‘‘मुझेअब मां की हालत देख कर दुख भी नहीं होता है. मैं स्वयं जानती हूं कि वे परेशान हैं,
तन व मन दोनों से. फिर भी न जाने क्यों मु झे उन से मिलने, उन का हालचाल जानने की कोई इच्छा नहीं होती,’’ मुसकान आज फिर अपनी मां के बरताव को याद कर क्षुब्ध हो उठी थी. ‘‘पर फिर भी तुम्हारी मां हैं वे, उन्होंने तुम्हें पालपोस कर बड़ा किया है, तुम्हे जन्म दिया है, तुम्हारा अस्तित्व उन्हीं से है,’’ ऐशा बोली.
मैं जानती थी कि मेरी बात सुन कर तुम यही कहोगी, मैं मानती हूं मेरे मातापिता ने मु झे जन्म दिया, मां ने मु झे नौ माह अपनी कोख में रखा, मु झे पालपोस कर बड़ा किया, मु झे इस लायक बनाया कि मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकूं. आत्मनिर्भर बन सकें. मैं सम झती हूं मु झ पर उन का उपकार है कि लड़कालड़की में भेद नहीं किया, हम भाइबहिन दोनों को एकसमान पाला. कि…’’ कह कर वह चुप हो गयी थी और एकटक जमीन से अपने पैर के अंगूठे से जैसे कुछ कुरेदने की कोशिश कर रही थी.
ऐशा उसके चेहरे पर आए भावों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी. उस के होंठ जैसे कुछ कहना चाहते हों किन्तु आंखों का इरादा हो कि चुप ही रहो.
वह अंदर ही अंदर जैसे सुलग रही थी, उस की आंखें आंसुओं से चमक उठी थीं और नथुने फूले से दिखाई पड़ रहे थे. चेहरे के भाव दर्शा रहे थे जैसे अंतस में दबे पुराने जख्म हरे हो रहे हों. वह आंखों में चमके आंसू अपने हलक में उतार रही थी.
पिछले 1 वर्ष से एक ही दफ्तर में कार्यरत उन दोनों सहेलियों ने अपार्टमेंट शेयर किया हुआ है,ऐशा ने मुसकान को इतना उदास पहले कभी नहीं देखा था.
समझ में नहीं आ रहा उस से आगे बात करूं या नहीं, ऐशा असमंजस में थी सो वह चुप ही रही. तभी मुस्कान का मोबाइल फिर से रिंग हुआ. उस ने स्क्रीन पर देखा और नजरें घुमा लीं. फोन रिंग होता ही रहा. उस ने कौल पिक नहीं की. लेकिन उस की आंखों से आंसू बह रहे थे, जिन्हें वह शायद ऐशा से छिपाने की कोशिश कर रही थी. उस की नजरें लैपटौप में गड़ी थीं, किंतु ध्यान लैपटौप स्क्रीन पर नहीं था. वह अंदर ही अंदर जैसे घुल रही थी. ऐशा चादर में आधा सा मुंह ढके उसे देखे जा रही थी.
ऐशा उठी और उस के पास गई. उस का हाथ अपने हाथों में थामा तो वह फफक कर रो पड़ी, ‘‘मैं क्या करूं, तुम ही बताओ तुम कहती हो मेरा भी मां के प्रति कुछ फर्ज होता है. मैं सभी फर्ज पूरे करना भी चाहती हूं, किंतु मेरा छत्तीस का आंकड़ा है अपनी मां से.’’
‘‘कैसी बात कर रही हो तुम मुसकान? भला ऐसे कोई बोलता है अपनी मां के लिए?’’
‘‘क्या किया मां ने मेरे लिए? मु झे जन्म दिया, खानाकपड़ा दिया, बड़ा किया बस. उन्होंने अपना फर्ज ही तो पूरा किया.’’
‘‘और क्या कर सकते हैं मातापिता इन सब के सिवा? तुम कहना क्या चाहती हो?’’
‘‘बच्चों के लिए खानाकपड़ा, रहने को मकान ही सबकुछ नहीं होता, उन्हें प्यार भी तो चाहिए होता है. सोशल सिक्योरिटी क्या आवश्यक नहीं बच्चों के लिए?’’
‘‘पर तुम ये सब क्यों कह रही हो? ऐसा क्या हो गया?’’
‘‘हुआ, बहुत कुछ हुआ. हम 2 भाइबहिन हमेशा अपने मातापिता के प्यार को तरसते रहे. उन दोनों के आपसी झगड़े कभी खत्म ही नहीं होते, आज तक भी नहीं. सम झ नहीं आता, कैसी शादी थी उन की. शायद उन्होंने एकदूसरे से प्रेम तो कभी किया ही नहीं.
‘‘पापा अपने मातापिता, छोटे भाइबहिन की जिम्मेदारियों में व्यस्त रहे. मां ब्याह कर पापा के घर में तो आ गई, किंतु पापा ने उन का कोई खयाल नहीं रखा. घर में सिर्फ 24 घंटों की नौकरानी की तरह खटती रहीं.
