रिश्तेनाते: भाग 1- दीपक का शक शेफाली के लिए बना दर्द

अमित और शेफाली रात के समय शिमला पहुंचे थे. रात को ही अमित को जुकाम ने जकड़ लिया था. सारी रात होटल के कमरे में वह छींकता रहा था.

अमित ने दवाई भी ली थी, मगर उस का तत्काल असर नजर नहीं आया.

सुबह शिमला में जैसा मौसम बन गया था, उसे देख कर तो यही लग रहा था कि किसी भी वक्त बर्फ गिरनी शुरू हो सकती थी.

उस समय बर्फबारी देखने के शौकीन लोग बड़ी संख्या में शिमला में जमा थे. होटल ठसाठस भरे हुए थे. अगर आशा के अनुसार शीघ्र बर्फबारी नहीं होती तो शिमला में जमा सैलानियों में मायूसी छा सकती थी. बर्फ की सफेद चादर ओढ़ने के बाद शिमला कितना खूबसूरत दिखता था, यह शेफाली को मालूम था.

शेफाली कई बार शिमला आ चुकी थी. शिमला से उस के अतीत की कई यादें जुड़ी थीं. इस बार शेफाली शिमला नहीं आना चाहती थी. उसे मालूम था कि शिमला में अतीत की यादें उसे ज्यादा परेशान करेंगी.

शेफाली डलहौजी, मसूरी या और किसी भी हिल स्टेशन पर जाने को तैयार थी, लेकिन अमित शिमला जाने की जिद पर अड़ गया था.

दरअसल, अमित न तो पहले कभी शिमला आया था और न ही उस ने कभी स्नोफाल देखा था. इसलिए शिमला में उस के लिए पर्याप्त आकर्षण था.

शेफाली खुल कर अमित को यह नहीं बता सकी थी कि वह शिमला क्यों नहीं जाना चाहती थी? शेफाली कहती तो शायद अमित को ज्यादा अच्छा भी नहीं लगता.

वैसे अमित और शेफाली के पहले पति दीपक के स्वभाव और आदतों में बड़ा फर्क था. कारोबारी इनसान होने के बावजूद अमित के स्वभाव में सरलता और खुलापन था. अमित की आदत न तो बातों को अधिक कुरेदने की और न ही छोटीमोटी बातों को अहमियत देने की थी.

किसी बात को चुपचाप मन में रखने के बजाय वह उसे कह देना ज्यादा पसंद करता था.

पिछले 3 वर्षों में शेफाली अमित को किसी हद तक समझ तो गई थी, मगर अपने कड़वे अनुभवों के चलते वह किसी भी मर्द पर इतनी जल्दी भरोसा करने को तैयार नहीं थी.

शायद यही वजह थी कि शेफाली ने अमित को यह बताने में संकोच से काम लिया था कि उसे शिमला जाने में इतनी दिलचस्पी क्यों नहीं थी?

मालूम नहीं अमित उस समय कैसे रिऐक्ट करता, जब शेफाली उसे यह बताती कि वह अपने पहले पति दीपक के साथ कई बार शिमला आई थी.

अमित को तो यह भी मालूम नहीं था कि वह शेफाली के साथ शिमला के जिस होटल में ठहरा था उसी होटल में कभी शेफाली अपने पहले पति दीपक के साथ हनीमून के लिए ठहरी थी.

कहने को तो शादी के बाद अमित ने शेफाली से साफ शब्दोें में कहा था कि उसे उस के अतीत से कोई भी दिलचस्पी नहीं है. शादी के बाद अमित ने शेफाली को यह भी आश्वासन दिया था कि वह उस के बीते हुए कल के बारे में उस से कभी सवाल नहीं करेगा.

किंतु शेफाली का मानना था कि सब कहने की बातें हैं. यह बात अमित का मूड खराब कर सकती थी कि जिस होटल में वे दोनों ठहरे हुए थे, उसी होटल में उस ने कभी अपने पहले पति के साथ हनीमून मनाया था.

शेफाली इतनी मूर्ख भी नहीं थी कि ऐसी बात का जिक्र अमित से करती.

ज्यादा सर्दी अकसर अमित को जुकाम में जकड़ती थी. जैसा डर था, शिमला आते ही जुकाम की पकड़ में आने से वह बच नहीं सका था.

दोनों ने सुबह का नाश्ता बिस्तर पर ही किया. खिड़की से बाहर देखने पर धुंध की वजह से माल रोड की सड़क भी ठीक से नजर नहीं आ रही थी.

अपनी तबीयत को देखते हुए अमित का

होटल से बाहर निकलने का कोई इरादा फिलहाल नहीं था. मगर अपनी वजह से वह शेफाली को कमरे में बंद नहीं रखना चाहता था. इसलिए शेफाली को देखते हुए उस ने कहा, ‘‘मेरा तो इस हालत में होटल से बाहर निकलना ठीक नहीं होगा. मेरी मानो तो तुम एक छोटा सा राउंड अकेले मार आओ. अगर इस जुकाम से छुटकारा मिला तो दोपहर के बाद साथसाथ निकलेंगे.’’

‘‘नहीं, अकेले कोई मजा नहीं आएगा,’’ शेफाली ने कहा.

‘‘मेरे साथ इस कमरे में बंद रह कर तुम भी बेकार में बोर होगी. हम यहां तफरीह के लिए आए हैं. 1-1 पल को एंजौय करना चाहिए. यह बेवकूफी ही होगी कि मेरे साथ तुम भी इस कमरे में पड़ीपड़ी हिल स्टेशन पर आने का अपना मजा किरकिरा करो.’’

अमित के मजबूर करने पर शेफाली माल रोड पर चक्कर लगाने के लिए निकल पड़ी.

माल रोड की गहरी धुंध और कड़ाके की सर्दी में एकदूसरे से सट कर बांहों में बांहें डाल कर टहलते हुए जोड़े काफी रोमानी नजारा पेश कर रहे थे.

उड़ती धुंध के कोमल किंतु सर्द स्पर्श से शेफाली के गाल एकदम सुन्न से पड़ गए थे.

शेफाली के मन में कुछ कसकने लगा था. वक्त के साथ सब कुछ कैसे बदल गया था. पुराने रिश्तेनाते टूट गए थे और नए बने थे.

अपने पहले पति दीपक के साथ शेफाली जब हनीमून मनाने शिमला आई थी तो उस ने कभी सोचा नहीं था कि जन्मजन्मांतर के संबंधों की डोर इतनी छोटी और कच्ची हो सकती थी.

8-9 वर्ष पहले की ही बात थी. इसी माल रोड पर दीपक का हाथ थाम कर चलते हुए खुशी से शेफाली के कदम जैसे जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे. दीपक जैसा जीवनसाथी पा कर खुद को दुनिया की खुशकिस्मत औरतों में शुमार करते हुए उस ने भविष्य के कई सपने देख डाले थे.

देखने में तो शेफाली को वैसा ही जीवनसाथी मिला था जैसा वह चाहती थी. पढ़ालिखा और देखने में सुंदर, उस में कोई ऐब भी नहीं था. उस पर बैंक की सरकारी नौकरी, जिस में भविष्य के बारे में आर्थिक सुरक्षा की गारंटी थी.

मेघमल्हार: भाग 3- अभय की शादीशुदा जिंदगी में किसने मचाई खलबली

उस दिन मन बड़ा उदास रहा. बीवी ने पूछा तो काम का बहाना बना दिया. रात लगभग 11 बजे मेघा का फोन आया. मैं ने नहीं उठाया, पता नहीं मैं गुस्से में था या उस से नफरत करने लगा था. उस ने अचानक फोन क्यों किया था, यह मैं अच्छी तरह समझ रहा था. मनदीप ने उसे मेरे उस के यहां आने की बात बताई होगी. उसे भय होगा कि मैं उस के बारे में सबकुछ जान गया हूं. परंतु उसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं थी. आज के बाद मुझे उस के किसी भी काम से कुछ लेनादेना नहीं था. मैं उस के जीवन में दखल देने वाला नहीं था.

मैं ने मोबाइल साइलैंट मोड पर रख दिया, ताकि घंटी की आवाज से मुझे परेशानी न हो और पत्नी के अनावश्यक सवालों से भी मैं बचा रहूं.

रात में नींद ठीक से तो नहीं आई परंतु इस बात का सुकून अवश्य था कि एक बोझ मेरे मन से उतर गया था.

सुबह देखा तो मेघा की 19 मिस्डकाल थीं. शायद बहुत बेचैन थी मुझ से बात करने के लिए. मेरे मन में जैसे खुशी का एक दरिया उमड़ आया हो. जो हमें दुख देता है, उसे दुखी देख कर हम सुख की अनुभूति करते हैं. यह स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है.

मेघा ने एक मैसेज भी किया था, ‘मैं आप से मिलना चाहती हूं.’ मैं ने इस का कोई जवाब नहीं दिया. मैं उसे उपेक्षित करना चाहता था. प्यार के मामलों में ऐसा ही होता है. एक बार मन उचट जाए तो मुश्किल से ही लगता है.

मैं ने मेघा की उपेक्षा की और उस का फोन अटैंड नहीं किया, न उसे कोई मैसेज भेजा, तो उस ने मेरी पत्नी अनीता को फोन किया. उन दोनों के बीच क्या बातें हुईं, इस का तो पता नहीं, परंतु अनीता ने मुझ से पूछा, ‘‘मेघा से आप की कोई बात हुई है क्या?’’

‘‘क्या?’’ मैं उस का आशय नहीं समझा.

‘‘बोल रही थी कि आप उस से नाराज हैं.’’

