नेताओं का राज खत्म

कोरोना ने सरकारों की ताकत को बढ़ा दिया है या यों कहें कि कोरोना के नाम पर नौकरशाही ने नेताओं को मूर्ख मान कर सत्ता फिर हाथ में ले ली है. पहले सारे फैसले मंत्री किया करते थे, जिन्हें अपने फैसलों का जनता पर क्या असर पड़ेगा, का पूरा एहसास होता था. अब सारे फैसले अफसर कर रहे हैं. प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल सब उसी तरह अपने अफसरों का मुंह ताक रहे हैं जैसे औरतें घरों में फैसले लेने पर पति, पिता या पुत्र का मुंह देखती हैं.

अब ज्यादातर फैसलों पर हस्ताक्षर सचिवों और जिलाधीशों के नजर आएंगे. टैलीविजन ने मंत्रियों को छोड़ सीधे पुलिस अधीक्षकों और जिलाधीशों से बात करनी शुरू कर दी है. चूंकि सचिव व अफसर दफ्तरों में बैठे हैं, वे पत्र डिक्टेट करा सकते हैं, कानून ने उन्हें हक भी दे रखा है कि वे मंत्रियों को इग्नोर कर सकते हैं.

अब देश में न सत्तारूढ़ दल हैं न विपक्षी दल. अब तो शासक हैं जो नौकरशाही का नाम है. ये आईएएस, आईपीएस अफसर हैं. इन्हीं की चल रही है. मंत्रियों को तो दर्शन देने के लिए बुलाया जाता है. आदेश तो नौकरशाही के हैं. कौन सी सीमा खुलेगी, कौन सी रेल चलेगी, कौन सा हवाईजहाज उड़ेगा, कहां लाठी चलेगी, कहां पैसा खर्च होगा, ये सब नौकरशाह तय कर  रहे हैं.

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12 मई को प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने 33 मिनट के भाषण में 3 मिनट भी काम की बात नहीं की, क्योंकि उन्हें शायद अब मालूम ही नहीं था कि क्या कहना है. 800 रूपए की बरसाती को पीपीई कह कर उसे बनाने में महारत मानने वाले नेता की कमजोरी अफसर भांप चुके हैं. सभी नेता टैलीविजन पर डरेसहमे नजर आते हैं.

इस का नुकसान क्या होगा पता नहीं. पर जैसे औरतों के हाथों में असली सत्ता न होने से घर नहीं चल सकते वैसे ही चुने नेताओं के हाथों में सत्ता न हो तो देश नहीं चल सकता. आज नहीं तो कल अनार्की- अराजकता- होगी ही. रेलवे स्टेशनों, राज्यों की सीमाओं, एअरपोर्टों, अस्पतालों में सब दिख रहा है. यह सुधरेगा नहीं, बिगड़ेगा.

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एक जिद अपने हक के लिए

धर्म पर आधारित राजनीति ने जो नुकसान औरतों को पिछले 5-7 दशकों में पहुंचाया है उस का आंकलन करना आसान नहीं है. अगर शाहीन बाग में मुसलिम औरतें आ कर बैठना शुरू हुई हैं तो वह धर्म की वजह से ही है, जिन्हें पहले बुरकों और घरों के अंधेरे में बंद रखा जाता था. देशभर में फैल रहे शाहीन बाग असल में उन मुसलिम कट्टरपंथियों की हार का नतीजा भी हैं जो सोच रहे थे कि धर्म के नाम पर वे अपनी औरतों को गुलाम बनाए रखेंगे.

मुसलिम औरतों को सम झ आ गया है कि उन के धर्म के ठेकेदार उन्हें दबाए रखने की नीयत से कुछ करने नहीं देंगे और बहुमत की राजनीति के कारण उन्हें बेबात में सरकार के जुल्मों का सामना करना पड़ेगा. उन्होंने अपने हाथों में तख्तियां लीं और शाहीन बाग की सड़कों पर जम गईर्ं. यह मुसलिम कट्टरपंथियों की हार है जो जुल्म सहने को तैयार हैं पर धर्म पर सम झौते करने को तैयार नहीं हैं.

लेकिन जो हिम्मत मुसलिम औरतों ने दिखाई उसी पैमाने का दब्बूपन हिंदू औरतों में बढ़ा है. मुसलिम धर्म के दुकानदार कमजोर हुए हैं तो हिंदू धर्म के दुकानदार आज और मजबूत और कामयाब हो गए हैं. सारे देश में सरकार की शह पर हिंदू औरतों को बरगलाने की साजिश चल रही है.

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औरतों को बहकाया जा रहा है कि उन की सुरक्षा तो धर्म को मानने में है. उन्हें तीर्थों में धकेला जा रहा है. उन्हें पूजाउपवासों में जम कर लगवाया जा रहा है. उन में धार्मिक जनून भी भरा जा रहा है. यह सोचीसम झी साजिश है और राजनीति में यदि भगवा मंडली है, तो इसीलिए है कि औरतों को जम कर लूटा जा सके.

देशभर में मंदिरों की बाढ़ आ गई है, जिन में ज्यादातर ग्राहक औरतें ही होती हैं. राम रहीम, आसाराम, सबरीमाला, राम देवड़ा, सालासर जैसी जगहों पर औरतों को ही ठेला जाता है और उन्हें डराया जाता है कि उन के पति का सुख धर्म से सुरक्षित है. हर औरत को व्रतउपवास करने पर मजबूर किया जाता है. लड़कियों को प्रेम करने की इजाजत भी तब ही मिलती है जब जाति, गोत्र, कुंडली, धर्म सब मेल खाते हों. इसी दौर में उन से कहा जाता है कि हिंदू धर्म की रक्षा करना उन के पति की रक्षा करने के समान है. पार्टी भी वही वोट की अधिकारी जो उन्हें मंदिरों तक ले जाए.

शाहीन बाग की क्रांति यदि कुछ समय चली तो साबित करेगी कि राजनीति आदमियों के बल पर नहीं औरतों के बल पर चलनी चाहिए. औरतों को ही राजनीतिक फैसलों से ज्यादा फर्क पड़ता है. नोटबंदी हो, जीएसटी, बेरोजगारी हो, आर्थिक मंदी हो, बलात्कार हो, बेबात में जेलों में बंदी रखे जाएं, इंटरनैट बंद हो, प्याज महंगा हो, बाजार बंद हो, धार्मिक जुलूस से रास्ते बंद हो, सब का कहर औरतों पर पड़ता है.

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समय आ गया है कि शाहीन बाग नागरिकता संशोधन कानून का मोरचा नहीं बने बराबरी की नागरिकता का प्रतीक बन जाए. हर गांवशहर में शाहीन बाग हो. घरघर की सताई औरतें अपना रोष दिखाने के लिए धरनों पर बैठना सीखें. वे चुपचाप बैठ कर सरकार, दलों, पुलिस, गुंडों से ज्यादा आसानी से निबट सकती हैं. वे प्रवचन व तकरीरें न सुनें, वे चर्च में पादरियों के उपदेश न सुनें, वे मत्था न टेकें, वे तो सिर उठा कर जीएं.

महिलाओं का सशक्तिकरण वाया इंटरनेट

नाम-चेतना

उम्र-कोई 28 साल

स्थान सालपुरी [अलवर]

प्रदेश-राजस्थान

सालपुरी की महिलाओं के लिए चेतना महज एक नाम नहीं बल्कि उनकी जिंदगी में कायाकल्प कर देने वाले किसी जादूगर जैसा है.यह कहानी तीन साल पहले शुरू हुई चेतना की एक पड़ोसन के पेट में दर्द था.उसे सूझ नहीं रहा था कि वह क्या करे ? रात का समय था,दूर दूर तक कोई डॉ था नहीं और दुर्भाग्य से घर में कोई बड़ी बूढी औरत भी नहीं थी, जो ऐसे मौके पर अपने अनुभवों के खजाने से कोई उपाय खोजती.चेतना को यह बात मालूम पड़ीं तो वह अपना स्मार्ट फोन लेकर पड़ोसन के पास आयी और कहा चलो इंटरनेट से कोई उपाय ढूंढते हैं.पड़ोसन को कुछ समझ नहीं आया.उसे कुछ करना या समझना भी नहीं था,बस अपनी आँखों से वह सब देखना था जो चेतना कर रही थी.चेतना ने पड़ोसन को सिखाते हुए बताया कैसे हम छोटी मोटी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का हल इंटरनेट से खोज सकते हैं.

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चेतना ने ‘पेट दर्द से फ़ौरन राहत दिलाने वाले घरेलू नुस्खे’ लिखकर नेट में सर्च किया.तुरंत कई घरेलू नुस्खे सामने आ गए.उन दोनों ने मिलकर एक नुस्खे को आजमाना तय किया.दोनों ने मिलकर ‘अदरक का काढ़ा’ बनाने के नुस्खे को आजमाया.5 मिनट में काढ़ा तैयार हो गया.इससे चेतना को न सिर्फ तुरंत जादुई राहत मिली बल्कि इंटरनेट के प्रति जबर्दस्त आकर्षण पैदा हुआ.आज चेतना की वह पड़ोसन अपने परिवार की सबसे स्मार्ट महिलाओं में से एक है.उसे न सिर्फ दर्जनों किस्म की खाने की नई नई चीजें बनाने आती हैं,बल्कि वह अपने इस हुनर से कुछ कमा भी लेती है.इस सबका जरिया है इंटरनेट.चेतना की पड़ोसन ने इंटरनेट के जरिये दर्जनों किस्म के अचार बनाने सीखे हैं.ऐसी चीजों से भी पहले जिसके बारे कभी सोचा भी नहीं था.इसलिए चेतना की यह पड़ोसन आज इंटरनेट की मुरीद है.यह चेतना की किसी एक पड़ोसन की कहानी नहीं है.चेतना ने घूम-घूमकर पूरे अलवर में ऐसी 900 महिलाओं को इंटरनेट सैवी बनाया है जो उसे चेतना नहीं ‘इंटरनेट साथी’ कहकर बुलाते हैं.

