Moral Stories in Hindi : लेडी डौक्टर कहां है

Moral Stories in Hindi :  सुबह से ही मीरा बहुत घबराहट महसूस कर रही थी. शरीर में भी भारीपन था और मन तो खैर… न जाने कब से उस के ऊपर अपराधबोध के बोझ लदे हुए हैं. काम छोड़ कर आराम करने का तो सवाल ही नहीं उठता था. बवाल मच जाएगा घर में. सब की दिनचर्या में अस्तव्यस्तता फैल जाएगी. वैसे भी कोरोना के चलते घर में माहौल हर समय गंभीर रहता है. सासससुर घर में हर समय पड़े रहने से खीझ चुके हैं तो वहीं देवर औनलाइन क्लासेस से परेशान है. घर में तंगी न हो, इसलिए पति समर को औफिस जाना पड़ता है जिस से उन का मूड हमेशा ही खराब रहता है. कुछ नहीं बदला है तो वह है मीरा और उस के काम. अगर वह समय से काम नहीं करेगी तो सासुमां को अपने लड्डू गोपाल की सेवा को बीच में छोड़ना पड़ेगा, पति समर औफिस जाने के लिए लेट हो जाएंगे, देवर रोहन बिना कुछ खाए पढ़ने बैठ जाएगा और ससुरजी शोर मचाएंगे कि हर आधे घंटे में उन्हें चाय कौन देगा. इसलिए उसे बीमार पड़ने या आराम करने का हक नहीं है इस हालत में भी. शुक्र है कि जेठ दूसरे शहर में रहते हैं अपने परिवार के साथ, वरना उन के बच्चों के भी नखरे उठाने पड़ते.

पेट में तेज दर्द उठा. इतनी भयानक पीड़ा, पर अभी तो मात्र 7 महीने ही हुए हैं. यह लेबरपेन तो नहीं हो सकता, शायद थकान से हो रहा हो. उलटी का एक गोला अंदर बनने लगा तो वह बाथरूम की ओर भागी. सुबह चाय के साथ सिर्फ एक बिस्कुट खाया था, सो, वही निकल गया. डाक्टर ने सख्त हिदायत दी थी कि तुम्हारा शरीर इतना कमजोर है कि उसे ताकत के लिए पौष्टिक भोजन की जरूरत है. हर एक घंटे बाद उस के लिए कुछ खाते रहना आवश्यक है, खासकर सुबह बिस्तर से उठते ही एक सेब तो वह खा ही ले. इस से उलटियां नहीं होंगी. डाक्टर के निर्देश और हिदायतें केवल उस के परचे तक ही सीमित हैं. घर में न तो उस की बातों को कोई मानता है और न ही उसे अपने ऊपर ध्यान देने का समय मिल पाता है. डाक्टर ने तो यह भी कहा था कि कोरोना का संक्रमण उस के और उस के होने वाले बच्चे के लिए घातक हो सकता है, जितनी ज्यादा हो सके उतनी कोशिश करे कि उसे अस्पताल न आना पड़े. लेकिन, यहां तो बाहर से जो कुछ आता उसे सैनिटाइज करने का काम भी मीरा के हिस्से था.

इतनी पढ़ीलिखी तो वह भी है कि प्रैग्नेंसी में कैसे केयर रखनी चाहिए, इस की जानकारी रखती है. पर वह कुछ करना भी चाहे तो सासुमां फट से ताना मारती हैं, “पता नहीं इतनी नाजुक क्यों है, मैं ने भी बच्चे पैदा किए हैं, वे भी बेटे, और तू है कि लड़कियों को कोख में रखने पर भी इतनी मरियल सी रहती है.”

वह अकसर सोचती है सासुमां का इतनी पूजा और भक्ति का क्या फायदा जब उन के अंदर सहनशीलता का एक कण तक नहीं. हर समय गुस्से से उबलती रहती हैं. उन की बात न मानो तो चिल्लाने लगती हैं. वह मानती है कि दूसरों के दर्द समझो और जितना हो सके, दूसरों के काम आ सको, वही सच्ची पूजा. इस बात से भी उन्हें बहुत आपत्ति है.

“न जाने कैसी कुमति बहू मिली है. अरी, कभी भगवान के सामने खड़े हो कर हाथ भी जोड़ लिया कर. हे राम, न जाने क्या अनिष्ट हो इस की वजह से,” वे आरती करती जातीं और यह भी बोलती जातीं. उसे उन पर हंसी आती और दया भी. बहू को बेटी कैसे समझ सकते हैं ऐसे लोग, जिन के अंदर ममता का सोता बहता ही नहीं है. विडंबना तो देखो, एक औरत हो कर भी दूसरी औरत की पीड़ा नहीं समझतीं.

“सत्यानाश, दूध उबल कर गिर रहा है. सुबहसुबह कैसा अपशकुन करने पर तुली है, मीरा,” सासुमां की कठोर और तीव्र आवाज पूरे घर में गूंज गई.

“वह मां… उलटी आ गई थी,” सहमे स्वर में मीरा ने कहा. वह जल्दीजल्दी गैस साफ करने लगी. “पेट में भी दर्द हो रहा है, और काफी थकान महसूस कर रही हूं,” थोड़ी हिम्मत कर उस ने कह ही दिया.

“पेट में दर्द हो रहा है तो थोड़ी अजवायन निगल जा पानी के साथ. हो सकता है गैस बन गई हो पेट में. अभी तो 2 महीने बाकी हैं, और हां, खयाल रख अपनी कोख में पल रहे बच्चे का. जांच से पता लग ही गया है कि इस बार लड़का है. पता चले जांच के लिए अस्पताल ले कर गए और वहां से कोरोना ले आई. अपने साथसाथ पूरे घर को ले कर डूबेगी. अच्छा, ऐसा कर नाश्ता कर ले. रसोई का सारा काम तो निबट ही चुका है,” सासुमां ऐसे बोलीं मानो कोई एहसान कर रही हों.

साढ़े 11 बज चुके थे, और भूख तो उसे भी सता रही थी. शायद न खाने से गैस बन गई हो, मीरा ने सोचा.

नाश्ता कर, कमरे में आ कर लेट गई मीरा. दर्द अभी भी हो रहा था. पेट से होतेहोते नीचे तक पहुंच रहा था. अजीब सी ऐंठन और बेचैनी थी. सोने की कोशिश करने लगी, पर सोच के ऊपर तो अनगिनत परछाइयां मंडरा रही थीं. क्या होगा जब घर में सब को पता लगेगा कि इस बार भी उस की कोख में लड़की ही है. डाक्टर से अनुरोध कर उस ने ही उन से यह झूठ बोलने को कहा था. हालांकि लड़का है या लड़की, इस की जांच कराना अवैधानिक है, पर फिर भी सबकुछ होता है. छोटे क्लीनिकों में पैसे खिला कर और अपनी जानपहचान निकाल कर समर ने इस का बंदोबस्त कर लिया था. 2 लड़कियों को गर्भ में आते ही मारने का अपराधबोध एक बोझ की तरह उस के सीने से लिपटा रहता है. कितना मना किया था उस ने, रोई थी, गिड़गिड़ाई थी, पर न समर माना था और न ही सासुमां ने उस की बात सुनी थी.

“लड़कियां हमें चाहिए ही नहीं. बस, बेटे होने चाहिए. लड़की को पढ़ाओ, खर्च करो, उस की शादी करो और उस का फायदा उठाए उस की ससुराल वाले. ससुराल वालों के नखरे सहो, सो अलग. बेकार में सारी जिंदगी खपाने का कोई शौक नहीं हमें. मैं नहीं चाहती कि मेरा समर पूरी जिंदगी लड़कियों की वजह से खटता रहे,” सासुमां के तर्क उसे भयभीत कर गए थे.

“मां, आप भी तो लड़की हैं. आप ऐसा कैसे कह सकती हैं? आप भी तो ब्याह कर इस घर में आई हैं और अपने बेटे के लिए भी तो आप भी लड़की को ही ब्याह कर लाई हैं. अगर आप के मांबाप ने आप को भी कोख में ही मार दिया होता या मुझे भी जन्म नहीं लेने दिया होता तो न ससुरजी की शादी होती और न ही समर की. लड़कियां नहीं होंगी तो लड़के कुंआरे ही रह जाएंगे. सोचिए मां, अगर आप को जन्म नहीं दिया गया होता तो… यह खयाल ही कितना पीड़ादायक है,” मीरा के ऐसा कहते ही घर में भूचाल आ गया था.

“वार्निंग दे रहा हूं तुम्हें, मां से कभी बहस करने की कोशिश मत करना,” समर की आंखों में उठती ज्वालाओं ने उस के थोड़ेबहुत साहस को राख कर दिया था. 2 बेटियां अजन्मी ही मार दी गईं और वह अपनी बेबसी पर केवल कराह ही पाई. अपनी ही कोख पर अधिकार नहीं था उसे, अपने रक्तमांस को सांस लेनेदेने का अधिकार नहीं था उसे. कोई इतना क्रूर कैसे हो सकता है वह भी जब हर तरफ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का शोर है. बेटियां बेटों से कहीं ज्यादा टेलेंटेड साबित हो रही हैं और हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं. यही नहीं, बेटों से कही ज्यादा पेरेंट्स का ख्याल रखती हैं, फिर भी इन लोगों की ऐसी सोच है.

मां तो चलो पुराने खयालात रखती हैं, पर समर, वे तो ऐजुकेटेड इंसान हैं, मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं जहां लड़कियों की संख्या लड़कों से कम नहीं है, वे किस तरह लड़कीलड़के में भेद कर सकते हैं यहां तक कि लिंग परीक्षण करा गर्भपात करवा सकते हैं. समर कंजर्वेटिव हैं, यह तो मीरा शादी के शुरुआती दिनों में ही जान गई थी. उस का उन्हीं के पुरुषमित्रों से बात करना या आसपड़ोस के किसी पुरुष से बात करना उन्हें अखरता था, यहां तक कि रिश्तेदारों में भी पुरुषों से उस का हंसीमजाक करना उन्हें चुभता था.

कैसे दोहरे मापदंड हैं, मीरा अकसर सोचती. एक तरफ लड़की को जन्म न दो और दूसरी ओर पुरुषों से दूरी बना कर रखो.

पर कहीं जन्म लेने के बाद उस की बेटी को मार डाला गया तो क्या होगा… मीरा कांप गई. अजन्मी बेटियां तो चली गईं, पर उस की गोद में आई बेटी अगर उस से छीन ली गई तो अपराधबोध के बोझों को क्या कभी वह अपने से अलग कर पाएगी? साहस तो जुटाना ही होगा मीरा को इस बार. उस ने जैसे खुद ही अपना मनोबल बढ़ाने की कोशिश की.

“दोपहर के खाने का वक्त हो गया है, आज हमें भूखा ही रखने का इरादा है क्या?” सासुमां दरवाजे पर खड़ी थीं. अपनी गीली आंखों को पोंछा नहीं मीरा ने. नहीं उठा जा रहा है उस से.

“मां, अस्पताल ले चलिए मुझे, लगता है समय से पहले ही बेबी हो जाएगा,” मीरा के पीले पड़ते चेहरे और उखड़ती सांस के कंपन को सुन सहम गईं कमला. कहीं इसे कुछ हो गया तो अपने वंश से भी हाथ धोने पड़ेंगे. मीरा उन्हें इस समय कुछ ज्यादा ही कमजोर लगी. शरीर से जैसे किसी ने सारा रक्त ही चूस लिया हो.

“मैं समर को फोन करती हूं,” वे बाहर भागीं.

“मैं कैब बुला लेता हूं, समर को औफिस से ही घर के सब से पास जो सरकारी अस्पताल है उस में आने को कहो,” ससुरजी की आवाज मीरा के कानों में पड़ी. वह जानती थी कि मांबेटे के सामने चाहे कुछ न बोलें, पर उस के प्रति उन के मन में कोमल संवेदनाएं थीं. कुछ जरूरी सामान रखने में सासुमां ने उस की मदद की.

कैब में बैठे वे पूरे रास्ते बड़बड़ाते रहे कि आखिर अस्पताल में मीरा को भरती किया जाएगा भी या नहीं. कोरोना के चलते अस्पताल में किसी को भी भरती नहीं किया जा रहा था. जिसे किया आ रहा था उस से बड़ी कीमत वसूली जा रही थी. दिल्ली के हालात तो वैसे भी त्रस्त थे. ऐसे में मन में कई सवाल भी उठ रहे थे और डर भी था.

घर के सब से पास वाले अस्पताल में मीरा को भरती करने से मना कर दिया गया. मीरा दर्द से कराह रही थी, तब भी उस की हालत को नजरंदाज करते हुए कहा गया कि यहां केवल कोरोना मरीजों को भरती किया जा रहा है और एक भी बैड खाली नहीं है.

वहीं समर भी आ चुका था. समर मीरा और मातापिता को ले कर दूसरे अस्पताल गया. वहां भी उन्हें यह कह कर लौटा दिया गया कि बैड खाली नहीं है.

“अरे, भगवान की दया से ही बहू को भरती कर लो, हालत तो देखो इस की,” मीरा की सास रिसेप्शन पर कहने लगीं.

““मां जी, यहां भगवान की नहीं, डाक्टर की दया चलती है. वेंटिलेटर और अन्य सवास्थ सुविधाओं से जान बचती है, भगवान का नाम जपने से नहीं. देर मत कीजिए और किसी दूसरे अस्पताल जाइए, यहां कोरोना के कई गंभीर केसेस पहले ही आए हुए हैं,” रिसेप्शनिस्ट ने कहा.

मारेमारे वे लोग तीसरे अस्पताल पहुंचे जहां किसी तरह मीरा को अस्पताल में भरती कर लिया गया. मशीन लगा कर डाक्टर ने टेस्ट किया. बच्चे की सांस चल रही थी, पर वह रिस्पौंड नहीं कर रहा था.

“तुरंत सिजेरियन करना होगा, वी कांट टेक चांस, इट्स ए प्रीमेच्योर डिलीवरी, इसलिए हो सकता है थोड़ी कौंप्लीकेटेड हो, वैसे भी, इन की मेडिकल हिस्ट्री बता रही है कि पहले 2 अबौर्शन कराए हैं आप ने,” डा. मजूमदार, जो उस समय ड्यूटी पर थे, सारी रिपोर्ट्स ध्यान से पढ़ रहे थे. हैरानी थी उन के चेहरे पर.

समर ने दबी आवाज में वहां खड़ी सिस्टर से पूछा, “कोई लेडी डाक्टर नहीं है क्या इस समय? गाइनी तो लेडी डाक्टर को ही होना चाहिए. डिलीवरी वही तो करवा सकती है. अब तक तो चेकअप लेडी डाक्टर ही करती आई है. क्या कोई लेडी डाक्टर नहीं आ सकती क्या?”

““आप का दिमाग ठिकाने तो है? कैसी बातें कर रहे हैं आप. क्या आप ने आसपास का हाल देखा है, लोग भरती होने के लिए यहांवहां भटक रहे हैं, कोरोना से पीड़ित तड़प रहे हैं. और एक तरफ आप हैं जो लेडी डाक्टर की मांग कर रहे हैं, जरा सोचसमझ कर तो बात कीजिए,”” पास खड़ी नर्स ने कहा.

यह सुन समर के चेहरे पर शर्मिंदगी के भाव झलकने लगे. वह असमंजस में पड़ गया. पास खड़े उस के पिता ने कहा, ““बेटा, इतनी मुश्किल से बहू को अस्पताल में बैड मिला है, बनीबनाई बात मत बिगाड़ो.”

मीरा की हालत बिगड़ रही थी, जिसे देख डाक्टर जल्दीजल्दी उस की रिपोर्ट देखने लगे.

“कोई प्रौब्लम थी जो वन मंथ की प्रेगनेंसी में ही दोनों बार अबौर्शन कराया गया?” डा. मजूमदार ने समर से पूछा.

“असल में बोथ वेयर गर्ल्स,” हिचकिचाहट का गोला जैसे समर के गले में फंस गया था. सच बताना और उस का सामना करना दोनों ही मुश्किल होते हैं. समर तो डा. मजूमदार को उस का चेकअप करते देख वैसे ही झल्ला रहा था. एक पुरुष जो थे वह. पर इस समय वह मजबूर था, इसलिए इस बारे में कोई शोर नहीं मचाया.

“व्हाट रबिश,” आवाज की तेजी से सकपका गए समर. 40 वर्ष के होंगे डा. मजूमदार, सांवली रंगत, आंखों पर चौकोर आकार का चश्मा, मुंह पर प्रौपर मास्क व शील्ड, और ब्लूट्राउजर व व्हाइट शर्ट के ऊपर डाक्टर वाला कोट पहना हुआ था उन्होंने. बंगाली होते हुए भी हिंदी का उच्चारण एकदम स्पष्ट व सधा हुआ था. बालों में एकदो सफेद बाल चांदी की तरह चमक रहे थे. अकसर लोगों को कहते सुना है मीरा ने कि अगर डाक्टर स्मार्ट और वेलड्रेस्ड हो तो आधी बीमारी उसे देखते ही गायब हो जाती है. यह सोच ऐसे माहौल और ऐसी हालत में भी उस के होंठों पर मुसकान थिरकी, पर मुंह पर मास्क लगे होने से किसी को दिखाई नहीं पड़ा.

“सिस्टर, औपरेशन की तैयारी करो. इन्हें अभी लेबररूम में ले जाओ और ड्रिप लगा दो. शी इज वैरी वीक एंड एनीमिक औल्सो.”

सिस्टर को हिदायत देने के बाद वे समर से बोले, “हालांकि, अभी इन बातों का टाइम नहीं है, बट आई एम शौक्ड कि आप जैसे पढ़ेलिखे लोग अभी भी लड़कालड़की में अंतर करते हैं. शादी करने के लिए आप को लड़की चाहिए, घर संभालने के लिए लड़की चाहिए और बच्चे पैदा करने के लिए. वहीं, वंश चलाने के लिए, बेटा पैदा करने के लिए भी लड़की चाहिए तो उन्हें मारते क्यों हो? जो कोख जन्म देती है, उसी की कोख में मर्डर भी कर देते हो. बहुत दुखद बात है. आई एम सरप्राइज्ड एंड शौक्ड बोथ, मिस्टर समर. इस से भी बढ़ कर वर्तमान में लोगों की हालत देखते हुए आप को अपनी पत्नी के कोरोना संक्रमित होने या बच्चे के संक्रमित होने का डर नहीं है, बल्कि इस बात की फिक्र है कि लेडी डाक्टर है या नहीं, पेट में लड़का है या नहीं.”

समर जैसे कुछ समझ नहीं रहा था या समझना नहीं चाहता था. उसे विचारशून्य सा खड़ा देख सासुमां बोलीं, “डाक्टर साहब, इस का औपरेशन तो लेडी डाक्टर से ही कराएंगे, आप उन्हें ही बुला दो. कोई तो होगी इस समय ड्यूटी पर.”

“इस समय लेडी डाक्टर कोई नहीं है, और इंतजार करने का हमारे पास समय नहीं है. आप को तो शुक्र मनाना चाहिए कि आप की बहू को ट्रीट करने के लिए कोई है. दूसरा अस्पताल ढूंढने की कोशिश या लेडी डाक्टर का वेट करने के चलते आप मांबच्चे दोनों की जान को अगर खतरे में डालना चाहते हैं तो चौयस इज योअर, पर मैं इस की इजाजत नहीं दे सकता. और मांजी, अगर आप इसी तरह लड़कियों को मारती रहेंगी तो लेडी डाक्टर कैसे होंगी? डाक्टर ही क्या, किसी भी पेशे में कोई महिला होगी ही नहीं. इट्स शेमफुल. आई डोंट अंडरस्टेंड कि एक तरफ तो आप ने बेटी को पैदा होने से पहले ही मार दिया और दूसरी ओर लेडी डाक्टर से ही डिलीवरी करवाना चाहती हैं,” डा. मजूमदार का चेहरा सख्त हो गया था.

“पर डाक्टर साहब, सुनिए तो, थोड़ी देर रुक सकें तो रुक जाएं. हो सकता है किसी लेडी डाक्टर की ड्यूटी हो. हमें तो लेडी डाक्टर से ही बहू का औपरेशन करवाना है. क्या गजब हो रहा है समर, यह…तू कुछ कह क्यों नहीं रहा और आप क्यों चुप खड़े हैं?” सासुमां कभी अपने बेटे को तो कभी अपने पति की ओर देखते हुए बड़बड़ाए जा रही थीं.

वहां मौजूद डाक्टर और नर्स समर और उस की मां के इस नाटक को देख हतप्रभ थे. देश में लोगों को यह नहीं पता कि कोरोना के कारण वे कल सुबह का सूरज देखेंगे भी या नहीं, और एक यह मांबेटे हैं जिन्हें लेडी डाक्टर का राग अलापने से फुरसत नहीं.

मीरा यह सब सुन रही थी और अंदर ही अंदर टूट रही थी, पर उसे टूटना नहीं था बल्कि मजबूत बनना था. अभी तो उसे एक और लड़ाई लड़नी थी, अपनी आने वाली बेटी की रक्षा करनी थी. जन्म होने से पहले तो मरने से उसे बचा लिया था, पर जन्म के बाद मिलने वाली पीड़ा, अवहेलना और तिरस्कार से उसे बचाना था. स्नेह, प्यार और सम्मानसब देते हुए उसे ही परवरिश करनी होगी. किसी और से उम्मीद रखना व्यर्थ है.

फिर भी, लेबररूम की ओर जाते हुए मीरा ने सांत्वना और प्यारभरे स्पर्श की उम्मीद में बड़ी आशा से समर की ओर देखा. पर वह तो चारों ओर नजरें घुमाता हुआ एक ही बात कह रहा था, “लेडी डाक्टर कहां है? उसे बुलाओ, जल्दी, हमें लेडी डाक्टर ही चाहिए.”

Best Hindi Stories : इधर उधर – क्यो पिता और भाभी के कहने पर शादी के लिए राजी हुई तनु

Best Hindi Stories : “देखो तनु, शादीब्याह की एक उम्र होती है.  कब तक यों टालमटोल करती रहोगी. यह घूमनाफिरना, मस्तीमटरगश्ती एक हद तक ही ठीक रहती है. उस के आगे ज़िंदगी की सचाइयां रास्ता देख रही होती हैं. सभी को उस रास्ते पर जाना होता है,”  जयनाथ अपनी बेटी को रोज की तरह समझाने का प्रयास कर रहे थे.

“ठीक है पापा.  बस, यह आख़िरी बार, कालेज का ग्रुप है, अगले महीने से तो कक्षाएं ख़त्म  हो जाएंगी, फिर इम्तिहान और बाद में आगे की पढाई…”

जयनाथ ने बेटी तनु की बात को सुन कर अनसुना कर दिया. वे हर रोज़ अपना काफी वक़्त तनु के लिए रिश्ता ढूंढने में बिताते. जिस गति से जयनाथ रिश्ते ढूंढढूंढ कर लाते, उस से दुगनी रफ़्तार से तनु रिश्ते ठुकरा देती.

“ये 2 लिफ़ाफ़े हैं, इन में 2 लड़कों के फोटो और बायोडाटा हैं, देख लेना.  और हां, दोनों ही तुम से मिलने इस इतवार को आ रहे हैं. मैं ने तुम से बिना पूछे ही दोनों को घर बुला लिया है. पहला लड़का अम्बर दिन में 11 बजे और दूसरा आकाश शाम को 4 बजे.” जयनाथ ने लिफ़ाफ़े टेबल पर रखते हुए कहा, ”इन दोनों में से तुम्हें एक को चुनना है.”

तनु ने अनमने ढंग से लिफ़ाफ़े खोले और एक नज़र डाल कर लिफ़ाफ़े वहीं पटक दिए. सामने देखा, भाभी खड़ी थीं. तनु बोली,  “लगता है भाभी,  इन दोनों में से एक के चक्कर में पड़ना ही पड़ेगा. आप लोगों ने बड़ा जाल बिछाया है. अब और टालना मुश्किल सा लग रहा है.”

“बिलकुल सही सोच रही हो तनु. हमें बहुत जल्दी है तुम्हें यहां से भगाने की. ये दोनों रिश्ते बहुत ही अच्छे हैं.  अब तुम्हें फैसला करना है, अम्बर या आकाश. पापामम्मी ने पूरी तहकीकात कर के ही तुम तक ये रिश्ते पहुंचाए हैं. आख़िरी फैसला तुम्हारा ही होगा.”

“अगर दोनों ही पसंद आगए तो?” तनु ने हंसते हुए कहा तो भाभी मुसकराए बगैर नहीं रह पाईं, बोलीं,  “तो कर लेना दोनों से.”

तनु सैरसपाटे और मौजमस्ती करने में विश्वास रखती थी. मगर साथ ही, वह पढ़ाईलिखाई और अन्य गतिविधियों में  भी अव्वल थी. कई संजीदा मसलों पर उस ने डिबेट के जरिए अपनी आवाज़ सरकार तक पहुंचाई थी. घर में भी देशविदेश के कई चर्चित विषयों पर अपने भैया और जयनाथ से बहस करती व अपनी बात मनवा के ही दम लेती . यह भी एक कारण था कि उस ने कई रिश्ते नामंजूर कर दिए थे.

उसे लगता था कि उस के सपनों का राजकुमार किसी फिल्म के नायक से कम नहीं होना चाहिए. हैंडसम, डैशिंग, व्यक्तित्व ऐसा कि चलती हवा भी उस के दीदार के लिए रुक जाए. ऐसी ही छवि लिए वह हर रात को सोती.  उसे यकीन था कि उस के सपनों का राजकुमार एक दिन ज़रूर उस के सामने होगा.

