6 इंच स्क्रीन में समय बरबाद करते मैट्रो मुसाफिर

मैट्रो ट्रेन में यात्रा के दौरान मोबाइल में डेटा औन कर सोशल मीडिया के किसी प्लेटफौर्म में डूबा युवा जान न पाया कि उस का स्टेशन निकल गया, जब पता चला तो लड़तेभिड़ते, बदहवास सा गेट की तरफ बढ़ चला.

युवा 6 इंच के स्क्रीन में किस कदर घुसा हुआ है, यह आसपास आसानी से देखा जा सकता है. कमर से सटी कुहनी, पेट के ऊपर फोन और नीची झुकी गरदन, स्क्रीन को एकटक निहारती आंखें, यह मुद्रा तब तक रहती है जब तक या तो गरदन नहीं अकड़ जाती या फोन की बैटरी खत्म नहीं हो जाती.

लेकिन मजाल कि फोन की बैटरी खत्म हो जाए, मुआ मोबाइल बनाने वाली कंपनियां 6 हजार एमएच की बैटरी वाले फोन जो ले आई हैं, ऊपर से चार्जर ऐसेऐसे आ गए हैं कि 15 मिनट में ही मोबाइल चार्ज हो जाए. युवा भी ढीठ हैं, अगर गरदन अकड़ जाए तो इस का इलाज भी खूब है, दो बार गरदन दाएंबाएं और एक बार आगेपीछे किया और फिर उसी मुद्रा में घंटों लेटेबैठे युवा हाथों में मोबाइल थामे, कभी उंगली से तो कभी अंगूठे से स्क्रीन ऊपर खिसकाते रहते हैं.

दिल्ली की ब्लूलाइन मैट्रो सुबह और शाम भरी रहती है, कारण है कि पूरी लाइन 9-6 के औफिस जाने वालों की है. दुनिया बड़ी है लेकिन युवाओं के लिए दुनिया 6 इंच के भीतर घुस गई है. 6 इंच की मारामारी वैसे भी युवाओं में खूब है, खासकर लड़के या तो अवसाद में रहते हैं या भारी दुख में.

इसी ब्लूलाइन में बाराखंबा रोड स्टेशन के नजदीक नीली कमीज और काली पैंट पहने कोई 26-27 साल का एक नौजवान लड़का अचानक चौंकते हुए सीट से खड़ा हुआ, मानो स्टेशन के बाहर उस का कोई देनदार पैसे ले कर आया हो जिस से मिलने की उसे हड़बड़ी हो.

पिछले आधे घंटे में यह पहली बार था जब उस ने अपने मोबाइल के स्क्रीन से नजर हटाई हो क्योंकि इस से पहले तो वह आसपास के माहौल से अनजान था. जब से वह मैट्रो में बैठा था तब से उस के अगलबगल में कौन से मुसाफिर आए गए, उसे इस का होशोहवास नहीं था. बेसुध उस की टकटकी मोबाइल पर थी.

उस के दाएं वाली सीट में करीब 3 स्टेशन तक 10 मिनट के लिए एक सुंदर सी कालेजगोइंग लड़की बैठी थी. कपड़े जरूर अतरंगी थे लेकिन उस पर लग कमाल रहे थे. लड़की ऐसी कि आलिया भट्ट भी फैशन टिप्स उस से मांग ले. बाल खुले, नाक में नोजपिन, होंठ पर शायद लिप ग्लौस, मल्टीकलर लूज क्रौप टौप, जिस में से एक तरफ ब्रा का स्ट्रिप दिखाई दे रहा था और डैनिम की शौर्ट स्कर्ट. हां, उस के बैठने का सलीका सभ्य था, उस ने टांगें फैलाई नहीं थीं, बल्कि एक टांग के ऊपर दूसरी टांग रखी थी और साफसुथरी टांगों के ऊपर पर्पल कलर का बैग.

फैशन के मामले में दिल्ली की लड़कियों की बात ही अलग होती है. कहते हैं मुंबई और दिल्ली में लड़केलड़कियां जिस फैशन को एप्रूवल देते हैं उसे बाकी जगह के लड़केलड़कियां अपनाते हैं.

कोई दिलफेंक आशिक होता तो एक नजर उस लड़की की तरफ देख ही लेता पर मजाल उस लड़के की कि अपने फोन के स्क्रीन से नजर हटाए और एक नजर देख ले. मैट्रो में लगभग सभी कमर, पेट, कुहनी, मोबाइल और गरदन वाली मुद्रा में बैठे हुए थे. और जो खड़े थे वे एक हाथ से सपोर्ट लिए थे तो दूसरे हाथ से मोबाइल थामे थे.

इन बेचारे खड़े लोगों को बड़ी तकलीफ रहती है. एक तो सीट नहीं मिलती, ऊपर से एक नजर फोन पर रखनी पड़ती है, दूसरी नजर बैठे हुए लोगों पर कि कोई खड़ा हो तो फटाक से सीट पकड़ ली जाए. समस्या बड़ी यह कि सुबहसुबह क्रीज लगी कमीज मुचड़ जाती है. इतना बिचक के खड़ा होना पड़ता है कि आतेजाते हुए किसी की टांग कभी जूते पर तो कभी पैंट पर लगती रहती हैं. बेचारा मैट्रो से निकलते हुए बेदम हो पड़ता है.

लेकिन बैठा हुआ लड़का तो बेफिक्र था अपनी उंगलियों से कभी फेसबुक तो कभी इंस्टाग्राम स्क्रौल करता हुआ. वह कान में सफेद रंग के एयरडोप्स ठूसे हुए था, जिस में से न आवाज बाहर आ सकती है न बाहर की आवाज भीतर घुस सकती है. स्क्रीन पर बदलती हर फीड से उस के चेहरे के भाव भी बदल जाते.

कभी पूजापाठ, भगवान व धर्म की रील पर आंखों में गर्व ले आता और एक हाथ अपनी छाती पर छू कर होंठों को चूमता तो कभी गालीगलौच व हंसीठट्ठे वाली रील पर जोर से ठहाका लगाता तो कभी कामुक लड़की की मटकती कमर और डांस की मुद्राओं को आंख गढ़ा कर देखता. ऐसी रील देखते हुए वह हलके से फोन को भीतर की तरफ घुमा लेता कि अगलबगल वाला देख न सके.

पिछले आधे घंटे से रील देखते जब उसे होश आया तो पता चला कि उस का स्टेशन तो 2 स्टेशन पीछे छूट गया है. उस के साथ ‘जाना था कलकत्ता, पहुंच गए पटना’ वाली बात हो गई. बदहवास नजर उस ने अपनी बगल में दौड़ाई, यहांवहां झंका तो सिवा भीड़ में लोगों की कमर, टांगों के कुछ न दिखे.

जिन मुसाफिरों से मुंह फेर कर आधे घंटे से स्क्रीन पर नजर गढ़ाई थी, उन से इतनी हिम्मत न जुटा पाया कि पूछ सके कि कौन सा स्टेशन आ गया. अंत में पीछे घूमा, स्टेशन पर लगा बोर्ड देखा, बाराखंबा रोड लिखा देखा. सो, अचानक उठा और लड़तेभिड़ते, बदहवास सा गेट की तरफ बढ़ने लगा.

सप्ताह में 70 घंटे काम का औचित्य

देश में सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की एक बड़ी कंपनी इंफोसिस के मालिक नागवार रामाराव नारायणमूर्ति ने अपील की है कि अगर हमें भारत को चीन और जापान से बेहतर देश बनाना है तो हर युवा को सप्ताह में 30-40 घंटे वाली नौकरी नहीं, 70 घंटे काम करने वाली नौकरी ढूंढ़नी चाहिए. नारायणमूर्ति ने खुद इस से ज्यादा घंटे काम कर के इंफोसिस को बनाया, यह सच है. पर हर जना 70 घंटे काम करे, इस के लिए जो संस्कृति देश में चाहिए वह है कहां. नारायणमूर्ति अपनी असली संस्कृति के बारे में कुछ कहेंगे, यह असंभव है.

