प्यार है: लड़ाई को प्यार से जीत पाए दो प्यार करने वाले

हाइड पार्क सोसाइटी वैसे तो ठाणे के काफी पौश इलाके में स्थित है, यहां के लोग भी अपनेआप को सभ्य, शिष्ट, आधुनिक और समृद्ध मानते हैं, पर जैसाकि अपवाद तो हर जगह होते हैं, और यहां भी है. कई बार ऊपरी चमकदमक से तो देखने में तो लगता है कि परिवार बहुत अच्छा है, सभ्य है पर जब असलियत सामने आती है तो हैरान हुए बिना नहीं रह सकते. ऐसे ही 2 परिवारों के जब अजीब से रंगढंग सामने आए तो यहां के निवासियों को समझ ही नहीं आया कि इन का क्या किया जाए, हंसें या इन्हे टोकें.

बिल्डिंग नंबर 9 के फ्लैट 804 में रहते हैं रोहित, उन की पत्नी सुधा और बेटियां सोनिका और मोनिका. इन के सामने वाले फ्लैट 805 में रहते हैं आलोक, उन की पत्नी मीरा और बेटा शिविन. कभी दोनों परिवारों में अच्छी दोस्ती थी, दोनों के बच्चे एक ही स्कूलकलेज में पढ़ते रहे.

दोनों दंपत्ति बहुत ही जिद्दी, घमंडी और गुस्सैल हैं. जो भी इन परिवारों के बीच दोस्ती रही, वह सिर्फ इन के प्यारे, समझदार बच्चों के कारण ही. अब 1 साल के आगेपीछे शिविन और सोनिका दोनों आगे की पढ़ाई के लिए लंदन चले गए हैं. मोनिका मुंबई में ही फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही है. सब ठीक चल ही रहा था कि सोसाइटी में कुछ लोगों ने आमनेसामने के खाली फ्लैट खरीद लिए और अब उन का बड़ा सा घर हो गया, तो इन दोनों दंपत्तियों के मन में आया कि उन्हें भी सामने वाला फ्लैट मिल जाए तो उन का भी घर बहुत बड़ा हो जाएगा.

एक दिन सोसाइटी की मीटिंग चल रही थी कि वहां रोहित ने आलोक से कहा, ”आप का अपना फ्लैट बेचने का कोई मूड है क्या?”

”नहीं भाई, मैं क्यों बेचूंगा…”

”अगर बेचें तो हमें ही बताना, हम खरीद लेंगे.”

”आप भी कभी बेचें तो हमें ही बताना, हमें भी चाहिए आप का फ्लैट.”

”हम तो कहीं नहीं जा रहे, यही रहेंगे.”

“फिर भी जाओ तो हमें बता देना. आजकल तो आसपास बढ़िया सोसाइटी हैं, आप वहां भी देख सकते हैं बड़ा फ्लैट.”

”आप अपने लिए क्यों नहीं देख लेते वहां बड़ा फ्लैट?”

‘’हमें यही सोसाइटी अच्छी लगती है.’’

बात यहीं खत्म नहीं हुई. यह बात जो लोग भी सुन रहे थे, उन्होंने दोनों की आवाजों में बढ़ रही कड़वाहट महसूस की. घर जा कर रोहित ने सुधा से कहा,”इस आलोक को तो मैं यहां से भगा कर दम लूंगा. अपनेआप को समझता क्या है.”

उधर आलोक भी शुरू थे,”मीरा, यह मुझे जानता नहीं है. देखना, मैं इसे यहां से कैसे भगाता हूं.’’

अगले दिन जब दोनों लिफ्ट में मिले, दोनों ने बस एकदूसरे पर नजर ही डाली, हमेशा की तरह हायहैलो भी नहीं हुआ. अगले दिन जब मोनिका सुबह साइक्लिंग के लिए जाने लगी, देखा, साइकिल के ट्यूब कटे हुए हैं, वह वौचमैन को डांटने लगी,”यह किस ने किया है?”

”मैडम, बाहर से तो कोई नहीं आया,’’ वौचमैन बोला

”तो फिर मेरी साइकिल की यह हालत किस ने की?”

वौचमैन डांट खाता रहा, वह तो लगातार यहीं था, पर साइकिल को तो जानबूझ कर खराब किया गया था, यह साफसाफ समझ आ रहा था.मोनिका घर जा कर चिङचिङ करती रही, किसी को कुछ समझ नहीं आया कि किस ने किया. उधर आलोक घर में अपनेआप को शाबाशी दे रहे थे कि रोहित बाबू, अब आगे देखना क्याक्या करता हूं तुम सब के साथ.

जब 2 चालाक लोग आमनेसामने होते हैं तो किसी की कोई हरकत एकदूसरे से छिपी नहीं रह पाती, दोनों एकदूसरे की चालाकी तुरंत पकड़ लेते हैं. यहां भी रोहित समझ गए कि किसी बाहर वाले ने आ कर मोनिका की साइकिल खराब नहीं की है, यह कोई बिल्डिंग का ही रहने वाला है. पूरा शक आलोक पर था जो सच ही था. सोचने लगे कि यह हमें ऐसे परेशान करेगा. मैं करता हूं इसे ठीक.

उन्होंने सुबह बहुत जल्दी उठ कर अपना डस्टबिन आलोक के फ्लैट के बाहर ऐसे रखा कि जो भी दरवाजा खोले, डस्टबिन गिर जाए और सारा कचरा बिखर जाए. आलोक और मीरा सुबह सैर पर जाते थे, एक ही बेटा था जो बाहर है. सुबहसुबह आलोक ने दरवाजा खोला तो कचरा फैल गया. वह भी समझ गए कि किस का काम है. फौरन रोहित की डोरबेल बजा दी, एक बार नहीं, कई बार बजा दी. रोहित ने तो रात में ही डोरबेल बंद कर दी थी, रोहित कीहोल से आलोक को गुस्से में चिल्लाते देख रहे थे. फ्लोर पर जो 2 फ्लैट्स और थे, उन में बैचलर्स रहते थे. इस चिल्लीचिल्लम पर उन्होंने दरवाजा खोला और आलोक से पूछा,”क्या हुआ अंकल?”

”यह देखो, कैसे गंवार हैं. कैसे रखा डस्टबिन.”

बैचलर्स को इन बातों में जरा इंटरैस्ट नहीं था, उन्होंने सर को यों ही हिलाते हुए अपने फ्लैट का दरवाजा बंद कर लिया जैसे कह रहे हों, ”भाई, खुद ही देख लो, हम तो किराएदार हैं.’’

लंदन में साउथ हौल में शिविन और सोनिका एकदूसरे के हाथों में हाथ डाले बेफिक्र घूम रहे हैं. सोनिका के कालेज में ट्रैडिशनल डे है और उसे सूटसलवार पहनना है. यहां ट्रेन से उतरते ही इस एरिया में आते ही ऐसा लगता है जैसे पंजाब आ गए हों. पूरा एरिया पंजाबी है. इंडियन सामानों की दुकानें आदि सबकुछ मिलता है यहां.

सोनिका ने कहा,”शिवू, पहले रोड कैफे में बैठ कर छोलेभटूरे खा लें, फिर कपङे ले लेंगे.’’

”हां, बिलकुल, यह रोड कैफे तो हमारे प्यार से जुड़ा है, यहीं हम मिले थे न सब से पहले?”

सोनिका खिलखिलाई, ”हां, मैं तो गा ही उठी थी, ‘कब के बिछड़े हुए हम कहां आ के मिले…'”

दोनों ने और्डर दिया और एक कोना खोज कर बैठ गए. शिविन ने कहा, ”बस अब अच्छी जगह प्लैसमेंट हो जाए, जौब शुरू हो तो शादी करें.’’

”हां, सही कह रहे हो. यह बताओ, घर वालों का क्या करना है, मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे पेरैंट्स नौन सिंधी लड़की को ऐक्सैप्ट करेंगे.”

”न करें, हमारी शादी तो हो कर रहेगी. तुम मेरे बचपन का प्यार हो, उन्हें यह पता नहीं है कि हम यहां लिवइन में ही रह रहे हैं, वक्त आने पर बात कर लूंगा उन से.‘’

शिविन और सोनिका एकदूसरे के प्यार में पोरपोर डूबे हैं और उधर इंडिया में किसी को भनक भी नहीं कि लंदन में क्या चल रहा है. शुरूशुरू में कुछ दिन दोनों किसी और फ्रैंड्स के साथ रूम शेयर कर रहे थे, फिर एक दिन यहीं रोड कैफे में दोनों टकरा गए तो तब से ही साथ हैं.

जो बात इंडिया में दोनों एकदूसरे से नहीं कह पाए थे, यहां आ कर कही कि दोनों एकदूसरे को हमेशा से पसंद करते रहे हैं. अब तो दोनों बहुत आगे निकल चुके हैं. दोनों के पेरैंट्स आजकल चल रहे आपस की लङाईयां और शीतयुद्ध को विदेश में पढ़ रहे अपने बच्चों को नहीं बताते कि बेकार में क्यों उन्हें पढाई में डिस्टर्ब करना. और बच्चे तो होशियार हैं ही, हवा भी नहीं लगने दे रहे कि इंडिया में तो आमनेसामने के पड़ोसी थे, अब तो एकसाथ ही रह रहे.

अब तो रोजरोज का किस्सा हो गया. रोहित और आलोक दोनों इसी कोशिश में थे कि परेशान हो कर सामने वाला फ्लैट बदल ले पर दोनों गजब का इंतजार कर रहे थे. नित नए प्लान बन रहे थे. दरवाजों पर जो मिल्क बैग टांगा जाता है, उस में से दूध 2 की जगह एक पैकेट ही निकलता. कभी उस दूध के पैकेट में 1 छेद कर दिया जाता जिस से सारा दूध रिस कर जमीन पर फैल जाए. सीढ़ियों से उतर कर आने वाले लोग दोनों परिवारों को कोसकोस कर चले जाते. सब को पता चल गया था कि क्या क्या हो रहा है, ऐसे में मैनेजिंग कमिटी की मुश्किल बहुत बढ़ गई थी.

दोनों लोग रोज औफिस जाते और एकदूसरे की शिकायत करते. हरकतें इतनी सफाई से की जा रही थीं कि कोई सुबूत किसी को न मिलता कि किस ने क्या किया है. रोज एक से एक हरकत की जाती, गिरी से गिरी प्लानिंग होती, यहां तक कि सुधा यह जानती थी कि मीरा कौकरोच से बहुत ज्यादा डरती है, इसलिए पैसेज में घूमने वाले कौकरोच को सुधा ने एक पेपर से पकड़ कर मीरा के डोर के अंदर छोड़ दिया. मीरा का गेट खुला हुआ था, मेड काम कर रही थी, उस ने देख लिया. बस, अब तो सुबूत सामने था.

आलोक तो सीधे पुलिस स्टैशन पहुंच गए और सुधा की शिकायत कर दी, साथ में मेड को भी ले गए थे. मेड डर रही थी फिर बाद में मीरा की रिक्वैस्ट पर उन के साथ चली ही गई. थोड़ीबहुत कानूनी काररवाई हुई और रोहित और सुधा को चेतावनी देते हुए छोड़ दिया गया.

सोसाइटी में रहने वाले लोग हैरान थे. अपने फ्लैट को बड़ा करने के लिए दूसरे फ्लैट वालों को कैसे परेशान किया जा रहा था, कैसी जिद और सनक थी अब दोनों परिवारों में जो इतनी बढ़ गई कि इस की खबर लंदन तक पहुंच ही गई. सोनिका और शिविन ने अपने सिर पकड़ लिए. दोनों अपने पेरैंट्स को अलगअलग कोने में बैठ कर समझा रहे थे, मगर कोई असर नहीं हो रहा था.

सोनिका ने कहा, ”यार, अब हमारा क्या होगा?”

”डोंट वरी, हमारे पेरैंट्स बहुत गलत कर रहे हैं, इस जिद में हम तो नहीं पड़ेंगे. पता नहीं क्या फालतू हरकतें कर रहे हैं. वैसे तो अपनी तबीयत और अकेलेपन का रोना रोते रहते हैं और अब देखो, इन सब बातों की कितनी ऐनर्जी है सब में.”

मुंबई में दोनों घरों का माहौल बहुत खराब होता जा रहा था. दोनों परिवार अपनेअपने तरीके से एकदूसरे को नुकसान पहुंचा रहे थे. रात में वीडियो कौल पर सोनिका और शिविन से अब हर बात बताते. शिविन तो इकलौती संतान था, आलोक और मीरा उसी से कह कर अपना दिल हलका करते. सोनिका और शिविन का दिल उदास हो रहा था कि यह तो बड़ा बुरा हो रहा है. कहां तो दोनों सपना देख रहे थे कि दोनों परिवारों का साथ भविष्य में एकदूसरे के लिए अब और कितना बड़ा सहारा होगा, सब एकदूसरे के सुखदुख में साथ रह लेंगे.

शिविन ने बहुत गंभीर मुद्रा में कहा, ”सोनू, कोई वहां एकदूसरे को कोई बड़ा नुकसान पहुंचा दे, इस से पहले उन्हें रोकना होगा. सोच रहा हूं कि हम उन्हें अपना संबंध बता देते हैं, शायद कोई असर हो.”

”ठीक है, कोशिश कर सकते हैं, अब अपने बारे में बता ही देते हैं.’’

उसी दिन जब दोनों अपने परिवार से वीडियो कौल कर रहे थे, दोनों ने बात करतेकरते साफसाफ कहा, ”आप लोग यह झगड़ा यहीं रोक दें क्योंकि जौब मिलते ही हम दोनों शादी कर लेंगे और हम अभी भी साथ ही रह रहे हैं. बहुत सोचसमझ कर हम ने एकदूसरे को अपना जीवनसाथी चुन लिया है और हमारा फैसला बदलेगा नहीं. अब आप लोग देख लीजिए क्या करना है. हमें तो प्यार है, तो है.’’

दोनों परिवारों में जैसे सन्नाटा फैल गया, सब एकदम चुप. कोई किसी से नहीं बोला. कई दिन दोनों तरफ बहुत शांति रही. किसी ने किसी को परेशान नहीं किया. सोनिका और शिविन ने घर कोई बात नहीं की. पूरा समय दिया अपने पेरैंट्स को. मोनिका लगातार सोनिका के टच में थी, वह पूरी कोशिश कर रही थी कि दोनों परिवार झगडे खत्म कर दें.

3 दिन बाद सोनिका से बात कर रहा था परिवार. रोहित बोले, ”इंसान अपनी संतान से ही हारता है, क्या कर सकते हैं, जैसी तुम्हारी मरजी.’’

मोनिका हंस पड़ी, ”पापा, यह हारजीत नहीं है, यह प्यार है.”

उधर मीरा मुसकराती हुई शिविन से कह रही थी, ”ठीक है फिर, प्यार है तो फिर हम क्या कर सकते हैं. बात ही खत्म.

फोन रखने के बाद शिविन और सोनिका चहकते हुए एकदूसरे की बांहों में खो गए थे.

वारिसों वाली अम्मां : पुजारिन अम्मां की मौत से मच गई खलबली

कल रात पुजारिन अम्मां ठंड से मर गईं तो महल्ले में शोक की लहर दौड़ गई. हर एक ने पुजारिन अम्मां के ममत्व और उन की धर्मभावना की जी खोल कर चर्चा की पर दबी जबान से चिंता भी जाहिर की कि पुजारिन का अंतिम संस्कार कैसे होगा? पिछले 20-25 सालों से वह मंदिर में सेवा करती आ रही थीं, जहां तक लोगों को याद है इस दौरान उन का कोई रिश्तेनाते का परिचित नहीं आया. उन की जैसी लंबी आयु का कोई बुजुर्ग अब महल्ले में भी नहीं बचा है जो बता सके कि उन का कोई वारिस है भी या नहीं. महल्ले वालों को यह सोच कर ही कंपकंपी छूट रही है कि केवल दाहसंस्कार कराने से ही तो सबकुछ नहीं हो जाएगा, तमाम तरह के कर्मकांड भी तो करने होंगे. आखिर मंदिर की पवित्रता का सवाल है. बिना कर्मकांड के न तो पत्थर की मूर्तियां शुद्ध होंगी और न ही सूतक से बाहर निकल सकेंगी. पर यह सब करे कौन और कैसे?

मजाकिया स्वभाव के राकेशजी हंस कर अपनी पत्नी से बोले, ‘‘क्यों रमा, यह 4 बजे भोर में पुजारिन अम्मां को लेने यमदूत आए कैसे होंगे? ठंड से तो उन की भी हड्डी कांप रही होगी न?’’

इस समाचार को ले कर आई महरी घर का काम करने के पक्ष में बिलकुल नहीं थी. वह तो बस, मेमसाहब को गरमागरम खबर देने भर आई है. चूंकि वह पूरी आल इंडिया रेडियो है इसलिए रमा ने पति की तरफ चुपके से आंखें तरेरीं कि कहीं उन की मजाक में कही बात मिर्च- मसाले के साथ पूरे महल्ले में न फैल जाए.

घड़ी की सूई जब 12 पर पहुंचने को हुई तब जा कर महल्ले वालों को चिंता हुई कि ज्यादा देर करने से रात में घाट पर जाने में परेशानी होगी. पुजारिन अम्मां की देह यों ही पड़ी है लेकिन कोई उन के आसपास भी नहीं फटक रहा है. वहां जाने से तो अशौच हो जाएगा, फिर नहाना- धोना. जितनी देर टल सकता है टले.

धीरेधीरे पूरे महल्ले के पुरुष चौधरीजी के यहां जमा हो गए. चौधरीजी कालीन के निर्यातक हैं. महल्ले में ही नहीं शहर में भी उन का रुतबा है. चमचों की लंबीचौड़ी फौज है जो हथियारों के साथ उन्हें चारों ओर से घेरे रहती है. शायद यह उन के खौफ का असर है कि अंदर से सब उन से डरते हैं लेकिन ऊपर से आदर का भाव दिखाते हैं और एकदूसरे से चौधरीजी के साथ अपनी निकटता का बखान करते हैं.

हां, तो पूरा महल्ला चौधरीजी के विशाल ड्राइंगरूम में जमा हो गया. सब के चेहरे तो उन के सीने तक ही लटके रहे पर चौधरीजी का तो और भी ज्यादा, शायद उन के पेट तक. फिर वह दुख के भाव के साथ उठे और मुंह लटकाएलटकाए ही बोलना शुरू किया, ‘‘भाइयो, पुजारिन अम्मां अचानक हमें अकेला छोड़ कर इस लोक से चली गईं. उन का हम सब के साथ पुत्रवत स्नेह था.’’

वह कुछ क्षण को मौन हुए. सीने पर बायां हाथ रखा. एक आह सी निकली. फिर उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाई, ‘‘मेरी तो दिली इच्छा थी कि पुजारिन अम्मां के क्रियाकर्म का समस्त कार्य हम खुद करें और पूरी तरह विधिविधान से करें किंतु…’’

चौधरीजी ने फिर अपना सीना दबाया और एक आह मुंह से निकाली. उधर उन के इस ‘किंतु’ ने कितनों के हृदय को वेदना से भर दिया क्योंकि महल्ले के लोगों ने चौधरी के इस अलौकिक अभिनय का दर्शन कितने ही आयोजनों में चंदा लेते समय किया है.

