ईगल के पंख : आखिर वह बच्ची अपनी मां से क्यों नफरत करती थी?

Writer- Naresh Kaushik

नवंबर का महीना. हलकी ठंड और ऊपर से झामाझम बारिश. नवंबर के महीने में उस ने अपनी याद में कभी ऐसी बारिश नहीं देखी थी. खिड़की से बाहर दूर अक्षरधाम मंदिर रोशनी में नहाया हुआ शांत खड़ा था. रात के 11 बजने वाले थे और यह शायद आखिरी मैट्रो अक्षरधाम स्टेशन से अभीअभी गुजरी थी.

‘‘अंकल… अंकल… प्लीज आज आप यहीं रुक जाओ मेरे पास,’’ रूही की आवाज सुन कर उस का ध्यान भंग हुआ.

बर्थडे पार्टी खत्म हो चुकी थी. पड़ोस के बच्चे सब खापी कर, मस्ती कर अपनेअपने घर चले गए थे. अब कमरे में केवल वे 3 ही लोग थे. समीरा, 6 साल की बेटी रूही और प्रशांत.

‘‘मम्मा? आप अंकल को रुकने के लिए बोलो,’’ रूही ने प्रशांत का लाया गिफ्ट पैकेट खोलते हुए कहा.

बार्बी डौल देख कर वह फिर खुशी से चिल्लाई,’’ अंकल यू आर सो लवली. थैंक्यू, थैंक्यू, थैंक्यू…’’ कहते हुए रूही प्रशांत के गले से लिपट गई, ‘‘अब तो मैं आप को बिलकुल नहीं जाने दूंगी,’’ रूही ने फिर से कहा और उछल कर सोफे पर बैठे प्रशांत की गोदी में बैठ गई.

रूही ही क्यों, आज तो समीरा का भी मन था कि प्रशांत यहीं रुक जाए. उस के पास उस के करीब. बेहद करीब, समीरा की सोचने भर से धड़कनें बढ़ने लगीं.

प्रशांत ने नजरें उठा कर समीरा की ओर देखा, ‘‘रूही बेटा, अंकल तो रुकने को तैयार हैं लेकिन मम्मा से तो परमिशन लेनी ही पड़ेगी न,’’ उस की नजरों में एक शरारत थी.

प्रशांत की नजरों से समीरा की नजरें टकराईं. वो समझ गई थी. एक बारिश बाहर हो रही थी और एक तूफान दोनों के भीतर घुमड़ रहा था. सारे बांधों को तोड़ने को बेताब. उसे एक डर सा लगा और उस ने न जाने क्या सोच कर रूही को मना कर दिया

प्रशांत रिश्ते में उस का देवर था और जब वह ब्याह कर गांव आई थी तो तभी समझ गई थी कि वह सुधांशु का कितना मुंह लगा है. सुधांशु ने तो सब के सामने कह दिया था, ‘‘प्रशांत मेरा ममेरा भाई ही नहीं मेरा जिगरी दोस्त भी है. समीरा, तुम्हें मेरे साथ इस के नखरे भी उठाने होंगे.’’

और जब कैंसर से शादी के 4 साल बाद  सुधांशु समीरा को बेसहारा छोड़ गया तो प्रशांत ने ही उसे संभाला था. पति की मौत के बाद सारे रिश्ते ऐसे धुंधले पड़ गए थे मानो किसी ने कागज पर लिखे हरफों पर पानी गिरा दिया हो.

डैथ सर्टिफिकेट लेने से ले कर सुधांशु के बैंक अकाउंट, एलआईसी पौलिसी क्लेम के लिए भागदौड़ करने से ले कर 2 कमरे का यह छोटा सा फ्लैट समीरा के नाम करवाने जैसे सारे जरूरी काम प्रशांत ने ही किए.

यह संयोग ही था कि सुधांशु की मौत से कोई सालभर पहले ही प्रशांत का तबादला लखनऊ से दिल्ली हो गया था. 2 साल गुजर चुके थे सुधांशु को गए.

6 महीने बाद ही उस ने स्कूल फिर से जौइन कर लिया. सरकारी स्कूल में टीचर थी तो उस के सामने यह सवाल नहीं था कि अब रोजीरोटी कैसे चलेगी.

पहले तो समीरा के दिमाग में कोई बात आई ही नहीं. प्रशांत जो भागभाग कर उस की मदद कर रहा था, उस में उसे अपने लिए कुछ नहीं लगा था. वह यही सोचती रही कि सुधांशु का जिगरी दोस्त और भाई होने के नाते शायद वह अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है.

मगर एक दिन शाम होने वाली थी. सूरज का बड़ा सा गोला अक्षरधाम मंदिर के पीछे छिपने ही वाला था. सोचा चाय बना ले, उस के बाद शाम के खाने का कुछ इंतजाम करेगी. रूही खिड़की के पास ही कुरसी पर बैठी अपना होमवर्क कर रही थी.

तभी अचानक दरवाजे की घंटी बजी. इस वक्त कौन होगा? यह सोचते हुए वह उठी और दरवाजा खोला तो देखा सामने प्रशांत खड़ा था. हाथ में फूलों का गुलदस्ता लिए, ‘‘हैप्पी बर्थडे माई डियर समीरा भाभी,’’ उस ने चहकते हुए कहा.

समीरा बड़ी हैरान हुई. उसे तो खुद याद नहीं था कि आज उस का जन्मदिन है. प्रशांत लाल गुलाबों का बड़ा सा बुके ले कर आया था. उस के बाद तो जैसे प्रशांत  उस के लिए फूल लाने का बहाना ही ढूंढ़ने लगा था. कभी भी शाम को आ कर दरवाजे की घंटी बजा देता और कहता, ‘‘आज शाम बेहद खूबसूरत है. आप की जुल्फों की तरह. ये फूल आप की जुल्फों के नाम, ये फूल आप की मुसकराहट के नाम, ये फूल आज की सुरमई शाम के नाम.’’

पहले तो उसे लगा प्रशांत उस का मन बहलाने के लिए ऐसी हरकतें कर रहा है लेकिन एक दिन रसोई में जब वह खाना बना रही थी और रूही ट्यूशन गई थी तो प्रशांत मदद के बहाने उस से बेहद सट कर खड़ा हो गया. उसे अपनी गरदन पर उस की गरम सांसें दहकती सी लगीं. अचानक लगा  उस के भीतर भी कोई आग धधक उठी है जो अभी तक राख के नीचे दबी पड़ी थी.

अब समीरा के कान भी दरवाजे की घंटी की आवाज सुनने को बेचैन रहने लगे थे. यह बात तो वह भी सम?ा रही थी कि अब प्रशांत और उस के बीच की सारी दूरियां मिटने वाली हैं, बस कब वह क्षण आएगा, उसे इसी का इंतजार था.

भीतर से कहीं सवाल भी उठ रहे थे, यह तुम क्या करने जा रही हो. एक बच्ची की मां हो. क्या सीखेगी रूही तुम से?

मगर तुरंत ही वह अपने बचाव में उठ खड़ी होती कि मैं अपने तन की, मन की चाहतों को कहां दफन कर दूं? क्यों मैं अपनी ख्वाहिशों का कत्ल कर आत्महत्या करूं? और प्रशांत वह रूही को भी तो कितना प्यार करता है. एक बाप की तरह. मैं रूही की खुशियों के लिए ये सब कर रही हूं. रूही की खुशियां. यही तर्क दे कर वह सब सवालों पर परदा डाल देती. मगर ये सवाल हर वक्त उसे घेरे रहते.

प्रशांत का फोन आया था, ‘‘सिम्मी तैयार रहना, फिल्म देखने चलेंगे, नाइट शो. हां, रूही को पड़ोस की आंटी के पास छोड़ देना.’’

समीरा भाभी की जगह अब वह सिम्मी हो गई थी. प्रशांत की आवाज सुन कर ही समीरा का रोमरोम उन्मादित होने लगता था और आज तो फिल्म जाने का प्रोगाम बन चुका था. उस ने अपनी कमनीय देह पर नजर डाली कि अभी उम्र ही कितनी है मेरी. मात्र 28 साल. उसे अपने सौंदर्य पर गरूर हो आया जैसे कभी कालेज के जमाने में होता था.

वह सबकुछ भूल गई और भूल भी जाना चाहती थी. उस ने अलमारी से शिफौन की सुर्ख रंग की साड़ी निकाली और स्लीवलैस ब्लाउज. उस ने साड़ी पहनी भी अलग अंदाज में. शिफौन की नाभिदर्शना साड़ी और स्लीवलैस ब्लाउज में वह कयामत ढा रही थी.

दरवाजे की घंटी बजी तो उस ने भाग कर दरवाजा खोला. प्रशांत उसे देखता ही रह गया. दरवाजा बंद कर उस ने समीरा को कस कर बांहों में भर लिया. समीरा भी उस की मजबूत बांहों के गरम घेरे में पिघल जाना चाहती थी.

‘‘जल्दी चलो, पिक्चर का वक्त हो गया है,’’ उस ने खुद को प्रशांत की बांहों से छुड़ाते हुए कहा.

‘‘रूही… रूही बेटा…’’ उस ने आवाज लगाई.

‘‘बेटा, मम्मा और अंकल बाजार जा रहे हैं. आप सामने वाली आंटी के यहां रह जाना थोड़ी देर.’’

रूही ने कुछ नहीं कहा लेकिन वह समीरा को अजीब तरीके से देख रही थी आज. जैसेकि अपनी ही मां को पहचान नहीं पा रही हो. प्रशांत के लिए भी रूही की नजरों में कुछ ऐसे भाव थे कि समीरा भीतर तक हिल गई.

परदे पर फिल्म चलती रही और उस के भीतर घमासान. प्रशांत ने कई बार उसे बांहों में भरने, उसे छूने की कोशिश की लेकिन आज उस के भीतर कोई और ही तूफान चल रहा था. उस ने प्रशांत के हाथों को ?ाटक दिया.

रात घर लौटी तो रूही सो चुकी थी. उस ने प्रशांत से भीतर आने को भी नहीं कहा. वह भी समीरा का बरताव देख कर परेशान था.

समीरा ने बगल में लेटी रूही के बालों में हाथ फिराया. उस के दिमाग का तूफान थमने का नाम नहीं ले रहा था. सवाल पर सवाल.

‘इस में रूही की भी तो खुशी है?’ उस के मन ने फिर से बचाव के लिए हथियार उठा लिया.

‘अपनी वासना की पूर्ति को रूही की खुशी का नाम मत दो. तुम्हें क्या लगता है प्रशांत रूही को अपने बच्चे की तरह प्यार करता है? धिक्कार है तुम पर समीरा. तुम और प्रशांत अपनी शारीरिक भूख को मिटाने के लिए एक नन्ही बच्ची का इस्तेमाल कर रहे हो.’

आज तुम ने देखा नहीं रूही की आंखों में तुम्हारे और प्रशांत के लिए कैसा भाव था? एक

6 साल की बच्ची को जब रिश्ते की सचाई समझ आ रही है तो क्या वह बड़ी हो कर तुम्हें माफ कर पाएगी? क्या उस की नजरों में तुम्हारा मां का दर्जा कायम रहेगा? समीरा भोग का नाम जिंदगी नहीं है. इच्छाओं और वासनाओं में फर्क होता है. वासनाओं की पूर्ति में खुशी नहीं है. भोग कर तो धरती से न जाने कितने अरबों लोग चले गए लेकिन इतिहास ने उन्हीं को याद रखा है जिन्होंने त्याग किया, जिन्होंने खुद को तपाया. तुम्हें आज भोग और त्याग के बीच में से किसी एक को चुनना होगा.

समीरा, भोग रसातल है जिस की कोई थाह नहीं है और त्याग हिमालय की ऊंचाई है और क्या सिखाओगी रूही को? भोग के सहारे जिंदगी काटना आसान होता है लेकिन ऐसी जिंदगी परजीवी की जिंदगी से बदतर होती है. याद रखो, भोगने की शरीर की एक सीमा होती है लेकिन त्याग और समर्पण की मजबूती का दुनिया में कोई मुकाबला नहीं कर सकता. यह तुम्हें तय करना है, तुम अपनी बच्ची को कैसे संस्कार देना चाहती हो. भोग या त्याग. उफ यह कैसा तूफान उठ रहा था समीरा के दिमाग में.

इन्हीं सब सवालों से रातभर जू?ाती रही समीरा. एक पल को भी पलकें नहीं मूंद पाई. पलकें तो नहीं लेकिन उस ने जिंदगी के एक अध्याय को बंद करने का फैसला जरूर कर लिया था. अब भीतर के सारे सवाल मिट चुके थे. अगले दिन संडे था. समीरा रातभर न सोने के बावजूद खुद को तरोताजा महसूस कर रही थी.

दिनभर रूही के साथ ऐसे ही निकल गया. रूही नन्ही जान. रात की बात भूल चुकी थी. शाम होते ही फिर से दरवाजे की घंटी बज उठी.

उस ने दरवाजा खोला… और कौन होता. वह किचन में जा कर चाय का पानी चढ़ा कर ड्राइंगरूम में आ गई. प्रशांत उस के करीब जाने का मौका ढूंढ़ रहा था और वह ऐसा कोई मौका नहीं देना चाहती थी. प्रशांत बीती रात के उस के बरताव की वजह जानना चाहता था.

उस ने चाय और नाश्ता ट्रे में लगा कर टेबल पर रख दिया. खिड़की से खुला आसमान नजर आ रहा था.

दूर आसमान में पंछी उड़ रहे थे. हर रोज की तरह अक्षरधाम मंदिर के पीछे सूरज डूब रहा था.

‘‘मम्मा, वह आसमान में ईगल उड़ रही है न.’’

‘‘हां बेटा…’’ समीरा ने प्यार से जवाब दिया और चाय का प्याला प्रशांत की ओर बढ़ाया.

‘‘मम्मा, क्या ईगल सीढ़ी लगा कर इतने ऊंचे आसमान तक जाती है?’’ रूही के सवाल पर प्रशांत हंस दिया.

‘‘नहीं बेटा, ईगल के अपने पंख इतने मजबूत होते हैं कि उसे किसी के सहारे की जरूरत ही नहीं पड़ती. वह सारे आसमान में उड़ती है लेकिन सिर्फ और सिर्फ अपने पंखों के सहारे,’’ समीरा ने जवाब दिया.

‘‘बेटा, अपने पंख मजबूत हों तो तुम कहीं तक की भी उड़ान भर सकते हो, सीढ़ी के सहारे आसमान में नहीं उड़ा जा सकता,’’ समीरा ने खिड़की के पास खड़ी रूही के बालों में उंगलिया घुमाते हुए कहा और प्रशांत की ओर देखा.

प्रशांत उस की निगाहों की ताब न ला सका. आज समीरा की आंखों में एक भूख, एक लालसा, एक समर्पण की जगह गजब का आत्मविश्वास था. यह क्या हो गया था समीरा को? लेकिन कुछकुछ उसे भी समझ आ रहा था. चाय खत्म की और प्रशांत बिना कुछ कहे उठ कर चला गया.

समीरा ने रूही को गले से लगाया और उस का माथा चूम लिया, ‘‘मेरी रूही भी ईगल की तरह मजबूत पंखों वाली बनेगी और आसमान में उड़ेगी. हमें नहीं चाहिए सीढ़ी.’’

‘‘मम्मा, आप इस सूट में बहुत अच्छी लग रही हो. रात वाली साड़ी आप कभी मत पहनना. मम्मा कल रात मैं डर गई थी, मुझे लगा था आप मुझे छोड़ कर जा रही हो.’’

समीरा ने रूही को और कस कर गले से लगा लिया.

एक ही छत के नीचे : बहन की शादीशुदा जिंदगी बचाने के लिए क्या फैसला लिया उसने?

परसों ही मेरी बड़ी बहन 10 दिन रहने को कह कर आई थीं और अभी कुछ ही देर पहले चली गई हैं. मुझ से नाराज हो कर अपना सामान बांधा और चल दीं. गुस्से में अपना सामान भी ठीक तरह से नहीं संभाल पाईं. इधरउधर पड़ी रह गई चीजें इस बात का प्रमाण हैं कि वे इस घर से जल्दी से जल्दी जाना चाहती थीं. कितनी दुखी हूं मैं उन के इस तरह अचानक चले जाने से. उन्हें समझा कर हार गई लेकिन दीदी ने कभी किसी को सोचनेसमझाने का प्रयत्न ही कहां किया है? उन का स्वभाव मैं अच्छी तरह जानती हूं. बचपन से ही झगड़ालू किस्म की रही हैं. क्या घर में, क्या स्कूलकालेज में, क्या पासपड़ोस में, मजाल है उन्हें जरा भी कोई कुछ कह जाए. हर बात का जवाब दे देना उन की आदत है.

अचानक परसों रात 10 बजे के करीब दीदी ट्रेन से आई थीं, उसी शाम सुबोध मुझे पर खूब बिगड़ चुके थे. हर घटना को तूल दे देना व उस के लिए मुझे ही दोषी ठहराना इन की आदत है. घर में कुछ जरा सा भी अवांछित घट जाए, ये मुझे ही उस के लिए दोषी ठहराते हैं. रिषी को जरा सी ठंड लग जाए या उस से कुछ टूट जाए, इन के मुंह से यही निकलेगा, ‘‘सब तुम्हारी लापरवाही के कारण हुआ है. ठीक है नौकरी कर रही हो पर फिर भी एक बच्चे की देखभाल तो करनी ही है. मुझे फोन कर देती कि आया से नहीं संभल रहा तो मैं छुट्टी ले कर आ जाता.’’

उस दिन रिषी ने बैठक मैं रखा एक डैकोरेशन पीस जो महंगा था मेरी पूर्ण सतर्कता के बावजूद तोड़ दिया. वह प्रतिमा ये पिछले वर्ष मुंबई से लाए थे. दीवाली से 2-4 दिन पहले ही वह मूर्ति इन्होंने बैठक में रखे स्टूल पर रख दी थी. उस समय मैं ने इन से अनुरोध भी किया था कि मूर्ति को इतने नीचे स्थान पर न रखें. कहीं ऊपर रखें ताकि रिषी उस तक न पहुंच सके. परंतु अपनी आदत के अनुसार इन्होंने तब मेरी बात नहीं सुनी उलटे कहा, ‘‘तुम यदि ध्यान रखोगी तो रिषी बैठक में नहीं पहुंच पाएगा.’’

रिषी ने जब से नई प्रतिमा को बैठक में रखा देखा था, उसे बेचैनी हो रही थी कि किस प्रकार उसे छू कर देखे. उस दिन वह मेरी आंख बचा कर किसी तरह बैठक में घुस ही गया और मूर्ति को स्टूल से गिरा दिया. मेरा कलेजा धक से हो गया. मैं जानती थी कि सुबोध पूरा दोष मुझ पर ही मढ़ेंगे.

सचमुच शाम दफ्तर से लौट कर वे मुझे पर खूब चिल्लाए. घर में खाना तक नहीं बना. रिषी को बगल में ले कर मैं भी भूखी ही चारपाई पर जा लेटी थी. इन की अकारण झल्लाहट के कारण मन इतना दुखित हुआ कि मेरी आंखों से आंसू बहने लगे और फिर न जाने रोतेरोते मैं कब सो गई.

अपर्णा दीदी ने दरवाजा खटखटाया तो आंख खुली. ऐसे तनाव भरे मौके पर दीदी के आकस्मिक आगमन से मन में संतोष हुआ. इन के आने से घर का तनाव समाप्त होगा, यही सोच कर मैं दीदी का सामान अंदर लाने के पश्चात सहर्ष रसोई में चाय बनाने चली गई.

उन के आने से यद्यपि मेरे चेहरे पर अनजाने ही प्रसन्नता की लहर दौड़ गई थी, परंतु मेरी सूजी हुई आंखों को देख कर उन्होंने सही अनुमान लगा लिया कि मैं रोती रही हूं. वे मेरे पीछे ही रसोई में आ गईं और पूछने लगीं, ‘‘दीपा, तुझे देख कर तो लग रहा है जैसेकि तू बहुत रोई है, क्या हुआ है तुझे?’’

मेरी आंखों से 2 बूंद आंसू अनजाने ही टपक पड़े, जिन्हें मैं ने दीदी की नजरों से छिपा कर झट से अपनी साड़ी के आंचल से पोंछ डाला. वास्तव में मैं तो चाहती थी कि दीदी को हमारे घर की स्थिति का ज्ञान ही न हो परंतु उन्हें सामने पा कर व उन के कुछ पूछने पर न जाने क्यों मेरी रुलाई फूट पड़ी.

तब तक सुबोध भी उठ कर रसोई के द्वार तक पहुंच गए थे. इन के चेहरे पर भी तनाव की रेखाएं स्पष्ट थीं. इन्होंने दीदी को प्रणाम किया और उन्हें ले कर बैठक में चल गए, जहां टूटी हुई मूर्ति के टुकड़े बिखरे पड़े थे.

मैं चाय ले कर बैठक में पहुंची तो ये मेरी शिकायतों की पूरी फाइल दीदी के सामने खोले बैठे थे, ‘‘देखिए, आप की दीपा की लापरवाही का प्रमाण. मेरी लाई गई मूर्ति के ये टुकड़े स्पष्ट बता रहे हैं कि यह एक बच्चे की निगरानी भी ढंग से नहीं कर सकती. पूरा दिन घर में रहती, तब भी आए दिन कुछ न कुछ नुकसान होता है.’’

दीदी आश्चर्य से मेरी ओरी देखने लगीं. उन का अनुमान था कि अपनी उस शिकायत से मैं बहुत अधिक उत्तेजित हो जाऊंगी, पर मैं शांत बनी ज्यों की त्यों खड़ी रही तो उन्होंने मुझे आंखों ही आंखों में बुरी तरह घूरा, जैसेकि चुप रह कर मैं ने बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो. मैं ने अपनी नजरें झुका लीं और उठ कर चुपचाप रसोई में खाना बनाने चल दी.

सुबोध की इस चिड़चिड़ाहट व झल्लाहट का कारण मैं समझती न होऊं, बात ऐसी नहीं है. मैं जानती हूं कि इन के परिवार का हर व्यक्ति पश्चिमी विचारों से प्रभावित है, ‘हर व्यक्ति को अपनी आजीविका स्वयं कमानी चाहिए,’ इन के परिवार के हर सदस्य की यही मान्यता है. मेरी सास अभी भी कालेज में पढ़ाती हैं. इन की

दोनों बहनें सरकारी दफ्तरों में स्टेनो हैं. अत: मेरा घर में बैठना सब को खलता है. जब से रिषी कुछ बड़ा हुआ है, सुबोध समाचारपत्रों में रिक्त स्थान देख कर मुझे बताते रहते हैं, ‘‘तुम भी आवेदन पत्र दे दो न, रिषी अब 4 साल का होने जा रहा है. घर बैठ कर मक्खियां मारने से तो अच्छा ही रहेगा,’’

मुझे आश्चर्य तो तब होता है जब वे मुझे नौकरी के लिए किसी दूरस्थ स्थन में भी भेजने को तैयार हो जाते हैं पर मैं निर्णय कर चुकी हूं कि नौकरी करने के लिए न तो मैं रिषी को असहाय छोड़ूंगी, न इन की छाया छोड़ कर कहीं दूसरी जगह ही जाऊंगी. अत: जब भी ये किसी कारण मुझ पर झल्लाते हैं तो मैं चुप ही रहती हूं. हर बार यही प्रयत्न करती हूं कि घर का तनाव किसी भी तरह शीघ्रातिशीघ्र दूर हो जाए.