सब से बड़ी बात यह है कि हमारी संस्कृति तो निठल्ले बनाने का उपदेश देती है. सूरजपुर के भृगु ज्योतिष रिसर्च सैंटर से हर रोज दिन का पंचांग जारी होता है, जो साफ कहता है कि 70 घंटे काम न करो, पूजापाठ करो. 29 अक्तूबर, 2023 के पंचांग का उपदेश देखिएर्

  •  यह कार्तिक मास है जो पापनाशक है. इस का बड़ा दिव्य प्रभाव होता है. यह भगवान विष्णु की कृपा से मोक्षरूपी फल प्रदान करने वाला है. इस का अर्थ है, जब मास कार्तिक हो और मोक्ष मिल ही रहा हो, तो 70 क्या, 40 घंटे भी काम करने की जरूरत क्या है.
  •     कार्तिक मास के 5 नियम हैं- प्रतिदिन विष्णु के समीप रात्रि में जागरण, तुलसी सेवा, उद्यापन करना, दीपदान करना और फिर शास्त्रानुसार स्नान करना. ये सब तय हैं. सप्ताह के 72 घंटे काम में से 10-20 घंटे तो इसी में निकल जाएंगे, तो क्या कल्याण होगा?
  •   इस में कृच्छ व्रत करना होता है. इस व्रत के नाम का मतलब जो भी हो पर इस में एक दिन निराहार रहो, फिर पंचगव्य जिस में गौमूत्र आदि शामिल हैं, लो. अब भूखे पेट क्या इंफोसिस में काम कर पाओगे? नारायणमूर्ति संस्कारों के समर्थक हैं तो इस को भी मानते होंगे. वे तय करें कि जो एक दिन भूखा रहेगा और दूसरे दिन गौमूत्र आदि का पंचगव्य ग्रहण करेगा, वह उन के दफ्तर में क्या काम करेगा. 70 घंटे यानी 10-20 घंटे रोज तो भूल जाओ, ऐसे में तो 2 घंटे भी काम रोज नहीं हो पाएगा.
  •    इस पूरे माह कौपर के यूटैंसिल वर्जित हैं. अब किचन में किस बरतन में लोहे के साथ कौपर भी है, यह भी ढूंढ़ें और फिर शुद्ध लोहे या मिट्टी के बरतनों में पका खाना खाएं. यह निर्देश है. पत्नी या स्त्री के साथ पूरे माह सोने पर भी पाबंदी है. ज्योतिषीजी बिस्तर में भी.
  •   मुख्य काम इस माह जो करना होता है वह ब्राह्मणों को पृथ्वीदान होता है. अब इस पृथ्वी को दान में कैसे दिया जाता है, यह तो सनातनी संस्कारी लोग जानते हैं पर जो लोग 70 घंटे सप्ताह में काम करना चाहते हैं, वे अपने पर खर्च करेंगे, ब्राह्मणों पर नहीं.
  •    इस माह का संस्कारी निर्देश यह भी है कि ब्राह्मण पतिपत्नी को भोजन कराएं, उन्हें कंबल, बिछौना, रत्न, वस्त्र, जूते, छाते भी दान करें. 70 घंटों के काम के जो पैसे मिलेंगे वे इस दान को पूरा कर पाएंगे, इस में संदेह है.
  • तुलसीपूजन भी करें. यह भी सैकंडों का काम नहीं होता. हिंदू विधि के अनुसार तुलसी पूजा की प्रक्रिया में घंटों लग सकते हैं. पता नहीं नारायणमूर्ति 70 घंटों में इन घंटों को गिनते हैं या नहीं, पर वे हैं संस्कारी, यह मालूम है.
  •   व्हाट्सऐप मैसेज के माध्यम से ये निर्देश दिए गए हैं जिन में यह भी कहा गया है कि अतुल लक्ष्मी, रूप, सौभाग्य व संपत्ति प्राप्त करनी है तो संध्या में भगवान श्रीहरि के नाम से तिल के तेल का दीया जलाएं. इस के लिए आप को संध्या के समय दीपदान के निकट रहना होगा. अगर घर में नहीं, तो दफ्तर में कंप्यूटरों की जगह तीनों की व्यवस्था की सलाह नारायणमूर्ति ने दी है या नहीं, हम नहीं जानते पर 70 घंटे सप्ताह में काम करना है तो संस्कार छोड़ने होंगे ही.

बातें तो और भी बहुत हैं पर ये कुछ नमूने हैं उन सनातनी संस्कारों के जिन की पोलपट्टी इंफोसिस कंपनी के संस्थापक को पहले खोलनी चाहिए और फिर 70 घंटे काम करने की सलाह देनी चाहिए. देश निकम्मा है, निठल्ला है, गरीब है, पिछड़ा है, भूखा है, बेकार है तो इसलिए कि हम इन संस्कारों के पीछे पड़े हैं. नरेंद्र मोदी से ले कर नारायणमूर्ति तक वैज्ञानिक बातें करते हैं पर फिर पाखंड भरे पूजापाठ में लग जाते हैं. जनवरी में नरेंद्र मोदी देश की जनता के काम के हजारोंलाखों घंटे बरबाद करने वाले एक और तीर्थ रामलला के मंदिर के उद्घाटन से करेंगे.

सप्ताह में 70 घंटे काम करने का माहौल तब बनेगा जब युवा ही नहीं, प्रौढ़ और वृद्ध भी अपना समय काम में लगाएं, निर्माण में लगाएं, उत्पादन में लगाएं, खोजबीन में लगाएं, धर्म की उपरोक्त फालतू बातों में न लगाएं. पर न तो प्रधानमंत्री न ही प्रधान कंपनी के प्रधान संचालक इस पाखंड के खिलाफ कुछ कहेंगे, उलटे, वे इसे प्रोत्साहित कर असल काम को बेकार ही सिद्ध करेंगे.

एलजीबीटीक्यू की नई आवाज ट्रांसजैंडर एला

इन दिनों सोशल मीडिया पर एक चेहरा छाया हुआ है जो एला देव वर्मा के नाम से फेमस है. एला देव वर्मा का जन्म 25 अगस्त, 1998 को दिल्ली में हुआ था. असल में, एला देव वर्मा की कहानी देव से शुरू होती है. वह देव जो भीतर ही भीतर एक जंग लड़ रहा था. एक ऐसी जंग जो उस की खुद की थी. यह जंग खोज की थी कि वह लड़का है या लड़की. शारीरिक रूप से तो वह लड़का था लेकिन वह खुद को लड़की ही फील करता था. इसी कारण वह खुद को लड़की की ही तरह संवारता था. लड़कियों की तरह उस की अदाएं थीं.

प्यूबर्टी के समय जब लड़के और लड़कियों की बौडी में चेंजेस हो रहे होते हैं तब एला देव वर्मा की बौडी में भी चेंजेस हो रहे थे. वे चेंज जो उस ने सोचे भी न थे. उस ने तो सोचा था कि वह बड़ा हो कर लड़की जैसा दिखेगा लेकिन अब तो उस की मूंछें आने लगी थीं. उस की आवाज भारी होने लगी थी. उस का शरीर उसे संकेत दे रहा था कि वह लड़का है लेकिन उस का मन यह मानने को तैयार नहीं था.

इसी कशमकश के बीच एला देव वर्मा की जिंदगी झुल रही थी. ‘जोश टौक’ को दिए अपने इंटरव्यू में वह अपनी जिंदगी के बारे में बताती है कि किस तरह लड़के से लड़की बनने का उन का सफर तमाम चुनौतियों से भरा रहा. साथ ही, एला ने अपने इंटरव्यू में ट्रांस लोगों को ले कर परिवार, समाज, औरतें, नीतियों की दिक्कतों का भी खुल कर जिक्र किया, जिन पर अभी बहुत काम होना बाकी है.

किसी ने समझा नहीं

अपनी कहानी में एला कहती हैं, ‘‘ट्रांस लोगों के लिए जिंदगी जीना बिलकुल भी आसान नहीं है. सोसाइटी उन्हें हर वक्त गलत ठहराने पर तुली रहती है. बातबात पर उन्हें समझया जाता है कि वे जो फील कर रहे हैं वह गलत है. वह बीमारी है और इस का इलाज कराना बहुत जरूरी है. लेकिन कोई उन्हें समझने की कोशिश नहीं करता है. बस, सब उन्हें समझने में लगे रहते हैं.’’

एला कहती हैं, ‘‘मुझे डांस, एक्टिंग, मेकअप और स्पोर्ट्स का बहुत शौक है. मैं ने हमेशा अपने स्कूल के ऐनुअल फंक्शन में पार्ट लिया है. स्कूल में होने वाले ड्रामे में मुझे हमेशा लीड रोल मिलता था. मैं भी खुशीखुशी अपने रोल को जीती थी. स्टेज पर मेरी ऐक्टिंग के लिए तालियां बजती थीं लेकिन कोने में कहीं न कहीं मेरे अस्तित्व को ले कर फुसफुसाहट होती रहती थी, जो कई बार मेरे कानों में भी पड़ी है. जब मुझ से यह सब सहन नहीं हुआ तो मैं ने ऐक्टिंग करना छोड़ दिया.

‘‘ऐसा ही मेरे डांस और खेल के साथ भी हुआ. मेरे डांस मूव को ले कर तरहतरह की बातें की जाती थीं, मुझे चिढ़ाया जाता था. हालांकि यह भी सच है कि मेरी डांस टीचर ने मेरा बहुत साथ दिया. उन्होंने हमेशा मुझे कंफर्टेबल फील कराया. एक हद तक ही मैं लोगों की बातें सुन सकती थी. इसलिए जब मुझ से उन की बातें सुनी नहीं गईं तो मैं ने डांस क्लास भी छोड़ दी.

