उफ हो ही गया: उस रात नर्वस क्यों था मंयक

‘‘ऐसेकैसे किसी भी लड़की से शादी की जा सकती है? कोई मजाक है क्या?

जिसे न जाना न समझ उस के साथ जिंदगी कैसे निभ सकती है?’’ मयंक अपनी मां सुमेधा पर झंझलाया.

तभी पिता किशोर बातचीत में कूद पड़े, ‘‘जैसे हमारी निभ रही है,’’ किशोर ने प्यार से पत्नी की तरफ देखते हुए कहा तो गोरी सुमेधा गुलाबी हो गई.

मयंक से उन की यह प्रतिक्रिया कहां छिप सकी थी. यह अलग बात है कि उस ने अपनी अनदेखी जाहिर की.

‘‘आप तो बाबा आदम के जमाने के दिव्य स्त्रीपुरुष हो. वह सेब आप दोनों ने ही तो खाया था. आप का मुकाबला यह आज के जमाने का तुच्छ मानव नहीं कर सकता,’’ मयंक ने अपने दोनों हाथ जोड़ कर जिस नाटकीय अंदाज में अपना ऐतराज दर्ज कराया उस पर किसी की भी हंसी छूटना स्वाभाविक था.

‘‘तो ठीक है करो अपनी पसंद की लड़की से शादी. हमें बुलाओगे भी या किसी दिन सामने ही ला कर खड़ी कर दोगे,’’ सुमेधा चिढ़ कर बोली तो मयंक नाक सिकोड़ कर गरदन झटकता हुआ अपने कमरे में घुस गया.

यह आज का किस्सा नहीं है. यह तो एक आम सा दृश्य है जो इस घर में पिछले 2 सालों से लगभग हर महीने 2 महीने में दोहराया जा रहा है. सुमेधा और किशोर का बेटे पर शादी करने का दबाव बढ़ता ही जा रहा है. वैसे उन का ऐसा करना गलत भी नहीं है.

‘‘तीस का होने जा रहा है. अभी नहीं तो फिर कब शादी करेगा? शादी के बाद भी तो

कुछ साल मौजमजे के लिए चाहिए कि नहीं? फिर बच्चे कब करेगा? एक उम्र के बाद बच्चे होने में भी तो दिक्कत आने लगती है. फिर काटते रहो अस्पतालों के चक्कर और लगाते रहो डाक्टरों के फेरे. चढ़ाते रहो अपनी गाड़ी कमाई का चढ़ावा इन आधुनिक मंदिरों में,’’ सुमेधा गुस्से से बोली.

मयंक का खीजते हुए अपने कानों में इयरफोन ठूंस लेना घर में एक तनाव को पसार देता है. फिर शुरू होती है उस तनाव को बाहर का रास्ता दिखाने की कवायद. सुमेधा की रसोई में बरतनों की आवाजें तेज होने लगती हैं और राकेश का अंगूठा टीवी के रिमोट के वौल्यूम वाले बटन को बारबार ऊपर की तरफ दबाने लगता है.

घर का तनाव शोर में बदल जाता है तो मयंक गुस्से में आकर टीवी बंद कर देता है और मां को कमर से पकड़ कर खींचता हुआ रसोई से बाहर ले आता है. कुछ देर के सन्नाटे के बाद मयंक अदरक वाली चाय के 3 कप बना कर लाता है और उस की चुसकियों के साथ आपसी तनाव को भी पीया जाता है. सब सहज होते हैं तो घर भी सुकून की सांस लेता है.

आज भी यही हुआ. लेकिन आज बात इस से भी कुछ आगे बढ़ी. सुमेधा आरपार वाले मूड में थी. बोली, ‘‘बहुत बचपना हो गया मयंक. अब शादी कर ही लो. चलो, हमारी न सही अपनी पसंद की लड़की ही ले आओ. लेकिन उम्र को बुढ़ाने में कोई सम?ादारी नहीं है.’’

सुमेधा ने हथियार डालते हुए कहा तो मयंक मन ही मन अपनी जीत पर खुश हुआ. पलक ?ापके बिना ही कालेज की साथी और अपने साथ काम करने वाली कई लड़कियां 1-1 कर उस के सामने से रैंप वाक करती गुजरने लगीं.

‘‘तो अब आप सास बनने की तैयारी कर ही लो,’’ मयंक ने कुछ इस अंदाज में कहा मानो लड़की दरवाजे पर वरमाला हाथ में लिए खड़ी उसी का इंतजार कर रही है. मामले में सुलह होती देख कर राकेश ने भी राहत की सांस ली.

मां की चुनौती स्वीकार करते ही मयंक के जेहन में अपनी पहली क्रश मोहिनी की तसवीर कौंध गई. लेकिन मोहिनी से संपर्क टूटे तो 5 साल बीत गए. अब तो सोशल मीडिया पर भी संपर्क में नहीं है.

