तितली: जूनी के दिल में क्यों थी कसमसाहट

आजजूनी का पार्लर में अपौइंटमैंट था. जब जूनी की नईनई शादी हुई थी तो उसे बहुत मजा आता था पर अब उसे ये सब सजा सा लगता है. कारण है कि पहले उस का मन करता था पर अब उस का शरीर और मन दोनों ही शिथिल हो गए हैं.

जूनी 27 साल की है. बड़ीबड़ी आंखें, हलकी सी उठी हुई नाक, हलके गुलाबी होंठ, कंधे तक बिखरे गहरे काले बाल जो स्टैप, कटिंग के कारण बिखरे हुए लगते थे. गेहूं की लुनाई लिए रंग, सुडौल बदन और मध्यम कद. कुल मिला कर जूनी का व्यक्तित्व सब को लुभावना लगता था.

इसी ने तो पारस को बांध लिया था. जूनी एक मध्यवर्गीय परिवार की मंझली बेटी थी. बड़की और छोटी बहनें अपने खुलते रंग के कारण सब का ध्यान आकर्षित करती थीं, वहीं जूनी उन के रंग के कारण दबीदबी और थकीथकी लगती थी पर न जाने उस की आंखों की चमक में ऐसा क्या था कि पारस उस से ऐसा बंधा कि उस के मन को कोई अप्सरा भी न भाई.

पारस के मातापिता खुश थे या दुखी जूनी आज तक शादी के 5 वर्ष बाद भी समझ नहीं पाई. पारस भी उस से खुश हैं या नहीं वह इस बात को ले कर भी दुविधा में थी.

पार्लर वाली की सधी उंगलियां उस के चेहरे पर चल रही थीं और उस का मन अतीत की गलियों में भटक रहा था… उस का पारस के साथ विवाह एक सपना ही तो था. उस की दोनों बहनें, सारी सहेलियां उस से कितनी ईर्ष्या कर रही थीं उस के गहने और कपड़े देख कर. मयूरपंखी रंग का लहंगा था उस का, उस पर दबके का काम हो रखा था, लाल शिफौन की चुनर पर सोने के तार से सुनहरा काम हुआ था.

हीरों का सैट पहने सच में जूनी राजकुमारी ही तो लग रही थी. पार्लर वाली ने अपने मेकअप की तूलिका से उस की काया पलट कर दी थी. वह वास्तव में सिनेतारिका लग रही थी.

विदाई के बाद जब वह पारस के घर या यों कहें राजमहल में उस ने प्रवेश किया तो उस का दिल धुकधुक कर रहा था. सारी रस्में बीतने के बाद उस की सास उस के कमरे में आई और उसे एक पारदर्शी फ्रौक देते हुए बोली, ‘‘उम्मीद करती हूं तुम्हें पता होगा कि आज क्या करना है?’’

जूनी के कान और गाल लाल हो गए थे.पर पारस ने उसे प्यार की पगडंडी पर बड़े प्यार से चलना सिखाया था. वहां के तौरतरीके, कपड़े पहनने का रिवाज सबकुछ अलग था और धीरेधीरे जूनी अपने पुराने तौरतरीकों को बिसरा कर पूरी तरह नए रंग में रंग गई.

1 माह बाद जब वह अपने घर आई तो उस के अपने ही उसे नहीं पहचान पा रहे थे. ऐसा लग रहा था जूनी को देख कर जैसे एक कैटरपिलर में से तितली निकल आई हो, जिंदगी के नए रंगों से सराबोर. पर उस समय कोई नहीं जानता था कि इन पंखों की उड़ान कितनी दूरी तक होगी.

जब वह घर वापस आई तो पारस के पास वर्ल्ड टूर के टिकट थे. 2 महीने कैसे 2 दिन बन कर उड़ गए उसे पता भी नहीं चला. वहीं जूनी ने पहली बार शराब के घूंट लिए. तब उसे कहां पता था यह शौक बाद में लत बन जाएगा. पहली बार जब वोडका उस ने होंठों से लगाई तो आधे घंटे तक सिर्फ हंसती ही रही थी.

वापस आने के बाद देखा जूनी का पूरा वार्डरोब ही बदला हुआ था. सासूमां ने नियमकायदों की पूरी लिस्ट थमा दी थी. अगले 2 माह तक वह ड्राइविंग, स्विमिंग, घुड़सवारी आदि सीखने में लगी रही. फिर उसे उस के जन्मदिन पर तोहफे के रूप में कार मिली. उसे ड्राइव कर के जब वह अपने घर पहुंची तो मम्मीपापा की आंखों में खुशी के आंसू आ गए.

मगर जूनी के ख्वाब अब आजाद कब थे. उसे एक आजाद और आधुनिक जिंदगी मिल गई थी.

उस के मम्मीपापा तो कुदरत का शुक्रिया अदा करते नहीं थकते थे कि उन की बेटी को इतना अच्छा घरवर मिला है. कौन देता है इतनी आजादी अपनी बहू को… पारस के मातापिता बेटीबहू में कोई फर्क नहीं करते मगर जूनी सोचती थी कि आजादी तो सब का मौलिक अधिकार है, कोई किसी को कैसे दे सकता है. आजाद है जूनी आधुनिकता के नाम पर, आजादी है पर शर्तों और नियमों के साथ. मन की आजादी, शायद नहीं. ये सब सोचतेसोचते उस के होंठ व्यंग्य से टेढ़े हो गए. अब तक फेशियल भी पूरा हो चुका था.

मन था जूनी का कि गोलगप्पे खाए पर कैसे खा सकती है, पिछले कुछ दिनों से डाइटीशियन ने सब बंद करा रखा है.

घर आ कर देखा, बेस्वाद उबला खाना मुंह चिड़ा रहा था. बिना मन के 1 चपाती खाई  और फिर कुछ देर अपने रूम में आराम करने के लिए आ गई.

शाम को एक महिला जनसभा में सासूमां के साथ जाना था, उस के लिए एक भाषण भी तैयार करना था. काम समाप्त करतेकरते शाम के 5 बज गए. कितना मन था कि मसाला चाय पी जाए.

जूनी रसोई की तरफ गई ही थी कि महाराज आ गए और बोले, ‘‘बिटिया, चुकुंदर और गाजर का रस तैयार है.’’

बिना मन के फिर से काढ़े की तरह उस ने वह पीया और तैयार होने के लिए अपने कमरे में चल दी.

पिस्ता रंग की खादी की जामदानी साड़ी और साथ में पन्ना का हलका सा सैट पहन कर जूनी ने बड़ी सी गोल बिंदी लगा कर अपने को आईने में देखा तो पूरी तरह से संतुष्ट थी.

कार में बैठ कर उस ने सासूमां को पूरा भाषण समझाया. विषय ही कुछ ऐसा था-‘‘मां मेरा अधिकार या परिवार का भार.’’

सभा में पहुच कर जूनी का मन नहीं लग रहा था. इस भाषण में उस ने अपनी कलम तोड़ कर रख दी थी. दरअसल, मन से जुड़ा हुआ कोई भी विषय कलम से नहीं दिल से लिखा जाता है.

बात तब की है जब वे लोग हनीमून से वापस आए थे. जूनी को अपनी तबीयत कुछ

ढीली लग रही थी. पारस का इश्क का खुमार तब उबाल पर था, जबरदस्ती वह जूनी को डाक्टर के पास ले गया. डाक्टर परिवारिक मित्र भी था, इसलिए मुसकराते हुए बोला, ‘‘मिठाई की तैयारी कीजिए, कोई तीसरा दस्तक दे रहा है.’’

जूनी के गाल लाल हो गए पर पारस खुश नहीं लग रहा था. कार में बैठते ही बोला, ‘‘तुम ने कोई गोली मिस करी है क्या?’’

जूनी सोचते हुए बोली, ‘‘वो जब उस रात शराब पी थी…’’

पारस थोड़े ऊंचे स्वर में बोला, ‘‘हाउ कैन यू बी सो इरिस्पौंसिबल.’’

जूनी सहम गई. पूरा रास्ता जूनी सोचती रही कि शायद पारस एकाएक जिम्मेदारी से घबरा गया है. ऐसा कुछ नहीं था कि जूनी के जीवन का मुख्य उद्देश्य मां बनना ही था पर जो हुआ है उसे वह ठुकराना नहीं चाहती थी.

घर आ कर पारस ने जब यह बात बताई तो उस की मम्मी छूटते ही बोली, ‘‘इन मध्यवर्गीय लड़कियों से और क्या उम्मीद कर सकते हो…

ये शादी को बस बच्चे पैदा करने का जरीया समझती हैं.’’

जूनी की आंखों में अपमान के आंसू आ गए. पारस जूनी से बोला, ‘‘यह बच्चा हम दोनों का साझा फैसला होना चाहिए. मुझे दुख है अनजाने में ये सब हुआ पर मैं इस जिम्मेदारी के लिए तैयार नहीं हूं, अभी तो जिंदगी की शुरुआत है.’’

जूनी को उस घटना के वक्त पहली बार महसूस हुआ कि उस के पंखों की उड़ान का रिमोर्ट कंट्रोल उस के हाथ में नहीं है.

सबकुछ आराम से निबट गया था. जूनी के जिस्म में तो दर्द नहीं हुआ पर दिल का घाव वह किसे दिखाए और कैसे दिखाए. वह पहली घटना थी और फिर एक सिलसिला बन गया. हर बार तितली के पंखों में रंग भरा जाता पर वह रंग तितली की पसंद का है या नहीं, यह कोई भी तितली से पूछता नहीं था.

पर दुनिया को तो तितली से ज्यादा आधुनिक और कोई नहीं लगता था. होगी किसी और की ससुराल दूरदूर तक, जहां बहू को इतने अधिकार हैं, एक से एक आधुनिक कपड़े, देशविदेश घूमना, आजादी अपनी पसंद का काम करने की, हर माह सब से महंगे पार्लर का दौरा, खानेपीने का इतना ध्यान.

आज जूनी को अपने घर जाना था. हलके आसमानी रंग के सूती सलवारकुरते के

साथ बस छोटा सा मंगलसूत्र और 2-2 सोने की चूडि़यां, जैसे ही बाहर निकली कि पापाजी सामने खड़े थे, ‘‘जूनी, यह क्या हाल बना रखा है… ऐसे जाओगी अपने घर?’’

जूनी कुछ समझ न पाई. फिर पारस बोला, ‘‘अरे बाबा, घर जा रही हो तो ठीक से जाओ… यह लो मीनाबाजार से मैं नई साड़ी लाया हूं.’’

एक बहुत ही खूबसूरत और महंगी आसमानी रंग की साड़ी जिस पर लाललाल फूल खिले हुए थे. जूनी असमंजस में खड़ी थी पर फैसला हो चुका था कि आज तितली के पंख आसमानी और लाल रंग के ही होंगे. कैसे बताए जूनी के ये कपड़े और गहने उस के और उस के परिवार के बीच एक दीवार खड़ी कर देते हैं. हर बार वे जूनी के कपड़े और गहने देख कर सिमट जाते हैं.

कार को गली के बाहर ही छोड़ कर वह दबे पांव घर में घुस गई. मम्मी बोली, ‘‘जूनी, आ गई क्या?’’

जूनी फिर से वही पुरानी जूनी बन गई और बोली, ‘‘आप को कैसे पता चला मम्मी?’’

फिर वहीं रसोई में घुस कर भरवां करेले और रोटी का रोल बना कर खाने लगी.

मम्मी बोली, ‘‘जूनी, देख संभल कर कहीं साड़ी खराब न हो जाए.’’

बड़ी दीदी ने जुमला उछाला, ‘‘मम्मी, हम हैं न सफाई, बरतन और सब चीजों के लिए.’’

‘‘जूनी तुम अपने पांव जमीन पर मत रखना.’’

‘‘जूनी सब बातों को नजरअंदाज करते हुए अपने भानजे और भानजियों के लिए अमेरिका से खरीदे खिलौने निकालने लगी.’’

छोटी बहन हंसते हुए बोली, ‘‘दीदी, इतने महंगे खिलौने मत लाया करो. अगर खराब हो जाते हैं तो हम तो इन्हें ठीक भी नहीं करवा पाते.’’

जूनी क्या बोले, कैसे अपनी बहनों को बताए कि ये पंख तो विवाह के समय ही कुतर दिए गए थे. अब उड़ती है पर बस जितना बोला जाता है.

शाम को खाने के वक्त जूनी मां के हाथ के बनाए कोफ्ते और कड़ी पर भिखारी की तरह टूट पड़ी.

मम्मी हंसते हुए बोली, ‘‘देशविदेश के पकवान खा कर भी लड़की का मन नहीं भरा.’’

रात को जूनी सोने की तैयारी कर ही रही थी कि पारस के घर से फोन आ गया. बड़ी बूआजी आ गई हैं, उसे फौरन बुलाया गया था.

ड्राइवर अदब से अंदर आया, साथ में थे परिवार के लिए ढेरों तोहफे. सब के चेहरे महंगे तोहफों की चमक में चमक रहे थे पर किसी ने जूनी का बुझाबुझा सा चेहरा नहीं देखा. जूनी फीकी हंसी के साथ कार में बैठ गई. मम्मी को एक बार लगा भी कि अपनी बेटी को गले लगा कर पूछे कि क्या हुआ है जूनी तुझे? पर दूसरी ओर महंगी गाड़ी, महंगे कपड़े, ढेरों तोहफों ने फिर से उन की आंखों पर पट्टी बांध दी.

उधर जूनी को पता था कि किसी न किसी बहाने से पारस और उस का परिवार उसे उस के घर नहीं रुकने देते हैं.

मम्मी ने आते ही उसे गले लगा लिया और बोली, ‘‘बूआ तेरे बिना हलकान हो रही थी.’’

बूआ के सामने जाने से पहले फिर उस ने कपड़े बदले. बूआ उसे अपनी निगाहों से तोलते हुए बोली, ‘‘खुशखबरी कब सुना रही हो… कुछ खायापीया करो.’’

‘‘रंग तो खूब चढ़ रहा है तुम पर… यहां की सुखसुविधा रास आ गई तुम्हें?’’

जूनी चुपचाप बैठी रही. क्या जवाब दे वह इस बात का.

उस रात फिर से पीतेपीते उस की आंख लग गई. पीने में जूनी को एक अलग सा सुकून मिलता था. वह एक अलग दुनिया में चली जाती थी, जहां वह बस जूनी होती थी, अपने रंगों के साथ, जहां अपनी उड़ान वह खुद तय करती थी.

सुबह बहुत देर तक सोती रही. जब सो कर उठी तो सूर्य सिर पर चढ़ आया था. पारस दफ्तर के लिए निकल रहा था. उसे देख कर बोला, ‘‘क्यों पीती हो जब डिं्रक्स कैरी नहीं कर पाती हो?’’

जूनी मुसकराते हुए बोली, ‘‘तो फिर पीना ही क्या अगर सभ्य ही रहना हो…’’

एक शून्य, एक एकाकीपन जूनी को अपने शिकंजे में घेरे था, पर किसी को

समझ नहीं आता था. वह जिंदगी को अपने हिसाब से समझना चाहती थी पर कोई यह समझ नहीं पा रहा था.

जब जूनी ने पारस से कहा कि ‘‘मुझे भी तुम्हारे साथ दफ्तर जाना है, तो पारस ने उस के निर्णय का तहेदिल से स्वागत किया. आखिर वह एक प्रगतिशील परिवार का पुत्र है जो अपनी पत्नी के हर निर्णय में साथ रहता है. पर वहां जूनी के पास करने के लिए कुछ नहीं था. वह बस शतरंज की बिसात पर एक सफेद हाथी थी, कहने को सबकुछ पर उस के नियंत्रण में कुछ भी नहीं था.’’

जूनी की जिंदगी का सफर रेत के रेगिस्तान सा था. जगहजगह मरुस्थल बिखरे हैं पर क्या मरुस्थल से कभी किसी की प्यास बुझी है जो उस की बुझती? कुछ माह बाद उस ने दफ्तर जाना बंद कर दिया, क्योंकि वहां बस उस की हैसियत पारस की बीवी के रूप में थी.

जूनी फिर से तैयार हो रही थी एक कौकटेल पार्टी के लिए. लाल औफशोल्डर गाउन और रूबी के कर्णफूल में वह बेहद सुंदर लग रही थी.

पारस के कजिन की शादी थी. धीरेधीरे सब डांस कर रहे थे और 2 पेग के बाद जूनी भी झूमने लगी. पारस को कस कर पकड़ कर बोली, ‘‘पारस, उड़ना है मुझे, पिंजरे में कैद मत करो, आम हूं मैं, मुझ को खास बनाने की जिद मत करो.’’

पारस इस से पहले कुछ बोलता, जूनी जोरजोर से गाने लगी, ‘‘जूनी हूं मैं, मुझे ना छूना…’’

सब जूनी को देख रहे थे. अच्छाखासा तमाशा हो गया था. पारस खींच कर उसे कार में

बैठा कर घर ले आया. वह पूरी रात सोचता रहा आखिर क्या कमी रह गई है… जो वह चाहती है वही होता है.

सुबह पारस ने जूनी से कहा, ‘‘जूनी, तुम्हें क्या चाहिए? लोग ऐसी जिंदगी के लिए तरसते हैं और तुम हो कि  तुम्हें इस की कद्र नहीं है.’’

जूनी कुछ न बोली बस शून्य में ताकती रही. क्या उसे वास्तव में यही चाहिए था?

आज जूनी फिर से अपनी सासूमां के साथ एक समारोह में सम्मिलित होने गई थी. बस यही अब उस की दिनचर्या थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि उस की जिंदगी सबकुछ होते हुए भी क्यों इतनी बेरंग है. तभी एक दिन उस ने स्थानीय कालेज में लैक्चरर की पोस्ट काविज्ञापन देखा. उस ने बिना किसी से पूछे आवेदन भेज दिया. साक्षात्कार भी चुपचाप दे आई. नियुक्तिपत्र हाथ में आने के बाद ही उस ने सब को सूचित किया.

‘‘क्या जरूरत है, धक्के खाने की?’’

‘‘जितना कमाओगी उस से ज्यादा तो पैट्रोल में खर्च हो जाएंगे?’’

‘‘एक ही दिन में आटेदाल का भाव मालूम पड़ जाएगा जब गरमी और  सर्दी में दौड़धूप करनी पड़ेगी.’’

‘‘इतना नौकरी का शौक चराया है तो फिर खुद ही आनाजाना करना और खुद का खर्च स्वयं उठाना.’’

ये तो कुछ ही वाक्य थे, न जाने ऐसे कितने ताने चुपचाप जूनी सुनती रही और झेलती रही. गलती उस की ही थी कि उस ने ही विवाह के बाद अपने पंखों की बागडोर अपने पति और सासससुर के हाथों में दे दी थी. पर अब वह अपनी उड़ान खुद तय करना चाहती है, गिरेगी तो उठेगी भी… वह जीवन के हर रंग को समझना चाहती है.

‘सफर है मेरा तो निर्णय भी होगा मेरा, मेरे छोटेछोटे सपनों में ही है मेरा बसेरा’ यह सोचते हुए अपने मन के टूटे पंखों को फिर से समेट कर यह तितली उड़ान को तैयार है.

भाभी- क्यों बरसों से अपना दर्द छिपाए बैठी थी वह

अपनी सहेली के बेटे के विवाह में शामिल हो कर पटना से पुणे लौट रही थी कि रास्ते में बनारस में रहने वाली भाभी, चाची की बहू से मिलने का लोभ संवरण नहीं कर पाई. बचपन की कुछ यादों से वे इतनी जुड़ी थीं जो कि भुलाए नहीं भूल सकती. सो, बिना किसी पूर्वयोजना के, पूर्वसूचना के रास्ते में ही उतर गई. पटना में ट्रेन में बैठने के बाद ही भाभी से मिलने का मन बनाया था. घर का पता तो मुझे मालूम ही था, आखिर जन्म के बाद 19 साल मैं ने वहीं गुजारे थे. हमारा संयुक्त परिवार था. पिताजी की नौकरी के कारण बाद में हम दिल्ली आ गए थे. उस के बाद, इधरउधर से उन के बारे में सूचना मिलती रही, लेकिन मेरा कभी उन से मिलना नहीं हुआ था. आज 25 साल बाद उसी घर में जाते हुए अजीब सा लग रहा था, इतने सालों में भाभी में बहुत परिवर्तन आ गया होगा, पता नहीं हम एकदूसरे को पहचानेंगे भी या नहीं, यही सोच कर उन से मिलने की उत्सुकता बढ़ती जा  रही थी. अचानक पहुंच कर मैं उन को हैरान कर देना चाह रही थी.

स्टेशन से जब आटो ले कर घर की ओर चली तो बनारस का पूरा नक्शा ही बदला हुआ था. जो सड़कें उस जमाने में सूनी रहती थीं, उन में पैदल चलना तो संभव ही नहीं दिख रहा था. बड़ीबड़ी अट्टालिकाओं से शहर पटा पड़ा था. पहले जहां कारों की संख्या सीमित दिखाई पड़ती थी, अब उन की संख्या अनगिनत हो गई थी. घर को पहचानने में भी दिक्कत हुई. आसपास की खाली जमीन पर अस्पताल और मौल ने कब्जा कर रखा था. आखिर घूमतेघुमाते घर पहुंच ही गई.

घर के बाहर के नक्शे में कोई परिवर्तन नहीं था, इसलिए तुरंत पहचान गई. आगे क्या होगा, उस की अनुभूति से ही धड़कनें तेज होने लगीं. डोरबैल बजाई. दरवाजा खुला, सामने भाभी खड़ी थीं. बालों में बहुत सफेदी आ गई थी. लेकिन मुझे पहचानने में दिक्कत नहीं हुई. उन को देख कर मेरे चेहरे पर मुसकान तैर गई. लेकिन उन की प्रतिक्रिया से लग रहा था कि वे मुझे पहचानने की असफल कोशिश कर रही थीं. उन्हें अधिक समय दुविधा की स्थिति में न रख कर मैं ने कहा, ‘‘भाभी, मैं गीता.’’ थोड़ी देर वे सोच में पड़ गईं, फिर खुशी से बोलीं, ‘‘अरे, दीदी आप, अचानक कैसे? खबर क्यों नहीं की, मैं स्टेशन लेने आ जाती. कितने सालों बाद मिले हैं.’’

उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और हाथ पकड़ कर घर के अंदर ले गईं. अंदर का नक्शा पूरी तरह से बदला हुआ था. चाचाचाची तो कब के कालकवलित हो गए थे. 2 ननदें थीं, उन का विवाह हो चुका था. भाभी की बेटी की भी शादी हो गई थी. एक बेटा था, जो औफिस गया हुआ था. मेरे बैठते ही वे चाय बना कर ले आईं. चाय पीतेपीते मैं ने उन को भरपूर नजरों से देखा, मक्खन की तरह गोरा चेहरा अपनी चिकनाई खो कर पाषाण जैसा कठोर और भावहीन हो गया था. पथराई हुई आंखें, जैसे उन की चमक को ग्रहण लगे वर्षों बीत चुके हों. सलवटें पड़ी हुई सूती सफेद साड़ी, जैसे कभी उस ने कलफ के दर्शन ही न किए हों. कुल मिला कर उन की स्थिति उस समय से बिलकुल विपरीत थी जब वे ब्याह कर इस घर में आई थीं.

मैं उन्हें देखने में इतनी खो गई थी कि उन की क्या प्रतिक्रिया होगी, इस का ध्यान ही नहीं रहा. उन की आवाज से चौंकी, ‘‘दीदी, किस सोच में पड़ गई हैं, पहले मुझे देखा नहीं है क्या? नहा कर थोड़ा आराम कर लीजिए, ताकि रास्ते की थकान उतर जाए. फिर जी भर के बातें करेंगे.’’ चाय खत्म हो गई थी, मैं झेंप कर उठी और कपड़े निकाल कर बाथरूम में घुस गई.

शादी और सफर की थकान से सच में बदन बिलकुल निढाल हो रहा था. लेट तो गई लेकिन आंखों में नींद के स्थान पर 25 साल पुराने अतीत के पन्ने एकएक कर के आंखों के सामने तैरने लगे…

मेरे चचेरे भाई का विवाह इन्हीं भाभी से हुआ था. चाचा की पहली पत्नी से मेरा इकलौता भाई हुआ था. वह अन्य दोनों सौतेली बहनों से भिन्न था. देखने और स्वभाव दोनों में उस का अपनी बहनों से अधिक मुझ से स्नेह था क्योंकि उस की सौतेली बहनें उस से सौतेला व्यवहार करती थीं. उस की मां के गुण उन में कूटकूट कर भरे थे. मेरी मां की भी उस की सगी मां से बहुत आत्मीयता थी, इसलिए वे उस को अपने बड़े बेटे का दरजा देती थीं. उस जमाने में अधिकतर जैसे ही लड़का व्यवसाय में लगा कि उस के विवाह के लिए रिश्ते आने लगते थे. भाई एक तो बहुत मनमोहक व्यक्तित्व का मालिक था, दूसरा उस ने चाचा के व्यवसाय को भी संभाल लिया था. इसलिए जब भाभी के परिवार की ओर से विवाह का प्रस्ताव आया तो चाचा मना नहीं कर पाए. उन दिनों घर के पुरुष ही लड़की देखने जाते थे, इसलिए भाई के साथ चाचा और मेरे पापा लड़की देखने गए. उन को सब ठीक लगा और भाई ने भी अपने चेहरे के हावभाव से हां की मुहर लगा दी तो वे नेग कर के, शगुन के फल, मिठाई और उपहारों से लदे घर लौटे तो हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. भाई जब हम से मिलने आया तो बहुत शरमा रहा था. हमारे पूछने पर कि कैसी हैं भाभी, तो उस के मुंह से निकल गया, ‘बहुत सुंदर है.’ उस के चेहरे की लजीली खुशी देखते ही बन रही थी.

देखते ही देखते विवाह का दिन भी आ गया. उन दिनों औरतें बरात में नहीं जाया करती थीं. हम बेसब्री से भाभी के आने की प्रतीक्षा करने लगे. आखिर इंतजार की घडि़यां समाप्त हुईं और लंबा घूंघट काढ़े भाभी भाई के पीछेपीछे आ गईं. चाची ने  उन्हें औरतों के झुंड के बीचोंबीच बैठा दिया.

मुंहदिखाई की रस्मअदायगी शुरू हो गई. पहली बार ही जब उन का घूंघट उठाया गया तो मैं उन का चेहरा देखने का मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी और जब मैं ने उन्हें देखा तो मैं देखती ही रह गई उस अद्भुत सौंदर्य की स्वामिनी को. मक्खन सा झक सफेद रंग, बेदाग और लावण्यपूर्ण चेहरा, आंखों में हजार सपने लिए सपनीली आंखें, चौड़ा माथा, कालेघने बालों का बड़ा सा जूड़ा तथा खुशी से उन का चेहरा और भी दपदपा रहा था.

वे कुल मिला कर किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थीं. सभी औरतें आपस में उन की सुंदरता की चर्चा करने लगीं. भाई विजयी मुसकान के साथ इधरउधर घूम रहा था. इस से पहले उसे कभी इतना खुश नहीं देखा था. उस को देख कर हम ने सोचा, मां तो जन्म देते ही दुनिया से विदा हो गई थीं, चलो कम से कम अपनी पत्नी का तो वह सुख देखेगा.

विवाह के समय भाभी मात्र 16 साल की थीं. मेरी हमउम्र. चाची को उन का रूप फूटी आंखों नहीं सुहाया क्योंकि अपनी बदसूरती को ले कर वे हमेशा कुंठित रहती थीं. अपना आक्रोश जबतब भाभी के क्रियाकलापों में मीनमेख निकाल कर शांत करती थीं. कभी कोई उन के रूप की प्रशंसा करता तो छूटते ही बोले बिना नहीं रहती थीं, ‘रूप के साथ थोड़े गुण भी तो होने चाहिए थे, किसी काम के योग्य नहीं है.’

दोनों ननदें भी कटाक्ष करने में नहीं चूकती थीं. बेचारी चुपचाप सब सुन लेती थीं. लेकिन उस की भरपाई भाई से हो जाती थी. हम भी मूकदर्शक बने सब देखते रहते थे.

कभीकभी भाभी मेरे व मां के पास आ कर अपना मन हलका कर लेती थीं. लेकिन मां भी असहाय थीं क्योंकि चाची के सामने बोलने की किसी की हिम्मत नहीं थी.

मैं मन ही मन सोचती, मेरी हमउम्र भाभी और मेरे जीवन में कितना अंतर है. शादी के बाद ऐसा जीवन जीने से तो कुंआरा रहना ही अच्छा है. मेरे पिता पढ़ेलिखे होने के कारण आधुनिक विचारधारा के थे. इतनी कम उम्र में मैं अपने विवाह की कल्पना नहीं कर सकती थी. भाभी के पिता के लिए लगता है, उन के रूप की सुरक्षा करना कठिन हो गया था, जो बेटी का विवाह कर के अपने कर्तव्यों से उन्होंने छुटकारा पा लिया. भाभी ने 8वीं की परीक्षा दी ही थी अभी. उन की सपनीली आंखों में आंसू भरे रहते थे अब, चेहरे की चमक भी फीकी पड़ गई थी.

विवाह को अभी 3 महीने भी नहीं बीते होंगे कि भाभी गर्भवती हो गईं. मेरी भोली भाभी, जो स्वयं एक बच्ची थीं, अचानक अपने मां बनने की खबर सुन कर हक्कीबक्की रह गईं और आंखों में आंसू उमड़ आए. अभी तो वे विवाह का अर्थ भी अच्छी तरह समझ नहीं पाई थीं. वे रिश्तों को ही पहचानने में लगी हुई थीं, मातृत्व का बोझ कैसे वहन करेंगी. लेकिन परिस्थितियां सबकुछ सिखा देती हैं. उन्होंने भी स्थिति से समझौता कर लिया. भाई पितृत्व के लिए मानसिक रूप से तैयार तो हो गया, लेकिन उस के चेहरे पर अपराधभावना साफ झलकती थी कि जागरूकता की कमी होने के कारण भाभी को इस स्थिति में लाने का दोषी वही है. मेरी मां कभीकभी भाभी से पूछ कर कि उन्हें क्या पसंद है, बना कर चुपचाप उन के कमरे में पहुंचा देती थीं. बाकी किसी को तो उन से कोई हमदर्दी न थी.

प्रसव का समय आ पहुंचा. भाभी ने चांद सी बेटी को जन्म दिया. नन्हीं परी को देख कर, वे अपना सारा दुखदर्द भूल गईं और मैं तो खुशी से नाचने लगी. लेकिन यह क्या, बाकी लोगों के चेहरों पर लड़की पैदा होने की खबर सुन कर मातम छा गया था. भाभी की ननदें और चाची सभी तो स्त्री हैं और उन की अपनी भी तो 2 बेटियां ही हैं, फिर ऐसा क्यों? मेरी समझ से परे की बात थी. लेकिन एक बात तो तय थी कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है. मेरे जन्म पर तो मेरे पिताजी ने शहरभर में लड्डू बांटे थे. कितना अंतर था मेरे चाचा और पिताजी में. वे केवल एक साल ही तो छोटे थे उन से. एक ही मां से पैदा हुए दोनों. लेकिन पढ़ेलिखे होने के कारण दोनों की सोच में जमीनआसमान का अंतर था.

मातृत्व से गौरवान्वित हो कर भाभी और भी सुडौल व सुंदर दिखने लगी थीं. बेटी तो जैसे उन को मन बहलाने का खिलौना मिल गई थी. कई बार तो वे उसे खिलातेखिलाते गुनगुनाने लगती थीं. अब उन के ऊपर किसी के तानों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था. मां बनते ही औरत कितनी आत्मविश्वास और आत्मसम्मान से पूर्ण हो जाती है, उस का उदाहरण भाभी के रूप में मेरे सामने था. अब वे अपने प्रति गलत व्यवहार की प्रतिक्रियास्वरूप प्रतिरोध भी करने लगी थीं. इस में मेरे भाई का भी सहयोग था, जिस से हमें बहुत सुखद अनुभूति होती थी.

इसी तरह समय बीतने लगा और भाभी की बेटी 3 साल की हो गई तो फिर से उन के गर्भवती होने का पता चला और इस बार भाभी की प्रतिक्रिया पिछली बार से एकदम विपरीत थी. परिस्थितियों ने और समय ने उन को काफी परिपक्व बना दिया था.

गर्भ को 7 महीने बीत गए और अचानक हृदयविदारक सूचना मिली कि भाई की घर लौटते हुए सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई है. यह अनहोनी सुन कर सभी लोग स्तंभित रह गए. कोई भाभी को मनहूस बता रहा था तो कोई अजन्मे बच्चे को कोस रहा था कि पैदा होने से पहले ही बाप को खा गया. यह किसी ने नहीं सोचा कि पतिविहीन भाभी और बाप के बिना बच्चे की जिंदगी में कितना अंधेरा हो गया है. उन से किसी को सहानुभूति नहीं थी.

समाज का यह रूप देख कर मैं कांप उठी और सोच में पड़ गई कि यदि भाई कमउम्र लिखवा कर लाए हैं या किसी की गलती से दुर्घटना में वे मारे गए हैं तो इस में भाभी का क्या दोष? इस दोष से पुरुष जाति क्यों वंचित रहती है?

एकएक कर के उन के सारे सुहाग चिह्न धोपोंछ दिए गए. उन के सुंदर कोमल हाथ, जो हर समय मीनाकारी वाली चूडि़यों से सजे रहते थे, वे खाली कर दिए गए. उन्हें सफेद साड़ी पहनने को दी गई. भाभी के विवाह की कुछ साडि़यों की तो अभी तह भी नहीं खुल पाई थी. वे तो जैसे पत्थर सी बेजान हो गई थीं. और जड़वत सभी क्रियाकलापों को निशब्द देखती रहीं. वे स्वीकार ही नहीं कर पा रही थीं कि उन की दुनिया उजड़ चुकी थी.

एक भाई ही तो थे जिन के कारण वे सबकुछ सह कर भी खुश रहती थीं. उन के बिना वे कैसे जीवित रहेंगी? मेरा हृदय तो चीत्कार करने लगा कि भाभी की ऐसी दशा क्यों की जा रही थी. उन का कुसूर क्या था? पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष पर न तो लांछन लगाए जाते हैं, न ही उन के स्वरूप में कोई बदलाव आता है. भाभी के मायके वाले भाई की तेरहवीं पर आए और उन्हें साथ ले गए कि वे यहां के वातावरण में भाई को याद कर के तनाव में और दुखी रहेंगी, जिस से आने वाले बच्चे और भाभी के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा. सब ने सहर्ष उन को भेज दिया यह सोच कर कि जिम्मेदारी से मुक्ति मिली. कुछ दिनों बाद उन के पिताजी का पत्र आया कि वे भाभी का प्रसव वहीं करवाना चाहते हैं. किसी ने कोई एतराज नहीं किया. और फिर यह खबर आई कि भाभी के बेटा हुआ है.

हमारे यहां से उन को बुलाने का कोई संकेत दिखाई नहीं पड़ रहा था. लेकिन उन्होंने बुलावे का इंतजार नहीं किया और बेटे के 2 महीने का होते ही अपने भाई के साथ वापस आ गईं. कितना बदल गई थीं भाभी, सफेद साड़ी में लिपटी हुई, सूना माथा, हाथ में सोने की एकएक चूड़ी, बस. उन्होंने हमें बताया कि उन के मातापिता उन को आने नहीं दे रहे थे कि जब उस का पति ही नहीं रहा तो वहां जा कर क्या करेगी लेकिन वे नहीं मानीं. उन्होंने सोचा कि वे अपने मांबाप पर बोझ नहीं बनेंगी और जिस घर में ब्याह कर गई हैं, वहीं से उन की अर्थी उठेगी.

मैं ने मन में सोचा, जाने किस मिट्टी की बनी हैं वे. परिस्थितियों ने उन्हें कितना दृढ़निश्चयी और सहनशील बना दिया है. समय बीतते हुए मैं ने पाया कि उन का पहले वाला आत्मसम्मान समाप्त हो चुका है. अंदर से जैसे वे टूट गई थीं. जिस डाली का सहारा था, जब वह ही नहीं रही तो वे किस के सहारे हिम्मत रखतीं. उन को परिस्थितियों से समझौता करने के अतिरिक्त कोई चारा दिखाई नहीं पड़ रहा था. फूल खिलने से पहले ही मुरझा गया था. सारा दिन सब की सेवा में लगी रहती थीं.

उन की ननद का विवाह तय हो गया और तारीख भी निश्चित हो गई थी. लेकिन किसी भी शुभकार्य के संपन्न होते समय वे कमरे में बंद हो जाती थीं. लोगों का कहना था कि वे विधवा हैं, इसलिए उन की परछाईं भी नहीं पड़नी चाहिए. यह औरतों के लिए विडंबना ही तो है कि बिना कुसूर के हमारा समाज विधवा के प्रति ऐसा दृष्टिकोण रखता है. उन के दूसरे विवाह के बारे में सोचना तो बहुत दूर की बात थी. उन की हर गतिविधि पर तीखी आलोचना होती थी. जबकि चाचा का दूसरा विवाह, चाची के जाने के बाद एक साल के अंदर ही कर दिया गया. लड़का, लड़की दोनों मां के कोख से पैदा होते हैं, फिर समाज की यह दोहरी मानसिकता देख कर मेरा मन आक्रोश से भर जाता था, लेकिन कुछ कर नहीं सकती थी.

मेरे पिताजी पुश्तैनी व्यवसाय छोड़ कर दिल्ली में नौकरी करने का मन बना रहे थे. भाभी को जब पता चला तो वे फूटफूट कर रोईं. मेरा तो बिलकुल मन नहीं था उन से इतनी दूर जाने का, लेकिन मेरे न चाहने से क्या होना था और हम दिल्ली चले गए. वहां मैं ने 2 साल में एमए पास किया और मेरा विवाह हो गया. उस के बाद भाभी से कभी संपर्क ही नहीं हुआ. ससुराल वालों का कहना था कि विवाह के बाद जब तक मायके के रिश्तेदारों का निमंत्रण नहीं आता तब तक वे नहीं जातीं. मेरा अपनी चाची  से ऐसी उम्मीद करना बेमानी था. ये सब सोचतेसोचते कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला.

‘‘उठो दीदी, सांझ पड़े नहीं सोते. चाय तैयार है,’’ भाभी की आवाज से मेरी नींद खुली और मैं उठ कर बैठ गई. पुरानी बातें याद करतेकरते सोने के बाद सिर भारी हो रहा था, चाय पीने से थोड़ा आराम मिला. भाभी का बेटा, प्रतीक भी औफिस से आ गया था. मेरी दृष्टि उस पर टिक गई, बिलकुल भाई पर गया था. उसी की तरह मनमोहक व्यक्तित्व का स्वामी, उसी तरह बोलती आंखें और गोरा रंग.

इतने वर्षों बाद मिली थी भाभी से, समझ ही नहीं आ रहा था कि बात कहां से शुरू करूं. समय कितना बीत गया था, उन का बेटा सालभर का भी नहीं था जब हम बिछुड़े थे. आज इतना बड़ा हो गया है. पूछना चाह रही थी उन से कि इतने अंतराल तक उन का वक्त कैसे बीता, बहुतकुछ तो उन के बाहरी आवरण ने बता दिया था कि वे उसी में जी रही हैं, जिस में मैं उन को छोड़ कर गई थी. इस से पहले कि मैं बातों का सिलसिला शुरू करूं, भाभी का स्वर सुनाई दिया, ‘‘दामादजी क्यों नहीं आए? क्या नाम है बेटी का? क्या कर रही है आजकल? उसे क्यों नहीं लाईं?’’ इतने सारे प्रश्न उन्होंने एकसाथ पूछ डाले.

मैं ने सिलसिलेवार उत्तर दिया, ‘‘इन को तो अपने काम से फुरसत नहीं है. मीनू के इम्तिहान चल रहे थे, इसलिए भी इन का आना नहीं हुआ. वैसे भी, मेरी सहेली के बेटे की शादी थी, इन का आना जरूरी भी नहीं था. और भाभी, आप कैसी हो? इतने साल मिले नहीं, लेकिन आप की याद बराबर आती रही. आप की बेटी के विवाह में भी चाची ने नहीं बुलाया. मेरा बहुत मन था आने का, कैसी है वह?’’ मैं ने सोचने में और समय बरबाद न करते हुए पूछा.

‘‘क्या करती मैं, अपनी बेटी की शादी में भी औरों पर आश्रित थी. मैं चाहती तो बहुत थी…’’ कह कर वे शून्य में खो गईं.’’

‘‘चलो, अब चाचाचाची तो रहे नहीं, प्रतीक के विवाह में आप नहीं बुलाएंगी तो भी आऊंगी. अब तो विवाह के लायक वह भी हो गया है.’’

‘‘मैं भी अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाह रही हूं,’’ उन्होंने संक्षिप्त उत्तर देते हुए लंबी सांस ली.

‘‘एक बात पूछूं, भाभी, आप को भाई की याद तो बहुत आती होगी?’’ मैं ने सकुचाते हुए उन्हें टटोला.

‘‘हां दीदी, लेकिन यादों के सहारे कब तक जी सकते हैं. जीवन की कड़वी सचाइयां यादों के सहारे तो नहीं झेली जातीं. अकेली औरत का जीवन कितना दूभर होता है. बिना किसी के सहारे के जीना भी तो बहुत कठिन है. वे तो चले गए लेकिन मुझे तो सारी जिम्मेदारी अकेले संभालनी पड़ी. अंदर से रोती थी और बच्चों के सामने हंसती थी कि उन का मन दुखी न हो. वे अपने को अनाथ न समझें,’’ एक सांस में वे बोलीं, जैसे उन्हें कोई अपना मिला, दिल हलका करने के लिए.

‘‘हां भाभी, आप सही हैं, जब भी ये औफिस टूर पर चले जाते हैं तब अपने को असहाय महसूस करती हूं मैं भी. एक बात पूछूं, बुरा तो नहीं मानेंगी? कभी आप को किसी पुरुषसाथी की आवश्यकता नहीं पड़ी?’’ मेरी हिम्मत उन की बातों से बढ़ गई थी.

‘‘क्या बताऊं दीदी, जब मन बहुत उदास होता था तो लगता था किसी के कंधे पर सिर रख कर खूब रोऊं और वह कंधा पुरुष का हो तभी हम सुरक्षित महसूस कर सकते हैं. उस के बिना औरत बहुत अकेली है,’’ उन्होंने बिना संकोच के कहा.

‘‘आप ने कभी दूसरे विवाह के बारे में नहीं सोचा?’’ मेरी हिम्मत बढ़ती जा रही थी.

‘‘कुछ सोचते हुए वे बोलीं,  ‘‘क्यों नहीं दीदी, पुरुषों की तरह औरतों की भी तो तन की भूख होती है बल्कि उन को तो मानसिक, आर्थिक सहारे के साथसाथ सामाजिक सुरक्षा की भी बहुत जरूरत होती है. मेरी उम्र ही क्या थी उस समय. लेकिन जब मैं पढ़ीलिखी न होने के कारण आर्थिक रूप से दूसरों पर आश्रित थी तो कर भी क्या सकती थी. इसीलिए मैं ने सब के विरुद्ध हो कर, अपने गहने बेच कर आस्था को पढ़ाया, जिस से वह आत्मनिर्भर हो कर अपने निर्णय स्वयं ले सके. समय का कुछ भी भरोसा नहीं, कब करवट बदले.’’

उन का बेबाक उत्तर सुन कर मैं अचंभित रह गई और मेरा मन करुणा से भर आया, सच में जिस उम्र में वे विधवा हुई थीं उस उम्र में तो आजकल कोई विवाह के बारे में सोचता भी नहीं है. उन्होंने इतना समय अपनी इच्छाओं का दमन कर के कैसे काटा होगा, सोच कर ही मैं सिहर उठी थी.

‘‘हां भाभी, आजकल तो पति की मृत्यु के बाद भी उन के बाहरी आवरण में और क्रियाकलापों में विशेष परिवर्तन नहीं आता और पुनर्विवाह में भी कोई अड़चन नहीं डालता, पढ़ीलिखी होने के कारण आत्मविश्वास और आत्मसम्मान के साथ जीती हैं, होना भी यही चाहिए, आखिर उन को किस गलती की सजा दी जाए.’’

