डॉक्टर्स भी हो रहे हैं मानसिक रोग का शिकार, पढ़ें खबर

कोरोना काल में घरों में कैद लोग जिस तरह से मानसिक रूप से बीमार हो रहे है, वैसी ही बीमारी के इलाज कर रहे डॉक्टर्स और नर्सेज भी इन दिनों मानसिक बीमारी के शिकार हो रहे है. इसकी वजह कोविड 19 का नयी बीमारी होना, बीमारी से लड़ने के लिए सही प्रोटेक्शन उन्हें न मिल पाना,लम्बे समय तक काम पर रहना,बीमार लोगों की संख्या में लगातार बढ़ना, परिवार को उनके मरीज़ के बारें में अच्छी समाचार का न दे पाना आदि कई है. इससे वे एंग्जायटी के शिकार होकर मानसिक तनाव में रहने को विवश हो रहे है. इतना ही नहीं कोरोना का इलाज कर रहे डॉक्टर्स और नर्सेज से समाज और आसपास के लोग भी अच्छा व्यवहार करने से कतराते है. कही पर उन्हें अपने घरों में रहने से भी रोका गया. उनके साथ बदसलूकी की गई. इस लॉक डाउन में भी उन्हें काम पर आना पड़ा. साथ ही वे वायरस के काफी नजदीक थे, क्योंकि वे इलाज कर रहे है, जिससे उन्हें अपने परिवार की चिंता भी रही है. इससे पाया गया कि एक बड़ी संख्या में हेल्थकेयर से जुड़े लोग एंग्जायटी, इनसोम्निया और मनोवैज्ञानिक डिस्ट्रेस के शिकार हुए.

लेना पड़ता है कठिन निर्णय

इसके अलावा कई देशों में तो डॉक्टर्स को ये भी निर्णय लेना भारी पड़ा, जिसमें वे ये तय नहीं कर पा रहे थे कि किसे वेंटिलेटर का सपोर्ट दिया जाय किसे नहीं. इसमें पाया गया कि बुजुर्ग से वेंटिलेटर को हटाकर यूथ को दिया गया. जिसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव डॉक्टर्स पर बहुत पड़ा, जब वे अपने आगे किसी दम तोड़ते हुए व्यक्ति को देखा और वे कुछ नहीं कर पाएं. इसकी वजह उपकरणों का सही तादाद में समय पर न मिलना हुआ है. कई हेल्थकेयर से जुड़े व्यक्ति ने तो मानसिक दबाव में आकर आत्महत्या तक कर डाली.

खुद और परिवार को सुरक्षित रखना है चुनौती

मुंबई की ग्लोबल हॉस्पिटल के मनोचिकित्सक डॉ. संतोष बांगरकहते है कि कोरोना कहर में डॉक्टर्स को सबसे अधिक उनकी खुद की रक्षा करना भारी पड़ता है, जिसमें पीपीइ किट और इलाज के लिए जरुरत के सामान की कमी, उनके परिवार की सुरक्षा आदि होती है. इससे उनकी एंग्जायटी लेवल बढ़ जाता है, इस पेंड़ेमिक में कई डॉक्टर्स में इनसोम्निया की बीमारी अधिक देखी जा रही है. इतना ही नहीं कोरोना मरीज़ की इलाज़ करते हुए डॉक्टर्स अपने परिवार के साथ भी क्वालिटी टाइम नहीं बिता पाते, क्योंकि उन्हें लम्बे समय तक हॉस्पिटल में बिताना पड़ता है. आने के बाद भी वे परिवार से दूर खुद को क्वारेंटिन करते है, क्योंकि उन्हें डर लगा रहता है कि कही उनके साथ संक्रमण तो नहीं आई. इसके अलावा कोरोना संक्रमित मरीजों के परिवार को उनके हालात के बारें में बताना भी उनके लिए मानसिक दबाव होता है, क्योंकि परिवार डॉक्टर्स से कुछ अच्छा ही सुनने की उम्मीद करते है. हालाँकि अस्पताल के प्रबंधन डॉक्टर्स के मानसिक और भावनात्मक हालात को सुधारने के लिए कोशिश कर रही है, पर इसका फायदा बहुत अधिक नहीं दिखाई पड़ रहा है, क्योंकि दिनोंदिन कोरोना के मरीज़ बढ़ते जा रहे है.