रविवार को भाभी ने जबरदस्ती उठा कर उसे 11 बजे तक तैयार कर दिया. लाख कहने के बावजूद, उस ने न कोई मेकअप किया न कोई ख़ास कपडे पहने. तय समय पर ड्राइंगरूम में बैठ कर सभी मेहमानों का इंतज़ार करने लगे. करीब आधे घंटे के इंतज़ार के एक गाडी आ कर रुकी और उस में से एक बुज़ुर्ग दंपती उतरे.

तनु ने फ़ौरन सवाल दाग दिया, “आप लोग अकेले ही आए हैं, अम्बर कहां है?” तनु के इस सवाल ने जयनाथ व अन्य को सकते में डाल दिया. इस के पहले कि कोई कुछ जवाब देता, एक आवाज़ उभरी, “मैं यहां हूं, मोटरसाइकिल यहीं लगा दूं?”

तनु ने देखा, तो उसे अपलक  देखते रह गई.  इतना  खूबसूरत बांका नौजवान बिलकुल उस के सपने से मिलताजुलता. उसे लगा, कहीं वह ख्वाब तो नहीं देख रही. इतना बड़ा सुखद आश्चर्य और वह भी इतना ज़ल्दी… तनु की तंद्रा तब भंग हुई जब युवक मोटरसाइकिल पार्क करने की इज़ाज़त मांग रहा था.”

“हां बेटा, जहां इच्छा हो, लगा दो,” जयनाथ ने कहा.

अम्बर ने मोटरसाइकिल लगाई और सभी घर के अंदर दाखिल हो गए. इधरउधर की औपचारिक वार्त्तालाप के बाद तनु बोल पडी, “अगर आप लोग इज़ाज़त दें तो मैं और अम्बर थोड़ा बाहर घूम आएं?”

“गाडी में चलना चाहेंगी या…” अम्बर ने पूछना चाहा, तनु फ़ौरन बोल पड़ी, “मोटरसाइकिल पर, मेरी फेवरेट सवारी है.”

थोड़ी ही देर में अम्बर की मोटरसाइकिल हवा से बातें कर रही थी. समंदर के किनारे फर्राटे से दौड़ती मोटरसाइकिल में बैठ कर तनु खुद को किसी अन्य दुनिया में महसूस कर रही थी. “नारियल पानी पीना है,”  तनु ने जोर से कहा. “पूछ रही हैं या कह रही हैं?”

“कह रही हूं, तुम्हें पीना हो तो पी सकते हो.”

अम्बर ने फ़ौरन मोटरसाइकिल घुमा दी. विपरीत दिशा से आती गाड़ियों के बीच मोटरसाइकिल को कुशलता से निकालते हुए दोनों नारियल पानी वाले के पास पहुंच गए. अम्बर ने एक सांस में ही नारियल पानी ख़त्म कर दिया और नारियल वाले को उछल कर जेब से पर्स निकाल कर पैसे दे दिए, “मैं ने अपने नारियल के पैसे दे दिए, आप अपने दे दीजिए.

तनु अवाक हो कर अम्बर को ताकने लगी.

“बुरा मत मानिएगा तनु जी, आप का मेरा अभी कोई रिश्ता नहीं है, मैं क्यों आप पर खर्च करूं?”

तनु हार मानने वालों में से नहीं थी, “और जो आप के मातापिता हमारे घर पर काजू, किशमिश और चायकौफी उड़ा रहें हैं, उस का क्या?”

“बात तो सही है. हम दिल्ली वाले हैं, मुफ्त के माल पर हाथ साफ़ करना हमें खूब आता है,” अम्बर ने हंसते हुए कहा, “चिंता न करें, मैं दोनों के पैसे दे चुका हूं, नारियल वाला छुट्टा करवाने गया है.“ अम्बर की इस बात पर तनु हंसे बगैर नहीं रह पाई.

अम्बर के जूते मिटटी में सन गए थे. उस ने पौलिश वाले बच्चे से जूते पौलिश करवाए. तब तक नारियल वाला आ चुका था.

“आप ने देशविदेश में कहां की सैर की है?” तनु ने पूछा तो मानो अम्बर के पास जवाब हाज़िर थे, “यह पूछिए कहां नहीं गया.  नौकरी ही ऐसी है, पूरा एशिया और यूरोप का कुछ हिस्सा मेरे पास है. आनाजाना लगा रहता है.”

“क्या फर्क लगता है आप को अपने देश में और परदेस में?

“इस का क्या जवाब दूं, सभी जानते हैं, हम हिंदुस्तानी कानून तोड़ने में विश्वास करते हैं. नियम न मानना हमारे लिए गर्व की बात है. वहां के तो जानवर भी कायदेकानून की हद से बाहर नहीं जाते.”

“फिर क्या होगा अपने देश का?”

“जहां तक देश का सवाल है, सबकुछ चल ही रहा है और चलता रहेगा. युवा विदेशों की तरफ भाग रहे हैं और सरकार उन्हें रोकने का कोई ठोस कार्यक्रम नहीं बना रही. अब मुंबई को ही देख लीजिए, नेता सरकार बनाने के लिए अपनी सोच और अपना दल बदलते रहते हैं और लोग अपना दिल.” एक पल के लिए रुक कर अम्बर ने एक नज़र घुमाई और फिर बोला, “ फिलहाल तो यह सोचिए कि हमारा क्या होगा, आसमान पर बादल छा रहे हैं और मेरे 10 तक की गिनती गिनने तक बरसात हमें अपनी आगोश में ले लेगी.”

‘घर तो जाना ज़रूरी है. मेरी दूसरी शिफ्ट भी है,’  तनु मन ही मन बुदबुदाई और फिर ऊंची आवाज़ में बोली, “चलते हैं. और अगर भीग भी गए तो मुझे फर्क नहीं पड़ता, मुझे बरसात में भीगना पसंद है.”

“मुझे भी,” अम्बर ने मोटरसाइकिल स्टार्ट करते हुए कहा, “ मगर, यों भीगने से पहले थोड़ा इंतजार करना अच्छा नहीं रहेगा? चलिए, पास में ही ताज के रेस्तरां में एक कप कौफ़ी हो जाए, यह मेरा रोज़ का सिलसिला है.”

तनु ने मुसकरा कर हामी भर दी. अगले चंद ही मिनटों में वे दोनों ताज के रेस्तरां में थे. अम्बर ने ऊंची आवाज़ में वेटर को आवाज़ दी और जल्दी से 2 कप कौफ़ी लाने का और्डर दिया. कौफ़ी ख़त्म कर के अम्बर ने एक बड़ा नोट बतौर टिप वेटर को दिया और दोनों बाहर आ गए. बारिश रुकने के बजाय और भी उग्र हो चुकी थी.

पूरे रास्ते तेज बरसात में भीगते हुए तनु को बहुत आनंद आ रहा था. घर पहुंचतेपहुंचते दोनों तरबतर हो चुके थे. अम्बर के मातापिता मानो उन का इंतजार ही कर रहे थे. उन के आते ही औपचारिक बातचीत कर के सभी वहां से चल पड़े.

“कैसा लगा लड़का?”  भाभी ने उतावलेपन से पूछा तो तनु ने स्पष्ट कर दिया, “भाभी, दूसरे लड़के को मना ही कर दो, कह दो मेरी तबीयत ठीक नहीं है. मुझे अम्बर पसंद है.”

“तनु, अब अगर वे आ ही रहे हैं, तो आने दो.  कुछ समय गुजार कर उन्हें रुखसत कर देना. कम से कम हमारी बात रह जाएगी.”

“लेकिन भाभी, जब मुझे अम्बर पसंद है तो इस स्वयंबर की क्या ज़रूरत है?

ठीक 4 बजे एक लंबीचौड़ी गाडी आ कर रुकी. गाडी में से एक संभ्रांत उम्रदराज़ जोड़ा और एक नवयुवक उतरा. पूरे परिवार ने बड़े ही सम्मान से उन का स्वागत किया.

तनु ने एक नज़र लड़के पर डाली और उस के मुंह से अनायास ही निकल गया, “आप सूटबूट में तो ऐसे आए हैं, मानो किसी इंटरव्यू में आए हों?” जयनाथ ने इशारे से तनु को हद में रहने को कहा.

जवाब में सब ने एक ठहाका लगाया और युवक ने बिना झिझके कहा, “आप सही कह रही हैं, एक तरह से मैं एक इंटरव्यू से दूसरे इंटरव्यू में आया हूं. दरअसल, हम यहां का कामा होटल खरीदने का इरादा बना रहे हैं. अभी उन के निदेशकों से मीटिंग थी. वह किसी इंटरव्यू से कम नहीं थी. और यह भी किसी इंटरव्यू से कम नहीं.”

तनु को कोई उत्तर नहीं सूझा. मगर, इधरउधर की औपचारिक बातें करने के वह मुख्य मुद्दे पर आ गई और उस ने कह दिया, “अगर आप लोग इज़ाज़त दें तो मैं और आकाश थोड़ा समय घर से बाहर…”

“हां ज़रूर,” लगभग सब ने एकसाथ कहा.

आकाश ने ड्राइवर से चाबी ली और तनु के लिए गाडी का दरवाज़ा खोल कर बैठने का आग्रह किया. तनु की फरमाइश पर गाड़ी ने गेटवे औफ़ इंडिया का रुख किया.  “यहां से एक शौर्टकट है, आप चाहें, तो ले सकते हैं, 15-20 मिनट बच जाएंगे.” “तनु जी, आप भूल रही हैं कि इधर नो एंट्री है,”  आकाश ने कहा. फिर, मानो उसे कुछ याद आया, बोला, “अगर आप बुरा न मानें, तो मैं रास्ते में सिर्फ 10 मिनटों के लिए होटल कामा में रुक जाऊं. वहां के निर्दशकों का मैसेज आया है, वे मुझ से मिलना चाहते हैं.”

तनु ने अनमने मन से हां कर दी. आकाश ने तनु को कौफी शौप में बिठाया. वेटर को आवाज़ दे कर कौफी और चिप्स का और्डर दिया और खुद माफी मांग कर बोर्डरूम की तरफ चला गया. ठीक 10 मिनट के बाद जब आकाश आया तो उस के चेहरे पर खुशी और विजय के भाव थे. “मेरा पहला इंटरव्यू कामयाब हुआ. यहां की डील फाइनल हो गई है. तनु जी,  आप हमारे लिए बहुत लकी साबित हुईं,” यह कह कर अम्बर ने वेटर से बिल लाने को कहा. मैनेजर ने बिल बनाने से इनकार कर दिया, बोला, “यह हमारी तरफ से.”

“नहीं मैनेजर साहब, अभी हम इस होटल के मालिक बने नहीं हैं. और बन भी जाएं, तो भी मैं नहीं चाहूंगा कि हमें या किसी और को कुछ भी मुफ्त में दिया जाए. मेरा मानना है की मुफ्त में सिर्फ खैरात बांटी जाती है और खैरात इंसान की अगली नस्ल तक को बरबाद करने के लिए काफी होती है.”

होटल के बाहर निकल कर आकाश ने तनु की ओर नज़र डाली और कहा, “बहुत दिनों से लोकल  में सफ़र करने की इच्छा थी, आज छुट्टी का दिन है, भीड़भाड़ भी कम होगी. क्यों न हम यहां से लोकल ट्रेन में चलें, फिर वहां से टैक्सी…” तनु ने अविश्वास से आकाश की ओर देखा और दोनों स्टेशन की तरफ चल पड़े.

“आप तो अकसर विदेश जाते रहते होंगे,  क्या फर्क लगता है हमारे देश में और विदेशों में?

“सच कहूं तो लंदन स्कूल औफ़ इकोनौमिक्स से डिग्री लेने के बाद मैं विदेश बहुत कम बार गया हूं. आजकल के जमाने में इंटरनैट पर सबकुछ मिल जाता है और जहां तक घूमने की बात है, यूरोप की छोटीमोटी भुतहा इमारतें, जिन्हें वे कैशल के नमूने कहते हैं और प्रवेश के लिए बीसों यूरो ले लेते हैं, उन के मुकाबले बीकानेर या जैसलमेर के महल और किले मुझे ज्यादा भव्य लगते हैं. स्विट्ज़रलैंड से कहीं अच्छा हमारा कश्मीर है, सिक्किम है, अरुणाचल है.  बस, ज़रूरत है सफाई की, सुविधाओं की और ईमानदारी की.”

“जो हमारे यहां नहीं है, है न?” तनु ने प्रश्न किया.

“आप इनकार नहीं कर सकतीं कि बदलाव आया है और अच्छी रफ़्तार से आया है. जागरूकता बढ़ी है, देश की प्रतिष्ठा बढी है, हमारे पासपोर्ट की इज्ज़त होनी शुरू हो गई है. आज का भारत कल के भारत से कहीं अच्छा है और कल का भारत आज के भारत से लाख गुना अच्छा होगा.”

“आप तो नेताओं जैसी बात करने लगे आकाश जी,” तनु को उस की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी.

गेटवे के किनारे तनु ने नारियल पानी पीने की इच्छा जाहिर कर दी. दोनों ने नारियल पानी पिया.  इसी दौरान आकाश ने पास में फुटबौल खेल रहे बच्चों के साथ कुछ समय गुजारा. “बड़े दिनों बाद आज फुटबौल  पर हाथ साफ़ किया है, या यों कहूं कि पैर साफ़ किया है. हमारे क्लब में तो गोल्फ, स्क्वाश, टेनिस आदि खेल कर ही लोग खुश होते रहते हैं. शायद, यही खेल उन का परिचय है. इन्हीं खेलों की ट्रौफी उन की पहचान है,” यह कहने के साथ आकाश के चेहरे पर मुसकान थी. आकाश के जूते मिटटी से सन गए थे.  पौलिश करने वाले दोतीन बच्चों ने उसे घेर लिया और पौलिश करवाने का आग्रह करने लगे. आकाश उन सब को ले कर कोने में गया मानो उन से कोई ज़रूरी मंत्रणा करनी हो.

सही कहा गया है कि इंसान के हालात का और मुंबई की बरसात का कोई भरोसा नहीं. एक बार फिर बादलों ने पूरे माहौल को अपनी आगोश में कर लिया और चारों ओर रात जैसा अंधेरा छा गया. अगले ही पल मोटीमोटी बूंदों ने दोनों को भिगोना शुरू कर दिया. दोनों ने भाग कर पास की एक छप्परनुमा दुकान में घुस कर गरमगरम भुट्टों पर अपना हाथ साफ़ कर दिया. आकाश ने जेब से पैसे निकाले और भुट्टे वाली बुज़ुर्ग महिला के हाथ में थमा दिए. उस की नज़र उमड़ते बादलों पर ही थी. प्रश्नवाचक दृष्टि से उस ने तनु की ओर देखा और दोनों बाहर निकल गए.  टैक्सी लेने की तमाम कोशिशें नाकामयाब होने के बाद दोनों स्टेशन की ओर पैदल ही निकल पड़े. रास्ते में आकाश ने ड्राइवर को फ़ोन कर के कामा होटल से गाड़ी ले कर स्टेशन पर आने को कह दिया .

घर पहुंचतेपहुंचते रात हो चुकी थी. आकाश और उस के परिवार वालों ने इज़ाज़त मांगी. उन के जाते ही जयनाथ कुछ कहने के लिए मानो तैयार ही थे, “कितने पैसे वाले लोग हैं, मगर कोई मिजाज़ नहीं, कोई घमंड नहीं.  हम जैसे मिडिल क्लास वालों की लड़की लेना चाहते हैं. दहेज़ की मांग नहीं, यहां तक कि…”

“तो मुझे क्या करना चाहिए, अम्बर के बजाय आकाश को पसंद कर लेना चाहिए क्योंकि आकाश करोड़पति है. उस के मातापिता घमंडी नहीं हैं. वे धरातल से जुड़े हैं. और सब से बड़ी बात कि उन्हें हम, हमारा परिवार,  हमारी सादगी पसंद हैं. मेरी पसंद मैं भाभी को सुबह ही बता चुकी हूं. आकाश से मिलने के बाद मेरी पसंद में  कोई तबदीली नहीं आई है.”

“ठीक है, इस बारे में हम बाकी बातें कल करेंगे,” जयनाथ ने लगभग पीछा छुडाते हुए कहा.

रात के करीब 2 बजे तनु ने भाभी को फ़ोन मिलाया, “भाभी, मुझे आप से मिलना है. भैया तो बाहर गए हैं. ज़ाहिर है आप भी जग रही होंगी. मुझे अम्बर के बारे में कुछ बात करनी है. मै आ जाऊं?”

“तनु, मैं गहरी नींद में हूं. हम सुबह मिलें?”

“मैं तो आप के दरवाज़े पर ही हूं. गेट खोलेंगी या खिड़की से आना पड़ेगा?”

अगले ही पल तनु अंदर थी. बातों का सिलसिला शुरू करते हुए भाभी ने तनु से पूछा, “तुम मुझे अपना फैसला सुना चुकी हो. अब इतनी रात मेरी नींद क्यों खराब कर रही हो?”

“भाभी, अम्बर को फ़ोन कर के कहना है कि मैं उस से शादी नहीं कर सकती.”

“क्या?”  भाभी को लगा कि वह अभी भी नींद में ही है. पलक झपकते ही तनु ने अम्बर को फ़ोन लगा दिया, “हेलो अम्बर, मैं तनु बोल रही हूं. मैं इधरउधर की बात करने के बजाय सीधा मुद्दे पर आना चाहती हूं.”

“ठीक है, जल्दी बता दो. मैं इधर हूं या उधर.”

“इधरउधर की छोड़ो और सुनो, सौरी यार, मैं तुम से शादी नहीं कर सकती.”

“ठीक है, मगर इतनी रात को क्यों बता रही हो, सुबह बतातीं?”

“सुबह तक मेरा दिमाग बदल गया तो…? तुम हो ही ऐसे कि तुम्हें मना करना बहुत मुश्किल है.”

“अच्छा, औल द बेस्ट. अब सो जाओ और मुझे भी सोने दो. किसी उधर वाले से शादी तय हो जाए तो जगह, तारीख वगैरह बता देना, मैं आ जाऊंगा, मुफ्त का खाना खा कर चला आऊंगा.”

“मुफ्ती साहब, गिफ्ट लाना पड़ेगा.  शादी में खाली लिफ़ाफ़े देने का रिवाज़ दिल्ली में होगा, मुंबई में नहीं.”

“ठीक है, दोचार फूल ले आऊंगा. अब मुझे सोने दो. सुबह मेरी फ्लाइट है.”

भाभी, सकते में थीं.”  यह सब क्या है तनु? तुम तो अम्बर पर फ़िदा हो गई थीं. क्या आकाश का पैसा तुम्हें आकर्षित कर गया, क्या उस की बड़ी गाड़ी अम्बर की मोटरसाइकिल से आगे निकल गई?”

“भाभी, अम्बर पर फ़िदा होना स्वाभाविक है. ऐसे लड़के के साथ घूमनाफिरना मजे करना अच्छा लगेगा.  मगर शादी ऐसा बंधन है जिस में एक गंभीर, संजीदा इंसान चाहिए न कि कालेज से निकला हुआ एक हीरोनुमा लड़का. हम घर से बाहर निकले, आकाश ने पूरी शिद्दत के साथ ट्रैफिक के सारे नियमों का पालन किया. मेरे लाख कहने के बावजूद उस ने गाड़ी नो एंट्री में नहीं घुमाई.  अपने देश के बारे में उस के विचार सकारात्मक थे. उसे देश से कोई शिकायत न थी. रेस्तरां में वेटर से इज्ज़त से बात की, न कि उसे वेटर कह कर आवाज़ दी. मुफ्त का खाने के बजाय उस ने पैसे देने में अपनी खुद्दारी समझी.  बड़ी गाड़ी छोड़ कर लोकल ट्रेन में जाने में उसे कोई परहेज नहीं.  नारियल पानी पी कर उस ने नारियल एक ओर उछाला नहीं, बल्कि डस्टबिन की तलाश की. पौलिश करने वाले बच्चों को कोने में ले गया और उन्हें स्कूल जाने के लिए प्रेरित किया. सब को कौपीपेंसिल खरीदने के लिए पैसे दिए. भुट्टे वाली माई को उस ने जब मुट्ठीभर के पैसे दिए तो उस का सारा ध्यान इस पर था कि मैं कहीं देख न लूं. इतने पैसे उस भुट्टे वाली ने एकसाथ कभी नहीं देखे होंगे… इतने  संवेदनशील व्यक्तित्व के मालिक के सामने मै एक प्यारे से हीरो को चुन कर जीवनसाथी बनाऊं, इतनी बेवकूफ मैं लगती ज़रूर हूं मगर हूं नहीं..”

भाभी, सिर पर हाथ रख कर बैठ गईं.

“क्या सिरदर्द हो रहा है?”

“ नहीं, बस, चक्कर से आ रहे हैं.”

“रुको, अभी सिरदर्द भी हो जाएगा,” तनु ने कहा तो भाभी बोल पड़ीं, “अब क्या बाकी है?”

तनु ने फ़ोन उठाया और एक नंबर मिलाया, “हेलो आकाश,  मैं ने फैसला कर लिया है, मुझे आप पसंद हैं. मैं आप से शादी करने को तैयार हूं. मुझे पूरा यकीन है कि मैं भी आप को पसंद हूं.”

“तुम ने फैसला ले कर मुझे बताने का समय जो चुना वह वाकई काबिलेतारीफ़ है,” दूसरी ओर से आवाज़ आई.

“है न, मगर भाभी इस बात को मानती ही नहीं. देखो, मुझे धक्के मार कर अपने कमरे से बाहर निकालने को उतारू हैं…”

Moral Stories in Hindi : नासमझी

Moral Stories in Hindi :  घड़ी पर नजर पड़ते ही नाइशा बैग उठा कर तुरंत घर से बाहर निकल गई. तभी पीछे से विवान ने आवाज दी, ‘‘लौटते समय घर का कुछ सामान लाना है.’’

‘‘विवान कितनी बार कहा है जाते समय  यह सब मत बताया करो.’’

‘‘तुम्हें फुरसत ही कहां रहती है बात करने की,’’ विवान बोला.

नाइशा इस समय इन बातों में उलझना नहीं चाहती थी. अत: बोली, ‘‘ठीक है मुझे मैसेज कर लिस्ट भेज देना आते हुए ले आऊंगी,’’ और गाड़ी स्टार्ट कर घर से निकल गई.

नाइशा को विवान पर झुंझलाहट हो रही थी जो अकसर घर से निकलते हुए उसे इसी तरह से सामान के बहाने रोक दिया करता था. उसे यह जरा भी अच्छा न लगता. रास्तेभर वह विवान पर झुंझलाती रही. गनीमत थी वह सही समय पर औफिस पहुंच गई. पार्किंग में गाड़ी खड़ी कर वह सीधे अपने कैबिन में पहुंची. उस की सांसें अभी तक फूल रही थी. उस ने बैग मेज पर रखा और सीट पर आराम से पसर गई.

सामने की सीट पर बैठी रूही उसे ध्यान से देख रही थी. रूही उस की सीनियर थी. थोड़ी देर बाद रिलैक्स हो कर उस ने बैग खोल कर चश्मा निकाला और अपने काम पर लग गई.

तभी विवान ने उसे मैसेज कर दिया. घर के कुछ जरूरी सामान के अलावा उस में उस का अपना भी कुछ सामान लिखा हुआ था. उसे पढ़ कर उस की खीज और बढ़ गई. वह बड़बडाई, ‘‘हद होती है.विवान अपने लिए रेजर तक भी खुद नहीं ला सकता. वह भी उसे ही ले कर जाना होता है.’’

रूही कई दिनों से नोटिस कर रही थी कि नाइशा हमेशा इसी तरह भागती दौड़ती औफिस आती और यहां आते ही थोड़ी देर के लिए कुरसी पर पसर जाती फिर उस के बाद काम शुरू करती.

तभी मोहन चाय ले कर आ गया. रूही ने उसे अपना कप भी नाइशा की मेज पर रखने का इशारा किया और उठ कर उस के पास आ गई.

‘‘सबकुछ ठीक तो है नाइशा? देख रही हूं औफिस में घुसते हुए तुम्हारे चेहरे पर बड़ा तनाव रहता है. ऐसी हालत में तुम गाड़ी चला कर आती हो. तुम्हें अपना खयाल रखना चाहिए.’’

रूही बोली तो नाइशा अपने को रोक नहीं सकी, ‘‘पता नहीं क्यों हमेशा औफिस आते हुए विवान मु?ो किसी ने किसी काम के बहाने रोक देते हैं. इस से मु?ो देर हो जाती है और मेरी खीज भी बढ़ जाती है.’’

‘‘उन की बात का बुरा नहीं मानना चाहिए. छोटीछोटी बातों पर इसी तरह ब्लड प्रैशर बढ़ाओगी तो काम कैसे चलेगा?’’

‘‘विवान दिनभर घर पर रहते हैं. वर्क फ्रौम होम करते हैं. मुझे औफिस आना होता है. उस के बावजूद घर के सब काम मुझे ही देखने होते हैं. वे काम में मेरा जरा भी हाथ नहीं बंटाते. यहां तक कि दोपहर का लंच भी मुझे ही बना कर आना होता है.’’

‘‘आज के समय में गृहस्थी पतिपत्नी दोनों मिल कर चलाते हैं. तुम दोनों एकदूसरे को कब से जानते हो?’’

‘‘हम एकसाथ कालेज में पढ़ते थे. हमारी दोस्ती बहुत पुरानी है. इंजीनियरिंग करते ही हम ने घर वालों की मरजी के खिलाफ शादी कर ली. वे अपने घर का इकलौता बेटे हैं. मैं 3 भाईबहनों में सब से छोटी हूं. मुझे घर पर मम्मी के साथ काम करने की आदत थी लेकिन विवान को नहीं. शुरूशुरू में मैं ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया और सब काम खुद ही निबटा लेती थी. मुझे उन के लिए काम करना अच्छा लगता था. नौकरी की शुरुआत के साथ ही कोरोना आ गया और हम दोनों वर्क फ्रौम होम करने लगे. घर पर रह कर मैं औफिस के काम के साथ घर को भी अच्छे से देख लेती थी. अब जब महामारी खत्म हो गई तो मुझे औफिस आना पड़ता है. वे अभी भी घर से काम करते हैं. इस से मेरी भागदौड़ काफी बढ़ गई है. यह बात वे नहीं समझते.’’

