प्यार की झंकार : लव मैरिज के बावजूद भी मृगया और राज के बीच क्यों बढ़ने लगी दूरियां ?

Writer- Savi Sharma

‘‘मृगया कहां हो? कुछ चैक साइन करने हैं,’’ राज ने फोन कर मृगया से कहा. वह आज औफिस नहीं आई थी कुछ काम था.

‘‘थोड़ी देर में आ जाऊंगी,’’ मृगया बोली.

अब अकसर राज मृगया से चैक साइन करवाने में ?ां?ालाने लगा. उस ने मृगया से कहा कि चैक साइन करने की पावर मु?ो भी दो. मगर वह इस विषय पर खामोश हो जाती. उस के लिए यह निर्णय आसान नहीं था वह अभी भी राज पर इतना यकीन नहीं कर पाई थी कि उसे पावर दे या बिजनैस में हिस्सेदार बनाए.

अब राज मृगया से छोटीछोटी बातों पर ?ागड़ा करता. राज के स्वभाव में चिड़चिड़ापन आने लगा.

‘‘मृगया कहां हो?’’ राज बाहर से आ कर रात 10 बजे घर में घुसते हुए चिल्लाया.

मृगया जो कृश को सुलाने की कोशिश कर रही थी कमरे से निकल बाहर आई, ‘‘क्यों चिल्ला रहे हो?’’

‘‘राज, मैं ने तुम्हें कितनी बार फोन मिलाया तुम ने नहीं उठाया. आज दोस्त भी हंस रहे थे कि मेरी औकात कुछ नहीं है. बिल ज्यादा हो गया तो मैनेजर ने भी बिन तुम से बात किए पैसे देने से मना कर दिया,’’ अपमान और ग्लानि से राज का चेहरा तमतमा रहा था, ‘‘मेरी हैसियत ही क्या है. तुम मालकिन और मैं क्या?’’

मृगया पलभर को सकते में आ गई कि कहीं उसे राज को सम?ाने में कोई गलती तो नहीं हुई. उसे याद आने लगा राज का भोला चेहरा, भोली सी बच्चे जैसी मुस्कान और उस का मृगया के लिए सोचना. वह अतीत के बादलों पर पिघलने लगी…

राज ने देखा आज मृगया औफिस पहले आ गई. पूछा, ‘‘अरे आज आप इतनी जल्दी? पहले रोज देर हो जाती थी?’’ राज ने मुसकरा कर कहा.

‘‘मृगया ने एक नजर राज को देखा और फिर अपने कैबिन की ओर बढ़ गई. उस के पास समय ही नहीं होता है कि फालतू किसी की बात पर ध्यान दे.

पहले घर देखो भले ही कितने काम वाले हों फिर भी देखना तो पड़ता ही है. एक छोटा बेटा, बिस्तर पर पड़ी सास और इतना बड़ा घर. गार्डन भी खूब बड़ा और खूबसूरत, पति मृदुल को कितना शौक था फूलों का. दिन चांदी के रातें सोने की थीं.

रात के 11 बजे अचानक फोन आया. अभी 2 घंटे पहले मृदुल बिजनैस के सिलसिले में अमेरिका की फ्लाइट में बैठे थे टेक औफ के पहले बात हुई थी निश्चिंत हो वह सो गई थी. एक साल का कृश उस के पास सो रहा था.

‘‘हैलो आप को खेद के साथ सूचित कर रहे हैं जो फ्लाइट अमेरिका के लिए उड़ी थी. वह तकनीकी खराबी के कारण इमरजैंसी लैंडिंग में क्षतिग्रस्त हो गई है यात्रियों को काफी चोटें आई हैं, पूरी डीटेल बाद में दी जाएगी.’’

सपनों को वक्त का बाज इस तरह भी नोचता है यह कल्पना मृगया की सोच से परे थी.

जिंदगी ने आसमान से अचानक जमीन पर ला पटका. मृदुल उस के जीवन में सुख के हस्ताक्षर कर वाष्प बन न जाने कहां अंतरिक्ष में छिप गया. मृदुल तो चले गए रह गया बड़ा बिजनैस, मां और छोटा बेटा. मृगया की सोचने की शक्ति ही खत्म हो गई.

मां ने तो बेटे के गम में बिस्तर ही पकड़ किया. मृगया जो खिलाती चुपचाप खातीं. चुपचाप शून्य में निहारती रहतीं. वक्त ने दूसरी बार यह घाव दिया था. मृदुल के पिता भी जब मृदुल 8वीं में था तभी छोड़ गए थे. अब दोबारा यह घाव उन्हें पत्थर बना गया.

मृगया ने वक्त के साथ संभलना शुरू किया. शायद जिंदगी के साथ चलतीफिरती मशीन बन गई थी.

राज को मृगया की पूरी स्थिति पता थी. यह भी जानता था कि इस के पति का बहुत बड़ा बिजनैस था.

अभी कुछ दिनों पहले ही मृगया ने औफिस शुरू किया था पर अब वह नौकरी छोड़ने का निर्णय कर रही थी.

राज ने नौक कर पूछा, ‘‘क्या मैं आ सकता हूं?’’

मृगया ने सपाट स्वर में जवाब दिया, ‘‘आइए,’’ फिर सीट की तरफ इशारा किया, बैठिए.’’

‘‘राज,’’ अगर आप नाराज न हों तो आप से एक सवाल पूछना चाहता हूं?’’

‘‘पूछिए.’’

‘‘आप नौकरी छोड़ रही हैं?’’

‘‘हां, अब पति का काम संभालना है, पहले यह नौकरी अपने शौक के लिए करती थी, अब समय नहीं है.’’

औपचारिक बातें कर राज मृगया के सामने प्रस्ताव रख गया कि यदि उसे बिजनैस में किसी सहायता की आवश्यकता हो तो वह ख़ुशी से करेगा.

आज 8 महीने हो गए. मृगया पति के बिजनैस को संभाल रही है. पति के रहते कभी उसने बिजनैस स्किल सम?ाने की कोशिश ही नहीं की या उसे यह एक आफत ही लगता था. हां कंपनी में जौब करना अलग बात है पर पूरा बिजनैस संभालना अलग बात है. दिनोंदिन उस की उल?ान बढ़ती जा रही थी.

‘‘हैलो राज क्या तुम मेरे औफिस आ

सकते हो?’’

‘‘हां, बताइए कब आना है?’’

‘‘कल 1 बजे मेरे औफिस आ कर मिलो.’’

‘‘ओके.’’

अगले दिन राज मृगया के औफिस आया. औपचारिक बातों के बाद मृगया ने उसे अपना औफिस जौइन करने के लिए कहा.

राज ने हामी भर दी. उस की भोली सूरत पर छाई चिंता की लकीरें उसे अपनी ओर खींचती थीं. फिर मृगया का औफर भी अच्छा था.

अब कभीकभी मृगया के घर भी राज को जाना पड़ता. कुछ काम के बारे में जल्दी निर्णय लेना होता तो घर चला जाता.

घर जा कर कभी मां का हाल लेता कभी आया के साथ खेल रहे बच्चे से बात करता.

अब बिना फोन किए भी राज मृगया के घर चला जाता. अभी तक उस की शादी भी नहीं हुई थी. मातापिता गांव में रहते थे.

एक रोज काम के बारे में बात करते रात के 10 बज गए.

‘‘अरे, आज तो बहुत देर हो गई है. अब खाना खा कर जाना,’’ मृगया बोली.

राज भी मान गया.

औपचारिक से कब अनौपचारिक हो गए राज और मृगया पता ही नहीं चला.

एक रात सोते में राज ने सपना देखा कि उस की और मृगया की शादी हो रही है. अचानक हड़बड़ाहट में उठ बैठा. पूरा पसीने में भीग था. न जाने कितने सवालों ने आ घेरा. खुद भी तो यही चाह रहा था फिर यह बेचैनी क्यों? पूरी रात आंखों में निकल गई. एक पल न सो सका.

एक दिन इतवार को राज ने मृगया को फोन किया, ‘‘मृगया, मैं बहुत दिनों से तुम से कुछ कहना चाह रहा हूं.’’

‘‘कहो.’’

‘‘अगर हम बंधन में बंध जाएं तो? देखो कृश भी मु?ा से घुलमिल गया है और मैं भी तुम को…’’

‘‘मैं भी क्या?’’ मृगया ने ठंडे स्वर में पूछा.

‘‘मैं भी तुम से प्यार करता हूं,’’ राज हकलाते हए कह गया.

‘‘तुम जानते हो मैं विधवा हूं और एक बच्चा है. अभी तुम भावावेश में कह रहे हो… फिलहाल अभी मैं ने कुछ सोचा नहीं है.’’

‘‘मृगया कहां हो? सब काम निबट गया हो तो जरा आना,’’ मां ने मृगया को आवाज लगाई.

मृगया आई तो मां ने स्नेह से पास बैठाया और सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए  कहा, ‘‘मृगया… बेटा राज अच्छा इंसान है. देख ले, सोच ले जल्दी नहीं है. मैं जानती हूं तू मृदुल को बहुत प्यार करती है. पर मैं कब तक जिंदा रहूंगी. कृश और तुम्हारा पूरा जीवन पड़ा है. तेरा सारा बिजनैस संभालने में भी मदद कर रहा है. भला इंसान है.’’

‘‘ठीक है मां सोचती हूं पर कहीं धोखा दिया तो? अगर मन में पैसों का लालच हुआ तो? अभी कुंआरा है फिर एक विधवा से शादी?’’

‘‘बेटा, तुम शुरू में बिजनैस में सां?ा मत करना. कुछ समय देखना फिर जो ठीक लगे करना.’’

आखिर कुछ दिन बाद मृगया ने राज से शादी के लिए हां कह दी. राज और मृगया विवाह बंधन में बंध गए. मृगया ने तमाम उल?ानें मन में समेटे राज के साथ नए वैवाहिक जीवन में कदम रखा.

दोनों साथ मिल कर औफिस जाते. काम को और बेहतर तरीके से करने लगे. अब मृगया राज पर कुछकुछ विश्वास करने लगी थी. शादी को साल होने को आया. अगले महीने ही तो ऐनिवर्सरी है.

मगर आज राज का यह रूप अचानक उस की सोच को विराम लगा. मृगया जैसे अतीत से वर्तमान में लौट आई. एक अनिश्चितता ने उसे परेशान कर दिया. वह सीधे अपनी सासूमां के पास जा कर गमसुम बैठ गई.

मां ने देखा कि मृगया परेशान है. बोलीं, ‘‘यहां आओ बेटा, कोई दुविधा है?’’ कहते हुए उन्होंने उसे पास बैठा लिया.

मृगया फूटफूट कर रो पड़ी ‘‘क्या हुआ, ऐसे क्यों रो रही हो बेटा?’’

‘‘मां जिस का डर था वही हुआ, राज कह रहे हैं उन्हें शादी कर के क्या मिला. आज चिल्ला रहे थे कि 1-1 पैसे के लिए हाथ फैलाना पड़ता है. मां मैं ने गलती की राज से शादी कर के.’’

‘‘नहीं मृगया ऐसी बात नहीं. सोच राज अच्छा नौजवान व पढ़ालिखा लड़का है. उसे लड़कियों की कमी नहीं थी. वह तेरे पास आया. तु?ो अपनाया. कृश को भी पिता का प्यार दिया, अपना नाम दिया. लेकिन सोच उस के पास सबकुछ दे कर अधिकार क्या है? वह ठीक कह रहा है अगर अब भी उसे हर बार पैसे के लिए मैनेजर को फोन करना पड़े तो उस का अपमान ही होगा और तेरा भी. मृगया उसे अब पूरी तरह अपना ले उसे उस के अधिकार दे कर.’’

मृगया सोचने लगी मां ठीक कह रही हैं मृदुल के बाद उस का जीवन कितना

नीरस हो गया था. जीवन मशीन की तरह चल रहा था. उस नीरस जीवन में राज ने ही रंग भरे हैं. कृश को भी पिता का प्यार मिला. राज ने उसे अपना जीवन दे दिया और वह खुद अब तक भ्रम में ही खड़ी है. कहीं ऐसा न हो वह प्यार की ?ांकार अब न सुन पाए तो पूरा जीवन बिन प्यार खाली ही गुजरेगा? मृदुल तो उस का अतीत था. उस का आज सिर्फ और सिर्फ राज है. अब पूरा हक दे कर उसे अपनाएगी. उस ने मुसकरा कर दूर से आते राज को देखा और समर्पण, प्यार और विश्वास से उस की आंखों में सतरंगी धनुष खिलने लगे.

काश… यह मेरी बहू बन जाए

राइटर-  डा. अनिता राठौर मंजरी

मैं 21वीं मंजिल से लिफ्ट में चढ़ी और ग्राउंड फ्लोर का बटन दबा दिया. मैं ईवनिंग वाक पर लगभग इसी समय निकलती हूं. 20वीं मंजिल पर लिफ्ट रुकी एक सुंदर सी लंबी, गोरी और आकर्षक नैननक्श वाली प्यारी सी लड़की चढ़ी. उसे देख कर मन का पक्षी चहक उठा कि काश यह मेरी बहू बन जाए. पिछले 1 वर्ष से मैं पूरे जोरशोर से अपने आकर्षक एवं स्मार्ट इंजीनियर बेटे के लिए एक प्यारी सी बहू की तलाश में हूं. कुछ सोच कर उस से बोली, ‘‘बेटा, आप इसी टावर में रहते हो?’’

‘‘जी,’’ उस ने संक्षिप्त जवाब दिया और मोबाइल पर नजर गड़ा दी.