‘‘बस, अब तो मैं थक गई हूं. मुझे अकेली देख कर लोग वासनाभरी नजरों से देखते हैं. कुछ अपने खास रिश्तेदारों के भी मैं ने असली चेहरे देख लिए तुम्हारे भाई के जाने के बाद. अब तो प्रतीक के विवाह के बाद मैं संसार से मुक्ति पाना चाहती हूं,’’ कहतेकहते भाभी की आंखों से आंसू बहने लगे. समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा न करने के लिए कह कर उन का दुख बढ़ाऊंगी या सांत्वना दूंगी, मैं शब्दहीन उन से लिपट गई और वे अपना दुख आंसुओं के सहारे हलका करती रहीं. ऐसा लग रहा था कि बरसों से रुके हुए आंसू मेरे कंधे का सहारा पा कर निर्बाध गति से बह रहे थे और मैं ने भी उन के आंसू बहने दिए.

अगले दिन ही मुझे लौटना था, भाभी से जल्दी ही मिलने का तथा अधिक दिन उन के साथ रहने का वादा कर के मैं भारी मन से ट्रेन में बैठ गई. वे प्रतीक के साथ मुझे छोड़ने के लिए स्टेशन आई थीं. ट्रेन के दरवाजे पर खड़े हो कर हाथ हिलाते हुए, उन के चेहरे की चमक देख कर मुझे सुकून मिला कि चलो, मैं ने उन से मिल कर उन के मन का बोझ तो हलका किया.

दो पहलू : सास से क्यों चिढ़ती थी नीरा

सास की कर्कश आवाज कानों में पड़ी तो नीरा ने कसमसा कर अंगड़ाई ली. अधखुली आंखों से देखा, आसमान पर अभी लाली छाई हुई है. सूरज अभी निकला नहीं है, पर मांजी का सूरज अभी से सिर पर चढ़ आया है. न उन्हें खुद नींद आती है और न  किसी और को सोने देती हैं. एक गहरी खीज सी उभर आई उस के चेहरे पर.

परसों उस की नींद जल्दी टूट गई थी. लेटेलेटे कमर दर्द कर रही थी. वह उठ गई और अपने लिए चाय बनाने लगी. खटरपटर सुन कर मांजी की नींद टूट गई. बोल पड़ीं, ‘‘इतनी जल्दी क्यों उठ गई, बहू. कौन सा लंबाचौड़ा परिवार है जिस के लिए तुम्हें खटना पड़ेगा.’’

गुस्से से नीरा का तनबदन सुलग उठा था. आखिर यह चाहती क्या हैं? जल्दी उठो तो मुश्किल, देर से उठो तो मुश्किल. बोलने का बहाना भर चाहिए इन्हें.

अभी तो उसे यहां आए मुश्किल से 2 माह हुए  हैं, पर लगता है कि मानो दो युग ही गुजर गए हैं. अभी दीपक को वापस आने में पूरे 4 माह और हैं. कैसे कटेगा इतना लंबा समय? शुरू से ही संयुक्त परिवार के प्रति एक खास तरह की अरुचि सी थी उस के अंदर.

मातापिता ने भी उस के लिए वर देखते समय इस बात का खास खयाल रखा था कि लड़का चाहे उन्नीस हो, पर वह मांबाप से दूर नौकरी करता हो. उसे सास, ननदों के संग न रहना पड़े. आखिर काफी खोजबीन के बाद उन्हें इच्छानुसार दीपक का घर मिल गया था.

दीपक का परिवार भी छोटा सा था. मां, बाप और छोटी बहन. वह घर से अलग, दूसरे शहर में एक कालिज में अध्यापक था. सौम्य और सुदर्शन व्यक्तित्व वाले दीपक को सब ने पहली नजर में ही पसंद कर लिया था. शादी के बाद नीरा 8-10 दिन ससुराल रही थी.

इन चंद दिनों में ही सब का थोड़ाबहुत  स्वभाव उस के आगे उजागर हो गया था. बाबूजी गंभीर स्वभाव के अंतर्मुखी व्यक्ति थे. ज्यादा बोलते या बतियाते नहीं थे, पर उन की कसर मांजी पूरी कर देती थीं. मांजी जरा तेजतर्रार थीं. सारा दिन बकझक करना उन की आदत थी. ननद सिम्मी एक प्यारी सी हंसमुख लड़की थी. उस की हमउम्र थी.

मांजी हर बात में नुक्ताचीनी कर के बोलने का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ लेती थीं. पर उन की इस आदत पर न कोई ध्यान देता था और न उन की बातों को गंभीरता से लेता था. बाबूजी निरपेक्ष से बस हां, हूं करते रहते थे. 10 दिन बाद ही दीपक नौकरी पर वापस गया, तो वह भी साथ चली गई थी.

दीपक को कालिज के पास ही मकान मिला हुआ था. नीरा ने सुघड़ हाथों से जल्दी ही अपनी गृहस्थी जमा ली. दीपक भी अपने पिता की ही तरह धीर, गंभीर था. नीरा कई बार सोचती कि एक ही परिवार में कैसा विरोधाभास है? कोई इतना बोलने वाला है और कोई इस कदर अंतर्मुखी. अभी उस की शादी को 3 माह ही हुए थे कि दीपक को विश्वविद्यालय की ओर से 6 माह के प्रशिक्षण के लिए जरमनी भेजने का प्रस्ताव हुआ. नीरा भी बहुत खुश थी.

दीपक उसे बांहों में समेट कर बोला था, ‘‘नीरू, तुम्हारे कदम बड़े अच्छे पड़े. बड़े दिनों का अटका काम हो गया. 6 माह तुम मां और बाबूजी के पास रह लेना. उन का भी बहू का चाव पूरा हो जाएगा.’’

नीरा जैसे आसमान से गिरी. इस ओर तो उस ने ध्यान ही नहीं दिया था. अचानक उस की आंखें भर आईं और वह बोली, ‘‘नहीं, मैं तुम्हारे बिना वहां अकेली नहीं रह सकती. मुझे भी अपने साथ ले चलो.’’

‘‘नहीं, नहीं, नीरू, यह संभव नहीं है. मैं फैलोशिप पर जा रहा हूं. वहां होस्टल में रह कर कुछ शोधकार्य करना है. तुम वहां कहां रहोगी? 6 माह का समय होता ही कितना है? पलक झपकते समय निकल जाएगा.’’

फिर तो सब कुछ आननफानन में हो गया. एक माह के अंदर ही दीपक जरमनी चला गया. उसे मांजी और बाबूजी के पास छोड़ते समय वह बोला था, ‘‘नीरू, मां की जरा ज्यादा बोलने की आदत है. वैसे दिल की वह साफ हैं. उन की बातों को दिल पर न लाना. तुम्हें पता तो है कि वह सारा दिन बोलती रहती हैं. तुम बस हां, हूं ही करती रहना.’’

दीपक की बात उस ने गांठ बांध ली थी. मांजी कुछ भी कहतीं, वह अपना मुंह बंद ही रखती. मांजी की बातों को कड़वे घूंट की तरह गटक जाती. पर उन का छोटीछोटी बातों पर हिदायतें देना और टोकना उसे सख्त नागवार गुजरता. सिम्मी न होती तो उस का समय बीतना और मुश्किल हो जाता. वही तो थी जिस के साथ हंस कर वह बोलबतिया लेती थी. वही उसे खींच कर कभी फिल्म दिखाने ले जाती तो कभी खरीदारी के लिए.

दीवार घड़ी ने टनटन कर के 6 बजाए तो वह चौंक पड़ी. अभी मांजी को बोलने का एक और विषय मिल जाएगा. वह न जाने किन सोचों में डूब गई. जल्दी से उठी और दैनिक कृत्यों से निवृत्त हो कर रसोई में जा कर आटा गूंधने लगी. बाबूजी और सिम्मी, दोनों 8 बजे घर से निकल जाते थे.

तभी सिम्मी आ कर जल्दी मचाने लगी, ‘‘भाभी, जल्दी नाश्ता दो, आज मेरा पहला घंटा है.’’

नीरा के कुछ बोलने से पहले ही मांजी बोल पड़ीं, ‘‘जरा जल्दी उठ जाया करो, बहू, मैं तो गठिया के मारे उठ नहीं पाती हूं. अब सब को देर हो जाएगी. हम तो सास के उठने से पहले ही मुंहअंधेरे सारा काम कर लेते थे. क्या मजाल जो सास को किसी बात पर बोलने का मौका मिले.’’

‘‘हो गया तुम्हारा भाषण शुरू?’’ बाबूजी गुस्से से बोले, ‘‘अभी सिर्फ 7 बजे हैं और सिम्मी को जाने में पूरा एक घंटा बाकी है.’’

‘‘तुम चुप रहो जी,’’ मांजी बोलीं, ‘‘पहले बेटी को सिर चढ़ाया, अब बहू को माथे पर बिठा लो.’’

नीरा चुपचाप परांठे सेकती रही. सिम्मी बोली, ‘‘कभी मां मौनव्रत रखें तो मजा ही आ जाए.’’

नीरा के होंठों पर मुसकान आ गई. सिम्मी पर भी मांजी सारा दिन बरसती ही रहती थीं. कालिज से आने में जरा देर हो जाए तो मांजी आसमान सिर पर उठा लेती थीं. प्रश्नों की बौछार सी कर देतीं, ‘‘देर क्यों हुई? घर पर पहले बताया क्यों नहीं था?’’ आदि.

सिम्मी झल्ला कर कहती, ‘‘बस भी करो मां, जरा सी देर क्या हो गई, तूफान मचा दिया. मैं कोई बच्ची नहीं हूं जो खो जाऊंगी. आजकल अतिरिक्त कक्षाएं लग रही हैं, इस से  देर हो जाती है. तुम्हें तो बोलने का बहाना भर चाहिए.’’

बेटी के बरसने पर मांजी थोड़ी नरम पड़ जातीं, फिर धीमे स्वर में बड़बड़ाने लगतीं. सिम्मी तो बेटी है. मांजी से तुर्कीबतुर्की सवालजवाब कर लेती है पर वह तो बहू है. उसे अपने होंठ सी कर रखने पड़ते हैं. बिना बोले यह हाल है. जो कहीं वह भी सिम्मी की तरह मुंहतोड़ जवाब देने लगे तो शायद मांजी कयामत ही बरपा कर दें. मांजी और बाबूजी का दिल रखने के लिए ही तो वह यहां रह रही है. वरना क्या इतने दिन वह अपने मायके में नहीं रह सकती थी?

बाबूजी और सिम्मी चले गए. वह भी रसोई का काम निबटा कर नहाधो कर आराम कर रही थी. पड़ोस से कुंती की मां आई हुई थीं. वह चाय बनाने लगी. बाहर महरी ने टोकरे में बरतन धो कर रखे थे. कांच का गिलास निकालने लगी तो जाने कैसे गिलास हाथ से छूट कर टूट गया.

मांजी बोल पड़ीं, ‘‘बहू, ध्यान से बरतन उठाया करो. महंगाई का जमाना है. इतने पैसे नहीं हैं जो रोजरोज गिलास खरीद सकें. जब अपनी गृहस्थी जमाओगी तब पता चलेगा.’’

बाहर वालों के सामने भी मांजी चुप नहीं रह सकतीं. नीरा की आंखों में क्रोध और क्षोभ के आंसू आ गए. चाय दे कर वह अपने कमरे में आ कर लेट गई. उस ने कभी अपने मांबाप की नहीं सुनी और यहां दिनरात मांजी की उलटीसीधी बातें सुननी पड़ती हैं.

रात खाने के समय नीरा ने देखा कि दही अभी ठीक से जमा नहीं है. मांजी का बोलना फिर शुरू हो गया, ‘‘तुम ने बहुत ठंडे या बहुत गरम दूध में खट्टा डाल दिया होगा, तभी तो नहीं जमा दही. अगर ध्यान से जमातीं तो क्या अब तक दही जम न जाता? दीपक को तो दही बहुत पसंद है. पता नहीं तुम वहां भी दही ठीक से जमा पाती होगी या नहीं.’’

बाबूजी बोल पड़े, ‘‘ओह हो, अब चुप भी रहोगी या बोलती ही जाओगी? तरी वाली सब्जी है. दही बिना कौन सा पहाड़ टूट रहा है? तुम्हें खाना हो तो हलवाई से ले आता हूं. बहू पर बेकार में क्यों नाराज हो रही हो?’’

मांजी खिसिया कर बोलीं, ‘‘लो और सुनो. बाप और बेटी पहले ही एक ओर थे. अब बहू को और शामिल कर लो गुट में.’’

नीरा शर्म से गड़ी जा रही थी. मांजी के तो मुंह में जो आया बोलने लगती हैं. किसी का लिहाज नहीं.

खाना खा कर वह कमरे में आई तो उस के मन में क्रोध भरा था. अब वह यहां हरगिज नहीं रह सकती. 2 माह जैसेतैसे काट लिए हैं पर अब और नहीं रहा जाता. उस की सहनशक्ति अब खत्म हो गई है. हर बात में टोकाटाकी, भाषणबाजी. आखिर कहां तक सुन सकती है वह? कभी कपड़ों में नील कम है तो कभी बैगन ठीक से नहीं भुने हैं, कभी चाय में पत्ती ज्यादा है तो कभी सब्जी में नमक कम. बिना वजह छोटीछोटी बातों में लंबाचौड़ा भाषण झाड़ देती हैं. बरदाश्त की भी हद होती है. अब वह यहां और नहीं रहेगी. वह उठ कर भैया को खत लिखने लगी. मायके में जा कर दीपक को भी पत्र डाल देगी कि भैया लेने आ गए थे, सो उन के साथ जाना पड़ा उसे.

सुबह मांजी की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘उठो बहू, सुबह हो गई है.’’ वह उठने लगी तो उसे अचानक चक्कर सा आ गया. उस ने उठने की कोशिश की तो कमजोरी के कारण उठा न गया. हलकी झुरझुरी सी चढ़ रही थी. सारा बदन टूट रहा था.

वह फिर लेट गई और बोली, ‘‘मांजी, मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘क्या हुआ तबीयत को?’’ यह कहती मांजी उस के कमरे में आ गईं. माथे पर हाथ रखा तो वह चौंक गईं. उन के मुंह से हलकी सी चीख निकल गई.

‘‘अरे, तुम्हारा माथा तो भट्ठी सा तप रहा है, बहू,’’ फिर वहीं से वह चिल्लाईं, ‘‘सुनो जी, जरा जल्दी इधर आओ.’’

‘‘अब क्या आफत है?’’ बाबूजी भुनभुनाते हुए कमरे में आ गए.

‘‘बहू को तेज बुखार है. जल्दी से जरा डाक्टर को बुला लाओ.’’

बाबूजी तुरंत कपड़े पहन कर डाक्टर को लेने चले गए.

मांजी नीरा के सिरहाने बैठ कर उस का माथा दबाने लगीं. ठंडेठंडे हाथों का हलकाहलका दबाव, नीरा को बड़ा भला लग रहा था. कुछ ही देर में बाबूजी डाक्टर को ले कर आ गए.

डाक्टर नीरा की अच्छी तरह जांच कर के बोले, ‘‘दवाएं मैं ने लिख दी हैं. इस हालत में अधिक तेज कैप्सूल तो दिए नहीं जा सकते.’’

‘‘किस हालत में?’’ मांजी पूछ बैठीं.

‘‘यह गर्भवती हैं,’’ डाक्टर बोला, ‘‘बुखार ठंड से चढ़ा है. तुलसीअदरक की चाय भी पिलाती रहें. 2-1 दिन में बुखार उतर जाएगा.’’

मांजी के आगे एक नया रहस्य खुला. नीरा ने तो इस बारे में उन्हें बताया ही नहीं था. वह बड़बड़ाने लगीं, ‘‘अजीब लड़की है, यह. अरे, मैं सास सही, पर सास भी मां होती है. मैं तो इस से सारा काम कराती रही और इस ने कभी बताया तक नहीं कि कुछ खास खाने का मन कर रहा है. ये आजकल की बहुएं भी बस घुन्नी होती हैं. एक हमारा जमाना था. हमें बाद में पता चलता था और सास को पहले से ही खबर हो जाती थी. अब बताओ, मैं ने तो कभी इस से यह भी नहीं पूछा कि क्या खाने की इच्छा है?’’

‘‘तो अब पूछ लेना. काफी वक्त पड़ा है. इस समय बहू को सोने दो,’’ बाबूजी बोले और कमरे से बाहर चले गए.

रात मांजी अपनी खाट नीरा के कमरे में ही ले आईं. रसोई का काम सिम्मी को सौंप दिया था इसलिए अब मांजी का आक्रोश  उस पर बरसता.

‘‘इतनी बड़ी हो गई है, पर खाना बनाने की अक्ल नहीं आई, गोभी में पानी तैर रहा है. और दाल इतनी गाढ़ी है कि गुठलियां बन गई हैं. दस बार कहा है कि जरा अपनी भाभी के साथ हाथ बंटाया करो. कुछ सीख जाओगी. पर…’’

‘‘ओहो मां, शुरू हो गईं तुम? एक तो खाना बनाओ, ऊपर से तुम्हारा भाषण सुनो. मुझ से खाना बनवाना है तो चुपचाप खा लिया करो, वरना खुद करो.’’

मांजी बड़बड़ाने लगीं, ‘‘इन बच्चों को तो समझाना भी मुश्किल है.’’

मांजी 2-2 घंटे बाद अदरकसौंफ वाला दूध ले कर नीरा के पास आ जातीं. खुद अपने हाथों से उसे दवा देतीं. रात भर माथा छूछू कर उस का बुखार देखतीं.

अपने प्रति मांजी को इतना चिंतित देख नीरा हैरान थी. बड़बोली मांजी के अंदर उस की इतनी फिक्र है और उस के प्रति इतना प्रेम है, आज तक कहां समझ पाई थी वह? वह तो मांजी के बोलने और टोकने पर ही सदा खीजती  रही.

नीरा 4-5 दिन बुखार की चपेट में रही. मांजी बराबर उस के सिरहाने बनी रहीं. उसे दवा, दूध, चाय, खिचड़ी आदि सब अपने हाथ से देती थीं. कई बार नीरा को लगता जैसे उस की मां ही सिरहाने बैठी हैं. उस का बुखार उतर गया था, पर मांजी उसे अभी जमीन पर पांव नहीं रखने देती थीं कि कहीं कमजोरी से दोबारा बुखार न चढ़ जाए.

दोपहर पड़ोस से रम्मो चाची उस का हाल पूछने आई थीं. उस के माथे पर हाथ रख कर बोलीं, ‘‘माथा तो ठंडा पड़ा है, बुखार तो नहीं है.’’

नीरा ने जवाब दिया, ‘‘हां, अब कल से बुखार नहीं है.’’

बाद में मांजी और रम्मो चाची बाहर आंगन में बैठ कर बातें करने लगीं.

रम्मो चाची बोलीं, ‘‘आजकल की बहुएं भी फूल सी नाजुक होती हैं.  हम भी तो इस भरी सर्दी में काम करते हैं, पर हमें तो कभी ताप नहीं चढ़ता. ये तो बस छुईमुई सी है,’’ फिर फुसफुसा कर बोलीं, ‘‘अरे, बहू को बुखार भी है या यों ही बहाना किए पड़ी है. आजकल की बहुएं तो तुम जानो, ऐसी ही होती हैं.’’

तभी मांजी का तीव्र स्वर सुनाई दिया, ‘‘बस, बस, रम्मो. तुम्हारा दिमाग भी कभी सीधी राह पर नहीं चला. तुम ने कभी अपनी बहुओं के दुखदर्द को समझा नहीं. तुम्हें तो सब कुछ बहाना लगता है. यह मत भूलो कि बहुएं भी हाड़मांस की बनी हैं. मैं ने तो नीरा और सिम्मी में कभी फर्क नहीं माना है. तुम भी अगर यह बात समझ लो तो तुम्हारे घर की रोज की चखचख खत्म हो जाए.’’

रम्मो चाची खिसियानी सी हो गईं, ‘‘मैं ने जरा सा क्या बोला, तुम ने तो पूरी रामायण बांच दी. यों ही बात से बात निकली थी तो मैं बोल पड़ी थी.’’

‘‘आज तो बोल दिया, आगे से मेरी बहू के बारे में यों न बोलना,’’ मांजी के अंदर अब भी आक्रोश था.

नीरा लेटीलेटी हैरानी से मांजी की बातें सुन रही थी. सचमुच वह मांजी को जान ही कहां पाई? दीपक ठीक ही कहते थे, ‘मुंह से मांजी चाहे बकझक कर लें पर मन तो उन का साफ पानी सा निर्मल है.’ इस बीमारी में उन्होंने उस का जितना खयाल रखा, उस की अपनी मां भी शायद इस तरह न रख पातीं.

और फिर मांजी सिर्फ उसी को तो नहीं बोलतीं. सिम्मी और बाबूजी भी मांजी की टोकाटाकी से कहां बच पाते हैं? यह तो मांजी का स्वभाव ही है. वैसे इस उम्र में आ कर औरतें अकसर इस स्वभाव की हो ही जाती हैं. उस की मां भी तो कितना बोलती हैं.

पर फर्क सिर्फ यह है कि वह मां हैं और यह सास हैं. उन का कहा वह इस कान से सुन कर उस कान से निकाल देती थी और सासू मां का कहा गांठ बांध कर रख लेती है. अभी तक उस ने सिक्के के एक ही पहलू को देखा था, दूसरा पहलू तो अब देखने को मिला जिस में ममता और प्रेम भरा है.

नीरा उठी. मेज पर रखे भैया को लिखे खत को उठाया और उस के टुकड़ेटुकड़े कर दिए. मायके जाने का विचार उस ने छोड़ दिया. दीपक के आने तक वह मांजी के साथ ही रहेगी. मांजी का दूसरा ममतापूर्ण और करुणामय रूप देख कर अब इस घर से जाने की इच्छा ही नहीं उसे.