‘‘थोड़ा सब्र रखो नाइशा. कुछ समय बाद वे भी औफिस जाने लगेंगे तो तुम्हारी जिंदगी फिर से पटरी पर आ जाएगी और तुम्हारी परेशानी दूर हो जाएगी,’’ रूही बोली.

उस की बातों से नाइशा को थोड़ी तसल्ली मिली. वे दोनों हमउम्र तो नहीं थीं लेकिन रूही उस का काफी खयाल रखती थी. नाइशा औफिस से घर जाते हुए बाजार की खरीदारी करती हुई जाती. सागसब्जी से ले कर घर का दूसरा सारा सामान उसे ही लाना पड़ता था. इस के अलावा विवान को जो कुछ चाहिए होता उसे लेने भी वह घर से बाहर न निकलता. उस ने कई बार यह बात उठाई भी लेकिन उस ने इस पर ध्यान नहीं दिया.

‘‘नाइशा तुम जानती हो घर से काम करते हुए मैं जरा देर के लिए भी कंप्यूटर के आगे से हट नहीं सकता. कम से कम तुम औफिस के बहाने घर से बाहर तो निकल जाती हो और 4 लोगों से मिल कर अपना मन भी हलका कर लेती हो. मुझे दिनभर स्क्रीन के सामने बैठे रहना होता है. तुम मार्केट से हो कर आती हो. यह काम भी कर लोगी तो क्या फर्क पड़ जाता है.’’

‘‘समझा करो विवान सुबह नाश्ते से ले कर रात डिनर तक सबकुछ मुझे ही देखना पड़ता है.’’

‘‘मैं ने तो कहा था किसी बाई को खाना बनाने के लिए रख लेते हैं लेकिन तुम इस के लिए राजी नहीं हुईं. तुम्हें काम भी अपने सामने ही चाहिए और वह भी तुम्हारे हिसाब से. भला ऐसे में कैसे काम चलेगा? दूसरे से काम लेना है तो भरोसा तो करना होगा. तुम्हें किसी पर भरोसा भी नहीं रहता. न मुझ पर न काम वालों पर.’’

विवान बोला तो नाइशा चुप हो गई. यह बात सच थी कि वह पीठ पीछे किसी और औरत को घर पर नहीं आने देना चाहती थी. कौन जाने दूसरे की नियत कैसी हो? यही सोच कर उसने किसी कामवाली को खाना बनाने के लिए नहीं रखा था. विवान स्वभाव से थोड़ा चंचल भी था. हर किसी से घुलमिल कर बात करता. यह बात उसे पसंद नहीं थी. घर पर बरतन धोने और साफसफाई के लिए मुन्नी सुबह 7 बजे आ जाती थी और उस के जाने से पहले काम खत्म कर लेती थी. वह उसे भी केवल एक समय सुबह अपने सामने बुलाती.

घर और नौकरी के चक्कर में नाइशा पर काफी बोझ पड़ रहा था. विवान को बचपन से काम की आदत नहीं थी. वह अभी भी इस परिपाटी को निभा रहा था. वे दोनों बराबर कमाते थे. घर के काम उस की हर खुशी के बीच रुकावट बने हुए थे. जब उस का मन शाम को घर पर काम करने का न होता तो वे दोनों किसी रैस्टोरैंट में खाना खाने चले जाते. उन दोनों के पेमैंट के काम बंटे हुए थे .घर का किराया और उस से संबंधित बिल विवान देखते थे और खानेपीने का सारा खर्चा नाइशा उठाती थी. रोजरोज बाहर खाना उस के बजट से बाहर था. उसे समझ नहीं आ रहा था वह अपनी समस्या कैसे सुलझाए?

इस बात को ले कर उन के बीच का आपसी प्यार भी कम होता जा रहा था. नाइशा को औफिस से लौट कर घर के कामों से फुरसत न मिलती और विवान उस की समस्या को कोई तवज्जो नहीं दे रहा था. नाइशा चाहती थी उस के औफिस में भी काम शुरू हो जाए तो कम से कम वह भी घर से बाहर निकल कर उस के कुछ कामों में हाथ बंटा दे लेकिन अभी वह स्थिति नहीं आई थी. पता नहीं कितने समय तक यह सब और चलने वाला था. कभीकभी वह रूही से अपने मन की बात कह कर थोड़ा हलका हो जाती थी. इस के अलावा उसने अपनी परेशानी किसी और के साथ शेयर नहीं की थी.

एक दिन औफिस के काम से रूही और नाइशा को दूसरे औफिस जाना था. उन्हें लंच तक लौटने की उम्मीद थी लेकिन वक्त थोड़ा ज्यादा लग गया.

लौटते हुए रास्ते में रूही बोली, ‘‘मेरा घर पास में ही है. वहां से होते हुए चलते हैं. कुछ खा लेंगे वरना पूरा दिन औफिस में भूखा रहना पड़ेगा.’’

नाइशा ने उस की बात का विरोध नहीं किया. फ्लैट में पहुंचते ही घंटी की एक आवाज पर दरवाजा खुल गया. सामने एक दुबलापतला स्मार्ट आदमी खड़ा था. औपचारिकतावश उस ने हाथ जोड़ दिए. वह उन के लिए पानी ले आया.

‘‘हमें जल्दी वापस जाना है.’’

‘‘मैं ने डाइनिंगटेबल पर खाना लगा दिया है. आप दोनों आराम से लंच कर सकते हैं.’’

दोनों जल्दी से हाथ धो कर लंच करने लगीं. खाना बहुत स्वादिष्ठ था. रूही ने घड़ी पर नजर डाली और बोली, ‘‘चलते हैं वरना औफिस पहुंचने में देर हो जाएगी.’’

कुछ ही देर में वे औफिस में पहुंच गए. जरूरी डौक्यूमैंट सबमिट कर वे अपने कैबिन में आ गए.

नाइशा असमंजस मे थी कि दोपहर में रूही के घर पर कौन था? बात आगे बढ़ाने के लिए बोली, ‘‘लंच बहुत लजीज बना था.’’

‘‘पार्थ बहुत अच्छा खाना बनाते हैं.’’

‘‘आप ने घर में कुक रखा है,’’

यह सुन कर रूही हंसने लगी, ‘‘शायद तुम ने पहचाना नहीं पार्थ मेरे पति हैं.’’

यह सुन कर नाइशा सकपका गई. उसे सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि भरे बदन की रूही के पति दुबले, पतले और स्मार्ट होंगे.

‘‘तुम ने परिचय ही नहीं कराया इसलिए धोखा हो गया.’’

‘‘जल्दबाजी में भूल गई. मैं ने उन्हें सुबह ही बता दिया था कि अगर मीटिंग में टाइम लगा तो हम दोनों खाना खाने दोपहर में घर आएंगे. बस उन्होंने हमारे लिए अच्छा लंच तैयार कर दिया.’’

इस से ज्यादा कुछ पूछने की नाइशा की हिम्मत नहीं हो रही थी.

रूही बोली, ‘‘यह तो तुम भी जानती हो पार्थ एक मल्टी नैशनल कंपनी में काम करते हैं. आजकल वे भी वर्क फ्रौम होम कर रहे हैं. वे मेरा बहुत खयाल रखते हैं. घर का सारा काम वही देखते हैं. मु?ो घर की कोई परवाह नहीं रहती.’’

‘‘एक इंजीनियर हो कर उन्होंने यह सब कहां सीखा?’’

‘‘मेरी सासूमां ने पार्थ को यह सब सीखने के लिए प्रेरित किया. वे एक सम?ादार महिला हैं. वे जानती हैं जब पतिपत्नी दोनों नौकरी करते हैं तो घर के काम भी दोनों को मिल कर करने चाहिए. जब हम दोनों वर्क फ्रौम होम कर रहे थे तब वे हमारे साथ थीं. उन्होंने ही पार्थ को यह सब करना सिखाया. उसी की बदौलत आज हमारी गृहस्थी बहुत अच्छी चल रही है.’’

‘‘आप ने यह सब पहले नहीं बताया?’’

‘‘इस की जरूरत ही नहीं पड़ी. मैं अपनी नौकरी और परिवार दोनों से संतुष्ट हूं.’’

‘‘मेरे ओर से उन से माफी मांग लीजिएगा. मैं उन्हें पहचान नहीं पाई.’’

‘‘अकसर लोगों को धोखा हो जाता है इसलिए मैं ने भी इस की जरूरत नहीं समझ.’’

थोड़ी देर बातें करने के बाद वे अपने काम में मशगूल हो गए. नाइशा सोच भी नहीं सकती थी कि जिस के सामने वह अपने हालात का दुखड़ा रोती थी उन के घर में ठीक उस के विपरीत परिस्थितियां हैं. वहां काम को ले कर कोई तनाव ही नहीं.

नाइशा अब अपनी तुलना रूही से करने लगी. दोनों के हालात में जमीनआसमान का अंतर था. उसे अफसोस हो रहा था कि वह बेकार में ही अपनी रोज की परेशानी रूही को बताती. उसे इन सब से कुछ भी लेनादेना नहीं था. वह उस के दर्द का एहसास कर ही नहीं सकती थी. फिर भी उस ने अपनी ओर से कभी यह बात उसे महसूस नहीं होने दी.

उस दिन से नाइशा ने अपने घर की बातें रूही के साथ बांटना कम कर दिया. यह बात रूही को अच्छी नहीं लग रही थी लेकिन वह उसे कुरेद कर कुछ पूछने के पक्ष में नहीं थी. वह चाहती थी नाइशा और विवान की गृहस्थी ठीक से पटरी पर आ जाए लेकिन परिस्थितियां उस का साथ नहीं दे रही थीं.

एक दिन घर से निकलते हुए जब विवान ने नाइशा को टोका तो वह अपने को काबू में न रख सकी और फट पड़ी, ‘‘बहुत हो गया विवान. अब मेरी सहनशक्ति जवाब देने लगी है.’’

‘‘ऐसा क्या कर दिया मैं ने?’’

‘‘अपनेआप से पूछो. तुम और मैं दोनों बराबर कमाते हैं. इस के बावजूद इस घर में मेरी स्थिति क्या है और तुम्हारी क्या?’’

‘‘मुझे तो कोई अंतर नजर नहीं आता. जो कुछ तुम पहले करती थीं वही आज भी कर रही हो. कोई नई बात तो नहीं है. मैं ने अपने परिवार वालों का बोझ भी तुम पर नहीं डाला हुआ है,’’ विवान बोला.

नाइशा बोलना तो बहुत कुछ चाहती थी लेकिन उसे औफिस के लिए देर हो रही थी.

‘‘शाम को बात करती हूं,’’ कह कर वह एक झटके में कमरे से बाहर निकल गई.

आज उस का मूड बहुत ज्यादा खराब था. औफिस जा कर भी वह उस के चेहरे पर साफ दिखाई दे रहा था. उस का जी रोने का कर रहा था लेकिन कोई ऐसा कंधा नहीं था जिस पर सिर रख कर वह अपने अंदर का गुबार निकाल सके.

उस की हालत देख कर रूही से न रहा गया. वह उस के पास आ कर बोली, ‘‘बड़ी अपसैट लग रही हो नाइशा?’’

‘‘अब मेरे हालात बरदाश्त की सीमा से बाहर हो रहे हैं. सबकुछ सहना मुश्किल होता जा रहा है. सम?ा नहीं आ रहा क्या करूं?’’

‘‘मेरी एक सलाह है. कुछ दिनों के लिए तुम दोनों कहीं घूमने चले जाओ. एकसाथ समय बिताओगे और पुराने समय को याद करोगे तो तुम्हें अच्छा महसूस होगा. तुम्हारे रिश्ते में फिर से ताजगी आ जाएगी.’’

‘‘पता नहीं विवान इस के लिए राजी होंगे या नहीं.’’

‘‘छुट्टी की प्रौब्लम है तो शनिवार और रविवार 2 दिन ऐंजौय कर सकती हो. दूर नहीं नजदीक चली जाओ. माहौल बदलेगा तो तुम्हारे अंदर की कुंठा भी दूर हो जाएगी.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो रूही. मैं बात कर के देखती हूं.’’

‘‘अगर पास में जाना है तो यहां से 100 किलोमीटर दूर मेरा कजिन डेली लाइट होटल में मैनेजर है. मैं उस से कह कर बड़ा डिस्काउंट भी दिलवा दूंगी. तुम दोनों आराम से कुछ समय साथ बिताना. देखना तुम्हारा मन पहले की तरह खिल उठेगा.’’

नाइशा को रूही की सलाह अच्छी लगी.

‘‘मैं कोशिश करती हूं कि विवान 2 दिन के लिए ही सही इस माहौल से दूर घूमने के लिए राजी हो जाएं.’’

‘‘तुम प्यार से कहोगी तो वे मान जाएंगे. मैं आरव को फोन कर के बता दूंगी. तुम बिलकुल चिंता मत करना. अच्छी जगह पर रह कर क्वालिटी टाइम बिताना. सबकुछ ठीक हो जाएगा.’’

रूही की बातों से उसे बड़ा सहारा मिला. काम के दौरान वह सुबह वाली बात भूल गई. शाम को घर आ कर रोज की तरह काम निबटाते हुए बोली, ‘‘बहुत दिनों से हम कहीं बाहर नहीं गए. इस वीकैंड पर दूसरे शहर चलते हैं.’’

‘‘मैं भी सोच रहा था हमें एकदूसरे के साथ वक्त बिताना चाहिए. घर पर रह कर माहौल दूसरा ही हो जाता है. यहां काम के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता. कल शुक्रवार को निकल पड़ते हैं.’’

नाइशा की उम्मीद के विपरीत विवान तुरंत जाने के लिए तैयार हो गया. उस ने भी भले काम में देर नहीं की और रूही के बताए हुए होटल में 2 दिन बिताने का मन बना लिया. उस ने होटल में फोन कर कमरा बुक कर दिया. आरव ने उस की खबर रूही को दे दी. यह सुन कर वह खुश हो गई.

‘‘पार्थ चलो हम आरव से मिल कर आते हैं.’’

‘‘अचानक तुम्हें यह क्या सूझ?’’

‘‘वह कई दिनों से कह रहा था. सोच रही हूं इस वीकैंड पर मिलने चलते हैं.’’

पार्थ रूही की इच्छा का हमेशा आदर करता. वह बोला, ‘‘तुम चाहती हो तो मैं अभी से तैयारी कर देता हूं.’’

दोनों ने वहां जाने की तैयारी कर ली. रूही ने यह बात नाइशा को नहीं बताई. शनिवार सुबह रूही और पार्थ को होटल के लान में बैठा देख कर नाइशा चौंक गई, ‘‘रूही तुम यहां?’’

‘‘आरव बहुत समय से बुला रहा था. कल उस का बर्थडे था. मैं ने सोचा उसे सरप्राइज दे दूंगी. तुम ने भी तुरंत प्रोग्राम बना लिया.’’

‘‘हां विवान तैयार हो गए थे. मैं ने भी देर करना ठीक नहीं सम?ा.’’

वे दोनों बात करने लगे. तभी रूही बोली, ‘‘पार्थ ये नाइशा के हस्बैंड हैं विवान और ये मेरे.’’

दोनों का परिचय करा कर वह एक तरफ हो गईं.

थोड़ी देर में उन के लिए आरव ने चाय और स्नैक्स लान में ही भिजवा दिए. वे चाय के साथ स्नैक्स का मजा लेने लगे.

तभी पार्थ बोले, ‘‘मुझे स्नैक्स में कौर्न फ्लोर ज्यादा लग रहा है.’’

यह सुन कर विवान चौंक गया.

‘‘लगता है तुम्हारी खाने पर बड़ी अच्छी पकड़ है.’’

‘‘होगी क्यों नहीं. आखिर घर में कई डिशेज मैं ही बनाता हूं. तुम ने कभी कुछ किचन में ट्राई किया है?’’

‘‘मैं इस ?ामेले से दूर ही रहता हूं.’’

‘‘झमेला कैसा? मुझे खाना बनाने में बड़ा मजा आता है. मैं दिनभर घर पर रह कर औफिस का काम करता हूं. थोड़ी देर दिमाग शांत करने के लिए अपने लिए नईनई डिशेज बनाता हूं और जो अच्छी बन जाती है उसे वह रूही को भी खिलाता हूं. मैं पूछना भूल गया आप कहां काम करते हैं?’’

‘‘मैं भी एक मल्टीनैशनल कंपनी में इंजीनियर हूं. आजकल वर्क फ्रौम होम कर रहा हूं.’’

‘‘तब तो हम दोनों की बहुत अच्छी जमेगी. हमारी पत्नियां औफिस में जा कर काम करती हैं और हम दोनों घर से.’’

उन दोनों को घुलमिल कर बात करते देख कर रूही नाइशा के साथ एक तरफ आ गई. रूही बोली, ‘‘तुम्हारा जब मन करे यहां आ सकती हो. आरव बहुत नेक इंसान है. वह तुम्हारा भी वैसा ही खयाल रखेगा जैसे हमारा रखता है.’’

थोड़ी देर बातें करने के बाद वे अपने रूम में आ गए थे. विवान को पार्थ से मिल कर अच्छा लगा. दोपहर में लंच के समय वे सब फिर इकट्ठा हो गए और साथ मिल कर लंच का मजा ले रहे थे.विवान को एहसास हो रहा था कि पार्थ उसी की तरह घर से काम करते हुए भी रूही का बहुत खयाल रखते हैं. उसे लगा जैसे वह नाइशा के साथ नाइंसाफी कर रहा है. वह बोला, ‘‘पार्थ तुम ने यह सब कहां से सीखा?’’

‘‘मम्मी ने सिखाया है.’’

‘‘आंटी को बुरा नहीं लगता जब तुम किचन में काम करते हो?’’

‘‘बिलकुल नहीं. वे कहती हैं घरगृहस्थी तभी ठीक चलती है जब उस के दोनों पहियों पर बराबर बो?ा हो. एक पर ज्यादा भार पड़ेगा तो गृहस्थी की गाड़ी लड़खड़ाने लगेगी. इसीलिए उन्होंने मु?ो यह सब करने के लिए प्रेरित किया. मेरी गृहस्थी बहुत अच्छी चल रही है. रूही भी खुश है और हमारे घर वालों को हम से कोई अपेक्षा नहीं है. वे हमें खुश देख कर बहुत संतुष्ट रहते हैं.’’

‘‘आंटी की सोच वक्त से बहुत आगे

की है.’’

‘‘एक राज की बात बताऊं. वे ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं है लेकिन दुनियादारी अच्छी तरह समझती हैं. उन्होंने मुझे साधारण खाना बनाना सिखाया था. उस के बाद मैं ने औनलाइन कुकिंग क्लास जौइन की और आज देखो इंजीनियरिंग के साथसाथ कुकिंग में भी ऐक्सपर्ट बन गया.’’

‘‘मेरा ध्यान कभी इस तरफ गया ही नहीं.’’

‘‘तो अब ले जाओ. जानते हो यह पार्टनर को खुश रखने का मूल मंत्र है. खुशी का रास्ता पेट से हो कर जाता है.’’

‘‘मैं तुम्हारी बात का ध्यान रखूंगा.’’

‘‘तुम नाइशा के साथ ज्यादा समय बिताओ वरना उसे लगेगा  नया दोस्त मिलते ही तुम उसे इग्नोर कर रहे हो.’’

‘‘वह ऐसी नहीं है. सब की भावनाओं की कद्र करती है.’’

‘‘तुम्हें भी उस की भावनाओं की इज्जत करनी चाहिए,’’ पार्थ बोला.

लंच कर के वे अपने रूम में आ गए. रूही ने भी नाइशा को यही सलाह दी कि विवान के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताए जिस से उन के बीच की गलतफहमियां दूर हो सकें.

2 दिन कब बीत गए पता ही नहीं चला. इतवार की शाम वे वापस अपने घर आ गए. रूही और पार्थ अगली सुबह आने वाले थे. नाइशा को खुश देख कर विवान को अच्छा लग रहा था. रूही भी घर से बाहर 2 दिन बिता कर खुश थी. पार्थ ने अपने तरीके से विवान को गृहस्थी को पटरी पर लाने का मूल मंत्र दे दिया था. रूही ने इस बारे में पार्थ को कुछ नहीं बताया था.

घर आ कर नाइशा किचन में डिनर की तैयारी करने लगी तो विवान बोला, ‘‘मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं नाइशा?’’

यह सुन कर वह चौंक गई. इस समय पुरानी बात छेड़ कर उस की भावनाओं को ठेस पहुंचाना उस ने ठीक नहीं समझ.

‘‘ज्यादा कुछ नहीं फ्रिज से निकाल कर सलाद काट दो. तब तक मैं कुछ बना लेती हूं.’’

‘‘हलकाफुलका बनाना. अभी

ज्यादा खाने की कुछ इच्छा भी नहीं है,’’ विवान बोला.

वह बड़ी देर तक पार्थ और रूही की बातें करता रहा. उसे पार्थ का व्यक्तित्व बहुत अच्छा लगा और वह उस से प्रभावित भी था. नाइशा भी इस समय अपनेआप को सहज महसूस कर रही थी. रोज घर और औफिस के रूटीन से 2 दिन के लिए बाहर निकल कर उसे अच्छा लगा था. आरव ने इतने अच्छे होटल के उन से बहुत कम चार्ज लिए. यह भी उन के लिए एक अच्छी बात थी.

‘‘मुझे लगता है रूही तुम्हारी बहुत अच्छी फ्रैंड है. तुम्हें अच्छी तरह समझती है.’’

‘‘वह मेरी सीनियर है. इसे संयोग ही कहेंगे कि वह भी तुम्हें वहां मिल गई.’’

‘‘मैं ने उसे अपने प्रोग्राम के बारे में कुछ नहीं बताया था. अचानक वह भी आरव से मिलने वहां आ गई. इसी बहाने तुम्हारी पार्थ से भी मुलाकात हो गई.’’

‘‘वह बहुत जिंदा दिल इंसान है. जिंदगी को बहुत बारीकी से समझता है. उसे सब को खुश रखने की कला आती है,’’ विवान बोला.

डिनर खत्म कर वे आराम करने लगे. अगली सुबह नाइशा को औफिस जाना था. सुबह अलार्म के साथ उठी. वह यह देख कर चौंक गई जब विवान उस के लिए बैड टी मेज पर रख गए थे. अभी तक वही रोज सुबह उस के लिए  नहाधो कर बैड टी बनाती थी. विवान को देर से उठने की आदत थी.

‘‘तुम कब उठे?’’

‘‘थोड़ी देर पहले उठा हूं. सोचा तुम्हारे लिए चाय बना दूं तुम्हें अच्छा लगेगा. मुझे ज्यादा कुछ करना नहीं आता है लेकिन विश्वास रखो धीरेधीरे सब सीख जाऊंगा.’’

विवान में आए परिवर्तन को देख कर नाइशा अचकचा गई थी. चाय खत्म कर वह किचन में आ कर नाश्ते की तैयारी करने लगी.

विवान बोले, ‘‘दोपहर में लंच मैं खुद बना लूंगा. उस की चिंता मत करना.’’

‘‘लेकिन.’’

‘‘इंजीनियर हूं. बहुत कुछ बना लेता हूं. खाना बनाना कौन सा मुश्किल काम है कोई परेशानी आएगी तो पार्थ से पूछ लूंगा. वह इस काम में माहिर है.’’

विवान के कहने पर नाइशा ने इत्मीनान से नाश्ता किया और औफिस के लिए तैयार होने लगी. आज विवान ने उसे जाते समय टोका नहीं. वह समय से औफिस पहुंच गई. उस का खिला हुआ चेहरा देख कर रूही को बड़ा अच्छा लगा.

आते ही वह बोली, ‘‘रूही गजब हो गया. आउटिंग से आ कर विवान एकदम बदल गए हैं,’’ इतना कह कर उस ने सुबह और कल शाम की घटनाएं उसे बता दीं.

‘‘तुम निश्चिंत रहो. धीरेधीरे वे तुम्हारी हरसंभव मदद करने लगेंगे. वे अच्छे इंसान हैं लेकिन उन्हें जिंदगी का अनुभव थोड़ा कम है इसीलिए वे तुम्हारी भावनाओं को नहीं समझ सके.’’

‘‘मैं तुम्हारा धन्यवाद कैसे करूं. इतनी अच्छी सलाह दे कर तुम ने मेरी जिंदगी बदल दी.’’

‘‘धन्यवाद मुझे नहीं पार्थ को दो जिस ने उन का ब्रेन वाश किया है.’’

‘‘तो क्या तुम ने उसे सबकुछ बता दिया था?’’

‘‘नहीं नाइशा मैं ने उसे कुछ नहीं बताया लेकिन वह गृहस्थी और जिंदगी दोनों को बहुत अच्छे से हैंडल करना जानता है. उस ने अपनी खुशी का मूल मंत्र उसे भी समझाया और विवान समझ गए.’’

‘‘सच में बड़ी बहन की तरह तुम ने मेरी बहुत बड़ी समस्या हल कर दी रूही.’’

‘‘ऐसा नहीं सोचते,’’ कह कर रूही अपने काम पर लग गई.

शाम को उस के घर पहुंचने से पहले घड़ी देख कर विवान ने चाय तैयार कर दी

थी और साथ में ब्रैड सेंक कर रख दिए.

‘‘तुम ने परेशानी क्यों उठाई विवान?’’

