खांस-खांसकर बुरा हाल है तो इसे हल्के में न लें, हो सकते हैं कैंसर के संकेत

शिवानी हर समय गले में दर्द और खांसी रहने की समस्या से परेशान रहती थी. उसने पहले घरेलू नुस्खे अपनाये. फिर आराम न मिलने पर डाक्टर से मिली और बोला,” डॉक्टर साब इतनी दवाइयां कर लीं पर आराम नहीं.”

इस पर डॉक्टर ने कहा,”थ्रोट कैंसर यानी गले के कैंसर में कई तरह के कैंसर शामिल होते हैं जिसमें लैरिनिक्स, फैरिनिक्स और टॉन्सिल्स के कैंसर होते हैं. इनके अलग-अलग लक्षण होते हैं जिनसे कैंसर का पता चलता है. इन लक्षणों पर ध्यान देकर तुरंत इलाज की जरूरत होती है. मैक्स सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल, साकेत , हेड व नेक कैंसर के सर्जन डॉक्टर अक्षत मलिक का मानना है कि इन लक्षणों को पहचानकर इसका इलाज कराना बेहद महत्वपूर्ण है.

गले के कैंसर के जो लक्षण होते हैं हालांकि दूसरी अन्य बीमारियों के कारण भी सामने आते हैं, लेकिन अगर ये लक्षण लगातार 2-3 हफ्तों तक दिखाई दे और वक्त के साथ-साथ हालात बिगड़ते जाएं तो इन्हें दरकिनार नहीं करना चाहिए.

लक्षण

लगातार आवाज बैठना या आवाज में बदलाव: अगर किसी का गला लगातार बैठा रहता है या आवाज दबी रहती है तो इस पर ध्यान देने की जरूरत है.

गला सूखा: अगर गला सूखा रहने की परेशानी पुरानी है या फिर लगातार ऐसा रहता है और सामान्य इलाज से भी ठीक नहीं होता तो इसे इग्नोर न करें.

निगलने में समस्या: अगर खाना निगलने में दिक्कत हो रही है तो ये ट्यूमर के लक्षण हो सकते हैं.

लगातार खांसी: आमतौर पर लोग खांसी बहुत हल्के में लेते हैं लेकिन अगर सांस की दिक्कत आदि न हो और फिर भी लगातार खांसी रहती है तो दिखाने की जरूरत है.

एस्पिरेशन: कुछ निगलने पर खांसी आती है तो समस्या है. ऐसा हवा के पाइप में खाना जाने के कारण भी हो सकता है.

कान में दर्द: एक या दोनों कानों में बिना किसी खास वजह के दर्द होना भी गले में समस्या के कारण हो सकता है.

वजन कम होना: अचानक यूं ही वजन कम हो जाना, खाना निगलने में परेशानी और खाने की आदतों में बदलाव भी कैंसर के लक्षण हो सकते हैं.

गर्दन में गांठ: अगर गर्दन में गांठ हो या सूजन हो तो ये बढ़े हुए लिम्फ नोड्स के कारण हो सकता है और इससे कैंसर फैलने के संकेत मिलते हैं.

सांस लेने में कठिनाई: अगर गले का कैंसर एडवांस स्टेज में हो तो इससे सांस की समस्या भी हो सकती है.

लगातार सांस में बदबू: अगर आप टूथब्रश करते हैं और मुंह साफ करने के अन्य तरीके भी अपनाते हैं और फिर सांसों में बदबू रहती है तो ये चिंता का कारण हो सकता है.

डॉक्टर के मुताबिक ये सभी लक्षण किसी कम गंभीर बीमारी के कारण भी हो सकते हैं. लेकिन अगर ऐसा होता है तो डॉक्टर को जरूर दिखाएं. ऐसा करने से ट्यूमर होने की स्थिति में जल्दी डायग्नोज हो जाएगा और इलाज से इसे ठीक करना संभव रहेगा. वहीं, जो लोग स्मोकिंग करते हैं, तंबाकू का सेवन करते हैं, शराब पीते हैं वैसे लोग रेगुलर चेकअप कराएं और अपनी सेहत की मॉनिटरिंग रखें.

अपनी सेहत को सबसे ऊपर रखें, अवेयरनेस बढ़ाएं, समय पर डॉक्टर से सलाह लें और बेहतर इलाज लें ताकि गले के कैंसर के खिलाफ लड़ाई को जीता जा सके.

केसर से लेकर तेजपत्ता तक, इन 12 मसालों से बनाएं अपनी सेहत

भारतीय भोजन में मसालों का इस्तेमाल हजारों सालों से हो रहा है. इन के इस्तेमाल का मकसद सिर्फ भोजन के स्वाद को बढ़ाना ही नहीं होता, ये भोजन के विकारों को कम कर के उन के गुणों को भी बढ़ाते हैं. साथ ही सेहत से जुड़ी छोटे स्तर पर होने वाली समस्याओं का निदान भी इन मसालों में होता हैं.

हालांकि आज के युग में मिर्चमसाले, घीतेल का प्रयोग दिनबदिन कम होता जा रहा है. कैलोरी की मात्रा तथा आहार की पौष्टिकता ही भोजन की परख है. पर निरंतर हो रहे कई शोधों से पता चलता है कि यदि किसी मसाले का उपयुक्त मात्रा में भोजन में समावेश किया जाए तो वह सेहत के लिए अच्छा रहता है.

आइए जानें कुछ प्रचलित मसालों के बारे में और यह कि उन का कैसे इस्तेमाल कर स्वाद के साथ सेहत का भी ध्यान रखा जा सकता है.

1. दालचीनी

दालचीनी एक ऐसा मसाला है जो गरम तासीर वाला तथा गरम मसाले का अंश है. अगर पुलाव बना रही हों तो उस के साथ खाए जाने वाले रायते में इस का चुटकी भर पाउडर डालें, स्वाद बढ़ जाएगा. ब्रैड पर मक्खन के ऊपर इस का थोड़ा सा पाउडर बुरकें, कौफी के ऊपर चुटकी भर डालें और चौप बनाते समय भी इस को थोड़ा सा डालें स्वाद बढ़ जाएगा. सेब की खीर या मिल्कशेक बनाते समय भी इस के पाउडर को प्रयोग में लाएं.

2. कालीमिर्च

कालीमिर्च गरममसाले का अंश तो है ही, साथ ही इस का प्रयोग सब्जी में साबूत मसाले डालते समय और पाश्चात्य व्यंजनों व सलाद आदि में पिसी कालीमिर्च पाउडर के रूप में होता है. कालीमिर्च 2 प्रकार की होती है. एक तो वह जिस में इस के अधपके दानों को सुखा कर रखा जाता है तो वे काले हो जाते हैं और दूसरी वह जब इस के दाने पूरी तरह पक जाते हैं, तो उस की ऊपरी सतह यानी काला छिलका आसानी से उतर जाता है. पक जाने पर कालीमिर्च की अपेक्षा सफेदमिर्च में ज्यादा गुण पाए जाते हैं.

पकौड़े बनाते समय सफेदमिर्च व कालीमिर्च पाउडर डालें. दाल में तड़का लगाते समय मोटी कुटी कालीमिर्च के 4-5 दाने डालें. स्वाद बढ़ जाएगा. सूप में फ्रैश पिसी कालीमिर्च और मठरी बनाते समय भी कालीमिर्च पाउडर डाल सकते हैं. इस से स्वाद अच्छा आएगा. लड्डू बनाते समय सफेद व कालीमिर्च का पाउडर डालें.

3. अर्जुन की छाल

यह एक प्रकार का पेड़ है, जो हिमालय की तलहटी, उत्तर प्रदेश, बंगाल, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार आदि में बहुतायत में पाया जाता है. इस पेड़ की छाल खूब प्रयोग में लाई जाती है. इस पर हुए शोधों से पता चला है कि यह विटामिन ई के बराबर ऐंटीऔक्सिडैंट का काम करती है, इसलिए इस का पाउडर बना कर प्रयोग में लाया जाता है.

1 लिटर पानी में 1 से 2 चम्मच छाल पाउडर डाल कर पानी आधा रहने तक उबालें और दिन में 2 बार पिएं. इस के अलावा इसे टोमैटो जूस व दूध में डाल कर भी पिया जा सकता है और चाय में भी इस का प्रयोग किया जा सकता है.

4. कलौंजी

कलौंजी के दाने सरसों के बीज की तरह होते हैं. उन में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट अच्छी मात्रा में पाया जाता है. इस के अलावा कैल्सियम, पोटैशियम, मैग्नीशियम आदि भी उन में होते हैं. कलौंजी का स्वाद प्याज, कालीमिर्च और ओरिगैनो का मिलाजुला होता है. वैसे कई अचारों में इस का प्रयोग होता है, लेकिन इस के बिना आम का अचार अधूरा लगता है. इस के अलावा नान, पूरी बनाते समय इस के थोडे़ दाने डालने से उन का स्वाद अच्छा रहता है. इस के थोड़े से दाने डाल कर चाय बना कर पीने से मानसिक तनाव में कमी आती है. कलौंजी का तेल भी कई तरह से प्रयोग में लाया जाता है. अगर कुछ नया करना चाहें तो पंचमेल दाल में इस का तड़का लगाएं. अच्छा स्वाद आएगा.

5. जायफल व जावित्री

जायफल व जावित्री गरम मसाले का एक हिस्सा होते हैं. इन का प्रयोग विशेष डिशेज में ही होता है, लेकिन औषधि के रूप में इन का प्रयोग खूब किया जाता है. जायफल सुगंधित होता है और भारी जायफल ही अच्छा माना जाता है. जायफल के फल की छाल ही जावित्री कहलाती है.

बच्चे को जुकाम हो तो थोड़ा सा जायफल पत्थर पर घिस कर 1 बड़े चम्मच दूध में मिला कर पिलाने से उसे राहत मिलती है. नींद न आने की स्थिति में दूध में जायफल पाउडर, केसर और छोटी इलायची पाउडर डाल कर उबालें और सोते समय पी लें. साबूत मसालों का सब्जी में तड़का लगाते समय जावित्री का छोटा सा टुकड़ा डालें, तो अच्छा स्वाद आएगा.

6. जीरा

किचन में इस्तेमाल होने वाले मसालों में जीरा एक महत्त्वपूर्ण चीज है. यह तीखा और मीठी सुगंध वाला होता है. भारतीय भोजन के अलावा मैक्सिकन भोजन में भी जीरे का बहुत प्रयोग किया जाता है. जीरे में भरपूर आयरन पाया जाता है और यह पाचन में भी सहायक होता है.

