Short Story In Hindi : पीकू की सौगात

Short Story In Hindi : हमारेलाख समझाने के बावजूद कि अमिताभ की फिल्म देखने का मजा तो पीवीआर में ही है, बच्चों ने यह कहते हुए एलईडी पर पैन ड्राइव के जरीए ‘पीकू’ लगा दी कि पापा 3 घंटे बंध कर बैठना आप के बस में कहां? हंसने लगे सो अलग. उस समय तो हम समझ नहीं पाए कि बच्चे क्या समझाना चाहते हैं. परंतु जब फिल्म में मोशन के साथ इमोशन जुड़े और बच्चे मम्मी की ओर देख कर हंसने लगे, तो हमें समझ में आया कि बच्चे क्या कर रहे थे. बच्चों की हंसी देख हम झेंपे जरूर, लेकिन उन का हंसना जायज भी था. दरअसल, मोशन की इस बीमारी से हम भी पिछले काफी समय से जूझ रहे थे, जिस का एहसास पहली बार हमें उस दिन हुआ जब संडे होने के कारण बच्चे देर तक सो रहे थे और अखबार में छपे एक इश्तहार को पढ़ हमारी श्रीमतीजी का मन सैंडल खरीदने को हो आया.

‘‘चलो न, पास ही तो है यह मार्केट. गाड़ी से 5 मिनट लगेंगे. बच्चों के उठने तक तो वापस भी आ जाएंगे,’’ श्रीमतीजी के इस कदर प्यार से आग्रह करने पर हम नानुकर नहीं कर पाए और पहुंच गए मार्केट. सेल वाली दुकान के पास ही बहुत अच्छा रैस्टोरैंट था, तो श्रीमतीजी का मन खाने को हो आया. इसलिए पहले हम ने वहां कुछ खायापिया और फिर घुसे फुटवियर के शोरूम में. श्रीमतीजी सैंडल की वैरायटी देखने लगीं, लेकिन तभी हमारे पेट में हलचल होने लगी. अब हम श्रीमतीजी को सैंडल पसंद करने में देरी करता देख खीजने लगे कि जल्दी सैंडल पसंद करें और घर चलें. आखिर उन्हें सैंडल पसंद आ गई, तो हम ने राहत की सांस ली. लेकिन चैन कहां मिलने वाला था हमें? बाहर निकलते ही सामने गोलगप्पे वाले की रेहड़ी देख श्रीमतीजी की लार टपकी. वे बाजार जाएं और गोलगप्पे न खाएं, यह तो असंभव है. उन्होंने हमारे आगे गोलगप्पे खाने की इच्छा जाहिर की तो हमारा मन हुआ कि गोलगप्पे वाले का मुंह नोच लें. मुए को यहीं लगानी थी रेहड़ी.

खैर, 2-2 गोलगप्पे खाने की बात कर श्रीमतीजी ने 6 तो खुद खाए और उतने ही हमें भी खिला दिए. अब उन्हें कैसे समझाते कि हम किस परेशानी में हैं. दूसरे, उन की तुनकमिजाजी से भी वाकिफ थे हम, इसलिए न चाहते हुए भी गोलगप्पे गटक लिए. लेकिन पेट की जंग ने रौद्र रूप ले लिया था. मार्केट से बाहर निकल हम तेज कदमों से पार्किंग की ओर बढ़े तो श्रीमतीजी पूछ बैठीं, ‘‘इतनी जल्दी क्यों चल रहे हो?’’

हम ने पेट की परेशानी के बजाय बहाना बनाया, ‘‘बच्चे उठ गए होंगे, जल्दी चलो.’’ तभी उन्हें उन की पुरानी सहेली मिल गई. गप्पें मारने में तो श्रीमतीजी वैसे ही माहिर हैं, सो लगीं दोनों अगलीपिछली हांकने. उन्हें हंसी के फुहारे छोड़ते देख हम ने अपना माथा पीट लिया क्योंकि जल्दी देरी में जो बदलती जा रही थी. ऐसे में श्रीमतीजी का मोबाइल बजा तो हमें सुकून मिला. बच्चों का फोन था, इसलिए बतियाना छोड़ वे जल्दी से घर चलने को हुईं तो हम ने राहत महसूस की. घर पहुंचने पर फारिग होने के बाद हम ने घर के लोगों से अपनी समस्या शेयर की तो सभी हंसने लगे, लेकिन समाधान किसी ने न बताया. वैसे रोज तो हम यह परेशानी झेल लेते थे, क्योंकि औफिस में डैस्कवर्क था. साथ ही वहां वौशरूम की परेशानी नहीं थी. पर कभी बाहर जाना पड़ता तो खासी परेशानी होती. तिस पर जब इस का संबंध श्रीमतीजी की खरीदारी से जुड़ा तो मुश्किलें और बढ़ गईं.

हमारी श्रीमतीजी मार्केट जा कर खरीदारी भले ही धेले भर की भी न करें पर जिस दुकान में घुस जाती थीं, सारा माल खुलवा कर रख देती थीं. और भले ही घर से खापी कर निकलें, लेकिन चाटपकौड़ी खाए बिना न रहतीं. ऐसे में हमारी हालत पतली होनी ही थी. ‘पीकू’ में भास्कर की समस्या हम से कुछ मिलतीजुलती ही थी, जिसे दिखा बच्चे उसे हमारी हालत से जोड़ रहे थे. जोड़ते भी क्यों न, उस दिन हुआ भी तो कुछ ऐसा ही था. हम ससुराल गए हुए थे कि देर रात तक की आपसी बातचीत से हमारी श्रीमतीजी को पता चला कि यहां पास की मार्केट में सूटों के बहुत अच्छे शोरूम बन गए हैं, जहां बहुत अच्छे डिजाइनर सूट मिलते हैं, साथ ही वे फिटिंग भी कर के देते हैं. बस, श्रीमतीजी की खरीदारी की सनक परवान चढ़ी और वे बना बैठीं सुबह हमारी साली के साथ मार्केट जाने का प्रोग्राम. और कोई प्रोग्राम होता तो हम मना कर देते लेकिन साली संग जाने का मजा कहां बारबार मिलता है, सो हम ने हां कर दी. सुबह नाश्ते में सासूमां ने खातिरदारी वाली भारतीय संस्कृति का निर्वहन करते हुए हमारी यानी अपने जमाई की खातिर में ऐसे घी चुपड़चुपड़ कर बने गोभी के परांठे खिलाए जैसे अपने बेटे को भी कभी न खिलाए होंगे. न न करते भी हम 4 परांठे डकार गए. ऊपर से दहीमट्ठा पिलाया सो अलग. अब हम श्रीमतीजी संग खरीदारी पर जाने को तैयार हुए तो माथा ठनका कि कहीं रास्ते में बीमारी ने जोर पकड़ लिया तो… हम ने कई बार इस के बारे में सोचा फिर श्रीमतीजी को थोड़ा रुकने को कह पहुंच गए फारिग होने.

लेकिन काफी देर नाक बंद कर सीट पर बैठने और जोर मारने पर भी राहत न मिली, तो श्रीमतीजी के इमोशंस का खयाल रखते हुए हम अपने मोशन का खयाल छोड़ आज्ञाकारी पति की भांति जल्दी से उठे और चल दिए उन के संग मार्केट. श्रीमतीजी दुकान में घूमतीं फिर दूसरी देखतीं. पहले शोकेस में लगा सूट पसंद करतीं फिर अंदर जा कर उलटपुलट कर देखतीं. उन के साथ एक से दूसरी दुकान घूमतेघूमते कब पेट में हलचल शुरू हो गई पता ही न चला. अब हमारी हालत पतली. लगे इधरउधर सुलभ शौचालय तलाशने. हमें नजरें घुमाते देख श्रीमतीजी बोल पड़ीं, ‘‘इधरउधर क्या ढूंढ़ रहे हो, चलो दूसरी दुकान में, यहां तो वैरायटी ही नहीं है.’’ हमें उन की इस आदत का पता है, इसलिए चुपचाप उन के पीछे हो लिए. तभी हमारी नजर सामने शौचालय पर पड़ी तो हम श्रीमतीजी को रोक उधर इशारा करते हुए बोले, ‘‘जरा उधर चलें, हमें…’’

अभी हमारी बात पूरी भी न हुई थी कि साली बोल पड़ी, ‘‘वाह जीजाजी, बड़ा खयाल रखते हैं दीदी के जायके का. चलो चलते हैं. वहां के भल्लेपापड़ी तो वैसे भी मशहूर हैं.’’ अब उसे कौन समझाता कि हमारा उधर जाने का क्या मकसद था. खैर, चल दिए उन के पीछे अपना सा मुंह लिए. श्रीमतीजी ने भल्लेपापड़ी की प्लेटें बनवाईं. हम ने सासूमां के स्वादिष्ठ परांठों का वास्ता देते मना किया पर वे कहां मानने वाली थीं. हमारे न न करने पर भी एक प्लेट हाथ में थमा ही दी. हम ने आधी भल्लापापड़ी खा प्लेट दूसरी ओर रख दी. तभी श्रीमतीजी की नजर एक शोरूम में लगे बुत पर लिपटे एक अनारकली सूट पर अटक गई, जबकि हमारी नजरें अभी भी फारिग होने का मुकाम तलाश रही थीं. ऐसे में राहत यह देख कर मिली कि जिस शोरूम की ओर श्रीमती मुखातिब हुई थीं, उसी के सामने हमारी समस्या का समाधान था. सो हम साली और घरवाली को खरीदारी में मशगूल कर ‘अभी आया’ कह कर इस संकल्प के साथ बाहर निकले कि आगे से श्रीमतीजी संग खरीदारी हेतु जाएंगे तो कुछ खा कर नहीं निकलेंगे. फारिग हो कर आने पर हम ने चैन की सांस ली, लेकिन श्रीमतीजी सूट खरीद पैसों हेतु हमारे इंतजार में तेवर बदले खड़ी थीं. मेरे आते ही वे जोर से बोलीं, ‘‘कहां चले गए थे? हम इतनी देर से इंतजार कर रहे हैं.’’ हम ने धीरे से इशारा कर उन्हें समझाया तो साली हंसी, ‘‘क्या जीजाजी, ससुराल के खाने का इतना भी क्या मोह कि बारबार जाना पड़े,’’ और दोनों खीखी करने लगीं. हम ने चुपचाप पैसे दे कर सामान उठाया और घर चलने में ही भलाई समझी. घर आ कर साली ने चटखारे लेले कर हमारे मोशन के किस्से सुनाए तो बच्चे भी हंसी न रोक सके.

‘पीकू’ में रहरह कर भास्कर बने अमिताभ मोशन पर अच्छीखासी बहस छेड़ते और बच्चे हमारी स्थिति से उस का मेल करते हुए हंसते. सोचने वाली बात यह है कि क्या मोशन जैसा विषय भी किसी कहानी का हो सकता है. हां, क्यों नहीं जनाब, उन से पूछिए जिन्हें रोज इस समस्या से जूझना पड़ता है. हम ने गुस्से से कह दिया, ‘‘हमारे इमोशन की हंसी उड़ाने को दिखा रहे हो न हमें यह फिल्म?’’ ‘‘नहीं जी, बच्चे तो यह बताना चाह रहे हैं कि आप भी अपने मोशन का कुछ ऐसा इंतजाम कर के रखो. जब भी खरीदारी करने जाओ आप भागते हो इसी चक्कर में,’’ श्रीमतीजी ने हमारी बीमारी पर कटाक्ष करते हुए बच्चों का बचाव किया, ‘‘देखा नहीं था उस दिन जब वह आदमी हमारा दुपट्टा खींच गया था.’’ हमें याद आया. दरअसल, उस दिन हम साली की शादी हेतु खरीदारी करने गए हुए थे. बच्चे भी साथ थे. श्रीमतीजी आगेआगे और हम बच्चों का हाथ पकड़े पीछेपीछे. बच्चों के लिए ड्रैस लेते समय वे हम से पूछतीं, लेकिन हमारे हां कहने के बावजूद उन्हें पसंद न आता और वे आगे चल देतीं. बड़ी मुश्किल से उन्होंने बच्चों के कपड़े खरीदे. अब हमारी बारी थी. हम बच्चों के कपड़ों के बैग से लदे पड़े थे कि श्रीमतीजी को सामने उबली, मसालेदार चटपटी छल्ली वाला दिख गया. बस, उन के मुंह में पानी आ गया. चटपटी मसालेदार छल्ली हमें भी पसंद थी, साथ ही सुखद एहसास था कि आज हम घर से खाली पेट निकले थे. अत: बिना हीलहुज्जत हां कर दी. श्रीमतीजी ने अपने हिसाब का ज्यादा मसालेवाला पत्ता बनवा दिया. जनाब वे तो चटरपटर कर खा गईं पर हमारे पसीने छूट गए. बड़ी मुश्किल से डकारा.

 

तभी श्रीमतीजी को सामने शोरूम में टंगी साड़ी इतनी भाई कि वे उधर चल दीं. लेकिन कीमत पूछ चौंकीं और बोलीं, ‘‘महंगी है. चलो पहले तुम्हारे कपड़े खरीद लेते हैं.’’ हम ने भी सोचा कि चलो हमें तो इन की पसंद पर ही मुहर लगानी है, जल्दी निबटारा हो जाएगा. अभी हम यह सोच ही रहे थे कि चटपटी छल्ली ने अपना असर दिखा दिया. हम समझ गए कि अब फारिग होने का इंतजाम करना पड़ेगा.  श्रीमतीजी हमें पैंट पसंद करवा रही थीं और हम पहनी पैंट को गीली होने से बचाने की जुगत सोच रहे थे. खैर, उन्होंने जो पसंद किया, हम ने मुहर लगाई और शोरूम से बाहर निकल इधरउधर झांकने लगे. सामने एक साड़ी के शोरूम में पहुंच श्रीमतीजी ने तमाम साडि़यां खुलवा डालीं. न श्रीमतीजी साड़ी देखती थक रही थीं, न दुकानदार दिखाते थक रहा था. पर उन की पसंद की साड़ी न मिलनी थी न मिली. हम मौके की तलाश में थे कि कब वे हमारी ओर मुखातिब हों और हम इजाजत लें. एक साड़ी थोड़ी पसंद आने पर वे हमारी ओर मुखातिब हुईं, तो हम ने आंख मूंद कर हां कर दी. उन्हें कौन सी हमारी पसंद की साड़ी खरीदनी थी, यह तो बस दिखावा था. साथ ही हम ने उंगली उठा कर 1 नंबर के लिए जाने की इजाजत मांगी तो वे बरस पड़ीं, ‘‘जाओ, तुम्हें तो हर समय भागना ही पड़ता है.’’ उन के इस प्रकार डांटने पर बच्चे भी हमारी हालत पर हंसने लगे और हम खिसक लिए 1 नंबर का बहाना कर 2 नंबर के लिए.

हर ओर निगाह दौड़ाने पर भी कोई शौचालय न दिखा, तो एक शख्स से पूछने पर पता चला कि बहुत दूर है. हम ने सोचा कि इतनी दूर तो हमारा घर भी नहीं. क्यों न घर ही हो आएं? यह सोच कर हम पीछे मुड़े ही थे कि पत्नी को साड़ी पसंद कर बच्चों के साथ शोरूम से बाहर आते देखा. वे हमारे पास पहुंचतीं उस से पहले एक मोटातगड़ा आदमी श्रीमतीजी से उलझता दिखा. हम वहां पहुंचे तो वह उन्हें सौरी कह रहा था. उस ने चुपचाप सौरी कह जाने में ही अपनी भलाई समझी, लेकिन श्रीमतीजी हम पर बरस पड़ीं, ‘‘कितनी देर कर दी आने में. पता है यह आदमी मुझे छेड़ रहा था.’’ अब हम उन्हें कैसे बताते कि हम किस मुसीबत में हैं. हम बोले, ‘‘अरे सौरी बोला न वह, चलो अब.’’ इस पर उन के तेवर बिगड़े, ‘‘तुम भी कितने डरपोक पति हो. अरे, वह तो मेरा दुपट्टा खींच कर चला गया और तुम उसे इतने हलके में ले रहे हो.’’ जैसे अपने पालतू कुत्ते को हुश्श… कह हम दूसरे पर छोड़ देते हैं, उसी लहजे में श्रीमतीजी ने हमें पुश किया. अब उन्हें कौन समझाता कि हम अपनी कदकाठी ही नहीं बल्कि अपनी बीमारी के कारण भी इस समय कुछ न कहने को विवश हैं. पर उन के ताने ने हमारे जमीर को इस कदर झिंझोड़ा कि न चाहते हुए भी हम दुम हिलाते हुए उस के पीछे हो लिए और उसे ललकारा. अब सूमो पहलवान सा दिखने वाला वह बंदा शेर की तरह खा जाने वाली नजरों से हमें घूरता हम पर बरसा, ‘‘कह दिया न सौरी. उन के पास से निकलते हुए मेरी बैल्ट के बक्कल में उन का दुपट्टा फंस गया तो इस में मेरा क्या कुसूर है?’’ उस की दहाड़ से हमारी घिग्घी बंध गई. लगा हमारी बीमारी बाहर आने को है. और कोई समय होता तो शायद हम उस से भिड़ भी जाते पर मोशन की वजह से हमें अपने इमोशंस पर कंट्रोल रखना पड़ा.

हम दांत पीस कर रह गए. वह दहाड़ कर चला गया तो हम ने चैन की सांस ली और किसी तरह श्रीमतीजी को समझाबुझा कर जल्दीजल्दी घर फारिग होने पहुंचे. बच्चे हमारी हालत पर हंस रहे थे व श्रीमतीजी अधूरी शौपिंग के कारण नाराज थीं. ‘पीकू’ अपने आखिरी मकाम तक पहुंच गई थी. श्रीमतीजी बच्चों संग हंसती हुई हमारी ओर मुखातिब हुईं और बोलीं, ‘‘सीख लो कुछ भास्कर से. हमेशा बहाने से जाते हो फारिग होने. ले लो एक अदद सीट और रख लो गाड़ी में, ताकि जहां जरूरत महसूसहुई, हो लिए फारिग.’’ वातावरण में बच्चों सहित गूंजे उस के ठहाके में एलईडी की आवाज भी जैसे गुम हो गई जिस से हमें पिक्चर खत्म होने का पता भी न चला. ठीक ही तो कह रही हैं श्रीमतीजी, हम ने सोचा. ‘पीकू’ ने एक आसान रास्ता दिखाया है इस बीमारी से जूझते लोगों का. अमिताभ की तरह एक सीट सदा अपने साथ रखो. फिर जी भर कर खाओ और जब चाहो फारिग हो जाओ. शौचालय मिल जाए तो ठीक वरना ढूंढ़ने का झंझट खत्म. ‘पीकू’ की सौगात तो है ही फौरएवर.

Hindi Story- रिश्तों का सच : क्या सुधर पाया ननदभाभी का रिश्ता

Hindi Story : घर में घुसते ही चंद्रिका के बिगड़ेबिगड़े से तेवर देख रवि भांपने लगा था कि आज कुछ हुआ है, वरना रोज मुसकरा कर स्वागत करने वाली चंद्रिका का चेहरा यों उतरा हुआ न होता. ‘‘लो, दीदी का पत्र आया है,’’ चंद्रिका के बढ़े हुए हाथों पर सरसरी सी नजर डाल रवि बोला, ‘‘रख दो, जरा कपड़ेवपड़े तो बदल लूं, पत्र कहीं भागा जा रहा है क्या?’’

चंद्रिका की हैरतभरी नजरों का मुसकराहट से जवाब देता हुआ रवि बाथरूम में घुस गया. चंद्रिका के उतरे हुए चेहरे का राज भी उस पर खुल गया था. रवि मन ही मन सोच कर मुसकरा उठा, ‘सोच रही होगी कि आज मुझे हुआ क्या है, दीदी का पत्र हर बार की तरह झपट कर जो नहीं लिया.’ हर साल गरमी की छुट्टियों में दीदी के आने का सिलसिला बहुत पुराना था. परंतु विवाह के 5 वर्षों में शायद ही ऐसा कभी हुआ हो जब उन के आने को ले कर चंद्रिका से उस की जोरदार तकरार न हुई हो. बेचारी दीदी, जो इतनी आस और प्यार के साथ अपने एकलौते, छोटे भाई के घर थोड़े से मान और सम्मान की आशा ले कर आती थीं, चंद्रिका के रूखे बरताव व उन दोनों के बीच होती तकरार से अब चंद दिनों में ही लौट जाती थीं.

दीदी से रवि का लगाव कम होता भी, तो कैसे? दीदी 10 वर्ष की ही थीं, जब मां रवि को जन्म देते समय ही उसे छोड़ दूसरी दुनिया की ओर चल दी थीं. ‘दीदी न होतीं तो मेरा क्या होता?’ यह सोच कर ही उस की आंखें भर उठतीं. दीदी उस की बड़ी बहन बाद में थी, मां जैसी पहले थीं. कैसे भूल जाता रवि बचपन से ले कर जवानी तक के उन दिनों को, जब कदमकदम पर दीदी ममता और प्यार की छाया ले उस के साथ चलती रही थीं.

दीदी तो विवाह भी न करतीं, परंतु रिश्तेदारों के तानों और बेटी की बढ़ती उम्र से चिंतित पिताजी के चेहरे पर बढ़ती झुर्रियों को देखने के बाद रवि ने अपनी कसम दे कर दीदी को विवाह के लिए मजबूर कर दिया था. उन के विवाह के समय वह बीए में आया ही था. विवाह के बाद भी बेटे की तरह पाले भाई की तड़प दीदी के अंदर से गई नहीं थी, उस की जरा सी खबर पाते ही दौड़ी चली आतीं. वह भी उन के जाने के बाद कितना अकेला हो गया था. यह तो अच्छा हुआ कि जीजाजी अच्छे स्वभाव के थे. दीदी की तड़प समझते थे, भाईबहन के प्यार के बीच कभी बाधा नहीं बने थे.

चंद्रिका को भी तो वह ही ढूंढ़ कर लाई थीं. उन दिनों की याद से रवि मुसकरा उठा. दीदी उस के विवाह की तैयारी में बावरी हो उठी थीं. ऐसा भी नहीं था कि चंद्रिका को इन बातों की जानकारी न हो, विवाह के शुरुआती दिनों में ही सारी रामकहानी उस ने सुना दी थी. विवाह के बाद जब पहली बार दीदी आईर् थीं तो चंद्रिका भी उन से मिलने के लिए बड़ी उत्साहित थी और स्वयं रवि तो पगला सा गया था. आखिर उस के विवाह के बाद वह पहली बार आ रही थीं. वह चाहता था भाई की सुखी गृहस्थी देख वह खिल उठें.

पति के ढेरों आदेशनिर्देश पा कर चंद्रिका का उत्साह कुछ कम हो गया था, वह कुछ सहम सी भी गई थी. परंतु रवि तो अपनी ही धुन में था, चाहे कुछ हो जाए, दीदी को इतना सम्मान और प्यार मिलना चाहिए कि उन की ममता का जरा सा कर्ज तो वह उतार सके.

