया होगा. इस पार आने की कोशिश यह इसीलिए कर रहा था कि यह इस पीछे वाली कालोनी में ही किसी घर में पला हुआ है.’’

‘‘ठीक कह रही हैं आप. मकान नंबर 301,’’ वृद्ध बोला, ‘‘एक वृद्धा इसे पाले हुए थी. पर 15-20 दिन हुए उस की मृत्यु हो गई. फिर इस कुत्ते की किसी ने सुध नहीं ली. वह अकेली रहती थी. जो लोग उस का मालमत्ता समेटने आए उन्होंने भी इस मासूम जानवर को ले जाना जरूरी नहीं समझा. यह बेचारा अकसर यों ही कालोनी में भटकता रहता है.’’

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‘‘क्यों? यह है तो बहुत प्यारा और भोलाभाला. कोई भी इसे पाल लेता,’’ सुलभा ने प्यार से उस के सिर को सहलाया, मानो अपने नए पैदा बच्चे के सिर को सहला रही हो, जिस के सिर पर रेशम जैसे नरम बाल हों.

‘‘मनहूस मान रहे हैं लोग इस मासूम जानवर को,’’ वृद्ध ने बताया, ‘‘वह वृद्धा 2 महीने पहले ही इसे कहीं से लाई थी. पहले भी उस के पास एक कुत्ता था, काले रंग का, वह उस का बहुत वफादार जानवर था. इस सड़क पर ही किसी वाहन के नीचे आ कर मर गया तो वह बहुत रोई, कलपी. जैसे उस का अपना कोई था, उस की मौत हो गई हो. आदमी जानवर को भी कितना चाहने लगता है,’’ कुछ सोच कर वह वृद्ध फिर बोला, ‘‘लोग इसे रोटियां दे देते हैं पर पाल नहीं रहे, क्योंकि यह उस दिन वृद्धा की लाश के पास बैठा रोता रहा था.’’

‘‘तब इसे मैं अपने साथ लिए जा रही हूं,’’ सुलभा ने प्यार से उस कुत्ते के रेशम बालों पर हाथ फिराया.

‘‘ले जाइए,’’ वृद्ध बोला, ‘‘इस महल्ले में इसे कोई नहीं पाल रहा. अच्छा रहेगा, इसे एक घर मिल जाएगा,’’ कुछ सोच कर वह फिर बोला, ‘‘लेकिन आप इसे बाद में किसी कारण मनहूस मान कर छोड़ न दीजिएगा. महल्ले में मैं ही अकेला ऐसा आदमी हूं जो इसे अपने घर के बरामदे में रात को सोने देता है. जब इसे कहीं रोटी नहीं मिलती तो यह मेरे घर के दरवाजे पर अपने नन्हे पंजे मारने लगता है. मैं समझ जाता हूं, यह भूखा है और इसे किसी ने आज खाने को नहीं दिया है. बरामदे में एक तरफ मैं ने छोटा सा बरतन रख रखा है, उस में पानी हर दिन भरता रहता हूं. यह उसे पीता रहता है.’’

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‘‘आप इसे मनहूस नहीं मानते?’’ सुलभा ने उस वृद्ध से पूछा.

‘‘मानता तो हूं. डर भी लगता है कि कहीं उस वृद्धा की तरह मैं भी किसी दिन अकेला ही अपने मकान में मरा न पाया जाऊं. परंतु इस की भोली और अपनत्वभरी आंखों में जो अद्भुत चमक मुझे दिखाई देती है, उस के आगे मैं मनहूसियत की बात लगभग भूल ही जाता हूं. कभीकभी सोचता हूं, न कोई जानवर मनहूस होता है, न घर, न आदमी. मनहूसियत का खयाल हमारे मन का अपना भय होता है, वह उल्लू या घुग्घू का बोलना हो या कौए का किसी के सिर पर बैठना या फिर बिल्ली का रात को किसी घर के आसपास रोना.

‘‘हम अपने भीतर के भय को ही शायद इन बहानों से बाहर निकालते हैं वरना ये जानवर स्वाभाविक रूप से अपना जीवन जीते हैं और आवाजें निकालते हैं.’’

सुलभा बोली, ‘‘कोई अगर महल्ले में इसे खोजे तो आप बता दीजिएगा. आप चाहें तो मेरा फोन नंबर अपने फोन में सेव कर लें.’’

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एक नन्हा जीवनसाथी: भाग 3- पति के जाने के बाद सुलभा की जिंदगी में कौन आया

फिर उस ने उस वृद्ध का नंबर पूछा और अपने फोन से मिला कर उसे फोन कर दिया. वृद्ध का फोन बजा तो उस ने उसे सेव कर लिया.