जीरे का प्रयोग कई तरह से किया जाता है. एक तो दाल, सब्जी व चावल में तड़का लगाने के लिए, उस के अलावा कच्चा मसाला भूनते समय जीरा पाउडर के रूप में. छाछ, रायता, दहीभल्ला आदि में भुना हींगजीरा, पाउडर के रूप में इस्तेमाल होता है. जीरा किसी भी रूप में इस्तेमाल करें, यह सेहत के लिए अच्छा होता है. यह डायबिटीज के रोगियों व कब्ज की शिकायत वालों के लिए भी लाभकारी है. सर्दियों में इस का नियमित सेवन अच्छा रहता है.

7. राई

यह दालसब्जी में तड़का लगाने के लिए तथा अचारों में मसाले के साथ प्रयोग किया जाने वाला महत्त्वपूर्ण मसाला है. इस के उपयोग से आमाशय व आंतों पर उत्तेजक प्रभाव पड़ता है. फलस्वरूप भूख खुल जाती है. राई मुख्यतया 2 प्रकार की होती है. एक काली और दूसरी पीली. काली राई आमतौर पर तड़के के काम आती है. दक्षिण भारतीय व्यंजनों में उस का इस्तेमाल खूब किया जाता है. जबकि पीली राई, जिसे सरसों के दाने भी कहते हैं, का इस्तेमाल अचार, कुछ दही के रायतों, चटनी, कांजी आदि में पाउडर बना कर किया जाता है. समुद्री भोजन के साथ जब सरसों के दानों को पकाया जाता है, तो मछली आदि में ओमेगा-3 की मात्रा बढ़ जाती है.

सांभर, दाल, उपमा आदि में काली राई का तड़का अच्छा रहता है. पीली राई का तड़का ढोकला, खांडवी आदि में किया जाता है. इस के अलावा इंस्टैंट मिर्च के अचार, लौकी के रायते में इस का पाउडर डालने से उन का स्वाद और बढ़ जाता है.

8. अजवाइन

यह पाचक, रुचिकर, गरम और तीखी होती है. इस के सेवन से गैस, गले की खराश आदि में काफी लाभ मिलता है. अजवाइन में कालीमिर्च तथा राई की उष्णता, चिरायते जैसी कड़वाहट (चिरायता एक पौधा है) और हींग की खूबियां, ये तीनों गुण होते हैं. अजवाइन का बघार देने से सब्जी का स्वाद व सुगंध बढ़ती है. यह सभी मसालों में श्रेष्ठ है, क्योंकि गरिष्ठ भोजन में इस का प्रयोग करने से उसे पचाने में आसानी होती है.

अरवी, केले की सब्जी, ग्वार की फली, जिमीकंद वगैरह में जब इस का छौंक लगाया जाता है तो उन का स्वाद तो बढ़ जाता ही है उन्हें पचाने में भी आसानी रहती है. तैयार राजमा में अजवाइन और कसूरी मेथी का तड़का स्वाद को बढ़ा देता है. इसी तरह काबुली चनों के मसाले में इस का पाउडर डालें या परांठों में इस को डालें, स्वाद और सेहत दोनों के लिए अच्छा रहेगा.

9. फ्लैक्स सीड्स (अलसी के बीज)

फ्लैक्स सीड्स (अलसी के बीज) का महत्त्व अब प्रकाश में आया है. पहले तो इन्हें जानवरों को खाने के लिए दिया जाता था, हाल के वर्षों में हुए शोधों से पता चला है कि इन में ओमेगा-3 फैटी एसिड प्रचुर मात्रा में पाए जाता है, जो सामान्यतया मछली में मिलता है. शाकाहारी लोगों के लिए अलसी के बीज सेहत के लिए बहुत फायदेमंद हैं.

इन बीजों को हलकी गैस पर रोस्ट कर के उन का पाउडर बनाएं. फिर उस को सलाद में डाल लें अथवा सब्जी के शोरबे में मिलाएं. रायते पर बुरकें अथवा आटे में मिलाएं. सेहत के लिए अच्छा रहेगा. जिन महिलाओं के जोड़ों में दर्द रहता है, उन के लिए तो यह बहुत फायदेमंद है. लेकिन इस का सेवन 1 दिन में 2 बड़े चम्मच से ज्यादा नहीं करना चाहिए.

10. केसर

सब से महंगे मसालों में एक है केसर. सर्दियों में जुकामखांसी में, तो गरमियों में ठंडाई में इस का सेवन बखूबी होता है. खजूर, मुनक्के और बादाम के साथ पके दूध में इस के चंद रेशे डालें क्योंकि यह एक बेहतरीन टौनिक होता है. इस की खूबी यह है कि जब ठंडी खीर या दूध में यह डाला जाता है तो यह ठंडक पहुंचाता है और सर्दी के मौसम में यदि यह गरम दूध में डाला जाए तो चमत्कारी गरमी पहुंचाता है. इस को शाही सब्जी, जाफरानी और पुलाव में भी प्रयोग करते हैं. इस के चंद धागों को गुलाबजल या कुनकुने दूध में भिगो कर 10 मिनट रखें फिर उसी में घोट कर डाल दें. स्वाद व खुशबू दोनों बढ़ जाएंगे.

11. सौंफ

सौंफ भी हमारे मसालों में खूब प्रयोग में आती है. मुखशुद्धि के अलावा सूखी सौंफ पाचनतंत्र पर प्रभावशाली असर डालती है. हमारी कई पारंपरिक सब्जियों में इस का प्रयोग पाउडर के रूप में होता है. साथ ही कई अचारों में भी इस को डालते हैं. मुख्यतया यह 2 प्रकार की होती है. एक मोटी सौंफ, जो भोजन के काम आती है और दूसरी बारीक सौंफ जिस को मुखशुद्धि के लिए प्रयोग में लाते हैं. इस के सेवन से कब्ज, पेटदर्द, गले की खराश, पित्त ज्वर, हाथपांव में जलन आदि में राहत मिलती है.

इस को करेले, गोभी व अचारी सब्जी आदि में प्रयोग किया जाता है. पंचफोड़न में भी सौंफ होती है. कुल मिला कर इस का प्रयोग सेहत और भोजन की स्वादिष्ठता को बढ़ाने के लिए होता है.

12. तेजपत्ता

इस का उपयोग भी लौंग, दालचीनी या बड़ी इलायची की भांति सुगंध व स्वाद बढ़ाने के लिए किया जाता है. विशेष रूप से इस का सेवन कफ प्रधान रोगों, अपचता, उदर रोग व पाचनतंत्र संबंधी रोगों के लिए फायदेमंद रहता है. लेकिन इस के ज्यादा पुराने पत्तों से खुशबू निकल जाती है.

सब्जी में खड़े गरम मसाले के साथ व पुलाव में इस का प्रयोग खूब होता है. पिसा मसाला भूनने से पहले कड़ाही में तेल में इस के 2-3 पत्ते डालें फिर मसाला भून कर सब्जी डालें. स्वाद बढ़ जाएगा.

उपरोक्त मसालों के अलावा और भी बहुत से मसाले ऐसे हैं. जिन का प्रयोग सब्जी बनाते समय होता है. जैसे मेथीदाना, खसखस, हरड़, हींग, मिर्च, बड़ी और छोटी इलायची, हलदी पाउडर, धनिया पाउडर आदि. ये सभी स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद हैं. बस जरूरत इस बात की होती है कि इन सब का प्रयोग सीमित मात्रा में सही तरीके से किया जाए. इस के अलावा मसालों को सही तरीके से रखें ताकि उन की खुशबू बरकरार रहे.

पोषक तत्वों का खजाना है मिलेट्स, जाने इसे कैसे करें खाने में शामिल

अच्छी सेहत के लिए सब से महत्त्वपूर्ण होता है कि आप क्या खा रहे हैं. यदि आप भी खाने में किसी हैल्दी औप्शन की तलाश कर रहे हैं तो nएक खाद्य अनाज जिसे आप को अपने आहार में शामिल करने की आवश्यकता है तो वह है मिलेट्स. मिलेट्स एक प्रकार का मोटा अनाज होता है जोकि गेहूं, चावल के समान होता है लेकिन उस में दूसरे अनाजों के मुकाबले अधिक पोषण और स्वास्थ्य लाभ होते हैं. मिलेट्स के कई प्रकार होते हैं जैसेकि ज्वार, बाजरा, रागी और प्रोसो मिलेट्स आदि.

मिलेट्स के बारे में सब से अच्छी बात यह है कि आप इसे खाने से कभी बोर नहीं हो सकते क्योंकि यह कई रूपों में उपलब्ध है और आसानी से पकाया जा सकता है. सभी तरह के मिलेट्स अलगअलग गुणों से भरपूर होते हैं. ये सब स्वास्थ्य के लिए समान रूप से अच्छे हैं और बेहद पौष्टिक हैं. तभी तो इसे ‘सुपर ग्रेन्स’ के रूप में जाना जाता है. अपने आहार में मिलेट्स का उपयोग कर के आप अपने स्वास्थ्य को बेहतर
बना सकते हैं.

मिलेट्स के प्रकार

ज्वार: ज्वार भारत में एक पौपुलर मिलेट्स है और इसे अकसर रोटी, डोसा और चावल के रूप में खाया जाता है. यह फाइबर और प्रोटीन का अच्छा स्रोत होता है और यह ग्लूटेन फ्री होता है जिस से ग्लूटेन ऐलर्जी वाले लोग भी इस का सेवन कर सकते हैं.

बाजरा: बाजरा विटामिन बी, फौलेट और ऐंटीऔक्सीडैंट्स का अच्छा स्रोत होता है. बाजरे को रोटी और खिचड़ी के रूप में खाया जाता है.

रागी: रागी उच्च प्रोटीन और कैल्सियम का स्रोत होता है. यह खासतौर पर साउथ इंडिया में पसंद किया जाता है और डोसा, इडली और रोटी के रूप में बना कर खाया जाता है.

कोरा: यह फाइबर और विटामिन का अच्छा स्रोत होता है. यह स्वादिष्ठ पुलाव और उपमा के रूप में खाया जा सकता है.

प्रोसो: यह विटामिंस, मिनरल्स और प्रोटीन का अच्छा स्रोत होता है.

मिलेट्स के हैल्थ बैनिफिट्स: मिलेट्स कई तरह से हमारी हैल्थ के लिए फायदेमंद है:

पौष्टिकता: मिलेट्स विटामिन ए, विटामिन बी, मिनरल्स, फास्फोरस, पोटैशियम, ऐंटीऔक्सीडैंट, नियासिन, कैल्सियम और आयरन, प्रोटीन और फाइबर का अच्छा स्रोत होता है. यह हमारे शरीर को सभी महत्त्वपूर्ण पोषक तत्त्व देता है और स्वास्थ्य को बेहतर बनाए रखने में मदद करता है. बाजरा में कई पोषक तत्त्वों का भंडार होता है.