दीदी के आने के बाद उन दोनों के बीच चंद्रिका कहीं खो सी गई थी. उन दोनों को अपने में ही मस्त पा उन के साथ बैठ कर स्वयं भी उन की बातों में शामिल होने की कोशिश करती, पर रवि ऐसा मौका ही न देता. तब वह खीज कर रसोई में घुस खाना बनाने की कोशिश में लग जाती. मेहनत से बनाया गया खाना देख कर भी रवि उस पर नाराज हो उठता, ‘यह क्या बना दिया? पता नहीं है, दीदी को पालकपनीर की सब्जी अच्छी लगती है, शाही पनीर नहीं.’ फिर रसोई में काम करती चंद्रिका का हाथ पकड़ कर बाहर ला खड़ा करता और कहता, ‘आज तो दीदी के हाथ का बना हुआ ही खाऊंगा. वे कितना अच्छा बनाती हैं.’

तब भाईबहन चुहलबाजी करते हुए रसोई में मशगूल हो जाते और चंद्रिका बिना अपराध के ही अपराधी सी रसोई के बाहर खड़ी उन्हें देखती रहती. दीदी जरूर कभीकभी चंद्रिका को भी साथ लेने की कोशिश करतीं, लेकिन रवि अनजाने ही उन के बीच एक ऐसी दीवार बन गया था कि दोनों औपचारिकता से आगे कभी बढ़ ही न पाई थीं. उस समय तो किसी तरह चंद्रिका ने हालात से समझौता कर लिया था, लेकिन उस के बाद जब भी दीदी आतीं, वह कुछ तीखी हो उठती. सीधे दीदी से कभी कुछ नहीं कहा था, लेकिन रवि के साथ उस के झगड़े शुरू हो गए थे. दीदी भी शायद भांप गई थीं, इसीलिए धीरेधीरे उन का आना कम होता जा रहा था. इस बार तो पूरे एक वर्ष बाद आ रही थीं, पिछली बार उन के सामने ही चंद्रिका ने रवि से इतना झगड़ा किया कि वे बेचारी 4 दिनों में ही वापस चली गई थीं. जितने भी दिन वे रहीं, चंद्रिका ने बिस्तर से नीचे कदम न रखा, हमेशा सिरदर्द का बहाना बना अपने कमरे में ही पड़ी रहती.

एक दोपहर दीदी को अकेले काम में लगा देख भनभनाता हुआ रवि, चंद्रिका से लड़ पड़ा था. तब वह तीखी आवाज में बोली थी, ‘तुम क्या समझते हो, मैं बहाना कर रही हूं? वैसे भी तुम्हें और तुम्हारी दीदी को मेरा कोई काम पसंद ही कब आता है, तुम दोनों तो बातों में मशगूल हो जाओगे, फिर मैं वहां क्या करूंगी?’ बढ़तेबढ़ते बात तेज झगड़े का रूप ले चुकी थी. दीदी कुछ बोलीं नहीं, पर दूसरे ही दिन सुबह रवि द्वारा मिन्नतें करने के बाद भी चली गई थीं. उन के चले जाने के बाद भी बहुत दिनों तक उन दोनों के संबंध सामान्य न हो पाए थे, दीदी के इस तरह चले जाने के कारण वह चंद्रिका को माफ नहीं कर पाया था.

दोनों के बीच बढ़ते तनाव को देख अभी तक खामोशी से सबकुछ देख रहे पिताजी ने आखिरकार एक दिन रात को खाने के बाद टहलने के लिए निकलते समय उसे भी साथ ले लिया था. वे उसे समझाते हुए बोले थे, ‘पतिपत्नी के संबंध का अजीब ही कायदा होता है, इस रिश्ते के बीच किसी तीसरे की उपस्थिति बरदाश्त नहीं होती है…’ ‘लेकिन दीदी कोई गैर नहीं हैं,’ बीच में ही बात काटते हुए, रवि का स्वर रोष से भर उठा था.

‘बेटा, विवाह के बाद सब से नजदीकी रिश्ता पतिपत्नी का ही होता है. बाकी संबंध गौण हो जाते हैं. माना कि सभी संबंधों की अपनीअपनी अहमियत है, लेकिन किसी भी रिश्ते पर कोई रिश्ता हावी नहीं होना चाहिए, वरना कोई भी सुखी नहीं रहता. तुम्हीं बताओ, इतनी कोशिशों के बाद भी क्या तुम्हारी दीदी खुश है?’ समझातेसमझाते पिताजी सवाल सा कर उठे थे. ‘तो मैं क्या करूं? चंद्रिका की खुशी के लिए उन से सारे संबंध तोड़ लूं या फिर दीदी के लिए चंद्रिका से,’ रवि असमंजस में था, ‘आप तो जानते ही हैं कि दोनों ही मुझे कितनी प्रिय हैं.’

‘संबंध तोड़ने के लिए कौन कहता है,’ पिताजी धीरे से हंस पड़े थे, फिर गंभीर हो, बोले, ‘यह तो तुम भी मानते ही होगे कि चंद्रिका मन से बुरी या झगड़ालू नहीं है. मेरा कितना खयाल रखती है, तुम्हारे लिए भी आदर्श पत्नी सिद्ध हुई है.’ ‘फिर दीदी से ही उस की क्या दुश्मनी है?’ रवि के इस सवाल पर थोड़ी देर तक उसे गहरी नजरों से देखने के बाद वे बोले ‘कोई दुश्मनी नहीं है. याद करो, पहली बार वह भी कितनी उत्साहित थी. इस सब के लिए. अगर कोई दोषी है तो वह स्वयं तुम हो.’

‘मैं?’ सीधेसीधे अपने को अपराधी पा रवि अचकचा उठा था. ‘हां, तुम उन दोनों के बीच एक दीवार बन कर खड़े हो. कुछ करने का मौका ही कहां देते हो. आखिर वह तुम्हारी पत्नी है, वह तुम्हारी खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है, लेकिन तुम हो कि अपनी बहन के आते ही उस के पूरे के पूरे व्यक्तित्व को ही नकार देते हो,’ पिताजी सांस लेने के लिए तनिक रुके थे.

रवि सिर झुकाए चुप बैठा किसी सोच में डूबा सा था. ‘बेटा, मुझे बहुत खुशी है कि तुम्हारी दीदी और तुम में इतना स्नेह है. भाईबहन से कहीं अधिक तुम दोनों एकदूसरे के अच्छे दोस्त हो, पर अपनी दोस्ती की सीमाओं को बढ़ाओ. अब चंद्रिका को भी इस में शामिल कर लो. यह उस का भी घर है. उसे तय करने दो कि वह अपने मेहमान का कैसे स्वागत करती है. विश्वास मानो, इस से तुम सब के बीच से तनाव और गलतफहमियों के बादल छंट जाएंगे. और तुम सब एकदूसरे के अधिक पास आ जाओगे.’

‘‘अंदर कितनी देर लगाओगे?’’ चंद्रिका की आवाज सुन वह चौंक उठा, ‘अरे, इतनी देर से मैं बाथरूम में ही बैठा हूं.’ झटपट नहा कर वह बाहर निकल आया. चाय और गरमागरम नाश्ते की प्लेट उस का इंतजार कर रही थी. इस दौरान वे खामोश ही रहे. जूठे कप व प्लेटें समेटती चंद्रिका की हैरत यह देख और बढ़ गई कि रवि पत्र को हाथ लगाए बगैर ही एक पत्रिका पढ़ने लगा है.

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’’ चंद्रिका का चिंतित चेहरा देख कर अपनी हंसी को रवि ने मुश्किल से रोका, ‘‘हां, ठीक है, क्यों?’’ ‘‘फिर अभी तक दीदी का पत्र क्यों नहीं पढ़ा?’’ चंद्रिका के सवाल के जवाब में वह लापरवाही से बोला, ‘‘तुम ने तो पढ़ा ही होगा, खुद ही बता दो, क्या लिखा है?’’

‘‘वे कल दोपहर की गाड़ी से आ रही हैं.’’ ‘‘अच्छा,’’ कह वह फिर पत्रिका पढ़ने में मशगूल हो गया. कुछ देर तक चंद्रिका वहीं खड़ी गौर से उसे देखती रही, फिर कमरे से बाहर निकल गई.

दूसरे दिन रविवार था. सुबहसुबह रवि को अखबार में खोया पा कर चंद्रिका बहुत देर तक खामोश न रह सकी, ‘‘दीदी आने वाली हैं. तुम्हें कुछ खयाल भी है?’’ ‘‘पता है,’’ अखबार में नजरें जमाए हुए ही वह बोला.

‘‘खाक पता है,’’ चंद्रिका झुंझला उठी थी, ‘‘कुछ सामान वगैरह लाना है या नहीं?’’ ‘‘घर तुम्हारा है, तुम जानो,’’ उस की झुंझलाहट पर वह खुद मुसकरा उठा.

कुछ देर तक उसे घूरने के बाद पैर पटकती हुई चंद्रिका थैला और पर्स ले बाहर निकल गई. ?जब वह लौटी तो भारी थैले के साथ पसीने से तरबतर थी. रवि आश्चर्यचकित था. वह दीदी की पसंद की एकएक चीज छांट कर लाई थी.

‘‘दोपहर के खाने में क्या बनाऊं?’’ सवालिया नजरों से उसे देखते हुए चंद्रिका ने पूछा. ‘‘तुम जो भी बनाओगी, लाजवाब ही होगा. कुछ भी बना लो,’’ रवि की बात सुन चंद्रिका ने उसे यों घूर कर देखा, जैसे उस के सिर पर सींग उग आए हों.

दोपहर से काफी पहले ही वह खाना तैयार कर चुकी थी. रवि की तेज नजरों ने देख लिया था कि सभी चीजें दीदी की पसंद की ही बनी हैं. वास्तव में वह मन ही मन पछता भी रहा था. उसे महसूस हो रहा था कि उस के बचकाने व्यवहार की वजह से ही दीदी और चंद्रिका इतने समय तक अजनबी बन परेशान होती रहीं.

‘‘ट्रेन का टाइम हो रहा है. स्टेशन जाने के लिए कपड़े निकाल दूं?’’ चंद्रिका अपने अगले सवाल के साथ सामने खड़ी थी. अपने को व्यस्त सा दिखाता रवि बोला, ‘‘उन्हें रास्ता तो पता है, औटो ले कर आ जाएंगी.’’ ‘‘तुम्हारा दिमाग तो सही है?’’ बहुत देर से जमा हो रहा लावा अचानक ही फूट कर बह निकला था, ‘‘पता है न कि वे अकेली आ रही हैं. लेने नहीं जाओगे तो उन्हें कितना बुरा लगेगा. आखिर, तुम्हें हुआ क्या है?’’

‘‘अच्छा बाबा, जाता हूं, पर एक शर्त पर, तुम भी साथ चलो.’’ ‘‘मैं?’’ हैरत में पड़ी चंद्रिका बोली, ‘‘मैं तुम दोनों के बीच क्या करूंगी.’’

‘‘फिर मैं भी नहीं जाता.’’ उसे अपनी जगह से टस से मस न होते देख आखिर, चंद्रिका ने ही हथियार डाल दिए, ‘‘अच्छा उठो, मैं भी चलती हूं.’’

चंद्रिका को साथ आया देख दीदी पहले तो हैरत में पड़ीं, फिर खिल उठीं. शायद पिछली बार के कटु अनुभवों ने उन्हें भयभीत कर रखा था. स्टेशन पर चंद्रिका को भी देख एक पल में सारी शंकाएं दूर हो गईर्ं. वे खुशी से पैर छूने को झुकी चंद्रिका के गले से लिपट गईं.

रवि सोच रहा था, इतनी अच्छी तरह से तो वह घर में भी कभी नहीं मिली थी. ‘‘किस सोच में डूब गए?’’ दीदी का खिलखिलाता स्वर उसे गहरे तक खुशी से भर गया. सामान उठा वह आगेआगे चल दिया. चंद्रिका और दीदी पीछेपीछे बतियाती हुई आ रही थीं.

खाने की मेज पर भी रवि कम बोल रहा था. चंद्रिका ही आग्रह करकर के दीदी को खिला रही थी. हर बार चंद्रिका के अबोलेपन की स्थिति से शायद माहौल तनावयुक्त हो उठता था, इसीलिए दीदी अब जितनी सहज व खुश लग रही थीं, उतनी पहले कभी नहीं लगी थीं. खाने के बाद वह उठ कर अपने कमरे में आ गया. वे दोनों बहुत देर तक वहीं बैठी बातों में जुटी रहीं. कुछ देर बाद चंद्रिका कमरे में आ कर दबे स्वर में बोली, ‘‘यहां क्यों बैठे हो? जाओ, दीदी से कुछ बातें करो न.’’

‘‘तुम हो न, मैं कुछ देर सोऊंगा…’’ कहतेकहते रवि ने करवट बदल कर आंखें मूंद लीं. रात के खाने की तैयारी में चंद्रिका का हाथ बंटाने के लिए दीदी भी रसोई में ही आ गईं. रवि टीवी खोल कर बैठा था.

‘‘रवि की तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’ रसोईघर से आता दीदी का स्वर सुन रवि के कान चौकन्ने हो गए. पलभर की खामोशी के बाद चंद्रिका का स्वर उभरा, ‘‘नहीं तो, आजकल औफिस में काम अधिक होने से ज्यादा थक जाते हैं, इसलिए थोड़े खामोश हो गए हैं. आप को बुरा लगा क्या?’’

‘‘अरे नहीं, इस में बुरा मानने की क्या बात है? वैसे भी तुम्हारा साथ ज्यादा भला लग रहा है. पहली बार ऐसा लग रहा है कि अपने मायके आई हूं. मां तो थीं नहीं, जिन से यहां आने पर मायके का एहसास होता. पिताजी और भाई का मानदुलार था तो, पर असली मायके का एहसास तो मां या भौजाई के प्यार और मनुहार से ही होता है.’’

‘‘दीदी, मुझे माफ कर दीजिए,’’ चंद्रिका ने हौले से कहा, ‘‘मैं ने आप के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया…’’ ‘‘ऐसी बात नहीं है, हम ने तुम्हें अवसर ही कहां दिया था कि तुम अपना अच्छा या बुरा व्यवहार सिद्ध कर सको. खैर छोड़ो, इस बार जैसा सुकून मुझे पहले कभी नहीं मिला,’’ दीदी का स्वर संतुष्टिभरा था.

टीवी के सामने बैठे रवि का मन भी दीदी की खुशी और संतुष्टि देख चंद्रिका के प्रति प्यार और गर्व से भर उठा था. सुबह उस के उठने से पहले ही दीदी और चंद्रिका उठ कर काम के साथसाथ बातों में व्यस्त थीं. रात भी रवि तो सो गया था, वे दोनों जाने कितनी देर तक एकसाथ जागती रही थीं. जाने उन के अंदर कितनी बातें दबी पड़ी थीं, जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं. रवि को एक बार फिर अपनी मूर्खता पर पछतावा हुआ. बिस्तर से उठ कर वह औफिस जाने की तैयारी में लग गया.

‘‘कहां जा रहे हो?’’ शीशे के सामने बाल संवार रहे रवि के हाथ अचानक चंद्रिका को देख रुक गए. ‘‘औफिस.’’

‘‘दीदी आई हैं, फिर भी?’’ चंद्रिका की हैरानी वाजिब थी. दीदी के लिए रवि पहले पूरे वर्ष की छुट्टियां बचा के रखता था. जितने भी दिन वह रहतीं, वे उन्हें घुमानेफिराने के लिए छुट्टियां ले कर घर बैठा रहता था. ‘‘छुट्टी क्यों नहीं ले लेते? हम सब घूमने चलेंगे,’’ चंद्रिका जोर देते हुए बोली.

‘‘नहीं, इस बार छुट्टियां बचा रहा हूं, शरारतभरी नजर चंद्रिका के चेहरे पर डालता हुआ रवि बोला.’’ ‘‘क्यों?’’ चंद्रिका के सवाल के जवाब में उस ने उसे अपने पास खींच लिया, ‘‘क्योंकि इस बार मैं तुम्हें मसूरी घुमाने ले जा रहा हूं. अभी छुट्टी ले लूंगा, तो बाद में नही मिलेंगी.’’

चंद्रिका की आंखें भीग उठी थीं, शायद वह विश्वास नहीं कर पा रही थी कि रवि की जिंदगी और दिल में उस के लिए भी इतना प्यार छिपा हुआ है. अपने को संभाल आंखें पोंछती वह लाड़भरे स्वर में बोली, ‘‘मसूरी जाना क्या दीदी से अधिक जरूरी है? मुझे कहीं नहीं जाना, तुम्हें छुट्टी लेनी ही पड़ेगी.’’

‘‘अच्छा, ऐसा करता हूं, सिर्फ आज की छुट्टी ले लेता हूं,’’ वह समझौते के अंदाज में बोला. ‘‘लेकिन इस के बाद जितने भी दिन दीदी रहेंगी, तुम्हीं उन के साथ रहोगी.’’

‘‘मैं, अकेले?’’ चंद्रिका घबरा रही थी, ‘‘मुझ से फिर कोई गलती हो गई तो?’’ ‘‘तो क्या, उसे सुधार लेना. मुझे तुम पर पूरा विश्वास है,’’ मन ही मन सोचता जा रहा था रवि, ‘मैं भी तो अपनी गलती ही सुधार रहा हूं.’

वह रवि की प्यार और विश्वासभरी निगाहों को पलभर देखती रही, फिर हंस कर बोली, ‘‘अच्छा, अब छोड़ो, चल कर कम से कम आज की पिकनिक की तैयारी करूं.’’ दीदी पूरे 15 दिनों के लिए रुकी थीं, चंद्रिका और उन के बीच संबंध बहुत मधुर हो गए थे. इस बार पिताजी भी अधिक खुश नजर आ रहे थे. दीदी के जाने का दिन ज्योंज्यों नजदीक आ रहा था, चंद्रिका उदास होती जा रही थी.

आखिरकार, जीजाजी के बुलावे के पत्र ने उन के लौटने की तारीख तय कर दी. दौड़ीदौड़ी चंद्रिका बाजार जा कर दीदी के लिए साड़ी और जीजाजी के लिए कपड़े खरीद लाई थी. तरहतरह के पापड़ और अचार दीदी के मना करने के बावजूद उस ने बांध दिए थे. शाम की ट्रेन थी. चंद्रिका दीदी के साथ के लिए तरहतरह की चीजें बनाने में व्यस्त थी. रवि सामान पैक करती दीदी के पास आ बैठा. दीदी ने मुसकरा कर उस की तरफ देखा, ‘‘अब तुम कब आ रहे हो चंद्रिका को ले कर?’’

‘‘आऊंगा दीदी, जल्दी ही आऊंगा,’’ बैठी हुई दीदी की गोद में वह सिर रख लेट गया था, ‘‘तुम नाराज तो नहीं हो न?’’ ‘‘किसलिए?’’ उस के बालों में हाथ फेरती हुई दीदी एकाएक ही उस की बात सुन हैरत में पड़ गईं.

‘‘मैं तुम्हारे साथ पहले जितना समय नहीं बिता पाया न?’’ रवि बोला. ‘‘नहीं रे, बल्कि इस बार मैं यहां जितनी खुश रही हूं, उतनी पहले कभी नहीं रही. चंद्रिका के होते मुझे किसी भी चीज की कमी महसूस नहीं हुई. एक बात बताऊं, मुझे बहुत डर लगता था. तेरे इतने प्यार जताने के बाद भी लगता था, मेरा भाई मुझ से अलग हो जाएगा. कभीकभी सोचती, शायद मेरे आने की वजह से ही चंद्रिका और तुम्हारे बीच झगड़ा होता है. तुझे देखने के लिए मन न तड़पता तो शायद यहां कभी आती ही नहीं.

‘‘चंद्रिका के इस बार के अच्छे व्यवहार ने मुझे एहसास दिलाया है कि भाई तो अपना होता ही है, पर भौजाई को अपना बनाना पड़ता है, क्योंकि वह अगर अपनी न बने तो धीरेधीरे भाई भी पराया हो जाता है. आज मैं सुकून महसूस कर रही हूं. चंद्रिका जैसी अच्छी भौजाई के होते मेरा भाई कभी पराया नहीं होगा. इस सब से भी बढ़ कर पता है, उस ने क्या दिया है मुझे?’’ ‘‘क्या?’’

‘‘मेरा मायका, जो मुझे पहले कभी नहीं मिला था. चंद्रिका ने मुझे वह सब दे दिया है,’’ दीदी की आंखें बरस उठी थीं, ‘‘चंद्रिका ने यह जो एहसान मुझ पर किया है, इस का कर्ज कभी नहीं चुका पाऊंगी.’’ ‘‘खाना तैयार है,’’ चंद्रिका कब कमरे में आई, पता ही न चला. लेकिन उस की भीगीभीगी आंखें बता रही थीं कि वह बहुतकुछ सुन चुकी थी. गर्व से निहारती रवि की आंखों में झांक चंद्रिका बोली, ‘‘कैसे भाई हो, पता नहीं, आज सुबह से दीदी ने कुछ नहीं खाया. चलो, खाना ठंडा हो रहा है.’’

दीदी को ट्रेन में बिठा रवि उन का सामान व्यवस्थित करने में लगा हुआ था. चंद्रिका दीदी के साथ ही बैठी उन्हें दशहरे की छुट्टियों में आने के लिए मना रही थी. हमेशा उतरे मुंह से वापस होने वाली दीदी का चेहरा इस बार चमक रहा था. ट्रेन की सीटी की आवाज के साथ ही रवि ने कहा, ‘‘उतरो चंद्रिका, ट्रेन चलने वाली है.’’

चंद्रिका दीदी से लिपट गई, ‘‘जल्दी आना और जाते ही पत्र लिखना.’’ ‘‘अब पहले तुम दोनों मेरे घर आना,’’ भीगी आंखों के साथ दीदी मुसकरा रही थीं.

उन के नीचे उतरते ही ट्रेन ने सरकना शुरू कर दिया. ‘‘दीदी, पत्र जरूर लिखना,’’ दोनों अपनेअपने रूमाल हिला रही थीं. ट्रेन गति पकड़ स्टेशन से दूर होती जा रही थी. चंद्रिका ने पलट कर रवि की तरफ देखा. रवि की गर्वभरी आंखों को निहारती चंद्रिका की आंखें भी चमक उठी थीं.

Story For Girls – रफू की हुई ओढ़नी: क्या हुआ था मेघा के साथ

Story For Girls : एक बार फिर गांव की ओढ़नी ने शहर में परचम लहराने की ठान ली. गांव के स्कूल में 12वीं तक पढ़ी मेघा का जब इंजीनियरिंग में चयन हुआ तो घर भर में खुशी की लहर दौड़ गई थी. देश के प्रतिष्ठित प्रतिष्ठान में ऐडमिशन मिलना कोई कम बड़ी बात है क्या?

“लेकिन यह ओढ़नी शहर के आकाश में लहराना नहीं जानती, कहीं झाड़कांटों में उलझ कर फट गई तो?”

“हवाओं को तय करने दो. इस के बंधन खोल कर इसे आजाद कर दो, देखें अटती है या फटती है…”

“लेकिन एक बार फटने के बाद क्या? फिर से सिलना आसान है क्या? और अगर सिल भी गई तो रहीमजी वाले प्रेम के धागे की तरह क्या जोड़ दिखेगा नहीं? जबजब दिखेगा तबतब क्या सालेगा नहीं?”

