Latest Hindi Stories : वतन की मिट्टी से क्यों था इतना प्यार?

लेखिका- वीना टहिल्यानी

Latest Hindi Stories : संकरी सी बंद गली का वह आखिरी मकान था. खूब खुला. खूब बड़ा. लाल पत्थर का बना. खूब सुविधाजनक. मकान का नाम था ‘जफर मंजिल’. आजादी के कुछ वर्षों बाद यहीं हमारा जन्म हुआ. ‘जफर मंजिल’ हमारा घर था. मां को घर का मुसलमानी नाम बिलकुल नापसंद था पर घर के मुख्यद्वार के ऊपर एक बडे़ से पत्थर पर खूब सजावट सहित उर्दू हर्फों में खुदा था, ‘जफर मंजिल-1907.’

डाक के पत्र भी ‘जफर मंजिल’ लिखे पते पर ही मिलते थे. वही नाम घर की पहचान थी.

मां का बस चलता तो वे उस पत्थर को उखड़वा देतीं. डाकखाने में नए बदले नाम की अरजी डलवा देतीं. उन्होंने तो नाम भी सोच रखा था, ‘कराची कुंज’. लेकिन तब आर्थिक हालात इतने खराब थे कि एक पत्थर उखड़वा कर नया लगवाना महल खड़ा करने के समान था. फिर भी मां को यह उम्मीद थी कि भविष्य में वे यह काम अवश्य करेंगी. जबतब वे इस बात की चर्चा करती रहती थीं.

मां को भले ही घर का मुसलमानी नाम पसंद न हो पर आज सोचती हूं तो लगता है कि कैसेकैसे तो अचरज थे उस घर में. छोटी मुंडेर वाली लंबी छत पर दादी द्वारा बिखेरे चुग्गे पर कैसे झुंड के झुंड पंछी उमड़ते थे.

ऊंची दीवारों वाली बड़ी चौकोर छत गरमियों की रातों में सोने के काम आती. चांदनी रातों में पूरी की पूरी छत धवल दूध का दरिया बन जाती. मां, दादी की कहानियों पर हुंकारे भरते हम नींद के सागर में गुम हो जाते. अमावस्या की यहां से वहां तक तारे ही तारे.

कहां गुम हो गए वे सारे के सारे सुग्गे और सितारे?

अपने नाम के अनुरूप ‘जफर मंजिल’ के पूर्व मालिक मुसलमान ही थे. असल में यह पूरा पाड़ा ही मुसलमानों का था. गली के सब घरों में मुसलमान रहते थे जो विभाजन के वक्त पाकिस्तान पलायन कर गए. गली के एक घर में अब भी एक बुजुर्ग मुसलमान दंपती रहते थे. बाकी खाली पड़े घर, सरकार द्वारा पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को दिए गए.

पिताजी को भी यह मकान क्लेम में मिला था. वे भी शरणार्थी थे. बचपन में बारबार सुने ‘क्लेम’ शब्द का अर्थ मैं बहुत बाद में कुछ बड़ी होने पर ही जान पाई. बंटवारे की भागमभाग में पीछे छूट गई धनसंपत्ति के बदले में शरणार्थियों ने मुआवजे की मांग की थी. आवश्यक औपचारिकताएं पूरी होने पर किसी को ‘क्लेम’ में मकान मिला तो किसी को दुकान और किसी को कुछ भी नहीं.

अब किस के पीछे क्या छूटा, इस का हिसाब भी कैसे रखा जाता? यहां तो पूरी की पूरी सभ्यता और संस्कृति ही छूट गई थी. बंटवारे की आग में कितना कुछ भस्म हो चुका था. मुआवजे का उचित अनुमान असंभव था.

माटी की गंध और आकाश के रंग तो अनमोल थे पर कराची की कोठियों, नवाब शाह की हवेलियों, लहलहाती फसलों के बदले एक घर तो मिला. सिर को छत और पैरों को जमीन मिली तो नई जगह पर नए सिरे से रचनेबसने का संघर्ष आरंभ हो गया.

विभाजन की बात पर पहले तो किसी को विश्वास ही न हुआ था. उसे एक अजब अनोखी अफवाह ही माना गया. ‘बंटवारा…? क्यों भला…? और…और… हम क्यों छोड़ें अपनी धरती, अपनी जमीन…अपने घर…कोई ठिठोली है क्या…’ इतिहास की इस करवट पर सब हतप्रभ, हैरान थे. भूगोल की नई सीमाएं बहुतों को स्वीकार न थीं. बात जब तक पूरी समझ में आती, काफी देर हो चुकी थी.

धर्मांधता की वीभत्सता ने उन्हें कहीं का न छोड़ा. विभाजित सिंधपंजाब, बंगाल के निवासी भागे भी तो जान हथेली पर रख कर.

रक्तपात के रेलों को लांघते, आग के दरिया को फलांगते, कहां से कहां चले और कहां आ निकले.

‘आजादी अहिंसा से पाई’ का कथन उन्हें हास्यास्पद लगता. इतनी मारकाट, खून- खराबा. वह क्या हिंसा न थी? इस से तो अच्छा था कि मिल कर अंगरेजों से भिड़ जाते, देश को टुकड़ाटुकड़ा होने से बचाते और मर भी जाते तो शहीद कहलाते.

शरणार्थी शिविरों के हालात बुरे थे. प्रत्येक परिवार अपने किसी न किसी सगेसंबंधी के लिए कलप रहा था. कहीं कोई लापता था तो कहीं किसी को मर कर भी अग्नि न मिली थी. हर हृदय में हाहाकार था. कोई आखिर कितना रोता, कितना मातम करता. रुदन और मातम के बीच भी जीवनसंघर्ष जारी रहा.

ऐसी विपरीत परिस्थितियों के बीच मां की सब से छोटी बहन बीमार पड़ गईं और उचित उपचार के अभाव में चल बसीं. अफरातफरी और भगदड़ में उन की मां और छोटे इकलौते भाई ऐसे लापता हुए कि बरसों बाद ही उन का सुराग मिला. तब तक जीवन कितना आगे निकल गया था. सबकुछ कितना बदल गया था.

पीछे छूट गई धनसंपत्ति, वैभवविलास के लिए मां कभी न तड़पीं. सब आजादी के हवन में होम हो गया. स्वतंत्रता पाना सरल तो नहीं. स्वराज के लिए कोई क्या कुछ नहीं करता. हम ने भी किया. छोटा सा बलिदान ही तो दिया पर धर्म के नाम पर मिले मानसिक दुखदर्दों ने उन्हें विक्षिप्त सा कर दिया. मुसलमानों के प्रति उन के मन में घनघोर कटुता घर कर गई. ‘कैसा छल? कितना बड़ा धोखा? कैसे कर सके वे इतना सबकुछ…?’

चार सगेसंबंधी जहां जुड़ कर बैठते, बस, वतन को याद करते. पीछे छूट गई हवा, पानी और मिट्टी की बात करते. फिर उन सुमधुर स्मृतियों के साथ अनायास ही आ जुड़ते बंटवारे के अत्याचारों के कटुकठोर अनुभव और बतकही की बैठक सदा ही आंसुओं से भीग जाती.

विभाजन के समय की इन वारदातों को सुन कर हमारे मन भी मैले हो गए. दिलों में दहशत सी बैठ गई. राह चलते दूर से बुरके वाली दिख जाए तो दिल बैठ जाता. गली में आतेजाते अगर कोई मुसलमान दिख जाए तो छक्के छूट जाते.

घर से निकलने से पहले झांक कर सुनसान गली को भलीभांति निरखपरख लेती. छड़ी टेकते मियांजी दिख जाएं तो झट से द्वार के ओट में हो जाती. उन के घर के सामने से निकलती तो चाल में अतिरिक्त तेजी आ जाती. हर बार लगता, इस मुसलमानी घर से दो हाथ निकल कर मेरी गरदन धरदबोचेंगे, मुझे खींच कर घर के अंदर कर लेंगे.

हमारे घर से सटी एक बड़ी पुरानी मसजिद भी थी, जिस का फाटक मुख्य सड़क पर था. गली की तरफ का छोटा सा द्वार सदा ही बंद रहता था. ‘जफर मंजिल’ और मसजिद की साझा दीवार बहुत ऊंची तथा खूब मोटी और मजबूत थी, जिस से इधरउधर की गतिविधियों का तनिक भी आभास न होता था.

हां, गरमियों के दिनों में जब बाहर आंगन में अथवा छत पर सोना होता, तो सवेरे की पहली अजान पर दादी की आंख खुल जाती, जागते ही वे आदत के अनुसार ‘जप-जी साहिब’ जपने लगतीं. उन के जाप से पिताजी जाग जाते और पौधों में पानी डालने के लिए निकल पड़ते.

दशक बीत गए. वह घर, वह गली, वह नगर तो कब का कहीं  छूट गया पर वे ध्वनियां मन में आज भी प्रतिध्वनित होती हैं. जब कभी सुबह जल्दी जाग जाऊं तो अंतस से उठती ‘ओमओंकार’ और ‘अल्लाह’ की आवाजों से चकित, रोमांचित हो पुराने माहौल में खो जाती हूं.

एक दिन सुबहसवेरे मुख्यद्वार पर लटकी लोहे की सांकल खूब जोर से खड़की. हम सब स्कूल जाने की तैयारी में थे. मां रसोईघर में व्यस्त थीं. आंगन में दादी मेरी चोटी बांध रही थीं. कोने में नल पर छोटा भाई नहा रहा था. द्वार पिताजी ने खोला. दूर से मियांजी दिखे. दादी चौंकीं. चोटी बनाते उन के हाथ रुक गए. मियांजी ने पिताजी से कुछ कहा और पिताजी ने गलियारे में रखी साइकिल उठाई और तुरंत गली में निकल गए.

पिताजी मां अथवा दादी को बिना कुछ बताए बाहर निकल जाएं, यह अनहोनी थी.

‘क्या हुआ…? क्या हुआ…’ कहते दादी दौड़ पड़ीं. पर वे जब तक दरवाजे तक पहुंचीं, पिताजी गली लांघ चुके थे.

मियांजी ने ही बताया कि उन की बेगम गुजर गई हैं. वे चूंकि घर में अकेले थे, इसलिए पिताजी, अगले महल्ले में उन के नातेरिश्तेदारों को खबर करने गए हैं. यह कह कर मियांजी तो लाठी टेकते चलते बने और दादी सकते में आ गईं. मां को भी जैसे काठ मार गया, बच्चे सहम गए. मैं अधबनी चोटी हाथ में पकड़े बैठी थी. कुछ वक्त तक सब खामोश, बेचैन…

देखते ही देखते सामने वाली गली से, रिश्ते की दादियां, चाचियां, ताइयां दौड़ी चली गईं, ‘मुसलमानी बस्ती में गया है… वह भी अकेला…मत मारी गई है रामचंद्र की…इतना  सब देखसुन कर भी क्या सीखा…? ये आजकल के लड़के भी न…’ इस चिंता उत्तेजना ने सब को बेहाल बना दिया. आधा घंटा आधे युग से भी लंबा निकला. ज्यों ही गली में पिताजी की साइकिल मुड़ी सब की जान में जान लौटी.

पिताजी अपने साथ साइकिल पर ही किसी को लिवा लाए थे…और यह क्या? उस के साथ ही पिताजी भी मियांजी के मकान में चले गए. घर में फिर से हल्लाहड़कंप मच गया. मियांजी से मातमपुर्सी कर पिताजी आए तो सीधा गुसलखाने में घुस गए और घर वालों की बमबारी से बचने के लिए खूब देर तक नहाते रहे.

अगले कई दिनों तक गली में काले बुरके वाली औरतें और गोल टोपी वाले मर्दों का आनाजाना लगा रहा फिर धीरेधीरे सबकुछ पहले जैसा सुनसान हो गया.

उस दिन आंगन में शाम की बैठक थी. बीते दिनों की बातों के बीच वर्तमान के संघर्ष को सुना जा रहा था. आने वाले समय के सपनों को बुना जा रहा था.

इसी बातचीत के बीच बाहर की कुंडी खड़की. पिताजी ने द्वार खोला. बाहर मियांजी खड़े थे. औपचारिकता कहती थी कि उन्हें बाहर की बैठक में बिठाया जाए पर पिताजी अपने उदार स्वभाव के अनुसार उन्हें अंदर आंगन में ही लिवा लाए.

आदाबनमस्कार के बाद उन्हें बैठने के लिए पीढ़ा दिया गया. एक अनजान के अकस्मात प्रवेश से सभा में सन्नाटा छा गया. सब शांत और असहज हो उठे.

मौन मियांजी ने ही तोड़ा, ‘असल में मैं आप सब का शुक्रिया अदा करने आया हूं…आड़े वक्त में आप की बड़ी मदद मिली…’ अब इस का कोई क्या जवाब देता. पल भर की खामोशी के बाद मियांजी ने ही जोड़ा, ‘शुक्रिया के साथ अलविदा कहना भी जरूरी है… मेरा दानापानी भी उठ गया है यहां से…’

शिष्टाचार का तकाजा था कि उत्सुकता जताई जाए सो दादाजी ने पूछ ही लिया, ‘क्यों…क्यों…मियांजी, कहां जा रहे हैं आप…?’

‘अब और कहां जाऊंगा बिरादर… पाकिस्तान जो बना है मेरी खातिर…’ अब सन्नाटा और भी गाढ़ा हो गया.

मौन को फिर मियांजी ने ही तोड़ा, ‘मेरे चारों बेटेबहू, दोनों बेटीदामाद, एकएक कर पाकिस्तान चले गए. हर बार उन की जिद रही कि हम भी साथ जाएं पर वतन छोड़ने के नाम से ही मेरी रूह फना होती है. दिल बैठ जाता है. चाहेअनचाहे, एकएक कर गली के सारे संगीसाथी भी चले गए. फिर भी नसरीन साथ थी तो हम एकदूसरे के सहारे जिद पर जमे रहे…पर अब क्या करूं…उस ने तो अपनी मिट्टी पा ली पर मेरी मिट्टी देखिए…? इस उम्र में वतन छोड़ने की जिल्लत भी झेलनी थी…अपने जफर भाई भी खूब रोए थे यह घर, यह गली छोड़ते वक्त…यहीं इसी जगह उन्हें भी आखिरी सलाम कहा था…’ कहतेकहते मियांजी का गला रुंध गया.

यहां तो पहले से ही सब लोग व्याकुल थे. साझे दुख ने सीधा दिलों पर वार किया. दिलासा देना तो दूर किसी से कुछ भी बोलते न बना. सब एकदूसरे से आंखें चुराने लगे.

सिमरनी फेरती दादी का हाथ अचानक ही तीव्र हो गया. दादाजी यों ही खांसे. आंचल के छोर से आंखें पोंछती मां रसोई में चली गईं.

कुछ ही देर में मां, मटके के पानी में नीबू और चीनी घोल लाईं. गला गीला करने के बाद ही फिर बोलनेबतियाने की स्थिति बनी.

कुछ देर बाद छड़ी के सहारे मियांजी उठ खड़े हुए. जाने को पलटे तो उन के ठीक पीछे मैं बैठी थी, ‘अरे, तुम्हें तो अकसर देखता हूं गली में आतेजाते… स्कूल जाती हो…’

‘जी…’ मैं खड़ी हो गई. नमस्कार में हाथ जोड़ दिए.

‘खुश रहो… खुश रहो…’ उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और आशीर्वाद दिया.

‘खूब पढ़ना…वतन का नाम करना…’ कह कर उन का हाथ थर्राया और आवाज भर्रा गई.

इस बात को बरस नहीं दशक बीत गए पर उस कमजोर जर्जर हाथ की वह थरथराहट आज भी ज्यों की त्यों मेरे दिल पर धरी है.

उस छोटी उमर में उस कंपन का अधिक अर्थअनुमान भी न लगा पाई पर बीतते बरसों के साथ थरथराहट तेज से तेज होती गई है.

वतन के मोह में वे व्याकुल थे और उन का वतन तो बस अब छूटा जा रहा था…कोई उपाय न था…उन की अपनी धरती, उन के सामने द्विखंडित लहूलुहान पड़ी थी…उन्हें तो अब जाना ही होगा…

वह धुंधली धूसर शाम हमारे जीवन में मील का पत्थर सिद्ध हुई.

मियांजी से उस मुलाकात के बाद मन के कितने ही भय, भ्रम मिट गए. सूनी गलियों और भीड़ भरी सड़कों का आतंक समाप्त हो गया. एक धर्म विशेष के प्रति दुराग्रह जाता रहा. मां ने भी फिर कभी ‘जफर मंजिल’ का नाम बदलने की बात न छेड़ी.

Hindi Kahaniyan : बुरके के पीछे का दर्द

लेखक- मनमोहन सरल

Hindi Kahaniyan : उस दिन अपने एक डाक्टर मित्र के यहां बैठा था. बीमारियों का मौसम चल रहा था, इसलिए मरीजों की भीड़ कुछ ज्यादा ही थी. उन में कई बुरकानशीन खातून भी थीं जो ज्यादा उम्र की थीं, वे आपस में बातें कर रही थीं. कुछ बीच की उम्र वाली भी रही होंगी, जो ज्यादातर चुप ही थीं लेकिन उन में से किसी के साथ एक कमसिन जैसी भी थी, जिस के कमसिन होने का अंदाजा उस के चुलबुलेपन से लगता था, क्योंकि वह कभी एक जगह नहीं बैठती थी. साफ था कि उस को बुरका मजबूरी में पहनाया गया था.

आखिर आजिज आ कर उस ने अपना नकाब उलट ही दिया. उफ, वह तो बला की खूबसूरत निकली. काले बुरके से निकले उस के गोरेगुदाज हाथ तो पहले ही दिखाई दे चुके थे और अब उस का नजाकत से तराशा हुआ चेहरा भी सामने था. एकबारगी मेरे मन में यह खयाल कौंधा कि खूबसूरत नाजनीनों को बुरके में अपना हुस्न छिपाने का हक किस ने दिया? क्या यह हम मर्दों पर जुल्म नहीं है?

उस पर से निगाह हटती ही न थी, पर लगातार उधर देखते रहना, बेअदबी होती. इसलिए मैं रिसाले के पन्ने पलटने लगा, जो शायद कई साल पुराना था.

गए वक्त की एक अदाकारा की एक थोड़ी शोख अदा वाली तसवीर पर नजर गड़ाए था कि अचानक मेरे बगल वाली सीट पर एक बुरकानशीन आ कर बैठ गई. मैं ने उधर गरदन घुमाई तो उस ने अपना नकाब उठा दिया.

‘‘अरे, तुम?’’ मुंह से बेसाख्ता निकला.

यह नसीम थी, जो 4 साल पहले मेरी स्टूडैंट रह चुकी थी. वह इंस्टिट्यूट में भी दाखिल बुरके में ही होती थी, पर बिल्डिंग का गेट पार करतेकरते बुरका उतर जाता था और क्लास में पहुंचने तक वह तह कर के बैग के हवाले भी हो चुका होता था.

‘‘जी सर, आप कैसे हैं? डाक्टर के पास क्यों?’’

मुझे ध्यान आया कि यह वही थी जो इस दौरान मुझे अपने नकाब की ओट से लगातार घूरे जा रही थी. पर उस के लगातार मु झे देखे जाने पर मैं ने तवज्जुह नहीं दी थी. पर अब तो नसीम बगल में ही थी. मैं ने कहा, ‘‘मैं ठीक हूं. डाक्टर मेरे मित्र हैं. मिलने आया था. पर तुम तो लखनऊ चली गई थीं? मु झे याद है कि तुम ने बताया था कि यह कोर्स करने के बाद तुम्हारी वहां के एक अखबार में नौकरी पक्की है.’’

‘‘जी, बल्कि उन लोगों ने ही मु झे यह कोर्स करने के लिए मुंबई भेजा था.’’ ‘‘फिर क्या हुआ?’’ मैं जानना चाहता था.

‘‘कुछ नहीं. 2 साल मैं ने वहां ही काम किया.’’

तभी डाक्टर की रिसैप्शनिस्ट ने उस का नाम पुकारा. वह चैंबर में जाने के लिए उठ खड़ी हुई. वह जातेजाते बोली, ‘‘सर, आप जाइएगा नहीं. मु झे आप से जरूरी बात करनी है.’’

मैं ने ‘अच्छा’ कहा और मैं 4 साल पहले की नसीम को याद करने लगा. बड़ी जहीन लड़की थी वह, पूरी क्लास में. उस का स्टडीपेपर भी बहुत अच्छा बना था, खूब मेहनत से सारे डाटा इकट्ठे किए थे, उस के लिए. थोड़ी चुलबुली भी थी और दूसरे स्टूडैंट से खासी फ्री भी थी. पर इस बीच क्या घटा होगा, मैं कयास नहीं लगा पा रहा था. उस की इस बात से कि उसे मु झ से कोई जरूरी बात करनी है, मैं अजीब पसोपेश में था. दरअसल, मरीजों से फ्री होने के बाद मेरा डाक्टर मित्र अपने साथ मु झे कहीं ले जाना चाहता था, इसलिए इंतजार तो मु झे करना ही था. पर अब नसीम की जरूरी बात के बाद क्या करना होगा, तय नहीं कर पा रहा था.

नसीम को डाक्टर के पास कुछ समय लगा. वह लौटी तो मैं ने कहा, ‘‘तुम अपनी दवा बनवाओ, मैं डाक्टर से मिल कर आता हूं.’’

रिसेप्शनिस्ट से कहा कि मु झे 2 मिनट को अंदर जाने दे और मैं ने कल आने को कह कर डाक्टर से छुट्टी ले ली और तुरंत बाहर आ गया. तब तक नसीम अपनी दवा बनवा चुकी थी.

उस ने अपना नकाब फिर से ओढ़ लिया और हम साथ ही वहां से निकल पड़े.

उस को देख कर मन में सवालों का सैलाब घुमड़ रहा था. पर तमाम रास्ते हम में कोई बात न हुई. वह मुंबई वापस क्यों आ गई? लखनऊ में उस के साथ कोई हादसा तो नहीं हुआ? वह मु झ से कौन सी जरूरी बात करना चाहती है? आदि तमाम जिज्ञासाएं थीं.

