Serial Story: कब बदलेंगे हम- भाग 4

रश्मि की बात सुन कर सुनीता और अनामिका तो मंदमंद मुसकराने लगीं. पर ताईजी और बुआजी नाराज हो गईं.

रात को किसी की आंखों में नींद नहीं थीं. एक तरफ पिता को खोने का दुख और बेचैनी थी तो दूसरी तरफ तमाम कर्मकांडों से निबटने की व्यवस्था की चिंता हो रही थी. 13 दिन तक औफिस और स्कूल जाना भी वर्जित था.

सब ने बैठ का खर्चों का बजट बनाया तो कुल खर्चे लाख रुपए के ऊपर जाता देख सब के चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आईं.

सुनीता के पति ने सब को धैर्य बंधाते हुए कहा, ‘‘अब जो करना है सो करना ही है चाहे जैसे भी. मेरा एक फिक्स डिपौजिट है उसे मैं तोड़ दूंगा तो पैसों का इंतजाम हो जाएगा. उस की चिंता न करो पर यह सोचो कि अब यह घट कहां बांधेगे?’’ छोटे भाई ने हैरानी से कहा, ‘‘भैया, जरूरी है यह सब करना? आप भी जानते हैं मैं भी जानता हूं कि यह सब बेसिरपैर की बातें हैं.’’

‘‘छोटे, कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिसे यह जानते हुए भी कि ये अर्थहीन हैं हमें करना ही पड़ता है. ये कर्मकांड जैसी अनेक मान्यताएं उन में से ही एक हैं.’’

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‘‘यही तो हमारी त्रासदी है भाई कि हम सब पढ़ेलिखे लोग अच्छी तरह समझ तो चुके हैं कि ये कर्मकांड, मृत्युभोज और ब्राह्मणों का दानदक्षिणा सब कुछ छलावा है. फुजूल की बातें है पर फिर भी हम इन्हें ढोए जा रहहे हैं, सिर्फ इसलिए कि लोग हम पर उंगली न उठा सकें.’’ इस बार रामाशीषजी के दामाद ने अपने मन की बात कही.

उस के बाद सब कुछ जानतेसमझते हुए और दिल से सहमत न हुए बिना भी लाखोंकरोड़ों लोगों की तरह रामशीषजी के बेटेबहू भी बनेबनाए ढर्रे पर चल पड़े और परिस्थितिनुसार क्रियाकलापों में तोड़मरोड़े कर कर्मकांड निबटाने की तैयारी में जुट गए.

दूसरे दिन घर से 3 किलोमीटर की दूरी पर पीपल का वृक्ष तलाश कर उस में घट बांध दिया गया और रोज सुबह ठंड को झेलते हुए वहां जा कर अपने ऊपर ठंडे पानी के छींटे डाल कर यह मानते हुए कि स्नान कर लिया. घट में पानी डाल कर आने का कार्यक्रम चलता रहा. इस से उन के पिता को किसी प्रकार की सुविधा या शांति मिली स्वर्ग में, यह तो वे आज तक नहीं जान पाए. मगर ठंड लगने से सुनीता के पति को तेज बुखार जरूर आ गया.

बुआजी और ताईजी ने कहा कि चूंकि रामाशीषजी का पूरा जीवन बनारस में ही व्यतीत हुआ था, इसलिए अंतिम कार्य ‘तेरही’ को बनारस से ही संपन्न कराया जाए, जिस में ब्राह्मणों को भरपेट  भोजन करा कर उन्हें दक्षिणा में चारपाई, बिस्तर, कपड़े, चप्पलें, राशन और वह हर वस्तु जो रामाशीषजी को पसंद थी या उन के जीवनकाल में उन के लिए उपयोगी थी, दे कर संतुष्ट कर के बिदा किया जाए तो ये सारी वस्तुएं स्वर्ग में रामाशीषजी को ही मिलेंगी और उन की आत्मा को असीम शांति मिलेगी.

कोई उन पर उंगली न उठा सके और उन के ‘सुपुत्र’ होने पर शक न कर सके, इस भय से रामाशीषजी के बेटे पंडितों और बड़ों द्वारा कही बातों का निर्विरोध पालन करते चले जा रहे थे.

13वें दिन बनारस में उन के घर पर सुबह से ही रिश्तेदारों का आनाजाना शुरू हो गया. बेटे सुबह से ही पंडित के निर्देशानुसार मंदिर, नदी के घाट और घर के आंगन में विधिविधान और कर्मकांड संपन्न कराने में लगे रहे. बहुएं और बेटीदामाद हर आनेजाने वाले के आवभगत में कोई कमी न रह जाए यह खयाल करते रहे.

रामाशीषजी के बेटेबहू और बेटीदामाद चूंकि पढ़लिखे और सही समझ रखने वाले थे इसलिए उन का यह मानना था कि दान गरीब और जरूरतमंद को देना चाहिए. इसलिए उन्होंने आसपास के स्थानों से गरीब और लाचार

स्त्रीपुरुष और बच्चों को इकट्ठा कर के उन्हें सम्मानपूर्वक भरपेट भोजन करा कर एकएक कंबल दान में दिया. कड़ाके की सर्दी भरपेट गरमगरम खाना खा कर और गरम कंबल पा कर वे इतने खुश हुए कि जिन्हें शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता.

विधिविधान पूरा करतेकरते सुबह से दोपहर हो गई. 16 ब्राह्मणों को भरपेट भोजन कराने के बाद उन्हें दानदक्षिणा दे कर बिदा कर दिया गया और मुख्य ब्राह्मण को चारपाई, बिस्तर, कपड़े, चप्पलें, राशन, सब्जी, छाता, छड़ी आदि तमाम वस्तुओं के साथ सोने का तार भी दान में दिया गया. घर में प्रत्येक सदस्यों ने कुछ न कुछ नगद उन के चरणों में अर्पित कर उन के चरण स्पर्श किए और उन के प्रति अपनी अपनी कृतज्ञता व्यक्त की.

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ब्राह्मण को बिदा करते वक्त उन के चेहरे पर असंतोष का भाव देख कर बड़े बेटे ने कारण जानना चाहा तो नाखुश होते हुए उन्होंने कहा, ‘‘इस बार आप के यहां से दानदक्षिणा से संतुष्ट नहीं हुआ. पहले इस से ज्यादा मात्रा में दक्षिणा मिला करती था मुझे इस घर से.’’

बुजुर्गों की इच्छानुसार जिन ब्राह्मणों को खुश कर के अपने पिता को तारने के प्रयत्न में बच्चों ने अपना कीमती समय और लाखों रुपए, समय बिना सोचसमझे खर्च कर डाला वे इस तरह मुंह बना कर चले गए यह देख कर सब का मुंह उतर गया.

शाम को बाजार की तरफ से वापस आ कर रामाशीषजी के घर के बुजुर्ग चौकीदार को सुनीता के पति के कान में कुछ कहते देख कर सभी उत्सुकतावश उन के पास इकट्ठे हो गए तो चौकीदार ने बताया कि उस ने अपनी आंखों से उन ब्राह्मणों को दान में मिली सामग्रियों को दुकानों पर बेच कर बदले में पैसे ले कर जाते हुए देखा है.

जानतेसमझते भी हम सब मक्खियां निगलते रहेंगे और हमें अंधविश्वास की आग में झोंकझोंक कर ये पंडित उस की आग में अपनी रोटी सेंकते रहेंगे. हम पढे़लिखे हो कर भी गलत परंपराओं का त्याग कर देने का साहस करने के बजाय कर देने में हरज ही क्या है जैसी सोच के साथ अंधविश्वासों को बढ़ावा देते रहेंगे तो हमारे जैसा दया का पात्र कोई और हो नहीं सकता.

‘आखिर बदल पाने का साहस कब कर पाएंगे हम?’ मन ही मन ऐसा सोचते हुए सब चुपचाप वापसी की तैयारी में लग गए.

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Serial Story: कब बदलेंगे हम- भाग 3

माहौल बिगड़ता देख सुनीता ने रश्मि को समझाते हुए कहा, ‘‘रश्मि इस में इतना नाराज होने की बात नहीं है. जो परंपराएं सदियों से चली आ रही हैं उन्हें तोड़ना इतना आसान नहीं होता. कुछ ही दिनों की तो बात है. निभा लेंगे जितना निभा सकेंगे. तुम हमारे लिए परेशान मत हो.’’

‘‘यही तो त्रासदी है भाभी हम लोगों की. हमआप जैसे पढ़ेलिखे लोग भी इन परंपराओं से सहमत न होते हुए भी ‘कुछ ही दिन की तो बात है’ सोच कर निभाते चले जा रहे हैं. अगर हम साहस नहीं करेंगे इन्हें तोड़ने की शुरुआत आखिर कौन करेगा?’’ रश्मि बोली.

‘‘अच्छा अभी यह बहस करने का समय नहीं है. अभी चलो यहां से. भैया लोगों को आने दो फिर बैठ कर समस्याओं का निदान करते हैं कि क्या और कैसे करना है,’’ सुनीता ने बात बदलते हुए कहा.

5 बजतेबजते घर के पुरुष सदस्य अंतिम संस्कार कर के वापस आ गए. ताईजी और बुआजी की चलती तो वे उन्हें बाहर ही नहाए बिना घर में प्रवेश नहीं करने देतीं. मगर कोई गुंजाइश न देख कर चुपचाप बैठी रहीं.

शाम हो आई थी. बच्चे अपनीअपनी मां के इर्दगिर्द कुछ खाने की इच्छा जताते हुए घूम रहे थे. सुनीता और अनामिका असमंजस की स्थिति में पड़ी हुई थीं. चूल्हा जलाने की इजाजत है नहीं और छोटेबड़े सभी भूख से बेहाल हो रहे हैं और वे लाचार थीं कि करें तो क्या करें.

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महानगरीय जीवन में सदियों पुरानी परंपराओं के साथ तालमेल बैठा पाना और उसे निभा पाना किसी हाल में संभव नहीं हो पा रहा था. इस समय गांव में होतीं तो अब तक सचमुच अड़ोसपड़ोस और आसपास के रिश्तेदारों के यहां से इतना कुछ बन कर आ गया होता कि उन्हें किसी के खाने की कोई चिंता न रहती और अपने लोगों का उबला खाना वे बना लेतीं, कैसे भी.

सुनीता और अनामिका को स्वयं ही निर्णय लेना होता तो वे परिस्थितियों के अनुसार परंपराओं से हट कर कुछ न कुछ रास्ता निकाल ही लेतीं. मगर जब घर में बुजुर्ग महिलाएं उपस्थित थीं और परंपराओं को मानने का दबाव बना रही थीं तो सामंजस्य बैठाना मुश्किल हो रहा था. पुरुष सदस्यों के आने के बाद मिलजुल कर स्थान, परिस्थिति और परंपराओं के बीच तालमेल बैठाते हुए उन सब ने यही निर्णय लिया कि बड़ेबुजुर्ग जो कह रहे हैं, जहां तक संभव हो उस का पालन करने की कोशिश कर ली जाए ताकि अपने मन में किसी तरह का पश्चाताप न रह जाए.

अत: यह निर्णय लिया गया कि चूंकि विधान के अनुसार बेटेबहुओं को उबला भोजन करना चाहिए और वह खाना घर के अन्य सदस्यों को नहीं खाना चाहिए तो ऐसी दशा में बाकी सब के लिए होटल से खाना मंगा दिया जाए और सादा खाना किचन में ही बना लिया जाए, क्योंकि इस के अलावा और कोई विकल्प नहीं है.

