Short Stories in Hindi : अनमोल तोहफा

लेखक- इश्तियाक सईद

Short Stories in Hindi : शाहिदा शेख प्रोफैसर महमूद शौकत की छात्रा रह चुकी थी. 3 साल पहले बीए की डिगरी ले कर वह घर बैठ गई थी. कुछ दिनों पहले न जाने कैसे और कब वह प्रोफैसर से आ मिली, कब दिलोदिमाग पर छाई, कब हवस बन कर रोमरोम में समा गई, उन्हें कुछ नहीं याद. यह भी याद नहीं कि पहले किस ने किस को बेपरदा किया था.

अगर याददाश्त में कुछ महफूज रखा था तो बस शाहिदा शेख की चंचलता, अल्हड़ता और उस का मादक शरीर जो उन की खाली जिंदगी और ढलती उम्र के लिए खास तोहफे की तरह था.

यही हाल शाहिदा शेख का भी था, क्योंकि दोनों ही एकदूसरे के बिना अधूरापन महसूस करते थे.

शाहिदा शेख अपने मांबाप की एकलौती औलाद थी, इसलिए एक प्रोफैसर का उन के घर आनाजाना किसी इज्जत से कम न था. उन्हें अपनी बेटी पर फख्र भी होता था कि यह इज्जत उन्हें उसी के चलते मिल रही थी. वे समझते थे कि प्रोफैसर उन की बेटी को अपनी बेटी की तरह मानते हैं.

प्रोफैसर महमूद शौकत को दिलफेंक, आशिकमिजाज या हवस का पुजारी कहा जाए, ऐसा कतई न था, बल्कि वे तो ऐसे लोगों में से थे जो हर समय गंभीरता ओढ़े रहते हैं. अलबत्ता, वे सठिया जरूर गए थे यानी उन की उम्र 60वें साल में घुस चुकी थी.

प्रोफैसर महमूद शौकत की पत्नी 10 साल पहले ही इस दुनिया से जा चुकी थीं. पत्नी की इस अचानक जुदाई से प्रोफैसर महमूद शौकत ऐसे बिखरे थे कि उन का सिमटना मुहाल हो गया था. कालेज जाना तो दूर खानेपीने तक की सुध न रहती थी. हां, कुछ होश था तो बस उन्हें अपनी बेटी का, जो जवानी की दहलीज पर थी. अब तो वह भी अपने घरबार की हो गई थी और

2 बच्चों की मां भी बन चुकी थी. बेटा कंप्यूटर इंजीनियर था और एक निजी कंपनी में मुलाजिम था. प्रोफैसर महमूद शौकत समय से पहले रिटायरमैंट ले कर खुद आराम से सुख भोग रहे थे.

इधर लगातार कई दिनों से प्रोफैसर महमूद शौकत शाहिदा शेख का दीदार न कर सके थे. इंतजार जब आंख का कांटा बन गया तो वे सीधे उस के घर जा पहुंचे. पता चला कि वह पिछले 10 दिनों से मलेरिया से पीडि़त थी. खैर, अब कुछ राहत थी लेकिन कमजोरी ऐसी कि उठनाबैठना मुहाल हो गया था.

प्रोफैसर महमूद शौकत जैसे ही शाहिदा शेख के बैडरूम में गए, उन्हें देखते ही शाहिदा की निराश आंखें चमक उठीं और बीमार मुरझाया चेहरा खिल गया.

इस बीच प्रोफैसर महमूद शौकत शाहिदा की नब्ज देखने के लिए उस पर झुके थे कि उस ने झट उन पर गलबहियां डाल दीं और अपने तपतेसुलगते होंठों को उन के होंठों में धंसा दिया.

शाहिदा शेख के ऐसे बरताव से प्रोफैसर महमूद शौकत शर्मिंदा हो उठे और खुद को उस की पकड़ से छुड़ाते हुए बोले, ‘‘प्लीज, मौके की नजाकत को समझो.’’

‘‘समझ रही हूं सर कि मम्मी हमारे बीच दीवार बनी हुई हैं. मैं तो उम्मीद कर रही हूं कि वे थोड़ी देर के लिए ही सही, किसी काम से बाहर चली जाएं और हम एकदूसरे में…’’

शाहिदा की पकड़ से छूट कर प्रोफैसर महमूद शौकत सोफे पर बैठे ही थे कि शाहिदा की मम्मी चायनमकीन लिए कमरे में आ धमकीं.

यह देख प्रोफैसर का जी धक से हो गया और चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. वे सोचने लगे कि अगर वे कुछ समय पहले आ जातीं तो…

बहरहाल, चाय की चुसकियों के दौरान उन में बातें होने लगीं. फिर शाहिदा की मम्मी अपने घराने और शाहिदा से संबंधित बातों की गठरी खोल बैठीं. बातों ही बातों में उस के ब्याह की चर्चा छेड़ दी. वे कहने लगीं, ‘‘प्रोफैसर साहब, हम पिछले 3 महीनों से शाहिदा के लिए लड़का खोज रहे हैं, पर अच्छे लड़कों का तो जैसे अकाल पड़ा है. देखिए न कोई मुनासिब लड़का हमारी शाहिदा के लिए.’’

इस से पहले कि प्रोफैसर कुछ कहते, शाहिदा झट से बोल पड़ी, ‘‘सर, अपनी ही कालोनी में देखिएगा, ताकि शादी के बाद भी मैं आप के करीब रहूं.’’

उस रात प्रोफैसर सो नहीं सके थे. शाहिदा का कहा उन के दिमाग में गूंजने लगता और वे चौंक कर उठ बैठते.

इसी उधेड़बुन में वे धीरेधीरे फ्लैशबैक में चले गए.

होटल मेघदूत के आलीशान कमरे में नरम बिस्तर पर शाहिदा शेख बिना कपड़ों के प्रोफैसर महमूद शौकत की बांहों में सिमटी कह रही थी, ‘जी तो चाहता है सर, मैं जवानी की सभी घडि़यां आप की बांहों में बिताऊं. आप ऐसे ही मेरे बदन के तारों को छेड़ते

रहें और मैं आप की मर्दानगी से मस्त होती रहूं.’

इतना सुनने के बाद प्रोफैसर ने उस के रेशमी बालों से खेलते हुए पूछा था, ‘तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि हम जो कर रहे हैं, वह गुनाह है?’

शाहिदा ने न में सिर हिला दिया.

‘क्यों?’

‘क्योंकि, सैक्स कुदरत की देन है. इस को गुनाह कैसे कह सकते हैं. वैसे भी सर, मैं तो मानती हूं कि यह केवल हमारी शारीरिक जरूरत है. आप मर्द हैं और आप को मेरी जवानी चाहिए. मैं औरत हूं और मुझे आप की मर्दानगी की तलब है.’

‘ओह मेरी जान,’ शाहिदा की इस बात पर प्रोफैसर महमूद शौकत चहक उठे थे. साथ ही, उन के होंठ उस के होंठों पर झुकते चले गए.

शाहिदा इस अचानक हल्ले के लिए तैयार न थी, फिर भी उन की छुअन ने उस के शरीर को झनझना दिया था और उस का कोमल शरीर उन की बांहों के घेरे में फड़फड़ाने लगा था.

प्रोफैसर का यह कामुक हल्ला इतना तेज… इतना वहशियाना था कि शाहिदा का पोरपोर उधेड़े दे रहा था. शाहिदा भी अपने शरीर को ऐसे ढीला छोड़ रही थी मानो खुद को हारा हुआ मान लिया हो.

कुछ मिनट तक दोनों ऐसे ही बिस्तर पर उधड़ेउधड़े बिखरेबिखरे से रहे, फिर किसी तरह शाहिदा खुद को अपने में बटोरतेसमेटते फुसफुसाई, ‘सर…’

‘क्या…’

‘इस उम्र में भी आप में नौजवानों से कहीं ज्यादा मर्दानगी का जोश है.’

यह सुन कर प्रोफैसर महमूद शौकत हैरानी से उसे देखने लगे.

‘हां सर, मुझे तो अपने साथी लड़कों से कहीं ज्यादा सुख आप से मिलता है.’

‘लेकिन, तुम यह कैसे कह सकती हो?’ प्रोफैसर की आवाज में बौखलाहट आ गई थी.

‘आजमाया है मैं ने… 1-2 को नहीं, दसियों को.’

‘यानी तुम उन के साथ…’

‘बिलकुल, शायद पहले भी आप से कह चुकी हूं कि मेरे लिए जिंदगी मौत का नजरअंदाज किया हुआ एक पल है, तो क्यों न मैं हर पल को ज्यादा से ज्यादा भोगूं…’

यह सुन कर प्रोफैसर चौंक उठते हैं और फ्लैशबैक से वापस आ जाते हैं. वे फटीफटी आंखों से शून्य में घूरने लगते हैं और धीरेधीरे वह शून्य सिनेमा के परदे में बदल जाता है. उस में 2 धुंधली छाया निकाह कर रही होती हैं. जैसेजैसे दूल्हे के मुंह से ‘कबूल है’ की गिनती बढ़ती है, दुलहन शाहिदा का और दूल्हा प्रोफैसर का रूप धर लेता है.

उसी पल प्रोफैसर की बेटी अपने दोनों बच्चों की उंगली थामे शाहिदा के सामने आ खड़ी होती है और उन का यह सुंदर सपना इस तरह गायब हो जाता है जैसे बिजली गुल होने पर टैलीविजन स्क्रीन से चित्र.

सुबह होते ही प्रोफैसर शौकत बिना सोचेसमझे शाहिदा के घर जा पहुंचे. डोर बैल की आवाज पर शाहिदा की मम्मी ने दरवाजा खोला और अपने सामने प्रोफैसर को देख वे हैरत में डूब गईं, ‘‘प्रोफैसर साहब, आप…’’

प्रोफैसर महमूद शौकत चुपचाप निढाल कदमों से अंदर गए और खुद को सोफे पर गिराते हुए पूछा, ‘‘शेख साहब कहां हैं?’’

‘‘वे तो सो रहे हैं…’’ कहते हुए शाहिदा की मम्मी ने उन की आंखों में झांका, ‘‘अरे, आप की आंखें… लगता है, सारी रात आप जागते रहे हैं.’’

‘‘हां… मैं रातभर शाहिदा के निकाह को ले कर उलझा रहा… आप ने कहा था न कि मैं उस के लिए लड़का देखूं?’’

‘‘तो देखा आप ने?’’ मम्मी जानने के लिए उत्सुक हो गईं, ‘‘कौन है? क्या करता है? मतलब काम… फैमिली बैकग्राउंड क्या है?

‘‘अजी सुनते हो, उठो जल्दी… देखो, प्रोफैसर साहब आए हैं. हमारी शाहिदा के लिए लड़का देख रखा है इन्होंने. कितना ध्यान रखते हैं हमारी शाहिदा का.’’

‘‘महान नहीं, खुदा हैं खुदा,’’ शेख साहब ने आते हुए कहा.

‘‘खुदा तो आप हैं, एक हूर जैसी लड़की के पिता जो हैं. मगर आप दोनों मियांबीवी को एतराज न हो तो मैं शाहिदा को अपने घर… मतलब… मेरे बेटे को तो आप लोग जानते ही हैं, और…’’

‘‘बसबस, इस से बढ़ कर खुशी और क्या हो सकती है हमारे लिए,’’ मिस्टर शेख ने कहा, ‘‘हमारी शाहिदा आप के घर जाएगी तो हमें ऐसा लगेगा जैसे अपने ही घर में है, हमारे साथ.’’

फिर क्या था, आननफानन बड़े ही धूमधाम से शाहिदा प्रोफैसर के बेटे से ब्याह दी गई. वह प्रोफैसर के घर आ कर बहुत खुश थी. बेटा भी शाहिदा जैसी जीवनसाथी पा कर फूला न समाता था. दुलहनिया को ले कर हनीमून मनाने वह महाबलेश्वर चला गया.

प्रोफैसर चाहते हुए भी उसे रोक न सके और भीतर ही भीतर ऐंठ कर रह गए. खैर, दिन तो जैसेतैसे कट गया, पर रात काटे न कटती थी. वे जैसे ही आंखें मूंदते, उन्हें बेटे और बहू का वजूद आपस में ऐसे लिपटा दिखाई देता मानो दोनों एकदूसरे में समा जाना चाहते हों. ऐसे में उन्हें बेवफा महबूबा और बेटा अपना दुश्मन मालूम होने लगते. रहरह कर उन्हें ऐसा भी महसूस होता कि बेटे की मर्दानगी का जोश शाहिदा की जवानी की दीवानगी से हार रहा है.

बेटे और बहू को हनीमून पर गए

3 दिन बीत चुके थे. इस बीच प्रोफैसर की हालत पतली हो गई थी. घर में होते तो दिमाग पर शाहिदा का मादक यौवन छाया रहता या अपने ही बेटे की दुश्मनी में चुपकेचुपके सुलगते रहते. उन्हें यह तक खयाल न आता कि अब उन के और शाहिदा के बीच रिश्ते की दीवार खड़ी कर दी गई है. बेटे के संग गठबंधन ने उसे प्रेमिका से बहू बना दिया है. बहू यानी बेटी. वे अपनी इस चूक पर बस हाथ मलते थे.

इन्हीं दिनों उन का एक छात्र किसी काम के चलते उन से मिलने आया. इधरउधर की बातों के दौरान उस ने बताया कि बीकौम के बाद वह एक मैन पावर कंसलटैंसी में अकाउंटैंट के तौर पर काम कर रहा है. फिर उस ने प्रोफैसर के पूछने पर उस फर्म के काम करने के तरीके के बारे में बताया.

उस रात उन्हें काफी सुकून व बहके खयालात में ठहराव का अहसास हुआ. ऐसा महसूस होने लगा जैसे उस छात्र की मुलाकात ने उन्हें सांप के काटे का मंत्र सिखा दिया हो.

बेटा और बहू यानी प्रेमिका पूरे

20 दिन बाद हनीमून से लौटे थे. बेटा शाहिदा का साथ पा कर बेहद खुश दिखाई दे रहा था. देखने में तो शाहिदा भी खुश थी, पर उस की आंखों से खुशियों की चमक गायब थी.

प्रोफैसर की नजर ने सबकुछ पलक झपकते ही ताड़ लिया था और वे चिंता की गहराइयों में डूब गए थे.

अगले दिन चायनाश्ते के बाद प्रोफैसर महमूद शौकत ने अपने बेटे को कमरे में बुलाया और दुनियादारी, जमाने की ऊंचनीच का पाठ पढ़ाते हुए कहा, ‘‘बेटा, अब तक तुम केवल अपनी जिंदगी के जिम्मेदार थे, पर अब एक और जिंदगी तुम से जुड़ चुकी है यानी तुम एक से 2 हो चुके हो. आने वाले दिनों में 3, फिर 4 हो जाओगे.

‘‘जरूरतों और खर्चों में बढ़ोतरी लाजिमी है, जबकि आमदनी वही होगी जो तुम तनख्वाह पाते हो, इसलिए मैं ने तुम्हारे सुनहरे भविष्य के लिए, तुम्हारी मरजी जाने बिना मौजूदा नौकरी से बढि़या और 4 गुना ज्यादा तनख्वाह वाली नौकरी का जुगाड़ कर दिया है.’’

इस बीच प्रोफैसर महमूद शौकत की नजर के पीछे खड़ी शाहिदा पर जमी थी. उस की आंखों में खुशी की लहरें और होंठों पर कामुक मुसकान रेंग रही थी. उस के इस भाव से खुश होते हुए उन्होंने मेज की दराज से एक लिफाफा निकाला और उसे शहिदा की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘शाहिदा, यह मेरी ओर से तुम्हारे लिए एक छोटा सा तोहफा है.’’

‘‘शुक्रिया,’’ शाहिदा धीरे से बोली.

‘‘अगर अब तुम इस तोहफे को अपने हाथों से मेरे बेटे को दे दो तो यकीनन यह तोहफा बेशकीमती हो जाएगा.’’

वह उन की इच्छा भांप गई और एक अदा से लजाते, इठलाते हुए उस ने लिफाफा शौहर की ओर बढ़ा दिया.

बेटे को शाहिदा की इस अदा पर प्यार उमड़ आया. वह उसे चाहत भरी नजर से देखते हुए लिफाफा थाम कर ‘शुक्रिया डार्लिंग’ बोला.

लिफाफे में मोटे शब्दों में लिखा था, ‘पिता की तरफ से बेटे को अनमोल तोहफा’. उस में जो कागज था, वह

बेटे की दुबई में नौकरी का अपौंइटमैंट लैटर था. साथ में वीजा, पासपोर्ट और हवाईजहाज की टिकट भी थी. यह पढ़ते ही बेटे के हाथ कांपने लगे.

Interesting Hindi Stories : किसका हिसाब सही था, औटो वाले या पुलिस का?

Interesting Hindi Stories : ‘आज फिर 10 बज गए,’ मेज साफ करतेकरते मेरी नजर घड़ी पर पड़ी. इतने में दरवाजे की घंटी बजी.

‘कौन आया होगा, इस समय. अब तो फ्रिज में सब्जी भी नहीं है. बची हुई सब्जी मैं ने जबरदस्ती खा कर खत्म की थी,’ कई बातें एकसाथ दिमाग में घूम गईं.

थकान से शरीर पहले ही टूट रहा था. जल्दी सोने की कोशिश करतेकरते भी 10 बज गए थे. धड़कते दिल से दरवाजा खोला, सामने दोनों हाथों में बड़ेबड़े बैग लिए चेतना खड़ी थी. आगे बढ़ कर उसे गले लगा लिया, सारी थकान जैसे गायब हो गई और पता नहीं कहां से इतना जोश आ गया कि पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे.

‘‘अकेली आई है क्या?’’ सामान अंदर रखते हुए उस से पूछा.

‘‘नहीं, मां भी हैं, औटो वाले को पैसे दे रही हैं.’’

मैं ने झांक कर देखा, वीना नीचे औटो वाले के पास खड़ी थी. वह मेरी बचपन की सहेली थी. चेतना उस की प्यारी सी बेटी है, जो उन दिनों अपनी मेहनत व लगन से मैडिकल की तृतीय वर्ष की छात्रा थी. मुझे वह बहुत प्यारी लगती है, एक तो वह थी ही बहुत अच्छी – रूप, गुण, स्वभाव सभी में अव्वल, दूसरे, मुझे लड़कियां कुछ ज्यादा ही अच्छी लगती हैं क्योंकि मेरी अपनी कोई बेटी नहीं. अपने और मां के संबंध जब याद करती हूं तो मन में कुछ कसक सी होती है. काश, मेरी भी कोई बेटी होती तो हम दोनों अपनी बातें एकदूसरे से कह सकतीं. इतना नजदीकी और प्यारभरा रिश्ता कोई हो ही नहीं सकता.

‘‘मां ने देर लगा दी, मैं देखती हूं,’’ कहती हुई चेतना दरवाजे की ओर बढ़ी.

‘‘रुक जा, मैं भी आई,’’ कहती हुई मैं चेतना के साथ सीढि़यां उतरने लगी.

नीचे उतरते ही औटो वाले की तेज आवाज सुनाई देने लगी.

मैं ने कदम जल्दीजल्दी बढ़ाए और औटो के पास जा कर कहा, ‘‘क्या बात है वीना, मैं खुले रुपए दूं?’’

‘‘अरे यार, देख, चलते समय इस ने कहा, दोगुने रुपए लूंगा, रात का समय है. मैं मान गई. अब 60 रुपए मीटर में आए हैं. मैं इसे 120 रुपए दे रही हूं. 10 रुपए अलग से ज्यादा दे दिए हैं, फिर भी मानता ही नहीं.’’

‘‘क्यों भई, क्या बात है?’’ मैं ने जरा गुस्से में कहा.

‘‘मेमसाहब, दोगुने पैसे दो, तभी लूंगा. 60 रुपए में 50 प्रतिशत मिलाइए, 90 रुपए हुए, अब इस का दोगुना, यानी कुल 180 रुपए हुए, लेकिन ये 120 रुपए दे रही हैं.’’

‘‘भैया, दोगुने की बात हुई थी, इतने क्यों दूं?’’

‘‘दोगुना ही तो मांग रहा हूं.’’

‘‘यह कैसा दोगुना है?’’

‘‘इतना ही बनता है,’’ औटो वाले की आवाज तेज होती जा रही थी. सो, कुछ लोग एकत्र हो गए. कुछ औटो वाले की बात ठीक बताते तो कुछ वीना की.

‘‘इतना लेना है तो लो, नहीं तो रहने दो,’’ मैं ने गुस्से से कहा.

‘‘इतना कैसे ले लूं, यह भी कोई हिसाब हुआ?’’

मैं ने मन ही मन हिसाब लगाया कि कहीं मैं गलत तो नहीं क्योंकि मेरा गणित जरा ऐसा ही है. फिर हिम्मत कर के कहा, ‘‘और क्या हिसाब हुआ?’’

‘‘कितनी बार समझा दिया, मैं 180 रुपए से एक पैसा भी कम नहीं लूंगा.’’

‘‘लेना है तो 130 रुपए लो, वरना पुलिस के हवाले कर दूंगी,’’ मैं ने तनिक ऊंचे स्वर में कहा.

‘‘हांहां, बुला लो पुलिस को, कौन डरता है? कुछ ज्यादा नहीं मांग रहा, जो हिसाब बनता है वही मांग रहा हूं,’’ औटो वाला जोरजोर से बोला.

इतने में पुलिस की मोटरसाइकिल वहां आ कर रुकी.

‘‘क्या हो रहा है?’’ सिपाही कड़क आवाज में बोला.

‘‘कुछ नहीं साहब, ये पैसे नहीं दे रहीं,’’ औटो वाला पहली बार धीमे स्वर में बोला.

‘‘कितने पैसे चाहिए?’’

‘‘दोगुने.’’

‘‘आप ने कितने रुपए दिए हैं?’’ इस बार हवलदार ने पूछा.

‘‘130 रुपए,’’ वीना ने कहा.

‘‘कहां हैं रुपए?’’ हवलदार कड़का तो औटो वाले ने मुट्ठी खोल दी.

सिपाही ने एक 50 रुपए का नोट उठाया और उसे एक भद्दी सी गाली दी, ‘‘साला, शरीफों को तंग करता है, भाग यहां से, नहीं तो अभी चालान करता हूं,’’ फिर हमारी तरफ देख कर बोला, ‘‘आप लोग जाइए, इसे मैं हिसाब समझाता हूं.’’