“तो क्या किया जाए? कटने से बचाने के लिए क्या पतंग को उड़ाना छोड़ दें?”

न जाने कितनी ही चर्चाएं थीं जो इन दिनों गांव की चौपाल पर चलती थी.

सब के अपनेअपने मत थे. कोई मेघा के पक्ष में तो कोई उस के खिलाफ. हरकोई चाहता तो था कि मेघा को उड़ने के लिए आकाश मिले लेकिन यह भी कि उस आकाश में बाज न उड़ रहे हों. अब भला यह कैसे संभव है कि रसगुल्ला तो खाएं लेकिन चाशनी में हाथ न डूबें.

“संभव तो यह भी है कि रसगुल्ले को कांटे से उठा कर खाया जाए.”

कोई मेघा की नकल कर हंसता. मेघा भी इसी तरह अटपटे सवालों के चटपटे जवाब देने वाली लड़की है. हर मुश्किल का हल बिना घबराए या हड़बड़ाए निकालने वाली. कभी ओढ़नी फट भी गई ना, तो इतनी सफाई से रफू करेगी कि किसी को आभास तक नहीं होगा. मेघा के बारे में सब का यही खयाल था.

लेकिन न जाने क्यों, खुद मेघा को अपने ऊपर भरोसा नहीं हो पा रहा था पर आसमान नापने के लिए पर तो खोलने ही पडते हैं ना… मेघा भी अब उड़ान के लिए तैयार हो चुकी थी.

मेघा कालेज के कैंपस में चाचा के साथ घुसी तो लाज के मारे जमीन में गड़ गई. चाचाभतीजी दोनों एकदूसरे से निगाहें चुराते आगे बढ़ रहे थे. मेघा को लगा मानों कई जोड़ी आंखें उस के दुपट्टे पर टंक गई है. उस ने अपने कुरते के ढलते कंधे को दुरुस्त किया और सहमी सी चाचा के पीछे हो ली.

इस बीच मेघा ने जरा सा निगाह ऊपर उठा कर इधरउधर देखने की कोशिश की लेकिन आंखें कई टखनों से होती हुईं खुली जांघ तक का सफर तय कर के वापस उस तक लौट आईं.

उस ने अपने स्मार्टफोन की तरफ देखा जो खुद उस की तरह ही किसी भी कोण से स्मार्ट नहीं लग रहा था. हर तीसरे हाथ में पकड़ा हुआ कटे सेब के निशान वाला फोन उसे अपने डब्बे को पर्स में छिपाने की सलाह दे रहा था जिसे उस ने बिना किसी प्रतिरोध के स्वीकार कर लिया था.

कालेज की औपचारिकताएं पूरी करने और होस्टल में कमरा अलौट होने की तसल्ली करने के बाद चाचा उसे भविष्य के लिए शुभकामनाएं दे कर वापस लौट गए. अब मेघा को अपना भविष्य खुद ही बनाना था। गंवई पसीने की खुशबू को शहर के परफ्यूम में घोलने का सपना उसे अपने दम पर ही पूरा करना था.

कालेज का पहला दिन. मेघा बड़े मन से तैयार हुई. लेकिन कहां जानती थी कि जिस ड्रैस को उस के कस्बे में नए जमाने की मौडर्न ड्रैस कह कर उसे आधुनिका का तमगा दिया जाता था वही कुरता और प्लाजो यहां उसे बहनजी का उपनाम दिला देंगे. मेघा आंसू पी कर रह गई. लेकिन सिलसिला यहीं नहीं थमा था.

उस के बालों में लगे नारियल तेल की महक, हर कुरते के साथ दुपट्टा रखने की आदत, पांवों में पहनी हुई चप्पलें आदि उसे भीड़ से अलग करते थे. और तो और खाने की टेबल पर भी सब उसे चम्मच की बजाय हाथ से चावल खाते हुए कनखियों से देख कर हंसा करते थे.

“आदिमानव…” किसी ने जब पीछे से विशेषण उछाला तो मेघा को समझते देर नहीं लगी कि यह उसी के लिए है.

“यह सब बाहरी दिखावा है मेघा। तुम्हें इस में नहीं उलझना है,” स्टेशन पर ट्रैन में बैठाते समय पिता ने यही तो सीख की पोटली बांध कर उस के कंधे पर धरी थी.

‘पोटली तो भारी नहीं थी, फिर कंधे क्यों दुखने लगे?’ मेघा सोचने लगी.

हर छात्र की तरह मेघा का सामना भी सीनियर छात्रों द्वारा ली जाने वाली रैगिंग से हुआ. होस्टल के एक कमरे में जब नई आई लड़कियों को रेवड़ की तरह भरा जा रहा था तब मेघा का गला सूखने लगा.

“तो क्या किया जाए इस नई मुरगी के साथ?” छात्राओं से घिरी मेघा ने सुना तो कई बार देखी गई फिल्म ‘थ्री इडियट’ से कौपी आईडिया और डायलौग न जाने तालू के कौन से कोने में हिस्से में चिपक गए.

“भई, दुपट्टे बड़े प्यारे होते हैं इस के. चलो रानी, दुपट्टे से जुड़े कुछ गीतों पर नाच के दिखा दो. और हां, डांस प्योर देसी हो समझी?” गैंग की लीडर ने कहा तो मेघा जड़ सी हो गई.

एक सीनियर ने बांह पकड़ कर उसे बीच में धकेल दिया. मेघा के पांव फिर भी नहीं चले.

“देखो रानी, जब तक नाचोगी नहीं, जाओगी नहीं. खड़ी रहो रात भर,” धमकी सुन कर मेघा ने निगाहें ऊपर उठाईं.

“ओह, कहां फंसा दिया,” मेघा की आंखों में बेबसी ठहर गई.

‘अब घूमर के अलावा कोई बचाव नहीं,’ सोच कर मेघा ने अपने चिंदीचिंदी आत्मविश्वास को समेटा और अपने दुपट्टे को गले से उतार कर कमर पर बांध लिया.

‘हवा में उड़ता जाए, मेरा लाल दुपट्टा मलमल का…’, ‘इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा…’, ‘लाल दुपट्टा उड़ गया रे बैरी हवा के झौंके से…’ जैसे कई फिल्मी गीतों पर मेघा ने घूमर नाच किया तो सब के मुंह उस के मिक्स ऐंड मैच को देख कर खुले के खुले रह गए. फिरकी की तरह घूमती उस की देह खुद चकरी हो गई थी.

लड़कियां उत्तेजित हो कर सीटियां  बजाने लगीं. उस के बाद वह ‘घूमर वाली लड़की’ के नाम से जानी जाने लगी.

मेघा किसी तरह नई मिट्टी में जड़ें जमाने की कोशिश कर रही थी लेकिन जब भी वह होस्टल में लड़कियों को गहरे गले और बिना बांहों वाली छोटी सी बनियाननुमा ड्रैस पहने बेफिक्री से घूमते देखती तो उसे अपना पूरी आस्तीन का कुरता रजाई सा लपेटा हुआ लगता.

मेघा की हालत त्रिशंकु सी हो गई. न तो उस से अपने संस्कार छोड़ते बनता और ना ही नए तौरतरीके अपनाते बन रहा था. फिर उस ने खुद को बदलने का निश्चय किया.

अब सवाल यह है वह अपनेआप को माहौल के अनुसार बदल भी ले लेकिन कोई उस की मदद करे तो सही, यहां तो कोई उसे दोस्त बनाने के लिए राजी ही नहीं था.

सब से आखिरी बेंच पर बैठने वाली मेघा ने अपनी तरफ से लाख कोशिश कर देखी लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे जमीन पौधे को स्वीकार ही नहीं कर रही, पौधा था कि पनप ही नहीं रहा था.

इसी तरह पहले सेमेस्टर के टर्म पेपर आ गए. मेघा ने अपनी जान झौंक दी. नतीजा आया तो पहले नंबर पर मेघा का नाम देख कर सब की निगाहें क्लास में पीछे बैठी आदिमानव सी लड़की की तरफ उठ गई. प्रोफैसर ने उस का नाम ले कर पुकारा तो संकोच से भरी मेघा के कदम जमीन में धंस से गए.

मेघा को लगा जैसेकि अब उस के दिन बदल जाएंगे और हुआ भी यही. प्रोफैसर उसे नाम से जानने लगे. बहुत से लड़केलड़कियों ने उस से मोबाइल नंबर ऐक्सचैंज किए. कुछ से बातचीत भी होने लगी लेकिन इतना सब होने के बाद भी मेघा अकेली की अकेली ही रही.

लाइम लाइट में आने के बाद भी उस का आत्मविश्वास नहीं लौटा. उसे सब का व्यवहार चीनी चढ़ी कुनैन सा लगता. एकदम बनावटी क्योंकि अब भी लोग उसे शाम को होने वाली चाय पार्टी का हिस्सा नहीं बनाते थे. हां, अपनी रूममैट विधि से अवश्य उस की पटने लगी थी.

विधि ने उस के बाहरी पहनावे को थोड़ा सा बदल दिया. उस की लंबी चोटी अब स्टैप्स में कट गई थी. बालों के तेल की जगह जैल ने ले ली. सलवारकमीज की जगह अलमारी में जींसकुरती आ गई लेकिन हां, अब भी वह बनियान पहन कर होस्टल में नहीं घूम पाती थी. उसे नंगानंगा सा लगता था.

सब कुछ पटरी पर आ ही रहा था कि उस की जिंदगी को और अधिक आसान बनाने आ गया था विनोद. जितनी आधुनिक मेघा, उतना ही विनोद. फर्क बस इतना ही था कि मेघा राजस्थान के गांव से थी तो विनोद बिहार के गांव से. दोनों ही सकुचेसहमे और दिल्ली की तेज रोशनी से चुंधियाए हुए. मेघा को विनोद के साथ बहुत सहज लगता था. उस के साथ खाया लिट्टीचोखा उसे दालबाटी सा आनंद देता था. कभीकभी जब वह लंबा आलाप ले कर देसी तान छेड़ता तो मेघा का मन घूमर डालने को मचलने लगता.

परदेस में कोई अपनी सी फितरत का मिल जाए तो अपना सा ही लगने लगता है. मेघा को भी विनोद अपना ही अक्स लगने लगा. क्लास से ले कर कनाट प्लेस तक दोनों साथसाथ देखे जाने लगे. यह अलग बात है कि कनाट प्लेस जाने का मकसद दोनों का एक ही होता था. नए फैशन को आंखें फाड़फाड़ कर देखना और फिर उसे जीभर कोसना. दोनों को ही इस में आत्मिक तृप्ति सी मिलती थी गोया अपने स्टाइल को बेहतर साबित करने का यह भी एक तरीका हो.

घूमतेफिरते दिल्ली के ट्रैफिक से घबराए दोनों एकदूसरे का हाथ थाम कर सड़क क्रौस किया करते थे. हालांकि विनोद ने कभी इकरार तो नहीं किया लेकिन प्यार से हाथ पकड़ने को मेघा प्यार ही समझ बैठी.

‘मेरी ही तरह छोटी जगह से है ना बड़ी बातें नहीं बना पाता होगा’, मेघा उस के हाथ में अपना हाथ देख कर सपने बुनने लगती.

इधर पिछले कुछ दिनों से मेघा को विनोद पर भी नए रंग का असर दिखाई दे रहा था.

उस दिन बारिश के बाद जब दोनों कैंपस के बाहर लगे ठेले पर मक्के का भुट्टा खा रहे थे तो अचानक मेघा को विनोद के मुंह से अप्रिय सी गंध आई.

“विनोद, पी है क्या?” मेघा ने अपने वहम को यकीन में बदलने के खयाल से पूछा.

“ना, चखी है,” कहने के साथ ही उस के अंदाज की बेशर्मी मेघा को खल गई. उस ने आधा खाया भुट्टा डस्टबिन में फेंका और मुड़ गई. विनोद उसे जाते हुए देखता रहा लेकिन रोकने की कोशिश नहीं की. कौन जाने, हिम्मत ही ना हुई हो.

धीरेधीरे विनोद शहर के रंगों में डूबने लगा. इतना कि खुद अपना असली रंग खो दिया. रंगीनियत तो मेघा पर भी तारी थी लेकिन अभी तक उस की अपनी देसी रंगत बरकरार थी. शायद ये देसीपना संस्कार बन कर उस के भीतर जड़ें जमा चुका था. विनोद में ये जड़ें जरा कमजोर रह गई होंगी.

विनोद को यों पटरी से उतरते देख कर मेघा का दिल बहुत उदास हो जाता लेकिन वह कुछ कर नहीं पा रही थी. हालांकि उनका मिलनाजुलना अब भी जारी था लेकिन अब उस में पहले वाली गुनगुनाहट नहीं बची थी फिर भी मेघा को कभीकभी लगता था जैसेकि दोस्तों को यदि दोस्त ही गड्ढे में गिराते हैं तो उन्हें गिरने से बचाने की जिम्मेदारी भी दोस्तों की ही होती है. फिर वह तो प्यार करने लगी थी उस से. कौन जाने यह रिश्ता रिश्तेदारी में ही बदल जाए. इस नाते तो उस की जिम्मेदारी दोहरी हो जाती है.

 

“तुम्हें भी शहर की हवा लग गई लगती है,” एक रोज मेघा ने सिगरेट के छल्ले उड़ाते विनोद से पूछा.

“जैसा देस, वैसा भेष,” विनोद ने एक हिंदी फिल्म का नाम लिया और हंस दिया.

“बिना भेष बदले क्या उस देस में रहने नहीं दिया जाता?” मेघा ने फिर पूछा जिस का जवाब विनोद को नहीं सूझा. वह चुपचाप नाक से धुआं खींचता मुंह से निकालता रहा.

मेघा चाह तो रही थी कि उस के हाथ से सिगरेट खींच ले लेकिन किस अधिकार से? बेशक विनोद के प्रति उस की कोमल भावनाएं हैं लेकिन इकतरफा भावनाओं की क्या अहमियत. मेघा पराजित सी खड़ी थी.

कुछ खास मौके ऐसे होते हैं जो महानगरों में बड़े शोरशराबे के साथ मनाए जाते हैं, वही छोटे शहर के लोग इन्हें हसरत के साथ ताका करते हैं. वैलेंटाइन डे भी ऐसा ही खास दिन है जिस का युवा दिलों को सालभर से इंतजार रहता है. मेघा भी बहुत उत्साहित थी कि उसे भी यह सुनहरा मौका मिला है जब वह प्रत्यक्ष रूप से इस अवसर की साक्षी बनने वाली है. अन्य लड़कियों की तरह वह गुलाब इकट्ठे करने वाली भीड़ का हिस्सा तो नहीं बन रही थी लेकिन एक गुलाब की प्रतीक्षा तो उसे भी थी ही.

प्रेम दिवस पर पूरे कालेज में गहमागहमी थी. लड़कियां बड़े मनोयोग से सजीसंवरी थी तो लड़के भी कुछ कम नहीं थे. किसी के हाथ में गुलाब तो किसी के पास चौकलेट, कोई टैडीबीयर हाथ में थामे था तो कोई मंदमंद मुसकान के साथ कार्ड में लिखे जज्बात पढ़ रहा था.

कोई जोड़ा कहीं किसी कैंटीन में सटा बैठा था तो कोई किसी कार की पिछली सीट पर प्रेमालाप में मगन था. कुछ जोड़े मोटरसाइकिल पर ऐसे चिपक कर घूम रहे थे कि मेघा को झुरझुरी सी हो आई. मेघा की आंखें ये नजारे देखदेख कर चकाचौंध हुई जा रही थी.

सुबह से दोपहर होने को आई लेकिन विनोद का कहीं अतापता नहीं था.

‘मेरे लिए गुलाब या गिफ्ट लेने गया होगा,’ से ले कर ‘पता नहीं कहां चला गया’ तक के भाव आ कर चले गए. लेकिन नहीं आया तो केवल विनोद.

‘क्यों न चल कर मैं ही मिल लूं,” सोचते हुए मेघा ने कालेज के बाहर अस्थाई रूप से लगी फूलों की दुकान से पीला गुलाब खरीदा और विनोद की तलाश में डिपार्टमैंट की तरफ चल दी.

“अभीअभी विनय के साथ निकला है,” किसी ने बताया.

विनय उन दोनों का कौमन फ्रैंड है. असाइनमैंट बनाने के चक्कर में तीनों कई बार विनय के कमरे पर मिल चुके हैं. मेघा सोच में पड़ गई.

‘क्या किया जाए, इंतजार या फिर विनय के कमरे पर धावा…’ आखिर मेघा ने विनोद को सरप्राइज देना तय किया और विनय के रूम पर जाने के लिए औटो में बैठ गई.

दिल उछल कर बाहर आने की कोशिश में था. औटो की खड़खड़ भी धड़कनों के शोर को दबा नहीं पा रही थी. पीला गुलाब उस ने बहुत सावधानी के साथ पकड़ा हुआ था. कहीं हवा के झोंके से पंखुड़ियां क्षतिग्रस्त न हो जाएं. आज वह जो करने जा रही है वह उस ने कभी सोचा तक नहीं था.

‘पता नहीं मुझे यह करना चाहिए या नहीं. कहीं विनोद इसे गलत न समझ ले. मेरा यह अतिआधुनिक रूप कहीं विनोद को ना भाया तो?’ ऐसे कितने ही प्रश्न थे जो मेघा को 2 कदम आगे और 4 कदम पीछे धकेल रहे थे.

ऊहापोह में घिरी मेघा के हाथ कमरे के बाहर लगी घंटी के बटन की तरफ बढ़ गए. तभी अचानक भीतर से आ रही आवाजों ने उसे ठिठकने को मजबूर कर दिया.

“अरे यार, आज तूने किसी को कोई लाल गुलाब नहीं दिया,” विनय के प्रश्न का जवाब सुनने के लिए मेघा अधीर हुई जा रही थी. अपने नाम का जिक्र सुनने की प्रतीक्षा उस की आंखों में लाली सी उतर आई. उस ने कान दरवाजे से सटा दिए.

“कोई जमी ही नहीं. सानिया पर दिल आया था लेकिन उसे तो कोई और ले उड़ा,” विनोद का जवाब सुन कर मेघा को यकीन नहीं हुआ.

“सानिया? वह तो तेरेमेरे जैसों को घास भी ना डाले,” विनोद ने ठहाका लगाया.

“मैं तो मेघा के बारे में बात कर रहा था. तुम दोनों की तो खूब घुटती थी ना, इसीलिए मैंने अंदाजा लगाया,” विनय ने आगे कहा.

उस के मुंह से अपना जिक्र सुन कर मेघा फिर से उत्सुक हुई.

“कौन? वह गांवड़ी? अरे नहीं यार, यहां आ कर भी अपने लिए कोई गांवड़ी ही ढूंढ़ी तो फिर क्या खाक तीर मारा,” विनोद ने लापरवाही से कहा तो मेघा के कान सुन्न से हो गए. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि जो उस ने सुना वह सच है.

उस ने एक निगाह अपने हाथ में सहेजे पीले गुलाब पर डाली. फूल भी उसे अपने किरदार सा बेरौनक लगा. मेघा वापस मुड़ गई.

‘दिल टूटा क्या?’ कोई भीतर से कुनमुनाया.

‘ना रे, बिलकुल भी नहीं. मेरा दिल इतना कमजोर थोड़ी है. वैसे भी मैं यहां दिल तोड़ने या जोड़ने नहीं आई हूं,’ अपने भीतर को जवाब दे कर वह जोर से खिलखिलाई और फिर अपना दुपट्टा हवा में लहरा दिया.

मेघा हंसतेहंसते बुदबुदा रही थी,’गांवड़ी।’

औटो में बैठी मेघा ने 1-2 बार पीले गुलाब को खुद ही सूंघा और फिर उसे औटो में ही छोड़ कर नीचे उतर गई.

फटी ओढ़नी बहुत नफासत के साथ रफू हो गई थी.

Best Family Drama : खुशहाल जिंदगी हुई बदहाल

‘‘मैं सोच रही हूं कि हमें अपने पहले के विचार पर पुनर्विचार करना चाहिए,’’ सोमा ने कुछ  झिझकते हुए विनोद से कहा.

‘‘किस विचार पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता महसूस हो रही है तुम्हें?’’ विनोद ने आश्चर्य से पूछा. बात उस के पल्ले नहीं पड़ रही थी.

‘‘वह बच्चे वाली. अब मु   झे लग रहा है कि हमारा जीवन नीरस हो रहा है. बिलकुल सूनासूना सा जीवन हो गया है. एक बच्चे के आ जाने से तबदीली आ जाएगी जिंदगी में,’’ सोमा ने कहा और उत्तर की आशा में विनोद को देखने लगी. वह सोच कर घबरा रही थी कि न जाने क्या प्रतिक्रिया होगी विनोद की.

‘‘क्या कह रही हो सोमा? हम ने तो इसी शर्त पर शादी की थी कि हमें बच्चा नहीं चाहिए. बच्चा पालने में बड़े    झमेले हैं, इसे तुम भी मानती थी और मैं भी. सच पूछा जाए तो हमारे विचार की समानता के कारण ही तो हम शादी के बंधन में बंधे थे,’’ विनोद ने हैरत के साथ कहा.

उस का व्यवहार सोमा की अपेक्षा के अनुरूप ही था. यह सच था कि वह भी प्रारंभ में बच्चा पालने के     झंझट में नहीं पड़ना चाह रही थी. उस ने कई महिलाओं को देखा था बच्चे के झमेले में पड़ कर अपना कैरियर और शांति नष्ट होते हुए.

‘‘बात तुम्हारी बिलकुल ठीक है. इसीलिए तो मैं पुनर्विचार की बात कर रही हूं. मैं कहां कोई एकतरफा निर्णय थोप रही हूं तुम्हारे ऊपर?’’ सोमा ने शांत स्वर में कहा.

‘‘सोचना भी मत. इसी शर्त पर हम ने शादी की थी. जब शर्त ही नहीं रहेगी तो शादी टूटने से कोई नहीं रोक पाएगा,’’ विनोद आगबबूला हो गया.

‘‘मैं तो बस पुनर्विचार के लिए कह रही हूं. दोबारा इस बात की चर्चा तब तक नहीं चलाऊंगी जब तक तुम न कहो,’’ सोमा ने मानो आत्मसमर्पण कर दिया.

बात आईगई हो गई. पर कहीं न कहीं यह विनोद के मन को मथ रही थी. आज विनोद तीस वर्ष का है. उस की पत्नी सोमा भी लगभग इसी उम्र की है. कई वर्षों से एकदूसरे को जानते थे. सोमा शादी नहीं करना चाहती थी क्योंकि वह बच्चा पालने के    झं   झट में नहीं पड़ना चाहती थी. उस ने कई लड़कियों के कैरियर को बच्चा पालने के कारण बरबाद होते देखा था और उसी राह पर नहीं चलना चाहती थी.