बात गले तो नहीं उतर रही थी पर कोई अन्य विकल्प न देख कर बुआ और ताईजी ने भी बेमन से ही अपनी सहमति दे दी. दिन भर के भूखे सुनीता और अनामिका के पति और उन के बच्चे जब रात को ताईजी के बताए विधान के अनुसार जमीन पर दक्षिण दिशा की ओर मुंह

कर के खाना खाने बैठे तो उन्हें अपने सामने परोसा उबला खाना किसी व्यंजन से कम नहीं दिख रहा था. सुनीता के बेटे ने पूछा, ‘‘मां रोटी नहीं है क्या?’’

बुआजी ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘नहीं बेटा, अभी 13 दिन तक तुम लोग रोटी नहीं खा सकते हो.’’

‘‘लेकिन क्यों बुआ दादी? मैं तो चावल खाता ही नहीं हूं.’’

‘‘बेटा ‘दोष’ होता है.’’

‘‘दोष होता है? भला रोटी खाने में कैसा दोष? रोटी तो हम रोज ही खाते हैं.’’

‘‘वह तुम अभी नहीं समझोगे. ये बातें तुम्हें बड़े होने पर समझ में आएगी. अभी खा लो खाना चुपचाप.’’

‘‘बड़े हो कर भी कुछ समझ में नहीं आएगा बेटा. बस लकीर के फकीर की तरह लकीर पीटते चलोगे तुम भी.’’ बुआ से अब तक नाराज बैठी रश्मि उन्हें घूरते हुए बोली.

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सच ने पहला कौर उठाया ही था कि ताईजी की आवाज आई, ‘‘आज तुम लोग एक बार में थाली में जितना ले लोगे उतना ही खा सकते हो. दोबारा कुछ नहीं ले सकते.’’ ताईजी की बात सुनते ही सब का बढ़ा हुआ हाथ रुक गया तो भूख से परेशान अपनेअपने पति और बच्चों को देख सुनीता और अनामिका के मुंह से एकसाथ निकल पड़ा, ‘‘हद है अंधविश्वास की.’’

‘‘देखो बेटा, जब तुम्हारी मां गुजरी थीं तब तुम्हारे पापा जीवित थे. उन्हें प्रत्येक विधिविधान की जानकारी थी. इसलिए हम निश्चिंत थे और उस ने विधिपूर्वक सारे कर्मकांड पूरे किए थे तुम्हारी मां की आत्मा की शांति के लिए. पर आज हमारी जिम्मेदारी है कि हम तुम्हें उन सारे कर्मकांडों के बारे में बता दें जो तुम लोग करोगे अपने पिता को बैकुंठ धाम में शांतिपूर्वक स्थापित करने के लिए,’’ ताईजी हिदायत देती हुई बोलीं.

‘‘बताइए ताईजी क्याक्या करना होगा हमें?’’ सुनीता के पति ने ताईजी को अपने बगल में बैठने की जगह देते हुए कहा.

‘‘बेटा, विधि के अनुसार तो जो बेटा मुखाग्नि देता है उसे उसी दिन पीपल के पेड़ पर एक घट बांधना चाहिए. उस के बाद रोज सुबहशाम उसी वृक्ष के नीचे स्नान कर के घट में पानी भरना होता है. पर यहां आज यह नहीं कर पाए हो तो कल सुबहसुबह ही तुम्हें यह काम करना पड़ेगा. फिर आज के 10वें दिन बेटे और पोतों के बाल बनवाए जाएंगे और महापात्र को भोजन करा कर उन्हें दानदक्षिणा दे कर खुश करना होगा. 13 दिन ब्रह्मभोज कराना होगा और 16 पंडितों को भोजन करा कर दानदक्षिणा दे कर विदा करना होगा,’’ ताईजी बोलीं.

‘‘ये सब करने से क्या फायदा मिलेगा ताईजी? पापा को वापस ला देंगे ये पंडित लोग?’’ सुबह से खार खाई बैठी रश्मि फिर से बोल ही पड़ी.

‘‘तू तो चुप ही कर रश्मि. पढ़लिख लेने का मतलब यह नहीं होता है कि सारी पुरानी मान्यताओं का महत्त्व मानने से इनकार करने लग जाए. तेरे पापा की जरूरत की हर चीज अगर ब्राह्मण को दान में दी जाएगी तो वह स्वर्ण में तेरे पिता को ही मिलेगी. किसी चीज के लिए उन की आत्मा भटकेगी नहीं.’’

‘‘कब आएंगी आप लोग इन अंधविश्वासों से बाहर ताईजी? इतने ही सिद्ध होते हैं ब्राह्मण और इतनी ही शक्ति है उन के अंदर तो जब पापा दर्द से तड़प रहे थे तब किसी ब्राह्मण के पास उन्हें ले जाने की सलाह क्यों नहीं देती थीं आप लोग? तब तो फोन कर के यही पूछा करती थीं कि किस डाक्टर को दिखा रहे हो?’’

‘‘ताईजी, मेरी समझ में यह बात आज तक नहीं आई कि इन ब्राह्मणों के अंदर सारी शक्तियां किसी इंसान के खत्म हो जाने के बाद ही क्यों आती हैं कि यहां उन्हें दान दो और वे अपनी शक्ति से ऊपर पहुंचा देंगे मृतआत्मा के पास.’’

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Serial Story: कब बदलेंगे हम- भाग 2

ध्यान रखना है कि 13 दिन तक कुछ भी छौंकना नहीं है. दूधदही और पूरीपरांठे खाना भी पूरी तरह वर्जित है. इन 13 दिनों तक इन चीजों का सेवन करना ‘दोष’ माना जाता है. आज घर के अंदर चूल्हा नहीं जलाया जा सकता है अत: तुम लोगों को अपना भोजन बनाने के लिए घर के बाहर कहीं चूल्हा जलाना पड़ेगा और वहां जो खाना बनेगा वह केवल बेटेबहू ही खाएंगे और कोई नहीं खा सकता.’’

अभी तक बुजुर्गों की बात धैर्य से सुन रही सुनीता बोल पड़ी, ‘‘ताईजी चूल्हा घर में नहीं जलेगा तो कहां जलेगा? यह गांव नहीं, गुरुग्राम है हम बहुमंजिला इमारतों में रहते हैं. यहां घरों के आगेपीछे अहाता नहीं है, जहां हम चूल्हा जला सकें. यहां अपने फ्लैट के बाहर जूतेचप्पल रखने की भी इजाजत नहीं होती. ऐसा कुछ भी करने की कोशिश भी की तो सोसायटी वाले नोटिस थमा देंगे.’’

‘‘अरे, ऐसे कैसे नोटिस थमा देंगे? मरनाजीना किसी एक के यहां की बात थोड़े ही होती है. आज हमारे यहां है कल किसी और के यहां तो क्या सोसाइटी के डर से कर्मकांड छोड़ देंगे हम? ताईजी काफी रुष्ट होते हुए बोलीं तो सुनीता ने उन्हें समझाते हुए कहा, ‘‘ताईजी सोसाइटी के कुछ नियम होते हैं. उन्हें हमें मानना ही पड़ता है. जो होना है घर के अंदर ही कर सकते हैं बाहर नहीं और अगर आप चाहती हैं कि चूल्हा न जले तो हम नहीं जलाएंगे बाजार से फल मंगा लेते हैं वही खा लेंगे हम सब.

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‘‘हम सब क्यों? बेटी दामाद और बच्चों के खानेपीने में कोई ‘दोष’ नहीं होता है. वे सब कुछ खापी सकते हैं. उन्हें क्यों फल खिला कर रखोगी बुआजी ने अपना ज्ञान प्रकट किया.

‘‘बुआजी, एक तरफ कहा जा रहा है कि घर में चूल्हा नहीं जलाना है, दूसरी तरफ सब को फल ही खिला कर नहीं रखना है. आखिर हम करें तो क्या,’’ सुनीता का सर भन्ना गया.

‘‘भई हमारे यहां तो पड़ोसियों और रिश्तेदारों के यहां से बनबन कर इतना खाना आ जाता है कि घर वालों को कुछ सोचने की जरूरत ही नहीं रहती,’’ बुआजी को कुछ समझ में नहीं आया तो अपना सर झटकते हुए बोलीं.

‘‘बुआ यह हमारा गांव नहीं है. यहां आसपास हमारा कौन सा रिश्तेदार है जो इतने सारे लोगों का खाना बना कर दे जाएगा और जहां तक पड़ोसियों की बात है तो यहां यह सब नहीं चलता है. यहां हर औरत कामकाजी है वह अपने घर का ही खाना बना ले यही बहुत है.’’

सुनीता की बात सुन कर बुजुर्ग महिलाएं आपस में बातें बनाने लगीं. ननद रश्मि ने सुनीता को किनारे बुला कर कहा, ‘‘भाभी आप पहले जा कर नहाइए और कुछ खाइए. आप शुगर की मरीज हैं ज्यादा देर तक बिना खाए रहने से आप के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा. आगे क्या और कैसे करना है बाद में सोचते हैं.’’

सुनीता और अनामिका बारीबारी से नहा कर आ गईं. तब तक अनामिका के बगल में रहने वाली उस की सहेली केतली में चाय और कप ले कर आ गई. कप में चाय उड़ेलते हुए बोली, ‘‘पहले तुम लोग चाय पी लो नहीं तो तबियत खराब हो जाएगी.’’

कप की ओर बढ़ता सुनता का हाथ अचानक ताईजी की आवाज सुन कर रुक गया, ‘‘अरे, क्या कर रही हो तुम लोग? अभी बताया था न कि दूधदही का प्रयोग 13 दिन तक नहीं करना है तुम लोगों को. काली चाय पीनी है तुम लोगों को. दूध वाली चाय नहीं पी सकती तुम लोग. हां, बेटीदामाद को पीने में कोई दोष नहीं होता. वे पी सकते हैं.’’

एक तो महीनों की भागदौड़ से थकाहारा शरीर, उपर से पिता तुल्य ससुरजी के गुजरने का दुख और सुबह से भूखप्यास को दबाए सुनीता और अनामिका बुजुर्ग महिलाओं के बेसिरपैर के कर्मकांडों को सुनसुन कर अंदर ही अंदर कुढ़ती जा रही थीं. लेकिन ऊपर से खुद को सहज रखने की भरसक कोशिश कर रही थीं.

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भाभियों के सामने से चाय का कप हटता देख ननद रश्मि से नहीं रहा गया. अपनी ताई और बुआ के पास जा कर बोली, ‘‘ताईजी, बुआजी, क्या बेटाबहू होना कोई गुनाह है? क्या आज पापा नहीं रहे तो इस में भैया या भाभी लोगों का कोई दोष है? उन्होंने कोई गुनाह किया है? उन के खानेपीने पर क्यों इतनी पाबंदियां बता रही हैं आप लोग? आप लोगों को जरा भी एहसास नहीं है इस बात का कि पिछले 6 महीने में पापा की देखभाल में इन लोगों ने अपना कितना स्वास्थ्य गंवा दिया है? किस युग में जी रही हैं आप लोग? पर आज के समय में इन बातों को लागू करने का न ही कोई तुक दिखता है न आज की परिस्थितियां हैं उन बातों को निभाने की.’’

भतीजी की बातें बुआजी को पसंद नहीं आई. बोलीं, ‘‘सुन रश्मि, चार अक्षर पढ़ लेने से तुम लोगों का तो दिमाग ही बदल गया है. सदियों से चली आ रही परंपराओं पर ही उंगली उठाने लग गई हो तुम लोग? अरे अगर परंपराएं बनीं हैं तो उन के पीछे कोई कारण तो होगा न.’’