वजन नियंत्रण: मिलेट्स का सेवन करने से वजन को नियंत्रित किया जा सकता है क्योंकि इस में फाइबर होता है जो भूख को कम करता है.

दिल का स्वास्थ्य: मिलेट्स खराब कोलैस्ट्रौल को कम करने में भी मदद करता है जो हृदयरोग के लिए एक जोखिम कारक है. इस में ऐंटीऔक्सीडैंट्स होते हैं जो दिल के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद करते हैं. इसे खाने से दिल की बीमारियों का रिस्क कम होता है.

मधुमेह में फायदेमंद: मिलेट्स में ग्लाइसेमिक इंडैक्स कम होता है जिस का अर्थ है कि उस का रक्त शर्करा के स्तर पर कम प्रभाव पड़ता है. यह मधुमेह वाले व्यक्तियों के लिए फायदेमंद हो सकता है.
कैंसर प्रतिरोधक: मिलेट्स में पाए जाने वाले ऐंटीऔक्सीडैंट्स कैंसर के खिलाफ लड़ाई में मदद कर सकते हैं.

पेट के लिए अच्छा: मिलेट्स में मौजूद अघुलनशील फाइबर प्रीबायोटिक के रूप में कार्य करता है जो आंत में अच्छे बैक्टीरिया का प्रवेश कराता है. मिलेट्स में फाइबर की प्रचुर मात्रा पाई जाती है. साबूत अनाज के रूप में सेवन करने पर फाइबर की मात्रा अधिक होती है और इस प्रकार यह पुरानी कब्ज के रोगियों के लिए फायदेमंद हो सकता है.

ग्लूटेन मुक्त विकल्प: यदि आप को सीलिएक रोग या ग्लूटेन संवेदनशीलता है तो बाजरा गेहूं और जौ जैसे ग्लूटेन युक्त अनाज का एक उत्कृष्ट विकल्प हो सकता है.

ऐंटीऔक्सीडैंट: मिलेट्स ऐंटीऔक्सीडैंट से भरपूर होता है जिस से इसे खाने से संभावित रूप से पुरानी बीमारियों का खतरा कम हो जाता है.

हड्डियों का स्वास्थ्य: मिलेट्स कैल्सियम और फास्फोरस जैसे आवश्यक खनिजों का एक स्रोत है जो स्वस्थ हड्डियों को बनाए रखने के लिए महत्त्वपूर्ण है.

कैसे खाएं मिलेट्स

मिलेट्स से तैयार किए जाने वाले विभिन्न पदार्थ खाने में स्वादिष्ठ होते हैं और स्वास्थ्यपूर्ण भी होते हैं. ये अपेक्षाकृत जल्दी पक जाते हैं और बिना किसी परेशानी के आप के दैनिक भोजन का हिस्सा बन सकते
हैं. आप इसे कई तरह से अपने आहार में शामिल कर सकते हैं.

मिलेट्स की रोटी, मिलेट्स की खिचड़ी, पुलाव, मिलेट्स की इडली, डोसा, उपमा और पोहे, मिलेट्स की ब्रैड, डैजर्ट्स, मिलेट्स का सूप आदि. सभी प्रकार के मिलेट्स को आप उपलब्धता के आधार पर अपने आहार में शामिल कर सकते हैं. यह पूरे साल बाजार में उपलब्ध रहता है. वैसे कुछ खास मिलेट्स खास मौसम में ज्यादा उपयोगी होता है मसलन:

सर्दी: सर्दी के लिए सब से अच्छा मक्का है. यह विशेष रूप से इसी समय उगाया जाता है. यह तासीर में भी गरम होता है.

गर्मी: पूरी गरमी में ज्वार और रागी का उपयोग करें. चिलचिलाती गरमी के दिनों में ये आप को हाइड्रेटेड रहने और आप के शरीर के तापमान को कम करने में मदद कर सकते हैं.

मिलेट्स खाने में कुछ सावधानियां भी जरूर रखें:

मिलेट्स अपने कई फायदों के कारण भोजन के लिए हैल्दी औप्शन है. लेकिन इसे खाने में कुछ सावधानियां रखनी भी जरूरी हैं तभी आप को इस का पूरा लाभ मिलेगा.

इस में मौजूद फाइटिक ऐसिड अन्य पोषक तत्त्वों के अवशोषण को कम कर सकता है. साथ ही यह कुछ लोगों के पेट के स्वास्थ्य के लिए भी परेशानी भरा हो सकता है. इसलिए इस को अपने आहार में शामिल करने से पहले उसे भिगोना चाहिए. भिगोने से उस में मौजूद फाइटिक ऐसिड की कमी होती है. मिलेट्स को भिगो कर, अंकुरित कर के खाने से इस के हानिकारक प्रभाव कम हो जाते हैं.

ज्वार और बाजरा वाले मिश्रण पर स्विच करने से पहले हलके अनाज जैसे रागी और फौक्सटेल बाजरा से शुरुआत करना बेहतर है. मिलेट्स में गोइट्रोजन भी होते हैं जो आयोडीन के अवशोषण में हस्तक्षेप कर सकते हैं जिसे खाना पकाने की प्रक्रिया में कम किया जा सकता है. इसलिए हाइपोथायरायडिज्म वाले लोगों को मिलेट्स से दूर रहना चाहिए.

मिलेट्स का सेवन करते समय भरपूर मात्रा में पानी पीना सुनिश्चित करें क्योंकि इस में फाइबर की मात्रा अधिक होती है. अगर आप मिलेट्स खाने के साथसाथ पानी नहीं पीते हैं तो इस से आप को पाचन संबंधी समस्या हो सकती है और निर्जलीकरण भी हो सकता है.

इम्यूनिटी बूस्ट करें

हमेशा फ्रैश मिलेट्स खाएं. कुछ लोगों की आदत होती है कि कई दिन पुराना मिलेट्स भी खा लेते हैं. ऐसा करना बिलकुल सही नहीं है. हमेशा ताजा मिलेट्स का सेवन करें. बिलकुल उसी तरह जैसे आप ताजा फल या सब्जियों का सेवन करते हैं.

मात्रा संतुलित रखें. मिलेट्स भले ही कई पोषक तत्त्वों का अच्छा स्रोत है, इस की मदद से इम्यूनिटी को बूस्ट किया जा सकता है, इस के बावजूद आप को यह सलाह दी जाती है कि अपनी डाइट में दूसरी तरहतरह की चीजों को भी शामिल करें जैसे दलिया, सलाद, फल आदि. इस से शरीर में पोषक तत्त्वों का बैलेंस बना रहेगा. डाइट में मिलेट्स के साथसाथ प्रोटीन, फैट और बैलेंस्ड डाइट का भी संतुलन बनाए रखें.
अधिक मात्रा में सेवन न करें जैसाकि किसी भी चीज की अति सही नहीं होती है. इसी तरह मिलेट्स का भी ज्यादा मात्रा में सेवन करना सही नहीं है.

स्वस्थ रहने के लिए जरूरी है कि आप ज्यादा मात्रा में रिफाइंड मिलेट्स का सेवन न करें. इस से स्वास्थ्य को नुकसान हो सकता है. ज्यादा मसाले से न पकाएं. अकसर लोग मोटा अनाज को काफी मसालों के साथ पकाते हैं. ऐसा करना सही नहीं है. मसालों की वजह से भले यह खाने में स्वादिष्ठ हो जाए लेकिन पोषक तत्त्वों में कमी होने लगती है. इसे हलकेफुलके मसालों के साथ पकाया जा
सकता है.

मैंस्ट्रुअल कप्स उन दिनों की चिंता से आजादी

मैंस्ट्रुअल कप्स का प्रचलन यों तो भारत में आम नहीं हुआ है, मगर महिलाओं के लिए यह कितना उपयोगी है, जरूर जानिए… समाचारपत्रों ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि 75% सैनिटरी पैड्स तयशुदा मानकों पर खरे नहीं उतरे हैं और इन से मूत्र संक्रमण एवं गर्भाशय संक्रमण से ले कर गर्भाशय कैंसर तक का खतरा है. जो सुरक्षित हैं, वे बहुत महंगे हैं और कोई फुल डे तो कोई फुल नाइट प्रोटैक्शन की बात करता है इसलिए भी 5-6 घंटे में बदले नहीं जाते.

अभी केवल 12% भारतीय महिलाएं इस विकल्प को वहन कर सकती हैं फिर भी औसतन किसी महिला के अपने जीवनकाल में 125-150 किलोग्राम टैंपन, पैड और ऐप्लिकेटर प्रयुक्त करने का अनुमान है. प्रतिमाह भारत में 43.3 करोड़ ऐसे पदार्थ कूड़े में जाते हैं, जिन में से अधिकांश रिवर बैड, लैंडफिल या सीवेज सिस्टम में भरे मिलते हैं क्योंकि एक तो ठीक से डिस्पोज करने की व्यवस्था नहीं होती और दूसरा अपशिष्ट बीनने वाले सफाईकर्मी हाथों से सैनिटरी पैड्स और डायपर्स को अलग करने के प्रति अनिच्छुक होते हैं, जबकि उन को अलग कर के उन्हें जलाने के लिए तैयार करना भारत सरकार की नगरपालिका ठोस अपशिष्ट प्रबंधन और हैंडलिंग नियमों के तहत आवश्यक है.

मैंस्ट्रुअल कप्स का प्रचलन भारत में अभी आम नहीं हुआ है. छोटे ही नहीं, बड़े शहरों में भी बहुत कम महिलाएं इन का उपयोग करती हैं.

मैंस्ट्रुअल कप्स के कम प्रचलन के कारण

सब से पहला और सब से बड़ा तो यही कि अभी तक कई लोगों ने इस के बारे में सुना भी नहीं है.
हमारे शरीर की रचना के प्रति ही इतनी अनभिज्ञता है कि इसके सही प्रयोग का तरीका नहीं पता होता.
द्य आज भी समाज में दाग लगने का हौआ इतना है कि मासिकस्राव शुरू होने से पहले ही इस का ट्रायल करने के बारे में सोचा जाता है जबकि सर्विक्स माहवारी के दौरान ही इतना नर्म और लचीला होता है कि इसे आसानी से लगाया जा सके. बाकी दिनों में बहुत मुश्किल और कष्टप्रद होता है.

सही आकार का चुनाव भी समस्या है. यह उम्र और प्रसव के प्रकार पर निर्भर है.
शुरुआती 1-2 या 3 साइकिल तक जब तक ठीक से अनुभव न हो, इस का प्रयोग मुश्किल लगता है और अधिकांश महिलाएं इसी दौरान इस के प्रयोग का विचार त्याग देती हैं, जबकि ठीक से इस्तेमाल करने पर जरूरी नहीं कि दिक्कत हो ही.

