लेखिका- मीना गुप्ता
Interesting Hindi Stories : ‘‘कहींदूर जब दिन ढल जाए सांझ की दुलहन बदन चुराए…’’ गाना गुनगुनाते हुए राज बाथरूम से निकला और फिर बोला, ‘‘भाभीजी, मेरा नाश्ता… आज मुझे जल्दी जाना है.’’
‘‘क्या बात है देवरजी बड़े खुश नजर आ रहे हैं? रोज सांझ की दुलहन को याद करते हैं?’’
‘‘कुछ नहीं भाभी रेडियो पर बज रहा था न, तो यों ही दिल किया गुनगुनाने का.’’
‘‘जब कोई गीत गुनगुनाने का दिल करे तो इस का क्या मतलब होता है जानते हैं?’’
‘‘नहीं जानता,’’ राजन ने लापरवाही से कहा.
‘‘मतलब इस गीत के लफ्ज अंदर कहीं जगह बना रहे हैं. वह हर गीत जो हमारी जबान पर बारबार आता है कहीं न कहीं हमारे जज्बातों से जुड़ कर आता है.’’
‘‘ओह भाभी, आप भी… कोई नहीं है… आप यों ही…’’
‘‘कोई औफिस में देख ली क्या? मुझे धीरे से बता दीजिए. मैं आप के भैया से कह कर सब बात तय कर लूंगी.’’
‘‘नहीं है भाभी. अगर होती तो जरूर बताता.’’
‘‘सच?’’
‘‘हां भाभी, बिलकुल,’’ कह राजन ने राधिका को थोड़ा मुसकरा कर देखा और फट से बोला, ‘‘एक बात कहूं?’’
‘‘कहिए.’’
‘‘मुझे तो सांझ की दुलहन ही चाहिए.’’
‘‘देवरजी वह कैसी होती है. हम ने तो ऐसी कोई दुलहन सुनी ही नहीं.’’
‘‘बस बहुत सुंदर… ढलती शाम की तरह शांत, अपने आगोश में सारे उजाले को समेटे हुए… 2 पर्वतों के बीच डूबते सुरमई सूरज की तरह… पेड़ों की शाखाओं से झांकती किरणों की तरह, शाम को घर लौटते परिंदों की तरह और तारों भरे झिलमिल करते अंबर की तरह, जागती आंखों में सपनों की तरह, बहुत सुंदर.’’
‘‘तो आप यह क्यों नहीं कहते कि आप को किसी कविता से शादी करनी है?’’
‘‘कविता नहीं भाभी हकीकत होगी वह, हकीकत… वैसी ही हकीकत जैसे शाम अपनेआप में स्वप्निल हो कर भी एक हकीकत है. मुझे और कुछ नहीं चाहिए. कोई दहेज नहीं… कोई डिमांड नहीं.’’
‘‘तो मैं ये समझूं कि आप तलाश में हैं?’’
‘‘अभी तक ऐसी कोई नहीं.’’
‘‘तो फिर?’’
‘‘अभी तो सिर्फ बंद आंखों में झांकती है.’’
राधिका ने मजाक किया, ‘‘तो क्या कहती है? मैं भी तो सुनूं.’’
‘‘कुछ नहीं बस आती है और चली जाती है… कल शाम को आने का वादा कर के.’’
‘‘देवरजी ने सपने देखने शुरू कर दिए हैं… शुभ संकेत… बाबूजी को दे देती हूं,’’ नाश्ते की प्लेट पकड़ाते हुए राधिका मुसकराई.
राजन राधिका का देवर, बेहद भावुक और सहृदय. मन गंगा की तरह पवित्र…
सागर की गहराई भी उसे न छू सके. सब के साथ सब का हो कर रहना उस की खास पहचान. सारी कालोनी राजन भैया कह कर बुलाती और आतेजाते सभी से अनजाने ही पहचान हो जाती. कब, किस से कैसे पहचान बनी पूछने पर पता चलता कि यों ही चलते चलते.
रास्ते में कोई मिला अपनी परेशानी सुनाई और राजन भैया ने बिना जानेपहचाने कर दी मदद.
कौन था पूछने पर कहता कि जरूरतमंद था… मदद कर दी.
‘‘कब मिला था पहली बार वह तुम्हें?’’
‘‘बस यों ही चलतेचलते.’’
भाभी मजाक कर उठती, ‘‘देवरजी यों ही चलतेचलते वह नहीं मिलती?’’
‘‘वह ऐसे नहीं मिलेगी.’’
‘‘तो फिर कैसे मिलेगी?’’
‘‘उस के लिए तो आप को कोशिश करनी होगी. चलतेचलते तो बहुत मिलती हैं, लेकिन भाभी वह… वह नहीं होती.’’
राधिका और बाबूजी दोनों परेशान कि कब हां करेगा? कहता था कि शादी ही नहीं करूंगा.
बहुत दिनों बाद उस दिन उसे खुश देख कर राधिका ने यह सवाल किया कि कोई पसंद कर ली क्या?
राजन औफिस चला गया तो राधिका सोचने लगी कि कितना भोला है यह लड़का. आज के जमाने में इतना पवित्र सौंदर्य कहां मिलेगा? कैसे ढूंढें? आज शिब्बू से बात करती हूं.’’
‘‘क्या सोच रही हो?’’ अपने कमरे से बाहर आते हुए शिब्बू ने पूछा.
‘‘सोच रही हूं इतनी सुंदर कहां से लाएंगे?’’
‘‘क्या लेने जा रही हो तुम.’’
‘‘देवरजी के लिए सांझ की दुलहन.’’
‘‘क्या मजाक करती रहती हो?’’
‘‘हां अभीअभी कह कर निकले कि मुझे तो सांझ जैसी दुलहन चाहिए… वह स्वप्निल सांझ की तरह सुंदर हो… आज तुम्हारे भाई साहब भी पूरे शायर नजर आ रहे थे.’’
‘‘तो देवर किस का है?’’ शिब्बू ने राधिका की ओर तिरछी मुसकान डाल कर कहा, ‘‘चलो, कुछ बोला तो.’’
‘‘कुछ नहीं बहुत कुछ बोले.’’
‘‘तो ढूंढ़ दो न बहुत कुछ.’’
‘‘कहां से लाऊंगी ऐसी परी? नखरे भी तो उठाने पड़ेंगे उस के?’’
‘‘तो भाभी और देवर दोनों मिल कर उठाना… क्या उस ने कोई ढूंढ़ रखी है?’’
‘‘नहीं.’’
‘‘तो फिर?’’
‘‘कल्पना में तलाश रहे हैं. कहते हैं, हकीकत होगी… और आप उसे सच करेंगी.’’
‘‘तो फिर जाओ किसी शायर के पास… कोई अच्छी सी गजल लिखवा लाओ और फिर कहना यह लो आ गई तुम्हारी दुलहन… पगला है.’’
‘‘वह तो है, मगर उन्होंने बड़ी मुश्किल से हां की है, तो कोशिश करनी ही होगी.’’
‘‘हां तो करो कोशिश. तुम जाओ सांझ की दुलहन लेने और मैं चला अपने काम पर,’’ यह शिब्बू भी निकल गया अपनी अनवरत यात्रा पर. रुकने का नाम ही नहीं लेता. जब भी बात करता ऊंचे आसमान में उड़ने की. धरती पर कदम रखना छोड़ दिया था उस ने. उड़ना है… उड़ते ही जाना है. किसी ने रोका नहीं, किसी ने टोका नहीं और शिब्बू ने अपना काम इतना फैला लिया कि अब उस के पास खुद को समेटने के लिए भी वक्त नहीं.