‘‘अगर किसी कारण मैं इसे रख न सकी तो आप को वापस दे जाऊंगी. कम से कम यह जीवित तो रहेगा.’’

‘‘आप इसे बस से तो ले जा नहीं सकेंगी. बस वाले इसे भीतर नहीं ले जाने देंगे,’’ वृद्ध ने पूछा, ‘‘तब?’’

‘‘आटो कर लूंगी,’’ संक्षेप में कह वह सड़क की तरफ पलटी और एक खाली आटो ले अपने घर चल दी.

रास्ते में सोचती भी रही, अगर कल को नौकरी पर जाने लगी तो यह अकेला फ्लैट में कैसे रहेगा? अपने खाने की तो उसे बहुत चिंता नहीं होती पर इस के लिए तो कुछ न कुछ बनाना ही पड़ेगा. किसी जानवर को घर लाना आसान है, पर उसे पालना, उस के खानेपीने का प्रबंधन, पूरे एक बच्चे का पालना और उस का खयाल रखना है. वह वृद्ध सही कह रहा था, अगर न पाल सकी तो इसे उसी महल्ले में छोड़ना पड़ेगा. कम से कम जिंदा तो रहेगा.

रास्ते में पडे़ बाजार से सुलभा ने उस कुत्ते के लिए गले का पट्टा और जंजीर खरीदी. पानी के लिए एक बड़ा बरतन खाने के लिए घर में कटोरा था ही. पौटी के लिए क्या करेगी, सुबह इसे ले कर सड़क पर जाना पड़ेगा, वह यह सोचतेसोचते अतीत में चली गई.

पिता जब मां को अकेला छोड़ कर दूसरी औरत के पास चले गए तो मां पर जैसे मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था. कुल हाईस्कूल पास थीं. न कोई टे्रनिंग न हुनर. वे 2 बहनें और एक छोटा भाई, 3 बच्चों को अकेली मां कैसे पाले, कई दिनों तक मां कुछ सोच ही नहीं पाईं. परंतु उन्होंने जिंदगी का सामना बड़ी बहादुरी से किया.

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अपने गहने बेच कर मां ने अपने कसबाई क्षेत्र के शहर में एक नया काम शुरू किया था. जाति और परिवार वालों ने उन का बहुत विरोध किया था पर उन का स्पष्ट उत्तर होता था, ‘फिर क्या करूं मैं? 2 लड़कियां हैं और 1 लड़का. 3 बच्चों को कैसे पालूं? कल को उन के शादीब्याह, पढ़ाईलिखाई. बाप तो साथ छोड़ भागा. दूसरी औरत के पास चला गया. क्या मैं भी इन्हें बेसहारा छोड़ किसी के साथ भाग जाऊं?’

कुंआरे या अकेले रहने वाले नौकरी कर रहे लोगों को टिफिन में खाना पहुंचाने का काम शुरू किया. शुरू में मुश्किलें आईं. पर उन के हल भी मां ने सोचे. काम चल निकला. सागदाल वे खुद बनातीं. रोटी बनाने के लिए एक सहायक औरत रख ली. टिफिन लोगों को घर तक पहुंचाने के लिए एक विक्की चलाने वाले लड़के को रख लिया. कुछ हजार लगा कर यह धंधा शुरू किया था मां ने. न खास शिक्षा, न कोई तकनीकी ज्ञान. फिर क्या करतीं वे?

मां ने उसी धंधे की आमदनी से सुलभा को बीएससी कराया. फिर उसे नर्स की टे्रनिंग दिलवाई. उस की छोटी बहन को पढ़ाया. अब उस का भाई भी आगरा में इंजीनियर की पढ़ाई कर रहा है. यह सब मां ने अपने भीतर के साहस से कर के दिखाया. न डरीं, न हिचकीं, न अपनी आलोचनाओं की परवा की. बाद में टिफिन मांजने और किचन के खाना पकाने वाले बड़े बरतनों को मांजने के लिए अलग से एक महिला रख ली. अपने ग्राहकों को वे घर भी जबतब बुलाती थीं और उन्हें विश्वास दिलाती थीं कि जो वे टिफिन में खाने के रूप में भेजती हैं, उसे बहुत ही सफाई से बनाया जाता है. लोग प्रभावित होते. शुरू में मां का हाथ सुलभा, बहन और भाई ने भी बटाया. बाद में बहुतकुछ काम के लिए रखी गई औरतों ने संभाल लिया. खाना एकदम घर जैसा बनता, इसलिए लोगों को पसंद आता. फिर लोगों ने सुबह नाश्ता भी चाहा, जिस का मेन्यू मां ने नाश्ता चाहने वालों की राय से ही बनाया. काम और अधिक बढ़ गया.

