महंगे ख्वाब: भाग 2- रश्मि को कौनसी चुकानी पड़ी कीमत

12वीं का रिजल्ट आ गया, रश्मि ने स्कूल में टौप किया था. रश्मि के साथ घर वाले भी बहुत खुश थे. खुश भी क्यों न हों, बेटी ने उन का सिर फख्र से ऊंचा जो कर दिया था.

भोपाल के अच्छे कालेज में रश्मि का बीकौम में एडमिशन हो गया. वह पीजी में रहने लगी. उस का कालेज पीजी से आधे घंटे के फासले पर था, जिसे वह बस से तय करती.

रश्मि को आए हुए अभी 2 माह हुए थे कि 5 सितंबर नजदीक आ गया. यानी टीचर्स डे. इस के लिए क्लास के कई लड़केलड़कियों ने तरहतरह के सांस्कृतिक प्रोग्राम करने के लिए तैयारियां शुरू कर दीं. रश्मि को बड़ी जगह पर हुनर दिखाने का पहला मौका हाथ आया था, इसलिए वह किसी भी कीमत पर इसे गंवाना नहीं चाहती थी.

लिहाजा वह भी डांस की प्रैक्टिस में जीतोड़ मेहनत करने लगी. कालेज में प्रोग्राम के दौरान सभी ने एक से बढ़ कर एक झलकियां दिखा कर खूब वाहवाही लूटी, लेकिन अभी महफिल लूटने के लिए किसी का आना बाकी था.

‘तू शायर है, मैं तेरी शायरी…’ माधुरी की तरह डांस करती रश्मि की परफौर्मैंस देख हर तरफ तालियों की ताल सुनाई देने लगी.

सभी की जबां पर यही गीत खुदबखुद चलने लगा था. खैर, जब रश्मि स्टेज से ओझल हुई तब जा कर स्टुडैंट्स शांत हुए. लगभग एक बजे तक प्रोग्राम चला.

सभी टीचर्स के साथ ही लड़कों के बीच रश्मि को मुबारकबाद देने की होड़ सी लग गई. रश्मि के लिए ऐसा एहसास था जैसे हकीकत में वह कोई बड़ी सैलिब्रिटी हो. जितने भी लड़के थे, सभी उस के एकदम करीब हो जाना चाहते थे और यही मंशा रश्मि की थी.

घंटेभर बाद जब भीड़ कम हुई, तभी किसी की आवाज ने उस के कानों में दस्तक दी. उस ने मुड़ कर पीछे देखा, एक हैंडसम लड़के ने उसे मुबारकबाद देने के लिए हाथ बढ़ाया. रश्मि उसे नजरअंदाज न कर सकी और अपने नर्म व नाजुक हाथों को आगे बढ़ा दिया.

‘‘आप बहुत अच्छा डांस करती हैं, देख कर ऐसा लगा कि स्टेज पर माधुरी खुद ही परफौर्मैंस दे रही हों,’’ उस ने बड़ी सादगी से तारीफ की.

‘‘जी, शुक्रिया, मैं इतनी तारीफ के लायक नहीं कि आप मेरी इतनी तारीफ करें,’’ रश्मि सकुचाते हुए बोली.

‘‘मैं सच कह रहा हूं, आप ने वाकई में बहुत अच्छी परफौर्मैंस दी है,’’ अनजान लड़के ने बेबाकी से अपनी बात कही, ‘‘वैसे मेरा नाम राहुल है, और आप का?’’

‘‘इतनी जल्दी भी क्या है,’’ रश्मि मुसकराई.

‘‘सोच रहा हूं जो दिखने में इतनी खूबसूरत है, उस का नाम कितना खूबसूरत होगा.’’

‘‘मेरा नाम रश्मि है,’’ रश्मि ने अपनी कातिल निगाहों से उस की तरफ देखा. राहुल ने भी रश्मि की आंखों में आंखें डाल दीं. काफी देर तक दोनों एकदूसरे को बिना पलक झपकाए देखते रहे, जब तक कि राहुल ने रश्मि की आंखों के सामने अपनी हथेलियों को ऊपरनीचे कर के कई बार इशारा नहीं किया.

तब जा कर रश्मि सपने से जागी और लजा गई. ‘‘आप से मिल कर खुशी हुई,’’ राहुल ने रश्मि के चेहरे को गौर से देखते हुए कहा, ‘‘मैं पढ़ाई के साथ मौडलिंग करता हूं.’’ इतना सुनते ही रश्मि राहुल को देखते हुए सपनों के सागर में अठखेलियां खेलने लगी, उस ने कुछ ही देर में न जाने कितने सपने अकेले ही बुन लिए थे.

‘‘आप कहां खो गईं,’’ बोलते हुए राहुल का चेहरा रश्मि के इतना करीब हो गया था कि गरम सांसें एकदूसरे को महसूस होने लगीं. तभी रश्मि जागी, एक ऐसे सपने से जिस से वह जागना नहीं चाहती थी.

‘‘जी, कहिए क्या बात है,’’ रश्मि हड़बड़ा कर बोली.

‘‘आप किस दुनिया में खो गई थीं, मैं ने आप को कई बार पुकारा,’’ राहुल मुसकराया.

तभी उस का दोस्त रेहान आ गया और प्रैक्टिस पर जाने की बात कही. ‘‘अच्छा रश्मिजी, मैं चलता हूं, अब आप से कब मुलाकात होगी? अगर आप बुरा न मानें तो क्या मैं आप का नंबर ले सकता हूं.’’

‘‘जी, क्यों नहीं,’’ और रश्मि ने उसे अपना नंबर दे दिया. शायद यही उस के खुले आसमानों में परवाज करने के लिए कोई खुली फिजा मुहैया करा दे.

रश्मि का राहुल को नंबर देना भर था कि कुछ ही दिनों में दोनों काफी देर तक बातें करने लगे, जो पहले कुछ सैकंड से शुरू हो कर मिनटों पर सवार हो कर अब घंटों का सफर तय करते हुए, मंजिल की तरफ तेजी से बढ़े जा रहे थे.

अब सवाल उठता है कि आखिर वे दोनों कौन से सफर को अपनी मंजिल मान बैठे थे. एकदूसरे का हमसाया बन कर औरों की आंखों में खटकने लगे. लेकिन इन सब बातों से रश्मि और राहुल बेपरवा अपनी जिंदगी में मस्तमौला हो कर हंसीखुशी वक्त बिताने लगे.

एक शाम रश्मि ने राहुल को कौल किया, लेकिन उस के किसी दोस्त ने कौल रिसीव की. ‘‘हैलो, आप कौन? आप किस से बात करना चाहती हैं,’’ उधर से किसी लड़के की आवाज आई.

‘‘मैं रश्मि बोल रही हूं, मुझे राहुल से बात करनी है.’’

‘‘अभी वे बिजी हैं, ऐसा करें आप कुछ वक्त बाद फोन कर लीजिएगा.’’

‘‘जी, आप का शुक्रिया,’’ रश्मि अपनी आवाज में मिठास घोल कर बोली.

करीब आधे घंटे के बाद उधर से राहुल का कौल आया, ‘‘हैलो डार्लिंग, यार, क्या बताऊं थोड़ा काम में बिजी हो गया था.’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ रश्मि रूखेपन से बोली.

‘‘समझने की कोशिश करो, रश्मि,’’ राहुल मनाने के अंदाज में बोला, ‘‘सच कह रहा हूं, एक जरूरी काम में बिजी था.’’

‘‘अच्छा, ठीक है,’’ रश्मि ने तंज कसा.

‘‘अभी तक आप का मूड सही नहीं हुआ, अच्छा, कौफी पीने आओगी?’’ राहुल विनम्रता से बोला.

‘‘ठीक है, एक घंटे बाद मिलते हैं,’’ इतना कह कर रश्मि ने कौल काट दी.

एक घंटे बाद जब रश्मि बताए गए पते पर पहुंची तो राहुल पहले से उस के इंतजार में बैठा था.

‘‘क्या लोगी?’’ राहुल ने पूछा.

‘‘कुछ भी मंगा लो,’’ रश्मि नजर उठा कर बोली.

‘‘ठीक है,’’ और राहुल ने 2 कौफी का और्डर दे दिया.

‘‘राहुल, मुझे तुम से एक बात करनी है,’’ रश्मि संजीदगी से बोली.

‘‘हां, बोलो, क्या बात करनी है?’’

‘‘बात यह है कि मैं मौडल बनना चाहती हूं और इस काम में तुम ही मेरी मदद कर सकते हो,’’ रश्मि उस की तरफ देखने लगी.

‘‘अच्छा, यह बात है, मैडम को मौडल बनना है,’’ राहुल बोला.

‘‘हां, मेरी दिलीख्वाहिश है.’’

‘‘ठीक है, मेरी कई लोगों से पहचान है और मैं खुद मौडलिंग करता हूं. इसलिए डोंट वरी. मैडम अब मुसकरा भी दो,’’ राहुल उसे छेड़ते हुए बोला.

इस बात पर रश्मि हंस दी और उस की हंसी ने चारों तरफ अपनी चमक बिखेर दी. थोड़ी देर में कौफी भी आ गई. दोनों गर्मजोशी से बातें करते हुए गर्म कौफी का मजा लेने लगे. रश्मि को अब सुकून था, लेकिन एक डर भी. यह डर कैसा था, खुद रश्मि को नहीं मालूम था. फिर भी उस ने आगे बढ़ने का फैसला कर लिया था.

रश्मि, राहुल के कदमों को फौलो करते हुए पीछेपीछे तेजी से आगे बढ़ी जा रही थी. इन दोनों के पैर पहले फ्लोर में जा कर थमे.

‘‘हैलो राहुल,’’ उस अनजान आदमी ने कहा.

‘‘हैलो सर,’’ राहुल ने जवाब में हाथ बढ़ा दिया.

‘‘सर, ये हैं रश्मि, मिस रश्मि,’’ राहुल ने परिचय कराया.

‘‘और रश्मि, आप हैं विकास सर,’’ राहुल ने उस अनजान की तरफ इशारा करते हुए कहा.

‘‘हैलो सर,’’ रश्मि मुसकरा कर बोली.

‘‘सर, रश्मि की बचपन से बड़ी ख्वाहिश थी कि वह बड़ी हो कर मौडल बने, इसलिए मैं आप से मिलाने लाया हूं, आप इस की मदद कर सकते हैं.’’

‘‘ठीक है, मैं इस के लिए कुछ करता हूं,’’ विकास सर बोले. इस के बाद विकास सर ने रश्मि से कुछ सवाल पूछे. सभी चायनाश्ता कर के वहां से चल दिए. विकास सर अपने काम से दूसरी तरफ चले गए.

पलभर का सच: भाग 1- क्या था शुभा के वैवाहिक जीवन का कड़वा सच

उस दिन रात में लगभग 12 बजे फोन की घंटी बजी तो नींद में हड़बड़ाते हुए ही मैं ने फोन उठाया था और फिर लड़खड़ाते शब्दों में हलो कहा तो दूसरी ओर से मेरे दामाद सचिन की चिरपरिचित आवाज मुझे सुनाई दी: ‘‘मैं सचिन बोल रहा हूं सा मां.’’

मेरी सब से प्रिय सहेली शुभ का बेटा सचिन पहले मुझे ‘आंटी’ कह कर बुलाता था. मगर जब से मेरी बेटी पूजा के साथ उस की शादी हुई है वह मुझे मजाक में ‘सा मां’ यानी सासू मां कह कर बुलाता था. उस रात उस की आवाज सुन कर मैं अनायास ही खुश हो गई थी और बोल पड़ी थी :

‘‘हां, बोलो बेटे…क्या बात है? इतनी रात गए कैसे फोन किया…सब ठीक तो है?’’

‘‘हां हां, सबकुछ ठीक है सा मां… पर आप को एक सरप्राइज दे रहा हूं. पूजा और मम्मी कल राजधानी एक्सप्रेस से दिल्ली आप के पास पहुंच रही हैं.’’

