ऊंची उड़ान: क्या है राधा की कहानी

जाड़े की कुनकुनी धूप में बैठी मैं कई दिनों से अपने अधूरे पड़े स्वैटर को पूरा करने में जुटी थी. तभी अचानक मेरी बचपन की सहेली राधा ने आ कर मुझे चौंका दिया.

‘‘क्यों राधा तुम्हें अब फुरसत मिली है अपनी सहेली से मिलने की? तुम ने बेटे की शादी क्या की मुझे तो पूरी तरह भुला दिया… कितनी सेवा करवाओगी और कितनी बातें करोगी अपनी बहू से… कभीकभी हम जैसों को भी याद कर लिया करो.’’

‘‘कहां की सेवा और कैसी बातें? मेरी बहू को तो अपने पति से ही बातें करने की फुरसत नहीं है… मुझ से क्या बातें करेगी और क्या मेरी सेवा करेगी? मैं तो 6 महीनों से घर छोड़ कर एक वृद्धाश्रम में रह रही हूं.’’

यह सुन कर मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे पैरों तले से जमीन खींच ली हो. मैं चाह कर भी कुछ नहीं बोल पाई. क्या बोलती उस राधा से जिस ने अपना सारा जीवन, अपनी सारी खुशियां अपने बेटे के लिए होम कर दी थीं. आज उसी बेटे ने उस के सारे सपनों की धज्जियां उड़ा कर रख दीं…

अपने बेटे मधुकर के लिए राधा ने क्या नहीं किया. अपनी सारी इच्छाओं को तिलांजलि दे, अपने भविष्य की चिंता किए बिना अपनी सारी जमापूंजी निछावर कर उसे मसूरी के प्रसिद्ध स्कूल में पढ़ाया. उस के बाद आगे की पढ़ाई के लिए उसे दिल्ली भेजा. इस सब के लिए उसे घोर आर्थिक संकट का सामना भी करना पड़ा. फिर भी वह हमेशा बेटे के उज्ज्वल भविष्य की कल्पना कर खुशीखुशी सब सहती रही. जब भी मिलती अपने बेटे की प्रगति का समाचार देना नहीं भूलती. वह अपने बेटे को खरा सोना कहती.

मैं बहुत कुछ समझ रही थी पर उस की दुखती रग पर हाथ रखने की हिम्मत नहीं हो रही थी. मैं बात बदल कर नेहा की पढ़ाई और शादी पर ले आई. शाम ढलने से पहले ही राधा आश्रम लौट गई, पर छेड़ गई अतीत की यादों को…

उस की स्थिति मेरे मन को बेचैन किए थी. बारबार मन चंचल बन उस अतीत में विचरण कर रहा था जहां कभी मेरे और राधा के बचपन से युवावस्था तक के पल गुजरे थे.

राधा मेरे बचपन की सहेली और सहपाठी थी. उस का एक ही सपना था कि वह बड़ी हो कर डाक्टर बनेगी. अपने सपने को पूरा करने के लिए मेहनत भी बहुत करती थी. टैंथ की परीक्षा में पूरे बिहार में 10वें स्थान पर रही थी.

अपने 7 भाईबहनों में सब से बड़ी होने के कारण उस के पिता ने 12वीं कक्षा की परीक्षा समाप्त होते ही विलक्षण प्रतिभा की धनी अपनी इस बेटी की शादी कर दी. शादी के बाद उसे आशा थी कि शायद पति की सहायता से अपना सपना पूरा कर पाएगी पर उस का पति तो एक तानाशाह किस्म का था जिसे लड़कियों की पढ़ाई से चिढ़ थी. इसलिए उस ने डाक्टर बनने के रहेसहे विचार को भी तिलांजलि दे दी और अपने इस रिश्ते को दिल से निभाने की कोशिश करने लगी.

जब वह पूरी तरह अपनी शादी में रम गई, तो कुदरत ने एक बार फिर उस की परीक्षा ली. एक सड़क हादसे में उस ने अपने पति को भरी जवानी में खो दिया. वह अपने 3 वर्ष के अबोध बेटे मधुकर और अपनी बूढ़ी सास के साथ अकेली रह गई. वैधव्य ने भले ही उसे तोड़ दिया था पर उस ने अपनेआप को दीनहीन नहीं बनने दिया. हिम्मत नहीं हारी. भागदौड़ कर अपने पति के बिजनैस को संभाला पर अनुभव के अभाव में उसे सही ढंग से चला नहीं पाई. फिर भी खर्च के लायक पैसे आ ही जाते थे.

उस के पति अपने मातापिता की इकलौती संतान थे, इसलिए कोई करीबी भी नहीं था, जो उसे किसी प्रकार का संरक्षण दे. फिर भी उस कर्मठ औरत ने हार नहीं मानी. अपने बेटे के उज्ज्वल भविष्य के लिए अच्छी से अच्छी शिक्षा की व्यवस्था की.

राधा के घोर परिश्रम का ही परिणाम था कि मधुकर आज आईआईटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद अहमदाबाद के प्रसिद्ध कालेज से मैनेजमैंट की पढ़ाई पूरी कर एक मल्टीनैशनल कंपनी में काफी ऊंचे पद पर काम कर रहा था. अपने बेटे की सफलता पर गर्व से दमकती राधा की तृप्त मुसकान देख मुझे लगता अंतत: कुदरत ने उस के साथ न्याय किया. अब उस के सुख के दिन आ गए हैं पर आज स्थिति यह है कि वह वृद्धाश्रम में आ गई है. वह भी अपने बेटे की शादी के मात्र 1 साल बाद ही. यह बात मेरे गले नहीं उतर रही थी.

मेरे मन की परेशानी को नेहा ने न जाने कैसे बिना बोले ही भांप लिया था. बोली, ‘‘क्या बात है ममा, जब से राधा मौसी गई हैं आप कुछ ज्यादा ही परेशान और खोईखोई लग रही हैं?’’

‘‘मैं आज यही सोच रही हूं कि इस आधुनिक युग में शिक्षा का स्तर कितना गिर गया है कि आज के उच्च शिक्षा प्राप्त लड़के भी अपने रिश्तों को अहमियत देने के बदले पैसों के पीछे भागते हैं… इन के आचरण इतने घटिया हो जाते हैं कि न मातापिता को सम्मान दे पाते हैं न ही उन की जिम्मेदारी उठाने को तैयार होते हैं. क्या फायदा है इतने बड़ेबड़े स्कूलकालेजों में पढ़ा कर जहां के शिक्षक सिर्फ सबजैक्ट का ज्ञान देते हैं आचरण और संस्कार का नहीं.’’

‘‘ममा… आप को बुरा लगेगा पर आप हमेशा अपने संस्कारों और संस्कृति की दुहाई देती हैं और यह भूल जाती हैं कि समय में परिवर्तन के अनुसार इन में भी बदलाव स्वाभाविक है. आधुनिक युग में शिक्षा नौकरशाही प्राप्त करने को साधन मात्र रह गई है, जिसे प्राप्त करने के लिए आचरण चंद लाइनों में लिखी इबारत होती है. फिर आचरण का मूल्य ही कहां रह गया है?

शिक्षक भी क्या करें उन्हें सिर्फ लक्ष्यप्राप्ति का माध्यम मान लोग पैसों से तोलते हैं. जब मातापिता को बच्चे के आचरण से ज्यादा किताबी ज्ञान प्राप्त करने की चिंता रहती है, तो शिक्षक भी यही सोचते हैं कि भाड़ में जाएं संस्कार और संस्कृति. जिस के लिए वेतन मिलता है उसी पर ध्यान दो, क्योंकि अर्थ ही आज के समाज में लोगों का कद तय करता है. इसी सोच के कारण अर्थ के पीछे भागते लोगों के अंदर भोगविलासिता इतनी बढ़ गई है कि उन्हें उसूलों और मानवता के लिए आत्मबलिदान जैसी बातें मूर्खतापूर्ण और हास्यप्रद लगती हैं और करीबी रिश्ते व्यर्थ के मायाजाल लगते हैं, जो उन्हें मिली शिक्षा और संस्कार के हिसाब से सही हैं.

‘‘अगर आप अपने अंदर झांकिएगा तो आप को खुद अपनी बातों का खोखलापन नजर आएगा, क्योंकि पैसे और पावर के पीछे भागने की प्रेरणा सब से पहले उन्हें अपने मातापिता से ही मिलती है, जो अपने बच्चों को अच्छा व्यक्ति और नागरिक बनाने से ज्यादा इस बात को प्राथमिकता देते हैं कि उन के बच्चे शिक्षा के क्षेत्र में उच्च प्रदर्शन करें. उन के नंबर हमेशा अपने सहपाठियों की तुलना में ज्यादा हों, यहां तक कि अपने बच्चों के अभ्युत्थान के लिए अपनी सामर्थ्य से ज्यादा संसाधन प्रयोग करते हैं, जिस का बोझ कहीं न कहीं बच्चों के दिलोदिमाग पर रहता है.

‘‘मातापिता की यही लालसा शिक्षा के रचनात्मक विकास के बदले तनाव, चिंता और आक्रोश का कारण बनती है और कभीकभी आत्महत्या का भी. ममा, क्या अब भी आप को लगता है कि सारा दोष इस नई पीढ़ी का ही है? अगर लड़कियां रिश्तों से ज्यादा अपने कैरियर को अहमियत दे रही हैं तो इस में उन की क्या गलती है? उन की यह सोच उन के अपने ही मातापिता और बदलते समय की देन है.’’

‘‘पुरुष तो वैसे भी भावनात्मक तौर पर इतने अहंवादी होते हैं कि अपने कैरियर को परिवार के लिए विराम देने की बात सोच भी नहीं सकते, तो लड़कियां ही सारे त्याग क्यों करें? यह आपसी टकराव सारे रिश्तों की धज्जियां उड़ा रहा है… इस स्थिति को आपसी समझदारी से ही सुलझाया जा सकता है, नई पीढ़ी को कोसने से नहीं.’’

‘‘चुप क्यों हो गई और बोलो. नैतिक मूल्यों को त्याग सिर्फ भौतिक साधनों से लोगों को सुखी बनाने की बातें करो. यही संस्कार मैं ने तुम्हें दिए हैं कि समाज और परिवार को त्याग, प्यार, ममता और मानवता के लिए कुछ कर गुजरने की भावना को भूल सिर्फ अपने लिए जीने की बातें करो जैसे मधुकर ने अपने सुखों के लिए अपनी वृद्ध मां को वृद्धाश्रम भेज दिया. मुझे पता है भविष्य में तुम भी मधुकर के नक्शेकदम पर चलोगी, क्योंकि मधुकर कभी तुम्हारा बैस्ट फ्रैंड हुआ करता था.’’

‘‘जहां तक मेरी बात है ममा वह तो बाद की बात है, अभी तो मेरी पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई है. पर एक बात जरूर है कि राधा मौसी के वृद्धाश्रम जाने की बातें सुन मधुकर से आप को ढेर सारी शिकायतें हो गई हैं. पर जैसे आप राधा मौसी को समझती हैं मैं मधुकर को समझती हूं. सच कहूं तो राधा मौसी अपनी स्थिति के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं. कभी आप ने सोचा है संतान का कोई भी कर्म सफलता या विफलता सब कहीं न कहीं उस के मातापिता की सोच और परवरिश का परिणाम होता है? वह राधा मौसी ही थीं, जिन्हें कभी जनून था कि उन का बेटा हमेशा अव्वल आए. वह इतनी ऊंची उड़ान भरे कि कोई उस के बराबर न आने पाए. नातेरिश्तेदार सब कहें कि देखो यह राधा का बेटा है जिसे राधा ने अकेले पति के बिना भी कितने ऊंचे पद पर पहुंचा दिया, जहां विरले ही पहुंच पाते हैं.

‘‘आप को याद है ममा… याद कैसे नहीं होगा, राधा मौसी अपना हर फैसला तो आप की सलाह से ही लेती थीं. मधुकर की दादी यमुना देवी जीवन की अंतिम घडि़यां गिन रही थीं. उन के प्राण अपने बेटे की अंतिम निशानी मधुकर में अटके हुए थे. बारबार उसे बुलवाने का अनुरोध कर रही थीं. उस समय मधुकर दिल्ली में आईआईटी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहा था. पर राधा मौसी ने उसे पटना बुलाना जरूरी नहीं समझा. उन का कहना था कि अगर वह फ्लाइट से भी आएगा तो भी 2 दिन बरबाद हो जाएंगे और फिर दादी को देख डिस्टर्ब हो जाएगा वह अलग. उन्होंने यमुना देवी के बीमार होने तक की सूचना मधुकर को नहीं दी, क्योंकि मधुकर भी अपनी दादी से बेहद प्यार करता था. यहां तक कि यमुना देवी का देहांत हो गया, तब भी मधुकर को सूचित नहीं किया.

‘‘मधुकर का जब आईआईटी में चयन हो गया और वह पटना आया तब उसे पता चला कि उस की दादी नहीं रहीं. वह देर तक फूटफूट कर रोता रहा, पर राधा मौसी अपनी गलती मानने के बदले अपने फैसले को सही बताती रहीं. ऐसा कर मधुकर के अंदर स्वार्थ का बीज तो खुद उन्होंने ही डाला. अब वह हर रिश्तेनाते और अपनी खुशी तक को भुला सिर्फ अपने कैरियर पर ध्यान दे रहा है, तो क्या गलत कर रहा है? मां का ही तो अरमान पूरा कर रहा है?

‘‘मधुकर राधा मौसी की कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरा. उस ने अपनी मां की सभी इच्छाएं पूरी कीं. उस के बदले वह अपनी मां से सिर्फ इतना ही चाहता था कि जिस लड़की से वह प्यार करता है, उस के साथ राधा मौसी उस की शादी करवा दें.