रात 12 बजे खापी कर जब हम सोने के कमरे में पहुंचे तो दीदी ने धीरे से मेरे कान में कहा, ‘‘समझ में नहीं आता कि सुबोध की इतनी बातें सुन कर भी तू चुप कैसे रह लेती है. कैसे रह रही है तू इस के साथ? मायके में जा कर भी कभी किसी से कुछ नहीं बताती. किस मिट्टी की बनी है तू?’’

मुझे डर था कि कहीं दीदी की बातों की भनक भी सुबोध के कान में पड़ गई तो अनर्थ हो जाएगा. मैं ने बड़ी नम्रता से कहा, ‘‘दीदी, ये कुछ भी कहते रहें, आप इन के सामने मेरे पक्ष में कभी कुछ न कहें. अकारण ही हमारे जीवन में जहर घुल जाएगा.’’

‘‘तू तो हमेशा से ही मिट्टी की माधो रही है. आखिर डर किस बात का है तुझे? किसी छोटेमोटे घर की तो है नहीं. पिताजी ने 3-3 फ्लैट किस लिए बना रखे हैं? पिछली बार कह तो रहे थे कि एक अजीत के नाम करेंगे, बाकी दोनों हम दोनों के.’’

मैं दीदी के विचारों पर मन ही मन हंस रही थी. पिताजी ने दोनों फ्लैट किराए पर देने के लिए बनवाए थे न कि हम बेटियों के लिए, यह मैं अच्छी तरह जानती हूं.

मुझे चुप देख कर दीदी फिर बोलीं, ‘‘हम से तो भई किसी के दबाव में नहीं रहा जाता. तू तो जानती ही है कि मैं ने तो ससुराल पहुंचते ही अपना अलग घर बना लिया था. मेरी सास तो बातबात पर हिदायतें देना ही जानती थीं.’’

‘‘लेकिन दीदी एक मां को उस के बेटे से अलग कर के आप ने कुछ अच्छा तो किया नहीं.’’

दीदी ने झुंझालाहट भरे शब्दों में कहा, ‘‘तू बहुत अच्छा कर रही है न, अपने लिए? इसी तरह सुबोध के अंकुश में रही तो देख लेना 2-4 साल में ही तेरा बुरा हाल हो जाएगा. लेकिन अब मैं तुझे यहां नहीं रहने दूंगी.’’मैं मन ही मन सोचने लगी, एक घर के 2 घर बनाने से क्या लाभ? क्या इस से दांपत्य जीवन की सब विषमताएं दूर हो जाती हैं?

नहीं बल्कि इस तरह तो विषमताओं व कटुताओं की एक नई कड़ी शुरू होती है, दीदी को इस का आभास चाहे अभी न हो, पर भविष्य में अवश्य होगा.

मैं नींद का बहाना कर के चुपचाप लेट गई ताकि दीदी हमारे बारे में कुछ और न कहें.

अगले दिन प्रात:काल की बातचीत के दौरान मैं ने दीदी से पूछा, ‘‘आप जीजाजी के पास से कब आईं? बंटू व बबली को किस के पास छोड़ आई हैं?’’

‘‘तू तो न जाने किस दुनिया में रहती है? मैं तो 2 महीने पहले ही मेरठ में मां के पास आ गई हूं. मुझे मेरठ की एक बनेबनाए कपड़ों की फर्म में नौकरी भी मिल गई है. यहां भी अपनी फर्म के ही काम से आई हूं.’’

मेरा मुंह आश्चर्य से खुला रह गया, ‘‘आप को नौकरी करने की क्या आवश्यकता थी? बंटू, बबली व जीजाजी का क्या होगा?’’

दीदी लापरवाही से हंसीं, ‘‘तू सोचती है कि बच्चे हमें कुछ भी करने से रोकते हैं. मन में पक्की लगन हो तो क्या रास्ता नहीं मिल सकता? आखिर इतने क्रैचें, नर्सरी व होस्टल किसलिए हैं?’’

बबली व बंटू के मासूम चेहरे मेरी आंखों के आगे नाचने लगे. दोनों बच्चे अभी से मां के प्यार के अभाव में कैसे रहेंगे? मैं दुखित हो उठी. बबली तो अभी 4 वर्ष की भी नहीं हुई है. हरदम दीदी की गोद में लिपटी रहती थी. मैं ने और भी दुखित हो कर उन से पूछा, ‘‘जीजाजी को भी आप अकेला छोड़ आई हैं. उन को अपने व्यस्त जीवन में आप की बहुत आवश्यकता है दीदी…’’

दीदी व्यंग्य से हंसीं, ‘‘उन्हें भी तू ने बच्चा ही समझ लिया है जो अपनी देखभाल खुद नहीं कर सकेंगे? बच्चों को आवासीय विद्यालय में डाला ही इसलिए था कि मैं भी नौकरी कर सकूं. फिर क्या मैं उन के लिए बंध कर घर में बैठी रहती?’’

दीदी के विचारों से मेरा मन दुखित हो उठा. लेकिन उन्हें कुछ भी कहना या समझना व्यर्थ था.

थोड़ी देर चुप रह कर वे फिर बोलीं, ‘‘मैं तो तुझे भी यही सलाह दूंगी कि तू भी नौकरी कर ले. सुबोध जब खुद चाहता है कि तू कमाने लगे तो तू अवसर का लाभ क्यों नहीं उठाती? तू नौकरी करने लगेगी तो यह प्रताड़ना जो तुझे अकारण मिल रही है, कभी नहीं सहनी पड़ेगी. तब तो तू भी सुबोध को 4 बातें सुनाने की हकदार हो जाएगी.’’

तब मैं ने कुछ कठोर पड़ते हुए कहा, ‘‘दीदी आप मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिए.’’

तब वह एकदम क्रोधित हो कर बोलीं, ‘‘तू क्या सोचती है कि मैं तुझे यों घुटघुट कर मरने दूंगी? देख लेना, अभी मेरठ जा कर सब पिताजी को बताऊंगी. वही तेरा प्रबंध करेंगे.’’

बस फिर वे पूरा दिन दिल्ली में अपना कामकाज करती रहीं. रात को फिर देर से लौटीं. थोड़ाबहुत खाया और चुपचाप सो गईं. अगले दिन प्रात:काल ही उन्होंने अपना सामान जल्दीजल्दी बटोरा और चली गईं.

मेरा मन सशंकित रहने लगा है कि मुझे व सुबोध को ले कर दीदी मायके में जा कर न जाने क्या उलटासीधा बताएंगी. सुबोध के विरुद्ध घर के पूरे सदस्यों को भड़काएंगी और मेरे प्रति हरेक के दिल में व्यर्थ की सहानुभूति जगाएंगी. यद्यपि मैं जानती हूं कि सुबोध का व्यवहार मेरे प्रति रूखा ही रहता हैऔर जब एक बार रुष्ट होते हैं तो महीनों अपने अहं के कारण बोलने में भी कभी पहल नहीं करते. लेकिन केवल इसी कारण तो अपना घर नहीं छोड़ा जाता.

होली अभी आ कर गई है, बच्चों की छुट्टियां निकट आ रही हैं. इन का व्यवहार यदि तब भी यही रहा तो मेरे लिए इस वर्ष का अवकाश तो सूना ही बीत जाएगा. रिषी ने जिस दिन से प्रतिमा तोड़ी है, इन का उखड़ापन दूर नहीं हो पाया. कई बार मन में आता है कि कितना अच्छा रहे कि इस बार अवकाश में मायके जा कर स्वच्छंदतापूर्वक रहूं.

आज ही डाकिया पत्र दे गया. पिता का पत्र देख कर मन खुशी से झूम उठता. उन्होंने बच्चों की गरमी की छुट्टियां मायके में ही बिताने का आग्रह किया है.

मगर दूसरे ही क्षण एक विचार से मन अत्यंत क्षुब्ध हो उठता है. पिताजी ने केवल मुझे ही क्यों बुलाया? ऐसा तो आज तक कभी नहीं हुआ था. अवश्य ही दीदी ने सुबोध को

ले कर पिताजी के मन में कुछ जहर घोला है. ऐसी स्थिति में क्या मेरा जाना उचित रहेगा? सुबोध को अवकाश के दिनों में यों अकेला छोड़ जाऊं और वहां सब मेरे पति के विरुद्ध कुछ न कुछ मुझसे कहें तो मेरा दिल क्या खाक छुट्टी मना पाएगा?

मुझे यही निर्णय लेना पड़ा कि  इस बार छुट्टियों में यहीं पर इकट्ठे रहेंगे. अपने घर की सफाई व लिपाईपुताई भी करा लेंगे. पिछली बार दीवाली पर करा नहीं पाए थे. अवकाश में रिषी को ये कितने उत्साह से बाजार ले जाते हैं. कितना सामान खरीदवा देते हैं. साथ ही मेरे लिए भी तो कुछ न कुछ ले कर आते हैं. मेरा तनमन सिहर उठा.

दोपहर को अपने पास रखे कुछ रुपयों से इन के लिए एक नई कमीज बाजार से ले आई. जब ये मुझे कुछ उपहार देंगे तो मैं भी इस बार इन्हें कुछ न कुछ दे कर आश्चर्यचकित कर दूंगी. मैं ने इसी विचार से कमीज अपने बक्स में रख दीं.

मेरी आशा के अनुरूप इस बार की गरमी की छुट्टियों के पहले ही दिन ये मुझे बाजार ले गए और इन्होंने एक कीमती साड़ी मुझे ले कर दी और अपने पिछले व्यवहार पर खेद प्रकट करते हुए मेरे कानों में बुदबुदाए, ‘‘दीपा, मैं नहीं जानता था कि तुम इतनी सहनशील हो. अपनी एक छोटी सी जिद के पीछे कि तुम्हें नौकरी करनी ही चाहिए, मैं अकारण ही बातबात में तुम पर झल्लाता रहा. तुम्हारी दीदी से जो तुम्हारी बातें हुईं, उन्होंने तो मेरी आंखें ही खोल दीं. अब कभी ऐसा नहीं होगा,’’ रात साड़ी देते हुए सुबोध ने प्रेमविह्वल हो मुझे अपनी बांहों में समेट लिया. कितनी सुखद स्मृतियां छोड़ गई हैं बच्चों की गरमियों की छुट्टियों की यह पहली रात. उस दिन से इन के व्यवहार में पूर्णत: तबदीली आ गई.

अभी सप्ताह भर ही हुआ था कि पिताजी का वह पत्र न जाने कैसे इन के हाथ लग गया.

ये मेरे समीप आ कर बोले,  ‘‘पिताजी ने न जाने किस उद्देश्य से तुम्हें बुलाया है, चाहे तो 2-4 दिन के लिए मेरठ हो आओ.’’

मेरा मन भी दुविधा में था. मैं भी मेरठ जाने की इच्छुक थी. अगले ही दिन रविवार को इन्होंने मुझे व रिषी को मेरठ की बस में बैठा दिया.

रास्तेभर मैं ने यही अंदाजा लगाया कि दीदी ने मुझे व सुबोध को ले कर सब को खूब भड़काया होगा और वहां यही योजना बन रही होगी कि या तो मुझे सुबोध से अलग कर दिया जाए या इन के व्यवहार के लिए इन्हें कुछ भलीबुरी सुनाई जाए.

धड़कते दिल से घर पहुंची तो केवल दीदी ही वहां उपस्थित थीं. सब लोग किसी के यहां शादी में गए हुए थे.

मुझे अत्यंत प्रसन्न मुद्रा में देख कर दीदी को आश्चर्य हुआ. बोलीं, ‘‘मायके में पहुंचते ही तू अपने दिल का सब हाल छिपा लेती है, कैसी खुश दिल रही है, लेकिन मैं ही जानती हूं कि बच्चों की छुट्टियों के ये दिन तेरे लिए कितने अंधकारमय बीत रहे होंगे.’’

‘‘सच पूछो तो मेरे विवाहित जीवन में यह पहला मौका था, जिसे मैं हमेशा याद रखूंगी. दीदी आप नहीं जान पाएंगी कि…’’

‘‘तू तो मायके में पहुंचते ही ?ाठ बोलने लगती है. कैसे विश्वास करूं मैं तुझ पर?’’

‘‘आप को यदि विश्वास नहीं हो रहा है तो मत मानिए. मुझे मेरे ही हाल पर छोड़ दीजिए. आप अपनी बताइए? नौकरी लगने के बाद जीजाजी को कोई पत्र लिखा या नहीं?’’

उन के चेहरे पर एकदम गहरी उदासी छा गई, ‘‘दीपा, वह पत्र पिताजी के नाम से मैं ने ही तुझे लिखा था. पिताजी से तो मैं ने केवल उन के हस्ताक्षर भर करवा लिए थे. मैं चाहती हूं कि तू मेरे साथ रहने लगे तो मैं यहां से अलग कोई किराए का मकान देख लूं. तेरी नौकरी भी मैं लगवा दूंगी. यहां मायके में तो अब रहना मुश्किल हो गया है.’’

‘‘दीदी, मैं यदि कभी नौकरी की आवश्यकता समझूंगी भी तो सुबोध से अलग रह कर किसी भी हालत में नौकरी नहीं करूंगी और अब तो वे भी मुझे कहीं और भेजने वाले नहीं हैं,’’ मैं ने पूर्ण विश्वास से दीदी के नेत्रों में झांका तो एक बार फिर उन के चेहरे पर आत्मग्लानि के भाव उमड़ पड़े, शायद अपनी मूर्खता के लिए स्वयं को ही कोस रही थीं.

मैं ने उन्हें समझने के उद्देश्य से कहा, ‘‘मैं तो आप को भी यही राय दूंगी कि आप जीजाजी के पास चली जाएं. अपने दोनों बच्चों का बचपन अपनी देखरेख में बीतने दें. उस के पश्चात भी यदि आप के पास समय हो तो पुणे में ही कोई काम ढूंढ़ सकती हैं.’’

दीदी की आंखें छलक आईं. आंसू पोंछते हुए बोलीं, ‘‘तू तो मेरा स्वभाव जानती ही है. हर बात पर तर्क करने की मेरी आदत ने उन्हें भी बोलने पर विवश कर दिया और वे गुस्से में न जाने मुझ से क्याक्या बोल गए.’’

‘‘और आप उन्हें छोड़ कर चली आईं? क्या पति का घर छोड़ने से जिंदगी की राहें सहज हो जाती हैं? आप तो मायके में रह रही हैं, कैसा लग रहा है आप को?’’

दीदी चुपचाप आंसू टपकाने लगीं, ‘‘मैं ने कई बार अपने कानों से सुना है, दीपा, मां बड़े भैया से कह चुकी हूं कि मेरा यहां रहना उन्हें बहुत बुरा लगता है. लोगों के प्रश्नों के उत्तर देतेदेते परेशान हो गई हूं. दूसरे उन्हें 4 हजार रुपए महीने की आर्थिक हानि हो रही है. जिन दो कमरों में मैं रह रही हूं, उन से उन्हें इतना किराया आसानी से मिल सकता है, इसीलिए तो मैं चाह रही थी कि तू यदि मेरे साथ आ जाए तो कोई और जगह देख लें.’’

मैं समझ गई कि अपनी जिद्द के पीछे दीदी जीजाजी के पास नहीं जाना चाहतीं. अकेले रहना कठिन लग रहा था. सुबोध के व्यवहार को देख ही आई थीं. अत: उस का लाभ उठाना चाहती थीं. अन्य कोई रास्ता उन्हें नहीं सूझा.

मैं ने उन्हें सुझाव दिया, ‘‘आप के मन में डर है कि आप के लौटने पर जीजाजी की न जाने क्या प्रतिक्रिया हो. मगर वे बेहद संवेदनशील हैं. यदि आप उन्हें छोड़ कर न आई होतीं तो निश्चय ही वे अपने कहे के लिए स्वयं ही खेद प्रकट कर के कभी का आप को मना चुके होते. मुझे पूर्ण विश्वास है कि वे आप का स्वागत मुसकराहट के साथ ही करेंगे.’’

दीदी कुछ देर सोचती रहीं. फिर नम्र शब्दों में बोलीं, ‘‘तू ठीक कहती है दीपा, उम्र

में मुझ से छोटी होने पर भी तू इतनी समझदार रही. सुबोध का स्वभाव भी तूने अपनी सहनशीलता व समझदारी से बदल दिया, जबकि मैं तेरे जीजाजी जैसे सहनशील व्यक्ति को भी यों ही छोड़ आई और आज मुझे लगता है कि उन के बिना मेरा कहीं कोई ठिकाना नहीं. उन के पास लौट जाने में ही मेरा हित है.’’

इन शब्दों के साथ ही दीदी आंखों में प्रायश्चित्त के आंसू पोंछते हुए एकदम उठ कर खड़ी हो गईं, ‘‘जब तक सब लोग लौट कर आएं, मैं अपना सामान बांध लेती हूं. तू खुद देखना कि मां के चेहरे पर मेरे लौट जाने के निर्णय को सुन कर कितनी प्रसन्नता दिखाई देगी.’’

‘‘इस में अस्वाभाविक भी क्या है? हर मां यही चाहेगी कि उस की विवाहिता बेटी अपने पति के साथ ही सुखचैन से रहे. उन के बीच किसी प्रकार का मतभेद न हो और एक ही छत के नीचे दोनों का जीवन सुख से बीते.’’ ‘‘तू वास्तव में बहुत समझदार है, दीपा,’’ अपर्णा दीदी ने यह कह कर मुझे गले से लगा लिया.

अब की न जाएगी बहार

Writer – Nidhi Mathur

‘‘अनन्या, चल न, घर जा कर फोन पर बात कर लेना,’’ नंदिनी ने अपनी सखी अनन्या का हाथ खींचते हुए कहा.

‘‘अरे, बस एक मिनट. मेरी होने वाली भाभी का फोन है,’’ अनन्या बोली.

तीसरी सहेली वत्सला कुछ नाराज होते हुए बोली, ‘‘तू तो अब हमारे साथ शौपिंग करेगी नहीं. दुनिया में सिर्फ तेरे भाई की शादी नहीं हो रही है जो तू घंटों फोन पर अपनी होने वाली भाभी से चिपकी रहती है. आज इतनी मुश्किल से हम तीनों ने अपना शौपिंग का प्रोग्राम बनाया था. तू फिर से फोन पर चिपक गई.’’

नंदिनी बोली, ‘‘तुम दोनों को भूख लगी है या नहीं? मुझे तो जोर की भूख लगी है.’’

शौपिंग करते हुए अनन्या बोली, ‘‘न बाबा मेरी भाभी एम.जी. रोड के एक रैस्टोरैंट में मुझे लंच के लिए बुला रही है, तो आज तुम दोनों मुझे माफ करो. मैं तो अपनी भाभी के साथ ही लंच करने वाली हूं. अपना प्रोग्राम हम लोग फिर किसी दिन बना लेंगे.’’

वत्सला और नंदिनी के कुछ कहने के पहले ही अनन्या ने एक औटो एम.जी. रोड के लिए किया और फिर वह फुर्र हो गई.

‘‘नंदिनी, इस की भाभी को वाकई गर्व होना चाहिए कि उसे अनन्या जैसी ननद मिल रही है,’’ वत्सला बोली, ‘‘अरे तू उस की दीदी को क्यों भूल गई? वान्या दीदी भी तो अपनी भाभी को उतना ही प्यार करती है.’’

‘‘हां भई,’’ नंदिनी ने कहा, ‘‘फैमिली हो तो इस अनन्या के जैसी, इतना प्यार करते हैं सभी घर में एकदूसरे को. वह तो भैया ने थोड़ी सी शादी में लापरवाही कर दी.’’

वत्सला बोली, ‘‘ठीक है न, जब उन का मन किया तभी तो शादी के लिए हां की. इस की भाभी को तो कोई भी कष्ट नहीं होगा ससुराल में. चलो हम लोग तो लंच करें.’’

अनन्या, वान्या और जलज अपनी मां के साथ बैंगलुरु में रहते थे. जलज सब से बड़ा था, उस के बाद वान्या और सब से छोटी थी अनन्या. जलज और वान्या में तो 2 साल का फर्क था पर अनन्या जलज से 5 साल और वान्या से 3 साल छोटी थी. उन के पिताजी की कुछ वर्ष पहले मृत्यु हो गई थी और तब से ये चारों ही बैंगलुरु में रहते थे. जलज एक आईटी कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर था और उस की कैरियर ग्रोथ बहुत अच्छी थी. बस उस ने अभी तक कोई लड़की पसंद नहीं की थी. वान्या और अनन्या की शादी हो चुकी थी और दोनों के 1-1 बेटा था. अब इतने सालों बाद जलज को अपनी कम्युनिटी में ही एक लड़की पसंद आई तो मां ने चट मंगनी और पट शादी करने का फैसला कर लिया.

वान्या और अनन्या तो खुशी से उछल ही पड़ीं. उन की होने वाली भाभी का नाम समृद्धि था. अब तो आए दिन उन के भाभी के साथ प्रोग्राम बनने लगे. जलज कभी उन के साथ चला जाता था पर ज्यादातर तो वान्या और अनन्या ही समृद्धि को घेरे रहती थीं.

इतने सालों बाद यह खुशी उन के जीवन में आई थी तो वे अपने होने वाली भाभी पर ढेरों प्यार लुटा रही थीं. करीब 1 महीने बाद जलज और समृद्धि की धूमधाम से शादी हो गई. नंदिनी और वत्सला तो खासतौर से समृद्धि के पास अनन्या की शिकायत ले कर पहुंचीं, ‘‘पता है भाभी, आप के साथ टाइम स्पैंड करने के लिए यह अनन्या तो अपनी सखियों को भूल ही गई.’’

अनन्या चहकते हुए बोली, ‘‘तुम लोग भी देख लो. मेरी भाभी है ही ऐसी.’’

समृद्धि भी यह छेड़छाड़ सुन कर धीमेधीमे मुसकराती रही. समय अपनी गति से चल रहा था.

नंदिनी और वत्सला अनन्या से उस की भाभी के बारे में बात करती रहती थीं. अनन्या अपनी भाभी को ले कर शौपिंग पर जाती थी तो सहेलियों का मिलनाजुलना कुछ कम हो चला था. हां, फोन पर अकसर बातें हो जाया करती थीं.

अभी जलज की शादी को 1 साल ही हुआ था कि एक दिन अनन्या बड़े दुखी मन से अपनी सहेलियों नंदिनी व वत्सला से मिली.

नंदिनी बोली, ‘‘क्या हुआ मैडम? आज मुंह क्यों लटका रखा है?’’

वत्सला ने कहा, ‘‘चल पहले चाट खाते हैं, फिर आगे की बातें करेंगे.’’

मगर अनन्या बोली, ‘‘नहीं यार. मुझे तुम दोनों को कुछ बताना है. चाट आज रहने दो.’’