‘‘अरे वाह, क्या दिलखुश करने वाली खबर सुनाई है…और तुम क्यों नहीं आ रहे उन के साथ?’’

‘‘अरे, सा मां…आप को तो पता ही है कि मैं काम छोड़ कर नहीं आ सकता. और इन दोनों का प्रोग्राम तो अचानक ही बन गया. तभी तो प्लेन से नहीं आ रहीं. मैं तो कल से आप का फोन ट्राई कर रहा था. मगर फोन मिल ही नहीं रहा था…तभी तो आप को इतनी रात को तंग करना पड़ा… ये दोनों कल 10 साढ़े 10 बजे निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर उतरेंगी… राजू भैया को लेने के लिए भेज देना.’’

‘‘हां हां, राजू जरूर जाएगा और वह नहीं जा सका तो उस के डैडी जाएंगे… तुम चिंता मत करना.’’

यह कहते हुए मैं ने फोन रख दिया था और खुशी से तुरंत अपने पति को जगाते हुए उन्हें पूजा के आने की खबर सुना दी.

‘‘गुडि़या आ रही है यह तो बहुत अच्छी बात है पर उस के साथ तुम्हारी वह नकचढ़ी सहेली क्यों आ रही है?’’ हमेशा की तरह उन्होंने शुभा से नाराजगी जताते हुए मजाक में कहा.

‘‘अरे, उस का और एक बेटा भी यहां दिल्ली में ही रहता है. उस से मिलने का जी भी तो करता होगा उस का. पूजा को यहां पहुंचा कर शुभा कल चली जाएगी अपने बेटे के पास.’’

शुभा को शुरू से ही जाने क्यों यह पसंद नहीं करते थे जबकि वह मेरी सब से प्रिय सहेली थी. स्कूल और कालिज से ही हमारी अच्छीखासी दोस्ती थी. कालिज में शुभा को मेरी ही कक्षा के एक लड़के शेखर से प्यार हो गया था. उन दोनों के प्यार में मैं ने किसी नाटक के ‘सूत्रधार’ सी भूमिका निभाई थी. मुझे कभी शेखर की चिट्ठी शुभा को पहुंचानी होती तो कभी शुभा की चिट्ठी शेखर को. शुभा अपने प्यार की बातें मुझे सुनाती रहती थी.

खूबसूरत और तेज दिमाग की शुभा अमीर बाप की इकलौती बेटी होने के बावजूद मेरे जैसी सामान्य मिडल क्लास परिवार की लड़की से दोस्ती कैसे रखती है…यह उन दिनों कालिज के हर किसी के मन में सवाल था शायद. दोस्ती में जहां मन मिल जाते हैं वहां कोई कुछ कर सकता है भला?

शुभा का शेखर से प्यार हो जाने के बाद यह दोस्ती और भी पक्की हो गई थी. शेखर के पिता बहुत बड़े उद्योगपति थे. साइंस में इंटर करने के बाद शेखर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने मुंबई चला गया मगर शुभा को वह भूला नहीं था. आखिर कालिज की पढ़ाई पूरी करतेकरते ही शुभा और शेखर का प्रेम विवाह हम सब सहपाठियों के लिए एक यादगार बन कर रह गया था.

शुभा की शादी के साल भर बाद ही मेरी भी शादी हो गई और मैं यह जान कर बेहद खुश थी कि शादी के बाद मैं भी शुभा की ही तरह मुंबई में रहने जा रही थी.

मुंबई में हम जब तक रहे थे दोनों अकसर मिलते रहते थे मगर शुभा और शेखर के रईसी ठाटबाट से मेरे पति शायद कभी अडजस्ट नहीं हो सके थे. इसी से जब भी शुभा से मिलने की बात होती तो ये अकसर टाल देते.

मेरे पहले बेटे राजू के जन्म के बाद मेरे पति ने पहली नौकरी छोड़ कर दूसरी ज्वाइन की तो हम दिल्ली आ गए. यहां आने के 3 साल बाद पूजा का जन्म हुआ और फिर घरगृहस्थी के चक्कर में मैं पूरी तरह फंस गई.

शुभा से मेरी निकटता फिर धीरेधीरे कम होती गई थी. इस बीच शुभा भी 2 बच्चों की मां बन गई थी और दोनों बार लड़के हुए थे. यह सब खबरें तो मुझे मिलती रही थीं, मगर अब हमारी दोस्ती दीवाली, न्यू ईयर या बच्चों के जन्मदिनों पर बधाई भेजने तक ही सिमट कर रह गई थी.

पूजा को मुंबई के एक कालिज में एम.बी.ए. में एडमिशन मिल गया और वहीं उस की मुलाकात सचिन से हो गई.

पहले मुलाकात हुई, फिर दोस्ती हुई और फिर ठीक शुभा और शेखर की ही तरह पूजा और सचिन का प्यार भी परवान चढ़ा था.

मुझे धुंधली सी आज भी याद है… जब शादी तय करने की बारी आई थी तो सब से पहले शुभा ने ही शादी का विरोध किया था. कुछ अजीब से अंदाज में उस ने कहा था, ‘शादी के बारे में हम 2 साल बाद सोचेंगे.’

मैं तो उस के मुंह से यह सुन कर हैरान रह गई थी. शुभा के बात करने के तरीके को देख कर गुस्से में ही मैं ने झट से कहा था, ‘तू ने भी तो कभी लव मैरिज की थी… तो आज अपने बच्चों को क्यों मना कर रही है?’

इस पर बड़े ही शांत स्वर में शुभा बोली थी, ‘तभी तो मुझे पता है कि लव और मैरिज ये 2 अलगअलग चीजें होती हैं.’

‘ये दर्शनशास्त्र की बातें मत झाड़. तू सचसच बता…क्या तुझे पूजा पसंद नहीं? या फिर हमारे परिवारों की आर्थिक असमानताओं के लिए तू मना कर रही है?’

‘नहींनहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. दरअसल, मैं शादी का विरोध नहीं कर रही हूं. मैं तो सिर्फ यह कह रही हूं कि शादी 2 साल बाद करेंगे.’

‘लेकिन क्यों, शुभा? सचिन तो अब अच्छाखासा कमा रहा है और पूजा की पढ़ाई खत्म हो चुकी है. फिर अब बेकार में 2 साल रुकने की क्या जरूरत है?’

‘यह मैं तुम्हें आज नहीं बता सकती,’ और पता नहीं कभी बता भी पाऊंगी कि नहीं.’

हम सब तो चुप हो गए थे लेकिन सचिन और पूजा दोनों ठहरे आज के आधुनिक विचारों के बच्चे. वे दोनों कहां समझने वाले थे. उन दोनों ने अचानक एक दिन कोर्ट में जा कर शादी कर ली थी और हम सब को हैरान कर दिया था.

शुभा और शेखर ने हालात को समझते हुए एक भव्य फाइव स्टार होटल में शादी की जोरदार पार्टी दी थी और फिर सबकुछ ठीकठाक हो गया था.

महंगे ख्वाब: भाग 1- रश्मि को कौनसी चुकानी पड़ी कीमत

अपनी मंजिल पाने के लिए जनून एक हद तक सही है, लेकिन व्यक्ति मानमर्यादा की सीमा लांघ कर अपनी मंजिल पाए तो क्या उसे खुशी हासिल होगी? रश्मि भी अपने सपने को हकीकत बनाने की राह पर जा रही थी पर आगे धुंध ही धुंध थी.

‘‘मम्मी, आज आप खाना बना लो, मुझे टैस्ट की तैयारी करनी है, वो क्या है न, आज से मेरे टैस्ट शुरू हो रहे हैं और अगले महीने एग्जाम होंगे.

‘‘ठीक है, बेटी,’’ मां ने रूखेपन से जवाब दिया.

‘‘अरे मां, सच में टैस्ट है. मैं कोई बहाना नहीं कर रही.’’

‘‘अच्छा, ठीक है, कोई बात नहीं,’’ रश्मि की मां अनीता ने झिड़कते हुए जवाब दिया. रश्मि 16 वर्ष की बेहद खूबसूरत लड़की थी. अभी 12वीं में पढ़ रही थी. उस की खूबसूरती के किस्से हर किसी की जबां पर थे. रश्मि कई लड़कों के ख्वाबों की मल्लिका थी.

रश्मि अपने वजूद से महफिल की शमा को रोशन कर देती और अपनी किरण को आशिकों के दिलों में इस कदर उतार देती कि मानो उस के बिना पूरी कायनात अंधेरे में समा गई हो.

हुस्न के साथ ही तेज दिमाग सोने पे सुहागा होता है, रश्मि में ये दोनों खूबियां थीं. यही वजह थी उस के ऊंचे ख्वाब देखने की. वह एक मौडल बनना चाहती थी और चाहती थी कि हर किसी की जबान पर रश्मिरश्मि हो. इतनी मशहूर होने का सपना वह आंखों में संजोए थी.

मौडल बनने की इसी चाह में वह अपने जिस्म पर काफी ध्यान देती और खूब सजधज कर कालेज या किसी फंक्शन में जाती. इतना सब होने के बावजूद रश्मि को अपने बुने ख्वाब अफसाने ही लगते क्योंकि होशंगाबाद जैसे छोटे शहर में रह कर फेमस मौडल बनना मुमकिन न था. फिर, आज भी समाज में इस तरह के कामों को बुरी निगाहों से देखा जाता है.

लेकिन रश्मि ने मन ही मन ठान लिया था कि उसे अपने ख्वाबों को हकीकत बनाना ही है, चाहे उसे किसी भी हद तक जाना पड़े. अपने ख्वाबों को पूरा करने के लिए वह सबकुछ न्योछावर करने को तैयार थी.

‘‘यार सोनल, सुन न, मुझे तुझ से बहुत जरूरी बात करनी है,’’ रश्मि ने सोनल के कंधे को धीरे से पकड़ कर कहा.

‘‘हां, बोल न, क्या बात करनी है, रश्मि.’’

‘‘देख सोनल, तुझे तो पता है कि ‘‘मैं खूबसूरत हूं,’’ रश्मि की बात बीच में काटते हुए सोनल ने उस के चेहरे को एक आशिक की तरह पकड़ कर कहा, ‘‘सच में जान, तुम बहुत खूबसूरत हो. मैं तुम से

अभी इसी वक्त शादी करना चाहती हूं,

आई लव यूयूऊ…’’

‘‘सोनल, यार मेरा मूड मजाक का नहीं है. मैं सीरियस बात कर रही हूं और तुझे हंसीमजाक की लगी है.’’

‘‘सुन रश्मि, मैं सच कह रही हूं, तू बहुत खूबसूरत है. अच्छा यह सब जाने दे. अब बता क्या कह रही थी.’’

रश्मि संजीदगी से बोली, ‘‘मैं आगे की पढ़ाई के साथ मौडलिंग भी करना चाहती हूं.’’

‘‘हां, तो कर, तेरे लिए कौन सी बड़ी बात है. वैसे भी तू एकदम मौडल है ही,’’ सोनल ने रश्मि की हौसलाअफजाई की.

सोनल की बात सुन रश्मि ने कहा, ‘‘तेरी सारी बातें ठीक हैं, लेकिन मौडल कैसे बना जाता है? इस के लिए क्या पढ़ाई करनी पड़ती है? यह सब तो मुझे मालूम

ही नहीं.’’

‘‘हां रश्मि,’’ और सोनल ने गहरी सांस ले कर पूरी हवा को सिगरेट के धुएं के स्टाइल में मुंह बना कर हवा में उड़ा दी.

इस पर दोनों अपना सिर पकड़ कर ऐसे बैठ गईं, मानो कोई राह न दिख रही हो, लेकिन किसी ने सच ही कहा है कि जहां चाह, वही राह.

परीक्षा की घड़ी नजदीक आ गई और परीक्षा के बाद जब रश्मि अपने दोस्तों से मिली तो सभी एकदूसरे से सवालजवाब करने लगे.

तभी वहां पंकज आ गया.