‘‘उस की बात मानने के बदले राधा मौसी ने हंगामा बरपा दिया, क्योंकि उन्हें जनून था कि उन की बहू भी ऐसी हो, जो नौकरी के मामले में उन के बेटे से कतई उन्नीस न हो. मधुकर जिस से प्यार करता था वह लड़की अभी पढ़ ही रही थी. अपनी महत्त्वाकांक्षा के आगे उन्होंने मधुकर की एक नहीं सुनी. न ही उस की खुशियों का खयाल किया. उन्होंने साफसाफ कह दिया कि वह मखमल में टाट का पैबंद नहीं लगने देंगी. उन्होंने अपनी जान देने की धमकी दे मधुकर को फैसला मानने पर मजबूर कर दिया और उस की शादी अपनी पसंद की लड़की रश्मि से करवा दी.

‘‘अपनी सोच के अनुसार उन्होंने अपने बेटे के जीवन को एक नई दिशा दी, अपनी सारी इच्छाएं पूरी कीं पर अब हाल यह है कि बेटाबहू दोनों काम के बोझ तले दबे हैं. कभी मधुकर घर से महीने भर के लिए बाहर रहता है, तो कभी रश्मि, तो कभी दोनों ही. एकदूसरे के लिए भी दोनों न समय निकाल पा रहे हैं न ही परिवार बढ़ाने के बारे में सोच पा रहे हैं. फिर राधा मौसी के लिए वे कहां से समय निकालें? दोनों में से कोई भी अपनी तरक्की का मौका नहीं छोड़ना चाहता है. रश्मि वैसे अच्छी लड़की है पर अपने कैरियर से समझौता करने के लिए किसी भी शर्त पर तैयार नहीं है. यह सोच उस को अपनी मां से मिली है. वह अपने मातापिता की इकलौती संतान है. बचपन से ही उस में यह जनून इसलिए भरा गया था कि लोगों को दिखा सकें कि उन की बेटी किसी के लड़के से कम नहीं है.

‘‘दुनिया चाहे कितनी भी बदल जाए पर ममा किसी रिलेशनशिप में सब से बड़ी होती है आपसी अंडरस्टैंडिंग. अगर हम अपने नजरिए से सोचते हैं, तो वह अपने लिए सही हो सकता है पर दूसरों के लिए जरूरी नहीं कि सही हो. आप को अच्छा नहीं लगेगा पर राधा मौसी ने अपना हर फैसला खुशियों को केंद्र में रख कर लिया, जो उन के लिए जरूर सही था पर मधुकर के लिए नहीं. अपने फैसले का परिणाम वे खुद तो भोग ही रही हैं, कहीं न कहीं मधुकर भी अपने प्यार को खो देने का गम भुला नहीं पा रहा है.’’

नेहा की बातें सुन मैं हतप्रभ रह गई. वास्तव में हम अपने बच्चों में कैरियर को ले कर ऐसा जनून भर देते हैं कि पूरी उम्र उन की जिंदगी मशीन बन कर रह जाती है.

नेहा के अत्यधिक बोलने और आंखों में अस्पष्ट असंतोष और झिझक देख मेरे दिमाग में बिजली सी कौंध गई. मैं अपने को रोक नहीं सकी. बोली, ‘‘कहीं मधुकर तुम से तो प्यार नहीं करता था?’’

मेरी बात सुन वह पल भर को चौंकी, फिर अचानक उठ खड़ी हुई जैसे अपने मन की वेदना को संभाल नहीं पा रही हो और मेरे गले से आ लगी. उस की आंखों से आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा. आज पहली बार मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ.

पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध में हमारी आंखें इस कदर चौंधियां गई हैं कि हम समृद्धि और ऐशोआराम की चीजों को ही अपनी सच्ची खुशी समझने लगे हैं, हालांकि जल्द ही हमें इन से ऊब होने लगती है. अगर हम गहराई से देखें तो यही विलासिता आगे चल कर अकेलेपन और सामाजिक असुरक्षा का कारण बनती है. नई पीढ़ी के इस भटकाव का कारण कहीं न कहीं उस के मातापिता ही होते हैं. फिर मैं उस के बाल सहलाते हुए बेहद आत्मीयता से बोली, ‘‘मैं मानती हूं कि बड़ों की गलतियों की बहुत बड़ी सजा तुम दोनों को मिली, फिर भी अब तो यही कहूंगी कि अतीत को भुला आगे बढ़ने में ही सब की भलाई है. तुम्हारी मंजिल कभी मधुकर था, अब नहीं है तो न सही, मंजिलें और भी हैं. अब से तुम्हारी मां तुम्हारे हर कदम में तुम्हारे साथ है.’’

Mother’s Day Special- अधूरी मां- भाग 3: क्या खुश थी संविधा

तुम्हारे भैया तो दिन में न जाने कितनी बार औफिस से फोन कर के उस की आवाज सुनाने को कहते हैं. शाम 4 बजे तक सारा कामकाज मैनेजर को सौंप कर घर आ जाते हैं. रात को खाना खा कर सभी दिव्य को ले कर टहलने निकल जाते हैं. दिव्य के आने से मेरे घर में रौनक आ गई है. इस के लिए संविधा तुम्हारा बहुतबहुत धन्यवाद. संविधा, अरेअरे दिव्य… संविधा मैं तुम्हें फिर फोन करती हूं. यह तेरा बेटा जो भी हाथ लगता है, सीधे मुंह में डाल लेता है. छोड़…छोड़…’’

इस के बाद दिव्य के रोने की आवाज आई और फोन कट गया.

‘‘यह भाभी भी न, दिव्य अब मेरा बेटा कहां रहा. जब उन्हें दे दिया तो वह उन का बेटा हुआ न. लेकिन जब भी कोई बात होती है, भाभी उसे मेरा ही बेटा कहती हैं. पागल…’’ बड़बड़ाते हुए संविधा ने फोन मेज पर रख दिया.

इस के बाद मोबाइल में संदेश आने की घंटी बजी. ऋता ने व्हाट्सऐप पर दिव्य का फोटो भेजा था. दिव्य को ऋता की मम्मी खेला रही थीं. संविधा आनंद के साथ फोटो देखती रही. ऋता का फोन नहीं आया तो संविधा ने सोचा, वह रात को फोन कर के बात करेगी.

इसी बीच संविधा को कारोबार के संबंध में विदेश जाना पड़ा. विदेश से वह दिव्य के लिए ढेर सारे खिलौने और कपड़े ले आई. सारा सामान ले कर वह ऋता के घर पहुंची.

ऋता ने उसे गले लगाते हुए पूछा, ‘‘तुम कब आई संविधा?’’

‘‘आज सुबह ही आई हूं. घर में सामान रखा, फ्रैश हुई और सीधे यहां आ गई.’’

पानी का गिलास थमाते हुए ऋता ने पूछा, ‘‘कैसी रही तुम्हारी कारोबारी यात्रा?’’

‘‘बहुत अच्छी, इतना और्डर मिल गया है कि 2 साल तक फुरसत नहीं मिलेगी,’’ बैड पर सामान रख कर इधरउधर देखते हुए संविधा ने पूछा, ‘‘दिव्य कहां है, उस के लिए खिलौने और कपड़े लाई हूं?’’

‘‘दिव्य मम्मी के साथ खेल रहा है. तभी दिव्य को ले कर सुधा आ गईं शायद उन्हें संविधा के आने का पता चल गया था. संविधा ने चुटकी बजा कर दिव्य को बुलाया, ‘‘देख दिव्य, तेरे लिए मैं क्या लाई हूं.’’

इस के बाद संविधा ने एक खिलौना निकाल कर दिव्य की ओर बढ़ाया. खिलौना ले

कर दिव्य ने मुंह फेर लिया. इस के बाद संविधा ने दिव्य को गोद में लेना चाहा तो वह रोने लगा.

इस पर ऋता ने कहा, अरे, यह तो रोने लगा.

वह क्या है न संविधा, यह किसी भी अजनबी के पास बिलकुल नहीं जाता.

संविधा ने हाथ खींच लिए तो दिव्य चुप हो गया. संविधा उदास हो गई. उस का मुंह लटक गया. वह कैसे अजनबी हो गई, जबकि असली मां तो वही है. संविधा जो कपड़े लाई थी, अपने हाथों से दिव्य को पहनाना चाहती थी. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. कुछ देर बातें कर के वह सारा सामान भाभी को दे कर वहां से निकली तो सीधे मां के घर चली गई. वहां मां के गले लग कर रो पड़ी कि वह अपने ही बेटे के लिए अजनबी हो गई.

रमा देवी ने संविधा के सिर पर हाथ फेरते हुए समझाया कि वह जी न छोटा करे, दिव्य थोड़ा बड़ा होगा तो खुद ही उस के पास आने लगेगा. उस से अपनी खुशी भाईभाभी को दी है, इसलिए अब उसे अपना बेटा मान कर मन को दुखी न करे. इस के बाद संविधा को पानी पिला कर उस के कारोबार और विदेश की यात्रा के बारे में बातें करने लगीं तो संविधा उत्साह में आ गई.

कारोबार में व्यस्त हो जाने की वजह से संविधा को किसी से मिलने का समय नहीं मिल रहा था. सात्विक अब अकसर बाहर ही रहता था. फोन पर ही ऋता संविधा को दिव्य के बारे में बताती रहती थी कि आज उस ने यह खाया, ऐसा किया, यह सामान तोड़ा. मम्मी तो उस से बातें भी करने लगी हैं. अगर वह राजन के पास होता है तो वह उसे किसी दूसरे के पास नहीं जाने देते. जिस दिन दिव्य बैड पकड़ कर खड़ा हुआ और 4-5 कदम चला, ऋता ने उस का वीडियो बना कर संविधा को भेजा.

अब तक दिव्य 10 महीने का हो गया था. 2 महीने बाद उस का जन्मदिन आने वाला था. सभी उत्साह में थे कि खूब धूमधाम से जन्मदिन मनाया जाएगा. जन्मदिन मनाने में मदद के लिए संविधा को भी एक दिन पहले आने को कह दिया गया था. जब भी ऋता और संविधा की बात होती थी, ऋता यह बात याद दिलाना नहीं भूलती थी. संविधा भी खूब खुश थी.

उस दिन मीटिंग खत्म होने के बाद संविधा ने मोबाइल देखा तो ऋता की 10 मिस्डकाल्स थीं. इतनी ज्यादा मिस्डकाल्स कहीं मम्मी…? उस के मन में किसी अनहोनी की आशंका हुई. संविधा ने तुरंत ऋता को फोन किया.

दूसरी ओर से ऋता के रोने की आवाज आई. रोते हुए उस ने कहा, ‘‘कहां थीं तुम…कितने फोन किए… तुम ने फोन क्यों नही उठाया?’’

‘‘मीटिंग में थी, ऐसा कौन सा जरूरी काम था, जो इतने फोन कर दिए?’’

‘‘दिव्य को अस्पताल में भरती कराया है,’’ ऋता ने कहा.ॉ

संविधा ने तुरंत फोन काटा और सीधे अस्पताल जा पहुंची. दिव्य तमाम नलियों से घिरा स्पैशल रूम में बैड पर लेटा था. नर्स उस की देखभाल में लगी थी. डाक्टर भी खड़े थे.

वह अंदर जाने लगी तो ऋता ने रोका, ‘‘डाक्टर ने अंदर जाने से मना किया है.’’

‘‘क्या हुआ है दिव्य को?’’ संविधा ने पूछा.

‘‘कई दिनों से बुखार था. फैमिली डाक्टर से दवा ले रही थी. लेकिन बुखार उतर ही नहीं रहा था. आज यहां ले आई तो भरती कर लिया. अब ठीक है, चिंता की कोई बात नहीं है.’’

संविधा सोचने लगी, इतने दिनों से बुखार था, राजन ने ध्यान नहीं दिया. यह इन का अपना बेटा तो है नहीं. इसीलिए ध्यान नहीं दिया. खुद पैदा किया होता तो ममता होती. मेरा बच्चा है न, इसलिए इतनी लापरवाह रही. आज कुछ हो जाता, तो… संविधा ने सारे काम मैनेजर को समझा दिए और खुद अस्पताल में रुक गई बेटे की देखभाल के लिए. ऋता ने उस से बहुत कहा कि वह घर जाए, दिव्य की देखभाल वह कर लेगी, पर संविधा नहीं गई. उस की जिद के आगे ऋता को झुकना पड़ा.

अगले दिन किसी जरूरी काम से संविधा को औफिस जाना पड़ा. वह औफिस से लौटी तो देखा ऋता दिव्य के कमरे से निकल रही थी.

संविधा ने इस बारे में डाक्टर से पूछा तो उस ने कहा, ‘‘मां को तो अंदर जाना ही पड़ेगा. बिना मां के बच्चा कहां रह सकता है.’’

संविधा का मुंह उतर गया. मां वह थी.  अब उस का स्थान किसी दूसरे ने ले लिया था. वह दिव्य को देख तो पाती थी, लेकिन बीमार बेटे को गोद नहीं ले पाती थी. इसी तरह 2 दिन बीत गए. रोजाना शाम को सात्विक भी अस्पताल आता था. ऋता बारबार संविधा से निश्ंिचत रहने को कहती थी, लेकिन वह निश्ंिचत नहीं थी. अब वह दिव्य को पलभर के लिए भी आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहती थीं. 5वें दिन डाक्टर ने दिव्य को घर ले जाने के लिए कह दिया.

सभी रमा देवी के घर इकट्ठा थे. संविधा ने दिव्य को गोद में ले कर कहा, ‘‘मैं ने इसे जन्म दिया है, इसलिए यह मेरा बेटा है. यह मेरे साथ रहेगा.’’

‘‘तुम्हारा बेटा कैसे है? मैं ने इसे गोद लिया है,’’ ऋता ने तलखी से कहा, ‘‘तुम इसे कैसे ले जा सकती हो?’’

‘‘कुछ भी हो, अब मैं दिव्य को तुम्हें नहीं दे सकती. तुम उस की ठीक से देखभाल नहीं कर सकी.’’

‘‘बिना देखभाल के ही यह इतना बड़ा हो गया? एक बार जरा…’’

‘‘एक बार जो हो गया, अब वह दोबारा नहीं हो सकता, ऐसा तो नहीं है.’’

