बच्चों से लेकर युवाओं तक ब्लड प्रेशर पर रखें नजर

लेखक- श्री  प्रकाश

बच्चा , युवा या बूढ़ा कोई भी हो ब्लड प्रेशर किसी को भी हो सकता है. अनियंत्रित ब्लड प्रेशर मध्य आयु के लोगों में हार्ट अटैक का मुख्य कारण है. आरम्भ में हाई ब्लड प्रेशर या हाइपर टेंशन का कोई स्पष्ट लक्षण नहीं दिख सकता है भले ही देखने में  किशोर या युवा स्वस्थ क्यों न लगे. डॉक्टरों के अनुसार ब्लड प्रेशर अंदर ही अंदर धीरे धीरे शरीर के अंगों पर बुरा असर डालता है और आगे चल कर यह गंभीर स्वास्थ्य समस्या हो सकती है.

 नार्मल ब्लड प्रेशरजैसा कि हम जानते हैं स्वस्थ युवा के लिए 120 / 80 mmHg ( सिस्टॉलिक / डायस्टोलिक )  ब्लड प्रेशर माना जाता है जबकि

129 / 80   mmHg को एलेवेटेड ( यानि बढ़ा हुआ ) ,

130 / 80 – 90  mmHg स्टेज 1 हाई ब्लड प्रेशर और

140 / 90 या अधिक  mmHg स्टेज 2 हाई ब्लड प्रेशर कहलाता है.

एलिवेटेड या हाई ब्लड प्रेशर हार्ट के लिए नुकसानदेह होता है क्योंकि

1 . इस से हार्ट को  ब्लड पंप करने में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती  है.इसके चलते  धीरे धीरे हार्ट की मांसपेशियाँ मोटी और सख्त हो जाती हैं. फलस्वरूप हार्ट में समुचित मात्रा में ब्लड नहीं पहुँचता है और इसे पंप करना भी कठिन होता है.

2 . हार्ट के आर्टरी  ( धमनी )  संकीर्ण और सख्त हो जाते हैं और शरीर में रक्त संचार सुचारू रूप से नहीं हो पाता है.

3 . इसके चलते  आर्थिक समस्या भी हो सकती है , जैसे ब्लड प्रेशर की दवाओं पर या भविष्य में अगर हार्ट पर असर हुआ तो उसके  इलाज में खर्च.

4 . Covid 19 में हाई ब्लड प्रेशर से समस्या और भी गंभीर हो सकती है.

बच्चों ,किशोरों और युवाओं में ब्लड प्रेशर भले ही नजर में न आता हो पर  इस पर नजर नहीं रखने से भविष्य में स्ट्रोक , ह्रदय रोग जैसी गंभीर समस्या हो सकती है.

बच्चों किशोरों और युवाओं में हाइपरटेंशन आजकल ब्लड प्रेशर की समस्या सभी उम्र में देखने को मिलती है , यहाँ तक कि 6 – 18 / 20 साल की उम्र में. कुछ वर्ष पूर्व के एक अध्ययन में भारत में स्कूल के विद्यार्थियों  में करीब 11 % बच्चों में प्री हाइपर टेंशन और  4.6 % में हाइपर टेंशन देखा गया था. युवाओं में करीब 20  % युवा ब्लड प्रेशर से प्रभावित हैं.

बच्चों / किशोरों में हाइपर टेंशन के लक्षण सर दर्द , मिचली और उल्टी , सीजर , सीने में दर्द , असामन्य हार्ट बीट और शॉर्टनेस ऑफ़ ब्रीदिंग.

बच्चे / किशोरों में हाइपरटेंशन के कारणमोटापा , हार्मोनल  असंतुलन , जेनेटिक , हार्ट और किडनी की समस्या , लाइफ स्टाइल , थयरॉइड की समस्या , अनिद्रा या अल्पनिद्रा , ड्रग  का सेवन. आजकल पढ़ाई लिखाई , खेलकूद सभी जगह प्रतिस्पर्धा बढ़ जाने से कुछ किशोरों और युवकों में हाइपर टेंशन देखा गया  है.

हाइपरटेंशन से संभावित खतरेअनियंत्रित हाइपर टेंशन से स्ट्रोक , हार्ट अटैक या हार्ट फेल , आँखों और किडनी की समस्या हो सकती है.

डॉयग्नोसिसब्लड प्रेशर मेजर करना  या आवश्यकतानुसार  डॉक्टर ब्लड , पेशाब टेस्ट , इको और अल्ट्रा साउंड की सलाह दे सकते हैं.

उपचार स्टेज 1 हाइपरटेंशन में आमतौर पर डॉक्टर लाइफ स्टाइल में बदलाव कर इसे कंट्रोल करने की सलाह देते हैं.  स्टेज 2 हाइपरटेंशन में डॉक्टर आवश्यकतानुसार दवा देते हैं.

माता पिता बच्चों में  हाइपर टेंशन की समस्या में क्या करें समय समय पर बच्चे का ब्लड प्रेशर खुद मेजर करें या डॉक्टर के क्लिनिक में जा कर नपवायें. हाइपर टेंशन होने से डॉक्टर की सलाह के अनुसार उपचार करें. बच्चे के वजन पर नजर रखें , पौष्टिक भोजन दें और नियमित व्यायाम के लिए प्रोत्साहित करें.

खानपानपौष्टिक और संतुलित भोजन जिसमें  कैलोरी कम हो दें.  स्नैक्स , फ़ास्ट फ़ूड , सुगरी ड्रिंक आदि जिसमें  हाई फैट और शुगर होते हैं , न दें.  इनके बदले फल और सब्जी पर जोर दें. सोडियम यानि नमक ज्यादा न हो.

फिजिकल एक्टिविटी बच्चे / किशोर को उनकी  आयु के अनुसार नियमित व्यायाम के लिए प्रोत्साहित करें जैसे –

स्कूल ऐज बच्चेवाकिंग , साइकिलिंग , बॉल फेंकना और पकड़ना , रस्सी खींचना , पेड़ पर चढ़ना , स्विमिंग , बैडमिंटन , बास्केटबॉल  ,  स्किपिंग , योगा आदि.