‘‘रश्मि, तुम्हारा पेपर कैसा हुआ?’’ पंकज ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘जी भैया, बहुत अच्छा हुआ,’’ रश्मि नजरें झुका कर बोली.

पंकज, रश्मि का बड़ा भाई था. रश्मि के अलावा घर में मम्मीपापा और एक छोटी बहन रागिनी थी, जो 10वीं के पेपर दे रही थी. रश्मि के पापा दीपक पाटीदार थे. आमदनी सालभर में इतनी हो जाती कि घर का खर्च आसानी से चल जाता, लेकिन शौक पूरे नहीं किए जा सकते. रागिनी एकदम सिंपल लड़की थी. उसे अपनी दीदी की तरह सजनेसंवरने का बिलकुल भी शौक नहीं था.

12वीं के बाद कोई काम ढूंढ़ने के लिए परेशान होता है तो कोई अच्छी जगह एडमिशन के लिए. रोहित आते ही सोनल को देख कर मुसकराया, ‘‘कैसा हुआ पेपर?’’

‘‘ठीक ही हुआ है,’’ सोनल मुंह बना कर बोली, ‘‘अपना बताओ?’’

‘‘सब ठीक है, यार, इतने नंबर आ जाएंगे कि फिर से इस स्कूल में नहीं पढ़ना पड़ेगा,’’ यह कहते हुए रोहित की नजर रश्मि की तरफ टिक गई. लेकिन रश्मि उस की इस हरकत से बेपरवा आलिया से बातों में मशगूल थी.

दरअसल, रोहित पिछले 2 वर्षों से रश्मि की चाहत में पागल था, लेकिन कभी दाल नहीं गली. हार कर रोहित अब उस की राह से हट कर सोनल की जिंदगी में आ गया.

‘‘रश्मि, तुम आगे की पढ़ाई करोगी या नहीं,’’ आलिया ने पूछा.

‘‘हां आलिया, मुझे बीकौम करना है,’’ रश्मि ने जल्दी से जवाब दिया.

‘‘इस के लिए तुम्हें बड़े शहर में दाखिला लेना होगा,’’ सोनल तपाक से बोल पड़ी.

रश्मि रेशम जैसे बालों को उंगलियों में नचाते हुए बोली, ‘‘यही तो मुश्किल है. किस शहर जाऊं और किस के साथ.’’ इसी उलझन में शाम हो गई और सभी एकदूसरे से गले मिल कर विदा लेने लगे.

घर पहुंच कर रश्मि ने अपनी बांहों की माला मां के गले में डाल कर जिस्म को ढीला छोड़ दिया. मां मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘बेटा, क्या बात है? आज अपनी मां पर बहुत प्यार आ रहा है.’’

‘‘मम्मी, आप से एक बात कहूं,’’ रश्मि झिझकते हुए बोली.

‘‘हां, बोल क्या बात है? वैसे भी आज मैं बहुत खुश हूं,’’ अनीता उस के गालों को प्यार से खींच कर बोली.

अब रश्मि के सामने दिक्कत यह थी कि वह मम्मी से किस तरह बात शुरू करे और कहां से, लेकिन शुरू तो करना था. इसलिए उस ने हिम्मत कर के मम्मी से कहना शुरू किया.

‘‘मम्मी, बात यह है कि मैं आगे की पढ़ाई के लिए बाहर जाना चाहती हूं.’’ यह कहने के साथ रश्मि अपनी मां की आंखों में आंखें डाल कर बड़ी बेसब्री से उन के जवाब का इंतजार करने लगी.

अनीता की सांस जहां की तहां रुक गई. उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि इस का क्या जवाब दें, क्योंकि पति को अच्छी तरह जानती थीं. कुछ लमहों के बाद गहरी सांस छोड़ कर यह कहते हुए खड़ी हो कर जाने लगीं कि इस बात की इजाजत तेरे पापा ही देंगे.

रश्मि को एक पल के लिए ख्वाब टूटते हुए लगे, लेकिन दूसरे ही पल संभल कर बोली, ‘‘मम्मी, आप पापा से बात कर लो. मुझे बड़ा शौक है कि पढ़लिख कर आप लोगों का नाम रोशन करूं.’’

‘‘हूं, अच्छा, ठीक है,’’ मां ने इशारे से हामी भरी और अंदर चली गईं.

रश्मि का सोचसोच कर बुरा हाल हो गया था, ‘अगर पापा ने मना कर दिया तो,’ ‘नहीं, नहीं ऐसा नहीं हो सकता,’ खुद ही सवाल कर के जवाब भी खुद ही देती. उस रात रश्मि की आंखों से नींद कोसों दूर थी. सारी रात करवट बदलबदल कर सुबह कर दी.

लेकिन अगली सुबह इतनी खूबसूरत होगी, उस ने सोचा न था. अब ख्वाबों को हकीकत बनाने वाली वह जादुई छड़ी रश्मि को मिल गई थी. पापा मान गए थे कि रश्मि आगे की पढ़ाई कर सकती है.

मजबूत औरत: उषा को अपनी मां कमजोर क्यों लगने लगी?

ऊषा ने जैसे ही बस में चढ़ कर अपनी सीट पर बैग रखा, मुश्किल से एकदो मिनट लगे और बस रवाना हो गई. चालक के ठीक पीछे वाली सीट पर ऊषा बैठी थी. यह मजेदार खिड़की वाली सीट, अकेली ऊषा और पीहर जाने वाली बस. यों तो इतना ही बहुत था कि उस का मन आनंदित होता रहता पर अचानक उस की गोद में एक फूल आ कर गिरा. खिड़की से फूल यहां कैसे आया, थोड़ा सोचते हुए उस ने गौर से फूल देखा तो बुदबुदाई, ‘ओह, चंपा का फूल’.

उस के पीहर का आंगन और उस में चंपा के पौधे. यह मौसम चंपा का ही है, उसे खयाल आया. तभी, यों ही पीछे मुड़ी तो देखती है कि चंपा की डाली कंधे पर ले कर एक सवारी खड़ी है. ‘ओह, यह फूल यहीं से आ कर गिरा होगा.’ ऊषा ने उस फूल को अपनी हथेली पर ऐसे हिलाया मानो वह चंपा का फूल कोई शिशु है और उस की हथेली के पालने में नवजात झला झल रहा हो.

ऊषा से एक साल बड़ा भाई और पड़ोस के बच्चे मिल कर चंपा के फूल जमा करते और मटकी में भर देते. तब मटकी का पानी ऐसा खुशबूदार हो जाता कि अगले दिन उस पानी को आपस मे बांट कर वे सब खुशबूदार पानी से नहा लेते थे. मां उस की शरारत देख कर उसे न कभी मारती, न कभी फटकारती. जबकि ऊषा की क्लास में कितनी ही लड़कियां बातबेबात पर अपनीअपनी मां की मार खाती थीं. एक ममता थी, वह हमेशा यही कहती कि उस की मां तो उसे लानतें भेजती रहती है. कभी कहती है, ‘ममता, तू इतनी सांवली है कि तेरी तो किसी हलवाई से भी शादी न होगी.’ कभी कहती, ‘ममता, तुझे पढ़ाने में पैसा बरबाद होता है.’ ममता की बातें सुन कर ऊषा को अपनी मां और भी प्यारी लगती थीं.

‘ओह, मेरी मां कैसी होगी?’ उस का मन फूल से हो कर अब सीधा मां के पास चला गया था. ऊषा को पीहर जाने के नाम पर मां का चेहरा ही देखना था. उस के पिता को गुजरे 3 बरस हो गए थे और तब से वह अब मां से मिलने जा रही थी. दरअसल ऊषा को दोनों बच्चों के 10वीं और 12वीं की परीक्षाओं के कारण पीहर आने का समय न मिला था. बस, 2 घंटे का ही सफर था.

पीहर पहुंच कर ‘ओ मां’ कह कर उस ने मां को गले लगा लिया था. ‘‘कल आप का 72वां जन्मदिन है.’’

‘‘पता है मुझे,’’ कह कर मां ने लंबी सांस ली.

‘‘तो, इसीलिए तो आई आप के पास. यह लो आप के लिए साड़ी और अंगूठी है.’’

‘‘ओह, अच्छा,’’ कह कर मां ने रख लिया. लेकिन ऊषा ने गौर किया कि वह खुश बिलकुल भी नहीं हुईं. अगले ही पल वह बोलीं, ‘‘ऊषा, अगर पैसे देती तो मेरे काम आते, बेटी.’’

‘‘ओह मां, यह क्या कह रही हो?’’

‘‘सही कह रही हूं, बेटी.’’ मां ने ऊषा के सामने दिल खोल दिया, ‘‘बेटी, जब तक तेरे पिता जीवित थे, वे रोज ही सा?ोदारी वाले दवाखाने में जाते थे और रोज ही सौदोसौ रुपए ला कर मुझे देते थे. बेटी, 3 साल से मेरी दशा खराब हो रही है, पता है. अब मैं पाईपाई को तरस गई हूं.’’

‘‘ओह,’’ कह कर ऊषा ने उन का हाथ थाम लिया, ‘‘तो आप कभी फोन पर तो मुझे बता देतीं?’’

‘‘बेटी, दीवार के भी कान होते हैं और तुम कोई खाली बैठी हो जो हर पल अपना ही दुखड़ा बताती रहूं. अगर तुम आज मेरे पास न आतीं तो आज भी न बताती, चुपचाप सह लेती, बेटी. हर रोज सुबह पार्क जाती हूं, ऊषा. मेरा मन होता है कि रास्ते पर मिलने वाले कुत्तों को बिस्कुट खरीद कर खिलाऊं पर मेरा बटुआ खाली,’’ मां ने फिर गहरी सांस भरी.

‘‘तो भैयाभाभी कुछ नहीं देते?’’ ऊषा का मन भारी हो रहा था.

वह बोलीं, ‘‘हां, देते हैं, बेटी पर उतना ही जितने में मेरा काम चल जाए, बस.’’

‘‘अच्छा,’’ ऊषा हैरान थी.

‘‘बेटी, मुझ से मिलने पड़ोस की बेटियां आती हैं. सारे घर के लिए मिठाई लाती हैं. मेरा मन होता है, कुछ नकद उन के हाथ में रखूं पर मेरा तो हाथ…’’

‘‘ओह मां,’’ ऊषा ने अफसोस जाहिर किया.

‘‘मैं अपनी कोई साड़ी या स्वेटर दे देती हूं, खुशीखुशी वे ले जाती हैं. अब मेरी एक सहेली बीमार थी. मैं उसे देखने अस्पताल गई. मगर इतने पैसे नहीं थे कि कोई फल ले जाती. बस, दुआ दे कर आ गई,’’ कह कर मां खामोश हो गईं.

‘‘अच्छा, पर भैयाभाभी इतने कठोर हो गए कि उन्हें आप की हालत दिखती नहीं क्या.’’

‘‘हां बेटी, वे कहते हैं कि आप ने तो एक मकान तक नहीं बनाया. आप ने कुछ किया ही नहीं तो आप का क्या एहसान है, भला.’’

‘‘बेटी, तुम जानती हो, वह किराए का घर, वह आंगन, वे पड़ोसी. मैं तो कभी किसी की चोट तो किसी की बीमारी या किसी की बेटी की शादी… बस ऐसी सहायता में ही रह गई. मैं तो आज की जैसी अपनी खराब दशा की कभी सोच तक नहीं सकती थी,’’ मां बोलतेबोलते रुक गईं.

‘‘ओह, ये लो मां, ये 10 हजार रुपए रख लो.’’

‘‘नहीं ऊषा.’’

‘‘अरे मां, ये मेरे फालतू के हैं. मतलब यह कि 2 दिनों पहले ही मेहंदी लगाने का नेग मिला है. मां, रख लो न आप ये, रखो.’’ ऊषा ने जिद की.

‘‘अरे, अच्छा,’’ कह कर मां ने अपने बक्स से सोने के गहने निकाल कर ऊषा को दिए. ‘‘ऊषा, ये ले लो.’’