‘‘कौन से कारण हैं यही तो मैं जानना चाहती हूं? हर एक से पूछती हूं पर कोई भी जवाब नहीं दे पाता. बस रट्टू तोता जैसा कि ऐसा करना दोष है, ऐसा नहीं करना चाहिए ही सब की जबान पर रटा रहता है. पर क्यों नहीं करना चाहिए, इस का जवाब किसी के पास नहीं है.

‘‘बताइए बुआजी कि ये परंपराएं क्यों बनी हैं? क्यों करना चाहिए हमें यह सब? आप लोग गर अपने तर्क से मेरे प्रश्नों को संतुष्ट कर दीजिए तो मैं नहीं कहूंगी. क्यों घर की बहुओं को ही घर धुलना चाहिए? अगर कामवाली घर धुल देगी तो क्या हो जाएगा? बहुओं को बड़ेछोटे के क्रम में क्यों नहाना चाहिए? साबुनशैंपू लगा कर नहा लेने से क्या अनर्थ हो जाएगा? दूध वाली चाय पी लेने से कौन सा अनिष्ट हो जाएगा?

‘‘घर में आज चूल्हा जल जाएगा तो क्या गलत हो जाएगा? छोटेछोटे बच्चे अपनी भूख दबाए बैठे हैं. क्या हम उन का पेट भरने के लिए औरों का मुंह ताकते रहें कि कोई ला कर दे तो हमारे बच्चों का पेट भर जाए और आप लोग यह क्या नियम बता रही हैं कि बेटीदामाद कुछ भी खापी सकते हैं. उन के खानेपीने में कोई दोष नहीं है. क्या बेटीदामाद को पिता के जाने का दुख नहीं होता कि वे जो चाहे करें और बेटेबहू अपराधी की तरह 13 दिन तक सजा काटें?’’

रश्मि के तर्कों का कोई जवाब नहीं था किसी के पास. ‘‘तुम पढ़ेलिखों को हम अनपढ़गंवारों की बातें दकियानूसी लगें तो लगें पर हमें जो सही लगता है हम ने बता दिया. हम तो बस इतना जानते हैं कि मृतआत्मा की शांति और मोक्ष प्राप्ति के लिए यह सब जरूरी है. पर तुम लोगों का जो जी चाहे करो,’’ कह कर ताईजी और बुआजी रजाई ओढ़ कर सो गईं.

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Serial Story: कब बदलेंगे हम- भाग 1

दिसंबर की ठंडी सुबह के7 बज रहे थे. गलन और ठंडी हवा की परवाह किए बिना सुनीता कमरे का दरवाजा खोल बालकनी में निकल गई थी. कल के धुले सारे कपड़ों को छूछू कर देखा तो सब में सिमसिमाहट बाकी थी. एकएक कर के वह सारे कपड़ों को पलटने लगी.

मन ही मन वह सोच रही थी कि सूरज की कुछ किरणें अगर इन पर पड़ जाएंगी तो ये कपड़े सूख जाएंगे. इन्हें हटा कर आज के धुले कपड़ों को फैलाने की जगह बन जाएगी. इतने में देवरानी अनामिका हाथ में 2 कप चाय ले कर आ गई. कप पकड़ाते हुए उदास स्वर में अनामिका बोली, ‘‘दीदी पापाजी की आज की हालत देख कर डर ही लग रहा है. ऐसा लगता है कभी भी कुछ भी हो सकता है.’’

सुनीता ने उस के कंधे पर सांत्वना भरा हाथ रखते हुए कहा, ‘‘हिम्मत रखो, हम ने उन की सेवा में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी है.’’

दोनों ने मुंह में चाय का कप लगाया ही था कि पापाजी के कमरे से चीखपुकार सुन कर उधर की ओर भागीं. वहां जा कर देखा तो उन के पिता तुल्य ससुर रामाशीषजी अपनी अंतिम सांस ले चुके थे. जिस अनहोनी की आशंका से उन का पूरा परिवार 2 दिन पहले से ही उन के पास इकट्ठा हो चुका था वह घटित हो चुका था.

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रामाशीषजी अपने पीछे 2 बेटे और 2 बेटियों का भरापूरा परिवार छोड़ गए थे. रामाशीषजी पिछले 6 महीनों से लगातार बीमार चल रहे थे और इन 6 महीने के बीच में उन्हें 5 बार अस्पताल में ऐडमिट करना पड़ा. लेकिन इस बार भरती करने के बाद भी उन की हालत में जब किसी प्रकार का कोई सुधार नहीं हुआ तो डाक्टर ने उन्हें घर पर ही रख कर उन की सेवा करने की सलाह दी. तभी से किसी अनहोनी की आशंका से उन के चारों बच्चे उन के पास इकट्ठे हो गए थे.

सच ही कहा गया है कि घर में यदि कोई एक बीमार हो जाए तो उस की देखभाल में पूरा घर बीमार होने लगता है. रामाशीषजी के बारबार अस्पताल में भरती होने की वजह से उन के बेटेबहू की भी दिनचर्या काफी अस्तव्यस्त हो गई थी. पहले का जमाना सही था. संयुक्त परिवार हुआ करता था. घर का कोई सदस्य बिस्तर पर भी पड़ जाता था तो कब और कैसे उस की सेवाटहल हो जाया करती थी किसी को एहसास तक नहीं होता था. पर आज तो रोजीरोटी के जुगाड़ में परिवार विभाजित हो कर अलगअलग स्थानों पर रह कर गुजरबसर करने को मजबूर हो गया है. ऐसी स्थिति में अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है.

रामाशीषजी के भी दोनों बेटे अलगअलग प्राइवेट कंपनी में काम करते थे और दिल्ली और गुरुग्राम में फ्लैट ले कर रहते थे. मां की मृत्यु के बाद रामाशीषजी को भी बेटों ने आग्रह कर के अपने पास बुला लिया था. बनारस के अपने मकान का एक हिस्सा किराए पर उठा रामाशीषजी अपनी मरजी अनुसार कभी बड़े बेटे के यहां दिल्ली तो कभी छोटे बेटे के यहां गुरुग्राम चले जाया करते थे.

जब उन की तबियत खराब होना शुरू हुई तो उस समय वे छोटे बेटे के पास गुरुग्राम में थे. अत: वहीं के एक मशहूर अस्पताल में भरती कर उन के इलाज की प्रक्रिया शुरू कर दी गई. उन की बीमारी के 6 महीने की अवधि में उन के बेटेबहुओं की संपूर्ण दिनचर्या अस्तव्यस्त हो गई थी.

घर, अस्पताल, बच्चों की पढ़ाई और औफिस के बीच सामंजस्य बैठाना मुश्किल हो गया था. पर उन के बेटेबहू बड़े धैर्य के साथ इस परिस्थित से सामंजस्य बैठा रहे थे. बहुएं बारीबारी से सुबह घर का काम जल्दी निबटा कर अस्पताल पहुंच जाती थीं और शाम को उन के पति औफिस से आने के बाद रात में पिता के साथ अस्पताल में रुकते थे.

सुनीता चूंकि दिल्ली में रहती थी और उस के पति का औफिस भी दिल्ली में था, लिहाजा उन्हें दिल्ली से गुरुग्राम पिता के पास आने के लिए अलग मेहनत करनी पड़ती थी. यह कहने की बात नहीं है कि इस अवधि में बेटेबहू शारीरिक, मानसिक और आर्थिक तीनों ही रूप से धीरेधीरे टूटते जा रहे थे.

रामाशीषजी के न रहने की खबर सुनते ही अड़ोसपड़ोस के लोग इकट्ठा होने लगे. रिश्तेदारों को भी फोन के द्वारा इस दुखद घटना की सूचना दे दी गई. आसपास के शहरों में रहने वाले रिश्तेदार भी 2-3 घंटों के अंतराल में पहुंच गए और अंतिम संस्कार की तैयारी शुरू कर दी गई. 12 बजतेबजते घर के सदस्य रामाशीषजी के पार्थिव शरीर को ले कर अंतिम संस्कार के लिए चले गए.

उन्हें अंतिम बिदाई दे कर भारी मन से सुनीता और अनामिका घर में दाखिल हुईं तो दुख में शरीक होने अलीगढ़ से आई ताईजी और बुआजी ने मोरचा संभाला, ‘‘बहू, अब तुम लोग बैठना मत. पूरे घर की धुलाई करनी है तुम लोगों को.’’

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‘‘ठीक है ताईजी, राधा आती ही होगी. धुलवा देती हूं पूरा घर उस से,’’ अनामिका ने कहा तो ताई सास बोल पड़ीं, ‘‘अरे नहीं बहू. घर की धुलाई बहुएं ही करती हैं, कामवालियां नहीं करेंगी आज यह काम. अनामिका ने प्रश्नवाचक निगाह से जेठानी सुनीता की ओर देखा तो उस ने इशारे से ताई सास की बात मान लेने को कहा और बोली, ‘‘तू बालटी में पानी ला और मग से डालती जा. मैं वाइपर से पानी खींचती जाती हूं.’’

अनामिका का थकाहारा शरीर जवाब दे रहा था. रोआंसी हो कर सुनीता से बोली, ‘‘यह क्या है दीदी, अगर घर राधा धो देगी तो क्या बिगड़ जाएगा? रोज तो वही झाड़ती है घर. सुनीता ने उसे चुप रहने का इशारा करते हुए कहा, ‘‘चुपचाप ये लोग जो कहती जा रही हैं करती चलो वरना बात का बतंगड़ बन जाएगा बिना मतलब.’’

सुबह से ही घर के बच्चेबड़े किसी के मुंह में पानी का घूंट तक नहीं गया था. घर के बच्चों को तो अनामिका की सहेली वनिता ने अपने घर ले जा कर नाश्ता करा दिया था पर अनामिका और सुनीता ने तो पानी की बूंद तक नहीं डाली थी मुंह में. उन की मानसिक और शारीरिक दशा की परवा किए बिना उपस्थित बुजुर्ग महिलाएं उन्हें विधिविधान बताने की होड़ में लग गईं.

‘‘बहू घर धुलने के बाद तुम लोग बारीबारी से नहा लो. हां, ध्यान रखना, पहले बड़ी बहू नहाएगी उस के बाद छोटी. आज से 13 दिन तक तुम लोग साबुनशैंपू नहीं लगाना और न ही सिंदूर लगाना. ऐसा करने से ‘दोष’ होता है. 13 दिन तक बेटेबहूओं को दिन में केवल फलाहार खाना होगा और रात में दालचावल और उबली सब्जी.

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Serial Story: न उम्र की सीमा हो- भाग 4

नलिनी वहां से चल दी. उसे बेहद शांति मिली थी. उसे क्या करना है, यह निश्चय पक्का हो गया था. उसे लगा कि वह तो आत्महत्या की भावना में डूबी रहती है, जबकि उस की प्रिय सहेली ने आगे बढ़ कर जिंदा रहना सीख लिया. अपने कमरे में आ कर वह लेट गई, वह जान गई अब मुसकराना कितना आसान है. वह विकास के खयाल में डूब गई. उस ने उसे अपना शरीर, मन सब समर्पित किया था. उसे फिर मधु की दुनिया को ठेंगा दिखाती हंसी याद आ गई तो वह भी मुसकरा पड़ी.

उस ने अपना फोन उठाया और पहली बार विकास का नंबर मिला दिया. विकास ने फोन उठाया तो नलिनी के मुंह से उत्साहित स्वर में निकला ‘विकास’ और विकास ने आगे सुने बिना ही प्रसन्नता भरी आवाज में कहा, ‘‘नलिनी, मैं आ रहा हूं.’’