चौधरीजी ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘किंतु मेरा व्यापार इन दिनों मंदा चल रहा है. इधर घर ठीकठाक कराने में हाथ लगा रखा है, उधर एक छोटा सा शौपिंग मौल भी बनवा रहा हूं. इन वजहों से मेरा हाथ बहुत तंग चल रहा है. और फिर पुजारिन अम्मां का अकेले मैं ही तो बेटा नहीं हूं, आप सब भी उन के बेटे हैं. उन की अंतिम सेवा के अवसर को आप भी नहीं छोड़ना चाहेंगे. मेरे विचार से तो हम सब को मिलजुल कर इस कार्य को संपादित करना चाहिए जिस से किसी एक पर बोझ भी न पड़े और समस्त कार्य अनुष्ठानपूर्वक हो जाए. तो आप सब की क्या राय है? वैसे यदि इस में किसी को कोई परेशानी है तो साफ बोल दे. जैसे भी होगा महल्ले की इज्जत रखने के लिए मैं इस कार्य को करूंगा.’’

चौधरी साहब के इस पूरे भाषण में कहां विनीत भाव था, कहां कठोर आदेश था, कहां धमकी थी इस सब का पूरापूरा आभास महल्ले के लोगों को था. इसलिए प्रतिवाद का कोई प्रश्न ही न था.

अपने पुत्रों की इस विशाल फौज से पुजारिन अम्मां जीतेजी तो नहीं ही वाकिफ थीं. कितने समय उन्होंने फाके किए यह तो वही जानती थीं. हां, आधेअधूरे कपड़ों में लिपटी उन की मृत देह एक फटी गुदड़ी पर पड़ी थी. लगभग डेढ़ सौ घरों वाला वह महल्ला न उन के लिए कपड़े जुटा पाया न अन्न. किंतु आज उन के लिए सुंदर महंगे कफन और लकड़ी का प्रबंध तो वह कर ही रहा है.

कभी रेडियो, टीवी का मुंह न देखने वाली पुजारिन अम्मां के अंतिम संस्कार की पूरी वीडियोग्राफी हो रही है. शाम को टीवी प्रसारण में यह सब चौधरीजी की अनुकंपा से प्रसारित भी हो जाएगा.

इस प्रकार पुजारिन अम्मां की देह की राख को गंगा की धारा में प्रवाहित कर गंगाजल से हाथमुंह धो सब ने अपनेअपने घरों को प्रस्थान किया. घर आ कर गीजर के गरमागरम पानी से स्नान कर और चाय पी कर चौधरी के पास हाजिरी लगाने में किसी महल्ले वाले ने देर नहीं की.

चौधरी खुद तो घाट तक जा नहीं सके थे क्योंकि उन का दिल पुजारिन अम्मां के मरने के दुख को सहन नहीं कर पा रहा था किंतु वह सब के लौटने की प्रतीक्षा जरूर कर रहे थे. उन की रसोई में देशी घी में चूड़ा मटर बन रहा था तो गाजर के हलवे में मावे की मात्रा भरपूर थी. आने वाले हर व्यक्ति की वह अगवानी करते, नौकर गुनगुने पानी से उन के चरण धुलवाता और कालीमिर्च चबाने को देता, पांवपोश पर सब अपने पांव पोंछते और अंदर आ कर सोफे पर बैठ शनील की रजाई ओढ़ लेते. नौकर तुरंत ही चूड़ामटर पेश कर देता, फिर हलवा, चाय, पान वगैरह चौधरीजी की इसी आवभगत के तो सब दीवाने हैं. बातों के सिलसिले में रात गहराई तो देसीविदेशी शराब और काजूबादाम के बीच पुजारिन अम्मां कहीं खो सी गईं.

अगली सुबह महल्ले वालों को एक नई चिंता का सामना करना पड़ा. मंदिर और मूर्तियों की साफसफाई का काम कौन करे. महल्ले के पुरुषों को तो फुरसत न थी. महिलाओं के कामों और उन की व्यस्तताओं का भी कोई ओरछोर न था. किसी को स्वेटर बुनना था तो किसी को अचार डालना था. कोई कुम्हरौड़ी बनाने की तैयारी कर रही थी, तो कोई आलू के पापड़ बना रही थी. उस पर भी यह कि सब के घर में ठाकुरजी हैं ही, जिन की वे रोज ही पूजा करती हैं. फिर मंदिर की देखभाल करने का समय किस के पास है?

महल्ले की सभी समस्याओं का समाधान तो चौधरी को ही खोजना था. हर रोज एक परिवार के जिम्मे मंदिर रहेगा. वह उस की देखभाल करेगा और रात में चौधरीजी को दिनभर की रिपोर्ट के साथ उस दिन का चढ़ावा भी सौंपेगा. हर बार की तरह अब भी महल्ले वालों के पास प्रतिवाद के स्वर नहीं थे.

अभी पुजारिन अम्मां को मरे एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि एक दिन 50, 55 और 60 वर्ष की आयु के 3 लोग रामनामी दुपट्टा ओढ़े मंदिर में सपरिवार विलाप करते महल्ले वालों को दिखाई दिए. ये कौन लोग हैं और कहां से आए हैं यह किसी को पता नहीं था पर उन के फूटफूट कर रोने से सारा महल्ला थर्रा उठा.

महल्ले के लोग अपनेअपने घरों से निकल कर मंदिर में आए और यह जानने की कोशिश की कि वे कौन हैं और क्यों इस तरह धाड़ें मारमार कर रो रहे हैं. ये तीनों परिवार केवल हाहाकार करते जाते पर न तो कुछ बोलते न ही बताते.

हथियारधारी लोगों से घिरे चौधरी को मंदिर में आया देख कर महल्ले वाले उन के साथ हो लिए. तीनों परिवार के लोगों ने चौधरीजी को देखा, उन के साथ आए हथियारबंद लोगों को देखा और समझ गए कि यही वह मुख्य व्यक्ति है जो यहां फैले इस सारे नाटक को दिशानिर्देश दे सकेगा. इस बात को समझ कर उन के विलाप करते मुंह से एक बार ही तो निकला, ‘‘अम्मां’’ और उन के हृदय से सटी अम्मां और उन के परिवार की किसी मेले में खींची हुई फोटो जैसे उन के हाथों से छूट गई.

चौधरीजी के साथ सभी ने अधेड़ अम्मां को अपने तीनों जवान बेटों के साथ खड़े पहचाना जो अब अधेड़ हो चुके हैं. घूंघट की ओट से झांकती ये अधेड़ औरतें जरूर इन की बीवियां होंगी और पोते- पोतियों के रूप में कुछ बच्चे.

चौधरी साहब के साथ महल्ले के लोग अपनेअपने ढंग से इन के बारे में सोच रहे थे कि इतने सालों बाद इन बेटों को अपनी मां की याद आई है, वह भी तब जब वह मर गई. किस आशा, किस आकांक्षा से आए हैं ये यहां? क्या पुजारिन अम्मां के पास कोई जमीनजायदाद थी? 3 बेटों की यह माता इतना भरापूरा परिवार होते हुए भी अकेली दम तोड़ गई, आज उस का परिवार यहां क्यों जमा हुआ है? इतने सालों तक ये लोग कहां थे? किसी को भी तो नहीं याद आता कि ये तीनों कभी यहां आए हों या पुजारिन अम्मां कुछ दिनों के लिए कहीं गई हों?

‘‘ठीक है, ठीक है, हाथमुंह धो लो, आराम कर लो फिर हवेली आ जाना. बताना कि क्या समस्या है?’’ चौधरीजी ने घुड़का तो सारा विलाप बंद हो गया. धीरेधीरे भीड़ अपनेअपने रास्ते खिसक ली.

अगर कोई देखता तो जान पाता कि कैसे वे तीनों परिवार लोगों के जाने के बाद आपस में तूतू-मैंमैं करते हुए लड़ पड़े थे. बड़ा बोला, ‘‘मैं बड़ा हूं. अम्मां की संपत्ति पर मेरा हक है. उस का वारिस तो मैं ही हूं. तुम दोनों क्यों आए यहां? क्या मंदिर बांटोगे? पुजारी तो एक ही होगा मंदिर का?’’

मझले के पास अपने तर्क थे, ‘‘अम्मां मुझे ही अपना वारिस मानती थीं. देखोदेखो, उन्होंने मुझे यह चिट्ठी भेजी थी. लो, देख लो दद्दा. अम्मां ने लिखा है कि तू ही मेरा राजा बेटा है. बड़े ने तो साथ ले जाने से मना कर दिया. तू ही मुझे अपने साथ ले जा. अकेली जान पड़ी रहूंगी. जैसे अपने टामी को दो रोटियां डालना वैसे मुझे भी दे देना.’’

अब की बार छोटा भी मैदान में कूद पड़ा, ‘‘तो कौन सा तुम ले गए मझले दद्दा. अम्मां ने मुझे भी चिट्ठी भेजी थी. लो, देखो. लिखा है, ‘मेरा सोना बेटा, तू तो मेरा पेट पोंछना है. तू ही तो मुझे मरने पर मुखाग्नि देगा. बेटा, अकेली भूत सी डोलती हूं. पोतेपोतियों के बीच रहने को कितना दिल तड़पता है. मंदिर में कोई बच्चा, कोई बहू जब अपनी दादी या सास के साथ आते हैं तो मेरा दिल रो पड़ता है. इतने भरेपूरे परिवार की मां हो कर भी मैं कितनी अकेली हूं. मेरा सोना बेटा, ले जा मुझे अपने साथ.’ ’’

सच है, सब के पास प्रमाण है अपनेअपने बुलावे का किंतु कोई भी सोना या राजा बेटा पुजारिन अम्मां को अपने साथ नहीं ले गया. इस के लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं क्योंकि कोई ले कर गया होता तो आज पुजारिन अम्मां यों अकेली पड़ेपड़े न मर गई होतीं और उन का दाहसंस्कार चंदा कर के न किया गया होता.

पुजारिन अम्मां के 3 पुत्र, जिन्होंने एक क्षण भी बेटे के कर्तव्य का पालन नहीं किया, जिन्हें अपनी मां का अकेलापन नहीं खला, वे आज उस के वारिस बने खड़े हैं. क्या उन का मन जरा भी अपनी मां के भेजे पत्र से विचलित नहीं हुआ. क्या कभी उन्हें एहसास हुआ कि जिस मां ने उन्हें 9 माह तक अपनी कोख में रखा, जिस ने उन्हें सीने से लगा कर रातें आंखों में ही काट दीं, उस मां को वे तीनों मिल कर 9 दिन भी अपने साथ नहीं रख सके.

आज भी उन्हें उस के दाहसंस्कार, उस के श्राद्ध आदि की चिंता नहीं, चिंता है तो मात्र मंदिर के वारिसाना हक की. वे अच्छी तरह से जानते हैं कि मंदिर का पुजारी दीनहीन हो तो कोई चढ़ावा नहीं चढ़ता किंतु पुजारी तनिक भी टीमटाम वाला हो, उस को पूजा करने का दिखावा करना आता हो, भक्तों की जेबों के वजन को टटोलना आता हो तो इस से बढि़या कोई और धंधा हो ही नहीं सकता.

आने वाले समय की कल्पना कर तीनों भाई मन में पूरी योजना बनाए पड़े थे. बस, उन्हें चौधरी का खौफ खाए जा रहा था वरना अब तक तो तीनों भाइयों ने फैसला कर ही लिया होता, चाहे बात से चाहे लात से. 3 अलगअलग ध्रुवों से आए एक ही मां के जने 3 भाइयों को एकदूसरे की ओर दृष्टि फिराना भी गवारा नहीं. एकदूसरे का हालचाल, कुशलक्षेम जानने की तनिक भी जिज्ञासा नहीं, बस, केवल मंदिर पर अधिकार की हवस ही दिल- दिमाग को अभिभूत किए है.

उधर चौधरीजी की चिंता और परेशानी का कोई ओरछोर नहीं है. कितने योजनाबद्ध तरीके से वे मंदिर को अपनी संपत्ति बनाने वाले थे. उन के जैसा विद्वान पुरुष यह अच्छी तरह से जानता है कि मंदिर की सेवाटहल करना महल्ले के लोगों के बस की बात नहीं. उन्हें ही कुछ प्रबंध करना है. प्रबंध भी ऐसा हो जिस से उन का भी कुछ लाभ हो. मंदिर के लिए अभी उन्होंने जो व्यवस्था की है वह तो अस्थायी है.

अभी वह कोई उचित व्यवस्था सोच भी नहीं पाए थे कि ये तीनों जाने कहां से टपक पड़े. पर उन के आने के पीछे छिपी उन की चतुराई को याद कर और उन को देख उन के नाटक में आए बदलाव को याद कर चौधरीजी मुसकरा दिए. तीनों में से किसी एक का चुनाव करना कठिन है. तीनों ही सर्वश्रेष्ठ हैं, तीनों ही योग्य और उपयुक्त हैं. एक निश्चय सा कर चौधरीजी निश्चिन्त हो चले थे.

अगले दिन सुबह ही मंदिर के घंटे की ध्वनि से महल्ले वालों की नींद टूट गई. मंदिर को देखने और पुजारिन अम्मां के वारिसों के बारे में जानने के लिए लोग मंदिर पहुंचे तो देखा तीनों भाई मंदिर के तीनों कमरों में किनारीदार पीली धोती पहने, लंबी चुटिया बांधे और सलीके से चंदन लगाए मूर्तियों के सामने मंत्र बुदबुदा रहे हैं. वे बारीबारी से उठते हैं और वहां खड़े लोगों को तांबे के लोटे में रखे जल का प्रसाद देते हैं. सामने ही तालाजडि़त दानपात्र रखा है जिस पर गुप्तदान, स्वेच्छादान आदि लिखा हुआ है. पुजारी की ओर दक्षिणा बढ़ाने पर वे दानपात्र की ओर इशारा कर देते हैं.

मंदिर के इस बदलाव पर अब महल्ले के लोग भौचक हैं. श्रद्धालुओं की जेबें ढीली हो रही हैं. पुजारीत्रय तथा चौधरीजी के खजाने भर रहे हैं. पुजारिन अम्मां को सब भूल चुके हैं.

हम बेवफा न थे: हमशां ने क्यों मांगी भैया से माफी

लेखक- दरख्शां अनवर ‘ईराकी’

‘‘अरे, आप लोग यहां क्या कर रहे हैं? सब लोग वहां आप दोनों के इंतजार में खड़े हैं,’’ हमशां ने अपने भैया और होने वाली भाभी को एक कोने में खड़े देख कर पूछा.

‘‘बस कुछ नहीं, ऐसे ही…’’ हमशां की होने वाली भाभी बोलीं.

‘‘पर भैया, आप तो ऐसे छिपने वाले नहीं थे…’’ हमशां ने हंसते हुए पूछा.

‘काश हमशां, तुम जान पातीं कि मैं आज कितना उदास हूं, मगर मैं चाह कर भी तुम्हें नहीं बता सकता,’ इतना सोच कर हमशां का भाई अख्तर लोगों के स्वागत के लिए दरवाजे पर आ कर खड़ा हो गया.

तभी अख्तर की नजर सामने से आती निदा पर पड़ी जो पहले कभी उसी की मंगेतर थी. वह उसे लाख भुलाने के बावजूद भी भूल नहीं पाया था.

‘‘हैलो अंकल, कैसे हैं आप?’’ निदा ने अख्तर के अब्बू से पूछा.

‘‘बेटी, मैं बिलकुल ठीक हूं,’’ अख्तर के अब्बू ने प्यार से जवाब दिया.

‘‘हैलो अख्तर, मंगनी मुबारक हो. और कितनी बार मंगनी करने की कसम खा रखी है?’’ निदा ने सवाल दागा.

‘‘यह तुम क्या कह रही हो? मैं तो कुछ नहीं जानता कि हमारी मंगनी क्यों टूटी. पता नहीं, तुम्हारे घर वालों को मुझ में क्या बुराई नजर आई,’’ अख्तर ने जवाब दिया.

‘‘बस मिस्टर अख्तर, आप जैसे लोग ही दुनिया को धोखा देते फिरते हैं और हमारे जैसे लोग धोखा खाते रहते हैं,’’ इतना कह कर निदा गुस्से में वहां से चली गई.

सामने स्टेज पर मंगनी की तैयारी पूरे जोरशोर से हो रही थी. सब लोग एकदूसरे से बातें करते नजर आ रहे थे. तभी निदा ने हमशां को देखा, जो उसी की तरफ दौड़ी चली आ रही थी.

‘‘निदा, आप आ गईं. मैं तो सोच रही थी कि आप भी उन लड़कियों जैसी होंगी, जो मंगनी टूटने के बाद रिश्ता तोड़ लेती हैं,’’ हमशां बोली.

‘‘हमशां, मैं उन में से नहीं हूं. यह सब तो हालात की वजह से हुआ है…’’ निदा उदास हो कर बोली, ‘‘क्या मैं जान सकती हूं कि वह लड़की कौन है जो तुम लोगों को पसंद आई है?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. वह देखो, सामने स्टेज की तरफ सुनहरे रंग का लहंगा पहने हुए खड़ी है,’’ हमशां ने अपनी होने वाली भाभी की ओर इशारा करते हुए बताया.

‘‘अच्छा, तो यही वह लड़की है जो तुम लोगों की अगली शिकार है,’’ निदा ने कोसने वाले अंदाज में कहा.

‘‘आप ऐसा क्यों कह रही हैं. इस में भैया की कोई गलती नहीं है. वह तो आज भी नहीं जानते कि हम लोगों की तरफ से मंगनी तोड़ी गई?है,’’ हमशां ने धीमी आवाज में कहा.

‘‘मगर, तुम तो बता सकती थीं.

तुम ने क्यों नहीं बताया? आखिर तुम भी तो इसी घर की हो,’’ इतना कह कर निदा वहां से दूसरी तरफ खड़े लोगों की तरफ बढ़ने लगी.

निदा की बातें हमशां को बुरी तरह कचोट गईं.

‘‘प्लीज निदा, आप हम लोगों को गलत न समझें. बस, मम्मी चाहती थीं कि भैया की शादी उन की सहेली की बेटी से ही हो,’’ निदा को रोकते हुए हमशां ने सफाई पेश की.

‘‘और तुम लोग मान गए. एक लड़की की जिंदगी बरबाद कर के अपनी कामयाबी का जश्न मना रहे हो,’’ निदा गुस्से से बोली.

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं?है. मैं अच्छी तरह से जानती हूं कि मम्मी की कसम के आगे हम सब मजबूर थे वरना मंगनी कभी भी न टूटने देते,’’ कह कर हमशां ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘देखो हमशां, अब पुरानी बातों को भूल जाओ. पर अफसोस तो उम्रभर रहेगा कि इनसानों की पहचान करना आजकल के लोग भूल चुके हैं,’’ इतना कह कर निदा ने धीरे से अपना हाथ छुड़ाया और आगे बढ़ गई.

‘‘निदा, इन से मिलो. ये मेरी होने वाली बहू के मम्मीपापा हैं. यह इन की छोटी बेटी है, जो मैडिकल की पढ़ाई कर रही है,’’ अख्तर की अम्मी ने निदा को अपने नए रिश्तेदारों से मिलवाया.

निदा सोचने लगी कि लोग तो रिश्ता टूटने पर नफरत करते हैं, लेकिन मैं उन में से नहीं हूं. अमीरों के लिए दौलत ही सबकुछ है. मगर मैं दौलत की इज्जत नहीं करती, बल्कि इनसानों की इज्जत करना मुझे अपने घर वालों ने सिखाया है.

‘‘निदा, आप भैया को माफ कर दें, प्लीज,’’ हमशां उस के पास आ कर फिर मिन्नत भरे लहजे में बोली.