इन तमाम महिलाओं की जिंदगी इंटरनेट की बदौलत वाकई बहुत समृद्ध हो गयी है.इंटरनेट के जरिये उनमें दर्जनों किस्म के पहले से मौजूद हुनरों को नए पंख तो मिले ही हैं,यह थोड़ी बहुत आय का जरिया भी बना है तथा देश-विदेश में क्या हो रहा है इस सबकी ताजा जानकारी का जरिया भी.सच तो यह है कि घर की चाहरदीवारी के भीतर रहते हुए ही,वह भी राजस्थान जैसे बंद समाज में,आज इन महिलाओं को तमाम नए नए लोगों से दोस्ती करने का मौका भी इंटरनेट से ही मिला है.सिर्फ महिलाओं से ही नहीं..पुरषों से दोस्ती का मौका.इंटरनेट के जरिये आम महिलाओं की जिंदगी को बदल डालने वाली चेतना देश में अकेली इंटरनेट प्रशिक्षक नहीं हैं.आज देश में ऐसी करीबन 100000 स्वयंसेवी इंटरनेट प्रशिक्षक हैं जिन्होंने इस नेट की डिजिटल क्रांति को आम ग्रामीण महिलाओं की जिंदगी बदलने का हथियार बना लिया है.

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यह उस प्रयास का नतीजा है जिसे 2013 में टाटा तथा और कुछ कंपनियों की मदद से गूगल ने ‘हेल्पिंग वीमेन गेट ऑनलाइन’ नाम से शुरू किया था.महज 5-6 सालों में इस अभियान ने महिलाओं की जिंदगी में क्रांति कर दी है.लाखों नहीं करोड़ो महिलाओं की जिंदगी को इंटरनेट ने अलग अलग तरीके से समृद्ध कर दिया है.यह ऐसे ही प्रयासों का नतीजा है कि आज 30 फीसदी महिलाएं ऑनलाइन शॉपर्स हैं.हालांकि इनमें अभी ग्रामीण महिलाओं की संख्या कम है.लेकिन दिनोदिन बढ़ रही है. विभिन्न अध्ययनों का अनुमान है कि वर्ष 2021 तक भारत में इंटरनेट प्रयोग करने वालों की संख्या 829 मिलियन यानी करीब 83 करोड़ हो जायेगी.तब 25 करोड़ महिलायें विशुद्ध रूप से इंटरनेट सैवी ही नहीं होंगी बल्कि ई-कामर्स में निर्णायक भूमिका निभा रही होंगी.क्योंकि महिलायें घर के अर्थशास्त्र में निर्णायक दखल रखती हैं. नीलसन के एक स्टडी के मुताबिक़ 92 फीसदी महिलाओं ने दावा किया कि वे घरेलू खपत में मुख्य भूमिका निभाती हैं.ध्यान रखिये इनमें नॉन-वर्किंग महिलाएं भी शामिल हैं.

बेईमानी की जय

महाराष्ट्र का राजनीतिक तमाशा आमतौर पर रसोई, पति और बच्चों में बिजी औरतों के सिर से गुजर जाता है पर यह पक्का है कि दिल्ली के पौल्यूशन की तरह यह हरेक को बराबर परेशान करता है. औरतें सोचती रहें कि हमें इस गंदी राजनीति से क्या लेनादेना पर असली कीमत तो वही चुकाती हैं.

महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई देश की व्यावसायिक प्रौसपैरिटी में नंबर एक है. न सिर्फ वहीं सब से ज्यादा पैसा है, वहीं से टीवी चैनल्स चलते हैं, वहीं से हिंदी फिल्मों की बाढ़ आती है और जो नाटक विधायक कर रहे हैं वह इन परदे की कथाओं में भी आता है, उस के टिकट के पैसे भी उन के पतियों और बेटेबेटियों की जेबों से जाते हैं.

जब भारतीय जनता पार्टी और शिव सेना ने अलग पार्टियों की तरह विधान सभा का चुनाव लड़ा था तो शिव सेना को आजादी थी कि वह परिणामों के बाद अपनी मरजी की पार्टियों के साथ सरकार बनाए.

सास की तरह केंद्र सरकार की कठपुतली राज्यपाल को ननद की शक्ल में बेटेबहू में दरार डालने की कोशिश करने और झगड़ा कराने की जरूरत न थी. यहां तो ननद की शक्ल में राज्यपाल ने बच्चों में भी झगड़ा करा दिया.

यह साफ संदेश दे दिया गया है कि जब राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, राज्यपाल, पार्टियों के नंबर 2 नेता सारे वादे, कसमों को तोड़ कर अपना उल्लू सीधा करने के लिए रोज पैतरे बदल सकते हैं तो घरों में सास, देवरानी, ननद, पड़ोसिनें और कामवालियां क्यों नहीं? किसी को अपने वादे पर टिकने की जरूरत नहीं. किसी पर भरोसा नहीं करा जा सकता.

अगर औरतों के पति घर में एक से दुलार करें और बाहर दूसरी से तो इस में हरज क्या है? जब संविधान को तोड़मरोड़ कर फेंका जा सकता है तो विवाह के वादों

या रेस्तरां में किए गए प्रोपोज को क्यों नहीं तोड़ा जा सकता? यह तो हमारे आका सिखा रहे हैं. ऐसे आका जो कहते हैं कि वे धर्मपुराणों से सीख कर ही काम करते हैं.

जय यह व जय वह के साथ जय बेईमानी, जय धोखा, जय फरेब भी आप की जम कर परोसा जा रहा है.

सत्ता की चाबी राजनीतिक परिवारों की औरतों के हाथ

देशभर में हिंदुत्व के नारे को बुलंद करने का काम शिवसैनिकों ने किया, गौहत्या रोकने के लिए पहली आवाज शिवसेना ने उठाई, राम मंदिर के लिए लड़ाई शिवसेना ने लड़ी, बाबरी मसजिद शिवसैनिकों ने ढहाई, जबकि इस सब का फायदा पूरे देश में भाजपा ने उठाया. इस बात को शिवसेना भलीभांति सम झ रही थी. इसीलिए महाराष्ट्र में विधान सभा गठित होने से पहले उस ने अपना हक मांग लिया और महाराष्ट्र में ढाई साल शिवसेना के मुख्यमंत्री की अपनी मांग भाजपा के सामने रख दी. शिवसेना को यह उम्मीद नहीं थी कि ‘छोटा भाई छोटा भाई’ कह कर जो भाजपा उस से लगातार फायदा उठाती रही है वह महाराष्ट्र में ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद मांगने पर औकात बताने लग जाएगी. आघात गहरा था, लिहाजा 30 साल पुरानी दोस्ती टूट गई.

फिर शरद पवार ने सरकार बनाने के लिए जोड़नेजुटाने का जो अभूतपूर्व अभियान शुरू किया उस के चलते 3 पार्टियां- शिवसेना, राकांपा यानी राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस, जिन की विचारधारा और एजेंडा एकदूसरे से बिलकुल विपरीत था, शरद पवार के सम झाने पर एकदूसरे का हाथ थामने को तैयार हो गईं. 28 नवंबर, 2019 का दिन शिवसैनिकों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए ऐतिहासिक दिन बना. महाराष्ट्र के जिस शिवाजी पार्क में कभी शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे ने नारियल फोड़ कर शिवसेना का गठन कर राजनीति में पदार्पण की हुंकार भरी थी, उसी शिवाजी पार्क में उन के सुपुत्र उद्धव ठाकरे ने पूरी आनबानशान से मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

अद्भुत हाल था कि पहले जो भाजपा से ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद की याचना कर रहे थे, उन्होंने पूरे 5 सालों के लिए महाराष्ट्र की सत्ता की कमान अपने हाथों में ले ली. लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने से पहले एक आश्चर्यजनक घटना घटी. राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा और सरकार गठन के लिए शरद पवार का तीनों पार्टियों से बातचीत का अभियान चल ही रहा था कि अचानक शरद पवार के भतीजे अजित पवार भाजपा की गोद में जा बैठे. अब अजित पवार को डराधमका कर भाजपा ने अपने खेमे में आने को मजबूर किया या लोभ दे कर, यह रहस्य अभी तक बना हुआ है. गौरतलब है कि अजित पवार पर क्व70 हजार करोड़ के घोटाले का आरोप है, जिस की जांच विभिन्न जांच एजेंसियां कर रही हैं. अब जांच एजेंसियां किस तरह केंद्र सरकार के इशारे पर काम करती हैं, यह किसी से छिपा नहीं है.

न घर के रहे न घाट के

तो अजित पवार अपने चाचा शरद पवार के अभियान को धता बता कर भाजपा का साथ देने क्यों निकल पड़े होंगे, यह सम झना भी कोई मुश्किल नहीं है. उल्लेखनीय है कि अजित पवार का राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी में रोबरुतबा शरद पवार से कम नहीं है. वे राकांपा में विधायक दल के नेता भी थे. विधायक दल का नेता होने के नाते उन के पास अपने निर्वाचित 56 विधायकों के हस्ताक्षर मौजूद थे. बस उन्हीं हस्ताक्षरों को ले कर अजित पवार देवेंद्र फडणवीस के पास पहुंच गए. इधर 24 नवंबर की अलसुबह जब लोगों ने अपने टीवी सैट खोले तो पता चला कि महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री पद की और अजित पवार को उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी.