नंदिनी बोली, ‘‘क्या हुआ? कुछ सीरियस है क्या? तू ऐसे क्यों बैठी हुई है?’’

इस पर अनन्या सिर झुका कर बोली, ‘‘मेरे भैया का डिवोर्स फाइल हो रहा है.’’

वत्सला चौंक कर बोली, ‘‘यह तू क्या बोल रही है? तू तो अपनी भाभी की इतनी तारीफ करती थी? तेरी उस के साथ इतनी पटती थी? अचानक से डिवोर्स कैसे?’’

फिर जो अनन्या ने बताया उसे सुन कर तो नंदिनी और वत्सला दोनों हक्कीबक्की रह गईं.

जलज की शादी के बाद मां ने गांव जाने की इच्छा प्रकट की. अब उन के मन को तसल्ली हो गई थी और वह अपना समय अपने रिश्तेदारों के साथ बिताना चाहती थीं. जलज को ले कर उन के मन में जो चिंता थी वह अब दूर हो गई थी.

अपनी बहू समृद्धि का उन्होंने खूब दुलार किया. उसे गहनों और कपड़ों से लाद दिया और फिर मां मन की शांति के लिए अपने गांव चली गईं. उन का मन वहीं लगता था क्योंकि उन के सारे रिश्तेदार वहीं थे.

जलज और समृद्धि अपना जीवन अपने हिसाब से जी रहे थे. न कोई टोकाटाकी, न कोई हिसाबकिताब और न ही कोई रिश्तेदारी का ?ां?ाट. हां, वान्या और अनन्या जरूर समृद्धि के साथ अपने कार्यक्रम बनाती रहती थीं. फिर अचानक समृद्धि का व्यवहार बदलने लगा. वह अपनी ननदों के साथ कुछ रूखेपन से पेश आने लगी.

पहले तो ननदों को समझ नहीं आया कि समृद्धि अब हर बार मिलने से मना क्यों कर देती. मगर वान्या सम?ादार थी तो उस ने अनन्या को भी समझाया कि जलज और समृद्धि को एकदूसरे के साथ समय देना ही बेहतर होगा. अनन्या और वान्या ने भाईभाभी के साथ अपने प्रोग्राम बनाने बिलकुल बंद कर दिए. वे दोनों तो वैसे भी नई भाभी का अकेलापन मिटाने का प्रयास कर रही थीं.

जलज और समृद्धि अब ज्यादातर समय एकदूसरे के साथ बिताने लगे थे. समृद्धि क्योंकि पूरा दिन घर पर रहती थी तो जलज ने उसे औनलाइन योगा क्लास जौइन करने की सलाह दी.

शादी के बाद वैसे भी पकवान खाखा कर समृद्धि का वेट थोड़ा सा बढ़ गया था. वैसे समृद्धि को दिनभर में कोई काम नहीं होता था क्योंकि वह जौब नहीं कर रही थी और जलज को काफी अच्छी सैलरी मिल रही थी.

समृद्धि के परिवार में 1 भाई और 1 बहन ही थी. उस के भाई की भी शादी नहीं हुई थी. समृद्धि की शादी हो जाने की वजह से उस के भाई को घर का काम संभालने में बहुत परेशानी आने लगी. जब तक समृद्धि थी उस का खानापीना नियमपूर्वक चल रहा था पर अब उसे औफिस के साथसाथ घर भी देखना पड़ता था तो वह खीज जाता था.

एक दिन वह समृद्धि के घर आया तो समृद्धि खुशीखुशी उसे अपनी शादीशुदा जिंदगी के बारे में बताने लगी, ‘‘पता है भैया, अब तो मैं नीचे बाजार जा कर घर का सारा सामान ले आती हूं और घर के छोटीमोटी रिपेयर भी कर देती हूं, साथ ही मैं ने एक औनलाइन योगा क्लास भी जौइन कर ली है.’’

समृद्धि का भाई समीर थोड़े खुराफाती दिमाग का था. बहन की बातों से उस के दिमाग का बल्ब जला. ऊपर से तो उस ने अपनी खुशी जताई पर अंदर से वह अपनी बहन की खुशी से जलभुन गया.

इस का एक कारण शायद यह भी था कि वह सम?ाता था उस का आराम समृद्धि की शादी की वजह से खत्म हो गया है. अब उस ने अपना पासा फेंका. बोला, ‘‘अरे तू जब मेरे पास थी तो तु?ो घर की कोई रिपेयरिंग नहीं करने देता था मैं. औनलाइन किसी को बुला क्यों नहीं लेती है? रिपेयरिंग वगैरह के काम क्या लड़कियां करती हैं? जलज पूरा दिन क्या करता है? घर में तेरा हाथ नहीं बंटाता?’’

‘‘अरे नहीं भैया. जलज तो रात को आते हैं तो उन्हें इन सब की फुरसत नहीं होती. मैं पूरा दिन घर में रहती हूं इसलिए ये सब अपनेआप ही कर लेती हूं.’’

‘‘अच्छा, पहले तो तू कभी ऐक्सरसाइज वगैरह नहीं करती थी. अब यह योगा क्लास क्यों जौइन की है?’’

‘‘वह जलज ने कहा कि मेरा शादी के बाद डिनर पार्टीज अटैंड करकर के थोड़ा सा वेट बढ़ गया है, बस इसीलिए.’’

‘‘अच्छा तो अब जलज मेरी बहन को खाने पर ताने भी देगा?’’

‘‘नहीं भैया क्या बात कर रहे हैं? उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा.’’

‘‘मैं सब समझ गया हूं, जलज को भी आजकल की लड़कियों की तरह एक सुंदर, स्लिम लड़की चाहिए. इसीलिए वह तुझे ऐसी सलाह दे रहा है. पर मुझे तो मेरी बहन बिलकुल मोटी नहीं लगती. आगे से अगर तुझे कुछ रिपेयरिंग का काम कराना हो तो मुझे फोन कर देना. तेरी ननदें भी बस घूमनेफिरने की ही शौकीन हैं. काम में तेरी मदद क्यों नहीं करतीं?’’

थोड़ी देर बाद समीर चला गया पर उस के हाथ एक मौका लग गया. अब वह जलज के पीछे घर जाजा कर समृद्धि के कान भरता रहता. उसी ने सब से पहले समृद्धि को अनन्या और वान्या से मुंह मोड़ने को कहा, जिस की वजह से वह उन से बेरुखी जता रही थी.

एक दिन उस ने समृद्धि के जेवर देख कर कहा, ‘‘तेरी ननदें यहां आतीजाती रहती हैं. तू अपने सारे गहने उन से छिपा कर हमारे घर में रख दे. क्या भरोसा किसी त्योहार के बहाने तुझ से कुछ मांग लें और फिर वापस न करें. उन्हें बोल देना तेरे सारे जेवर बैंक में हैं.’’

‘‘पर भैया, वे तो अब यहां नहीं आतीं. उन्होंने कहा है कि जलज और मैं अपना वक्त एकदूसरे के साथ बिताएं.’’

‘‘तू बहुत भोली है समृद्धि पर इन ननदों से जरा बच कर रहना,’’ कह कर समीर चला गया. मगर समृद्धि के मन में जहर का बीज बो गया.

समीर अब समृद्धि को जलज और उस के पूरे परिवार के खिलाफ भड़काता रहता, ‘‘तेरी सास को अभी गांव नहीं जाना चाहिए था. तेरा काम में हाथ बंटाती, तुझे अपने साथ रखती, घर संभालना सिखाती.

‘‘ मेरी छोटी बहन के ऊपर कितनी जिम्मेदारी आ गई है. तेरी ननदें शादी के पहले तो बहुत आती थीं, अब उन्होंने भी तुम दोनों से मुंह मोड़ लिया है. तू कैसे इन सब के साथ निभा रही है? मुझे तो तुझे देख कर बहुत दुख होता है.’’

समीर से आए दिन यह सब सुनसुन कर समृद्धि का भी मन बदलने लगा. अब वह अपने भाई की बातों में सचाई ढूंढ़ने लगी. हालांकि भाई का सच उसे नजर नहीं आया.

समीर चाह रहा था कि समृद्धि किसी तरह वापस घर आ कर उस का खानापीना संभाल ले. वह स्वार्थ में इतना अंधा हो गया कि उसे अपनी बहन के सुखदुख की कोई परवाह नहीं थी.

धीरेधीरे समृद्धि के सारे अच्छे जेवर और कपड़े समीर ने मंगवा कर अपने घर रख लिए. एक दिन जलज जब घर आया तो खाना नहीं बना था. जलज का दिन काफी व्यस्त रहा था और वह जल्दी खाना खा कर सोना चाहता था पर समृद्धि ने जानबूझ कर देर करी.

समीर ने समृद्धि के दिमाग में बैठा दिया था कि जलज उसे बाई का दर्जा दे रहा. जलज ने जब खाने के बारे में पूछा तो समृद्धि ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारे घर की बाई नहीं हूं. कल से घर में खाना बनाने वाली लगा लो, मैं ये सब काम नहीं करूंगी.’’

जलज समृद्धि की बातें सुन कर हैरान हुआ पर वह बहस नहीं करना चाहता था

इसलिए मैगी खा कर सोने चला गया. अब समृद्धि समीर के उकसाने से न तो वान्या और अनन्या के फोन उठाती, न ही अपनी सास से बात करती तथा न ही घर का कोई काम करती. उस ने बातबेबात जलज से भी उल?ाना शुरू कर दिया था. जलज वैसे ही थका हुआ देर से घर आता था तो वह पहले तो समृद्धि को मनाता था. फिर उस के तानों को अनसुना करने लगा.

उधर समीर अपनी योजना सफल होते देख खुश था. वह तो चाह ही रहा था कि समृद्धि का घर टूटे और वह वापस आए. एक दिन समृद्धि ने जलज से बिना बात के ?ागड़ा किया और समीर के घर चली गई. वहां पर समीर ने उसे इतना भड़काया कि 1 महीने बाद ही उस ने डिवोर्स के पेपर्स भेज दिए.

जलज को इस में समीर का हाथ साफ नजर आया पर उसे यह नहीं पता था कि उस ने समृद्धि को कितना भड़का रखा है. उसे सिर्फ समीर पर शक हुआ क्योंकि वही उस की पीठपीछे घर आता था. अनन्या ने भी वही कहा कि उसे अंदर की बात तो पता नहीं पर इस में समीर का हाथ हो सकता है.

केवल डिवोर्स तक ही मामला रहता तो ठीक भी था पर समीर के उकसाने पर समृद्धि ने वान्या और अनन्या पर भी दहेज के आरोप में केस कर दिया. यही नहीं, गांव में रह रही उन की मां का नाम भी उस में शामिल कर लिया. अनन्या, वान्या ने जब अपने ऊपर केस के बारे में सुना तो वे सन्न रह गईं. दोनों बहनों का प्यारा बड़ा भाई जिस की शादी उन्होंने इतने चाव से की थी, आज एक टूटे रिश्ते का दर्द सह रहा था. ये सब बातें अनन्या ने अपनी सहेलियों के साथ एक दिन चाय पर डिस्कस कीं. कोर्ट केस म्यूचुअल अंडरस्टैंडिंग पर सुल?ाने के समीर ने क्व25 लाख मांगे.

अनन्या ने कहा, ‘‘जब हम लोग गलत नहीं हैं तो एक भी पैसा नहीं देंगे. कोर्ट में केस चलने दो, हम भी देख लेंगे.’’

वान्या ने सम?ाया भी कि कोर्टकचहरी अपने देश में सालोंसाल लगा देते हैं, हम लोग पैसा दे कर ही छूट जाते हैं. समीर और समृद्धि क्व25 लाख से कम में केस बंद करने को तैयार नहीं थे.

हमेशा हंसनेखिलखिलाने वाली अनन्या अब अकसर परेशान रहने लगी. उन सब को कोर्ट में तारीख आने पर बुलाया जाता और जज हर बार अगली तारीख दे देता. जलज भी चुपचुप रहने लगा था.

एक दिन अचानक जलज अनन्या के घर आया और बोला कि वह जौब छोड़ रहा है. अनन्या ने फोन कर के वान्या को भी वहीं बुला लिया, ‘‘देखो न दीदी, भैया क्या कह रहे हैं, अच्छीखासी जौब छोड़ रहे हैं.’’

वान्या ने पूछा, ‘‘भैया आप जौब क्यों छोड़ रहे हैं?’’

जलज बोला, ‘‘क्या करूंगा जौब कर के? रोज सुबह जाओ, रात को घर आ कर खाना खा कर सो जाओ. किस के लिए पैसे कमाऊं?’’

यह सुन कर अनन्या और वान्या शौकड हो गईं. जलज से ऐसे व्यवहार की उन्हें बिलकुल उम्मीद नहीं थी. उधर जलज अब हर चीज से उदासीन होने लगा था. जिंदगी ने उस के साथ जो मजाक किया था उसे उस ने कुछ ज्यादा ही सीरियसली ले लिया था. वह घर में बंद हो गया. मां उस के पास वापस आ गई थीं. वे उसे बहुत सम?ातीं, मगर जलज ने चुप्पी ओढ़ ली थी. न तो वह दोस्तों से मिलने को तैयार था, न दूसरी जौब ढूंढ़ने को और न ही बहनों के साथ समय बिताने को.

अगली केस डेट पर समीर समृद्धि के साथ आया था. सब ने उसे और समृद्धि को देख कर मुंह फेर लिया. समीर अंदर से जलभुन गया और ऊपर से जलज को धमकी भरे स्वर में बोला, ‘‘तूने जौब छोड़ दी न? अच्छा किया. अब मैं देखता हूं तू कहां नौकरी करता है. तू जहां भी जाएगा मैं वहां जा कर तेरी ऐसी बदनामी करूंगा कि तू भी सोचेगा तूने मेरी बहन के साथ इतना गलत व्यवहार क्यों किया.’’

वान्या चिल्लाई, ‘‘एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी. भैया ने तुम्हारे साथ क्या गलत किया है?’’

अनन्या ने वान्या को समझाया कि कोर्ट में कुछ भी उलटासीधा न बोले. वह सब उन के खिलाफ जा सकता है. तीनों भाईबहन चुपचाप कोर्ट की प्रोसीडिंग के लिए अंदर चले गए.

इसी तरह 2-3 साल और गुजर गए. जलज के दोनों केसों का कोई भी निर्णय नहीं हुआ. आखिर वान्या, अनन्या और उन की मां ने फैसला किया कि एक बार फिर आउट औफ कोर्ट सैटलमेंट की बात की जाए. समीर भी हाथ में पैसा न आता देख कर फ्रस्ट्रेटेड हो रहा था. 8 लाख में 3 साल बाद म्यूचुअल सैटलमैंट से दोनों केस डिसाइड हो गए. अब समृद्धि और जलज के रास्ते कानूनी तौर पर अलग थे. कहने के लिए तो यह मुसीबत का अंत था मगर जलज के लिए एक और कुआं. सब रिश्तेदारों ने अनन्या और वान्या को सलाह दी कि जलज के लिए दूसरा रिश्ता देख कर उस की नई जिंदगी की शुरुआत करें. जलज इधर किसी और ही रास्ते पर चल पड़ा था, जहां सिर्फ अंधेरा ही था. वह सीवियर डिप्रैशन में चला गया था. वह कुछ दिन बैंगलुरु रहता और कुछ दिन गांव में पर अब उस की नौकरी करने की बिलकुल इच्छा नहीं थी. अनन्या और वान्या ने प्यार से बहुत सम?ाने की कोशिश की, मगर सब बेकार. जलज को लगता था कि जिंदगी ने उस के साथ बहुत बड़ी नाइंसाफी की है.

एक दिन अनन्या बोली, ‘‘भैया शुक्र है कि मुसीबत से जल्दी पीछा छूट गया. आप पीछे न देख कर आगे का जीवन बनाएं.’’

उस दिन पहली बार जलज अपनी छोटी बहन पर बरस पड़ा, ‘‘तेरे पास सबकुछ है न,

परिवार, पैसा, प्यार इसीलिए तू मुझे भाषण देती रहती है. मुझे तेरी कोई नसीहत नहीं चाहिए, न ही किसी और का लैक्चर मुझे सुनना है. वान्या से भी कह दे कि मुझे कुछ सिखाने की कोशिश न करे.’’

मां दूसरे कमरे में सो रही थीं. जलज का चिल्लाना सुन कर जब वे आईं तो देखा कि अनन्या रो रही थी और जलज फिर भी चिल्लाए जा रहा था. मां ने उसे जब शांत करने की कोशिश की तो वह बोला, ‘‘तुम अपनी प्यारी बेटियों के पास जा कर रहो. यहां रहोगी तो इन की तरह तुम भी मुझे सीख देती रहोगी.’’

अनन्या को लगा कि यह कुछ भी कहने या करने का वक्त नहीं. उस ने चुपचाप मां के कपड़े एक बैग में डाले और उसे जबरन अपने साथ ले गई. उसे लगा कि जलज को कुछ दिन अकेला छोड़ देंगे तो शायद वह संभल जाएगा. मगर जलज संभलने की राह पर नहीं चल रहा था. उस ने अपनी जिंदगी और भी बदतर कर ली. उसे जो मन में आता वह खा लेता, नहीं तो भूखा ही रह जाता. स्ट्रैस की वजह से उस की आंखों के नीचे काले घेरे पड़ गए थे और उस को स्किन प्रौब्लम भी हो गई थी. वह घर में हर समय परदे बंद रखता और कोई भी लाइट नहीं जलाता.

एक बार वान्या उसे डाक्टर के पास ले गई. डाक्टर ने कहा कि उसे बहुत स्ट्रैस है. जब तक वह कम नहीं होता तब तक जलज की स्किन प्रौब्लम ठीक नहीं होगी.

अनन्या जलज से अब बात नहीं करती थी. फिर एक दिन जलज ने उसे सौरी बोलने के लिए फोन किया और कहा कि वह मां को घर छोड़ जाए. अनन्या को लगा कि शायद जलज को पछतावा हो रहा है. मगर जलज अब किसी के बारे में सोचनासम?ाना ही नहीं चाहता था. वह जिंदगी से पूरी तरह उखड़ चुका था. अलबत्ता बहनों से वह वापस मिलने लगा था. पर वह पहले जैसा लाड़ करने वाला भाई न हो कर एक चिड़चिड़ा और बददिमाग इंसान बन गया था.

एक दिन शाम को जलज अनन्या के घर गया तो उस ने एक नई सूरत देखी. तभी अनन्या ने उस का इंट्रोडक्शन कराया, ‘‘भैया, यह है हमारी नई पड़ोसिन कमल. यह अभी 2 हफ्ते पहले ही हमारे पड़ोस में शिफ्ट हुई है.’’

जलज ने निर्विकार भाव से अभिवादन किया और दूसरे कमरे में जा कर टीवी देखने लगा. थोड़ी देर में उसे बाहर से हंसने की आवाजें सुनाई देने लगीं. वह थोड़ा इरिटेट तो हुआ पर उस ने अपने पर काबू रखा. फिर उसे लगा कि अनन्या और कमल शायद कुछ गुनगुना रही हैं. करीब 1 घंटे बाद बाहर से आवाजें आनी बंद हुईं तो जलज उठ कर उस रूम में गया. वहां पर अनन्या अकेली बैठी हुई थी. अनन्या ने जलज को कमल के बारे में बताना शुरू किया. असल में कमल के पति ने किसी और लड़की के प्यार में फंस कर उसे छोड़ दिया था. पर कमल ने परिस्थितियों से हार नहीं मानी. वह बहुत अच्छा गाती थी तो उस ने सिंगिंग कंपीटिशंस में पार्ट लेना शुरू कर दिया था और बाद में गाने को ही अपना प्रोफैशन और जिंदगी दोनों बना लिया था. उस के साथ भी जीवन में काफी कुछ घटा था पर वह बिलकुल निराश या दुखी नहीं थी. यह सब अनन्या ने जानबू?ा कर जलज को बताया ताकि वह थोड़ा मोटिवेट हो सके.

अनन्या अब कोशिश करती थी कि जब जलज उस के घर आए तो वह वान्या और कमल को भी बुला ले. कमल आते ही महफिल में चार चांद लगा देती. उस का दिल बड़ा साफ था और उसे किसी से कोई शिकायत नहीं थी. एकाध बार अनन्या ने जलज और कमल को अकेले भी छोड़ दिया. जलज को कमल में एक हमदर्द दिखाई देने लगा. वह अपने दिल की बात मां व बहनों से नहीं करता था पर उसे लगा कि कमल शायद उसे समझा कर उस के साथ सिंपैथाइज करेगी. जलज ने बिलकुल गलत सोचा था.

कमल ने न तो कोई अफसोस जताया और न ही सिंपैथाइज किया. उस ने जलज को कहा कि जो बीत गया उस को अपना आज बना कर बैठने में कोई बुद्धिमानी नहीं. कमल ने कहा, ‘‘मूव

औन जलज. सब की लाइफ में कोई न कोई प्रौब्लम आती है. अगर हम प्रौब्लम को पकड़ कर बैठ जाएंगे तो जिंदगी की असली ख़ूबसूरती नहीं देख पाएंगे.’’

जलज को अभी तक कोई ऐसा नहीं मिला था जिस ने उस के साथ सिंपैथाइज न किया हो. मगर कमल तो शायद किसी दूसरी मिट्टी की ही बनी थी. दूसरी बार जलज ने जब फिर अपने लिए कमल से सिंंपैथी चाही तो कमल ने उसे जवाब दिया, ‘‘मैं जीवन को भरपूर जीने में विश्वास रखती हूं. मेरे सामने प्लीज अपना दुखड़ा मत रोइए. हो सके तो जीवन के सारे रंगों को ऐंजौय करना सीखिए.’’

यह जलज के लिए एक बहुत बड़ा झटका था पर कहते हैं न अपोजिट्स अट्रैक्ट. शायद जलज को कहीं पर कमल की बात सही लगी. अब अगर वह कमल से मिलता तो उस की बातों को सम?ाने की कोशिश करता. बोलता वह अभी भी कम ही था पर वान्या, अनन्या और उन की मां के लिए यह एक बहुत बड़ा पौजिटिव साइन था. अब वे लोग पिकनिक, शौपिंग के प्रोग्राम बनाते और जलज को भी जबरदस्ती ले जाते.

फिर एक दिन कमल ने उसे अपने सिंगिंग प्रोग्राम के लिए इनवाइट किया. उस प्रोग्राम में कमल ने इतने अच्छे गाने गाए कि जलज भी मुग्ध हो गया. आखिर एक दिन जलज ने अपनी दोनों बहनों और मां को बुला कर कहा कि वह कमल के साथ आगे की जिंदगी गुजारना चाहेगा.

अनन्या तो यही चाहती थी, मगर उस ने फिर भी कहा कि उन सब को कमल से बात करनी चाहिए. कमल जब अगली बार मिली तो अनन्या ने ही अपने भाई का प्रपोजल उस के सामने रखा. कमल को इस बात की बिलकुल आशा नहीं थी. बोली, ‘‘जलज मैं तुम्हारा साउंडिंग बोर्ड नहीं बनना चाहती. मैं बेचारी भी नहीं हूं. न ही मैं तुम्हारी तरह हूं. जो बीत गया वह मेरे जीवन का एक हिस्सा था लेकिन उसे पकड़ कर मैं रोती नहीं हूं. तुम आगे बढ़ने में विश्वास नहीं करते हो. हमारा कोई मेल ही नहीं है.’’

