Hindi Story : पत्नी का कर्जदार

Hindi Story : अचानक दिल्ली में जब उस हवाई दुर्घटना के बारे में सुना तो एकाएक विश्वास ही नहीं हुआ. मैं तो बड़ी बेसब्री से कमला की प्रतीक्षा कर रही थी कि अचानक यह हादसा हो गया. कमला शादी के बाद पहली बार दिल्ली अपने मातापिता के पास आ रही थी. 5 साल पहले उस की शादी हुई थी और शादी के कुछ महीने बाद ही वह अपने पति के पास मांट्रियल चली गई थी. इसी बीच उस की गोद में एक बेटी भी आ गई थी. दिल्ली में उस का मायका हमारे घर से थोड़ी ही दूरी पर था.

मैं पिछले 8 महीने से अपने पति और बच्चों के साथ दिल्ली में ही थी. मेरे पति भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली में अतिथि प्राध्यापक के रूप में काम कर रहे थे. कमला से मिले काफी दिन हो गए थे. मैं मांट्रियल की सब खोजखबर कमला से जानने के लिए उस की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रही थी.

कमला के पिता के घर हम अफसोस जाहिर करने गए. उस के मातापिता और परिवार के अन्य सदस्यों का बुरा हाल था. वे तो उसे पति के घर जाने के बाद एक बार देख भी नहीं पाए थे और अब क्या से क्या हो गया था.

कमला के पति राकेश को एअर लाइंस ने दुर्घटना स्थल तक जाने की सब सुविधाएं प्रदान की थीं. वह चाहता तो उस कंपनी के खर्चे पर भारत आ कर पत्नी और बेटी का दाहसंस्कार कर सकता था पर वह नहीं आया.

राकेश ने जब कमला के पिता को फोन किया, तब हम उन के घर पर ही थे. बेचारे राकेश से आग्रह कर के हार गए, पर वह दिल्ली आने को राजी नहीं हुआ. खैर, वह करते भी क्या. जमाई पर किस का हक होता है और अब तो उन की बेटी भी इस दुनिया में नहीं रही थी तो फिर वह उस को किस अधिकार से दिल्ली आने के लिए बाध्य करते.

एअर लाइंस के अधिकारी दुर्घटना में मरे यात्रियों के निकट संबंधियों से मुआवजे के बारे में बातचीत कर रहे थे. यह विषय कितना दुखद हो सकता है, इस का अनुमान तो वही लगा सकते हैं जो कभी ऐसी परिस्थिति से गुजरे हों. कैसे किसी विधवा स्त्री को समझाया जाए कि उस के पति की मृत्यु का मुआवजा चंद हजार डालर ही है. कैसे किसी पति को सांत्वना दें कि उस की पत्नी का मुआवजा इसलिए कम होगा, क्योंकि वह अपने पति पर निर्भर थी. जो इनसान हमें प्राणों से भी प्यारे लगते हैं, उन के जीवन का मूल्य एअरलाइंस कुछ हजार डालर ही लगाती है.

राकेश से जब एअरलाइंस के अधिकारियों ने उस की पत्नी और बच्ची की मृत्यु पर मुआवजे की बातचीत की तो वह क्रोध और दुख से कांप उठा. उस ने साफसाफ कह दिया कि इस दुर्घटना के लिए हवाई जहाज का पायलट जिम्मेदार था. वह अपनी बच्ची और पत्नी की मृत्यु के लिए मुआवजे की एक कौड़ी भी नहीं चाहता परंतु वह एअरलाइंस पर मुकदमा चलाएगा, चाहे उसे इस के लिए भीख ही क्यों न मांगनी पड़े. वह कचहरी में कंपनी को हवाई दुर्घटना के लिए जिम्मेदार ठहरा कर ही रहेगा.

एअरलाइंस के अधिकारी राकेश को धीरज बंधाने की कोशिश कर रहे थे. अगर वास्तव में राकेश कानून का सहारा लेगा तो मुकदमा जीत जाने पर कंपनी की कहीं अधिक हानि हो सकती थी. कंपनी के अधिकारी उस के इर्दगिर्द घूमते रहे, पर उस ने मुआवजे के फार्म पर हस्ताक्षर नहीं किए. शेष जितने भी यात्रियों की मृत्यु हुई थी, लगभग हर किसी के परिवार के सदस्यों ने मुआवजे के फार्म भर दिए थे. शायद राकेश ही ऐसा था जो बिना फार्म भरे मांट्रियल वापस आ गया था. एअरलाइंस के मांट्रियल कार्यालय के अधिकारियों को राकेश को राजी करने का काम सौंप दिया गया था.

राकेश और कमला से हमारी मुलाकात कुछ वर्ष पहले हुई थी. कमला तो काफी खुशमिजाज थी, पर राकेश हमें अधिक मिलनसार नहीं लगा. वैसे तो उसे कनाडा में रहते हुए कई साल हो गए थे और मांट्रियल में भी वह पिछले 7 सालों से था, पर उस की यहां पर इक्कादुक्का लोगों से ही मित्रता थी.

एक बार बाजार में कमला मिल गई. मैं ने जब उस से कहा कि मेरे घर चलो तो वह आनाकानी करने लगी. खैर, मैं आग्रह कर के उसे अपने घर ले आई. बातों ही बातों में पता चला कि बचपन में हम दोनों एक ही स्कूल में पढ़ती थीं. वह मुझ से मिल कर बहुत खुश हुई.

यह सुन कर मुझे बहुत अजीब लगा जब कमला ने बताया कि वह जब से भारत से आई है, किसी भी भारतीय के घर नहीं गई है और न ही उस ने कभी किसी को अपने घर बुलाया है. मैं ने जब उन को अपने घर खाने का निमंत्रण दिया तो वह आनाकानी करने लगी. कहने लगी, ‘‘पता नहीं, राकेशजी शाम को खाली भी होंगे या नहीं.’’

मैं ने जिद की तो वह मान गई परंतु यह कह कर कि अगर नहीं आ सके तो हम बुरा नहीं मानें. उस की बातों से लगा कि जैसे बेचारी पति की आदतों से परेशान है. पति अगर मिलनसार न हो तो पत्नी तो बेचारी बस जीवनभर घुटघुट कर ही मर जाए.

शाम को पतिपत्नी हमारे घर खाने पर आए. कमला तो बहुत खुश थी. मेरे साथ रसोई में हाथ बंटा रही थी, परंतु राकेश कुछ खिंचाखिंचा सा था. हमें ऐसा लगा कि वह कनाडा में अपनेआप को किसी विदेशी सा ही समझता है.

कमला और राकेश के यहां हमारा कभीकभार आनाजाना होने लगा. हम तो उन दोनों को पार्टियों में ही बुलाते थे, पर वे हमें बस अकेले ही सपरिवार आमंत्रित करते थे. हमारे घर की पार्टियों में उन की मुलाकात हमारे बहुत से मित्रों से होती थी. उन में से कुछ ने तो कमला और राकेश को खाने पर भी बुलाया था, पर वे नहीं गए. कोई बहाना बना कर टाल गए थे. जब उन की बच्ची पैदा हुई तो उस के लिए हमारे अलावा शायद ही किसी और ने उपहार दिया हो. हम भी बस एक ही बार जा पाए थे.

दिल्ली से जब हम मांट्रियल वापस आ रहे थे, सारे रास्ते मन उखड़ाउखड़ा सा था. इतने महीने दिल्ली में बिताने के बाद घर वालों से बिछुड़ने का दुख भी था. दिल के एक कोने में अपने घर जल्दी पहुंचने की इच्छा भी थी. कमला और उस की बच्ची रीता का खयाल भी रहरह कर दिल में उठ रहा था. बेचारा राकेश किस तरह कमला और रीता के बिना जीवन बिता रहा होगा. हमारे बच्चे तो रीता से कितना हिलमिल गए थे. उन को तो वह गुडि़या सी लगती थी.

मांट्रियल पहुंचने के अगले दिन हम दोनों राकेश से मिलने गए. मैं ने कमला के पिता का दिया हुआ पत्र राकेश को दे दिया. राकेश काफी उदास दिखाई दे रहा था. वह बेचारा बहुत कम लोगों को जानता था. थोड़े से लोग ही उस के घर पर अफसोस करने आए थे.

वह गंभीर स्वर में बोला, ‘‘हर समय कमला और रीता की याद सताती रहती है. कुछ दिल बहलेगा, इसलिए 1-2 दिन में वापस काम पर जाने की सोच रहा हूं.’’

राकेश के पास हम कुछ देर बैठ कर लौट आए.

दोचार दिन में हमारे सब मित्रों को मालूम हो गया कि हम वापस आ गए हैं. फिर क्या था, फोन पर फोन आने लगे. मेरी लगभग सभी सहेलियां मुझ से मिलने आईं. वे सब इस बात से परेशान थीं कि कनाडा के डाक कर्मचारियों की हड़ताल के कारण पत्र आदि आने भी बंद हो गए हैं.

एक शाम दीपक हमारे घर आए. उन्हें अकेले देख कर मैं ने शिकायत के लहजे में कहा, ‘‘क्यों भाई साहब, अकेले ही आ गए. भाभीजी को भी साथ ले आते.’’

‘‘मैं तो राकेश के घर जा रहा था. सोचा, आप लोगों से मिलता जाऊं और दिल्ली की मिठाई भी खाता जाऊं. तुम्हारी भाभी तो मुझे मिठाई को हाथ भी नहीं लगाने देंगी.’’

‘‘मैं भी बस आप को थोड़ी सी मिठाई चखाऊंगी. मुझे भाभीजी से डांट नहीं खानी है.’’

मैं रसोई में चाय बनाने चली गई.

दीपक मेरे पति से बोले, ‘‘साहब, डाक कर्मचारियों की हड़ताल ने परेशान कर रखा है. देखिए, यह चेक देने मुझे राकेश के पास खुद ही जाना पड़ रहा है.’’

‘‘किस तरह का चेक है, भाई साहब,’’ मैं रसोई में चाय और कुछ मिठाई ट्रे में रख कर ले आई और चाय परोसने लगी.

‘‘राकेश ने कमला के भारत जाते समय उस का हवाई अड्डे पर 2 लाख डालर का बीमा करा लिया था. यह चेक उसी बीमे का भुगतान है. कभी हाथ पर रखा है 2 लाख डालर का चेक,’’ दीपक ने मुसकराते हुए कोट की जेब से एक लिफाफा निकाला.

लगभग आधा घंटा बैठ कर दीपक राकेश को चेक देने चले गए. उस शाम हम दोनों पतिपत्नी यही सोचते रहे कि राकेश 2 लाख डालर का क्या करेगा. हमारे जानपहचान वालों में शायद ही कोई ऐसा हो जो पत्नी का हवाई यात्रा करते समय बीमा कराता हो. पुरुष तो फिर भी करा लेते हैं, पर पत्नी के लिए तो कोई भी नहीं सोचता. खैर, यह तो राकेश और कमला की अपनी इच्छा रही होगी. यह भी तो हो सकता है कि मजाक के लिए ही उन दोनों ने ऐसा किया हो, पर राकेश हंसीमजाक के लिए तो कुछ भी नहीं करता.

हम मांट्रियल में अपने जीवन में व्यस्त हो गए थे. सोमवार से शुक्रवार तक काम और बच्चों का स्कूल. शनिवार को खरीदारी और पार्टियां तथा रविवार को बस आराम या कभीकभी किसी परिचित के घर चले जाते.

राकेश से कभीकभी फोन पर मेरे पति बात कर लेते थे. हालांकि उस की चर्चा पार्टियों में कभीकभी ही होती थी. हमारे मित्र हम से ही उस के बारे में पूछते थे. लगता था, जैसे वह बाकी सब लोगों के लिए एक अजनबी सा ही हो.

एक बार दीपक बातों ही बातों में कह गए थे, ‘‘राकेश अपनी बीवी और बच्ची के लिए एअरलाइंस से मुआवजे के रूप में बहुत बड़ी रकम की मांग कर रहा है और जिद पर अड़ा है. अब तो उस के पास 2 लाख डालर की नकद रकम भी है. एअरलाइंस के खिलाफ मुकदमा न कर दे. वैसे कंपनी इस मामले को कचहरी तक पहुंचने नहीं देना चाहती और समझौता करने की कोशिश कर रही है. राकेश शायद हवाई दुर्घटना से पीडि़त अन्य लोगों की तुलना में कई गुना मुआवजा हवाई कंपनी से हासिल करने में सफल हो जाएगा.’’

जैसा कि होता है, हम भी कमला और रीता को भूल सा गए थे. राकेश तो कभी हम लोगों के करीब आ ही नहीं पाया था. हम ने एकदो बार उसे अपने घर बुलाया भी, परंतु वह नहीं आया, हम उस से मिलने उस के घर भी गए, पर अधिक बातें न हो सकीं.

डाक विभाग के कर्मचारियों की हड़ताल काफी दिन चली. जब हड़ताल समाप्त हुई तो हमें बहुत खुशी हुई. हड़ताल खत्म होते ही डाकघरों में पड़े पुराने पत्र, टेलीफोन और बिजली आदि के बिल आने चालू हो गए.

एक दिन दिल्ली से हमारे मांट्रियल पहुंचने के पश्चात पहला पत्र आया. लिफाफा भारी लग रहा था. उस में अम्मां का काफी लंबा पत्र था. एक और लिफाफा भी था, जिसे कनाडा से ही मेरे नाम भेजा गया था. हमारे दिल्ली से चले आने के बाद वहां पहुंचा होगा, इसलिए अम्मां ने हमें भेज दिया.

मैं ने जब लिफाफा खोला तो आश्चर्यचकित रह गई. पत्र कमला का था. मेरा मन उदास हो गया क्योंकि कमला अब इस दुनिया में नहीं थी. मैं पत्र पढ़ने लगी :

प्रिय रत्ना दीदी,

आप का पत्र मिला. मेरा कुछ ऐसा कार्यक्रम बन गया है कि जब आप मांट्रियल वापस आएंगी, तब मैं दिल्ली से कानपुर पहुंच चुकी होऊंगी. मेरी माताजी से आप को मेरे दिल्ली पहुंचने की तारीख का पता चल ही गया होगा. शायद आप को यह नहीं पता कि मैं जिद कर के दिल्ली पहुंचने के एक दिन बाद ही कानपुर अपनी बड़ी बहन के पास चली जाऊंगी. इस का कारण यह है कि आप मुझ से मिलने अवश्य मेरी माताजी के घर आएंगी, पर मैं आप से मिलने का साहस नहीं जुटा पा रही हूं. अब हम शायद कभी नहीं मिल पाएंगी क्योंकि मैं अब मांट्रियल कभी नहीं लौटूंगी.

मेरे इस निर्णय का राकेश को भी पता नहीं है. हां, इस का सौ प्रतिशत उत्तरदायी वही है. हमारी शादी हुए 5 साल से ऊपर हो गए हैं, पर उस ने शायद ही कभी पति का प्यार मुझे दिया हो. राकेश ने मुझे घर की नौकरानी से अधिक कभी कुछ नहीं समझा. शादी के इतने वर्ष बीत जाने पर भी उस ने कभी मेरे लिए कोई साड़ी, गहना या छोटा सा उपहार भी नहीं खरीदा. मेरी बात को छोडि़ए रीता को भी उस ने कभी प्यार से चूमा तक नहीं, गोद में खिलाना तो दूर की बात है.

आप ने देखा ही होगा कि राकेश कितना नीरस व्यक्ति है. परंतु वास्तव में वह बहुत खुशमिजाज है, और उस की यह खुशी बस अपनी महिला मित्रों तक ही सीमित है. उस ने अपने जीवन के इस रूप से मुझे हमेशा अनजान ही रखा. खुद ऐश करने के लिए उस के पास पैसे हैं, परंतु अपनी बेटी के लिए ढंग का फ्राक खरीदने के लिए पैसे की कमी है. वह हमेशा मुझे इतने कम पैसे देता है कि घर का खर्च भी मुश्किल से चलता है.

मैं कभी राकेश को पकड़ तो नहीं पाई परंतु जानती हूं कि कई लड़कियों के साथ उस का संपर्क है. मुझे प्रमाण तो नहीं मिल पाया, पर एक पत्नी को ऐसी बातें तो मालूम हो ही जाती हैं. मैं ने कई बार उसे समझाने की कोशिश की, पर हर बार उस से मार ही खाई. मेरे भारत जाने के लिए हवाई जहाज के टिकट के पैसे खर्च करने के लिए कभी वह राजी नहीं हुआ. इस बार जब पिताजी ने टिकट भेज दिया तो मैं दिल्ली आ पा रही हूं.

प्रत्येक लड़की के मातापिता अपनी बेटी के लिए अच्छे से अच्छा वर खोजने की कोशिश करते हैं. मेरे मातापिता ने भी इतना दहेज दिया था कि राकेश के घर वाले खुशी से फूले नहीं समा रहे थे. मेरे दहेज की सारी चीजों और नकद रुपयों से उन्होंने थोड़े दिनों बाद ही राकेश की छोटी बहन की शादी कर दी थी.

राकेश ने अपने घर वालों के दबाव में आ कर मुझ से शादी की थी. उसे मैं कभी भी अपने लायक नहीं लगी, क्योंकि मैं एक सीधीसादी आकर्षण- रहित महिला हूं. मुझे कहीं अपने साथ ले जाने में भी उसे आपत्ति होती थी. बेचारी रीता भी रंगरूप में मुझ पर गई है. इसी कारण उसे कभी राकेश से पिता का प्यार नहीं मिला.

मैं तो शायद किसी भी साधारण व्यक्ति को पति के रूप में पा कर प्रसन्न रहती. कम से कम मेरे जीवन में हीन- भावना तो न घर कर पाती. राकेश मेरे लिए उपयुक्त वर भी न था. उस ने मुझ से शादी खूब सारा दहेज पाने के लिए की थी. वह उसे मिल गया. उस के बाद उस के जीवन में मेरा कोई महत्त्व न था. शारीरिक आवश्यकताएं तो वह घर के बाहर पूरी कर ही लेता था. मैं तो बस रीता के लिए ही उस के साथ विवाहित जीवन की परिधि में असहाय की तरह जीवन बिताने का प्रयास कर रही थी.

अब मैं ने निश्चय कर लिया है कि जब विवाहित हो कर भी अविवाहिता का ही जीवन बिताना है तो क्यों न अपने मातापिता के पास ही रहूं. कम से कम उन का प्यार और सहयोग तो मुझे मिलेगा ही. मुझे मालूम है, मेरे मातापिता मुझे समझाने की कोशिश करेंगे, पर जब मैं उन्हें अपनी पीठ पर उभरे राकेश की मार के काले निशान दिखाऊंगी तो वे शायद कुछ न कहेंगे. मेरे जीवन के पिछले 5 साल कैसे बीते हैं, यह मेरा दिल ही जानता है. पर उन दिनों आप ने जो मुझे प्यार और स्नेह दिया, उस ने मुझे मानसिक संतुलन खो देने से बचा लिया. मैं जीवन भर आप की आभारी रहूंगी.

आप की कमला.

कमला का पत्र पढ़ कर मेरी आंखों में आंसू उमड़ आए. राकेश का जो रूप कमला के पत्र से प्रकट हुआ, उस की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी. मांट्रियल आने के बाद राकेश से हम 2-3 बार मिले थे.

हमेशा ऐसा ही लगा, जैसे उस के ऊपर दुख का पहाड़ टूट पड़ा है. यह सब क्या उस का दिखावा था, ताकि वह एअरलाइंस से अधिक मुआवजा वसूल कर सके. 2 लाख डालर तो उस की

जेब में आ ही चुके थे. अभी पता नहीं उसे मुआवजे के रूप में और कितने मिलेंगे?

कितना दुखभरा जीवन था कमला और उस की बच्ची का. जब तक जीवित रहीं छोटीछोटी चीजों के लिए तरसती रहीं क्योंकि राकेश आमदनी का अधिक भाग अपनी ऐयाशी पर खर्च कर देता था. मृत्यु के बाद भी दोनों राकेश के लिए आशातीत मुआवजे की रकम का प्रबंध कर गईं.

कह नहीं सकती कि राकेश एकांत के क्षणों में कमला और रीता की मृत्यु पर दुखी होता है अथवा प्रसन्न. उस का निजी जीवन पहले की तरह चल रहा है या कमला के रास्ते से हमेशा के लिए हट जाने के कारण वह और भी अधिक ऐशोआराम में डूब गया है.

वैसे राकेश जैसे व्यक्ति के बारे में मैं सोचना नहीं चाहती. कमला और उस की बेटी तो शायद राकेश का अतीत बन गई होंगी, पर उन दोनों की स्मृति मेरे मन से कभी नहीं जाएगी.

राकेश को तो मुआवजा मिल ही जाएगा, पर वह जीवन भर कमला का कर्जदार रहेगा. उसे कमला  के जीवन के दुख भरे वर्षों का मुआवजा कभी न कभी किसी न किसी रूप में तो चुकाना ही पड़ेगा.

Husband Wife Comedy : श्रीमतीजी की अभासी दुनिया

Husband Wife Comedy : पिछले2-3 महीनों से श्रीमतीजी को न जाने व्हाट्सऐप का क्या शौक लगा है कि रातरात भर बैठ कर मैसेज भेजती रहती हैं. कभी अचानक नींद खुले तो देख कर डर जाएं कि वे हंस रही हैं.

उस रात भी हम देख कर घबरा कर पूछ बैठे, ‘‘क्यों क्या बात है?’’

‘‘एक जोक आया है, गु्रप में शामिल हूं न तो फोटो और मैसेज आते रहते हैं. सुनाऊं?’’ श्रीमतीजी ने रात को 2 बजे उत्साहित स्वर में पूछा.

हम ने ठंडे स्वर में कहा, ‘‘सुना दो.’’

वे सुनाने लगीं. जब खत्म हो गया तो हम ने उत्साह बढ़ाते हुए कहा, ‘‘बहुत बढि़या है.’’

‘‘एक प्रेरक कथा भी आई है. उसे भी सुनाऊं?’’ और फिर हमारी मरजी जाने बिना शुरू हो गईं.

अचानक हमारी नींद खुली. श्रीमतीजी हमें झकझोर रही थीं. हम घबरा गए. पूछा, ‘‘क्यों क्या हुआ?’’

‘‘कहानी कैसी लगी?’’

‘‘कौन सी?’’

‘‘जो मैं सुना रही थी.’’

‘‘सौरी डियर हमें नींद आ गई थी.’’

‘‘मैं कब से पढ़पढ़ कर सुना रही थी,’’ कुछ नाराजगी भरे स्वर में श्रीमतीजी ने कहा.

‘‘डियर रात के 2 बजे इनसान सोएगा नहीं तो सुबह काम कैसे करेगा?’’ हम ने अपनी आंखें मलते हुए कहा.

‘‘तुम्हें अपनी श्रीमतीजी के द्वारा सुनाई जा रही कहानी की बिलकुल चिंता नहीं है,’’ वे कैकेई की तरह क्रोध धारण कर के बोलीं.

‘‘अच्छा, सुना दो,’’ कह कर हम उठ बैठे और वे बिना सिरपैर की कथा का मोबाइल पर देखदेख कर वाचन करने लगीं. 3 बजे तक हम जागे और सुबह कार्यालय लेट पहुंचे.

हमें यह देख कर आश्चर्य हो रहा था कि जो श्रीमतीजी 2 माह पहले तक हम से बातचीत करती थीं. हमारे कार्यालय से लौट आने पर नाश्ते की, चाय की बातें करती थीं वे अचानक इतनी कैसे बदल गईं? हमेशा वे अपने मोबाइल पर बैठ कर न जाने किसकिस को मैसेज करती रहती थीं. नैट और मोबाइल का जो भी चार्ज लगता वह हमारी जेब से जा रहा था. अब तो नाश्ता भी हमें खुद निकालना पड़ता था. भोजन में वह पहले जैसा स्वाद नहीं रहा था. लगता था खानापूर्ति के लिए भोजन पका दिया गया है. हम अपना माथा ठोंकने के अलावा और कर ही क्या सकते थे?

हम ने जब अपनी सासूमां से यह बात शेयर की तो उन्होंने कहा, ‘‘बेबी को डांटना नहीं, बात कर के देख लें.’’

सासूमां के लिए हमारी प्रौढ श्रीमतीजी अभी तक बेबी ही थीं. खैर, हम ने विचार किया कि हम इस विषय पर चर्चा जरूर करेंगे.

एक छुट्टी के दिन हम ने श्रीमतीजी से कहा, ‘‘यह आप दिन भर इस स्मार्ट फोन में क्याक्या करती रहती हैं? आंखें खराब हो जाएंगी.’’

‘‘नहीं होंगी… एक काम करो न… आप भी यह ले लो और हमारे ग्रुप में शामिल हो जाओ… सच में हमारे दोस्तों का एक बहुत शानदार ग्रुप है. हम खूब मजे करते हैं. खूब बातें करते हैं… क्या आविष्कार बनाया गया है यह मोबाइल का… यह व्हाट्सऐप का?’’ श्रीमतीजी अपने में मगन कहे जा रही थीं.

हम उन की बातें सुन कर अपना माथा ठोंकने के अलावा क्या करते. हम जब औफिस से लौटते तो वे हमें अपने आभासी मित्रों (जाहिर है महिला मित्रों) की ढेर सी बातें बतातीं. हम उन से कहते, ‘‘इस आभासी दुनिया में सब झूठे हैं.’’

लेकिन वे मानने को तैयार नहीं थीं.

