तेरे-मेरे सपने: क्या बरकरार रह पाई नैना और रिया की दोस्ती

रिया और नैना एक इन्फ्रास्ट्रक्चर कंपनी में साथ काम करती थीं. दोनों ने जौइनिंग एकसाथ की थी. दोनों सिविल इंजीनियर थीं. रिया के मामा और नैना का नेटिव प्लेस एक था. इन समानताओं ने दोनों को बहुत जल्द दोस्त बना दिया. रिया सिविल इंजीनियरिंग ग्रैजुएशन में टौपर थी. उस के सपने ऊंचे थे. उसे लंबेलंबे पुल और ऊंची इमारतें बनानी थीं, कुछ ऐसा जो पहले न बना हो, सब से ऊंचा, सब से मुश्किल. वह आंखें बंद कर के, हाथ फैला कर जब अपने सपने सुनाने लगती तो सुनने वाला एक अलग ही स्वप्नलोक में पहुंच जाता और नैना उस की पीठ पर हाथ फेरते हुए उसे बांहों में भर लेती और कहती, ‘‘बैस्ट औफ लक, रिया. तुम्हारे सारे सपने पूरे हों,’’

नैना औसत छात्रा रही थी. उस के पेरैंट्स जल्द उस की शादी कर देना चाहते थे लेकिन उस ने अपनी जिद से बैंक से लोन ले कर अपनी पढ़ाई पूरी की क्योंकि वह अपनी शर्तों के अनुसार जीना चाहती थी, अपने पैरों पर खड़े हो कर, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के पश्चात शादी कर के अपने पति और बच्चों के साथ शांतिपूर्ण जिंदगी बिताना चाहती थी.

रिया का स्वभाव मर्दाना था, बातबात में टैंपर होना, सभी की बुराई करना, कलीग और बौस पर हावी होने की कोशिश करना आदिआदि. दूसरी तरफ नैना बहुत ही घरेलू टाइप की महिला थी, तरहतरह की रैसिपी उसे आती थीं, दागधब्बे कैसे हटाए जाते हैं, घर को मेंटेन कैसे किया जाता है, फैशन में क्या चल रहा है उसे सब पता होता. देख कर कोई कह नहीं सकता था कि नैना सिविल इंजीनियर है और बहुराष्ट्रीय कंपनी में इतने बड़े पद पर कार्यरत है.

नैना की यह एडिशनल क्वालिटी थी जिस के कारण औरत मान कर उसे औफिस में अकसर हलके काम दिए जाते थे. हालांकि अब धीरेधीरे लोगों को नैना का पोटैंशियल समझ आने लगा था. किसी प्रोजैक्ट में खंबों के बीच दूरी कितनी होगी, बीम की मोटाई क्या रखनी होगी, लोहे के सरिए कितने चाहिए होंगे, नैना के ये एस्टीमेशन कभी गलत नहीं होते थे. रिया झट से इस एस्टीमेशन को थ्योरी और कैलकुलैटर से प्रूव कर देती थी. इस तरह दोनों की दोस्ती दिनोंदिन प्रगाढ़ होती जा रही थी. कलीग उन से जलते थे, उन्हें चिढ़ाते थे, उन्हें लड़ाने की कोशिशें करते थे.

रिया शौर्टटैंपर्ड थी, लेकिन नैना उसे समझाती कि गलत क्या है, समलैंगिकता अब भारत में गुनाह तो है नहीं, अगर मैं शिव के साथ इंगेज नहीं होती तो अभी तक तुम्हें प्रपोज कर चुकी होती. रिया हंस देती. रिया के पेरैंट्स के अलावा सिर्फ नैना वह शख्स है जिस की कोई भी बात रिया को बुरी नहीं लगती. सैकड़ों ऐसी हसीन शामें घटित हुईं जब दोनों दोस्त अपने सुखदुख को एकदूसरे से शेयर करती थीं. इस तरह रिया और नैना की दोस्ती की मिसाल दी जाने लगी.

नैना को बहुत जल्द औफिस में तरक्की मिलने लगी थी तो दूसरी ओर रिया को छोटेछोटे प्रोजैक्ट कठिन लगते थे. उस की टेबल पर पैंडिंग्स फाइलें बढ़ती चली जा रही थीं. करे तो करे क्या? रिया को किताबी नौलेज तो बहुत थी पर लेबर और सप्लायर्स से कैसे डील किया जाए, यह उसे नहीं पता था. रिया कितना भी बचने की कोशिश करे लेकिन कोई न कोई पंगा फंस ही जाता था. उसे नैना की तरक्की से ईर्ष्या होती थी जिस से अतिरिक्त प्रयास के कारण वह कोई न कोई गलती कर जाती थी.

एक दिन बेतवा नदी के पुल वाली साइट पर लेबर को बिना काम के 50 हजार रुपए पेमैंट करने पड़ गए क्योंकि सीमेंट की बोरियां समय पर नहीं पहुंची थीं. सीमेंट मंगाने का सुझाव रिया का था, क्योंकि इस तरह टैंपरेरी स्ट्रक्चर को बनाने के लिए जो सीमेंट मंगाई जानी थी उस से कुल 5 लाख रुपए की बचत होने वाली थी. रिया को औफिस आने से पहले ही पंगे का पता चल चुका था, रिया ने अभी अपना डैस्कटौप खोला ही था कि बौस यानी सदानंद का बुलावा आ गया.

‘‘रिया, तुम कब अपनी जिम्मेदारी समझोगी? बात 50 हजार या 5 लाख रुपए की नहीं है. यह देखो,’’ सदानंद ने ईमेल की कौपी रिया के हाथों में दी.

राष्ट्रीय राजमार्ग मंत्रालय से एक दिन के काम के डिले का कारण पूछा गया था. रिया की आंखें फटी की फटी रह गईं.

‘‘तुम जानती नहीं हो, झांसी-खजुराहो सिक्सलाइन हाईवे किस कदर सरकार की प्रायोरिटी में है और हम यहां बनने वाले डिफैंस कौरिडोर के कौंट्रैक्ट के भी दावेदार हैं, तुम कंपनी का भट्टा बैठा दोगी. अभी 3 दिन और काम नहीं लग पाएगा, लेबर तो एडजस्ट कर देंगे लेकिन डिले का क्या होगा, कौन है इस का जिम्मेदार? मुंबई औफिस को भी रिपोर्ट करनी होगी,’’ सदानंद बोले.

फिर नैना से आगे के प्लान पर चर्चा करते हुए सदानंद ने रिया को वहां से चले जाने के लिए कहा.

बहुत बड़ी इंसल्ट थी रिया के लिए यह. रिया को अपनी पढ़ाई पर बहुत घमंड था, अपने आगे नैना को उस ने कभी कुछ नहीं समझा था. बहुत देर अपने औफिस में रिया सुबकती रही और तब नैना ने उसे सांत्वना दी.

‘‘कैरियर पर जो दाग लग गया वह कैसे धुलेगा,’’ रिया ने कहा.

‘‘डौंट वरी. मैं हूं न,’’ और फिर नैना ने रिया को इस तरह बांहों में भर लिया जैसे गौरैया अपने बच्चों को अपने पंखों में समेट लेती है. नैना अकसर अमेरिकी लेखक लेस ब्राउन को कोट करते हुए कहती थी, ‘‘दूसरों को उन के सपने साकार करने में मदद करें, आप के सपने अपनेआप पूरे होने लगेंगे.’’

रिया और नैना आज एक अच्छी दोस्त थीं. एक के बाद एक, दोनों मिल कर प्रोजैक्ट पूरे करती चली जा रही थीं. नैना को काम कर के खुशी मिलती थी तो रिया को हर जगह अपना नाम चाहिए होता था.

झांसी से मऊरानीपुर तक 200 मीटर से छोटे सारे पुल बना लिए गए थे. रिया चहक कर बताती कि उस ने बनाए हैं. फाइलों पर रिया ने अपने नाम डलवा रखे थे, नैना सिर्फ हंस कर रह जाती थी.

बहुत ही मजबूत बने हैं सारे पुल, सुंदरता में ब्रिटिश आर्किटैक्चर को मात करते हैं, डायनैमिक लोड, लाइव लोड और डैड लोड तीनों में आगे हैं. रिया अपने कलीग्स को बताती और जब कलीग्स उसे बधाई देने लगते तो रिया इठला कर कहती, ‘‘ये चूहे जैसे काम, उस के स्टेटस के नहीं हैं, उसे कुछ बड़ा करना है, स्टैच्यू औफ यूनिटी, बांद्रा वर्ली सीलिंक, सिग्नेचर ब्रिज, चिनाब ब्रिज जैसा कुछ करना है मुझे.’’

ये बातें जब नैना के कानों में पड़ती थीं तो दुख होता था उसे. सत्य क्या है सिर्फ नैना या रिया जानते थे. सही है कि रिया ने बहुत से डिजाइन, कैलकुलेशन किए थे. सदर बाजार के एक कौफीहाउस में वे घंटों बैठा करती थीं. पर नैना ने क्रिटिसाइज कर के ठीक किया था, उन्हें व्यावहारिक बनाया था. नैना ने रात और दिन नहीं देखा था इस प्रोजैक्ट को पूरा करने में, रिया सिरदर्द का बहाना कर के पड़ी रहती थी. एसी की ठंडी हवा में इस प्रोजैक्ट को समय पर पूरा करने के लिए नैना को अनेक बार अकेले रात को 12 बजे तक खुद गाड़ी ड्राइव कर के साइट से घर लौटना पड़ता था.

इस प्रोजैक्ट में रिया और नैना की दोस्ती आर्किटैक्ट अंकित से हुई जोकि चारबाग बंदरगाह के लिए काम कर रहा था. रिया के दिल की घंटी बज उठी थी. यही उस का ड्रीम प्रोजैक्ट व ड्रीम बौय है. नैना तो पहले से शिव के साथ इंगेज थी. लेकिन फिर भी रिया को डर लगा रहता था कि नैना उस के दोस्त को हथिया न ले. नैना, रिया की इन कोशिशों को बचकानी हरकतें समझ कर माफ कर देती थी.

नैना पूरी कोशिश करती थी रिया को उस का प्यार मिल जाए, उस के हिस्से का काम निबटाती थी ताकि उसे अंकित से बात करने का समय मिल सके. एक बार रिया अंकित से मिलने दिल्ली गई और नैना ने उस के हिस्से का औफिस का काम निबटाया ताकि बौस उसे छुट्टी दे दें और इन एहसानों का बदला नैना को यह

मिला था.

इस प्रोजैक्ट के कारण शिव के साथ उस की इंगेजमैंट टूटने के कगार पर आ गई थी. शिव की शिकायत थी कि नैना उसे समय नहीं देती. आखिर नैना ने औफिस से एक लंबी छुट्टी ली शिव के साथ डेट करने के लिए. सिक्किम के झरनों और घाटियों में एक प्रीवैडिंग हनीमून उन्होंने प्लान किया था.

15 दिनों बाद, सिक्किम से लौट कर नैना ने देखा कि औफिस का दृश्य बदला हुआ था. रिया अपनी जगह नहीं थी. नैना रिया के लिए बहुत ही सुंदर स्वर्णिम पृष्ठभूमि के साथ पश्मीना सिल्क पर बना हुआ थांका ले कर आई थी. नैना को विश्वास था कि इस से रिया की जिंदगी में खुशियों की बहार आ जाएगी, उस के सारे सपने पूरे होंगे.

पता चला कि रिया को औफिस में डिवाइडिड केबिन की जगह व्यक्तिगत केबिन मिल गया था. रिया की सैलरी बढ़ा कर नैना से भी ज्यादा कर दी गई थी और उसे अब इस प्रोजैक्ट के सब से बड़े पुल ‘बेतवा’  का डायरैक्टर बना दिया गया था.

नैना ने कमरे में प्रवेश किया. रिया ने पेपर पर लाइन खींचते हुए उस का हालचाल लिया और फिर काम में व्यस्त हो गई.

रिया की टीम में नैना को कोई जगह नहीं दी गई थी. रिया की टीम में अभिषेक और सुमित थे जो कभी उन के दुश्मन और औफिस में मुख्य प्रतिद्वंद्वी हुआ करते थे. अपने नए प्रोजैक्ट पर रिया, नैना की छांव भी नहीं पड़ने देना चाहती थी. उसे लगता था कि नैना ने पिछले प्रोजैक्ट में जितनी हैल्प नहीं की उस से अधिक एहसान जमाती रही है.

आज केवल रिया की दोस्ती सदानंद से थी. हर काम में बौस सदानंद, रिया को ही पहले भेजते थे. नैना को धीरे से रिया ने व्हाट्सऐप और फेसबुक पर भी ब्लौक कर दिया था. रिया का आरोप था कि नैना उस की तरक्की से ईर्ष्या करने लगी है. नैना को बहुत ही बुरा लगता था. धीरेधीरे नैना डिप्रैशन में जाने लगी थी. आखिरकार शिव की सलाह पर नैना ने बहुराष्ट्रीय कंपनी की इस हाई प्रोफाइल जौब को छोड़ कर एक छोटी रीजनल लैवल की रियल स्टेट कंपनी में कम वेतन पर काम शुरू कर दिया.

नैना की कंपनी इन दिनों झांसी में कालोनियां डैवलप कर रही थी. देखते ही देखते 4 साल निकल गए. नैना की कंपनी और समाज में इज्जत थी. शहर की पावरफुल बिजनैस वुमेन थी वह. एक दिन अभिषेक नैना से मिलने आया. वह नैना की कंपनी से फ्लैट खरीद रहा था. रिया के बारे में पूछने पर उस ने बताया, ‘‘नैना के औफिस छोड़ने के 3 माह बाद ही उसे बेतवा साइट से हटा कर हाईवे के टोल बैरियर की साइट पर लगाना पड़ा लेकिन वहां भी वह असफल हुई.’’

स्मिता: क्या बेटी की बीमारी का इलाज ढूंढ पाए सारा और राजीव

‘‘यह कितनी कौंप्लिकेटेड प्रेग्नैंसी है,’’ राजीव ने तनाव भरे स्वर में कहा.

सारा ने प्रतिक्रिया में कुछ नहीं कहा. उस ने कौफी का मग कंप्यूटर के कीबोर्ड के पास रखा. राजीव इंटरनेट पर सर्फिंग कर रहा था. सारा ने एक बार उस की तरफ देखा, फिर उस ने मौनिटर पर निगाह डाली और वहां खडे़खडे़ राजीव के कंधे पर अपनी ठुड्डी रखी तो उस की घनी जुल्फें पति के सीने पर बिखर गईं.

नेट पर राजीव ने जो वेबसाइट खोल रखी थी वह हिंदी की वेबसाइट थी और नाम था : मातृशक्ति.

साइट का नाम देखने पर सारा उसे पढ़ने के लिए आतुर हो उठी. लिखा था, ‘प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड ने भी माना है कि आदमी को जीवन में सब से ज्यादा प्रेरणा मां से मिलती है. फिर दूसरी तरह की प्रेरणाओं की बारी आती है. महान चित्रकार लियोनार्डो दि विंची ने अपनी मां की धुंधली याद को ही मोनालिसा के रूप में चित्र में उकेरा था. इसलिए आज भी वह एक उत्कृष्ट कृति है. नेपोलियन ने अपने शासन के दौरान उसे अपने शयनकक्ष में लगा रखा था.’

वेबसाइट पढ़ने के बाद कुछ पल के लिए सारा का दिमाग शून्य हो गया. पहली बार वह मां बन रही थी इसीलिए भावुकता की रौ में बह कर वह बोली, ‘‘दैट्स फाइनल, राजीव, जो भी हो मेरा बच्चा दुनिया में आएगा. चाहे उस को दुनिया में लाने वाला चला जाए. आजकल के डाक्टर तो बस, यही चाहते हैं कि वे गर्भपात करकर के  अच्छाखासा धन बटोरें ताकि उन का क्लीनिक नर्सिंग होम बन सके. सारे के सारे डाक्टर भौतिकवादी होते हैं. उन के लिए एक मां की भावनाएं कोई माने नहीं रखतीं. चंद्रा आंटी को गर्भ ठहरने पर एक महिला डाक्टर ने कहा था कि यह प्रेग्नैंसी कौंप्लिकेटेड होगी या तो जच्चा बचेगा या बच्चा. देख लो, दोनों का बाल भी बांका नहीं हुआ.’’

‘‘यह जरूरी तो नहीं कि तुम्हारा केस भी चंद्रा आंटी जैसा हो. देखो, मैं अपनी इकलौती पत्नी को खोना नहीं चाहता. मैं संतान के बगैर तो काम चला लूंगा लेकिन पत्नी के बिना नहीं,’’ कहते हुए राजीव ने प्यार से अपना बायां हाथ सारा के सिर पर रख दिया.

‘‘राजीव, मुझे नर्वस न करो,’’ सारा बोली, ‘‘कल सुबह मुझे नियोनो- टोलाजिस्ट से मिलने जाना है. दोपहर को मैं एक जेनेटिसिस्ट से मिलूंगी. मैं तुम्हारी कार ले जाऊंगी क्योंकि मेरी कार की बेल्ट अब छोटी पड़ रही है. और हां, पापा को ईमेल कर दिया?’’

‘‘पापा बडे़ खुश हैं. उन को भी तुम्हारी तरह यकीन है कि पोती होगी. उन्होंने साढे़ 8 महीने पहले उस का नाम भी रख दिया, स्मिता. कह रहे थे कि स्मिता की स्मित यानी मुसकराहट दुनिया में सब से सुंदर होगी,’’ राजीव ने बताया तो सारा के गालों का रंग और भी सुर्ख हो गया.

‘‘मिस्टर राजीव बधाई हो, आप की पहली संतान लड़की हुई है,’’ नर्स ने बधाई देते हुए कहा.

पुलकित मन से राजीव ने नर्स का हाथ स्नेह से दबाया और बोला, ‘‘थैंक्स.’’

राजीव अपनी बेचैनी को दबा नहीं पा रहा था. वह सारा को देखने के लिए प्रसूति वार्ड की ओर चल दिया.

सारा आंखें मूंदे लेटी हुई थी. किसी के आने की आहट से सारा ने आंखें खोल दीं, फिर अपनी नवजात बेटी की तरफ देखा और मुसकरा दी.

‘‘मुझे पता नहीं था कि बेटियां इतनी सुंदर और प्यारी होती हैं,’’ यह कहते हुए राजीव ने बेटी को हाथों में लेने का जतन किया.

तभी बच्ची को जोर की हिचकी आई. फिर वह जोरजोर से सांसें लेने लगी. यह देख कर पतिपत्नी की सांस फूल गई. राजीव जोर से चिल्लाया, ‘‘डाक्टर…’’

आधे मिनट में लेडी डाक्टर वंदना जैन आ गईं. उन्होंने बच्ची को देख कर नर्स से कहा, ‘‘जल्दी से आक्सीजन मास्क लगाओ.’’

अगले 10 मिनट बाद राजीव और सारा की नवजात बेटी को अस्पताल के नियोनोटल इंटेसिव केयर यूनिट में भरती किया गया. उस बच्ची के मातापिता कांच के बाहर से बड़ी हसरत से अपनी बच्ची को देख रहे थे. तभी नर्स ने आ कर सारा से कहा कि उसे जच्चा वार्ड के अपने बेड पर जा कर आराम करना चाहिए.

सारा को उस के कमरे में छोड़ राजीव सीधा डा. अतुल जैन के चैंबर में पहुंचा, जो उस की बेटी का केस देख रहे थे.

‘‘मिस्टर राजीव, अब आप की बेटी को सांस लेने में कोई दिक्कत नहीं आएगी. लेकिन वह कुछ चूस नहीं सकेगी. मां का स्तनपान नहीं कर पाएगी. उस का जबड़ा छोटा है, होंठों एवं गालों की मांसपेशियां काफी सख्त हैं. बाकी उस के जिनेटिक, ब्रेन टेस्ट इत्यादि सब सामान्य हैं,’’ डा. अतुल जैन ने बताया.

‘‘आखिर मेरी बेटी के साथ समस्या क्या है?’’

‘‘अभी आप की बेटी सिर्फ 5 दिन की है. अभी उस के बारे में कुछ भी नहीं कह सकते. हो सकता है कि कल कुछ न हो. चिकित्सा के क्षेत्र में कभीकभी ऐसे केस आते हैं जिन के बारे में पहले से कुछ कहा नहीं जा सकता. वैसे आज आप की बेटी को हम डिस्चार्ज कर देंगे,’’ डा. अतुल ने कहा.

राजीव वार्ड में सारा का सामान समेट रहा था. स्मिता को नियोनोटल इंटेसिव केयर में सिर्फ 2 दिन रखा गया था. अब वह आराम से सांस ले रही थी.

‘‘आप ने बिल दे दिया?’’ नर्स ने पूछा.

‘‘हां, दे दिया,’’ सारा ने जवाब दिया.

नर्स ने नन्ही स्मिता के होंठों पर उंगली रखी और बोली, ‘‘मैडम, आप को इसे ट्यूब से दूध पिलाना पडे़गा. बोतल से काम नहीं चलेगा. यह बच्ची मानसिक रूप से कमजोर पैदा हुई है.’’

राजीव और सारा ने कुछ नहीं कहा. नर्स को धन्यवाद बोल कर पतिपत्नी कमरे से बाहर निकल गए.

घर आ कर सारा ने स्मिता के छोटे से मुखडे़ को गौर से देखा. फिर वह सोचने लगी, ‘आखिर इस के होंठों और गालों में कैसी सख्ती है?’

राजीव ने सारा को एकटक स्मिता को ताकते हुए देखा तो पूछा, ‘‘इतना गौर से क्या देख रही हो?’’

सारा कुछ नहीं बोली और स्मिता में खोई रही.

2 दिन बाद डा. अतुल जैन ने फोन कर राजीव व सारा को अपने नर्सिंग होम में बुलाया.

‘‘आप की बेटी की समस्या का पता चल गया. इसे ‘मोबियस सिंड्रोम’ कहते हैं,’’ डा. अतुल जैन ने राजीव और सारा को बताया.

‘‘यह क्या होता है?’’ सारा ने झट से पूछा.

‘‘इस में बच्चे का चेहरा एक स्थिर भाव वाले मुखौटे की तरह लगता है. इस सिंड्रोम में छठी व 7वीं के्रनिकल नर्व की कमी होती है या ये नर्व अविकसित रह जाती हैं. छठी क्रेनिकल नर्व जहां आंखों की गति को नियंत्रित करती है वहीं 7वीं नर्व चेहरे के भावों को सक्रिय करती है,’’ अतुल जैन ने विस्तार से स्मिता के सिंड्रोम के बारे में जानकारी दी.