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शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे हैरान रह गए. उन्हें अपने सितारे गर्दिश में जाते नजर आए. कुरसी एक बार फिर दूर की कौड़ी हो गई. लेकिन 24 घंटे के अंदरअंदर शरद पवार ने न सिर्फ तीनों पार्टियों के विधायकों को एकजुट कर लिया, बल्कि मीडिया को आमंत्रित कर के ‘वी-162’ के जरीए उन्होंने भाजपा को यह संदेश भी दे दिया कि अजित पवार अकेले ही तुम्हारी गोद में बैठे हैं, उन के साथ 1 भी विधायक नहीं है.

परिवार बना ताकत

भाजपा भले पानी पीपी कर परिवारवाद और वंशवाद को कोसती रहे, मगर सच तो यह है कि भारतीयों के लिए परिवार बहुत माने और ताकत रखता है. हमारे लिए परिवार सर्वोपरि है. परिवार सब से बड़ी ताकत है और परिवार का टूटना गहरा आघात पहुंचाता है. परिवार के मुद्दे पर हम इमोशनल हो जाते हैं. कुछ यही हुआ अजित पवार के मामले में भी, जब राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा पर परिवार का प्यार भारी पड़ गया.

अजित को मनाने के लिए घर के सभी सदस्य तुरंत सक्रिय हो गए. शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले ने इस कठिन वक्त में बहुत अहम भूमिका निभाई और भाई को वापस लाने के लिए जीजान एक कर दिया. परिवार के कई सदस्य एक के बाद एक अजित से जा कर मिले और उन्हें सम झाबु झा का वापस लौटने के लिए कहा.

अंतत: अजित भाजपा की गोद से उतर कर घर लौट आए. उन की घरवापसी की वह तसवीर लंबे समय तक लोगों के जेहन से नहीं उतरेगी, जब सुप्रिया सुले ने उन्हें सामने पा कर न सिर्फ भाई के गले लग कर अपना प्यार प्रकट किया, बल्कि उन के पैर छू कर उन का आशीर्वाद भी लिया और उन के प्रति इज्जत जाहिर की.

इस एक घटना ने साबित कर दिया कि राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा पर परिवार का प्यार कितना हावी है. देखा गया है कि भारतीय राजनीति में लंबे समय तक सत्ता उसी की रही है, जिस का परिवार उस के पीछे एकजुट रहा है. हां, जहां परिवार टूटा वहीं सत्ता भी छूटी. फिर चाहे समाजवादी पार्टी की बात करें या राष्ट्रीय जनता दल की, राजनीति में परिवार का बड़ा महत्त्व है.

लोकतंत्र पर परिवार हावी

भाजपा जिस राम और रामराज की बात करती है, आखिर वहां भी तो एक वंशविशेष की ही बात होती है. पूरा महाभारत एक वंश को सत्ता पर स्थापित करने के लिए हो गया. सारी की सारी धर्मकथाएं ही वंशवाद और परिवारवाद पर आधारित हैं. ऐसे में वंशवाद को सत्ता से अलग कर के कैसे देखा जा सकता है?

भारत में वंशवाद की जड़ें बहुत मजबूत हैं. नेहरू खानदान का नाम इस में प्रमुखता से लिया जाता है, जहां जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और अब राहुल गांधी व प्रियंका गांधी कांग्रेस के सर्वेसर्वा हैं.

जम्मू और कश्मीर के दिवंगत मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला के परिवार का नाम भी वंशवाद को ले कर बहुत आगे आता है. यहां उन के बेटे फारूख अब्दुल्ला और पोते उमर अब्दुल्ला दोनों राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. ठीक उसी तरह जैसे पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी के मुफ्ती मुहम्मद सईद और उन की बेटी महबूबा मुफ्ती.

उत्तर प्रदेश में जहां समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव का पूरा कुनबा राजनीति में है, वहीं बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव भी वंशवाद के मामले में पीछे नहीं रहे. 1997 में जब वे जेल जाने वाले थे, तो उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया, साथ ही अपने बेटे तेज प्रताप और तेजस्वी को

भी बिहार में मंत्री और उपमुख्यमंत्री की कुरसी दे दी. जो कसर बाकी थी वह लालू ने बेटी मीसा को 2016 में राज्य सभा का सदस्य बना कर पूरी कर दी.

यादवों के बाद अगर वंशवाद का वृक्ष कहीं तेजी से बढ़ा है तो वह है कर्नाटक. यहां पूर्व प्रधानमंत्री और जनता दल सैकुलर के अध्यक्ष देवेगौड़ा परिवार का नाम आता है. देवेगौड़ा ने अपने 2 पोतों निखिल मांड्या और प्रज्वल को राजनीति में उतारने की घोषणा की, तो कर्नाटक में लोगों को कोई आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि यहां जनता दल सैकुलर को एक पारिवारिक पार्टी के नाम से ही जाना जाता है.

डीएमके, एनसीपी, लोक दल ओर तेलंगाना राष्ट्रीय समिति प्रमुख परिवारवाद या वंशवाद के मामले में पीछे नहीं हैं. तमिलनाडु के दिवंगत मुख्यमंत्री के. करुणानिधि के बेटे स्टालिन के हाथों में डीएमके की कमान है. उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को देख कर कहा जाता था कि यहां परिवारवाद नहीं है, लेकिन देखते ही देखते वहां भी इस की छाप दिखने लगी. दरअसल, मायावती के बाद पार्टी को संभालने वाला कोई भी नेता नजर नहीं आता है, लिहाजा मायावती को अपने भतीजे को अपना उत्तराधिकारी घोषित करना पड़ा.

गांधी परिवार के बिना कांग्रेस की कल्पना ही नहीं की जा सकती है. परिवार जितना मजबूत होगा, पार्टी उतनी ही मजबूत होगी. परिवार में टूटफूट का सीधा असर पार्टी पर पड़ता है, यह बात शिवसेना के मामले में भी दिखी, तो मुलायम और लालू परिवार के मामले में भी राजनीति में सफलता पाने के लिए परिवार का एकजुट रहना महत्त्वपूर्ण है.

लोहिया के लाल परिवारवाद की ढाल

राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा देने की शुरुआत वैसे तो पं. जवाहरलाल नेहरू ने की थी, पर लोहिया के चेले कहे जाने वाले मुलायम सिंह यादव ने इसे खूब आगे बढ़ाया. आज अगर

डा. राममनोहर लोहिया जीवित होते तो परिवारवाद की बुराइयों को ले कर उन का सब से पहला और बड़ा संघर्ष समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव से होता. लोहिया वंशवाद के घोर विरोधी थे और आज देश की राजनीति में उन के चेले मुलायम सिंह यादव का कुनबा सब से बड़ा सियासी कुनबा है, जो बिखराव के पड़ाव पर पहुंच कर कमजोर हो गया है. चाचाभतीजे की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं ने परिवार को तोड़ा तो इस का नुकसान पार्टी को ही हुआ.

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गांधी परिवार के बिना कांग्रेस की कल्पना नहीं

कांग्रेस का मतलब है गांधी परिवार. इस परिवार के बिना कांग्रेस की कल्पना नहीं की जा सकती है. कांग्रेस और गांधी परिवार को. एक करने का श्रेय जाता है इंदिरा गांधी को, मगर एक वक्त वह भी था जब इंदिरा गांधी और कांग्रेस अलगअलग थे. यह वक्त था जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद का. जब तक नेहरू जिंदा थे तब तक सरकार पर उन का एकछत्र राज था. उन के आगे कांग्रेस का वही हाल था, जो आज मोदी के आगे भाजपा का है.

नेहरू ने इंदिरा को सक्रिय राजनीति से हमेशा दूर रखा था. लेकिन उन की मौत के बाद भारत की राजनीति में एक शून्य पैदा हो गया. तब शुरू हुई नेहरू के उत्तराधिकारी की खोज. तब इंदिरा गांधी कहीं किसी गिनती में नहीं थीं. उस वक्त के. कामराज कांग्रेस अध्यक्ष हुआ करते थे, जो दक्षिण भारत की निचली जाति के प्रभावशाली नेता थे. मगर उन के दिमाग में भी इंदिरा का नाम नहीं था. तब प्रधानमंत्री पद के जो 2 मजबूत दावेदार थे वे थे-मोरारजी देसाई और लाल बहादुर शास्त्री.

मोरारजी देसाई को ज्यादातर कांग्रेसी पसंद नहीं करते थे, क्योंकि वे बड़े जिद्दी किस्म के व्यक्ति थे. उन के विपरीत लालबहादुर काफी शांत और सौम्य थे. कांग्रेसी नेताओं ने एकमत से प्रधानमंत्री के रूप में लालबहादुर शास्त्री को चुना, बिलकुल वैसे ही जैसे सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को चुना? मगर शास्त्रीजी मनमोहन सिंह नहीं बन पाए. शास्त्रीजी इंदिरा की तेजी को सम झते थे और जानते थे कि बाहर रह कर वे ज्यादा खतरनाक साबित होंगी. लिहाजा अपनी कैबिनेट में शामिल कर के उन्होंने इंदिरा को कम महत्त्व वाले सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का मंत्री बना दिया.

मगर इंदिरा को यह पद भाया नहीं. वे भीतर ही भीतर अपने समर्थकों का गुट बनाने में जुट गईं. इंदिरा गांधी पार्टी के अंदर अपनी ताकत बढ़ा रही थीं और लालबहादुर शास्त्री अकेले पड़ते जा रहे थे. शास्त्री की मौत के बाद कांग्रेस में फिर उत्तराधिकार की तलाश शुरू हुई. अब तक इंदिरा गांधी काफी अनुभवी हो चुकी थीं. लिहाजा कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज ने प्रधानमंत्री पद के लिए इंदिरा का नाम आगे किया. कांग्रेस संसदीय दल के सांसदों ने भी इंदिरा को चुना और इंदिरा पहली बार देश की प्रधानमंत्री बनीं.