संकरी गलियों से गुजरते हुए आखिर हम एक मकान के सामने जा कर रुके, जिस के दरवाजे पर ताला लगा हुआ था. नसीम ने बड़ी खुफिया निगाह से इधरउधर देखा फिर चाबी मु झे थमाती हुई बोली, ‘‘आप दरवाजा खोल कर अंदर चले जाइए. मैं बाद में आती हूं. पर दरवाजा अंदर से बंद न करिएगा,’’ और मैं ने देखा कि वह जल्दी से बगल वाली दूसरी गली के मोड़ पर छिप गई.

मैं ताला खोल कर अंदर तो आ गया पर उस के इस तरह से अपनी मौजूदगी को पोशीदा रखने और सहमे हुए बरताव से मैं हैरत में था और चौकन्ना भी.

चंद मिनटों में ही वह अंदर आ गई. मैं तब तक खड़ा ही था और उस छोटे से घर को देख रहा था. पुराने ढंग का मकान था जो करीबकरीब खंडहर सा हो चला था. सिर्फ एक छोटा सा कमरा, उस से जुड़ा टौयलेट और दूसरी तरफ रसोई जो इतनी छोटी थी कि पैंट्री ही ज्यादा लगती थी. कमरे में 1 बैड, 2 कुरसियां, 1 मेज,

1 छोटी सी अलमारी और दीवार पर टंगा आईना. बस, कुल जमा यही था उस घर का जुगराफिया.

वह कुछ बात शुरू करे या मेरी उत्सुकताओं का जवाब दे, मैं ने उस से पूछा, ‘‘यह घर तो डाक्टर के क्लीनिक के एकदम पीछे ही था, फिर गलियोंगलियों इतना घुमाफिरा कर तुम क्यों लाईं?’’

वह जवाब न दे कर सिर्फ मुसकराई, फिर बोली, ‘‘सर, आप खुद सब सम झ जाएंगे. फिलहाल मैं चाय बना कर लाती हूं. आप वहां बैठेबैठे बोर हो चुके होंगे और आगे भी जब मैं अपनी कहानी सुनाऊंगी तो और भी बोर होंगे.’’

बोर होने से कहीं ज्यादा मैं उत्सुकता के तूफान में घिरा हुआ था. पता नहीं वह कौन सी मजबूरी है जो वह इतने खुफिया तरीके से रह रही है.

चाय  बना कर लाने में उसे ज्यादा देर नहीं लगी. चाय की चुस्कियों के साथ हम आमनेसामने बैठ गए. मैं ने एक सवालिया निशान वाली नजर उस पर उछाली, जिसे उस ने भांप लिया.

नसीम ने अपनी दास्तान सुनानी शुरू की, ‘‘2 साल मेरे ठीकठाक बीते. अकरम भी उसी अखबार में था, डेस्क पर नहीं, रिपोर्टर था. मु झे सिटी न्यूज संभालना था. हम जल्दी ही एकदूसरे के करीब आ गए. वह सजीला बांका जवान था. कोई भी उस से प्यार कर बैठता. एक दिन वह मेरे पास औफर ले कर आया कि मुंबई के सब से बड़े अखबार ने उसे बुलाया है और उस का एडिटर उस की पहचान का है. अगर हम दोनों ही मुंबई चलें तो हमारी जिंदगी ही बदल जाएगी. अपना कैरियर तो मैं भी बनाना चाहती थी, इसलिए उस की बात मु झे जंच रही थी, पर मेरा कहना था कि पहले हम निकाह कर लें, फिर मुंबई जाएं.’’

‘‘हां, तुम्हारा सोचना वाजिब था. पर वह उस पर क्या बोला?’’ मु झे भी अब उस की कहानी में रस आने लगा था.

‘‘पर वह हर बार यही कहता कि पहले हम नया जौब जौइन कर लें और मुंबई में सैटल हो लें, फिर वहीं निकाह कर लेंगे. मैं पूरी तरह उस के प्यार की गिरफ्त में आ चुकी थी, उस की बात मान कर हम लोग मुंबई चले आए. उसे तो औफर था ही, मु झे भी उसी अखबार में नौकरी मिल गई. जिंदगी ने रफ्तार पकड़ ली. वरली में हम ने एक फ्लैट भी ले लिया.’’

‘‘कैसे? इतनी जल्दी इतना पैसा कैसे आया?’’

‘‘यह सवाल मेरे मन में भी उठा था. उस ने कहा कि फ्लैट किराए पर लिया है. जब पैसा हो जाएगा, खरीद लेंगे. मैं उसे शिद्दत से प्यार करती थी, इसलिए सवालजवाब की गुंजाइश ही न थी. जो वह कहता, मैं उस पर यकीन कर लेती थी. वहां वह क्राइम बीट पर था. देर रात तक उस की ड्यूटी रहती. देर से लौटता और सुबह देर तक सोता रहता. तब तक मैं तो औफिस जा चुकी होती, पता नहीं, वह न जाने कितने बजे उठता. इस तरह जिंदगी चल रही थी. मैं बारबार निकाह जल्दी करने पर जोर देती पर वह हर बार टाल देता. हम लोग करीब होते जा रहे थे. एक रात नाजुक लमहों में मैं पूरी तरह समर्पित हो गई. तमाम प्रीकौशंस धरी की धरी रह गईं.’’

‘‘तुम ने किसी पल उसे रोका नहीं.’’

‘‘नहीं. मैं उस के प्यार में इस कदर डूब गई थी कि मैं खुद अपने ऊपर काबू नहीं रख सकी. पर अगली सुबह मैं ने जिद पकड़ ली कि कल ही हम निकाह कर लेंगे. उस ने कहा कि मैं आज ही मौलवी से बात करता हूं, हम अगली जुमेरात को निकाह कर लेंगे पर वह अगली जुमेरात कभी नहीं आई.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’ मैं ने पूछा.

‘‘वह कोई न कोई बहाना बना कर टाल जाता कि मौलवी नहीं मिला, एक बड़ी स्टोरी कर रहा हूं, सो वक्त नहीं मिल पा रहा है. वक्त मिलते ही जरूर सब इंतजाम कर डालूंगा…वगैरहवगैरह.

‘‘एक रोज मेरा औफ था. अकरम उस रात बहुत देर से लौटा था और ड्राइंगरूम में ही सोफे पर सो गया था, इसलिए उसे पता न था कि आज मैं घर पर हूं. करीब 11 बजे कौलबैल बजी. उस वक्त मैं किचन में थी और आटा गूंध रही थी. दरवाजा उसी ने खोला. जो आया था, उसे उस ने ड्राइंगरूम में बैठा लिया और देर तक वे आपस में बातें करते रहे. जब मैं खाली हुई तो देखने आई कि कौन आया है. यह भी कि उस के लिए चायनाश्ते का इंतजाम करूं. मैं ने परदे की आड़ से ही देखा, आने वाला कोई शेख था और उस के सामने मेज पर नोटों की गड्डियां रखी थीं. मैं एकाएक सकते में आ गई, पर जब वह चला गया तो मैं सामने आई.

‘‘अकरम मु झे घर में पा कर कुछ चौंका, फिर पूछा कि मैं आज इस वक्त घर पर कैसे हूं. मैं ने बताया कि आज मेरा वीकली औफ है और मैं ने दरियाफ्त करनी चाही कि कौन आया था. उस ने बताया कि शेख शारजाह का एक बड़ा बिजनैसमैन है. मैं उस के कारोबार पर फीचर कर रहा हूं, उसी के सिलसिले में आया था. वहां एक अखबार निकालना चाहता है, जिस का एडिटर मु झे

बनाएगा और तुम भी वहीं असिस्टेंट एडिटर बनोगी.

‘‘ ‘अच्छा,’ कह कर मेरी आंखें खुशी से चमक उठीं. पर मैं ने पूछा कि इतने सारे रुपए किसलिए? क्या वह फीचर करने का नजराना दे रहा है?

‘‘‘नहीं, शारजाह जाने के टिकट, वीजा वगैरह के खर्च के मद में हैं ये रुपए.’

‘‘अब किसी तरह के शक की गुंजाइश न थी.

‘‘मैं खुद भी बहुत खुश थी कि नई जगह जाने से और ज्यादा आजादी से काम करने का मौका मिलेगा. आननफानन अकरम ने सब तैयारी कर ली और एक दिन कोरियर वाला दरवाजे पर खड़ा था, टिकट और पासपोर्ट लिए. मैं खुशीखुशी दरवाजे पर पहुंची. पर यह क्या? डिलीवरी बौय ने सिर्फ मेरा टिकट और पासपोर्ट दिया. मैं सकते में आ गई, क्या सिर्फ अकेले मु झे जाना है? पूरा दिन मैं अकरम का मोबाइल मिलाती रही, पर वह हमेशा बंद मिला और रात को वह इतनी देर से आया कि मु झे अपने सवालों और जिज्ञासाओं के साथ ही सोना पड़ा. सुबह मु झे ड्यूटी पर जाना था और वह जैसे घोड़े बेच कर सो रहा था. आखिर, मु झ से रहा न गया तो उसे  झं झोड़ कर जगाना पड़ा. वह आंखें मलता हुआ उठा. जब मैं ने बताया कि सिर्फ मेरा टिकट आया है, तुम्हारा क्यों नहीं. क्या मैं अकेली जाऊंगी?

‘‘उस ने उनींदे स्वर में ही कहा कि अभी तुम जा कर सब ठीकठाक करोगी, मैं बाद में आऊंगा.’’

‘‘अरे, तुम ने कहा नहीं कि ठीकठाक करने तो पहले उसे जाना चाहिए, तुम्हें तो बाद में जाना चाहिए,’’ मैं बोला.

‘‘जी हां सर, मैं ने उस से यही सवाल किया था, जिस का जवाब दिया कि उसे अभी यहां कई काम निबटाने हैं और दफ्तर वाले उसे एकदम छोड़ने को तैयार नहीं हैं. उस ने आगे कहा कि मैं बेफिक्र हो कर जाऊं. वे लोग अच्छी तरह मेरा खयाल रखेंगे. और मैं निरुत्तर हो गई.’’

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. मैं चौंका लेकिन उस ने बेफिक्री से कहा, ‘‘बाई होगी, सर. वह इसी तरह दस्तक देती है.’’

हां, बाई ही थी. पहले दरवाजे की दरार से उस ने देखा, फिर बड़ी एहतियात से इधरउधर देखते हुए दरवाजा खोला.

एक कमसिन लड़की थी, जो तुरंत अंदर दाखिल हुई और चोर निगाह से मु झे देखते हुए अपने काम में लग गई.

नसीम ने उसे बताया कि मैं उस का टीचर रहा हूं और मु झ से कहा कि उस लड़की का नाम रेशमा है. वह दो वक्त आती है और भरोसे की है. वह घर का ही नहीं, उस का भी बहुत खयाल रखती है.

‘‘सर, आप मेरी दास्तान सुनतेसुनते ऊब गए होंगे,’’ फिर रेशमा से मुखातिब हो कर बोली, ‘‘रेशमा, पहले चाय बना लो. तुम भी पी लेना.’’

लड़की स्मार्ट थी. आननफानन चाय बना लाई और एक तिपाई खिसका कर बड़ी नफासत से हम दोनों के बीच रख दी.

‘‘क्या फिर तुम शारजाह गईं?’’ चाय का?घूंट भरते हुए मैं ने नसीम से पूछा.

‘‘कहां, सर?’’ उस ने बातों का सिलसिला पकड़ते हुए शुरू किया, ‘‘अगले दिन मु झे पता लगा कि मैं प्रैग्नैंट हूं. डाक्टर से तसदीक करा लेने के बाद जब मैं ने उसे यह खबर दी तो सुनते ही उस ने माथा पीट लिया और  झुं झला कर बोला, ‘अरे, तुम ने तो सारा प्लान ही चौपट कर दिया.’

‘‘मैं सकते में आ गई, बोली, ‘कौन सा प्लान? तुम को तो खुश होना चाहिए कि तुम बाप बनने वाले हो.’ वह बोला, ‘पर हम अभी बच्चा अफोर्ड नहीं कर सकते. फिर तुम्हें तो अगले जुमे को शारजाह जाना है. वहां काफी काम होगा. ऐसी हालत में तुम सब कैसे कर सकोगी?’

‘‘ ‘क्यों नहीं कर पाऊंगी? फिर अभी तो शुरुआत है और हफ्ते दो हफ्ते में तो तुम भी आ ही जाओगे,’ नसीम ने कहा.

‘‘ ‘हां, पर तुम्हें कैसे बताऊं कि तुम्हारे लिए वहां कितना काम है,’ वह बोला.

‘‘मैं उस का मतलब नहीं सम झ पाई. उस ने जोर दे कर कहा कि ऐसे में अब यही रास्ता बचा है कि मैं अबौर्शन करा लूं. उस की इस बात से तो मैं थोड़ा घबरा गई. मेरे मना करने पर तो वह मु झे मारने को भी तैयार हो गया. मु झे उसी समय लगने लगा कि मैं ने उसे ले कर जो सपने बुने थे, वे सब जमींदोज होने को हैं.

‘‘मेरी एक न चली और मु झे अबौर्शन कराना ही पड़ा. उसी में कुछ कौंप्लिकेशंस हो गए, जिन की वजह से मु झे इलाज कराना पड़ रहा है. उसी सिलसिले में मु झे डाक्टर के पास जाना पड़ रहा है, जहां आप से मुलाकात हुई.’’

‘‘अब कैसी हो?’’ मैं ने दरियाफ्त करना जरूरी सम झा.

‘‘अब काफी कुछ ठीक हूं.’’

काम करने वाली लड़की आई और चाय के कप उठाती हुई नसीम से पूछा, ‘‘अब, मैं जाऊं?’’

नसीम ने इशारे से इजाजत दे दी. इस बार मैं ने रेशमा को नजदीक से देखा. सचमुच वह आम मेड जैसी नहीं लगती थी. काफी सलीकेदार थी और भरसक सूफियाना सजधज के साथ काम पर आई थी. उस ने एक भरपूर नजर मु झ पर डाली और बड़ी एहतियात से इधरउधर देखते हुए दरवाजा खोला और तेजी से निकल गई.

रेशमा के जाने के बाद नसीम ने अपनी बात फिर शुरू की. उस ने बताया कि अबौर्शन के बाद उसे बैडरैस्ट की सलाह दी गई है, इसलिए उसे मजबूरन काम से छुट्टी लेनी पड़ी.

उस ने आगे बताया, ‘‘एक दिन दोपहर को मु झे कुछ सुनाई पड़ा कि कोई आया हुआ है और अकरम उस से बात कर रहा है. थोड़ी देर बाद आने वाले की आवाज तेज हो गई कि जैसे वह अकरम को डांट रहा हो. उन की बातों के चंद लफ्ज मेरे कानों में पड़े, जिन से मु झे पता लगा कि उन की बातों के केंद्र में मैं हूं.

‘‘कोशिश कर के मैं दरवाजे तक खिसक आई और उन की बातें सुनने लगी. मैं जैसे आसमान से गिरी. जो सुना, उस पर एकाएक यकीन न हुआ. मैं ने अकरम को पूरी ईमानदारी से प्यार किया था और उस पर मैं अपने से भी ज्यादा भरोसा करने लगी थी. सोच भी नहीं सकती थी कि वह मेरे साथ ऐसा छल कर सकता है. वह मु झे उस शेख को बेच चुका था. नोटों का भारी बंडल और शारजाह मु झे अकेले भेजने की तैयारी…सब मेरी आंखों में घूम गया. मेरी आंखों के आगे अंधेरा घिर आया और मैं अपना सिर पकड़ कर बैठ गई. हाय, अब मैं क्या करूं, कैसे इन के चंगुल से बचूं, मैं कुछ सोच न पा रही थी. कमजोरी भी इतनी थी कि एकदम भाग भी नहीं सकती थी. और भाग कर जाऊंगी कहां? लखनऊ लौट नहीं सकती थी. वह वहां से मु झे फिर पकड़ लाएगा.’’

‘‘फिर कहां जाओगी? मुंबई में रहीं तो कब तक बच पाओगी,’’ मैं ने भी अपनी फिक्र जाहिर की.

‘‘जी सर, मुंबई में अब नहीं रह पाऊंगी. मर्ुिशदाबाद में मेरी एक फूफी हैं, दूर के रिश्ते की. उन का उसे पता नहीं है. वहां वे मु झे काम भी दिलवा रही हैं.’’

‘‘हां. यह ठीक रहेगा, पर तुम वहां से निकली कैसे?’’ मैं ने जानना चाहा.

‘‘कुछ दिन मैं ने ऐसा बरताव किया कि जैसे मु झे कुछ इल्म ही न हो. अनजान ही बनी रही. इन डाक्टर साहब का पता मु झे मालूम था. ये दूर के रिश्ते में मेरे मामू लगते हैं. इन का इलाज तो चल ही रहा था. मैं टैक्सी ले कर अकेले ही आती थी. एक दिन आई तो लौटी ही नहीं. यह जगह मैं ने चुपचाप तय कर ली थी. तब से यहीं छिप कर रहती हूं. मु झे पता है कि वह मु झे तलाश रहा है.

‘‘एक दिन डाक्टर साहब के क्लीनिक के पास भी दिखाई दिया था. मैं बहुत डर गई थी, पर न जाने कैसे बच गई. एक दिन मैं ने दरवाजे की दरार से उसे यहां भी देखा था. आसपास में पूछताछ कर रहा था. मैं किसी से मिलती नहीं हूं, इसलिए मु झे कोई जानता नहीं है. तब से ऐसे ही डरीछिपी रहती हूं और पूरी एहतियात बरतती हूं. अब थोड़ी ताकत आ गई है, अब आगे की सोच सकती हूं. पर पहले मैं उसे सबक सिखाना चाहती हूं. उसे रंगेहाथ पकड़वाना चाहती हूं. मैं ने जितनी शिद्दत से उसे प्यार किया था, अब उतनी ही ज्यादा उस से नफरत करती हूं. मु झे पता लगा है कि वह क्राइम बीट पर काम करतेकरते लड़कियां सप्लाई करने का धंधा करने लगा है. उस ने बहुत अच्छे कौंटैक्ट बना लिए हैं. खूब कमाया है. मु झे शक तो शुरू से ही था, अब कनफर्म हो गया कि वरली वाला फ्लैट उसे किसी ने गिफ्ट किया है.’’

‘‘हो सकता है, वैसे वरली में तो किराए पर रहना भी हर कोई अफोर्ड नहीं कर सकता,’’ मैं ने कहा.

‘‘ठीक कहा आप ने, सर इसीलिए तो मु झे पहले दिन ही शक हुआ था, लेकिन मैं उस से इस कदर प्यार करती थी कि यकीन न करने का सवाल ही नहीं उठता था. सर, मैं ने एक प्लान बनाया है. बस, उस में मु झे आप की मदद की जरूरत पड़ेगी. आप से इमदाद की गुजारिश तो कर ही सकती हूं न?’’

‘‘क्यों नहीं?’’ मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारे बिना बताए ही मैं सम झ गया कि तुम्हारा प्लान क्या है.’’

वह मुसकराई और बोली, ‘‘आप ने मेरी मेड रेशमा को तो अभी देखा न? वह पूरे तौर पर मेरे साथ है.’’

‘‘मैं ने कयास लगा लिया है कि तुम क्या करने वाली हो. पर तुम कोई बड़ा जोखिम उठाना चाहती हो. यह सब उतना आसान नहीं है जितना तुम सम झ रही हो. मैं तुम्हें डिसकरेज नहीं करना चाहता पर तुम्हें आगाह जरूर करना चाहता हूं कि इस में न सिर्फ तुम्हारे बल्कि रेशमा के लिए भी बड़ा खतरा है. अकरम कोई अकेला नहीं है, ऐसे अकरम एक नहीं कई हैं. पूरा का पूरा माफिया है. तुम किसकिस से लड़ोगी?’’

‘‘तो मैं क्या करूं, सर? क्या चुप बैठ कर उसे मनचाहा करने दूं? नहीं सर, उसे सबक सिखाना तो जरूरी है.’’

‘‘मैं तो फिर भी यही सोचता हूं कि तुम्हें जल्द से जल्द मुर्शिदाबाद चले जाना चाहिए. तुम्हारे प्लान में बड़ा खतरा है. मान लो, तुम इस में कामयाब भी हो गईं तो तुम्हें हासिल क्या होगा? और अगर नाकामयाब रहीं तो तुम्हारा जीना तक मुश्किल हो सकता है.’’

‘‘मैं सम झ रही हूं, सर, और यह भी कि आप को अपनी इज्जत का खयाल है. नहीं, मैं आप पर आंच नहीं आने दे सकती. आप बेफिक्र रहें. लेकिन क्या डर कर बैठना ठीक होगा? किसी न किसी को तो पहल करनी होगी. पत्रकारिता के सिद्धांत पढ़ाते वक्त आप ने भी तो यही सिखाया है, सर.’’

मु झे एकबारगी कोई जवाब नहीं सू झा, फिर भी बोला, ‘‘तुम अकेली जान क्या कर लोगी? फिर हमें प्रैक्टिकल होना चाहिए. सब अच्छी तरह सोच लो, तभी कोई कदम उठाना.’’

‘‘जी, मैं इस पर कुछ और सोचती हूं.’’

मैं ने उठते हुए कहा, ‘‘मेरा मोबाइल नंबर लिख लो. जब भी मेरी जरूरत पड़े, मैं आ जाऊंगा और जो हो सकेगा, करूंगा,’’ दरवाजे तक पहुंचतेपहुंचते फिर कहा, ‘‘बहुत एहतियात रखना.’’

‘‘जी, सर,’’ वह दरवाजे तक आई.

कई दिन तक उस का कोई फोन नहीं आया. मैं ने सम झ लिया कि शायद उस ने अपना खयाल बदल लिया होगा और मुर्शिदाबाद चली गई होगी. एक दिन उस घर तक भी गया, जहां वह मु झे ले गई थी, पर दरवाजे पर ताला लगा था. दरार से  झांका तो अंदर कुछ नजर नहीं आया.