मां इसीलिए सुलभा के साथ इस हादसे के बाद अधिक दिन नहीं रह सकीं. लोगों को अकसर अपने से मतलब होता है. दूसरों की क्या जरूरतें, विवशताएं और परेशानियां हैं, इन से उन्हें कुछ लेनादेना नहीं होता. 250 से अधिक ग्राहक थे टिफिन और नाश्ते के, व्यक्तिगत रूप से कोई कुछ अलग चाहता था तो वह भी मां बना कर उसे भिजवाती थीं. संतोष और जिम्मेदारी का अच्छा नतीजा भी हुआ.

सुलभा का मनीष से परिचय एक दिन यों ही ट्रेन की यात्रा में हुआ था. मुरादाबाद में नर्स की ट्रेनिंग कर रही थी वह. छुट्टियों में घर आ रही थी कि ट्रेन

में अचानक लुटेरों ने उत्पात मचाना शुरू कर दिया. लुटेरों की अश्लील हरकतों से सुलभा को उस दिन मनीष ने ही बचाया था. फिर अगले स्टेशन पर सुलभा को अपने साथ उतार टे्रन के चेयरकार वाले डब्बे में बैठाया. ‘मेरे पास टिकट के इतने पैसे नहीं हैं,’ उस ने हिचकते हुए कहा था.

‘जब नौकरी करने लगो तो लौटा देना,’ मनीष मुसकराए थे. बस, वह मुसकान ही सुलभा को इतनी प्यारी लगी कि देर तक ठगी सी ताकती रही मनीष की तरफ. उसी दिन मनीष ने सुलभा का पूरा परिचय प्राप्त किया. सुलभा ने भी कुछ छिपाया नहीं. जो सच था, सब बता दिया.

सुन कर मनीष देर तक कुछ सोचते रहे. फिर पूछा, ‘अब आगे क्या इरादा है?’

‘नौकरी. किसी अच्छे अस्पताल में मिली तो तनख्वाह भी शायद इतनी मिले कि अपनी छोटी बहन को साथ रख कर पढ़ा सकूं.’

‘और अगर मैं तुम्हें नौकरी करने की इजाजत न दूं तो क्या करोगी?’ मनीष के होंठों पर सहज मुसकान थी.

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सुलभा पूछना चाहती थी, किस  अधिकार से आप रोकेंगे? पर वह संकोचवश पूछ न सकी. सिर झुकाए हुए बोली, ‘आप को अपने परिवार का इतिहास बता दिया. नौकरी करना मेरी मजबूरी नहीं लग रही आप को?’

‘इतिहास जान चुका हूं. भूगोल अपने सामने देख रहा हूं और सोच रहा हूं कि ऐसी आत्मविश्वास से भरी लड़की को अपना जीवनसाथी बना कर मैं कोई गलती नहीं करूंगा.’ मनीष हंसने लगे थे, ‘तुम्हारे शहर चल रहा हूं. तुम्हारी मां से बात करूंगा. अगर वे मान गईं तो अगले कुछ महीनों में ही तुम्हें मेरे साथ महानगर में रहना पड़ेगा. नौकरी मिल रही है वहां एक मल्टीनैशनल कंपनी में, अगर सबकुछ ठीकठाक रहा तो जल्दी हमारे पास रहने को अपना फ्लैट होगा और…’

‘आप को ऐसा नहीं लग रहा कि आप ने यह फैसला बहुत जल्दबाजी में ले लिया है? मां खाना बना कर खिलाने वाली एक परित्यक्ता हैं. बाप दूसरी औरत के साथ रहता है. यह सब जान कर भी आप को हिचक नहीं हो रही?’

‘कुछ फैसले दिमाग से नहीं, दिल से किए जाते हैं, सुलभा. और एक बार जो दिल कह दे उस में बहुत मीनमेख नहीं करना चाहिए,’ मनीष बोले थे.

मां से उस दिन सारी बातें कर लीं मनीष ने. घरद्वार भी देख लिया. कामधंधा भी. मां को आशा ही नहीं थी कि उस के लिए इस तरह अचानक कोई योग्य वर मिल जाएगा. अवसर को उन्होंने जाने नहीं दिया. हालांकि पिता ने जाना तो वे बाधक बनने के लिए आगे आए. मां ने उन्हें आड़े हाथों लिया, ‘हम लोगों से आप को क्या लेनादेना? जब हमारे जिंदा रहने, मरने की आप को कतई चिंता नहीं हुई तो बेटी के ब्याह में बाधक बनने का आप को क्या अधिकार है?’

गुस्से में पिता कह गए, ‘भाड़ में जाओ तुम सब, मेरे लिए मर गए तुम लोग.’