राधिका आसमान में उड़ते पंछी को देखती रही जो शाम को घर वापस आ जाएगा. मगर कुछ परिंदे ऐसे भी होते हैं, जो रात ढले ही लौटते हैं. शायद यह परिंदा भी रात ढले ही आएगा और अपने नीड़ में चुपचाप बिना आहट के ही सो जाएगा. राधिका दूर तक उसे जाती देखती रही.
तभी बाहर से आवाज आई, ‘‘बहू दूध आ गया है.’’
‘‘हां बाबूजी… बाबूजी आप का नाश्ता भी तैयार है.’’
नाश्ता देते राधिका ने कहा, ‘‘बाबूजी, आप से कुछ कहना है.’’
‘‘कहो बहू?’’
‘‘राजन भैया ने शादी के लिए हां कर दी है.’’
‘‘अरे वाह, कब बोला और कैसी चाहिए उसे?’’
‘‘कहता है कि लड़की सुंदर होनी चाहिए.’’
‘‘तो उस में क्या है? हमारी रिश्तेदारी में अनेक सुंदर लड़कियां हैं. वह जिसे पसंद करेगा उस से रिश्ता तय समझो. बहू तुम उधर संभालो मैं इधर संभालता हूं,’’ बाबूजी ने खनकती आवाज में कहा…
‘‘कब से इस उम्मीद में था कि दूसरी बहू आएगी और…’’
‘‘और क्या बाबूजी?’’
‘‘कुछ नहीं बहू…’’ बाबूजी बात अधूरी छोड़ कर बोले.
मगर राधिका इस ओर से भलीभांति परिचित हो चुकी थी. उस के विवाह को 5 साल हो गए थे और बाबूजी तरस रहे थे अपने आंगन के खिलौने के लिए.
‘‘अरे विश्रुतजी, लड़की को आप देखते ही रह जाएंगे… न करने का तो सवाल ही नहीं उठेगा. बस एक नजर की ही बात रहेगी,’’ दूर के एक रिश्तेदार ने कहा.
शाम को राधिका ने ससुरजी की पूरी बात सुनी. परिवार के हर सदस्य की खुशी की परवाह में जीती राधिका का मन न जाने क्यों आशंकित हो उठा कि राजन बहुत भोला है और वह लड़की होस्टल में पढ़ने वाली.
फिर रात को शिब्बू के घर आते ही राधिका ने अपनी आशंका जाहिर की.
‘‘अरे, यह जरूरी तो नहीं कि होस्टल में पढ़ने वाली हर लड़की तेज हो…, हां स्मार्ट तो होगी ही. वहां का परिवेश ही ऐसा होता है. तुम अभी से क्यों परेशान हो.’’ शिब्बू ने कहा.
राजन को कुछ बताए बिना ही बाबूजी ने आदेश दिया, ‘‘आज एक मित्र के यहां जाना है. सभी के साथ तुम्हें भी चलना होगा.’’
राजन ने बिना कुछ पूछे ही हां कह दी. राधिका मन ही मन मुसकराई कि कितना भोला है… यह भी नहीं पूछा कि जाना कहां है?
लड़की आई. सच में बेहद खूबसूरत.
राधिका ने तो देखते ही कह दिया, ‘‘देवरजी सांझ की दुलहन यही तो थी.’’
‘‘क्या यही है वह,’’ राजन ने धीरे से पूछा और फिर मुसकरा कर अपनी सहमति दे दी.
और किसी औपचारिकता की जरूरत नहीं थी. बाबूजी ने कहा, ‘‘हमें और कुछ नहीं चाहिए… पर एक बात बहुत साफ कहना चाहूंगा कि हमारे घर में एक और बहू है… बहुत संस्कारी है… नई बहू घर की खुशी बरकरार रखे हमें बस इतना ही चाहिए. ’’
राधिका सोच रही थी कि कभी उस ने अपने हाथों से गिलास भी नहीं उठाया होगा… कमरे में उस ने खुले पैर ही प्रवेश किया. नाजुक सी एडि़यां चुपचुप झांक पड़ी… चेहरे की लालिमा उन में आ गई थी. शरीर का हर अंग जैसे नापतोल कर बनाया गया था… कहीं भी कुछ अधिक या कम नहीं. जो था अपनी जगह सही और सटीक. शायद फुरसत में नहीं एकांत में बनाई गई थी वह रचना. अंगों का बांकपन और सौंदर्य की वह पराकाष्ठा…
राधिका ने एक बार पुन: अपनी शंका सब के सामने रखनी चाही, ‘‘इतनी सुंदर… इसे हम लोग संभाल पाएंगे? घर का कामकाज कर सकेगी?’’
‘‘नहीं करेगी तो क्या हुआ हम कर लेंगे,’’ राजन ने कहा.
‘‘इस के नाजनखरे भी उठाने पड़े तो?’’
‘‘हम उठा लेंगे,’’ राजन ने कहा.
‘‘वाह यह हुई न बात… तुम क्यों एक ही बात के पीछे पड़ी हो,’’ शिब्बू ने कहा.
बाबूजी ने भी कहा, ‘‘बहू वह राजन का काम है. इस की मरजी यह जैसा चाहेगा करेगा.’’
सारे दिन की थकान से चूर राधिका ने बिस्तर थामा था. फिर भी आंखों में नींद नहीं थी. एक बात अब भी घूम रही थी कि राजन बहुत सीधा है.
शादी की तैयारी में व्यस्त राधिका को पता ही नहीं रहता कहां है और किस जगह
नहीं है? हर जगह उस का होना जरूरी. घर में आने वाले मेहमानों के इंतजाम से ले कर दूल्हेदुलहन का जोड़ा भी उसे ही तैयार करना था. उस पर क्या अच्छा लगेगा यह राजन से ही पूछा जाता. राजन सुंदरी से पूछता.
‘‘मौडर्न जमाना है,’’ बाबूजी कहते.
दुलहन का जोड़ा पसंद होने के बाद राजन ने कहा, ‘‘भाभीजी आप के लिए पसंद कर दूं या भैया से करवाएंगी?’’
‘‘आप के भाई साहब ने इस के पहले कभी पसंद किया है जो अब करेंगे?’’ कह कर राधिका मन ही मन सोचने लगी कि शिब्बू तो कभी यह भी नहीं कहता कि तुम साड़ी में अच्छी लगती हो या इस रंग में तुम खिला जाती हो… उस से कहा भी था कि बहू के कपड़े पसंद करने तुम भी चलो तो उस ने कह दिया था कि तुम ही चली जाओ. मैं नहीं जा सकता… यह मेरा काम नहीं है… अपने देवर को ले जाओ, वह पसंद कर देगा. उस की आंखें क्यों नम हो आईं. कहीं राजन भैया का उत्साह तो इस पीड़ा का कारण नहीं?
‘‘अरे भाभी, क्या सोच रही हैं?’’
‘‘कुछ नहीं,’’ राधिका ने चुपके से अपनी नम कोरों को पोछते हुए कहा.
‘‘अच्छा… चलिए अब आप के लिए पसंद करते हैं… आप पर यह जरी बौर्डर वाली काली साड़ी बहुत खिलेगी.’’
‘‘नहीं देवरजी काला रंग शुभ नहीं होता.’’
‘‘ऐसा किस ने कह दिया? यह रंग तो फैशन में है,’’ और फिर राजन ने राधिका पर किसी अनुभवी की तरह साड़ी डालते हुए कहा, ‘‘अब देखिए आप कैसी लग रही हैं?’’