गलत तरीके, हाइजीन का खयाल न रखने, बड़े नाखून, बलपूर्वक लगाने की कोशिश या
फिर अनुपयुक्त साइज के कप के चलते कभीकभी योनि में जलन, खुजली, सूजन या लगाने के बाद पैल्विक पार्ट में दर्द हो सकता है. इस वजह से भी कई लड़कियां इसे छोड़ देती हैं.

मैंस्ट्रुअल कप्स के फायदे

सब से पहला फायदा बचत तो है ही, साथ ही यह विभिन्न प्रकार के संक्रमणों से भी बचाव करता है. सैनिटरी पैड्स या टैंपोन की तरह हाई अब्जार्बेंट मैटीरियल न होने से यह योनि के स्वाभाविक पीएच से कोई छेड़छाड़ नहीं करता, न ही टौक्सिक शौक सिंड्रोम का खतरा होता है, न ही आसपास की त्वचा में रैशेज कटनेछिलने और इन्फैक्शन का डर.

ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी 89% आबादी के लिए मैंस्ट्रुअल हाइजीन एक चुनौती है. गांवों में ही नहीं शहरों में भी निम्नवर्ग की महिलाएं, मजदूरिनें, भिखारिनें आदि राख, मिट्टी और प्लास्टिक की पन्नियों का इस्तेमाल करती हैं. साफ सूखे सूती कपड़े भी मिलना मुश्किल है. उन के लिए मैंस्ट्रुअल कप बहुत बड़ी राहत है.
इस के अलावा जिन का फ्लो बहुत ज्यादा होता है या जो महंगे सैनिटरी पैड्स और टैंपोन पर खर्च नहीं कर सकतीं उन के लिए भी यह बहुत काम का है.

खर्च बचाने के अलावा भी यह बहुत सुविधाजनक है. एक बार लगाने के बाद आप फ्लो की चिंता से लगभग मुक्त हो जाती हैं. शौच और स्नान के समय इसे निकालने की आवश्यकता नहीं पड़ती. तैराकी, राइडिंग, कूदना, दौड़भाग सब आसानी से कर सकती हैं. ये कप्स लीकेज प्रूफ होते हैं.

सब से बड़ी बात आसानी से खाली कर के साफ पानी से धो कर पुन: इस्तेमाल किए जा सकते हैं. पीरियड्स समाप्त होने के बाद 5 मिनट उबलते पानी में स्टरलाइज कर अच्छी तरह सुखा कर वापस रखे जा सकते हैं.

कौन-सा कप उचित रहेगा

आप के कपड़ों या फुटवियर्स की तरह कप्स का भी कोई स्टैंडर्ड फिक्स साइज नहीं है. स्मौल, मीडियम और लार्ज साइज हर कंपनी के अलगअलग आते हैं. सामान्य नियम है कि: हार्ड रिम वाला कप चुनें. साइज फ्लो से ज्यादा फिटिंग पर निर्भर है. हार्ड रिम वाले कप आसानी से लीक नहीं होते. अंदर जा कर खुलने और बाहर निकालने में भी सरल होते हैं. पर लड़कियां सौफ्ट रिम वाले स्मौल कप से शुरुआत कर सकती हैं.

25 वर्ष से कम आयु और वे महिलाएं जिन का सामान्य प्रसव नहीं हुआ है सिजेरियन हुआ है स्मौल साइज से शुरुआत करें.

30 से अधिक आयु या सामान्य प्रसव वाली या फिर अत्यधिक फ्लो वाली महिलाएं मीडियम या लार्ज लें.
द्य यदि किसी किस्म की ऐलर्जी या मैडिकल कंडीशन नहीं है तो पहले कम कीमत के कप्स से शुरुआत की जा सकती है. ये क्व200 से क्व500 में उपलब्ध हैं. एक बार आदत हो जाने पर अच्छे ब्रैंड के कप ले सकती हैं, जब ये 10-15 साल चल सकते हैं तो क्व1,000 से क्व1,200 की इनवैस्टमैंट भी महंगी नहीं है.

प्रयोग का तरीका

अगर आप ने टैंपून इस्तेमाल किया है तो यह भी बिलकुल वैसा ही है. पैल्विक मसल्स को बिलकुल ढीला छोड़ दें. कप की रिम (ऊपर का गोल सख्त हिस्सा) को पानी या वाटर बेस्ड लूब्रिकैंट लगा कर शेप में मोड़ लें और धीरेधीरे प्रविष्ट करें. अंदर जाते ही यह खुल जाएगा. ठीक तरह से प्रविष्ट किए जाने पर यह बाहर से नहीं दिखता और अंदर वैक्यूम बनने से लीक भी नहीं होता.

हालांकि 8 से 12 घंटे में निकालने को कहा जाता है पर बेहतर है 7-8 घंटे में खाली कर लिया जाए. इस के लिए सब से पहले कप के बेस को चुटकी से पकड़ कर सक्शन प्रैशर तोडि़ए और धीरे से नीचे की ओर बाहर खींच लीजिए. बहुत जल्दी या तेजी नहीं दिखानी है. शुरुआत में स्कूल, कालेज, औफिस या पब्लिक टौयलेट्स का इस्तेमाल करने से बचें. घर पर ही कोशिश करें.

खाली करने के बाद साफ पानी से धोना पर्याप्त है. किसी डिसइनफैक्टैंट का सीधा प्रयोग कप या प्राइवेट पार्ट पर न करें. इंटरनैट पर बहुत से वीडियोज मौजूद हैं जिन से प्रयोग विधि समझी जा सकती है.

मैंस्ट्रुअल कप्स बहुत सुविधाजनक हैं और इन का प्रयोग भी मुश्किल नहीं है. बस थोड़ी सी प्रैक्टिस की जरूरत है. कम से कम 3 महीने दें. इस तरह आप माहवारी के समय होने वाली असुविधा, दाग की चिंता, रैशेज, पैड्स के दुष्प्रभाव और खर्च से भी बचेंगी और यह ईको फ्रैंडली विकल्प पर्यावरण के लिए भी मुफीद है.

New Year Special: नए साल में रहना चाहते हैं स्वस्थ, तो बस अपनाएं ये आसान टिप्स

आज हर उम्र के लोग स्वास्थ्य को लेकर जागरूक हो चुके है. इस बारें में मुंबई के कोकिलाबेन धीरूबाई अम्बानी हॉस्पिटल कंसल्टेंट कार्डियोलॉजिस्ट डॉ प्रवीण कहाले कहते हैं कि कोविड के बाद लोगों में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ी है और ये अच्छी बात है, लेकिन कुछ बातें हर व्यक्ति को नए साल में समझने की जरुरत है, जो निम्न है.

अपना वज़न नियंत्रण में रखें

ध्यान रखें कि आपका वज़न जो सही होना चाहिए वही है. इसके लिए आपको अतिरिक्त कैलरीज़ से बचना होगा और नियमित रूप से कसरत करनी होगी. लिफ्ट के बजाय सीढ़ियों का इस्तेमाल करने जैसे आसान उपाय आप हर दिन कर सकते हैं. बैठे रहना आपके लिए उतना ही हानिकारक है जितना, पैसिव स्मोकिंग है, लगातार लंबे समय तक बैठे रहने से हृदय की बीमारियों का खतरा बढ़ता है. जब आप बैठे रहते हैं तब आप अपने शरीर को उतना ही नुकसान पहुंचाते हैं जितना लकड़ी के धुंए में रहने से होता है. इसीलिए, कसरत न करने या बैठे रहने को पैसिव स्मोकिंग माना जाता है.

  • पैक्ड फूड्स खाना कम या बंद करें और स्वस्थ आहार को चुनें. रोज़ के खाने में बहुत सारी सब्ज़ियां
    होनी चाहिए, नमक और चीनी की मात्रा कम करें.
  • आहार पर नियंत्रण रखने के साथ-साथ, कसरत पर भी नियंत्रण रखना ज़रूरी है. बहुत ज़्यादा कसरत
    की वजह से कई बार समस्याएं खड़ी हो जाती हैं, कई बार लोग बॉडी बनाने के लिए स्टेरॉइड्स और
    इस तरह की दूसरी दवाइयां लेते हैं, जिससे कार्डिओवस्क्युलर यानी ह्रदय की बिमारियों का खतरा
    बढ़ता है.
  • बच्चों को डिजिटल दुनिया से दूर रखिए, उन्हें खेलने, कसरत करने के लिए बढ़ावा दें. बैडमिंटन, टेबलटेनिस, क्रिकेट और फुटबॉल जैसे आउटडोर खेल खेलने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. इससे बच्चों में सहनशीलता बढ़ती है और हृदय की बिमारियों का खतरा कम होता है.

जीवनशैली में इन महत्वपूर्ण बदलावों को लाने के अलावा अच्छी गहरी नींद लेना बेहद जरूरी है.
कितनी नींद ले रहे हैं, उसके साथ-साथ नींद की गुणवत्ता भी महत्वपूर्ण है. सोने से पहले मोबाइल
उपकरणों और टेलीविजन से दूर रहें, क्योंकि यह आपके सर्केडियन रिदम को तोड़ता है या परेशान
करता है, जो अच्छे स्वास्थ्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. स्वास्थ्य अच्छा रख पाने के लिए नींद एक
महत्वपूर्ण पहलू है. दोपहर के समय में छोटी झपकी ले सकते हैं, लेकिन दिन में लंबे समय तक सोने से
निश्चित रूप से आपके हृदय संबंधी जोखिम बढ़ेगी. ये कुछ निवारक उपाय और स्वस्थ जीवन शैली को
अपनाकर आप अपना ह्रदय स्वस्थ रख सकते हैं.

  •  अलग-अलग उम्र के लोगों के लिए कसरत भी अलग-अलग तरह की होती हैं, जिन लोगों को जोड़ों का
    दर्द या अन्य समस्या होती है, वे जॉगिंग और ट्रेडमिल के बजाय तैरने और साइकिल चलाने जैसे स्थिर
    व्यायाम कर सकते हैं, इस तरह के उपकरण जिम और घर में भी आसानी से उपलब्ध होते हैं.
  • यह ज़रूरी नहीं है कि हाई स्पीड वाला व्यायाम करें. मध्यम तीव्रता वाले व्यायाम नियमित रूप से,
    लगातार करके आप तनाव को दूर रख सकते हैं, ध्यान रखें कि कभी-कभी व्यायाम हानिकारक हो
    सकता है.
  • विटामिन डी, विटामिन बी12 जैसे पोषक तत्वों की कमी की जांच कराते रहें और आयरन की कमी मानकर उसकी पूर्ति करते रहें, युवा महिलाओं के साथ-साथ वयस्क महिलाओं में भी विटामिन, आयरन की कमी बेहद आम समस्या है. कुल स्वास्थ्य को अच्छा रख पाने और विशेष रूप से हृदय के स्वास्थ्य को अच्छा रख पाने के लिए पोषण की दृष्टी से यह एक महत्वपूर्ण पहलु है.
  • किसी व्यक्ति को डायबिटीज, रक्तचाप या कोलेस्ट्रॉल न हो तो भी, मोटापे और वज़न ज़्यादा होने से ह्रदय की बीमारी का खतरा 25 प्रतिशत तक बढ़ता है. डायबिटीज और मोटापा एक जानलेवा कॉम्बिनेशन है, क्योंकि मोटापे के कारण डायबिटीज की संभावना बढ़ती है और एक बार अगर मरीज़ को हाई शुगर हो जाता है, तो हार्ट अटैक की संभावना कई गुना बढ़ जाती है.
  • धूम्रपान हार्ट अटैक की बहुत महत्वपूर्ण वजह होती है. सिगरेट के धुंए में जो केमिकल्स होते हैं उनसे शरीर में खून गाढ़ा हो जाता है, वाहिकाओं और शिराओं धमनियों में क्लॉट्स जमा होने लगते हैं.