जलज को कुछ ऐसे ही जवाब की अपेक्षा थी इसलिए उस ने थोड़ा समय मांगा. उस ने कमल का दोस्त बनने की इच्छा जाहिर की. कमल ने उसे एक ही शर्त पर अलौ किया कि वह पुरानी या कोई भी नैगेटिव बात नहीं करेगा और सब से पहले काउंसलर को मिल कर अपने डिप्रैशन का इलाज कराएगा. जलज इस के लिए भी तैयार हो गया.

काउंसलिंग सैशंस में जलज कमल के साथ जाने लगा. इस चीज के लिए वह कमल को मना पाने में कामयाब हो गया था. डाक्टर ने उसे बताया कि उसे दवाई की जरूरत नहीं है मगर अपना आउटलुक चेंज करना होगा. दुनिया कितनी खूबसूरत है, यह सम?ाना था और बीती हुई जिंदगी को भी ऐक्सैप्ट करना था. धीरेधीरे ही सही मगर जलज भी यह सब सम?ाने लगा. कमल ने उसे एक पौजिटिव दोस्त की तरह बहुत हिम्मत दी. अनन्या, वान्या और मां तो उस के सपोर्ट सिस्टम थे ही. इस सब में लगभग सालभर लग गया.

नए साल के दिन जलज कमल को ले कर अनन्या के घर गया और उस ने बताया कि उस ने फिर से एक आईटी कंपनी में इंटरव्यू दिया था और उस का चयन भी हो गया है. फिर उसने सब के सामने कमल से कहा, ‘‘क्या अब मैं तुम्हारे साथ आगे का जीवन प्लान कर सकता हूं?’’

कमल ने मुसकराते हुए हां कह दी. घर में जैसे एक बार फिर उत्सव का सा माहौल हो गया. गाड़ी कुछ समय के लिए पटरी से उतर जरूर गई थी मगर अब फिर से वापस नई राह पर चलने वाली थी. हां, इस सफर में एक नया और बेहतरीन साथी भी अब जुड़ गया था. खुशियां फिर से लौट आई थीं.

मुझे माफ कर दो मां

आभा का जीवन अपनी गति से चल रहा था कि अचानक कनु का फोन कर यह कहना कि कल सुबह तक दिल्ली न पहुंची तो मुझ से कभी मुलाकात न होगी. यह सुन कर उस का दिल बैठा जा रहा था. बच्चे भी न बोलने से पहले कुछ सोचते ही नहीं. कहीं कोई गलत कदम न उठा ले. जाने क्या चल रहा हो दिमाग में. वैसे भी बचपन से ही अधीर रही है.

उन की समझ में कुछ नहीं आया तो अमन और नेहा को बुला कर टिकट की व्यवस्था करने के लिए कहा.

अमन ने एतराज भी किया, ‘‘अब तुम्हारी उम्र हो गई है मां. अकेले सफर नहीं करने दूंगा.’’

‘‘अकेली कहां रहूंगी. सहयात्री तो होंगे न.’’

‘‘क्या मां तुम भी. और यह दीदी को क्या हुआ है? 30 की हो गई. अब भी अक्ल नहीं आई उसे? ऐसे अचानक बुला लिया. अब समझदार न हुई तो कब होगी?’’

‘‘बेटा तू 10 का था और वह 15 की,

जब तेरे पापा हमें छोड़ कर दूसरी दुनिया में

चले गए थे. पिता की लाड़ली उन के जाने का

गम न सह सकी थी. उस पर से प्रदीपजी का हमारे जीवन में आना उस के बरदाश्त के बाहर

हो गया.

‘‘पर मां उन्होंने आप की नौकरी लगवाई थी. हमारे पढ़ाईलिखाई का पूरा खर्च उठाया. एक पिता की तरह सहारा दिया था.’’

‘‘हां बेटा. वह तुम्हारे पिता के मित्र थे. स्वयं विधुर थे. उन्हें परिवार चाहिए था और तुम दोनों को पिता. समाज ऐसे रिश्तों की स्वीकृति नहीं देता तभी तो उन्होंने हम से विवाह कर लिया था मगर उसी दिन मैं ने कनु को खो दिया था.’’

‘‘पर क्यों मां. दीदी को तो तुम्हारे लिए खुश होना चाहिए था न?’’

‘‘वह आपे में नहीं थी. अपने पिता का स्थान किसी और को नहीं दे पा रही थी. तब मु?ो यह एहसास हुआ कि दूसरी शादी ने मेरी औलाद को तीसरा बना दिया है. शायद मेरे हिस्से में खो कर पाना ही लिखा है. जब भी कुछ पाया तो उस के बदले में बहुत कुछ खोया. मु?ो जरा आभास भी होता कि प्रदीपजी के कारण कनु को खो दूंगी तो मैं उन से शादी न करती. मु?ो दुलहन के लिबास में देखा तो वह लड़झगड़ कर अपनी सहेली के घर चली गई थी और वहीं से दिल्ली लौट कर इस घर में कदम ही नहीं रखा. तुम्हारे विवाह में भी नहीं आई…’’

‘‘प्रदीपजी से इतनी नफरत थी उसे?’’

‘‘अपने पिता से इतना प्यार था,’’ कहती हुई आभा हिचकहिचक कर रोने लगीं.

सचमुच वैधव्य ही उन के हिस्से था. इस जीवन में अपनी आंखों के सामने 2-2 अर्थियां उठती देख लीं थी. अपने मध्याह्न में ही इतना कुछ देख लिया था कि कुछ और देखने की हिम्मत शेष न बची थी. 50-55 में जब साथी की सब से ज्यादा जरूरत होती है तब वे फिर से अकेली हो गईं. पहले पति का जीवन के मंझधार में छोड़ जाना फिर एक सहारे की तरह प्रदीपजी का आना और अनायास ही उन का भी आंखें मूंद लेना और अपनी ही कोख से जन्मी खुद की जाई का घर से विमुख हो जाना तमाम घटनाक्रम चलचित्र की भांति आंखों में नाच गया.

आभा का जीवन सचमुच कांटों भरा था. अपने जीवन में आने वाले हर उतारचढ़ाव से तो समझता कर ही लिया था मगर अपनी औलाद के दुख से बच कर कहां जातीं. सच है जो किसी से नहीं हारता वह अपने ही जन्मे से हारता है. वह तो भला हो बहू नेहा का जो उस ने पोती के रूप में छोटी कनु दे दी और वे उस की किलकारियों के मधुर संगीत में खो गईं. मगर अतीत से पीछा छुड़ाना आसान कहां होता है.

पति ‘विमानचालक वीरेंद्र’ के प्लेन क्रैश में मौत की सूचना लाने वाले प्रदीपजी ही जबतब हालचाल पूछने आने लगे थे. उस वक्त वे बुरी तरह से टूटी हुई थी. उन के सामने आने में भी उन्हें पूरा 1 साल लग गया था. उन्हीं के स्कूल

में छोटे बच्चों को पढ़ाने लगी थीं और फिर एक दिन उन के द्वारा विवाह का प्रस्ताव दिए जाने पर आभा ने मौन स्वीकृति दे दी थी और वह भी बड़ी होती बिटिया कनु की खातिर मगर अफसोस उसी ने मां को न समझ. हमेशा के लिए पिता का आवास छोड़ कर चली गई. बच्चे नादानी कर सकते हैं पर मां नहीं. कनु का स्वाभिमान बना रहे तभी तो अपनी पूरी तनख्वाह कनु तक उस की सहेली प्रिया के हाथों भिजवाती रही, जब तक वह 18 की नहीं हो गई.

एअरलाइंस वालों ने कनुप्रिया को उस के पिता की जगह नौकरी के तौर पर विमान परिचारिका नियुक्त कर दिया. अब उस की जब भी मां से मिलने की इच्छा होती तब हवाईयात्रा के दौरान वह बनारस हो कर आतीजाती. मगर घर के बजाय प्रिया के घर पर बुला कर मिल लेती. प्रिया शादी कर विदेश चली गई तो बचाखुचा नाता भी टूट गया. तब से उस की कोई खोजखबर नहीं थी. आखिरी फोन भी तभी किया था जब हृदयाघात से प्रदीपजी की मौत की सूचना मिली थी.

उस ने फोन पर बस यही कहा, ‘‘देखा तुम ने मेरे पिता की जगह लेने का नतीजा?’’

‘‘मरने वाले से कैसा बैर बेटा?’’

‘‘उन से बैर क्यों न करूं जिन्होंने मुझे जीते जी मार दिया. पिता पहले ही छोड़ गए थे. एक मां थीं जो उन्होंने छीन लीं.’’

बेटी के तेवर देख मां ने चुप्पी ओढ़ ली तो फोन कट गया. क्या कहती. क्या समझती. कहा तो तब जाए जब कोई सुने. अगर सुनना ही न चाहे दिमाग के द्वार बंद कर ले तो बोलने वाले के होंठ ही फड़फड़ाते हैं और कुछ नहीं.

उफ, पहले पति से और फिर अपनी आत्मजा से विछोह को आभा ने अपने हिस्से का दोष मान कर स्वीकार कर लिया था मगर बरसों बाद मिले बेटी के इस अप्रत्याशित पैगाम ने उन्हें बुरी तरह से झकझर दिया. किसी तरह से खुद को संभाल कर बेटी के पास जाने की तैयारी की. उस की पसंद की मिठाइयां और बनारसी सूट के साथ दिल्ली की उड़ान भर ली.

कनु उन्हें लेने एअरपोर्ट आ गई थी. मगर यह क्या. चेहरे पर इतनी गंभीरता क्यों? फूल सी बच्ची का कुम्हलाया मुंह देख जी धक से रह गया.

‘‘अरे कैसी दिख रही लाडो. चेहरा उड़ाउड़ा. काम पर नहीं जा रही क्या?’’ घर पहुंच कर पूछा.

‘‘बताती हूं मां. पहले आराम कर लो.’’

बिटिया की आवाज का ठहराव अलग ही था. नहीं यह उस की कनु नहीं. वह तो कभी सीधे मुंह बात तक नहीं करती थी. थोड़ी देर बाद मांबेटी खाना खा कर लेटे तो बेटी का माथा चूम उसे सीने से चिपका लिया. उन की ममता जो बेटी के वियोग में बरसों तड़पी थी अब तृप्त हो रही थी.

‘‘मां, तुम्हें सुन कर अजीब लगेगा पर बताना भी जरूरी है… मैं और रोहन पिछले 2 साल से साथ रह रहे हैं. मैं जिस एअरलाइंस में काम करती हूं वह उसी के जहाज उड़ाता है. पायलट है. सच कहूं तो वह जब से मेरी जिंदगी में आया मैं प्यार को समझ पाई. स्त्रीपुरुष का संबंध सिर्फ दैहिक नहीं बल्कि आत्मिक भी होता है. साथ मजबूत बनाता है तो जीवन जीने का हौसला मिलता है साथ ही यह एहसास हुआ कि क्यों तुम ने प्रदीपजी का सहारा लिया. तुम्हारी मनोस्थिति समझ पाई तो कदमकदम पर अपनी गलतियां पता लगीं. मैं ने तुम्हारी खुशियों के बारे में एक पल को भी नहीं सोचा उलटे तुम्हें छोड़ कर आ गई. कितने बरस तुम्हारी ममता अपनी बेटी के लिए तड़पी होगी. सच कहूं तो कई बार तुम्हें देखना चाहा पर हिम्मत नहीं हुई. तुम्हें दुख देने के बाद मैं अंदर ही अंदर पछता रही थी.’’

‘‘कोई बात नहीं बच्चे. अब आ गई हूं न. आ मेरी गोद में बैठ जा. पिछले वर्षों की सारी ममता उड़ेल दूं तुझ पर.’’

उद्गम ने आद्र स्वर में गुहार लगाई जैसे वापस कोख में समा लेने की चाहत बलवती हो आई हो मगर बेटी पछतावे के दर्द से आकुल थी.

‘‘इस से पहले कि तुम तक आऊं मु?ो सब कह लेने दो मां. रोहन के साथ लिव इन में रहते हुए हमारे बीच तय हुआ था कि हम में से कोई शादी का नाम नहीं लेगा. तुम तो जानती हो कि मु?ो बंधन से कितनी चिढ़ है. अब जबकि मैं स्वयं मां बनने वाली हूं ऐसे में मु?ो अकेली छोड़ कर वह अपने परिवार के बीच रहने चला गया है. मां. मैं अकेली पड़ गई हूं. मु?ो तुम्हारा साथ चाहिए. तुम्हारे बिना मैं मां नहीं बनना चाहती.’’

‘‘मां.’’

‘‘हां मां. मैं प्रैगनैंट…’’

‘‘रोहन जानता है?’’

‘‘हां,’’ उस ने भी संक्षिप्त उत्तर दिया मानो मां का मन पढ़ लिया था.

उफ… यह क्या कर डाला बागी बिटिया ने. बेटी के अंदर की स्त्री का दुख, एक भावी मां का दुख सब मिल कर आभा को द्रवित कर रहे थे मगर जब घर ही छोड़ दिया था तो सवाल क्या और जवाब क्या? इस वक्त उसे नसीहतों की नहीं बल्कि मदद की जरूरत थी. मां को अपने कलेजे के टुकड़े को फिर से अपनाना था. गले लगा कर गलतियां सुधारनी थीं. अत: मन मजबूत कर पूछ बैठीं, ‘‘फिर भी तुम्हें अकेली छोड़ कर चला गया?’’

‘‘उस ने कहा कि वह आधाआधा नहीं जी सकता. कभी यहां तो कभी अपनी मां के पास जाने से अच्छा है कि सभी एकसाथ रहें.’’

‘‘सही कहता है. मैं रोहन की माताजी से बात करूंगी. तुम उन्हें बुला लो.’’

‘‘रोहन की मां एक सुलझ हुई महिला हैं. उन्होंने अपनी बहन के बच्चों को पालपोस कर बड़ा किया है वह भी तब जब वे असामयिक वैधव्य के दुख से अवसाद में आ गई थीं और उसी मानसिक अवस्था में अपनी जान दे डाली. उन का ही कहना है कि एक बच्चे के स्वस्थ जीवन के लिए मां का खुशहाल होना बहुत जरूरी है. वह मेरे मन की गांठ खोलना चाहती हैं. इसीलिए उन्होंने कहा कि जब तक मेरे परिवार वालों से नहीं मिलेंगी मेरी और रोहन की शादी नहीं हो सकती. मां, तुम मिलोगी न मेरे लिए? मैं जानती हूं कि मैं ने तुम्हें बहुत सताया है पर अपने अंदर आने वाले शिशु की आहट ने मु?ो बदल दिया है. मां बनने की संभावना ने मां की मजबूरी समझ दी है. सही मानों में अब तुम्हें समझ पाई हूं. मु?ो माफ कर दो न मां.’’

बेटी के इस बदले रूप को देख खुशी के आंसू छलक आए. प्यार अच्छेअच्छे को बदल देता है. अब सबकुछ साफसाफ नजर आ रहा था कि क्यों बिटिया ने आपातकालीन अल्टीमेटम दे कर उन्हें दिल्ली बुलाया.

तभी बड़ा ही हैंडसम नौजवान कमरे में दाखिल हुआ और उस के साथ ही एक

संभ्रांत महिला थीं.

‘‘न… न… समधनजी… आप अन्यथा न लें. यह सब रोहन की चाल है मांबेटी को मिलाने की. मैं तो कब से कनुप्रिया को अपनी बहू बनाने के सपने संजाएं बैठी हूं.’’

‘‘आंटी, यह कुछ कहती नहीं थी पर अंदर ही अंदर घुटती रहती थी. इसलिए मैं ने और मां ने तय किया कि आप के आने के बाद ही शादी होगी ताकि इस के अंदर का दुख कम हो जाए, आंतरिक खुशी महसूस कर सके. खुद अच्छी बेटी बनेगी तभी तो अच्छी मां भी बन सकेगी.’’

‘‘वाह, इतना अच्छा लड़का, इतनी अच्छी सास मिली हैं तु?ो कनु.’’

धूमधाम से शादी हुई. पूरा परिवार शामिल हुआ और ठीक 7वें महीने वह भी आ गया जिस के लिए आभा यहां आई थीं.

‘‘अरे, यह तो अपने नाना की परछाईं है. बापबेटी का ऐसा प्यार न देखा न सुना. सच वही तेरी ममता की छांव में बड़े होने वापस लौट आए हैं.’’

और वह टूटा परिवार हमेशाहमेशा के लिए जुड़ गया. इस बार आभा ने कुछ खोए बिना ही खुशियां पाईं. एक पैगाम ने उस के परिवार को पूरा कर दिया था.

नोकझोंक : आदित्य अपनी पत्नी से क्यों नफरत करने लगा?

डोरबेल की आवाज सुन कर जैसे ही शिप्रा ने दरवाजा खोला. आदित्य उस के सामने खड़ा था. जैसेकि इंसान के बोलनेसमझने से पहले ही आंखें बहुत कुछ बोलसुन, समझ जाती हैं उसी तरह शिप्रा और आदित्य को पता चल गया था कि दोनों से गलती हुई है. दोनों में से किसी ने बात खत्म करने की नहीं सोची थी. बहस बहुत छोटी सी बात की थी.

उस दिन शिप्रा अपने भाईभाभी के शादी की सालगिरह पर जाने को तैयार बैठी थी. आदित्य ने भी 5 बजे आने को बोला था पर औफिस में ऐन मौके पर मीटिंग की वजह से भूल गया. फोन साइलैंट पर था तो आदित्य ने फोन उठाया नहीं. काम समेटते साढे 6 बज गए. काम खत्म कर फोन देखा तो शिप्रा की 13 मिस्ड कौल्स थीं. आननफानन में आदित्य घर की तरफ भागा पर घर पहुंचतेपंहुचते 7 बज गए.

उधर शिप्रा का गुस्सा 7वें आसमान पर था. आदित्य ने तुरंत शिप्रा को सौरी बोला पर शिप्रा ने तो जैसे सुना ही नहीं और अकेले ड्राइवर के साथ मायके चली गई. आदित्य भी तब तक नाराज हो चुका था कि यह भी कोई बात हुई कि सामने वाले को कुछ कहने का मौका ही न दो. वह भी पीछे से नहीं गया.

उधर शिप्रा से मायके में हरकोई आदित्य को पूछ रहा था. बहाने बनातेबनाते शिप्रा का मूड बहुत औफ हो गया. पार्टी खत्म होने के बाद सारे मेहमान चले गए तो शिप्रा ने गुस्से में ड्राइवर को घर भेज दिया और खुद मां के पास रुक गई.

‘‘आदित्य मीटिंग से लौटेगा तो तुम्हें मिस करेगा,’’ भाभी ने मजाक किया.

‘‘अरे नहीं भाभी, उस को मैं ने बता दिया है और क्या मैं अब इतनी पराई हो गई कि यहां रुक नहीं सकती,’’ शिप्रा ने बहाना बनाने के साथ एक भावनात्मक तीर भी छोड़ दिया.

‘‘यह तुम्हारा ही घर है बेटा. जब तक रुकना चाहो रुको. पर आदित्य को बता कर,’’ मां ने उसे गले लगाते हुए कहा. मां सम?ा गई थीं कि शिप्रा की आदित्य से कुछ तो अनबन हुई है. पर अनुभव से यह भी समझ गई कि सुबह तक सब ठीक हो जाएगा, नईनई शादी में इस तरह की नोक?ांक टौनिक का काम करती है. ऐसे में किसी और का कुछ न टोकना ही अच्छा है नहीं तो बात बनेगी नही बिगड़ जाएगी. मां बहुत सुलझ और सरल महिला थीं.

इधर ड्राइवर के खाली गाड़ी ले कर लौट आने पर आदित्य का मन और खिन्न हो गया. थोड़ा लेट ही सही, आ गया था और वह भी मेरे आने के बाद ही तो गई. इतनी भी क्या अकड़.

आदित्य सारी रात सो न सका. अभी शादी को 3 महीने भी तो नहीं हुए थे. वह शिप्रा को इतना मिस करने लगा कि वह अपनी सारी नाराजगी भूल गया. नींद तो शिप्रा को भी नहीं आ रही थी. उसे भी अब अपने ऊपर गुस्सा आने लगा था कि नाहक आदित्य पर इतना नाराज हुई. क्या हो जाता. थोड़ी वह ही सम?ादार बन जाती. रात आंखोंआंखों में कट गई. सुबह होते ही आदित्य शिप्रा के मायके पहुंच गया और शिप्रा भी जैसे उसी का इंतजार कर रही थी. डोरबैल की आवाज पर लपक कर दरवाजा खोला.

‘‘चलें,’’ आदित्य ने मुसकराते हुए कहा तो शिप्रा ने तुरंत उस की बांह थाम ली.

‘‘चले जाना… चले जाना, पर कम से कम नाश्ता कर लो वरना अब वहां तो टाइम नहीं मिलेगा. मेरा मतलब है नाश्ते का समय निकल जाएगा,’’ शिप्रा की भाभी ने चुटकी लेते हुए छेड़ा तो दोनों ?ोंप गए.

नाश्ता कर के सब से विदा ले ली. गाड़ी में बैठते ही शिप्रा ने आदित्य की आंखों में देखते हुए अपने दोनों कान पकड़ लिए तो आदित्य ने भी उस का माथा चूम लिया. बिन कहे, बिन सुने दोनों ने अपनीअपनी गलती भी मान ली और माफी भी मांग ली.

अंधेरे में घिरी एक और दीवाली

लेखक- शशि अरुण

सर्र… की आवाजें निरंतर गूंज रही थीं. हर ओर से आ रही पटाखों की आवाजों से लगता था जैसे कान के परदे फट जाएंगे. सुबह से सुंदर ने न तो कुछ खाया था और न ही उस का बिस्तर से उठने का ही मन हुआ था. हर पल वह एक अथाह समंदर में गहरे और गहरे पैठता ही गया. यादों का यह समंदर कितना गहरा है, कितनी लहरें उठती हैं इस में कोई थाह नहीं पा रहा था सुंदर.

मगर अब तो लेटे रहना भी असहनीय हो गया था. खिड़कियों से आसमानी गोलों की हरीलाल चमकभरी रोशनी जैसे बरबस ही आंखों में घुस जाना चाहती थी. सुंदर ने खीज कर आंखें बंद कर लीं. खूब कस कर पूरी शक्ति से आंखें बंद रखने की कोशिश करने लगा. मगर दूसरे ही क्षण तेज रोशनी की चमक से पलकें अपनेआप ही खुल जातीं. ठीक उसी तरह जैसे रजनी जबरदस्ती अपनी कोमल उंगलियों से उस की पलकें खोल देती थी.