‘‘हमशां, कैसी बातें करती हो? अब जब मुझे पता चल गया है कि इस में तुम्हारे भैया की कोई गलती नहीं है तो माफी मांगने का सवाल ही नहीं उठता,’’ निदा ने हंस कर उस के गाल पर एक हलकी सी चपत लगाई.

कुछ देर ठहर कर निदा फिर बोली, ‘‘हमशां, तुम्हारी मम्मी ने मुझ से रिश्ता तोड़ कर बहुत बड़ी गलती की. काश, मैं भी अमीर घर से होती तो यह रिश्ता चंद सिक्कों के लिए न टूटता.’’

‘‘मुझे मालूम है कि आप नाराज हैं. मम्मी ने आप से मंगनी तो तोड़ दी, पर उन्हें भी हमेशा अफसोस रहेगा कि उन्होंने दौलत के लिए अपने बेटे की खुशियों का खून कर दिया,’’ हमशां ने संजीदगी से कहा.

‘‘बेटा, आप लोग यहां क्यों खड़े हैं? चलो, सब लोग इंतजार कर रहे हैं. निदा, तुम भी चलो,’’ अख्तर के अब्बू खुशी से चहकते हुए बोले.

‘‘मुझे यहां इतना प्यार मिलता है, फिर भी दिल में एक टीस सी उठती?है कि इन्होंने मुझे ठुकराया है. पर दिल में नफरत से कहीं ज्यादा मुहब्बत का असर है, जो चाह कर भी नहीं मिटा सकती,’ निदा सोच रही थी.

‘‘निदा, आप को बुरा नहीं लग रहा कि भैया किसी और से शादी कर रहे हैं?’’ हमशां ने मासूमियत से पूछा.

‘‘नहीं हमशां, मुझे क्यों बुरा लगने लगा. अगर आदमी का दिल साफ और पाक हो, तो वह एक अच्छा दोस्त भी तो बन सकता है,’’ निदा उमड़ते आंसुओं को रोकना चाहती थी, मगर कोशिश करने पर भी वह ऐसा कर नहीं सकी और आखिरकार उस की आंखें भर आईं.

‘‘भैया, आप निदा से वादा करें कि आप दोनों जिंदगी के किसी भी मोड़ पर दोस्ती का दामन नहीं छोड़ेंगे,’’ हमशां ने इतना कह कर निदा का हाथ अपने भैया के हाथ में थमा दिया और दोनों के अच्छे दोस्त बने रहने की दुआ करने लगी.

‘‘माफ कीजिएगा, अब हम एकदूसरे के दोस्त बन गए हैं और दोस्ती में कोई परदा नहीं, इसलिए आप मुझे बेवफा न समझें तो बेहतर होगा,’’ अख्तर ने कहा.

‘‘अच्छा, आप लोग मेरे बिना दोस्ती कैसे कर सकते हैं. मैं तीसरी दोस्त हूं,’’ अख्तर की मंगेतर निदा से बोली.

निदा उस लड़की को देखती रह गई और सोचने लगी कि कितनी अच्छी लड़की है. वैसे भी इस सब में इस की कोई गलती भी नहीं है.

‘‘आंटी, मैं हमशां को अपने भाई के लिए मांग रही हूं. प्लीज, इनकार न कीजिएगा,’’ निदा ने कहा.

‘‘तुम मुझ को शर्मिंदा तो नहीं कर रही हो?’’ अख्तर की अम्मी ने पलट कर पूछा.

‘‘नहीं आंटी, मैं एक दोस्त होने के नाते अपने दोस्त की बहन को अपने भाई के लिए मांग रही हूं,’’ इतना कह कर निदा ने हमशां को गले से लगा लिया.

‘‘निदा, आप हम से बदला लेना चाहती?हैं. आप भी मम्मी की तरह रिश्ता जोड़ कर फिर तोड़ लीजिएगा ताकि मैं भी दुनिया वालों की नजर में बदनाम हो जाऊं,’’ हमशां रोते हुए बोली.

‘‘अरी पगली, मैं तो तेरे भैया की दोस्त हूं, दुख और सुख में साथ देना दोस्तों का फर्ज होता है, न कि उन से बदला लेना,’’ निदा ने कहा.

‘‘नहीं, मुझे यह रिश्ता मंजूर नहीं है,’’ अख्तर की अम्मी ने जिद्दी लहजे में कहा.

तभी अख्तर के अब्बू आ गए.

‘‘क्या बात है? किस का रिश्ता नहीं होने देंगी आप?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘अंकल, मैं हमशां को अपने भाई के लिए मांग रही हूं.’’

‘‘तो देर किस बात की है. ले जाओ. तुम्हारी अमानत है, तुम्हें सौंप देता हूं.’’

‘‘निदा, आप अब भी सोच लें, मुझे बरबाद होने से आप ही बचा सकती हैं,’’ हमशां ने रोते हुए कहा.

‘‘कैसी बहकीबहकी बातें कर रही हो. मैं तो तुम्हें दिल से कबूल कर रही हूं, जबान से नहीं, जो बदल जाऊंगी,’’ निदा खुशी से चहकी.

‘‘हमशां, निदा ठीक कह रही हैं. तुम खुशीखुशी मान जाओ. यह कोई जरूरी नहीं कि हम लोगों ने उस के साथ गलत बरताव किया तो वह भी ऐसी ही गलती दोहराए,’’ अख्तर हमशां को समझाते हुए कहने लगा.

‘‘अगर वह भी हमारे जैसी बन जाएगी, तब हम में और उस में क्या फर्क रहेगा,’’ इतना कह कर अख्तर ने हमशां का हाथ निदा के भाई के हाथों में दे दिया.

‘‘निदा, हम यह नहीं जानते कि कौन बेवफा था, लेकिन इतना जरूर जानते हैं कि हम बेवफा न थे,’’ अख्तर नजर झुकाए हुए बोला.

‘‘भैया, आप बेवफा न थे तो फिर कौन बेवफा था?’’ हमशां शिकायती लहजे में बोली. उस की नजर जब अपने भैया पर पड़ी तो देख कर दंग रह गई. उस का भाई रो रहा था.

‘‘भैया, मुझे माफ कर दीजिए. मैं ने आप को गलत समझा,’’ हमशां अख्तर के गले लग कर रोने लगी.

सच है कि इनसान को हालात के आगे झुकना पड़ता है. अपनों के लिए बेवफा भी बनना पड़ता है.

Raksha Bandhan: ममता- क्या बहन के साथ मातापिता का प्यार बांट पाया अंचल

‘‘मां, मैं किस के साथ खेलूं? मुझे भी आप अस्पताल से छोटा सा बच्चा ला दीजिए न. आप तो अपने काम में लगी रहती हैं और मैं अकेलेअकेले खेलता हूं. कृपया ला दीजिए न. मुझे अकेले खेलना अच्छा नहीं लगता है.’’

अपने 4 वर्षीय पुत्र अंचल की यह फरमाइश सुन कर मैं धीरे से मुसकरा दी थी और अपने हाथ की पत्रिका को एक किनारे रखते हुए उस के गाल पर एक पप्पी ले ली थी. थोड़ी देर बाद मैं ने उसे गोद में बैठा लिया और बोली, ‘‘अच्छा, मेरे राजा बेटे को बच्चा चाहिए अपने साथ खेलने के लिए. हम तुम्हें 7 महीने बाद छोटा सा बच्चा ला कर देंगे, अब तो खुश हो?’’

अंचल ने खुश हो कर मेरे दोनों गालों के तड़ातड़ कई चुंबन ले डाले व संतुष्ट हो कर गोद से उतर कर पुन: अपनी कार से खेलने लगा था. शीघ्र ही उस ने एक नया प्रश्न मेरी ओर उछाल दिया, ‘‘मां, जो बच्चा आप अस्पताल से लाएंगी वह मेरी तरह लड़का होगा या आप की तरह लड़की?’’

मैं ने हंसते हुए जवाब दिया, ‘‘बेटे, यह तो मैं नहीं जानती. जो डाक्टर देंगे, हम ले लेंगे. परंतु तुम से एक बात अवश्य कहनी है कि वह लड़का हो या लड़की, तुम उसे खूब प्यार करोगे. उसे मारोगे तो नहीं न?’’

‘‘नहीं, मां. मैं उसे बहुत प्यार करूंगा,’’ अंचल पूर्ण रूप से संतुष्ट हो कर खेल में जुट गया, पर मेरे मन में विचारों का बवंडर उठने लगा था. वैसे भी उन दिनों दिमाग हर वक्त कुछ न कुछ सोचता ही रहता था. ऊपर से तबीयत भी ठीक नहीं रहती थी.

अंचल आपरेशन से हुआ था, अत: डाक्टर और भी सावधानी बरतने को कह रहे थे. मां को मैं ने पत्र लिख दिया था क्योंकि इंगलैंड में भला मेरी देखभाल करने वाला कौन था? पति के सभी मित्रों की पत्नियां नौकरी और व्यापार में व्यस्त थीं. घबरा कर मैं ने मां को अपनी स्थिति से अवगत करा दिया था. मां का पत्र आया था कि वह 2 माह बाद आ जाएंगी, तब कहीं जा कर मैं संतुष्ट हुई थी.

उस दिन शाम को जब मेरे पति ऐश्वर्य घर आए तो अंचल दौड़ कर उन की गोद में चढ़ गया और बोला, ‘‘पिताजी, पिताजी, मां मेरे लिए एक छोटा सा बच्चा लाएंगी, मजा आएगा न?’’

ऐश्वर्य ने हंसते हुए कहा, ‘‘हांहां, तुम उस से खूब खेलना. पर देखो, लड़ाई मत करना.’’

अंचल सिर हिलाते हुए नीचे उतर गया था.

मैं ने चाय मेज पर लगा दी थी. ऐश्वर्य ने पूछा, ‘‘कैसी तबीयत है, सर्वदा?’’

मैं ने कहा, ‘‘सारा दिन सुस्ती छाई रहती है. कुछ खा भी नहीं पाती हूं ठीक से. उलटी हो जाती है. ऐसा लगता है कि किसी तरह 7 माह बीत जाएं तो मुझे नया जन्म मिले.’’

ऐश्वर्य बोले, ‘‘देखो सर्वदा, तुम 7 माह की चिंता न कर के बस, डाक्टर के बताए निर्देशों का पालन करती जाओ. डाक्टर ने कहा है कि तीसरा माह खत्म होतेहोते उलटियां कम होने लगेंगी, पर कोई दवा वगैरह मत खाना.’’

2 माह के पश्चात भारत से मेरी मां आ गई थीं. उस समय मुझे 5वां माह लगा ही था. मां को देख कर लगा था जैसे मुझे सभी शारीरिक व मानसिक तकलीफों से छुटकारा मिलने जा रहा हो. अंचल ने दौड़ कर नानीजी की उंगली पकड़ ली थी व ऐश्वर्य ने उन के सामान की ट्राली. मैं खूब खुश रहती थी. मां से खूब बतियाती. मेरी उलटियां भी बंद हो चली थीं. मेरे मन की सारी उलझनें मां के  आ जाने मात्र से ही मिट गई थीं.

मैं हर माह जांच हेतु क्लीनिक भी जाती थी. इस प्रकार देखतेदेखते समय व्यतीत होता चला गया. मैं ने इंगलैंड के कुशल डाक्टरों के निर्देशन व सहयोग से एक बच्ची को जन्म दिया और सब से खुशी की बात तो यह थी कि इस बार आपरेशन की आवश्यकता नहीं पड़ी थी. बच्ची का नाम मां ने अभिलाषा रखा. वह बहुत खुश दिखाई दे रही थीं क्योंकि उन की कोई नातिन अभी तक न थी. मेरी बहन के 2 पुत्र थे, अत: मां का उल्लास देखने योग्य था. छोटी सी गुडि़या को नर्स ने सफेद गाउन, मोजे, टोपा व दस्ताने पहना दिए थे.

तभी अंचल ने कहा, ‘‘मां, मैं बच्ची को गोद में ले लूं.’’

मैं ने अंचल को पलंग पर बैठा दिया व बच्ची को उस की गोद में लिटा दिया. अंचल के चेहरे के भाव देखने लायक थे. उसे तो मानो जमानेभर की खुशियां मिल गई थीं. खुशी उस के चेहरे से छलकी जा रही थी. यही हाल ऐश्वर्य का भी था. तभी नर्स ने आ कर बतलाया कि मिलने का समय समाप्त हो चुका है.

उसी नर्स ने अंचल से पूछा, ‘‘क्या मैं तुम्हारा बच्चा ले सकती हूं?’’

अंचल ने हड़बड़ा कर ‘न’ में सिर हिला दिया. हम सब हंसने लगे.

जब सब लोग घर चले गए तो मैं बिस्तर में सोई नन्ही, प्यारी सी अभिलाषा को देखने लगी, जो मेरे व मेरे  परिवार वालों की अभिलाषा को पूर्ण करती हुई इस दुनिया में आ गई थी. परंतु अब देखना यह था कि मेरे साढ़े 4 वर्षीय पुत्र व इस बच्ची में कैसा तालमेल होता है.

5 दिन बाद जब मैं घर आई तो अंचल बड़ा खुश हुआ कि उस की छोटी सी बहन अब सदा के लिए उस के पास आ गई है.

बच्ची 2 माह की हुई तो मां भारत वापस चली गईं. उन के जाने से घर बिलकुल सूना हो गया. इन देशों में बिना नौकरों के इतने काम करने पड़ते हैं कि मैं बच्ची व घर के कार्यों में मशीन की भांति जुटी रहती थी.

देखतेदेखते अभिलाषा 8 माह की हो गई. अब तक तो अंचल उस पर अपना प्यार लुटाता रहा था, पर असली समस्या तब उत्पन्न हुई जब अभिलाषा ने घुटनों के बल रेंगना आरंभ किया. अब वह अंचल के खिलौनों तक आराम से पहुंच जाती थी. अपने रंगीन व आकर्षक खिलौनों व झुनझुनों को छोड़ कर उस ने भैया की एक कार को हाथ से पकड़ा ही था कि अंचल ने झपट कर उस से कार छीन ली, जिस से अभिलाषा के हाथ में खरोंचें आ गईं.

उस समय मैं वहीं बैठी बुनाई कर रही थी. मुझे क्रोध तो बहुत आया पर स्वयं पर किसी तरह नियंत्रण किया. बालमनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए मैं ने अंचल को प्यार से समझाने की चेष्टा की, ‘‘बेटे, अपनी छोटी बहन से इस तरह कोई चीज नहीं छीना करते. देखो, इस के हाथ में चोट लग गई. तुम इस के बड़े भाई हो. यह तुम्हारी चीजों से क्यों नहीं खेल सकती? तुम इसे प्यार करोगे तो यह भी तुम्हें प्यार करेगी.’’

मेरे समझाने का प्रत्यक्ष असर थोड़ा ही दिखाई दिया और ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे सवा 5 वर्षीय यह बालक स्वयं के अधिकार क्षेत्र में किसी और के प्रवेश की बात को हृदय से स्वीकार नहीं कर पा रहा है. मैं चुपचाप रसोई में चली गई. थोड़ी देर बाद जब मैं रसोई से बाहर आई तो देखा कि अंचल अभिलाषा को खा जाने वाली नजरों से घूर रहा था.

शाम को ऐश्वर्य घर आए तो अंचल उन की ओर रोज की भांति दौड़ा. वह उसे उठाना ही चाहते थे कि तभी घुटनों के बल रेंगती अभिलाषा ने अपने हाथ आगे बढ़ा दिए. ऐश्वर्य चाहते हुए भी स्वयं को रोक न सके और अंचल के सिर पर हाथ फेरते हुए अभिलाषा को उन्होंने गोद में उठा लिया.

मैं यह सब देख रही थी, अत: झट अंचल को गोद में उठा कर पप्पी लेते हुए बोली, ‘‘राजा बेटा, मेरी गोद में आ जाएगा, है न बेटे?’’ तब मैं ने अंचल की नजरों में निरीहता की भावना को मिटते हुए अनुभव किया.

तभी भारत से मां व भैया का पत्र आया, जिस में हम दोनों पतिपत्नी को यह विशेष हिदायत दी गई थी कि छोटी बच्ची को प्यार करते समय अंचल की उपेक्षा न होने पाए, वरना बचपन से ही उस के मन में अभिलाषा के प्रति द्वेषभाव पनप सकता है. इस बात को तो मैं पहले ही ध्यान में रखती थी और इस पत्र के पश्चात और भी चौकन्नी हो गई थी.

मेरे सामने तो अंचल का व्यवहार सामान्य रहता था, पर जब मैं किसी काम में लगी होती थी और छिप कर उस के व्यवहार का अवलोकन करती थी. ऐसा करते हुए मैं ने पाया कि हमारे समक्ष तो वह स्वयं को नियंत्रित रखता था, परंतु हमारी अनुपस्थिति में वह अभिलाषा को छेड़ता रहता था और कभीकभी उसे धक्का भी दे देता था.

मैं समयसमय पर अंचल का मार्ग- दर्शन करती रहती थी, परंतु उस का प्रभाव उस के नन्हे से मस्तिष्क पर थोड़ी ही देर के लिए पड़ता था.

बाल मनोविज्ञान की यह धारणा कि विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण न केवल युवावस्था में अपितु बचपन में भी होता है. अर्थात पुत्री पिता को अधिक प्यार करती है व पुत्र माता से अधिक जुड़ा होता है, मेरे घर में वास्तव में सही सिद्ध हो रही थी.

एक दिन कार्यालय से लौटते समय ऐश्वर्य एक सुंदर सी गुडि़या लेते आए. अभिलाषा 10 माह की हो चुकी थी. गुडि़या देख कर वह ऐश्वर्य की ओर लपकी.

मैं ने फुसफुसाते हुए ऐश्वर्य से पूछा, ‘‘अंचल के लिए कुछ नहीं लाए?’’

उन के ‘न’ कहने पर मैं तो चुप हो गई, पर मैं ने अंचल की आंखों में उपजे द्वेषभाव व पिता के प्रति क्रोध की चिनगारी स्पष्ट अनुभव कर ली थी. मैं ने धीरे से उस का हाथ पकड़ा, रसोई की ओर ले जाते हुए उसे बताया, ‘‘बेटे, मैं ने आज तुम्हारे मनपसंद बेसन के लड्डू बनाए हैं, खाओगे न?’’

अंचल बोला, ‘‘नहीं मां, मेरा जरा भी मन नहीं है. पहले एक बात बताइए, आप जब भी हमें बाजार ले जाती हैं तो मेरे व अभिलाषा दोनों के लिए खिलौने खरीदती हैं, पर पिताजी तो आज मेरे लिए कुछ भी नहीं लाए? ऐसा क्यों किया उन्होंने? क्या वह मुझे प्यार नहीं करते?’’

जिस प्रश्न का मुझे डर था, वही मेरे सामने था, मैं ने उसे पुचकारते हुए कहा, ‘‘नहीं बेटे, पिताजी तो तुम्हें बहुत प्यार करते हैं. उन के कार्यालय से आते समय बीच रास्ते में एक ऐसी दुकान पड़ती है जहां केवल गुडि़या ही बिकती हैं. इसीलिए उन्होंने एक गुडि़या खरीद ली. अब तुम्हारे लिए तो गुडि़या खरीदना बेकार था क्योंकि तुम तो कारों से खेलना पसंद करते हो. पिछले सप्ताह उन्होंने तुम्हें एक ‘रोबोट’ भी तो ला कर दिया था. तब अभिलाषा तो नहीं रोई थी. जाओ, पिताजी के पास जा कर उन्हें एक पप्पी दे दो. वह खुश हो जाएंगे.’’