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पर्याप्त उपकरणों की कमी

इसके आगे डॉक्टर का कहना है कि भारत जैसे देश में जहाँ जनसँख्या का भार अधिक है, गरीबी अधिक है,मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर सही नहीं है, कोरोना संक्रमण के व्यक्ति का इलाज करना बहुत मुश्किल होता है. ऐसे कई उदाहरण है, जहाँ डॉक्टर्स को कठिन निर्णय लेना पड़ा, मसलन रोगी को वेंटिलेटर पर रखे या नहीं, अर्जेंट जरुरत के आधार पर उसका ऑपरेशन करें या नहीं. डॉक्टर्स अधिकतर शांत रहकर सोचते है, पर कुछ विषयों में संभव नहीं होता और तनाव के शिकार होते है. इस तनाव से निकलने के लिए डॉक्टर्स को खुद की फिटनेस, डाइट और स्ट्रेस फ्री रहने के बारें में सोचना पड़ेगा और खुद को लगातार कोविड 19 को लेकर अपडेट रहने की जरुरत है, ताकि उनका मानसिक स्तर सही रहे. इसके बावजूद अगर समस्या है तो एक्सपर्ट की राय अवश्य लेना उचित होगा.

डॉक्टर्स मानते है कि इस मुश्किल घड़ी में कोरोना मरीज जिधर से उनके पास इलाज के लिए आते है वही से वापस ठीक होकर अपने घर जायें. इससे कुछ भी अलग उन्हें मानसिक पीड़ा देती है.सीरियस पेशेंट का इलाज करना आज भी तनाव पूर्ण है. हेल्थकेयर प्रोफेशन से जुड़े हुए लोग हमेशा किसी न किसी तरह के मनोवैज्ञानिक तनाव के शिकार होते है,जिससे निकलने में उन्हें मुश्किल होता है. इस बारें में डॉक्टर्स से जाने कैसे वे अपने मेंटल हेल्थ को बनाये रखते है,

 वोकहार्ड हॉस्पिटल, मुंबई सेंट्रल के इंटरनल मेडिसिन एक्सपर्टडॉ. बेहराम पार्डिवाला कहते है कि इस बात का तनाव हमेशा रहता है कि मुझे कोरोना न हो जाय और उसका रिस्क लेना भी पड़ता है, क्योंकि रोगी को देखना जरुरी है. सावधानियां लेता हूं और हर दिन अच्छा जाय इसकी कामना करता हूं. कई बार कोरोना रोगी अस्पताल में आने के बाद बेड न होने की वजह से उसे मना करना पड़ा. बहुत अफ़सोस और ख़राब लगता है. कई बार वे हाथ जोड़कर वार्ड में रखने के लिए कहते है, पर मेरी हिम्मत नहीं हुई क्योंकि वह तड़प कर मर जायेगा. इसका अफ़सोस बहुत होता है. इसका मानसिक दबाव काफी दिनों तक रहता है. उस मरीज़ की याद आती है. नींद नहीं आती. उस मरीज़ के बारें में जानने की इच्छा होती है. इसके अलावा हर डॉक्टर्स  की सोच एक जैसी नहीं होती. मैंने ये प्रोफेशन आज से सालों पहले कदम रखा था और परिवार का एकलौता डॉक्टर बना था. उस समय मैंने सोच लिया था कि ये पब्लिक सर्विस है, इसे मुझे उसी रूप में करना है और करता हूं. इससे मानसिक शांति बनी रहती है.

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अपोलो स्पेक्ट्रा हॉस्पिटल दिल्ली की नवनीत कौर कहती है कि कोरोना संक्रमण के दौरान मैं बहुत अधिक खुद के लिए सावधानियां बरत रही हूं. अस्पताल से घर जाकर भी हायजिन के सभी नियमों का पालन करती हूं. खुद के डाइट का पूरा ध्यान रखती हूं. किसी बात से अधिक तनाव नहीं है, क्योंकि मैं एक डॉक्टर हूं और कैसे क्या करना है जानती हूं. ये सही है कि डॉक्टर्स भी कई बार बहुत अधिक मानसिक तनाव के शिकार होते है. मुझे याद आता है, जब मैं अपने होम टाउन गयी थी और मेरी एक प्रेग्नेंट पेशेंट ने मेरे आने तक इंतजार किया और मेरे कहने पर भी किसी से कंसल्ट नहीं किया. मेरे आने तक उसकी हालत ख़राब हो गयी थी मैंने उसे बचाने की बहुत कोशिश की, पर उसे बचा नहीं पाई. कई दिनों तक उसका चेहरा मेरे आगे घूमता रहा. मैं मानसिक दबाव में कई दिनों तक रही. मैं सोचती रही कि काश मैं पहले उसे देख पाती तो शायद उसकी ये दशा न होती. आज भी उस महिला को याद कर मेरा मन दुखी हो जाता है. इस तरीके के तनाव से बचने के लिए सकारात्मक सोच रखनी पड़ती है और आसपास के दोस्त और परिवार से बातचीत बनाये रखना पड़ता है.