हालांकि तब तक इंदिरा की उम्र 49 साल पार कर चुकी थी. अपनी मंजिल तक पहुंचने में इंदिरा को लंबा वक्त लगा. लेकिन गांधी परिवार ने ही कांग्रेस को ताकत दी. गांधी परिवार के अलावा जबजब कांग्रेस ने किसी अन्य को सिर चढ़ाया, पार्टी कमजोर हुई.

प्रियंका हैं परिवार और पार्टी की ताकत

प्रियंका गांधी वाड्रा जो अब तक सक्रिय राजनीति से दूर थीं, अब वे भी पूरी तरह इस में उतर चुकी हैं. परिवार और पार्टी दोनों ही मोरचों पर वे मजबूती से खड़ी हैं. उन की कार्यकुशलता की तारीफ होती है. वे लंबे समय से अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस की रैलियों के आयोजन का कार्यभार संभाल रही हैं. अब पूरे देश में कांग्रेस को मजबूत करने का भार उन के कंधों पर है. उन की कार्यशैली अनूठी है. उन की छवि और कार्यशैली में उन की दादी इंदिरा की छाप और असर है. अजनबियों के साथ वे पलक  झपकते स्नेहिल संबंध बना लेती हैं.

आज कांग्रेस पार्टी में प्रियंका से बड़ा स्टार प्रचारक कोई नहीं है. आने वाले वक्त में उन के पति राबर्ट वाड्रा और उन के रिश्तेदार इस कुनबे को और बड़ा करेंगे. ऐसे में 56 इंच सीने पर सांप लोटना लाजिम है.

राज ठाकरे के जाने से शिवसेना कमजोर हुई

शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे के राजनीतिक उत्तराधिकारी उन के बेटे उद्धव को नहीं, बल्कि उन के भतीजे राज ठाकरे को माना जाता था. राज ठाकरे उन की विरासत को संभालने के लिए तैयार हो रहे थे. राज के अंदर राजनीति को ले कर वही जोश, जनून और उन्माद नजर आता था जो बाला साहेब ठाकरे में लोगों को दिखता था. युवा खून राज के हाथों में पार्टी का स्टूडैंट विंग भारतीय विद्यार्थी सेना की कमान थी. बाल ठाकरे उन्हें अपनी हर रैली में ले जाते थे.

बाल ठाकरे की चालढाल, भाषण देने की कला सबकुछ राज में हूबहू नजर आता था. जबकि बाला साहेब के अपने बेटे उद्धव ठाकरे को तब फोटोग्राफी का शौक था. फोटोग्राफी उन का शौक भी था और पेशा भी. राजनीति में उन की कोई दिलचस्पी नहीं थी. मगर धीरेधीरे वक्त ने करवट ली. मां मीना ताई ने बेटे उद्धव को राजनीतिक रैलियों में जाने के लिए प्रेरित किया. बाल ठाकरे पर दबाव बनाया कि वे अपने बेटे उद्धव पर ध्यान दें.

यह वक्त था 1994 का जब पहली बार बेटे उद्धव भी एक रैली में नजर आए. भतीजे राज के नेतृत्व में भारतीय विद्यार्थी सेना ने नागपुर में एक मोरचा निकाला. इस में उद्धव पहुंचे. एकदम शांति से. लोगों को तब नहीं पता था कि वह किस तूफान से पहले की शांति है.

उद्धव पार्टी के कामों में दिलचस्पी लेने लगे. बाल ठाकरे भी तमाम कार्यकर्ताओं को उन के कामों के लिए बेटे उद्धव के पास भेजने लगे. उद्धव पार्टी के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगे. 1997 में बीएमसी चुनाव के वक्त तमाम टिकट उद्धव के मनमुताबिक बांटे गए. राज के कई लोगों के टिकट काट दिए गए. राज ठाकरे को अपनी जमीन खिसकती नजर आई. अत: भाइयों में दूरियां बढ़ने लगीं.

भाइयों में मनमुटाव के चलते शिवसेना का किला दरक रहा था. यह किला उस वक्त बहुत कमजोर हो गया जब 2006 में भतीजे राज ठाकरे ने शिवसेना छोड़ दी. उन्होंने अपनी अलग राजनीतिक पार्टी मनसे बना ली और ठाकरे परिवार की पुश्तैनी रिहाइश मातोश्री से भी विदा ले ली.

राज ठाकरे का मातोश्री से जाना शिवसेना के लिए बड़ा आघात था. दोनों भाइयों के साथ उन की सेना भी टूटी. अगर राज और उद्धव दोनों के कंधों पर सेना का दायित्व बराबर से होता तो महाराष्ट्र का राजनीतिक दृश्य ही कुछ और होता. महाराष्ट्र में शिवसेना के आगे कांग्रेस और भाजपा दोनों का कद कम ही रहता. मगर परिवार में टूट ने शिवसेना का बड़ा नुकसान किया और सत्ता तक पहुंचने का रास्ता बहुत लंबा कर दिया.

हालांकि 28 नंवबर, 2019 को जब उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का पद संभाला तो उन के शपथ ग्रहण में राज ठाकरे को उपस्थित देख कर लोगों को बहुत सुखद महसूस हुआ. परिवार को एक होता देख लोगों को आत्मीय हर्ष हुआ, क्योंकि हम भारतीयों के लिए परिवार बड़ा आकर्षण है.

ऐसे में आने वाले वक्त में अगर राज ठाकरे की पार्टी मनसा का विलय शिवसेना में होता है, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. इस से शिवसेना की ताकत ही बढ़ेगी. सत्ता में स्थापित रहने के लिए परिवार की ताकत बहुत जरूरी है और भाजपा इसी परिवारवाद से डरी हुई है.

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महिलाओं की बड़ी भूमिका

सियासी परिवारों को एकजुट रखने में महिलाओं के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता है. शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले ने जिस तरह अपने चचेरे भाई अजित पवार को भाजपा खेमे से वापस लाने के लिए दिनरात एक किया और जिस तरह उन के वापस आने पर उन का आदरसत्कार किया और कोशिश की कि उन्हें किसी प्रकार की शर्मिंदगी महसूस न हो, यह अभूतपूर्व था. गांधी परिवार में भी सब को जोड़ कर रखने का जिम्मा प्रियंका गांधी वाड्रा पर है. वे पूरी पार्टी की धुरी हैं. कार्यकर्ताओं, नेताओं से ले कर उन की मां सोनिया गांधी तक उन पर अटल भरोसा रखती हैं. वे हरेक का खयाल रखती हैं. हरेक को जोड़े रखती हैं.

कहना गलत न होगा कि सुख और सत्ता की चाबी हमेशा औरत के पल्लू से बंधी होती है. इस चाबी को जिम्मेदारी से संभालना और ठीक समय पर इस का प्रयोग करना घर और देश दोनों के लिए उन्नतिदायक साबित होता है.

‘‘भाजपा भले पानी पीपी कर परिवारवाद और वंशवाद को कोसती रहे, मगर सचाई तो यही है कि भारतीयों के लिए परिवार बहुत माने और ताकत रखता है…’’

‘‘राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा देने की शुरुआत वैसे तो पं. जवाहरलाल नेहरू ने की थी, पर लोहिया के चेले कहे जाने वाले मुलायम सिंह यादव ने इसे खूब आगे बढ़ाया…’’

अगर बूढ़ा नही होना तो खूब करो प्रदूषण!

जी हां आपको मेरा टाइटल देख कर लग रहा होगा की बुढ़ापे से बचने का उपाय मिल गया, पर मैं आपकी जानकारी के लिए ये बता दूं कि यदि इसी तरह प्रदूषण बढ़ता रहा तो शायद हम सच में कभी बूढ़े नही हो पाएंगे, क्योंकि जैसे- जैसे प्रदूषण बढ़ेगा हमारी उम्र अपने आप कम होती जाएगी.

प्रदूषण हमारे आने वाले कल के लिए एक बहुत ही चिंता का विषय है. यह हवा में घुल कर हमारे और हमारे बच्चों के लिए एक स्लो प्वाइजन की तरह काम कर रहा है.प्रदूषण से होने वाली बीमारियां जैसे अस्थमा, फेफड़ों का कैंसर और हार्ट अटैक का खतरा हमारे सिर पर मंडराता रहता है.

ग्लोबल बर्डेन ऑफ़ डिजीज (GBD) 2017 के विश्लेषण के अनुसार, हवा में जहरीले तत्व मिले होने के कारण भारत में हर 3 मिनट में एक बच्चे की मृत्यु हो जाती है.एक शोध के अनुसार विश्व के30 सबसे प्रदूषित शहरों में से 22 शहर भारत के हैं. वायु प्रदूषण के कारण वर्ष 2018 में लगभग 1.2 मिलियन भारतीयों की अकाल मृत्यु हुई थी.

क्या आपको पता है कि यूरोप मेंमार्निंग विजिबिलिटी 1000 m है और यही मॉर्निंग विज़िबिलिटी हमारी राजधानी दिल्ली में नवम्बर के महीने में10 m तक ही रह जाती है.