हमारा वैवाहिक जीवन पूरी तरह से बरबादी की ओर अग्रसर था. आखिर हम करें तो क्या करें? हमें कोई उपाय दूरदूर तक दिखाई नहीं दे रहा था.

शनिवार की रात को जब हम बिस्तर पर पहुंचे तो श्रीमतीजी ने बहुत प्रेम से हम से कहा, ‘‘जानते हो…?’’

‘‘क्या?’’

‘‘इस व्हाट्सऐप से बहुत अच्छे लोगों से मुलाकात, बातचीत, दोस्ती हो जाती है.’’

‘‘अच्छा?’’ हम ने कोई रुचि नहीं ली.

‘‘बहुत अमीर और बहुत पहुंच वाली महिलाओं से बातचीत हो जाती है,’’ श्रीमतीजी कहे जा रही थीं.

हम चुप थे.

‘‘मैं ने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मेरे संसार में इतने सारे ग्रुपों में डेढ़ हजार दोस्तों की लिस्ट होगी.’’

‘‘जिस के इतने दोस्त हों उस का कोई भी दोस्त नहीं होता. दोस्त तो मात्र जीवन में 1 या 2 ही होते हैं, समझीं?’’ हम ने चिढ़े स्वर में कहा.

‘‘आप तो जलते हो.’’

‘‘हम क्यों जलने लगे?’’

‘‘मेरे सब फ्रैंड अच्छे परिवारों से हैं और अमीर हैं.’’

‘‘तो हम क्या करें?’’ हम चिढ़ गए थे.

‘‘मैं तो एक विशेष बात आप को बता रही थी.’’

‘‘कैसी विशेष बात?’’ हमारे कान खड़े हो गए थे.

‘‘मेरी 2-3 सहेलियां कल मुझ से मिलने आ रही हैं. वे सब बहुत अमीर हैं.’’

‘‘तो हम क्या करें?’’

‘‘प्लीज, कल आप बाजार से शानदार नाश्ता ले आना. कुछ मैं बना लूंगी… जानते हो हम पहली बार मिलेंगी… वाह कितने रोमांचक होंगे वे क्षण जब एकदम अपरिचित सहेलियों से भेंट होगी.’’

‘‘वे कहां रहती हैं?’’

‘‘यहीं भोपाल की ही हैं.’’

‘‘अच्छा, तो कल उन की पार्टी है.’’

‘‘पार्टी ही समझ लो. वे 3 आ रही हैं, फिर मैं भी उन से मिलने जाऊंगी. जीवन एकदूसरे से मिलने, एकदूसरे के विचारों को जानने का ही तो नाम है,’’ श्रीमतीजी ने किसी चिंतक की तरह कहा.

‘‘प्लीज, हमें सो जाने दो. जानती हो न महीने के आखिरी दिन चल रहे हैं और आप को पार्टी देने की सूझ रही है.’’

‘‘आप चिंता न करो. जो भी खर्च होगा मैं पेमैंट कर दूंगी.’’

‘‘हम पेमैंट करें चाहे आप, लेकिन खर्च तो अपना ही होगा न डियर? इस आभासी दुनिया से बाहर आओ… इस में कुछ नहीं रखा है,’’ हम ने कुछ चिढ़ते हुए कहा.

‘‘लेकिन वे सब तो कल आ रही हैं?’’

‘‘आने दो, हम ताला लगा कर घूमने चले जाएंगे.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. यह तो अपने वचन से पलट जाना हुआ. मैं कदापि ऐसा नहीं कर सकती,’’ श्रीमतीजी ने हम से दोटूक शब्दों में कहा.

‘‘फिर बताओ क्या करना है?’’

‘‘उन के लिए शानदार नाश्ते की व्यवस्था कर दो.’’

‘‘एक बार सोच लो, जिस आभासी दुनिया (फेसबुक) से आप मिली नहीं, जानती नहीं उसे क्यों और किसलिए निमंत्रण दे रहीं?’’ हम ने झल्लाते हुए कहा.

‘‘प्लीज, इस बार देखते हैं, अगर यह अनुभव खराब रहा तो मैं हमेशा के लिए व्हाट्सऐप से दूर हो जाऊंगी,’’ श्रीमतीजी ने हमें आश्वस्त करते हुए कहा.

श्रीमती सुबह जल्दी उठ गईं. ड्राइंगरूम ठीक किया, नाश्ता तैयार किया. फिर हमें उठा कर कहने लगीं, ‘‘उन का 10 बजे तक आना होगा. आप बाजार जा कर सामान ले आओ,’’ और फिर सामान की एक लंबी लिस्ट हमें थमा दी.

हम विचार करने लगे कि यह नाश्ते की लिस्ट है या पूरे महीने के राशन की है? जो फल हम ने कभी खाए नहीं, जिन मिठाइयों के नाम हम ने सुने नहीं थे वे सब उस लिस्ट में मौजूद थीं. कुछ नोट हमारे हाथ पर रख दिए. हम अपना पुराना स्कूटर ले कर बाजार निकल गए.

आटोरिकशा में सारा सामान रख कर हम घर आ गए.

श्रीमतीजी खुशी से हम से लिपट गईं. ऐसा लगा जैसे आम के फलदार वृक्ष पर नागफनी की बेल फैल गई हो. हम ने स्वयं को बचा कर दूर किया और अपने कमरे में जा पहुंचे.

श्रीमतीजी किचन में सामान को सजाने लगी थीं. हमारे जीवन का यह प्रथम अनुभव था जहां जान न पहचान और सलाम की प्रक्रिया हो रही थी. हम उन की व्यग्रता को देख रहे थे. थोड़ी देर बाद उन के मोबाइल पर संदेश आया, ‘‘मकान खोज रहे हैं… मिल नहीं रहा है.’’

इधर से श्रीमतीजी ने पूरा दिमाग लगा कर भारत का नक्शा उन्हें बताते हुए कहा, ‘‘मैं घिस्सू हलवाई की दुकान पर इन्हें लेने भेज रही हूं.’’

घिस्सू हलवाई महल्ले का प्रसिद्ध हलवाई था. श्रीमतीजी ने हम पर नजर डाली. हम बिना कुछ कहे अपने स्कूटर की तरफ चल दिए.

श्रीमतीजी उन्हें मोबाइल पर फोन कर के हमारे रंगरूप के विषय में, कपड़ों के विषय में विस्तार से जानकारी दे रही थीं ताकि उन्हें हमें पहचानने में कोई दिक्कत न हो. हम स्कूटर ले कर घिस्सू हलवाई की दुकान पर खड़े हो गए.

तभी एक काली महंगी कार आ कर रुकी और उस में बैठे ड्राइवर ने हमें देख कर पूछा, ‘‘आप ही चपड़गज्जूजी हैं?’’

‘‘जी हां, हम ही हैं.’’ हम ने घबराए स्वर में कहा.

‘‘आप के घर जाना है.’’

‘‘जी, हम लेने ही तो आए हैं,’’ हम ने कहा. अंदर कौन है, नहीं जान पाया, क्योंकि गाड़ी के अंदर कांच के ऊपर परदे चढ़े थे.

अब हम घिसेपिटे स्कूटर पर आगेआगे चल रहे थे और वे महंगी कार में हमारे पीछेपीछे.

कुछ ही देर बाद हम ने स्कूटर रोक दिया, क्योंकि आगे गली में तो कार जा नहीं सकती थी. हम ने कहा, ‘‘यहां से पैदल चलना होगा,’’ और फिर हम ने अपना स्कूटर एक दीवार से सटा कर खड़ा कर दिया.

तभी कार का दरवाजा खुला. 3 हट्टीकट्टी, गहनों से लदीफंदी, महंगे कपड़ों में, फिल्मी अंदाज में मेकअप किए उतरीं. हमारा दिल तो धकधक, तक धिनाधिन होने लगा था. हमें पहली बार अपनी श्रीमतीजी पर गर्व हो आया कि वाह क्या अमीरों से दोस्ती की है.

हम किसी पालतू कुत्ते की तरह दुम हिलाते, कूंकूं मुसकराते चल रहे थे. महल्ले की खिड़कियां खुल रही थीं. सब बहुत आश्चर्य से देख रहे थे कि इन छछूंदरों के घर ये अमीर क्या करने आए हैं…? हम उन्हें अपने गरीबखाने पर लाए.

श्रीमतीजी दरवाजे पर ही मिल गईं. हम ने अनुभव किया कि वे उतनी खुश नहीं थीं जितनी होनी चाहिए थीं. फिर भी मुसकरा कर अंदर ड्राइंगरूम में लाईं. पंखा चालू किया. तीनों इधरउधर देख रही थीं कि क्या एसी नहीं है?

सच तो यही है कि लोगों की अमीरी देख कर ही स्वयं की गरीबी का एहसास होता है. श्रीमतीजी ने तत्काल उन्हें पानी पीने को दिया. श्रीमतीजी का व्यवहार कुछ ऐसा था कि आभासी दुनिया वाली तुरंत चली जाएं. शायद इसलिए भी कि श्रीमतीजी को अपनी निर्धनता का कटु एहसास हो रहा होगा. कुल जमा चंद बातचीत के बाद नाश्ता कर वे जाने को उठ गईं. विदाई के समय तो हमारा सामना होना जरूरी था. हम देख रहे थे कि श्रीमतीजी अत्यधिक बेचैन हैं. क्यों, यह हम नहीं जान पाए थे. ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ये जल्दी चली जाएं. हम भी बागड़ बिल्ले की तरह उपस्थित हो कर विदाई बेला में खड़े रहना चाहते थे.

‘‘अच्छा जीजाजी चलते हैं,’’ एक मोटी सी फटी आवाज कानों में आई.

‘‘जीजी,’’ हम ने घबराए स्वर में कहा.

हम उन्हें छोड़ने जा रहे थे तो दूसरी ने कहा, ‘‘बस भी कीजिए… हम चली जाएंगी,’’ उस की आवाज भी कुछ विचित्र सी थी.

वे चली गईं तो श्रीमतीजी ने माथे का पसीना पोंछा. अचानक हमें बात समझ में आई और फिर हम जोर से हंस पड़े, ‘‘हा…हा…हा…’’

‘‘बस भी करो,’’ श्रीमतीजी नाराजगी भरे स्वर में बोलीं.

‘‘तो ये थीं आप की किन्नर सहेलियां,’’ कह हम फिर जोर से हंसने लगे.

‘‘उन्होंने मुझ से यह बात छिपा रखी थी,’’ श्रीमतीजी ने सफाई दी.

‘‘तो ऐसी सहेलियां होती हैं तुम्हारी आभासी दुनिया की,’’ हम ने कहा और फिर पेट पकड़ कर हंसने लगे.

अब श्रीमतीजी को बहुत क्रोध आ गया. वे जोर से नाराजगी भरे स्वर में कहने लगीं, ‘‘क्यों किन्नर इनसान नहीं हैं? इन की इच्छा दोस्ती करने की, सहेली बनाने की, हम जैसे सामान्यों से बात करने की, सामान्य व्यक्तियों के घरों में आनेजाने की इच्छा नहीं होती है? हम इन्हें हंसने वाली चीज समझ कर कब तक इन का मजाक उड़ाते रहेंगे? हमें इन की प्रौब्लम समझनी होगी, इन्हें भी प्लेटफार्म देना होगा जहां ये इज्जत के साथ, सामान्य व्यक्तियों की तरह रह सकें.’’

श्रीमतीजी की ये बातें सुन हमारी हंसी गायब हो गई और हम यह सोचने को मजबूर हो गए कि जो कहा गया है वह सत्य है और इस पर हम सब को सोचने कीजरूरत है न कि हंसने की. श्रीमतीजी की इस परिपक्व सोच पर हमें उन पर गर्व हो आया. उन्होंने शतप्रतिशत सच कहा था.

Love Story : जब प्रोफेसर को स्टूडेंट ने सिखाई प्यार की परिभाषा

Love Story :  सपना जा चुकी थी लेकिन प्रोफैसर सावंत के दिल में तो जैसे समंदर की लहरें टकरा रही थीं. मायूसी और निराशा के भंवर में डूबे वे सपना के बारे में सोचते रहे. धीरेधीरे अतीत की यादों के चलचित्र उन के स्मृति पटल पर सजीव होने लगे…

उस दिन प्रोफैसर सावंत एम.ए. की क्लास से बाहर आए ही थे कि कालेज के कैंपस में उन्हें सपना खड़ी दिखाई दी. वह उन की ओर तेज कदमों से आगे बढ़ी. प्रोफैसर उसे कैसे भूल सकते थे. आखिर वह उन की स्टूडैंट थी. उन के जीवन में शायद सपना ही थी जिस ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था. सफेद सलवारसूट और लाल रंग की चुन्नी में वह बला की खूबसूरत लग रही थी. नजदीक आते ही सपना हांफते स्वर में बोली, ‘‘गुड मौर्निंग सर, कैसे हैं आप?’’

‘‘मौर्निंग, अच्छा हूं. आप सुनाओ सपना, कैसी हो?’’ प्रोफैसर ने हंसते हुए पूछा.

‘‘अच्छी हूं…कमाल है सर, आप को मेरा नाम अभी भी याद है,’’ सपना ने खुश होते हुए कहा.

‘‘यू आर राइट सपना, लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें भूलना आसान नहीं होता…’’

प्रोफैसर जैसे अतीत की गहराइयों में खोने लगे. सपना ने टोकते हुए कहा, ‘‘सर, मैं आप से एक समस्या पर विचार करना चाहती हूं.’’

‘‘क्यों नहीं, कहो… मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं?’’

‘‘सर, मेरी सिविल सर्विसेज की परीक्षाएं हैं, मैं उन्हीं के लिए आप से कुछ चर्चा करना चाहती थी.’’

‘‘बड़ी खुशी की बात है. चलो, डिपार्टमैंट में बैठते हैं,’’ प्रोफैसर सावंत ने कहा.

अंगरेजी विभाग में सपना प्रोफैसर सावंत के पास की कुरसी पर बैठी थी और गंभीर मुद्रा में नोट्स लिखने में व्यस्त थी. अचानक प्रोफैसर को अपने पैर पर पैर का स्पर्श महसूस हुआ, उन्होंने फौरन सपना की ओर देखा. वह अपनी नोटबुक में डिक्टेशन लिखने में व्यस्त थी.

भावहीन, गंभीर मुखमुद्रा. सावंत को अपनी सोच पर पछतावा हुआ. यह बेखयाली में हुई साधारण सी बात थी. कुछ समय बाद प्रोफैसर सावंत से उन का मोइबल नंबर लेते हुए सपना ने अपने चिरपरिचित अंदाज में पूछा, ‘‘सर, मैं फिर कभी आप को परेशान करूं तो आप बुरा तो नहीं मानेंगे?’’

‘‘अरे नहीं, तुम को जब भी जरूरत हो, फोन कर सकती हो,’’ प्रोफैसर ने खुश होते हुए कहा.

मुसकराती हुई सपना जा चुकी थी. प्रोफैसर सावंत को अपने कमरे में एक अनोखी महक, अभी भी महसूस हो रही थी. उन्हें लगा शायद इस सुगंध का कारण सपना ही थी. प्रोफैसर फिर विचार शृंखला में डूब गए. लगभग 4 साल पहले एम.ए. कर के गई थी सपना. वे उस की योग्यता और अन्य खूबियों से बेहद प्रभावित थे. वह यूनिवर्सिटी टौपर भी रही थी. प्रोफैसर की 15 साल की सर्विस में सपना उन की बेहद पसंदीदा छात्रा रही थी. प्रोफैसर थे भी कुछ ज्यादा ही संवेदन- शील और आत्मकेंद्रित. हमेशा जैसे अपनी ही दुनिया में खोए रहते थे, लेकिन छात्रों में वे बड़े लोकप्रिय थे.

लगभग 8-10 दिन बीते होंगे कि एक दिन शाम को सपना का फोन आ गया. प्रोफैसर सावंत की खूबी थी कि वे हमेशा अपने विद्यार्थियों की समस्याओं का समाधान करते थे. कालेज में अथवा बाहर, घर में वे हमेशा तैयार रहते थे. उन्हें खुशी थी कि सपना अपना भविष्य संवारने के लिए जीतोड़ मेहनत कर रही थी. 2 दिन बाद उन के मोबाइल पर सपना द्वारा भेजा एक एस.एम.एस. आया. लिखा था, ‘‘अगर आप को मैं एक पैन दूं तो आप मेरे लिए क्या संदेश लिखेंगे…रिप्लाई, सर.’’

प्रोफैसर ने ध्यान से संदेश पढ़ा. उन्होंने जवाब दिया, ‘‘दुनिया में अच्छा इंसान बनने का प्रयास करो.’’ यही तो उन का जीवनदर्शन था. इंसान हैवानियत की ओर तो तेजी से बढ़ रहा है लेकिन उस की इंसानियत पीछे छूटती जा रही है. भौतिकवाद की अंधी दौड़ में जैसे सब अपने जीवनमूल्यों और संवेदनाओं को व्यर्थ का कचरा समझ भूलते जा रहे हैं. उन का अपना जीवन इसी विचार पर तो टिका हुआ था. अड़चनों व संघर्षों के बाद भी सावंत अपने विचार बदल नहीं पाए थे. उन की पत्नी स्नेहलता उन के विचारों से कतई सहमत नहीं थीं. वे व्यावहारिक और सामान्य सोच रखती थीं, जिस में स्वहित से ऊपर उठने की ललक नहीं थी.

प्रोफैसर का वैवाहिक जीवन बहुत संघर्षमय था. गृहस्थी की गाड़ी यों ही घिसटती हुई चल रही थी. 36 साल की उम्र होने पर भी प्रोफैसर दुनियादारी से दूर रहते हुए किताबों की दुनिया में खोए रहना ही ज्यादा पसंद करते थे. नियति को भी शायद यही मंजूर था. सावंत के बचपन, जवानी और प्रौढ़ावस्था के सारे वसंत खाली और सूनेसूने गुजरते गए. उन्होंने अपनों या परायों के लिए क्या नहीं किया. शायद इसे वे अपनी सब से बड़ी पूंजी समझते थे. उन्हें पता था कि दुनिया वालों की नजर में वे अच्छे इंसान बन पाए थे. कारण ‘अच्छे’ की परिभाषा पर विवाद से ज्यादा जरूरी आत्मसंतोष का भाव था जो दूसरों के लिए कुछ करने से पहले ही महसूस हो सकता है.

कुछ दिन बीते होंगे कि सपना का फिर से फोन आ गया. अब तो प्रोफैसर सावंत को उस की सहायता करना सुकून का काम लगता था, लेकिन एक बड़ी घटना ने उन के जीवन में तूफान ला दिया. 1-2 दिन के बाद सपना का पहले वाला ही एस.एम.एस. फिर आया कि मेरे लिए… एक संदेश प्लीज.

प्रोफैसर सोच में पड़ गए. सपना थी बेहद बुद्धिमान, शोखमिजाज और हंसमुख. मजाक करना उस की आदत में शुमार था. पता नहीं उन को क्या सूझा, उन्होंने वह मैसेज ज्यों का त्यों सपना को रीसैंड कर दिया. थोड़ी देर बाद ही उस का उत्तर आया, ‘‘आई लव यू सर.’’

प्रोफैसर सावंत को अपने शरीर में 440 वोल्ट का करंट सा प्रवाहित होता महसूस हुआ. उन्हें कल्पना नहीं थी कि सपना ऐसा संदेश उन्हें भेज सकती है. काफी देर तक वे सकते की हालत में सोचते रहे. फिर उन्होंने सपना को रिप्लाई किया, ‘‘यह मजाक है या गंभीरता से लिखा है.’’

सपना का जवाब आया, ‘‘सर, इस में मजाक की क्या बात है?’’

अब तो प्रोफैसर सावंत की हालत देखने लायक थी. यह सच था कि सपना उन्हें बहुत प्रिय थी लेकिन उन्होंने उसे कभी प्रेम की नजर से नहीं देखा था. अब उन्हें बेचैनी महसूस हो रही थी. उन्होंने सपना को एस.एम.एस. भेजा, ‘‘आप ‘लव’ की परिभाषा जानती हैं?’’

प्रोफैसर सावंत के एस.एम.एस. के जवाब में सपना का रिप्लाई था, ‘‘क्यों नहीं सर…प्रेम तो देने की अनुभूति है, कुछ लेने की नहीं…प्रेम में इंसान सबकुछ खो कर भी खुशी महसूस करता है, ‘लव’ तो सैक्रीफाइस है न सर…’’

क्या जवाब देते प्रोफैसर? उन्होंने इस बातचीत को यहीं विराम दिया और अपने कमरे में बैठ कर अपना ध्यान इस घटना से हटाने का प्रयास करने लगे. न चाहते हुए भी उन के मस्तिष्क में वह संदेश उभर आता था.

यह सच है कि कृत्रिम नियंत्रण से मानव मन की भावनाएं, संवेदनाएं सुषुप्त हो सकती हैं लेकिन लुप्त कभी नहीं हो पातीं. जीवन का कोई विशेष क्षण उन्हें पुन: जागृत कर सकता है. प्रोफैसर के दिल में कुछ ऐसी ही उथलपुथल मच रही थी. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि यह सही है या गलत. नैतिक है या अनैतिक. कुछ दिन इसी कशमकश में बीत गए.

अगले सप्ताह अचानक सपना कालेज में दिखाई दी. उसे देखते ही प्रोफैसर सावंत को अपना सारा बनावटी कंट्रोल ताश के पत्तों की तरह ढहता महसूस होने लगा. आज उन की नजर कुछ बदलीबदली लग रही थी.

‘‘क्या देख रहे हैं, सर?’’ अचानक सपना ने टोका.

सावंत को लगा जैसे चोरी करते रंगे हाथों पकड़े गए हों. लड़खड़ाती जबान से बोले, ‘‘कुछ नहीं, बस ऐसे ही…’’ उन्हें लगा शायद सपना ने उन की चोरी पकड़ ली थी. कुछ देर बाद सपना बोली, ‘‘सर, पेपर में आप का लेख पढ़ा, अच्छा लगा. मैं और भी पढ़ना चाहती हूं. प्लीज, अपनी लिखी कोई पुस्तक दीजिए न.’’

एक लेखक के लिए इस से अच्छी और क्या बात हो सकती है कि कोई प्रशंसक उस की रचनाओं के लिए ऐसी उत्सुकता दिखाए. उन्होंने फौरन अपनी एक पुस्तक सपना को दे दी. उन की नजर अब भी सपना को निहार रही थी. सपना पुस्तक के पन्नों को पलट रही थी तो सावंत ने हिम्मत जुटाते हुए पूछा, ‘‘उस दिन तुम ने मेरे साथ ऐसा मजाक कैसे किया, सपना?’’

‘‘वह मजाक नहीं था सर, आप ऐसा क्यों सोचते हैं?’’ सपना ने प्रत्युत्तर में प्रश्न किया, ‘‘क्या किसी से प्रेम करना गलत है? मैं आप से प्रेम नहीं कर सकती?’’

प्रोफैसर हड़बड़ा कर बोले, ‘‘वह सब तो ठीक है सपना लेकिन क्या मैं गलत नहीं हूं? मैं तो शादीशुदा हूं. यह अनैतिक नहीं होगा क्या?’’

‘‘मैं ने यह कब कहा सर कि आप मुझ से प्रेम कीजिए. मुझे आप अच्छे लगते हैं, इसलिए मैं आप को चाहती हूं, आप से प्रेम करती हूं लेकिन आप से कोई उम्मीद नहीं करती सर,’’ सपना ने दृढ़ता से कहा.

सावंत को अपना सारा ज्ञान व अनुभव इस युवती के आगे बौना महसूस होने लगा. अब उन के दिल में भी प्रेम की तरंगें उठने लगीं लेकिन उन्हें व्यक्त करने का साहस उन में नहीं था. कुछ समय के बाद सपना चली गई. सावंत अब अपनेआप को एकदम बदलाबदला सा महसूस करने लगे क्योंकि आज सही मानों में उन्होंने सपना को देखा था. उन्हें लगा, उस के जैसा सौंदर्य दुनिया में शायद ही किसी लड़की में दिखाई दे. अब प्राय: रोज ही मोबाइल पर उन के बीच संवाद होने लगा. प्रोफैसर सावंत को हरपल उस का इंतजार रहता. हमेशा उस की यादों और कल्पनाओं में खोएखोए से रहने लगे.

कल तक जो बातें प्रोफैसर को व्यर्थ लगती थीं, अब वे सरस और मधुर लगने लगीं. यह सही है कि प्यार में बड़ी ताकत होती है. वह इंसान का कायापलट कर सकता है. प्रोफैसर के दिमाग में अब सपना के अलावा कुछ न था. आंखों में बस सपना का ही अक्स समाया रहता. जहां भी जाते, बाजार में उन्हें वे सब चीजें आकर्षित करने लगतीं जिन्हें देख कर उन्हें लगता कि सपना के लिए अच्छा गिफ्ट रहेंगी. कभी ड्रेस तो कभी कुछ, अनायास ही वे बहुतकुछ खरीद लाते. लेकिन इस तरह के गिफ्ट सपना ने 1-2 ही लिए थे वह भी बहुत जोर देने पर.

समय पंख लगा कर उड़ने लगा. दोनों को परस्पर बौद्धिक वार्त्तालाप में भी प्रेम की अनोखी अनुभूति महसूस हुआ करती थी. सपना का एक कथन सावंत के दिल को छू गया, ‘‘आप की खुशी में ही मेरी खुशी है सर, मेरे लिए सब से बड़ा गिफ्ट यही है कि आप मुझे अपना समय देते हैं, मुझे याद करते हैं.’’