लेखक- कमला चमोला

सबसे बड़ा रुपय्या: शेखर व सरिता को किस बात का हुआ एहसास

आमदनी बढ़ाने के लिए शेखर भी ओवरटाइम करता. अपनी जरूरतें कम कर के भविष्य के लिए रुपए जमा करता. सरिता भी घर का सारा काम अपने हाथों से कर के सीमित बजट में गुजारा करती थी.

सेवानिवृत्त होते ही समय जैसे थम गया. सबकुछ शांत हो गया. पतिपत्नी की भागदौड़ समाप्त हो गई.

शेखर ने बचत के रुपयों से मनपसंद कोठी बना ली. हरेभरे पेड़पौधे से सजेधजे लान में बैठने का उस का सपना अब जा कर पूरा हुआ था.

बेटा पारस की इंजीनियरिंग की शिक्षा, फिर उस का विवाह सभी कुछ शेखर की नौकरी में रहते हुए ही हो चुका था. पारस अब नैनीताल में पोस्टेड है. बेटी प्रियंका, पति व बच्चों के साथ चेन्नई में रह रही थी. दामाद फैक्टरी का मालिक था.

शेखर ने अपनी कोठी का आधा हिस्सा किराए पर उठा दिया था. किराए की आमदनी, पेंशन व बैंक में जमा रकम के ब्याज से पतिपत्नी का गुजारा आराम से चल रहा था.

घर में सुख- सुविधा के सारे साधन उपलब्ध थे. सरिता पूरे दिन टेलीविजन देखती, आराम करती या ब्यूटी पार्लर जा कर चेहरे की झुर्रियां मिटवाने को फेशियल कराती.

शेखर हंसते, ‘‘तुम्हारे ऊपर बुढ़ापे में निखार आ गया है. पहले से अधिक खूबसूरत लगने लगी हो.’’

शेखर व सरिता सर्दी के मौसम में प्रियंका के घर चेन्नई चले जाते और गरमी का मौसम जा कर पारस के घर नैनीताल में गुजारते.

पुत्रीदामाद, बेटाबहू सभी उन के सम्मान में झुके  रहते. दामाद कहता, ‘‘आप मेरे मांबाप के समान हैं, जैसे वे लोग, वैसे ही आप दोनों. बुजर्गों की सेवा नसीब वालों को ही मिला करती हैं.’’

शेखरसरिता अपने  दामाद की बातें सुन कर गदगद हो उठते. दामाद उन्हें अपनी गाड़ी में बैठा कर चेन्नई के दर्शनीय स्थलों पर घुमाता, बढि़या भोजन खिलाता. नौकरानी रात को दूध का गिलास दे जाती.

सेवा करने में बहूबेटा भी कम नहीं थे. बहू अपने सासससुर को बिस्तर  पर ही भोजन की थाली ला कर देती और धुले कपड़े पहनने को मिलते.

बहूबेटों की बुराइयां करने वाली औरतों पर सरिता व्यंग्य कसती कि तुम्हारे अंदर ही कमी होगी कि तुम लोग बहुओं को सताती होंगी. मेरी बहू को देखो, मैं उसे बेटी मानती हूं तभी तो वह मुझे सुखआराम देती है.

शेखर भी दामाद की प्रशंसा करते न अघाते. सोचते, पता नहीं क्यों लोग दामाद की बुराई करते हैं और उसे यमराज कह कर उस की सूरत से भी भय खाते हैं.

एक दिन प्रियंका का फोन आया. उस की आवाज में घबराहट थी, ‘‘मां गजब हो गया. हमारे घर में, फैक्टरी में सभी जगह आयकर वालों का छापा पड़ गया है और वे हमारे जेवर तक निकाल कर ले गए…’’

तभी शेखर सरिता के हाथ से फोन छीन कर बोले, ‘‘यह सब कैसे हो गया बेटी?’’

‘‘जेठ के कारण. सारी गलती उन्हीें की है. सारा हेरफेर वे करते हैं और उन की गलती का नतीजा हमें भोगना पड़ता है,’’ प्रियंका रो पड़ी.

शेखर बेटी को सांत्वना देते रह गए और फोन कट गया.

वह धम्म से कुरसी पर बैठ गए. लगा जैसे शरीर में खड़े रहने की ताकत नहीं रह गई है. और सरिता का तो जैसे मानसिक संतुलन ही खो गया. वह पागलों की भांति अपने सिर के बाल नोचने लगी.

शेखर ने अपनेआप को संभाला. सरिता को पानी पिला कर धैर्य बंधाया कि अवरोध तो आते ही रहते हैं, सब ठीक हो जाएगा.

एक दिन बेटीदामाद उन के घर आ पहुंचे. संकोच छोड़ कर प्रियंका अपनी परेशानी बयान करने लगी, ‘‘पापा, हम लोग जेठजिठानी से अलग हो रहे हैं. इन्हें नए सिरे से काम जमाना पडे़गा. कोठी छोड़ कर किराए के मकान में रहना पडे़गा. काम शुरू करने के लिए लाखों रुपए चाहिए. हमें आप की मदद की सख्त जरूरत है.’’

दामाद हाथ जोड़ कर सासससुर से विनती करने लगा, ‘‘पापा, आप लोगों का ही मुझे सहारा है, आप की मदद न मिली तो मैं बेरोजगार हो जाऊंगा. बच्चों की पढ़ाई रुक जाएगी.’’

शेखर व सरिता अपनी बेटी व दामाद को गरीबी की हालत में कैसे देख सकते थे. दोनों सोचविचार करने बैठ गए. फैसला यह लिया कि बेटीदामाद की सहायता करने में हर्ज ही क्या है? यह लोग सहारा पाने और कहां जाएंगे.

अपने ही काम आते हैं, यह सोच कर शेखर ने बैंक में जमा सारा रुपया निकाल कर दामाद के हाथों में थमा दिया. दामाद ने उन के पैरों पर गिर कर कृतज्ञता जाहिर की और कहा कि वह इस रकम को साल भर के अंदर ही वापस लौटा देगा.

श्ेखरसरिता को रकम देने का कोई मलाल नहीं था. उन्हें भरोसा था कि दामाद उन की रकम को ले कर जाएगा कहां, कह रहा है तो लौटाएगा अवश्य. फिर उन के पास जो कुछ भी है बच्चों के लिए ही तो है. बच्चों की सहायता करना उन का फर्ज है. दामाद उन्हें मांबाप के समान मानता है तो उन्हें भी उसे बेटे के समान मानना चाहिए.

अपना फर्ज पूरा कर के दंपती राहत का आभास कर रहे थे.

बेटे पारस का फोन आया तो मां ने उसे सभी कुछ स्पष्ट रूप से बता दिया.

तीसरे दिन ही बेटाबहू दोनों आकस्मिक रूप से दिल्ली आ धमके. उन्हें इस तरह आया देख कर शेखर व सरिता हतप्रभ रह गए. ‘‘बेटा, सब ठीक है न,’’ शेखर उन के इस तरह अचानक आने का कारण जानने के लिए उतावले हुए जा रहे थे.

‘‘सब ठीक होता तो हमें यहां आने की जरूरत ही क्या थी,’’ तनावग्रस्त चेहरे से पारस ने जवाब दिया.

बहू ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा, ‘‘आप लोगों ने अपने खूनपसीने की कमाई दामाद को दे डाली, यह भी नहीं सोचा कि उन रुपयों पर आप के बेटे का भी हक बनता है.’’

बहू की बातें सुन कर शेखर हक्केबक्के रह गए. वह स्वयं को संयत कर के बोले, ‘‘उन लोगों को रुपया की सख्त जरूरत थी. फिर उन्होंने रुपया उधार ही तो लिया है, ब्याज सहित चुका देंगे.’’

‘‘आप ने रुपए उधार दिए हैं, इस का कोई सुबूत आप के पास है. आप ने उन के साथ कानूनी लिखापढ़ी करा ली है?’’

‘‘वे क्या पराए हैं जो कानूनी लिखापढ़ी कराई जाती व सुबूत रखे जाते.’’

‘‘पापा, आप भूल रहे हैं कि रुपया किसी भी इनसान का ईमान डिगा सकता है.’’

‘‘मेरा दामाद ऐसा इनसान नहीं है.’’ सरिता बोली, ‘‘प्रियंका भी तो है वह क्या दामाद को बेईमानी करने देगी.’’

‘‘यह तो वक्त बताएगा कि वे लोग बेईमान हैं या ईमानदार. पर पापा आप यह मकान मेरे नाम कर दें. कहीं ऐसा न हो कि आप बेटीदामाद के प्रेम में अंधे हो कर मकान भी उन के नाम कर डालें.’’

बेटे की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न रह गए. हमेशा मानसम्मान करने वाले, सलीके से पेश आने वाले बेटाबहू इस प्रकार का अशोभनीय व्यवहार क्यों कर रहे हैं. यह उन की समझ में नहीं आ रहा था.

आखिर, बेटाबहू इस शर्त पर शांत हुए कि बेटीदामाद ने अगर रुपए वापस नहीं किए तो उन के ऊपर मुकदमा चलाया जाएगा.

बेटाबहू कई तरह की हिदायतें दे कर नैनीताल चले गए पर शेखर व सरिता के मन पर ंिंचंताओं का बोझ आ पड़ा था. सोचते, उन्होंने बेटीदामाद की सहायता कर के क्या गलती की है. रुपए बेटी के सुख से अधिक कीमती थोड़े ही थे.

हफ्ते में 2 बार बेटीदामाद का फोन आता तो दोनों पतिपत्नी भावविह्वल हो उठते. दामाद बिलकुल हीरा है, बेटे से बढ़ कर अपना है. बेटा कपूत बनता जा रहा है, बहू के कहने में चलता है. बहू ने ही पारस को उन के खिलाफ भड़काया होगा.

अब शेखर व सरिता उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे, जब दामाद उन का रुपया लौटाने आएगा और वे सारा रुपया उठा कर बेटाबहू के मुंह पर मार कर कहेंगे कि इसी रुपए की खातिर तुम लोग रिश्तों को बदनाम कर रहे थे न, लो रखो इन्हें.

कुछ माह बाद ही बेटीदामाद का फोन आना बंद हो गया तो शेखरसरिता चिंतित हो उठे. वे अपनी तरफ से फोन मिलाने का प्रयास कर रहे थे पर पता नहीं क्यों फोन पर प्रियंका व दामाद से बात नहीं हो पा रही थी.

हर साल की तरह इस साल भी शेखर व सरिता ने चेन्नई जाने की तैयारी कर ली थी और बेटीदामाद के बुलावे की प्रतीक्षा कर रहे थे.

एक दिन प्रियंका का फोन आया तो शेखर ने उस की खैरियत पूछने के लिए प्रश्नों की झड़ी लगा दी पर प्रियंका ने सिर्फ यह कह कर फोन रख दिया कि वे लोग इस बार चेन्नई न आएं क्योंकि नए मकान में अधिक जगह नहीं है.

शेखरसरिता बेटी से ढेरों बातें करना चाहते थे. दामाद के व्यवसाय के बारे में पूछना चाहते थे. अपने रुपयों की बात करना चाहते थे. पर प्रियंका ने कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया.

बेटीदामाद की इस बेरुखी का कारण उन की समझ में नहीं आ रहा था.

देखतेदेखते साल पूरा हो गया. एक दिन हिम्मत कर के शेखर ने बेटी से रुपए की बाबत पूछ ही लिया.

प्रियंका जख्मी शेरनी की भांति गुर्रा उठी, ‘‘आप कैसे पिता हैं कि बेटी के सुख से अधिक आप को रुपए प्यारे हैं. अभी तो इन का काम शुरू ही हुआ है, अभी से एकसाथ इतना सारा रुपया निकाल लेंगे तो आगे काम कैसे चलेगा?’’

दामाद चिंघाड़ कर बोला, ‘‘मेरे स्थान पर आप का बेटा होता तो क्या आप उस से भी वापस मांगते? आप के पास रुपए की कमी है क्या? यह रुपया आप के पास बैंक में फालतू पड़ा था, मैं इस रुपए से ऐश नहीं कर रहा हूं, आप की बेटी को ही पाल रहा हूं.’’

पुत्रीदामाद की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न कर रह गए और रुपए वापस मिलने की तमाम आशाएं निर्मूल साबित हुईं. उलटे वे उन के बुरे बन गए. रुपया तो गया ही साथ में मानसम्मान भी चला गया.

पारस का फोन आया, ‘‘पापा, रुपए मिल गए.’’

शेखर चकरा गए कि क्या उत्तर दें. संभल कर बोले, ‘‘दामाद का काम जम जाएगा तो रुपए भी आ जाएंगे.’’

‘‘पापा, साफ क्यों नहीं कहते कि दामाद ने रुपए देने से इनकार कर दिया. वह बेईमान निकल गया,’’ पारस दहाड़ा.

सरिता की आंखों से आंसू बह निकले, वह रोती हुई बोलीं, ‘‘बेटा, तू ठीक कह रहा है. दामाद सचमुच बेईमान है, रुपए वापस नहीं करना चाहता.’’

‘‘उन लोगों पर धोखाधड़ी करने का मुकदमा दायर करो,’’ जैसे सैकड़ों सुझाव पारस ने फोन पर ही दे डाले थे.

शेखर व सरिता एकदूसरे का मुंह देखते रह गए. क्या वे बेटीदामाद के खिलाफ यह सब कर सकते थे.

चूंकि वे अपनी शर्त पर कायम नहीं रह सके इसलिए पारस मकान अपने नाम कराने दिल्ली आ धमका. पुत्रीदामाद से तो संबंध टूट ही चुके हैं, बहूबेटा से न टूट जाएं, यह सोच कर दोनों ने कोठी का मुख्तियारनामा व वसीयतनामा सारी कानूनी काररवाई कर के पूरे कागजात बेटे को थमा दिए.

पारस संतुष्ट भाव से चला गया.‘‘बोझ उतर गया,’’ शेखर ने सरिता की तरफ देख कर कहा, ‘‘अब न तो मकान की रंगाईपुताई कराने की चिंता न हाउस टैक्स जमा कराने की. पारस पूरी जिम्मेदारी निबाहेगा.’’

सरिता को न जाने कौन सा सदमा लग गया कि वह दिन पर दिन सूखती जा रही थी. उस की हंसी होंठों से छिन चुकी थी, भूखप्यास सब मर गई. बेटीबेटा, बहूदामाद की तसवीरोें को वह एकटक देखती रहतीं या फिर शून्य में घूरती रह जाती.

शेखर दुखी हो कर बोला, ‘‘तुम ने अपनी हालत मरीज जैसी बना ली. बालों पर मेंहदी लगाना भी बंद कर दिया, बूढ़ी लगने लगी हो.’’

सरिता दुखी मन से कहने लगी,‘‘हमारा कुछ भी नहीं रहा, हम अब बेटाबहू के आश्रित बन चुके हैं.’’

‘‘मेरी पेंशन व मकान का किराया तो है. हमें दूसरों के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी,’’ शेखर जैसे अपनेआप को ही समझा रहे थे.

जब किराएदार ने महीने का किराया नहीं दिया तो शेखर ने खुद जा कर शिकायती लहजे में किराएदार से बात की और किराया न देने का कारण पूछा.

किराएदार ने रसीद दिखाते हुए तीखे स्वर में उत्तर दिया कि वह पारस को सही वक्त पर किराए का मनीआर्डर भेज चुका है.

‘‘पारस को क्यों?’’

‘‘क्योेंकि मकान का मालिक अब पारस है,’’ किराएदार ने नया किराया- नामा निकाल कर शेखर को दिखा दिया. जिस पर पारस के हस्ताक्षर थे.

शेखर सिर पकड़ कर रह गए कि सिर्फ मामूली सी पेंशन के सहारे अब वह अपना गुजारा कैसे कर पाएंगे.

‘‘बेटे पर मुकदमा करो न,’’ सरिता पागलों की भांति चिल्ला उठी, ‘‘सब बेईमान हैं, रुपयों के भूखे हैं.’’

शेखर कहते, ‘‘हम ने अपनी संतान के प्रति अपना फर्ज पूरा किया है. हमारी मृत्यु के बाद तो उन्हें मिलना ही था, पहले मिल गया. इस से भला क्या फर्क पड़ गया.’’

सरिता बोली, ‘‘बेटीदामाद, बेटा बहू सभी हमारी दौलत के भूखे थे. दौलत के लालच में हमारे साथ प्यारसम्मान का ढोंग करते रहे. दौलत मिल गई तो फोन पर बात करनी भी छोड़ दी.’’

पतिपत्नी दोनों ही मानसिक वेदना से पीडि़त हो चुके थे. घर पराया लगता, अपना खून पराया हो गया तो अपना क्या रह गया.

एक दिन शेखर अलमारी में पड़ी पुरानी पुस्तकों में से होम्योपैथिक चिकित्सा की पुस्तक तलाश कर रहे थे कि अचानक उन की निगाहों के सामने पुस्तकों के बीच में दबा बैग आ गया और उन की आंखें चमक उठीं.

बैग के अंदर उन्होंने सालोें पहले इंदिरा विकासपत्र व किसान विकासपत्र पोस्ट आफिस से खरीद कर रखे हुए थे. जिस का पता न बेटाबेटी को था, न सरिता को,  यहां तक कि खुद उन्हें भी याद नहीं रहा था.

मुसीबत में यह 90 हजार रुपए की रकम उन्हें 90 लाख के बराबर लग रही थी.

उन के अंदर उत्साह उमड़ पड़ा. जैसे फिर से युवा हो उठे हों. हफ्ते भर के अंदर ही उन्होंने लान के कोने में टिन शेड डलवा कर एक प्रिंटिंग प्रेस लगवा ली. कुछ सामान पुराना भी खरीद लाए और नौकर रख लिए.

सरिता भी इसी काम में व्यस्त हो गई. शेखर बाहर के काम सभांलता तो सरिता दफ्तर में बैठती.

शेखर हंस कर कहते, ‘‘हम लोग बुढ़ापे का बहाना ले कर निकम्मे हो गए थे. संतान ने हमें बेरोजगार इनसान बना दिया. अब हम दोनों काम के आदमी बन गए हैं.’’

सरिता मुसकराती, ‘‘कभीकभी कुछ भूल जाना भी अच्छा रहता है. तुम्हारे भूले हुए बचत पत्रों ने हमारी दुनिया आबाद कर दी. यह रकम न मिलती तो हमें अपना बाकी का जीवन बेटीदामाद और बेटाबहू की गुलामी करते हुए बिताना पड़ता. अब हमें बेटीदामाद, बेटाबहू सभी को भुला देना ही उचित रहेगा. हम उन्हें इस बात का एहसास दिला देंगे कि उन की सहायता लिए बगैर भी हम जी सकते हैं और अपनी मेहनत की रोटी खा सकते हैं. हमें उन के सामने हाथ फैलाने की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

सरिता व शेखर के चेहरे आत्म- विश्वास से चमक रहे थे, जैसे उन का खोया सुकून फिर से वापस लौट आया हो.

नैरो माइंड: क्या तरू को हुआ गलती का एहसास

‘‘मौम, आप कब से इतनी नैरो माइंड हो गई हैं, ऐसा क्या हुआ है? क्यों इतनी परेशान हो रही हैं? सब ठीक हो जाएगा, आजकल यह इतनी बड़ी बात नहीं है. सोसायटी में यह सब चलता रहता है. मैं आज ही विपुल से बात करूंगी.’’

तरू के एकएक शब्द ने तृप्ति के रोमरोम को घायल कर दिया. कितनी मुश्किलों और नाजों से उस ने दोनों बेटियों को पाला था.

तृप्ति और तपन ने तिनकेतिनके जोड़ कर यह घर बसाया था. उस ने अपने सारे अरमानों एवं इच्छाओं का गला घोंट कर इन्हीं बेटियों की खुशी के लिए अपना जीवन कुर्बान कर दिया था.

साधारण परिवार में जन्मी तृप्ति को पढ़ाई के साथ डांस और एक्ंिटग का जन्मजात शौक था. स्कूल में उस की प्रतिभा निखारने में उस की डांस टीचर मिस गोयल का बड़ा हाथ था. उन्होंने तृप्ति के गुण को परख कर उसे निखारा. तृप्ति ने भी उन्हें निराश नहीं किया और स्कूली शिक्षा के दौरान ही शील्ड और मेडल के ढेर लगा दिए.

वह विश्वविद्यालय में पहुंची तो सहशिक्षा के कारण उस के मातापिता ने इस तरह के कार्यक्रम से उसे दूर रहने की हिदायत दे दी, साथ ही कह दिया, ‘बहुत हुआ, अब जो करना हो अपने घर में करना.’ वह मन मार कर डांस और एक्ंिटग से दूर हो गई, लेकिन मन में एक कसक थी तभी उस का विवाह तपन से हो गया.

तपन बैंक में क्लर्क थे. सामान्य तौर पर घर में कोई कमी नहीं थी, लेकिन उस का शौक मन में हिलोरे मार रहा था. उस ने डांस स्कूल में काम करने के लिए तपन को किसी तरह से तैयार किया था तभी तन्वी के आगमन का एहसास हुआ. तन्वी छोटी ही थी तभी गोलमटोल तरू आ गई और वह इन दोनों बेटियों की परवरिश में सब भूल गई. 5-6 साल कब निकल गए, पता ही नहीं लगा. अब तृप्ति को अपनी खुशहाल जिंदगी प्यारी लगने लगी.

धीरे-धीरे तन्वी और तरू बड़ी होने लगीं. जब दोनों छोटेछोटे पैरों को उठा कर नाचतीं तो तृप्ति का मन खिल उठता और अनायास ही अपनी बेटियों को स्टेज पर नृत्य करते हुए देखने की वह कल्पना करती. तन्वी एवं तरू को तृप्ति ने डांस स्कूल में दाखिला दिलवा दिया. जल्द ही उन की प्रतिभा रंग दिखाने लगी. वे नृत्य में पारंगत होने लगीं और इसी के साथ तृप्ति के सपने साकार होने लगे.

एक दिन तपन ने टोक दिया, ‘अब ये दोनों बड़ी हो गई हैं, डांस आदि छोड़ कर पढ़ाई पर ध्यान दें.’ तपन के टोकने से तृप्ति नाराज हो उठी और समय बदलने की दुहाई देने लगी. दोनों का आपस में अच्छाखासा झगड़ा भी हुआ और अंत में जीत तृप्ति की ही हुई. तपन चुप हो गए. उन्होंने दोनों लड़कियों को डांस और एक्ंिटग में आगे बढ़ने की इजाजत दे दी.

