मोहपाश: भाग 2- क्या बेटे के मोह से दूर रह पाई छवि

 

छवि ने जब तक बच्चा नहीं देखा, वह बेचैन रही. देखने के बाद वह आराम से सो गई. छवि ने बच्चे का नाम प्रियम रखा.

देखतेदेखते छवि की आंखों का तारा प्रियम 3 साल का हो गया. उस की मीठी बोली छवि को अतीत की कड़वाहट भूलने में मदद कर रही थी. सुखदा भी सेवानिवृत्त हो कर कलकत्ता हमेशा के लिए आ गई. सुखदा को अब, बस, छवि के विवाह की चिंता थी. पर दिल से चोट खाई छवि विवाह के लिए राजी नहीं हो रही थी. सुखदा हर सभंव प्रयास कर रही थी कि किसी तरह छवि का घर बस जाए. पर छवि के हठ के आगे वह विवश हो जाती थी. छवि, बस, काम की तलाश में रहती थी.

एक दिन देविका ने छवि को बताया, ‘कलकत्ता के एक बहुत बडे बिजनैसमैन हैं अजीत माहेश्वरी. वे करीब 40 साल के हैं. उन की पत्नी की 2 महीना पहले कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. उन की 7 साल की बेटी है. जब से मां की मौत हुई है, बच्ची बहुत जिद्दी हो गई है. वह बच्ची किसी की बात नहीं मानती. किसी एक बात की जिद करती है, तो उसी को रटती रहती है. उसे कुछ समस्या है. अभी तक जितनी गवर्नैंस रखी गईं, ठीक से देख नहीं पाई हैं. अभी उस के पास कोई नहीं है. उसी को देखने के लिए उन्हें एक अच्छी गवर्नैंस की जरूरत है. खानापीना, रहना सब फ्री. गवर्नैंस को वहीं रहना होगा, तुम यह काम करोगी?’

‘छवि कैसे कर पाएगी, दोदो बच्चों की देखभाल?’ सुखदा ने चिंता ब्यक्त की.

‘दीदी, छवि को एक कोशिश करनी चाहिए. इंटररव्यू दे कर बच्ची से मिल ले, पता चल जाएगा,’ देविका ने सुखदा को समझाया.

‘ठीक है मासी. मां, तुम चिंता मत करो, मैं कर लूंगी,’ छवि ने कहा.

देविका जब माहेश्वरी मैंशन पहुंची तब वहां एक कमरे में बिठा कर उस से कहा गया, ‘बैठिए, सर अभी आ रहे हैं.’

देविका पहली बार इंटरव्यू दे रही थी, मन में खासी घबराहट थी. तभी अजीत माहेश्वरी आ गए. गठा हुआ शरीर, सुंदर नाकनक्श, लंबा कद, घने बाल, गोरा रंग, नीले रंग का सूट, आंखों पर पतले फ्रेम का चश्मा और चेहरे पर तेज, जो उस के ब्यक्तित्व को आकर्षक बना रहे थे. छवि उन से प्रभावित हुए बिना न रह सकी. उन्हें देख दो पल देखती रही, फिर उस ने अपनी नजरें नीची कर लीं.

‘आप तो बहुत कम उम्र की हैं?’ माहेश्वरी ने कहा.

इस बात का छवि क्या उत्तर दे, वह चुप रही.

‘आप की प्रोफाइल में लिखा है आप का एक बेटा है, वह कितने साल का है?’

‘4 साल का होने जा रहा है.’

‘आप को मेरी बेटी के बारे में पता है न, इतने छोटे बच्चे को ले कर आप मेरी बेटी प्रृशा को कैसे हैंडल कर पाएंगी?’

‘जैसे एक मां अपने 2 बच्चों की देखभाल करती है.’

न जाने कैसे छवि यह कह गई. उसे अपने ही इस कहे पर आश्चर्य भी हुआ.

माहेश्वरी इस उत्तर से खुश हो गया, बोला, ‘गुड़, आई एम इम्प्रैस्ड. ठीक है, आप कल से आ सकती हैं. चलिए, मैं आप को बेबी से मिला दूं.’

‘जी नहीं, मैं आज बेबी से नहीं मिलूंगी, कल जब आऊंगी, तभी मिलूंगी.’

छवि माहेश्वरी मैंशन पहुंच जाती है. उस का कमरा प्रृशा के कमरे की बगल में है. कमरे में सुविधा के सारे सामान हैं. एक औरत जो अपना नाम सुतपा बताती है, कहती है, साहब ने मुझे आप के बेटे के साथ रहने के लिए कहा है. बगल के कमरे से लगातार एक बच्ची के चिल्लाने की आवाज आ रही है.

‘नहीं, नहीं खाना है मुझे, मैं कुछ भी नहीं खाऊंगी.’

छवि उस से कहती है, फिलहाल वह उस के साथ वहां चले जहां से लगातार बच्ची के चिल्लाने की आवाज आ रही थी. छवि प्रियम को खिलौने दे कर खेलने को कहती है, ‘यहीं रहना, यहां से कहीं जाना नहीं.’

वह सुतपा के साथ प्रृशा के कमरे में आती है. कमरे में उस के पापा माहेश्वरी भी बारबार प्रृशा को ब्रेकफास्ट खिलाने की कोशिश कर रहे थे. छवि ने उन का अभिवादन किया. उन्होंने छवि की ओर देख कर इशारे से प्रृशा को देखने को कहा. उस दृष्टि में आग्रह के अंदर करुण याचना थी. छवि ध्यान से बच्ची को देखने लगी, 7 साल की दुबली, गोरी सी, छोटे बालों वाली प्यारी सी लड़की, ब्रेकफास्ट न करने को कह रही थी. लगभग आधा दर्जन नौकरानियां बारबार आ कर उस से खाने को कह रही थीं. जितनी बार उस से खाने को कहा जाता, उतनी बार वह न कर देती.

माहेश्वरी ने दोबारा जैसे फिर कहना चाहा, छवि ने इशारे से मना कर दिया. छवि ने आया से कहा, ‘जब वह कह रही है मैं नहीं खाऊंगी, तब तुम लोग क्यों जिद कर रहे हो. जब उस की इच्छा होगी, वह खुद खा लेगी.’

प्रृशा छवि की आवाज़ सुन छवि की ओर देखने लगी. तब छवि ने कहा, ‘बेबी, आप का मन ब्रेकफास्ट करने का नहीं है न?’

‘नहीं,’ उस ने तेज स्वर में कहा.

‘ठीक है, अब आप को कोई तंग नहीं करेगा. जब आप का मन होगा, तब आप कर लेना,’ छवि ने प्यार से कहा.

‘आप कौन हैं?’

‘डौल, ये तुम्हारी…’

‘मैं आप के साथ बात करने और खेलने के लिए आई हूं,’ छवि ने माहेश्वरी की बात काटते हुए कहा. माहेश्वरी का मोबाइल बजा, वह बाहर चला गया. तब तक प्रियम अपने कमरे से निकल कर छवि के पास आ कर खड़ा हो गया था.

‘ये कौन है?’

‘ये मेरे साथ है, मैं इसे आप के साथ खेलने के लिए लाई हूं.’

छवि ने प्रृशा से बात करना शुरू किया. वह लगातार बोलती जा रही थी. छवि उस की हर ऊटपटांग बात का भी जवाब देती जा रही थी. मां के बाद इतने धीरज से किसी ने उस की बातों को नहीं सुना था, इसलिए वह खुश हो गई. उस के मूड को देख कर छवि ने पूछा, ‘अच्छा, अब बताओ, क्या खाओगी.’

पृशा ने खुशी से अपनी इच्छा बताई.

छवि की समझ में आ गया कि वह बिन मां की बच्ची की है. उस बच्ची के दिल की बात समझने वाला कोई नहीं है. घर का हर एक ब्यक्ति उस के साथ, बस, अपना कर्तव्य निभाता है. पिता की समझ में भी ज्यादा कुछ नहीं आता है या हो सकता है उन की पत्नी ने उन्हें कभी इन सभी चीजों में ज्यादा न घसीटा हो. बेबी अगर एक बार मना करती है, फिर घर के दर्जनों नौकर उसे उसी काम की जिद करने लगते हैं, इस से वह चिढ़ जाती है. उसे प्यार और ममता की जरूरत है और बिना जरूरत का प्यार और ममता सिर्फ एक मां दे सकती थी.

पहचान: पति की मृत्यु के बाद वेदिका कहां चली गई- भाग 3

‘‘मम्मीपापा, आप यहां कैसे? कैसे हैं आप?’’ वेदिका मम्मी से लिपट गई. सालों के जमा गिलेशिकवे पानी बन कर बह गए.

एक पत्रिका में वेदिका का इंटरव्यू छपा था, जिसे पढ़ कर उन्हें वेदिका का पता चला और वे तुरंत उस से मिलने चले आए. कली को सीने से लगाते हुए दोनों को अपने किए पर पछतावा था.

पापा ने कहा, ‘‘बेटा, उस कठिन समय में हमें तुम्हारा साथ देना चाहिए था.’’

वेदिका तो उन का साथ पा कर सारे दुख भूल चुकी थी. कली के साथ वे भी इतने रम गए कि पुरानी बातें याद करने का उन्हें भी कहां होश था? देर रात तक वे उस के साथ खेलते रहे.

रात में मम्मी ने बताया…

वेदिका के जाने के बाद विदित के मातापिता उसे ढूंढ़ते हुए उन के घर पहुचे थे. कई दिनों तक उन के घर के आसपास लोग टोह लेते रहे. कई बार फोन पर उन्हें धमकियां भी मिलीं. पुलिस भी चक्कर लगाती रही. विदित के भाई ने तो यहां तक कहा कि वेदिका के साथ उन के घर का होने वाला वारिस भी गायब है… वे उन्हें छोड़ेंगे नहीं. हमें तो लगा कि उन लोगों ने तुम्हें कुछ कर दिया है… तुम्हारा कोई सुराग ही नहीं लगा… तुम्हें ढूंढ़ते भी तो कैसे?

2-3 दिन वहां रुक कर मम्मीपापा वापस जाने लगे. वेदिका की तरक्की से वे संतुष्ट थे. कली के प्यार से सराबोर. उन्होंने वेदिका से जल्दी आने का वादा लिया. विदित के मम्मीपापा को कहीं वेदिका के बारे में न पता चले, इस आशंका से वे भयभीत थे.

वेदिका ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा, ‘‘आप चिंता न करो. अब मेरी अपनी पहचान है, इसलिए मु?ो नुकसान पहुंचाना आसान नहीं होगा उन के लिए… मैं जल्दी ही वहां जाऊंगी.’’

दरवाजे की घंटी बजी तो नौकर ने दरवाजा खोला. सामने वेदिका को देख कर हतप्रभ रह गया. विदित के मम्मीपापा, भैयाभाभी भी चौंक उठे. मम्मीपापा के चेहरे पर उम्र लकीरों के रूप में कुछ ज्यादा ही फैल गई थी. उन्हीं लकीरों में पश्चात्ताप की एक लकीर उन की आंखों में भी ?िलमिला रही थी, जिसे देखने के लिए ही शायद वेदिका यहां आई थी. वेदिका का आंचल थामे खड़ी कली को सीने से लगा कर वे भावविभोर हो गए. विदित से नाराजगी के चलते उस के प्यार और उस की जिस निशानी को वे नजरअंदाज करते रहे थे, उन के जाने के बाद उन्होंने उस की कमी को महसूस किया था. कली पर उमड़े प्यार ने उस पीड़ा और पश्चात्ताप को उजागर कर दिया था. वेदिका खामोशी से उन के अनकहे शब्दों के भावों को सम?ाती और महसूस करती रही.

भैयाभाभी बहुत आत्मीय तो नहीं रहे, पर उन का आंखें चुराना बहुत कुछ कह गया. वेदिका की नई पहचान के आगे अपने ओछे विचारों के साथ वे खुद को बहुत छोटा महसूस कर रहे थे. एक दिन वे उस के वजूद तक को नकार चुके थे. आज वही वजूद अपनी प्रभावशाली पहचान के साथ खड़ा है, जो उन की दी किसी पहचान का मुहताज नहीं था.