Famous Hindi Stories : एक कौल का रहस्य

Famous Hindi Stories : “वान्या, अब तुम ही संभालना घर और मेरे इस अनाड़ी से भाई को. अगर फ्लाइट्स बंद नहीं हो रही होतीं तो मैं कुछ दिन तुम लोगों के साथ बिताकर जाती. चलो ठीक भी है हमारा जल्दी जाना. बच्चे दादा-दादी को खूब तंग कर रहे होंगे कोलकाता में. बहुत चाह रहे थे बच्चे अपनी दुल्हन मामी से मिलना. जल्दबाज़ी में सब कुछ नहीं करना पड़ता तो सबको लेकर आती.” सुरभि अपनी नई-नवेली भाभी वान्या को टैक्सी में पीछे की सीट पर बैठे हुए बता रही थी. वान्या मुस्कुराते हुए सिर हिलाकर कभी सुरभि को देखती तो कभी पास ही बैठे अपने पति आर्यन को.

सुरभि का बोलना जारी था, “शादी चाहे जल्दबाज़ी में हुई, लेकिन सही फ़ैसला है. अब मुझे आर्यन की फ़िक्र तो नहीं रहेगी. कोविड-19 ने तो ऐसा आतंक मचाया है कि डर लगने लगा है. तुम लोग भी ध्यान रखना अपना. हो सके तो अभी घर पर ही रहना, घूमने के लिए तो उम्र पड़ी है…..!”

“बस, बस….रहने दो. टीचर है भाभी तुम्हारी और हमारे साले साहब आर्यन भी बेवकूफ़ थोड़े ही हैं कि जब इंडिया में भी कोरोना अपने पैर फैला रहा है तब बिना सोचे-समझे चल देगें कहीं घूमने. क्यों साले साहब?” ड्राईवर के साथ आगे की सीट पर बैठे सुरभि के पति विशाल ने सिर पीछे घुमाकर आर्यन पर मुस्कुराती दृष्टि डालते हुए कहा.

वान्या और आर्यन का विवाह दो दिन पहले ही हुआ था. जुलाई में डेट थी शादी की, लेकिन कोरोना के कारण आर्यन ने ही फ़ैसला किया था कि सादे समारोह में केवल पारिवारिक सदस्यों के बीच विवाह जल्दी से जल्दी हो जाये. वान्या का घर दिल्ली में था, इसलिए विवाह का आयोजन वहीं हुआ था. आर्यन हिमाचल-प्रदेश के बड़ोग शहर का रहने वाला था. परिवार के नाम पर आर्यन की एक बड़ी बहन सुरभि थी, जो कोलकाता में अपने परिवार के साथ रहती थी. पति के साथ विवाह में सम्मिलित होने सुरभि वहां से सीधा दिल्ली पहुंच गयी थी. आज वे दोनों वापिस जा रहे थे, वान्या को लेकर आर्यन भी अपने घर आ रहा था. दीदी, जीजू  को एअरपोर्ट छोड़ने के बाद उनको रेलवे स्टेशन जाना था. दिल्ली से कालका तक वे ट्रेन से जाने वाले थे, जो रात 11 बजे चलकर सुबह 4 बजे कालका पहुंचती है. वहां से टैक्सी द्वारा उन्हें आगे का सफ़र तय करना था.

“लो बातों बातों में पता ही नहीं लगा और एअरपोर्ट आ भी गया.” सुरभि के कहते ही टैक्सी रुक गयी. आर्यन सामान उतारने लगा और विशाल दौड़कर ट्रौली ले आया. सुरभि और विशाल हाथ हिलाकर एअरपोर्ट के गेट की ओर चल दिए.

आर्यन और वान्या को लेकर टैक्सी रेलवे स्टेशन की ओर रवाना हो गयी.

ट्रेन अपने निर्धारित समय पर चली. रात सोते हुए कब बीत गयी पता ही नहीं लगा. सुबह वे ट्रेन से उतरकर बाहर आये तो वान्या को ठंडी हवा के झोंके स्वागत करते से प्रतीत हुए. “मार्च में भी इतना ठंडा मौसम?” वान्या पूछ बैठी.
“यह कोई ठंड है? अभी तो पहाड़ पर चढ़ना है मैडम. ठंड से आपकी मुलाक़ात तो होनी बाकी है अभी.” आर्यन ने कहा तो वान्या ख्यालों में ही ठिठुरने लगी. उसका चेहरा देख आर्यन ठहाका लगाकर हंसते हुए बोला, “अरे, डर गयीं? बड़ोग में इस समय सिर्फ़ रातें ठंडी होंगी, दिन में तो मौसम सुहाना ही होगा. तुम कभी हिली एरियाज़ में नहीं गयीं इसलिए पता नहीं होगा.”

टैक्सी आई तो दोनों की बातचीत का सिलसिला टूट गया. चलती टैक्सी में वान्या उनींदी आंखों से बाहर झांक रही थी. भोर के नीरव अंधेरे में जलते बल्बों की मद्धम रोशनी से पेड़ भी ऊंघते हुए लग रहे थे. कुछ देर बाद सूर्य उदय हुआ तो खिलती धूप से उर्जा पाकर वातावरण में नवजीवन संचरित हो उठा.
परवाणु आने तक वान्या प्रकृति की सुन्दरता को मन में क़ैद करती रही, आगे का रास्ता तन में झुरझुरी बढ़ाने लगा था. एक ओर खाई तो दूसरी ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर घने दरख्त !

धरमपुर आकर ड्राईवर ने चाय पीने के लिए टैक्सी रोकी. हवा की ताज़गी वान्या भीतर तक महसूस कर रही थी. सड़क किनारे बने ढाबे में जाकर आर्यन चाय ले आया. वान्या की निगाहें चारों ओर के मनोरम दृश्य को अपनी आंखों में समेट लेना चाहती थी. मौसम की खनक और आर्यन का साथ….वान्या के दिल में बरसों से छुपकर बैठे अरमान अंगडाई लेने लगे.

धरमपुर से बड़ोग अधिक दूर नहीं था. पाइनवुड होटल आया तो टैक्सी चौड़ी सड़क से निकलकर संकरे रास्ते पर चलती हुई एक घर के सामने रुक गयी. बंगलेनुमा मकान देख वान्या ठगी सी रह गयी. सफ़ेद मार्बल से जड़ा उजला, धवल महल सा तनकर खड़ा मकान जैसे याद दिला रहा था कि वान्या अब हिमाचल प्रदेश में है. हिम का उज्जवल रंग आर्यन की तरह ही अब उसके जीवन का अभिन्न अंग बन जायेगा.

सामान निकालकर आर्यन टैक्सी वाले का बिल चुका दो सूटकेसों पर बैग्स रख पहियों के सहारे खींचता हुआ ला रहा था. वान्या भी अपना पर्स थामे कदम बढ़ाने लगी. पहाड़ में बनी चार-पांच सीढ़ियां चढ़ने पर वे गेट के सामने थे, जिसे किले का फ़ाटक कहना उचित होगा. गेट के भीतर दोनों ओर मखमली घास कालीन सी बिछी थी. बंगले की ऊंची दीवारों के साथ-साथ लगे लम्बे पाइन के पेड़ सुंदरता में चार चांद लगा रहे थे.
आर्यन ने चाबी निकालकर लकड़ी का नक्काशीदार भारी-भरकम दरवाज़ा खोला और दोनों कमरे के भीतर दाखिल हो गए. कमरा क्या एक विशाल हौल था. लकड़ी के फ़र्श पर मोटा रंग-बिरंगी आकृतियों के काम वाला तिब्बती कालीन बिछा था. बैठने के लिए सोफ़े के तीन सेट रखे थे. उनकी लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई राजसी शोभा लिए थी. सोफ़ों से कुछ दूरी पर एक दीवान बिछा हुआ था. उसे देखकर वान्या को म्यूज़ियम में रखे शाही तख़्त की याद आ गयी. तख़्त के एक ओर हाथीदांत की नक्काशी वाली लकड़ी की तिपाही पर नीली लम्बी सुराही रखी थी. नीचे ज़मीन पर पीतल के गमले में सेब का बोनसाई किया पौधा लगा था, जिसमें लाल-लाल नन्हे सेब ऐसे लग रहे थे जैसे क्रिसमस ट्री पर बौल्स सजाई गयी हों.

“सामान अन्दर के कमरे में रख देते हैं….फिर मैं चाय बना लेती हूं, किचन कहां है?” वान्या समझ नहीं पा रही थी कि ऐसे बंगले में रसोई किस ओर होगी? उसे तो लग रहा था जैसे वह किसी महल में खड़ी है.
“आउटहाउस से नरेन्द्र आता ही होगा. वह लगा देगा सामान….उसकी वाइफ़ प्रेमा किचन संभालती है, तुम फ्रैश हो जाओ बस.” कहते हुए आर्यन ने खिडकियां खोल मोटे पर्दे हटा दिए. जाली से छनकर कमरे में आ रही धूप हल्के ठंडे मौसम में सुकून दे रही थी.

“यहां घर अधिकतर ऐसे बने होते हैं कि ठंड का असर कम से कम हो. यह मकान मेरे परदादा ने बनवाया था, मोटी-मोटी दीवारें हैं और फ़र्श लकड़ी से बने हैं. छत ढलुआं है ताकि बरसात और बर्फ़ बिल्कुल न ठहरे.” आर्यन बता रहा था कि डोरबैल बज गयी. नरेन्द्र और प्रेमा आये थे. दोनों ने घर का काम शुरू कर दिया.

“अच्छा अब मैं नहा लेता हूं.” कहकर आर्यन चल दिया, वान्या भी उसके पीछे-पीछे हो ली. कमरे से बाहर निकल लम्बी गैलरी में नीले रंग के कारपेट पर चलते हुए पैरों की पदचाप खो गयी थी. गैलरी के दोनों ओर कमरे दिख रहे थे. घर के बाकी कमरे भी बड़े-बड़े होंगे इसकी वन्या ने कल्पना भी नहीं की थी. एक कमरे में दाखिल हो आर्यन ने दस फुट ऊंची महागनी की गोलाकार फ्रैंच स्टाइल में बनी अलमारी खोल कपड़े निकाले और बाथरूम में चला गया.

वान्या की आंखें कमरे का मुआयना करने लगीं. चौड़ी सिहांसननुमा कुर्सी को देख वान्या का दिल चाह रहा था कि उस पर बैठ आंखें मूंद रास्ते की सारी थकान भूल जाये, लेकिन पहले नहाना ज़रूरी है सोचते हुए वापिस ड्राइंग-रूम में जा अपना सूटकेस खोल कपड़े देखने लगी.

अचानक तिपाही पर रखा आर्यन का मोबाइल बज उठा. ‘वंशिका कौलिंग’ देखा तो याद आया यह सुरभि दीदी की बेटी का नाम है. वान्या ने फ़ोन उठा लिया. उसके हैलो कहते ही किसी बच्चे की आवाज़ सुनाई दी, “पापा कहां है?”

दीदी के बच्चे तो बड़े हैं. यह तो किसी छोटे बच्चे की आवाज़ है, सोचते हुए वान्या बोली, “किस से बात करनी है आपको? यह नंबर तो आपके पापा का नहीं है. दुबारा मिलाकर देखो, बच्चे!”
“आर्यन पापा का नाम देखकर मिलाया था मैंने….आप कौन हो?” बच्चा रुआंसा हो रहा था.

वान्या का मुंह खुला का खुला रह गया. इससे पहले कि वह कुछ और बोलती आर्यन बाथरूम से आ बाहर आ गया. “किसका फ़ोन है?” पूछते हुए उसने वान्या के हाथ से मोबाइल ले लिया और तोतली आवाज़ में बातें करने लगा.

निराश वान्या कपड़े हाथ में लेकर बाथरूम की ओर चल दी. ‘किसने किया होगा फ़ोन? आर्यन भी जुटा हुआ है उससे बातें करने में. क्या आर्यन की पहले शादी हो चुकी है? हां, लगता तो यही है. तलाक़ हो चुका है शायद. मुझे बताया भी नहीं….यह तो धोखा है!’ वान्या अपने आप में उलझती जा रही थी.

आधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस कमरे के आकार का बाथरूम जिसके वह सपने देखती थी, उसकी निराशा को कम नहीं कर रहा था. एअर फ्रैशनर की भीनी-भीनी ख़ुशबू, हल्की ठंड और गरम पानी से भरा बाथटब! जी चाह रहा था कि अभी आर्यन आ जाये और अठखेलियां करते हुए उसे कहे कि ‘फ़ोन उसके लिए नहीं था, किसी और आर्यन का नंबर मिलाना चाहता था वह बच्चा. मुझे पापा कब बनना है, यह तो तुम बताओगी….!’ वान्या फूट-फूट कर रोने लगी.

बाहर आई तो डायनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए आर्यन उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. ऊंची बैक वाली गद्देदार काले रंग की कुर्सियां वान्या को कोरी शान लग रहीं थी. वान्या के बैठते ही आर्यन उसके बालों से नाक सटाकर लम्बी सांस लेता हुआ बोला, “कौन सा शैम्पू लगाया है? कहीं यह ख़ुशबू तुम्हारे बालों की तो नहीं? महक रहा हूं अन्दर तक मैं!”

वान्या को आर्यन की शरारती मुस्कान फिर से मोहने लगी. सब कुछ भूल वह इस पल में खो जाना चाहती थी. “जल्दी से खा लो. अभी प्रेमा सफ़ाई कर रही है. उसे जल्दी से वापिस भेज देंगे….अपना बैड-रूम तो तुमने देखा ही नहीं अब तक. कब से इंतज़ार कर रहा है मेरा बिस्तर तुम्हारा ! ” आर्यन का नटखट अंदाज़ वान्या को मदहोश कर रहा था.

नाश्ता कर वान्या बैडरूम में पहुंच गयी. शानदार कमरे में कदम रखते ही रोमांस की ख़ुमारी बढ़ने लगी. “मुझे ज़रूर ग़लतफहमी हुई है, आर्यन के साथ कोई हादसा हुआ होता तो वह प्यार के लम्हों को जीने के लिए इतना बेताब न दिखता. उसका इज़हार तो उस आशिक़ जैसा लग रहा है, जिसे नयी-नयी मोहब्बत हुई हो.” सोचते हुए वान्या बैड पर लेट गयी. फ़ोम के गद्दे में धंसे-धंसे ही मखमली चादर पर अपना गाल रख सहलाने लगी. प्रेमा और नरेंद्र के जाते ही आर्यन भी कमरे में आ गया. खड़े-खड़े ही झुककर वान्या की आंखों को चूम मुस्कुराते हुए उसे अपने बाहुपाश में ले लिया.

“कैसा है यह मिरर? कुछ दिन पहले ही लगवाया है मैंने?” बैड के पास लगे विंटेज कलर फ़्रेम के सात फुटिया मिरर की ओर इशारा करते हुए आर्यन बोला.

दर्पण में स्वयं को आर्यन की बाहों में देख वान्या के चेहरे का रंग भी आईने के फ़्रेम सा सुर्ख़ हो गया.
प्रेमासिक्त युगल एकाकार हो एक-दूसरे की आगोश में खोए-खोए कब नींद की आगोश में चले गए, पता ही नहीं लगा.

सायंकाल प्रेमा ने घंटी बजाई तो उनकी नींद खुली. ग्रीन-टी बनवाकर अपने-अपने हाथों में मग थामे दोनों घर के पीछे की ओर बने गार्डन में रखी बेंत की कुर्सियों पर जाकर बैठ गए. वहां रंग-बिरंगे फूल खिले थे. कतार में लगे ऊंचे-ऊंचे पेड़ों की शाखाएं हवा चलने से एक-दूसरे के साथ बार-बार लिपट रहीं थीं. सभी पेड़ों पर भिन्न आकार के फल लटक रहे थे, रंग हरा ही था सबका. वान्या की उत्सुक निगाहों को देख आर्यन बताने लगा, “मेरे राइट हैंड साइड वाले चार पेड़ आलूबुखारे के और आगे वाले तीन खुबानी के हैं. अभी कच्चे हैं, इसलिए रंग हरा दिख रहा है. दीदी की बेटी को बहुत पसंद है कच्ची खुबानी. हमारी शादी में नहीं आ सकी, वरना खूब एंजौय करतीं.”

“अपने बच्चों को साथ क्यों नहीं लाईं दीदी? वे दोनों आ गए तो बच्चे भी आ सकते थे. दीदी की बेटी नाम वंशिका है न? सुबह इसी नाम से कौल आई तो मैंने अटैंड कर ली, पर वह तो किसी और का था. किस बच्चे के साथ बात कर रहे थे तुम?” वान्या का मस्तिष्क फिर सुबह वाली घटना में जाकर अटक गया.
“तुम्हें देखते ही शादी करने को मन मचलने लगा था मेरा. दीदी से कह दिया था कि कोई आ सकता है तो आ जाये, वरना मैं अकेले ही चला जाऊंगा बारात लेकर! सबको लाना पौसिबल नहीं हुआ होगा तो जीजू को लेकर आ गयीं देखने कि वह कौन सी परी है जिस पर मेरा भाई लट्टू हो गया!”
आर्यन का मज़ाक सुन वान्या मुस्कुराकर रह गयी.

“एक मिनट…..शायद प्रेमा ने आवाज़ दी है, वापिस जा रही होगी, मैं दरवाज़ा बंद कर अभी आया.” वान्या की पूरी बात का जवाब दिए बिना ही आर्यन दौड़ता हुआ अन्दर चला गया.

कुछ देर तक जब वह लौटकर नहीं आया तो वान्या उस बच्चे के विषय में सोचकर फिर संदेह से घिर गयी. व्याकुलता बढ़ने लगी तो बगीचे से ऊपर की ओर जाती हुई सफ़ेद रंग की घुमावदार लोहे की सीढ़ियों पर चढ़ गयी. ऊपर खुली छत थी, जहां से दूर तक का दृश्य साफ़ दिखाई दे रहा था. ऊंची-ऊंची फैली हुई पहाड़ियों पर पर पेड़ों के झुरमुट, सर्प से बलखाते रास्ते और छोटे-बड़े मकान. मकानों की छतों का रंग अधिकतर लाल या सलेटी था. सभी मकान एक-दूसरे से कुछ दूरी पर थे. ‘क्या ऐसी ही दूरी मेरे और आर्यन के बीच तो नहीं? साथ हैं, लेकिन एक फ़ासला भी है. क्या राज़ है उस फ़ोन का आखिर?’ वान्या सोच में डूबी थी. सहसा दबे पांव आकर आर्यन ने अपने हाथों से उसकी आंखें बंद कर दीं.

“तुम ही तो आर्यन….! कब आये छत पर?”

“हो सकता है यहां मेरे अलावा कोई और भी रहता हो और तुम्हें कानों कान ख़बर भी न हो.” आर्यन शरारत से बोला.
“और कौन होगा?” वान्या घबरा उठी.

“अरे कितनी डरपोक हो यार….यहां कौन हो सकता है?” वान्या की आंखों से हाथों को हटा उसकी कमर पर एक हाथ से घेरा बनाकर आर्यन ने अपने पास खींच लिया. “चलो, छत पर और आगे. तुम्हें यहां से ही कुछ सुन्दर नज़ारे दिखाता हूं.”

आर्यन से सटकर चलते हुए वान्या को बेहद सुकून मिल रहा था. उसकी छुअन और ख़ुशबू में डूब वान्या के मन में चल रही हलचल शांत हो गयी. दोनों साथ-साथ चलते हुए छत की मुंडेर तक जा पहुंचे. देवदार के बड़े-बड़े शहतीरों को जोड़कर बनाई गयी मुंडेर की कारीगरी देखते ही बनती थी. ‘काश! इन शहतीरों की तरह मैं और आर्यन भी हमेशा जुड़े रहें.’ वान्या सोच रही थी.

“देखो वह सामने सीढ़ीदार खेत, पहाड़ों पर जगह कम होने के कारण बनाये जाते हैं ऐसे खेत…..और दूर वहां रंगीन सा गलीचा दिख रहा है? फूलों की खेती होती है उधर.”

कुछ देर बाद हल्का कोहरा छाने लगा. आर्यन ने बताया कि ये सांवली घटायें हैं जो अक्सर शाम को आकाश के एक छोर से दूसरे तक कपड़े के थान सी तन जाती हैं. कभी बरसती हैं तो कभी सुबह सूरज के आते ही अपने को लपेट अगले दिन आने के लिए वापिस चली जाती हैं.”
सूरज ढलने के साथ अंधेरा होने लगा तो दोनों नीचे नीचे आ गए. घर सुन्दर बल्बों और शैंडलेयर्स से जगमग कर रहा था. वान्या का अंग-अंग भी आर्यन के प्रेम की रोशनी से झिलमिला रहा था. सुबह वाली बात मन के अंधेरे में कहीं गुम सी हो गयी थी.

प्रेमा के खाना बनाकर जाने के बाद आर्यन वान्या को डायनिंग रूम के पास बने एक कमरे में ले गया. कमरे की अलमारी में महंगी क्रौकरी, चांदी के चम्मच, नाइफ़ और फ़ोर्क आदि वान्या को बेहद आकर्षित कर रहे थे, लेकिन थकान से शरीर अधमरा हो रहा था. कमरे में बिछे गद्देदार सिल्वर ग्रे काउच पर वह गोलाकार मुलायम कुशन के सहारे कमर टिकाकर बैठ गयी. आर्यन ने कांच के दो गिलास लिए और पास रखे रेफ़्रीजरेटर से एप्पल जूस निकालकर गिलासों में उड़ेल दिया. वान्या ने गिलास थामा तो पैंदे पर बाहर की ओर क्रिस्टल से बने गुलाबी कमल के फूल की सुन्दरता में खो गयी.

“फूल तो ये हैं….कितने खूबसूरत !” कहते हुए आर्यन ने अपने ठंडे जूस में डूबे अधरों से वान्या के होठों को छू लिया. वान्या मदहोश हो खिलखिला उठी.

“जूस में भी नशा होता है क्या? मैं अपने बस में कैसे रहूं?” आर्यन वान्या के कान में फुसफुसाया.
“नशा तो तुम्हारी आंखों में है.” कांपते लबों से इतना ही कह पायी वान्या और आंखें मूंद लीं.