तन्वी का रुझान अपनेआप ही डांस से हट गया. वह पढ़ाई में रुचि लेने लगी. प्रोफेशनल कोर्स के लिए तन्वी होस्टल चली गई. तरू अकेली हो गई. चूंकि उस पर मां का वरदहस्त था, अत: वह डांस एवं एक्ंिटग के साथ ग्लैमर से भी प्रभावित हो गई थी.

अब तरू के आएदिन स्टेज प्रोग्राम होते. तृप्ति बेटी में अपने सपने साकार होते देख मन ही मन खुश होती रहती. तपन को तरू का काम पसंद नहीं आता था. तरू अकसर ग्रुप के साथ कार्यक्रम के लिए बाहर जाया करती थी. उस को अब बाहर की दुनिया रास आने लगी थी. उस के उलटेसीधे कपड़े तपन को पसंद न आते. अकसर तृप्ति से कहते, ‘तरू, हाथ से निकल रही है.’ इस पर वह दबी जबान से तरू को समझाती लेकिन उस ने कभी भी मां की बातों पर ध्यान नहीं दिया.

‘‘मौम, मुझे 1 हजार रुपए चाहिए.’’

‘‘क्यों? अभी कल ही तो तुम ने पापा से रुपए लिए थे.’’

‘‘मौम, सब मुझ से पार्टी मांग रहे थे… उसी में पैसे खर्च हो गए.’’

‘‘मैं तुम्हारे पापा से कहूंगी.’’

तरू तृप्ति से लिपट गई…तृप्ति पिघल गई. रुपए लेते ही वह फुर्र हो गई.

‘‘मौम, आजकल थिएटर में मेरा रिहर्सल चल रहा है, इसलिए देर से आऊंगी.’’

तृप्ति का माथा ठनका, ‘कल तो तरू ने कहा था कि इस हफ्ते मेरा कोई शो नहीं है.’

अभी वह इस ऊहापोह से निकल भी न पाई थी कि तपन पुकारते हुए आए.

‘‘तरू… तरू…’’

तृप्ति ने उत्तर दिया, ‘‘तरू का आज रिहर्सल है.’’

‘‘वह झूठ पर झूठ बोलती रहेगी, तुम आंख बंद कर उस पर विश्वास करती रहना. वह किसी लड़के की बाइक पर पीछे बैठी हुई कहीं जा रही थी, लड़का बाइक बहुत तेज चला रहा था,’’ तपन क्रोधित हो बोले थे.

तृप्ति घबरा कर चिंतित हो उठी. वह सोचने को मजबूर हो गई कि क्या तरू गलत संगत में पड़ गई है. मन ही मन घुटती हुई वह तरू के आने का इंतजार करने लगी.

लगभग रात में 11 बजे घंटी बजी. तृप्ति सोने की कोशिश कर रही थी. घंटी की आवाज सुन वह गुस्से में तेजी से उठी. दरवाजा खोलते ही तरू की हालत देख कर वह सन्न रह गई.

तरू की आंखें लाल हो रही थीं, एक लंबे बालों वाला लड़का उसे पकड़ कर खड़ा था. तृप्ति तपन से छिपाना चाह रही थी, इसलिए चुपचाप उस को सहारा दे कर उस के कमरे में ले गई और उसे बिस्तर पर लिटा दिया. तरू के मुंह से शराब की दुर्गंध आ रही थी.

तृप्ति की आंखों की नींद उड़ चुकी थी. वह मन ही मन रो रही थी और अपने को कोस रही थी. तरू को किस तरह सुधारे, वह क्या करे, कुछ सोच नहीं पा रही थी. उस का मन आशंकाओं से घिरा हुआ था. उसे तन्वी की याद आ रही थी. उस के मन में छात्रावास के प्रति अच्छे विचार नहीं थे लेकिन तरू तो उस की आंखों के सामने थी फिर कहां चूक हुई जो वह गलत हो गई. तपन ने तो सदैव उसे आगाह किया था, ‘लड़कियों को आजादी दो परंतु आजादी पर निगरानी आवश्यक है. नाजुक उम्र में बच्चे आजादी का नाजायज फायदा उठा कर खतरे में पड़ जाते हैं.’

तृप्ति ने रात पलकों में गुजारी. सुबह जब तरू उठी तो रात के बारे में पूछने पर अनजान बनती हुई बोली, ‘‘कल पार्टी में किसी ने उस की डिं्रक में कुछ मिला दिया था.’’

मां की ममता फिर से हावी हो गई. तृप्ति फिर से उस की बातों में आ गई थी.

अब जब हालात नियंत्रण से बाहर हो चुके थे तो तृप्ति उस पर रोक लगाना चाह रही थी. तरू एक न सुनती. एक दिन तृप्ति प्यार से उस का हाथ सहला रही थी, तभी उस के हाथों के काले निशान पर उस की नजर पड़ी. तुरंत तरू ने सफाई दी, ‘‘कुछ नहीं मौम. मैं स्कूटी ड्राइव करती हूं न, उसी का निशान है,’’ लेकिन उस के बहाने तृप्ति को विचलित कर चुके थे…उंगलियों के बीच में जले के निशान केवल सिगरेट के हो सकते हैं.

तृप्ति अब उस पर नजर रखने लगी. उसे तरहतरह से समझाने का प्रयास करती लेकिन तरू की आंखों पर तो ग्लैमर का चश्मा चढ़ा हुआ था. मोबाइल की घंटी सुनते ही वह भाग जाती थी. तृप्ति हालात को स्वयं ही सुधारने में लगी थी लेकिन तरू उस की एक न मानती.

निराशा एवं हताशा में तृप्ति बीमार रहने लगी तो तपन को चिंता हुई. उन्होंने तरू से कहा, ‘‘तुम कुछ दिन छुट्टी ले कर घर में रहो और मां की देखभाल करो, फिर कुछ दिन मैं छुट्टी ले लूंगा. लेकिन तरू ने एक न सुनी. तपन बहुत नाराज हुए और तृप्ति को ही कोसने लगे. तरू की बरबादी के लिए उसे ही जिम्मेदार बताने लगे. दिन और रात ठहर गए थे. अभी तक तृप्ति परेशान रहती थी अब तपन भी चिंतित और दुखी रहने लगे.

आज तो तरू को बेसिन पर उलटी करते देख कर तृप्ति सिहर गई. उस की बातों ने तो आग में घी का काम किया.

‘‘क्या हुआ, मौम? कोई पहाड़ टूट पड़ा है, क्यों मातम मना रही हो, क्या कोई मौत हो गई है. मैं डाक्टर के पास जा रही हूं, 1 घंटे की बात है, बस, सब नार्मल.’’

तृप्ति फूटफूट कर रो पड़ी. क्या हो गया इस नई पीढ़ी को. यह युवा वर्ग किधर जा रहा है, कहां गईं हमारी मान्यताएं. कहां गई शिक्षा. इतनी जल्दी इतना परिवर्तन. इतनी भटकन, क्या ऐसा संभव है?

महाभारत: माता-पिता को क्या बदल पाए बच्चे

दरवाजा बंद था लेकिन ऊंचे स्वर में होते वाक्युद्ध से लगता था किसी भी क्षण हाथापाई शुरू हो जाएगी. जब अधिक बर्दाश्त नहीं हुआ तो कजरी दरवाजे पर दस्तक देने के लिए उठी पर विवेक ने उसे पीछे खींच लिया, फिर समझाते हुए कहा, ‘‘एक तो यह रोज की बात है, दूसरे, यह पतिपत्नी का आपसी मामला है. तुम्हारे हस्तक्षेप करने से बात बिगड़ सकती है.’’

‘‘लेकिन विवेक, यह कब तक चलेगा?’’ कजरी ने हताश हो कर कहा.

‘‘पता नहीं,’’ विवेक ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘थोड़े दिन और देखते हैं, अगर नहीं समझे तो उन्हें वापस कानपुर भेज देंगे. बड़े भैया अपनेआप झेलेंगे.’’

‘‘कितनी आशा से हम ने मम्मीडैडी को अपने पास रहने के लिए बुलाया था,’’ कजरी ने गहरी सांस ली, ‘‘सोचा था उन का भी थोड़ा घूमनाफिरना हो जाएगा और हमें भी अच्छा लगेगा.’’

‘‘मम्मीडैडी में झगड़ा तो अकसर होता था,’’ विवेक ने कटुता से कहा, ‘‘लेकिन आपसी संबंध इतने बिगड़ जाएंगे यह नहीं सोचा था.’’

मम्मीडैडी में किसी न किसी बात पर रोज घमासान होता था. मम्मी की जलीकटी बातों का उत्तर डैडी गाली दे कर देते थे.

विवेक ने कजरी से कहा, ‘‘गरमागरम कौफी बना लाओ. पी कर कम से कम मेरा मूड तो ठीक होगा.’’

कजरी कौफी लाई तो विवेक ने दरवाजे पर दस्तक दी.

लगभग एक मिनट के बाद डैडी ने दरवाजा खोला और घूर कर देखा.

‘‘लीजिए डैडी, गरमागरम कौफी. आप शांति से पीजिए,’’ विवेक ने मम्मी से कहा, ‘‘आगे का प्रोग्राम ब्रेक के बाद.’’

विवेक अकसर मम्मीडैडी को बतौर मनोरंजन कुछ न कुछ कह कर हंसाता रहता था, लेकिन आज दोनों बहुत गंभीर थे. तनी भृकुटी पर कोई असर नहीं हुआ.

एक दिन मामला बहुत गरम हो गया. मम्मीडैडी का स्वर बाहर तक सुनाई पड़ रहा था.

‘‘मैं एक मिनट इस घर में नहीं रह सकती,’’ मम्मी ने ऊंचे स्वर में कहा, ‘‘मैं हमेशा के लिए छोड़ कर चली जाऊंगी.’’

‘‘मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूं,’’ डैडी ने क्रोध से कहा, ‘‘मेरा पीछा छोड़ दो.’’

‘‘मुझे कौन साथ रहने का शौक है,’’ मम्मी ने भी क्रोध से कहा. लड़ाई चरम सीमा पर पहुंच गई थी. कजरी और विवेक माथा पकड़ कर बैठ गए.

‘‘मैं भैया को फोन करता हूं,’’ विवेक ने दृढ़ता से कहा, ‘‘आएं और तुरंत ले जाएं.’’

‘‘नहीं, विवेक, उन्हें क्यों परेशान करते हो.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो,’’ विवेक ने सोच कर कहा, ‘‘एक कोशिश और करते हैं. मम्मीडैडी के लिए मनोरंजन का कोई और रास्ता ढूंढ़ना होगा. शायद बात बन जाए.’’

कजरी ने सहमति में सिर हिलाया और हंस पड़ी.

‘‘मम्मी,’’ विवेक ने कहा, ‘‘आप तो कभी बहुत पिक्चर देखती थीं. अब क्या हो गया?’’

मम्मी ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘कोई साथ हो तब न.’’

‘‘मैं 2 टिकट ले आया हूं. तैयार हो जाओ. डैडी को भी बोल कर आता हूं.’’

मम्मी को पिक्चर देखने का बहुत शौक था. पिक्चरहाल ज्यादा दूर नहीं था फिर भी विवेक ने रिकशा कर के दोनों को उस पर बैठा दिया.

थोड़ी देर में मम्मीडैडी सिनेमा देखने जा चुके थे.

उन के जाने के बाद विवेक ने पूछा, ‘‘हम कौन सी पार्टी में जा रहे हैं?’’

‘‘कोई पार्टी नहीं है तो क्या हुआ,’’ कजरी ने हंसते हुए कहा, ‘‘अब चले चलते हैं. तुम ने कहा था न एक बार कि कैलीफोर्निया में चाइनीज खाना बहुत अच्छा मिलता है.’’

कैलीफोर्निया अभीअभी एक नया रेस्तरां खुला था और अपने स्वादिष्ठ खाने की वजह से जल्द ही बहुत मशहूर हो गया था.

जब मम्मीडैडी घर आए तो बहुत प्रसन्न थे. आदत के अनुसार मम्मी फिल्म की कहानी सुनाने लगीं और डैडी अपनी टिप्पणी दे रहे थे. विवेक और कजरी ने राहत की सांस ली.

अब तो विवेक हर 10-15 दिन में किसी नई फिल्म के 2 टिकट ले आता था. मम्मीडैडी जितना खुश हो कर जाते थे उस से अधिक प्रसन्न हो कर लौटते थे.

एक दिन विवेक के एक दोस्त ने नेशनल स्कूल आफ ड्रामा के एक बहुचर्चित नाटक के 2 टिकट ला कर दिए. वे टिकट विवेक ने मम्मीडैडी को दे दिए.

दोनों बहुत प्रसन्न थे. कोई नाटक देखे उन्हें वर्षों बीत गए थे.

मम्मीडैडी के आने की प्रतीक्षा में कजरी और विवेक बैठ कर सासबहू वाला धारावाहिक देख रहे थे. आज कहानी ने एक दिलचस्प मोड़ लिया था. अचानक फोन की घंटी ने ध्यान भंग कर दिया, ‘‘देखो, किस का फोन है,’’ विवेक नेकहा.

‘‘तुम देखो,’’ कजरी बोली. विवेक अनिच्छा से उठा.

‘‘हैलो,’’ विवेक ने सूखे कंठ से कहा.

‘‘जानेमन, कैसे हो?’’ उधर से आवाज आई.

‘‘कस्तूरी, तुम?’’ विवेक ने आश्चर्य से चौंक कर पूछा, ‘‘कैसे याद किया?’’

‘‘परसों तुम दोनों मेरे यहां खाने पर आओ,’’ कस्तूरी ने कहा.

‘‘किस खुशी में?’’

‘‘मेरा जन्मदिन है,’’ कस्तूरी खिलखिला पड़ी, ‘‘साल में कितने जन्मदिन मनाती हो?’’ विवेक ने हंस कर पूछा.

‘‘अपनी डायरी में देखो, कहीं लिखा होगा,’’ कस्तूरी ने कहा, ‘‘सच ही मेरा जन्मदिन है और तुम दोनों को जरूर आना है.’’ इस से पहले कि विवेक कुछ कहता कस्तूरी ने फोन रख दिया था. विवेक उलझन में पड़ा फोन हाथ में लिए खड़ा था. क्या करे इस कस्तूरी का. जब भी फोन करती है घर में कलह हो ही जाती है.

कजरी ने तीखे स्वर में पूछा, ‘‘क्या कह रही थी, कस्तूरी?’’

‘‘खाने पर बुला रही है. जन्मदिन की पार्टी कर रही है,’’ विवेक ने खुलासाकिया.

‘‘माना, किसी जमाने में कस्तूरी तुम्हारी गर्लफ्रैंड थी, लेकिन इस का मतलब यह तो नहीं कि उसे खुलेआम तुम्हारे से फ्लर्ट करने का लाइसेंस मिल गया,’’ कजरी ने क्रोध से कहा, ‘‘जब भी मिलती है ऐसे चिपक कर बैठती है जैसे पत्नी वह है और मैं ‘वो’ हूं.’’

‘‘तुम जानती तो हो कि मैं उसे ऐसा करने की दावत नहीं देता,’’ विवेक ने हाथ हिलाते हुए कहा, ‘‘वह है ही ऐसी.’’

‘‘ताली एक हाथ से नहीं बजती,’’ कजरी ने चिढ़ कर कहा, ‘‘तुम मौका देते हो तभी तो उस की ऐसा करने की हिम्मत होती है.’’

‘‘मैं मौका देता हूं?’’ विवेक ने ऊंचे स्वर में कहा, फिर पूछा, ‘‘तुम्हें उस की पार्टी में चलना है या नहीं?’’

दोनों एक-दूसरे को इस तरह घूर रहे थे मानो खा ही जाएंगे.

पार्टी में तो कोई नहीं गया लेकिन दोनों के बीच शीतयुद्ध जारी रहा. सारा काम इशारों से चल रहा था या मम्मीडैडी से कह कर.

आज छुट्टी का दिन था लेकिन माहौल मनहूसियत से भरा हुआ था. नाश्ते के बाद डैडी बाहर चले गए.

‘‘विवेक,’’ थोड़ी देर बाद डैडी ने अंदर आते हुए आवाज लगाई, ‘‘बहू, तुम भी आओ. देखो, क्या लाया हूं मैं.’’

दोनों आ कर आश्चर्य से देखने लगे.

‘‘ये लो,’’ डैडी ने एक लिफाफा पकड़ाया.

‘‘इस में क्या है?’’ दोनों ने एकसाथ पूछा.

‘‘बेटा, हनीमून हाल के टिकट हैं. मैं तुम दोनों के लिए फिल्म ‘देवदास’ के टिकट ले आया हूं. इतने दिनों से तुम्हें ‘देवदास’ बना देख रहा हूं. सोचा क्यों न फिल्म ही दिखा दूं.’’

मम्मीडैडी दोनों हंस रहे थे. कु छ क्षणों तक कजरी और विवेक ने आश्चर्य से देखा और फिर हंसी न रोक सके. डैडी ने उन का फार्मूला उन्हीं पर आजमा दिया था.

घुट-घुट कर क्यों जीना

मुझे यह तो पता था कि वे कभीकभार थोड़ीबहुत शराब पी लेते हैं, पर यह नहीं पता था कि उन का पीना इतना बढ़ जाएगा कि आज मेरे साथसाथ बच्चों को भी उन से नफरत होने लगेगी.

मैं ने उम्रभर जोकुछ सहा, जोकुछ किया, वह बस अपने बच्चों के लिए ही तो था, मगर मैं ने कभी यह क्यों नहीं सोचा कि बड़े होने पर मेरे बच्चे ऐसे पिता को कैसे स्वीकारेंगे जो उन के लिए कभी एक आदर्श पिता बन ही नहीं पाए.

बात तब की है, जब मेरा घर कोलकाता में हुआ करता था. गरीब परिवार था. एक बहन और एक भाई थे, जिन के साथ बिताया बचपन बहुत ज्यादा यादगार था.

मुझे तालाब में गोते लगाने का बहुत शौक था. मैं पेड़ से आम तोड़ कर लाया करती थी. जिंदगी कितनी अच्छी थी उस वक्त. दिनभर बस खेलते ही रहना. स्कूल तो जाना होता नहीं था.

मम्मी ने उस वक्त यह कह कर स्कूल में दाखिला नहीं कराया था कि पढ़ाईलिखाई लड़कियों का काम नहीं है.

मैं 13 साल की थी, जब मम्मीपापा का बहुत बुरा झगड़ा हुआ था. मम्मी भाई को गोद में उठा कर अपने साथ ले गईं. कहां ले गईं, पापा ने नहीं बताया.

पापा के ऊपर अब मेरी और दीदी की जिम्मेदारी थी, वह जिम्मेदारी जिसे उठाने में न उन्हें कोई दिलचस्पी थी, न फर्ज लगता था.

वे मुझे गांव की एक कोठी में ले गए और वहां झाड़ूपोंछे के काम में लगा दिया. मुझे वह काम ज्यादा अच्छे से तो नहीं आता था, पर मैं सीख गई. दीदी भी किसी दूसरी कोठी में काम करती थीं.

हम जहां काम करती थीं, वहीं रहती भी थीं इसलिए हमारा मिलना नहीं हो पाता था. मुझे घर की याद आती थी. कभीकभी मन करता था कि घर भाग जाऊं, लेकिन फिर खयाल आता कि अब वहां अपना है ही कौन.

मम्मी ने तो पहले ही अपनी छोटी औलाद के चलते या कहूं बेटा होने के चलते भाई को थाम लिया था.

मुझे उस कोठी में काम करते हुए 2 महीने ही हुए थे जब बड़े साहब की बेटी दिल्ली से आई थीं. उन्होंने मुझे काम करते देखा तो साहब से कहा कि दिल्ली में अच्छी नौकरानियां नहीं मिलती हैं. इस लड़की को मुझे दे दो, अच्छा खिलापहना तो दूंगी ही.

बड़े साहब ने 2 मिनट नहीं लगाए और फैसला सुना दिया कि मैं अब शहर जाऊंगी.

मेरे मांबाप ने मुझे पार्वती नाम दिया था, शहर आ कर मेमसाहब ने मुझे पुष्पा नाम दे दिया. मुझे शहर में सब पुष्पा ही बुलाते थे. गांव में शहर के बारे में जैसा सुना था, यह बिलकुल वैसा ही था, बड़ीबड़ी सड़कें, मीनारों जैसी इमारतें, गाडि़यां और टीशर्ट पहनने वाली लड़कियां. सब पटरपटर इंगलिश बोलते थे वहां. कितनाकुछ था शहर में.

मेरी उम्र तब 17 साल थी. एक दिन जब मैं बरामदे में कपड़े सुखा रही थी, बगल वाले घर में काम करने वाली आंटी का बेटा मेमसाहब से पैसे मांगने आया था. वह देखने में सुंदर था, मेरी उम्र का ही था, गोराचिट्टा रंग और काले घने बाल.

मैं ने उस लड़के की तरफ देखा तो उस ने भी नजरें मेरी तरफ कर लीं. उस ने जिस तरह मुझे देखा था, उस तरह आज से पहले किसी और लड़के ने नहीं देखा था.

मेमसाहब के घर में सब बड़े मुझे बेटी की तरह मानते थे. उन के बच्चों की मैं ‘दीदी’ थी. घर में कोई मेहमान आता भी था तो मुझ जैसी नौकरानी पर किसी की नजर पड़ती भी तो क्यों? यह पहला लड़का था जिस का मुझे इस तरह देखना कुछ अलग सा लगा, अच्छा लगा.

अब वह रोज किसी न किसी बहाने यहां आया करता था. कभी आंटी को खाना देने, कभी कुछ सामान लेने या देने, कभी पैसे लौटाने और कभी तो अपने भाईबहनों की शिकायत ले कर. मैं उसे रोज देखा करती थी, कभीकभार तो मुसकरा भी दिया करती थी.

एक दिन मैं गेट के बाहर निकल कर झाड़ू लगा रही थी. तब वह लड़का मेरे पास आया और मुझ से मेरा नाम पूछा.