‘‘अब तुम्हारा कारोबार कौन देखेगा… इसे दिन में संभालोगी औफिस कौन देखेगा?’’

‘‘तुम्हें इस सब की चिंता करने की जरूरत नहीं है. कारोबार मैनेजर संभाल लेगा तो औफिस सात्विक. मेरे कारोबार और औफिस के लिए तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है. कुछ भी हो, अब मेरा बेटा मेरे पास ही रहेगा.’’

ऋता और संविधा को लड़ते देख सब हैरान थे. ननदभौजाई का प्यार पलभर में

खत्म हो गया था. किसी की समझ में नहीं आ रहा था कोई किसी को क्या कह कर समझाए. ऋता ने धमकी दी कि उस के पास दिव्य को गोद लेने के कागज हैं तो संविधा ने कहा कि उन्हीं को ले कर देखती रहना.

ऋता ने दिव्य को गोद में लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाए तो राजन ने उस के हाथ थाम लिए. उसे पकड़ कर बाहर लाया और कार में बैठा दिया. ऋता रो पड़ी. राजन ने कार बढ़ा दी. राजन ने ऋता को चुप कराने की कोशिश नहीं की.

रास्ते में ऋता के मोबाइल फोन की घंटी बजी. ऋता ने आंसू पोंछ फोन रिसीव किया, ‘‘बहुतबहुत धन्यवाद भाई साहब, मेरी योजना किसी को नहीं बताई इस के लिए आभार, क्योंकि उस समय संविधा को गर्भपात न कराने का दबाव डालने के बजाय यह उपाय ज्यादा अच्छा था, जो सफल भी रहा.’’

राजन ने ऋता की ओर देखा, उस आंखों में आंसू तो थे, लेकिन चेहरे पर कोई पछतावा नहीं था.

Mother’s Day 2024- अधूरी मां- भाग 2: क्या खुश थी संविधा

संविधा भी पहले नौकरी करती थी. उसे भी 6 अंकों में वेतन मिलता था. इस तरह पतिपत्नी अच्छी कमाई कर रहे थे. लेकिन संविधा को इस में संतोष नहीं था. वह चाहती थी कि भाई की तरह उस का भी आपना कारोबार हो, क्योंकि नौकरी और अपने कारोबार में बड़ा अंतर होता है. अपना कारोबार अपना ही होता है.

नौकरी कितनी भी बड़ी क्यों न हो, कितना भी वेतन मिलता हो, नौकरी करने वाला नौकर ही होता है. इसीलिए संविधा भाई की तरह अपना कारोबार करना चाहती थी. वह फ्लैट में भी नहीं, कोठी में रहना चाहती थी. अपनी बड़ी सी गाड़ी और ड्राइवर चाहती थी. यही सोच कर उस ने सात्विक को प्रेरित किया, जिस से उस ने अपना कारोबार शुरू किया, जो चल निकला. कारोबार शुरू करने में राजन के ससुर ने काफी मदद की थी.

संविधा ने सात्विक को अपनी प्रैगनैंसी के बारे में बताया तो वह बहुत खुश

हुआ, जबकि संविधा अभी बच्चा नहीं चाहती थी. वह अपने कारोबार को और बढ़ाना चाहती भी. अभी वह अपना जो काम बाहर कराती थी, उस के लिए एक और फैक्टरी लगाना चाहती थी. इस के लिए वह काफी मेहनत कर रही थी. इसी वजह से अभी बच्चा नहीं चाहती थी, क्योंकि बच्चा होने पर कम से कम उस का 1 साल तो बरबाद होता ही. अभी वह इतना समय गंवाना नहीं चाहती थी.

सात्विक संविधा को बहुत प्यार करता था. उस की हर बात मानता था, पर इस तरह अपने बच्चे की हत्या के लिए वह तैयार नहीं था. वह चाहता था कि संविधा उस के बच्चे को जन्म दे. पहले उस ने खुद संविधा को समझाया, पर जब वह उस की बात नहीं मानी तो उस ने अपनी सास से उसे मनाने को कहा. रमा बेटी को मनाने की कोशिश कर रही थीं, पर वह जिद पर अड़ी थी. रमा ने उसे मनाने के लिए अपनी बहू ऋता को बुलाया था. लेकिन वह अभी तक आई नहीं थी. वह क्यों नहीं आई, यह जानने के लिए रमा देवी फोन करने जा ही रही थीं कि तभी डोरबैल बजी.

ऋता अकेली आई थी. राजन किसी जरूरी काम से बाहर गया था. संविधा भैयाभाभी की बात जल्दी नहीं टालती थी. वह अपनी भाभी को बहुत प्यार करती थी. ऋता भी उसे छोटी बहन की तरह मानती थी.

संविधा ने भाभी को देखा तो दौड़ कर गले लग गई. बोली, ‘‘भाभी, आप ही मम्मी को समझाएं, अभी मुझे कितने काम करने हैं, जबकि ये लोग मुझ पर बच्चे की जिम्मेदारी डालना चाहते हैं.’’

ऋता ने उस का हाथ पकड़ कर पास बैठाया और फिर गर्भपात न कराने के लिए समझाने लगी.

‘‘यह क्या भाभी, मैं ने तो सोचा था, आप मेरा साथ देंगी, पर आप भी मम्मी की हां में हां मिलाने लगीं,’’ संविधा ने ताना मारा.

‘‘खैर, तुम अपनी भाभी के लिए एक काम कर सकती हो?’’

‘‘कहो, लेकिन आप को मुझे इस बच्चे से छुटकारा दिलाने में मदद करनी होगी.’’

‘‘संविधा, तुम एक काम करो, अपना यह बच्चा मुझे दे दो.’’

‘‘ऋता…’’ रमा देवी चौंकीं.

‘‘हां मम्मी, इस में हम दोनों की समस्या का समाधान हो जाएगा. पराया बच्चा लेने से मेरी मम्मी मना करती हैं, जबकि संविधा के बच्चे को लेने से मना नहीं करेंगी. इस से संविधा की भी समस्या हल हो जाएगी और मेरी भी.’’

संविधा भाभी के इस प्रस्ताव पर खुश हो गई. उसे ऋता का यह प्रस्ताव स्वीकार था. रमा देवी भी खुश थीं. लेकिन उन्हें संदेह था तो सात्विक पर कि पता नहीं, वह मानेगा या नहीं?

संविधा ने आश्वासन दिया कि सात्विक की चिंता करने की जरूरत नहीं है, उसे वह मना लेगी. इस तरह यह मामला सुलझ गया. संविधा ने वादा करने के लिए हाथ बढ़ाया तो ऋता ने उस के हाथ पर हाथ रख कर गरदन हिलाई. इस के बाद संविधा उस के गले लग कर बोली, ‘‘लव यू भाभी.’’

‘‘पर बच्चे के जन्म तक इस बात की जानकारी किसी को नहीं होनी चाहिए,’’ ऋता

ने कहा.

ठीक समय पर संविधा ने बेटे को जन्म दिया. सात्विक बहुत खुश था. बेटे के

जन्म के बाद संविधा मम्मी के यहां रह रही थी. इसी बीच ऋता ने अपने लीगल एडवाइजर से लीगल दस्तावेज तैयार करा लिए थे. ऋता ने संविधा के बच्चे को लेने के लिए अपनी मम्मी और पापा को राजी कर लिया था. उन्हें भी ऐतराज नहीं था. राजन के ऐतराज का सवाल ही नहीं था. लीगल दस्तावेजों पर संविधा ने दस्तखत कर दिए. अब सात्विक को दस्तखत करने थे. सात्विक से दस्तखत करने को कहा गया तो वह बिगड़ गया.

रमा उसे अलग कमरे में ले जा कर कहने लगी, ‘‘बेटा, मैं ने और ऋता ने संविधा को समझाने की बहुत कोशिश की, पर वह मानी ही नहीं. उस के बाद यह रास्ता निकाला गया. तुम्हारा बेटा किसी पराए घर तो जा नहीं रहा है. इस तरह तुम्हारा बेटा जिंदा भी है और तुम्हारी वजह से ऋता और राजन को बच्चा भी मिल रहा है.’’

रमा की बातों में निवेदन था. थोड़ा सात्विक को सोचने का मौका दे कर रमा देवी ने आगे कहा, ‘‘रही बच्चे की बात तो संविधा का जब मन होगा, उसे बच्चा हो ही जाएगा.’’

रमा देवी सात्विक को प्रेम से समझा तो रही थीं, लेकिन मन में आशंका थी कि पता नहीं, सात्विक मानेगा भी या नहीं.

सात्विक को लगा, जो हो रहा है, गलत कतई नहीं है. अगर संविधा ने बिना बताए ही गर्भपात करा लिया होता तो? ऐसे में कम से कम बच्चे ने जन्म तो ले लिया. ये सब सोच कर सात्विक ने कहा, ‘‘मम्मी, आप ठीक ही कह रही हैं… चलिए, मैं दस्तखत कर देता हूं.’’

सात्विक ने दस्तखत कर दिए. संविधा खुश थी, क्योंकि सात्विक को मनाना आसान नहीं था. लेकिन रमा देवी ने बड़ी आसानी से मना लिया था.

समय बीतने लगा. संविधा जो चाहती थी, वह हो गया था. 2 महीने आराम कर के संविधा औफिस जाने लगी थी. काफी दिनों बाद आने से औफिस में काम कुछ ज्यादा था. फिर बड़ा और्डर आने से संविधा काम में कुछ इस तरह व्यस्त हो गई कि ऋता के यहां आनाजाना तो दूर वह उस से फोन पर भी बातें नहीं कर पाती.

एक दिन ऋता ने फोन किया तो संविधा बोली, ‘‘भाभी, लगता है आप बच्चे में कुछ ज्यादा ही व्यस्त हो गई हैं, फोन भी नहीं करतीं.’’

‘‘आप व्यस्त रहती हैं, इसलिए फोन नहीं किया. दिनभर औफिस की व्यस्तता, शाम को थकीमांदी घर पहुंचती हैं. सोचती हूं, फोन कर के क्यों बेकार परेशान करूं.’’

‘‘भाभी, इस में परेशान करने वाली क्या बात हुई? अरे, आप कभी भी फोन कर सकती हैं. भाभी, आप औफिस टाइम में भी फोन करेंगी, तब भी कोई परेशानी नहीं होगी. आप के लिए तो मैं हमेशा फ्री रहती हूं.’’

संविधा ने कहा, ‘‘बताओ, दिव्य कैसा है?’’

‘‘दिव्य तो बहुत अच्छा है. तुम्हारा धन्यवाद कैसे अदा करूं, मेरी समझ में नहीं आता. इस के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं. मम्मीपापा बहुत खुश रहते हैं. पूरा दिन उसी के साथ खेलते रहते हैं.

Mother’s Day 2024- अधूरी मां- भाग 1: क्या खुश थी संविधा

संविधा की जिद के आगे सात्विक ने हार जरूर मान ली थी, लेकिन उम्मीद नहीं छोड़ी थी. उसे पूरा विश्वास था कि संविधा की मां यानी उस की सास संविधा को समझाएंगी तो वह जरूर मान जाएगी.

यही उम्मीद लगा कर उस ने सारी बात अपनी सास रमा देवी को बता दी थी. इस के बाद रविवार को जब संविधा मां से मिलने आई तो रमा देवी ने उसे पास बैठा कर सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘संविधा बेटा, यह मैं क्या सुन रही हूं?’’

‘‘आप ने क्या सुना मम्मी?’’ संविधा ने हैरानी से पूछा.

‘‘यही कि तू गर्भपात कराना चाहती है.’’

‘‘मम्मी, आप को कैसे पता चला कि मैं गर्भवती हूं और गर्भपात कराना चाहती हूं? लगता है यह बात आप को सात्विक ने बताई है. उन के पेट में भी कोई बात नहीं पचती.’’

‘‘बेटा सात्विक ने बता कर कुछ गलत तो नहीं किया. वह जो कह रहा है, ठीक ही कह रहा है. बेटा, मां बनना औरत के लिए बड़े गर्व की बात होती है. तुम्हारे लिए तो यह गर्व की बात है कि तुम्हें यह मौका मिल रहा है और तुम हो कि गर्भ नष्ट कराने की बात कर रही हो.’’

‘‘मम्मी, जीवन में बच्चा पैदा करना ही गर्व की बात नहीं होती है. अभी तो मुझे बहुत कुछ करना है. हमारा नयानया कारोबार है. इसे जमाना ही नहीं, बल्कि और आगे बढ़ाना है. बच्चा पैदा करने से पहले उस के भविष्य के लिए बहुत कुछ करना है. बच्चा तो बाद में भी हो जाएगा. अभी बच्चा होता है तो उस की वजह से कम से कम 2 साल मुझे घर में रहना होगा. मैं औफिस नहीं जा पाऊंगी. आप को पता नहीं, मैं कितना काम करती हूं. मेरा काम कौन करेगा? मैं अभी रुकना नहीं चाहती.’’

‘‘धीरज रखो बेटा. तुम्हारा कारोबार चल निकला है. जो कमाई हो रही है, वह कम नहीं  है. बच्चे के जन्म के बाद तुम औफिस नहीं जाओगी तो काम रुकने वाला नहीं है. सात्विक है, मैनेजर है, बाकी का स्टाफ काम देख लेगा. यह तुम्हारे मन का भ्रम है कि तुम्हारी वजह से काम का नुकसान होगा. बच्चा थोड़ा बड़ा हो जाएगा तो तुम उसे मेरे पास छोड़ कर औफिस जा सकती हो, इसलिए बच्चा होने दो. गर्भपात कराने की जरूरत नहीं है. तुम्हारे सासससुर होते तो मुझे ये सब कहने की जरूरत न पड़ती. वे तुम्हें ऐसा न करने देते.’’

‘‘लेकिन मम्मी…’’

‘‘देखो बेटा, यह तुम्हारी संतान है. तुम बड़ी और समझदार हो. तुम्हारे पापा के गुजर जाने के बाद मैं ने तुम भाईबहन को कभी किसी काम के लिए रोकाटोका नहीं, अपनी इच्छा तुम पर नहीं थोपी, तुम दोनों को अपने हिसाब से जीने की स्वतंत्रता दी.’’

