बैंक बन गए साहूकार

पति के व्यवसाय में बैंक के कर्ज से हो रही उन्नति को देख कर बहुत सी औरतें फूली नहीं समातीं पर वे यह भूल जाती हैं कि हमारे ये बैंक पिछले जमाने के साहूकारों से भी ज्यादा बेदर्द और लोगों को रिहायशी घर तक बेचने को मजबूर कर देते हैं. गत 30 अगस्त को दिल्ली के एक अखबार में इंडियन ओवरसीज बैंक, पटना, पंजाब नैशनल बैंक, हरिद्वार के नीलामी के विज्ञापन प्रकाशित हुए.

इन विज्ञापनों में जो संपत्ति नीलाम हो रही है, वह बेहद छोटी यानी ₹7-8 लाख से ले कर ₹30-40 लाख तक की और रिहायशी मकानों की है. हरिओम गल्ला भंडार, श्यामला हैंडलूम, श्यामा साड़ीज, यादें टे्रडर्स, त्रिदेव ट्रेडर्स जैसे छोटेछोटे व्यापारियों के घरों पर बैंक ने कब्जा कर लिया है और अब खुलेआम उन्हें नीलाम करा जा रहा है.

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लगभग हर कर्जदार के साथ एक औरत जुड़ी है, चाहे पार्टनर के रूप में या फिर संपत्ति मालिक के तौर पर. आप ने कालीसफेद फिल्मों के जमाने में औरतों को साहूकारों के पैर पकड़ते बहुत से रूलाने वाले दृश्य देखे होंगे. यही सीन दोहराए जा रहे हैं. अब साहूकार नहीं वह व्यक्ति बैंक मैनेजर है. सब बैंकों ने कर्ज की मूल राशि पर ब्याज जोड़ कर मोटी रकमें बना लीं जो आज के मंदी के दौर में बहुत भारी पड़ गईं.

हर व्यापार चले यह जरूरी नहीं और कर्ज देने वाला नुकसान उठाए यह भी गलत है. पर जब सैकड़ों नहीं हजारों व्यापारी बैंकों के चंगुल में कर्जदार फंसे नजर आएं तो लगता है कि कहीं कुछ गलत है.

सरकार मुनाफे पर टैक्स लेने तो आ जाती है पर हानि के समय बजाय बैसाखी देने के कफन नोचने को तैयार रहती है. बैंक भी सरकार की तरह के हैं कि घर की औरतेंबच्चे कहां जाएंगे, इस की चिंता करे बिना घरों को खाली करवा के नीलाम करवा देते हैं. श्यामा साड़ीज के कर्ज में जिस संपत्ति को बेचा जा रहा है वह महज 807 वर्ग फुट की है. हरिओम गल्ला भंडार का मकान सिर्फ 1360 वर्ग फुट का है. यादें ट्रेडर्स का मकान 7 डैसीमल (2800 वर्ग फुट) का है. ये विशाल पैडर रोड मुंबई के मकान नहीं हैं, जिन के मालिकों को अरबोंखरबों देने हैं.

इन छोटे मकानमालिकों को घरों से निकाल कर बैंक अपने खाते भले पूरे कर लें पर यह पक्का है कि देश में बिगड़ता? व्यापारिक माहौल उन औरतों का दुख है जिन्हें बैंक दरदर भटकने को मजबूर कर रहे हैं. ऐसे घरों के बच्चे भी कभी देश के लिए मजबूत नागरिक नहीं बनेंगे. वे कुंठित रहेंगे, उन की पढ़ाई छूट जाएगी. वे मांबाप को दोष दें या उन से सहानुभूति रखें, वे उन से संरक्षण की आशा नहीं रख पाएंगे.

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यही कारण था कि उपजाऊ जमीन, अच्छे शिल्पकारों और भरपूर मजदूरों के बावजूद यह देश हमेशा गरीबी का गुलाम रहा है और पूजापाठी औरतें भी बिलखतीतरसती रही हैं. नए स्वतंत्र भारत ने साहूकारों से कोई नजात नहीं दिलाई. नए तरीके के खूंख्वार सूदखोर पैदा कर दिए.

यह तो होना ही था

केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी जो राहुल गांधी जैसी हस्ती से टक्कर ले सकती हैं, अपनी खुद की बेटी को स्कूल में बुली करने वाले उस के सहपाठियों के आगे लाचार हैं.

स्मृति ईरानी ने बेटी के साथ एक फोटो इंस्टाग्राम पर डाली तो उस के साथी बेटी के लुक्स पर ट्रोल करने लगे और उस का मजाक उड़ाने लगे. भाजपा की पूरी मशीनरी और सरकार की फौज इन ट्रोल्स और मौक्स के खिलाफ कुछ नहीं कर पाई.

दुनियाभर में इंस्टाग्राम, फेसबुक, ट्विटर पर कमैंटों में ट्रोल कर के परेशान करना एक रिवाज सा बन गया है. जो काम पहले रेस्तराओं, पबों, चौराहों और चाय की दुकानों, औफिसों में लंच पर, किट्टी पार्टी में होता था, अब बाकायदा लिखित में सोशल मीडिया की सुविधा के कारण घरघर पहुंचने लगा है. जो भी स्मृति ईरानी को फौलो कर रहा है वह उन कमैंटों को पढ़ सकता है चाहे उसे स्मृति ईरानी और उन की बेटी जानती हों या न जानती हों.

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पहले इस तरह की बातें 8-10 लोगों तक रहती थीं, अब सोशल मीडिया के कारण सैकड़ों तक पहुंचने लगी हैं. प्रिंट मीडिया इस तरह की घटनाओं पर केवल समीक्षात्मक रिपोर्टिंग करता है जबकि सोशल मीडिया पहले पैट्रोल सूंघता है और फिर उस पर आग लगाता है.