खाली समय में सावंत अपने हिसाब से इन वाक्यों का विश्लेषण करते. इन कथनों का मनमाफिक अर्थ निकालने का प्रयास करते. इस प्रक्रिया में उन्हें अनोखा आनंद आता. उन की कल्पनाओं का चरम बिंदु अब सपना पर संकेंद्रित हो चुका था. लेखन का प्रेरणास्रोत अब सपना ही थी. लेकिन यह जीवन है जिस में विचित्रताओं का ऐसा घालमेल भी रहता है, जो अकसर संशय की स्थिति उत्पन्न करता रहता है.

उस दिन सावंत अपने विभाग में बैठे थे कि अचानक सपना आ गई. इस तरह बगैर किसी सूचना के उसे अपने सामने खड़ा देख प्रोफैसर बहुत खुश हुए. सपना से वे आज बहुतकुछ कहने के मूड में थे. सपना बहुत खुश लग रही थी. दोनों के बीच बातचीत चल ही रही थी कि अचानक सपना ने अपना हैंडबैग खोल कर एक कार्ड प्रोफैसर के सामने रखा. पहले उन्हें लगा शायद किसी पार्टी का निमंत्रण कार्ड है. लेकिन कार्ड पर नजर पड़ते ही उन पर वज्रपात हुआ. वह सपना का ‘वैडिंग कार्ड’ था.

सपना अनुरोध करते हुए बोली, ‘‘सर, आप जरूर आइएगा. आप के बगैर मेरी शादी अधूरी है. आप मेरे सब से करीबी हैं इसलिए मैं स्वयं आप को निमंत्रित करने आई हूं.’’

सावंत अपने होंठों पर जबरन मुसकान ला कर कृत्रिम खुशी जाहिर करते हुए बोले, ‘‘हांहां, क्यों नहीं. मैं अवश्य आने का प्रयास करूंगा.’’

सपना हंसते हुए बोली, ‘‘नहीं सर, मैं कोई बहाना सुनना नहीं चाहती. आप को आना ही पड़ेगा, आखिर आप मेरा पहला प्यार हैं…’’

प्रोफैसर सावंत ने कोई जवाब नहीं दिया. पल भर में उन के अरमान मिट्टी में मिल गए थे. नैतिकताअनैतिकता के सारे प्रश्न, जिन से वे आजकल जूझते रहते थे, अब एकाएक व्यर्थ हो गए. सूनी जिंदगी की बेडि़यां उन्हें वापस अपनी ओर खिंचती हुई महसूस होने लगीं. मृगमरीचिका से उपजी हरियाली की उम्मीद एकाएक घोर सूखे और अकाल में तब्दील हो गई.

सपना जा चुकी थी. प्रोफैसर अपनी कुरसी पर सिर टिकाए आंखें मूंदे सोचते रहे. उन्हें यही लगा जैसे सपना वाकई एक स्वप्न थी, जो कुछ दिनों की खुशियों के लिए ही उन की जिंदगी में आई थी. समय की त्रासदी ने फिर उन की जिंदगी को बेजार बना दिया था. उन्हें लगा गलती सपना की नहीं, उन की ही थी जिन्होंने प्रेम की पवित्र भावना को समझने में भारी भूल कर दी थी. उन्हें अपना समस्त किताबी ज्ञान अधूरा महसूस होने लगा.

अचानक पीरियड की बजी घंटी से उन की तंद्रा टूटी. वे सुखद ख्वाब से वापस यथार्थ में लौट आए. अनमने भाव से वे क्लासरूम की ओर बढ़ गए, लेकिन उन का मन आज पढ़ाने में नहीं था. शाम को घर आ कर भी वे उदासी के आलम में ही खोए रहे. उन की पत्नी स्नेहलता ने उन के ब्रीफकेस में रखा सपना की शादी का कार्ड देख लिया था. इसीलिए कौफी पीते हुए पूछने लगीं, ‘‘क्या आप की फेवरेट सपना की शादी हो रही है? आप तो इस शादी में जरूर जाओगे?’’

सावंत को लगा जैसे किसी ने उन के जले घाव पर नमक छिड़क दिया हो. उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. स्नेहलता के साथ रह कर अपने वैवाहिक जीवन में सावंत ने कभी ‘स्नेह’ का अनुभव नहीं किया. इस समय उस की मुखमुद्रा से साफ झलक रहा था जैसे सपना की शादी का कार्ड उस के लिए खुशी के खजाने की चाबी जैसा था. विरक्त भाव से स्नेहलता ने कार्ड को एक तरफ पटकते हुए कहा, ‘‘बहुत सुंदर है…’’

सावंत अब भी चुप रहे. उन्होंने जवाब देने का उपक्रम नहीं किया. स्नेहलता ने फिर पूछा, ‘‘आप को तो शादी में जाना ही होगा, भला आप के बगैर सपना की शादी कैसे हो सकती है?’’ स्नेहलता के चेहरे पर मंद हंसी थिरक रही थी.

प्रोफैसर उठ कर अपने कमरे में चले गए. 2 दिन बाद सपना की शादी थी. उन्होंने शादी में न जाने का ही फैसला किया. सपना की शादी हो गई. अब वे जल्दी से सबकुछ भुला देना चाहते थे. उन का मन अब भी बेचैन और विचलित था, लेकिन धीरेधीरे उन्होंने अपने को संयत कर लिया. स्नेहलता के व्यंग्यबाण अब भी जारी थे. दिन बीतने लगे. सावंत ने अब अपना मोबाइल नंबर भी बदल लिया था. कारण, पुराने मोबाइल से सपना की यादें इस कदर जुड़ चुकी थीं कि उसे देखते ही उन के दिल में हूक सी उठने लगती थी.

आज सावंत घर में अकेले थे. मैडम किटी पार्टी में गई हुई थीं. अचानक दरवाजे की घंटी बजी. सावंत ने दरवाजा खोला तो देखा कि सामने सपना खड़ी थी. उस को सामने देख कर प्रोफैसर सावंत अचंभित रह गए. मुंह से एक शब्द भी न फूट सका. सपना ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘इजाजत हो तो अंदर आ जाऊं, सर.’’

सावंत एक तरफ हट कर खड़े हो गए. हड़बड़ाते हुए वे कुछ न कह सके.

सपना ड्राइंगरूम में बैठी थी. संयोग से इस समय नौकरानी भी नहीं थी. दोनों अकेले थे. सपना ने ही संवाद प्रारंभ किया, ‘‘आखिर आप नहीं आए न सर. मैं ने आप का कितना वेट किया.’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है सपना… दरअसल, मैं व्यस्तता के चलते आना ही भूल गया था.’’

‘‘हां…सर. यह तो सही है, आप मुझे क्यों याद रखेंगे? लेकिन मैं तो आप को एक पल के लिए भी नहीं भूलती हूं… एहसास है आप को?’’

सपना की बातों को सावंत समझ नहीं पा रहे थे.

‘‘और सुनाओ, कैसी हो? कैसी रही तुम्हारी शादी,’’ प्रोफैसर सावंत ने विषय को बदलते हुए कहा.

‘‘शादी… शादी तो अच्छी ही होती है सर, शादी को होना था सो हो गई, बस…’’

सपना के जवाब का ऐसा लहजा सावंत को अखरने लगा. उत्सुकतावश उन्होंने पूछा, ‘‘ऐसा क्यों कहती हो सपना?’’

‘‘क्यों न कहूं सर, यह शादी तो एक औपचारिकता थी. मेरे मातापिता शायद मुझ से अपनी परवरिश का कर्ज वसूलना चाहते थे, इसलिए उन की इच्छा के लिए मुझे ऐसा करना पड़ा,’’ सपना के चेहरे पर दुख के भाव दिखाई दे रहे थे.

‘‘मैं समझा नहीं?’’ सावंत ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘दरअसल, मेरे पापा के ऊपर ससुराल वालों का लाखों रुपए का कर्ज था जिसे सूद सहित चुकाने के लिए ही मुझे बलि का बकरा बनाया गया. कर्ज और सूद की वसूली के लिए मेरे ससुराल वालों ने अपने बिगड़ैल बेटे का विवाह मुझ से कर दिया है. अब तो मेरे सारे अरमानों पर पानी फिर गया है.’’

‘‘तो क्या तुम इस शादी के लिए सहमत नहीं थीं?’’ प्रोफैसर ने बेसब्री से पूछा.

‘‘नहीं…बिलकुल नहीं. यह मेरे पिता की मजबूरी थी. मैं इस शादी से संतुष्ट नहीं हूं,’’ सपना ने दृढ़ता से जवाब दिया.

‘‘सपना, रीयली तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय हुआ है,’’ प्रोफैसर ने दुखी होते हुए कहा.

‘‘इट्स ए पार्ट औफ लाइफ बट नौट द ऐंड…सर. उन्होंने मेरे शरीर पर ही तो विजय पाई है दिल पर तो नहीं,’’ सपना के चेहरे पर अब हंसी साफ नजर आ रही थी.

थोड़ी देर बाद सपना चली गई लेकिन उस ने प्रोफैसर का नया मोबाइल नंबर पुन: ले लिया था. कुछ देर बाद पत्नी स्नेहलता भी आ गईं. शायद उन की छठी इंद्री कुछ ज्यादा ही सक्रिय थी सो, उन्होंने घर में प्रवेश करते ही पूछा, ‘‘यहां अभी कोई आया था क्या?’’

‘‘हां…सपना आई थी,’’ प्रोफैसर ने दृढ़ता से जवाब दिया.

‘‘ओह, तभी मैं कहूं कि यह महक कहां से आ रही है. आप के चेहरे की ऐसी खुशी मुझे सबकुछ बता देती है,’’ पत्नी के कटाक्ष पुन: चालू हो गए.

दूसरे दिन प्रोफैसर के मोबाइल पर सपना का एस.एम.एस. आ गया, ‘‘यथार्थ के साथ विद्रोह या समझौते में से कौन सा विकल्प बेहतर है?’’

प्रोफैसर का खुद पर से नियंत्रण अब फिर से हटने लगा था. प्रेम में असीम शक्ति होती है. अत: सपना के साथ मोबाइल पर पुन: संवाद चालू हो गया. उन्होंने रिप्लाई किया, ‘‘जीवन में दोनों का अपनाअपना विशिष्ट महत्त्व है या यों समझें कि महत्त्व संदर्भ का है.’’

सपना का पुन: संदेश आया, ‘‘दिल की आवाज और दुनिया की झूठी प्रथाएं या परंपराओं का बोझ ढोने से बेहतर है इंसान विद्रोह करे. एम आई राइट सर?’’

प्रोफैसर ने रिप्लाई किया, ‘‘यू आर यूनीक, तुम जो करोगी सोचसमझ कर ही करोगी.’’

पता नहीं सपना को उन का जवाब कैसा लगा लेकिन उन दोनों का मेलजोल बढ़ता गया. वह सिविल सर्विसेज की तैयारी के सिलसिले में अकसर कालेज आया करती थी. प्रोफैसर को उस के हावभाव या व्यवहार से कहीं नहीं लगता था कि उस की नईनई शादी हुई है. वह तो जैसे अपने मिशन की सफलता के लिए पूरी गंभीरता से जुटी पड़ी थी. सपना की मेहनत रंग लाई. सिविल सर्विसेज में उस का चयन हो गया. सावंत की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

सपना की ऐसी शानदार सफलता के कारण शहर की विभिन्न संस्थाओं की तरफ से उस के लिए अभिनंदन समारोह आयोजित किया गया. सपना की जिद के कारण सावंत उस में शरीक हुए. मैडम स्नेहलता न चाहते हुए भी सपना के आग्रह के कारण प्रोफैसर के साथ गईं.

एक समारोह में जब सपना को सम्मानित किया जा रहा था तब सपना ने स्टेज से जो वक्तव्य दिया, वह शायद सावंत के जीवन की सर्वश्रेष्ठ अनुभूति रही. सपना ने अपनी सफलता का संपूर्ण श्रेय प्रोफैसर सावंत को दिया और अपने सम्मान से पहले उन का सम्मान कराया. अन्य लोगों के लिए शायद यह घटना थी लेकिन सपना, उस के पति अनुराग त्रिपाठी, प्रोफैसर सावंत और मैडम स्नेहलता के लिए यह साधारण बात नहीं थी. कोई खुश था तो कोई ईर्ष्या से जलाभुना जा रहा था. सपना का पति तो इस घटना से इतना नाराज हो गया कि कुछ दिन के बाद सपना को तलाक ही दे बैठा. शायद सपना के लिए यह नियति का उपहार ही था.

प्रशिक्षण के बाद सपना की तैनाती दिल्ली में हो गई. 1-2 वर्ष का समय बीत चुका था. जिम्मेदारियों के बोझ ने उस की व्यस्तता को और बढ़ा दिया था. दोनों का संपर्क अब भी कायम रहा. अचानक एक दिन ऐसी घटना घटित हुई कि दोनों की दोस्ती को एक नई दिशा मिल गई.

एक दिन एक सड़क दुर्घटना में प्रोफैसर सांवत को गहरी चोट लगी. वे अस्पताल में भरती थे. उन की हालत बेहद नाजुक बनी हुई थी. उन्हें ‘ओ निगेटिव’ ग्रुप के खून की सख्त जरूरत थी. मैडम स्नेहलता विदेश यात्रा पर गई थीं. उन्हें सूचना दी गई किंतु उन्होंने शीघ्र आने का कोई उपक्रम नहीं किया, लेकिन उन के छात्र उन का जीवन बचाने के लिए जीतोड़ प्रयास कर रहे थे.

खून की व्यवस्था नहीं हो पा रही थी. पता नहीं कैसे सपना को इस घटना का पता चला और वह सीधे अस्पताल पहुंच गई. संयोग से उस का ब्लड ग्रुप भी ‘ओ निगेटिव’ ही था और समय पर रक्तदान कर के उस ने सावंत सर की जान बचा ली. कुछ घंटे बाद जब उन्हें होश आया तो बैड के नजदीक सपना को देख वे बेहद खुश हुए. परिस्थितियों ने जैसे उन के अनोखे प्रेम की पूर्ण व्याख्या कर दी थी. प्रेम अनोखा इसलिए था कि इस में कोई कामलिप्सा तो नहीं थी लेकिन एक अद्भुत शक्ति, संबल और आत्मबल कूटकूट कर भरा था.

सावंत को लगा कि सपना कोई स्वप्न नहीं बल्कि हकीकत में उन की अपनी है. जो ख्वाब देखती है लेकिन खुली आंखों से. अब उन्होंने हकीकत को स्वीकार करने का दृढ़ निश्चय कर लिया था. संभवत: अब उन में इतना साहस आ चुका था.

Story For Girls : जब बहन ने ही छीन लिया शुभा का प्यार

Story For Girls : मां मुझ से पहले ही अपने दफ्तर से आ चुकी थीं. वह रसोईघर में शायद चाय बना रही थीं. मैं अपना बैग रख कर सीधी रसोईघर में ही पहुंच गई. मां अनमनी थीं. ऐसा उन के चेहरे से साफ झलक रहा था. फिर कुछ अनचाहा घटा है, मैं ने अनुमान लगा लिया. लड़के वालों की ओर से हर बार निराशा ही उन के हाथ लगी है. मैं ने जानबूझ कर मां की उदासी का कारण न पूछा क्योंकि दुखती रग पर हाथ धरते ही वे अपना धैर्य खो बैठतीं और बाबूजी को याद कर के घंटों रोती रहतीं.

मां ने मेरी ओर बिना देखे ही चाय का प्याला आगे बढ़ा दिया, जिसे थामे मैं बरामदे में कुरसी पर आ बैठी. मां अपने कमरे में चली गई थीं. विषाद से मन भर उठा. पिछले 4 साल से मां मेरे लिए वर की खोज में लगी थीं, लेकिन अभी तक एक अदद लड़का नहीं जुटा पाई थीं कि बेटी के हाथ पीले कर संतोष की सांस लेतीं.

मां अंतर्जातीय विवाह के पक्ष में नहीं थीं. अपने ब्राह्मणत्व का दर्प उन्हें किसी मोड़ पर संधि की स्थिति में ही नहीं आने देता था. मेरी अच्छीखासी नौकरी और ठीकठाक रूपरंग होते हुए भी विवाह में विलंब होता जा रहा था. जो परिवार मां को अच्छा लगता वह हमें अपनाने से इनकार कर देता और जिन को हम पसंद आते, उन्हें मां अपनी बेटी देने से इनकार कर देतीं.

शहर बंद होने के कारण मैं सड़क पर खड़ीखड़ी बेजार हो चुकी थी. कोई रिकशा, बस, आटोरिकशा आदि नहीं चल रहा था. घर से मां ने वनिता की मोपेड भी नहीं लाने दी, हालांकि वनिता का कालेज बंद था. मुझे दफ्तर पहुंचना था, कई आवश्यक काम करने थे. न जाती तो व्यर्थ ही अफसर की कोपभाजन बनती. इधरउधर देखा, कोई जानपहचान का न दिखा. घड़ी पर निगाह गई तो पूरा 1 घंटा हो गया था खड़ेखड़े. मैं सामने ही देखे जा रही थी. अचानक स्कूटर पर एक नौजवान आता दिखा. वह पास आता गया तो पहचान के चिह्न उभर आए. ‘यह तो शायद उदयन…हां, वही था. मेरे साथ कालेज में पढ़ता था, वह भी मुझे पहचान गया. स्कूटर रेंगता हुआ मेरे पास रुक गया.

‘‘उदयन,’’ मैं ने धीरे से पुकारा.

‘‘शुभा…तुम यहां अकेली खड़ी क्या कर रही हो?’’

‘‘बस स्टाप पर क्या करते हैं? दफ्तर जाने के लिए खड़ी थी, लेकिन लगता नहीं कि आज जा पाऊंगी?’’

‘‘आज कितने अरसे बाद दिखी हो तुम, शहर बंद न होता तो शायद आज भी नहीं…’’ कह कर वह हंसने लगा.

‘‘और तुम…बिलकुल सही समय पर आए हो,’’ कह कर मैं उस के पीछे बैठने का संकेत पाते ही स्कूटर पर बैठ गई. रास्ते भर उदयन और मैं कालेज से निकलने के बाद का ब्योरा एकदूसरे को देते रहे. वह बीकौम कर के अपना व्यवसाय कर रहा था और मैं एमकौम कर के नौकरी करने लगी थी. मेरा दफ्तर आ चुका था. वह मुझे उतार कर अपने रास्ते चला गया.

गोराचिट्टा, लंबी कदकाठी के सम्मोहक व्यक्तित्व का स्वामी उदयन कितने बरसों बाद मिला था. कालेज के समय कैसा दुबलापतला सरकंडे सा था. मैं उसे भूल कर दफ्तर के काम में उलझ गई. होश में तब आई जब छुट्टी का समय हुआ. ‘अब जाऊंगी कैसे घर लौट कर?’ सोचती हुई बाहर निकल ही रही थी कि सामने गुलमोहर के पेड़ तले स्कूटर लिए उदयन खड़ा दिखाई दिया. उस ने वहीं से आवाज दी, ‘‘शुभा…’’

‘‘तुम?’’ मैं आश्चर्य में पड़ी उस तक पहुंच गई.

‘‘तुम्हें काम था कोई यहां?’’

‘‘नहीं, तुम्हें लेने आया हूं. सोचा, छोड़ तो आया लेकिन घर जाओगी कैसे?’’

मैं आभार से भर उठी थी. उस दिन के बाद तो रोज ही आनाजाना साथ होने लगा. हम साथसाथ घूमते हुए दुनिया भर की बातें करते. एक दिन उदयन घर आया तो मां को  उस का विनम्र व्यवहार और सौम्य  व्यक्तित्व प्रभावित कर गए. छोटी बहन वनिता बड़े शरमीले स्वभाव की थी, वह तो उस के सामने आती ही न थी. वह आता और मुझ से बात कर के चला जाता. मैं वनिता को चाय बना कर लाने के लिए कहती, लेकिन वह न आती.

एक बात मैं कितने ही दिनों से महसूस कर रही थी. मुझे बारबार लगता कि जैसे उदयन कुछ कहना चाहता है, लेकिन कहतेकहते जाने क्या सोच कर रुक जाता है. किसी अनकही बात को ले कर बेचैन सा वह महीनों से मेरे साथ चल रहा था.

एक दिन उदयन मुझे स्कूटर से उतार कर चलने लगा तो मैं ने ही उसे घर में बुला लिया, ‘‘अंदर आओ, एक प्याला चाय पी कर जाना.’’ वह मासूम बालक सा मेरे पीछेपीछे चला आया. मां घर में नहीं थीं और वनिता भी कालेज से नहीं आई थी. सो चाय मैं ने बनाई. चाय के दौरान, ‘शुभा एक बात कहूं’ कहतेकहते ही उसे जोर से खांसी आ गई. गले में शायद कुछ फंस गया था. वह बुरी तरह खांसने लगा. मैं दौड़ कर गिलास में पानी ले आई और गिलास उस के होंठों से लगा कर उस की पीठ सहलाने लगी. खांसी का दौर समाप्त हुआ तो वह मुसकराने की कोशिश करने लगा. आंखों में खांसी के कारण आंसू भर आए थे.

‘‘उदयन, क्या कहने जा रहे थे तुम? अरे भई, ऐसी कौन सी बात थी जिस के कारण खांसी आने लगी?’’

सुन कर वह हंसने लगा, ‘‘शुभा…मैं तुम्हारे बिना नहीं रह…’’ अधूरा वाक्य छोड़ कर नीचे देखने लगा और मैं शरमा कर गंभीर हो उठी और लाज की लाली मेरे मुख पर दौड़ गई.

‘‘उदयन, यही बात कहने के लिए तो मैं न जाने कब से सोच रही थी,’’ धीरे से कह कर मैं ने उस के प्रेम निवेदन का उत्तर दे दिया था. दोनों अपनीअपनी जगह चुप बैठे रहे थे. लग रहा था, इन वाक्यों को कहने के लिए ही हम इतने दिनों से न जाने कितनी बातें बस ऐसे ही करे जा रहे थे. एकदूसरे से दृष्टि मिला पाना कैसा दूभर लग रहा था.

शाम खुशनुमा हो उठी थी और अनुपम सुनहरी आभा बिखेरती जीवन के हर पल पर उतर रही थी. मौसम का हर दिन रंगीन हो उठा था. मैं और उदयन पखेरुओं के से पंख लगाए प्रीति के गगन पर उड़ चले थे. हम लोग एक जाति के नहीं थे, लेकिन आपस में विवाह करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे.

झरझर बरसता सावन का महीना था. चारों ओर हरियाली नजर आ रही थी. पत्तों पर टपकती जल की बूंदें कैसी शरारती लगने लगती थीं. अकेले में गुनगुनाने को जी करता था. उदयन का साथ पा कर सारी सृष्टि इंद्रधनुषी हो उठती थी.

‘‘सोनपुर चलोगी…शुभा?’’ एक दिन उदयन ने पूछा था.

‘‘मेला दिखाने ले चलोगे?’’

‘‘हां.’’

मां हमारे साथ जा नहीं सकती थीं और अकेले उदयन के साथ मेरा जाना उन्हें मंजूर नहीं था. अत: मैं ने वनिता से अपने साथ चलने को कहा तो उस ने साफ इनकार कर दिया.

‘‘पगली, घर से कालेज और कालेज से घर…यही है न तेरी दिनचर्या. बाहर निकलेगी तो मन बहल जाएगा,’’ मैं ने उसे समझा कर तैयार कर लिया था. हम तीनों साथ ही गए थे. मैं बीच में बैठी थी, उदयन और वनिता मेरे इधरउधर बैठे थे, बस की सीट पर. इस यात्रा के बीच वनिता थोड़ाबहुत खुलने लगी थी. उदयन के साथ मेले की भीड़भाड़ में हम एकदूसरे का हाथ थामे घूमते रहे थे.

उदयन लगभग रोज ही हमारे घर आता था, लेकिन अब हमारी बातों के बीच वनिता भी होती. मैं सोचती थी कि उदयन बुरा मानेगा कि हर समय छोटी बहन को साथ रखती है. इसलिए मैं ने एक दिन वनिता को किसी काम के बहाने दीपा के घर भेज दिया था, लेकिन थोड़ी देर वनिता न दिखी तो उदयन ने पूछ ही लिया, ‘‘वनिता कहां है?’’

‘‘काम से गई है, दीपा के घर,’’ मैं ने अनजान बनते हुए कह दिया. उस दिन तो वह चला गया, लेकिन अब जब भी आता, वनिता से बातें करने को आतुर रहता. यदि वह सामने न आती तो उस के कमरे में पहुंच जाता. मैं ने उदयन से शीघ्र शादी करने को कहा था, लेकिन वह कहां माना था, ‘‘अभी क्या जल्दी है शुभा, मेरा काम ठीक से जम जाने दो…’’

‘‘कब करेंगे हम लोग शादी, उदयन?’’

‘‘बस, साल डेढ़साल का समय मुझे दे दो, शुभा.’’

