Serial Story: मैत्री– भाग 3

5 वर्षों से जिस व्यक्ति से फेसबुक पर संपर्क है, वह किसी सरकारी विभाग के जिम्मेदार अधिकारी के रूप में कार्य कर रहा है. और पगपग पर उस का सहयोग कर रहा है, उस का शिष्टाचारवश भी अतिथि को ठहराने का दायित्व तो बनता ही है.

इसी बात पर आज सवेरे नकुल भड़क गया था. कहा था कि फेसबुकिया मित्र के यहां कहां ठहरोगी. मैत्री इतना तो समझती है कि सामान्य शिष्टाचार और आग्रह में अंतर होता है. सो, उस ने यही कहा था कि यह एक मित्र का आत्मीय आग्रह भी हो सकता है.

मैत्री खुद समझदार है, इतना तो जानती है कि महानगर कल्चर में किसी के घर रुक कर उस को परेशानी में डालना ठीक नहीं होता.

मैत्री का मन नकुल की छोटी सोच तथा स्त्रियों के प्रति जो धारणा उस ने प्रकट की, उस को ले कर खट्टा हुआ था. अपने ठहरने के विषय में तो विनम्रतापूर्वक उमंग को मना कर ही चुकी थी. बिना पूरी बात सुने नकुल का भड़कना तथा उमंग के लिए गलत धारणा बना लेना उसे सही नहीं लगता था.

रेलगाड़ी आखिरकार गंतव्य स्टेशन पर पहुंच कर रुक गई और मैत्री की विचारशृंखला टूटी. वह टैक्सी कर स्टेशन से सीधे पति नकुल के बताए गैस्टहाउस में जा ठहरी.

पोलो विक्ट्री के नजदीकी गैस्टहाउस में नहाधो कर, तैयार हो कर मैत्री अब उमंग के कार्यालय में पहुंच गई. आगे के निमंत्रण इत्यादि उमंग खुद साथ रह कर मंत्रीजी तथा निदेशक महोदय आदि को दिलवाएंगे.

प्रधान कार्यालय के एक कक्ष के बाहर तख्ती लगी थी, उपनिदेशक, उमंग कुमार. कक्ष के भीतर प्रवेश करते ही हतप्रभ होने की बारी मैत्री की थी. यू के खुद दोनों पांवों से विकलांग हैं तथा दोनों बैसाखियां उन की घूमती हुई कुरसी के पास पड़ी हैं.

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उमंग ने उत्साहपूर्वक अभिवादन करते हुए मैत्री को कुरसी पर बैठने को कहा.

मैत्री को क्षणभर के लिए लगा कि उस का मस्तिष्क भी रिवौल्ंिवग कुरसी की तरह घूम रहा है. 5 वर्ष की फेसबुकिया मित्रता में उमंग ने कभी यह नहीं बताया कि वे विकलांग हैं. उन की फोटो प्रोफाइल में एक भी चित्र ऐसा नहीं है जिस से उन के विकलांग होने का पता चले. क्षणभर के लिए मैत्री को लगा कि फेसबुकिया मित्रों पर नकुल की टिप्पणी सही हो रही है. मैत्री की तन्मयता भंग हुई. उमंग प्रसन्नतापूर्वक बातें करते हुए उसे सभी वीआईपी के पास ले गए. कमोबेश सारी औपचारिकताएं पूरी हो गईं. सभी ने मैत्री के निस्वार्थ कार्य की प्रशंसा की तथा उस के वार्षिक कार्यक्रम में शतप्रतिशत उपस्थित रहने का आश्वासन भी दिया.

मैत्री भीतर से थोड़ी असहज जरूर हुई पर बाहर से सहज दिखने का प्रयास कर रही थी. उमंग को धन्यवाद देते हुए मैत्री ने कहा कि वह अब गैस्टहाउस जा कर विश्राम करेगी और रात की ट्रेन से वापस लौट जाएगी.

उमंग ने कहा, ‘‘मैडम, आप की जैसी इच्छा हो वैसा ही करें. मेरी तो केवल इतनी अपील है कि मेरी पत्नी का आज जन्मदिन है. बच्चों ने घरेलू केक काटने का कार्यक्रम रखा है. घर के सदस्यों के अलावा कोई नहीं है. आप भी हमारी खुशी में शामिल हों. आप को समय के भीतर, जहां आप कहेंगी, छोड़ दिया जाएगा.’’ मैत्री के यह स्वीकार करने के बाद दूसरी बार चौंकने का अवसर था, क्योंकि यह विकलांग व्यक्ति अपनी कार फर्राटेदार प्रोफैशनल ड्राइवर की तरह चला रहा है, बरसों पुरानी मित्रता की तरह दुनियाजहान की बातें कर रहा है, कहीं पर भी ऐसा नहीं लग रहा है कि उमंग विकलांग है. वह तो उत्साह व उमंग से लबरेज है.

पेड़पौधों की हरियाली से आच्छादित उमंग के घर के ड्राइंगरूम में बैठी मैत्री दीवार पर सजी विविध पेंटिंग्स को निहारती है और उन के रहनसहन से बहुत प्रभावित होती है. एक विकलांग व्यक्ति भरेपूरे परिवार के साथ पूरे आनंद से जीवन जी रहा है. बर्थडे केक टेबल पर आ गया. उमंग का बेटा व बेटी इस कार्यक्रम को कर रहे हैं. बेटाबेटी से परिचय हुआ. बेटा एमबीबीएस और बेटी एमटैक कर रही है. दोनों छुट्टियों में घर आए हुए हैं.

उमंग की पत्नी केक काटते समय ही आई. मैत्री के अभिवादन का उस ने कोई जवाब नहीं दिया. उस के मुंह पर चेचक के निशान थे. शायद वह एक आंख से भेंगी भी थी.

उस के केक काटते ही बच्चों ने उमंग के साथ तालियां बजाईं. ‘‘हैप्पी बर्थडे मम्मा.’’

उमंग ने केक खाने के लिए मुंह खोला ही था कि उन की पत्नी ने गुलाल की तरह केक उन के गालों पर मल दिया. फिर होहो कर हंसी. उमंग भी इस हंसी में शामिल हो गए.

उन की बेटी बोली, ‘आज मम्मा, आप की तबीयत ठीक नहीं है, चलिए अपने कमरे में.’

बेटी उन को लिटा कर आ गई. उमंग घटना निरपेक्ष हो कर मैत्री से बतियाते हुए पार्टी का आनंद ले रहे थे. पार्टी समाप्त होने पर वे अपनी कार से मैत्री को गैस्टहाउस छोड़ने आ रहे हैं. वे कह रहे हैं, ‘‘मैडम, माइंड न करें, मेरी पत्नी मंदबुद्धि है. मेरा विवाह भी मेरे जीवन में किसी चमत्कार से कम नहीं है. मेरा जन्म अत्यंत गरीब परिवार में हुआ. बचपन में मुझे पोलियो हो गया. मातापिता अपनी सामर्थ्य के अनुसार भटके, पर मैं ठीक नहीं हो पाया.

‘‘पढ़ने में तेज था, पर निराश हो गया. मां ने एक छोटे से स्कूल के मास्टरजी, जो बच्चों को निशुल्क पढ़ाते थे, उन के घर में पढ़ने भेजा. मास्टरजी के आगे मैं अपने पांवों की तरफ देख कर बहुत रोया. ‘गुरुजी, मैं जीवन में क्या करूंगा, मेरे तो पांव ही नहीं हैं.’

‘‘मास्टरजी ने कहा, ‘बेटा, तुम जीवन में बहुतकुछ कर सकते हो. पर पहली शर्त है कि अपने बीमार और अपाहिज पांवों के विषय में नहीं सोचोगे, तो जीवन में बहुत तेज दौड़ोगे.’ इस बात से मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया. मैं ने तय किया, मुझे किसी दया, भीख या सहानुभूति की बैसाखियों पर जीवित नहीं रहना और तब से मैं ने अपने लाचार पांवों की चिंता करना छोड़ दिया. इस गुरुमंत्र को गांठ बांध लिया. सो, आज यहां खड़ा हूं.

‘‘मैं पढ़नेलिखने में होशियार था, छात्रवृत्तियां मिलती गईं, पढ़ता गया और सरकारी अधिकारी बन गया. दफ्तर

में कहीं से कोई खबर लाया कि विशाखापट्टनम में विकलांगों के इलाज का बहुत बढि़या अस्पताल है जिसे कोई ट्रस्ट चलाता है. वहां बहुत कम खर्चे में इलाज हो जाता है. दफ्तर वालों ने हौसला बढ़ाया, आर्थिक सहायता दी और मैं पोलियो का इलाज कराने के लिए लंबी छुट्टी ले कर विशाखापट्टनम पहुंच गया.

‘‘देशविदेश के अनेक बीमारों का वहां भारी जमावड़ा था. कुछ परिवर्तन तो मुझ में भी आया. लंबा इलाज चलता है, संभावना का पता नहीं लगता है. वहां बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा है, ‘20 प्रतिशत हम ठीक करते हैं, 80 प्रतिशत आप को ठीक होना है.’ जिस का मतलब स्पष्ट है, कठिन व्यायाम लंबे समय तक करते रहो. कुल मिला कर कम उम्र के बच्चों की ठीक होने की ज्यादा संभावना रहती है. मेरे जैसे 30 वर्षीय युवक के ज्यादा ठीक होने की गुंजाइश तो नहीं थी, पर कुछ सुधार हो रहा था.

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‘‘अस्पताल में मेरे कमरे का झाड़ूपोंछा लगाने वाली वृद्ध नौकरानी का मुझ से अपनापन होने लगा. एक दिन उस ने बातों ही बातों में बताया कि इस दुनिया में एक लड़की के सिवा उस का कोई नहीं है. 25 वर्षीय लड़की मंदबुद्धि है. मेरे बाद उस का न जाने क्या होगा? एक दिन वह अपनी लड़की को साथ ले कर आई, बेबाक शब्दों में बताया कि बचपन में चेचक निकली, एक आंख भेंगी हो गई. मंदबुद्धि है, कुछ समझ पड़ता है, कुछ नहीं पड़ता है. क्या आप मेरी लड़की से विवाह करेंगे?

‘‘मैं एकदम सकते में आ गया. पर मैं भी तो विकलांग हूं. वह बोली, ‘कुछ कमी इस में है, कुछ आप में है. दोनों मिल कर एकदूसरे को पूरा नहीं कर सकते हो? आप विकलांग अवश्य हो पर पढ़ेलिखे, समझदार और सरकारी नौकरी में हो. फिर मेरी बेसहारा लड़की को अच्छा सहारा मिल जाएगा.’ मैं ने कहा, ‘तुम समझ रही हो, मैं ठीक हो रहा हूं, पर नहीं ठीक हुआ तो क्या होगा?’

‘‘कोई बात नहीं, मेरी बेटी को सहारा मिल जाए, तो मैं शांति से मर सकूंगी,’ इस प्रकार हमारी सीधीसादी शादी हो गई.

‘‘आज केक काटते हुए जो घटना घटी, वह तो सामान्य है. यह तो मेरी दिनचर्या का अंग है. वैसे भी मेरी पत्नी का सही जन्मदिनांक तो पता ही नहीं है. वह तो हम ने अपनी शादी की तारीख को ही उस का जन्मदिनांक मान लिया है.’’