‘‘हैं, ये, ये गहने, नहीं मां,’’ ऊषा डर गई कि कहीं भाईभाभी इस कमरे में आ गए तो…

‘‘कोई है ही नहीं घर पर. कोई नहीं आने वाला.’’

‘‘अरे, कहां गए?’’ ऊषा ने पूछ लिया.

मां बोलीं, ‘‘दोनों मेरे जन्मदिन की खरीदारी करने गए हैं. कल 20 परिवारों को खाने पर बुलाया है. समाज का दिखावा तो खूब करना आता है.’’

‘‘अच्छा, चलो कोई नहीं. आप भी खुश हो लेना, मां. पर ये गहने रहने दो न,’’ वह मना करने लगी.

मां बोलीं, ‘‘सुनो ऊषा बेटी, डरो मत. इन का किसी को पता नहीं और ये बस मेरे हैं. अभी जो खजाना तुम ने दिया, तुम जानती नहीं ऊषा. उन के बदले ये कुछ नहीं हैं, बेटी.’’

‘‘ओह, मां ऐसा न कहो,’’ ऊषा के नयन नम हो गए थे पर मां ने तो जिद कर के सोने के कंगन और झुमके ऊषा के बैग में रख ही दिए.

अगले दिन मां के जन्मदिन का जश्न देख कर, भाईभाभी का दिखावा, आडंबर आदि देख कर ऊषा हैरान थी.

‘‘अच्छा मां,’’ विदा ले कर अगले दिन ऊषा वापस लौटी तो घर आ कर अमन को सब सच बता दिया.

‘‘अरे, ये कंगन और ?ामके तो 2 लाख रुपए से अधिक की कीमत के हैं, ऊषा. तुम यह कीमत हौलेहौले अदा कर दो.’’ ऐसा कह कर अमन ने एक अच्छा सुझाव दिया और यह सुन कर ऊषा को अमन पर बहुत गर्व हुआ.

3 महीने बाद ऊषा फिर पीहर आई. भैयाभाभी हैरत में पर उस ने आते ही कहा, ‘‘आप दोनों के लिए ये उपहार और आप को शुभ विवाह वर्षगांठ.’’

यह सुन कर भैयाभाभी खुश और उस के बाद वह मां से जा कर खुल कर मिली. खूब बातें हुईं. इस बार मां खुश थीं, बताती रहीं कि पड़ोस में इसे बीमारी में यह दे आई, उस को मकान के गृहप्रवेश में यह भेंट किया वगैरहवगैरह.

मां का चहकना ऊषा को आनंद से भर गया. सारी बात सुनी. जब मां चुप हुईं तो ऊषा ने उन को फिर से सौंप दिए 10 हजार रुपए.

‘‘ये क्या, ये, बस, दानपुण्य के लिए आप को दिए हैं, मां,’’ कह कर ऊषा ने उन का बटुआ भर दिया.

अगले महीने ऊषा फिर आई. भाभी को जन्मदिन की बधाई देने के बहाने मां का बटुआ भर गई. भाईभाभी बहुत खुश, वे तो ऐसा ही दिखावा पसंद करते थे. और उधर, मां को भी हैरत, ये ऊषा को हो क्या रहा है. ऊषा कहती, ‘अमन ने कहा है’ और मां को चुप कर देती.

अब यह सिलसिला चल पड़ा था. ऊषा हर तीसरे महीने जरूर आती और मां का बटुआ भर जाती. इसी तरह समय बीता और एक साल बाद मां का जन्मदिन फिर से आया.

ऊषा ने इस बार भैयाभाभी को भ्रम में रखने के लिए एक साड़ी भेंट की मगर रुपयों से मां का बटुआ फिर से भर दिया था. मगर, अब मां उसे आशीष ही देती. अब कुछ साड़ी, रूमाल और शौल के सिवा मां के बक्से में कुछ भी न बचा था.

मगर ऊषा तो मां को नहीं, उन के दानपुण्य के स्वभाव के लिए यह रुपया देती थी. ऊषा जानती थी, इसी से मां निरोगी हैं, खुश है, ताकत से भरी हैं.

अब ऊषा हर तीसरे महीने जब पीहर की बस में बैठा करती तबतब यही सोचा करती कि, यही मां, एक समय में कितनी मजबूत हुआ करती थीं. जब कालेज के समय खुद ऊषा का एक गहरा प्रेम प्रसंग चल रहा था और नादानी कर के ऊषा के गर्भ तक ठहर गया था, तब रोती हुई ऊषा को मां ने चुप कराया, उसे सहज होने को कहा और चिकित्सक ने जांच कर के बताया कि केवल 4 सप्ताह का गर्भ है, इसलिए आराम से सब साफ हो जाएगा. रोती हुई ऊषा को, तब भी, मां ही चुपचाप ले गई थीं अस्पताल और उस को इस अनचाहे भार से आजाद किया था.

मां ने एक बार फिर से उसे जीवनदान दिया था. ऊषा का मन दुख से ऐसा भरा था कि उस समय तो वह मर ही जाना चाहती थी. मगर मां ने उसे न मारा, न फटकारा.

मां ने, बस, इतना पूछा कि आगे, तुम दोनों विवाह करोगे, साथ रहोगे. ऊषा ने फूटफूट कर रोते हुए बताया कि गर्भ ठहरने की बात पता लगने के समय से ही उस ने कन्नी काट ली है, वह क्या विवाह करेगा.

‘ओह,’ बस इतना ही कहा था मां ने. उस समय वह मां का लौह महिला का रूप देखती रह गई थी. उस घटना के 2 वर्षों बाद जब ऊषा सामान्य हो गई तब मौका पा कर फिर मां ने ही ऊषा को अमन के बारे में बताया था और अमन की दूसरी पत्नी बनने का सु?ाव दिया.

अमन के 2 बच्चे थे. ऊषा को उस समय मां से बहुत खीझ हुई पर जब मां ने कहा, ‘जोरजबरदस्ती नहीं है, एक बार मिल कर गपशप कर लो. फिर जो चाहो.’

तब वह शांत हुई और उसी शाम अमन घर पर आए थे. ऊषा ने पहली मुलाकात में ही अमन की दूसरी पत्नी बनना सहर्ष स्वीकार कर लिया. अमन की पहली पत्नी फेफड़े की बीमारी से चल बसी थी. अमन एक सुल?ो हुए इंसान थे और औरत को बहुत सम्मान देते थे.

विवाह के दिन से ले कर आज तक ऊषा अमन के साथ बहुत खुश है. अमन के दोनों बच्चे उसे मां ही मानते हैं. इस समय भी, बस में, ऊषा को मजबूत मां बहुत याद आ रही थी और भी बहुत यादे थीं. मां ने विवाह के पहले साल उस को बहुत मानसिक संबल दिया था.

ऊषा को तो काम करने की जिम्मेदारी उठाने की कोई आदत नहीं थी. यों तो, अमन के घर पर एक सहायिका थी मगर 2 बच्चों की मां और अमन की पत्नी बन कर सहज होने में ऊषा को समय लगा. तब मां ने ही उसे ताकत दी थी. यों अमन के प्रेम में कभी कमी नहीं आई और आज तक नहीं.

फिर, 3 साल बाद भैया का विवाह हुआ. मां ने भाभी को भी आजाद और

मस्त रहने दिया. मां को तो सब को हंसता देखना पसंद था. भैयाभाभी का वैवाहिक जीवन बहुत खुशहाल था. ऊषा यही सोचती रहती कि अब मां के राज करने के

दिन आ गए हैं. मगर, फिर, एक दिन अचानक ही पिता चल बसे. एकदम से सब बदलता गया.

और आज की तारीख में सब सही दिखाई दे रहा था लेकिन मां केवल बटुआ खाली होने से भीतर ही भीतर कितनी कमजोर पड़ गई थीं.

यही सबकुछ सोचती हुई ऊषा पीहर पहुंची. मां दिखाई दे गई, वह अपनी छड़ी के सहारे कहीं से लौट रही थीं. ऊषा ने मौका देख कर उन के बटुए में रुपए रखे. तभी भाभी 2 कप चाय ले कर आ गई. ऊषा और मां गपशप तथा चाय में व्यस्त हो गईं.

भाभी जैसे ही उन के पास से गई, मां ने हंसते हुए ऊषा को नकदी लौटा दी.

‘‘अरेअरे, यह क्या मां, ये आप के हैं,’’ वह चौंक गई.

मां बोली, ‘‘अरेअरे, यह देख.’’ मां ने बटुआ खोला और नोट दिखाए.

‘‘ओह, आप ने ये पहले वाले खर्च नहीं किए तो अब दानपुण्य का काम बंद,’’ ऊषा मां को गौर से देख रही थी.

‘‘ऐसा तो हो ही नहीं सकता, यह मेरी एक महीने की कमाई,’’ वह चहक कर बोली.

ऊषा के माथे पर बल पड़ गए, ‘‘हैं, कमाई, नौकरी, यह कब हुआ. 3 महीने पहले तो तुम नौकरी नहीं करती थीं.’’

‘‘अरे रे, सुन तो सही. हुआ क्या, अपना सुमित है न, मेरी दिवंगत सहेली का छोटा बेटा.’’

‘‘हांहां, मां. मुझे याद है,’’ ऊषा ने किसी चेहरे की कल्पना करते हुए जवाब दिया.

‘‘तो, उस के जुड़वां बेटे हुए. कुछ परेशानी के कारण अस्पताल में 16 दिन रहना था. पुरुष को इजाजत नहीं थी और सुमित को रात को रुकने वाला कोई न मिला. मैं ने कहा, ‘मैं रुक जाती हूं.’ बस, रात को सोना ही तो था. मैं करीब 16 रातें सोने चली गई. अब वह कल आया. मिठाई, फल लाया और 8 हजार रुपए दे गया. मैं ने मना किया तो बोला कि आप ने वैसे ही 20 हजार रुपए की बचत करा दी है. अगर ये न रखे तो आप की बहू मुझ से बात न करेगी.’’ पूरी बात बता कर मां ने सांस ली.

ऊषा बोली, ‘‘ओह, अच्छा, पर ये तो जल्द खत्म हो जाएंगे. तुम अगले महीने के लिए रख लो.’’ ऊषा ने जिद की तो वापस लौटाते हुए मां बोली, ‘‘अरे, आगे तो सुन, पड़ोस में एक टिफिन सैंटर है. रोज के 200 टिफिन जाते हैं नर्सिंग होम में तो मुझे वहां नौकरी मिल गई है.’’

‘‘तो मां, इस उम्र में खाना पकाओगी?’’ अब ऊषा को कुछ गुस्सा आ गया था.

‘‘अरे, पकाना नहीं है. बस, रोज सुबह और शाम जा कर चखना है, कमी बतानी है और इस के 10 हजार रुपए हर महीने मिल रहे हैं,’’ कह कर मां हंसने लगीं.

‘‘अच्छा, मेरी मजबूत मां.’’ इस बार जब ऊषा लौटी तो उसे अपनी मजबूत मां का पुनर्जन्म देख कर बहुत खुशी हो रही थी. मन पुलकित था.

मोहपाश: भाग 4- क्या बेटे के मोह से दूर रह पाई छवि

छवि बच्चों को ले कर कौरीडोर में खड़ी थी. ड्राइवर गाड़ी ले आया. बच्चे कूद कर उस में बैठ गए. ड्राइवर बाहर निकल गया, वह समझ गई माहेश्वरी गाड़ी चलाएगा. वह चुपचाप आगे की सीट पर बैठ गई. माहेश्वरी आज बहुत स्मार्ट लग रहा था. जितनी देर बाहर वह मोबाइल पर बात करता रहा, छवि की नजर उसी पर टिकी रही.