‘‘इस से मेरी बेटी के साथ क्या होगा?’’ सारा ने बेचैनी से पूछा.

‘‘आप की स्मिता कभी मुसकरा नहीं सकेगी.’’

‘‘क्या?’’  दोनों के मुंह से एकसाथ निकला. हैरत से राजीव और सारा के मुंह खुले के खुले रह गए. किसी तरह हिम्मत बटोर कर सारा ने कहा, ‘‘क्या एक लड़की बगैर मुसकराए जिंदा रह सकती है?’’

डा. जैन ने कोई जवाब नहीं दिया. राजीव भी निरुत्तर हो गया था. वह सारा की गोद में लेटी स्मिता के नन्हे से होंठों को अपनी उंगलियों से छूने लगा. उस की बाईं आंख से एक बूंद आंसू का निकला. इस से पहले कि सारा उस की बेबसी को देखती, राजीव ने आंसू आधे में ही पोंछ लिया.

16 माह की स्मिता सिर्फ 2 शब्द बोलती थी. वह पापा को ‘काका’ और ‘मम्मी’ को ‘बबी’ उच्चारित करती. उस ने ‘प’ का विकल्प ‘क’ कर दिया और ‘म’ का विकल्प ‘ब’ को बना दिया. फिर भी राजीव और सारा हर समय अपनी नौकरी से फुरसत मिलते ही अपनी स्मिता के मुंह से काका और बबी सुनने को बेताब रहते थे.

6 साल की स्मिता अब स्कूल में पढ़ रही थी. लेकिन कक्षा में वह पीछे बैठती थी और हर समय सिर झुकाए रहती थी. उस की पलकों में हर समय आंसू भरे रहते थे. एक छोटी सी बच्ची, जो मन से मुसकराना जानती थी लेकिन  उस के होंठ शक्ल नहीं ले पाते थे. उस पर सितम यह कि उस के सहपाठी दबे मुंह उसे अंगरेजी में ‘स्माइललैस गर्ल’ कहते थे.

इस दौरान राजीव और सारा मुंबई विश्वविद्यालय छोड़ कर अपनी बेटी स्मिता को ले कर जोधपुर आ गए और विश्वविद्यालय परिसर में बने लेक्चरर कांप्लेक्स में रहने लगे. राजीव मूलत: नागपुर के अकोला शहर से थे और पहली बार राजस्थान आए थे.

स्मिता का दाखिला विश्वविद्यालय के करीब ही एक स्कूल में करा दिया गया. वह मानसिक रूप से एक औसत छात्रा थी.

उस दिन बड़ी तीज थी. विश्व- विद्यालय परिसर में तीज का उत्साह नजर आया. परिसर के लंबेचौडे़ लान में एक झूला लगाया गया. परिसर में रहने वालों की छोटीबड़ी सभी लड़कियां सावन के गीत गाते हुए एकदूसरे को झुलाने लगीं. स्मिता भी अपने पड़ोस की हमउम्र लड़कियों के साथ झूला झूलने पहुंची. लेकिन आधे घंटे बाद वह रोती हुई सारा के पास पहुंची.

‘‘क्या हुआ?’’ सारा ने पूछा.

‘‘मम्मी, पूजा कहती है कि मैं बदसूरत हूं क्योंकि मैं मुसकरा नहीं सकती,’’ स्मिता ने रोते हुए बताया.

‘‘किस ने कहा? मेरी बेटी की मुसकान दुनिया में सब से खूबसूरत होगी?’’

‘‘कब?’’

‘‘पहले तू रोना बंद कर, फिर बताऊंगी.’’

‘‘मम्मी, पूजा ने मेरे साथ चीटिंग भी की. पहले झूलने की उस की बारी थी, मैं ने उसे 20 मिनट तक झुलाया. जब मेरी बारी आई तो पूजा ने मना कर दिया और ऊपर से कहने लगी कि तू बदसूरत है इसलिए मैं तुझे झूला नहीं झुलाऊंगी,’’ स्मिता ने एक ही सांस में कह दिया और बड़ी हसरत से मम्मी की ओर देखने लगी.

बेटी के भावहीन चेहरे को देख कर सारा को समझ में नहीं आया कि वह हंसे या रोए. उस के मन में अचानक सवाल जागा कि क्या मेरी स्मिता का चेहरा हंसी की भाषा कभी नहीं बोल पाएगा. नहीं, ऐसा नहीं होगा. एक दिन जरूर आएगा और वह दिन जल्दी ही आएगा, क्योंकि एक पिता ऐसा चाहता है…एक मां ऐसा चाहती है और एक भाई भी ऐसा ही चाहता है.

एक दिन सुबह नहाते वक्त स्मिता की नजर बाथरूम में लगे शीशे पर पड़ी. शीशा थोड़ा ऊपर था. वह टब में बैठ कर या खड़े हो कर उसे नहीं देख सकती थी. सारा जब उसे नहलाती थी तब पूरी कोशिश करती थी कि स्मिता आईना न देखे. लेकिन आज सारा जैसे ही बेटी को नहलाने बैठी तो फोन आ गया. स्मिता को टब के पास छोड़ कर सारा फोन अटेंड करने चली गई.

स्मिता के मन में एक विचार आया. वह टब पर धीरे से चढ़ी. अब वह शीशे में साफ देख सकती थी. लेकिन अपना सपाट और भावहीन चेहरा शीशे में देख कर स्मिता भय से चिल्ला उठी, ‘‘मम्मी…’’

सारा बेटी की चीख सुन कर दौड़ी आई, बाथरूम में आ कर उस ने देखा तो शीशा टूटा हुआ था. स्मिता टब में सहमी बैठी हुई थी. उस ने गुस्से में नहाने के शावर को आईने पर दे मारा था.

‘‘मम्मी, मैं मुसकराना चाहती हूं. नहीं तो मैं मर जाऊंगी,’’ सारा को देखते ही स्मिता उस से लिपट कर रोने लगी. सारा भी अपने आंसू नहीं रोक पाई.

‘‘मेरी बेटी बहुत बहादुर है. वह एक दिन क्या थोडे़ दिनों में मुसकराएगी,’’ सारा ने उसे चुप कराने के लिए दिलासा दी.

स्मिता चुप हो गई. फिर बोली, ‘‘मम्मी, मैं आप की तरह मुसकराना चाहती हूं क्योंकि आप की मुसकराहट से खूबसूरत दुनिया में किसी की मुसकराहट नहीं है.’’

राजीव शिमला से वापस आए तो सारा ने पूछा, ‘‘हमारी बचत कितनी होगी, राजीव?’’

‘‘क्या तुम प्लास्टिक सर्जरी के बारे में सोच रही हो,’’ राजीव ने बात को भांप कर कहा.

‘‘हां.’’

‘‘चिंता मत करो. कल हम स्मिता को सर्जन के पास ले जाएंगे,’’ राजीव ने कहा.

‘‘सिस्टर, तुम देखना मेरी मुसकराहट मम्मी जैसी होगी. जो मेरे लिए दुनिया में सब से खूबसूरत मुसकराहट है,’’ एनेस्थिसिया देने वाली नर्स से आपरेशन से पहले स्मिता ने कहा.

स्मिता का आपरेशन शुरू हो गया. सारा की सांस अटक गई. उस ने डरते हुए राजीव से पूछा, ‘‘सुनो, उसे आपरेशन के बाद होश आ जाएगा न? कभीकभी मरीज कोमा में चला जाता है.’’

‘‘चिंता मत करो. सब ठीक होगा,’’ राजीव ने मुसकराते हुए जवाब दिया ताकि सारा का मन हलका हो जाए.

डा. अतुल जैन ने स्मिता की जांघों की ‘5वीं नर्व’ की शाखा से त्वचा ली क्योंकि वही त्वचा प्रत्यारोपण के बाद सक्रिय रहती है. इस से ही काटने और चबाने की क्रिया संभव होती है. राजीव और सारा का बेटी के प्रति प्यार रंग लाया. आपरेशन के 1 घंटे बाद स्मिता को होश आ गया. लेकिन अभी एक हफ्ते तक वे अपनी बेटी का चेहरा नहीं देख सकते थे.

काफी दिनों तक राजीव पढ़ाने नहीं जा पाया था. आज सुबह 10 बजे वह पूरे 2 महीने बाद लाइफ साइंस के अपने विभाग गया था. आज ही सुबह 11 बजे स्मिता को अस्पताल से छुट्टी मिली. रास्ते में उस ने सारा से कहा, ‘‘मम्मी, मुझे कुछ अच्छा सा महसूस हो रहा है.’’

यह सुन कर सारा ने स्मिता के चेहरे को गौर से देखा तो उस के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. स्मिता जब बोल रही थी तब उस के होंठों ने एक आकार लिया. सारा ने आवेश में स्मिता का चेहरा चूम लिया. उस ने तुरंत राजीव को मोबाइल पर फ ोन किया.

फोन लगते ही सारा चिल्लाई, ‘‘राजीव, स्मिता मुसकराई…तुम जल्दी आओ. आते वक्त हैंडीकैम लेते आना. हम उस की पहली मुसकान को कैमरे में कैद कर यादों के खजाने में सुरक्षित रखेंगे.’’

उधर राजीव इस बात की कल्पना में खो गया कि जब वह अपनी बेटी को स्मिता कह कर बुलाएगा तब वह किस तरह मुसकराएगी.

बदलते जमाने का सच: बापूजी ने क्यों मांगी माफी

‘‘हैलो,’’ प्रियांशु ने मुसकरा कर नैनी की ओर देखा.

‘‘हैलो,’’ नैनी भी उसे देख कर मुसकराई.

‘‘तुम्हारा प्रोजैक्ट बन गया क्या?’’

‘‘नहीं, मेरा लैपटौप खराब हो गया है. ठीक होने के लिए दिया है. एक घंटे के लिए अपना लैपटौप दोगे मुझे?’’

‘‘क्यों नहीं, कब चाहिए?’’ प्रियांशु ने पूछा.

‘‘कल दोपहर में आ कर ले जाऊंगी. लंच भी तुम्हारे साथ करूंगी. संडे है न, कोई न कोई नौनवैज तो बनाओगे ही.’’

‘‘बिलकुल. क्या खाना पसंद करोगी, चिकन या मटन?

‘‘जो तुम्हें पसंद हो. वैसे, तुम्हारा प्राजैक्ट बन गया क्या?’’

‘‘हां, देखना चाहोगी?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. कल आने के बाद,’’ नैनी ‘बायबाय’ कहते हुए चली गई. प्रियांशु भी अपने र्क्वाटर पर लौट आया.

प्रियांशु और नैनी एक कंपनी में साथसाथ काम करते थे. उन के क्वार्टर भी अगलबगल में थे. दोनों अभी कुंआरे थे. साथसाथ काम करने के चलते अकसर उन में बातचीत होती रहती थी. दोनों के विचार मिलते थे और दोस्ती के लिए इस से ज्यादा चाहिए भी क्या.

दूसरे दिन प्रियांशु मटन ले कर लौटा ही था कि नैनी आई.

‘‘बहुत जल्दी आ गई तुम नैनी?’’ प्रियांशु ने लान में रखी कुरसी पर बैठने का इशारा किया और खुद मटन रखने रसोईघर में चला गया.

‘‘तुम्हारा हाथ बंटाने पहले आ गई,’’ कह कर नैनी मुसकराई.

नैनी की यही अदा प्रियांशु को उस का दीवाना बनाए हुई थी.

‘‘अभी चाय ले कर आता हूं, फिर इतमीनान से खाना बनाएंगे,’’ कह कर प्रियांशु रसोईघर में चला गया.

प्रियांशु के पिताजी किसान थे. उस से बड़ी एक बहन थी जिस की शादी हो चुकी थी. उस से एक छोटा भाई महीप था जो मैडिकल इम्तिहान की तैयारी कर रहा था. पिता के ऊपर काफी कर्ज हो गया था.

अब प्रियांशु कर्ज चुकाने और छोटे भाई महीप को पढ़ाने का खर्चा उठा रहा था. पिताजी उस की शादी में तिलक की एक मोटी रकम वसूलना चाहते थे. रिश्ते तो कई जगह से आए थे, पर उन की डिमांड ज्यादा होने के चलते कहीं शादी तय नहीं हो पा रही थी. इधर उस की बहन अपनी ननद के लिए लड़का ढूंढ़ रही थी. उस की ननद नाटे कद की थी और किसी तरह मैट्रिक पास हो गई थी. रंगरूप साधारण था, पर प्रियांशु के पिताजी की डिमांड को उस के समधी पूरा करने के लिए तैयार हो गए थे.

नैनी के पिताजी की मौत उस के बचपन में ही हो गई थी. कोई भाई नहीं था. मां ने उस की पढ़ाई के लिए कौनकौन से पापड़ न बेले थे. बाद में उस ने ऐजुकेशन लोन ले कर पढ़ाई पूरी की थी. अब लोन चुकाना और मां की देखभाल की जिम्मेदारी उस पर थी.

प्रियांशु जब रसोईघर में गया था तब उस का मोबाइल फोन बाहर ही छूट गया था. अचानक फोन बजने लगा तो नैनी ने प्रियांशु को पुकारा, पर चाय बनाने में बिजी होने के चलते उस की आवाज प्रियांशु के कानों तक न पहुंची.

नैनी ने फोन रिसीव किया तो उधर से आवाज आई. कोई औरत थी.

‘‘हैलो, आप कौन बोल रही हैं?’’ नैनी ने पूछा.

‘प्रियांशु कहां है? मैं उन की बहन बोल रही हूं. आप कौन हैं?’

‘‘मैं प्रियांशु की कलीग हूं, बगल में ही रहती हूं.’’

‘अच्छा, तुम नैनी हो क्या?’

‘‘हां जी, आप मुझे कैसे जानती हैं?’’ नैनी ने हैरान हो कर पूछा.

‘प्रियांशु ने बताया था. अब तुम उस का पीछा करना छोड़ दो. उस की शादी मेरी ननद से तय हो गई है,’ उधर से एक तीखी आवाज आई.

‘‘अच्छा जी… प्रियांशु अभी रसोईघर में हैं. वे आ जाते हैं तो उन्हें आप को फोन करने के लिए कहती हूं,’’ नैनी ने अपनेआप को संभालते हुए कहा.

प्रियांशु ने अपनी बहन की ननद के बारे में कुछ दिनों पहले बताया था. वह कुछ परेशान सा लग रहा था. उस की बातों से लग रहा था कि उस की बहन अपनी ननद के लिए उस के पीछे पड़ी थी. कहती थी कि यह शादी हो जाती है तो उसे मुंहमांगा दहेज मिलेगा. साथ ही, उस की ननद हमेशा के लिए उस के साथ रहेगी, पर प्रियांशु को यह रिश्ता बिलकुल पसंद नहीं था.

नैनी यह तो नहीं जानती थी कि प्रियांशु से उस का क्या रिश्ता है, पर उन दोनों को एकदूसरे का साथ बहुत भाता था. प्रियांशु जब कभी औफिस से गैरहाजिर होता था तो वह उसे बहुत याद करती. आज उसे पता चला कि प्रियांशु ने घर में उस की चर्चा की है, पर इस संबंध में उस ने कभी कुछ बताया न था. अभी वह इसी उधेड़बुन में थी कि प्रियांशु आ गया.

‘‘तुम्हारा फोन था. बधाई, तुम्हारी शादी तय हो गई,’’ नैनी ने मुसकराने की कोशिश करते हुए कहा.

प्रियांशु चाय की ट्रे लिए खड़ा था. लगा, गिर जाएगा. किसी तरह अपनेआप को संभालते हुए वह बैठा. यह सुन कर उस का मन बैठता चला गया. तो क्या सच ही उस की शादी तय हो गई? क्या यह उस की बहन की चाल तो नहीं? अगर ऐसा है तो जरूर ही उस की ननद होगी. पर वे लोग उस से बिना पूछे ऐसा कैसे कर सकते हैं.

‘‘क्या सोच रहे हो? बहन से पूछ लो कि कब सगाई है. मुझे तो ले नहीं चलोगे. कहोगे तब भी मैं न चलूंगी. तुम्हारी बहन ने चेताया है, तुम्हारा पीछा छोड़ दूं,’’ नैनी बोल रही थी. वह सुन रहा था. लंच का सारा मजा किरकिरा हो गया था.

दूसरे दिन प्रियांशु गांव में था. उस ने पिताजी के पैर छुए.

‘‘अच्छा हुआ कि तू आ गया बेटा. अब हम कर्ज से जल्दी ही उबर जाएंगे. तुम्हारा रिश्ता तय हो गया है सरला से. वही तुम्हारी बहन की ननद. कद में तुम से थोड़ी छोटी जरूर है, पर घर के कामों में माहिर है. सुशील इतनी कि हर कोई उस के स्वभाव की तारीफ करता है. तुम्हारी बहन का भी काफी जोर था.’’

प्रियांशु ने कुछ न कहा. वह पिताजी की बहुत इज्जत करता था. उन के हर आदेश का पालन करना अपना फर्ज समझता था. वह उन की भावनाओं को चोट नहीं पहुंचाना चाहता था. उसे अपनी बहन से भी उतना ही लगाव था.

पर उसे क्या मालूम था कि जिन मातापिता और बहन की वह इतनी इज्जत करता था उन के लिए उस की भावनाओं का कोई मोल नहीं था. उस ने कई मौकों पर नैनी का जिक्र किया था. उस की तारीफ की थी.

एक समझदार मातापिता और बहन के लिए इतना इशारा कम न था. कई बार उस ने सरला से शादी न करने की इच्छा जाहिर की थी. इस के बावजूद उन्होंने उस की शादी सरला से तय कर दी थी. सच तो यह था कि कहीं उस की शादी तय नहीं हुई थी, उसे सरेबाजार बेचा गया था.

रात में पिताजी ने साथ खाने पर बुलाया. उन्होंने खबर भिजवा कर बेटी को भी बुलवा लिया था. उस का छोटा भाई महीप भी आ गया था. सब के सामने पिताजी सगाई की तारीख तय करना चाहते थे.

जब सभी इकट्ठा हुए तो पिताजी ने बात छेड़ी. अब तक गांव में कई लोगों से उन्होंने प्रियांशु की बात की थी. लायक बेटे की यही पहचान है. पिता ने जो फैसला ले लिया, उस पर बेटे ने कोई टिप्पणी नहीं की. गांव के लोग ऐसे ही उस के परिवार को आदर्श नहीं मानते.

‘‘तो प्रियांशु, तुम को कब छुट्टी मिलेगी? उसी समय सगाई की तारीख तय करूंगा,’’ पिता ने कहा.

‘‘लेकिन पिताजी, आप ने भैया से पूछ लिया है या खुद ही रिश्ता तय कर दिया,’’ छोटे भाई महीप ने पूछा.

‘‘प्रियांशु आजकल के लड़कों जैसा नहीं है जो हर बात पर मातापिता की बात का विरोध करते हैं. प्रियांशु जानता है कि उस के पिता जो भी करेंगे, उस के और परिवार के फायदे में करेंगे,’’ पिताजी अचानक महीप के बीच में पड़ने से खीज गए थे.

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि भैया को आप बलि का बकरा समझते हैं. भैया ने कई बार सरला से शादी के प्रति अनिच्छा जाहिर की?है. क्या दीदी यह नहीं जानतीं? क्या मां को यह पता नहीं?

‘‘मां को तो आप ने कभी मान दिया ही नहीं. जिंदगीभर उन्हें दबा कर रखा. आप ने सब पर अनुशासन के नाम पर हिटलरशाही चलाई. लेकिन अब मैं ऐसा न होने दूंगा. शादीब्याह किसी सामान की खरीदफरोख्त नहीं है जिसे जब चाहे और जिस को चाहे खरीदबेच दो.’’

महीप की बात सुन कर पिताजी हैरान रह गए. आज पहली बार उन्हें महीप की नालायकी पर दुख हुआ.

पिताजी कुछ बोलते, इस के पहले ही मां ने कहा, ‘‘जिंदगीभर इन्होंने अपनी चलाई है… अब भी यही करना चाहते हैं. किसी ने प्रियांशु से पूछा कि उस की इच्छा क्या है.’’

‘‘अगर भैया को कोई एतराज नहीं है तो मैं अपनी कही बात वापस ले लूंगा,’’ महीप ने कहा.

‘‘दीदी, तुम से तो मैं ने अपनी इच्छा कई बार बताई. लेकिन तुम मेरी इच्छा का मान क्या रखोगी, उलटे नैनी को तुम ने धमकाया कि वह मेरा पीछा करना छोड़ दे,’’ यह कहते हुए प्रियांशु दुखी था. पर पिता दीनानाथ ने पासा पलटते देख बात को बदला. उन्हें लगा कि इतना बड़ा दहेज उन के हाथों से निकला जा रहा है.

पिता बोले, ‘‘पर बेटा, तुम ने तो बताया था कि नैनी हमारी बिरादरी की नहीं है. हम से छोटी जाति की है तो क्या हमारी बिरादरी में लड़कियों की कमी है, जो अपने से निचली बिरादरी में शादी कर के पूरे समाज में अपनी नाक कटाए?

‘‘यह भी तो सोचो कि छोटी जाति की बहू हमारे जैसी संस्कारवान होगी भला? फिर उस से पैदा हुई औलाद भी तो संस्कारहीन होगी.’’

‘‘आप कैसी बातें करते हैं बाबूजी… आप से किस ने कहा कि आप से छोटी जाति की लड़कियां संस्कारहीन होती हैं? आप ने यह कभी सोचा है कि ऐसा कह कर आप उस की जाति की बेइज्जती कर रहे हैं. यही सोच तो हमारे समाज में कोढ़ बनी हुई है. आप किसी के बारे में बिना कुछ जाने ऐसी बात कैसे कर सकते हैं?

‘‘मैं यह कहूं कि वे छोटी समझी जाने वाली जातियां नहीं, बल्कि हम खुद संस्कारहीन हैं तो बड़ी बात न होगी, क्योंकि वे लोग अपने से बड़ी जातियों की हमेशा इज्जत करते हैं, जबकि हम बिना किसी वजह के केवल जाति के आधार पर उन्हें नीच, संस्कारहीन और न जाने क्याक्या कहते रहते हैं.