अंचल दौड़ कर अपने पिताजी के पास चला गया. मैं ने उस के मन में उठते हुए ईर्ष्या के अंकुर को कुछ हद तक दबा दिया था. वह अपनी ड्राइंग की कापी में कोई चित्र बनाने में व्यस्त हो गया था.

कुछ दिन पहले ही उस ने नर्सरी स्कूल जाना आरंभ किया था और यह उस के लिए अच्छा ही था. ऐश्वर्य को बाद में मैं ने यह बात बतलाई तो उन्होंने भी अपनी गलती स्वीकार कर ली. इन 2 छोटेछोटे बच्चों की छोटीछोटी लड़ाइयों को सुलझातेसुलझाते कभीकभी मैं स्वयं बड़ी अशांत हो जाती थी क्योंकि हम उन दोनों को प्यार करते समय सदा ही एक संतुलन बनाए रखने की चेष्टा करते थे.

अब तो एक वर्षीय अभिलाषा भी द्वेष भावना से अप्रभावित न रह सकी थी. अंचल को जरा भी प्यार करो कि वह चीखचीख कर रोने लगती थी. अपनी गुडि़या को तो वह अंचल को हाथ भी न लगाने देती थी और इसी प्रकार वह अपने सभी खिलौने पहचानती थी. उसे समझाना अभी संभव भी न था. अत: मैं अंचल को ही प्यार से समझा दिया करती थी.

मैं मारने का अस्त्र प्रयोग में नहीं लाना चाहती थी क्योंकि मेरे विचार से इस अस्त्र का प्रयोग अधिक समय तक के लिए प्रभावी नहीं होता, जबकि प्यार से समझाने का प्रभाव अधिक समय तक रहता है. हम दोनों ही अपने प्यार व ममता की इस तुला को संतुलन की स्थिति में रखते थे.

एक दिन अंचल की आंख में कुछ चुभ गया. वह उसे मसल रहा था और आंख लाल हो चुकी थी. तभी वह मेरे पास आया. उस की दोनों आंखों से आंसू बह रहे थे.

मैं ने एक साफ रूमाल से अंचल की आंख को साफ करते हुए कहा, ‘‘बेटे, तुम्हारी एक आंख में कुछ चुभ रहा था, पर तुम्हारी दूसरी आंख से आंसू क्यों बह रहे हैं?’’

वह मासूमियत से बोला, ‘‘मां, है न अजीब बात. पता नहीं ऐसा क्यों हो रहा है?’’

मैं ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा, ‘‘देखो बेटे, जिस तरह तुम्हारी एक आंख को कोई तकलीफ होती है तो दूसरी आंख भी रोने लगती है, ठीक उसी प्रकार तुम और अभिलाषा मेरी व पिताजी की दोनों आंखों की तरह हो. यदि तुम दोनों में से एक को तकलीफ होती हो तो दूसरे को तकलीफ होनी चाहिए. इस का मतलब यह हुआ कि यदि तुम्हारी बहन को कोई तकलीफ हो तो तुम्हें भी उसे अनुभव करना चाहिए. उस की तकलीफ को समझना चाहिए और यदि तुम दोनों को कोई तकलीफ या परेशानी होगी तो मुझे और तुम्हारे पिताजी को भी तकलीफ होगी. इसलिए तुम दोनों मिलजुल कर खेलो, आपस में लड़ो नहीं और अच्छे भाईबहन बनो. जब तुम्हारी बहन बड़ी होगी तो हम उसे भी यही बात समझा देंगे.’’

अंचल ने बात के मर्म व गहराई को समझते हुए ‘हां’ में सिर हिलाया.

तभी से मैं ने अंचल के व्यवहार में कुछ परिवर्तन अनुभव किया. पिता का प्यार अब दोनों को बराबर मात्रा में मिल रहा था और मैं तो पहले से ही संतुलन की स्थिति बनाए रखती थी.

तभी रक्षाबंधन का त्योहार आ गया. मैं एक भारतीय दुकान से राखी खरीद लाई. अभिलाषा ने अंचल को पहली बार राखी बांधनी थी. राखी से एक दिन पूर्व अंचल ने मुझ से पूछा, ‘‘मां, अभिलाषा मुझे राखी क्यों बांधेगी?’’

मैं ने उसे समझाया, ‘‘बेटे, वह तुम्हारी कलाई पर राखी बांध कर यह कहना चाहती है कि तुम उस के अत्यंत प्यारे बड़े भाई हो व सदा उस का ध्यान रखोगे, उस की रक्षा करोगे. यदि उसे कोई तकलीफ या परेशानी होगी तो तुम उसे उस तकलीफ से बचाओगे और हमेशा उस की सहायता करोगे.’’

अंचल आश्चर्य से मेरी बातें सुन रहा था. बोला, ‘‘मां, यदि राखी का यह मतलब है तो मैं आज से वादा करता हूं कि मैं अभिलाषा को कभी नहीं मारूंगा, न ही उसे कभी धक्का दूंगा, अपने खिलौनों से उसे खेलने भी दूंगा. जब वह बड़ी हो कर स्कूल जाएगी और वहां पर उसे कोई बच्चा मारेगा तो मैं उसे बचाऊंगा,’’ यह कह कर वह अपनी एक वर्षीय छोटी बहन को गोद में उठाने की चेष्टा करने लगा.

अंचल की बातें सुन कर मैं कुछ हलका अनुभव कर रही थी. साथ ही यह भी सोच रही थी कि छोटे बच्चों के पालनपोषण में मातापिता को कितने धैर्य व समझदारी से काम लेना पड़ता है.

आज इन बातों को 20 वर्ष हो चुके हैं. अंचल ब्रिटिश रेलवे में वैज्ञानिक है व अभिलाषा डाक्टरी के अंतिम वर्ष में पढ़ रही है. ऐसा नहीं है कि अन्य भाईबहनों की भांति उन में नोकझोंक या बहस नहीं होती, परंतु इस के साथ ही दोनों आपस में समझदार मित्रों की भांति व्यवहार करते हैं. दोनों के मध्य सामंजस्य, सद्भाव, स्नेह व सहयोग की भावनाओं को देख कर उन के बचपन की छोटीछोटी लड़ाइयां याद आती हैं तो मेरे होंठों पर स्वत: मुसकान आ जाती है.

इस के साथ ही याद आती है अपने प्यार व ममता की वह तुला, जिस के दोनों पलड़ों में संतुलन रखने का प्रयास हम पतिपत्नी अपने आपसी मतभेद व वैचारिक विभिन्नताओं को एक ओर रख कर किया करते थे. दरवाजे की घंटी बजती है. मैं दरवाजा खोलती हूं. सामने अंचल हाथ में एक खूबसूरत राखी लिए खड़ा है. मुसकराते हुए वह कहता है, ‘‘मां, कल रक्षाबंधन है, अभिलाषा आज शाम तक आ जाएगी न?’’

‘‘हां बेटा, भला आज तक अभिलाषा कभी रक्षाबंधन का दिन भूली है,’’ मैं हंसते हुए कहती हूं.

‘‘मैं ने सोचा, पता नहीं बेचारी को लंदन में राखी के लिए कहांकहां भटकना पड़ेगा. इसलिए मैं राखी लेता आया हूं. आप ने मिठाई वगैरा बना ली है न?’’ अंचल ने कहा.

मैं ने ‘हां’ में सिर हिलाया और मुसकराते हुए पति की ओर देखा, जो स्वयं भी मुसकरा रहे थे.

Raksha Bandhan: मेरे भैया- क्या लिखा था उस अंतिम खत में

सावन का महीना था. दोपहर के 3 बजे थे. रिमझिम शुरू होने से मौसम सुहावना पर बाजार सुनसान हो गया था. साइबर कैफे में काम करने वाले तीनों युवक चाय की चुसकियां लेते हुए इधरउधर की बातों में वक्त गुजार रहे थे. अंदर 1-2 कैबिनों में बच्चे वीडियो गेम खेलने में व्यस्त थे. 1-2 किशोर दोपहर की वीरानगी का लाभ उठा कर मनपसंद साइट खोल कर बैठे थे.  तभी वहां एक महिला ने प्रवेश किया. युवक महिला को देख कर चौंके, क्योंकि शायद बहुत दिनों बाद एक महिला और वह भी दोपहर के समय, उन के कैफे पर आई थी. वे व्यस्त होने का नाटक करने लगे और तितरबितर हो गए.

महिला किसी संभ्रांत घराने की लग रही थी. चालढाल व वेशभूषा से पढ़ीलिखी भी दिख रही थी. छाता एक तरफ रख कर उस ने अपने बालों को जो वर्षा की बूंदों व तेज हवा से बिखर गए थे, कुछ ठीक किए. फिर काउंटर पर बैठे लड़के से बोली, ‘‘मुझे एक संदेश टाइप करवाना है. मैं खुद कर लेती पर हिंदी टाइपिंग नहीं आती है.’’

‘‘आप मुझे लिखवाएंगी या…’’

‘‘हां, मैं बोलती जाती हूं और तुम टाइप करते जाओ. कर पाओगे? शुद्ध वर्तनी का ज्ञान  है तुम्हें?’’

लड़का थोड़ा सकपका गया पर हिम्मत कर के बोला, ‘‘अवश्य कर लूंगा,’’ मना करने से उस के आत्मविश्वास को ठेस पहुंचने की आशंका थी.  महिला ने बोलना शुरू किया, ‘‘लिखो- मेरे भैया, शायद यह मेरी ओर से तुम्हारे लिए अंतिम राखी होगी, क्योंकि अब मुझ में इतना सब्र नहीं बचा है कि मैं भविष्य में भी ऐसा करती रहूंगी. नहीं तुम गलत समझ रहे हो. मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है, क्योंकि शिकायत करने का हक तुम वर्षों पहले ही खत्म कर चुके हो.’’  इतना बोल कर महिला थोड़ी रुक गई. भावावेश से उस का चेहरा तमतमाने लगा था. उस ने कहा, ‘‘थोड़ा पानी मिलेगा?’’

लड़के ने कहा, ‘‘जरूर,’’ और फिर एक बोतल ला कर उस महिला को थमा दी. लड़के को बड़ी उत्सुकता थी कि महिला आगे क्या बोलेगी. उसे यह पत्र बड़ा रहस्यमयी लगने लगा था.  महिला ने थोड़ा पानी पीया, पसीना पोंछा और फिर लिखवाना शुरू किया, ‘‘कितना खुशहाल परिवार था हमारा. हम 5 भाईबहनों में तुम सब से बड़े थे और मां के लाड़ले तो शुरू से ही थे. तभी तो पापा की साधारण कमाई के बावजूद तुम्हें उच्च शिक्षा के लिए शहर भेज दिया था. पापा की इच्छा के विरुद्ध जा कर मां ने तुम्हारी इच्छा पूरी की थी. तुम भी वह बात भूले नहीं होंगे कि मां ने अपनी बात मनवाने के लिए

2 दिन खाना नहीं खाया था. जब तुम्हारा दाखिला मैडिकल कालेज में हुआ था तो मैं ने अपनी सारी सखियों को चिल्ला कर इस के बारे में बताया था और मुझे उन की ईर्ष्या का शिकार भी होना पड़ा था. एक ने तो चिढ़ कर यह भी कह दिया था कि तुम तो ऐसे खुश हो रही हो जैसे तुम्हारा ही दाखिला हुआ हो, जिस का उत्तर मैं ने दिया था कि मेरा हो या मेरे भैया का, क्या फर्क पड़ता है. है तो दोनों में एक ही खून. भैया क्या मैं ने गलत कहा था?  ‘‘फिर तुम होस्टल चले गए थे और जबजब आते थे, मैं और मां सपनों के सुनहरे संसार में खो जाती थीं. सपनों में मां देखती थीं कि तुम एक क्लीनिक में बैठे हो और तुम्हारे सामने मरीजों की लंबी लाइन लगी है. तुम 1-1 कर के सब को परामर्श देते और बदले में वे एक अच्छीखासी राशि तुम्हें देते. शाम तक रुपयों से दराज भर जाती. तुम सारे रुपए ले कर मां की झोली भर देते. तुम बातें ही ऐसी करते थे, मां सपने न देखतीं तो क्या करतीं?

‘‘और मैं देखती कि मैं सजीधजी बैठी हूं. एक बहुत ही उच्च घराने से सुंदर, सुशिक्षित वर मुझे ब्याहने आया है. तुम अपने हाथों से मेरी डोली सजा रहे हो और विदाई के वक्त फूटफूट कर रो रहे हो.

‘‘पिताजी हमें अकसर सपनों से जगाने की कोशिश करते रहते थे पर हम मांबेटी नींद से उठ कर आंखें खोलना ही नहीं चाहती थीं, क्योंकि तुम अपनी मीठीमीठी बातों से ठंडी हवा के झोंके जो देते रहते थे.

‘‘मां ने साथसाथ तुम्हारी शादी के सपने देखने भी शुरू कर दिए थे. उन्हें एक सुंदरसजीली दुलहन, आंखों में लाज लिए, घर के आंगन में प्रवेश करते हुए नजर आती थी. मां का पद ऊंचा उठ कर सास का हो जाता था और घर उपहारों से उफनता सा नजर आता था.

‘‘होस्टल से आतेजाते मां तुम्हें तरहतरह के पकवान बना कर खिलाती भी थीं और बांध कर भी देती थीं. पता नहीं ये सब करते समय मां में कहां से ताकत व हिम्मत आ जाती थी वरना तो सिरदर्द की शिकायत से पूरे घर को वश में किए रखती थीं.

‘‘सपने पूरे होने का समय आ गया था. तुम ने अपनी डिगरी हासिल कर ली थी और होस्टल छोड़ कर घर आने की तैयारी कर ही रहे थे कि अचानक तुम्हें एक प्रस्ताव मिला. प्रस्ताव एक सहपाठिन के पिता की ओर से था- विवाह का. तुम ने मां को बताया. मां को अपने सपने दूनी गति से पूरे होते नजर आने लगे. मां ने सहर्ष हामी भर दी. मैं आज तक नहीं समझ पाई कि मां ने स्वयं को इतनी खुशहाल कैसे समझ लिया था. इठलातीइतराती घरघर समाचार देने लगीं कि डाक्टर बहू आएगी हमारे घर.

‘‘तुम्हारा विवाह हो गया. अब सब को मेरे विवाह की चिंता सताने लगी थी. मां बहुत खुश थीं. उन्होंने जो थोड़ाबहुत गहने मेरे लिए बनवाए थे उन्हें दिखाते हुए तुम से कहा था कि बेटा इतना तो है मेरे पास, कुछ नकद भी है, तू कोई अच्छा वर तलाश कर बाकी इंतजाम भी हो जाएगा. अब तू यहां रहेगा तो क्या चिंता है. समाज में मानप्रतिष्ठा भी बढ़ेगी और आर्थिक समृद्धि भी आएगी.

‘‘सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन भाभी ने घोषणा कर दी कि अभी यहां क्लीनिक खोलने से लाभ नहीं है. इतना पैसा तो है नहीं आप लोगों के पास कि सारी मशीनें ला सकें. नौकरी करना ही ठीक रहेगा. मेरे पिताजी ने हम दोनों के लिए सरकारी नौकरी देख ली है, हमें वहीं जाना होगा.

‘‘और तुम चले गए थे. उस के बाद तुम जब भी आते तुम्हारे साथ भाभी की फरमाइशों व शिकायतों का पुलिंदा रहता था पर पापा की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे अब तुम्हारी सभी इच्छाएं पूरी कर पाते. उन्हें अन्य भाईबहनों की भी चिंता थी. भैया उन दिनों मैं ने तुम्हारे चेहरे पर परेशानी व विवशता दोनों का संगम देखा था. तुम्हारी मुसकराहट न जाने कहां गायब हो गई थी. हर वक्त तनाव व चिड़चिड़ाहट ने तुम्हारे चारों ओर घेरा बना लिया था. भाभी को मां गंवार, मैं बोझ और पापा तानाशाह नजर आने लगे थे. तुम ने बहुत कोशिश की कि मां कुछ ऐसा करती रहें कि भाभी संतुष्ट रहे, परंतु न मां में इतनी सामर्थ्य थी, न ही भाभी में सहनशक्ति. धीरेधीरे तुम भी हमें भाभी की निगाहों से देखने लगे थे. कुछ तुम्हारी मजबूरी थी, कुछ तुम्हारा स्वार्थ. एक दिन तुम ने मां से कहा कि मां, मुझे दोनों में से एक को चुनना होगा, आप सब या मेरा निजी जीवन.

‘‘मां ने इस में भी अपना ममत्व दिखाया और तुम्हें अपने बंधन से मुक्त कर के भाभी  के सुपुर्द कर दिया ताकि तुम्हारा वैवाहिक जीवन सुखमय बन सके.

‘‘उस दिन के बाद तुम यदाकदा घर तो आते थे पर एक मेहमान की तरह और अपनी खातिरदारी करवा कर लौट जाते थे. पापा ने मेरा रिश्ता तय कर दिया और शादी भी. इसे मेरा विश्वास कहो या नादानी अभी भी मुझे यही लगता था कि यदि तुम मेरे लिए वर ढूंढ़ते तो पापा से बेहतर होता और मैं कई दिनों तक तुम्हारा इंतजार करती भी रही थी. पर तुम नहीं आए. शादी के वक्त तुम थे परंतु सिर्फ विदा करने के लिए. सीधेसादे पापा ने अपने ही बलबूते पर सभी भाईबहनों का विवाह कर दिया. करते भी क्या. घर का बड़ा बेटा ही जब धोखा दे जाए, हिम्मत तो करनी ही पड़ती है.

‘‘मैं पराई हो गई थी. जब भी मैं मां से मिलने जाती मां की सूनी आंखों में तुम्हारे इंतजार के अलावा और कुछ नजर नहीं आता था. मां मुझ से कहतीं कि एक बार भैया को फोन मिला कर पूछ तो सही कैसा है, वह घर क्यों नहीं आता. कहो न उस से एक बार बस एक बार तो मिलने आए. तुम ने घर आना बिलकुल बंद कर दिया था. पापा पुरुष थे, उन्हें रोना शोभा नहीं देता था, परंतु मायूसी उन के चेहरे पर भी झलकती थी. मां के पास सब कुछ होते हुए भी जैसे कुछ नहीं था. तुम मां के लाड़ले जो चले गए थे मां से रूठ कर. पर मां को अपना दोष कभी समझ नहीं आया. वे अकसर मुझ से पूछतीं कि क्या मुझे उसे पढ़ने बाहर नहीं भेजना चाहिए था या मैं ने उस का यह रिश्ता कर के गलती की? अंत में यही परिणाम निकलता कि सारा दोष मध्यवर्गीय परिवार से संबंध रखना ही था. सिर्फ खर्चा और कुछ न मिलने की आस से ही यह हुआ था.

‘‘पापा ने आस छोड़ दी थी पर मां के दिल को कौन समझाता? पापा से छिपछिप कर अपनी टूटीफूटी भाषा में तुम्हें चिट्ठी लिख कर पड़ोसियों के हाथों डलवाती रहती थीं और उन की 5-6 चिट्ठियों का उत्तर भाभी की फटकार के रूप में आता था कि हमें परेशान मत करो, चैन से जीने दो.

‘‘मां का अंतिम समय आ गया था. पर तुम नहीं आए. तुम से मिलने की आस लिए मां दुनिया छोड़ कर चली गईं और किसी ने तुम्हें भी खबर कर दी. तुम आए तो सही पर अंतिम संस्कार के वक्त नहीं, क्योंकि शायद तुम्हें यह एहसास हो गया था कि अब मैं इस का हकदार नहीं हूं.