ममता: आकाश की मां को उसकी इतनी चिंता क्यों थी

पता नहीं कहां गया है यह लड़का. सुबह से शाम होने को आई, लेकिन नवाबजादे का कुछ पता नहीं कि कहां है. पता नहीं, सारा दिन कहांकहां घूमताफिरता है. न खाने का होश है न ही पीने का. यदि घर में रहे तो सारा दिन मोबाइल, इंटरनैट या फिर टैलीविजन से चिपका रहता है. बहुत लापरवाह हो गया है.

अगर कुछ कहो तो सुनने को मिलता है, ‘‘सारा दिन पढ़ता ही तो हूं. अगर कुछ देर इंटरनैट पर चैटिंग कर ली तो क्या हो गया?’’

फिर लंबी बहस शुरू हो जाती है हम दोनों में, जो फिर उस के पापा के आने के बाद ही खत्म होती है.

वैसे इतना बुरा भी नहीं है आकाश. बस, थोड़ा लापरवाह है. दोस्तों के मामले में उस का खुद पर नियंत्रण नहीं रहता है. जब दोस्त उसे बुलाते हैं, तो वह अपना सारा कामकाज छोड़ कर उन की मदद करने चल देता है. फिर तो उसे अपनी पढ़ाई की भी फिक्र नहीं होती है. अगर मैं कुछ कहूं तो मेरे कहे हुए शब्द ही दोहरा देगा, ‘‘आप ही तो कहती हैं ममा कि दूसरों की मदद करो, दूसरों को विद्या दान करो.’’

तब मुझे गुस्सा आ जाता, ‘‘लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि अपना घर फूंक कर तमाशा देखो. अरे, अपना काम कर के चाहे जिस की मदद करो, मुझे कोई आपत्ति नहीं, पर अपना काम तो पूरा करो.’’

जब वह देखता कि मां को सचमुच गुस्सा आ गया है, तो गले में बांहें डाल देता और मनाने की कोशिश करता, ‘‘अच्छा ममा, आगे से ऐसा नहीं करूंगा.’’

उस का प्यार देख कर मैं फिर हंस पड़ती और उसे मनचाहा करने की छूट मिल जाती.

मेघना की शादी वाले दिन आकाश का एक अलग ही रूप नजर आया. एक जिम्मेदार भाई का. उस दिन तो ऐसा लग रहा था जैसे वह मुझ से भी बड़ा हो गया है. उस ने इतनी जिम्मेदारी से अपना कर्तव्य निभाया था कि वहां मौजूद हर व्यक्ति के मुंह से उस की तारीफ निकल रही थी. मैं और आकाश के पापा भी हैरान थे कि यह इतना जिम्मेदार कैसे हो गया. मेघना भी उस की कर्तव्यनिष्ठता देख कर बेहद खुश थी.

शादी के दूसरे दिन जब मेघना पग फेरे के लिए घर आई तो जनाब घर 2 घंटे लेट आए. पूछने पर पता चला कि किसी दोस्त के घर चले गए थे. मेघना 1 दिन पहले की उस की कर्तव्यनिष्ठता भूल गई और उसे जम कर लताड़ा.

मुझे भी बहुत गुस्सा आया था कि बहन घर पर आई हुई है और जनाब को घर आने का होश ही नहीं है. पर मेरे साथ तो उस ने पूरी बहस करनी थी. अत: कहने लगा, ‘‘क्या ममा, आ तो गया हूं, चाहे थोड़ी देर से ही आया हूं. कौन सा दीदी अभी जा रही हैं… सारा दिन रहेंगी न?’’

गनीमत थी कि बहन के सामने कुछ नहीं बोला और सारा गुस्सा मुझ पर निकाला.

पर आकाश अभी तक आया क्यों नहीं?

मैं ने दीवार पर टंगी घड़ी देखी, 7 बज चुके थे. मुझे बहुत ज्यादा गुस्सा आने लगा कि आज आने दो बच्चू को… आज मुझ से नहीं बच पाएगा… आज तो उस की टांगें तोड़ कर ही रहूंगी.

उस से सुबह ही कहा था कि आज घर जल्दी आना तो आज और भी देर कर दी. उस दिन भी उस से कहा था घर जल्दी आने के लिए और उस दिन तो वह ठीक समय पर घर आ गया था. पता था कि मां की तबीयत ठीक नहीं है.

मैं उठने लगी तो कहने लगा, ‘‘आप लेटी रहो ममा, आज मैं खाना बनाऊंगा.’’

‘‘नहींनहीं, मैं बनाती हूं,’’ मैं ने उठने की कोशिश की पर उस ने मुझे उठने नहीं दिया और बहुत ही स्वादिष्ठ सैंडविच बना कर खिलाए.

लेकिन आज जब सुबह मैं ने कहा था कि आकाश छत से जरा कपड़े उतार लाना तो अनसुना कर के चला गया. अजीब लड़का है… पल में तोला तो पल में माशा. कुछ भी कभी भी कर देता है. उस दिन कामवाली बाई की बेटी की पढ़ाई के लिए किताबें खरीद लाया. लेकिन जब मैं ने कहा कि जरा बाजार से सब्जी ले आ तो साफ मना कर दिया, ‘‘नहीं ममा, मुझ से नहीं होता यह काम.’’

मुझे गुस्सा तो बहुत आया पर चुप रही. बहुत देर हो गई है… सुबह का निकला हुआ है… अभी तक घर नहीं आया. अच्छा फोन कर के पूछती हूं कि कहां है. मैं ने उस के मोबाइल पर फोन किया तो आवाज आई कि जिस नंबर पर आप डायल कर रहे हैं वह अभी उपलब्ध नहीं है. थोड़ी देर बाद कोशिश करें. मुझे फिर से गुस्सा आने लगा कि पता नहीं फोन कहां रखा है. कभी भी समय पर नहीं लगता है.

मैं ने फिर फोन किया, लेकिन फिर वही जवाब आया. अब तो मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच चुका था कि अजीब लड़का है… फोन क्यों नहीं उठा रहा है?

मैं ने कई बार फोन किया, मगर हर बार एक ही जवाब आया. अब मेरा गुस्सा चिंता में बदल गया कि पता नहीं कहां है… सुबह का घर से निकला है. कह कर गया था कि ‘प्रोजैक्ट’ का काम है. उसे पूरा करना है. मोटरसाइकिल भी इतनी तेज चलाता है कि पूछो मत. कई बार समझा चुकी हूं कि धीरे चलाया कर, पर मानता ही नहीं.

कुछ दिन पहले ही पड़ोस के राहुल का?मोटरसाइकिल से ऐक्सिडैंट हो गया था. शुक्र है जान बच गई और चोट भी ज्यादा नहीं आई पर उस के मातापिता क्व50 हजार के नीचे आ गए. मैं और आकाश राहुल से मिलने अस्पताल गए थे. राहुल के पैरों में पट्टियां बंधी थीं, लेकिन चेहरे पर मुसकान थी.

वह आकाश से बोला, ‘‘आकाश तू भी मोटरसाइकिल बहुत तेज चलाता है… धीरे चलाया कर नहीं तो मेरे जैसा हाल होगा.’’

मेरे कुछ कहने से पहले ही राहुल की मां सुजाता बोल पड़ीं, ‘‘बेटा, ऐसा नहीं कहते.’’

‘‘नहीं सुजाताजी राहुल ठीक कह रहा है… यह लड़का भी मोटरसाइकिल बहुत तेज चलाता है. मैं इस से कई बार कह चुकी हूं पर यह मेरी सुनता ही नहीं. लेकिन राहुल, तुम तो बहुत आराम से चलाते हो, फिर यह ऐक्सिडैंट कैसे हो गया?’’

‘‘आंटी, अचानक आगे से एक गाड़ी आ गई और मेरी मोटरसाइकिल उस से टकरा गई. फिर जब होश आया तो मैं अस्पताल में था.’’

‘आकाश तो राहुल से कई गुना तेज चलाता है… उफ, अब मैं क्या करूं, कहां जाऊं,’ सोच कर मैं ने फिर से फोन लगाया. मगर फिर से वही आवाज आई. अब तो मेरे पसीने छूटने लगे. चिंता के मारे मेरा बुरा हाल हो गया. पता नहीं किसकिस को फोन लगाया, पर आकाश का कुछ भी पता नहीं चला. समय बीतता जा रहा था और मेरी घबराहट भी बढ़ती जा रही थी.

‘आकाश के पापा भी आने वाले हैं,’ यह सोच कर मेरी हालत और खराब हो रही थी.

तभी फोन की घंटी बजी. मैं ने लपक कर फोन उठाया. उधर से आकाश बोल रहा था, ‘‘ममा, मैं घर थोड़ी देर में आऊंगा.’’

‘‘कहां है तू? कहां रखा था फोन? पता है मैं कब से फोन लगा रही हूं… पता है मेरी चिंता के कारण क्या हालत हो गई है?’’ मैं ने एक ही सांस में सब कुछ कह डाला.

‘‘घर आ कर बताऊंगा… अभी मैं फोन काट रहा हूं.’’

मैं हैलोहैलो करती रह गई. फोन बंद हो चुका था. अब मेरा गुस्सा और भी बढ़ गया कि आज तो इस लड़के ने हद कर दी है, आने दो घर बताती हूं. यहां मेरा चिंता के मारे बुरा हाल है और जनाब को अपनी मां से बात करने तक की फुरसत नहीं है.

थोड़ी ही देर बाद डोर बैल बजी. मैं ने दरवाजा खोला. आकाश था. परेशान हालत में था. आते ही बोला, ‘‘ममा, जल्दी से खाना दे दो… आज सुबह से कुछ नहीं खाया है… प्रोजैक्ट के काम में लगा था… सारा दिन उसी में लगा रहा. अभी भी काम पूरा नहीं हुआ है… मुझे फिर से करण के घर जाना है कल ‘प्रैजेंटेशन’ है… वर्क पूरा करना है.’’

मेरा सारा गुस्सा, सारी चिंता जाती रही. मुझ पर ममता हावी हो गई. बोली, ‘‘जल्दी से हाथमुंह धो ले, मैं खाना लगा रही हूं.’’

लौटती बहारें: मीनू के मायके वालों में कैसे आया बदलाव

जाल: संजीव अनिता से शादी के लिए क्यों मना कर रहा था

बरखा खूबसूरत भी थी और खुशमिजाज भी. पहले ही दिन से उस ने अपने हर सहयोगी के दिल में जगह बना ली. सब से पक्की सहेली वह अनिता की बनी क्योंकि हर कदम पर अनिता ने उस की सहायता की थी. जब भी फालतू वक्त मिलता  दोनों हंसहंस कर खूब बातें करतीं.

उन दिनों अनिता का प्रेमी संजीव 15 दिनों की छुट्टी पर चल रहा था. इन दोनों की दोस्ती की जड़ों को मजबूत होने के लिए इतना समय पर्याप्त रहा.

संजीव के लौटने पर अनिता ने सब से पहले उस का परिचय बरखा से कराया.

‘‘क्या शानदार व्यक्तित्व है तुम्हारा, संजीव,’’ बरखा ने बड़ी गर्मजोशी के साथ जब संजीव से हाथ मिलाया तब ये तीनों अपने सारे सहयोगियों की नजरों का केंद्र बने हुए थे.

‘‘थैंक यू,’’ अपनी प्रशंसा सुन संजीव खुल कर मुसकराया.

‘‘अनिता, इतने स्मार्ट इंसान को जल्दी से जल्दी शादी के बंधन में बांध ले, नहीं तो कोई और छीन कर ले जाएगी,’’ बरखा ने अपनी सहेली को सलाह दी.

‘‘सहेली, तेरे इरादे तो नेक हैं न?’’ नाटकीय अंदाज में आंखें मटकाते हुए अनिता ने सवाल पूछा, तो कई लोगों के सम्मिलित ठहाके से हौल गूंज उठा.

पहले संजीव और अनिता साथसाथ अधिकतर वक्त गुजारते थे. अब बरखा भी इन के साथ नजर आती. इस कारण उन के  सहयोगियों को बातें बनाने का मौका मिल गया.

‘‘ये बरखा बड़ी तेज और चालू लगती है मुझे तो,’’ शिल्पा ने अंजु से अपने मन की बात कह दी थी, ‘‘वह अनिता से ज्यादा सुंदर और आकर्षक भी है. मेरी समझ से भूसे और

चिंनगारी को पासपास रखना अनिता की बहुत बड़ी मूर्खता है.’’