माहेश्वरी गाड़ी का दरवाजा खोल कर बैठा. उस ने छवि को देखा. उसे देख कर वह चौंक गया. उस ने फिर छवि को देखा. बरसों बाद आंखों में काजल लगाई छवि आज उसे अलग नजर आ रही थी. पीछे एक बार बच्चों को देखते हुए उस ने फिर छवि को देखा और गाड़ी स्टार्ट की. मौल में प्रृशा का कपड़ा, प्रियम का ड्रैस खरीदा गया. दोनों के लिए खिलौने भी लिए गए. माहेश्वरी शर्ट की शौप पर रुक कर शर्ट देखने लगा. उस ने शर्ट पसंद की और बिल बनाने को कहा.

छवि ने शर्ट पर लगा धब्बा दिखाया. माहेश्वरी ने दूसरी मांगी और मोबाइल पर बात करने लगा. माहेश्वरी की मांगी शर्ट का वह कलर और नहीं था. छवि ने एक दूसरे रंग की शर्ट हाथ में उठाया, तभी माहेश्वरी आ गया. दुकानदार बोला, ‘सर, वह कलर नहीं है, मैडम ने उस की जगह इसे रखा.’

माहेश्वरी ने कहा, ‘ठीक है, जब मैडम ने कहा है, तब यही फाइनल है, बिल बना दो.’

‘मैं ने बस यह शर्ट पकड़ी थी,’ छवि ने धीरे से कहा.

माहेश्वरी ने उसे देखा. पर कुछ जवाब नहीं दिया. ठीक उस के सामने हैंडलूम साड़ियों की दुकान थी. छवि उसे देखे जा रही थी, जिसे माहेश्वरी ने देख लिया था. वह उस साड़ी की दुकान की ओर बढ़ा. छवि समझ गई, इसलिए वह धीरेधीरे चल रही थी.

‘नहीं, मुझे साड़ी नहीं चाहिए,’ वह दुकान में घुसने को तैयार नहीं हो रही थी.

‘छवि स्वाभिमानी होना अच्छी बात है, पर जब स्वाभिमान अहं बन जाता है तब वह अशोभनीय हो जाता है.’

माहेश्वरी के इस कथन पर निरुत्तर हो छवि चुपचाप साड़ी के दुकान में घुसी. बच्चे भी बैठ चुके थे. वह उन की बगल में बैठ गई. माहेश्वरी छवि के पास बैठ गया.

‘किस मैटीरियल में दिखाऊं?’

छवि को साड़ियों का उतना ज्ञान नहीं था. जब तक वह सोच पाती, माहेश्वरी ने कह दिया,

‘ढाका सिल्क में दिखाइए.’

दुकानदार ने दिखाना शुरू किया. उस ने पहले कम मूल्य की साड़ियों को दिखाना शुरू किया. माहेश्वरी ने कहा, ‘थोड़ा बैटर.’

उस ने मंहगी साड़ियों को दिखाना शुरू किया. छवि चुपचाप देख रही थी. माहेश्वरी ने 11 हजार रुपए की साड़ी पसंद कर ली. छवि ने सब से नीचे रखी कम मूल्य की साड़ी को पकड़ा और कहा, ‘इसे.’

माहेश्वरी ने उस का हाथ पकड़ कर धीरे से दबा कर कहा, ‘बस’ और अपनी आंखों से कहने की कोशिश की, ‘बहुत हुआ अब चुप रहो’. छवि माहेश्वरी के इस ब्यवहार से सिहर उठी. उस के मुंह से एक शब्द भी न निकला. प्रृशा ने पापा से कहा, ‘पापा, मुझे भूख लगी है.’

सब मौल के रैस्टोरैंट में बैठ गए. माहेश्वरी ने सूप मंगाया. सब पी रहे थे. अचानक माहेश्वरी को सूप सरक गया, वह खांसने लगा. छवि उठी और माहेश्वरी की पीठ सहलाने लगी. माहेश्वरी लगातार खांस रहा था. अब वह कांपने लगा था. उस ने छवि का हाथ जोर से पकड़ लिया. छवि ने अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश नहीं की. खाना खा कर सब वापस घर आए.

छवि माहेश्वरी के प्रति अपने आर्कषण को महसूस करने लगी थी. माहेश्वरी की बातें, उस के ध्यान रखने का अंदाज सब उसे उस के करीब आने पर विवश कर रहा था. उसे रात की बात याद आ गई. वह प्रृशा को कहानी सुना रही थी, माहेश्वरी आया. इस बार वह अंदर आया और प्रृशा के पास बैठ कर बोला, ‘छवि, तुम ने जो मेरी बेटी के लिए किया, उस के लिए मैं तुम्हारा हमेशा एहसानमंद रहूंगा. यह एक छोटा सा उपहार कल पूर्णिमा के कार्यक्रम में तुम साड़ी के साथ पहनोगी, मुझे खुशी होगी.’

छवि ने देखा, उस में एक सुंदर सा गले का छोटा नैकलैस और वैसा ही छोटा सा कान का था. छवि को उस का उपहार देना अच्छा नहीं लगा. वह तुरंत स्टडीरूम में गई जहां महेश्वरी था. छवि कुछ कहती, उस के पहले वह बोल उठा, ‘लाओ वापस दे दो, लौटाने आई हो न, कर दो वापस.’

छवि चौंक गई, इन्हें मेरी बात कैसे पता चली. उस ने झट सैट पीछे छिपा लिया, बोली, ‘नहीं, मैं लौटाने नहीं आई हूं, मैं तो थैक्स कहने आई हूं, सुंदर सैट है.’

‘योर वैलकम,’ माहेश्वरी ने गंभीरता से कहा.

छवि चुपचाप चली आई. उस ने सोच लिया, उस का यहां का काम ख़त्म हो गया है. उसे अब यहां से निकल जाना चाहिए. उसे इस मोहपाश के बंधन से दूर चली जाना चाहिए. उस के लिए उस का बेटा प्रियम, बस, उस का मोहपाश रहेगा. माहेश्वरी जैसे देवपुरुष के जीवन में वह अपने कलंकित जीवन का साया नहीं पड़ने देगी. उस ने निश्चय कर लिया, वह कल पार्टी के बाद अपना इस्तीफा दे देगी.

माहेश्वरी मैंशन में पूर्णिमा के दिन विशेष कार्यक्रम होता था. कार्यक्रम के बाद लंच लेने के उपरांत छवि ने अपना इस्तीफा लिख कर औफिस में पहुंचा दिया. पूरे दिन वह माहेश्वरी के सामने आने से बचती रही. जब भी उस की आवाज सुनती, झट अपने कमरे में चली जाती. रात में वह खाने को पहुंची, तब माहेश्वरी के नौकर ने बताया, साहब ने खाना नहीं खाया, छत पर जा कर बैठे हैं, किसी को भी वहां आने को मना किया है.

उस ने चीना से दोनों बच्चों को देखते रहने को कहा और छत पर चली गई. वह जा कर माहेश्वरी के पास जा कर खड़ी हो गई. माहेश्वरी आरामकुरसी पर आंखें बंद किए चुपचाप गहन सोच की मुद्रा में बैठा था. आहट होने पर उस ने आंखें खोल कर देखा और फिर अपनी आंखें बंद कर लीं मानो उसे पता था, छवि जरूर आएगी.

छवि ने पूछा, ‘आप ने खाना क्यों नहीं खाया?’

‘भूख नहीं है.’

‘क्या हुआ जो भूख नहीं है.’

‘तुम सब जानती हो छवि, फिर क्यों पूछ रही हो.’

‘देखिए, मैं जिस काम के लिए आई थी, वह पूरा हो गया है. प्रृशा अब बिलकुल ठीक है. आप उसे अब स्कूल में डालने वाले हैं. सच पूछिए तो अब बेबी को गवर्नैंस की नहीं, एक मां की जरूरत है.’

‘तुम से अच्छी मां उसे कहां मिलेगी?’

‘मेरे बारे में आप नहीं जानते हैं. मेरा आंचल मैला है. इस में मेरे अतीत के काले गंदे धब्बे हैं.’

‘मैं अपने प्यार से उन धब्बों को धो दूंगा छवि.’

‘मैं एक कुंआरी मां हूं.’

‘मैं अपने नाम के सिंदूर से तुम्हें सुहागन मां बना दूंगा.’

‘आप नहीं जानते हैं, मैं आप की कितनी इज्जत करती हूं, आप पर मेरी कितनी श्रद्धा है. मैं आप के लायक नहीं हूं.’

छवि रोते हुए माहेश्वरी के पैरों पर गिर पड़ी.

‘किस ने कहा, तुम मेरे लायक नहीं हो, देखो, वह पूनम का चांद मुसकराता कह रहा है, तुम्हारी जगह वहां नहीं, यहां है…’

माहेश्वरी ने छवि को उठा कर अपने कलेजे से लगा लिया. छवि माहेश्वरी में सिमट कर सिसक उठी, आखिर माहेश्वरी के मोहपाश के बंधन में वह बंध ही गई.

पहचान: पति की मृत्यु के बाद वेदिका कहां चली गई- भाग 2

‘‘तुम अपने पेपर्स मु?ो दे दो…साउथ की एक यूनिवर्सिटी में मैं ने बात कर ली है. वहां तुम्हारा रजिस्ट्रेशन करवा रही हूं…अपनी पढ़ाई पूरी करो. अपना जरूरी सामान एक बैग में रखना. मैं टिकट बुक करवा कर मैसेज करूंगी. तुम यहां से भाग जाना. यहां तुम और तुम्हारा बच्चा दोनों ही सुरक्षित नहीं हैं. चली जाओ यहां से…अपनी पहचान बनाओ ताकि फिर कोई तुम्हारी तरफ आंख भी न उठा सके.’’

वेदिका हतप्रभ सी बैठी सुनती रही. अचानक यह क्या हो गया, वह सम?ा ही नहीं पाई.

‘‘उठो पेपर्स दो मु?ो जल्दी,’’ 2 हाथों ने उसे ?ाक?ोर दिया.

वेदिका हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुई. उस ने अपने पेपर्स और फोन नंबर लिख कर दिया. राधिका की 2 आंखों के करुण भाव की पहचान ने उस की हर बात पर विश्वास करवा दिया था, जिस के दम पर वह खुद की पहचान बनाने के लिए उस की हर योजना के लिए तैयार हो गई थी. अगले 10 मिनट में पूरी योजना बन गई.

फिर कमरे में सन्नाटा छा गया. जातेजाते 2 हाथों ने उसे मजबूती से थाम कर दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘आगे की जंग तुम्हें अकेले लड़नी है, लेकिन इन बेगानों के बीच के अकेलेपन से ज्यादा अकेलापन वहां नहीं होगा विश्वास करो. मैं भी लगातार तुम्हारे संपर्क में नहीं रह पाऊंगी वरना मेरे माध्यम से ये लोग तुम तक पहुंच जाएंगे. लेकिन हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगी. अपनी तरफ से तुम्हारी खैरखबर लेती रहूंगी. बस, तुम हिम्मत न हारना.

अपनी पहचान बना कर अपने और अपने बच्चे के हक के लिए लौटना.’’

वेदिका देर तक वैसी ही बैठी रही. आंसू गालों से लुढ़क कर गोद में समाते रहे. खुद की पहचान बनाने के लिए उसे अपनी मौजूदा पहचान से दूर बहुत दूर हो जाना है, एक अनजानी दुनिया में अकेले सिर्फ अपने दम पर ताकि इस घर के लोग उसे ढूंढ़ न सकें. उन के मन के प्रौपर्टी खो देने या उस का हिस्सा होने के डर के सामने उस की कोख में पलती विदित की आखिरी निशानी और वह खुद उन के लिए कोई माने नहीं रखती.

एक अनजान शहर अनजान मंजिल पर जाने के नाम से उस का दिल कांप रहा था. उस का मन हुआ वह वापस अपने घर चली जाए… मम्मीपापा के पैर पकड़ कर माफी मांग ले… मम्मी की गोद में सिर रख कर खूब रोए… लेकिन नकार दिए जाने का डर शायद दुनिया का सब से बड़ा डर होता है, जिस ने उस के इस इरादे और कदमों को कमजोर कर दिया. यह तो तय था कि बिना अपनी पहचान बनाए न तो वह और न ही उस के प्यार की निशानी ही सुरक्षित है, यही खयाल उसे जीने की प्रेरणा देता और बेगाने हो चुके अपनों के सामने अपनी पहचान बनाने का निश्चय दृढ़ होता जाता.