उन दिनों खीज उठता था सुंदर लेकिन आज मन चाहता है चूम ले उन प्यारी सी कचनार की कलियों को. अनायास ही उस का अपना हाथ होंठों तक आ गया. होंठ एक खास अंदाज में सिकुड़े भी. लेकिन यह क्या. न वह गरमी और न वह सिहरन. घबरा कर सुंदर ने आंखें खोल दीं.

हां, यही तो होता था तब जब वह इस बंदायू में तैनात था. मकान उसे एक पुराना 3 कमेरे का मिला था. यह मकान शहर से बाहर था और थोड़ा हराभरा था. एक दिन सुबह जब वह सो कर उठा तो आदत के अनुसार बरामदे में पड़ी कुरसी पर आ कर बैठ गया. चाय बना कर सामने रखी और मोबाइल देखने लगा. सुंदर ने चाय का कप उठा कर अभी चुसकी ली ही थी कि चौंक गया. घर के लौन में बने पत्थर के फुहारे पर बहते पानी पर एक परी अपने गुलाबी पंख फड़फड़ा रही थी. सुंदर एकटक उसे देखता रह गया. वह हाथ का कप हाथ में ही पकड़े रहता कि तभी घर में सफाई करने आने वाली बाई की आवाज से चौंक गया.

‘‘यहां के पलंबर की भानजी है साहब, कल रात ही पौड़ी से आई है. बचपन से ही इस फुहारे पर नहाती है और अब इतनी बड़ी हो कर भी शरारत से बाज नहीं आती. इस का पिता ही इस फुहारे का पंप ठीक करता है.’’

बाई की आवाज से सिर्फ सुंदर ही नहीं वह परी भी चौंक गई. उस ने पैर हिलाना बंद कर दिया और इधर ही एकटक देखने लगी. सुंदर तो हक्काबक्का ही रह गया. कोई नारी

मूर्ति इतनी सुंदर भी हो सकती है, इस की तो उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. चेहरा गुलाबी रंग की कमीज के गुलाबी रंग से और भी खिल उठा था. पानी से भीगा सारा बदन दिख रहा था. क्या पहाड़ी औरतें भी इतने तीखे नैननक्श वाली होती हैं.

वह अभी सोच ही रहा था कि बाई की आवाज पुन: गूंजी, ‘‘रजनी, अब तो तुम बड़ी हो गई हो. क्या अभी तक फव्वारे में नहाने का शौक नहीं गया,’’ और फिर बाई उस की ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘आप चाय पीजिए. मैं इसे आज ही मना कर दूंगी कि फुहारे में न आया करे.’’

‘‘नहीं मालती इस लड़की से कुछ कहने की जरूरत नहीं है,’’ कहते हुए सुंदर ने चाय पीनी शुरू कर दी क्योंकि अब तक परी उड़ चुकी थी और फुहारे में लगता है अब पानी सूख गया वैसा ही सांवला रंग लिए खड़ा था. ‘कितना सुंदर है यह फुहारा जैसे सचमुच किसी पहाड़ का ?ारना हो,’ सुंदर मन ही मन बोला.

इस के बाद के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ने लगे. सुंदर ने मालती से पता लगा लिया कि रजनी की अभी कहीं शादी तय नहीं हुई है. रजनी थी तो शैड्यूल कास्ट पर हमेशा पढ़ने में तेज थी. उस के पिता ने पलंबर का काम सीख लिया था जिस से अच्छी कमाई हो जाती थी. रजनी ही ठेकों के हिसाबकिताब रखती थी. वह रजनी के मातापिता से मिला और उन के आगे रजनी से अपने विवाह का प्रस्ताव रखा.

सुंदर जैसे स्वस्थ और आकर्षक व्यक्तित्व वाले ऊंची जाति के डाक्टर को अपना दामाद बनाने में रजनी के मातापिता को भला क्या एतराज हो सकता था. सुंदर की मां भी रजनी की सुंदरता देख कर तुरंत उसे अपनी बहू बनाने को तैयार हो गईं. हालांकि उन को उस की जाति खल रही थी. पर सुंदर की मां जवानी में कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ी थीं और जीवनभर उन्होंने स्कूलों में पढ़ाया है जहां हर तरह की लड़कियां आती रही हैं.

कुछ दिन रुक कर पट ब्याह वाली बात हुई. सुंदर रजनी को ब्याह कर अपने घर में ले आया. उस को तो जैसे मनचाही मुराद मिल गई थी. वह रातदिन रजनी के प्यार में ही डूबा रहता. नशा इतना गहरा था कि कुछ सोचने का वक्त ही नहीं मिला. उस के दोस्तों ने उस से वास्ता रखना बंद कर दिया पर इस से उसे कुछ असर नहीं पड़ता था. उसे तो रजनी में ही जिंदगी दिख रही थी.

सुंदर की रविवार को दिन में सोने की आदत थी. अभी शादी को 1 साल भी पूरा नहीं हुआ था. एक दिन अचानक ही सोते समय किसी ने अपनी उंगलियों से सुंदर की पलकें खोल दीं. सुंदर ने हड़बड़ा कर देखा, पास ही रजनी खड़ी मुसकरा रही थी. अभी सुंदर खीजते हुए यह कहना ही चाहता था कि सोने क्यों नहीं देतीं कि रजनी बोल पड़ी, ‘‘मुबारक हो.’’

‘‘क्या कह रही हो. इतनी जल्दी यह कैसे हो गया? अभी तो मैं ने सोचा भी नहीं था,’’ सुंदर का चेहरा बु?ा गया.

‘‘तो क्या हर चीज जनाब के सोचने से ही होगी? अरे, मैं तो सोच रही थी आप सुन कर खुशी से उछल पड़ेंगे. मगर आप तो ऐसे डर रहे हैं जैसे कोई बहुत गलत काम हो गया हो. आखिर इस में डरने की क्या बात है? कोई चोरी तो नहीं है. आखिर हम पतिपत्नी हैं.’’

‘‘नहीं रजनी, यह ठीक नहीं. हमें अभी इतनी जल्दी बच्चा नहीं चाहिए,’’ सुंदर ने दृढ़ स्वर में कहा और फिर इस के बाद सबकुछ समाप्त हो गया. रजनी का क्रोध, उस के आंसू कुछ काम न आए. सुंदर ने इंजैक्शन दिलवा कर रजनी को मां बनने से रोक दिया. रजनी खोईखोई सी रहने लगी.

मगर कुछ दिन बाद फिर से सबकुछ सामान्य हो गया. रजनी भी सबकुछ भूल कर पति के सुख में सुखी रहने की कोशिश करने लगी और फिर 3 साल जैसे पलक झपकते गुजर गए.

3 साल बाद जैसे फिर से विस्फोट हो गया.

एक दिन अचानक सुंदर पूछ बैठा, ‘‘क्यों, सबकुछ ठीक है?’’ उसी दिन रजनी 1 महीने बाद अपने मायके से लौटी थी.

रजनी स्वयं ही बताना चाहती थी लेकिन सोच रही थी कि रात को बताएगी. जब उस ने देखा कि सुंदर ने खुद ही पूछ लिया है तो वह एक रहस्यमयी मुसकराहट के साथ बोली, ‘‘हां, सबकुछ ठीक है. इस बार तो जल्दी नहीं है न? अब तो आप को बातें बनने में शर्म नहीं आएगी न?’’

‘‘क्या कह रही हो? क्या फिर गड़बड़ हो गई. इसीलिए मैं मना कर रहा था कि ज्यादा दिन के लिए मत जाओ. खैर, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. अभी तोे सिर्फ 7 सप्ताह ही हुए हैं. मु?ो तुम्हारी तारीख अच्छी तरह से याद है,’’ सुंदर आश्वस्त स्वर में बोला.

‘‘क्या कह रहे हैं आप? क्या फिर से…’’ रजनी अभी बात पूरी भी नहीं कर पाई थी कि सुंदर बीच में ही बोल पड़ा, ‘‘हां, अभी नहीं 5 साल से पहले हमें बच्चा नहीं चाहिए.’’

‘‘नहीं… नहीं. अब मैं यह नहीं कर सकूंगी,’’ रजनी डर से कांपने लगी. एक तो पहले ही की तकलीफ याद कर के उस के रोंगटे खड़े हो रहे थे दूसरे हर बार अपनी ममता का गला घोटा जाना वह सह नहीं पा रही थी.

‘‘अरे, तुम अभी बहुत छोटी हो. इतनी जल्दी बच्चे हो गए तो जानती हो क्या होगा? तुम्हारी सारी सुंदरता नष्ट हो जाएगी,’’ सुंदर समझते हुए बोला, ‘‘जिद मत करो. अपनी जाति के खोल से निकलो कि बच्चे पैदा करने में ही सुख है. देखा नहीं क्लीनिक में कितनी सुंदर लड़कियां 30 साल तक ऐनीमिया की शिकार हो जाती हैं.’’

मगर रजनी न मानी. उस ने सास को भी सारी बात बता दी. मां ने बेटे को बहुत

समझाया लेकिन बेटा टस से मस न हुआ और एक दिन अचानक लखनऊ मैडिकल कालेज में जा कर रजनी के गर्भाशय की सफाई करवा दी.

रजनी का मन रो उठा. वह बरदाश्त न कर सकी इस क्रूरता को. वह बिस्तर से लग गई और फिर ठीक होने में महीनों लग गए.

समय हर घाव को भर देता है. रजनी भी पिछला सबकुछ भूल कर पति के साथ सहयोग करने लगी. लेकिन अब उस में न पहले जैसा उत्साह रहा था, न अल्हड़ता और न सुंदरता ही. इधर सुंदर ने भी सरकारी अस्पताल की नौकरी छोड़ कर अपना निजी नर्सिंगहोम खोल लिया था. उस का नर्सिंगहोम जल्द ही खूब चलने लगा क्योंकि उस का असली काम तो अनचाही ममता का गला घोटना था. उस ने अपने यहां कई नर्सें और एक महिला डाक्टर भी रखी हुई थी.

सुंदर का अपने माली को सख्त आदेश था कि नर्सिंगहोम के बगीचे में कोई भी सूखा, मुर?ाया हुआ फूल न रहे. उसे हमेशा ताजे, खिले हुए फूल ही पसंद थे. हां, फूल चाहे जो हों बेला, गुलाब, चमेली, गेंदा बस ताजे होने चाहिए.

यही स्थिति उस के अपने नर्सिंगहोम की भी थी. कोई भी ऐसी नर्स या डाक्टर उसे पसंद नहीं थी जो उस की इच्छा के आगे सिर न ?ाका दे. अत: वह हमेशा ताजे फूल की तलाश में रहता और भयंकर बेकारी के कारण उसे एक से एक नायाब खुशबूदार फूल मिलता रहता.

रजनी को वह लगभग भूल ही चुका था. अपने पौरुष और संपत्ति के नशे में रजनी उसे एक मुर?ाया हुआ फूल ही दिखाई देती. लेकिन वह उसे तोड़ कर नहीं फेंक सकता था क्योंकि वह एक स्थायी बंधन, एक मजबूत जंजीर बन कर उस के गले में पड़ गई थी.

मगर शीघ्र ही इस बंधन से छुटकारा पाने का बहाना मिल गया. शादी को हुए 5 साल पूरे हो चुके थे. रजनी करीब 4 महीनों से अपने मायके में थी. सुंदर के बारबार कहने पर भी नहीं आ रही थी. सुंदर को कुछ खटका हुआ. वह स्वयं जा कर रजनी को लाना चाहता था लेकिन उसे वक्त ही नहीं मिल पा रहा था.

उस ने अपने नौकर को लाने भेजा तो रजनी ने कहलवा दिया कि वह अभी नहीं आ सकेगी. अब तो उस का संदेह विश्वास में बदलने लगा. उस ने फोन किया कि वह गंभीर रूप से बीमार है. यह सुनते ही रजनी के हाथपैर फूल गए. वह घबराई हुई फौरन लखनऊ के लिए चल दी.

रजनी ने आ कर देखा कि सुंदर तो पूरी तरह ठीक है. हां, रजनी को देख कर उस का पारा अवश्य चढ़ गया क्योंकि उसे समझते देर न लगी कि रजनी फिर से मां बनने वाली है. उस की तारीख तो वह हमेशा ही याद रखता था. अत: उसे पक्का विश्वास था कि 4 महीने का गर्भ होगा. इस बार उस ने रजनी से कुछ न पूछा. जब वह रात को सोई तो चुपचाप बेहोश कर के सब काम बड़ी तसल्ली से

पूरा कर के आराम से सो गया. सुबह जब रजनी की आंख खुली तो उस का गला बुरी तरह से सूख रहा था. सारे शरीर में जैसे जान ही नहीं थी. उस ने सिर उठाने की कोशिश की तो उसे लगा जैसे वह भारी बो?ा तले दबी हुई है. अभी वह कुछ सम?ा पाती कि किसी ने उस के मुंह में कोई गरमगरम चीज डाल दी. मुश्किल से निगल कर दोबारा आंख खोल कर देखने की कोशिश की तो एक धुंधला सा चेहरा दिखाई दिया लेकिन कुछ सम?ा न सकी. पता नहीं कितनी देर इसी हालत में पड़ी रही कि किसी ने एक इंजैक्शन लगा कर दोबारा मुंह में गरम चीज डाली. इस बार उसे आभास हुआ कि वह गरम चीज दूध है. हिम्मत कर के उस ने आंखें खोलीं. देखा पास ही नर्स और उस का पति सुंदर खड़ा है.

रजनी कांप गई. अनायास ही हाथ पेट पर गया. तीव्र पीड़ा हुई और वह चीख पड़ी, ‘‘नहीं…’’ इस के बाद फिर बेहोश हो गई.

सुंदर चौंक उठा. इस के बाद की सारी घटनाएं जैसे एक आंधी की तरह आईं. रजनी लगातार 1 महीने तक होश में आ कर चीखती और फिर डर कर बेहोश हो जाती. सुंदर परेशान हो गया. रजनी सूख कर हड्डियों का ढांचा मात्र रह गई थी. मजबूरन सुंदर ने रजनी के मांबाप और भाई को बुलवा लिया. मैडिकल कालेज के डाक्टरों ने एक राय से कहा कि रजनी को कोई भारी मानसिक आघात लगा है.

सुदंर ने सोचा भी नहीं था कि परिणाम इतना भयानक होगा. बड़ी मुशकिल से  रजनी 6 महीने में ठीक हो पाई. लेकिन अब उस ने सुंदर के साथ रहने से साफ मना कर दिया. वह अपने मांबाप के पास चली गई. कुछ दिन बाद सुंदर को अदालत का पत्र मिला कि रजनी तलाक चाहती है और जितनी जल्दी उन का विवाह हुआ था, उतनी ही जल्दी उन का तलाक भी हो गया क्योंकि दोनों ही पक्ष इस के लिए इच्छुक थे.

सुंदर ने रजनी से छुटकारा मिलने पर सांस ली. वह पहले ही इस सूखे, मुरझाए हुए फूल को तोड़ फेंकना चाहता था. अब वह मनमाने तरीके से रहने लगा. मां तो पहले ही मर चुकी थीं. अब पत्नी के भी न रहने से किसी तरह का बंधन नहीं रहा. नित नए स्वाद और नित नए शौक. वह शान से कहता, ‘‘अकेले की जिंदगी कितनी सुखदायी होती है. जब चाहा खाया, जब चाहा सोए, कोई रोकनेटोकने वाला नहीं.’’

जब भी कोई दोबारा शादी करने को कहता तो वह झिड़क देता, ‘‘अरे, छोड़ो भी. जब बाजार में तरहतरह के स्वादिष्ठ व्यंजन सहज ही मिल जाते हैं तो घर में सूखी रोटी खाने के लिए बीवी का ?ामेला करना बेवकूफी के सिवा और क्या है.’’

लोगों ने कुछ दिन तो कहा, फिर धीरेधीरे सब चुप हो गए. इसी तरह 15 वर्ष गुजर गए.

एक जगह रहतेरहते सुंदर का मन भी ऊब गया. अब उस की प्रैक्टिस भी पहले जैसी नहीं रही क्योंकि वह डाक्टर के रूप में काफी बदनाम हो चुका था. अत: तंग आ कर उस ने दिल्ली के एक नर्सिंगहोम में सर्विस कर ली. मकान भी उसे नर्सिंगहोम के पास मिल गया.

आने के दूसरे दिन ही वह कमरे में खड़ा खिड़की से बाहर देख रहा था कि  सामने के घर की बालकनी पर नजर पड़ते ही चौंक गया. सामने रजनी गुलाबी रंग की साड़ी में खड़ी बाल सुखा रही थी. रजनी पहले से कुछ मोटी हो गई थी. फिर भी उस के चेहरे की चमकदमक वैसे ही थी. सुंदर देखता ही रह गया.

अभी वह कुछ सोचता कि 2 प्यारेप्यारे बच्चे दौड़ते हुए आए और रजनी से लिपट गए. सुंदर का मन अजीब सा होने लगा. कितनी प्यारी गुडि़या सी लड़की जैसे नन्हीमुन्नी रजनी ही खड़ी हो और वह लड़का… उस की शक्ल उस लड़की से बिलकुल भिन्न थी. लड़की बिलकुल गोरी थी तो लड़का गेहुएं रंग का था. सुंदर का मन हुआ कि वह जा कर उन बच्चों के साथ खेलने लगे.

अभी वह उन्हें देख ही रहा था कि अंदर से एक लंबा हट्टाकट्टा खूबसूरत सा व्यक्ति स्टैथेस्कोप लिए निकला, ‘‘अच्छा, मैं चलता हूं,’’ कह कर उस ने रजनी को मुसकराते हुए भरपूर नजरों से देखा.

दोनोें बच्चे पिता से लिपट गए. जब पिता चलने को हुआ तो दोनों बच्चे जोरजोर से बोले, ‘‘पापा, जल्दी आना. आज इंडिया गेट चलेंगे.’’

‘‘ठीक है, तुम सब तैयार रहना और ए मेम साहब, तुम बढि़या सा मेकअप कर के वह नई साड़ी पहनना जो मैं कल लाया था,’’

वह बोला.

‘‘अच्छा बाबा, वही पहनूंगी,’’ रजनी भी चहकती हुई बोली.

सुंदर के दिल पर जैसे आरा चल गया. कितनी खुश है रजनी. कितने प्यार हैं उस के बच्चे और वह कितना हंस रहा था. मैं तो कभी इतना खुल कर नहीं हंस सका. सुंदर कमरे में जा कर धम्म से बिस्तर पर गिर गया. कोई भी तो नहीं है जो उस से जल्दी आने का आग्रह करे. किस से साथ चलने को कहे, सुंदर. किस से बातें करे. उठ कर चलने को हुआ तो ड्रैसिंग टेबल के सामने बाल संवारने लगा.

आधे से ज्यादा बाल पक चुके थे. चेहरे पर भी ?ार्रियां पड़ गई थीं. आंखों के नीचे का भाग कितना ज्यादा फूल गया था. क्या उम्र है अभी. कुल 45 वर्ष ही तो. लेकिन देखने में तो 60 से कम नहीं लगता.

और रजनी वह भी 35 से ज्यादा की हो गई होगी. लेकिन देखने में तो मुश्किल से 25-26 की लगती है. वह तो सम?ाता था बच्चे होने से स्त्री जल्दी बूढ़ी हो जाती है लेकिन यहां तो ज्यादा ही दिखाई दे रहा है. कहां रोक पाया वह उम्र को आगे बढ़ने से बल्कि उस का अपना चेहरा हमेशा तनावग्रस्त ही दिखाई देता है.

सुंदर रोज छिपछिप कर रजनी और उस के परिवार को देखता रहा. उस दिन जब बेचैनी बहुत बढ़ गई तो खिड़की पर जा खड़़ा हुआ. रजनी, उस का पति और दोनों बच्चे फुलझड़ी और पटाखे चला रहे थे.

उन का घर मोमबत्तियों की रोशनी से जगमगा रहा था. पूरा महल्ला ही नहीं पूरा शहर भी रोशनी से नहा गया था. धरती पर चरखी और आसमान में रंगबिरंगे सितारे बिखरे पड़े थे. यदि कहीं सूनापन या अंधेरा था तो सुंदर के घर में. रजनी, उस का पति और बच्चे अंदर जा चुके थे.

अचानक खिलखिलाहट की आवाज से सुंदर चौंक गया. रजनी का पति अपने दोनों बच्चों के साथ उस के फ्लैट की सीढि़यों की ओर वाली बालकनी में मोमबत्तियां लगा रहा था. वह बाहर निकल आया तो वह हंस कर बोला, ‘‘मुझे डाक्टर राकेश कहते हैं. आप के घर में अंधेरा देखा तो सोचा शायद आप कहीं गए हैं या बीमार है. हमारा रिवाज है कि दीवाली पर पड़ोसी के घर में दीया जरूर जलाते हैं. इसीलिए चले आए. क्या वास्तव में आप की तबीयत ठीक नहीं है?’’

‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं, आप आए उस के लिए बहुतबहुत धन्यवाद,’’ कह कर वह कमरे में घुसा ही था कि रजनी की बेटी ने उछल कर स्विच औन कर दिया, जिस से कमरा रोशनी से भर गया. वह खिलखिला कर बोली, ‘‘आप को अंधेरे में रहना अच्छा लगता है क्या? मां कहती

हैं आज के दिन घर में अंधेरा रहना ठीक नहीं होता है.’’

सुंदर कैसे कहता कि उस की जिंदगी का यह अंधेरा उस का अपना ही किया हुआ है. सिर्फ एक दीवाली से क्या होगा, उस का तो सारा जीवन ही अंधेरे में घिरा हुआ है.

घरौंदा: अचला को विमी के फ्लैट इतना क्यों पसंद आ गया?

विमी के यहां से लौटते ही अचला ने अपने 2 कमरों के फ्लैट का हर कोने से निरीक्षण कर डाला था. विमी का फ्लैट भी तो इतना ही बड़ा है पर कितना खूबसूरत और करीने का लगता है. छोटी सी डाइनिंग टेबल, बेडरूम में सजा हुआ सनमाइका का डबलबेड, खिड़कियों पर झूलते भारी परदे कितने अच्छे लगते हैं. उसे भी अपने घर में कुछ तबदीली तो करनी ही होगी. फर्नीचर के नाम पर घर में पड़ी मामूली कुरसियां और खाने के लिए बरामदे में रखी तिपाई को देखते हुए उस ने निश्चय कर ही डाला था. चाहे अशोक कुछ भी कहे पर घर की आवश्यक वस्तुएं वह खुद खरीदेगी. लेकिन कैसे? यहीं पर उस के सारे मनसूबे टूट जाते थे.

तनख्वाह कटपिट कर मिली 1 हजार रुपए. उस में से 400 रुपए फ्लैट का किराया, दूध, राशन. सबकुछ इतना नपातुला कि 10-20 रुपए बचाना भी मुश्किल. क्या छोड़े, क्या जोड़े? अचला का सिर भारी हो चला था. कालेज में गृह विज्ञान उस का प्रिय विषय था. गृहसज्जा में तो उस की विशेष रुचि थी. तब कितनी कल्पनाएं थीं उस के मन में. जब अपना एक घर होगा, तब वह उसे हर कोने से निखारेगी. पर अब…

उस दिन उस ने सजावट के लिए 2 मूर्तियां लेनी चाही थीं, पर कीमत सुनते ही हैरान रह गई, 500 रुपए. अशोक धीमे से मुसकरा कर बोला था, ‘‘चलो, आगे बढ़ते हैं, यह तो महानगर है. यहां पानी के गिलास पर भी पैसे खर्च होते हैं, समझीं?’’