स्कूल में भेदभाव

‘‘अगर मैं अपने खेल की बात करूं तो मुझे आज भी याद है कि खेल के पीरियड में मेरे साथ क्याक्या होता था. न सिर्फ मेरे साथ खेलने वाले मुझे चिढ़ाते थे बल्कि मेरे स्पोर्ट्स टीचर भी मुझे नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे. वे मुझे टोकते हुए कहते थे, ‘देव, ऐसे लहरालहरा के मत चलो. तुम लड़कियों की तरह शर्माना बंद करो.’ मैं बस उन की सारी बातें सुना करती थी. इन सब से भी उन का मन नहीं भरा तो उन्होंने मुझे सजा के तौर पर लड़कियों के साथ ऐक्सरसाइज करने को कहा. मैं ने उन की यह बात भी मान ली. लेकिन लड़कियों के साथ ऐक्सरसाइज करने पर मुझे सब ने बहुत ज्यादा चिढ़ाया. यहां भी थक कर मैं ने गिवअप कर दिया. अब मैं ने वे सारी चीजें छोड़ दीं जो मुझे पसंद थीं.’’

अपने साथ हुई एक घटना का जिक्र करते हुए एला कहती हैं, ‘‘एक दिन मैं ऐनुअल डे के लिए थिएटर में प्रैक्टिस कर रही थी. तभी एक लड़का वहां आया और उस ने मेरी पैंट खींच दी. मैं भी कुछ नहीं कर पाई. मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं. मैं अपना कौन्फिडैंस खो चुकी थी.’’

एला बताती है कि वह अंदर ही अंदर लड़ रही थी. खुद से, अपनी पहचान से. इन सब के अलावा उन्हें लोगों की बातें परेशान कर रही थीं. एक दिन हिम्मत कर के उन्होंने अपनी मम्मी से कहा,  ‘मम्मी, एक प्रौब्लम है. मुझे लड़कियां नहीं पसंद.’ उन की मम्मी ने पूछा, ‘क्या तुम गे हो?’ उस वक्त वे नहीं जानती थीं कि वे जो फील कर रही हैं वह क्या है. इसलिए उन्होंने हां में जवाब दे दिया. यह सुन कर उन की मां हैरान हो गई. लेकिन एला की मम्मी बाकियों की तरह नहीं थी. उस ने एला को समझ.

घरवालों का साथ

एला बताती हैं कि वह खुशनसीब है कि उन की फैमिली ने उन्हें घर से बाहर नहीं निकाला. उन्हें मारापीटा नहीं. ‘‘पेरैंट्स उस जेनरेशन के नहीं हैं जिस के हम और आप हैं, इसलिए उन के लिए भी इसे सम?ाना थोड़ा मुश्किल रहा.’’

एला जब देव की जिंदगी जी रही थीं. तब वे अपने घर का एकलौता बेटा थीं. उन के पापा ने उन्हें ले कर बहुत सपने देखे थे. लेकिन अब उन सपनों की शक्ल बदल गई थी. उन के पापा को लगा कि अगर वह लड़कों के साथ रहेगी तो लड़कों के जैसी हो जाएगी, इसलिए उन्होंने एला को अपनी बहन के घर भेज दिया. एला के कजिन जिम जाया करते थे. उन के पापा को लगा कि अगर वह भी जिम जाएगी, पुशअप करेगी तो लड़कों जैसा बिहेव करेगी. लेकिन यह सच था ही नहीं, इसलिए वह जैसी थी वैसी ही रही.

इन सब के बीच जब उन्हें डाक्टर के पास ले जाया जा रहा था तो डाक्टर मिल कर एला को ही सम?ाने लगे. वे कहने लगे कि एला, तुम्हारी वजह से तुम्हारे मम्मीपापा बहुत परेशान हैं. उन्हें कुछ ऐसे डाक्टर भी मिले जो उन के जेनेटल का वजन भी चैक करते थे. जिस की शायद कोई जरूरत भी नहीं थी. ऐसा कह कर वे डाक्टरी के पेशे को गलत नहीं कह रहीं. बस, उन के तरीकों पर सवाल उठा रही हैं.

ट्रांसफौर्मेशन का समय

इन सब घटनाओं के बाद उन्हें एक ऐसे डाक्टर मिले जिन्होंने उन्हें सम?ा. उस डाक्टर ने उन्हें और उन के मम्मीपापा को काउंसलिंग दी. काउंसलिंग के बाद एला को पता चला कि उन्हें जैंडर डिकोरिया है. काउंसलिंग के कई सैशन लेने के बाद वे सम?ा गईं कि वे कोई अलग नहीं हैं. बस, सोसाइटी को उन के जैसे लोगों के बारे में पता नहीं है. वहीं जिन्हें पता भी है तो वे बहुत कम हैं.

काउंसलिंग के बाद उन की फैमिली यह जान चुकी थी कि यह सब नौर्मल है. इसलिए उन्होंने एला को सर्जरी के लिए उस की मौसी के पास आस्ट्रेलिया भेजने का फैसला किया. लेकिन इस में भी एक प्रौब्लम आ गई. उस वक्त इंडिया में कोविड ने दस्तक दे दी और लौकडाउन लग गया. अब जब कि उन के पास जवाब था कि वह क्या है लेकिन फिर भी उन्हें घर में रहना पड़ा.

लौकडाउन के समय जब एला घर में कैद हुई तो वह एला नहीं देव था लेकिन जब लौकडाउन खत्म हुआ और जब वह घर से बाहर निकला, देव नहीं बल्कि एला थी. लौकडाउन में उन्होंने अपनी पर्सनैलिटी पर काम किया. उन्होंने अपनी सारी हौबीज फिर से शुरू कीं. फिर से डांस, गेम, मेकअप स्टार्ट किया और इंस्टाग्राम पर फोटोज व रील्स बनानी शुरू कर दीं. उन की खूबसूरती और टैलेंट को देख कर कई बड़े लोग उन से हाथ मिलाने आए लेकिन खुद को ले कर वे कौन्फिडैंट नहीं थीं, इसलिए वे सब को मना करती रहीं.

वे एक स्पीच में कहती हैं, ‘‘मैं अपने रास्ते में खुद अड़ंगा बनी थी क्योंकि मैं औफर्स को मना कर देती थी.’’ अपनी कुछ सर्जरी कराने के बाद धीरेधीरे उन में कौन्फिडैंस ने जन्म लिया. इस के बाद वे अपने पास आने वाले औफर्स को हां कहने लगीं. एला ने कई बड़े ब्रैंड्स के साथ कोलैबोरेशन किया है जिन में बजाज और लिवोन भी शामिल हैं. वे मौडल के तौर पर कई फेमस ब्रैंड्स के लिए रैंपवाक भी कर चुकी हैं. वे एक बढि़या मेकअप आर्टिस्ट, डांसर और मौडल हैं.

‘मिस ट्रांसक्वीन इंडिया 2023’ में पहली रनरअप बन कर वे देश व दुनिया में छा गईं. यह टाइटल जीतने के बाद उन के प्रशंसकों की संख्या काफी बढ़ गई. इस समय उन के इंस्टाग्राम पर 2 लाख 45 हजार फौलोअर्स हैं. अब वे मोटिवेशनल स्पीच देती हैं. साथ ही, एलजीबीटी कम्युनिटी के मुद्दों को भी दुनिया के सामने रखती हैं. यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि वे एलजीबीटी कम्युनिटी की एक आवाज हैं.

भीख नहीं हमारा हक

एला ट्रांस कम्युनिटी को संदेश देते हुए कहती हैं, ‘‘सब से पहले आप को ही खुद को अपनाना है, फिर समाज भी आप को अपनाएगा. आप अलग हैं या आप के पास कोई अधिकार नहीं है कुछ करने का, यह सोच ही गलत है. इस से निकलने, पढ़ने और आगे बढ़ने की जरूरत है. कोई मैडिकल ट्रीटमैंट या सर्जरी आप को ठीक नहीं कर सकती जब तक आप खुद अपनेआप को, अपने विचारों को सही करना नहीं चाहेंगे.’’

समाज में ट्रांस लोगों को ले कर लोगों की सोच पर एला कहती हैं, ‘‘हमें सिर्फ भीख मांगने वाले, लोगों के घर गानेबजाने वाले या सैक्सवर्कर न सम?ा जाए, क्योंकि ये हमारी चौइस नहीं है. समाज हमारे लिए बाकी के रास्ते बंद कर देता है, इसलिए हमें इस पर चलना पड़ता है. लेकिन यह हमारी कमजोरी या पहचान नहीं है. हम बहुतकुछ कर सकते हैं. बस, लोगों को हमें मौका देने की जरूरत है, प्यार से अपनाने की जरूरत है.’’

एला कहती हैं, ‘‘हमारे पास इन सब चीजों को ले कर कानून और प्रावधान बहुत हैं लेकिन कमी इस के इंप्लीमैंटेशन की है. औफिस में बैठे लोगों को पता ही नहीं है कि यह काम कैसे होता है, इस का प्रोसैस कैसा है. जिन्हें पता है, वे भी अपने ऊपर कोई बर्डेन नहीं लेना चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि जैंडर चेंज करवाना बहुत बड़ा इशू है. दस सवालों के साथ ही आप को सही से ट्रीट तक नहीं करते क्योंकि वे ट्रांस लोगों को अलग नजरिए से देखते हैं.’’