‘‘मैं ने ऊंची जाति के कहे जाने वाले लोगों की करतूतें भी खूब देखी हैं. अब इस बात पर चर्चा न करें तो ही अच्छा.’’

जब दीनानाथ ने बात बनते न देखी तो उन्हें गांव के ज्योतिषी याद आए. वे बोले, ‘‘इस संबंध में ज्योतिषी से राय ले लेनी चाहिए. हमारे परिवार में आज तक कोई भी शादी बिना लड़केलड़की की कुंडली मिलाए नहीं हुई है. जब दोनों के गुण मिलते हैं तभी पतिपत्नी की जिंदगी सुख से भरी रहती है, वरना पूरी जिंदगी दुख में ही गुजर जाती है.’’

अभी रात ज्यादा नहीं हुई थी. गांव के गोवर्धन पांडे शादीब्याह में कुंडलियां मिलाते थे. गांव के लोग उन्हें अच्छा ज्योतिषी समझते थे. गांव वालों के हाथ देख कर और उन के ग्रह के नाम पर हवन करा कर उन की रोजीरोटी बिना कोई काम किए आराम से चलती थी. किसी की शादी करानी हो तो कुंडलियां मिलान करा देना और रोकनी हो तो

उन में कई अड़ंगे डाल देना उन के लिए बाएं हाथ का खेल था. जैसा जजमान वैसा काम.

बाबूजी की उन से खूब पटती थी. दोनों साथसाथ पढ़े भी थे. बचपन के दोस्त भी थे इसलिए राह से भटके बेटे को राह पर लाने का काम भी ज्योतिषी से बढि़या कौन कर सकता था.

दीनानाथ बोले, ‘‘मैं अभी ज्योतिषी को बुला लाता हूं. वे जो कहेंगे वही होगा,’’ फिर किसी से कुछ कहे बगैर वे ज्योतिषी को बुलाने चले गए.

गोवर्धन पांडे ने अभीअभी खाना खाया था और अब सोने की तैयारी कर रहे थे. जब इतनी रात को दीनानाथ को आते देखा तो उन्हें अहसास हो गया कि कोई ग्रहनक्षत्र का चक्कर हैं. वे खुश हो कर बोले, ‘‘आओ यार, इतनी रात में आने की कोई खास वजह लगती है. बताओ, क्या बात है?’’

दीनानाथ ने आपबीती सुनाई और किसी तरह बेटे को राह पर लाने को कहा.

ज्योतिषी ने हंसते हुए कहा, ‘‘बस, इतनी सी बात है. चिंता न करो. ऐसे बहके लड़कों को राह पर लाना तो मेरे लिए पलभर का काम है… अब बताओ, तुम्हारा काम हो जाएगा तो दक्षिणा में मुझे क्या मिलेगा.’’

‘‘जो तुम मांगोगे पांडे, दूंगा. बस, किसी तरह बेटे को मेरे समधी की बेटी से शादी के लिए राजी करा दो.’’

दीनानाथ जब घर से बाहर निकले तो ज्योतिषी गोवर्धन पांडे अपनी पत्नी से बोले, ‘‘अब चिंता मत करो पंडाइन, भगवान चाहेगा तो तुम्हारे कंगन बनने का जुगाड़ जल्दी ही हो जाएगा. किवाड़ बंद कर लो. आने में देर हो जाएगी.’’

ज्योतिषी गोवर्धन पांडे को देख कर प्रियांशु ने नाकभौं सिकोड़ ली. वह ज्योतिषी को बचपन से ही जानता था. इस ने कइयों के घर में झगड़ा कराया था. कितनों का घर उजाड़ा था. जरूरत पड़ने पर ओझागुनी होने का भी ढोंग रचता था. जब कोई बीमार पड़ता तो पड़ोसी द्वारा भूत चढ़ाने की बात बताता और उन्हें भगाने के नाम पर खूब पैसे वसूलता.

गोवर्धन पांडे ने जब दोनों की जन्मकुंडली मांगी तो प्रियांशु बोला कि नैनी की जन्मकुंडली नहीं बनी है और जन्मतिथि के नाम पर एक गलत तिथि बता दी.

ज्योतिषी बहुत देर तक पोथीपतरा देखते रहे और एक कागज पर कुछ लिखते रहे. आखिर में वे बोले, ‘‘लड़कालड़की के गुण बिलकुल उलटे हैं. शादी होते ही वरवूध में से किसी एक की मृत्यु का योग है.’’

‘‘आप ने अपनी कुंडली देखी है ज्योतिषी चाचा?’’ महीप ने पूछा, ‘‘अगर देखी होती तो चाची आप को रोज जलीकटी न सुनातीं.’’

गोवर्धन पांडे की पत्नी झगड़ालू थीं. किसी न किसी पड़ोसी से रोज ही बातबात पर लड़ जातीं. ज्योतिषी को तो बीच में पड़ते ही गालीगलौज करने लगतीं. सारा गांव यह बात जानता था.

‘‘महीप, तुम चुप रहो. अपने से बड़ों की इज्जत करो,’’ बाबूजी बोले तो वह चुप हो गया.

‘‘बोलने दो दीनानाथ, अभी बच्चा है… धीरेधीरे सब सीख जाएगा,’’ ज्योतिषी गोवर्धन पांडे बोले.

इसी बीच बहन बीच में आ गई. वह बोली, ‘‘प्रियांशु, तुम्हीं सोचो, क्या ऐसी शादी करोगे जिस में किसी की मौत होने का डर हो? मैं तो कहती हूं कि अपनी ऊंची जाति, पिता की भावनाओं और परिवार के रीतिरिवाज, और हम पर लदे कर्ज का ध्यान रखते हुए मेरी ननद से शादी कर लो.’’

‘‘बाबूजी, क्या आप को नहीं लगता कि ज्योतिषी पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं? इन्होंने कुंडली नहीं, बल्कि शादी काटने की गणित बिठाई है. क्या आज तक कोई किसी का भविष्य जान पाया है? क्या राम की शादी के समय कुंडली का विचार नहीं किया गया था?

‘‘ज्योतिषी चाचा को तो मैं ने नैनी की गलत जन्मतिथि बताई थी. उस की कोई भी जन्मतिथि दी जाएगी, इन्हें अपशकुन का ही योग दिखाई पड़ेगा.

‘‘मैं सरला के बारे में नहीं जानता. मैं यह भी नहीं जानता कि वह मुझ से शादी करना चाहती भी है या नहीं. उसे भी मेरे साथ जबरन जोड़ने की कोशिश सभी लोग कर रहे हैं, पर मैं नैनी को बहुत दिनों से जानता हूं. वह एक समझदार और सुलझी हुई पढ़ीलिखी लड़की है. उस के विचार मुझ से मिलते हैं, मन मिलता है. हमारे दिल में एकदूसरे के लिए प्यार है.

‘‘मैं जानता हूं कि आप, दीदी और ज्योतिषी चाचा मिल कर साजिश रच रहे हैं. कम से कम बाबूजी आप से और दीदी से मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी,’’ प्रियांशु कह कर चुप हुआ तो भाई महीप और मां ने उस का पक्ष लेते हुए कहा, ‘‘इस की शादी नैनी से ही होगी.’’

‘‘आप चिंता न करें बाबूजी, नैनी और मैं मिल कर कर्ज चुका देंगे,’’ प्रियांशु को अहसास हो गया कि पिताजी दहेज के लालच में यह सब कर रहे हैं.

अब दीनानाथ को समझ आ गया था कि उन से बड़ी भूल हुई है. उन्होंने बहुत बड़ा पाप किया था. अपने बेटे के खिलाफ ही साजिश रची थी. अब वह वक्त नहीं रहा, जब धर्म, जाति और कुंडली के नाम पर बेमेल सोच वाले लोगों को जबरन शादी के बंधन में बांध दिया जाता है.

दीनानाथ बोले, ‘‘बेटा, बाप हो कर भी मैं तुम से माफी मांगता हूं. मुझ से गलती हुई है. शादीब्याह गुड्डेगुडि़या का खेल नहीं है. इस में 2 लोग एकदूसरे के साथ जिंदगीभर के लिए बंधते हैं. पतिपत्नी को जाति नहीं, बल्कि दिल और विचार एकदूसरे के साथ जोड़ते हैं.

‘‘मुझे तुम्हारा रिश्ता तय करते वक्त इस बात का खयाल रखना चाहिए था. दहेज के लालच ने मुझे अंधा बना दिया था. पहले तो लगा कि महीप उद्दंड है, पर उस पर मुझे अब गर्व हो रहा है. उस ने मेरी आंखें खोलने की कोशिश की थी, पर मेरी आंखें न खुलीं.

‘‘कल मैं नैनी की मां से तुम्हारे लिए उस का हाथ मांगने खुद जाऊंगा. साथ ही, तुम्हारी बहन की नादानी के लिए नैनी से भी माफी मांग लूंगा,’’ कहते हुए उन्होंने प्रियांशु को गले लगा लिया.

बहन ने कहा, ‘‘मेरी गलती के लिए आप क्यों माफी मांगेंगे बाबूजी? मैं भी आप के साथ चलूंगी.’’

बदलते जमाने का यही सच था.

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घर और घाट: पति की मौत के बाद क्या हुआ रीता के साथ

मेरे पति आकाश का देहांत हो गया था. उम्र 35 की भी नहीं हुई थी. उन्हें कोई लंबी बीमारी नहीं थी. बस, अचानक दिल का दौरा पड़ा और उन की मृत्यु हो गई. अभी तक तो मित्रगण आते रहे थे, लेकिन पति के देहांत के बाद कोई नहीं आया. इस में उन का भी दोष नहीं. वहां की जिंदगी थी ही इतनी व्यस्त.

पहली 3 रातें मेरे साथ किरण सोई थी. अब से रातें अकेले ही गुजारनी थीं. शायद हफ्ता गुजरने तक दिन भी अकेले बिताने होंगे. क्या करूंगी, कहां रहूंगी, कुछ सोचा नहीं था.

यों तो कहने को मेरी ननद भी अमेरिका में ही रहती थीं लेकिन वह ऐसे मौके पर भी नहीं आई थीं. साल भर पहले कुछ देर के लिए आई थीं. तब मुझ से कह गई थीं, ‘रीता, आकाश बचपन से बड़ा विनोदप्रिय किस्म का है. तुम्हें दोष नहीं देती, लेकिन आकाश को कुछ हो गया तो भुगतोगी तुम ही. तुम लोगों की शादी को 10 बरस हो गए. देखती हूं पहले आकाश की हंसी जाती रही. फिर माथे पर अकसर बल पड़े रहने लगे. साथ ही वह चुप भी रहने लगा. 5 बरस से सिगरेट और शराब का सहारा भी लेने लगा है. रक्तचाप से शुरुआत हुई तनाव की. उस का कोलेस्ट्राल का स्तर ज्यादा है…’

मुझे तो लगता है उन को और कुछ नहीं था, बस, दीदी ही की टोकाटाकी खा गई थी. उन से मेरा सुख नहीं देखा गया था.

रहरह कर अतीत मेरे दिमाग में घूमने लगा. मैं ने दशकों से बहुओं के ऊपर होते हुए अत्याचारों को देखतेसुनते मन में ठान ली थी कि मैं कभी अपने ऊपर किसी की ज्यादती नहीं होने दूंगी. अगर आप जुल्म न सहें तो कोई कर ही कैसे सकता है. इस तरह समस्या जड़ से ही उखड़ जाएगी.

लेकिन मैं जैसी शरीर की बेडौल हूं वैसी अक्ल की भी मोटी हूं. मेरी लंबाई कम और चौड़ाई ज्यादा है. जहां तक खूबसूरती का सवाल है, कहीं न कहीं, कुछ न कुछ होगी ही वरना क्यों आकाश जैसा खूबसूरत नौजवान, वह भी अमेरिका में बसा हुआ सफल इंजीनियर, मुझ 18 बरस की अल्हड़ को एक ही बार देख पसंद कर लिया था. ऊपर से उन्होंने न तो दहेज की मांग की थी, न ही खर्च की नोकझोंक हुई थी.

मेरे मांबाप भी होशियार निकले थे. उन्होंने एक बार की ‘हां’ के बाद आकाश और उस के कितने रिश्तेदारों के कहने पर भी उन्हें एक और झलक न मिलने दी थी. मां ने कह दिया था, ‘शादी के बाद सुबहशाम अपनी दुलहन को बैठा कर निहारना.’

डर तो था ही कि कहीं लेने के देने न पड़ जाएं. मां ने शादी के वक्त भी अपारदर्शी साड़ी में मुझ को नख से शिख तक छिपाए रखा था. क्या मालूम बरात ही न लौट जाए. खैर, जैसेतैसे शादी हो गई और मैं सजीधजी ससुराल पहुंच गई.

अभी तक तो घूंघट में कट गई. मरफी का सिद्धांत है कि यदि कुछ गलत होने की गुंजाइश है तो अवश्य हो कर रहेगा. मैं कमरे में आ कर बैठी ही थी कि ननद ने पीछे से आ कर घूंघट सरका दिया. मैं बुराभला सब सुनने को तैयार थी. मगर किसी ने कुछ कहा ही नहीं. मुंह दिखाई के नाम पर कुछ चीजें और रुपए मिलने अवश्य शुरू हो गए. दीदी तो अमेरिका से आई थीं. उन्होंने वहीं का बना खूबसूरत सैट मुझे मुंह दिखाई में दिया. बाकी रिश्तेदार और अड़ोसीपड़ोसी भी आते रहे.

इतने में ददिया सास आईं. दीदी झट बोलीं, ‘लता, जरा आगे बढ़ कर दादीजी के पैर छू लो.’

मैं ने वहीं बैठेबैठे जवाब दे दिया, ‘पैर छुआने का इतना ही शौक था तो ले आतीं गांव की गंवार. मैं तो बी.ए. पास शहरी लड़की हूं.’

दीदी को ऐसा चुप किया कि वह उलटे पांव लौट गईं. कुछ देर बाद एक कमरे के पास से गुजर रही थी तो खुसरफुसर सुनाई पड़ी, ‘इस को इतना गुमान है बी.ए. करने का. एक आकाश की मां एम.ए. पास आई थी, जिस के मुंह से आज तक भी कोई ऐसीवैसी बात नहीं सुनी.’

अब आप ही बताइए, सास के एम.ए. करने का मेरे पैर छूने से क्या सरोकार था? खैर, मुझे क्या पड़ी थी जो उन लोगों के मुंह लगती. मुझे कल मायके चले जाना था, उस के 4 दिन बाद आकाश के संग अमेरिका. वहां दीदी जरूर मेरी जान की मुसीबत बन कर 4 घंटे की दूरी (200 किलोमीटर) पर रहेंगी. मैं पहले दिन से ही संभल कर रहूंगी तो वह मेरा क्या बिगाड़ लेंगी. अनचाहे ही मुझे किसी कवि की लिखी पंक्ति याद आ गई, ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात.’

लेकिन देखूंगी, दीदी की क्षमा कब तक चलेगी मेरे उत्पात के सामने. बड़ी आई थीं मेरे से दादीजी के पैर छुआने. डाक्टर होंगी तो अपने लिए, मेरे लिए तो बस, एक सठियाई हुई रूढि़वादी ननद थीं.

सच पूछिए तो पिछले 4 दिन में मैं एक बार भी उन को याद नहीं आई थी. मैं पिछले दिनों अपनी एक सहेली के यहां गई थी. पूरा 1 महीना उस की देवरानी उस के घर रह कर गई थी. एक मेरी ननद थीं, जिन के चेहरे पर जवान भाई के मरने पर शिकन तक नहीं आई थी.

जब मैं 10 बरस पहले आकाश के साथ इस घर में घुसी थी तो गुलाब के फूलों का गुलदस्ता हमारे लिए पहले से इंतजार कर रहा था. उसे ननद ने भेजा था. आकाश ने मुझ को घर की चाबी थमा दी थी, लेकिन मुझे ताला खोलते हुए लगा था जैसे ननद वहां पहले से ही विराजमान हों.

घर क्या था, जैसे किसी राजकुमार की स्वप्न नगरी थी. मुझ को तो सबकुछ विरासत में ही मिला था. भले ही वह सब आकाश की 4 साल की कड़ी मेहनत का इनाम था. मैं इतनी खुश थी कि मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. मेरे सब संबंधियों में इतना अच्छा घरबार उन के खयाल से भी दूर की चीज थी.

मैं ने गुलाब के फूल बैठक में सजा लिए. मगर दीदी का शुक्रिया तो क्या अदा करती, उन की रसीद तक नहीं पहुंचाई. दोचार दिन बाद उन का फोन आया तो कह दिया, ‘हां, मिल तो गए थे.’

एक बार दीदी शुरू में सपरिवार आई थीं. वह रात को 9 बजे पहुंचने वाली थीं. भला इतनी रात गए तक कौन उन लोगों के लिए इंतजार करता. मैं ने 8 बजे ही खाना लगा दिया था. आकाश कुछ बोलते, इस से पहले ही मैं ने सुना कर कह दिया, ‘9 बजे आने के लिए कहा है. फिर भी क्या भरोसा, कब तक आएं? आप खाना खा लो.’

वह न चाहते हुए भी खाने बैठ गए थे. अभी खाना खत्म भी नहीं हुआ था कि दरवाजे की घंटी बजी. मैं बोली, ‘अब खाना खाते हुए तो मत उठो. पहले खाना खत्म कर लो फिर दरवाजा खोलना.’

खाना खा कर आकाश दरवाजा खोलने गए. मैं बरतन मांजने लगी. उधर न पहुंची तो 15 मिनट बाद ही दीदी रसोई में आ गईं और नमस्ते कर के लौट गईं. मैं ने उन सब का खाना लगा दिया.

दीदी ने हम से भी खाने को पूछा. फिर बोलीं, ‘इस देश में खाने की कमी नहीं है. हर चौराहे पर मिलता है. साथ न खाना था तो कह देते, हम खा कर आते.’

तो क्या मैं ने कहा था कि यहां आ कर खाएं या उन को किसी डाक्टर ने सलाह दी थी? मैं ने सिरदर्द का बहाना बनाया और ऊपर शयनकक्ष में चली गई. खुद ही निबटें अपने भाईजान से.

सुबह उठी तो दीदी चाय बना रही थीं, ‘क्या खालाजी का घर समझ रखा है, जो पूछने की भी जरूरत न समझी?’ मैं ने दीदी को लताड़ा, ‘आप ने क्या समझा था कि मैं आप को उठ कर चाय भी नहीं दूंगी.’

मेरी रसोई को अपनी रसोई समझा था. उस के बाद कभी दीदी को मेरी रसोई में घुसने की हिम्मत न हुई.

मैं ने दीदी को नहानेधोने के लिए 2 तौलिए दिए तो वह 2 बच्चों के लिए और मांग बैठीं. अपने घर में 4 तौलिए इस्तेमाल करें या 8, यहां एक दिन 2 तौलियों से काम नहीं चला सकती थीं? मैं ने एक पुराना सा तौलिया और दे दिया. आखिर मेरा घर है, जो चाहूंगी करूंगी.

उस के बावजूद कुछ ही दिनों बाद दीदी अचानक दोनों बच्चों के साथ मेरे यहां आ धमकीं. रात को देर तक आकाश से बातें करती रही थीं. वह पति महोदय से खटपट कर के आई थीं. मैं पूछ बैठी, ‘आप ने तो अपनी इच्छा से प्रेम विवाह किया था. फिर अब किस बात का रोना?’ दीदी से कुछ जवाब देते न बना.

मैं तो घबरा गई. कहीं दीदी जिंदगी भर मेरे घर डेरा न डाल लें. अगली सुबह आकाश दफ्तर गए और मैं सोती दीदी के पास ही पहुंच गई, ‘दीदी, वापस लौटने के बारे में क्या सोचा है?’

समझदार को इशारा काफी है. उन्होंने हमारे घर रह पति महोदय से बिलकुल बात न बढ़ाई. उसी दिन जीजाजी को फोन किया और शाम को वापस अपने घर लौट गईं. बस, समझ लीजिए तभी से उन का हमारे यहां आनाजाना कुछ खास नहीं रहा. हम ही उन के यहां साल में 2-3 दिन के लिए चले जाते थे. जाते भी क्यों न, वह बड़े आग्रह से बुलाती जो थीं. बुलातीं भी क्यों न, आखिर उन की पति से कम ही पटती थी. हम से भी नाता तोड़ लेतीं तो आड़े वक्त में कहां जातीं? कौन काम आता?

और फिर उन पर क्या जोर पड़ता था हमें बुलाने में. उन्होंने खाना बनाने को एक विधवा फुफेरी सास को साथ रखा हुआ था. घर की सफाई करने वाली अलग आती थी.

एक बार दीदी भारत गईं तो मेरे लिए मां ने उन के साथ कुछ सामान भेजा. जब मुझे सामान मिला तो उस में से एक कटहल के अचार का डब्बा गायब था, ‘दीदी, अचार चाहिए था तो आप कह देतीं, मैं आप के लिए भी मंगा देती. चोरी करना तो बहुत बुरी बात है.’

बाद में मां ने बताया कि अचार का डब्बा भेजने से रह गया था. बात आईगई हो चुकी थी, तो मैं ने फिर दीदी से कुछ कहने की जरूरत न समझी.

अभी पिछले दिनों दीदी फिर भारत गई थीं. उन्होंने लौट कर फोन किया, ‘लता, तुम्हारे मांबाबूजी से मिल कर आ रही हूं. सब मजे में हैं. मगर तुम्हारे लिए कुछ नहीं भेजा है.’

‘हां, मैं ने ही मां को मना कर दिया था कि हर ऐरेगैरे के हाथ कुछ न भेजा करें. फिर भी मां किसी न किसी के हाथों सामान भेजती रहती हैं. एक पार्सल तो पिछले 8 बरस से आ रहा है. एक 6 महीने बाद मिला था.’

खैर, जो हुआ सो हुआ. मैं अतीत को भूल कर वर्तमान के धरातल पर आ गई. मुझ को अकेले नींद नहीं आ रही थी. रात के 2 बज गए थे. एक तरफ आंसू नहीं थम रहे थे और दूसरी तरफ डर भी लग रहा था इतने बड़े घर में. भूख लग रही थी मगर…मैं अकेली थी…बिलकुल अकेली. शरीर टूट सा रहा था.