हम चंद कदम भी नहीं चल पाई थीं कि औटो के स्टार्ट होने की आवाज आई.

मैं हतप्रभ सोच रही थी कि किस का हिसाब सही था, वीना का, औटो वाले का या पुलिस वाले का?

Best Satire In Hindi : जागो ठेकेदार लगी है कतार

लेखक- विनय कुमार पाठक

Best Satire In Hindi : शनिवार की एक रात. रेलवे प्लेटफार्म पर गहमागहमी का माहौल. सैकड़ों लोग ट्रेनों से उतर रहे थे या फिर ट्रेन पकड़ने का इंतजार कर रहे थे. पर एक जगह नजारा कुछ और ही था. वहां लोग कतार लगाए खड़े थे. यह उन के लिए शनि की साढ़ेसाती का प्रकोप था या और कुछ, पता नहीं.

जिस काम के लिए वे सब कतार में खड़े थे, वह ऐसा कुदरती काम है जिसे नित्यक्रिया कहते हैं. मतलब, वे मुंबई सैंट्रल टर्मिनल पर

बने एक शौचालय के बाहर खड़े थे.

वैसे, ‘आप कतार में हैं’ की आवाज तभी अच्छी लगती है जब आप सामान्य हालात में होते हैं या फिर कोई मीठी आवाज की औरत ऐसा बोलती है. शौचालय की कतार में खड़े हो कर किसी को यह सुनना अच्छा नहीं लगेगा.

हुआ यों कि शौचालय के मुलाजिम और ठेकेदार रेलवे की चादरें ‘चादर बिछाओ बलमा…’ गीत गाते हुए रेलवे के कंबल ओढ़ कर निद्रा देवी के आगोश में चले गए. इधर शौच के लिए जाने वाले लोग कतार में लगे अपने आगे के लोगों को गिनते रहे और अंकगणित के सवाल हल करते रहे कि अगर एक आदमी को शौच करने में तकरीबन

5 मिनट लगते हैं तो उन के आगे खड़े

7 लोगों को कितना समय लगेगा और उन के लिए वह सुनहरा वक्त कब आएगा जब वे खुद को एक बहुत बड़े तनाव से मुक्त कर सकेंगे.

वे बारबार अपनी जेब में रखा 2 का सिक्का छू कर तसल्ली कर रहे थे कि ऐन वक्त पर छुट्टे न होने के चलते उन्हें फिर से कतार में न लगना पड़े.

चाहे सदी के महानायक कहते रहें कि ‘अब इंडिया शौच करेगा तो दरवाजा बंद कर के’, पर शौचालय के अंदर जा कर कोई दरवाजा बंद कर के ही सो जाए तो इंडिया शौच कैसे करेगा? हांय? ऐसे में तो शौचालय तो शयनालय यानी सोने की जगह बन जाएगा.

बेचारे शौच के मारे मुसाफिरों का ‘तेरे द्वार खड़ा इक जोगी…’ गातेगाते गला बैठ गया. सिक्के को दबातेदबाते हाथ में छाले पड़ गए, पर दरवाजा अली बाबा के खजाने के दरवाजे की तरह खुलने का नाम ही नहीं ले रहा था.

उस दरवाजे को खोलने का ‘खुल जा सिमसिम’ टाइप कोडवर्ड क्या था, किसी को नहीं पता था.

रेलवे के अफसरों से शिकायत करने पर शौच जाने वालों को कभी इस अफसर के पास तो कभी उस अफसर के पास भेजा जाता रहा.

अब सोचिए कि उन भुक्तभोगियों की क्या हालत हो रही होगी. ऐसे विकट हालात में 2-4 कदम चलना भी मुश्किल होता है और उन बेचारों को दरदर की ठोकरें खानी पड़ रही थीं.

अब भैया, कुछ इमर्जैंसी वाले काम ऐसे होते हैं जिन की जरूरत कभी भी पड़ सकती है और हलका होना भी उन में से एक है.

कहा भी गया है कि ग्राहक, मौत और शौच कभी भी आ सकता है. वैसे कहा सिर्फ ग्राहक और मौत के लिए गया है, पर अभी भी देश में विकास पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है, इसलिए शौच को मौत के साथ जोड़ कर कहावत का विकास किया गया है.

जब गाड़ी 24 घंटे चलाते हो, मुसाफिर 24 घंटे रेलवे स्टेशन पर आजा सकते हैं, तो शौचालय को कैसे बंद

कर सकते हो?

यह कहां का नियम है कि रात के 12 बजे से सुबह के 5 बजे तक शौच नहीं कर सकते? अब लगता है कि शौच घोटाला भी कुछ दिनों में सामने आएगा. शौचालय के ठेकेदार लोग, आप अपनी रोजीरोटी पर खुद क्यों रोक लगा रहे हो?

जिस तरह ‘पैसे लो जूते दो’ की रट दुलहन के देवर लगाते हैं, उसी तरह एक शौच जाने वाले की यही गुजारिश है, ‘वाईफाई ले लो, पर शौचालय दे दो…’

Famous Hindi Stories : जाएं तो जाएं कहां

Famous Hindi Stories : हमारे एक बुजुर्ग थे. वे अकसर हमें समझाया करते थे कि जीवन में किसी न किसी नियम का पालन इंसान को अवश्य करना चाहिए. कोई भी नियम, कोई भी उसूल, जैसे कि मैं झूठ नहीं बोलता, मैं हर किसी से हिलमिल नहीं सकता या मैं हर किसी से हिलमिल जाता हूं, हर चीज का हिसाबकिताब रखना चाहिए या हर चीज का हिसाबकिताब नहीं रखना चाहिए.

नियम का अर्थ कि कोई ऐसा काम जिसे आप अवश्य करना चाहें, जिसे किए बिना आप को लगे कुछ कमी रह गई है. मैं अकसर आसपास देखता हूं और कभीकभार महसूस भी होता है कि पक्का नियम जिसे हम जीतेमरते निभाते हैं वह हमें बड़ी मुसीबत से बचा भी लेता है. हमारे एक मित्र हैं जिन की पत्नी पिछले 10 साल से सुबह सैर करने जाती थीं. 2-3 पड़ोसिनें भी कभी साथ होती थीं और कभी नहीं भी होती थीं.

‘‘देखा न कुसुम, भाभी रोज सुबह सैर करने जाती हैं तुम भी साथ जाया करो. जरा तो अपनी सेहत का खयाल रखो.’’

‘‘सुबह सैर करने जाना मुझे अच्छा नहीं लगता. सफाई कर्मचारी सफाई करते हैं तो सड़क की सारी मिट्टी गले में लगती है. जगहजगह कूड़े के ढेरों को आग लगाते हैं…गली में सभी सीवर भर जाते हैं. सुबह ही सुबह कितनी बदबू होती है.’’  बात शुरू कर के मैं तो पत्नी का मुंह ही देखता रह गया. सुबह की सैर के लाभ तो बचपन से सुनता आया था पर नुकसान पहली बार समझा रही थी पत्नी.

‘‘ताजी हवा तब शुरू होती है जब आबादी खत्म हो जाती है और वहां तक पहुंचतेपहुंचते सन्नाटा शुरू हो जाता है. खेतों की तरफ निकल जाओ तो न आदमी न आदमजात. इतने अंधेरे में अकेले डर नहीं लगता क्या कुसुम भाभी को.’’

‘‘इस में डरना क्या है. 6 बजे तक वापस आतेआते दिन निकल आता है. अपना ही इलाका है, डर कैसा.’’

‘‘नहीं, शाम की सैर ठीक रहती है. न बच्चों को स्कूल भेजने की चिंता और न ही अंधेरे का डर. भई, अपनेअपने नियम हैं,’’ पत्नी ने अपना नियम मुझे बताया और वह क्यों सही है उसे प्रमाणित करने के कारण भी मुझे समझा दिए. सोचा जाए तो अपनेअपने स्थान पर हर इंसान सही है. पुरानी पीढ़ी के पास नई पीढ़ी को कोसने के हजार तर्क हैं और नई पीढ़ी के पास पुरानी को नकारने के लाख बहाने. इसी मतभेद को दिल से लगा कर अकसर हम अपने अच्छे से अच्छे रिश्ते से हाथ धो लेते हैं.

मेरी बड़ी बहन, जो आगरा में रहती हैं, का एक नियम बड़ा सख्त है. कभी किसी का गहना या कपड़ा मांग कर नहीं पहनना चाहिए. कपड़ा तो कभी मजबूरी में पहनना भी पड़ सकता है क्योंकि तन ढकना तो जरूरत है, लेकिन गहनों के बिना प्राण तो नहीं निकल जाएंगे.

हम किसी शादी में जाने वाले थे. दीदी भी उन दिनों हमारे पास आई हुई थीं. जाहिर है, भारी गहने साथ ले कर नहीं आई थीं. मेरी पत्नी ने अनुरोध किया कि वे उस के गहने ले लें, तो दीदी ने साफ मना कर दिया. मेरी पत्नी को बुरा लगा.

‘‘दीदी ने ऐसा क्यों कहा कि वे कभी किसी के गहने नहीं पहनतीं. मैं कोई पराई हूं क्या? कह रही हैं अपनेअपने उसूल हैं, ऐसे भी क्या उसूल…’’

दीदी शादी में गईं पर उन्हीं हल्केफुल्के गहनों में जिन्हें पहन कर वे आगरा से आई थीं. घर आ कर भी मेरी पत्नी अनमनी सी रही जिसे दीदी भांप गई थीं.

‘‘बुरा मत मानना भाभी और तुम भी अपने जीवन में यह नियम अवश्य बना लो. यदि तुम्हारे पास गहना नहीं है तो मात्र दिखावे के लिए कभी किसी का गहना मांग कर मत पहनो. अगर तुम से वह गहना खो जाए तो पूरी उम्र एक कलंक माथे पर लगा रहता है कि फलां ने मेरा हजारों का नुकसान कर दिया था. जिस की चीज खो जाती है वह भूल तो नहीं पाता न.’’

‘‘अगर मुझ से ही खो जाए तो?’’

‘‘तुम चाहे अपने हाथ से जितना बड़ा नुकसान कर लो…चीज भी तुम्हारी, गंवाई भी तुम ने, अपना किया बड़े से बड़ा नुकसान इंसान भूल जाता है पर दूसरे द्वारा किया सदा याद रहता है.

‘‘मुझे याद है 10वीं कक्षा में हमारी अंगरेजी की किताब में एक कहानी थी ‘द नैकलेस’ जिस में नायिका मैगी मात्र अपनी एक अमीर सखी के घर पार्टी पर जाने के लिए दूसरी अमीर सखी का हीरों का हार उधार मांग कर ले जाती है. हार खो जाता है. पतिपत्नी नया हार खरीदते हैं और लौटा देते हैं. और फिर पूरी उम्र उस कर्ज को उतारते रहते हैं जो उन्होंने लाखों का हार चुकाने को लिया था.

‘‘लगभग 15 साल बाद बहुत गरीबी में दिन गुजार चुकी मैगी को वही सखी बाजार में मिल जाती है. दोनों एकदूसरे का हालचाल पूछती हैं और अमीर सखी उस की गिरी सेहत और बुरी हालत का कारण पूछती है. नायिका सच बताती है और अमीर सखी अपना सिर पीट लेती है, क्योंकि उस ने जो हार उधार दिया था वह तो नकली था.

‘‘नकली ले कर असली चुकाया और पूरा जीवन तबाह कर लिया. क्या पाया उस ने भाभी? इसी कहानी की वजह से मैं कई दिन रोती रही थी.’’

दीदी ने प्रश्न किया तो मुझे भी वह कहानी याद आई. सच है, दीदी अकसर किस्सेकहानियों को बड़ी गंभीरता से लेती थीं. यही एक कहानी गहरी उतर गई होगी मन में.

‘‘दोस्ती हमेशा अपने बराबर वालों से करो, जिन के साथ उठबैठ कर आप स्वयं को मखमल में टाट की तरह न महसूस करो. क्या जरूरत है जेब फाड़ कर तमाशा दिखाने की. अपनी औकात के अनुसार ही जिओ तो जीवन आसान रहता है. मेरा नियम है भाभी कि जब तक जीवनमरण का प्रश्न न बन जाए, सगे भाईबहन से भी कुछ मत मांगो.’’

चुप रहे हम पतिपत्नी. क्या उत्तर देते, अपनेअपने नियम हैं. उन्हें कभी भी नहीं तोड़ना चाहिए. अप्रत्यक्ष में दीदी ने हमें भी समझा दिया था कि हम भी इसी नियम पर चलें. ऐसे नियमों से जीवन आसान हो जाता है, यह सच है क्योंकि हम पूरा का पूरा वजन अपने उस नियम पर डाल देते हैं जिसे सामने वाला चाहेअनचाहे मान भी लेता है. भई, क्या करें नियम जो है.

‘‘रवि साहब, किसी का जूठा नहीं खाते, क्या करें भई, नियम है न इन का. वैसे एक घूंट मेरे गिलास से पी लेते तो हमारा मन रह जाता.’’

‘‘अब कोई इन से पूछे कि जूठा पानी अगर रवि साहब पी लेते तो इन का मन क्यों रह जाता. इन का मन हर किसी के नियम तोड़ने को बेचैन भी क्यों है. इन का जूठा अमृत है क्या, जिसे रविजी जरूर पिएं. संभव है इन्हें खांसी हो, जुकाम हो या कोई मुंह का संक्रमण. रविजी इन का मन रखने के लिए मौत के मुंह में क्यों जाएं? सत्य है, रविजी का नियम उन्हें बीमार होने से तो बचा ही गया न.’’

मेरे एक अन्य मित्र हैं. एक दिन हम ने साथसाथ कुछ खर्च किया. उन्होंने झट से 20 रुपए लौटा दिए.

‘‘20 रुपए हों या 20 लाख रुपए मेरे लिए दोनों की कीमत एक ही है. सिर पर कर्ज नहीं रखता मैं और दोस्ती में तो बिलकुल भी नहीं. दोस्त के साथ रिश्ते साफसुथरे रहें, उस के लिए जब हिसाब करो तो पैसेपैसे का करो. अपना नियम है भई, उपहार चाहे हजारों का दो और लो, कर्ज एक पैसे का भी नहीं. यही पैसा दोस्ती में जहर घोलता है.’’

चुप रहा मैं क्योंकि उन का यह पक्का नियम मुझे भी तोड़ना नहीं चाहिए. सत्य भी यही है कि अपनी जेब से बिना वजह लुटाना भी कौन चाहता है. हमारी एक मौसी बड़ी हिसाब- किताब वाली थीं. वे रोज शाम को खर्च की डायरी लिखती थीं. बच्चे अकसर हंसने लगते. वे भी हंस देती थीं. घर में एक ही तनख्वाह आती थी. कंजूसी भी नहीं करती थीं और फुजूल- खर्ची भी नहीं. रिश्तेदारी में भी अच्छा लेनदेन करतीं. कभी बात चलती तो वे यही कहती थीं :

‘‘अपनी चादर में रहो तो क्या मजाल कि मुश्किल आए. रोना तभी पड़ता है जब इंसान नियम से न चले. जीवन में नियम का होना बहुत आवश्यक है.’’

हमारे एक बहनोई हैं. हम से दूर रहते हैं इसलिए कभीकभार ही मिलना होता है. एक बार शादी में मिले, गपशप में दीदी ने उलाहना सा दे दिया.

‘‘सब से मिलना इन्हें अच्छा ही नहीं लगता,’’ दीदी बोलीं, ‘‘गिनेचुने लोगों से ही मिलते हैं. कहते हैं कि हर कोई इस लायक नहीं जिस से मेलजोल बढ़ाया जाए.’’

‘‘ठीक ही तो कहता हूं सोम भाई, अब आप ही बताइए, बिना किसी को जांचेपरखे दोस्त बनाओगे तो वही हाल होगा न जो संजय दत्त का हुआ. दोस्तीयारी में फंस गया बेचारा. अब किसी के माथे पर लिखा है क्या कि वह चोरउचक्का है या आतंकवादी.

‘‘अपना तो नियम है भाई, हाथ सब से मिलाते चलो लेकिन दिल मिलाने से पहले हजार बार सोचो.’’

आज शाम मैं घर आया तो विचित्र ही खबर मिली. ‘‘आप ने सुना नहीं, आज सुबह कुसुम भाभी को किसी ने सराय के बाहर जख्मी कर दिया. उन के साथ 2 पड़ोसिनें और थीं. कानों के टौप्स खींच कर धक्का दे दिया. सिर फट गए. तीनों अस्पताल मेें पड़ी हैं. मैं ने कहा था न कि इतनी सुबह सैर को नहीं जाना चाहिए.’’

‘‘क्या सच?’’ अवाक् रह गया मैं.

‘‘और नहीं तो क्या. सोना ही दुश्मन बन गया. नशेड़ी होंगे कोई. गंड़ासा दिखाया और अंगूठियां उतरवा लीं. तीनों से टौप्स उतारने को कहा. तभी दूर से कोई गाड़ी आती देखी तो कानों से खींच कर ही ले गए…आप कहते थे न, अपना ही इलाका है, तुम भी जाया करो.’’

निरुत्तर हो गया मैं. मेरी नजर पत्नी के कानों पर पड़ी. सुंदर नग चमक रहे थे. उंगली में अंगूठी भी 10 हजार की तो होगी ही. अगर इस ने अपना नियम तोड़ कर मेरा कहा मान लिया होता तो इस वक्त शायद यह भी कुसुम भाभी के साथ अस्पताल में होती.

आज के परिवेश में क्या गलत और क्या सही. सुबह की सैर का नियम जहां कुसुम भाभी को मार गया, वहीं शाम की सैर का नियम मेरी पत्नी को बचा भी गया. सोना इतना महंगा हो गया है कि जानलेवा होने लगा है. सोच रहा हूं कि एक नियम मैं भी बना लूं. चाहे जो भी हो जाए पत्नी को गहने पहन कर घर से बाहर नहीं जाने दूंगा. परेशान हो गई थी पत्नी.

‘‘नकली गहने पहने तो कौन सा जान बच गई. कुसुम भाभी के टौप्स तो नकली थे. अंगूठी भी सोने की नहीं थी. उन्होंने कहा भी कि भैया, सोना नहीं पहना है.’’

‘‘तो क्या कहा उन्होंने?’’

‘‘बोले, यह देखने का हमारा काम है. ज्यादा नानुकर मत करो.’’

क्या जवाब दूं मैं. आज हम जिस हाल में जी रहे हैं उस हाल में जीना वास्तव में बहुत तंग हो गया है. खुल कर सांस कहां ले पा रहे हैं हम. जी पाएं, उस के लिए इतने नियमों का निर्माण करना पड़ेगा कि हम कहीं के रहेंगे ही नहीं. सिर्फ नियम ही होंगे जो हमें चलाएंगे, उठाएंगे और बिठाएंगे.

रात में हम दोनों पतिपत्नी अस्पताल गए. कुसुम भाभी के सिर की चोट गहरी थी. दोनों कान कटे पड़े थे. होश नहीं आया था. उन के पति परेशान थे, सीधासादा जीवन जीतेजीते यह कैसी परेशानी चली आई थी.

‘‘यह बेचारी तो सोना पहनती ही नहीं थी. पीतल भी पहनना भारी पड़ गया. अब इन हालात में इंसान जिए तो कैसे जिए, सोम भाई. कभी किसी का बुरा नहीं किया इस ने. इसी के साथ ऐसा क्यों?’’

वे मेरे गले से लग कर रोने लगे थे. मैं उन का कंधा थपथपा रहा था. उत्तर तो मेरे पास भी नहीं है. कैसे जिएं हम. जाएं तो जाएं कहां. कितना भी संभल कर चलो, कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता है कि सब धरा का धरा रह जाता है.

Interesting Hindi Stories : देवरानी के आने के बाद बदल गई राधिका की जिंदगी?

लेखिका- मीना गुप्ता

Interesting Hindi Stories : ‘‘कहींदूर जब दिन ढल जाए सांझ की दुलहन बदन चुराए…’’ गाना गुनगुनाते हुए राज बाथरूम से निकला और फिर बोला, ‘‘भाभीजी, मेरा नाश्ता… आज मुझे जल्दी जाना है.’’

‘‘क्या बात है देवरजी बड़े खुश नजर आ रहे हैं? रोज सांझ की दुलहन को याद करते हैं?’’

‘‘कुछ नहीं भाभी रेडियो पर बज रहा था न, तो यों ही दिल किया गुनगुनाने का.’’

‘‘जब कोई गीत गुनगुनाने का दिल करे तो इस का क्या मतलब होता है जानते हैं?’’

‘‘नहीं जानता,’’ राजन ने लापरवाही से कहा.

‘‘मतलब इस गीत के लफ्ज अंदर कहीं जगह बना रहे हैं. वह हर गीत जो हमारी जबान पर बारबार आता है कहीं न कहीं हमारे जज्बातों से जुड़ कर आता है.’’

‘‘ओह भाभी, आप भी… कोई नहीं है… आप यों ही…’’

‘‘कोई औफिस में देख ली क्या? मुझे धीरे से बता दीजिए. मैं आप के भैया से कह कर सब बात तय कर लूंगी.’’

‘‘नहीं है भाभी. अगर होती तो जरूर बताता.’’

‘‘सच?’’

‘‘हां भाभी, बिलकुल,’’ कह राजन ने राधिका को थोड़ा मुसकरा कर देखा और फट से बोला, ‘‘एक बात कहूं?’’

‘‘कहिए.’’

‘‘मुझे तो सांझ की दुलहन ही चाहिए.’’

‘‘देवरजी वह कैसी होती है. हम ने तो ऐसी कोई दुलहन सुनी ही नहीं.’’

‘‘बस बहुत सुंदर… ढलती शाम की तरह शांत, अपने आगोश में सारे उजाले को समेटे हुए… 2 पर्वतों के बीच डूबते सुरमई सूरज की तरह… पेड़ों की शाखाओं से झांकती किरणों की तरह, शाम को घर लौटते परिंदों की तरह और तारों भरे झिलमिल करते अंबर की तरह, जागती आंखों में सपनों की तरह, बहुत सुंदर.’’