अच्छे स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है प्रोसेस्ड फूड कम खाना और नमक, चीनी की मात्रा कम रखना.
उम्र बढ़ने पर कार्डियोवेस्क्युलर रिस्क को कम करने के लिए बचपन से ही कुछ बातों का ख्याल
रखना चाहिए. शरीर को नमक और चीनी की आवश्यकता नहीं होती, यह दो चीज़ें आपके शरीर को
नहीं, बल्कि सिर्फ जीभ को खुश रखने के लिए होती हैं. अब आपको सोचना होगा कि नए साल में आप
सिर्फ जीभ को खुश रखना चाहते हैं या पूरे शरीर को?

इनहेलर का सही इस्तेमाल कर पाएं अस्थमा पर काबू

महानगरों में दिनों-दिन बढ़ते प्रदूषण और धूम्रपान व तंबाकू की लत के साथ-साथ सांस संबंधी बीमारियों का खतरा भी बढ़ता जा रहा है. एम्स के पल्मोनरी मेडिसिन एंड स्लीप डिसार्डर्स विभाग के सहायक प्रोफेसर डा करण मदान ने बताया कि दिल्ली में 15-39 साल के आयु वर्ग में क्रौनिक औब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिसीज (सीओपीडी) यानी फेफड़े की बीमारी मौत का पहला और 40-69 साल से अधिक के आयु वर्ग में मौत का तीसरा प्रमुख कारण है. साल 1990 में सीओपीडी मौत और विकलांगता का 13वां सबसे बड़ा कारण था, जोकि साल 2016 में तीसरा प्रमुख कारण बन गया है. इससे श्वसन रोगों के बोझ और उन पर नियंत्रण की लगातार बढ़ती जरूरत का पता चलता है.

रोग प्रबंधन की चुनौतियों के बारे में चेस्ट फिजिशियन डा प्रवीण पांडे ने कहा कि अस्थमा और सीओपीडी के प्रबंधन में प्रमुख चुनौतियां हैं- अनुपालन में सुधार और प्रभावी व उपयोग में सरल इनहेलर का विकास. उन्होंने कहा कि कई रोगी दवाओं व इनहेलर का गलत उपयोग करते हैं जिससे रोग पर नियंत्रण कठिन हो जाता है. नतीजतन उन्हें ओरल थेरेपी दी जाती है, जोकि दुखदायी हो सकती है. डा पांडे कहते हैं कि अस्थमा की इनहेल्ड थेरेपी में रोग नियंत्रण की क्षमता है, लेकिन ज्यादातर रोगियों में अक्सर नियंत्रण नहीं हो पाता है. एशिया पैसिफिक अस्थमा इनसाइट्स मैनेजमेंट (एपी-एआइएम) सर्वे के अनुसार, भारत में अस्थमा के सभी रोगियों में मर्ज या तो अनियंत्रित है या आंशिक रूप से नियंत्रित है. इस कमजोर नियंत्रण का प्रमुख कारण इनहेलर की कमजोर तकनीक है.

इनहेल्ड दवाएं अस्थमा और सीओपीडी जैसी सांस संबंधी बीमारी के प्रबंधन में अनिवार्य हैं. ये सीधे फेफड़ों में दवा पहुंचाती हैं और कम खुराक में भी तेजी से काम करती हैं. इनहेल्ड दवाएं रोग की स्थिति में सुधार करती हैं, लक्षणों पर नियंत्रण करती हैं, संख्या और रोग की गंभीरता को कम करती हैं और जीवन की गुणवत्ता में सुधार करती हैं. दवाओं को फेफड़ों तक पहुंचाने वाले यंत्र दवाओं जितने ही महत्त्वपूर्ण हैं. इनहेलर यंत्रों में प्रेशराइज्ड मीटर्ड डोज इनहेलर (एमडीआइ), ड्राई पाउडर इनहेलर(डीपीआइ) और नेबुलाइजर्स शामिल हैं. देश में लगभग 90 फीसद डाक्टर अपने क्लीनिक में पहली बार आने वाले अस्थमा और सीओपीडी के कम से कम 40 फीसद रोगियों को इनहेलर यंत्रों के इस्तेमाल की सलाह देते हैं. एक अध्ययन में कहा गया कि 71 फीसद रोगियों को पीएमडीआइ के उपयोग में कठिनाई हुई.

अस्थमा या सीओपीडी से पीड़ित 246 रोगियों वाले एक अन्य अध्ययन में 81.4 फीसद एमडीआइ उपयोगकर्ताओं को कठिनाई हुई. एक अन्य अध्ययन से पता चला कि 90 फीसद रोगी डीपीआइ का सही उपयोग नहीं कर पाए. परसेप्ट अध्ययन में भारत में इनहेलेशन थेरेपी पर डाक्टरों के ज्ञान और अभ्यास का मूल्यांकन किया गया और पाया गया कि लगभग 61 फीसद डाक्टरों की यंत्र तकनीक सही नहीं है और 67 फीसद डाक्टर इनहेलेशन थेरेपी के मुताबिक काम नहीं करते हैं, जिससे परिणाम अच्छे नहीं आते हैं.

सिप्ला लिमिटेड के ग्लोबल चीफ मेडिकल औफिसर डा जयदीप गोगते ने कहा कि बीते सालों में इनहेल्ड पद्धति में विकास हुआ है, लेकिन गलत इनहेलर तकनीक के कारण परिणाम अच्छे नहीं मिले. इसका अनुपालन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ी समस्या है. अमेरिका, जापान और यूरोप में डाटा मानिटर हेल्थकेयर औफ पल्मोनोलौजिस्ट्स और प्राइमरी केयर फिजिशियंस के एक सर्वे में पाया गया कि रोग प्रबंधन में अनुपालन एक अहम समस्या है. उन्होंने दावा किया कि रोगियों को इनहेलेशन थेरेपी और सही इनहेलर तकनीक के लाभों के बारे में शिक्षित करने से इनहेलर को स्वीकायर्ता मिलेगी. इससे रोगी इसका सही उपयोग कर पाएंगे जिससे रोग का बेहतर नियंत्रण हो सकेगा.

सांप काटने से आखिर मौत अधिक क्यों होती है, जाने डॉक्टर दम्पति से

पिछले साल की आंकड़े इस दिशा में चौकाने वाले है, जब भारत में सांप के काटने से हर साल 64000 व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है. खासतौर पर वेस्टर्न घाट्स के एरिया में कई जहरीले प्रजाति के सापों की भरमार है, ऐसे में वहां काम करने जाने वाले आदिवासियों और ग्रामीणों जिनमे खासकर महिलाये और बच्चे होते है, उन्हें कई बार विषैले सांप काट लेते है, ऐसे में उन्हें जितनी जल्दी हो सके डॉक्टर के पास जाना जरुरी होता है. असल में सांप के काटने पर अधिकतर मौतें डर से होती है, लेकिन अगर इसका सही इलाज़ मिल जाए तो व्यक्ति पूरी तरह स्वस्थ हो जाता है.

इसी मकसद को ध्यान में रखते हुए महाराष्ट्र के नारायण गांव के डॉक्टर सदानंद राउत और उनकी पत्नी डॉक्टर पल्लवी राउत ने जहरीले सांप के काटने के इलाज आज से 35 साल पहले अपने गांव में शुरू किया और आज उनके गांव में सांप के काटने से मृत्यु दर शून्य हो चुका है, जो काबिलेतारीफ है, जिसके लिए उन्हें कई पुरस्कार भी मिला है, कैसे उन्होंने इस पर विजय पाई है. आज तक दोनों ने 6000 से अधिक लोगों की जान सांप के जहर उतारकर बचाई है. कैसे करते है वे आइये जानें.

सांप काटने के इलाज के बारें में पूछने पर डॉक्टर सदानंद कहते है कि मैं वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाईजेशन (WHO) और नेशनल प्रोटोकोल ट्रीटमेंट गाइडलाइन्स के आधार पर इलाज करता हूँ, इसमें ‘एंटी स्नेक वेनम’ जितनी जल्दी हो सके रोगी को देता हूँ, इसके अलावा बाकी जो भी इमरजेंसी लक्षण रोगी में दिखते है, उसके आधार पर इलाज करता हूँ. न्यूरोटोक्सिक स्नेक बाईट में अधिकतर वेंटिलेटर,  शॉक मेनेजमेंट, आदि देना पड़ता है. इसमें रोगी की हार्ट बीट स्लो हो जाती है और पूरे शारीर में ब्लीडिंग होने लगती है. कई बार आँखों में भी ब्लीडिंग होती है.

इस संकल्प को लेने के बारें में उनका कहना है कि मैं एक कंसलटेंट फिजिशियन हूँ, पुणे के ‘केइएम्’ हॉस्पिटल में मैंने पोस्ट ग्रेजुएशन किया है. इसके बाद मैंने साल 1992 में नारायण गांव में प्रैक्टिस शुरू किया. आदिवासी बहुल कस्बे में  उनकी सेवा करने के मकसद से मैंने उस इलाके को चुना था. पहले वहां किसी प्रकार की क्रिटिकल बीमारी की इलाज़ की कोई साधन नहीं था. शुरू में किसी भी क्रिटिकल पेशेंट को सिटी हॉस्पिटल पुणे या सरकारी अस्पताल में रेफर करना पड़ता था, क्योंकि कोई आप्शन नहीं था. तब सरकारी अस्पताल भी ऐसे सांप के काटने वाले रोगी का इलाज नहीं करते थे. फिर उन रोगी को पुणे ले जाना पड़ता था, जो यहाँ से करीब 80 किलोमीटर पर है. यहाँ पर अधिकतर 50 से 100 किलोमीटर की परिधि में आदिवासी और दूर – दराज क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिको को सांप काटते है और वहां से उन्हें अस्पताल पहुँचने में 3 से 4 घंटे लगते थे. तब सड़के ठीक नहीं थी, आवगमन के साधन नहीं थे, रोगी को जीप या खुद किसी वाहन पर ले जाना पड़ता था. जिससे अधिकतर मरीज अस्पताल पहुँचने के पहले ही दम तोड़ देते थे. फिर लोगों ने मुझे ऐसे क्रिटिकल मरीजों की इलाज़ के बारें में पूछने लगे. मैंने पहले 5 साल इंटेंसिव केयर यूनिट पुणे में काम कर चुका था, इसलिए मैंने इस दिशा में काम करने का मन बनाया.