मैं मां को भारत ट्रंककाल करने लगी, ‘‘मां, आप कुछ दिनों के लिए अमेरिका आ जाइए. मैं आप का टिकट भेज देती हूं.’’

मां अपनी मजबूरी सुनाने लगीं. विरासत में मिला सुख कुछ भी तो काम नहीं आ रहा था. पति के मरते ही कुछ भी अपना न रहा था. 10 बरस बाद भी उस घर में न तो कोई अपनापन था, न ही देश में.

आकाश 1 लाख डालर छोड़ कर मरे थे. मैं एअर इंडिया को फोन करने लगी, ‘‘मैं वापस भारत जाना चाहती हूं. अपने घर.’’

भारत लौट कर पीहर पहुंची तो वहां कुछ और ही नजारा पाया. भाई की शादी हो चुकी थी, सो एक कमरा भाईभाभी का और दूसरे में मेरे मांबाबूजी. मेरा बैठक में सोने का प्रबंध कर दिया था. मेरा सामान मां के साथ. सुबह बिस्तर समेटते ऐसा लगता था, जैसे उस घर में मैं फालतू थी. मैं ने सोचा, ‘सहना शुरू किया तो जिंदगी भर सहती ही रहूंगी. ऐसी कोई गईगुजरी स्थिति मेरी भी नहीं है. आखिर 10 लाख रुपए ले कर लौटी हूं. चाहूं तो इन चारों को खरीद लूं.’

एक दिन भाभीजान फरमाने लगीं, ‘‘दीदी, पूरी तलवाने में मदद कर दो न, मैं बेलती जाती हूं.’’

आखिर भाभी ने मुझे समझ क्या रखा था…मैं नौकरानी बन कर आई थी क्या वहां? इतना पैसा था मेरे पास कि 10 नौकर रख देती. लेकिन बात बढ़ाने से क्या फायदा था. मैं कुछ भी नहीं बोली थी. मदद नहीं करनी थी, सो नहीं की.

खाना खाने के वक्त भाभी ने अपना खाना परोसा और खाने लगीं. मैं ने भी ले तो लिया, मगर वह बात मेरे मन को चुभ गई. जब मांबाबूजी ही सब बातों में चुपी लगाए थे तो भाभी तो मेरी छाती पर मूंग दलेंगी ही.

मैं ने कहा, ‘‘मेरे आने का तुम लोगों को इतना कष्ट हो रहा है तो मैं वापस चली जाती हूं. मेरे पास जितना पैसा है, मैं उतने में जिंदगी भर मजे से रहूंगी. न किसी से कहना, न सुनना.’’

कोई कुछ भी न बोला. मैं सन्नाटे में रह गई. मैं सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि मेरे मांबाबूजी ही इतने बेगाने हो जाएंगे. फिर ससुराल से ही क्या आशा करती.

घर छोड़ते हुए मेरे आंसू टपक पड़े. मैं फिर अकेली हो गई थी. बिलकुल अकेली. बिलकुल धोबी का कुत्ता बन कर रह गई, न घर की न घाट की.

लेखिका- पूर्णिमा गुप्ता

मन बयार: क्या थी हैरी की कहानी

खिड़की के बाहर नए देवदार… लंबे और पूरी तरह विकसित… बराबर के घर को बाहरी दृष्टि से बचाते हुए… अभी हाल में रोपे गए हैं. अपने किसी पुराने ठांव से निकाल कर उन्हें काफी गहरा गड्ढा खोद कर यहां लगाया गया है. उन की जड़ों में पुरानी मिट्टी चिपकी रहने दी है, जिस का स्पर्श उन्हें सुरक्षा का आभास देता रहे कि वह पूरी तरह से बेघर नहीं हुए हैं.

कहीं बहुत दूर अंधेरी सड़क पर भागती गाड़ियों की बत्तियां, सड़क को रोशनी और अंधेरे के खेल में अपना भागीदार बना रही हैं. खिड़की के बाहर दिखती है एक छोटी झील… सर्दियों में जब पानी जम जाएगा… सफेद बर्फ जैसा तो बच्चे वहां स्केटिंग करने निकलेंगे और यह शांत बैकयार्ड उन के शोर से भर जाएगा.दोपहर का सूरज बहुत चमकीला है.

पेड़ों और पानी पर पड़ती उस की तीखी रोशनी हवा के साथ लगता है नाच रही हो. एक साफ धूप… नीले आसमान पर इक्कादुक्का बादलों के मुलायम रूई जैसे चकत्ते… भ्रम होता है कि मौसम सुहाना होगा… कुनकुनी गरमाहट से भरा. पर यह सब एक मरीचिका जैसा था… जादुई यथार्थ… बाहर मौसम 3-4 डिगरी सैंटीग्रेड होगा. चुभती ठंडी हवा एक मिनट में फेफड़ों को निष्क्रिय करने के लिए काफी थी. दरवाजे और खिड़कियां सभी बंद हैं. घर का तापमान बढ़ाया हुआ है… इस महीने बिजली का बिल जरूर बढ़ा हुआ आएगा.

घर के अंदर तो अकेलापन है ही, बाहर भी निष्क्रियता का सन्नाटा पसरा है. सामने की सड़क एकदम सूनी है. अब तो सड़क भी जान गई है कि कोई नहीं आएगा.

घर में दूध खत्म है. काली कौफी या चाय क्या पाऊं? हिम्मत नहीं थी कि महामारी के इन दिनों में, इस उम्र में गाड़ी निकालूं और एक मील दूर स्टोर से दूध ही ले आऊं. दूध के लिए जाऊंगी तो कुछ और भी याद आ जाएगा. क्याक्या लाना है. मन ही नहीं करता कुछ करने का…

याद आया, 15 दिन हो गए, कोई ग्रोसरी नहीं लाई हूं. बहुत लोग औनलाइन सामान मंगा रहे हैं… अब मुझे भी ऐसा ही करना होगा. ग्रोसरी के बहाने घर से बाहर तो निकलती हूं. अब तो वह सब भी नहीं हो रहा. अनमनी सी उठती हूं… ब्लैक कौफी ही सही. एक सैंडविच बनाऊं… कुछ चीज पड़ा है… एक डब्बे में मैं ने सलामी देखी थी 2 दिन पहले… याद नहीं कि मैं ने खाई हो. थोड़ा टमाटर तो होगा ही…. हेलीपिनो पेपर डाल कर बढ़िया सैंडविच बनेगा.

मैं उत्साहित हो उठी. सारा सामान मिल गया. कौन अवन में रखे, ऐसे ही ठीक रहेगा. किचन काउंटर पर इतना सामान बिखरा है… एक दिन सफाई करनी होगी. अभी तो अपनी प्लेट और कौफी मग के लिए जगह बनाती हूं. कई डब्बे तो खाली हैं फैंके तक नहीं मैं ने. कूड़ेदान भर गया है ऊपर तक… एक हफ्ते से पुराना कूड़ा… मैं बाहर निकलती तो फेंकती. बुधवार को कूड़े का ट्रक आ कर चला गया. सुबह मैं सोती रही और मंगलवार को गारबेज बाहर निकालना भूल गई… अब एक हफ्ते की छुट्टी. बाहर का बड़ा ड्रम भरा नहीं होगा. किचन का कूड़ा तो बाहर फेंक ही सकती हूं. कैसे आलस्य ने मेरे मनमस्तिष्क, शरीर सब को जकड़ लिया हो जैसे. खुद को धक्का दे कर उठाती हूं. कौफी के बड़ेबड़े घूंट और सैंडविच के छोटेछोटे बाइट के बीच मैं ने निर्णय लिया कि विंड चीटर पहनूं और रसोई का कूड़ा तो बाहर फेंक ही आऊं.

हैरी को गए हुए 6 महीने हो चले. जाना तो मुझे था. कैंसरमुक्त हूं तो क्या… पर इम्यूनिटी तो मेरी लो होनी चाहिए. नकारात्मकता और डर तो मेरे दिमाग में है. हैरी तो कितने खुशमिजाज जिंदगी से भरपूर थे… मौत के खयाल से कोसों दूर और मै तो हमेशा डरी रहती कि कहीं कैंसर दोबारा न आ जाए.

हैरी की यह फोटो मैं ने एक पुराने एलबम से निकाली है. मैरून टाई, सफेद शर्ट और तिरछी पहनी गई हलकी नीली कैप. घनी मूंछों के बीच एक नटखट मुसकान. कैसे आराम से चला गया हैरी. 5 दिन का बुखार और कोविड का हमला सीधे दिल पर. 20 साल पहले हार्ट अटैक के बाद बाईपास हुआ था… अब तक सबकुछ आराम से चल रहा था.

कहते हैं, मौत कोई न कोई वजह ढूंढ़ लेती है… यह नई बीमारी हैरी की मौत का कारण बनी. मौत ने हैरी को चुना. मेरी बारी जब तक नहीं आती तब तक तो मुझे जीना ही है.

मैं ने जैकेट पहनी. किचन सिंक के नीचे सड़ांध मारते गारबेज बैग को निकाला और बड़े ड्रम में उछाल कर फेंक दिया. अच्छा हुआ कि ड्रम का ढक्कन मैं बंद करना भूल गई थी… मुझे ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ा.
अंदर आ कर फिर एक ब्लैक कौफी बनाई. फोन पर रिमाइंडर सैट किया. कूड़ा मंगलवार को बाहर रखने के लिए… मन में खत्म हुई चीजों की लिस्ट बनाने से अच्छा है फोन पर लिख लूं. फोन खोला तो व्हाट्सएप पर नजर गई… अरे, विली का मैसेज है. कुछ दिन पहले ही फेसबुक पर मिला था. भला आदमी लगता है. काइंड और सैंसेटिव. हम दोनों की संगीत और किताबों की पसंद बहुत मिलती है. उसे पहाड़ पसंद हैं… मुझे भी… कितनी छोटीछोटी बातें हैं… जैसे बसंत में खिलते रंगबिरंगे डैफोडिल या पतझड़ के तांबई या गहरे पीले पत्ते… मीलों गाड़ी चला कर वह मिनेसोटा के फाल कलर्स देखने जाता. उसी ने बताया कि वह आजकल सिंगल है. तलाकशुदा या विधुर मैं ने जानने की कोशिश नहीं की. अपने रखरखाव को ले कर वह काफी सतर्क है. मुझे ढीलेढाले लोग कभी पसंद नहीं आए. हैरी की तरह विली भी अच्छी चीजों का शौकीन है. जीवन के हर पल को पूरी तरह जीने की चाहत से भरा. उस का उत्साह मुझे भी छूने लगा था और मैं कोशिश करती कि मैं भी जीवन को एक उत्सव समझूं और अपने अवसाद से बाहर निकलूं.

फिलहाल, विली की बातों में कितनी सचाई है, इन सब पचड़ों में मैं नहीं पड़ना चाहती, भले ही इस आभासी दुनिया का एक पात्र हो वह, पर अभी तो उस से बात करना मुझे अच्छा लगता है… उस की आवाज मेरे अकेलेपन में गूंजती मुझे एक नासमझ सी खुशी देती. चलो पहले उस के मैसेज का जवाब दूं. औनलाइन हुआ तो बातों का अंत नहीं.

मेरे पास भी तो पूरी दोपहर है… मेरा लंच हो ही गया है. कैथी का फोन शाम को आएगा… औफिस से लौटते समय, “कैसी हो मौम? ज्यादा बाहर तो नहीं निकलतीं?”

हर रोज फोन करती है कैथी. अब तो आरन भी हफ्ते में एक बार फोन करने लगा है. पर अभी तो विली का मैसेज देखती हूं. और यकायक मैं एक छोटी लड़की की तरह हंस रही थी विली के फौरवर्ड पर.

बाहर एक गाड़ी तेजी से सन्नाटे को चीरती निकल गई. मैं ने विली के लिए मैसेज टाइप कर दिया था और उस के उत्तर की प्रतीक्षा में थी.

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संध्या: क्या एक और एक ग्यारह हो सकते हैं

‘‘बूआ ने रोजी के पापा को शादी के लिए मनाने की भरसक कोशिश की, मगर वे टस से मस नहीं हो रहे थे…’’

‘‘क्या रोजी डिसूजा क्रिश्चियन है? लल्ला तुम्हारा क्या दिमाग खराब हो गया है? क्या हमारी जाति में लड़कियों का अकाल पड़ गया है, जो हम विजातीय बहू घर लाएं? मैं दिवंगत भैयाभाभी को क्या मुंह दिखाऊंगी? मुझ उपेक्षित विधवा को दोनों ने मन से सहारा दिया था. उन की उम्मीदें पूरी करना मेरा फर्ज है… सारे समाज में हमारी खिल्ली उड़ेगी वह अलग,’’  सुमित्रा ने नाराज होते हुए कहा.

‘‘उफ, बूआ, आप नाहक परेशान हो रही हैं. आजकल अंतर्जातीय विवाह को सहर्ष स्वीकार किया जाता है… मांपापा जिंदा होते तो वे भी इनकार नहीं करते. आप पहले रोजी से मिल तो लो… बहुत सभ्य और संस्कारी लड़की है. आप को जरूर पसंद आएगी. बूआ हम दोनों एकदूसरे से प्यार करते हैं… जातिधर्म का क्या करना है… जीवन में प्यारविश्वास की अहमियत होती है,’’ मैं ने बूआ को समझाते हुए कहा.

‘‘मैं कह देती हूं लल्ला तुम अपनी पसंद की लड़की ला सकते हो, मुझे कोई एतराज नहीं होगा, किंतु विजातीय नहीं चलेगी,’’ बूआ ने भी अपना निर्णय सुना दिया.

बूआ अपनी शादी के 10 दिन बाद ही विधवा हो गई थीं. फूफाजी का रोड ऐक्सीडैंट में देहांत हो गया था. बूआ के ससुराल वालों ने उन से रिश्ता खत्म कर लिया. रोतीबिलखती बूआ की चीखपुकार ससुराल के दरवाजे न खुलवा सकी थी. उस दुखदाई घड़ी में मेरे मांपापा ने उन्हें सहारा देते हुए कहा था, ‘‘जीजी, हमारे रहते खुद को बेसहारा और अकेला न समझो,’’ और फिर बूआ हमारे साथ ही रहने लगीं.

मेरे विवाह के संबंध में बूआ का निर्णयमेरे लिए आदेश से कम न था. मैं उसे नकार नहीं सकता था. बूआ ही मेरी सबकुछ थीं. मैं 14 साल का था जब मेरे मांपापा का देहांत हुआ था. उस कच्ची उम्र में मेरी बूआ ने मुझे टूटनेबिखरने नहीं दिया. वे चट्टान बन मेरा संबल बनी रहीं.

पापा की छोटी सी किराने की दुकान थी. उन के देहांत के बाद बूआ और मैं ने मिल

कर उसे संभाला, बूआ मुझे पढ़ने के लिए भी प्रोत्साहित करती रहीं. परिणामस्वरूप मैं ने बीकौम तक पढ़ाई कर ली. फिर मुझे प्राइवेट कंपनी में नौकरी मिल गई. मैं और बूआ बेहद खुश हुए.

मेरे औफिस में मेरी जूनियर रोजी और मैं एकदूसरे से प्यार करने लगे, किंतु बूआ के इनकार के कारण अगले ही दिन मैं ने रोजी को बताते हुए कहा, ‘‘रोजी, बूआ हमारी शादी के लिए तैयार नहीं हैं? मुझे रत्तीभर भी अंदेशा न था कि बूआ जातिधर्म का सवाल खड़ा कर देंगी. वरना मैं आगे न बढ़ता. मुझे माफ कर देना. मैं ने नाहक तुम्हारा दिल दुखाया.’’

रोजी ने संयत स्वर में कहा, ‘‘रजत, हमें बूआ को सोचने हेतु पर्याप्त समय देना चाहिए. मुझे पूरा विश्वास है एक दिन बूआ जरूर मान जाएंगी.’’

‘‘रोजी, बूआ की बातों से तो ऐसा ही प्रतीत हो रहा है कि जातिधर्म की रूढि़वादिता उन के अंदर जड़ें जमाए है. मैं तुम्हें अन्यत्र शादी की सलाह देना चाहता हूं, शादीविवाह सही उम्र में ही अच्छे लगते हैं. मेरे लिए अपना जीवन बरबाद न करो,’’ मैं ने रोजी को समझाते हुए कहा.

‘‘यह मुझ से नहीं होगा रजत,’’ रोजी ने धीरे से कहा.

‘‘रोजी, तुम मेरी हमउम्र ही हो न यानी तुम भी बत्तीस वर्ष की हो रही है. अत: रिक्वैस्ट कर रहा हूं कि अन्यत्र विवाह पर विचार करो. रोजी हम बूआ की सहमति के बिना विवाह कर लेते हैं. मगर मैं बूआ को किसी भी कीमत पर नाराज नहीं कर सकता,’’ मैं ने रोजी को अन्यत्र शादी करने हेतु बात बनाते हुए कहा.

‘‘नहीं रजत हम बूआ को नाराज नहीं कर सकते. उन्होंने तुम्हें पालपोस कर इस योग्य बनाया कि आज तुम गर्व से दुनिया का सामना कर सकते हो. वे चाहतीं तो पुनर्विवाह कर अपनी गृहस्थी बसा सकती थीं, किंतु उन्होंने मांपापा बन कर तुम्हें पालापोसा, पढ़ायालिखाया,’’ रोजी ने कहा.

‘‘इसी समझदारी का तो मैं दीवाना हूं. इसीलिए तुम से हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता हूं कि अन्यत्र विवाह हेतु सोचना शुरू कर दो.’’

रोजी मुसकराते हुए अपनी टेबल पर चली गई. लंचब्रेक खत्म हो चुका था.

10 दिनों के अंदर ही रोजी का ट्रांसफर कंपनी की दूसरी शाखा में कर दिया गया. मालूम हुआ इस हेतु रोजी ने अनुरोध किया था. मेरे दिल को ठेस लगी, किंतु मैं ने महसूस किया कि यह उचित ही है. दूर रहने से अन्यत्र विवाह हेतु मन बना सकेगी.

अब फोन से बातें कर संतोष करना पड़ता. मैं सदैव उसे अन्यत्र विवाह हेतु प्रोत्साहित

करता, मगर वह बात हंसी में टाल देती. मैं ने एक दिन कहा रोजी, ‘‘अपने विवाह में मुझे अवश्य बुलाना. भुला न देना.’’

उस ने खोखली हंसी के साथ कहा, ‘‘घबराओ नहीं, रजत पहला इन्विटेशन तुम्हें ही जाएगा… तुम्हारे बिना मेरी शादी संभव ही नहीं.’’

रोजी के बारे में जान लेने के बाद बूआ मेरी शादी के लिए विशेष सक्रिय हो गई थीं. मैं ने भी उन की आज्ञा का पालन करते हुए विज्ञापन दे दिया था. कई जगह रिश्ते की बात चली भी,किंतु कहीं मेरी साधारण कदकाठी, शक्लसूरत तो कहीं मेरी साधारण नौकरी तो कहीं मेरी सादगी और गंभीरता मेरे रिश्ते के लिए बाधक बन गई. कहींकहीं तो मेरी वृद्ध बूआ का मेरे साथ रहना और मेरा उन्हें सर्वस्व मान पूजना ही बाधक बन बैठा.

एक लड़की का कहना था, ‘‘मुझे तो सारे काम अपनी मनमरजी से करने की आदत है. तुम्हारे यहां तो तुम्हारी बूआ ही घर की सर्वेसर्वा हैं. मैं नहीं सह सकूंगी.’’

मेरी शादी की बात नहीं बन सकी.

मैं अब करीब 35 साल का हो चला था और बूआ 70 की. हम दोनों की बढ़ती उम्र ने बूआ को मेरी शादी हेतु चिंतित कर रखा था.

रविवार का दिन था. मैं समाचारपत्र पढ़ रहा था तभी बूआ मेरे पास बैठ कर मेरे बाल सहलाते हुए बोलीं, ‘‘लल्ला, एक बात कहूं, इनकार तो नहीं करेगा?’’

मैं ने आश्चर्य से कहा, ‘‘बूआ, कुछ कहने के लिए आप को मुझ से पूछने की आवश्यकता कब से महसूस होने लगी? मैं आप को इतना पराया कब से लगने लगा?’’

‘‘क्या बोलूं लल्ला, बात ही कुछ ऐसी है,’’ बूआ ने धीरे से कहा.

मैं ने आशंका से समाचारपत्र एक तरफ पटकते हुए कहा, ‘‘बूआ, जो भी मन में है बोल दो. आप का कथन मेरे लिए आदेश से कम नहीं है. इनकार करने का तो सवाल ही नहीं उठता.’’

‘‘लल्ला, तुम रोजी से शादी कर लो, तुम जैसे हो, जैसी तुम्हारी नौकरी और आमदनी है और तुम्हारी वृद्ध बूआ, सभी उसे यथास्थिति स्वीकार्य था न… वह तो तुम से अपनी इच्छा से शादी करना चाहती थी. मैं कम अक्ल अपनी रूढि़वादी सोच ले कर तुम दोनों के बीच आ खड़ी हुई,’’ बूआ ने अपनी बात रखी, ‘‘वह आज भी अविवाहित बैठी है लल्ला. मेरा दिल कहता है वह तुम्हारा इंतजार कर रही है. तुम उस से शादी कर लो,’’ भावावेश में बूआ की आंखें सजल हो उठी थीं.

मैं ने उन के आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘बूआ, स्वयं को दोषी नहीं समझो. सब विधि का विधान समझो. आप के इनकार के बाद हम व्यक्तिगत रूप से कभी मिले ही नहीं. हां, औफिशियल मीटिंग में कभीकभी भेंट हुई है. हम ने अपनी शादी के संबंध में तो कभी चर्चा ही नहीं की इस दौरान. मैं जरूर उसे फोन करता हूं और हमेशा उसे अन्यत्र विवाह हेतु प्रोत्साहित करता हूं…फिर अचानक स्वयं के साथ शादी… इस के अलावा बूआ मैं ने महसूस किया है कि रोजी मुझ से बात करने से कतराती भी है.’’

‘‘अचानक ही सही लल्ला तुम मुझे उस के घर ले चलो. मैं स्वयं उसे मांग लूंगी. लल्ला इनकार न करो,’’ बूआ ने मनुहार करते हुए कहा तो मैं टाल न सका, पहुंच गया बूआ को ले कर रोजी के घर. रोजी के घर में पहली बार आया था. हां, उसे कालोनी के मोड़ पर 2-4 बार ड्रौप जरूर किया था.