नलिनी को लगा वह खुद रोशनी की किरण ले जाने के बजाय काली अमावस रात का अंधेरा बटोर कर अकारण ही अपने जीवन में भरती चली गई. काश, उम्र के फर्क को नजरअंदाज कर वह हिम्मत कर पहले ही उस घुटनभरे अंधेरे को काटते हुए उस चेहरे तक पहुंच जाती जो उस का इंतजार कर रहा था. फिर मुसकराते हुए वह यह गीत गुनगुना उठी, ‘न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन…’

अगले दिन ही विकास फ्लाइट से पहुंच गया. नलिनी औफिस में अपने काम में व्यस्त थी, जब विकास उसके सामने आ कर खड़ा हो गया, नलिनी वहीं उस के गले लग गई. हमेशा, लोग क्या कहेंगे, इस बात की परवाह करने वाली नलिनी औफिस में उस के गले लग कर खड़ी है, यह देख कर विकास हंस पड़ा. दोनों सीधे नलिनी के फ्लैट पर पहुंचे. कुसुम सपरिवार उपस्थित थी. नलिनी ने विकास का परिचय अपने होने वाले पति के रूप में दिया तो कुसुम और मोहन की नाराजगी उन के चेहरे से ही प्रकट हो गई जिसे दोनों ने नजरअंदाज कर दिया.

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अगले दिन कुसुम चली गई. विकास और नलिनी के औफिस के दोस्तों ने जल्दी से जल्दी विवाह का कार्यक्रम तय करवाया, दोनों ने मिल कर खूब शौपिंग की, उन का सादा सा विवाह संपन्न हुआ. कुसुम और मोहन मेहमान की तरह आए और चले गए. नलिनी को अब किसी से कोई शिकायत नहीं थी, वह खुश थी, विकास उस के साथ था.

नलिनी चाहती थी अब वह नौकरी छोड़ कर बस सिर्फ अपनी घरगृहस्थी संभाले. विकास ने भी इस में सहमति दिखाई. नलिनी रिजाइन कर के फ्लैट बंद कर विकास के साथ दिल्ली चली गई.

विकास के मातापिता तो विवाह में नहीं आ पाए थे, लेकिन उन्हें नलिनी को देख कर उस से मिलने के बाद इस में कोई आपत्ति भी नहीं थी. वे कभीकभी दोनों से मिलने मेरठ से दिल्ली आते रहते थे. नलिनी का मधुर व्यवहार उन्हें बहुत अच्छा लगा था.

नलिनी सुंदर थी, लेकिन अपनी उम्र को ले कर उस के मन में हमेशा एक चुभन सी रहती. वह अपनी मनोदशा किसी से बांट न पाती. यहां तक कि विकास से भी नहीं. विवाह के 6 महीने बीत गए थे. दोनों अपने वैवाहिक जीवन से बहुत खुश थे.

विकास के कई दोस्त थे, वे अपनीअपनी पत्नी के साथ मिलने आते रहते थे. कभीकभी एकाध बार कोई दोस्त उन की उम्र के फर्क पर हंसता तो नलिनी का दिल बैठ जाता.

विकास के औफिस का गु्रप भी जब इकट्ठा होता, जिन में लड़कियां भी थीं, सब विकास से बहुत खुली हुई थीं, सब एकदूसरे का नाम ले कर बुलाते थे. लेकिन जब वे उसे नलिनीजी कहते तो उसे महसूस होता कि सब उसे बड़ी मान कर एक फासला रखते हैं. वह सब की बहुत आवभगत करती. उन में अपनेआप को मिलाने की बहुत कोशिश करती, लेकिन अपने चारों तरफ वह एक अनावश्यक औपचारिक गंभीर सा दायरा खिंचा महसूस करती जिसे चाह कर भी तोड़ नहीं पाती.

एक दिन विकास के औफिस में गीता सिंह नाम की एक नई

नियुक्ति हुई. उसे ट्रेनिंग देने का काम विकास को ही मिला. बेहद आधुनिक, चंचल गीता को विकास दिनभर

काम सिखाता.

एक बार विकास ने अपने सहकर्मियों को डिनर के लिए घर पर बुलाया तो गीता भी आई. गीता नलिनी से पहली बार मिल रही थी. उस ने जिस तरह नलिनी को देख कर चौंकने का अभिनय किया, नलिनी को अच्छा नहीं लगा. विकास नलिनी को गीता के बारे में बताता रहा. नलिनी सुनती रही. बीच में हांहूं करती रही. नलिनी ने देखा विकास गीता के साथ काफी खुला हुआ है. गीता की बातों पर वह जोर के ठहाके लगाता खूब गप्पें मार रहा था. नलिनी ने खुद को उपेक्षित महसूस किया. उसे लगा वह कहीं मिसफिट हो रही है. हालांकि विकास के व्यवहार में कुछ आपत्तिजनक नहीं था, लेकिन नलिनी को गीता का विकास का हाथ बारबार पकड़ कर बात करना बिलकुल पसंद नहीं आ रहा था. वह सोचने लगी विकास उसे इतनी लिफ्ट क्यों दे रहा है. औफिस से और लड़कियां भी आई थीं, लेकिन गीता जैसा उच्शृंखल स्वभाव किसी का नहीं था. वह खुद भी इतने सालों से औफिस में काम करती रही थी, औफिस के माहौल की वह आदी थी, लेकिन गीता का खुलापन असहनीय लग रहा था.

सब के जाने के बाद नलिनी ने नोट किया विकास की बातों में गीता का काफी जिक्र था. गीता अविवाहित थी. मातापिता के साथ रहती थी. अब छुट्टी वाले दिन भी गीता कभी भी आ धमकती. विकास को हंसतेबोलते देख नलिनी सोचने लगती क्या विकास को मेरे से ऊब होने लगी है. गीता की देह दिखाती आधुनिक पोशाकें देख कर नलिनी का दम घुटने लगता. विकास भी गीता से दूर रहने की कोई कोशिश करता नहीं दिखा तो नलिनी धीरेधीरे डिप्रैशन का शिकार होने लगी और इसी डिप्रैशन के चलते बीमार हो गई. रात को नलिनी और विकास सोने लेटे. विकास तो सो गया, लेकिन नलिनी को अचानक लगा जैसे कमरे के अंदर फैले हुए अंधेरे में अलगअलग किस्म की शक्लें उभर कर सामने आ रही हैं, जो उस पर हंस रही हैं और वह उस अंधेरे में डूबती चली गई. वह आंखें बंद किए जोरजोर से चीख रही थी. विकास चौंक कर उठ बैठा. नलिनी बेदम सी हो कर विकास की बांहों में झूल गई.  उस ने तुरंत फोन कर के डाक्टर को बुलाया.

डाक्टर ने चैकअप करने के बाद बताया, ‘‘ये दिमागी तौर पर बहुत तनाव में हैं, दबाव में होने की वजह से ब्लडप्रैशर भी हाई है. और हां, बधाई हो आप पिता बनने वाले हैं.’’

विकास की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. डाक्टर दवा दे कर चला गया. विकास नलिनी का हाथ पकड़ कर बैठा था. वह बीते दिनों के घटनाक्रम को ध्यानपूर्वक सोचने लगा…

उसे नलिनी की मनोदशा का अंदाजा हो गया तो उसे अपराधबोध हुआ. उसे गीता से इतना खुला व्यवहार नहीं करना चाहिए. उस के स्वयं के मन में कुछ गलत नहीं था, लेकिन नलिनी के मानसिक संताप को अनुभव कर विकास की पलकों से आंसू नलिनी के हाथ को भिगोते रहे, न जाने यह नाजुक दिलों के तारों का संगम था या कुछ और था. उस के गरमगरम आंसुओं की गरमी जैसे नलिनी के दिल की गहराई तक जा पहुंची और उस की बंद पलकों में हरकत हुई. वह गहरे अंधेरे से धीरेधीरे बाहर आ रही थी. धुंध के गहरे बादल छंटते जा रहे थे.

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विकास उस के हाथ को अपने हाथ में ले कर कहने लगा, ‘‘नलिनी, कैसी हो अब? अगर मेरी किसी भी बात से तुम्हारा दिल दुखा हो तो मुझे माफ कर दो.’’

नलिनी ने जैसे ही कुछ कहने की कोशिश की, विकास बोल उठा, ‘‘नलिनी, जल्दी से ठीक हो जाओ, तुम्हारे साथ जीवन की सब से बड़ी खुशी बांटनी है और तुम आज के बाद अपने दिमाग से उम्र की बात बिलकुल निकाल दोगी. मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं और तुम्हारे बिना नहीं रह सकता. हम सच्चे दिल व पूरी निष्ठा से जीवन को बड़ी खूबसूरती से जीएंगे. अभी तो बहुत रास्ते तय करने हैं, बहुत दूर जाना है, साथसाथ एकदूसरे का हाथ थामे. तुम बस मेरे प्यार पर विश्वास करो.’’

नलिनी चुपचाप विकास की तरफ देख रही थी. उस ने विकास का हाथ कस कर पकड़ लिया और सुकून से आंखें बंद कर लीं. फिर उस ने खिड़की की तरफ देखा जहां उस के जीवन की एक नई सुबह का सूर्य निकल रहा था जिस की चमकती किरणों ने उस के दिल के हर कोने को चमका दिया था.

Short Story: पन्नूराम का पश्चात्ताप

सांप के आकार वाली पहाड़ी सड़क ढलान में घूमतेघूमते रूपीन और सुपीन नदियों के संगम पर बने पुल को पार करते हुए एक मोड़ पर पहुंचती है. वहां सदानंद की चाय की दुकान है, जहां आतेजाते पथिक बैठ कर चाय पीते हुए दो पल का विश्राम ले लेते हैं. दुकान पर आने वाले ग्राहकों के लिए पन्नूराम दिनभर बैंच पर बैठा रहता. उस के बाएं हाथ की कलाई से हथेली और पांचों उंगलियां गायब थीं.

चाय पीते राहगीर पन्नूराम से उस के बाएं हाथ के बारे में पूछते तो वह अपने पर घटी दुर्घटना की आपबीती सुनाता.

दोनों नदियों के संगम से निकला हुआ सोता चट्टानों के बीच तंग हो कर नीचे की तरफ बहता है. उसी के बाएं किनारे पर खड़े सेमल के पेड़ की ओर इशारा करते हुए पन्नूराम बोलता :

‘‘उस सेमल के नीचे बैठ कर मैं कंटिया से दिनभर मछली पकड़ता था. तरहतरह की मछलियां, महाशीर, टैंगन, शोल, काली ट्राउट आदि सोते के पानी की विपरीत दिशा में आती थीं. दिनभर कंटिया में मछलियों का चारा लगा कर बैठा रहता और मछलियों का अच्छाखासा शिकार कर लेता था. परिवार वाले बहुत प्रसन्न थे. रूपीन व सुपीन नदियों की मछलियों का स्वाद ही कुछ अलग था.’’

एक हाथ से पकड़ी चाय की प्याली से घूंट भरते हुए पन्नूराम अपनी कहानी जारी रखता :

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‘‘तब गांव में आबादी काफी कम थी. आहिस्ताआहिस्ता सभी को रूपीन व सुपीन नदियों की मछलियों के अनोखे स्वाद के बारे में पता लग चुका था. चूंकि वर्षाकाल आते ही मछलियों के पेट अंडे से भर जाते थे और वर्षा ऋतु की समाप्ति तक मछलियां पानी के अंदर उगे घास, पत्ते व पत्थरों के बीच अंडे देती थीं, इसलिए उन दिनों गांव के लोग मछलियों के वंश की रक्षा के लिए उन्हें खाना बंद रखते थे. मैं भी मछली का शिकार बंद कर देता था.’’