अगले दिन दोपहर में वेदिका चुपके से घर से निकल बैंक पहुंची. उस ने अपना और विदित का अकाउंट बंद करवा कर अपने पुराने नाम वेदिका शर्मा के नाम से नया अकाउंट खुलवाया. आधे पैसों का फिक्स डिपौजिट करवाया. कुछ कैश ले कर घर आ गई. अलमारी से एक बैग निकाल कर कपड़ों के नीचे रुपए छिपा दिए. शादी वाले दिन पहनी साड़ी हाथ में लेते ही यादें नदी की तरह आंखों से बहने लगीं. फिर उसी साड़ी में उस ने विदित और उस की शादी की तसवीर व शादी का सर्टिफिकेट लपेट कर रख दिया. वह कम से कम सामान अपने साथ ले जाना चाहती थी. लेकिन विदित की खुशबू से रचीबसी किसी भी चीज को छोड़ने का मन ही नहीं हुआ.

3 दिन बाद शाम 5 बजे मैसेज आया. रात 2 बजे की गाड़ी का ई टिकट था. कुछ ही देर बाद फिर मैसेज आया. ट्रेन में बैठ कर इस सिम को निकाल देना और फिर कभी इस का इस्तेमाल मत करना.

रात 1 बजे पूरा घर सन्नाटे में डूबा था. वेदिका ने घर से निकल कर स्टेशन की राह ली. ट्रेन आने में 10 मिनट की देरी थी. घबराहट में वह बारबार घड़ी देख रही थी. एक बार पहले भी उस ने घर छोड़ा था, तब विदित उस के साथ था. तब उसे बिलकुल डर नहीं लगा था. आज एक अनजाना डर उसे बेचैन कर रहा था. न जाने वह पकड़े जाने का डर था या फिर अनजान सफर पर जाने का.

शाम 7 बजे वेदिका स्टेशन पर उतरी तो एक आदमी ने उस के पास आ कर उस का नाम पूछा और फिर सामान टैक्सी में रख दिया. एक होस्टल में उस के रहने का इंतजाम था. राधिका ने सारा इंतजाम किया था.

अगले दिन सुबह वार्डन के औफिस में राधिका का फोन आया. औपचारिक बातों के बाद उस ने बताया कि उस के ऐडमिशन के पेपर्स वार्डन के पास हैं. वह कालेज जाना शुरू कर दे. कोई परेशानी हो तो वार्डन आशाजी से कहे. पास ही एक लेडी डाक्टर भी हैं. चैकअप करवाती रहे. घबराना मत. मैं तुम्हारे साथ हूं. यहीं फोन करती रहूंगी, लेकिन ज्यादा नहीं.

राधिका ने ही बताया कि तुम्हारे गायब हो जाने से घर में कुहराम मचा हुआ है. राधिका के जाने के बाद ही वेदिका ने घर छोड़ा था, इसलिए उस के पास कई फोन आ चुके हैं. हो सकता है वे लोग अपने प्रभाव से उस के फोन की निगरानी भी करें, इसलिए वह पब्लिक बूथ से बात कर रही है.

आशाजी अधेड़ उम्र की सहृदय महिला थीं. उन्होंने वेदिका के ऐडमिशन से ले कर डाक्टर से चैकअप करवाने तक हर चीज में मदद की. वेदिका की दुख भरी कहानी ने उन्हें द्रवित कर दिया था. वे जब भी कोई डिश बनातीं, वेदिका के लिए जरूर बचा कर रखतीं. होस्टल में अधिकतर लड़कियां कामकाजी थीं. धीरेधीरे उन के साथ वेदिका का अकेलापन बीतने लगा. जानपहचान से प्यार भरे रिश्ते पनपने लगे. ज्योंज्यों दिन बीतने लगे रिश्ते परवान चढ़ने लगे. कोई बड़ी बहन के अधिकार से तो कोई छोटी बहन के से प्यार से वेदिका को हाथोंहाथ रखता.

पहले सैमैस्टर की परीक्षा हो चुकी थी. वेदिका को विश्वास था कि वह बहुत अच्छे नंबरों से पास होगी. कालेज बंद थे. वेदिका सारा दिन नन्हे से बतियाती. उसे अकसर खयाल आता कि न जाने घर में सब कैसे होंगे… क्या अब भी उसे ढूंढ़ रहे होंगे? क्या उसे खोजते मम्मीपापा के यहां गए होंगे? वहां उसे न पा कर क्या प्रतिक्रिया दी होगी? क्या मम्मीपापा ने भी उसे ढूंढ़ने की कोशिश की होगी? या वे अब तक उस से नाराज हैं? जब इन में से किसी सवाल का जवाब नहीं मिलता तो वह अपने मन को तसल्ली देने के लिए खुद ही जवाब देती और खुद ही उन्हें नकारती.

उस रात जब वेदिका को दर्द उठा तो पूरा होस्टल जाग गया. रात 2 बजे वह नन्ही कली प्रस्फुटित हुई तो उस की महक से वेदिका का जीवन ही नहीं, पूरा होस्टल भी महक उठा.

हौस्पिटल से आने पर अनुभवी महिलाओं ने उन की देखभाल की जिम्मेदारी ले ली. कालेज की लड़कियों ने उसे नोट्स दे दिए थे.

अपनों के बेगानेपन के घाव बेगानों के अपनेपन ने भर दिए थे. 3 हफ्ते आराम करने के बाद अब वह 2-3 घंटों के लिए कालेज जाने लगी थी. नाइट ड्यूटी वाली लड़कियां नन्ही कली का ध्यान रखतीं.

राधिका ने उसे फोन कर बधाई दी. वेदिका उस से बहुत कुछ पूछना चाहती थी, लेकिन उस ने जवाब दिया कि तुम किसी की चिंता न करो. अपनी पढ़ाई और सेहत पर ध्यान दो.

कली की कोमल मुसकान अब वेदिका को कुछ और सोचने का मौका नहीं देती थी. आखिरी सैमैस्टर करीब था. वेदिका के पैसे खत्म होने को थे. डायमंड का सैट अभी भी उस के पास था. वह विदित का दिया गिफ्ट था, इसलिए उसे बेचने का मन नहीं बना पा रही थी. कालेज की पढ़ाई और कली की देखभाल के बाद समय ही नहीं बचता था कि वह कोई और काम कर सके. होस्टल की फीस और मेस का बिल भरना था. उसे परेशान देख कर आशाजी ने पूछा कि क्या बात है? उन्होंने सैट देखा. सुनार से उस की जांच करवाई और कहा कि अगर वह चाहे तो सोने की चेन उन के पास रख कर पैसे ले सकती है. फिर जब नौकरी करने लगे तो पैसे चुका कर चेन वापस ले ले.

वेदिका की आंखें भर आईं. एक ओर आशाजी की सहृदयता थी तो दूसरी ओर चेन पहनाते विदित की उंगलियों का गुदगुदा स्पर्श. बहुत सोचने के बाद उस ने टौप्स गिरवी रख कर पैसे ले लिए.

पढ़ाई पूरी होते ही वेदिका को नौकरी मिल गई. कली भी साल भर की हो गई थी. थोड़ा समय होस्टल में और 2-3 घंटे क्रैच में उसे छोड़ने की व्यवस्था की गई. नौकरी मिलने पर राधिका ने उसे बधाई दी. वेदिका ने सब के हालचाल जानने चाहे, तो उस ने इतना ही कहा कि अपने मन को कमजोर न बनाओ. अभीअभी तो नौकरी मिली है. पहले अपने पैर जमाओ, अपनी पहचान बनाओ, फिर एक दिन तुम्हें वहां जाना ही है. वैसे भी वहां कुछ नहीं बदला.

भले ही सारी दुनिया आप की खुशी में शामिल हों, लेकिन जब तक रिश्ते आप के साथ न हों हर खुशी अधूरी और हर सांत्वना सतही ही लगती है.

समय ने गति पकड़ ली. वेदिका को तरक्की मिल गई. कली भी स्कूल जाने लगी. भावनाओं का प्रवाह मंथर हो चला था. वेदिका ने एक छोटा सा फ्लैट ले लिया, कली की किलकारियों और मासूम बातों से उसे सजासंवार लिया था. घर के दरवाजे पर उस के नाम की तख्ती उस की पहचान बता रही थी, बिना किसी और नाम के सहारे के. एक नामी कंपनी की सीईओ थी वह अपने नाम, अपनी पहचान के साथ.

एक दोपहर जब वेदिका लंच के बाद अपने कैबिन में लौटी तो वहां किसी को बैठा देख कर चौंक गई. उस के आने की आहट से जब वे पलटे तो खुशी और आश्चर्य से वेदिका की चीख ही निकल गई.

सीख: भाग 2- क्या सुधीर को कभी अपनी गलती का एहसास हो पाया?

सुधीर गुस्से से कहता चला जा रहा था कि मां ने बीच में टोका, ‘‘बेटा, वे लड़कियां फर्राटे से अंगरेजी बोल लेती हैं, बढि़या डांस कर लेती हैं, परंतु घरगृहस्थी के काम में अकसर उन्हें कुछ नहीं आता है. अंगरेजी बोल लेना, नाच लेना थोड़े दिनों की चकाचौंध है, बाद में घरगृहस्थी ही काम आती है. सामने त्रिपाठीजी के बेटे की बहू को देखते हो, स्मार्ट है, फर्राटे की अंगरेजी बोलती है, संगीत में प्रभाकर की डिगरी ले रखी है, परंतु मिसेज त्रिपाठी दिन भर काम में जुटी रहती हैं, बहूरानी कमरे में पलंग पर लेट कर स्टीरियो सुनती रहती हैं- न सास की लाज न ससुर की इज्जत. जया सुंदर है, पढ़ीलिखी है, घरेलू वातावरण में पलीबढ़ी है, शहर में रह कर सब सीख जाएगी,’’ मां ने सुधीर को समझाते हुए कहा.

‘‘मां, घरगृहस्थी का काम तो एक अनपढ़ लड़की भी कर लेती है. इतना तो मैं कमा ही लेता हूं कि घरगृहस्थी के काम के लिए एक नौकर रख सकता हूं. आजकल शहरों में जगहजगह रेस्टोरेंट व होटल खुल गए हैं, फोन कर दो, मनपसंद खाना घर बैठे आ जाएगा. कुछ सोशल लाइफ भी तो होती है.’’

सुधीर की बातें जया कमरे से सुन रही थी.  उस का एकएक शब्द उस का मन चीरता चला जा रहा था. जया को अपनी मां पर भी क्रोध आया कि उन्होंने कितने पुराने संस्कारों में उसे ढाल दिया. उस ने महिला कालेज से बी.ए. पास किया था और साइकोलोजी से एम.ए. करना चाहती थी. साइकोलोजी केवल क्राइस्टचर्च कालेज में पढ़ाई जाती थी, जहां सहशिक्षा थी. लड़केलड़कियां एकसाथ पढ़ते थे. मां कितनी मुश्किल से क्राइस्टचर्च में एडमिशन के लिए तैयार हुई थीं.

जया कालेज जाती थी मां तो हिदायतों की पूरी की पूरी लिस्ट उसे दे देती थी. कि लड़कों के पास मत बैठना, लड़कों से बात मत करना, अगर कुछ पूछना जरूरी हो तो नीचे नजर डाल कर धीरे से बोलना.

मां ने कितने उदाहरण दे डाले थे कि सीधीसादी लड़कियों को कालेज के लड़के बरगला कर गलत रास्ते पर ले जाते हैं. लाइब्रेरी में लड़कों के साथ बैठ कर पढ़ने की इजाजत मां ने कभी नहीं दी. इसी कारण उस का एम.ए. का डिवीजन बिगड़ गया था. मां ने घर से अकेले कभी निकलने ही नहीं दिया.