विनोद भी इसी विचार का था. उसे भी लगता था कि बच्चा होने के बाद इतनी जिम्मेदारियां हो जाती हैं कि अपना जीवन जी नहीं पाता आदमी. वैसे तो दोनों एकदूसरे से प्रेम करते थे. दोनों ने एकदूसरे के विचारों के मेल के कारण ही शादी करने का निर्णय लिया था. दोनों खुश थे. किसी प्रकार का तनाव न था और जिंदगी बहुत ही सुचारु गति से चल रही थी. पर सोमा के पुनर्विचार वाले प्रस्ताव से वह कुछ असहज महसूस कर रहा था. सहमति से लिए गए निर्णय पर पुनर्विचार की बात कर के बहुत बड़ा सदमा दिया था सोमा ने. पर विनोद ने अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी थी.

इस के बाद कई महीनों तक सोमा ने इस बारे में कोई बात नहीं की. पर कहीं न कहीं सोमा के व्यवहार से उसे लग रहा था कि बच्चे की चाहत उस के मन में बहुत अधिक है. उसे यह डर भी सता रहा था कि सोमा फिर से इस बात की चर्चा न करने लगे और उस पर कोई दबाव न बनाए. साथ ही उसे यह भी लग रहा था कि कहीं बच्चे की चाहत पूरी न होने पर वह नाराज न हो जाए और आगे चल कर तलाक न ले ले.

तो क्या एक बच्चा हो जाने दे वह? इस प्रश्न का जवाब उसे नहीं मिल पा रहा था. क्या वह इस शर्त पर बच्चा होने के लिए तैयार हो जाए कि वह बच्चे की देखभाल में कोई मदद नहीं करेगा और यह सोमा के अकेले की जिम्मेदारी होगी. पर घर में बच्चा रहेगा तो कैसे वह एकदम से उस से दूरी बना कर रख पाएगा. इस प्रश्न का कोई हल उसे नजर नहीं आ रहा था.

सिर्फ इस कारण से पिता बनना कि उस की पत्नी इस के लिए एकतरफा चाहत रखती है, उचित नहीं होगा. यह न सिर्फ उस के लिए उचित नहीं होगा बल्कि बच्चे के लिए भी उचित नहीं होगा. वैसे सोमा भी गलत नहीं है क्योंकि अगर उस का विचार बदल गया है तो वह उस के लिए स्वतंत्र है क्योंकि अपने निर्णय पर, अपने शरीर पर उस का अधिकार होना ही चाहिए. अब पतिपत्नी के विचार में ऐसा विरोध है तो फिर क्या किया जाए?

कई सप्ताह इसी उधेड़बुन में फंसा रहा विनोद. सोमा ने उस के बाद कुछ कहा नहीं और हमेशा सहज रहने की कोशिश करती रही. पर कहीं न कहीं उस के चेहरे पर उदासी के भाव दिख जाते थे. शादी इसी शर्त पर होने के कारण सोमा उस से इस बारे में बात नहीं करती थी. धीरेधीरे विनोद पर सोमा की उदासी का प्रभाव पड़ने लगा. उस का दिल कहीं न कहीं सोमा की उदासी का जिम्मेदार खुद को मानने लगा.

यह ठीक है कि शादी की शर्त पर कायम रहना चाहिए पर परिवर्तन तो जीवन का नियम है. किसी के विचार में समय के साथ परिवर्तन होना स्वाभाविक है और ऐसी कोई विशेष मांग नहीं थी सोमा की जिसे पूरा नहीं किया जा सकता और सब से बड़ी बात यह कि सोमा इस के लिए कोई जिद नहीं कर रही. पर क्या पति का दायित्व नहीं होता पत्नी की खुशी का खयाल रखने का? वैसे वह तो सोमा को खुश रखने का हरसंभव प्रयास करता रहा है.

एक रविवार को विनोद और सोमा नाश्ता करने के बाद बैठे हुए थे. थोड़ी देर टीवी देखने के बाद विनोद बैडरूम में जा कर लेट गया. टीवी पर चुनाव से संबंधित और इसराईलईरान, रूसयूके्रन के    झगड़े से संबंधित चर्चा अधिक हो रही थी जिस में दोनों की कोई रुचि नहीं थी. सोमा भी उस की बगल में आ कर लेट गई.

विनोद ने सोमा को अपनी ओर खींचते हुए कहा, ‘‘मुझ से तुम्हारा उदास चेहरा देखा नहीं जाता.’’

‘‘उदास चेहरा? मैं कब उदास रहती हूं?’’ सोमा ने विनोद के कंधे पर सिर रख कर कहा.

‘‘   झूठ मत बोलो. जब से मैं ने तुम्हारे पुनर्विचार के प्रस्ताव को ठुकराया है तुम बुझीबुझी सी रहती हो,’’ विनोद ने अपनी बांहों में सोमा को कसते हुए कहा.

‘‘अरे ऐसा कुछ नहीं है. तुम इस की बिलकुल फिक्र न करो. बस ऐसे ही मन में बात आ गई थी. बेशक बच्चा पालने में काफी    झं   झट है. मैं भी इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहती,’’ सोमा ने अपनी बांहों में विनोद के लपेटते हुए कहा.

‘‘बच्चा पालने के  झंझट से बड़ा एक और  झंझट है,’’ विनोद ने कहा.

‘‘क्या?’’ सोमा चौंक गई.

‘‘अपनी पत्नी को उदास देखना,’’ विनोद ने मुसकरा कर कहा.

‘‘अरे ऐसा कुछ भी नहीं है,’’ सोमा ने कहा ‘‘मान लिया कुछ भी नहीं है, यदि मेरा विचार बदल कर एक बच्चा पैदा करने का हो जाए तब तो तुम मानोगी?’’ विनोद ने कहा.

सोमा ने विनोद की आंखों में    झांकते हुए हामी में सिर हिला दिया और मुसकरा पड़ी. आज कई दिनों के बाद विनोद ने सोमा के चेहरे पर उन्मुक्त हंसी देखी.

दोनों ने शादी इस शर्त पर की थी कि बच्चा नहीं चाहिए. आज दोनों इस बात पर सहमत थे कि बच्चा चाहिए. दोनों ने एकदूसरे की भावना का खयाल रख कर यह निर्णय ले लिया कि एक बच्चा होना ही चाहिए. छुट्टी का दिन था और दोनों एकदूसरे से लिपटे हुए थे. थोड़ी ही देर में दोनों उत्तेजित हो गए और फिर एकदूसरे की बांहों में खो गए. हमेशा की तरह आज विनोद को कंडोम की आवश्यकता नहीं थी.

दोनों जब एकदूसरे से अलग हुए तो हांफते हुए विनोद ने कहा, ‘‘बिना कंडोम के आनंद थोड़ा बढ़ जाता है न?’’

सोमा ने शरमा कर कहा, ‘‘धत्त.’’

इस के बाद से उन दोनों के बीच कंडोम कभी नहीं आया. पहले कभी बिना कंडोम के साथ हो भी लेते थे तो सोमा 24 घंटे के अंदर पिल ले लेती थी ताकि गर्भ न ठहरे. दोनों अब बिना किसी सावधानी के खुल कर सहवास का आनंद ले रहे थे और अपेक्षा कर रहे थे की शीघ्र ही सोमा गर्भवती हो जाएगी.

दिन, महीने, साल गुजर गए और सोमा गर्भवती नहीं हुई तब उन्हें चिंता हुई. अब तक दोनों ने एक बच्चा होने का मन बना लिया था. इशारों ही इशारों में घर वालों को भी बता दिया गया था. यह योजना भी बना ली गई थी कि प्रसव के लिए सोमा अपने मायके जा कर 2-3 महीने रहेगी और फिर यहां विनोद के मातापिता आ जाएंगे बच्चे के लालनपालन में सहायता करने के लिए.

दोनों ने अपनेअपने स्तर से गर्भ ठहरने के उपाय शुरू कर दिए. इस से संबंधित जानकारी साहित्य, गूगल आदि से लेना शुरू कर दिया. कहीं से पता चला कि मासिकधर्म के कुछ दिनों बाद संभोग करने से गर्भ ठहरता है. कई महीने यह कर के भी देख लिया. फिर चक्कर शुरू हुआ डाक्टरों का. सारे टैस्ट हुए और कहीं कोई कमी नहीं मिली. डाक्टर भी हैरान थे कि आखिर कमी कहां है. दोनों पतिपत्नी अवसादग्रस्त हो गए. सोमा को खुद से ज्यादा विनोद की चिंता होती थी. उसे लगता था कि उस ने यह बात नहीं उठाई होती तो शायद इस मानसिक अवसाद से विनोद न गुजरता.

कृत्रिम गर्भधारण, आईवीएफ? और न जाने क्या क्या उपाय किए गए पर कुछ भी काम न आया. डाक्टर न कोई कमी बता पा रहे थे, न कोई उपाय कर पा रहे थे. इस अवसाद का प्रभाव उन के सैक्स जीवन पर भी पड़ने लगा और विनोद चिड़चिड़ा होता चला गया. पहले वह सैक्स का खुल कर आनंद लेता था. अब सैक्स का एक ही मकसद रह गया था, गर्भधारण. सैक्स का आनंद जाता रहा.

कभीकभी सोमा को यह भी लगता कि बारबार पिल लेने से नुकसान हुआ है. शुरू के दिनों में अकसर बिना प्लान के सैक्स हो जाता था जिस के कारण उसे पिल लेनी पड़ती थी.

एक दिन विनोद उदास सा बैठा हुआ था. सोमा उस की बगल में आ कर बैठ गई. उस के कंधे पर सिर रख कर बोली, ‘‘सौरी विनोद, मैं ने बच्चे वाली बात उठा कर खुद को और तुम्हें नाहक परेशान कर दिया.’’

विनोद उस का सिर सहला कर रह गया. उस की आंखें डबडबा गईं. अब कोई उपाय भी तो नहीं बचा था.

Story in Hindi : पसंद की बहू

विभा रसोई में भरवां भिंडी और अरहर की दाल बनाने की तैयारी कर रही थी. भरवां भिंडी उस के बेटे तपन को पसंद थी और अरहर की दाल की शौकीन उस की बहू सुषमा थी. इसीलिए सुषमा के लाख मना करने पर भी वह रसोई में आ ही गई. सुषमा और तपन को अपने एक मित्र के बेटे के जन्मदिन की पार्टी में जाना था और उस के लिए उपहार भी खरीदना था. सो, दोनों घर से जल्दी निकल पड़े. जातेजाते सुषमा बोली, ‘‘मांजी, ज्यादा काम मत कीजिए, थोड़ा आराम भी कीजिए.’’

विभा ने मुसकरा कर सिर हिला दिया और उन के जाते ही दरवाजा बंद कर दोबारा अपने काम में लग गई. जल्दी ही उस ने सबकुछ बना लिया. दाल में छौंकभर लगाना बाकी था. कुछ थकान महसूस हुई तो उस ने कौफी बनाने के लिए पानी उबलने रख दिया. तभी दरवाजे की घंटी बजी. जैसे ही विभा ने दरवाजा खोला, सुषमा आंधी की तरह अंदर घुसी और सीधे अपने शयनकक्ष में जा कर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. विभा अवाक खड़ी देखती ही रह गई.

सिर झुकाए धीमी चाल से चलता तपन भी पीछेपीछे आया. उस का भावविहीन चेहरा देख कुछ भी अंदाजा लगाना कठिन था. विभा पिछले महीने ही तो यहां आई थी. किंतु इस दौरान में ही बेटेबहू के बीच चल रही तनातनी का अंदाजा उसे कुछकुछ हो गया था. फिर भी जब तक बेटा अपने मुंह से ही कुछ न बताए, उस का बीच में दखल देना ठीक न था. जमाने की बदली हवा वह बहुत देख चुकी थी. फिर भी न जाने क्यों इस समय उस का मन न माना और वह सोफे पर बैठे, सिगरेट फूंक रहे तपन के पास जा बैठी.

तपन ने सिगरेट बुझा दी तो विभा ने पूछा, ‘‘सुषमा को क्या हुआ है?’’ ‘‘कुछ भी नहीं,’’ वह झल्ला कर बोला, ‘‘कोई नई बात तो है नहीं…’’

‘‘वह तो मैं देख ही रही हूं, इसीलिए आज पूछ बैठी. यह रोजरोज की खींचतान अच्छी नहीं बेटा, अभी तुम्हारे विवाह को समय ही कितना हुआ है? अभी से दांपत्य जीवन में दरार पड़ जाएगी तो आगे क्या होगा?’’ विभा चिंतित सी बोली.

‘‘यह सब तुम मुझे समझाने के बजाय उसे क्यों नहीं समझातीं मां?’’ कह कर तपन उठ कर बाहर चला गया, जातेजाते क्रोध में दरवाजा भी जोर से ही बंद किया. विभा परेशान हो उठी कि तपन को क्या होता जा रहा है? बड़ी मुश्किल से तो वे लोग उस की रुचि के अनुसार लड़की ढूंढ़ पाए थे. उस ने तमाम गुणों की लिस्ट बना दी थी कि लड़की सुंदर हो, खूब पढ़ीलिखी हो, घर भी संभाल सके और उस के साथ ऊंची सोसाइटी में उठबैठ भी सके, फूहड़पन बिलकुल न हो आदिआदि.

कुछ सोचते हुए विभा फिर रसोई में चली गई. कौफी का पानी खौल चुका था. उस ने 3 प्यालों में कौफी बना ली. बाथरूम में पानी गिरने की आवाज से वह समझ गई कि सुषमा मुंह धो रही होगी, सो, उस ने आवाज लगाई, ‘‘सुषमा आओ, कौफी पी लो.’’ ‘‘आई मांजी,’’ और सुषमा मुंह पोंछतेपोंछते ही बाहर आ गई.

कौफी का कप उसे पकड़ाते विभा ने उस की सूजी आंखें देखीं तो पूछा, ‘‘क्या हुआ था, बेटी?’’ सुषमा सोचने लगी, पिछले पूरे एक महीने से मां उस के व तपन के झगड़ों में हमेशा खामोश ही रहीं. कभीकभी सुषमा को क्रोध भी आता था कि क्या मां को तपन से यह कहना नहीं चाहिए कि इस तरह अपनी पत्नी से झगड़ना उचित नहीं?

‘‘बताओ न बेटी, क्या बात है?’’ विभा का प्यारभरा स्वर दोबारा कानों में गूंजा तो सुषमा की आंखें छलछला उठीं, वह धीरे से बोली, ‘‘बात सिर्फ यह है कि इन्हें मुझ पर विश्वास नहीं है.’’ ‘‘यह कैसी बात कर रही हो?’’ विभा बेचैनी से बोली, ‘‘पति अपनी पत्नी पर विश्वास न करे, यह कभी हो सकता है भला?’’

‘‘यह आप उन से क्यों नहीं पूछतीं, जो भरी पार्टी में किसी दूसरे पुरुष से मुझे बातें करते देख कर ही बौखला उठते हैं और फिर किसी न किसी बहाने से बीच पार्टी से ही मुझे उठा कर ले आते हैं, भले ही मैं आना न चाहूं. मैं क्या बच्ची हूं, जो अपना भलाबुरा नहीं समझती?’’ विभा की समझ में बहुतकुछ आ रहा था. तसवीर का एक रुख साफ हो चुका था.अपनी सुंदर पत्नी पर अपना अधिकार जमाए रखने की धुन में पति का अहं पत्नी के अहं से टकरा रहा था. वह प्यार से बोली, ‘‘अच्छा, तुम कौफी पियो, ठंडी हो रही है. मैं तपन को समझाऊंगी,?’’ यह कह कर विभा रसोई में चली गई. कुकर का ढक्कन खोल दाल छौंकी तो उस की महक पूरे घर में फैल गई. तभी तपन भी अंदर आया और बिना किसी से कुछ बोले कौफी का कप रसोई से उठा कर अंदर कमरे में चला गया.

रात को जब तीनों खाना खाने बैठे, तब भी तपन का मूड ठीक नहीं था. इधर सुषमा भी अकड़ी हुई थी. वह डब्बे से रोटी निकाल कर अपनी व विभा की प्लेट में तो रखती, लेकिन तपन के आगे डब्बा ही खिसका देती. एकाध बार तो विभा चुप रही, फिर बोली, ‘‘बेटी, तपन की प्लेट में भी रोटी निकाल कर रखो.’’ इस पर सुषमा ने रोटी निकाल कर पहले तपन की प्लेट में रखी तो उस का तना हुआ चेहरा कुछ ढीला पड़ा.

खाने के बाद विभा रोज कुछ देर घर के सामने ही टहलती थी. सुषमा या तपन में से कोई एक उस के साथ हो लेता था. उन दोनों ने उसे यहां बुलाया था और दोनों चाहते थे कि जितने दिन विभा वहां रहे, उस का पूरा ध्यान रखा जाए. इसीलिए जब विभा ने बाहर जाने के लिए दरवाजा खोला तो पांव में चप्पल डाल कर तपन भी साथ हो लिया.

कुछ दूर तक मौन चलते रहने के बाद विभा ने पूछा, ‘‘सुषमा को क्या तुम पार्टी से जबरदस्ती जल्दी ले आए थे?’’ ‘‘मां, अच्छेबुरे लोग सभी जगह होते हैं. सुषमा जिस व्यक्ति के साथ बातें किए जा रही थी उस के बारे में दफ्तर में किसी की भी राय अच्छी नहीं है. दफ्तर में काम करने वाली हर लड़की उस से कतराती है. अब ऐसे में सुषमा का इतनी देर तक उस के साथ रहना…और ऊपर से वह नालायक भी ‘भाभीजी, भाभीजी’ करता उस के आगेपीछे ही लगा रहा, क्योंकि कोई और लड़की उसे लिफ्ट ही नहीं दे रही

‘‘मां, अब तुम ही बताओ, मेरे पास और क्या उपाय था, सिवा इस के कि मैं उसे वहां से वापस ले आता. उसे खुद भी तो अक्ल होनी चाहिए कि ऐसेवैसों को ज्यादा मुंह न लगाया करे. किसी भी बहाने से वह उस के पास से हट जाती तो भला मैं पार्टी बीच में छोड़ कर उसे जल्दी क्यों लाता?’’ तपन के स्वर में कुछ लाचारी थी, तो कुछ नाराजगी. विभा मन ही मन मुसकराई कि सुंदर पत्नी की चाह सभी को होती है, किंतु कभीकभी खूबसूरती भी सिरदर्द बन जाती है. वह बोली, ‘‘चलो छोड़ो, जाने दो. धीरेधीरे समझ जाएगी. तुम ही थोड़ा सब्र से काम लो,’’ और विभा घर की ओर पलट पड़ी.

विभा की सारी रात करवटें बदलते बीती. बेटा मानो उस के पति का ही प्रतिरूप बन सामने आ खड़ा हुआ था. अपने विवाह के तुरंत बाद के दिन विभा की बंद आंखों में किसी चलचित्र की भांति उभर आए. किसी भी पार्टी में जाने पर अपने पति सत्येंद्र का अपनी सुंदर पत्नी के चारों ओर मानो एक घेरा सा डाले रखना उसे भूला न था. कभीकभी सत्येंद्र के मित्रों की पत्नियां विभा को चिढ़ातीं तो उसे पति के इस व्यवहार पर क्रोध भी आता, किंतु उन के खिलाफ बोलना उस के स्वभाव में न था. सो, चुप रह जाती. युवावस्था के उन मादक, मधुर दिनों की यादें विभा के दिल को झकझोरने लगीं. कैसे थे वे मोहक दिन, जब दफ्तर से छूटते ही सत्येंद्र इस तरह घर भागते, जैसे किसी कैदखाने से छूटे हों. दोस्तों के व्यंग्यबाणों को वे सिर के ऊपर से ही निकल जाने देते. पहले दफ्तर के बाद लगभग रोज ही कौफी हाउस में दोस्तों के साथ एक प्याला कौफी जरूर पीते थे, तब कहीं घर आते थे, किंतु शादी के बाद तो जैसे दफ्तर का समय ही काटे न कटता था.

शाम के बाद भला सत्येंद्र कहां रुकने वाले थे. दोस्तों के हंसने की जरा भी परवा किए बिना अपनी छोटी सी पुरानी गाड़ी में बैठ कर सीधे घर भागते. लेकिन दोस्त भी कच्चे खिलाड़ी न थे. कभीकभी दोचार इकट्ठे मिल कर मोरचा बांध लेते और उन से पहले ही उन की गाड़ी के पास आ खड़े होते. तभी कोई कहता, ‘यार, बोर हो गए कौफी हाउस की कौफी पीपी कर. आज तो भाभीजी के हाथ की कौफी पीनी है.’ इस से पहले कि सत्येंद्र हां या ना कहें, सब के सब गाड़ी में चढ़ कर बैठ जाते.

इधर विभा रोज ही शाम को पति के आने के समय विशेषरूप से बनसंवर कर तैयार रहती थी. यह उस की मां का दिया मंत्र था कि दिनभर के थकेहारे पति की आधी थकान तो पत्नी का मोहक मुसकराता मुखड़ा देख कर ही उतर जाती है. किंतु जब सत्येंद्र मित्रों को लिए घर पहुंचता और वे

सब उस की सुंदर सजीधजी पत्नी को ‘भाभीजी, भाभीजी’ कह कर घेर लेते तो वह अलगथलग कुरसी पर जा बैठता.

मित्र भी तो कम शरारती न थे, सत्येंद्र के मनोभावों को समझ कर भी अनजान बने रहते. उधर विभा उन सब के सामने बढि़या नाश्ता रख कर, कौफी बना कर स्नेह से उन्हें खिलातीपिलाती. यह सब देख सत्येंद्र और कुढ़ जाता. विभा स्थिति की नजाकत समझती थी और अब तक वह सत्येंद्र के स्वभाव को अच्छी तरह जान भी चुकी थी, इसलिए वह उस के मित्रों को जल्दीजल्दी खिलापिला कर विदा करने की कोशिश करती. मित्रों के जाते ही सत्येंद्र पत्नी पर बरसते, ‘क्या जरूरत थी उन सब की इतनी आवभगत करने की? तुम थोड़ा रूखा व्यवहार करोगी तो खुद ही आना छोड़ देंगे. लेकिन तुम तो उन के सामने मक्खनमलाई हो जाती हो, वाहवाही लूटने का शौक जो है.’

सत्येंद्र की कटु आलोचना सुन कर विभा की आंखें भर आतीं, किंतु उस में गजब का धैर्य था. वह अच्छी तरह जानती थी कि इस स्थिति में वह उसे कुछ भी समझा नहीं पाएगी. वह चुपचाप रात के खाने की तैयारी में लग जाती. सत्येंद्र की मनपसंद चीजें बनाती और फिर भोजन निबटने के बाद रात में जब खुश व संतुष्ट पति की बांहों में होती तो उसे समझाने की कोशिश करते हुए पूछती, ‘अच्छा, बताओ तो, क्या तुम सचमुच ही अपने मित्रों का यहां

आना पसंद नहीं करते? मैं तो उन की खातिरदारी सिर्फ इसलिए करती हूं कि वे औफिस में तुम्हारे साथ काम करते हैं. उन के साथ तुम्हारा दिनभर का उठनाबैठना होता है, वरना मुझे उन की खातिरदारी करने की क्या पड़ी है? यदि तुम्हें ही पसंद नहीं, तो फिर अगली बार से उन्हें केवल चाय पिला कर ही टरका दूंगी.’ ‘अरे, नहींनहीं,’ सत्येंद्र और भी कस कर उसे अपनी बांहों में जकड़ लेते, ‘यह ठीक नहीं होगा. सच तो यह है कि जब वे सब दफ्तर में तुम्हारी इतनी तारीफ करते हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है. लेकिन क्या करूं, दिनभर के इंतजार के बाद जब शाम को तुम मुझे मिलती हो तो फिर बीच में कोई अड़ंगा मैं सहन नहीं कर सकता.’