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मुंबई की जनरल फिजिशियन डॉ. सरोज शेलार कहती है कि मुझे कई बार मानसिक दबाव से गुजरना पड़ा है, कोरोना संक्रमण का इलाज़ करते हुए पूरी सावधानी मैं लेती हूं, क्योंकि मेरे दो छोटे बच्चे और बुजुर्ग सास-ससुर है. मेरे पास केवल कोरोना ही नहीं, बल्कि कई प्रकार के संक्रमित व्यक्ति आते है और मेरा शरीर इससे कुछ हद तक इम्युन हो चुका है, पर परिवार नहीं, इसलिए मानसिक तनाव रहता है. इस प्रोफेशन में मानसिक दबाव हमेशा रहता है. मुझे अभी भी याद है जब मैं एक 10 साल के बच्चे को इस लिए नहीं बचा पायी, क्योंकि मेरे पास संसाधन की कमी थी और मैं इस प्रोफेशन में नयी थी. उसकी याद कई दिनों तक रही, उससे निकलने में काफी समय लगा था. ऐसा जब भी मन समस्या ग्रस्त होता है तो मैडिटेशन, वर्कआउट, परिवार से संवाद आदि करती हूं.

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क्योंकि रिश्ते अनमोल होते हैं…

क्या कभी आपने सोचा है कि जो लोग हर मुश्किल घड़ी में हमारा साथ देते हैं हम उन्हें कितना समय दे पाते हैं. क्या अपने जीवन में हम उनकी अहमियत को समझते हैं अगर हां तो कितना…हमें शायद ये लगता है कि ये तो हमारे अपने हैं कहां जाएंगे, लेकिन धीरे-धीरे वो कब और कैसे हमसे दूर होते जाते हैं हमें पता भी नहीं चलता. हमें ऐसा लगता है कि हम इनके लिए ही तो दिन रात मेहनत करते हैं काम करते हैं. शायद इसी बहाने के साथ हम एक ऐसी दुनिया की तरफ भागने लगते हैं जिसकी कोई सीमा नहीं.

हम क्यों भाग रहे हैं किसके लिए भाग रहे हैं कभी गौर से सोचते भी नहीं. रोज सुबह के बाद दिन, महीने और फिर साल…बस यूं ही गुजरते रहते हैं. जबकि असल में जिंदगी का मतलब भीड़ में भागना नहीं है. हां ये सच है कि हमारे लिए काम और सक्सेस दोनों जरूरी. इसके लिए हेल्दी कंपटीशन की भावना हमारे अंदर होनी चाहिए लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि हम हमेशा काम को प्राथमिकता दें और परिवार को भूल जाएं. भई, जीवन में सब कुछ जरूरी है इसलिए काम और परिवार के बीच संतुलन बनाना बहुत महत्वपूर्ण है. आखिर, काम के नाम पर हमेशा आपके अपनों को ही कंप्रमाइज क्यों करना पड़े.

लॉकडाउन ने दी सबक

लॉकडाउन ने सबको परिवार की अहमियत हो सिखा ही दी. साथ ही हम सभी को यह सबक भी दिया कि जिंदगी में भले एक दोस्त हो लेकिन वह सच्चा हो. सिर्फ दिखावे के लिए सोशल मीडिया पर भीड़ बढ़ाने वाले रिश्तों से कोई फर्क नहीं पड़ता बल्कि रियल लाइफ में कितने लोग आपका साथ देते हैं इससे फर्क पड़ता है.

रिलेशनशिप बॉन्डिंग क्यों जरूरी है

डॉक्टर नेहा गुप्ता (मेदांता हॉस्पिटल गुड़गांव) का कहना है कि, अगर अपने लोगों से बॉडिंग स्ट्रांग होती है तो हम मेंटली फिट रहते हैं और हमारी इम्यूनिटी भी स्ट्रांग होती है. आज के समय में रिश्ते लाइक और कमेंट में उलझ कर रह गए हैं. ऐसे में हमारे अहम रिश्ते दम तोड़ते जा रहे हैं और हम वर्चुअल दुनिया में ही खुशियां मना रहे हैं, जबकि यह झूठी और बनावटी दुनिया है.

बाद में पछताने से बेहतर है कि कुछ छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखकर अपने अनमोल रिश्तों को जीवन भर के लिए अपना बना लें. फिर चाहे वे आपके परिवार के सदस्य हों, दोस्त हों या ऑफिस के सहकर्मी. याद रखिए रिश्ते तोड़ना आसान हैं लेकिन इसके बाद के परिणामों का भुगतना मुश्किल होता है.

रिश्तों को मजबूत बनाने के टिप्स

माफी मांगने या माफ करने में न हिचकिचाएं

एक-दूसरे पर विश्‍वास करना सीखें

खुलकर बात करें चाहे वे माता-पिता हों या बच्चे

नोक-झोंक प्यार का हिस्सा हैं इन्हें दिल पर न लें

रिश्ते तोड़ने का ख्याल मन से निकाल दें

सहकर्मी के साथ मजबूत रिश्ते बनाने के टिप्स

खुद पहल करते हुए बातचीत शुरू करें और काम के अलावा भी एक-दूसरे को जानने की कोशिश करें.
अगर ऑफिस में कोई आपसे रिश्ता न रखना चाहे तो नकारात्मक राय न बनाएं और सिर्फ ऑफिस संबंधी कामों में ही उसकी मदद करें.