‘‘इस में परेशानी कैसी? मुझे माफ कर दो नाइशा मैं पहले तुम्हारी परेशानी नहीं समझ सका. किसी ने मुझे इतने अच्छे ढंग से बताया ही नहीं जैसे पार्थ ने समझाया. उन की खुशहाल गृहस्थी देख कर मुझे लगा कि वह धरती का सब से खुशहाल जोड़ा है. मैं भी अपनी जिंदगी को खुशहाल बनाना चाहता हूं. अनजाने में मैं ने तुम्हारे ऊपर घर का सारा बोझ डाल रखा था. कोशिश करूंगा वह जल्दी कम हो जाए.’’

यह सुन कर नाइशा भावुक हो कर विवान केसीने से लग गई. उस की आंखों से आंसू बहने लगे थे. विवान उन्हें प्यार से पोंछने लगा.

नाइशा बोली, ‘‘शायद मुझे तुम्हें समझना नहीं आया वरना यह समस्या बहुत पहले खत्म हो जाती.’’

‘‘कोई बात नहीं. हम दोनों ने अपनी नासमझ की वजह से जो वक्त खराब किया है उस की कसर जल्दी पूरी कर देंगे,’’ विवान बोला.

नाइशा के सारे शिकवेशिकायत दूर हो गए थे. वह मन ही मन रूही और पार्थ का धन्यवाद कर रही थी जिन्होंने इतनी सहजता से उस की जिंदगी की सब से बड़ी मुश्किल हल कर दी थी.

 राइटर-   डा. के. रानी

Famous Hindi Stories : मैली लाल डोरी – अपर्णा ने गुस्से में मां से क्या कहा?

Famous Hindi Stories :  रविवार होने के कारण अपर्णा सुबह की चाय का न्यूज पेपर के साथ आनंद लेने के लिए बालकनी में पड़ी आराम कुरसी पर आ कर बैठी ही थी कि उस का मोबाइल बज उठा. उस के देवर अरुण का फोन था.

‘‘भाभी, भैया बहुत बीमार हैं. प्लीज, आ कर मिल जाइए,’’ और फोन

कट गया.

फोन पर देवर अरुण की आवाज सुनते ही उस के तनबदन में आग लग गई. न्यूजपेपर और चाय भूल कर वह बड़बड़ाने लगी, ‘आज जिंदगी के 50 साल बीतने को आए, पर यह आदमी चैन से नहीं रहने देगा. कल मरता है तो आज मर जाए. जब आज से 20 साल पहले मेरी जरूरत नहीं थी तो आज क्यों जरूरत आन पड़ी.’ उसे अकेले बड़बड़ाते देख कर मां जमुनादेवी उस के निकट आईं और बोलीं, ‘‘अकेले क्या बड़बड़ाए जा रही है. क्या हो गया? किस का फोन था?’’

‘‘मां, आज से 20 साल पहले मैं नितिन से सारे नातेरिश्ते तोड़ कर यहां तबादला करवा कर आ गई थी और मैं ने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. तब से ले कर आज तक न उन्होंने मेरी खबर ली और न मैं ने उन की. तो, अब क्यों मुझे याद किया जा रहा है?

‘‘मां, आज उन के गुरुजी और दोस्त कहां गए जो उन्हें मेरी याद आ रही है. अस्पताल में अकेले क्या कर रहे हैं. आश्रम वाले कहां चले गए,’’ बोलतेबोलते अपर्णा इतनी विचलित हो उठी कि उस का बीपी बढ़ गया. मां ने दवा दे कर उसे बिस्तर पर लिटा दिया.

50 वर्ष पूर्व जब नितिन से उस का विवाह हुआ तो वह बहुत खुश थी. उस की ससुराल साहित्य के क्षेत्र में अच्छाखासा नाम रखती थी. वह अपने परिवार में सब से छोटी लाड़ली और साहित्यप्रेमी थी. उसे लगा था कि साहित्यप्रेमी और सुशिक्षित परिवार में रह कर वह भी अपने साहित्यज्ञान में वृद्धि कर सकेगी. परंतु, वह विवाह हो कर जब आई तो उसे मायके और ससुराल के वातावरण में बहुत अंतर लगा.

ससुराल में केवल ससुरजी को साहित्य से लगाव था, दूसरे सदस्यों का तो साहित्य से कोई लेनादेना ही नहीं था. इस के अलावा मायके में जहां कोई ऊंची आवाज में बात तक नहीं करता था वहीं यहां घर का हर सदस्य क्रोधी था. ससुरजी अपने लेखन व यात्राओं में इतने व्यस्त रहते कि उन्हें घरपरिवार के बारे में अधिक पता ही नहीं रहता था. सास अल्पशिक्षित, घरेलू महिला थीं. वे अपने शौक, फैशन व किटी पार्टीज में व्यस्त रहतीं. घर नौकरों के भरोसे चलता. हर कोई अपनी जिंदगी मनमाने ढंग से जी रहा था. सभी भयंकर क्रोधी और परस्पर एकदूसरे पर चीखतेचिल्लाते रहते. इन 2 दिनों में ही नितिन को ही वह कई बार क्रोधित होते देख चुकी थी. यहां का वातावरण देख कर उसे डर लगने लगा था.

सुहागरात को जब नितिन कमरे में आए तो वह दबीसहमी सी कमरे में बैठी थी. नितिन उसे देख कर बोले, ‘क्या हुआ, ऐसे क्यों बैठी हो?’

‘कुछ नहीं, ऐसे ही,’ उस ने दबे स्वर में धीरे से कहा.

‘तो इतनी घबराई हुई क्यों हो?’

‘नहीं…वो… मुझे आप से डर लगता है,’ अपर्णा ने घबरा कर कहा.

‘अरे, डरने की क्या बात है,’ कह कर जब नितिन ने उसे अपने गले से लगा लिया तो वह अपना सब डर भूल गई.

विवाह को कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन डाकिया एक पीला लिफाफा लैटरबौक्स में डाल गया. जब नितिन ने खोल कर देखा तो उस में केंद्रीय विद्यालय में अपर्णा की नियुक्ति का आदेश था जिस के लिए उस ने विवाह से पूर्व आवेदन किया था. खैर, समस्त परिवार की सहमति से अपर्णा ने नौकरी जौइन कर ली. घर और बाहर दोनों संभालने में तकलीफ तो उठानी पड़ती, परंतु वह खुश थी कि उस का अपना कुछ वजूद तो है.

तनख्वाह मिलते ही नितिन ने उस का एटीएम कार्ड और चैकबुक यह कहते हुए ले लिया कि ‘मैं पैसे का मैनेजमैंट बहुत अच्छा करता हूं, इसलिए ये मेरे पास ही रहें तो अच्छा है. कहां कब कितना इन्वैस्ट करना है, मैं अपने अनुसार करता रहूंगा.’

मेरे पास रहे या इन के पास, यह सोच कर अपर्णा ने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया. इस बीच वह एक बेटे की मां भी बन गई. एक दिन जब वह घर आई तो नितिन मुंह लटकाए बैठा था. पूछने पर बोला कि वह जिस कंपनी में काम करता था वह घाटे में चली गई और उस की नौकरी भी चली गई.

अपर्णा बड़े प्यार से उस से बोली, ‘तो क्या हुआ, मैं तो कमा ही रही हूं. तुम क्यों चिंता करते हो. दूसरी ढूंढ़ लेना.’

‘अच्छा तो तुम मुझे अपनी नौकरी का ताना दे रही हो. नौकरी गई है, हाथपैर नहीं टूटे हैं अभी मेरे,’ नितिन क्रोध से बोला.

‘नितिन, तुम बात को कहां से कहां ले जा रहे हो. मैं ने ऐसा कब कहा?’

‘ज्यादा जबान मत चला, वरना काट दूंगा,’ नितिन की आंखों से मानो अंगारे बरस रहे थे.

उसे देख कर अपर्णा सहम गई. आज उसे नितिन के एक नए ही रूप के दर्शन हुए थे. वह चुपचाप दूसरे कमरे में जा कर अपना काम करने लगी. नौकरी चली जाने के बाद से अब नितिन पूरे समय घर में रहता और सुबह से शाम तक अपनी मरजी करता. एक दिन अपर्णा को घर आने में देर हो गई. जैसे ही वह घर में घुसी.

‘इतनी देर कैसे हो गई.’

‘आज इंस्पैक्शन था.’

‘झूठ बोलते शर्म नहीं आती, कहां से आ रही हो?’

‘तुम से बात करना बेकार है. खाली दिमाग शैतान का घर वाली कहावत तुम्हारे ऊपर बिलकुल सटीक बैठती है,’ कह कर अपर्णा गुस्से में अंदर चली गई.

पूरे घर पर नितिन का ही वर्चस्व था. अपर्णा को घर की किसी बात में दखल देने की इजाजत नहीं थी. वह कमाने की मशीन और मूकदर्शक मात्र थी. एक दिन जब वह घर में घुसी तो देखा कि पूरा घर फूलों से सजा हुआ है. पूछने पर पता चला कि आज कोई गुरुजी और उन के शिष्य घर पर पधार रहे हैं. इसीलिए रसोई में खाना भी बन रहा है.

अपर्णा ने नितिन से पूछा, ‘यह सब क्या है नितिन? सुबह मैं स्कूल गई थी, तब तो तुम ने कुछ नहीं बताया?’

‘तुम सुबह जल्दी निकल गई थीं, सूचना बाद में मिली. आज गुरुजी घर आने वाले हैं. जाओ तुम भी तैयार हो जाओ,’ कह कर नितिन फिर जोश से काम में जुट गया.

उस दिन देररात्रि तक गुरुजी का प्रोग्राम चलता रहा. न जाने कितने ही लोग आए और गए. सब को चाय, खाना आदि खिलाया गया. अपर्णा को सुबह स्कूल जाना था, सो, वह अपने कमरे में आ कर सो गई. दूसरे दिन शाम को जब स्कूल से लौटी तो नितिन बड़ा खुश था. ट्रे में चाय के 2 कप ले कर अपर्णा के पास ही बैठ गया और कल के सफल आयोजन के लिए खुशी व्यक्त करने लगा. तभी अपर्णा ने धीरे से कहा, ‘नितिन, आप खुश हो, इसलिए मैं भी खुश हूं परंतु मेहनत की गाढ़ी कमाई की यों बरबादी ठीक नहीं.’

‘तुम क्या जानो इन बाबाओं की करामात? और जगदगुरु तो पहुंचे हुए हैं. तुम्हें पता है, शहर के बड़ेबड़े पैसे वाले लोग इन के शिष्य बनना चाहते हैं परंतु ये घास नहीं डालते. अपना तो समय खुल गया है जो गुरुजी ने स्वयं ही घर पधारने की बात कही. तुम्हारी गलती भी नहीं है. तुम्हारे घर में कोई भी बाबाओं के प्रताप में विश्वास नहीं करता. तो तुम कैसे करोगी? व्यंग्यपूर्वक कह कर नितिन वहां से चला गया. शाम को फिर आया और कहने लगा, ‘देखो, यह लाल डोरी. इसे सदा हाथ में बांधे रखना, कभी उतराना नहीं, गुरुजी ने दी है. सब ठीक होगा.’

कलह और असंतोष के मध्य जिंदगी किसी तरह कट रही थी. बिना किसी काम के व्यक्ति की मानसिकता भी बेकार हो जाती है. उसी बेकारी का प्रभाव नितिन के मनमस्तिष्क पर भी दिखने लगा था. अब उस के स्वभाव में हिंसा भी शामिल हो गई थी. बातबात पर अपर्णा व बच्चों पर हाथ उठा देना उस के लिए आम बात थी. घर का वातावरण पूरे समय अशांत और तनावग्रस्त रहता. लगातार चलते तनाव के कारण अपर्णा को बीपी, शुगर जैसी कई बीमारियों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया.

एक दिन घर पर नितिन से मिलने कोई व्यक्ति आया. कुछ देर की बातचीत

के बाद अचानक दोनों में हाथापाई होने लगी और वह आदमी जोरजोर से चीखनेचिल्लाने लगा. कालोनी के कुछ लोग गेट पर जमा हो गए और कुछ अपने घरों में से झांकने लगे. किसी तरह मामला शांत कर के नितिन आया तो अपर्णा ने कहा, ‘यह सब क्या है? क्यों चिल्ला रहा था यह आदमी?’

‘शांत रहो, ज्यादा जबान और दिमाग चलाने की जरूरत नहीं है,’ बेशर्मी से नितिन ने कहा.

‘इस तरह कालोनी में इज्जत का फालूदा निकालते तुम्हें शर्म नहीं आती?’

‘बोला न, दिमाग मत चलाओ. इतनी देर से कह रहा हूं, चुप रह. सुनाई नहीं पड़ता,’ कह कर नितिन ने एक स्केल उठा कर अपर्णा के सिर पर दे मारा.

अपर्णा के सिर से खून बहने लगा. अगले दिन जब वह स्कूल पहुंची तो उस के सिर पर लगी बैंडएड देख कर पिं्रसिपल ऊषा बोली, ‘यह क्या हो गया, चोट कैसे लगी?’

उन के इतना कहते ही अपर्णा की आंखों से जारजार आंसू बहने लगे. ऊषा मैडम उम्रदराज और अनुभवी थीं. उन की पारखी नजरों ने सब भांप लिया. सो, उन्होंने सर्वप्रथम अपने कक्ष का दरवाजा अंदर से बंद किया और अपर्णा के कंधे पर प्यार से हाथ रख कर बोलीं, ‘क्या हुआ बेटा, कोई परेशानी है, तो बताओ.’

कहते हैं प्रेम पत्थर को भी पिघला देता है, सो ऊषा मैडम के प्यार का संपर्क पाते ही अपर्णा फट पड़ी और रोतेरोते उस ने सारी दास्तान कह सुनाई.

‘मैडम, आज शादी के 20 साल बाद भी मेरे घर में मेरी कोई कद्र नहीं है. पूरा पैसा उन तथाकथित बाबाजी की सेवा में लगाया जा रहा है. बाबाजी की सेवा के चलते कभी आश्रम के लिए सीमेंट, कभी गरीबों के लिए कंबल, और कभी अपना घर लुटा कर गरीबों को खाना खिलाया जा रहा है. यदि एक भी प्रश्न पूछ लिया तो मेरी पिटाई जानवरों की तरह की जाती है. सुबह से शाम तक स्कूल में खटने के बाद जब घर पहुंचती हूं तो हर दिन एक नया तमाशा मेरा इंतजार कर रहा होता है. मैं थक गई हूं इस जिंदगी से,’ कह कर अपर्णा फूटफूट कर रोने लगी.

ऊषा मैडम अपनी कुरसी से उठीं और अपर्णा के आगे पानी का गिलास रखते हुए बोलीं, ‘बेटा, एक बात सदा ध्यान रखना कि अन्याय करने वाले से अन्याय सहने वाला अधिक दोषी होता है. सब से बड़ी गलती तेरी यह है कि तू पिछले

20 सालों से अन्याय को सह रही है. जिस दिन तेरे ऊपर उस का पहला हाथ उठा था, वहीं रोक देना था. सामने वाला आप के साथ अन्याय तभी तक करता है जब तक आप सहते हो. जिस दिन आप प्रतिकार करने लगते हो, उस का मनोबल समाप्त हो जाता है. आत्मनिर्भर और पूर्णतया शिक्षित होने के बावजूद तू इतनी कमजोर और मजबूर कैसे हो गई? जिस दिन पहली बार हाथ उठाया था, तुम ने क्यों नहीं मातापिता और परिवार वालों को बताया ताकि उसे रोका जा सकता. क्यों सह रही हो इतने सालों से अन्याय? छोड़ दो उसे उस के हाल पर.’

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‘मैं हर दिन यही सोचती थी कि शायद सब ठीक हो जाएगा. मातापिता की इज्जत और लोकलाज के डर से मैं कभी किसी से कुछ नहीं कह पाई. लगा था कि मैं सब ठीक कर लूंगी. पर मैं गलत थी. स्थितियां बद से बदतर होती चली गईं.’ अपर्णा ने रोते हुए कहा.

अब ऊषा मैडम बोलीं, ‘जो आज गलत है, वह कल कैसे सही हो जाएगा. जिस इंसान के गुस्से से तुम प्रथम रात्रि को ही डर जाती हो और जिस इंसान को अपनी पत्नी पर हाथ उठाने में लज्जा नहीं आती. जो बाबाओं की करामात पर भरोसा कर के खुद बेरोजगार हो कर पत्नी का पैसा पानी की तरह उड़ा रहा है, वह विवेकहीन इंसान है. ऐसे इंसान से तुम सुधार की उम्मीद लगा बैठी हो? क्यों सह रही हो? तोड़ दो सारे बंधनों को अब. निर्णय तुम्हें लेना है,’ कह कर मैडम ने दरवाजा खोल दिया था.

बाहर निकल कर उस ने भी अब और न सहने का निर्णय लिया और अगले ही दिन अपने तबादले के लिए आवेदन कर दिया. 6 माह बाद अपर्णा का तबादला दूसरे शहर में हो गया.

नितिन को जब तबादले के बारे में पता चला, तो क्रोध से चीखते हुए बोला, ‘यह क्या मजाक है मुझ से बिना पूछे ट्रांसफर किस ने करवाया?’

‘मैं ने करवाया. मैं अब और तुम्हारे साथ नहीं रह सकती. तुम्हारे उन तथाकथित गुरुजी ने तुम्हारी बसीबसाई गृहस्थी में आग लगा दी. आज और अभी से ही तुम्हारी यह दुनिया तुम्हें मुबारक. अब और अधिक सहने की क्षमता मुझ में नहीं है.’

‘हांहां, जाओ, रोकना भी कौन चाहता है तुम्हें? वैसे भी कल गुरुजी आ रहे हैं. तुम्हारी तरफ देखना भी कौन चाहता है. मैं तो यों भी गुरुजी की सेवा में ही अपना जीवन लगा देना चाहता हूं,’ कह कर भड़ाक से दरवाजा बंद कर के नितिन बाहर चला गया.

बस, उस के बाद से दोनों के रास्ते अलगअलग हो गए थे. बेटे नवीन ने पुणे में जौब जौइन कर ली थी. परंतु आज आए इस एक फोन ने उस के ठहरे हुए जीवन में फिर से तूफान ला दिया था. तभी अचानक उस ने मां का स्पर्श कंधे पर महसूस किया.

‘‘क्या सोच रही है, बेटा.’’

‘‘मां, कुछ नहीं समझ आ रहा? क्या करूं?’’

‘‘बेटा, पत्नी के नाते नहीं, केवल इंसानियत के नाते ही चली जा, बल्कि नवीन को भी बुला ले. कल को कुछ हो गया, तो मन में हमेशा के लिए अपराधबोध रह जाएगा. आखिर, नवीन का पिता तो नितिन ही है न,’’ अपर्णा की मां ने उसे समझाते हुए कहा.

अगले दिन वह नवीन के साथ दिल्ली के सरकारी अस्पताल के बैड नंबर 401 पर पहुंची. बैड पर लेटे नितिन को देख कर वह चौंक गई. बिखरे बाल, जर्जर शरीर और गड्ढे में धंसी आंखें. शरीर में कई नलियां लगी हुई थीं. मुंह से खून की उलटियां हो रही थीं. पूछने पर पता चला कि नितिन को कोई खतरनाक बीमारी है. उसे आया देख कर नितिन के चेहरे पर चमक आ गई.

वह अपनी कांपती आवाज में बोला, ‘‘तुम आ गईं. मुझे पता था कि तुम जरूर आओगी. अब मैं ठीक हो जाऊंगा,’’ तभी डाक्टर सिंह ने कमरे में प्रवेश किया. नवीन की तरफ मुखातिब हो कर वे बोले, ‘‘इन्हें एड्स हुआ है. अंतिम स्टेज में है. हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं.’’

‘‘आज आप के तथाकथित गुरुजी कहां गए. आप की देखभाल करने क्यों नहीं आए वे. जिन के कारण आप ने अपनी बसीबसाई गृहस्थी में आग लगा दी. आज उन्होंने अपनी करामात क्यों नहीं दिखाई? मुझ से क्या चाहते हैं आप. क्यों मुझे फोन किया गया था?’’ अपर्णा आवेश से भरे स्वर में बोली. तभी देवर अरुण आ गया. उस ने जो बताया, उसे सुन कर अपर्णा दंग रह गई.

‘‘आप के जाने के बाद भैया एकदम निरंकुश हो गए. गुरुजी के आश्रम में कईकई दिन पड़े रहते. घर पर ताला रहता और भैया गुरुजी के आश्रम में. गुरुजी के साथ ही दौरों पर जाते. गुरुजी के आश्रम में सेविकाएं

भी आती थीं. गुरुजी सेविकाओं से हर प्रकार की सेवा करवाते थे. कई बार गुरुजी के कहने पर भैया ने भी अपनी सेवा करवाई. बस, उसी समय कोई इन्हें तोहफे में एड्स दे गई. गुरुजी और उन के आश्रम के लोगों को जैसे ही भैया की बीमारी के बारे में पता चला, उन्होंने इन्हें आश्रम से बाहर कर दिया. और आज 3 साल से कोई खैरखबर भी नहीं ली है.’’

अपर्णा मुंह खोले सब सुन रही थी. उस ने नितिन की ओर देखा तो उस ने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए मानो अब तक की सारी काली करतूतों को एक माफी में धो देना चाहता हो.

अपर्णा कुछ देर सोचती रही, फिर नितिन की ओर घूम कर बोली, ‘‘नितिन, मेरातुम्हारा संबंध कागजी तौर पर भले ही न खत्म हुआ हो पर दिल के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता. जब मेरे दिल में ही तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है, तो कागज क्या करेगा? जहां तक माफी का सवाल है, माफी तो उस से मांगी जाती है जिस ने कोई गुनाह किया हो. तुम ने आज तक जो कुछ भी मेरे साथ किया, उसे भुलाना तो मुश्किल है, पर हां, माफ करने की कोशिश करूंगी. पर अब तुम मुझ से कोई उम्मीद मत रखना.

मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सकती. हां, इंसानियत के नाते तुम्हारी बीमारी के इलाज में जो पैसा लगेगा, मैं देने को तैयार हूं. बस, अब और मुझे कुछ नहीं कहना. मैं तुम्हें सारे बंधनों से मुक्त कर के जा रही हूं,’’ यह कह कर मैं ने पर्स में से एक छोटा पैकेट, वह मैली लाल डोरी निकाल कर नितिन के तकिए पर रख दी, ‘‘लो अपनी अमानत, अपने पास रखो.’’

यह कह कर अपर्णा तेजी से कमरे से बाहर निकल गई. नितिन टकटकी लगाए उसे जाते देखता रहा.

Famous Hindi Stories : तबादला – क्या सास के व्यवहार को समझ पाई माया

Famous Hindi Stories : टैक्सी दरवाजे पर आ खड़ी हुई. सारा सामान बंधा हुआ तैयार रखा था. निशांत अपने कमरे में खड़ा उस चिरपरिचित महक को अपने अंदर समेट रहा था जो उस के बचपन  की अनमोल निधि थी.

निशांत के 4 वर्षीय बेटे सौरभ ने इसी कमरे में घुटनों के बल चल कर खड़े होना और फिर अपनी दादी की उंगली पकड़ कर पूरे घर में घूमना सीखा. निशांत की पत्नी माया एक विदेशी कंपनी में काम करती थी. वह सुबह 9 बजे निकलती तो शाम को 6 बजे ही वापस लौटती. ऐसे में सौरभ अपनी दादी के हाथों ही पलाबढ़ा था.  नौकर टिक्कू के साथ उस की खूब पटती थी, जो उसे कभी कंधे पर बिठा कर तो कभी उस को 3 पहियों वाली साइकिल पर बिठा कर सैर कराता. अकसर शाम को जब माया लौटती तो सौरभ घर में ही न होता और माया बेचैनी से उस का इंतजार करती. किंतु जब टिक्कू के कंधे पर चढ़ा सौरभ घर लौटता तो नीचे कूद कर सीधे दादी की गोद में जा बैठता और तब माया का पारा चढ़ जाता. दादी के कहने पर सौरभ माया के पास जाता तो जरूर किंतु कुछ इस तरह मानो अपनी मां पर एहसान कर रहा हो. ऐसे में माया और भी चिढ़ जाती, मन ही मन इसे अपनी सास की एक चाल समझती.

लगभग 7 वर्ष पूर्व जब माया इस घर में बहू बन कर आई थी तो जगमगाते सपनों से उस का आंचल भरा था. पति के हृदय पर उस का एकछत्र साम्राज्य होगा, हर स्त्री की तरह उस का भी यही सपना था. किंतु उस के पति निशांत के हृदय के किसी कोने में उस की मां की मूर्ति भी विराजमान थी, जिसे लाख प्रयत्न करने पर भी माया वहां से निकाल कर फेंक न सकी. माया के हृदय की कुढ़न ने घर में छोटेमोटे झगड़ों को जन्म देना शुरू कर दिया, जिन्होंने बढ़तेबढ़ते लगभग गृहकलह का रूप ले लिया. इस सारे झगड़ेझंझटों के बीच में पिस रहा था निशांत, जो सीधासादा इंसान था. वह आपसी रिश्तों को शालीनता से निभाने में विश्वास रखता था. अकसर वह माया को समझाता कि ‘मां भावुक प्रकृति की हैं, केवल थोड़े मान, प्यार से ही संतुष्ट हो जाएंगी.’

किंतु माया ने सास को अपनी मां के रूप में नहीं, प्रतिद्वंद्वी के रूप में स्वीकारा. इन 7 वर्षों ने निशांत की मां को एक हंसतेबोलते इंसान से एक मूर्ति में परिवर्तित कर दिया. अपने चारों ओर मौन का एक कवच सा लपेटे मां टिक्कू की मदद से सारे घर की साजसंभाल करतीं. उन के हृदय के किसी कोने में आशा का एक नन्हा दीप अभी भी जल रहा था कि शायद कभी माया के नारी हृदय में छिपी बेटी की ममता जाग उठे और वह उन के गले लग जाए.