बहुत कम तकनिकी संसाधन

डॉक्टर सदानंद आगे कहते है कि उस समय मॉडर्न यंत्रों की बहुत कमी थी, इसमें मेरी पत्नी डॉक्टर पल्लवी राउत भी हाथ बटाने लगी. ट्रेंड स्टाफ की कमी होने की वजह से हम दोनों दिन – रात मरीजों की देखभाल करने लगे. वहां सांप के काटने से परेशान मरीज़ भी आने लगे, लेकिन इतने कम तकनिकी संसाधन में काम करना मुश्किल हो रहा था. तब एंटी स्नेक वेनम भी केवल सरकारी अस्पतालों में मिलता था. बिजली बहुत कम समय तक रहती थी, ऐसे में हम दोनों को मरीज के पास लगातार बैठना पड़ता था और उनके कंडीशन को मोनिटर करना पड़ता था. मैंने सारी समस्याओं के साथ ही स्नेक बाईट के रोगी का इलाज़ करने लगा.

मिली प्रेरणा  

इस काम को करने का उद्देश्य दोनों को तब मिला, जब एक दिन एक 8 साल की लड़की को उसके परिवारजन लेकर आये, जिसे कोबरा सांप ने काटा था और 20 मिनट के बाद ही वह मुझ तक पहुंची थी, लेकिन उसकी मृत्यु हो चुकी थी. इसके बाद से उन्होंने स्नेक बाईट के रोगी को सीरियसली इलाज करने का संकल्प लिया, जिसमे ऑक्सीजन सिलिंडर और मिनिमम उपकरणों जो भी उनके पास थे, उससे इलाज शुरू किया, लेकिन ग्रामीण इलाकों में अन्धविश्वास बहुत अधिक है, ग्रामवासी उनके इलाज को सही नहीं समझते थे, वे तांत्रिक और झांड- फूंक वाले को अस्पताल में छुपाकर लाने लगे थे. वे कहते है कि ऐसे में अगर रोगी ठीक हो जाता था तो उसकी क्रेडिट तांत्रिक को और अगर कुछ गलत हुआ तो उसका खामियाजा मुझे भोगना पड़ता था, लेकिन मैंने उस बात पर बिना ध्यान दिए ही इलाज़ करता रहा.

किये जागरूकता अभियान

इसके बाद मैंने गांव के लोगों को प्रशिक्षित करने के लिए वर्कशॉप करने लगा.करैत सांप के काटने पर रोगी 2 सप्ताह तक डीप कोमा में जा सकता है और रोगी को वेंटिलेटर पर रखना पड़ता है, लेकिन ग्रामवासी सोचते थे कि मैं पैसे बनाने के लिए वेंटिलेटर पर रख रहा हूँ, इसलिए ग्रामीण युवा को शिक्षित करना जरुरी था. फिर मैंने मशीन पर उनके पल्स रेट को दिखाकर उन्हें समझाता रहा. धीरे – धीरे अन्धविश्वास में कमी आई, जब उन्होंने लाइफ सपोर्ट को अपनी आँखों से देखा. मुझे भी स्नेक बाईट के प्रोटोकोल को सीखना पड़ा. इसके लिए मैंने इंटरनेशनल डिगनेटरीज के साथ संपर्क किया और इन्टरनेट के सहारे उन्हें स्नेक बाईट के सारे क्लिनिकल डिटेल को बताता रहा. ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट प्रमुख सर डॉक्टर डेविड वारेन ने उन क्लिनिकल डिटेल के आधार पर  इलाज के लिए एडवाइस करते रहे और ऐसा करीब 2 से 3 साल तक चला. फिर वे मेरे अस्पताल में भी आये और मैंने स्नेक बाईट से ठीक हुए 150 लोगों के समूह को इकट्ठा किया, उनसे मिलकर सभी खुश हुए. सभी ने उनसे स्नेक बाईट के बाद किसी की मृत्यु न हो, उसके बारें में जानना चाहा,क्योंकि इसमें प्रिवेंटिव वर्क को जानना काफी जरुरी होता है.

क्या कहती है आंकड़े

वर्ष 2000 से 2019 के आंकड़े बताती है कि विश्व में 50 से 60 लाख स्नेक बाईट हर साल होते है, जिसमे 28 लाख लोग बच जाते है. 80 हज़ार से एक लाख हर साल मृत्यु हो जाती है. भारत में 20 से 25 लाख स्नेक बाइट्स होते है, जिसमे 12 लाख की मृत्यु हो जाती है. 80 प्रतिशत ग्लोबल डेथ मध्य प्रदेश, उड़ीसा, झाड़खंड, बिहार, राजस्थान ,गुजरात, आंध्र प्रदेश महाराष्ट्र आदि में होता है. वर्ल्ड हेल्थ ओर्गानाईजेशन (WHO)  ने 2017 से स्नेक बाईट को सबसे अधिक नेग्लेक्टेड ट्रॉपिकल डिसीज माना है

पूरे विश्व में 4 लाख लोगों को कोबरा और रसेल वाइपर स्नेक बाईट से ठीक होने के बाद कृत्रिम अंग लगाना पड़ता है, इसके अलावा क्रोनिक बीमारी जिसमे किडनी फैल्योर, पैरालिसिस, महिलाओं में हार्मोनल समस्या आदि होती है. मेरे अस्पताल में मैंने प्रिवेंशन के द्वारा कम किडनी फेल और किसी का भी अंग ख़राब नहीं हुआ. नार्थ ऑफ़ पुणे के 13 रीजन, पुणे, अहमद नगर और ठाणे जिला के ये फार्म लेबरर्स, जो सालभर सोयाबीन, मूंगफली और गन्ने के फसलों की खेती में काम करते है, ये आदिवासी श्रमिक बच्चे और महिलाएं जिनकी आयु 20 से 40 तक होती है. उन्हें स्नेक बाईट का अधिक शिकार होना पड़ता है.

समस्या अन्धविश्वास की

शुरू में 10 साल का एक बच्चा जब डॉक्टर सदानंद के पास करैत सांप के काटने पर कोमा की स्थिति में आया, तो उसे 6 दिनों वेंटिलेटर में रखने के बावजूद उसे होश नहीं आया. उसके दादा और गांव के बड़े बुजुर्ग उस बच्चे को मृत समझ रहे थे और अस्पताल से ले जाना चाहते थे. डॉक्टर ने उसके परिवार के युवा को बुलाकर मोनिटर दिखाया और समझाया कि बच्चे का हार्ट चल रहा है और वह जीवित है. 10 दिन बाद बच्चे की आँखों की पुतली हिली और 13 दिन में वह बच्चा ठीक हो गया. सदानंद कहते है कि मैने कभी भी झाड़ – फूंक करने वालों को नहीं रोका, उन्हें करने दिया और मैं मेडिकल ट्रीटमेंट करता रहा, क्योंकि गांववालों को समझाना मुश्किल था और अधिक मना करने पर वे रोगी को उठा ले जा सकते थे, जिससे मेरा इलाज नहीं हो पाता. आज वे इसे समझ चुके है.

‘जीरो स्नेक बाईट डेथ’ मिशन

डॉक्टर आगे कहते है कि इसके बाद छोटे – छोटे ट्राइबल गांवों में स्कूल्स, कॉलेजेस, युवाओं और संस्थाओं के सारे हेड को स्नेक बाईट जागरूकता अभियान में शामिल किया. लोग भी इसमें सहयोग देने लगे, क्योंकि उन्हें लगने लगा था कि ये लाइफ सेविंग मूवमेंट है. अब वे मेरे इलाज पर विश्वास करने लगे थे. उन्हें समझ में आ गया था कि सांप कितना भी जहरीला हो काटने के तुरंत बाद में अस्पताल ले आने पर उन्हें बचाया जा सकता है. इसके बाद मैंने ‘जीरो स्नेक बाईट डेथ मिशन शुरू किया. इसमें मेरे ज्ञान और लोगों की जागरूकता से ये सफल हो गया है. इस तरह से जुन्नर और अम्बेगांव आदिवासी क्षेत्र में अब सांप के काटने से किसी की मृत्यु नहीं होती. अभी मैंने इलाज में जरुरत के उपकरण अस्पताल में शामिल कर लिया है. धीरे – धीरे अब मेरे पास एक स्नेक बाईट की यूनिट तैयार हो चुकी है.

जागरूकता अभिनयान के अलावा पूरे देश में डॉक्टर्स के लिए ट्रेनिंग प्रोग्राम भी मैंने शुरू किया है. पुणे जिले के 3500 आशा वर्कर्स, कम्युनिटी हेल्थ वर्कर्स,  पब्लिक आदि को मैंने जागरूकता की ट्रेनिंग दिया है. इसमें विषैले और गैर विषैले सांप काटने के लक्षणों के बारें में जानकारी, स्नेक बाईट की रोकथाम, प्राइमरी इलाज, क्या करें और क्या न करें आदि की जानकारी देता हूँ.

जाने साँपों की प्रजाति

हमारे देश में करीब 270 प्रजाति की सांप है, उनमें केवल 4 अधिक जहरीले होते है, जबकि बाकी सांप गैर जहरीले होते है. इन 4 सापों को बिग फ़ोर्स कहा जाता है.

इसमें इंडियन कोबरा और कॉमन करैत न्युरोटोक्सिक होते है, जो बहुत अधिक विषैले होते है, ये अधिकतर नर्वस सिस्टम को प्रभावित करते है, कोबरा बाईट में लक्षण 2 से ढाई घंटे बाद दिखता है, इससे रोगी को पता नहीं चलता और तुरंत उसकी मृत्यु हो सकती है.