‘कैसा अड़ंगा भला?’ उस के सीने में मुंह छिपाए विभा मीठे स्वर में कहती, ‘मैं तो सदा ही केवल तुम्हारी हूं, पूरी तरह तुम्हारी. तुम्हारे इन मित्रों की बचकानी हरकतें तो मेरे लिए तुम्हारे छोटे भाइयों की कमी पूरी करती हैं. अकसर सोचती हूं कि यदि तुम्हारे छोटे भाई होते तो वे यों ही ‘भाभीभाभी’ कह कर मुझे घेरे रहते. यही समझो कि तुम्हारे मित्रों द्वारा मेरे दिल की यही कमी पूरी होती है.’ ‘चलो, फिर ठीक है, अब बुरा नहीं मानूंगा. भूल जाओ सब.’

फिर धीरेधीरे सत्येंद्र इस सच को समझते गए कि घर आए मेहमान की उपेक्षा करना ठीक नहीं और अब विभा का अपने मित्रों से बातचीत करना, उन की खातिरदारी करना उन्हें बुरा नहीं लगता था. बदलते समय के साथ फिर तो बहुतकुछ बदलता गया. दोनों के जीवन में बच्चों के जन्म से ले कर उन के विवाह तक न जाने कितने उतारचढ़ाव आए. जिन्हें दोनों ने एकसाथ झेला. फिर कभी एक पल को भी सत्येंद्र का विश्वास न डगमगाया.

विभा की आंख जब लगी, तब शायद सुबह हो चुकी थी, क्योंकि फिर वह सुबह देर तक सोई रही. किंतु उस दिन शनिवार होने के कारण तपन की छुट्टी थी, सो, किसी काम की कोई जल्दी न थी. मुंह धो कर जब विभा रसोई में पहुंची तो सुषमा चाय बना चुकी थी. उसे देखते ही चिंतित सी बोली, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, वह तो ठीक है,’’ विभा ने कहा, ‘‘रात नींद ही बड़ी देर से आई.’’ सादगी से कही उस की इस बात पर तपन और सुषमा दोनों ही सोच में डूब गए. वे दोनों जानते थे कि उन के आपसी झगड़ों से मां का दिल दुखी हो उठता है और मुंह से कुछ भी न कह कर वे उस दुख को चुपचाप सह लेती हैं.

सुषमा के हाथ से कप ले कर विभा खामोशी से चाय पीने लगी. तपन पास आ कर बैठते हुए बोला, ‘‘चलो मां, तुम्हें कहीं घुमा लाते हैं.’’ ‘‘कहां चलना चाहते हो?’’ विभा ने हलके से हंस कर पूछा तो तपन और सुषमा दोनों के चेहरे चमक उठे.

‘‘चलो मां, किसी अच्छे गार्डन में चलते हैं. सुषमा थर्मस में चाय डाल लेगी और थोड़े सैंडविच भी बना लेगी, क्यों, ठीक है न?’’ ‘‘हांहां,’’ कहते हुए सुषमा ने जब तपन की ओर देखा तो उस नजर में उन दोनों के बीच हुए समझौते की झलक थी. विभा का चिंतित मन यह देख खुश हो गया.

नवंबर की धूप में गार्डन फूलों से लहलहा रहा था. शनिवार की छुट्टी होने के कारण अपने छोटे बच्चों को साथ ले कर आए बहुत से युवा जोड़े वहां घूम रहे थे. दिल्ली शहर के छोटे मकानों में रहने वाले मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चे खुली हवा के लिए तरसते रहते हैं. अब इस समय यहां मैदान में बड़ी ही मस्ती से होहल्ला मचाते एकदूसरे के पीछे भाग रहे थे. बच्चों की इस खुशी का रंग उन के मातापिता के चेहरों पर भी झलक रहा था.

विभा का मन भी यहां की रौनक में डूब कर हलका हो उठा. सब से बड़ी बात तो यह थी कि तपन और सुषमा के बीच कल वाला तनाव खत्म हो गया था और वे दोनों सहज हो कर आपस में बातें कर रहे थे. एक तरफ पेड़ की छाया में साफ जगह देख कर सुषमा ने दरी बिछा दी. ठंडी बयार में फूलों की महक घुली थी. विभा को यह सब आनंद दे रहा था. दरी पर बैठी वह मन ही मन सोच रही थी कि आने वाले दिनों में शायद तपन और सुषमा भी जब यहां आएंगे तो नन्हें हाथ उन की उंगलियां थामे होंगे. यह सोच कर विभा का दिल एक सुखद एहसास से भीग उठा. अचानक सुषमा की आवाज से उस की विचारशृंखला टूटी, ‘‘मांजी, यह चाय ले लीजिए.’’

अचानक तपन बोला, ‘‘सुषमा, वह देखो, उधर शंकर और सविता बैठे हैं. चलो, मिल कर आते हैं.’’ किंतु सुषमा बोली, ‘तुम हो आओ, मैं यहां मांजी के साथ ही बैठूंगी.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर तपन उधर चला गया. विभा ने एक गहरी नजर सुषमा पर डाली, जो घुटनों पर सिर रखे चुप बैठी थी. चाय पी कर गिलास नीचे रखते ही विभा उस के पास खिसक आई और पूछा, ‘‘तुम गई क्यों नहीं? शायद उस के दफ्तर का कोई दोस्त है.’’

‘‘क्या फायदा मांजी, फिर झगड़ाझंझट करेंगे. अब आप ही बताइए, इन के मित्र मुझ से बात करें तो क्या मैं अशिष्ट बन जाऊं? उन के साथ हंस कर बात करूं तो ये नाराज, और न करूं तो वे लोग बुरा मानेंगे. मैं तो बीच में फंस जाती हूं न. अब तो मैं इन के साथ पार्टियों में जाना भी बंद कर दूंगी, घर पर ही ठीक हूं,’’ सुषमा थोड़ा तल्खी से बोली.

विभा कुछ देर उस के खूबसूरत चेहरे को देखती रही जहां एक आहत सी अहं भावना की परछाईं थी. फिर कुछ सोच कर समझाते हुए बोली, ‘‘तपन तुम्हें बहुत चाहता है, इसी से उस में तुम्हारे प्रति यह भावना है. पति के दिल की एकछत्र स्वामिनी होना तो बड़े गर्व की बात है.’’

‘‘वह तो ठीक है,’’ सुषमा का चेहरा शर्म से लाल हो गया, ‘‘किंतु जब औरों को देखती हूं तो लगता है कि उन्हें इस बात की चिंता ही नहीं कि उन की पत्नियां कहां, किस से बातें कर रही हैं.’’ ‘‘तब तो तुम यह भी देखती होगी कि वही लोग कभीकभी शराब के नशे में डूबे उन से गलत व्यवहार भी करते होंगे?’’

‘‘यह सब तो कभीकभी चलता है, इन पार्टियों में सभी तरह के लोग होते हैं.’’

‘‘तो फिर अब इस बात को भी समझो कि तुम्हारे साथ किसी का गलत व्यवहार तपन को कभी सहन न होगा. विवाहित जीवन में पति का अंकुश पत्नी पर और पत्नी का अंकुश पति पर होना बहुत जरूरी है. यही एक सफल दांपत्य जीवन का मंत्र है, जहां पतिपत्नी दोनों एकदूसरे को गलत कामों के लिए टोक सकते हैं, एकदूसरे को सही राह दिखा सकते हैं. किंतु इस के लिए विश्वास की मजबूत नींव जरूरी है, जिस में एकदूसरे के इस टोकने को गलत न समझा जाए, बल्कि उस के मूल में छिपी सही विचारधारा को समझा जाए, सुषमा, इस अधिकार को एक का दूसरे पर शासन मत समझो बल्कि एक की दूसरे के प्रति अतिशय प्रेम की अभिव्यक्ति समझो. ‘‘यदि तुम्हें वह सदैव अपनी नजरों के सामने रखना चाहता है तो यह तुम्हारा बहुत बड़ा सम्मान है. पति जिस स्त्री का सम्मान करता है, उस का सम्मान सारी दुनिया करती है, इसे हमेशा याद रखना.’’

इतना सबकुछ एक सांस में ही कह चुकने के बाद विभा खामोश हो गई. उस की बातें बड़े गौर से सुनती सुषमा के सामने विवाहिता जीवन का एक नया ही रहस्य खुला था कि आज के इस नारीमुक्ति युग में पति का पत्नी पर अपना अधिकार साबित करना कोई अमानवीय काम नहीं बल्कि उस के अखंड प्रेम का संकेत है.

सुषमा सोचने लगी कि न जाने उस की कितनी सहेलियां अकेली घूमतीफिरती हैं, अकेली ही पार्टियों में भी जाती हैं. किंतु सच तो यह है कि सुषमा को उन पर बड़ी दया आती है, क्योेंकि अकसर ही उन्हें किसी न किसी पुरुष के गलत व्यवहार का शिकार होना पड़ता है, जिस से उन को बचाने वाला वहां कोई नहीं होता. लेकिन उस के साथ तो उलटा ही है, किसी की टेढ़ी तो क्या, सीधी नजर भी उस पर पड़े तो पति सह नहीं पाता. हमेशा ढाल बन कर खड़ा हो जाता है. इसलिए तो आज तक कभी किसी पार्टी में उस के साथ गलत व्यवहार करने की किसी की हिम्मत नहीं हुई. बुरे से बुरा व्यक्ति भी उस के सामने आ कर इज्जत से हाथ जोड़ कर उसे ‘भाभीजी’ ही कहता है. फिर वह खुद भी तो किसी को ऐसा ओछा व्यवहार करने का मौका नहीं देती.

किंतु उस की मर्यादा का सजग प्रहरी तो तपन ही है न, उस का अपना तपन, जो इन पार्टियों में हर समय साए की तरह उस के साथ रहता है. अकसर उस के दोस्त हंसते भी हैं और कहते भी हैं, ‘बीवी को कभी अकेला छोड़ता ही नहीं.’ किंतु तपन उन के हंसने या मजाक बनाने की कतई परवा नहीं करता. ये विचार मन में आते ही सुषमा को अपने तपन पर बहुत ज्यादा प्यार आया. उस की इच्छा हो रही थी कि दौड़ कर जाए और दूर खड़े तपन के गले में अपनी बांहें डाल दे और कहे, ‘अब मैं तुम्हारी किसी बात का बुरा नहीं मानूंगी. मांजी ने मेरी आंखों से नासमझी का परदा उठा दिया है. तुम्हारी नाराजगी का भी सम्मान करूंगी, क्योंकि वह मेरा सुरक्षाकवच है. मेरे अब तक के व्यवहार के लिए मुझे माफ कर दो.’

मन ही मन इन विचारों में घिरी सुषमा का चेहरा विश्वास की आभा से जगमगा रहा था. आंखों में मानो प्यार के दीए जल उठे थे. बड़ी बेसब्री से वह तपन के आने की प्रतीक्षा कर रही थी. सुषमा सोच रही थी कि कैसी अजीब बात है कि जब तक वह घटनाओं से खुद को जोड़े हुए थी, कुछ भी साफ देख, समझ नहीं पा रही थी, किंतु जब घटनाओं से अलग हो कर उस ने खुद को तटस्थ किया तो सबकुछ शीशे की तरह साफ हो गया. उस के अपने ही दिल ने पलभर में सहीगलत का फैसला कर लिया.

Story For Girls- अनोखी तरकीब: क्या हुआ था सबीहा के साथ

कहते हैं कि जिस घर में बेटी-दामाद शादी के बाद भी बैठे हों उस घर में अपनी लड़की कभी नहीं ब्याहनी चाहिए, क्योंकि वहां बेटी के आगे बहू की कोई इज्जत नहीं होती. पर सबीहा के घर वालों ने तो कभी यह सोचा ही नहीं था. उन्होंने तो बस, लड़का देखा, उस के चालचलन को परखा, कामधंधा का पता किया और बेटी को ब्याह दिया.

उन्हें तो यह तब पता चला जब सबीहा पहली विदाई के बाद घर आई. मां के हालचाल पूछने पर सबीहा ने बडे़ ही उदासीन अंदाज में बताया, ‘‘बाकी तो वहां सब ठीकठाक है पर एक गड़बड़ है कि जरीना आपा शादी के बाद भी वहीं मायके में पड़ी हुई हैं. उन के मियां के आगेपीछे कोई भी नहीं था और वह दूर के भाई लगते थे इसलिए उन लोगों ने उन्हें घरदामाद बना रखा है.

‘‘जरीना आपा तो वहां ऐसे रहा करती हैं मानो वही उस घर की सबकुछ हों. उन के आगे किसी की भी नहीं चलती है और उन की जबान भी खूब चला करती है. आप लोगों को वहां रिश्ता करने से पहले यह सब पता कर लेना चाहिए था.’’

बेटी की बात सुन कर उस की मां सन्न रह गईं पर अब वह कर भी क्या सकती थीं इसलिए बेटी को समझाने लगीं, ‘‘यह तो वाकई हम से बहुत बड़ी भूल हो गई. जब हम तुम्हारा रिश्ता ले कर वहां गए थे तो जरीना को वहां देखा भी था लेकिन हम ने यही समझा कि शादीशुदा लड़की है, ससुराल आई होगी, इसलिए पूछना जरूरी नहीं समझा और हम धोखा खा गए.

‘‘खैर, तुम्हें इस की ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है. बस, तुम्हें अपने काम से काम रखना है, और मैं समझती हूं कि यह कोई बहुत बड़ी बात भी नहीं है. हो सकता है कल को वे अपना हंडि़याबर्तन अलग कर लें.’’

सबीहा का पति अनवर जमाल भारतीय स्टेट बैंक में कैशियर था. वह अच्छीखासी कदकाठी का खूबसूरत नवयुवक था लेकिन उस के साथ एक गड़बड़ थी, वह उन मर्दों में से था जो अपनी बीवियों को दोस्त बना कर नहीं सिर्फ बीवी बना कर रखना जानते हैं.

जरीना के 2 बेटे और 2 बेटियां थीं. चारों बच्चे बेहद शरारती और जिद्दी थे. वे घर में हर वक्त हुड़दंग मचाते रहते और सबीहा से तरहतरह की फरमाइशें करते रहते. अकसर वह उन की फरमाइशें पूरी कर देती लेकिन कभी तंग आ कर कुछ बोल देती तो बस, जरीना का भाषण शुरू हो जाता, ‘‘बच्चों से ऐसे पेश आया जाता है. जरा सा घर का काम क्या करती हो इन मासूमों पर गुस्सा उतारने लगती हो.’’

बेटी की चिल्लाहट सुन कर सबीहा की सास भी बिना कुछ जानेबूझे उसे कोसने लगतीं, ‘‘इतनी सी जिम्मेदारी भी तुम से निभाई नहीं जाती. इसीलिए कहती हूं कि लड़कियों को ज्यादा पढ़ानालिखाना नहीं चाहिए. ज्यादा पढ़लिख लेने के बाद उन का मन घरेलू कामों में नहीं लगता है.’’

अगर कभी सबीहा की कोई शिकायत अनवर तक पहुंच जाती तो उस को अलग डांटफटकार सुनने को मिलती लेकिन वह किसी को कुछ बोल नहीं सकती थी. अपनी सफाई नहीं दे सकती थी, केवल उन की सुन सकती थी. वह इस सच को जान चुकी थी कि उस के कुछ भी बोलने का मतलब है सब मिल कर उसे चीलकौवे की तरह नोच खाएंगे.

सबीहा मायके में अपने ससुराल वालों की कोई शिकायत करती तो वे उलटे उसे ही नसीहत देने लगते और सब्र से काम लेने को कहते. इसलिए शुरुआत में वह जो भी वहां की बात मायके वालों को बताती थी, बाद में उस ने वह भी बताना बंद कर दिया.

एक दिन सबीहा अपने हालात से भरी बैठी थी कि ननद ने कुछ कहा तो वह उस से जबान लड़ा बैठी और जवाब में उसे ऐसी बातें सुनने को मिलीं जिस की उस ने कल्पना भी नहीं की थी.

सास और ननद की झूठी और बेसिरपैर की बातों को सुन वह स्तब्ध रह गई और सोचने लगी कि कहां से वह जरीना के मुंह लग गई.

लेकिन उन का अभी इतने से पेट नहीं भरा था और जब अनवर बैंक से आया तो मौका मिलते ही उन्होंने उन बातों में कुछ और मिर्चमसाला लगा कर उस के कान भर दिए और वह भी सबीहा की खबर लेने लगा, ‘‘क्या यही सिखा के भेजा है तुम्हारे मांबाप ने कि सासननद का एहतेराम मत करना? उन के बच्चों को नीची नजर से देखना. घर में अपनी मनमानी करती रहना और मौका मिलते ही शौहर को लेके अलग हो जाना.’’

‘‘अरे, यह आप क्या कह रहे हैं? मैं ने तो ऐसा कभी सोचा भी नहीं और कभी किसी को कुछ कहा भी नहीं  है. पता नहीं वह क्याक्या अपने मन से लगाती रहती हैं.’’

अनवर के सामने सबीहा जैसे डरतेडरते पहली बार इतना बोली तो वह और भी भड़क उठा, ‘‘खामोश, यहां यह जबानदराजी नहीं चलेगी. यहां रहना है तो सभी का आदरसम्मान करना सीखना होगा और सब से मिलजुल कर  रहना पड़ेगा. समझीं.’’

पति की डांट के बाद सबीहा अंदर ही अंदर फूट पड़ी और मन में बड़बड़ाने लगी कि मैं इन्हें क्या तकलीफ पहुंचाती हूं जो ये मेरे पीछे पड़ी रहती हैं. मुझ से ऐसा कौन सा कर्म हो गया था जो मैं ऐसे घर में चली आई. जब मुझे शादी के बाद यही सब देखना था तो इस से बेहतर था कि मैं घर में ही कुंआरी पड़ी रहती.

उसे पति की बात उतनी बुरी नहीं लगी थी, उसे तो पति के कान भरने वाली सासननद पर गुस्सा आ रहा था. उस ने मन में सोच लिया था कि अब खामोश बैठने से काम नहीं चलेगा. इन्हें कुछ न कुछ सबक सिखाना ही पड़ेगा, तभी उस की जान छूटेगी. लेकिन उसे करना क्या होगा? लड़ाईझगडे़ से तो उस का यह काम बनने वाला नहीं था. फिर कौन सी तरकीब लगाई जाए कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

सबीहा काफी देर तक अपनी इस समस्या के समाधान के लिए बिस्तर पर पड़ी दिमागी कसरत करती रही. अचानक उसे एक अनोखी तरकीब सूझ गई और वह मन में बड़बड़ाई, ‘हां, यह ठीक रहेगा. ऐसे लोग उलटे दिमाग के होते हैं. इन्हें उलटी बात कहो तो सीधा समझते हैं और सीधा बोलो तो उलटा समझते हैं. इन्हें उलटे हाथ से ही हांकना पड़ेगा. निहायत नरमी से इन्हें उलटी कहानी सुनानी पड़ेगी, तब ये मेरी बात को सीधा समझेंगे और तब ही यह झंझट खत्म होगा.’

सबीहा कई दिनों तक अपनी योजना में उलझी उस के हर पहलू पर विचार करती रही और जब योजना की पूरी रूपरेखा उस के दिमाग में बस गई तब एक दिन मौका पा कर वह सास की तेलमालिश करने बैठ गई. कुछ देर उन से इधरउधर की बातें करने के बाद वह बोली, ‘‘जानती हैं अम्मी, इस बार मैं अपने घर गई थी तो एक दिन मेरे पड़ोस में एक अजब ही तमाशा हो गया.’’

‘‘अच्छा, क्या हुआ था? जरा मैं भी तो सुनूं,’’ उस की कहानी में दिलचस्पी लेते हुए सास बोलीं.

सबीहा उन्हें अपनी पूरी कहानी सुनाने लगी:

‘‘मेरे मायके में एक खातून मेरे मकान से कुछ मकान छोड़ के रहती हैं. उन के पास दोमंजिला मकान था और 2 शादीशुदा लड़के थे. आधे मकान में वे एकसाथ रहते थे और आधे को उन्होंने किराए पर दे रखा था. वे रहते तो मिलजुल कर थे पर उन की मां अपने बडे़ बेटे को बहुत मानती थीं. मां का यही नजरिया दोनों बहुओं और उन के बच्चों के साथ भी था.

‘‘फिर बेटाबहू ने मां की एकतरफा मोहब्बत का गलत फायदा उठाते हुए मकान का वह एक हिस्सा जो देखने में अच्छा था, अपने नाम लिखवा लिया और जो खंडहर जैसा था उस हिस्से को छोटे भाई के लिए छोड़ दिया. यही नहीं बडे़ बेटे ने धोखे से मां के कीमती जेवर आदि भी हड़प लिए.

‘‘छोटे भाई को जब इस बात का पता चला तो वह बडे़ भाई से भिड़ गया और दोनों भाइयों के बीच जम कर झगड़ा हुआ, जिस में बीचबचाव करते समय मां भी घायल हो गईं. इस घटना के बाद मां तो बड़े बेटे के साथ रहने लगीं लेकिन छोटे बेटे से उन का नाता लगभग टूट सा गया.’’

सबीहा ने एक पल रुक कर अपनी सास की ओर देखा तो उसे यों लगा जैसे वह अंदर से कांप रही हैं. उस ने फिर अपनी कहानी को आगे बढ़ा दिया :

‘‘अम्मीजी, सच कह रही हूं, जब उस लड़ाई के बारे में मुझे पता चला तो इतना गुस्सा आया कि जी चाहा जा कर उन दोनों कमबख्तों के तलवार से टुकड़े- टुकडे़ कर दूं. भाई भाई से लडे़ तो बात अलग है लेकिन बूढ़ी मां के साथ ऐसा सुलूक. उन पर हाथ उठाना कितना बड़ा गुनाह है.

‘‘उस लड़ाईझगडे़ का मां के दिल पर ऐसा असर हुआ कि वह बुरी तरह बीमार पड़ गईं. अब बडे़ लड़के ने उन से साफ कह दिया कि मेरे पास तुम्हारे इलाज के लिए पैसे नहीं हैं, जिस बेटे के नाम की बैठेबैठे माला जपती हो उसी के पास जा कर इलाज कराओ.

‘‘छुटके ने यह सुना तो जैसे उसे ताव आ गया और तुरंत एक अच्छे डाक्टर के पास ले जा कर मां का इलाज कराया. उन्हें अपने पास रख कर खूब देखभाल की. और अब वह एकदम ठीक हो कर बडे़ मजे में छोटे बेटे के पास रह रही हैं.