मुझे अचानक बूआ के साथ देख कर रोजी का आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक था. उस ने अव्यवस्थित कुरसी को व्यवस्थित कर बैठने का आग्रह करते हुए बूआ के चरण स्पर्श किए.

रोजी का घर बेहतर साधारण था. एक पुरानी सी चौकी पर उस के वृद्ध कमजोर पापा ताश के पत्तों में लगे थे. उन की भावभंगिमाएं साफ प्रकट कर रही थीं कि उन्हें हमारा आना नापसंद है. एक कोने में खिड़की की तरफ बेहद वृद्ध दादी एक थाली में चावल लिए उन्हें चुनने की कोशिश में लगी थी. उन्हीं के पास रोजी की दीदी बच्चों जैसी हरकतें कर रही थी. वह मुंह में अंगूठा डाल चूसते हुए हंसते हुए बोल रही थी, ‘‘आप कौन हैं? ही…ही… आप यहां क्यों आए हैं…ही…ही…’’

मैं रोजी के घर के वातावरण से हैरान सा था. अब मैं समझ सकता था कि रोजी हमेशा क्यों कहती थी कि शादी का फाइनल करने के पहले मैं अपने परिवार के संबंध में तुम से

विस्तार से बात करना चाहती हूं. क्या बोलूं,क्या न बोलूं, समझ न आया तो शांत रहना ही उचित समझा.

बूआ हमारी शादी के लिए जैसे सोच कर आई थीं. अत: रोजी के पापा की बेरुखी के बावजूद मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘नमस्ते भाई साहब, मैं रजत से रोजी के विवाह हेतु प्रस्ताव

ले कर आई हूं. दोनों बच्चे एकदूसरे से प्यार करते हैं. अत: दोनों का विवाह कर देना उचित होगा.’’

‘‘रोजी के विवाह के संबंध में सिर्फ और सिर्फ मैं निर्णय लूंगा,’’ उन्होंने बेहद सख्त लहजे में कहा.

‘‘हांहां, यह उचित भी है. आप उस के ‘पापा’ हैं आप ही निर्णय करेंगे, मैं इस संबंध में आप की मंशा जानने आई हूं?’’ बूआ ने सहजता से कहा.

‘‘मुझे रोजी की शादी करनी ही नहीं है,’’ उन्होंने पूर्ववत सख्त लहजे में कहा.

रोजी के पापा की बात पर मैं और बूआ आश्चर्यचकित थे. बूआ ने स्वयं को शीघ्र ही संयत कर हंसते हुए कहा, ‘‘कैसी बातें कर रहे हैं भाईसाहब, लड़की को कोई घर थोड़े ही बैठाता है… वह तो दूसरे की अमानत होती है…’’

उन्होंने बीच में ही बूआ की बात काटते हुए अत्यधिक तिरस्कार से कहा, ‘‘मुझे रोजी की शादी नहीं करनी है, आप ने सुना नहीं?’’

मैं ने बूआ को शांत रहने और लौट चलने का इशारा किया. रोजी भी नजरों से यही प्रार्थना करती प्रतीत हुई.

अगले दिन मैं बुझे मन से घर लौटा, तो बूआ ने चिंतित स्वर में पूछा, ‘‘क्या बात है लल्ला, तबीयत तो ठीक है? एकदम लुटेपिटे से लग रहे हो.’’

मैं ने कहा, ‘‘बूआ, ऐसा ही समझ लो. दरअसल, मैं औफिस से लौटते हुए रोजी से मिल कर आया. हमारे विवाह हेतु उस के पापा के विचार जान कर मैं हैरान था. यह भी मालूम हुआ, मेरे और रोजी के संबंध के बारे में जान लेने के बाद उन्होंने डांटफटकार कर उसे ट्रांसफर हेतु मजबूर कर दिया था.’’

सारी बात सुन कर बूआ भी हैरान हो गईं, शीघ्र ही अति उत्साह से बोलीं, ‘‘लल्ला, जल्दी चाय खत्म कर मुझे रोजी के घर ले चलो.’’

‘‘क्या बूआ, आप को बेइज्जत होना बुरा नहीं लगता?’’ मैं ने इनकार करते हुए कहा.

‘‘इनकार न करो, मेरे पास रोजी के पापा के भय का निवारण है,’’ बूआ ने अधीरता से कहा.

हमें स्वयं के घर पर देख कर रोजी केपापा ने आग्नेय नेत्रों से देखते हुए तिरस्कृतशब्दों में कहा, ‘‘आप दोनों फिर आ धमके,क्या मेरी बात…’’

बूआ ने हाथ जोड़ कर अनुरोध करते हुए कहा, ‘‘भाईसाहब, आप से प्रार्थना

करती हूं, आप नाराज न हों. आप मेरी पूरी बात सुन निर्णय करें. आप का निर्णय हमें शिरोधार्य होगा.’’

‘‘भाई साहब, आप अपने दिल से यह भय निकाल दीजिए कि विवाहोपरांत रोजी पर आप का अधिकार नहीं रहेगा वरन रोजी के साथसाथ रजत पर भी आप का पूरा अधिकार रहेगा. दोनों मिल कर परिवार की सारी जिम्मेदारियां पूरी करेंगे.’’

‘‘देखिए भाई साहब, दोनों एकदूसरे को चाहते हैं, विधि के विधान को भी दोनों का मेल स्वीकार्य है, मैं तो अपनी संकीर्ण रूढि़वादी सोच के कारण रोजी जैसी सभ्य, सुसंस्कृत लड़की को ठुकरा कर स्वजातीय विवाह हेतु प्रयासरत रही. किंतु मेरे लल्ला का रिश्ता कहीं भी नहीं हो सका. मेरी रूढि़वादी सोच ने खुद ही दम तोड़ दिया.’’

बूआ आज सब खुल कर बोल देना चाहती थीं, ‘‘भाई साहब, मैं अपनी संकीर्ण सोच त्याग कर आगे बढ़ना चाहती हूं. आप से भी प्रार्थना करती हूं, अपने शक अपने भय को त्याग कर प्यार करने वालों का संगम करवा दोनों को आशीर्वाद दीजिए. 2 प्यार करने वालों की राह में बाधा डालना उचित नहीं है.’’

वे बोलीं, ‘‘देखिए भाई साहब, समस्या से डरने या भागने से उस का समाधान असंभव है, किंतु अगर हम साहस के साथ सकारात्मक पहल करें तब अवश्य समस्या का समाधान निकाल लेंगे.’’

थोड़ी देर चुप रहने के बाद बूआ अतीत में जाते हुए बोलीं, ‘‘मैं उपेक्षित विधवा थी. जिन्होंने मुझे सहारा दिया कुछ समय बाद वे किशोर रजत को मेरे हवाले कर इस दुनिया से चल बसे. हम दोनों उदास और दुखी थे. मगर फिर साहस और सकारात्मक सोच के साथ जीवन पथ पर बढ़ चले. परिणाम आप के सामने है.’’

रोजी के पापा शांत भाव से बूआ की बातें सुन रहे थे. बूआ ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा, ‘‘मैं आप को आश्वासन देती हूं कि रोजी और रजत मिल कर एक और एक

2 नहीं, 11 बन कर घर की सारी जिम्मेदारियां संभाल लेंगे.’’

रोजी के पापा की आंखों से झरझर आंसू बह चले. जैसे भय और शक की जमी बर्फ बूआ के आश्वासन की ऊष्मा पा कर पिघल कर आंसू बन आंखों से बह चली. वे आंसू पोंछते हुए बोले, ‘‘सिस्टर, जीवन में बहुत छलकपट देखा है. मैं बैंक कर्मी था. ईमानदार, सख्त मिजाज, रूखे स्वभाव का, बस सहकर्मियों की आंखों की किरकिरी बना रहता था. एक फ्रौड में जबरदस्ती फंसा दिया गया, नौकरी चली गई, मेरी पत्नी मैगी साहसी महिला थी, उस ने मुझे टूटने नहीं दिया. उस ने स्कूल में नौकरी कर घर संभाल लिया, किंतु नियति के क्रूर प्रहार से वह रोड ऐक्सीडैंट में मारी गई, तो मैं टूट गया.’’

‘‘रोजी अपनी मां जैसी साहसी है, पढ़लिख कर नौकरी कर घर संभाल रही है, इसी की आमदनी से घर का खर्च चलता है. अब आप ही बताइए इसे विवाह कर दूसरे घर भेज दूं, तो अपनी वृद्ध मां, मंदबुद्धि दूसरी बेटी और हाराटूटा मैं किस के सहारे रहें? बस इसी स्वार्थी सोच के कारण मुझे रोजी के विवाह यहां तक कि विवाह की चर्चा से ही भय हो गया था.’’

कुछ चुप रहने के बाद वे पुन: बोले, ‘‘आज आप की बातों से पुन: विश्वास करने का दिल हो रहा है कि दुनिया में आज भी इंसानियत है. सच कहता हूं रोजी बेटी की खुशियों का दमन करते हुए मुझे दुख भी बहुत होता था. सच ही कहा गया है कि सारे रास्ते बंद नजर आने के बावजूद एक रास्ता अवश्य खुला रखता है. बस साहस और सकारात्मक पहल की आवश्यकता होती है.’’

फिर उन्होंने मुसकराते हुए मुझ से कहा, ‘‘बेटा रजत मैं ने तुम्हारा और तुम्हारी बूआ का बहुत अनादर किया. मुझे माफ करना’’ और उन्होंने हाथ जोड़ दिए.

मैं ने उन के हाथ अलग करते हुए कहा, ‘‘आप बड़े हैं. आप का हाथ माफी के लिए नहीं आशीर्वाद के लिए उठना चाहिए. आप माफी मांग कर मुझ शर्मिंदा न करें अंकल.’’

‘‘बेटा, तुम मुझे पापा कह सकते हो, तुम्हारे जैसा बेटा पा कर मैं धन्य हो गया,’’ कहते हुए उन्होंने मुझे गले से लगा लिया.

सभी की आंखें खुशी के आंसुओं से भर उठीं. मैं मन ही मन अपनी बूआ के साहस, दृढ़संकल्प एवं सकारात्मक पहल को सलाम कर रहा था.

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हमें तुम से प्यार कितना: क्या अच्छी मां बन पाई मधु

मधु के मातापिता उस के लिए काबिल वर की तलाश कर रहे थे. मधु ने फैसला किया कि यह ठीक समय है जब उसे आलोक और अंशू के बारे में उन्हें बता देना चाहिए.

‘‘पापा, मैं आप को आलोक के बारे में बताना चाहती हूं. पिछले कुछ दिनों से मैं उस के घर जाती रही हूं. वह शादीशुदा था. उस की पत्नी सुहानी की मृत्यु कुछ वर्षों पहले हो चुकी है. उस का एक लड़का अंशू है जिसे वह बड़े प्यार से पाल रहा है. मैं आलोक को बहुत चाहती हूं.’’

मधु के कहने पर उस के पापा ने पूछा, ‘‘तुम्हें उस के शादीशुदा होने पर कोई आपत्ति नहीं है. बेशक, उस की पत्नी अब इस दुनिया में नहीं है. अच्छी तरह सोच कर फैसला करना. यह सारी जिंदगी का सवाल है. कहीं ऐसा तो नहीं है तुम आलोक और अंशू पर तरस खा कर यह शादी करना चाहती हो?’’

‘‘पापा, मैं जानती हूं यह सब इतना आसान नहीं है, लेकिन सच्चे दिल से जब हम कोशिश करते हैं तो सबकुछ संभव हो जाता है. अंशु मुझे बहुत प्यार करता है. उसे मां की सख्त जरूरत है. जब तक वह मुझे मां के रूप में अपना नहीं लेता है, मैं इंतजार करूंगी. बचपन से आप ने मुझे हर चुनौती से जूझने की शिक्षा और आजादी दी है. मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ यह फैसला कर रही हूं.’’

मधु के यकीन दिलाने पर उस की मां ने कहा, ‘‘मैं समझ सकती हूं, अगर अंशू के लालनपालन में तुम आलोक की मदद करोगी तो उस घर में तुम्हें इज्जत और भरपूर प्यार मिलेगा. सासससुर भी तुम्हें बहुत प्यार देंगे. मैं बहुत खुश हूं तुम आलोक की पत्नी खोने का दर्द महसूस कर रही हो और अंशू को मां मिल जाएगी. ऐसे अच्छे परिवार में तुम्हारा स्वागत होगा, मुझे लगता है हमारी परवरिश रंग लाई है.’’

मां ने मधु को गले लगा लिया. मधु की खुशी की कोई सीमा नहीं थी. उस ने कहा, ‘‘अब आप दोनों इस रिश्ते के लिए राजी हैं तो मैं आलोक को मोबाइल पर यह खबर दे ही देती हूं खुशी की.’’

मधु आलोक के दिल्ली के रोहिणी इलाके के शेयर मार्केटिंग औफिस में उस से मिलने जाया करती थी. इस का उस से पहला परिचय तब हुआ था जब उस ने कनाट प्लेस से पश्चिम विहार के लिए लिफ्ट मांगी थी. उस ने आलोक को बताया था वह एक पब्लिशिंग हाउस में एडिटर के पद पर कार्यरत थी. लिफ्ट के समय कार में ही दोनों ने एकदूसरे को अपने विजिटिंग कार्ड दे दिए थे. मधु की खूबसूरत छवि आलोक के दिमाग पर अंकित हो गई.

जब आलोक ने अपने बारे में पूरी तरह से बताया तो उस की बातचीत में उस के शादीशुदा और पत्नी सुहानी के निधन की बात शामिल थी.

बड़े ही अच्छे लहजे में मधु ने कहा था ‘मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम शादीशुदा हो. मेरे मातापिता मेरे लिए वर की तलाश कर रहे हैं. मैं ने तुम्हें अपने वर के रूप में पसंद कर लिया है जो भी थोड़ीबहुत मुलाकातें हुई हैं, उन में मैं जीवन के प्रति तुम्हारी सोच से प्रभावित हूं. तुम ने मुझे यह बताया है कि तुम्हारा एकमात्र मिशन है अपने लड़के अंशू को अच्छी परवरिश देना. दादादादी द्वारा उस का लालनपालन अपनेआप में काफी नहीं जान पड़ता है. यदि हमारा विवाह हो जाता है तो यह मेरे लिए बड़ी चुनौती का काम होगा कि मैं तुम्हारी मदद उस की परवरिश में करूं. मुझे काम करने का शौक है, मैं चाहूंगी कि अपना पब्लिशिंग हाउस का काम जारी रखते हुए घर के कामकाज को सुचारु रूप से चलाऊं.

आलोक ये सब बातें ध्यान से सुन रहा था, बोला, ‘सुहानी की मृत्यु के बाद मुझे ऐसा लगा कि मेरी दुनिया अंशू के इर्दगिर्द सिमट कर रह गई है. मेरा पूरा ध्यान अंशू को पालने में केंद्रित हो गया. जिंदगी के इस पड़ाव पर जब मेरी तुम से मुलाकात हुई तो मुझे एक उम्मीद दिखी कि चाहे तुम्हारा साथ विवाह के बाद एक मित्र की तरह हो या पत्नी की हैसियत से, मुझे तुम पर पूरा भरोसा है. अगर तुम्हारे जैसी खूबसूरत और समझदार लड़की सारे पहलुओं का जायजा ले कर मेरे घर आती है तो अंशू को मां और परिवार को एक अच्छी बहू मिल जाएगी.’

मधु ने आलोक को यकीन दिलाते हुए कहा था, ‘इस में कोई शक नहीं है कि मुझे कुंआरे लड़के भी विवाह के लिए मिल सकते हैं, लेकिन मुझे विवाह के बाद की समस्याओं से डर लगता है. इसी समाज में लड़कियां शादी के बाद जला दी जाती हैं, दहेज की बलि चढ़ा कर उन्हें तलाक दे दिया जाता है या ससुराल पसंद न आने पर लड़कियों को वापस मायके आ कर रहना पड़ जाता है. तुम से मुलाकात के बाद मुझे लगता है ऐसा कुछ मेरे साथ नहीं होने वाला. तुम्हारी तरह अंशू को पालने का चैलेंज मैं स्वीकार करती हूं. तुम्हारे घर आ कर अंशू से मेलजोल बढ़ाने का काम मैं बहुत जल्द शुरू करूंगी. अपनी मम्मी को यकीन में ले कर मेरे बारे में बात कर लो. एक बात और मैं बताना चाहूंगी, मैं ने एमए साइकोलौजी से कर रखा है. उस में चाइल्ड साइकोलौजी का विषय भी था.’

दूसरे दिन शाम को मधु आलोक के घर पहुंची. आलोक की मां ने उस का स्वागत मुसकराते हुए किया और कहा, ‘आओ मधु, तुम्हारे बारे में मुझे आलोक बता चुका है.’ मधु ड्राइंगरूम में सोफे पर आलोक की मां के साथ बैठ गई.

अंशु भी आवाज सुन कर वहां आ गया.

‘आंटी को पहली बार देखा है. कौन हैं, क्या आप दिल्ली में ही रहती हैं?’ अंशू ने पूछा.

‘हां, मैं दिल्ली में ही रहती हूं, मेरा नाम मधु है. अगर तुम्हें अच्छा लगेगा तो मैं तुम से मिलने आया करूंगी,’ अंशू की ओर निहारते हुए बड़े प्यार से मधु ने उस से कहा, ‘तुम अपने बारे में बताओ, कौन से गेम खेलते हो, किस क्लास में पढ़ते हो?’

शरमाते हुए अंशू ने कहा, ‘मैं क्लास थर्ड में पढ़ता हूं. नाम तो आप जानते ही हो. घर में दादादादी हैं, पापा हैं.’ उस की आंखें आंसुओं से भर आई थीं. उस ने आगे कहा, ‘आंटी, मैं मम्मी की फोटो आप को दिखाऊंगा. मेरी मां का नाम सुहानी था जो….’ आगे वह नहीं बोल पाया.

अंशू को मधु ने गले लगा लिया, ‘बेटा, ऐसा मत कहो, मां जहां भी हैं वे तुम्हारे हर काम को ऊपर से देखती हैं. वे हमेशा तुम्हारे आसपास ही कहीं होती हैं. मैं तुम्हें बहुत प्यार करूंगी. तुम्हारी अच्छी दोस्त बन कर रोज तुम्हारे पास आया करूंगी, ढेर सारी चौकलेट, गिफ्ट और गेम्स ला कर तुम्हें दूंगी. बस, तुम रोना नहीं. मुझे तुम्हारी स्वीट स्माइल चाहिए. बोलो, दोगे न?’ एक बार फिर मधु ने अंशू को गले से लगा लिया. आलोक की मम्मी ने चाय बना ली थी. चाय पीने के बाद मधु वापस अपने घर चली गई.

आलोक की मां ने उसे मधु के बारे में बताते हुए कहा, ‘मुझे मधु बहुत अच्छी लगी. अंशू से बातचीत करते समय मुझे उस की आंखों में मां की ममता साफ दिखाई दी.’ इस के जवाब में आलोक ने मां को सुझाव दिया, ‘अभी कुछ दिन हमें इंतजार करना चाहिए. मधु को अंशू से मेलजोल बढ़ाने का मौका देना चाहिए ताकि यह पता चले कि वह मधु को स्वीकार कर लेगा.’

इस के बाद मधु ने स्कूटी पर अंशू के पास जानाआना शुरू कर दिया. वह अच्छाखासा समय उस के साथ बिताती थी. कभी कैरम खेलती थी तो कभी उस के साथ अंत्याक्षरी खेलती थी. उस की पसंद की खाने की चीजें पैक करवा कर उस के लिए ले जाती तो कभी उसे मूवी दिखाने ले जाती थी. एक महीने में अंशू मधु के साथ इतना घुलमिल गया कि उस ने आलोक से कहा, ‘पापा, आप आंटी को घर ले आओ, वे हमारे घर में रहेंगी, तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा.’

मधु और आलोक का विवाह हो गया. विवाह की धूमधाम में अंशू ने हर लमहे को एंजौय किया, जो निराशा और मायूसी पहले उस के चेहरे पर दिखती थी, वह अब मधुर मुसकान में बदल गई थी. वह इतना खुश था कि उस ने सुहानी की तुलना मधु से करनी बंद कर दी. सुहानी की फोटो भी शैल्फ से हटा कर अपनी किताबों वाली अलमारी में कहीं छिपा कर रख दी. आलोक ने महसूस किया जिद्दी अंशू अब खुद को नए माहौल में ढाल रहा था.

मधु ने आलोक का संबोधन तुम से आप में बदल दिया. उस ने आलोक से कहा, ‘‘तुम्हें अंशू के सामने तुम कह कर बुलाना ठीक नहीं लगेगा, इसलिए मैं आज से तुम्हें आप के संबोधन से बुलाऊंगी.’’ अपनी बात जारी रखते हुए उस ने आगे कहा, ‘‘हम अपने प्यार और रोमांस की बातें फिलहाल भविष्य के लिए टाल देंगे. पहले अंशू के बचपन को संवारने में जीजान से लग जाएंगे. वह अपनी क्लास में फर्स्ट पोजिशन में आता है, इंटैलीजैंट है. जब यह सुनिश्चित हो जाएगा कि अब वह मानसिक तौर पर मुझे मां के रूप में पूरी तरह स्वीकार कर चुका है, तब हम हनीमून के लिए किसी अच्छे स्थान पर जाएंगे.’’

यह सुन कर आलोक को अपनी हमसफर मधु पर गर्व महसूस हो रहा था. खुश हो कर उस ने उस का हाथ अपने हाथ में ले कर चूम लिया. वे दोनों शादी के बाद दिल्ली के एक रैस्तरां में कैंडिललाइट में डिनर ले रहे थे. घर लौटते समय उन्होंने कनाट प्लेस से अंशू की पसंद की पेस्ट्री पैक करवा ली थी.

वे दोनों आश्चर्यचकित थे जब वापसी पर अंशू ने मधु से कहा, ‘‘मम्मा, आप ने देर कर दी, मैं कब से आप का इंतजार कर रहा था.’’

मधु ने पेस्ट्री का पैकेट उसे पकड़ाते हुए कहा, ‘‘अंशु, यह लो तुम्हारी पसंद की पेस्ट्री. तुम्हें यह बहुत अच्छी लगेगी.’’ अंशू की खुशी उस के चेहरे पर फैल गई.