सहसा आर्यन का फ़ोन बज उठा. आर्यन सब भूल जूस का गिलास टेबल पर रख बच्चे से बातें करने लगा.
रात को अकेले बिस्तर पर लेटी हुई वान्या विचित्र मनोस्थिति से गुज़र रही थी. ‘कभी लगता है आर्यन जैसा प्यार करने वाला न जाने कैसे मिल गया? लेकिन अगले ही पल स्वयं को छला हुआ महसूस करती हूं. सिर से पांव तक प्रेम में डूबा आर्यन एक फ़ोन के आते ही सब कुछ बिसरा देता है? क्या है यह सब?’ आर्यन की पदचाप सुन वान्या आंखें मूंदकर सोने का अभिनय करते हुए चुपचाप लेटी रही. आर्यन ने लाइट औफ़ की और वान्या से लिपटकर सो गया.

अगले दिन भी वान्या अन्यमनस्क थी. स्वास्थ्य भी ठीक नही लग रहा था उसे अपना. सारा दिन बिस्तर पर लेटी रही. आर्यन बिज़नस का काम निपटाते हुए बीच-बीच में हाल पूछता रहा. वान्या के घर से फ़ोन आया. अपने मम्मी-पापा को उसने अपने विषय में कुछ नहीं बताया, लेकिन उनकी स्नेह भरी आवाज़ सुन वह और भी बेचैन हो उठी.

रात को आर्यन खाने की दो प्लेटें लगाकर उसके पास बैठ गया. टीवी औन किया तो पता लगा कि अगले दिन ‘जनता कर्फ़्यू’ की घोषणा हो गयी है.

“अब क्या होगा? लगता है पापा का कहा सच होने वाला है. वे आज ही फ़ोन पर कह रहे थे कि लौकडाउन कभी भी हो सकता है.” वान्या उसांस लेते हुए बोली.

आर्यन ने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए, “घबराओ मत तुम्हें कोई काम नहीं करना पड़ेगा. प्रेमा कहीं दूर थोड़े ही रहती है कि लौकडाउन में आएगी नहीं. तुम क्यों उदास हो रही हो? लौकडाउन हो भी गया तो हम दोनों साथ-साथ रहेंगे सारा दिन….मस्ती होगी हमारी तो!”

वान्या को अब कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. पानी पीकर सोने चली गयी. मन की उलझन बढ़ती ही जा रही थी. ‘पहले क्या मैं कम परेशान थी कि यह जनता कर्फ़्यू ! लौकडाउन हुआ तो अपने घर भी नहीं जा सकूंगी मैं. आर्यन से फ़ोन के बारे में कुछ पूछूंगी और उसने कह दिया कि हां, मेरी पहले भी शादी हो चुकी है. तुम्हें रहना है तो रहो, नहीं तो जाओ. जो जी में आये करो तो क्या करूंगी? यहां इतने बड़े घर में कैसी पराई सी हो गयी हूं. आर्यन का प्रेम सच है या ढोंग?’ अजीब से सवाल बिजली से कौंध रहे थे वान्या के मन-मस्तिष्क में.
अपने आप में डूबी वान्या सोच रही थी कि इस विषय में कहीं से कुछ पता लगे तो उसे चैन मिल जाये. ‘कल प्रेमा से सफ़ाई करवाने के बहाने पूरे घर की छान-बीन करूंगी, शायद कोई सुराग हाथ लग जाये.’ सोच उसे थोड़ा चैन मिला तो नींद आ गयी.

अगले दिन सुबह से ही प्रेमा को हिदायतें देते हुए वह सारे बंगले में घूम रही थी. आर्यन मोबाइल में लगा हुआ था. दोस्तों के बधाई संदेशों का जवाब देते हुए कुछ की मांग पर विवाह के फ़ोटो भी भेज रहा था. वान्या को प्रेमा के साथ घुलता-मिलता देख उसे एक सुखद अहसास हो रहा था.

इतना विशाल बंगला वान्या ने पहले कभी नहीं देखा था. जब दो दिन पहले उसने बंगले में इधर-उधर खड़े होकर खींची अपनी कुछ तस्वीरें सहेलियों को भेजी थीं तो वे आश्चर्यचकित रह गयीं थीं. उसे ‘किले की महारानी’ संबोधित करते हुए मैसेजेस कर वे रश्क कर रहीं थी. इतने बड़े बंगले का मालिक आर्यन आखिर उस जैसी मध्यमवर्गीया से सम्बन्ध जोड़ने को क्यों राज़ी हो गया? और तो और कोरोना के बहाने शादी की जल्दबाजी भी की उसने.

वान्या का मन बेहद अशांत था. प्रेमा के साथ-साथ घर में घूमते हुए लगभग दो घंटे हो चुके थे. रहस्यमयी निगाहों से वह घर को टटोल रही थी. बैडरूम के पास वाले एक कमरे में चम्बा की सुप्रसिद्ध कशीदाकारी ‘नीडल पेंटिंग’ से कढ़ी हुई हीर-रांझा की खूबसूरत वौल हैंगिंग में उसे आर्यन और अपनी सौतन दिख रही थी. पहली बार लौबी में घुसते ही दीवार पर टंगी मौडर्न आर्ट की जिस पेंटिंग के लाल, नारंगी रंग उसे उसे रोमांटिक लग रहे थे, वही अब शंका के फनों में बदल उसे डंक मार रहे थे. बैडरूम में सजी कामलिप्त युगल की प्रतिमा, जिसे देख परसों वह आर्यन से लिपट गयी थी आज आंखों में खटक रही थी. ‘क्या कोई अविवाहित ऐसा सामान सजाने की बात सोच सकता है? शादी तो यूं हुई कि चट मंगनी पट ब्याह, ऐसे में भी आर्यन को ऐसी स्टेचू खरीदकर सजाने के लिए समय मिल गया….हैरत है!’ घर की एक-एक वस्तु आज उसे काटने को दौड़ रही थी. ‘कैसा बेकार सा है यह मनहूस घर’ वह बुदबुदा उठी.

लगभग सारे घर की सफ़ाई हो चुकी थी. केवल एक ही कमरा बचा था, जो अन्य कमरों से थोड़ा अलग, ऊंचाई पर बना था. पहाड़ के उस भाग को मकान बनाते समय शायद जान-बूझकर समतल नहीं किया गया होगा. बाहर से ही छत से थोड़ा नीचे और बाकी मकान से ऊपर उस कमरे को देख वान्या बहुत प्रभावित हुई थी. प्रेमा का कहना था कि उस बंद कमरे में कोई आता-जाता नहीं इसलिए साफ़-सफ़ाई की कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन वान्या तो आज पूरा घर छान मारना चाहती थी. उसके ज़ोर देने पर प्रेमा झाड़ू, डस्टर और चाबी लेकर कमरे की ओर चल दी. लकड़ी की कलात्मक चौड़ी लेकिन कम ऊंचाई वाली सीढ़ी पर चढ़ते हुए वे कमरे तक पहुंच गए. प्रेमा ने दरवाज़े पर लटके पीतल के ताले को खोला और दोनों अन्दर आ गए.

कमरे में अखरोट की लकड़ी से बनी एक टेबल और लैदर की कुर्सी रखी थी. काले रंग की वह कुर्सी किसी भी दिशा में घूम सकती थी. पास ही ऊंचे पुराने ढंग के लकड़ी के पलंग पर बादामी रंग की याक के फ़र से बनी बहुत मुलायम चादर बिछी थी. कुछ फ़ासले पर रखी एक आराम कुर्सी और कपड़े से ढके प्यानो को देख वान्या को वह कमरा रहस्य से भरा हुआ लगने लगा. दीवार पर घने जंगल की ख़ूबसूरत पेंटिंग लगी थी. वान्या पेंटिंग को देख ही रही थी कि दीवार के रंग का एक दरवाज़ा दिखाई दिया. ‘कमरे के अन्दर एक और कमरा’ उसका दिमाग चकरा गया. तेज़ी से आगे बढ़कर उसने दरवाज़े को धक्का दे दिया. चरर्र की आवाज़ करता हुआ दरवाज़ा खुल गया.

छोटा सा वह कमरा खिलौनों से भरा हुआ था, उनमें अधिकतर सौफ़्ट टौयज़ थे. पास ही आबनूस का बना एक वार्डरोब था, वान्या ने अचंभित होकर वार्डरोब खोलने का प्रयास किया, लेकिन वह खुल नहीं रहा था. पीतल के हैंडल को कसकर पकड़ जब उसने अपना पूरा दम लगाया तो वार्डरोब झटके से खुल गया और तेज़ धक्का लगने के कारण अन्दर से कुछ तस्वीरें निकलकर गिर गयीं. वान्या ने झुककर एक फ़ोटो उठाया तो सन्न रह गयी. आर्यन एक विदेशी लड़की के साथ बर्फ़ पर स्कीइंग कर रहा था. गर्म लम्बी जैकेट, कैप, आंखों पर गौगल्स और हाथों में दस्ताने पहने दोनों बेहद खुश दिख रहे थे. बदहवास सी वह अन्य तस्वीरें उठा ही रही थी कि प्रेमा की आवाज़ सुनाई दी, “मेम साब, इस कमरे में क्या कर रहीं हैं आप?”

वान्या ने झटपट सारी तस्वीरें वार्डरोब में वापिस रख दीं. “यहां की सफ़ाई करनी होगी. मोबाइल के ज़माने में यहां कौन सी फ़ोटो रखी हैं? सामान को निकालकर इस रैक को साफ़ कर लेते हैं.” अपने को संयत कर वान्या ने वार्डरोब की ओर इशारा कर दिया.

“नहीं, ऐसा मत कीजिये. आप जल्दी-जल्दी मेरे साथ अब नीचे चलिए. साहब आ गए तो….!”

“साहब आ गए तो क्या हो जायेगा? घर साफ़ करना है या नहीं?” वान्या बेचैनी और गुस्से से कांपने लगी.

“साहब कितने खुश हैं आपके साथ. यहां आ गए तो….दुखी हो जायेंगे. मेम साब आप चलिए न नीचे….मैं

नहीं करूंगी आज यहां की सफ़ाई.” वान्या का हाथ पकड़ खींचते हुए प्रेमा कातर स्वर में बोली.

“नहीं जाऊंगी मैं यहां से…..बताओ मुझे कि यहां आकर क्यों दुखी हो जायेंगे साहब.”

“सुरभि मेम साब ने मुझे आपको बताने से मना किया था, लेकिन अब आप ही मेरी मालकिन हो. जैसा आप कहोगी मैं करुंगी. ऐसा करते हैं इस छोटे कमरे से निकलकर बाहर वाले बड़े कमरे में चलते हैं.”

बड़े कमरे में आकर वान्या पलंग पर बैठ गयी. प्रेमा ने दरवाज़े को चिटकनी लगाकर बंद कर दिया और वान्या के पास आकर धीमी आवाज़ में कहना शुरू किया, “मेम साब, यह कमरा आर्यन साहब के बड़े भाई का है. उन दोनों की उम्र में तीन साल का फ़र्क था, लेकिन प्यार वे पिता की तरह करते थे आर्यन साहब को. आपको पता होगा कि साहब के मां-पिताजी को गुजरे कई साल हो चुके हैं. बड़े भाई ने अपने पिता का धंधा अच्छी तरह संभाल लिया था. एक बार जब बड़े साहब काम के सिलसिले में देश से बाहर गए तो वहां अंग्रेज लड़की से प्यार कर बैठे. शादी भी कर ली थी दोनों ने. अंग्रेज मैडम डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहीं थी,

इसलिए साहब के साथ यहां नहीं आयीं थीं. साहब वहां आते-जाते रहते थे. एक साल बाद उनका बेटा भी हो गया. बड़े साहब बच्चे को यहां ले आये थे. यह बात आज से कोई ढाई-तीन साल पहले की है. उस टाइम आर्यन साहब पढ़ाई कर रहे थे और मुम्बई में रह रहे थे. जब पिछले साल अंग्रेज मैडम की पढ़ाई पूरी हुई तो बड़े साहब उनको हमेशा के लिए लाने विदेश गए थे. वहां….बहुत बुरा हुआ मेम साब.” प्रेमा अपने सूट के दुपट्टे से आंसू पोंछ रही थी. वान्या की प्रश्नभरी आंखें प्रेमा की ओर देख रही थी.
“मेम साब, बर्फ़ पर मौज-मस्ती करते हुए अचानक साहब तेज़ी से फिसल गए और वे लड़खड़ा कर गिरे तो अंग्रेज मैडम भी गिरीं, क्योंकि दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े थे. लुढ़कते-लुढ़कते दोनों नीचे तक आ गए और जब तक लोग अस्पताल ले जाते, बहुत देर हो चुकी थी. साथ-साथ हाथ पकड़े हुए चले गए दोनों इस दुनिया से. उनका बेटा कृष अब सुरभि दीदी के पास रहता है.”

वान्या दिल थामकर सब सुन रही थी. रुंधे गले से प्रेमा का बोलना जारी था. “मेम साब, इस दुर्घटना के बाद जब सुरभि दीदी यहां आईं थीं तो कृष आर्यन साहब को देखकर लिपट गया और पापा, पापा कहकर बुलाने लगा, क्योंकि बड़े साहब और छोटे साहब की शक्ल बहुत मिलती थी. ये देखो….!” प्रेमा ने प्यानों पर ढका कपड़ा उठा दिया. प्यानों की सतह पर एक पोस्टर के आकार वाली फ़ोटो चिपकी थी जिसमें आर्यन और बड़ा भाई एक-दूसरे के गले में हाथ डाले हंसते हुए दिख रहे थे. दोनों का चेहरा एक-दूसरे से इतना मिल रहा था कि किसी को भी जुड़वां होने का भ्रम हो जाये.

“मेम साब, अभी आप कह रही थीं न कि मोबाइल के टाइम में भी ऐसे फ़ोटो? ये बड़े साहब ने पोस्टर बनवाने के लिए रखे हुए थे. बहुत शौक था बड़े-बड़े फ़ोटो से उन्हें घर सजाने का.” प्रेमा आज जैसे एक-एक बात बता देना चाहती थी वान्या को.
“ओह! अच्छा एक बात बताओ, कृष ने आर्यन से अपनी मम्मी के बारे में कुछ नहीं पूछा ?” वान्या व्यथित होकर बोली.
“नहीं, अपनी मां के साथ तो वह तब तक ही रहा जब दो महीने का था. बताया था न मैंने कि बड़े साहब ले आये थे उसको यहां. कभी-कभी साहब के साथ जाता था तभी मिलता था उनसे. वैसे भी वे छह महीने की ट्रेनिंग पर थीं और कहती थीं कि अभी बच्चा मुझे मम्मी न कहे सबके सामने. कृष कोई दीदी-वीदी समझता होगा शायद उनको.”

वान्या सब सुनकर गहरी सोच में डूब गयी. कुछ देर तक शांत रहने के बाद प्रेमा फिर बोली, “मेम साब, जब आपका रिश्ता पक्का नहीं हुआ था और साहब आपसे मिलकर आये थे तो आपकी फ़ोटो साहब ने मुझे और मेरे पति को दिखाई थी. हमें उन्होंने आपके बारे में बताते हुए कहा था कि इनका चेहरा जितना भोला-भाला लग रहा है, बातों से भी उतनी मासूम हैं. वैसे स्कूल में टीचर हैं, समझदार हैं, मेरे पास रुपये-पैसे की तो कोई कमी नहीं है. मुझे ज़रुरत है तो उसकी जो मेरा साथ दे, मेरे अकेलेपन को दूर कर दे, जिसके सामने अपना दर्द बयां कर सकूं. मैंने इनको तुम्हारी मेम साब बनाने का फ़ैसला कर लिया है….!”

वान्या प्रेमा के शब्दों में अभी भी खोयी हुई थी. प्रेमा के “मेम साब अब नीचे चलते हैं” कहते ही वह गुमसुम सी सीढियां उतरने लगी.

प्रेमा के वापिस चले जाने के बाद वह आर्यन के साथ लंच कर आराम करने बैडरूम में आ गयी. वान्या को प्यार से अपनी ओर खींचते हुए आर्यन बोला, “रात में बहुत नींद आ रही थी, अब नहीं सोने दूंगा.”
“लेकिन एक शर्त है मेरी.” वान्या आर्यन के सीने पर सिर रखकर बोली.

“कहो न ! कोई भी शर्त मानूंगा तुम्हारी.” वान्या के चेहरे से अपना चेहरा सटा आर्यन बोला.”
“कोरोना के हालात ठीक होने के बाद हम दीदी के पास चलेंगे और अपने बेटे कृष को हमेशा के लिए अपने साथ ले आयेंगे.”

आर्यन की सांस जैसे वहीं थम गयी. “प्रेमा ने बताया न !” भर्राये गले से वह इतना ही बोल सका.
वान्या ने मुस्कुराकर ‘हां’ में सिर हिला दिया.

आर्यन वान्या को अपने सीने से लगाये ख़ामोश होकर भी बहुत कुछ कह रहा था. वान्या को प्रेम में डूबे युगल की मूर्ति आज बेहद ख़ूबसूरत लग रही थी. मन ही मन वह कह उठी, ‘बेकार नहीं, मनहूस नहीं….ये घर बहुत हसीन है!’

अचानक तिपाही पर रखा आर्यन का मोबाइल बज उठा. ‘वंशिका कौलिंग’ देखा तो याद आया यह सुरभि दीदी की बेटी का नाम है. वान्या ने फ़ोन उठा लिया. उसके हैलो कहते ही किसी बच्चे की आवाज़ सुनाई दी, “पापा कहां है?”

दीदी के बच्चे तो बड़े हैं. यह तो किसी छोटे बच्चे की आवाज़ है, सोचते हुए वान्या बोली, “किस से बात करनी है आपको? यह नंबर तो आपके पापा का नहीं है. दुबारा मिलाकर देखो, बच्चे!”
“आर्यन पापा का नाम देखकर मिलाया था मैंने….आप कौन हो?” बच्चा रुआंसा हो रहा था.
वान्या का मुंह खुला का खुला रह गया. इससे पहले कि वह कुछ और बोलती आर्यन बाथरूम से आ बाहर आ गया. “किसका फ़ोन है?” पूछते हुए उसने वान्या के हाथ से मोबाइल ले लिया और तोतली आवाज़ में बातें करने लगा.
निराश वान्या कपड़े हाथ में लेकर बाथरूम की ओर चल दी. ‘किसने किया होगा फ़ोन? आर्यन भी जुटा हुआ है उससे बातें करने में. क्या आर्यन की पहले शादी हो चुकी है? हां, लगता तो यही है. तलाक़ हो चुका है शायद. मुझे बताया भी नहीं….यह तो धोखा है!’ वान्या अपने आप में उलझती जा रही थी.
आधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस कमरे के आकार का बाथरूम जिसके वह सपने देखती थी, उसकी निराशा को कम नहीं कर रहा था. एअर फ्रैशनर की भीनी-भीनी ख़ुशबू, हल्की ठंड और गरम पानी से भरा बाथटब! जी चाह रहा था कि अभी आर्यन आ जाये और अठखेलियां करते हुए उसे कहे कि ‘फ़ोन उसके लिए नहीं था, किसी और आर्यन का नंबर मिलाना चाहता था वह बच्चा. मुझे पापा कब बनना है, यह तो तुम बताओगी….!’ वान्या फूट-फूट कर रोने लगी.

बाहर आई तो डायनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए आर्यन उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. ऊंची बैक वाली गद्देदार काले रंग की कुर्सियां वान्या को कोरी शान लग रहीं थी. वान्या के बैठते ही आर्यन उसके बालों से नाक सटाकर लम्बी सांस लेता हुआ बोला, “कौन सा शैम्पू लगाया है? कहीं यह ख़ुशबू तुम्हारे बालों की तो नहीं? महक रहा हूं अन्दर तक मैं!”

वान्या को आर्यन की शरारती मुस्कान फिर से मोहने लगी. सब कुछ भूल वह इस पल में खो जाना चाहती थी. “जल्दी से खा लो. अभी प्रेमा सफ़ाई कर रही है. उसे जल्दी से वापिस भेज देंगे….अपना बैड-रूम तो तुमने देखा ही नहीं अब तक. कब से इंतज़ार कर रहा है मेरा बिस्तर तुम्हारा ! ” आर्यन का नटखट अंदाज़ वान्या को मदहोश कर रहा था.

नाश्ता कर वान्या बैडरूम में पहुंच गयी. शानदार कमरे में कदम रखते ही रोमांस की ख़ुमारी बढ़ने लगी. “मुझे ज़रूर ग़लतफहमी हुई है, आर्यन के साथ कोई हादसा हुआ होता तो वह प्यार के लम्हों को जीने के लिए इतना बेताब न दिखता. उसका इज़हार तो उस आशिक़ जैसा लग रहा है, जिसे नयी-नयी मोहब्बत हुई हो.” सोचते हुए वान्या बैड पर लेट गयी. फ़ोम के गद्दे में धंसे-धंसे ही मखमली चादर पर अपना गाल रख सहलाने लगी. प्रेमा और नरेंद्र के जाते ही आर्यन भी कमरे में आ गया. खड़े-खड़े ही झुककर वान्या की आंखों को चूम मुस्कुराते हुए उसे अपने बाहुपाश में ले लिया.
“कैसा है यह मिरर? कुछ दिन पहले ही लगवाया है मैंने?” बैड के पास लगे विंटेज कलर फ़्रेम के सात फुटिया मिरर की ओर इशारा करते हुए आर्यन बोला.
दर्पण में स्वयं को आर्यन की बाहों में देख वान्या के चेहरे का रंग भी आईने के फ़्रेम सा सुर्ख़ हो गया.
प्रेमासिक्त युगल एकाकार हो एक-दूसरे की आगोश में खोए-खोए कब नींद की आगोश में चले गए, पता ही नहीं लगा.