सहकर्मियों में कॉमन इंट्रेस्ट तलाशें इससे दोस्ती करने में काफी आसानी होती है.

कलीग्स से रिलेशन स्ट्रांग करने के लिए अपनी बड़े या छोटे पद को भूलकर सबसे एक समान फ्रेंडली व्यवहार करें.

जब भी किसी सहकर्मी को आपकी जरूरत पड़े तो बिना हिचकिचाए उसकी मदद करें.

पर्सलन और प्रोफेशनल लाइफ को बैलेंस करना है जरूरी

परिवार के सदस्यों, दोस्तों की अक्सर यही शिकायत रहती है कि हम उन्हें समय नहीं देते. जबकि हमें जब भी उनकी जरूरत होती है वे हमारे साथ होते हैं. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम घर और काम को बैलेंस करके नहीं चलते हैं.

समय को बर्बाद न करें

काम के समय को पर्सनल चीजों में न गवाएं वरना ऑफिस का काम आपके लिए बोझ बन जाएगा और तय समय में पूरा भी नहीं हो पाएगा. अगर ऑफिस के समय ही काम खत्म हो जाएगा तभी आप बिना किसी टेंशन के अपनी दूसरी जिम्मेदारियों को निभा पाएंगे.

जरूरत से ज्यादा बोझ पड़ेगा भारी

अगर आपको अपनी क्षमता पता है और संकोच के कारण काम के लिए मना नहीं कर पा रहे हैं तो इस आदत को बदल दीजिए. आप अपने सीनियर्स से विनम्रता के साथ कह सकते हैं कि पहले आप जो काम कर रहे हैं उसे खत्म करने के बाद नए काम को पूरा कर पाएंगे.

महत्त्व के हिसाब से प्राथमिकता तय करें

अगर आप अपनी वर्क लाइफ को बैलेंस करना चाहते हैं तो सबसे पहले अपनी प्राथमिकता तय करें. आपको रोज बहुत से काम करने होते हैं लेकिन आपको यह पता होता है कि कौन सा काम ज्यादा जरूरी है और किस काम को थोड़े समय के लिए टाला जा सकता है. इससे आपका दिमाग शांत रहेगा और काम भी हो जाएगा.

#coronavirus: Work From Home पर हैं तो खुद को ऐसे रखें मैंटली फिट

Work From Home सुनने में तो अच्छा लगता है, लेकिन घर से काम करना इतना भी आसान नहीं हैं, खासकर ऐसे माहौल में. 21वीं सदी में होश संभालने वाली जनरेशन ने शायद ही ऐसा पहले कभी महससू किया हो. कोरोना वायरस से बचने के लिए कर्मचारी घर से ही काम कर रहे हैं. घर से काम करने से लोगों के शरीर और दिमाग पर ज्यादा प्रेशर पड़ता है. ऐसे में एंजाइटी की समस्या हो सकती है, लेकिन कुछ बातों का ध्यान रखकर आप वर्क फ्रौम होम के दौरान भी खुद को मैंटली फिट रख सकते हैं.

1. बंद रूम में काम करना है मुश्किल

आपने भी कई लोगों से सुना होगा कि यार मैं तो घर में नहीं रह सकता. दरअसल, जब हम औफिस जाते हैं तो हमारा डेली रूटीन फिक्स होता है. सुबह नहाधोकर हम घर से बाहर खुली हवा में निकलते हैं, सांस लेते हैं. कई लोगों से मिलते हैं, बात करते हैं लेकिन जब हम घर से काम करते हैं तो पूरा दिन एक बंद कमरे में बैठकर निकाल देते हैं. ऐसे में हमारे मैंटली हैल्थ पर इफैक्ट पड़ना स्वाभाविक है.

2. रूटीन में न करें बदलाव

ज्यादातर लोग अक्सर यही करते हैं. घर से काम करने का ये मतलब बिल्कुल नहीं हैं कि आप सुबह देर से जगें और रात को देर से साएं. ऐसा करने से आपकी बौडी साइकिल पर असर पड़ेगा और आप खुद को बीमार महसूस करेंगे. जिससे आपके मानसिक स्वास्थ पर भी असर पड़ सकता है, इसलिए भले आप घर से काम कर रहे हों लेकिन समय पर नाश्ता और लंच जरूर करें.

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3. हल्की फुल्की ब्रेक एक्सरसाइज

बंद रूम में लगातार काम करना मुश्किल होता है. जैसे आप औफिस में काम के समय ब्रैक लेते हैं वैसे ही घर से भी काम करने के दौरान बीच-बीच में ब्रेक लेना जरूरी है.