अंशू चौथी कक्षा बहुत अच्छे अंकों के साथ पास कर चुका था. मधु की मां की ममता अपने शिखर पर थी. उस ने अपने बगीचे में अंशू की पसंद के फूलों के पौधे माली से कह कर लगवा दिए थे. जैसेजैसे ये पौधे फलफूल रहे थे, मधु को लगता था वह भी माली की तरह अपने क्यूट से बेटे की देखरेख कर रही है. आत्मसंतुष्टि क्या होती है, उस ने पहली बार महसूस किया.

शाम के समय जब आलोक घर आता था तो अंशू उस का फूलों के गुलदस्ते से स्वागत करता था. मधु का ध्यान अंशू की पढ़ाई के साथ उस की हर गतिविधि पर था. उस ने उसे तैयार किया कि वह स्कूल में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले. अंशू के स्टडीरूम में शैल्फ पर कई ट्रौफियां उस ने सजा कर रख ली थीं. सब खुशियों के होते हुए पिछले 2-3 साल अंशू ने अपना बर्थडे यह कह कर मनाने नहीं दिया कि ऐसे मौके पर उसे सुहानी मां की याद आ जाती है.

दूसरे के बच्चे को पालना कितना मुश्किल होता है, यह महसूस करते हुए उस ने तय किया कि कभी वह अंशू को सुहानी मां के साथ बिताए लमहों के बारे में हतोत्साहित नहीं करेगी. अंशू का विकास वह सामान्य परिस्थिति में करना चाहती थी. जैसेजैसे उस का शोध कार्य प्रगति पर था उसे अभिप्रेरणा मिलती रही कि सब्र के साथ हर बाधा को पार कर वह अंशू के समुचित विकास के काम में विजेता के रूप में उभरे. उसे उम्मीद थी कि जितना वह इस मिशन में कामयाब होगी, उतना ही उसे आलोक और सासससुर का प्यार मिलेगा. दोनों के रिश्ते की बुनियाद दोस्ती थी. प्यार और रोमांस के लिए भविष्य में समय उपलब्ध था.

आलोक मधु की अब तक भूमिका से इतना खुश था कि उस की इच्छा हुई किसी रैस्तरां में शाम को कुछ समय उस के साथ बिताए. कनाट प्लेस की एक ज्वैलरी शौप से उस की पसंद के कुछ जेवर खरीद कर उसे गिफ्ट करते हुए उस ने कहा, ‘‘मधु, वैसे तो तुम्हारे पास काफी गहने हैं लेकिन मैरिज एनिवर्सरी न मना पाने के कारण हम कोई खास खुशी तो मना नहीं पाते हैं, यह गिफ्ट तुम यही समझ कर रख लो कि आज हम ने अपने विवाह की वर्षगांठ मना ली है. मम्मीपापा को इस के विषय में बता सकती हो. हम धूमधाम से तभी एनिवर्सरी मनाएंगे जब अंशू अपना जन्मदिन खुशी के साथ दोस्तों को बुला कर मनाना शुरू कर देगा.’’

रैस्तरां में उन दोनों की बातचीत बड़ी प्यारभरी हुई. डिनर के बाद जब वे रैस्तरां से बाहर निकले तो आलोक ने मधु का हाथ अपने हाथ में ले कर उस का स्पर्श महसूस करते हुए कहा, ‘‘मधु, मैं इंतजार में हूं कि कब हम लोग हनीमून के लिए किसी हिलस्टेशन पर जाएंगे. जब ऐसा तुम भी महसूस करो, मुझे बता देना. हम लोग इसी बहाने अंशू को भी साथ ले चल कर घुमा लाएंगे.’’

मधु को यह बात कभीकभी परेशान करती थी कि अंशू कभी नहीं चाहेगा कि वह एक बच्चे को जन्म दे और वह बच्चा अंशू की ईर्ष्या का पात्र बन जाए. उस ने सोच रखा था कि वह उचित समय पर आलोक से इस विषय पर बात करेगी. वैसे, अंशू ने उसे इतना आदर और प्यार दिया जिस ने उसे भरपूर मां की ममता और सुख का एहसास करा दिया.

दोनों के बीच जो स्नेह और ममता का रिश्ता बन गया था वह बहुत मजबूत था. मधु को लगा, अंशू उसे पूरी तरह मां के रूप में मान चुका है और अगले वर्ष अपना बर्थडे बहुत धूमधाम से मनाना चाहेगा. वह बहुत खुश हुई जब अंशू ने उस से कहा, ‘‘मम्मा, सब बच्चे अपना बर्थडे दोस्तों के साथ हर साल मनाते हैं. मैं भी अपने क्लासमेट के साथ इस साल बर्थडे मनाना चाहता हूं.’’

फिर क्या था, आलोक और मधु ने घर पर ही उस का बर्थडे मनाने का इंतजाम कर दिया. ढेर सारे व्यंजन, डांस के फोटोशूट और केक के साथ बड़ी धूमधाम से उस का बर्थडे मनाया गया.

अंशू का लालनपालन मधु ने उस की हर भावना के क्षणों में अपने को मनोचिकित्सक मान कर किया जिस के सकारात्मक परिणाम ने हमेशा उसे हौसला दिया.

शादी के 6-7 साल पलक झपकते ही मधु के अंशू के साथ इस तरह गुजरे कि वह वैवाहिक जीवन के हर सुख की हकदार बन गई. मां बनने का हर सुख उसे महसूस हो चुका था.  अंशू के नैराश्य और मां की कमी की स्थिति से बाहर आने का श्रेय घर के हर सदस्य को था.

मधु ने आलोक को पति के रूप में स्वीकार करते समय यह सोचा था, आलोक अपनी पत्नी सुहानी को खोने के बाद उसे अपने घर में सम्मान और प्यारभरी जिंदगी जरूर दे सकेगा. उसे अंशू की मां के रूप में उस की सख्त जरूरत है. पहली नजर में, उस से मिलने पर उसे अपने सारे सपने साकार होते हुए जान पड़े. तभी तो उस ने ‘आई लव यू’ कहने के स्थान पर खुश हो कर उस से कहा था, ‘आलोक, तुम हर तरह से मेरे जीवनसाथी बनने

के काबिल हो.’ तब वह उस के शादीशुदा होने के बैकग्राउंड से बिलकुल अनभिज्ञ थी.

7 वर्षों बाद, एक दिन जब अंशू स्कूल से घर लौटा तो उस के हाथ में एक बैग था. वह बहुत खुश दिखाई दे रहा था. मधु मां को उस ने गले लगा लिया और बताया, ‘‘मम्मा, मैं क्लास में फर्स्ट आया हूं. कई ऐक्टिविटीज में मुझे ट्रौफियां मिली हैं. पिं्रसिपल सर कह रहे थे यह सब मुझे अच्छी मां के कारण ही मिला है.’’ थोड़ी देर चुप रहने के पश्चात वह भावुक हो गया, बोला, ‘‘मम्मा, मैं एक बार सुहानी मां की फोटो, जो मैं ने छिपा कर रख ली थी, उसे देख लूं.’’

मधु ने कहा, ‘‘हां, क्यों नहीं, ले आओ. हम सब उस फोटो को देखेंगे.’’ मधु की आंखों से आंसू छलक पड़े थे. भावुक हो कर उस ने कहा, ‘‘अंशू, मैं ने कहा था न, तुम्हारी मां सुहानी हर समय तुम्हारे आसपास होती हैं.  अब तुम कभी उदास मत होना. सुहानी मां भी यही चाहती हैं तुम हमेशा खुश रहो.’’

उस रात आलोक ने मधु को अपनी बांहों में ले कर जीभर प्यार किया. इन भावुकताभरे लमहों में मधु ने आलोक को अपना फैसला सुनाते हुए अपील की, ‘‘आलोक, इतना आसान नहीं था मेरे लिए अब तक का सफर तय करना. तुम्हारा साथ मिला तो यह सफर आसान हो गया. मुझ से वादा करोगे कि कमजोर से कमजोर क्षणों में तुम मुझे मां बनाने की कोशिश नहीं करोगे. अंशू से मुझे पूरा मातृत्व सुख हासिल हो चुका है. मैं उस के प्रतिद्वंद्वी के रूप में कोई और संतान पैदा नहीं करना चाहती.’’

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सोने का कारावास: क्या हुआ था अभिषेक के साथ

अभिषेक अपनी कैंसर की रिपोर्ट को हाथ में ले कर बैठेबैठे यह ही सोच रहा था कि क्या करे, क्या न करे. सबकुछ तो था उस के पास. वह इस सोने के देश में आया ही था सबकुछ हासिल करने, मगर उस का गणित कब और कैसे गलत हो गया, वह समझ नहीं पाया. हर तरह से अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखने के बावजूद क्यों और कब उसे यह भयंकर बीमारी हो गई थी. सब से पहले उस ने अपनी बड़ी बहन को फोन किया तो उन्होंने फौरन अपने गुरुजी को सूचित किया और समस्या का कारण गुरुजी ने पितृदोष बताया था.

छोटी बहन भी फोन पर बोली, ‘‘भैया, आप लोग तो पूरे अमेरिकी हो गए हो, कोई पूजापाठ, कनागत कुछ भी तो नहीं मानते, इसलिए ही आज दंडस्वरूप आप को यह रोग लग गया है.’’ यह सुन कर अभिषेक का मन वापस अपनी जड़ों की तरफ लौटने को बेचैन हो गया. सोने की नगरी अब उसे सोने का कारावास लग रही थी. यह कारावास जो उस ने स्वयं चुना था अपनी इच्छा से.

अभिषेक और प्रियंका 20 वर्षों पहले इस सोने के देश में आए थे. अभिषेक के पास वैसे तो भारत में भी कोई कमी नहीं थी पर फिर भी निरंतर आगे बढ़ने की प्यास ने उसे इस देश में आने को विवश कर दिया था. प्रियंका और अभिषेक दोनों बहुत सारी बातों में अलग होते हुए भी इस बात पर सहमत थे कि भारत में उन का और उन के बेटे का भविष्य नहीं है.

प्रियंका अकसर आंखें तरेर कर बोलती, ‘है क्या इंडिया में, कूड़ाकरकट और गंदगी के अलावा.’

अभिषेक भी हां में हां मिलाते हुए कहता, ‘शिक्षा प्रणाली देखी है, कुछ भी तो ऐसा नहीं है जो देश के विद्यार्थियों को आगे के लिए तैयार करे. बस, रटो और आगे बढ़ो. अमेरिका के बच्चों को कभी देखा है, वे पहले सीखते हैं, फिर समझते हैं. हम अपने सार्थक को ऐसा ही बनाना चाहते हैं.’

प्रियंका आगे बोलती, ‘अभि, तुम अपने विदेश जाने के कितने ही औफर्स अपने मम्मीपापा के कारण छोड़ देते हो, एक बेटे का फर्ज निभाने के लिए. पर उन्होंने क्या किया, कुछ नहीं.’

‘मेरा सार्थक तो अकेला ही पला. उस के दादादादी तो अपना मेरठ का घर छोड़ कर बेंगलुरु नहीं आए.’

यह वार्त्तालाप लगभग 20 वर्ष पहले का है जब अभिषेक को अपनी कंपनी की तरफ से अमेरिका जाने का प्रस्ताव मिला था. अभिषेक के मन में एक पल के लिए अपने मम्मीपापा का खयाल आया था पर प्रियंका ने इतनी सारी दलीलें दीं कि अभिषेक को यह लगा कि उसे ऐसा मौका छोड़ना नहीं चाहिए.

अभिषेक अपनी दोनों बहनों का इकलौता भाई था. उस से बड़ी एक बहन थी और एक बहन उस से छोटी थी. उस के पति अच्छेखासे सरकारी पद से सेवानिवृत्त हुए थे. बचपन से अभिषेक हर रेस में अव्वल ही आता था. अच्छा घर, अच्छी नौकरी, खूबसूरत और उस से भी ज्यादा स्मार्ट बीवी. रहीसही कसर शादी के 2 वर्षों बाद सार्थक के जन्म से पूरी हो गई थी. सबकुछ परफैक्ट पर परफैक्ट नहीं था तो यह देश और इस के रहने वाले नागरिक. वह तो बस अभिषेक का जन्म भारत में हुआ था, वरना सोच से तो वह पूरा विदेशी था.

विवाह के कुछ समय बाद भी उसे अमेरिका में नौकरी का प्रस्ताव मिला था, पर अभिषेक के पापा को अचानक हार्टअटैक आ गया था, सो, उसे मजबूरीवश प्रस्ताव को ठुकराना पड़ा. कुछ ही महीनों में प्रियंका ने खुशखबरी सुना दी और फिर अभिषेक और प्रियंका अपनी नई भूमिका में उलझ गए. वे लोग बेंगलुरु में ही बस गए. पर मन में कहीं न कहीं सोने की नगरी की टीस बनी रही.

जब सार्थक 7 वर्ष का था, तब अभिषेक को कंपनी की तरफ से परिवार सहित फिर से अमेरिका जाने का मौका मिला, जो उस ने फौरन लपक लिया.

खुशी से सराबोर हो कर जब उस ने अपने पापा को फोन किया तो पापा थकी सी आवाज में बोले, ‘बेटा, मेरा कोई भरोसा नहीं है, आज हूं कल नहीं. तुम इतनी दूर चले जाओगे तो जरूरत पड़ने पर हम किस का मुंह देखेंगे.’ अभिषेक ने चिढ़ी सी आवाज में कहा, ‘पापा, तो अपनी प्रोग्रैस रोक लूं आप के कारण. वैसे भी, आप और मम्मी को मेरी याद कब आती है? प्रियंका को आप दोनों के कारण नौकरी छोड़नी पड़ी क्योंकि आप दोनों मेरठ छोड़ कर आना ही नहीं चाहते थे. फिर सार्थक को हम किस के भरोसे छोड़ते और

आज आप को अपनी पड़ी है.’ अभिषेक के पापा ने बिना कुछ बोले फोन रख दिया.

अभिषेक की मम्मी, सावित्री, बड़ी आशा से अपने पति रामस्वरूप की तरफ देख रही थी कि वे उस को फोन देंगे पर जब उन्होंने फोन रख दिया तो उतावली सी बोली, ‘मेरी बात क्यों नहीं कराई पिंटू से?’

रामस्वरूप बोले, ‘पिंटू अमेरिका जा रहा है परिवार के साथ.’

सावित्री बोली, ‘हमेशा के लिए?’

रामस्वरूप चिढ़ कर बोले, ‘मुझे क्या पता. वह तो मुझे ही उलटासीधा सुना रहा था कि हमारे कारण उस की बीवी नौकरी नहीं कर पाई.’

सावित्री थके से स्वर में बोली, ‘तुम अपना ब्लडप्रैशर मत बढ़ाओ, यह घोंसला तो पिछले 10 वर्षों से खाली है. हम हैं न एकदूसरे के लिए,’ पर यह कहते हुए उन का स्वर भीग गया था.

सावित्री मन ही मन सोच रही थी कि वह अभिषेक को भी क्या कहे, आखिर प्रियंका उस की बीवी है. पर वे दोनों कैसे रहें उस के घर में, क्योंकि बहू का तेज स्वभाव और उस से भी तेज कैंची जैसी जबान है. उस के अपने पति रामस्वरूपजी का स्वभाव भी बहुत तीखा था. कोई जगहंसाई न हो, इसलिए सावित्री और रामस्वरूप ने खुद ही एक सम्मानजनक दूरी बना कर रखी थी. पर इस बात को अभिषेक अलग तरीके से ले लेगा, यह उन्हें नहीं पता था.

उधर रात में अभिषेक प्रियंका को जब पापा और उस के बीच का संवाद बता रहा था तो प्रियंका छूटते ही बोली, ‘नौकर चाहिए उन्हें तो बस अपनी सेवाटहल के लिए, हमारा घर तो उन्होंने अपने लिए मैडिकल टूरिज्म समझ रखा है, जब बीमार होते हैं तभी इधर का रुख करते हैं. अब कराएं न अपने बेटीदामाद से सेवा, तुम क्यों अपना दिल छोटा करते हो?’

एक तरह से सब को नाराज कर के ही अभिषेक और प्रियंका अमेरिका  आए थे. साल भी नहीं बीता था कि पापा फिर से बीमार हो गए थे, अभिषेक ने पैसे भेज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी. आखिर, अब उसे सार्थक का भविष्य देखना है.

उस की बड़ी दी ऋचा और उन के पति जयंत, मम्मीपापा को अपने साथ ले आए थे. पर होनी को कौन टाल सकता है, 15 दिनों में ही पापा सब को छोड़ कर चले गए.

अभिषेक ने बहुत कोशिश की पर इतनी जल्दी कंपनी ने टिकट देने से मना कर दिया था और उस समय खुद टिकट खरीदना उस के बूते के बाहर था. पहली बार उसे लगा कि उस ने अपनेआप को कारावास दे दिया है, घर पर सब को उस की जरूरत है और वह कुछ नहीं कर पा रहा है.

प्रियंका ने अभिषेक को सांत्वना देते हुए कहा, ‘आजकल बेटा और बेटी में कोई फर्क नहीं है. वे तो ऋचा दी के पास थे. हम लोग अगले साल चलेंगे जब कंपनी हमें टिकट देगी.’

अगले साल जब अभिषेक गया तो मां का वह रूप न देख पाया, ऐसा लग रहा था मां ने एक वर्ष में ही 10 वर्षों का सफर तय कर लिया हो. सब नातेरिश्तेदार की बातों से अभिषेक को लगा जैसे वह ही अनजाने में अपने पिता की मृत्यु का कारण हो. उस के मन के अंदर एक डर सा बैठ गया कि उस ने अपने पिता का दिल दुखाया है. अभिषेक मां को सीने से लगाता हुआ बोला, ‘मां, मैं आप को अकेले नहीं रहने दूंगा, आप मेरे साथ चलोगी.’

जयंत जीजाजी बोले, ‘अभिषेक, यह ही ठीक रहेगा, सार्थक के साथ वे अपना दुख भूल जाएंगी.’अभिषेक के जाने का समय आ गया, पर मां का पासपोर्ट और वीजा बन नहीं पाया.

मां के कांपते हाथों को अपनी बहनों के हाथ में दे कर वह फिर से सोने के देश में चला गया. फिर 5 वर्षों तक किसी न किसी कारण से अभिषेक का घर आना टलता ही रहा और अभिषेक की ग्लानि बढ़ती गई.

5 वर्षों बाद जब वह आया तो मां का हाल देख कर रो पड़ा. इस बार मां की इच्छा थी कि रक्षाबंधन का त्योहार एकसाथ मनाया जाए उन के पैतृक गांव में. अभिषेक और प्रियंका रक्षाबंधन के दिन ही पहुंचे. प्रियंका को अपने भाई को भी राखी बांधनी थी.

दोनों बहनों ने पूरा खाना अभिषेक की पसंद का बनाया था और आज मां भी बरसों बाद रसोई में जुटी हुई थी. मेवों की खीर, गुलाबजामुन, दहीबड़े, पुलाव, पनीर मसाला, छोटेभठूरे, अमरूद की चटनी, सलाद और गुड़ के गुलगुले. अभिषेक, ऋचा और मोना मानो फिर से मेरठ के घर में आ कर बच्चे बन गए थे. बरसों बाद लगा अभिषेक को कि वह जिंदा है.

2 दिन 2 पल की तरह बीत गए. बरसों से सोए हुए तार फिर से झंकृत हो गए. सबकुछ बहुत ही सुखद था. ढेरों फोटो खींचे गए, वीडियो बनाई गई. सब को बस यह ही मलाल था कि सार्थक नहीं आया था.

मोना ने अपने भैया से आखिर पूछ ही लिया, ‘भैया, सार्थक क्यों नहीं आया, क्या उस का मन नहीं करता हम सब से मिलने का?’

इस से पहले अभिषेक कुछ बोलता, प्रियंका बोली, ‘वहां के बच्चे मांबाप के पिछलग्गू नहीं होते, उन को अपना स्पेस चाहिए होता है. सार्थक भारतभ्रमण पर निकला है, वह अपने देश को समझना चाहता है.’

ऋचा दी बोली, ‘सही बोल रही हो, हर देश की अपनी संस्कृति होती है. पर अगर सार्थक देश को समझने से पहले अपने परिवार को समझता तो उसे भी बहुत मजा आता.’

अभिषेक सोच रहा था, सार्थक को अपना स्पेस चाहिए था, वह स्पेस जिस में उस के अपने मातापिता के लिए भी जगह नहीं थी.

शाम को वकील साहब आ गए थे. मां ने अपने बच्चों और नातीनातिनों से कहा, ‘मैं नहीं चाहती कि मेरे जाने के बाद तुम लोगों के बीच में मनमुटाव हो, इसलिए मैं ने अपनी वसीयत बनवा ली है.’

प्रियंका मौका देखते ही अभिषेक से बोली, ‘सबकुछ बहनों के नाम ही कर रखा होगा, मैं जानती हूं इन्हें अच्छे से.’

वसीयत पढ़ी गई. पापा के मकान के 4 हिस्से कर दिए गए थे, जो तीनों बच्चों और मां के नाम पर हैं, चौथा हिस्सा उस बच्चे को मिलेगा जिस के साथ मां अपना अंतिम समय बिताएंगी.

100 बीघा जमीन जो उन की गांव में है, उस के भी 4 हिस्से कर दिए गए थे. दुकानें भी सब के नाम पर एकएक थी और गहनों के 3 भाग कर दिए गए थे. मां ने अपने पास बस वे ही गहने रखे जो वे फिलहाल पहन रही थीं. वसीयत पढ़े जाने के पश्चात तीनों भाईबहन सामान्य थे पर छोटे दामाद और प्रियंका का मुंह बन गया था. जबकि छोटे दामाद और बहू ने अब तक मां के लिए कुछ भी नहीं किया था.

प्रियंका उस दिन जो गई, फिर कभी ससुराल की देहरी पर न चढ़ी. मां के गुजरने पर अभिषेक अकेले ही बड़ी मुश्किल से आ पाया था. फिर तो जैसे अभिषेक के लिए अपने देश का आकर्षण ही खत्म हो गया था.

पूरे 7 वर्षों तक अभिषेक भारत नहीं गया. बहनों की राखी मिलती रही, पर उस ने अभी कुछ नहीं भेजा क्योंकि कहीं न कहीं यह फांस उस के मन में भी थी कि जब उन्हें बराबर का हिस्सा मिला है तो फिर किस बात का तोहफा.