एक दिन मां के साथ वह पिक्चर देखने गई थी. उस के पास एक लंबी लड़की बौय कट बालों में जींस पहने बैठी थी. अंधेरे में मां को शक हुआ कि यह लड़का है. मां उचकउचक कर देखने लगीं तो उसे थोड़ा गुस्सा आ गया और ‘यह लड़का नहीं लड़की है’, उस के मुंह से चिल्लाहट भरे स्वर ऐसे निकले कि आसपास के लोग उन्हें घूरघूर कर देखने लगे.

मां तो आश्वस्त हो कर बैठ गई थीं, परंतु उस का मन पिक्चर में फिर न लग सका था. अगर इतने पुराने संस्कारों में पाला था तो इतने एडवांस घर में उस की शादी क्यों कर दी, जहां शालीनता को मूर्खता समझा जाता?

एक दिन मां कह रही थी कि तुम्हारे पिताजी चाहते थे कि उन की बेटी की शादी बड़े घर में हो, जहां नौकरचाकर, कार व बंगला जाते ही मिल जाए.

मां की कितनी निर्मूल धारणा है. ऐसे बड़े घर का क्या करना, जहां भौतिक सुख की सारी सुविधाएं हों, परंतु मन को एक पल भी चैन न मिले.

एक शाम कपड़े पहन कर तैयार हो कर सुधीर कहीं जा रहा था. उस ने इतना ही पूछ लिया था, ‘‘कहां जाने की तैयारी है?’’

सुधीर कितनी जोर से बिगड़ पड़ा था,

‘‘मैं कहां जाता हूं, कहां उठताबैठता हूं, किस से बात करता हूं, इस में तुम हर समय टांग अड़ाने वाली कौन होती हो? तुम्हें हाई सोसाइटी में उठनेबैठने की तमीज नहीं है, तो क्या मैं भी उठनाबैठना बंद कर दूं?’’

जया के संस्कार परंपरागत अवश्य थे, परंतु उस का व्यक्तित्व स्वाभिमानी था. रोजरोज का अपरोक्ष तिरस्कार तो वह किसी प्रकार सहन कर लेती थी, पर इस अनावश्यक प्रताड़ना से उस के मन में विद्रोह जाग उठा. उस ने सोच लिया कि वह अपने को बदल कर सुधीर को सीख जरूर देगी.

अगले जाड़ों में दिल्ली में उस की सहेली लता की बहन की शादी थी. उस ने शादी के निमंत्रणपत्र के साथ मम्मीजी के नाम एक विनयपूर्वक पत्र भी लिखा था, जया को इस विवाह समारोह में सम्मिलित होने की आज्ञा दे दें.

मम्मीजी ने पत्र सुधीर को दिखाया. सुधीर के पास छुट्टी नहीं थी और जया के

प्रति उस के मन में ऐसी खटास थी कि उसे जया से कुछ दिन दूरी की बात राहत देने वाली ही लगी. उस ने उसे अकेले चले जाने को तुरंत कह दिया. जाने के लिए निश्चित हुए दिन सुधीर जया को फर्स्ट क्लास एसी में ट्रेन में बैठा आया. ट्रेन के चलते ही जया ने भी एक स्वतंत्रता की सांस ली. उस के मन में स्फूर्ति भरती जा रही थी. रास्ते के दृश्य उसे बहुत सुहावने लग रहे थे.

नई दिल्ली स्टेशन पर उस की सहेली लता व उस के पति शैलेंद्र उसे लेने आए थे. जया के ट्रेन से उतरते ही लता जया से लिपट गई. कालेज छोड़ने के एक अरसे बाद दोनों सहेलियां आपस में मिल रही थीं.

लता के घर पहुंच कर जया को लगा कि वह किसी दूसरी दुनिया में पहुंच गई है. विवाह हेतु घर की सज्जा सुरुचिपूर्ण थी.

दूसरे दिन बरात आने वाली थी. केले के पत्तों व फूलों से सजाया गया था. बाहर पंडाल में बरातियों के बैठने व खानेपीने की व्यवस्था थी. मेहमानों से घर भरा था, बरात मेरठ से दिल्ली आ रही थी.

दूसरे दिन शाम को बरात खूब धूमधाम से चढ़ी. दूल्हा पक्ष के लड़कों व कन्या पक्ष की लड़कियों में खूब हंसीमजाक चल रहा था. हंसी के फुहारे छूट रहे थे. जया इस प्रकार के खुलेपन को आश्चर्य से देख रही थी. रात में विवाह हुआ, दूसरे दिन अपराह्न को बरात विदा होने वाली थी. सुबह चायनाश्ते के बाद वर पक्ष की कुछ चुलबुली लड़कियों ने कन्या पक्ष के कुछ मनचले लड़कों को घेर लिया. लच्छेदार मीठीमीठी बातें कीं और शहर घुमाने का प्रोग्राम बना डाला.

लड़कियां लड़कों के साथ खूब घूमीं, पिक्चर देखी और रेस्टोरेंट में खायापिया.

बाद में लड़कों को अंगूठा दिखा कर बरातियों में आ मिलीं. जया ने आश्चर्यपूर्वक सुना कि लड़कियां आपस में ठहाके लगा रही थीं, ‘बड़े मजनू बनने चले थे, 2-4 हजार रुपयों के चक्कर में तो आ ही गए होंगे. सब को याद रहेंगी मेरठ की लड़कियां.’ अब जया सुधीर की तथाकथित स्मार्टनेस का मतलब समझ रही थी.

मोहपाश- भाग 3- क्या बेटे के मोह से दूर रह पाई छवि

छवि को मां की याद आती है, उस के कारण उस की मां को लज्जित होना पड़ा. छवि का मन ग्लानि से भर जाता है. वह ठान लेती है, इस बच्ची की मदद वह जरूर करेगी. समय के साथ प्रृशा धीरेधीरे छवि से बहुत घुलनेमिलने लगती है. प्रृशा के कारण छवि माहेश्वरी से भी थोड़ा खुलने लगी थी. वह हंसमुख और स्पष्ट वक्ता है. प्रृशा बीमारी में बिस्तर गीला करने लगी थी, इसी कारण वह अपने पिता से अलग सो रही थी. दुष्प्रभाव का यह भी एक बड़ा कारण था. जैसेजैसे प्रृशा ठीक हो रही थी, सारी गलत चीजें अपनेआप हटती जा रही थीं.

माहेश्वरी के स्टाफ थोड़े जिद्दी एवं हठी लगे. मना करने के बावजूद पृशा की निजी आया चानी को रसोई में लगा देते थे. चानी पृशा के साथ खुब घुली और पृशा उस से ही काम करवाना पसंद करती थी. छवि के मना करने पर भी जब वे बाज नहीं आए, तब छवि को लगा इस विषय पर माहेश्वरी से ही बात करनी होगी. उस ने इंटरकौम में माहेश्वरी के पर्सनल नंबर से बताया, बात करनी है. माहेश्वरी ने कहा कि वह उन का स्टडीरूम में इंतजार करे. छवि सुतपा की सहायता से स्टडीरूम में पहुंच कर माहेश्वरी का इंतजार करने लगी.

कमरे में शीशे की आलमारियों में किताबें सजी थीं. माहेश्वरी परिवार को पढ़ने का शौक है. बहुत देर इंतजार करने के बाद जब माहेश्वरी नहीं आए तब उसे गुस्सा आने लगा. बड़े लोग पैसे कमाने में इतने ब्यस्त रहते हैं, इन्हें अपने बच्चे की भी फिक्र नहीं होती है. मैं उन की बच्ची के बारे में बात करने आई हूं, पर इन का ध्यान तो पैसा कमाने पर है. वह गुस्से से उठ खड़ी हुई. उस ने गुस्से से कुरसी पीछे ढकेला और मुड़ी. उसे पता भी न चला कि कब उस का पैर बुरी तरह मुड़ गया. वह गिरने वाली थी कि किसी की मजबूत बांहों ने उसे संभाल लिया.

उस ने संभालने वाले को देखने के लिए अपना चेहरा घुमाया, उस का चेहरा बिलकुल माहेश्वरी के चेहरे के सामने था. माहेश्वरी का एक हाथ अभी भी छवि की कमर पर था. छवि ने पास में रखी कुरसी की मूठ पकड़ी और उठने की कोशिश करने लगी. माहेश्वरी ने उठने में हलका सहारा दिया. छवि का गोरा चेहरा गुस्सा से और लाल हो रहा था.

माहेश्वरी ने कहा, ‘सौरी, देर हो गई. एक्चुअली अभी मेरे एक स्टाफ के पिता की डेथ हो गई. बौडी को हौस्पिटल से घर लाने का इंतजाम करने में देर हो गई. हां, बोलिए, क्या काम है?’

छवि का हृदय लज्जा से भर गया. वह अपनी गंदी सोच पर शर्मिंदा थी. उस ने माहेश्वरी से पृशा की समस्याओं के बारे में कुछ पूछताछ की और कहा, ‘अब बेबी की जिम्मेदारी उस की है, उसे अपनी तरह से सभांलने की स्वतंत्रता दी जाए, और सारे स्टाफ को पृशा से संबंधित उस का निर्णय मानना होगा.’

छवि को पैर में चोट लगी थी, उसे दर्द हो रहा था. वह उठी और जाने लगी. उसे चलने में तकलीफ हो रही थी. तभी माहेश्वरी ने कहा, ‘छवि रुको, तुम्हारे पैर में चोट आई है, तुम ठीक से चल नहीं पा रही हो.’

‘मैं ठीक हूं, चली जाऊंगी,’ छवि के स्वर में दर्द था.

‘शटअप छवि, मैं जो कह रहा हूं, सुनो,’ उस ने छवि को कुरसी दिया और बोला, ‘बैठो.’

छवि चुपचाप बैठ गई.

‘जिस पैर में चोट लगी है, उसे आगे करो.’

छवि ने चोट लगे पैर को झट से पीछे कर लिया. माहेश्वरी घुटनों के बल नीचे बैठ चुका था. छवि अभी भी संकोचवश चुप थी. माहेश्वरी ने उस के पीछे रखे पैर को खींच कर आगे कर लिया और बोला, ‘पैर ढीला रखो, टाइट मत करना.’

उस ने एड़ी को ले कर दोतीन बार गोलगोल घुमाया और जोर से खींच दिया. छवि की चीख निकल गई और आंखों में आंसूं आ गए. उस का जी चाहा, इस आदमी को एक जोरदार थप्पड़ रसीद कर दे, इतनी जोर से दर्द करा दिया. वह उठ कर जाने लगी, उस ने माहेश्वरी को देखना चाहा पर वह वहां नहीं था, शायद वाशरूम में हाथ धोने गया था. छवि धीमे कदमों से अपने कमरे में आ गई. अब उसे आराम आ गया था.

माहेश्वरी का व्यक्तित्व उसे प्रभावित करने लगा था. माहेश्वरी भी छवि से बात करने का मौका चुकने न देता था. छवि के आए काफी दिन हो गए थे. परिस्थितियां अब बदल रही थीं. माहेश्वरी और छवि पृशा के कारण एकदूसरे को काफी जानने लग गए थे. प्रृशा भी अब काफी हद तक ठीक हो चली थी. उस ने बिस्तर गीला करना छोड़ दिया. छवि से उस की अच्छी बनने लगी थी. छवि जो भी कहती, वह झट से मान जाती.

माहेश्वरी अपनी बेटी की सुधरती हालत से खुश था. उसे छवि की देख भाल पर भरोसा होने लगा था. वह अपने पापा के साथ सोने लगी थी. रात को छवि उसे कहानी सुनाने जाती थी. कहानी सुनते समय वह छवि के गले में बांहें डाल देती. छवि धीरेधीरे उस के बाल सहलाती और वह सो जाती. छवि ने गौर किया जब वह पृशा को कहानी सुनाती, माहेश्वरी एक बार कमरे में जरूर आता और दोनों को देख वापस चला जाता. छवि को माहेश्वरी की इस आदत से प्यार होने लगा था. जिस दिन वह देर करता, वह परेशान हो जाती. उसे माहेश्वरी के आने का इंतजार रहने लगा.