कुत्ते की भूंक के साथ वह वर्तमान में लौटी. घर ला कर सुलभा ने उसे दूध में रोटी मसल कर खिलाई तो वह खाने में ऐसे जुटा, मानो महीनों से कुछ खाने को न मिला हो. पानी के बरतन में पानी रखा. पूरे फ्लैट में वह घूमफिर कर निरीक्षण कर आया. फिर वह सुलभा के बैड के पास आ बैठा. एक झटका सा लगा सुलभा को. शायद इसी तरह उस मृत वृद्धा के पलंग के पास बैठा यह रोया होगा है. क्या रात को भी वह…? इस सवाल को आगे और सोचने का साहस नहीं जुटा पाई सुलभा.

रात को सोने से पहले उसे सचमुच एक अजीब भय ने जकड़ लिया. नहीं, यह सामान्य जंतु हरकत है. चूंकि यह उस वृद्धा के पलंग के पास ही रहता और सोता रहा होगा, इसलिए वही माहौल पा कर उसी तरह ये पसर कर बैठ गया है.

लेकिन सुलभा अब मौत के खयाल से डरने क्यों लगी है? अपनेआप से पूछा उस ने. पति की दुर्घटना में मौत और गर्भ में बच्चा न होने की मारक सूचनाएं सुलभा को जिंदगी से बेजार कर गई थीं, वही सुलभा अब जीना चाहती थी. क्यों? यह सवाल स्वयं उस के मन ने उस से पूछा.

आशा के विपरीत वह सुबह सचेत हुई. एक क्षण को भय भी लगा. कुत्ता सुबह एक विशेष आवाज में कुकियाने लगा था. कुकियाने के साथ वह अपने नन्हे पंजों से सुलभा के पलंग को खरोंचने लगा था. खरोंचने की आवाज से ही उस की आंख खुली थी और वह भय व आतंक से सहम सी गई थी.

कुछ ही पल में उस ने समझ लिया, कुत्ते को बाहर जाने की जरूरत है. वह उस के गले की बैल्ट में जंजीर बांध उसे ले कर बाहर सड़क पर आई तो कुत्ते ने मलमूत्र त्याग करने में देरी नहीं की. वृद्धा ने इसे सही शिक्षा दी है. वह उसे कुछ और देर तक टहलाती रही. वहां उस ने कुछ भागदौड़ की, अपने शरीर को खींचाताना. अचरज से देखती रही सुलभा. जानवर अपनी जिंदगी को कितनी सावधानी से जीने लायक बनाते हैं.

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अचानक एक जबर कुत्ता भौंकता हुआ उस नन्हे कुत्ते की तरफ दौड़ कर आया तो निहत्थी सुलभा सहम गई. कैसे इस हमले से अपने कुत्ते की रक्षा करे? कुछ सोच न पाई तो सड़क के किनारे पड़ा पत्थर का टुकड़ा उठा लिया उस ने और हमलावर कुत्ते को ललकारा. नन्हा कुत्ता भय से सिहर कर उस के पांवों के नीचे आ छिपा. कल से वह एक डंडा साथ रखेगी. सुलभा ने पमेरियन को हाथों में उठा, सीने से लगा लिया. अपनेआप को सुरक्षित समझ वह भी निश्चिंत हो गया.

फ्लैट में आ वह कुत्ते को उपयुक्त नाम व रिश्ता देने पर सोचने लगी, जब वह नौकरी पर जाने लगेगी, यह अकेला यहां कैसे रहेगा, यह समस्या उस का सिरदर्द बन रही थी, पर कोई न कोई तरीका उसे सोचना पड़ेगा. 2 उजड़े हुए साथी जैसे अनायास ही साथ हो गए हों एकदूसरे के सहारे को. आदमी हो या जानवर, बिना आपसी सहयोग के जीने में असमर्थ हैं. एक साथी चाहिए ही, चाहे साथी नन्हा ही हो.

आखिर कब तक और क्यों: क्या हुआ था रिचा के साथ

‘‘क्या बात है लक्ष्मी, आज तो बड़ी देर हो गई आने में?’’ सुधा ने खीज कर अपनी कामवाली से पूछा.

‘‘क्या बताऊं मेमसाहब आप को कि मुझे क्यों देरी हो गई आने में… आप तो अपने कामों में ही लगी रहती हैं. पता भी है मनोज साहब के घर में कैसी आफत आ गई है? उन की बेटी रिचा के साथ कुछ ऐसावैसा हो गया है… बड़ी शांत, बड़े अच्छे तौरतरीकों वाली है.’’