गले की खराश को बाहर थूकते हुए पन्नूराम अपनी कहानी जारी रखता…

‘‘5 साल पहले मल्ला गांव के ऊपरी ढलान पर, जहां रूपीन नदी का स्रोत ढलान से बहते हुए झरने के रूप में गिरता है, वहां पनबिजली संयंत्र लगाने के लिए सरकारी योजना बनी. पहाडि़यों के ऊपर कृत्रिम जलाशय बनाने के लिए चीड़ के जंगल की कटाई शुरू हो गई तो इलाके में लकड़ी के ठेकेदार, लकडि़यों की ढुलाई के लिए ट्रक चालकों और लकड़ी काटने व चीरने में लगे मजदूरों की चहलपहल बढ़ती गई. बाहरी लोगों को भी स्थानीय लोगों से रूपीन व सुपीन नदियों की मछलियों के अनोखे स्वाद के बारे में जानकारी मिली.

‘‘अब आएदिन पकड़ी हुई मछलियों का सौदा करने के लिए लोग मेरे पास आने लगे. अपनी जरूरत से अधिक पकड़ी हुई मछलियों को मैं ने बेचना शुरू कर दिया. कुछ पैसे मिले तो घर की आमदनी बढ़ने लगी. इस तरह हर रोज मछलियों की मांग बढ़ती गई. कंटिया से पकड़ी मछलियों से मांग पूरी नहीं हो पाती थी. अच्छीखासी कमाई होने की संभावना को देखते हुए मैं अधिक मछली पकड़ने के उपाय की तलाश में था.’’

इसी बीच रामानंद ने कहानी सुनने वाले ग्राहकों के आदेश पर उन्हें और पन्नूराम को गरम चाय की एकएक प्याली और थमाई. गरम चाय की चुस्की लगाते हुए पन्नूराम ने अपनी कहानी जारी रखी…

‘‘एक दिन लकड़ी के ट्रकों में आतेजाते एक ठेकेदार ने कंटिया के बजाय जाल का इस्तेमाल करने की सलाह दी. यही नहीं उस ठेकेदार ने मछली पकड़ने का जाल भी शहर से ला दिया. जाल देते समय उस की शर्त यह थी कि मैं रोजाना उस को मुफ्त की मछली खिलाता रहूं.

‘‘जहां पर चट्टानों के बीच संकरा रास्ता था वहां मैं ने संगम से निकले सोते में खूंटों के सहारे जाल को इस प्रकार से डाला जिस से पानी से कूदती हुई मछलियां जाल में फंस जाएं. यह तरीका अपनाने के बाद पहले से दोगुनी मछलियां पकड़ में आने लगीं. परिवार की कमाई भी बढ़ गई.’’

चाय के प्याले से अंतिम घूंट लेते हुए पन्नूराम ने फिर से कहना शुरू किया :

‘‘जाल से मछली पकड़ना आसान हो गया. परिवार का कोई भी सदस्य बीचबीच में जा कर फंसी हुई मछलियों को पकड़ लाता. रोजगार बढ़ाने की इच्छा से पहाडि़यों के ऊपर डायनामाइट से पत्थरों को तोड़ कर मैं रूपीन नदी में कृत्रिम जलाशय बनाने के काम में लग गया. धीरेधीरे विद्युत परियोजना के कार्यों के लिए मल्लागांव में लोगों की भीड़ जमा होती गई और इसी के साथ रूपीन व सुपीन की स्वादिष्ठ मछलियों की मांग बढ़ती गई. मछलियों की मांग इतनी बढ़ी कि उसे जाल से पूरा करना संभव नहीं था.

‘‘मैं और अधिक मछली पकड़ने के तरीके की तलाश में था. इसी बीच जल विद्युत परियोजना के लिए बड़ेबड़े ट्रकों और संयंत्रों के आवागमन, पहाड़ी सड़क की चौड़ाई बढ़ाने और डामरीकरण में लगे पूरब से आए मजदूरों में से रामदीन के साथ मेरी दोस्ती हो गई. बातोंबातों में एक दिन मैं ने रामदीन को अपनी समस्या बताई. सब सुन कर वह बोला, ‘यार, यह तो काफी आसान कार्य है. जाल से नहीं… डायनामाइट से मछली मारो. देखना, मछली का शिकार कई गुना अधिक हो जाएगा.’

‘‘रामदीन की बात सुनते ही मेरे पूरे शरीर में सिहरन सी होने लगी. मैं डायनामाइट से पत्थर तोड़ने के काम में लगा ही था. अत: एकआध डायनामाइट चुरा कर मछली मारना मुझे खासा आसान लगा था. फिर एक दिन शाम को काम से छुट्टी के बाद मैं रामदीन के साथ चुराए हुए डायनामाइट को ले कर मछली के शिकार के लिए चल पड़ा.

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‘‘एक समतल जगह पर चट्टानों के बीच नदी का पानी फैल कर तालाब सा बन गया था. वहां किनारे पर खड़े हम मछलियों के झुंड की प्रतीक्षा कर रहे थे. तालाब का पानी इतना स्वच्छ था कि तलहटी तक सबकुछ साफ दिखाई दे रहा था. जैसे ही मछलियों का एक झुंड बहते पानी से स्रोत के विपरीत दिशा में तैरता हुआ दिखाई दिया रामदीन ने डायनामाइट में लगी हुई सुतली में आग लगाई और झुंड के नजदीक आने का इंतजार करने लगा. मुझे तो डर लग रहा था कि डायनामाइट कहीं हाथ में ही न फट जाए लेकिन रामदीन ने ठीक समय पर जलते हुए डायनामाइट को पानी में फेंका और देखते ही देखते एक विकट सी आवाज के साथ ऊपर की ओर पानी को उछालते हुए डायनामाइट फटा.

‘‘धमाका इतना तेज था कि चट्टानों के पत्थरों के बीच से कंपन का अनुभव होने लगा. तालाब में छोटी, बड़ी और मझोली सभी तरह की मछलियां, यहां तक कि पानी की तलहटी में रहने वाले केकड़े, घोंघा आदि भी पानी की सतह पर तड़पते नजर आने लगे. तालाब में तड़पती मछलियों का ढेर देख कर मैं खुशी से भर उठा. रामदीन की सहायता से तड़पती हुई मछलियों को पकड़ लिया. उस दिन मछलियों से आमदनी पहले की अपेक्षा दस गुना अधिक हो गई.’’

एक लंबी सांस लेने के बाद पन्नूराम ने कहना शुरू किया :

‘‘रामदीन भी अच्छा मछुआरा था. उस को मछलियों की काफी जानकारी थी. मछली मारने के लिए नईनई जगह की तलाश करना तथा मछलियों के आवागमन के प्रति नजर रखने का काम रामदीन ही करता था. मैं डायनामाइट ले कर रामदीन के इशारे का इंतजार करता था और इशारा मिलते ही सुलगते हुए डायनामाइट को ऐसा फेंकता कि पानी की सतह स्पर्श करते ही फट जाए. बहुत खतरनाक कार्य था, लेकिन अधिक पैसा कमाने के इरादे से खतरे को नजरअंदाज कर दिया.

‘‘उन दिनों जब मछलियां गर्भधारण से ले कर प्रजनन का कार्य करती हैं, उन का शिकार बंद नहीं किया. इस से मछलियों के छोटेछोटे बच्चे समाप्त होते गए. एक बार काफी बड़ी महाशीर मछली डायनामाइट से घायल हो कर पकड़ी गई. मैं ने जब उसे उठाया तो उस का पेट अंडों से भरा था. मुझे लगा कि मछली मुझे बताने की कोशिश कर रही थी, ‘मेरे साथसाथ हजारों बच्चों का भी तुम लोग विनाश कर रहे हो. हम तो उजड़ ही जाएंगे, तुम्हारा भविष्य भी खतरे में है.’ तब मैं मन ही मन सोच रहा था कि महाशीर के स्वादिष्ठ अंडों से भी अच्छीखासी कमाई हो जाएगी.’’

दुकान पर बैठे ग्राहकों की ओर तिरछी नजरों से देखते हुए पन्नूराम ने महसूस किया कि वे मछलियों के कत्लेआम से कातर हो रहे थे. अपने द्वारा मछलियों पर किए गए अत्याचार को सही साबित करते हुए पन्नूराम कहता, ‘‘क्या करें, हमें भी तो पेट पालना था. गांव में रोजीरोजगार का दूसरा कोई भी जरिया नहीं था जिस से हम मछलियों के ऊपर रहम करते हुए जीविका का कोई और साधन अपना लें. मछली मारने से हुई मेरी आर्थिक तरक्की को देख कर अन्य गांव वालों ने भी डायनामाइट के जरिए मछली मारना शुरू कर दिया. देखते ही देखते रूपीन व सुपीन नदियां रणक्षेत्र बन गईं. मछलियां कम होती गईं. अंत में तो ऐसा हुआ कि स्रोतों में कीड़े तक नहीं दिखाई देते थे. मछली से आमदनी कम होती गई तो मैं चिंतित हो उठा. अब घर चलाने का जरिया क्या होगा? मछलियों के झुंड ढूंढ़ने के लिए नदी के किनारेकिनारे मुझे मीलों तक जाना पड़ता था. कमाई कम होते ही रामदीन अपने गांव वापस चला गया.

‘‘सावन के महीने में एक दिन बारिश की धारा अनवरत बह रही थी. दिनभर की खोज के बाद शाम के समय काफी दूर से मछलियों का एक झुंड आता दिखाई दिया. अपनी उत्तेजना को वश में रखने के लिए मैं दाएं हाथ में जलती बीड़ी से कश मारते हुए बाएं हाथ में सुलगता डायनामाइट पकड़े मौके का इंतजार करता रहा. महीनों बाद पानी के स्रोत में तैरती मछलियों का झुंड देख कर मैं इतना खुश हुआ था कि मानो खुली आंख से कोई सपना देख रहा हूं. हिसाब लगा रहा था कि इतने बड़े झुंड से कितनी कमाई होगी. परिवार की आवश्यकताएं तो पूरी हो जाएंगी साथ ही कुछ पैसा भविष्य के लिए भी बच जाएगा. थोड़ी देर में जब देखा तो मछली का झुंड आ चुका है. मैं ने त्वरित गति से अपनी कार्यवाही की… लेकिन डायनामाइट का धमाका नहीं निकला. परेशान हो कर अपनी बंद आंखें खोल कर जब देखा तब तक डायनामाइट मेरे बाएं हाथ को धम से उड़ा कर ले जा चुका था. सपने में लीन मैं अपने दाहिने हाथ की सुलगती हुई बीड़ी को फेंक कर समझ रहा था कि मैं ने डायनामाइट फेंक दिया.’’

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अपनी पूरी कहानी सुनाने के बाद स्वाभाविक होने पर पन्नूराम दोहराता, ‘‘मछलियों की आंसू भरी कातर आखें मुझे सताती रहती हैं. मैं अपने सीने में एक असहनीय पीड़ा अनुभव करते हुए आज भी मूर्छित हो जाता हूं. अपराधबोध से अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए रोजाना मैं सहृदय पथिक को आपबीती कहानी सुना कर पश्चात्ताप करता रहता हूं…कम से कम सुनने वाला पथिक ऐसे कुकृत्य से बचा रहे.’’

सदानंद को पन्नूराम की कहानी में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उस के फायदे की बात यह थी कि सुनने वाले राहगीर कहानी सुनतेसुनते एक के बजाय कई प्याली चाय पी जाया करते थे…पन्नूराम की कहानी से सदानंद की आमदनी में बढ़ोतरी होती रही और…सदानंद ने पन्नूराम की दिनभर की चाय मुफ्त कर दी.