‘‘अच्छा, मैं उस से क्यों नाराज होने लगा. उसे खुद ही वक्त नहीं मिलता मुझ से बात करने का. वह मेरा फोन भी अटैंड नहीं करती. उस के पंख निकल आए हैं,’’ मैं ने तैश में आ कर कहा. अनीता हैरानी से मेरा मुख निहारने लगी. मेरा चेहरा तमतमा रहा था और उस में कटुता के भाव आ गए थे.

‘‘ऐसा क्या हो गया है? इतनी प्यारी लड़की…’’ अनीता पता नहीं क्या कहने जा रही थी, परंतु मैं ने उस की बात बीच में ही काट दी, ‘‘हां, बहुत प्यारी है. उस के लक्षण तुम नहीं जानतीं. पता नहीं किसकिस के साथ गुलछर्रे उड़ाती फिर रही है.’’

‘‘अच्छा,’’ अनीता के चेहरे पर व्यंग्य भरी मुसकराहट बिखर गई, ‘‘आप को उस से इस बात की शिकायत है कि वह दूसरों के साथ गुलछर्रे उड़ा रही है. आप के साथ उड़ाती तो ठीक था, तब आप गुस्सा नहीं करते.’’

क्या अनीता को मेरे और मेघा के संबंधों के बारे में पता चल गया है? मैं ने गौर से उस का चेहरा देखा. ऐसा तो नहीं लग रहा था. अनीता सामान्य थी और उस के चेहरे पर भोली मुसकान के सिवा कुछ न था. अगर उसे पता होता तो वह इतने सामान्य ढंग से मेरे साथ पेश नहीं आती. मेरे दिल को राहत मिली.

‘‘छोड़ो उस की बातें, वह अच्छी लड़की नहीं है बस,’’ मैं ने बात को टालने के इरादे से कहा.

‘‘अरे वाह, जब तक हमारे घर में थी, हम सब से हंसतीबोलती थी, तब तक वह एक अच्छी लड़की थी. जब वह दूर चली गई और आप से उस का मिलनाजुलना कम हो गया, तो वह खराब लड़की हो गई,’’ अनीता के शब्दों में कटाक्ष का हलका प्रहार था.

मुझे फिर शक हुआ. शायद अनीता को सबकुछ पता है या यह केवल मेरा शक है. अगर पता है तो मेघा ने ही आजकल में पिछली सारी बातें अनीता को बताई होंगी. मेरे दिल में खलबली मची हुई थी, परंतु मैं अनीता से कुछ पूछने का साहस नहीं कर सकता था. अभी तक हमारे दांपत्य जीवन में कोई कटुता नहीं आई थी और मैं नहीं चाहता था कि जिस संबंध को मैं खत्म करना चाहता था, उस की वजह से मेरे सुखी घरपरिवार में आग लग जाए.

‘‘मैं उस के बारे में बात नहीं करना चाहता,’’ कह कर मैं उठ कर दूसरे कमरे में चला आया. अनीता मेरे पीछेपीछे आ गई और चिढ़ाने के भाव से बोली, ‘‘भागे कहां जा रहे हैं? सचाई से कहां तक मुंह मोड़ेंगे? आप मर्दों को घर भी चाहिए और बाहर की रंगीनियां भी. यह तो हम औरतें हैं, जो घर की सुखशांति के लिए अपना स्वाभिमान और व्यक्तिगत सुख भूल जाती हैं.’’

मैं पलटा, ‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’

‘‘मतलब बहुत साफ है. मेघा ने बहुत पहले ही मुझ से आप के साथ अपने संबंधों का खुलासा कर दिया था. वह जवानी के आंगन में खड़ी एक भावुक किस्म की लड़की है. दुनिया के चक्करदार रास्तों में वह भटक रही थी कि आप उसे मिल गए. हर लड़की एक पुरुष में पिता और प्रेमी दोनों की छवि देखना चाहती है. आप में उस ने एक संरक्षक की छवि देखी और इसी नाते प्यार कर बैठी. बाद में उसे पछतावा हुआ तो घर छोड़ कर चली गई. आप से दूर होने के लिए आवश्यक था कि वह किसी लड़के से दोस्ती कर ले ताकि वह पिछली बातें भूल सके. बस, इतनी सी बात है,’’ अनीता ने कहा.

मैं अवाक् रह गया. अनीता को सब पता था और उस ने आज तक इस बारे में बात करनी तो दूर, मुझ पर जाहिर तक नहीं किया और मैं काठ के उल्लू की तरह 2 औरतों के बीच बेवकूफ बना फिरता रहा.  मेरी नजर में अनीता की छवि एक आदर्श पत्नी की थी, तो मेघा की छवि उस बादल की तरह जो वर्षा कर के दूसरों की प्यास तो बुझाते हैं परंतु खुद प्यासे रह जाते हैं. अनीता के सामने मैं नतमस्तक हो गया.

किसी एक जगह नहीं ठहरते. ये निरंतर चलते रहते हैं और बरस कर तपती हुई धरा को तृप्त करते हैं, मानव जीवन को सुखमय बनाते हैं. उसी प्रकार मेघा भी चंचल और चलायमान थी. वह बहुत अस्थिर थी और ढेर सारा प्यार न केवल बांटना चाहती थी, बल्कि सब से पाना भी चाहती थी.

वह मेरे जीवन में आई और अपने प्यार की वर्षा से मुझे तृप्त कर गई. उतना ही प्यार मेरे जीवन में लिखा था. अब वह किसी और को अपना प्यार बांट रही थी. आप बताइए, क्या उस ने मेरे साथ विश्वासघात किया था?

काश, वह मेघमल्हार होती और मैं उसे आजीवन सुना करता.

मेघमल्हार: भाग 2-अभय की शादीशुदा जिंदगी में किसने मचाई खलबली

हमारे संबंधों के बीच अनजाने ही अनचाही दूरियां व्याप्त होती जा रही थीं. मैं उस से विरक्त नहीं होना चाहता था, परंतु शायद इन दूरियों और न मिल पाने की मजबूरियों की वजह से मेघा मुझ से विरक्त होती जा रही थी.  अब वह मेरे फोनकौल्स अटैंड नहीं करती थी, अकसर काट देती थी. कभी अटैंड करती तो उस की आवाज में बेरुखी तो नहीं, परंतु मधुरता भी नहीं होती. पूछने पर बताती, ‘‘फाइनल ऐग्जाम्स सिर पर हैं, पढ़ाई में व्यस्त रहती हूं, टैंशन रहती है.’’

उस का यह तर्क मेरी समझ से परे था. परीक्षाएं तो पहले भी आई थीं परंतु न तो कभी वह व्यस्त रहती थी, न टैंशन में. मैं जानता था, वह झूठ बोल रही थी. इस का कारण यह था कि बहुत बार जब मैं फोन करता तो उस का फोन व्यस्त होता. स्पष्ट था कि वह पढ़ाई में नहीं किसी से बातों में व्यस्त रहती थी, परंतु किस से…? यह पता करना मेरे लिए आसान न था. वह कालेज में पढ़ती थी. किसी भी लड़के से उसे प्यार हो सकता था. यह नामुमकिन नहीं था.

मैंस्वयं तनावग्रस्त हो गया. मेरी रातों की नींद और दिन का चैन उड़ गया. औफिस के काम में मन न लगता. पत्नी द्वारा बताए गए कार्य भूल जाता.  ऐसी तनावग्रस्त जिंदगी जीने का कोई मकसद नहीं था. मुझे कोई न कोई फैसला लेना ही था. बहुत दिनों से मेघा से मेरी मुलाकात नहीं हुई थी. हम आपस में तय कर के ही मिला करते थे, परंतु इस बार मैं ने अचानक उस के घर जाने का निर्णय लिया.

एक शाम औफिस से मैं सीधा मेघा के कमरे में पहुंचा, 2 मंजिल का साधारण मकान था. उसी की ऊपरी मंजिल के एक कोने में वह रहती थी. जब मैं उस के मकान में पहुंचा तो वह कमरे में नहीं थी.

मैं उस के कमरे के दरवाजे पर पड़े ताले को कुछ देर तक घूर कर देखता रहा, जैसे वह मेरे और मेघा के बीच में दीवार बन कर खड़ा हो. दीवार ही तो हमारे बीच खिंच गई थी. वह दीवार इतनी ऊंची और मजबूत थी कि हम न तो उसे पार कर के एकदूसरे की तरफ जा सकते थे, न तोड़ कर.  बुझे मन से मैं सीढि़यां उतर कर गेट की तरफ बढ़ रहा था कि मकानमालिक मनदीप सिंह अचानक अपने ड्राइंगरूम से बाहर निकले और तपाक से बोले, ‘‘अभयजी, आइए, कहां लौटे जा रहे हैं? बड़े दिन बाद आए? सब ठीक तो है?’’

जबरदस्ती की मुसकान अपने चेहरे पर ला कर मैं ने कहा, ‘‘हां मनदीपजी, सब ठीक है. आप कैसे हैं?’’

‘‘मैं तो चंगा हूं जी, आप अपनी सुनाइए. मेघा से मिलने आए थे?’’ उन्होंने उत्साह से कहा, परंतु मेरे मन में खुशियों के दीप नहीं खिल सके.

‘‘हां,’’ मैं ने भारी आवाज में कहा, ‘‘कमरे में है नहीं,’’ मैं ने इस तरह कहा, जैसे मैं जानना चाहता था कि वह कहां गई है.