स्मृति ईरानी अब शिकायती लहजे में जवाब दे रही हैं पर भारत में बकबक करने की यह छूट उन की पार्टी ने ही अपने कार्यकर्ताओं को दे रखी है.

2014 से पहले कांग्रेस को बरगलाने के लिए सोशल मीडिया का हथियार अपनाया गया था, क्योंकि तब तक प्रिंट मीडिया दकियानूसी भारतीय जनता पार्टी का साथ देने को तैयार न था. सोशल मीडिया पर अति उत्साही, कट्टरपंथी, धर्मसमर्थकों ने धर्म की झूठी खूबियां प्रसारित करनी शुरू कर दी थीं और फिर देखतेदेखते यह प्लेटफौर्म कांग्रेस विरोधी बन गया. अब इस का साइड इफैक्ट उसी पार्टी के जुझारू नेताओं को ही सहना पड़ रहा है.

किसी भी नेता की बेटी या बेटे को अपना निजी जीवन अपने मन से जीने का हक है पर नेताओं के बेटेबेटियों पर यूरोप, अमेरिका में पेपराजी कहे जाने वाले टैबलौयड अखबारों की नजर रहती है. इन बच्चों के स्कूलों, रेस्तराओं, पिकनिक स्पौटों पर फोटो ले कर उन्हें मोटे पैसों में बेचा जाता है. सोशल मीडिया ने यह काम आसान कर दिया है. अब किसी की टांग खींचनी हो तो ट्विटर जैसे प्लेटफौर्म मौजूद हैं, जहां एक गंभीर विचार पर भी सस्ते, मांबहन की गालियों वाले कमैंट दे कर जवाब दिया जा सकता है.

प्रिंट मीडिया से दूरी बनाने का यह दुष्परिणाम होना ही था. स्मृति ईरानी क्या इस से सबक लेंगी कि इंटरनैट आम व्यक्ति को ज्ञान का खजाना नहीं दे रहा, उसे कीचड़ में धकेल रहा है? फेसबुक, व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम यों ही मुफ्त नहीं हैं. इन की महंगी तकनीक का कोई तो पैसा दे रहा है और यह यूजर्स ही दे रहे हैं, क्योंकि चाहे राजनीतिक उद्देश्य हो या व्यावसायिक, अब लोगों को बहकाना, गलत जानकारी देना, लूटना आसान होता जा रहा है.

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स्मृति ईरानी को अब पता चला है कि जो मशीनगनें उन्होंने राहुल गांधी के लिए बनवा कर बंटवाई थीं उन का मुंह उन की ओर भी मुड़ सकता है. सोशल मीडिया को बंद करना सरकारों का काम नहीं है. इस से बचना है तो लोगों को खुद फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर छोड़ना होगा. प्रिंट मीडिया आप को सही विचार देता भी है, आप के विचार लेता भी है. वहां जिम्मेदार संपादक होते हैं जो ऊंचनीच समझते हैं.

बकबक करने वालों को चायवालों की दुकानों पर ही रहने दें, उन्हें अपने ड्राइंगरूम या बैडरूम में सादर निमंत्रित न करें.

अब नहीं चलेगा कोई बहाना

इस बार के लोकसभा चुनावों में औरतों ने बढ़चढ़ कर भाग लिया  और उन की वोटिंग आदमियों सी रही. स्वाभाविक है कि अगर नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी इतने विशाल बहुमत से जीती है तो उस में आधा हाथ तो औरतों का रहा. उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार अब तो औरतों के बारे में कुछ अलग से सोचने की कोशिश करेगी.

जो समस्याएं आदमियों की हैं वही औरतों की भी हैं पर औरतों की कुछ और समस्याएं भी हैं. इन में सब से बड़ी समस्या सुरक्षा की है. जैसे-जैसे औरतें घरों से बाहर निकल रही हैं अपराधियों की नजरों में आ रही हैं. घर से बाहर निकलने पर लड़कियों को डर लगा रहता है कि कहीं उन्हें कोई छेड़ न दे, उठा न ले, बलात्कार न कर डाले, तेजाब न डाल दे.

घर में भी औरतें सुरक्षित नहीं है. घरों में कभी पति से पिटती हैं तो कभी बहुओं से. दहेज के मामले कम हो गए हैं पर खत्म नहीं हुए हैं. इतना फर्क और हुआ है कि अब अत्याचार छिपे तौर पर किया जाता है, मानसिक ज्यादा होता है, यदि शारीरिक नहीं तो.

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लड़कियां पढ़-लिख कर लड़कों से ज्यादा नंबर ले कर आ रही हैं पर उन्हें नौकरियां नहीं मिल रहीं. लड़कों को कोई कुछ नहीं कहता पर यदि लड़की को नौकरी

न मिले तो उसे जबरन शादी के बंधन में बांध दिया जाता है. यह बंधन चाहे कुछ दिन खुशी दे पर होता तो अंत में उस में बोझ ही बोझ है. सारा पढ़ालिखा समाप्त हो जाता है.

सरकार को बड़े पैमाने पर लड़कियों के लिए नौकरियों का प्रबंध करना चाहिए चाहे नौकरी सरकारी हो, प्राईवेट हो या इनफौर्मल सैक्टर की. अब भाजपा सरकार के पास बहाना नहीं है कि उस के हाथ बंधे हैं. जनता ने भरभर कर वोट दिए हैं. जनता को वैसी ही अपेक्षा भी है.

इस बार चूंकि कांग्रेस, समाजवादी, बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, जनता दल आदि का सफाया हो गया है, सरकार यह नहीं कह सकती कि उसे काम नहीं करने दिया जा रहा. सरकार अब हर तरह के फैसले ले सकती है.