3. किशोर  और युवा वाकिंग , जॉगिंग , हाईकिंग , चढ़ाई पर साइकिलिंग ,   स्पोर्ट्स और गेम – टेनिस , मार्शल आर्ट्स , हाई जम्प या लॉन्ग जम्प , क्रॉस कंट्री दौड़ , टग ऑफ़ वॉर ,  योग आदि

हेल्दी वजनबच्चों या किशोरों में हाइपरटेंशन का एक मुख्य कारण मोटापा है. इसके लिए BMI , बॉडी मास इंडेक्स , जो शरीर के वजन ( Kg में ) को लम्बाई के  वर्ग ( sq meter में  ) से भाग देने पर मिलता है. BMI ऐज और सेक्स पर भी निर्भर करता है.आमतौर पर  19 – 24 BMI  ( kg / sq met ) नार्मल है , 24 से 29  ओवर वेट और 30 से ज्यादा BMI मोटापा होता है.

इन्वॉल्वमेंटबच्चों की  एक्टिविटी में दिसलचस्पी लें और खुद भी शामिल हों , जैसे उनके खानपान और व्यायाम में.

अच्छी हेल्थ के लिए गुड बैक्टीरिया

हमारे शरीर की बहुत सी बीमारियों की  जड़ हमारा पेट यानी डाइजैस्टिव सिस्टम है. अगर यह सही तरीके से काम न करे तो तरहतरह की बीमारियां जैसे कब्ज, गैस, मोटापा, मधुमेह, कोलैस्ट्रौल जैसी बहुत सी परेशानियां उत्पन्न हो जाती हैं. दरअसल, आंतों  में मौजूद बैक्टीरिया हमारे शरीर में पाचनक्रिया बढ़ाने, रोगप्रतिरोधक प्रणाली को मजबूत करने  व हमें स्वस्थ रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

स्टमक में अनहैल्दी और हैल्दी माइक्रोब्स के असंतुलन से हमारा स्वास्थ्य खराब हो जाता है. स्टमक में गुड बैक्टीरिया का अनुपात घट जाए तो हैल्दी भोजन लेने के बावजूद शरीर को पोषक तत्त्व नहीं मिल पाते और हम बीमार रहने लगते हैं.

इस संदर्भ में मैक्स सुपर स्पैश्यलिटी हौस्पिटल, साकेत की डाइटीशियन रितिका समद्दर कहती हैं कि हमारा 70 से 80% तक इम्यून सिस्टम गट यानी हमारे डाइजैस्टिव सिस्टम में लोकेटेड होता है. इस गट को हैल्दी रखने के लिए हमें गट माइक्रोबायोम चाहिए, जिसे माइक्रोगेनिज्म के नाम से भी जाना जाता है.

ये 2 तरह के होते हैं- एक हमारे गुड बैक्टीरिया जिन्हें हम प्रोबायोटिक के नाम से जानते हैं, प्रोबायोटिक लाइव बैक्टीरिया होते हैं जो हमारे डाइजैस्टिव सिस्टम में होते हैं. इन्हें हम डाइरैक्टली अपनी डाइट में ले सकते हैं जैसे जब हम दही लेते हैं, योगर्ट खाते हैं या कोई और फर्मैंटेड फूड लेते हैं तो उस में प्रोबायोटिक होते हैं.

अपने गट को हैल्दी रखने का दूसरा तरीका है प्रोबायोटिक लेना. ये नोन डाइजैस्टिव कार्बोहाइड्रेट होता हैं. जब हम इसे खाते हैं तो यह एक गुड ऐन्वायरन्मैंट बनाता है, जिस से गुड बैक्टीरिया बन सकते हैं. जैसे केला, प्याज, शहद, कुछ हरी सब्जियां, जिन्हें हम प्रोबायोटिक के नाम से जानते हैं.

जब हम इन्हें डाइट में लेते हैं तो ये प्रोबायोटिक बनाने में हैल्प करते हैं. इस के अलावा यदि हमारी डाइट में अच्छी मात्रा में फाइबर रहे तो इस से भी गट हैल्थ बरकरार रहती  है.

अपनी आंतों को हैल्दी बनाने के लिए खाएं ये चीजें:

फर्मैंटेड डेयरी: आंतों को हैल्दी रखने में फर्मैंटेड फूड्स खासकर डेयरी प्रोडक्ट्स जैसे दही, योगर्ट आदि बहुत फायदेमंद होते हैं. आप जिन्हें रोज अपने भोजन में शामिल करते हैं तो आप का डाइजैस्टिव सिस्टम परफैक्ट रहेगा और गुड बैक्टीरिया तेजी से बढ़ेंगे.

ब्लूबेरी: शोधों में पाया गया है कि ब्लूबेरी में ऐंटीइनफ्लैमेटरी एजेंट मौजूद होते हैं, जो आंतों में मौजूद गुड बैक्टीरिया को भरपूर पोषण देते हैं. इसलिए इस का सेवन हैल्थ के लिए काफी अच्छा रहता है.

बींस: बींस में कार्बोहाइड्रेट, विटामिन और  प्रोटीन भरपूर मात्रा में होते हैं. इन में फाइबर भी भरपूर मात्रा में मौजूद होता है, जो डाइजेशन को ठीक रखने में बहुत सहायक होता है.

डार्क चौकलेट: चौकलेट खाने में स्वादिष्ठ होने के साथसाथ हैल्दी भी होती है, दरअसल डार्क चौकलेट आंतों में मौजूद गुड बैक्टीरिया के लिए बहुत फायदेमंद होती है.  इस में मौजूद कोकोआ ऐंटीऔक्सीडैंट से भरा होता है, जो गुड बैक्टीरिया पैदा करने में मदद करता है.

केला: रोजाना केले का सेवन काफी फायदेमंद है. दरअसल, केला प्रोबायोटिक का बेहतरीन स्रोत है. इस में मौजूद स्टार्च बड़ी आंत में जा कर फर्मैंट होता है, जो यहां मौजूद गुड बैक्टीरिया के पोषण के लिए बहुत जरूरी है.

इस के अलावा ये आंतों में मौजूद गुड बैक्टीरिया के लिए भी अच्छी होती हैं, इसलिए भोजन में बींस जरूर शामिल जरूर करें.

ग्रीन टी: ग्रीन टी को पौलीफिनोल का बेहतरीन स्रोत माना जाता है. यह स्टमक में हैल्दी माइक्रोब बनाने में मदद करता है और यह गुड बैक्टीरिया व फैटी ऐसिड के अनुपात को भी संतुलित रखता है. इस से स्टमक हैल्दी रहता है. इस में ऐंटीऔक्सीडैंट का गुण भी है, इसलिए तरहतरह के इन्फैक्शन और कैंसर से भी बचाने में मदद करता है.