‘‘मैत्रीजी, अपूर्ण पुरुष और अपूर्ण स्त्री के वैवाहिक जीवन में अनेक विसंगतियां आती हैं, जिन्हें झेलना पड़ता है. शरीर विकलांग हो सकता है, मन मंद हो सकता है पर देह की तो अपनी भूख होती है. कई बार वह ही बैसाखियों से मुझ पर प्रहार करती है.

‘‘संतोष और आनंद है कि 2 होनहार बच्चे हैं.’’

गैस्टहाउस सामने था.

मैत्री बोली, ‘‘सरजी, मैं ने आप को कुछ गलत समझ लिया. क्षमा करना.’’

उमंग एक ठहाका लगा कर हंसे, ‘‘मैत्रीजी, आप मेरी घनिष्ठ मित्र हैं, तो ध्यान रखना, हंसोहंसो, दिल की बीमारियों में कभी न फंसो.’’

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Serial Story: मैत्री– भाग 1

गाड़ी प्लेटफौर्म छोड़ चुकी थी. मैत्री अपने मोबाइल पर इंटरनैट की दुनिया में बिजी हो गई. फेसबुक और उस पर फैले मित्रता के संसार. विचारमग्न हो गई मैत्री. मित्र जिन्हें कभी देखा नहीं, जिन से कभी मिले नहीं, वे सोशल मीडिया के जरिए जीवन में कितने गहरे तक प्रवेश कर गए हैं. फेसबुक पर बने मित्रों में एक हैं उमंग कुमार. सकारात्मक, रचनात्मक, उमंग, उत्साह और जोश से सराबोर. जैसा नाम वैसा गुण. अंगरेजी में कह लीजिए मिस्टर यू के.

मैत्री के फेसबुकिया मित्रों में सब से घनिष्ठ मित्र हैं यू के. मैत्री अपना मोबाइल ले कर विचारों में खो जाती है. कितनी प्यारी, कितनी अलग दुनिया है वह, जहां आप ने जिस को कभी नहीं देखा हो, उस से कभी न मिले हों, वह भी आप का घनिष्ठ मित्र हो सकता है.

मैत्री मोबाइल पर उंगलियां थिरकाती हुई याद करती है अतीत को, जब गाड़ी की सीट पर बैठा व्यक्ति यात्रा के दौरान कोई अखबार या पत्रिका पढ़ता नजर आता था. लेकिन आज मोबाइल और इंटरनैट ने कई चीजों को एकसाथ अप्रासंगिक कर दिया, मसलन घड़ी, अखबार, पत्रपत्रिकाएं, यहां तक कि अपने आसपास बैठे या रहने वाले लोगों से भी दूर किसी नई दुनिया में प्रवेश करा दिया. मोबाइल की दुनिया में खोए रहने वाले लोगों के करीबी इस यंत्र से जलने लगे हैं.

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अपनी आज की यात्रा की तैयारी करते हुए जब सवेरे मैत्री को उस का पति नकुल समझा रहा था कि जयपुर जा कर वह किस से संपर्क करे, कहां रुकेगी आदि, तब मैत्री ने पति को बताया कि वे कतई चिंता न करें. फेसबुकिया मित्र उमंग का मैसेज आ गया है कि बेफिक्र हो कर जयपुर चली आएं, आगे वे सब संभाल लेंगे.

मैत्री के पति काफी गुस्सा हो गए थे. क्याक्या नहीं कह गए. फेसबुक की मित्रता फेसबुक तक ही सीमित रखनी चाहिए. विशेषकर महिलाओं को कुछ ज्यादा ही सावधानी रखनी चाहिए. झूठे नामों से कई फर्जी अकाउंट फेसबुक पर खुले होते हैं. फेसबुक की हायहैलो फेसबुक तक ही सीमित रखनी चाहिए. महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं. भू्रण से ले कर वृद्धावस्था तक. न जाने पुरुष कब, किस रूप में स्त्री को धोखा देदे. जिस व्यक्ति को कभी देखा ही नहीं, उस पर यकीन नहीं करना चाहिए.

मैत्री को लगा कि पति, जिन को वह खुले विचारों का पुरुष समझ रही थी, की आधुनिकता का मुलम्मा उतरने लगा है.

मैत्री ने इतना ही कहा था कि जो व्यक्ति 5 वर्षों से उस की सहायता कर रहा है, जिस के सारे पोस्ट सकारात्मक होते हैं, ऐसे व्यक्ति पर अविश्वास करना जायज नहीं है.

जब पतिपत्नी के बीच बहस बढ़ रही थी तो मैत्री कह उठी थी, ‘मैं कोई दूध पीती बच्ची नहीं हूं. अधेड़ महिला हूं. पढ़ीलिखी हूं, मुझे कौन खा जाएगा? मैं अपनी रक्षा करने में सक्षम हूं.’

नकुल खामोश तो हो गया था पर यह बताना नहीं चूका कि मैत्री के ठहरने की व्यवस्था उन्होंने पोलो विक्ट्री के पास अपने विभाग के गैस्टहाउस में कर दी है.

जब मैत्री ने नहले पर दहला मार दिया कि ज्यादा ही डर लग रहा हो तो वे भी साथ चल सकते हैं, तब नकुल कुछ देर के लिए खामोश हो गया. वह बात को बद?लने की नीयत से बोला, ‘तुम तो बिना वजह नाराज हो गई. मेरा मतलब है सावधानी रखना.’

कहने को तो बात खत्म हो गई पर विचारमंथन चल रहा है. ट्रेन जिस गति से आगे भाग रही है, मैत्री की विचारशृंखला अतीत की ओर भाग रही है.

बारबार अड़चन बनता नकुल का चेहरा बीच में आ रहा है. तमतमाया, तल्ख चेहरा और उस के चेहरे का यह रूप आज मैत्री को भीतर तक झकझोर गया था.

मैत्री नकुल की बात से पूरी तरह सहमत नहीं थी. उस का बात कहने का लहजा मैत्री को भीतर तक झकझोर गया. होने को तो क्या नहीं हो सकता. जो बातें वे पुरुषों के बारे में फेसबुक के संदर्भ में कर रहे थे महिलाओं के बारे में भी हो सकती हैं.

बात छोटी सी थी, उस ने तो केवल यही कहा था कि फेसबुक मित्र ने उस के जयपुर में ठहरने की व्यवस्था के लिए कहा था. मैत्री ने इस के लिए हामी तो नहीं भरी थी. नकुल का चेहरा कैसा हो गया था, पुरुष की अहंवादी मानसिकता और अधिकारवादी चेष्टा का प्रतीक बन कर.

मैत्री इन विचारों को झटक कर आज की घटना से अलग होने की कोशिश करती है. लगता है गाड़ी सरक कर किसी स्टेशन पर विश्राम कर रही है. प्लेटफौर्म पर रोशनी और चहलपहल है.

लगभग 25-30 वर्ष पहले मैत्री के जीवन की गाड़ी दांपत्य जीवन में प्रवेश कर नकुलरूपी प्लेटफौर्म पर रुकी थी.

मैत्री ने विवाह के बाद महसूस किया कि पुरुष के बगैर स्त्री आधीअधूरी है. दांपत्य जीवन के सुख ने उस को भावविभोर कर दिया. प्यारा सा पति नकुल और शादी के बाद तीसरे स्टेशन के रूप में प्यारा सा मासूम बच्चा आ गया. रेलगाड़ी चलने लगी थी.

नकुल की अच्छीखासी सरकारी नौकरी और मैत्री की गोद में सुंदर, प्यारा मासूम बच्चा. दिन पंख लगा कर उड़ रहे थे. सारसंभाल से बच्चा बड़ा हो रहा है. हर व्यक्ति अपनी यात्रा पर चल पड़ता है. एक दिन पता लगता है एकाएक बचपन छिटक कर कहीं अलग हो गया. सांस  लेतेलेते पता लगता है कि कीमती यौवन भी जाने कहां पीछा छुड़ा कर चला गया.

देखते ही देखते मैत्री का बेटा सुवास 15 वर्ष का किशोर हो गया. किशोर बच्चों की तरह आकाश में उड़ान भरने के सपने ले कर. एक दिन मातापिता के आगे उस ने मंशा जाहिर कर दी, ‘मेरे सारे फ्रैंड आईआईटी की कोचिंग लेने कोटा जा रहे हैं. मैं भी उन के साथ कोटा जाना चाहता हूं. मैं खूब मन लगा कर पढ़ाई करूंगा. आईआईटी ऐंट्रैंस क्वालिफाई करूंगा. फिर किसी के सामने मुझे नौकरी के लिए भीख नहीं मांगनी पड़ेगी. कैंपस से प्लेसमैंट हो जाएगा और भारीभरकम सैलरी पैकेज मिलेगा.’

बेटे सुवास का सोचना कतई गलत नहीं था. इस देश का युवा किशोरमन बेरोजगारी से कितना डरा हुआ है. बच्चे भी इस सत्य को जान गए हैं कि अच्छी नौकरियों में ऊपर का 5 प्रतिशत, शेष 50-60 प्रतिशत मजदूरी कार्य में. जो दोनों के लायक नहीं हैं, वे बेरोजगारों की बढ़ती जमात का हिस्सा हैं.

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पिता की नौकरी बहुत बड़ी तो नहीं, पर छोटी भी नहीं थी. परिवार में कुल जमा 3 प्राणी थे. सो, बेटे की ऐसी सोच देख कर नकुल और मैत्री प्रसन्न हो गए. आननफानन सपनों को पंख लग गए.

मातापिता दोनों सुवास के साथ गए. कोटा में सप्ताहभर रुक कर अच्छे कोचिंग सैंटर की फीस भर कर बेटे को दाखिला दिलवाया. अच्छे होस्टल में उस के रहनेखाने की व्यवस्था की गई. पतिपत्नी ने बेटे को कोई तकलीफ न हो, सो, एक बैंक खाते का एटीएम कार्ड भी उसे दे दिया.

बेटे सुवास को छोड़ कर जब वे वापस लौट रहे थे तो दोनों का मन भारी था. मैत्री की आंखें भी भर आईं. जब सुवास साथ था, तो उस के कितने बड़ेबड़े सपने थे. जितने बड़े सपने उतनी बड़ी बातें. पूरी यात्रा उस की बातों में कितनी सहज हो गई थी.

नकुल और मैत्री का दर्द तो एक ही था, बेटे से बिछुड़ने का दर्द, जिस के लिए वे मानसिक रूप से तैयार नहीं थे. फिर भी नकुल ने सामान्य होने का अभिनय करते हुए मैत्री को समझाया था, ‘देखो मैत्री, कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है. बच्चों को योग्य बनाना हो तो मांबाप को यह दर्द सहना ही पड़ता है. इस दर्द को सहने के लिए हमें पक्षियों का जीवन समझना पड़ेगा.

‘जिस दिन पक्षियों के बच्चे उड़ना सीख जाते हैं, बिना किसी देर के उड़ जाते हैं. फिर लौट कर नहीं आते. मनुष्यों में कम से कम यह तो संतोष की बात है कि उड़ना सीख कर भी बच्चे मांबाप के पास आते हैं, आ सकते हैं.’

मैत्री ने भी अपने मन को समझाया. कुछ खो कर कुछ पाना है. आखिर सुवास को जीवन में कुछ बन कर दिखाना है तो उसे कुछ दर्द तो बरदाश्त करना ही पड़ेगा.