‘मेरा अंदाजा तो यह है कि संजीव को अनिता ने खो ही दिया है. उस का झुकाव बरखा की तरफ ज्यादा हो गया है, यह बात मुझे तो साफ नजर आती है, ’’ अंजु ने फौरन शिल्पा की हां में हां मिलाते हुए बोली.

अनिता से इस विषय पर गंभीरता से बात सुमित्राजी ने एक दिन अकेले में की. तब बरखा और संजीव कैंटीन से समोसे लाने गए हुए थे.

‘‘तुम संजीव से शादी कब कर रही हो?’’ बिना वक्त बरबाद किए सुमित्रा ने मतलब की बात शुरू की.

‘‘आप को तो पता है कि संजीव पहले एम.बी.ए. पूरा करना चाहता है और उस में अभी साल भर बाकी है,’’ अनिता ने अपनी बात पूरी कर के गहरी सांस छोड़ी.

‘‘यही कारण बता कर 2 साल से तुझे लटकाए हुए है. मैं पूछती हूं कि वह शादी कर के क्या आगे नहीं पढ़ सकता है?’’

‘‘मैडम जब मैं ने 2 साल इंतजार कर लिया है तो 1 साल और सही.’’

‘‘बच्चों जैसी बातें मत कर,’’ सुमित्रा तैश में आ गईं, ‘‘मैं ने दुनिया देखी है. संजीव के रंगढंग ठीक नहीं लग रहे हैं मुझे. उसे बरखा के साथ ज्यादा मत रहने दिया कर.’’

‘‘मैडम, आप इस के बारे में चिंतित न हों. मुझे संजीव और बरखा दोनों पर विश्वास है.’’

‘यों आंखें मूंद कर विश्वास करने वाला इंसान ही जिंदगी में धोखा खाता है, मेरी बच्ची.’’

‘उन के आपस में खुल कर हंसनेबोलने का गलत अर्थ लगाना उचित नहीं है, मैडम. बरखा तो अपने को संजीव की साली मानती है. अपने भावी जीवनसाथी या छोटी बहन पर शक करने को मेरा मन कभी राजी नहीं होगा.’’

‘‘देख, साली को आधी घर वाली दुनिया कहती ही है. तुम ध्यान रखो कि कहीं बरखा तुम्हारा पत्ता साफ कर के पूरी घर वाली ही न बन जाए,’’ अनिता को यों आगाह कर के सुमित्रा खामोश हो गईं, क्योंकि संजीव और बरखा कैंटीन से लौट आए थे.

संजीव और बरखा के निरंतर प्रगाढ़ होते जा रहे संबंध को ले कर कभी किसी ने अनिता को चिंतित, दुखी या नाराज नहीं देखा. उस के हर सहयोगी ने हंसीमजाक, व्यंग्य या गंभीरता का सहारा ले कर उसे समझाया, पर कोई भी अनिता के मन में शक का बीज नहीं बो पाया. जो सारे औफिस वालों को नजर आ रहा था, उसे सिर्फ अनिता ही नहीं देख पा रही थी.

पहले पिक्चर देखने, बाजार घूमने या बाहर खाना खाने तीनों साथ जाते थे. फिर एक दिन बरखा और संजीव को मार्केट में घूमते शिल्पा ने देखा. उस ने यह खबर अनिता सहित सब तक फैला दी.

खबर सुनने के बाद अनिता के हावभाव ने यह साफ दर्शाया कि उसे दोनों के साथसाथ घूमने जाने की कोई जानकारी नहीं थी. उस ने सब के सामने ही संजीव और बरखा से ऊंची आवाज में पूछा, ‘‘कल तुम दोनों मुझे छोड़ कर बाजार घूमने क्यों गए?’’

‘‘तेरा बर्थडे गिफ्ट लाने के लिए, सहेली,’’ बरखा ने बड़ी सहजता से जवाब दिया, ‘‘अब ये बता कि हम सब को परसों इतवार को पार्टी कहां देगी?’’

बरखा का जवाब सुन कर अनिता ने अपने सहयोगियों की तरफ यों शांत भाव से मुसकराते हुए देखा मानो कह रही हो कि तुम सब बेकार का शक करने की गलत आदत छोड़ दो.

अनिता तो फिर सहज हो कर हंसनेबोलने लगी, पर बाकी सब की नजरों में बरखा की छवि बेहद चालाक युवती की हो गई और संजीव की नीयत पर सब और ज्यादा शक करने लगे.

बरखा ने अनिता के जन्मदिन की पार्टी का आयोजन अपने घर में किया.

‘‘आप सब को मैं अपने घर लंच पर बुलाना चाहती ही थी. मेरे मम्मीपापा सब से मिलना चाहते हैं. अनिता के जन्मदिन की पार्टी मेरे घर होने से एक पंथ दो काज हो जाएंगे,’’ ऐसा कह कर बरखा ने सभी सहयोगियों को अपने घर बुला लिया.

बरखा के पिता के बंगले में कदम रखते ही उस के सहयोगियों को उन की अमीरी का एहसास हो गया. बंगले की शानोशौकत देखते ही बनती थी.

बड़े से ड्राइंगहौल में पार्टी का आयोजन हुआ. वहां कालीन हटा कर डांसफ्लोर बनाय गया था. खानेपीने की चीजें जरूरत से ज्यादा थीं. घर के 2 नौकर सब की आवभगत में जुटे हुए थे.

पार्टी के बढि़या आयोजन से अनिता बेहद प्रसन्न नजर आ रही थी. बरखा और उस के मातापिता को धन्यवाद देते उस की जबान थकी नहीं.

‘‘ये मेरे जन्मदिन पर अब तक हुई 24 पार्टियों में बैस्ट है,’’ कहते हुए अनिता को जब भी मौका मिलता वह भावविभोर हो बरखा के गले लग जाती.

इस अवसर पर उन के सहयोगियों की पैनी दृष्टियों ने बहुत सी चटपटी बातें नोट की थीं. यह भी साफ था कि जो ऐसी बातें नोट कर रहे थे. वह सब अनिता की नजरों से छिपा था.

बंगले का ठाठबाट देख कर संजीव की नजरों में उभरे लालच के भाव सब ने साफ पढ़े. बरखा के मातापिता के साथ संजीव का खूब घुलमिल कर बातें करना उन्होंने बारबार देखा.

अनिता से कहीं ज्यादा संजीव बरखा को महत्त्व दे रहा था. वह उसी के साथ सब से ज्यादा नाचा. किसी के कहने का फिक्र न कर वह बरखा के आगेपीछे घूम रहा था.

अनिता से उस दिन किसी ने कुछ नहीं कहा, क्योंकि कोई भी उस की खुशी को नष्ट करने का कारण नहीं बनना चाहता था.

वैसे उस दिन के बाद से किसी को अनिता को समझाने या आगाह करने की जरूरत नहीं पड़ी. संजीव ने सब तरह की लाजशर्म त्याग कर बरखा को खुलेआम फ्लर्ट करना शुरू कर दिया.

बेचारी अनिता ही जबरदस्ती उन दोनों के साथ चिपकी रहती. उस की मुसकराहट सब को नकली प्रतीत होती. वह सब की हमदर्दी की पात्र बनती जा रही थी, लेकिन अब भी क्या मजाल कि उस के मुंह से संजीव या बरखा की शिकायत में एक शब्द भी निकल आए.

‘‘तुम सब का अंदाज बिलकुल गलत है. संजीव मुझे कभी धोखा नहीं देगा, देख लेना,’’ उस के मुंह से ऐसी बात सुन कर लगभग हर व्यक्ति उस की बुद्धि पर खूब तरस खाता.

जन्मदिन की पार्टी के महीने भर बाद स्थिति इतनी बदल गई कि संजीव को बरखा के रूपजाल का पक्का शिकार हुआ समझ लिया गया. अनिता की उपस्थिति की फिक्र किए बिना संजीव खूब खुल कर बरखा से हंसताबोलता. ऐसा लगता था कि उस ने अनिता से झगड़ा कर के संबंधविच्छेद करने का मन बना लिया था.

लेकिन सब की अटकलें धरी की धरी रह गई जब अचानक ही बड़े सादे समारोह में संजीव ने अनिता से शादी कर ली. बरखा उन की शादी में शामिल नहीं हुई. वह अपनी मौसी की बेटी की शादी में शामिल होने के लिए 20 दिन की छुट्टी ले कर मुंबई गई हुई थी.

यों जल्दीबाजी में संजीव का अनिता से शादी करने का राज किसी की समझ में नहीं आया.

लोगों के सीधा सवाल पूछने पर संजीव मुसकान होंठों पर ला कर कहता, ‘‘बरखा से हंसनेबोलने का मतलब यह कतई नहीं था कि मैं अनिता को धोखा दूंगा. आप सब ऐसा सोच भी कैसे सके? अरे, अनिता में तो मेरी जान बसती है और अब मैं उस से दूर रहना नहीं चाहता था.’’

अनिता की खुशी का ठिकाना नहीं था. उस से कोई बरखा के साथ संजीव का जिक्र करता तो वह खूब हंसती.

‘‘अरे, तुम सब बेकार की चिंता करते थे. देखो, न तो मेरी छोटी बहन जैसी सहेली ने और न ही मेरे मंगेतर ने मुझे धोखा दिया. मुझे अपने प्यार पर पूरा विश्वास था, है और रहेगा.’’

उसे शुभकामनाएं देते हुए लोग बड़ी कठिनाई से ही अपनी हैरानी को काबू में रख पाते. संजीव और बरखा का चक्कर क्यों अचानक समाप्त हो गया, इस का कोई सही अंदाजा भी नहीं लगा पा रहा था.

दोनों सप्ताह भर का हनीमून शिमला में मना कर लौटे. बरखा ने फोन कर के अनिता को बता दिया कि वह शाम को दोनों से मिलने आ रही है.

उस के आने की खबर सुन कर संजीव अचानक विचलित नजर आने लगा. अनिता की नजरों से उस की बेचैनी छिपी नहीं रही.

‘‘किस वजह से टैंशन में नजर आ रहे हो, संजीव?’’ कुछ देर बाद हाथ पकड़ कर जबरदस्ती अपने सामने बैठाते हुए अनिता ने संजीव से सवाल पूछ ही लिया.

बहुत ज्यादा झिझकते हुए संजीव ने उस से अपने मन की परेशानी बयान की.

‘‘देखो, तुम बरखा की किसी बात पर विश्वास मत करना… वह तुम्हें उलटीसीधी बातें बता कर मेरे खिलाफ भड़काने की कोशिश कर सकती है,’’ बोलते हुए संजीव बड़ा बेचैन नजर आ रहा था.

‘‘वह ऐसा काम क्यों करेगी, संजीव? मुझे पूरी बात बताओ न.’’

‘‘वह बड़ी चालू लड़की है, अनिता. तुम उस के कहे पर जरा भी विश्वास मत करना.’’

‘‘पर वह ऐसा क्या कहेगी जिस के कारण तुम इतने परेशान नजर आ रहे हो?’’

‘‘उस दिन उस ने पहले मुझे उकसाया… मेरी भावनाओं को भड़काया और फिर… और फिर…’’ आंतरिक द्वंद्व के चलते संजीव आगे नहीं बोल सका.

‘‘किस दिन की बात कर रहे हो? क्या उस दिन की जब तुम उसे घर छोड़ने गए थे क्योंकि उसे स्टेशन जाना था?’’

‘‘हां.’’

‘‘जब तुम उस के घर पहुंचे, तब उस के मम्मीपापा घर में नहीं थे. तब अपने कमरे में ले जा कर उस ने पहले तुम्हारी भावनाओं को भड़काया और जब तुम ने उसे बांहों में भरना चाहा, तो नाराज हो कर तुम्हें उस ने खूब डांटा, यही बताना चाह रहे हो न तुम मुझे?’’ उस के चेहरे को निहारते हुए अनिता रहस्यमयी अंदाज में हौले से मुसकरा रही थी.

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि वह फोन कर के पहले ही तुम्हें मेरे खिलाफ भड़का चुकी है,’’ गुस्सा दर्शाने का प्रयास कर रहे संजीव का चेहरा पीला भी पड़ गया था.