लक्ष्मी से रिचा के बारे में जान कर सुधा का मन खराब हो गया. बारबार उस का मासूम चेहरा उस के जेहन में उभर कर मन को बेधने लगा कि पता नहीं लड़की के साथ क्या हुआ? फिर भी अपनेआप पर काबू पाते हुए लक्ष्मी के धाराप्रवाह बोलने पर विराम लगाती हुई वह बोली, ‘‘अरे कुछ नहीं हुआ है. खेलते वक्त चोट लग गई होगी… दौड़ती भी तो कितनी तेज है,’’ कह कर सुधा ने लक्ष्मी को चुप करा दिया, पर उस के मन में शांति कहां थी…

कालेज से अवकाश प्राप्त कर लेने के बाद सुधा बिल्डिंग के बच्चों की मैथ्स और साइंस की कठिनाइयों को सुलझाने में मदद करती रही है. हिंदी में भी मदद कर उन्हें अचंभित कर देती है. किस के लिए कौन सी लाइन ठीक रहेगी. बच्चे ही नहीं उन के मातापिता भी उसी के निर्णय को मान्यता देते हैं. फिर रिचा तो उस की सब से होनहार विद्यार्थी है.

‘‘आंटी, मैं भी भैया लोगों की तरह कंप्यूटर इंजीनियर बनना चाहती हूं. उन की तरह आप मेरा मार्गदर्शन करेंगी न?’’

सुधा के हां कहते ही वह बच्चों की तरह उस के गले लग जाती थी. लक्ष्मी के जाते ही सारे कामों को जल्दी से निबटा कर वह अनामिका के पास गई. उस ने रिचा के बारे में जो कुछ भी बताया उसे सुन कर सुधा कांप उठी. कल सुबह रिचा अपने सहपाठियों के साथ पिकनिक मनाने गंगा पार गई थी. खानेपीने के बाद जब सभी गानेबजाने में लग गए तो वह गंगा किनारे घूमती हुई अपने साथियों से दूर निकल गई. बड़ी देर तक जब रिचा नहीं लौटी तो उस के साथी उसे ढूंढ़ने निकले. कुछ ही दूरी पर झाडि़यों की ओट में बेहोश रिचा को देख सभी के होश गुम हो गए. किसी तरह उसे नर्सिंगहोम में भरती करा कर उस के घर वालों को खबर की. घर वाले तुरंत नर्सिंगहोम पहुंचे.

अनामिका ने जो कुछ भी बताया उसे सुन कर सुधा स्तब्ध रह गई. अब वह असमंजस में थी कि वह रिचा को देखने जाए या नहीं. फिर अनमनी सी हो कर उस ने गाड़ी निकाली और नर्सिंगहोम चल पड़ी, जहां रिचा भरती थी. वहां पहुंच तो गई पर मारे आशंका के उस के कदम आगे बढ़ ही नहीं रहे थे. किसी तरह अपने पैरों को घिसटती हुई उस के वार्ड की ओर चल पड़ी. वहां पहुंचते ही रिचा के पिता से उस का सामना हुआ. इस हादसे ने रात भर में ही उन की उम्र को10 साल बढ़ा दिया था. उसे देखते ही वे रो पड़े तो सुधा भी अपने आंसुओं को नहीं रोक पाई. ऐसी घटनाएं पूरे परिवार को झुलसा देती हैं. बड़ी हिम्मत कर वह कमरे में अभी जा ही पाई थी कि रिचा की मां उस से लिपट कर बेतहासा रोने लगीं. पथराई आंखों से जैसे आंसू नहीं खून गिर रहा हो.

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रिचा को नींद का इंजैक्शन दे कर सुला दिया गया था. उस के नुचे चेहरे को देखते ही सुधा ने आंखों से छलकते आंसुओं को पी लिया. फिर रिचा की मां अरुणा के हाथों को सहलाते हुए अपने धड़कते दिल पर काबू पाते हुए कल की दुर्घटना के बारे में पूछा, ‘‘क्या कहूं सुधा, कल घर से तो खुशीखुशी सभी के साथ निकली थी. हम ने भी नहीं रोका जब इतने बच्चे जा रहे हैं तो फिर डर किस बात का… गंगा के उस पार जाने की न जाने कब से उस की इच्छा थी. इतने बड़े सर्वनाश की कल्पना हम ने कभी नहीं की थी.’’

‘‘मैं अभी आई,’’ कह कर सुधा उस लेडी डाक्टर के पास गई, जो रिचा का इलाज कर रही थी. सुधा ने उन से आग्रह किया कि इस घटना की जानकारी वे किसी भी तरह मीडिया को न दें, क्योंकि इस से कुछ होगा नहीं, उलटे रिचा बदनाम हो जाएगी. फिर पुलिस के जो अधिकारी इस की घटना जांचपड़ताल कर रहे हैं, उन की जानकारी डाक्टर से लेते हुए सुधा उन से मिलने के लिए निकल गई. यह भी एक तरह से अच्छा संयोग रहा कि वे घर पर थे और उस से अच्छी तरह मिले. धैर्यपूर्वक उस की सारी बातें सुनीं वरना आज के समय में इतनी सज्जनता दुर्लभ है.