राधिका के गोरे बदन पर वह साड़ी खिल उठी.
दुकानदार ने कहा, ‘‘वाह क्या पसंद है?’’
राजन चिढ़ गया. उसे मालूम था कि वह अपनी चीज की प्रशंसा कर रहा है, राधिका की नहीं.
राजन ने राधिका के आंसू देख लिए थे, इसलिए बोला, ‘‘भाभी, मैं उसे बहुत प्यार दूंगा उस की आंखों से गिरा हर आंसू मेरी ही आंख में पनाह लेगा.’’
‘‘राधिका के होंठों पर दर्द भरी मुसकान तैर गई, ‘‘देवरजी, आप सच में बहुत अच्छे हैं.’’
राजन ने शौपिंग का सारा खर्च उठाते हुए कहा, ‘‘भाभी आने दो उसे वह आप की दोस्त बन कर रहेगी.’’
राधिका को उस संध्या सुंदरी से जलन हो रही थी. फिर भी वह खुश थी. घर में सारे मेहमान आ चुके थे और वह स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रही थी. आखिर देवर के लिए रानी जो ला रही है. बाबूजी का हुक्म था जब तक शादी पूरी न हो जाए शहनाई बजती रहनी चाहिए. शहनाई की धुनों में ही बहू ने घर में कदम रखा. कलश पर पैर से ठोकर दे नववधू को चावल गिराने थे और राजन को समेटने थे. उस ने चावल इतनी दूर फैला दिए कि राजन बेचारा समेटता रह गया.
राधिका ने देखा तो कहा, ‘‘देवरानीजी धीरे मारिए, देवरजी को तकलीफ होगी समेटने में. ’’
कुछ ही दिनों बाद राधिका की आशंका सही साबित होने लगी. वह तो सच में रानी थी. 10 बजे सो कर उठती तो बाबूजी से छिप कर राजन उसे चाय बना कर देता.
जब बाबूजी ने उस से कहा कि बहू राधिका की मदद
किया करो तो वह असमर्थता सी जताते हुए बोली, ‘‘मुझे नहीं आता, कैसे करूं? बिगड़ गया तो?’’
‘‘वह तो सो कर ही 10 बजे उठती है बाबूजी… रहने दीजिए,’’ राधिका ने कहा.
उस की खूबसूरती में कहीं दाग न लग जाए यह सोच कर रसोई और अन्य कामों से दूर ही रखा गया. सारे नाज भी उठाए गए.
उस के आने के बाद राधिका ने खुद को अकेला महसूस किया था. अब राजन रसोई में खड़ा हो कर उस से बातें नहीं करता. समय नहीं था. घर के बदले माहौल को राधिका ही संभाल कर रखती. सुंदरी की गलतियों को वह सब से छिपा जाती. यह बात सुंदरी ने समझ ली थी. वह राधिका की आड़ में खेल करती, जिसे राधिका जान कर भी अनजान बन जाती ताकि घर की सुखशांति बनी रहे. धीरेधीरे समझ जाएगी. मगर सुंदरी ने हर दिन परिवार के उसूलों को तोड़ने की कोशिश की. हर दिन राजन से एक फरमाइश. आए दिन पार्टी… आए दिन सिनेमा.
बाबूजी ने एक दिन ऐतराज किया.
‘‘तो इस में बुराई क्या है… अपनी सहेलियों के साथ ही तो हूं,’’ तीखे स्वर में उस ने जवाब दिया.
‘‘ठीक है तुम राजन से पूछ लो.’’
राजन ने हां कह दी.
घर से बाहर रहने का समय बढ़ता रहा. तब बाबूजी ने कहा, ‘‘राजन, देखो इतनी छूट सही नहीं. आखिर वह घर की बहू है. घर में एक बहू और भी तो है. उस ने तो कभी ऐसा नहीं किया?’’
‘‘क्या हुआ बाबूजी? सहेलियों के साथ ही तो है… आप परेशान न होइए. मैं हूं न.’’
‘‘मगर उस के होस्टल के लड़के भी तो गए हैं,’’ बाबूजी ने कड़क आवाज में कहा.
राजन ने पहली बार बाबूजी से तर्क किया, ‘‘होस्टल में पढ़ी है… खुले विचारों की है. कैसे मना करूं? धीरेधीरे समझ जाएगी.’’
राधिका ने भी बाबूजी को समझाया, ‘‘बाबूजी, एक संतान के आते ही बंध जाएगी. बस देर आने की है.’’
घर की नववधू ने रात 9 बजे घर में कदम रखा. साथ में कौन है, बाबूजी ने खिड़की से झांक कर देखना चाहा. सुंदरी उस लड़के के हाथ में हाथ डाले थी. वहीं 2 हाथ खिलखिलाहट के साथ हवा में लहरा गए और खिलखिलाहट की आवाज माहौल में गूंज उठी.
बाबूजी का तनमन कांप उठा. उन्हें अपनी सालों की कमाई दौलत, मानमर्यादा सरेआम बिकती दिखी. झांक कर देखा कितने घरों की खिड़कियां उस दृश्य की साक्षी बनीं. खिड़कियां ही नहीं उन में रहने वाले लोग भी आवाक थे.
दूसरे दिन भी वही घटना दोहराई गई. सुंदरी को छोड़ जब वह जाने लगा तब बाबूजी ने बुला कर कहा, ‘‘बेटा क्या नाम है तुम्हारा?’’
‘‘अनुभव?’’
‘‘लगते तो भले घर के हो, अनुभव तुम सुंदरी को कब से जानते हो?’’
‘‘मैं इस के साथ पढ़ा हूं,’’ कह कर वह जाने लगा तो बाबूजी ने उसे रोकते हुए कहा, ‘‘शायद तुम्हें हमारे घर की मर्यादा नहीं मालूम. तुम्हारा रिश्ता अब सिर्फ सुंदरी से ही नहीं वरन उस के परिवार से भी है. वह तुम्हारी क्लासमेट ही नहीं है, वह किसी की पत्नी भी है और किसी घर की बहू बन चुकी है. इस तरह उस के साथ तुम्हारा आनाजाना ठीक नहीं है.’’
वह बिना कुछ बोले चला गया. सुंदरी अंदर कमरे में आ कर बिफर पड़ी, ‘‘बाबूजी को क्या हो गया है? क्यों बेवजह शोर मचा दिया… कुल की मर्यादा… कुल की मर्यादा… क्या करूं मैं कुल की मर्यादा का… सारा दिन घर में रह कर उसे पालूं? मुझ से नहीं होगा… क्या हुआ जो मेरा दोस्त मुझे घर छोड़ने आ गया?’’
राजन ने समझाया, ‘‘बात दोस्त की नहीं संस्कारों की है… मर्यादा की है. उस ने आ कर किसी से कोई परिचय नहीं करना चाहा… तुम्हें बाय कह कर जाने लगा.’’
‘‘तो क्या हुआ? राजन तुम भी…’’
धीरेधीरे उस का इस तरह आनाजाना साधारण सी बात हो गई, जिस की चर्चा भी नहीं की जाती.
हद तो तब हुई जब उस सांझ की दुलहन ने सच में रात ढले ही घर में कदम रखने शुरू किए. राजन ने सोचा कब तक बाबूजी की मर्यादा को यों सरेआम कुचलता देखूं. उस ने अलग घर ले लिया.