एला बेहद खूबसूरत और टैलेंटेड हैं. वे एलजीबीटी कम्युनिटी का समर्थन खुल कर करती हैं. लेकिन उन के व्यक्तित्व में अगर कुछ खटकता है तो बस यह कि उन के इंस्टाग्राम अकांउट पर उन के अतीत की एक भी तसवीर नहीं है. क्या उन्हें अपना अतीत या अपनी पुरानी पहचान जरा भी नहीं पसंद. क्या वे अपने पास्ट को ले कर इनसिक्योर हैं. इन सारे सवालों के जवाब ढूंढ़ने जाएं तो खाली हाथ लौटना पड़ेगा. उन का व्यक्तित्व संदेह पैदा करता है.

धार्मिक प्रोपेगैंडा भी बढ़ाता है प्रदूषण

आमतौर पर हिंदुओं को यह मनवा दिया गया है कि हवनों और मूर्तियोें के आगे दीए जलाने से हवा शुद्ध होती है, पौल्यूशन नहीं बढ़ता. वैज्ञानिक सोच वालों की भी बुद्धि पर तरस आता है जो इस तरह का लौजिक पेश करते हैं कि हवन में लकड़ी, घी, पत्ते, बीज जलाने से कार्बन डाइऔक्साइड नहीं निकलेगी.

‘डेली गार्जियन’ के 6 नवंबर, 2020 के एक अंक में एक भारतीय मूल के हिंदू जितेंद्र तुली की रिपोर्ट पढ़ कर कुछ संतोष हुआ कि उस ने खरीखरी सुनाई. उस की रिपोर्ट शुरू से ही तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, जो नरेंद्र मोदी के बहुत प्रिय रहे हैं, के शब्दों से होती है कि भारत की हवा तो फि.ल्दी है, गंदी बदबूदार है. ‘वह सही है’ जितेंद्र तुली कहते हैं.

जितेंद्र तुली कहते हैं कि 1950 में जब वे बड़े हो रहा थे, आसमान में तारे और आकाशगंगा, आसानी से देख सकते थे. आज भारत एक विषाक्त गैस चैंबर बन गया है जिस का एक कारण बढ़ती पौपुलेशन के द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा पैट्रोल, कोयला, गैस या मिथेन पैदा करना है.

जितेंद्र तुली लाशों को जलाने के लिए लकड़ी और हवनों, आरतियों, मूर्तियों के आगे 24 घंटे जल रहे दीयों को भी दोष देते हैं. इस के विपरीत सोशल मीडिया और गूगल में सैकड़ों पोस्ट हैं जो दावा करती हैं कि हवन से तो शुद्धि होती है. गूगल पर इतनी सारी सर्च हवन से हवा के शुद्ध करने वाली हैं कि असली रिसर्च कहीं इतने नीचे दब गई है कि ढूंढे़ नहीं मिलती.

ऐलर्जी स्पैशलिस्ट रितिका गोयल का मानना है कि  बच्चों को पौल्यूशन का शिकार ज्यादा होना पड़ रहा है क्योंकि घर के अंदर अगरबत्तियां, मौस्क्टो कौइल और हवन होते हैं और बाहर पैट्रोल, डीजल की गाडि़यां, पराली को जलाना, पत्ते जलाना इस कदर होता है कि कहीं भी पौल्यूशन से नहीं बचा जा सकता.

यह सामान्य वैज्ञानिक तथ्य है कि लकड़ी का धुआं पौल्यूटेंट है क्योंकि इस में छोटे पार्टीकूलेट मैटर होते हैं. ये माइक्रोस्कोपिक पार्टीकल आंखों और फेफड़ों में चले जाते हैं. अमेरिका में घरों में गरमी के लिए लकड़ी जलाना पौल्यूशन का मुख्य स्रोत है. वही लकड़ी भारत में आ कर हवन में पहुंच कर शुद्ध हवा देने लगती है, ऐसा दावा करने वाले खुद भी मूर्ख हैं और दूसरों को भी मूर्ख बनाते हैं. कार्बन मोनोऔक्साइड, नाइट्रोजन औक्साइड, मिथेन तो पैदा होंगे ही चाहे लकड़ी अमेरिका में घर में या भारत में हवन कुंड में घी, दीयों के साथ जले.

बड़ी बात यह है कि पर्यावरण पर लैक्चर देने वाले प्रधानमंत्री बड़ी श्रद्धा व लगन से हवन के बाद हवन करते दिख जाएंगे. जब भी वे ऐसा कोई कार्यक्रम करते हैं, वे इंतजाम करते हैं कि सारे टीवी न्यूज चैनल हवन का और उन का गुणगान करते रहें. दुनियाभर में बढ़ रहे पर्यावरण पर की जा रही चिंता ऐसे ही उड़ जाती है जैसे हवन में पतंगे उड़ जाते हैं.

हवन, आरतियों और दीयों की लाइनें असल मेें धर्म के धंधों का हिस्सा हैं और इन के बिना वह भारतीयता नहीं आती जिस के लिए भक्त सैकड़ों मील चल कर आता है.

इधर कुआं उधर खाई

हर मोबाइल में कैमरा होना एक टैक्नोलौजी का कमाल है पर हर नई टैक्नोलौजी की तरह उस में भी खतरे भरे हैं. अब इस कैमरे का वाशरूमों में लड़कियों के कपड़े बदलने के दौरान वीडियो बनाने के लिए जम कर इस्तेमाल किया जा रहा है जिसे बाद में ब्लैकमेल के लिए या यों ही मजा लेने के लिए वायरल कर दिया जाता है.

भारत की महान जनता भी ऐसी है कि इस तरह के सैक्सी वीडियो को देखने के लिए हर समय पागल बनी रहती है और इंस्टाग्राम, फेसबुक, ऐप्स, थ्रैड्स, यूट्यूब पर हरदम जुड़ी रहती है तो इसलिए कि इस तरह का कोई वीडियो डिलीट होने से पहले मिस न हो जाए.

दिल्ली के आईआईटी में स्टूडैंट्स के एक प्रोग्राम में फैशन शो के दौरान लड़कियों के ड्रैस बदलने व कौस्ट्यूम पहनने के समय वाशरूम की खिड़की से एक सफाई कर्मचारी शूटिंग करता पकड़ा गया. इस तरह के मामले तो आम हैं पर जिन लड़कियों के वीडियो वायरल हो जाते हैं उन की कितनी रातें हराम हो जाती हैं.

आजकल ऐडिटिंग टूल्स भी इतने आ गए हैं कि इन लड़कियों की बैकग्राउंड बदल कर इन्हें देहधंधे में लगी तक दिखाया जा सकता है, वह भी न के बराबर पैसे में.

अच्छा तो यही है कि मोबाइल का इस्तेमाल बात करने या मैसेज देने के काम आए और उसे कैमरों से अलग किया जाए. कैमरा आमतौर पर दूसरों की प्राइवेसी का हनन करता है. पहले जो कैमरे होते थे दिख जाते थे और जिस का फोटो खींचा जा रहा होता था वह सतर्क हो जाता था और आपत्ति कर सकता था.

अब जराजरा सी बात पर मोबाइल निकाल कर फोटो खींचना या वीडियो बनाना अब बड़ा फैशन बन गया है और लोग रातदिन इसी में लगे रहते हैं. यह पागलपन एक वर्ग पर बुरी तरह सवार हो गया है और टैक्नोलौजी का इस्तेमाल हर तरह से घातक होने लगा है.

मोबाइल बनाने वाली कंपनियां लगातार कैमरों में सुधार कर रही हैं पर यह बंद होना चाहिए. कैमरे की डिजाइन अलग होनी चाहिए और केवल अलग रंगों में मिलनी चाहिए ताकि इस का गलत इस्तेमाल कम से कम हो. यह टैक्नोलौजी विरोधी कदम नहीं है, यह कार में सेफ्टी ब्रेक, एअर बैलून जैसा फीचर है.

हर मोबाइल एक प्राइवेसी हनन का रास्ता बन जाए उतना खतरनाक है जैसा सुरक्षा के नाम रिवाल्वरों को हरेक हाथों में पकड़ा देना जो अमेरिका में किया जा रहा है. वहां हर थोड़े दिनों में कोई सिरफिरा 10-20 को बेबात में गोलियों की बौछारों से भून डालता है पर चर्च समर्थक इसे भगवान की मरजी और अमेरिकी संविधान के हक का नाम देते हैं. जब अमेरिका का संविधान बना था तब हर जगह पुलिस व्यवस्था नहीं थी और लोगों को गुंडों, डाकुओं और खुद सरकार की अति से बचना होता था.

मोबाइल कैमरे किसी भी तरह काम के नहीं हैं. वैसे ही सरकारों ने देशों को सर्विलैंस कैमरों से पाट रखा है. इस पर मोबाइल कैमरे बंद होने चाहिए. कैमरे बिकें, एक अलग डिवाइस की तरह. ऐसा करने से कम लोग कैमरे लेंगे और जो लेंगे उन में अधिकांश जिम्मेदार होंगे. वे अमेरिका के गन कल्चर की तरह काम करें, यह संभव है पर फिर भी उम्मीद की जाए कि निर्दोष मासूम लड़कियां अपने बदन की प्राइवेसी को बचा कर रख सकेंगी. वैसे यह मांग मानी जाएगी, इस में शक है क्योंकि जनता को अफीम की तरह मोबाइल कैमरों की लत पड़ चुकी है और ड्रग माफिया की तरह मोबाइल कंपनियां अरबों रुपए लगा कर ऐसे किसी बैन को रोकने में सक्षम हैं.