मुझे बहुत गुस्सा आया कि अजीब है बस जी कह दिया और मेरी बात को आगे बढ़ाने से पहले ही विराम दे दिया. ग्राउंड फ्लोर पर आते ही वह तेज कदमों से चल पड़ी. शायद वह भी वाक पर निकली थी. कानों में इयर फोन लगाए बातों में मशगूल हो गई. मैं ने भी वाक शुरू कर दी. वह आगेआगे और मैं पीछेपीछे. मु?ो एक पेड़ के फूल बहुत अच्छे लगते थे और रोज 5 मिनट वहां बैठ कर खुशबू का आनंद लेती थी. आश्चर्य वह भी उसी पेड़ के पास रुकी. फोन सुनते हुए खुशबू का मजा लिया. मेरा ध्यान पेड़ और उस के फूलों में कम लड़की की तरफ ज्यादा था. मैं चल पड़ी लेकिन वह देर तक फोन करती खड़ी रही. अब वह मेरे पीछे और मैं उस के आगे. मैं जानबू?ा कर पीछे नहीं देखा कि कहीं वह यह न सम?ो मैं उसे देख रही हूं.

मेरा मन हुआ मैं भी मोबाइल चलाऊं हालांकि मु?ो पता था कि मेरा नैट नहीं चलेगा क्योंकि घर में वाईफाई से कनैक्ट है.  बेटा कहता है मम्मी रिचार्ज करवा लो लेकिन मैं ही मना कर देती हूं. मैं घर में ही तो रहती हूं फिर रिचार्ज करवाने से क्या फायदा?

तभी ओपन जिम आ गया. मैं साइकिल चलाने लगी. वह भी व्यस्त हो गई. जब वह बैंच पर बैठी तो मैं भी उस की बगल में बैठ गई. मु?ो उस से बात करने की तरकीब सू?ा, ‘‘बेटा, देखना मेरा नैट नहीं चल रहा है.’’

वह कानों से इयर फोन निकाल कर बोली, ‘‘आंटी, आप ने कुछ कहा?’’

उस की शहद जैसी मीठी आवाज सुन कर मन में गुदगुदी हुई काश यह मेरी बहू बन जाए.

‘‘बेटा, देखना मेरा नैट क्यों नहीं चल

रहा है?’’

उस ने तुरंत मेरा मोबाइल देखा और बोली, ‘‘आंटी, लगता है आप का प्लान खत्म हो गया है. रिचार्ज करवाना होगा.’’

मु?ो मौका मिल गया हालांकि मैं रिचार्ज करा सकती थी फिर भी अनजान बन कर बोली, ‘‘प्लीज बेटा, आप मेरा रिचार्ज करवा दो. मेरा बेटा बाहर गया हुआ है. उस का फोन भी नहीं लग रहा. अपना नंबर दे देना. बेटे के आते ही मैं पेटीएम करवा दूंगी. मैं तुम्हारे ही टावर के 21वें फ्लोर पर रहती हूं.’’

‘‘ओके, आंटी कोई बात नहीं,’’ कहते हुए उस ने मेरा फोन रिचार्ज करवा दिया और मेरा नैट तुरंत चालू हो गया.

उस का नंबर मैं ने ले लिया. उस का नंबर पा कर मैं खुश हो गई. फिर एक बार लगा काश यह मेरी बहू बन जाए. अपनी वाक अधूरी छोड ़कर अपने टावर में आ कर जल्द ही लिफ्ट से ऊपर पहुंच गई और फ्लैट का ताला खोला. जल्दी से उस प्यारी सी बच्ची का नंबर सेव करने लगी. अरे, उस का नाम तो पूछा ही नहीं तो किस नाम से सेव करूं? फिर मन में मुसकान तैर गई और ‘प्यारी बहू’ के नाम से उस का नंबर सेव कर लिया. डर लगा अगर बेटे ने देख लिया तो चिल्लाएगा कि ये सब क्या है मम्मी? किस का नंबर इस नाम से सेव कर लिया है? फिर सोचा अपने फोन में कुछ भी करने के लिए उसे फोन ही  नहीं दूंगी.

व्हाट्सऐप पर जल्दी सर्च किया, ‘‘हैलो बेटा, मैं आर टावर के 21वें फ्लोर वाली…’’ एक  मुसकराहट वाली इमोजी डाल दी जानबू?ा कर आंटी नहीं लिखा. फिर जल्दी से उसे पेटीएम किया. उस का नाम परी था. सच में वह परी जैसी ही तो है. फिर मनमयूर नृत्य करने लगा काश यह मेरी बहू बन जाए…

जल्द ही कागजकलम ले कर परी के लिए कविता लिखने लगी. कविता लिखने में इतनी मशगूल हो गई कि पता ही नहीं चला बाहर घंटी बज रही है. गेट खोला.

बेटा आया. बोला, ‘‘मम्मी मु?ो पता है आप लिखने में इतना खो जाते हो कि आप घंटी तो दूर ढोलनगाड़े की आवाज भी नहीं सुनते,’’ और फिर जोर से हंस पड़ा, ‘‘क्या लिख रहे हो आप?’’

‘‘अपनी बहू के लिए कविता.’’

‘‘क्या कह रहे हो आप?’’

‘‘अरे मजाक कर रही हूं,’’ कह जल्द

ही उसे खाना दे कर मैं ने व्हाट्सऐप खोल

लिया. मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. परी औनलाइन थी.

‘‘हैलो बेटा, मैं ने पेटीएम कर दिया है,’’ और फिर मैसेज कर के उसे स्क्रीन शौट भेज दिया.

‘‘थैंक्स आंटी, इतनी जल्दी क्या थी?’’ फिर वह औफलाइन हो गई.

रात में उस का स्टेटस देखा, ‘‘लोग कहते हैं कि जिद अच्छी नहीं होती मगर मेरी जिद है नफरत मिटाने और प्यार फैलाने की.’’

अरे ये तो मेरी स्वरचित पंक्तियां हैं. तो क्या परी ने चोरी करी हैं. तुरंत मैसेज किया, ‘‘बेटा, क्या यह आप ने लिखा है?’’

‘‘नो आंटी, मैं चोरी नहीं करती किसी का लिखा अच्छा लगता है तो कौपी पेस्ट कर लेती हूं लेकिन रचना के नीचे मूल रचनाकार का नाम जरूर लिखती हूं.’’

मैं ने जल्दबाजी में नीचे रचनाकार का तो नाम देखा ही नहीं था. वहां अपना नाम देख कर गौरवान्वित हो उठी.

मैं उस के विषय में जानने के लिए उत्सुक थी. सो बोली, ‘‘बेटा, आप को वैसे ये पंक्तियां मिली कहां से?

‘‘बस यों ही फेसबुक पर दिखीं तो अच्छी लगीं और अपने स्टेटस पर डाल दीं.’’

‘‘तो आप उस रचनाकार को फेसबुक पर सर्च कर के फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज दो न,’’ मैं उसे अपना फेसबुक फ्रैंड बनाना चाहती थी यह सोच कर उसे मैसेज कर दिया.

‘‘अरे आंटी… औफिस की वजह से टाइम ही नहीं मिलता… थोड़ाबहुत फेसबुक चला लेती हूं,’’ मैसेज सैंड कर के तुरंत गुड नाइट मैसेज कर दिया.

मैं मन मसोस कर रह गई. मैं चैटिंग के मूड में थी. मन मार कर शुभरात्रि लिखना पड़ा.

सुबहसुबह जी चाहा सुंदर सी कुछ पंक्तियां लिखते हुए उसे कोई अच्छा सा सुप्रभात संदेश भेजूं लेकिन फिर यह सोच कर नहीं किया कि कहीं वह यह न सम?ो कि मैं जबरदस्ती उस से चिपक रही हूं.

दूसरे दिन मौर्निंग वाकके लिए जैसे ही लिफ्ट में चढ़ी और लिफ्ट 20वीं मंजिल पर रुकी तो वह लिफ्ट में आई. मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. सुबहसुबह फूल जैसे खिले खूबसूरत चेहरे को देख कर मेरा दिल खुशगवार हो उठी लेकिन उस ने मु?ो देखा तक नहीं. किसी से फोन पर व्यस्त थी. मु?ो गुस्सा तो बहुत आया पर क्या कर सकती थी मैं.

ग्राउंड फ्लोर पर आते ही वह तेज कदमों से सुसायटी के गेट से बाहर निकल गई. इतनी सुबह सोसाइटी गेट से बाहर निकलने की क्या जरूरत है जब सोसाइटी में वाककरने की इतनी जगह है? मैं यह क्या सोचने लगी. गई होगी किसी काम से. उस की चिंता सी होने लगी क्योंकि कुछ दिनों पहले ही सुना था सोसाइटी के बाहर दूसरी तरफ वाले रोड पर कुछ बदमाशों ने एक महिला की चेन छीन ली थी. वाक के बाद जब टावर पहुंची तो उसे लिफ्ट का इंतजार करते पाया. एक हाथ में दूध की थैली और ब्रैड थी और दूसरे हाथ में सब्जी की थैली थी. अच्छा तो ये लेने गई थी. जैसे ही लिफ्ट ग्राउंड फ्लोर पर रुकी हम दोनों एकसाथ अंदर चले गए. मैं ने ही 20-21 फ्लोर का बटन दबा दिया.

‘‘बेटा, आप अकेले रहते हो?’’

‘‘जी आंटी.’’

‘‘खाना खुद बनाते हो या मेड से बनवाते हो?’’

‘‘मैं खाना खुद बनाती हूं. मेड सफाई और बरतन के लिए रखी हुई है. सब लोग सोचते हैं कि जौब वाली लड़कियां काम नहीं करतीं लेकिन मैं ऐसी नहीं हूं. मैं सब काम कर लेती हूं. सफाई भी छुट्टी वाले दिन अपने हिसाब से करती हूं. कपड़े भी छुट्टी वाले दिन धोती हूं.’’

उस का फ्लोर आ गया. मैं ने मन में सोचा कितनी अच्छी लड़की है साफ

और स्पष्ट बोलती है. खाना भी खुद बनाती है, सफाई भी करती है और कपड़े भी धोती है. नहीं तो जौब वाली लड़कियां कहां करती

हैं ये सब काम. ऊपर से उन के मातापिता का डायलौग. क्या? मैं मन ही मन

मुसकराई कि काश यह मेरी बहू बन जाए तो खूब जमेगी हम दोनों की जब सासबहू साथसाथ बैठेंगी.

अब धीरेधीरे हम दोनों की

सुबहशाम नियमित मुलाकात होने लगी.

हम दोनों की खूब जमने लगी. अब हम एकदूसरे की आदतों, पसंदनापसंद और व्यवहार सम?ाने लगे थे. इसलिए एकदूसरे

से कुछ कहे बिना एकदूसरे की बात सम?ा जाते थे. अच्छी अंडरस्टैंडिंग हो गई थी हमारी आपस में. फोन पर खूब बातें भी होने लगी थीं.

जब भी उसे औफिस से आने में देर

हो जाती तो मैं चिंतित हो उठती और उसे फोन करती तो वह ?ाल्ला कर बोलती कि आप भी न… मैं कोई छोटी बच्ची थोड़े ही हूं.

और जब मु?ो कभी कोई तकलीफ हो जाती और वह मेरी चिंता करती तो मैं भी गुस्से से कहती कि मैं कोई छोटी बच्ची थोड़ी हूं जो मेरी चिंता कर रही हो? मु?ो लिखने का शौक था उसे पढ़ने का.

बस उस की एक आदत मु?ो बुरी लगती थी. उस का देर रात तक जागना. जब मैं कुछ कहती तो वह बोलती, ‘‘आंटी, दिन में तो औफिस की वजह से टाइम नहीं मिलता इसलिए रात में व्हाट्सऐप, फेसबुक और इंस्टाग्राम ने हमें देर रात जागने पर मजबूर कर दिया है. आप इन मुए तीनों को कोसिए. आप के भी तो ये दोस्त हैं,’’ जब वह हंस कर यह कहती तो मैं भी अपनी हंसी रोक नहीं पाती थी कि बात तो वह सही कह रही है. मैं भी तो देर रात घुसी रहती हूं फेसबुक और व्हाट्सऐप में.

उसे मेरी एक आदत पसंद नहीं थी और वह थी बेवजह की टोकाटाकी. मैं ने कहा, ‘‘तुम बच्चों में अभी इतनी सम?ा नहीं है इसलिए सम?ाना जरूरी होता है जिस का तुम लोग गलत अर्थ लगा कर उसे टोकाटाकी कहते हो.’’

बात तो आप की सही है लेकिन हर वक्त टोकाटाकी… ऐसा लगता है जैसे

24 घंटे कोई सिर पर सवार है.’’

उस की बात सुन कर लगा सही कह रही है यह. धीरेधीरे 1 महीना गुजर गया. एक सुबह वह उदास स्वर में बोली, ‘‘आंटी, मु?ो जल्द ही यह फ्लैट छोड़ना होगा क्योंकि मेरा बौयफ्रैंड चाहता है कि मैं उस के साथ किसी दूसरी सोसाइटी में रहूं.’’

यह सुन कर मेरा दिल टूट गया साथ ही उसे बहू बनाने का सपना भी.

‘‘बेटा, बुरा नहीं मानो तो एक बात बोलूं?’’

‘‘जी जरूर बोलिए.’’

‘‘शादी से पहले इस तरह साथ रहना गलत है.’’

‘‘आंटी, वह चाहता है कि कुछ समय हम साथ गुजारें जो यहां संभव नहीं है.’’

‘‘उसे यहां क्या परेशानी है?’’

‘‘मालूम नहीं कल शाम को वह मु?ो एक कौफीहाउस में मिलेगा. आप भी वहां आइए और उसे यह बात समझना कि वह जल्दी शादी करे क्योंकि मैं भी इस तरह अब मिल नहीं सकती.’’

‘‘नहीं बेटा मैं कौन होती हूं सम?ाने वाली. मैं क्यों टोकाटाकी करूं? तुम ने ही तो टोकाटाकी के लिए मना किया है.’’

‘‘आंटी, जब बच्चे गलत राह पर जा रहे हों तब बड़ों की टोकाटाकी जायज है.’’

‘‘ठीक है वह कब आ रहा है?’’