‘‘सर, हमारे समाज में बलात्कार पीडि़ता को बदनामी एवं जिल्लत की किनकिन गलियों से गुजरना पड़ता है, उस से तो आप वाकिफ ही होंगे… इतने बड़े शहर में किस की हैवानियत है यह, यह तो पता लगने से रहा… मान लीजिए अगर पता लग जाने पर अपराधी पकड़ा भी जाता है तो जरा सोचिए रिचा को क्या पहले वाला जीवन वापस मिल जाएगा? उसे जिल्लत और बदनामी के कटघरों में खड़ा कर के बारंबार मानसिक रूप से बलात्कार किया जाएगा, जो उस के जीवन को बद से बदतर कर देगा. कृपया इसे दुर्घटना का रूप दे कर इस केस को यहीं खारिज कर के उसे जीने का एक अवसर दीजिए.’’

सुधा की बातों की गहराई को समझते हुए पुलिस अधिकारी ने पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया. वहां से आश्वस्त हो कर सुधा फिर नर्सिंगहोम पहुंची और रिचा के परिवार से भी रोनाधोना बंद कर इस आघात से उबरने का आग्रह किया.

शायद रिचा को होश आ चुका था. सुधा की आवाज सुनते ही उस ने आंखें खोल दीं. किसी हलाल होते मेमने की तरह चीख कर वह सुधा से लिपट गई. सुधा ने किसी तरह स्वयं पर काबू पाते हुए रिचा को अपने सीने से लगा लिया. फिर उस की पीठ को सहलाते हुए कहा, ‘‘धैर्य रख मेरी बच्ची… जो हुआ उस से बुरा तो कुछ और हो ही नहीं सकता, लेकिन इस से जीवन समाप्त थोड़े हो जाता है? इस से उबरने के लिए तुम्हें बहुत बड़ी शक्ति की आवश्यकता है मेरी बच्ची… उसे यों बेहाल हो कर चीखने में जाया नहीं करना है… जितना रोओगी, चीखोगी, चिल्लाओगी उतना ही यह निर्दयी दुनिया तुम्हें रुलाएगी, व्यंग्यवाणों से तुझे बेध कर जीने नहीं देगी.’’

‘‘आंटी, मेरा मर जाना ठीक है… अब मैं किसी से भी नजरें नहीं मिला सकती… सारा दोष मेरा है. मैं गई ही क्यों? सभी मिल कर मुझ पर हसेंगे… मेरा शरीर इतना दूषित हो गया है कि इसे ढोते हुए मैं जिंदा नहीं रह सकती.’’

फिर चैकअप के लिए आई लेडी डाक्टर से गिड़गिड़ा कर कहने लगी, ‘‘जहर दे कर मुझे मार डालिए डाक्टर… इस गंदे शरीर के साथ मैं नहीं जी सकती. अगर आप ने मुझे मौत नहीं दी तो मैं इसे स्वयं समाप्त कर दूंगी,’’ रिचा पागल की तरह चीखती हुई बैड पर छटपटा रही थी.

‘‘ऐसा नहीं कहते… तुम ने बहुत बहादुरी से सामना किया है… मैं कहती हूं तुम्हें कुछ नहीं हुआ है,’’ डाक्टर की इस बात पर रिचा ने पथराई आंखों से उन्हें घूरा.बड़ी देर तक सुधा रिचा के पास बैठी उसे ऊंचनीच समझाते हुए दिलाशा देती रही लेकिन वह यों ही रोतीचिल्लाती रही. उसे नींद का इंजैक्शन दे कर सुलाना पड़ा. रिचा के सो जाने के बाद सुधा अरुण को हर तरह से समझाते हुए धैर्य से काम लेने को कहते हुए चली गई. किसी तरह ड्राइव कर के घर पहुंची. रास्ते भर वह रिचा के बारे में ही सोचती रही. घर पहुंचते ही वह सोफे पर ढेर हो गई. उस में इतनी भी ताकत नहीं थी कि वह अपने लिए कुछ कर सके.

रिचा के साथ घटी दुर्घटना ने उसे 5 दशक पीछे धकेल दिया. अतीत की सारी खिड़कियां1-1 कर खुलती चली गईं…

12 साल की अबोध सुधा के साथ कुछ ऐसा हुआ था कि वह तत्काल उम्र की अनगिनत दहलीजें फांद गई थी. कितनी उमंग एवं उत्साह के साथ वह अपनी मौसेरी बहन की शादी में गई थी. तब शादी की रस्मों में सारी रात गुजर जाती थी. उसे नींद आ रही थी तो उस की मां ने उसे कमरे में ले जा कर सुला दिया. अचानक नींद में ही उस का दम घुटने लगा तो उस की आंखें खुल गईं. अपने ऊपर किसी को देख उस ने चीखना चाहा पर चीख नहीं सकी. वह वहशी अपनी हथेली से उस के मुंह को दबा कर बड़ी निर्ममता से उसे क्षतविक्षत करता रहा.