सोशल मीडिया का खयाल आते ही मयंक ने मोहिनी को सर्च करना शुरू किया. न जाने कितने फिल्टर लगाने के बाद आखिर मोहिनी उसे मिल गई. प्रोफाइल खंगालते ही उसे झटका सा लगा. लेटैस्ट अपडेट में उस ने अपने हनीमून की मोहक तसवीरें लगा रखी थीं. मयंक का दिल टूटा तो नहीं लेकिन चटक जरूर गया.

कालेज में फाइनल ईयर वाली शालिनी के साथ भी कुछ इसी तरह का अनुभव उसे हुआ. शालिनी की गोद में गोलमोल बच्चे को देख कर उस ने आह भर ली.

‘मां सही कह रही है. मेरी शादी की ट्रेन अपने निर्धारित समय से साल 2 साल लेट चल रही है. मुझे अपनी ट्रेन भाग कर ही पकड़नी पड़ेगी,’ सोचते हुए मयंक ने स्कूलकालेज की साथियों को छोड़ कर अपनी सहकर्मियों पर ध्यान केंद्रित करना तय किया.

सब से पहले सूई वृंदा पर ही जा कर अटकी. मयंक वृंदा की नशीली आंखों को याद कर उन में गोते लगाने लगा. उस ने वृंदा को फोन लगाया, ‘‘हैलो वृंदा, आज शाम औफिस के बाद पार्किंग में मिलना. कौफीहाउस चलेंगे,’’ मयंक ने मन ही मन उसे प्रपोज करने की भूमिका साधते हुए कहा.

वृंदा ने उस का प्रस्ताव स्वीकार कर के उसे पहले पायदान पर जीत का एहसास दिलाया.

कौफी के घूंट के साथ कुछ इधरउधर की बातें चल रही थीं. आखिरी घूंट भर कर कप को मेज पर रखने के बाद मयंक ने अपनी आंखें वृंदा के चेहरे पर गड़ा दीं. वृंदा का कप अभी भी उस के होंठों से ही लगा था. उस ने कप के ऊपर से झंकती अपनी मोटीमोटी आंखों की भौंहों को चढ़ाते हुए इशारे से पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

मयंक ने इनकार में सिर हिला दिया. वह उस के कप नीचे रखने का इंतजार कर रहा था. जैसे ही उस ने कप नीचे रखा मयंक ने उस का हाथ थाम लिया, ‘‘आई लव यू.’’

मयंक ने जिस तरह कहा उसे सुन कर वृंदा अचकचा गई. फिर कुछ समझ तो मुसकरा दी, ‘‘मैं भी,’’ और उस ने आंखें  झुका कर अपनी स्वीकृति दे दी.

मयंक अपनी सफलता पर फूला नहीं समाया.

‘‘शादी करोगी मुझ से?’’ उत्साह में आए मयंक ने अगला प्रश्न दागा.

यह प्रश्न वृंदा को सचमुच गोली जैसा ही लगा. वह आश्चर्य से मयंक की तरफ देखने लगी. फिर बोली, ‘‘शादी नहीं कर सकती,’’ वृंदा ने ठंडा सा उत्तर दिया जिस की मयंक को कतई उम्मीद नहीं थी.

‘‘लेकिन अभी तो तुम ने कहा कि तुम भी मुझ से प्यार करती हो,’’ मयंक अब भी उस के जवाब पर विश्वास नहीं कर पा रहा था.

‘‘तो मैं कहां इनकार कर रही हूं. लेकिन शादी और प्यार 2 बिलकुल अलग तसवीरें हैं. शादी कोई बच्चों का खेल नहीं है. बहुत सी अपेक्षाओं, कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का मिलाजुला नाम है शादी. मु?ो नहीं लगता कि मैं अभी ऐसी किसी भी स्थिति में पड़ने के लिए तैयार हूं. तुम अपने पेरैंट्स से कहो न कि तुम्हारे लिए कोई अच्छी सी लड़की तलाश करें. यकीन मानो इस मामले में उन की परख बहुत ही व्यावहारिक होती है. मैं तो अपने लिए ऐसा ही करने वाली हूं.’’

वृंदा की बेबाक टिप्पणी सुन कर मयंक को लगा जैसे उस ने किसी पत्थर के सनम को प्यार का फूल चढ़ाया है. वह अपना सा मुंह ले कर रह गया.

कुछ दिन देवदास का किरदार जीने के बाद मयंक को रीना का खयाल आया. रीना एक बहुत ही दिलचस्प लड़की है. मौडर्न सोसाइटी में एकदम फिट बैठने वाली. उस के साथ शामें बहुत ही शानदार गुजरती हैं. लेकिन इस के साथ ही उसे रीना का पी कर बहकना भी याद आ गया और वह उस की शादी की उम्मीदवारी से हट गई. रीना के बाद श्यामा और फिर इसी तरह मेघा भी दावेदारी से बाहर हो गई.