‘‘कल आप शाम 8 बजे कौफीहाउस आ जाइए. मैं आप को लोकेशन भेज दूंगी.’’

शाम के खाने की तैयारी कर के कौफीहाउस जाने के लिए कैब बुक कर ही रही थी कि बेटे का फोन आ गया, ‘‘मम्मी देर से घर आऊंगा. एक दोस्त के साथ कहीं जा रहा हूं.’’

कैब में बैठते ही मन में एक हूक उठी कि काश यह मेरी बहू बन जाए.

कौफीहाउस पहुंचते ही वहां अपने

बेटे को देख कर मैं खुशी के अतिरेक से चिल्ला पड़ी, ‘‘तू यहां? तू ही परी का बौयफ्रैंड है क्या?’’

‘‘परी… हां पर माते… मगर आप यहां क्या कर रही हैं? आप को परी के बारे में…’’ वह सकपकाया.

जब तक परी भी आ गई, ‘‘आप इसे जानती हैं आंटी?’’ वह हकलाते हुए बोली.

‘‘इसे क्या इस के पूरे खानदान को जानती हूं मैं. इस ने ही मेरी कोख से जन्म ले कर मु?ो मां बनने का गौरव प्रदान किया है.’’

‘‘लेकिन आप ने कभी जिक्र नहीं किया अपने साहबजादे का?’’ परी मुसकरा कर बोली.

‘‘हां मां, आप ने भी कभी मु?ो नहीं बताया कि यह आप की दोस्त है,’’ बेटा भी अचरज भरे स्वर में बोला.

‘‘बेटा, मां हूं तुम्हारी. तुम धीरेधीरे देर रात जो फोन पर बतियाते

थे मु?ो तभी शक हो गया था कि कुछ तो है? थोड़ी सी मशक्कत करने पर मैं ने तुम दोनों की प्रेम कहानी जान ली और भविष्य में अपनी बहू के साथ तालमेल स्थापित करने के लिए यह सब नाटक रचा और तुम दोनों को भनक भी नहीं होने दी.’’

‘‘जय हो माते, आप को तो सीआईडी में होना चाहिए,’’ कहते हुए वह मेरे कदमों में ?ाक गया.

परी भी बोली, ‘‘मान गए आप को होने वाली सासूमां उर्फ सीआईडी प्रदुमन,’’ और मेरे गले से लग गई.

काश मेरी यह बहू बन जाए का मेरा सपना पूरा हो गया था. मेरा बेटा अब तक मामला छिपा रहा था क्योंकि परी की जाति कुछ और थी और हमारी ऊंची थी. बेटा घबरा रहा था कि मैं इनकार न कर दूं मगर मैं तो उसे कब की बहू मान चुकी थी और फिर असली मुहर लगाने के लिए मैं ने उस के मातापिता को जल्दी ही अपने घर आने के लिए निमंत्रित कर दिया.

समझौता : रवि और नेहा के बीच कौनसा समझौता हुआ था

Writer- पुष्णा सक्सेना

रवि  का फोन देख कर नेहा को कुछ आश्चर्य हुआ. ने खुद फोन पर कहा, ‘‘कुछ इंपौर्टैंट बातें करनी हैं, 5 बजे शाम को तैयार रहना. मैं स्वयं लेने आ जाऊंगा,’’ और फिर फोन काट दिया.

‘क्या इंपौर्टैंट बातें होंगी,’ सोच कर नेहा मुसकरा पड़ी. अपने कालेज की साहसी स्टूडैंट्स में नेहा का नाम टौप पर था. शायद इसीलिए रवि का इनवाइट ऐक्सैप्ट करने में उसे अधिक देर नहीं लगी.

ठीक 5 बजे रवि की कार का हौर्न सुन कर नेहा बाहर आ गईर्. समय की पाबंदी नेहा का गुण था. पीछे से मां ने कहा भी, ‘‘अरे, घर में तो बुलातीं,’’ लेकिन तब तक नेहा बाहर निकल चुकी थी. रवि कार से बाहर निकल कर उस की प्रतीक्षा कर रहा था. नीली ब्रैंडेड जैकेट व जींस में रवि का व्यक्तित्व निखर उठा था.

‘‘हाय,’’ के साथ ही कार का दरवाजा खोल रवि ने नेहा को अपने साथ की अगली सीट पर बैठा लिया. कार के रवाना होते ही एक अजीब सी पुलक से नेहा अभिभूत हो उठी. फिर भी रवि का अनयूजुअल साइलैंस नेहा को कुछ परेशान कर रहा था.

रेस्तरां के एकांत कैबिन में पहुंचते ही साहसी नेहा का मन भी धड़कने लगा. बेहद रवि ने शालीनता के साथ कुरसी आगे खींच कर नेहा के बैठने का वेट किया.

‘‘क्या पसंद करेंगी, कोल्ड या हौट?’’ रवि ने बैठते हुए पूछा.

रवि के प्रश्न पर हलके स्मित के साथ नेहा ने कहा, ‘‘जो आप पसंद करें.’’

रवि गंभीरता से बोला, ‘‘देखो नेहा, तुम से कुछ बातें स्पष्ट करनी थीं. विश्वास है तुम मेरा मतलब सम?ा जाओगी.’’

कुछ सरप्राइज के साथ नेहा ने जैसे ही रवि की ओर देखा, वह बोला, ‘‘मां तुम्हें अपनी डौटर इन ला मान चुकी हैं. हर क्षण तुम्हारी प्रशंसा करती रहती हैं. तुम ने उन्हें पूरी तरह अपने मोहपाश में बांध लिया है पर मेरी प्रौब्लम कुछ और है. मैं कहीं और कमिटेड हूं.’’

रवि के अंतिम शब्दों ने नेहा को बुरी तरह चौंका दिया कि ओह वह किस इंद्रधनुषी स्वप्नजाल में फंस रही.

‘‘तो प्रौब्लम क्या है? आप वहां विवाह करने को स्वतंत्र हैं. मैं ने तो कोई बंधन नहीं लगाया. फिर प्रपोजल भी तो तुम्हारी तरफ से ही आया था. हम तो गए नहीं थे,’’ कहतेकहते नेहा का स्वर कुछ हद तक तीखा हो आया था.

‘‘यही तो प्रौब्लम है नेहा. मैं मां का एकमात्र बेटा हूं. बिना जाने मां की बात मानने का वचन दे बैठा हूं और अब अगर वचन तोड़ता हूं तो मां घर छोड़ कर गोवा चली जाएंगी. वहां हमारा एक फ्लैट है. उन की जिद तो तुम मु?ा से अधिक अच्छी तरह जानती हो. पिताजी के न रहने पर मां ने तुम्हें भी मेरी तरह इस बंधन को स्वीकार करने के लिए विवश किया था. मां कह रही थीं तुम इंडिपैंडैंट जीवन बिताना चाहती थीं. क्या यह सच नहीं है?’’

रवि के बात की सीरियसनैस पर नेहा हंस पड़ी, ‘‘क्या स्ट्रेंज बात है. मैं मैरिज कमिटमैंट में बंधना नहीं चाहती, यह आप की खुशी का मामला है.’’

रवि पूरे उत्साह से बोला, ‘‘बिलकुल यही बात है नेहा. हम दोनों विवश किए गए हैं. अब परिस्थिति यह है कि  अगर हम विवाह करते हैं तो मेरे मन के अलावा मेरा सबकुछ पत्नी के नाते तुम्हारा. तुम्हारी हर आवश्यकता का मैं ध्यान रखूंगा. बदले में तुम से कोई अपेक्षा नहीं रखूंगा. हां, कभीकभी पार्टियों में हमें कपल की सफल एक्टिंग भी करनी होगी. इन सब कष्टों के बदले मैं तुम्हें प्रतिमाह क्व40 हजार जेबखर्च के रूप में दूंगा. कहिए, क्या खयाल है तुम्हारा?’’

‘‘बहुतबहुत धन्यवाद,’’ नेहा के स्वर में उत्साह था या व्यंग्य रवि ठीक से सम?ा नहीं सका.

‘‘धन्यवाद किसलिए?’’

‘‘क्व40 हजार की रकम जो तुम दे रहे हो. क्या थैंक्स भी न दूं? फिर ये सब इतने स्पष्ट रूप से जो बताया है आप ने.’’

‘‘अगर न बताता तो?’’

‘‘आप से नफरत करती.’’

‘‘और अब?’’

‘‘अब कोशिश करूंगी आप का दृष्टिकोण सम?ा सकूं.’’

रवि ने आश्वस्त हो नेहा की ओर हलके से मुसकरा कर देखा, फिर कहा, ‘‘नेहा तुम सोच लो. तुम भी स्वतंत्र विचारों वाली लड़की हो. तुम्हें मैं हर संभव इंडिपैंडैंस दूंगा. हां, बदले में अपने लिए भी इंडिपैंडैंस चाहूंगा. 2 अच्छे फ्रैंड्स की तरह हम साथ रह सकते हैं न?’’

‘‘रवि इतने इंडिपैंडैंट हो कर भी आप

अपना मनचाहा पार्टनर नहीं पा सके, यह क्या कम आश्चर्य की बात नहीं है? मैं आप की मां

से सिफारिश करूंगी. शायद वे मेरी बात मान

लें. तब तो आप मेरे औवलाइज्ड रहेंगे न?’’

कह कर नेहा अपनी परिचित स्माइल के साथ उठने लगी.

‘‘नहीं… नहीं… नेहा ऐसा अनर्थ न कर बैठिएगा. मां का पूजापाठ, छुआछूत तुम

जानती हो क्या एक विदेशी, विधर्मी, मांसाहारी को वे इस जीवन में कभी अपना सकेंगी? उन का सपना तोड़ मृत्यु से पूर्व ही मैं उन्हें समाप्त नहीं कर सकता.’’

कुछ कटु हो कर नेहा ने तिक्त स्वर में कहा, ‘‘फिर आप कुछ और वर्ष मैरिज टाल

क्यों नहीं देते? मु?ा से आप क्या ऐक्सपैक्ट करते हो? मेरा अपना जीवन है, सपने हैं, मैं आज के लिए सैक्रिफाइस क्यों करूंगी?’’

रवि के उठते ही नेहा रेस्तरां से बाहर निकल आई और मन ही मन में बोली, ‘हूं क्या सरोगैंस है. मैं इन के पक्ष में निर्णय दूंगी. क्या सम?ाते हैं अपने को?’

नेहा को घर के दरवाजे पर छोड़ कर रवि चला गया. पर्स को एक ओर फेंक नेहा पलंग पर पड़ गई. उस की कुछ सोचनेसम?ाने की शक्ति चुक गई थी, ‘पाखंडी कहीं का, इस की मां के लिए मैं बलि चढ़ जाऊं,’ पर हर विरोध के बावजूद रवि का आकर्षक व्यक्तित्व बारबार स्मृति में आ उसे चिढ़ा जाता. अपने मृत धनी पिता का एकमात्र उत्तराधिकारी, विदेश से सौफ्टवेयर इंजीनियरिंग की डिगरी प्राप्त रवि का आकर्षण क्या कम था?

मध्यवर्गीय परिवार की नेहा के लिए जब रवि की मां ने प्रस्ताव रखा था तो मां, पिता,

छोटा भाई सब गर्व और उल्लास से भर गए थे. घर की बेटी इतने बड़े परिवार में जाएगी, इस

से बड़ा सुख और क्या हो सकता था? रवि का घर नेहा के घर के एकदम पास था. नेहा का परिवार एक फ्लैट में किराए पर रहता था. रवि

का पूरा बड़ा हाउस था. 4-5 लोग घर में काम करते थे. एकमात्र बेटे के विदेश चले जाने पर

रवि की मां अपना सारा स्नेह नेहा पर ही लुटाती थीं, हर छोटेबड़े काम के लिए वे नेहा पर ही निर्भर थीं. उस घर की डौटर इन ला बनने का स्वप्न नेहा ने कभी नहीं देखा था. पर रवि की बातें सुन कर नेहा को लगता जैसे वह उसे युगों से जानती हो.

रवि की पसंदनापसंद क्या है, यह रवि की मां नेहा को सुनाया करती थीं. नेहा डाक्टर

बन कर गांव में जाना चाहती थी. वह आजीवन विवाह न करने का निर्णय रवि की मां के प्रस्ताव और अनुरोध पर ही नहीं ले सकी थी. रवि की मां ने सु?ाव दिया था कि वह शहर में ही क्लीनिक खोल कर गरीबों की सेवा कर सकती है. हो सकता है वे लोग एक हौस्पिटल बनवा दें और यह योजना नेहा को भा गई थी.

मगर अब वह क्या करे? छोटा भाई

समन्वय बारबार हंस रहा था, मां का उत्सुक चेहरा उस से कुछ पूछ रहा था. एक बार नेहा

की इच्छा हुई कि अपनी मां को सबकुछ बता दे पर अपमान से मन तिलमिला उठा. सिरदर्द का बहाना कर वह सारी रात करवटें बदलती रही. कालेज के जीवन में नेहा ने हर चुनौती खुशी से

स्वीकार की थी पर यह चुनौती जीवनभर का

प्रश्न थी. सुंदर, सरल दिखने वाली नेहा के

मन की दृढ़ता सब जानते थे. अब वही नेहा असमंजस में पड़ गई थी कि क्या करे? सुबह

8 बजे रवि को उसे अपना निर्णय देना था. यह निर्णय उस के पक्ष में नहीं होना चाहिए. उस का दंभ टूटना ही चाहिए, यह सोचतेसोचते नेहा न जाने कब सो गई.

सुबह समन्वय ने ?ाक?ोर कर जगाया, ‘‘दी, क्या पूरी रात सपने देखती रहीं? जीजाजी की मां आई हैं.’’

हड़बड़ा कर नेहा ने रजाई फेंक दी. अस्तव्यस्त सी नेहा के उठने से पूर्व ही रवि की मां ने आ कर उस का माथा छुआ और परेशान हो कर बोलीं, ‘‘बुखार तो नहीं है वरना मेरी नेहा तो कभी इतनी देर तक नहीं सोती, 8 बजने वाले हैं.’’