सायंकाल प्रेमा ने घंटी बजाई तो उनकी नींद खुली. ग्रीन-टी बनवाकर अपने-अपने हाथों में मग थामे दोनों घर के पीछे की ओर बने गार्डन में रखी बेंत की कुर्सियों पर जाकर बैठ गए. वहां रंग-बिरंगे फूल खिले थे. कतार में लगे ऊंचे-ऊंचे पेड़ों की शाखाएं हवा चलने से एक-दूसरे के साथ बार-बार लिपट रहीं थीं. सभी पेड़ों पर भिन्न आकार के फल लटक रहे थे, रंग हरा ही था सबका. वान्या की उत्सुक निगाहों को देख आर्यन बताने लगा, “मेरे राइट हैंड साइड वाले चार पेड़ आलूबुखारे के और आगे वाले तीन खुबानी के हैं. अभी कच्चे हैं, इसलिए रंग हरा दिख रहा है. दीदी की बेटी को बहुत पसंद है कच्ची खुबानी. हमारी शादी में नहीं आ सकी, वरना खूब एंजौय करतीं.”

“अपने बच्चों को साथ क्यों नहीं लाईं दीदी? वे दोनों आ गए तो बच्चे भी आ सकते थे. दीदी की बेटी नाम वंशिका है न? सुबह इसी नाम से कौल आई तो मैंने अटैंड कर ली, पर वह तो किसी और का था. किस बच्चे के साथ बात कर रहे थे तुम?” वान्या का मस्तिष्क फिर सुबह वाली घटना में जाकर अटक गया.
“तुम्हें देखते ही शादी करने को मन मचलने लगा था मेरा. दीदी से कह दिया था कि कोई आ सकता है तो आ जाये, वरना मैं अकेले ही चला जाऊंगा बारात लेकर! सबको लाना पौसिबल नहीं हुआ होगा तो जीजू को लेकर आ गयीं देखने कि वह कौन सी परी है जिस पर मेरा भाई लट्टू हो गया!”
आर्यन का मज़ाक सुन वान्या मुस्कुराकर रह गयी.

“एक मिनट…..शायद प्रेमा ने आवाज़ दी है, वापिस जा रही होगी, मैं दरवाज़ा बंद कर अभी आया.” वान्या की पूरी बात का जवाब दिए बिना ही आर्यन दौड़ता हुआ अन्दर चला गया.

कुछ देर तक जब वह लौटकर नहीं आया तो वान्या उस बच्चे के विषय में सोचकर फिर संदेह से घिर गयी. व्याकुलता बढ़ने लगी तो बगीचे से ऊपर की ओर जाती हुई सफ़ेद रंग की घुमावदार लोहे की सीढ़ियों पर चढ़ गयी. ऊपर खुली छत थी, जहां से दूर तक का दृश्य साफ़ दिखाई दे रहा था. ऊंची-ऊंची फैली हुई पहाड़ियों पर पर पेड़ों के झुरमुट, सर्प से बलखाते रास्ते और छोटे-बड़े मकान. मकानों की छतों का रंग अधिकतर लाल या सलेटी था. सभी मकान एक-दूसरे से कुछ दूरी पर थे. ‘क्या ऐसी ही दूरी मेरे और आर्यन के बीच तो नहीं? साथ हैं, लेकिन एक फ़ासला भी है. क्या राज़ है उस फ़ोन का आखिर?’ वान्या सोच में डूबी थी. सहसा दबे पांव आकर आर्यन ने अपने हाथों से उसकी आंखें बंद कर दीं.

“तुम ही तो आर्यन….! कब आये छत पर?”

“हो सकता है यहां मेरे अलावा कोई और भी रहता हो और तुम्हें कानों कान ख़बर भी न हो.” आर्यन शरारत से बोला.
“और कौन होगा?” वान्या घबरा उठी.

“अरे कितनी डरपोक हो यार….यहां कौन हो सकता है?” वान्या की आंखों से हाथों को हटा उसकी कमर पर एक हाथ से घेरा बनाकर आर्यन ने अपने पास खींच लिया. “चलो, छत पर और आगे. तुम्हें यहां से ही कुछ सुन्दर नज़ारे दिखाता हूं.”

आर्यन से सटकर चलते हुए वान्या को बेहद सुकून मिल रहा था. उसकी छुअन और ख़ुशबू में डूब वान्या के मन में चल रही हलचल शांत हो गयी. दोनों साथ-साथ चलते हुए छत की मुंडेर तक जा पहुंचे. देवदार के बड़े-बड़े शहतीरों को जोड़कर बनाई गयी मुंडेर की कारीगरी देखते ही बनती थी. ‘काश! इन शहतीरों की तरह मैं और आर्यन भी हमेशा जुड़े रहें.’ वान्या सोच रही थी.

“देखो वह सामने सीढ़ीदार खेत, पहाड़ों पर जगह कम होने के कारण बनाये जाते हैं ऐसे खेत…..और दूर वहां रंगीन सा गलीचा दिख रहा है? फूलों की खेती होती है उधर.”

कुछ देर बाद हल्का कोहरा छाने लगा. आर्यन ने बताया कि ये सांवली घटायें हैं जो अक्सर शाम को आकाश के एक छोर से दूसरे तक कपड़े के थान सी तन जाती हैं. कभी बरसती हैं तो कभी सुबह सूरज के आते ही अपने को लपेट अगले दिन आने के लिए वापिस चली जाती हैं.”

सूरज ढलने के साथ अंधेरा होने लगा तो दोनों नीचे नीचे आ गए. घर सुन्दर बल्बों और शैंडलेयर्स से जगमग कर रहा था. वान्या का अंग-अंग भी आर्यन के प्रेम की रोशनी से झिलमिला रहा था. सुबह वाली बात मन के अंधेरे में कहीं गुम सी हो गयी थी.

प्रेमा के खाना बनाकर जाने के बाद आर्यन वान्या को डायनिंग रूम के पास बने एक कमरे में ले गया. कमरे की अलमारी में महंगी क्रौकरी, चांदी के चम्मच, नाइफ़ और फ़ोर्क आदि वान्या को बेहद आकर्षित कर रहे थे, लेकिन थकान से शरीर अधमरा हो रहा था. कमरे में बिछे गद्देदार सिल्वर ग्रे काउच पर वह गोलाकार मुलायम कुशन के सहारे कमर टिकाकर बैठ गयी. आर्यन ने कांच के दो गिलास लिए और पास रखे रेफ़्रीजरेटर से एप्पल जूस निकालकर गिलासों में उड़ेल दिया. वान्या ने गिलास थामा तो पैंदे पर बाहर की ओर क्रिस्टल से बने गुलाबी कमल के फूल की सुन्दरता में खो गयी.

“फूल तो ये हैं….कितने खूबसूरत !” कहते हुए आर्यन ने अपने ठंडे जूस में डूबे अधरों से वान्या के होठों को छू लिया. वान्या मदहोश हो खिलखिला उठी.

“जूस में भी नशा होता है क्या? मैं अपने बस में कैसे रहूं?” आर्यन वान्या के कान में फुसफुसाया.
“नशा तो तुम्हारी आंखों में है.” कांपते लबों से इतना ही कह पायी वान्या और आंखें मूंद लीं.

सहसा आर्यन का फ़ोन बज उठा. आर्यन सब भूल जूस का गिलास टेबल पर रख बच्चे से बातें करने लगा.
रात को अकेले बिस्तर पर लेटी हुई वान्या विचित्र मनोस्थिति से गुज़र रही थी. ‘कभी लगता है आर्यन जैसा प्यार करने वाला न जाने कैसे मिल गया? लेकिन अगले ही पल स्वयं को छला हुआ महसूस करती हूं. सिर से पांव तक प्रेम में डूबा आर्यन एक फ़ोन के आते ही सब कुछ बिसरा देता है? क्या है यह सब?’ आर्यन की पदचाप सुन वान्या आंखें मूंदकर सोने का अभिनय करते हुए चुपचाप लेटी रही. आर्यन ने लाइट औफ़ की और वान्या से लिपटकर सो गया.

अगले दिन भी वान्या अन्यमनस्क थी. स्वास्थ्य भी ठीक नही लग रहा था उसे अपना. सारा दिन बिस्तर पर लेटी रही. आर्यन बिज़नस का काम निपटाते हुए बीच-बीच में हाल पूछता रहा. वान्या के घर से फ़ोन आया. अपने मम्मी-पापा को उसने अपने विषय में कुछ नहीं बताया, लेकिन उनकी स्नेह भरी आवाज़ सुन वह और भी बेचैन हो उठी.

रात को आर्यन खाने की दो प्लेटें लगाकर उसके पास बैठ गया. टीवी औन किया तो पता लगा कि अगले दिन ‘जनता कर्फ़्यू’ की घोषणा हो गयी है.

“अब क्या होगा? लगता है पापा का कहा सच होने वाला है. वे आज ही फ़ोन पर कह रहे थे कि लौकडाउन कभी भी हो सकता है.” वान्या उसांस लेते हुए बोली.

आर्यन ने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए, “घबराओ मत तुम्हें कोई काम नहीं करना पड़ेगा. प्रेमा कहीं दूर थोड़े ही रहती है कि लौकडाउन में आएगी नहीं. तुम क्यों उदास हो रही हो? लौकडाउन हो भी गया तो हम दोनों साथ-साथ रहेंगे सारा दिन….मस्ती होगी हमारी तो!”

वान्या को अब कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. पानी पीकर सोने चली गयी. मन की उलझन बढ़ती ही जा रही थी. ‘पहले क्या मैं कम परेशान थी कि यह जनता कर्फ़्यू ! लौकडाउन हुआ तो अपने घर भी नहीं जा सकूंगी मैं. आर्यन से फ़ोन के बारे में कुछ पूछूंगी और उसने कह दिया कि हां, मेरी पहले भी शादी हो चुकी है. तुम्हें रहना है तो रहो, नहीं तो जाओ. जो जी में आये करो तो क्या करूंगी? यहां इतने बड़े घर में कैसी पराई सी हो गयी हूं. आर्यन का प्रेम सच है या ढोंग?’ अजीब से सवाल बिजली से कौंध रहे थे वान्या के मन-मस्तिष्क में.

अपने आप में डूबी वान्या सोच रही थी कि इस विषय में कहीं से कुछ पता लगे तो उसे चैन मिल जाये. ‘कल प्रेमा से सफ़ाई करवाने के बहाने पूरे घर की छान-बीन करूंगी, शायद कोई सुराग हाथ लग जाये.’ सोच उसे थोड़ा चैन मिला तो नींद आ गयी.

अगले दिन सुबह से ही प्रेमा को हिदायतें देते हुए वह सारे बंगले में घूम रही थी. आर्यन मोबाइल में लगा हुआ था. दोस्तों के बधाई संदेशों का जवाब देते हुए कुछ की मांग पर विवाह के फ़ोटो भी भेज रहा था. वान्या को प्रेमा के साथ घुलता-मिलता देख उसे एक सुखद अहसास हो रहा था.
इतना विशाल बंगला वान्या ने पहले कभी नहीं देखा था. जब दो दिन पहले उसने बंगले में इधर-उधर खड़े होकर खींची अपनी कुछ तस्वीरें सहेलियों को भेजी थीं तो वे आश्चर्यचकित रह गयीं थीं. उसे ‘किले की महारानी’ संबोधित करते हुए मैसेजेस कर वे रश्क कर रहीं थी. इतने बड़े बंगले का मालिक आर्यन आखिर उस जैसी मध्यमवर्गीया से सम्बन्ध जोड़ने को क्यों राज़ी हो गया? और तो और कोरोना के बहाने शादी की जल्दबाजी भी की उसने.

वान्या का मन बेहद अशांत था. प्रेमा के साथ-साथ घर में घूमते हुए लगभग दो घंटे हो चुके थे. रहस्यमयी निगाहों से वह घर को टटोल रही थी. बैडरूम के पास वाले एक कमरे में चम्बा की सुप्रसिद्ध कशीदाकारी ‘नीडल पेंटिंग’ से कढ़ी हुई हीर-रांझा की खूबसूरत वौल हैंगिंग में उसे आर्यन और अपनी सौतन दिख रही थी. पहली बार लौबी में घुसते ही दीवार पर टंगी मौडर्न आर्ट की जिस पेंटिंग के लाल, नारंगी रंग उसे उसे रोमांटिक लग रहे थे, वही अब शंका के फनों में बदल उसे डंक मार रहे थे. बैडरूम में सजी कामलिप्त युगल की प्रतिमा, जिसे देख परसों वह आर्यन से लिपट गयी थी आज आंखों में खटक रही थी. ‘क्या कोई अविवाहित ऐसा सामान सजाने की बात सोच सकता है? शादी तो यूं हुई कि चट मंगनी पट ब्याह, ऐसे में भी आर्यन को ऐसी स्टेचू खरीदकर सजाने के लिए समय मिल गया….हैरत है!’ घर की एक-एक वस्तु आज उसे काटने को दौड़ रही थी. ‘कैसा बेकार सा है यह मनहूस घर’ वह बुदबुदा उठी.

लगभग सारे घर की सफ़ाई हो चुकी थी. केवल एक ही कमरा बचा था, जो अन्य कमरों से थोड़ा अलग, ऊंचाई पर बना था. पहाड़ के उस भाग को मकान बनाते समय शायद जान-बूझकर समतल नहीं किया गया होगा. बाहर से ही छत से थोड़ा नीचे और बाकी मकान से ऊपर उस कमरे को देख वान्या बहुत प्रभावित हुई थी. प्रेमा का कहना था कि उस बंद कमरे में कोई आता-जाता नहीं इसलिए साफ़-सफ़ाई की कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन वान्या तो आज पूरा घर छान मारना चाहती थी. उसके ज़ोर देने पर प्रेमा झाड़ू, डस्टर और चाबी लेकर कमरे की ओर चल दी. लकड़ी की कलात्मक चौड़ी लेकिन कम ऊंचाई वाली सीढ़ी पर चढ़ते हुए वे कमरे तक पहुंच गए. प्रेमा ने दरवाज़े पर लटके पीतल के ताले को खोला और दोनों अन्दर आ गए.

कमरे में अखरोट की लकड़ी से बनी एक टेबल और लैदर की कुर्सी रखी थी. काले रंग की वह कुर्सी किसी भी दिशा में घूम सकती थी. पास ही ऊंचे पुराने ढंग के लकड़ी के पलंग पर बादामी रंग की याक के फ़र से बनी बहुत मुलायम चादर बिछी थी. कुछ फ़ासले पर रखी एक आराम कुर्सी और कपड़े से ढके प्यानो को देख वान्या को वह कमरा रहस्य से भरा हुआ लगने लगा. दीवार पर घने जंगल की ख़ूबसूरत पेंटिंग लगी थी. वान्या पेंटिंग को देख ही रही थी कि दीवार के रंग का एक दरवाज़ा दिखाई दिया. ‘कमरे के अन्दर एक और कमरा’ उसका दिमाग चकरा गया. तेज़ी से आगे बढ़कर उसने दरवाज़े को धक्का दे दिया. चरर्र की आवाज़ करता हुआ दरवाज़ा खुल गया.

छोटा सा वह कमरा खिलौनों से भरा हुआ था, उनमें अधिकतर सौफ़्ट टौयज़ थे. पास ही आबनूस का बना एक वार्डरोब था, वान्या ने अचंभित होकर वार्डरोब खोलने का प्रयास किया, लेकिन वह खुल नहीं रहा था. पीतल के हैंडल को कसकर पकड़ जब उसने अपना पूरा दम लगाया तो वार्डरोब झटके से खुल गया और तेज़ धक्का लगने के कारण अन्दर से कुछ तस्वीरें निकलकर गिर गयीं. वान्या ने झुककर एक फ़ोटो उठाया तो सन्न रह गयी. आर्यन एक विदेशी लड़की के साथ बर्फ़ पर स्कीइंग कर रहा था. गर्म लम्बी जैकेट, कैप, आंखों पर गौगल्स और हाथों में दस्ताने पहने दोनों बेहद खुश दिख रहे थे. बदहवास सी वह अन्य तस्वीरें उठा ही रही थी कि प्रेमा की आवाज़ सुनाई दी, “मेम साब, इस कमरे में क्या कर रहीं हैं आप?”

वान्या ने झटपट सारी तस्वीरें वार्डरोब में वापिस रख दीं. “यहां की सफ़ाई करनी होगी. मोबाइल के ज़माने में यहां कौन सी फ़ोटो रखी हैं? सामान को निकालकर इस रैक को साफ़ कर लेते हैं.” अपने को संयत कर वान्या ने वार्डरोब की ओर इशारा कर दिया.

“नहीं, ऐसा मत कीजिये. आप जल्दी-जल्दी मेरे साथ अब नीचे चलिए. साहब आ गए तो….!”

“साहब आ गए तो क्या हो जायेगा? घर साफ़ करना है या नहीं?” वान्या बेचैनी और गुस्से से कांपने लगी.

“साहब कितने खुश हैं आपके साथ. यहां आ गए तो….दुखी हो जायेंगे. मेम साब आप चलिए न नीचे….मैं

नहीं करूंगी आज यहां की सफ़ाई.” वान्या का हाथ पकड़ खींचते हुए प्रेमा कातर स्वर में बोली.

“नहीं जाऊंगी मैं यहां से…..बताओ मुझे कि यहां आकर क्यों दुखी हो जायेंगे साहब.”

“सुरभि मेम साब ने मुझे आपको बताने से मना किया था, लेकिन अब आप ही मेरी मालकिन हो. जैसा आप कहोगी मैं करुंगी. ऐसा करते हैं इस छोटे कमरे से निकलकर बाहर वाले बड़े कमरे में चलते हैं.”

बड़े कमरे में आकर वान्या पलंग पर बैठ गयी. प्रेमा ने दरवाज़े को चिटकनी लगाकर बंद कर दिया और वान्या के पास आकर धीमी आवाज़ में कहना शुरू किया, “मेम साब, यह कमरा आर्यन साहब के बड़े भाई का है. उन दोनों की उम्र में तीन साल का फ़र्क था, लेकिन प्यार वे पिता की तरह करते थे आर्यन साहब को. आपको पता होगा कि साहब के मां-पिताजी को गुजरे कई साल हो चुके हैं. बड़े भाई ने अपने पिता का धंधा अच्छी तरह संभाल लिया था. एक बार जब बड़े साहब काम के सिलसिले में देश से बाहर गए तो वहां अंग्रेज लड़की से प्यार कर बैठे. शादी भी कर ली थी दोनों ने. अंग्रेज मैडम डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहीं थी,

इसलिए साहब के साथ यहां नहीं आयीं थीं. साहब वहां आते-जाते रहते थे. एक साल बाद उनका बेटा भी हो गया. बड़े साहब बच्चे को यहां ले आये थे. यह बात आज से कोई ढाई-तीन साल पहले की है. उस टाइम आर्यन साहब पढ़ाई कर रहे थे और मुम्बई में रह रहे थे. जब पिछले साल अंग्रेज मैडम की पढ़ाई पूरी हुई तो बड़े साहब उनको हमेशा के लिए लाने विदेश गए थे. वहां….बहुत बुरा हुआ मेम साब.” प्रेमा अपने सूट के दुपट्टे से आंसू पोंछ रही थी. वान्या की प्रश्नभरी आंखें प्रेमा की ओर देख रही थी.
“मेम साब, बर्फ़ पर मौज-मस्ती करते हुए अचानक साहब तेज़ी से फिसल गए और वे लड़खड़ा कर गिरे तो अंग्रेज मैडम भी गिरीं, क्योंकि दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े थे. लुढ़कते-लुढ़कते दोनों नीचे तक आ गए और जब तक लोग अस्पताल ले जाते, बहुत देर हो चुकी थी. साथ-साथ हाथ पकड़े हुए चले गए दोनों इस दुनिया से. उनका बेटा कृष अब सुरभि दीदी के पास रहता है.”

वान्या दिल थामकर सब सुन रही थी. रुंधे गले से प्रेमा का बोलना जारी था. “मेम साब, इस दुर्घटना के बाद जब सुरभि दीदी यहां आईं थीं तो कृष आर्यन साहब को देखकर लिपट गया और पापा, पापा कहकर बुलाने लगा, क्योंकि बड़े साहब और छोटे साहब की शक्ल बहुत मिलती थी. ये देखो….!” प्रेमा ने प्यानों पर ढका कपड़ा उठा दिया. प्यानों की सतह पर एक पोस्टर के आकार वाली फ़ोटो चिपकी थी जिसमें आर्यन और बड़ा भाई एक-दूसरे के गले में हाथ डाले हंसते हुए दिख रहे थे. दोनों का चेहरा एक-दूसरे से इतना मिल रहा था कि किसी को भी जुड़वां होने का भ्रम हो जाये.

“मेम साब, अभी आप कह रही थीं न कि मोबाइल के टाइम में भी ऐसे फ़ोटो? ये बड़े साहब ने पोस्टर बनवाने के लिए रखे हुए थे. बहुत शौक था बड़े-बड़े फ़ोटो से उन्हें घर सजाने का.” प्रेमा आज जैसे एक-एक बात बता देना चाहती थी वान्या को.

“ओह! अच्छा एक बात बताओ, कृष ने आर्यन से अपनी मम्मी के बारे में कुछ नहीं पूछा ?” वान्या व्यथित होकर बोली.

“नहीं, अपनी मां के साथ तो वह तब तक ही रहा जब दो महीने का था. बताया था न मैंने कि बड़े साहब ले आये थे उसको यहां. कभी-कभी साहब के साथ जाता था तभी मिलता था उनसे. वैसे भी वे छह महीने की ट्रेनिंग पर थीं और कहती थीं कि अभी बच्चा मुझे मम्मी न कहे सबके सामने. कृष कोई दीदी-वीदी समझता होगा शायद उनको.”