Serial Story: न उम्र की सीमा हो- भाग 3

फिर विकास ने एक दिन उस से कहा, ‘‘मैं यहां रह कर तुम्हारी बेरुखी सहन नहीं कर सकता. मैं ने दिल्ली शाखा में अपना ट्रांसफर करवा लिया है. तुम से बहुत प्यार करता हूं और तुम्हारा इंतजार करूंगा. जब भी इस बात पर यकीन आ जाए, एक फोन कर देना, मैं चला आऊंगा.’’

नलिनी का चेहरा आंसुओं से भीग गया पर वह कुछ कह न पाई. थोड़े दिन बाद विकास दिल्ली चला गया. जातेजाते भी उस ने नलिनी से अपने सारे वहम निकालने के लिए कहा. लेकिन नलिनी को उस की कोई बात समझ नहीं आई. उस के जाते ही नलिनी फिर खालीपन और अकेलेपन से घिर गई. उसे लगता जैसे उस का शरीर निष्प्राण हो गया है. बाहर से सबकुछ कितना शांत पर भीतर ही भीतर बहुत कुछ टूट कर बिखर गया. सोचती रहती उसे छोड़ कर क्या उस ने गलती की या वैसा करना ही सही था?

विकास ने जब उस के जन्मदिन पर उसे सुबहसुबह फोन किया तो उस की इच्छा हुई कि दौड़ कर विकास के पास पहुंच जाए, लेकिन उस ने फिर खुद पर नियंत्रण रख कर औपचारिक बात की. अब उस के जीवन का एक ढर्रा बन गया था और वह किसी भी तरह इसे तोड़ना नहीं चाहती थी. वह सोचती, उन के बीच जो फासला पसरा हुआ था उसे अभी भी नहीं पाटा जा सकता था शायद यह और लंबा हो गया था.

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विकास को गए 4 महीने हो चुके थे. नलिनी की मां की अचानक हृदयघात से मृत्यु हो गई. वह अब बिलकुल अकेली हो गई. कुसुम अपने पति मोहन और दोनों बच्चों के साथ अकसर आ जाती. अभी तक नलिनी मां के साथ अपने वन बैडरूम फ्लैट में आराम से रह रही थी, कुसुम सपरिवार आती तो घर में जैसे तूफान आ जाता. जिस शांति की नलिनी को आदत थी, वह भंग हो जाती और मोहन की भेदती नजरें उस से सहन न होतीं. जितनी तनख्वाह नलिनी की थी उस में उस का और मां का गुजारा आराम से चलता आया था. सोसायटी की मैंटेनैंस, बिजली का बिल, फोन का बिल, जरूरी खर्चों के बाद भी नलिनी आराम से अपने और मां के खर्चों की पूरी जिम्मेदारी निभाती रही थी.

अब कुसुम के परिवार के अकसर रहने पर उस का हिसाब गड़बड़ा जाता. ऊपर से वह कहती रहती, ‘‘आप के अकेलेपन का सोच कर हम यहां भागे चले आते हैं और आप न तो बच्चों की शरारत पर हंसती न मोहन से ठीक से बात करती हैं.’’

एक दिन वह औफिस से अपने लिए कुछ क्रीम वगैरह खरीद कर लौटी तो कुसुम ताने देने लगी, ‘‘भई वाह, मैं तो आप की उम्र में शालीनता से अधेड़ होना पसंद करूंगी. औरत के चेहरे पर छाए संतोष की आभा की कोई बराबरी नहीं है.’’

इन बातों से नलिनी के दिल में टीस सी उठती. ऐसा नहीं था कि उसे बहन के जीवन में भरी खुशियों से कोई जलन होती थी, उसे अब परेशानी थी तो यह कि उस का अपना जीवन अपनी उसी सोई, नीरस, बिनब्याही, ठहरी हुई स्थिति में पड़ा था, न खुशी न गम, बस रोजरोज औफिस आनेजाने का एक रूटीन. उसे विकास की बहुत याद आती. काशिद बीच पर बीता समय याद कर के कई बार रो पड़ती. काश, वह इतनी दब्बू और कायर न होती.

एक दिन वह घर का सामान खरीद रही थी कि बीते समय की एक आवाज उस के कानों में पड़ी, ‘‘नलिनी.’’

उस ने मुड़ कर देखा. सामने वह रिश्ता खड़ा था जो बचपन छूटने के साथ खत्म हो गया था. उस के बचपन की सब से प्रिय सहेली मधु पूछ रही थी, ‘‘मुझे भूल गई क्या? पहचाना नहीं?’’

नलिनी खुश हो गई, ‘‘यह तुम ही हो,

मधु? सच?’’

नलिनी को महसूस हुआ जैसे मधु की नजरों ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा. उसे क्या दिखा होगा? पिछले रूप का एक धुंधला साया, मनप्राणहीन शांत प्राणी, रंगहीन तुच्छ सी औरत जिस के करने के लिए कुछ नहीं था सिवा दुकानों में अनावश्यक सामान खरीदने का बहाना करती अकारण भटकने के.

मधु ने उसे टोका, ‘‘चलो कहीं बैठते हैं.’’

नलिनी ने देखा संतुष्टि की आभा से मधु दमक रही थी. उस की आंखों में चमक थी, बालों में कहींकहीं सफेदी झलक आई थी. हर ओर परिपक्वता थी, बढि़या साड़ी, खूबसूरत ज्वैलरी. कौफी पीते हुए मधु बोली, ‘‘अपने पिता की मृत्यु के बाद तुम ने जिस तरह घर संभाला था, मुझे याद है उस की सब तारीफ करते थे… और बताओ, क्या किया तुम ने अब तक?’’

‘‘कुछ खास नहीं, वही रूटीन, औफिस, घर, औफिस. भाई विदेश में हैं और कुसुम सपरिवार अकसर रहने आ जाती है, मां नहीं रहीं.’’

‘‘मैं तो सोचती थी अब तुम अपना जीवन जी रही होगी पर लग रहा है ऐसा नहीं है. तुम्हारे स्वार्थी घर वालों ने यह नहीं सोचा कि तुम्हें भी खुशी पाने का हक है.’’

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‘‘वे भी क्या करते… इन सब के लिए मेरी उम्र निकल गई है.’’

‘‘कैसी उम्र निकल गई है. मुझे बताओ क्या तुम खुश हो?’’

नलिनी की आंखें भर आईं, किसी ने कभी उस से नहीं पूछा था कि क्या वह खुश है. धीरेधीरे नलिनी ने मधु को अपने और विकास के बारे में भी बता दिया. उस की मानसिक स्थिति समझ कर मधु ने उस के हाथ पर अपना हाथ रखा और फिर बोली, ‘‘तुम नौकरी करती हो, अपना जीवन जीओ, डरती किस से हो? दुनिया क्या कहेगी, इस की चिंता में तुम ने काफी समय खराब कर लिया है. सब की बहुत जिम्मेदारी उठा ली है, पहला काम करो दुनिया की चिंता हमेशा के लिए दिमाग से निकाल दो. मुझे देखो, मैं अपनी मरजी से जी सकती हूं तो तुम क्यों नहीं?’’

नलिनी को हैरानी हुई कि मधु अपनी तुलना उस के साथ कैसे कर सकती है?

मधु ने ही कहा, ‘‘मेरी शादी हुई थी, लेकिन कुछ साल पहले पति का निधन हो गया, जानती हूं तुम क्या सोच रही हो, मैं तो अच्छे चमकते कपड़े और बढि़या ज्वैलरी पहन कर तैयार हो घूम रही हूं. मैं क्यों सफेद कपड़े पहने लाश की तरह घूमूं? मेरे हिसाब से स्त्री के लिए स्त्रीत्तव की इच्छा करना स्वाभाविक है और फिर ये नियम बनाए किस ने हैं. मैं इन नियमों को नहीं मानती. मुझे घर वालों या लोगों की परवाह नहीं, मैं जो हूं सो हूं और मुझे जीने का उतना ही हक है जितना बाकी लोगों को. 13 साल की मेरी बेटी है, हम में अपनी मरजी से अकेले रह कर जीने की हिम्मत है, हम चाहें तो हिम्मत आ जाती है.’’

‘‘तो तुम क्या कहती हो, मैं क्या करूं?’’

‘‘जो तुम चाहती हो, अपना जीवन तलाशो जहां तुम्हारी जरूरतें पहले आएं.’’

‘‘मधु, सच में तुम मुझे राह दिखा कर इस सब से निकालने के लिए मिली हो.’’

कितने समय से नलिनी दुनिया के अंधेरे और नीरस रंग से जूझ रही थी. मधु

हंसी तो उस की दुनियाको ठेंगा दिखाती यह हंसी नलिनी को समझा गई कि वह जीवन में क्या चाहती थी. दोनों में फोन नंबर और घर के पते का आदानप्रदान हुआ.

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Serial Story: न उम्र की सीमा हो- भाग 1

नलिनी औफिस पहुंच कर अपनी सीट पर बैठी. नजरें अपनेआप कोने की ओर उठ गईं. विकास उसे ही देख रहा था. नलिनी ने पहली बार महसूस किया कि आंखें मौन रह कर भी कितनी स्पष्ट बातें कर जाती हैं और बचपन से जिस उदासी ने उस के अंदर डेरा जमा रखा था, वह धीरेधीरे दूर होने लगा है. एक उत्साह, एक उमंग सी भरने लगी है उस के रोमरोम में. नलिनी का मन शायद वर्षों से कुछ मांग रहा था, सूखे पड़े जीवन के लिए मांग रहा था थोड़ा पानी और अचानक बिना मांगे ही जैसे सुख की मूसलाधार बारिश मिल गई हो.

नलिनी ने बैग खोला, फाइल निकाली और काम शुरू किया. फिर विकास की तरफ देखा. वह एक पुरुष की मुग्ध दृष्टि थी जो नारी के सौंदर्यभाव से दीप्त थी. नलिनी की आंखें झुक गईं. वह बस हलका सा मुसकरा दी. विकास वहीं उठ कर चला आया, बोला, ‘‘आज बड़ी देर कर दी?’’

‘‘हां, 2 बसें छोड़नी पड़ीं… बहुत भीड़ थी.’’

‘‘तुम से कितनी बार कहा है, मेरे साथ आ जाया करो. आज शाम को जल्दी न हो तो मेरे साथ बीच पर चलना पसंद करोगी?’’

नलिनी ने संभल कर उस की तरफ देखा. न जाने क्यों उस की आंखों का सामना न कर पाती थी. उस ने सिर झुका लिया. दोनों के बीच गहरी खामोशी छाई रही. नलिनी को लगा विकास की नजरें जैसे देखती नहीं थीं, छूती थीं. वे जहां से हो कर बढ़ती थीं जैसे उस के रोमरोम को सहला जाती थीं.

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नलिनी के मुंह से इतना ही निकल सका, ‘‘ठीक है, चलेंगे.’’

विकास थैंक्स कह कर अपनी सीट पर जा कर काम करने लगा.

पूरा दिन दोनों अपनीअपनी जगह घड़ी देखते रहे. शायद जीवन में पहली बार नलिनी ने ठीक 5 बजे अपना बैग समेट लिया. विकास तो जैसे तैयार ही बैठा था. विकास की गाड़ी से दोनों समुद्र के किनारे पहुंच गए.

शाम सी बीच पर झागदार लहरों में अपने पांव डुबोए शीतल नम हवा के स्पंदन को अपने रोमरोम में स्पर्श करने के स्वर्गिक आनंद में कुछ देर दोनों डूबे रहे. फिर दोनों एक किनारे पत्थरों पर बैठ गए. नलिनी समझ नहीं पाई वह इतना घबरा क्यों रही है. उस ने पुरुष दृष्टि का न जाने कितनी बार सामना किया था, मगर विकास की नजर उसे बेचैन कर रही थी. विकास की दृष्टि में प्रशंसा थी और वह प्रशंसा उस के शरीर को जितना पिघला रही थी उस का मन उतना ही घबरा रहा था.