रवि की मां अकसर वाक पूरी कर के नेहा की मां से मिलने आ जाती थीं और बिना संकोच के चाय पी कर जाती थीं. कई बार तो खुद किचन में चाय बना लेतीं जबकि अपने घर में कभी किचन में नहीं घुसती थीं.

तभी मोबाइल की घंटी सुन नेहा का मन धड़कने लगा. समन्वय ने शैतानी से मुसकरा कर फोन थमा दिया. उधर से रवि की सधी आवाज कानों में पड़ी, ‘‘कहिए नेहा, ठीक से सो सकी हो न? क्या निर्णय लिया तुम ने? क्या मैं बधाई दे सकता हूं तुम्हें?’’

‘‘जी, थैंक्स,’’ कह कर नेहा एकदम हड़बड़ा गई.

उधर से रवि का पूर्ण आश्वस्त स्वर कानों में बज उठा, ‘‘शुक्रिया, आई एम औब्लाइज्ड नेहा,’’ कह कर रवि ने फोन काट दिया.

इधर रवि की मां   के चेहरे पर प्रसन्नता ?ालक उठी थी. वे नेहा की मां से बोलीं, ‘‘देखा, सुबह होते ही फोन कर रहा है, एक हमारे दिन थे,’’ कह कर वे जोर से हंस दीं.

उस के बाद नेहा बहुत व्यस्त हो गई. रवि की मां खरीदारी करने के लिए नेहा को भी साथ ले जाती और रवि तो साथ होता ही था. नेहा

को कभीकभी आश्चर्य होता कि रवि कितनी सहज ऐक्टिंग कर लेता है. सगाई के मौके पर

रवि ने जिद की कि नेहा अपनी पसंद की अंगूठी स्वयं ले.

रवि के साथ अंगूठी खरीदने के लिए खड़ी नेहा ने किंचित व्यंग्य से कहा, ‘‘आप को तो पहले भी अनुभव होगा, अब फिर अंगूठी खरीदने के लिए उल्लास क्यों जता रहे हैं?’’

किंतु रवि ने नेहा की स्वीकृति की मुहर लगवा कर ही अंगूठी खरीदी. अंगूठी पहनाते समय रवि बड़ा सहज रहा. किंतु उस के हाथ के स्पर्श से जब नेहा के तार ?ान?ाना उठे तो वह बुरी तरह ?ां?ाला उठी.

विवाह भी तय हो गया. नेहा को अपने पर कौन्फिडैंस था. उस ने रवि की

बात नहीं बताई किसी को. ब्राइडगू्रम के रूप में रवि का मोहक व्यक्तित्व सब की प्रशंसा और कुछ की ईर्ष्या का कारण बन गया. विवाह की प्रथम रात्रि को न चाहते हुए भी वह संस्कारशील, लज्जाशील वधू बन कर बैठी रही.

कमरे में घुसते ही रवि ने परिहासपूर्ण

स्वर में कहा, ‘‘अरे, यह क्या? आप तो सचमुच ही न्यू ब्राइड लग रही हैं. हम दोनों मित्र हैं, याद है न?’’

लज्जा से नेहा का मन रोने को हो आया.

‘‘खैर, लीजिए जब तम रीति निभा रही हो तो मैं भी उपहार दे कर तुम्हारा घूंघट हटाऊंगा.’’

हाथों में बहुमूल्य हीरे के कंगन पहनाने के प्रयास पर नेहा चिढ़ गई, ‘‘आप के इस उपहार के लिए मैं ने यह वेश धारण नहीं किया. यह तो मां की जिद थी. मेरी ओर से ये कंगन आप अपनी उसी प्रियतमा को दे दीजिए.’’

रवि ने मुसकराते हुए हाथ जबरन पकड़ कर उन में कंगन पहना दिए, ‘‘उस की चिंता तुम्हें नहीं करनी होगी, नेहा. मैं उस की चिंता स्वयं

कर लूंगा.’’

जलती अग्निशिखा सदृश रवि का यह वाक्य नेहा के मन व प्राण को ?ालसा गया. क्रोध से कंगन उतार नेहा नीचे बिछे कालीन पर जा लेटी.

रवि ने स्नेह से पुकारा, ‘‘नेहा, हमारे सम?ौते में ऐसा तो कुछ नहीं था. पलंग काफी बड़ा है.’’

‘‘जी नहीं, मेरी नीचे सोने की आदत है,’’ नेहा बोली.

मगर रवि ने उसे बड़ी सहजता से उठा कर पलंग पर लिटा दिया, ‘‘मेरे यहां तुम्हें कष्ट हो, यह मैं स्वप्न में भी नहीं सोच सकता नेहा.’’

दूसरे दिन प्राय: घर में रवि की मौसी, मामी उत्सुकता से नेहा का मुख निहार रही थीं. उस का अपमान व लज्जा से आरक्त चेहरा और रवि का प्रसन्न मुख उन्हें आश्वस्त कर गया. उन के परिहास नेहा के अंतर में गड़ जाते. अपने को सहज बनाए रख कर नेहा सब छोटेबड़े रीतिरिवाज पूरे करती गई.

इन सब रस्मों में रवि का सहयोग देख नेहा जल रही थी. वह सोच रही थी, पुरुष कितने पाखंडी होते हैं, ऊपर से आज्ञाकारी बनते हैं और अंदर से धूर्त होते हैं. अगर वह रवि की मां को सब बता दे तो? फिर रवि के भयभीत चेहरे को याद कर के नेहा चेष्टापूर्वक होंठों पर आई मुसकान दबा गई.

घर में सबकुछ सहज, सामान्य चल रहा था. मां ने रवि से कहा, ‘‘नेहा को मालदीव

घुमा ला.’’

भयभीत नेहा एकांत की कल्पना से सिमट मां से याचनापूर्ण शब्दों में बोली, ‘‘नहीं मां, मैं तुम्हें यहां अकेले छोड़ कर नहीं जाऊंगी.’’

रवि की दुष्ट मुसकान पर नेहा का सर्वांग जल उठा. वह चाहती थी कि रवि की प्रिया के विषय में कुछ जाने पर रवि ने कभी नेहा से उस विषय में बात ही नहीं की.

फिर भी रवि की अज्ञात प्रिया नेहा के साथ हर पल जीती थी. रात में रवि ने पूछा, ‘‘अच्छा नेहा क्या मैं तुम्हारे लिए सचमुच इतना असाध्य हूं कि  मेरे साथ घूमने जाने की कल्पना मात्र से जाड़ों में भी तुम्हें पसीना आ गया?’’

नेहा ने शांत रह कहा, ‘‘अगर यह सच है तो क्या गलत था? क्या मेरे साथ रहते हुए भी आप हर पल किसी और के साथ नहीं रहते? फिर हमारे सम?ौते में इस तरह के दिखावोें की बात तो आप ने की नहीं थी?’’ कह कर नेहा करवट बदल सोने का अभिनय करने लगी.

नेहा के एक मित्र डाक्टर आनंद उस से मिलने आया. नेहा के विवाह के समय डाक्टर आनंद एक कौन्फ्रैंस में भाग लेने अमेरिका गया था. नेहा उस की बहुत प्रशंसिका थी. रवि का परिचय करा नेहा डाक्टर आनंद से बातों में इस तरह व्यस्त हो गई मानो रवि का अस्तित्व ही

न हो.

डाक्टर आनंद के जाते ही रवि एकदम रिक्त कंठ से बोला, ‘‘अगर तुम्हें उन से इतना लगाव था तो उन से विवाह क्यों नहीं कर लिया?’’

नेहा बड़े शांत स्वर में बोली, ‘‘जिस से बहुत लगाव हो उसी से विवाह किया जाए, यह जरूरी तो नहीं.’’

जैसे ही रवि ने यह सुना वह तिलमिला कर बाहर चला गया.

आनंद प्राय: आता रहता. उस का विनोद स्वभाव रवि की मां को बहुत प्रिय था. इसीलिए मां के आग्रह पर हस्पताल जाने के पूर्व डाक्टर आनंद प्राय: उन के घर आता और रवि की मां

व नेहा के साथ ही कौफी पीता था. वापस जाते समय डाक्टर आनंद को कभीकभी रवि भी

मिल जाता.

रवि आश्चर्यजनक रूप से दफ्तर से जल्दी वापस आने लगा था. उधर नेहा ने परिस्थितियों से सम?ौता कर लिया था. उत्सव, समारोहों में नेहा की लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी. कभीकभी पार्टियों में प्रशंसकों से घिरी नेहा को खोज पाना रवि के लिए समस्या हो जाती. जब डांस पार्टियां होती थीं तो अकसर नेहा रवि को छोड़ कर किसी और के साथ नाचना शुरू कर देती.

नेहा का कंठ मधुर था. अब तो मानो उस के गीतों में वेदना साकार हो जाती थी. एक दिन पार्टी में उस ने गाया भी.

रवि उस से बोला, ‘‘तुम इतना अच्छा गा लेती हो, इस का मु?ो पता नहीं था.’’

अपने लिए पहली बार प्रशंसा सुन कर नेहा को अच्छा लगा. संयत, सधी आवाज में बोली, ‘‘मैं क्या हूं यह जानना तो हमारे सम?ौते की शर्त नहीं थी, फिर यह दुख क्यों?’’

उत्तर में कोई व्यंग्य न था पर रवि क्षुब्ध

हो उठा.

रवि के दफ्तर जाते समय नेहा बोली, ‘‘रवि, अगर में क्लीनिक न खोल किसी बड़े अस्पताल में नौकरी कर लूं तो आप को आपत्ति तो नहीं होगी?’’

रवि ने बहुत ही कठोर शब्दों में कहा, ‘‘क्यों घर पर डाक्टर आनंद से मिलने में कोई असुविधा है क्या? पर तुम तो शायद उसी के साथ काम करना चाहोगी. अगर जेबखर्च अपर्याप्त है तो और बढ़ जाएगा पर तुम्हारा अस्पताल में नौकरी करना मु?ो कभी स्वीकार न होगा.’’

‘‘ठीक है, मैं पास ही क्लीनिक खोल

लूंगी. और हां, आप का दिया जेब खर्च मैं ने कभी छुआ भी नहीं है. पर वक्त काटना मु?ो कठिन लगता है,’’ कहती हुई नेहा तीर सी कमरे से बाहर चली गई.

दूसरे दिन दफ्तर से आते ही रवि ने मां से कहा, ‘‘10 दिनों का अवकाश ले आया हूं. नेहा से कह दो मालदीव जाना है.’’

सुनते ही नेहा ने उत्तर दिया, ‘‘कल से क्लीनिक खोलने की व्यवस्था करनी है, इसलिए जाना असंभव है.’’

एकांत पाते ही रवि ?ाल्ला उठा, ‘‘हमें

जाना ही होगा, क्लीनिक बाद में खोला जा

सकता है.’’

‘‘आप की स्वतंत्रता में मैं कभी बाधा नहीं बनी. फिर आप ने मेरी स्वतंत्रता का भी आश्वासन दिया था.’’

आवेश में नेहा को जबरदस्ती आलिंगन में ले रवि बोला, ‘‘तुम मेरी पत्नी हो, मैं पति के नाते तुम्हें आज्ञा देता हूं कि तुम्हें चलना है.’’

आश्चर्य से नेहा का मुख खुला का खुला रह गया, ‘‘आप की पत्नी होने

के नाते क्या मैं केवल आप की आज्ञा पालन करने के लिए हूं? कहां गया आप का वादा? जब जी चाहा, पत्नी बना लिया, जब चाहा दूर धकेल दिया,’’ नेहा एकदम फूट पड़ी. कई दिनों का बांध एकसाथ टूट गया.

रवि ने हंसते हुए बड़े स्नेह से नेहा का सिर अपने सीने से चिपका लिया और स्नेहिल हाथों से उस के मुख पर बिखरी जुलफों को हटाते हुए बोला, ‘‘बस हार गईं? आखिर निकलीं न बुद्धू. अरे भई, जब मां ने कहा था कि तुम मु?ा से विवाह करने को उत्सुक नहीं हो तो मेरा अहं आहत हुआ था. मेरा संबंध न किसी और से था न है न होगा. मैं तो मां की तरह बस तुम्हारा पुजारी हूं और रहूंगा. क्या इतना सा सत्य भी तुम मेरी आंखों में नहीं पढ़ पाईं?’’

नेहा आश्चर्य से सिर उठा कर बोली, ‘‘क्या इतने दिनों तक आप मु?ा से भी ऐक्टिंग करते रहे?’’ कहते वह शर्म से लाल हो उठी.

‘‘हां, सच इतने दिन बेकार जरूर गए पर इस रोमांस में क्या मजा नहीं आया नेहा?’’ फिर एक पल रुक रवि ने पूछा, ‘‘सच बताना नेहा, क्या डाक्टर आनंद से तुम्हें कुछ ज्यादा ही

लगाव है?’’

‘‘धत्, वे तो मु?ो बड़े भाई जैसे पूज्य हैं. उन्होंने ही तो मु?ो डाक्टर बनने की प्रेरणा दी थी.’’

नेहा को अपनी बांहों में समेट स्नेह चुंबन अंकित कर रवि ने पूछा, ‘‘अब मालदीव चलना है या क्लीनिक खोलोगी?’’

नेहा ने लजाते हुए पूछा, ‘‘इतना तंग क्यों किया रवि?’’

‘‘एक नए अनुभव के लिए. अगर उसी पुरातनपंथी ढंग से विवाह कर लेते तो क्या तुम्हारे लिए इतनी चाहत होती? कितनी बार ईर्ष्या से डाक्टर आनंद को पीटने को जी चाहा था.’’