सुरक्षा के साथ-साथ सरकार को साफसफाई भी करनी होगी. देश के शहर 5 सालों में न के बराबर साफ हुए हैं. शहरों में बेतरतीब मकानों व गंदे माहौल में करोड़ों औरतों को बच्चे पालने पड़ रहे हैं. खेलने की जगह नहीं बची. औरतों को सांस लेने की जगह नहीं मिलती. शहर में बागबगीचे होते भी हैं तो बहुत दूर जहां तक जाना ही आसान नहीं होता.

यह डर भी लग रहा है कि सरकार कहीं टैक्स न बढ़ा दे. अगर ऐसा हुआ तो उस की मार औरतों पर ही पड़ेगी. औरतों ने नोटबंदी का जहर पी कर भी नरेंद्र मोदी को वोट दिया है. अब महंगाई कर के उन का चैन न छिन जाए.

औरतों के लिए बने कानूनों में भी सरलता आनी चाहिए. तलाक लेना कोई अच्छी बात नहीं पर जब लेना ही पड़े तो औरतें सालों अदालतों के गलियारों में भटकती रहें, ऐसा न हो. कहने को औरतों के लिए कानून बराबर है पर आज भी रीतिरिवाजों, परंपराओं के नाम पर औरतों को न जाने क्याक्या सहना पड़ता है. इस सरकार से उम्मीद है कि वह औरतों को इस से निजात दिलाएगी.

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वैसे तो औरतों को धार्मिक क्रियाकलापों में ठेल कर उन की काफी शक्ति छीन ली जाती है पर इस बारे में यह सरकार शायद ही कुछ करे, क्योंकि यह ऐसा क्षेत्र है जिस पर सरकार की नीति साफ है, जो 2000 साल पहले होता था वही अच्छा है. फिर भी जो इस बंधन को सहर्ष न अपनाना चाहे कम से कम वह तो अपनी आजादी न खोए.

सरकार को इस बार जो समर्थन मिला है उस में अब केवल वादों की जरूरत नहीं है. 350 से ज्यादा सीटें जीतने का अर्थ है कि देश 350 किलोमीटर की गति से बढ़े और औरतें सब से आगे हों.

भीड़ को नहीं है किसी का डर

मामला परशुराम के पिता का पुत्रों को मां का वध करने का हो, अहिल्या का इंद्र के धोखे के कारण अपने पति को छलने का या शंबूक नाम के एक शूद्र द्वारा तपस्या करने पर राम के हाथों वध करने का, हमारे धर्म ग्रंथों में तुरंत न्याय को सही माना गया है और उस पर धार्मिक मुहर लगाई गई है. यह मुहर इतनी गहरी स्याही लिए है कि आज भी मौबलिंचिंग की शक्ल में दिखती है.

असम में तिनसुकिया जिले में भीड़ ने पीटपीट कर एक पति व उस की मां को मार डाला, क्योंकि शक था कि उस ने अपनी 2 साल की बीवी और 2 महीने की बेटी को मार डाला. मजे की बात तो यह है कि जब पड़ोसी और मृतक बीवी के घर वाले मांबेटे की छड़ों से पिटाई कर रहे थे, लोग वीडियो बना कर इस पुण्य काम में अपना साथ दे रहे थे.

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देशभर में इस तरह भीड़ द्वारा कानून हाथ में लेने और भीड़ में खड़े लोगों का वीडियो बनाना अब और ज्यादा बढ़ रहा है, क्योंकि शासन उस तुरंत न्याय पर नाकभौं नहीं चढ़ाता. गौरक्षकों की भीड़ों की तो सरकारी तंत्र खास मेहमानी करते हैं. उन्हें लोग समाज और धर्म का रक्षक मानते हैं.तुरंत न्याय कहनेसुनने में अच्छा लगता है पर यह असल में अहंकारी और ताकतवर लोगों का औरतों, कमजोरों और गरीबों पर अपना शासन चलाने का सब से अच्छा और आसान तरीका है.

यह पूरा संदेश देता है कि दबंगों की भीड़ देश के कानूनों और पुलिस से ऊपर है और खुद फैसले कर सकती है. यह घरघर में दहशत फैलाने का काम करता है और इसी दहशत के बल पर औरतों, गरीबों, पिछड़ों और दलितों पर सदियों राज किया गया है और आज फिर चालू हो गया है.जब नई पत्नी की मृत्यु पर शक की निगाह पति पर जाने का कानून बना हुआ है तो भीड़ का कोई काम नहीं था कि वह तिनसुकिया में जवान औरत की लाश एक टैंक से मिलने पर उस के पति व उस की मां को मारना शुरू कर दे.

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यह हक किसी को नहीं. पड़ोसी इस मांबेटे के साथ क्यों नहीं आए, यह सवाल है.लगता है हमारा समाज अब सहीगलत की सोच और समझ खो बैठा है. यहां किसी लड़केलड़की को साथ देख कर पीटने और लड़के के सामने ही लड़की का बलात्कार करने और उसी समय उस का वीडियो बनाने का हक मिल गया है.यहां अब कानून पुलिस और अदालतों के हाथों से फिसल कर समाज में अंगोछा डाले लोगों के हाथों में पहुंच गया है, जो अपनी मनमानी कर सकते हैं.

पिछले100-150 साल के समाज सुधार और कानून के सहारे समाज चलाने की सही समझ का अंतिम संस्कार जगहजगह भीड़भड़क्के में किया जाने लगा है. यह उलटा पड़ेगा पर किसे चिंता है आज. आज तो पुण्य कमा लो.