किंतु माया की बेरुखी मां के हृदय पर नित्य कोई न कोई नया प्रहार कर जाती  और वे आंतरिक पीड़ा से तिलमिला कर अपने कमरे में चली जातीं. भरी आंखें छलकें और बेटा उन्हें देख ले, इस से पहले ही वे उन्हें पोंछ डालतीं और एक गंभीर मुखौटा चेहरे पर चढ़ा लेतीं. समय इसी तरह बीत रहा था कि एक दिन निशांत को स्थानांतरण का आदेश मिला. शाम को मां के पास बैठ उन के दोनों हाथ अपने हाथों में थाम उस ने खिले चेहरे से मां को बताया, ‘‘मां, मेरी तरक्की हुई है और तबादला भी हो गया है.’’

मां चौंक उठीं, ‘‘बदली भी हो गई है?’’

‘‘हां,’’ निशांत उत्साह से भर कर बोला,  ‘‘मुंबई जाना होगा. दफ्तर की तरफ से मकान भी मिलेगा और गाड़ी भी. तुम खुश हो न, मां?’’

‘‘हां, बहुत खुश हूं,’’ निशांत के सिर पर मां ने हाथ फेरा. आंखें मानो वात्सल्य से छलक उठीं और निशांत संतुष्ट हो कर उठ गया. किंतु शाम को जब माया लौटी तो यह खबर सुन कर झुंझला उठी, ‘‘क्या जरूरत थी यह प्रस्ताव स्वीकार करने की? हमें यहां क्या परेशानी है…मेरी नौकरी अच्छीभली चल रही है, वह  छोड़नी पड़ेगी. तुम्हारी तनख्वाह जितनी बढ़ेगी, उस से कहीं ज्यादा नुकसान मेरी नौकरी छूटने का होगा. फिर मुंबई नया शहर है, आसानी से वहां नौकर नहीं मिलेगा. टिक्कू हमारे साथ जा नहीं सकेगा क्योंकि दिल्ली में उस के मांबाप हैं. मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं, कैसे उलटेसीधे फैसले कर के बैठ जाते हैं आप.’’

पर्स वहीं मेज पर पटक परेशान सी माया सोफे पर ही पसर गई. थोड़ी देर बाद टिक्कू चाय ले आया.

‘‘मां को चाय दी?’’ निशांत के पूछने पर टिक्कू बोला, ‘‘जी, साहब. मांजी अपनी चाय कमरे में ले गईं.’’

‘‘सुन टिक्कू,’’ माया बोल उठी, ‘‘साहब की बदली मुंबई हो गई है, तू चलेगा न हमारे साथ? सौरभ तेरे बिना नहीं रहेगा.’’

‘‘साहब मुंबई जा रहे हैं?’’ टिक्कू का चेहरा उतर गया, ‘‘फिर मैं क्या करूंगा? मेरा बाप मुझे इतनी दूर नहीं भेजेगा.’’

‘‘तेरी पगार बढ़ा देंगे,’’ माया त्योरी चढ़ा कर बोली, ‘‘फिर तो भेजेगा न तेरा बाप?’’

‘‘नहीं बीबीजी, पगार की बात नहीं, मेरी मां भी बीमार रहती है.’’

‘‘तो ऐसा कह, कि तू ही जाना नहीं चाहता,’’ माया गुस्से से भरी वहां से उठ गई.

फिर अगले कुछ दिन बड़ी व्यस्तता के बीते. निशांत को 1 महीने बाद ही मुंबई पहुंचना था. सो, यह तय हुआ कि माया 1 महीने का जरूरी नोटिस दे कर नौकरी से इस्तीफा दे दे और निशांत के साथ ही चली जाए, जिस से दोबारा आनेजाने का चक्कर न रहे. निशांत ने पत्नी को समझाया, ‘‘सौरभ अभी छोटा ही है, वहां किसी स्कूल में दाखिला मिल जाएगा. मांजी तो साथ होंगी ही, जैसे यहां सबकुछ संभालती हैं, वहां भी संभाल लेंगी. बाद में कोई नौकर भी ढूंढ़ लेंगे, जिस से कि मां पर ही सारे काम का बोझ न पड़े.’’

इन्हीं सारे फैसलों के साथ दिन गुजरते गए. घर में सामान की पैकिंग का काम शुरू हो गया. निशांत के औफिस की ओर से एक पैकिंग कंपनी को आदेश दिया गया था कि वे लोग सारा सामान पैक कर के ट्रक द्वारा मुंबई भेजेंगे. घर की जरूरतों का लगभग सारा सामान पैक हो चुका था. फर्नीचर, डबलबैड, रसोई का सामान, फ्रिज, टीवी आदि बड़ेबड़े लकड़ी के बक्सों में बंद हो कर ट्रक में लादा जा रहा था. अब बचा था तो केवल अपनी निजी जरूरत कासामान, जैसे पहनने के कपड़े आदि, जो उन्हें अपने साथ ही ले जाने थे. कुछ ऐसा सामान भी था जो अब उन के काम का नहीं था, जैसे मिट्टी के तेल का स्टोव, लकड़ी का तख्त, कुछ पुराने बरतन आदि. इन्हें वे टिक्कू के लिए छोड़े जा रहे थे. गृहस्थी में चाहेअनचाहे न जाने ऐसा कितना सामान इकट्ठा हो जाता है, जो इस्तेमाल न किए जाने पर भी फेंकने योग्य नहीं होता. ऐसा सारा सामान वे टिक्कू को दे रहे थे. आखिर 6 साल से वह उन की सेवा कर रहा था, उस का इतना हक तो बनता ही था.

माया की इच्छा थी कि मकान किराए पर चढ़ा दिया जाए. किंतु निशांत ने मना कर दिया, ‘‘दिल्ली में मकान किराए पर चढ़ा कर किराएदार से वापस लेना कितना कठिन होता है, मैं अच्छी तरह समझता हूं. इसीलिए अपने एक मित्र के भतीजे को एक कमरा अस्थायी तौर पर रहने के लिए दे रहा हूं, जिस से मकान की देखभाल होती रहे.’’ उस लड़के का नाम विपिन था, भला सा लड़का था. 2 महीने पहले ही पढ़ाई के लिए दिल्ली आया था. बेचारा रहने की जगह ढूंढ़ रहा था, साफसुथरा कमरा पा कर खुश हो गया. इन सब झंझटों से छुट्टी पा कर निशांत मां के कमरे में गया और बोला, ‘‘लाओ मां, तुम्हारा सामान मैं पैक करता हूं.’’ किंतु मां किसी मूर्ति की तरह गंभीर बैठी थीं, शांत स्वर में बोलीं, ‘‘मैं नहीं जाऊंगी, बेटा.’’

‘‘क्या?’’ निशांत मानो आसमान से गिरा, ‘‘क्या कहती हो मां? हम तुम्हें यहां अकेला छोड़ कर जाएंगे भला?’’

‘‘अकेली कहां हूं बेटा,’’ मां भरेगले से बोलीं, ‘‘टिक्कू है, विपिन है.’’

‘‘लेकिन, वे सब तो गैर हैं. अपने तो हम हैं, जिन्हें तुम्हारी देखभाल करनी है. हम तुम्हें कैसे अकेला छोड़ दें?’’

‘‘अपना क्या और पराया क्या?’’ मां की आवाज मानो हृदय की गहराइयों से फूट रही थी, ‘‘जो प्यार करे, वही अपना, जो न करे, वह पराया.’’

‘‘नितांत सादगी से कहे गए मां के इस वाक्य की मार से निशांत मानो तिलमिला उठा. वह बोझिल हृदय से बोला, ‘‘माया के दोषों की सजा मुझे दे रही हो, मां?’’

‘‘नहीं रे, ऐसा क्यों सोचता है? मैं तो तेरे सुख की राह तलाश रही हूं.’’

‘‘तुम्हारे बिना कैसा सुख, मां?’’ और निशांत कमरे से बाहर निकल गया. माया को जब यह पता चला तो अपने चिरपरिचित व्यंग्यपूर्ण अंदाज में बोली, ‘‘अब यह आप का कौन सा नया नाटक शुरू हो गया?’’

‘‘किस बात का नाटक?’’ मां का स्वर दृढ़ था, ‘‘सीधी सी बात है, मैं नहीं जाना चाहती.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’

‘‘क्या मेरी इच्छा का कोई मूल्य नहीं?’’

‘‘यह इच्छा की बात नहीं है, मुझे परेशान करने की आप की एक और चाल है. आप खूब समझती हैं कि टिक्कू साथ जा नहीं रहा, सौरभ आप के बिना रहता नहीं. उस नई जगह में मुझे अकेले सब संभालने में कितनी परेशानी होगी, इसीलिए आप मुझ से बदला ले रही हैं.’’

‘‘बदला तो मैं गैरों से भी नहीं लेती माया, फिर तुम तो मेरी अपनी हो, बेटी हो मेरी. जिस दिन तुम्हारी समझ में यह बात आ जाए, मुझे लेने आना. तब चलूंगी तुम्हारे साथ,’’ इतना कह कर मां कमरे से बाहर चली गईं. रात को निशांत के कमरे से माया की ऊंची आवाज बाहर तक सुनाई दे रही थी, ‘‘सारी दुनिया को दिखाना है कि हम उन को साथ नहीं ले जा रहे…हमारी बदनामी होगी, इस का भी खयाल नहीं.’’ माया का व्यवहार अब निशांत की सहनशक्ति की सीमाएं तोड़ रहा था. आखिर उस ने साफ बात कह ही डाली, ‘‘दरअसल, तुम्हें चिंता मां की नहीं, बल्कि इस बात की है कि वहां नौकर भी नहीं होगा और मां भी नहीं. फिर घर का सारा काम तुम कैसे संभालोगी. तुम्हारी सारी परेशानी इसी एक बात को ले कर है.’’

अंत में तय यह हुआ कि अगले दिन सुबह जब सौरभ सो कर उठे तो उसे समझाया जाए कि दादी को साथ चलने के लिए राजी करे. उन की उड़ान का समय शाम 5 बज कर 40 मिनट का था और मां के सामान की पैकिंग के लिए इतना समय काफी था. दूसरे दिन सुबह होते ही अपनी उनींदी आंखें मलतामलता सौरभ दादी की गोद में जा बैठा, ‘‘दादीमां, जल्दी से तैयार हो जाओ.’’

‘‘तैयार हो जाऊं, भला क्यों?’’ सौरभ के दोनों गाल चूमचूम कर मां निहाल हुई जा रही थीं.

‘‘मैं तुम्हें मुंबई ले जाऊंगा.’’ मां की समझ में सारी बात आ गई. धीरे से सौरभ को गोद से नीचे उतार कर बोलीं, ‘‘पहले जा कर मंजन करो और दूध पियो.’’ सौरभ उछलताकूदता कमरे से बाहर भाग गया. थोड़ीथोड़ी देर में निशांत व माया किसी न किसी बहाने से मां के कमरे में यह देखने के लिए आतेजाते रहे कि वे अपना सामान पैक कर रही हैं या नहीं. किंतु मां के कमरे में सबकुछ शांत था. वे तो रसोई में मिट्टी के तेल वाले स्टोव पर उन लोगों के लिए दोपहर का खाना बनाने में व्यस्त थीं. वे निशांत और सौरभ की पसंद की चीजें टिक्कू की मदद से तैयार कर रही थीं. जो थोड़ेबहुत पुराने बरतन उन लोगों ने छोड़े थे, उन्हीं से वे अपना काम चला रही थीं. मां को पता भी न चला कि कितनी देर से निशांत रसोई के दरवाजे पर खड़ा उन्हें देख रहा है. माया भी उसी के पीछे खड़ी थी. सहसा मां की दृष्टि उन पर पड़ी और एक पल को मानो उन का उदास चेहरा खिल उठा.

‘‘ऐसे क्यों खड़े हो तुम दोनों?’’ मां पूछ बैठीं.

‘‘क्या आप माया को माफ नहीं कर सकतीं? ’’ बुझे स्वर में निशांत ने पूछा.

‘‘आज तक और किया ही क्या है, बेटा?’’ मां बोलीं, ‘‘लेकिन बिना किसी प्रयत्न के अनायास मिला प्यार मूल्यहीन हो जाता है. इस तथ्य को समझो बेटा. तुम्हारे और सौरभ के बिना रहना मेरे लिए भी आसान नहीं है, लेकिन इस समय शायद इसी में हम सब की भलाई है. अकेले घर संभालने में माया को परेशानी तो होगी, लेकिन धीरेधीरे सीख जाएगी.’’ टिक्कू के हाथ में खाने की प्लेटें दे कर मां रसोई से बाहर आईं. हाथ धो कर उन्होंने अपने कमरे में बिछे लकड़ी के तख्त पर खाना लगा दिया. आलू, पूरी देखते ही सौरभ खुश हो गया. मीठे में मां ने सेवइयां बनाई थीं, जो निशांत और माया दोनों को पसंद थीं. सब लोग एकसाथ खाना खाने बैठे. मां के हाथ का खाना अब न जाने कब मिले, यह ध्यान आते ही मानो निशांत के गले में पूरी का कौर अटकने लगा. किसी तरह 2-4 कौर खा कर वह पानी का गिलास ले कर उठ गया.

टैक्सी में सामान रखा जा रहा था. मां निर्विकार भाव से मूर्ति बनी बैठी थीं. उन के पैरों के पास टिक्कू बैठा हुआ था. कभी वह अपने साहब को देखता और कभी मांजी को, मानो समझना चाह रहा हो कि जो कुछ भी हो रहा है, वह अच्छा है या बुरा. मां के पांव छूते समय निशांत के हृदय की पीड़ा उस के चेहरे पर साफ उभर आई. वह भरे गले से बोला, ‘‘मैं हर महीने आऊंगा मां, चाहे एक ही दिन के लिए आऊं.’’ मां ने उस के सिर पर हाथ फेरा, ‘‘तुम्हारा घर है बेटा, जब जी चाहे आओ, लेकिन मेरी चिंता मत करना.’’

‘‘क्या आप सचमुच ऐसा सोचती हैं कि यह संभव है?’’ कहतेकहते निशांत का स्वर भर्रा उठा.

मां के पैरों के पास बैठा टिक्कू उठ कर निशांत के सामने आ गया और दोनों हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘आप मांजी की चिंता न करें साहब, मैं हूं न, सब संभाल लूंगा. आप हर महीने खुद ही आ कर देख लेना.’’ एक भरपूर नजर टिक्कू पर डाल सहसा निशांत ने उसे अपने से चिपटा लिया. उस पल, उस घड़ी माया उस की दृष्टि में नगण्य हो उठी.

लेखिका- प्रमिला बहादुर

Hindi Kahaniyan : खूबसूरत – क्यों दुल्हन का चेहरा देखकर हैरान था असलम

Hindi Kahaniyan : असलम ने धड़कते दिल के साथ दुलहन का घूंघट उठाया. घूंघट के उठते ही उस के अरमानों पर पानी फिर गया था. असलम ने फौरन घूंघट गिरा दिया. अपनी दुलहन को देख कर असलम का दिमाग भन्ना गया था. वह उसे अपने ख्वाबों की शहजादी के बजाय किसी भुतहा फिल्म की हीरोइन लग रही थी. असलम ने अपने दांत पीस लिए और दरवाजा खोल कर बाहर निकल गया.

बड़ी भाभी बरामदे में टहलते हुए अपने रोते हुए मुन्ने को चुप कराने की कोशिश कर रही थीं. असलम उन के पास चला गया.

‘‘मेरे साथ आइए भाभी,’’ असलम भाभी का हाथ पकड़ कर बोला.

‘‘हुआ क्या है?’’ भाभी उस के तेवर देख कर हैरान थीं.

‘‘पहले अंदर चलिए,’’ असलम उन का हाथ पकड़ कर उन्हें अपने कमरे में ले गया.

‘‘यह दुलहन पसंद की है आप ने मेरे लिए,’’ असलम ने दुलहन का घूंघट झटके से उठा कर भाभी से पूछा.

‘‘मुझे क्या पता था कि तुम सूरत को अहमियत दोगे, मैं ने तो सीरत परखी थी,’’ भाभी बोलीं.

‘‘आप से किस ने कह दिया कि सूरत वालों के पास सीरत नहीं होती?’’ असलम ने जलभुन कर भाभी से पूछा.

‘‘अब जैसी भी है, इसी के साथ गुजारा कर लो. इसी में सारे खानदान की भलाई है,’’ बड़ी भाभी नसीहत दे कर चलती बनीं.

‘‘उठो यहां से और दफा हो जाओ,’’ असलम ने गुस्से में मुमताज से कहा.

‘‘मैं कहां जाऊं?’’ मुमताज ने सहम कर पूछा. उस की आंखें भर आई थीं.

‘‘भाड़ में,’’ असलम ने झल्ला कर कहा.

मुमताज चुपचाप बैड से उतर कर सोफे पर जा कर बैठ गई. असलम ने बैड पर लेट कर चादर ओढ़ ली और सो गया. सुबह असलम की आंख देर से खुली. उस ने घड़ी पर नजर डाली. साढ़े 9 बज रहे थे. मुमताज सोफे पर गठरी बनी सो रही थी.

असलम बाथरूम में घुस गया और फ्रैश हो कर कमरे से बाहर आ गया.

‘‘सुबहसुबह छैला बन कर कहां चल दिए देवरजी?’’ कमरे से बाहर निकलते ही छोटी भाभी ने टोक दिया.

‘‘दफ्तर जा रहा हूं,’’ असलम ने होंठ सिकोड़ कर कहा.

‘‘मगर, तुम ने तो 15 दिन की छुट्टी ली थी.’’

‘‘अब मुझे छुट्टी की जरूरत महसूस नहीं हो रही.’’

दफ्तर में भी सभी असलम को देख कर हैरान थे. मगर उस के गुस्सैल मिजाज को देखते हुए किसी ने उस से कुछ नहीं पूछा. शाम को असलम थकाहारा दफ्तर से घर आया तो मुमताज सजीधजी हाथ में पानी का गिलास पकड़े उस के सामने खड़ी थी.

‘‘मुझे प्यास नहीं है और तुम मेरे सामने मत आया करो,’’ असलम ने बेहद नफरत से कहा.

‘‘जी,’’ कह कर मुमताज चुपचाप सामने से हट गई.

‘‘और सुनो, तुम ने जो चेहरे पर रंगरोगन किया है, इसे फौरन धो दो. मैं पहले ही तुम से बहुत डरा हुआ हूं. मुझे और डराने की जरूरत नहीं है. हो सके तो अपना नाम भी बदल डालो. यह तुम पर सूट नहीं करता,’’ असलम ने मुमताज की बदसूरती पर ताना कसा.

मुमताज चुपचाप आंसू पीते हुए कमरे से बाहर निकल गई. इस के बाद मुमताज ने खुद को पूरी तरह से घर के कामों में मसरूफ कर लिया. वह यही कोशिश करती कि असलम और उस का सामना कम से कम हो.

दोनों भाभियों के मजे हो गए थे. उन्हें मुफ्त की नौकरानी मिल गई थी. एक दिन मुमताज किचन में बैठी सब्जी काट रही थी तभी असलम ने किचन में दाखिल हो कर कहा, ‘‘ऐ सुनो.’’

‘‘जी,’’ मुमताज उसे किचन में देख कर हैरान थी.

‘‘मैं दूसरी शादी कर रहा हूं. यह तलाकनामा है, इस पर साइन कर दो,’’ असलम ने हाथ में पकड़ा हुआ कागज उस की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

‘‘क्या…?’’ मुमताज ने हैरत से देखा और सब्जी काटने वाली छुरी से अपना हाथ काट लिया. उस के हाथ से खून बहने लगा.

‘‘जाहिल…,’’ असलम ने उसे घूर कर देखा, ‘‘शक्ल तो है ही नहीं, अक्ल भी नहीं है तुम में,’’ और उस ने मुमताज का हाथ पकड़ कर नल के नीचे कर दिया.

मुमताज आंसुओं को रोकने की नाकाम कोशिश कर रही थी. असलम ने एक पल को उस की तरफ देखा. आंखों में उतर आए आंसुओं को रोकने के लिए जल्दीजल्दी पलकें झपकाती हुई वह बड़ी मासूम नजर आ रही थी.

असलम उसे गौर से देखने लगा. पहली बार वह उसे अच्छी लगी थी. वह उस का हाथ छोड़ कर अपने कमरे में चला गया. बैड पर लेट कर वह देर तक उसी के बारे में सोचता रहा, ‘आखिर इस लड़की का कुसूर क्या है? सिर्फ इतना कि यह खूबसूरत नहीं है. लेकिन इस का दिल तो खूबसूरत है.’

पहली बार असलम को अपनी गलती का एहसास हुआ था. उस ने तलाकनामा फाड़ कर डस्टबिन में डाल दिया.

असलम वापस किचन में चला आया. मुमताज किचन की सफाई कर रही थी.

‘‘छोड़ो यह सब और आओ मेरे साथ,’’ असलम पहली बार मुमताज से बेहद प्यार से बोला.

‘‘जी, बस जरा सा काम है,’’ मुमताज उस के बदले मिजाज को देख कर हैरान थी.

‘‘कोई जरूरत नहीं है तुम्हें नौकरों की तरह सारा दिन काम करने की,’’ असलम किचन में दाखिल होती छोटी भाभी को देख कर बोला.

असलम मुमताज की बांह पकड़ कर अपने कमरे में ले आया, ‘‘बैठो यहां,’’  उसे बैड पर बैठा कर असलम बोला और खुद उस के कदमों में बैठ गया.

‘‘मुमताज, मैं तुम्हारा अपराधी हूं. मुझे तुम जो चाहे सजा दे सकती हो. मैं खूबसूरत चेहरे का तलबगार था. मगर अब मैं ने जान लिया है कि जिंदगी को खूबसूरत बनाने के लिए खूबसूरत चेहरे की नहीं, बल्कि खूबसूरत दिल की जरूरत होती है. प्लीज, मुझे माफ कर दो.’’

‘‘आप मेरे शौहर हैं. माफी मांग कर आप मुझे शर्मिंदा न करें. सुबह का भूला अगर शाम को वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते,’’ मुमताज बोली.

‘‘थैंक्स मुमताज, तुम बहुत अच्छी हो,’’ असलम प्यार से बोला.

‘‘अच्छे तो आप हैं, जो मुझ जैसी बदसूरत लड़की को भी अपना रहे हैं,’’ कह कर मुमताज ने हाथों में अपना चेहरा छिपा लिया और रोने लगी.

‘‘पगली, आज रोने का नहीं हंसने का दिन है. आंसुओं को अब हमेशा के लिए गुडबाय कह दो. अब मैं तुम्हें हमेशा हंसतेमुसकराते देखना चाहता हूं.

‘‘और खबरदार, जो अब कभी खुद को बदसूरत कहा. मेरी नजरों में तुम दुनिया की सब से हसीन लड़की हो,’’ ऐसा कह कर असलम ने मुमताज को अपने सीने से लगा लिया.

मुमताज सोचने लगी, ‘अंधेरी रात कितनी भी लंबी क्यों न हो, मगर उस के बाद सुबह जरूर होती है.’

लेखिका- सायरा बानो मलिक

Short Stories in Hindi : जातपात

Short Stories in Hindi : निर्मला अपने पति राजन के साथ जिद कर के अपनी दादी के श्राद्ध में मायके आई थी. हालांकि राजन ने उसे बारबार यही कहा था कि बिन बुलाए वहां जाना ठीक नहीं है, फिर भी वह नहीं मानी और अपना हक समझते हुए वहां पहुंच ही गई.

निर्मला ने सोचा था कि दुख की इस घड़ी में वहां पहुंचने पर परिवार के सभी लोग गिलेशिकवे भूल कर उसे अपना लेंगे और दादी की मौत का दुख जताएंगे. पर उस का ऐसा सोचना गलत साबित हुआ.

सभी ने निर्मला को देख कर भी नजरअंदाज कर दिया, मानो वह कोई अजनबी हो.

इस के बावजूद भी निर्मला को उम्मीद थी कि परिवार वाले भले ही उसे नजरअंदाज करें, मां ऐसा नहीं कर सकतीं.

तभी निर्मला ने राजन की तरफ इस तरह देखा, मानो वह मां के पास जाने की उस से इजाजत ले रही हो. फिर वह अकेली ही मां की तरफ बढ़ गई.

उस समय निर्मला की मां औरतों के हुजूम में आगे बैठी हुई थीं. जब मां ने निर्मला को अपने करीब आते देखा, तो वे उठ कर तेजी से दूसरे कमरे में चली गईं.

मां के पीछेपीछे निर्मला भी वहां पहुंच गई और प्यार से बोली, ‘‘मां, यह सब कैसे हुआ? क्या दादी बहुत दिनों से बीमार थीं?’’

‘‘तुम से मतलब? आखिर तुम पूछने वाली होती कौन हो? चली जाओ यहां से. फिर कभी भूल कर भी इस घर की तरफ मत देखना, नहीं तो तुम मेरा मरा हुआ मुंह देखोगी,’’ गुस्से से चीखते हुए उस की मां बोलीं.

‘‘ऐसा न कहो, मां. नहीं तो मैं अनाथ हो जाऊंगी. आखिर तुम्हारा ही तो सहारा है मुझे. मां हो कर भी तुम मेरे मन की भावना को नहीं समझोगी, तो और कौन समझेगा?’’ रोते हुए निर्मला बोली.

‘‘नहीं समझना है मुझे. कुछ नहीं समझना,’’ चीखते हुए उस की मां ने कहा.