मैं क्या कहती, चुप हो गई…मेरी भी तरक्की होने वाली थी. उस में तबादला भी हो सकता था. सोचा, शायद दोनों के ही हित में है. अब जब भी उदयन आता, वनिता उस से खूब खुल कर बातें करती. वह मजाक करता तो वह हंस कर उस का उत्तर देती थी. धीरेधीरे दोनों भोंडे मजाकों पर उतर आए. मुझ से सुना नहीं जाता था. आखिर कहना ही पड़ा मुझे, ‘‘उदयन, अपनी सीमा मत लांघो, उस लड़की से ऐसी बातें…’’

मेरी इस बात का असर तो हुआ था उदयन पर, लेकिन साली के रिश्ते की आड़ में उस ने अपने अनर्गल बोलों को छिपा दिया था. अब वह संयत हो कर बोलता था, फिर भी कहीं न कहीं से उस का अनुचित आशय झलक ही जाता. वनिता को मेरा यह मर्यादित व्यवहार करने का सुझाव अच्छा न लगा. मैं दिन पर दिन यही महसूस कर रही थी कि वनिता उदयन की ओर अदृश्य डोर से बंधी खिंची चली जा रही है. उदयन से कहा तो वह यही बोला था, ‘‘शुभा, यह तुम्हारा व्यर्थ का भ्रम है. ऐसा कुछ नहीं है जिस पर तुम्हें आपत्ति हो.’’

छुट्टी का दिन था, मां घर पर नहीं थीं. वनिता, दीपा के घर गई थी. अकेली ऊब चुकी थी मैं, सोचा कि घर की सफाई करनी चाहिए. हफ्ते भर तो व्यस्तता रहती है. मां की अलमारी साफ कर दी, फिर अपनी और फिर वनिता की. किताबें हटाईं ही थीं कि किसी पुस्तक से उदयन का फोटो मेरे पांव के पास आ गिरा. फोटो को देखते ही मेरा मन कैसी कंटीली झाड़ी में उलझ गया था कि निकालने के सब प्रयत्न व्यर्थ हो गए. लाख कोशिशों के बावजूद क्या मैं अपने मन को समझा पाई थी, पर मेरी आशंका गलत कहां थी? वनिता शाम को लौटी तो मैं ने उसे समझाने की चेष्टा की थी, ‘‘देख वनिता, क्यों उदयन के चक्कर में पड़ी है? वह शादी का वादा तो किसी और से कर चुका है.’’

जिस बहन के मुख से कभी बोल भी नहीं फूटते थे, आज वह यों दावानल उगलने लगेगी, ऐसा तो मैं ने सोचा भी नहीं था. वनिता गुस्से से फट पड़ी, ‘‘क्यों मेरे पीछे पड़ी हो दीदी, हर समय तुम इसी ताकझांक में लगी रहती हो कि मैं उदयन से बात तो नहीं कर रही हूं.’’

‘‘मैं क्यों ताकझांक करूंगी, मैं तो तुझे समझा रही हूं,’’ मैं ने धीरे से कहा.

‘‘क्या समझाना चाहती हो मुझे, बोलो?’’

क्या कहती मैं? चुप ही रही. सोचने लगी कि आज वनिता को क्या हो गया है. इस का मुख तो ‘दीदी, दीदी’ कहते थकता नहीं था, आज यह ऐसे सीधी पड़ गई.

‘‘देख वनिता, तुझे क्या मिल जाएगा उदयन को मुझ से छीन कर,’’ मैं ने सीधा प्रश्न किया था.

‘‘किस से? किस से छीन कर?’’ वह वितृष्णा से भर उठी थी, ‘‘मैं ने किसी से नहीं छीना उसे, वह मुझे मिला है. फिर तुम उदयन को क्यों नहीं रोकतीं? मैं बुलाती हूं क्या उसे?’’ उस ने तड़ाक से ये वाक्य मेरे मुख पर दे मारे. अंधे कुएं में धंसी जा रही थी मैं. मां बुलाती रहीं खाने के लिए, लेकिन मैं सुनना कहां चाहती थी कुछ… ‘‘मां, सिर में दर्द है,’’ कह कर किसी तरह उन से निजात पा गई थी, लेकिन वह मेरे बहानों को कहां अंगीकार कर पाई थीं.

‘‘शुभा, क्या हुआ बेटी, कई दिन से तू उदास है.’’

मेरी रुलाई फूट पड़ी थी. रोती रही मैं और वे मेरा सिर दबाती रहीं. क्या कहती मां से? कैसे कहती कि मेरी छोटी बहन ने मेरे प्यार पर डाका डाला है…और क्या न्याय कर पातीं वे इस का. उन के लिए तो दोनों बेटियां बराबर थीं.

वनिता ने मेरे साथ बोलचाल बंद कर दी थी. उदयन ने भी घर आना छोड़ दिया था. हम दोनों बहनों की रस्साकशी से तंग आ कर वह किनारे हो गया था. मेरी रातों की नींद उड़ गई थी. अजीब हाल था मेरा. रुग्ण सी काया और संतप्त मन लिए बस जी रही थी मैं. दफ्तर में मन नहीं लगता था और घर में वनिता का गरूर भरा चेहरा देख कर कितने अनदेखे दंश खाए थे अपने मन पर, हिसाब नहीं था मेरे पास. तनाव भरे माहौल को मां टटोलने की कोशिश करती रहतीं, लेकिन उन्हें कौन बताता.

‘‘वनिता, तू ने मुझ से बोलना क्यों बंद कर रखा है?’’ एक दिन मैं हारी हुई आवाज में बोली थी. सोचा, शायद सुलह का कोई झरोखा मन के आरपार देखने को मिल जाए, समझानेबुझाने से वनिता रास्ते पर आ जाए क्योंकि मुझे लगता था कि मैं उदयन के बिना जी नहीं पाऊंगी.

‘‘क्या करोगी मुझ से बोल कर, मैं तो उदयन को छीन ले गई न तुम से.’’

‘‘क्या झूठ कह रही हूं?’’

‘‘बिलकुल सच कहती हो, लेकिन मेरा दोष कितना है इस में, यह तुम भी जानती हो,’’ उस का सपाट सा उत्तर मिल गया मुझे.

‘‘तो तू नहीं छोड़ेगी उसे?’’ मैं ने आखिरी प्रश्न किया था.

‘‘मुझे नहीं पता मैं क्या करूंगी?’’ कहती हुई वह घर से बाहर हो गई.

मैं ने इधरउधर देखा था, लेकिन वह कहीं नजर न आई. मुझे डर लगने लगा था. दौड़ कर मैं दीपा के घर पहुंची. वहां जा कर जान में जान आई क्योंकि वनिता वहीं थी.

‘‘तुम दोनों बहनों को क्या हो गया है? पागल हो गई हो उस लड़के के पीछे,’’ दीपा क्रोध में बोल रही थी. वह मुझे समझाती रही, ‘‘देखो शुभा, उदयन वनिता को चाहने लगा है और यह भी उसे प्यार करती है. ऐसी स्थिति में तू रोक कैसे सकती है इन्हें? पगली, तू कहां तक रोकबांध लगाएगी इन पर? यदि तू उदयन से विवाह भी कर लेगी तब भी इन का प्यार नहीं मिट पाएगा बल्कि और बढ़ जाएगा. जीवन भर तुझे अवमानना ही झेलनी पड़ेगी. तू क्यों उदयन के लिए परेशान है? वह तेरे प्रति ईमानदार ही होता तो यह विकट स्थिति आती आज?’’

रात भर जैसे कोई मेरे मन के कपाट खोलता रहा कि मृग मरीचिका के पीछे कहां तक दौड़ूंगी और कब तक? उदयन मेरे लिए एक सपना था जो आंख खुलते ही विलीन हो गया, कभी न दिखने के लिए.

एक दिन मां ने कहा, ‘‘बेटी, उदयन डेढ़ साल तक शादी नहीं करना चाहता था, अब तो डेढ़ साल भी बीत गया?’’ उन्होंने अंतर्जातीय विवाह की मान्यता देने के पश्चात चिंतित स्वर में पूछा था.

‘‘मां, अब करेगा शादी…वह वादा- खिलाफी नहीं करेगा.’’

शादी की तैयारियां होने लगी थीं. मैं ने दफ्तर से कर्ज ले लिया था. मां भी बैंक से अपनी जमापूंजी निकाल लाई थीं. कार्ड छपने की बारी थी. मां ने कार्ड का विवरण तैयार कर लिया था, ‘शुभा वेड्स उदयन.’

मैं ने मां के हाथ से वह कागज ले लिया. वह निरीह सी पूछने लगीं, ‘‘क्यों, अंगरेजी के बजाय हिंदी में कार्ड छपवाएगी?’’

‘‘नहीं, मां नहीं, आप ने तनिक सी गलती कर दी है…’’ ‘वनिता वेड्स उदयन’ लिख कर वह कागज मैं ने मां को लौटा दिया.

‘‘क्या…? यह क्या?’’ मां हक्की- बक्की रह गई थीं.

‘‘हां मां, यही…यही ठीक है. उदयन और वनिता की शादी होगी. मेरी मंजिल तो अभी बहुत दूर है. घबराते नहीं मां…’’ कह कर मैं ने मां की आंखों से बहते आंसू पोंछ डाले.

Breakup Story : धोखेबाज गर्लफ्रैंड

Breakup Story: ड्राइंगरूममें सोफे पर बैठ पत्रिका पढ़ रही स्मिता का ध्यान डोरबैल बजने से टूटा. दरवाजा खोलने पर स्मिता को बेटे यश का उड़ा चेहरा देख धक्का लगा. घबराई सी स्मिता बेटे से पूछ बैठी, ‘‘क्या हुआ यश? सब ठीक तो है?’’

बिना कुछ कहे यश सीधे अपने बैडरूम में चला गया. स्मिता तेज कदमों से पीछेपीछे भागी सी गई. पूछा, ‘‘क्या हुआ यश?’’

यश सिर पकड़े बैड पर बैठा सिसकने लगा. जैसे ही स्मिता ने उस के पास बैठ कर उस के सिर पर हाथ रखा वह मां की गोद में ढह सा गया और फिर फूटफूट कर रो पड़ा.

स्मिता ने बेहद परेशान होते हुए पूछा, ‘‘बताओ तो यश क्या हुआ?’’

यश रोए जा रहा था. स्मिता को कुछ समझ नहीं आ रहा था. उस का 25 साल का बेटा आज तक ऐसे नहीं रोया था. उस का सिर सहलाती वह चुप हो गई थी. समझ गई थी कि थोड़ा संभलने पर ही बता पाएगा. यश की सिसकियां रुकने का नाम ही नहीं ले रही थीं. कुछ देर बाद फिर स्मिता ने पूछा, ‘‘बताओ बेटा क्या हुआ?’’

‘‘मां, नविका से ब्रेकअप हो गया.’’

‘‘क्या? यह कैसे हो सकता है? नविका को यह क्या हुआ? बेटा यह तो नामुमकिन है.’’

यश ने रोते हुए कहा, ‘‘नविका ने अभी फोन पर कहा कि अब हम साथ नहीं हैं. वह यह रिश्ता खत्म करना चाहती है.’’

स्मिता को गहरा धक्का लगा. यह कैसे हो सकता है. 4 साल से वह, यश के पापा विपुल, यश की छोटी बहन समृद्धि नविका को इस घर की बहू के रूप में ही देख रहे हैं. इतने समय से स्मिता यही सोच कर चिंतामुक्त रही कि जैसी केयर नविका यश की करती है, वैसी वह मां हो कर भी नहीं कर पाती. इस लड़की को यह क्या हुआ? स्मिता के कानों में नविका का मधुर स्वर मां…मां… कहना गूंज उठा. बीते साल आंखों के आगे घूम गए. बेटे को कैसे चुप करवाए वह तो खुद ही रोने लगी. वह तो खुद ही इस लड़की से गहराई से जुड़ चुकी है.

अचानक यश उठ कर बैठ गया. मां की आंखों में आंसू देखे, तो उन्हें पोंछते हुए फिर से रोने लगा, ‘‘मां, यह नविका ने क्या किया?’’

‘‘उस ने ऐसे क्यों किया, यश? कल रात तो वह यहां हमारे साथ डिनर कर के गई. फिर रातोंरात ऐसी कौन सी बात हो गई?’’

‘‘पता नहीं, मां. उस ने कहा कि अब वह इस रिश्ते को और आगे नहीं ले जा पाएगी. उसे महसूस हो रहा है कि वह इस रिश्ते में जीवनभर के लिए नहीं बंध सकती. वह भी हम सब को बहुत मिस करेगी, उस के लिए भी मुश्किल होगा पर वह अपनेआप को संभाल लेगी और कहा कि मैं भी खुद को संभाल लूं और आप सब को उस की तरफ से सौरी कह दूं.’’

स्मिता हैरान व ठगी से बैठी रह गई थी. यह क्या हो रहा है? लड़कों की

बेवफाई, दगाबाजी तो सुनी थी पर यह लड़की क्या खेल खेल गई मेरे बेटे के साथ… हम सब की भावनाओं के साथ. दोनों मांबेटे ठगे से बैठे थे. स्मिता ने बहुत कहा पर यश ने कुछ नहीं खाया. चुपचाप बैड पर आंसू बहाते हुए लेटा रहा. स्मिता बेचैन सी पूरे घर में इधर से उधर चक्कर लगाती रही.

शाम को विपुल और समृद्धि भी आ गए. आते ही दोनों ने घर में पसरी उदासी महसूस कर ली थी. सब बात जानने के बाद वे दोनों भी सिर पकड़ कर बैठ गए. यह कोई आम सी लड़की और एक आम से लड़के के ब्रेकअप की खबर थोड़े ही थी. इतने लंबे समय में नविका सब के दिलों में बस सी गई थी.

इस घर से दूर नविका तो खुद ही नहीं रह सकती थी. घर में हर किसी को खुश करती थकती नहीं थी. विपुल के बहुत जोर देने पर यश ने सब के साथ बैठ कर मुश्किल से खाना खाया, डाइनिंगटेबल पर अजीब सा सन्नाटा था. समृद्धि को भी नविका के साथ बिताया एकएक पल याद आ रहा था. नविका से कितनी छोटी है वह पर कैसी दोस्त बन गई थी. कुछ भी दिक्कत हो नविका झट से दूर कर देती थी.

विपुल को भी उस का पापा कह कर बात करना याद आ रहा था. सब सोच में डूबे हुए थे कि यह हुआ क्या? कल ही तो यहां साथ में बैठ कर डिनर कर रही थी. आज ब्रेकअप हो गया. यह एक लड़के से ब्रेकअप नहीं था. नविका के साथ पूरा परिवार जुड़ चुका था. सब ने बहुत बेचैनी भरी उदासी से खाना खत्म किया. कोई कुछ नहीं बोल रहा था.

स्मिता से बेटे की आंसू भरी आंखें देखी नहीं जा रही थीं. उस के लिए बेटे को इस हाल

में देखना मुश्किल हो रहा था. रात को सोने

से पहले स्मिता ने पूछा, ‘‘यश, मैं नविका से

बात करूं?’’

‘‘नहीं मां, रहने दो. अब वह बात ही नहीं करना चाहती. फोन ही नहीं उठा रही है.’’

स्मिता हैरान. दुखी मन से बैड पर लेट तो गई पर उस की आंखों से नींद कोसों दूर विपुल के सोने के बाद बालकनी में रखी कुरसी पर आ कर बैठ गई. पिछले 4 सालों की एकएक बात आंखों के सामने आती चली गई…

यश और नविका मुंबई में ही एक दोस्त की पार्टी में मिले थे. दोनों की दोस्ती हो गई थी. नविका यश से 3 साल बड़ी थी, यह जान कर भी यश को कोई फर्क नहीं पड़ा था. वह नविका से बहुत प्रभावित हुआ था. नविका सुंदर, आत्मनिर्भर, आधुनिक, होशियार थी. अपनी उम्र से बहुत कम ही दिखती थी. स्मिता के परिवार को भी उस से मिल कर अच्छा लगा था.

चुटकियों में यश और समृद्धि के किसी भी प्रोजैक्ट में हैल्प करती. बेटे से बड़ी लड़की को भी उस की खूबियों के कारण स्मिता ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था. स्मिता और विपुल खुले विचारों के थे. नविका के परिवार में उस के मम्मीपापा और एक भाई था. एक दिन नविका ने स्मिता से कहा कि मां आप मुझे कितना प्यार करती हैं और मेरी मम्मी तो बस मेरे भाई के ही चारों तरफ घूमती रहती हैं. मैं कहां जा रही हूं, क्या कर रही हूं, मम्मीपापा को इस से कुछ लेनादेना नहीं होता. भाई ही उन दोनों की दुनिया है. इसलिए मैं जल्दी आत्मनिर्भर बनना चाहती हूं.

सुन कर स्मिता ने नविका पर अपने स्नेह की बरसात कर दी थी.

उस दिन से तो जैसे स्मिता ने मान लिया कि उस के 2 नहीं 3 बच्चे हैं. कुछ भी होता

नविका जरूर होती. कहीं जाना हो नविका साथ होती. यह तय सा ही हो गया था कि यश के सैटल हो जाने के बाद दोनों का विवाह कर दिया जाएगा.

एक दिन स्मिता ने कहा, ‘‘नविका, मैं सोच रही हूं कि तुम्हारे पेरैंट्स से मिल लूं.’’

इस पर नविका बोली, ‘‘रहने दो मां. अभी नहीं. मेरे परिवार वाले बहुत रूढि़वादी हैं. जल्दी नहीं मानेंगे. मुझे लगता कि अभी रुकना चाहिए.’’

यश तो आंखें बंद कर नविका की हर बात में हां में हां ऐसे मिलाता था कि कई बार स्मिता हंस कर कह उठती थी, ‘‘विपुल, यह तो पक्का जोरू का गुलाम निकलेगा.’’

विपुल भी हंस कर कहते थे, ‘‘परंपरा निभाएगा. बाप की तरह बेटा भी जोरू का

गुलाम बनेगा.’’

कई बार स्मिता तो यह सोच कर सचमुच मन ही मन गंभीर हो उठती थी कि यश सचमुच नविका के खिलाफ एक शब्द नहीं सुन सकता. अपनी हर चीज के लिए उस पर निर्भर रहता है. कोई फौर्म हो, कहीं आवेदन करना हो, उस के सब काम नविका ही करती और नविका यश को खुश रखने का हर जतन करती. उसे मुंबई में ही अच्छी जौब मिल गई थी.

जौब के साथसाथ वह घर के हर सदस्य की हर चीज में हमेशा हैल्प करती. स्मिता मन ही मन हैरान होती कि यह लड़की क्या है… इतना कौन करता है? किसी को कोई भी जरूरत हो, नविका हाजिर और उस का खुशमिजाज स्वभाव भी लाजवाब था जिस के कारण स्मिता का उस से रोज मिलने पर भी मन नहीं भरता था. जितनी देर घर में रहती हंसती ही रहती. स्मिता नविका को याद कर रो पड़ी. रात के 2 बजे बालकनी में बैठ कर वह नविका को याद कर रो रही थी.

स्मिता का बारबार नविका को फोन कर पूछने का मन हो रहा था कि यह क्या किया तुम ने? यश के मना करने के बावजूद स्मिता यह ठान चुकी थी कि वह यह जरूर पूछेगी नविका से कि उस ने यह इमोशनल चीटिंग क्यों की? क्या इतने दिनों से वह टाइमपास कर रही थी? अचानक बिना कारण बताए कोई लड़की ब्रेकअप की घोषणा कर देती है, वह भी यश जैसे नर्म दिल स्वभाव वाले लड़के के साथ जो नविका को खुश देख कर ही खुश रहता था.

इतने में ही अपने कंधे पर हाथ  का स्पर्श महसूस हुआ तो स्मिता चौंकी. यश था, उस की गोद में सिर रख कर जमीन पर ही बैठ गया. दोनों चुप रहे. दोनों की आंखों से आंसू बहते रहे.

फिर विपुल भी उठ कर आ गए. दोनों को प्यार से उठाते हुए गंभीर स्वर में कहा, ‘‘जो हो गया, सो हो गया, अब यही सोच कर तुम लोग परेशान मत हो. आराम करो, कल बात करेंगे.’’

अगले दिन भी घर में सन्नाटा पसरा रहा. यश चुपचाप सुबह कालेज चला गया. स्मिता ने उस से दिन में 2-3 बार बात की. पूछा, ‘‘नविका से बात हुई?’’

‘‘नहीं, मम्मी वह फोन नहीं उठा रही है.’’

उदासीभरी हैरानी में स्मिता ने भी दिन बिताया. वह बारबार

अपना फोन चैक कर रही थी. इतने सालों में आज पहली बार न नविका का कोई मैसेज था न ही मिस्ड कौल. स्मिता को तो स्वयं ही नविका के टच में रहने की इतनी आदत थी फिर यश को कैसा लगा रहा होगा. यह सोच कर ही उस का मन उदास हो जाता था.

3 दिन बीत गए, नविका ने किसी से संपर्क नहीं किया. घर में चारों उदास थे, जैसे घर का कोई महत्त्वपूर्ण सदस्य एकदम से साथ छोड़ गया हो. सब चुप थे. अब नविका का कोई नाम ही नहीं ले रहा था ताकि कोई दुखी न हो. मगर बिना कारण जाने स्मिता को चैन नहीं आ रहा था. वह बिना किसी को बताए बांद्रा कुर्ला कौंप्लैक्स पहुंच गई. नविका का औफिस उसे पता था.

अत: उस के औफिस चल दी. औफिस के बाहर पहुंच सोचा एक बार फोन करती. अगर उठा लिया तो ठीक वरना औफिस में चली जाएगी.

अत: नविका के औफिस की बिल्डिंग के बाहर खड़ी हो कर स्मिता ने फोन किया. हैरान हुई जब नविका ने उस का फोन उठा लिया, ‘‘नविका, मैं तुम्हारे औफिस के बाहर खड़ी हूं, मिलना है तुम से.’’

‘‘अरे, मां, आप यहां? मैं अभी

आती हूं.’’

नविका दूर से भागी सी आती दिखी तो स्मिता की आंखें उसे इतने दिनों बाद देख भीग सी गईं. वह सचमुच नविका को प्यार करने लगी थी. उसे बहू के रूप में स्वीकार कर चुकी थी. उस पर अथाह स्नेह लुटाया था. फिर यह लड़की अचानक गैर क्यों

हो गई?

नविका आते ही उस के गले लग गई. दोनों रोड पर यों ही बिना कुछ कहे कुछ पल खड़ी रहीं. फिर नविका ने कहा, ‘‘आइए, मां, कौफी हाउस चलते हैं.’’

नविका स्मिता का हाथ पकड़े चल रही थी. स्मिता का दिल भर आया. यह हाथ, साथ, छूट गया है. दोनों जब एक कौर्नर की टेबल पर बैठ गईं तो नविका ने गंभीर स्वर में पूछा, ‘‘मां, आप कैसी हैं?’’

स्मिता ने बिना किसी भूमिका के कहा, ‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया, मैं जानने आई हूं?’’

नविका ने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘मां, मैं थकने लगी थी.’’

‘‘क्यों? किस बात से? हम लोगों के प्यार में कहां कमी देखी तुम ने? इतने साल हम से जुड़ी रही और अचानक बिना कारण बताए यह सब किया जाता है? यह पूरे परिवार के साथ इमोशनल चीटिंग नहीं है?’’ स्मिता के स्वर में नाराजगी घुल आई.

‘‘नहीं मां, आप लोगों के प्यार में तो कोई कमी नहीं थी, पर मैं अपने ही झूठ से थकने लगी थी. मैं ने आप लोगों से झूठ बोला था. मैं यश से 3 नहीं, 7 साल बड़ी हूं.’’

स्मिता बुरी तरह चौंकी, ‘‘क्या?’’

‘‘हां, मैं तलाकशुदा भी हूं. इसलिए मैं ने आप को कभी अपनी फैमिली से मिलने नहीं दिया. मैं जानती थी आप लोग यह सुन कर मुझ से दूर हो जाएंगे. मैं इतनी लविंग फैमिली खोना नहीं चाहती थी. इसलिए झूठ बोलती थी.’’

‘‘शादी कहां हुई थी? तलाक क्यों हुआ था?’’

‘‘यहीं मुंबई में ही. मैं ने घर से भाग कर शादी की थी. मेरे पेरैंट्स आज तक मुझ से नाराज हैं और फिर मेरी उस से नहीं बनी तो तलाक हो गया. मैं मम्मीपापा के पास वापस आ गई. उन्होंने मुझे कभी माफ नहीं किया. मैं ने आगे पढ़ाई

की. आज मैं अच्छी जौब पर हूं. फिर यश मिल गया तो अच्छा लगा. मैं ने अपना सब सच छिपा लिया. यश अच्छा लड़का है. मुझ से काफी छोटा है, पर उस के साथ रहने पर उस की उम्र के हिसाब से मुझे कई दिक्कतें होती हैं. उस की उम्र से मैच करने में अपनेआप पर काफी मेहनत करनी पड़ती है. आजकल मानसिक रूप से थकने लगी हूं.

‘‘यश कभी अपनी दूसरी दोस्तों के साथ बात भी करता है तो मैं असुरक्षित

महसूस करती हूं. मैं ने बहुत सोचा मां. उम्र के अंतर के कारण मैं शायद यह असुरक्षा हमेशा महसूस करूंगी. मैं ने भी दुनिया देखी है मां. बहुत सोचने के बाद मुझे यही लगा कि अब मुझे आप लोगों की जिंदगी से दूर हो जाना चाहिए. मैं वैसे भी अपनी शर्तों पर, अपने हिसाब से जीना चाहती हूं. आत्मनिर्भर हूं, आप लोगों से जुड़ कर समाज का कोई ताना, व्यंग्य भविष्य में मैं सुनना पसंद नहीं करूंगी.