‘‘तो आप यह क्यों नहीं कहते कि आप को किसी कविता से शादी करनी है?’’

‘‘कविता नहीं भाभी हकीकत होगी वह, हकीकत… वैसी ही हकीकत जैसे शाम अपनेआप में स्वप्निल हो कर भी एक हकीकत है. मुझे और कुछ नहीं चाहिए. कोई दहेज नहीं… कोई डिमांड नहीं.’’

‘‘तो मैं ये समझूं कि आप तलाश में हैं?’’

‘‘अभी तक ऐसी कोई नहीं.’’

‘‘तो फिर?’’

‘‘अभी तो सिर्फ बंद आंखों में झांकती है.’’

राधिका ने मजाक किया, ‘‘तो क्या कहती है? मैं भी तो सुनूं.’’

‘‘कुछ नहीं बस आती है और चली जाती है… कल शाम को आने का वादा कर के.’’

‘‘देवरजी ने सपने देखने शुरू कर दिए हैं… शुभ संकेत… बाबूजी को दे देती हूं,’’ नाश्ते की प्लेट पकड़ाते हुए राधिका मुसकराई.

राजन राधिका का देवर, बेहद भावुक और सहृदय. मन गंगा की तरह पवित्र…

सागर की गहराई भी उसे न छू सके. सब के साथ सब का हो कर रहना उस की खास पहचान. सारी कालोनी राजन भैया कह कर बुलाती और आतेजाते सभी से अनजाने ही पहचान हो जाती. कब, किस से कैसे पहचान बनी पूछने पर पता चलता कि यों ही चलते चलते.

रास्ते में कोई मिला अपनी परेशानी सुनाई और राजन भैया ने बिना जानेपहचाने कर दी मदद.

कौन था पूछने पर कहता कि जरूरतमंद था… मदद कर दी.

‘‘कब मिला था पहली बार वह तुम्हें?’’

‘‘बस यों ही चलतेचलते.’’

भाभी मजाक कर उठती, ‘‘देवरजी यों ही चलतेचलते वह नहीं मिलती?’’

‘‘वह ऐसे नहीं मिलेगी.’’

‘‘तो फिर कैसे मिलेगी?’’

‘‘उस के लिए तो आप को कोशिश करनी होगी. चलतेचलते तो बहुत मिलती हैं, लेकिन भाभी वह… वह नहीं होती.’’

राधिका और बाबूजी दोनों परेशान कि कब हां करेगा? कहता था कि शादी ही नहीं करूंगा.

बहुत दिनों बाद उस दिन उसे खुश देख कर राधिका ने यह सवाल किया कि कोई पसंद कर ली क्या?

राजन औफिस चला गया तो राधिका सोचने लगी कि कितना भोला है यह लड़का. आज के जमाने में इतना पवित्र सौंदर्य कहां मिलेगा? कैसे ढूंढें? आज शिब्बू से बात करती हूं.’’

‘‘क्या सोच रही हो?’’ अपने कमरे से बाहर आते हुए शिब्बू ने पूछा.

‘‘सोच रही हूं इतनी सुंदर कहां से लाएंगे?’’

‘‘क्या लेने जा रही हो तुम.’’

‘‘देवरजी के लिए सांझ की दुलहन.’’

‘‘क्या मजाक करती रहती हो?’’

‘‘हां अभीअभी कह कर निकले कि मुझे तो सांझ जैसी दुलहन चाहिए… वह स्वप्निल सांझ की तरह सुंदर हो… आज तुम्हारे भाई साहब भी पूरे शायर नजर आ रहे थे.’’

‘‘तो देवर किस का है?’’ शिब्बू ने राधिका की ओर तिरछी मुसकान डाल कर कहा, ‘‘चलो, कुछ बोला तो.’’

‘‘कुछ नहीं बहुत कुछ बोले.’’

‘‘तो ढूंढ़ दो न बहुत कुछ.’’

‘‘कहां से लाऊंगी ऐसी परी? नखरे भी तो उठाने पड़ेंगे उस के?’’

‘‘तो भाभी और देवर दोनों मिल कर उठाना… क्या उस ने कोई ढूंढ़ रखी है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तो फिर?’’

‘‘कल्पना में तलाश रहे हैं. कहते हैं, हकीकत होगी… और आप उसे सच करेंगी.’’

‘‘तो फिर जाओ किसी शायर के पास… कोई अच्छी सी गजल लिखवा लाओ और फिर कहना यह लो आ गई तुम्हारी दुलहन… पगला है.’’

‘‘वह तो है, मगर उन्होंने बड़ी मुश्किल से हां की है, तो कोशिश करनी ही होगी.’’

‘‘हां तो करो कोशिश. तुम जाओ सांझ की दुलहन लेने और मैं चला अपने काम पर,’’ यह शिब्बू भी निकल गया अपनी अनवरत यात्रा पर. रुकने का नाम ही नहीं लेता. जब भी बात करता ऊंचे आसमान में उड़ने की. धरती पर कदम रखना छोड़ दिया था उस ने. उड़ना है… उड़ते ही जाना है. किसी ने रोका नहीं, किसी ने टोका नहीं और शिब्बू ने अपना काम इतना फैला लिया कि अब उस के पास खुद को समेटने के लिए भी वक्त नहीं.

राधिका आसमान में उड़ते पंछी को देखती रही जो शाम को घर वापस आ जाएगा. मगर कुछ परिंदे ऐसे भी होते हैं, जो रात ढले ही लौटते हैं. शायद यह परिंदा भी रात ढले ही आएगा और अपने नीड़ में चुपचाप बिना आहट के ही सो जाएगा. राधिका दूर तक उसे जाती देखती रही.

तभी बाहर से आवाज आई, ‘‘बहू दूध आ गया है.’’

‘‘हां बाबूजी… बाबूजी आप का नाश्ता भी तैयार है.’’

नाश्ता देते राधिका ने कहा, ‘‘बाबूजी, आप से कुछ कहना है.’’

‘‘कहो बहू?’’

‘‘राजन भैया ने शादी के लिए हां कर दी है.’’

‘‘अरे वाह, कब बोला और कैसी चाहिए उसे?’’

‘‘कहता है कि लड़की सुंदर होनी चाहिए.’’

‘‘तो उस में क्या है? हमारी रिश्तेदारी में अनेक सुंदर लड़कियां हैं. वह जिसे पसंद करेगा उस से रिश्ता तय समझो. बहू तुम उधर संभालो मैं इधर संभालता हूं,’’ बाबूजी ने खनकती आवाज में कहा…

‘‘कब से इस उम्मीद में था कि दूसरी बहू आएगी और…’’

‘‘और क्या बाबूजी?’’

‘‘कुछ नहीं बहू…’’ बाबूजी बात अधूरी छोड़ कर बोले.

मगर राधिका इस ओर से भलीभांति परिचित हो चुकी थी. उस के विवाह को 5 साल हो गए थे और बाबूजी तरस रहे थे अपने आंगन के खिलौने के लिए.

‘‘अरे विश्रुतजी, लड़की को आप देखते ही रह जाएंगे… न करने का तो सवाल ही नहीं उठेगा. बस एक नजर की ही बात रहेगी,’’ दूर के एक रिश्तेदार ने कहा.

शाम को राधिका ने ससुरजी की पूरी बात सुनी. परिवार के हर सदस्य की खुशी की परवाह में जीती राधिका का मन न जाने क्यों आशंकित हो उठा कि राजन बहुत भोला है और वह लड़की होस्टल में पढ़ने वाली.

फिर रात को शिब्बू के घर आते ही राधिका ने अपनी आशंका जाहिर की.

‘‘अरे, यह जरूरी तो नहीं कि होस्टल में पढ़ने वाली हर लड़की तेज हो…, हां स्मार्ट तो होगी ही. वहां का परिवेश ही ऐसा होता है. तुम अभी से क्यों परेशान हो.’’ शिब्बू ने कहा.

राजन को कुछ बताए बिना ही बाबूजी ने आदेश दिया, ‘‘आज एक मित्र के यहां जाना है. सभी के साथ तुम्हें भी चलना होगा.’’

राजन ने बिना कुछ पूछे ही हां कह दी. राधिका मन ही मन मुसकराई कि कितना भोला है… यह भी नहीं पूछा कि जाना कहां है?

लड़की आई. सच में बेहद खूबसूरत.

राधिका ने तो देखते ही कह दिया, ‘‘देवरजी  सांझ की दुलहन यही तो थी.’’

‘‘क्या यही है वह,’’ राजन ने धीरे से पूछा और फिर मुसकरा कर अपनी सहमति दे दी.

और किसी औपचारिकता की जरूरत नहीं थी. बाबूजी ने कहा, ‘‘हमें और कुछ नहीं चाहिए… पर एक बात बहुत साफ कहना चाहूंगा कि हमारे घर में एक और बहू है… बहुत संस्कारी है… नई बहू घर की खुशी बरकरार रखे हमें बस इतना ही चाहिए. ’’

राधिका सोच रही थी कि कभी उस ने अपने हाथों से गिलास भी नहीं उठाया होगा… कमरे में उस ने खुले पैर ही प्रवेश किया. नाजुक सी एडि़यां चुपचुप झांक पड़ी… चेहरे की लालिमा उन में आ गई थी. शरीर का हर अंग जैसे नापतोल कर बनाया गया था… कहीं भी कुछ अधिक या कम नहीं. जो था अपनी जगह सही और सटीक. शायद फुरसत में नहीं एकांत में बनाई गई थी वह रचना. अंगों का बांकपन और सौंदर्य की वह पराकाष्ठा…

राधिका ने एक बार पुन: अपनी शंका सब के सामने रखनी चाही, ‘‘इतनी सुंदर… इसे हम लोग संभाल पाएंगे? घर का कामकाज कर सकेगी?’’

‘‘नहीं करेगी तो क्या हुआ हम कर लेंगे,’’ राजन ने कहा.

‘‘इस के नाजनखरे भी उठाने पड़े तो?’’

‘‘हम उठा लेंगे,’’ राजन ने कहा.

‘‘वाह यह हुई न बात… तुम क्यों एक ही बात के पीछे पड़ी हो,’’ शिब्बू ने कहा.

बाबूजी ने भी कहा, ‘‘बहू वह राजन का काम है. इस की मरजी यह जैसा चाहेगा करेगा.’’

सारे दिन की थकान से चूर राधिका ने बिस्तर थामा था. फिर भी आंखों में नींद नहीं थी. एक बात अब भी घूम रही थी कि राजन बहुत सीधा है.

शादी की तैयारी में व्यस्त राधिका को पता ही नहीं रहता कहां है और किस जगह

नहीं है? हर जगह उस का होना जरूरी. घर में आने वाले मेहमानों के इंतजाम से ले कर दूल्हेदुलहन का जोड़ा भी उसे ही तैयार करना था. उस पर क्या अच्छा लगेगा यह राजन से ही पूछा जाता. राजन सुंदरी से पूछता.

‘‘मौडर्न जमाना है,’’ बाबूजी कहते.

दुलहन का जोड़ा पसंद होने के बाद राजन ने कहा, ‘‘भाभीजी आप के लिए पसंद कर दूं या भैया से करवाएंगी?’’

‘‘आप के भाई साहब ने इस के पहले कभी पसंद किया है जो अब करेंगे?’’ कह कर राधिका मन ही मन सोचने लगी कि शिब्बू तो कभी यह भी नहीं कहता कि तुम साड़ी में अच्छी लगती हो या इस रंग में तुम खिला जाती हो… उस से कहा भी था कि बहू के कपड़े पसंद करने तुम भी चलो तो उस ने कह दिया था कि तुम ही चली जाओ. मैं नहीं जा सकता… यह मेरा काम नहीं है… अपने देवर को ले जाओ, वह पसंद कर देगा. उस की आंखें क्यों नम हो आईं. कहीं राजन भैया का उत्साह तो इस पीड़ा का कारण नहीं?

‘‘अरे भाभी, क्या सोच रही हैं?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ राधिका ने चुपके से अपनी नम कोरों को पोछते हुए कहा.

‘‘अच्छा… चलिए अब आप के लिए पसंद करते हैं… आप पर यह जरी बौर्डर वाली काली साड़ी बहुत खिलेगी.’’

‘‘नहीं देवरजी काला रंग शुभ नहीं होता.’’

‘‘ऐसा किस ने कह दिया? यह रंग तो फैशन में है,’’ और फिर राजन ने राधिका पर किसी अनुभवी की तरह साड़ी डालते हुए कहा, ‘‘अब देखिए आप कैसी लग रही हैं?’’

राधिका के गोरे बदन पर वह साड़ी खिल उठी.

दुकानदार ने कहा, ‘‘वाह क्या पसंद है?’’

राजन चिढ़ गया. उसे मालूम था कि वह अपनी चीज की प्रशंसा कर रहा है, राधिका की नहीं.

राजन ने राधिका के आंसू देख लिए थे, इसलिए बोला, ‘‘भाभी, मैं उसे बहुत प्यार दूंगा उस की आंखों से गिरा हर आंसू मेरी ही आंख में पनाह लेगा.’’

‘‘राधिका के होंठों पर दर्द भरी मुसकान तैर गई, ‘‘देवरजी, आप सच में बहुत अच्छे हैं.’’

राजन ने शौपिंग का सारा खर्च उठाते हुए कहा, ‘‘भाभी आने दो उसे वह आप की दोस्त बन कर रहेगी.’’

राधिका को उस संध्या सुंदरी से जलन हो रही थी. फिर भी वह खुश थी. घर में सारे मेहमान आ चुके थे और वह स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रही थी. आखिर देवर के लिए रानी जो ला रही है. बाबूजी का हुक्म था जब तक शादी पूरी न हो जाए शहनाई बजती रहनी चाहिए. शहनाई की धुनों में ही बहू ने घर में कदम रखा. कलश पर पैर से ठोकर दे नववधू को चावल गिराने थे और राजन को समेटने थे. उस ने चावल इतनी दूर फैला दिए कि राजन बेचारा समेटता रह गया.

राधिका ने देखा तो कहा, ‘‘देवरानीजी धीरे मारिए, देवरजी को तकलीफ होगी समेटने में. ’’

कुछ ही दिनों बाद राधिका की आशंका सही साबित होने लगी. वह तो सच में रानी थी. 10 बजे सो कर उठती तो बाबूजी से छिप कर राजन उसे चाय बना कर देता.

जब बाबूजी ने उस से कहा कि बहू राधिका की मदद

किया करो तो वह असमर्थता सी जताते हुए बोली, ‘‘मुझे नहीं आता, कैसे करूं? बिगड़ गया तो?’’

‘‘वह तो सो कर ही 10 बजे उठती है बाबूजी… रहने दीजिए,’’ राधिका ने कहा.

उस की खूबसूरती में कहीं दाग न लग जाए यह सोच कर रसोई और अन्य कामों से दूर ही रखा गया. सारे नाज भी उठाए गए.

उस के  आने के बाद राधिका ने खुद को अकेला महसूस किया था. अब राजन रसोई में खड़ा हो कर उस से बातें नहीं करता. समय नहीं था. घर के बदले माहौल को राधिका ही संभाल कर रखती. सुंदरी की गलतियों को वह सब से छिपा जाती. यह बात सुंदरी ने समझ ली थी. वह राधिका की आड़ में खेल करती, जिसे राधिका जान कर भी अनजान बन जाती ताकि घर की सुखशांति बनी रहे. धीरेधीरे समझ जाएगी. मगर सुंदरी ने हर दिन परिवार के उसूलों को तोड़ने की कोशिश की. हर दिन राजन से एक फरमाइश. आए दिन पार्टी… आए दिन सिनेमा.

बाबूजी ने एक दिन ऐतराज किया.

‘‘तो इस में बुराई क्या है… अपनी सहेलियों के साथ ही तो हूं,’’  तीखे स्वर में उस ने जवाब दिया.

‘‘ठीक है तुम राजन से पूछ लो.’’

राजन ने हां कह दी.

घर से बाहर रहने का समय बढ़ता रहा. तब बाबूजी ने कहा, ‘‘राजन, देखो इतनी छूट सही नहीं. आखिर वह घर की बहू है. घर में एक बहू और भी तो है. उस ने तो कभी ऐसा नहीं किया?’’

‘‘क्या हुआ बाबूजी? सहेलियों के साथ ही तो है… आप परेशान न होइए. मैं हूं न.’’

‘‘मगर उस के होस्टल के लड़के भी तो गए हैं,’’ बाबूजी ने कड़क आवाज में कहा.

राजन ने पहली बार बाबूजी से तर्क किया, ‘‘होस्टल में पढ़ी है… खुले विचारों की है. कैसे मना करूं? धीरेधीरे समझ जाएगी.’’

राधिका ने भी बाबूजी को समझाया, ‘‘बाबूजी, एक संतान के आते ही बंध जाएगी. बस देर आने की है.’’

घर की नववधू ने रात 9 बजे घर में कदम रखा. साथ में कौन है, बाबूजी ने खिड़की से झांक कर देखना चाहा. सुंदरी उस लड़के के हाथ में हाथ डाले थी. वहीं 2 हाथ खिलखिलाहट के साथ हवा में लहरा गए और खिलखिलाहट की आवाज माहौल में गूंज उठी.

बाबूजी का तनमन कांप उठा. उन्हें अपनी सालों की कमाई दौलत, मानमर्यादा सरेआम बिकती दिखी. झांक कर देखा कितने घरों की खिड़कियां उस दृश्य की साक्षी बनीं. खिड़कियां ही नहीं उन में रहने वाले लोग भी आवाक थे.

दूसरे दिन भी वही घटना दोहराई गई. सुंदरी को छोड़ जब वह जाने लगा तब बाबूजी ने बुला कर कहा, ‘‘बेटा क्या नाम है तुम्हारा?’’

‘‘अनुभव?’’

‘‘लगते तो भले घर के हो, अनुभव तुम सुंदरी को कब से जानते हो?’’

‘‘मैं इस के साथ पढ़ा हूं,’’ कह कर वह जाने लगा तो बाबूजी ने उसे रोकते हुए कहा, ‘‘शायद तुम्हें हमारे घर की मर्यादा नहीं मालूम. तुम्हारा रिश्ता अब सिर्फ सुंदरी से ही नहीं वरन उस के परिवार से भी है. वह तुम्हारी क्लासमेट ही नहीं है, वह किसी की पत्नी भी है और किसी घर की बहू बन चुकी है. इस तरह उस के साथ तुम्हारा आनाजाना ठीक नहीं है.’’

वह बिना कुछ बोले चला गया. सुंदरी अंदर कमरे में आ कर बिफर पड़ी, ‘‘बाबूजी को क्या हो गया है? क्यों बेवजह शोर मचा दिया… कुल की मर्यादा… कुल की मर्यादा… क्या करूं मैं कुल की मर्यादा का… सारा दिन घर में रह कर उसे पालूं? मुझ से नहीं होगा… क्या हुआ जो मेरा दोस्त मुझे घर छोड़ने आ गया?’’

राजन ने समझाया, ‘‘बात दोस्त की नहीं संस्कारों की है… मर्यादा की है. उस ने आ कर किसी से कोई परिचय नहीं करना चाहा… तुम्हें बाय कह कर जाने लगा.’’

‘‘तो क्या हुआ? राजन तुम भी…’’

धीरेधीरे उस का इस तरह आनाजाना साधारण सी बात हो गई, जिस की चर्चा भी नहीं की जाती.

हद तो तब हुई जब उस सांझ की दुलहन ने सच में रात ढले ही घर में कदम रखने शुरू किए. राजन ने सोचा कब तक बाबूजी की मर्यादा को यों सरेआम कुचलता देखूं. उस ने अलग घर ले लिया.

राजन सारा दिन औफिस में रहता और सुंदरी अपने दोस्तों के साथ. शाम को कभीकभी दोनों एकसाथ ही घर में प्रवेश करते. राजन जान चुका था कि कुछ कहना बेकार है. ऐसा नहीं कि उस ने उस की गलतियों को नजरअंदाज किया. वह जान कर भी अनजान बन जाता था, शायद खुद समझ जाए… उस की हर गलती पर खुद परदा डाल उसे सुधरने का मौका देता.

एक बार तो उस की आंखों के सामने ही सारा खेल हुआ. वह देखता रहा. बस इतना कह सका, ‘‘तुम्हें इस से क्या मिलता है?’’

‘‘वही जो तुम से नहीं मिलता… वह मेरा प्यार है… पहला प्यार…’’

‘‘मुझ से क्या नहीं मिला? तुम जिसे मिलना समझती हो वह मेरे परिवार की मर्यादाओं के खिलाफ है… अगर वह तुम्हारा प्यार है तो तुम ने मुझ से शादी क्यों की?’’

‘‘पापा ने कहा, शादी कर लो… हमारे घर से चली जाओ… फिर जैसी मरजी हो करना.’’

‘‘और तुम अपनी मरजी के कोड़े मुझ पर बरसा रही हो,’’ पहली बार चीखा राजन.

‘‘हां, क्योंकि तुम से मुझे बांधा गया है.’’

‘‘और तुम बंध नहीं सकीं… यही न?’’

‘‘तो अब तक तुम ने हमें धोखे में रखा था… क्या कमी रखी मैं ने तुम्हें खुश रखने में? सपनों की मलिका बना कर लाया था तुम्हें… सब से अलग भी कर लाया… किनारा कर लिया अपने घर से, अपने परिवार से. फिर भी तुम्हें नहीं जीत सका, शायद कमी मेरी ही थी कि मैं ने तुम्हें बहुत चाहा और यह नहीं जानना चाहा कि तुम्हें मेरी कितनी जरूरत है.’’

‘‘हां, मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं… मैं तुम्हारे साथ तुम्हारी नहीं अपनी मरजी और शर्तों पर रह सकती हूं… तुम से पहले मेरे लिए अनुभव… मैं उस के बिना अपने एक पल की भी कल्पना नहीं कर सकती,’’ वह जोरजोर से चिल्ला रही थी.

राजन फिर भी नहीं हारा था. कई बार घर नहीं जाता. राधिका के पास चला जाता.

मगर सुंदरी यह भी जानने की कोशिश नहीं करती कि वह कहां है? उस दिन भी वह औफिस से सीधा राधिका के पास गया और फफक पड़ा.

‘‘क्या हुआ देवरजी?’’