कमोबेश मातापिता हर शाम फोन पर सुवास की खबर ले लिया करते थे. सुवास के खाने को ले कर दोनों चिंतित रहते. मैस और होटल का खाना कितना भी अच्छा क्यों न हो, घर के खाने की बराबरी तो नहीं कर सकता और वह संतुष्टि भी नहीं मिलती.

पतिपत्नी दोनों ही माह में एक बार कोटा शहर चले जाते थे. कोटा की हर गली में कुकुरमुत्तों की तरह होस्टल, मैस, ढाबे और कोचिंग सैंटरों की भरमार है. हर रास्ते पर किशोर उम्र के लड़के और लड़कियां सपनों को अरमान की तरह पीठ पर किताबों के नोट्स का बोझ उठाए घूमतेफिरते, चहचहाते, बतियाते दिख जाते.

जगहजगह कामयाब छात्रों के बड़ेबड़े होर्डिंग कोचिंग सैंटर का प्रचार करते दिखाई पड़ते. उन बच्चों का हिसाब किसी के पास नहीं था जो संख्या में 95 प्रतिशत थे और कामयाब नहीं हो पाए थे.

टैलीफोन पर बात करते हुए मैत्री अपने बेटे सुवास से हर छोटीछोटी बात पूछती रहती. दिनमहीने गुजरते गए. सावन का महीना आ गया. चारों तरफ बरसात की झमाझम और हरियाली का सुहावना दृश्य धरती पर छा गया.

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Serial Story: मैत्री– भाग 2

ऐसे मौसम में सुवास मां से पकौड़े बनवाया करता. मैत्री का बहुत मन हो रहा था अपने बेटे को पकौड़े खिलाने का. शाम को उस के पति नकुल ने भी जब पकौड़े बनाने की मांग की तो मैत्री ने कह दिया, ‘बच्चा तो यहां है नहीं. उस के बगैर उस की पसंद की चीज खाना मुझे अच्छा नहीं लग रहा है.’ तब नकुल ने भी उस की बात मान ली थी.

मैत्री की स्मृतिशृंखला का तारतम्य टूटा, क्योंकि रेलगाड़ी को शायद सिगनल नहीं मिला था और वह स्टेशन से बहुत दूर कहीं अंधेरे में खड़ी हो गई थी.

ऐसा ही कोई दिन उगा था जब बरसात रातभर अपना कहर बरपा कर खामोश हुई थी. नदीनाले उफान पर थे. अचानक घबराया हुआ रोंआसा नकुल घर आया. साथ में दफ्तर के कई फ्रैंड्स और अड़ोसीपड़ोसी भी इकट्ठा होने लगे.

मैत्री कुछ समझ नहीं पा रही थी. चारों तरफ उदास चेहरों पर खामोशी पसरी थी. घर से दूर बाहर कहीं कोई बतिया रहा था. उस के शब्द मैत्री के कानों में पड़े तो वह दहाड़ मार कर चीखी और बेहोश हो गई.

कोई बता रहा था, कोटा में सुवास अपने मित्रों के साथ किसी जलप्रपात पर पिकनिक मनाने गया था. वहां तेज बहाव में पांव फिसल गया और पानी में डूबने से उस की मृत्यु हो गई है.

हंसतेखेलते किशोर उम्र के एकलौते बेटे की लाश जब घर आई, मातापिता दोनों का बुरा हाल था. मैत्री को लगा, उस की आंखों के आगे घनघोर अंधेरा छा रहा है, जैसे किसी ने ऊंचे पर्वत की चोटी पर से उसे धक्का दे दिया हो और वह गहरी खाई में जा गिरी हो.

मैत्री की फुलवारी उजड़ गई. बगिया थी पर सुवास चली गई. यह सदमा इतना गहरा था कि वह कौमा में चली गई. लगभग 15 दिनों तक बेहोशी की हालत में अस्पताल में भरती रही.

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रिश्तेदारों की अपनी समयसीमा थी. कहते हैं कंधा देने वाला श्मशान तक कंधा देता है, शव के साथ वह जलने से रहा.

सुवास की मौत को लगभग 3 माह हो गए पर अभी तक मैत्री सामान्य नहीं हो पाई. घर के भीतर मातमी सन्नाटा छाया था. नकुल का समय तो दफ्तर में कट जाता. यों तो वह भी कम दुखी नहीं था पर उसे लगता था जो चीज जानी थी वह जा चुकी है. कितना भी करो, सुवास वापस कभी लौट कर नहीं आएगा. अब तो किसी भी तरह मैत्री के जीवन को पटरी पर लाना उस की प्राथमिकता है.

इसी क्रम में उस को सूझा कि अकेले आदमी के लिए मोबाइल बिजी रहने व समय गुजारने का बहुत बड़ा साधन हो सकता है. एक दिन नकुल ने एक अच्छा मोबाइल ला कर मैत्री को दे दिया.

पहले मैत्री ने कोई रुचि नहीं दिखाई, लेकिन नकुल को यकीन था कि यह एक ऐसा यंत्र है जिस की एक बार सनक चढ़ने पर आदमी इस को छोड़ता नहीं है. उस ने बड़ी मानमनुहार कर उस को समझाया. इस में दोस्तों का एक बहुत बड़ा संसार है जहां आदमी कभी अकेला महसूस नहीं करता बल्कि अपनी रुचि के लोगों से जुड़ने पर खुशी मिलती है.

नकुल के बारबार अपील करने? और यह कहने पर कि फौरीतौर पर देख लो, अच्छा न लगे, तो एकतरफ पटक देना, मैत्री ने गरदन हिला दी. तब नकुल ने सारे फंक्शंस फेसबुक, व्हाट्सऐप, हाइक व गूगल सर्च का शुरुआती परिचय उसे दे दिया.

कुछ दिनों तक तो मोबाइल वैसे ही पड़ा रहा. धीरेधीरे मैत्री को लगने लगा कि नकुल बड़ा मन कर के लाया है, उस का मान रखने के लिए ही इस का इस्तेमाल किया जाए.

एक बार मैत्री ने मोबाइल को इस्तेमाल में क्या लिया कि वह इतनी ऐक्सपर्ट होती चली गई कि उस की उंगलियां अब मोबाइल पर हर समय थिरकती रहतीं.

फेसबुक के मित्रता संसार में एक दिन उस का परिचय उमंग कुमार यानी मिस्टर यू के से होता है.

अकसर मैत्री अपने दिवंगत बेटे सुवास को ले कर कुछ न कुछ पोस्ट करती रहती थी. फीलिंग सैड, फीलिंग अनहैप्पी, बिगैस्ट मिजरी औफ माय लाइफ आदिआदि.

निराशा के इस अंधकार में आशा की किरण की तरह उमंग के पोस्ट, लेख, टिप्पणियां, सकारात्मक, सारगर्भित, आशावादी दृष्टिकोण से ओतप्रोत हुआ करते थे. नकुल को लगा मैत्री का यह मोबाइलफ्रैंडली उसे सामान्य होने में सहयोग दे रहा है. उस का सोचना सही भी था.

फेसबुक पर उमंग के साथ उस की मित्रता गहरी होती चली गई. मैत्री को एहसास हुआ कि यह एक अजीब संसार है जहां आप से हजारों मील दूर अनजान व्यक्ति भी किस तरह आप के दुख में भागीदार बनता है. इतना ही नहीं, वह कैसे आप का सहायक बन कर समस्याओं का समाधान सुझाता है.

मैत्री ने अपने बेटे की मृत्यु की दुखभरी त्रासदी फेसबुक पर पोस्ट कर दी, अपनी तकलीफ और जीवन गुजारने की यथास्थिति भी लिख दी.

उमंग ने पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया दी थी, ‘जो कुछ आप के जीवन में घटित हुआ, उस के प्रति संवेदना प्रकट करने में शब्दकोश छोटा पड़ जाएगा. जीवन कहीं नहीं रुका है, कभी नहीं रुकता है. हर मनुष्य का जीवन केवल एक बार और अंतिम बार रुकता है, केवल खुद की मौत पर.’

इसी तरह की अनेक पोस्ट लगातार आती रहतीं, मैत्री के ठहरे हुए जीवन में कुछ हलचल होने लगी.

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एक बार उमंग ने हृदयरोग के एक अस्पताल की दीवारों के चित्र पोस्ट किए जहां दिल के चित्र के पास लिखा था, ‘हंसोहंसो, दिल की बीमारियों में कभी न फंसो.’

एक दिन उमंग ने लिखा, ‘मैडम, जीवनभर सुवास की याद में आंसू बहाने से कुछ नहीं मिलेगा. अच्छा यह है कि गरीब, जरूरतमंद और अनाथ बच्चों के लिए कोई काम हाथ में लिया जाए. खुद का समय भी निकल जाएगा और संतोष भी मिलेगा.’

यह सुझाव मैत्री को बहुत अच्छा लगा. नकुल से जब उस ने इस बारे में चर्चा की तो उस ने भी उत्साह व रुचि दिखाई.

जब मैत्री का सकारात्मक संकेत मिला तो उमंग ने उसे बताया कि वे खुद सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग, प्रधान कार्यालय, जयपुर में बड़े अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं. वे उस की हर तरह से मदद करेंगे.

उमंग ने पालनहार योजना, मूकबधिर विद्यालय, विकलांगता विद्यालय, मंदबुद्धि छात्रगृह आदि योजनाओं का साहित्य ईमेल कर दिया. साथ ही, यह भी मार्गदर्शन कर दिया कि किस तरह एनजीओ बना कर सरकारी संस्थाओं से आर्थिक सहयोग ले कर ऐसे संस्थान का संचालन किया जा सकता है.

उमंग ने बताया कि सुवास की स्मृति को कैसे यादगार बनाया जा सकता है. एक पंफ्लेट सुवास की स्मृति में छपवा कर अपना मंतव्य स्पष्ट किया जाए कि एनजीओ का मकसद निस्वार्थ भाव से कमजोर, गरीब, लाचार बच्चों को शिक्षित करने का है.

उमंग से मैत्री को सारा मार्गदर्शन फोन और सोशल मीडिया पर मिल रहा था. वे लगातार मैत्री को उत्साहित कर रहे थे.

मैत्री ने अपनी एक टीम बनाई, एनजीओ बनाया. मैत्री की निस्वार्थ भावना को देखते हुए उसे आर्थिक सहायता भी मिलती गई. उमंग के सहयोग से सरकारी अनुदान भी जल्दी ही मिलने लगा.

शहर में खुल गया विकलांग बच्चों के लिए एक अच्छा विद्यालय. मैत्री को इस काम में बहुत संतोष महसूस होने लगा. उस की व्यस्तता भी बढ़ गई. हर निस्वार्थ सेवा में उसे खुशी मिलने लगी. किसी का सहारा बनने में कितना सुख मिलता है, मैत्री को उस का एहसास हो रहा था. मैत्री पिछले 5 वर्षों से विकलांग विद्यालय को कामयाबी के साथ चला रही थी.

उमंग के लगातार सहयोग और मार्गदर्शन से विकलांग छात्र विद्यालय दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा था.

अभी तक कोई ऐसा मौका नहीं आया जब मैत्री की उमंग से आमनेसामने मुलाकात हुई हो. मैत्री मन ही मन उमंग के प्रति एहसानमंद होने का अनुभव करती थी.