‘‘मैं ने बहुत मेहनत की है. अभी और ऊंचाइयों पर जाऊंगी, आप लोग हमेशा याद आएंगे. लाइफ ऐसी ही है, चलती रहती है. आप ठीक समझें तो घर में सब को बता देना, सब आप के ऊपर है और हम कोई सैलिब्रिटी तो हैं नहीं, जिन्हें इस तरह का कदम उठाने पर समाज का कोई डर नहीं होता. हम तो आम लोग हैं. मुझे या आप लोगों को रोजरोज के तानेउलाहने पसंद नहीं आएंगे. यश में अभी बहुत बचपना है. यह भी हो सकता है कि समाज से पहले वही खुद बातबात में मेरा मजाक उड़ाने लगे. मुझे बहुत सारी बातें सोच कर आप सब से दूर होना ही सही लग रहा है.’’

कौफी ठंडी हो चुकी थी. नविका पेमैंट कर उठ खड़ी हुई. कैब आ गई तो स्मिता के गले लगते हुए बोली, ‘‘आई विल मिस यू, मां,’’ और फिर चल दी.

स्मिता अजीब सी मनोदशा में कैब में बैठ गई. दिल चाह रहा था, दूर जाती हुई नविका को आवाज दे कर बुला ले और कस कर गले से लगा ले, पर वह  जा चुकी थी, हमेशा के लिए. उसे कह भी नहीं पाई थी कि उसे भी उस की बहुत याद आएगी. 4 सालों से अपने सारे सच छिपा कर सब के दिलों में जगह बना चुकी थी वह. सच ही कह रही थी वह कि सच छिपातेछिपाते थक सी गई होगी. अगर वह अपने भविष्य को ले कर पौजिटिव है, आगे बढ़ना चाहती है, स्मिता को भले ही अपने परिवार के साथ यह इमोशनल चीटिंग लग रही हो, पर नविका को पूरा हक है अपनी सोच, अपने मन से जीने का.

अगर वह अभी से इस रिश्ते में मानसिक रूप से थक रही है, अभी से यश और अपनी उम्र के अंतर के बोझ से थक रही है तो उसे पूरा हक है इस रिश्ते से आजाद होने का. मगर यह सच है कि स्मिता को उस की याद बहुत आएगी. मन ही मन नविका को भविष्य के लिए शुभकामनाएं दे कर स्मिता ने गहरी सांस लेते हुए कार की सीट पर बैठ कर आंखें मूंद लीं.

Online Hindi Story : गलती का एहसास

Online Hindi Story : सुबह से ही घर का माहौल थोड़ा गरम था. महेश की अपने पिता से रात को किसी बात पर अनबन हो गई थी. यह पहली बार नहीं हुआ था.

ऐसा अकसर ही होता था। महेश के विचार अपने पिता के विचारों से बिलकुल अलग थे पर महेश अपने पिता को ही अपना आदर्श मानता था और उन से बहुत प्रेम भी करता था.

महेश बहुत ही साफदिल इंसान था. किसी भी तरह के दिखावे या बनावटीपन की उस की जिंदगी में कोई जगह नहीं थी.

महेश के पिता मनमोहन राव लखनऊ के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे. बड़ेबड़े लोगों के साथ उन का उठनाबैठना था. उन्होंने अपनी मेहनत से कपड़ों का बहुत बड़ा कारोबार खड़ा किया था. इस बात का उन्हें बहुत गुमान भी था और होता भी क्यों नहीं, तिनके से ताज तक का सफर उन्होंने अकेले ही तय किया था.

महेश को इस बात का बिलकुल घमंड नहीं था. अपने मातापिता की इकलौती संतान होने का फायदा उस ने कभी नहीं उठाया था. महेश की मां रमा ने उस की बहुत अच्छी परवरिश की थी. उस में संस्कारों की कोई कमी नहीं थी. हर किसी का आदरसम्मान करना और जरूरतमंदों के लिए दिल में दया रखना उस का स्वभाव था. वह घर के नौकरों से भी बहुत तमीज और सलीके से बात करता था. उस के स्वभाव के कारण वह अपने दोस्तों में भी बहुत प्रिय था.

आधी रात को भी अगर कोई परेशानी में होता था तो एक फोन आने पर महेश तुरंत उस की मदद के लिए पहुंच जाता था. किसी के काम आ कर उस की सहायता कर के महेश को बहुत सुकून मिलता था.

11 दिसंबर का दिन था. दोहरी खुशी का अवसर था. महेश के पिता मनमोहन राव का जन्मदिन था और साथ में उन की नई फैक्टरी का उद्घाटन भी था. इस अवसर पर घर में बहुत बड़ी पार्टी का आयोजन किया गया था.

महेश की मां ने सुबह ही उस को चेतावनी देते हुए कहा,”शाम को मेहमानों के आने से पहले घर जल्दी आ जाना.”

महेश देर से घर नहीं आता था, पर औफिस के बाद दोस्तों के साथ कभी इधरउधर चला भी गया तो घर आने में थोड़ी देर हो जाती थी.

अपने पिता का इतना बड़ा कारोबार होने के बाद भी महेश एक मैगजीन के लिए फोटोग्राफी का काम करता था. उसे इस काम में शुरू से ही दिलचस्पी थी और उस ने तय किया था कि अपने काम से ही एक दिन खुद की एक पहचान बनाएगा.

उस की सैलरी बहुत ज्यादा नहीं थी पर महेश को बहुत ज्यादा की ख्वाहिश कभी रही भी नहीं. वह बहुत थोड़े में ही संतुष्ट होने वाला इंसान था.

शाम होने को आई थी. मेहमानों का आगमन शुरू हो गया था. महेश भी औफिस से आ कर अपने कमरे में तैयार होने चला गया था.

मनमोहन राव और उन की पत्नी रमा मुख्यद्वार पर मेहमानों का स्वागत करने के लिए खड़े थे. महेश भी तैयार हो कर आ गया था. थोड़ी ही देर में उन का बगीचा मेहमानों की उपस्थिति से रौनक हो चुका था. महेश की मां के बहुत जोर दे कर बोलने पर भी महेश ने अपने किसी दोस्त को पार्टी में आने का आमंत्रण नहीं दिया था.

टेबल पर केक रख दिया गया था. महेश के पिता ने केक काट कर पहला टुकड़ा अपनी पत्नी रमा को खिलाया फिर दूसरा टुकड़ा ले कर वह बेटे को खिलाने लगे तो महेश ने उन के हाथ से केक ले लिया और उन्हें खिला दिया.

फिर अपने पिता के पैर छू कर बोला,”जन्मदिन की बहुतबहुत शुभकामनाएं पिताजी.”

मनमोहन राव ने बेटे को सीने से लगा लिया. महेश की मां यह सब देख कर बहुत खुश हो रही थीं.

बहुत कम ही अवसर होते थे जब बापबेटे का यह स्नेह देखने को मिलता था, नहीं तो विचारों में मतभेद के कारण दोनों में बात करतेकरते बहस शुरू हो जाती थी और बातचीत का सिलसिला कई दिनों तक बंद रहता था.

वेटर स्नैक्स और ड्रिंक्स ले कर घूम रहे थे. अकसर बड़ीबड़ी पार्टियां और समारोहों में ऐसा ही होता है और इस तरह की पार्टीयों को ही आधुनिकता का प्रतीक माना जाता है.

इस तरह की पार्टियां महेश ने बचपन से ही अपने घर में देखी थी, इस के बावजूद भी वह इस तरह की पार्टियों का आदी नहीं था. ऐसे माहौल में उसे बहुत जल्द घुटन महसूस होने लगती थी.

महेश के पिता ने उस को आवाज दे कर बुलाया,”महेश, इधर आओ. विजय अंकल से मिलो, कब से तुम्हें पूछ रहे हैं.” विजय अंकल मनमोहन राव के बहुत करीबी मित्रों में से एक थे और उन का भी लखनऊ में अच्छाखासा कारोबार फैला था.

महेश ने “हैलो अंकल” बोल कर उन के पैर छुए तो वह बोलने लगे,”यार मनमोहन तुम्हारा बेटा तो हाईफाई करने के जमाने में भी पैर छूता है, आधुनिकता से कितनी दूर है. तुम्हें कितनी बार समझाया था कि इकलौता बेटा है तुम्हारा, इसे अमेरिका भेजो पढ़ाई के लिए, थोड़ा तो आधुनिक हो कर आता.”

महेश चुपचाप मुसकराता हुआ खड़ा था.

विजय अंकल फिर बोलने लगे,”और बताओ कैसी चल रही है तुम्हारी फोटोग्राफी की नौकरी? अब छोड़ो भी यह सब. क्या मिलता है यह सब कर के?

“अब अपने पिता के कारोबार की डोर संभालो. जितनी सैलरी तुम्हें मिलती है उतनी तो तुम्हारे पिता घर के नौकरों में बांट देते हैं. अपने पिता की शख्सियत का तो खयाल रखो.”

पिता की शख्सियत की बात सुन कर महेश ने अपनी चुप्पी तोड़ने का निर्णय ले लिया था.

महेश बोला,”अंकल, काम को ले कर मेरा नजरिया जरा अलग है. काम कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता और मुझे नहीं लगता कि मैं ने आज तक ऐसा कोई भी काम किया है जिस से
मेरे पिताजी की छवि या उन की शख्सियत को कोई हानि पहुंची हो.

“फोटोग्राफी मेरा शौक है. इस काम को करने से मुझे खुशी मिलती है और रही बात पैसों की, तो ज्यादा पैसों की ना मुझे जरूरत है और ना ही कोई चाह,” बोलतेबोलते महेश की आवाज ने जोर पकड़ लिया था.

मनमोहन राव को महेश का इतने खुले शब्दों में बात करना पसंद नहीं आया.

उन्होंने लगभग चिल्लाने के लहजे में बोला,”चुप हो जाओ महेश. यह कोई तरीका है बात करने का? अपनी इस बदतमीजी के लिए तुम्हें अभी माफी मांगनी होगी.”

महेश ने साफ इनकार करते हुए कहा,”माफी किस बात की पिताजी?
मैं ने कोई गलती नहीं करी है, सिर्फ अपनी बात रखी है.

“आप ही बताइए कि मैं ने आज तक ऐसा कौन सा काम किया है जिस की वजह से आप को शर्मिंदा होना पड़ा हो.”

मनमोहन राव बोले,”मैं कुछ नहीं सुनना चाहता महेश, मेरे प्रतिद्वंदी भी इस पार्टी में मौजूद हैं. सब के सामने मेरा मजाक मत बनाओ.”

महेश बोला,”मुझे किसी की परवाह नहीं है, पिताजी कि कौन देख रहा है और कौन क्या सोच रहा है? मैं सिर्फ इतना चाहता हूं कि आप मुझे समझो.

“मैं ने जब से होश संभाला है तब से आज तक उस दिन का इंतजार कर रहा हूं जब आप मुझे समझोगे. इंसान बड़ा काम या बड़ा कारोबार कर के ही बड़ा नहीं होता पिताजी. छोटेछोटे काम कर के भी इंसान अपनी एक पहचान बना सकता है. बड़े बनने का सफर भी तो छोटे सफर से ही तय होती है. इस बात का उदाहरण तो आप खुद भी हैं पिताजी, फिर आप क्यों नहीं समझते?”

मनमोहन राव का सब्र खत्म हो चुका था. अब बात उन्हें अपनी प्रतिष्ठा पर चोट पहुंचने जैसी लग रही थी.

उन्होंने महेश से कहा,”तुम या तो विजय अंकल से माफी मांगो या अभी इसी वक्त घर से निकल जाओ.”

महेश की मां रमा जो इतनी देर से दूर खड़े हो कर सब देखसुन रही थीं, सोचने लगीं कि पति की प्रतिष्ठा का खयाल रखना जरूरी है पर बेटे के आत्मसम्मान को चोट पहुंचा कर नहीं।

वे पति से बोलीं,”यह क्या बोल रहे हो आप? इतनी सी बात के लिए कोई अपनी इकलौती औलाद को घर से जाने के लिए कहता है क्या?”

मनमोहन राव को जब गुस्सा आता था तब वे किसी की भी नहीं सुनते थे. हमेशा की तरह उन्होंने रमा को बोल कर चुप करा दिया था.

महेश बोला,”मुझे नहीं पता था पिताजी की आप को अपने बेटे से ज्यादा इन बाहरी लोगों की परवाह है,
जो आज आप के साथ सिर्फ आप की शख्सियत की वजह से हैं.

“यहां खड़ा हुआ हरएक इंसान आप के लिए अपने दिल में इज्जत लिए नहीं खड़ा है, बल्कि अपने दिमाग में आप से जुड़ा नफा और नुकसान लिए खड़ा है. इस सचाई को आप स्वीकार नहीं करना चाहते,” ऐसा बोल कर महेश मां के पास आया और पैर छू कर बोला,”चलता हूं मां, तुम अपना खयाल रखना.”

रमा पति से गुहार लगाती रही मगर मनमोहन राव ने एक नहीं सुनी.

वे चिल्लाते हुए बोले,”जाओ तुम्हारी हैसियत ही क्या है मेरे बिना. 4 दिन में वापस आओगे ठोकरें खा कर.”

हंसीखुशी भरे माहौल का अंत इस तरह से होगा यह किसी ने कल्पना नहीं करी थी.

इस घटना को पूरे 5 वर्ष बीत चुके थे पर ना महेश वापस आया था और ना ही उस की कोई खबर आई थी. बेटे के जाने के गम में रमा की तबीयत दिनबदिन खराब होती जा रही थी. वे अकसर बीमार रहती थीं. उन की जिंदगी से खुशी और चेहरे से हंसी हमेशा के लिए चली गई थी.

मनमोहन राव को भी बेटे के जाने का बहुत अफसोस था. उस दिन की घटना के लिए उन्होंने अपनेआप को ना जाने कितनी बार कोसा था.

एक मां को उस के बेटे से दूर करने का दोषी भी वे खुद को ही मानते थे. अकेले में महेश को याद कर के कई बार वे रो भी लेते थे.

एक मां के लिए उस की औलाद का उस से दूर जाना बहुत बड़े दुख का कारण बन जाता है पर एक पिता के लिए उस के जवान बेटे का घर छोड़ कर चले जाना किसी सदमे से कम नहीं होता.

रमा और कमजोर ना पड़ जाए इसीलिए उस के सामने मनमोहन राव खुद को कारोबार में व्यस्त रखने का दिखावा करते थे. वे अकसर रमा को यह बोल कर शांत कराते थे कि आज नहीं तो कल आ ही जाएगा तुम्हारा बेटा.

रमा अपने मन में सोचती कि मैं मां हूं उस की, मुझे पता है वह स्वाभिमानी और दृढ़निश्चयी है. एक बार जो ठान लेता है वह कर के ही शांत होता है.

अचानक एक दिन फोन की घंटी बजी। सुबह के 10 बज रहे थे. रमा दूसरे कमरे में थीं।

नौकर ने फोन उठाया और जोर से चिल्लाया,”मैडममैडम…”

रमा एकदम से चौंक गईं। दूसरे कमरे से ही नौकर को चिल्लाते हुए बोलीं,”क्यों चीख रहे हो? किस का फोन है?”

“छोटे साहब का फोन है मैडम,”नौकर बोला.

रमा को अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था.

वे फोन की तरफ लपकीं और नौकर के हाथ से फोन लगभग छीनते हुए ले कर बोलीं,”हेलो, महेश बेटा… कैसे हो बेटे? 5 साल लगा दी अपनी मां को याद करने में? घर वापस कब आ रहे हो बेटा? तू ठीक तो है ना?”

महेश बोला,”बसबस मां, तुम रुकोगी तब तो कुछ बोल पाऊंगा ना मैं. पिताजी कैसे हैं मां? आप दोनों की तबीयत तो ठीक है ना?

“आप दोनों की खबर लेता रहता था मैं, पर आज इतने सालों बाद आप की आवाज सुन कर मन को बहुत तसल्ली हो गई मां…

“पिताजी से बात कराओ ना,”महेश ने आग्रह किया तो रमा बोलीं,”वे औफिस में हैं बेटा.

“तू सब कुछ छोड़, पहले बता घर वापस कब आ रहा है? कहां है तू ?
मैं अभी ड्राइवर को भेजती हूं तुझे लाने के लिए…”

महेश हंसते हुए बोला,”मैं लंदन में हूं मां.”

“लंदन में…” आश्चर्य से बोलीं रमा,”बेटा, वहां क्यों चला गया?
तू ठीक तो है ना? किसी तकलीफ में तो नहीं हो ना?”

अकसर जब औलादें अपने मातापिता से दूर हो जाती हैं किसी कारण से तो ऐसी ही चिंता उन्हें घेरे रहती हैं कि वे किसी गलत संगत में ना पड़ जाएं, अकेले खुद को कैसे संभालेंगे? रमा के बारबार बीमार रहने की वजह भी यही सब चिंताएं थीं.

महेश सोचने लगा कि मां ने 5 साल मेरे बिना कैसे निकाले होंगे पता नहीं. मां की बातों से उस की फिक्र साफ झलक रही थी.

“मेरी बात सुनो मां,” महेश बोला,”घर से निकलने के बाद मैं 2 साल लखनऊ में ही था. जिस मैगजीन के लिए मैं काम करता था, उस की तरफ से ही मुझे 3 साल पहले एक प्रोजैक्ट के लिए लंदन भेजा गया था. मेरा प्रोजैक्ट बहुत ही सफल रहा.

“यहां लंदन में मेरे काम को बहुत ही सराहा गया और अगले महीने यहां एक पुरस्कार समारोह का आयोजन
है जिस में तुम्हारे बेटे को ‘बैस्ट फोटोग्राफर औफ द ईयर’ का पुरस्कार मिलने वाला है.

“मां, आप के और पिताजी के आशीर्वाद और मेरी इतनी सालों की मेहनत का परिणाम मुझे इस पुरस्कार के रूप में मिलने जा रहा है. मेरी बहुत इच्छा है कि इस अवसर पर मेरा परिवार मेरे मातापिता मेरे साथ रहें.

“मेरी जिंदगी की इतनी बड़ी खुशी को बांटने के लिए आज मेरे साथ यहां कोई नहीं है मां,” बोलतेबोलते महेश का गला भर आया था.

उधर रमा की आंखों से निकले आंसूओं ने भी उस के आंचल को भिगो दिया था और उन का दिल खुशी से चिल्लाने को कर रहा था कि मेरे बेटे की हैसियत देखने वालो देखो, आज अपनी मेहनत से मेरा बेटा किस मुकाम पर पहुंचा है. दूसरे देश में जा कर दूसरे लोगों के बीच में अपने काम से अपनी पहचान बनाना अपनेआप में बहुत बड़ी जीत का प्रमाण है.

महेश ने आगे बोला,”मां, आप के और पिताजी के लिए लंदन की टिकट भेज रहा हूं. पिताजी को ले कर जल्दी यहां आ जाओ मां.”

“हां बेटा, हम जरूर आएंगे,” रमा ने कहा,”कौन से मातापिता नहीं चाहेंगे कि दुनिया की नजरों में अपने बेटे के लिए इतना मानसम्मान और इज्जत देखना. तू ने हमें यह अवसर दिया है, हम जरूर आएंगे बेटा, जरूर आएंगे,”ऐसा कह कर रमा
ने फोन रख दिया।

आज रमा को अपनी परवरिश पर बहुत नाज हो रहा था. 5 साल की जुदाई का दर्द आज बेटे की सफलता के आगे उसे बहुत छोटा लग रहा था।

वे बहुत बेसब्री से महेश के पिता के घर वापस आने का इंतजार कर रही थीं. फोन पर इतनी बड़ी खुशखबरी वे नहीं देना चाहती थीं। वे चाह रही थीं कि बेटे की सफलता की खुशी को अपनी आंखों से उस के पिता के चेहरे पर देखें।

दरवाजे की घंटी बजी तो नौकर ने जा कर दरवाजा खोला। महेश के पिता जैसे ही घर के अंदर दाखिल हुए तो उन्होंने जो देखा उस की कल्पना नहीं की थी. रमा अपनी खोई हुई मुसकान चेहरे पर लिए हुए खड़ी थीं.

देखते ही बोले मनमोहन राव,”इतने साल बाद तुम्हारे चेहरे पर खुशी देख कर बहुत सुकून मिल रहा है. इस की वजह पता चलेगी कि नहीं? तुम्हारा बेटा वापस आ गया क्या?”

रमा बोलीं,”जी नहीं, बेटा नहीं आया पर आज दोपहर में उस का फोन आया था.”

इस खबर को सुनने का इंतजार वे भी
ना जाने कब से कर रहे थे।

“अच्छा कैसा है वह? मेरे बारे में पूछा कि नहीं उस ने? नाराज है क्या अब तक मेरे से?” उन की उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी.

रमा बोलीं,”बिलकुल नाराज नहीं है और बारबार आप को ही पूछ रहा था। और सुनिए, लंदन में है हमारा बेटा.”

बेटा लंदन में है, सुन कर महेश के पिता सोफे से उठ खड़े हुए थे.

“जी हां, लंदन में और अगले महीने वहां एक बहुत बड़े पुरस्कार से सम्मानित होने जा रहा है आप का बेटा,” बोलते हुए मिठाई का एक टुकड़ा रमा ने ममनमोहन राव के मुंह
में डाल दिया था.

उन की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था.

“तुम सच कह रही हो ना रमा?”

रमा बोलीं,”जी हां, बिलकुल सच.”

मनमोहन राव ने रमा को सीने से लगा लिया और दोनों अपने आंसुओं को रोक नहीं पाए.

रमा ने खुद को संभालते हुए कहा,”आगे तो सुनिए, हमारे लिए लंदन की टिकट भेज रहा है. पुरस्कार समारोह में वह हम दोनों के साथ शामिल होना चाहता है.”

मनमोहन राव के आंसुओं का बहाव और तेज हो चुका था. जिस बेटे को 5 साल पहले उन्होंने बोला था कि तुम्हारी हैसियत क्या है मेरे बिना, उस ने अपनी हैसियत से शख्सियत तक का सफर क्या बखूबी पूरा किया था.

आंसुओं ने उन के चेहरे को पूरी तरह से भिगो दिया था और बेटे से मिलने की तड़प में दिल मचल उठा था.

Best Family Drama : सत्ता की भूख में जब टूटा परिवार

Best Family Drama: रिटायरमैंट के बाद अपने ही जन्मस्थान में जा कर बसने का मेरा अनमोल सपना था. जहां पैदा हुआ, जहां गलियों में खेला व बड़ा हुआ, वह जगह कितनी ही यादों को जिंदा रखे है. कक्षा 12 तक पढ़ने के बाद जो अपना शहर छोड़ा तो बस मुड़ कर देख ही नहीं पाया. नौकरी सारा भारत घुमाती रही और मैं घूमता रहा. जितनी दूर मैं अपने शहर से होता गया उतना ही वह मेरे मन के भीतर कहीं समाता गया. छुट्टियों में जब घर आते तब सब से मिलने जाते रहे. सभी आवभगत करते रहे, प्यार और अपनत्व से मिलते रहे. कितना प्यार है न मेरे शहर में. सब कितने प्यार से मिलते हैं, सुखदुख पूछते हैं. ‘कैसे हो?’ सब के होंठों पर यही प्रश्न होता है.

रिटायरमैंट में सालभर रह गया. बच्चों का ब्याह कर, उन के अपनेअपने स्थानों पर उन्हें भेज कर मैं ने गंभीरता से इस विषय पर विचार किया. लंबी छुट्टी ले कर अपने शहर, अपने रिश्तेदारों के साथ थोड़ाथोड़ा समय बिता कर यह सर्वेक्षण करना चाहा कि रहने के लिए कौन सी जगह उपयुक्त रहेगी, घर बनवाना पड़ेगा या बनाबनाया ही कहीं खरीद लेंगे.

मुझे याद है, पिछली बार जब मैं आया था तब विजय चाचा के साथ छोटे भाई की अनबन चल रही थी. मैं ने सुलह करवा कर अपना कर्तव्य निभा लिया था. छोटी बूआ और बड़ी बूआ भी ठंडा सा व्यवहार कर रही थीं. मगर मेरे साथ सब ने प्यार भरा व्यवहार ही किया था. अच्छा नहीं लगा था तब मुझे चाचाभतीजे का मनमुटाव.

इस बार भी कुछ ऐसा ही लगा तो पत्नी ने समझाया, ‘‘जहां चार बरतन होते हैं तो वे खड़कते ही हैं. मैं तो हर बार देखती हूं. जब भी घर आओ किसी न किसी से किसी न किसी का तनाव चल रहा होता है. 4 साल पहले भी विजय चाचा के परिवार से अबोला चल रहा था.’’
‘‘लेकिन हम तो उन से मिलने गए न. तुम चाची के लिए साड़ी लाई थीं.’’

‘‘तब छोटी का मुंह सूज गया था. मैं ने बताया तो था आप को. साफसाफ तो नहीं मगर इतना इशारा आप के भाई ने भी किया था कि जो उस का रिश्तेदार है वह चाचा से नहीं मिल सकता.’’
‘‘अच्छा? मतलब मेरा अपना व्यवहार, मेरी अपनी बुद्धि गई भाड़ में. जिसे छोटा पसंद नहीं करेगा उसे मुझे भी छोड़ना पड़ेगा.’’

‘‘और इस बार छोटे का परिवार विजय चाचा के साथ तो घीशक्कर जैसा है. लेकिन बड़ी बूआ के साथ नाराज चल रहा है.’’
‘‘वह क्यों?’’

‘‘आप खुद ही देखसुन लीजिए न. मैं अपने मुंह से कुछ कहना नहीं चाहती. कुछ कहा तो आप कहेंगे कि नमकमिर्च लगा कर सुना रही हूं.’’