मयंक सकते में था कि शादी की बात आते ही वह इतनी दूर की क्यों सोचने लगा. कहां तो उसे यह वहम था कि वह चाहे तो शाम से पहले किसी भी लड़की को दुलहन बना मां के सामने ला कर खड़ी कर दे और कहां वह किसी एक नाम को अंतिम रूप नहीं दे पा रहा.

कई दिनों की माथापच्ची के बाद मयंक ने हार स्वीकार कर ली कि ऐसी लड़की जो खुद उस की पसंद की हो और मां की उम्मीदों पर भी खरी उतरे तलाश करना कम से कम उस के लिए तो आसान काम नहीं ही है. आखिर उस ने यह विशेषाधिकार फिर से मां को ही दे दिया. सुमेधा तो जैसे तैयार ही बैठी थी. झट काम्या की तसवीर और बायोडाटा मयंक के सामने रख दिया.

मुसकराती हुई आंखों वाली इंजीनियर काम्या मयंक को तसवीर देखने मात्र से ही अपनी सी लगने लगी. उसे इस एहसास पर आश्चर्य भी कम नहीं था. पूरा बायोडाटा पढ़ने के बाद पता चला कि काम्या मल्टीनैशनल कंपनी में जौब करती है. यह पढ़ते ही मयंक के जेहन में एक बार फिर से अपनी सहकर्मी लड़कियां डूबनेउतराने लगीं.

‘‘पता नहीं यह कैसी होगी? वृंदा, रीना जैसी या फिर मोहिनी शालिनी जैसी. क्या शादी निभा पाएगी या कहीं मैं ही न निभा पाया तो?’’ जैसे कई खयाल मन में उथलपुथल मचाने लगे. मयंक ने एक आजमाइश की सोची.

‘‘मुझे आप की पसंद पर एतराज नहीं लेकिन मैं इसे अपने तरीके से भी परखना चाहता हूं,’’ मयंक ने कहा तो सुमेधा चौंकी.

‘‘तुम्हारा तरीका कौन सा है?’’ सुमेधा ने पूछा.

‘‘वह काम्या समझ जाएगी,’’ मयंक ने कहा तो सुमेधा ने काम्या की मम्मी से बात कर के मयंक से मिलने की इजाजत ले ली.

आपस में बात कर के शनिवार शाम को दोनों ने एक क्लब में मिलना तय किया. काम्या जींस और खुले गले के टौप में काफी आकर्षक लग रही थी और मयंक की कल्पना से विपरीत भी.

कुछ देर की बातचीत के बाद मयंक ने सिगरेट सुलगा ली. 1-2 कश के बाद उस ने काम्या की तरफ बढ़ा दी.

‘‘पीती हो?’’ मयंक ने पूछा.

‘‘यदि पीना आप के लिए सही है तो मेरे लिए गलत कैसे हो सकता है,’’ कह कर उसे गहरी आंखों से देखती काम्या ने सिगरेट अपनी उंगलियों में थाम ली और कश खींचने लगी.

मयंक उसे घूर रहा था, ‘‘अल्कोहल?’’ मयंक के इस बार पूछने में एक खीज भी शामिल थी.

काम्या मुसकरा दी, ‘‘सेम आंसर.’’

मयंक को माथे पर कुछ नमी सी महसूस हुई. उस ने टिशू पेपर उठा कर बूंदों को थपथपाया. काम्या अब भी शांत थी.

‘‘बेचारी भोली मां. इस के प्रपोजल फोटोग्राफ पर री?ा गई. काश, हकीकत जान पाती,’’ मयंक को सुमेधा के चयन पर तरस आ रहा था.

2-4 मुलाकातों के बाद भी मयंक काम्या को लेकर कोई ठोस निर्णय नहीं ले पाया. वह न तो उस के व्यवहार को ठीक से समझ पाया और न ही उस के बारे में कोई अच्छी या बुरी राय अपने मन में बना पाया. हर बार काम्या उसे पिछली बार से अलग एक नए ही अवतार में नजर आती. हार कर उस ने हर परिणाम भविष्य पर छोड़ दिया. इस एक मात्र निर्णय से ही उसे कितना सुकून मिला यह सिर्फ वही जान सका.

सगाई में हरेपीले लहंगे में सजी, लंबे बालों को फूलों की वेणी में बांधे काम्या उसे इस ट्रैडिशनल ड्रैस में भी उतनी ही सहज लग रही थी जितनी किसी वैस्टर्न ड्रैस में.

काम्या उसे एक पहेली सी लग रही थी और वही क्यों, काम्या से मिलने के बाद उसे तो सभी लड़कियां पहेली सी उलझ हुई ही लगने लगी थीं.