शकरकंद: शकरकंद में ऐंटीऔक्सीडैंट के गुण होते हैं, जो गुड बैक्टीरिया की ग्रोथ के लिए जरूरी होता है. इस में फाइबर भी होता है और यह किसी भी तरह के इन्फैक्शन को होने से भी रोकता है.

  इन बातों का रखें ध्यान

अपने स्टमक को स्वस्थ रखने के लिए इन बातों का ध्यान रखें:

तनाव का स्तर कम करें: अधिक तनाव हमारे स्टमक के साथसाथ पूरे शरीर पर बुरा असर डालता है. तनाव घटाने के लिए मौर्निंग वाक, बौडी मसाज, दोस्तों और परिवार के साथ अच्छा समय बिताना, हंसना, योग करना जैसी गतिविधियां काफी कारगर साबित होती है.

नींद का पूरा होना: अच्छी नींद न आने की वजह से भी पेट और आंतों के अच्छे बैक्टीरिया असंतुलित हो सकते हैं और डाइजैस्टिव सिस्टम बिगड़ सकता है. इस के लिए रोजाना 7-8 घंटे की नींद लेना बेहद जरूरी है.

भोजन को आराम से खाएं: भोजन अच्छी तरह चबाचबा कर व आराम से खाएं ताकि पेट और आंतें भोजन में मौजूद न्यूट्रिऐंट्स को अच्छी तरह डाइजैस्ट और औब्जर्ब कर सके. इस तरह से खाना आप के डाइजैस्टिव सिस्टम को भी सही बनाए रखता है.

हाइड्रेटेड रहे: उपयुक्त मात्रा में पानी पीना आंतों की झिल्लियों की सेहत के लिए काफी असरदार रहता है और अच्छे बैक्टीरिया का भी संतुलन बनाने में मदद करता है.

प्रोबायोटिक: प्रोबायोटिक सप्लिमैंट्स को अपने भोजन का हिस्सा बनना एक बहुत ही अच्छा विकल्प है, जो आंतों को स्वस्थ और बेहतर बनाता है. प्रोबायोटिक फूड आंतों में अच्छे बैक्टीरिया को बढ़ाता है, जिन लोगों में बैक्टीरिया पहले से ही पर्याप्त मात्रा में होता है उन में प्रोबायोटिक्स नहीं लेने चाहिए. डाक्टर की सलाह से ही जिन का प्रयोग करें.

सुपाच्य भोजन: अगर पेट में खिंचाव, पेट का फूलना, पेट दर्द, दस्त, उल्टियां या पेट में ऐसिड महसूस हो तो आप के लिए अपने खाने की आदतों पर ध्यान देना बेहद जरूरी है. भोजन ऐसा लें, जिसे आप का पेट अच्छी तरह और आसानी से पचा सके तथा सारे न्यूट्रिऐंट्स को शरीर तक पहुंचा सके.

 

अगर आपको भी बिना वजह चक्कर आते हैं तो ना करें इग्नोर

कई बार महिलाएं, शरीर में होने वाले छोटे-मोटे बदलाव और स्वास्थ्य परेशानियों को नजर अंदाज कर देती हैं. लेकिन स्वास्थ्य की यह परेशानियां आगे चलकर गंभीर समस्या का रूप भी ले सकती हैं. इसलिए महिलाओं को इन बातों को गंभीरता से लेते हुए, जल्द से जल्द उपचार के बारे में सोचना चाहिए. हम बता रहे हैं, ऐसे ही कुछ लक्षणों के बारे में जिनके प्रति सतर्क रहना बेहद आवश्यक है.

1. चक्कर आना – अगर आपको बगैर किसी शारीरिक श्रम या अन्य कारण के चक्कर आ रहे हैं, या आपका सिर घूमने लगता है, तो इसे नजरअंदाज बिल्कुल भी  न करें. इस तरह से चक्कर आना, दिल की बीमारी की ओर इशारा करता है. केवल यही नहीं बल्कि इसके और भी कुछ कारण हो सकते हैं, जैसे साइनस या कान में किसी तरह की परेशानी होना.

2. वजन कम होना – बगैर डाइटिंग या वर्कआउट के अगर आपका वजन अचानक कम होता जा रहा है, तो इसके प्रति लापरवाही बिल्कुल न करें और कारण जानें. बिना डायटिंग के वजन 5 किलो से भी कम हो तो यह यह पैंक्रियाज, पेट, ग्रासनली या फिर फेफड़ों के कैंसर की ओर इशारा करता है.

3. आंखों की समस्या – यदि आप महसूस करें कि बिना किसी दर्द के अचानक आपकी आंखों की शक्ति कम हो रही है, तो यह स्ट्रोक का लक्षण भी हो सकता है. दरअसल पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में यह खतरा अधिक होता है और यह खतरा 35 से 50 की उम्र की महिलाओं में भी होता है.

4. असामान्य मासिकधर्म – मासिक धर्म के समय सामान्य से अधि‍क रक्तस्त्राव होना फाइब्रॉइड या गर्भाशय का ट्यूमर भी हो सकता है. इसके कारण एनीमिया, थकान, गर्भ ठहरने में परेशानी और कई परेशानियां आ सकती हैं.

5 दस्त – खाने-पीने में गड़बड़ी होने से पेट खराब हो सकता है, लेकिन अक्सर रात के वक्त आपको दस्त लगाने जैसा महसूस होता हो, तो चिकित्सक को जरूर दिखाएं क्योंकि यह आंतों में सूजन या संक्रमण हो सकता है.

बच्चों पर चिल्लाना पड़ सकता है भारी, साइकोलॉजी पर डालता है असर

बच्चे जब ज्यादा छोटे होते हैं, तब उनकी शरारत अच्छी लगती है. लेकिन वही बच्चे जब थोड़ा बड़े हो जाएं, तो उनकी शरारतों और हरकतों पर कई बार मां-बाप को तेज गुस्सा आता है. इस गुस्से में कई बार मां-बाप अपने बच्चे पर चिल्लाने लगते हैं, गुस्सा करने लगते हैं. माता-पिता के गुस्से को देखकर बच्चा शांत जरूर हो जाता है, लेकिन उसके बाल मन पर इस तरह चिल्लाने और गुस्सा करने का बुरा असर पड़ता है. मां-बाप के द्वारा बच्चे से चिल्लाकर बात करने की आदत का उनकी साइकोलॉजी (मनोविज्ञान) पर बुरा असर पड़ता है. आइए आपको बताते हैं क्या हैं वो दुष्प्रभाव और क्यों नहीं करना चाहिए बच्चों से चिल्लाकर बात.