‘‘जीतेजी मां सदा तुम्हारा इंतजार करती रहीं और मरते वक्त भी तुम्हारा हिस्सा मुझ से बंधवा कर रखवा गई हैं, क्योंकि वे मां थीं और मैं ने भी उन्हें मना नहीं किया, क्योंकि मैं भी आखिर बहन हूं पर तुम न बेटे बन सके न भाई.

‘‘भैया, क्या इनसान स्वार्थवश इतना कमजोर हो जाता है कि हर रिश्ते  को बलि पर चढ़ा देता है? तुम ऐसे कब थे? यह कभी मत कहना ये सब भाभी की वजह से हुआ है, क्या तुम में इतना भी साहस नहीं था कि  अपनी इच्छा से एक कदम चल पाते? यदि  तुम्हारे जीवन में रिश्तों का बिलकुल ही महत्त्व नहीं है, तो मेरी राखी न मिलने पर विचलित क्यों हो जाते हो? और किसी न किसी के हाथों यह खबर भिजवा ही देते हो कि अब की बार राखी नहीं मिली.

‘‘भैया, क्या सिर्फ राखी भेजने या बांधने से ही रक्षाबंधन का पर्व सार्थक सिद्ध हो जाता है? क्या इस के लिए दायित्व निभाने जरूरी नहीं? आज 25 साल हो गए. इस बीच न तो तुम मुझ से मिलने ही आए और न ही मुझे बुलाया. इस बीच मेरे द्वारा भेजी गई राखी एक नाजुक सेतु की तरह थी जोकि अब टूटने की कगार पर है, क्योंकि अब मेरा विश्वास व इच्छाशक्ति दोनों ही खत्म हो गए हैं.

‘‘भैया, बस तुम मुझे एक बात बता दो कि यदि हम बहनें न होतीं तो क्या तुम मम्मीपापा को छोड़ कर नहीं जाते? क्या तुम्हारे पलायन का कारण हम बहनें थीं? हम तुम्हें कैसे विश्वास दिलातीं कि हम तुम से कभी कुछ अपेक्षा नहीं रखेंगी, तुम एक बार अपनी विवशता कहते तो सही. हो सके तो इस राखी को मेरी अंतिम निशानी समझ कर संभाल कर रख लेना, क्योंकि मेरे खयाल से तुम्हारे दिल में न सही, घर में इतनी जगह तो होगी.’’

लिखवातेलिखवाते वह महिला उत्तेजना व दुखवश कांपने लगी, पर उस की आंखों से आंसू नहीं छलके. शायद वे सूख चुके थे, पर टाइप करने वाले लड़के की आंखें नम हो गई थीं.  काम पूरा हो गया था. उस महिला ने लड़के से कहा, ‘‘तुम इस की एक प्रतिलिपि निकाल कर मुझे दे दो ताकि मैं यह संदेश अपने भैया तक पहुंचा सकूं. तुम जानते हो आज 25 वर्षों बाद मैं यह सब लिखने का साहस कर पाई हूं. मैं सदा छोटी बहन बन कर ही रही. ‘‘हां, एक कष्ट और दूंगी तुम्हें. इस संदेश को इंटरनैट द्वारा ऐसे ब्लौग पर डाल दो जहां से ज्यादा से ज्यादा लोग इसे पढ़ें. हो सकता है दुनिया में ऐसे और भी भाई हों, जिन में आत्मनिर्णय व आत्मसम्मान की कमी हो. उन को इस पत्र से कुछ लाभ हो जाए. यह संदेश मैं अपनी मां को अपनी अंतिम श्रद्धांजलि के रूप में देना चाहती हूं ताकि जो दुख वे अपने सीने में दबाए इस दुनिया से विदा हो गईं, उस से उन्हें कुछ राहत मिल सके.’’

Raksha Bandhan: तोबा मेरी तोबा- अंजली के भाई के साथ क्या हुआ?

मेरे सिगरेट छोड़ देने से सभी हैरान थे. जिस पर डांटफटकार और समझानेबुझाने का भी कोई असर नहीं हुआ वह अचानक कैसे सुधर गया? जब मेरे दोस्त इस की वजह पूछते तो मैं बड़ी भोली सूरत बना कर कहता, ‘‘सिगरेट पीना सेहत के लिए हानिकारक है, इसलिए छोड़ दी. तुम लोग भी मेरी बात मानो और बाज आओ इस गंदी आदत से.’’

मुझे पता है, मेरे फ्रैंड्स  मुझ पर हंसते होंगे और यही कहते होंगे, ‘नौ सौ चूहे खा कर बिल्ली हज को चली. बड़ा आया हमें उपदेश देने वाला.’ मेरे मम्मीडैडी मेरे इस फैसले से बहुत खुश थे लेकिन आपस में वे भी यही कहते होंगे कि इस गधे को यह अक्ल पहले क्यों नहीं आई? अब मैं उन से क्या कहूं? यह अक्ल मुझे जिंदगी भर न आती अगर उस रोज मेरे साथ वह हादसा न हुआ होता.

कालेज में कदम रखते ही मुझे सिगरेट की लत पड़ गई थी. जब मौका मिलता, हम यारदोस्त पांडेजी की दुकान पर खड़े हो कर खूब सिगरेट फूंकते और फिर हमारे शहर में सिगरेट पीना मर्दानगी की निशानी समझी जाती थी. कालेज के जो लड़के सिगरेट पी कर खांसने लगते, हम उन का मजाक उड़ाते. हां, लेकिन घर लौटने से पहले मैं पिपरमिंट की गोलियां चूस लेता ताकि किसी को तंबाकू की बू न आए. वजह यह नहीं थी कि मैं घर में किसी से डरता था. वजह सिर्फ यही थी कि घर के लोग किसी भी बात पर लेक्चर देना शुरू कर देते जिस से मुझे बड़ी चिढ़ होती थी.

मेरी बड़ी बहन अंजली की नाक बड़ी तेज थी. हमारे किचन में अगर कुछ जल रहा हो तो गली में दाखिल होते ही अंजली दीदी को उस की बू आ जाती. एक दिन मैं घर पहुंचा तो दरवाजा उसी ने खोला. वे बिल्ली की तरह नाक सिकोड़ कर बोलीं, ‘‘सिगरेट की बदबू कहां से आ रही है? तुम ने पी है क्या?’’

मैं पहले तो सहम गया लेकिन फिर गुस्से से बोला, ‘‘आप क्यों हर समय मेरे पीछे पड़ी रहती हैं? हमारा चौकीदार दिन भर बीड़ी फूंकता है. जब हवा चलती है तो उस का धुआं यहां तक आ जाता है. यकीन न आए तो बाहर जा कर देख लीजिए. वह इस वक्त जरूर बीड़ी पी रहा होगा.’’

मुझे गलत साबित करने के लिए अंजली दीदी फौरन बरामदे में चली गईं. संयोग से चौकीदार उस समय वाकई बीड़ी पी रहा था. मुझे शक भरी नजरों से देखती हुई वे उस समय तो वहां से चली गईं लेकिन उस दिन के बाद मैं ने नोट किया कि वे मुझ पर नजर रखने लगी थीं. मैं जब बाहर से लौट कर अपने कमरे में आता तब यह बात फौरन समझ में आ जाती कि मेरे कमरे की तलाशी ली गई है. अलमारी और मेज की दराजें सब टटोले गए हैं. मुझे यकीन हो गया कि अंजली दीदी जरूर कोई सुराग ढूंढ़ रही होंगी ताकि मुझ पर हमला किया जा सके. पर मैं ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं. अपने कमरे में सिगरेट और माचिस की डब्बी मैं भूल से भी नहीं रखता था.

एक दिन मुझ से गलती हो गई. मैं महल्ले के लड़कों के साथ नुक्कड़ पर खड़े हो कर गपशप कर रहा था. एक दोस्त ने सिगरेट सुलगाई तो मैं ने उस के हाथ से ले कर एक कश लगा लिया. उसी समय अंजली दीदी सब्जी ले कर घर लौट रही थीं. उन की नजर मुझ पर पड़ी और मैं रंगेहाथों पकड़ा गया. वे तीर की तरह घर की तरफ भागीं और मैं ने घबराहट में सिगरेट का एक और ऐसा दमदार कश लगाया कि मुझे चक्कर आने लगे. दोस्तों के सामने मैं ने शेखी बघारी कि मैं किसी से नहीं डरता. सिगरेट पीता हूं तो क्या हुआ? कोई चोरी तो नहीं की, डाका तो नहीं डाला. मेरे दोस्तों ने मेरी पीठ ठोंक कर मुझे शाबाशी दी. मेरी हिम्मत वाकई काबिलेतारीफ थी. मैं ने खुश हो कर सब को एक इंपोर्टेड सिगरेट पिला दी. फिर मैं घर जाने के लिए मुड़ा, लेकिन कुछ सोच कर रुक गया. घर पहुंचते ही कैसा हंगामा होगा, इस का अंदाजा था मुझे. यही सब सोच कर दिनभर घर लौटने की मेरी हिम्मत न हुई.

पूरा दिन अपनी साइकिल पर सवार शहर के चक्कर काटता रहा. सोचा कि चलो लगेहाथ फिल्म देख डालें. लेकिन जब जेब में हाथ डाला तो पता चला कि टिकट के पैसे नहीं हैं. दोस्तों को इंपोर्टेड सिगरेट जो पिला दी थी.

शाम को अंधेरा होने के बाद मैं डरतेडरते घर में दाखिल हुआ. मम्मी और डैडी बड़े कमरे में बैठे थे. उन के गंभीर चेहरों से साफ जाहिर था कि उन को अंजली दीदी से पता चल गया था कि मैं सिगरेट पीता हूं. वे मेरी राह देख रहे थे. मम्मी के पीछे अंजली दीदी खड़ी थीं और उन के होंठों पर चिपकी हुई जहरीली मुसकान, नुकीले कांटे की तरह चुभ रही थी मुझे. मैं समझ रहा था कि डैडी अभी उठ कर मेरे पास आएंगे और दोचार भारीभरकम थप्पड़ रसीद करेंगे मुझे. लेकिन उन्होंने शांत आवाज में मुझे अपने पास बुला कर बिठाया. हमारे परिवार में कोई किसी किस्म का भी नशा नहीं करता था, न सिगरेट न शराब और न ही तंबाकू वाला पान. फिर मुझे यह लत कैसे लगी, इस बात का बड़ा अफसोस था उन्हें.

काफी देर तक वे मुझे सिगरेट के नुकसान समझाते रहे. यह कह कर डराया भी कि एक सिगरेट पीने से इंसान की उम्र 15 दिन कम हो जाती है. मैं बड़ी विनम्रता से सिर झुकाए उन की बातें सुनता रहा. मन ही मन यह भी सोचता रहा कि अंजली दीदी से बदला कैसे लिया जाए? जब अदालत का समय समाप्त हुआ तब मैं ने डैडी को वचन दिया कि आज के बाद मैं सिगरेट छुऊंगा तक नहीं. डैडी ने खुश हो कर मेरी पीठ थपथपाई और 500 रुपए का नोट मेरे हाथ में थमा कर कहा, ‘इस के फल खरीद कर ले आओ और रोज खाया करो. अपनी सेहत का खयाल रखो.’

अंजली दीदी ने मिर्च लगाई, ‘डैडी, आप देख लेना, 500 रुपए यह धुएं में उड़ा देगा.’ अब मैं ने अपनेआप को वचन दिया, ‘अंजली दीदी को सबक सिखा के रहूंगा.’ लेकिन वे इतनी चालाक थीं कि हर बार बच कर निकल जातीं.

मुश्किल से 3 दिन मैं ने अपने वादे पर अमल किया. मेरे दोस्त सिगरेट फूंकते तो उस की खुशबू सूंघ कर ही मैं इत्मिनान कर लेता. लेकिन फिर मुझ से सब्र न हुआ और चौथे दिन पूरी डब्बी खरीद कर फूंक डाली. सिगरेट पीने वाले जानते हैं कि जब तलब लगती हैं तब इंसान बेचैनी से कैसे फड़फड़ाता है.

कालेज की छुट्टियां शुरू हो गईं. गरमियों के दिन थे और लू चलती थी, इसलिए बाहर जाने का मन नहीं करता था. एक दिन दोपहर में जब सब सो रहे थे, मौका देख कर मैं चुपचाप बाथरूम में गया, अंदर से कुंडी लगाई और सिगरेट सुलगा ली. बड़े आराम से कमोड पर बैठ कर सिगरेट पीता रहा और सोचा, ‘वाह, क्या जगह ढूंढ़ निकाली है मैं ने.’ लेकिन जब बाथरूम से निकलने के लिए दरवाजा खोलने लगा तो दिल धक से रह गया. किसी ने बाहर से कुंडी लगा दी थी. हमारे बाथरूम का एक दरवाजा आंगन की तरफ खुलता था, मैं ने वह खोलना चाहा लेकिन उस की भी बाहर से कुंडी लगी हुई थी. दरवाजा खटखटा कर मैं ने जोर से पुकारा तो बाहर से अंजली दीदी की आवाज आई, ‘बदतमीज, तुम कभी नहीं सुधरोगे. तुम्हारी यह हिम्मत कि घर में भी सिगरेट पीना शुरू कर दिया. अब डैडी ही आ कर खोलेंगे यह दरवाजा.’

मैं ने बहुत मिन्नत की, माफी मांगी, कसमें भी खाईं लेकिन दीदी का दिल नहीं पसीजा. मदद के लिए मैं ने मम्मी को पुकारा लेकिन उन्हें भी मुझ पर तरस नहीं आया. चीख कर बोलीं, ‘तेरी यही सजा है.’

शाम को डैडी ने घर लौट कर जब दरवाजा खोला तब तक मैं बाथरूम की गरमी से निढाल हो चुका था. तिस पर डैडी ने आव देखा न ताव, गिन कर पूरे 4 थप्पड़ मेरे मुंह पर जड़ दिए. 1 घंटे तक मम्मी की डांट सुननी पड़ी सो अलग. सिर्फ अंजली दीदी ही नहीं, पूरा घर मेरा दुश्मन बन चुका था. उन्होंने सोचा कि इतने थप्पड़ खाने के बाद अब मैं सुधर जाऊंगा, लेकिन मैं भी बहुत जिद्दी हूं. तपती हुई धूप में घर से बाहर जा कर सिगरेटें फूंकता रहता.

एक दिन डैडी ने मुझे रास्ते के किनारे सिगरेट पीते हुए देख लिया. उसी वक्त मुझे गाड़ी में बिठा कर अपने साथ ले गए और घर से थोड़े फासले पर गाड़ी रोक कर बोले, ‘लोग सारी जिंदगी सिगरेट पीने के बाद भी यह आदत छोड़ देते हैं. फिर तुम क्यों नहीं छोड़ सकते यह गंदी आदत? तुम्हें जो चाहिए वह तुम्हें मिलेगा, बस तुम सिगरेट पीना छोड़ दो.’

उसी समय सामने वाली सड़क पर चमचमाती हुई मोटरबाइक आ कर रुकी. ललचाई नजरों से बाइक को देखते हुए मैं ने डैडी से कहा, ‘मुझे मोटरबाइक दिला दीजिए, मैं सिगरेट पीना छोड़ दूंगा.’ मुझे पूरा यकीन था कि डैडी इनकार कर देंगे. लेकिन मैं हैरत से चक्कर खा गया जब डैडी ने बड़े ही शांत लहजे में कहा, ‘अगर तुम इसी शर्त पर सिगरेट छोड़ोगे तो मुझे तुम्हारी यह शर्त भी मंजूर है.’

जिस दिन मोटरबाइक मेरे हाथ आई उस दिन अपने 2 यारों को साथ बिठा कर पूरे शहर में उड़ता फिरा और फिर जश्न मनाने हम पांडेजी की दुकान पर पहुंच गए. कोल्ड ड्रिंक के बाद सिगरेट और पान के बाद फिर सिगरेट. बुरा भी लग रहा था कि डैडी को धोखा दे रहा हूं लेकिन फिर अपने मन को समझाया कि बस यह आखिरी सिगरेट है, इस के बाद नहीं पीऊंगा. लेकिन फिर हर सिगरेट आखिरी सिगरेट बनती गई और यह सिलसिला चलता रहा.

मम्मी और डैडी अंजली दीदी की शादी को ले कर काफी चिंतित रहा करते थे. मैं भी दुआएं मांगता था कि यह बला जल्दी टले ताकि मुझे भी आजादी मिले. चंद महीनों की तलाश के बाद एक मुनासिब रिश्ता आया और अंजली दीदी का ब्याह तय हो गया. हमारे घर में यह पहली शादी थी इसलिए खूब धूम मची हुई थी. ब्याह के लिए जेवरात और कपड़ों की खरीदारी शुरू हो गई. उस गहमागहमी और खुशी के माहौल में मेरा जुर्म सब भूल गए. अंजली दीदी भी मुझ से हंसहंस कर बात करने लगीं. छोटेबड़े हर काम के लिए मेरी खुशामद करतीं, कभी चंदू भाई टेलर तो कभी मगन भाई सुनार के पास जाना होता और मैं दौड़दौड़ कर वे सारे काम कर देता. अब वे अपनेआप में इतनी मगन रहतीं कि मैं अपने कमरे में बैठ कर सिगरेट फूंकता तब भी उन्हें पता न चलता.

घर के आंगन में बरातियों के लिए शामियाना लगाया गया. रौनक बढ़ाने के लिए रंगबिरंगे फूल और नीलेपीले बल्ब भी लगाए गए. जैसेजैसे शादी का दिन नजदीक आने लगा, रिश्तेदारों और मेहमानों की चहलपहल बढ़ने लगी. कोई सहारनपुर से तो कोई भोपाल से. अंजली दीदी की सहेलियों ने तो घर पर धावा ही बोल दिया था. स्कूल से ले कर कालेज तक की सारी सहेलियां मौजूद थीं. दिन भर उन के हंसने और खिलखिलाने की आवाजें घर में गूंजती रहतीं. मैं शादी की भागदौड़ में मसरूफ रहता, लेकिन इस बीच जब कोई सुंदर चेहरा नजर आता तब थोड़ी सी थकान दूर हो जाती.

जिस कमरे में अंजली दीदी हलदी की रस्म के बाद बैठी थी, वहां से नाचगाने और ढोलक की आवाजें आतीं और मैं छिप कर झरोखे से उन्हें निहारता रहता. लड़कियां झूमझूम कर नाचतीं और मधुर गीत गातीं. उन सब में एक लड़की बहुत सुंदर थी. पता चला कि उस का नाम बांसुरी है. वह भोपाल से आई है और डैडी के एक दोस्त की बेटी है. उस का कद लंबा था, रंग सांवला, लंबीलंबी पलकें, बहुत ही आकर्षक चेहरा, छुईमुई जैसी इतनी प्यारी कि छू लेने को दिल चाहे.

रोज की तरह उस दिन भी जोरजोर से नए फिल्मी गाने बज रहे थे और आंगन में बच्चे नाच रहे थे. बच्चों ने जिद की तो मैं भी उन के साथ नाच में शामिल हो गया. नाचतेनाचते मैं खो गया और मन की आंखों से सोचने लगा कि बांसुरी इन गानों पर नाचती हुई कैसी दिखेगी. अचानक किसी की आवाज आई, ‘ओ भाईसाब, यह क्या हो रहा है?’

मैं ने आंखें खोल कर देखा तो चौंक पड़ा. बांसुरी मेरे सामने खड़ी थी. मैं ने सोचा कि मैं सपना देख रहा हूं और मैं ने फिर से आंखें बंद कर लीं. इस बार उस ने मेरे कंधे पर हलकी सी चपत लगाई और बोली, ‘नींद में हो क्या? मैं तुम से कह रही हूं.’