वान्या सब सुनकर गहरी सोच में डूब गयी. कुछ देर तक शांत रहने के बाद प्रेमा फिर बोली, “मेम साब, जब आपका रिश्ता पक्का नहीं हुआ था और साहब आपसे मिलकर आये थे तो आपकी फ़ोटो साहब ने मुझे और मेरे पति को दिखाई थी. हमें उन्होंने आपके बारे में बताते हुए कहा था कि इनका चेहरा जितना भोला-भाला लग रहा है, बातों से भी उतनी मासूम हैं. वैसे स्कूल में टीचर हैं, समझदार हैं, मेरे पास रुपये-पैसे की तो कोई कमी नहीं है. मुझे ज़रुरत है तो उसकी जो मेरा साथ दे, मेरे अकेलेपन को दूर कर दे, जिसके सामने अपना दर्द बयां कर सकूं. मैंने इनको तुम्हारी मेम साब बनाने का फ़ैसला कर लिया है….!”
वान्या प्रेमा के शब्दों में अभी भी खोयी हुई थी. प्रेमा के “मेम साब अब नीचे चलते हैं” कहते ही वह गुमसुम सी सीढियां उतरने लगी.

प्रेमा के वापिस चले जाने के बाद वह आर्यन के साथ लंच कर आराम करने बैडरूम में आ गयी. वान्या को प्यार से अपनी ओर खींचते हुए आर्यन बोला, “रात में बहुत नींद आ रही थी, अब नहीं सोने दूंगा.”
“लेकिन एक शर्त है मेरी.” वान्या आर्यन के सीने पर सिर रखकर बोली.

“कहो न ! कोई भी शर्त मानूंगा तुम्हारी.” वान्या के चेहरे से अपना चेहरा सटा आर्यन बोला.”
“कोरोना के हालात ठीक होने के बाद हम दीदी के पास चलेंगे और अपने बेटे कृष को हमेशा के लिए अपने साथ ले आयेंगे.”

आर्यन की सांस जैसे वहीं थम गयी. “प्रेमा ने बताया न !” भर्राये गले से वह इतना ही बोल सका.
वान्या ने मुस्कुराकर ‘हां’ में सिर हिला दिया.

आर्यन वान्या को अपने सीने से लगाये ख़ामोश होकर भी बहुत कुछ कह रहा था. वान्या को प्रेम में डूबे युगल की मूर्ति आज बेहद ख़ूबसूरत लग रही थी. मन ही मन वह कह उठी, ‘बेकार नहीं, मनहूस नहीं….ये घर बहुत हसीन है!’

Best Hindi Satire : जरूरत है एक कोपभवन की

Best Hindi Satire : आजकल के इंजीनियर और ठेकेदार यह बात अपने दिमाग से बिलकुल ही बिसरा बैठे हैं कि घर में एक कोपभवन का होना कितना जरूरी है. इसीलिए तो आजकल मकान के नक्शों में बैठक, भोजन करने का कमरा, सोने का कमरा, रसोईघर, सोने के कमरे से लगा गुसलखाना, सभी कुछ रहता है, अगर नहीं रहता है तो बस, कोपभवन.

सोचने की बात है कि राजा दशरथ के राज्य में वास्तुकला ने कितनी उन्नति की थी कि हर महल में कोप के लिए अलग से एक भवन सुरक्षित रहता था. शायद इसीलिए वह काल इतिहास में ‘रामराज्य’ कहलाया, क्योंकि उस काल में महिलाएं बजाय राजनीति के अखाड़े में कूदने के अपना सारा गुबार कोपभवनों में जा कर निकाल लेती थीं और इसीलिए समाज में इतनी शांति और अमनचैन छाया रहता था.

ठीक ही तो था. राजा दशरथ के काल की यह व्यवस्था कितनी अच्छी थी. पति अपनी पत्नियों को समान अधिकार देते थे. वे जानते थे कि कोप सरेआम, हाटबाजार में या कोई कोर्टकचहरी में करने की चीज नहीं है. इस के  लिए तो घर में ही अलग से कोपभवन का होना बहुत जरूरी है.

भला यह भी कोई बात हुई कि कुपिता हो कर बीवी बेचारी दिन भर मुंह फुलाए अपने 2 कमरों के छोटे से घर में काम करती रहे, पति को खाना खिलाए, बच्चों को स्कूल भेजे, शाम को फिर सभी को खिलापिला कर, बच्चों को सुला कर खुद भी अपना तकिया ले कर मुंह फेर कर लेट जाए.

पति के पास तो व्यस्तता का बहाना रहता है जिस के कारण वह जान ही नहीं पाता कि आज पत्नी अवमानिनी बनी हुई, कोप मुद्रा में दर्शन दे रही है या फिर वह इतना चतुर होता है कि जब तक हो सके, जानबूझ कर पत्नी के रूठने से अनजान बने रहने की ही कोशिश करता रहता है. तब क्या पत्नी खुद आ कर कहे कि सुनोजी, मैं रूठी हुई हूं, आप मुझे आ कर मना लीजिए.

पति अगर मनाने आ भी जाए तो आप क्या समझते हैं कि पत्नी ने कोई कच्ची गोलियां खेली हैं जो अपना रूठना छोड़ कर इतनी आसानी से मान जाएगी? रूठी पत्नी को मनाना इतना आसान काम नहीं है जितना आप समझ रहे हैं. न जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं उसे मनाने के लिए. यदि कोई कुंआरा व्यक्ति वह दृश्य देख ले तो शादी के नाम से ही तौबा कर ले. राजा दशरथ समझदार थे कि इस के लिए उन्होंने एक कोपभवन का निर्माण करा रखा था, ताकि जब भी उन की तीनों पत्नियों में से किसी को भी रूठना होता था वह कोपभवन में चली जाती थी और राजा दशरथ भी झट अपना राजपाट छोड़ कर रूठी पत्नी को मनाने दौड़ पड़ते थे.

यह स्वर्ण अवसर देखते ही पत्नी चटपट 2-4 वर मांग लेती थी, उस का कोप भंग हो जाता था और पतिपत्नी सारा मनमुटाव भूल कर हंसतेगाते कोपभवन से बाहर आ जाते थे और किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होती थी. उन दिनों लोग पत्नी को तो सम्मान देते ही थे, साथ ही उस के कोप का भी भरपूर सम्मान करते थे.

अब तो हाल यह है कि तूफान के पहले की शांति देखते ही मेरे अबोध बच्चे कोप के आगमन की आशंका से ही सहम जाते हैं. सहमी हुई बबली मचल रहे गुड्डू को एक कोने में ले जा कर इशारे से समझाती है, ‘‘गुड्डू…मेरे भैया, देख, चुपचाप दूध गटक जा, आज मां का मूड ठीक नहीं है.’’ कोप के लक्षण देखते ही पतिदेव भी थाली में जो कुछ परोस दिया उसी को जल्दीजल्दी पेट में डाल कर भीगी बिल्ली की तरह दफ्तर भाग खड़े होते हैं और अतिरिक्त काम का बहाना बना कर रात को भी मेरे कोप के डर से देर से ही घर लौटते हैं.

मैं सांस रोके प्रतीक्षा करती हूं कि शायद अब वह मुझे मनाएंगे. यह जानते हुए भी कि मैं जाग रही हूं, मुझे सोई हुई समझने में अपनी खैरियत समझ कर वह खुद भी चुपचाप सो जाते हैं.

यह देख कर तो मुझे ही खिसिया कर रह जाना पड़ता है कि कौन सी कुघड़ी में रूठने का विचार मन में आया था. अलग से एक कोपभवन न होने के कारण ही तो कई बार कोप का कार्यक्रम स्थगित रखना पड़ता है. कितना अच्छा होता अगर आज भी कोपभवनों का अस्तित्व होता. कल्पना कीजिए, पत्नी रूठ कर कोपभवन में जा बैठी है.

अब पतिदेव को सुबह बिस्तर से उठते ही चाय नहीं मिलेगी तो कड़कड़ाती ठंड में उनींदी आंखों से मुंहअंधेरे उठ कर दूध वाले से दूध लेने और स्टोव से मगजमारी करने में ही उन महाशय को नानी और दादी दोनों साथ ही याद आ जाएंगी. यही नहीं वह बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करने, उन का टिफन जमाने और स्वयं नहाधो, खापी कर दफ्तर के लिए तैयार होने की कल्पना से ही सिहर कर झटपट अपनी पत्नी को कोपभवन में जा कर मना लेने में ही अपना भला समझेंगे. कोपभवनों के अभाव में ही पत्नियों को एक अटैची हमेशा तैयार रखनी पड़ती है ताकि कुपित होते ही उस में कपड़े ठूंस कर पति को गाहेबगाहे मायके जाने की धमकी दी जा सके.

कितना अच्छा होता अगर आज भी कोपभवन होते तो पति की गाढ़ी मेहनत की कमाई रेलभाड़े में खर्च कर के पत्नी को मायके जाने की नौबत ही क्यों आती? पत्नी को अपने रूठने का इतना मलाल नहीं होता जितना मलाल पति द्वारा न मनाए जाने से होता है. पति का न मनाना कोप की आग में घी का काम करता है.

वह तो चाहती है कि पति कोपभवन में आ कर उस के चरणों में गिर कर गिड़गिड़ाए, ‘‘हे प्रियतमे, तुम अब मान भी जाओ, तुम्हारा चौकाचूल्हा संभालना मेरे बस की बात नहीं है. अब कान पकड़ कर कह रहा हूं जब तुम दिन कहोगी तो मैं भी दिन ही कहूंगा, तुम रात कहोगी तो मेरे लिए भी रात हो जाएगी.’’

इस के बाद पहली तारीख को तनख्वाह मिलते ही साड़ी लाने का वादा होता, शाम को फिल्म देखने जाने का कार्यक्रम बनता, पत्नी के अलावा किसी दूसरी सुंदरी की ओर आंख भी उठा कर न देखने की कसम खाई जाती और इस तरह पत्नी किसी फटेपुराने वस्त्र की तरह अपना कोप वहीं त्याग कर प्रसन्नवदना हो कर कोपभवन से बाहर आ जाती.

राम राज्य से ले कर इस 20वीं शताब्दी तक विज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है कि अब तो कोपभवन साउंड प्रूफ (जिस में बाहर की आवाज अंदर न आ सके और अंदर की आवाज बाहर न जा सके) भी बन सकते हैं. फिर चाहे पति कोपभवन में दरवाजा बंद कर के पत्नी के सामने कान पकड़े या दंडबैठक लगाए या पत्नी के कोमल चरणों में साष्टांग दंडवत कर के अपने आंसुओं से उस के चरण कमल क्यों न पखारे और बदले में पत्नी उस से नाकों चने ही क्यों न चबवा दे, वहां उन्हें देखने वाला कोई न होगा. पत्नी चाहे जितनी गरजेगी, बरसेगी मंथरा टाइप महरी या घर के नौकरचाकर कान लगा कर नहीं सुन सकेंगे और न उन के अबोध बच्चों की मानसिकता पर कोई बुरा प्रभाव पड़ेगा. तलाक की दर निश्चित रूप से कम हो जाएगी. आखिर पतिपत्नी का मामला है. कोपभवन में जा कर सुलझ जाएगा. उस में कोर्टकचहरी की दखलंदाजी क्यों हो?

Best Hindi Satire : खाट बाबा की खाट खड़ी

व्यंग्य- गोविंद शर्मा

Best Hindi Satire : रामधन भागा जा रहा था. मैं ने उसे रोक कर पूछा, ‘‘भई, यह किस दौड़ प्रतियोगिता में भाग ले रहे हो?’’ ‘‘तुम्हें नहीं पता, अपने गांव के पास खाट बाबा आ रहे हैं? उन के ही दर्शन करने जा रहा हूं,’’ वह बोला.

‘‘खाट बाबा?’’

‘‘हां…हां, खाट बाबा. वह हमेशा 2 खाटों के बीच में रहते हैं.’’

‘‘2 पाटों के बीच में रहते हैं, फिर भी साबुत हैं?’’

‘‘अरे भई, 2 पाटों के बीच में नहीं, 2 खाटों के बीच में. तुम खुद ही चल कर देख लो.’’

मैं भी उस के साथ हो लिया. गांव के बाहर खडे़ वटवृक्ष के पास भारी भीड़ जुड़ी हुई थी. सभी खाट बाबा की बातें कर रहे थे. एक कह रहा था, ‘‘अरे, तुम लोगों ने देखा होगा कि मेरे शरीर में जगहजगह कोढ़ हो गया था?’’

किसी ने भी उस के शरीर में कोढ़ देखने की हां नहीं भरी, पर वह निरुत्साहित नहीं हुआ. बोला, ‘‘सारी दुनिया ने देखा था कि मेरे शरीर में कोढ़ हो गया है. मैं ने खाट बाबा की चरणधूलि अपने शरीर पर लगाई, बाबा के 7 दिन तक लगातार दर्शन किए. वह कोढ़ छूमंतर हो गया.’’

एक और बोला, ‘‘बाबा के शरीर में बड़ी शक्ति है. उस शक्ति के कारण ही वह हमेशा 2 खाटों के बीच में रहते हैं. अगर बाबा खाट पर न बैठें तो अपनी शक्ति के कारण धरती में धंस जाएं. अगर छतरी की तरह उन के सिर पर खाट न हो तो आकाश में उड़ जाएं. मूंज की खाट में छेद होते हैं न, इसलिए धरती और आकाश से शक्ति का संतुलन बना रहता है. कहते हैं, पिछले जन्म में बाबा ने एक बार सिर पर खाट

नहीं रखने दी थी. वह सीधे आकाश

की ओर उड़ चले. सिर की

टक्कर आकाश

को लगी और आकाश में छेद हो गया. वह छेद यहां से दिखाई नहीं देता, पर उस का वैज्ञानिक सुबूत मिल गया है. एक बार पिछले साल और एक बार इस साल अमेरिका के 2 उपग्रह बेकाबू हो गए थे. इस का कारण उस छेद में से आने वाली गरम हवा है.

‘‘एक बार एक जन्म में बाबा खाट से नीचे उतर आए थे. धरती में ऐसे धंसे कि दूसरी तरफ निकल गए. वहां अमेरिका था. बाद में उसी रास्ते से भारत से अमेरिका जा कर अर्जुन द्वारा हथियार लाया गया था और महाभारत का युद्ध लड़ा गया था. आज भी लोग अमेरिका से हथियार लाते हैं. जनता को इन मुसीबतों से बचाने के लिए अब बाबा न तो खाट से नीचे पांव रखते हैं और न अपने सिर पर से खाट हटाने देते हैं.’’

मैं बाबा का गुणगान करने वाले उस भूतपूर्व कोढ़ी के पास गया. मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम्हें बाबा की चरणधूलि कहां से मिली? बाबा तो धूल में पांव रखते ही नहीं.’’

मेरे प्रश्न पर वह जोरों से हंसा और सब लोगों को मेरा प्रश्न सुनाया, ‘‘अरे भई, हो तो तुम दोपाए, मगर चौपायों से कम अक्ल वाले हो. दूसरे बाबाओं की तो 2 पांवों की धूल होती है. खाट बाबा की 4 पांवों की धूल जनकल्याण के लिए उपलब्ध है. वह खाट पर बैठते हैं. खाट चारपाई होती है. खाट के चारों पायों की धूल अमृत समान है.’’

मेरी अज्ञानता और उस की ज्ञानशीलता से सभी ग्रामीण प्रभावित हो गए. सब खाट बाबा का स्मरण करते हुए बेसब्री से उन का इंतजार करने लगे.

दूर से जयजयकार का शोर सुनाई दिया, ‘खाट बाबा आ गए.’ ‘खाट बाबा आ गए’ कहते हुए लोग उन की तरफ भागे. मैं भी भीड़ में शामिल था. मैं ने उस भूत-पूर्व  कोढ़ी को

ढूंढ़ा और पूछा, ‘‘खाट बाबा इस गांव में कहां ठहरेंगे?’’

‘‘वह खाट पर ही ठहरते हैं.’’

‘‘उन की खाट कहां ठहरेगी?’’

‘‘जहां धरती में भगवान होंगे. जिस  जगह धरती में भगवान होंगे, वहां की धरती शक्तिशाली होगी, पवित्र होगी. खाट बाबा का खाटविमान वहीं उतरेगा.’’

‘‘लेकिन यह कैसे पता चलेगा कि अमुक जगह धरती में भगवान हैं?’’

‘‘यह तुम्हें या मुझे पता नहीं चलेगा, खाट बाबा को पता चलेगा. धरती में छिपे भगवान से निकलने वाली सूक्ष्म तरंगों को बाबा का मस्तिष्क तुरंत पकड़ लेगा. बाबा ने इस तरह अब तक 13 स्थानों पर भगवान की तलाश की है. यह 14वां भाग्यशाली गांव है. यहां धरती में भगवान मिलेंगे. बाबा वहां एक मंदिर बनवाएंगे.’’

‘‘क्या बाबा के पास इतना पैसा है कि वह जगहजगह मंदिर बनवा दें?’’

‘‘बाबा तो अपने पास फूटी कौड़ी भी नहीं रखते. वह तो आशीर्वाद और चरणधूलि से लोगों का भला करते हैं. लोग ही चंदा जमा कर के मंदिर बनवाते हैं. इस गांव के पास जहां भगवान निकलेंगे वहां इस गांव के निवासी ही धनसंग्रह कर मंदिर बनवाएंगे.’’

तो यह चक्कर है, बाबा धनसंग्रह करने आए हैं. सूखे के कारण सरकार ने लोगों के कर्ज माफ कर दिए. बैंकों ने जो कर्ज दिया था वह भी उन्होंने बट्टेखाते में डाल दिया. दुकानदार भी भूल गए कि किसकिस से उधार वापस लेना है, पर धर्म नहीं भूला, धर्मात्मा नहीं भूले. वह अपना कर्ज वसूलने आ ही गए. गांव में सूखा पड़े चाहे बाढ़ आए, युद्ध हो या कोई और आपदा, धर्म का कर्ज तो चुकाना ही पडे़गा.

दूर से खाट बाबा की सवारी आती दिखाई दी. एक खाट पर बाबा बैठे थे. उसे 4 भक्तों ने कंधों पर उठा रखा था. एक अन्य खाट के पायों के साथ लाठियां बांध कर उसे छतरीनुमा बना रखा था. उसे भी भक्तों ने उठा रखा था.

लोग बाबा की जयजयकार करने लगे. बाबा के चरणों में नकदी चढ़ाने लगे. चूंकि बाबा उस को हाथ नहीं लगाते हैं, इसलिए उन के चेले यह नकदी उठाउठा कर पीछे की खाटों पर रखने लगे. उन खाटों को भी भक्तों ने उठा रखा था.

यह जलुस पहले गांव के भीतर गया और फिर गांव से बाहर हो गया. जिस तरह पुलिस के कुत्ते अपराधियों को सूंघते फिरते हैं वैसे ही खाट पर बैठेबैठे बाबा उस जगह को सूंघते फिर रहे थे जहां धरती में भगवान छिपा बैठा था.

गांव के बाहर अचानक बाबा ने ‘जय श्री भगवान’ कहा. काफिला वहीं रुक गया. पेड़ के नीचे बाबा की खाट रख दी गई. बाबा ने एक जगह की ओर इशारा किया कि यहां धरती में भगवान हैं. तीसरे दिन खुदाई होगी.

वहां सारा गांव उमड़ पड़ा. देखतेदेखते कनात और शामियाने लग गए. बाबा के भक्तों के लिए शानदार खाद्यपदार्थ आने लगे. भजनकीर्तन होने लगे.

तीसरे दिन तो आसपास के गांवों के लोग भी आ गए. पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी भी आ गए. जिलाधीश और पुलिस अधीक्षक ने बाबा के चरण स्पर्श किए. जिलाधीश को पुत्र की इच्छा थी और अधीक्षक को पुत्रों को सुधारने की. बाबा ने दोनों को आशीर्वाद दिया. खुदाई शुरू हो गई.

‘टन्न.’ किसी लोहे की वस्तु से कुदाल टकराई. बाबा के कान खडे़ हो गए. पत्थर की मूर्ति निकलनी थी, यह धातु की आवाज कैसी?

जमीन में से बड़ी देगची निकली. उसे देख कर एक ग्रामीण चिल्लाया, ‘‘अरे, यह तो हमारी है. इस में हम दलिया बनाया करते थे. यह तो 5 दिन पहले कोई चुरा ले गया था.’’

‘‘चुप कर,’’ एक भक्त ने उसे डपट दिया. बेचारा ग्रामीण चुप हो गया. कुछ देर बाद जमीन में से एक और बरतन निकला. फिर एक रेडियो निकला. रेडियो देख कर एक बच्चा चिल्ला पड़ा, ‘‘यह तो हमारा है. 5 दिन पहले चोरी चला गया था.’’

एकएक कर घरेलू सामान निकलता रहा. इस गांव में 5 दिन पहले कई घरों में चोरियां हुई थीं. सारा सामान वही था. बाबा परेशान हो गए. लोग अपनाअपना समान पहचानने लगे.

इतने में वहां शोर मच गया. एक थानेदार एक चोर को पकड़ कर वहां लाए. पुलिस अधीक्षक ने पूछा, ‘‘क्या माजरा है?’’

थानेदार ने बताया, ‘‘यह आदमी 5 दिन पहले इस गांव में कई घरों में चोरियां कर चुका है. इस का कहना है कि जब वह यह सामान ले कर गांव से बाहर जा रहा था तब कोई आदमी जमीन खोद कर कुछ दबा रहा था. उस के जाने के बाद इस ने वहां जमीन खोदी तो भगवान की पत्थर की एक मूर्ति निकली.’’

‘‘इस ने सोचा यह मूर्ति पुराने जमाने की होगी, तस्करों और विदेशियों के हाथ बड़ी महंगी बिकेगी. इस ने वह मूर्ति निकाल कर अपने थैले में डाल ली तथा चोरी का सामान उस गड्ढे में दबा दिया. मैं ने इसे पकड़ लिया था. आज चोरी का सामान बरामद करने आया हूं.’’

यह सुन कर खाट बाबा के होश उड़ गए. वह यही तो करते थे. गांव में बाहर किसी जगह पत्थर की मूर्ति जमीन में गड़वा देते थे फिर कहते थे कि यहां भगवान निकलेंगे.

अचानक गांव वालों का ध्यान बाबा की ओर गया. देखा, खाट बाबा और उन के भक्त खाट छोड़छोड़ कर भाग रहे हैं. न धरती फट रही है और न आसमान में तरेड़ आ रही है. खाट बाबा की खाट खड़ी हो रही है.