मैं ने उसे अपना नाम पुष्पा बताया. मैं ने उस का नाम पूछा तो उस ने अपना नाम पवन बताया.

‘हमारे नाम ‘प’ अक्षर से शुरू होते हैं,’ मुझे तो यही सोच कर मन ही मन खुशी होने लगी. उस ने मुझ से कहा कि उसे मैं पसंद हूं. मैं ने भी बताया कि मुझे भी वह अच्छा लगता है.

अब पवन अकसर मुझ से मिलने आया करता था. एक दिन जब वह आया तो साथ में एक अंगूठी भी लाया. वह सोने की अंगूठी थी. मेरी तो हवाइयां उड़ गईं. मेरे पास हर महीने मिलने वाली तनख्वाह के पैसों से खरीदी हुई एक सोने की अंगूठी थी और कान के कुंडल भी थे, लेकिन आज तक मेरे लिए इतना महंगा तोहफा कोई नहीं लाया था, कोई भी नहीं.

वैसे भी अपना कहने वाला मेरे पास था ही कौन? मेरी आंखों में आंसू थे. मैं रो पड़ी, तो उस ने मुझे गले से लगा लिया. मन हुआ कि बस इसी तरह, इसी तरह अपनी पूरी जिंदगी इन बांहों में गुजार दूं.

मैं ने पवन से शादी करने का मन बना लिया था. मेमसाहब को सब बताया तो वे भी बहुत खुश हुईं. मैं ने और पवन ने मंदिर में शादी कर ली. अब पवन मेरा सिर्फ प्यार नहीं थे, पति बन चुके थे.

हमारी शादी में उन का पूरा परिवार आया था और मेरे पास परिवार के नाम पर कोई नहीं था. मेमसाहब भी नहीं आई थीं. हां, उन्होंने कुछ तोहफे जरूर भिजवाए थे.

शादी को 2 हफ्ते ही बीते थे कि एक दिन पवन खूब शराब पी कर घर आए. उन की हालत सीधे खड़े होने की भी नहीं थी.

‘आप ने शराब पी है?’

‘हां.’

‘आप शराब कब से पीने लगे?’

‘हमेशा से.’

‘आप ने मुझे बताया क्यों नहीं?’

‘चुप हो जा… सिर मत खा. चल, अलग हट,’ कहते हुए पवन ने मुझे इतनी तेज धक्का दिया कि मैं जमीन पर जा कर गिरी. मेरी चूडि़यां टूट कर हाथ में धंस गईं.

मैं पूरी रात नहीं सो पाई. शराब पीने के बाद इनसान इनसान नहीं रहता है, यह मैं बखूबी जानती थी.

मैं ने अगली सुबह पवन से बात नहीं की तो वे शाम को भी शराब पी कर घर आए. मैं ने पूछा नहीं, पर उन्होंने खुद ही कह दिया कि मेरी मुंह फुलाई शक्ल से मजबूर हो कर पी है.

अगले दिन वे मेरे लिए गजरा ले आए. मैं थोड़ा खुश भी हुई थी, पर वह खुशी शायद मेरी जिंदगी में ठहरने के लिए कभी आई ही नहीं.

4 दिन बाद ही अचानक पवन ने काम पर जाना छोड़ दिया. कहने लगे कि मालिक ड्राइविंग के नाम पर सामान उठवाता है तो मैं काम नहीं करूंगा. एक हफ्ते अपने मांबाप के आगे गिड़गिड़ा कर पैसे मांगे और जब पैसे खत्म हो गए तो शुरू हुई हमारी लड़ाइयां.

‘मेरे पास पैसे नहीं हैं,’ पवन ने मेरी ओर देखते हुए कहा.

‘अब तो मालकिन के दिए पैसे भी नहीं हैं मेरे पास,’ मैं ने जवाब दिया.

‘मैं खुद को बेच सकता तो बेच  देता, क्या करूं मैं…’ पवन की आंखों में आंसू थे.

‘घर खर्च के लिए पैसे नहीं हैं तो क्या हुआ, मम्मीपापा दे देंगे हमें.’

‘बात वह नहीं है,’ पवन ने थोड़ा झिझकते हुए कहा.

‘फिर क्या बात है?’ मैं ने हैरानी  से पूछा.

‘वह… वह… मैं ने जुआ खेला है.’

‘जुआ…’ मैं तकरीबन चीख पड़ी.

‘हां, 10,000 रुपए हार गया मैं… कर्जदार आते ही होंगे. मुझे माफ कर दे पुष्पा, मुझे माफ कर दे. आज के बाद न मैं शराब पीऊंगा, न जुआ खेलूंगा, तेरी कसम.’

‘मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं,’ मैं ने बेबस हो कर कहा.

‘तुम्हारे कुंडल और अंगूठी तो हैं.’

एक पल को तो मुझे समझ नहीं आया कि क्या करूं, लेकिन हैं तो वे मेरे पति ही, उन का कहा मैं कैसे झुठला सकती हूं. आखिर अब सिर पर परेशानी आई है तो बोझ भी तो दोनों को उठाना है. साथ भी तो दोनों को ही निभाना है.

मैं ने जिस खुशी से अपने कानों में वे कुंडल और उंगलियों में वे अंगूठियां पहनी थीं, उतने ही दुख से उन्हें उतार कर पवन के सामने रख दिया.

वे सुबह के घर से निकले थे, शाम को आए तो हाथ में मिठाई के 2 डब्बे थे. चाल डगमगाई हुई थी और मुंह से शराब की बू आ रही थी…

उस दिन पवन से जो मेरा विश्वास टूटा, वह शायद फिर कभी जुड़ नहीं पाया. मैं उन से कहती भी तो क्या… करती भी तो क्या… मेरी सुनने वाला था ही कौन.

शादी को 11 साल ही हुए थे और नमन और मीनू 10 और 8 साल के हो गए थे. पवन ने एक बार फिर काम करना शुरू तो कर दिया था, पर जो कमाते शराब और जुए में लुटा आते. मेरे हाथ में पैसों के नाम पर चंद रुपए आते जो बच्चों के लिए दूध लाने में निकल जाते.

मेरी सास कोठियों में बरतन मांजने का काम करती ही थीं, तो मैं ने सोचा कि मैं भी फिर यही काम करने लग जाती हूं. दोनों बच्चे स्कूल जाते और मैं काम पर. जिंदगी पवन के साथ कैसे बीत रही थी, यह तो नहीं पता, पर कैसे कट रही थी, यह अच्छी तरह पता था.

पवन के पिता ने अपनी गांव की जमीन बेच कर हमें दिल्ली में एक घर दिला दिया था. मैं ने काम करना भी छोड़ दिया. पवन ने पीना तो नहीं छोड़ा, पर कम जरूर कर दिया था. बच्चे भी नई जगह और नए माहौल में ढल गए थे.

हमारा गली के कोने में ही एक घर था. उस घर में रहने वाले मर्द कब पवन के दोस्त बन गए, पता नहीं चला. वे पवन के दोस्त बने तो उन की पत्नी मेरी दोस्त और उन के व हमारे बच्चे आपस में दोस्त बन गए.

वे लोग कुछ समय पहले तक बड़े गरीब थे. पर हाल के 2 सालों में उन के घर अच्छा खानापीना होने लगा. झुग्गी जैसा दिखने वाला घर अब मकान बन चुका था. वहीं दूसरी ओर पता नहीं क्यों, पर मेरे घर के हालात बिगड़ने लगे थे. पवन घर के खर्च में कटौती करने लगे थे. उन के और मेरे संबंध तो सामान्य थे, पर कुछ तो था जो अटपटा था.

एक दिन मैं गली की ही अपनी एक सहेली कमल की मम्मी के साथ बैठ कर मटर छील रही थी. हम दोनों यों ही अपनी बातों में लगी हुई थीं.

‘नमन की मम्मी, एक बात थी जो मैं कई दिनों से तुम्हें बताने के बारे में सोच रही हूं,’ कमल की मम्मी ने झिझकते हुए कहा.

‘हांहां, बोलो न, क्या हुआ?’

‘वह… मैं ने नमन के पापा को …वे उन के दोस्त हैं न जो कोने वाले घर में रहते हैं, वहां एक दिन पीछे से रात में जाते हुए देखा था.’

‘हां, तो किसी काम से गए होंगे.’

‘वह तो पता नहीं, पर मुझे कुछ ठीक सा नहीं लगा. तुम अपनी हो तो सोचा बता दूं.’

मैं ने कमल की मम्मी की बातों पर विश्वास तो नहीं किया, पर वह बात मेरे दिमाग से निकल भी नहीं रही थी.

एक हफ्ता बीत गया, पर मुझे कुछ गड़बड़ नहीं लगी और पवन से सामने से कुछ भी पूछना मुझे सही नहीं लगा. आखिर पवन जैसे भी थे, बेवफा नहीं थे, धोखेबाज नहीं थे. वे मुझे इतना प्यार करते थे, मैं सपने में भी ऐसा कुछ नहीं सोच सकती थी.

अगली सुबह घर से निकलते वक्त पवन ने कहा कि वे रात को घर नहीं आएंगे, काम ज्यादा है औफिस में ही रुकेंगे.

रात के 2 बज रहे थे. बच्चे पलंग पर मेरे साथ ही सो रहे थे. मेरे मन में पता नहीं क्या आया, मैं उठी और मेरे पैर अपनेआप ही उस घर की तरफ मुड़ गए, जहां हमारे वे पड़ोसी रहते थे.

मैं घबराई, डर लग रहा था, पर मन में बारबार यही था कि जो मेरे दिमाग में है, वह बस सच न हो.

मैं ने उस घर के बाहर जा कर दरवाजा खटखटाया. अंदर से कुछ आवाज आई, पर किसी ने दरवाजा नहीं खोला. मैं आगे वाले दरवाजे पर गई, फिर दरवाजा खटखटाया. इस बार दरवाजा खुल गया.

अंदर से वह औरत नाइटी पहने आई. उस के पति भी उस के साथ थे. मेरी जान में जान आ गई. जो मैं सोच रही थी, वह सच नहीं था.

‘क्या हुआ नमन की मम्मी, इतनी रात गए आप यहां? सब ठीक तो है न?’

‘हां, वह नमन के पापा घर पर नहीं थे. जरा उन्हें फोन कर के पूछ लीजिए, मुझे संतुष्टि हो जाएगी.’

‘जी, अभी करता हूं फोन,’ उन्होंने हिचकिचाते हुए कहा.

उन्होेंने फोन मिलाया तो मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. फोन की घंटी की आवाज पिछले कमरे से आ रही थी. वे वहीं थे.

मैं तेजी से उस कमरे की तरफ गई. पवन अधनंगे मेरे सामने खड़े थे. मेरी आंखों से आंसू फूट पड़े. मेरी दुनिया उस एक पल में रुक सी गई.

‘यह क्या धंधा लगा रखा है यहां… यह है आप का काम… यहां जा रही है आप की सारी कमाई… यह है आप की ऐयाशी…’

मेरी हालत उस पल में क्या थी, यह तो शायद ही मैं बयां कर पाऊं, लेकिन जवाब में पवन ने जो कहा, वह सुन कर मुझ में बचाखुचा जो आत्मसम्मान था, जो जान थी, सब मिट्टी में मिल गए.

‘इस में गलत क्या है? तुझ में बचा ही क्या है. तुझे जाना है तो सामान बांध कर निकल जा मेरे घर से,’ पवन कपड़े पहनते हुए बोले.

मैं वहां से निकल गई. घर आई तो खुद पर अपने वजूद पर शर्म आई. मन तो किया कि सब छोड़छाड़ कर भाग जाऊं कहीं, मर जाऊं कहीं जा कर. पर बच्चों की शक्ल आंखों के सामने आ गई. उन्हें छोड़ कर मर गई तो वह कुलटा मेरे बच्चों को खा कर अपने बच्चों का पेट पालेगी. नहीं, मैं नहीं मरूंगी, मैं नहीं हारूंगी.

अगले दिन पवन घर आए तो न मैं ने उन से बात की और न उन्होंने. उन्हें खाना बना कर दिया जरूर, लेकिन वैसे ही जैसे घर की नौकरानी देती है.

अगले ही दिन जा कर मैं फिर से अपने काम पर लग गई. उस औरत का चक्कर तो पवन के मम्मीपापा के कानों तक पहुंचा तो उन्होंने छुड़वा दिया, लेकिन इस से मुझे क्या फर्क पड़ा,

पता नहीं.

शायद, मैं बहुत खुश थी क्योंकि पति तो आखिर पति ही है, वह चाहे कुछ भी करे. रिश्ते यों ही खत्म तो नहीं हो सकते न.

पवन ने मुझे से माफी मांगी तो मैं ने उन्हें कुछ दिनों में माफ भी कर दिया. जिंदगी पटरी पर तो आ गई थी, पर टूटी और चरमराई पटरी पर…

नमन और मीनू दोनों अब 22 साल और 24 साल के हैं. उन की मां आज भी कोठी मैं बरतन मांजती है. सिर के ऊपर अपनी छत नहीं है, क्योंकि बाप तो पहले ही उसे बेच कर खा गया. दोनों ने किसी तरह अपनी पढ़ाई पूरी की, यहांवहां से पैसे कमाकमा कर.

पवन की तो खुद की नौकरी का कोई ठिकाना तक नहीं है, कभी पी कर चले जाते हैं तो धक्के मार कर निकाल दिए जाते हैं. जिस उम्र में लोगों के बच्चे कालेज में पढ़ाई करते हैं, मेरे बच्चों को नौकरी करनी पड़ रही है. यह दुख मुझे खोखला करता है, हर दिन, हर पल.

हां, लेकिन मेरे बच्चे पढ़ेलिखे हैं. मेरा बेटा शराब या जुए का आदी नहीं है और न ही मेरी बेटी को कभी अपनी जिंदगी में किसी के घर में जूठे बरतन मांजने पड़ेंगे. वह मेरी तरह कभी रोएगी नहीं, घुटेगी नहीं उस तरह जिस तरह मैं घुटघुट कर जी हूं.

पवन एक जिम्मेदार बाप नहीं बन सके, मैं शायद जिम्मेदार मां बन गई. पवन से बैर करूं भी तो क्या, उन्होंने मुझे नमन और मीनू दिए हैं, जिस के लिए मैं उन की हमेशा एहसानमंद रहूंगी, लेकिन जिस जिंदगी के ख्वाब मैं देखा करती थी, वह हाथ तो आई, पर कभी मुंह न लगी.

‘‘सुन लिया तू ने. अब मैं सो जाऊं?’’

‘‘बस, एक सवाल और है.’’

‘‘पूछ…’’

‘‘आप ने जिंदगीभर इतना कुछ क्यों सहा? पापा को छोड़ क्यों नहीं दिया? मैं आप की जगह होती तो शायद ऐसे इनसान के साथ कभी न रहती.’’

‘‘मैं 12 साल की थी तो दुनिया से बहुत डरती थी, लेकिन ऐसे दिखाती थी कि चाहे शेर भी आ जाए तो मैं शेरनी बन कर उस से लड़ बैठूंगी. पर मैं अंदर ही अंदर बहुत डरती थी. तेरे पापा इस दुनिया के पहले इनसान थे जिन्होंने मेरे डर को जाना था.

‘‘जब मैं ने उन्हें जाना तो लगा कि इस भीड़ में कोई अपना मिल गया है. उन की आंखों में मेरे लिए जो प्यार था, वह कहीं और नहीं था.

‘‘जब मेरे सपने बिखरे, जब उन्होंने मुझे धोखा दिया, जब उन्होंने मुझे अनचाहा महसूस कराया, तो मैं फिर अकेली हो गई, डर गई थी मैं.

‘‘कभीकभी तो लगता था घुटघुट कर जीना है तो जीया ही क्यों जाए, पर जब तुम दोनों के चेहरे देखती तो लगता था, जैसे तुम ही हो मेरी हिम्मत और अगर मैं टूट गई तो तुम्हें कैसे संभालूंगी.

‘‘तुम दोनों मुझ से छिन जाते या मेरे बिना तुम्हें कुछ हो जाता, मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकती थी. तो बस जिंदगी जैसी थी, उसे अपना लिया मैं ने.’’

तीसरा बलिदान: क्या कभी खुश रह पाई अन्नया

अनन्या और सार्थक एक ही औफिस में पिछले 2 साल से काम कर रहे हैं. सार्थक इसी औफिस में 10 साल से काम कर रहा था, जबकि अनन्या 2 साल पहले ही बदली हो कर यहां आई थी.

3 दिन पहले ही अनन्या ने अहमदाबाद वाले औफिस में बदली हो कर ज्वाइन किया था. औफिस में 3 दिन बाद उस ने अपने कालेज के क्लासमेट सार्थक को देखा, तो खुशी से चिल्ला पड़ी, “अरे सार्थक, तुम यहां…“

“हां, मैं इसी औफिस में काम करता हूं. आप को पहचाना नहीं?” सार्थक को आश्चर्य हुआ कि तुम जैसे अपनेपन वाला शब्द बोलने वाली यह खूबसूरत महिला कौन है? वहीं साथ में काम करने वाले आसपास के कर्मचारी दोनों को हैरानी से देख रहे थे कि कहीं अनन्या को गलतफहमी तो नहीं हुई है.

“सार्थक, मैं अनन्या हूं… जोधपुर में हम एक ही कालेज में साथ में पढ़ते थे.”

अनन्या को आश्चर्य हुआ कि सार्थक ने उसे पहचाना नहीं और थोड़ी झेंप हुई, क्योंकि आसपास सभी सहकर्मी उन दोनों को देख रहे थे कि अनन्या कोई भूल तो नहीं कर रही है.

“ओह सौरी अनन्या, मैं ने तुम्हें पहचाना नहीं. शायद हमें कालेज छोड़े हुए तकरीबन 10 साल से ज्यादा हो गए हैं. अब याददाश्त भी कम हो रही है, उम्र के साथसाथ.”

हालांकि 35 साल की उम्र ज्यादा बड़ी नहीं होती है, इस में क्या याददाश्त कम होगी. सार्थक ने बात बनाने की कोशिश की.

सार्थक ने अनन्या को ध्यान से देखा, उस समय कालेज में अनन्या की चोटी हुआ करती थी, पर अभी उस के बाल बौयकट जैसे थे और साथ में आंखों का नंबर का चश्मा भी था. पर यह बात अनन्या को सब के सामने बता नहीं सकता था.

“अरे, कब ज्वाइन की ड्यूटी आप ने यहां?” सार्थक ने औपचारिकतावश पूछा, क्योंकि 3 दिनों से वह छुट्टी पर था. उस का बच्चा बीमार था.

“3 दिन पहले ही,” अनन्या ने बेमन से बताया. अनन्या को उस का आप का औपचारिक संबोधन अच्छा नहीं लगा. यह सही बात थी कि अनन्या व सार्थक साथसाथ कालेज में एक ही क्लास में पढ़ते थे, पर बहुत अच्छे दोस्त नहीं थे तो भी कालेज में साथसाथ बैठते थे और दोनों का ग्रुप भी एक था. आपस में अनजान भी नहीं थे.

अनन्या का मूड जो सार्थक को इतने साल बाद अपनी नई अनजान औफिस में अपनों को देख कर उत्साहित था, एकदम ठंडा पड़ गया. हालांकि सार्थक का शरीर भर गया था. उस ने मूंछें भी रख दी थी, तो भी उस ने इतने साल बाद एकदम से उसे पहचान लिया.

औफिस वाले अनन्या का उत्साह देख कर जोरदार कालेज स्टोरी होने का अनुमान लगा रहे थे.
लंच समय में अनन्या का मूड खराब देख कर सार्थक को लगा कि उस के हाथ से कुछ कच्चा कट गया है.

“सौरी अनन्या, मैं पहचान नहीं सका,” कान पर हाथ रख कर कालेज के दोस्त वाली दोस्ती की भाषा में बोला, तो अनन्या मुसकराते हुए बोली, “हां, मेरे बाल की स्टाइल व चोटी न देख कर मैं समझ गई कि तुम मुझे पहचान नहीं पाए.”

“हां, कालेज में तुम्हारे लंबे काले बालों वाली चोटी बहुत प्रसिद्ध थी. उस कारण तुम्हें एक बार मिस कालेज का खिताब भी मिला था,” सार्थक उस की चोटी याद कर के बोला, जिस पर कालेज के कई छात्र मजनू बन गए थे.

“क्या करूं? सुबह की भागमभाग में चोटी बनती नहीं है, इसलिए जो लंबे काले बाल थे कालेज के समय में वह मैं ने कटवा दिए,” किसी भी भारतीय स्त्री को काले घने लंबे बालों से बहुत ही प्रेम होता है, इसलिए अनन्या के शब्दों में अफसोस था.

हम जब कालेज में या शहर में एकसाथ होते हैं, तो भले ही हमारे संबंध बहुत ज्यादा घनिष्ठ नहीं हो, पर जब हम अलग शहर में और बहुत समय बाद मिलते हैं, तो ऐसा लगता है कि हम बहुत ही करीब थे और बिछुड़ कर मिले हो, ऐसा लगता है. यह सब सार्थक व अनन्या के साथ भी हुआ.

”मतलब…?” सार्थक समझ न सका कि कोई अपना घर, घर के कारण छोड़ता है.
अनन्या ने देखा कि सार्थक की औफिस की महिला सहकर्मियों के साथ सिर्फ बहुत ही जरूरी बातें होती हैं वह भी काम की, वह भी हां हूं में. हालांकि सार्थक की दूसरे पुरुष कर्मचारियों के साथ ऐसी बात नहीं थी और वह बहुत ही मिलनसार और सहयोगी प्रकृति का था. पर वह औफिस शाम 6 बजे छुट्टी होते ही निकल जाता था, एक मिनट की देरी किए बिना.

बहुत दिनों बाद जब इस का कारण उस को पता चला, तब उसे बहुत ही दुख हुआ और सार्थक के साथ सहानुभूति हुई.

सार्थक की पत्नी का निधन दो साल पहले ही कैंसर के कारण हो गया था और उस का एक छोटा सा 5 साल का बच्चा है. उस कारण सार्थक ने दूसरी शादी नहीं की, क्योंकि सार्थक को लगता था सौतेली मां क्या होती है, यह सोच कर उसे डर लगता था अपने बेटे की भविष्य के बारे में.