कोबरा बाईट के लक्षण

  • धुंधला दिखना
  • डबल विजन
  • स्नेक के काटे हुए स्थान पर बहुत दर्द होना,
  • निगलने, बात करने और साँस लेने में कठिनाई
  • पूरे शरीर में लकवा मार जाना, शरीर में ऐठन, गैंग्रीन का होना आदि

करैत बाईट अधिकतर रात के 12 बजे से सुबह 5 बजे तक के बीच में होता है, जब लोग रात को नीचे जमीन पर सो रहे होते है, ऐसे में अपने शिकार की तलाश में ये सांप बेड पर चढ़ जाता है और काटता है. इसमें पहले लक्षण पता नहीं चलता, ब्लीडिंग और सूजन न होने की वजह से व्यक्ति चीटीं या चूहा काटने को समझते है और ध्यान नहीं देते. 2 से 3 घंटे बाद रोगी के पेट में दर्द के साथ उलटी और पसीना छूटने लगता है. फिर धीरे – धीरे साँस लेने में कठिनाई के साथ – साथ रोगी कोमा में चला जाता है, जिससे मृत्यु हो जाती है. ये अधिकतर बच्चों और महिलाओं के साथ होता है.

रसेल वाइपर और सॉ स्केल्ड वाइपर ये दोनों भी बहुत ही विषैले होते है.

लक्षण

  • सांप काटने के स्थान पर बहुत अधिक दर्द का होना,
  • काटे हुए स्थान के अलावा पूरे शारीर में सूजन और छाले का बनना
  • पूरे शरीर के अंदर में ब्लीडिंग का होना,
  • किडनी फैल्योर का होना आदि

इसके अलावा थोडा कम जहरीला सांप ‘बांबू पिट वाइपर’ है, ये अधिकतर वेस्टर्न घाट में पाया जाता है. इसमें स्नेक बाईट वाले स्थान पर सूजन के अलावा ब्लीडिंग डिस्टरबेंसेस भी होते है. इसके इलाज में एंटी स्नेक वेनम अधिक उपयोगी नहीं होता, लक्षण के आधार पर ऐसे मरीज का इलाज किया जाता है.

एक – एक सेकंड हैं महत्वपूर्ण  

डॉक्टर सदानंद कहते है कि विषैले सांप के काटने से अधिकतर कार्डिएक अरेस्ट होता है, जो एक मिनट के अंदर ही हो जाता है. ऐसे मरीज को जल्द से जल्द डॉक्टर तक पहुँचाने और इलाज शुरू होना चाहिए. अधिकतर लोगों की मृत्यु अस्पताल पहुँचने से पहले ही हो जाती है, इसलिए किसी तांत्रिक या झाड़ – फूंक वाले के पास न जाकर तुरंत उन्हें पास के किसी भी अस्पताल और डॉक्टर के पास ले जाने की जरुरत होती है. यही हमारी जागरूकता अभियान का विषय होता है, जिसमे मैंने आसपास के सभी डॉक्टर्स को ट्रेनिग दी है, ताकि वे अपने पास के डॉक्टर से प्राथमिक इलाज लेकर ही मेरे पास आये. मैं फ़ोन पर डॉक्टर्स को गाइड करता हूँ.

सांप के काटने पर क्या करें

सांप के काटने पर देखे कि वह विषैला है या नहीं,

  • व्यक्ति के डर को भगाए,
  • रोगी को एक निश्चित स्थान पर बैठाकर रखे,
  • स्नेक बाईट वाले स्थान की स्थिति हार्ट के लेवल से नीचे हो इसका ध्यान रखें,
  • जितनी जल्दी हो रोगी को डॉक्टर तक किसी भी साधन से पहुंचाएं,

डॉक्टर के पास पहुँचने से पहले उन्हें इसकी जानकारी फ़ोन पर दें ताकि डॉक्टर पूरी तरह से इलाज के लिए तैयार रहे, क्योंकि उस वक्त एक सेकंड भी कीमती होता है,

क्या न करें

  • सांप को कभी न मारें,
  • स्नेक बाईट वाले स्थान को बंधे या काटे नहीं,
  • तांत्रिक या झाड़ – फूंक वाले के पास जाकर समय बर्बाद न करें,
  • सांप की तस्वीर मोबाइल में ले लें, अगर संभव न हुआ, तो लक्षणों के आधार पर इलाज किया जाता है,
  • ब्लड क्लोटिंग की जाँच पहले की जाती है और इसके लिए मरीज से खून लेकर 20 WBCT टेस्ट किया जाता है.

इलाज महंगा है, किसी प्रकार का फण्ड नहीं मिलता है, हम दोनों चैरिटेबल वर्क करते है, ये हमारा मिशन है. 30 साल की इलाज के बाद आज एक्सपोजर मिला है और उम्मीद है कुछ सहयोग मिलेगा ताकि अधिक अच्छा इलाज मैं इन गरीब ग्रामीण आदिवासियों को दे सकूँ.

जरुरी रोकथाम  

  • गम शूज पहनना,
  • पूरे शरीर ढके हुए कपडे पहनना,
  • घास पर काम करने से पहले छड़ी का प्रयोग करना,
  • सही रस्ते पर चलना, जंगल के बीच से नहीं,
  • रात में काम करते वक़्त बैटरी और स्टिक का करें प्रयोग करना,
  • जमीन पर न सोना,
  • मच्छरदानी का प्रयोग करना,
  • घरों को साफ रखना, ताकि चूहे अंदर न रहे,

आसपास के पेड़ों की छटाई करते रहना, ताकि खिड़की के पास की टहनियों से सांप कमरे में न आ सकें आदि.

Winter Special: ठंड में क्या खाएं क्या नहीं

प्रकृति की रंगीन फूड बास्केट न केवल खूबसूरत और आकर्षक दिखाई देती है, बल्कि आप को सर्दी के दिनों में पोषक पदार्थों से भरपूर आहार भी प्रदान करती है. इस मौसम में आप की हड्डियों को गरमाहट देने, आप को सर्दीजुकाम से बचाने और आप के परिवार की प्रतिरक्षण क्षमता बढ़ाने के लिए बहुत से मौसमी फल और सब्जियां उपलब्ध हैं, जिन का सही तरीके से उपयोग कर आप स्वस्थ व फिट भी रह सकते हैं.

सर्दियों में भूख को दबाना नहीं चाहिए. इस के बजाय आप को इस बात पर गौर करना चाहिए कि आप इस मौसम में स्वास्थ्यप्रद तरीके से कैसे प्राकृतिक खाद्यपदार्थों का उपयोग कर सकते हैं:

हरी पत्तेदार सब्जियां बेहतरीन भोजन हैं क्योंकि उन में फाइबर, फौलिक ऐसिड, विटामिन सी, पोटैशियम, मैग्नीशियम और अन्य पोषक पदार्थ पर्याप्त मात्रा में होते हैं. तो हरी सब्जियां खाएं और स्वस्थ व फिट रहें.

कम चीनी वाली गाजर की खीर खाएं. सर्दियों में गाजर का विभिन्न रूपों में सेवन करना स्वास्थ्य के लिए बेहद फायदेमंद है.

सिट्रस फल विटामिन सी से भरपूर होते हैं. इन का सेवन प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाता है और सर्दीजुकाम से लड़ने की ताकत देता है. इसलिए उन्हें खाने पर भी ध्यान दें.

सर्दियों में सामान्य तापमान के भोजन का सेवन करना चाहिए और दिल के मरीजों को तेल युक्त एवं तले खाद्यपदार्थों के सेवन से बचना चाहिए. नमक का सेवन भी नियंत्रित मात्रा में करना चाहिए. उन्हें संतृप्त वसा के बजाय खाना पकाने में असंतृप्त वसीय पदार्थों का इस्तेमाल करना चाहिए. यानी रिफाइंड, जैतून या सरसों के तेल में खाना बनाना चाहिए.

मधुमेह के रोगियों को चीनी का सेवन नियंत्रित रूप से करना चाहिए. उन्हें रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट के सेवन से बचना चाहिए और कौंप्लैक्स कार्बोहाइड्रेट का सेवन करना चाहिए. यानी साबूत गेहूं, जई और मल्टीग्रेन आटे का इस्तेमाल करना उन की सेहत के लिए फायदेमंद होता है.

सर्दियों में हरी सब्जियों व अन्य फलों और सब्जियों के सेवन से शरीर में हीमोग्लोबिन का स्तर भी सही मात्रा में बना रहता है.

पानी और तरल पदार्थों का सेवन पर्याप्त मात्रा में करना चाहिए और बच्चों व बुजुर्गों को ठंडी चीजों जैसे आइसक्रीम आदि के सेवन से बचना चाहिए.

जो लोग सर्दियों में वजन कम करना चाहते हैं, उन्हें वसा और तेल युक्त पदार्थों जैसे परांठों का सेवन नहीं करना चाहिए. उन के आहार में फाइबर, फलों, सलाद और तरल पदार्थों की पर्याप्त मात्रा होनी चाहिए. अनाज, मल्टीग्रेन आटा, ब्राउन ब्रैड और उच्च फाइबर से युक्त बिस्कुट भी वजन कम करने में मददगार होते हैं.

अमरूद, गाजर, सेब, हरी पत्तेदार सब्जियां, कच्चे फल, संतरा और खीरा फायदेमंद होते हैं और घर में बने टमाटर, मिलीजुली सब्जियों और हरी पत्तेदार सब्जियों के सूप हमेशा बाजार में मिलने वाले पैक्ड सूप से बेहतर होते हैं.

यह मौसम त्योहारों और शादियों का मौसम भी होता है, इसलिए कई मौकों पर बिना सोचेसमझे लोगों का खाना खूब होता है. दरअसल, अधिकतर लोगों को यह पता नहीं होता है कि उन्हें क्या खाना चाहिए और क्या नहीं. ऐसे में नीचे बताए जा रहे टिप्स त्योहारों के मौसम में आप के आहार की योजना बनाने में फायदेमंद हो सकते हैं:

ओवरईटिंग से बचें

इस का तात्पर्य केवल भोजन की मात्रा से ही नहीं, बल्कि कैलोरी से भी है. उदाहरण के लिए एक रसगुल्ले में 250 कैलोरी होती है, जबकि कौर्नफ्लैक्स के एक बाउल में केवल 100 कैलोरी होती है. त्योहारों के मौसम में हमें कैलोरी पर पूरा ध्यान रखना चाहिए ताकि वजन को बढ़ने से रोका जा सके.

क्या न खाएं

आप को नमक एवं चीनी का ज्यादा सेवन करने के साथसाथ तेल एवं मसाले युक्त खाद्यपदार्थों के सेवन से भी बचना चाहिए. अपने आहार की योजना कुछ इस तरीके से बनाएं कि अगर आप कुछ हैवी या स्पैशल खाना चाहते हैं, तो उसे दोपहर के भोजन के समय खाएं ताकि दिन की गतिविधियों के दौरान अतिरिक्त कैलोरीज बर्न हो जाएं. उस दिन नाश्ते को हलका और रात के भोजन में जहां तक हो सके कम कैलोरीज का सेवन करें.