राजन सारा दिन औफिस में रहता और सुंदरी अपने दोस्तों के साथ. शाम को कभीकभी दोनों एकसाथ ही घर में प्रवेश करते. राजन जान चुका था कि कुछ कहना बेकार है. ऐसा नहीं कि उस ने उस की गलतियों को नजरअंदाज किया. वह जान कर भी अनजान बन जाता था, शायद खुद समझ जाए… उस की हर गलती पर खुद परदा डाल उसे सुधरने का मौका देता.
एक बार तो उस की आंखों के सामने ही सारा खेल हुआ. वह देखता रहा. बस इतना कह सका, ‘‘तुम्हें इस से क्या मिलता है?’’
‘‘वही जो तुम से नहीं मिलता… वह मेरा प्यार है… पहला प्यार…’’
‘‘मुझ से क्या नहीं मिला? तुम जिसे मिलना समझती हो वह मेरे परिवार की मर्यादाओं के खिलाफ है… अगर वह तुम्हारा प्यार है तो तुम ने मुझ से शादी क्यों की?’’
‘‘पापा ने कहा, शादी कर लो… हमारे घर से चली जाओ… फिर जैसी मरजी हो करना.’’
‘‘और तुम अपनी मरजी के कोड़े मुझ पर बरसा रही हो,’’ पहली बार चीखा राजन.
‘‘हां, क्योंकि तुम से मुझे बांधा गया है.’’
‘‘और तुम बंध नहीं सकीं… यही न?’’
‘‘तो अब तक तुम ने हमें धोखे में रखा था… क्या कमी रखी मैं ने तुम्हें खुश रखने में? सपनों की मलिका बना कर लाया था तुम्हें… सब से अलग भी कर लाया… किनारा कर लिया अपने घर से, अपने परिवार से. फिर भी तुम्हें नहीं जीत सका, शायद कमी मेरी ही थी कि मैं ने तुम्हें बहुत चाहा और यह नहीं जानना चाहा कि तुम्हें मेरी कितनी जरूरत है.’’
‘‘हां, मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं… मैं तुम्हारे साथ तुम्हारी नहीं अपनी मरजी और शर्तों पर रह सकती हूं… तुम से पहले मेरे लिए अनुभव… मैं उस के बिना अपने एक पल की भी कल्पना नहीं कर सकती,’’ वह जोरजोर से चिल्ला रही थी.
राजन फिर भी नहीं हारा था. कई बार घर नहीं जाता. राधिका के पास चला जाता.
मगर सुंदरी यह भी जानने की कोशिश नहीं करती कि वह कहां है? उस दिन भी वह औफिस से सीधा राधिका के पास गया और फफक पड़ा.
‘‘क्या हुआ देवरजी?’’
‘‘उस ने सारी बात बता दी फिर बोला, भाभी अब आप ही कोई रास्ता निकालो.’’
‘‘क्या रास्ता निकालें देवरजी? मरजी आप की थी… हम लोग तो सिर्फ माध्यम बने थे आप की इच्छाओं के चलते… और मेरी आशंकाओं पर सभी ने आपत्ति जताई थी कि राजन सब संभाल लेगा.’’
‘‘हां भाभी, गलती मेरी थी. मेरी कल्पना सुंदर थी तो कोमल भी थी… इसलिए जल्दी टूट गई… वह तो बहुत कठोर है… जिस कल्पना सुंदरी को मैं हकीकत बना कर ला रहा हूं वह ऐसी होगी कि मेरी कल्पनाओं को ही निगल जाएगी, ऐसा तो मैं ने सोचा ही नहीं था. अगर कल्पना करना गुनाह था तो मेरा जुर्म सच में बहुत बड़ा है और मुझे उस की सजा मिल रही है. मेरी आंखों के सामने ही सब कुछ हो रहा है और मैं तमाशबीन बना हुआ हूं. उस के हर गुनाह का मैं एक ऐसा चश्मदीद गवाह हूं जिसे किसी भी अदालत में जा कर यह कहने की हिम्मत नहीं है कि मेरे घर में गुनाह पल रहा है. अब तो स्थिति यह है कि वे दोनों मेरे कमरे से लगी दीवार के पीछे होते हैं… मैं दीवारों के पार के दृश्य की कल्पना से कांप जाता हूं.’’
‘‘तो क्या आप यों ही देखते रहेंगे?’’
‘‘नहीं भाभी. मगर मैं करूं भी तो क्या?’’
‘‘बाहर करो देवरजी… जब घर की इज्जत खुद ही बाजार में बैठ जाए तो फिर उसे घर में रखना ठीक नहीं… उसे बिकना मंजूर है… आप क्या कर सकते हैं? मर्यादा की खातिर ही आप घर छोड़ कर गए थे कि लोगों की नजरों से दूर रहने पर बिगड़ी बात बन जाएगी, लेकिन…. मेरा कहा मानो तलाक ले लो.’’
‘‘लेकिन भाभी…’’
‘‘कोई लेकिनवेकिन नहीं… जब जिंदगी तुम से इतनी कुरबानियों के बाद भी खुश नहीं तो बेहतर है ऐसी जिंदगी से किनारा कर लो… आज तुम्हारे पास एक अच्छी नौकरी है, बंगला है, गाड़ी है सब कुछ है, तो फिर क्यों उस अप्सरा के पीछे भाग रहे हो? वह तुम्हारी नहीं… फिर उस ने खुद ही कह दिया है… खुद को कमजोर मत साबित करो देवरजी. रास्ते अनेक हैं, जिस मोड़ पर तुम खड़े हो उस से अनेक रास्ते जा रहे हैं और वह रास्ता भी जिस से तुम चले थे. अब एक ऐसी राह लो जहां से बीती गलियां नजर ही न आएं… छोड़ दो देवरजी उसे… छोड़ दो… अप्सरा किसी की नहीं होती… सब की हो कर भी किसी की नहीं हो पाती.’’
राजन फूटफूट कर रो पड़ा था. राधिका रो तो न सकी, मगर उस के लिए रास्ते की तलाश में जरूर निकल पड़ी.
आज वह निर्णय कर के रहेगा. इस हिम्मत के साथ वह घर में घुसा और जोर से दरवाजा पीटने लगा. दरवाजा सुंदरी ने खोला, ‘‘क्या हुआ? इतनी जोर से दरवाजा क्यों पीट रहे हो?’’
‘‘अब यह यहां नहीं होगा… मेरे घर में यह खेल अब नहीं होगा…’’
‘‘कौन सा नया पाठ पढ़ कर आए हो? यह कौन सी नई बात है?’’
सुंदरी को किनारे धकेलते हुए वह अंदर घुसा और अनुभव की कौलर पकड़ कर उसे घर से बाहर कर दिया.
सुंदरी पागलों की तरह चीखती रही. आज वह जान चुकी थी कि उसे अब किसी एक को थामना होगा. शाम को जब राजन घर आया तो वह जा चुकी थी. अपने प्रेमी अनुभव के साथ. घर में अब सिर्फ वह था और उस की रोतीसिसकती कामनाएं. कल्पनाएं, जिन्हें वह शाम तक बटोरता रहा.
तलाक के वक्त कोर्ट में इतना ही कह सका था, ‘‘मैं इस के लायक नहीं. यह जिसे चाहती है उस के साथ इसे रहने और जीने का पूरा हक है… यह हक इस के मांबाप नहीं दे सके, मगर मैं देता हूं… यह आजाद है.’’