Edited by Rosy

जाति की राजनीति में किस को फायदा

इस देश में शादीब्याह में जिस तरह जाति का बोलबाला है वैसा ही राजनीति में भी है. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ मिल यादवोंपिछड़ों को दलितों के साथ जोड़ने की कोशिश की थी पर चल नहीं पाई. दूल्हे को शायद दुलहन पसंद नहीं आई और वह भाजपा के घर जा कर बैठ गया. अब दोनों समधी तूतू मैंमैं कर रहे हैं कि तुम ने अपनी संतान को काबू में नहीं रखा.

इस की एक बड़ी वजह यह रही कि दोनों समधियों ने शादी तय कर के मेहनत नहीं की कि दूल्हेदुलहन को समझाना और पटाना भी जरूरी है. दूसरी तरफ गली के दूसरी ओर रह रही भाजपा ने अपनी संतान को दूल्हे के घर के आगे जमा दिया और आतेजाते उस के आगे फूल बरसाने का इंतजाम कर दिया, रोज प्रेम पत्र लिखे जाने लगे, बड़ेबड़े वायदे करे जाने लगे कि चांदतारे तोड़ कर कदमों में बिछा दिए जाएंगे. वे दोनों समधी अपने घर को तो लीपनेपोतने में लगे थे और होने वाले दूल्हेदुलहन पर उन का खयाल ही न था कि ये तो हमारे बच्चे हैं, कहना क्यों नहीं मानेंगे?

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अब दूल्हा भाग गया तो दोष एकदूसरे पर मढ़ा जा रहा है. यह सांप के गुजर जाने पर लकीर पीटना है. मायावती बेवकूफी के बाद महाबेवकूफी कर रही हैं. यह हो सकता है कि पिछड़ों ने दलितों को वोट देने की जगह भाजपा को वोट दे दिया जो पिछड़ों को दलितों पर हावी बने रहने का संदेश दे रही थी.

इस देश की राजनीति में जाति अहम है और रहेगी. यह कहना कि अचानक देशभक्ति का उबाल उबलने लगा, गलत है. जाति के कारण हमारे घरों, पड़ोसियों, दफ्तरों, स्कूलों में हर समय लकीरें खिंचती रहती हैं. देश का जर्राजर्रा अलगअलग है. ब्राह्मण व बनियों में भी ऊंचनीच है. कुंडलियों को देख कर जो शादियां होती हैं उन में न जाने कौन सी जाति और गोत्र टपकने लगते हैं.

जाति का कहर इतना है कि पड़ोसिनें एकदूसरे से मेलजोल करने से पहले 10 बार सोचती हैं. प्रेम करने से पहले अगर साथी का इतिहास न खंगाला गया हो तो आधे प्रेम प्रसंग अपनेआप समाप्त हो जाते हैं. अगर जाति की दीवारें युवकयुवती लांघ लें तो घर वाले विरोध में खड़े हो जाते हैं. घरघर में फैला यह महारोग है जिस का महागठबंधन एक छोटा सा इलाज था पर यह नहीं चल पाया. इसका मतलब यह नहीं कि उसे छोड़ दिया जाए.

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देश को जाति की दलदल से निकालने के लिए जरूरी है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपना अहंकार छोड़ें और पिछड़े और दलित अपनी हीनभावना को. अखिलेश यादव और मायावती ने प्रयोग किया था जो अभी निशाने पर नहीं बैठा पर उन्होंने बहुत देर से और आधाअधूरा कदम उठाया. इस के विपरीत जाति को हवा देते हुए भाजपा पिछले 100 सालों से इसे हिंदू धर्म की मूल भावना मान कर अपना ही नहीं रही, हर वर्ग को सहर्ष अपनाने को तैयार भी कर पा रही है.

अखिलेश यादव और मायावती ने एक सही कदम उठाया था पर दोनों के सलाहकार और आसपास के नेता यह बदलाव लाने को तैयार नहीं हैं.

बस एक कदम और…

कांग्रेस का सत्ता में आने पर 33% सीटें औरतों को विधानसभाओं व लोकसभाओं में देने का वादा और उड़ीसा के नवीन पटनायक व बंगाल की ममता बनर्जी का 33% से ज्यादा उम्मीदवार औरतों को बनाना यह तय कर रहा है कि अब औरतों का राजनीति में घुसना तो तय सा है. औरतें पतियों, पिताओं या बेटों के सहारे राजनीति में पहुंचें या अपने खुद के दमखम पर, यह एक सुखद बदलाव होगा.

आधुनिक सोच और शिक्षा के 150 साल बाद भी औरतों की स्थिति आज भी वही की वही है. वे बेचारियां हैं और खातेपीते घरों में भी उन का काम घर मैनेज करना ही होता है. अपने मन को शांत करने के लिए वे किट्टी पार्टियों या प्रवचनों में जा सकती हैं वरना उन का दायरा बड़ा सीमित है. जो अपने दम पर कुछ करती भी हैं उन्हें लगता है कि उन को पार्टनर, परिवार, बच्चे सब का कुछ हिस्सा खोना पड़ता है. पूर्ण संतुष्टि नहीं मिलती, क्योंकि ओहदा ऊंचा हो या मामूली, वे रहती अपवाद ही हैं.

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राजनीति में बदलाव लाने की ताकत होती है. इस के जरीए संदेश जाता है कि सोचसमझ में औरतें किसी से कम नहीं हैं. औरतें जब फैसले लेती हैं तो जरूरी नहीं कि वे पहले के पुरुषों के बने दायरों में से सोचें. वे अपनी स्वतंत्र सोच, औरतों की छोटी समस्याओं, उन के संकोच, उन की उड़ान भरने की तमन्नाओं, उन के साथ हुए भेदभाव की पृष्ठभूमि में फैसले लेती हैं. वे अगर फैमिनिस्ट न भी हों तो भी पुरुषों से भयभीत रहने वाली नहीं होतीं. और यदि विधान मंडलों में वे बड़ी संख्या में मौजूद होंगी तो महल्ले में पानी के टैंकर पर होने वाली लड़ाई का सा दृश्य पैदा कर अपनी बात मनवा सकती हैं.