‘‘क्यों नहीं समझना है, मां? तुम्हें समझना ही पड़ेगा. अपनी बेटी के दुख को महसूस करना ही पड़ेगा. आखिर मेरा इतना ही कुसूर था न कि मैं ने राजन से सच्चा प्यार किया? उस से शादी की, जो हमारी बिरादरी का नहीं है?

‘‘लेकिन मां, तुम मुझे गौर से देखो कि मैं राजन के साथ कितनी खुश हूं. मुझे किसी बात का दुख नहीं है,’’ खुशी जताते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘मुझे कुछ नहीं देखना है और न ही सुनना है, बस. तुम अभी और इसी समय उस राजन को ले कर यहां से चली जाओ, ताकि तुम्हारी दादी का श्राद्ध शांति से पूरा हो सके,’’ मां बोलीं.

‘‘हम यहां से चले जाएंगे, मां, रहने के लिए नहीं आए हैं. केवल दादी के श्राद्ध में आए हैं. बस, उसे पूरा हो जाने दो. क्योंकि दादी से मेरा और मुझ से उन का कितना गहरा लगाव था, यह तुम अच्छी तरह से जानती हो. मेरे बिना तो वे कुछ भी नहीं खातीपीती थीं,’’ सुबकते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘इसीलिए तो तुम उस कलमुंहे राजन के साथ भाग गई और कोर्ट में जा कर शादी कर ली. तब तुम्हें दादी का इतना खयाल नहीं था, जबकि उन्होंने तुम्हारी याद में अपनी जान दे दी?’’

‘‘मुझे दादी का बहुत खयाल था, मां. परंतु मैं क्या करती, आप सभी तो मुझ से खफा थे. डर के चलते मैं नहीं आ सकी,’’ रोते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘बड़ी आई डर वाली. जब इतना ही डर था, तो घर से कदम बाहर निकालते समय हजार बार सोचती? फिर भी कुछ नहीं सोचा.

‘‘अरे, क्या अपनी बिरादरी में लड़कों की कमी हो गई थी, जो उस नाशपीटे राजन के साथ भाग गई?’’ तीखी आवाज में उस की मां ने कहा.

मां के सवालों का जवाब देने के बजाय निर्मला ने कहा, ‘‘मां, मुझे जी भर कर कोस लो, लेकिन उन्हें कुछ न कहो, क्योंकि अब वे मेरे पति हैं.’’

‘‘तुम तो ऐसे कह रही हो, जैसे दुनिया में केवल एक तुम ही पति वाली हो, बाकी सब दिखावे वाली हैं,’’ खिल्ली उड़ाते हुए उस की मां बोलीं.

‘‘मां, मेरी अच्छी मां, तुम तो मुझे ऐसा न कहो. हर मांबाप का सपना होता है कि मेरी बेटी अच्छे घर में ब्याहे, सुखशांति से रहे. उन्हीं में से मैं एक हूं.

‘‘तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि मैं ने अपने जीवनसाथी का खुद ही चुनाव कर तुम लोगों की परेशानी को दूर किया है. इस के बावजूद भी सभी की तरह तुम भी मुझे नजरअंदाज कर रही हो?’’ दुखी हो कर निर्मला ने कहा.

‘‘हां, तुम इसी काबिल हो, इसीलिए नहीं मिलेगा अब तुम्हें वह लाड़प्यार और अपनापन, जो कभी यहां मिला करता था…’’

निर्मला की मां की बातें अभी पूरी भी नहीं हो पाई थीं कि पिता, भाई, बहन व भाभी सभी वहां आ गए और गुस्से से निर्मला को घूरने लगे.

तभी उस के पिता दयाशंकर ने गुस्से में कहा, ‘‘कलंकिनी, मुझे तो तेरा नाम लेते हुए भी नफरत हो रही है. आखिर तुम ने मेरे घर में कदम रखने की हिम्मत कैसे की?’’

‘‘ऐसा न कहिए, पापा. आखिर इस घर से मेरा भी तो कोई रिश्ता है? उसी रिश्ते के वास्ते तो मैं यहां आई हूं. मुझे और मेरे पति को अपना लीजिए, पापा,’’ रोतेगिड़गिड़ाते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘खबरदार, जो मुझे पापा कहा. तेरा पापा तो उसी दिन मर गया था, जिस दिन तू इस घर को छोड़ कर गई थी. रहा सवाल अपनाने का, तो यह हक अब तुम खो चुकी हो.’’

‘‘नहीं, पापा नहीं. ऐसा न कहो और ठंडे दिमाग से सोचो कि प्यार करना क्या कोई जुर्म है?

‘‘आखिर मैं भी तो बालिग हूं. जब मैं अपना भलाबुरा सोचसमझ सकती हूं, तो फिर मुझे फैसला लेने का हक क्यों नहीं है? और फिर चाहे बातें भविष्य की हों या जीवनसाथी चुनने की, लड़कियों को यह हक जरूर मिलना चाहिए,’’ थोड़ा खुश हो कर निर्मला ने कहा.

‘‘तू मुझे हक के बारे में समझा रही है? अगर तू इतनी ही समझदार होती, तो अपनी ही जाति के लड़के से शादी करती, न कि किसी दूसरी जाति के लड़के से,’’ निर्मला के पिता ने कहा.

‘‘दूसरी जाति के लड़के क्या इनसान नहीं होते? क्या उन में समझदारी नहीं होती? इस की मिसाल तो राजन ही हैं, जिन्होंने मुझे जिंदगी की सारी खुशियां दे रखी हैं, कोई कमी महसूस नहीं होने दी है उन्होंने. मैं इस तरह के जातपांत के भेदभाव को नहीं मानती, जो एक इनसान को दूसरे इनसान से अलग करता हो, आपस में दूरियां बढ़ाता हो…

‘‘मैं केवल इनसानियत की जात को जानती व मानती हूं,’’ निर्मला बोलती चली गई.

‘‘बस करो अपनी यह बकवास और उस राजन के साथ यहां से चलती बनो,’’ इस बार चीखते हुए निर्मला का भाई विशाल बोला.

‘‘भैया, मुझे जो चाहो कह लो, मैं सब बरदाश्त कर लूंगी. लेकिन उन के बारे में कुछ भी नहीं सुन सकती. क्योंकि एक पत्नी अपने सामने पति की बेइज्जती कभी बरदाश्त नहीं कर सकती.’’

‘‘अच्छा, तब तो मुझे तुम्हारे पति की बेइज्जती करनी ही होगी, वह भी तुम्हारे सामने,’’ नजरें तिरछी करते हुए विशाल बोला.

‘‘क्या…? यह तुम कह रहे हो? जबकि तुम भी किसी के पति हो और तुम्हारी पत्नी तुम्हारे सामने खड़ी है. महाभारत मचा दूंगी मैं यहां. तुम क्या समझते हो अपनेआप को कि वे तुम से कमजोर हैं?

‘‘वे जूडोकराटे में ब्लैकबैल्ट हैं और साथ ही पुलिस में भी हैं. उन से टकराना तुम्हें महंगा पड़ेगा, भैया.

‘‘हां, मैं यदि चाहूं, तो तुम्हारी पत्नी के सामने तुम्हारी बेइज्जती जरूर करवा सकती हूं, ताकि तुम बेइज्जती के दर्द को महसूस कर सको.

‘‘लेकिन, मैं इतनी बेवकूफ भी नहीं हूं कि तुम्हारी तरह कुछ करने से पहले कुछ सोचसमझ न सकूं. औरत हूं, इसलिए औरत का दर्द समझती हूं. लिहाजा, ऐसा कुछ नहीं करना चाहूंगी, जिस से कि भाभी के मन में दुख हो.’’

निर्मला की बातें सुन कर उस की भाभी सुबक पड़ी और उस ने आगे बढ़ कर निर्मला को गले लगा लिया.

‘‘माधुरी, यह तुम क्या कर रही हो? दूर हटो उस से. इस से हमारा कोई रिश्ता नहीं है,’’ चीखते हुए विशाल बोला.

‘‘रिश्ता है क्यों नहीं? खून का रिश्ता है हमारा, इसलिए अपनी बहन को अपना लीजिए. इस ने ठीक ही कहा है कि जातपांत कुछ नहीं होता. होती है तो केवल इनसानियत, और इनसानियत का रिश्ता,’’ निर्मला की तरफदारी लेते हुए उस की भाभी माधुरी ने कहा, मानो वह भी इनसानियत के रिश्ते को ही अहमियत दे रही हो.

लेकिन माधुरी की बातें सुन कर विशाल बौखला गया. वह गुस्से से बोला, ‘‘माधुरी, लगता है इस के साथसाथ तुम्हारा भी दिमाग खराब हो गया है, कहीं…’’

अभी विशाल अपनी बातें पूरी भी नहीं कर पाया था कि तभी वहां राजन आ गया और सूझबूझ का परिचय देते हुए गंभीरता से बोला, ‘‘निर्मला, अब चलो यहां से. बहुत हो चुकी तुम्हारी बेइज्जती. मैं अब और सहन नहीं कर सकता.

‘‘मैं ने सबकुछ सुन लिया है और जान लिया है कि ये लोग ऐसे पत्थरदिल इनसान हैं, जो जातपांत का ढोंग रच कर समाज को गंदा करते हैं.’’

‘‘आप बिलकुल ठीक कहते हैं. अब मुझे समझ में आया कि मैं ने यहां आ कर कितनी बड़ी भूल की है?

‘‘ले चलिए मुझे. अब एक पल भी मैं यहां रुकना नहीं चाहूंगी,’’ उठते हुए निर्मला बोली और अपने पति राजन का हाथ थाम कर घर से बाहर जाने लगी.

उस की छोटी बहन उर्मिला ने दौड़ कर निर्मला का हाथ थाम लिया और सिसकते हुए बोली, ‘‘दीदी, मत जाओ. मुझे छोड़ कर मत जाओ.’’

‘‘पगली, मैं कहां तुम्हें छोड़ कर जा रही हूं? हां, जातपांत और उन बुरे रिवाजों को छोड़ कर जा रही हूं, जिसे मां, पापा व भैया ने अपनी मुट्ठियों में जकड़ रखा है.

‘‘मैं यहां नहीं आऊंगी तो क्या हुआ, तुम तो अपनी दीदी के घर आ सकती हो?’’ निर्मला बोली.

‘‘जरूर आऊंगी दीदी,’’ उर्मिला ने खुश हो कर कहा.

‘‘मैं इंतजार करूंगी,’’प्यार से उस के सिर पर अपना हाथ फेरते हुए निर्मला ने कहा और अपने पति राजन के साथ घर से बाहर निकल गई.

लेखिका- कंचन कश्यप

Hindi Kahaniyan : मैं अहम हूं

Hindi Kahaniyan : शशि ने बबलू की ओर देखा. उस का चेहरा कितना भोला मालूम होता है. बहुत ही प्यारा बच्चा है. हर मांबाप को अपने बच्चे प्यारे ही लगते हैं. बबलू गोराचिट्टा बच्चा था, जिस को देख कर सभी का उसे प्यार करने को मन होता. फिर शशि तो उस की मां थी. सारे दिन उस की शरारतें देख कर खुश होती. बबलू को पा कर तो उसे ऐसा लगता कि बस, अब और कुछ नहीं चाहिए. बबलू से बड़ी 7-8 साल की बेटी नीलू भी कम प्यारी नहीं थी. दोनों बच्चों को जान से भी ज्यादा चाहने वाली शशि उन के प्रति लापरवाह कैसे हो गई?

आज तो हद हो गई. सुबह जब वह आटो पर बैठने लगी तो बबलू उस के पांवों से लिपट गया. प्यार से मनाने पर नहीं माना तो शशि ने उसे डांटा. देर तो हो ही रही थी, उस ने आव देखा न ताव, उस के गाल पर एक चांटा जड़ दिया. चांटा कुछ जोर से पड़ गया था, उंगलियों के निशान गाल पर उभर आए थे. उस के रोने की आवाज सुन कर उस के दादाजी बाहर आ गए और बबलू को गोद में ले कर मनाने लगे. सास ने जो आंखें तरेर कर शशि की ओर देखा तो वह सहम गई. आटो में बैठते हुए ससुरजी की आवाज सुनाई दी, ‘‘जब करते नहीं बनता तो क्यों करती है नौकरी. यहां क्या खाने के लाले पड़ रहे हैं?’’

स्कूल में उस दिन किसी काम में मन नहीं लगा. इच्छा तो हो रही थी छुट्टी ले कर घर जाए पर अभी नौकरी लगे दोढाई महीने ही हुए थे. प्रधान अध्यापिका वैसे भी कहती रहती थीं, ‘‘भई, नौकरी तो बच्चों वाली को करनी ही नहीं चाहिए. रहेंगी स्कूल में और ध्यान रहेगा पप्पू, लल्ली में,’’ यह कह कर वे एक तिरस्कारपूर्ण हंसी हंसतीं. वे खुद 45 वर्ष की आयु में भी कुंआरी थीं. स्कूल का समय समाप्त होते ही शशि आटो के लिए ऐसे दौड़ी कि सामने से आती हुई प्रधान अध्यापिका व अन्य 2 अध्यापिकाओं को अभिवादन करना तक भूल गई. आटो में आ कर बैठने के बाद उसे इस बात का खयाल आया. दोनों अध्यापिकाओं की प्रधान अध्यापिका के साथ बनती भी अच्छी थी, और वे उस से वरिष्ठ भी थीं. खैर, जो भी हुआ अब क्या हो सकता था.

आटो वाले से उतावलापन दिखाते हुए कहा, ‘‘जल्दी चलो.’’

कुछ दूर जा कर आटो वाले ने पूछा, ‘‘साहब क्या करते हैं?’’

‘‘बहुत बड़े वकील हैं,’’ शशि ने सगर्व कहा.

आटो वाले ने मुंह से कुछ नहीं कहा, सिर्फ एक हलकी सी मुसकान के साथ पीछे मुड़ कर उसे देख लिया. उस की इस मुसकान से उसे सुबह की घटना फिर याद आ गई. जैसेजैसे घर करीब आता गया, शशि का संकोच बढ़ता गया. सासससुर से कैसे आंख मिलाए. सुबह तो पति अजय घर पर नहीं थे, पर अब अजय को भी मालूम हो गया होगा. बच्चों को वे कितना चाहते हैं. जहां तक हो सके वे प्यार से ही उन्हें समझाते हैं. बच्चे भी अपने पिता से बहुत हिलेमिले थे. घर के आगे आटो रुका. बबलू रोज की तरह दौड़ कर नहीं आया. नीलू भी सिर्फ एक बार झांक कर भीतर चली गई. अंदर जा कर उस ने धीरे से बबलू को आवाज दी. वह दूर से ही बोला, ‘‘अम नहीं आते. आप मालती हैं. आप से अमाली कुट्टी हो गई.’’

शशि वैसे ही बिस्तर पर पड़ गई. रोतेरोते उस के सिर में दर्द होने लगा. वह चुपचाप वैसे ही आंख बंद किए पड़ी रही. किसी ने बत्ती जलाई. सास ही थीं. उस के करीब आ कर बोलीं, ‘‘चलो बहू, हाथमुंह धो कर कुछ खापी लो.’’ सास की हमदर्दी अच्छी भी लगी और साथ ही शर्म भी आई. रात का खानपीना खत्म हुआ तो सब बिस्तर पर चले गए थे. अजय खाना खा कर दूसरे कमरे में चला गया, जरूरी केस देखने. शशि को उन का बाहर जाना भी उस दिन राहत ही दे रहा था. बबलू करवट बदलते हुए नींद  में कुछ बड़बड़ाया. शशि ने उस को चादर ओढ़ाई, फिर नीलू की ओर देखा. आज नीलू भी उस से घर आने के बाद ज्यादा बोली नहीं. और दिनों तो स्कूल की छोटी से छोटी बात बताती, तरहतरह के प्रश्न पूछती रहती. साथ में खाना खाने की जिद करती. फिर सोते समय जब तक एकाध कहानी न सुन ले, उसे नींद न आती. पर आज शशि को लग रहा था, मानो बच्चे पराए, उस से दूर हो रहे थे. ढाई साल के बच्चे  में अपनापराया की क्या समझ हो सकती है. वह तो मां को ही सबकुछ समझता है. मां भी तो उस से बिछुड़ कर कहां रहना चाहती है.

वह दिन भी कितना बुरा था जब वह पहली बार इंदु से मिली थी, शशि सोचने लगी…

कैसी सजीधजी थी इंदु, बातबात पर उस का हंसना. शशि को उस दिन वह जीवन से परिपूर्ण, एकदम जीवंत लगी. अजय और मनोज साथ ही पढ़े थे. आजकल मनोज उसी शहर में ला कालेज में लैक्चरार से तरक्की पा कर प्रोफैसर बन गया था. उस दिन रास्ते में जो मुलाकात हुई तो मनोज ने अजय व शशि को अपने घर आने का निमंत्रण दिया. वहां जाने पर शशि भौचक्की सी रह गई. ड्राइंगरूम था या कोई म्यूजियम. महंगी क्रौकरी में नाश्ता आया. अच्छी नईनई डिशेज. शशि तो नाश्ते के दौरान कुछ अधिक न बोली, पर इंदु चहकती रही. शायद भौतिक सुख से परिपूर्ण होने पर आदमी वाचाल हो जाता है. इंदु किसी काम से अंदर चली गई. अजय और मनोज बीते दिनों की यादों में खोए हुए थे. शशि सोचने लगी, उस का पति भी वकालत में इतना तो कमा ही लेता है जिस से आराम से रहा जा सके. खानेपहनने को है, बच्चों को घीदूध की कमी नहीं. बचत भी ठीक है. सुखशांति से भरापूरा परिवार है. पर मनोज के यहां की रौनक देख कर उसे अपना रहनसहन बड़ा तुच्छ लगा.

इंदु की आवाज से शशि इतनी बुरी तरह चौंकी कि अजय और मनोज दोनों उस की ओर देखने लगे. मनोज ने कहा, ‘शायद भाभी को घर में छोड़े हुए बच्चों की याद आ रही है. भाभी, इतना मोह भी ठीक नहीं. अब देखिए, हमारी श्रीमतीजी को, लेदे के एक तो लाल है, सो उस को भी छात्रावास में भेज दिया. मुश्किल से 8-10 साल का है. कहती हैं, ‘वहां शुरू से रहेगा तो तहजीब सीख लेगा.’ भाभी, आप ही बताइए, क्या घर पर बच्चे शिष्टाचार नहीं सीखते हैं?’ मनोज शायद आगे भी कुछ कहता पर इंदु शशि का हाथ पकड़ कर यह कहते हुए अंदर ले गई, ‘अजी, इन की तो यह आदत है. कोई भी आए तो शुरू हो जाते हैं. भई, हम को तो ऐसी भावुकता पसंद नहीं. आदमी को व्यावहारिक होना चाहिए.’

उस के व्यावहारिक होने का थोड़ा अंदाजा तो बाहर से ही मिल रहा था. जब अंदर जा कर देखा तो एलईडी टैलीविजन, कंप्यूटर, चमचमाता महंगा फर्नीचर ओह, क्याक्या गिनाए. शशि की हैरानी को इंदुशायद भांप गई थी. बड़े गर्व से, गर्व के बजाय घमंड कहना ही उचित होगा, बोली, ‘यह सब मेरी मेहनत का फल है. यदि विकी को छात्रावास में न रखती तो इतने आराम से नौकरी थोड़े ही की जा सकती थी. उस को देखने के लिए आया, नौकर रखो, फिर उन नौकरों की निगरानी करो, अच्छा सिरदर्द ही समझो. अब मुझे कोई फिक्र नहीं. हर महीने 70 हजार रुपए कमा लेती हूं. काम भी अच्छा ही है. एक मल्टीनैशनल कंपनी में कंसल्टैंट के तौर पर काम करती हूं. जरा ढंग से संवर के रहना, लोगों से मिलना और मुसकान बिखेरते रहना. संवर के रहना किस औरत को अच्छा नहीं लगेगा. अरे, मैं तो बोले ही जा रही हूं. आप भी कहेंगी, अच्छी मिली. आइए, मैं आप को पूरा घर दिखाऊं.’

शयनकक्ष तो बिलकुल फिल्मी था. बढि़या सुंदर डबलबैड और उस पर बिछी चादर इतनी सुंदर कि हाय, शशि कल्पना में अपनेआप को उस पर अजय के साथ देखने लगी. सिर को झटक कर उस विचार को तुरंत निकाल देने की कोशिश की. बाहर के कमरे में आने पर अजय बोला, ‘चलो शशि, क्या यहीं रहने का इरादा है?’

इंदु ने अजय से कहा, ‘आप इन्हें कभीकभी यहां ले आया करिए. इन का मन भी बहला करेगा. आप को समय न हो तो मनोज को फोन कर दिया कीजिए, हम खुद ही इन्हें ले आएंगे.’ शशि की इच्छा तो हुई कि कहे, जब आप लेने आएंगी तो वहीं, मेरे घर पर बातचीत हो सकती है. पर उस का मन इतना भारी हो रहा था कि लग रहा था कि अगर एक बोल भी मुंह से निकला तो वह रो देगी. वह समझ रही थी कि इंदु सिर्फ अपने धन का दिखावा भर दिखाना चाहती थी. घर लौटते हुए आधे रास्ते तक दोनों चुप रहे. फिर अजय एकदम बोला, ‘मनोज की पत्नी भी खूब है.’ वह आगे कुछ बोले, इस से पहले शशि ने टोक दिया, ‘हां, मुझ जैसी बेवकूफ थोड़ी है.’

उस की आवाज रोंआसी थी. अजय ने आश्चर्य से उस की ओर देखा और प्यार से बोला, ‘शशि, कैसी बेवकूफों सी बातें करती हो?’ फिर उस ने एकदम दांतों तले जीभ दबा ली. यह वह अनजाने में क्या बोल गया, मानो शशि की कही हुई बात का समर्थन कर दिया हो. एकदम बात बदलते हुए बोला, ‘बहुत देर हो गई, बच्चे शायद सो भी गए होंगे.’ पर शशि की आग्नेय दृष्टि देख कर फिर वह रास्ते भर चुप ही रहा.

घर पहुंचने पर शशि सिरदर्द का बहाना कर के बिना कुछ खाएपिए लेट गई. पर रातभर उसे इंदु के बैडरूम के ही सपने आते रहे. इंदु की अलमारी में सजी साडि़योें की इंद्रधनुषी छटा रहरह कर आंखों के सामने नाच रही थी. ओह, कितनी साडि़यां, रोज एकएक पहने तो साल में उसे 3 या 4 बार से अधिक पहनने का मौका न आए. अब तो उन की दूसरी कार भी आने को है. वैसे तो कई लोगों के अच्छे व बड़े घर, कार सब देख चुकी है. खुद उस के भाईसाहब के पास कार है पर वे बहुत बड़े इंजीनियर हैं. अपने पति की बराबरी में तो जो भी हैं, सब का रहनसहन करीबकरीब एकसा ही है. शशि ने यह नहीं सोचा था कि उस की बेचैनी एक दिन उसे नौकरी करने पर मजबूर कर देगी. आवेदन देने के पहले कई दिन तक ऊहापेह में पड़ी रही. ढाई साल का बबलू, उसे कौन संभालेगा? सासूमां बूढ़ी हैं. अजय से जब राय मांगी तो उन्होंने भी यही कहा, ‘भई, परिस्थितिवश नौकरी करना बुरी बात नहीं, पर तुम्हें नौकरी की क्या जरूरत पड़ गई? कम से कम बबलू ही कुछ बड़ा हो कर स्कूल जाने लगे तो ठीक है. फिर आगे तुम्हारी इच्छा.’

सासससुर ने भी कहा, ‘बहू, बबलू को तो हम संभाल लेंगे. हमारा और है ही कौन. पर तुम्हारा शरीर भी तो दोनों भार को सहन कर सके तब न. जो भी करो, सोचसमझ कर करो.’’ पर उस के सिर पर तो जैसे जनून सवार था. 6-7 दिन तक तो स्कूल में बबलू की खूब याद आती थी, फिर ठीक लगने लगा. पर रोज स्कूल से लौट कर जब घर में कदम रखती तो घर की कुछ अव्यवस्थता मन को खटकती. एक दिन जब वह स्कूल से लौटी तो घर में कोई मेहमान आए हुए थे. कामवाली घर पर नहीं थी तो नीलू उन को पानी दे रही थी. नीलू को देखते ही उस का गुस्सा सातवें आसमान पर आ पहुंचा. बाल बिखरे हुए, फ्रौक की तुरपन उधड़ी हुई, हाथ में पेंटिंग कलर लगे हुए थे, अजीब हाल बना रखा था. नीलू को बगल से पकड़ कर खींचते हुए वह अंदर ले गई. उस का तमतमाता चेहरा देख कर वहां का वातावरण एकदम बोझिल हो गया. नीलू सुबकती हुई एक कोने में खड़ी हो गई. उस समय शशि को अपनी गलती का खयाल नहीं आया, बल्कि उसे सब पर गुस्सा आया कि सब उस से खार खाए बैठे हैं और जानबूझ कर उस का अपमान करना चाहते हैं. पर आज लगता है, वास्तव में उस ने अपनी नौकरी के आगे बाकी हर बात को गौण समझ लिया. पहले वह अजय के मोजे, रूमाल देख कर रख दिया करती थी, उस के कपड़ों पर प्रैस, बटन आदि का भी ध्यान रखती थी. दोपहर के समय बच्चों के पुराने कपड़ों को बड़ा करना, मरम्मत करना आदि काफी कुछ काम कर लेती थी. अब तो अजय अपने हाथ से बटन लगाना आदि छोटीमोटी मरम्मत कर लेता है, पर मुंह से कुछ नहीं बोलता. बबलू भी इन 2 ही महीनों में कुछ दुबला हो गया है. दादी दूध दे सकती हैं, खिला सकती हैं, प्यार भी बहुत करती हैं, पर मां की ममता व आरंभिक शिक्षा और कोई थोड़े ही दे सकता है.