मैं ने उस चोर के चरण स्पर्श किए और कहा, ‘‘तुम चोर नहीं, लाट बाबा हो. तुम्हें देख कर खाट बाबा भाग गए.’’

पीछे बहुत सी खाटें रह गई थीं. अब उन्हें गांव वाले और प्रशासन वाले आपस में बांट रहे थे.

Comedy : रिंग टोन्स के गाने, बनाएं कितने अफसाने

Comedy : मैं जैसे ही घर में घुसा कि पप्पू की भुनभुनाहट सुनाई दी, ‘‘जमाना कहां से कहां पहुंच रहा है और एक पापा हैं कि वहीं के वहीं अटके हैं. कब से कह रहा हूं कि इस टंडीरे को हटा कर मोबाइल फोन ले लो, पर नहीं, चिपके रहेंगे अपने उन्हीं पुराने बेमतलब, बकवास सिद्धांतों से. मेरे सभी दोस्तों के पापा अपने पास एक से बढ़ कर एक मोबाइल रखते हैं और जाने क्याक्या बताते रहते हैं वे मुझे मोबाइल के बारे में. एक मैं ही हूं जिसे ढंग से मोबाइल आपरेट करना भी नहीं आता.’’

अंदर से अपने लाड़ले का पक्ष लेती हुई श्रीमतीजी की आवाज आई, ‘‘अब घर में कोई चीज हो तब तो बच्चे कुछ सीखेंगे. घर में चीज ही न होगी तो कहां से आएगा उसे आपरेट करना. वह तो शुक्र मना कि मैं थी तो ये 2-4 चीजें घर में दिख रही हैं, वरना ये तो हिमालय पर रहने लायक हैं… न किसी चीज का शौक न तमन्ना…मैं ही जानती हूं किस तरह मैं ने यह गृहस्थी जमाई है. चार चीजें जुटाई हैं.’’

श्रीमतीजी की आवाज घिसे टेप की तरह एक ही सुर में बजनी शुरू हो उस से पहले ही मैं ने सुनाने के लिए जोर से कहा, ‘‘घर में घुसते ही गरमगरम चाय के बजाय गरमागरम बकवास सुनने को मिलेगी यह जानता तो घर से बाहर ही रहता.’’

श्रीमतीजी दांत भींच कर बोलीं, ‘‘आते ही शुरू हो गया नाटक. जब घर में कोई चीज लेने की बात होती है तो ये घर से बाहर जाने की सोचना शुरू कर देते हैं.’’

मैं कुछ जवाब देता इस से पहले ही अपना पप्पू बोल पड़ा, ‘‘पापा, ये लैंड लाइन फोन आजकल किसी काम के नहीं रहे हैं. आजकल तो सभी कंपनियां बेहद सस्ते दामों पर मोबाइल उपलब्ध करवा रही हैं. आप अब एक मोबाइल फोन ले ही लो.’’

इस तरह मैं श्रीमतीजी और पप्पू के बनाए चक्रव्यूह में ऐसा फंसा कि मुझे मोबाइल फोन लेना ही पड़ा. अब जितनी देर मैं घर में रहता हूं, पप्पू मोबाइल से चिपका रहता है. पता नहीं कहांकहां की न्यूज निकालता, मुझे सुनाता. एसएमएस और गाने तो उस के चलते ही रहते.

यह सबकुछ कुछ दिनों तक तो मुझे भी बड़ा अच्छा लगा था, कहीं भी रहो, कभी भी, कैसे भी, किसी से भी कांटेक्ट  कर लो. पर कुछ ही दिनों में उलझन सी होने लगी. कहीं भी, कभी भी, किसी का भी फोन आ जाता. थोड़ी देर की भी शांति नहीं. सच तो यह है कि मोबाइल पर बजने वाली रिंग टोन मुझे परेशानी में डालने लगी थी.

एक दिन मेरे दफ्तर में एक जरूरी मीटिंग थी कि कंपनी की सेल को कैसे बढ़ाया जाए. सुझाव यह था कि कर्मचारियों के काम के घंटे बढ़ा दिए जाएं और उन्हें कुछ बोनस दे दिया जाए. अभी इस पर बातचीत चल ही रही थी कि मेरा मोबाइल बजा, ‘…बांहों में चले आओ हम से सनम क्या परदा…’

मीटिंग में बैठे लोग मूंछों में हंसी दबा रहे थे और मैं खिसिया रहा था. फोन घर से था. मैं ने फोन सुनने के बजाय स्विच आफ कर दिया. मुझे लगा कि मेरे ऐसा करने से वे समझ जाएंगे कि मैं किसी काम में व्यस्त हूं. पर नहीं, जैसे ही मैं ने सहज होने का असफल प्रयास करते हुए चर्चा शुरू करने की कोशिश की, रिंग टोन फिर से सुनाई पड़ी, ‘…बांहों में चले आओ…’

‘‘सर,’’ मीटिंग में मौजूद एक सज्जन बोले, ‘‘लगता है आज भाभीजी आप को बहुत मिस कर रही हैं. हमें कोई एतराज नहीं अगर इस मीटिंग को हम कल अरेंज कर लें.’’

मैं ने हाथ के इशारे से उन्हें रोकते हुए जल्दी से फोन उठाया और जरा गुस्से से भर कर बोला, ‘‘क्या आफत है, जल्दी बोलो. मैं इस समय एक जरूरी मीटिंग में हूं.’’

‘‘कुछ नहीं. मैं  कह रही थी कि आज शाम को मेरी कुछ सहेलियां आ रही हैं तो आप आते समय बिल्लू चाट भंडार से गरम समोसे लेते आना,’’ श्रीमतीजी गरजते स्वर में बोलीं.

अब मौजूद सदस्यों की व्यंग्यात्मक हंसी के बीच चर्चा आगे बढ़ाने की मेरी इच्छा ही नहीं हुई सो मीटिंग बरखास्त कर दी. घर आ कर मैं ने पप्पू को आड़े हाथों लिया कि मेरे मोबाइल पर फिल्मी गानों की रिंग टोन लेने की जरूरत नहीं है, सीधीसादी कोई रिंग टोन लगा दे, बस. बेटे ने सौरी बोला और चला गया.

अगले दिन मुझे एक गांव में परिवार नियोजन पर भाषण देने जाना था. अपने भाषण से पहले मैं कुछ गांव वालों के बीच बैठा उन्हें  यह समझा रहा था कि ज्यादा बच्चे हों तो व्यक्ति न उन की देखभाल अच्छी तरह से कर सकता है न उन्हें अच्छे स्कूल में पढ़ा सकता है. बच्चे ज्यादा हों तो घर में एक तरह से शोर ही मचता रहता है और अधिक बच्चों का असर घर की आर्थिक स्थिति पर भी पड़ता है.

अभी मैं और भी बहुत कुछ कहता कि मेरे मोबाइल की रिंग टोन बज उठी, ‘बच्चे मन के सच्चे, सारे जग की आंख के तारे….’ और इसी के साथ वहां मौजूद सभी गांव वाले खिलखिला कर हंस पड़े. कल ही पप्पू को रिंग टोन बदलने के लिए डांटा था तो वह मुझे इस तरह समझा रहा था कि बच्चों को डांटो मत. इच्छा तो मेरी हुई कि मोबाइल पटक दूं पर खुद पर काबू पाते हुए मैं ने कहा, ‘‘बच्चे 1 या 2 ही अच्छे होते हैं. ज्यादा नहीं,’’ और फोन सुनने लगा.

घर पहुंचने पर मैं ने बेटे को फिर लताड़ा तो वह बिना कुछ बोले ही वहां से हट गया. मेरे साथ दिक्कत यह थी कि मुझे अच्छी तरह से मोबाइल आपरेट करना नहीं आता था. मुझे सिर्फ फोन सुनने व बंद करने का ही ज्ञान था. इसलिए भी रिंग टोन के लिए मुझे बेटे पर ही निर्भर रहना पड़ता था. अब उसे डांटा है तो वह बदल ही देगा यह सोचता हुआ मैं वहां से चला  गया था.

हमारी कंपनी ने मुंबई के बाढ़  पीडि़तों को राहत सामग्री पहुंचाने का जिम्मा लिया था. सामग्री बांटने के दौरान मैं भी वहां मौजूद था जहां वर्षा से परेशान लोग भगवान को कोसते हुए चाह रहे थे कि बारिश बंद हो. तभी मेरे मोबाइल की रिंग टोन पर यह धुन बज उठी, ‘बरखा रानी जरा जम के बरसो…’

यह रिंग टोन सुन कर लोगों के चेहरों पर जो भाव उभरे उसे देख कर मैं फौरन ही अपने सहायक को बाकी का बचा काम सौंप कर वहां से हट गया.

अब की बार मैं ने पप्पू को तगड़ी धमकी दी और डांट की जबरदस्त घुट्टी पिलाई कि अब अगर उस ने सादा रिंग टोन नहीं लगाई तो मैं इस मोबाइल को तोड़ कर फेंक दूंगा.

कुछ दिनों तक सब ठीकठाक चलता रहा. मैं निश्ंिचत हो गया कि अब वह रिंग टोन से बेजा छेड़छाड़ नहीं करेगा.

एक सुबह उठा तो पता चला कि हमारे घर से 2 घर आगे रहने वाले श्यामबाबू का 2 घंटे पहले हृदयगति रुक जाने से देहांत हो गया है. आननफानन में मैं वहां पहुंचा. बेहद गमगीन माहौल था. लोग शोक में डूबे मृतक के परिवार के लोगों को सांत्वना दे रहे थे कि तभी मेरे मोबाइल की रिंग टोन बज उठी, ‘चढ़ती जवानी मेरी चाल मसतानी…’

मैं लोगों की उपहास उड़ाती नजरों से बचते हुए फौरन घर पहुंचा और पहले तो बेटे को बुरी तरह से डांट लगाई फिर वहीं खड़ेखड़े उस से रिंग टोन बदलवाई.

अब पप्पू ने मेरे मोबाइल से छेड़छाड़ तो बंद कर दी है पर घर में उस ने एक नई तान छेड़ दी है कि अब मुझे भी मोबाइल चाहिए. क्योेंकि मेरे सभी दोस्तों के पास मोबाइल है. सिर्फ एक मैं ही ऐसा हूं जिस के पास मोबाइल नहीं है. मेरे पास अपना मोबाइल होगा तो मैं जो गाना चाहूं अपने मोबाइल की रिंग टोन पर फिट कर सकता हूं.

श्रीमतीजी हर बार की तरह इस बार भी बेटे के पक्ष में हैं और मैं सोच रहा हूं कि मैं तो बिना मोबाइल के ही भला हूं. क्यों न विरासत मेें रिंग टोन के साथ यही मोबाइल बेटे को सौंप दूं.

Social Satire In Hindi : एक दिन का सुलतान

Social Satire In Hindi  : मुझे उन्होंने राष्ट्रपति पुरस्कार दे दिया. उन की मरजी, वे जानें कि क्यों दिया? कैसे दिया? मैं तो नहीं कहता कि मैं कोई बहुत बढि़या अध्यापक हूं. हां, यह तो कह सकता हूं कि मुझे पढ़ने और पढ़ाने का शौक है और बच्चे मुझे अच्छे लगते हैं. यदि पुरस्कार देने का यही आधार है, तो कुछ अनुचित नहीं किया उन्होंने, यह भी कह सकता हूं.

जिस दिन मुझे पुरस्कार के बाबत सूचना मिली तरहतरह के मुखौटे सामने आए. कुछ को असली खुशी हुई, कुछ को हुई ही नहीं और कुछ को जलन भी हुई. अब यह तो दुनिया है. सब रंग हैं यहां, हम किसे दोष दें? क्या हक है हम को किसी को दोष देने का? मनुष्य अपना दृष्टिकोण बनाने को स्वतंत्र है. जरमन दार्शनिक शापनहोवर ने भी तो यही कहा था, ‘‘गौड भाग्य विधाता नहीं है, वह तो मनुष्य को अपनी स्वतंत्र बुद्धि का प्रयोग करने की पूरी छूट देता है. उसे जंचे सेब खाए तो खाए, न खाए तो न खाए. अब बहकावट में आदमी ने यदि सेब खा लिया और मुसीबत सारी मानव जाति के लिए पैदा कर दी तो इस में ऊपर वाले का क्या दोष.’’

हां, तो पुरस्कार के दोचार दिन बाद ही मुझे गौर से देखने के बाद एक सज्जन बोले, ‘‘हम ने तो आप की चालढाल में कोई परिवर्तन ही नहीं पाया. आप के बोलनेचालने से, आप के हावभाव से ऐसा लगता ही नहीं कि आप को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है.’’

मैं सुन कर चुप रह गया. क्या कहता? खुशी तो मुझे हुई थी लेकिन मेरी चालढाल में परिवर्तन नहीं आया तो इस का मैं क्या करूं? जबरदस्ती नाटक करना मुझे आता नहीं. मेरी पत्नी को तो यही शिकायत रहती है कि यदि आप पहले जैसा प्यार नहीं कर सकते तो प्यार का नाटक ही कर दिया करो, हमारा गुजारा तो उस से ही हो जाएगा. हम हंस कर कह दिया करते हैं कि पुणे के फिल्म इंस्टिट्यूट जाएंगे ट्रेनिंग लेने और वह खीझ कर रह जाती है.

पुरस्कार मिलने के बारे में कई शंकाएंआशंकाएं व प्रतिक्रियाएं सामने आईं. उन्हीं दिनों मैं स्टेशन पर टिकट लेने लंबी लाइन में खड़ा था. मेरा एक छात्र, जो था तो 21वीं सदी का पर श्रद्धा रखता?था महाभारतकाल के शिष्य जैसी, पूछ बैठा :

‘‘सर, आप तो राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक हैं. क्या आप को भी इस प्रकार लाइन में खड़ा होना पड़ता है? आप को तो फ्री पास मिलना चाहिए था, संसद के सदस्यों की तरह.’’

उसे क्या पता, कहां हम और कहां संसद सदस्य. वे हम को तो खुश करने की खातिर राष्ट्रनिर्माता कहते?हैं पर वे तो भाग्यविधाता हैं. उन का हमारा क्या मुकाबला. छात्र गहरी श्रद्धा रखता?था सो उसे यह बात समझ में नहीं आई. उस ने तुरंत ही दूसरा सवाल कर डाला.

‘‘सर, आप को पुरस्कार में कितने हजार रुपए मिले? नौकरी में क्या तरक्की मिली? कितने स्कूटर, कितनी बीघा जमीन वगैरह?’’

यह सब सुन कर मैं चौंक गया और पूछा, ‘‘बेटे, यह तुम ने कैसे सोच लिया कि मास्टरजी को यह सब मिलना चाहिए?’’

उस ने कहा, ‘‘सर, क्रिकेट खिलाडि़यों को तो कितना पैसा, कितनी कारें, मानसम्मान, सबकुछ मिलता है, आप को क्यों नहीं? आप तो राष्ट्रनिर्माता हैं.’’

मुझे उस के इस प्रश्न का जवाब समझ में नहीं आया तो प्लेटफार्म पर आ रही गाड़ी की तरफ मैं लपका.

उन्हीं दिनों एक शादी में मेरा जाना हुआ. वहां मेरे एक कद्रदान रिश्तेदार ने समीप बैठे कुछ लोगों से कहा, ‘‘इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार मिला है. तपाक से एक सज्जन बोले, ‘‘मान गए उस्ताद आप को, बड़ी पहुंच है आप की, खूब तिकड़म लगाई. कुछ खर्चावर्चा भी हुआ?’’

मैं उन की बातें सुन कर सकते में आ गया. उन्होंने मेरी उपलब्धि अथवा अन्य कार्यों के संबंध में न पूछ कर सीधे ही टिप्पणी दे डाली. पुरस्कार के पीछे उन की इस अवधारणा ने मुझे झकझोर दिया. और पुरस्कार के प्रति एक वितृष्णा सी हो उठी. क्यों लोगों में इस के प्रति आस्था नहीं है? कई प्रश्न मेरे सामने एकएक कर आते गए जिन का उत्तर मैं खोजता आ रहा हूं.

एक दिन अचानक एक अध्यापक बंधु मिले. उन की ग्रेडफिक्सेशन आदि की कुछ समस्या थी. वे मुझ से बोले, ‘‘भाई साहब, आप तो राष्ट्रीय पुरस्कारप्राप्त शिक्षक हैं. आप की बात का तो वजन विभाग में होगा ही, कुछ मेरी भी सहायता कीजिए.’’

मैं ने उन को बताया कि मेरे खुद के मामले ही अनिर्णीत पड़े हैं, कौन जानता है मुझे विभाग में. कौन सुनता है मेरी. मैं ने उन्हें यह भी बताया कि एक बार जिला शिक्षा अधिकारी से मिलने गया था. मैं ने अपनी परची में अपने नाम के आगे ‘राष्ट्रीय पुरस्कारप्राप्त’ भी लिख दिया था. मुझे पदवी लिखने का शौक नहीं है पर किसी ने सुझा दिया था. मैं ने भी सोचा कि देखें कितना प्रभाव है इस लेबल का. सो, आधा घंटे तक तो बुलाया ही नहीं. बाद में डेढ़ बजे बाहर निकलते हुए मेरे पूछने पर कहा, ‘‘आप साढ़े 3 बजे मिलिएगा.’’ और फिर उस दिन वे लंच के बाद आए ही नहीं और हम अपने पुरस्कार को याद करते हुए लौट आए.

मुझे अफसोस है कि मुझे पुरस्कार तो दिया गया पर पूछा क्यों नहीं जाता है, पहचाना क्यों नहीं जाता है, सुना क्यों नहीं जाता है? क्यों यह मात्र एक औपचारिकता ही है कि 5 सितंबर को एक जलसे में कुछ कर दिया जाता है और बस कहानी खत्म.

एक बार मैं ऐसे ही पुरस्कार समारोह के अवसर पर बैठा था. मेरी बगल में बैठे शिक्षक मित्र ने पूछा, ‘‘आप तो पुरस्कृत शिक्षक हैं, आप को तो आगे बैठना चाहिए. आप का तो विशेष स्थान सुरक्षित होगा?  आप को तो हर वर्ष बुलाते होंगे?’’

मैं ने कहा, ‘‘भाई मेरे, मुझे ही शौक है लोगों से मिलने का सो चला आता हूं. निमंत्रण तो इन 10 वर्षों में केवल 2 बार ही पहुंच पाया है और वह भी इसलिए कि निमंत्रणपत्र भेजने वाले मेरे परिचित एवं मित्र थे.

समारोह में कुछ व्यवस्थापक सदस्य आए और कुछ लोगों को परचियां दे गए, और कहा, ‘‘आप लोग समारोह के बाद पुरस्कृत शिक्षकों के साथ अल्पाहार लेंगे.’’ मेरे पड़ोसी ने फिर पूछा, ‘‘आप तो पुरस्कृत शिक्षक?हैं, आप को क्यों नहीं दे रहे हैं यह परची?’’ मैं ने एक लंबी सांस ली और कहा, ‘‘अरे, भाई साहब, यह पुरस्कार तो एक औपचारिकता है, पहचान थोड़े ही है. एक महान पुरुष ने चालू कर दिया सो चालू हो गया. अब चलता रहेगा जब तक कोई दूसरा महापुरुष बंद नहीं कर देगा.’’

बगल वाले सज्जन ने पूछा, ‘‘तो क्या ऐसे महापुरुष भी हैं जो बंद कर देंगे.’’

‘‘अरे, साहब, क्या कमी है इस वीरभूमि में ऐसे बहादुरों की. देखिए न, पुरस्कार प्राप्त शिक्षकों को 3 वर्षों की सेवावृद्धि स्वीकृत थी पर बंद कर दी न किसी महापुरुष ने.’’

‘‘अच्छा, यह तो बताइए कि लोग क्या देते हैं आप को? क्या केवल 1 से 5 हजार रुपए ही?’’

‘‘जी हां, यह क्या कम है? सच पूछो तो वे क्या देते हैं हम को, देते तो हम हैं उन्हें.’’

‘‘ वह क्या?’’

‘‘अजी, हम धन्यवाद देते हैं कि वे भले ही एक दिन ही सही, हमारा अभिनंदन तो करते हैं और हम भिश्ती को एक दिन का सुलतान बनाए जाने की बात याद कर लेते हैं.’’

‘‘लेकिन उस को तो फुल पावर मिली थी और उस ने चला दिया था चमड़े का सिक्का.’’

‘‘इतनी पावर तो हमें मिलने का प्रश्न ही नहीं. पर हां, उस दिन तो डायरेक्टर, कमिश्नर, मिनिस्टर सभी हाथ मिलाते हैं हम से, हमारे साथ चाय पी लेते हैं, हम से बात कर लेते हैं, यह क्या कम है?’’ इसी बीच राज्यपाल महोदय आ गए और सब खड़े हो गए. बाद में सब बैठे भी, लेकिन कम्बख्त सवाल हैं कि तब से खड़े ही हैं.

Comedy Story In Hindi : कहो, कैसी रही चाची

Comedy Story In Hindi : लड़की लंबी हो, मिल्की ह्वाइट रंग हो, गृहकार्य में निपुण हो… ऐसी बातें तो घरों में तब खूब सुनी थीं जब बहू की तलाश शुरू होती थी. जाने कितने फोटो मंगाए जाते, देखे जाते थे.

फिर लड़की को देखने का सिलसिला शुरू होता था. लड़की में मांग के अनुसार थोड़ी भी कमी पाई जाती तो उसे छांट दिया जाता. यों, अब सुनने में ये सब पुरानी बातें हो गई हैं पर थोड़े हेरफेर के साथ घरघर की आज भी यही समस्या है.

अब तो लड़कियों में एक गुण की और डिमांड होने लगी है. मांग है कि कानवेंट की पढ़ी लड़की चाहिए. यह ऐसी डिमांड थी कि कई गुणसंपन्न लड़कियां धड़ामधड़ाम गिर गईं.

अच्छेअच्छे वरों की कतार से वे एकदम से बाहर कर दी गईं. उन में कुंभी भी थी जो मेरे पड़ोस की भूली चाची की बेटी थी.