‘‘मम्मी, हम ने उस का दुरुपयोग भी तो नहीं किया.’’

‘‘हां, दुरुपयोग तो नहीं किया, लेकिन अगर तुम लोग कोई गलत काम करते हो तो उस के बारे में समझाना मेरा फर्ज बनता है न? बाकी अंतिम निर्णय तो तुम लोगों को ही करना है. अब अपने भैयाभाभी को ही देख लो, एक बच्चे के लिए तरस रहे हैं. कितना परेशान हैं दोनों. अनाथाश्रम से बच्चा गोद लेना चाहते हैं, पर राजन की सास इस के लिए राजी नहीं हैं. वैसे तो वे राजन को बहुत मानती हैं, उस की हर बात का सम्मान करती हैं, लेकिन जब भी अनाथाश्रम से बच्चा गोद लेने की बात चलती है, सुधाजी साफ मना कर देती हैं. मां के कहने पर ऋता ने 2 बार टैस्टट्यूब बेबी के लिए भी कोशिश की, लेकिन सब बेकार गया. पैसा है, इसलिए वह कुछ भी कर सकती है. तुम्हें तो बिना कुछ किए मां बनने का मौका मिल रहा है, फिर भी तुम यह मौका गंवा रही हो.’’

‘‘मम्मी, तुम कुछ भी कहो, अभी मुझे बच्चा नहीं चाहिए. यह सात्विक के पेट में कोई बात पचती नहीं. मैं ने मना किया था, फिर भी उन्होंने यह बात आप को बता ही दी. उन से यह बात बताने के बजाय चुपचाप गर्भपात करा लिया होता तो ये सब न होता,’’ कह संविधा रसोई की ओर बढ़ गई.

करीब 10 साल पहले रमादेवी के पति अवधेश की अचानक मौत हो गई. वे सरकारी नौकरी में थे, इसलिए बच्चों को पालने में रमादेवी को कोई परेशानी नहीं हुई. उन्हें 1 बेटा था और

1 बेटी. बेटा राजन उस समय 12 साल का था तो बेटी संविधा 2 साल की. बच्चों की ठीक से देखभाल हो सके, इसीलिए रमादेवी ने पति के स्थान पर मिलने वाली नौकरी ठुकरा दी थी.

पैंशन से ही उन्होंने बच्चों को पढ़ालिखा कर लायक बनाया. बच्चे समझदार हुए तो अपने निर्णय खुद ही लेने लगे. रमा देवी ने कभी रोकाटोका नहीं. इसलिए बच्चों को अपने निर्णय खुद लेने की आदत सी पड़ गई. हां, रमादेवी इतना जरूर करती थीं कि वे हर काम का अच्छा और बुरा यानी दोनों पहलू बता कर निर्णय उन पर छोड़ देती थीं.

बेटा राजन बचपन से ही सीधा, सरल और संतोषी स्वभाव का था, जबकि संविधा

महत्त्वाकांक्षी और जिद्दी स्वभाव की थी. ऐसी लाडली होने की वजह से हो गई थी. लेकिन पढ़ाई में दोनों बहुत होशियार थे. शायद इसीलिए मां और भाई संविधा की जिद को चला रहे थे. पढ़ाई के दौरान ही राजन को ऋता से प्यार हो गया तो रमा देवी ने ऋता से उस की शादी कर दी.

ऋता ने अपनी ओर से राजन के सामने प्रेम का प्रस्ताव रखा था. शायद राजन का स्वभाव उसे पसंद आ गया था. ऋता के पिता बहुत बड़े कारोबारी थे. नोएडा में उन की 3 फैक्टरियां थीं. वह मांबाप की इकलौती संतान थी. उसे किसी चीज की कमी तो थी नहीं. बस, एक अच्छे जीवनसाथी की जरूरत थी.

राजन उस की जातिबिरादरी का पढ़ालिखा संस्कारी लड़का था. इसलिए घर वालों ने भी ऐतराज नहीं किया और ऋता की शादी राजन से कर दी. शादी के बाद राजन ससुराल में रहने लगा. लेकिन औफिस जाते और घर लौटते समय वह मां से मिलने जरूर जाता था. हर रविवार को ऋता भी राजन के साथ सास से मिलने आती थी. इस तरह रमा देवी बेटे की ओर से निश्चिंत हो गई थीं.

भाई की तरह संविधा ने भी सात्विक से प्रेमविवाह किया. सात्विक पहले नौकरी करता था. उसे 6 अंकों में वेतन मिलता था. उसे भी किसी चीज की कमी नहीं थी. थ्री बैडरूम का फ्लैट था, गाड़ी थी. पिता काफी पैसा और प्रौपर्टी छोड़ गए थे. वे सरकारी अफसर थे. कुछ समय पहले ही उन की मौत हुई थी. उन की मौत के 6 महीने बाद ही सात्विक की मां की भी मौत हो गई थी. उस के बाद संविधा और सात्विक ही रह गए थे. सात्विक का कोई भाईबहन नहीं था.

Mother’s Day Special: जब बन रही हों दूसरी मां

दूसरी शादी का मतलब सौतेली मां बनना भी है. सौतेली मां शब्द के साथ जुड़ी है, एक नकारात्मक छवि. स्त्री जितने भी प्रयास कर ले, खुद को इस छवि से मुक्त कराना उस के लिए आसान नहीं होता. नई मां को बच्चे दुश्मन के रूप में देखते हैं. ऐसा करने में उन की सगी मां (यदि जिंदा है) और मृत है तो रिश्तेदार चिनगारी छोड़ने का काम करते हैं. उसे ताने दिए जाते हैं. रहरह कर याद दिलाया जाता है कि बच्चे उस के अपने नहीं हैं. घरपरिवार के लिए लाख त्याग करने के बावजूद उसे सराहना नहीं मिलती. बच्चों के कारण पति के साथ उसे पूरी प्राइवेसी भी नहीं मिल पाती. लोगों की सहानुभूति भी सदैव बच्चों के साथ ही होती है. ऐसी महिला की मन:स्थिति कोई नहीं समझता.

बदलता ट्रैंड

चुनौतियां कितनी भी हों, आज बहुत सी लड़कियां अपनी मरजी से विवाहित पुरुषों से शादी कर रही हैं. वैसे भी आजकल कैरिअर की वजह से बड़ी उम्र में शादी करने का रिवाज चल पड़ा है. इस के अलावा दहेज या तलाक भी दूसरी शादी की वजह बन सकता है. कई बार प्रेम में पड़ कर लड़कियां शादीशुदा पुरुषों को जीवनसाथी चुनती हैं. बात जो भी हो, सौतेली मां की भूमिका अपनेआप में काफी चुनौतीपूर्ण है. इसे सफलतापूर्वक स्वीकार करने के लिए जरूरी है कुछ बातों का ध्यान रखना:

जरूर कर लें छानबीन

समस्याओं से बचने और अच्छा रिश्ता बनाने के लिए पहले से उस परिवार के बारे में छानबीन करें.

यह पता करें कि पहली पत्नी से अलगाव की वजह क्या थी. तलाक, मौत या कोई और वजह? तलाक हुआ तो क्यों और यदि मौत हुई तो कैसे?

पति से पूछें कि पुरानी पत्नी का स्वभाव कैसा था? बच्चों को किस तरह रहने की आदत है? उन्हें कौन सी बातें अच्छी लगती हैं? किन बातों से भय लगता है वगैरह.

नए घर के तौरतरीकों और रीतिरिवाजों की जानकारी पहले से लें.

बच्चों से मिलें

बच्चों के साथ समय बिताएं, उन की कमियों, समस्याओं, गुणअवगुणों को जानने का प्रयास करें. उन की मानसिक स्थिति और उन्हें सुकून देने वाली बातों को समझें. उन से दोस्ताना व्यवहार रखें ताकि शादी के बाद वे आसानी से आप को अपना लें.

मैरिज काउंसलर, कमल खुराना कहते हैं, ‘‘सौतेली मां के रूप में घर में ऐडजस्ट करना कितना कठिन होगा, यह काफी हद तक इस बात पर भी निर्भर करता है कि बच्चा कितना बड़ा है. छोटे बच्चे सिर्फ प्यारदुलार की भाषा समझते हैं और आसानी से नई मां को अपना लेते हैं, पर कुछ बड़े हो चुके बच्चे या टीनएजर्स के लिए जीवन में आए इनबदलावों को स्वीकार करना उतना आसान नहीं होता. उन का संवेदनशील मन रिश्तों के नए समीकरण समझने में वक्त लेता है. उन के दिल पर पुरानी मां की यादें पूरी तरह हावी रहती हैं. ऐसी परिस्थिति में जरूरी है कि आप बच्चे को मानसिक रूप से तैयार होने के लिए वक्त दें और उस की सहमति मिलने के बाद ही शादी करें.’’ सौतेली मां बनने के बाद आप को सम्मान मिले, इस के लिए जरूरी है कि पहले दिन से ही आप घर में अनुशासन और एकदूसरे के प्र्रति सम्मान की भावना डेवलप करें. आप बड़ों को सम्मान दें, बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार करें, तभी बदले में आप वैसे ही व्यवहार की आशा कर सकती हैं.

आपसी समझ मजबूत करें :

शादी के बाद सब से महत्त्वपूर्ण है बच्चे के साथ आपसी समझ मजबूत करना. हंसीमजाक का माहौल बनाए रखें. यदि उन्होंने आप से अपनी कोई बात शेयर की है और पापा को न बताने का आग्रह किया है, तो वादा कर के निभाएं जरूर.

धैर्य जरूरी :

जिंदगी संघर्ष का नाम है. फिर आप जिस रिश्ते को निभा रही हैं, उस की तो बुनियाद ही समझौते से जुड़ी है, इसलिए अपना मनोबल कभी नीचा न होने दें. बच्चों द्वारा दिखाई जा रही उपेक्षा को व्यक्तिगततौर पर न लें.

मानसिकता समझें :

मैरिज काउंसलर कमल खुराना कहते हैं, ‘‘किसी टेढ़ी या अजीब परिस्थिति में बच्चे की प्रतिक्रिया देख कर बच्चे की सोच समझी जा सकती है. यदि वह उद्दंड या रूखा व्यवहार करता है तो जरूरी है कि आप उस के हृदय की गहराइयों में झांकें और वजह जानने का प्रयास करें, न कि बच्चे को अपशब्द कहें, आवेश में कभी भी बच्चे को डांटने या सौतेला कह कर दुत्कारने से आप दोनों के रिश्ते में गहरी दरार आ सकती है. इसलिए बच्चे के साथ व्यवहार करते वक्त उस की मानसिक स्थिति को ध्यान में रखें. तभी आप उस के दिल में जगह बना सकेंगी.’’

क्या न करें

बच्चों की सगी मां बनने का प्रयास न करें और न ही उस की जगह लेने की बात सोचें. अपनी अलग जगह बनाएं.

बच्चों के सामने उन की मां के लिए बुराभला न कहें और न ईर्ष्या रखें.

अपने बच्चे हैं तो उन से सौतेले बच्चों की तुलना करने या अपने बच्चों को ज्यादा महत्त्व देने से बचें.

कभी भी अपना निर्णय बच्चों पर थोपने का प्रयत्न न करें.

यदि पति और बच्चे पुरानी मां से मिलते हैं तो आप गुस्सा न करें.

बच्चों के चक्कर में पति की उपेक्षा न करें.

यह न सोचें कि मेरा सौतेला बच्चा कभी भी मुझे प्यार नहीं करेगा. शुरुआत में संभव है वह आप से नफरत करे पर वक्त के साथ सब बदल जाता है.

भ्रांतियां और उन की असलियतें

भ्रांति : सौतेली मां बच्चे के प्रति कठोर होती है.

असलियत : जहां तक अनुशासन की बात है, सौतेली मां तुलनात्मक रूप से कम कठोर होती है. वह बच्चे के साथ उदार रवैया रखती है ताकि बच्चा उस से घुलमिल सके.

भ्रांति :  सौतेली मां हो या बाप, निभाना एक सा कठिन होता है.

असलियत : यह सच नहीं है. दरअसल सौतेली मां को सौतेले बाप से ज्यादा परेशानियां झेलनी पड़ती हैं. बच्चों के दिमाग में और समाज में भी सौतेली मां की छवि दुष्ट महिला के रूप में अंकित है. ऐसे में उसे बच्चों की तरफ से ज्यादा रूखा और विरोधपूर्ण व्यवहार सहना पड़ता है. वैसे भी औरतें रिश्तों से ज्यादा जुड़ती हैं. रिश्तेनाते व भावनाएं उन के जीवन में अहम स्थान रखती हैं. इसलिए जब यह सपना टूटता है तो उन्हें ज्यादा दुख होता है.

भ्रांति : यदि आप का सौतेला बच्चा आप को नापसंद कर रहा है तो इस का मतलब है आप कुछ गलत कर रही हैं.

असलियत : ऐसा नहीं है. दरअसल बात उलटी होती है. आप जितना नर्म बनेंगी और बच्चे का खयाल रखने का प्रयास करेंगी, बच्चा उतना ही बुरा व्यवहार कर अपना विरोध जताने लगेगा ताकि आप उस की मां का स्थान न लें. खासकर शुरुआत में ऐसा ज्यादा होता है. इसलिए खुद को दोषी नहीं समझना चाहिए.

भ्रांति : बच्चे से रिलेशन के लिए सिर्फ मां जिम्मेदार है.

असलियत : सौतेली मां व बच्चे का रिलेशन कैसा है, इस के लिए पति, रिश्तेदार और ऐक्सपार्टनर भी जिम्मेदार हैं. पति को चाहिए कि बच्चों के आगे अपनी स्थिति साफ करें. उन्हें बताएं कि अब हम सब एक परिवार के हैं और अपनी नई पत्नी को सपोर्ट करें. रिश्तेदारों को भी नई मां और बच्चे के बीच मधुर रिश्ता कायम करवाने का प्रयास करना चाहिए.