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विकास कह रहा था, ‘‘तुम बहुत सुंदर हो, तन से भी और मन से भी. यहां मुंबई आए 1 साल हो गया है मुझे, कितनी बार सोचा तुम्हारे साथ यहां आऊं. आज जा कर आ पाया हूं तुम्हारे साथ.’’

अपने रूप की प्रशंसा सब को अच्छी लगती है. नलिनी भी सम्मोहित सी उसे देखती रही. सोच रही थी, वह उस से छोटा है, कई साल छोटा, चेहरे पर खुलापन था, मोह लेने वाली शराफत थी. विकास ने उसे अपने बारे में, अपने परिवार के बारे में बताया कि उस के मातापिता मेरठ में रहते हैं और वह उन का इकलौता बेटा है, यहां अपने कुछ दोस्तों के साथ फ्लैट शेयर कर के रहता है.

समुद्र में सूरज का गोला लालभभूका हो धीरेधीरे उतर रहा था और उस के जीवन की कहानी भी धीरेधीरे बंद किताब के पन्नों सी विकास के सामने फड़फड़ाने लगी.

शुरुआत विकास ने ही यह पूछ कर कर दी थी, ‘‘कई महीनों से देख रहा हूं तुम्हें, मुझे ऐसा लगता है तुम ने खुद को एक सख्त खोल में छिपा रखा हो जैसे तुम्हारी आंखों में रहने वाली एक उदासी, मुझे अपनी ओर खींचती है नलिनी, तुम मुझ पर विश्वास कर के अपना दिल हलका कर सकती हो.’’

‘‘मुझे अपने चारों ओर खोल बनाना पड़ा. खुद को बचाने के लिए, चोट खाने और दर्द से दूर रहने के लिए. अगर ऐसा न करती तो शायद पागल हो गई होती. मेरे पापा की मृत्यु हुई तो कुछ दिन मृत्यु और शोक के रस्मोरिवाज निभाते हुए मैं ने जैसे सारे जीवन के लिए मिले आंसू बहा दिए. अपने छोटे दोनों भाइयों को अंतिम संस्कार करते देख मैं बहुत रोई. मैं बड़ी थी. उन दोनों पर क्या जिम्मेदारी डालती. पापा की मृत्यु कार्यकाल में ही हुई थी, इसलिए मानवीय दृष्टिकोण से मुझे उन के विभाग में ही यह नौकरी मिल गई और इसी के साथ अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर आ पड़ी. मां को मेरा ही सहारा था. अगर मेरे लिए कोई रिश्ता आ जाता तो मां मुझे याद दिलातीं कि शादी करने और परिवार बसाने से पहले क्या तुम्हें अपनी जिम्मेदारियां पूरी नहीं करनी चाहिए?’’

और मेरे दोनों भाई जब पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़े हो गए तो मां को उन के विवाह की चिंता सताने लगी. मेरे लिए रिश्ते आते. मैं इंतजार करती कि शायद मां या मेरी छोटी बहन कुसुम कुछ कहे पर उन्होंने कुछ नहीं कहा. मैं भी इस दर्द को पी गई और अपने दिल की बात अपने अंदर ही रहने दी. फिर भाइयों की भी शादी हो गई और वे अब विदेश जा बसे हैं. कुसुम की भी शादी हो गई है. मां मेरे साथ रहती हैं. अब मैं 35 साल की होने वाली हूं.’’

‘‘क्या?’’ विकास चौंक पड़ा, फिर हंसा, ‘‘अरे, लगती तो नहीं हो,’’ फिर उस के हाथ पर हाथ रख कर कहने लगा, ‘‘बहुत सोच लिया तुम ने सब के बारे में. अब दुनिया की परवाह करना बंद कर दो तो जीवन आसान हो जाएगा. बस, याद रखना कि तुम्हें ही अपना ध्यान रखना है.’’

विकास की आंखों में नलिनी ने वह सबकुछ पढ़ लिया था जिस की उम्मीद एक स्त्री किसी पुरुष से कर सकती है. वे दोनों साथसाथ चुप बैठे रहे. उस का शरीर विकास के शरीर को छू रहा था, उन के खयाल एकदूसरे के पास मंडरा रहे थे, उन का रिश्ता एक नए मोड़ पर आ पहुंचा था.

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अब अचानक नलिनी के जीवन में वसंत आ गया था. धीरेधीरे विकास उस के हर खयाल, हर पल पर छा गया. औफिस में यों ही नजर भर देखना जैसे ढेरों बातें कह जाता, हाथों के मामूली स्पर्श से भी जैसे बदन में लपटें उठने लगतीं, नन्हेनन्हे शोले भड़क उठते जो हर तर्क को जला देते. वे कभी समुद्र किनारे मिलते, कभी एकांत पार्क में, लहरों के शोर से खामोश रेत में बैठे रहते एकदूसरे का हाथ थामे. वह जानती थी उस से बड़ी होने के बावजूद उस का शरीर अभी भी सुडौल और जवान है. पहले वे इसी में खुश थे, लेकिन अब ज्यादा चाहने लगे थे. जब नलिनी घर जाने के लिए उठती तो उसे हमेशा ऐसा लगता जैसे कुछ अधूरा रह गया हो. अगले दिन जब दोनों मिलते तो यह असंतोष उन्हें और बेचैन कर देता. अब नलिनी का दिल चाहता कि वे कहीं दूर चले जाएं और रातभर साथ रहें. वह विकास की बांहों में सोए पर वह कुछ कह न पाती. प्यार में सब शक्तियां होती हैं बस एक बोलने की नहीं होती.

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Serial Story: न उम्र की सीमा हो- भाग 2

विकास के दिल की भी यही हालत थी. वह भी चाहता था रातदिन नलिनी के साथ रहे. वह नलिनी के प्रेम में पूरी तरह डूब चुका था और नलिनी उस के.

फिर एक दिन विकास ने नलिनी के सामने विवाह का प्रस्ताव भी रख दिया और उसे समझाया कि तुम्हारी मम्मी बाद में भी हमारे साथ रह सकती हैं. अब तुम उन से बात कर लो.

जब नलिनी ने अपनी मां से इस विवाह की बात की तो उन्होंने तूफान खड़ा कर दिया. ऐसीऐसी बातें कीं, जिन्हें सुन कर नलिनी को शर्म आ गई. उन्होंने उसे अधेड़ कुंआरी मान लिया था. दोनों बेटे विदेश में थे, कुसुम की आर्थिक स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं थी, वे अपने भविष्य की सुखसुविधाओं के लिए नलिनी के विवाह के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी.

नलिनी मां को समझासमझा कर थक गई कि विवाह के बाद भी उन का ध्यान रखेगी, लेकिन वे टस से मस नहीं हुईं और रोरो कर इतना तमाशा किया कि नलिनी ने ही हार मान ली.

विकास ने यह सब सुना तो बहुत दुखी हुआ. वह उन के मन बदलने का इंतजार करने के लिए तैयार था. औफिस में पूरा दिन दोनों उदास रहे. कुछ समझ नहीं आ रहा था.

शाम को विकास ने नलिनी को उदास व गंभीर देख कर कहा, ‘‘चलो, वीकैंड पर काशिद बीच घूम आते हैं. कुछ मन बहल जाएगा. सोचते हैं, क्या कर सकते हैं.’’

थोड़े संकोच के बाद नलिनी तैयार हो गई. वह कब तक अपनी इच्छाओं को दबाए? क्या वह अपने लिए कभी नहीं जी पाएगी? वह विकास के साथ खुशीखुशी घूम कर आएगी.

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शनिवार को निकलना था, शुक्रवार की रात उसे नींद नहीं आई. उसे अजीबअजीब एहसास होता रहा. वह सोचती रही, क्या विवाह से पहले वाली शाम को दुलहनें ऐसा ही महसूस करती होंगी. पहली बार उस ने कुछ अपनी खुशी के लिए सोचा है, क्या मां कभी नहीं सोचेंगी कि उसे भी किसी की जरूरत है, किसी का प्यार चाहिए, ये सब सोचतेसोचते उस की आंख लग गई.

नलिनी आवेगी नहीं थी, पूरा समय लगा कर हर काम करती. विकास के साथ जाने के लिए उस ने अच्छी तरह सोचसमझ लिया और जब हर कोण और नजरिए से सोच लिया था तभी फैसला लिया. उस की मां को उस का जाना अच्छा नहीं लगेगा वह जानती थी. इन दिनों वह जो भी करती या कहती, उस की मां को उस पर संदेह होता. उसे बैग पैक करते देख उस की मां की आंखों में संदेह उभर आया. वह जानती थी मां क्या सोच रही हैं, वह अकेली जा रही है या उस के साथ कोई है.

उस ने मां को इतना ही बताया, ‘‘औफिस से फैमिली पिकनिक जा रही है, मैं भी जा रही हूं.’’

‘‘आज से पहले तो कभी पिकनिक पर नहीं गई?’’ वे बोलीं.

‘‘आज जा रही हूं, पहली बार.’’

विकास की कार से ही दोनों 3 घंटे में काशिद बीच पहुंच गए. होटल में

रूम लिया, फिर खाना खाया. थोड़ा घूम कर आए. रूम में पहुंच कर विकास ने नलिनी को अपनी बांहों में ले लिया. बोला, ‘‘तुम्हारी आंखों की हसरत, दिल के रंग मुझे दिखते हैं नलिनी.’’

नलिनी कसमसा उठी. देह का अपना संगीत, अपना राग होता है. उसे पहले कभी कुछ इतना अच्छा नहीं लगा था. एक कसक भरे तनाव ने उसे जकड़ लिया, वह विकास की बांहों में बंधी झरने के पानी की तरह बहती चली गई. जीवन में पहली बार उस ने अनुभव किया कि पुरुष का शरीर तपता हुआ लोहा है और वह हर औरत की तरह मोम सी पिगलती जा रही है. उस दिन वे पहली बार एक हुए. चांद जब होटल की खिड़की से आधी रात को झांकता तो देखता, दोनों परम तृप्त, बेसुध, एकदूसरे पर समर्पित नींद में होते.

संडे दोपहर तक दोनों एकदूसरे में खोए रहे, अब वापस मुंबई के लिए निकलना था. घर आते समय नलिनी कई बातों को ले कर मन में व्यथित थी. विकास ने कई बार पूछा, लेकिन वह टाल गई. घर आ कर चुपचाप सो गई. मां ने भी थकान समझ कर कुछ नहीं कहा.

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लेकिन अगले दिन औफिस के लिए तैयार होते हुए वह शीशे के सामने बैठ गई. 2 दिन से जो बात मन में बैठ गई थी, वह साफ दिखाई देने लगी. वह अपनी आंखों के नीचे उम्र के दायरे देख थोड़ा सहमी. बारीक लकीरें उम्र की चुगली कर रही थीं. उस ने सोचा वे कैसे लगते हैं एक युवक और एक अधेड़ महिला, समय के साथ स्थिति और बिगड़ेगी ही. उसे आजकल वे सारी निगाहें चुभने लगी थीं जो अकसर होटलों,

पार्कों में उन्हें घूरती थीं. वे बेमेल थे और विकास जो चाहे कह ले इस सच को बदला नहीं जा सकता था.