तलाक हुए काफी अरसा हो गया था. राधिका ने कई बार देवर का मन टटोला, जानना चाहा कि वहां अब क्या चल रहा है. राजन कभीकभी कह भी देता, ‘‘भाभी अब नहीं…’’
कल्पना का कटुसत्य जिंदगी में जो कड़वाहट पैदा कर गया था उसे वह भूल नहीं पा रहा था. उस दर्द को भुलाने का एक ही रास्ता था, जो राधिका ने बताया.
‘‘देवरजी दूसरी शादी करिए और अपनी गृहस्थी बसाइए… वह तो अपनी जिंदगी मजे से जी रही है. फिर आप ने ऐसी जिंदगी क्यों अपना ली?’’
‘‘जिंदगी को मैं ने नहीं जिंदगी ने मुझे कुबूल किया है… उसे मैं इसी रूप में अच्छा लगता हूं.’’
‘‘ऐसा नहीं… आप जिसे जिंदगी कह रहे हैं वह ओढ़ी हुई जिंदगी है और यह आप ने सुंदरी के जाने के बाद ओढ़ी है. इसे उतार फेंकने की कोशिश ही नहीं की आप ने… जिस लाश को आप ढो रहे हैं उस से बदबू पैदा हो रही है… उतार फेंको उसे वरना उस की गंध आसपास फैल कर आप को सब से दूर कर देगी… अभी मौका है नई जिंदगी की शुरुआत करने का.’’
राधिका भाभी के लफ्ज उस के जेहन में रात भर गूंजते रहे. राजन सुंदरी को मन से निकाल नहीं पाया था. दूसरी का खयाल कैसे करे? वह सोच में पड़ गया कि क्या भाभी की बात मान कर दूसरी शादी कर ले… नहीं, नहीं, कहीं वह भी. वह भी ऐसी ही निकली तो? लेकिन भाभी ने जो कहा क्या वह सच है? वह सब से दूर जा रहा है? कितनी कातर दृष्टि से भाभी ने मुझे निहारा था और कहा था कि आप की खुशियों की खातिर हम ने सारे समझौते किए थे, लेकिन अब इस बार हमारी मरजी से फैसला लें… ऐसी लाएं जो समझदार हो, शालीन हो. क्या भाभी की तरह कोई मिल सकती है?
राजन ने अलसाई आंखों में ही सवेरा देखा और फिर अपने उजड़े घर पर ताला डाल कर घर पहुंच गया.
राधिका भाभी उस समय बाबूजी को सुबह की चाय दे रही थी. राजन को इतनी सुबह आता देख शंका से भर उठीं, ‘‘क्या हुआ देवरजी… आज इतनी सुबह?’’
‘‘हां भाभी, बहुत दिनों से सुबह की चाय आप के साथ नहीं पी न, इसलिए चला आया. छुट्टी है आज… सोचा थोड़ी देर बाबूजी से भी बातें हो जाएंगी.’’
राधिका ने राजन को बहुत दिनों बाद बदला पाया. पहले जब भी आता परेशान सा रहता. चाय का एक कप उसे पकड़ाया और खुद भी पास रखी कुरसी को और पास ला कर बैठ गईं. बोलीं, ‘‘चलिए अच्छा है… मैं आप को कई दिनों से याद कर रही थी.’’
बाबूजी ने भी कहा, ‘‘चलो अच्छा है… वैसे भी अब तुम उस घर में अकेले रह कर क्या करोगे. आ जाओ यहीं शिब्बू भी अकसर बाहर ही रहता है… राधिका अकेली बोर होती है.’
‘‘नहीं बाबूजी, मैं उस सुंदरी के कारण आप को बहुत चोट पहुंचा चुका हूं… मुझे सजा मिलनी ही चाहिए.’’
‘‘नहीं देवरजी, आप अपनी मरजी से नहीं गए थे… आप को उस की मरजी की खातिर जाना पड़ा था, जिसे आप बेहद प्यार करते थे और बेहतर भी यही था… लेकिन इस घर के दरवाजे आप के लिए खुले हैं… बाबूजी हमेशा रोते और कहते हैं कि मेरा राजन अपनी खातिर नहीं, अपनी मरजी से नहीं उस चुड़ैल की खातिर गया है… वह मेरे बेटे को खा जाएगी बहू. उसे बचा लो,’’ कहते हुए राधिका की आंखें भर आईं.
राजन प्रायश्चित की मुद्रा में जड़ हो चुका था. लड़खड़ाती जबान से यही कह सका, ‘‘भाभी, आप और बाबूजी जैसा चाहें मुझे मंजूर है.’’
राजन के इस निर्णय से राधिका और बाबूजी दोनों खुश हुए. बाबूजी ने सारे
रिश्तेदारों में खबर पहुंचा दी कि राजन ने दूसरी शादी के लिए हां कर दी है.
कई रिश्ते आए. राधिका और बाबूजी ने इस बार किसी भी धोखे की गुंजाइश नहीं रखनी चाही. लड़़की की समझदारी पर अनेक प्रश्न किए जाते और घर आ कर बाबूजी और राधिका घंटों चर्चा करते कि नहीं यह भी समझ में नहीं आ रही. होस्टल वाली तो बिलकुल नहीं चलेगी. घरेलू हो, कुलीन हो… कम पढ़ीलिखी भी चलेगी, लेकिन सलीके वाली हो.
काफी कोशिश के बाद जिस लड़की से रिश्ता तय हुआ वह बेहद पिछड़े इलाके से और गरीब घर की थी और 10वीं कक्षा पास. देखने में साधारण. बात तय कर के आ गए. राजन की हां भर चाहिए थी जो उस ने दे दी.
शादी की तारीख तय हुई. राधिका ने राजन से मजाक किया, ‘‘चलिए, अपनी दुलहन का जोड़ा पसंद कर लीजिए.’’
राजन उदास स्वर में बोला, ‘‘भाभी, आप ही पसंद कर लीजिए… जोड़ी भी आप ही बना रही हैं… पहनावा भी आप ही तय कर लीजिए.’’
इस बार 24 घंटे वाली शहनाई नहीं बजी. बहू ने घर की चौखट पर कदम रखे. चावल का कलश फिर तैयार था. राजन की आंखें भर आईं, सुंदरी की याद में. नई बहू का पैर कलश पर था. उस ने बहुत समझदारी से चावल गिराए. राजन ने समेटे फिर फैलाए फिर समेटे. भाभी मुसकरा रही थीं.
नई बहू ने बहुत दिनों तक सब का दिल जीतना चाहा. समय पर उठ कर घर के काम में राधिका का हाथ भी बंटाती. बाबूजी का भी खयाल रखती.
राजन तो अपने सारे काम खुद कर लेता. इस बार वह बेहद सतर्क था, ‘‘जो भी पूछना हो भाभी से पूछो अनु. वे ही बता सकती हैं.’’
नई बहू की समझदारी थी या पुरानी वाली की कटु यादें बाबूजी और घर के बाकी लोग सभी अनु से खुश थे. उस ने घर में अपनी जगह बना ली थी. राजन पर भी उस ने धीरेधीरे अधिकार कर लिया.
घर की कुछ जिम्मेदारियों को राधिका ने अनु को सौंपने की सोची. फिर एक दिन तिजोरी खोलते हुए कहा, ‘‘राधिका, यह सब तुम्हारा है… इसे संभालो.’’
‘‘अभी बहू नई है. इतनी समझदार नहीं है… कुछ समय दो,’’ बाबूजी ने झिझकते हुए कहा ताकि कहीं राजन को बुरा न लगे.
‘‘जिम्मेदारी ही तो समझदार बनाएगी. फिर मैं भी तो जब इस घर में आई थी तो नई ही थी और अकेली भी… सब संभाला था,’’ यह सुन कर बाबूजी खुश हो उठे.