भ्रांति : सौतेली मां को अपने बजाय बच्चों की खुशी का खयाल रखना चाहिए.

असलियत : हर वक्त बच्चों की चिंता करने और उन पर ऐनर्जी खर्च करने से बेहतर है, थोड़ा अपनी खुशियों का भी खयाल रखा जाए. कुछ वक्त घर और बच्चों से दूर अपने लिए बिताएं. इस से तनाव से मुक्ति मिलेगी और जीवन में नया उजाला फैलेगा.

भ्रांति : सौतेली मां और बच्चे के रिश्ते की असलियत तुरंत पता लग जाती है.

असलियत : ऐसा नहीं है. बुरी इमेज की धारणा होने की वजह से नई मां को समायोजन करने में वक्त लग जाता है.

भ्रांति : सौतेली मां बच्चे के लिए बुरी है.

असलियत : ऐसा नहीं है, हकीकत तो यह है कि घर का सूनापन बच्चे के लिए ज्यादा बुरा है.

भ्रांति : सगी मां का स्थान लिया जा सकता है.

असलियत : नई मां बच्चे के कितने भी करीब आ जाए पर एक दीवार उन के बीच रह ही जाती है, क्योंकि बच्चा यह स्थान किसी को नहीं दे सकता और ऐसा प्रयास करना भी नहीं चाहिए.              

1 हेमामालिनी-धर्मेंद्र

बौलीवुड की ड्रीमगर्ल ने 1980 में हीमैन धर्मेंद्र से शादी की. इस से पहले धर्मेंद्र की शादी प्रकाश कौर के साथ 1954 में हो चुकी थी. उन से धर्मेंद्र के 4 बच्चे थे. पर ‘शोले’ के सैट पर भड़की प्रेम की आग में, सामाजिक बंधनों की परवाह न कर धर्मेंद्र ने पहली पत्नी के रहते हेमा से दूसरी शादी की.

2 शबाना आजमी-जावेद अख्तर

शबाना ने शायर, संगीतकार और स्क्रिप्ट राइटर जावेद अख्तर को अपना जीवनसाथी चुना, जो पहले से शादीशुदा और 2 बच्चों के पिता थे. पहली पत्नी, हनी ईरानी से तलाक लेने के बाद जावेद अख्तर ने 1984 में शबाना से शादी की.

3 जयाप्रदा-श्रीकांत

जयाप्रदा ने 1986 में प्रोड्यूसर श्रीकांत नहाटा से प्रेमविवाह किया. श्रीकांत पूर्वविवाहित, 3 बच्चों के पिता थे. उन्होंने अपनी पहली पत्नी चंद्रा को तलाक नहीं दिया. जयाप्रदा ने श्रीकांत को उन की पहली पत्नी और बच्चों के साथ स्वीकार किया.

4 स्मिता पाटिल-राज बब्बर

स्मिता पाटिल ने पूर्वविवाहित राज बब्बर से शादी की थी. राज बब्बर की पहली पत्नी नादिरा जहीर थीं. उन दोनों के 2 बच्चे भी थे. पर राज बब्बर ने स्मिता से शादी करने के लिए पहली पत्नी को छोड़ दिया.

5 महिमा चौधरी-बौबी मुखर्जी

महिमा ने 2 बच्चों के पिता आर्किटैक्ट बौबी मुखर्जी से शादी की.

6 करीना कपूर-सैफ अली खान

अपनी बड़ी बहन करिश्मा के नक्शेकदम पर चलती हुई करीना कपूर भी शादीशुदा सैफ अली खान के साथ शादी की है. सैफ अपने से बड़ी उम्र की अदाकारा अमृता सिंह के साथ 13 साल की शादीशुदा जिंदगी बिता चुके हैं और उन दोनों के बच्चे भी हैं. वहीं अब करीना से उनका बेटा तैमूर और दूसरा बेटा भी हुआ है.

Mother’s Day Special: अकेलेपन और असामाजिकता के शिकार सिंगल चाइल्ड

7 साल का आर्यन घर का इकलौता बच्चा है. वह न नहीं सुन सकता. उस की हर जरूरत, हर जिद पूरी करने के लिए मातापिता दोनों में होड़ सी लगी रहती है. उसे आदत ही हो गई है कि हर बात उस की मरजी के मुताबिक हो. हालात ये हैं कि घर का इकलौता दुलारा इस उम्र में भी मातापिता की मरजी के मुताबिक नहीं, बल्कि मातापिता उस की इच्छा के अनुसार काम करने लगे हैं. कई बार ऐसा भी देखने में आता है कि हद से ज्यादा लाड़प्यार और अटैंशन के साथ पले इकलौते बच्चों में कई तरह की समस्याएं जन्म लेने लगती हैं. ‘एक ही बच्चा है’ यह सोच कर पेरैंट्स उस की हर मांग पूरी करते हैं. लेकिन यह आदत आगे चल कर न केवल अभिभावकों के लिए असहनीय हो जाती है बल्कि बच्चे के पूरे व्यक्तित्व को भी प्रभावित करती है.

इसे मंहगाई की मार कहें या बढ़ती जनसंख्या के प्रति आई जागरूकता या वर्किंग मदर्स के अति महत्त्वाकांक्षी होने का नतीजा या अकेले बच्चे को पालने के बोझ से बचने का रास्ता? कारण चाहे जो भी हो, अगर हम अपने सामाजिक परिवेश और बदलते पारिवारिक रिश्तों पर नजर डालें तो एक ही बच्चा करने का फैसला समझौता सा ही लगता है. आज की आपाधापी भरी जिंदगी में ज्यादातर वर्किंग कपल्स एक ही बच्चा चाहते हैं. ये चाहत कई मानों में हमारी सामाजिकता को चुनौती देती सी लगती है. न संयुक्त परिवार और न ही सहोदर का साथ, एक बच्चे के अकेलेपन का यह भावनात्मक पहलू उस के पूरे जीवन को प्रभावित करता है.

खत्म होते रिश्तेनाते

एक बच्चे का चलन हमारी पूरी पारिवारिक संस्था पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है. अगर किसी परिवार में इकलौता बेटा या बेटी है तो उस की आने वाली पीढि़यां चाचा, ताऊ और बूआ, मौसी, मामा के रिश्ते से हमेशा के लिए अनजान रहेंगी.  समाजशास्त्री भी मानते हैं कि सिंगल चाइल्ड रखने की यह सोच आगे चल कर पूरे सामाजिक तानेबाने के लिए खतरनाक साबित होगी. पारिवारिक माहौल के बिना वे जीवन के उतारचढ़ाव को नहीं समझ पाते और बड़े होने पर अपने ही अस्तित्व से लड़ाई लड़ते हैं. बच्चों को सभ्य नागरिक बनाने में परिवार का बहुत बड़ा योगदान होता है. संयुक्त परिवारों में 3 पीढि़यों के सदस्यों के बीच बच्चों का जीवन के सामाजिक और नैतिक पक्ष से अच्छी तरह परिचय हो जाता है.

कितने ही पर्वत्योहार हैं जब अकेले बच्चे व्यस्तता से जूझते पेरैंट्स को सवालिया नजरों से देखते हैं. घर में खुशियां बांटने और मन की कहने के लिए हमउम्र भाईबहन का न होना बच्चों को भी अखरता है. इतना ही नहीं, सिंगल चाइल्ड की सोच हमारे समाज में महिलापुरुष के बिगड़ते अनुपात को भी बढ़ावा दे रही है क्योंकि आमतौर पर यह देखने में आता है कि जिन कपल्स का पहला बच्चा बेटा होता है वे दूसरा बच्चा करने की नहीं सोचते. समग्ररूप से यह सोच पूरे समाज में लैंगिक असमानता को जन्म देती  है.

शेयरिंग की आदत न रहना

आजकल महानगरों के एकल परिवारों में एक बच्चे का चलन चल पड़ा है. आमतौर पर ऐसे परिवारों में दोनों अभिभावक कामकाजी होते हैं. नतीजतन बच्चा अपना अधिकतर समय अकेले ही बिताता है. ऐसे माहौल में पलेबढ़े बच्चों में एडजस्टमैंट और शेयरिंग की सोच को पनपने का मौका ही नहीं मिलता. छोटीछोटी बातों में वे उन्मादी हो जाते हैं. अपनी हर चीज को ले कर वे इतने पजेसिव रहते हैं कि न तो किसी के साथ रह सकते हैं और न ही किसी दूसरे की मौजूदगी को सहन कर सकते हैं. वे हर हाल में जीतना चाहते हैं. यहां तक कि खिलौने और खानेपीने का सामान भी किसी के साथ बांट नहीं सकते. ऐसे बच्चे अकसर जिद्दी और शरारती बन जाते हैं.

अकेला बच्चा होने के चलते मातापिता का उन्हें पूरा अटैंशन मिलता है. वर्किंग पेरैंट्स होने के चलते अभिभावक बच्चे को समय नहीं दे पाते. उस की हर जरूरी और गैरजरूरी मांग को पूरा कर के अपने अपराधबोध को कम करने की राह ढूंढ़ते हैं. बच्चे अपने साथ होने वाले ऐसे व्यवहार को अच्छी तरह से समझते हैं जिस के चलते छोटी उम्र में ही वे अपने पेरैंट्स को इमोशनली ब्लैकमेल भी करने लगते हैं. अगर उन की जिद पूरी नहीं होती तो वे कई तरह के हथकंडे अपनाने लगते हैं.

गैजेट्स की लत

इसे समय की मांग कहें या दूसरों से पीछे छूट जाने का डर, अभिभावक अपने इकलौते बच्चों को आधुनिक तकनीक से अपडेट रखने की हर मुमकिन कोशिश करते नजर आते हैं. कामकाजी अभिभावकों को ये गैजेट्स बच्चों को व्यस्त रखने का आसान जरिया लगते हैं. यही वजह है कि अकेले बच्चों की जिंदगी में हमउम्र साथियों और किस्सेकहानी सुनाने वाले बुजुर्गों की जगह टीवी, मोबाइल और लैपटौप जैसे गैजेट्स ने ले ली है. आज के दौर में इन इकलौते बच्चों के पास समय भी है और एकांत भी. बडे़ शहरों में आ बसे कितने ही परिवार हैं जिन में कुल 3 सदस्य हैं. साथ रहने और खेलने को न किसी बड़े का मार्गदर्शन और न ही छोटे का साथ. नतीजतन, वे इन गैजेट्स का इस्तेमाल बेरोकटोक मनमुताबिक ढंग से करते रहते हैं. उन का काफी समय इन टैक्निकल गैजेट्स को एक्सैस करने में ही बीतता है. अकेले बच्चे घंटों इंटरनैट और टीवी से चिपके रहते हैं. धीरेधीरे ये गैजेट्स उन की लत बन जाते हैं और ऐसे बच्चे लोगों से घुलनेमिलने से कतराने लगते हैं.

‘एन इंटरनैशनल चाइल्ड ऐडवोकेसी और्गनाइजेशन’ की एक रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ है कि इंटरनैट पर बहुत ज्यादा समय बिताने वाले बच्चों में सामाजिकता खत्म हो जाती है. नतीजतन, उन के शारीरिक और मानसिक संवेदनात्मक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. इतना ही नहीं, मनोचिकित्सकों ने तो इंटरनैट की लत को मनोदैहिक बीमारी का नाम दिया है. अकेले बच्चों को मिलने वाली मनमानी छूट कई माने में उन्हें जानेअनजाने ऐसी राह पर ले जाती है जो आखिरकार उन्हें कुंठाग्रस्त बना देती है.

समस्याएं और भी हैं

इकलौते बच्चे का व्यवहार और कार्यशैली उन बच्चों से बिलकुल अलग होती है जो अपने हमउम्र साथियों या भाईबहनों के साथ बड़े होते हैं. वर्किंग पेरैंट्स के व्यस्त रहने के कारण ऐसे बच्चे उपेक्षित और कुंठित महसूस करते हैं. कम उम्र में सारी सुखसुविधाएं मिल जाने के कारण ये जीवन की वास्तविकता और जिम्मेदारियों को ठीक से नहीं समझ पाते. ऐसे बच्चे आमतौर पर आत्मकेंद्रित हो जाते हैं. अकेला रहने वाला बच्चा अपनी बातें किसी से नहीं बांट पाता. उसे अपनी भावनाएं शेयर करने की आदत ही नहीं रहती जिस के चलते ऐसे बच्चे बड़े हो कर अंतर्मुखी, चिड़चिड़े और जिद्दी बन जाते हैं और उन का स्वभाव उग्र व आक्रामक हो जाता है.

मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि अकेले पलेबढ़े बच्चे सामाजिक नहीं होते और उन्हें हर समय अटैंशन व डिपैंडैंस की तलाश रहती है. संपन्न और सुविधाजनक परवरिश मिलने के कारण इकलौते बच्चे जिंदगी की हकीकत से दूर ही रहते हैं. लाड़प्यार और सुखसुविधाओं में पलने के कारण वे आलसी और गैरजिम्मेदार बन जाते हैं. छोटेछोटे काम के लिए उन्हें दूसरों पर निर्भर रहने की आदत हो जाती है. आत्मनिर्भरता की कमी के चलते उन के व्यक्तित्व में आत्मविश्वास की भी कमी आ जाती है. एक सर्वे में इस बात का भी खुलासा हुआ है कि अकेले रहने वाले बच्चों की खानपान की आदतें भी बिगड़ जाती हैं. यही वजह है कि अकेले बच्चों में मोटापे जैसी शारीरिक व्याधियां भी घर कर जाती हैं.

Mother’s Day Special: मां भी मैं पापा भी मैं

भारत में सिंगल मदर होना आसान नहीं है. पूरी हिम्मत दिखा कर सिंगल मदर बनने पर महिलाओं को अकसर चुभते सवालों का सामना करना पड़ता है. मसलन, बच्चे के पिता अब कहां हैं? आप लोग साथ क्यों नहीं हैं? अकेले बच्चा पालना बहुत मुश्किल है, सिर पर बाप का साया होना जरूरी है. इस के अलावा स्कूल में बच्चे के दाखिले के समय या कोई सरकारीगैरसरकारी फार्म भरते समय भी पिता का ही नाम पूछा जाता है. भारत में किसी लड़की का बिना शादी किए मां बनना अपराध माना जाता है.