अभी काशिद बीच पर लोगों की नजरें उसे याद आ रही थीं. उसे लगा वह हर समय यही सोच कर डरती रहेगी कि वह उस से पहले बूढ़ी हो जाएगी और विकास कहीं उस से मुंह न फेर ले. फिर वह विकास के बिना कैसे जी पाएगी. वह शीशे के सामने बैठी बहुत देर तक अपनी सोच में गुम रही. फिर दिल पर पत्थर रख कर एक फैसला उस ने ले ही लिया जो उस के लिए इतना आसान नहीं था.

नलिनी ने औफिस से पहली बार 1 हफ्ते की छुट्टी ले ली. विकास ने उस के मोबाइल पर कई बार फोन किया, लेकिन उस ने नहीं उठाया. वह पता नहीं किन सोचों में घिरी रहती. उस की मां चुपचाप उसे देखती रहतीं, बोलतीं कुछ नहीं.

जब विकास रातदिन कई बार फोन करता रहा तो उस ने अपनेआप को मजबूत बनाते हुए विकास से कह ही दिया, ‘‘इतने दिन से मैं खुद को समझाने की कोशिश कर रही हूं कि इस से फर्क नहीं पड़ता कि हम अपने प्यार से उम्र के फासले को पाट लेंगे पर मुझे नहीं लगता मैं ऐसा कर पाऊंगी. जब भी लोग हमें देखते हैं, मुझे उन की नजरों में प्रश्न दिखता है. यह इस औरत के साथ क्या कर रहा है, मुझे बहुत दुख होता है. मैं बड़ी हूं और मैं इस खयाल के साथ नहीं जी सकती कि एक दिन तुम इस रिश्ते पर पछताओ या मुझ से दूर हो जाओ और मैं खाली हाथ रह जाऊं. काशिद पर घूमते हुए लोगों की नजरें तुम्हें याद हैं न?’’

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विकास नलिनी को समझाता रह गया, अपने प्यार का वास्ता देता रहा पर नलिनी के मन में उम्र के फासले को ले कर जो बात बैठ गई थी उसे वह चाह कर भी निकाल नहीं पाई. विकास कभी नलिनी के घर नहीं आया था. औफिस में ही उस के आने का इंतजार करता रहा और जब नलिनी एक दिन अकेलेपन से घबरा कर औफिस चली आई तो विकास उसे देख कर अपनी जगह जमा खड़ा रह गया. नलिनी बहुत उदास और कमजोर लग रही थी. लंचटाइम में विकास उसे जबरदस्ती कैंटीन ले गया. हर तरह से उसे समझाता रहा, लेकिन नलिनी बुत बनी बैठी रही. उम्र के फर्क को नजरअंदाज करने के लिए तैयार नहीं हुई. उस ने जैसे खुद को पत्थर बना लिया था.

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फ्लौपी – भाग 2

जब दूसरे दिन इस विषय पर कोई चर्चा न हुई तो मैं ने चैन की सांस ली. परंतु तीसरे दिन सवेरा होते ही पुन: वही रट शुरू हो गई, ‘‘मां, कृपया फ्लौपी को ले लो न. हम वादा करते हैं, उस की सारी जिम्मेदारी हमारी होगी. आप को कुछ भी नहीं करना होगा,’’ दोनों भाई एकसाथ बोल पड़े. इस तरह मेरे कड़े विरोध के बावजूद उस रोज 1 घंटे के अंदर ही नन्हा फ्लौपी हमारे परिवार का सदस्य हो गया. शाम को जब यह दफ्तर से घर आए तो फ्लौपी को देख कर बोले, ‘‘तो इन दोनों ने अपनी बात मनवा कर ही दम लिया. बड़ा मुश्किल काम है इसे पालना.’’

इस बार मेरे साहित्यप्रेमी पति को पिल्ले का नाम सोचने के सुख से हमें वंचित ही रखा, क्योंकि गिरतालुढ़कता फ्लौपी अपना नामकरण तो पहले परिवार से ही करवा कर आया था. दूसरे दिन लाख कोशिशों के बावजूद राजधानी एक्सप्रेस से जब फ्लौपी की बुकिंग न हो सकी तो मैं ने पुन: खैर मनाई. सोचा, चलो सिर से बला टली. पर बबल की आंखों से बहती आंसुओं की अविरल धारा ने मेरे पति के कोमल हृदय को छू लिया और बाध्य हो कर उन्होंने वादा किया कि किसी भी हालत में वे फ्लौपी को कलकत्ता जरूर पहुंचा देंगे.

लगभग 20 रोज पश्चात जब यह दिल्ली दौरे पर गए तो फ्लौपी को लिवा लेने के लिए बच्चों ने फिर जिद की. फिर एक रात सचमुच मैं ने फ्लौपी को सुदर्शन के साथ मुख्यद्वार पर खड़ा पाया. दोनों बच्चों के मुख पर खुशी का वेग उमड़ आया, ‘‘अरे, तू तो कितना मोटू हो गया है,’’ दोनों उसे बारीबारी सहलाने लगे और बदले में फ्लौपी उन का मुख चाटचाट कर दुम हिलाता रहा.

सवेरा होते ही सारे मिंटो पार्क में हर्षोल्लास की लहर दौड़ गई. बारीबारी सब बच्चे उसे देखने आए, मानो घर में कोई नववधू विराजी हो. पड़ोस की लाहसा ऐप्सो टापिसी तो अपनी मालकिन को हमारे घर ऐसे खींच ले आई मानो फ्लौपी उस का भावी दूल्हा हो और सब बच्चों में धाक अलग से जमी कि बबल का कुत्ता हवाई जहाज से आया है. कलकत्ता में मिंटो पार्क के मैदान और बगीचे की कोई सानी नहीं. हरी मखमली घास पर जब हमारा फ्लौपी चिडि़यों के पीछे भागता तो बच्चे भी उस के साथ भागते. अच्छाखासा बच्चों का जमघट कहकहों और किलकारियों से गूंजता रहता.

एक रोज हमें कहीं बाहर जाना पड़ा तो हम फ्लौपी को एक कमरे में बंद कर के खुला छोड़ गए. सोचा, आखिर कुत्ते को घर में रह कर मकान की रखवाली करनी चाहिए. लौट कर आसपड़ोस से पता चला कि पीछे से भौंकभौंक कर उस ने सारा मिंटो पार्क सिर पर उठा लिया था. अपने प्रति अन्याय का ढोल पीटपीट कर सब को खूब परेशान किया. अब एक ही चारा था कि या तो कोई घर में सदा उस के पास रहे या फिर वह कार में हमारे साथ चले. बहुत सोचविचार करने पर दूसरा उपाय ही सब को ठीक लगा. एक रविवार हम टालीगंज क्लब गए तो उसे भी अपने साथ ले गए. मैं ने तरणताल के साथ रखी एक बेंच से उसे बांध दिया और स्वयं तैरने चली गई. तैरते हुए हंसतेखेलते बच्चों व अन्य लोगों को देख कर फ्लौपी ऐसा अभिभूत हुआ कि वहां पर आतीजाती सभी सुंदरियां उसी की हो गईं. जो भी लड़की वहां से गुजरती हम से हैलो पीछे करती, पहले फ्लौपी का मुख चूमती. क्लब का बैरा उस के लिए मीट की हड्डी ले आया. अब हम जहां भी जाते, उसे साथ ले जाते.

फिर बारी आई डाक्टर और दवाइयों के खर्चों की. परंतु जब विटामिन की ताकत उच्छृंखलता में परिवर्तित होने लगी तो मैं सकते में आ गई. अब उसे बांधा जाने लगा. परंतु जैसे ही उस नटखट पिल्ले को मौका मिलता, वह चीजों को मटियामेट करने से न चूकता. कभी जुराब तो कभी बनियान तो कभी परदा यानी जो भी उस के हाथ लगता, हम से नजर चुरा कर उस का कचूमर निकाल डालता. एक रोज एक कीमती ब्लाउज इस्तरी करने लगी. उसे खोल कर मेज पर बिछाया तो उस की हालत देख कर दंग रह गई, ‘‘ओ मंगला, यह देख इस की हालत, क्या इसे किसी काकरोच ने काट डाला?’’ मैं ने हैरानगी जाहिर की.

मंगला बेचारी सारा काम छोड़ कर भागी आई, ‘‘मेमसाहब, इसे तो फ्लौपी ने काटा है.’’ ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? देखो, गले के पीछे से और बाजुओं पर से ही तो काटा गया है.’’

‘‘हां, जहांजहां पसीने के दाग थे, वह हिस्सा चबा गया.’’ ‘‘इस मुसीबत ने तो जीना मुश्किल कर दिया है,’’ मैं ने फ्लौपी को जंजीर समेत घसीट कर अपना ब्लाउज दिखाया.

मेरी कठोर आवाज सुन कर वह सहम गया और उस ने अपना मुख दूसरी तरफ फेर लिया. मेरी गुस्से भरी आवाज सुन कर बबल भी अपने कमरे से भाग आया और गुस्से से बोला, ‘‘हमें जीने नहीं देगा. अब तू क्या चाहता है?’’ उस ने उस रात उसे पलंग के पाए से कस कर बांध दिया, ‘‘बच्चू, तेरी यही सजा है. अपनी हरकतों से बाज आ जा वरना मार डालूंगा,’’ बबल ने उंगली दिखा कर उसे कड़ा आदेश दिया. फ्लौपी दुम दबा कर पलंग के नीचे दुबक गया.

‘‘मां, आप मेरी बात मानो. इस बेवकूफ को मीट की हड्डी ला दो, सारा दिन बैठा चबाता रहेगा. याद है, माशा हड्डी से कितना खुश रहता था,’’ रात को मेरे बड़े बेटे ने खाने की मेज पर हिदायत दी. ‘‘पर माशा ने हमारी एक भी चीज खराब नहीं की थी. बड़ा ही समझदार कुत्ता था.’’

‘‘हां मां, पर वह बंगले के बाहर के बरामदे में बंधा रहता था और रात को अपना चौकीदार उस की देखभाल करता था. आप उस को घर के अंदर कहां आने देती थीं.’’ ‘‘बेटे, यही तरीका है कुत्ता पालने का और यहां इस 8वें तल्ले पर हम इस बेजबान के साथ सरासर अन्याय कर रहे हैं,’’ मैं ने जवाब दिया.

‘‘मेमसाहब. कितनी बार हम इस के साथ नीचे जाएंगे,’’ मंगला ने गुस्से में मेरी बात का समर्थन किया.

अगले दिन खरीदारी करने जब मैं बाजार गई तो 4-5 मोटीमोटी मीट की हड्डियां खरीद लाई. रोज उसे एक पकड़ा देती. हड्डी देख कर वह नाच उठता. दिन के समय वह कुरसी के पाए से बंधा रहता और रात को पलंग के पाए से. हड्डी उस के पास धरी रहती. जब उस का जी करता, चबा लेता. 5-6 रोज तक फिर उस ने कोई चीज न फाड़ी. एक सुबह सो कर उठी तो यह सोच कर बहुत प्रसन्न थी कि फ्लौपी की आदतों में सुधार हो रहा है. मैं ने उसे प्यार से सहलाया और फिर रसोई में नाश्ता बनाने चली गई. इस बीच बच्चे अपना कमरा बंद कर के पढ़ने का नाटक रचते रहे और फ्लौपी को बड़ी मेज की कुरसी के पाए से बांध गए. जब खापी कर नाश्ता खत्म हो गया तो मैं ने आमलेट का एक टुकड़ा दे कर फ्लौपी को पुचकारा, ‘‘अब तो मेरा फ्लौपी बहुत सयाना हो गया है.’’

आगे पढ़ें- रोजरोज घर की शांति भंग होने लगी. शेष…

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