कुछ दिनों से उमंग से उस की बात हो रही थी. संदर्भ था विद्यालय का 5वां स्थापना दिवस समारोहपूर्वक मनाने का. मैत्री चाहती थी उक्त आयोजन में सामाजिक न्याय विभाग के निदेशक, विभाग के मंत्री तथा जयपुर के प्रख्यात समाजसेवी मुख्य अतिथियों के रूप में मौजूद रहें. इस काम के लिए भी उमंग के सहयोग की मौखिक स्वीकृति मिल गई थी. औपचारिक रूप से संस्था प्रधान के रूप में मैत्री को निमंत्रण देने हेतु खुद को जयपुर जाना पड़ रहा है. कल सवेरे ही उमंग ने मैत्री से कहा था, ‘जयपुर आ जाइए, सारी व्यवस्था हो जाएगी.’

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अटूट प्यार: भाग 3- यामिनी से क्यों दूर हो गया था रोहित

गुस्से से उस के होंठ कांपने लगे. बिना बताए इस तरह की हरकत? शादी नहीं करनी थी तो पहले बता देता. चोरों की तरह बिना कुछ बताए गायब हो जाना तो उस की कायरता है.

यामिनी की जिंदगी अजीब हो गई थी. रोहित पर उसे बहुत गुस्सा आता. लेकिन वह उस की यादों से दूर जाता ही नहीं था. उस की आंखों से जबतब आंसू छलक पड़ते. किसी काम में जी नहीं लगता. वह कभी मोबाइल चैक करती, कभी टीवी का चैनल बदलती तो कभी बालकनी में जा कर बाहर का नजारा देखती.

हर पल वह रोहितरोहित कह कर पुकारती. पता नहीं रोहित तक उस की आवाज पहुंचती भी थी या नहीं? वह यामिनी को लेने लौट कर आएगा भी या नहीं? कहीं वह अपनी नई दुनिया न बसा ले. यामिनी के दिल में डर बैठने लगता. फिर वह खुद ही अपने दिल को समझाती कि रोहित ऐसा नहीं है. एक दिन जरूर लौट कर आएगा और उसे अपना बना कर ले जाएगा.

लेकिन जैसेजैसे समय बीत रहा था यामिनी का मन डूबता जा रहा था. उस की उंगलियां रोहित का मोबाइल नंबर डायल करतेकरते शिथिल हो गईं. हर दिन वह उस की कौल आने का इंतजार करती. लेकिन न तो रोहित का कौल आया, न ही वह खुद आया. 2 महीने तक फोन लगालगा कर यामिनी हार गई तो उस ने मोबाइल फोन को छूना भी बंद कर दिया. उसे नफरत सी हो गई मोबाइल फोन से. एक दिन गुस्से में उस ने रोहित का मोबाइल नंबर ही अपने मोबाइल फोन से डिलीट कर दिया.

दिन बीतते रहे. एक दिन यामिनी के पापा के तबादले की खबर आई. वह उत्तर प्रदेश पुलिस में कौंस्टेबल थे. तबादले की वजह से पूरा परिवार आगरा आ गया.

यामिनी के मन से रोहित की उम्मीद अब लगभग खत्म सी हो गई थी.

आगरा में आ कर यामिनी को लगा कि शायद अपनी बीती जिंदगी को भूलने में अब आसानी हो. वह अकसर सोचती, ‘आगरा में ताजमहल है. कहते हैं वह मोहब्बत का प्रतीक है. लेकिन सचाई तो सारी दुनिया जानती है कि वह एक कब्र है. सही माने में वह मोहब्बत की कब्र है. ऊपर से रौनक है जबकि भीतर में एक दर्द दफन है. तो क्या उस के प्यार का भी यही हश्र होगा?’

घर में यामिनी की शादी की बात जब कभी होती तो उस का मन खिन्न हो जाता. शादी और प्यार दोनों से नफरत होने लगी थी उसे. जो चाहा वह मिला नहीं तो अनचाहे से भला क्या उम्मीद हो? उस ने सब को मना कर दिया कि कोई उस की शादी की बात न करे.

यामिनी को आगरा आए हुए 1 साल बीत चुका था. रोहित 3 साल से जाने किस दुनिया में गुम था. वह सोचती, ‘क्या रोहित को कभी मेरी याद नहीं आती होगी? अगर उस का प्यार छलावा था तो मुझे भुलावे में रखने की क्या जरूरत थी? एक बार अपने दिल की बात कह तो देता. मैं दिल में चाहे जितना भी रोती पर उसे माफ कर देती. कम से कम मेरा भ्रम तो टूट जाता कि प्यार सच्चा भी होता है?’

जब से यामिनी आगरा आई थी वह कहीं आतीजाती नहीं थी. नई जगह, नए लोग और अपने अधूरे प्यार में जलती रहती. कहीं भी उस का मन नहीं लगता. लेकिन एक दिन मां की जिद पर उसे पड़ोस में जाना पड़ा, क्योंकि पड़ोस की संध्या आंटी की बेटी नीला को लड़के देखने वाले आ रहे थे.

मां को लगा कि शायद शादीविवाह का माहौल देख कर यामिनी का मन कुछ बहल जाए. नीला का शृंगार करने की जिम्मेदारी यामिनी को सौंपी गई. अपना साजशृंगार भूल चुकी यामिनी नीला को सजाने में इतनी मसरूफ हुई कि नीला भी उस के कुशल हाथों की मुरीद हो गई. उस की सुंदरता से यामिनी को रश्क सा हो गया. शायद उस में ही कमी थी जो रोहित उस की दुनिया से दूर हो गया.

लड़के वाले आ चुके थे. नीला का शृंगार भी पूरा हो चुका था. नीला की मां चाहती थीं कि वही नीला को ले कर लड़के के पास जाए. यामिनी का जी नहीं कर रहा था. लेकिन संध्या आंटी का जी दुखाने का उस का इरादा न हुआ. वह बेमन से नीला के कंधे पर हाथ रख कर हाल की ओर चल पड़ी.

सामने सोफे पर बैठे लड़के को देख कर यामिनी गश खा कर गिर पड़ी. जिस का उस ने पलपल इंतजार किया, जिस के लिए आंसू बहाए, अपना सुखचैन छोड़ा और जो जाने क्यों चुपके से उस की जिंदगी से दूर चला गया था, वह बेवफा रोहित उस के सामने बैठा था, नीला के लिए किसी राजकुमार की तरह सज कर.

‘यामिनी… यामिनी…’ आंखें खोलो, तभी कोई मधुर आवाज यामिनी के कानों से टकराई. उस के मुंह पर पानी के छीटे मारे जा रहे थे. उस ने आंखें खोली. चिरपरिचित बांहों में उसे खुद के होने का एहसास हुआ.

‘‘आंखें खोलो यामिनी…’’ फिर वही मधुर आवाज हाल में गूंजी.

यामिनी के होंठ से कुछ शब्द फिसले, ‘‘तुम रोहित हो न?’’

‘‘हां यामिनी…मैं रोहित हूं.’’

यामिनी की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. वह बोल पड़ी, ‘‘तुम ने मुझ से बेवफाई क्यों की रोहित? कहां चले गए थे तुम मुझे बिना बताए. मैं आज तक तुम्हें ढूंढ़ रही हूं. तुम्हारे दूर जाने के बाद मैं कितना रोई हूं, कितना तड़पी हूं, तुम क्या जानो. अगर तुम मुझ से दूर होना चाहते थे तो मुझे बता देना चाहिए था न. मैं ही पागल थी जो तुम्हारे प्यार में घुलती रही आज तक.’’

‘‘मैं भी बहुत रोया हूं…बहुत तड़पा हूं,’’ रोहित बोला. उस ने कहा, ‘‘क्या वह दिन तुम्हें याद है जब तुम अंतिम बार मुझ से मिली थीं?’’

‘‘हां,’’ यामिनी बोली.

‘‘उस दिन तुम्हारे जाने के ठीक बाद तुम्हारे पापा आए थे 4-5 लोगों के साथ. सभी पुलिस की वरदी में थे.’’

‘‘क्या…’’ हैरानी से यामिनी की आंखें फटी की फटी रह गई.

रोहित ने आगे कहा, ‘‘तुम्हारे पापा ने कहा कि मैं तुम से कभी न मिलूं और तुम्हारी दुनिया से दूर हो जाऊं, नहीं तो अंजाम बुरा होगा. उन के एक सहकर्मी ने हम दोनों को एकसाथ पार्क में देख लिया था और तुम्हारे पापा को बता दिया था. इसीलिए तुम्हारे पापा बेहद नाराज थे. वे मुझे तुम से दूर कर तुम्हारी जल्द शादी कर देना चाहते थे. अब तुम्हीं बताओ यामिनी, मैं क्या करता? पुलिस वालों से मैं कैसे लड़ता वह भी तुम्हारे पापा से. तुम्हारी जिंदगी में कोई तूफान नहीं आए, इसीलिए तुम से दूर जाने के सिवा मेरे पास कोई उपाय नहीं था.’’

‘‘और इसीलिए मैं ने अपना सिम कार्ड तोड़ कर फेंक दिया और दिल पर पत्थर रख कर दिल्ली आ गया. दिल्ली में मैं प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने लगा. 1 साल के बाद मुझे बैंक में पीओ के पद के लिए चुन लिया गया. लेकिन मेरी जिंदगी में तुम नहीं थीं. इसीलिए खुशियां भी मुझ से रूठ गई थीं. हर पल मेरी आंखें तुम्हें ढूंढ़ती रहती थीं. लेकिन फिर खयाल आता कि तुम्हारी शादी हो गई होगी अब तक. यादों के सहारे ही जिंदगी गुजारनी होगी मुझे. पर न जाने क्यों, मेरा दिल यह मानता ही न था. लगता था कि तुम मेरे सिवा किसी और की हो ही नहीं सकती.’’

‘‘कहीं तुम अब भी मेरा इंतजार न कर रही हो, इसीलिए हिम्मत कर तुम से मिलने इलाहाबाद गया ताकि सचाई का पता चल सके. पर तुम सपरिवार कहीं और जा चुकी थीं. तुम्हें ढूंढ़ने की हर मुमकिन कोशिश के बाद भी जब तुम नहीं मिलीं तो अपने चाचाचाची की जिद पर खुद को हालात के हवाले कर दिया. इसीलिए आज मैं यहां हूं. लेकिन अब तुम मुझे मिल गई. अब कोई मुझे तुम से जुदा नहीं कर सकता.’’

रोहित के मुंह से इन शब्दों को सुन कर यामिनी के दिल को एक सुकून सा  मिला. यामिनी को महसूस होने लगा कि सच में सच्चा प्यार अटूट होता है. लेकिन उस के पापा रोहित को धमकाने गए थे, यह जान यामिनी हैरत में थी. उसे अब रोहित पर गर्व हो रहा था, क्योंकि वह बेवफा नहीं था. वह चाहता तो यामिनी को ढूंढ़ने के बजाए पहले ही कहीं और शादी कर लेता.

अटूट प्यार: भाग 2- यामिनी से क्यों दूर हो गया था रोहित

ऐसे ही 3 साल कब बीत गए उन्हें एहसास ही न हुआ. खुशियों के वे पल जैसे पंख लगा कर उड़ गए और उन के जुदाई के दिन आ गए. दरअसल, उन की कालेज की पढ़ाई पूरी हो गई थी. रोहित ने आगे की पढ़ाई के लिए कालेज में ही पुन: दाखिला ले लिया. वह प्रोफैसर बनना चाहता था. लेकिन यामिनी के आगे की पढ़ाई के लिए उस के पापा ने मना कर दिया. इसीलिए अब उस का रोहित से मिलनाजुलना बेहद मुश्किल हो गया. हर पल उसे रोहित की याद आती. रोहित से दूर रहने के कारण उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता.