अकेले बच्चा पालना आसान नहीं है. मांपिता दोनों की भूमिका निभानी पड़ती है. बच्चे की सारी जिम्मेदारी अकेले मां के कंधों पर होती है. घर से ले कर बच्चे की बेहतरी का फैसला मां को ही लेना होता है. कई बार ऐसी स्थितियों से जूझतेजूझते मां ओवर स्ट्रैस हो जाती है. ऐसे में जरूरी है कि ऐसी स्थितियों को पनपने का मौका ही न दिया जाए. यह आप के लिए, आप के बच्चे की परवरिश के लिए, आप के परिवार के लिए बेहद जरूरी है. अन्यथा तनाव स्वस्थ माहौल छीन लेगा और सिंगल मदर होने पर आप को अफसोस होगा.

फाइनैंस पर कंट्रोल

कम आय तनाव का अहम कारण होती है. सिंगल पेरैंटिंग के लिए अहम है कि आप को अपनी आय की सही तरीके से बजटिंग करनी आए. कारण आप की कमाई ही पैसे का एकमात्र स्रोत है. मसलन, मकान, बिजली, गैस, पानी आदि की अदायगी, बच्चे की ट्यूशन फीस आदि. यदि बजटिंग करने के बाद आय कम पड़ती है, तो आय के स्रोत बढ़ाने की सोचें. इस के लिए निश्चित आय के अलावा पार्टटाइम जौब, घर पर किराएदार रख कर, किसी कंपनी के लिए फ्रीलांस आदि का काम करें. इस से आप अपने बच्चे को बेहतर परवरिश दे पाएंगी. तब आप को घर की बेहतरी से ले कर बच्चे की हर जरूरत को पूरा करने के लिए मन मसोसना नहीं पड़ेगा.

बातें जारी रहें

आप के घरपरिवार में किसी प्रकार का फेरबदल होने वाला है, तो इस से बच्चे को अनजान न रखें. फेरबदल पर बच्चे की प्रतिक्रिया जानें अन्यथा वह अलगथलग महसूस करेगा.

सहयोग का इस्तेमाल

सिंगल मदर हो कर बच्चे की परवरिश करना आसान नहीं है. जब सारी जिम्मेदारियां आप के कंधे पर होंगी, तो तनाव होना स्वाभाविक है. ऐसे में अपने परिवार वालों व दोस्तों से जानें कि वे आप के लिए कैसे मददगार साबित हो सकते हैं. मसलन, स्कूल बस से बच्चे को पिक करना, रोजाना बच्चे को ट्यूशन या डांस क्लास छोड़ कर आना आदि. जब नौकरी करते हुए बच्चे को कहीं छोड़ने या लाने की जिम्मेदारी आप उठा तो लेंगी, लेकिन काम का हरजा कोई भी संस्थान बरदाश्त नहीं करेगा.

बच्चे को समय दें

बच्चे के लिए आप ही मां व पिता हैं. उसे पिता के प्यार की कमी महसूस न होने दें. बच्चे को ज्यादा से ज्यादा समय दें. उस के साथ खेलें, गानें सुनें, उस की बातें सुनें. याद रहे कि अच्छी परवरिश के लिए आर्थिक मजबूती के अलावा उसे समय देना भी नितांत जरूरी है.

अपने को समय दें

सिंगल मदर होने का यह मतलब नहीं कि आप की पर्सनल लाइफ खत्म हो गई है. सप्ताह में 1 दिन सिर्फ अपने लिए जीएं. अपनी पसंदीदा किताबें पढ़ें, फिल्म देखें, दोस्तों के साथ शौपिंग पर जाएं. अपने शौक को तरजीह दें. अन्यथा एक सी लाइफ से आप उकता जाएंगी.

स्पेस जरूरी है

सिंगल मदर होने के नाते आप का सारा फोकस बच्चे पर रहता है. बच्चा छोटा हो या बड़ा आप उस की हर जरूरत पूरी करने के लिए सदा तैयार रहती हैं. प्यार व अपनत्व की भावना इतनी असीम होती है कि बच्चा दब्बू बन जाता है. साथ ही आप बच्चे के प्रति ओवर पजैसिव हो जाती हैं. ऐसे में स्पेस देना बहुत जरूरी है ताकि बच्चा आत्मनिर्भर बन पाए. निश्चित दिनचर्या: बच्चे को जानकारी दें कि किस समय खाना है, सोना है, खेलना है, पढ़ना है, रोज रात को स्कूल की यूनिफौर्म अलमारी से निकालनी है, बैग सैट करना है आदि. इस से आप को थोड़ी राहत मिलेगी और बच्चे में काम करने की आदत पड़ेगी.

जानकारी अपडेट रखें: आप डाइवोर्सी हैं या सैपरेटेड पेरैंट अथवा सिंगल पेरैंट ऐसे में आप की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि बच्चे को अच्छी आदतों के साथ नियंत्रण में रखा जाए. इस के लिए आप सोशल साइट्स, विविध सर्च इंजन्स, लाइब्रेरी या दोस्तों से गुड पेरैंटिंग की जानकारी लें ताकि आप या बच्चे पर किसी भी प्रकार का तनाव हावी न हो.

बच्चे को बच्चा समझें: कभी न कभी सिंगल पेरैंट होने पर आप अकेला महसूस करती होंगी. इस के लिए बच्चे को कतई पार्टनर का सबस्टिट्यूट न समझें. कोशिश करें कि आप अपने आराम या सहानुभूति के लिए बच्चे पर आश्रित न हों वरना बच्चा मैंटली डैवलप नहीं हो पाएगा.

पौजिटिव रहें: आप का हमेशा सकारात्मक रहना बेहद जरूरी है. नन्ही जान का मूड आप के मूड से अच्छा या खराब होता है. आप खुश रहेंगी तो बच्चा भी हंसेगा, चहकेगा. आप दुखी रहें भी तो बच्चा भी गुस्सैल होते हुए यहांवहां गुस्सा निकालेगा. यह जान लें कि अपनी भावनाओं के प्रति ईमानदार होना जरूरी है. बच्चे को समझाएं कि बुरे समय के बाद अच्छा समय आता है.

अपने प्रति लापरवाही नहीं: अकेले बच्चे की परवरिश करना आसान नहीं है. कई तरह की दिक्कतों से रोजाना रूबरू होना पड़ता. कभी समाज के ताने आप को बेचैन करते होंगे, तो कभी औफिस रहते हुए बच्चे को बसस्टौप से लाने की चिंता तनावग्रस्त करती होगी. इन चिंताओं से दूर रहें. यदि आप चिंता में रहेंगी, तो बच्चे की परवरिश पर इस का बुरा असर पड़ेगा. स्ट्रैस से बचने के लिए ऐक्सरसाइज करें, संतुलित भोजन लें. आराम करें और डाक्टरी जांच नियमित करवाएं. आप फिट होंगी, तभी बच्चे की बेहतर केयर कर पाएंगी.

बेहतर चाइल्ड केयर टेकर खोजें: आप औफिस में हैं, पीछे से बच्चे की देखभाल की पूरी जिम्मेदारी आप को किसी भरोसेमंद केयर टेकर या मेड को देनी होगी ताकि आप निश्ंिचत हो कर औफिस की जिम्मेदारियां निभा सकें. पलपल आप को यह चिंता न सताए कि बच्चे ने खाना खाया, होमवर्क किया या नहीं, बच्चा बिगड़ तो नहीं रहा. दोपहर में बच्चा समय से आराम करता है या नहीं आदि. बेहतरीन चाइल्ड केयरटेकर या फुलटाइम मेड की खोज आप फैं्रड सर्कल या भरोसेमंद प्लेसमैंट एजेंसी से करें. आप वर्किंग हैं तब केयरटेकर या फुलटाइम मेड नितांत आवश्यक है. कुछ पैसे बचाने के चक्कर में बच्चे को घर पर अकेला न छोड़ें. चाइल्ड केयरटेकर या मेड चाइल्ड केयर में दक्ष होनी चाहिए.

फ्रैंड्स की मदद लें: यदि आप के दोस्त अच्छे, नेक हैं, तो उन से गुजारिश करें कि वे आप की गैरहाजिरी में बीचबीच में बच्चे की खैरखबर लें.

आप की जिम्मेदारी: याद रहे बच्चे की सिंगल मदर आप हैं. ऐसे में बच्चे की परवरिश की जिम्मेदारी आप की है. इसे हमेशा याद रखें. बच्चे की जिम्मेदारी अपने मातापिता या भाईबहन पर न थोपें. हां, आप के अच्छे व्यवहार से वे आप के बच्चे की देखरेख आप की गैरहाजिरी में जरूर कर सकते हैं. आप के बच्चे के पालनपोषण की जिम्मेदारी आप की है, उन की नहीं.

बाहरी मदद लें: लोगों से रिश्ता अच्छा रखें ताकि समय पड़ने पर वे आप की मदद करने में पीछे न रहें. मसलन आप की तबीयत खराब है और बच्चे व घर की जिम्मेदारी आप नहीं निभा पा रहीं तो ऐसे में किसी से मदद लें. इस के लिए आप को व्यवहारकुशल बनना होगा.

कतई झूठ न बोलें : आप डाइवोर्सी हैं तो यह बात अपने बच्चे को जरूर बताएं. आप के बताने से बच्चा पूरा सच जान जाएगा. बाहरी लोगों से पता चलने पर उस के नन्हे दिल पर गहरी ठेस लगेगी. उस पर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ सकता है.

Mother’s Day Special: ममता का आंगन

विदाई की बेला… हर विवाह समारोह का सबसे भावुक कर देने वाला पल. सुंदर से लहंगे में आभूषणों से लदी  निशा धीरे-धीरे आगे कदम बढ़ा रही थी. आंसुओं से चेहरा भीगा जा रहा था. सहेलियां और भाभियां उलाहना दे रहीं थीं. “अरे इतना रोओगी तो मेकअप धुल जाएगा.” इसी तरह की चुहलबाज़ी हो रही थी.

मगर वह चाह कर भी अपने आंसू नहीं रोक पा रही थी. खुद को दोराहे पर खड़ा महसूस कर रही थी आज वह. सजी-धजी सुंदर सी कार उसे पिया के घर ले जाने के लिए तैयार खड़ी थी. अजय कार में बैठ चुका था. निशा ने कनखियों से देखा तो लगा कि अजय बेसब्री से उसका इंतजार कर रहा था मानो कह रहा हो, “अब बस भी करो निशा! नए घर में भी लोग तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं.”  वह एक कदम आगे बढ़ती तो दो कदम पीछे वाली स्थिति थी. पापा भैया पास में ही खड़े थे. निशा पलट कर पापा के गले लग कर रोने लगी. भाई उसे प्यार से सहला रहा था. मानो पापा से छुड़ाना चाह रहा हो और कह रहा हो,” दीदी, एक नई सुंदर सी दुनिया तुम्हारी प्रतीक्षा में है. उसका स्वागत करो.”

तभी उसने देखा कि मां किसी अपराधिनी दूर खड़ी अपने ढुलकते आंसुओं को छिपाने का असफल प्रयास कर रही थी. दोनों तरफ से स्थिति कमोबेश एक सी ही थी. मां आगे बढ़कर उसे गले लगाने का साहस नहीं कर पा रही थी क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं निशा नाराज़ ना हो जाए. ये अधिकार निशा ने उन्हें आज तक दिया ही नहीं था. इधर निशा भी चाहते हुए ममत्व की  प्यास को सहलाने में नाकाम साबित हो रही थी.  बड़ी ही मुश्किल से मां  धीरे-धीरे आगे आकर खड़ी हो गई. मौसी, बुआ सभी से निशा प्रेम से गले मिल रही थी. तभी अचानक मां के दिल में ठहरा दर्द का सैलाब उमड़ पड़ा और उसे ज़ोर की रुलाई आ गई.

देखकर निशा से रहा नहीं गया. वह मां की तरफ बढ़ी. दोनों मां बेटी इस तरह गले मिलीं जैसे दोनों को एक दूसरे से कोई शिकवा शिकायत ही ना हो. शब्द साथ नहीं दे रहे थे. बस कुछ देर एक दूसरे से लिपट कर दोनों पूर्ण हो गई थी. अब निशा को जाना ही था क्योंकि कार काफी देर से स्टार्ट होकर खड़ी थी.

नए घर में पहुंचकर निशा को बहुत प्यार सम्मान मिला. शुरू के कुछ दिनों में उसे किसी भी काम में हाथ नहीं लगाने दिया. उसकी छोटी प्यारी सी ननद अपनी मां के हर काम में हाथ बंटाती. धीरे धीरे हाथों की मेहंदी का रंग छूटने के साथ-साथ नेहा भी घर परिवार की ज़िम्मेदारियों में शामिल हो गई. जबकि मां के घर में वह कोई भी काम नहीं करती थी मगर ससुराल तो ससुराल ही होता है. शुरुआत में कुछ कठिनाई भी आई.
कई बार वह रो पड़ती थी कि अपनी समस्या किसे बताएं.. क्योंकि अपनी मां को तो उसने पूर्ण रूप से तिरस्कृत किया हुआ था.

मां ने कई बार प्रयास किया था कि निशा घर के थोड़े बहुत काम सीख ले परंतु ढाक के वही तीन पात. जब कुछ छोटी थी तो पापा के लाड प्यार की वजह से और फिर बड़ी होने पर मां से एक अनकही रंजिश होने के नाते. यूं निशा को काम करने में कोई परेशानी नहीं थी परंतु वह मां से कुछ नहीं सीखना चाहती थी. न जाने क्यों उन्हें अपना दुश्मन समझने लगी थी वह.