नेहा की चढ़ती भृकुटि देख रवि हंस पड़ा, ‘‘माफी चाहता हूं भूल गया था कि वे पूजनीय हैं. सच, कितनी बार अपने में समेट लेने के लिए जी मचला था पर जब विदेश में था तभी सोच लिया था कि जब तक तुम्हारे मन में अपने लिए चाह नहीं जगा लूंगा, तब तक मात्र आम भारतीयों की तरह पति बन कर अधिकार नहीं लूंगा,’’ फिर हंस कर नेहा को छेड़ा, ‘‘क्यों, कैसा रहा हमारा घर वाला हनीमून?’’

‘‘तुम्हारे हनीमून की ऐसी की तैसी. मां न जाने क्या सोचती होंगी,’’ कहते हुए नेहा अपने को छुड़ा कर नीचे भाग गई.

रीते मन की उलझन

शाम के 7 बज चुके थे. सर्दियों की शाम का अंधेरा गहराता जा रहा था. बस स्टैंड पर बसों की आवाजाही लगी हुई थी. आसपास के लोग भी अपनेअपने रूट की बस का इंतजार कर रहे थे. ठंडी हवा चल पड़ी थी. हलकीफुलकी ठंड शालू के रोमरोम में हलकी सिहरन पैदा कर रही थी. वह अपनेआप को साड़ी के पल्लू से कस कर ढके जा रही थी.

शालू को सर्दियां पसंद नहीं है. सर्दियों में शाम होते ही सन्नटा पसर जाता है. उस पसरे सन्नाटे ने ही उस के अकेलेपन को और ज्यादा पुख्ता कर दिया था. सोसाइटी में सौ फ्लैट थे. दूर तक आनेजाने वालों की हलचल देख दिन निकल जाता लेकिन शाम होतेहोते वह अपनेआप को एक कैद में ही पाती थी. उस कैदखाने में जिस में मखमली बिस्तर व सहूलियत के साजोसामान से सजा हर सामान होता था. वह अकेली कभी पलंग पर तो कभी सोफे पर बैठी मोबाइल पर उंगलियां चलती तो कभी बालकनी में खड़ी यू आकार में बने सोसाइटी के फ्लैटों की खिड़कियों की लाइटें देखती जो कहीं डिम होतीं तो कहीं बंद होतीं. चारों तरफ सिर्फ सन्नाटा होता था.

सोसाइटी के लौन में दोपहर बाद बच्चों के खेलनेकूदने के शोर से उस सन्नाटे में जैसे हलचल सी नजर आती. वह भी रोजाना लौन में वाक के लिए चली जाती और कुछ देर हमउम्र पास पड़ोसिनों के साथ अपना वक्त गुजार आती. फिर भी शाम की चहलपहल के बाद सिर्फ सन्नाटा ही होता. अपने शाम के खाने की तैयारी के बाद भी उस के पास होता सिर्फ रोहन का इंतजार. वह जैसेजैसे अपनी उन्नति की सीढि़यां चढ़ रहा था वैसेवैसे उस का घर के लिए वक्त कम होता जा रहा था. कई बार उस ने शिकायत की लेकिन रोहन उसे एक ही बात कहता, ‘‘शालू, तुम नहीं सम?ागी बौस बनना आसान नहीं है. प्राइवेट सैक्टर है इतनी सहूलियत हमें कंपनी इसीलिए ही देती है कि हम टाइम पर काम करें.’’

रोहन की बातों पर शालू चुप हो जाती थी और उस छोटी सी बहस के बाद दोनों के बीच कोई वार्त्तालाप न होता. रात रोहन अपने लैपटौप पर कुछ न कुछ औफिशियल काम करने लगता. न जाने कब सोता. रोज की यही दिनचर्या थी, उस की. उस के बाद कभीकभी तो रोहन हफ्ते 15 दिन के टूर से लौटता और कभी विदेश जा कर महीनेभर बाद लौटता. इस दौरान शालू अकेली ही रहती. कभीकभी अपनी सहेलियों से, पासपड़ोसियों से मिल आती लेकिन इन सब से कब तक उस का वक्त गुजरता. उसे अपनी सहेलियों को उन के परिवार व पति के साथ देख खुशी तो होती साथ ही जलन भी होती. उस के घर की चारदीवारी में तनहाई और अकेलापन उस के मन को रीता किए जा रहा था.

आजकल दोनों में काम की बात ही होती थी. पहले सी आपसी नोक?ांक, हंसीमजाक भी अब बंद हो गया था. कभीकभी रोहन उसे पार्टी में व बाहर ले कर जाता था. वह कभी गलत राह पर भी नहीं था यह शालू को विश्वास था लेकिन उस के पास उस के लिए भी तो वक्त नहीं था.

एक दिन शालू ने रोहन को अपनी सहेली की ऐनिवर्सरी पार्टी में चलने को कहा. रोहन के साथ चलने की हां भरने पर ही वह बड़े शौक से रोहन की पसंद की शिफौन की गुलाबी साड़ी पहन तैयार हुई. बाल भी खुले रखे साथ में पर्ल सैट पहन उस ने उस दिन अपनेआप को दर्पण में बारबार निहारा. आज काफी अरसे बाद वह रोहन के साथ अपनी सहेलियों के बीच जा रही थी वह बहुत खुश थी लेकिन धीरेधीरे शाम से रात हो गई. वह रोहन का इंतजार करती रही. फोन करती तो स्विच्ड औफ. न जाने कब रोहन का इंतजार करतेकरते उस की सोफे पर ही आंख लग गई.

रात 12 बजे रोहन ने घर की बैल बजाई तो उस ने अपनी सूजी हुई लाल आंखों को छिपाते हुए गेट खोल दिया. अपने सामने शालू को तैयार देख रोहन को याद आया कि उसे तो आज शालू की फ्रैंड की ऐनिवर्सरी में जाना था. वह शालू को देखते ही बोला, ‘‘ओह सौरी शालू, मीटिंग लंबी चली… मैं तुम्हे कौल भी नहीं कर पाया.’’

रोहन को उस दिन शालू ने कुछ न कहा. गेट खोलकर वह कमरे में चली गई और चेंज कर बिस्तर पर औंधे मुंह लेटी रही. न जाने कितनी बार रोहन ने बात करने की कोशिश की लेकिन शालू आज बुत बनी थी.

सुबह शालू चुपचाप नाश्ता बना कर पैकिंग में लग गई. रोहन औफिस के लिए

निकलने लगा तो उस ने पूछा, ‘‘यह पैकिंग… तुम कहीं जा रही हो?’’

शालू ने कहा, ‘‘हां, मायके.’’

रोहन रात की बात याद कर बोला, ‘‘सौरी, वह कल टाइम ही नहीं मिला. शालू प्लीज.’’

‘‘रोहन अब तुम्हारी सौरी और प्लीज से मैं थक चुकी हूं. मु?ो जाने दो,’’ उस दिन वह रोहन के घर से अकेले निकल पड़ी थी. उस ने बहुत रोका लेकिन अब शायद उस की बरदाश्त से बाहर था वहां रुकना.

मायके पहुंची तो अचानक उसे देख कर सब हैरान थे लेकिन वह सरप्राइज विजिट का नाम दे 15 दिन रुक गई. मगर धीरेधीरे मां को सब सम?ा आने लगा. उन्होंने शालू से पूछा तो वह हंस कर अपने दर्द को छिपा इतना ही कह पाई, ‘‘क्या, मैं यहां कुछ दिन अपनी मरजी से नहीं रुक सकती?’’

मां ने शालू की नजरों को पढ़ते हुए कहा, ‘‘बेटा रह तो सकती हो पर अब तुम्हारी मरजी के साथ रोहन की मंजूरी भी जरूरी है.’’

मां के इतना कहते ही शालू का छिपा दर्द उभर उठा और वह अपनी आंखों में भरे आंसुओं को मां के आगे रोक न सकी. अपनी उदासी व अपना अकेलापन बयां कर गई.

तब मां ने उसे बताया, ‘‘तुम्हारे आने के दूसरे दिन ही रोहन ने मु?ो फोन पर सब बता दिया. वह अपनी नौकरी के कारण तुम्हें समय नहीं दे पाता. उस का उसे भी दुख है लेकिन वह तुम्हारे बिना परेशान है. कुछ निर्णय जल्दबाजी में सही नहीं होते. बेटा. रात ही मेरी उस से बात हुई. तुम ने इतने दिनों में उसे फोन भी नहीं किया और उस का फोन भी अटैंड नहीं किया.

‘‘इतनी नाराजगी भी अच्छी नहीं. वह तुम्हें लेने आना चाहता है. वह जो कुछ कर रहा है पैसा कमाने के लिए ही तो कर रहा है. अभी तुम्हारी शादी को सालभर हुआ है तुम दोनों की पूरी जिंदगी पड़ी है. गृहस्थी में बहुत से त्याग करने पड़ते हैं… रोहन को कुछ समय दो बेटा, एकदूसरे का साथ दो.’’

कुछ देर बात कर मां उस के कमरे की मूनलाइट का स्विच औन कर जातेजाते उसे फिर एक बार सोचने के लिए कह गई. मूनलाइट की सफेद रोशनी में वह बिस्तर पर लेटी रोहन के साथ बीते पल याद करने लगी…

जब उसे बुखार हुआ तो रोहन ने औफिस की जरूरी मीटिंग भी कैंसिल कर दी थी और दिनरात उस का खयाल रखा था जैसे कोई किसी बच्चे का रखता है. उस वक्त जब वायरल फीवर से उस की नसनस में दर्द था उसे टाइमटाइम पर दवा, जूस सब देता. कितना खयाल रखता था और एक बार वह 10 दिन की कह कर मां के पास आई थी तो रोहन 5 दिन बाद ही आ कर उसे सरप्राइज दे शिमला ट्रिप प्लान कर आया था. दोनों बांहों में बांहें डाले शिमला की वादियों में घूमते रहे. तब दिनरात कब बीतते थे पता ही न चलता.

रोहन ने शालू की नाराजगी पर कभी जोर से बात नहीं की. वह हर बार उसे समझाने की कोशिश करता और सौरी भी कह देता लेकिन न जाने उसे ही धीरेधीरे क्या हो गया. उस ने चुप्पी साध ली. शालू रोहन की थकान को उस की बेरुखी सम?ाती थी जब वह कमरे में आ कर सो जाता. कभी सोचा ही नहीं कि घर से बाहर आराम कहां है और मैं ने उसे घर आने के बाद अपने प्यार के सहारे की जगह नाराजगी और चुप्पी ही दी. उस ने कभी कुछ न कहा. वह जिस प्यार को भूल बैठी थी वह फिर आज उस के दिल की परतों को हटा सहलाने लगा था. उस का रिश्ता प्यार के एहसास को बटोरने लगा था. उसे अपनी गलती का एहसास हो गया था. न जाने कैसे आहिस्ताआहिस्ता उस ने रोहन को अपनेआप से इतना दूर कर दिया. अब वह रोहन को और इंतजार नहीं करवाना चाहती थी.

‘‘यह लो, चाय पी लो. तुम्हें ठंड लग जाएगी बस आने वाली है. आधा घंटा बाकी है,’’ रोहन की आवाज से वह एकाएक वर्तमान में लौट आई. सामने 2 चाय के कप लिए रोहन मुसकरा रहा था. उसे देख कर वह भी मुसकरा दी. उस समय ऐसा लग रहा था जैसे दोनों के बीच कोई दूरी न हो, दोनों ने एकदूसरे को माफ कर दिया हो.

पास की बैंच पर बैठ कर दोनों ने चाय पी. शालू रोहन के हाथ में हाथ डाले उस के कंधे पर सिर रख बस का इंतजार करने लगी. कुछ ही देर में बस आ गई. रोहन ने बस में सामान रखा और बस में चढ़ने के लिए शालू का हाथ थाम लिया. बस चल पड़ी. दोनों एकदूसरे में खोए सफर तय कर रहे थे.

अब वे कभी न खत्म होने वाली राह पर चल पडे़ थे. रोहन के चेहरे पर शालू की बिखरी लटें अपना आधिपत्य जता रही थीं. शालू रोहन की अदा पर मंदमंद मुसकरा रोहन के आगोश में सिमटी जा रही थी. वह खुश थी कि आज रोहन ने उस के रीते मन की उल?ान को अपने प्रेम भरे साथ से सुल?ा दिया.

प्यार का सागर: आखिर सागर पर क्यों बरस पड़े उसके घरवाले

लेखिका : मंजरी सक्सेना 

सड़क पर गाड़ी दौड़ाते हुए बैंक्वेट हौल में जगमग शादियों के पंडाल देख और म्यूजिक की धुन से मु?ो लगा जैसे मेरे कानों में किसी ने गरम सीसा उड़ेल दिया हो. जिन आवाजों से मैं पीछा छुड़ा कर उस दिन शहर के बाहर यहां आई थी, वे यहां भी जहर घोलने चली आईर् थीं. सड़क पर कितनी ही बरातें दिखी थीं जो बैंक्वेट हौल के सामने नाचों में जुटी थीं.

न मालूम कितनी बातें मेरे दिमाग में बिजली की तरह कौंध गईं और एकाएक जैसे मैं आकाश से धरती पर आ गिरी. सोचने लगी, मैं कहां पहुंच गईर् थी उन मधुर कल्पनाओं में जो कभी साकार नहीं होंगी. लेकिन फिर सोचने लगी कि तो क्या मुझे इन्हीं कल्पनाओं के सहारे जीना पड़ेगा क्योंकि मेरी जिंदगी में जो उदासी और दर्द आ गया उस क अंत नहीं. अब क्या मेरी बरात में ऐसी धूमधाम नहीं होगी? कितनी प्लानिंग की थी अपनी शादी की मैं ने भी और मेरे मांबाप ने भी. अब मैं खुद तो दुखी हूं ही, साथ में मांबाप, भाईबहन भी चिंतित हैं.

काश, शादी से पहले मेरे पैर की हड्डी न टूटी होती तो मेरी मधुर प्लानिंग यों जल कर राख न होती.