फिर उस के कमाने से क्या फायदा हुआ, सिवा इस के कि घर का खर्चा पहले से बढ़ गया. सब कपड़े धोबी को जाने लगे और कपड़ों का नुकसान भी ज्यादा होने लगा. अब महरी को भी काम बढ़ जाने से ज्यादा पैसे देने पड़ते थे. आटो का खर्च अलग, इस प्रकार मासिक खर्च बढ़ ही गया. इस के अलावा घर और बच्चे अव्यवस्थित हो गए सो अलग. सास बेचारी दिनभर काम में पिसती रहती. और जब  नहीं कर पाती तो बड़बड़ाती रहती. इन्हीं 2 महीनों में घर की शांति भंग हो गई. जिस पर उस ने जो कल्पना की थी कि अपनी तनख्वाह से घर की सजावट के लिए कुछ खरीदेगी, उसे कार्यरूप से परिणत करना कितना मुश्किल है, यह उसे तुरंत पता लग गया. उसे कुछ कहने में ही झिझक हो रही थी. कहीं अजय यह न समझ ले कि उस ने सिर्फ इन दिखावे की चीजों के लिए ही नौकरी की है. अजय के मन में हीनभावना भी आ सकती है. पर यह सब उसे पहले क्यों नहीं सूझा? खैर, अब तो सुध आई. ‘बाज आई ऐसी नौकरी से,’ उस ने मन ही मन सोचा, ‘बच्चे जरा बड़े हो जाएं तो देखा जाएगा.’

अगले दिन उस ने अजय के चपरासी के हाथों एक महीने का नोटिस देते हुए अपना त्यागपत्र तथा एक दिन के आकस्मिक अवकाश की अरजी भेज दी. अजय ने यही समझा कि शायद तबीयत खराब होने से 1-2 दिन की छुट्टी ले रखी है. बादल उमड़घुमड़ रहे थे और बारिश की हलकीहलकी बूंदें भी पड़नी शुरू हो चुकी थीं. बहुत दिनों बाद उस रात को दोनों चहलकदमी को निकले. अजय ने पूछा, ‘‘क्यों, अचानक तुम्हारी तबीयत को क्या हो गया, तुम ने कितने दिन की छुट्टी ले ली है?’’

शशि बोली, ‘‘हमेशा के लिए.’’ अजय परेशान सा उस की ओर देखने लगा, ‘‘सच, शशि, सच, अब तुम नहीं जाओगी स्कूल? चलो, अब कमीजपैंट में बटन नहीं टांकने पड़ेंगे. धोबी को डांटने का काम भी अब तुम संभाल लोगी. हां, अब रात को थके होने का बहाना भी नहीं कर सकतीं. पर यह तो बताओ, नौकरी छोड़ क्यों दी?’’

शशि उस के उतावलेपन को देख कर हंसते हुए मजा ले रही थी. उसे पति पर दया भी आई, बोली, ‘‘हां, मुझे नौकरी नहीं छोड़नी चाहिए थी, जनाब दरजी तो बन ही जाते. अजीब आदमी हो, कम से कम एक बार तो मुंह से कहा होता कि शशि, तुम्हारे स्कूल जाने से मुझे कितनी परेशानी होती है.’’ डियर, हम तो शुरू से कहना चाहते थे, पर हमारी बात आप को तब जंचती थोडे़ ही. हम ने भी सोचा कर लेने दो थोड़े मन की, अपनेआप सब हाल सामने आएगा तो जान जाएगी. पर यह उम्मीद नहीं थी कि तुम इतनी जल्दी नौकरी छोड़ने को तैयार हो जाओगी. खैर, तुम ने अपनी परिस्थिति पहचान ली तो सब ठीक है,’’ फिर थोड़ा रुक कर बोले, ‘‘हां, शशि सद्गृहिणी बनना कितना कठिन है. तुम जब अपने इस दायित्व को अच्छे से निभाती हो तो मुझे कितना गर्व होता है, मालूम है? यह मत सोचो कि मैं तुम्हें घर से बांधने की कोशिश कर रहा हूं. मेरी ओर से पूरी छूट है, तुम पढ़ोलिखो, कुछ नया सीखो, पर अपने दायित्व को समझ कर.’’

फिर कुछ दूर दोनों मौन चलते रहे. अजय को लग रहा था कि शशि कुछ पूछना चाह रही है, पर हिचक रही है. 2-3 बार उस ने शशि की ओर देखा, मानोे हिम्मत बंधा रहा हो. ‘‘इंदु को देख कर आप को यह नहीं लगता कि वह कितनी लायक औरत है, उस ने अपना घर कैसे सजा लिया है. तब आप को मुझ में कमी नहीं लगती?’’ आखिर शशि ने पूछ ही लिया. अजय इतना खुल कर हंसे कि राह के इक्कादुक्का लोग भी मुड़ कर उन की ओर देखने लगे. आखिर हंसने का यह कैसा और कौन सा मौका है, शशि समझ न पाई. जब उन की हंसी रुकी तो बोले, ‘‘तुम को क्या लगता है कि मनोज बहुत खुश है. वह क्या कह रहा था मालूम है? ‘यार, जबान का स्वाद ही चला गया. मनपसंद चीजें खाए अरसा हो गया. श्रीमतीजी दफ्तर से आ कर परांठे सेंक देती हैं, बस. इतवार के दिन वे छुट्टी के मूड में रहती हैं. देर से उठना, आराम से नहानाधोना, फिर होटल में खाना, पिक्चर, बस. यार, तू बड़ा सुखी है. यहां तो हर महीने मांबाप को रुपए भेजने पर टोका जाता है. आखिर मांबाप के प्रति कुछ फर्ज भी तो है कि नहीं?

‘‘और सुनोगी? उस दिन हमारे बच्चों को देख कर बोला, ‘यार, तुम्हारे बच्चे कितने सलीके से रहते हैं. इच्छा तो होती है कि इंदु को बताऊं कि देखो, इन बच्चों को शिष्टचार की कोई सीख कौन्वैंट या पब्लिक स्कूल से नहीं, बल्कि मां के सिखाने से मिली है.’

‘‘मैं ने यह सुन कर कैसा अनुभव किया होगा, तुम अनुमान लगा सकती हो, यही तुम्हारी जीत थी, और तुम्हारी जीत यानी मेरी जीत. इंदु की आधी तनख्वाह तो अपनी साडि़यों, मेकअप, होटल और सैरसपाटे में खर्च हो जाती है. बेटे को छात्रावास में रखने का खर्च अलग. उस में अहं की भावना है, और ‘मेरे’ की भावना से ग्रस्त वह यही समझती है कि उस के नौकरी करने से ही घर में इतनी चीजें आई हैं. जहां यह ‘मेरे’ की भावना आई, घर की सुखशांति नष्ट समझो.’’ कुछ रुक कर अजय बोले, ‘‘चलो, शशि, अब घर चलें, काफी दूर निकल आए हैं,’’ फिर धीरे से बोले, ‘‘आज के बाद रात को थकान का बहाना न चलेगा.’’

शशि को गुदगुदी सी हुई और बहुत दिनों बाद उस के मन में बसी बेचैनी दूर जाती लगी.

लेखिका- मंगला रामचंद्रन

Short Stories in Hindi : गुड गर्ल : ससुराल में तान्या के साथ क्या हुआ

Short Stories in Hindi : कई पीढ़ियों के बाद माहेश्वरी खानदान में रवि और कंचन की सब से छोटी संतान के रूप में बेटी का जन्म हुआ था. वे दोनों फूले नहीं समा रहे थे, क्योंकि रवि और कंचन की बहुत इच्छा थी कि वे भी कन्यादान करें क्योंकि पिछले कई पीढ़ियों से उन का परिवार इस सुख से वंचित था.

आज 2 बेटों के जन्म के लगभग 7-8 सालों बाद फिर से उन के आंगन में किलकारियां गूंजी थीं और वह भी बिटिया की.

बिटिया का नाम तान्या रखा गया. तान्या यानी जो परिवार को जोड़ कर रखे. अव्वल तो कई पीढ़ियों के बाद घर में बेटी का आगमन हुआ था, दूसरे तान्या की बोली एवं व्यवहार में इतना मिठास एवं अपनापन घुला हुआ था कि वह घर के सभी सदस्यों को प्राणों से भी अधिक प्रिय थी.

सभी उसे हाथोहाथ उठाए रखते. यदि घर में कभी उस के दोनों बड़े भाई झूठमूठ ही सही जरा सी भी उसे आंख भी दिखा दें या सताएं तो फिर पूछो मत, उस के दादादादी और खासकर उस के प्यारे पापा रण क्षेत्र में तान्या के साथ तुरंत खड़े हो जाते.

दोनों भाई उस की चोटी खींच कर उसे प्यार से चिढ़ाते कि जब से तू आई है, हमें तो कोई पूछने वाला ही नहीं है.

जिस प्रकार एक नवजात पक्षी अपने घोंसले में निडरता से चहचहाते रहता है, उसे यह तनिक भी भय नहीं होता कि उस के कलरव को सुन कर कोई दुष्ट शिकारी पक्षी उन्हें अपना ग्रास बना लेगा. वह अपने मातापिता के सुरक्षित संसार में एक डाली से दूसरी डाली पर निश्चिंत हो कर उड़ता और फुदकता रहता है. तान्या भी इसी तरह अपने नन्हे पंख फैलाए पूरे घर में ही नहीं अड़ोसपड़ोस में भी तितली की तरह अपनी स्नेहिल मुसकान बिखेरती उड़ती रहती थी. सब को सम्मान देना और हरेक जरूरतमंद की मदद करना उस का स्वभाव था.

समय के पंखों पर सवार तान्या धीरेधीरे किशोरावस्था के शिखर पर पहुंच गई, लेकिन उस का स्वभाव अभी भी वैसा ही था बिलकुल  निश्छल, सहज और सरल. किसी अनजान से भी वह इतने प्यार से मिलती कि कुछ ही क्षणों में वह उन के दिलों में उतर जाती. भोलीभाली तान्या को किसी भी व्यक्ति में कोई बुराई नहीं दिखाई देती थी.

पूरे मोहल्ले में गुड गर्ल के नाम से मशहूर सब लोग उस की तारीफ करते नहीं थकते थे और अपनी बेटियों को भी उसी की तरह गुड गर्ल बनाना चाहते थे.

हालांकि तान्या की मां कंचनजी काफी प्रगतिशील महिला थीं, लेकिन थीं तो वे भी अन्य मांओं की तरह एक आम मां ही, जिन का हृदय अपने बच्चों के लिए सदा धड़कता रहता था. उन्हें पता था कि लडकियों के लिए घर की चारदीवारी के बाहर की दुनिया घर के सुरक्षित वातावरण की दुनिया से बिलकुल अलग होती है.

बड़ी हो रही तान्या के लिए वह अकसर चिंतित हो उठतीं कि उसे भी इस निर्मम समाज, जिस में स्त्री को दोयम दरजे की नागरिकता प्राप्त है, बेईमानी और भेदभाव के मूल्यों का सामना करना पड़ेगा.

एक दिन मौका निकाल कर बड़ी होती तान्या को बङे प्यार से समझाते हुए वे बोलीं,”बेटा, यह समाज लड़की को सिर्फ गुड गर्ल के रूप में जरूर देखना चाहता है लेकिन अकसर मौका मिलने पर उन्हें गुड गर्ल में सिर्फ केवल एक लङकी ही दिखाई देती है जो अनुचित को अनुचित जानते हुए भी उस का विरोध न करे और खुश रहने का मुखौटा ओढ़े रहे. यह समाज हम स्त्रियों से ऐसी ही अपेक्षा रखता है.”

तान्या बोलती,”ओह… इतने सारे अनरियलिस्टिक फीचर्स?”

तब कंचनजी फिर समझातीं, “हां, पर एक बात और, आज का समय पहले की तरह घर में बंद रहने का भी नहीं है. तुम्हें भी घर के बाहर अनेक जगह जाना पड़ेगा, लेकिन अपने आंखकान सदैव खुले रखना.”

तान्या आश्चर्य से बोली,”मगर क्यों?”

“बेटा, यह समाज लड़कियों को देवी की तरह पूजता तो है पर मौका पाने पर हाड़मांस की इन जीतीजागती देवियों की भावनाओं और इच्छाओं अथवा अनिच्छाओं को कुचलने से तनिक भी गुरेज नहीं करता.”

समाज के इस निर्मम चेहरे से अनजान तान्या ने कंचन जी से पूछा,”मां, लेकिन ऐसा क्यों? मैं भी तो भैया जैसी ही हूं. मैं भी एक इंसान हूं फिर मैं अलग कैसे हुई?”

“बेटा, पुरुष के विपरीत स्त्री को एक ही जीवनचक्र में कई जीवन जीना पड़ता है. पहले मांबाप के नीड़रूपी घर में पूर्णतया लाङप्यार और सुरक्षित जीवन और दूसरा घर के बाहर भेदती हुई हजारों नजरों वाले समाज के पावरफुल स्कैनर से गुजरने की चुभती हुई पीड़ा से रोज ही दोचार होते हुए सीता की तरह अग्नि परीक्षा देने को विवश.

“बेटा, एक बात और, विवाह के बाद अकसर यह स्कैनर एक नया स्वरूप धारण कर लेता है, जिस की फ्रीक्वैंसी कुछ अलग ही होती है.”

“लेकिन हम लड़कियां ही एकसाथ इतने जीवन क्यों जिएं?”

“बेटा, निश्चित तौर पर यह गलत है और हमें इस का पुरजोर विरोध जरूर करना चाहिए. लेकिन स्त्री के प्रति यह समाज कभी भी सहज या सामान्य नहीं रहा है. या तो हमें रहस्य अथवा अविश्वास से देखा जाता है या श्रद्धा से लेकिन प्रेम से कभी नहीं, क्योंकि हम स्त्रियों की जैंडर प्रौपर्टीज समाज को हमेशा से भयाक्रांत करती रही है. सभी को अपने लिए एक शीलवती, सच्चरित्र और समर्पित पत्नी चाहिए जो हर कीमत पर पतिपरायण बनी रहे लेकिन दूसरे की पत्नी में अधिकांश लोगों को एक इंसान नहीं बल्कि एक वस्तु ही दिखाई पड़ती है.”

“लेकिन मां, यह तो ठीक बात नहीं, ऐसा क्यों?”

“बेटा, हम स्त्रियों के मामले में पुरुष हमेशा से इस गुमान में जीता आया है कि यदि कोई स्त्री किसी पुरुष के साथ जरा सा भी हंसबोल ले तो कुछ न होते हुए भी वह इसे उस के प्रेम और शारीरिक समर्पण की सहमति मान लेता है.”

“तो क्या मैं किसी के साथ हंसबोल भी नहीं सकती?”

“नहीं बेटा, मेरे कहने का अभिप्राय यह बिलकुल भी नहीं है. मैं तो तुम्हें सिर्फ आगाह करना चाहती हूं कि समाज के ठेकेदारों ने हमारे चारो ओर नियमकानूनों का एक अजीब सा जाल फैला रखा है, जिस में काजल का गहरा लेप लगा हुआ है. लेकिन हमें भी अपनेआप को कभी कमजोर या कमतर नहीं आंकना चाहिए जबकि उन्हें यह एहसास करा देना चाहिए कि हम न केवल इस जाल को काट फेंकने का सामर्थ्य रखते हैं बल्कि हमारे इर्दगिर्द फैलाए गए इसी काजल को अपने व्यक्तित्व की खूबसूरती का माध्यम बना उसे आंखों में सजा लेना जानते हैं, ताकि हम सिर उठा कर खुले आकाश में उड़ सकें और अपनी खुली आंखों से अपने सपनों को पूरा होते देख सकें.”

“मां, यह हुई न झांसी की रानी लक्ष्मी बाई वाली बात.”

अपनी फूल सी बिटिया को सीने से लगाती हुईं कंचनजी बोलीं,”बेटा, मैं तुम्हें कतई डरा नहीं रही थी. बस समाज की सोच से तुम्हें परिचित करा रही थी ताकि तुम परिस्थितियों का मुकाबला कर सको. तुम वही करना जो तुम्हारा दिल कहे. तुम्हारे मम्मीपापा सदैव तुम्हारे साथ हैं और हमेशा रहेंगे.”

समय अपनी गति से पंख लगा कर उड़ता रहा और देखतेदेखते एक दिन छोटी सी तान्या विवाह योग्य हो गई. संयोग से रवि और कंचनजी को उस के लिए एक सुयोग्य वर ढूंढ़ने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी.

एक पारिवारिक शादी समारोह में दिनकर का परिवार भी आया हुआ था. तान्या की निश्छल हंसी और मासूम व्यवहार पर मोहित हो कर दिनकर उसे वहीं अपना दिल दे बैठा. शादी की रस्मों के दौरान जब कभी तान्या और दिनकर की नजरें आपस में एक दूसरे से मिलतीं तो तान्या दिनकर को अपनी ओर एकटक देखता हुआ पाती. उस की आंखों में उसे एक अबोले पर पवित्र प्रस्ताव की झलक दिखाई पड़ रही थी. उस ने भी मन ही मन दिनकर को अपने दिल में जगह दे दिया.

दिनकर की मां को छोड़ कर और किसी को इस रिश्ते पर कोई आपत्ति नहीं थी. दरअसल, दिनकर की मां शांताजी अपने दूर के रिश्ते की एक लड़की को अपनी बहू बनाना चाहती थी जो कनाडा में रह रही थी और पैसे से काफी संपन्न परिवार की थी, दूसरे उन्हें तान्या का सब के साथ इतना खुलकर बातचीत करना पसंद नहीं था. लेकिन बेटे के प्यार के आगे उन्हें झुकना ही पड़ा और कुछ ही समय के अंदर तान्या और दिनकर विवाह के बंधन से बंध गए.

सरल एवं बालसुलभ व्यवहार वाली तान्या ससुराल में भी सब के साथ खूब जी खोलकर बातें करती, हंसती और सब को हंसाती रहती.

पति दिनकर बहुत अच्छा इंसान था. उस ने तान्या को कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि वह मायके में नहीं ससुराल में है. उस ने तान्या को अपने ढंग से अपनी जिंदगी जीने की पूरी आजादी दी.

दिनकर की मां शांताजी कभी तान्या को टोकतीं तो वह उन्हें बड़े प्यार से समझाता, “मां, तुम अपने बहू पर भरोसा रखो. वह इस घर का मानसम्मान कभी कम नहीं होने देगी. वह एक परफैक्ट गुड गर्ल ही नहीं एक परफैक्ट बहू भी है.”

लेकिन कुछ ही दिनों मे तान्या को यह एहसास हो गया कि उस के ससुराल में 2 लोगों का ही सिक्का चलता है, पहला उस की सास और दूसरा उस के ननदोई राजीव का.

दरअसल, उस के ननदोई राजीव काफी अमीर थे. जब तान्या के ससुर का बिजनैस खराब चल रहा था तो राजीव ने रूपएपैसे से उन की काफी मदद की थी. इसलिए राजीव का घर में दबदबा था और उस की सास तो अपने दामाद को जरूरत से ज्यादा सिरआंखों पर बैठाए रखती थी.

राजीव का ससुराल में अकसर आना होता रहता था. अपनी निश्छल प्रकृति के कारण तान्या राजीव के घर आने पर उस का यथोचित स्वागतसत्कार करती. जीजासलहज का रिश्ता होने के कारण उन से खूब बातचीत भी करती थी. लेकिन धीरेधीरे तान्या ने महसूस किया कि राजीव जरूरत से ज्यादा उस के नजदीक आने की कोशिश कर रहा है.

उस के सहज, निश्छल व्यवहार को वह कुछ और ही समझ रहा है. पहले तो उस ने संकेतों से उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन जब उस की बदतमीजियां मर्यादा की देहरी पार करने लगी तो उस ने एक दिन दिनकर को हिम्मत कर के सबकुछ बता दिया.

दिनकर यह सुन कर आपे से बाहर हो गया. वह राजीव को उसी समय फोन पर ही खरीखोटी सुनाने वाला था लेकिन तान्या ने उसे उस समय रोक दिया.

वह बोली,”दिनकर, यह उचित समय नहीं है. अभी हमारे पास अपनी बात को सही साबित करने का कोई प्रमाण भी नहीं है. मांजी इसे एक सिरे से नकार कर मुझे ही झूठा बना देंगी. तुम्हें मुझ पर विश्वास है, यही मेरे लिए बहुत है. मुझ पर भरोसा रखो, मैं सब ठीक कर दूंगी.”

दिनकर गुस्से में मुठ्ठियां भींच कर तकिए पर अपना गुस्सा निकालते हुए बोला, “मैं जीजाजी को छोङूंगा नहीं, उन्हें सबक सिखा कर रहूंगा.”

कुछ दिनों बाद राजीव फिर उस के घर आया और उस रात वहीं रूक गया. संयोग से दिन कर को उसी दिन बिजनैस के काम से शहर से बाहर जाना पड़ गया. राजीव के घर में मौजूद होने की वजह से उसे तान्या को छोड़ कर बाहर जाना कतई अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन बिजनैस की मजबूरियों की वजह से उसे जाना ही पड़ा. पर जातेजाते वह तान्या से बोला,”तुम अपना ध्यान रखना और कोई भी परेशानी वाली बात हो तो मुझे तुरंत बताना.”

“आप निश्चिंत रहिए. आप का प्यार और सपोर्ट मेरे लिए बहुत है.”

रात को डिनर करने के बाद सब लोग अपनेअपने कमरों में चले गए. तान्या भी अपने कमरे का दरवाजा बंद कर बिस्तर पर चली गई. दिनकर के बिना खाली बिस्तर उसे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था, खासकर रात में उस से अलग रहना उसे बहुत खलता था. जब दिनकर सोते समय उस के बालों में उंगलियां फिराता, तो उस की दिनभर की सारी थकान छूमंतर हो जाती. उस की यादों में खोईखोई कब आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला.

अचानक उसे दरवाजे पर खटखट की आवाज सुनाई पड़ी. पहले तो उसे लगा कि यह उस का वहम है पर जब खटखट की आवाज कई बार उस के कानों में पड़ी तो उसे थोड़ा डर लगने लगा कि इतनी रात को उस के कमरे का दरवाजा कौन खटखटा सकता है? कहीं राजीव तो नहीं. फिर यह सोच कर कि हो सकता है कि मांबाबूजी में से किसी की तबियत खराब हो गई होगी, उस ने दरवाजा खोल दिया तो देखा सामने राजीव खड़ा मुसकरा रहा है.

“अरे जीजाजी, आप इतनी रात को इस वक्त यहां? क्या बात है?”

“तान्या, मैं बहुत दिनों से तुम से एक बात कहना चाहता हूं.”

कुदरतन स्त्री सुलभ गुणों के कारण राजीव का हावभाव उस के दिल को कुछ गलत होने की चेतावनी दे रहा था. उस की बातें उसे इस आधी रात के अंधेरे में एक अज्ञात भय का बोध भी करा रही थी. लेकिन तभी उसे अपनी मां की दी हुई वह सीख याद आ गई कि हमें कभी भी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए बल्कि पूरी ताकत से कठिन से कठिन परिस्थितियों का पुरजोर मुकाबला करते हुए हौसले को कम नहीं होने देना चाहिए.”

उस ने हिम्मत कर के राजीव से पूछा, “बताइए क्या बात है?”

“तान्या, तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो. आई लव यू. आई कैन डू एनीथिंग फौर यू…”

“यह आप क्या अनापशनाप बके जा रहे हैं? अपने कमरे में जाइए.”

“तान्या, आज चाहे जो कुछ भी हो जाए, मैं तुम्हे अपना बना कर ही रहूंगा,” इतना कहते हुए वह तान्या का हाथ पकड़ कर उसे बैडरूम में अंदर ले जाने लगा कि तान्या ने एक जोरदार थप्पड़ राजीव के मुंह पर मारा और चिल्ला पड़ी,”मिस्टर राजीव, आई एम ए गुड गर्ल बट नौट ए म्यूट ऐंड डंब गर्ल. शर्म नहीं आती, आप को ऐसी हरकत करते हुए?”

तान्या के इस चंडी रूप की कल्पना राजीव ने सपने में भी नहीं किया था. वह यह देख कर सहम उठा, पर स्थिति को संभालने की गरज से वह ढिठाई से बोला,”बी कूल तान्या. मैं तो बस मजाक कर रहा था.”

“जीजाजी, लड़कियां कोई मजाक की चीज नहीं होती हैं कि अपना टाइमपास करने के लिए उन से मन बहला लिया. आप के लिए बेशक यह एक मजाक होगा पर मेरे लिए यह इतनी छोटी बात नहीं है. मैं अभी मांपापा को बुलाती हूं.”

फिर अपनी पूरी ताकत लगा कर उस ने अपने सासससुर को आवाज लगाई, मांपापा…इधर आइए…”

रात में उस की पुकार पूरे घर में गूंज पङी. उस की चीख सुन कर उस के सासससुर फौरन वहां आ गए.

गहरी रात के समय अपने कमरे के दरवाजे पर डरीसहमी अपनी बहू तान्या और वहीं पास में नजरें चुराते अपने दामाद राजीव को देख कर वे दोनों भौंचक्के रह गए.

कुछ अनहोनी घटने की बात तो उन दोनों को समझ में आ रही थी लेकिन वास्तव में क्या हुआ यह अभी भी पहेली बनी हुई थी.

तभी राजीव बेशर्मी से बोला, “मां, तान्या ने मुझे अपने कमरे में बुलाया था.”