विवाह को लगभग  बीस दिन बीत चुके थे. निशा की सास उसे एक बड़ा सा डिब्बा देते हुए बोली,”बेटा, यह बाॅक्स तुम्हारी मां ने तुम्हें सरप्राइस के तौर पर दिया है. तुम्हीं इसे खोलना और देखना इसमें क्या है. अपने सारे जेवर डिब्बे में रख देना. लॉकर में रखवा देंगे. घर में  रखना सुरक्षित नहीं होगा.”शाम को जब निशा अपने जेवर डिब्बे में करीने से संभाल रही थी तो उसने वह बाॅक्स  भी खोला. वह देखकर अवाक रह गयी. डिब्बे में सुंदर से सोने और हीरे के जेवरात थे और साथ में एक संक्षिप्त पत्र भी.

यह पत्र उसकी मां रीता ने लिखा था. “प्यारी निशा, तुम्हारे पापा का मुझसे शादी करने का मकसद सिर्फ इतना था कि उनकी अनुपस्थिति में मैं तुम्हारी देखभाल कर सकूं. अब तुम्हारा विवाह हो चुका है. समय के साथ धीरे धीरे समझ जाओगी कि एक पिता के लिए अकेले संतान को पालना कितना मुश्किल होता है. मां तो सिर्फ मां होती है. यह सौतेला शब्द तो हमारे समाज ने ही गढ़ा है. पूर्वाग्रह से ग्रसित यह भावना किसी स्त्री को जाने समझे बगैर ही खलनायिका बना देती है. तुम्हारा विदाई के समय मुझसे लिपटना मुझे उम्र भर की खुशी दे गया. मेरा बचपन भी कुछ तुम्हारी ही तरह बीता है.  सदा सुखी रहना. अपनी मां से मिलने कब आ रही हो.”

वह सोच में पड़ गई. उसकी आंखों से आंसू बहने लगे. उसे  इन गहनों में से ममत्व की सुगंध आने लगी. वह काफी देर तक उन्हें देखती रही. इनमें से कुछ गहने उसकी अपनी मां के थे और अधिकतर नई मां के, जिसे उसने मां तो कभी माना ही नहीं.

दरअसल, निशा के जीवन में दुखद मोड़ तब आया जब बारह वर्ष की उम्र में उसकी मां की मृत्यु हो गई थी. लाड प्यार से पली इकलौती संतान कुदरत के इस अन्याय को सहने की समझ भी नहीं रखती थी. पिता राजेश भी परेशान. एक तो पत्नी की असमय मृत्यु का ग़म, दूसरा बारह साल की बिटिया को पालने की ज़िम्मेदारी. ऐसी कच्ची उम्र जब बच्चे कई तरह के शारीरिक और मानसिक परिवर्तनों से गुजरते हैं, एक पिता के लिए बहुत ही मुश्किल हो जाता है ऐसे में खासकर बिटिया का लालन पालन करना.

कुछ लोगों ने सलाह दी कि वह निशा की मौसी से विवाह कर ले.
क्योंकि अपनी बहन की संतान को जितने प्यार से वह पालेगी,  ऐसा कोई दूसरी महिला नहीं कर सकती. परंतु निशा की मौसी उसके पिता से उम्र में बहुत छोटी थी इसलिए राजेश जी को यह मंजूर नहीं था. खैर, समय की मांग को देखते हुए रीता के साथ निशा के पिता राजेश का पुनर्विवाह सादे समारोह में हो गया.
मां को गए अभी सिर्फ एक ही साल हुआ था. निशा की यादों में मां की हर बात जिंदा थी. इकलौती संतान होने की वजह से माता पिता का संपूर्ण प्यार उसी पर निछावर था.

राजेश ने रीता के साथ विवाह तो किया परंतु निशा को किसी भी मनोवैज्ञानिक संकट में वह नहीं डालना चाहते थे. रीता भी ख़ुद  बहुत समझदार थी. इधर निशा भावनात्मक मानसिक और शारीरिक तौर पर आने वाले बदलावों से गुजर रही थी. मां उसे भावनात्मक सहारा देने का भरसक प्रयास करती  परंतु निशा हर बार मां को ठुकरा देती है. अकेली अकेली उदास सी रहती थी वह. नई मां कभी पिता से हंसकर,खिलाकर बात करती तो निशा परेशान हो उठती. उसे लगता कि इस महिला ने आकर उसकी मां की जगह ले ली है.

निशा की मां की साड़ियां राजेश के कहने पर अगर रीता ने पहन लीं तो निशा आग बबूला हो उठती. यह सब देख कर रीता ने अपने आप को बहुत  संयमित कर लिया था. वह नहीं चाहती थी कि किशोरावस्था में किसी बच्चे के दिमाग पर कोई गलत असर पड़े. समय के साथ साथ निशा का अकेलापन दूर करने के लिए एक छोटा भाई आ चुका था. आश्चर्य कि छोटे भाई से निशा को कोई शिकायत नहीं थी. वह उसके साथ खेलती और अब थोड़ा खुश रहने लगी थी. लेकिन मां के प्रति अपने व्यवहार को वह नहीं बदल पाई थी.

बाईस वर्ष की उम्र पूरी होने पर घरवालों से विचार विमर्श के बाद निशा का विवाह तय कर दिया गया. निशा ने भी कोई अरुचि नहीं दिखाई. वह तो मानो नई मां से छुटकारा पाना चाहती थी.
आज इन गहनों को संभालते वक्त वह सोचने लगी कि अपनी मां की साड़ी तक वह  नई  मां को नहीं पहने देती थी और इस अनचाही मां ने तो उसे खूब लाड प्यार से पाला. कभी अपने बेटे और उसमें कोई फर्क नहीं किया. विवाह के समय अपनी सुंदर कीमती साड़ियां और भारी गहने सब उसी को सौंप दिए, जैसा कोई असली मां करती है.

तभी सासु मां ने उसे आवाज देकर दरवाज़े पर अपनी उपस्थिति का एहसास कराया. निशा का उदासीन चेहरा देखकर वह बोली,”अरे बेटा, क्या बात है…? मैंने लॉकर वाली बात कहकर तुम्हारा दिल तो नहीं दुखाया.. दरअसल घर में इतना कीमती सामान रखना असुरक्षित है इसीलिए मैंने ऐसा कह दिया.”
“अरे नहीं मम्मी, ऐसी बात नहीं है.” कहकर वह अटक गई.
आगे और कहती भी क्या..? कैसे कह देती कि जिस मां ने अपना सर्वस्व उसके लालन-पालन में लुटा दिया उससे वह इतनी नफ़रत करती थी कि पश्चात करने की भी कोई राह ही नहीं सूझ रही है .

खैर, सासू मां समझदार थी. सब जानते हुए भी वे अनजान ही बनी रहीं. इधर निशा के अंदर उधेड़बुन चलती रही. शाम को अजय आकर बोला,”अगले दो-तीन दिन में हम तुम्हारे घर मम्मी पापा से मिलने चल रहे हैं.” दरअसल अजय की मां ने ही उसे निशा को मां के घर ले जाने की सलाह दी थी. वह धीरे से बोली, “ठीक है.” मगर मन ही मन बड़ी शर्मिंदा हो रही थी कि कैसे सामना करूंगी मां का.

अगले दिन सुबह मौसी का फोन आया. निशा आत्मग्लानि से भरी हुई थी. उसने मौसी से मां का जिक्र किया. तब मौसी ने ही उसे बताया कि अजय के साथ उसका विवाह उसकी मां रीता ने ही तय किया था. दरअसल अजय की मां रीता की बचपन की सहेली थी. अजय की मां का विवाह तो समय से हो गया परंतु यह रीता का दुर्भाग्य था कि बहुत ही छोटी उम्र में उसकी मां की मृत्यु हो गई. पिता ने दूसरा विवाह नहीं किया. पारिवारिक सदस्यों के साथ मिलकर खुद ही अपनी बेटी को पालने की ज़िम्मेदारी ली. परिवार के बीच में रीता की परवरिश तो ठीक-ठाक हो गई परंतु उसके विवाह में देरी होती रही. क्योंकि दादा दादी की मृत्यु हो चुकी थी . ताऊ ताई अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए थे .अब रह गए थे रीता और उसके पिता. वह पिता को छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहती थी.

अधिक उम्र हो जाने पर भी लड़की के लिए लड़का मिलना कभी-कभी मुश्किल काम साबित हो जाता है. इसीलिए जब राजेश की पहली पत्नी की मृत्यु हुई, तब रीता का विवाह उनके साथ इस शर्त पर हुआ कि उनकी बेटी निशा को अपनी बेटी की मान कर पालेगी. और रीता ने यह ज़िम्मेदारी बखूबी निभाई. कुछ वर्ष बाद अपना बेटा होने के बावजूद भी उसने दोनों बच्चों में कभी कोई फर्क नहीं किया. और आज भी यह रीता ही थी जिसने निशा का रिश्ता अपनी सहेली के बेटे अजय से करवाया था ताकि वह स्वयं अपनी बेटी के भविष्य को लेकर आशान्वित रहे. परंतु यह बात परिवार के किसी भी सदस्य ने निशा को नहीं बताई थी क्योंकि उसे तो नई मां से अत्यधिक बैर था. फिर वह ये बात कैसे बर्दाश्त करती…?
यह जानकार निशा अत्यधिक दुखी और शर्मिंदा थी. उसने साहस करके मां को फोन मिलाया. उधर से मां की प्यारी सी आवाज़ आई,” बेटा, रिश्तो को सहेजने की कोई उम्र नहीं होती. जब भी अवसर मिले, इन्हें संवार लो.”
शायद मां इससे आगे कुछ नहीं बोल पाई और इधर निशा मायके जाने की तैयारी में जुट गई. क्योंकि उधर ममता का आंगन बांह  पसारे उसके इंतज़ार में था.

Mother’s Day 2023: मां को दें सेहत का तोहफा

हर मां अपने बच्चों के लिए दिनभर भागदौड़ करती है अपना ख्याल रखे बिना. और अगर आपकी मां बीमार पड़ जाए तो ऐसा लगता है कि आपके सारे काम रूक गए हो. इसीलिए आपकी हेल्थ के साथ-साथ आपकी मां की हेल्थ भी अच्छी होना जरूरी है. तो इस मदर्स डे अपनी मां की हेल्थ का ख्याल रखने के लिए आप उन्हें हेल्थ से जुड़े कुछ तोहफे गिफ्ट कर सकते हैं जो आपके मां की हेल्थ का ख्याल रखने के साथ-साथ उन्हें फिट भी बनाएगा.

  1. सुबह वौक के लिए गिफ्ट करें वौकिंग शूज 

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अगर आपकी मां को सुबह वौक पर जाना पसंद है, लेकिन वह डेली वियर के स्लीपर पहन कर जाती हैं, तो इस मदर्स डे आप अपनी मां को शूज यानी जूते गिफ्ट कर सकते हैं.

  1. योगा मैट यानी चटाई करें गिफ्ट

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सुबह योगा करने से हमारी हेल्थ अच्छी रहती है. हर कोई चाहता है कि वह थोड़ा समय निकालकर योगा करें और अगर आपकी मम्मी भी योगा करने की शौकीन है, लेकिन वह बिना योगा मैट के योगा करती हैं. तो इस मदर्स डे आप अपनी मम्मी को योगा मैट गिफ्ट कर सकते हैं, जिसे वह सुबह शाम योगा करने के लिए इस्तेमाल कर पाएंगी.

  1. हैल्थ वौच का है जमाना

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हेल्थ वौच से आप अपने डेली रूटीन और आप कितना वौक कर रहे हैं, आपकी हार्ट बीट कितनी है, इस पर ध्यान दे सकते हैं. यह आपकी मां के लिए एक बेस्ट गिफ्ट है, जिससे आप अपनी मां की हेल्थ का ख्याल बिना सामने रहे कर सकते हैं.

  1. नैक पिलो यानी गर्दन को आराम देने के लिए तकिया करें गिफ्ट

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अगर आपकी मां को गर्दन में दर्द की प्रौब्लम रहती हैं या आपकी मां वर्किंग वुमन है तो ये आपकी मां के लिए एक बेस्ट तोहफा होगा. इसे आप डेली लाइफ के लिए अपनी मां को गिफ्ट कर सकती हैं.

  1. घुटनों की प्रौब्लम के लिए गिफ्ट करें नी-पैड

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अक्सर बुढ़ापा आने के साथ ही कई बीमारियां बौडी को घेर लेती है. जिनमें घुटनों की प्रौब्लम बहुत सुनने को मिलती हैं. इसलिए अगर आपकी मां को भी घुटनों की प्रौब्लम है तो अपनी मां को नी पैड जरूर गिफ्ट करें.

Mother’s Day Special: गर्भदान- बच्ची के लिए कैसे निष्ठुर हो सकती है मां

‘‘नहीं, आरव, यह काम मुझ से नहीं होगा. प्लीज, मुझ पर दबाव मत डालो.’’ ‘‘वीनी, प्लीज समझने की कोशिश करो. इस में कोई बुराई नहीं है. आजकल यह तो आम बात है और इस छोटे से काम के बदले में हमारा पूरा जीवन आराम से गुजरेगा. अपना खुद का घर लेना सिर्फ मेरा ही नहीं, तुम्हारा भी तो सपना है न?’’

‘‘हां, सपना जरूर है पर उस के लिए…? छि…यह मुझ से नहीं होगा. मुझ से ऐसी उम्मीद न रखना.’’ ‘‘वीनी, दूसरे पहलू से देखा जाए तो यह एक नेक काम है. एक निसंतान स्त्री को औलाद का सुख देना, खुशी देना क्या अच्छा काम नहीं है?’’

‘‘आरव, मैं कोई अनपढ़, गंवार औरत नहीं हूं. मुझे ज्यादा समझाने की कोई आवश्यकता नहीं.’’ ‘‘हां वीनी, तुम कोई गंवार स्त्री नहीं हो. 21वीं सदी की पढ़ी हुई, मौडर्न स्त्री हो. अपना भलाबुरा खुद समझ सकती हो. इसीलिए तो मैं तुम से यह उम्मीद रखता हूं. आखिर उस में बुरा ही

क्या है?’’ ‘‘यह सब फालतू बहस है, आरव, मैं कभी इस बात से सहमत नहीं होने वाली हूं.’’