धर्म हर जगह रखवाला क्यों

समलैंगिक जोड़े सुप्रीम कोर्ट से मुंह लटका कर चले आए हैं कि उन्हें विवाह कर के विवाह जैसे एकदूसरे से, समाज से व सरकार से वह कानूनी प्रोटैक्शन नहीं मिला जो वैवाहिक स्त्रीपुरुष जोड़ों को मिलता है.

सदियों से विवाह पर सरकार और धर्म ने इस तरह का फंदा बुन रखा है कि उस के बाहर विवाह की कल्पना की ही नहीं जा सकती और यही सुप्रीम कोर्ट ने किया जबकि दुनिया के कितने ही देशोें में समलैंगिक विवाह न केवल कानूनी हो गए हैं, उन से न कोई विशेष विवाद उठ रहे हैं और न समाज की चूलें हिल रही हैं.

धर्म हर जगह रखवाला बन कर खड़ा हो जाता है. कहने को वह संरक्षण देता है पर असल में वह रंगदारी करता है कि मुझे पहले पैसे दो फिर विवाह करो, संतान करो, घर बनाओ, घर में घुसो, कार खरीदो, नाम रखो, स्कूल पढ़ने जाओ, रोज का खाना खाओ. हर मामले में पहले धर्म को याद करो, उसे रंगदारी देने का वादा करो या दो और तभी आगे बढ़ो.

धर्मों ने अभी तक सेम सैक्स मैरिज को नहीं स्वीकारा क्योंकि यहां रंगदारी ज्यादा से ज्यादा एक बार मिलेगी. शादी के समय. ऐसे जोड़े आपस में खुश रह सकते हैं, 40-50 साल साथ जी सकते हैं, पर चूंकि उन्हें बच्चे नहीं होंगे उन्हें बच्चों के जन्म, नामकरण या विवाह जैसे संस्कारों में घुसने का मौका नहीं मिलेगा, वे सेम सैक्स मैरिज का विरोध कर रहे हैं.

सेम सैक्स संबंध को मैरिज के कानूनी रूप की मांग सिर्फ इसलिए की जा रही है कि धर्म के इशारों पर सरकारों ने शादी के बाद बहुत से अधिकार पतिपत्नी को एकदूसरे पर दिए हैं. पति के न होने पर पत्नी संपत्ति की मालिक  स्वत: बन जाती है, बच्चों को अपनेआप मांबाप का नाम मिल जाता है, एक साथी दूसरे वैवाहिक साथी को रिप्रैजेंट कर सकता है, अस्पतालों में नैक्स्ट औफ किन वैवाहिक साथी ही होता है, अविवाहित साथ नहीं.

लिव इन रिलेशन में रह रहे जोड़े भी इस तरह की कानूनी बातों के पचड़े में पड़ते हैं. लिव इन जोड़े के एक साथी के कैद होने पर दूसरे को पैरवी का हक स्वत: नहीं मिलता. वह केवल फ्रैंड बन कर रह जाता है. बैंक में गया पैसा स्पाउस को मिल जाता है जो समलैंगिक या लिव इन वाले जोड़े को नहीं मिलता, पैंशन का हकदार नहीं है.

पत्नी को पति के मकान का किराया पति के चले जाने के बाद भी मिलता रहता है जबकि समलैंगिक जोड़ीदार को नहीं मिलता.

आमतौर पर बहुत से कौंट्रैक्टों में लीगल ईयर की बात लिखी होती है. इन में समलैंगिक साथी नहीं आता क्योंकि उन का धार्मिक माफिया का रंगदारी टैक्स दे कर विवाह नहीं हुआ होगा.

सुप्रीम कोर्ट ने 5-0 से फैसला देते हुए कहा कि भई, चाहो तो रजाई में साथ रहो पर कानूनी रूप से हक नहीं देंगे. वह तो स्त्रीपुरुष जोड़े के लिए रिजर्व है वह भी तब जब सरकार के बनाए कानूनों के हिसाब से विवाह हुआ हो.

समलैंगिकों को वैवाहिक स्तर देने से भूकंप नहीं आ जाता. यह प्रेम कुछ को होता है पर जिन को होता है उन्हें किसी चिडि़याघर का प्राणी नहीं मान लेना चाहिए. समलैंगिकता किसी तीसरे को नुकसान नहीं पहुंचाती. यह 2 जनों का आपसी मामला है. कोई नई बात भी नहीं. कैथोलिक चर्च जो सेम सैक्स मैरिज का कड़ा विरोध कर रहा है, हर साल करोड़ों रुपए उन लड़कों को मुंह बंद रखने के लिए देता है जिन के साथ चर्च के पादरियों ने समलैंगिक संबंध बनाए. पोप की अपीलों के बावजूद सेमिनारी में रह रहे लड़कों को फादरों को समलैंगिक संबंध बना कर खुश करना पड़ता है.

जब धर्म की छत के नीचे ये संबंध हो सकते हैं, तो जब यही बच्चे वयस्क हो जाएं तो उन्हें अपने फैसले लेने और कानूनी संरक्षण पाने में क्या आफत आ जाएगी?

यह पक्का है कि  सुप्रीम कोर्ट के नकारने के बावजूद ये जोड़े साथ रहेंगे. ये वसीयतों, पावर औफ अटौर्नी से काम चलाएंगे, ये संयुक्त नामों से प्रौपर्टी खरीदेंगे. ये आपसी कौंट्रैक्टों पर निर्भर होंगे. इन के परिवार इन्हें अपनाने को मजबूर होेंगे क्योंकि अपने तो अपने होते हैं. किसी अपने के दोस्त को चाहे कानूनी पतिपत्नी मानो या न मानो, अपनानाकोई कठिन काम नहीं है.

जो होना है, जिस से किसी को नुकसान न होगा उसे कानूनी संरक्षण न देना संवैधानिक कोर्ट की नैरो माइंडेडनैस, दकियानूसीपन दर्शाता है. भारत का सुप्रीम कोर्ट कोई क्रांतिवीर नहीं है. वह यथास्थिति बनाए रखना चाहता है. उस में तो जवाहरलाल नेहरू जैसी हिम्मत भी नहीं जिन्होंने 1955-56 हिंदू मैरिज ऐक्ट, हिंदू सक्सैशन ऐक्ट बना कर हिंदू धर्म की चूलें हिला दी थीं.

 

तो अनसुनी नहीं रहेगी औरतों की आवाज

हर तीसरी पोस्ट पर स्त्री विमर्श और स्त्रियों के हक में ही लिखा जाता है. उस लेखन के जरीए स्त्री सम्मान की भावना को ले कर पुरुष को न जानें कितनी बातें सुनाई जाती हैं. लेकिन हमारे समाज में महिलाएं इसलिए पीछे नहीं कि उन की आवाज को, उन की प्रगति को पुरुष दबाते हैं, बल्कि इसलिए पीछे हैं क्योंकि दूसरी महिलाएं उन की आवाज नहीं बनतीं, साथ नहीं देतीं, सम्मान नहीं करतीं.

मर्द स्त्री का सम्मान करें न करें यह दूसरी बात है, पर क्या मां, बहन, बेटी, सास, बहू और सहेली इन सब के मन में खुद परस्पर एकदूसरे के लिए सम्मान की भावना होती है? क्या एक स्त्री दूसरी स्त्री का सम्मान करना जानती है?

राग, द्वेष, ईर्ष्या ग्रस्त मन जितना स्त्री का है उतना पुरुष का नहीं. यहां तक कि 2 जिगरजान कहलाने वाली 2 सखियों के मन में भी कहीं न कहीं एकदूसरे के लिए ईर्ष्या का भाव पनपता रहता है. ऐसे में सासबहू, देवरानीजेठानी या ननदभाभी के बीच सामंजस्य की आशा रखना गलत है.

भले हर औरत ऐसी नहीं होती पर

अधिकतर महिलाएं ऐसी ही होती हैं. मांएं बेटी को हर तरह के संस्कार देंगी, हर काम सिखाएंगी पर बेटी को यह नहीं सिखाया जाता कि अपनी सास को मां सम?ाना, जेठानी को बड़ी बहन और ननद को सहेली. इस से विपरित ससुराल को कालापानी की सजा बता कर अपनी बेटी को यही सिखाया जाता है कि सास से दबना नहीं, सारा काम अकेले मत करना, जेठानी का कहना बिलकुल मत मानना और ननद के नखरे तो बिलकुल मत उठाना.

यह भेदभाव क्यों

न ही सास अपनी बहू को बेटी सम?ाने की शुरुआत करती है. बहू कामकाजी है तो कितनी सासें औफिस से थकीहारी लौटी बहू को चाय पिलाती हैं या गरम रोटी बना कर परोसती हैं? या कौन सी जेठानी देवरानी को छोटी बहन सम?ा कर हर काम में हाथ बंटाती हैं? न ही ननद भाभी को वह सम्मान देती है. बहुत ही कम स्त्रियों में यह सम?ा होती है और औरतों की यही कमी परिवार को बांटने का काम करती है, परिवार में क्लेश पैदा करती है.