तब वह कुछ लजा गई थी. हंसी खुद पर भी आई थी. उसे याद है, शादी से पहले यह सुन कर कि पति एक बड़ी फर्म में है, हजार रुपए तनख्वाह है, बढि़या फ्लैट है. सबकुछ मन को कितना गुदगुदा गया था. महानगर की वैभवशाली जिंदगी के स्वप्न आंखों में झिलमिला गए थे.

‘तू बड़ी भाग्यवान है, अची,’ सखियों ने छेड़ा था और वह मधुर कल्पनाओं में डूबती चली गई थी. शादी में जो कुछ भारी सामान मिला था, उसे अशोक ने जिद कर के घर पर ही रखवा दिया था. उस ने बड़े शालीन भाव से कहा था, ‘‘इतना सब कहां ढोते रहेंगे, यहीं रहने दो. अंजु के विवाह में काम आ जाएगा. मां कहां तक खरीदेंगी. यही मदद सही.’’

सास की कृतज्ञ दृष्टि तब कुछ सजल हो आई थी. अचला को भी यही ठीक लगा था. वहां उसे कमी ही क्या है? सब नए सिरे से खरीद लेगी. पर पति के घर आने के बाद उस के कोमल स्वप्न यथार्थ के कठोर धरातल से टकरा कर बिखरने लगे थे.

अशोक की व्यस्त दिनचर्या थी. सुबह 8 बजे निकलता तो शाम को 7 बजे ही घर लौटता. 2 कमरों में इधरउधर चहलकदमी करते हुए अचला को पूरा दिन बिताना पड़ता था. उस पूरे दिन में वह अनेक नईनई कल्पनाओं में डूबी रहती. इच्छाएं उमड़ पड़तीं. इस मामूली चारपाई के बदले यहां आधुनिक डिजाइन का डबलबेड हो, डनलप का गद्दा, ड्राइंगरूम में एक छोटा सा दीवान, जिस पर मखमली कुशन हो. रसोईघर के लिए गैस का चूल्हा तो अति आवश्यक है, स्टोव कितना असुविधा- जनक है. फिर वह बजट भी जोड़ने लगती थी, ‘कम से कम 5 हजार तो चाहिए ही इन सब के लिए, कहां से आएंगे?’

अपनी इन इच्छाओं की पूर्ति के लिए उस ने मन ही मन बहुत कुछ सोचा. फिर एक दिन अशोक से बोली, ‘‘सुनो, दिन भर घर पर बैठीबैठी बोर होती रहती हूं. कहीं नौकरी कर लूं तो कैसा रहे? दोचार महीने में ही हम अपना फ्लैट सारी सुखसुविधाओं से सज्जित कर लेंगे.’’ पर अशोक उसी प्रकार अविचलित भाव से अखबार पर नजर गड़ाए रहा. बोला कुछ नहीं.

‘‘तुम ने सुना नहीं क्या? मैं क्या दीवार से बोल रही हूं?’’ अचला का स्वर तिक्त हो गया था. ‘‘सब सुन लिया. पर क्या नौकरी मिलनी इतनी आसान है? 300-400 रुपए की मिल भी गई तो 100-50 तो आनेजाने में ही खर्च हो जाएंगे. फिर जब पस्त हो कर शाम को घर लौटोगी तो यह ताजे फूल सा खिला चेहरा चार दिन में ही कुम्हलाया नजर आने लगेगा.’’

अशोक ने अखबार हटा कर एक भाषण झाड़ डाला. सुन कर अचला का चेहरा बुझ गया. वह चुपचाप सब्जी काटती रही. अशोक ने ही उसे मनाने के खयाल से फिर कहा, ‘‘फिर ऐसी जरूरत भी क्या है तुम्हें नौकरी की? छोटी सी हमारी गृहस्थी, उस के लिए जीतोड़ मेहनत करने को मैं तो हूं ही. फिर कम से कम कुछ दिन तो सुखचैन से रहो. अभी इतना तो सुकून है मुझे कि 8-10 घंटे की मशक्कत के बाद घर लौटता हूं तो तुम सजीसंवरी इंतजार करती मिलती हो. तुम्हें देख कर सारी थकान मिट जाती है. क्या इतनी खुशी भी तुम अब छीन लेना चाहती हो?’’

?अशोक ने धीरे से अचला का हाथ थाम कर आगे फिर कहा, ‘‘बोलो, क्या झूठ कहा है मैं ने?’’ तब अचला को लगा कि उस के मन में कुछ पिघलने लगा है. वह अपना सिर अशोक के कंधों पर रख कर मधुर स्वर में बोली, ‘‘पर तुम यह क्यों नहीं सोचते कि मैं दिन भर कितनी बोर हो जाती हूं? 6 दिन तुम अपने काम में व्यस्त रहते हो, रविवार को कह देते हो कि आज तो आराम का दिन है. मेरा क्या जी नहीं होता कहीं घूमनेफिरने का?’’

‘‘अच्छा, तो वादा रहा, इस बार तुम्हें इतना घुमाऊंगा कि तुम घूमघूम कर थक जाओ. बस, अब तो खुश?’’ अचला हंस पड़ी. उस के कदम तेजी से रसोईघर की तरफ मुड़ गए. बातचीत में वह भूल गई थी कि स्टोव पर दूध रखा है.

‘ठीक है, न सही नौकरी. जब अशोक को बोनस के रुपए मिलेंगे तब वह एक ही झोंक में सब खरीद लेगी,’ यह सोच कर उस ने अपने मन को समझा लिया था. तभी अशोक ने उसे आश्चर्य में डालते हुए कहा, ‘‘जानती हो, इस बार हम शादी की पहली वर्षगांठ कहां मनाएंगे?’’

‘‘कहां?’’ उस ने जिज्ञासा प्रकट की. ‘‘मसूरी में,’’ जवाब देते हुए अशोक ने कहा.

‘‘क्या सच कह रहे हो?’’ अचला ने कौतूहल भरे स्वर में पूछा. ‘‘और क्या झूठ कह रहा हूं? मुझे अब तक याद है कि हनीमून के लिए जब हम मसूरी नहीं जा पाए थे तो तुम्हारा मन उखड़ गया था. यद्यपि तुम ने मुंह से कुछ कहा नहीं था, तो भी मैं ने समझ लिया था. पर अब हम शादी के उन दिनों की याद फिर से ताजा करेंगे.’’

कह कर अशोक शरारत से मुसकरा दिया. अचला नईनवेली वधू की तरह लाज की लालिमा में डूब गई. ‘‘पर खर्चा?’’ वह कुछ क्षणों बाद बोली.

‘‘बस, शर्त यही है कि तुम खर्चे की बात नहीं करोगी. यह खर्चा, वह खर्चा… साल भर यही सब सुनतेसुनते मैं तंग आ गया हूं. अब कुछ क्षण तो ऐसे आएं जब हम रुपएपैसों की चिंता न कर बस एकदूसरे को देखें, जिंदगी के अन्य पहलुओं पर विचार करें.’’ ‘‘ठीक है, पर तुम तनख्वाह के रुपए मत…’’

‘‘हां, बाबा, सारी तनख्वाह तुम्हें मिल जाएगी,’’ अशोक ने दोटूक निर्णय दिया. अचला का मन एकदम हलका हो गया. अब इस बंधीबंधाई जिंदगी में बदलाव आएगा. बर्फ…पहाड़…एकदूसरे की बांहों में बांहें डाले वे जिंदगी की सारी परेशानियों से दूर कहीं अनोखी दुनिया में खो जाएंगे. स्वप्न फिर सजने लगे थे.

रेलगाड़ी का आरक्षण अशोक ने पहले से ही करा लिया था. सफर सुखद रहा. अचला को लगा, जैसे शादी अभी हुई है. पहली बार वे लोग हनीमून के लिए जा रहे हैं. रास्ते के मनोरम दृश्य, ऊंचे पहाड़, झरने…सबकुछ कितना रोमांचक था.

उन्होंने देहरादून से टैक्सी ले ली थी. होटल में कमरा पहले से ही बुक था. इसलिए उन्हें मालूम ही नहीं हुआ कि वे इतना लंबा सफर कर के आए हैं. कमरे में पहुंचते ही अचला ने खिड़की के शीशों से झांका. घाटी में सिमटा शहर, नीलीश्वेत पहाडि़यां, घने वृक्ष बड़े सुहावने दिख रहे थे. तब तक बैरा चाय की ट्रे रख गया. ‘‘खाना खा लो, फिर घूमने चलेंगे,’’ अशोक ने कहा और चाय खत्म कर के वह भी उस पहाड़ी सौंदर्य को मुग्ध दृष्टि से देखने लगा.

खाना भी कितना स्वादिष्ठ था. अचला हर व्यंजन की जी खोल कर तारीफ करती रही. फिर वे दोनों ऊंचीनीची पहाडि़यां चढ़ते, हंसी और ठिठोली के बीच एकदूसरे का हाथ थामे आगे बढ़ते, कलकल करते झरने और सुखद रमणीय दृश्य देखते हुए काफी दूर चले गए. फिर थोड़ी देर दम लेने के लिए एक ऊंची चट्टान पर कुछ क्षणों के लिए बैठ गए. ‘‘सच, मैं बहुत खुश हूं, बहुत…’’

‘‘हूं,’’ अशोक उस की बिखरी लटों को संवारता रहा. ‘‘पर, एक बात तो तुम ने बताई ही नहीं,’’ अचला को कुछ याद आया.

‘‘क्या?’’ अशोक ने पूछा. ‘‘खर्चने को इतना पैसा कहां से आया? होटल भी काफी महंगा लगता है. किराया, खानापीना और घूमना, यह सब…’’

‘‘तुम्हें पसंद तो आया. खर्च की चिंता क्यों है?’’ ‘‘बताओ न. क्यों छिपा रहे हो?’’

‘‘तुम्हें मैं ने बताया नहीं था. असल में बोनस के रुपए मिले थे.’’ ‘‘क्या? बोनस के रुपए?’’ अचला बुरी तरह चौंक गई, ‘‘पर तुम तो कह रहे थे…’’ कहतेकहते उस का स्वर लड़खड़ा गया.

‘‘हां, 2 महीने पहले ही मिल गए थे. पर तुम इतना क्यों सोच रही हो? आराम से घूमोफिरो. बोनस के रुपए तो होते ही इसलिए हैं.’’ अचला चुप थी. उस के कदम तो अशोक के साथ चल रहे थे, पर मन कहीं दूर, बहुत दूर उड़ गया था. उस की आंखों में घूम रहा था वही 2 कमरों का फ्लैट. उस में पड़ी साधारण सी कुरसियां, मामूली फर्नीचर. ओफ, कितना सोचा था उस ने…बोनस के रुपए आएंगे तो वह घर की साजसज्जा का सब सामान खरीदेगी. दोढाई हजार में तो आसानी से पूरा घर सज्जित हो सकता था. पर अशोक ने सब यों ही उड़ा डाला. उसे खीज आने लगी अशोक पर.

अशोक ने कई बार टोका, ‘‘क्या सोच रही हो? यह देखो, बर्फ से ढकी पहाडि़यां. यही तो यहां की खासीयत है. जानती हो, इसीलिए मसूरी को पहाड़ों की रानी कहा जाता है.’’ पर अचला कुछ भी नहीं सुन पा रही थी. वह विचारों में डूबी थी, ‘अशोक ने उस के साथ यह धोखा क्यों किया? यदि वहीं कह देता कि बोनस के रुपयों से घूमने जा रहे हैं तो वह वहीं मना कर देती.’ उस का मन उखड़ता जा रहा था.

रात को भी वही खाना था, दिन में जिस की उस ने जी खोल कर तारीफ की थी. पर अब सब एकदम बेस्वाद लग रहा था. वह सोचने लगी, ‘बेमतलब कितना खर्च कर दिया. 100 रुपए रोज का कमरा, 40 रुपए में एक समय का खाना. इस से अच्छा तो वह घर पर ही बना लेती है. इस में है क्या. ढंग के मसाले तक तो सब्जी में पड़े नहीं हैं.’ उसे अब हर चीज में नुक्स नजर आने लगा था. ‘‘देखो, अब खर्च तो हो ही गया, क्यों इतना सोचती हो? रुपए और कमा लेंगे. अब जब घूमने निकले हैं तो पूरा आनंद लो.’’

रात देर तक अशोक उसे मनाता रहा था. पर वह मुंह फेरे लेटी रही. मन उखड़ गया था. उस का बस चलता तो उसी क्षण उड़ कर वापस चली जाती. गुदगुदे बिस्तर पर पासपास लेटे हुए भी वे एकदूसरे से कितनी दूर थे. क्षण भर में ही सारा माहौल बदल गया. सुबह भी अशोक ने उसे मनाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘चलो, घूम आएं. तुम्हारी तबीयत बहल जाएगी.’’

‘‘कह दिया न, मुझे अब यहां नहीं रहना है. तुम जो भी रुपए वापस मिल सकें ले लो और चलो.’’ ‘‘क्या बेवकूफों की तरह बातें कर रही हो. कमरा पहले से ही बुक हो गया है. किराया अग्रिम दिया जा चुका है. अब बहुत किफायत होगी भी तो खानेपीने की होगी. क्यों सारा मूड चौपट करने पर तुली हो?’’ अशोक के सब्र का बांध टूटने लगा था.

पर अचला चाह कर भी अब सहज नहीं हो पा रही थी. वे पहाडि़यां, बर्फ, झरने, जिन्हें देखते ही वह उमंगों से भर उठी थी, अब सब निरर्थक लग रहे थे. क्यों हो गया ऐसा? शायद उस के सोचने- समझने की दृष्टि ही बदल गई थी. ‘‘ठीक है, तुम यही चाहती हो तो रात की बस से लौट चलेंगे. अब आइंदा कभी तुम्हें यह कहने की जरूरत नहीं है कि घूमने चलो. सारा मूड बिगाड़ कर रख दिया.’’

दिन भर में अशोक भी चिड़चिड़ा गया. अचला उसी तरह अनमनी सी सामान समेटती रही.

‘‘अरे, इतनी जल्दी चल दिए आप लोग?’’ पास वाले कमरे के दंपती विस्मित हो कर बोले. पर बिना कोई जवाब दिए, अपना हैंडबैग कंधे पर लटकाए अचला आगे बढ़ती चली गई. अटैची थामे अशोक उस के पीछे था. बस तैयार खड़ी मिली. अटैची सीट पर रख अशोक धम से बैठ गया.

देहरादून पहुंच कर वे दूसरी बस में बैठ गए. अशोक को काफी देर से खयाल आया कि गुस्से में उस ने शाम का खाना भी नहीं खाया था. उस ने घड़ी देखी, 1 बज रहा था. नींद में आंखें जल रही थीं. पर सोने की इच्छा नहीं थी, वह खिड़की पर बांह रख सिर हथेलियों पर टिकाए या तो सो गया था या सोने का बहाना कर रहा था. आते समय कितना चाव था. पर अब पूरी रात क्षण भर के लिए भी वे सो नहीं पाए थे. दोनों ही सबकुछ भूल कर अपनेअपने खयालों में गमगीन थे. इस तरह वे परस्पर कटेकटे से घर पहुंचे.

सुबह अशोक का उतरा हुआ पीला चेहरा देख कर अचला सहम गई थी. शायद वह बहुत गुस्से में था. उसे अब अपने किए पर कुछ ग्लानि अनुभव हुई. उस समय तो गुस्से में उस की सोचनेसमझने की शक्ति ही लुप्त हो गई थी. पर अब लग रहा था कि जो कुछ हुआ, ठीक नहीं हुआ. कम से कम अशोक का ही खयाल रख कर उसे सहज हो जाना चाहिए था. कितने उत्साह से उस ने घूमने का प्रोग्राम बनाया था. कमरे में घुसते ही थकान ने शरीर को तोड़ डाला था, कुरसी पर धम से गिर कर वह कुछ भूल गई थी. कुछ देर बाद ही खयाल आया कि अशोक ने रात भर से बात नहीं की है. कहीं बिना कुछ खाए आफिस न चला गया हो, फिर उठी ही थी कि देखा अशोक चाय बना लाया है.

‘‘उठो, चाय पियोगी तो थकान दूर हो जाएगी,’’ कहते हुए अशोक ने धीरे से उस की ठुड्डी उठाई. अपने प्रति अशोक के इस विनम्र प्यार को देख वह सबकुछ भूल कर उस के कंधे पर सिर रख कर सिसक पड़ी, ‘‘मुझे माफ कर दो. पता नहीं क्या हो जाता है.’’

‘‘अरे, यह क्या, गलती तो मेरी ही थी. यदि मुझे पता होता कि तुम्हें घर की चीजों का इतना अधिक शौक है तो घूमने का प्रोग्राम ही नहीं बनाते. अब ध्यान रखूंगा.’’ अशोक का स्नेह भरा स्वर उसे नहलाता चला गया. अपने 2 कमरों का घर आज उसे सारे सुखसाधनों से भरापूरा प्रतीत हो रहा था. वह सोचने लगी, ‘सबकुछ तो है उस के पास. इतना अधिक प्यार करने वाला, उस के सारे गुनाहों को भुला कर इतने स्नेह से मनाने वाला विशाल हृदय का पति पा कर भी वह अब तक बेकार दुखी होती रही है.’

‘‘नहीं, अब कुछ नहीं चाहिए मुझे. कुछ भी नहीं…’’ उस के होंठ बुदबुदा उठे. फिर अशोक के कंधे पर सिर रखे वह सुखद अनुभूति में खो गई.

गुनहगार: नीना ने जब कंवल को देखा तो हैरान क्यों हो गई

अपने बैडरूम से आती गाने की आवाज सुन कर कंवल तड़प उठा था. तेज कदमों से चल कर बैडरूम में पहुंचा तो देखा सामने टेबल पर रखे म्यूजिक सिस्टम की तेज आवाज पूरे घर में गूंज रही थी. गाना वही था जिसे सुनते ही उस का रोमरोम जैसे अपराधभाव से भर जाता. उस का मन गुनाह के बोझ से दबने लगता. आंखें नम हो जातीं और दिल बेचैन हो उठता.

‘‘मेरे महबूब कयामत होगी, आज रुसवा तेरी गलियों में मोहब्बत होगी…’’ गाने के स्वर कंवल के कानों में पिघले सीसे के समान फैले जा रहे थे. उस ने दोनों हाथों से कानों को बंद कर लिया. पूरा शरीर पसीने से तरबतर हो उठा.

तभी गाने की आवाज आनी बंद हो गई. उस ने चौंक कर आंखें खोलीं तो सामने विशाखा खड़ी थी.

‘‘कंवल, यह क्या हो गया तुम्हें?’’

विशाखा उस के चेहरे से पसीना पोंछती घबराए स्वर में बोली.

‘‘तुम जानती हो विशाखा यह गाना मेरे दिल और दिमाग को झंझड़ कर रख देता,’’

‘‘फिर क्यों सुनते हो यह गाना?’’

कंवल अब तक कुछ संयमित हो चुका था.

‘‘मुझे माफ कर दो कंवल, गाना सुन कर मैं बंद करने आ रही थी पर शायद मुझे देर हो गई,’’ विशाखा के चेहरे पर गहरे अवसाद की छाया लहरा रही थी.

‘‘बुरा मान गई विशाखा? दरअसल, गलती मेरी ही है. इस में तुम्हारा क्या दोष है?’’ कह कर कंवल कमरे से बाहर निकल गया.

विशाखा उस के पीछे आई तो देखा वह गाड़ी ले कर जा चुका था. वह जानती थी कि अकसर कंवल ऐसे में लंबी ड्राइव पर निकल जाता है. वह एक गहरी सांस ले कर घर के अंदर चली गई.

दिशाविहीन और उद्देश्यविहीन गाड़ी चलाते हुए कंवल की यादों में एक चेहरा आने लगा. वह चेहरा था शैलजा का. शैलजा, विशाखा की चचेरी बहन. विशाखा के चाचाचाची दूसरे शहर में रहते थे. कंवल और विशाखा की शादी में बहुत चाह कर भी उस के चाचा अपनी नौकरी की वजह से शामिल नहीं हो सके थे और शैलजा के भी इम्तिहान हो रहे थे.

अत: कंवल की मुलाकात शैलजा से दो साल पहले विशाखा के छोटे भाई मुकुल की शादी में हुई थी. शैलजा ने अपने सहज और सरल स्वभाव से पहली ही मुलाकात में कंवल का ध्यान आकृष्ट कर लिया.

शादी का घर, रातदिन चहलपहल. गपशप में ही सारा समय कट जाता था. बरात चलने की तैयारी हो रही थी. दूल्हा सज रहा था. बड़ी बहन विशाखा के उपस्थित रहने पर भी शैलजा ने ही ज्यादातर रस्में निभाई थीं क्योंकि मुकुल का विशेष आग्रह था. मुकुल और शैलजा की शुरू से ही अच्छीखासी जमती थी. विशाखा अपने हठी और रूखे स्वभाव की वजह से हंसीठिठोली वाले माहौल से कुछ अलग ही रहा करती थी.

कंवल मित्रमंडली में बैठा बतिया ही रहा था कि मुकुल की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे जीजाजी वहां क्या कर रहे हैं, जरा यहां आइए और मामला सुलझाइए.’’

दूल्हे को काजल लगाने का प्रश्न था. मुकुल ने कहा था कि जो बारीक लगा सकेगा, वही लगाएगा.

विशाखा ने भी स्पष्ट कर दिया था कि यह तो शैलजा ही बेहतर कर सकती है सो वही करे.

शैलजा ने शर्त रखी, ‘‘काजल लगाने का मेहनताना क्या मिलेगा?’’

कंवल अब इस चुहलबाजी का हिस्सा बन चुका था. बोला, ‘‘मुंहमांगा.’’

शैलजा बनावटी गुस्सा दिखाते हुए बोली, ‘‘आप से नहीं पूछ रही हूं.’’

‘‘अच्छा ठीक है जो चाहो सो ले लेना,’’ मुकुल बोला.

कंवल फिर शैलजा को छेड़ते हुए बोला, ‘‘इन्हें जो चाहिए मैं जानता हूं. अगले साल इन की शादी में भी आना होगा.’’

शैलजा से कुछ कहते न बना. अंत में काजल विशाखा ने लगाया. कंवल का मजाक चलता ही रहता था. शैलजा खीज उठती थी तो वह चुप हो जाता था क्योंकि उस की कोई साली नहीं थी इसलिए वह शैलजा से ही दिल खोल कर मजाक करता.

इसी तरह एक दिन दानदहेज पर कोई चर्चा चल रही थी. कंवल बोला, ‘‘कहते हैं पुराने जमाने में दासदासियां भी दहेज में दी जाती थीं.’’

‘‘और सालियां भी,’’ किसी की आवाज आई.

‘‘हां, वे भी देहज में दी जाती थीं,’’ विशाखा की मां ने समर्थन किया.