‘‘अब मुझे उन के बडे़ बेटाबहू पर गुस्सा आ रहा था कि उन्होंने उस बेचारी बुढि़या का सबकुछ लूट लिया था और फिर बेरहमी से खदेड़ भी दिया. यह तो जमाना आ गया है. जिस पर हद से ज्यादा प्यार लुटाइए वही बरबाद करने पर तुल जाता है. इस से तो अच्छा है कि हम सभी को एक नजर से देखते चलें. चाहे वह बेटा हो या बेटी. क्यों अम्मीजी?’’

‘‘हां, बिलकुल,’’ इतना कह कर वह किसी गहरी सोच में डूब गईं. उन्हें खोया हुआ देख कर सबीहा धीरे से मुसकराई और कुछ देर उन की सेवा करने के बाद धीरे से उठ कर चली गई.

दरअसल, सबीहा की सास उस की कहानी सुन कर जो खो गई थीं तो उस दौरान वह अपने प्रति एक फिल्म सी देखने लगी थीं कि बेटीदामाद पर अंधाधुंध प्यारमोहब्बत, धनदौलत सब- कुछ लुटा रही हैं जिस का फायदा उठाते हुए वह उन्हें कंगाल कर के निकल गए. उस के बाद उन की नफरत के मारे हुए बेटाबहू ने भी उन से नाता तोड़ लिया और वह भरी दुनिया में एकदम से अकेली और बेसहारा हो कर रह गई हैं.

शायद इस भयानक खयाल ने ही उन्हें इतनी जल्दी बदल कर रख दिया था. सबीहा की उलटी कहानी सचमुच में काम कर गई थी.

सबीहा अपनी इस पहली सफलता से खुश थी लेकिन अभी उसे ननद से भी निबटना था. उस के भी दिमाग को घुमाना था. इसलिए वह अपनी सफलता पर बहुत ज्यादा खुश न हो कर मन ही मन एक और कहानी बनाने में जुट गई.

जब उस की दूसरी कहानी भी तैयार हो गई तो एक दिन वह ननद के पास भी धीरे से जा बैठी और उन से इधरउधर की बातें करते हुए सोचने लगी कि उन्हें किस तरह कहानी सुनाई जाए. अभी वह यह सोच ही रही थी कि जरीना बोलीं, ‘‘जानती हो सबीहा, आगे पत्थर वाली गली में एक करीम साहब रहते हैं. उन के लड़के की शादी को अभी कुछ ही माह हुए थे कि वह अपनी बीवी को ले कर अलग हो गया. कितनी बुरी बात है. मांबाप कितने अरमानों से बच्चों को पालते हैं और बच्चे उन्हें कितनी आसानी से छोड़ कर चले जाते हैं.’’

यह सुनते ही सबीहा की आंखें चमक उठीं. वह गहरी सांस लेते हुए बोली, ‘‘क्या कीजिएगा बाजी, यही जमाना आ गया है. जिधर देखिए, लोग परिवार से अलग होते जा रहे हैं. यह करीम साहब का बेटा तो कुछ माह बाद अलग हुआ है लेकिन मेरी एक सहेली तो शादी के कुछ ही हफ्ते बाद मियां को ले कर अलग हो गई थी.

‘‘जब मैं ने उस का यह कारनामा सुना तो मुझे उस पर बेहद गुस्सा आया था. मेरी जब उस से मुलाकात हुई और मैं उस पर बिगड़ी तो जानती हैं वह बड़ी ही अदा से मेरे गले में बांहें डाल कर बोली थी, ‘तुम क्या जानो मेरी जान कि अलग रहने के क्या फायदे हैं. जो जी चाहे खाओपिओ, जब दिल चाहे काम करो जहां मन चाहे घूमोफिरो और घर में कहीं पर भी, किसी भी वक्त शौहर के गले में बेधड़क झूल जाओ. कोई रोकनेटोकने वाला नहीं. ये सब आजादियां भला संयुक्त परिवार में कहां मिल पाती हैं?

‘‘‘और सब से बड़ी बात, सभी को कभी न कभी तो अलग होना ही पड़ता है. महंगाई बढ़ती जा रही है. जमीन के दाम भी आसमान छूते जा रहे हैं. अब हिस्से के बाद किसी को मिलता भी क्या है? बस, एक छोटा सा मुरगी का दरबा. इसलिए आज के दौर में जो जितनी जल्दी अलग हो जाएगा वह उतनी ही अच्छी रिहाइश बना सकता है. समझ में आया मेरी जान?’

‘‘उस की फालतू बकबक सुन कर मेरी खोपड़ी और भी गरम हो गई और मैं उसे झिड़कते हुए बोली, ‘यह सब तुम्हारे दिमाग का फितूर है वरना तो संयुक्त परिवार में रहने में जो मजा है वह अकेले रहने में नहीं है, क्योंकि जीवन की असली खुशी इसी में प्राप्त होती है.’

‘‘बाजी, आप ही बताओ, क्या मैं ने उस से कुछ गलत कहा था?’’

‘‘नहीं भई, तुम ने वही कहा था जिसे दुनिया सच मानती आई है.’’

इतना बोल कर जरीना चुपचाप सोचने लगीं कि इस की सहेली ने जो कुछ कहा है वह तो मैं ने कभी देखा ही नहीं. जो भी यहां मिलता रहा हम खातेपीते रहे. जहां ये घुमानेफिराने ले गए हम बस, वहीं गए और शौहर से प्यार, इस छोटे से घर में हम खुल के कभी प्यार भी नहीं कर सके. भला ये भी कोई जिंदगी है?

जरीना को गुमसुम देख सबीहा को अपनी यह योजना भी सफल होती नजर आने लगी, लेकिन उसे पता नहीं था कि वह अपनी इस दूसरी योजना में कहां तक कामयाब होगी.

रात को जरीना के पति जब दुकान से आए तो वह उन के पैर दबाते हुए बोली, ‘‘अजी जानते हैं, कल रात मैं ने एक अजीब सपना देखा था और सोचा था कि उस के बारे में सुबह आप को बताऊंगी लेकिन बताना याद ही नहीं रहा.

‘‘मैं ने सपने में देखा कि एक बेहद बुजुर्ग फकीर मेरे सिरहाने खडे़ हैं और वह बड़ी भारी आवाज में मुझ से कह रहे हैं कि तू जितनी जल्दी इस घर से निकल जाएगी जिंदगी भर उतनी ही ज्यादा खुशहाल रहेगी. समझ ले ये चंद दिन तेरे लिए बड़ी ही रहमतोबरकत के बन कर आए हैं. इसलिए तू अपने इस नेक काम को बिना देर किए कर डाल. और फिर वह साए की तरह लहराते हुए गायब हो गए.’’

‘‘अच्छा, वह तुम से कहां जाने के लिए कह रहे थे?’’ जरीना के पति ने बडे़ ही भोलेपन से पूछा तो उस ने अपना माथा ठोंक लिया.

‘‘अरे, बुद्धू, आप इतना भी नहीं समझे. वह हमें किराए के मकान में जाने के लिए कह रहे थे और कहां?’’

‘‘ठीक है, मैं कोशिश करता हूं.’’

‘‘कोशिश नहीं, एकदम से लग जाइए और 1-2 दिन के अंदर ही इस काम को कर डालिए.’’

अगले दिन जरीना के मियां अपना कामधाम छोड़ कर मकान की तलाश में निकल गए और शाम होतेहोते उन्हें

2 कमरे का एक अच्छा मकान मिल गया. फिर सुबह होते ही उन का सामान भी जाने लगा.

यह देख जरीना के भाई अनवर व अम्मी की आंखें हैरत से फैल गईं. लेकिन यह देख कर सबीहा की तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उस की दूसरी कहानी भी सफल हो गई थी और उस की ये अनोखी तरकीब बेहद कारगर साबित हुई थी, जिस में उस का न तो किसी से कोई लड़ाईझगड़ा हुआ था और न ही उस ने किसी को सीधे मुंह कुछ कहा था.

Story In Hindi- गुरु की शिक्षा: क्या थी पद्मा की कहानी

लेखिका- करुणा मलहोत्रा

सारे घर में कोलाहल मचा हुआ था, ‘‘अरे, छोटू, साथ वाला कमरा साफ कर दिया न?’’

‘‘अरे, सुमति, देख तो खाना वगैरह सब तैयार है.’’

‘‘अजी, आप क्यों ऐसे बैठे हैं, जल्दी कीजिए.’’

पूरे घर को पद्मा ने सिर पर उठा रखा था. बड़ी मामी जो आ रही थीं दिल्ली.

वैसे तो निर्मला, सुजीत बाबू की मामी थीं, इस नाते वह पद्मा की ममिया सास हुईं, परंतु बड़े से छोटे तक वह ‘बड़ी मामी’ के नाम से ही जानी जाती थीं. बड़ी मामी ने आज से करीब 8-9 वर्ष पहले दिल्ली छोड़ कर अपने गुरुभभूतेश्वर स्वामी के आश्रम में डेरा जमा लिया था. उन्होंने दिल्ली क्यों छोड़ी, यह बात किसी को मालूम नहीं थी. हां, बड़ी मामी स्वयं यही कहती थीं, ‘‘हम तो सब बंधन त्याग कर गुरुकी शरण में चले गए. वरना दिल्ली में कौन 6-7 लाख की कोठी को बस सवा 4 लाख में बेच देता.’’

जाने के बाद लगभग 4 साल तक बड़ी मामी ने किसी की कोई खोजखबर नहीं ली थी. पर एक दिन अचानक तार भेज कर बड़ी मामी आ धमकीं मामा सहित. बस, तब से हर साल दोनों चले आते थे. पद्मा पर उन की विशेष कृपादृष्टि थी. कम से कम पद्मा तो यही समझती थी.

उस दिन भी रात की गाड़ी से बड़ी मामी आ रही थीं. इसलिए सभी भागदौड़ कर रहे थे. रात को पद्मा और सुजीत बाबू दोनों उन्हें स्टेशन पर लेने गए. वैसे घर से स्टेशन अधिक दूर न था, फिर भी पद्मा जितनी जल्दी हो सका, घर से निकल गई.

पद्मा को गए अभी 15 मिनट ही हुए थे कि बड़ी जोर से घर की घंटी बजी.

‘‘छोटू, देखो तो,’’ सुमति बोली.

छोटू ने दरवाजा खोला. वह हैरानी से चिल्लाया, ‘‘बहूजी, बड़ी मामी.’’

समीर और सुमति फौरन दौड़े.

‘‘मामीजी आप मां कहां है?

‘‘तो क्या पद्मा मुझे लेने पहुंची है? मैं ने तो 5-7 मिनट इंतजार किया. फिर चली आई.’’

‘‘हां, दूसरों को सहनशीलता का पाठ पढ़ाती हैं. परंतु खुद…’’ समीर धीरे बोला, परंतु सुमति ने स्थिति संभाल ली.

थोड़ी देर में पद्मा और सुजीत बाबू भी हांफते हुए आ गए.

‘‘नमस्कार, मामाजी,’’

‘‘जुगजुग जिओ. देख री पद्मा, तेरे लिए घर के सारे मसाले ले आई हूं. हमें आश्रम में सस्ते मिलते हैं न.’’

पद्मा गद्गद हो गई,  ‘‘इतनी तकलीफ क्यों की, मामीजी.’’

‘‘अरी, तकलीफ कैसी? तुझे मुफ्त में थोड़े ही दूंगी. वैसे मैं तो दे दूं, पर हमारे गुरुजी कहते हैं, किसी से कुछ लेना नहीं चाहिए. क्यों बेकार तुम्हें ‘पाप’ का भागीदार बनाऊं. क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी तो जैसे समर्थन के लिए तैयार थे.

पद्मा का मुंह ही उतर गया.

पद्मा को छोड़ कर घर में कोई भी अन्य व्यक्ति मामी को पसंद नहीं करता था. बस, वह हमेशा अपने आश्रम की बातें करती थीं. कभी अपने गुरुकी तारीफों के पुल बांधने लगतीं परंतु उन की कथनी और करनी में जमीनआसमान का अंतर था. जितने दिन बड़ी मामी रहतीं, पूरे घर में कोहराम मचाए रखतीं. सभी भुनभुनाते रहते थे, सिर्फ पद्मा को छोड़ कर. उस पर तो बड़ी मामी के गुरुऔर आश्रम का भूत सवार था.

दूसरे दिन सुबह 5 बजे उठ कर बड़ी मामी ने जोरजोर से मंत्रोच्चारण शुरू कर दिया. सुमति को रेडियो सुनने का बहुत शौक था. उस ने देखा कि 7 बज रहे हैं. वैसे भी बड़ी मामी तो 5 बजे की उठी थीं, इसलिए उस ने रेडियो चालू कर दिया. पर बड़ी मामी का मुंह देखते ही बनता था. लाललाल आंखें ऐसी कि खा जाएंगी.

पद्मा ने देखा तो फौरन बहू को झिड़का, ‘‘बंद कर यह रेडियो, मामीजी पाठ कर रही हैं.’’

‘‘रहने दे, बहू. मेरा क्या, मैं तो बरामदे में पाठ कर लूंगी. किसी को तंग करने की शिक्षा हमारे गुरु ने नहीं दी है.’’

‘‘नहींनहीं, बड़ी मामी. चल री बहू, बंद कर दे.’’

रेडियो तो बंद हो गया पर सुमति का चेहरा उतर गया. दोपहर में छोटू ने रेडियो लगा दिया तो बड़ी मामी उसे खाने को दौड़ीं, ‘‘अरे मरे, नौकर है, और शौक तो देखो राजा भोज जैसे. चल, बंद कर इसे. मुझे सोना है.’’

छोटू बोला, ‘‘अच्छा, बड़ी मामी, फिर तुम्हारे गुरुका टेप चला दूं.’’

‘‘ठहर दुष्ट, मेरे गुरुजी के बारे में ऐसा बोलता है. आज तुझे न पिटवाया तो मेरा नाम बदल देना.’’

जब तक पद्मा को पूरी बात पता चले, छोटू खिसक चुका था.

‘‘सच बहूजी, अब तो 15 दिन तक रेडियो, टीवी सब बंद,’’ छोटू ने कहा.

‘‘हां रे,’’ सुमति ने गहरी सांस ली.

अगले दिन शाम को चाय पीते हुए बड़ी मामी बोल पड़ीं, ‘‘हमारे आश्रम में खानेपीने की बहुत मौज है. सब सामान मिलता है. समोसा, कचौरी, दालमोठ, सभी कुछ, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ सदा की भांति मामाजी ने उत्तर में सिर हिलाया.

पद्मा खिसिया गई, ‘‘बड़ी मामी, यहां भी तो सब मिलता है. जा छोटू, जरा रोशन की दुकान से 8 समोसे तो ले आ.’’

‘‘रहने दो, बहू, हम ने तो खूब खाया है अपने समय में. खुद खाया और सब को खिलाया. मजाल है, किसी को खाली चाय पिलाई हो.’’

‘‘तो मामीजी, हम ने भी तो बिस्कुट और बरफी रखी ही है,’’ सुमति ने कहा.

बस, बड़ी मामी तो सिंहनी सी गरजीं, ‘‘देखा, बहू.’’

पद्मा ने भी झट बहू को डांट दिया, ‘‘बहू, बड़ों से जबान नहीं लड़ाते. चल, मांग माफी.’’

‘‘रहने दे, बहू, हम तो अब इन बातों से दूर हो चुके हैं. सच, न किसी से दोस्ती, न किसी से बैर. क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी ने खूंटे से बंधे प्यादे की तरह सिर हिलाया.

‘‘बहू, शाम को जरा बाजार तो चलना. कुछ खरीदारी करनी है,’’ सुबह- सुबह मामी ने आदेश सुनाया.

‘‘आज शाम,’’ पद्मा चौंकी.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘आज मां को अपनी दवा लेने डाक्टर के पास जाना है,’’ समीर ने बताया.

‘‘मैं क्या जबरदस्ती कर रही हूं. वैसे हमारे गुरुजी ने तो परसेवा को परमधर्म बताया है.’’

‘‘हांहां, मामीजी, मैं चलूंगी. दवा फिर ले आऊंगी.’’

‘‘सोच ले, बहू, हमारा क्या है, हम तो गुरु  के आसरे चलते हैं,’’ टेढ़ी नजरों से समीर को देखती हुई मामी चली गईं.

समीर ने मां को समझाना चाहा, पर उस पर तो गुरुजी के वचनों का भूत सवार था. बोली, ‘‘ठीक ही तो है, बेटा. परसेवा परम धर्म है.’’

और शाम को पद्मा बाजार गई. पर लौटतेलौटते सवा 8 बजे गए. बड़ेबड़े 2 थैले पद्मा ने उठाए हुए थे और हांफ रही थी.

आते ही बड़ी मामी बोलीं, ‘‘सुनो जी, यहां आज बाजार लगा हुआ था. अच्छा किया न, चले गए. सामान काफी सस्ते में मिल गया है.’’

सारा सामान निकाल कर मामी एकदम उठीं और बोलीं, ‘‘हाय री, पद्मा, लिपस्टिक तो लाना भूल ही गए. अब कल चलेंगे.’’‘‘मामीजी, आप और लिपस्टिक?’’ सुमति बोली.

‘‘अरे, हम तो इन बंधनों से मुक्त हो गए हैं, वरना कौन मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूं. हमारे आश्रम में तो नातीपोती वाली भी लाललाल रंग की लिपस्टिक लगाती हैं. मैं तो फिर भी स्वाभाविक रंग लेती हूं. सच, क्या पड़ा है इन चोंचलों में. हमारे लिए तो गुरु ही सबकुछ हैं.’’

‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम,’ छोटू फुसफुसाया तो समीर और सुमति चाह कर भी हंसी न रोक सके. हालांकि बड़ी मामी ने छोटू की बात तो नहीं सुनी फिर भी उन्होंने भृकुटि तान लीं.

अगले दिन पद्मा की तबीयत खराब हो गई. इसलिए उठने में थोड़ी देर हो गई. उस ने देखा कि बड़ी मामी रसोई में चाय बना रही हैं.

‘‘मुझे उठा दिया होता, मामीजी,’’  पद्मा ने कहा.

‘‘नहींनहीं, तुम सो जाओ चैन से. हमारे गुरुजी ने इतना तो सिखाया ही है कि कोई काम न करना चाहे तो उस के साथ जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए.’’

‘‘नहींनहीं, मामीजी. ऐसी बात नहीं. आज जरा तबीयत ठीक नहीं थी,’’ पद्मा मिमियाई.

‘‘तो बहू, जा कर आराम कर न. हम किसी से कुछ आशा नहीं करते. यह हमारे गुरुजी की शिक्षा है.’’

उस दिन तो पद्मा के मन में आया कि कह दे ‘चूल्हे में जाओ तुम और तुम्हारे गुरुजी.’

दोपहर को खाते वक्त बड़ी मामी ने सुमति से पूछा, ‘‘क्यों सुमति, दही नहीं है क्या?’’

‘‘नहीं मामीजी. आज सुबह दूध अधिक नहीं मिला. इसलिए जमाया नहीं. नहीं तो चाय को कम पड़ जाता.’’

‘‘हमारे आश्रम में तो दूधघी की कोई कमी नहीं है. न भी हो तो हम कहीं न कहीं से जुगाड़ कर के मेहमानों को तो खिला ही देते हैं.’’

‘‘हां, अपनी और बात है. भई, हम न तो लालच करते हैं, न ही हमें जबान के चसके हैं. हमारे गुरुजी ने तो हमें रूखीसूखी में ही खुश रहना सिखाया है क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ रटारटाया उत्तर मिला.

‘‘रूखीसूखी?’’ सुमति ने मुंह बिगाड़ा, ‘‘2 सूखे साग, एक रसे वाली सब्जी, रोटी, दालभात, चटनी, पापड़ यह रूखीसूखी है?’’

शाम को बड़ी मामी ने फिर शोर मचाया, ‘‘हम ने तो सबकुछ छोड़ दिया है. अब लिपस्टिक लगानी थी. पर हमारे गुरुजी ने शिक्षा दी है, किसी की चीज मत इस्तेमाल करो. भले ही खुद कष्ट सहना पड़े.’’

‘‘लिपस्टिक न लगाने से कैसा कष्ट, मामीजी?’’ छोटू ने छेड़ा.

‘‘चल हट, ज्यादा जबान न लड़ाया कर,’’ बड़ी मामी ने उसे झिड़क दिया.

आखिर पद्मा को बड़ी मामी के साथ बाजार जाना ही पड़ा. लौटी तो बेहद थकी हुई थी और बड़ी मामी थीं कि अपना ही राग अलाप रही थीं, ‘‘जितना हो सके, दूसरों के लिए करना चाहिए. नहीं तो जीवन में रखा ही क्या है, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी के बोलने से पहले ही छोटू बोला और भाग गया.

एक दिन बैठेबैठे ही बड़ी मामी बोलीं, ‘‘जानती है, पद्मा, वहां अड़ोस- पड़ोस में मैं ने तेरी बहुत तारीफें कर रखी हैं. सब से कहती हूं, ‘बहू हो तो पद्मा जैसी. मेरा बड़ा खयाल रखती है. क्याक्या सामान नहीं ले कर रखती मेरे लिए.’ सच बहू, तू मेरी बहुत सेवा करती है.’’

पद्मा तो आत्मविभोर हो गई. कुछ कह पाती, उस से पहले ही बड़ी मामी फिर से बोल पड़ीं, ‘‘हां बहू, सुना है यहां काजू की बरफी बहुत अच्छी मिलती है. सोच रही थी, लेती जाऊं. वैसे हमें कोई लालसा नहीं है. पर अपनी पड़ोसिनों को भी तो दिखाऊंगी न कि तू ने क्या मिठाई भेजी है.’’

पद्मा तो ठंडी हो गई, ‘इस गरमी में, जबकि पीने को दूध तक नहीं है, इन्हें बरफी चाहिए, वह भी काजू वाली. 80 रुपए किलो से कम क्या होगी?’

अभी पद्मा इसी उधेड़बुन में थी कि बड़ी मामी ने फिर मुंह खोला, ‘‘बहू, अब किसी को कोई चीज दो तो खुले दिल से दो. यह क्या कि नाम को पकड़ा दी. यह पैसा कोई साथ थोड़े ही चलेगा. यही हमारे गुरुजी का कहना है. हम तो उन्हीं की बताई बातों पर चलते हैं.’’

पद्मा को लगा कि अगर वह जल्दी ही वहां से न खिसकी तो जाने बड़ी मामी और क्याक्या मांग बैठेंगी.

फिर बड़ी मामी ने नई बात छेड़ दी. ‘‘जानती है, बहू. हमारे गुरुजी कहते हैं कि जितना हो सके मन को संयम में रखो. खानपान की चीजों की ओर ध्यान कम दो. अब तू जाने, घर में सब के साथ मैं भी अंटसंट खा लेती हूं. पर मेरा अंतर्मन मुझे कोसता है, ‘छि:, खाने के लिए क्या मरना.’ इसलिए बहू, आज से हमारे लिए खाने की तकलीफ मत करना. बस, हमें तो रात में एक गिलास दूध, कुछ फल और हो सके तो थोड़ा मेवा दे दिया कर, आखिर क्या करना है भोगों में पड़ कर.’’

कहां तो पद्मा बड़ी मामी के गुण गाते न थकती थी, कहां अब वह पछता रही थी कि किस घड़ी में मैं ने यह बला अपने गले बांध ली थी.