अपनी भाभी राधिका से, जिन की राजन बहुत इज्जत करता था, एक दिन अपने मन की बात कहते हुए स्वप्न सुंदरी से शादी करने की बात कह दी. भाभी राधिका परेशान थीं कि कहां और कैसे देवर राजन की शादी इतनी खूबसूरत लड़की से कराई जाए.
तब दूर की एक रिश्तेदारी में जिस स्वप्न सुंदरी की तलाश थी वह मिल गई. मगर जब शादी हो कर वह घर आई तो घर का अच्छाभला माहौल बिगड़ने लगा, जबकि राजन इस ओर से अनजान था. सुंदरी काफी खुले विचारों वाली थी.
कुछ दिनों बाद सुंदरी ने बताया कि उस की शादी राजन से जबरदस्ती उस के घर वालों ने करा दी, लेकिन वह शुरू से ही किसी और को चाहती है.
अब वह यदाकदा अपने प्रेमी को घर पर भी बुलाने लगी. अंतत: आपसी रजामंदी से दोनों ने तलाक ले लिया.
राजन अब दोबारा शादी नहीं करना चाहता था. पर भाभी और अन्य लोगों के दबाव के आगे उसे झुकना पड़ा और उस ने शादी करने की रजामंदी दे दी. राजन की शादी बेहद साधारण और कम पढ़ीलिखी लड़की के साथ हुई. नई बहू ने राजन का घर भी जल्द संभाल लिया. घर के लोग भी उस से खुश थे.
राजन दूसरी शादी से बहुत खुश था. पहली बार उस ने अनु को उस नजर से देखा था जिस नजर से सुंदरी को देखा करता था. आज वह उसे वह प्यार दे सकेगा, जो सुंदरी को देने चला था. मगर उस ने उस की कीमत नहीं समझी थी.
रात राजन और अनु की थी. राधिका तो माध्यम बनी थी, जो इस वक्त दोनों की हंसी से गूंज रहे माहौल में खुद को हलका महसूस कर रही थी.
सुबह उठ कर राधिका ने ही चाय बनाई और दरवाजे पर रख कर बोली, ‘‘आप लोगों की चाय आप को बुला रही है.’’
अनु ने चाय सर्व करते हुए कहा, ‘‘सुनो, आज मुझे थोड़ी शौपिंग करनी है. तुम चलोगे?’’
‘‘हां, क्यों नही?’’
अनु तैयार हो कर राधिका से कह कर शौपिंग के लिए निकल गई. राधिका खुश थी.
जब अनु और राजन घर लौटे राधिका रात के खाने पर दोनों का इंतजार कर रही थी. खाना खा कर दोनों अपने कमरे में, बाबूजी अपने कमरे में, राधिका अपने कमरे में. राधिका जाग रही थी. शिब्बू बिजनैस के सिलसिले में बाहर था. उसे नींद नहीं आ रही थी.
8 साल हो गए थे शादी को. उसे कोईर् संतान नहीं थी. वह इस अकेलेपन को अकसर जाग कर काट लिया करती थी. डाक्टर ने कहा था कोई संभावना नहीं है. फिलहाल बहू में कोई कमी नहीं. राधिका उस की भरपाई में शिब्बू और बाबूजी को खुश करने में लगी रहती. शिब्बू को इस बात का अफसोस नहीं था. मगर वह इस अफसोस में अकसर खिलौनों और गुड्डों से बातें करती रहती और इस प्रकार अपने मातृत्व की पूर्ति करती. तभी किचने से आवाज आई. राधिका ने देखना चाहा क्या हुआ. शायद बिल्ली होगी. लेकिन घर में बिल्ली के आने का कोई रास्ता नहीं था. बाहर आ कर देखा राजन के कमरे से लगी छत का दरवाजा खुला था.
‘तो क्या देवरजी दरवाजा खोल कर सो गए?’ सोच राधिका ने टौर्च की रोशनी से देखना चाहा.
छत पर उसे बात करने की आवाज सुनाई दी. सोचने लगी इतनी रात गए कौन हो सकता है. लगता है दोनों अभी तक जाग रहे हैं. फिर मन ही मन मुसकराई और तसल्ली के लिए पूछा, ‘‘छत पर कौन है?’’
‘‘मैं हूं भाभीजी अनु… लाइट चली गई थी न, तो गरमी के कारण छत पर आ गई.’’
‘‘ठीक है. मगर दरवाजा बंद कर के सोया करो… किचन में बिल्ली आ गई थी.’’
‘‘ठीक है भाभीजी, आप सो जाइए मैं देख लेती हूं किचन में कौन है… चूहा भी हो सकता है… आप सोई नहीं अभी तक?
‘‘नहीं. नींद नहीं आ रही है.’’
‘‘जाइए, अब सो जाइए.’’
राधिका ने बेचैनी से टहलते हुए बाबूजी के कमरे में झांक कर देखा. वे सो रहे थे.
सभी इतमीनान में हैं, फिर वह क्यों परेशान है? इस बेचैनी का कारण क्या है? शिब्बू का न होना या उस का निस्संतान होना या फिर कुछ और?
देर रात तक जागने पर भी भोर में ही राधिका की नींद खुल गई. देखा राजन का कमरा खुला था. लगता है राजन आज जल्दी उठ गया. अनु को आवाज देती हूं, बाबूजी को चाय दे देगी. आज तबीयत भारी हो रही है. रात भर नींद नहीं आई.
नीचे से ही आवाज दी, ‘‘अनु, नीचे आ जाओ. बाबूजी को चाय दे दो.’’
राजन बाहर आते हुए बोला, ‘‘भाभी, अनु यहां नहीं है. नीचे चली गई है.’’
राधिका ने फिर आवाज दी, ‘‘अनु कहां हो?’’ मगर उस के कहीं भी होने की आहट सुनाई नहीं दी. शायद बाथरूम में होगी. लेकिन वहां तो बाबूजी हैं. फिर कहां होगी? किचन में जा कर देखा वहां भी नहीं. शायद बाहर बगीचे में होगी. वहां भी नहीं. आखिर इतनी सुबह कहां जाएगी?
राधिका ने आवाज दी, ‘‘देवरजी देवरानी को नीचे भेज दो, मजाक मत करो.’’
‘‘भाभीजी मैं मजाक नहीं कर रहा. सच में अनु यहां नहीं है.’’
‘‘नहीं है?’’
बाबूजी बाथरूम से निकले तो बोले,
‘‘अरे बहू, आज तुम घर का दरवाजा बंद करना भूल गईं?’’
‘‘क्या घर का दरवाजा… छत का दरवाजा… अनु घर में नहीं है बाबूजी… यह सब क्या है? देवरजी, अनु घर पर नहीं है.’’
‘‘क्या तुम दोनों के बीच रात में कोई झगड़ा हुआ है?’’
‘‘नहीं.’’
कमरे में जा कर देखा तो अनु का सामान भी नहीं था. घर की तिजोरी भी खुली और खाली थी.
बहू घर छोड़ कर जा चुकी थी… ज्यादा ही समझदार निकली.
राधिका को रात की बिल्ली… छत का खुला दरवाजा… अनु का आश्वासन… सब कुछ बिजली की तरह कौंध गया. वह चकरा गई. बोली, ‘‘देवरजी, यह तो बहुत समझदार निकली.’’
राजन जो अब तक सब समझ चुका था, सिर थामे बैठा था.