इंदिरा गांधी, ममता बनर्जी, जयललिता, मायावती, सोनिया गांधी ने अपने बलबूते राज जरूर किया पर उस जमीन से जो पुरुषों ने अपने हिसाब से अपने लिए बनाई थी. अब शायद मौका मिले जब औरतें अपने बल पर मजबूत हों और आरक्षण की मांग पुरुषों को करनी पड़ जाए.

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आज की तकनीक जैंडर बेस्ड नहीं. आज तो युद्ध भी जैंडर बेस्ड नहीं है. औरतों के लिए अगर जंजीरें हैं तो केवल उन के अपने दिमाग में या उस धर्म में, जिसे वे जबरन ढो रही हैं.

Edited by Rosy

ताकि प्राकृतिक संतुलन बना रहे

वीगन यानी वैजिटेरियन व्यवसायों में अब काफी अवसर पैदा हो रहे हैं. बस थोड़े धैर्य और थोड़ी लगन की जरूरत है, जो वैसे भी हर व्यवसाय में जरूरी है. फैशन के क्षेत्र में वीगन होने का मतलब यह नहीं कि आप स्टाइल की कुरबानी दे दें. आजकल बहुत सा हाई फैशन सामान रिसाइकल पौलिएस्टर से बन सकता है. जानवरों को मारे बिना जूते, बैल्ट, पर्स आदि हजारों में औनलाइन और औफलाइन दुकानों में बिक रहे हैं.

जूतों में लगने वाला गोंद भी अब जरूरी नहीं कि जानवरों से आए या जानवरों पर टैस्ट किया जाए. वीगन बाजार नई दिल्ली में 3 साप्ताहिक और्गेनिक मार्केट लगती हैं और कोई भी इन्हें शुरू कर पैसा कमा सकता है. वहां बीज, पौधे, सब्जियां, तेल, चीज, विनेगर, चाय, साबुन, कौस्मैटिक प्रौडक्ट्स भी बिक सकते हैं और वहीं बैठ कर खाने का स्टाल भी लगवाया जा सकता है.

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आस्ट्रेलिया के शहर सिडनी में एक बड़ा वीगन मेला लगता है. आजकल वीगन बेकरियों के दीवाने भी कम नहीं हैं, जहां हर तरह की और्गेनिक मिठाई मिले, चौकलेट हों, कैरेमल हों, मार्शमैलो हों, मफिन और डोनट हों, इतना सामान हो कि गिफ्ट बास्केट बन सके. लेकिन इस तरह का व्यवसाय शुरू करना है तो अपने सप्लायर्स को सावधानी से चुनना होगा. पाम औयल की जगह कोकोनट औयल इस्तेमाल हो, मिठास के लिए गन्ने का रस या कोकोनट की चीनी हो सकती है. ये सब बिना डोनेटिक मोडिफाइड हो सकते हैं, जिन का पर्यावरण पर असर नहीं पड़ता.

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लोगों की पसंद व्यवसाय चलाने के लिए एक बुटीक टाइप शौप खोली जा सकती है जिस में सिर्फ तेल, घी, मक्खन हों. इस के साथ औलिव औयल, चिया बीज, काजू, बादाम, दूध, मेपल सिरप, सूरजमुखी तेल, पारंपरिक पोशाकें आदि भी बेची जा सकती हैं. लोग अब ऐसा खाना पसंद करने लगे हैं जो मीट जैसी दिखने वाली चीजों में बना हो ताकि लोग मीट प्रोडक्ट्स की जगह वीगन बनें. अगर आप कैफे शुरू कर रहे हैं तो प्लास्टिक का इस्तेमाल न करें.

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मोटे सादे कपड़े के नैपकिन अब बेचे जा सकते हैं जो स्टाइलिश भी हैं और सौफ्ट भी और जिन में हानिकारक कैमिकल रंग नहीं हैं. रिसाइकल पेपर पर कापी किताबों की भी भारी मांग है. यहां तक कि गाड़ी में खराब हुआ वनस्पति तेल तक इस्तेमाल करने की तकनीक उपलब्ध है. वीगन ब्यूटीपार्लर खोले जा सकते हैं जहां बिना पैट्रो प्रोडक्ट्स से बनी क्रीम, लोशन, शैंपू, स्किन केयर सामान इस्तेमाल किया जा सकता है, जो प्रकृति के लिए भी अच्छा है और ग्राहकों के लिए भी. इनसे ज्यादा से ऐलर्जी भी नहीं होती. प्रकृति प्रेमियों के लिए बहुत सी ऐसी चीजें बन रही हैं और बनाई जा सकती हैं जिन से प्राकृतिक संतुलन बना रहे. मेरे मंत्रालय में ऐसा बहुत कुछ इस्तेमाल हो रहा है और लोग खुश हैं.

मुसीबत का दूसरा नाम सुलभ शौचालय

घटना दिल्ली के कौशांबी मैट्रो स्टेशन के नीचे बने सुलभ शौचालय की है. रविवार का दिन था. सुबह के 8 बजे का समय था. राजू को उत्तम नगर पूर्व से वैशाली तक जाना था. उस ने उत्तम नगर पूर्व से मैट्रो पकड़ी और कौशांबी तक पहुंचते-पहुंचते पेट में तेजी से प्रैशर बनने लगा. मैट्रो में ही किसी शख्स से पूछ कर राजू कौशांबी मैट्रो स्टेशन उतर गया.