अर्धबेहोशी की हालत में न जाने वह कितनी देर तक कराहती रही और फिर बेहोश हो गई. जब होश आया तो दर्द से सारा बदन टूट रहा था. बगल में बैठी मां पर उस की नजर पड़ी तो पिछले दिन आए उस तूफान को याद कर किसी तरह उठ कर मां से लिपट कर चीख पड़ी. मां ने उस के मुंह पर हाथ रख कर गले के अंदर ही उस की आवाज को रोक दिया और आंसुओं के समंदर को पीती रही. बेटी की बिदाई के बाद ही उस की मौसी उस के सर्वनाश की गाथा से अवगत हुई तो अपने माथे को पीट लिया. जब शक की उंगली उन की ननद के 18 वर्षीय बेटे की ओर उठी तो उन्होंने घबरा कर मां के पैर पकड़ लिए. उन्होंने भी मां को यही समझाया कि चुप रहना ही उस के भविष्य के लिए हितकर होगा.

हफ्ते भर बाद जब वह अपने घर लौटी तो बाबूजी के बारबार पूछने के बावजूद भी अपनी उदासी एवं डर का कारण उन्हें बताने का साहस नहीं कर सकी. हर पल नाचने, गाने, चहकने वाली सुधा कहीं खो गई थी. हमेशा डरीसहमी रहती थी.

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आखिर उस की बड़ी बहन ने एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘बताओ न मां, वहां सुधा के साथ हुआ क्या जो इस की ऐसी हालत हो गई है? आप हम से कुछ छिपा रही हैं?’’

सुधा उस समय बाथरूम में थी. अत: मां उस रात की हैवानियत की सारी व्यथा बताते हुए फूट पड़ी. बाहर का दरवाजा अंदर से बंद नहीं था. बाबूजी भैया के साथ बाजार से लौट आए थे. मां को इस का आभास तक नहीं हुआ. सारी वारदात से बाबूजी और भैया दोनों अवगत हो चुके थे और मारे क्रोध के दोनों लाल हो रहे थे. सब कुछ अपने तक छिपा कर रख लेने के लिए बाबूजी ने मां को बहुत धिक्कारा. सुधा बाथरूम से निकली तो बाबूजी ने उसे सीने से लगा लिया.

बलात्कार किसी एक के साथ होता है पर मानसिक रूप से इस जघन्य कुकृत्य का शिकार पूरा परिवार होता है. अपनी तेजस्विनी बेटी की बरबादी पर वे अंदर से टूट चुके थे, लेकिन उस के मनोबल को बनाए रखने का प्रयास करते रहे.

सुधा ने बाहर वालों से मिलना या कहीं जाना एकदम छोड़ दिया था. लेकिन पढ़ाई को अपना जनून बना लिया था. भौतिकशास्त्र में बीएसी औनर्स में टौप करने के 2 साल बाद एमएससी में जब उस ने टौप किया तो मारे खुशी के बाबूजी के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. 2 महीने बाद उसी यूनिवर्सिटी में लैक्चरर बन गई. सभी कुछ ठीक चल रहा था. लेकिन शादी से उस के इनकार ने बाबूजी को तोड़ दिया था. एक से बढ़ कर एक रिश्ते आ रहे थे, लेकिन सुधा शादी न करने के फैसले पर अटल रही. भैया और दीदी की शादी किसी तरह देख सकी अन्यथा किसी की बारात जाते देख कर उसे कंपकंपी होने लगती थी.

सुधा के लिए जैसा घरवर बाबूजी सोच रहे थे वे सारी बातें उन के परम दोस्त के बेटे रवि में थी. उस से शादी कर लेने में अपनी इच्छा जाहिर करते हुए वे गिड़गिड़ा उठे तो फिर सुधा मना नहीं कर सकी. खूब धूमधाम से उस की शादी हुई पर वह कई वर्षों बाद भी बच्चे का सुख रवि को दे सकी. वह तो रवि की महानता थी कि इतने दिनों तक उसे सहन करते रहे अन्यथा उन की जगह कोई और होता तो कब का खोटे सिक्के की तरह उसे मायके फेंक आया होता.