काम के बीच में उठकर लिविंग रूम में जाएं और कमर, गर्दन व आंखों की एक्सरसाइज करें ताकि आपके दिमाग को ब्रेक मिलने के साथ ही बौडी को भी आराम मिल सके.

4. अपना पसंदीदा काम करें

घर से काम करने का फायदा यह है कि आपका औफिस आने-जाने का टाइम बच जाता है, इसलिए काम को सही तरीके से मैनेज कर अपनी हौबीज को समय दें, ऐसा करने से आपको खुशी मिलेगी. बाकी दिन जब आप औफिस से काम करते हैं तो पसंदीदा कामों के लिए समय नहीं मिलता, इसलिए वर्क फ्रौम होम पर हैं तो अपने लिए समय निकालें. इससे आपका काम भी हो जाएगा और आप मैंटली फिट भी महसूस करेंगे.

5. पानी पीने में कंजूसी न करें

औफिस में तो हमारे टेबल पर पानी की बौटल रखी होती है, लंच के लिए फिक्स टाइम होता है, लेकिन घर पर अक्सर लोग लापरवाही करते हैं और खाना व पानी पीने पर ध्यान नहीं देते. जिससे शरीर में पानी की कमी हो जाती है जो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक है. इसलिए अपने पास पानी की बौटल रखें, आप चाहें तो अलार्म या रिमाइंडर भी लगा सकते हैं.

6. सनबौथ लें

अक्सर लोगों की शिकायत रहती है कि औफिस जाने के चक्कर में धूप ही नहीं मिल पाती क्योंकि, सुबह के समय 10 काम भी निबटाना होता है और समय से दफ्तर भी पहुंचना होता है. इसलिए वर्क फ्रौम होम के समय धूप जरूर सेकें. लगभग सभी को पता होगा कि धूप से विटामिन डी मिलती है जो मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए बेहद जरूरी है. दरअसल, विटामिन डी एंडोर्फिन और सेरोटोनिन नामक केमिकल रिलीज करता है जो मूड को अच्छा बनाने में मददगार है.

7. दूसरों से बात करना बंद न करें

अगर आप फैमिली के साथ रहते हैं तो अच्छी बात है घर के सदस्यों से बात करें, बच्चों को थोड़ा समय दें. वहीं अगर आप अकेले रहते हैं तो फोन के जरिए दोस्तों, सहकर्मियों को कौल, मैसेज करें ताकि आपको बोरियत न लगें और आपका मूड भी रिफ्रैश रहे. यह नहीं कि घर से काम कर रहे हैं तो एकदम चुप होकर ही करें भाई आप औफिस में भी तो सहकर्मियों से गपशप करते ही हैं.

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8. मेडिटेशन है फायदेमंद

स्ट्रैस दूर करने के लिए मेडिटेशन को आसान और अच्छा तरीका माना गया है. काम के बीच में ब्रैक लेकर मेडिटेशन करें. ऐसा करने से मूड भी अच्छा रहेगा और काम करने में मन भी लगेगा.

9. नो मोर चाय-कौफी

घर पर रहने का ये मतसब नहीं है कि आप एक के बाद दूसरी चाय पीते रहें. चाय और कौफी में कैफीन होता है जो मैंटली हैल्थ के लिए फायदेमंद नहीं होता. इसलिए इनका सेवन कम करें. इसकी जगह पर आप छाछ, लस्सी ले सकते हैं. इसतरह आलस छोड़कर, घर पर काम करने के दौरान भी आप फिट रह सकते हैं.

मां-बाप को रखना है तनाव से दूर तो उन्हें सिनेमा दिखाएं

सिनेमा किसे नहीं पसंद होता. पर फिल्में हमेशा मनोरंजन के लिए नहीं होती, ये हमें बहुत कुछ सिखाती भी हैं. कई शोधों में ये बात सामने आई है कि जो लोग सिनेमा देखते हैं, ना देखने वालों की तुलना में उनका दिमाग ज्यादा सक्रिय रहता है, उनमें रचनात्मकता अच्छी होती है और मानसिक तौर पर वो ज्यादा स्वस्थ होते हैं. इस खबर में हम आपको सिनेमा से जुड़ा एक रोचक जानकारी देने वाले हैं.

हाल ही में हुए एक अध्ययन में ये बात सामने आई कि सिनेमा, थिएटर जैसे माध्यमों से नियमित रूप से संपर्क में रहने वाले बुजुर्ग तनाव से दूर रहते हैं. तनाव एक गंभीर समस्या है, जिससे लाखों लोग प्रभावित होते हैं, विशेषकर बुजुर्ग.