नगाड़ों की धुन अब पास आती जा रही थी और मैं फिर सोचने लगी थी कि 10 दिन बाद मेरी बरात आएगी भी या नहीं, मेरी डोली उठेगी या नहीं और दुलहनों की तरह मैं भी कभी लाल जोड़ा पहन सकूंगी या नहीं या सबकुछ महीनों के लिए खा जाएगा.

मुझे दूसरे पहलू पर भी सोचना था. वैडिंग के लिए होटल बुक हो चुका था. लोगों ने टिकट भी खरीद लिए थे. इंतजाम तो सारे हो ही चुके हैं. हर सामान के लिए पहले से पैसा दिया जा चुका है जिस के लिए भैया को कितनी मशक्कत करनी पड़ी है और फिर सागर के बीचोंबीच हनीमून के लिए होटल के भी तो सारे इंतजाम कर लिए थे. शादीब्याह कोई गुडि़यों का खेल तो है नहीं कि उस का दिन टलता रहे. उन्होंने भी तो अब तक अपने रिश्तेदारों को आमंत्रित कर लिया था. आजकल लड़कों की शादियों पर भी सब खूब खर्च करते हैं. सागर ने बैचलर ट्रिप भी और्गेनाइज कर लिया था.

 

जिस दिन मेरी हड्डी टूटी थी, उस दिन की याद आते ही मैं कांप गई. हमेशा की तरह छत पर पढ़ रही थी. छत के शांत वातावरण में पढ़ना मु?ो बहुत अच्छा लगता था. कोई शोर, कोई चीखपुकार सुनाई नहीं देती थी. नीचे तो सड़क की आवाजें तथा फिल्मों के गाने आदि ध्यान को हटा देते थे. शहर के बीच में घर होने की वजह से मार्केट आने वाले रिश्तेदार और दोस्त घर भी चले आते, जिस से पढ़ाई में व्यवधान पड़ता था. उन के लिए चायनाश्ता तैयार करना पड़ता था या कभीकभी खाना भी बनाना पड़ता. इस से मु?ो बहुत परेशानी होती.

ऐग्जाम के दिनों में तो मम्मीपापा के रिश्तेदारों या अन्य लोगों का आना मुझे बहुत ही खराब लगता क्योंकि एक तो उन के आने से समय नष्ट होता, दूसरे वे यह पूछना कभी न भूलते कि अभी तक सरिता ने शादी का क्या इंतजाम किया है. सुन कर मेरे तनबदन में आग सुलग उठती.

इन सब झंझटों से मुक्ति पाने का मेरा एकमात्र स्थान छत थी. न मां मु?ो अपने सामने देखतीं और न कोई काम मुझसे कहतीं. जब मैं छत पर पढ़ रही होती तो काम के लिए मीता को ही पकड़ा जाता था वरना वह छोटी होने की वजह से बची रहती. शादी के लिए निश्चित तिथि के कुल 15 दिन बाद ही तो मेरी परीक्षा थी. डैस्टिनेशन मैरिज, सागर के भाई के विदेश से आने, हवाईजहाज के टिकटों के कारण तय हुआ था कि परीक्षा से पहले शादी होगी और परीक्षा के बाद हम हनीमून पर जाएंगे. शादी के बाद ठीक से पढ़ाई नहीं हो सकती थी इसलिए मैं अधिक से अधिक पढ़ाई कर लेना चाहती थी. यही सोच कर मैं छत के कोने में कुरसी कर निश्चिंतता से पढ़ रही थी कि बंदरों की कतार आती दिखी. बंदर तो हमेशा ही आते थे. उन से डर कर मैं नीचे उतर जाती थी, लेकिन उस दिन पता नहीं क्यों मैं यह सोच कर भागी कि कहीं बंदरों ने मु?ो नोच लिया और चेहरा विकृत हो गया तो क्या होगा. मैं जल्दी से नीचे भागी. फिर नीचे रखे गमले से टकरा कर एक चीख के साथ गिर पड़ी. फिर क्या हुआ, कुछ नहीं मालूम.

जब होश आया तो मां ने कहा, ‘‘यह क्या कर बैठी सरिता? अब क्या होगा?’’ मां का मतलब सम?ाते मु?ो देर नहीं लगी. पर उन से क्या कहती? क्या यह कि कहीं बंदर मेरा चेहरा न नोच लें इसीलिए मैं ने छलांग लागई थी और धोखे से गमले से टकरा कर गिर गई?

‘‘यह रोने का समय है क्या?’’ बड़े भैया चिल्लाए, ‘‘क्या पता हड्डी न टूटी हो सिर्फ मोच ही आ गई हो. चलो जल्दी अस्पताल चलो,’’ और उन्होंने मु?ो सहारा दे कर उठाया. मगर भैया की आंखों की भाषा मैं ने पढ़ ली थी. वे खुद भी तो इस बात से डरे हुए थे कि कहीं मेरे पैर की हड्डी न टूट गई हो. उन लोगों के चेहरे देख कर मैं अपना दर्द भूल सी गईर् थी. मेरा पैर सूज गया था इसलिए और मुश्किल थी.

‘अगर हड्डी टूट गई हो और ठीक से न जुड़ सकी तो? यदि कहीं हड्डी टूट कर उस में चुभ गई तो? कम से कम 3 महीने तक प्लास्टर ?ोलना पड़ेगा. हो सकता है औपरेशन करना पड़े. या रौड डले,’ यह विचार आते ही मैं कांप उठी.

‘‘बेवकूफ लड़की यह क्या कर बैठी?’’ जगदीश की आवाज मु?ो ?ाक?ोर गई. उन्होंने फिर कहा, ‘‘अब तेरी जगह क्या गीता को खड़ा करा जाएगा?’’ इस के साथ ही वे हंस पड़े, पर मेरा फक चेहरा देख कर शायद उन्हें अपनी गलती का आभास हुआ और वे गंभीर हो गए.

‘‘डाक्टर साहब, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि प्लास्टर न चढ़ाया जाए?’’ मां ने पूछा. ‘‘अभी कुछ भी कहना मुश्किल है. ऐक्सरे रिपोर्ट के बाद ही कुछ कहा जा सकता है.’’ मां धीरेधीरे बड़बड़ा रही थीं.

‘‘मां, आप फिक्र क्यों करती हैं? शादी तो हो ही जाएगी. हां, सरिता को चलाने के  लिए व्हील चेयर और आंसू पोंछने के लिए किसी को साथ रखना पड़ेगा,’’ डाक्टर साहब ने शायद मु?ो हंसाना चाहा. पर मेरा मुंह शर्म तथा अपमान से लाल हो गया. का एक मीता को सामने देख कर मैं संभल गई, ‘‘क्या बात है मीतू?’’ ‘‘मैं कब से तुम्हें आवाज दे रही है. खाना तक लग गया है. सब लोग मेज पर तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं,’’ उस का स्वर ?ाल्लाया सा लगा.

मैं भारी कदमों से मीता के साथ डाइनिंगटेबल पर व्हीलचेयर में आ गई. खाने की मेज पर मां, पिताजी, भाभी, भैया सभी मेरे इंतजार में बैठे थे. मीता ने प्लेट में खाना परोस कर प्लेट मेरे सामने रखी तो मु?ो लगा मानो सभी लोग तरस खाईर् नजरों से मु?ो देख रहे हैं. अपने प्लास्टर चढ़े

पैर पर एक नजर डाल कर मैं चुपचाप खाने लगी थी. खाने के साथसाथ रुलाई भी छूट रही थी. कैसा अजीब वातावरण हो उठा था. पहले खाने की मेज पर बैठते ही पिताजी के कहकहे, भैया के चुटकुले, भाभी की चूडि़यों की खनखनाहट, मां की बनावटी ?ाल्लाहट से वातावरण खुशनुमा सा लगता था, लेकिन आज खाने से पहले हंसतेबोलने चेहरे मेज पर आते ही गुमसुम हो गए थे.

 

मैं सोच रही थी कि  घर में जो यह उदासी छा गई है, इस का कारण मैं ही तो हूं. मैं ने इसीलिए मां से कहा था कि मेरा खाना मेरे कमरे में पहुंचा दो, लेकिन वे तो रो पड़ीं. बोलीं, ‘‘तू अकेले कितना खाएगी, क्या मैं यह सम?ाती नहीं.’’ सुन कर मैं चुप हो गई. अचानक रात के 10 बजे

सागर आ गए. वे कार से आए थे. सामने देख कर मेरा खून बर्फ की तरह जम सा गया. हरकोई धड़कते दिल से अपनेअपने ढंग से अनुमान लगा रहा था. पिताजी ने सागर से कहा, ‘‘आप से

अनुरोध है कि शादी की तारीख कृपया न बदलें क्योंकि फिर बुकिंग न मिलने के कारण शादी अगले साल तक के लिए टल जाएगी. वैसे आप की जो इच्छा. आप की तसल्ली और विश्वास के लिए मैं सरिता का ऐक्सरे दे रहा हूं. कृपया बताएं क्या करें?’’ सागर ने आते ही मु?ो सब के सामने जोर से हग कर के सब को चौंका दिया. उस ने कहा, ‘‘सबकुछ वैसा ही होगा जैसा प्लान है, बस हनीमून कैंसिल. जब सरितता पूरी तरह ठीक होगी, तब देखेंगे,’’ सागर पूरी योजना सब को बता दी. उस ने साफ कह दिया कि शादी से पहले सरिता उस के मातापिता से नहीं मिलेगी क्योंकि न जाने वे क्या फैसले लें. शायद वे नहीं चाहेंगे कि उन की होने वाली बहू व्हीलचेयर पर शादी के मंडप में आए.

 

सागर ने हमारे 6 टिकट पहले करा दिए ताकि हम डैस्टिनेशन पर पहले पहुंच जाएं. मु?ो सोफे पर बैठा कर खूब तसवीरें ली गईं जिन में मेरे पैर छिपे हुए थे.

सब अपनेअपने कार्यक्रम के अनुसार डैस्टिनेशन होटल पहुंचे. सागर ने बहाना बना दिया कि प्री वैडिंग कार्यक्रमों में किसी कारण से मैं भाग नहीं ले पाऊंगी. सब मु?ा से कमरे में मिलने आते. मैं पलंग पर लेटेलेटे सब से मिलती. हम 6 यात्रियों में मम्मीपापा, मीता और भैया और भाभी के अलावा किसी को नहीं मालूम न था कि मेरे पैर की हड्डी टूटी है.

सागर के मातापिता भी आए. मु?ा से मिल कर गए. मैं डरी रही. सागर ने बड़ी बखूबी से मु?ो बैड पर लिटाए रखने के एक के बाद एक नए बहाने गढ़े. मेरे बिना कई रस्में हुईं और कईयों में मैं सब से पहले पहुंच कर बैठ जाती, बड़े से लंहगे में पैर छिपा कर और तभी उठती जब सब को सागर या मम्मीपापा किसी न किसी बहाने कहीं और ले जाते.

यह डैस्टिनेशन वैडिंग एक  बड़े होटल में हो रही थी जिस में सर्विस लिफ्ट से व्हीलचेयर पर चुपचाप इधर से उधर जाना संभव था. मेरा कमरा एकदम सर्विस लिफ्ट के बराबर या इसलिए कम को ही शक हुआ.

बरात निश्चित समय मैरिज होटल के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुंची. बरात में जो लड़कियां आई थीं, उन में मु?ो न देख कर खुसुरफुसुर हो रही थी. भाभी मेरे हाथों में मेहंदी लगा रही थीं. तभी 7-8 लड़कियां मु?ा से मिलने चली आईं. लेकिन मैं तो बैट पर लेटी थी और नकली छींके मार रही थी इसलिए देखते ही वे उलटे पैरों लौट गईं. जब पहली जयमाला वाली रस्म होनी थी तो मैं शान से व्हीलचेयर पर आई. सारे घर में सन्नाटा सा छा गया कि अब मुसीबत बेधड़क आ गई. असली ड्रामा तब शुरू हुआ जब विवाह मंडप में आयोजन के लिए बुलाया गया. मेरी और सागर की जिद के कारण मीता ही मु?ो लाल लहंगे में ले कर विवाह मंच पर पहुंची. सब के मुंह खुले रह गए. हमारी ओर के बरातियों के भी और सागर के संबंधियों को भी. सागर के पिता बरसने लगे, ‘‘यह क्या तमाशा है. क्या हम अपाहिज लड़की से शादी करने वाले हैं?’’

मैं अपमान से तिलमिला उठी. पापा ने सारी बात सागर के पापा को बताई तो भी वे शांत नहीं हुए. सागर इस दौरान चुप खड़ा रहा. तभी मैं बोल पड़ी, ‘‘नहीं करनी है मु?ो शादी, मेरा पैर कोई कट नहीं गया है. क्या जरूरत है पापा को गिड़गिड़ाने की? क्यों पापा दया की भीख मांग रहे हैं किसी के आगे?’’ बोलतेबोलते मेरा सारा शरीर कांपने लगा. तभी किसी रिश्तेदार ने कहा कि सागर की शादी मीता से कर दो, काम हो जाएगा. सागर यह सुन कर भी चुप था. पिताजी ने तो हां भी कह दी. लेकिन तभी सागर का असली रूप सामने आया. बोला, ‘‘पापा मेरा विवाह सरिता से ही होगा और शादी का जो समय तय है उसी में सबकुछ होगा. मु?ोे हड्डी टूटने की बात पहले दिन से पता है. यह सब मेरी इच्छा और हमारे भविष्य के सुख के लिए है.’’

सागर के प्रति मेरी सहानुभूति उमड़ आई. सोचने लगी कि मेरे लिए वह कितनी मुसीबत ?ोल रहा है. कुछ का उत्साह निचुड़ गया था. वातावरण में एक अजीब सा सूनापन भर उठा. पर फिर पूरे जोशखरोश से शादी का हर काम पूरा हुआ. मैं व्हीलचेयर पर और सागर मेरे

साथ खड़ा सैकड़ों फोटो में हमारा प्यार जाहिर हो रहा था.