‘‘मेरे प्यारे पतिदेव, न उस ने मुझे भड़काने की कोशिश की है और न ही मुझे आप से कोई नाराजगी या शिकायत है. सच तो यह है कि मैं बरखा की आभारी हूं,’’ अनिता की मुसकराहट और गहरी हो गई.

‘‘ये क्या कह रही हो?’’ संजीव हैरान हो उठा.

‘‘देखिए, बरखा ने अगर आप के गलत व्यवहार की सारी जानकारी मुझे देने की धमकी न दी होती… और इस कारण आप के मन में मुझे हमेशा के लिए खो देने का भय न उपजा होता, तो क्या यों झटपट मुझ से शादी करते?’’ यह सवाल पूछने के बाद अनिता खिलखिला कर हंसी तो संजीव अजीब सी उलझन का शिकार बन गया.

‘‘मैं ने कभी तुम से शादी करने से इनकार नहीं किया था,’’ संजीव ने ऊंची आवाज में सफाई सी दी.

‘‘मुझे आप के ऊपर पूरा विश्वास है और सदा रहेगा,’’ अनिता ने आगे झुक संजीव के गाल पर प्यार भरा चुंबन अंकित कर दिया.

‘‘मुझ से तुम्हें भविष्य में कभी वैसी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा, अनिता,’’ संजीव ने उस से फौरन वादा किया.

‘‘उस तरफ से मैं बेफिक्र हूं क्योंकि किसी तितली ने कभी तुम्हारे नजदीक आने की कोशिश की तो मैं उस का चेहरा बिगाड़ दूंगी,’’ अचानक ही अनिता की आंखों में उभरे कठोरता के भाव संजीव ने साफ पहचाने और इस कारण उस ने अपने बदन में अजीब सी झुरझुरी महसूस की.

‘‘क्या बरखा से संबंध समाप्त कर लेना हमारे लिए अच्छा नहीं रहेगा?’’ उस ने दबे स्वर में पूछा.

‘‘वैसा करने की क्या जरूरत है हमें, जनाब?’’ अनिता उस की आंखों में आंखें डाल कर शरारती ढंग से मुकराई, ‘‘मुझे आप और अपनी छोटी बहन सी प्यारी सहेली दोनों पर पूरा विश्वास है. फिर उसे धन्यवाद देने का यह तो बड़ा गलत तरीका होगा कि मैं उस से दूर हो जाऊं.’’

संजीव ने लापरवाही से कंधे उचकाए पर उस का मन बेचैन व परेशान बना ही रहा. बाद में बरखा उन के घर आई तो वह संजीव के लिए सुंदर सी कमीज व अनिता के लिए खूबसूरत बैग उपहार में लाई थी. वह संजीव के साथ बड़ी प्रसन्नता से मिली. कोई कह नहीं सकता था कि कुछ हफ्ते पहले दोनों के बीच बड़ी जोर से झगड़ा हुआ था.

अनिता और बरखा पक्की, विश्वसनीय सहेलियों की तरह मिलीं. जरा सा भी खिंचाव दोनों के व्यवहार में संजीव पकड़ नहीं पाया.

जल्दी ही वह भी उन के साथ सहजता से हंसनेबोलने लगा. वैसे वह उन की मानसिकता को समझ नहीं पा रहा था क्योंकि उस के हिसाब से उन दोनों को उस से गहरी नाराजगी व शिकायत होनी चाहिए थी.

‘जो कुछ उस दिन बरखा के घर में घटा, वह कहीं इन दोनों की मिलीभगत से फैलाया ऐसा जाल तो नहीं था जिस में फंस कर उसे अनिता से फटाफट शादी करनी पड़ी?’ अचानक ही यह सवाल उस के मन में बारबार उठने लगा और उस का दिल कह रहा था कि जवाब ‘ऐसा ही हुआ है’ होना चाहिए.

मोहपाश: भाग 1- क्या बेटे के मोह से दूर रह पाई छवि

रात का दूसरा प्रहर था. ट्रेन अपनी रफ्तार से गंतव्य की ओर बढ़ी चली जा रही थी. छवि ने धीरे से कंबल से झांक कर देखा, डब्बे में गहन खामोशी छाई थी. छवि की आंखों से नींद गायब थी. उस का शरीर तो साथ था पर मन कहीं पीछे भाग रहा था.

वह बीए फाइनल की छात्रा थी. सबकुछ अच्छा चल रहा था. उस की सहेली लता ने अपने घर में पार्टी रखी थी, वहीं छवि की मुलाकात रौनक सांवत से हुई थी. पहली ही मुलाकात में रौनक उसे भा गया. वह वकालत की पढ़ाई कर रहा था. उस ने स्वयं को शहर के एक प्रसिद्ध पार्क होटल का एकलौता वारिस बताया. जानपहचान कब प्यार में बदल गई, दोनों को पता न चला. दोनों ने साथ जीनेमरने की कसमें तक खा लीं.

रौनक के प्यार की मीठी फुहार दिनप्रतिदिन छवि को इतना भिगोती जा रही थी कि भोली छवि अपनी मां की बनाई ‘हां’, ‘न’ की मार्यादित लकीर की गिरफ्त से फिसल कर कब बाहर आ गई, उसे पता ही नहीं चला. जब पता चला तब पैर के नीचे से जमीन निकल गई. 2 महीने बाद फाइनल परीक्षा थी. छवि परीक्षा की तैयारी में जुट गई. परीक्षा के प्रथम दिन उस की तबीयत ख़राब लगने लगी. उस का शक सही निकला, वह गर्भवती थी.

उस ने रौनक से बात करने की बहुत बार कोशिश की. हर बार उस का मोबाइल आउट औफ रीच बता रहा था. दूसरी परीक्षा देने के बाद छवि सीधे पार्क होटल पहुंची, वहां किसी ने भी रौनक को नहीं पहचाना. छवि समझ गई, उस के साथ धोखा हुआ है. छवि भारीमन से घर लौट आई. अच्छी तरह से ठगी गई है, इस का एहसास अब उसे हो गया था. मोबाइल का लगातार न लगना भी संदेह की पुष्टि कर रहा था. अपने अल्हड़पन के गलत मोहपाश ने उसे कहीं का न रखा. वह चुपचाप कमरे में बैठी थी. सुखदा ने आ कर बत्ती जलाई.

‘अंधेरे में क्यों बैठी हो छवि, क्या बात है, पेपर अच्छा नहीं गया क्या?’

‘मां, बत्ती मत जलाओ.’

‘क्या हुआ है, बताओ, कुछ हुआ है क्या?’ सुखदा ने घबरा कर पूछा.

‘मां, तुम मुझे मार डालो, मैं जीना नहीं चाहती.’

‘क्या हुआ है, बताओ तो, जल्दी बोलो,’ सुखदा की आवाज में घबराहट थी.

‘मां, मुझ से बहुत बड़ी भूल हो गई, मैं बरबाद हो गई, मैं कहीं की न रही.’

‘साफसाफ कहो, क्या हुआ है, मुझे बताओ, मैं तुम्हारी मां हूं.’

‘मां, मां, मैं प्रैग्नैंट हूं’

‘क्या, यह तुम ने क्या किया छवि, कौन है वह.’

‘मां, वह झूठा निकला. उस ने खुद को पार्क होटल का वारिस बताया. पर यह झूठ है. उस ने मुझे धोखा दिया, मां.’

‘उस ने तुझे धोखा नहीं दिया पागल लड़की. तूने अपनेआप को धोखा दिया. उसे फोन लगा, मैं बात करूंगी.’

‘उस का फोन बंद है मां. मैं होटल गई थी. वहां उसे कोई नहीं जानता. वह झूठा निकला.’

छवि अपनी नादानी पर जारजार रो रही थी. सुखदा की समझ में नहीं आ रहा था वह इस परिस्थिति से कैसे निबटे. आज नहीं तो कल, यह खबर पूरी कालोनी में आग की तरह फैल जाएगी. छवि की बदनामी होगी अलग. उस का जीवन बरबाद हो जाएगा. वह छवि से बोली,

‘मैं डाक्टर से बात करती हूं. खबरदार, अब कोई गलत कदम तुम नहीं उठाओगी, समझी…’

छवि ने हामी में सिर हिलाया.

दूसरे दिन सुखदा छवि को ले कर नर्सिंगहोम गई. आधे घंटे बाद डाक्टर आ कर बोली, ‘सौरी सुखदा जी, गर्भपात नहीं हो पाया. छवि का ब्लडप्रैशर बहुत ज्यादा लो हो जा रहा है, ऐसे में गर्भपात करने से वह भविष्य में वह मां नहीं बन पाएगी.’

‘एकदो दिनों बाद?’ सुखदा ने पूछा.

‘मुझे नहीं लगता है कि यह सभंव हो पाएगा. अगर फिर वही प्रौब्लम हुई तब रिस्क बढ़ जाएगा.’

घर आ कर सुखदा लगातार फोन पर लगी रही. उस ने छवि से कहा, ‘अपना सारा सामान बांध लो, हम लोग परसों कलकत्ता जा रहे हैं. कलकत्ता में मेरी सहेली देविका बोस है. वह महिला उत्थान समिति की प्रबंधक है. तुम को उसी के पास वहीं रहना है. हम आतेजाते रहेंगे.’

‘मां, तुम हम से बहुत नाराज हो न, इसलिए मुझे ख़ुद से अलग कर रही हो?’

‘ख़ुद से अलग नहीं कर रहु छवि. तुम मेरी बेटी हो. तुम को हम अपने से अलग कैसे कर सकते हैं बेटा. तुम्हारे पापा के नहीं रहने के बाद हम तुम को देख कर ही जी पाए. यहां रहना अब ठीक नहीं होगा. मेरी नौकरी, बस, 3 साल और है. सेवानिवृत्ति के बाद हम भी वहीं आ कर साथ रहेंगे.’

कलकत्ता पहुंच कर समिति की प्रबंधक देविका बोस से मिली. 2 दिन रह कर सुखदा वापस पटना लौट आई. उसे छवि के बिना घर बहुत वीराना लग रहा था. आते समय छवि का क्रदंन भी उस के मन को कचोट रहा था, पर वह परिस्थितियों के कारण मजबूर थी. सुखदा ने सभी को बताया छवि परीक्षा के बाद अपने मामा के यहां गई है. छवि 9वीं कक्षा में थी जब उस के पिता दुनिया छोड़ गए. पतिपत्नी एक ही स्कूल में टीचर थे. पति के नहीं रहने के बाद 4 कमरे में फैल कर रहने वाली सुखदा ने उस में किराया लगा दिया और खुद ऊपर बने 2 कमरे और हाल में आ गई. इस से अकेलेपन का भय कुछ हद तक मिट चला था और थोड़े पैसे भी आ गए थे. परिस्थितियों के बदलने से उसे छवि की भलाई के लिए अपने दिल पर पत्थर रख कर यह फैसला लेना पड़ा. छवि का मन भी स्तब्ध था. अनजाने में की गई एक भूल ने उस के जीवन को ऐसे मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया था जहां से निकलने का रास्ता उसे नजर नहीं आ रहा था.

कलकत्ता में समिति में रहने वाली पीड़ित महिलाओं के आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए उन की शिक्षा व योग्यता के आधार पर उपयोगी कक्षाओं का संचालन होता था. समिति में रहने वाली हर महिला का किसी न किसी संस्था में नामांकन जरूरी था ताकि भविष्य में वह आत्मनिर्भर रह सके. निसंतान देविका छवि को अपनी बेटी की तरह प्यार करने लगी. उस का हर संभव प्रयास थे कि वह छवि के खंडित मन को वह फिर से जीवित कर सके.

गरमी की छुट्टियों में जब सुखदा आई तब छवि के पेट का उभार साफ दिखने लगा था. उसे छवि के बढ़ते मनोबल को देख कर बहुत संतोष हुआ कि उस का निर्णय सही था. छुट्टियां बिता कर वह वापस चली गई. नियत समय पर छवि ने एक स्वस्थ और सुंदर बेटे को जन्म दिया. प्रसूतिगृह से अपने कमरे में आने पर छवि लगातार अपने बच्चे को देखने की जिद करने लगी. एक बार तो सुखदा का मन हुआ कि वह छवि के उन्नत भविष्य के लिए झूठ कह दे कि उसे मृत बच्चा हुआ है, लेकिन मां बनी छवि बच्चे के लिए बेचैन हो पूछने लगी, ‘मां, कहां है मेरा बच्चा? प्रसव के बाद मैं ने डाक्टर की आवाज सुनी थी, वे कह रही थीं लड़का है. मैं ने बच्चे की रोने की आवाज़ भी सुनी थी. कहां है मेरा बेटा, बताओ न मां, कहां है मेरा बच्चा?’