शोध में 50 वर्ष से ज्यादा के करीब ढाई सौ लोगों को शामिल किया गया था. इस अध्ययन में ये बात सामने आई कि लोग जो प्रत्येक दो-तीन महीने में फिल्म, नाटक या प्रदर्शनी देखते हैं, उनमें तनाव विकसित होने का जोखिम 32 फीसदी कम होता है, वहीं जो महीने में एक बार जरूर इन सब चीजों का लुत्फ उठाते हैं, उनमें 48 फीसदी से कम जोखिम रहता है.

ब्रिटेन में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक, इन सांस्कृतिक गतिविधियों की शक्ति सामाजिक संपर्क, रचनात्मकता, मानसिक उत्तेजना और सौम्य शारीरिक गतिविधि के संयोजन में बेहद लाभकारी है.

जानकारों के मुताबिक, ये सारे माध्यम कई तरह के मानसिक विकारों से लड़ने में हमारी मदद करते हैं. जब आप इन माध्यमों से जुड़ते हैं तो आपके दिमाग को काफी आराम मिलता है. वो रिलैक्स पोजिशन में होता है. खास कर के जो लोग उम्र के एक खास पड़ाव पर खड़े हैं उन्हें जरूरत है कि खुद को तनाव से दूर रखने के लिए इस तरह के माध्यमों का सहारा लें.

ये चीजें रखेंगी आपको तनाव से दूर

स्ट्रेस, तनाव, डिप्रेशन जैसी परेशानियां आज लोगों में बेहद आम हो गई हैं. इनके लिए प्रमुख वजहें हमारी लाइफस्टाइल और हमारा खानपान है. हमारा खानपान हमारे शारीरिक स्वास्थ के साथ साथ हमारे मानसिक स्वास्थ को भी काफी प्रभावित करती है. इस परेशानी को दूर रखने के लिए बेहद जरूरी है कि हम अपना खानपान बेहतर कर लें. कई स्टडीज में इस बात की पुष्टि हुई है कि अच्छे खानपान से आप तनाव की परेशानी से सुरक्षित रह सकते हैं. इसके अलावा स्टडी में ये भी सामने आया कि  हेल्दी डाइट से हमें न्यूट्रिएंट्स प्रचूर मात्रा में मिलते हैं जिससे हमारा वजन भी कंट्रोल में रहता है और डिप्रेशन की परेशानी भी कम होती है.

हाल ही में एक जर्नल में प्रकाशित हुई इस स्टडी के शोधकर्ताओं की टीम ने अभी तक मानसिक सेहत की जांच के लिए डाइट पर हुए क्लिनीकल ट्रायल के मौजूदा डेटा की जांच की है. नतीजों में शोधकर्ताओं ने पाया कि एक अच्छी और हेल्दी डाइट लेने से डिप्रेशन का खतरा कम होता है.

स्टडी के मुख्य लेखक ने बताया है कि, ‘ अभी इस स्टडी के रिजल्ट्स को पूरी तरह से सही साबित करने के लिए कुछ और स्टडीज करनी बाकी हैं. पर मौजूदा स्टडी के रिजल्ट्स के आधार पर ये कहा जा सकता है कि हेल्दी डाइट फौलो करने से मूड अच्छा रहता है.’

स्टडी में शामिल जानकारों की माने तो मानसिक तौर पर स्वस्थ रहने के लिए जरूरी है कि हमारे डाइट में न्यूट्रिएंट्स की प्रचूरता हो. इसके अलावा जंक फूड और रिफाइंड शुगर के सेवन से जितना दूर रहा जाए सेहत के लिए अच्छा है.

इंटरनेट के अत्याधिक इस्तेमाल से बढ़ रहा डिप्रेशन का खतरा

इंटरनेट आज लोगों की जरूरत बन चुकी है. एक ओर जहां इससे बहुत से फायदे होते हैं, वहीं हमारी मानसिक सेहत पर इसका काफी बुरा असर हो रहा है. हाल ही में हुए एक अध्ययन में पहली बार दावा किया गया कि इसकी वजह से किशोरों में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं पैदा हो सकती हैं.

एक निजी समाचार पत्र की रिपोर्ट के अनुसार पहले के अध्ययनों में यह पता नहीं लगाया जा सका था कि इंटरनेट पर कितने घंटे काम करने से अवसाद का खतरा पैदा हो सकता है.

चीन में 15 वर्ष आयुवर्ग वाले 1,000 किशोरों पर अवसाद और चिंता का अध्ययन किया गया. अध्ययनकर्ताओं ने कहा कि इंटरनेट की लत का शिकार बन चुके किशोरों में अवसाद करीब ढाई गुना ज्यादा खतरा रहता है.

औस्ट्रेलिया में सिडनी के स्कूल औफ मेडिसिन के लॉरेंस लाम और चीन में शिक्षा मंत्रालय के जी-वेन पेंग व गुआंगजोउ विश्वविद्यालय के सन यात-सेन ने इस अध्ययन का संचालन किया.