जीवन संध्या में: कर्तव्यों को पूरा कर क्या साथ हो पाए प्रभाकर और पद्मा?

तनहाई में वे सिर झुकाए आरामकुरसी पर आंखें मूंदे लेटे हुए हैं. स्वास्थ्य कमजोर है आजकल. अपनी विशाल कोठी को किराए पर दे रखा है उन्होंने. अकेली जान के लिए 2 कमरे ही पर्याप्त हैं. बाकी में बच्चों का स्कूल चलता है.

बच्चों के शोरगुल और अध्यापिकाओं की चखचख से अहाते में दिनभर चहलपहल रहती है. परंतु शाम के अंधेरे के साथ ही कोठी में एक गहरा सन्नाटा पसर जाता है. आम, जामुन, लीची, बेल और अमरूद के पेड़ बुत के समान चुपचाप खड़े रहते हैं.

नौकर छुट्टियों में गांव गया तो फिर वापस नहीं आया. दूसरा नौकर ढूंढ़े कौन? मलेरिया बुखार ने तो उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा है. एक गिलास पानी के लिए तरस गए हैं. वे इतनी विशाल कोठी के मालिक हैं, मगर तनहा जिंदगी बिताने के लिए मजबूर हैं.

जिह्वा की मांग है कि कोई चटपटा व्यंजन खाएं, मगर बनाए कौन? अपने हाथों से कभी कुछ खास बनाया नहीं. नौकर था तो जो कच्चापक्का बना कर सामने रख देता, वे उसे किसी तरह गले के नीचे उतार लेते थे. बाजार जाने की ताकत नहीं थी.

स्कूल में गरमी की छुट्टियां चल रही हैं. रात में चौकीदार पहरा दे जाता है. पासपड़ोसी इस इलाके में सभी कोठी वाले ही हैं. किस के घर क्या हो रहा है, किसी को कोई मतलब नहीं.

आज अगर वे इसी तरह अपार धनसंपदा रहते हुए भी भूखेप्यासे मर जाएं तो किसी को कुछ पता भी नहीं चलेगा. उन का मन भर आया. डाक्टर बेटा सात समुंदर पार अपना कैरियर बनाने गया है. उसे बूढ़े बाप की कोई परवा नहीं. पत्नी की मृत्यु के बाद उन्होंने कितनी तकलीफ और यत्न से बच्चों को पाला है, वही जानते हैं. कभी भूल कर भी दूसरी शादी का नाम नहीं लिया. सौतेली मां के किस्से सुन चुके हैं. बेटी सालछह महीने में एकदो दिन के लिए आ जाती है.

‘बाबूजी, आप मेरे साथ चल कर रहिए,’ बेटी पूजा बड़े आग्रह से कहती.

‘क्यों, मुझे यहां क्या कमी है,’ वे फीकी हंसी हंसते .

‘कमी तो कुछ नहीं, बाबूजी. आप बेटी के पास नहीं रहना चाहते तो भैया के पास अमेरिका ही चले जाइए,’ बेटी की बातों पर वे आकाश की ओर देखने लगते.

‘अपनी धरती, पुश्तैनी मकान, कारोबार, यहां तेरी अम्मा की यादें बसी हुई हैं. इन्हें छोड़ कर सात समुंदर पार कैसे चला जाऊं? यहीं मेरा बचपन और जवानी गुजरी है. देखना, एक दिन तेरा डाक्टर भाई परिचय भी वापस अपनी धरती पर अवश्य आएगा.’

वे भविष्य के रंगीन सपने देखने लगते.

फाटक खुलने की आवाज पर वे चौंक उठे. दिवास्वप्न की कडि़यां बिखर गईं. ‘कौन हो सकता है इस समय?’

चौकीदार था. साथ में पद्मा थी.

‘‘अरे पद्मा, आओ,’’ प्रभाकरजी का चेहरा खिल उठा. पद्मा उन के दिवंगत मित्र की विधवा थी. बहुत ही कर्मठ और विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य न खोने वाली महिला.

‘‘तुम्हारी तबीयत अब कैसी है?’’ बोलते हुए वह कुरसी खींच कर बैठ गई.

‘‘तुम्हें कैसे पता कि मैं बीमार हूं?’’ वे आश्चर्य से बोले.

‘‘चौकीदार से. बस, भागी चली आ रही हूं. इसी से पता चला कि रामू भी घर चला गया है. मुझे  क्या गैर समझ रखा है? खबर क्यों नहीं दी?’’ पद्मा उलाहने देने लगी.

वे खामोशी से सुनते रहे. ये उलाहने उन के कानों में मधुर रस घोल रहे थे, तप्त हृदय को शीतलता प्रदान कर रहे थे. कोई तो है उन की चिंता करने वाला.

‘‘बोलो, क्या खाओगे?’’

‘‘पकौडि़यां, करारी चटपटी,’’ वे बच्चे की तरह मचल उठे.

‘‘क्या? तीखी पकौडि़यां? सचमुच सठिया गए हो तुम. भला बीमार व्यक्ति भी कहीं तलीभुनी चीजें खाता है?’’ पद्मा की पैनी बातों की तीखी धार उन के हृदय को चुभन के बदले सुकून प्रदान कर रही थी.

‘‘अच्छा, सुबह आऊंगी,’’ उन्हें फुलके और परवल का झोल खिला कर पद्मा अपने घर चली गई.

प्रभाकरजी का मन भटकने लगा. पूरी जवानी उन्होंने बिना किसी स्त्री के काट दी. कभी भी सांसारिक विषयवासनाओं को अपने पास फटकने नहीं दिया. कर्तव्य की वेदी पर अपनी नैसर्गिक कामनाओं की आहुति चढ़ा दी. वही वैरागी मन आज साथी की चाहना कर रहा है.

यह कैसी विडंबना है? जब बेटा 3 साल और बेटी 3 महीने की थी, उसी समय पत्नी 2 दिनों की मामूली बीमारी में चल बसी. उन्होंने रोते हुए दुधमुंहे बच्चों को गले से लगा लिया था. अपने जीवन का बहुमूल्य समय अपने बच्चों की परवरिश पर न्योछावर कर दिया. बेटे को उच्च शिक्षा दिलाई, शादी की, विदेश भेजा. बेटी को पिता की छाया के साथसाथ एक मां की तरह स्नेह व सुरक्षा प्रदान की. आज वह पति के घर में सुखी दांपत्य जीवन व्यतीत कर रही है.

पद्मा भी भरी जवानी में विधवा हो गई थी. दोनों मासूम बेटों को अपने संघर्ष के बल पर योग्य बनाया. दोनों बड़े शहरों में नौकरी करते हैं. पद्मा बारीबारी से बेटों के पास जाती रहती है. मगर हर घर की कहानी कुछ एक जैसी ही है. योग्य होने पर कमाऊ बेटों पर मांबाप से ज्यादा अधिकार उन की पत्नी का हो जाता है. मांबाप एक फालतू के बोझ समझे जाने लगते हैं.

पद्मा में एक कमी थी. वह अपने बेटों पर अपना पहला अधिकार समझती थी. बहुओं की दाब सहने के लिए वह तैयार नहीं थी, परिणामस्वरूप लड़झगड़ कर वापस घर चली आई. मन खिन्न रहने लगा. अकेलापन काटने को दौड़ता, अपने मन की बात किस से कहे.

प्रभाकर और पद्मा जब इकट्ठे होते तो अपनेअपने हृदय की गांठें खोलते, दोनों का दुख एकसमान था. दोनों अकेलेपन से त्रस्त थे और मन की बात कहने के लिए उन्हें किसी साथी की तलाश थी शायद.

प्रभाकरजी स्वस्थ हो गए. पद्मा ने उन की जीजान से सेवा की. उस के हाथों का स्वादिष्ठ, लजीज व पौष्टिक भोजन खा कर उन का शरीर भरने लगा.

आजकल पद्मा दिनभर उन के पास ही रहती है. उन की छोटीबड़ी जरूरतों को दौड़भाग कर पूरा करने में अपनी संतानों की उपेक्षा का दंश भूली हुई है. कभीकभी रात में भी यहीं रुक जाती है.

हंसीठहाके, गप में वे एकदूसरे के कब इतने करीब आ गए, पता ही नहीं चला. लौन में बैठ कर युवकों की तरह आपस में चुहल करते. मन में कोई बुरी भावना नहीं थी, परंतु जमाने का मुंह वे कैसे बंद करते? लोग उन की अंतरंगता को कई अर्थ देने लगे. यहांवहां कई तरह की बातें उन के बारे में होने लगीं. इस सब से आखिर वे कब तक अनजान रहते. उड़तीउड़ती कुछ बातें उन तक भी पहुंचने लगीं.

2 दिनों तक पद्मा नहीं आई. प्रभाकरजी का हृदय बेचैन रहने लगा. पद्मा के सुघड़ हाथों ने उन की अस्तव्यस्त गृहस्थी को नवजीवन दिया था. भला जीवनदाता को भी कोई भूलता है. दिनभर इंतजार कर शाम को पद्मा के यहां जा पहुंचे. कल्लू हलवाई के यहां से गाजर का हलवा बंधवा लिया. गाजर का हलवा पद्मा को बहुत पसंद है.

गलियों में अंधेरा अपना साया फैलाने लगा था. न रोशनी, न बत्ती, दरवाजा अंदर से बंद था. ठकठकाने पर पद्मा ने ही दरवाजा खोला.

‘‘आइए,’’ जैसे वह उन का ही इंतजार कर रही थी. पद्मा की सूजी हुई आंखें देख कर प्रभाकर ठगे से रह गए.

‘‘क्या बात है? खैरियत तो है?’’ कोई जवाब न पा कर प्रभाकर अधीर हो उठे. अपनी जगह से उठ पद्मा का आंसुओं से लबरेज चेहरा उठाया. तकिए के नीचे से पद्मा ने एक अंतर्देशीय पत्र निकाल कर प्रभाकर के हाथों में पकड़ा दिया.

कोट की ऊपरी जेब से ऐनक निकाल कर वे पत्र पढ़ने लगे. पत्र पढ़तेपढ़ते वे गंभीर हो उठे, ‘‘ओह, इस विषय पर तो हम ने सोचा ही नहीं था. यह तो हम दोनों पर लांछन है. यह चरित्रहनन का एक घिनौना आरोप है, अपनी ही संतानों द्वारा,’’ उन का चेहरा तमतमा उठा. उठ कर बाहर की ओर चल पड़े.

‘‘तुम तो चले जा रहे हो, मेरे लिए कुछ सोचा है? मुझे उन्हें अपनी संतान कहते हुए भी शर्म आ रही है.’’

पद्मा हिलकहिलक कर रोने लगी. प्रभाकर के बढ़ते कदम रुक गए. वापस कुरसी पर जा बैठे. कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था.

‘‘क्या किया जाए? जब तुम्हारे बेटों को हमारे मिलनेजुलने में आपत्ति है, इस का वे गलत अर्थ लगाते हैं तो हमारा एकदूसरे से दूर रहना ही बेहतर है. अब बुढ़ापे में मिट्टी पलीद करानी है क्या?’’ उन्हें अपनी ही आवाज काफी दूर से आती महसूस हुई.

पिछले एक सप्ताह से वे पद्मा से नहीं मिल रहे हैं. तबीयत फिर खराब होने लगी है. डाक्टर ने पूर्णआराम की सलाह दी है. शरीर को तो आराम उन्होंने दे दिया है पर भटकते मन को कैसे विश्राम मिले?

पद्मा के दोनों बेटों की वैसे तो आपस में बिलकुल नहीं पटती है, मगर अपनी मां के गैर मर्द से मेलजोल पर वे एकमत हो आपत्ति प्रकट करने लगे थे.

पता नहीं उन के किस शुभचिंतक ने प्रभाकरजी व पद्मा के घनिष्ठ संबंध की खबर उन तक पहुंचा दी थी.

प्रभाकरजी का रोमरोम पद्मा को पुकार रहा था. जवानी उन्होंने दायित्व निर्वाह की दौड़भाग में गुजार दी थी. परंतु बुढ़ापे का अकेलापन उन्हें काटने दौड़ता था. यह बिना किसी सहारे के कैसे कटेगा, यह सोचसोच कर वे विक्षिप्त से हो जाते. कोई तो हमसफर हो जो उन के दुखसुख में उन का साथ दे, जिस से वे मन की बातें कर सकें, जिस पर पूरी तरह निर्भर हो सकें. तभी डाकिए ने आवाज लगाई :

‘‘चिट्ठी.’’

डाकिए के हाथ में विदेशी लिफाफा देख कर वे पुलकित हो उठे. जैसे चिट्ठी के स्थान पर स्वयं उन का बेटा परिचय खड़ा हो. सच, चिट्ठी से आधी मुलाकात हो जाती है. परिचय ने लिखा है, वह अगले 5 वर्षों तक स्वदेश नहीं आ सकता क्योंकि उस ने जिस नई कंपनी में जौइन किया है, उस के समझौते में एक शर्त यह भी है.

प्रभाकरजी की आंखों के सामने अंधेरा छा गया. उन की खुशी काफूर हो गई. वे 5 वर्ष कैसे काटेंगे, सिर्फ यादों के सहारे? क्या पता वह 5 वर्षों के बाद भी भारत आएगा या नहीं? स्वास्थ्य गिरता जा रहा है. कल किस ने देखा है. वादों और सपनों के द्वारा किसी काठ की मूरत को बहलाया जा सकता है, हाड़मांस से बने प्राणी को नहीं. उस की प्रतिदिन की जरूरतें हैं. मन और शरीर की ख्वाहिशें हैं. आज तक उन्होंने हमेशा अपनी भावनाओं पर विजय पाई है, मगर अब लगता है कि थके हुए तनमन की आकांक्षाओं को यों कुचलना आसान नहीं होगा.