‘‘आइए, अंदर बैठते हैं,’’ वे मेरा हाथ पकड़ कर अंदर ले गए. मुझे सोफे पर बिठा कर खुद दीवान पर बैठ गए और जोर से आवाज दे कर बोले, ‘‘सुनती हो जी, जरा कुछ ठंडागरम लाओ. अपने अभयजी आए हुए हैं.’’

‘‘लाती हूं,’’ अंदर से उन की पत्नी की आवाज आई. मैं चुप बैठा रहा. मनदीप ने ही बात शुरू की, ‘‘मैं तो आप को फोन करने ही वाला था,’’ वे जैसे कोई रहस्य की बात बताने जा रहे थे, ‘‘अच्छा हुआ आप खुद ही आ गए. आप बुरा मत मानना. आप मेघा के लोकल गार्जियन हैं. जरा उस पर नजर रखिए. उस के लक्षण अच्छे नहीं दिख रहे.’’

‘‘क्यों? क्या हुआ?’’ मेरे मुख से अचानक निकल गया.

‘‘वही बताने जा रहा हूं. आजकल उस का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा. शायद प्यारव्यार के चक्कर में पड़ गई है.’’

‘‘क्या?’’ मुझे विश्वास नहीं हुआ. मेघा का मेरे प्रति जिस प्रकार का समर्पण था, उस से नहीं लगता था कि वह देहसुख की इतनी भूखी थी कि मुझे छोड़ कर किसी और से नाता जोड़ ले, परंतु लड़कियों के स्वभाव का कोई ठिकाना नहीं होता. क्या पता कब उन्हें कौन अच्छा लगने लगे?

‘‘हां जी,’’ मनदीप ने आगे बताया, ‘‘एक लड़का रोज आता है. उसी के साथ जाती है और देर रात को उसी के साथ वापस आती है. छुट्टी वाले दिन तो लड़का उस के कमरे में ही सारा दिन पड़ा रहता है. मैं ने 1-2 बार टोका, तो कहने लगी, उस का क्लासमेट है और पढ़ाई में उस की मदद करने के लिए आता है, परंतु भाईसाहब मैं ने दुनिया देखी है. उड़ती चिडि़या देख कर बता सकता हूं कि कब अंडा देगी. अकेले कमरे में घंटों बैठ कर एक जवान लड़का और लड़की केवल पढ़ाई नहीं कर सकते.’’

मेरे दिमाग में एक धमाका हुआ. लगा कि दिमाग की छत उड़ गई है. कई पल तक सांसें असंयमित रहीं और मैं गहरीगहरी सांसें लेता रहा.

तो यह कारण था मेघा का मुझ से विमुख होने का. अगर उस की जिंदगी में कोई अन्य पुरुष या युवक आ गया था तो यह कोई अनहोनी नहीं थी. वह जवान और सुंदर थी, चंचल और हंसमुख थी. उसे प्यार करने वाले तो हजारों मिल जाते, परंतु मुझे उस की तरह प्यार देने वाली दूसरी मेघा तो नहीं मिल सकती थी. काश, मेघों की तरह वह मेरे जीवन में न आती, मल्हार बन कर आती तो मैं उस की मधुर धुन को अपने हृदय में समा लेता. फिर मुझे उस से बिछड़ जाने का गम न होता.

मनदीप के घर पर मैं काफी देर तक बैठा रहा. ठंडा पीने के बाद इसी मुद्दे पर काफी देर तक बातें होती रहीं. उन की पत्नी बोली, ‘‘भाईसाहब, आप मेघा को समझाइए. वह मांबाप से दूर रह कर पढ़ाई कर रही है. प्यारमुहब्बत के चक्कर में उस का जीवन बरबाद हो जाएगा.’’

‘‘लेकिन भाभीजी, यह उस का कुसूर नहीं है. जमाना ही कुछ ऐसा आ गया है कि हर दूसरा लड़कालड़की किसी न किसी के साथ प्यार किए बैठे हैं. यह आधुनिक युग का चलन है. किसी पर अंकुश लगाना संभव नहीं है.’’

‘‘आप बात तो ठीक कहते हैं परंतु उसे समझाने में क्या हर्ज है? एक बार पढ़ाई पूरी कर ले, फिर जो चाहे करे. मांबाप की उम्मीदें, उन का भरोसा, उन का दिल तो न तोड़े.’’

‘‘मैं उसे समझाने का प्रयास करूंगा,’’ मैं ने उन से कह तो दिया, परंतु मैं अच्छी तरह जानता था कि मेघा से अब मेरी कभी मुलाकात नहीं होगी. मेरे मन के आसमान में अब किसी मेघ के लिए जगह नहीं थी.

यह तो होना ही था: भाग 3- वासना का खेल मोहिनी पर पड़ गया भारी

इसी बीच अनिल औफिस की किसी मीटिंग से फ्री हुआ तो लंचटाइम में मिलने के लिए उस ने कई बार मोहिनी को फोन मिलाया. मोहिनी ने आज अपना फोन पहली बार बंद कर रखा था. अनिल ने सोचा क्या हो गया, आज फोन क्यों बंद है, जा कर देखता हूं.

कालेज में कोमल की तबीयत कुछ ढीली थी. उस ने सोचा मां के पास जा कर आराम करती हूं. वह भी मोहिनी को फोन मिला रही थी. फोन बंद होने पर कोमल को मां की चिंता होने लगी. वह फौरन छुट्टी ले कर मां से मिलने चल दी.

अनिल मोहिनी के घर पहुंचा तो देखा ताला लगा हुआ है. इस समय कहां चली गई, उस ने इधरउधर देखा, कुछ बच्चे खेल रहे थे. उन में से एक बच्चे ने इशारा किया कि आंटी उस घर की तरफ गई हैं, अनिल के मन में पता नहीं क्या आया, वह सुधीर के घर की तरफ चल दिया. कोमल भी पड़ोस में रहने वाली कुसुम आंटी के यह बताने पर कि उन्होंने मोहिनी को सामने वाले सुधीर के घर जाते देखा है. अत: वह भी सुधीर के घर चल दी.

अनिल ने सुधीर की डोरबैल बजाई, अंदर सुधीर और मोहिनी बैड पर एकदूसरे में खोए निर्वस्त्र लेटे थे. डोरबैल बजने पर कोई कूरियर होगा यह सोच कर बस टौवेल लपेट कर गेट खोल दिया. सामने अनिल खड़ा था. सुधीर की अस्तव्यस्त हालत देख अनिल को एक पल में सब सम झ आ गया.

अब तक कोमल भी चुपचाप पीछे आ कर खड़ी हो चुकी थी. सुधीर सकपका गया. वह अनिल से तो कभी नहीं मिला था, लेकिन कोमल से 1-2 बार मिल चुका था. अनिल ने सुधीर को एक तरफ धक्का दे कर अंदर जाते हुए पूछा, ‘‘कहां है मोहिनी?’’

कोमल को धक्का लगा कि अनिल कैसे उस की मां का नाम ले रहा है… क्या हो रहा है यह सब.

इतने में सुधीर चिल्लाया, ‘‘तुम यहां क्या कर रहे हो… जाओ यहां से.’’

‘‘मैं मोहिनी से मिल कर जाऊंगा,’’ कहते हुए अनिल बैडरूम की तरफ बढ़ गया. सुधीर ने पहले जल्दी से अंदर जा कर अपनी पेंट उठाई फिर बाथरूम में पहन कर निकला. तब तक अनिल मोहिनी के सामने पहुंच चुका था.

बैडरूम का दृश्य देख कर कोमल जैसे पत्थर की हो गई. निर्वस्त्र, अपने को चादर से ढकने की कोशिश करते हुए अब मोहिनी को लग रहा था कि काश, धरती फट जाए और वह उस में समा जाए.

कोमल को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. उस की मां इस हालत में और अनिल.

उस ने सुधीर का कौलर पकड़ लिया. दोनों में हाथापाई शुरू हो गई. उमाशंकर और उन का परिवार, कुसुम, बाकी पड़ोसी भी शोर सुन कर वहां पहुंच गए.

किसी को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था और रहीसही कसर अनिल ने गुस्से में चीखते हुए पूरी कर ली. वह कह रहा था, ‘‘कोई सोच भी नहीं सकता कि क्याक्या

खेल खेले हैं तूने, बेशर्म, लालची औरत, अपनी बेटी को भी धोखा दिया है तू ने, अपने दामाद

को भी नहीं छोड़ा तू ने, इतने दिनों से मु झे फंसा रखा था.’’

कोमल को लग रहा था उस के कान के परदे फट जाएंगे. अनिल और सुधीर की आपस की लड़ाई और मोहिनी के बारे में कहे जा रहे सस्ते शब्दों को सुन कर सारी बात उस के सामने साफ हो गई, मारपिटाई बढ़ती देख इतने में किसी पड़ोसी ने पुलिस को खबर कर दी. पुलिस ने आ कर अनिल, सुधीर को जीप में बैठने के लिए कहा. सुधीर ने बड़ी मुश्किल से कपड़े पहनने

की इजाजत मांगी, पुलिस के सिपाही ने अनिल को कौलर पकड़ कर बाहर की तरफ चलने का इशारा किया.

अनिल जातेजाते मोहिनी को गालियां देता रहा. सुधीर भी जाते हुए चिल्ला

रहा था, ‘‘तू वेश्या से भी बदतर है, थू है तु झ पर, गिरी हुई औरत है तू.’’

पड़ोसी भी 1-1 कर कोमल के कंधे पर सांत्वना का हाथ रख कर चले गए, खड़ी रह गई कोमल ने जलती हुई, नफरत भरी आंखों से मोहिनी को देखा और फुफकार उठी, ‘‘आज आप ने मेरा हर रिश्ते से विश्वास उठा दिया. आज से आप का और मेरा कोई रिश्ता नहीं, कभी मेरे सामने मत आना,’’ कह कर कोमल चली गई.