बस, जैसेतैसे 20 दिन गुजरे, जब बड़ी मामी जाने लगीं तो सब खुश थे कि बला टलने को है. पर जातेजाते भी बड़ी मामी कह गईं, ‘‘बहू, अब कोई इतनी दूर से भाड़ा लगा कर आए और रखने वाले महीना भर भी न रखें तो क्या फायदा? हमारे गुरुजी तो कहते हैं, ‘घर आया मेहमान, भगवान समान’ पर अब वह बात कहां. हां, हमारे यहां कोई आए, तो हम तो उसे तब तक न छोड़ें जब तक वह खुद न जाने को चाहे.’’

यह सुन कर सुमति ने पद्मा की ओर देखा तो पद्मा कसमसा कर रह गई.

‘‘अच्छा बहू, इस बार आश्रम आना. तू ने तो देख रखा है, कैसा अच्छा वातावरण है. सत्संग सुनेगी तो तेरे भी दिमाग में गुरु के कुछ वचन पड़ेंगे, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी का जवाब था.

बड़ी मामी को विदा करने के बाद सब हलकेफुलके हो कर घर लौटे. घर आ कर समीर ने पूछा, ‘‘क्यों मां, कब का टिकट कटा दूं?’’

‘‘कहां का?’’ पद्मा ने पूछा.

‘‘वहीं, तुम्हारे आश्रम का. बड़ी मामी न्योता जो दे गई हैं.’’

‘‘न बाबा, मैं तो भर पाई उस गुरु से और उस की शिष्या से. कान पकड़ लेना, जो दोबारा उन का जिक्र भी करूं. शिष्या ऐसी तो गुरु के कहने ही क्या. सच, आज तक मैं ऊपरी आवरण देखती रही. सुनीसुनाई बातों को ही सचाई माना. परंतु सच्ची शिक्षा है, अपने अच्छे काम. ये पोंगापंथी बातें नहीं.’’

‘‘सच कह रही हो, मां?’’ आश्चर्यचकित समीर ने पूछा.

‘‘और नहीं तो क्या, क्यों जी?’’

और समवेत स्वर सुनाई दिया, ‘‘हां जी.’’

Short Story: साधु बने स्वादु

फी ता कटा, फ्लैशगनें चमकीं, तालियां बजीं. मेजबान ने स्वामीजी के चरण छुए और आशीर्वाद प्राप्त किया. बाद में उन्हें ले कर आभूषणों का अपना आलीशान शोरूम दिखाने लगा.  आजकल यह दृश्य आम हो गया है. अब दुकानों, शोफीता कटा, फ्लैशगनें चमकीं, तालियां बजीं. मेजबान ने स्वामीजी के चरण छुए और आशीर्वाद प्राप्त किया. बाद में उन्हें ले कर आभूषणों का अपना रूमों का उद्घाटन करने के लिए झक सफेद कपड़ों वाले नेताजी या मंत्रीजी की जरूरत नहीं रह गई है बल्कि यह काम गेरुए वस्त्रों में लिपटा साधु करता है. दुनिया भर को मोहमाया से दूर रहने के कड़वे उपदेश पिलाने वाले बाबा इन दिनों दुकानों, पार्लरों के फीते काट रहे हैं. हंसहंस कर फोटो खिंचवा रहे हैं. धनिकों को साधु रखने का शौक होता है. जैसे चौकीदार रखा, रसोइया रखा, माली रखा उसी तर्ज पर एक स्वामी भी रख लिया. बस, उसे डांटते नहीं हैं, उस पर हुक्म नहीं चलाते.

उधर दुनियादारी को त्याग चुका साधु भी इन दुनियादारों के यहां पड़ा रहता है. उन के खर्चे से सैरसपाटे करता रहता है. आखिर अनमोल प्रवचनों का पारिश्रमिक तो उसे वसूलना ही है. साधु कभी भी गरीबों के यहां निवास नहीं करते. इस की वजह वे बताते हैं कि गरीबों पर आर्थिक बोझ न पड़े इसलिए. पर वे तो साधारण आर्थिक स्थिति वालों के यहां भी नहीं रुकते. दरअसल, साधारण आदमी उन की फाइवस्टार सेवा नहीं कर सकता. साधुओं का यह मायाप्रेम नहीं तो और क्या है?

‘‘भक्त का अनुरोध मानना ही पड़ता है,’’ साधुओं का जवाब होता है, ‘‘वह दिनरात हमारी सेवा करता है, हमारी सुखसुविधा का खयाल रखता है. क्या हम उस के लिए एक फीता नहीं काट सकते? हमारा काम ही आशीर्वाद देना है.’’

‘‘पर आप तो जनता से मोहमाया से मुक्त होने का आह्वान करते हैं.’’

‘‘करते हैं न. तब भी करते हैं जब किसी शोरूम का उद्घाटन करने जाते हैं.’’

‘‘जो भक्त माया इकट्ठी करने में लगा हो उसे आप अपरिग्रह का उपदेश क्यों नहीं देते?’’

‘‘देते हैं. जब उस के पास उस की आवश्यकताओं से अधिक धन हो जाए तभी वह अपरिग्रह की ओर मुड़ेगा. हर एक की तृप्ति का स्तर अलगअलग होता है. जब उस की इच्छाएं तृप्त हो जाएंगी तो वह अपनी सारी दौलत रास्ते में लुटा देगा.’’

‘‘और आप की तरह दीक्षा ले लेगा. पर संन्यास लेने से पहले इस तरह का वैभव प्रदर्शन करने के बजाय क्या वह इस धन से कोई स्कूल या अस्पताल नहीं बनवा सकता?’’

साधु के पास इस का जवाब कभी नहीं होता है.

जो लोग भूखे को रोटी देने के बजाय कुत्ते को देते हैं वे संन्यास लेने से पहले लोगोें को अपने लुटाए हुए हीरेजवाहरातों पर कुत्तों की तरह टूटते देख कर फूले नहीं समाते. यह मानवता का अपमान नहीं तो क्या है?  जब चातुर्मास का मौसम आता है तो मोहमाया से मुक्त ये साधु बैंडबाजे सहित मोहमाया की दुनिया में आते हैं और तड़कभड़क भरे हौल में अपने भक्तों से सांसारिक बंधनों से मुक्त होने का आह्वान करते हैं.

क्या इन बैरागियों को इतना भी नहीं मालूम कि जिन भक्तों को उन के प्रवचनों से लाभ उठाना होगा, वे  खुद चल कर उन के आश्रम में आएंगे?

हां, इन्हें इतना तो मालूम है कि न तो इन के उपदेशों में ताकत है और न ही इन के भक्त इतने बेवकूफ हैं कि अपनी मोटी कमाई छोड़ कर इन के नीरस प्रवचन सुनें, इसलिए कुआं खुद ही सांसारिक सुखों से तर गले वालों के पास चला आता है. भक्त लोग भी इन के भाषण सिनेमा या नाटक देखने की तर्ज पर सुनने चले आते हैं.  ऐसे ही मोहमाया के संसार में घुसने   को छटपटा रहे एक साधु से मैं ने  बातचीत की. मैं ने उसे सिर्फ नमस्कार किया, चरण नहीं छुए. मैं ने देखा कि उस के चेहरे पर नाराजगी  के भाव थे. उस के चेलेचपाटे भी खुश नहीं दिखे बातचीत के दौरान मैं ने

उस से पूछ ही लिया, ‘‘आप मेरे अभिवादन के तरीके से खुश नजर नहीं आए?’’

‘‘हां, बडे़ेबड़े उद्योगपति, राजनेता मेरे पैर छूते हैं और तुम ने ऐसे नमस्कार किया जैसे किसी दोस्त को हैलोहाय कर रहे हो. यह तो भारतीय परंपरा नहीं है किसी आदरणीय व्यक्ति का अभिवादन करने की.’’

‘‘आप तो संन्यासी हैं. आप ने सांसारिक विकृतियों पर विजय पाई है. आप को क्रोध क्यों आया?’’ मैं ने तड़ाक से सवाल किया जिसे सुन कर उन के चेलों ने मुझे बदतमीज, पापी कहा.

‘‘आप जब अपने शिष्यों को क्रोध पर विजय प्राप्त करना नहीं सिखा सके तो दुनिया को क्या सिखा पाएंगे?’’

‘‘बदतमीज, इतने बड़े स्वामीजी से बोलने का यह कोई तरीका है? जानता नहीं, बड़ेबड़े लोग इन के पैर छूते हैं?’’ एक शिष्य भड़का.

‘‘यानी इन्हें घमंड है कि बड़ेबड़े लोग इन के पैर छूते हैं. इसे ही शायद मद कहते हैं.’’

‘‘पापी, जानता नहीं कि ये सांसारिक मोहमाया से परे हैं? हजारों लोग इन के चरणों में चांदी, सोना, हीरे चढ़ाते हैं, देखा नहीं? चलो हटो, दूसरों को आने दो,’’ और भक्तों ने मुझे चढ़ावे में आया धन बताया.

‘‘नहीं, आप के ये स्वामीजी मद, लोभ और क्रोध से मुक्त नहीं हुए हैं. बारबार ये समाज में लौटते हैं. इस का मतलब यह है कि ये मोह से मुक्त नहीं हुए हैं. क्या जरूरत है इन्हें समाज में आने की, जिसे इन्होंने त्याग दिया है?’’

‘‘आप यहां से चले जाइए वरना किसी ने कुछ कर दिया तो हम जिम्मेदार नहीं होंगे,’’ मुझे चेतावनी दी गई.

मैं कहना चाहता था कि जब आप क्रोध, लोभ, मद और मोह से मुक्त नहीं हैं तो काम से भी मुक्त नहीं होंगे. फिर यह साधु का मेकअप क्यों? पर मुझे धक्के मार कर निकाल दिया गया. मेरा विश्वास है कि सब से ज्यादा सांसारिक सुखों में लीन ये साधुस्वामी ही हैं. बिना कुछ किए, सिर्फ गैरव्यावहारिक भाषण झाड़ कर ये ऐशोआराम से रहते हैं. इन के आश्रम सभी सुखसुविधाओं से युक्त रहते हैं. भोग और संभोग की पूरी व्यवस्था रहती है. इसीलिए तो जिनजिन आश्रमों पर पुलिस के छापे पड़े हैं,आपत्तिजनक सामग्री बरामद हुई है. एक साधु के आश्रम में शराब, ब्लू फिल्में और लड़कियां मिलने का क्या मतलब है? ये पाखंडी लोग दुनिया की कठिनाइयों से नहीं लड़ सकते और समाज से पलायन कर जाते हैं. पर एकांत में सांसारिक सुख और भी याद आते हैं इसलिए किसी न किसी बहाने ये समाज में लौटते हैं. कभी चातुर्मास के बहाने या किसी दुकान का उद्घाटन करने या किसी भक्त के विवाह में आशीर्वाद देने के बहाने.

इन के आश्रम अपराधियों के क्लब होते हैं. राजनेता, तस्कर, मिलावट- बाज, काला बाजारिए, सट्टेबाज इन के यहां आपस में मिलते हैं और अपने भावी कार्यक्रम तय करते हैं. क्या जरूरत है किसी मंत्री को इन के आश्रम में जाने की और इन का आशीर्वाद पाने की? आम आदमी को तो ये साधु कभी आश्रम में बुला कर आशीर्वाद नहीं देते.  इन के आश्रम सिर्फ पूंजीपतियों, राजनेताओं के लिए ही खुले होते हैं. आम आदमी को ये सिर्फ दर्शन देते हैं.  इन के आश्रम में सिर्फ पूंजीपतियों की एयरकंडीशंड कारें तैनात रहती हैं. ये पाखंडी स्वामी यों तो समाजसुधार का ढिंढोरा पीटते रहते हैं पर आज तक कोई साधु किसी समस्याग्रस्त झोपड़पट्टी में नहीं गया है, बाढ़पीडि़त क्षेत्र में नहीं गया है, महामारी प्रभावित क्षेत्र में कदम तक नहीं रखा है. और तो और इन्होंने कभी किसी मलिन बस्ती में अपना प्रवचन भी नहीं दिया है क्योंकि वहां ग्लैमर नहीं है, प्रसिद्धि नहीं है, माल नहीं है, माया नहीं है जिस के लिए ये मरे जाते हैं.

Family Drama In Hindi- अब पता चलेगा: राधा क्या तोड़ पाई बेटी संदली की शादी

28दुबई से संदली उत्साह से भरे स्वर में अपने पापा विकास और मम्मी राधा को बता रही थी,”पापा, मैं आप को जल्दी ही आर्यन से मिलवाउंगी. बहुत अच्छा लड़का है. मेरे साथ उस का एमबीए भी पूरा हो रहा है. हम दोनों ही इंडिया आ कर आगे का प्रोग्राम बनाएंगे.”

विकास सुन कर खुश हुए, कहा,”अच्छा है,जल्दी आओ, हम भी मिलते हैं आर्यन से. वैसे कहां का है वह?”

”पापा, पानीपत का.”

”अरे वाह, इंडियन लड़का ही ढूंढ़ा तुम ने अपने लिए. तुम्हारी मम्मी को तो लगता था कि तुम कोई अंगरेज पसंद करोगी.‘’

संदली जोर से हंसी और कहा,”मम्मी को जो लगता है, वह कभी सच होता है क्या? फोन स्पीकर पर है पर मम्मी कुछ क्यों नहीं बोल रही हैं?”

”शायद उसे शौक लगा है आर्यन के बारे में जान कर.”

राधा का मूड बहुत खराब हो चुका था. वह सचमुच जानबूझ कर कुछ नहीं बोलीं.

जब विकास ने फोन रख दिया तो फट पड़ीं,”मुझे तो पता ही था कि यह लड़की पढ़ने के बहाने से ऐयाशियां करेगी. अब पता चलेगा पढ़ने भेजा था या लड़का ढूंढ़ने.”

”क्या बात कर रही हो, जौब भी मिल ही जाएगा. अब अपनी पसंद से लड़का ढूंढ़ लिया तो क्या गलत किया? संदली समझदार है, जो फैसला करेगी, अच्छा ही होगा.”

“अब पता चलेगा कि इस लड़की की किसी से निभ नहीं सकती, न किसी काम की अकल है, न कोई तमीज.और जो यह लोन ले रखा है, शादी कर के बैठ जाएगी तो कौन उतारेगा लोन? मुझे पता ही था कि यह लड़की कभी किसी को चैन से नहीं रहने दे सकती,” राधा जीभर कर संदली को कोसती रहीं.

विकास को उन पर गुस्सा आ गया, बोले,”तुम्हें तो सब पता रहता है. बहुत अंतरयामी समझती हो खुद को.पता नहीं कैसे इतना ज्ञानी समझती हो खुद को.

“आसपड़ोस की अपनी जैसी हर समय कुड़कुड़ करने वाली लेडीज की बातों के अलावा कुछ भी पता है कि क्या हो रहा है दुनिया में?”

हर बार की तरह दोनों का गुस्स्सा रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था.

विकास ने जूते पहनते हुए कहा, “मैं ही जा रहा हूं थोड़ी देर बाहर, अकेली बोलती रहो.”

यह कोई पहली बार तो हुआ नहीं था. बातबेबात किचकिच करने वाली राधा का तकियाकलाम था,’अब पता चलेगा.’

बड़ी बेटी प्रिया कनाडा में अपनी फैमिली के साथ रहती थी, संदली फिलहाल दुबई में थी. कोई भी कैसी भी बात करता, राधा हमेशा यही कहतीं कि उन्हें सब पता था. उन का कहना था कि उन्होंने इतनी दुनिया देखी है, उन्हें हर बात का इतना ज्ञान है कि कोई भी बात उन से छिपी नहीं रहती, फिर चाहे कुकिंग की बात हो या फैशन की.

यहां तक कि राजनीति की हलचल पर भी कोई बात होती तो उन का कहना होता कि उन्हें तो पता ही था कि फलां पार्टी यह करेगी. 1-2 दिन पहले वे किसी से कह रहीं थीं कि उन्हें तो पता ही था कि अब किसान आंदोलन होगा.

उन की बात सुनते हुए विकास ने बाद में टोका था,”ऐसी हरकतें क्यों करती हो, राधा? किसान आंदोलन होगा, यह भी तुम्हें पता था, कुछ तो सोच कर बोला करो.”

”अरे,मुझे पता था कि कुछ ऐसा होगा.”

विकास चुप हो गए, पता नहीं कौन सी ग्रंथि है राधा के मन में जो वह हर बात में घर में किसी न किसी बात में हावी होने की कोशिश करती थी. कई बार विकास अपने रिश्तेदारों के सामने राधा की बातों से शर्मिंदा भी हो जाते थे. बेटियां भी इस बात से हमेशा बचती रहीं कि राधा के सामने उन की फ्रैंड्स आएं.

विकास अंधेरी में एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरत थे. आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी पर राधा कंजूस भी थी और बहुत तेज भी, साथ ही उन्हें अपने उस ज्ञान पर भी बहुत घमंड था जो ज्ञान दूसरों की नजर में मूर्खता में बदल चुका था. अजीब सी आत्ममुग्ध इंसान थीं.

घर में उन के व्यवहार से सब हमेशा दुखी रहते. राधा ने संदली को अगले दिन फोन किया और सीधे पूछा,”अभी शादी कर लोगी तो तुम्हारा लोन कौन चुकाएगा?”

”मैं इंडिया आ कर जौब करूंगी, लोन उतार दूंगी. अभी हम दोनों सीधे मुंबई ही आ रहे हैं, आर्यन को आप लोगों से मिलवा दूं?”

राधा ने कोई उत्साह नहीं दिखाया. संदली ने उदास हो कर फोन रख दिया. संदली और आर्यन को एअरपोर्ट से लेने विकास खुद जा रहे थे.

प्रोग्राम यह तय हुआ कि विकास औफिस से सीधे एअरपोर्ट चले जाएंगे. देर रात सब घर पहुंचे तो राधा ने सब के लिए डिनर तैयार कर रखा था. आर्यन उन्हें पहली नजर में ही बहुत अच्छा लगा पर बेटी से मन ही मन नाराज थीं कि पढ़ने भेजा था, लड़का पसंद कर के घर ले आई है.

उन्हें विकास पर भी बहुत गुस्सा आ रहा था कि अभी से कैसे आर्यन को दामाद समझ रहे हैं. संदली फोन पर पहले ही बता चुकी थी कि पानीपत में आर्यन के पिता का बहुत लंबाचौड़ा बिजनैस है. बहुत धनी, आधुनिक परिवार है. 2 ही भाई हैं, आर्यन बड़ा है, छोटा भाई अभय अभी पढ़ रहा है.

आर्यन से मिलने, उस से बातें करने के बाद कोई कारण ही नहीं था कि राधा कुछ कमी निकालती पर यह बात हजम ही नहीं हो रही थी कि बेटी ने अपने लिए लड़का खुद पसंद कर लिया है.

विकास को भी आर्यन बहुत पसंद आया था. वह ऐसे घुलमिल गया था कि जैसे कब से इस परिवार का ही सदस्य है.

डिनर करते हुए संदली ने कहा,”मम्मी, हम दोनों अब कल ही दिल्ली जा रहे हैं. वहां आर्यन के पेरैंट्स हमें एअरपोर्ट पर लेने आ जाएंगे. मुझे भी उन से मिलना है. मैं जल्दी ही वापस आ जाउंगी.”

राधा ने कहा,”मुझे तो पता ही था कि तुम हम से पूछोगी भी नहीं, खुद ही होने वाले ससुराल पहुंच जाओगी.अब पता चलेगा.’’

विकास ने आर्यन की उपस्थिति को देखते हुए मुसकरा कर बात संभाली,”यह तो अच्छा ही है न कि तुम अपनी बेटी को जानती हो, तुम्हें पता था, अच्छा है.”

संदली ने मां की बात पर ध्यान ही नहीं दिया. युवा मन अपने सपनों में खोया था, प्यार से बीचबीच में एकदूसरे को देखते संदली और आर्यन विकास को बड़े अच्छे लगे.

रात को अकेले में राधा भुनभुनाती ही रहीं. विकास ने टोका,”कभी तो किसी बात पर खुश रहना सीखो, राधा. इतना अच्छा लड़का पसंद किया है संदली ने. बेटी बहुत समझदार है हमारी, सब देखसुन कर ही मिलवाने लाई होगी.”

”यह शादी कर के बहुत पछ्ताएगी.देखना, इस की किसी से नहीं निभ सकती, कुछ नहीं आता है, बस सैरसपाटा, आराम करना आता है.अब पता चलेगा, यह शादी के बाद बैठ कर रोएगी.”

विकास को गुस्सा आ गया,”कैसी मां हो, बेटी के लिए बुरा सोचती हो, शेम औन यू,राधा.”

संदली को मां का मन अच्छी तरह पता था. वह अंदर से दुखी भी थी पर आर्यन से बहुत प्यार करने लगी थी, अब विवाह करना चाहती थी पर मां इस विषय पर उस के लिए अच्छा नहीं सोचेंगी, पता था उसे.

अगले दिन आर्यन और संदली चले गए. फिर एक दिन प्रिया का फोन आया, वह संदली के लिए खुश थी.

कहने लगी,”आर्यन बहुत अच्छे परिवार से है, संदली ने नेट पर देख लिया है, उन के बिजनैस के बारे में वह सब जानती है, सब देख कर ही उस ने आर्यन से शादी का मन बनाया है. ऐसा लड़का तो हम भी उस के लिए नहीं ढूंढ़ सकते थे.”

राधा बिफरी,”मुझे पता था तुम उस की ही साइड लोगी.”

”ओह मां, यह जो आप को हर बात पता होती है न, बड़े परेशान हैं हम इस से, कभी तो कोई बात आराम से सुन लिया करो.”

थोड़ी देर बाद फोन रख दिया गया. संदली ने वहां से आर्यन के पेरैंट्स अनिल और मधु से भी विकास और राधा की बात करवा दी. विकास को दोनों का स्वभाव बहुत अच्छा लगा, दोनों संदली से मिल कर खुश थे. अब जल्दी से जल्दी उसे अपनी बहू बनाना चाहते थे.

विकास ने भी इस विवाह के लिए सहमति दे दी तो उन्होंने कहा,”आप भी आ कर हमारा घर देख लीजिए, तसल्ली कर लीजिए कि संदली हमेशा खुश रहेगी. यह बात विकास को बहुत अच्छी लगी.

उन्होंने कहा,”हम भी जल्दी ही आते हैं.”

दोनों परिवार अब आगे का प्रोग्राम बनाने लगे. संदली 2 दिन में वापस आ गई.

बैग खोलते हुए ढेरों गिफ्ट्स दिखाते हुए बोली,”पापा, मम्मी, देखो उन लोगों ने तो गिफ्ट्स की बौछार कर दी. इतने प्यार से मिले कि क्या बताऊं. पापा, मैं बहुत खुश हुई वहां जा कर.”

राधा ने सब सामान देखा, कहा कुछ नहीं, उठ कर अपने काम में लग गईं. 10 दिन बाद संदली चली गई. कोर्स पूरा हो चुका था. संदली को वहीं नई नौकरी जौइन करनी थी.