दहेज के लिए प्रताडि़त भी सास ही बहू को करती है, बेटी पैदा होने पर तानें भी सास ही बहू को मारती है. क्यों सास बहू के पक्ष में नहीं होती? कहा तो जाता है कि महिलाओं में क्षमा, दया, ममता जैसे प्राकृतिक गुण होते हैं, लेकिन आजमा कर देखिए उन की इस दरियादिली की बारिश में भीगने का अवसर पुरुषों को ही ज्यादा मिलता है. जब लड़की ब्याह कर जाती है तो ससुर, देवर और नन्दोई उस के लिए किसी देवता से कम नहीं होते, लेकिन बेचारी सास या ननद साक्षात विलेन का ही स्वरूप होती है. वह हर किसी को आसानी से माफ कर देती है, लेकिन सास को? इस पर तो शायद कोई लड़की सोचना ही पसंद नहीं करती.

बहू बेटी क्यों नहीं

जब जिंदगी एक ही छत के नीचे गुजारनी है, तो आखिर क्यों सास बहू को बेटी की जगह नहीं दे सकती और बहू सास को मां की जगह क्यों नहीं दे सकती, जबकि असल में यह रिश्ता सब से मजबूत होना चाहिए.

कहीं भी देख लीजिए महिला को महिला के विरुद्ध ही पाएंगे. फिर वह चाहे शिक्षित हो या निरक्षर. सदियों से यही चला आ रहा है और सदियों तक चलता रहेगा. बस एक बार सासबहू में बेटी का रूप देखें और बहू सास में मां का रूप. सच में ‘स्त्री ही स्त्री की दुश्मन’ कथन का साहित्य के हर पन्नों से विसर्जन हो जाएगा.

मगर गौसिप में माहिर स्त्रियां एक मौका नहीं छोड़तीं अपने आसपास बसी औरतों को नीचा दिखाने का. अकसर किट्टी पार्टियों में एक स्त्री दूसरी स्त्री को नीचा दिखाने का काम ही करती है. स्टेटस से ले कर पहनावा, पसंद और रहनसहन पर टिप्पणी करते खुद को सुंदर, सक्षम और सम?ादार दिखाने की स्त्रियों में होड़ लगी रहती है.

मर्द इस तरह की हरकतें बहुत कम करते होंगे. परिवार की नींव होती है स्त्रियां. हर मां का फर्ज है अपनी बेटी को ये सिखाना कि अपने जीवन में आने वाली हर स्त्री का सम्मान करो. जब तुम सामने वाले को मान दोगी, अच्छा व्यवहार रखोगी तभी तुम्हें सम्मान मिलेगा. पहले हर स्त्री को एकदूसरे को सम?ाने की जरूरत है, एकदूसरे को मान और सहारा देने की जरूरत है. चाहे दोस्ती हो, परिवार हो या समाज स्त्री जब दूसरी स्त्री का सम्मान करना सीख जाएगी तब विभक्त परिवार एक होंगे, अखंड परिवार की शुरुआत होगी, अपनेपन और शांति से भरे समाज का गठन होगा.

अपेक्षा स्त्रियों से भी हो

अगर कहीं भी सरेआम किसी स्त्री पर अत्याचार होता है, तब महिलाओं को एकत्रित हो कर दमनकारियों का सामना करना चाहिए. जैसे कुछ समय पहले मणिपुर में घटना घटी थी एक औरत को निर्वस्त्र कर के पूरे गांव में घुमाया गया. उस के बाद राजस्थान में भी एक पति ने अपनी पत्नी को निर्वस्त्र कर के घुमाया. जरा सोचिए उस औरत की मानसिक हालत के बारे में. तब अगर एकजुट हो कर दूसरी महिलाएं उन दरिंदों का विरोध करतीं तो उस औरत की बेइज्जती होने से बच सकती थी.

भीड़ से शेर भी घबराता है, इसलिए अब समय आ गया है कि राग, द्वेष, ईर्ष्या छोड़ कर महिलाओं के एकजुट होने का. जहां कहीं भी किसी महिला पर अत्याचार होता दिखे महिलाओं को ही आगे आ कर विद्रोह करना होगा. तभी कुछ हादसों पर रोक लगेगी.

सिर्फ मर्दों से यह आशा न रखें कि मर्द हर औरत का सम्मान करें स्त्रियों से भी यह अपेक्षा रखी जाए. हर बेटी को बचपन से ही यह सिखाया जाए तभी सदियों से चली आ रही परंपराएं टूटेंगी, सासबहू के संबंध मांबेटी जैसे बनेंगे और ईर्ष्या भाव का शमन होते ही समाज संस्कारवान दिखेगा.

रिश्ते पर हावी कुंडली मिलान

रमा और मनोज के रोजरोज के ?ागड़े से पासपड़ोस के लोग भी तंग आने लगे थे. दोनों की शादी को महज 3 साल ही हुए हैं और इन 3 सालों में दोनों के बीच प्यार कम फालतू के मुद्दों पर बहस ज्यादा देखने को मिलती है. रमा पब्लिक स्कूल में टीचर और मनोज सरकारी बैंक में मैनेजर. दोनों को काम से जल्दी छुट्टी मिल जाती है, फिर भी दोनों साथ में समय नहीं बिता पाते.

दरअसल, मनोज जल्दी आ कर भी घर नहीं आता. अपने दोस्तों के साथ बाहर ही समय बिताता है. उस की यह आदत रमा को बिलकुल पसंद नहीं है. इसलिए रोज रात को दोनों की बीच तीखी नोकझोंक होती है. रविवार के दिन भी दोनों बाहर कम जाते हैं, जिस वजह से दोनों के बीच दूरी बढ़ने लगी थी. छोटीछोटी बातों से शुरू हुआ झगड़ा उन के जीवन पर हावी होता जा रहा था.

एक दिन रमा ने स्कूल से छुट्टी ले ली लेकिन मनोज के टिफिन के लिए वह सुबह जल्दी उठ गई. रमा रसोई में नाश्ता बना रही थी तभी मनोज रमा के पास आ कर कहने लगा, ‘‘मैं आज नाश्ता ले कर नहीं जाऊंगा.’’

इस बात पर रमा को बहुत गुस्सा आया. उस ने मनोज से कहा, ‘‘जब तुम बाहर ही रहते हो, बाहर ही खातेपीते हो तो मेरे साथ हो ही क्यों? मैं सुबह जल्दी उठ कर नाश्ते की तैयारी में लगी हुई हूं. अगर नाश्ता नहीं ले जाना था तो रात को ही बता देते,’’ इतना बोल कर रमा गुस्से में रसोई से अपने कमरे में चली गई.

तभी मनोज भी कमरे में आया और रमा पर चिल्लाने लगा, ‘‘तुम्हें छोटी सी बात समझ नहीं आती. पता नहीं मैं ने शादी क्यों की.’’

शादी का नाम सुनते ही रमा ने भी पलट कर जवाब देना शुरू कर दिया, ‘‘सही कहा तुम ने, न जाने वह कैसा पंडित था जिस ने हमारी कुंडली देख कर 36 में से 32 गुण मिला दिए थे. गुण तो अब देखने को मिल रहे हैं.’’

हावी रहता है अंधविश्वास

रमा आज भी उस दिन को कोसती है जब मनोज की कुंडली के साथ उस की कुंडली का मिलान हो रहा था. पंडित ने दोनों की कुंडलियां देख कर तारीफों के पुल बांध दिए थे.

पंडित ने रमा की मां से कहा था, ‘‘आप

की बेटी बहुत ही खुश रहेगी. दोनों के 32 गुण मिले हैं. इस आधार पर दोनों की आपस में

खूब बनेगी.’’

मगर क्या ऐसा हुआ कि दोनोें में से किसी ने भी कभी एकदूसरे को सम?ा ही नहीं? धर्र्म कोई भी हो शादीविवाह का एक अलग ही महत्त्व होता है. मगर हिंदू धर्म में कुंडली मिलान को ले कर जीतने पाखंड होते हैं उतने शायद ही कहीं होते हों.

दरअसल, जब 2 परिवार रिश्ते में जुड़ने वाले होते हैं तो सिर्फ बात करने से ही रिश्ते नहीं जुड़ जाते. इस में अंधविश्वास भी हावी रहता है, ऐसा कहा जाता है कि यदि ज्योतिष या पंडित को लड़के या लड़की की कुंडली नहीं दिखाई गई, दोनों के गुण नहीं मिलते तो उन्हें आगे चल कर काफी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है. दरअसल, यह सब पंडितों का फैलाया हुआ भ्रमजाल है, जिस में फांस कर वे जजमान और मेजबान दोनों ही की जेबें ढीली करते हैं.

कुंडली की आड़ में टूटते रिश्ते

पंडितों के अनुसार कुंडली दिखाने से रिश्ते जुड़ते हैं, 2 परिवारोें का मिलान होता है. लेकिन क्या कुंडली दिखाने से सच में रिश्ते जुड़ते हैं? कुंडली मिलाने पर रिश्ते टूट जाते हैं, 2 परिवारों का मिलन अधूरा भी तो रह जाता है. एक लड़कालड़की दोनों ही कितने भी पढ़ेलिखे क्यों न होें, एकदूसरे के लिए परफैक्ट क्यों न हों, अगर उन की कुंडली में गुण नहीं मिलते या कोई दोष पाया जाता है तो वह रिश्ता वहीं टूट जाता है.