‘‘वीनी, तुम अच्छी तरह जानती हो. इस नौकरी में हम कभी अपना घर खरीदने की सोच भी नहीं सकते. पूरा जीवन हमें किराए के मकान में ही रहना होगा और कल जब अपने बच्चे होंगे तो उन को भी बिना पैसे हम कैसा भविष्य दे पाएंगे? यह भी सोचा है कभी?’’ ‘‘समयसमय की बात है, आरव, वक्त सबकुछ सिखा देता है.’’

‘‘लेकिन वीनी, जब रास्ता सामने है तो उस पर चलने के लिए तुम क्यों तैयार नहीं? आखिर ऐसा करने में कौन सा आसमान टूट पड़ेगा? तुम्हें मेरे बौस के साथ सोना थोड़े ही है?’’ ‘‘लेकिन, फिर भी 9 महीने तक एक पराए मर्द का बीज अपनी कोख में रखना तो पड़ेगा न? नहींनहीं, तुम ऐसा सोच भी कैसे सकते हो?’’

‘‘कभी न कभी तुम को बच्चे को 9 महीने अपनी कोख में रखना तो है ही न?’’ ‘‘यह एक अलग बात है. वह बच्चा मेरे पति का होगा. जिस के साथ मैं ने जीनेमरने की ठान रखी है. जिस के बच्चे को पालना मेरा सपना होगा, मेरा गौरव होगा.’’

‘‘यह भी तुम्हारा गौरव ही कहलाएगा. किसी को पता भी नहीं चलेगा.’’ ‘‘लेकिन मुझे तो पता है न? नहीं, आरव, मुझ से यह नहीं होगा.’’

पिछले एक हफ्ते से घर में यही एक बात हो रही थी. आरव वीनी को समझाने की कोशिश करता था. लेकिन वीनी तैयार नहीं हो रही थी. बात कुछ ऐसी थी. मैडिकल रिपोर्ट के मुताबिक आरव के बौस की पत्नी को बच्चा नहीं हो सकता था. और साहब को किसी अनाथ बच्चे को गोद लेने का विचार पसंद नहीं था. न जाने किस का बच्चा हो, कैसा हो. उसे सिर्फ अपना ही बच्चा चाहिए था. साहब ने एक बार आरव की पत्नी वीनी को देखा था. साहब को सरोगेट मदर के लिए वह एकदम योग्य लगी थी. इसीलिए उन्होंने आरव के सामने एक प्रस्ताव रखा. यों तो अस्पताल किसी साधारण औरत को तैयार करने के लिए तैयार थे पर साहब को लगा था कि उन औरतों में बीमारियां भी हो सकती हैं और वे बच्चे की गर्भ में सही देखभाल न करेंगी. प्रस्ताव के मुताबिक अगर वीनी सरोगेट मदर बन कर उन्हें बच्चा देती है तो वे आरव को एक बढि़या फ्लैट देंगे और साथ ही, उस को प्रमोशन भी मिलेगा.

बस, इसी लालच में आरव वीनी के पीछे पड़ा था और वीनी को कैसे भी कर के मनाना था. यह काम आरव पिछले एक हफ्ते से कर रहा था. लेकिन इस बात के लिए वीनी को मनाना आसान नहीं था. आरव कुछ भी कर के अपना सपना पूरा करना चाहता था. लेकिन वीनी मानने को तैयार ही नहीं थी. ‘‘वीनी, इतनी छोटी सी बात ही तो है. फिर भी तुम क्यों समझ नहीं रही हो?’’

‘‘आरव, छोटी बात तुम्हारे लिए होगी. मेरे लिए, किसी भी औरत के लिए यह छोटी बात नहीं है. पराए मर्द का बच्चा अपनी कोख में रखना, 9 महीने तक उसे झेलना, कोई आसान बात नहीं है. मातृत्व का जो आनंद उस अवस्था में स्त्री को होता है, वह इस में कहां? अपने बच्चे का सपना देखना, उस की कल्पना करना, अपने भीतर एक रोमांच का एहसास करना, जिस के बलबूते पर स्त्री प्रसूति की पीड़ा हंसतेहंसते झेल सकती है, यह सब इस में कहां संभव है? आरव, एक स्त्री की भावनाओं को आप लोग कभी नहीं समझ सकते.’’ ‘‘और मुझे कुछ समझना भी नहीं है,’’ आरव थोड़ा झुंझला गया.

‘‘फालतू में छोटी बात को इतना बड़ा स्वरूप तुम ने दे रखा है. ये सब मानसिक, दकियानूसी बातें हैं. और फिर जीवन में कुछ पाने के लिए थोड़ाबहुत खोना भी पड़ता है न? यहां तो सिर्फ तुम्हारी मानसिक भावना है, जिसे अगर तुम चाहो तो बदल भी सकती हो. बाकी सब बातें, सब विचार छोड़ दो. सिर्फ और सिर्फ अपने आने वाले सुनहरे भविष्य के बारे में सोचो. अपने घर के बारे में सोचो. यही सोचो कि कल जब हमारे खुद के बच्चे होंगे तब हम उन का पालन अच्छे से कर पाएंगे. और कुछ नहीं तो अपने बच्चे के बारे में सोचो. अपने बच्चे के लिए मां क्याक्या नहीं करती है?’’ आरव साम, दाम, दंड, भेद कोई भी तरीका छोड़ना नहीं चाहता था.

आखिर न चाहते हुए भी वीनी को पति की बात पर सहमत होना पड़ा. आरव की खुशी का ठिकाना न रहा. अब बहुत जल्द सब सपने पूरे होने वाले थे. अब शुरू हुए डाक्टर के चक्कर. रोजरोज अलग टैस्ट. आखिर 2 महीनों की मेहनत के बाद तीसरी बार में साहब के बीज को वीनी के गर्भाशय में स्थापित किए जाने में कामयाबी मिल गई. आईवीएफ के तीसरे प्रयास में आखिर सफलता मिली.

वीनी अब प्रैग्नैंट हुई. साहब और उन की पत्नी ने वीनी को धन्यवाद दिया. वीनी को डाक्टर की हर सूचना का पालन करना था. 9 महीने तक अपना ठीक से खयाल रखना था. वीनी के उदर में शिशु का विकास ठीक से हो रहा था, यह देख कर सब खुश थे. लेकिन वीनी खुश नहीं थी. रहरह कर उसे लगता था कि उस के भीतर किसी और का बीज पनप रहा है, यही विचार उस को रातदिन खाए जा रहा था. जिंदगी के पहले मातृत्व का कोई रोमांच, कोई उत्साह उस के मन में नहीं था. बस, अपना कर्तव्य समझ कर वह सब कर रही थी. डाक्टर की सभी हिदायतों का ठीक से पालन कर रही थी. बस, उस के भीतर जो अपराधभाव था उस से वह मुक्ति नहीं पा रही थी. लाख कोशिशें करने पर भी मन को वह समझा नहीं पा रही थी.

आरव पत्नी को समझाने का, खुश रखने का भरसक प्रयास करता रहता पर एक स्त्री की भावना को, उस एहसास को पूरी तरह समझ पाना पुरुष के लिए शायद संभव नहीं था.

वीनी के गर्भ में पलबढ़ रहा पहला बच्चा था, पहला अनुभव था. लेकिन अपने खुद के बच्चे की कोई कल्पना, कोई सपना कहां संभव था? बच्चा तो किसी और की अमानत था. बस, पैदा होते ही उसे किसी और को दे देना था. वीनी सपना कैसे देखती, जो अपना था ही नहीं. बस, वह तो 9 महीने पूरे होने की प्रतीक्षा करती रहती. कब उसे इस बोझ से मुक्ति मिलेगी, वीनी यही सोचती रहती. मन का असर तन पर भी होना ही था. डाक्टर नियमितरूप से सारे चैकअप कर रहे थे. कुछ ज्यादा कौंप्लीकेशंस नहीं थे, यह अच्छी बात थी. साहब और उन की पत्नी भी वीनी का अच्छे से खयाल रखते. जिस से आने वाला बच्चा स्वस्थ रहे. लेकिन भावी के गर्भ में क्या छिपा है, कौन जान सकता है. होनी के गर्भ से कब, कैसी पल का प्रसव होगा, कोई नहीं कह सकता है.

वीनी और आरव का पूरा परिवार खुश था. किसी को सचाई कहां मालूम थी? सातवें महीने में बाकायदा वीनी की गोदभराई भी हुई. जिस दिन की कोई भी स्त्री उत्साह के साथ प्रतीक्षा करती है, उस दिन भी वीनी खुश नहीं हो पा रही थी. अपने स्वजनों को वह कितना बड़ा धोखा दे रही थी. यही सोचसोच कर उस की आंखें छलक जाती थीं.

गोदभराई की रस्म बहुत अच्छे से हुई. साहब और उन की पत्नी ने उसी दिन नए फ्लैट की चाबी आरव के हाथ में थमाई. आरव की खुशी का तो पूछना ही क्या? आरव पत्नी की मनोस्थिति नहीं समझता था, ऐसा नहीं था. उस ने सोचा था, बस 2 ही महीने निकालने हैं न. फिर वह वीनी को ले कर कहीं घूमने जाएगा और वीनी धीरेधीरे सब भूल जाएगी. और फिर से वह नौर्मल हो जाएगी.

आरव फ्लैट देख कर खुशी से उछल पड़ा था. उस की कल्पना से भी ज्यादा सुंदर था यह फ्लैट. बारबार कहने पर भी वीनी फ्लैट देखने नहीं गई थी. बस, मन ही नहीं हो रहा था. उस मकान की उस ने बहुत बड़ी कीमत चुकाई थी, ऐसा उस को प्रतीत हो रहा था. बस, जैसेतैसे 2 महीने निकल जाएं और वह इन सब से मुक्त हो जाए. नियति एक स्त्री की भावनाओं के साथ यह कैसा खेल खेल रही थी, यही खयाल उस के दिमाग में आता रहता था. इसी बीच, आरव का प्रमोशन भी हो चुका था. साहब ने अपना वादा पूरी ईमानदारी से निभाया था.

लेकिन 8वां महीना शुरू होते ही वीनी का स्वास्थ्य बिगड़ा. उस को अस्पताल में भरती होना पड़ा. और वहां वीनी ने एक बच्ची को जन्म दिया. बच्ची 9 महीना पूरा होने से पहले ही आ गई थी, इसीलिए बहुत कमजोर थी. बड़ेबड़े डाक्टरों की फौज साहब ने खड़ी कर दी थी. बच्ची की स्थिति धीरेधीरे ठीक हो रही थी. अब खतरा टल गया था. अब साहब ने बच्ची मानसिकरूप से नौर्मल है या नहीं, उस का चेकअप करवाया. तभी पता चला कि बच्ची शारीरिकरूप से तो नौर्मल है लेकिन मानसिकरूप से ठीक नहीं है. उस के दिमाग के पूरी तरह से ठीक होने की कोई संभावना नहीं है.

यह सुनते ही साहब और उन की पत्नी के होश उड़ गए. वे लोग ऐसी बच्ची के लिए तैयार नहीं थे. साहब ने आरव को एक ओर बुलाया और कहा कि बच्ची का उसे जो भी करना है, कर सकता है. ऐसी बच्ची को वे स्वीकार नहीं कर सकते. अगर उस को भी ऐसी बच्ची नहीं चाहिए तो वह उसे किसी अनाथाश्रम में छोड़ आए. हां, जो फ्लैट उन्होंने उसे दिया है, वह उसी का रहेगा. वे उस फ्लैट को वापस मांगने वाले नहीं हैं.

आरव को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्या करना चाहिए? साहब और उन की पत्नी तो अपनी बात बता कर चले गए. आरव सुन्न हो कर खड़ा ही रह गया. वीनी को जब पूरी बात का पता चला तब एक पल के लिए वह भी मौन हो गई. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे?

तभी नर्स आ कर बच्ची को वीनी के हाथ में थमा गई. बच्ची को भूख लगी थी. उसे फीड कराना था. बच्ची का मासूम स्पर्श वीनी के भीतर को छू गया. आखिर अपने ही शरीर का एक अभिन्न हिस्सा थी बच्ची. उसी के उदर से उस ने जन्म लिया था. यह वीनी कैसे भूल सकती थी. बाकी सबकुछ भूल कर वीनी ने बच्ची को अपनी छाती से लगा लिया. सोई हुई ममता जाग उठी. दूसरे दिन आरव ने वीनी के पास से बच्ची को लेना चाहा और कहा, ‘‘साहब, उसे अनाथाश्रम में छोड़ आएंगे और वहां उस की अच्छी देखभाल का बंदोबस्त भी करेंगे. मुझे भी यही ठीक लगता है.’’

‘‘सौरी आरव, यह मेरी बच्ची है, मैं ने इसे जन्म दिया है. यह कोई अनाथ नहीं है,’’ वीनी ने दृढ़ता से जवाब दिया. ‘‘पर वीनी…’’

‘‘परवर कुछ नहीं, आरव.’’ ‘‘पर वीनी, यह बच्ची मैंटली रिटायर्ड है. इस को हम कैसे पालेंगे?’’

‘‘जैसी भी है, मेरी है. मैं ही इस की मां हूं. अगर हमारी बच्ची ऐसी होती तो क्या हम उसे अनाथाश्रम भेज देते?’’ ‘‘लेकिन वीनी…’’

‘‘सौरी आरव, आज कोई लेकिनवेकिन नहीं. एक दिन तुम्हारी बात मैं ने स्वीकारी थी. आज तुम्हारी बारी है. यह हमारे घर का चिराग बन कर आई है. हम इस का अनादर नहीं कर सकते. जन्म से पहले ही इस ने हमें क्याक्या नहीं दिया है?’’ आरव कुछ पल पत्नी की ओर, कुछ पल बच्ची की ओर देखता रहा. फिर उस ने बच्ची को गोद में उठा लिया और प्यार करने लगा.

‘‘वीनी, हम इस का नाम क्या रखेंगे?’’ वीनी बहुत लंबे समय के बाद मुसकरा रही थी.

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