नई जिंदगी की शुरुआत

शादीशुदा जिंदगी क्या होती है, दोनों ही इस का ककहरा भी नहीं जानते थे. भाग कर शहर तो आ गए, लेकिन बुतरू कोई काम ही नहीं करना चाहता था. वह बस्ती के बगल वाली सड़क पर दिनभर हंडि़या बेचने वाली औरतों के पास निठल्ला बैठा बातें करता और हंडि़या पीता रहता था. इसी तरह दिन महीनों में बीत गए और खाने के लाले पड़ने लगे.

फूलमनी कब तक बुतरू के आसरे बैठे रहती. उस ने अगलबगल की औरतों से दोस्ती गांठी. उन्होंने फूलमनी को ठेकेदारी में रेजा का काम दिलवा दिया. वह काम करने जाने लगी और बुतरू घर संभालने लगा. जल्द ही दोनों का प्यार छूमंतर हो गया.

बुतरू दिनभर घर में अकेला बैठा रहता. शाम को जब फूलमनी काम से घर लौटती, वह उस से सारा पैसा छीन लेता और गालीगलौज पर आमादा हो जाता, ‘‘तू अब आ रही है. दिनभर अपने भरतार के घर गई थी पैसा कमाने… ला दे, कितना पैसा लाई है…’’

फूलमनी दिनभर ठेकेदारी में ईंटबालू ढोतेढोते थक कर चूर हो जाती. घर लौट कर जमीन पर ही बिना हाथमुंह धोए, बिना खाना खाए लेट जाती. ऊपर से शराब के नशे में चूर बुतरू उस के आराम में खलल डालते हुए किसी भी अंग पर बेधड़क हाथ चला देता. वह छटपटा कर रह जाती.

एक तो हाड़तोड़ मेहनत, ऊपर से बुतरू की मार खाखा कर फूलमनी का गदराया बदन गलने लगा था. तरहतरह के खयाल उस के मन में आते रहते. कभी सोचती, ‘कितनी बड़ी गलती की ऐसे शराबी से शादी कर के. वह जवानी के जोश में भाग आई. इस से अच्छा तो वह सुखराम मिस्त्री है. उम्र्र में बुतरू से थोड़ा बड़ा ही होगा, पर अच्छा आदमी है. कितने प्यार से बात करता है…’

सुखराम फूलमनी के साथ ही ठेकेदारी में मिस्त्री का काम करता था. वह अकेला ही रहता था. पढ़ालिखा तो नहीं था, पर सोचविचार का अच्छा था. सुबहसवेरे नहाधो कर वह काम पर चला आता. शाम को लौट कर जो भी सुबह का पानीभात बचा रहता, उसे प्यार से खापी कर सो जाता.

शनिवार को सुखराम की खूब मौज रहती. उस दिन ठेकेदार हफ्तेभर की मजदूरी देता था. रविवार को सुखराम अपने ही घर में मुरगा पकाता था. मौजमस्ती करने के लिए थोड़ी शराब भी पी लेता और जम कर मुरगा खाता.

फूलमनी से सुखराम की नईनई जानपहचान हुई थी. एक रविवार को उस ने फूलमनी को भी अपने घर मुरगा खाने के लिए बुलाया, पर वह लाज के मारे नहीं गई.

साइट पर ठेकेदार का मुंशी सुखराम के साथ फूलमनी को ही भेजता था. सुखराम जब बिल्डिंग की दीवारें जोड़ता, तो फूलमनी फुरती दिखाते हुए जल्दीजल्दी उसे जुगाड़ मसलन ईंटबालू देती जाती थी.

सुखराम को बैठने की फुरसत ही नहीं मिलती थी. काम के समय दोनों की जोड़ी अच्छी बैठती थी. काम करते हुए कभीकभी वे मजाक भी कर लिया करते थे. लंच के समय दोनों साथ ही खाना खाते. खाना भी एकदूसरे से साझा करते. आपस में एकदूसरे के सुखदुख के बारे में भी बतियाते थे.

एक दिन मुंशी ने सुखराम के साथ दूसरी रेजा को काम पर जाने के लिए भेजा, तो सुखराम उस से मिन्नतें करने लगा कि उस के साथ फूलमनी को ही भेज दे.

मुंशी ने तिरछी नजरों से सुखराम को देखा और कहा, ‘‘क्या बात है सुखराम, तुम फूलमनी को ही अपने साथ क्यों रखना चाहते हो?’’

सुखराम थोड़ा झेंप सा गया, फिर बोला ‘‘बाबू, बात यह है कि फूलमनी मेरे काम को अच्छी तरह सम?ाती है कि कब मुझे क्या जुगाड़ चाहिए. इस से काम करने में आसानी होती है.’’

‘‘ठीक है, तुम फूलमनी को अपने साथ रखो, मुझे कोई एतराज नहीं है. बस, काम सही से होना चाहिए… लेकिन, आज तो फूलमनी काम पर आई नहीं है. आज तुम इसी नई रेजा से काम चला लो.’’

झक मार कर सुखराम ने उस नई रेजा को अपने साथ रख लिया, मगर उस से उस के काम करने की पटरी नहीं बैठी, तो वह भी लंच में सिरदर्द का बहाना बना कर हाफ डे कर के घर निकल गया. दरअसल, फूलमनी के नहीं आने से उस का मन काम में नहीं लग रहा था.

दूसरे दिन सुखराम ने बस्ती जा कर फूलमनी का पता लगाया, तो मालूम हुआ कि बुतरू ने घर में रखे 20 किलो चावल बेच दिए हैं. फूलमनी से उस का खूब ?ागड़ा हुआ है. गुस्से में आ कर बुतरू ने उसे इतना मारा कि वह बेहोश हो गई. वह तो उसे मारे ही जा रहा था, पर बस्ती के लोगों ने किसी तरह उस की जान बचाई.

सुखराम ने पड़ोस में पूछा, ‘‘बुतरू अभी कहां है?’’

किसी ने बताया कि वह शराब पी कर बेहोश पड़ा है. सुखराम हिम्मत कर के फूलमनी के घर गया. चौखट पर खड़े हो कर आवाज दी, तो फूलमनी आवाज सुन कर झोपड़ी से बाहर आई. उस का चेहरा उतरा हुआ था.

सुखराम से उस की हालत देखी न गई. वह परेशान हो गया, लेकिन कर भी क्या सकता था. उस ने बस इतना ही पूछा, ‘‘क्या हुआ, जो 2 दिन से काम पर नहीं आ रही हो?’’

दर्द से कराहती फूलमनी ने कहा, ‘‘अब इस चांडाल के साथ रहा नहीं जाता सुखराम. यह नामर्द न कुछ करता है और न ही मुझे कुछ करने देता है. घर में खाने को चावल का एक दाना तक नहीं छोड़ा. सारे चावल बेच कर शराब पी गया.’’

‘‘जितना सहोगी उतना ही जुल्म होगा तुम पर. अब मैं तुम से क्या कहूं. कल काम पर आ जाना. तुम्हारे बिना मेरा मन नहीं लगता है,’’ इतना कह कर सुखराम वहां से चला आया.

सुखराम के जाने के बाद बहुत देर तक फूलमनी के मन में यह सवाल उठता रहा कि क्या सचमुच सुखराम उसे चाहता है? फिर वह खुद ही लजा गई. वह भी तो उसे चाहने लगी है. कुछ शब्दों के एक वाक्य ने उस के मन पर इतना गहरा असर किया कि वह अपने सारे दुखदर्द भूल गई. उसे ऐसा लगने लगा, जैसे सुखराम उसे साइकिल के कैरियर पर बैठा कर ऐसी जगह लिए जा रहा है, जहां दोनों का अपना सुखी संसार होगा. वह भी पीछे मुड़ कर देखना नहीं चाह रही थी. बस आगे और आगे खुले आसमान की ओर देख रही थी.

अचानक फूलमनी सपनों के संसार से लौट आई. एक गहरी सांस भरी कि काश, ऐसा बुतरू भी होता. कितना प्यार करती थी वह उस से. उस की खातिर अपने मांबाप को छोड़ कर यहां भाग आई और इस का सिला यह मिल रहा है. आंखों से आंसुओं की बूंदें टपक आईं. बुतरू का नाम आते ही उस का मन फिर कसैला हो गया.

अगले दिन सुबहसवेरे फूलमनी काम पर आई, तो उसे देख कर सुखराम का मन मयूर नाच उठा. काम बांटते समय मुंशी ने कहा, ‘‘सुखराम के साथ फूलमनी जाएगी.’’

साइट पर सुखराम आगेआगे अपने औजार ले कर चल पड़ा, पीछेपीछे फूलमनी पाटा, बेलचा, सीमेंट ढोने वाला तसला ले कर चल रही थी.

सुखराम ने पीछे घूम कर फूलमनी को एक बार फिर देखा. वह भी उसे ही देख रही थी. दोनों चुप थे. तभी सुखराम ने फूलमनी से कहा, ‘‘तुम ऐसे कब तक बुतरू से पिटती रहोगी फूलमनी?’’

‘‘देखें, जब तक मेरी किस्मत में लिखा है,’’ फूलमनी बोली.

‘‘तुम छोड़ क्यों नहीं देती उसे?’’ सुखराम ने सवाल किया.

‘‘फिर मेरा क्या होगा?’’

‘‘मैं जो तुम्हारे साथ हूं.’’

‘‘एक बार तो घर छोड़ चुकी हूं और कितनी बार छोडूं? अब तो उसी के साथ जीना और मरना है.’’

‘‘ऐसे निकम्मे के हाथों पिटतेपिटाते एक दिन तुम्हारी जान चली जाएगी फूलमनी. क्या तुम मेरा कहा मानोगी?’’

‘‘बोलो…’’

‘‘बुतरू एक जोंक की तरह है, जो तुम्हारे बदन को चूस रहा है. कभी आईने में तुम ने अपनी शक्ल देखी है. एक बार देखो. जब तुम पहली बार आई थीं, कैसी लगती थीं. आज कैसी लग रही हो. तुम एक बार मेरा यकीन कर के

मेरे साथ चलो. हमारी अपनी प्यार की दुनिया होगी. हम दोनों इज्जत से कमाएंगेखाएंगे.’’

बातें करतेकरते दोनों उस जगह पहुंच चुके थे, जहां उन्हें काम करना था. आसपास कोई नहीं था. वे दोनों एकदूसरे की आंखों में समा चुके थे.

नीला पत्थर : आखिर क्या था काकी का फैसला

‘‘कहीं नहीं जाएगी काकी…’’ पार्वती बूआ की कड़कती आवाज ने सब को चुप करा दिया. काकी की अटैची फिर हवेली के अंदर रख दी गई. यह तीसरी बार की बात थी. काकी के कुनबे ने फैसला किया था कि शादीशुदा लड़की का असली घर उस की ससुराल ही होती है. न चाहते हुए भी काकी मायका छोड़ कर ससुराल जा रही थी.

हालांकि ससुराल से उसे लिवाने कोई नहीं आया था. काकी को बोझ समझ कर उस के परिवार वाले उसे खुद ही उस की ससुराल फेंकने का मन बना चुके थे कि पार्वती बूआ को अपनी बरबाद हो चुकी जवानी याद आ गई. खुद उस के साथ कुनबे वालों ने कोई इंसाफ नहीं किया था और उसे कई बार उस की मरजी के खिलाफ ससुराल भेजा था, जहां उस की कोई कद्र नहीं थी.