इसी पहेली की उलझन में भटकता मयंक एक रोज काम्या को अपनी शेष जिंदगी की हमसफर बना कर घर ले आया.

शादी के बाद जब उस के दोस्त उसे कमरे में छोड़ने की औपचारिकता कर रहे थे तब मयंक सचमुच ही बहुत नर्वस महसूस कर रहा था. इतना संकोच तो उसे अपनी सब से पहली गर्लफ्रैंड का हाथ पकड़ने पर भी नहीं हुआ था.

एक ही रात में ऐसा कुछ हो गया कि काम्या उसे अपने सब से अधिक नजदीक लगने लगी.

‘‘क्या तन से जुड़ाव ही मन से जुड़ाव की पहली सीढ़ी होती है?’’ यह प्रश्न मयंक के सामने आ कर खड़ा हो गया लेकिन वह कोई जवाब नहीं दे पाया. अब तक तो वह इस का उलट ही सही समझता आ रहा था. उस की थ्योरी के अनुसार तो पहले दिल मिलने चाहिए थे. शरीर का मिलन तो उस के बाद होता है. आज उसे समझ में आया कि थ्योरी पढ़ने और प्रैक्टिकल करने में कितना अंतर होता है.

हनीमून पर काम्या का साथ उस में एक अलग ही ऊर्जा का संचार कर रहा था. अनजानी काम्या उसे तिलिस्म से भरी किसी बंद किताब सी लग रही थी जिसे पन्ने दर पन्ने पढ़ना बेहद रोमांचकारी था. उस की आदतें, उस का व्यवहार, उस की पसंदनापसंद यानी काम्या से जुड़ी हर छोटी से छोटी बात भी मयंक को कुतूहल का विषय लग रही थी. उस में उस की दिलचस्पी बढ़ती ही जा रही थी.

‘‘आजकल सिगरेट नहीं पीते क्या?’’ एक शाम काम्या ने पूछा.

‘‘जो आदत मैं तुम्हारे लिए बुरी समझता हूं, वो मेरे लिए अच्छी कैसे हो सकती है?’’ मयंक ने जवाब दिया तो काम्या मुसकरा दी.

‘‘और अल्कोहल?’’ काम्या ने फिर पूछा.

‘‘सेम आंसर,’’ मयंक मुसकराया.

सुन कर काम्या पति के जरा और पास खिसक आई. हनीमून खत्म हो गया. दोनों ने अपनाअपना औफिस फिर से जौइन कर लिया. मयंक अब पूरे 10 घंटे काम्या से दूर रहता. वह काम्या के दिल का हाल तो नहीं जानता था लेकिन खुद वह लगभग हर 10 मिनट के बाद उस के बारे में सोचने लगता. काम्या कभी उसे बिस्तर पर लेटी उस का इंतजार करती नजर आती तो कभी चुपचाप बिस्तर पर पटका उस का गीला तौलिया उठा कर तार पर टांगने जाती दिखाई देती. कभी वह मां के साथ टेबल पर नाश्ता लगा रही होती तो कभी अपनी अलमारी में से पहनने के लिए कपड़े चुनने में मदद के लिए उस की तरफ देखती आंखों ही आंखों में सवाल करती और उस से सहमति लेती महसूस होती.

मयंक को इस तरह का अनुभव पहली बार हो रहा था. ऐसा नहीं है कि प्यार ने उस की जिंदगी में दस्तक पहली बार दी हो, लेकिन यह एहसास पिछली हर बार से अलग होता. यहां खोने या ब्रेकअप का डर नहीं है. नाराजगी के बाद मानने या न मानने की चिंता के बाद भी नहीं. किसी के देख लेने और पकड़े जाने की घबराहट नहीं है. दो घड़ी एकांत की तलाश में शहर के कोने खोजने की छटपटाहट नहीं है.

‘यह प्यार का कौनसा रूप है? इतनी लड़कियों से रिलेशन के बाद भी यह सौम्यता कभी महसूस क्यों नहीं हुई? रिश्ता इतना मुलायम क्यों नहीं लगा?’ मयंक सोचता और इतना सोचने भर से ही काम्या फिर से उस के खयालों में दखलंदाजी करने लगती.

मयंक का औफिस के बाद दोस्तों के साथ चिल करना भी इन दिनों काफी कम हो गया था. हर शाम वह खूंटा तुड़ाई गाय सा काम्या के पास दौड़ पड़ता.

आज शाम जैसे ही घर में घुसा, काम्या के पिताजी को बैठे देख कर चौंक गया. नमस्ते कर के भीतर गया तो देखा कि काम्या अपने कपड़े जमा रही थी.

‘‘ये कपड़े क्यों जमा रही हो?’’ मयंक ने पूछा.