करीब छह फीसदी या 62 किशोरों को ऐसी श्रेणी में रखा गया जो इंटरनेट के उपयोग के चलते मामूली रूप से प्रभावित हैं जबकि 0.2 फीसदी या दो किशोरों में इससे गंभीर खतरा देखा गया.

नौ महीने बाद इनमें अवसाद और चिंता का दोबारा परीक्षण किया गया. आठ फीसदी से ज्यादा या 87 किशोर अवसाद की चपेट में आ गए थे.

लाम ने कहा, “इस निष्कर्ष से साफ है कि ऐसे किशोर जिन्हे मानसिक रूप से कोई शिकायत नहीं है, यदि इंटरनेट की लत का शिकार हो जाते हैं तो उनमें बाद में ये समस्याएं पैदा हो सकती हैं.”

वजन कम करना है तो इतने देर की नींद है जरूरी

नींद हमारे शरीर के साथ साथ हमारे दिमाग की भी जरूरत है. एक स्वस्थ व्यक्ति को दिनभर में कम से कम 7 से 8 घंटे की नींद लेने चाहिए. इससे कई तरह की गंभीर स्वास्थ परेशानियां जैसे, दिल की बीमारी, स्ट्रोक, हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज के साथ वजन बढ़ने का खतरा दूर होता है. जो लोग बढ़ते वजन से परेशान हैं उनके लिए नींद का पूरा होना एक्सरसाइज और जरूरी डाइटिंग से भी कहीं ज्यादा जरूरी है.

जो लोग कम सोते हैं उनमें वजन का बढ़ना और तनाव जैसी परेशानियां देखी जाती हैं. जानकारों की माने तो नींद की कमी से शरीर के घ्रेलिन और लेप्टिन हार्मोंस पर असर पड़ता है. शरीर में घ्रेलिन हार्मोन के निकलने पर भूख का ज्यादा एहसास होता है. ये हार्मोन मेटाबौलिज्म को कमजोर करता है और शरीर में फैट जमा करता है.

वहीं, शरीर की फैट कोशिकाओं से लेप्टिन हार्मोन निकलता है. भूख को कम करने में इस हार्मोन का बड़ा योगदान होता है. अगर शरीर में ये हार्मोन कम बनने की सूरत में हमें अधिक भूख लगती है. यही कारण है कि आपका वजन बढ़ जाता है.

लेप्टिन हार्मोन शरीर की फैट कोशिकाओं से निकलता है. ये हार्मोन को भूख को कम करता है. शरीर में लेप्टिन हार्मोन के कम मात्रा में बनने से भूख ज्यादा लगती है, जिस कारण आप जरूरत से ज्यादा खा लेते हैं. ये आपका वजन बढ़ाने का काम करता है.

नींद की कमी के कारण वजन बढ़ने के साथ, दिमाग और सेहत पर भी बहुत बुरा असर पड़ता है. इसलिए अगर आप अपने वजन को कंट्रोल में रखना चाहते हैं तो 7-8 घंटे की नींद जरूर लें.

दवाइयों से डिप्रेशन का इलाज संभव नहीं

आज की लाइफस्टाइल के कारण लोगों में डिप्रेशन का खतरा तेजी से बढ़ रहा है. इसके इलाज के लिए बहुत से लोग तरह तरह के उपाय करते हैं. बहुत से लोगों का मानना है कि केवल डाइट बदल देने से ये परेशानी दूर हो सकती है. कई लोग दवाइयों पर ज्यादा भरोसा करते हैं और कई तरह की दवाइयां लेने लगते हैं. इन सब के बाद भी उनकी स्थिति में सुधार नहीं होता तो उनकी मानसिक हालत और खराब होने लगती है. हाल ही में एक नई स्टडी में दावा किया गया कि दवाइयों से डिप्रेशन को ठीक नहीं किया जा सकता है.

अमेरिका के एक जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट की माने तो न्यूट्रिशनल सप्लिमेंट आपने डिप्रेशन को ठीक नहीं कर सकता. इस नतीजे पर पहुंचने के लिए एक शोध किया गया, जिसमें उन लोगों को शामिल किया गया जिन्हें डिप्रेशन है नहीं पर भविष्य में हो सकता है. स्टडी में करीब 1000 लोगों को शामिल किया गया. इस स्टडी को करीब एक साल तक किया गया. इसमें कुछ लोगों को न्यूट्रिशनल सप्लीमेंट दिया गया. जबकि कुछ को प्लेसबो और कुछ लोगों को लाइफस्टाइल कोचिंग दी गई.