उसे सार्थक पर गर्व हुआ कि इतनी मानसिक व शारीरिक तकलीफों के बाद भी वह सिर्फ अपने बेटे के भविष्य का सब से पहले सोच रहा है, इस कारण वह महिला कर्मचारी से बात तक नहीं करता है.

“अरे अनन्या, तुम ने जोधपुर जैसी जगह से अपनी बदली यहां करवा दी. वहां तो तुम्हारा अपना घर भी है,” कैंटीन में एक दिन दोपहर का खाना खाते हुए उस ने औपचारिकतावश पूछा.

“इसलिए, क्योंकि वहां घर है,” टिफिन पैक करते हुए अनन्या ने जवाब दिया.

“मतलब…?” सार्थक समझ ना सका कि कोई अपना घर, घर के कारण छोड़ता है.

“मैं अपने घर में सब भाईबहनों में सब से बड़ी थी. मेरे पापा के अचानक गुजर जाने के बाद कोई कमाने वाला नहीं रहा. भाईबहन पढ़ रहे थे, मुझे पापा की जगह नौकरी मिल गई. इस कारण घर अच्छी तरह चलने लगा. आर्थिक स्थिति खराब होने से पहले ही बच गई और भाईबहन की पढ़ाई वैसे ही चलने लगी. अब मैं शादी नहीं कर सकती थी. यदि शादी कर दी तो घर की आर्थिक स्थिति खराब हो जाती और भाईबहन का कैरियर और दूसरी तकलीफें उत्पन्न होतीं.

एक बार एक अच्छा परिवार देखने आया, तो मैं ने हिम्मत कर के उन्हें शादी के लिए यह शर्त रखी कि मेरी सैलरी का कुछ हिस्सा घरवालों को दूंगी, शादी के बाद. तो बात वहीं की वहीं खत्म हो गई. फिर किसी के सामने यह शर्त रखने की हिम्मत ही नहीं हुई. मेरे लिए, मेरे भाईबहन और घर महत्वपूर्ण था. वे लोग मुझे आशाभरी नजरों से देखते थे और मुझे भगवान जैसा समझते थे. मैं भी अपनी इस जिंदगी से खुश और आत्मसंतुष्ट थी. भाई को अच्छी शिक्षा देने के बाद अपनी कसम दे कर भाई व बहन की शादी धूमधाम से की. मां भी यह सब देख कर चल बसी. पापा के बिना उस की जीने की इच्छा ही खत्म हो गई थी, वह सिर्फ भाईबहन को देख कर चल रही थी.

भाई की शादी के बाद मेरी समस्याएं शुरू हुईं. भाभी को मेरी सैलेरी पसंद थी, पर मेरा घर पर रहना पसंद नहीं था और ना ही मेरा भाई का मेरी हर बात पर सलाह लेना.

दोनों के बीच मेरे कारण तनाव रहने लगा. इस कारण भाई भी मुझ से धीरेधीरे कटने लगा. मुझे लगा कि अब समय आ गया है अपने बलिदान व त्याग का क्रेडिट लेने की जगह और महानता की आत्मप्रशंसा की जगह, जगह ही बदलना समयोचित है. मैं ने मेरे विभाग में बदली के लिए अर्जी दी और बदली का सही कारण भी बताया. मेरा ट्रैक रिकौर्ड अच्छा होने कारण मुझे अहमदाबाद में बदली मिल गई. यहां आ कर मुझे सच में मानसिक शांति मिली और यहां आ कर तुम्हें देखा तो मुझे बहुत ही अच्छा महसूस हुआ और कालेज के दिनों वाली ताजगी महसूस होने लगी.

“अनन्या, तुम सच में महान हो. अपने परिवार के लिए खुद का बलिदान दिया. वह भी एक बार नहीं, दोदो बार. पहली बार अपने घर वालों के लिए शादी नहीं की और दूसरी बार अपने घर वालों के लिए घर ही छोड़ दिया. जो तुम्हारी सब से प्रिय जगह थी,” सार्थक ने सिर झुका कर आदरभाव से कहा. सार्थक को अच्छा लगा कि उस की क्लासमेट ने अपने परिवार के हित के लिए बलिदान दिया. उस के मन में अनन्या के लिए प्यार व आदरभाव पैदा हुआ.

“क्या तुम्हें कभी प्यार हुआ है?” एक अच्छे दोस्त की तरह सार्थक ने पूछा.

“पता नहीं, मेरे लिए जवाबदारी इतनी बड़ी थी कि प्यार की गरमाहट मैं ने कभी महसूस ही नहीं की,” अनन्या ऐसे बोली, जैसे कि उस के मन में प्यार की कसक अभी बाकी है.

“अब तो कोई जवाबदारी नहीं है. अब क्यों नहीं शादी कर रही हो?” सार्थक ने अपनेपन से पूछा.

“सच बताऊं, एक तो उम्र हो गई है और दूसरा कोई ढूंढ़ने वाला भी तो चाहिए,” अनन्या ने हताशा से फीकी हंसी के साथ कहा.

“32-35 साल की उम्र कोई उम्र नहीं होती है.”

“देखते हैं, जिंदगी किस मोड़ ले जाती है,” मुसकरा कर बात खत्म करने के इरादे से वह बोली.

“और तुम्हारी भी उम्र मेरी जितनी है, फिर तुम क्यों नहीं शादी कर रहे हो?”

“बेटे के कारण. उसे मां का प्यार नहीं मिला तो क्या मैं उसे पिता का प्यार भी नहीं दूं. ना जाने कैसी होगी उस की सौतेली मां? ऊपर से उस के बच्चे हो गए तो क्यों मेरे बेटे का ध्यान रखेगी? बस डरता हूं मैं इस बात से,” सार्थक ने स्पष्ट रुप से कहा.

“बेटा कालेज जाने लायक होगा, तब कर लूंगा दूसरी शादी,” हंसते हुए सार्थक बोला, तो सार्थक की बात सुन कर अनन्या हंसने लगी.

दो साल से ज्यादा हो गए, अब दोनों न सिर्फ अच्छे दोस्त हो गए थे, बल्कि कई बार साथ में बाहर भी जाते थे. यहां तक कि कई बार साथ में 5 साल का बेटा चिंटू भी उन के साथ होता था. वह काफी घुलमिल गया था अनन्या के साथ. उसे प्यार से आंटी कहता था.

दोनों के प्यार व साथ में रहने की चर्चा औफिस में होती थी और सब यह दिल से चाहते थे कि दोनों शादी कर लें. दोनों के चेहरे की चमक भी दो साल में बदल गई थी और दोनों के मन में, दिल में जिंदगी में कुछ आशाएं जलने लगी थीं – जगमगाने लगी थीं.

“सार्थक कब शादी कर रहे हो अनन्या के साथ?” औफिस में औफिस का सहकर्मी आशीष, जो सार्थक का अच्छा दोस्त भी था, ने संजीदगी से पूछा.

उस दिन औफिस में उन दोनों के अलावा कोई नहीं था. सभी औफिसकर्मी के बच्चे की शादी में गए थे. अनन्या पर्स टेबल पर भूल गई थी, इसलिए लेने आई थी. उस ने अपना नाम सुना, तो दीवार के पीछे दोनों की बातें सुनने लगी.

“मैं अनन्या को पसंद करता हूं. अनन्या बहुत अच्छी लड़की है, पर आज भले उसे मेरा बेटा अच्छा लग रहा है, पर जब उस के बच्चे होगें, तब शायद ही चिंटू अच्छा लगने लगे. मैं कोई जिंदगी में रिस्क नहीं लेना चाहता अपने बेटे के लिए,” सार्थक हताशा से स्पष्ट शब्दों में बोला, तो यह सुनने के बाद और कुछ सुनने की हिम्मत अनन्या में नहीं थी. वह बिना पर्स लिए पार्टी में चली गई.

3-4 दिन से अनन्या औफिस नहीं आई थी और उस का मोबाइल भी स्विच औफ आ रहा था. सार्थक बेचैन हो गया था. दो साल में पहली बार वह इतनी दूर था कि उस से उस को लगा कि उस के बिना शायद ही जिंदगी गुजार पाएगा?

औफिस के सभी लोग उस की बेचैनी को स्पष्ट रूप से देख रहे थे और समझ भी रहे थे. 5 दिन बाद शाम को एक टैक्सी सार्थक के घर के आगे रुकी. उस में अनन्या उतरी और कमजोर जैसे कई दिनों की बीमार होती है, सीधे जैसे अस्पताल से आ रही हो, ऐसी दिख रही थी.

”अरे अनन्या 5 दिन से कहां थीं तुम?” इतने दिन बाद उसे सामने देखा तो सार्थक आश्चर्य से बोला.

”यह लो तुम्हारी मनपसंद चौकलेट व गेम,” चिंटू के हाथ मे गिफ्ट हैंपर देते हुए गाल पर प्यार से हाथ फेरते हुए उस ने कहा.

”थैंक यू आंटी,” चिंटू हमेशा की तरह अनन्या से चिपक कर बोला.

”बताया नहीं, क्या हुआ था तुम्हें,” उसे सोफे पर बिठाने के बाद बेसब्री व चिंता से सार्थक ने पूछा.

अनन्या ने गहरी सांस ली और एक फाइल से सर्टिफिकेट निकाल कर कहा, ”यह लो.” सर्टिफिकेट देते हुए अनन्या बोली.

सर्टिफिकेट लेते हुए सार्थक हैरानगी व असमजंस से बोला, ”कैसा सर्टिफिकेट?” वह गंभीरता से बोला.

“क्या… यह क्या किया तुम ने अनन्या. तुम ने अपना नसबंदी का औपरेशन करा दिया वह भी शादी से पहले,” सरकारी अस्पताल का नसबंदी सर्टिफिकेट देखते हुए सार्थक तेज आवाज में बोला.

”तुम मुझ से शादी इसलिए नहीं कर रहे थे कि तुम डर रहे हो कि हमारे बच्चे होने के बाद मैं तुम्हारे चिंटू को प्यार नहीं दूंगी और ध्यान नहीं रखूंगी. मैं ने यह विश्वास दिलाने के लिए ही कि चिंटू ही मेरा प्रथम व आखिरी बच्चा है, इसलिए भविष्य में मेरे कभी बच्चे ही नहीं हो, इसलिए मैं ने यह प्रश्न ही खत्म करने के लिए, बच्चा ना होने का औपरेशन ही करा दिया. सार्थक, मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती हूं,” अनन्या भावपूर्ण स्वर में बोली.

तो सार्थक बोला, ”अनन्या तुम ने एक बार फिर, तीसरी बार अपना बलिदान दे दिया अपनों के लिए. मेरे पास तुम्हारी महानता के लिए शब्द नहीं है,” प्यार से गले लगाते हुए सार्थक रो पड़ा.

रिश्ते की बूआ: उस दिन क्यों छलछला उठीं मेरी आंखें?

इस बार मैं अपने बेटे राकेश के साथ 4 साल बाद भारत आई थी. वे तो नहीं आ पाए थे. बिटिया को मैं घर पर ही लंदन में छोड़ आई थी, ताकि वह कम से कम अपने पिता को खाना तो समय पर बना कर खिला देगी.

पिछली बार जब मैं दिल्ली आई थी तब पिताजी आई.आई.टी. परिसर में ही रहते थे. वे प्राध्यापक थे वहां पर 3 साल पहले वे सेवानिवृत्त हो कर आगरा चले गए थे. वहीं पर अपने पुश्तैनी घर में अम्मां और पिताजी अकेले ही रहते थे. पिताजी की तबीयत कुछ ढीली रहती थी, पर अम्मां हमेशा से ही स्वस्थ थीं. वे घर को चला रही थीं और पिताजी की देखभाल कर रही थीं.

वैसे भी उन की कौन देखरेख करता? मैं तो लंदन में बस गई थी. बेटी के ऊपर कोई जोर थोड़े ही होता है, जो उसे प्यार से, जिद कर के भारत लौट आने के लिए कहते. बेटा न होने के कारण अम्मां और पिताजी आंसू बहाने लगते और मैं उनका रोने में साथ देने के सिवा और क्या कर सकती थी.

पहले जब पिताजी दिल्ली में रहते थे तब बहुत आराम रहता था. मेरी ससुराल भी दिल्ली में है. आनेजाने में कोई परेशानी नहीं होती थी. दोपहर का खाना पिताजी के साथ और शाम को ससुराल में आनाजाना लगा ही रहता था. मेरे दोनों देवर भी बेचारे इतने अच्छे हैं कि अपनी कारों से इधरउधर घुमाफिरा देते.

अब इस बार मालूम हुआ कि कितनी परेशानी होती है भारत में सफर करने में. देवर बेचारे तो स्टेशन तक गाड़ी पर चढ़ा देते या आगरा से आते समय स्टेशन पर लेने आ जाते. बाकी तो सफर की परेशानियां खुद ही उठानी थीं. वैसे राकेश को रेलगाड़ी में सफर करना बहुत अच्छा लगता था. स्टेशन पर जब गाड़ी खड़ी होती तो प्लेटफार्म पर खाने की चीजें खरीदने की उस की बहुत इच्छा होती थी. मैं उस को बहुत मुश्किल से मना कर पाती थी.

आगरा में मुझे 3 दिन रुकना था, क्योंकि 10 दिन बाद तो हमें लंदन लौट जाना था. बहुत दिल टूट रहा था. मुझे मालूम था ये 3 दिन अच्छे नहीं कटेंगे. मैं मन ही मन रोती रहूंगी. अम्मां तो रहरह कर आंसू बहाएंगी ही और पिताजी भी बेचारे अलग दुखी होंगे.

पिताजी ने सक्रिय जिंदगी बिताई थी, परंतु अब बेचारे अधिकतर घर की चारदीवारी के अंदर ही रहते थे. कभीकभी अम्मां उन को घुमाने के लिए ले तो जाती थीं परंतु यही डर लगता था कि बेचारे लड़खड़ा कर गिर न पड़ें.

रेलवे स्टेशन पर छोटा देवर छोड़ने आया था. उस को कोई काम था, इसलिए गाड़ी में चढ़ा कर चला गया. साथ में वह कई पत्रिकाएं भी छोड़ गया था. राकेश एक पत्रिका देखने में उलझा हुआ था. मैं भी एक कहानी पढ़ने की कोशिश कर रही थी, पर अम्मां और पिताजी की बात सोच कर मन बोझिल हो रहा था.

गाड़ी चलने में अभी 10 मिनट बाकी थे तभी एक महिला और उन के साथ लगभग 7-8 साल का एक लड़का गाड़ी के डब्बे में चढ़ा. कुली ने आ कर उन का सामान हमारे सामने वाली बर्थ के नीचे ठीक तरह से रख दिया. कुली सामान रख कर नीचे उतर गया. वह महिला उस के पीछेपीछे गई. उन के साथ आया लड़का वहीं उन की बर्थ पर बैठ गया.

कुली को पैसे प्लेटफार्म पर खड़े एक नवयुवक ने दिए. वह महिला उस नवयुवक से बातें कर रही थी. तभी गाड़ी ने सीटी दी तो महिला डब्बे में चढ़ गई.

‘‘अच्छा दीदी, जीजाजी से मेरा नमस्ते कहना,’’ उस नवयुवक ने खिड़की में से झांकते हुए कहा.

वह महिला अपनी बर्थ पर आ कर बैठ गई, ‘‘अरे बंटी, तू ने मामाजी को जाते हुए नमस्ते की या नहीं?’’

उस लड़के ने पत्रिका से नजर उठा कर बस, हूंहां कहा और पढ़ने में लीन हो गया. गरमी काफी हो रही थी. पंखा अपनी पूरी शक्ति से घूम रहा था, परंतु गरमी को कम करने में वह अधिक सफल नहीं हो पा रहा था. 5-7 मिनट तक वह महिला चुप रही और मैं भी खामोश ही रही. शायद हम दोनों ही सोच रही थीं कि देखें कौन बात पहले शुरू करता है.

आखिर उस महिला से नहीं रहा गया, पूछ ही बैठी, ‘‘कहां जा रही हैं आप?’’

‘‘आगरा जा रहे हैं. और आप कहां जा रही हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हम तो आप से पहले मथुरा में उतर जाएंगे,’’ उस ने कहा, ‘‘क्या आप विदेश में रहती हैं?’’

‘‘हां, पिछले 15 वर्षों से लंदन में रहती हूं, लेकिन आप ने कैसे जाना कि मैं विदेश में रहती हूं?’’ मैं पूछ बैठी.

‘‘आप के बोलने के तौरतरीके से कुछ ऐसा ही लगा. मैं ने देखा है कि जो भारतीय विदेशों में रहते हैं उन का बातचीत करने का ढंग ही अनोखा होता है. वे कुछ ही मिनटों में बिना कहे ही बता देते हैं कि वे भारत में नहीं रहते. आप ने यहां भ्रमण करवाया है, अपने बेटे को?’’ उस ने राकेश की ओर इशारा कर के कहा.

‘‘मैं तो बस घर वालों से मिलने आई थी. अम्मां और पिताजी से मिलने आगरा जा रही हूं. पहले जब वे हौजखास में रहते थे तो कम से कम मेरा भारत भ्रमण का आधा समय रेलगाड़ी में तो नहीं बीतता था,’’ मेरे लहजे में शिकायत थी.

‘‘आप के पिताजी हौजखास में कहां रहते थे?’’ उस ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘पिताजी हौजखास में आई.आई.टी. में 20 साल से अधिक रहे,’’ मैं ने कहा, ‘‘अब सेवानिवृत्त हो कर आगरा में रह रहे हैं.’’

‘‘आप के पिताजी आई.आई.टी. में थे. क्या नाम है उन का? मेरे पिताजी भी वहीं प्रोफेसर हैं.’’

‘‘उन का नाम हरीश कुमार है,’’ मैं ने कहा.

मेरे पिताजी का नाम सुन कर वह महिला सन्न सी रह गई. उस का चेहरा फक पड़ गया. वह अपनी बर्थ से उठ कर हमारी बर्थ पर आ गई, ‘‘जीजी, आप मुझे नहीं जानतीं? मैं माधुरी हूं,’’ उस ने धीमे से कहा. उस की वाणी भावावेश से कांप रही थी.

‘माधुरी?’ मैं ने मस्तिष्क पर जोर डालने की कोशिश की तो अचानक यह नाम बिजली की तरह मेरी स्मृति में कौंध गया.

‘‘कमल की शादी मेरे से ही तय हुई थी,’’ कहते हुए माधुरी की आंखें छलछला उठीं.

‘कमल’ नाम सुन कर एकबारगी मैं कांप सी गई. 12 साल पहले का हर पल मेरे समक्ष ऐसे साकार हो उठा जैसे कल की ही बात हो. पिताजी ने कमल की मृत्यु का तार दिया था. उन का लाड़ला, मेरा अकेला चहेता छोटा भाई एक ट्रेन दुर्घटना का शिकार हो गया था. अम्मां और पिताजी की बुढ़ापे की लाठी, उन के बुढ़ापे से पहले ही टूट गई थी.

कमल ने आई.आई.टी. से ही इंजीनियरिंग की थी. पिताजी और माधुरी के पिता दोनों ही अच्छे मित्र थे. कमल और माधुरी की सगाई भी कर दी गई थी. वे दोनों एकदूसरे को चाहते भी थे. बस, हमारे कारण शादी में देरी हो रही थी. गरमी की छुट्टियों में हमारा भारत आने का पक्का कार्यक्रम था. पर इस से पहले कि हम शादी के लिए आ पाते, कमल ही सब को छोड़ कर चला गया. हम तो शहनाई के माहौल में आने वाले थे और आए तब जब मातम मनाया जा रहा था.

मैं ने माधुरी के कंधे पर हाथ रख कर उस की पीठ सहलाई. राकेश मेरी ओर देख रहा था कि मैं क्या कर रही हूं.

मैं ने राकेश को कहा, ‘‘तुम भोजन कक्ष में जा कर कुछ खापी लो और बंटी को भी ले जाओ,’’ अपने पर्स से एक 20 रुपए का नोट निकाल कर मैं ने रोकश को दे दिया. वह खुशीखुशी बंटी को ले कर चला गया.

उन के जाते ही मेरी आंखें भी छलछला उठीं, ‘‘अब पुरानी बातों को सोचने से दुखी होने का क्या फायदा, माधुरी. हमारा और उस का इतना ही साथ था,’’ मैं ने सांत्वना देने की कोशिश की, ‘‘यह शुक्र करो कि वह तुम को मंझधार में छोड़ कर नहीं गया. तुम्हारा जीवन बरबाद होने से बच गया.’’

‘‘दीदी, मैं सारा जीवन उन की याद में अम्मां और पिताजी की सेवा कर के काट देती,’’ माधुरी कमल की मृत्यु के बाद बहुत मुश्किल से शादी कराने को राजी हुई थी. यहां तक कि अम्मां और पिताजी ने भी उस को काफी समझाया था. कमल की मृत्यु के 3 वर्ष बाद माधुरी की शादी हुई थी.

‘‘तुम्हारे पति आजकल मथुरा में हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां, वे वहां तेलशोधक कारखाने में नौकरी करते हैं.’’

‘‘तुम खुश हो न, माधुरी?’’ मैं पूछ ही बैठी.

‘‘हां, बहुत खुश हूं. वे मेरा बहुत खयाल रखते हैं. बड़े अच्छे स्वभाव के हैं. मैं तो खुद ही अपने दुखों का कारण हूं. जब भी कभी कमल का ध्यान आ जाता है तो मेरा मन बहुत दुखी हो जाता है. वे बेचारे सोचसोच कर परेशान होते हैं कि उन से तो कोई गलती नहीं हो गई. सच दीदी, कमल को मैं अब तक दिल से नहीं भुला सकी,’’ माधुरी फूटफूट कर रोने लगी. मेरी आंखों से भी आंसू बहने लगे. कुछ देर बाद हम दोनों ने आंसू पोंछ डाले.

‘‘मुझे पिताजी से मालूम हुआ था कि चाचाचाची आगरा में हैं. इतने पास हैं, मिलने की इच्छा भी होती है, पर इन से क्या कह कर उन को मिलवाऊंगी? यही सोच कर रह जाती हूं,’’ माधुरी बोली.