‘‘मम्मी का फोन आया था कि शादी के बाद आई ही नहीं. आगे 2 दिन छुट्टी है, तो पापा को भेज दिया लिवाने के लिए,’’ काम्या ने सूटकेस बंद करते हुए कहा.

‘‘लेकिन मैं ने वीकैंड प्लान कर रखा था. तुम ने मुझे बताया तक नहीं,’’ अपना प्लान चौपट होते देख कर मयंक खीज गया.

‘‘वीकैंड तो आते ही रहेंगे. हम फिर कभी चल लेंगे. इस बार मां से मिलने का बहुत मन है,’’ काम्या ने बहुत ही सहजता से कहा.

मयंक का मुंह लटक गया. वह यह सोच कर ही बोरियत महसूस करने लगा कि 2 दिन अकेला घर में बैठ कर करेगा क्या? क्या काम्या वाकई उस के लिए इतनी जरूरी हो गई है? क्या वह उस का आदी होने लगा है?

काम्या अपने पापा के साथ चली गई. शादी के बाद पहली बार वह अपने बिस्तर पर अकेला लेटा. कंबल में से आती काम्या के शरीर की खुशबू उसे बेचैन करने लगी तो वह बैड पर काम्या वाली साइड जा कर लेट गया और उस के तकिए को कस कर जकड़ लिया. लंबीलंबी सांसें ले कर उस की महक को अपने भीतर उतारने लगा. फिर अपनी इस बचकानी हरकत पर खुद ही झेंप गया.

किसी तरह रात ढली और दिन निकला. मां चाय लेकर आई तो वह बड़ी मुश्किल से बिस्तर से निकल पाया. काम्या अब भी तकिए की शक्ल में उस की बगल में मौजूद थी. शाम होतेहोते न जाने कितने ही पल ऐसे आए जब काम्या उसे शिद्दत से याद आई.

आज नहाने के बाद मयंक ने अपना गीला तौलिया खुद ही बालकनी में जा कर धूप में डाला. अपना बिस्तर भी समेटा और गंदे मौजे भी धुलने के लिए लौंड्री बैग में रखे. मां के साथ टेबल पर खाना लगवाया और शाम को चाय के साथ काम्या की पसंद की मेथी मठरी भी खाई. ये सब करते हुए उसे लग रहा था मानो वह काम्या को पलपल अपने पास महसूस कर रहा हो.

सच ही कहा है किसी ने कि जब हम अपने प्रिय व्यक्तियों से दूर होते हैं तो उन की आदतों को अपना कर उन्हें अपने पास महसूस करने की कोशिश करते हैं. शायद मयंक भी यही कर रहा था. टहलते हुए पास के बाजार गया तो एक दुकान पर लालकाले रंग का लहरिए का दुपट्टा टंगा हुआ देखा.

इस से पहले मयंक ने कभी कोई जनाना आइटम नहीं खरीदी थी बल्कि वह तो खरीदने वाले अपने दोस्तों का जीभर कर मजाक भी उड़ाता था, लेकिन आज पता नहीं क्यों वह यह दुपट्टा खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर पाया. शायद काम्या ने कभी लहरिए पर अपनी पसंद जाहिर की थी.

मयंक को लग रहा था जैसेकि ये सब बहुत फिल्मी सा हो रहा है लेकिन वह भी न जाने किस अज्ञात शक्ति से प्रेरित हुआ ये मासूम हरकतें बस करता ही चला जा रहा था.

‘कहीं मुझे प्यार तो नहीं हो गया?’ सोच मयंक को खुद पर शक हुआ.

‘हो सकता है कि मांपापा के बीच भी इसी तरह प्यार की शुरुआत हुई हो,’ सोच कर उस ने मुसकराते हुए टीवी औन किया.

‘‘हो गया है तुझ को तो प्यार सजना… लाख कर ले तू इनकार सजना…’’ गाना बज रहा था. मयंक ने काम्या के तकिए को फिर से खींच कर भींच लिया और आंखें बंद कर लेट गया. उफ, कमबख्त प्यार हो ही गया.

गुलाबी कागज: हरा भरा जीवन हुआ बदरंग

विनती एक एटीएम से दूसरे एटीएम बदहवास सी भागी जा रही थी. कहीं कैश नहीं था. मां नारायणी और बड़ी बहन माया अस्पताल में बेचैनी से उस की प्रतीक्षा कर रही थीं. बाबूजी की तबीयत लगातार बिगड़ती जा रही थी पर डाक्टर 500 व 1,000 रुपए के पुराने नोट लेने को तैयार न थे. कल ही तो माया का इन पुराने नोटों की खातिर एक रिश्ता टूटा था. कहां तो आज माया डोली में बैठ कर विदा होने को थी और कहां बाबूजी ने सल्फास की गोलियां खा कर खुद अपनी विदाई का प्रबंध कर लिया था.