‘‘कानवेंट एजुकेटेड का मतलब?’’ पड़ोस में नईनई आईं भूली चाची ने पूछा, जो दरभंगा के किसी गांव की थीं.

‘‘अंगरेजी जानने वाली,’’ मैं ने बताया.

‘‘भला, अंगरेजी में ऐसी क्या बात है भई, जो हमारी हिंदी में नहीं…’’ चाची ने आंख मटकाईं.

‘‘अंगरेजी स्कूलों में पढ़ने वाली लड़कियां तेजतर्रार होती हैं. हर जगह आगे, हर काम में आगे,’’ मैं ने उन्हें समझाया, ‘‘फटाफट अंगरेजी बोलते देख सब हकबका जाते हैं. अच्छेअच्छों की बोलती बंद हो जाती है.’’

‘‘अच्छा,’’ चाची मेरी बात मानने को तैयार नहीं थीं, इसलिए बोलीं, ‘‘यह तो मैं अब सुन रही हूं. हमारे जमाने की कई औरतें आज की लड़कियों को पछाड़ दें. मेरी कुंभी तो अंगरेजी स्कूल में नहीं पढ़ी पर आज जो तमाम लड़कियां इंगलिश मीडियम स्कूलों में पढ़ रही हैं, कुछ को छोड़ बाकी तो आवारागर्दी करती हैं.’’

‘‘छी…छी, ऐसी बात नहीं है, चाची.’’

‘‘कहो तो मैं दिखा दूं,’’ चाची बोलीं, ‘‘घर से ट्यूशन के नाम पर निकलती हैं और कौफी शौप में बौयफे्रंड के साथ चली जाती हैं, वहां से पार्क या सिनेमा हाल में… मैं ने तो खुद अपनी आंखों से देखा है.’’

‘‘हां, इसी से तो अब अदालत भी कहने लगी है कि वयस्क होने की उम्र 16 कर दी जाए,’’ मैं ने कुछ शरमा कर कहा.

‘‘यानी बात तो घूमफिर कर वही हुई. ‘बालविवाह की वापसी,’’’ चाची बोलीं, ‘‘अच्छा छोड़ो, तुम्हारी बेटी तो अंगरेजी स्कूल में पढ़ रही है, उसे सीना आता है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘खाना पकाना?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘चलो, गायनवादन तो आता ही होगा,’’ चाची जोर दे कर बोलीं.

‘‘नहीं, उसे बस अंगरेजी बोलना आता है,’’ यह बताते समय मैं पसीनेपसीने हो गई.

चाची पुराने जमाने की थीं पर पूरी तेजतर्रार. अंगरेजी न बोलें पर जरूरत के समय बड़ेबड़ों की हिम्मत पस्त कर दें.

उस दिन चाची के घर जाना हुआ. बाहर बरामदे में बैठी चाची साड़ी में कढ़ाई कर रही थीं. खूब बारीक, महीन. जैसे हाथ नहीं मकड़ी का मुंह हो.

‘‘हाय, चाची, ये आप कर रही हैं? दिखाई दे रहा है इतना बारीक काम…’’

‘‘तुम से ज्यादा दिखाई देता है,’’ चाची हंस कर बोलीं, ‘‘यह तो आज दूसरी साड़ी पर काम कर रही हूं. पर बिटिया, मुझे अंगरेजी नहीं आती, बस.’’

मैं मुसकरा दी. फिर एक दिन देखा, पूरे 8 कंबल अरगनी पर पसरे हैं और 9वां कंबल चाची धो रही हैं.

‘‘चाची, इस उम्र में इतने भारीभारी कंबल हाथ से धो रही हैं. वाशिंगमशीन क्यों नहीं लेतीं?’’

‘‘वाशिंगमशीन तो बहू ने ले रखी है पर मुझे नहीं सुहाती. एक तो मशीन से मनचाही धुलाई नहीं हो पाती, कपड़े भी जल्दी पतले हो जाते हैं, कालर की गंदगी पूरी हटती नहीं जबकि खुद धुलाई करने पर देह की कसरत हो जाती है. एक पंथ दो काज, क्यों.’’

चाची का बस मैं मुंह देखती रही थी. लग रहा था जैसे कह रही हों, ‘हां, मुझे बस अंगरेजी नहीं आती.’

उस दिन बाजार में चाची से भेंट हो गई. तनु और मैं केले ले रही थीं. केले छांटती हुई चाची भी आ खड़ी हुईं. मैं ने 6 केलों के पैसे दिए और आगे बढ़ने लगी.

चाची, जो बड़ी देर से हमें खरीदारी करते देख रही थीं, झट से मेरा हाथ पकड़ कर बोलीं, ‘‘रुक, जरा बता तो, केले कितने में लिए?’’

‘‘30 रुपए दर्जन,’’ मैं ने सहज बता दिया.

‘‘ऐसे केले 30 रुपए में. क्या देख कर लिए. तू तो इंगलिश मीडियम वाली है न, फिर भी लड़ न सकी.’’

‘‘मेरे कहने पर दिए ही नहीं. अब छोड़ो भी चाची, दोचार रुपए के लिए क्या बहस करनी,’’ मैं ने उन्हें समझाया.

‘‘यही तो डर है. डर ही तो है, जिस ने समाज को गुंडों के हवाले कर दिया है,’’ इतना कह कर चाची ने तनु के हाथ से केले छीन लिए और लपक कर वे केले वाले के पास पहुंचीं और केले पटक कर बोलीं, ‘‘ऐसे केले कहां से ले कर आता है…’’

‘‘खगडि़या से,’’ केले वाले ने सहजता से कहा.

‘‘इन की रंगत देख रहा है. टी.बी. के मरीज से खरीदे होंगे 5 रुपए दर्जन, बेच रहा है 30 रुपए. चल, निकाल 10 रुपए.’’

‘‘अब आप भी मेरी कमाई मारती हो चाची,’’ केले वाला घिघिया कर बोला, ‘‘आप को 10 रुपए दर्जन के भाव से ही दिए थे न.’’

‘‘तो इसे ठगा क्यों? चल, निकाल बाकी पैसे वरना कल से यहां केले नहीं बेच पाएगा. सारा कुछ उठा कर फेंक दूंगी…’’

और चाची ने 10 रुपए ला कर मेरे हाथ में रख दिए. मैं तो हक्कीबक्की रह गई. पतली छड़ी सी चाची में इतनी हिम्मत.

एक दिन फिर चाची से सड़क पर भेंट हो गई.

सड़क पर जाम लगा था. सारी सवारियां आपस में गड्डमड्ड हो गई थीं. समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे रास्ता निकलेगा. ट्रैफिक पुलिस वाला भी नदारद था. लोग बिना सोचेसमझे अपनेअपने वाहन घुसाए जा रहे थे. मैं एक ओर नाक पर अपना रुमाल लगाए खड़ी हो कर भीड़ छंटने की प्रतीक्षा कर रही थी.

तभी चाची दिखीं.

‘‘अरे, क्या हुआ? इतनी तेज धूप में खड़ी हो कर क्या सोच रही है?’’

‘‘सोच रही हूं, जाम खुले तो सड़क के दूसरी ओर जाऊं.’’

‘‘जाम लगा नहीं है, जाम कर दिया गया है. यहां सारे के सारे अंगरेजी पढ़ने वाले जो हैं. देखो, किसी में हिम्मत नहीं कि जो गलत गाडि़यां घुसा रहे हैं उन्हें रोक सके. सभ्य कहलाने के लिए नाक पर रुमाल लगाए खड़े हैं या फिर कोने में बकरियों की तरह मिमिया रहे हैं.’’

‘‘तो आप ही कुछ करें न, चाची,’’ उन की हिम्मत पर मुझे भरोसा हो चला था.

चाची हंस दीं, ‘‘मैं कोई कंकरीट की बनी दीवार नहीं हूं और न ही सूमो पहलवान. हां, कुछ हिम्मती जरूर हूं. बचपन से ही सीखा है कि हिम्मत से बड़ा कोई हथियार नहीं,’’ फिर हंस कर बोलीं, ‘‘बस, अंगरेजी नहीं पढ़ी है.’’

चाची बड़े इत्मीनान से भीड़ का मुआयना करने लगीं. एकाएक उन्हें ठेले पर लदे बांस के लट्ठे दिखे. चाची ने उसे रोक कर एक लट्ठा खींच लिया और आंचल को कमर पर कसा और लट्ठे को एकदम झंडे की तरह उठा लिया. फिर चिल्ला कर बोलीं, ‘‘तुम गाड़ी वालों की यह कोई बात है कि जिधर जगह देखी, गाड़ी घुसा दी और सारी सड़क जाम कर दी है. हटो…हटो…हटो…पुलिस नहीं है तो सब शेर हो गए हो. क्या किसी को किसी की परवा नहीं?’’

पहले तो लोग अवाक् चाची को इस अंदाज से देखने लगे कि यह कौन सी बला आ गई. फिर कुछ चाची के पीछे हो लिए.

‘‘हां, चाची, वाह चाची, तू ही कुछ कर सकती है…’’ और थोड़ी ही देर में चाची के पीछे कितनों का काफिला खड़ा हो गया. मैं अवाक् रह गई.

गलतसलत गाडि़यां घुसाने वाले सहम कर पीछे हट गए. चाची ने मेरा हाथ पकड़ा और बोलीं, ‘‘चल, धूप में जल कर कोयला हो जाएगी,’’ और बांस को झंडे की तरह लहराती, भीड़ को छांटती पूरे किलोमीटर का रास्ता नापती चाची निकल गईं. जाम तितरबितर हो चला था. कुछ मनचले चिल्ला रहे थे :

‘‘चाची जिंदाबाद…चाची जिंदाबाद.’’

चाची किसी नेता से कम न लग रही थीं. बस, अंगरेजी न जानती थीं. भीड़ से निकल कर मेरा हाथ छोड़ कर कहा, ‘‘यहां से चली जाएगी या घर पहुंचा दूं?’’

‘‘नहींनहीं,’’ मैं ने खिलखिला कर कहा, ‘‘मैं चली जाऊंगी पर एक बात कहूं.’’

‘‘क्या? यही न कहेगी तू कि कानवेंट की है, मुझे अंगरेजी नहीं आती?’’

‘‘अरे, नहीं चाची, पूरा दुलार टपका कर मैं ने कहा, ‘‘मैं जब बहू खोजूंगी तब लड़की का पैमाना सिर्फ अंगरेजी से नहीं नापूंगी.’’

चाची खिलखिला दीं, शायद कहना चाह रही थीं, ‘‘कहो, कैसी रही चाची?’’

Family Drama : क्या शादीशुदा लड़कियों को पढ़ने का हक नहीं है?

लेखक- प्रबोधकुमार गोविल

Family Drama : जब से वे सपना की शादी कर के मुक्त हुईं तब से हर समय प्रसन्नचित्त दिखाई देती थीं. उन के चेहरे से हमेशा उल्लास टपकता रहता था. महरी से कोई गलती हो जाए, दूध वाला दूध में पानी अधिक मिला कर लाए अथवा झाड़ू  पोंछे वाली देर से आए, सब माफ था. अब वे पहले की तरह उन पर बरसती नहीं थीं. जो भी घर में आता, उत्साह से उसे सुनाने बैठ जातीं कि उन्होंने कैसे सपना की शादी की, कितने अच्छे लोग मिल गए, लड़का बड़ा अफसर है, देखने में राजकुमार जैसा. फिर भी एक पैसा दहेज का नहीं लिया. ससुर तो कहते थे कि आप की बेटी ही लक्ष्मी है और क्या चाहिए हमें. आप की दया से घर में सब कुछ तो है, किसी बात की कमी नहीं. बस, सुंदर, सुसंस्कृत व सुशील बहू मिल गई, हमारे सारे अरमान पूरे हो गए.

शादी के बाद पहली बार जब बेटी ससुराल से आई तो कैसे हवा में उड़ी जा रही थी. वहां के सब हालचाल अपने घर वालों को सुनाती, कैसे उस की सास ने इतने दिनों पलंग से नीचे पांव ही नहीं धरने दिया. वह तो रानियों सी रही वहां. घर के कामों में हाथ लगाना तो दूर, वहां तो कभी मेहमान अधिक आ जाते तो सास दुलार से उसे भीतर भेजती हुई कहती, ‘‘बेचारी सुबह से पांव लगतेलगते थक गई, नातेरिश्तेदार क्या भागे जा रहे हैं कहीं. जा, बैठ कर आराम कर ले थोड़ी देर.’’

और उस की ननद अपनी भाभी को सहारा दे कर पलंग पर बैठा आती.

यह सब जब उन्होंने सुना तो फूली नहीं समाईं. कलेजा गज भर का हो गया. दिन भर चाव से रस लेले कर वे बेटी की ससुराल की बातें पड़ोसिनों को सुनाने से भी नहीं चूकतीं. उन की बातें सुन कर पड़ोसिन को ईर्ष्या होती. वे सपना की ससुराल वालों को लक्ष्य कर कहतीं, ‘‘कैसे लोग फंस गए इन के चक्कर में. एक पैसा भी दहेज नहीं देना पड़ा बेटी के विवाह में और ऐसा शानदार रोबीला वर मिल गया. ऊपर से ससुराल में इतना लाड़प्यार.’’

उस दिन अरुणा मिलने आईं तो वे उसी उत्साह से सब सुना रही थीं, ‘‘लो, जी, सपना को तो एम.ए. बीच में छोड़ने तक का अफसोस नहीं रहा. बहुत पढ़ालिखा खानदान है. कहते हैं, एम.ए. क्या, बाद में यहीं की यूनिवर्सिटी में पीएच.डी. भी करवा देंगे. पढ़नेलिखने में तो सपना हमेशा ही आगे रही है. अब ससुराल भी कद्र करने वाला मिल गया.’’

‘‘फिर क्या, सपना नौकरी करेगी, जो इतना पढ़ा रहे हैं?’’ अरुणा ने उन के उत्साह को थोड़ा कसने की कोशिश की.

‘‘नहीं जी, भला उन्हें क्या कमी है जो नौकरी करवाएंगे. घर की कोठी है.  हजारों रुपए कमाते हैं हमारे दामादजी,’’ उन्होंने सफाई दी.

‘‘तो सपना इतना पढ़लिख कर क्या करेगी?’’

‘‘बस, शौक. वे लोग आधुनिक विचारों के हैं न, इसलिए पता है आप को, सपना बताती है कि सासससुर और बहू एक टेबल पर बैठ कर खाना खाते हैं. रसोई में खटने के लिए तो नौकरचाकर हैं. और खानेपहनाने के ऐसे शौकीन हैं कि परदा तो दूर की बात है, मेरी सपना तो सिर भी नहीं ढकती ससुराल में.’’

‘‘अच्छा,’’ अरुणा ने आश्चर्य से कहा.

मगर शादी के महीने भर बाद लड़की ससुराल में सिर तक न ढके, यह बात उन के गले नहीं उतरी.

‘‘शादी के समय सपना तो कहती थी कि मेरे पास इतने ढेर सारे कपड़े हैं, तरहतरह के सलवार सूट, मैक्सी और गाउन, सब धरे रह जाएंगे. शादी के बाद तो साड़ी में गठरी बन कर रहना होगा. पर संयोग से ऐसे घर में गई है कि शादी से पहले बने सारे कपड़े काम में आ रहे हैं. उस के सासससुर को तो यह भी एतराज नहीं कि बाहर घूमने जाते समय भी चाहे…’’

‘‘लेकिन बहनजी, ये बातें क्या सासससुर कहेंगे. यह तो पढ़ीलिखी लड़की खुद सोचे कि आखिर कुंआरी और विवाहिता में कुछ तो फर्क है ही,’’ श्रीमती अरुणा से नहीं रहा गया.

उन्होंने सोचा कि शायद श्रीमती अरुणा को उन की पुत्री के सुख से जलन हो रही है, इसीलिए उन्होंने और रस ले कर कहना शुरू किया, ‘‘मैं तो डरती थी. मेरी सपना को शुरू से ही सुबह देर से उठने की आदत है, पराए घर में कैसे निभेगी. पर वहां तो वह सुबह बिस्तर पर ही चाय ले कर आराम से उठती है. फिर उठे भी किस लिए. स्वयं को कुछ काम तो करना नहीं पड़ता.’’

‘‘अब चलूंगी, बहनजी,’’ श्रीमती अरुणा उठतेउठते बोलीं, ‘‘अब तो आप अनुराग की भी शादी कर डालिए. डाक्टर हो ही गया है. फिर आप ने बेटी विदा कर दी. अब आप की सेवाटहल के लिए बहू आनी चाहिए. इस घर में भी तो कुछ रौनक होनी ही चाहिए,’’ कहतेकहते श्रीमती अरुणा के होंठों की मुसकान कुछ ज्यादा ही तीखी हो गई.

कुछ दिनों बाद सपना के पिता ने अपनी पत्नी को एक फोटो दिखाते हुए कहा, ‘‘देखोजी, कैसी है यह लड़की अपने अनुराग के लिए? एम.ए. पास है, रंग भी साफ है.’’

‘‘घरबार कैसा है?’’ उन्होंने लपक कर फोटो हाथ में लेते हुए पूछा.

‘‘घरबार से क्या करना है? खानदानी लोग हैं. और दहेज वगैरा हमें एक पैसे का नहीं चाहिए, यह मैं ने लिख दिया है उन्हें.’’

‘‘यह क्या बात हुई जी. आप ने अपनी तरफ से क्यों लिख दिया? हम ने क्या उसे डाक्टर बनाने में कुछ खर्च नहीं किया? और फिर वे जो देंगे, उन्हीं की बेटी की गृहस्थी के काम आएगा.’’

अनुराग भी आ कर बैठ गया था और अपने विवाह की बातों को मजे ले कर सुन रहा था. बोला, ‘‘मां, मुझे तो लड़की ऐसी चाहिए जो सोसाइटी में मेरे साथ इधरउधर जा सके. ससुराल की दौलत का क्या करना है?’’

‘‘बेशर्म, मांबाप के सामने ऐसी बातें करते तुझे शर्म नहीं आती. तुझे अपनी ही पड़ी है, हमारा क्या कुछ रिश्ता नहीं होगा उस से? हमें भी तो बहू चाहिए.’’

‘‘ठीक है, तो मैं लिख दूं उन्हें कि सगाई के लिए कोई दिन तय कर लें. लड़की दिल्ली में भैयाभाभी ने देख ही ली है और सब को बहुत पसंद आई है. फिर शक्लसूरत से ज्यादा तो पढ़ाई- लिखाई माने रखती है. वह अर्थशास्त्र में एम.ए. है.’’

उधर लड़की वालों को स्वीकृति भेजी गई. इधर वे शादी की तैयारी में जुट गईं. सामान की लिस्टें बनने लगीं.

अनुराग जो सपना के ससुराल की तारीफ के पुल बांधती अपनी मां की बातों से खीज जाता था, आज उन्हें सुनाने के लिए कहता, ‘‘देखो, मां, बेकार में इतनी सारी साडि़यां लाने की कोई जरूरत नहीं है, आखिर लड़की के पास शादी के पहले के कपड़े होंगे ही, वे बेकार में पड़े बक्सों में सड़ते रहें तो इस से क्या फायदा.’’

‘‘तो तू क्या अपनी बहू को कुंआरी छोकरियों के से कपड़े यहां पहनाएगा?’’ वह चिल्ला सी पड़ीं.

‘‘क्यों, जब जीजाजी सपना को पहना सकते हैं तो मैं नहीं पहना सकता?’’

वे मन मसोस कर रह गईं. इतने चाव से साडि़यां खरीद कर लाई थीं. सोचा था, सगाई पर ही लड़की वालों पर अच्छा प्रभाव पड़ गया तो वे बाद में अपनेआप थोड़ा ध्यान रखेंगे और हमारी हैसियत व मानसम्मान ऊंचा समझ कर ही सबकुछ करेंगे. मगर यहां तो बेटे ने सारी उम्मीदों पर ही पानी फेर दिया.

रात को सोने के लिए बिस्तर पर लेटीं तो कुछ उदास थीं. उन्हें करवटें बदलते देख कर पति बोले, ‘‘सुनोजी, अब घर के काम के लिए एक नौकर रख लो.’’

‘‘क्यों?’’ वह एकाएक चौंकीं.

‘‘हां, क्या पता, तुम्हारी बहू को भी सुबह 8 बजे बिस्तर पर चाय पी कर उठने की आदत हो तो घर का काम कौन करेगा?’’

वे सकपका गईं.

सुबह उठीं तो बेहद शांत और संतुष्ट थीं. पति से बोलीं, ‘‘तुम ने अच्छी तरह लिख दिया है न, जी, जैसी उन की बेटी वैसी ही हमारी. दानदहेज में एक पैसा भी देने की जरूरत नहीं है, यहां किस बात की कमी है, मैं तो आते ही घर की चाबियां उसे सौंप कर अब आराम करूंगी.’’

‘‘पर मां, जरा यह तो सोचो, वह अच्छी श्रेणी में एम.ए. पास है, क्या पता आगे शोधकार्य आदि करना चाहे. फिर ऐसे में तुम घर की जिम्मेदारी उस पर छोड़ दोगी तो वह आगे पढ़ कैसे सकेगी?’’ यह अनुराग का स्वर था.

उन की समझ में नहीं आया कि एकाएक क्या जवाब दें.

कुछ दिन बाद जब सपना ससुराल से आई तो वे उसे बातबात पर टोक देतीं, ‘‘क्यों री, तू ससुराल में भी ऐसे ही सिर उघाड़े डोलती रहती है क्या? वहां तो ठीक से रहा कर बहुओं की तरह और अपने पुराने कपड़ों का बक्सा यहीं छोड़ कर जाना. शादीशुदा लड़कियों को ऐसे ढंग नहीं सुहाते.’’

सपना ने जब बताया कि वह यूनिवर्सिटी में दाखिला ले रही है तो वे बरस ही पड़ीं, ‘‘अब क्या उम्र भर पढ़ती ही रहेगी? थोड़े दिन सासससुर की सेवा कर. कौन बेचारे सारी उम्र बैठे रहेंगे तेरे पास.’’

आश्चर्यचकित सपना देख रही थी कि मां को हो क्या गया है?

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