देर तक घर में फैली खामोशी को कौन तोड़ता? किस में हिम्मत थी? भाभी में जिस ने राजन को दूसरी शादी के लिए प्रेरित किया था या बाबूजी में, जिन्होंने उस की समझदारी पर अनेक प्रश्न किए थे या फिर राजन जिस ने दोनों के निर्णय पर बंद आंखों से अपनी सहमति का अंगूठा लगा दिया था? कौन था समझदार? राधिका जिस ने राजन की गृहस्थी फिर से बसानी चाही, बाबूजी जो अपने आंगन में खेलताकूदता छोटा राजन चाहते थे या फिर राजन जिस के स्वभाव की सरलता ने अनु की बढ़ी समझदारी का कारण नहीं समझना चाहा. शायद इन तीनों से ज्यादा समझदार वह थी जिस ने तीनों की समझदारी पर पानी फेर दिया… सब कुछ ले गई… कुछ नहीं बचा.
रात में फोन आया, ‘‘मैं दूसरा विवाह करने जा रही हूं. उस दमघोंटू माहौल में मैं नहीं रह सकती थी और नई जिंदगी की शुरुआत के लिए पैसा तो चाहिए था सो मैं ले आई. मुझे ढूंढ़ने की कोशिश मत कीजिएगा. आखिर मैं आप के घर की बहू थी.
बाबूजी को काटो तो खून नहीं. राधिका भी जड़वत कि यह सब क्या हुआ? हमारे साथ इतना बड़ा धोखा? यह नजरों का धोखा था या फिर हमारी समझदारी का?
राजन दोनों के बीच मूकदर्शक था. भाभी क्या कहती हैं या बाबूजी क्या कहते हैं उस ने नहीं सुना. उसे लगा उस ने गलत सपना फिर देख लिया. हर बार रो कर चुप होना और फिर रोना. पहले सुंदरी के सौंदर्य ने धोखा दिया. इस बार समझदारी के बड़े भ्रम ने धोखा दिया. धोखा… धोखा… धोखा… कब तक? वह टूट चुका था. घर आने में भी उसे हिचक होती. उसे देखते ही राधिका हिचक जाती. सब एकदूसरे से नजर यों चुराते जैसे वे एकदूसरे के गुनहगार हैं और जिन की सजा यही है कि खुद को एकदूसरे से अलग कर लें. कहीं गुनाह का परदाफाश न हो जाए और ठीकरा किसी एक के सिर फोड़ दिया जाए.
इस बार बाबूजी का चोटिल सम्मान रहरह कर चटक उठता. समाज में उठनेबैठने और तन कर चल सकने की सारी हिम्मत जाती रही. रिश्तेदारी में जहां जाओ एक ही चर्चा. बहू क्यों चली गई? जरूर इस परिवार में ही कोई कमी है, जो दूसरी भी छोड़ कर चली गई. अनेक इलजाम जमाने ने लगाए. खुद को इतना छोटा महसूस करते कि जिस टोपी को उन्होंने कभी नहीं भुलाया था उसे लगाना भी उन्हें याद नहीं रहता. वे बिना टोपी के ही निकल जाते. राधिका याद दिलाती, ‘‘बाबूजी, टोपी…’’
विश्रुतिजी निरुत्साहित से उसे पकड़ते, मगर टोपी लगा कर खुद को निहारने का दुस्साहस अब नहीं करते.
इधर समय की कमी ने शिब्बू और राधिका के बीच जो रिक्तता पैदा की थी उस
जगह अब एक लंबी दीवार खड़ी हो रही थी. अकसर वह बिजनैस के सिलसिले में देर रात तक बाहर होता और जब आता थकान से चूर होता. उस थकान के बीच राधिका उस की जिंदगी में अगर कुछ भरना चाहती तो वह यह कह कर सो जाता, ‘‘राधिका, मैं थक गया हूं, तुम से कल बात करता हूं.’’ और कल थकान बेहिसाब बढ़ी होती. राधिका पास जाने की हिम्मत भी न जुटा पाती.
वह उस टूटी नाव की पतवार थामे चल रही थी, जिस पर अनजाने, अनचाहे अनेक गड्ढे बन चुके थे, जिन्हें पाटते उस की उम्र बीत रही थी.
बाबूजी अपने आहत सम्मान और दम तोड़ती इच्छाओं के बीच खुद को अकेला पाते और सब से अलग रहने के प्रयास में अपने कमरे से बाहर नहीं आते.
राजन अपनी खिड़की में ढलती शाम से ले कर ढलती रात तक न जाने किस का इंतजार करता. उसे घर में क्या चल रहा है, पता भी नहीं रहता. राधिका घर में फैली इस खामोशी में कभी खुद को ढूंढ़ती तो कभी खुद को भुला देती तो कभी राजन और बाबूजी की खामोशी को तोड़ने की हिम्मत करती. कभीकभी उन 4 आंखों में तलाश करती कि वह कहां है?
क्या बाबूजी की इस हिदायत में कि बहू तुम मेरी नहीं इस घर की बहू हो और इस घर को जो तुम दोगी वही पाओगी या फिर शिब्बू की उन हिदायतों में जब वह राधिका के हाथों में रुपयों से भरा बैग थमाते हुए कहता, ‘‘यह घर तुम्हारा है जैसा चाहो चलाओ. मैं कभी नहीं पूछूंगा. मगर इस की खुशियों की परवाह तुम्हें ही करनी होगी.’’
कागज के टुकड़ों को देख सोचती, ‘काश, मैं इन से इस घर की सारी खुशियां, बाबूजी का खोया सम्मान, उन के कुल के दीपक राजन भैया की उजड़ी गृहस्थी सब खरीद सकती. शिब्बू जिसे खुशी कहता है क्या उसी खुशी की तलाश है सभी को? शायद नहीं. मैं कब तक इन कागज के टुकड़ों को संभालती रहूंगी? ये मुझे चिढ़ाते से नजर आते हैं.
उस ने जब भी कुछ मांगा अपने बाबूजी और भाईर् की खुशी. कभी उस ने पूछा कि राधिका इन पैसों से तुम्हारी खुशी मिल सकेगी? रात का अकेलापन और जिंदगी का सूनापन अकसर उसे डसने लगता. शिब्बू तो बस आगे बढ़ने की धुन में बढ़ता जा रहा है. इस बढ़ने में उस के अपने पीछे छूट रहे हैं, उस ने भूल से भी यह नहीं सोचा. मुड़ कर ही नहीं देखना चाहा. कोई आवाज दे भी तो कैसे? वह तो ऐसी मंजिल को थामे चल रहा था, जिस के छूट जाने से वह बिखर जाता. महत्त्वाकांक्षा में वह भूल गया कि वह एक बेटा भी है, भाई भी है और एक पति भी है.
राजन भी अपनी तनख्वाह भाभी को देते हुए कहता, ‘‘भाभी, अब आप संभालो इसे भी. मैं नहीं संभाल सकता… क्या करूंगा मैं इस का?’’
‘‘और कितनी जिम्मेदारियों के बोझ तले मुझे दबना पड़ेगा? क्या इन कागज के टुकड़ों से घर की रौनक और खुशियां मैं ला सकूंगी? फिर मैं इन का क्या करूं? इन कागज के टुकड़ों में दबी कामनाएं दम तोड़ रही हैं देवरजी. मैं इन से बेजार सी हो रही हूं… अब और नहीं.’’