स्टडी का परिणाम किसी भी तरह से सकारात्मक नहीं था पर इसका नीचोड़ ये जरूर था कि डाइट में परिवर्तन और बिहेवियरल थेरेपी डिप्रेशन को कुछ हद तक कम करने में सक्षम है. जानकारों की माने तो डिप्रेशन अब एक बेहद समान्य सी परेशानी बन गई है. बहुत से लोग इसके चपेट में हैं. न्यूट्रिशनल सप्लिमेंट लेने से लोगों में डिप्रेशन कम तो नहीं होता पर ये जरूर है कि डाइट में परिवर्तन करने से इसे कुछ हद तक कम जरूर किया जा सकता है. इस पर अभी और अधिक शोध करने की जरूरत है.

डाइट में फल, ताजी सब्जियां, दाल मछली और डेरी उत्पादों को डाइट में शामिल कर इस परेशानी से नीजात पाई जा सकती है. जो लोग मोटापे से परेशान हैं, वो अपना वजन कम कर के डिप्रेशन की तीव्रता कम कर सकते हैं.

अगर आपका बच्चा भी करता है ऐसा तो समझ जाइए उसे तनाव है

आजकल लोगों की लाइफस्टाइल ऐसी हो गई है कि अधिकतर लोग तनाव से ग्रसित हैं. और इसके शिकार केवल बड़े ही नहीं हैं, बल्कि छोटे बच्चे भी हैं. बहुत से लोगों को लगता है कि तनाव केवल बड़ों को होता है, बच्चों को नहीं, उनके लिए ये खबर जरूरी है, क्योंकि इससे उनका भ्रम टूटेगा. हर उम्र के अपनी अलग चुनौतियां होती हैं, और ये चुनौतियां बच्चों को भी मिलती हैं.

हाल ही में एक स्टडी में बच्चों को होने वाले तनाव के बारे में पता चला है. स्टडी के मुताबिक, अगर आपका बच्चा स्कूल ना जाने के बहाने बनाता है और सिर्फ घर पर बैठना चाहता है, तो ये संभव है कि आपका बच्चा तनाव से परेशान हो.

अमेरिका की एक युनवर्सिटी में हुए शोध की माने तो अगर आपका बच्चा स्कूल जाने से कतराता है या स्कूल में उसकी अटेंडेंस कम है तो इसका कारण तनाव हो सकता है.

इस स्टडी को करते हुए स्कूल की अटेंडेंस को 4 भागों में बांट दिया गया. आसान शब्दों में उन्होंने वो कारण चिन्हित किए जिसके चलते बच्चे स्कूल से छु्ट्टी लेते हैं. वो चार कारण थे- कभी-कभी स्कूल ना जाना, बीमारी के चलते छुट्टी, बिना किसी कारण के छुट्टी, स्कूल जाने से साफ इंकार. अब शोधकर्ताओं को अध्ययन करके पता चला कि बिना किसी कारण के जो छुट्टी ली जाती है, उसमें सबसे बड़ा कारण तनाव होता है.

जानकारों ने इस बात पर चींता जाहिर की कि इसनी छोटी उम्र के बच्चे तनाव से ग्रसित हो रहे हैं. उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि ये तनाव बच्चों की पढ़ाई के साथ उनकी सामाजिक और आर्थिक विकास में भी बाधा बन सकता है.

9 घंटे से अधिक काम करने वाली महिलाएं है तनावग्रस्त

इस भागदौड़ भरी जिंदगी में अपने लिए सम निकालना एक बड़ी चुनौती बनी हुई है. हमेशा आगे निकलने की होड़ में पीछे छूट जाने का डर रहता है, यही कारण है कि लोग औफिस में अधिक काम करने को मजबूर होते हैं. पर जरूरत से अधिक कोई भी चीज खतरनाक होती है. हाल ही में एक स्टडी में ये बात सामने आई है कि जो महिलाएं 9 घंटे या उससे अधिक काम करती हैं उनमें डिप्रेशन का खतरा अधिक रहता है.

स्टडी के मुताबिक जो महिलाएं एक हफ्ते में 55 घंटे से ज्यादा काम करती हैं, उन्हें डिप्रेशन होने का खतरा 7.3 प्रतिशत ज्यादा बढ़ जाता है. वहीं महिलाएं, जो एक हफ्ते में 35-40 घंटे काम करती हैं, वो मानसिक रूप से अधिक स्वस्थ और तनाव मुक्त रहती हैं.

जानकारों का कहना है कि ऐसा इस लिए भी है क्योंकि उन्हें केवल औफिस का काम नहीं देखना होता है, बल्कि उनके लिए घर का कामकाज भी तनाव का मुख्य कारण होता है. स्टडी में ये बात भी सामने आई कि जो महिलाएं वीकेंड में भी काम करती हैं, वो ज्यादातर सर्विस सेक्टर की होती हैं और उनकी सैलरी दूसरों की तुलना में कम होती है. अब जब सैलरी कम हो तो इंसान पर तनाव तो बढ़ता ही है और फिर वो डिप्रेशन का शिकार हो जाती हैं. आपको बाता दें कि इस स्टडी में 12,188 कामकाजी महिलाओं को शामिल किया गया था.

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