विनती के आगे लाइन में 30-40 लोग, बड़ी मुश्किल से मिले कैश वाले एटीएम के सामने खड़े थे. ‘जब तक उस का नंबर आए, कहीं कैश ही न खत्म हो जाए,’ वह यही सोच रही थी. आगे खड़े लोगों से आगे जाने के लिए उस की मिन्नतें कोई सुनसमझ नहीं रहा था. समझता भी कैसे, सब की अपनीअपनी विकराल जरूरतें मुंहबाए जो खड़ी थीं. तभी शोर मचा कि सुबह 5 बजे से लाइन में लगी घुटनों के बल जमीन पर बैठी वह वृद्ध, गरीब अम्मा चल बसी, भूखीप्यासी. वह किसी बड़े आदमी की मां तो न थी जो भरपेट पकवान खा कर 5-6 सेवकों के सहारे से नोट बदलवाने आती. कलेजा उछल कर मानो हलक में अटक गया. ‘ऐसे ही बाबूजी के साथ कहीं कुछ बुरा न हो गया हो,’ विनती इस आशंका से कांप उठी. उस ने माया दीदी को फिर फोन लगाया था.

कौल लगते ही पहले उधर से आवाज आई थी, ‘‘विनती, पैसे मिल गए क्या?’’

‘‘नहीं दीदी, अभी 30-40 लोग आगे हैं बस, हमारी बारी तक कैश खत्म नहीं होना चाहिए. बाबा को देखना…भैया के नोट बदले? फोन आया क्या?’’

‘‘कुछ जतन कर जल्दी, अनिल भी अभी तक हजार के उन नोटों में 2 भी कहीं नहीं बदल पाया. मां फिर बेहोश हो गई थीं. किसी तरह पानी के छींटे मारे तब होश आया. बहुत घबराहट हो रही है उन्हें. बाबूजी के पास ही लिटा दिया है. क्या करूं, कुछ समझ नहीं आ रहा.’’

‘‘बैंक खुल गया है, अभीअभी 10 लोग अंदर गए हैं. देखो, शायद अब जल्दी नंबर आ जाए.’’

‘‘तू कोशिश करती रह,’’ फोन कट गया था.

उधर, अनिल धक्कामुक्की में लाइन में चौथे नंबर पर पहुंच चुका था. तभी 4 लोग लंबी सी गाड़ी से उतरे और बिना रोकटोक के बैंक में घुस गए. ‘‘बैंक के अफसर तो नहीं लगते,’’ अनिल ने बाहर चौकीदारी पर तैनात बैंककर्मी को टोका था.

‘‘अंदर क्यों जाने दिया इन्हें, हम इतनी देर से लाइन में लग कर बड़ी मुश्किल से यहां पहुंचे हैं. यह तो गलत बात है.’’ सभी क्रोध और विरोध में धक्का दे कर  बैंक के अंदर घुसना चाह रहे थे. भगदड़ सी मच गई. पुलिस और बैंककर्मी के सहयोग से वे 4 लोग अंदर हो लिए तो गेट बंद कर पुलिस वालों ने लगभग सवा सौ आदमियों पर लाठियां भाजनीं शुरू कर दीं. अनिल जो आगे ही खड़ा था, उसे भी लाठी लगी. उस का माथा फूट गया. वह बैंक की सीढि़यों पर ही गिर गया. रूमाल बांध कर किसी तरह उस ने खून के रिसाव को रोका और वहीं डट कर बैठ गया, कुछ भी हो नोट बदल कर ही जाऊंगा. डंडे खा कर बाकी लोग लाचारगी में शांत हो गए थे. तभी गेट खुला, वे चारों लोग बाहर हो लिए थे. गेटकीपर ने फिर गेट बंद कर दिया और कैश खत्म की तख्ती लटकाने लगा.

‘‘यह क्या, अभी तो बताया था आप ने लंच तक काफी लोग निबट जाएंगे आज इतना कैश है, फिर…?’’

‘‘भाई मेरे, उन्होंने नंबर पहले किसी से लगवा रखे थे. 2 लाख रुपए बचे थे.

50-50 हजार रुपए के 4 चैक से उन्होंने नोट निकाल लिए. हम मना तो नहीं कर सकते ऐसे में किसी को.’’

‘‘यह बेईमानी है.’’

‘‘जनता के साथ सरासर धोखा है.’’

‘‘रोजरोज के बदलते नियमोंफैसलों से थक कर परेशान हैं हम. क्यों नहीं सभी सही नोटों पर एक्सपाइरी छाप देते और आरबीआई की स्टैंप लगाते जाते, इस तरह का कोई आसान हल ढूंढ़ते पहले.’’