मानसिक विकास पर पड़ता है असर

अगर आप अपने बच्चे पर बहुत अधिक गुस्सा करते हैं, उसे हर समय डराकर रखते हैं और उसे हर बात पर टोकते और नजर रखते हैं, तो इससे बच्चे के मानसिक विकास पर ऐसा पड़ता है. इस तरह की परवरिश को हेलीकॉप्टर पैरेंटिंग कहा जाता है, जिसके कई तरह के नुकसान हैं. ऐसे ज्यादातर बच्चों के याद करने की क्षमता कमजोर हो जाती है और निर्णय क्षमता पर भी असर पड़ता है. हालांकि कई बार इस तरह की पाबंदियों के कारण बच्चे चालाकी भी सीख जाते हैं और सामान्य से ज्यादा चालाक बन जाते हैं.

माँ पिता से बच्चों का रिश्ता हो सकता है प्रभावित

चिल्लाकर बात करने, डांटने और गुस्सा करने से बच्चे के मन में अपने माता-पिता के लिए नकारात्मक विचार जन्म लेने लगते हैं, जिसके कारण बच्चे और मां-बाप के बीच का रिश्ता प्रभावित होता है. ऐसे बच्चे अक्सर अपने माता-पिता से ज्यादा भरोसा अपने दोस्तों और साथियों पर करते हैं. लंबे समय में इस तरह बच्चे का मां-बाप से कटाव कई तरह की परेशानियां पैदा कर सकता है.

दब्बू हो सकता है बच्चे का स्वभाव

दब्बू उन्हें कहा जाता है जो दूसरे लोगों से बातचीत करते समय पूरे कॉन्फिडेंस से बात नहीं कर पाते हैं या डरते रहते हैं. बहुत सारे बच्चों में हाई स्कूल के शुरुआती दिनों में इस तरह की समस्याएं पाई जाती हैं. देखा जाता है कि जो मां-बाप अपने बच्चे को हर बात पर डांटते हैं, चिल्लाते हैं या गुस्सा करते हैं, उनके बच्चे अक्सर स्वभाव से दब्बू हो जाते हैं. इसलिए आपको बच्चे के कॉन्फिडेंस को चोट न पहुंचे इसके लिए जरूरी है कि आप बच्चों से प्यार से बात करें.

झूठ बोलना सीख जाते है बच्चे

बच्चे से चिल्लाकर बात करने की आदत का सबसे बुरा असर ये पड़ता है कि आपका बच्चा आपसे झूठ बोलना सीख जाता है. अगर आप बच्चे को हर समय उसकी छोटी-छोटी बातों के लिए डांटेंगे या टोकेंगे, तो जल्द ही वो आपसे अपने निजी जीवन से जुड़ी बातें छिपाना सीख जाएगा. कई बार बच्चे की इस आदत का दुष्परिणाम गंभीर हो सकता है.

क्या कील से चोट लगने के 6 महीने बाद भी टिटनेस हो सकता है?

सवाल

मैं 25 साल की युवती हूं. लगभग 6 महीने पहले मेरे पैर में कील चुभ गई थी. लेकिन मैं टिटनैस का टीका नहीं लगवा पाई. पैर में कभीकभी सरसराहट सी दौड़ती है, तो डर जाती हूं कि कहीं मुझे टिटनैस तो नहीं होने वाला. क्या चोट लगने के इतने समय बाद भी मुझे टिटनैस हो सकता है? मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब

चोट लगने के 6 महीने बाद अब टिटनैस होने का डर लगभग न के बराबर है. जिन मामलों में चोट लगने पर टिटनैस होना होता है, प्राय: यह 3 हफ्तों के अंदर प्रकट हो जाता है.

टिटनैस उन्हीं लोगों को होता है, जिन्होंने बचपन में या जीवन में पहले ठीक से टिटनैस टौक्सायड (टीटी) के टीका नहीं लिए होते. उन के जख्म में टिटनैस उत्पन्न करने वाले बैक्टीरिया पैठ कर जाते हैं.

बचाव के लिए यह जरूरी है कि टिटनैस टौक्सायड के 3 टीके आप ने पहले से लिए हों. दूसरा टीका पहले टीके के 6 हफ्तों बाद लगाया जाता है और तीसरा टीका पहले टीके के 6 महीने बाद. उस के बाद हर 10 साल बाद यह टीका लगवाते रहना चाहिए. घाव बहुत गंदा हो, तो पहला टीका लगे 5 साल बीत चुके हों तब भी यह टीका लगवा लेना चाहिए. इस से टिटनैस नहीं होता.

जिन लोगों ने कभी टिटनैस का टीका नहीं लिया होता, उन्हें डाक्टर से तुरंत मिल कर टिटनैस के 3 टीकों का कोर्स तो लेना ही चाहिए. टिटनैसरोधी इम्युनोग्लोबुलिन का टीका भी जरूर लगवा लेना चाहिए.

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अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz
 
सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

ऐंड्रोजेनेटिक ऐलोपेसिया में बाल गिरना कैसे रोकें?

सवाल-

मैं 28 वर्षीय युवक हूं. पिछले 5 सालों से मेरे सिर के आगे के बाल लगातार गिर रहे हैं. डाक्टर ने इसे ऐंड्रोजेनेटिक ऐलोपेशिया बताया है. उन की सलाह पर मैं पिछले 3 साल से सिर पर सुबहशाम मिनोक्सीडिल लोशन लगा रहा हूं, लेकिन मेरे बाल गिरना बंद नहीं हुए हैं. मैं क्या करूं?

जवाब-

सिर पर बाल उगना, उन का बढ़ना और गिरना आम बात है. आमतौर पर जितने बाल गिरते हैं, उन की जगह पर उतने ही नए बाल उग जाते हैं और ज्यादातर लोगों में किसीकिसी समय सिर के 90% बाल बढ़ने और 10% गिरने के दौर में होते हैं. पर ऐंड्रोजेनेटिक ऐलोपेशिया होने पर बाल गिरने का दौर लंबा खिंच जाता है और सिर गंजा दिखने लगता है. यह एक आनुवंशिक विकार है, जिस का कोई पक्का इलाज नहीं है. यदि आप को मिनोक्सीडिल लोशन से लाभ नहीं पहुंच रहा तो संभव है फिनेस्ट्रौयड की गोली लाभ पहुंचाए. आप इस बाबत अपने डाक्टर से सलाह लें. अगर 12 से 15 महीने के इलाज के बाद भी आराम न मिले तो हो सकता है कि आप को हेयर ट्रांसप्लांट कराना पड़े.