अब मोहिनी शर्मिंदगी और पछतावे में डूब कर घुटनों पर सिर रख कर फूटफूट कर रो रही थी, अपने रूप और यौवन का सहारा ले कर, वासना और लालच का खेलखेल कर

2 पुरुषों से अनैतिक संबंध रख कर उन से फायदा उठाने चली थी… अब बेटी और समाज की नजरों में हमेशा के लिए गिर गई थी… यह तो होना ही था.

मेघमल्हार: भाग 1- अभय की शादीशुदा जिंदगी में किसने मचाई खलबली

उस का नाम मेघा न हो कर मल्हार होता तो शायद मेरे जीवन में बादलों की गड़गड़ाहट के बजाय मेघमल्हार की मधुर तरंगें हिलोरें ले रही होतीं. परंतु ऐसा नहीं हुआ था. वह काले घने मेघों की तरह मेरे जीवन में आई थी और कुछ ही पलों में अपनी गड़गड़ाहट से मुझे डराती और मेरे मन के उजालों को निगलती हुई अचानक चली गई.

मेघा मेरे जीवन में तब आई जब मैं अधेड़ावस्था की ओर अग्रसर हो रहा था. मेरी और उस की उम्र में कोई बहुत ज्यादा अंतर नहीं था. मैं 30 के पार था और वह 20-22 के बीच की निहायत खूबसूरत लड़की. वह कुंआरी थी और मैं एक शादीशुदा व्यक्ति. उस से लगभग 10 साल बड़ा, परंतु उस ने मेरी उम्र नहीं, मुझ से प्यार किया था और मुझे इस बात का गर्व था कि एक कमसिन लड़की मेरे प्यार में गिरफ्तार है और वह दिलोजान से मुझ से प्यार करती है और मैं भी उसे उसी शिद्दत से प्यार करता हूं.

मेरे साथ रहते हुए उस ने मुझ से कभी कुछ नहीं मांगा. मैं ही अपनी तरफ से उसे कभी कपड़े, कभी कौस्मैटिक्स या ऐसी ही रोजमर्रा की जरूरत की चीजें खरीद कर दे दिया करता था. हां, रेस्तरां में जा कर पिज्जा, बर्गर खाने का उसे बहुत शौक था. मैं अकसर उसे मैक्डोनल्ड्स या डोमिनोज में ले जाया करता था. उसे मेरे साथ बाहर जानेआने में कोई संकोच नहीं होता था. उस के व्यवहार में एक खिलंदरापन होता था. बाहर भी वह मुझे अपना हमउम्र ही समझती थी और उसी तरह का व्यवहार करती थी. भीड़ के बीच में कभीकभी मुझे लज्जा का अनुभव होता, परंतु उसे कभी नहीं. ग्लानि या लज्जा नाम के शब्द उस के जीवन से गायब थे.

वह असम की रहने वाली थी और अपने मांबाप से दूर मेरे शहर में पढ़ाई के लिए आई थी. होस्टल में न रह कर वह किराए का मकान तलाश कर रही थी और इसी सिलसिले में वह मेरे मकान पर आई थी. अपने घर में मैं अपनी पत्नी और एक छोटे बच्चे के साथ रहता था. उसे किराए पर एक कमरे की आवश्यकता थी. हमारा अपना मकान था, परंतु हम ने कभी किराएदार रखने के बारे में नहीं सोचा था. हमें किराएदार की आवश्यकता भी नहीं थी, परंतु मेघा इतनी प्यारी और मीठीमीठी बातें करने वाली लड़की थी कि कुछ ही पलों में उस ने मेरी पत्नी को मोहित कर लिया और न न करते हुए भी हम ने उसे एक कमरा किराए पर देने के लिए हां कर दी. वह मेरे घर में पेइंगगेस्ट की हैसियत से रहने लगी. एक घर में रहते हुए हमारी बातें होतीं, कभी एकांत में, कभी सब के सामने और पता नहीं वह कौन सा क्षण था, जब उस की भोली सूरत मेरे दिल में समा गई और उस की मीठी बातोें में मुझे रस आने लगा. मैं उस के इर्दगिर्द एक मवाली लड़के की तरह मंडराने लगा. पत्नी को तो आभास नहीं हुआ, परंतु वह मेरे मनोभावों को ताड़ गई कि मैं उसे किस नजर से देख रहा था.

यह सच भी है कि लड़कियां पुरुषों के मनोभाव को बहुत जल्दी पहचान जाती हैं. उस ने एक दिन बेबाकी से पूछा, ‘‘आप मुझे पसंद करते हैं?’’

‘‘हां, क्यों नहीं, तुम एक बहुत प्यारी लड़की हो,’’ मैं ने बिना किसी हिचक के कहा.

‘‘तुम एक पुरुष की दृष्टि से मुझे पसंद करते हो न?’’ उस ने जोर दे कर पूछा.

मैं सकपका गया. उस की आंखों में तेज था. मैं न नहीं कह सका. मेरे मुंह से निकला, ‘‘हां, मैं तुम्हें प्यार करता हूं,’’ मैं सच को कहां तक छिपा सकता था.

‘‘आप का घर बिखर जाएगा,’’ उस ने मुझे सचेत किया. मैं चुप रह गया. वह सच कह रही थी. परंतु प्यार अंधा होता है. मैं उस के प्रति अपने झुकाव को रोक नहीं सका. वह भी अपने को रोकना नहीं चाहती थी. उस के अंदर आग थी और वह उसे बुझाना चाहती थी. वह मुझ से प्यार न करती तो किसी और से कर लेती. लड़कियां जब घर से बाहर कदम रखती हैं तो उन के लिए लड़कों की कोई कमी नहीं होती.

हम दोनों जल्द ही एक अनैतिक संबंध में बंध गए. हमें इस बात की भी कोई परवा नहीं थी कि हम एक ही घर में रह रहे थे, जहां मेरी पत्नी और एक छोटा बच्चा था, परंतु हम सावधानी बरतते थे और अकसर एकांत में मिलने के अवसर ढूंढ़ निकालते थे.

एक दिन वह बोली, ‘‘अभय,’’ अकेले में वह मुझे मेरे नाम से ही बुलाती थी, ‘‘हमारे संबंध ज्यादा दिनों तक किसी की नजरों से छिपे नहीं रह सकते हैं.’’

‘‘तब…?’’ मैं ने इस तरह पूछा जैसे समस्या का उस के पास समाधान था.

‘‘मुझे आप का घर छोड़ना पड़ेगा,’’ उस ने बिना हिचक के कहा.

‘‘तुम मुझे छोड़ कर चली जाओगी?’’ मैं आश्चर्यचकित रह गया.

‘‘नहीं, मैं केवल आप का घर छोड़ूंगी, आप को नहीं… मुझे आप दूसरा घर किराए पर दिलवा दो. हम लोग वहीं मिला करेंगे. हफ्ते में 1 या 2 बार… आपस में सलाह कर के.’’

‘‘मैं शायद इतनी दूरी बरदाश्त न कर सकूं,’’ मेरे दिल के ऊपर जैसे किसी ने एक भारी पत्थर रख दिया था. हवा जैसे थम सी गई थी. सांस रुकने लगी थी. प्यार में ऐसा क्यों होता है कि जब हम मिलते हैं तो हर चीज आसान लगती है और जब बिछड़ते हैं तो हर चीज बेगानी हो जाती है. समय भारी लगने लगता है.

उस का स्वर सधा हुआ था, ‘‘अगर आप चाहते हैं कि हमारे संबंध इसी तरह बरकरार रहें तो इतनी दूरी हमें बरदाश्त करनी ही पड़ेगी. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’

वह अपने इरादे पर दृढ़ थी और मैं उस के सामने पिटा हुआ मोहरा…पत्नी को उस ने उलटीसीधी बातों से मना लिया और वह इस प्रकार अपने कालेज के पास एक नए घर में रहने के लिए आ गई. मैं ने अपना परिचय वहां उस के स्थानीय गार्जियन के तौर पर दिया था. इस प्रकार मुझे उस के घर आनेजाने में कोई दिक्कत पेश नहीं आती थी. किसी को शक भी नहीं होता था.

परंतु अलग घर में रहने के कारण मैं मेघा से रोज नहीं मिल पाता था. औफिस की व्यस्तताएं अलग थीं. फिर घर की जिम्मेदारियां थीं. मैं दोनों से विमुख नहीं होना चाहता था, परंतु मेघा का आकर्षण अलग था. मैं उस के हालचाल जानने के बहाने छुट्टी में उस से मिलने चला जाता था. परंतु हर रविवार जाने से पत्नी को शक भी हो सकता था. कई बार तो वह भी साथ चलने को तैयार हो जाती थी. एकाध बार उसे ले कर भी जाना पड़ा था. तब मैं मन मसोस कर रह जाता था.

Father’s Day 2023: परीक्षाफल- क्या चिन्मय ने पूरा किया पिता का सपना

जैसे किसान अपने हरेभरे लहलहाते खेत को देख कर गद्गद हो उठता है उसी प्रकार रत्ना और मानव अपने इकलौते बेटे चिन्मय को देख कर भावविभोर हो उठते थे.