कंवल को मसाला मिल गया. कहने लगा, ‘‘इस का मतलब अब तो शैलजा पर मेरा पूरा अधिकार है. वह मेरे दहेज की साली जो है.’’

चारों तरफ हंसी के ठहाके गूंज पड़े. शैलजा कुछ नाराज सी हो गई.चूंकि वह दहेज के विरुद्ध बोल रही थी पर कंवल की बात की वजह से उस का भाषण ही बंद हो गया.

कंवल जब कभी मूड में होता तो कहता, ‘‘मुकल, तुम लोग शैलजा से बोलने से पहले मु?ा से पूछ लिया करो.’’

‘‘क्यों जीजाजी, ऐसी क्या बात हो गई?’’

‘‘शैलजा मेरी पर्सनल प्रौपर्टी है.’’

‘‘मैं क्यों, विशाखा दीदी है आप की पर्सनल प्रौपर्टी,’’ शैलजा गुस्से में कहती.

‘‘वह तो है ही और तुम भी.’’

सब की हंसी में शैलजा का गुस्सा खत्म हो जाता. 3-4 दिन बाद मुकुल अपनी पत्नी के साथ 2 हफ्ते के लिए बाहर घूमने गया. विशाखा के मातापिता और चाचाचाची ने भी शहर के पास के ही तीर्थ घूमने का मन बना लिया. शैलजा जाना नहीं चाहती थी तो विशाखा ने उसे अपने घर चलने का सु?ाव दिया. थोड़ी नानुकर के बाद शैलजा मान गई.

कंवल के घर में शैलजा काफी खुश रही. विशाखा अपनी सहेलियों, शौपिंग और किट्टी पार्टियों में व्यस्त रहती थी. शैलजा का दिल इन सब में नहीं लगा था इसलिए वह कंवल के साथ शहर घूमने चली जाती.

शैलजा का उन्मुक्त व्यवहार, खुशमिजाज स्वभाव, हर विषय पर खुल कर बोलने और सब से बढ़ कर कंवल के साथ रह कर वह कंवल

को काफी हद तक जानने लगी थी. इन्हीं सब बातों की वजह से कंवल उस में वह मित्र तलाशने लगा था जिस की तलाश विशाखा में कभी पूरी नहीं हुई थी.

एक दिन जब विशाखा घर पर नहीं थी तब शैलजा ने दोपहर का भोजन टेबल पर लगा कर कंवल को आवाज दी.

कंवल आया तो शैलजा को देख कर ठगा सा रह गया.

‘‘क्या हुआ जीजाजी ऐसे क्या देख रहे हो?’’ शैलजा ने उसे यों खुद को देखते हुए पूछा.

‘‘अरे शैलजा तुम तो साड़ी में बहुत अच्छी लगती हो. इस साड़ी में तो तुम बिलकुल विशाखा जैसी दिख रही हो.’’

‘‘छोडि़ए जीजाजी, कहां विशाखा दीदी और कहां मैं… आप खाना खाइए.’’

उस दिन तो बात आईगई हो गई पर बातों ही बातों में कंवल ने शैलजा से वादा ले लिया कि जितने भी दिन शैलजा यहां रहेगी साड़ी ही पहनेगी.

एक दिन सुबह की चाय के समय विशाखा ने बताया कि मुकुल और नीना वापस आ चुके हैं और उस ने उन्हें आज रात के खाने पर बुलाया है पर उसे आज कहीं जरूरी काम से जाना है इसलिए खाना बाहर से मंगा लिया जाए.

इस पर शैलजा बोल उठी कि बाहर से खाना मंगवाने की क्या जरूरत है, उसे सारा दिन काम ही क्या है, खाने का सारा इंतजाम वह कर देगी.

शाम होतेहोते मुकुल और नीना आ गए. विशाखा अभी तक घर नहीं आई थी. मुकुल ने गुलाबजामुन खाने की फरमाइश की तो शैलजा सोच में पड़ गई. उस ने तो गाजर का हलवा बनाया था. नैना मुकुल के साथ घर देखने लगी. इसी बीच किसी को पता ही नहीं लगा कि कब शैलजा गुलाबजामुन लेने बाहर चली गई.

तभी विशाखा आ गई. वह सीधी रसोई में खाने का इंतजाम देखने चली गई. रसोई से बाहर आ कर उस ने ऊपर से सभी की सम्मिलित हंसी सुनी तो समझ गई कि मुकुल और नीना आ चुके हैं और सभी लोग ऊपर के कमरे में हैं. उस ने सोचा पहले कपड़े बदल ले फिर सभी से मिलेगी. यह सोच कर वह बैडरूम में कपड़े बदलने चली गई. इतने में कंवल भी बैडरूम में अपना कुछ पुराना अलबम लेने आ गया.

तभी नीना घूमते हुए उस के बैडरूम के आगे से गुजरी तो उस ने देखा कि कमरे का दरवाजा हलका सा खुला है और कंवल ने किसी को बांहों में घेरे के ले रखा है.

विशाखा दीदी तो घर में है नहीं फिर यह कौन है… अरे… यह तो शैलजा है, उसी ने तो पीली साड़ी पहन रखी है. छि: शैलजा और जीजाजी को तो किसी बात की शर्म ही नहीं है. यह देख और सोच कर नैना का दिल बिलकुल उचाट हो गया.

उस ने मुकुल से कहा कि उस की तबीयत बहुत खराब हो रही है और वह अभी इसी वक्त घर पर जाना चाहती है. मुकुल ने कहा यदि वह ऐसे बिना खाना खाए चले गए तो सभी को बहुत बुरा लगेगा. बेहतर होगा कि वह बाथरूम जा कर हाथमुंह धो ले तो कुछ अच्छा महसूस करेगी.

नीना बेमन से हाथमुंह धोने चली गई. बाहर आई तो उसे सभी दिखाई दिए. उस दिन नीना खाने में कोई स्वाद न महसूस कर सकी.

अगले ही दिन मुकुल के मातापिता और चाचाचाची वापस आ गए. चाचाचाची वापस जाने का कार्यक्रम बनाया तो नीना बोली, ‘‘सही है चाचीजी, वैसे भी जवान लड़की का ज्यादा दिन किसी के घर रहना ठीक नहीं है.’’

चाची अवाक सी हो नीना का मुंह देखने लगी, नीना उठ कर जाने लगी तो उन्होंने उस का हाथ पकड़ कर बैठा लिया और जो उस ने कहा था उस का मतलब जानने की इच्छा जताई.

नीना ने पिछली रात की सारी घटना उन्हें बता दी. चाची सुन कर हैरान हो गईं. कंवल का स्थान उन की नजरों में बहुत ऊंचा था. उन्होंने फौरन शैलजा को वापस आने के लिए फोन कर दिया.

उधर शैलजा अपनी मां की आवाज सुन कर बहुत खुश हुई और जाने की तैयार करने लगी. कंवल उसे छोड़ने जाने के लिए तैयार होता उस से पहले शैलजा ने बताया कि मां ने कहा है कि मुकुल लेने आ रहा है वह छुट्टी न करे और औफिस जाए.

शैलजा को जाने की तैयारी करते देख कर कंवल का मन अचानक भारी हो उठा. शैलजा ने भी कंवल का चेहरा देखा तो उस की आंखें भर आईं. उस ने माहौल को हलका करने के लिए कंवल से कहा, ‘‘चलिए जीजाजी, अब न जाने कब मुलाकात हो इसलिए जाने से पहले वह गाना सुना दीजिए.’’

कंवल की आवाज अच्छी थी, ‘‘मेरे महबूब कयामत होगी…’’

शैलजा का पसंदीदा गाना था और यह गाना वह कंवल से अकसर सुना करती थी.

1 हफ्ते बाद जो हुआ उस पर किसी को भी सहसा विश्वास न हुआ. शैलजा ने आत्महत्या कर ली थी. मरने से पहले वह कंवल के नाम की चिट्ठी छोड़ गई थी जो विशाखा को उस की मृत्यु के बाद उस की अलमारी में मिली थी.

विशाखा ने चिट्ठी पढ़ी तो हैरान रह गई. उस ने कंवल को भी वह चिट्ठी पढ़वाई. चिट्ठी में लिखा था-

‘‘आदरणीय जीजाजी,

‘‘बहुत सोचने पर भी मुझे आप के और मेरे बीच कोई ऐसा संबंध दिखाई नहीं दिया जिस पर मुझे शर्म आए पर न जाने किस ने मेरे मातापिता को आप के और मेरे नाजायज संबंध की झूठी बात बताई है. मैं ने अपने मातापिता को समझने की बहुत कोशिश की परंतु उन्होंने मेरी किसी बात पर विश्वास नहीं किया. मेरे पिताजी ने मुझ से कहा है कि क्या मेरा पालनपोषण उन्होंने इसलिए किया था कि बड़ी हो कर मैं उन के नाम पर कलंक लगाऊं? क्या मैं ने आप से संबंध बनाते वक्त विशाखा दीदी का भी खयाल नहीं किया? जीजाजी आप जानते हैं कि आप के और मेरे संबंध पवित्र हैं फिर यह मुझ किस बात की सजा दी जा रही है… इस ग्लानि के साथ जीना मेरे बस में नहीं है. यदि मुझ से कोई गलती हुई हो तो मैं विशाखा दीदी और आप से माफी मांगती हूं.

शैलजा.’’

चिट्ठी पढ़ कर का कंवल और विशाखा ने शैलजा के मातापिता से बात करने का विचार किया.

शैलजा की मां ने स्पष्ट शब्दों में नीना का नाम लिया और कहा कि उस ने खुद कंवल और शैलजा को आपत्तिजनक अवस्था में देखा था.

‘‘कैसी बात कर रही हो नीना? तुम कंवल पर झूठा इलजाम लगा रही हो. उस दिन कंवल के साथ बैडरूम में मैं थी न कि शैलजा,’’ विशाखा गुस्से में बोली.

‘‘नहीं दीदी, आप तो घर पर ही नहीं थीं और फिर शैलजा ने उस दिन पीली साड़ी पहनी हुई थी और मैं ने उसी को जीजाजी के साथ देखा था,’’ नीना अपनी बात पर अडिग थी.

तब विशाखा सारी बात समझ गई. उस ने नीना को बताया कि वह घर आ चुकी थी और

सब से मिले बिना ही कपड़े बदलने चली गई इसलिए नीना को लगा कि विशाखा घर पर नहीं है और उस दिन विशाखा घर से पीली साड़ी पहन कर ही गई थी और उसे ही बदलने के लिए वह बैडरूम में गई थी. उस वक्त शैलजा घर पर ही नहीं थी, वह तो मुकुल के लिए मिठाई लेने बाहर गई हुई थी.

नीना जैसे अर्श से फर्श पर गिरी हो. वह कंवल के पैरों में गिर पड़ी, ‘‘मुझे माफ कर दीजिए जीजाजी, यह अनजाने में मुझ से कैसी गलती हो गई जिस का पश्चात्ताप तो मैं अब मर कर भी नहीं कर सकती.’’

कंवल ने उसे पैरों से उठाया. उसे कुछ कहने के लिए कंवल के पास शब्द नहीं थे.

शाम का धुंधलका छाने लगा था. कंवल वापस घर आ गया था पर शैलजा की मौत से ले कर आज तक यही सोचता आया कि उस की मौत का गुनहगार कौन है. क्या नीना, जिस की सिर्फ एक गलतफहमी ने उस के और शैलजा के रिश्ते को अपवित्र किया या फिर शैलजा के मातापिता, जिन्हें अपनी परवरिश पर विश्वास नहीं था या फिर विशाखा, जिस ने सदा कंवल को अपनी मनमरजी से चलाना चाहा जिस के सान्निध्य में कंवल कभी संतुष्ट नहीं हो सका या फिर शैलजा जिस ने बात की गहराई में जाए बिना भावनाओं में बह कर अपना जीवन समाप्त करने का फैसला किया या फिर कंवल खुद जिस ने अपनी खुशी के लिए शैलजा से साड़ी पहनने का वादा लिया था? आखिर कौन था असली गुनहगार?

दिल की आवाज: क्या थी अविनाश के कंपनी की शर्तें

आज सुबह से ही अविनाश बेहद व्यस्त था. कभी ईमेल पर, कभी फोन पर, तो कभी फेसबुक पर.

‘‘अवि, नाश्ता ठंडा हो रहा है. कब से लगा कर रखा है. क्या कर रहे हो सुबह से?’’

‘‘कमिंग मम्मा, जस्ट गिव मी फाइव मिनट्स,’’ अविनाश अपने कमरे से ही चिल्लाया.

‘‘इतने बिजी तो तुम तब भी नहीं थे जब सीए की तैयारी कर रहे थे. हफ्ता हो गया है सीए कंप्लीट हुए, पर तब से तो तुम्हारे दर्शन ही दुर्लभ हो गए हैं या तो नैट से चिपके रहते हो या यारदोस्तों से, अपने मांबाप के लिए तो तुम्हारे पास समय ही नहीं बचा है,’’ अनुराधा लगातार बड़बड़ किए जा रही थी. उस की बड़बड़ तब बंद हुई जब अविनाश ने पीछे से आ कर उस के गले में बांहें डाल दीं.

‘‘कैसी बात कर रही हो मम्मा, तुम्हारे लिए तो टाइम ही टाइम है. चलो, आज तुम्हें कहीं घुमा लाऊं,’’ अविनाश ने मस्ती की.

‘‘रहने दे, रहने दे. घुमाना अपनी गर्लफ्रैंड को, मुझे घुमाने को तो तेरे पापा ही बहुत हैं, देख न कब से घुमा रहे हैं. अब मेरे साथ 2-3 दिन के लिए भैया के पास चलेंगे. वे लोग कब से बुला रहे हैं, कह रहे थे पिताजी क्या गए कि तुम लोग तो हमें बिलकुल ही भूल बैठे हो. आनाजाना भी बिलकुल बंद कर दिया,’’ अनुराधा ने नाश्ता परोसते हुए शिकायती लहजे में कहा. उसे अच्छे से पता था कि पीछे खड़े पतिदेव मनोज सब सुन रहे हैं.

‘‘बेटे से क्या शिकायतें हो रही हैं मेरी. कहा तो है दिसंबर में जरूर वक्त निकाल लूंगा, मगर तुम्हें तो मेरी किसी बात का भरोसा ही नहीं होता,’’ मनोज मुंह में टोस्ट डालते हुए बोले. टोस्ट के साथ उन के वाक्य के आखिरी शब्द भी पिस गए.

‘‘तो अब आगे क्या प्लान है अवि?’’ डायनिंग टेबल पर मनोज ने अविनाश से पूछा.

‘‘इस के प्लान पूछने हों तो इसे ट्विट करो. यह अपने दोस्तों के संग न जाने क्याक्या खिचड़ी पकाता रहता है. हमें यों कहां कुछ बताएगा.’’ अनुराधा का व्यंग्य सुन कर अविनाश झल्ला गया. उसे झल्लाया देख मनोज ने बात संभाली.

‘‘तुम चुप भी करो जी, जब देखो, मेरे बेटे के पीछे पड़ी रहती हो. कितना होनहार बेटा है हमारा,’’ मनोज ने मस्का मारा तो अविनाश के चेहरे पर मुसकान दौड़ आई.

‘‘हां, तो बेटा मैं पूछ रहा था कि आगे क्या करोगे?’’

‘‘वो पापा… सीए कंप्लीट होने के बाद दोस्त लोग कब से पार्टी के लिए पीछे पड़े हैं, सोच रहा हूं आज उन्हें पार्टी…’’ अविनाश की सवालिया नजरें मनोज से पार्टी के लिए फंड की रिक्वैस्ट कर रही थीं. अविनाश की शौर्टटर्म फ्यूचर प्लानिंग सुन मनोज ने अपना सिर पीट लिया.

‘‘मेरा मतलब है आगे… पार्टी, मौजमस्ती से आगे… कुछ सोचा है… नौकरी के बारे में,’’ मनोज ने जोर दे कर पूछा.

‘‘अ…हां…सौरी…वो… पापा दरअसल… एक कंसलटेंसी फर्म में अप्लाई किया है.

2-3 दिन में इंटरव्यू के लिए काल करेंगे. होपफुली काम बन जाएगा.’’

‘‘गुड.’’

‘‘पापा, वह पार्टी…’’

‘‘ठीक है, प्लान बना लो.’’

‘‘प्लान क्या करना पापा… सब फिक्स्ड है,’’ अविनाश ने खुशी से उछलते हुए कहा तो अनुराधा और मनोज एकदूसरे का मुंह ताकने लगे.

24 साल का स्मार्ट, चुलबुला अविनाश पढ़ाई में जितना तेज था शरारतों में भी उतना ही उस्ताद था. उस के दोस्तों का बड़ा ग्रुप था, जिस की वह जान था. अपने मातापिता की आंखों का इकलौता तारा जिसे उन्होंने बेहद लाडप्यार से पाला था. वह अपने भविष्य के प्रति अपनी जिम्मेदारियां बखूबी समझता था इसलिए अनुराधा और मनोज उस की मौजमस्ती में बेवजह रोकटोक नहीं करते थे. उस के 2 ही शौक थे, दोस्तों के साथ मौजमस्ती करना और तेज रफ्तार बाइक चलाना. कभीकभी तो वह बाइक पर स्टंट दिखा कर लड़कियों को प्रभावित करने की कोशिश भी करता था.

आज अविनाश के लिए बहुत बड़ा दिन था. उस ने एक प्रतिष्ठित एकाउंटेंसी फर्म में इंटरव्यू क्लीयर कर लिया था. कैरियर की शुरुआत के लिए यह उस की ड्रीम जौब थी. स्वागत कक्ष में बैठे अविनाश को अब एचआर की काल का इंतजार था.

‘‘मि. अविनाश, प्लीज एचआर राउंड के लिए जाइए.’’ काल आ गई थी. एचआर मैनेजर ने अविनाश को उस के जौब प्रोफाइल, सैलरी स्ट्रैक्चर, कंपनी की टर्म और पौलिसी के बारे में समझाया और एक स्पैशल बांड पढ़ने के लिए आगे बढ़ाया, जिसे कंपनी जौइन करने से पहले साइन करना जरूरी था.

‘‘यह कैसा अजीब सा बांड है सर, ऐसा तो किसी भी कंपनी में नहीं होता.’’ बांड पढ़ कर अविनाश सकते में आ गया.

‘‘मगर इस कंपनी में होता है,’’ एचआर मैनेजर ने मुसकराते हुए जवाब दिया. बांड वाकई अजीब था. कंपनी की पौलिसी के अनुसार कंपनी के प्रत्येक कर्मचारी को कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक था. मसलन, अगर कर्मचारी कार चलाता है तो उसे सेफ्टी बैल्ट लगानी अनिवार्य होगी, अगर कर्मचारी टू व्हीलर चलाता है तो उसे हेलमेट पहनना और नियमित स्पीड पर चलना अनिवार्य होगा. जो कर्मचारी इन नियमों का उल्लंघन करता पाया गया उसे न सिर्फ अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा, बल्कि जुर्माना भी भरना पड़ेगा.

अविनाश के भीतर उबल रहा गुस्सा उस के चेहरे और माथे की रेखाओं से स्पष्ट दिख रहा था. वह बेचैन हो उठा. यह क्या जबरदस्ती है. अव्वल दरजे की बदतमीजी है. सरासर तानाशाही है. क्यों पहनूं मैं हेलमेट? हेलमेट वे पहनते हैं जिन्हें अपनी ड्राइविंग पर भरोसा नहीं होता, जिन के विचार नकारात्मक होते हैं, जिन्हें सफर शुरू करने से पहले ही दुर्घटना के बारे में सोचने की आदत होती है.

मैं ऐसा नहीं हूं और मेरे बालों का क्या होगा, कितनी मुश्किल से मैं इन्हें सैट कर के रखता हूं, हेलमेट सारी की सारी सैटिंग बिगाड़ कर रख देगा. कितना कूल लगता हूं मैं बाइक राइडिंग करते हुए. हेलमेट तो सारी पर्सनैलिटी का ही कबाड़ा कर देता है और फिर मेरे इंपोर्टेड गौगल्स… उन्हें मैं कैसे पहनूंगा, क्या दिखता हूं मैं उन में.

‘‘कहां खो गए अविनाश साहब… ’’ मैनेजर के टोकने पर अविनाश दिमागी उधेड़बुन से बाहर निकला.

‘‘सर, मैं इस बांड से कनविंस नहीं हूं. ऐसे तो हमारे देश का ट्रैफिक सिस्टम भी हेलमेट पहनने को ऐनफोर्स नहीं करता, जैसे आप की कंपनी कर रही है.’’

‘‘तभी तो हमें करना पड़ रहा है. खैर, यह तो कंपनी के मालिक का निर्णय है, हम कुछ नहीं कर सकते. यह सरकारी कंपनी तो है नहीं, प्राइवेट कंपनी है सो मालिक की तो सुननी ही पड़ेगी. अगर जौब चाहिए तो इस पर साइन करना ही पड़ेगा.’’

अविनाश कुछ नहीं बोला तो उस का बिगड़ा मिजाज देख कर मैनेजर ने उसे फिर कनविंस करने की कोशिश की, ‘‘वैसे आप को इस में क्या समस्या है. यह तो मैं ने भी साइन किया था और यह आप की भलाई के लिए ही है.’’

‘‘मुझे फर्क पड़ता है सर, मैं एक पढ़ालिखा इंसान हूं. अपना बुराभला समझता हूं. भलाई के नाम पर ही सही, आप मुझे किसी चीज के लिए फोर्स नहीं कर सकते.’’

‘‘देखो भई, इस कंपनी में नौकरी करनी है तो बांड साइन करना ही पड़ेगा. आगे तुम्हारी मर्जी,’’ मैनेजर हाथ खड़े करते हुए बोला.

‘‘ठीक है सर, मैं सोच कर जवाब दूंगा,’’ कह कर अविनाश वहां से चला आया, मगर मन ही मन वह निश्चय कर चुका था कि अपनी आजादी की कीमत पर वह यहां नौकरी नहीं करेगा.

‘‘कैसा रहा इंटरव्यू, क्या हुआ,’’ अविनाश का उदास रुख देख कर मनोज ने धीमे से पूछा.

‘‘इंटरव्यू अच्छा हुआ था, एचआर राउंड भी हुआ मगर…’’

‘‘मगर क्या…’’ फिर अविनाश ने पूरी रामकहानी सुना डाली.

‘‘अरे, तो क्या हुआ, तुम्हें बांड साइन करना चाहिए था. इतनी सी बात पर तुम इतनी अच्छी नौकरी नहीं छोड़ सकते.’’

‘‘पर पापा, मुझे नहीं जम रहा. मुझे हेलमेट पहनना बिलकुल पसंद नहीं है और बांड के अनुसार अगर मैं कभी भी बिदआउट हेलमेट टू व्हीलर ड्राइव करता पकड़ा गया तो न सिर्फ मेरी नौकरी जाएगी बल्कि मुझे भारी जुर्माना भी अदा करना पड़ेगा.’’