पत्नी का तुनकना भी सही था. वास्तव में आंखें बंद कर के मैं किसी भी औरत की बात पर विश्वास नहीं करता, वह चाहे मेरी मां ही क्यों न हो. अकसर औरतें ही हर फसाद और कलहक्लेश का बीज रोपती हैं. 10 भाई सालों तक साथसाथ रहते हैं लेकिन 2 औरतें आई नहीं कि सब तितरबितर. मायके में बहनों का आपस में झगड़ा हो जाएगा तो जल्दी ही भूल कर माफ भी कर देंगी और समय पड़ने पर संगसंग हो लेंगी लेकिन ससुराल में भाइयों में अनबन हो जाए तो उस आग में सारी उम्र घी डालने का काम करेंगी. अपनी मां को भी मैं ने अकसर बात घुमाफिरा कर करते देखा है.

नौकरी के सिलसिले में लगभग 100-200 परिवारों की कहानी तो बड़ी नजदीक से देखीसुनी ही है मैं ने. हर घर में वही सब. वही अधिकार का रोना, वही औरत का अपने परिवार को ले कर सदा असुरक्षित रहना. ज्यादा झगड़ा सदा औरतें ही करती हैं.

मेरी पत्नी शुभा यह सब जानती है इसीलिए कभी कोई राय नहीं देती. मेरे यहां घर बना कर सदा के लिए रहने के लिए भी वह तैयार नहीं है. इसीलिए चाहती है लंबा समय यहां टिक कर जरा सी जांचपड़ताल तो करूं कि दूर के ढोल ही सुहावने हैं या वास्तव में यहां पे्रम की पवित्र नदी, जलधारा बहती है. कभीकभी कोई आया और उस से आप ने लाड़प्यार कर लिया, उस का मतलब यह तो नहीं कि लाड़प्यार करना ही उन का चरित्र है. 10-15 मिनट में किसी का मन भला कैसे टटोला जा सकता है. हमारे खानदान के एक ताऊजी हैं जिन से हमारा सामना सदा इस तरह होता रहा है मानो सिर पर उन की छत न होती तो हम अनाथ  ही होते. सारे काम छोड़छाड़ कर हम उन के चरणस्पर्श करने दौड़ते हैं. सब से बड़े हैं, इसलिए छोटीमोटी सलाह भी उन से की जाती है. उम्रदराज हैं इसलिए उन की जानपहचान का लाभ भी अकसर हमें मिलता है. राजनीति में भी उन का खासा दखल है जिस वजह से अकसर परिवार का कोई काम रुक जाता है तो भागेभागे उन्हीं के पास जाते हैं हम, ‘ताऊजी यह, ताऊजी वह.’

हमें अच्छाखासा सहारा लगता है उन का. बड़ेबुजुर्ग बैठे हों तो सिर पर एक आसमान जैसी अनुभूति होती है और वही आसमान हैं वे ताऊजी. हमारे खानदान में वही अब बड़े हैं. उन का नाम हम बड़ी इज्जत, बड़े सम्मान से लेते हैं. छोटा भाई इस बार कुछ ज्यादा ही परेशान लगा. मैं ताऊजी के लिए शाल लाया था उपहार में. शुभा से कहा कि वह शाम को तैयार रहे, उन के घर जाना है. छोटा भाई मुझे यों देखने लगा, मानो उस के कानों में गरम सीसा डाल दिया हो किसी ने. शायद इस बार उन से भी अनबन हो गई हो, क्योंकि हर बार किसी न किसी से उस का झगड़ा होता ही है.

‘‘आप का दिमाग तो ठीक है न भाई साहब. आप ताऊ के घर शाल ले कर जाएंगे? बेहतर है मुझे गोली मार कर मुझ पर इस का कफन डाल दीजिए.’’
स्तब्ध तो रहना ही था मुझे. यह क्या कह रहा है, छोटा. इस तरह क्यों?
‘‘बाहर रहते हैं न आप, आप नहीं जानते यहां घर पर क्याक्या होता है. मैं पागल नहीं हूं जो सब से लड़ता रहता हूं. मुकदमा चल रहा है विजय चाचा का और मेरा ताऊ के साथ. और दोनों बूआ उन का साथ दे रही हैं. सबकुछ है ताऊ के पास. 10 दुकानें हैं, बाजार में 4 कोठियां हैं, ट्रांसपोर्ट कंपनी है, शोरूम हैं. औलाद एक ही है. और कितना चाहिए इंसान को जीने के लिए?’’

‘‘तो? सच है लेकिन उन के पास जो है वह उन का अपना है. इस में हमें कोई जलन नहीं होनी चाहिए.’’
‘‘हमारा जो है उसे तो हमारे पास रहने दें. कोई सरकारी कागज है ताऊ के पास. उसी के बल पर उन्होंने हम पर और विजय चाचा पर मुकदमा ठोंक रखा है कि हम दोनों का घर हमारा नहीं है, उन का है. नीचे से ले कर ऊपर तक हर जगह तो ताऊ का ही दरबार है. हर वकील उन का दोस्त है और हर जज, हर कलैक्टर उन का यार. मैं कहां जाऊं रोने? बच्चा रोता हुआ बाप के पास आता है. मेरा तो गला मेरा बाप ही काट रहा है. ताऊ की भूख इतनी बढ़ चुकी है कि …’’

आसमान से नीचे गिरा मैं. मानो समूल अस्तित्व ही पारापारा हो कर छोटेछोटे दानों में इधरउधर बिखर गया. शाल हाथ से छूट गया. समय लग गया मुझे अपने कानों पर विश्वास करने में. क्या कभी मैं ऐसा कर पाऊंगा छोटे के बच्चों के साथ? करोड़ों का मानसम्मान अगर मुझे मेरे बच्चे दे रहे होंगे तो क्या मैं लाखों के लिए अपने ही बच्चों के मुंह का निवाला छीन पाऊंगा कभी? कितना चाहिए किसी को जीने के लिए, मैं तो आज तक यही समझ नहीं पाया. रोटी की भूख और 6 फुट जगह सोने को और मरणोपरांत खाक हो जाने के बाद तो वह भी नहीं. क्यों इतना संजोता है इंसान जबकि कल का पता ही नहीं. अपने छोटे भाई का दर्द मैं ही समझ नहीं पाया. मैं भी तो कम दोषी नहीं हूं न. मुझे उस की परेशानी जाननी तो चाहिए थी.
मन में एक छोटी सी उम्मीद जागी. शाल ले कर मैं और शुभा शाम ताऊजी के घर चले ही गए, जैसे सदा जाते थे इज्जत और मानसम्मान के साथ. स्तब्ध था मैं उन का व्यवहार देख कर.
‘‘भाई की वकालत करने आए हो तो मत करना. वह घर और विजय का घर मेरे पिता ने मेरे लिए खरीदा था.’’
‘‘आप के पिता ने आप के लिए क्या खरीदा था, क्या नहीं, उस का पता हम कैसे लगाएं. आप के पिता हमारे पिता के भी तो पिता ही थे न. किसी पिता ने अपनी किस औलाद को कुछ भी नहीं दिया और किस को इतना सब दे दिया, उस का पता कैसे चले?’’
‘‘तो जाओ, पता करो न. तहसील में जाओ… कागज निकलवाओ.’’
‘‘तहसीलदार से हम क्या पता करें, ताऊजी. वहां तो चपरासी से ले कर ऊपर तक हर इंसान आप का खरीदा हुआ है. आज तक तो हम हर समस्या में आप के पास आते रहे. अब जब आप ही समस्या बन गए तो कहां जाएंगे? आप बड़े हैं. मेरी भी उम्र  60 साल की होने को आई. इतने सालों से तो वह घर हमारा ही है, आज एकाएक वह आप का कैसे हो गया? और माफ कीजिएगा, ताऊजी, मैं आप के सामने जबान खोल रहा हूं. क्या हमारे पिताजी इतने नालायक थे जो दादाजी ने उन्हें कुछ न दे कर सब आप को ही दे दिया और विजय चाचा को भी कुछ नहीं दिया?’’
‘‘मेरे सामने जबान खोलना तुम्हें भी आ गया, अपने भाई की तरह.’’
‘‘मैं गूंगा हूं, यह आप से किस ने कह दिया, ताऊजी? इज्जत और सम्मान करना जानता हूं तो क्या बात करना नहीं आता होगा मुझे. ताऊजी, आप का एक ही बच्चा है और आप भी कोई अमृत का घूंट पी कर नहीं आए. यहां की अदालतों में आप की चलती है, मैं जानता हूं मगर प्रकृति की अपनी एक अदालत है, जहां हमारे साथ अन्याय नहीं होगा, इतना विश्वास है मुझे. आप क्यों अपने बच्चों के लिए बद्दुआओं की लंबीचौड़ी फेहरिस्त तैयार कर रहे हैं? हमारे सिर से यदि आप छत छीन लेंगे तो क्या हमारा मन आप का भला चाहेगा?’’
‘‘दिमाग मत चाटो मेरा. जाओ, तुम से जो बन पाए, कर लो.’’
‘‘हम कुछ नहीं कर सकते, आप जानते हैं, तभी तो मैं समझाने आया हूं, ताऊजी.’’
ताऊजी ने मेरा लाया शाल उठा कर दहलीज के पार फेंक दिया और उठ कर अंदर चले गए, मानो मेरी बात भी सुनना अब उन्हें पसंद नहीं. हम अवाक् खड़े रहे. पत्नी शुभा कभी मुझे देखती और कभी जाते हुए ताऊजी की पीठ को. अपमान का घूंट पी कर रह गए हम दोनों.
85 साल के वृद्ध की आंखों में पैसे और सत्ता के लिए इतनी भूख. फिल्मों में तो देखी थी, अपने ही घर में स्वार्थ का नंगा नाच मैं पहली बार देख रहा था. सोचने लगा, मुझे वापस घर आना ही नहीं चाहिए था. सावन के अंधे की तरह यह खुशफहमी तो रहती कि मेरे शहर में मेरे अपनों का आपस में बड़ा प्यार है.
उस रात बहुत रोया मैं. छोटे भाई और विजय चाचा की लड़ाई में मैं भावनात्मक रूप से तो उन के साथ हूं मगर उन की मदद नहीं कर सकता क्योंकि मैं अपने भारत देश का एक आम नागरिक हूं जिसे दो वक्त की रोटी कमाना ही आसान नहीं, वह गुंडागर्दी और बदमाशी से सामना कैसे करे. बस, इतना ही कह सकता हूं कि ताऊ जैसे इंसान को सद्बुद्धि प्राप्त हो और हम जैसों को सहने की ताकत, क्योंकि एक आम आदमी सहने के सिवा और कुछ नहीं कर सकता.

Short Story In Hindi : पीकू की सौगात

Short Story In Hindi : हमारेलाख समझाने के बावजूद कि अमिताभ की फिल्म देखने का मजा तो पीवीआर में ही है, बच्चों ने यह कहते हुए एलईडी पर पैन ड्राइव के जरीए ‘पीकू’ लगा दी कि पापा 3 घंटे बंध कर बैठना आप के बस में कहां? हंसने लगे सो अलग. उस समय तो हम समझ नहीं पाए कि बच्चे क्या समझाना चाहते हैं. परंतु जब फिल्म में मोशन के साथ इमोशन जुड़े और बच्चे मम्मी की ओर देख कर हंसने लगे, तो हमें समझ में आया कि बच्चे क्या कर रहे थे. बच्चों की हंसी देख हम झेंपे जरूर, लेकिन उन का हंसना जायज भी था. दरअसल, मोशन की इस बीमारी से हम भी पिछले काफी समय से जूझ रहे थे, जिस का एहसास पहली बार हमें उस दिन हुआ जब संडे होने के कारण बच्चे देर तक सो रहे थे और अखबार में छपे एक इश्तहार को पढ़ हमारी श्रीमतीजी का मन सैंडल खरीदने को हो आया.

‘‘चलो न, पास ही तो है यह मार्केट. गाड़ी से 5 मिनट लगेंगे. बच्चों के उठने तक तो वापस भी आ जाएंगे,’’ श्रीमतीजी के इस कदर प्यार से आग्रह करने पर हम नानुकर नहीं कर पाए और पहुंच गए मार्केट. सेल वाली दुकान के पास ही बहुत अच्छा रैस्टोरैंट था, तो श्रीमतीजी का मन खाने को हो आया. इसलिए पहले हम ने वहां कुछ खायापिया और फिर घुसे फुटवियर के शोरूम में. श्रीमतीजी सैंडल की वैरायटी देखने लगीं, लेकिन तभी हमारे पेट में हलचल होने लगी. अब हम श्रीमतीजी को सैंडल पसंद करने में देरी करता देख खीजने लगे कि जल्दी सैंडल पसंद करें और घर चलें. आखिर उन्हें सैंडल पसंद आ गई, तो हम ने राहत की सांस ली. लेकिन चैन कहां मिलने वाला था हमें? बाहर निकलते ही सामने गोलगप्पे वाले की रेहड़ी देख श्रीमतीजी की लार टपकी. वे बाजार जाएं और गोलगप्पे न खाएं, यह तो असंभव है. उन्होंने हमारे आगे गोलगप्पे खाने की इच्छा जाहिर की तो हमारा मन हुआ कि गोलगप्पे वाले का मुंह नोच लें. मुए को यहीं लगानी थी रेहड़ी.

खैर, 2-2 गोलगप्पे खाने की बात कर श्रीमतीजी ने 6 तो खुद खाए और उतने ही हमें भी खिला दिए. अब उन्हें कैसे समझाते कि हम किस परेशानी में हैं. दूसरे, उन की तुनकमिजाजी से भी वाकिफ थे हम, इसलिए न चाहते हुए भी गोलगप्पे गटक लिए. लेकिन पेट की जंग ने रौद्र रूप ले लिया था. मार्केट से बाहर निकल हम तेज कदमों से पार्किंग की ओर बढ़े तो श्रीमतीजी पूछ बैठीं, ‘‘इतनी जल्दी क्यों चल रहे हो?’’

हम ने पेट की परेशानी के बजाय बहाना बनाया, ‘‘बच्चे उठ गए होंगे, जल्दी चलो.’’ तभी उन्हें उन की पुरानी सहेली मिल गई. गप्पें मारने में तो श्रीमतीजी वैसे ही माहिर हैं, सो लगीं दोनों अगलीपिछली हांकने. उन्हें हंसी के फुहारे छोड़ते देख हम ने अपना माथा पीट लिया क्योंकि जल्दी देरी में जो बदलती जा रही थी. ऐसे में श्रीमतीजी का मोबाइल बजा तो हमें सुकून मिला. बच्चों का फोन था, इसलिए बतियाना छोड़ वे जल्दी से घर चलने को हुईं तो हम ने राहत महसूस की. घर पहुंचने पर फारिग होने के बाद हम ने घर के लोगों से अपनी समस्या शेयर की तो सभी हंसने लगे, लेकिन समाधान किसी ने न बताया. वैसे रोज तो हम यह परेशानी झेल लेते थे, क्योंकि औफिस में डैस्कवर्क था. साथ ही वहां वौशरूम की परेशानी नहीं थी. पर कभी बाहर जाना पड़ता तो खासी परेशानी होती. तिस पर जब इस का संबंध श्रीमतीजी की खरीदारी से जुड़ा तो मुश्किलें और बढ़ गईं.

हमारी श्रीमतीजी मार्केट जा कर खरीदारी भले ही धेले भर की भी न करें पर जिस दुकान में घुस जाती थीं, सारा माल खुलवा कर रख देती थीं. और भले ही घर से खापी कर निकलें, लेकिन चाटपकौड़ी खाए बिना न रहतीं. ऐसे में हमारी हालत पतली होनी ही थी. ‘पीकू’ में भास्कर की समस्या हम से कुछ मिलतीजुलती ही थी, जिसे दिखा बच्चे उसे हमारी हालत से जोड़ रहे थे. जोड़ते भी क्यों न, उस दिन हुआ भी तो कुछ ऐसा ही था. हम ससुराल गए हुए थे कि देर रात तक की आपसी बातचीत से हमारी श्रीमतीजी को पता चला कि यहां पास की मार्केट में सूटों के बहुत अच्छे शोरूम बन गए हैं, जहां बहुत अच्छे डिजाइनर सूट मिलते हैं, साथ ही वे फिटिंग भी कर के देते हैं. बस, श्रीमतीजी की खरीदारी की सनक परवान चढ़ी और वे बना बैठीं सुबह हमारी साली के साथ मार्केट जाने का प्रोग्राम. और कोई प्रोग्राम होता तो हम मना कर देते लेकिन साली संग जाने का मजा कहां बारबार मिलता है, सो हम ने हां कर दी. सुबह नाश्ते में सासूमां ने खातिरदारी वाली भारतीय संस्कृति का निर्वहन करते हुए हमारी यानी अपने जमाई की खातिर में ऐसे घी चुपड़चुपड़ कर बने गोभी के परांठे खिलाए जैसे अपने बेटे को भी कभी न खिलाए होंगे. न न करते भी हम 4 परांठे डकार गए. ऊपर से दहीमट्ठा पिलाया सो अलग. अब हम श्रीमतीजी संग खरीदारी पर जाने को तैयार हुए तो माथा ठनका कि कहीं रास्ते में बीमारी ने जोर पकड़ लिया तो… हम ने कई बार इस के बारे में सोचा फिर श्रीमतीजी को थोड़ा रुकने को कह पहुंच गए फारिग होने.

लेकिन काफी देर नाक बंद कर सीट पर बैठने और जोर मारने पर भी राहत न मिली, तो श्रीमतीजी के इमोशंस का खयाल रखते हुए हम अपने मोशन का खयाल छोड़ आज्ञाकारी पति की भांति जल्दी से उठे और चल दिए उन के संग मार्केट. श्रीमतीजी दुकान में घूमतीं फिर दूसरी देखतीं. पहले शोकेस में लगा सूट पसंद करतीं फिर अंदर जा कर उलटपुलट कर देखतीं. उन के साथ एक से दूसरी दुकान घूमतेघूमते कब पेट में हलचल शुरू हो गई पता ही न चला. अब हमारी हालत पतली. लगे इधरउधर सुलभ शौचालय तलाशने. हमें नजरें घुमाते देख श्रीमतीजी बोल पड़ीं, ‘‘इधरउधर क्या ढूंढ़ रहे हो, चलो दूसरी दुकान में, यहां तो वैरायटी ही नहीं है.’’ हमें उन की इस आदत का पता है, इसलिए चुपचाप उन के पीछे हो लिए. तभी हमारी नजर सामने शौचालय पर पड़ी तो हम श्रीमतीजी को रोक उधर इशारा करते हुए बोले, ‘‘जरा उधर चलें, हमें…’’

अभी हमारी बात पूरी भी न हुई थी कि साली बोल पड़ी, ‘‘वाह जीजाजी, बड़ा खयाल रखते हैं दीदी के जायके का. चलो चलते हैं. वहां के भल्लेपापड़ी तो वैसे भी मशहूर हैं.’’ अब उसे कौन समझाता कि हमारा उधर जाने का क्या मकसद था. खैर, चल दिए उन के पीछे अपना सा मुंह लिए. श्रीमतीजी ने भल्लेपापड़ी की प्लेटें बनवाईं. हम ने सासूमां के स्वादिष्ठ परांठों का वास्ता देते मना किया पर वे कहां मानने वाली थीं. हमारे न न करने पर भी एक प्लेट हाथ में थमा ही दी. हम ने आधी भल्लापापड़ी खा प्लेट दूसरी ओर रख दी. तभी श्रीमतीजी की नजर एक शोरूम में लगे बुत पर लिपटे एक अनारकली सूट पर अटक गई, जबकि हमारी नजरें अभी भी फारिग होने का मुकाम तलाश रही थीं. ऐसे में राहत यह देख कर मिली कि जिस शोरूम की ओर श्रीमती मुखातिब हुई थीं, उसी के सामने हमारी समस्या का समाधान था. सो हम साली और घरवाली को खरीदारी में मशगूल कर ‘अभी आया’ कह कर इस संकल्प के साथ बाहर निकले कि आगे से श्रीमतीजी संग खरीदारी हेतु जाएंगे तो कुछ खा कर नहीं निकलेंगे. फारिग हो कर आने पर हम ने चैन की सांस ली, लेकिन श्रीमतीजी सूट खरीद पैसों हेतु हमारे इंतजार में तेवर बदले खड़ी थीं. मेरे आते ही वे जोर से बोलीं, ‘‘कहां चले गए थे? हम इतनी देर से इंतजार कर रहे हैं.’’ हम ने धीरे से इशारा कर उन्हें समझाया तो साली हंसी, ‘‘क्या जीजाजी, ससुराल के खाने का इतना भी क्या मोह कि बारबार जाना पड़े,’’ और दोनों खीखी करने लगीं. हम ने चुपचाप पैसे दे कर सामान उठाया और घर चलने में ही भलाई समझी. घर आ कर साली ने चटखारे लेले कर हमारे मोशन के किस्से सुनाए तो बच्चे भी हंसी न रोक सके.

‘पीकू’ में रहरह कर भास्कर बने अमिताभ मोशन पर अच्छीखासी बहस छेड़ते और बच्चे हमारी स्थिति से उस का मेल करते हुए हंसते. सोचने वाली बात यह है कि क्या मोशन जैसा विषय भी किसी कहानी का हो सकता है. हां, क्यों नहीं जनाब, उन से पूछिए जिन्हें रोज इस समस्या से जूझना पड़ता है. हम ने गुस्से से कह दिया, ‘‘हमारे इमोशन की हंसी उड़ाने को दिखा रहे हो न हमें यह फिल्म?’’ ‘‘नहीं जी, बच्चे तो यह बताना चाह रहे हैं कि आप भी अपने मोशन का कुछ ऐसा इंतजाम कर के रखो. जब भी खरीदारी करने जाओ आप भागते हो इसी चक्कर में,’’ श्रीमतीजी ने हमारी बीमारी पर कटाक्ष करते हुए बच्चों का बचाव किया, ‘‘देखा नहीं था उस दिन जब वह आदमी हमारा दुपट्टा खींच गया था.’’ हमें याद आया. दरअसल, उस दिन हम साली की शादी हेतु खरीदारी करने गए हुए थे. बच्चे भी साथ थे. श्रीमतीजी आगेआगे और हम बच्चों का हाथ पकड़े पीछेपीछे. बच्चों के लिए ड्रैस लेते समय वे हम से पूछतीं, लेकिन हमारे हां कहने के बावजूद उन्हें पसंद न आता और वे आगे चल देतीं. बड़ी मुश्किल से उन्होंने बच्चों के कपड़े खरीदे. अब हमारी बारी थी. हम बच्चों के कपड़ों के बैग से लदे पड़े थे कि श्रीमतीजी को सामने उबली, मसालेदार चटपटी छल्ली वाला दिख गया. बस, उन के मुंह में पानी आ गया. चटपटी मसालेदार छल्ली हमें भी पसंद थी, साथ ही सुखद एहसास था कि आज हम घर से खाली पेट निकले थे. अत: बिना हीलहुज्जत हां कर दी. श्रीमतीजी ने अपने हिसाब का ज्यादा मसालेवाला पत्ता बनवा दिया. जनाब वे तो चटरपटर कर खा गईं पर हमारे पसीने छूट गए. बड़ी मुश्किल से डकारा.

 

तभी श्रीमतीजी को सामने शोरूम में टंगी साड़ी इतनी भाई कि वे उधर चल दीं. लेकिन कीमत पूछ चौंकीं और बोलीं, ‘‘महंगी है. चलो पहले तुम्हारे कपड़े खरीद लेते हैं.’’ हम ने भी सोचा कि चलो हमें तो इन की पसंद पर ही मुहर लगानी है, जल्दी निबटारा हो जाएगा. अभी हम यह सोच ही रहे थे कि चटपटी छल्ली ने अपना असर दिखा दिया. हम समझ गए कि अब फारिग होने का इंतजाम करना पड़ेगा.  श्रीमतीजी हमें पैंट पसंद करवा रही थीं और हम पहनी पैंट को गीली होने से बचाने की जुगत सोच रहे थे. खैर, उन्होंने जो पसंद किया, हम ने मुहर लगाई और शोरूम से बाहर निकल इधरउधर झांकने लगे. सामने एक साड़ी के शोरूम में पहुंच श्रीमतीजी ने तमाम साडि़यां खुलवा डालीं. न श्रीमतीजी साड़ी देखती थक रही थीं, न दुकानदार दिखाते थक रहा था. पर उन की पसंद की साड़ी न मिलनी थी न मिली. हम मौके की तलाश में थे कि कब वे हमारी ओर मुखातिब हों और हम इजाजत लें. एक साड़ी थोड़ी पसंद आने पर वे हमारी ओर मुखातिब हुईं, तो हम ने आंख मूंद कर हां कर दी. उन्हें कौन सी हमारी पसंद की साड़ी खरीदनी थी, यह तो बस दिखावा था. साथ ही हम ने उंगली उठा कर 1 नंबर के लिए जाने की इजाजत मांगी तो वे बरस पड़ीं, ‘‘जाओ, तुम्हें तो हर समय भागना ही पड़ता है.’’ उन के इस प्रकार डांटने पर बच्चे भी हमारी हालत पर हंसने लगे और हम खिसक लिए 1 नंबर का बहाना कर 2 नंबर के लिए.