हिंदू धर्म के अनुसार, यदि किसी लड़के या लड़की के 18 से कम गुण मिलते हैं तो वे एकदूसरे के लिए परफैक्ट नहीं होते. उन के वैवाहिक जीवन में हमेशा कष्ट रहता है. इसलिए ज्योतिष और पंडित ऐसे रिश्ते में बंधने के लिए मना करते हैं या दोषों के निवारण के लिए तरहतरह के उपाय बताते हैं या यों कहें कि अपने भ्रमजाल में फंसाते हैं. दोषोें और ग्रहों के नाम पर ये पेड़पौधे से शादी करने को बोलते हैें और पूजापाठ के नाम पर मोटा पैसा वसूल कर अपनी जेबें भरते हैं.

बिग बौस के ऐक्स कंटैंस्टैंट रह चुके और राजनीतिक परिवार से संबंध रखने वाले राहुल महाजन को तो सभी जानते हैं. राहुल तीसरी बार दूल्हा बने हैं. उन की पहली शादी 2006 में श्वेता सिंह से पूरे हिंदू रीतिरिवाज के साथ हुई थी. लेकिन उन की पहली शादी 2 साल बाद ही तलाक में बदल गई. उस के बाद राहुल ने 2010 में रिऐलिटि शो ‘राहुल दुलहनिया ले जाएंगे’ में डिंपी गांगुली से नैशनल टैलीविजन पर दूसरी शादी की थी.

लेकिन उन की यह शादी भी बस 4 साल चली. राहुल ने अब तीसरी शादी कर ली है. 20 नवंबर, 2018 को राहुल ने अपने से 18 साल छोटी कजाकिस्तानी मौडल नताल्या इलीना के साथ शादी की. नताल्या से शादी करते वक्त राहुल के पास कोई कुंडली नहीं थी. ऐसे में राहुल की यह शादी चल जाती है तो पंडितों के मुंह पर यह जोरदार तमाचा होगा. लेकिन सवाल यहां पर राहुल की तीसरी शादी से नहीें है बल्कि उन की पहले की 2 शादियों से है.

राहुल की पहली और दूसरी शादी हिंदू रीतिरिवाज से हुई, जहां पंडितों को बुलाया गया, कुंडली मिलान किया गया, मंत्र पढ़े गए. लेकिन इन सब का राहुल और उन की पूर्व पत्नियों के जीवन में कोई सकारात्मक असर नहीं पड़ सका और उन का रिश्ता कुंडली के पन्नों तक ही सीमित रह गया.

ग्रंथों के अनुसार

हिंदू धर्म मेें रामायण बहुत पढ़ा जाता है बल्कि उसे पूजा भी जाता है. लेकिन जिस रामायण को लोग पूजते हैं उसी रामायण में क्यों सीता और राम अधूरे रह गए? क्यों दोनों के जीवन में इतना कष्ट आया? जबकि राम और सीता की शादी तो ऋषिमुनियों और ब्राह्मणों के देखरेख में हुई थी. दोनों का कुंडली में 36 के

36 गुण मिल भी गए थे फिर भी सीता का जीवन शुरू से ले कर अंत तक कष्टों से भरा हुआ ही रहा. सीता को कभी पति का साथ नहीं मिल पाया. सच तो यह है कि कुंडली मिलान पंडितों और ज्योतिषों द्वारा रचाया गया एक मायाजाल है, जिस में हरकोई फंसता जा रहा है. जब मांबाप अपने बच्चों के लिए रिश्ता ढूंढ़ते हैं तो लड़कालड़की के साथ वे खुद परिवार वालों से मिलते हैं. जब रिश्ता पसंद आ जाता है तब लड़कालड़की को बात करने दी जाती है.

यहां तक तो सब ठीक है. लेकिन इस के आगे की प्रक्रिया किसी भी नए रिश्ते के लिए कठिन हो जाती है. आगे की प्रक्रिया में कुंडली मिलान के लिए पंडित को बुलाया जाता है. यदि कुंडली मिल गई, गुण मिल गए तो दोनों परिवार विवाह की तैयारियों में जुट जाते हैं. लेकिन कुंडली नहीं मिली, कोई दोष पाया गया तो

क्या होगा?

जब लड़कालड़की और उन का परिवार एकदूसरे को पसंद कर लेता है फिर यह कुंडली का ?ामेला क्योें? जरा सोचिए, इतने दिन बात करने के बाद लड़कालड़की एकदूसरे के प्रति जुड़ाव महसूस करने लगते हैं. ऐसे में रिश्ता टूट जाए तो उन के मानसिक स्तर पर क्या असर पड़ेगा?

हालांकि पंडितों के अनुसार हर दोष का उपाय है. लेकिन गारंटी किसी चीज की नहीं है. इसी डर के कारण रिश्ते टूट जाते हैं. अगर कोई मांगलिक है तो उसे मांगलिक दोष वाले व्यक्ति से ही शादी करनी चाहिए. ऐसा करने से दोनों का जीवन सुखी रहता है. लेकिन कोई लड़की मांगलिक है और लड़का नहीं तो ऐसा कहा जाता है कि शादी के बाद पति की मृत्यु पहले हो जाती है. इस के लिए पंडितों ने कई उपाय बताएं हैं जैसे जानवर से शादी, केले या पीपल के पेड़ से शादी. शादी से पहले लड़की को इन से शादी करनी होती है. ऐसा करने से मांगलिक दोष दूर हो जाता है. क्या पेड़पौधे से शादी करने से सच में पति का जीवन बढ़ जाता है?

आज लोगों के अंदर इन सब बातों का इतना डर बैठ गया है कि उन का खुद पर से भरोसा ही उठता जा रहा है. तभी तो सब पंडितों की उंगलियों पर नाचते नजर आ रहे हैं. ऐसा नहीं है कि इन बातों पर सिर्फ गांवदेहात के लोग ही भरोसा करते हैं बल्कि पढ़ेलिखे लोग भी इस अंधविश्वास को उतना ही मानते हैं.

मांगलिक दोष में कितनी सचाई

आज लोग मौडर्न तो होते जहां रहे हैं लेकिन सिर्फ पहनावे से. दिमागीरूप से लोग अभी भी अंधविश्वास के जाल में फंसे हुए हैं. तभी तो अपने दिन की शुरुआत राशिफल देखने से करते हैं. कोई भी काम करने से पहले भगवान को याद करते हैं, ज्योतिषी से हाथों की रेखा दिखाते हैें. यही कारीण है कि आज धर्म के नाम पर इन का धंधा फूलताफलता जा रहा है.

बौलीवुड अभिनेत्री ऐश्वर्या राय और अभिनेता अभिषेक बच्चन की शादी ने तब खूब सुर्खियां बटोरी थी. यह शादी भले ही 2 नामचीन हस्तियों के बीच थी पर शादी ज्यादा मशहूर इसलिए भी हुई क्योंकि शादी में अंधविश्वास ग्रहोें को ले कर चर्चाएं हुई थीं.

दरअसल, ऐश्वर्या की कुंडली में मांगलिक दोष था. दोनों की सगाई के बाद जब पंडित ने कुंडली मिलान किया तो ऐश्वर्या की कुंडली में मांगलिक दोष निकला. ऐश्वर्या का मांगलिक दोष पूरे देशभर में फैल गया था. ज्योतिषियों और पंडितों का कहना था यह शादी सफल नहीं हो सकती. इस के लिए ऐश्वर्या को मांगलिक दोष का उपाय करना होगा. अगर वे अभिषेक से शादी करना चाहती हैं तो उन्हें पीपल या केले के पेड़ से शादी रचानी होगी. ज्योतिषियों का तो यहां तक कहना था कि यदि ऐश्वर्या इन उपायों के बिना शादी करती हैं तो उन का शादीशुदा जीवन में दुर्भाग्य और अपशगुन आ जाएगा, जिस का असर अभिषेक पर पड़ेगा.

इस पूरे विषय पर फेमस ज्योतिषी चंद्रशेखर स्वामी ने एक न्यूज पेपर को बताया था, ‘‘अभिषक और ऐश्वर्या दोनों मेरे पास सलाह लेने आए थे. मैं ने दोनों को सलाह दी कि दोनों को प्राचीन शिव मंदिर में पूजा करानी चाहिए.’’

इन सब विवादों के बाद ऐश्वर्या और अभिषेक की शादी हो गई. हालांकि ऐश्वर्या की पेड़ से शादी होने की बात साबित नहीं हो पाई. एक इंटरव्यू में जब अमिताभ बच्चन से पूछा गया कि क्या सच में ऐश्वर्या का मांगलिक दोष हटाने के लिए पेड़ से शादी की थी का कहना था, ‘‘कहां है वह पेड़. कृपया मुझे दिखाइए. ऐश्वर्या ने एक ही बार शादी की है और वह व्यक्ति मेरा बेटा अभिषेक बच्चन है. अगर अभिषेक को एक पेड़ सम?ाते हैं तो यह बात अलग है.’’