मैं ने बहुत नरमी से पूछा, ‘कुछ काम है मुझ से?’ वह तुनक कर बोली, ‘ये कैसे गाने लगा रखे हैं जिन की एक लाइन भी समझ में नहीं आती. यों लगता है जैसे दीवाली के पटाखों से डर कर कोई कुत्ता भौंक रहा है. मीठेमीठे पुराने गाने बजाओ. और ये जो नए गाने हैं न, ये तुम अपनी शादी में बजाना.’

वह पलट कर जाने लगी तो मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘एक शर्त पर, जिस दिन मेरा ब्याह तुम्हारे साथ होगा उस दिन तुम्हारी पसंद के गाने बजेंगे, बल्कि तुम कहो तो मैं तुम्हें पुराने गाने गा कर भी सुनाऊंगा.’

उस ने घूर कर देखा और मेरा हाथ झटक कर वह भाग गई, लेकिन फिर दरवाजे के पास जा कर मुड़ी और मुसकरा कर मुझे देखने लगी. मेरा दिल इतने जोर से धड़का जैसे अभी उछल कर बाहर आ जाएगा. यह दिल कम्बख्त है ही ऐसी चीज. जरा सी खुशी मिली नहीं कि धड़कने लगता है, वह भी जोरों से.

जब पुराने गीत बजने लगे तब मैं उसे झरोखों से छिपछिप कर देखता रहा. वह बारबार कनखियों से मुझे देखती और लहरालहरा कर नाचती रही. उस ने महफिल में ऐसा रंग जमाया कि मम्मी ने कहा, ‘तेरा ब्याह जल्द हो जाए और ऐसा पति मिले जो तुझे हमेशा खुश रखे.’ वह मेरी ओर देख कर धीरे से मुसकराई और उस रात मैं उसी के सपने देखता रहा. सपने में वह मेरी दुलहन थी और मैं उस का दूल्हा.

अगले दिन बड़ी चहलपहल थी. अंजली दीदी का ब्याह होना था. घर के पिछवाड़े हलवाई खाना बना रहे थे. डैडी ने मेरी ड्यूटी वहां लगा दी थी. बांसुरी अचानक वहां आ धमकी और मुझे देख कर बोली, ‘अंजली दीदी का संदेशा लाई हूं तुम्हारे लिए. उन्होंने कहा है, नमकमिर्च का खयाल रखना, अगर जरा भी ऊंचनीच हो गई न, तो तुम्हारी खैर नहीं.’

बांसुरी की आवाज में ऐसी खनक थी कि वह गाली भी दे तो मीठी लगे. मैं ने मुसकरा कर पूछा, ‘तुम्हें खाना पकाना आता है या नहीं?’

उस की भवें तन गईं, ‘क्यों पूछ रहे हो?’

मैं शरारत से बोला, ‘बड़ी खास वजह है इसीलिए पूछ रहा हूं. वैसे तुम्हें यह भी बता दूं कि अगर तुम्हें खाना पकाना नहीं आता हो तब भी चिंता की कोई बात नहीं. जब हमारा ब्याह हो जाएगा तब इन बेचारे हलवाइयों को अपने घर में नौकरी दे देंगे तो इन की रोजीरोटी का बंदोबस्त भी हो जाएगा.’

वह जोर से हंसी, ‘तुम से ब्याह करे मेरी जूती.’

बैंड बाजे के साथ बरात आई तो हर कोई दूल्हे को देखने बरामदे में आ गया. धक्कामुक्की और आपाधापी में पता ही नहीं चला कि बांसुरी चुपके से आ कर कब मेरे पास खड़ी हो गई. नरमनरम गुदाज जिस्म मेरी बांह से टकराया तो मैं ने चौंक कर उसे देखा. लेकिन वह ऐसी अनजान बन गई जैसे उस ने मुझे देखा ही न हो. मौके का फायदा उठा कर मैं ने उस का हाथ मजबूती से अपने हाथ में पकड़ लिया. पहले तो उस ने अपने दोनों हाथ अपने दुपट्टे में छिपा लिए फिर मेरे बाजू पर ऐसी खतरनाक चुटकी काटी कि मेरे मुंह से आह निकल गई.

समय अपनी गति से चलता रहा. शामियाने में पंडितजी के मंत्र गूंजने लगे. ब्याह के फेरों का समय हो चला था. अपनी सहेलियों से घिरी अंजली दीदी धीरेधीरे शामियाने की ओर बढ़ने लगीं. जरीदार साड़ी और गहनों में लिपटी हुई कितनी सुंदर लग रही थीं मेरी दीदी. मैं उन्हें एकटक देखता रहा और यह सोच कर कि अब वे इस घर से चली जाएंगी, मेरी आंखें डबडबा गईं. उन्होंने मुझे मम्मीडैडी से बहुत डांट खिलवाई थी, पिटवाया भी था मुझे, ताने भी दिए थे, लेकिन हैं तो आखिर मेरी बहन. अचानक डैडी की आवाज मेरे कानों में गूंजी, ‘यह क्या हुलिया बना रखा है तुम ने? अभी तक तैयार नहीं हुए? जाओ, कपड़े बदल कर आओ.’ मैं सरपट अपने कमरे की तरफ भागा.

कमरे में दाखिल होते ही मैं ठिठक गया. बांसुरी अलमारी के आईने के सामने खड़ी हो कर जेवर पहन रही थी. मुझे देख कर वह जरा भी नहीं चौंकी बल्कि डांट कर बोली, ‘यह क्या मुंह उठाए चले आ रहे हो? इतनी भी तमीज नहीं कि दरवाजे पर दस्तक दे कर अंदर आओ.’ उसे वहां देख कर मेरे होशोहवास तो जैसे गुम हो गए थे. वह बला की हसीन लग रही थी, जैसे आसमान से उतर कर कोई अप्सरा धरती पर आ गई हो. मैं बेशर्मी से उसे घूरता रहा और मैं ने पहली बार देखा कि वह भी कुछ सकपका सी गई है. मैं धीरेधीरे उस के नजदीक गया और घुटी हुई आवाज में बोला, ‘तुम कितनी सुंदर हो, मैं ने आज तक इतनी सुंदरता कहीं नहीं देखी.’

अपनी तारीफ सुन कर उस के चेहरे पर हलकी सी मुसकराहट आ गई. वह अपनी जगह से नहीं हिली, बस मेरी आंखों में आंखें डाल कर मुझे देखती रही. बेखुदी के आलम में मैं उस की ओर खिंचता चला गया, इतने पास कि उस की गर्म सांसें अपने गालों पर महसूस करने लगा. उस के होंठ धीरे से खुले और उस ने अपनी आंखें मूंद लीं. मेरे शरीर में कंपकंपी सी होने लगी. ऐसी कैफियत मैं ने पहले कभी महसूस नहीं की थी. मैं ने अपने दोनों हाथ उस के कंधों पर रखे और मैं उस के होंठों को चूमने ही वाला  था कि वह अचानक पीछे हटी, ‘तुम सिगरेट पीते हो?’

पहले तो मेरी समझ में नहीं आया कि वह बोल क्या रही है. मैं हक्काबक्का सा उसे देखता रहा और वह गुस्से से बोली, ‘दूर हटो मुझ से. नफरत है मुझे सिगरेट पीने वालों से. कितनी गंदी बदबू आ रही है तुम्हारे मुंह से.’

मैं इस अचानक हमले से संभल भी नहीं पाया था कि वह कमरे से बाहर चली गई और मैं सिर झुकाए शर्मिंदा सा वहीं खड़ा रह गया.

अगले दिन वह भोपाल वापस चली गई.

वह दिन और आज का दिन, मैं ने सिगरेट कभी नहीं पी. आज भी जब कोई मेरे सामने सिगरेट सुलगाता है तो मेरा मन करता है कि उस के हाथ से सिगरेट छीन कर दो कश लगा लूं, लेकिन अब यह मुमकिन नहीं, क्योंकि उस हादसे के बाद जब मैं बांसुरी से मिलने भोपाल पहुंचा तो बांसुरी इसी शर्त पर मुझ से शादी करने के लिए राजी हुई कि मैं सिगरेट कभी नहीं पीऊंगा. अब आप ही बताइए, जिस लड़की को पाने की खातिर मैं ने अपना दिल-ओ-जान कुरबान कर दिया था, उस की खातिर क्या मैं सिगरेट की कुरबानी नहीं दे सकता?

Raksha Bandhan 2024 : ये दिलचस्प कहानियां जो बताती हैं, ‘भाईबहन के रिश्ते के क्या है मायने’

Raksha Bandhan Stories in Hindi: भाईबहन का रिश्ता कितना प्यारा होता है न.. इस रिश्ते में मीठी तकरार से लेकर लड़ाईझगड़े और प्यार सबकुछ होता है. इस रिश्ते को लेकर फनी, इमोशनल हर तरह की किस्से कहानियां लिखी गई हैं. ऐसे में हम आपके लिए लेकर आए हैं  गृहशोभा की 10 Raksha Bandhan Stories in Hindi 2024. इस आर्टिकल में भाईबहन के प्यार और रिश्तों से जुड़ी  दिलचस्प कहानियां हैं जो आपके दिल को छू लेगी और इस रिश्ते से जुड़े कई नई चीजें आप जान सकते हैं.

अगर आपको भी कहानियां पढ़ने का शौक हैं, तो गृहशोभा पर भाईबहन के इन दिलचस्प कहानियों को पढ़कर इस राखी को यादगार बनाएं. 

1. अंतत- क्या भाई के जुल्मों का जवाब दे पाई माधवी

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बैठक में तनावभरी खामोशी छा गई थी. हम सब की नजरें पिताजी के चेहरे पर कुछ टटोल रही थीं, लेकिन उन का चेहरा सपाट और भावहीन था. तपन उन के सामने चेहरा झुकाए बैठा था. शायद वह समझ नहीं पा रहा था कि अब क्या कहे. पिताजी के दृढ़ इनकार ने उस की हर अनुनयविनय को ठुकरा दिया था.

सहसा वह भर्राए स्वर में बोला, ‘‘मैं जानता हूं, मामाजी, आप हम से बहुत नाराज हैं. इस के लिए मुझे जो चाहे सजा दे लें, किंतु मेरे साथ चलने से इनकार न करें. आप नहीं चलेंगे तो दीदी का कन्यादान कौन करेगा?’’

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2. कन्यादान- भाई और भाभी का क्या था फैसला

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अनिरुद्ध घर के अंदर घुसते हुए मंजुला से बोले, ‘‘मैडम, आप के भाईसाहब ने श्रेयसी के कन्यादान की तैयारी कर ली है.’’ ‘‘क्या?’’ ‘‘उन्होंने उस की शादी का कार्ड भेजा है.’’ ‘‘क्या कह रहे हैं, आप?’’ चौंकती हुई मंजुला बोली, ‘‘क्या श्रेयसी की शादी तय हो गई है?’’ ‘‘जी मैडम, निमंत्रणकार्ड तो यही कह रहा है.’’ मंजुला ने तेजी से कार्ड खोल कर पढ़ा और उसे खिड़की पर एक किनारे रख दिया. फिर बुदबुदाई, ‘भाईसाहब कभी नहीं बदलेंगे.’ उस के चेहरे पर उदासी और खिन्नता का भाव था

‘‘क्या हुआ? तुम श्रेयसी की प्रस्तावित शादी की खबर सुन कर खुश नहीं हुई?’’ ‘‘आप तो बस.’’ तभी बहू छवि चाय ले कर ड्राइंगरूम में आई, ‘‘पापाजी, किस की शादी का कार्ड है?’’

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3. चमत्कार- क्या बड़ा भाई रतन करवा पाया मोहिनी की शादी?

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‘‘मोहिनी दीदी पधार रही हैं,’’ रतन, जो दूसरी मंजिल की बालकनी में मोहिनी के लिए पलकपांवडे़ बिछाए बैठा था, एकाएक नाटकीय स्वर में चीखा और एकसाथ 3-3 सीढि़यां कूदता हुआ सीधा सड़क पर आ गया.

उस के ऐलान के साथ ही सुबह से इंतजार कर रहे घर और आसपड़ोस के लोग रमन के यहां जमा होने लगे. ‘‘एक बार अपनी आंखों से बिटिया को देख लें तो चैन आ जाए,’’ श्यामा दादी ने सिर का पल्ला संवारा और इधरउधर देखते हुए अपनी बहू सपना को पुकारा.

‘‘क्या है, अम्मां?’’ मोहिनी की मां सपना लपक कर आई थीं. ‘‘होना क्या है आंटी, दादी को सिर के पल्ले की चिंता है. क्या मजाल जो अपने स्थान से जरा सा भी खिसक जाए,’’ आपस में बतियाती खिलखिलाती मोहिनी की सहेलियों, ऋचा और रीमा ने व्यंग्य किया था.

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4. समय चक्र- अकेलेपन की पीड़ा क्यों झेल रहे थे बिल्लू भैया?

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शिमला अब केवल 5 किलोमीटर दूर था…य-पि पहाड़ी घुमाव- दार रास्ते की चढ़ाई पर बस की गति बेहद धीमी हो गई थी…फिर भी मेरा मन कल्पनाओं की उड़ान भरता जाने कितना आगे उड़ा जा रहा था. कैसे लगते होंगे बिल्लू भैया? जो घर हमेशा रिश्तेदारों से भरा रहता था…उस में अब केवल 2 लोग रहते हैं…अब वह कितना सूना व वीरान लगता होगा, इस की कल्पना करना भी मेरे लिए बेहद पीड़ादायक था. अब लग रहा था कि क्यों यहां आई और जब घर को देखूंगी तो कैसे सह पाऊंगी? जैसे इतने वर्ष कटे, कुछ और कट जाते.

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5. इंसाफ- नंदिता ने कैसे निभाया बहन का फर्ज

नंदिता ने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस छोटे भाई को पढ़ा- लिखा कर उस ने अफसर की कुरसी तक पहुंचाया है, एक अच्छे परिवार में शादी करवा कर जिस की गृहस्थी बसाई है वही भाई उस के साथ ऐसा बरताव करेगा. उस ने नया फ्लैट खरीदने के लिए डेढ़ लाख रुपए देने से इनकार ही तो किया था. उस ने तब उस को समझाया भी था कि हमारा यह पुश्तैनी मकान है. अच्छे इलाके में है. 2 परिवार आराम से रह सकें, इतनी जगह इस में है. तब नवीन ने बड़ी बहन के प्रति आदरभाव को तारतार करते हुए कह डाला, ‘दीदी, मां और बाबूजी के साथ ही इस पुराने मकान की रौनक भी चली गई है. अब यह पलस्तर उखड़ा मकान हमें काटने को दौड़ता है. मोनिका तो यहां एक दिन भी रहना नहीं चाहती. मायके में वह शानदार मकान में रहती थी. कहती है कि इस खंडहर में रहना पड़ेगा, उस को यह शादी के पहले मालूम होता तो वह मुझ से शादी भी नहीं करती. वह सोतेजागते नया फ्लैट खरीदने की रट लगाए रहती है. आखिर, मैं उस के तकाजे को कब तक अनसुना करूं.’

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6. क्या खोया क्या पाया : क्या वापस पा सकी संध्या

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इस बार जब मैं मायके गई तब अजीब सा सुखद एहसास हुआ मुझे. मेरे बीमार पिता के पास मेरी इकलौती मौसी बैठी थीं. वह मुझे देख कर खुश हुईं और मैं उन्हें देख कर हैरान. यह मेरे लिए एक सुखद एहसास था क्योंकि पिछले 18 साल से हमारा उन से अबोला चल रहा था. किन्हीं कारणों से कुछ अहं खड़े कर लिए थे हमारे परिवार वालों ने और चुप होतेहोते बस चुप ही हो गए थे.

जीवन में ऐसे सुखद पल जो अनमोल होते हैं, हम ने अकेले रह कर भोगे थे. उन के बेटों की शादियों में हम नहीं गए थे और मेरे भाइयों की शादी में वे नहीं आए थे. मौसा की मौत का समाचार मिला तो मैं आई थी. पराए लोगों की तरह बैठी रही थी, सांत्वना के दो शब्द मेरे मुंह से भी नहीं निकले थे और मौसी ने भी मेरे साथ कोई बात नहीं की थी.

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7. भाई का  बदला: क्या हुआ था रीता के साथ

रोशनलाल का बंगला रंगबिरंगी रोशनी से जगमगा रहा था. उन के घर में उन के जुड़वे बच्चों का जन्मोत्सव था. बंगले की बाउंड्री वाल के अंदर शामियाना लगा था जिस के मध्य में उन की पत्नी जानकी देवी सजीधजी दोनों बेटों को गोद में लिए बैठी थीं. उन की चारों तरफ गेस्ट्स कुरसियों पर बैठे थे. कुछ औरतें गीत गा रही थीं. गेट के बाहर हिजड़ों का झुंड था, मानो पटना शहर के सारे हिजड़े वहीँ जुट गए थे. उन में कुछ ढोल बजा रहे थे और कुछ तालियां. सभी मिल कर सोहर गा रहे थे- “ यशोदा के घर आज कन्हैया आ गए…”

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8. सांझा दुख- क्यों थी भाई-बहन के रिश्ते में कड़वाहट

नंदिता ने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस छोटे भाई को पढ़ा- लिखा कर उस ने अफसर की कुरसी तक पहुंचाया है, एक अच्छे परिवार में शादी करवा कर जिस की गृहस्थी बसाई है वही भाई उस के साथ ऐसा बरताव करेगा. उस ने नया फ्लैट खरीदने के लिए डेढ़ लाख रुपए देने से इनकार ही तो किया था. उस ने तब उस को समझाया भी था कि हमारा यह पुश्तैनी मकान है. अच्छे इलाके में है. 2 परिवार आराम से रह सकें, इतनी जगह इस में है.

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9. मुझे जवाब दो- क्या शोभा अपने भाई को समझा पाई

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‘‘प्रिय अग्रज, ‘‘माफ करना, ‘भाई’ संबोधन का मन नहीं किया. खून का रिश्ता तो जरूर है हम दोनों में, जो समाज के नियमों के तहत निभाना भी पड़ेगा. लेकिन प्यार का रिश्ता तो उस दिन ही टूट गया था जिस दिन तुम ने और तुम्हारे परिवार ने बीमार, लाचार पिता और अपनी मां को मत्तैर यानी सौतेला कह, बांह पकड़ कर घर से बाहर निकाल दिया था. पैसे का इतना अहंकार कि सगे मातापिता को ठीकरा पकड़ा कर तुम भिखारी बना रहे थे.

‘‘लेकिन तुम सबकुछ नहीं. अगर तुम ने घर से बाहर निकाला तो उन की बांहें पकड़ सहारा देने वाली तुम्हारी बहन के हाथ मौजूद थे. जिन से नाता रखने वाले तुम्हारे मातापिता ने तुम्हारी नजर में अक्षम्य अपराध किया था और यह उसी का दंड तुम ने न्यायाधीश बन दिया था.

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10. सीमा रेखा: जब भाई के लिए धीरेन भूल गया पति का फर्ज

‘‘सोमू, उठ जाओ बाबू…’’ धीरेन दा लगातार आवाज दिए जा रहे थे जिस से रूपल की नींद में बाधा पड़ने लगी तो वह कसमसाती हुई सोमेन के आगोश से न चाहते हुए भी अलग हो गई और पति सोमेन को लगभग धकियाती हुई बोली, ‘‘अब जाओ, उठो भी, नहीं तो तुम्हारे दादा सुबहसुबह पूरे घर को सिर पर उठा लेंगे. छुट्टी वाले दिन भी आराम नहीं करने देते.’’