चिन्मय की स्थिति यह थी कि परीक्षा में उस की उत्तर पुस्तिकाओं में एक भी नंबर काटने के लिए उस के परीक्षकों को एड़ीचोटी का जोर लगाना पड़ता था. यही नहीं, राज्य स्तर और राष्ट्रीय स्तर की अन्य प्रतिभाखोज परीक्षाओं में भी उस का स्थान सब से ऊपर होता था.

इस तरह की योग्यताओं के साथ जब छोटी कक्षाओं की सीढि़यां चढ़ते हुए चिन्मय 10वीं कक्षा में पहुंचा तो रत्ना और मानव की अभिलाषाओं को भी पंख लग गए. अब उन्हें चिन्मय के कक्षा में प्रथम आने भर से भला कहां संतोष होने वाला था. वे तो सोतेजागते, उठतेबैठते केवल एक ही स्वप्न देखते थे कि उन का चिन्मय पूरे देश में प्रथम आया है. कैमरों के दूधिया प्रकाश में नहाते चिन्मय को देख कर कई बार रत्ना की नींद टूट जाती थी. मानव ने तो ऐसे अवसर पर बोलने के लिए कुछ पंक्तियां भी लिख रखी थीं. रत्ना और मानव उस अद्भुत क्षण की कल्पना कर आनंद सागर में गोते लगाते रहते.

चिन्मय को अपने मातापिता का व्यवहार ठीक से समझ में नहीं आता था. फिर भी वह अपनी सामर्थ्य के अनुसार उन्हें प्रसन्न रखने की कोशिश करता रहता. पर तिमाही परीक्षा में जब चिन्मय के हर विषय में 2-3 नंबर कम आए तो मातापिता दोनों चौकन्ने हो उठे.

‘‘यह क्या किया तुम ने? अंगरेजी में केवल 96 आए हैं? गणित में भी 98? हर विषय में 2-3 नंबर कम हैं,’’ मानव चिन्मय के अंक देखते ही चीखे तो रत्ना दौड़ी चली आई.

‘‘क्या हुआ जी?’’

‘‘होना क्या है? हर विषय में तुम्हारा लाड़ला अंक गंवा कर आया है,’’ मानव ने रिपोर्ट कार्ड रत्ना को थमा दिया.

‘‘मम्मी, मेरे हर विषय में सब से अधिक अंक हैं, फिर भी पापा शोर मचा रहे हैं. मेरे अंगरेजी के अध्यापक कह रहे थे कि उन्होंने 10वीं में आज तक किसी को इतने नंबर नहीं दिए.’’

‘‘उन के कहने से क्या होता है? आजकल बच्चों के अंगरेजी में भी शतप्रतिशत नंबर आते हैं. चलो, अंगरेजी छोड़ो, गणित में 2 नंबर कैसे गंवाए?’’

‘‘मुझे नहीं पता कैसे गंवाए ये अंक, मैं तो दिनरात अंक, पढ़ाई सुनसुन कर परेशान हो गया हूं. अपने मित्रों के साथ मैं पार्क में क्रिकेट खेलने जा रहा हूं,’’ अचानक चिन्मय तीखे स्वर में बोला और बैट उठा कर नौदो ग्यारह हो गया.

मानव कुछ देर तक हतप्रभ से बैठे शून्य में ताकते रह गए. चिन्मय ने इस से पहले कभी पलट कर उन्हें जवाब नहीं दिया था. रत्ना भी बैट ले कर बाहर दौड़ कर जाते हुए चिन्मय को देखती रह गई थी.

‘‘मानव, मुझे लगता है कि कहीं हम चिन्मय पर अनुचित दबाव तो नहीं डाल रहे हैं? सच कहूं तो 96 प्रतिशत अंक भी बुरे नहीं हैं. मेरे तो कभी इतने अंक नहीं आए.’’

‘‘वाह, क्या तुलना की है,’’ मानव बोले, ‘‘तुम्हारे इतने अंक नहीं आए तभी तो तुम घर में बैठ कर चूल्हा फूंक रही हो. वैसे भी इन बातों का क्या मतलब है? मेरे भी कभी 80 प्रतिशत से अधिक अंक नहीं आए, पर वह समय अलग था, परिस्थितियां भिन्न थीं. मैं चाहता हूं कि जो मैं नहीं कर सका वह मेरा बेटा कर दिखाए,’’ मानव ने बात स्पष्ट की.

उधर रत्ना मुंह फुलाए बैठी थी. मानव की बातें उस तक पहुंच कर भी नहीं पहुंच रही थीं.

‘‘अब हमें कुछ ऐसा करना है जिस से चिन्मय का स्तर गिरने न पाए,’’ मानव बहुत जोश में आ गए थे.

‘‘हमें नहीं, केवल तुम्हें करना है, मैं क्या जानूं यह सब? मैं तो बस, चूल्हा फूंकने के लायक हूं,’’ रत्ना रूखे स्वर में बोली.

‘‘ओफ, रत्ना, अब बस भी करो. मेरा वह मतलब नहीं था, और चूल्हा फूंकना क्या साधारण काम है? तुम भोजन न पकाओ तो हम सब भूखे मर जाएं.’’

‘‘ठीक है, बताओ क्या करना है?’’ रत्ना अनमने स्वर में बोली थी.

‘‘मैं सोचता हूं कि हर विषय के लिए एकएक अध्यापक नियुक्त कर दूं जो घर आ कर चिन्मय को पढ़ा सकें. अब हम पूरी तरह से स्कूल पर निर्भर नहीं रह सकते.’’

‘‘क्या कह रहे हो? चिन्मय कभी इस के लिए तैयार नहीं होगा.’’

‘‘चिन्मय क्या जाने अपना भला- बुरा? उस के लिए क्या अच्छा है क्या नहीं, यह निर्णय तो हमें ही करना होगा.’’

‘‘पर इस में तो बड़ा खर्च आएगा.’’

‘‘कोई बात नहीं. हमें रुपएपैसे की नहीं चिन्मय के भविष्य की चिंता करनी है.’’

‘‘जैसा आप ठीक समझें,’’ रत्ना ने हथियार डाल दिए पर चिन्मय ने मानव की योजना सुनी तो घर सिर पर उठा लिया था.

‘‘मुझे किसी विषय में कोई ट्यूशन नहीं चाहिए. मैं 5 अध्यापकों से ट्यूशन पढ़ूंगा तो अपनी पढ़ाई कब करूंगा?’’ उस ने हैरानपरेशान स्वर में पूछा.

‘‘5 नहीं केवल 2. पहला अध्यापक गणित और विज्ञान के लिए होगा और दूसरा अन्य विषयों के लिए,’’ मानव का उत्तर था.

‘‘प्लीज, पापा, मुझे अपने ढंग से परीक्षा की तैयारी करने दीजिए. मेरे मित्रों को जब पता चलेगा कि मुझे 2 अध्यापक घर में पढ़ाने आते हैं तो मेरा उपहास करेंगे. मैं क्या बुद्धू हूं?’’ यह कह कर चिन्मय रो पड़ा था.

पर मानव को न मानना था, न वह माने. थोड़े विरोध के बाद चिन्मय ने इसे अपनी नियति मान कर स्वीकार लिया. स्कूल और ट्यूशन से निबटता चिन्मय अकसर मेज पर ही सिर रख सो जाता.

मानव और रत्ना ने उस के खानेपीने पर भी रोक लगा रखी थी. चिन्मय की पसंद की आइसक्रीम और मिठाइयां तो घर में आनी ही बंद थीं.

समय पंख लगा कर उड़ता रहा और परीक्षा कब सिर पर आ खड़ी हुई, पता ही नहीं चला.

परीक्षा के दिन चिन्मय परीक्षा केंद्र पहुंचा. मित्रों को देखते ही उस के चेहरे पर अनोखी चमक आ गई, पर रत्ना और मानव का बुरा हाल था मानो परीक्षा चिन्मय को नहीं उन्हें ही देनी हो.

परीक्षा समाप्त हुई तो चिन्मय ही नहीं रत्ना और मानव ने भी चैन की सांस ली. अब तो केवल परीक्षाफल की प्रतीक्षा थी.

मानव, रत्ना और चिन्मय हर साल घूमने और छुट्टियां मनाने का कार्यक्रम बनाते थे पर इस वर्ष तो अलग ही बात थी. वे नहीं चाहते थे कि परीक्षाफल आने पर वाहवाही से वंचित रह जाएं.

धु्रव पब्लिक स्कूल की परंपरा के अनुसार परीक्षाफल मिलने का समाचार मिलते ही रत्ना और मानव चिन्मय को साथ ले कर विद्यालय जा पहुंचे थे. उन की उत्सुकता अब अपने चरम पर थी. दिल की धड़कन बढ़ी हुई थी. विद्यालय के मैदान में मेला सा लगा था. कहीं किसी दिशा में फुसफुसाहट होती तो लगता परीक्षाफल आ गया है. कुछ ही देर में प्रधानाचार्या ने इशारे से रत्ना को अंदर आने को कहा तो रत्ना हर्ष से फूली न समाई. इतने अभिभावकों के बीच से केवल उसे ही बुलाने का क्या अर्थ हो सकता है, सिवा इस के कि चिन्मय सदा की तरह प्रथम आया है. वह तो केवल यह जानना चाहती थी कि वह देश में पहले स्थान पर है या नहीं.

उफ, ये मानव भी ऐन वक्त पर चिन्मय को ले कर न जाने कहां चले गए. यही तो समय है जिस की उन्हें प्रतीक्षा थी. रत्ना ने दूर तक दृष्टि दौड़ाई पर मानव और चिन्मय कहीं नजर नहीं आए. रत्ना अकेली ही प्रधानाचार्या के कक्ष में चली गई.