यामिनी के मम्मीपापा अब उस की शादी कर के अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे. इसीलिए यामिनी के लिए लड़का ढूंढ़ा जाने लगा था. उस का घर से बाहर निकलना बंद कर दिया गया था. रोहित से दिल की बात कहना भी कठिन हो गया उस के लिए. मोबाइल फोन का ही आसरा रह गया था. वह जब भी मौका पाती, रोहित को फोन कर देती और उसे कुछ करने के लिए कहती ताकि दोनों हमेशा के लिए एक हो जाएं. लेकिन रोहित को कोई उपाय नहीं दिखता.

जब घर में शादी की बात चलती तो यामिनी की हालत बुरी हो जाती. रोहित से दूर होने की बात सोच कर उस का मन अजीब हो जाता. अपने मम्मीपापा को रोहित के बारे में बताने की उस की हिम्मत नहीं होती थी. पापा पुलिस में थे. इसीलिए गरम मिजाज के थे. हालांकि शायद ही वह कभी गुस्सा हुए हों यामिनी पर. वह उन की इकलौती बेटी जो थी.

एक दिन यामिनी को उस की मां ने बताया कि उसे देखने कुछ मेहमान आएंगे. लड़का डाक्टर है. यह जान कर यामिनी की आंखों से आंसू निकल गए. वह किसी तरह सब से बच कर रोहित से मिलने गई. उस के गले से लिपट कर रो पड़ी. जब उस ने अपने लिए लड़का देखे जाने की बात बताई तो रोहित भी अपने आंसू नहीं रोक पाया.

तभी यामिनी बोली, ‘‘रोहित, तुम मुझे मेरे पापा से मांग लो. तुम्हारे बिना मैं जी नहीं पाऊंगी.’’

कुछ सोचते हुए मायूस शब्दों में रोहित बोला, ‘‘अभी इस दुनिया में मेरा खुद का ही कोई ठिकाना नहीं है. मैं किस मुंह से तुम्हारे पापा से तुम्हें मांग पाऊंगा. अगर उन्होंने मना कर दिया तो हमारी उम्मीद टूट जाएगी. जब तक मैं अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाता, तुम्हें धीरज रखना होगा. मेरे किसी योग्य होने तक अपनी शादी को किसी बहाने टलवा लो. मैं जल्दी ही तुम्हारा हाथ मांगने आऊंगा.’’

‘‘काश, मैं ऐसा कर पाती. जीवन की अंतिम सांस तक तुम्हारा इंतजार करूं, पर न जाने क्यों मेरे मम्मीपापा को मेरी शादी की जल्दी पड़ी है? रोहित, मेरे पापा से मेरा हाथ मांग लो. मैं जिंदगी भर तुम्हारा एहसान मानूंगी.’’ यामिनी अपनी रौ में कहती चली गई, ‘‘मैं किसी और से शादी नहीं कर सकती. तुम नहीं मिले तो मैं अपनी जान दे दूंगी.’’

रोहित ने घबरा कर कहा, ‘‘ऐसा गजब नहीं करना. तुम से दूर होने की बात मैं सोच भी नहीं सकता. लेकिन फिलहाल हमें इंतजार करना ही पड़ेगा.’’

यामिनी एक उम्मीद लिए अपने घर लौट आई. रोहित से जिंदगी भर के लिए मिलने के खयाल से उस के दिल की धड़कन बढ़ जाती. उस ने सोचा, क्या हसीन समां होगा जब वह और रोहित हमेशा के लिए साथ होंगे.

लेकिन चंद दिनों बाद ही यामिनी के खयालों की हसीन दुनिया ढहती नजर आई. उन की मां ने बताया कि अगले दिन ही उसे देखने मेहमान आ रहे हैं. यामिनी को काटो तो खून नहीं. उस ने घबरा कर रोहित को फोन किया. पर यह क्या? वह काल पर काल करती गई और उधर रिंग होती रही लेकिन रोहित ने फोन रिसीव नहीं किया. आखिर रोहित को आज हो क्या गया है? फोन क्यों नहीं उठा रहा है? वह काफी परेशान हो गई.

शायद वह किसी काम में व्यस्त होगा. इसलिए यामिनी ने थोड़ी देर ठहर कर कौल किया. लेकिन फिर भी उस ने फोन नहीं उठाया. ऐसा कभी नहीं हुआ था. वह तो तुरंत कौल रिसीव करता था या मिस्ड होने पर खुद ही कौलबैक करता था. आधी रात हो गई लेकिन यामिनी की आंखों से नींद कोसों दूर थी. वह रोहित को कौल करती रही. अंत में कोई जवाब दिए बिना रोहित का मोबाइल फोन स्विच औफ हो गया तो यामिनी की रुलाई फूट पड़ी.

अगले दिन सुबह पापा के ड्यूटी पर जाने के बाद यामिनी बहाना बना कर घर से निकल गई और रोहित के कमरे पर जा पहुंची, क्योंकि मेहमान शाम को आने वाले थे. पर यह क्या? वहां ताला लगा था. आसपास के लोगों से उस ने पूछा तो पता चला कि रोहित कमरा खाली कर कहीं जा चुका है. वह कहां गया है, यह कोई

नहीं बता पाया. यामिनी की आंखों में आंसू आ गए. अब वह क्या करे? कहां जाए? रोहित बिना कुछ कहे जाने कहां चला गया था. लेकिन रोहित ऐसा कर सकता है, यामिनी को यकीन नहीं हो रहा था.

शाम निकट आती जा रही थी और उस की दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी.

अगर लड़के वालों ने उसे पसंद कर लिया तो क्या होगा? वह कैसे मना कर पाएगी शादी के लिए? उसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. उस ने सोचा, यह वक्त कहीं ठहर जाए तो कितना अच्छा हो. लेकिन गुजरते वक्त पर किस का अधिकार होता है.

धीरेधीरे शाम आ ही गई. लड़के वाले कई लोगों के साथ यामिनी को देखने आ गए. यामिनी का कलेजा जैसे मुंह को आ गया. जीवन में कभी खुद को उस ने इतना लाचार नहीं महसूस किया था. मां की जिद पर उस ने मन ही मन रोते हुए अपना शृंगार किया. उसे लड़के वालों के सामने ले जाया गया.

उस का दिल रो रहा था. रोहित से वह जुदा नहीं होना चाहती थी. यह सोच कर यामिनी की पीड़ा और बढ़ जाती कि अगर सब रजामंद हो गए तो क्या होगा? इस कठिन घड़ी में रोहित उसे बिना कुछ कहे कहां गायब हो गया था. यामिनी अकेले दम पर कैसे प्यार निभा पाएगी? उस ने क्या सिर्फ मस्ती करने के लिए प्यार किया था? जब निभाने और जिम्मेदारी उठाने की बात आई तो उसे छोड़ कर चुपचाप गायब हो गया. यह कैसा प्यार था उस का?

लेकिन यामिनी का मन रोहित के अलावा किसी और को स्वीकार करने को तैयार नहीं था. वह मन ही मन कामना कर रही थी कि लड़के वाले उसे नापसंद कर दें. लेकिन उन लोगों ने उसे पसंद कर लिया. अपने प्यार को टूटता देख यामिनी बेसब्र होती जा रही थी. इतनी कठिन घड़ी में वह अपनी भावनाओं के साथ अकेली थी. रोहित तो जाने किस दुनिया में गुम था. आखिर उस ने ऐसा क्यों किया? क्या प्यार उस के लिए मन बहलाने की चीज थी? यामिनी का विकल मन रोने को हो रहा था.

घर में खुशी का माहौल था. उस की मां सभी परिचितों एवं रिश्तेदारों को फोन पर लड़के वालों द्वारा यामिनी को पसंद किए जाने की सूचना दे रही थीं. पापा धूमधाम से शादी करने के लिए जरूरी इंतजाम के बारे में सोच रहे थे. लेकिन यामिनी मन ही मन घुट रही थी. रोहित को वह भूल नहीं पा रही थी. वह सोचती कि काश, उस की यह शादी न हो. उस के दिल में तो सिर्फ रोहित बसा था. वह कैसे किसी और के साथ न्याय कर पाएगी.

कुछ दिन बीते और इसी दौरान एक नई घटना घट गई. जिस बात को ले कर यामिनी घुली जा रही थी वह बिना कोशिश के ही हल हो गई. लड़के वाले शादी को ले कर आनाकानी करने लगे थे. जो शादी में मध्यस्थ का काम कर रहे थे उन्होंने बताया कि लड़के वालों ने ज्यादा दहेज के लालच में दूसरी जगह शादी पक्की कर ली. यह जान कर यामिनी को राहत सी महसूस हुई. कई दिनों के बाद उस की होंठों पर मुसकराहट आई.

शादी की बात टलते ही यामिनी को राहत मिली. पर अफसोस, रोहित अब भी उस के संपर्क में नहीं था. वह रोहित को याद कर हर पल बेचैन रहने लगी. बिना बताए वह कहां चला गया है? उस ने अपना मोबाइल फोन क्यों स्विच औफ कर लिया है? ज्योंज्यों दिन बीत रहे थे उस की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. कभीकभी उसे लगता कि रोहित ने उस के साथ धोखा किया है.

यामिनी हमेशा रोहित के नंबर पर कौल करती. लेकिन मोबाइल फोन हमेशा स्विच औफ मिलता. उस ने फेसबुक पर भी कई मैसेज पोस्ट किए पर कोई जवाब नहीं मिला. एक दिन उस ने देखा कि रोहित ने उसे फेसबुक पर भी ब्लौक कर रखा था. उस की इस हरकत पर यामिनी को बहुत गुस्सा आया. जिस के लिए उस ने अपना सारा चैन खो दिया, वह उस से दूर होने की हर कोशिश कर रहा है.

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दस्विदानिया

Serial Story: दस्विदानिया – भाग 1

दीपक उत्तरी बिहार के छोटे से शहर वैशाली का रहने वाला था. वैशाली पटना से लगभग 30 किलोमीटर दूर है. 1982 में गंगा नदी पर गांधी सेतु बन जाने के बाद वैशाली से पटना आनाजाना आसान हो गया था. वैशाली की अपनी एक अलग ऐतिहासिक पहचान भी है.

दीपक इसी वैशाली के एनएनएस कालेज से बीएससी कर रहा था. उस की मां का देहांत बचपन में ही हो चुका था. उस के पिता रामलाल की कपड़े की दुकान थी. दुकान न छोटी थी न बड़ी. आमदनी बस इतनी थी कि बापबेटे का गुजारा हो जाता था. बचत तो न के बराबर थी. वैशाली में ही एक छोटा सा पुश्तैनी मकान था. और कोई संपत्ति नहीं थी. दीपक तो पटना जा कर पढ़ना चाहता था, पर पिता की कम आमदनी के चलते ऐसा नहीं हो सका.

दीपक अभी फाइनल ईयर में ही था कि अचानक दिल के दौरे से उस के पिता भी चल बसे. उस ने किसी तरह पढ़ाई पूरी की. वह दुकान पर नहीं बैठना चाहता था. अब उसे नौकरी की तलाश थी. उस ने तो इंडियन सिविल सर्विस के सपने देखे थे या फिर बिहार लोक सेवा आयोग के द्वारा राज्य सरकार के अधिकारी के. पर अब तो उसे नौकरी तुरंत चाहिए थी.