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हमे लगता है कि प्रदूषण बढ्ने का मुख्य कारण केवल पराली है लेकिन शायद हम यह नही जानते कि हम हर वक़्त खतरे के निशान के ऊपर जी रहे है.हमारे शहर का PM2.5 लेवल हमेशा 200 से 300 के बीच रहता है जबकि W.H.O की गाईड लाइन के अनुसारPM2.5 लेवल 50 से नीचे रहना बहुत जरूरी है, पर क्या आप जानते है कि 8 नवंबर को PM2.5 लेवल 726 पार कर गया था. इस प्रदूषण में सांस लेना 1 दिन में 40 सिगरेट पीने के बराबर है. चलिए जानते है कि प्रदूषण कम करने के उपाय और उनसे होने वाले फायदे के बारे में:

सबसे पहले

1-कागज़ का उपयोग कम करें

कागज़ का उपयोग एकदम कम कर दीजिए क्योंकि कागज़ की डिमांड के कारण हर साल लगभग 700 करोड़ पेड़ काटे जाते है.अगर पेड़ कम कटेगें तो प्रदूषणभी काफी हद तक नियंत्रित होगा.कागज़ का उपयोग कम करने से हम डिजिटल होंगे,हमारा डाटा लंबे समय तक रिटेन रहेगा और हमारी कॉस्ट बचेगी.

2- खाने की बर्बादी न करे

हमें पुराने जमाने मे जो संस्कार मिलते थे वो खुद के लिए भी अच्छे थे और जमाने के लिए भी. शायद लोगो को नही पता कि खाने की बर्बादी भी एक प्रकार का प्रदूषण है.जो खाना हम बर्बाद करते है उनसे एक प्रकार की मीथेन गैसनिकलती है जो कि कार्बन डाई ऑक्साइड गैस से 25 गुना ज्यादा खतरनाक है.1 किलो खाना बर्बादकरनेसे 4 किलो मीथेन गैस निकलती है. एक सर्वे के अनुसार आम घरों में 20% खाना हर महीने बर्बाद होता है.कॉरपोरेट फंक्शन,पार्टीज या किसी भी इवेंट में 30% खाना बर्बाद होता है.यदि हम खाने की वेस्टेज को न्यूनतमकर दें तो हमारापैसा बचेगा और प्रदूषण भी कम होगा.

3पानी बचाये

हमारी धरती पर सिर्फ 1% पानी पीने लायक है बाकी का 99% पानी हम पीने में उपयोग नही कर सकते.पानी की कमी को पूरा करने के लिए हम जमीन से पानीखीचते है जिससे पानी का लेवल काफी नीचे जा रहा है. इसका असर हमारे पेड़ो पर हो रहा है.अगर पेड़ ख़त्म होंगे तो न ही शुद्ध हवा होगी और न ही पानी. इसलिए जितना हो सके पानी बचाइये.

4पब्लिकट्रांसपोर्ट प्लान करें

आजकल गाड़ियों की संख्या इंसानो से ज्यादा हो गयी है गाड़ियों की संख्या में बढ़ोत्तरी के कारण प्रदूषण का लेवल बढ़ता जा रहा है. जितना हो सके पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करें. अपनी गाड़ियों का समय समय पर प्रदूषण चेक कराएं. आप अपने सहकर्मियों के साथ कारपूल प्लान कर सकते हैं. इससे आपका सर्कल बढ़ेगा,पैसा भी बचेगा और प्रदूषण भी कम होगा.

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5पेड़ लगाए

प्रदूषण को रोकने में सबसे बड़ा योगदान पेड़ लगाना है. अपने ऑफिस/घर के आस पास हर महीने एक एक्टिविटी रखें जिसमे यह सुनिश्चित करें कि हर व्यक्ति पेड़ लगाए. सामाजिक रूप से जिम्मेदार बनिये.प्रतिष्ठा एक नई मुद्रा है.

हमारे घर/औफिस के अंदर के प्रदूषण को नियंत्रित करने में कुछ पौधे मुख्य भूमिका निभाते है. आइये जानते है कुछ ऐसे पौधों के बारे में जिन्हें घर मे लगाने से इंडोर प्रदूषण से काफी हद तक निपटा जा सकता है. यह पौधे किसी भी नर्सरी में बहुत आसानी से हमें उचित रेट में मिल सकते हैं:

a)अलोवेरा

यह हवा में उपस्थित खराब तत्वों को नियंत्रित करने में मदद करता है और आसानी से कहीं भी लगाया जा सकता है.

b)मनीप्लांट

मनीप्लांट घर के अंदर या बाहर आसानी से लग जाता है. यह हवा को साफ करने में काफी मददगार है और हमारे घर के ऑक्सीजन की मात्रा को भी बढ़ा देता है.

c)पाम ट्री

इस पौधे को लिविंग रूम प्लांट भी कहते हैं. यह हवा में उपस्थित कार्बन मोनोऑक्साइड और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों को दूर करता है और ऑक्सीजन की मात्रा को बढ़ाता है. इस पौधे को घर के सभी दरवाजों के पास लगाएं.

d)तुलसी

यह पौधा हमारे घरों में आसानी से मिल जाता है. इस पौधे का हमारे वेदों में भी बहुत महत्व है. तुलसी की पत्तियों का रोज सुबहनियमित रूप से सेवन करने सेवायरल बुखार और अस्थमाजैसी बीमारियों से काफी हद तक छुटकारा मिल जाता है.

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e)स्पाइडर प्लांट

यह पौधा वायुमंडल में उपस्थित बहुत से जहरीले केमिकल से हमारी रक्षा करता है. इस पौधे को लगाना बहुत ही आसान है. इसे ना ही ज्यादा पानी की जरूरत है और ना ही सनलाइट की.

f)करी पत्ता

करी पत्ता बैड कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित करता है, जिससे कि दिल की बीमारियों का खतरा कम हो जाता है.

आइये हम सब मिलकर अपनी आने वाली पीढ़ी को एक स्वच्छ वातावरण दे और प्रदूषण मुक्त भारत बनाये.

निजता के अधिकार पर हमला

भाजपा सरकार ने नैशनल इंटैलीजैंस ग्रिड तैयार किया है जिस में एक आम नागरिक की हर गतिविधि को एक साथ ला कर देखा जा सकता है. बिग ब्रदर इज वाचिंग वाली बात आज तकनीक के सहारे पूरी हो रही है. आज के कंप्यूटर इतने सक्षम हैं कि करोड़ों फाइलों और लेनदेनों में से एक नागरिक का पूरा ब्यौरा निकालने में कुछ घंटे ही लगेंगे, दिन महीने नहीं. अब एक नागरिक के घर के सामने गुप्तचर बैठाना जरूरी नहीं है. हर नागरिक हर समय फिर भी नजर में रहेगा.

इसे कपोलकल्पित न सम झें, एक व्यक्ति आज मोबाइल पर कितना निर्भर है, यह बताना जरूरी नहीं है. मोबाइलों का वार्तालाप हर समय रिकौर्ड करा जा सकता है क्योंकि जो भी बात हो रही है वह पहले डिजिटली कन्वर्ट हो रही है, फिर सैल टावर से सैटेलाइटों से होती दूसरे के मोबाइल पर पहुंच रही है. इसे प्राप्त करना कठिन नहीं है. सरकार इसलिए डेटा कंपनियों को कह रही है कि डेटा स्टोरेज सैंटर भारत में बनाए ताकि वह जब चाहे उस पर कब्जा कर सके.

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नागरिक की बागडोर बैंकों से भी बंधी है. हर बैंक एक मेन सर्वर से जुड़ा है, नागरिक ने जितना जिस से लियादिया वह गुप्त नहीं है. अगर सैलरी, इंट्रस्ट, डिविडैंड मिल रहा है तो वह भी एक जगह जमा हो रहा है. सरकार नागरिक के कई घरों का ब्यौरा भी जमा कर रही है ताकि कोई कहीं रहे वहां से जोड़ा जा सके.

सरकार डौक्यूमैंट्स पर नंबर डलवा रही है. हर तरह का कानूनी कागज एक तरह से जुड़ा होगा. बाजार में नागरिक ने नकद में कुछ खरीदा तो भी उसे लगभग हर दुकानदार को मोबाइल नंबर देना होता है, यानी वह भी दर्ज.

सर्विलैंस कैमरों की रिकौर्डिंग अब बरसों रखी जा सकती है. 7 जुलाई, 2005 में जब लंदन की ट्यूब में आतंकी आत्मघाती हमला हुआ था तो लावारिस लाशें किसमिस की थी, यह स्टेशन पर लगे सैकड़ों कैमरों की सहायता से पता चल गया था. आदमी को कद के अनुसार बांट कर ढूंढ़ना आसान हो सकता है. अगर कोई यह कह कर जाए कि वह मुंबई जा रहा है पर पहुंच जाए जम्मू तो ये कंप्यूटर ढूंढ़ निकालेगा कि वह कहां किस कैमरे की पकड़ में आया. सारे कैमरे धीरेधीरे एकदूसरे से जुड़ रहे हैं.

यह भयावह तसवीर निजता के अधिकार पर हो रहे हमले के लिए चेतावनी देने के लिए काफी है. देश की सुरक्षा के नाम पर अब शासक अपनी मनमानी कर सकते हैं, किसी के भी गुप्त संबंध को ट्रेस कर के ब्लैकमेल कर सकते हैं. इन कंप्यूटरों को चलाने वालों के गैंग बन सकते हैं जो किसी तीसरे जने को डेटा दे कर पैसा वसूलने की धमकी दे सकते हैं. हैकर, निजी लोग, सरकारी कंप्यूटर में घुस कर नागरिक की जानकारी जमा कर के ब्लैकमेल कर सकते हैं.

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शायद इन सब से बचने के लिए लोगों को काले चश्मे पहनने होंगे, सारा काम नकद करना होगा, चेहरे पर नकली दाढ़ीमूंछ लगा कर चलने की आदत डालनी होगी. सरकार के शिकंजे से बचना आसान न होगा. यह कहना गलत है कि केवल अपराधियों को डर होना चाहिए, एक नागरिक का हक है कि वह बहुत से काम कानून की परिधि में रह कर बिना बताए करें. यह मौलिक अधिकार है. यह लोकतंत्र का नहीं जीवन का आधार है. हम सब खुली जेल में नहीं रहना चाहते न.