आर्यन अब पानीपत में फैमिली का बिजनैस ही संभालने वाला था. अनिल और मधु मुंबई आए. होटल में ठहरे और विकास और राधा से मिलने घर आए. गजब के खुशमिजाज, सुंदर दंपत्ति को देख कर राधा हैरान थीं. वे दोनों विकास और राधा के लिए बहुत सारे गिफ्ट्स भी लाए.

राधा के हाथ का बना खाना खा कर उन की कुकिंग की खूब तारीफ की तो राधा ने कहा,”पर संदली को कुछ भी बनाना नहीं आता. पहले इसलिए बता रही हूं कि आप लोग हमें बाद में यह न कहें कि आप लोगों को बताया नहीं.”

मधु ने खुल कर हंसते हुए कहा,”बेटी बहुत प्यारी है आप की. उस ने मुझे खुद ही बता दिया कि उसे कोई काम नहीं आता और उसे हमारे यहां कुकिंग की जरूरत पड़ेगी भी नहीं. हमारे यहां 2 कुक हैं, किचन में तो मैं ही जल्दी नहीं घुसती, आजकल की लड़कियां कैरियर बनाने में मेहनत करती हैं, जब जरूरत होती है सब कर लेती हैं और वहां अकेली रह ही रही है न, बहुत कुछ अपनेआप करती भी होगी.”

राधा चुप रहीं. अनिल और मधु ने अच्छा समय साथ बिताया. जाते हुए उन्हें भी गिफ्ट्स दे कर विदा किया गया.

अब अगले हफ्ते विकास और राधा को दिल्ली जाना था. तय हुआ कि अब सगाई भी कर देते हैं और संदली को भी बुला लेते हैं.

यह सुनते ही राधा को गुस्सा आ गया, विकास से कहा,”अब फिर उस के आने का खर्चा उठाना है?अभी तो गई है.”

संदली ने यह बात सुन कर कहा,”मम्मी, आप टिकट की चिंता न करो, सरप्राइज में आर्यन ने मुझे टिकट भेज दिए हैं.”

राधा ने कहा,”मुझे पता है कोई गड़बड़ जरूर है जो वे शादी के लिए इतनी जल्दी मचा रहे हैं. इतना अच्छा परिवार संदली को बहू बनाने के लिए क्यों मरा जा रहा है? कोई बात तो है.अब पता चलेगा.’’

विकास ने कहा,”गड़बड़ तुम्हारे दिमाग में है, बस.”

संदली सीधे दिल्ली पहुंची. विकास और राधा भी पहुंच गए.

प्रिया ने कहा था कि वह सीधे शादी में ही आएगी. पानीपत में आर्यन का विशाल घर, नौकरचाकर देख कर राधा दंग रह गईं. उस पर सब का स्वभाव इतना सहज, कोई घमंड नहीं. पर आदत से मजबूर, कमी ढूंढ़ती ही रहीं, जो मिली नहीं.

राधा यह देख कर हैरान हुईं कि मधु और संदली ने फोन पर ही एकदूसरे के टच में रह कर सगाई के कपड़ों की जबरदस्त तैयारी कर रखी है. अभय संदली से खूब हंसीमजाक कर रहा था, विकास और मधु के लिए बेहद आरामदायक गेस्टरूम था, अनिल और मधु के करीब 100 लोगों के परिचितों के मौजूदगी में सगाई का फंक्शन हुआ.

विकास ने खर्चे बांटने की बात कही तो अनिल ने हाथ जोड़ दिए,”हमें कुछ नहीं चाहिए. संदली इस घर में आ रही है तो हमें खुशी से यह सब करने दें. हमें कुछ भी नहीं चाहिए.”

राधा ने अकेले में विकास से कहा,”इतना अच्छा बन कर दिखा रहे हैं, मुझे पता है ऐसे लोग बाद में रंग दिखाते हैं. अब पता चलेगा.‘’

संदली भी उन के पास ही बैठी थी.गुस्सा आ गया उसे, कहा,”मम्मी, हद होती है, इतने अच्छे लोग हैं फिर भी आप ऐसे कह रही हैं, सब कुछ उन्होंने आज मेरी पसंद का किया है, मेरी ड्रैस, ज्वैलरी सब आर्यन की मम्मी ने ली, मुझे कुछ भी लेने से मना कर दिया था, अब शादी की भी पूरी शौपिंग मुझे करवाने के लिए तैयार हैं, पर आप की बातें…उफ…”

”मुझे पता है तुम्हारी जैसी लड़कियां बाद में खूब रोती हैं.”

संदली को रोना आ गया. उस के आंसू बह निकले तो विकास ने उसे गले से लगा लिया,”संदली बेटा, मत दुखी हो, तुम्हारी मम्मी को कुछ ज्यादा ही पता रहता है.‘’

विकास और संदली दोनों राधा से नाराज थे पर राधा पर न कभी पहले कोई असर हुआ था, न अब हो रहा था.

फंक्शन से फ्री हो कर जब सब साथ बैठे, मधु ने कहा,”मुझे आप लोगों से कुछ जरूरी बात करनी है.”

सुनते ही राधा ने विकास को इशारा किया, “देखो, मैं ने कहा था न…”

राधा ने कहा,”जी कहिए.”

”देखिए, पैसे की हमारे यहां कोई कमी है नहीं, बस मेरा मन तो अपने बच्चों की खुशी में खुश होता है, मेरी इच्छा है कि शादी अब जल्दी ही कर दें, घर में रौनक हो, हमारी बेटी कोई है नहीं और मुझे संदली के साथ रहने की बहुत इच्छा है, मुझ से अब इंतजार नहीं होगा, शादी अब बहुत जल्दी हो जाए, बस यही मान लीजिए.

“तैयारी भी मैं सब कर लूंगी और हां, संदली ने जो लोन लिया है, वह भी हम चुका देंगे, अब संदली यहां फैमिली बिजनैस संभाल लेगी. उसे वहां अकेली रह कर जौब करने की जरूरत है ही नहीं. अब बच्चे मिल कर बिजनैस संभालें, हमारे पास रहें और क्या…”

विकास ने हाथ जोड़ दिए,”आप जैसा चाहते हैं वैसा ही होगा, हम तैयार हैं. लोन चुकाने की बात आप न सोचें प्लीज, हमारा एक फ्लैट किराए पर चढ़ा है, उसे संदली को देने के लिए ही इन्वेस्ट किया था. अब उसे बेच देंगे तो लोन चुक जाएगा, कोई प्रौब्लम नहीं है. शादी जब आप कहें, हो जाएगी.”

मधु ने खुश हो कर उठ कर संदली को गले लगा लिया. खूब प्यार करते हुए बोलीं,”बस मेरी बहू अब जल्दी घर आ जाए. संदली, अब एक बार जाना और वहां से अपना सब सामान ले आओ, बस अब तो आर्यन के साथ ही घूमने जाना.”

आगे का प्रोग्राम तय होने लगा था. राधा हैरान थी कि इतनी जल्दी यह सब… ये कैसे लोग हैं? कोई इतना अच्छा कैसे हो सकता है?

मुंबई लौटते हुए संदली ने पूछा,”मम्मी, सब ठीक लगा न आप को?”

”देखते हैं, कुछ ज्यादा ही अच्छा परिवार लग रहा है. देखते हैं कि तुम कितना खुश रहती हो इन के साथ.अब पता चलेगा…’’

संदली चुप ही रही. राधा ने फिर विकास से कहा,”आप ने सब बात खुद ही कर ली उन से, मुझ से कुछ पूछा ही नहीं.”

”पूछना क्या था, सब अच्छा ही लग रहा था, अच्छे लोग हैं.”

दोनों तरफ शादी की तैयारियां शुरू हो गईं. 2 महीने बाद ही शादी थी. प्रिया भी सपरिवार आने वाली थी. संदली ने रिजाइन कर दिया और वहां से सब क्लियर कर लौट आई. मधु फोन पर ही उस से पूछपूछ कर उस की पसंद की तैयारी करने लगीं. मधु एक से बढ़ कर एक चीजें उस की पसंद से बनवा रही थीं.

राधा ने कहा,”मुझे पता ही है कि इन अमीरों के 4 दिन के चोंचले हैं, थोड़े ही दिनों में असलियत सामने आएगी, पहले तो सब अच्छा ही दिखता है.”

संदली मन ही मन बहुत उदास थी. शादी का समय था उस पर भी मां की अजीबोगरीब बातें रुकने का नाम ही नहीं ले रही थीं. जो भी तैयारी राधा कर रही थीं, बोझ समझ कर कर रही थीं, उस में बेटी को अच्छा परिवार मिलने की कोई खुशी नहीं थी. हर समय किसी न किसी बात पर आर्यन के परिवार को ले कर कुछ ऐसा कह देतीं कि संदली का चेहरा मुरझा जाता.

विकास सब समझ रहे थे पर क्या करते, राधा को कुछ कह कर घर का माहौल खराब नहीं करना चाहते थे. प्रिया भी आ चुकी थी, उस के पति विशाल और दोनों बच्चे सोनू,पिंकी मौसी की शादी को ले कर बहुत उत्साहित थे.

सब खुश थे पर राधा का स्वभाव अकसर रंग में भंग डाल देता. विकास ने अपने बजट के अनुसार सारा पैसा अनिल के अकाउंट में ट्रांसफर कर दिया था. सब इंतजाम आर्यन का परिवार ही देख रहा था.

शादी से 4 दिन पहले संदली अपने परिवार के साथ दिल्ली पहुंची तो आर्यन की तरफ से कई गाड़ियां उन्हें लेने आई हुई थीं.

अनिल और मधु ने खुद एअरपोर्ट पर सब का स्वागत किया और उन्हें पानीपत के ही एक होटल में ले गए, जहां सारा इंतजाम बहुत शानदार था.

रस्में बहुत खुशी से पूरी की गईं. विवाह का आयोजन शानदार रहा. सबकुछ अच्छी तरह से संपन्न हुआ. राधा परिवार सहित मुंबई लौट आईं. कुछ दिन बाद प्रिया भी वापस चली गई.

विकास औफिस के काम में व्यस्त हो गए. राधा का पुराना रवैया चलता रहा. हर बात में अब भी अपने को ही सही ठहरातीं. संदली जब फोन करती, राधा खोदखोद कर पूछतीं कि ससुराल का क्या हाल है?

संदली तारीफ करती तो कहतीं,”मुझे पता है, यह सब प्यारव्यार थोड़े दिनों की बात है. आगे पता चलेगा.”

संदली ने घर का बिजनैस संभालना शुरू कर दिया था. एक नया शोरूम खोला जा रहा था जिस की देखरेख संदली और आर्यन पर छोड़ दी गई थी, उस के लिए एक कार और ड्राइवर हमेशा रहता. वह बहुत खुश रहती. उसे सारी सुविधाएं और ढेर सारा प्यार मिल रहा था.

कुछ ही दिनों में अभय की शादी भी उस की गर्लफ्रैंड तारा के साथ तय हो गई.

राधा ने सुनते ही कहा,”संदली, अब पता चलेगा तुम्हें जब देवरानी घर आएगी और प्यार बंटेगा.”

संदली चुप रही. अभय के विवाह में राधा और विकास भी गए. अब की बार भी उन्हें बहुत सम्मान दिया गया. सब कुछ पहले की तरह अच्छी तरह से हुआ. संदली की अपनी देवरानी तारा से खूब जम रही थी. दोनों खूब मस्ती कर रही थीं.

राधा ने मुंबई आने के बाद संदली से देवरानी के हाल पूछे तो वह खूब उत्साह से तारा और अपनी खूब अच्छी दोस्ती के बारे में बताने लगी. संदली और तारा का आपस में बहनों जैसा प्यार हो गया था.

राधा ने कहा,”बेटा, मैं ने देखे हैं ऐसे रिश्ते, अब पता चलेगा थोड़े दिनों में जब यही प्यार तकरार में बदलेगा, देखना.”

आज संदली का धैर्य जवाब दे गया. विकास भी वहीं बैठे थे, फोन स्पीकर पर था, संदली फट पड़ी थी आज,”हां, मुझे पता चल चुका है कि आप के लिए हर रिश्ता बेकार है. आप को कहां किसी रिश्ते में प्यार दिखता है? मम्मी, पता नहीं क्यों आप के लिए सब बुरा ही होने वाला होता है. मुझे तो इस घर में आने के बाद यह पता चला है कि शांति से रहना कितना आसान है, प्यार दो, प्यार लो, काश कि आप को भी यह पता रहता.

“बस, यहां जो मुझे पता चला है, वह सब आप के साथ रह कर कभी पता ही नहीं चला. आप मुझे अब कभी मत बताना कि मुझे क्या पता चलेगा? मुझे जो पता चलना था, चल चुका. इतना प्यार है यहां पर, मैं कितनी खुश हूं,आगे भी खुश ही रहूंगी, मुझे तो यह पता है.”

राधा का चेहरा देखने लायक था. संदली ने कभी इस तरह बात नहीं की थी. आज अपनी बात कह कर फोन ऐसे रखा था कि राधा शर्मिंदा सी बैठी रह गई थीं. विकास तो अपनी हंसी रोकने की कोशिश में आज चुपचाप वहां से उठ कर दूसरे रूम में जा चुके थे.

Hindi Kahani : कानूनी बीड़ी का बंडल: दादा ने कैसे निबटाया केस

मुकदमा साधारण था मगर कचहरी के चक्कर लगातेलगाते सोमेश को महीनों हो चले थे. उस के पिताजी भी कई पेशियों मेें साथ गए थे. मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात. विरोधी पक्ष वाले चंटचालाक थे. हर बार जोड़तोड़ कर या तो तारीख डलवा लेते या फिर कोई नया पेंच फंसा देते थे. लिहाजा, साधारण सा दिखने वाला मुकदमा खासा लंबा समय ले गया था.

शहर में सोमेश के दादा लाहौरी राम के कई मकान और दुकानें थीं. वे पटवारी के पद पर तैनात हो कर कानूनगो के पद से रिटायर हुए थे. ऊपरी कमाई से खासी बरकत थी. सस्ते जमाने में जमीनजायदाद खासी सस्ती थी. आजकल के जमाने के मुकाबले तब आम लोगों की कमाई काफी कम थी. मकान, दुकान खरीदने, बनाने का रुझान लोगों में कम ही था.

अनेक मकानों, दुकानों से किराया आ रहा था.

कभीकभार मकान या दुकान खाली करवाने या किराया वसूलने के लिए मुकदमा डालना पड़ता था.

मगर अब धीरेधीरे उन की सक्रियता कम हो चली थी. उन्होंने सब लेनदेन अपने बेटे संतराम और जवान होते पोते सोमेश को संभलवा दिया था.

संतराम भी सरकारी मुलाजिम था मगर उस में अपने रिटायर्ड कानूनगो बाप जितनी जोड़तोड़ की प्रतिभा और चालाकी न थी.

लाहौरी राम ने गरीबी और अभाव के दिनों में मेहनतमशक्कत की थी जिस से उन में स्वाभाविक तौर पर दृढ़ इच्छाशक्ति, हर स्थितिपरिस्थिति से निबटने की क्षमता विकसित हो गई थी.

वहीं संतराम जैसे मुंह में चांदी का चम्मच ले कर पैदा हुआ था. इसलिए उस मेें अपने पिता समान दृढ़ता और मजबूती न थी.

तीसरी पीढ़ी के सोमेश में हालांकि आज के जमाने का चुस्त दिमाग था. वह एम.ए. तक पढ़ा था. एक कंपनी में कनिष्ठ प्रबंधक था मगर उस में भी अपने दादा की तरह बुद्धि का कौशल दिखाने की प्रतिभा न थी.

विरोधी पक्ष यानी किराएदार पहले के किराएदारों की तुलना में चंटचालाक था.

उस की तुलना में सोमेश और उस के पिता एक तरह से अनाड़ी थे.

‘‘क्यों सोमेश, क्या हुआ मकान वाले मुकदमे में?’’ एक सुबह दादाजी ने नाश्ता करते हुए पूछा.

‘‘जी, हर पेशी पर वह तारीख बढ़वा लेता है.’’

‘‘वह किस तरह? अपना वकील क्या करता है?’’

‘‘दादाजी, पुराने वकील तो रहे नहीं. उन का लड़का इतना ध्यान नहीं देता.’’

लाहौरी राम सोचने लगे. समय सचमुच बदल गया है. उन के हमउम्र ज्यादातर तो गुजर चुके थे या फिर उन के समान रिटायर हो एकाकी जीवन बिता रहे थे.

‘‘अगली पेशी कब की है?’’

‘‘इसी महीने 19 तारीख की है.’’

‘‘ठीक है, इस पेशी पर मैं चलूंगा तेरे साथ.’’

पेशी वाले दिन दादाजी ने अपना स्थायी पहरावा सफेद धोतीकुरता पहना और सिर पर साफा बांध लिया. कलाई पर पुराने समय की आयातित घड़ी बांध ली और अपना पढ़ने का चश्मा जेब में डाल लिया.

सोमेश की मां को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘संते की बहू, जरा छोटेबड़े कुछ नोट देना, कचहरी में चायपानी देना पड़ता है.’’

‘‘दादाजी, मेरे पर्स में हैं.’’

‘‘तू अपना पर्स अपने पास रख.’’

सोमेश की मां ने 5-10 के नोटोें का एक छोटा सा पुलिंदा अपने ससुर को थमा दिया. दादाजी सारी उम्र कोर्टकचहरी आतेजाते रहे थे. वे सभी सरकारी मुलाजिमों की मानसिकता से परिचित थे. बिना चायपानी दिए कहीं कोई काम नहीं होता था. इसलिए छुट्टा रुपया जेब में रखना पड़ता था. बड़े नोट का ‘खुल्ला’ कचहरी में कभी नहीं मिलता था.

सोमेश पार्किंग में अपनी कार खड़ी कर आया. दादाजी अपने पुराने वकील शंभू दयाल का तख्त ढूंढ़ने लगे.

वरिष्ठ वकील शंभू दयाल अब रिटायर हो कर घर पर आराम करते थे. उन का लड़का अवतार शरण ही अब वकालत करता था.

‘‘नमस्ते, लाहौरी रामजी, सुनाइए क्या हालचाल हैं?’’ अवतार शरण ने व्यवसायसुलभ स्वर में कहा.

‘‘सब ठीक है. बड़े बाबूजी कहां हैं?’’

‘‘वे इन दिनों घर पर आराम करते हैं जी.’’

‘‘हमारे मुकदमे की क्या पोजीशन है?’’

‘‘ठीक है, जी.’’

‘‘पेशियां बहुत पड़ चुकी हैं.’’

‘‘ऐसा है जी, पहले के मुकाबले अब मुकदमे काफी ज्यादा हैं, जज साहब हर मुकदमा लंबी पेशी पर ही डालते हैं.’’

लाला लाहौरी राम खामोश हो सब सुन रहे थे. पुराने वकील शंभू दयाल कभी इस तरह की टालने की बात नहीं करते थे. कचहरी का समय हो चला था. दादाजी अपने पोते के साथ नियत कोर्ट रूम के बाहर बरामदे में बनी बैंच पर जा बैठे.

दादाजी ने अपने कुरते की जेब से एक बीड़ी का बंडल निकाला. उन को बीड़ी का बंडल निकालते देख सोमेश बोलने को हुआ कि दादाजी, अब सार्वजनिक स्थान पर बीड़ी पीना जुर्म है, मगर जब और कई लोगों को बीड़ी पीते देखा तो चुप रह गया.

दादाजी ने एक नजर चारों तरफ घुमाई. उन की अनुभवी निगाहों ने आसपास बैठे लोगों को ताड़ा. उन में से कई ऐसे थे जिन का कोर्टकचहरी में कोई मुकदमा न था, मगर उन का रोजाना आना पक्का था.

ऐसे लोगोें में अभीलाल नाम का एक आदमी भी था जो एक पेशेवर गवाह था. ऐसे पेशेवर गवाह तो हर जगह खासकर थाना, तहसील, सरकारी दफ्तर, खजाना या कचहरी में आम मिलते थे. इन का काम अपनी फीस या चायपानी ले गवाही देना होता था.

इन की जेब में बीड़ी का बंडल तो नहीं मगर माचिस जरूर मिलती थी. किसी आसामी के मांगने पर तपाक से माचिस पेश कर देते थे. माचिस के एहसान के बदले में बीड़ी का आफर मिलना स्वाभाविक था जिसे सहर्ष कबूल कर लेते थे. कभीकभी तो बढि़या सिगरेट भी मिल जाती थी. मगर ज्यादातर व्यवहार बीड़ी के बंडल का था.

‘‘क्यों जी, माचिस है क्या?’’

अभीलाल जैसे उसी पुकार की इंतजार में था. उस ने झट से माचिस जेब से निकाली और डबिया खिसका तीली निकाली और जलाने को हुआ.

दादाजी ने बंडल से 2 बीडि़यां निकालीं. एक अपनी उंगलियों में दबाई और दूसरी अभीलाल को थमा दी. अभीलाल ने तीली जलाई और पहले दादाजी की बीड़ी सुलगाई और फिर तीली बुझा कर फर्श पर डाल दी.

मामूली बातों से आरंभ कर दादाजी ने बात का रुख वर्तमान की स्थिति पर मोड़ दिया.

‘‘आजकल लोकअदालत का बड़ा शोर है, यह क्या है?’’

‘‘लालाजी, नए जमाने का चलन है, जहां दोनों पार्टियों को राजी कर मुकदमा जल्दी खत्म किया जाता है.’’

‘‘इस मामले से सारे मुकदमे खत्म हो जाएंगे तब तेरे जैसे गवाहों की रोजीरोटी का क्या होगा?’’

इस पर अभीलाल हंसने लगा. आसपास बैठे सभी लोग भी हंसने लगे. हंसने का कारण समझ आने पर दादाजी हंसने लगे. कितना भी परिवर्तन किया जाए, कितने ही सुधार किए जाएं, क्या कभी मुकदमे, लड़ाईझगड़े समाप्त हो सकते हैं?

‘‘अपना नंबर कब आएगा?’’ दादाजी ने सोमेश से पूछा.

‘‘पिछली बार तो दोपहर बाद आवाज पड़ी थी.’’

‘‘ठीक है, तब तक मैं जरा टहल आऊं.’’

‘‘आओ भई, एकएक कप चाय हो जाए,’’ दादाजी के साथ अभीलाल भी उठ खड़ा हुआ.

चायसमोसे के दौरान दादाजी ने अभीलाल से अपनी वांछित जानकारी ले ली. मसलन, जज कैसा है? लेता है तो कितनी रिश्वत लेता है? उस का संपर्क सूत्र कौन है? आदि.

उस दिन भी तारीख पड़ गई थी मगर उस से अविचलित दादाजी अपनी हासिल जानकारी पर अमल करने में जुट गए थे. संपर्क सूत्र के जरिए जज साहब से मामला तय हो गया था. किसी को फल, किसी को ड्राईफ्रूट का टोकरा, किसी को शराब की पेटी पहुंच गई थी.

अगली 3 पेशियों के बाद मुकदमे का फैसला दादाजी के हक में हो गया था. एम.ए. तक पढ़े बापबेटा पुराने मिडल पास कानूनगो की बुद्धि की चतुराई को नहीं छू पाए थे.

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