अमिताभ के इस बयान से यह साफ हो गया था कि ऐश्वर्या ने मांगलिक दोष हटाने के लिए किसी भी प्रकार के पेड़ से शादी नहीं की थी.

इस का मतलब यह है कि मांगलिक दोष होने के बावजूद भी ऐश्वर्या और अभिषक अपनी शादीशुदा जिंदगी में बेहद खुश हैं. जिस तरह ज्योतिषयों ने दोनों की शादी के समय अपशुगन होने की बात कही थी अभी तक तो ऐसा कुछ नहीं हुआ हैं.

इसका एक ही अर्थ निकलता है कि मांगलिक होना कोई दोष या अपशगुन नहीं है. यह एक ऐसा डर है जिस के तले लोग दबे जा रहे हैं और इस डर का धर्म के व्यापारी फायदा उठाने में लगे हुए हैं.

धर्म की आड़ में चलता कारोबार

एक हिंदू अपनी कुंडली पंडित या ज्योतिषी को दिखाता है. लेकिन जरा सोचिए वह पंडित किसी दूसरे मजहब को मानने वाला हुआ तो? धर्म के नाम पर धंधा इतना बढ़ता जा रहा है कि लोग अपनी असली पहचान छिपा कर इस धंधे में घुस रहे हैं. आज लोग इतने अंधविश्वासी होते जा रहे हैं कि जिंदगी को बेहतर और सरल बनाने के लालच में ऐसे लालची पाखंडियों का सहारा ले रहे हैं.

कुछ साल पहले दिल्ली के हौजखास में ऐसे ही एक बाबा का धंधा चौपट हुआ. दरअसल, यह बाबा लोगों का भविष्य और कुंडली देखता था. आप को यह जान कर हैरानी होगी कि इस बाबा का असली नाम युसुफ खान था. यह आदमी नाम बदल कर कई सालों से यह धंधा चला रहा था.

ऐसे कई बाबा मिलेंगे जिन्हें पढ़नालिखना भले ही न आता होे लेकिन कुंडली और भविष्य पढ़ना बखूबी आता है.

कुंडली दिखाना और मिलाना सिर्फ हिंदू धर्म में ही होता है बाकी किसी भी धर्म, समाज, समुदाय, संगठन, जाति में ऐसा कोई रिवाज है ही नहीं. तभी दूसरे धर्म के लोग भी इस धंधे में शामिल होते जा रहे हैं. आज के समय में ऐसे नाम बदलू पंडित और कुंडली पर भरोसा करना एक बराबर है.

बौयफ्रैंड को बेटा सौंपना

मुंबई में एक 42 साल की मां को गिरफ्तार किया गया है क्योंकि उस के 13 वर्ष के बेटे ने शिकायत की कि उस की मां और उन का बौयफ्रैंड उसे सैक्सुअली एब्यूज करते थे और इस दौरान उसे बुरी तरह टौर्चर भी कर रहे थे. मां अपने पति से अलग रह रही थी और लड़के का पिता मुंबई से पूना चला गया. बेटे की शिकायत पर वह मुंबई आया और पुलिस से कंपलेंट की.

इस कहानी में बहुत से पेंच लगते हैं पर सैक्स के उन्माद में क्या नहीं हो सकता, यह भी जानकार जानते हैं. बौयफ्रैंड को खुश करने के लिए 42 वर्षीया औरत, जिस का पति छोड़ गया हो, अगर बेटे को बौयफ्रैंड के हवाले कर दे तो कोई बड़ी बात नहीं. 13 साल का कोई बेटा सिर्फ बहकावे में आ कर मां की शिकायत करे, यह कम संभव है. वह मां के बौयफ्रैंड की तो ईर्ष्या में शिकायत कर सकता है पर फिर भी मां को बचाने की ही कोशिश करेगा.

मां का बेटोंबेटियों को बलिदान कर देने की कहानियां कम नहीं हैं. सैक्स बाजार में आमतौर पर औरतें नशे, सैक्स, पैसे की कमी, कर्ज, बीमारी आदि से इस कदर परेशान हो जाती हैं कि वे बेटियों को उसी बाजार में धकेल देती हैं और बेटों को भी अनैतिक काम करनेकरवाने को प्रेरित करती हैं.

मुंबई पुलिस का कहना है कि मुंबई में हर रोज औसतन 3 लड़कों की शिकायत आती है कि उन के साथ सैक्सुअल एब्यूज हुआ और करने वाला निकट संबंधी या परिचित ही था. इन मामलों में मांएं आमतौर पर चुप रह जाती हैं क्योंकि वे सिर्फ बेटे की खातिर घर का बैलेंस बिगड़ने से डरती हैं. वैसे भी, हमारे यहां औरतों की सुनता कौन है.

मां को आज अपने बचाव की चिंता ज्यादा होने लगी है क्योंकि अगर पति या बौयफ्रैंड छोड़ गया तो उस के पास कोई ढंग का सहारा नहीं होता. मुंबई जैसे शहर में हजारों युवतियां मांबाप को सैकड़ों मील दूर गांवकसबेशहर में छोड़ कर आती हैं. उन्हें जो भी सहारा मिलता है, उस पर चाहे जितनी ग्रीस लगी हो, चाहे जितने कांटे हों, उसे पकड़े रहना चाहती हैं और अनचाहे पैदा हुए बच्चों को बलिदान करने से कतराती नही हैं.

यह अफसोस की बात है कि ऐसे मामलों में जानकारी सतही ही रहती है. ये औरतें खुल कर सामने नहीं आतीं और इन के मन में क्या होता है, यह कम ही पता चलता है. सामाजिक व धार्मिक दबाव कितना होता है, यह आम लोगों को पता ही नहीं चलता.

टैक्स दर टैक्स

केंद्र सरकार किस तरह गरीब ही नहीं, अमीर लोगों को भी नएनए कर लगा कर लूट व चूस रही है, इस का नया उदाहरण है विदेशों में जाने, बच्चों को पढ़ाने, विदेशों में इलाज कराने आदि पर भी टैक्स लगाया गया या बढ़ाया गया है. देश की सरकार की लिब्रलाइज्ड रैमिटैंस स्कीम के अंतर्गत अब विदेश में 7 लाख रुपए से अधिक खर्च करने वालों को 20 प्रतिशत टैक्स देना होगा.

यह उस पैसे पर टैक्स है जिस पर आम नागरिक देश में पहले से ही तरहतरह के टैक्स दे चुका है और 30 प्रतिशत तक का इनकम टैक्स भर चुका है.

इस तरह के टैक्स का सीधा मतलब तो यह होता है कि पैसा जैसे गैरबैंकिंग तरीकों से भेजा गया. अब लोग हवाला से पैसा और ज्यादा भेजेंगे जिस में खर्च बहुत कम होता है. यह आसान है क्योंकि भारत से बाहर बसे लगभग 3 करोड़ भारतीय काफी पैसा कमा रहे हैं और उन्हें बैंक के जरिए पैसा भारत में अपने संबंधियों को भेजना होता है. हवाला के जरिए संबंधियों के पास यह पैसा नकद में आ जाएगा और अगले साल से उन्हें इस पर टैक्स नहीं देना होगा.

विदेशों से अभी भी नीची जातियों के भारतीय कामगार, मजदूर और कुछ मामलों में ऊंची जातियों के ऊंची पोस्टों पर बैठे लोग भी भारत में अपने संबंधियों को पैसा बैंकिंग चैनल से भेजते हैं और यह रकम 120 लाख करोड़ रुपए से अधिक की होती है. जो विदेशी सामान भरभर कर खरीदा जा रहा है, जिन में प्रधानमंत्री के लिए खरीदे गए 2 विशाल हवाईजहाज, प्रत्येक 8,000 करोड़ रुपए की कीमत के शामिल हैं. भारतीय दूतावास भरभर कर पैसा खर्च कर रहे हैं. सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति पर भी खर्च विदेशी मुद्रा में किया गया था.

यही नहीं, सरकार संस्कृति प्रचार के नाम पर विदेशों में बन रहे मंदिरों पर भी आम मजदूरों के पैसे को बांट रही है लेकिन एक आम नागरिक की विदेश यात्रा, पढ़ाई, शिक्षा आदि पर टैक्स बढ़ा रही है. इन में से कुछ खर्चों में छूट है पर फिर भी विदेश जाने पर बहुत रुपए खर्च होते हैं जो अनायास होते हैं और अब विदेशी मुद्रा में खर्च करने पर ज्यादा टैक्स देना होगा.

जो सरकार वादा करती है कि वह सब का विकास चाहती है, वह असल में केवल मुट्ठीभर सरकारी आदमियों का विकास कर रही है.

लिब्रलाइज्ड रैमिटैंस स्कीम के अंतर्गत लगाया गया नया टैक्स तो एक नमूना भर है. इस तरह के हजारों टैक्स रोज लगते हैं और यदि किसी धन्ना सेठ को फायदा पहुंचाना हो तो कुछ दिनों के लिए इन्हें हटा भी दिया जाता है.

 

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