‘‘हम सब भी देश की प्रगति चाहते हैं, कालाधन बंद हो, पर उचित व्यवस्था तो पहले कर लेनी चाहिए थी.’’

‘‘न पर्याप्त नए नोट ही छपे, न एटीएम ही काम कर रहे.’’

‘‘पर नकली नोट बड़ी तेजी से छप कर मार्केट में आ जाते हैं, कमाल है, कालेधन पर ऐसे नियंत्रण होगा?’’

‘‘उस पर से, कमीशन पर पैसे बदलने के नएनए खुलते जा रहे धंधोंहथकंडों का क्या?’’

चारों ओर मचे शोर में अनिल की आवाज भी कहीं शामिल हो कर खो रही थी. उस का सिर घूमने लगा. वह सिर पकड़ कर थोड़ी देर को बैठना चाहता था, पर नहीं, उसे किसी भी हालत में नोट बदल कर बाबा के पास पहुंचना ही होगा, यों बैठ नहीं सकता. वह निकल पड़ा दूसरी ब्रांच, दूसरे एटीएम की ओर. उस की बाइक की तरह उस का सिर भी तेजी से घूम रहा था. परेशानियों के साथ घाव अपना शिकंजा कसता ही जा रहा था. बैलेंस बिगड़ा, अचानक वह डिवाइडर से टकराया और फिर बाइक कहीं, हैलमेट कहीं, वह सड़क पर गिर पड़ा. पीछे से आ रही तेज रफ्तार किसी अमीरजादे की, बीएमडब्लू उसे बेफिक्री से हिट कर सरपट जा चुकी थी. वह औंधेमुंह अचेतन सड़क पर पड़ा था. कुछ लोग इकट्ठे हो गए. पुलिस ने आ कर काम शुरू कर दिया, तो एटीएम कार्ड के साथ एक हजार रुपए के 5 नोट और आधारकार्ड मिल गए थे.

इधर, विनती लाइन में लगी 10वें नंबर पर आ गई थी. ‘इस बार 10 लोगों को अंदर किया तो मुझे भी पैसे मिल जाएंगे,’ यह सोच कर उसे थोड़ी आस बंधी.

‘‘चलिएचलिए, 10-12 लोग अंदर आ जाइए.’’ बैंककर्मी की आवाज आते ही रेले के साथ विनती भी अंदर हो ली. जब तक उसे पैसे मिल नहीं गए, धुकधुक लगी रही. चैक से मिल गए थे उसे 2 गुलाबी कागज यानी 2 हजार रुपए. ‘2 पिंक नोट, कितने कीमती, बाबा की जान बचा सकेंगे.’ उस ने राहत की सांस ली.’ ‘जल्दी पहुंचना होगा. दीदी को बता दूं पैसे मिल गए,’ पर मोबाइल डिस्चार्ज हो चुका था. वह तेजी से भागी. परेशान मन उस से तेज भाग रहा था. ‘क्या पता भैया ही नोट बदलवा कर पहले पहुंच गए हों और बाबा का उपचार हो रहा हो. काश, ऐसा ही हुआ हो’, रास्तेभर ऐसा ही सोचतेसोचते वह अस्पताल में लगभग भागती हुई घुसी.

गुलाबी कागज हाथ में भींचे हुए वह कैश काउंटर पर पहुंची थी. पीछे से किसी ने उस के कंधे पर हाथ रखा था. उस की माया दीदी थी, ‘‘बाबा, हमें छोड़ कर चले गए दुनिया से, विनती.’’ वह विनती से लिपट कर फफक कर रो पड़ी. हृदयविदारक चीख निकली थी दोनों बहनों की. बाबूजी की छाती पर सिर रखे अम्मा उन्हें बारबार उठ जाने के लिए कह रही थीं.

‘‘तैयार नहीं हुए? माया की बरात आने वाली है. देखो, सब बाहर तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं, जल्दी करो.’’ सदमे का उन के दिमाग पर असर हो गया था. वे बकझक करने लगी थीं.

इधर, माया का मोबाइल बजा था. ‘‘कहां था? कब से फोन लगा रही तुझे. सब ख़त्म हो गया, बाबूजी नहीं रहे. अन्नू, आ जा बहुत हो गई नोट बदली. सरकार ने तो हम सब की जिंदगी बदल कर रख दी.’’ एक सांस में बोल कर माया रोए जा रही थी तो विनती ने फोन ले कर अपने कानों से लगाया तो आवाज सुनाई दी, ‘‘मैडम, बात सुनिए, मैं पुलिस इंस्पैक्टर यादव, सफदर जंग अस्पताल से बोल रहा हूं. अनिल के सिर पर गंभीर चोटें आई हैं, यहां इमरजैंसी में भरती है, इलाज चल रहा है, फौरन पहुंचें.’’