तभी तो पार्वती बूआ बड़ेबूढ़ों की परवाह न करते हुए चीख उठी थी, ‘‘कहीं नहीं जाएगी काकी. उन कसाइयों के पास भेजने के बजाय उसे अपने खेतों के पास वाली नहर में ही धक्का क्यों न दे दिया जाए. बिना किसी बुलावे के या बिना कुछ कहेसुने, बिना कोई इकरारनामे के काकी को ससुराल भेज देंगे, तो वे ससुरे इस बार जला कर मार डालेंगे इस मासूम बेजबान लड़की को. फिर उन का एकाध आदमी तुम मार आना और सारी उम्र कोर्टकचहरी के चक्कर में अपने आधे खेतों को गिरवी रखवा देना.’’

दूसरी बार काकी के एकलौते भाई की आंखों में खून उतर आया था. उस ने हवेली के दरवाजे से ही चीख कर कहा था, ‘‘काकी ससुराल नहीं जाएगी. उन्हें आ कर हम से माफी मांगनी होगी. हर तीसरे दिन का बखेड़ा अच्छा नहीं. क्या फायदा… किसी की जान चली जाएगी और कोई दूसरा जेल में अपनी जवानी गला देगा. बेहतर है कि कुछ और ही सोचो काकी के लिए.’’

काकी के लिए बस 3 बार पूरा कुनबा जुटा था उस के आंगन में. काकी को यहीं मायके में रखने पर सहमति बना कर वे लोग अपनेअपने कामों में मसरूफ हो गए थे. उस के बाद काकी के बारे में सोचने की किसी ने जरूरत नहीं समझी और न ही कोई ऐसा मौका आया कि काकी के बारे में कोई अहम फैसला लेना पड़े.

काकी का कुसूर सिर्फ इतना था कि वह गूंगी थी और बहरी भी. मगर गूंगी तो गांव की 99 फीसदी लड़कियां होती हैं. क्या उन के बारे में भी कुनबा पंचायत या बिरादरी आंखें मींच कर फैसले करती है? कोई एकाध सिरफिरी लड़की अपने बारे में लिए गए इन एकतरफा फैसलों के खिलाफ बोल भी पड़ती है, तो उस के अपने ही भाइयों की आंखों में खून उतर आता है. ससुराल की लाठी उस पर चोट करती है या उस के जेठ के हाथ उस के बाल नोंचने लगते हैं.

ऐसी सिरफिरी मुंहफट लड़की की मां बस इतना कह कर चुप हो जाती है कि जहां एक लड़की की डोली उतरती है, वहां से ही उस की अरथी उठती है. यह एक हारे हुए परेशान आदमी का बेमेल सा तर्क ही तो है. एक अकेली छुईमुई लड़की क्या विद्रोह करे. उसे किसी फैसले में कब शामिल किया जाता है. सदियों से उस के खिलाफ फतवे ही जारी होते रहे हैं. वह कुछ बोले तो बिजली टूट कर गिरती है, आसमान फट पड़ता है.

अनगनित लोगों की शादियां टूटती हैं, मगर वे सब पागल नहीं हो जाते. बेहतर तो यही होता कि अपनी नाकाम शादी के बारे में काकी जितना जल्दी होता भूल जाती. ये शादीब्याह के मामले थानेकचहरी में चले जाएं, तो फिर रुसवाई तो तय ही है. आखिर हुआ क्या? शीशा पत्थर से टकराया और चूरचूर हो गया.

काकी का पति तो पहले भी वैसा ही था लंपट, औरतबाज और बाद में भी वैसा ही बना रहा. काकी से अलग होने के बाद भी उस की जिंदगी पर कोई खास असर नहीं पड़ा.

काकी के कुनबे का फैसला सुनने के बाद तो वह हर तरफ से आजाद हो चुका था. उस के सुख के सारे दरवाजे खुल गए, मगर काकी का मोह भंग हो गया. अब वह खुद को एक चुकी हुई बूढ़ी खूसट मानने लगी थी.

भरी जवानी में ही काकी की हर रस, रंग, साज और मौजमस्ती से दूरी हो गई थी. उस के मन में नफरत और बदले के नागफनी इतने विकराल आकार लेते गए कि फिर उन में किसी दूसरे आदमी के प्रति प्यार या चाहत के फूल खिल ही न सके.

किसी ने उसे यह नहीं समझाया, ‘लाड़ो, अपने बेवफा शौहर के फिर मुंह लगेगी, तो क्या हासिल होगा तुझे? वह सच्चा होता तो क्या यों छोड़ कर जाता तुझे? उसे वापस ले भी आएगी, तो क्या अब वह तेरे भरोसे लायक बचा है? क्या करेगी अब उस का तू? वह तो ऐसी चीज है कि जो निगले भी नहीं बनेगा और बाहर थूकेगी, तो भी कसैली हो जाएगी तू.

‘वह तो बदचलन है ही, तू भी अगर उस की तलाश में थानाकचहरी जाएगी, तो तू तो वैसी ही हो जाएगी. शरीफ लोगों का काम नहीं है यह सब.’

कोई तो एक बार उसे कहता, ‘देख काकी, तेरे पास हुस्न है, जवानी है, अरमान हैं. तू क्यों आग में झोंकती है खुद को? दफा कर ऐसे पति को. पीछा छोड़ उस का. तू दोबारा घर बसा ले. वह 20 साल बाद आ कर तुझ पर अपना दावा दायर करने से रहा. फिर किस आधार पर वह तुझ पर अपना हक जमाएगा? इतने सालों से तेरे लिए बिलकुल पराया था. तेरे तन की जमीन को बंजर ही बनाता रहा वह.

‘शादी के पहले के कुछ दिनों में ही तेरे साथ रहा, सोया वह. यह तो अच्छा हुआ कि तेरी कोख में अपना कोई गंदा बीज रोप कर नहीं गया वह दुष्ट, वरना सारी उम्र उस से जान छुड़ानी मुश्किल हो जाती तुझे.’

कुनबे ने काकी के बारे में 3 बार फतवे जारी किए थे. पहली बार काकी की मां ने ऐसे ही विद्रोही शब्द कहे थे कि कहीं नहीं जाएगी काकी. पहली बार गांव में तब हंगामा हुआ था, जब काकी दीनू काका के बेटे रमेश के बहकावे में आ गई थी और उस ने उस के साथ भाग जाने की योजना बना ली थी. वह करती भी तो क्या करती.

35 बरस की हो गई थी वह, मगर कहीं उस के रिश्ते की बात जम नहीं रही थी. ऐसे में लड़कियां कब तक खिड़कियों के बाहर ताकझांक करती रहें कि उन के सपनों का राजकुमार कब आएगा. इन दिनों राजकुमार लड़की के रंगरूप या गुण नहीं देखता, वह उस के पिता की जागीर पर नजर रखता है, जहां से उसे मोटा दहेज मिलना होता है.

गरीब की बेटी और वह भी जन्म से गूंगीबहरी. कौन हाथ धरेगा उस पर? वैसे, काकी गजब की खूबसूरत थी. घर के कामकाज में भी माहिर. गोरीचिट्टी, लंबा कद. जब किसी शादीब्याह के लिए सजधज कर निकलती, तो कइयों के दिल पर सांप लोटने लगते. मगर उस के साथ जिंदगी बिताने के बारे में सोचने मात्र की कोई कल्पना नहीं करता था.

वैसे तो किसी कुंआरी लड़की का दिल धड़कना ही नहीं चाहिए, अगर धड़के भी तो किसी को कानोंकान खबर न हो, वरना बरछे, तलवारें व गंड़ासियां लहराने लगती हैं. यह कैसा निजाम है कि जहां मर्द पचासों जगह मुंह मार सकता था, मगर औरत अपने दिल के आईने में किसी पराए मर्द की तसवीर नहीं देख सकती थी? न शादी से पहले और शादी के बाद तो कतई नहीं.

पर दीनू काका के फौजी बेटे रमेश का दिल काकी पर फिदा हो गया था. काकी भी उस से बेपनाह मुहब्बत करने लगी थी. मगर कहां दीनू काका की लंबीचौड़ी खेती और कहां काकी का गरीब कुनबा. कोई मेल नहीं था दोनों परिवारों में.

पहली ही नजर में रमेश काकी पर अपना सबकुछ लुटा बैठा, मगर काकी को क्या पता था कि ऐसा प्यार उस के भविष्य को चौपट कर देगा.

रमेश जानता था कि उस के परिवार वाले उस गूंगी लड़की से उस की शादी नहीं होने देंगे. बस, एक ही रास्ता बचा था कि कहीं भाग कर शादी कर ली जाए.

उन की इस योजना का पता अगले ही दिन चल गया था और कई परिवार, जो रमेश के साथ अपनी लड़की का रिश्ता जोड़ना चाहते थे, सब दिशाओं में फैल गए. इश्क और मुश्क कहां छिपते हैं भला. फिर जब सारी दुनिया प्रेमियों के खिलाफ हो जाए, तो उस प्यार को जमाने वालों की बुरी नजर लग जाती है.

काकी का बचपन बड़े प्यार और खुशनुमा माहौल में बीता था. उस के छोटे भाई राजा को कोई चिढ़ाताडांटता या मारता, तो काकी की आंखें छलछला आतीं. अपनी एक साल की भूरी कटिया के मरने पर 2 दिन रोती रही थी वह. जब उस का प्यारा कुत्ता मरा तो कैसे फट पड़ी थी वह. सब से ज्यादा दुख तो उसे पिता के मरने पर हुआ था. मां के गले लग कर वह इतना रोई थी कि मानो सारे दुखों का अंत ही कर डालेगी. आंसू चुक गए. आवाज तो पहले से ही गूंगी थी. बस गला भरभर करता था और दिल रेशारेशा बिखरता जाता था. सबकुछ खत्म सा हो गया था तब.

अब जिंदा बच गई थी तो जीना तो था ही न. दुखों को रोरो कर हलका कर लेने की आदत तब से ही पड़ गई थी उसे. दुख रोने से और बढ़ते जाते थे.

रमेश से बलात छीन कर काकी को दूर फेंक दिया गया था एक अधेड़ उम्र के पिलपिले गरीब किसान के झोंपड़े में, जहां उस के जवान बेटों की भूखी नजरें काकी को नोंचने पर आमादा थीं.

काकी वहां कितने दिन साबुत बची रहती. भाग आई भेडि़यों के उस जंगल से. कोई रास्ता नहीं था उस जंगल से बाहर निकलने का.

जो रास्ता काकी ने खुद चुना था, उस के दरमियान सैकड़ों लोग खड़े हो गए थे. काकी के मायके की हालत खराब तो न थी, मगर इतने सोखे दिन भी नहीं थे कि कई दिन दिल खोल कर हंस लिया जाए. कभी धरती पर पड़े बीजों के अंकुरित होने पर नजरें गड़ी रहतीं, तो कभी आसमान के बादलों से मुरादें मांगती झोलियां फैलाए बैठी रहतीं मांबेटी.

रमेश से छिटक कर और फिर ससुराल से ठुकराई जाने के बाद काकी का दिल बुरी तरह हार माने बैठा था. अब काकी ने अपने शरीर की देखभाल करनी छोड़ दी थी. उस की मां उस से अकसर कहती कि गरीब की जवानी और पौष की चांदनी रात को कौन देखता है.

फटी हुई आंखों से काकी इस बात को समझने की कोशिश करती. मां झुंझला कर कहती, ‘‘तू तो जबान से ही नहीं, दिल से भी बिलकुल गूंगी ही है. मेरे कहने का मतलब है कि जैसे पूस की कड़कती सर्दी वाली रात में चांदनी को निहारने कोई नहीं बाहर निकलता, वैसे ही गरीब की जवानी को कोई नहीं देखता.’’

मां चल बसीं. काकी के भाई की गृहस्थी बढ़ चली थी. काकी की अपनी भाभी से जरा भी नहीं बनती थी. अब काकी काफी चिड़चिड़ी सी हो गई थी. भाई से अनबन क्या हुई, काकी तो दरबदर की ठोकरें खाने लगी. कभी चाची के पास कुछ दिन रहती, तो कभी बूआ काम करकर के थकटूट जाती थी. काकी एक बार खाट से क्या लगी कि सब उसे बोझ समझने लगे थे.

आखिरकार काकी की बिरादरी ने एक बार फिर काकी के बारे में फैसला करने के लिए समय निकाला. इन लोगों ने उस के लिए ऐसा इंतजाम कर दिया, जिस के तहत दिन तय कर दिए गए कि कुलीन व खातेपीते घरों में जा कर काकी खाना खा लिया करेगी.