सोमेन अंगड़ाई लेता हुआ उठ बैठा और ‘आया दादा’ कहता हुआ बाथरूम की ओर लपका. जब फे्रश हो कर जोगिंग करने के लिए टै्रकसूट और जूते पहन कर कमरे से बाहर निकला तो दादा रोज की तरह गरम चाय लिए उस का इंतजार करते मिले.

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तोसे लागी लगन: क्या हो रहा था ससुराल में निहारिका के साथ

मनोविज्ञान की छात्रा निहारिका सांवलीसलोनी सूरत की नवयुवती थी. तरूण से विवाह करना उस की अपनी मरजी थी, जिस में उस के मातापिता की रजामंदी भी थी. तरूण हैदराबाद का रहने वाला था और निहारिका लखनऊ की. दोनों दिल के रिश्ते में कब बंधे यह तो वे ही जानें.

सात फेरों के बंधन में बंध कर दोनों एअरपोर्ट पहुंचे. हवाईजहाज ने जब उड़ान भरी तो निहारिका ने आंखे बंद कर लीं और कस कर तरूण को थाम लिया। स्थिति सामान्य हुई तो लज्जावश नजरें झुक गईं पर तरुण की मंद मुसकराहट ने रिश्ते में मिठास घोल दी थी.

“हम पग फेरे के लिए इसी हवाई जहाज से वापस आएंगे,” निहारिका ने आत्मियता से कहा.

“नहीं, अब आप कहीं नहीं जाएंगी, हमेशाहमेशा मेरे पास रहेंगी,” तरूण ने निहारिका के कंधे पर सिर रखते हुए कहा.

सैकड़ों की भीड़ में नवविवाहिता जोड़ा एकदूसरे की आंखों में खोने लगा था.

तरूण की मां ने पड़ोसियों की मदद से रस्मों को निभाते हुए निहारिका का गृहप्रवेश करवाया. घर में बस 3 ही
सदस्य थे. शुरू के 2-4 दिन वह अपने कमरे में ही रहती थी फिर धीरेधीरे उस ने पूरा घर देखा। पूरा घर पुरानी कीमती चीजों से भरा पङा था। एक कोने में कोई पुरानी मूर्ति रखी हुई थी. निहारिका ने उसे हाथ में उठाया ही था कि पीछे से आवाज आई,”क्या देख रही हो, चुरा मत लेना।”

आवाज में कड़वाहट घुली हुई थी. निहारिका ने पीछे मुड़ कर देखा, तरूण की मां खड़ी थीं.

“नहीं मम्मीजी, बस यों ही देख रही थी,” निहारिका ने सहम कर जबाव दिया.

ससुराल में पहली बार इस तरह का व्यवहार… उस का मन भारी हो गया. मां की याद आने लगी. रात को बातों ही बातों में तरूण के सामने दिन वाले घटना का जिक्र हो आया.

“हां वे थोड़ी कड़क मिजाज हैं… पर प्लीज, तुम उन की किसी बात को दिल पर मत लेना। वे दिल की बेहद अच्छी हैं,” तरुण अपनी तरफ से निहारिका को बहलाने लगा.

एक दिन दोपहर को जब निहारिका लेटी हुई कोई पत्रिका पढ़ रही थी तभी तरूण की मां मनोहरा देवी उस के कमरे में आईं. उन्हें देख वह उठ कर बैठ गई। उस के बाद सासबहु में इधरउधर की बातें हुईं, बातों ही बातों में निहारिका के गहनों का जिक्र हो आया तो निहारिका खुशी से उन्हें गहने दिखाने लगीं. बातों का सिलसिला चलता रहा। करीब आधे
घंटे बाद जब निहारिका गहनों को डब्बे में डालने लगीं तो सोने के कंगन गायब थे. वह परेशान हो कर उसे ढूंढ़ने लगी.

आश्चर्य भी हो रहा था उसे। सासुमां से कुछ पूछे इतनी हिम्मत कहां थी उस में. रात को तरूण से बताया तो उस ने भी ज्यादा तवज्जो नहीं दी.

“तुम औरतें केवल पहनना जानती हो, यहीं कहीं रख कर भूल गईं होगी। मिल जाएंगे। अभी सो जाओ,” दिनभर का थका हुआ तरूण करवट बदल कर सो गया.

‘नईनवेली दुलहन का ज्यादा बोलना भी ठीक नहीं,’ यह सोच कर निहारिका चुपचाप रह गई.

लेकिन वह मनोविज्ञान की छात्रा थी। अनकहे भावों को पढ़ना जानती थी, पर कहे किस से? तरूण के बारे में सोचते ही कंगन बेकार लगने लगे. लेकिन अगले ही दिन घर में सोने की एक और मूर्ति दिखाई दिए.

“मम्मीजी, बहुत सुंदर है यह मूर्ति। कहां से खरीद कर लाईं आप?” निहारिका ने तारीफ करते हुए पूछा.

“कहीं से भी, तुम से मतलब…” मनोहरा देवी ने तुनक कर जवाब दिया.

निहारिका स्तब्ध रह गई.

15 दिन के अंदरअंदर उस के नाक की नथ कहीं गुम हो गई थी. पानी सिर के ऊपर जा रहा था. तरूण कुछ सुनने को तैयार न था। स्थिति दिनबदिन बिगड़ती जा रही थी.

एक दिन दोपहर के भोजन के बाद सभी अपनेअपने कमरे में आराम करने गए। उस वक्त मनोहरा देवी पूरे गहने पहन कर स्वयं को आईने में निहार रही थीं। तरहतरह के भावभंगिमा कर रही थीं. संयोगवश उसी वक्त निहारिका किसी काम से उन के पास आना चाहती थी. अपने कमरे से निकली ही थी कि खिड़की से ही उसे वह मंजर दिख गया.

उस वक्त उन के शरीर पर वे गहने भी थे जो उस के डब्बे से गायब हुए थे. शक को यकीन में बदलते देख निहारिका सिहर उठी। उस ने चुपके से 1-2 तसवीरें ले लीं।

रात को डिनर खत्म करने के बाद…

“तरूण, मुझे कुछ गहने चाहिए थे…” निहारिका अभी वाक्य पूरा भी नहीं कर पाई थी कि तरूण बोला,”मेरी खूबसूरत बीबी को गहनों की क्या जरूरत है? सच कह रहा हूं नीरू, तुम बहुत बहुत खूबसूरत हो।”

पर तरुण की बातें अभी उसे बेमानी लग रही थीं क्योंकि वह जहां पहुंचना चाहती वह रास्ता ही तरुण ने बंद कर
दिया था. हार कर निहारिका ने वे फोटोज दिखाए जिसे देखते ही तरुण उछल पड़ा। उस की आंखें आश्चर्य से फैल गईं।

“मम्मी के पास इतने गहने हैं, मुझे तो पता ही नहीं था,” तरूण ने आश्चर्य से फैली आंखों को सिकोड़ते हुए कहा.

“नहीं यह अच्छी बात नहीं है। तरूण, तुम ने शायद देखा नहीं। इन में वे गहने भी हैं जो मेरे डब्बे से गायब हुए थे,” निहारिका ने उस की आंखों में आंखें डाल कर कहा.

मामला संजीदा था लेकिन उसे दबाना और भी मुश्किल स्थिति को जन्म दे
सकता था.

“मां के गहने यानी तुम्हारे गहने…” तरूण को शर्मिंदगी महसूस हो रही थी तो उस ने बात को टालते हुए कहा.

“तरूण, तुम क्यों समझना नहीं चाहते या फिर…” निहारिका उस के चेहरे पर आ रहे भाव को पढ़ने की कोशिश करने लगी, क्योंकि जो बात सामने आ रही थी वह अजीब सी थी.

“या फिर क्या…” तरूण ने तैश से कहा.

“यही कि तुम जानबूझ कर कुछ छिपाना चाहते हो,” निहारिका ने गंभीर आवाज में कहा.

“मैं क्या छिपा रहा हूं?”

निहारिका चुप रही।

“बोलो नीरू, मैं क्या छिपा रहा हूं?”

“यही कि मम्मी जी क्लाप्टोमैनिया की शिकार हैं…”

“क्या… यह क्या होता है?” तरुण ने कभी नहीं सुना था यह नाम.

“यह एक तरह की बीमारी है। इस बीमारी में व्यक्ति चीजें चुराता है और भूल जाता है,” निहारिका एक ही सांस में सारी बातें कह गई.

“देखो नीरू, मैं मानता हूं मेरी मां बीमार हैं पर चोरी… तरूण बौखला गया.

“वे चोर नहीं हैं। प्लीज मुझे गलत मत समझो,” निहारिका ने अपनी सफाई दी.

“तुम्हें पग फेरे के लिए घर जाना था न, बताओ कब जाना है?” तरूण बहस को और बढ़ाना नहीं चाहता था.

निहारिका स्तब्ध रह गई.

दोनों ने करवट फेर ली लेकिन नींद किसी के आंखों में न थी. तरूण ने वापस जाने के लिए कह दिया था। सपनों में जो ‘होम स्वीट होम’ का सपना था वह टूट कर चकनाचूर हो गया था.

निहारिका ने हार नहीं मानी। उस ने अपने प्रोफैसर साहब से बात की,”सर, मुझे आप की मदद चाहिए,” निहारिका का दृढ़ स्वर बता रहा था कि वह अपने काम के प्रति कितनी संकल्पित है.

“अवश्य मिलेगी, काम तो बताओ,” प्रोफेसर की आश्वस्त करने वाली आवाज ने निहारिका को निस्संकोच हो अपनी बात रखने का हौसला दिया। इस से पहले वह अपराधबोध से दबी जा रही थी.

“सर, मेरी सासूमां यहांवहां से चुरा कर वस्तुएं ले आती हैं और पूछे जाने पर इनकार कर देती हैं,” निहारिका के आंसुओं ने अनकही बात भी कह दी थी.

“घबराओ मत, धीरज से काम लो निहारिका। सब ठीक हो जाएगा। कभीकभी जीवन का एकाकीपन इस की वजह बन जाती है। आगे तुम खुद समझदार हो,” प्रोफैसर साहब ने रिश्ते की नाजुकता को समझते हुए कहा.

“क्लाप्टोमैनिया लाइलाज बीमारी नहीं, अपनापन और लगाव से इसे दूर किया जा सकता है,” प्रोफैसर साहब के आखिरी वाक्य ने निहारिका के मनोबल को बढ़ा दिया था. वह उन के द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करने लगी। इलाज का पहला कदम था गाढ़ी दोस्ती…

“मम्मीजी, आज से मैं आप के कमरे में आप के साथ रहूंगी, आप के बेटे से मेरी लड़ाई हो गई है,” निहारिका ने अपना तकिया मनोहरा देवी के बिस्तर पर रखते हुए कहा.

“रहने दो, बीच रात में उठ कर न चली गई तो कहना,” मनोहरा देवी ने अपना अनुभव बांटते हुए कहा.

“कुछ भी हो जाए नहीं जाउंगी,” निहारिका ने आत्मविश्वास से कहा.

रात में उन दोनों ने एकदूसरे के पसंद की फिल्में देखीं। धीरेधीरे दोनों एकदूसरे के करीब आने लगीं. मनोहरा देवी जब भी बाहर जाने के लिए तैयार होतीं तो निहारिका साथ चलने के लिए तैयार हो जाती या उन्हें अकेले जाने से रोक लेती। कभी मानमुनहार से तो कभी जिद्द से.

ऐसा नहीं था कि तरूण कुछ भी जानता नहीं था, कितनी बार उसे भी शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी पर मां तो आखिर मां है न… सबकुछ सह जाता था. मां को समझाने की कोशिश भी की पर बिजनैस की व्यस्तता की वजह से ध्यान बंट गया था। निहारिका की कोशिश रंग ला रही थी, यह बात उस से छिपी नहीं थी. अपनी नादानी पर शर्मिंदा भी था। अपने बीच
के मनमुटाव को कम करने के लिए निहारिका के पसंद की चौकलैट फ्लैवर वाली आइस्क्रीम लाया था जिसे अपने हाथों से खिला कर कान पकड़ कर माफी मांगी थी। उठकबैठक भी करने को तैयार था पर नीरू ने गले लगा कर रोक दिया
था.

“नीरू, तुम ने जिस तरह से मम्मी को संभाला है न उस के लिए तहेदिल से शुक्रगुजार हूं, तरूण ने नम आंखों से कहा.

“अभी नहीं, अभी हमें उन सभी चीजों की लिस्ट बनानी होगी जो मम्मीजी कहीं और से ले आई हैं, उन्हें लौटाना भी होगा,” निहारिका ने इलाज का दूसरा कदम उठाया.

“लौटाना क्यों है नीरू, इस से तो बात…” तरूण ने अपने घर की इज्जत की परवाह करते हुए कहा.

“लोगों को समझने दो। क्लापटोमेनिया एक बीमारी है, समाज को उन्हें उसी रूप में स्वीकारने दो, वे भी समाज का
हिस्सा हैं, कमरे में बंद रखना उपाय नहीं है,” निहारिका की 1-1 बात उस के आत्मविश्वास का परिचय दे रही
थी. निहारिका के रूप का दीवाना तो वह पहले से ही था पर आज अपनी मां के प्रति फिक्रमंद देख मन ही मन अपनी पसंद पर गर्व करने लगा था.
रातरात भर जाग कर दोनों ने उन सभी सामानों का लिस्ट बनाई जो घर के नहीं थे, सब को गिफ्ट की तरह रैपिंग किया। अंदर एक परची पर ‘सौरी’ लिख कर वस्तुओं को लोगों के घर तक पहुंचाया. पतिपत्नी दोनों ने
मिल कर मुश्किल काम को आसान कर लिया था. धीरेधीरे स्थिति सामान्य होने लगी थी.

मंगलवार की सुबह मम्मीजी को बाजार जाना था।

“मम्मी, तुम जल्दी से तैयार हो जाओ जाते वक्त छोड़ दूंगा,” तरूण ने नास्ता करते हुए कहा,

“नहींनहीं तुम जाओ, मैं नीरू के साथ चली जाउंगी।”

निहारिका ने तरुण की ओर देख कर अपनी पीठ अपने हाथों से थपथपाई।प्रतिउत्तर में तरूण ने हाथ जोड़ने का अभिनय किया. निहारिका मुसकरा दी।

तभी निहारिका की मम्मी का फोन आया,”बेटाजी, नीरू को मायके आए हुए बहुत दिन हो गए, पग फेरे के लिए भी नहीं आए आप दोनों, हो सके तो इस इस दशहरे में कुछ दिनों के लिए उसे छोड़ जाते,” निहारिका की मां अपनी बात एक ही सांस में कह गई थीं.

“माफी चाहूंगा मम्मीजी, लेकिन मेरी मम्मी अब नीरू के बगैर एक पल भी नहीं रहना चाहतीं, ऐसे में मैं उसे वहां
छोड़ना नहीं चाहता…” तरूण ने गर्व से कहा.

“कोई बात नहीं बेटाजी, बेटी अपने घर में खुश रहे, राज करे इस से ज्यादा और क्या चाहिए,” मां ने रुंधे गले से कहा और फोन रख दिया. तरूण के स्वर ने उसे उस घर में मुख्य भूमिका में ला दिया था. निहारिका का होम स्वीट होम का सपना साकार हो रहा था.

Raksha Bandhan 2024: सांझा दुख- क्यों थी भाई-बहन के रिश्ते में कड़वाहट

कोरोनाकाल चल रहा है. हम सब अपनेअपने घरों में लौकडाउन का पालन करते हुए भी डरे हुए हैं. पता नहीं कब किस को क्या हो जाए. एक ही तरह की दिनचर्या निभाते हुए मन की उल?ान और बढ़ती ही जा रही है. कब, कहां, और कैसे? हर मौत पर दिमाग में ये सवाल कौंध रहे हैं.

अरे, अभी उन से 10 दिनों पहले ही तो बात हुई थी और आज… विवशता, हताशा और पीड़ा का मिलाजुला रूप हम सब पर भारी है. कैसी महामारी है कि हम अपनों तक पहुंच नहीं पा रहे हैं जब उन को हमारी सब से ज्यादा जरूरत है.

स्पर्श, प्यार के दो बोल और सेवा के लिए तड़पते हमारे अपने, अकेले में किस से गुहार कर रहे होंगे? तकलीफ को सांझ कर मन शांत हो जाता है. हम ऐसी डरावनी बीमारी के खौफ से घिरे हैं कि उस के पास हम बैठ भी नहीं सकते जिस से हमारा जीवनभर का नाता है.

दूर से अपनों की परेशानी देख मन तड़प जाता है और एक टीस कि काश.. ऐसा नहीं होता. हमारे अपने बिछुड़ रहे हैं और ऐसी बिछुड़न, कि हम फिर से मिलने की आस भी नहीं संजो पा रहे हैं.

मेरे दिल में यही सब बातें चल रही थीं कि मां आ कर मेरे पास खड़ी हो गईं. नम आंखें बहुतकुछ कह रही थीं. मुझे सीने से लगाते हुए बोलीं, ‘‘शरद नहीं रहा, बिट्टू. कोरोना के काल ने उस को अपनी चपेट में ले लिया.’’

मैं स्तब्ध मां का चेहरा देखती रही. खामोशी के बीच हमारे अंदर दिल चीर डालने वाला दुख सांझ हो रहा था. आंखें उमड़ रही थीं.

मां के जाते ही औंधेमुंह बिस्तर पर कटे पेड़ की तरह ढह गई मैं. आंसू हमारे सुखदुख की साथी तकिया को भिगोते रहे.

शरद भैया से मेरा खून का रिश्ता नहीं था, पर खून के रिश्तों पर हमेशा भारी रहा है यह आत्मिक रिश्ता. बचपन से ही वे हमारे लिए रोलमौडल रहे. भैया के कंधे पर बैठ हम कहांकहां की सैर कर आते थे. मैं छोटीछोटी समस्याओं पर उन के पास पहुंच, रोते हुए और अपनी फ्रौक से आंसू पोंछते हुए उन की गोद में सिर रख कर शिकायतों का पुलिंदा खोल दिया करती थी. कभी मां सा, कभी भाई सा, तो कभी सहेलियों सा बरताव करते.

वे हंसते हुऐ कहते, ‘थोड़ा रूक जा बिट्टू. जब मैं डाक्टर बन जाऊंगा, तब इन सब को इंजैक्शन लगा कर दर्द का एहसास करवाऊंगा.’

खूब हंसती मैं, और तरहतरह की ऐक्टिंग कर के बताती कि दर्द के कारण वे सब कैसे बिलबिलाएंगे. थोड़ी बड़ी हुई. उन के आने पर चाय मैं ही बनाती थी, क्योंकि उन को मेरे हाथ की बनी चाय पसंद थी.

चाय पीते हुए वे कहते, ‘चाची, बिट्टू की शादी हम इसी शहर में कराएंगे, ताकि हम सब को उस के हाथ की बनी चाय हमेशा मिलती रहे.’

बनावटी गुस्सा दिखाती हुई मैं भैया को मारने लगती. वे मुझे सीने से लगाते हुए कहते, ‘इस को कभी भी अपनेआप से दूर नहीं जाने दूंगा.’

मेरी हर समस्या का समाधान था भैया के पास. मेरे स्कूल से ले कर कालेज तक के सफर में भैया हमेशा मार्गदर्शक रहे मेरे.