फिनेस्ट्रौयड और मिनोक्सीडिल के साथ कुछ सावधानियां अमल में लाना जरूरी है. उन के बारे में डाक्टर से पूरी जानकारी जरूर प्राप्त कर लें. इन दवाओं के साथ यह भी है कि जैसे ही हम इन्हें बंद करते हैं, बाल फिर से गिरना शुरू हो जाते हैं.

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गंजापन को ऐलोपेसिया भी कहते हैं. जब असामान्य रूप से बहुत तेजी से बाल  झड़ने लगते हैं तो नए बाल उतनी तेजी से नहीं उग पाते या फिर वे पहले के बालों से अधिक पतले या कमजोर उगते हैं और उन का कम होना शुरू हो जाता है. ऐसी हालत में बालों पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए क्योंकि स्थिति गंजेपन की ओर जाती है. अपोलो हौस्पिटल के सीनियर कंसल्टैंट (प्लास्टिक कौसमैटिक ऐंड रिकंस्ट्राक्टिव सर्जरी) डाक्टर कुलदीप सिंह के अनुसार:

गंजेपन के प्रकार ये हैं

ऐंड्रोजेनिक ऐलोपेसिया: यह स्थायी किस्म का गंजापन है और एक खास ढंग से खोपड़ी पर उभरता है. इस किस्म के गंजेपन के लिए मुख्यतया टेस्टोस्टेरौन हारमोन संबंधी बदलाव और आनुवंशिकता जिम्मेदार होती है.

यह महिलाओं से ज्यादा पुरुषों में होता है. यह कनपटी और सिर के ऊपरी हिस्से से शुरू हो कर पीछे की ओर बढ़ता है और यह जवानी के बाद किसी भी उम्र में शुरू हो सकता है.

ऐलोपेसिया ऐरीटा: इस में सिर के अलगअलग हिस्सों में जहांतहां के बाल गिर जाते हैं, जिस से सिर पर गंजेपन का पैच लगा सा दिखता है. यह स्थिति शरीर की रोगप्रतिरोधी शक्ति कम होने के कारण होती है.

टै्रक्शन ऐलोपेसिया: यह लंबे समय तक बालों को एक ही स्टाइल में बांधने के कारण होता है, लेकिन हेयरस्टाइल बदल देने से बालों का  झड़ना रुक जाता है.

हारमोन परिवर्तन से: यह किसी खास चिकित्सीय कारण जैसे कैंसर कीमोथेरैपी, अत्यधिक विटामिन ए के प्रयोग से, इमोशनल या फिजिकल स्ट्रैस की वजह से या गंभीर रूप से बीमार पड़ने अथवा बुखार होने की वजह से होता है.

क्या आपको भी है Digital Eye Strain, तो जानें इसका रोकथाम और उपचार

हममें से ज्यादातर लोग अपने दिन के ज्यादातर घंटे स्क्रीन के सामने बैठकर बिताते हैं. वो चाहे कंप्यूटर स्क्रीन हो या फिर मोबाइल स्क्रीन. घंटों डिजिटल स्क्रीन के सामने बैठने का सबसे बुरा असर हमारी आंखों पर पड़ता है. जिससे तनाव, अनिद्रा और कई दूसरी बीमारियों के होने की आशंका बढ़ जाती है. आंखों से जुड़ी इस तकलीफ को Digital Eye Strain कहते हैं.

Digital Eye Strain को ही पहले computer vision syndrome के नाम से जाना जाता था. यह बीमारी दिन-प्रतिदिन लोगों में बढ़ती ही जा रही है.

पहले सिर्फ कंप्यूटर पर काम होता था लेकिन अब लैपटॉप, टैबलेट्स, स्मार्ट फोन भी हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन चुके हैं. इन चीजों के बहुत अधिक इस्तेमाल से Digital Eye Strain की प्रॉब्लम हो जाती है.

इसकी शुरुआत आंखों में हल्के दर्द से हो सकती है. लेकिन समय रहते इलाज नहीं कराया जाए तो भविष्य में आंखों की रोशनी भी जा सकती है.

Digital Eye Strain के शुरुआती लक्षण

आंखों में खिंचाव महसूस होना, आंखों में पानी आना, दर्द होना, धुंधला दिखना, लाला होना, इसके शुरुआती लक्षण हैं. इसके साथ ही सिरदर्द और घबराहट भी हो सकती है. कई बार ये चिड़चिड़ेपन का कारण भी हो सकता है. हो सकता है सुबह उठकर आपको तकलीफ कम हो लेकिन दिन बढ़ने के साथ ही ये तकलीफ बढ़ने लगती है.

रोकथाम और उपचार

1. डिजिटल प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल करना हमारी जरूरत बन चुकी है. ऐसे में हमें उनके इस्तेमाल का सही तरीका भी पता होना चाहिए. इन चीजों को आंखों के बहुत पास या दूर रखकर यूज करना खतरनाक हो सकता है.इन चीजों को एक न‍ि‍श्च‍ि‍त दूरी पर रखकर ही इस्तेमाल  करना चाहिए.

2. जिस कमरे में बैठकर आप इन चीजों का इस्तेमाल कर रहे हैं वहां पर्याप्त रोशनी होनी चाहिए. वरना आंखों पर जोर पड़ेगा.

3. ऑफिस में एसी वेंट के सामने नहीं बैठना चाहिए. इससे आंखों का पानी सूख जाता है. 20-20-20 का नियम फॉलो करना चाहिए. जो लोग ऑफिस में कंप्यूटर और लैपटॉप में देर तक काम करते हैं, उन्हें हर 20 मिनट पर 20 फीट दूर पर रखी चीज को 20 सेकंड के लिए देखना चाहिए. ये आंखों के तनाव को कम करता है.

4. स्क्रीन ज्यादा ब्राइट नहीं होनी चाहिए और फॉन्ट साइज बहुत छोटे नहीं होने चाहिए.

5. जब आप देर तक कंप्यूटर पर काम करते हैं तो आपकी पलकें एक मिनट में 6-8 बार ही झपकती हैं जबकि 16-18 बार पलकों का झपकना नॉर्मल होता है. ऐसे में आवश्यक रूप से हर छह महीने में एकबार आंखों की जांच करा लें.

स्पाइनल डिस्क से जुड़ी बीमारी का इलाज बताएं?

सवाल-

मेरे पिता की स्पाइनल डिस्क काफी क्षतिग्रस्त हो गई है. डाक्टर ने सर्जरी कराने को कहा है. मैं जानना चाहती हूं कि ओपन सर्जरी की तुलना में मिनिमली इनवेसिव सर्जरी कितनी बेहतर है?