दीपक ने भारतीय वायुसेना में एअरमैन की नियुक्ति का विज्ञापन पढ़ा, तो आवेदन कर दिया. उसे लिखित, इंटरव्यू और मैडिकल टैस्ट सभी में सफलता मिली. उस ने वायुसेना के टैक्नीकल ट्रेड में एअरमैन का पद जौइन कर लिया. ट्रेनिंग के बाद उस की पोस्टिंग पठानकोट एअरबेस में हुई. ट्रेनिंग के दौरान ही वह सीनियर अधिकारियों की प्रशंसा का पात्र बन गया. पोस्टिंग के बाद एअरबेस पर उस की कार्यकुशलता से सीनियर अधिकारी बहुत खुश थे.

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वायुसेना के रसियन प्लेन को बीचबीच में मैंटेनैंस के लिए रूस जाना पड़ता था. दीपक के अफसर ने उसे बताया कि उसे भी जल्दी रूस जाना होगा. वह यह सुन कर बहुत खुश हुआ. उस ने जल्दीजल्दी कुछ आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले रसियन शब्द और वाक्य सीख लिए. अपने एक दोस्त, जो 2 बार रूस जा चुका था से हैवी रसियन ओवरकोट भी उधार ले लिया. रूस की जबरदस्त ठंड के लिए यह जरूरी था.

1 महीने के अंदर ही दीपक को एक रसियन प्लेन के साथ बेलारूस की राजधानी मिंस्क जाना पड़ा. उस जहाज का कारखाना वहीं था. तब तक सोवियत संघ का बंटवारा हो चुका था और बेलारूस एक अलग राष्ट्र बन गया था.

अपने दोस्तों की सलाह पर उस ने भारत से कुछ चीजें जो रूसियों को बेहद पसंद थीं रख लीं. ये स्थानीय लोगों को मित्र बनाने में काम आती थीं. चूंकि जहाज अपना ही था, इसलिए वजन की सीमा नहीं थी. उस ने टूथपेस्ट, परफ्यूम, सुगंधित दार्जिलिंग चायपत्ती, ब्रैंडेड कौस्मैटिक आदि साथ रख लिए.

‘‘लेडीज कौस्मैटिक वहां की लड़कियों को इंप्रैस करने में बहुत काम आएंगे,’’ ऐसा चलते समय दोस्तों ने कहा था.

मिंस्क में लैंड करने के बाद दीपक का सामना जोरदार ठंड से हुआ. मार्च के मध्य में भी न्यूनतम तापमान शून्य से थोड़ा नीचे था. मिंस्क में उस के कम से कम

2 सप्ताह रुकने की संभावना थी. खैर, उस के मित्र का ओवरकोट प्लेन से निकलते ही काम आया.

दीपक के साथ पायलट, कोपायलट, इंजीनियर और क्रू  मैंबर्स भी थे. दीपक को एक होटल में एक सहकर्मी के साथ रूम शेयर करना था. वह दोस्त पहले भी मिंस्क आ चुका था. उस ने दीपक को रसियन से दोस्ती के टिप्स भी दिए.

अगले दिन से दीपक को कारखाना जाना था. उस की टीम को एक इंस्ट्रक्टर जहाज के कलपुरजों, रखरखाव के बारे में रूसी भाषा में समझाता था. साथ में एक लड़की इंटरप्रेटर उसे अंगरेजी में अनुवाद कर समझाती थी.

नताशा नाम था उस लड़की का. बला की खूबसूरत थी वह. उम्र 20 साल के आसपास होगी. गोरा रंग तो वहां सभी का होता है, पर नताशा में कुछ विशेष आकर्षण था जो जबरन किसी को उस की तारीफ करने को मजबूर कर देता. सुंदर चेहरा, बड़ीबड़ी नीली आंखें, सुनहरे बाल और छरहरे बदन को दीपक ने पहली बार इतने करीब से देखा था.

दीपक की नजरें बारबार नताशा पर जा टिकती थीं. जब कभी नताशा उस की ओर देखती दीपक अपनी निगाहें फेर लेता. वह धीमे से मुसकरा देती. जब वह सुबहसुबह मिलती तो दीपक हाथ मिला कर रूसी भाषा में गुड मौर्निंग यानी दोबरोय उत्रो बोलता और कुछ देर तक उस का हाथ पकड़े रहता.

नताशा मुसकरा कर गुड मौर्निंग कह आगे बोलती कि प्रस्तिते पजालास्ता ऐक्सक्यूज मी, प्लीज, हाथ तो छोड़ो. तब दीपक झेंप कर जल्दी से उस का हाथ छोड़ देता.

उस की हरकत पर उस के साथी और इंस्ट्रक्टर भी हंस पड़ते थे. लंच के समय कारखाने की कैंटीन में दीपक, नताशा और इंस्ट्रक्टर एक ही टेबल पर बैठते थे. 1 सप्ताह में वे कुछ फ्रैंक हो गए थे. इस में इंडिया से साथ लाए गिफ्ट आइटम्स की अहम भूमिका थी.

नताशा के साथ अब कुछ पर्सनल बातें भी होने लगी थीं. उस ने दीपक को बताया कि रूसी लोग इंडियंस को बहुत पसंद करते हैं. उस के मातापिता का डिवोर्स बहुत पहले हो चुका था और कुछ अरसा पहले मां का भी देहांत हो गया था. उस के पिता चेर्नोबिल न्यूक्लियर प्लांट में काम करते थे और वह उन से मिलती रहती थी.

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लगभग 10 दिन बाद दीपक को पता चला कि प्लेन को क्लीयरैंस मिलने में अभी 10 दिन और लगेंगे. एक दिन दीपक ने इंस्ट्रक्टर से कहा कि उस की मास्को देखने की इच्छा है.

इंस्ट्रक्टर ने कहा, ‘‘ओचिन खराशो (बहुत अच्छा) शनिवार को नताशा भी किसी काम से मास्को जा रही है. तुम भी उसी की फ्लाइट से चले जाओ. मात्र 1 घंटे की फ्लाइट है.’’

‘‘स्पासिबा (थैंक्स) गुड आइडिया,’’ दीपक बोला और फिर उसी समय नताशा से फोन पर अपनी इच्छा बताई तो वह बोली नेत प्रौब्लेमा (नो प्रौब्लम).

दीपक बहुत खुश हुआ. उस ने अपने दोस्त से मास्को यात्रा की चर्चा करते हुए पूछा, ‘‘अगर मुझे किसी रूसी लड़की के कपड़ों की तारीफ करनी हो तो क्या कहना चाहिए?’’

जवाब में दोस्त ने उसे एक रूसी शब्द बताया. शनिवार को दीपक और नताशा मास्को पहुंचे. दोनों होटल में आसपास के कमरों में रुके. नताशा ने उसे क्रेमलिन, बोलशोई थिएटर, बैले डांस, रसियन सर्कस आदि दिखाए.

1 अप्रैल की सुबह दोनों मिले. उसी दिन शाम को उन्हें मिंस्क लौटना था. नताशा नीले रंग के लौंग फ्रौक में थी, कमर पर सुनहरे रंग की बैल्टनुमा डोरी बंधी थी, जिस के दोनों छोरों पर पीले गुलाब के फूलों की तरह झालर लटक रही थी. फ्रौक का कपड़ा पारदर्शी तो नहीं था, पर पतला था जिस के चलते उस के अंत:वस्त्र कुछ झलक रहे थे. वह दीपक के कमरे में सोफे पर बैठी थी.

दीपक बोला, ‘‘दोबरोय उत्रो. तिह क्रासावित्सा (यू आर लुकिंग ब्यूटीफुल).’’

‘‘स्पासिबा (धन्यवाद).’’

वह नताशा की ओर देख कर बोला ‘‘ओचिन खराशो तृसिकी.’’

‘‘व्हाट? तुम ने कैसे देखा?’’

‘‘अपनी दोनों आंखों से.’’

‘‘तुम्हारी आंखें मुझ में बस यही देख रही थीं?’’

फिर अचानक नताशा सोफे से उठ

खड़ी हुई और बोली, ‘‘मैं इंडियंस की इज्जत करती हूं.’’

‘‘दा (यस).’’

‘‘व्हाट दा. मैं तुम्हें अच्छा आदमी समझती थी. मुझे तुम से ऐसी उम्मीद नहीं थी,’’ और फिर बिना दीपक की ओर देखे कमरे से तेजी से निकल गई.

दीपक को मानो लकवा मार गया. वह नताशा के कमरे के दरवाजे की जितनी बार बैल बजाता एक ही बात सुनने को मिलती कि चले जाओ. मैं तुम से बात नहीं करना चाहती हूं.

उसी दिन शाम की फ्लाइट से दोनों मिंस्क लौट आए. पर नताशा ने अपनी सीट अलग ले ली थी. दोनों में कोई बात नहीं हुई.

अगले दिन लंच के समय कारखाने की कैंटीन में दीपक, उस का मित्र,

नताशा और इंस्ट्रक्टर एक टेबल पर बैठे थे. दीपक बारबार नताशा की ओर देख रहा था पर नताशा उसे नजरअंदाज कर देती. दीपक ने इंस्ट्रक्टर के कान में धीरे से कुछ कहा तो इंस्ट्रक्टर ने नताशा से धीरे से कुछ कहा.

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Serial Story: दस्विदानिया – भाग 2

नताशा से कुछ बात कर इंस्ट्रक्टर ने दीपक से पूछा, ‘‘तुम ने नताशा से कोई गंदी बात की थी? वह बहुत नाराज है तुम से.’’

‘‘मैं ने तो ऐसी कोई बात नहीं की थी,’’ बोल कर दीपक ने जो आखिरी बात नताशा को कही थी उसे दोहरा दिया.

इंस्ट्रक्टर ने भी सिर पीटते हुए कहा, ‘‘बेवकूफ यह तुम ने क्या कह दिया? इस का मतलब समझते हो?’’

‘‘हां, तुम्हारी ड्रैस बहुत अच्छी है?’’

‘‘नेत (नो), इस का अर्थ तुम्हारी पैंटी बहुत अच्छी है, होता है बेवकूफ.’’

तब दीपक अपने मित्र की ओर सवालिया आंखों से देखने लगा. फिर कहा, ‘‘तुम ने ही सिखाया था यह शब्द मुझे.’’

नताशा भी आश्चर्य से उस की तरफ देखने लगी थी. दोस्त भी अपनी सफाई में बोला, ‘‘अरे यार मैं ने तो यों ही बता दिया था. मुझे लेडीज ड्रैस का यही एक शब्द आता था. मुझे क्या पता था कि तू नताशा को बोलने जा रहा है. आई एम सौरी.’’

फिर नताशा की ओर देख कर बोला, ‘‘आई एम सौरी नताशा. मेरी वजह से यह गड़बड़ हुई है. दरअसल, दीपक ने तुम्हारी ड्रैस की तारीफ करनी चाही होगी… यह बेचारा बेकुसूर है.’’

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यह सुन कर सभी एकसाथ हंस पड़े.

दीपक ने नताशा से कहा, ‘‘ईजवीनीते (सौरी) नताशा. मैं ने जानबूझ कर उस समय ऐसा नहीं कहा था.’’

‘‘ईजवीनीते. प्रस्तिते (सौरी, ऐक्सक्यूज मी). हम दोनों गलतफहमी के शिकार हुए.’’