मैट्रो से उतरने के बाद नीचे मौजूद तमाम लोगों से सुलभ शौचालय के बारे में पूछा, पर कोई बताने को तैयार नहीं था क्योंकि सभी को अपने गंतव्य की ओर जाने की जल्दी थी. तभी एक बुजुर्ग का दिल पसीजा और उस ने वहां जाने का रास्ता बता दिया.

सैक्स संबंधों में उदासीनता क्यों?

सुलभ शौचालय कौशांबी मैट्रो के नीचे ही बना था, पर जानकारी न होने के चलते राजू दूसरी ओर उतर गया. एक आटो वाले ने कहा कि उस तरफ जाओ जहां से तुम आ रहे हो. राजू फिर वहां पहुंचा तब जा कर शांति मिली कि चलो, सुलभ शौचालय जल्दी ही सुलभ हो गया.

अंदर जाते ही एक मुलाजिम वहां बैठा नजर आ गया. उस से इशारे में कहा कि जोरों की लगी है तो उस ने हाथ से इशारा कर के बता दिया कि उस टौयलेट में चले जाओ.

टौयलेट में गंद तो नहीं पसरी थी, पर बालटीमग्गे गंदे थे. पोंछा भी ज्यादा साफ नहीं था. जब वह फारिग हो कर बाहर निकला तो उस मुलाजिम को 10 रुपए का नोट थमाया. उस ने पैसे गल्ले में डाले और कहा कि जाओ, हो गया हिसाब.

राजू ने वहां उसी के ऊपर टंगी सूची की तरफ इशारा कर के कहा कि यहां पर तो 5 रुपए लिखा है तो उस ने जवाब दिया कि सफाई के भी 5 रुपए और जोड़ लिए गए हैं. इस हिसाब से 10 रुपए हो गए. राजू अपना सा मुंह ले कर बाहर आ गया. राजू के निकलने के बाद उसी टौयलेट में दूसरा शख्स भी गया और उस से भी 10 रुपए वसूले गए. वह भी अपना सा मुंह ले कर बाहर निकला. वहां न तो शिकायतपुस्तिका थी और न ही कोई पक्का बिल. शिकायत का निवारण करने के लिए न कोई सुनने वाला अफसर. जबकि सरकार पैसों के लेनदेन के डिजिटाइजेशन पर जोर दे रही है. सरकार मोबाइल ऐप के जरीए औनलाइन पेमैंट करने की बात कहती है, पर यहां ऐसी कोई सुविधा नहीं थी.

गरीब की ताकत है पढ़ाई

वैसे, टौयलेट के 5 रुपए और पेशाब करने के 2 रुपए निर्धारित किए गए हैं, पर किसी न किसी तरह से ज्यादा पैसे वसूले जाते हैं. भले ही 5-10 रुपए ज्यादा देना अखरता नहीं है पर जो तय कीमत रखी गई है, वही वसूली जाए तो न्यायपूर्ण होगा.

वैसे, शौचालय को ले कर तमाम खामियां हैं. कई जगह शौचालय ऐसी जगहों पर बना दिए गए हैं जहां हर कोई नहीं पहुंच सकता. ज्यादातर शौचालाय पानी की कमी से जूझ रहे हैं, इसलिए कहींकहीं ताला लटका मिलता है, तो कहीं कूड़ेकचरों के बीच शौचालय बना दिए गए हैं. गंदगी के ढेर पर बने शौचालयों में कोई नहीं जाता, ऐयाशी का अड्डा बने हुए हैं.

ये तो महज उदाहरण मात्र हैं. ऐसे न जाने कितने लोग शौचालय में कभी खुले पैसे को ले कर जूझते होंगे या फिर ज्यादा वसूली का रोना रोते होंगे. यही वजह है कि लोग शौचालय में जाने से कतराते हैं. इतना ही नहीं, कई सुनसान शौचालयों में तो देहधंधा होने तक की शिकायतें सुनी गई हैं.

एक ओर स्वच्छता अभियान जोरों से चल रहा है. ‘हर घर शौचालय’, ‘चलो स्वच्छता की ओर’, ‘शौचालय का करें प्रयोग गंदगी भागे मिटे रोग’, ‘बेटी ब्याहो उस घर में शौचालय हो उस घर में’ जैसी मुहिम चल रही है तो कहीं बड़ेबड़े इश्तिहार दे कर लोगों को जागरूक किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर इस योजना पर काम करने वाले ही इसे पलीता लगा रहे हैं. कई निजी संस्थाएं भी आम आदमी को सहूलियतें देने के नाम पर सरकार को चूना लगा रही हैं. सरकार तो तमाम उपायों को अमल में लाने की कोशिश कर रही है, पर लोग हैं कि सुधरने को तैयार ही नहीं.

खतरे में है व्यक्तिगत स्वतंत्रता

सच तो यह है कि हम भले ही कितने पढ़लिख जाएं, पर सुधरने के नाम पर अगलबगल झांकने लगते हैं. ऐसे लोगों का मानना है कि हमारे बापदादा यही सब करते रहे हैं तो हम भी यही करेंगे. सुलभ शौचालय के मुलाजिमों पर किसी तरह का कोई शिकंजा नहीं है. सरकारी अमला खुले में शौच करने वालों को पकड़पकड़ कर जुर्माना लगा रहा है वहीं आम आदमी घर में बने टौयलेट में जाने से कतरा रहा है. वह कहता है कि खुले में शौच ठीक से आ जाती है, वहीं टौयलेट में बैठना नहीं सुहाता. वहीं दूसरी ओर घर की औरतेंबच्चे भी वहीं जाते हैं और मारे बदबू के चलते दिमाग ही हिल जाता है और पेट खराब रहता है, गैस बनती है, इसलिए मजबूरन खेत में ही जाना पड़ता है.