कुछ दिन तक यह बंदोबस्त चला, मगर काकी को यों आंखें झुका कर गैर लोगों के घर जा कर रहम की भीख खाना चुभने लगा. अपनी बिरादरी के अब तक के तमाम फैसलों का काकी ने विरोध नहीं किया था, मगर इस आखिरी फैसले का काकी ने जवाब दिया. सुबह उस की लाश नहर से बरामद हुई थी. अब काकी गूंगीबहरी ही नहीं, बल्कि अहल्या की तरह सर्द नीला पत्थर हो चुकी थी.

टैडी बियर: भाग 3- क्या था अदिति का राज

 

फिर वह नीलांजना के पास आ कर बोला, ‘‘तुम यहां कैसे? मतलब यहां किसलिए?’’

अर्णव के हैरानपरेशान चेहरे को देख नीलांजना की हंसी छूटने लगी. वह कुछ समझता उस से पहले ही धु्रव अर्णव के कंधे पर हाथ रखते हुए नीलांजना से बोला, ‘‘यह मेरा साला यानी अदिति का भाई है और अर्णव यह मेरी कजिन.’’

‘‘ओह नो…’’

‘‘अर्णव के हावभाव देख कर आदिति सहसा बोली, ‘‘नीलांजना यह तुम लाई हो… क्या तुम ही इस की….’’

‘‘हां भाभी मैं ही इस की ऐक्स गर्लफ्रैंड हूं… सौरी भाभी, प्रोग्राम तो अर्णव को परेशान करने का था, पर आप गेहूं के साथ घुन सी पिस गईं.’’

‘‘ओहो नीलांजना, बस अब बहुत हुआ… तेरे और अर्णव के चक्कर में मेरी प्यारी बीवी परेशान हो रही है. बस अब खोल दे सस्पैंस,’’ धु्रव ने कहा.

नीलांजना अर्णव और अदिति की बेचारी सी सूरत देख अपनी हंसी रोकते हुए बोली, ‘‘हुआ यों कि जब आप का और धु्रव भैया का फोटो सोशल साइट पर वायरल हुआ था तब मुझे इस टैडी को देख कर कुछ शक हुआ था, क्योंकि इस टैडीबियर को मैं ने अपने हाथ से बनाया था, इसलिए आसानी से पहचान लिया. और तो और इस के गले में मेरा वही रैड स्कार्फ बंधा था जो अर्णव को बहुत पसंद था. पोल्का डौट वाला रैड स्कार्फ… याद है अर्णव तुम उस स्कार्फ में देख कर मुझ पर कैसे लट्टू हो जाते थे,’’ कह वह जोर से हंसी तो अर्णव का चेहरा शर्म से लाल हो गया.

अर्णव किसी तरह अपनी झेंप मिटाते हुए बोला, ‘‘दीदी, कम से कम स्कार्फ तो हटा देतीं.’’

यह सुन कर अदिति शर्म से दुहरी होती हुई बोली, ‘‘तुम दोनों के सामने मेरी और अर्णव की करामात यों सामने आएगी, सोचा नहीं था.’’

‘‘भाभी प्लीज… ये सब मजाक था. आप दोनों को शर्मिंदा करना हमारा कोई मकसद थोड़े ही था… आप भाईबहन की क्यूट बौंडिंग पर हम भाईबहन थोड़ी मस्ती करना चाहते थे. पहले भैया राजी नहीं थे. मुझ पर नाराज भी हुए कि मैं ने अर्णव को तंग करने के लिए टैडी क्यों मांगा… भैया आप से बहुत प्यार करते हैं भाभी… आप की शादी को पूरा 1 साल हो गया है. मैं इंडिया आती आप से मिलती अर्णव भी मिलता तो सब सामने आता ही… ऐसे में फन के लिए मैं ने अपने ध्रुव भैया को पटाया कि चलो थोड़ी मौजमस्ती के साथ यह बात खुले… मेरी ऐंट्री धमाके के साथ हो तो मजा आ जाए…’’ नीलांजना ने अदिति का हाथ पकड़ कर कहा.

अदिति कुछ शर्मिंदगी से बोली, ‘‘जो भी कहो, पर मेरी चोरी धु्रव के सामने इस तरह आएगी मैं सोच भी नहीं सकती थी.’’

यह सुन कर धु्रव ने उसे गले से लगाते हुए कहा, ‘‘दिल तो तुम ने मेरा कभी का चुरा लिया था मेरी जान और हां हमारे प्यार के प्रूफ के लिए किसी टैडीवैडी की जरूरत नहीं… हां बाय द वे नीलांजना ने हमारी शादी के पहले ही मुझे सब बता दिया था. पहले जाहिर करता तो पता नहीं तुम कैसे रिएक्ट करतीं. अब 1 साल में तुम्हें अपने प्रेम में पूरी तरह गिरफ्त में लेने के बाद मैं ने मस्ती करने की गुस्ताखी की है,’’ धु्रव कानों को पकड़ते हुए बोला.

अदिति को अब भी मायूस खड़े देख कर नीलांजना बोली, ‘‘भाभी प्लीज, आप ऐसे सैड ऐक्सप्रैशन मत दो. ऐसे ऐक्सप्रैशन तो मैं अर्णव के चेहरे पर देखना चाहती थी, पर क्या बताऊं, अब उस में भी मजा नहीं, क्योंकि अभीअभी आते समय प्लेन में एक इंडियन से मेरी मुलाकात हो गई. खूब बातें भी हुईं… लगता है वह मुझ में रुचि ले रहा है. फोन नंबर दिया है… देखते हैं क्या होता है?’’ कह कर वह बिंदास हंस दी.

‘‘अदिति सच कहूं तो आज से कुछ साल बाद हम यह किस्सा सुनेंगे, सुनाएंगे और हंसेंगे…’’ धु्रव बोला.

नीलांजना भी कहने लगी, ‘‘भाभी, आप और भैया तथा इस टैडी का फोटो वायरन होने के बाद ही मैं ने अर्णव के प्रति पाली नाराजगी और कुछ आप को तंग करने की गुस्ताखी में अर्णव से टैडी मांगा था. अर्णव कुछ समझ नहीं पाया पर मेरे इस व्यवहार पर इतना नाराज हुआ कि उस ने मुझे दिए सारे गिफ्ट मांग लिए. आस्ट्रेलिया में होने के कारण शादी में मैं नहीं आई, पर कभी न कभी तो मैं अर्णव से मिलती ही, तब सब जान ही जाते… भैया शादी के पहले से ही सब जानते थे. हम ने तय किया था कि किसी ऐसे ही मजेदार मौके पर इस बात का खुलासा करेंगे.’’

‘‘ओह,’’ कह कर अदिति ने अपना सिर पकड़ लिया. फिर अर्णव को धौल जमाती हुए कहने लगी, ‘‘सब तेरी वजह से हुआ है.’’

अर्णव को अपनी पीठ सहलाते देख कर धु्रव हंसते हुए बोला, ‘‘अरे सुनो अदिति, जब टैडी वाली बात सामने आई है तो अब मैं भी कन्फेस कर लूं…’’

‘‘क्या…अब क्या रह गया है,’’ हैरानी से अदिति ने पूछा.

धु्रव हंस कर बोला, ‘‘तुम्हें पहली बार मैं ने जो ड्रैस दी थी. अरे वही पिंक वाली

ड्रैस जो तुम्हारे ऊपर बड़ी फबती दिखती है, जिसे पहन कर टैडी और मेरे साथ तुम ने फोटो खचवाया था, जो वायरल हुआ था सोशल साइट पर…’’

‘‘हांहां, समझ गई तो?’’

उस का मुंह आश्चर्य से खुला देख नीलांजना हंसते हुए बोली, ‘‘भाभी, वह ड्रैस मैं ने अपने लिए औनलाइन मंगवाई थी, पर टाइट पड़ गई… रिटर्न औप्शन भी नहीं था. भैया आप को गिफ्ट देना चाहते थे तो मैं ने कहा इसे दे दो. पैसे बच जाएंगे और ड्रैस भी काम आ जाएगी.’’

‘‘ओह, नो,’’ अदिति सिर थामते हुए बोली. फिर सहसा हंसते हुए कहने लगी, ‘‘फिर तो नीलांजना, हम दोनों तुम्हारे कर्जदार हैं. ये ड्रैस के लिए और मैं टैडीबियर के लिए,’’ फिर सहसा धीमेधीमे हंसते हुए धु्रव को देख नकली गुस्से से बोली, ‘‘और हां, तुम ने उस ड्रैस के लिए कैसेकैसे स्वांग रचे थे… क्या कहा था कि यह ड्रैस देखते ही मैं फिदा हो गया और यह भी कि ड्रैस तुम्हारे लिए बनी हुई लगती है.’’

‘‘हां, तो सही तो कहा था… तभी तो नीलांजना को टाइट पड़ गई…’’ धु्रव की बात सुन कर सब जोर से हंस पड़े. अदिति भी.

तभी अर्णव की आवाज आई, ‘‘दीदी,

10 बजे गए हैं, कुछ खाने को दो. और

हां नीलांजना काफी देर हो गई तुम्हारा कोई फोन नहीं आया. शायद जहाज में बैठे सहयात्री ने तुम्हारे साथ टाइम पास किया होगा. तभी फोन नहीं किया… देख लो, औप्शन अभी भी तुम्हारे सामने है,’’ अर्णव ने शरारत से कहा.

यह सुन ‘‘अर्णव के बच्चे,’’ कहते हुए नीलांजना ने टैडी उस पर दे मारा.

घर की इस गहमागहमी में धु्रव कुछ रूठी हुई अदिति को मनाते हुए कह रहा था,, ‘‘बड़ा शोर है यहां… अगले साल इन हड्डियों से बचने के लिए हम हनीमून पर कहीं बाहर चले जाएंगे…’’

‘‘सच?’’ अदिति ने नकली गुस्सा फेंक कर मुसकराते हुए उसे बाहों में भर लिया.

एकदूसरे से छिपाए गए बड़े झूठ यहां खुले थे, पर जो सच इन के दिलों में बंद था वह यह कि दोनों एकदूसरे से बेइंतहा प्यार करते थे. तभी तो एक के बाद एक हुए खुलासे पर दोनों को हंसी आ रही थी. शादी की पहली सालगिरह की दूसरी सुबह यकीनन यादगार थी.

दुनिया अगर मिल जाए तो क्या: भाग-3

ओनीर चुप रहा तो सहर को इस बात का दुख हुआ कि ओनीर ने यह नहीं कहा कि नहीं, मेरे लिए प्रेम ज्यादा जरूरी है. दोनों थोड़ी देर बाद एक जगह रेत पर बैठ गए. अंधेरा हो गया था. इतने में सहर का फोन बजा, ‘‘हां, मम्मी, आती हूं, ओनीर के साथ हूं. आप की मीटिंग कैसी रही? आती हूं, मम्मी. हां, अब सैलिब्रेट करेंगे.’’

ओनीर ने अंदाजा लगाया कि सहर और उस की मम्मी की बौंडिंग बहुत अच्छी है. वह जानता था कि कुछ साल पहले सहर के पिता नहीं रहे थे. उस की मम्मी वर्किंग थीं. सहर एक गहरी सांस ले कर चांद को देखने लगी. इस समय बीच पर बहुत ही खुशनुमा सा, कुछ रहस्यमयी सा माहौल होता है. छोटे बच्चे इधरउधर दौड़ते रहते हैं. इस समय जवान जोड़ों की बड़ी भीड़ होती है.

अंधेरे में दूर तक लड़केलड़कियां एकदूसरे से लिपटे, अपने प्रेम में खोए दुनिया को जैसे नकारने पर तुले होते हैं. ऐसा लगता है फेनिल लहरें हम से छिपमछिपाई खेल रही हैं, पास आती हैं, फिर अचानक चकमा दे

कर दूर हो जाती हैं. ओनीर ने कहा, ‘‘क्या सोचने लगी?’’

‘‘सितारों की गलियों में फिरता है तन्हा चांद भी,

किसी इश्क का मारा लगता है!’’