एक दिन प्रृशा ने कहा कि उसे पिंक फ्रील वाली फ्रौक पहननी है. फ्रील वाली फ्रौक थी पर पिंक कलर की नहीं थी. बहुत खोजी गई, नहीं मिली. पता चला, पृशा ने दुर्घटना के समय पहनी थी जो फट चुकी है. छवि ने कहा, ‘कोई बात नहीं बेबी, हम शाम को मौल चलेंगे और आप के लिए खुब सारी फ्रील वाली फ्रौक लाएंगे. प्रृशा सुन कर बहुत खुश थी. बहुत दिनों के बाद वह मौल जा रही थी. उस ने पापा को बताया, ‘पापा खाना खाने के बाद मैं आंटी और प्रियम मौल जा रहे हैं शौपिंग करने.’

‘अच्छा, बहुत अच्छी बात है. लेकिन शाम को बहुत भीड़ हो जाएगी डौल, कल सुबह ब्रेकफास्ट के बाद चली जाना.’

‘ठीक है पापा.’

प्रृशा ने खुश हो कर कहा.

माहेश्वरी ने कहा, ‘चलो, मैं भी चलता हूं तुम लोगों के साथ.’

प्रृशा ने अपने हाथों को घुमा कर कहा, ‘यो पापा, यो पापा…’

प्रियम ने भी प्रृशा की देखादेखी नकल कर दी. छवि और माहेश्वरी की नजरें मिलीं. छवि ने नजरें नीची कर लीं. माहेश्वरी के चेहरे पर मुसकान थी.

छवि बोली, ‘बेबी, जब आप के पापा जा रहे है तब मैं रुक जाती हूं.’

‘नहीं आंटी, आप भी चलिए, आप को चलना होगा,’ प्रृशा जिद करने लगी.

‘बेबी, पापा तो जा रहे हैं न.’

‘पापा नहीं जा रहे हैं.’

माहेश्वरी बोल कर चुपचाप चला गया. उस के स्वर से छवि को लग गया कि माहेश्वरी बुरा मान गया है. छवि ने प्रृशा को समझाया, हम सब साथ चलेंगे. दूसरे दिन ब्रेकफास्ट के बाद बच्चों को तैयार कर वह खुद तैयार होने गई. उसे माहेश्वरी की नाराजगी से कहे स्वर रोमांचित कर रहे थे. ‘पापा नहीं जा रहे हैं’ कह कर जिस दृष्टि से माहेश्वरी ने उसे देखा, उस दृष्टि में प्यारभरी शिकायत दिख रही थी. आज उसे अचानक से मौसम खुशगवार सा लगने लगा. उस का मन अच्छे से तैयार होने का होने लगा. तैयार हो कर उस ने इंटरकौम पर फोन मिलाया. उस का दिल जोर से धड़क रहा था, फोन ले कर वह थोड़ी देर चुप रही. माहेश्वरी ने कहा, ‘छवि, बोलो, मैं सुन रहा हूं.’

‘हम सब तैयार हो कर आप का इंतजार कर रहे हैं.’

‘मैं नहीं जाऊंगा.’

‘तब हम सब भी नहीं जा रहे हैं,’ छवि ने धीरे से कहा.

वह पलभर रुक कर बोला, ‘ठीक है, मैं आ रहा हूं.’

सीख: भाग 1- क्या सुधीर को कभी अपनी गलती का एहसास हो पाया?

जया नहा धो कर तैयार हुई, माथे तक घूंघट किया, फिर धीरेधीरे सीढि़यां उतर कर नीचे आ गई. आते ही मम्मीजी के पैर छूने के लिए जैसे ही झुकी, वैसे ही मम्मीजी ने हाथ पकड़ कर ऊपर उठा लिया.

‘‘पैर छूना पुरानी बातें हैं, दिल में इज्जत होनी चाहिए, इतना ही काफी है और ये घूंघट क्यों बना लिया है?’’ और मम्मीजी ने जया के सिर से घूंघट उठा दिया.

‘‘मेज पर नाश्ता लग गया है, सब लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं. चलो, नाश्ता कर लो,’’  मम्मीजी ने प्यार से कहा.

जया ने अपनी भाभियों को ससुर व जेठ के साथ बराबर बैठ कर खातेपीते नहीं देखा था. पहले तो वह थोड़ी सी झिझकी फिर जा कर एक कुरसी पर बैठ गई.

पापाजी ने एक पकौड़ी का टुकड़ा मुंह में रखा और कहने लगे कि शंभू ने पकौडि़यां ठंडी कर दी हैं.

जया कुरसी से उठी और पकौडि़यों की प्लेट किचन में ले गई. कड़ाही आंच पर चढ़ा कर पकौडि़यां गरम कर लाई. पापाजी खुश हो गए.

‘‘घनश्याम घंटा भर पहले पानी फ्रिज से निकाल कर जग भर के रख देता है, जब तक खाओपियो पानी गरम होने लगता है,’’  विपिन ने कहा.

जया ने पानी का जग उठाया, उस का पानी बालटी में उड़ेल कर फ्रिज से बोतल निकाल कर जग में ठंडा पानी भर मेज पर रख दिया.

‘‘भाभी, इतने नौकर घूम रहे हैं, किसी नौकर को आवाज दे देतीं, आप खुद क्यों दौड़ रही हैं?’’ विभा ने भौंहें सिकोड़ कर कहा.

सुधीर पहले दिन से ही जया को मिडिल क्लास मेंटैलिटी का मान कर कुपित था और आज जया के बारबार खुद उठ कर नौकरानी की तरह भागने से मन ही मन क्रोधित हो रहा था. अत: विभा की बात समाप्त करते ही सुधीर फूट पड़ा, ‘‘अपने घर में  नौकरचाकर देखे हों तो नौकरों से काम लेना आए.’’

जया सहम गई, उसे याद आया मां ने चलतेचलते समझाया था, ‘‘घर में चाहे कितने भी नौकरचाकर हों, अपने परिवार वालों का अपने हाथों से परोसनेखिलाने से प्यार बढ़ता है, बड़ों का सम्मान होता है.’’

सुधीर का ताना सुन कर जया की आंखों में आंसू आ गए. उसे पता ही नहीं चला कि उस ने क्या खाया. सब लोग उठे तो वह भी धीरे से उठ कर कमरे में चली गई.

जया को ब्याह कर ससुराल आए 2 हफ्ते हो गए थे. वह अपने पति सुधीर के साथ एडजस्ट नहीं कर पा रही थी. एक दिन सुधीर के कुछ दोस्त आने वाले थे. जया ने किचन में जा कर मठरियां सेंक कर रख दीं. हलवा बना कर हौटकेस में रख दिया. नौकर से समोसे बाहर से लाने को कह कर जैसे ही बाहर निकली, वैसे ही एकसाथ कई आवाजें सुनाई दीं कि भाभीजी हम लोग आप से मिलने आए हैं, आप कहां छिप कर बैठ गईं?

जया धीरे से बाहर निकली और नमस्ते कर के सीटिंगरूम में एक कुरसी पर बैठ गई.

‘‘वाह भाभीजी, हम लोग यह सोच कर आए थे, कुछ अपनी कहेंगे, कुछ आप की सुनेंगे, मगर आप तो छुईमुई की तरह सिमटीसिकुड़ी चुपचाप बैठी हैं,’’ सुनील ने कहा.

‘‘छुईमुई तो हाथ लगने से सिकुड़ती है, भाभीजी तो हमारी आवाज से ही सिकुड़ गईं,’’ जतिन ने हंसते हुए जोड़ा.

‘‘भाभीजी नईनवेली दुलहन हैं, इतनी जल्दी कैसे खुल जाएंगी?’’  ललित हंस कर बोला. तभी घनश्याम ने चायनाश्ते की ट्रे ला कर मेज पर रख दी.

‘‘हलवा कितना लजीज बना है,’’  सुनील ने 1 चम्मच हलवा मुंह में रखते ही कहा, ‘‘और मठरियां कितनी खस्ता है, लगता है सारा सामान भाभीजी ने ही बनाया है,’’ ललित ने मठरी तोड़ते हुए कहा.

परंतु सुधीर ने अपने मन की भड़ास निकालते हुए जया को ताना दिया, ‘‘इन्हें चौकाचूल्हे के सिवा और आता ही क्या है?’’

‘‘अच्छा भाभीजी, आप को चौकाचूल्हे के सिवा और कुछ नहीं आता?’’ कहतेकहते सब लोग ठहाका मार कर हंस पड़े. जया का मन झनझना उठा.

माहौल को सामान्य बनाने के उद्देश्य से प्रियंक बोला, ‘‘भाभीजी, सुना है आप के गांव के पास शारदा डैम बन गया है और वह बहुत रमणीय स्थल बन गया है. आप हम लोगों को बुलाइए, हम लोग पिकनिक मनाएंगे, डैम में जल विहार करेंगे, बड़ा मजा आएगा. सुधीर, चलने का प्रोग्राम बनाओ.’’

‘‘हां, इन के पिताजी के खेतखलिहान भी देख लेना,’’ सुधीर को जया पर कटाक्ष करने की आदत सी पड़ गई थी.

‘‘हांहां, आप लोग अवश्य आइए. आप लोग बड़े शहर में रहते हैं, आप ने गांव नहीं देखे होंगे. आप को वे अजीबोगरीब लगेंगे,’’ जया का स्वर हलका सा कठोर हो गया था.

‘‘क्या भाभीजी आप के गांव में बैलगाड़ी से आतेजाते हैं?’’ सुनील ने कुछ अज्ञानतावश तो कुछ व्यंग्यपूर्वक पूछा.

‘‘नहीं भाई साहब, हम लोग कसबे में रहते हैं, गांव में हमारा फार्म है, पिताजी के पास जीप है, पिताजी जीप से फार्म देखने जाते हैं, अगर खुद जा कर न देखें तो नौकरचाकर भट्ठा बैठा दें,’’ जया के स्वर में दृढ़ता थी.

थोड़ी देर गपशप कर के दोस्त तो चले गए, परंतु सुधीर का असंतोष उस के चेहरे से साफ झलक रहा था.

जया अपने कमरे में चली गई, जहां से उस ने सुना, सुधीर मां के पास बैठा  बड़बड़ा रहा था, ‘‘मां, आप ने कितने दकियानूसी परिवार की लड़की मेरे गले बांध दी. आखिर मुझ में क्या कमी है? स्मार्ट हूं, ऊंची पोस्ट पर हूं, मेरे कालेज की कितनी लड़कियां मुझ से शादी करने को तैयार थीं, परंतु आप की जिद के आगे मैं झुक गया.

जया कितनी पिछड़ी है, न उठनेबैठने की तमीज है न बोलने का सलीका, चार लोग आए तो सिमटसिकुड़ कर बैठ गई. बोली तो ऐसे बोली मानो पत्थर मार रही हो.

‘‘उस दिन एक दोस्त के बेटे के बर्थडे में गया, तो सब लड़कियां तालियां बजाबजा कर हैप्पी बर्थडे गा रही थीं, यह मुंह लटकाए चुपचाप खड़ी थी. कपड़े पहनने की तमीज नहीं, सर्दी में शिफान और गरमियों में सिल्क पहन कर चल देती है. एक हाई हील के सैंडल ला कर दिए तो पहन कर चलते ही गिर पड़ी. मुझे तो बहुत शर्म आती है. मेरे दोस्त अरुण की शादी अभी हाल ही में हुई है, उस की बीवी कितनी स्मार्ट है, फर्राटे से अंगरेजी बोलती है अरुण बता रहा था, लेडीज संगीत में उस की छोटी बहन ने उसे जबरदस्ती खड़ा कर दिया तो उस ने इतना अच्छा डांस किया कि सब लोग वाहवाह कर उठे.’’

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