कालेज राजनीति में लड़कियां

 लेख- पारुल श्री

पिछले दिनों दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टूडैंट्स यूनियन यानी डूसू इलैक्शंस हुए तो बहुमत में लड़कों की भागीदारी तो हमेशा की तरह ही थी लेकिन प्रैसिडैंट पोस्ट के लिए कांग्रेस से जुड़े नैशनल स्टूडैंट्स यूनियन औफ इंडिया (एनएसयूआई), औल इंडिया डैमोक्रेटिक स्टूडैंट्स और्गेनाइजेशन और औल इंडिया स्टूडैंट्स एसोसिएशन (आइसा) ने चेतना त्यागी, रोशनी और दामनी कैन को मैदान में उतारा. हालांकि ये तीनों यह इलैक्शन जीत नहीं पाईं लेकिन उन का जज्बा और राजनीति में लड़कों के कदम से कदम मिला कर चलना काबिलेतारीफ रहा. प्रैसिडैंट न सही लेकिन जौइंट सेक्रेटरी पद पर एनएसयूआई की शिवांगी खरवाल ने बाजी मार ही ली. शिवांगी ने दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टूडैंट्स यूनियन की जौइंट सेक्रेटरी बन कर लड़कियों के लिए राजनीति की राह प्रशस्त कर दी है. परंतु राजनीति की राह उतनी आसान नहीं जितनी कि वह दिखती है, खासकर लड़कियों के लिए.

‘‘मैं ने जब 20 साल की उम्र में कालेज की राजनीति में कदम रखा तब मुझे सत्ता और ताकत का पहली बार एहसास हुआ. मेरा रुझान यों तो खेल और संगीत में था लेकिन जब मुझे अपने कालेज के प्रिंसिपल और शिक्षकों की तरफ से छात्रसंघ के प्रौक्टर का पद दिया गया तो मैं ने इस मौके को छोड़ा नहीं. सैकंड ईयर प्रौक्टर के पद से छात्रसंघ के अध्यक्ष बनने तक के सफर में मुझे मानसिक तनाव, निराशा और हताशा का भी कई बार सामना करना पड़ा.’’

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यह कहना है दिल्ली विश्वविद्यालय के कमला नेहरू कालेज की पूर्व छात्रा अध्यक्ष कोमल प्रिया सिंह का. कोमल को राजनीति की कोई खास समझ नहीं थी. लेकिन जब उन्हें इस से जुड़ने का मौका मिला तो उन्होंने न सिर्फ इस में दिलचस्पी दिखाई बल्कि प्रौक्टर के पद से छात्र अध्यक्ष तक का सफर भी निडरता से तय किया. इस सफर में उन्हें वाहवाही और सफलता तो मिली लेकिन कई मुश्किल परिस्थितियों का सामना भी करना पड़ा.

कोमल अकेली ऐसी लड़की नहीं है जिस ने बहुत ही कम उम्र में कालेज की राजनीति में कदम रखा. ऐसी सैकड़ों लड़कियां हैं, जो 20 साल से भी कम उम्र में राजनीति के रास्तों पर निकलीं और इतनी आगे निकलीं कि देश ही नहीं, विदेशों तक में अपने नाम का परचम लहराया. सुषमा स्वराज, अलका लांबा, जोथिमनी सैन्नीमलाई अगाथा संगमा, वृंदा करात, प्रियंका गांधी जैसी राजनीतिक हस्तियों ने बहुत ही कम उम्र से राजनीति की गहराइयों को समझा. परंतु लड़कियों के लिए चुनाव में सफलता के बाद भी मुश्किलें कम नहीं होतीं. संघर्ष कार्यकाल तक चलता रहता है.

चुनौतियां कम नहीं

ऊंचेऊंचे नारों के शोरगुल में जब लड़कियों की आवाज भीड़ से नहीं, बल्कि उम्मीदवारों के खेमे से आ रही हो तो सभी की नजरें उन पर टिक जाती हैं. कारण कई होते हैं, कोई उन्हें सम्मान की नजर से देखता है तो कोई हीनता की. ‘लड़कियों की जगह ब्यूटीपार्लर में बैठ कर मैनीक्योर कराने की है, चुनाव में पसीना बहाने की नहीं’ जैसे वाक्य खुद प्रैसिडैंट पद के उम्मीदवार लड़कों के मुंह से सुनने को मिल जाते हैं. और केवल डूसू ही क्यों, सामान्य कालेज स्टूडैंट्स यूनियन इलैक्शंस में भी लड़कियों की भागीदारी है तो सही मगर लड़कों से कम. इस भागीदारी का अनुपात कभी लड़कियों के पक्ष में नहीं रहा. इस की कई वजहें हैं, मातापिता की तरफ से सपोर्ट न होना, पढ़ाई का बीच में आना, समय न होना, राजनीति को खिन्नता से देखना, प्रोफैसरों का लड़कियों को राजनीति से दूर रहने की सलाह देना, खुद दोस्तों का साथ न मिल पाना आदि. यानी कालेज राजनीति में लड़कियां हैं तो जरूर मगर उतनी नहीं जितनी होनी चाहिए. इन सभी के लिए चुनाव जीतने के बाद भी चुनौतियां कम नहीं होतीं.

जिम्मेदारियों का बढ़ना

छात्रसंघ से जुड़ कर केवल नारेबाजी और प्रचार ही नहीं करने पड़ते, छात्रों की समस्याओं को ले कर प्रबंधन से ले कर डीन, प्रिंसिपल और कालेज प्रशासन तक को संभालना पड़ता है. कई बार जब छात्रों की मांग और उन की परेशानियों का हल नहीं निकलता तो उस के लिए धरनाप्रदर्शन और दूसरे तरीके आजमाने पड़ते हैं. ऐसे में एक लड़की होने के नाते परेशानियां बढ़ती ही हैं. घंटों पार्टी, मीटिंग और कालेज प्रबंधन के साथ चर्चा करनी पड़ती है, समस्या का समाधान निकालना पड़ता है.

असुरक्षा की भावना

राजनीति जैसी जगह पुरुषों से भरी पड़ी है. वहां किसी लड़की का होना और उस पर भी अगर उस का दबदबा हो तो वह बहुत से पुरुष साथियों की नजर में खटकती भी रहती है.

भारतीय जनता पार्टी में कला संस्कृति की मीडिया प्रभारी और पार्टी की प्रदेश अध्यक्ष रह चुकीं वीणा बेनीपुरी प्रसिद्ध कवि रामवृक्ष बेनीपुरीजी की बहू हैं. वीणा बेनीपुरी ने अपने राजनीतिक जीवन में ऐसी कई परिस्थितियों का सामना किया है. तब पार्टी के अन्य पुरुष सदस्यों को उन का आगे आना खटकता रहा. यहां तक कि उन की छवि को धूमिल करने का भी प्रयास किया गया. उन का नाम पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ गलत तरीके से भी जोड़ा गया.

इसी तरह की चीजें कालेज राजनीति में भी देखने को मिलती हैं. लड़के बाकायदा लड़कियों को धमकियां देते हैं, गालीगलौज की कोशिश करते हैं और उन्हें इलैक्शन में भाग लेने के साथसाथ जीतने पर पद त्यागने तक की नसीहतें देते फिरते हैं.

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पढ़ाई पर असर पड़ता है

कालेज जाते तो पढ़ाई करने ही हैं लेकिन जब समाजसेवा की भावना से प्रेरित हो कर और छात्राओं के हक, सुविधा और सुरक्षा के लिए कालेज राजनीति से जुड़ना होता है, तो पढ़ाई पर पूरा ध्यान दे पाना मुश्किल हो जाता है. आप को हमेशा ही छात्रों के बीच रहना होता है, उन की परेशानियां सुननी पड़ती हैं, पार्टी, मीटिंग या कालेज प्रशासन की तरफ से बुलाई गई बैठक में शामिल होना पड़ता है. कालेज में होने वाले इवैंट्स या खेल आयोजन को ले कर प्रबंधन करना होता है. इन सब के बीच पढ़ाई और नियमित रूप से क्लास लेना मुश्किल होता है. टौपर छात्राएं भी राजनीति में आ कर पढ़ाई से दूर होने लगती हैं और उन के ग्रेड्स लगातार गिरते जाते हैं.

परिवार की तरफ से रोकटोक

राजनीति भले ही कालेज की हो लेकिन परिवार के लिए वह देश की राजनीति से कम नहीं होती. उन के लिए अपनी बेटी की सुरक्षा हमेशा ही सर्वोपरि रहती है. जिन का पारिवारिक माहौल राजनीति का रहा हो उन्हें तो परिवार का पूरा साथ मिलता है, लेकिन जिन का राजनीति से दूरदूर तक संबंध नहीं होता वे अपनी बेटियों को इस में भेजने से डरते हैं. उन्हें कालेज के काम से बेटी का हर समय टैंशन में रहना, रातरातभर काम में उलझे रहना, अच्छेबुरे हर तरह के व्यक्ति से संबंध रखना अखरता है. यही कारण है कि वे उस पर रोकटोक लगाने लगते हैं. कोमल को भी अपने इस फैसले के लिए अपने परिवार से कुछ अच्छी प्रतिक्रिया नहीं मिली थी. लेकिन धीरेधीरे कोमल ने उन्हें समझा लिया.