‘‘संयुक्त परिवार था हमारा, दादादादी, चाचाबूआ, पापा, मां, मैं और मेरा बड़ा भाई. हम सभी साथ ही रहते थे. कहने को तो भरापूरा, हंसताखेलता परिवार, लेकिन सिर्फ दुनिया के सामने, वहां आपसी प्रेम और सच्ची खुशी तो कभी नजर ही नहीं आई. मैं ने अपनी मां को पापा के साथ कभी मुसकरा कर बात करते नहीं देखा. दोनों के आपसी तनातनी भरे वार्त्तालाप घर में अकसर तनाव का माहौल बनाए रखते.
‘‘मां अकसर पिताजी को हर बात आज तक भी घुमाफिरा कर बताती हैं. न जाने अपने 25 वर्ष के विवाह में भी वे पिताजी के साथ सहज व्यवहार क्यों न कर पाईं. पापा को ऐसा महसूस होता है जैसे मां उन के मांपिताजी व पूरे परिवार का मजाक बना रही हैं. न जाने कैसी कैमिस्ट्री है दोनों की आपस में. तेरा परिवार मेरे परिवार से ऊपर ही नहीं उठे अभी तक. 5 वर्ष की थी मैं तभी से मां को दादी के साथ विभिन्न रीतिरिवाजों को ढोते देखा.
‘‘दादी को सब रीतिरिवाज अपने हिसाब से करवाने होते और मां अकसर कुछ न कुछ चूक कर ही देतीं. बस फिर क्या था दादी उन्हें खूब ताने देती. बस यही सिखाया तेरी मां ने, कोई तौरतरीका तो आता नहीं, बस बांध दी हमारे गले.
‘‘मां सबकुछ सुन कर मन मसोस कर रह जाती. कभी पलट कर जवाब भी न दिया. पलटवार करती भी किस के भरोसे. पापा ने तो जैसे उन्हें मायके के खूंटे से खोला और ससुराल के खूंटे से बांध दिया.
‘‘विवाह का पवित्र बंधन पुरुष व स्त्री का आपसी रिश्ता होता है जो प्रेम की कलियों से गुंथा होता है, जिस में भरोसे की महक होती है जो जीवन को महका देती है, किंतु उन दोनों के बीच यह रिश्ता तो आज तक बना ही नहीं. मां व पिताजी अन्य रिश्ते निभातेनिभाते अपने रिश्ते को तो जैसे कहीं पीछे ही छोड़ आए. उन्होंने शायद ही कभी एकदूसरे के मन की सुध ली हो.
‘‘मां को ससुराल में प्यार मिला ही नहीं. आज तक वे अपने मायके के प्रति प्रेम से बंधी हैं. मैं यह नहीं कहती कि उन्हें अपने मातापिता को भूल जाना चाहिए, किंतु वे पापा के परिवार को अपना न सकीं.
‘‘पापा को महसूस होता है कि जिस तरह आज भी वे अपने मायके के रिश्तेदारों के प्रेम में बंधी है, वैसे ही पापा के परिवार से क्यों नहीं मिल जाती.’’
‘‘लेकिन कोई भी संबंध एकतरफा तो नहीं हो सकता न?’’ ऐशा ने कहा.
‘‘हमारे रीतिरिवाज, परंपराएं जो जोड़ने और खुशियां बढ़ाने का एक माध्यम होती हैं, किंतु यहां तो परंपराओं ने दोनों परिवारों को कभी एक न होने दिया. पापा के परिवार ने सदा ही मां के परिवार को कमतर सम झा व मां का बारबार अपमान किया.
‘‘दादी जबतब मां को उन के मायके का उलाहना देती रहतीं. मां कभीकभी पापा से शिकायत भी करतीं, किंतु वे कुछ कर ही न पाते. एक तरफ मां व दूसरी तरफ पापा का पूरा परिवार.
‘‘जब मैं छोटी थी शायद पांच या छ: साल की. मां मु झे खूब मारतींपीटतीं. मु झे सम झ ही न आता कि मेरी गलती क्या है. बस पिट जाती, रोतीचीखती. जाती भी कहां फिर अपनी ही मां के पास ही जा कर चिपक जाती,’’ मुसकान फिर से सिसकने लगी थी.
‘‘क्यों बात का बतंगड़ बना रही हो मुसकान. ये सब बातें तो बहुत मामूली सी हैं. शायद हर घर में होती हैं. वह जमाना ऐसा ही था. लोग रीतिरिवाज, रिश्तेनाते और परंपराओं को निभाते थे. इस में तुम्हारी मां का क्या दोष? क्यों तुम उन से किनारा कर बैठी हो?’’ ऐशा ने कड़क लहजे में कहा.
‘‘होगा जमाना ऐसा. मेरी मां तो अपना घर छोड़ आईं और पापा के परिवार से रिश्ता जोड़ा, किंतु उन्होंने मां को दिल से अपनाया भी तो नहीं, सिर्फ इस्तेमाल किया.
‘‘लेकिन मेरी मां पढ़ीलिखी थीं उस जमाने में भी. नौकरी भी करती थीं विवाहपूर्व.