सुलभ शौचालय की शुरुआत करने वाले बिंदेश्वरी पाठक ने साल 1974 में जब इस की कल्पना की थी तब उन्हें भी तानेउलाहने सुनने को मिले होंगे, पर अब यही शौचालय नजीर बन कर उभरा है और देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी इस ने अपना परचम फहराया है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वच्छता मुहिम को एक मिशन मानते हैं. वे स्वच्छ भारत का सपना साकार करने में लगे हैं. तमाम ग्रामीण,शहरी, अपढ़ व पढ़ेलिखों को इस मुहिम में शामिल कर जागरूक करने में लगे हैं और शौचालय बनाने को ले कर गांवों तक में अपनी मुहिम चला रहे हैं. शौचालय तो बन गए हैं, लेकिन तमाम तरह की दिक्कतें हैं.

गरीब व वंचित लोगों की सुविधाओं को ध्यान में रख कर सुलभ शौचालय बनाए गए थे. शौचालय की सुविधा तो मिली, पर दूसरी ओर इस पर किराया लगना आम लोगों को काफी अखर रहा है. भले ही शौच करने की कीमत काफी कम रखी गई है, फिर भी असलियत वहां जाने पर ही पता चलती है. कर्मचारियों का अपना दुखड़ा है, वहीं आम आदमी की अपनी परेशानी.

दलितों की बदहाली

यही वजह है कि जो भी शख्स वहां फारिग होने जाता है, उसे हलाल करने की कोशिश की जाती है. यानी तय कीमत से ज्यादा वसूली. न देने पर कहासुनी,  मारपीट. हैरानी तो तब होती है जब शौचालय कर्मियों पर किसी तरह की निगरानी नहीं होती.

सुबहसवेरे फारिग होने के लिए तमाम लोग लाइन में खड़े नजर आते हैं. चाहे वह जगह बसअड्डा हो या रेलवे स्टेशन या फिर भीड़ वाली जगह, वहां जाने पर ही पता चलता है कि बिना किसी सूचना के शौचालय में ताला लटका हुआ है तो कहीं पूछने पर दूसरे शौचालय का दूरदूर तक पता भी नसीब नहीं होता.

क्या है नियम

नियमानुसार शौचालयों में केवल शौच व नहाने के पैसे लिए जा सकते हैं, लेकिन ठेकेदार और शौचालय में तैनातकर्मी की मनमानी से नियमों की धज्जियां उड़ाई जा रही है. पैसे देने के बावजूद इन शौचालयों में सफाई नहीं रहती है.

दिल्ली शहर में जितने भी सुलभ शौचालय बने हैं उन में लघुशंका का शुल्क प्रति व्यक्ति महज 2 रुपए है जबकि टौयलेट का 5 रुपए, वहीं नहानेधोने के लिए 10 रुपए. हालांकि कहींकहीं ज्यादा पैसा वसूले जाते हैं.

सुलभ शौचालय द्वारा आम लोगों की सुविधा के लिए दिल्ली के विभिन्न चौकचौराहों पर शौचालय बनाए गए हैं. इन के बनाने के पीछे यह मकसद है कि आम आदमी मामूली शुल्क दे कर जरूरत पडऩे पर इन का इस्तेमाल कर सके. लेकिन अब ये शौचालय कमाई का जरीया बन गए हैं. बाहर से आने वालों से शौचालय कर्मी मनमाना पैसा वसूल रहे हैं, जो गलत है.

सुलभ शौचालय की शिकायत कहां करें, इस का कोई खुलासा नहीं है. आम आदमी को ये बातें पता ही नहीं हैं. जागरूकता का सिर्फ ङ्क्षढढोरा पीटने से काम नहीं चलने वाला. अनपढ़ को भी समझाना होगा और शौचालय की अहमियत बतानी होगी, तभी हम जागरूक हो पाएंगे. पढ़ेलिखे भी अपनी शिकायत दर्ज नहीं करा पाते तो वहीं आम आदमी के लिए ये शौचालय कितने सुलभ रह पाएंगे.

खतरे में है व्यक्तिगत स्वतंत्रता

व्हाट्सऐप, ट्विटर, फेसबुक आजकल दुनियाभर में सरकारों और समाजों के निशाने पर हैं. जब से फेसबुक का कैंब्रिज एनालिटिक्स को अपने से जुड़े लोगों के व्यवहार के बारे में डेटा बेच कर पैसा कमाने की बात सामने आई है, तब से लगातार डिजिटल मीडिया, डिजिटल संवादों पर सवाल उठ रहे हैं. गूगल के सुंदर पिचाई ने अमेरिकी संसद को बताया है कि गूगल चाहे तो मुफ्त भेजे जाने वाले जीमेल अकाउंटों के संवाद भी वे पढ़ सकता है.

असल में डिजिटल क्रांति दुनिया के लिए खतरनाक साबित हो रही है कुछ हद तक परमाणु बमों की तरह. परमाणु परीक्षणों का विनाशकारी उदाहरण बाद में देखने को मिला पर उस दौरान किए गए शोध का फायदा बहुत से अन्य क्षेत्रों में बहुत हद तक हुआ है और आजकल जो रैडिएशन के दुष्प्रभाव की बात हो रही है वह परमाणु परीक्षणों से ही जुड़ी है. डिजिटल क्रांति में उलटा हुआ है. पहले लाभ हुआ है, अब नुकसान दिख रहे हैं.

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न केवल आज डिजिटल मीडिया या सुविधा से अपनी बात मित्रों, संबंधियों, ग्राहकों तक पहुंचाई जा सकती है, इस का जम कर फेक न्यूज फैलाने में भी इस्तेमाल हो सकता है.