दोस्ती में बदलाव

कालेज की कैंटीन में दोस्तों के बीच फैशन, रिलेशनशिप, सैक्स और हलकीफुलकी गौसिप की जगह जब छात्रदल की मांगों, अधिकारों और राजनीति जैसे गंभीर मुददों पर बातें होने लगें तो दोस्तों की कैटेगरी बदल जाती है. आप के साथ राजनीतिक सोच और समझ वाले लोग जुड़ जाते हैं. सोशल मीडिया का इस्तेमाल अपने दल और उन से जुड़े राजनीतिक विचारों के पोस्ट डालने के लिए करने लग जाते हैं. फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर का प्रयोग छात्रों के बीच जागरूकता बढ़ाने के लिए किया जाने लगता है. ऐसे में जहां दोस्तों के बीच मनमुटाव पैदा होने लगते हैं वहीं यदि कुछ दोस्त अलगअलग पार्टियों से इलैक्शन लड़ते हैं तो उन की दोस्ती टूटना लगभग स्वाभाविक होता है.

‘‘तू ये इलैक्शन मत लड़, लड़ेगा तो तू मेरा दोस्त नहीं.’’

‘‘मैं क्यों पद छोड़ूं, तू भी तो छोड़ सकता है.’’

इन्हीं बातों के बीच दोस्त आगे निकल जाते हैं और दोस्ती पीछे छूट जाती है. यह टूटी हुई दोस्ती इलैक्शन खत्म होने के बाद भी कभी पहले जैसी नहीं होती, खासकर हारे हुए दोस्त की तरफ से.

निजी जीवन में परेशानियां

राजनीति जीवन का एक ऐसा पहलू है, जिस से जुड़ने के बाद जिंदगी आम जिंदगी नहीं रह जाती. कोमल को भी अपनी निजी जिंदगी में अपने छात्र राजनीतिक जीवन का असर साफ दिखाई देता है. आप का एक आम लड़की की तरह दोस्तों के साथ घूमना और मस्ती करना बंद जैसा हो जाता है. अपने पहनावे को ले कर सजग होना पड़ता है. ऐसा न हो कि आप ने कुछ ऐसा पहन लिया जिस के लिए विरोधी दल के सदस्य आप के चरित्र को ही निशाना बना डालें. कालेज में तो होता भी यह है कि यदि आप पहले की तरह क्लास बंक करते हैं तो केवल आप के ही नहीं, बल्कि कालेज के बाकी सभी प्रोफैसर्स की नजरों में आप आ जाते हैं. आप के द्वारा कही गई एकएक बात पत्थर की लकीर बनने लगती है. निजी जीवन में चाहे आप ने अपने मातापिता को खुद से ऊंची आवाज में बात न करने दी हो लेकिन अब कालेज में स्टूडैंट्स का प्रतिनिधि होने के नाते आप को सभी के ताने भी सुनने पड़ते हैं और उपहास भी झेलना पड़ता है.

मुझे अच्छे से याद है जब मेरे कालेज में एनुअल फैस्ट के समय सैलिब्रिटी नहीं आया था तो स्टूडैंट्स ने प्रैसिडैंट की सरेआम धज्जियां उड़ा दी थीं. वह कालेज आ कर शक्ल दिखाना तो दूर, क्लासेज तक अटैंड नहीं कर पाता था. प्रैसिडैंट भी क्या, कालेज की आर्ट रिप्रिजैंटेटिव एक शांत स्वभाव की लड़की थी, वह पूरे डिपार्टमैंट की जिम्मेदारी खुशी से निभाती थी, लेकिन इलैक्शन जीतने के बाद जब वह अपने स्वभाव के अनुसार एक कोने में किताब ले कर बैठी रहती थी तो उस के खुद के दोस्त तक यह कहते फिरते थे कि वह बदल चुकी है, उस में घमंड आ गया है. इन शौर्ट, उसे अपनी निजी लाइफ अपनी शर्तों पर जीने के लिए भी जवाबदेह होना पड़ता था.

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कालेज राजनीति में मजा भी

हालांकि कालेज राजनीति में अनेक चुनौतियां हैं लेकिन उस का मजा भी कुछ कम नहीं. यह लड़कियों की पहचान को बदल कर रख देती है. ऐसी कितनी ही लड़कियां हैं जो एक समय में बेहद शांत रहा करती थीं लेकिन कालेज राजनीति में उतरने और जीतने के बाद से उन के आत्मविश्वास में तेजी से बढ़ोतरी हुई. जीतना भी दूर की बात है, केवल कैंपेनिंग के बाद भी लड़कियों में भीड़ से लड़ने, सैकड़ों की भीड़ में आवाज उठाने   का साहस आ जाता है. यह कोई छोटी बात नहीं है.

एक महिला उम्मीदवार होने के नाते आप के दल के पुरुषसाथी भी आप के साथ खड़े होते हैं. आप के साथ हमेशा कुछ ऐसे पार्टी सदस्य होते हैं जो इस बात का बेहतर ध्यान रखते हैं कि कोई दूसरा आप के साथ दुर्व्यवहार न करे या आप का नाम खराब न करे.  विपक्षी दल आप की छवि बिगाड़ने का प्रयास करते रहते हैं. ऐसे में एक लड़की जब छात्र अध्यक्ष या फिर पार्टी में किसी मुख्य भूमिका में होती है तो उस की सुरक्षा का ध्यान ऐसे ही कुछ राजनीतिक मित्र रखते हैं जो भरोसेमंद होते हैं.

ताकत किसे अच्छी नहीं लगती. एक आम लड़की या छात्रा होने पर आप की मांगों को अहमियत नहीं दी जाती लेकिन जब आप के पास राजनीतिक ताकत होती है, तो सभी आप की बात को सुनते भी हैं और उस पर ठोस कदम भी उठाए जाते हैं. युवतियों और महिलाओं को हक और सम्मान के लिए आवाज उठाने की ताकत मिल जाती है. यूनिवर्सिटी में छात्राध्यक्ष के पास एक अच्छाखासा वोटबैंक होता है. उस वोटबैंक के कारण राज्य के विधायक और मंत्रियों का समर्थन भी मिलने लग जाता है. इस से आप को राज्य की राजनीति से जुड़ने का मौका भी मिलता है.

मुसीबत का दूसरा नाम सुलभ शौचालय

घटना दिल्ली के कौशांबी मैट्रो स्टेशन के नीचे बने सुलभ शौचालय की है. रविवार का दिन था. सुबह के 8 बजे का समय था. राजू को उत्तम नगर पूर्व से वैशाली तक जाना था. उस ने उत्तम नगर पूर्व से मैट्रो पकड़ी और कौशांबी तक पहुंचते-पहुंचते पेट में तेजी से प्रैशर बनने लगा. मैट्रो में ही किसी शख्स से पूछ कर राजू कौशांबी मैट्रो स्टेशन उतर गया.

मैट्रो से उतरने के बाद नीचे मौजूद तमाम लोगों से सुलभ शौचालय के बारे में पूछा, पर कोई बताने को तैयार नहीं था क्योंकि सभी को अपने गंतव्य की ओर जाने की जल्दी थी. तभी एक बुजुर्ग का दिल पसीजा और उस ने वहां जाने का रास्ता बता दिया.

सैक्स संबंधों में उदासीनता क्यों?

सुलभ शौचालय कौशांबी मैट्रो के नीचे ही बना था, पर जानकारी न होने के चलते राजू दूसरी ओर उतर गया. एक आटो वाले ने कहा कि उस तरफ जाओ जहां से तुम आ रहे हो. राजू फिर वहां पहुंचा तब जा कर शांति मिली कि चलो, सुलभ शौचालय जल्दी ही सुलभ हो गया.

अंदर जाते ही एक मुलाजिम वहां बैठा नजर आ गया. उस से इशारे में कहा कि जोरों की लगी है तो उस ने हाथ से इशारा कर के बता दिया कि उस टौयलेट में चले जाओ.

टौयलेट में गंद तो नहीं पसरी थी, पर बालटीमग्गे गंदे थे. पोंछा भी ज्यादा साफ नहीं था. जब वह फारिग हो कर बाहर निकला तो उस मुलाजिम को 10 रुपए का नोट थमाया. उस ने पैसे गल्ले में डाले और कहा कि जाओ, हो गया हिसाब.

राजू ने वहां उसी के ऊपर टंगी सूची की तरफ इशारा कर के कहा कि यहां पर तो 5 रुपए लिखा है तो उस ने जवाब दिया कि सफाई के भी 5 रुपए और जोड़ लिए गए हैं. इस हिसाब से 10 रुपए हो गए. राजू अपना सा मुंह ले कर बाहर आ गया. राजू के निकलने के बाद उसी टौयलेट में दूसरा शख्स भी गया और उस से भी 10 रुपए वसूले गए. वह भी अपना सा मुंह ले कर बाहर निकला. वहां न तो शिकायतपुस्तिका थी और न ही कोई पक्का बिल. शिकायत का निवारण करने के लिए न कोई सुनने वाला अफसर. जबकि सरकार पैसों के लेनदेन के डिजिटाइजेशन पर जोर दे रही है. सरकार मोबाइल ऐप के जरीए औनलाइन पेमैंट करने की बात कहती है, पर यहां ऐसी कोई सुविधा नहीं थी.

गरीब की ताकत है पढ़ाई

वैसे, टौयलेट के 5 रुपए और पेशाब करने के 2 रुपए निर्धारित किए गए हैं, पर किसी न किसी तरह से ज्यादा पैसे वसूले जाते हैं. भले ही 5-10 रुपए ज्यादा देना अखरता नहीं है पर जो तय कीमत रखी गई है, वही वसूली जाए तो न्यायपूर्ण होगा.

वैसे, शौचालय को ले कर तमाम खामियां हैं. कई जगह शौचालय ऐसी जगहों पर बना दिए गए हैं जहां हर कोई नहीं पहुंच सकता. ज्यादातर शौचालाय पानी की कमी से जूझ रहे हैं, इसलिए कहींकहीं ताला लटका मिलता है, तो कहीं कूड़ेकचरों के बीच शौचालय बना दिए गए हैं. गंदगी के ढेर पर बने शौचालयों में कोई नहीं जाता, ऐयाशी का अड्डा बने हुए हैं.