अमेरिका में वह पूरी तरह रचबस गया था कि तभी अचानक से एक छोटे से टैस्ट ने भयानक कैंसर की पुष्टि कर दी थी. उन्हीं रिपोर्ट्स को बैठ कर वह देख रहा था. न जाने क्यों कैंसर की सूचना मिलते ही सब से पहले उसे अपनी बहनों की याद आई थी.

सार्थक अपनी ही दुनिया में मस्त रहता था, उस से कुछ उम्मीद रखना व्यर्थ था. वह एक अमेरिकी बेटा था. सबकुछ नपातुला, न कोई शिकायत न कोई उलाहना, एकदम व्यावहारिक. कभीकभी अभिषेक उन भावनाओं के लिए तरस जाता था. वह 2 हजार किलोमीटर दूर एक मध्यम आकार के सुंदर से घर में रहता था.

सार्थक से जब अभिषेक ने कहा, ‘‘सार्थक, तुम यहीं शिफ्ट हो जाओ, मुझे और तुम्हारी मम्मी को थोड़ा सहारा हो जाएगा.’’

सार्थक हंसते हुए बोला, ‘‘पापा, यह अमेरिका है, यहां पर आप को काम से छुट्टी नहीं मिल सकती है और सरकार की तरफ से इलाज तो चल रहा है

आप का, जो भारत में मुमकिन नहीं. मुझे आगे बढ़ना है, ऊंचाई छूनी है, मैं आप का ही बेटा हूं, पापा. आप सकारात्मक सोच के साथ इलाज करवाएं, कुछ नहीं होगा.’’

पर अभिषेक के मन में यह भाव घर कर गया था कि यह उस की करनी का ही फल है और उस की बातों की पुष्टि के लिए उस की बहनें भी रोज कोई न कोई नई बात बता देती थीं. अब अकसर ही अभिषेक अपनी बहनों से बातें करता था जो उसे मानसिक संबल देती थीं. सब से अधिक मानसिक संबल मिलता था उसे उन ज्योतिषियों की बातों से जो अभिषेक के लिए इंडिया से ही पूजापाठ कर रहे थे.

भारत में दोनों बहनों ने महामृत्युंजय के पाठ बिठा रखे थे. हर रोज प्रियंका अभिषेक का फोटो खींच कर व्हाट्सऐप से दोनों बहनों को भेजती और उस फोटो को देखने के पश्चात पंडित लोग अपनी भविष्यवाणी करते थे. सब पंडितों का एकमत निर्णय यह था कि अभिषेक की अभी कम से कम 20 वर्ष आयु शेष है. यदि वह अच्छे मुहूर्त में आगे का इलाज करवाएगा तो अवश्य ही ठीक हो जाएगा.

सार्थक हर शुक्रवार को अभिषेक और प्रियंका के पास आ जाता था. उस रात जैसे ही उसे झपकी आई तो देखा. इंडिया से छोटी बूआ का फोन था, वे प्रियंका को बता रही थीं, ‘‘भाभी, आप अस्पताल बदल लीजिए, पंडितजी ने कहा है, जगह बदलने से मरकेश ग्रह टल जाएगा.’’

सार्थक ने मम्मी के हाथ से फोन ले लिया और बोला, ‘‘बूआ, ऐसी स्थिति में अस्पताल नहीं बदल सकते हैं और ग्रह जगह बदलने से नहीं, सकारात्मक सोच से बदलेगा, मेरी आप से विनती है, ऐसी फालतू बात के लिए फोन मत कीजिए.’’

परंतु अभिषेक ने तो जिद पकड़ ली थी. उस ने मन के अंदर यह बात गहरे तक बैठ गई थी कि बिना पूजापाठ के वह ठीक नहीं हो पाएगा. सार्थक ने कहा भी, ‘‘पापा, आप इतना पढ़लिख कर ऐसा बोल रहे हो, आप जानते हो कैंसर का इलाज थोड़ा लंबा चलता है.’’

अभिषेक थके स्वर में बोला, ‘‘तुम नहीं समझोगे सार्थक, यह सब ग्रहदोष के कारण हुआ है, मैं अपने मम्मीपापा का दिल दुखा कर आया था.’’

सार्थक ने फिर भी कहा, ‘‘पापा, दादादादी थोड़े दुखी अवश्य हुए होंगे पर आप को क्या लगता है, उन्होंने आप को श्राप दिया होगा, आप खुद को उन की जगह रख कर देखिए.’’

प्रियंका गुस्से में बोली, ‘‘सार्थक, तुम बहुत बोल रहे हो. हम खुद अस्पताल बदल लेंगे. हो सकता है अस्पताल बदलने से वाकई फर्क आ जाए.’’

सार्थक ने अपना सिर पकड़ लिया. क्या समझाए वह अपने परिवार को. उसे डाक्टरों की चेतावनी याद थी कि जरा सी भी असावधानी उन की जान के लिए खतरा सिद्ध हो सकती है.

अभिषेक की इच्छाअनुसार अस्पताल बदल लिया गया. अगले हफ्ते जब सार्थक आया तो देखा, अभिषेक पहले से बेहतर लग रहा था. प्रियंका सार्थक को देख कर चहकते हुए बोली, ‘‘देखा सार्थक, महामृत्युंजय पाठ वास्तव में कारगर होते हैं.’’

पापा को पहले से बेहतर देख कर सार्थक ने कोई बहस नहीं की. बस, मुसकराभर दिया. पर फिर उसी रात अचानक से अभिषेक को उल्टियां आरंभ हो गईं. डाक्टरों का एकमत था कि  पेट का कैंसर अब गले तक पहुंच गया है, फौरन सर्जरी करनी पड़ेगी.

परंतु प्रियंका मूर्खों की तरह इंडिया में ज्योतिषियों से सलाह कर रही थी. ज्योतिषियों के अनुसार अभी एक हफ्ते से पहले अगर सर्जरी की तो अभिषेक को जान का खतरा है क्योंकि पितृदोष पूरी तरह से समाप्त होने में अभी भी एक हफ्ते का समय शेष है. एक बार पितृदोष समाप्त हो जाएगा तो फिर अभिषेक को कुछ नहीं होगा. कहते हैं जब बुरा समय आता है तो इंसान की अक्ल पर भी परदा पड़ जाता है. अभिषेक अपनी दवाइयों में लापरवाही बरतने लगा पर भभूत, जड़ीबूटियों का काढ़ा वह नियत समय पर ले रहा था. इन जड़ीबूटियों के कारण कैंसर की आधुनिक दवाओं का असर भी नहीं हो रहा था क्योंकि जड़ीबूटियों में जो कैमिकल होते हैं वे किस तरह से कैंसर की इन नई दवाओं को प्रभावित करते हैं, इस पर अमेरिकी शोधकर्ताओं ने कभी ध्यान नहीं दिया था. नतीजा उस का स्वास्थ्य दिनबदिन गिरने लगा. इस कारण से अभिषेक की कीमोथेरैपी के लिए भी डाक्टरों ने मना कर दिया.

सार्थक ने बहुत प्यार से समझाया, सिर पटका, गुस्सा दिखाया पर अभिषेक और प्रियंका टस से मस न हुए. डाक्टरों ने सार्थक को साफ शब्दों में बता दिया था कि अब अभिषेक के पास अधिक समय नहीं है. सार्थक को मालूम था कि अभिषेक का मन अपनी बहनों में पड़ा है. जब उस ने अपनी दोनों बुआओं को आने के लिए कहा तो दोनों ने एक ही स्वर में कहा, ‘‘गुरुजी ने एक माह तक सफर करने से मना किया है क्योंकि दोनों ने अपने घरों में अखंड ज्योत जला रखी है, एक माह तक और फिर गुरुजी की भविष्यवाणी है कि भैया मार्च में ठीक हो कर आ जाएंगे. यदि हम बीच में छोड़ कर गए तो अपशकुन हो जाएगा.’’ सार्थक को समझ आ गया था कि भैंस के आगे बीन बजाने से कोई फायदा नहीं है.

उधर, अभिषेक को सोने की नगरी अब कारावास जैसी लग रही थी. तरस गया था वह अपनों के लिए, सबकुछ था पर फिर भी मानसिक शांति नहीं थी. दोनों बहनों ने अपनी ओर से कोई भी कोरकसर नहीं छोड़ी पर ग्रहों की दशा सुधारने के बावजूद अभिषेक की हालत न सुधरी. मन में अपनों से मिलने की आस लिए वह दुनिया से रुखसत हो गया.

आज सार्थक को बेहद लाचारी महसूस हो रही थी. दूसरे अवश्य उसे अमेरिकी कह कर चिढ़ाते हों पर वह जानता था कि उस के गोरे अमेरिकी दोस्त कैसे मातापिता की सेवा करते हैं. उस की एक प्रेमिका तो मां का ध्यान रखने के लिए उसे ही नहीं, अपनी अच्छी नौकरी को भी छोड़ कर इस छोटे से गांवनुमा शहर में 4 साल रही थी. वह मां के मरने के बाद ही लौटी थी. वह समझता था कि अमेरिकी युवा अपने मन से चलता है पर अपनी जिम्मेदारियां समझता है. अब वह हताश था क्योंकि पूर्वग्रह के कारण उस के मातापिता भारत में बैठी बहनों के मोहपाश में बंधे थे. वे धर्म की जो गठरी सिर पर लाद कर लाए थे, अमेरिका में रह कर और भारी हो गई थी.

सबकुछ तो था उस के परिवार के पास पर इन अंधविश्वासों में उलझ कर वह अपने पापा की आखिरी इच्छा पूरी न कर पाया था, काश, वह अपने पापा और परिवार को यह समझा पाता कि कैंसर एक रोग है जो कभी भी किसी को भी हो सकता है, उस का इलाज पूजापाठ नहीं. सकारात्मक सोच और डाक्टरी सलाह के साथ नियमित इलाज है. अमेरिका न तो सोने की नगरी है और न ही सोने का कारावास, पापा की अपनी सोच ने उन्हें यह कारावास भोगने पर मजबूर किया था. गीली आंखों के साथ सार्थक ने अपने पापा को श्रद्धांजलि दी और एक नई सोच के साथ हमेशा के लिए अपने को दकियानूसी सोच के कारावास से मुक्त कर दिया.

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दुविधा: क्या रघु को छोड़ पाई बुआ

कपड़े तहियाते हुए आरती के हाथ थम गए. उस की आंखें नेपथ्य में जा टंगीं. मन में तरहतरह के विचार उमड़नेघुमड़ने लगे. उसे लगा कि वह एक स्वप्नलोक में विचर रही है. उसे अभी भी विश्वास न हो रहा था कि पूरे 10 साल बाद उस का प्रेमी मिहिर फिर उस की जिंदगी में आया था और उस ने उस की दुनिया में हलचल मचा दी थी. वह बैंक में अपने केबिन में सिर झुकाए काम में लगी थी कि मिहिर उस के सामने आ खड़ा हुआ. ‘‘अरे तुम?’’ वह अचकचाई. उस चिरपरिचित चेहरे को देख कर उस का दिल जोरों से धड़क उठा.

‘‘चकरा गईं न मुझे देख कर,’’ मिहिर मुसकराया.

‘‘हां, तुम तो विदेश चले गए थे न?’’ उस ने अपने चेहरे का भाव छिपाते हुए पूछा,

‘‘इस तरह अचानक कैसे चले आए?’’

‘‘बस यों ही चला आया. अपने देश की मिट्टी की महक खींच लाई. तुम अपनी सुनाओ, कैसी गुजर रही है हालांकि मुझे यह पूछने की जरूरत नहीं है. देख ही रहा हूं कि तुम मैनेजर की कुरसी पर विराजमान हो. इस का मतलब है कि तुम्हारी तरक्की हो गई है. लेकिन लगता है कि तुम्हारे निजी जीवन में कोई खास बदलाव नहीं आया है. तुम वैसी ही हो जैसी तुम्हें छोड़ कर गया था.’’

‘‘हां, मेरे जीवन में अब क्या नया घटने वाला है? जिंदगी एक ढर्रे से लग गई है. सब दिन एकसमान, न कोई उतार, न चढ़ाव,’’ उस ने सपाट स्वर में कहा.

‘‘यह रास्ता तुम्हारा खुद का अपनाया हुआ है,’’ मिहिर ने उलाहना दिया, ‘‘मैं ने तो तुम्हें शादी का औफर दिया था. तुम्हीं न मानीं.’’

आरती कुछ न बोली.

‘‘अच्छा यह बताओ, लंच के लिए चलोगी? तुम से मिले अरसा हो गया. मुझे तुम से ढेरों बातें करनी हैं.’’

वे दोनों काफी देर तक रेस्तरां में बैठे रहे. बातों के दौरान मिहिर ने कहा, ‘‘आरती, मेरा भाई अमेरिका में रहता है. उस ने मुझे वहां बुलवा लिया. शुरू में काफी संघर्ष करना पड़ा पर अब मुझे अच्छी नौकरी मिल गई है. मुझे वहां की नागरिकता भी मिल गई है. मैं ने वहां अपना घर खरीद लिया है. केवल गृहिणी यानी पत्नी की कमी है. मैं ने अभी तक शादी नहीं की है. मैं अभी भी तुम्हें दिलोजान से चाहता हूं. तुम्हें अपनी बनाना चाहता हूं. इतने दिन तुम्हारी याद के सहारे जिया. अब मैं चाहता हूं कि हम दोनों विवाहबंधन में बंध जाएं. बोलो, क्या कहती हो?’’

‘‘अब मैं क्या बोलूं?’’ वह सिर झुकाए बोली.

‘‘वाह, तुम नहीं तो तुम्हारी जिंदगी के अहम फैसले क्या कोई और लेगा? आरती, तुम्हारा भी जवाब नहीं. तुम्हें कब अक्ल आएगी. मैं और तुम बालिग हैं, अपनी मरजी के मालिक. हमें अपनी जिंदगी अपने ढंग से जीने का हक है.’’

‘‘मुझे सोचने का थोड़ा वक्त दो,’’ उस ने कहा.

‘‘हरगिज नहीं,’’ मिहिर ने दृढ़ता से कहा, ‘‘सोचविचार में तुम ने अपनी आधी जिंदगी गंवा दी. अब मैं तुम्हारी एक न सुनूंगा. तुम्हें फैसला अभी, इसी वक्त लेना होगा. अभी नहीं तो कभी नहीं.’’

आरती के मन में उथलपुथल मच गई. जी में आया कि वह तुरंत अपनेआप को मिहिर की बांहों में डाल दे और उस से कहे, मैं तुम्हारी हूं, तुम जो चाहे करो, मुझे मंजूर है. इस के सिवा उस के पास और कोई चारा भी तो न था. वह अपनी एकाकी गतिहीन जिंदगी से बहुत उकता गई थी. अब तक मांबाप का साया सिर पर था पर आगे की सोच कर वह मन ही मन कांप जाती थी. उसे एक सहारे की जरूरत शिद्दत से महसूस हो रही थी. उस ने तय कर लिया कि वह मिहिर का हाथ थाम लेगी. यह निर्णय लेते ही उस के सिर से एक भारी बोझ उतर गया. उस के मन में हिलोरें उठने लगीं.

‘‘ठीक है,’’ वह बोली.

उसे वह दिन याद आया जब मिहिर से पहली बार मिली थी. पहली नजर में ही वह उस की ओर आकर्षित हो गई थी. वह बड़ा हंसोड़ और जिंदादिल था. धीरेधीरे उन में नजदीकियां बढ़ती गईं और एक दिन मिहिर ने विवाह का प्रस्ताव किया. आरती के मन में रस की फुहार फूट निकली. वह भविष्य के सुनहरे सपनों में खो गई. लेकिन उस के मातापिता को उस का प्रेमप्रसंग रास न आया. उन्होंने मिहिर का जम कर विरोध किया. उन्हें मिहिर में खामियां ही खामियां नजर आईं. वह पिछड़ी जाति का था और गरीब घर से था. उन्होंने आरती को समझाने की कोशिश की कि मिहिर उस के लायक नहीं है और वह उस से शादी कर के बहुत पछताएगी. जब उन्होंने देखा कि आरती पर उन की बातों का कोई असर नहीं हो रहा है तो उन्होंने अपना आखिरी दांव चलाया, ‘ठीक है, यदि तू अपनी मनमरजी करने पर तुली है तो यही सही. तू जाने, तेरा काम जाने. लेकिन इस के बाद हमारातुम्हारा रिश्ता खत्म. हम मरते दम तक तेरा मुंह न देखेंगे.’ आरती बहुत रोईधोई पर पिता की बात मानो पत्थर की लकीर थी. और मां ने भी पिता की हां में हां मिलाई.

आरती के मन में भय का संचार हुआ. उस में इतनी हिम्मत न थी कि वह मांबाप से बगावत कर के, समाज की अवहेलना कर के मिहिर से शादी रचाती. वह उधेड़बुन करती रही, सोच में डूबी रही, आगापीछा सोचती रही. दिन बीतते गए और एक दिन मिहिर उस से नाराज हो कर, उस से नाता तोड़ कर उस की दुनिया से दूर चला गया. आरती के मातापिता ने उस के लिए और लड़के तलाश किए पर आरती ने सब को नकार दिया. वह तो मिहिर से लौ लगाए थी. यादों में खोई आरती को मिहिर की आवाज ने झिंझोड़ा, ‘‘मैं कल शाम को तुम्हारे घर आऊंगा. हम अपने भावी जीवन के बारे में बात करेंगे और मैं तुम्हारे मातापिता से भी मिल लूंगा. पिछली बार उन्होंने हमारी शादी में अड़ंगा लगाया था. आशा है इस बार उन्हें कोई आपत्ति न होगी.’’

‘‘नहीं, और होगी भी तो अब मैं उन की सुनने वाली नहीं हूं,’’ वह जरा हिचकिचाई और बोली, ‘‘केवल एक समस्या है.’’

‘‘वह क्या?’’

‘‘रघु की समस्या.’’

‘‘यह रघु कौन है? क्या वह मेरा रकीब है?’’

‘‘हटो भी,’’ आरती हंस पड़ी, ‘‘रघु मेरा भतीजा है. मेरे बड़े भाई का बेटा. कुल 12 साल का है.’’

‘‘तो उस के साथ क्या प्रौब्लम है?’’

‘‘तुम कल घर आ रहे हो न. वहीं पर बातें होंगी.’’

मिहिर आरती के यहां बरामदे में बैठा हुआ था. आरती ने उसे रघु के बारे में विस्तार से बताया. उस के भाई सुरेश ने एक अति सुंदर कन्या से प्रेमविवाह कर लिया था. वे अपने नवजात शिशु को ले कर मुंबई रहने चले गए थे जहां सुरेश की नौकरी लगी थी. पर किन्हीं वजहों से उन में अनबन रहने लगी और एक रोज उस की पत्नी उस से लड़झगड़ कर उसे छोड़ कर चली गई. साथ ही, बच्चे को भी छोड़ गई. सुरेश मजबूरन रघु को बैंगलुरु ले आया क्योंकि मुंबई में उसे देखने वाला कोई न था. ‘तू चिंता मत कर,’ पिता माधवराव ने उसे आश्वासन दिया, ‘बच्चे को यहां छोड़ जा, यह यहां पल जाएगा.’ उन्होंने बच्चे को आरती की गोद में डालते हुए कहा, ‘ले बिटिया, अब तू ही इसे पाल. हमेशा कुत्तेबिल्ली के बच्चों के साथ खेलती रहती है. यह जीताजागता खिलौना आज से तेरे जिम्मे.’

आरती ने शिशु को हृदय से लगा लिया. उस के दिल में ममता का स्रोत फूट निकला. उस नन्ही सी जान के प्रति उस के दिल में ढेर सारा प्यार उमड़ आया. वह सचमुच बच्चे में खो गई. वह बैंक से लौटती तो रघु की देखभाल में लग जाती. रघु भी उस से बहुत हिलमिल गया था और हमेशा उस के आगेपीछे घूमता रहता. वह उसे छोड़ कर एक पल भी न रहता था. कभीकभी रघु को कलेजे से लगा कर वह सोचती कि क्या यही मेरी नियति है? और लड़कियों की तरह उस ने भी सपने देखे थे. उस के हृदय में भी अरमान मचलते थे. वह भी अपना एक घरबार चाहती थी, एक सहचर चाहती थी जो उस को दुलार करे, उस के नाजनखरे उठाए, उस के सुखदुख में साथी हो. पर वह अपनी अधूरी आकांक्षाएं लिए मन ही मन घुटती रही. उसे लगता कि प्रकृति ने उस के साथ अन्याय किया है. और उस के अपनों ने भी उस की अनदेखी की है. सुरेश ने दोबारा शादी कर ली और उस ने रघु को अपने साथ ले जाना चाहा. ‘बेशक ले जाओ,’ माधवराव बोले, ‘तुम्हारी ही थाती है आखिर. इतने दिन हम ने उस की देखभाल कर दी. अब अपनी अमानत को तुम संभालो. मैं और तुम्हारी मां बूढ़े हो चले. अशक्त हो गए हैं. कब हमारी आंखें बंद हो जाएं, इस का कोई ठिकाना नहीं.’

रघु से बिछड़ने की कल्पना से ही आरती का दिल बैठने लगा. ‘यदि मुझे मालूम होता कि इस बालक से एक दिन बिछड़ना होगा तो मैं इस के मोहजाल में न फंसती,’ उस ने आह भर कर सोचा. और जब 7 साल के रघु ने सुना कि उसे मुंबई जाना होगा तो उस ने रोरो कर सारा घर सिर पर उठा लिया, ‘मैं हरगिज मुंबई नहीं जाऊंगा. वहां मेरा मन नहीं लगेगा. मैं बूआ को छोड़ कर नहीं रह सकता.’ पर उस की कौन सुनने वाला था. सुरेश उसे जबरन ले गया. आरती ने बताया कि जबतब रघु फोन पर बहुत रोता और झींकता था. उसे वहां बिलकुल भी अच्छा न लगता था. एक दिन अचानक सुरेश का फोन आया कि रघु गायब है. सुबह स्कूल गया तो घर नहीं लौटा. वे सब परेशान हैं और उसे तलाश कर रहे हैं. घर के लोग चिंतातुर टैलीफोन के इर्दगिर्द जमे रहे. सुबह द्वार की घंटी बजी तो देखा कि रघु खड़ा है, अस्तव्यस्त, बदहवास.