रवि के जरा सा स्पर्श करते ही मारे डर के उस का सारा बदन कांपने लगता था. उस की ऐसी हालत का सबब जब कहीं से भी नहीं जान सके तो मनोचिकित्सकों के पास उस का लंबा इलाज चला. तब कहीं जा कर वह सामान्य हो सकी थी. रवि कोई वेवकूफ नहीं थे जो कुछ नहीं समझते. बिना बताए ही उस के अतीत को वे जान चुके थे. यह बात और थी कि उन्होंने उस के जख्म को कुरेदने की कभी कोशिश नहीं की.

2 बेटों की मां बनी सुधा ने उन्हें इस तरह संस्कारित किया कि बड़े हो कर वे सदा ही मर्यादित रहे. अपने ढंग से उन की शादी की और समय के साथ 2 पोते एवं 2 पोतियों की दादी बनी.

जीवन से गुजरा वह दर्दनाक मोड़ भूले नहीं भूलता. अतीत भयावह समंदर में डूबतेउतराते वह 12 वर्षीय सुधा बन कर विलख उठी. मन ही मन उस ने एक निर्णय लिया, लेकिन आंसुओं को बहने दिया. दूसरे दिन रिचा की पसंद का खाना ले कर कुछ जल्दी ही नर्सिंगहोम जा पहुंची. समझाबुझा कर मनोज दंपती को घर भेज दिया. 2 दिन से वहीं बैठे बेटी की दशा देख कर पागल हो रहे थे. किसी से भी कुछ नहीं कहने को सुधा ने उन्हें हिदायत भी दे दी. फिर एक दृढ़ निश्चय के साथ रिचा के सिरहाने जा बैठी.

सुधा को देखते ही रिचा का प्रलाप शुरू हो गया, ‘‘अब मैं जीना नहीं चाहती. किसी को कैसे मुंह दिखाऊंगी?’’

सुधा ने उसे पुचकारते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे साथ जो कुछ भी हुआ वह कोई नई बात नहीं है. सदियों से स्त्रियां पुरुषों की आदम भूख की शिकार होती रही हैं और होती रहेंगी. कोई स्त्री दावे से कह तो दे कि जिंदगी में वह कभी यौनिक छेड़छाड़ की शिकार नहीं हुई है. अगर कोई कहती है तो वह झूठ होगा. यह पुरुष नाम का भयानक जीव तो अपनी आंखों से ही बलात्कार कर देता है. आज तुम्हें मैं अपने जीवन के उस भयानक सत्य से अवगत कराने जा रही हूं, जिस से आज तक मेरा परिवार अनजान है, जिसे सुन कर शायद तुम्हारी जिजिविषा जाग उठे,’’ कहते हुए सुधा ने रिचा के समक्ष अपने काले अतीत को खोल दिया. रिचा अवाक टकटकी बांधे सुधा को निहारती रह गई. उस के चेहरे पर अनेक रंग बिखर गए, बोली, ‘‘तो क्या आंटी मैं पहले जैसा जी सकूंगी?’’

‘‘एकदम मेरी बच्ची… ऐसी घटनाओं से हमारे सारे धार्मिक ग्रंथ भरे पड़े हैं… पुरुषों की बात कौन करे… अपना वंश चलाने के लिए स्वयं स्त्रियों ने स्त्रियों का बलात्कार करवाया है. कोई शरीर गंदा नहीं होता. जब इन सारे कुकर्मों के बाद भी पुरुषों का कौमार्य अक्षत रह जाता है तो फिर स्त्रियां क्यों जूठी हो जाती हैं.

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‘‘इस दोहरी मानसिकता के बल पर ही तो धर्म और समाज स्त्रियों पर हर तरह का अत्याचार करता है. सारी वर्जनाएं केवल लड़कियों के लिए ही क्यों? लड़के छुट्टे सांड़ की तरह होेंगे तो ऐसी वारदातें होती रहेंगी. अगर हर मां अपने बेटों को संस्कारी बना कर रखे तो ऐसी घटनाएं समाज में घटित ही न हों. पापपुण्य के लेखेजोखे को छोड़ते हुए हमें आगे बढ़ कर समाज को ऐसी घृणित सोच को बदलने के लिए बाध्य करना है. जो हुआ उसे बुरा सपना समझ कर भूल जाओ और कल तुम यहां से अपने घर जा रही हो. सभी की नजरों का सामना इस तरह से करना है मानो कुछ भी अनिष्ट घटित नहीं हुआ है. देखो मैं ने कितनी खूबसूरती से जीवन जीया है.’’

रिचा के चेहरे पर जीवन की लाली बिखरते देख सुधा संतुष्ट हो उठी. उस के अंतर्मन में जमा वर्षों की असीम वेदना का हिम रिचा के चेहरे की लाली के ताप से पिघल कर आंखों में मचल रहा था. अतीत के गरल को उलीच कर वह भी तो फूल सी हलकी हो गई थी.

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