लेखक- भारत भूषण श्रीवास्तव
इस में कोई शक नहीं कि बेटी का रिश्ता तय करते वक्त मां-बाप इस बात पर ज्यादा गौर करते हैं कि कहीं लड़के की बड़ी बहन अविवाहित तो नहीं. इस की वजह भी बेहद साफ है कि घर में चलती उसी की है. सास अब पहले की तरह ललिता पवार जैसी क्रूर नहीं रह गई है, लेकिन बड़ी अविवाहित ननद बिंदु, अरुणा ईरानी और जयश्री टी जैसी है, जिस के हाथ में घर की न केवल चाबियां, बल्कि सत्ता भी रहती है.
इसीलिए उसे डेढ़ सास के खिताब से नवाजा जाता है. छोटे भाई को वह बेटा भी कहती है और दोस्त भी मानती है. ऐसे में बेटी शादी के बाद उस से तालमेल बैठा पाएगी, इस में हर मांबाप को शक रहता है. बेटी भले ही रानी बन कर राज न करे चिंता की बात नहीं, लेकिन ससुराल जा कर ननद के इशारों पर नाचने को मजबूर हो यह कोई नहीं चाहता, क्योंकि भाई का स्वाभाविक झुकाव कुंआरी बड़ी बहन की तरफ रहता ही है. हालांकि इस के पीछे उस की मंशा यह रहती है कि दीदी को एक अच्छी सहेली और छोटी बहन मिल जाएगी, लेकिन अधिकतर मामलों में ऐसा होता नहीं है, क्योंकि पत्नी और बहन दोनों उस पर बराबरी से हक जमाते हुए कुछ दिनों बाद बिल्लियों की तरह लड़ती नजर आती हैं
. भावनाओं को समझना मुश्किल भोपाल के 32 वर्षीय बैंक अधिकारी विवेक की बड़ी बहन 36 वर्षीय प्रेरणा की किन्हीं वजहों के चलते शादी नहीं हो पाई थी. मां की इच्छा के चलते तीनों ने फैसला लिया कि विवेक ही शादी कर ले. पिता थे नहीं, इसलिए विवेक की तरफ से शादी के सारे फैसले प्रेरणा ने लिए. शुचि के मांबाप ने भी मन में खटका लिए ही सही शादी कर दी. शुरू में प्रेरणा का रवैया बेहद गंभीर और परिपक्व था. उस ने पूरे उत्साह और जिम्मेदारी से शादी संपन्न कराई और शुचि को भाभी के बजाय छोटी बहन ही कहा.
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2-4 महीने ठीकठाक गुजरे. शुचि भी बैंककर्मी थी, लिहाजा हनीमून से लौटने के बाद उस ने अपनी नौकरी पर जाना शुरू कर दिया. एक बात उस ने न चाहते हुए भी नोटिस की कि पूरे हनीमून के दौरान विवेक दीदी की बातें ज्यादा करता था कि पापा के असामयिक निधन के बाद मम्मी बिलकुल टूट गई थीं और बिस्तर पर पड़ गई थीं तो उन की देखभाल के लिए दीदी ने शादी नहीं की, क्योंकि उस वक्त वह पढ़ रहा था. विवेक की नजर में दीदी का यह त्याग अतुलनीय था. शुचि उस की भावनाओं को समझ रही थी, लेकिन यह बात उसे खटक रही थी कि नैनीताल वे दीदी के त्याग का पुराण बांचने आए हैं या फिर रोमांस करते हुए एकदूसरे को समझने. भोपाल लौटते ही बात आईगई हो गई और चारों अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए. बहूबेटा और बेटी साथ खाने बैठते थे तो मां खुश हो जाती थीं.
हर समय शुचि की तारीफ करती रहती थीं कि उस के आने से घर में रौनक आ गई है. उलट इस के विवेक का पूरा ध्यान प्रेरणा पर रहता था कि ऐसी कोईर् बात न हो जो दीदी को बुरी बुरी लगे. हर बात में दीदी उस की प्राथमिकता में रहती थीं. वह जो भी शुचि के लिए खरीदता था वही प्रेरणा के लिए भी खरीदता था ताकि उसे बुरा न लगे. शुचि को इस पर कोई एतराज नहीं था. हालांकि कभीकभी उसे ये सब बुरा लगता था, लेकिन मम्मी की दी यह सीख उसे याद थी कि ऐसा शुरूशुरू में हो सकता है, इसलिए उसे इन बातों को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए, बल्कि पति का सहयोग करना चाहिए.
धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा और मुमकिन है फिर प्रेरणा की भी शादी हो जाए. कहां होती है चूक मगर ऐसा हुआ नहीं. उलटे दिक्कत उस वक्त शुरू हो गई जब दिनभर घर में खाली बैठी रहने वाली प्रेरणा शुचि के कामों में मीनमेख निकालने लगी और विवेक दीदी के लिहाज में चुप रहा. यहां तक भी शुचि कुछ नहीं बोली. लेकिन ननद का व्यवहार और घर में एकछत्र दबदबा उसे अखरने लगा. घर में क्या आना है, रिश्तेदारी कैसे निभानी है जैसी बातें प्रेरणा ही तय करती थी. और तो और आज सब्जी कौन सी बनेगी यह फैसला भी वही लेती थी. शुरू में जब शुचि बैंक से आती थी तो प्रेरणा उसे चाय बना कर दे देती थी. इस परिहास के साथ कि मेरी भाभी कम बहन ज्यादा थक गई होगी. लेकिन वक्त के साथ घर में पैदा हुआ यह सौहार्द खत्म हो रहा था.
थकीहारी शुचि या तो खुद चाय बना कर पीती या फिर बिना पीए ही रहती. ऐसे कई बदलावों पर प्रेरणा पहले तो खामोश रही पर जल्द ही उस ने शुचि को महारानी के खिताब से नवाजते हुए एक दिन विवेक से कह दिया कि बेहतर होगा कि वह अलग रहने लगे. इस धमाके से सभी हैरान रह गए खासतौर से विवेक जिस ने कभी ऐसी स्थिति की उम्मीद ही नहीं की थी. अब घर में स्थायी रूप से कलह पसर गई थी और शुचि का मुंह भी खुल गया था. यह सच्चा वाकेआ हर उस घर का है जहां डेढ़ सास है. रिश्तों को समझने और निभाने में कहां किस से कितनी चूक हुई है, इसे हर किरदार के लिहाज से देखा जाना जरूरी है ताकि यह समझ आए कि इस अप्रिय और अप्रत्याशित स्थिति की वजह क्या है.
विवेक: विवेक की गलती यह है कि उस ने पत्नी के मुकाबले बहन को ज्यादा तरजीह दी, जबकि उसे शुचि की भावनाओं का भी खयाल बराबर रखते हुए दोनों के बीच तालमेल बैठाना चाहिए था. शादी के बाद उसे बहन पर निर्भरता कम करनी चाहिए थी और शुचि को भी हर छोटेबड़े फैसले में शामिल करना चाहिए था. दीदी अकेली है, बड़ी है और अब हमें ही उस का ध्यान रखना है जैसी बातों से साफ है कि वह शुचि को प्रेरणा का प्रतिस्पर्धी मानने की गलती कर रहा था. उस की मंशा गलत नहीं थी, लेकिन हालात को औपरेट करने का तरीका गलत था. शुचि: ससुराल आते ही शुचि के मन में यह बात बैठ गई थी कि घर में उस की भूमिका एक सदस्य की नहीं, बल्कि मेहमान की है. लिहाजा, उस ने अपने अधिकार न तो हासिल किए और न ही इस्तेमाल. उस ने यह भी मान लिया कि जब सबकुछ प्रेरणा ने ही करना है तो वह क्यों किसी मामले में टांग अड़ाए. एक तरह से विवादों और जिम्मेदारियों से बचने के लिए वह बचाव की मुद्रा में रही.
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लेकिन बाद में प्रेरणा के ताने सुन कर आपा खो बैठी. प्रेरणा: शुरू में प्रेरणा की भूमिका अभिभावक की थी, लेकिन असुरक्षा के चलते वह खुद की तुलना शुचि से करने की गलती कर बैठी. खासी पढ़ीलिखी प्रेरणा यह नहीं समझ पाई कि विवेक और शुचि को एकदूसरे को समझने के लिए नजदीकियां और एकांत चाहिए और इस में उसे आड़े नहीं आना चाहिए. उस ने शुचि को न भाभी समझा और न ही बहन मान पाई. मां: मां की तटस्थ भूमिका का खमियाजा सभी भुगत रहे हैं जिन्होंने हालात को भांपने के बाद भी दखल नहीं दिया जो देना जरूरी था. बेटी की परेशानी के सामने उन्हें बहू की परेशानी समझ नहीं आई और वे चुप रहीं. जरूरी तो यह था कि वे तीनों को अलगअलग और इकट्ठा बैठा कर भी समझातीं, खासतौर से विवेक को कि उसे कैसे बहन और पत्नी के बीच संतुलन बैठाना है.
अब शुचि प्रैगनैंट है और मायके में रह रही है. उस के मम्मीपापा को भी समझ नहीं आ रहा है कि ऐसी हालत में क्या किया जाए. अगर विवेक को ज्यादा समझाएंगे तो वह भड़क भी सकता है, हालांकि वह हर सप्ताह शुचि से मिलने आता है और उसे समझाता है कि कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा. दीदी ने तो गुस्से में अलग होने की बात कह दी है. लेकिन शुचि को लगता है कि अब कुछ ठीक नहीं होगा और होगा तो तभी जब डेढ़ सास की शादी हो जाएगी.