जवाब-

जिन मरीजों की डिस्क बहुत क्षतिग्रस्त हो गई हो उन्हें स्पाइन सर्जरी की आवश्यकता पड़ती है. आजकल मिनिमली इनवेसिव डिकंप्रैशन और मिनिमली इनवेसिव स्टैबिलाइजेशन प्रक्रियाओं का चलन काफी बढ़ा है. ओपन सर्जरी की तुलना में यह काफी सुरक्षित और प्रभावकारी विकल्प है. इस में स्पाइन के आसपास की मांसपेशियों को बड़ेबड़े चीरों के द्वारा काटने और अलग करने की जरूरत नहीं पड़ती है. इस में छोटा चीरा लगा कर ही सर्जरी की जा सकती है.

मिनिमली इनवेसिव सर्जरी के साइड इफैक्ट्स कम होते हैं और रिकवर होने में भी कम समय लगता है.

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रीढ़ की हड्डी का ट्यूमर एक गंभीर समस्या है. इसका सही समय पर उचित इलाज न किया जाए, तो यह लकवा का कारण बन सकता है. ट्यूमर्स कई प्रकार के होते हैं और उनके इलाज भी भिन्न-भिन्न हैं.

कई प्रकार के ट्यूमर्स के ठीक होने की संभावना आज कुछ वर्ष पूर्व के मुकाबले कहीं अधिक है. ये ट्यूमर नियोप्लाज्म नामक नए टिश्यूज की अस्वाभाविक वृद्धि हैं. सामान्यत: नियोप्लाज्म टिश्यूज दो तरह के होते हैं, बिनाइन (जो कैंसरग्रस्त नहीं होते) या मैलिग्नेंट (जो कैंसरग्रस्त होते हैं). किसी अन्य अंग से फैलने वाला कैंसर मेटास्टेसिस ट्यूमर हो सकता है.

स्पाइनल ट्यूमर कैसे पहचानें :

  • पीठ और टांगों का दर्द हो सकता है.
  • टांगों या बांहों में कमजोरी होना और इनमें सुन्नपन महसूस करना.
  • सियाटिका की समस्या और आंशिक रूप से लकवा लगना.
  • मल-मूत्र संबंधी समस्याएं हो सकती हैं.

जांच और इमेजिंग तकनीक एम.आर. आई. जांच से पता चलता है कि ट्यूमर तंत्रिकाओं या नव्रस पर कहां-कहां तक दबाव डाल रहा है. इसके अलावा सी.टी. स्कैन, टेक्नीशियम बोन स्कैन, सी.टी. गाइडेड बायोप्सी या एफएनएसी द्वारा भी ट्यूमर की जांच की जाती है.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz   सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

क्या है ब्रेन स्ट्रोक, जानें इससे बचने के उपाय

पक्षाघात यानी ब्रेन स्ट्रोक दिमाग के किसी भाग में ब्लड सप्लाई बाधित होने या कम होने से होता है. दिमाग में औक्सीजन और पोषक तत्त्वों की कमी से ब्लड वैसेल्स यानी रक्त वाहिकाओं के बीच ब्लड क्लोटिंग की वजह से उस की क्रियाएं बाधित होने लगती है, इस कारण दिमाग की पेशियां नष्ट होने लगती है जिस से दिमाग अपना नियंत्रण खो देता है, जिसे स्ट्रोक सा पक्षाघात कहते हैं. यदि इस का इलाज समय पर नहीं कराया जाए तो दिमाग हमेशा के लिए डैमेज हो सकता है. व्यक्ति की मौत भी हो सकती है.

आज विश्व में करीब 80 मिलियन लोग स्ट्रोक से ग्रस्त हैं, 50 मिलियन से ज्यादा लोग स्थाई तौर पर विकलांग हो चुके हैं. ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के अनुसार 25% ब्रेन स्ट्रोक के मरीजों की उम्र 40 वर्ष है. इस बात को ध्यान में रखते हुए हर साल 29 अक्तूबर को ‘वर्ल्ड स्ट्रोक डे’ मनाया जाता है, जिस का उद्देश्य स्ट्रोक की रोकथाम, उपचार और सहयोग के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ाना है.

मुंबई के अपैक्स सुपर स्पैश्यलिटी हौस्पिटल के वरिष्ठ मस्तिष्क रोग स्पैशलिस्ट एवं न्यूरोलौजिस्ट डा. मोहिनीश भटजीवाले बताते हैं कि दुनियाभर में ब्रेन स्ट्रोक को मौत का तीसरा बड़ा कारण माना जा रहा है. केवल भारत में हर 1 मिनट में 6 लोगों की मौत हो रही है, क्योंकि यहां ब्रेन स्ट्रोक जैसी मैडिकल इमरजैंसी की स्थिति में इस के लक्षणों, कारणों, रोकथाम और तत्काल उपायों के प्रति जनजागरूकता का बहुत अभाव है जबकि ब्रेन स्ट्रोक के मरीजों को तत्काल उपचार से उन के अच्छे होने के चांसेस 50 से 70% तक बढ़ जाते हैं.

प्रमुख कारण

डा. भटजीवाले के अनुसार, आज की भागदौड़ की जिंदगी में मानसिक तनाव, लाइफस्टाइल, स्मोकिंग, ड्रिंकिंग, हाई ब्लडप्रैशर, डायबिटीज, मोटापा इत्यादि ब्रेन स्ट्रोक के लिए जिम्मेदार हैं. इन के अलावा आरामदायक या लगातार बैठ कर काम करने की शैली भी दिमाग और हृदय संबंधित बीमारियों को न्योता दे रही है. इन्हीं कारणों के चलते युवाओं में यह बीमारी तेजी से फैल रही है.

इन सभी कारणों के अलावा जो 80% लोगों को नहीं पता है वह है वातावरण और मौसम में असामान्य परिवर्तन, जो हमारी स्किन और ब्रेन को विपरीत ढंग से प्रभावित कर रहे हैं. इस के परिणाम आने वाले दिनों में घातक सिद्ध हो सकते हैं. इस के लिए पेड़ों की कटाई मुख्यतौर से जिम्मेदार है.’’