‘‘देखिए रत्नाजी, परीक्षाफल आ गया है. हमारी लिपिक आशा ने इंटरनेट पर देख लिया है, पर बाहर नोटिसबोर्ड पर लगाने में अभी थोड़ा समय लगेगा,’’ प्रधानाचार्या ने बताया.

‘‘आप नोटिसबोर्ड पर कभी भी लगाइए, मुझे तो बस, मेरे चिन्मय के बारे में बता दीजिए.’’

‘‘इसीलिए तो आप को बुलाया है. चिन्मय के परीक्षाफल से मुझे बड़ी निराशा हुई है.’’

‘‘क्या कह रही हैं आप?’’

‘‘मैं ठीक कह रही हूं, रत्नाजी. कहां तो हम चिन्मय के देश भर में प्रथम आने की उम्मीद लगाए बैठे थे और कहां वह विद्यालय में भी प्रथम नहीं आया. वह स्कूल में चौथे स्थान पर है.’’

‘‘मैं नहीं मानती, ऐसा नहीं हो सकता,’’ रत्ना रोंआसी हो कर बोली थी.

‘‘कुछ बुरा नहीं किया है चिन्मय ने, 94 प्रतिशत अंक हैं. किंतु…’’

‘‘अब किंतुपरंतु में क्या रखा है?’’ रत्ना उदास स्वर में बोली और पलट कर देखा तो मानव पीछे खड़े सब सुन रहे थे.

‘‘चिन्मय कहां है?’’ तभी रत्ना चीखी थी.

‘‘कहां है का क्या मतलब है? वह तो मुझ से यह कह कर घर की चाबी ले गया था कि मम्मी ने मंगाई है,’’ मानव बोले.

‘‘क्या? उस ने मांगी और आप ने दे दी?’’ पूछते हुए रत्ना बिलखने लगी थी.

‘‘इस में इतना घबराने और रोने जैसा क्या है, रत्ना? चलो, घर चलते हैं. चाबी ले कर चिन्मय घर ही तो गया होगा,’’ मानव रत्ना के साथ अपने घर की ओर लपके थे. वहां से जाते समय रत्ना ने किसी को यह कहते सुना कि पंकज इस बार विद्यालय में प्रथम आया है और उसी ने चिन्मय को परीक्षाफल के बारे में बताया था, जिसे सुनते ही वह तीर की तरह बाहर निकल गया था.

विद्यालय से घर तक पहुंचने में रत्ना को 5 मिनट लगे थे पर लिफ्ट में अपने फ्लैट की ओर जाते हुए रत्ना को लगा मानो कई युग बीत गए हों.

दरवाजे की घंटी का स्विच दबा कर रत्ना खड़ी रही, पर अंदर से कोई उत्तर नहीं आया.

‘‘पता नहीं क्या बात है…इतनी देर तक घंटी बजने के बाद भी अंदर से कोई आवाज नहीं आ रही है मानव, कहीं चिन्मय ने कुछ कर न लिया हो,’’ रत्ना बदहवास हो उठी थी.

‘‘धीरज रखो, रत्ना,’’ मानव ने रत्ना को धैर्य धारण करने को कहा पर घबराहट में उस के हाथपैर फूल गए थे. तब तक वहां आसपास के फ्लैटों में रहने वालों की भीड़ जमा हो गई थी.

कोई दूसरी राह न देख कर किसी पड़ोसी ने पुलिस को फोन कर दिया. पुलिस अपने साथ फायर ब्रिगेड भी ले आई थी.

बालकनी में सीढ़ी लगा कर खिड़की के रास्ते फायरमैन ने चिन्मय के कमरे में प्रवेश किया तो वह गहरी नींद में सो रहा था. फायरमैन ने अंदर से मुख्यद्वार खोला तो हैरानपरेशान रत्ना ने झिंझोड़कर चिन्मय को जगाया.

‘‘क्या हुआ, बेटा? तू ठीक तो है?’’ रत्ना ने प्रेम से उस के सिर पर हाथ फेरा था.

‘‘मैं ठीक हूं, मम्मी, पर यह सब क्या है?’’ उस ने बालकनी से झांकती सीढ़ी और वहां जमा भीड़ की ओर इशारा किया.

‘‘हमें परेशान कर के तुम खुद चैन की नींद सो रहे थे और अब पूछ रहे हो यह सब क्या है?’’ मानव कुछ नाराज स्वर में बोले थे.

‘‘सौरी पापा, मैं आप की अपेक्षाओं की कसौटी पर खरा नहीं उतर सका.’’

‘‘ऐसा नहीं कहते बेटे, हमें तुम पर गर्व है,’’ रत्ना ने उसे गले से लगा लिया था. मानव की आंखों में भी आंसू झिलमिला रहे थे. कैसा जनून था वह, जिस की चपेट में वे चिन्मय को शायद खो ही बैठते. मानव को लग रहा था कि जीवन कुछ अंकों से नहीं मापा जा सकता, इस का विस्तार तो असीम, अनंत है. उन्मुक्त गगन की सीमा क्या केवल एक परीक्षा की मोहताज है?

Father’s day Special: बाप बड़ा न भैया

उस दिन डाक में एक सुनहरे, रुपहले,  खूबसूरत कार्ड को देख कर उत्सुकता हुई. झट खोला, सरसरी निगाहों से देखा. यज्ञोपवीत का कार्ड था. भेजने वाले का नाम पढ़ते ही एक झनझनाहट सी हुई पूरे शरीर में.

ऐसी बात नहीं थी कि पुनदेव का नाम पढ़ कर मुझे कोई दुख हुआ, बल्कि सच तो यह था कि मुझे उस व्यवस्था पर, उस सामाजिक परिवेश पर रोना आया.

पुनदेव का तकिया कलाम था ‘दरबे से सरबा जे चहबे से करबा’ तब मुझे उस की यह स्वरचित पंक्तियां बेवकूफी भरी लगती थीं पर अब उस कार्ड को देख कर लग रहा था, शायद वही सही सोचता था और हमारी इस व्यवस्था को बेहतर जानता था.

कार्ड को फिर पढ़ा. लिखा था, ‘‘डाक्टर पुनदेव (एम.ए. पीएच.डी.) प्राचार्य, रामयश महाविद्यालय, हीरापुर, आप को सपरिवार निमंत्रित करते हैं, अपने तृतीय पुत्र के यज्ञोपवीत संस्कार के अवसर पर…’’

मेरी आंखें कार्ड पर थीं, पर मन बरसों पीछे दौड़ रहा था.

पुनदेव 5वीं बार 10वीं कक्षा में फेल हो गया था. उस के परिवार में अब तक किसी ने 7वीं पास नहीं की थी, पुनदेव क्या खा कर 10वीं करता. सारे गांव में जंगल की आग की तरह यही चर्चा फैली हुई थी. जिस केजो जी में आता, कहता और आगे बढ़ जाता.

एक वाचाल किस्मके अधेड़ व्यक्ति ने व्यंग्य कसते हुए कहा, ‘लक्ष्मी उल्लू की सवारी करेगी. पुनदेव के खानदान में सभी लोग उल्लू हैं.’

पर रामयश (पुनदेव के पिता) उन लोगों में से थे जो यह मान कर चलते थे कि इस दुनिया में लक्ष्मी की कृपा से सब काला सफेद हो सकता है. वह काले को सफेद करने की उधेड़बुन में लगे थे.

तब तक उन के दरबारी आ गए और लगे राग दरबारी अलापने. कोई स्कूल के शिक्षकों को लानत भेजता तो कोई गांव के उन परिवारों को गालियां देने लगता, जो पढ़ेलिखे थे और बकौल दरबारियों के पुनदेव के फेल हो जाने से बेहद प्रसन्न थे. रामयश चतुर सेनापति थे. वह अपने उन चमचों को बखूबी पहचानते थे, पर उस समय उन की बातों का उत्तर देना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा.

थोड़ी देर हाजिरी लगा कर वे पालतू मानव अपनीअपनी मांदों में चले गए तो रामयश ने अपने एक खास आदमी को बुलावा भेजा.

विक्रमजी शहर का रहने वाला था. रामयश को बड़ेबड़े सत्ताधारियों तक पहुंचाने वाली सीढ़ी का काम वही करता था. उसे आया देख कर उन्होंने गहन गंभीर आवाज में कहा, ‘विक्रमजी, आप ने तो सुना ही होगा कि पुनदेव इस बार भी फेल हो गया, स्कूल बदलतेबदलते मेरी फजीहत भी हुई और हाथ लगे ढाक के वही तीन पात. पर मैं हार मानने वाले खिलाडि़यों में से नहीं हूं. धरतीआकाश एक कर दीजिए. कर्मकुकर्म कुछ भी कीजिए, पर मेरे कुल पर काला अक्षर भैंस बराबर का जो ठप्पा लगा है, उसे पुनदेव के जरिए दूर कीजिए. इस बार मैं उसे पास देखना चाहता हूं. मैं इन दो टके के मास्टरों के पास गिड़गिड़ाने नहीं जाऊंगा. पता नहीं, ये लोग अपनेआप को जाने क्या समझते हैं.’

विक्रम ने कुछ दिन बाद लौट कर कहा, ‘रामयशजी, सारा बंदोबस्त हो गया. गंगा के उस पार के हाईस्कूल में प्रधानाध्यापक से बात हो गई है. 10 हजार रुपए ले कर वह पुनदेव को पास कराने की गारंटी ले लेगा. पुनदेव को अपने कमरे में बैठा कर परचे हल करा देगा. बस, समझ लीजिए पुनदेव पास हो गया?’