अब ओनीर से रुका न गया. उस ने सहर की हथेली अपने गीले से हाथ में पकड़ी और उस पर अपना प्यार रख दिया. सहर बस मुसकरा दी, शरमाई भी. कुछ पल यों ही गुजर गए. कोई कितना भी हाजिरजवाब हो, कुछ पल कभीकभी सब को चुप करवा देते हैं. सहर को भी कुछ सम?ा नहीं आ रहा था कि क्या कहे, बस,

बोल पड़ी, ‘‘कभी घर आओ, मम्मी से मिलवाती हूं.’’

‘‘आऊंगा. आओ, कुछ खाते हैं, फिर घर चलते हैं. तुम्हें देर हो रही होगी.’’

कुछ दिन और बीते, दोनों फोन पर टच में थे. अब जौब ढूंढ़ी जा रही थी. बहुत सारे औप्शंस दिख भी रहे थे. चैताली

की मदद से सहर उसी कालेज में

प्रोफैसर बन गई. चैताली और भी स्टूडैंट्स को गाइड कर रही थीं कि उन्हें क्या

करना चाहिए.

एक दिन ओनीर सहर से मिला.

सहर ने अपने जौब की खुशी में दोस्तों

को पार्टी के लिए बुलाया था. सहर ने ओनीर को छेड़ा, ‘‘हम लोग तो नौकरी ही ढूंढ़ रहे थे, तुम्हारा क्या हुआ, कौन से इतिहास के पन्ने पलट कर दोबारा क्रांति लाओगे?’’

नितारा भी उस के पीछे पड़ गई, ‘‘बताओ न, कौन सी पार्टी जौइन कर रहे हो?’’ ओनीर और सहर प्रेम की राह पर साथ बढ़ चुके हैं, यह अब सब को पता था. ओनीर ने झेंपते हुए कहा, ‘‘मैं ने भी प्रोफैसर पद के लिए ही अप्लाई किया है, वेट कर रहा हूं.’’

सब उस का मुंह देखने लगे. सहर की आंखों में एक संतोष उभरा.

ओनीर को अच्छा लगा कि सहर को उस के कैरियर की इस चौइस से खुशी हुई है. दोस्त हंसने लगे. ‘एक ही कालेज में प्रोफैसर बन जाओ दोनों, मजा आएगा.’ यों ही हंसीमजाक होता रहा. फिर सब चले गए. ओनीर रुका रहा. कुछ इधरउधर की बात करने के बाद सहर ने कहा,

‘आओ, किसी दिन आ कर मम्मी से मिल लो.’

‘‘ठीक है, कल आता हूं.’’

‘‘मम्मी की कल छुट्टी है, लंच पर आ जाओ.’’

‘‘ठीक है.’’

निकहत ने सहर से पूरी बात सुनी. वह बहुत खुश हुई. शानदार लंच मांबेटी ने मिल कर बनाया. उधर ओनीर अपनी उल?ानों में बुरी तरह बेचैन था. उसे सहर से प्यार था. वह उस से शादी करना चाहता था. उस ने जब अपने मम्मीपापा से इस बारे में बात

की तो उस के घर में एक तूफान आ

गया. उस के पिता विकास एक न्यूज चैनल में काम करते थे. मम्मी हाउसवाइफ थीं. किटी पार्टी, भजन, सत्संग वाली महिला

थीं वे.

दोनों ने सहर के बारे में सुन कर ओनीर को बुरी तरह दुत्कारा, छोटी बहन की शादी का वास्ता दिया. ओनीर को सहर के साथ आगे बढ़ना मुश्किल लगा. इस घर में तो सहर कभी खुश नहीं रह सकती थी, क्या करे. अब सहर को छोड़ नहीं सकता था पर मातापिता के प्रति भी फर्ज था. वही सदियों पुराना सवाल उस के सामने मुंहफाड़े खड़ा था कि फर्ज या प्रेम.

सहर के घर की डोरबैल बजाते हुए ओनीर ने नेमप्लेट पर लिखे नाम पढ़े, मानव नौटियाल, निकहत रिजवी, सहर रिजवी नौटियाल. उसे हंसी आ गई. अजीब ही परिवार था. सब की एक अलग ही अपनी पहचान थी. कैसी होंगी सहर की मम्मी! दरवाजा निकहत ने ही खोला. उन की एक स्माइल से ही ओनीर के सारे भ्रम, दुविधा दूर हो गए. वह सहज हो गया. निकहत ने उस से बहुत स्नेह, अपनेपन से बातें कीं.

सहर ने भी उस का खूब वैलकम किया. खानापीना बहुत अच्छे, स्नेहिल माहौल में हुआ. घर की साजसज्जा बहुत सलीके से, सुरुचिपूर्ण हुई थी. जब तक खाना खा कर सब फ्री हुए, तीनों के हंसीमजाक ऐसे हो रहे थे जैसे तीनों कब से एकदूसरे को जानते हैं.

निकहत बहुत जौली नेचर की महिला थीं. हर फील्ड की उन्हें खूब जानकारी थी. औस्कर में दीपिका के ब्लैक गाउन से ले कर ‘नाटूनाटू…’ तक बात करते हुए वे खूब उत्साहित थीं. वहीं, महाराष्ट्र की पलपल बदलती राजनीति पर उन की खूब पकड़ थी. ओनीर को बहुत अच्छा लग रहा था. उस ने पूछ लिया, ‘‘आंटी, आप मुंबई की, अंकल उत्तराखंड के? आप लोग कहां मिले? आप लोगों की शादी आराम से

हो गई?’’

निकहत का स्वर धीमा हो गया. चेहरा अचानक कुछ उदास हुआ. एक गहरी सांस ले कर बोलीं,

‘‘हमारे समाज में ऐसी शादियां आसानी से कहां हो सकती हैं. पढ़ेलिखे, आधुनिक बनते लोग जाति पर अटके रहते हैं.’’

यह सुन कर ओनीर मन ही मन कुछ शर्मिंदा सा हुआ पर परवरिश ने जोर मारा. मातापिता को याद किया. खुद को समझ लिया कि जाति का भी महत्त्व है. संस्कार चहक उठे. प्रेम कहीं दुबक गया.

निकहत आगे बताने लगीं, ‘‘जब बाबरी मसजिद के समय दंगों का माहौल था. मुझे अंदाजा नहीं था कि क्या होने वाला है. क्या हो सकता है. मैं किसी काम से घर से निकली हुई थी कि पता चला, मैं जिस जगह थी, वहां कर्फ्यू लगा दिया गया है. हम 2 बहनें ही थीं. मैं बड़ी थी. मैं एक जगह डरी खड़ी थी. मैं ने स्कार्फ पहना हुआ था. अपने सिर को ढक रखा था. तभी एक बाइक मेरे पास आ कर रुकी.

मानव थे. मानव ने अंदाजा लगा लिया कि मैं मुसलिम हूं. वे बोले, यहां मत रुको. मेरे सामने वाले फ्लैट में एक मुसलिम फैमिली रहती है, आप मु?ा पर तो यकीन नहीं करेंगी, अगर चाहो तो वहां रुक जाओ. सब ठीक हो जाए, तो अपने घर चली जाना. सामने वाली फैमिली बहुत अच्छी है, बुजुर्ग पतिपत्नी हैं. उन के इतना कहते ही कहीं शोर की आवाज हुई तो मैं घबरा गई.

‘‘उस समय कुछ और औप्शन नहीं था और दिल मानव पर विश्वास करने के लिए तैयार था. बगैर उन्हें जाने, उन का बात करने का ढंग और उन की आंखें जैसे एक सच्चे इंसान की तसवीर पेश कर रही थीं.

‘‘मैं यहीं आई थी सामने वाले फ्लैट में. तब मुझे पता नहीं था कि जिंदगी मुझे सामने वाले फ्लैट के रास्ते मानव के दिल और घर और फिर उस के जीवन तक ले आई है. बहुत दहशतभरा माहौल था. मैं 3 दिनों बाद बड़ी मुश्किल से अपने घर जा पाई थी.

खूब आगजनी हुई थी. वे 3 दिन मैं  लगातार मानव के फोन से ही अपने घरवालों के टच में थी. मेरे घर तक के रास्ते में बड़ी तोड़फोड़ हुई थी. कुछ लोग बड़े जिद्दी होते हैं, दिल के किसी कोने में रह ही जाते हैं. मानव ने मेरे दिल में उन दंगों के दौरान ऐसी जगह बनाई कि फिर मैं उस की मोहब्बत में सब भूल गई. सामने का फोन खराब था, वह अपने फोन से मेरे घरवालों से मेरी बात करवाता रहा. मेरे पास उस समय फोन नहीं था.

सामने वाले अंकलआंटी अब तो नहीं रहे पर जब तक वे रहे, मेरे सिर पर उन का हाथ हमेशा रहा. वह मेरे घर तक जा कर मुझे छोड़ कर आया पर मेरा एक जरूरी हिस्सा अपने साथ ले आया, मेरा दिल.’’

‘‘आप दोनों के घरवाले मान गए थे?’’

‘‘नहीं, कोई न माना. हम ने इंतजार किया कि वे हमें अपना आशीर्वाद दें पर कोई न माना. मानव का घर तो क्या, उत्तराखंड ही छूट गया. वे वहां फिर कभी नहीं गए. मेरे परिवार वालों ने भी हमें नहीं अपनाया पर हम क्या करते, न चाहते हुए भी उन के बिना जी ही लिए. कई बार प्रेम में बहुतकुछ छूटता है, बहुतकुछ मिलता भी है. हम ने बहुत प्यारमोहब्बत से अपना घरसंसार बसाया था. पर मानव के जाने के बाद, बस, अब सहर और मैं हूं. हमारा छोटा सा परिवार है जहां कम ही लोगों की आवाजाही है. अमजद इसलाम ने कहा है न-

‘‘कहां आके रुकने थे रास्ते, कहां मोड़ था उसे भूल जा. वो जो मिल गया उसे याद रख, जो नहीं मिला उसे भूल जा.’’

अब अचानक ओनीर को हंसी आ गई, बोला, ‘‘ओह, अब समझ. सहर ने यह शेरोशायरी कहां से सीखी.’’

निकहत और सहर भी इस बात पर हंस पड़ीं. तीनों और भी बहुत सी बातें करते रहे. फिर ओनीर उन से विदा ले अपने घर चला गया. उस के दिलोदिमाग की हालत अजीब थी. एक तरफ मातापिता और दूसरी तरफ सहर. क्या होगा! सोचने में कुछ दिन और बीत गए. इतने में ही उसे भी मुंबई के ही एक कालेज में जौब मिल गई.

सहर की खुशी का ठिकाना न था. ओनीर के घरवाले भी बहुत खुश हुए. ओनीर ने अब फिर उन से सहर से शादी के बारे में बात की. तो, घर का माहौल फिर बिगड़ गया. वह जा कर अपने बैडरूम में थका सा लेट गया. इतने में सहर का मैसेज आया. अब वह अकसर किसी भी गीत, शेर का कोई हिस्सा उसे भेजती रहती थी. उस का कहना था कि जब भी उसे ओनीर की याद आती है, वह ऐसा करती है.

सहर ने लिखा था, ‘‘ये दुनिया जहां आदमी कुछ नहीं है, वजह कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है, जहां प्यार की कदर ही कुछ नहीं है, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!’’

सहर ने आगे लिखा था, ‘इश्क न हुआ कुहरा हो जैसे, तुम्हारे सिवा कुछ दिखता ही नहीं.’

ओनीर फोन अपने सीने पर रख कर ऐसे लेट गया जैसे यह फोन नहीं, सहर का हाथ हो. कई महीनों से उस के दिमाग में जो उधेड़बुन चल रही थी, अचानक जैसे उस ने विराम पाया. उसे लगा, हां, सहर का प्यार अगर उस से दूर हो जाए, सहर को खो कर उसे सबकुछ मिल भी जाए तो उस के लिए कितना बेमानी होगा. क्या करना है उसे इस दुनिया का. फिर उस के लिए जीवन कितना बेरंग होगा.

उस ने एक ठंडी सांस ली. घरवाले खुशीखुशी मान गए तो ठीक, वरना वह प्रेम पर बढ़े अपने कदमों को किसी हाल में वापस नहीं रखेगा. उसे सहर के साथ बहुत दूर तक चलना है, चाहे कुछ भी हो जाए. फैसला हो चुका था. अब संस्कार दुबके थे. प्रेम मुसकरा रहा था.

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