एक दिन हंसते हुए मैं उन से बोली, ‘आप की अपनी कोई बहन नहीं है न, इसीलिए आप मु?ा से बहुत प्यार करते हैं.’

मु?ो आज भी याद है वह दिन. उन्हें बिलकुल भी बुरी नहीं लगी मेरी बात. उलटे, उन्होंने मेरी नाक पकड़ कर बोला था, ‘बिट्टू, तुम हर जन्म में मेरी बहन हो, और रहोगी. अपना और पराया क्या होता है? जहां प्रेम की लौ जगी, वही अपना है.’

कुछ वर्षों बाद भैया मैडिकल की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर चले गए. मैं बहुत रोई थी. जैसे, मेरी दुनिया बेरंग हो गई हो. सुबह के उजाले से ले कर देररात तक उन के साथ की यादें मु?ो और उदास कर जातीं.

फोन पर जब मैं अपनी समस्याएं बताने लगती तो वे कहते, ‘इतनी समस्याओं का, बस, एक समाधान है तेरी शादी. दूल्हा आ जाएगा तेरी जिंदगी में, तब जा कर इस निरीह भाई को राहत मिलेगी.’

गुस्से से कहती मैं, ‘अच्छा, तो आप मु?ा से छुटकारा चाहते हैं. इतनी जल्दी नहीं छोड़ने वाली मैं आप को. और वैसे भी, पहले आप की शादी होगी, तब मेरी.’

भैया के डाक्टर बनते ही उन की शादी हो गई. खूब नाची थी मैं. खुशी मेरे दामन में नहीं समा रही थी.

बाद के दिनों में वे मुझे चिढ़ाते, ‘चाची, मेरी शादी में नागिन डांस के लिए तो इस को पद्मश्री अवार्ड मिलना चाहिए था.’

वक्त के साथ हम सब बदलते गए. मेरी भी शादी हो गई. जिम्मेदारियों ने पैरों में बेडि़यां डाल दीं. मां की आवाज सुन कर मैं आंसू पोंछते हुए बैठ गई.

अपनी गोद में मेरा सिर रख कर प्यार से हाथ फेरते हुए मां बोलीं, ‘‘बिट्टू, तुम्हारे अंदर एक जीव पल रहा है, वह भी तो तुम्हारे खाने का इंतजार कर रहा है.’’

पेट पर हाथ रख कर सोचने लगी मैं, ‘काश, भैया मेरी कोख में आ जाते. मैं मां बन कर उन का खूब खयाल रखती और अपने से कभी भी दूर न जाने देती.’

बहुत प्रयास करने के बाद मैं ने खुद को संयत कर भाभी को कौल किया. उन के रोने की आवाज मेरे कानों में पिघले सीसे की तरह आहत कर रही थी.

‘‘शरद बगैर मुझ से कुछ बोले चले गए, बिट्टू. मैं अब किस को प्यार करूंगी? किस के सहारे रहूंगी? चारों तरफ अंधेरा दिख रहा है? मेरे तो सिर का ताज ही बिखर गया, बिट्टू.’’

‘‘समय के सामने हम सब विवश हैं, भाभी. धैर्य रखिए. अमन का खयाल रखिए. उस पर इन दुखों का असर नहीं होना चाहिए. टूट जाएगा तो बिखरे को समेटना बहुत मुश्किल होगा, भाभी.’’

तभी अमन की आवाज ने मेरी बची हुई हिम्मत को भी तोड़ कर रख दिया, ‘‘मैं पापा के साथ खेलना चाहता हूं. पापा से मिले हम को एक महीना हो गया है बूआ. सब के पापा हैं, तो मेरे पापा हमें छोड़ कर क्यों चले गए? बताओ बूआ?’’

सांत्वना के शब्द यहीं पर खत्म हो गए थे मेरे. मैं शून्य में निहारते हुए बोली, ‘‘इस का जवाब किसी के पास भी नहीं होगा, अमन बेटा.’’

मां के हाथों में खाने की थाली दिखी, तो आंखों ने सवाल किया और जबान पूछ बैठी, ‘‘मां, पीर पराई है या अपनी है?’’

‘‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे,’’ गाती हुई मां वहां से चली गईं.

सती: अवनि की जिंदगी में क्या हुआ पति की मौत के बाद

अवनी ने मनीष को दवा खिलाई और बाहर आ कर ड्राइंगरूम में टीवी देखने लगी. तभी अंदर से मनीष
के चिल्लाने की आवाज आई. अवनी भगाती हुई अंदर गई तो देखा मनीष गुस्से से भरा बैठा था.

अवनी को देखते ही बोला,”तुम मेरी नर्स हो या पत्नी? 2 मिनट भी साथ नहीं बैठ सकतीं? तुम्हें नाम, पैसा, 2 बेटे, कोठी क्या कुछ नहीं दिया और मेरे बीमार पड़ते ही तुम ने नजरें फेर लीं?”

अवनी इस से पहले कुछ बोलती, उस के दोनों बेटे रचित, सार्थक और सासससुर भी आ गए थे.

रचित गुस्से में बोला,”मम्मी, शर्म आनी चाहिए आप को। एक दिन टीवी नहीं देखोगी तो कोई तूफान नहीं आ जाएगा।”

सास गुस्से में बोलीं,”पत्नी अपने पति के लिए क्या क्या नहीं करती। मेरे बेटे को कैंसर क्या हुआ अवनी कि तुम ने अपनी नजरें ही फेर लीं…”

अवनी कमरे में एक तरफ अपराधी की तरह बैठी रही, वह अपराध जो उस ने किया ही नहीं था. मनीष के सिर पर अवनी ने जैसे ही हाथ फेरा मनीष ने झटक कर हाथ हटा दिया। अवनी की आंखों मे आंसू आ गए. उसे पता था मनीष कैंसर के कारण चिड़चिड़ा हो गया है पर वह क्या करे? वह पूरी कोशिश करती है पर आखिर है तो इंसान ही. पिछले 3 सालों से मनीष के कैंसर का इलाज चल रहा था. अवनी शुरुआत में रातदिन मनीष के साथ साए की तरह बनी रहती थी. पर धीरेधीरे वह तनमन से थक गई थी.

पर परिवार के सब लोग मनीष का भार अवनी पर डाल कर निश्चिंत हो गए थे. मनीष की बीमारी मानों
अवनी के लिए एक कैदखाना हो गई थी. अवनी के उठनेबैठने, कपड़े पहनने तक पर सब की निगाहें रहती थीं. अवनी अगर थोड़ा सा तैयार हो जाती तो मनीष की नजरों में सवाल तैरने लगते थे. अवनी का बहुत मन होता मनीष को बताने का कि उसे दुख है पर वह जीना नहीं छोड़ सकती.

पिछले 3 सालों से अवनी ने घर से बाहर कदम नहीं रखा था. किसी की शादी या कोई समारोह होता तो अवनी के सासससुर दोनों बेटों के साथ चले जाते थे. अवनी को ऐसा महसूस होने लगा था कि वह मनीष
के जिंदा होते हुए भी सती हो गई है. सती तो शायद पति की चिता के साथ एक बार ही जली थी पर अवनी तो पिछले 3 सालों से तिलतिल कर जल रही थी.

कल रात बहुत देर से अवनी की आंख लगी और मनीष के चिल्लाने की आवाज से एक झटके से खुल गई.
मनीष गुस्से में बड़बड़ा रहा था,”अगर मेरे पास पैसा न होता तो तुम तो मुझे सड़क पर बैठा देतीं।”

अवनी बिना कुछ बोले चुपचाप चाय बनाने चली गई. उस को देखते ही सास बोलीं,”आज तो तुम ने हद
कर दी है, कब मनीष कुछ खाएगा और कब वह दवा लेगा? तुम्हें पता है न कीमोथेरैपी के लिए डाइट का अच्छा होना जरूरी है…”

मनीष को चाय और बादाम दे कर अवनी नहाने चली गई. जब नहा कर बाहर निकली तो देखा कमरे में से
किसी के जोरजोर से हंसने की आवाज आ रही थी. अवनी ने गीले बालों को तौलिए से लपेट रखा था।कुछ गीले बाल छितर कर इधरउधर बिखरे हुए थे और इंडिगो ब्लू रंग का सूट उस पर खूब खिल रहा था.

जैसे ही वह बाहर आई, वह युवक बोला,”अरे भाभीजी को तो देख कर लगता ही नहीं इन के 18 और 20 साल के बेटे भी होंगे।”

मनीष कड़वा सा मुंह बनाते हुए बोला,”हां कुदरत ने सारा बुढ़ापा तेरे भैया के ही नसीब में लिख दिया है,”
और फिर वह फफकफफक कर रोने लगा. अवनी अपराधी की तरह खड़ी रह गई.

अवनी सब समझती थी। कीमोथेरैपी के कारण मनीष के बाल झड़ गए थे। चेहरे पर काले धब्बे पड़ गए थे और आंखे अंदर धंस गई थीं. पर अवनी को समझ नहीं आता था कि वह कैसे मनीष का मनोबल बढ़ाए.

तभी वह युवक बोला,”अरे अवनीजी, आप ने मुझे पहचाना नहीं, मैं मनीष की बुआ का बेटा हूं और रिश्ते में
आप का देवर हूं। मेरा नाम कुणाल है।”

अवनी बोली,”अरे आप बैठो, मैं चायनाश्ते का इंतजाम करती हूं।”

अवनी ने फटाफट कुक की मदद से पनीर के परांठे, ढोकला, सूजी का हलवा और लालमिर्च की चटनी बना
ली थी. जैसे ही वह बाहर निकली तो मनीष को डाइनिंग टेबल पर बैठा देख कर खुश हो गई.

कुणाल बोला,”जल्दीजल्दी नाश्ता लगाएं, बड़ी कस कर भूख लगी है।”

आज शायद लगभग 1 साल के बाद मनीष ने डाइनिंग टेबल पर बैठ कर सब के साथ खाया होगा. कुणाल पूरे समय चुटकले सुनाता रहा और अवनी के नाश्ते की तारीफ करता रहा. न जाने क्यों अवनी को लग रहा था कि कुणाल के आने से पूरे घर में खुशियों की लहर आ गई है. नाश्ते के बाद सब लोग अपनेअपने काम में लग गए और कुणाल ड्राइंगरूम में बैठ कर टीवी पर कोई प्रोग्राम देखने लगा. अवनी भी वहीं बैठ कर सब्जी काटने लगी और सब्जी काटतेकाटते कुणाल से बोली,”और आप के घर में सब कैसे हैं?”

कुणाल हंसते हुए बोला,”मैं ही घर हूं।
और कोई नहीं है मेरे घर में। मैं अच्छा हूं तो घर भी अच्छा है।”

अवनी बोली,”आप ने अब तक शादी नहीं करी क्या?”

कुणाल बोला,”करी थी मगर सोनल शादी के 4 साल बाद मुझ से अलग हो गई थी।”

अवनी ने धीमे से कहा,”सौरी…”

कुणाल हंसते हुए बोला,”अरे इस में सौरी की क्या बात है। अगर कोई मेरी टाइप की मिलेगी तो शादी कर लूंगा।”

कुणाल बिजनैस के सिलसिले में यहां आया हुआ था. वह अगले दिन से रोज सुबह काम पर निकल जाता
और शाम को आ जाता था. उस के आते ही अवनी के चेहरे पर रौनक आ जाती थी. कुणाल अवनी से सुखदुख की बात कर लेती थी.

धीरेधीरे कुणाल और अवनी के बीच अच्छी दोस्ती हो गई थी. कुणाल लगभग 2 महीने रहा और इन 2 महीनों में वह हर वीकैंड पर आउटिंग का प्लान करता था. जब पहली बार कुणाल ने मूवी का प्लान बनाया तो रचित और सार्थक का हमेशा की तरह अपने प्रोग्राम बने हुए थे.

सासससुर जब तैयार हो गए तो कुणाल बोला,”मनीष भैया और अवनी भाभी नही चलेंगे?”

अवनी की सास बोलीं,”अरे मनीष कहीं आताजाता नहीं है। वह तो तेरे कहने पर हम भी बरसों बाद मूवी
देखने जा रहे हैं।”

कुणाल ने जबरदस्ती मनीष को यह कहते हुए तैयार कर लिया कि अगर मन नहीं लगा तो वह खुद बीच में ही मनीष के साथ घर आ जाएगा.

जब इंटरवल में कुणाल और अवनी पौपकौर्न लेने गए तो कुणाल बोला,”ऐसे ही खुश रहा करो, अच्छी लगती हो। भैया बीमार हैं पर आप क्यों उन के साथ समय से पहले ही सती हो रही हो?”

कुणाल जातेजाते अवनी को हिम्मत और साहस दे गया था. अब अवनी महीने में 1 बार जरूर बाहर अपने दोस्तों से मिलने या मूवी देखने चली जाती थी. मनीष की चिड़चिड़ाहट, बच्चों की शिकायतें या
सासससुर की नसीहतों को अब अवनी अनदेखा कर देती थी. जब भी अवनी को अकेलापन लगता या हौसला टूटने लगता तो वह कुणाल से फोन पर बात कर लेती थी. मनीष के अंतिम दिनों में कुणाल भी वहीं आ गया था. कुणाल के आने से अवनी को हर तरह से सहारा मिल गया था.

जब मनीष की मृत्यु हो गई तो कुणाल ही था जो पूरे परिवार के लिए रातदिन खड़ा रहा था. वह पूरे 1 माह रुका और जाने से पहले कुणाल ने अवनी को कहा,”जब कभी भी मेरी जरूरत महसूस हो बस एक कौल कर देना…”

अब अवनी ने फिर से अपनी जिंदगी नई सिरे से शुरू करनी चाही पर उस का अपना परिवार उसे यह करने
से रोक रहा था. जब अवनी ने अपने ससुर से बिजनैस जौइन करने की बात करी तो ससुर बोले,”यह उम्र तुम्हारे बेटों की बिजनैस सीखने की है। तुम घर पर रह कर योगसाधना में अपना ध्यान लगाओ। पूजापाठ करो ताकि अगले जन्म में वैधव्य का दुख न भोगना पड़े।”

अवनी उन की अंधविश्वास भरी बातें सुन कर हैरान रह जाती। अगर वह थोड़ा ढंग से तैयार हो जाती तो सास की तीखी नजरें उसे चुभती रहती थीं. अवनी कभीकभी दुखी हो कर सोचती कि इस से अच्छा तो पहला जमाना था जब पति के साथ ही पत्नी सती हो जाती थी। कम से कम रोज तिलतिल कर मरना तो नहीं पड़ता था.

मनीष की मृत्यु को पूरे 1 साल हो गए थे. आज मनीष की बरसी थी और कुणाल भी आया हुआ था. अवनी
को देखते ही बोला,”यह तुम ने अपना क्या हाल बना लिया है? भैया की मृत्यु हुई है तुम्हारी नहीं।”

अवनी फफकफफक कर रो पड़ी और बोली,”काश, मैं ही मर जाती, कुणाल। मेरे कपड़े पहनने, हंसनेबोलने सब पर पाबंदी है। मेरे खुद के बेटे मुझे खुश देखते ही शक करने लगते हैं। मुझे बाहर काम करने की इजाजत नहीं है। घर पर कोई काम है नहीं, बच्चे बड़े हो गए हैं। बताओ मैं क्या करूं?

“इस पूजापाठ, व्रत में मेरी श्रद्धा नहीं है। मुझे एक सामान्य औरत की तरह जीने का मन है। मुझे देवी नहीं बनना है…”

कुणाल ने एकाएक कहा,”अवनी, मुझ से शादी करोगी?”

अवनी एकदम से हक्कीबक्की रह गई और बोली,”क्या कह रहे हो तुम? मेरे 2-2 जवान बेटे हैं…”

कुणाल बोला,”हां 2-2 बेटे हैं जिन्हें कभी भी तुम्हारी जरूरत नहीं थी।सोच कर बताना, अगर जवाब न भी होगा तो भी तुम्हारा दोस्त बन कर हमेशा खड़ा रहूंगा।”

कुणाल के जाने के बाद अवनी बहुत दिनों तक सोचविचार करती रही मगर उस के अंदर डर उसे भयभीत करता रहता।

कुछ दिनों बाद मनीष के परिवार में ही शादी थी. सब लोग अच्छे से तैयार हुए मगर अवनी जैसे ही तैयार हो
कर बाहर आई तो सास बोलीं,”यह नारंगी रंग की साड़ी के बजाए कोई लाइट कलर पहन लो। लोग क्या सोचेंगे कि तुम्हें जरा भी मनीष के जाने का दुख नहीं है।”

जैसे ही अवनी जाने लगी तो बड़े बेटे रचित की आवाज आई,”मम्मी, यह लिपस्टिक भी हलकी कर लीजिए।लोग आप को ऐसे देखें तो अच्छा नहीं लगता।”

अवनी अंदर जा कर फूटफूट कर रोई और जब बाहर निकली तो वह एक सफेद साड़ी में लिपटी थी।

ससुरजी गुस्से में बोले,”यह जानबूझ कर नाटक क्यों कर रही हो अवनी, ताकि सब को लगे हम एक विधवा पर जुल्म कर रहे हैं…”

आखिरकार अवनी उस शादी में गई ही नहीं मगर उस रात बहुत देर तक वह कुणाल से बात करती रही।
अगले दिन सब के सामने अवनी ने कुणाल से विवाह करने का फैसला सुना दिया। दोनों बेटे सकते में
आ गए थे.

सास रोते हुए बोलीं,”तेरा चक्कर तो कुणाल से शायद बहुत पहले से ही चल रहा था, अवनी. तभी तो तुम मेरे
बीमार बेटे की देखभाल नहीं करती थीं।”

ससुरजी बोले,”बेवकूफ औरत, यह तुम्हारे बेटों की शादी की उम्र है नाकि तुम्हारी. जरा अपनी उम्र का लिहाज तो करो. 2 साल भी तुम से मर्द के बिना नहीं रहा जा रहा है?”

सार्थक गुस्से में बोला,”अगर आप ने कुणाल से शादी करी तो आप हम से रिश्ता तोड़ लेना।”

अवनी के मातापिता भी उस के फैसले से खुश नहीं थे. अवनी की भाभी बोलीं,”दीदी, सार्थक और
रचित के बारे में तो सोचो। कुछ वर्षों बाद आप के पोतेपोती खिलाने की उम्र हो जाएगी और आप डोली में बैठने की तैयारी कर रही हो… अगर आप अकेली होतीं तो ठीक था पर आप के तो 2 जवान बेटे हैं, आप को क्यों किसी सहारे की आवश्यकता है?”

अवनी को समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे किसी को समझाए. जिंदगी का मतलब बस रोटी, कपड़ा और
मकान ही तो नहीं है. सब के विरोध के बावजूद भी अवनी और कुणाल ने कोर्ट में विवाह कर लिया था.

जब सब पुराने रिश्तों से रीति हो कर अवनी कुणाल का हाथ थाम कर उस के घर मे आई तो उस की आंखें
गीली थीं. अवनी कुणाल से बोली,”कुणाल, मुझे मेरे बेटों ने अपनी जिंदगी से बेदखल कर दिया है।”

कुणाल हंसते हुए बोला,”अवनी, देरसवेर रचित और सार्थक तुम्हारा पहलू समझ जाएंगे. सती प्रथा को समाप्त करने के लिए किसी को तो पहल करनी होती है न…”

अवनी के मन में ये पंक्तियां बारबार उमड़ रही थीं,”न बनना चाहती हूं मैं देवी और न ही बनना चाहती हूं सती, मैं हूं एक सामान्य नारी जो हर उम्र में चाहती है जीवन में भावनाओं की गति.

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