‘‘अगर मिल सको तो वे दोनों तो बहुत प्रसन्न होंगे. पिताजी के दिल को काफी चैन मिलेगा,’’ मैं ने कहा, ‘‘पर अपने पति से झूठ बोलने की गलती मत करना,’’ मैं ने सुझाव दिया.

‘‘अगर कमल की मृत्यु न होती तो दीदी, आज आप मेरी ननद होतीं,’’ माधुरी ने आहत मन से कहा.

मैं उस की इस बात का क्या उत्तर देती. बच्चों को भोजन कक्ष में गए काफी देर हो गई थी. मथुरा स्टेशन भी कुछ देर में आने वाला ही था.

‘‘तुम को लेने आएंगे क्या स्टेशन पर,’’ मैं ने बात को बदलने के विचार से कहा.

‘‘कहां आएंगे दीदी. गाड़ी 3 बजे मथुरा पहुंचेगी. तब वे फैक्टरी में होंगे. हां, कार भेज देंगे. घर पर भी शाम के 7 बजे से पहले नहीं आ पाते. इंजीनियरों के पास काम अधिक ही रहता है.’’

?तभी दोनों लड़के आ गए. माधुरी का बंटी बहुत ही बातें करने लगा. वह राकेश से लंदन के बारे में खूब पूछताछ कर रहा था. राकेश ने उसे लंदन से ‘पिक्चर पोस्टकार्ड’ भेजने का वादा किया. उस ने अपना पता राकेश को दिया और राकेश का पता भी ले लिया. गाड़ी वृंदावन स्टेशन को तेजी से पास कर रही थी. कुछ देर में मथुरा जंक्शन के आउटर सिगनल पर गाड़ी खड़ी हो गई.

‘‘यह गाड़ी हमेशा ही यहां खड़ी हो जाती है. पर आज इसी बहाने कुछ और समय आप को देखती रहूंगी,’’ माधुरी उदास स्वर में बोली.

मैं कभी बंटी को देखती तो कभी माधुरी को. कुछ मिनटों बाद गाड़ी सरकने लगी और मथुरा जंक्शन भी आ गया.

एक कुली को माधुरी ने सामान उठाने के लिए कह दिया. बंटी राकेश से ‘टाटा’ कर के डब्बे से नीचे उतर चुका था. राकेश खिड़की के पास खड़ा बंटी को देख रहा था. सामान भी नीचे जा चुका था. माधुरी के विदा होने की बारी थी. वह झुकी और मेरे पांव छूने लगी. मैं ने उसे सीने से लगा लिया. हम दोनों ही अपने आंसुओं को पी गईं. फिर माधुरी डब्बे से नीचे उतर गई.

‘‘अच्छा दीदी, चलती हूं. ड्राइवर बाहर प्रतीक्षा कर रहा होगा. बंटी बेटा, बूआजी को नमस्ते करो,’’ माधुरी ने बंटी से कहा.

बंटी भी अपनी मां का आज्ञाकारी बेटा था, उस ने हाथ जोड़ दिए. माधुरी अपनी साड़ी के पल्ले से आंखों की नमी को कम करने का प्रयास करती हुई चल दी. उस में पीछे मुड़ कर देखने का साहस नहीं था. कुछ समय बाद मथुरा जंक्शन की भीड़ में ये दोनों आंखों से ओझल हो गए.

अचानक मुझे खयाल आया कि मुझे बंटी के हाथ में कुछ रुपए दे देने चाहिए थे. अगर वक्त ही साथ देता तो बंटी मेरा भतीजा होता. पर अब क्या किया जा सकता था. पता नहीं, बंटी और माधुरी से इस जीवन में कभी मिलना होगा भी कि नहीं? अगर बंटी लड़के की जगह लड़की होता तो उसे अपने राकेश के लिए रोक कर रख लेती. यह सोच कर मेरे होंठों पर मुसकान खेल गई.

राकेश ने मुझे काफी समय बाद मुसकराते देखा था. वह मेरे हाथ से खेलने लगा, ‘‘मां, भारत में लोग अजीब ही होते हैं. मिलते बाद में हैं, पहले रिश्ता कायम कर लेते हैं. देखो, आप को उस औरत ने बंटी की बूआजी बना दिया. क्या बंटी के पिता आप के भाई लगते हैं?’’

राकेश को कमल के बारे में विशेष मालूम नहीं था. कमल की मृत्यु के बाद ही वह पैदा हुआ था. उस का प्रश्न सुन कर मेरी आंखों से आंसू बहने लगे.

राकेश घबराया कि उस ने ऐसा क्या कह दिया कि मैं रोने लगी, ‘‘मुझे माफ कर दो मां, आप नाराज क्यों हो गईं? आप हमेशा ही भारत छोड़ने से पहले जराजरा सी बात पर रोने लगती हैं.’’

मैं ने राकेश को अपने सीने से लगा लिया, ‘‘नहीं बेटा, ऐसी कोई बात नहीं… जब अपनों से बिछड़ते हैं तो रोना आ ही जाता है. कुछ लोग अपने न हो कर भी अपने होते हैं.’’

राकेश शायद मेरी बात नहीं समझा था कि बंटी कैसे अपना हो सकता है? एक बार रेलगाड़ी में कुछ घंटों की मुलाकात में कोई अपनों जैसा कैसे हो जाता है, लेकिन इस के बाद उस ने मुझ से कोई प्रश्न नहीं किया और अपनी पत्रिका में खो गया.

नई सुबह : कैसे बदल गई नीता की जिंदगी

‘‘बदजात औरत, शर्म नहीं आती तुझे मुझे मना करते हुए… तेरी हिम्मत कैसे होती है मुझे मना करने की? हर रात यही नखरे करती है. हर रात तुझे बताना पड़ेगा कि पति परमेश्वर होता है? एक तो बेटी पैदा कर के दी उस पर छूने नहीं देगी अपने को… सतिसावित्री बनती है,’’ नशे में धुत्त पारस ऊलजलूल बकते हुए नीता को दबोचने की चेष्टा में उस पर चढ़ गया.

नीता की गरदन पर शिकंजा कसते हुए बोला, ‘‘यारदोस्तों के साथ तो खूब हीही करती है और पति के पास आते ही रोनी सूरत बना लेती है. सुन, मुझे एक बेटा चाहिए. यदि सीधे से नहीं मानी तो जान ले लूंगा.’’

नशे में चूर पारस को एहसास ही नहीं था कि उस ने नीता की गरदन को कस कर दबा रखा है. दर्द से छटपटाती नीता खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रही थी. अंतत: उस ने खुद को छुड़ाने के लिए पारस की जांघों के बीच कस कर लात मारी. दर्द से तड़पते हुए पारस एक तरफ लुढ़क गया.

मौका पाते ही नीता पलंग से उतर कर भागी और फिर जोर से चिल्लाते हुए बोली,

‘‘नहीं पैदा करनी तुम्हारे जैसे जानवर से एक और संतान. मेरे लिए मेरी बेटी ही सब कुछ है.’’

पारस जब तक अपनेआप को संभालता नीता ने कमरे से बाहर आ कर दरवाजे की कुंडी लगा दी. हर रात यही दोहराया जाता था, पर आज पहली बार नीता ने कोई प्रतिक्रिया दी. मगर अब उसे डर लग रहा था. न सिर्फ अपने लिए, बल्कि अपनी 3 साल की नन्ही बिटिया के लिए भी. फिर क्या करे क्या नहीं की मनोस्थिति से उबरते हुए उस ने तुरंत घर छोड़ने का फैसला ले लिया.

उस ने एक ऐसा फैसला लिया जिस का अंजाम वह खुद भी नहीं जानती थी, पर इतना जरूर था कि इस से बुरा तो भविष्य नहीं ही होगा.

नीता ने जल्दीजल्दी अलमारी में छिपा कर रखे रुपए निकाले और फिर नन्ही गुडि़या को शौल से ढक कर घर से बाहर निकल गई. निकलते वक्त उस की आंखों में आंसू आ गए पर उस ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. वह घर जिस में उस ने 7 साल गुजार दिए थे कभी अपना हो ही नहीं पाया.

जनवरी की कड़ाके की ठंड और सन्नाटे में डूबी सड़क ने उसे ठंड से ज्यादा डर से कंपा दिया पर अब वापस जाने का मतलब था अपनी जान गंवाना, क्योंकि आज की उस की प्रतिक्रिया ने पति के पौरुष को, उस के अहं को चोट पहुंचाई है और इस के लिए वह उसे कभी माफ नहीं करेगा.

यही सोचते हुए नीता ने कदम आगे बढ़ा दिए. पर कहां जाए, कैसे जाए सवाल निरंतर उस के मन में चल रहे थे. नन्ही सी गुडि़या उस के गले से चिपकी हुई ठंड से कांप रही थी. पासपड़ोस के किसी घर में जा कर वह तमाशा नहीं बनाना चाहती थी. औटो या किसी अन्य सवारी की तलाश में वह मुख्य सड़क तक आ चुकी थी, पर कहीं कोई नहीं था.

अचानक उसे किसी का खयाल आया कि शायद इस मुसीबत की घड़ी में वे उस की मदद करें. ‘पर क्या उन्हें उस की याद होगी? कितना समय बीत गया है. कोई संपर्क भी तो नहीं रखा उस ने. जो भी हो एक बार कोशिश कर के देखती हूं,’ उस ने मन ही मन सोचा.

आसपास कोई बूथ न देख नीता थोड़ा आगे बढ़ गई. मोड़ पर ही एक निजी अस्पताल था. शायद वहां से फोन कर सके. सामने लगे साइनबोर्ड को देख कर नीता ने आश्वस्त हो कर तेजी से अपने कदम उस ओर बढ़ा दिए.

‘पर किसी ने फोन नहीं करने दिया या मयंकजी ने फोन नहीं उठाया तो? रात भी तो कितनी हो गई है,’ ये सब सोचते हुए नीता ने अस्पताल में प्रवेश किया. स्वागत कक्ष की कुरसी पर एक नर्स बैठी ऊंघ रही थी.

‘‘माफ कीजिएगा,’’ अपने ठंड से जमे हाथ से उसे धीरे से हिलाते हुए नीता ने कहा.

‘‘कौन है?’’ चौंकते हुए नर्स ने पूछा. फिर नीता को बच्ची के साथ देख उसे लगा कि कोई मरीज है. अत: अपनी व्यावसायिक मुसकान बिखेरते हुए पूछा, ‘‘मैं आप की क्या मदद कर सकती हूं?’’

‘‘जी, मुझे एक जरूरी फोन करना है,’’ नीता ने विनती भरे स्वर में कहा.

पहले तो नर्स ने आनाकानी की पर फिर उस का मन पसीज गया. अत: उस ने फोन आगे कर दिया.

गुडि़या को वहीं सोफे पर लिटा कर नीता ने मयंकजी का नंबर मिलाया. घंटी बजती रही पर फोन किसी ने नहीं उठाया. नीता का दिल डूबने लगा कि कहीं नंबर बदल तो नहीं गया है… अब कैसे वह बचाएगी खुद को और इस नन्ही सी जान को? उस ने एक बार फिर से नंबर मिलाया. उधर घंटी बजती रही और इधर तरहतरह के संशय नीता के मन में चलते रहे.

निराश हो कर वह रिसीवर रखने ही वाली थी कि दूसरी तरफ से वही जानीपहचानी आवाज आई, ‘‘हैलो.’’

नीता सोच में पड़ गई कि बोले या नहीं. तभी फिर हैलो की आवाज ने उस की तंद्रा तोड़ी तो उस ने धीरे से कहा, ‘‘मैं… नीता…’’

‘‘तुम ने इतनी रात गए फोन किया और वह भी अनजान नंबर से? सब ठीक तो है? तुम कैसी हो? गुडि़या कैसी है? पारसजी कहां हैं?’’ ढेरों सवाल मयंक ने एक ही सांस में पूछ डाले.

‘‘जी, मैं जीवन ज्योति अस्पताल में हूं. क्या आप अभी यहां आ सकते हैं?’’ नीता ने रुंधे गले से पूछा.

‘‘हां, मैं अभी आ रहा हूं. तुम वहीं इंतजार करो,’’ कह मयंक ने रिसीवर रख दिया.

नीता ने रिसीवर रख कर नर्स से फोन के भुगतान के लिए पूछा, तो नर्स ने मना करते हुए कहा, ‘‘मैडम, आप आराम से बैठ जाएं, लगता है आप किसी हादसे का शिकार हैं.’’

नर्स की पैनी नजरों को अपनी गरदन पर महसूस कर नीता ने गरदन को आंचल से ढक लिया. नर्स द्वारा कौफी दिए जाने पर नीता चौंक गई.

‘‘पी लीजिए मैडम. बहुत ठंड है,’’ नर्स बोली.

गरम कौफी ने नीता को थोड़ी राहत दी. फिर वह नर्स की सहृदयता पर मुसकरा दी.

इसी बीच मयंक अस्पताल पहुंच गए. आते ही उन्होंने गुडि़या के बारे में पूछा. नीता ने सो रही गुडि़या की तरफ इशारा किया तो मयंक ने लपक कर उसे गोद में उठा लिया. नर्स ने धीरे से मयंक को बताया कि संभतया किसी ने नीता के साथ दुर्व्यवहार किया है, क्योंकि इन के गले पर नीला निशान पड़ा है.

नर्स को धन्यवाद देते हुए मयंक ने गुडि़या को और कस कर चिपका लिया. बाहर निकलते ही नीता ठंड से कांप उठी. तभी मयंक ने उसे अपनी जैकेट देते हुए कहा, ‘‘पहन लो वरना ठंड लग जाएगी.’’

नीता ने चुपचाप जैकेट पहन ली और उन के पीछे चल पड़ी. कार की पिछली सीट पर गुडि़या को लिटाते हुए मयंक ने नीता को बैठने को कहा. फिर खुद ड्राइविंग सीट पर बैठ गए. मयंक के घर पहुंचने तक दोनों खामोश रहे.

कार के रुकते ही नीता ने गुडि़या को निकालना चाहा पर मयंक ने उसे घर की चाबी देते हुए दरवाजा खोलने को कहा और फिर खुद धीरे से गुडि़या को उठा लिया. घर के अंदर आते ही उन्होंने गुडि़या को बिस्तर पर लिटा कर रजाई से ढक दिया. नीता ने कुछ कहना चाहा तो उसे चुप रहने का इशारा कर एक कंबल उठाया और बाहर सोफे पर लेट गए.

दुविधा में खड़ी नीता सोच रही थी कि इतनी ठंड में घर का मालिक बाहर सोफे पर और वह उन के बिस्तर पर… पर इतनी रात गए वह उन से कोई तर्क भी नहीं करना चाहती थी, इसलिए चुपचाप गुडि़या के पास लेट गई. लेटते ही उसे एहसास हुआ कि वह बुरी तरह थकी हुई है. आंखें बंद करते ही नींद ने दबोच लिया.

सुबह रसोई में बरतनों की आवाज से नीता की नींद खुल गई. बाहर निकल कर देखा मयंक चायनाश्ते की तैयारी कर रहे थे.

नीता शौल ओढ़ कर रसोई में आई और धीरे से बोली, ‘‘आप तैयार हो जाएं. ये सब मैं कर देती हूं.’’

‘‘मुझे आदत है. तुम थोड़ी देर और सो लो,’’ मयंक ने जवाब दिया.

नीता ने अपनी भर आई आंखों से मयंक की तरफ देखा. इन आंखों के आगे वे पहले भी हार जाते थे और आज भी हार गए. फिर चुपचाप बाहर निकल गए.

मयंक के तैयार होने तक नीता ने चायनाश्ता तैयार कर मेज पर रख दिया.

नाश्ता करते हुए मयंक ने धीरे से कहा, ‘‘बरसों बाद तुम्हारे हाथ का बना नाश्ता कर रहा हूं,’’ और फिर चाय के साथ आंसू भी पी गए.

जातेजाते नीता की तरफ देख बोले, ‘‘मैं लंच औफिस में करता हूं. तुम अपना और गुडि़या का खयाल रखना और थोड़ी देर सो लेना,’’ और फिर औफिस चले गए.

दूर तक नीता की नजरें उन्हें जाते हुए देखती रहीं ठीक वैसे ही जैसे 3 साल पहले देखा करती थीं जब वे पड़ोसी थे. तब कई बार मयंक ने नीता को पारस की क्रूरता से बचाया था. इसी दौरान दोनों के दिल में एकदूसरे के प्रति कोमल भावनाएं पनपी थीं पर नीता को उस की मर्यादा ने और मयंक को उस के प्यार ने कभी इजहार नहीं करने दिया, क्योंकि मयंक नीता की बहुत इज्जत भी करते थे. वे नहीं चाहते थे कि उन के कारण नीता किसी मुसीबत में फंस जाए.

यही सब सोचते, आंखों में भर आए आंसुओं को पोंछ कर नीता ने दरवाजा बंद किया और फिर गुडि़या के पास आ कर लेट गई. पता नहीं कितनी देर सोती रही. गुडि़या के रोने से नींद खुली तो देखा 11 बजे रहे थे. जल्दी से उठ कर उस ने गुडि़या को गरम पानी से नहलाया और फिर दूध गरम कर के दिया. बाद में पूरे घर को व्यवस्थित कर खुद नहाने गई. पहनने को कुछ नहीं मिला तो सकुचाते हुए मयंक की अलमारी से उन का ट्रैक सूट निकाल कर पहन लिया और फिर टीवी चालू कर दिया.

मयंक औफिस तो चले आए थे पर नन्ही गुडि़या और नीता का खयाल उन्हें बारबार आ रहा था. तभी उन्हें ध्यान आया कि उन दोनों के पास तो कपड़े भी नहीं हैं… नई जगह गुडि़या भी तंग कर रही होगी. यही सब सोच कर उन्होंने आधे दिन की छुट्टी ली और फिर बाजार से दोनों के लिए गरम कपड़े, खाने का सामान ले कर वे स्टोर से बाहर निकल ही रहे थे कि एक खूबसूरत गुडि़या ने उन का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया, तो उन्होंने उसे भी पैक करवा लिया और फिर घर चल दिए.

दरवाजा खोलते ही नीता चौंक गई. मयंक ने मुसकराते हुए सारा सामान नीचे रख नन्हीं सी गुडि़या को खिलौने वाली गुडि़या दिखाई. गुडि़या खिलौना पा कर खुश हो गई और उसी में रम गई.

मयंक ने नीता को सारा सामान दिखाया. बिना उस से पूछे ट्रैक सूट पहनने के लिए नीता ने माफी मांगी तो मयंक ने हंसते हुए कहा, ‘‘एक शर्त पर, जल्दी कुछ खिलाओ. बहुत तेज भूख लगी है.’’

सिर हिलाते हुए नीता रसोई में घुस गई. जल्दी से पुलाव और रायता बनाने लग गई. जितनी देर उस ने खाना बनाया उतनी देर तक मयंक गुडि़या के साथ खेलते रहे. एक प्लेट में पुलाव और रायता ला कर उस ने मयंक को दिया.

खातेखाते मयंक ने एकाएक सवाल किया, ‘‘और कब तक इस तरह जीना चाहती हो?’’

इस सवाल से सकपकाई नीता खामोश बैठी रही. अपने हाथ से नीता के मुंह में पुलाव डालते हुए मयंक ने कहा, ‘‘तुम अकेली नहीं हो. मैं और गुडि़या तुम्हारे साथ हैं. मैं जानता हूं सभी सीमाएं टूट गई होंगी. तभी तुम इतनी रात को इस तरह निकली… पत्नी होने का अर्थ गुलाम होना नहीं है. मैं तुम्हारी स्थिति का फायदा नहीं उठाना चाहता हूं. तुम जहां जाना चाहो मैं तुम्हें वहां सुरक्षित पहुंचा दूंगा पर अब उस नर्क से निकलो.’’

मयंक जानते थे नीता का अपना कहने को कोई नहीं है इस दुनिया में वरना वह कब की इस नर्क से निकल गई होती.

नीता को मयंक की बेइंतहा चाहत का अंदाजा था और वह जानती थी कि मयंक कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेंगे. इसीलिए तो वह इतनी रात गए उन के साथ बेझिझक आ गई थी.

‘‘पारस मुझे इतनी आसानी से नहीं छोड़ेंगे,’’ सिसकते हुए नीता ने कहा और फिर पिछली रात घटी घटना की पूरी जानकारी मयंक को दे दी.

गरदन में पड़े नीले निशान को धीरे से सहलाते हुए मयंक की आंखों में आंसू आ गए, ‘‘तुम ने इतनी हिम्मत दिखाई है नीता. तुम एक बार फैसला कर लो. मैं हूं तुम्हारे साथ. मैं सब संभाल लूंगा,’’ कहते हुए नीता को अपनी बांहों में ले कर उस नीले निशान को चूम लिया.

हां में सिर हिलाते हुए नीता ने अपनी मौन स्वीकृति दे दी और फिर मयंक के सीने पर सिर टिका दिया.

अगले ही दिन अपने वकील दोस्त की मदद से मयंक ने पारस के खिलाफ केस दायर कर दिया. सजा के डर से पारस ने चुपचाप तलाक की रजामंदी दे दी.

मयंक के सीने पर सिर रख कर रोती नीता का गोरा चेहरा सिंदूरी हो रहा था. आज ही दोनों ने अपने दोस्तों की मदद से रजिस्ट्रार के दफ्तर में शादी कर ली थी. निश्चिंत सी सोती नीता का दमकता चेहरा चूमते हुए मयंक ने धीरे से करवट ली कि नीता की नींद खुल गई. पूछा, ‘‘क्या हुआ? कुछ चाहिए क्या?’’

‘‘हां. 1 मिनट. अभी आता हूं मैं,’’ बोलते हुए मयंक बाहर निकल गए और फिर कुछ ही देर में वापस आ गए, उन की गोद में गुडि़या थी उनींदी सी. गुडि़या को दोनों के बीच सुलाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘हमारी बेटी हमारे पास सोएगी कहीं और नहीं.’’

मयंक की बात सुन कर नन्ही गुडि़या नींद में भी मुसकराने लग गई और मयंक के गले में हाथ डाल कर फिर सो गई. बापबेटी को ऐसे सोते देख नीता की आंखों में खुशी के आंसू आ गए. मुसकराते हुए उस ने भी आंखें बंद कर लीं नई सुबह के स्वागत के लिए.

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