डा. सिद्धार्थ खारकर, न्यूरोलौजिस्ट, वक्हार्ड्ट हौस्पिटल, मीरा रोड के अनुसार, ‘‘ब्रेन स्ट्रोक को आमतौर पर नजरअंदाज किया जाता है, जबकि हर 6 में से 1 व्यक्ति जिंदगी में कभी न कभी इस की चपेट में आता ही है. सर्दियों के मौसम में इस की आशंका और अधिक बढ़ जाती है. हार्ट अटैक, कैंसर और डायबिटीज जैसी बीमारियों को जितनी गंभीरता से लिया जाता है उतनी गंभीरता से ब्रेन स्ट्रोक को नहीं लिया जा रहा है. टाइप-2 डायबिटीज के मरीजों में इस का खतरा ज्यादा रहता है. हाई ब्लड प्रैशर और हाइपरटैंशन के मरीज इस की चपेट में जल्दी आ जाते हैं. गर्भनिरोधक गोलियों के सेवन और कोलैस्ट्रौल का बढ़ता स्तर भी ब्रेन स्ट्रोक को निमंत्रण देता है.’’

ब्रेन स्ट्रोक के लक्षण

पूरे शरीर में दिमाग का काम बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण होता है. ऐसे में यदि शरीर की अन्य बीमारियों को नजरअंदाज किया गया तो ये हमारे दिमाग को विपरीत ढंग से प्रभावित करती हैं. ब्रेन स्ट्रोक के संकेत के तौर पर मुंह, हाथ व पैर का टेड़ा होना, चक्कर आना, सिरदर्द, आंखों से धुंधला दिखाई देना, बोलने और चलने में समस्या, पीठ दर्द इत्यादि प्रमुख लक्षण होते हैं. स्ट्रोक नौनब्लीडिंग व ब्लीडिंग दोनों तरह का होता है जिस में दिमाग की नसों में सूजन हो जाती है या फिर नसें फट जाती हैं.

स्ट्रोक के प्रकार के अनुसार इलाज

डा. भटजीवाले के अनुसार ब्रेन स्ट्रोक में तत्काल चिकित्सा बहुत जरूरी है. यह उपचार स्ट्रोक शुरू होने के 3-4 घंटों के अंदर किया जाए, तो दिमाग की क्षति और संभावित परेशानियों को कम किया जा सकता है. उदाहरण के तौर पर 3 घंटे के अंदर क्लोट बस्टिंग दवा देनी जरूरी होती है. इस के बाद डाक्टर द्वारा पूरी जांच यानी सीटीस्कैन, एमआरआई इत्यादि करने के बाद स्ट्रोक का इलाज शुरू किया जाता है, जिस का उद्देश्य दिमाग की क्षति को रोकना होता है.

यदि स्ट्रोक दिमाग में ब्लड सप्लाई बाधित होने के कारण हुआ है तो उस के उपचार निम्नलिखित हैं:

  • नौनब्लीडिंग ब्रेन स्ट्रोक होने के 3 घंटों के अंदर क्लोट बस्टिंग ड्रग का इंजैक्शन दिया जाना बहुत जरूरी होता है, साथ ही ब्लड को पतला करने की दवा भी दी जाती है ताकि ब्लड न जमे. इस के अलावा सर्जरी भी की जाती है, जिस में गरदन की संकुचित ब्लड वैसेल्स को खोला जाता है.
  • यदि ब्लीडिंग के कारण ब्रेन स्ट्रोक हुआ हो तो ऐसी दवा दी जाती है जो नौर्मल ब्लड क्लोटिंग को बनाए रखने में मदद करती है. दिमाग से ब्लड को हटाने या दबाव कम करने के लिए सर्जरी की जाती है. टूटी ब्लड वैसेल्स रिपेयर करने के लिए सर्जरी की जाती है. ब्लीडिंग को रोकने के लिए क्वाइल यानी तार का इस्तेमाल किया जाता है. दिमाग में सूजन होने से बचने या रोकने के लिए दवा दी जाती है. इस के अलावा दिमाग के खाली हिस्से में ट्यूब डाल कर दबाव कम करने का प्रयास किया जाता है.

अफेसिया होने का खतरा

स्ट्रोक के बाद मरीज में शारीरिक और मानसिक अक्षमता होने की आशंका अधिक होती है, जो स्ट्रोक से प्रभावित हिस्से और आकार पर निर्भर करती है. नैशनल अफेसिया ऐसोसिएशन की रिपोर्ट के अनुसार, 25 से 40% ब्रेन स्ट्रोक के मरीज अफेसिया की चपेट में आ जाते हैं. यह एक ऐसी स्थिति है जो मरीज के बोलने, लिखने और व्यक्त करने की क्षमता को प्रभावित करती है, जिसे ‘लैंग्वेज डिसऔर्डर’ भी कहा जाता है. यह बीमारी ब्रेन ट्यूमर, ब्रेन इन्फैक्शन, अल्जाइमर इत्यादि के कारण होती है. कई मामलों में अफेसिया को ऐपिलैप्सी व अन्य न्यूरोलौजिकल डिसऔर्डर के संकेत के तौर पर भी देखा जाता है.

रिहैबिलिटेशन होता है सहायक

ब्रेन स्ट्रोक के कारण हुई क्षति को दूर करने में रिहैबिलिटेशन यानी पुनरुद्धार बहुत हद तक मदद करता है. रिहैबिलिटेशन से बहुत से मरीजों का स्वास्थ्य बेहतर हो जाता है. हालांकि कुछ पूरी तरह से ठीक नहीं हो पाते हैं. डैड स्किन सैल्स, नर्व सैल्स को ठीक या प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता है, लेकिन मनुष्य का दिमाग फ्लैक्सिबल होता है. इस में मरीज हानिरहित ब्रेन सैल्स का उपयोग कर काम करने के नए तरीकों को सीख सकता है. ऐसे मरीजों के जीवन को सही देखभाल, साथ और प्रोत्साहन के जरीए सार्थक बनाया जा सकता है.

कैसे जानें कि Menstrual Cup भर चुका है?

यदि हाल ही में आपने मेंस्ट्रुअल कप का इस्तेमाल करना शुरू किया है या फिर ऐसा करने के बारे में सोच रही हैं तो आप एक बेहद ही आरामदायक और पर्यावरण के अनुकूल माहवारी की राह पर हैं. लेकिन मैं इस बात को समझ सकती हूं कि आपके दिमाग में कई सारे सवाल होंगे, हालांकि सबसे महत्वपूर्ण होगा लीकेज की चिंता या फिर कितने अंतराल पर कप को खाली करने की जरूरत होती है.