रामयश गद्गद हो गए और कहा,

‘मुझे भी इतनी देर से अक्ल आई, विक्रमजी. पहले आप से कहा होता तो अब तक मेरा बेटा कालिज में होता.’

सचमुच ही पुनदेव पास हो गया. अब यह अलग बात थी कि वह इतने बड़े अश्वमेध के पश्चात दूसरी श्रेणी में ही पास हुआ था. पर जहां लोग एकएक बूंद को तरस रहे हों वहां लोटा भर पानी मिल गया देख रामयश का परिवार फूला न समा रहा था. उस सफलता की खुशी में गांव वालों को कच्चापक्का भोज मिला. रात्रि में नाचगाने की व्यवस्था थी. नाच देखने वालों के लिए बीड़ी, तंबाकू, गांजा, भांग, ताड़ी और देसी दारू तक की मुफ्त व्यवस्था थी. लग रहा था कि रामयश खुशी के मारे बौरा गए हों.

उन की पत्नी भी खुशी के इजहार में अपने पति महोदय से पीछे नहीं थीं. रिश्तेनाते की औरतों को बुला कर तेलसिंदूर दिया. सामूहिक गायन कराया. पंडित को धोतीकुरता, टोपीगंजी और गमछा दे कर 5 रु पए बिवाई फटे पैरों पर चढ़ा कर मस्तक नवाया. बेचारे पंडितजी सोच रहे थे कि यजमानिन का एक बेटा हर साल पास होता रहता तो कपडे़लत्ते की चिंता छूट जाती. नौकरों में अन्नवस्त्र वितरित किए गए.

शहर के सब से अच्छे कालिज में पुनदेव का दाखिला हुआ. छात्रावास में रहना पुनदेव ने जाने किन कारणों से गैरमुनासिब समझा. शुरू में किराए का एक अच्छा सा मकान उस के लिए लिया गया. कालिज जाने के लिए एक नई चमचमाती मोटरसाइकिल पिता की ओर से उपहारस्वरूप मिली. खाना बनाने के लिए एक बूढ़ा रसोइया तथा सफाई और तेल मालिश के लिए एक अलग नौकर रखा गया. कुल मिला कर नजारा ऐसा लगता था जैसे 20 वर्षीय पुनदेव शहर में डाक्टरी या वकालत की प्रैक्टिस करने आया हो.

10वीं कक्षा 6 बार में पास करने वाले पुनदेव के लिए उस की उम्र कुछ मानों में वरदान साबित हुई. कक्षा में पढ़ने वाले कम उम्र के छात्र स्वत: ही उसे अपना बौस मानने लगे. जी खोल कर खर्च करने के लिए उस के पास पैसों की कमी नहीं थी. लिहाजा, कालिज में उस के चमचों की संख्या भी तेजी से बढ़ी. अपने उन साथियों को वह मोटरसाइकिल पर बैठा कर सिनेमा ले जाता, रेस्तरां में उम्दा किस्म का खाना खिलाता. प्रथम वर्ष के पुनदेव के कालिज पहुंचने पर जैसी गहमागहमी होती, वैसी प्राचार्य के आने पर भी नहीं होती.

तिमाही परीक्षा के कुछ रोज पहले पुनदेव ने मुझे बुलाया और बडे़ प्यार से गले लगाता हुआ बोला, ‘यार, तुम तो अपने ही हो, पर परायों की तरह अलगअलग रहते हो. इतना बड़ा मकान है साथ ही रहा करो न. कुछ मेरी भी मदद हो जाएगी पढ़ाईलिखाई में.’

मैं ने कहा, ‘नहीं भाई, मेरे लिए छात्रावास ही ठीक है. तुम नाहक ही इस झमेले में पड़े हो. कालिज की पढ़ाई हंसीठट्ठा नहीं है, कैसे पार लगाओगे?’

पुनदेव ने हंस कर एक धौल मेरी पीठ पर जमाया और कहा, ‘‘दरबे से सरबा जे चहबे से करबा.’’

मैं ने कहा, ‘नहीं भाई, पैसा सब कुछ नहीं है.’

पुनदेव ने एक अर्थपूर्ण मुसकराहट बिखेरी. कुछ देर और इधरउधर की बातें कर के मैं वापस आ गया.

छात्रावास के संरक्षक प्रो. श्याम ने जब मुझे यह सूचना दी कि दर्शन शास्त्र विभागाध्यक्ष प्रो. मनोहर अपनी खूबसूरत, कोमल, सुशील कन्या की शादी पुनदेव से करने जा रहे हैं तो वाकई मुझे दुख हुआ. केवल दुख ही नहीं, क्रोध, घृणा और लज्जा की मिलीजुली अनुभूतियां हुईं. सारा कालिज जानता था कि पुनदेव ‘गजेटियर मैट्रिक’ है. संधि और समास भी कोई उस से पूछ ले तो क्या मजाल वह एक वाक्य बता दे. उस के पास जितने सूट थे, उतने वाक्यों का वह अंगरेजी में अनुवाद भी नहीं जानता था. वैसे उस से अपनी बेटी की शादी कर के प्रो. मनोहर दर्शनशास्त्र के किस सूत्र की व्याख्या कर रहे थे? क्या गुण देखा था उन्होंने? जी चाहा घृणा से थूक दूं उन के नाम पर, जो अपने को ज्ञानी कहते थे, पर उल्लू से हंसिनी की शादी रचाने जा रहे थे.

‘तुम क्या सोचने लगे?’ जब प्रोफेसर श्याम का यह वाक्य कानों में पड़ा तो मेरी तंद्रा भंग हुई.

मैं ने कहा, ‘कुछ नहीं, सर.’

वह हंस कर बोले, ‘‘मैं सब समझता हूं, तुम क्या सोच रहे हो? मैं ने ही नहीं, बहुत प्रोफेसरों ने मना किया, पर मनोहरजी का कहना है, ‘लड़के के पास सबकुछ है, विद्या के सिवा और विद्या केसिवा मेरे पास कुछ नहीं है. सबकुछ का ‘कुछ’ के साथ संयोग सस्ता, सुंदर और टिकाऊ होगा.’ अब तुम बताओ, हम लोग इस में क्या कर सकते हैं…उन की बेटी उन की मरजी.’’

 

शादी बड़ी धूमधाम से हुई. रामयश हाथ जोड़े, सिर झुकाए प्रो. मनोहर के सामने खड़े थे. विदाई के समय आमतौर पर जैसे कन्या पक्ष विनम्रता और सज्जनता में लिपटा अश्रुपूरित नेत्रों से देखता है, वैसे उस विवाह में वर पक्ष खड़ा था. खड़ा भी क्यों नहीं रहता, जिस घर में किसी ने इस से पूर्व हाईस्कूल नहीं देखा था, यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर उस घर का समधी हो गया था. सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता में ‘हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झांसी में…’ पढ़ा था. पर विद्या की मूर्खता के साथ शादी पहली बार देख रहा था. प्रो. मनोहर की पत्नी ससुराल से आए बेटी के गहने, कपड़े देखदेख कर मारे हर्ष के पागल सी हो गई थीं.

विवाहोपरांत रामयश ने एक बंगलानुमा मकान खरीद लिया था. पुनदेव अब नए मकान में सपत्नीक रहता था, एकदो और नौकरचाकरों को ले कर. छात्र जीवन का गृहस्थाश्रम के साथ इतना सुंदर समन्वय अन्यत्र कहां देखने को मिलता.

एक रोज प्रो. श्याम की पत्नी को ले कर प्रो. मनोहर की धर्मपत्नी अपने जामाता के घर गईं. बेटी का वैभव देख कर इतनी प्रसन्न हुईं कि बोल पड़ीं, ‘सारी जिंदगी प्रोफेसरी की, पर ऐसा गहनाकपड़ा, इतने नौकरचाकर हम ने सपने में भी नहीं देखे, बड़ा अच्छा रिश्ता खोजा है, नीलम के बाबूजी ने नीलम के लिए.’

छात्रावास में प्रो. श्याम की पत्नी के माध्यम से यह बात सभी लड़कों के लिए एक चुटकुला बन गई थी.

परीक्षा के दिन निकट आते गए. सभी लड़के अपनेअपने कमरों में सिमटते गए, किताबों और प्रश्नोत्तरों की दुनिया में दीनदुनिया से बेखबर, पर पुनदेव की दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं आया. वह  वैसे ही मस्त था, पान की गिलौरियों और  ठंडाई के गिलासों में. हां, प्रोफेसर का जामाता बनने के बाद उस में एक तबदीली हुई थी.

अब वह उपन्यासों का रसिया हो गया था. मोटरसाइकिल की डिकी हो या तकिया, दोचार उपन्यास जरूर रखे होते. इस शौक के बारे में वह कहता, ‘मेरे ससुरजी कहते हैं कि इस से लिखने की क्षमता बढ़ती है, भाषा सुधरती है और परीक्षा में कम से कम, लिखना तो मुझे ही होगा.’

परीक्षा कक्ष में पुनदेव को देख कर लगा कि शायद वह बीमार हो, इसलिए अनुपस्थित है. पर उस के एक खास चमचे ने परचा खत्म होने पर कहा, ‘यार, पहुंच हो तो पुनदेव की तरह. विभागाध्यक्ष का दामाद है, पलंग पर बैठ कर परीक्षा दे रहा है. नए व्याख्याता उस के लिए प्रश्नोत्तर ले कर बैठते हैं. वह उन्हें अपनी कापी पर केवल उतार देता है. बेशक लोगों की नजरों में बीमार है पर असल में मजे लूट रहा है.’