हर ओर निगाह दौड़ाने पर भी कोई शौचालय न दिखा, तो एक शख्स से पूछने पर पता चला कि बहुत दूर है. हम ने सोचा कि इतनी दूर तो हमारा घर भी नहीं. क्यों न घर ही हो आएं? यह सोच कर हम पीछे मुड़े ही थे कि पत्नी को साड़ी पसंद कर बच्चों के साथ शोरूम से बाहर आते देखा. वे हमारे पास पहुंचतीं उस से पहले एक मोटातगड़ा आदमी श्रीमतीजी से उलझता दिखा. हम वहां पहुंचे तो वह उन्हें सौरी कह रहा था. उस ने चुपचाप सौरी कह जाने में ही अपनी भलाई समझी, लेकिन श्रीमतीजी हम पर बरस पड़ीं, ‘‘कितनी देर कर दी आने में. पता है यह आदमी मुझे छेड़ रहा था.’’ अब हम उन्हें कैसे बताते कि हम किस मुसीबत में हैं. हम बोले, ‘‘अरे सौरी बोला न वह, चलो अब.’’ इस पर उन के तेवर बिगड़े, ‘‘तुम भी कितने डरपोक पति हो. अरे, वह तो मेरा दुपट्टा खींच कर चला गया और तुम उसे इतने हलके में ले रहे हो.’’ जैसे अपने पालतू कुत्ते को हुश्श… कह हम दूसरे पर छोड़ देते हैं, उसी लहजे में श्रीमतीजी ने हमें पुश किया. अब उन्हें कौन समझाता कि हम अपनी कदकाठी ही नहीं बल्कि अपनी बीमारी के कारण भी इस समय कुछ न कहने को विवश हैं. पर उन के ताने ने हमारे जमीर को इस कदर झिंझोड़ा कि न चाहते हुए भी हम दुम हिलाते हुए उस के पीछे हो लिए और उसे ललकारा. अब सूमो पहलवान सा दिखने वाला वह बंदा शेर की तरह खा जाने वाली नजरों से हमें घूरता हम पर बरसा, ‘‘कह दिया न सौरी. उन के पास से निकलते हुए मेरी बैल्ट के बक्कल में उन का दुपट्टा फंस गया तो इस में मेरा क्या कुसूर है?’’ उस की दहाड़ से हमारी घिग्घी बंध गई. लगा हमारी बीमारी बाहर आने को है. और कोई समय होता तो शायद हम उस से भिड़ भी जाते पर मोशन की वजह से हमें अपने इमोशंस पर कंट्रोल रखना पड़ा.

हम दांत पीस कर रह गए. वह दहाड़ कर चला गया तो हम ने चैन की सांस ली और किसी तरह श्रीमतीजी को समझाबुझा कर जल्दीजल्दी घर फारिग होने पहुंचे. बच्चे हमारी हालत पर हंस रहे थे व श्रीमतीजी अधूरी शौपिंग के कारण नाराज थीं. ‘पीकू’ अपने आखिरी मकाम तक पहुंच गई थी. श्रीमतीजी बच्चों संग हंसती हुई हमारी ओर मुखातिब हुईं और बोलीं, ‘‘सीख लो कुछ भास्कर से. हमेशा बहाने से जाते हो फारिग होने. ले लो एक अदद सीट और रख लो गाड़ी में, ताकि जहां जरूरत महसूसहुई, हो लिए फारिग.’’ वातावरण में बच्चों सहित गूंजे उस के ठहाके में एलईडी की आवाज भी जैसे गुम हो गई जिस से हमें पिक्चर खत्म होने का पता भी न चला. ठीक ही तो कह रही हैं श्रीमतीजी, हम ने सोचा. ‘पीकू’ ने एक आसान रास्ता दिखाया है इस बीमारी से जूझते लोगों का. अमिताभ की तरह एक सीट सदा अपने साथ रखो. फिर जी भर कर खाओ और जब चाहो फारिग हो जाओ. शौचालय मिल जाए तो ठीक वरना ढूंढ़ने का झंझट खत्म. ‘पीकू’ की सौगात तो है ही फौरएवर.

Hindi Story- रिश्तों का सच : क्या सुधर पाया ननदभाभी का रिश्ता

Hindi Story : घर में घुसते ही चंद्रिका के बिगड़ेबिगड़े से तेवर देख रवि भांपने लगा था कि आज कुछ हुआ है, वरना रोज मुसकरा कर स्वागत करने वाली चंद्रिका का चेहरा यों उतरा हुआ न होता. ‘‘लो, दीदी का पत्र आया है,’’ चंद्रिका के बढ़े हुए हाथों पर सरसरी सी नजर डाल रवि बोला, ‘‘रख दो, जरा कपड़ेवपड़े तो बदल लूं, पत्र कहीं भागा जा रहा है क्या?’’

चंद्रिका की हैरतभरी नजरों का मुसकराहट से जवाब देता हुआ रवि बाथरूम में घुस गया. चंद्रिका के उतरे हुए चेहरे का राज भी उस पर खुल गया था. रवि मन ही मन सोच कर मुसकरा उठा, ‘सोच रही होगी कि आज मुझे हुआ क्या है, दीदी का पत्र हर बार की तरह झपट कर जो नहीं लिया.’ हर साल गरमी की छुट्टियों में दीदी के आने का सिलसिला बहुत पुराना था. परंतु विवाह के 5 वर्षों में शायद ही ऐसा कभी हुआ हो जब उन के आने को ले कर चंद्रिका से उस की जोरदार तकरार न हुई हो. बेचारी दीदी, जो इतनी आस और प्यार के साथ अपने एकलौते, छोटे भाई के घर थोड़े से मान और सम्मान की आशा ले कर आती थीं, चंद्रिका के रूखे बरताव व उन दोनों के बीच होती तकरार से अब चंद दिनों में ही लौट जाती थीं.

दीदी से रवि का लगाव कम होता भी, तो कैसे? दीदी 10 वर्ष की ही थीं, जब मां रवि को जन्म देते समय ही उसे छोड़ दूसरी दुनिया की ओर चल दी थीं. ‘दीदी न होतीं तो मेरा क्या होता?’ यह सोच कर ही उस की आंखें भर उठतीं. दीदी उस की बड़ी बहन बाद में थी, मां जैसी पहले थीं. कैसे भूल जाता रवि बचपन से ले कर जवानी तक के उन दिनों को, जब कदमकदम पर दीदी ममता और प्यार की छाया ले उस के साथ चलती रही थीं.

दीदी तो विवाह भी न करतीं, परंतु रिश्तेदारों के तानों और बेटी की बढ़ती उम्र से चिंतित पिताजी के चेहरे पर बढ़ती झुर्रियों को देखने के बाद रवि ने अपनी कसम दे कर दीदी को विवाह के लिए मजबूर कर दिया था. उन के विवाह के समय वह बीए में आया ही था. विवाह के बाद भी बेटे की तरह पाले भाई की तड़प दीदी के अंदर से गई नहीं थी, उस की जरा सी खबर पाते ही दौड़ी चली आतीं. वह भी उन के जाने के बाद कितना अकेला हो गया था. यह तो अच्छा हुआ कि जीजाजी अच्छे स्वभाव के थे. दीदी की तड़प समझते थे, भाईबहन के प्यार के बीच कभी बाधा नहीं बने थे.

चंद्रिका को भी तो वह ही ढूंढ़ कर लाई थीं. उन दिनों की याद से रवि मुसकरा उठा. दीदी उस के विवाह की तैयारी में बावरी हो उठी थीं. ऐसा भी नहीं था कि चंद्रिका को इन बातों की जानकारी न हो, विवाह के शुरुआती दिनों में ही सारी रामकहानी उस ने सुना दी थी. विवाह के बाद जब पहली बार दीदी आईर् थीं तो चंद्रिका भी उन से मिलने के लिए बड़ी उत्साहित थी और स्वयं रवि तो पगला सा गया था. आखिर उस के विवाह के बाद वह पहली बार आ रही थीं. वह चाहता था भाई की सुखी गृहस्थी देख वह खिल उठें.

पति के ढेरों आदेशनिर्देश पा कर चंद्रिका का उत्साह कुछ कम हो गया था, वह कुछ सहम सी भी गई थी. परंतु रवि तो अपनी ही धुन में था, चाहे कुछ हो जाए, दीदी को इतना सम्मान और प्यार मिलना चाहिए कि उन की ममता का जरा सा कर्ज तो वह उतार सके.

दीदी के आने के बाद उन दोनों के बीच चंद्रिका कहीं खो सी गई थी. उन दोनों को अपने में ही मस्त पा उन के साथ बैठ कर स्वयं भी उन की बातों में शामिल होने की कोशिश करती, पर रवि ऐसा मौका ही न देता. तब वह खीज कर रसोई में घुस खाना बनाने की कोशिश में लग जाती. मेहनत से बनाया गया खाना देख कर भी रवि उस पर नाराज हो उठता, ‘यह क्या बना दिया? पता नहीं है, दीदी को पालकपनीर की सब्जी अच्छी लगती है, शाही पनीर नहीं.’ फिर रसोई में काम करती चंद्रिका का हाथ पकड़ कर बाहर ला खड़ा करता और कहता, ‘आज तो दीदी के हाथ का बना हुआ ही खाऊंगा. वे कितना अच्छा बनाती हैं.’

तब भाईबहन चुहलबाजी करते हुए रसोई में मशगूल हो जाते और चंद्रिका बिना अपराध के ही अपराधी सी रसोई के बाहर खड़ी उन्हें देखती रहती. दीदी जरूर कभीकभी चंद्रिका को भी साथ लेने की कोशिश करतीं, लेकिन रवि अनजाने ही उन के बीच एक ऐसी दीवार बन गया था कि दोनों औपचारिकता से आगे कभी बढ़ ही न पाई थीं. उस समय तो किसी तरह चंद्रिका ने हालात से समझौता कर लिया था, लेकिन उस के बाद जब भी दीदी आतीं, वह कुछ तीखी हो उठती. सीधे दीदी से कभी कुछ नहीं कहा था, लेकिन रवि के साथ उस के झगड़े शुरू हो गए थे. दीदी भी शायद भांप गई थीं, इसीलिए धीरेधीरे उन का आना कम होता जा रहा था. इस बार तो पूरे एक वर्ष बाद आ रही थीं, पिछली बार उन के सामने ही चंद्रिका ने रवि से इतना झगड़ा किया कि वे बेचारी 4 दिनों में ही वापस चली गई थीं. जितने भी दिन वे रहीं, चंद्रिका ने बिस्तर से नीचे कदम न रखा, हमेशा सिरदर्द का बहाना बना अपने कमरे में ही पड़ी रहती.

एक दोपहर दीदी को अकेले काम में लगा देख भनभनाता हुआ रवि, चंद्रिका से लड़ पड़ा था. तब वह तीखी आवाज में बोली थी, ‘तुम क्या समझते हो, मैं बहाना कर रही हूं? वैसे भी तुम्हें और तुम्हारी दीदी को मेरा कोई काम पसंद ही कब आता है, तुम दोनों तो बातों में मशगूल हो जाओगे, फिर मैं वहां क्या करूंगी?’ बढ़तेबढ़ते बात तेज झगड़े का रूप ले चुकी थी. दीदी कुछ बोलीं नहीं, पर दूसरे ही दिन सुबह रवि द्वारा मिन्नतें करने के बाद भी चली गई थीं. उन के चले जाने के बाद भी बहुत दिनों तक उन दोनों के संबंध सामान्य न हो पाए थे, दीदी के इस तरह चले जाने के कारण वह चंद्रिका को माफ नहीं कर पाया था.

दोनों के बीच बढ़ते तनाव को देख अभी तक खामोशी से सबकुछ देख रहे पिताजी ने आखिरकार एक दिन रात को खाने के बाद टहलने के लिए निकलते समय उसे भी साथ ले लिया था. वे उसे समझाते हुए बोले थे, ‘पतिपत्नी के संबंध का अजीब ही कायदा होता है, इस रिश्ते के बीच किसी तीसरे की उपस्थिति बरदाश्त नहीं होती है…’ ‘लेकिन दीदी कोई गैर नहीं हैं,’ बीच में ही बात काटते हुए, रवि का स्वर रोष से भर उठा था.

‘बेटा, विवाह के बाद सब से नजदीकी रिश्ता पतिपत्नी का ही होता है. बाकी संबंध गौण हो जाते हैं. माना कि सभी संबंधों की अपनीअपनी अहमियत है, लेकिन किसी भी रिश्ते पर कोई रिश्ता हावी नहीं होना चाहिए, वरना कोई भी सुखी नहीं रहता. तुम्हीं बताओ, इतनी कोशिशों के बाद भी क्या तुम्हारी दीदी खुश है?’ समझातेसमझाते पिताजी सवाल सा कर उठे थे. ‘तो मैं क्या करूं? चंद्रिका की खुशी के लिए उन से सारे संबंध तोड़ लूं या फिर दीदी के लिए चंद्रिका से,’ रवि असमंजस में था, ‘आप तो जानते ही हैं कि दोनों ही मुझे कितनी प्रिय हैं.’

‘संबंध तोड़ने के लिए कौन कहता है,’ पिताजी धीरे से हंस पड़े थे, फिर गंभीर हो, बोले, ‘यह तो तुम भी मानते ही होगे कि चंद्रिका मन से बुरी या झगड़ालू नहीं है. मेरा कितना खयाल रखती है, तुम्हारे लिए भी आदर्श पत्नी सिद्ध हुई है.’ ‘फिर दीदी से ही उस की क्या दुश्मनी है?’ रवि के इस सवाल पर थोड़ी देर तक उसे गहरी नजरों से देखने के बाद वे बोले ‘कोई दुश्मनी नहीं है. याद करो, पहली बार वह भी कितनी उत्साहित थी. इस सब के लिए. अगर कोई दोषी है तो वह स्वयं तुम हो.’

‘मैं?’ सीधेसीधे अपने को अपराधी पा रवि अचकचा उठा था. ‘हां, तुम उन दोनों के बीच एक दीवार बन कर खड़े हो. कुछ करने का मौका ही कहां देते हो. आखिर वह तुम्हारी पत्नी है, वह तुम्हारी खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है, लेकिन तुम हो कि अपनी बहन के आते ही उस के पूरे के पूरे व्यक्तित्व को ही नकार देते हो,’ पिताजी सांस लेने के लिए तनिक रुके थे.

रवि सिर झुकाए चुप बैठा किसी सोच में डूबा सा था. ‘बेटा, मुझे बहुत खुशी है कि तुम्हारी दीदी और तुम में इतना स्नेह है. भाईबहन से कहीं अधिक तुम दोनों एकदूसरे के अच्छे दोस्त हो, पर अपनी दोस्ती की सीमाओं को बढ़ाओ. अब चंद्रिका को भी इस में शामिल कर लो. यह उस का भी घर है. उसे तय करने दो कि वह अपने मेहमान का कैसे स्वागत करती है. विश्वास मानो, इस से तुम सब के बीच से तनाव और गलतफहमियों के बादल छंट जाएंगे. और तुम सब एकदूसरे के अधिक पास आ जाओगे.’

‘‘अंदर कितनी देर लगाओगे?’’ चंद्रिका की आवाज सुन वह चौंक उठा, ‘अरे, इतनी देर से मैं बाथरूम में ही बैठा हूं.’ झटपट नहा कर वह बाहर निकल आया. चाय और गरमागरम नाश्ते की प्लेट उस का इंतजार कर रही थी. इस दौरान वे खामोश ही रहे. जूठे कप व प्लेटें समेटती चंद्रिका की हैरत यह देख और बढ़ गई कि रवि पत्र को हाथ लगाए बगैर ही एक पत्रिका पढ़ने लगा है.

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’’ चंद्रिका का चिंतित चेहरा देख कर अपनी हंसी को रवि ने मुश्किल से रोका, ‘‘हां, ठीक है, क्यों?’’ ‘‘फिर अभी तक दीदी का पत्र क्यों नहीं पढ़ा?’’ चंद्रिका के सवाल के जवाब में वह लापरवाही से बोला, ‘‘तुम ने तो पढ़ा ही होगा, खुद ही बता दो, क्या लिखा है?’’

‘‘वे कल दोपहर की गाड़ी से आ रही हैं.’’ ‘‘अच्छा,’’ कह वह फिर पत्रिका पढ़ने में मशगूल हो गया. कुछ देर तक चंद्रिका वहीं खड़ी गौर से उसे देखती रही, फिर कमरे से बाहर निकल गई.

दूसरे दिन रविवार था. सुबहसुबह रवि को अखबार में खोया पा कर चंद्रिका बहुत देर तक खामोश न रह सकी, ‘‘दीदी आने वाली हैं. तुम्हें कुछ खयाल भी है?’’ ‘‘पता है,’’ अखबार में नजरें जमाए हुए ही वह बोला.

‘‘खाक पता है,’’ चंद्रिका झुंझला उठी थी, ‘‘कुछ सामान वगैरह लाना है या नहीं?’’ ‘‘घर तुम्हारा है, तुम जानो,’’ उस की झुंझलाहट पर वह खुद मुसकरा उठा.

कुछ देर तक उसे घूरने के बाद पैर पटकती हुई चंद्रिका थैला और पर्स ले बाहर निकल गई. ?जब वह लौटी तो भारी थैले के साथ पसीने से तरबतर थी. रवि आश्चर्यचकित था. वह दीदी की पसंद की एकएक चीज छांट कर लाई थी.

‘‘दोपहर के खाने में क्या बनाऊं?’’ सवालिया नजरों से उसे देखते हुए चंद्रिका ने पूछा. ‘‘तुम जो भी बनाओगी, लाजवाब ही होगा. कुछ भी बना लो,’’ रवि की बात सुन चंद्रिका ने उसे यों घूर कर देखा, जैसे उस के सिर पर सींग उग आए हों.

दोपहर से काफी पहले ही वह खाना तैयार कर चुकी थी. रवि की तेज नजरों ने देख लिया था कि सभी चीजें दीदी की पसंद की ही बनी हैं. वास्तव में वह मन ही मन पछता भी रहा था. उसे महसूस हो रहा था कि उस के बचकाने व्यवहार की वजह से ही दीदी और चंद्रिका इतने समय तक अजनबी बन परेशान होती रहीं.

‘‘ट्रेन का टाइम हो रहा है. स्टेशन जाने के लिए कपड़े निकाल दूं?’’ चंद्रिका अपने अगले सवाल के साथ सामने खड़ी थी. अपने को व्यस्त सा दिखाता रवि बोला, ‘‘उन्हें रास्ता तो पता है, औटो ले कर आ जाएंगी.’’ ‘‘तुम्हारा दिमाग तो सही है?’’ बहुत देर से जमा हो रहा लावा अचानक ही फूट कर बह निकला था, ‘‘पता है न कि वे अकेली आ रही हैं. लेने नहीं जाओगे तो उन्हें कितना बुरा लगेगा. आखिर, तुम्हें हुआ क्या है?’’

‘‘अच्छा बाबा, जाता हूं, पर एक शर्त पर, तुम भी साथ चलो.’’ ‘‘मैं?’’ हैरत में पड़ी चंद्रिका बोली, ‘‘मैं तुम दोनों के बीच क्या करूंगी.’’

‘‘फिर मैं भी नहीं जाता.’’ उसे अपनी जगह से टस से मस न होते देख आखिर, चंद्रिका ने ही हथियार डाल दिए, ‘‘अच्छा उठो, मैं भी चलती हूं.’’

चंद्रिका को साथ आया देख दीदी पहले तो हैरत में पड़ीं, फिर खिल उठीं. शायद पिछली बार के कटु अनुभवों ने उन्हें भयभीत कर रखा था. स्टेशन पर चंद्रिका को भी देख एक पल में सारी शंकाएं दूर हो गईर्ं. वे खुशी से पैर छूने को झुकी चंद्रिका के गले से लिपट गईं.

रवि सोच रहा था, इतनी अच्छी तरह से तो वह घर में भी कभी नहीं मिली थी. ‘‘किस सोच में डूब गए?’’ दीदी का खिलखिलाता स्वर उसे गहरे तक खुशी से भर गया. सामान उठा वह आगेआगे चल दिया. चंद्रिका और दीदी पीछेपीछे बतियाती हुई आ रही थीं.

खाने की मेज पर भी रवि कम बोल रहा था. चंद्रिका ही आग्रह करकर के दीदी को खिला रही थी. हर बार चंद्रिका के अबोलेपन की स्थिति से शायद माहौल तनावयुक्त हो उठता था, इसीलिए दीदी अब जितनी सहज व खुश लग रही थीं, उतनी पहले कभी नहीं लगी थीं. खाने के बाद वह उठ कर अपने कमरे में आ गया. वे दोनों बहुत देर तक वहीं बैठी बातों में जुटी रहीं. कुछ देर बाद चंद्रिका कमरे में आ कर दबे स्वर में बोली, ‘‘यहां क्यों बैठे हो? जाओ, दीदी से कुछ बातें करो न.’’

‘‘तुम हो न, मैं कुछ देर सोऊंगा…’’ कहतेकहते रवि ने करवट बदल कर आंखें मूंद लीं. रात के खाने की तैयारी में चंद्रिका का हाथ बंटाने के लिए दीदी भी रसोई में ही आ गईं. रवि टीवी खोल कर बैठा था.

‘‘रवि की तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’ रसोईघर से आता दीदी का स्वर सुन रवि के कान चौकन्ने हो गए. पलभर की खामोशी के बाद चंद्रिका का स्वर उभरा, ‘‘नहीं तो, आजकल औफिस में काम अधिक होने से ज्यादा थक जाते हैं, इसलिए थोड़े खामोश हो गए हैं. आप को बुरा लगा क्या?’’

‘‘अरे नहीं, इस में बुरा मानने की क्या बात है? वैसे भी तुम्हारा साथ ज्यादा भला लग रहा है. पहली बार ऐसा लग रहा है कि अपने मायके आई हूं. मां तो थीं नहीं, जिन से यहां आने पर मायके का एहसास होता. पिताजी और भाई का मानदुलार था तो, पर असली मायके का एहसास तो मां या भौजाई के प्यार और मनुहार से ही होता है.’’

‘‘दीदी, मुझे माफ कर दीजिए,’’ चंद्रिका ने हौले से कहा, ‘‘मैं ने आप के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया…’’ ‘‘ऐसी बात नहीं है, हम ने तुम्हें अवसर ही कहां दिया था कि तुम अपना अच्छा या बुरा व्यवहार सिद्ध कर सको. खैर छोड़ो, इस बार जैसा सुकून मुझे पहले कभी नहीं मिला,’’ दीदी का स्वर संतुष्टिभरा था.

टीवी के सामने बैठे रवि का मन भी दीदी की खुशी और संतुष्टि देख चंद्रिका के प्रति प्यार और गर्व से भर उठा था. सुबह उस के उठने से पहले ही दीदी और चंद्रिका उठ कर काम के साथसाथ बातों में व्यस्त थीं. रात भी रवि तो सो गया था, वे दोनों जाने कितनी देर तक एकसाथ जागती रही थीं. जाने उन के अंदर कितनी बातें दबी पड़ी थीं, जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं. रवि को एक बार फिर अपनी मूर्खता पर पछतावा हुआ. बिस्तर से उठ कर वह औफिस जाने की तैयारी में लग गया.

‘‘कहां जा रहे हो?’’ शीशे के सामने बाल संवार रहे रवि के हाथ अचानक चंद्रिका को देख रुक गए. ‘‘औफिस.’’

‘‘दीदी आई हैं, फिर भी?’’ चंद्रिका की हैरानी वाजिब थी. दीदी के लिए रवि पहले पूरे वर्ष की छुट्टियां बचा के रखता था. जितने भी दिन वह रहतीं, वे उन्हें घुमानेफिराने के लिए छुट्टियां ले कर घर बैठा रहता था. ‘‘छुट्टी क्यों नहीं ले लेते? हम सब घूमने चलेंगे,’’ चंद्रिका जोर देते हुए बोली.

‘‘नहीं, इस बार छुट्टियां बचा रहा हूं, शरारतभरी नजर चंद्रिका के चेहरे पर डालता हुआ रवि बोला.’’ ‘‘क्यों?’’ चंद्रिका के सवाल के जवाब में उस ने उसे अपने पास खींच लिया, ‘‘क्योंकि इस बार मैं तुम्हें मसूरी घुमाने ले जा रहा हूं. अभी छुट्टी ले लूंगा, तो बाद में नही मिलेंगी.’’

चंद्रिका की आंखें भीग उठी थीं, शायद वह विश्वास नहीं कर पा रही थी कि रवि की जिंदगी और दिल में उस के लिए भी इतना प्यार छिपा हुआ है. अपने को संभाल आंखें पोंछती वह लाड़भरे स्वर में बोली, ‘‘मसूरी जाना क्या दीदी से अधिक जरूरी है? मुझे कहीं नहीं जाना, तुम्हें छुट्टी लेनी ही पड़ेगी.’’

‘‘अच्छा, ऐसा करता हूं, सिर्फ आज की छुट्टी ले लेता हूं,’’ वह समझौते के अंदाज में बोला. ‘‘लेकिन इस के बाद जितने भी दिन दीदी रहेंगी, तुम्हीं उन के साथ रहोगी.’’

‘‘मैं, अकेले?’’ चंद्रिका घबरा रही थी, ‘‘मुझ से फिर कोई गलती हो गई तो?’’ ‘‘तो क्या, उसे सुधार लेना. मुझे तुम पर पूरा विश्वास है,’’ मन ही मन सोचता जा रहा था रवि, ‘मैं भी तो अपनी गलती ही सुधार रहा हूं.’

वह रवि की प्यार और विश्वासभरी निगाहों को पलभर देखती रही, फिर हंस कर बोली, ‘‘अच्छा, अब छोड़ो, चल कर कम से कम आज की पिकनिक की तैयारी करूं.’’ दीदी पूरे 15 दिनों के लिए रुकी थीं, चंद्रिका और उन के बीच संबंध बहुत मधुर हो गए थे. इस बार पिताजी भी अधिक खुश नजर आ रहे थे. दीदी के जाने का दिन ज्योंज्यों नजदीक आ रहा था, चंद्रिका उदास होती जा रही थी.