डॉ. तनवीर औजला, वरिष्ठ सलाहकार प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ, मदरहुड अस्पताल, नोएडा की बता रही इसके इस्तेमाल के तरीके इसका उपयोग करना पूरी तरह से सुरक्षित है और एक बार ठीक से इंसर्ट होने के बाद, आपके शरीर में कुछ अजीब होने का सवाल ही नहीं पैदा होता.

मेंस्ट्रुअल कप, सिलिकॉन या लेटेक्स रबर से बना एक छोटा, लचीला कप होता है, जिसे माहवारी के दौरान वजाइनल कैनाल में इंसर्ट किया जाता है. चूंकि, मेंस्ट्रुअल कप में माहवारी का रक्त पैड या टैम्पॉन की तरह अवशोषित होने की जगह जमा होता है तो आप इसे इस्तेमाल के बाद खाली कर सकती हैं. यह इस्तेमाल करने वाले की उम्र, सर्विक्स की स्थिति और रक्त के प्रवाह पर निर्भर करता है. ये कप तीन साइज में उपलब्ध हैं: स्मॉल, मीडियम और जाइंट.

कुछ चिंताओं के बावजूद, मेंस्ट्रुअल कप काफी लचीला होता है और इंसर्ट करने के बाद, यह वजाइनल कैनाल के अंदर फैलता है. विशेषज्ञों के अनुसार, इसका उपयोग करना पूरी तरह से सुरक्षित है और एक बार ठीक से इंसर्ट होने के बाद, आपके शरीर में कुछ अजीब होने का सवाल ही नहीं पैदा होता. आप अपने टैम्पॉन के खिसकने या आपके अंडरवियर पर अपने पैड के गिरने की चिंता किए बिना अपना दिन बिता सकती हैं. कुछ लोग इसके बारे में दावा करते हैं कि रिसाव का कोई खतरा नहीं होता, यात्रा के दौरान इसका उपयोग करना बहुत आरामदायक होता है और यह पर्यावरण के लिये फायदेमंद है.

वहीं दूसरी तरफ, कुछ ऑनलाइन यूजर्स दावा करते हैं कि यह पता लगाना मुश्किल होता है कि कब कप भर गया. कोई भी अलार्म सिस्टम आपको अलर्ट नहीं करता है कि कप फुल हो चुका है और आपके मेंस्ट्रुअल कप इतना उन्नत नहीं है कि आपको एसएमएस कर दे कि कब रक्त का स्तर सही है.

जिस दिन रक्त का बहाव ज्यादा हो आपको हर 3 से 4 घंटे पर यह देखना चाहिए कि कितना रक्त इकट्ठा हो रहा है. मेंस्ट्रुअल कप के आकार और टैम्पॉन के सवाल के आधार पर एक मेंस्ट्रुअल कप आमतौर पर एक टैम्पॉन के मुकाबले दो से आठ गुना अधिक रक्त इकट्ठा करता है. जब भी संदेह हो, कप को हटा लें और कितना भरा है उसकी जांच कर लें. इसे भरने में कितना समय लगता है, यह इस पर निर्भर करता है कि आप कितनी बार कप को हटाती हैं और उसे खाली करती हैं.

चूंकि, इस बात का पता लगाना मुश्किल है कि यह कप कब भरेगा तो इस बात की जांच कर लें कि ज्यादा रक्तस्राव वाले दिन इसे भरने में कितना वक्त लगता है. कम रक्तस्राव वाले दिन आपको कप भरने की चिंता नहीं करनी है, क्योंकि जितनी देर आप कप को अंदर रखेंगी, वह धीरे-धीरे भरता रहेगा.

रक्तस्राव की तीव्रता के अलावा भी आमतौर पर आपको हर 10 से 12 घंटे में कप को निकालना है. कुछ कंपनियां सलाह देती हैं कि 8 घंटे के बाद कप को निकालना, साफ करना और फिर से इंसर्ट करना सबसे सही होता है. लेकिन अध्‍ययनों के मुताबिक कप को 12 घंटे तक लगातार छोड़ देना भी सुरक्षित ही है. इसके साथ ही कप का लीक होने लगना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि वह भर चुका है. लेकिन हममें से ज्यादातर इतना लंबा इंतजार नहीं करना चाहेंगे, क्या हम ऐसा करेंगे?

कुछ रिसर्च के मुताबिक, एक कप को 12 घंटे से ज्यादा समय तक रखना, टॉक्सिक शॉक सिंड्रोम (टीएसएस) और अन्य वजाइनल संक्रमणों के खतरे को बढ़ा देता है. लंबे समय तक कप में ठहरा हुआ रक्त बैक्टीरिया के पनपने की जगह बन सकता है, यह बैक्‍टीरिया इन रोगों के होने का कारण बन सकते हैं.

हालांकि, कप के इस्‍तेमाल से जुड़े टीएसएस के केवल दो मामले ही सामने आए हैं. इसके अलावा,  पिछले हफ्‍ते उन महिलाओं में से किसी ने भी अपने कप नहीं हटाए. टीएसएस आमतौर पर टैम्पॉन के इस्‍तेमाल से जुड़ा होता है, लेकिन सामान्य नियम के मुताबिक किसी भी प्रकार के जोखिम को टालने के लिये अपने मेंस्ट्रुअल कप को 12 घंटे से ज्यादा समय के लिये अंदर ना छोड़ने की सलाह दी जाती है.

कप के पूरी तरह भर जाने से लीक होने का खतरा बढ़ जाता है, लेकिन ऐसा होने के कुछ और भी कारण हो सकते हैं:

बड़े या छोटे साइज का कप लगाने से यदि आईयूडी मौजूद हो, उसका धागा कप के रिम और वजाइनल वॉल में फंस सकता है, जो रक्त के स्राव के लिये जरूरी सक्शन बनने से रोक सकता है.

आपके कप के बाहर स्थित सर्विक्स, जोकि कप के साथ सही तरीक से एक सीध में ना हो.

बाउल मूवमेंट की वजह से आपके कप की पॉजिशन बदल सकती है.

आपके पेल्विक मसल्स इतने मजबूत हों कि उसमें लगभग भरे हुए कप से सक्शन को हटाने की ताकत हो.

जब तब आपका कप भरने के लिये पूरी तरह खाली ना हो, तब तक इंतजार ना करें. यदि आपको 12 घंटे हो चुके हैं तो आप हर 3 से 4 घंटे में इसे फिर से इंसर्ट कर सकती हैं, यह आपके रक्त स्राव पर निर्भर करता है. भले ही आपका कप ना भरा हो, फिर भी आपको इसे हटाना है.

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