इंस्ट्रक्टर बोला, ‘‘चलो इसे भी एक अप्रैल फूल जोक समझ कर भूल जाओ.’’

इस के बाद नताशा और दीपक में मित्रता और गहरी हो चली. दोनों शालीनतापूर्वक अपनी दोस्ती निभा रहे थे. दीपक तो इस रिश्ते को धीरेधीरे दोस्ती से आगे ले जाना चाहता था, पर कुछ संकोच से, कुछ दोस्ती टूटने के भय से और कुछ समय के अभाव से मन की बात जबान पर नहीं ला रहा था.

इसी बीच दीपक के इंडिया लौटने का दिन भी आ गया था. एअरपोर्ट पर नताशा दीपक को बिदा करने आई थी. उस ने आंखों में छलक आए आंसू छिपाने के लिए रंगीन चश्मा पहन लिया. दीपक को पहली बार महसूस हुआ जैसे वह भी मन की कुछ बात चाह कर भी नहीं कर पा रही है. दीपक के चेहरे की उदासी किसी से छिपी नहीं थी.

‘‘दस्विदानिया, (गुड बाई), होप टु सी यू अगेन,’’ बोल कर दोनों गले मिले.

दीपक भारत लौट आया. नताशा से उस का संपर्क फोन से लगातार बना हुआ था. इसी बीच डिपार्टमैंटल परीक्षा और इंटरव्यू द्वारा दीपक को वायुसेना में कमीशन मिल गया. वह अफसर बन गया. हालांकि उस के ऊपर कोई बंदिश नहीं थी, उस के मातापिता गुजर चुके थे, फिर भी अभी तक उस ने शादी नहीं की थी.

इस बीच नताशा ने उसे बताया कि उस के पापा भी चल बसे. उन्हें कैंसर था. संदेह था कि चेर्नोबिल न्यूक्लियर प्लांट में हुई भयानक दुर्घटना के बाद कुछ लोगों में रैडिएशन की मात्रा काफी बढ़ गई थी. शायद उन के कैंसर की यही वजह रही होगी.

पिता की बीमारी में नताशा महीनों उन के साथ रही थी. इसलिए उस ने नौकरी भी छोड़ दी थी. फिलहाल कोई नौकरी नहीं थी और पिता के घर का कर्ज भी चुकाना था. वह एक नाइट क्लब में डांस कर और मसाज पार्लर जौइन कर काम चला रही थी. उस ने दीपक से इस बारे में कुछ नहीं कहा था, पर बराबर संपर्क बना हुआ था.

लगभग 2 साल बाद दीपक दिल्ली एअरपोर्ट पर था. अचानक उस की नजर नताशा पर पड़ी. वह दौड़ कर उस के पास गया और बोला, ‘‘नताशा, अचानक तुम यहां? मुझे खबर क्यों नहीं की?’’

नताशा भी अकस्मात उसे देख कर घबरा उठी. फिर अपनेआप को कुछ सहज कर कहा, ‘‘मुझे भी अचानक यहां आना पड़ा. समय नहीं मिल सका बात करने के लिए…तुम यहां कैसे?’’

‘‘मैं अभी एक घरेलू उड़ान से यहां आया हूं. खैर, चलो कहीं बैठ कर कौफी पीते हैं. बाकी बातें वहीं होंगी.’’

दोनों एअरपोर्ट के रेस्तरां में बैठे कौफी पी रहे थे. दीपक ने फिर पूछा, ‘‘अब बताओ यहां किस लिए आई हो?’’

नताशा खामोश थी. फिर कौफी की चुसकी लेते हुए बोली, ‘‘एक जरूरी काम से किसी से मिलना है. 2 दिन बाद लौट जाऊंगी.’’

‘‘ठीक है पर क्या काम है, किस से मिलना है, मुझे नहीं बताओगी? क्या मैं भी तुम्हारे साथ चल सकता हूं?’’

‘‘नहीं, मुझे वहां अकेले ही जाना होगा.’’

‘‘चलो, मैं तुम्हें ड्रौप कर दूंगा.’’

‘‘नेत, स्पासिबा (नो, थैंक्स). मेरी कार बाहर खड़ी होगी.’’

‘‘कार को वापस भेज देंगे. कम से कम कुछ देर तक तो तुम्हारे साथ ऐंजौय कर लूंगा.’’

‘‘क्यों मेरे पीछे पड़े हो?’’ बोल कर नताशा उठ कर जाने लगी.

दीपक ने उस का हाथ पकड़ कर रोका और कहा, ‘‘ठीक है, तुम जाओ, मगर मुझ से नाराजगी का कारण बताती जाओ.’’

नताशा तो रुक गई, पर अपने आंसुओं को गालों पर गिरने से न रोक सकी.

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दीपक के द्वारा बारबार पूछे जाने पर वह रो पड़ी और फिर उस ने अपनी पूरी कहानी बताई, ‘‘मैं तुम से क्या कहती? अभी तक तो मैं सिर्फ डांस या मसाज करती आई थी पर मैं पिता का घर किसी भी कीमत पर बचाना चाहती हूं. मैं ने एक ऐस्कौर्ट एजेंसी जौइन कर ली है. शायद आने वाले 2 दिन मुझे किसी बड़े बिजनैसमैन के साथ ही गुजारने पड़ेंगे. तुम समझ रहे हो न मैं क्या कहना

चाहती हूं? ’’

‘‘हां, मैं समझ सकता हूं. तुम्हें किस ने हायर किया है, मुझे बता सकती हो?’’

‘‘नो, सौरी. हो सकता है जो नाम मैं जानती हूं वह गलत हो. मैं ने भी उसे अपना सही नाम नहीं बताया है. वैसे भी इस प्रोफैशन की बात किसी तीसरे आदमी को हम नहीं बताते हैं. मैं बस इतना जानती हूं कि मुझे 3 दिनों के लिए 4000 डौलर मिले हैं.’’

‘‘तुम उसे फोन करो, उसे पैसे वापस कर देंगे.’’

‘‘नहीं, यह आसान नहीं है. वह मेरी एजेंसी का पुराना भरोसे वाला ग्राहक है.’’

कुछ देर सोचने के बाद दीपक ने कहा ‘‘एक आइडिया है, उम्मीद है काम कर जाएगा. उस का फोन नंबर तो होगा तुम्हारे पास?’’

‘‘नहीं, मुझे होटल का नंबर और रूम नंबर पता है.’’

‘‘गुड, तुम उसे फोन लगाओ और कहो कि तुम्हें कस्टम वालों ने पकड़ लिया है. तुम्हारे पर्स में कुछ ड्रग्स मिले. तुम्हें खुद पता नहीं कि कहां से ड्रग्स पर्स में आ गए और अब वही तुम्हारी सहायता कर सकता है.’’

नताशा ने फोन कर उस बिजनैसमैन से बात कर वैसा ही कहा.

उधर से वह फोन पर गुस्सा हो कर नताशा से बोला, ‘‘यू इडियट, तुम ने मेरे या

इस होटल के बारे में कस्टम औफिसर को क्या बताया है?’’

‘‘सर, मैं ने तो अभी तक कुछ नहीं बताया है… पर परदेश में बस आप का ही सहारा है. आप कुछ कोशिश करें तो मामला रफादफा हो जाएगा. मैं अपने डौलर तो साथ लाई नहीं हूं.’’

‘‘मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता हूं. खबरदार दोबारा फोन करने की कोशिश की.

अब तुम जानो और तुम्हारा काम… भाड़ में जाओ तुम और तुम्हारे 4000 डौलर,’’ और उस ने फोन काट दिया.

बिजनैसमैन की बातें सुन कर दोनों एकसाथ खुशी से उछल पड़े. नताशा बोली, ‘‘अब तो मेरे डौलर भी बच गए. पापा के घर का काफी कर्ज चुका सकती हूं. मेरा रिटर्न टिकट तो 2 दिन बाद का है. फिर भी मैं कोशिश करती हूं कि आज रात की फ्लाइट मिल जाए,’’ कह वह रसियन एअरलाइन एरोफ्लोट के काउंटर की तरफ बढ़ी.

दीपक ने उसे रोक कर कहा, ‘‘रुको, इस की कोई जरूरत नहीं है. तुम अभी मेरे साथ चलो. कम से कम 2 दिन तो मेरा साथ दो.’’

दीपक ने नताशा को एक होटल में ठहराया. काफी देर दोनों बातें करते रहे. दोनोें एकदूसरे का दुखसुख समझ रहे थे. रात में डिनर के बाद दीपक चलने लगा. उसे गले से लगाते हुए होंठों पर ऊंगली फेरते हुए बोला, ‘‘नताशा, या लुवलुवा (आई लव यू). कल सुबह फिर मिलते हैं. दोबरोय नोचि (गुड नाइट).’’

‘‘आई लव यू टू,’’ दीपक के बालों को सहलाते हुए नताशा ने कहा.

अगले दिन जब दीपक नताशा से मिलने आया तो वह स्कारलेट कलर के सुंदर लौंग फ्रौक में बैठी थी. बिलकुल उसी तरह जैसे मास्को के होटल में मिली थी.

दीपक बोला, ‘‘दोबरोय उत्रो. क्रासावित्सा (गुड मौर्निंग, ब्यूटीफुल).’’

‘‘कौन ब्यूटीफुल है मैं या तृसिकी?’’ वह हंसते हुए बोली

‘‘दोनों.’’

‘‘यू नौटी बौय,’’ बोल कर नताशा दीपक से सट कर खड़ी हो गई.

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Serial Story: दस्विदानिया – भाग 3

दीपक ने उसे अपनी बांहों में ले कर कहा, ‘‘अब तुम कहीं नहीं जाओगी. मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. मैं कल ही अपनी शादी के लिए औफिस में अर्जी दे दूंगा.’’

‘‘आई लव यू दीपक, पर मुझे कल जाने दो. मैं ने पिता की निशानी बचाने के लिए अपनी अस्मिता दांव पर लगा दी… मुझे अपने देश जा कर सबकुछ ठीक करने के लिए मुझे कुछ समय दो.’’

अगले दिन नताशा एरोफ्लोट की फ्लाइट से मास्को जा रही थी. दीपक उसे छोड़ने दिल्ली एअरपोर्ट आया था. उस के चेहरे पर उदासी देख कर वह बोली, ‘‘उम्मीद है फिर जल्दी मिलेंगे. डौंट गैट अपसैट. बाय, टेक केयर, दस्विदानिया,’’ और वह एरोफ्लोट की काउंटर पर चैक इन करने बढ़ गई. दोनों हाथ हिला कर एकदूसरे से बिदा ले रहे थे.

कुछ दिनों बाद दीपक ने अपने सीनियर से शादी की अर्जी दे कर इजाजत मांगने

की बात की तो सीनियर ने कहा, ‘‘सेना का कोई भी सिपाही किसी विदेशी से शादी नहीं कर सकता है, तुम्हें पता है कि नहीं?’’

‘‘सर, पता है, इसीलिए तो पहले मैं इस की इजाजत लेना चाहता हूं.’’

‘‘और तुम सोचते हो तुम्हें इजाजत मिल जाएगी? यह सेना के नियमों के विरुद्ध है, तुम्हें इस की इजाजत कोईर् भी नहीं दे सकता है.’’

‘‘सर, हम दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते हैं. मैं शादी उसी से करूंगा.’’