‘‘उस ने सारी बात बता दी फिर बोला, भाभी अब आप ही कोई रास्ता निकालो.’’

‘‘क्या रास्ता निकालें देवरजी? मरजी आप की थी… हम लोग तो सिर्फ माध्यम बने थे आप की इच्छाओं के चलते… और मेरी आशंकाओं पर सभी ने आपत्ति जताई थी कि राजन सब संभाल लेगा.’’

‘‘हां भाभी, गलती मेरी थी. मेरी कल्पना सुंदर थी तो कोमल भी थी… इसलिए जल्दी टूट गई… वह तो बहुत कठोर है… जिस कल्पना सुंदरी को मैं हकीकत बना कर ला रहा हूं वह ऐसी होगी कि मेरी कल्पनाओं को ही निगल जाएगी, ऐसा तो मैं ने सोचा ही नहीं था. अगर कल्पना करना गुनाह था तो मेरा जुर्म सच में बहुत बड़ा है और मुझे उस की सजा मिल रही है. मेरी आंखों के सामने ही सब कुछ हो रहा है और मैं तमाशबीन बना हुआ हूं. उस के हर गुनाह का मैं एक ऐसा चश्मदीद गवाह हूं जिसे किसी भी अदालत में जा कर यह कहने की हिम्मत नहीं है कि मेरे घर में गुनाह पल रहा है. अब तो स्थिति यह है कि वे दोनों मेरे कमरे से लगी दीवार के पीछे होते हैं… मैं दीवारों के पार के दृश्य की कल्पना से कांप जाता हूं.’’

‘‘तो क्या आप यों ही देखते रहेंगे?’’

‘‘नहीं भाभी. मगर मैं करूं भी तो क्या?’’

‘‘बाहर करो देवरजी… जब घर की इज्जत खुद ही बाजार में बैठ जाए तो फिर उसे घर में रखना ठीक नहीं… उसे बिकना मंजूर है… आप क्या कर सकते हैं? मर्यादा की खातिर ही आप घर छोड़ कर गए थे कि लोगों की नजरों से दूर रहने पर बिगड़ी बात बन जाएगी, लेकिन…. मेरा कहा मानो तलाक ले लो.’’

‘‘लेकिन भाभी…’’

‘‘कोई लेकिनवेकिन नहीं… जब जिंदगी तुम से इतनी कुरबानियों के बाद भी खुश नहीं तो बेहतर है ऐसी जिंदगी से किनारा कर लो… आज तुम्हारे पास एक अच्छी नौकरी है, बंगला है, गाड़ी है सब कुछ है, तो फिर क्यों उस अप्सरा के पीछे भाग रहे हो? वह तुम्हारी नहीं… फिर उस ने खुद ही कह दिया है… खुद को कमजोर मत साबित करो देवरजी. रास्ते अनेक हैं, जिस मोड़ पर तुम खड़े हो उस से अनेक रास्ते जा रहे हैं और वह रास्ता भी जिस से तुम चले थे. अब एक ऐसी राह लो जहां से बीती गलियां नजर ही न आएं… छोड़ दो देवरजी उसे… छोड़ दो… अप्सरा किसी की नहीं होती… सब की हो कर भी किसी की नहीं हो पाती.’’

राजन फूटफूट कर रो पड़ा था. राधिका रो तो न सकी, मगर उस के लिए रास्ते की तलाश में जरूर निकल पड़ी.

आज वह निर्णय कर के रहेगा. इस हिम्मत के साथ वह घर में घुसा और जोर से दरवाजा पीटने लगा. दरवाजा सुंदरी ने खोला, ‘‘क्या हुआ? इतनी जोर से दरवाजा क्यों पीट रहे हो?’’

‘‘अब यह यहां नहीं होगा… मेरे घर में यह खेल अब नहीं होगा…’’

‘‘कौन सा नया पाठ पढ़ कर आए हो? यह कौन सी नई बात है?’’

सुंदरी को किनारे धकेलते हुए वह अंदर घुसा और अनुभव की कौलर पकड़ कर उसे घर से बाहर कर दिया.

सुंदरी पागलों की तरह चीखती रही. आज वह जान चुकी थी कि उसे अब किसी एक को थामना होगा. शाम को जब राजन घर आया तो वह जा चुकी थी. अपने प्रेमी अनुभव के साथ. घर में अब सिर्फ वह था और उस की रोतीसिसकती कामनाएं. कल्पनाएं, जिन्हें वह शाम तक बटोरता रहा.

तलाक के वक्त कोर्ट में इतना ही कह सका था, ‘‘मैं इस के लायक नहीं. यह जिसे चाहती है उस के साथ इसे रहने और जीने का पूरा हक है… यह हक इस के मांबाप नहीं दे सके, मगर मैं देता हूं… यह आजाद है.’’

तलाक हुए काफी अरसा हो गया था. राधिका ने कई बार देवर का मन टटोला, जानना चाहा कि वहां अब क्या चल रहा है. राजन कभीकभी कह भी देता, ‘‘भाभी अब नहीं…’’

कल्पना का कटुसत्य जिंदगी में जो कड़वाहट पैदा कर गया था उसे वह भूल नहीं पा रहा था. उस दर्द को भुलाने का एक ही रास्ता था, जो राधिका ने बताया.

‘‘देवरजी दूसरी शादी करिए और अपनी गृहस्थी बसाइए… वह तो अपनी जिंदगी मजे से जी रही है. फिर आप ने ऐसी जिंदगी क्यों अपना ली?’’

‘‘जिंदगी को मैं ने नहीं जिंदगी ने मुझे कुबूल किया है… उसे मैं इसी रूप में अच्छा लगता हूं.’’

‘‘ऐसा नहीं… आप जिसे जिंदगी कह रहे हैं वह ओढ़ी हुई जिंदगी है और यह आप ने सुंदरी के जाने के बाद ओढ़ी है. इसे उतार फेंकने की कोशिश ही नहीं की आप ने… जिस लाश को आप ढो रहे हैं उस से बदबू पैदा हो रही है… उतार फेंको उसे वरना उस की गंध आसपास फैल कर आप को सब से दूर कर देगी… अभी मौका है नई जिंदगी की शुरुआत करने का.’’

राधिका भाभी के लफ्ज उस के जेहन में रात भर गूंजते रहे. राजन सुंदरी को मन से निकाल नहीं पाया था. दूसरी का खयाल कैसे करे? वह सोच में पड़ गया कि क्या भाभी की बात मान कर दूसरी शादी कर ले… नहीं, नहीं, कहीं वह भी. वह भी ऐसी ही निकली तो? लेकिन भाभी ने जो कहा क्या वह सच है? वह सब से दूर जा रहा है? कितनी कातर दृष्टि से भाभी ने मुझे निहारा था और कहा था कि आप की खुशियों की खातिर हम ने सारे समझौते किए थे, लेकिन अब इस बार हमारी मरजी से फैसला लें… ऐसी लाएं जो समझदार हो, शालीन हो. क्या भाभी की तरह कोई मिल सकती है?

राजन ने अलसाई आंखों में ही सवेरा देखा और फिर अपने उजड़े घर पर ताला डाल कर घर पहुंच गया.

राधिका भाभी उस समय बाबूजी को सुबह की चाय दे रही थी. राजन को इतनी सुबह आता देख शंका से भर उठीं, ‘‘क्या हुआ देवरजी… आज इतनी सुबह?’’

‘‘हां भाभी, बहुत दिनों से सुबह की चाय आप के साथ नहीं पी न, इसलिए चला आया. छुट्टी है आज… सोचा थोड़ी देर बाबूजी से भी बातें हो जाएंगी.’’

राधिका ने राजन को बहुत दिनों बाद बदला पाया. पहले जब भी आता परेशान सा रहता. चाय का एक कप उसे पकड़ाया और खुद भी पास रखी कुरसी को और पास ला कर बैठ गईं. बोलीं, ‘‘चलिए अच्छा है… मैं आप को कई दिनों से याद कर रही थी.’’

बाबूजी ने भी कहा, ‘‘चलो अच्छा है… वैसे भी अब तुम उस घर में अकेले रह कर क्या करोगे. आ जाओ यहीं शिब्बू भी अकसर बाहर ही रहता है… राधिका अकेली बोर होती है.’

‘‘नहीं बाबूजी, मैं उस सुंदरी के कारण आप को बहुत चोट पहुंचा चुका हूं… मुझे सजा मिलनी ही चाहिए.’’

‘‘नहीं देवरजी, आप अपनी मरजी से नहीं गए थे… आप को उस की मरजी की खातिर जाना पड़ा था, जिसे आप बेहद प्यार करते थे और बेहतर भी यही था… लेकिन इस घर के दरवाजे आप के लिए खुले हैं… बाबूजी हमेशा रोते और कहते हैं कि मेरा राजन अपनी खातिर नहीं, अपनी मरजी से नहीं उस चुड़ैल की खातिर गया है… वह मेरे बेटे को खा जाएगी बहू. उसे बचा लो,’’ कहते हुए राधिका की आंखें भर आईं.

राजन प्रायश्चित की मुद्रा में जड़ हो चुका था. लड़खड़ाती जबान से यही कह सका, ‘‘भाभी, आप और बाबूजी जैसा चाहें मुझे मंजूर है.’’

राजन के इस निर्णय से राधिका और बाबूजी दोनों खुश हुए. बाबूजी ने सारे

रिश्तेदारों में खबर पहुंचा दी कि राजन ने दूसरी शादी के लिए हां कर दी है.

कई रिश्ते आए. राधिका और बाबूजी ने इस बार किसी भी धोखे की गुंजाइश नहीं रखनी चाही. लड़़की की समझदारी पर अनेक प्रश्न किए जाते और घर आ कर बाबूजी और राधिका घंटों चर्चा करते कि नहीं यह भी समझ में नहीं आ रही. होस्टल वाली तो बिलकुल नहीं चलेगी. घरेलू हो, कुलीन हो… कम पढ़ीलिखी भी चलेगी, लेकिन सलीके वाली हो.

काफी कोशिश के बाद जिस लड़की से रिश्ता तय हुआ वह बेहद पिछड़े इलाके से और गरीब घर की थी और 10वीं कक्षा पास. देखने में साधारण. बात तय कर के आ गए. राजन की हां भर चाहिए थी जो उस ने दे दी.

शादी की तारीख तय हुई. राधिका ने राजन से मजाक किया, ‘‘चलिए, अपनी दुलहन का जोड़ा पसंद कर लीजिए.’’

राजन उदास स्वर में बोला, ‘‘भाभी, आप  ही पसंद कर लीजिए… जोड़ी भी आप ही बना रही हैं… पहनावा भी आप ही तय कर लीजिए.’’

इस बार 24 घंटे वाली शहनाई नहीं बजी. बहू ने घर की चौखट पर कदम रखे. चावल का कलश फिर तैयार था. राजन की आंखें भर आईं, सुंदरी की याद में. नई बहू का पैर कलश पर था. उस ने बहुत समझदारी से चावल गिराए. राजन ने समेटे फिर फैलाए फिर समेटे. भाभी मुसकरा रही थीं.

नई बहू ने बहुत दिनों तक सब का दिल जीतना चाहा. समय पर उठ कर घर के काम में राधिका का हाथ भी बंटाती. बाबूजी का भी खयाल रखती.

राजन तो अपने सारे काम खुद कर लेता. इस बार वह बेहद सतर्क था, ‘‘जो भी पूछना हो भाभी से पूछो अनु. वे ही बता सकती हैं.’’

नई बहू की समझदारी थी या पुरानी वाली की कटु यादें बाबूजी और घर के बाकी लोग सभी अनु से खुश थे. उस ने घर में अपनी जगह बना ली थी. राजन पर भी उस ने धीरेधीरे अधिकार कर लिया.

घर की कुछ जिम्मेदारियों को राधिका ने अनु को सौंपने की सोची. फिर एक दिन तिजोरी खोलते हुए कहा, ‘‘राधिका, यह सब तुम्हारा है… इसे संभालो.’’

‘‘अभी बहू नई है. इतनी समझदार नहीं है… कुछ समय दो,’’ बाबूजी ने झिझकते हुए कहा ताकि कहीं राजन को बुरा न लगे.

‘‘जिम्मेदारी ही तो समझदार बनाएगी. फिर मैं भी तो जब इस घर में आई थी तो नई ही थी और अकेली भी… सब संभाला था,’’ यह सुन कर बाबूजी खुश हो उठे.

अपनी भाभी राधिका से, जिन की राजन बहुत इज्जत करता था, एक दिन अपने मन की बात कहते हुए स्वप्न सुंदरी से शादी करने की बात कह दी. भाभी राधिका परेशान थीं कि कहां और कैसे देवर राजन की शादी इतनी खूबसूरत लड़की से कराई जाए.

तब दूर की एक रिश्तेदारी में जिस स्वप्न सुंदरी की तलाश थी वह मिल गई. मगर जब शादी हो कर वह घर आई तो घर का अच्छाभला माहौल बिगड़ने लगा, जबकि राजन इस ओर से अनजान था. सुंदरी काफी खुले विचारों वाली थी.

कुछ दिनों बाद सुंदरी ने बताया कि उस की शादी राजन से जबरदस्ती उस के घर वालों ने करा दी, लेकिन वह शुरू से ही किसी और को चाहती है.

अब वह यदाकदा अपने प्रेमी को घर पर भी बुलाने लगी. अंतत: आपसी रजामंदी से दोनों ने तलाक ले लिया.

राजन अब दोबारा शादी नहीं करना चाहता था. पर भाभी और अन्य लोगों के दबाव के आगे उसे झुकना पड़ा और उस ने शादी करने की रजामंदी दे दी. राजन की शादी बेहद साधारण और कम पढ़ीलिखी लड़की के साथ हुई. नई बहू ने राजन का घर भी जल्द संभाल लिया. घर के लोग भी उस से खुश थे.

राजन दूसरी शादी से बहुत खुश था. पहली बार उस ने अनु को उस नजर से देखा था जिस नजर से सुंदरी को देखा करता था. आज वह उसे वह प्यार दे सकेगा, जो सुंदरी को देने चला था. मगर उस ने उस की कीमत नहीं समझी थी.

रात राजन और अनु की थी. राधिका तो माध्यम बनी थी, जो इस वक्त दोनों की हंसी से गूंज रहे माहौल में खुद को हलका महसूस कर रही थी.

सुबह उठ कर राधिका ने ही चाय बनाई और दरवाजे पर रख कर बोली, ‘‘आप लोगों की चाय आप को बुला रही है.’’

अनु ने चाय सर्व करते हुए कहा, ‘‘सुनो, आज मुझे थोड़ी शौपिंग करनी है. तुम चलोगे?’’

‘‘हां, क्यों नही?’’

अनु तैयार हो कर राधिका से कह कर शौपिंग के लिए निकल गई. राधिका खुश थी.

जब अनु और राजन घर लौटे राधिका रात के खाने पर दोनों का इंतजार कर रही थी. खाना खा कर दोनों अपने कमरे में, बाबूजी अपने कमरे में, राधिका अपने कमरे में. राधिका जाग रही थी. शिब्बू बिजनैस के सिलसिले में बाहर था. उसे नींद नहीं आ रही थी.

8 साल हो गए थे शादी को. उसे कोईर् संतान नहीं थी. वह इस अकेलेपन को अकसर जाग कर काट लिया करती थी. डाक्टर ने कहा था कोई संभावना नहीं है. फिलहाल बहू में कोई कमी नहीं. राधिका उस की भरपाई में शिब्बू और बाबूजी को खुश करने में लगी रहती. शिब्बू को इस बात का अफसोस नहीं था. मगर वह इस अफसोस में अकसर खिलौनों और गुड्डों से बातें करती रहती और इस प्रकार अपने मातृत्व की पूर्ति करती. तभी किचने से आवाज आई. राधिका ने देखना चाहा क्या हुआ. शायद बिल्ली होगी. लेकिन घर में बिल्ली के आने का कोई रास्ता नहीं था. बाहर आ कर देखा राजन के कमरे से लगी छत का दरवाजा खुला था.

‘तो क्या देवरजी दरवाजा खोल कर सो गए?’ सोच राधिका ने टौर्च की रोशनी से देखना चाहा.

छत पर उसे बात करने की आवाज सुनाई दी. सोचने लगी इतनी रात गए कौन हो सकता है. लगता है दोनों अभी तक जाग रहे हैं. फिर मन ही मन मुसकराई और तसल्ली के लिए पूछा, ‘‘छत पर कौन है?’’

‘‘मैं हूं भाभीजी अनु… लाइट चली गई थी न, तो गरमी के कारण छत पर आ गई.’’

‘‘ठीक है. मगर दरवाजा बंद कर के सोया करो… किचन में बिल्ली आ गई थी.’’

‘‘ठीक है भाभीजी, आप सो जाइए मैं देख लेती हूं किचन में कौन है… चूहा भी हो सकता है… आप सोई नहीं अभी तक?

‘‘नहीं. नींद नहीं आ रही है.’’

‘‘जाइए, अब सो जाइए.’’

राधिका ने बेचैनी से टहलते हुए बाबूजी के कमरे में झांक कर देखा. वे सो रहे थे.

सभी इतमीनान में हैं, फिर वह क्यों परेशान है? इस बेचैनी का कारण क्या है? शिब्बू का न होना या उस का निस्संतान होना या फिर कुछ और?

देर रात तक जागने पर भी भोर में ही राधिका की नींद खुल गई. देखा राजन का कमरा खुला था. लगता है राजन आज जल्दी उठ गया. अनु को आवाज देती हूं, बाबूजी को चाय दे देगी. आज तबीयत भारी हो रही है. रात भर नींद नहीं आई.

नीचे से ही आवाज दी, ‘‘अनु, नीचे आ जाओ. बाबूजी को चाय दे दो.’’

राजन बाहर आते हुए बोला, ‘‘भाभी, अनु यहां नहीं है. नीचे चली गई है.’’

राधिका ने फिर आवाज दी, ‘‘अनु कहां हो?’’ मगर उस के कहीं भी होने की आहट सुनाई नहीं दी. शायद बाथरूम में होगी. लेकिन वहां तो बाबूजी हैं. फिर कहां होगी? किचन में जा कर देखा वहां भी नहीं. शायद बाहर बगीचे में होगी. वहां भी नहीं. आखिर इतनी सुबह कहां जाएगी?

राधिका ने आवाज दी, ‘‘देवरजी देवरानी को नीचे भेज दो, मजाक मत करो.’’

‘‘भाभीजी मैं मजाक नहीं कर रहा. सच में अनु यहां नहीं है.’’

‘‘नहीं है?’’

बाबूजी बाथरूम से निकले तो बोले,

‘‘अरे बहू, आज तुम घर का दरवाजा बंद करना भूल गईं?’’

‘‘क्या घर का दरवाजा… छत का दरवाजा… अनु घर में नहीं है बाबूजी… यह सब क्या है? देवरजी, अनु घर पर नहीं है.’’

‘‘क्या तुम दोनों के बीच रात में कोई झगड़ा हुआ है?’’

‘‘नहीं.’’

कमरे में जा कर देखा तो अनु का सामान भी नहीं था. घर की तिजोरी भी खुली और खाली थी.

बहू घर छोड़ कर जा चुकी थी… ज्यादा ही समझदार निकली.

राधिका को रात की बिल्ली… छत का खुला दरवाजा… अनु का आश्वासन… सब कुछ बिजली की तरह कौंध गया. वह चकरा गई. बोली, ‘‘देवरजी, यह तो बहुत समझदार निकली.’’

राजन जो अब तक सब समझ चुका था, सिर थामे बैठा था.

देर तक घर में फैली खामोशी को कौन तोड़ता? किस में हिम्मत थी? भाभी में जिस ने राजन को दूसरी शादी के लिए प्रेरित किया था या बाबूजी में, जिन्होंने उस की समझदारी पर अनेक प्रश्न किए थे या फिर राजन जिस ने दोनों के निर्णय पर बंद आंखों से अपनी सहमति का अंगूठा लगा दिया था? कौन था समझदार? राधिका जिस ने राजन की गृहस्थी फिर से बसानी चाही, बाबूजी जो अपने आंगन में खेलताकूदता छोटा राजन चाहते थे या फिर राजन जिस के स्वभाव की सरलता ने अनु की बढ़ी समझदारी का कारण नहीं समझना चाहा. शायद इन तीनों से ज्यादा समझदार वह थी जिस ने तीनों की समझदारी पर पानी फेर दिया… सब कुछ ले गई… कुछ नहीं बचा.

रात में फोन आया, ‘‘मैं दूसरा विवाह करने जा रही हूं. उस दमघोंटू माहौल में मैं नहीं रह सकती थी और नई जिंदगी की शुरुआत के लिए पैसा तो चाहिए था सो मैं ले आई. मुझे ढूंढ़ने की कोशिश मत कीजिएगा. आखिर मैं आप के घर की बहू थी.

बाबूजी को काटो तो खून नहीं. राधिका भी जड़वत कि यह सब क्या हुआ? हमारे साथ इतना बड़ा धोखा? यह नजरों का धोखा था या फिर हमारी समझदारी का?

राजन दोनों के बीच मूकदर्शक था. भाभी क्या कहती हैं या बाबूजी क्या कहते हैं उस ने नहीं सुना. उसे लगा उस ने गलत सपना फिर देख लिया. हर बार रो कर चुप होना और फिर रोना. पहले सुंदरी के सौंदर्य ने धोखा दिया. इस बार समझदारी के बड़े भ्रम ने धोखा दिया. धोखा… धोखा… धोखा… कब तक? वह टूट चुका था. घर आने में भी उसे हिचक होती. उसे देखते ही राधिका हिचक जाती. सब एकदूसरे से नजर यों चुराते जैसे वे एकदूसरे के गुनहगार हैं और जिन की सजा यही है कि खुद को एकदूसरे से अलग कर लें. कहीं गुनाह का परदाफाश न हो जाए और ठीकरा किसी एक के सिर फोड़ दिया जाए.