मैं भौचक्का था इस जानकारी से.

परीक्षा खत्म होने पर सभी इधरउधर चले गए, पर पुनदेव अपने ससुर के साथ पर्यटन करता रहा. यह तो बाद में अन्य प्रोफेसरों से पता चला कि उस की कापियां जिन लोगों के पास गई थीं, वह उन सब की चरण रज लेने और बच्चों के लिए मिठाई देने निक ला था.

परीक्षाफल निकला. मुझे अपने प्रथम श्रेणी में आने की खुशी नहीं हुई, जब मैं ने देखा कि प्रथम श्रेणी में द्वितीय स्थान पुनदेव का था.

उस समय स्नातक और आनर्स की पढ़ाई साथसाथ ही होती थी. हम ने भी स्नातक आनर्स में दाखिला ले लिया और जिंदगी की गाड़ी पहले की तरह ही अपनी रफ्तार से चलती रही. पुनदेव बी.ए में 2 जुड़वां बेटों का बाप बन कर और भी अकड़ गया था. उस ने दर्शनशास्त्र में दाखिला लिया था. अत: विभागाध्यक्ष के दामाद होने का एक लाभ यह भी मिल रहा था कि बाकी छात्रों को उपस्थिति सशरीर बनवानी पड़ती, जबकि उस का काम कक्षा में आए बिना ही चल जाता.

इसी प्रकार पुनदेव को बी.ए. आनर्स में भी जैसतैसे बड़ेबड़े पापड़ बेल कर बस, प्रथम श्रेणी मिल सकी. इस बार उसे कोई स्थान नहीं मिला था. उस की निर्लज्जता मुझे अब भी याद है, जब उस ने प्रथम, द्वितीय और तृतीय स्थान पाने वाले हम तीनों विद्यार्थियों से मुबारकबाद देते हुए कहा था, ‘तुम तीनों को मेरा शुक्रगुजार होना चाहिए कि मैं ने परीक्षकों से कहा, ‘सर, मुझे केवल प्रथम श्रेणी चाहिए, कोई विशिष्टता नहीं क्योंकि जो पढ़ाकू दोस्त हैं, उन की छात्रवृत्ति बंद हो गई तो वे मुझ से नाराज हो जाएंगे.’ और तुम लोगों की नाराजगी मुझे कतई गवारा नहीं.’

गुस्सा तो बहुत आया, पर उस से बात कौन बढ़ाता. गुस्सा पी कर हम चुप रह गए.

पुनदेव ने इधर एम.ए. में दाखिला लिया, उधर रामयश को प्रो. मनोहर की कृपा एवं रामयश के पैसों के कारण विधायक का टिकट मिल गया. चुनाव अभियान में पुनदेव और उस केखास किस्म के साथी दिनरात लगे रहते, पोस्टर छपते, परचे लिखे जाते, दूसरी पार्टी वालों के बैनर रातोंरात नोच दिए जाते, दीवारों पर लिखे चुनाव प्रचार पर कालिख पोत दी जाती. सक्रिय विरोधियों को पिटवा दिया जाता. उन की चुनाव सभाओं में पुनदेव के फेल होने वाले दोस्त हंगामा कर देते. काले झंडे लहराने लगते. ईंटरोड़े बरसाने लगते, भीड़ तितरबितर हो जाती.

मेरा खून खौल जाता. जी चाहता अकेले ही मैदान में कूद पडूं और उस की सारी कलई खोल कर रख दूं, पर मेरे मांबाप ऐसे कामों के विरोधी थे. उन्होंने जबरदस्ती मुझे वापस शहर भेज दिया और कहा, ‘तुम क्या कर लोगे अकेले? वह किसी से वोट मांगता नहीं है. साफ कहता है, ‘आप लोग बूथ पर आने का कष्ट न करें, सारे वोट शांतिपूर्वक खुद ब खुद गिर जाएंगे. आप लोगों के वहां जाने से, जाने क्या हुड़दंग हो जाए. फिर आप लोग यह न कहना कि तुम ने हमें सचेत नहीं किया.’ बेटे, इस जंगलराज में राजनीति को दूर से सलाम करो और अपना काम करो.’

एम.ए. तक आतेआते मुझ में परिपक्वता आ गई थी. मैं सोचता, ‘पुनदेव क्या करेगा ऐसी नकली डिगरी हासिल कर के. वह न बोल सकता है, न तर्क कर सकता है. बात की तह तक जाने की उस की सामर्थ्य ही नहीं है. केवल हल्ला कर सकता है, मारपीट कर सकता है.’

मुझे कभीकभी उस पर दया भी आती, ‘बेचारा पुनदेव, चोरी कर के, चापलूसी कर के पास तो हो गया, पर साक्षात्कार में क्या होगा. खेतीबाड़ी या व्यवसाय ही करना था तो इतने वर्ष स्कूलकालिज में व्यर्थ ही गंवा दिए.’ फिर मन में बैठा चोर फुसफुसाता, ‘उस का बाप विधायक है. उस के लिए हजारों रास्ते हैं, तुम अपनी फिक्र करो.’

अंतिम परचा देने के बाद मैं मोती झील पर अपने दोस्तों के साथ टहल रहा था. प्रो. श्याम थोड़ी देर पूर्व मिले थे और मेरी तथा मेरे अन्य 2 मित्रों की तारीफों के पुल बांध कर अभीअभी विदा हुए थे.

जाने किधर से कार लिए हुए पुनदेव आ गया और बड़ी गर्मजोशी से मिला. इधरउधर की बातें होती रहीं. पुनदेव की परेशानी यह थी कि इस बार कुलपति आई.ए.एस. पदाधिकारी आ गए थे और उन्होंने परीक्षा में ‘जंगलराज’ नहीं चलने दिया था. पुनदेव ने उन पर हर तरह का दबाव डलवा कर देख लिया था. भय दिखा कर, लोभ दे कर भी आजमा लिया था, पर वह टस से मस नहीं हुए थे. प्रो. मनोहर क्या करते, जब कुलपति खुद ही 2-3 बार परीक्षा हाल का चक्कर लगा जाते थे.

जब अपनी सारी परेशानी पुनदेव बयान कर चुका तो जाने क्यों मेरे मन को तसल्ली सी हुई.

‘चलो, कहीं तो तुम्हारा ‘दरबे से सरबा जे चहबे से करबा’ वाला फार्मूला गलत हुआ.’ मैं ने भड़ास निकालते हुए कहा, ‘आगे क्या इरादा है, क्योंकि जैसा तुम बतला रहे हो, उस हिसाब से तुम पास नहीं हो सकोगे. पास हो भी गए तो प्राध्यापक तो बन नहीं पाओगे.’

पुनदेव ने अपनी आंखों में लाखों वाट के बल्ब की रोशनी भर कर एक हथेली से दूसरी को जकड़ते हुए पुन: वही राग अलापा, ‘दरबे से सरबा जे चहबे से करबा.’ तुम देखते रहे हो, मैं एक बार फिर साबित कर दूंगा कि बाप बड़ा न भैया, सब से बड़ा रुपय्या.’

जाने कैसे पुनदेव की खींचखांच कर दूसरी श्रेणी आ गई. मुझे अपनी नौकरी के सिलसिले में इस शहर में आना पड़ा. बरसों बाद एक सहपाठी मोहन मिला तो उस ने बतलाया, ‘मनोहरजी की सलाह पर रामयश ने शहर में एक कालिज खोल दिया है. 20-20 हजार

रुपए दान दे कर पुनदेव किस्म के व्याख्याताओं की नियुक्तियां हुई हैं. उसी में पुनदेव भी लग गया है.’

मैं ने मुंह बना कर कहा, ‘ऐसे कालिज का क्या भविष्य है, मोहन?’

पर अब उस कार्ड को देख कर पता चल रहा था कि पुनदेव के पिता के नाम पर खोला गया वह कालिज विश्व- विद्यालय का अंगीभूत कालिज है और पुनदेव की तरह विद्या का दुश्मन विद्यार्थी उस का प्राचार्य है. पता नहीं, कैसे यह सब संभव हुआ, मैं नहीं जानता. पर उस का रटारटाया वाक्य रहरह कर मेरे कमरे की दीवारों में गूंजने लगा.

मैं दांत पीसता हुआ चीख उठा, ‘नहीं, पुनदेव, नहीं. तुम्हारा दरबे यानी द्रव्य सब कुछ नहीं है, तुम भूल जाते हो कि भौतिक सुखों के अलावा भी मन का एक जगत है, जहां व्यक्ति खुद को, खुद की कसौैटी पर ही खरा या खोटा साबित करता है. तुम्हारा मन तुम्हें धिक्कारता होगा. तुम ज्ञानपिपासु छात्रों से मुंह चुराते होगे. तुम्हें खुद पता होगा कि जिस जिम्मेदारी की कुरसी पर तुम बैठे हो, उस के काबिल तुम न थे, न हो, न होगे. यह सब संयोग था या…याद रखना अवसर या संयोग प्रकृति केशाश्वत नियम नहीं होते, बल्कि अपवाद होते हैं.’

सहसा मेरे कंधे पर स्पर्श सा हुआ और मैं चेतनावस्था में आ गया.

पत्नी ने चाय की प्याली मेरे सामने मेज पर रखते हुए कहा, ‘‘क्या अपवाद होता है?’’

मैं ने कार्ड उस के हाथों में देते हुए कहा, ‘‘14 वर्ष बाद गांव के किसी व्यक्ति ने साग्रह बुलाया है. तुम भी चलना. हजारों किलोमीटर की यात्रा करनी है, तैयारी शुरू कर दो.’’

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