आखिरकार, जीजाजी के बुलावे के पत्र ने उन के लौटने की तारीख तय कर दी. दौड़ीदौड़ी चंद्रिका बाजार जा कर दीदी के लिए साड़ी और जीजाजी के लिए कपड़े खरीद लाई थी. तरहतरह के पापड़ और अचार दीदी के मना करने के बावजूद उस ने बांध दिए थे. शाम की ट्रेन थी. चंद्रिका दीदी के साथ के लिए तरहतरह की चीजें बनाने में व्यस्त थी. रवि सामान पैक करती दीदी के पास आ बैठा. दीदी ने मुसकरा कर उस की तरफ देखा, ‘‘अब तुम कब आ रहे हो चंद्रिका को ले कर?’’

‘‘आऊंगा दीदी, जल्दी ही आऊंगा,’’ बैठी हुई दीदी की गोद में वह सिर रख लेट गया था, ‘‘तुम नाराज तो नहीं हो न?’’ ‘‘किसलिए?’’ उस के बालों में हाथ फेरती हुई दीदी एकाएक ही उस की बात सुन हैरत में पड़ गईं.

‘‘मैं तुम्हारे साथ पहले जितना समय नहीं बिता पाया न?’’ रवि बोला. ‘‘नहीं रे, बल्कि इस बार मैं यहां जितनी खुश रही हूं, उतनी पहले कभी नहीं रही. चंद्रिका के होते मुझे किसी भी चीज की कमी महसूस नहीं हुई. एक बात बताऊं, मुझे बहुत डर लगता था. तेरे इतने प्यार जताने के बाद भी लगता था, मेरा भाई मुझ से अलग हो जाएगा. कभीकभी सोचती, शायद मेरे आने की वजह से ही चंद्रिका और तुम्हारे बीच झगड़ा होता है. तुझे देखने के लिए मन न तड़पता तो शायद यहां कभी आती ही नहीं.

‘‘चंद्रिका के इस बार के अच्छे व्यवहार ने मुझे एहसास दिलाया है कि भाई तो अपना होता ही है, पर भौजाई को अपना बनाना पड़ता है, क्योंकि वह अगर अपनी न बने तो धीरेधीरे भाई भी पराया हो जाता है. आज मैं सुकून महसूस कर रही हूं. चंद्रिका जैसी अच्छी भौजाई के होते मेरा भाई कभी पराया नहीं होगा. इस सब से भी बढ़ कर पता है, उस ने क्या दिया है मुझे?’’ ‘‘क्या?’’

‘‘मेरा मायका, जो मुझे पहले कभी नहीं मिला था. चंद्रिका ने मुझे वह सब दे दिया है,’’ दीदी की आंखें बरस उठी थीं, ‘‘चंद्रिका ने यह जो एहसान मुझ पर किया है, इस का कर्ज कभी नहीं चुका पाऊंगी.’’ ‘‘खाना तैयार है,’’ चंद्रिका कब कमरे में आई, पता ही न चला. लेकिन उस की भीगीभीगी आंखें बता रही थीं कि वह बहुतकुछ सुन चुकी थी. गर्व से निहारती रवि की आंखों में झांक चंद्रिका बोली, ‘‘कैसे भाई हो, पता नहीं, आज सुबह से दीदी ने कुछ नहीं खाया. चलो, खाना ठंडा हो रहा है.’’

दीदी को ट्रेन में बिठा रवि उन का सामान व्यवस्थित करने में लगा हुआ था. चंद्रिका दीदी के साथ ही बैठी उन्हें दशहरे की छुट्टियों में आने के लिए मना रही थी. हमेशा उतरे मुंह से वापस होने वाली दीदी का चेहरा इस बार चमक रहा था. ट्रेन की सीटी की आवाज के साथ ही रवि ने कहा, ‘‘उतरो चंद्रिका, ट्रेन चलने वाली है.’’

चंद्रिका दीदी से लिपट गई, ‘‘जल्दी आना और जाते ही पत्र लिखना.’’ ‘‘अब पहले तुम दोनों मेरे घर आना,’’ भीगी आंखों के साथ दीदी मुसकरा रही थीं.

उन के नीचे उतरते ही ट्रेन ने सरकना शुरू कर दिया. ‘‘दीदी, पत्र जरूर लिखना,’’ दोनों अपनेअपने रूमाल हिला रही थीं. ट्रेन गति पकड़ स्टेशन से दूर होती जा रही थी. चंद्रिका ने पलट कर रवि की तरफ देखा. रवि की गर्वभरी आंखों को निहारती चंद्रिका की आंखें भी चमक उठी थीं.

Story For Girls – रफू की हुई ओढ़नी: क्या हुआ था मेघा के साथ

Story For Girls : एक बार फिर गांव की ओढ़नी ने शहर में परचम लहराने की ठान ली. गांव के स्कूल में 12वीं तक पढ़ी मेघा का जब इंजीनियरिंग में चयन हुआ तो घर भर में खुशी की लहर दौड़ गई थी. देश के प्रतिष्ठित प्रतिष्ठान में ऐडमिशन मिलना कोई कम बड़ी बात है क्या?

“लेकिन यह ओढ़नी शहर के आकाश में लहराना नहीं जानती, कहीं झाड़कांटों में उलझ कर फट गई तो?”

“हवाओं को तय करने दो. इस के बंधन खोल कर इसे आजाद कर दो, देखें अटती है या फटती है…”

“लेकिन एक बार फटने के बाद क्या? फिर से सिलना आसान है क्या? और अगर सिल भी गई तो रहीमजी वाले प्रेम के धागे की तरह क्या जोड़ दिखेगा नहीं? जबजब दिखेगा तबतब क्या सालेगा नहीं?”

“तो क्या किया जाए? कटने से बचाने के लिए क्या पतंग को उड़ाना छोड़ दें?”

न जाने कितनी ही चर्चाएं थीं जो इन दिनों गांव की चौपाल पर चलती थी.

सब के अपनेअपने मत थे. कोई मेघा के पक्ष में तो कोई उस के खिलाफ. हरकोई चाहता तो था कि मेघा को उड़ने के लिए आकाश मिले लेकिन यह भी कि उस आकाश में बाज न उड़ रहे हों. अब भला यह कैसे संभव है कि रसगुल्ला तो खाएं लेकिन चाशनी में हाथ न डूबें.

“संभव तो यह भी है कि रसगुल्ले को कांटे से उठा कर खाया जाए.”

कोई मेघा की नकल कर हंसता. मेघा भी इसी तरह अटपटे सवालों के चटपटे जवाब देने वाली लड़की है. हर मुश्किल का हल बिना घबराए या हड़बड़ाए निकालने वाली. कभी ओढ़नी फट भी गई ना, तो इतनी सफाई से रफू करेगी कि किसी को आभास तक नहीं होगा. मेघा के बारे में सब का यही खयाल था.

लेकिन न जाने क्यों, खुद मेघा को अपने ऊपर भरोसा नहीं हो पा रहा था पर आसमान नापने के लिए पर तो खोलने ही पडते हैं ना… मेघा भी अब उड़ान के लिए तैयार हो चुकी थी.

मेघा कालेज के कैंपस में चाचा के साथ घुसी तो लाज के मारे जमीन में गड़ गई. चाचाभतीजी दोनों एकदूसरे से निगाहें चुराते आगे बढ़ रहे थे. मेघा को लगा मानों कई जोड़ी आंखें उस के दुपट्टे पर टंक गई है. उस ने अपने कुरते के ढलते कंधे को दुरुस्त किया और सहमी सी चाचा के पीछे हो ली.

इस बीच मेघा ने जरा सा निगाह ऊपर उठा कर इधरउधर देखने की कोशिश की लेकिन आंखें कई टखनों से होती हुईं खुली जांघ तक का सफर तय कर के वापस उस तक लौट आईं.

उस ने अपने स्मार्टफोन की तरफ देखा जो खुद उस की तरह ही किसी भी कोण से स्मार्ट नहीं लग रहा था. हर तीसरे हाथ में पकड़ा हुआ कटे सेब के निशान वाला फोन उसे अपने डब्बे को पर्स में छिपाने की सलाह दे रहा था जिसे उस ने बिना किसी प्रतिरोध के स्वीकार कर लिया था.

कालेज की औपचारिकताएं पूरी करने और होस्टल में कमरा अलौट होने की तसल्ली करने के बाद चाचा उसे भविष्य के लिए शुभकामनाएं दे कर वापस लौट गए. अब मेघा को अपना भविष्य खुद ही बनाना था। गंवई पसीने की खुशबू को शहर के परफ्यूम में घोलने का सपना उसे अपने दम पर ही पूरा करना था.

कालेज का पहला दिन. मेघा बड़े मन से तैयार हुई. लेकिन कहां जानती थी कि जिस ड्रैस को उस के कस्बे में नए जमाने की मौडर्न ड्रैस कह कर उसे आधुनिका का तमगा दिया जाता था वही कुरता और प्लाजो यहां उसे बहनजी का उपनाम दिला देंगे. मेघा आंसू पी कर रह गई. लेकिन सिलसिला यहीं नहीं थमा था.

उस के बालों में लगे नारियल तेल की महक, हर कुरते के साथ दुपट्टा रखने की आदत, पांवों में पहनी हुई चप्पलें आदि उसे भीड़ से अलग करते थे. और तो और खाने की टेबल पर भी सब उसे चम्मच की बजाय हाथ से चावल खाते हुए कनखियों से देख कर हंसा करते थे.

“आदिमानव…” किसी ने जब पीछे से विशेषण उछाला तो मेघा को समझते देर नहीं लगी कि यह उसी के लिए है.

“यह सब बाहरी दिखावा है मेघा। तुम्हें इस में नहीं उलझना है,” स्टेशन पर ट्रैन में बैठाते समय पिता ने यही तो सीख की पोटली बांध कर उस के कंधे पर धरी थी.

‘पोटली तो भारी नहीं थी, फिर कंधे क्यों दुखने लगे?’ मेघा सोचने लगी.

हर छात्र की तरह मेघा का सामना भी सीनियर छात्रों द्वारा ली जाने वाली रैगिंग से हुआ. होस्टल के एक कमरे में जब नई आई लड़कियों को रेवड़ की तरह भरा जा रहा था तब मेघा का गला सूखने लगा.

“तो क्या किया जाए इस नई मुरगी के साथ?” छात्राओं से घिरी मेघा ने सुना तो कई बार देखी गई फिल्म ‘थ्री इडियट’ से कौपी आईडिया और डायलौग न जाने तालू के कौन से कोने में हिस्से में चिपक गए.

“भई, दुपट्टे बड़े प्यारे होते हैं इस के. चलो रानी, दुपट्टे से जुड़े कुछ गीतों पर नाच के दिखा दो. और हां, डांस प्योर देसी हो समझी?” गैंग की लीडर ने कहा तो मेघा जड़ सी हो गई.

एक सीनियर ने बांह पकड़ कर उसे बीच में धकेल दिया. मेघा के पांव फिर भी नहीं चले.

“देखो रानी, जब तक नाचोगी नहीं, जाओगी नहीं. खड़ी रहो रात भर,” धमकी सुन कर मेघा ने निगाहें ऊपर उठाईं.

“ओह, कहां फंसा दिया,” मेघा की आंखों में बेबसी ठहर गई.

‘अब घूमर के अलावा कोई बचाव नहीं,’ सोच कर मेघा ने अपने चिंदीचिंदी आत्मविश्वास को समेटा और अपने दुपट्टे को गले से उतार कर कमर पर बांध लिया.

‘हवा में उड़ता जाए, मेरा लाल दुपट्टा मलमल का…’, ‘इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा…’, ‘लाल दुपट्टा उड़ गया रे बैरी हवा के झौंके से…’ जैसे कई फिल्मी गीतों पर मेघा ने घूमर नाच किया तो सब के मुंह उस के मिक्स ऐंड मैच को देख कर खुले के खुले रह गए. फिरकी की तरह घूमती उस की देह खुद चकरी हो गई थी.

लड़कियां उत्तेजित हो कर सीटियां  बजाने लगीं. उस के बाद वह ‘घूमर वाली लड़की’ के नाम से जानी जाने लगी.

मेघा किसी तरह नई मिट्टी में जड़ें जमाने की कोशिश कर रही थी लेकिन जब भी वह होस्टल में लड़कियों को गहरे गले और बिना बांहों वाली छोटी सी बनियाननुमा ड्रैस पहने बेफिक्री से घूमते देखती तो उसे अपना पूरी आस्तीन का कुरता रजाई सा लपेटा हुआ लगता.

मेघा की हालत त्रिशंकु सी हो गई. न तो उस से अपने संस्कार छोड़ते बनता और ना ही नए तौरतरीके अपनाते बन रहा था. फिर उस ने खुद को बदलने का निश्चय किया.

अब सवाल यह है वह अपनेआप को माहौल के अनुसार बदल भी ले लेकिन कोई उस की मदद करे तो सही, यहां तो कोई उसे दोस्त बनाने के लिए राजी ही नहीं था.

सब से आखिरी बेंच पर बैठने वाली मेघा ने अपनी तरफ से लाख कोशिश कर देखी लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे जमीन पौधे को स्वीकार ही नहीं कर रही, पौधा था कि पनप ही नहीं रहा था.

इसी तरह पहले सेमेस्टर के टर्म पेपर आ गए. मेघा ने अपनी जान झौंक दी. नतीजा आया तो पहले नंबर पर मेघा का नाम देख कर सब की निगाहें क्लास में पीछे बैठी आदिमानव सी लड़की की तरफ उठ गई. प्रोफैसर ने उस का नाम ले कर पुकारा तो संकोच से भरी मेघा के कदम जमीन में धंस से गए.

मेघा को लगा जैसेकि अब उस के दिन बदल जाएंगे और हुआ भी यही. प्रोफैसर उसे नाम से जानने लगे. बहुत से लड़केलड़कियों ने उस से मोबाइल नंबर ऐक्सचैंज किए. कुछ से बातचीत भी होने लगी लेकिन इतना सब होने के बाद भी मेघा अकेली की अकेली ही रही.

लाइम लाइट में आने के बाद भी उस का आत्मविश्वास नहीं लौटा. उसे सब का व्यवहार चीनी चढ़ी कुनैन सा लगता. एकदम बनावटी क्योंकि अब भी लोग उसे शाम को होने वाली चाय पार्टी का हिस्सा नहीं बनाते थे. हां, अपनी रूममैट विधि से अवश्य उस की पटने लगी थी.

विधि ने उस के बाहरी पहनावे को थोड़ा सा बदल दिया. उस की लंबी चोटी अब स्टैप्स में कट गई थी. बालों के तेल की जगह जैल ने ले ली. सलवारकमीज की जगह अलमारी में जींसकुरती आ गई लेकिन हां, अब भी वह बनियान पहन कर होस्टल में नहीं घूम पाती थी. उसे नंगानंगा सा लगता था.

सब कुछ पटरी पर आ ही रहा था कि उस की जिंदगी को और अधिक आसान बनाने आ गया था विनोद. जितनी आधुनिक मेघा, उतना ही विनोद. फर्क बस इतना ही था कि मेघा राजस्थान के गांव से थी तो विनोद बिहार के गांव से. दोनों ही सकुचेसहमे और दिल्ली की तेज रोशनी से चुंधियाए हुए. मेघा को विनोद के साथ बहुत सहज लगता था. उस के साथ खाया लिट्टीचोखा उसे दालबाटी सा आनंद देता था. कभीकभी जब वह लंबा आलाप ले कर देसी तान छेड़ता तो मेघा का मन घूमर डालने को मचलने लगता.

परदेस में कोई अपनी सी फितरत का मिल जाए तो अपना सा ही लगने लगता है. मेघा को भी विनोद अपना ही अक्स लगने लगा. क्लास से ले कर कनाट प्लेस तक दोनों साथसाथ देखे जाने लगे. यह अलग बात है कि कनाट प्लेस जाने का मकसद दोनों का एक ही होता था. नए फैशन को आंखें फाड़फाड़ कर देखना और फिर उसे जीभर कोसना. दोनों को ही इस में आत्मिक तृप्ति सी मिलती थी गोया अपने स्टाइल को बेहतर साबित करने का यह भी एक तरीका हो.

घूमतेफिरते दिल्ली के ट्रैफिक से घबराए दोनों एकदूसरे का हाथ थाम कर सड़क क्रौस किया करते थे. हालांकि विनोद ने कभी इकरार तो नहीं किया लेकिन प्यार से हाथ पकड़ने को मेघा प्यार ही समझ बैठी.

‘मेरी ही तरह छोटी जगह से है ना बड़ी बातें नहीं बना पाता होगा’, मेघा उस के हाथ में अपना हाथ देख कर सपने बुनने लगती.

इधर पिछले कुछ दिनों से मेघा को विनोद पर भी नए रंग का असर दिखाई दे रहा था.

उस दिन बारिश के बाद जब दोनों कैंपस के बाहर लगे ठेले पर मक्के का भुट्टा खा रहे थे तो अचानक मेघा को विनोद के मुंह से अप्रिय सी गंध आई.

“विनोद, पी है क्या?” मेघा ने अपने वहम को यकीन में बदलने के खयाल से पूछा.

“ना, चखी है,” कहने के साथ ही उस के अंदाज की बेशर्मी मेघा को खल गई. उस ने आधा खाया भुट्टा डस्टबिन में फेंका और मुड़ गई. विनोद उसे जाते हुए देखता रहा लेकिन रोकने की कोशिश नहीं की. कौन जाने, हिम्मत ही ना हुई हो.

धीरेधीरे विनोद शहर के रंगों में डूबने लगा. इतना कि खुद अपना असली रंग खो दिया. रंगीनियत तो मेघा पर भी तारी थी लेकिन अभी तक उस की अपनी देसी रंगत बरकरार थी. शायद ये देसीपना संस्कार बन कर उस के भीतर जड़ें जमा चुका था. विनोद में ये जड़ें जरा कमजोर रह गई होंगी.

विनोद को यों पटरी से उतरते देख कर मेघा का दिल बहुत उदास हो जाता लेकिन वह कुछ कर नहीं पा रही थी. हालांकि उनका मिलनाजुलना अब भी जारी था लेकिन अब उस में पहले वाली गुनगुनाहट नहीं बची थी फिर भी मेघा को कभीकभी लगता था जैसेकि दोस्तों को यदि दोस्त ही गड्ढे में गिराते हैं तो उन्हें गिरने से बचाने की जिम्मेदारी भी दोस्तों की ही होती है. फिर वह तो प्यार करने लगी थी उस से. कौन जाने यह रिश्ता रिश्तेदारी में ही बदल जाए. इस नाते तो उस की जिम्मेदारी दोहरी हो जाती है.

 

“तुम्हें भी शहर की हवा लग गई लगती है,” एक रोज मेघा ने सिगरेट के छल्ले उड़ाते विनोद से पूछा.

“जैसा देस, वैसा भेष,” विनोद ने एक हिंदी फिल्म का नाम लिया और हंस दिया.

“बिना भेष बदले क्या उस देस में रहने नहीं दिया जाता?” मेघा ने फिर पूछा जिस का जवाब विनोद को नहीं सूझा. वह चुपचाप नाक से धुआं खींचता मुंह से निकालता रहा.

मेघा चाह तो रही थी कि उस के हाथ से सिगरेट खींच ले लेकिन किस अधिकार से? बेशक विनोद के प्रति उस की कोमल भावनाएं हैं लेकिन इकतरफा भावनाओं की क्या अहमियत. मेघा पराजित सी खड़ी थी.

कुछ खास मौके ऐसे होते हैं जो महानगरों में बड़े शोरशराबे के साथ मनाए जाते हैं, वही छोटे शहर के लोग इन्हें हसरत के साथ ताका करते हैं. वैलेंटाइन डे भी ऐसा ही खास दिन है जिस का युवा दिलों को सालभर से इंतजार रहता है. मेघा भी बहुत उत्साहित थी कि उसे भी यह सुनहरा मौका मिला है जब वह प्रत्यक्ष रूप से इस अवसर की साक्षी बनने वाली है. अन्य लड़कियों की तरह वह गुलाब इकट्ठे करने वाली भीड़ का हिस्सा तो नहीं बन रही थी लेकिन एक गुलाब की प्रतीक्षा तो उसे भी थी ही.

प्रेम दिवस पर पूरे कालेज में गहमागहमी थी. लड़कियां बड़े मनोयोग से सजीसंवरी थी तो लड़के भी कुछ कम नहीं थे. किसी के हाथ में गुलाब तो किसी के पास चौकलेट, कोई टैडीबीयर हाथ में थामे था तो कोई मंदमंद मुसकान के साथ कार्ड में लिखे जज्बात पढ़ रहा था.

कोई जोड़ा कहीं किसी कैंटीन में सटा बैठा था तो कोई किसी कार की पिछली सीट पर प्रेमालाप में मगन था. कुछ जोड़े मोटरसाइकिल पर ऐसे चिपक कर घूम रहे थे कि मेघा को झुरझुरी सी हो आई. मेघा की आंखें ये नजारे देखदेख कर चकाचौंध हुई जा रही थी.

सुबह से दोपहर होने को आई लेकिन विनोद का कहीं अतापता नहीं था.

‘मेरे लिए गुलाब या गिफ्ट लेने गया होगा,’ से ले कर ‘पता नहीं कहां चला गया’ तक के भाव आ कर चले गए. लेकिन नहीं आया तो केवल विनोद.

‘क्यों न चल कर मैं ही मिल लूं,” सोचते हुए मेघा ने कालेज के बाहर अस्थाई रूप से लगी फूलों की दुकान से पीला गुलाब खरीदा और विनोद की तलाश में डिपार्टमैंट की तरफ चल दी.

“अभीअभी विनय के साथ निकला है,” किसी ने बताया.

विनय उन दोनों का कौमन फ्रैंड है. असाइनमैंट बनाने के चक्कर में तीनों कई बार विनय के कमरे पर मिल चुके हैं. मेघा सोच में पड़ गई.

‘क्या किया जाए, इंतजार या फिर विनय के कमरे पर धावा…’ आखिर मेघा ने विनोद को सरप्राइज देना तय किया और विनय के रूम पर जाने के लिए औटो में बैठ गई.

दिल उछल कर बाहर आने की कोशिश में था. औटो की खड़खड़ भी धड़कनों के शोर को दबा नहीं पा रही थी. पीला गुलाब उस ने बहुत सावधानी के साथ पकड़ा हुआ था. कहीं हवा के झोंके से पंखुड़ियां क्षतिग्रस्त न हो जाएं. आज वह जो करने जा रही है वह उस ने कभी सोचा तक नहीं था.

‘पता नहीं मुझे यह करना चाहिए या नहीं. कहीं विनोद इसे गलत न समझ ले. मेरा यह अतिआधुनिक रूप कहीं विनोद को ना भाया तो?’ ऐसे कितने ही प्रश्न थे जो मेघा को 2 कदम आगे और 4 कदम पीछे धकेल रहे थे.

ऊहापोह में घिरी मेघा के हाथ कमरे के बाहर लगी घंटी के बटन की तरफ बढ़ गए. तभी अचानक भीतर से आ रही आवाजों ने उसे ठिठकने को मजबूर कर दिया.

“अरे यार, आज तूने किसी को कोई लाल गुलाब नहीं दिया,” विनय के प्रश्न का जवाब सुनने के लिए मेघा अधीर हुई जा रही थी. अपने नाम का जिक्र सुनने की प्रतीक्षा उस की आंखों में लाली सी उतर आई. उस ने कान दरवाजे से सटा दिए.

“कोई जमी ही नहीं. सानिया पर दिल आया था लेकिन उसे तो कोई और ले उड़ा,” विनोद का जवाब सुन कर मेघा को यकीन नहीं हुआ.

“सानिया? वह तो तेरेमेरे जैसों को घास भी ना डाले,” विनोद ने ठहाका लगाया.

“मैं तो मेघा के बारे में बात कर रहा था. तुम दोनों की तो खूब घुटती थी ना, इसीलिए मैंने अंदाजा लगाया,” विनय ने आगे कहा.

उस के मुंह से अपना जिक्र सुन कर मेघा फिर से उत्सुक हुई.

“कौन? वह गांवड़ी? अरे नहीं यार, यहां आ कर भी अपने लिए कोई गांवड़ी ही ढूंढ़ी तो फिर क्या खाक तीर मारा,” विनोद ने लापरवाही से कहा तो मेघा के कान सुन्न से हो गए. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि जो उस ने सुना वह सच है.

उस ने एक निगाह अपने हाथ में सहेजे पीले गुलाब पर डाली. फूल भी उसे अपने किरदार सा बेरौनक लगा. मेघा वापस मुड़ गई.

‘दिल टूटा क्या?’ कोई भीतर से कुनमुनाया.

‘ना रे, बिलकुल भी नहीं. मेरा दिल इतना कमजोर थोड़ी है. वैसे भी मैं यहां दिल तोड़ने या जोड़ने नहीं आई हूं,’ अपने भीतर को जवाब दे कर वह जोर से खिलखिलाई और फिर अपना दुपट्टा हवा में लहरा दिया.

मेघा हंसतेहंसते बुदबुदा रही थी,’गांवड़ी।’

औटो में बैठी मेघा ने 1-2 बार पीले गुलाब को खुद ही सूंघा और फिर उसे औटो में ही छोड़ कर नीचे उतर गई.

फटी ओढ़नी बहुत नफासत के साथ रफू हो गई थी.

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