‘‘बेवकूफी नहीं करो, अपने देश में क्या लड़कियों की कमी है?’’

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‘‘बेशक नहीं है सर, पर प्यार तो एक से ही किया है मैं ने, सिर्फ नताशा से.’’

‘‘तुम अपना और मेरा समय बरबाद कर रहे हो. तुम्हारा कमीशन पूरा होने में कितना वक्त बाकी है अभी?’’

‘‘सर, अभी तो करीब 12 साल बाकी हैं.’’

‘‘तब 2 ही उपाय हैं या तो 12 साल इंतजार करो या फिर नताशा को अपनी नागरिकता छोड़ने को कहो. और कोई उपाय नहीं है.’’

‘‘अगर मैं त्यागपत्र देना चाहूं तो?’’

‘‘वह भी स्वीकार नहीं होगा. देश और सेना के प्रति तुम्हारा कुछ कर्तव्य बनता है जो प्यार से ज्यादा जरूरी है, याद रखना.’’

‘‘यस सर, मैं अपनी ड्यूटी भी निभाऊंगा… मैं कमीशन पूरा होने तक इंतजार करूंगा,’’ कह वह सोचने लगा कि पता नहीं नताशा इतने लंबे समय तक मेरी प्रतीक्षा करेगी या नहीं. फिर सोचा कि नताशा को सभी बातें बता दे.

दीपक ने जब नताशा से बात की तो उस ने कहा, ‘‘12 साल क्या मैं कयामत तक तुम्हारा इंतजार कर सकती हूं… तुम बेशक देश के प्रति अपना फर्ज निभाओ. मैं इंतजार कर लूंगी.’’

नताशा से बात कर दीपक को खुशी हुई. दोनों में प्यारभरी बातें होती रहती थीं. वे बराबर एकदूसरे के संपर्क में रहते. धीरेधीरे समय बीतता जा रहा था. करीब 2 साल बाद एक बार नताशा दीपक से मिलने इंडिया आई थी. दीपक ने महसूस किया उस के चेहरे पर पहले जैसी चमक नहीं थी. स्वास्थ्य भी कुछ गिरा सा लग रहा था.

दीपक के पूछने पर उस ने कहा, ‘‘कोई खास बात नहीं है, सफर की थकावट और थोड़ा सिरदर्द है.’’

दोनों में मर्यादित प्रेम संबंध बना हुआ था. एक दिन बाद नताशा ने लौटते समय कहा, ‘‘इंतजार का समय 2 साल कम हो गया.’’

‘‘हां, बाकी भी कट जाएगा.’’

बेलारूस लौटने के बाद से नताशा का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था. कभी जोर से सिरदर्द, कभी बुखार तो कभी नाक से खून बहता. सारे टैस्ट किए गए तो पता चला कि उसे ब्लड कैंसर है. डाक्टर ने बताया कि फिलहाल दवा लेती रहो, पर 2 साल के अंदर कुछ भी हो सकता है. नताशा अपनी जिंदगी से निराश हो चली थी. एक तरफ अकेलापन तो दूसरी ओर जानलेवा बीमारी. फिर भी उस ने दीपक को कुछ नहीं बताया.

इधर कुछ महीने बाद दीपक को 3-4 दिनों से तेज बुखार था.

वह अपने एअरफोर्स के अस्पताल में दिखाने गया. उस समय फ्लाइट लैफ्टिनैंट डाक्टर ईशा ड्यूटी पर थीं. चैकअप किया तो दीपक को 103 डिग्री से ज्यादा ही फीवर था.

डाक्टर बोली, ‘‘तुम्हें एडमिट होना होगा. आज फीवर का चौथा दिन है…कुछ ब्लड टैस्ट करूंगी.’’

दीपक अस्पताल में भरती था. टैस्ट से पता चला कि उसे टाईफाइड है.

डा. ईशा ने पूछा, ‘‘तुम्हारे घर में और कौनकौन हैं, आई मीन वाइफ, बच्चे?’’

‘‘मैं बैचलर हूं डाक्टर… वैसे भी और कोई नहीं है मेरा.’’

‘‘डौंट वरी, हम लोग हैं न,’’ डाक्टर उस की नब्ज देखते हुए बोलीं.

बीचबीच में कभीकभी दीपक का खुबार 103 से 104 डिग्री तक हो जाता तो वह नताशानताशा पुकारता. डा. ईशा के पूछने पर उस ने नताशा के बारे में बता दिया. डाक्टर ने नताशा का फोन नंबर ले कर उसे फोन कर दिया. 2 दिन बाद नताशा दीपक से मिलने पहुंच गई. उस दिन दीपक का फीवर कम था. नताशा उस के कैबिन में दीपक के बालों को सहला रही थी.

तभी डा. ईशा ने प्रवेश किया. बोलीं, ‘‘आई एम सौरी, मैं बाद में आ जाती हूं. बस रूटीन चैकअप करना है. आज इन्हें कुछ आराम है.’’

दीपक बोला, ‘‘नहीं डाक्टर, आप को जाने की जरूरत नहीं है. आप अपना काम कर लें… अब नताशा आ गई है, तो मैं ठीक हो जाऊंगा.’’

डा. ईशा ने नताशा से पूछा, ‘‘तुम इंडिया कितने दिनों के लिए आई हो?’’

‘‘ज्यादा से ज्यादा 2 दिन तक रुक सकती हूं.’’

‘‘ठीक है, इन का बुखार उतरना शुरू हो गया है. उम्मीद है कल तक कुछ और आराम मिलेगा.’’

डाक्टर के जाने के बाद दीपक ने नताशा से पूछा, ‘‘क्या बात है, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है? थकीथकी लग रही हो?’’

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‘‘नहीं, मैं बिलकुल ठीक हूं. तुम आराम करो. मैं अभी चलती हूं. फिर आऊंगी शाम को विजिटिंग आवर्स में.’’

नताशा डा. ईशा से मिलने उन के कैबिन में गई तो डा. ईशा बोलीं, ‘‘आप लंच मेरे साथ लेंगी… मेरे क्वार्टर में आ जाना, मैं वेट करूंगी.’’

लंच के बाद नताशा डा. ईशा से बैठी बातें कर रही थी. डा. ईशा ने कहा, ‘‘क्या बात है, इंडियन खाना पसंद नहीं आया? तुम ने तो कुछ खाया ही नहीं. तुम्हें तो इंडियन खाने की आदत डालनी होगी.’’

‘‘नहीं, खाना बहुत अच्छा था. मैं ने भरपेट खा लिया है.’’

‘‘दीपक तुम्हें बहुत चाहते हैं… तुम्हारे लिए लंबा इंतजार करने को तैयार हैं.’’

उसी समय नताशा के सिर में जोर का दर्द हुआ और नाक से खून रिसने लगा. डा. ईशा उसे सहारा दे कर वाशबेसिन तक ले गई, फिर बैड पर आराम करने के लिए लिटा दिया और पूछा, ‘‘तुम्हें क्या तकलीफ है और ऐसा कितने दिनों से हो रहा है?’’

नताशा ने अपने बैग से दवा खाई और अपनी पूरी बीमारी विस्तार से बता दी. फिर अपनी फाइल और रिपोर्ट उन्हें दिखा कर कहा, ‘‘अब मेरी जिंदगी कुछ ही महीनों की बची है. डाक्टर ने कहा है कि ज्यादा से ज्यादा 1 साल. मैं चाहती हूं आप दीपक को धीरेधीरे समझाएं… हो सकता है मैं इस के बाद अब उस से मिल न सकूं, क्योंकि लंबी यात्रा के लायक नहीं रहूंगी.’’

अगले दिन दीपक को अस्पताल से छुट्टी मिल गई. वह अपने क्वार्टर में नताशा के साथ था. नताशा को अगले दिन जाना था. दीपक बोला, ‘‘मैं तो एअरफोर्स में हूं, मेरा विदेश जाना संभव नहीं है. तुम्हीं मिलने आ जाया करो. मुझे बहुत अच्छा लगता है तुम से मिल कर.’’

‘‘अच्छा तो मुझे भी लगता है, पर मुझे लगता है तुम्हारी देखभाल करने वाला कोई यहां होना चाहिए. मेरे इंतजार में कहीं तुम्हारे स्वास्थ्य पर बुरा असर न पड़े.’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा. मैं वेट कर लूंगा.’’

नताशा जा रही थी. दीपक से बिदा लेते समय उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. डाक्टर ने दीपक को एअरपोर्ट जाने से मना कर दिया था.

नताशा बोली, ‘‘दस्विदानिया, दोस्त.’’

डा. ईशा नताशा के साथ एअरपोर्ट आई थीं.

नताशा बोली, ‘‘डाक्टर, अब मैं दीपक से मिलने नहीं आ सकती हूं…आप समझ ही रही हैं न… मैं ने दीपक से कुछ नहीं कहा है. पर आप उसे सच बता दीजिएगा.’’

नताशा चली गई. डा. ईशा ने उस की बीमारी के बारे में दीपक को बता दिया. वह बहुत दुखी हुआ. डा. ईशा दीपक से अकसर मिलने आतीं और उसे समझातीं. लगभग 6 महीने बाद नताशा का आखिरी फोन उसे मिला. वह अस्पताल में अंतिम सांसें गिन रही थी.

नताशा ने कहा, ‘‘सौरी दोस्त, मैं अब और तुम्हारा इंतजार नहीं कर सकती हूं. किसी भी पल आखिरी सांस ले सकती हूं. टेक केयर औफ योरसैल्फ. दस्विदानिया, प्राश्चे नवसेदगा (गुड बाय सदा के लिए).’’

करीब आधे घंटे के बाद नताशा की मृत्यु की खबर दीपक को मिली. वह

बहुत दुखी हुआ. उस की आंखों से भी लगातार आंसू बह रहे थे. डा. ईशा दीपक को सांत्वना दे रही थी.

बीमारी के बाद दीपक और ईशा दोनों अकसर मिलने लगे थे. एक दिन दोनों साथ बैठे थे. दीपक थोड़ा सहज हो चला था. वह बोला, ‘‘अकेलापन काटने को दौड़ता है.’’

‘‘आप देश के बहादुर सैनिक हो. अपना मनोबल बनाए रखो. ड्यूटी के बाद कुछ अन्य कार्यों में अपनेआप को व्यस्त रखो.’’

‘‘मैं नताशा को भुला नहीं पा रहा हूं.’’

‘‘यादें इतनी आसानी से नहीं भूलतीं, पर कभीकभी यादों को हाशिए पर रख कर जिंदगी में आगे बढ़ना होता है. मैं भी उसे कहां भूल सकी हूं.’’

‘‘किसे?’’

‘‘फ्लाइंग अफसर राकेश से मेरी शादी तय हुई थी. हम दोनों एकदूसरे को चाहते भी थे, पर एक टैस्ट फ्लाइट के क्रैश होने से वह नहीं रहा.’’

‘‘उफ , सो सौरी.’’

कुछ दिन बाद क्लब में डा. ईशा और दीपक एक सीनियर अफसर स्क्वाड्रन लीडर उमेश के साथ बैठे थे. उमेश ने कहा, ‘‘तुम दोनों की कहानी मिलतीजुलती है. क्यों न तुम दोनों एक हो कर एकदूसरे के सुखदुख में साथ दो.’’

डा. ईशा और दीपक एकदूसरे को देखने लगे. उमेश ने महसूस किया कि दोनों की आंखों से स्वीकृति का भाव साफ छलक रहा है.

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