इस बार बाबूजी का चोटिल सम्मान रहरह कर चटक उठता. समाज में उठनेबैठने और तन कर चल सकने की सारी हिम्मत जाती रही. रिश्तेदारी में जहां जाओ एक ही चर्चा. बहू क्यों चली गई? जरूर इस परिवार में ही कोई कमी है, जो दूसरी भी छोड़ कर चली गई. अनेक इलजाम जमाने ने लगाए. खुद को इतना छोटा महसूस करते कि जिस टोपी को उन्होंने कभी नहीं भुलाया था उसे लगाना भी उन्हें याद नहीं रहता. वे बिना टोपी के ही निकल जाते. राधिका याद दिलाती, ‘‘बाबूजी, टोपी…’’

विश्रुतिजी निरुत्साहित से उसे पकड़ते, मगर टोपी लगा कर खुद को निहारने का दुस्साहस अब नहीं करते.

इधर समय की कमी ने शिब्बू और राधिका के बीच जो रिक्तता पैदा की थी उस

जगह अब एक लंबी दीवार खड़ी हो रही थी. अकसर वह बिजनैस के सिलसिले में देर रात तक बाहर होता और जब आता थकान से चूर होता. उस थकान के बीच राधिका उस की जिंदगी में अगर कुछ भरना चाहती तो वह यह कह कर सो जाता, ‘‘राधिका, मैं थक गया हूं, तुम से कल बात करता हूं.’’ और कल थकान बेहिसाब बढ़ी होती. राधिका पास जाने की हिम्मत भी न जुटा पाती.

वह उस टूटी नाव की पतवार थामे चल रही थी, जिस पर अनजाने, अनचाहे अनेक गड्ढे बन चुके थे, जिन्हें पाटते उस की उम्र बीत रही थी.

बाबूजी अपने आहत सम्मान और दम तोड़ती इच्छाओं के बीच खुद को अकेला पाते और सब से अलग रहने के प्रयास में अपने कमरे से बाहर नहीं आते.

राजन अपनी खिड़की में ढलती शाम से ले कर ढलती रात तक न जाने किस का इंतजार करता. उसे घर में क्या चल रहा है, पता भी नहीं रहता. राधिका घर में फैली इस खामोशी में कभी खुद को ढूंढ़ती तो कभी खुद को भुला देती तो कभी राजन और बाबूजी की खामोशी को तोड़ने की हिम्मत करती. कभीकभी उन 4 आंखों में तलाश करती कि वह कहां है?

क्या बाबूजी की इस हिदायत में कि बहू तुम मेरी नहीं इस घर की बहू हो और इस घर को जो तुम दोगी वही पाओगी या फिर शिब्बू की उन हिदायतों में जब वह राधिका के हाथों में रुपयों से भरा बैग थमाते हुए कहता, ‘‘यह घर तुम्हारा है जैसा चाहो चलाओ. मैं कभी नहीं पूछूंगा. मगर इस की खुशियों की परवाह तुम्हें ही करनी होगी.’’

कागज के टुकड़ों को देख सोचती, ‘काश, मैं इन से इस घर की सारी खुशियां, बाबूजी का खोया सम्मान, उन के कुल के दीपक राजन भैया की उजड़ी गृहस्थी सब खरीद सकती. शिब्बू जिसे खुशी कहता है क्या उसी खुशी की तलाश है सभी को? शायद नहीं. मैं कब तक इन कागज के टुकड़ों को संभालती रहूंगी? ये मुझे चिढ़ाते से नजर आते हैं.

उस ने जब भी कुछ मांगा अपने बाबूजी और भाईर् की खुशी. कभी उस ने पूछा कि राधिका इन पैसों से तुम्हारी खुशी मिल सकेगी? रात का अकेलापन और जिंदगी का सूनापन अकसर उसे डसने लगता. शिब्बू तो बस आगे बढ़ने की धुन में बढ़ता जा रहा है. इस बढ़ने में उस के अपने पीछे छूट रहे हैं, उस ने भूल से भी यह नहीं सोचा. मुड़ कर ही नहीं देखना चाहा. कोई आवाज दे भी तो कैसे? वह तो ऐसी मंजिल को थामे चल रहा था, जिस के छूट जाने से वह बिखर जाता. महत्त्वाकांक्षा में वह भूल गया कि वह एक बेटा भी है, भाई भी है और एक पति भी है.

राजन भी अपनी तनख्वाह भाभी को देते हुए कहता, ‘‘भाभी, अब आप संभालो इसे भी. मैं नहीं संभाल सकता… क्या करूंगा मैं इस का?’’

‘‘और कितनी जिम्मेदारियों के बोझ तले मुझे दबना पड़ेगा? क्या इन कागज के टुकड़ों से घर की रौनक और खुशियां मैं ला सकूंगी? फिर मैं इन का क्या करूं? इन कागज के टुकड़ों में दबी कामनाएं दम तोड़ रही हैं देवरजी. मैं इन से बेजार सी हो रही हूं… अब और नहीं.’’

राधिका बोले जा रही थी और राजन सुनता जा रहा है. आज भाभी को उस ने पहली बार ऊबता महसूस किया था. उन की बातों में सदियों की तलखी थी. यह तलखी शायद हम से थी? नहीं तो फिर जिंदगी से? कब तक झेलेंगी? कौन है जिस से वे अपनी बात कहतीं? सोचता हुआ राजन राधिका के कमरे के सामने से गुजरा तो उसे सिसकने की आवाजें आईं. उस ने बाहर से ही आवाज दी, ‘‘भाभी…’’

‘‘हां, आती हूं,’’ कहते हुए बाहर आने का प्रयास किया मगर राजन उस से पहले ही अंदर पहुंच चुका था. पहली बार इस कमरे में आया था वह. भाभी का कमरा अपनी व्यवस्था से अव्यवस्थित सा लग रहा था. कांच का एक बड़ा सा शोकेस तरहतरह की गुडि़यों और गुड्डों से भरा था. बगल की ड्रैसिंगटेबल पर एक खूबसूरत परदा जो शायद ही कभी उठाया जाता होगा.

बिस्तर की चादर ठीक करते हुए राधिका बोली, ‘‘आइए देवरजी, आज कैसे इधर भटक गए?’’

‘‘यों ही भाभी… दिल किया आ गया.’’ तभी बिस्तर के सिरहाने रखी जापानी गुडि़या बोल पड़ी कि मम्मा, आई लव यू. राधिका ने उसे चुप कराया.

राजन ने कहा, ‘‘बोलने दीजिए अच्छा लग रहा है… भाभी एक बात पूछूं?’’

‘‘हां क्या पूछेंगे पूछिए. वैसे आप जो जानना चाहते हैं वह मुझे मालूम है. देवरजी, इस घर से खुशियों ने हमेशा के लिए मुंह फेर लिया है…

घर अब घर नहीं एक सरायखाना लगता है, जिस में सभी रह तो रहे हैं, मगर अजनबियों की तरह… कौन कब रोया, कब हंसा, किसे मालूम? किस की रात आंसुओं से भीगती रही या किस की शाम आंखों को धुंधला कर गई, किस ने जानना चाहा?’’

‘‘तो शिब्बू भैया…?’’ बेचैनी ने उसे वहां रुकने न दिया.

देर तक भाभी के आंसुओं में भीगे लफ्ज उस के जेहन में गूंजते रहे… मैं भी हूं इस घर

में. यह किसे पता है… सब अपने में गुम… मैं ने क्या पाया… कौन है मेरा… किसे फुरसत है मेरी खातिर?

शाम ढल रही थी, फिर भी राजन ने आज खिड़की नहीं खोली, न ही शाम ने खिड़की से दस्तक दी. बारबार राधिका का कुम्हलाया चेहरा याद आ रहा था कि उम्र में मुझ से सिर्फ 2 माह ही बड़ी हैं, मगर जिम्मेदारियों के बोझ ने उन्हें समय से पहले ही बहुत बड़ा कर दिया. बड़प्पन के एहसास तले उन्होंने खुद को भुला दिया और घर के 3-3 बड़े बच्चों को संभालती रहीं.

बाबूजी कमरे से बाहर नहीं आए थे. अब अकसर वे शाम के धुंधलके में ही घर से निकलते थे. राधिका ने शाम की रसोई शुरू कर दी.

बाबूजी घूम कर आए. बोले, ‘‘बहू खाना दे दो. जल्दी सो जाऊंगा,’’ और फिर खाना खा कर अपने कमरे में चले गए.

राधिका ने रसोई समेटी. किचन का दरवाजा बंद किया. जैसे ही अपने कमरे में जाना चाहा देखा राजन छत पर है. आवाज दी, ‘‘देवरजी.’’

कोई जवाब नहीं मिला… खुद जा कर देखना चाहा. राजन अपनी ही परछाईं के साथ आंखमिचौली कर रहा था. छत में फैली चांदनी सारी चीजों को स्पष्ट कर रही थी. फिर भी न जाने क्यों राजन कुछ ढूंढ़ता सा नजर आ रहा था.

‘‘क्या खो गया?’’ राधिका ने आज बहुत दिनों बाद छत पर कदम रखे थे. कभीकभी अनु के साथ आया करती थी.

अचानक भाभी को छत पर आया देख राजन बोला, ‘‘अरे भाभी आप? कुछ नहीं यों ही मेरी अंगूठी कहीं गिर गई है.’’

‘‘यहीं कहीं होगी,’’ कह राधिका ने छत से घर के अंदर जा रही सीढि़यों की तरफ झांकने का प्रयास किया. 2-3 सीढि़यां नीचे उतर कर देखा तो अंगूठी दिखाई दे गई. बोलीं, ‘‘देखिए देवरजी मिल गई.’’

‘‘अरे मैं कब से खोज रहा था. मिल ही नहीं रही थी.’’

‘‘पकडि़ए,’’ राधिका ने वहीं से देनी चाही. मगर उस का पैर डगमगा गया. चांदनी रात का उजाला सीढि़यों के अंधेरे को मिटा न सका था और राधिका उस अंधेरे से भिड़ने की कोशिश में डगमगा गई.

राजन भी तो राधिका को सीधे हाथ नहीं थाम सका उलटा हाथ पकड़ाया. संभल नहीं सका… लड़खड़ा गया. दूधिया चांदनी में राधिका के उजले चेहरे पर खुदी उदासी की गहरी रेखाएं भर आईं… सूखे और बिखरे बालों के बीच से झांकती आंखों का सूनापन महक उठा… बदन में वर्षों की सोई लचक जाग गई…

राजन ने देखा क्या ये वही राधिका भाभी हैं जिन्हें वर्षों से सिर्फ औरों के लिए खुश रहते देखा. आज पहली बार उन महकी आंखों में उन की ही खुशी तैरती दिखाई दी… इतना आवेग और इतना आकर्षण राधिका के सान्निध्य में? वह संभाल न सका था उस रूप को. राधिका के उस लड़खड़ा कर गिरने में सारा समर्पण समा गया और सारे आकाश ने उस समर्पण को अपनी बांहों में भर लिया कभी न छोड़ने के लिए और बोल पड़ा, ‘‘इन आंखों की खुशी मैं कभी सूखने नहीं दूंगा. परिवार की सारी खुशियां इन में भर दूंगा… यह मेरा वादा है… आखिर भैया को भी परिवार की खुशियां ही तो अजीज हैं.’’

तभी अचानक दरवाजे पर किसी ने आवाज दी, ‘‘भाभी,’’

‘‘अरे, यह तो सुंदरी की आवाज लग रही है.’’

‘‘मैं सुंदरी हूं. दरवाजा खोलिए,’’ फिर आवाज आई.

‘‘यह क्या, आज तो राजन ने खिड़की भी नहीं खोली फिर कौन सी सुंदरी आ गई…’’ सुंदरी यानी? राजन की पहली… नहींनहीं… अब नहीं.

बाबूजी ने कह दिया कि अब किसी सुंदरी की जगह हमारे यहां नहीं है.

दरवाजे पर हुई दस्तक को राजन ने भी सुना था और राधिका ने भी, लेकिन धोखा समझ कर कहा, ‘‘सुंदरी के लिए अब कोई दरवाजा नहीं… सांझ की दुलहन रात ढले घर नहीं आती… मेरी सांझ की दुलहन मुझे मिल गई है.’’

तभी दूर रेडियो पर गाना बज उठा, ‘कहीं तो ये दिल कभी मिल नहीं पाते, कहीं से निकल आए जन्मों के नाते, घनी थी उलझन बैरी अपना मन अपना ही हो कर सहे दर्द पराए, कहीं दूर जब दिन ढल जाए.’

Hindi Fiction Stories : एकदूसरे की पूरक थी मानसी और अनुजा

Hindi Fiction Stories : मानसी और अनुजा बचपन से ही अच्छी सहेलियां थीं. हमेशा से मनु और अनु की जोड़ी उन की पूरी मित्रमंडली में मशहूर थी. नर्सरी से एक ही स्कूल में गईं और जब कालेज चुनने की बात आई तो दोनों ने कालेज भी एक ही चुना. कालेज घर से दूर होने के कारण दोनों पास ही एक रूम ले कर उस में एकसाथ रहने लगीं.

बचपन से साथ खेलने और पढ़ने के बावजूद दोनों के स्वभाव में काफी अंतर था. एक ओर अनुजा सीधीसादी और सामान्य सी दिखने वाली लड़की थी, तो दूसरी ओर मानसी बेहद स्मार्ट और आकर्षक. अनुजा को पढ़ाई में रुचि थी तो मानसी को खेलकूद में. मानसी तो बस पास होने के लिए पढ़ाई करती जबकि अनुजा पढ़ाई में इस कदर खो जाती कि उसे अपने आसपास की दीनदुनिया की खबर ही नहीं रहती. दोनों एकदूसरे की पूरक बन अपनी मित्रता निभाती आई थीं.

कालेज के दिनों में दोनों से टकराया विपुल, जोकि एक छैलछबीले लड़के के रूप में सामने आया. ऊंची कदकाठी, ऐथलैटिक बौडी, पढ़ाई में अच्छे नंबर लाने वाला. बौस्केटबौल चैंपियन को पूरे कालेज का दिल मोह लेने में अधिक समय नहीं लगा.

सब से पहले विपुल पर मानसी की नजर पड़ी. गरमी के दिनों पसीने से तरबतर विपुल बौस्केटबौल कोर्ट में प्रैक्टिस किया करता, क्योंकि मानसी को स्वयं भी बौस्केटबौल में रुचि थी. उस ने विपुल से दोस्ती करने में अधिक देर न लगाई. कुछ ही हफ्तों में वह विपुल से बौस्केटबौल खेलने के पैंतरे सीखने लगी. अनुजा अकसर दोनों का खेल देखा करती.

महीना बीततेबीतते विपुल उन के रूम पर आने लगा जो उन्होंने कालेज के पास ले रखा था. जब वह रूम पर आता तो मानसी उस से पढ़ाई से संबंधित नोट्स शेयर करती, नएनए गुर सीखती. विपुल उसे पूरे मन से सिखाता.

“न जाने कब इस पढ़ाई से पीछा छूटेगा. एक बार कालेज खत्म हो जाए तो मैं इन किताबों को हाथ भी नहीं लगाऊंगी. इन को तो क्या मैं किसी भी किताब को हाथ नहीं लगाऊंगी”, मानसी बोली.

“कैसी बातें करती हो तुम? किताबों के अलावा दुनिया के बारे में तो मैं सोच भी नहीं सकती”, उस की बात सुन कर अनुजा से चुप न रहा गया.

“तुम्हें भी पढ़ने में रुचि है? मुझे भी. बिना पढ़े तो मुझे 1 दिन भी नींद नहीं आती”, विपुल ने कहा.

*उस* दिन के बाद से विपुल की दोस्ती अनुजा से भी हो गई. अब तीनों केवल कालेज में ही नहीं बल्कि उन के रूम पर भी बतियाया करते. मानसी विपुल के लुक्स और अदाओं की दीवानी थी तो विपुल अनुजा के सामान्य ज्ञान और पढ़ने के प्रति रुचि का. कुछ ही हफ्तों में वे एक तिगड़ी के रूप में पहचाने जाने लगे. तीनों अच्छे दोस्त बन गए थे. साथ पढ़ते, साथ घूमने जाते और समय व्यतीत करते.

“विपुल आता ही होगा”, फटाफट तैयार हो लिपस्टिक को फ्रैश करती मानसी ने कहा.

“ओहो, तो यह सारी तैयारी विपुलजी के लिए हो रही है?”अनुजा ने उस की टांग खींची.

“हां यार, क्या करूं, दिल है कि मानता नहीं…”, अचानक ही मानसी गुनगुनाने लगी और दोनों सहेलियां हंसने लगीं.

आज फिर पढ़ते समय मानसी धीरेधीरे अपने मन में उठ रहे विचारों की पर्चियां बना कर विपुल की ओर पास करने लगी. विपुल ने पर्चियां खोलकर पढ़ीं. पहली पर्ची में लिखा था, ‘कितना सुहाना मौसम है.’

दूसरी पर्ची में लिखा था,’आज तो लौंग ड्राइव पर जाना बनता है.’

तभी मानसी ने तीसरी पर्ची उस की ओर सरकाई तो वह कुछ चिढ़ गया, “तुम्हारा मन पढ़ाई में क्यों नहीं लगता, मानसी?” विपुल ने कहा तो मानसी बस खिसिया कर हंस पड़ी.

“अरे, यह तो बचपन से ऐसी ही है. पर्चियों से इस का नजदीकी रिश्ता है. आखिर, उन्हीं के बल पर पास होती आई है”, अनुजा ने राज खोला.

“अच्छा, तो पर्चियों से पुराना नाता है. देखो न, अभी भी पढ़ते समय न जाने क्या कुछ पर्चियों पर लिख कर मेरी ओर सरकाती रहती है”, विपुल की बात पर तीनों हंस पड़े.

“और यह मैडम न जाने क्या कुछ पढ़ने में मगन रहती हैं”, कहते हुए मानसी से अनुजा के हाथ से किताब छीनी.

“अरे, मुझे तो पढ़ने दो. बहुत अच्छा आलेख प्रकाशित हुआ है इस पत्रिका में. जानते हो, हम सब की आदर्श कार मर्सिडीज का नाम कैसे पड़ा? जरमनी के एक उद्योगपति ऐमिल येलेनेक कारों को बेचने का व्यापार करते थे. उन्होंने डाइमर मोटर्स की कई गाड़ियां खरीदीं और बेचीं. गाड़ियों की इस कंपनी को लिखे कई खतों में उन्होंने यह शर्त रखी कि अपनी स्पोर्ट्स कार का नाम ऐमिल की बड़ी बेटी मर्सिडीज येलेनैक के नाम पर रखा जाए, क्योंकि उन के साथ व्यापार करने से कंपनी को काफी लाभ होता था. कंपनी ने उन की शर्त मान ली. उस वक्त मर्सिडीज केवल 11 वर्ष की थीं जब दुनिया इस दौर को ‘मर्सिडीज इरा’ पुकारने लगी.

बड़ी होने पर मर्सिडीज की 2 शादियां हुईं मगर एक भी सफल नहीं रही. अपने 2 बच्चों को पालने के लिए उन्हें लोगों के आगे हाथ पसारने पड़े. फिर उन्हें कैंसर हो गया और केवल 39 वर्ष की आयु में उन की मृत्यु हो गई. सोचो जरा, जिस कार का नाम समृद्धि और सफलता का पर्याय बन गया है, वह जिस व्यक्ति के नाम पर रखी गई उस का अपना जीवन कितना संघर्ष में बीता. है न यह कितनी बड़ी विडंबना.”

“तुम भी न जाने क्या कुछ ढूंढ़ कर पढ़ती रहती हो”, अनुजा की बात पूरी होने पर मानसी बोली.

“मेरी बकेट लिस्ट में दुनिया घूमना शामिल है”, विपुल बोला, “ऐसी रोचक जानकारियों को जानने के बाद मेरी इन जगहों को देखने की इच्छा और प्रबल हो जाती है. अब मर्सिडीज कार को देखने का मेरा नजरिया बदल जाएगा. तुम ने इतनी अच्छी जानकारी दी, उस के लिए धन्यवाद, अनुजा”, विपुल अनुजा के पढ़ने के शौक से प्रभावित हुआ. उसे भी अनुजा की तरह इतिहास, भूगोल और सामान्य ज्ञान में बेहद रूचि थी.

*शाम* को तीनों बाहर रेस्तरां में खाना खाने गए. तीनों ने अपनीअपनी पसंद का भोजन और्डर किया.

“कमाल है, तुम दोनों के खाने की पसंद भी कितनी मिलती है”, अनुजा और विपुल के साउथ इंडियन खाना और्डर करने पर मानसी ने कहा, “मैं तो मुगलई खाना मंगवाऊंगी.”

कालेज की अन्य सहेलियां मानसी की नजरों में विपुल के प्रति उठ रहे जज्बातों को पढ़ने में सक्षम होने लगी थीं. वे अकसर मानसी को विपुल के नाम से छेड़तीं. कुछ लड़कियां विपुल को मानसी का बौयफ्रेंड तक बुलाने लगी थीं. ऐसी संभावना की कल्पना मात्र से ही मानसी का मन तितली बन उड़ने लगता. चाहती तो वह भी यही थी मगर कहने में शरमाती थीं. सहेलियों को धमका कर चुप करा देती. बस चोरीछिपे मन ही मन फूट रहे लड्डुओं का स्वाद ले लिया करती.

“कल मूवी का कार्यक्रम कैसा रहेगा?”, मानसी के प्रश्न उछालने पर अनुजा इधरउधर झांकने लगी.

विपुल बोला, “कौन सी मूवी चलेंगे? मुझे बहुत ज्यादा शौक नहीं है फिल्म  देखने का.”

“लगता है तुम दोनों पिछले जन्म के भाईबहन हो. अनुजा को भी मूवी का शौक नहीं. उसे तो बस कोई किताबें दे दो, तुम्हारी तरह. लेकिन कभीकभी दोस्तों की खुशी के लिए भी कुछ करना पड़ता है तो इसलिए इस शनिवार हम तीनों फिल्म देखने जाएंगे, मेरी खुशी के लिए”, इठलाते हुए मानसी ने अपनी बात पूरी की.

विपुल के चले जाने के बाद अनुजा, मानसी से बोली, “तुम दोनों ही चले जाना फिल्म देखने. तुम्हारे साथ होती हूं तो लगता है जैसे कबाब में हड्डी बन रही हूं.”

“कैसी बातें करती हो? ऐसी कोई बात नहीं है. हम दोनों सिर्फ अच्छे दोस्त हैं,” मानसी ने उसे हंस कर टाल दिया.

जब तक विपुल के मन की टोह न ले ले, मानसी अपने मन की भावनाएं जाहिर करने के लिए तैयार नहीं थी.