बेटी ने खबर भिजवाई है. उस के पति 6 महीने के प्रशिक्षण के लिए दिल्ली जा रहे हैं. वह भी साथ जा रही है. वहां से लौट कर वह पिता से मिलने आएगी.

वाह री दुनिया, बेटा और बेटी सभी अपनीअपनी बुलंदियों के शिखर चूमने की होड़ में हैं. बीमार और अकेले पिता के लिए किसी के पास समय नहीं है. एक हमदर्द पद्मा थी, उसे भी उस के बेटों ने अपने कलुषित विचारों की लक्ष्मणरेखा में कैद कर लिया. यह दुनिया ही मतलबी है. यहां संबंध सिर्फ स्वार्थ की बुनियाद पर विकसित होते हैं. उन का मन खिन्न हो उठा.

‘‘प्रभाकर, कहां हो भाई?’’ अपने बालसखा गिरिधर की आवाज पहचानने में उन्हें भला क्या देर लगती.

‘‘आओआओ, कैसे आना हुआ?’’

‘‘बिटिया की शादी के सिलसिले में आया था. सोचा तुम से भी मिलता चलूं,’’ गिरिधरजी का जोरदार ठहाका गूंज उठा.

हंसना तो प्रभाकरजी भी चाह रहे थे, परंतु हंसने के उपक्रम में सिर्फ होंठ चौड़े हो कर रह गए. गिरिधर की अनुभवी नजरों ने भांप लिया, ‘दाल में जरूर कुछ काला है.’

शुरू में तो प्रभाकर टालते रहे, पर धीरेधीरे मन की परतें खुलने लगीं. गिरिधर ने समझाया, ‘‘देखो मित्र, यह समस्या सिर्फ तुम्हारी और पद्मा की नहीं है बल्कि अनेक उस तरह के विधुर  और विधवाओं की है जिन्होंने अपनी जवानी तो अपने कर्तव्यपालन के हवाले कर दी, मगर उम्र के इस मोड़ पर जहां न वे युवा रहते हैं और न वृद्ध, वे नितांत अकेले पड़ जाते हैं. जब तक उन के शरीर में ताकत रहती है, भुजाओं में सारी बाधाओं से लड़ने की हिम्मत, वे अपनी शारीरिक व मानसिक मांगों को जिंदगी की भागदौड़ की भेंट चढ़ा देते हैं.

‘‘बच्चे अपने पैरों पर खड़े होते ही अपना आशियाना बसा लेते हैं. मातापिता की सलाह उन्हें अनावश्यक लगने लगती है. जिंदगी के निजी मामले में हस्तक्षेप वे कतई बरदाश्त नहीं कर पाते. इस के लिए मात्र हम नई पीढ़ी को दोषी नहीं ठहरा सकते. हर कोई अपने ढंग से जीवन बिताने के लिए स्वतंत्र होता है. सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ना ही तो दुनियादारी है.’’

‘‘बात तो तुम्हारी ठीक है, परंतु पद्मा और मैं दोनों बिलकुल अकेले हैं. अगर एकसाथ मिल कर हंसबोल लेते हैं तो दूसरों को आपत्ति क्यों होती है?’’ प्रभाकरजी ने दुखी स्वर में कहा.

‘‘सुनो, मैं सीधीसरल भाषा में तुम्हें एक सलाह देता हूं. तुम पद्मा से शादी क्यों नहीं कर लेते?’’ उन की आंखों में सीधे झांकते हुए गिरधर ने सामयिक सुझाव दे डाला.

‘‘क्या? शादी? मैं और पद्मा से? तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है? लोग क्या कहेंगे? हमारी संतानों पर इस का क्या असर पड़ेगा? जीवन की इस सांध्यवेला में मैं विवाह करूं? नहींनहीं, यह संभव नहीं,’’ प्रभाकरजी घबरा उठे.

‘‘अब लगे न दुहाई देने दुनिया और संतानों की. यही बात लोगों और पद्मा के बेटों ने कही तो तुम्हें बुरा लगा. विवाह करना कोई पाप नहीं. जहां तक जीवन की सांध्यवेला का प्रश्न है तो ढलती उम्र वालों को आनंदमय जीवन व्यतीत करना वर्जित थोड़े ही है. मनुष्य जन्म से ले कर मृत्यु तक किसी न किसी सहारे की तलाश में ही तो रहता है. पद्मा और तुम अपने पवित्र रिश्ते पर विवाह की सामाजिक मुहर लगा लो. देखना, कानाफूसियां अपनेआप बंद हो जाएंगी. रही बात संतानों की, तो वे भी ठंडे दिमाग से सोचेंगे तो तुम्हारे निर्णय को बिलकुल उचित ठहराएंगे. कभीकभी इंसान को निजी सुख के लिए भी कुछ करना पड़ता है. कुढ़ते रह कर तो जीवन के कुछ वर्ष कम ही किए जा सकते हैं. स्वाभाविक जीवनयापन के लिए यह महत्त्वपूर्ण निर्णय ले कर तुम और पद्मा समाज में एक अनुपम और प्रेरक उदाहरण प्रस्तुत करो.’’

‘‘क्या पद्मा मान जाएगी?’’

‘‘बिलकुल. पर तुम पुरुष हो, पहल तो तुम्हें ही करनी होगी. स्त्री चाहे जिस उम्र की हो, उस में नारीसुलभ लज्जा तो रहती ही है.’’

गिरिधर के जाने के बाद प्रभाकर एक नए आत्मविश्वास के साथ पद्मा के घर की ओर चल पड़े, अपने एकाकी जीवन को यथार्थ के नूतन धरातल पर प्रतिष्ठित करने के लिए. जीवन की सांध्यवेला में ही सही, थोड़ी देर के लिए ही पद्मा जैसी सहचरी का संगसाथ और माधुर्य तो मिलेगा. जीवनसाथी मनोनुकूल हो तो इंसान सारी दुनिया से टक्कर ले सकता है. इस छोटी सी बात में छिपे गूढ़ अर्थ को मन ही मन गुनगुनाते वे पद्मा का बंद दरवाजा एक बार फिर खटखटा रहे थे.

पतिया सास: आखिर क्यों पति कपिल से परेशान थी उसकी पत्नी?

कविता ने टाइम देखा. घड़ी को 6 बजाते देख चौंक गई. कपिल औफिस से आते ही होंगे. किट्टी पार्टी तो खत्म हो गई थी, पर सब अभी भी गप्पें मार रही थीं. किसी को घर जाने की जल्दी नहीं थी.

कविता ने अपना पर्स संभालते हुए कहा, ‘‘मैं चलती हूं, 6 बज गए हैं.’’

नीरा ने आंखें तरेरीं, ‘‘तुझे क्या जल्दी है? मियाबीवी अकेले हो. मुझे देखो, अभी जाऊंगी तो सास का मुंह बना होगा, यह सोच कर अपना यह आनंद तो नहीं छोड़ सकती न?’’

अंजलि ने भी कहा, ‘‘और क्या… कविता, तुझे क्या जल्दी है?  हम कौन सा रोजरोज मिलते हैं?’’

‘‘हां, पर कपिल आने वाले होंगे.’’

‘‘तो क्या हुआ? पति है, सास नहीं. आराम से बैठ, चलते हैं अभी.’’

कविता बैठ तो गई पर ध्यान कपिल और घर की तरफ ही था. दोपहर वह टीवी पर पुरानी मूवी देखने बैठ गई थी. सारा काम पड़ा रह गया था. घर बिखरा सा था. उस के कपड़े भी बैडरूम में फैले थे. ड्राइंगरूम भी अव्यवस्थित था.

वह तो 4 बजे तैयार हो कर पार्टी के लिए निकल आई थी. उसे अपनी सहेलियों के साथ मजा तो आ रहा था, पर घर की अव्यवस्था उसे चैन नहीं लेने दे रही थी.

वह बैठ नहीं पाई. उठ गई. बोली, ‘‘चलती हूं यार, घर पर थोड़ा काम है.’’

‘‘हां, तो जा कर देख लेना, कौन सी तेरी सास है घर पर, आराम से कर लेना,’’

सीमा झुंझलाई, ‘‘ऐसे डर रही है जैसे सास हो घर पर.’’

कविता मुसकराती हुई सब को बाय कह कर निकल आई. घर कुछ ही दूरी पर था. सोचा कि आज शाम की सैर भी नहीं हो पाई, हैवी खाया है, थोड़ा पैदल चलती हूं, चलना भी हो जाएगा. फिर वह थोड़े तेज कदमों से घर की तरफ बढ़ गई. सहेलियों की बात याद कर मन ही मन मुसकरा दी कि कह रही थीं कि सास थोड़े ही है घर पर… उन्हें क्या बताऊं चचिया सास, ददिया सास तो सब ने सुनी होंगी, पता नहीं पतिया सास किसी ने सुनी भी है या नहीं.

‘पति या सास’ पर वह सड़क पर अकेली हंस दी. जब उस का विवाह हुआ, सब सहेलियों ने ईर्ष्या करते हुए कहा था, ‘‘वाह कविता क्या पति पाया है. न सास न ससुर, अकेला पति मिला है. कोई देवरननद का चक्कर नहीं. तू तो बहुत ठाट से जीएगी.’’

कविता को भी यही लगा था. खुद पर इतराती कपिल से विवाह के बाद वह दिल्ली से मुंबई आ गई थी. कपिल ने अकेले जीवन जीया है, वह उसे इतना प्यार देगी कि वे अपना सारा अकेलापन भूल जाएंगे. बस, वह होगी, कपिल होंगे, क्या लाइफ होगी.

कपिल जब 3 साल के थे तभी उन के मातापिता का देहांत हो गया था. कपिल को उन के मामामामी ने ही दिल्ली में पालापोसा था, नौकरी मिलते ही कपिल मुंबई आ गए थे.

खूब रंगीन सपने संजोए कविता ने घरगृहस्थी संभाली तो 1 महीने में ही उसे महसूस हो गया कि कपिल को हर बात, हर चीज अपने हिसाब से करने की आदत है. हमेशा अकेले ही सब मैनेज करने वाले कपिल को 1-1 चीज अपनी जगह साफसुथरी और व्यवस्थित चाहिए होती थी. घर में जरा भी अव्यवस्था देख कर कर चिढ़ जाते थे.

कविता को प्यार बहुत करते थे पर बातबात में उन की टोकाटाकी से कविता को समझ आ गया था कि सासससुर भले ही नहीं हैं पर उस के जीवन में कपिल ही एक सास की भूमिका अदा करेंगे और उस ने अपने मन में कपिल को नाम दे दिया था पतिया सास.

कपिल जब कभी टूअर पर जाते तो कविता को अकेलापन तो महसूस होता पर सच में ऐसा ही लगता है जैसे अब घर में उसे बातबात पर कोई टोकेगा नहीं. वह अंदाजा लगाती है, सहेलियों को सास के कहीं जाने पर ऐसा ही लगता होगा. वह फिर जहां चाहे सामान रखती है, जब चाहे काम करती है. ऐसा नहीं कि वह स्वयं अव्यवस्थित इनसान है पर घर घर है कोई होटल तो नहीं. इनसान को सुविधा हो, आराम हो, चैन हो, यह क्या जरा सी चीज भी घर में इधरउधर न हो. शाम को डोरबैल बजते ही उसे फौरन नजर डालनी पड़ती है कि कुछ बिखरा तो नहीं है. पर कपिल को पता नहीं कैसे कहीं धूल या अव्यवस्था दिख ही जाती. फिर कभी चुप भी तो नहीं रहते. कुछ न कुछ बोल ही देते हैं.

यहां तक कि जब किचन में भी आते हैं तो कविता को यही लगता है कि साक्षात सासूमां आ गई हैं, ‘‘अरे यह डब्बा यहां क्यों रखती हो? फ्रिज इतना क्यों भरा है? बोतलें खाली क्यों हैं? मेड ने गैस स्टोव ठीक से साफ नहीं किया क्या? उसे बोलो कभी टाइल्स पर भी हाथ लगा ले.’’

कई बार कविता कपिल को छेड़ते हुए कह भी देती, ‘‘तुम्हें पता है तुम टू इन वन हो.’’

वे पूछते हैं, ‘‘क्यों?’’

‘‘तुम में मेरी सास भी छिपी है. जो सिर्फ मुझे दिखती है.’’

इस बात पर कपिल झेंपते हुए खुले दिल से हंसते तो वह भी कुछ नहीं कह पाती. सालों पहले उस ने सोच लिया था कि इस पतिया सास को जवाब नहीं देगी. लड़ाईझगड़ा उस की फितरत में नहीं था. जानती थी टोकाटाकी होगी. ठीक है, होने दो, क्या जाता है, एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देती हूं. अब तो विवाह को 20 साल हो गए हैं. एक बेटी है, सुरभि. सुरभि के साथ मिल कर वह अकसर इस पतिया सास को छेड़ती रहती है. 2 ही तो रास्ते हैं या तो वह भी बहू बन कर इस पतिया सास से लड़ती रहे या फिर रातदिन होने वाली टोकाटाकी की तरफ ध्यान ही न दे जैसाकि वह सचमुच सास होने पर करती.

सुरभि भी क्लास से आती होगी. यह सोचतेसोचते वह अपनी बिल्डिंग तक पहुंची ही थी कि देखा कपिल भी कार से उतर रहे थे. कविता को देख कर मुसकराए. कविता भी मुसकराई और घर जा कर होने वाले वार्त्तालाप का अंदाजा लगाया, ‘‘अरे ये कपड़े क्यों फैले हैं? क्या करती हो तुम? 10 मिनट का काम था… यह सुरभि का चार्जर अभी तक यहीं रखा है, वगैरहवगैरह.’’

कपिल के साथ ही वह लिफ्ट से ऊपर आई. घर का दरवाजा खोल ही रही थी कि कपिल ने कहा, ‘‘कविता, कल मेड से दरवाजा साफ करवा लेना, काफी धूल जमी है दरवाजे पर.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर कविता ने मन ही मन कहा कि आ गई पतिया सास, कविता, सावधान.

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