दुनियाभर में फेक मैसेज भेजे जा रहे हैं. स्क्रीनों के पीछे कौन छिपा बैठा है यह नहीं मालूम इसलिए करोड़ों को मूर्ख बनाया जा रहा है और लाखों को लूटा भी जा रहा है. लोग फेसबुक, व्हाट्सऐप के

जरीए प्रेम करने लगते हैं जबकि असलियत पता ही नहीं होती.

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जो बात 2 जनों में गुप्त रहनी चाहिए वह सैकड़ों में कब बंट जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता. पीठ पीछे की आप की बात कहां से कहां तक जाएगी आप को पता भी नहीं चलेगा. सरकारों के लिए ये प्लैटफौर्म बहुत काम के हैं. वे कान मरोड़ कर उन से अपने विरोधियों के मेल, मैसेज, बातें सब पता कर लेती हैं. आज मोबाइल पर कही गई बात भी सुरक्षित नहीं है, क्योंकि उस का रिकौर्ड कहीं रखा जा रहा. न केवल आप ने कहां से किस को फोन किया यह रिकौर्डेड है, क्या बात की यह भी रिकौर्डेड है. हां, उसे सुनना आसान नहीं यह बात दूसरी है. पर खास विरोधी का हर कदम सरकार जान सकती है. टैक कंपनियां असल में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सब से बड़ा अंकुश बन गई हैं. पहले लगा था कि इन से अपनी बात लाखोंकरोड़ों तक पहुंचाई जा सकती है.

आप कागज पर ही लिखें, यह तो नहीं कहा जा सकता पर यह जरूर ध्यान में रखें कि सरकारी शिकंजा आप के गले में तो है ही आप व्यापारियों के लिए भी टारगेट बन रहे हैं. वे आप की सोच, आप के खरीदने के व्यवहार को भी नियंत्रित कर रहे हैं.

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दलितों की बदहाली

सुप्रीम कोर्ट भी किस तरह दलितों को जलील करता है इस के उदाहरण उस के फैसलों में मिल जाएंगे. देशभर में दलितों को बारबार एहसास दिलाया जाता है कि संविधान में उन्हें बहुत सी छूट दी हैं पर यह कृपा है और उस के लिए उन्हें हर समय नाक रगड़ते रहनी पड़ेगी. महाराष्ट्र म्यूनिसिपल टाउनशिप ऐक्ट में यह हुक्म दिया गया है कि अगर दलित या पिछड़ा चुनाव लड़ेगा तो उस को अपनी जाति का सर्टिफिकेट नौमिनेशन के समय या चुने जाने के 6 महीने में देना होगा.

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यह अपनेआप में उसी तरह का कानून है जैसा एक जमाने में दलितों को घंटी बांध कर घूमने के लिए बना था ताकि वे ऊंची जातियों को दूर से बता सकें कि वे आ रहे हैं. यह वैसा ही है जैसा केरल की नीची जाति की नाडार औरतों के लिए था कि वे अपने स्तन ढक नहीं सकतीं ताकि पता चल सके कि वे दलित अछूत हैं. दोनों मामलों में इन लोगों से जीभर के काम लिया जा सकता था पर दूरदूर रख कर.

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कानून यह भी कहता है कि हर समय अपना जाति प्रमाणपत्र रखो. क्यों? ब्राह्मणों को तो हर समय या कभी भी अपना जाति सर्टिफिकेट नहीं चाहिए होता तो पिछड़े दलित ही क्यों लगाएं? क्यों वे कलक्टर, तहसीलदार से अपना सर्टिफिकेट बनवाएं? उन्होंने किसी आरक्षित सीट के लिए कह दिया कि वे पिछड़े या दलित हैं तो मान लिया जाए. आज 150 साल की अंगरेजी पढ़ाई, बराबरी के नारों के बावजूद भी क्यों जाति का सवाल उठ रहा है? क्या पढ़ेलिखे विद्वानों के लिए 150 साल का समय कम था कि वे जाति का सवाल ही नहीं मिटा सकते थे? जब हम मुगलों और ब्रिटिशों के राज से छुटकारा पा सकते थे तो क्या दलित पिछड़े के तमगों से नहीं निकल सकते थे?

यहां तो उलट हो रहा है. शंकर देवरे पाटिल के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उस कानून को सही ठहराया है जिस ने यह जबरन कानून थोप रखा है कि आरक्षित सीट पर खड़े होना है तो सर्टिफिकेट लाओ. यह अपमानजनक है. यह दलितों, पिछड़ों को एहसास दिलाने के लिए है कि वे निचले, गंदे, पैरों की धूल हैं. यह बराबरी के सिद्धांत के खिलाफ है.

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दलितों और पिछड़ों को जो भी छूट मिले उन्हें बिना किसी प्रमाणपत्र लटकाए मिलनी चाहिए. अगर ऊंची जाति का कोई उस का गलत फायदा उठाए तो उस के लिए सजा हो, दलित पिछड़े के लिए नहीं. वैसे भी ऊंची जाति का कोई दलित पिछड़े को दोस्त तक नहीं बनाता, वह उन की जगह कैसे लेगा? ऊंची जातियों का आतंक इतना है कि नीची जाति वाले तो हर समय चेहरे पर ही वैसे ही अपने सर्टिफिकेट गले में लटकाए फिरते हैं. नरेंद्र मोदी कहते रहें कि हिंदू आतंकवादी नहीं हैं पर लठैतों के सहारे दलितों और पिछड़ों पर जो हिंदू आतंक 150 साल में नई हवा के बावजूद भी बंद नहीं हुआ, वह सुप्रीम कोर्ट की भी मोहर इसी आतंकवाद की वजह से पा जाता है.

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