“जो कह रही हूं, कुछ सोचसमझ कर कह रही हूं. तेरी आंखों में विपुल के प्रति आकर्षण साफ झलकता है. पता नहीं उसे कैसे नहीं दिखा अभी तक”, अनुजा की इस बात सुन कर मानसी के अंदर प्यार का वह अंकुर जो अब तक संकोचवश उस के दिल की तहों के अंदर दब कर धड़क रहा था, बाहर आने को मचलने लगा.

विपुल को देख कर उसे कुछ कुछ होता था, पर यह बात वह विपुल को कैसे कहे, इसी उधेड़बुन में उस का मन भटकता रहता.

‘अजीब पगला है विपुल. इतने हिंट्स देती हूं उसे पर वह फिर भी कुछ समझ नहीं पाता. क्या मुझे ही शुरुआत करनी पड़ेगी…’, मानसी अकसर सोचा करती.

*आजकल* मानसी का मन प्रेम हिलोरे खाने लगा था. विपुल को देखते ही उस के गालों पर लालिमा छा जाती. अब तो उस का दिल पढ़ाई में बिलकुल भी न लगता. उस का मन करता कि विपुल उस के साथ प्यारभरी मीठी बातें करे. जब भी वह विपुल से मिलती, चहक उठती. उस का मन करता कि विपुल उस के साथ ही रहे, छोड़ कर न जाए. आजकल वह प्रेमभरे गीत सुनने लगी थी और अपने कमजोर शब्दकोश की सहायता से प्यार में डूबी कविताएं भी लिखने लगी थी. लेकिन यह सारे राज उस ने अपनी निजी डायरी में कैद कर रखे थे. विपुल तो क्या, अनुजा भी इन गतिविधियों से अनजान थी.

*उस* शाम जब अनुजा किसी काम से बाहर गई हुई थी तो विपुल रूम पर आया. मानसी तभी सिर धो कर आई थी और उस के गीले बाल उस के कंधों पर झूल रहे थे. मानसी अकसर अपने बालों को बांध कर रखा करती थी मगर आज उस के सुंदर केश बेहद आकर्षक लग रहे थे.

“आज तुम बहुत सुंदर लग रही हो. अपने बालों को खोल कर क्यों नहीं रखतीं?” विपुल ने मुसकराते हुए कहा.

“केवल मेरे बाल अच्छे लगते हैं, मैं नहीं?”, मानसी ने खुल कर सवाल पूछे तो उत्तर में विपुल शरमा कर हंस पड़ा.

दोनों नोट्स पूरे करने बैठ गए.

“ओह, कितनी सर्दी हो रही है आजकल. यहां बैठना असहज हो रहा है. चलो, अंदर हीटर चला कर बैठते हैं”, कहते हुए मानसी विपुल को बैडरूम में चलने का न्योता देने लगी.

“आर यू श्योर?”, विपुल इस से पहले कभी अंदर नहीं गया था. जब भी आया बस लिविंगरूम में ही बैठा.

“हां.. हां…. चलो अंदर आराम से बैठ कर पढ़ेंगे. फिर मैं तुम्हें गरमगरम कौफी पिलाऊंगी.”

विपुल और मानसी दोनों बिस्तर पर बैठ कर पढ़ने लगे. मानसी ने तह कर रखी रजाई पैरों पर खींच लीं. दोनों सट कर बैठे पढ़ रहे थे कि अचानक बिजली कड़कने लगी. हलकी सी एक चीख के साथ मानसी विपुल से चिपक गई, “मुझे बिजली से बहुत डर लगता है. जब तक अनुजा वापस नहीं आ जाती प्लीज मुझे अकेला छोड़ कर मत जाना.”

“ठीक है, नहीं जाऊंगा. डरती क्यों हो? मैं हूं न”, विपुल उस की पीठ सहलाते हुए बोला.

फिर एक बात से दूसरी बात होती चली गई. बिना सोचे ही विपुल और मानसी एकदूसरे की आगोश में समाते चले गए. कुछ ही देर में उन्होंने सारी लक्ष्मणरेखाएं लांघ दीं. बेखुदी में दोनों जो कदम उठा चुके थे उस का होश उन्हें कुछ समय बाद आया.

बाहर छिटपुट रोशनी रह गई थी. सूरज ढल चुका था. कमरे में अंधेरा घिर आया. मानसी धीरे से उठी और कमरे से बाहर निकल गई. विपुल भी चुपचाप बाहर आया और कुरसी खींच कर बैठ गया. दोनों एकदूसरे से कुछ कह पाते इस से पहले अनुजा वापस आ गई. उस के आते ही विपुल “देर हो रही है,” कह कर अपने घर चला गया. जो कुछ हुआ वह अनजाने में हुआ था मगर फिर भी मानसी आज बेहद खुश थी. उसे अपने प्यार का सानिध्य प्राप्त हो गया था. आगे आने वाले जीवन के सुनहरे स्वप्न उस की आंखों में नाचने लगे. आज देर रात तक उस की आंखों में नींद नहीं झांकी, केवल होंठों पर मुस्कराहट  तैरती रही.

“क्या बात है, आज बहुत खुश लग रही हो?” अनुजा ने पूछा तो मानसी ने अच्छे मौसम की ओट ले ली.

*अगले* दिन विपुल मानसी के रूम पर उसे पढ़ाने नहीं आया बल्कि कालेज में भी कुछ दूरदूर ही रहा. करीब 4 दिनों के बाद मानसी कालेज कैंटीन में बैठी चाय पी रही थी कि अचानक विपुल आ कर सामने बैठ गया. उसे देखते ही मानसी का चेहरा खिल उठा.

“हाय, कैसे हो?”, मानसी ने धीरे से पूछा.

पर विपुल को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे वह पतला हो गया हो.

‘तो क्या विपुल बीमार था, इस वजह से दिखाई नहीं दिया’, मानसी सोचने लगी, ‘और मैं ने इस का हालतक नहीं पूछा. मन ही मन मान लिया कि उस दिन की घटना के कारण शायद विपुल सामना करने में असहज हो रहा हो.’

“मानसी, मैं तुम से कुछ बात करना चाहता हूं. उस शाम हमारे बीच जो कुछ हुआ वह… मैं ने ऐसा कुछ सोचा भी नहीं था. बस यों ही अकस्मात हालात ऐसे बनते चले गए. प्लीज, हो सके तो मुझे माफ कर दो और इस बात को यहीं भूल जाओ. मैं भी उस शाम को अपनी याददाश्त से मिटा दूंगा.”

‘तो इस कारण विपुल पिछले कुछ दिनों से रूम पर नहीं आया.’ मानसी का शक सही निकला. उस दिन की घटना के कारण ही विपुल मिलने नहीं आ रहा था.

उस शाम मानसी को विपुल का साथ अच्छा लगा था. वह पहले से ही विपुल की ओर आकर्षित थी. अब यदि उस का और विपुल का रिश्ता आगे बढ़ता है तो मानसी को और क्या चाहिए. वह खुश थी मगर आज विपुल की इस बात पर उस ने ऊपर से केवल यही कहा, “मैं ने बुरा नहीं माना, विपुल. मैं तो उस बात को एक दुर्घटना समझ कर भुला भी चुकी हूं. तुम भी अपने मन पर कोई बोझ मत रखो.”

मानसी चाहती थी कि अब उसका और विपुल का प्यार आगे बढ़े, पहली सोपान चढ़े और धीरेधीरे गहराता जाए. इसलिए विपुल को किसी भी तनाव में रख कर इस रिश्ते के बारे में सोचा नहीं जा सकता, यह बात वह अच्छी तरह समझ चुकी थी. प्यार की क्यारी को पनपने के लिए जो कोमल मिट्टी मन के आंगन में चाहिए उसे अब वह अपनी सहज बातों और मीठे व्यवहार की खुरपी से रोपना चाहती थी.

इस घटना का जिक्र मानसी ने केवल अपनी डायरी में किया. अनुजा को उस शाम के बारे में कुछ नहीं पता था.

तीनों एक बार फिर पुराने दोस्तों की तरह मिलनेजुलने लगे. विपुल फिर सै रूम पर आने लगा. तीनों घूमनेफिरने जाने लगे. अब तक विपुल और अनुजा की भी अच्छी निभने लगी. एक तरफ विपुल के लिए मानसी की चाहत तो दूसरी तरफ विपुल से अनुजा की बढ़ती मित्रता, इस तिगड़ी में सभी बेहद प्रसन्न रहने लगे.

*एक* शाम जब अनुजा रूम पर आई तो मानसी ने हड़बड़ा कर अपनी डायरी जिस में वह कुछ लिख रही थी, बंद कर किताबों के पीछे छिपा दी.

“मुझे सब पता है क्या लिखती रहती हो तुम इस डायरी में”, अनुजा ने चुटकी ली.

“ऐसा कुछ नहीं है. तुम न जाने क्याक्या सोचती रहती हो…” मानसी हंसी और कमरे से बाहर निकल गई. अनुजा उस के पीछेपीछे आई और कहने लगी, “मानसी, अगर विपुल आगे नहीं बढ़ पा रहा तो तुम्हें शुरुआत करनी चाहिए. मुझे लगता है अब समय आ गया है. हम तीनों की दोस्ती को 1 साल होने को आया है. हम एकदूसरे को अच्छी तरह समझने लगे हैं. अब ज्यादा सोचविचार में और समय मत गंवाओ. विपुल जैसा अच्छा लड़का सब को नहीं मिलता…आगे बढ़ो और अपने मन की बात विपुल से कह डालो.”

अनुजा ने मानसी को समझाया तो वह विपुल से अपने दिल की बात करने को राजी हो गई. अनुजा ने सुझाव दिया कि निकट आते वैलेंटाइन डे पर मानसी विपुल से अपने दिल की बात कह दे, मगर  वैलेंटाइन डे से पहले रोज डे पर विपुल ने अनुजा को लाल गुलाब दे कर अचानक प्रपोज कर दिया. ऐसे किसी कदम की उसे उम्मीद न थी. अनुजा हक्कीबक्की रह गई. कुछ कहते न बना. बस खामोशी से गुलाब हाथ में लिए वह रूम पर लौट आई. जब मानसी को इस घटना के बारे में पता लगा तो उसे अनुजा से भी ज्यादा ठेस लगी. वह तो विपुल को अपना बनाने की ख्वाब संजो रही थी लेकिन विपुल ने तो बाजी ही पलट दी.

अनुजा जानती थी कि मानसी के मन में विपुल को ले कर आकर्षण पनप रहा है. वह तो स्वयं ही मानसी को विपुल की ओर धकेल रही थी. मगर विपुल ने आज जो किया उस के बाद अनुजा मानसी से नजरें मिलाने में भी सकुचाने लगी.

‘न जाने मेरी सहेली मेरे बारे में क्या सोचेगी?’ अनुजा मन ही मन परेशान होने लगी. उस की बेचैनी उस के चेहरे पर साफ झलकने लगी.

मानसी ने अनुजा के अंदर उठ रहे तूफान को पढ़ लिया. आखिर दोनों बचपन से एकदूसरे का साथ निभाती आई थीं. भावनाएं बांटती आई थीं. अनुजा के चेहरे पर उठ रहे व्यग्रता के भावों को देख मानसी ने अपने चेहरे पर जरा भी व्याकुलता नहीं आने दी. एक सच्ची सहेली की तरह उस ने अनुजा के सामने स्वयं को उस की खुशी में प्रसन्न दर्शाया. उस ने अनुजा को यह कह कर समझाया कि जो कुछ वह सोच रही थी, ऐसा कुछ नहीं था. वे तीनों अच्छे मित्र हैं और मानसी के मन की भावनाएं केवल अनुजा की कल्पना मात्र हैं. विपुल की तरफ से कभी भी इस प्रकार का न तो कोई संदेश आया, न ही इशारा. वह दोनों केवल अच्छे दोस्त रहे.

“तुम्हें गलतफहमी हो गई थी, मेरी जान. विपुल मुझे नहीं तुम्हें पसंद करता है और इस का साक्षी है उस का दिया यह गुलाब का फूल. अब खुशी से फूल को अपनाओ और विपुल के साथ एक सुखी जीवन बिताओ. मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं”, मानसी ने कहा तब जा कर अनुजा को थोड़ी शांति मिली.

मानसी ने यह सब केवल अनुजा को शांत करने के लिए कहा, मगर उस के अंदर जो ज्वालामुखी फट रहे थे उस का सामना करना उस के लिए कठिन हो रहा था. विपुल ने उसे धोखा दिया है. वह उस के साथ ऐसा कैसे कर सकता है? क्या मानसी की आंखों में विपुल ने कभी कुछ नहीं पढ़ा? और उस शाम का क्या जो उन दोनों ने एकदूसरे की बांहों में गुजारीं? मानसी को इन सभी सवालों के दैत्य घेरने लगे. वह भीतर ही भीतर सुलगने लगी. अपनी सब से प्यारी सहेली की खुशी में वह बाधा नहीं बनना चाहती पर दिल का क्या करे.

अगला पूरा हफ्ता इसी उहापोह में बीता. अनुजा के समक्ष ऊपर से शांत और प्रसन्न दिखने वाली मानसी अंदर ही अंदर घुल रही थी.

आखिर दिल पर दिमाग हावी हो ही गया. इतने दिनों से चल रही मगजमारी में मानसी का शैतानी मन उस के शांत मन से जीत गया. उस ने ठान लिया कि वह विपुल को सबक सिखा कर रहेगी और उस की सचाई अनुजा के सामने खोल देगी. इसी आशय से उस ने सुबूत के तौर पर अपनी डायरी उठाई और तैयार हो कर कालेज चली गई. आज वह इस डायरी में बंद हर राज को अनुजा के समक्ष रख देगी.

*कालेज* में हर जगह लाल रंग की लाली छाई हुई थी. आज वैलेंटाइन डे था. हर ओर लाल गुब्बारे, दिल की शेप के कटआउट, लाल रिबन, लड़कियां भी लाललाल पोशाकों में सजी हुईं अपने अपने बौयफ्रैंड के साथ इठलाती घूम रही थीं. कहां आज ही के दिन मानसी ने विपुल से अपने दिल की बात कहने की सोची थी और कहां आज वह विपुल और अनुजा के बनते हुए रिश्ते को तोड़ने जा रही है.

मानसी ने कैफेटेरिया में विपुल और अनुजा को एकसाथ बैठे देख लिया. उस की तरफ उन दोनों की पीठ थी. सधे हुए तेज कदमों से बढ़ती हुई वह उन की तरफ लपकी. इस से पहले कि वह उन्हें आड़े हाथों लेती उस के कानों में उनका वार्तालाप सरक गया.

“अनुजा, तुम मुझे पहले ही दिन से पसंद आ गई थीं. तुम्हारा मितभाषी स्वभाव मेरे अपने अंतर्मुखी स्वभाव से मेल खाता है”, विपुल बोला.

“हां, और देखो न हमारे स्वाद, हमारी इच्छाएं और आकांक्षाएं भी कितनी मिलतीजुलती हैं. सच कहूं तो मैं ने तुम्हें कभी उस नजर से देखा नहीं था”, अनुजा कह रही थी, “बल्कि मैं तो कुछ और ही समझती रही थी अब तक,” संभवतया अनुजा का इशारा मानसी की ओर था.

“समझने में मुझे भी कुछ समय जरूर लगा. कभीकभी मन में कुछ संशय भाव भी उभरे. पर यह निर्णय मैं ने बहुत सोचसमझ कर किया है. जीवन में गलती सभी से हो जाती है मगर समझदार वही व्यक्ति है जो अपनी गलतियों से सीख कर आगे बढ़ता है”, विपुल ने अपनी बात पूरी की.

पीछे खड़ी मानसी सब सुन रही थी. ‘सच ही तो कह रहे हैं दोनों. एकदूसरे के लिए यही बने हैं. दोनों के स्वभाव एकदूसरे के अनुकूल हैं. क्या एक बार सोने से प्यार हो जाता है? नहीं न… विपुल और उस के बीच जो हुआ वह प्यार का नहीं जवानी के आकर्षण व जोश का परिणाम था, जो शायद किसी के भी साथ हो सकता है. एक बार हुई ऐसी घटना के बलबूते पूरे जीवन के निर्णय नहीं लिए जा सकते और न ही लेने चाहिए. विपुल ने सही निर्णय लिया जो सोचसमझ कर अपने अनुरूप साथी का चयन किया. दोनों साथ में कितने खुश हैं. मेरे दोस्त हैं. क्या इन की खुशी पर वज्रपात कर के मैं खुश रह पाऊंगी? क्या ऐसा करने के बाद मैं स्वयं को कभी माफ कर पाऊंगी? निर्णय वही लेना चाहिए जिस से जीवन सुखी हो. आज भावेश में आ कर मैं यह क्या करने जा रही थी…’, मानसी ने अपने कदम रोक लिए. अपनी डायरी को उस ने वापस अपने बैग में छिपा दिया. अब इसकी जरूरत कभी नहीं पड़ेगी.

नभ में छाई घटाएं खुलने लगीं. बसंत के मध्यम सूरज की सुहानी किरणें हर ओर उजाले की बौछारें करने लगीं. मानसी के मन के अंदर भी यह उजाला उतरने लगा. उस के चेहरे पर मुसकराहट आने लगी.

“अच्छा बच्चू, मुझ से गुपचुप यहां अकेले पार्टी करने का प्रोग्राम है. तुम दोनों भले ही एक कपल बन गए हो पर मैं कबाब में हड्डी बनने से संकोच नहीं करूंगी. मुझे भी तुम्हारे साथ पार्टी करनी है”, कहते हुए मानसी ने अपनी दोनों बांहें पसार दीं.

अनुजा और विपुल ने भी हंसते हुए उसे अपनी बांहों में ले लिया. तीनों ने कौफी और केक का और्डर दिया. अनगिनत बातों का पिटारा फिर खुलने लगा.

Funny Hindi Stories : श्रीमतीजी का अविश्वास प्रस्ताव

‘‘ऐजी आप पहले जैसे नहीं रह गए,’’ एक वाक्य में श्रीमतीजी ने प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया.

हम सरकार के गिरने की उम्मीद लगा बैठे.

‘‘पगली तुम्हें आज 40 साल बाद यह महसूस क्यों हुआ?’’

‘‘देखो हम ने विकास के कितने सारे काम किए हैं. तुम ने सब चूल्हे में झोंक दिया?’’

‘‘बताओ क्या कमी देखती हो अपने सरकार में?’’

‘‘फिर हम भी अपनी सरकार की सुनाएंगे तो समझो चलती गाड़ी का पहिया बिलकुल रुक जाएगा?’’

हमारी चेतावनी पर ध्यान वे अकसर नहीं देतीं. इस बार भी वे इसे इग्नोर कर जातीं, मगर हम जज्बाती हो कर जरा तलखी में बोल गए थे. लिहाजा मामले ने दांपत्य जीवन की शांति भंग की सीमा लांघ दी थी. कुछ नर्म पड़ीं.

हम जानते थे कि दिलासे का जरा सा भी हाथ फेरा तो श्रीमती सुबक पड़ेंगी.

उन्हें नौर्मल करने के अंदाज में हम ने पूछा, देखो आप का बैल जैसा पति औफिस से सीधे घर आता है. ढेरो बालाएंबलाएं औफिस से घर के बीच टकराती घूमती हैं. उन से बच कर निकलता रहता है. फिर बताओ.

यह क्या बात हुई कि आप पहले जैसे नहीं रह गए?’’

‘‘चलो पहले वाली खूबियां गिनवा दो, खामियां बाद में सुन कर देखेंगे क्या बात है? आज शादी के 40 साल बाद आप ने विपक्ष की तरह लंबा मुंह खोला है.’’

‘‘जब हनीमून में गए थे तब आप कैसे आगेआगे हर काम कर रहे थे. स्टेशन से बैग लादना, हर रैस्टोरैंट में और्डर देने के पहले बाकायदा पसंद का पूछना, हर शौपिंग मौल में कितना एतराज कि हमारी ली हुई चीजों की तारीफ करना, उस पर यह कहना कि वेणु आप की पसंद लाजवाब है. मैं विभोर हो जाती थी. आप यह भी कहते तुम्हारा टेस्ट अच्छा है वेणु.’’

‘‘इस चक्कर में हम भी पसंद आ गए न?’’

‘‘सभी मर्द शादी की शुरुआत यों ही करते हैं क्या?’’

हम ने कहा वेणु ‘‘अरसा पहले कहीं पढ़ा था. जब आदमी नई कर लेता है और बीवी बैठने को आती है तो पति दरवाजा खुद खोलता है. इसे देख कर लोग 2 अनुमान लगाते हैं या तो कार नई है या फिर शायद बीवी.’’

हमारे इस जोक की पौलिश श्रीमती को कुछ उतरी हुई लगी. वे तर्क के दूसरे सिरे को पकड़ने को हुईं. ‘‘जनाब, शादी के शुरुआती दिनों में आप की हालत अपने स्टेट जैसी जर्जर थी. न सलीके का पहनना आता था न कोई खानेपीने का टेस्ट था. मैं सिर्फ खाने की कह रही हूं, पीने का शुरुआती टेस्ट तो आप ने दोस्तों की संगत में आजमाना चालू कर दिया था. मैं आप की डैटिंगपैंटिंग क्लास सख्ती से न लेती तो आप ढोलक माफिक फूल गए होते.’’

उलाहना दर उलाहना हमें झुकाने, नीचे पटकने का यह अर्धवार्षिक कार्यक्रम पिछले कुछ दिनों से तिमाही के स्तर पर सैंसैक्स की भांति लुढ़क गया है. हमें अपनी टीआरपी सुधारने का नुसखा तब हासिल होता है, जब कोई धांसू चीज लिख कर उम्दा मैगजीन में छपवा लें. जवाब में हम फक्र से श्रीमती को दिखाकर कहते, ‘‘यह छपी है देख लो.’’

इस प्रदर्शन नुमाइश में वे आर्थिक पहलू पर नजर रखते हुए पूछतीं, ‘‘इस छपे पर कितना मिलेगा?’’

‘‘वे आजकल कुछ देतेवेते नहीं, उलट ईमल से भेजो तो नखरे दिखाते हैं कि हम ईमेल की रचना स्वीकार नहीं करते. भाई लोग हार्ड कौपी मांगते हैं. रचनाओं के स्पीड पोस्ट से… भेजते किसी गरीब लेखक का क्या होता होगा पता नहीं.’’