आरती ने दौड़ कर उसे लिपटा लिया.

‘अरे रघु बेटा, तू अचानक ऐसे कैसे चला आया?’

‘बूआ,’ रघु सिसकने लगा, ‘मैं घर से भाग आया हूं. अब कभी लौट कर नहीं जाऊंगा. मुझे वहां बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था. मैं वहां रोज रोता था.’

‘सो क्यों मेरे बच्चे,’ आरती ने उस का सिर सहलाते हुए पूछा.

‘मेरा वहां कोई दोस्त नहीं है. स्कूल से वापस आता हूं तो मां पढ़ने बिठा देती हैं. जरा सा खेलने भी नहीं देतीं. टीवी भी नहीं देखने देतीं. पापा के सामने मुझे प्यार करने का दिखावा करती हैं पर उन की पीठपीछे मुझे फटकारती रहती हैं.’

‘अच्छा, अभी थोड़ा सुस्ता ले. बाद में बातें होंगी.’

‘बूआ, मुझे बहुत भूख लगी है. मैं ने कल से कुछ नहीं खाया.’ उस ने उस का मनपसंद नाश्ता बना कर अपनी गोद में बिठा कर उसे खिलाते हुए कहा, ‘यह तो बता कि तू इस तरह बिना किसी को बताए क्यों भाग आया? तुझे पता है, घर में सब तेरी कितनी फिक्र कर रहे हैं?’ रघु ने अपराधी की तरह सिर झुका लिया. जब सुरेश को सूचना दी गई तो वह बहुत आगबबूला हुआ, ‘इस पाजी लड़के को यह क्या पागलपन सूझा? यहां ऐसा कौन सा कांटों पर लेटा हुआ था? नर्मदा दिनरात उस की सेवाटहल करती थी. सच तो यह है कि आप लोगों के प्यार ने इसे बिगाड़ दिया है. खैर, मैं आ रहा हूं उसे लेने.’ रघु ने सुना तो रोना शुरू कर दिया, ‘मैं हरगिज वापस मुंबई नहीं जाऊंगा. अगर आप लोगों ने मुझे जबरदस्ती भेजा तो फिर घर से भाग जाऊंगा और इस बार वापस यहां भी न आऊंगा.’

‘छि: ऐसा नहीं कहते. हम तेरे पिता से बात करेंगे. कुछ हल निकालेंगे.’

मिहिर ने आरती की ये बातें सुनीं तो बोला, ‘‘इतना तो मेरी समझ में आ गया कि तुम ने रघु को बचपन से पाला है और तुम्हारा उस से गहरा लगाव है पर देखा जाए तो वह तुम्हारी जिम्मेदारी तो नहीं है. तुम ने उस की जिंदगी का ठेका नहीं लिया है. इतने दिन तुम ने उसे संभाल दिया, सो ठीक है. अब उस के मातापिता को उस की फिक्र करने दो. तुम अपनी सोचो.’’ आरती के माथे पर पड़े बल को देख कर उस ने झुंझला कर कहा, ‘‘आरती, मैं तुम्हें समझ नहीं पा रहा हूं. हमेशा दूसरों के लिए जीती आई हो. कभी अपने लिए भी सोचो. यह जीना भी कोई जीना है? बस, मैं ने कह दिया, सो कह दिया, कल हम कचहरी जाएंगे. तुम तैयार रहना.’’

‘‘ठीक है,’’ आरती ने कहा. उस ने एक विश्वास छोड़ा. वह मिहिर को कैसे समझाए कि अपना न होते हुए भी वह भावनात्मक रूप से रघु से जुड़ी हुई है. उस बालक ने मां की ममतामयी गोद न जानी. उस ने पिता का स्नेह व संरक्षण न पाया. आरती ही उस के लिए सबकुछ थी. आरती का उदास चेहरा देख कर मिहिर द्रवित हुआ, ‘‘आरती, अगर तुम रघु से बिछड़ना नहीं चाहतीं तो एक उपाय है. हम कानूनन रघु को गोद ले सकते हैं.’’

‘‘क्या यह संभव है?’’

‘‘क्यों नहीं. अमेरिका से कई संतानहीन दंपती भारत के अनाथालयों से अनाथ बच्चों को गोद लेते हैं. हां, इस प्रक्रिया में काफी समय लगता है. बहुत कागजी कार्यवाही करनी पड़ती है, बहुत दौड़धूप करनी पड़ती है. अगर तुम चाहो और सुरेश इस के लिए राजी हो तो इस के लिए कोशिश की जा सकती है.’’

‘‘तुम इतना सब करोगे मेरे लिए?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के लिए कुछ भी कर सकता है.’’

आरती ने उसे स्नेहसिक्त नेत्रों से देखा. मिहिर उसे एकटक देख रहा था. उस की आंखों में कुछ ऐसा भाव था कि वह शरमा गई.

‘‘मैं तुम्हारे लिए चाय लाती हूं.’’

आरती ने चाय बना कर रघु को आवाज दी, ‘‘बेटा, जरा यह चाय बाहर बरामदे में बैठे अंकल को दे आओ. मैं कुछ गरम पकौड़े बना कर लाती हूं.’’

‘‘अंकल चाय,’’ रघु ने कहा.

‘‘थैंक यू. आओ बैठो. तुम रघु हो न?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘तुम्हारी बूआ ने तुम्हारे बारे में बहुतकुछ बताया है. सुना है कि तुम पढ़ने में बहुत तेज हो. हमेशा अपनी क्लास में अव्वल आते हो.’’

‘‘जी.’’

‘‘अच्छा यह तो बताओ, तुम अमेरिका में पढ़ना चाहोगे?’’

‘‘मैं अमेरिका क्यों जाना चाहूंगा जबकि यहां एक से बढ़ कर एक अच्छे स्कूल हैं.’’

‘‘हां, यह तो है पर वहां तुम अपनी बूआ के साथ रह सकोगे.’’

‘‘बूआ का साथ कितने दिन नसीब होगा? एक न एक दिन तो मुझे उन से अलग होना ही पड़ेगा. स्कूली शिक्षा के बाद पता नहीं कौन से कालेज में, किस शहर में दाखिला मिलेगा.’’ मिहिर के जाने के बाद आरती ऊहापोह में पड़ी रही. उस की जिंदगी में भारी बदलाव आने वाला था. वह अपने कमरे में सोच में डूबी हुई बैठी थी कि रघु उस के पास आया, ‘‘बूआ, मैं तुम से एक बात कहना चाह रहा था.’’

 

‘‘बोल बेटा.’’

‘‘मैं बोर्डिंग में रह कर पढ़ना चाहता हूं.’’

‘‘अरे, सो क्यों?’’

‘‘मेरे कुछ दोस्त ऊटी के स्कूल में पढ़ने जा रहे हैं. वे मुझे बता रहे थे कि चूंकि मैं ने हमेशा अपनी क्लास में टौप किया है, मुझे आसानी से वहां दाखिला मिल सकता है. बूआ, मेरा बड़ा मन है कि मैं अपने साथियों के साथ उसी स्कूल में पढ़ूं. तुम मेरी मदद करोगी तो यह संभव होगा.’’

‘‘तू सच कह रहा है?’’

‘‘हां बूआ, बिलकुल सच.’’

आरती का मन हलका हो गया. उस ने सपने में भी न सोचा था कि उस की समस्याओं का हल इतनी आसानी से निकल आएगा. उस ने मन ही मन तय कर लिया कि रघु की स्कूली पढ़ाई समाप्त हो जाने पर वह उसे अपने पास बुला लेगी. वह तुरंत मिहिर को फोन करने बैठ गई. रघु उस के पास ही मंडराता रहा. उस ने बूआ और मिहिर की बातें सुन ली थीं. वह जान गया था कि बूआ और मिहिर एकदूसरे को चाहते हैं और विवाह करना चाहते हैं और उस ने अचानक आ कर बूआ को उलझन में डाल दिया था.

उस ने सहसा बोर्डिंग स्कूल में पढ़ने का निश्चय कर लिया. और सोच लिया कि यदि वहां दाखिला न मिला तो वह मुंबई चला जाएगा. उस ने पलक मारते तय कर लिया कि वह अपनी बूआ की खुशियों के आड़े नहीं आएगा. उस ने अपनी बूआ को करीब से देखा और जाना है. उसे उन के दर्द और तड़प का एहसास है. उस ने बचपन से ही देखा है कि किस तरह उस की बूआ ने पगपग पर सब की मरजी के आगे सिर झुकाया है. वे कितना रोई और कलपी हैं.

क्या रघु भी औरों की तरह बनेगा? नहीं, वह इतना निष्ठुर नहीं बनेगा. वह अपनी बूआ के प्रति संवेदनशील है. वह हमेशा उन का ऋणी रहेगा. उस का रोमरोम बूआ का आभारी है. यदि बचपन में उन्होंने उस की सारसंभाल न की होती तो पता नहीं आज वह किस हाल में होता. उस ने मन ही मन ठान लिया कि वह भरसक कोशिश करेगा कि अपनी बूआ का आगामी जीवन सुखमय बनाए.

रोटी: क्या था अम्मा के संदूक में छिपा रहस्य

ढाई बजे तक की अफरातफरी ने पंडितजी का दिमाग खराब कर के रख दिया था. ये लाओ, वो लाओ, ये दिखाइए, वो दिखाइए, ऐसा क्यों है, कहां है, किस तरह है? इस का सुबूत…उस का साक्ष्य?

पारिवारिक सूची क्या बनी, पूरे खानदान की ही फेहरिस्त तैयार हो गई. पूरे 150 नाम दर्ज हो गए, सभी के पते, फोन नंबर, मोबाइल नंबर, उन का व्यवसाय और उन सब के व्यवसायों से जुड़े दूसरेदूसरे लोग.

पंडित खेलावन ने बेटी की सगाई पिछले माह ही की थी. उन्हें डर था कि कहीं ऐसा कुछ न हो कि उन के संबंधों पर आंच आए, सो कह उठे, ‘‘देखिए शर्मा साहब, आप को मेरे परिवार और मेरे धंधे के बाबत जो कुछ पूछना और जानना है, पूछिए किंतु मेरे समधी को इस में न घसीटिए, प्लीज. बेटी के विवाह का मामला है. कहीं ऐसा न हो कि…’’

पंडित खेलावन को बीच में टोकते हुए शर्माजी बोले, ‘‘देखिए पंडितजी, जिस तरह से आप को अपने संबंधों की परवा है उसी तरह मुझे भी अपनी नौकरी की चिंता है. यह सब तो आप को बताना ही होगा. आखिर आप का, आप के व्यापार का किसकिस से और कैसाकैसा संबंध है, यह मुझे देखना है और यही मेरे काम का पार्र्ट है.’’

तमाम जानकारियां दर्ज कर शर्माजी लंच के लिए बाहर निकल गए थे किंतु पीछे अपनी पूरी फौज छोड़ गए थे. घर के हर सदस्य पर पैनी नजर रखने के लिए आयकर विभाग का एकएक कर्मचारी मुस्तैद था.

पलंग पर निढाल हो पंडित खेलावन ने सारी स्थितियों पर गौर करना शुरू किया. आयकर वालों की ऐसी रेड पड़ी थी कि छिपनेछिपाने की तनिक भी मोहलत नहीं मिली. यह शनि की महादशा ही थी कि सुबहसुबह हुई दस्तक ने उन्हें जैसे सड़क पर नंगा ला कर खड़ा कर दिया हो.

पंडित खेलावन का दिमाग हर समय हर बात को धंधे की तराजू पर तोलता रहता था. पलड़ा अपनी तरफ झुके तभी फायदा है, इसी सिद्धांत को उन्होंने अपनाना सीखा था. और पलड़ा अपनी ओर झुकाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की नीति ही कारगर सिद्ध  होती थी, होती आई है. इसीलिए पूरे जीवन को उन्होंने धंधे की तराजू पर तोला था.

‘‘मुझे, नहीं खाना कुछ भी,’’ कह कर पंडित खेलावन ने थाली परे सरका दी.

‘‘हमारी तो तकदीर ही फूटी थी जो यह दिन देखना पड़ रहा है,’’ पत्नी ने पीड़ा पर मरहम लगाते हुए कहा, ‘‘मैं कहती थी न कि अपने दुश्मनों से होशियार रहो. कहने को भाई हैं तुम्हारे मांजाए. पर हैं नासपीटे…यह सबकुछ उन्हीं का कियाधरा है, नहीं तो…’’ कहतेकहते पंडिताइन सिसकसिसक कर रोने लगीं.

‘‘देख लूंगा…एकएक को देख लूंगा…किसी को नहीं छोड़ं ूगा. मुझे बरबाद करने पर तुले हैं…उन को भी आबाद नहीं रहने दूंगा. क्या मैं उन की रगरग को नहीं जानता हूं कि उन की औलादें क्याक्या गुल खिलाती फिरती हैं? मेरे मुंह खोलने की देर भर है, सब लपेटे में आ जाएंगे.’’

पंडितजी जोरजोर से चिल्ला रहे थे. वह जानते थे कि दीवार के उस पार जरूर भाइयों के कान लगे होंगे, भाभियों को चटखारे लेने का आज अच्छा मौका जो मिला था.

आयकर जांच अधिकारी ने लंच से लौटते ही एकएक चीज का मूल्यांकन करना शुरू किया. पत्नी के काननाक को भी उन्होंने नहीं छोड़ा.

‘‘हर चीज सामने होनी चाहिए…सोना, चांदी, हीरा, मोती, नकदी, बैंकबैलेंस, जमीनजायदाद, फैक्टरी, दुकान, घर, मकान, कोठी, बंगला, खेत खलिहान… सबकुछ नामे या बेनामे.’’

ज्योंज्यों लिस्ट बढ़ती जा रही थी त्योंत्यों पंडित खेलावन का दिल बैठता जा रहा था.

कोई जगह, कोई  कोना, कोई तहखाना नहीं छोड़ा था रेड पार्टी ने. हर कमरे की तलाशी, गद्दोंतकियों को छू- दबा कर देखा तो देखा, दीवारों के प्लास्टर को भी ठोकबजा कर देखने से नहीं चूके.

पंडितजी कुछ कहने को होते तो शर्मा साहब उन्हें बीच में ही रोक देते, ‘‘हम, अच्छी तरह जानते हैं, कहां क्या हो सकता है. टैक्स बचाने के चक्कर में आप लोगों का बस चले तो क्या कुछ नहीं कर सकते?’’

आखिरी कमरा बचा था अम्मां वाला. शर्माजी ने कहा, ‘‘इसे भी देखना होगा.’’

‘‘इस में क्या रखा है…बूढ़ी मां का कमरा है. जाओजाओ, अब उसे भी देख लो…कोई कसर बाकी नहीं रहनी चाहिए पंडितजी की इज्जत का फलूदा बनाने में…’’ झल्लाहट में पंडित खेलावन बड़बड़ा रहे थे.

समाज में इज्जत बनाने के लिए और बाजार में अपनी साख कायम रखने के लिए पंडित खेलावन ने क्याक्या नहीं किया था. थोड़ीबहुत राजनीति में भी दखल रखने का इरादा था. इसीलिए उन्होंने हाथ जोड़ कर नमस्कार करते हुए अपने एक चित्र को परचे पर छपवाया और इस खूबसूरत परचे को शहर के कोनेकोने में चस्पां करवा डाला था. गली, महल्ला, टैक्सी, जीप, बस और रेल के डब्बों में भी उन की पहचान कायम थी.

सबकुछ धो डाला है आज के मनहूस दिन ने. हो न हो, कहीं यह सामने वाली पार्टी की करतूत तो नहीं? हो भी सकता है क्योंकि अभी वह पार्टी पावर में है. उन का मानना था कि अगले चुनाव में केंद्र वाली पार्टी ही राज्य में भी आएगी, इसलिए उस से ही जुड़ना ठीक होगा. पर इस बार के अनुमान में वह गच्चा खा गए.

अम्मां 80 को पार कर रही थीं. इस आयु में तो हर कोई सठिया जाता है. बातबात पर बच्चों जैसी जिद…अब वह क्या जानें कि ये आयकर क्या होता है वह तो जिद पर अड़ी हैं कि अपने कमरे में किसी को नहीं आने देंगी.

आंख से भले ही पूरा दिखाई न देता हो पर किसी बच्चे के पैरों की आहट भी सुनाई दे जाती है तो कोहराम मचा देती हैं…रोने लगती हैं. उन्हें अकेले पड़े रहना ही सुहाता है. अब अम्मां को कौन समझाए कि ये रेड पार्टी वाले जो ठान लेते हैं कर के ही दम लेते हैं, उन्हें तो यह कमरा भी चेक कराना ही होगा.

शर्माजी समय की नजाकत को जानते थे और जांचपड़ताल के दौरान किस के साथ कैसा व्यवहार कर के जड़ तक पहुंचना है, खूब जानते थे. उन्होंने सभी को रोक कर अकेले अम्मां के कमरे में प्रवेश किया.

‘‘अम्मां, पांव लागूं. कैसी हो अम्मां जी. बहुत दिनों से सुनता था कि बड़ेबूढ़ों का आशीर्वाद जीवन में पगपग पर कामयाबी देता है, क्या ऐसा वरदान आप मुझे नहीं देंगी?’’

‘‘बेटा, सब करनी का फल है… आशीषों से क्या होता है? पर तुम हो कौन? सुबह से इस घर में कोहराम मचा हुआ है. क्यों परेशान कर रखा है मेरे बच्चों को?’’ अम्मां के शब्दों में तल्खी भी थी और आर्तनाद भी, जैसे वह सबकुछ जानतीसमझती हों.

शर्माजी ने अम्मां को जैसे समझाने का प्रयास किया, ‘‘हम लोग सरकारी आदमी हैं, अम्मां. हमारा काम है गलत तरीकों से कमाए गए रुपएपैसों की पड़ताल करना…खरी कमाई पर खरा टैक्स लेना सरकार का कायदा है. अब देखिए न अम्मांजी, मैं ठहरा सरकारी मुलाजिम. मुझे आदेश मिला है कि पंडित खेलावन पर टैक्स चोरी का मुआमला है, उस की छानबीन करो…सो आदेश तो बजाना ही होगा न…अब बताइए अम्मां, इस में मेरा क्या दोष है? जो खरा है तो खरा ही रहेगा…पंडितजी ने कोई गुनाह किया नहीं है तो उन्हें सजा कैसे मिल सकती है पर खानापूर्ति तो करनी ही होगी न…’’

‘‘सो तो है, बेटा…तुम आदमी भले लगते हो. मुझ से क्या चाहते हो? सारे घर का हिसाब तो तुम ले ही चुके हो…लो, मेरा कमरा भी देख लो. यही चाहते हो न…पूरी कर लो अपनी ड्यूटी,’’ शर्माजी की बातों से अम्मां प्रभावित हुई थीं.

पुराने कमरे में क्या लुकाधरा है लेकिन शर्माजी की पैनी नजर ने संदेह तो खड़ा कर ही दिया था.

‘‘इस संदूक में क्या है? अम्मां, जरा खोल कर दिखाओ तो,’’ शर्माजी ने कहा तो अम्मां जैसे फिर बिफर पड़ीं, ‘‘नहीं… नहीं, इसे नहीं खोलने दूंगी. तुम इसे नहीं देख सकते…’’

‘‘लेकिन ऐसा भी क्या है, अम्मां, संदूक को जरा देख तो लेने दो,’’ शर्माजी बोले, ‘‘आप ने ही तो कहा है कि मुझे मेरी ड्यूटी पूरी करने देंगी. सो समझिए कि मेरी ड्यूटी में हर बंद चीज को खोल कर देखना शामिल है.’’

अम्मां ने अब और जिद नहीं की. खटिया से उठीं, दरवाजा भीतर से बंद किया.

संदूक का नाम सुनते ही पंडिताइन के मन में खटका हुआ था कि हो न हो, बुढि़या ने सब से छिपा कर जरूर कुछ बचा रखा है. इसीलिए वह अपने संदूक के पास किसी को फटकने तक नहीं देती थीं. जरूर कुछ ऐसा है जिसे शर्माजी ताड़ गए हैं, नहीं तो…

इधर पंडितजी भी शंकालु हो उठे तो पंडिताइन से कहने लगे, ‘‘अम्मां रहती हैं मेरे यहां और मन लगा रखा है दूसरे बेटों के साथ. भले ही वे उन्हें न पूछते हों. कहीं ऐसा तो नहीं है कि बड़के भैया के लिए कुछ रख छोड़ा हो. चलो, जो भी होगा, आज सामने आ ही जाएगा.’’

बंद कमरे में पसरे अंधकार में पिछली खिड़की से जो थोड़ी रोशनी की लकीर  आ रही थी उसी रोशनी में संदूक रखा था. ताला खोल कर ज्यों अम्मां ने संदूक का ढक्कन उठाया तो शर्माजी अवाक् रह गए.

‘‘रोटियां, ये क्या अम्मां… रोटियां और संदूक में?’’

‘‘हां, बेटे, यही जीवन का सत्य है… रोटियां. इन्हीं के लिए इनसान दुनिया में जीता है, जीवन भर भागता फिरता है, रातदिन एक करता है, बुरे से बुरा काम करता है. किस के लिए ? रोटी के लिए ही तो. खानी उसे सिर्फ दो रोटी ही हैं. फिर भी न जाने क्यों…’’ कहतेकहते अम्मां का गला भर उठा था.

‘‘लेकिन मांजी, ये तो सूखी रोटियां हैं. आप ने इन्हें संदूक में सहेज कर क्यों रख छोड़ा है?’’ शर्माजी इस गुत्थी को सुलझा नहीं पा रहे थे, भले ही उन्होंने बड़ी से बड़ी गुत्थियों को सुलझा दिया हो.

‘‘सप्ताह में एक दिन ऐसा भी आता है बेटे, जब कोई भी घर में नहीं रहता. इतवार को सभी बाहर खाना खाते हैं. उस दिन घर में रोटी नहीं बनती. उसी दिन के लिए मैं इन्हें बचाए रखती हूं. दो रोटियों को पानी में भिगो देती हूं और फिर किसी न किसी तरह से उन्हें चबा कर पेट भर ही लेती हूं…लो बेटे, तुम ने तो देख ही लिया है… अब इस कटुसत्य को पूरे घर के सामने भी जाहिर हो जाने दो…न जाने मेरे बच्चे क्या सोचेंगे.’’ आंसू पोंछते हुए अम्मां ने बंद दरवाजा खोल दिया.

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