राधिका बोले जा रही थी और राजन सुनता जा रहा है. आज भाभी को उस ने पहली बार ऊबता महसूस किया था. उन की बातों में सदियों की तलखी थी. यह तलखी शायद हम से थी? नहीं तो फिर जिंदगी से? कब तक झेलेंगी? कौन है जिस से वे अपनी बात कहतीं? सोचता हुआ राजन राधिका के कमरे के सामने से गुजरा तो उसे सिसकने की आवाजें आईं. उस ने बाहर से ही आवाज दी, ‘‘भाभी…’’
‘‘हां, आती हूं,’’ कहते हुए बाहर आने का प्रयास किया मगर राजन उस से पहले ही अंदर पहुंच चुका था. पहली बार इस कमरे में आया था वह. भाभी का कमरा अपनी व्यवस्था से अव्यवस्थित सा लग रहा था. कांच का एक बड़ा सा शोकेस तरहतरह की गुडि़यों और गुड्डों से भरा था. बगल की ड्रैसिंगटेबल पर एक खूबसूरत परदा जो शायद ही कभी उठाया जाता होगा.
बिस्तर की चादर ठीक करते हुए राधिका बोली, ‘‘आइए देवरजी, आज कैसे इधर भटक गए?’’
‘‘यों ही भाभी… दिल किया आ गया.’’ तभी बिस्तर के सिरहाने रखी जापानी गुडि़या बोल पड़ी कि मम्मा, आई लव यू. राधिका ने उसे चुप कराया.
राजन ने कहा, ‘‘बोलने दीजिए अच्छा लग रहा है… भाभी एक बात पूछूं?’’
‘‘हां क्या पूछेंगे पूछिए. वैसे आप जो जानना चाहते हैं वह मुझे मालूम है. देवरजी, इस घर से खुशियों ने हमेशा के लिए मुंह फेर लिया है…
घर अब घर नहीं एक सरायखाना लगता है, जिस में सभी रह तो रहे हैं, मगर अजनबियों की तरह… कौन कब रोया, कब हंसा, किसे मालूम? किस की रात आंसुओं से भीगती रही या किस की शाम आंखों को धुंधला कर गई, किस ने जानना चाहा?’’
‘‘तो शिब्बू भैया…?’’ बेचैनी ने उसे वहां रुकने न दिया.
देर तक भाभी के आंसुओं में भीगे लफ्ज उस के जेहन में गूंजते रहे… मैं भी हूं इस घर
में. यह किसे पता है… सब अपने में गुम… मैं ने क्या पाया… कौन है मेरा… किसे फुरसत है मेरी खातिर?
शाम ढल रही थी, फिर भी राजन ने आज खिड़की नहीं खोली, न ही शाम ने खिड़की से दस्तक दी. बारबार राधिका का कुम्हलाया चेहरा याद आ रहा था कि उम्र में मुझ से सिर्फ 2 माह ही बड़ी हैं, मगर जिम्मेदारियों के बोझ ने उन्हें समय से पहले ही बहुत बड़ा कर दिया. बड़प्पन के एहसास तले उन्होंने खुद को भुला दिया और घर के 3-3 बड़े बच्चों को संभालती रहीं.
बाबूजी कमरे से बाहर नहीं आए थे. अब अकसर वे शाम के धुंधलके में ही घर से निकलते थे. राधिका ने शाम की रसोई शुरू कर दी.
बाबूजी घूम कर आए. बोले, ‘‘बहू खाना दे दो. जल्दी सो जाऊंगा,’’ और फिर खाना खा कर अपने कमरे में चले गए.
राधिका ने रसोई समेटी. किचन का दरवाजा बंद किया. जैसे ही अपने कमरे में जाना चाहा देखा राजन छत पर है. आवाज दी, ‘‘देवरजी.’’
कोई जवाब नहीं मिला… खुद जा कर देखना चाहा. राजन अपनी ही परछाईं के साथ आंखमिचौली कर रहा था. छत में फैली चांदनी सारी चीजों को स्पष्ट कर रही थी. फिर भी न जाने क्यों राजन कुछ ढूंढ़ता सा नजर आ रहा था.
‘‘क्या खो गया?’’ राधिका ने आज बहुत दिनों बाद छत पर कदम रखे थे. कभीकभी अनु के साथ आया करती थी.
अचानक भाभी को छत पर आया देख राजन बोला, ‘‘अरे भाभी आप? कुछ नहीं यों ही मेरी अंगूठी कहीं गिर गई है.’’
‘‘यहीं कहीं होगी,’’ कह राधिका ने छत से घर के अंदर जा रही सीढि़यों की तरफ झांकने का प्रयास किया. 2-3 सीढि़यां नीचे उतर कर देखा तो अंगूठी दिखाई दे गई. बोलीं, ‘‘देखिए देवरजी मिल गई.’’
‘‘अरे मैं कब से खोज रहा था. मिल ही नहीं रही थी.’’
‘‘पकडि़ए,’’ राधिका ने वहीं से देनी चाही. मगर उस का पैर डगमगा गया. चांदनी रात का उजाला सीढि़यों के अंधेरे को मिटा न सका था और राधिका उस अंधेरे से भिड़ने की कोशिश में डगमगा गई.
राजन भी तो राधिका को सीधे हाथ नहीं थाम सका उलटा हाथ पकड़ाया. संभल नहीं सका… लड़खड़ा गया. दूधिया चांदनी में राधिका के उजले चेहरे पर खुदी उदासी की गहरी रेखाएं भर आईं… सूखे और बिखरे बालों के बीच से झांकती आंखों का सूनापन महक उठा… बदन में वर्षों की सोई लचक जाग गई…
राजन ने देखा क्या ये वही राधिका भाभी हैं जिन्हें वर्षों से सिर्फ औरों के लिए खुश रहते देखा. आज पहली बार उन महकी आंखों में उन की ही खुशी तैरती दिखाई दी… इतना आवेग और इतना आकर्षण राधिका के सान्निध्य में? वह संभाल न सका था उस रूप को. राधिका के उस लड़खड़ा कर गिरने में सारा समर्पण समा गया और सारे आकाश ने उस समर्पण को अपनी बांहों में भर लिया कभी न छोड़ने के लिए और बोल पड़ा, ‘‘इन आंखों की खुशी मैं कभी सूखने नहीं दूंगा. परिवार की सारी खुशियां इन में भर दूंगा… यह मेरा वादा है… आखिर भैया को भी परिवार की खुशियां ही तो अजीज हैं.’’
तभी अचानक दरवाजे पर किसी ने आवाज दी, ‘‘भाभी,’’
‘‘अरे, यह तो सुंदरी की आवाज लग रही है.’’
‘‘मैं सुंदरी हूं. दरवाजा खोलिए,’’ फिर आवाज आई.
‘‘यह क्या, आज तो राजन ने खिड़की भी नहीं खोली फिर कौन सी सुंदरी आ गई…’’ सुंदरी यानी? राजन की पहली… नहींनहीं… अब नहीं.
बाबूजी ने कह दिया कि अब किसी सुंदरी की जगह हमारे यहां नहीं है.
दरवाजे पर हुई दस्तक को राजन ने भी सुना था और राधिका ने भी, लेकिन धोखा समझ कर कहा, ‘‘सुंदरी के लिए अब कोई दरवाजा नहीं… सांझ की दुलहन रात ढले घर नहीं आती… मेरी सांझ की दुलहन मुझे मिल गई है.’’
तभी दूर रेडियो पर गाना बज उठा, ‘कहीं तो ये दिल कभी मिल नहीं पाते, कहीं से निकल आए जन्मों के नाते, घनी थी उलझन बैरी अपना मन अपना ही हो कर सहे दर्द पराए, कहीं दूर जब दिन ढल जाए.’