‘‘मैं देखती हूं, जब भी अपने गुस्से का व्यावहारिक इजहार करती हूं तो आप अपनी साहित्य यात्रा में निकल पड़ते हैं या इसे बीच में ढाल बना खड़े हो जाते हैं. साहित्य भाव मुझ में भी मौजूद हैं, मगर आप के चूल्हेचकले के झंझट में वही रोटी माफिक गोल हो जाते हैं. हां, तो मैं कह रही थी.’’

‘‘आप आजकल बदल गए हैं.’’

हम ने बात को फिर मरोड़ा, ‘‘हां 60 साल की उम्र बदलने की ही होती है.’’ रिटायरमैंट के फक्त 6 महीनों में यह हाल है, हमें घर बैठे देख ऊब जाने का, तो आगे अल्ला जाने क्या होगा, मौला जाने क्या होगा?’’

‘‘देखो घर में दिनभर, कोटटाई में, हिंदुस्तान का कोई भी माई का लाल नहीं रहता. देशी स्टाइल, यानी लुंगीपाजामाकुरता, बनियान यही लपेटे रहता है. हम से जरा नीचे लेबल वाले लोग तो धारीदार चड्डियों में ही पाए जाते हैं. अब इसे बदलना कहते हैं तो बेशक हम बदल गए हैं.’’

श्रीमतीजी को बेकार की बातों पर कान धरने की फुरसत नहीं थी. अत: झल्लाते हुए अंतिम हथियार की सौगात ब्रह्मास्त्र के रूप में दी. गुस्से से पूछा. ‘‘आज तारीख क्या है?’’

हम ने सहजता से कहा, ‘‘6 अगस्त. कल ही तो बैंक से निकाल कर के घर खर्चे वाली रकम दी थी या नहीं, हम ने याददास्त पर जोर दे कर बताया.’’

उधर से दांत पीसने की प्रतिक्रिया नजर आई, ‘‘बस 6 अगस्त…फिर कल?’’

हम ने उसी सहजता से फिर कहा ‘‘एक दिन पहले तो 5 अगस्त हुआ न…न…न…?’’

5 अगस्त याद करते ही हमारी जीभ लड़खड़ा गईं, ‘‘सौरी वेणु डार्लिंग. हमें आप का बर्थडे परसों तक बामुकम्मल याद था. हम ने आराधना ज्वैलर्स को पहली तारीख को बाकायदा और्डर दिया है नई डिजाइन के नैकलैस का.

यह वही नैकलैस है जिसे आप हसरत से रिटायरमैंट के पहले उस ज्वैलर्स की शौप में देख रही थीं. तब हम ने खुद से वादा किया था कि रिटायरमैंट के बाद के पहले बर्थडे पर यह तोहफा तुम्हें दूंगा.’’

श्रीमती जी के मुरझाए चेहरे पर तनिक विश्वास लौटा. वे हमारे चरण छूने को झुकीं

तो हम ने बांहों में थाम लिया. फिर कहा ‘‘हर बर्थडे पर आप पैर छूती थीं, कल क्या हुआ जो…?’’

‘‘अगर छू लेतीं तो हमें याद नहीं आ जाता क्या…’’

‘‘मैं यह देखना चाहती थी कि मेरे भुलक्कड़ राम क्याक्या भूल सकते हैं? मैं ने मौन व्रत ले रखा था अपनी तरफ से… कई बहाने किए आप को याद आ जाए, मगर आप जब अलग दुनिया में खोए रहते हैं.’’

‘‘चलो ज्वैलर्स के पास चलें वरना…’’ हम ने चलने की तैयारी करते पूछ लिया, ‘‘बच्चो ने विश किया?’’

श्रीमतीजी फिर उदासी की लंबी गुफा में समाने लगीं. फिर उदास स्वर में बोलीं.

‘‘आजकल सब अपनी लाइफ जीते हैं… पता नहीं उन्हें याद भी हो या नहीं?’’

हम ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं छोड़ो, मेरी तरह भूल गए होंगे… आप आज अपनी मरजी की पूरी शौपिंग कर लो… हम ने एटीएम कार्ड को चैक कर पर्स में रखा है… बाहर ही खा कर लौटेंगे.’’

श्रीमती चुपचाप साथ हो लीं.

हमें लगा कि अविश्वास प्रस्ताव ने आखिर दम तोड़ दिया.

Inspirational Hindi Stories : हिजड़ा

Inspirational Hindi Stories : पिछले कई दिनों से बस स्टैंड के दुकानदार उस हिजड़े से परेशान थे जो न जाने कहां से आ गया था. वह बस स्टैंड की हर दुकान के सामने आ कर अड़ जाता और बिना कुछ लिए न टलता. समझाने पर बिगड़ पड़ता. तालियां बजाबजा कर खासा तमाशा खड़ा कर देता.

एक दिन मैं ने भी उसे समझाना चाहा, कुछ कामधंधा करने की सलाह दी. जवाब में उस ने हाथमुंह मटकाते हुए कुछ विचित्र से जनाने अंदाज में अपनी विकलांगता (नपुंसकता) का हवाला देते हुए ऐसीऐसी दलीलें दे कर मेरे सहित सारे जमाने को कोसना प्रारंभ किया कि चुप ही रह जाना पड़ा. कई दिनों तक उस की विचित्र भावभंगिमा के चित्र आंखों के सामने तैरते रहते और मन घृणा से भर उठता.

फिर एकाएक उस का बस स्टैंड पर दिखना बंद हो गया तो दुकानदारों ने राहत की सांस ली, लेकिन उस के जाने के 2-3 दिन बाद ही न जाने कहां से एक अधनंगी मैलीकुचैली पगली बस स्टैंड व ट्रांसपोर्ट चौराहे पर घूमती नजर आने लगी थी. अस्पष्ट स्वर में वह न जाने क्या बुदबुदाती रहती और हर दुकान के सामने से तब तक न हटती जब तक कि उसे कुछ मिल न जाता.

जब कोई कुछ खाने को दे देता तो कुछ दूर जा कर वह सड़क पर बैठ कर खाने लगती. जबकि पैसों को वह अपनी फटी साड़ी के आंचल में बांध लेती, कोई दया कर के कपड़े दे देता तो उसे अपने शरीर पर लपेट लेती. कभी वह बड़ी ही विचित्र हंसी हंसने लगती तो कभी सिसकियां भरभर कर रोने लगती. उस का हास्य, उस का रुदन, सब उस के जीवन के रहस्य की तरह ही अबूझ पहेली थे.

कभी किसी ने उसे नहाते न देखा था, मैल की परतों से दबे उस के शरीर से ऐसी बदबू का भभका उठता कि दुकान में उस के आते ही दुकानदार जल्दी से उस के पास 1-2 रुपए का सिक्का फेंक कर उसे दूर भगाने का प्रयास करते. लेकिन इन सब के बावजूद वह उम्र के लिहाज से जवान थी और यह जवानी ही शायद उस दिन कामलोलुप, शराब के नशे में धुत्त युवकों की नजरों में चढ़ गई.

दिनभर बस स्टैंड व ट्रांसपोर्ट चौराहे पर घूमती यह पगली रात्रि को किसी भी दुकान के बरामदे पर या बस स्टैंड के होटलों के दालानों में बिछी बैंच पर सो जाया करती थी. उस दिन भी वह इन होटलों में से किसी एक होटल की लावारिस पड़ी बैंच पर रात के अंधियारे में दुबक कर सोई हुई थी.

रात्रि को 12 बजे के लगभग मैं अपना पीसीओ बंद कर ही रहा था कि तभी सामने बस स्टैंड के इन होटलों में से किसी एक होटल के बरामदे से वह पगली अस्तव्यस्त हालत में भागती हुई बाहर निकली. उस के पीछे महल्ले के ही 2 अपराधी प्रवृत्ति के शराब के नशे में धुत्त युवक बाहर निकल कर उसे पकड़ने का प्रयास कर रहे थे. वह उन से पीछा  छुड़ाने के प्रयास में भागते हुए पीठ के बल गिर पड़ी, उस के मुंह से विचित्र तरह की चीख निकली.

मैं पूरी घटना को देखते हुए अपनी दुकान के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा था. मैं उन दोनों युवकों के आपराधिक कृत्यों से भलीभांति परिचित था. अभी कुछ माह पूर्व ही उन लोगों ने कसबे के एक वकील को गोली मार कर घायल कर दिया था. उन की पीठ पर कसबे के कुख्यात कोलमाफिया का हाथ है. फलस्वरूप कुछ माह में ही जमानत पर वे लोग बाहर आ गए. एक पहल में ही उन के आपराधिक कृत्यों का इतिहास मेरी आंखों के सामने कौंध गया और मैं उन को रोकने का साहस न जुटा सका लेकिन बिना प्रतिरोध किए रह भी नहीं पा रहा था.

सो, उन्हें तेज आवाज में डांटना चाहा लेकिन मेरे मुंह से ऐसी सहमी, मरी हुई आवाज में प्रतिरोध का स्वर निकला कि मैं खुद सहम गया. जबकि जवाब में उन युवकों ने गुर्रा कर डपटा, ‘‘गुलशन चाचा, अपने काम से काम रखो नहीं तो…’’ फिर उस के बाद गालियों, धमकियों का ऐसा रेला उन्होंने मेरी तरफ उछाल दिया कि मैं भयभीत हो गया, डर से घबरा कर जल्दी से दुकान का शटर बंद कर घर में दुबकते हुए चोर नजर से उन की तरफ देखा तो… लगभग घसीटते हुए वे उस पगली को होटल के अंधेरे बरामदे में पड़ी बैंच की ओर ले जा रहे थे.

वह पगली विचित्र अस्पष्ट स्वर में सिसक रही थी, उस के प्रतिरोध का प्रयास भी शिथिल हो गया था, शायद उस ने बचने की कोई सूरत न देख कर आत्मसमर्पण कर दिया था. मैं शटर बंद कर घर में दुबक गया था. बस स्टैंड पर सन्नाटा पसर गया था और शायद काफी गहराई तक मेरे अंदर भी वह सन्नाटा उतरता चला गया.

अगले दिन से फिर वह पगली बस स्टैंड तो क्या पूरे कसबे में ही कहीं नजर नहीं आई. वे 2 युवक जब भी मुझे देखते उन के चेहरे पर व्यंग्य, उपहासभरी मुसकान कौंध जाती और न जाने क्यों मेरा चेहरा पीला पड़ जाता. उस दिन की घटना के बाद मेरा पीसीओ भी रात्रि 8 बजे बंद होने लगा. न जाने क्यों मैं देर रात तक पीसीओ खुले रखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. मैं अपनेआप को अकसर समझाता रहता कि अरे इस तरह से लावारिस घूमने वाली पगली व भिखारिन औरतों के साथ ऐसी घटनाओं का होना कोई नई बात नहीं है. ऐसा तो होता ही रहता है.

मैं भला सक्रिय रूप से उन्हें रोकने का प्रयास कर के भी क्या कर लेता? यही न कि उन युवकों की मारपीट का शिकार हो कर घायल हो जाता, और कहीं वे प्रतिशोध में मेरे घर पर न रहने पर घर में घुस कर मेरी पत्नी के साथ जोरजबरदस्ती कर बैठते तो…कल्पना कर के ही सिहर उठता. न बाबा न, उन से दुश्मनी न मोल ले कर मैं ने ठीक ही किया. लेकिन उस घटना के बाद न जाने मुझे क्या होता जा रहा है.

Hindi Stories Online : खोई हुई संपत्ति

लेखक- डा. रमेश यादव

Hindi Stories Online : “मुन्ना के पापा सुनो तो, आज मुन्ना नया घर तलाशने की बात कर रहा था. वह काफी परेशान लग रहा था. मुझ से बोला कि मैं आप से बात कर लूं.”

“मगर, मुझ से तो वह कुछ नहीं बोला. बात क्या है मुन्ने की अम्मां? खुल कर बोलो. कई वर्षों से बिल्डिंग को ले कर समिति, किराएदार, मालिक और हाउसिंग बोर्ड के बीच लगातार मीटिंग चल रही है. ये तो मैं जानता हूं, पर आखिर में फैसला क्या हुआ?”

“वह कह रहा था कि हमारी बिल्डिंग अब बहुत पुरानी और जर्जर हो चुकी है, इसलिए बरसात के पहले सभी किराएदारों को घर खाली करने होंगे. सरकार की नई योजना के अनुसार इसे फिर से बनाया जाएगा. पर तब तक सब को अपनीअपनी छत का इंतजाम खुद करना होगा. वह कुछ रुपयों की बात कर रहा था. जल्दी में था, इसलिए आप से मिले बिना ही चला गया.”

गंगाप्रसाद तिवारी अब गहरी सोच में डूब गए. इतने बड़े शहर में बड़ी मुश्किल से घरपरिवार का किसी तरह से गुजारा हो रहा था. बुढ़ापे के कारण उन की अपनी नौकरी भी अब नहीं रही. ऐसे में नए सिर से फिर से नया मकान ढूंढ़ना, उस का किराया देना, नाको चने चबाने जैसा है. गैलरी में कुरसी पर बैठेबैठे तिवारीजी शून्य में खो गए थे. उन की आंखों के सामने तीस साल पहले का वह मंजर किसी चलचित्र की तरह चलने लगा.

‘दो छोटेछोटे बच्चे और मुन्ने की मां को ले कर जब वे पहली बार इस शहर में आए थे, तब यह शहर अजनबी सा लग रहा था. पर समय के साथ वे यहीं के हो कर रह गए.

‘सेठ किलाचंदजी एंड कंपनी में मुनीमजी की नौकरी, छोटा सा औफिस, एक टेबल और कुरसी. मगर व्यापार करोड़ों का था, जिस का मैं एकछत्र सेनापति था. सेठजी की ही मेहरबानी थी कि उस कठिन दौर में बड़ी मुश्किल से लाखों की पगड़ी का जुगाड़ कर पाया और अपने परिवार के लिए एक छोटा सा आशियाना बना पाया, जो ऊबदार घर कब बन गया, पता ही नहीं चला. दिनभर की थकान मिटाने के लिए अपने हक की छोटी सी जमीन, जहां सुकून से रात गुजर जाती थी और सुबह होते ही फिर वही रोज की आपाधापी भरी तेज रफ्तार वाली शहर की जिंदगी.

‘पहली बार मुन्ने की मां जब गांव से निकल कर ट्रेन में बैठी, तो उसे सबकुछ अविश्वसनीय सा लग रहा था. दो रात का सफर करते हुए उसे लगा, जैसे वह विदेश जा रही हो. धीरे से वह कान में फुसफुसाई, “अजी, इस से तो अच्छा अपना गांव था. सभी अपने थे वहां. यहां तो ऐसा लगता है जैसे हम किसी पराए देश में आ गए हों? कैसे गुजारा होगा यहां?”

“चिंता मत करो मुन्ने की अम्मां, सब ठीक हो जाएगा. जब तक मन करेगा यहां रहेंगे और जब घुटन होने लगेगी तो गांव लौट जाएंगे. गांव का घर, खेत, खलिहान इत्यादि सब है. अपने बड़े भाई के जिम्मे सौंप कर आया हूं. बड़ा भाई पिता समान होता है.”

इन तीस सालों में इस अजनबी शहर में हम ऐसे रचबस गए, मानो यही अपनी तपस्वी कर्मभूमि है. आज मुन्ने की मां भी गांव में जा कर बसने का नाम नहीं लेती. उसे इस शहर से प्यार हो गया है. उसे ही क्यों, खुद मेरे और दोनों बच्चों के रोमरोम में यह शहर बस गया है. माना कि अब मैं थक चुका हूं, मगर अब बच्चों की पढ़ाई पूरी हो गई है. उन्हें ढंग की नौकरी मिल जाएगी तो उन के हाथ पीले कर दूंगा और जिंदगी की गाड़ी फिर से पटरी पर अपनी रफ्तार से दौड़ने लगेगी. अचानक किसी की आवाज ने तिवारीजी की तंद्रा भंग की. देखा तो सामने मुन्ने की मां थी.

“अजी किस सोच में डूबे हो? सुबह से दोपहर हो गई. चलो, अब भोजन कर लो. मुन्ना भी आ गया है. उस से पूरी बात कर लो और सब लोग मिल कर सोचो कि आगे क्या करना है ? आखिर कोई समाधान तो निकालना ही पड़ेगा.”

भोजन के बाद तिवारीजी का पूरा परिवार एकसाथ बैठ कर विमर्श करने लगा. मुन्ने ने बताया, “पापा, हमारी बिल्डिंग का हाउसिंग बोर्ड द्वारा रिडेवलपमेंट किया जा रहा है. सबकुछ अब फाइनल हो गया है. एग्रीमेंट के मुताबिक हमें मालिकाना अधिकार का 250 स्क्वेयर फीट का फ्लैट मुफ्त में मिलेगा. मगर वह काफी छोटा पड़ेगा. इसलिए यदि कोई अलग से या मौजूदा कमरे से जोड़ कर एक और कमरा लेना चाहता हो, तो उसे एक्स्ट्रा कमरा मिलेगा, पर उस के लिए बाजार भाव से दाम देना होगा.”

”ठीक कहते हो मुन्ना, मुझे तो लगता है कि यदि हम गांव की कुछ जमीन बेच दें तो हमारा मसला हल हो जाएगा और एक कमरा अलग से मिल जाएगा. अधिक रुपयों का इंतजाम हो जाए तो यह बिलकुल संभव है कि हम अपना एक और फ्लैट खरीद लेंगे.” तिवारीजी बोले.

बरसात से पहले तिवारीजी ने सरकारी डेवलपमेंट बोर्ड को अपना रूम सौंप दिया और पूरे परिवार के साथ अपने गांव आ गए.

गांव में प्रारंभ के दिनों में बड़े भाई और भाभी ने उन की काफी आवभगत की, पर जब उन्हें पूरी योजना के बारे में पता चला तो वे लोग पल्ला झाड़ने लगे. यह बात गंगाप्रसाद तिवारी की समझ में नहीं आ रही थी. उन्हें कुछ शक हुआ. धीरेधीरे उन्होंने अपनी जगह जमीन की खोजबीन शुरू की. हकीकत का पता चलते ही उन के पैरों तले की जमीन ही सरक गई, मानो उन पर आसमान टूट पड़ा हो.

“अजी क्या बात हैं? खुल कर बताते क्यों नहीं, दिनभर घुटते रहते हो? यदि जेठजी को हमारा यहां रहना भारी लग रहा है, तो वे हमारे हिस्से का घर, खेत और खलिहान हमें सौंप दें, हम खुद अपना बनाखा लेंगे.”

“धीरे बोलो भाग्यवान, अब यहां हमारा गुजारा नहीं हो पाएगा. हमारे साथ धोखा हुआ है. हमारे हिस्से की सारी जमीनजायदाद उस कमीने भाई ने जालसाजी से अपने नाम कर ली है. झूठे कागजात बना कर उस ने दिखाया है कि मैं ने अपने हिस्से की सारी जमीनजायदाद उसे बेच दी है. हम बरबाद हो गए मुन्ने की अम्मां… अब तो एक पल के लिए भी यहां कोई ठौरठिकाना नहीं है. हम से सब से बड़ी भूल यह हुई कि साल दो साल में एकाध बार यहां आ कर अपनी जमीनजायदाद की कोई खोजखबर नहीं ली.”

“अरे दैय्या, ये तो घात हो गया. अब हम कहां रहेंगे? कौन देगा हमें सहारा? कहां जाएंगे हम अपने इन दोनों बच्चों को ले कर? बच्चों को इस बात की भनक लग जाएगी तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा,” विलाप कर के मुन्ने की मां रोने लगी. पूरा परिवार शोक में डूब गया. न चाहते हुए भी तिवारीजी के मन में घुमड़ती पीड़ा की गठरी आखिर खुल ही गई थी.

इस के बाद तिवारी परिवार में कई दिनों तक वादविवाद, विमर्श होता रहा. सुकून की रोटी जैसे उन के नसीब की परीक्षा ले रही थी.

अपने ही गांवघर में अब गंगाप्रसादजी का परिवार बेगाना हो चुका था. उन्हें कोई सहारा नहीं दे रहा था. वे लोग जान चुके थे कि उन्हें लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी होगी. पर इस समय गुजरबसर के लिए छोटी सी झुग्गी भी उन के पास नहीं थी. गांव की जमीन के हिस्से की पावर औफ एटोर्नी बड़े भाई को दे कर उन्होंने बहुत बड़ी भूल की थी. उसी के चलते आज वे दरदर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर थे.

उसी गांव में मधुकर चौहान नामक संपन्न दलित परिवार था. गांव में उन की अपनी बड़ी सी किराने की दुकान थी. बड़ा बेटा रामकुमार पढ़ालिखा और आधुनिक खयालात का था. जब उसे छोटे तिवारीजी के परिवार पर हो रहे अन्याय के बारे में पता चला तो उस का खून खौल उठा, पर वह मजबूर था. गांव में जातिबिरादरी की राजनीति से वह पूरी तरह परिचित था. एक ब्राह्मण परिवार को मदद करने का मतलब, अपनी बिरादरी से रोष लेना था. पर दूसरी तरफ उसे शहर से आए उस परिवार के प्रति लगाव भी था.

उस दिन घर में उस के पिताजी ने तिवारीजी को ले कर बात छेड़ी, “जानते हो तुम लोग, हम वही दलित परिवार हैं, जिस के पुरखे किसी जमाने में उसी तिवारीजी के यहां पुश्तों से हरवाही किया करते थे. तिवारीजी के दादाजी बड़े भले इनसान थे. जब हमारा परिवार रोटी के लिए मुहताज था, तब इस तिवारीजी के दादाजी ने आगे बढ़ कर हमें गुलामी की दास्तां से मुक्ति दे कर अपने पैरों पर खड़े होने का हौसला दिया था. उस अन्नदाता परिवार के एक सदस्य पर आज विपदा की घड़ी आई है. ऐसे में मुझे लगता है कि हमें उन के लिए कुछ करना चाहिए. आज उसी परिवार की बदौलत गांव में हमारी दुकान है और हम सुखी हैं.”