ये तो महज उदाहरण मात्र हैं. ऐसे न जाने कितने लोग शौचालय में कभी खुले पैसे को ले कर जूझते होंगे या फिर ज्यादा वसूली का रोना रोते होंगे. यही वजह है कि लोग शौचालय में जाने से कतराते हैं. इतना ही नहीं, कई सुनसान शौचालयों में तो देहधंधा होने तक की शिकायतें सुनी गई हैं.

एक ओर स्वच्छता अभियान जोरों से चल रहा है. ‘हर घर शौचालय’, ‘चलो स्वच्छता की ओर’, ‘शौचालय का करें प्रयोग गंदगी भागे मिटे रोग’, ‘बेटी ब्याहो उस घर में शौचालय हो उस घर में’ जैसी मुहिम चल रही है तो कहीं बड़ेबड़े इश्तिहार दे कर लोगों को जागरूक किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर इस योजना पर काम करने वाले ही इसे पलीता लगा रहे हैं. कई निजी संस्थाएं भी आम आदमी को सहूलियतें देने के नाम पर सरकार को चूना लगा रही हैं. सरकार तो तमाम उपायों को अमल में लाने की कोशिश कर रही है, पर लोग हैं कि सुधरने को तैयार ही नहीं.

खतरे में है व्यक्तिगत स्वतंत्रता

सच तो यह है कि हम भले ही कितने पढ़लिख जाएं, पर सुधरने के नाम पर अगलबगल झांकने लगते हैं. ऐसे लोगों का मानना है कि हमारे बापदादा यही सब करते रहे हैं तो हम भी यही करेंगे. सुलभ शौचालय के मुलाजिमों पर किसी तरह का कोई शिकंजा नहीं है. सरकारी अमला खुले में शौच करने वालों को पकड़पकड़ कर जुर्माना लगा रहा है वहीं आम आदमी घर में बने टौयलेट में जाने से कतरा रहा है. वह कहता है कि खुले में शौच ठीक से आ जाती है, वहीं टौयलेट में बैठना नहीं सुहाता. वहीं दूसरी ओर घर की औरतेंबच्चे भी वहीं जाते हैं और मारे बदबू के चलते दिमाग ही हिल जाता है और पेट खराब रहता है, गैस बनती है, इसलिए मजबूरन खेत में ही जाना पड़ता है.

सुलभ शौचालय की शुरुआत करने वाले बिंदेश्वरी पाठक ने साल 1974 में जब इस की कल्पना की थी तब उन्हें भी तानेउलाहने सुनने को मिले होंगे, पर अब यही शौचालय नजीर बन कर उभरा है और देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी इस ने अपना परचम फहराया है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वच्छता मुहिम को एक मिशन मानते हैं. वे स्वच्छ भारत का सपना साकार करने में लगे हैं. तमाम ग्रामीण,शहरी, अपढ़ व पढ़ेलिखों को इस मुहिम में शामिल कर जागरूक करने में लगे हैं और शौचालय बनाने को ले कर गांवों तक में अपनी मुहिम चला रहे हैं. शौचालय तो बन गए हैं, लेकिन तमाम तरह की दिक्कतें हैं.

गरीब व वंचित लोगों की सुविधाओं को ध्यान में रख कर सुलभ शौचालय बनाए गए थे. शौचालय की सुविधा तो मिली, पर दूसरी ओर इस पर किराया लगना आम लोगों को काफी अखर रहा है. भले ही शौच करने की कीमत काफी कम रखी गई है, फिर भी असलियत वहां जाने पर ही पता चलती है. कर्मचारियों का अपना दुखड़ा है, वहीं आम आदमी की अपनी परेशानी.

दलितों की बदहाली

यही वजह है कि जो भी शख्स वहां फारिग होने जाता है, उसे हलाल करने की कोशिश की जाती है. यानी तय कीमत से ज्यादा वसूली. न देने पर कहासुनी,  मारपीट. हैरानी तो तब होती है जब शौचालय कर्मियों पर किसी तरह की निगरानी नहीं होती.

सुबहसवेरे फारिग होने के लिए तमाम लोग लाइन में खड़े नजर आते हैं. चाहे वह जगह बसअड्डा हो या रेलवे स्टेशन या फिर भीड़ वाली जगह, वहां जाने पर ही पता चलता है कि बिना किसी सूचना के शौचालय में ताला लटका हुआ है तो कहीं पूछने पर दूसरे शौचालय का दूरदूर तक पता भी नसीब नहीं होता.

क्या है नियम

नियमानुसार शौचालयों में केवल शौच व नहाने के पैसे लिए जा सकते हैं, लेकिन ठेकेदार और शौचालय में तैनातकर्मी की मनमानी से नियमों की धज्जियां उड़ाई जा रही है. पैसे देने के बावजूद इन शौचालयों में सफाई नहीं रहती है.

दिल्ली शहर में जितने भी सुलभ शौचालय बने हैं उन में लघुशंका का शुल्क प्रति व्यक्ति महज 2 रुपए है जबकि टौयलेट का 5 रुपए, वहीं नहानेधोने के लिए 10 रुपए. हालांकि कहींकहीं ज्यादा पैसा वसूले जाते हैं.

सुलभ शौचालय द्वारा आम लोगों की सुविधा के लिए दिल्ली के विभिन्न चौकचौराहों पर शौचालय बनाए गए हैं. इन के बनाने के पीछे यह मकसद है कि आम आदमी मामूली शुल्क दे कर जरूरत पडऩे पर इन का इस्तेमाल कर सके. लेकिन अब ये शौचालय कमाई का जरीया बन गए हैं. बाहर से आने वालों से शौचालय कर्मी मनमाना पैसा वसूल रहे हैं, जो गलत है.

सुलभ शौचालय की शिकायत कहां करें, इस का कोई खुलासा नहीं है. आम आदमी को ये बातें पता ही नहीं हैं. जागरूकता का सिर्फ ङ्क्षढढोरा पीटने से काम नहीं चलने वाला. अनपढ़ को भी समझाना होगा और शौचालय की अहमियत बतानी होगी, तभी हम जागरूक हो पाएंगे. पढ़ेलिखे भी अपनी शिकायत दर्ज नहीं करा पाते तो वहीं आम आदमी के लिए ये शौचालय कितने सुलभ रह पाएंगे.

खतरे में है व्यक्तिगत स्वतंत्रता

व्हाट्सऐप, ट्विटर, फेसबुक आजकल दुनियाभर में सरकारों और समाजों के निशाने पर हैं. जब से फेसबुक का कैंब्रिज एनालिटिक्स को अपने से जुड़े लोगों के व्यवहार के बारे में डेटा बेच कर पैसा कमाने की बात सामने आई है, तब से लगातार डिजिटल मीडिया, डिजिटल संवादों पर सवाल उठ रहे हैं. गूगल के सुंदर पिचाई ने अमेरिकी संसद को बताया है कि गूगल चाहे तो मुफ्त भेजे जाने वाले जीमेल अकाउंटों के संवाद भी वे पढ़ सकता है.

असल में डिजिटल क्रांति दुनिया के लिए खतरनाक साबित हो रही है कुछ हद तक परमाणु बमों की तरह. परमाणु परीक्षणों का विनाशकारी उदाहरण बाद में देखने को मिला पर उस दौरान किए गए शोध का फायदा बहुत से अन्य क्षेत्रों में बहुत हद तक हुआ है और आजकल जो रैडिएशन के दुष्प्रभाव की बात हो रही है वह परमाणु परीक्षणों से ही जुड़ी है. डिजिटल क्रांति में उलटा हुआ है. पहले लाभ हुआ है, अब नुकसान दिख रहे हैं.

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न केवल आज डिजिटल मीडिया या सुविधा से अपनी बात मित्रों, संबंधियों, ग्राहकों तक पहुंचाई जा सकती है, इस का जम कर फेक न्यूज फैलाने में भी इस्तेमाल हो सकता है.

दुनियाभर में फेक मैसेज भेजे जा रहे हैं. स्क्रीनों के पीछे कौन छिपा बैठा है यह नहीं मालूम इसलिए करोड़ों को मूर्ख बनाया जा रहा है और लाखों को लूटा भी जा रहा है. लोग फेसबुक, व्हाट्सऐप के

जरीए प्रेम करने लगते हैं जबकि असलियत पता ही नहीं होती.

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जो बात 2 जनों में गुप्त रहनी चाहिए वह सैकड़ों में कब बंट जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता. पीठ पीछे की आप की बात कहां से कहां तक जाएगी आप को पता भी नहीं चलेगा. सरकारों के लिए ये प्लैटफौर्म बहुत काम के हैं. वे कान मरोड़ कर उन से अपने विरोधियों के मेल, मैसेज, बातें सब पता कर लेती हैं. आज मोबाइल पर कही गई बात भी सुरक्षित नहीं है, क्योंकि उस का रिकौर्ड कहीं रखा जा रहा. न केवल आप ने कहां से किस को फोन किया यह रिकौर्डेड है, क्या बात की यह भी रिकौर्डेड है. हां, उसे सुनना आसान नहीं यह बात दूसरी है. पर खास विरोधी का हर कदम सरकार जान सकती है. टैक कंपनियां असल में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सब से बड़ा अंकुश बन गई हैं. पहले लगा था कि इन से अपनी बात लाखोंकरोड़ों तक पहुंचाई जा सकती है.

आप कागज पर ही लिखें, यह तो नहीं कहा जा सकता पर यह जरूर ध्यान में रखें कि सरकारी शिकंजा आप के गले में तो है ही आप व्यापारियों के लिए भी टारगेट बन रहे हैं. वे आप की सोच, आप के खरीदने के व्यवहार को भी नियंत्रित कर रहे हैं.

edited by-rosy

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