‘‘देखो, अवि, अब तुम बड़े हो गए, अत: बचपना छोड़ो. तुम्हारी मां और मैं पहले से ही तुम्हारी ड्राइविंग की लापरवाही से काफी परेशान हैं. इस नौकरी को जौइन करने से तुम्हारा कैरियर भी अच्छे से शुरू होगा और हमारी चिंताएं भी मिट जाएंगी,’’ पापा का सख्त सुर सुन कर अविनाश ने बात टालनी ही बेहतर समझी.

‘‘देखूंगा पापा.’’ वह उठ कर अपने कमरे में चला गया, मगर मन ही मन बांड  पर किसी भी कीमत पर साइन न करने की ही बात चल रही थी. विचारों में डूबे अविनाश को फोन की घंटी ने सजग किया.

‘‘हाय अवि, रितेश बोल रहा हूं, कैसा है,’’ उस के दोस्त रितेश का फोन था.

‘‘ठीक हूं, तू सुना क्या चल रहा है.’’

‘‘कल सुबह क्या कर रहा है.’’

‘‘कुछ खास नहीं.’’

‘‘तो सुन, कल नोएडा ऐक्सप्रैस हाईवे पर बाइक रेसिंग रखी है. पूरे ग्रुप को सूचित कर दिया है. तू भी जरूर आना. सुबह 6 बजे पहुंच जाना.’’

‘‘ठीक है.’’

बाइक रेसिंग की बात सुन कर अविनाश का बुझा दिल खिल उठा. यही तो उस का प्रिय शौक था. अकसर जिम जाने का बहाना कर वह और उस के कुछ दोस्त बाइक रेसिंग किया करते थे और अधिकतर वह ही जीतता था. हारने वाले जीतने वाले को मिल कर पार्टी देते, साथ ही कोई न कोई प्राइज आइटम भी रखा जाता. अपना नया टचस्क्रीन मोबाइल उस ने पिछली रेस में ही जीता था.

रात को अविनाश ने ठीकठाक सोचा, मगर रात को उसे बुखार ने जकड़ लिया. वह सुबह चाह कर भी नहीं उठ पाया. फलस्वरूप उस की रेस मिस हो गई. सुबह जब वह देर तक बिस्तर पर निढाल पड़ा रहा तो मनोज ने उसे क्रोसीन की गोली दे कर लिटा दिया. थोड़ी देर बाद जब बुखार कम हुआ तो वह थोड़ा फ्रेश फील कर रहा था, मगर सुबह का प्रोग्राम खराब होने की वजह से उस का मूड ठीक नहीं था.

‘‘अरे अवि, जरा इधर आओ, देखो तो अपने शहर की न्यूज आ रही है,’’ ड्राइंगरूम से पापा की तेज आवाज आई तो वह उठ कर ड्राइंगरूम में गया.

टीवी पर बारबार ब्रैकिंग न्यूज प्रसारित हो रही थी. आज सुबह नोएडा ऐक्सप्रैस हाईवे पर बाइक रेसिंग करते हुए कुछ नवयुवकों की एक ट्रक से भीषण टक्कर हो गई. उन में से 2 ने मौके पर ही दम तोड़ दिया तथा 3 गंभीर रूप से घायल हैं. उन की हालत भी नाजुक बताई जा रही थी. घटना की वजह बाइक सवारों की तेज रफ्तार और हेलमेट न पहनना बताई जा रही थी. टीवी पर नीचे नवयुवकों के नाम प्रसारित हो रहे थे. अनिल, रितेश, सुधांशु, एकएक नाम अविनाश के दिलोदिमाग पर गाज बन कर गिर रहा था. ये सब उसी के दोस्त थे. आज उसे अगर बुखार न आया होता तो इस लिस्ट में उस का नाम भी जुड़ा होता. अविनाश जड़ बना टीवी स्क्रीन ताक रहा था.

दिमाग कुछ सोचनेसमझने के दायरे से बाहर जा चुका था. मनोज आजकल की पीढ़ी के लापरवाह रवैए को कोस रहे थे. मां दुर्घटना के शिकार युवकों के मातापिता के हाल की दुहाई दे रही थी और अविनाश… वह तो जैसे शून्य में खोया था. उसे तो जैसे आज  एक नई जिंदगी मिली थी.

‘‘अवि, तुम बांड साइन कर कब से नौकरी जौइन कर रहे हो,’’ मनोज ने अविनाश की तरफ घूरते हुए सख्ती से पूछा.

‘‘जी पापा, आज जाऊंगा,’’ नजरें नीची कर अविनाश अपने कमरे में चला गया. आवाज उस की स्वीकृति में जबरदस्ती नहीं, बल्कि उस के अपने दिल की आवाज थी.

 

ओए पुत्तर: सरदारजी की जिंदगी में किस चीज की थी कमी?

सुबह के 10 बजे अपनी पूरी यूनिट के साथ राउंड के लिए वार्ड में था. वार्ड ठसाठस भरा था, जूनियर डाक्टर हिस्ट्री सुनाते जा रहे थे, मैं जल्दीजल्दी कुछ मुख्य बिंदुओं का मुआयना कर इलाज, जांचें बताता जा रहा था. अगले मरीज के पास पहुंच कर जूनियर डाक्टर ने बोलना शुरू किया, ‘‘सर, ही इज 65 इयर ओल्ड मैन, अ नोन केस औफ लेफ्ट साइडेड हेमिप्लेजिया.’’

तभी बगल वाले बैड पर लेटा एक वृद्ध मरीज (सरदारजी) बोल पड़ा, ‘‘ओए पुत्तर, तू मुझे भूल गया क्या?’’

बड़ा बुरा लगा मुझे. न जाने यह कौन है. नमस्कार वगैरह करने के बजाय, मुझ जैसे सीनियर व मशहूर चिकित्सक को पुत्तर कह कर पुकार रहा है. मेरे चेहरे के बदलते भाव देख कर जूनियर डाक्टर भी चुप हो गया था.

‘‘डोंट लुक एट मी लाइक ए फूल, यू कंटीन्यू विद योअर हिस्ट्री,’’ उस मरीज पर एक सरसरी निगाह डालते हुए मैं जूनियर डाक्टर से बोला.

‘‘क्या बात है बेटे, तुम भी बदल गए. तुम हो यहां, यह सोच कर मैं इस अस्पताल में आया और…’’

मुझे उस का बारबार ‘तुम’ कह कर बुलाना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था. मेरे कान ‘आप’, ‘सर’, ‘ग्रेट’ सुनने के इतने आदी हो गए थे कि कोई इस अस्पताल में मुझे ‘तुम’ कह कर संबोधित करेगा यह मेरी कल्पना के बाहर था. वह भी भरे वार्ड में और लेटेलेटे. चलो मान लिया कि इसे लकवा है, एकदम बैठ नहीं सकता है लेकिन बैठने का उपक्रम तो कर सकता है. शहर ही क्या, आसपास के प्रदेशों से लोग आते हैं, चारचार दिन शहर में पड़े रहते हैं कि मैं एक बार उन से बात कर लूं, देख लूं.

मैं अस्पताल में जहां से गुजरता हूं, लोग गलियारे की दीवारों से चिपक कर खड़े हो जाते हैं मुझे रास्ता देने के लिए. बाजार में किसी दुकान में जाऊं तो दुकान वाला अपने को धन्य समझता है, और यह बुड्ढा…मेरे दांत भिंच रहे थे. मैं बहुत मुश्किल से अपने जज्बातों पर काबू रखने की कोशिश कर रहा था. कौन है यह बंदा?

न जाने आगे क्याक्या बोलने लगे, यह सोच कर मैं ने अपने जूनियर डाक्टर से कहा, ‘‘इसे साइड रूम में लाओ.’’

साइड रूम, वार्ड का वह कमरा था जहां मैं मैडिकल छात्रों की क्लीनिकल क्लास लेता हूं. मैं एक कुरसी पर बैठ गया. मेरे जूनियर्स मेरे पीछे खड़े हो गए. व्हीलचेयर पर बैठा कर उसे कमरे में लाया गया. उस की आंखें मुझ से मिलीं. इस बार वह कुछ नहीं बोला. उस ने अपनी आंखें फेर लीं लेकिन इस के पहले ही मैं उस की आंखें पढ़ चुका था. उन में डर था कि अगर कुछ गड़बड़ की तो मैं उसे देखे बगैर ही न चला जाऊं. मेरे मन की तपिश कुछ ठंडी हुई.

सामने वाले की आंखें आप के सामने आने से डर से फैल जाती हैं तो आप को अपनी फैलती सत्ता का एहसास होता है. आप के बड़े होने का, शक्तिमान होने का सब से बड़ा सबूत होता है आप को देख सामने वाले की आंखों में आने वाला डर. इस ने मेरी सत्ता स्वीकार कर ली. यह देख मेरे तेवर कुछ नरम पड़े होंगे शायद.

तभी तो उस ने फिर आंखें उठाईं, मेरी ओर एक दृष्टि डाली, एक विचित्र सी शून्यता थी उस में, मानो वह मुझे नहीं मुझ से परे कहीं देख रही हो और अचानक मैं उसे पहचान गया. वे तो मेरे एक सीनियर के पिता थे. लेकिन ऐसा कैसे हो गया? इतने सक्षम होते हुए भी यहां इस अस्पताल के जनरल वार्ड में.

आज से 15 वर्ष पूर्व जब मैं इस शहर में आया था तो मेरे इस मित्र के परिवार ने मेरी बहुत सहायता की. यों कहें कि इन्होंने ही मेरे नाम का ढिंढोरा पीटपीट कर मेरी प्रैक्टिस शहर में जमाई थी. उस दौरान कई बार मैं इन के बंगले पर भी गया. बीतते समय के साथ मिलनाजुलना कम हो गया, लेकिन इन के पुत्र से, मेरे सीनियर से तो मुलाकात होती रहती है. उन की प्रैक्टिस तो बढि़या चल रही थी. फिर ये यहां इस फटेहाल में जनरल वार्ड में, अचानक मेरे अंदर कुछ भरभरा कर टूट गया. मैं बोला, ‘‘पापाजी, आप?’’

‘‘आहो.’’

‘‘माफ करना, मैं आप को पहचान नहीं पाया था.’’

‘‘ओए, कोई गल नहीं पुत्तर.’’

‘‘यह कब हुआ, पापाजी?’’ उन के लकवाग्रस्त अंग को इंगित करते हुए मैं बोला.

‘‘सर…’’ मेरा जूनियर मुझे उन की हिस्ट्री सुनाने लगा. मैं ने उसे रोका और पापाजी की ओर इशारा कर के फिर पूछा, ‘‘यह कब हुआ, पापाजी?’’

‘‘3 साल हो गए, पुत्तर.’’

‘‘आप ने मुझे पहले क्यों नहीं बताया?’’

‘‘कहा तो मैं ने कई बार, लेकिन कोई मुझे लाया ही नहीं. अब मैं आजाद हो गया तो खुद तुझे ढूंढ़ता हुआ आ गया यहां.’’

‘‘आजाद हो गया का क्या मतलब?’’ मेरा मन व्याकुल हो गया था. सफेद कोट के वजन से दबा आदमी बेचैन हो कर खड़ा होना चाहता था.

‘‘पुत्तर, तुम तो इतने सालों में कभी घर आ नहीं पाए. जब तक सरदारनी थी उस ने घर जोड़ रखा था. वह गई और सब बच्चों का असली चेहरा सामने आ गया. मेरे पास 6 ट्रक थे, एक स्पेयर पार्ट्स की दुकान, इतना बड़ा बंगला.

‘‘पुत्तर, तुम को मालूम है, मैं तो था ट्रक ड्राइवर. खुद ट्रक चलाचला कर दिनरात एक कर मैं ने अपना काम जमाया, पंजाब में जमीन भी खरीदी कि अपने बुढ़ापे में वापस अपनी जमीन पर चला जाऊंगा. मैं तो रहा अंगूठाछाप, पर मैं ने ठान लिया था कि बच्चों को अच्छा पढ़ाऊंगा. बड़े वाले ने तो जल्दी पढ़ना छोड़ कर दुकान पर बैठना शुरू कर दिया, मैं ने कहा कोई गल नहीं, दूजे को डाक्टर बनाऊंगा. वह पढ़ने में अच्छा था. बोलने में भी बहुत अच्छा. उस को ट्रक, दुकान से दूर, मैं ने अपनी हैसियत से ज्यादा खर्चा कर पढ़ाया.

‘‘हमारे पास खाने को नहीं होता था. उस समय मैं ने उसे पढ़ने बाहर भेजा. ट्रक का क्या है, उस के आगे की 5 साल की पढ़ाई में मैं ने 2 ट्रक बेच दिए. वह वापस आया, अच्छा काम भी करने लगा. लेकिन इन की मां गई कि जाने क्या हो गया, शायद मेरी पंजाब की जमीन के कारण.’’

‘‘पंजाब की जमीन के कारण, पापाजी?’’

‘‘हां पुत्तर, मैं ने सोचा कि अब सब यहीं रह रहे हैं तो पंजाब की जमीन पड़ी रहने का क्या फायदा, सो मैं ने वह दान कर दी.’’

‘‘आप ने जमीन दान कर दी?’’

‘‘हां, एक अस्पताल बनाने के लिए 10 एकड़ जमीन.’’

‘‘लेकिन आप के पास तो रुपयों की कमी थी, आप ट्रक बेच कर बच्चों को पढ़ा रहे थे. दान करने के बजाय बेच देते जमीन, तो ठीक नहीं रहता?’’

‘‘अरे, नहीं पुत्तर. मेरे लिए तो मेरे बच्चे ही मेरी जमीनजायदाद थे. वह जमीन गांव वालों के काम आए, ऐसी इच्छा थी मेरी. मैं ने तो कई बार डाक्टर बेटे से कहा भी कि चल, गांव चल, वहीं अपनी जमीन पर बने अस्पताल पर काम कर लेकिन…’’

आजकल की ऊंची पढ़ाई की यह खासीयत है कि जितना आप ज्यादा पढ़ते जाते हैं. उतना आप अपनी जमीन से दूर और विदेशी जमीन के पास होते जाते हैं. बाहर पढ़ कर इन का लड़का, मेरा सीनियर, वापस इंदौर लौट आया था यही बहुत आश्चर्य की बात थी. उस ने गांव जाने की बात पर क्या कहा होगा, मैं सुनना नहीं चाहता था, शायद मेरी कोई रग दुखने लगे, इसलिए मैं ने उन की बात काट दी.

‘‘क्या आप ने सब से पूछ कर, सलाह कर के जमीन दान करने का निर्णय लिया था?’’ मैं ने प्रश्न दागा.

‘‘पूछना क्यों? मेरी कमाई की जमीन थी. उन की मां और मैं कई बार मुंबई, दिल्ली के अस्पतालों में गए, अपने इसी लड़के से मिलने. वहां हम ने देखा कि गांव से आए लोग किस कदर परेशान होते हैं. शहर के लोग उन्हें कितनी हीन निगाह से देखते हैं, मानो वे कोई पिस्सू हों जो गांव से आ गए शहरी अस्पतालों को चूसने. मजबूर गांव वाले, पूरा पैसा दे कर भी, कई बार ज्यादा पैसा दे कर भी भिखारियों की तरह बड़ेबड़े अस्पतालों के सामने फुटपाथों पर कईकई रात पड़े रहते हैं. तभी उन की मां ने कह दिया था, अपनी गांव की जमीन पर अस्पताल बनेगा. यह बात उस ने कई बार परिवार वालों के सामने भी कही थी. वह चली गई. लड़कों को लगा उस के साथ उस की बात भी चली गई. पर तू कह पुत्तर, मैं अपना कौल तोड़ देता तो क्या ठीक होता?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘मैं ने बोला भी डाक्टर बेटे को कि चल, गांव की जमीन पर अस्पताल बना कर वहीं रह, पर वह नहीं माना.’’

पापाजी की आंखों में तेज चमक आ गई थी. वे आगे बोले, ‘‘मुझे अपना कौल पूरा करना था पुत्तर, सो मैं ने जमीन दान कर दी, एक ट्रस्ट को और उस ने वहां एक अस्पताल भी बना दिया है.’’

इस दौरान पापाजी कुछ देर को अपना लकवा भी भूल गए थे, उत्तेजना में वे अपना लकवाग्रस्त हाथ भी उठाए जा रहे थे.

‘‘सर, हिज वीकनैस इस फेक,’’ उन को अपना हाथ उठाते देख एक जूनियर डाक्टर बोला.

‘‘ओ नो,’’ मैं बोला, ‘‘इस तरह की हरकत लकवाग्रस्त अंग में कई बार दिखती है. इसे असोसिएट मूवमैंट कहते हैं. ये रिफ्लेक्सली हो जाती है. ब्रेन में इस तरह की क्रिया को करने वाली तंत्रिकाएं लकवे में भी अक्षुण्ण रहती हैं.’’

‘‘हां, फिर क्या हुआ?’’ पापाजी को देखते हुए मैं ने पूछा.

‘‘होना क्या था पुत्तर, सब लोग मिल कर मुझे सताने लगे. जो बहुएं मेरी दिनरात सेवा करती थीं वे मुझे एक गिलास पानी देने में आनाकानी करने लगीं. परिवार वालों ने अफवाह फैला दी कि पापाजी तो पागल हो गए हैं, शराबी हो गए हैं.’’

‘‘सब भाई एक हो कर मेरे पीछे पड़ गए बंटवारे के वास्ते. परेशान हो कर मैं ने बंटवारा कर दिया. दुकान, ट्रक बड़े वाले को, घर की जायदाद बाकी लोगों को. बंटवारे के तुरंत बाद डाक्टर बेटा घर छोड़ कर अलग चला गया. इसी दौरान मुझे लकवा हो गया. डाक्टर बेटा एक दिन भी मुझे देखने नहीं आया. मेरी दवा ला कर देने में सब को मौत आती थी. मैं कसरत करने के लिए जिस जगह जाता था वहां मुझे एक वृद्धाश्रम का पता चला.’’

‘‘आप वृद्धाश्रम चले गए?’’ मैं लगभग चीखते हुए बोला.

‘‘हां पुत्तर, अब 1 साल से मैं आश्रम में रह रहा हूं. सरदारनी को शायद मालूम था, मां अपने बच्चों को अंदर से पहचानती है, एक ट्रक बेच कर उस के 3 लाख रुपए उस ने मुझ से ब्याज पर चढ़वा दिए थे कि बुढ़ापे में काम आएंगे. आज उसी ब्याज से साड्डा काम चल रहा है.’’

‘‘आप के बच्चे आप को लेने नहीं आए,’’ मैं उन का ‘आजाद हो गया’ का मतलब कुछकुछ समझ रहा था.

‘‘लेने तो दूर, हाल पूछने को फोन भी नहीं आता. उन से मेरा मोबाइल नंबर गुम हो गया होगा, यह सोच मैं चुप पड़ा रहता हूं.’’

जिस दिन पापाजी से बात हुई उसी शाम को मैं ने उन के लड़के से बात की. उन को पापाजी का हाल बताया और समझाया कि कुछ भी हो उन्हें पापाजी को वापस घर लाना चाहिए. एक ने तो इस बारे में बात करने से मना कर दिया जबकि दूसरा लड़का भड़क उठा. उस का कहना था, ‘‘पापाजी को हम हमेशा अपने साथ रखना चाहते थे, लेकिन वे ही पागल हो गए. आखिर आप ही बताओ डाक्टर साहब, इतने बड़े लड़के पर हाथ उठाएं या बुरीबुरी गालियां दें तो वह लड़का क्या करे?’’

दवाओं व उपचार से पापाजी कुछ ठीक हुए, थोड़ा चलने लगे. काफी समय तक हर 1-2 महीने में मुझे दिखाने आते रहे, फिर उन का आना बंद हो गया.

समय बीतता गया, पापाजी नहीं आए तो मैं समझा, सब ठीक हो गया. 1-2 बार फोन किया तो बहुत खुशी हुई यह जान कर कि वे अपने घर चले गए हैं.

कई माह बाद पापाजी वापस आए, इस बार उन का एक लड़का साथ था. पापाजी अपना बायां पैर घसीटते हुए अंदर घुसे. न तो उन्होंने चहक कर पुत्तर कहा और न ही मुझ से नजरें मिलाईं. वे चुपचाप कुरसी पर बैठ गए. एकदम शांत.

शांति के भी कई प्रकार होते हैं, कई बार शांति आसपास के वातावरण में कुछ ऐसी अशांति बिखेर देती है कि उस वातावरण से लिपटी प्राणवान ही क्या प्राणहीन चीजें भी बेचैनी महसूस करने लगती हैं. पापाजी को स्वयं के बूते पर चलता देखने की खुशी उस अशांत शांति में क्षणभर भी नहीं ठहर पाई.

‘पापाजी, चंगे हो गए अब तो,’’ वातावरण सहज करने की गरज से मैं हलका ठहाका लगाते हुए बोला.

‘‘आहो,’’ संक्षिप्त सा जवाब आया मुरझाए होंठों के बीच से.

गरदन पापाजी की तरफ झुकाते हुए मैं ने पूछा, ‘‘पापाजी, सब ठीक तो है?’’

पतझड़ के झड़े पत्ते हवा से हिलते तो खूब हैं पर हमेशा एक घुटीघुटी आवाज निकाल पाते हैं : खड़खड़. वैसे ही पापाजी के मुरझाए होंठ तेजी से हिले पर आवाज निकली सिर्फ, ‘‘आहो.’’

पापाजी लड़के के सामने बात नहीं कर रहे थे, सो मेरे कहने पर वह भारी पांव से बाहर चला गया.

‘‘चलो पापाजी, अच्छा हुआ, मेरे फोन करने से वह आप को घर तो ले आया. लेकिन आप पहले से ज्यादा परेशान दिख रहे हैं?’’

पापाजी कुछ बोले नहीं, उन की आंख में फिर एक डर था. पर इस डर को देख कर मैं पहली बार की तरह गौरवान्वित महसूस नहीं कर रहा था. एक अनजान भय से मेरी धड़कन रुकने लगी थी. पापाजी रो रहे थे, पानी की बूंदों से नम दो पत्ते अब हिल नहीं पा रहे थे. बोलना शायद पापाजी के लिए संभव न था. वे मुड़े और पीठ मेरी तरफ कर दी. कुरता उठा तो मैं एकदम सकपका गया. उन की खाल जगहजगह से उधड़ी हुई थी. कुछ निशान पुराने थे और कुछ एकदम ताजे, शायद यहां लाने के ठीक पहले लगे हों.

‘‘यह क्या है, पापाजी?’’

‘पुत्तर, तू ने फोन किया, ठीक किया, लेकिन यह क्यों बता दिया कि मेरे पास 3 लाख रुपए हैं?’’

‘‘फिर आज आप को यहां कैसे लाया गया?’’

‘‘मैं ने कहा कि रुपए कहां हैं, यह मैं तुझे ही बताऊंगा… पुत्तर जी, पुत्तर मुझे बचा लो, ओए पुत्तर जी, मुझे…’’ पापाजी फूटफूट कर रो रहे थे.

मेरे कान के परदे सुन्न हो गए थे. आगे मैं कुछ सुन नहीं पा रहा था, कुछ भी नहीं.

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