”हां बाबूजी, हमें सच का साथ देना चाहिए. मैं ने सुना है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद जब बैंक के दरवाजे सामान्य लोगों के लिए खुले, तब बड़े तिवारीजी ने हमें राह दिखाई थी. यह उसी परिवर्तन के दौर का नतीजा है कि कभी दूसरों के टुकड़ों पर पलने वाला गांव का यह दलित परिवार आज संपन्न परिवार में गिना जाता है और शान से रहता है,” रामकुमार ने अपनी जोरदार हुंकारी भरी.

रामकुमार ताल ठोंक कर अब छोटे तिवारीजी के साथ खड़ा हो गया था. काफी सोचसमझ कर चौहान परिवार ने छोटे तिवारीजी से गहन विचारविमर्श किया.

“हम आप को दुकान खुलवाने और सिर पर छत के लिए जगह, जमीन, पैसा इत्यादि की हर संभव मदद करने को तैयार हैं. आप अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे, तो यह लड़ाई आसान हो जाएगी. एक दिन आप को आप का हक जरूर मिलेगा.”

चौहान परिवार का भरोसा और साथ मिल जाने से तिवारी परिवार का हौसला बढ़ गया था. रामकुमार के सहारे अंकिता अपनी दुकानदारी को बखूबी संभालने लगी थी. इस से घर में पैसे आने लगे थे. धीरेधीरे उन के पंखों में बल आने लगा और वे अपने पैरों पर खड़े हो गए.

तिवारीजी की दुकानदारी का भार उन की बिटिया अंकिता के जिम्मे था, क्योंकि तिवारीजी और उन का बड़ा बेटा अकसर कोर्टकचहरी और शहर के फ्लैट के काम में व्यस्त रहते थे.

इस घटना से गांव के ब्राह्मण घरों में जातिबिरादरी की राजनीति जन्म लेने लगी. कुंठित दलित बिरादरी के लोग भी रामकुमार और अंकिता को ले कर साजिश रचने लगे. चारों ओर तरहतरह की अफवाहें रंग लेने लगीं, पर बापबेटे ने पूरे गांव को खरीखोटी सुनाते हुए अपने हक की लड़ाई जारी रखी. इस काम में रामकुमार तन, मन और धन से उन के साथ था. उस ने जिले के नामचीन वकील से तिवारीजी की मुलाकात कराई और उस की सलाह पर ही पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई.

छोटीमोटी इस उड़ान को भरतेभरते अंकिता और रामकुमार कब एकदूसरे को दिल दे बैठे, इस का उन्हें पता ही नहीं चला. इस बात की भनक पूरे गांव को लग जाती है. लोग इस बेमेल प्यार को जाति का रंग दे कर तिवारी और चौहान परिवार को बदनाम करने की कोशिश करते हैं. इस काम में अंकिता के ताऊजी अग्रणी भर थे.

गंगाप्रसादजी के परिवार को जब इस बात की जानकारी होती है, तो वे राजीखुशी इस रिश्ते को स्वीकार कर लेते हैं. इतने वर्षों तक बड़े शहर में रहते हुए उन की सोच भी बड़ी हो चुकी होती है. जातिबिरादरी के बजाय सम्मान, इज्जत और इनसानियत को वे तवज्जुह देना जानते थे. जमाने के बदलते दस्तूर के साथ परिवर्तन की आंधी अब अपना रंग जमा चुकी थी.

अंकिता ने अपना निर्णय सुनाया, “बाबूजी, मैं रामकुमार से प्यार करती हूं और हम शादी के पवित्र बंधन में बंध कर अपनी नई राह बनाना चाहते हैं.”

“बेटी, हम तुम्हारे निर्णय का स्वागत करते हैं. हमें तुम पर पूरा भरोसा है. अपना भलाबुरा तुम अच्छी तरह जानती हो. चौहान परिवार के हम पर बड़े उपकार हैं.”

आखिर में चौहान और तिवारी परिवार आपसी रजामंदी से उसी गांव में विरोधियों की छाती पर मूंग दलते हुए अंकिता और रामकुमार की शादी बड़े धूमधाम से संपन्न करा दी.

एक दिन वह भी आया, जब गंगाप्रसादजी अपनी जमीनजायदाद की लड़ाई जीत गए और उन की खोई हुई संपत्ति उन्हें वापस मिल गई. जालसाजी के केस में उन के बड़े भाई को जेल जाने की नौबत आ गई.

Hindi Thriller Stories : इकबाल से शादी करने के लिए क्या था निभा का झूठ?

Hindi Thriller Stories : इकबाल जल्दीजल्दी निभा के लिए केक बना रहा था. दरअसल, आज निभा का बर्थडे था. इकबाल ने अपने औफिस से छुट्टी ले ली थी. वह निभा को सरप्राइज देना चाहता था.

उस ने निभा की पसंद का खाना बनाया था, पूरा घर सजाया था और निभा के लिए एक खूबसूरत सी ड्रैस भी खरीदी थी. आज की शाम वह निभा के लिए यादगार बना देना चाहता था.

शाम में जब निभा घर लौटी तो इकबाल ने दरवाजा खोला. निभा के अंदर कदम रखते ही इकबाल ने पंखा चला दिया और रंगबिरंगे फूल निभा के ऊपर गिरने लगे. निभा को बांहों में भर कर इकबाल ने धीरे से कहा,”जन्मदिन मुबारक हो मेरी जान.”

इकबाल का हाथ थाम कर निभा ने कहा,”सच इकबाल, तुम मेरी जिंदगी की सच्ची खुशी हो. कितना प्यार करते हो मुझे. ख्वाहिशों का आसमान छू लिया है मैं ने तुम्हारे दम पर… अब तमन्ना यही है मेरा दम निकले तुम्हारे दर पर…”

इकबाल ने उस के होंठों पर उंगली रख दी,”दम निकलने की बात दोबारा मत करना निभा. तुम ने मेरी जिंदगी हो. तुम्हारे बिना मैं अधूरा हूं.”

केक काट कर और गिफ्ट दे कर जब इकबाल ने अपने हाथों से तैयार किया हुआ खाना डाइनिंग टेबल फर सजाया तो निभा की आंखों में आंसू आ गए,”इतना प्यार मत करो मुझ से इकबाल. हम लिवइन में रहते हैं मगर तुम तो मुझे पत्नी से ज्यादा मान देते हो. हमारा धर्म एक नहीं पर तुम ने प्यार को ही धर्म बना दिया. मेरे त्योहार तुम मनाते हो. मेरे रिवाज तुम निभाते हो. मेरा दिल हर बार तुम चुराते हो. कब तक चलेगा ऐसा?”

“जब तक धरती पर मैं हूं और आसमान में चांद है…”

दोनों एकदूसरे की बांहों में खो गए थे. धर्म, जाति, ऊंचनीच, भाषा, संस्कृति जैसे हर बंधन से आजाद उन का प्यार पिछले 5 सालों से परवान चढ़ रहा था.

5 साल पहले एक कौमन फ्रैंड की पार्टी में दोनों मिले थे. उस वक्त दोनों ही दिल्ली में नए थे और जौब भी नईनई थी. समय के साथसाथ दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो गई. एकदूसरे के विचार और व्यवहार से प्रभावित इकबाल और निभा धीरेधीरे करीब आने लगे थे. दोनों के बीच दूरियां सिमटने लगीं और फिर दोनों अलगअलग घर छोड़ कर एक ही घर में शिफ्ट हो गए. किराया तो बचा ही जीवन को नई खुशियां भी मिलीं.

जल्दी ही दोनों ने मिल कर एक फ्लैट किस्तों पर ले लिया. दोनों मिल कर मकान की किस्त भी देते और घर के दूसरे खर्चे भी करते. दोनों के बीच प्यार गहरा होता गया. रिश्ता गहरा हुआ तो दोनों ने घर वालों को बताने की सोची.

इकबाल के घर वालों में केवल मां थीं जो बहुत सीधी थीं. वह तुरंत मान गई थीं. मगर निभा के यहां स्थिति विपरीत थी. उस के पिता इलाहाबाद के जानेमाने उद्योगपति थे. शहर में अपनी कोठी थी. 3-4 फैक्ट्रियां थीं. 100 से ज्यादा मजदूर काम करते थे. उन की शानोशौकत ही अलग थी. पैसों की कोई कमी नहीं थी पर पतिपत्नी दोनों ही अव्वल दरजे के धार्मिक और कट्टरमिजाज थे. मां अकसर ही धार्मिक कार्यक्रमों में शरीक हुआ करती थीं.

धर्म की तो बात ही अलग है. यहां तो जाति के साथसाथ गोत्र, वर्ण, कुंडली सब कुछ देखा जाता था. ऐसे में निभा को हिम्मत ही नहीं हो रही थी कि वह घर वालों से कुछ कहे.

एक बार दीवाली की छुट्टियों में जब वह घर गई तो उसे शादी के लिए योग्य लड़कों की तसवीरें दिखाई गईं. निभा ने तब पिता से सवाल किया,”पापा क्या मैं अपनी पसंद के लड़के से शादी नहीं कर सकती?”

पापा ने गुस्से से उस की तरफ देखा. तब तक मां ने उन्हें चुप रहने का इशारा किया और बोलीं,” देख बेटा, तू अपनी पसंद की शादी करने को तो कर सकती है, पर इतना ध्यान रखना कि लड़का अपने धर्म, अपनी जाति और अपनी हैसियत का होना चाहिए. थोड़ा भी इधरउधर हम स्वीकार नहीं करेंगे. इसलिए प्यार करना भी है तो आंखें खोल कर. वरना तू तो जानती ही है गोलियां चल जाएंगी.”

“जी मां,” कह कर निभा खामोश हो गई.

उसे पता था कि इकबाल के बारे में बता कर वह खुद ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी दे मारेगी. इसलिए उस ने रिश्ते का सच छिपाए रखना ही उचित समझा. वक्त इसी तरह बीतता रहा.

एक दिन सुबह निभा बड़ी परेशान सी बालकनी में खड़ी थी. इकबाल ने पीछे से उसे बांहों में भरते हुए पूछा,”हमारी बेगम के चेहरे पर उदासी के बादल क्यों छाए हुए हैं?”

निभा ने खुद को छुड़ाते हुए परेशान स्वर में कहा,”क्योंकि आप के शहजादे दुनिया में आने के लिए निकल चुके हैं.”

“क्या?”

“हां इकबाल. मैं मां बनने वाली हूं और यह जिम्मेदारी मैं अभी उठा नहीं सकती. एक तरफ घर वालों को कुछ पता नहीं और दूसरी तरफ मेरा कैरियर भी पीक पर है. मैं यह रिस्क अभी नहीं ले सकती.”

“तो ठीक है निभा गर्भपात करा लो. मुझे भी यही सही लग रहा है.”

“पर क्या यह इतना आसान होगा?”

“आसान तो नहीं होगा बट डोंट वरी, हम पतिपत्नी की तरह व्यवहार करेंगे और कहेंगे कि एक बच्चा पहले से है और इसलिए अभी दूसरा बच्चा इतनी जल्दी नहीं चाहते.”

“देखो क्या होता है. शाम को आ जाना मेरे औफिस में. वहीं से लैडी डाक्टर के पास चलेंगे. ”

और फिर निभा ने वह बच्चा गिरा दिया. इस के 5-6 महीने बाद एक बार फिर गर्भपात कराना पड़ा. निभा को काफी अपराधबोध हो रहा था. शरीर भी कमजोर हो गया था. पर वह करती क्या…. उसे कोई और रास्ता ही समझ नहीं आया था. पर अब इस बात को ले कर वह काफी सतर्क हो गई थी और जरूरी ऐहतियात भी लेने लगी थी.

एक दिन औफिस में ही उस के पास खबर आई कि उस के पिता का ऐक्सीडैंट हो गया है और वे काफी गंभीर अवस्था में हैं. निभा एकदम बदहवाश सी घर लौटी और जरूरी सामान बैग में डाल कर निकल पड़ी. अगली सुबह वह हौस्पिटल में थी. उस के पापा आखिरी सांसें ले रहे थे.

उसे देखते ही पापा ने कुछ बोलने की कोशिश की तो वह करीब खिसक आई और हाथ पकड़ कर कहने लगी,” बोलो पापा, आप क्या कहना चाहते हैं?”

“बेटा मैं चाहता हूं कि मेरा सारा काम तुम्हारा चचेरा भाई नहीं बल्कि तुम संभालो. वादा कर बेटा…”

निभा ने उन के हाथों पर अपना हाथ रख कर वादा किया. फिर कुछ ही देर बाद उन का देहांत हो गया. अंतिम संस्कार की पूरी प्रक्रिया कर वह 14 दिनों बाद दिल्ली लौटी. इकबाल भी औफिस से जल्दी आ गया था. निभा उस के गले लग कर बहुत रोई और फिर अपना सामान पैक करने लगी.

इकबाल चौंकता हुआ बोला,”यह क्या कर रही हो निभा?”

“मुझे हमेशा के लिए घर लौटना पड़ेगा इकबाल. पापा ने वादा लिया है मुझ से. उन का सारा कारोबार मुझे संभालना है.”

“वह तो ठीक है मगर एक बार मेरी तरफ भी तो देखो. मैं यहां अकेला तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा? मकान की किस्तें, अकेलापन और तुम्हारे बिना जीने का दर्द कैसे उठा पाऊंगा? नहीं निभा नहीं. मैं नहीं रह पाऊंगा ऐसे…”

“रहना तो पड़ेगा ही इकबाल. अब मैं क्या करूं?”

“मत जाओ निभा. यहीं से संभालो अपना काम. कोई मैनेजर नियुक्त कर लो जो तुम्हें जरूरी जानकारी देता रहेगा.”

“इकबाल लाखोंकरोड़ों का कारोबार ऐसे नहीं संभलता. पापा अपने कारोबार के प्रति बहुत जनूनी थे. उन्होंने कोई भी काम मातहतों पर नहीं छोड़ा. हर काम में खुद आगे रहते थे. तभी आज इस मुकाम तक पहुंचे. उन्हें मेरे चचेरे भाई पर भी यकीन नहीं. मेरे भरोसे छोड़ कर गए हैं सब कुछ और मैं उन को दिया गया अंतिम वचन कभी तोड़ नहीं सकती.”

“और मुझ से किए गए प्यार के वादे? उन का क्या? उन्हें ऐसे ही तोड़ दोगी? नहीं निभा, तुम्हारे बिना मैं यहां 2 दिन भी नहीं रह सकता.”

“तो फिर चले आओ न…” आंखों में चमक लिए निभा ने कहा.

“मतलब?”

“देखो इकबाल, तुम एक बार मेरे पास इलाहाबाद आ जाओ. हमें एकदूसरे की कंपनी मिल जाएगी और फिर देखेंगे…कोई न कोई रास्ता भी निकाल ही लेंगे.”

फिर क्या था 10 दिन के अंदर ही इकबाल इलाहाबाद पहुंच गया. दोनों ने एक होटल में मुलाकात कर आगे की योजना तैयार की.

अगली सुबह इकबाल मैनेजर बन कर निभा के घर में खड़ा था. निभा ने अपनी मां से इकबाल का परिचय कराया,” मां यह बाला हैं. हमारे नए मैनेजर.”

इकबाल ने बढ़ कर मां के पैर छू लिए तो मां एकदम से अलग होती हुई बोलीं,”अरे नहीं बेटा. तुम मैनेजर हो. मेरे पैर क्यों छू रहे हो?”

“क्योंकि बड़ों के आशीर्वाद से ही सफलता के रास्ते खुलते हैं मां.”

“बेटा अब तुम ने मुझे मां कहा है तो यही आशीष देती हूं कि तुम्हारी हर इच्छा पूरी हो.”

बाला यानी इकबाल ने हाथ जोड़ कर आशीर्वाद लिया और अपने काम में लग गया. निभा ने मां को बताया, “मां, दरअसल बाला कालेज में मेरा क्लासमैट था. इस ने एमबीए की पढ़ाई की हुई है. पढ़ाई के बाद कुछ समय से दिल्ली में काम कर रहा था. यहां मुझे अकेले इतना बड़ा कारोबार संभालना था तो मेरी हैल्प के लिए आया है. वैसे इस का घर तो जमशेदपुर में है. यहां बिलकुल अकेला है यह. मां, क्या हम इसे अपने बड़े से घर में रहने के लिए एक छोटा सा कमरा दे सकते हैं?”

“क्यों नहीं बेटा? इसे गैस्टरूम में ठहरा दो. कुछ दिनों में यह खुद अपने लिए कोई घर ढूंढ़ लेगा.”

“जी मां…” कह कर निभा अपने कैबिन में चली गई. योजना का पहला चरण सफलतापूर्वक संपन्न हुआ था. इकबाल घर में आ भी गया था और मां को कोई शक भी नहीं हुआ था. मैनेजर के रूप इकबाल बाला बन कर निभा के साथ काम करने लगा.

धीरेधीरे समय बीतने लगा. इकबाल और निभा ने मिल कर कारोबार अच्छी तरह संभाल लिया था. मां भी खुश रहने लगी थीं. इकबाल समय के साथ मां के संग काफी घुलमिल गया. वह मां की हरसंभव सहायता करता. हर मुश्किल का हल निकालता. बेटे की तरह अपनी जिम्मेदारियां निभाता. यही नहीं, कई बार उस ने अपने हाथों से बना कर मां को स्वादिष्ठ खाना भी खिलाया. उस के बातव्यवहार से मां बहुत खुश रहती थीं.

इस बीच दीवाली आई तो इकबाल ने उन के साथ मिल कर त्योहार मनाया. किसी को कभी एहसास ही नहीं हुआ कि वह हिंदू नहीं है.

एक बार कारोबार के किसी काम के सिलसिले में निभा को दिल्ली जाना था. इकबाल भी साथ जा रहा था. तभी मां ने कहा कि वे भी दिल्ली घूमना चाहती हैं. बस फिर क्या था, तीनों ने काम के साथसाथ घूमने का भी कार्यक्रम बना लिया.

तीनों अपनी गाड़ी से दिल्ली के लिए निकले. लेकिन नोएडा के पास हाईवे पर अचानक निभा की गाड़ी का ऐक्सीडैंट हो गया. उस वक्त निभा गाड़ी चला रही थी और मां बगल में बैठी थीं. ऐक्सीडैंट इतना भयंकर हुआ कि गाड़ी पूरी तरह डैमेज हो गई. निभा को गहरी चोटें लगीं पर उतनी नहीं जितनी मां को लगीं. मां के सिर में कांच घुस गए थे और खून बह रहा था. वह बीचबीच में होश में आ रही थीं और फिर बेहोश हो जा रही थीं.

करीब 2 किलोमीटर की दूरी पर एक बड़ा अस्पताल था. निभा ने मां को वहीं ऐडमिट करने का फैसला लिया.

रात का समय था. हाईवे का वह इलाका थोड़ा सुनसान था. हाथ देने पर भी कोई भी गाड़ी रुकने का नाम नहीं ले रही थी. कोई और उपाय न देख कर इकबाल ने मां को गोद में उठाया और तेजी से अस्पताल की तरफ भागा. पीछेपीछे निभा भी भाग रही थी.

निभा ने ऐंबुलैंस वाले को काल किया मगर ऐंबुलैंस को आने में वक्त लग रहा था. इतनी देर में इकबाल खुद ही मां को गोद में उठाए अस्पताल पहुंच गया.

मां को तुरंत आईसीयू में ऐडमिट किया गया. उन्हें खून की जरूरत थी. संयोग था कि इकबाल का ब्लड ग्रुप ओ पौजिटिव था. उस ने मां को अपना खून दे दिया. मां को बचा लिया गया था. इस दौरान इकबाल लगातार दौड़धूप करता रहा.

इस घटना ने मां के दिल में इकबाल की जगह बहुत ऊंची कर दी थी. वापस घर लौट कर एक दिन मां ने इकबाल को सामने बैठाया और प्यार से उस के बारे में सब कुछ पूछने लगीं. पास ही निभा भी बैठी हुई थी.

निभा ने मां का हाथ पकड़ कर कहा,”मां मैं आज आप से एक हकीकत बताना चाहती हूं.”

“वह क्या बेटा?”

“मां यह बाला नहीं इकबाल है. हम ने झूठ कहा था आप से.”

इतना कह कर वह खामोश हो गई और मां की तरफ देखने लगी. मां ने गौर से इकबाल की तरफ देखा और वहां से उठ कर अपने कमरे में चली गईं. दरवाजा बंद कर लिया. निभा और इकबाल का चेहरा फक्क पड़ गया. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि अब इस परिस्थिति से कैसे निबटें.

अगले दिन तक मां ने दरवाजा नहीं खोला तो निभा को बहुत चिंता हुई. वह दरवाजा पीटती हुई रोतीरोती बोली,”मां, माफ कर दो हमें. तुम नहीं चाहती हो तो मैं इकबाल को वापस भेज दूंगी. गलती मैं ने की है इकबाल ने नहीं. मैं ने ही उसे बाला बन कर आने को कहा था. प्लीज मां, माफ कर दो.”

मां ने दरवाजा खोल दिया और मुंह घुमा कर बोलीं,”गलती तुम्हारी नहीं. गलती बाला की भी नहीं. गलती तो मेरी है जो मैं उसे पहचान न सकी.”

निभा और इकबाल परेशान से एकदूसरे की तरफ देखने लगे. तभी पलटते हुए मां ने हंस कर कहा,”बेटा, मैं ही पहचान न सकी कि तुम दोनों के बीच कितना गहरा प्यार है. इकबाल कितना अच्छा इंसान है. धर्म या जाति से क्या होता है? यदि सोचो तो समझ आएगा. बेटा, पलभर में मेरा धर्म भी तो बदल गया न जब इकबाल ने मुझे अपना खून दिया. मेरे शरीर में उसी का खून तो बह रहा है. फिर क्या अंतर है हम में या उस में. इतने दिनों में जितना मैं ने समझा है इकबाल मुझे एक शरीफ, ईमानदार और साथ निभाने वाले लड़का लगा है. इस से बेहतर जीवनसाथी तुम्हें और कौन मिलेगा?”

“सच मां, आप मान गईं…” कह कर खुशी से निभा मां के गले लग गई. आज उसे जिंदगी की सब से बड़ी खुशी मिल गई थी. पास ही इकबाल भी मुसकराता हुआ अपने आंसू पोंछ रहा था

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