ताजा भोजन लें

ताजा फलसब्जियों का सेवन करें. इस के अलावा किसी भी पैक्ड खाद्यपदार्थ का सेवन करने से पहले उस की ऐक्सपायरी डेट जरूर पढ़ें. उच्च तापमान पर रखे गए भोजन के दूषित होने की संभावना अधिक होती है. कुछ जीवाणु जैसे ई. कोली, कलेबसेला, शेगेला आदि उच्च तापमान पर तेजी से पनपते हैं. ये जीवाणु डायरिया, डिहाइड्रेशन, मतली, उलटी आदि का कारण बन सकते हैं. इसलिए जहां तक हो सके खाद्यपदार्थों और मिठाइयों को फ्रिज में रखें.

त्योहारों में दोस्तों और रिश्तेदारों के यहां आनाजाना लगा रहता है. इस से न केवल रिश्ते मजबूत होते हैं, बल्कि त्योहारों की मिठास भी बनी रहती है. ऐसे में अगर कोई बीमार हो जाता है, तो जल्द से जल्द डाक्टर की सलाह लें. और अगर आप को लगता है कि किसी खास खाद्यपदार्थ के सेवन के कारण ऐसा हुआ है तो उस का सेवन परिवार के दूसरे लोग न करें.

सर्दियां आराम करने, अपने परिवारजनों और दोस्तों से मिलने और अच्छा एवं स्वास्थ्यप्रद भोजन खाने के लिए अच्छा समय है. सर्दियों में एकसाथ मिल कर खाना भी अच्छा अनुभव होता है. खासकर अगर आप त्योहारों के समय एकसाथ बैठ कर खाते हैं, तो रोजमर्रा की परेशानियों, तनाव को भी पूरी तरह से भूल जाते हैं. तो अपने अच्छे शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए सही आहार का चुनाव करें और साल के इस सब से खास समय का आनंद उठाएं.

– सुनीता त्रिपाठी
सीनियर डाइटीशियन, प्राइमस सुपर स्पैशलिटी अस्पताल.

Winter Special: जाड़े में भी स्वस्थ रहेंगे अस्थमा के रोगी

15 साल की अनुरिमा अस्थमा की शिकार है. बचपन से ही उसे अस्थमा के अटैक आते थे, जो बाद में उम्र के हिसाब से ओर बढ़ते गए. इस के लिए उसे नियमित दवा लेनी पड़ती है. दरअसल, यह बीमारी सर्दी के दिनों में और अधिक बढ़ जाती है, क्योंकि सर्द मौसम की वजह से श्वासनली में बलगम जल्दी जमा हो जाता है, जो श्वासनली को अवरुद्ध कर देता है, जिस से मरीज को सांस लेने में कठिनाई होने लगती है. फलस्वरूप सांस फूलने लगती है. कुछ लोगों को यह बीमारी उन्हें ठंड की ऐलर्जी होने की वजह से भी बढ़ जाती है.

इस बारें में मुंबई के एसआरवी हौस्पिटल की चैस्ट फिजिशियन डा. इंदु बूबना बताती है, ‘‘स्ट्रैस और धूम्रपान अस्थमा के ट्रिगर पौइंट हैं. इन से सब से अधिक अस्थमा बढ़ती है. इस के अलावा नींद की कमी व प्रदूषण भी इस के जिम्मेदार हैं. जाड़े के मौसम में इस बीमारी के बढ़ने का खतरा अधिक रहता है. लेकिन सही लाइफस्टाइल से इस खतरे को कम किया जा सकता है. मेरे पास कई मरीज ऐसे आते हैं, जो अस्थमा रोग का नाम सुन कर ही घबरा जाते हैं, जबकि यह बीमारी जानलेवा नहीं है.’’

डा. इंदु के अनुसार ये सावधानियां जाड़े  के मौसम में अस्थमा के रोगियों को अवश्य रखनी चाहिए:

– सब से पहले घर को साफसुथरा रखें. वैंटिलेशन सही हो.

–  सांस हमेशा नाक से लें इस से हवा गरम हो कर छाती तक पहुंचती है, जिस से ठंड कम लगती है. मुंह से सांस लेने की कोशिश कम करें.

–  फ्लू का वैक्सिन अवश्य लगा लें. इस से 70% व्यक्ति ठंड की ऐलर्जी से बच सकता है.

–  घर में अगर रूमहीटर का प्रयोग करते हैं, तो समयसमय पर उस के फिल्टर की सफाई अवश्य करें, ताकि उस पर धूलमिट्टी न जमें.

–  घर के पैट्स, टैडी बियर, फर वाले खिलौने, प्लांट्स आदि को बैड से दूर रखें.

–  ठंड से बचने के लिए अधिकतर लोग आग या रूमहीटर के पास बैठते हैं, जो ठीक नहीं, क्योंकि इस से ऊनी कपड़े के रेशे जल जाते हैं. उन से निकलने वाला धुआं अस्थमा के रोगी के लिए खतरनाक होता है. इसलिए रूमहीटर से घर को गरम जरूर करें, पर दूरी बनाए रखें. साथ ही घर की नमी को भी बनाए रखें.

–  पुराने सामान को घर में न रखें. डस्टिंग के वक्त धूल न उड़ाएं. घर की सफाई गीले कपड़े से  करें.

–  खाना खाने से पहले हाथों को अच्छी तरह धो लें. इस से किसी भी प्रकार के वायरस से आप दूर रहेंगे.

–  सर्दियों में भी वर्कआउट अवश्य करें, लेकिन पहले अपनेआप को वार्मअप करना न भूलें.

–  ठंड में तरल पदार्थों का सेवन अधिक करें. घर पर बना कम वसायुक्त खाना खाएं. ताजे फलसब्जियां अधिक लें. खट्टे पदार्थ खाने से अस्थमा नहीं बढ़ता. हां जिन्हें ऐलर्जी हो, वे न खाएं.

–  कपड़े हमेशा साफसुथरे ही पहनें. कौटन के कपड़े पहन कर ही ऊपर ऊनी कपड़े पहनें.

–  अगर छोटे बच्चे अस्थमा के शिकार हैं तो जाड़े में उन्हें हैल्दी, न्यूट्रिशन वाला भोजन दें.

–  दवा का सेवन नियमित करें.

अच्छी सेहत के लिए जरूरी है हर दिन बस एक कप ग्रीन टी

बदलती लाइफस्टाइल और काम के बढ़ते दवाब के बीच अगर एक कप ग्रीन टी ग्रीन टी ली जाए तो आपके स्वास्थ्य पर सकारात्मक असर पड़ेगा. एक नियत मात्रा में प्रतिदिन ग्रीन टी का सेवन आपकी सेहत के लिए कई तरह से फायदेमंद साबित हो सकता है. कई शोध में भी ग्रीन टी सेहत के लिए फायदेमंद बताया गया है, लेकिन ध्यान रखें कि जरूरत से ज्यादा ग्रीन टी आपके शरीर को नुकसान भी पहुंचा सकती है, इसलिए जरूरी है कि आप अधिक मात्रा में ग्रीन टी का सेवन न करें.

क्या आपको पता है कि ग्रीन टी पीने के अनेक फायदे हैं, आइये जानते हैं इसके असली फायदों के बारे में.

मानसिक शांति

यदि आप पर घर और आफिस मे काम का दबाव होता है और आप कुछ काम करने के बाद ही मानसिक रूप से थकान महसूस करने लगती हैं तो ग्रीन टी आपके इस मानसिक थकान को भगाने के लिए अच्छा रहेगा. ग्रीन टी में थेनाइन तत्व होता है, जिसमें एमिनो एसिड बनता है. एमिनो एसिड शरीर में ताजगी बनाए रखता है और आपको थकावट महसूस नहीं होने देता. जिससे आपको हमेशा ताजगी का एहसास होता है और मानसिक शांति भी मिलती है.

वजन कम करें

वजन कम करने में भी ग्रीन टी काफी हद तक सहायक है. ग्रीन टी पीने से आपके शरीर का मेटाबालिज्म बढ़ता है, जिससे पाचन क्रिया संतुलित रहती है. ऐसा होने से व्यक्ति का अतिरिक्त वजन कम होता है

नार्मल ब्लडप्रेशर

भागदौड़ भरी जिंदगी और आफिस की बढ़ती टेंशन के बीच उच्च रक्तचाप की अक्सर ही लोगों को उच्च रक्तचाप की समस्या का सामना करना पड़ता है. उच्च रक्तचाप आपके शरीर में अन्य कई बीमारियों का कारण भी हो सकता है. इसलिए यदि आपको ब्लड प्रेशर की समस्या है तो रोजाना ग्रीन टी पिए. इसे पीने से आपकी यह परेशानी नार्मल रहेगी. रक्तचाप सामान्य रहने से आपको गुस्सा भी नहीं आएगा.

कोलेस्ट्राल घटाएं

दिल के रोगियों के लिए ग्रीनटी का सेवन बहुत फायदेमंद है. ये शरीर में बेड कोलेस्ट्राल को कम करके गुड कोलेस्ट्राल को बढ़ाने में मददगार होती है. यदि आप आयली भोजन करती हैं तो आपको नियमित रूप से ग्रीन टी का सेवन करना चाहिए.

डायबिटीज में फायदेमंद

यदि आपके शरीर में शुगर लेवल बढ़ रहा है तो ग्रीन टी का सेवन आपको बहुत फायदा पहुंचाता है. इसके अलावा जिन रोगियों को डायबिटीज की दिक्कत हैं तो उन्हें प्रतिदिन सुबह उठकर एक कप ग्रीन टी पीनी चाहिए. यह आपके शरीर में मौजूद शुगर लेवल को कंट्रोल करने में आपकी मदद करता है. मधुमेह रोग से पीड़ित व्यक्ति को भोजन के बाद ग्रीन टी का सेवन करना चाहिए.

त्वचा में चमक

ग्रीन टी में एंटी एजिंग तत्व पाया जाता है जो आपकी त्वचा के लिए काफी फायदेमंद हैं. इसका सेवन करने से आपके चेहरे पर हमेशा चमक और ताजगी बनी रहती है साथ ही चेहरे की झुर्रियां भी कम होती है, इसके अलावा इसे पीने से आप चुस्त-दुरुस्त रहती हैं.

दांतों के लिए वरदान

आजकल युवा और बुजुर्गों में दांतों में पायरिया और केविटी की समस्या तेजी से बढ़ रही है. ग्रीन टी में पाया जाने वाले कैफीन दांतों में लगे कीटाणुओं को मारने में सक्षम होता है. बैक्टीरिया कम होने से आपके दांत लंबे समय तक सुरक्षित रहते हैं. इसलिए अगर आपको दांतो की समस्या है तो रोजाना एक कप ग्रीन टी का सेवन करना न भुलें, इससे आपके मसूड़ो में भी मजबूती आती है.

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