“नहीं मां, यह झूठ है. मैं तो अपने कमरे में सो रही थी कि अचानक कुंडी खड़कने पर दरवाजा खोला तो जीजाजी सामने खड़े थे और मुझे बैडरूम में जबरन अंदर ले जा रहे थे.”

“नहीं मां, यह झूठी है, इस ने ही…”

अभी वह अपना वाक्य भी पूरा नहीं कर पाया था कि अकसर खामोश रहने वाले तान्या के ससुर प्रवीणजी की आवाज गूंज उठी,”राजीव, अब खामोश हो जाओ, तुम ने क्या हम लोगों को मूर्ख समझ रखा है? माना हम तुम्हारे एहसानों के नीचे दबे हैं, लेकिन तुम्हारी नसनस से वाकिफ हैं. तुम ने आज जैसी हरकत किया है, उस के लिए मैं तुम्हें कभी माफ नहीं करूंगा. तुम ने मेरी बहू पर बुरी नजर डाली और अब उलटा उसी पर लांछन लगा रहे हो…” इतना कह कर तान्या के सिर पर हाथ फेरते हुए बोले,”बेटा, तुम्हारा बाप अभी जिंदा है. मैं तुम्हें  कुछ नहीं होने दूंगा. मैं अभी पुलिस को बुला कर इस को जेल भिजवाता हूं.”

अपने पिता समान ससुर का स्नेहिल स्पर्श पा कर तान्या उन से लिपट कर रो पड़ी जैसे उस के अपने बाबूजी उसे फिर से मिल गए हों. फिर थोड़ा संयत हो कर बोली, “पापा, आप का आर्शीवाद और विश्वास मेरे लिए सब कुछ है लेकिन पुलिस को मत बुलाइए. जीजाजी को सुधरने का एक मौका हमें देना चाहिए और फिर दीदी और बच्चों के बारे में सोचिए, इन के जेल जाने पर उन्हें कितना बुरा लगेगा.”

दिनकर के पिता प्रवीणजी कुछ देर सोचते रहे, फिर बोले,”बेटा, तुम्हारे मातापिता ने तुम्हारा नाम तान्या कुछ सोचसमझ कर ही रखा होगा. ये तुम जैसी बेटियां ही हैं, जो अपना मानसम्मान कायम रखते हुए भी परिवार को सदा जोड़े रखती हैं. जब तक तुम्हारी जैसी बहूबेटियां हमारे समाज में हैं, हमारी संस्कृति जीवित रहेगी.”

फिर अपनी पत्नी से बोले,”शांता, देखिए ऐसी होती हैं हमारे देश की गुड गर्ल. जो न अपना सम्मान खोए न घर की बात को देहरी से बाहर जाने दे.”

शांताजी के अंदर भी आज पहली बार तान्या के लिए कुछ गौरव महसूस हो रहा था. पति से मुखातिब होते हुए दामाद राजीव के विरूद्ध वे पहली बार बोलीं,”आप ठीक कहते हैं. घर की इज्जत बहूबेटियों से ही होती है. पता नहीं एक स्त्री होने के बावजूद मेरी आंखें यह सब क्यों नहीं देख पाईं…” फिर तान्या से बोलीं,”बेटा, मुझे माफ कर देना.”

“राजीव, तुम अब यहां से चले जाओ. मैं तुम्हारा पाईपाई चुका दूंगा पर अपने घर की इज्जत पर कभी हलकी सी भी आंच नहीं आने दूंगा. तान्या हमारी बहू ही नहीं, हमारी बेटी भी है और सब से बढ़ कर इस घर का सम्मान है,” प्रवीणजी बोल पङे.

सासससुर का स्नेहिल आर्शीवाद पा कर आज तान्या को उस का ससुराल उसे सचमुच अपना घर लग रहा था बिलकुल अपना जिस के द्वार पर एक सुहानी भोर मीठी दस्तक दे रही थी.

लेखक-चिरंजीव नाथ सिन्हा

Best Hindi Stories : बारिश – मां और नेहा दीदी के टेढ़े मामलों का क्या हल निकला

Best Hindi Stories :  कभी-कभी आदमी बहुत कुछ चाहता है, पर उसे वह नहीं मिलता जबकि वह जो नहीं चाहता, वह हो जाता है. नेहा दीदी द्वारा बारबार कही जाने वाली यह बात बरबस ही इस समय मृदु को याद आ गई. याद आने का कारण था, नेहा दीदी का मां से अकारण उलझ जाना. वैसे तो नेहा दीदी, उस से कहीं ज्यादा ही मां का सम्मान करती थीं, पर कभी जब मां गुस्से में कुछ कटु कह देतीं तो नेहा दीदी बरदाश्त भी न कर पातीं और न चाहने पर भी मां से उलझ ही जातीं. नेहा दीदी का यों उलझना मां को भी कब बरदाश्त था. आखिर वे इस घर की मुखिया थीं और उस से बड़ी बात, वे नेहा दीदी की सहेली या बहन नहीं, बल्कि मां थीं. इस नाते उन्हें अधिकार था कि जो चाहे, सो कहें, पलट कर जवाब नहीं मिलना चाहिए. पर नेहा दीदी जब पट से जवाब देतीं, तो मां का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचता.

उस दिन भी मां का पारा आसमान की बुलंदियों पर ही था. उन के एक हाथ में चाबियों का गुच्छा था. उन्होंने धमकाने के लिए उस गुच्छे को ही अस्त्र बना रखा था, ‘अब चुप हो जाओ, जरा भी आवाज निकाली तो यही गुच्छा मुंह में घुसेड़ दूंगी, समझी.’ मृदु को डर लगा कि कहीं सच में मां अपना कहा कर ही न दिखाएं. नेहा दीदी को भी शायद वैसा ही अंदेशा हुआ होगा. वह तुरंत चुप हो गईं, पर सुबकना जारी था. कोई और बात होती तो मां उस को चुप करा देतीं या पास जा कर खड़ी हो जातीं, पर मामला उस वक्त कुछ टेढ़ा सा था.

वैसे देखा जाए तो बात कुछ भी नहीं थी, पर एक छोटे से शक की वजह से बात तूल पकड़ गई थी. मां जब भी कभी नेहा दीदी को घर छोड़ कर मृदु के साथ खरीदारी पर चली जातीं तो दीदी का मुंह फूल जाता. वैसे भी समयअसमय वे मां पर आरोप लगाया करतीं, ‘मुझ से ज्यादा आप मृदु को प्यार करती हैं. वह जो कुछ भी चाहती है उसे देती हैं जो करना चाहती है, करती है, पर आप…’ ऐसे नाजुक वक्त पर मां अकसर हंस कर नेहा दीदी को मना लेतीं, ‘अरे, पगली है क्या  मेरे लिए तो तुम दोनों ही बराबर हो, इन 2 आंखों की तरह. मैं क्या तेरी इच्छाएं पूरी नहीं करती  मृदु तुझ से छोटी है, उसे कुछ ज्यादा मिलता है तो तुझे तो खुश होना चाहिए.’

अगर नेहा इस पर भी न मानती तो मां दोनों को ही बाजार ले जातीं. नेहा दीदी को मनपसंद कुछ खास दिलवातीं, चाटवाट खिलवातीं और फिर उन्हीं की पसंद की फिल्म का कोई कैसेट लेतीं व घर आ जातीं. मां की इस सूझ से घर का वातावरण फिर दमक उठता, पर यह चमकदमक ज्यादा दिन ठहर न पाती. नेहा दीदी उसे ले कर फिर कोई हंगामा खड़ा कर देतीं. बदले में मां थक कर उन्हें 2-4 चपत रसीद कर देतीं.मृदु को यह सब अच्छा नहीं लगता था. अपनी जिद्दी प्रवृत्ति और बचपने के कारण वह दीदी को नीचा दिखा कर खुश जरूर होती थी, पर वह उन्हें व मां को दुख नहीं देना चाहती थी.

पर उस दिन की बात, उस की समझ में न आई. यह बात जरूर थी कि मां उस दिन भी उसे अकेली ही बाजार ले कर गई थीं. सारे रास्ते वे उस की जरूरत की मनपसंद चीजें दिलाती और खिलाती रही थीं, पर हमेशा की तरह नेहा दीदी के लिए कुछ नहीं लिया था  मृदु को आश्चर्य भी हुआ था. उस ने मां से कहा तो उन्होंने झिड़क दिया, ‘तू क्यों मरी जा रही है. तुझे जो लेना है, ले, उसे लेना होगा तो खुद ले लेगी ’ ‘पर मां,’ मृदु ने कुछ कहना चाहा तो उन्होंने आंखें तरेर कर उस की ओर देखा. घबरा कर मृदु चुप हो गई. सारे रास्ते वह फिर कुछ न बोली. पर मां बुदबुदाती रहीं, ‘अब पर निकल आए हैं न, जो चाहे, सो करेगी. जब सबकुछ छिपाना ही है तो अपना साजोसामान भी अपनेआप खरीदे. अरे, मैं भी तो देखूं कि कितनी जवान ह गई है. हम तो अभी तक बच्ची समझ कर गलतियों को माफ करते रहे, पर अब… ’

मृदु को अब भी सारी बातें अनजानी सी लग रही थीं. यों रास्ते में अपने बच्चों से दुनियाजहान की बातें करते जाना मां की आदत थी पर इस तरह गुस्से में बुदबुदाना  उस ने उन्हें दोबारा छेड़ने की हिम्मत न की. यहां तक कि घर भी आ गई, तब भी खामोश रही. अपना लाया सामान भी हमेशा की तरह चहक कर न खोला. मां काफी देर तक सुस्ताने की मुद्रा में चुप बैठी रही थीं. फिर उस का सामान खोल कर ज्यों ही उस के आगे किया, नेहा दीदी का सब्र का बांध टूट ही गया, ‘मेरे लिए कुछ नहीं लाईं  सबकुछ इसी को दिला दिया ’

‘हां, दिला दिया, तेरा डर है क्या ’ रास्ते से ही न जाने क्यों गुस्से में भरी आई मां नेहा द्वारा उलाहना दिए जाने पर फूट पड़ीं, ‘क्या जरूरत है तुझे अब मुझ से सामान लेने की  अरे, अपने उस यार से ले न, जिस के साथ घूम रही थी.’ मां की बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि अचानक जैसे बिजली सी कड़क उठी. मृदु ने नेहा दीदी की इतनी तेज आवाज कभी नहीं सुनी थी और मां को भी कभी इतने उग्र रूप में नहीं देखा था. मां की बात ने शायद नेहा दीदी को भीतर तक चोट पहुंचाई थी, तभी तो वे पूरी ताकत से चीख पड़ी थीं. ‘मां, जरा सोचसमझ कर बोलो.’ दीदी की इस अप्रत्याशित चीख से पहले तो मां भी हकबका गईं, फिर अचानक ‘चटाक’ की आवाज करता उन का भरपूर हाथ नेहा दीदी के गाल पर पड़ा. नेहा दीदी के साथसाथ मृदु भी सकपका गई थी. फिर माहौल में एक गमजदा सन्नाटा फैल गया. थोड़ी देर बाद वह सन्नाटा टूटा था, मां के अलमारी खोलने और नेहा दीदी की बुदबुदाहट से. मां अलमारी से साड़ी निकाल कर बदलने को मुड़ी ही थीं कि हिचकियों के बीच निकली नेहा दीदी की बुदबुदाहट ने उन के कदम फिर रोक लिए थे, ‘आप जितना चाहें मुझे मार लीजिए  पर आप की यह बेबुनियाद बात मैं बरदाश्त कभी नहीं करूंगी.’

‘नहीं करेगी तो क्या करेगी  मुझ से लड़ेगी  जबान लड़ाएगी  बोल, क्या करेगी ’

मां किसी कुशल योद्धा की तरह दीदी के सामने फिर जा खड़ी हुई थीं. मृदु कोे डर लगा कि इस बार अगर नेहा दीदी ने जवाब दिया तो मां जम कर उन की ठुकाई कर ही देंगी. फिर चाहे चोट भीतर लगे या बाहर, मां का गुस्सा अगर चढ़ गया तो उतरना मुश्किल है. पर उस समय ऐसा कुछ भी न हुआ. नेहा दीदी भी शायद डर के मारे बुदबुदाते हुए ही जवाब दे रही थीं. उधर, मां भी बस धमका कर रह गई थीं, वैसे भी नेहा दीदी जब होंठों में बुदबुदाती थीं तो उन की बात ही समझ में न आती थी. उस सारे गरम नजारे की गवाह वही तीनों थीं. पिताजी तो औफिस में थे. वैसे भी घर पर होते तो क्या कर लेते. अपने व दोनों बच्चों के बीच मां किसी तीसरे की दखलंदाजी पसंद नहीं करती थीं, फिर चाहे वे पिताजी ही क्यों न हों. वैसे भी उन दोनों की सारी जरूरतें, घर की देखभाल, मेहमानों की आवभगत से ले कर बीमारीहारी, सभी कुछ मां अकेली ही संभालती थीं. मृदु को आश्चर्य हुआ, शिकायत करने पर मां हमेशा मामला संभाल लेतीं या घूस के तौर पर दीदी को कुछ दे कर शांत कर देतीं. कभी बाजार जाते समय दीदी अगर मौजूद रहतीं तो उन्हें घर देखने की हिदायत दे जातीं, पर तब ऐसा कुछ नहीं हुआ था.

नेहा दीदी को बाजार न ले जाने के बाद भी अकसर जब मां उस के साथ घर लौटतीं, थोड़ी देर बाहर वाले कमरे में सोफे पर बैठ कर सुस्ताती जरूर थीं. उस वक्त थोड़ा मुंह फुलाए रहने के बावजूद दीदी, मां को बिस्कुट और पानी ला कर जरूर देतीं. वे जानती थीं कि मां उच्च रक्तचाप की मरीज हैं, और बड़ी जल्दी थक जाती हैं. पर उस दिन तो मां ने बड़ी रुखाई से नेहा को मना कर दिया. आमतौर से मां, दीदी के इस व्यवहार से अपनी सारी थकान भूल जातीं और कभीकभी पछताती भी कि बेकार में नेहा को नहीं ले गईं. पर वह पछतावा बस थोड़ी ही देर का होता. घर को अकेला छोड़ने का भय मां को फिर बाध्य कर देता कि किसी न किसी को घर छोड़ कर जाएं. मृदु छोटी थी, इसी से बाजी अकसर वही मार लेती. फिर घर लौट कर नेहा दीदी को तरहतरह से मुंह बिगाड़ कर छेड़ती, ‘लेले, तुम्हें मां नहीं ले गईं. आज बाजार में खूब चाट खाई.’

उम्र में 4-5 साल बड़ी होने के बावजूद नेहा दीदी उस का मुंह चिढ़ाना बरदाश्त न कर पातीं. जबकि वे भी अच्छी तरह जानती थीं कि प्यार के समय मां दोनों को बराबर समझती हैं. मृदु और नेहा दोनों ही जानती थीं कि मां बहुत अच्छी हैं. उन का व्यवहार भी उन दोनों के साथ एक बहन जैसा ही होता और वह भी ऐसी बहन, जो एक अच्छी दोस्त भी हो. वे हमेशा कहतीं, ‘मां को हमेशा अपने बच्चों का दोस्त होना चाहिए, तभी तो बच्चे खुल कर अपने मन की बात कह सकते हैं.’ मृदु, नेहा और मां वीसीआर पर जब भी कोई फिल्म देखतीं तो एक दोस्त की तरह नजर आतीं. तीनों की पसंद का हीरो एक होता, हीरोइन एक होती, यहां तक कि कहानी की पसंद भी लगभग एकजैसी होती.लेकिन यह बात दूसरी थी कि जब कोई अश्लील सीन फिल्म में आता तो मां उसे रिमोट से आगे कर देतीं. यद्यपि भीतर से मृदु और नेहा दीदी का मन होता कि देखें, उस सीन में आखिर ऐसा क्या है.

एक बार नेहा दीदी ने मां को काफी खुश देख कर पूछ भी लिया था, ‘आप तो आधुनिका हैं और यह भी कहती हैं कि आप अपने बच्चों की अच्छी दोस्त हैं और दोस्त से कुछ छिपावदुराव नहीं होता. फिर आप ये सब दृश्य आगे क्यों कर देती हैं ’नेहा दीदी की बात सुन कर मां काफी देर असमंजस की स्थिति में बैठी रहीं. फिर बोलीं, ‘हां, मैं काफी उदार हूं. तुम दोनों की अच्छी दोस्त भी हूं पर यह मत भूलो कि तुम्हारी मां भी हूं. दोस्त बनने के समय भला ही चाहूंगी, पर मेरे भीतर की मां यह तय करेगी कि तुम्हारे लिए क्या अच्छा है, क्या बुरा.’

‘पर इन दृश्यों में ऐसी क्या बुराई है, मां ’ नेहा दीदी की नकल मृदु ने भी की तो मां ने उस के गाल पर हलकी चपत लगाई पर संबोधित दीदी को किया, ‘देखो, वक्त से पहले कुछ बातें जानना ठीक नहीं होता. अभी तुम दोनों काफी छोटी हो, बड़ी हो जाओगी तो ये दृश्य भी आगे करने की जरूरत नहीं रहेगी.’ आगे नेहा दीदी ने कुछ नहीं पूछा था. जानती थीं कि मां को ज्यादा बहसबाजी पसंद नहीं. मजाक में बहस हो जाए, यह बात अलग थी पर किसी गंभीर मसले पर बहस हो तो बाप रे बाप, तुरंत उन के भीतर की ‘मां’ जाग जाती. फिर उन के उपदेश में कोई बाधा डालता तो उस को डांटफटकार सुननी पड़ती. मां के इस अजीब रूप की मृदु को ज्यादा समझ नहीं थी, पर नेहा दीदी अकसर हतप्रभ रहतीं. खूब जी खोल कर बातें करने वाली, बातबात पर खिलखिलाने वाली मां को यह अकसर क्या हो जाता है  पिताजी के अनुसार, उन दोनों के बिगड़ जाने का भय मां को सताता है, जबकि मां इस बात को साफ नकार जातीं, ‘इस तरह की बातें बच्चों के सामने मत किया करो. अभी इन की उम्र ही क्या है. मृदु अभी 12 की भी नहीं हुई और नेहा तो 16 ही पूरे कर रही है.’

‘तो क्या हुआ ’ पिताजी बीच में ही उन की बात काट देते, ‘इस उम्र में तो तुम्हारी शादी हो गई थी और तुम…’

पिताजी की बात पर मृदु और नेहा दीदी हंसने लगतीं और फिर मां के पीछे पड़ जातीं कि वे अपनी पुरानी बातें बताएं. मां भी सारी बहस भूल कर पुरानी बातों में खो जातीं और फिर धाराप्रवाह वह सब भी बता जातीं, जिसे न बताने की हिदायत थोड़ी ही देर पहले उन्होंने पति को ही दी होती थी. मां की कहानी पर वे दोनों भी खूब मजे लेतीं. मसलन, उन्होंने कैसे चुपके से साड़ी पहन कर अपनी सहेलियों के साथ एक बालिग फिल्म देखी, किसी लड़के को छेड़ा, कौन सा लड़का उन के पीछे पड़ा था, और भी बहुत सी मजेदार बातें…

मां के सुनाने का ढंग इतना मजेदार होता था कि वे दोनों तो एकदम ही भूल जाती थीं कि वे उन्हीं की बेटियां हैं. मां भी शायद उस वक्त भूल ही जातीं, पर थोड़ी देर बाद जब याद आता तो तुरंत चेहरे पर कठोरता का आवरण डाल देतीं, ‘अरे, मैं भी कैसी भुलक्कड़ हूं, तुम दोनों से तो बिलकुल सहेलियों की ही तरह बात करने लगी. चलो, भागो यहां से.’ वे शायद झेंप भी जातीं, ‘अरे, इस तरह तो तुम बिगड़ ही जाओगी ’ वे दोनों भी हंसती हुई भाग खड़ी होतीं और फिर समयसमय पर मां को छेड़तीं. एक बार मृदु ने अपनी मां के बारे में अपनी सहेलियों को बताते हुए कहा था, ‘मेरी मां तो बहुत अच्छी हैं, वे हम से दोस्तों जैसा व्यवहार करती हैं.’

‘अरे यार, फिर तो तू बहुत सुखी है. मेरी मां तो पूरी जेलर हैं,’ निशा ने निराश स्वर में कहा था. मृदु सोच रही थी कि वह जेलर वाला रूप मां के भीतर कैसे समा गया  वे नेहा दीदी से किसी जेलर की तरह ही तो जिरह कर रही थीं. हाथ में डंडे की जगह चाबियों का गुच्छा था, पर उस से कहीं खतरनाक अस्त्र, ‘‘बोल, कौन था वह मुस्टंडा  किस के साथ गई थी कल स्कूल से ’’ मां के अप्रत्याशित गुस्से की वजह अब शायद नेहा दीदी की समझ में आई थी. दरअसल, दीपा को एक समारोह के लिए सूट खरीदना था. उस ने नेहा दीदी से भी बाजार चलने को कहा तो उन्होंने साफ मना कर दिया. मां से पूछे बगैर नेहा दीदी कभी कहीं अकेली नहीं गई थीं, पर दीपा की जिद के कारण वे छुट्टी के बाद चलने को तैयार हो गईं, सोचा, उधर से ही घर चली जाएंगी और मां को सब बता देंगी तो वे कुछ नहीं कहेंगी.

सूट खरीद कर दीपा अपने घर चली गई तो नेहा दीदी रिकशा का इंतजार करने लगीं. पर चिलचिलाती धूप में कोई रिकशा नजर नहीं आ रहा था. नेहा को सड़क के किनारे खड़े करीब आधा घंटा हो गया था. आखिर निराश हो कर वे पैदल ही आगे बढ़ीं कि तभी स्कूटर पर शक्ति आता दिखा. वह नेहा दीदी से एक क्लास आगे था और पढ़ाई में तेज होने के कारण अकसर उन की मदद कर दिया करता था. बातोंबातों में नेहा दीदी ने मृदु और मां को एक बार शक्ति के बारे में बताया भी था. तब मां ने कहा था, ‘लड़कों से एक सीमा के भीतर बोलना बुरा नहीं है, पर उस से आगे…’

परंतु मां उस बात को कैसे भूल गईं, जबकि नेहा दीदी बारबार उन की ही बात को दोहरा रही थीं, ‘‘आप ही ने तो कहा था…’’

‘‘हां, कहा था,’’ गुस्से में मां का चेहरा एकदम लाल हो रहा था, पर इस का मतलब यह तो नहीं कि तू मेरी ही बात को बड़ा कर के मेरे ही मुंह पर दे मारे.’’ ‘‘पर मैं ने ऐसा तो नहीं किया है,’’ नेहा दीदी किसी तरह मां को अपनी बात समझाना चाह रही थीं, ‘‘धूप में कहीं रिकशा नहीं मिल रहा था, सो उस के स्कूटर पर बैठ गई. मैं ने तो कल आप को बताना भी चाहा था, पर…’’

‘‘और उस की कमर में हाथ क्यों डाल रखा था ’’ मां दीदी की बात काट कर इतनी जोर से चीखीं कि मृदु की धड़कनें भी तेज हो गईं. मां की तेज आवाज से पलभर के लिए शायद नेहा दीदी भी सकपका गईं, पर जल्दी ही संभल भी गईं, ‘‘मैं गिरने लगी थी, इसीलिए उसे पकड़ लिया था. भूल हो गई, आइंदा ऐसा नहीं होगा.’’ दीदी ने कातर निगाहों से मां की ओर देखा पर वे तो उस वक्त बिलकुल पत्थर बन गई थीं. वही तो अकसर कहती थीं, ‘कभीकभी मुझे न जाने क्या हो जाता है. मेरे आधुनिक रूप पर अनजाने ही एक पारंपरिक मां ज्यादा हावी हो जाती है. शायद, अपने बच्चों का भविष्य बिगड़ने के भय से.’ मां अपने उस रूप के हाथों जैसे अवश हो गई थीं. तभी तो नेहा दीदी की दी गई सफाई भी उन्हें आश्वस्त नहीं कर पा रही थी. नेहा दीदी के बारबार माफी मांगने, रोने के बावजूद उन पर आरोप लगाए जा रही थीं.

‘‘तो ठीक है,’’ नेहा दीदी भी जैसे आखिर थक ही गईं, ‘‘आप जो चाहें, समझ लीजिए. मैं यही समझूंगी कि मैं ने कोई गलती नहीं की. हां, सच में, कुछ गलत नहीं किया मैं ने. मैं ने वही किया जो आप ने अपनी जवानी में किया.’’ मृदु एकदम सन्नाटे में आ गई. जैसे बरसों से दबी कोई चिनगारी सहसा भड़क कर बाहर निकले और सीधे सूखी घास पर जा गिरे, उसे कुछ ऐसा ही लगा. मां पथराई सी चुपचाप पलंग के एक कोने में बैठी बेमकसद एक दिशा में ताक रही थीं. मृदु ने मां के कंधों पर सांत्वना भरा हाथ रखना चाहा, पर उन्होंने आहिस्ता से उस का हाथ झटक दिया. दुविधाग्रस्त मृदु बिना कुछ कहे खिड़की के पास जा कर खड़ी हो गई. बाहर का आकाश अपना रंग बदल चुका था. धुंधलाई नजरों को देख कर कोई भी समझ सकता था, एक धूल भरी आंधी सबकुछ अपने भीतर छिपा लेने की फिराक में है. उस ने जल्दी से आगे बढ़ कर खिड़की बंद कर दी और शीशे से ही बाहर का मंजर देखने लगी. जल्दी ही तेज, धूलभरी आंधी ने सारा माहौल अपनी गिरफ्त में ले लिया. उस पार स्पष्ट देख पाने में असमर्थ मृदु को सबकुछ साफ करने के लिए बड़ी शिद्दत से बारिश की जरूरत महसूस हो रही थी.

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