हृदय चीत्कार उठा. सुनते ही विनती ने उन पिंक नोटों को मुट्ठी में भींच लिया जैसे वे अब केवल कागज हों…गुलाबी कागज, जिन का कुछ रंग उतर कर उस की हथेली पर आ गया था, जिस ने उन के हरेभरे जीवन को बदरंग कर दिया. आंसुओं में भीगे शून्य में ताकते कई चेहरे इसी तरह स्याह, सफेद व बेरंग होते रहे, फिर चाहे अस्पताल हो, बैंक एटीएम हो या और कोई जगह. पर फर्क किसे पड़ा? किसे पड़ना चाहिए था? कौन देखता है? बस, जनता के सेवकों की तानाशाही राजनीति जारी है, वह बखूबी चलनी चाहिए. विनती की मुट्ठी का मुड़ातुड़ा नोट जैसे यही बयान किए जा रहा था.

टैडी बियर: भाग 2- क्या था अदिति का राज

 

देवांशी परेशान अदिति के कंधे पर हाथ रखती हुई बोली, ‘‘क्या वाकई, तुम्हारा प्यार छलावा था?’’

‘‘कैसी बात कर रही है? मेरी जान है धु्रव… प्यार करती हूं तभी तो उस के लिए ये सब कर रही हूं. हाय एक टैडीबियर हमारे प्यार को साबित करेगा… ये सब कितनी बेवकूफी है.’’

अदिति के मुंह से ये सब सुन कर देवांशी को पहले तो हंसी आई पर फिर गंभीर हो कर बोली, ‘‘सब जानती है तो क्यों ये सब धु्रव से छिपा रही है? वहां अर्णव परेशान है और यहां तुम.’’

‘‘फिर क्या करूं बता?’’ अदिति मायूसी

से बोली.

देवांशी कुछ सोचते हुए कहने लगी, ‘‘चलो, अब इतने झूठ बोले हैं तो एक और बोल दो. कह दो कि टैडी कोई बच्चा उठा ले गया या फिर तुम्हारी मम्मी ने किसी को दे दिया अथवा गुम हो गया.’’

अदिति चहकी, ‘‘हां देवांशी, यह गुम होने वाला आइडिया सब से अच्छा है, क्योंकि लेनेदेने वाले आइडिया में पाने की कोई न कोई गुंजाइश होती है पर गुम हुआ यानी मिलने की न के बराबर उम्मीद है,’’ यह कहते ही उत्साहित अदिति के चेहरे पर सुकून छा गया. जैसे कोई बहुत बड़ा निबटारा हो गया हो.

दूसरे दिन देवांशी को अदिति ने फोन पर सूचित किया कि उन की तरकीब काम

कर गई है. अर्णव ने अपने जीजू से माफी मांगते हुए टैडी के गुम होने की बात कह दी. धु्रव एक बार फिर बहकावे में आ गया… उस से झूठ बोलना अच्छा नहीं लगा. फिर भी अदिति खुश थी कि इस टैडी वाले प्रसंग से हमेशा के लिए पीछा छूटा…

इस बात को हफ्ता बीत गया. उन की शादी की सालगिरह आ गई. शादी की सालगिरह पर घरबाहर के बहुत सारे मेहमान आए. बड़ों के आशीर्वाद और संगीसाथियों की ढेर सारी बधाइयों के बीच दोनों यानी धु्रवअदिति सब के आकर्षण के केंद्र बने थे.

इस फंक्शन में अर्णव भी आया था. फंक्शन के बाद मौका पा कर अदिति ने अपने भाई को आड़े हाथों लिया.

तब उस ने भी इस बेवजह के अवांछित प्रसंग को ले कर और अपनी गर्लफ्रैंड के साथ

उस अपरिपक्व हरकत पर अफसोस जाहिर करते हुए इतने दिनों बाद उठी बात पर खुलासा किया, ‘‘दीदी, मेरी और अंजना की लड़ाई के बीच आप फंस गईं. हुआ यों कि ब्रेकअप के बाद… कुछ महीने सब ठीक रहा पर अचानक एक दिन उस ने मुझे से टैडी मांग लिया. मुझे भी बहुत अजीब लगा.

‘‘शुरू में मैं ने टाला आप की वजह से. पर वह जिद करने लगी कि उसे अपना टैडी चाहिए ही चाहिए. ऐसे में मैं ने सोचा कि कहीं उसे यह न लगने लगे कि मैं अब भी उस में रुचि रखता हूं… फिर एक दिन मेरा और आप का झगड़ा हो गया. बस उसी का फायदा उठा कर मैं ने तुम से जबरदस्ती टैडी मांग कर उस के हवाले कर के मुसीबत से पीछा छुड़ा लिया.’’

‘‘और मेरी मुसीबत बढ़ा दी पागल…’’

‘‘पर दीदी मैं ने भी उसे दिए सारे गिफ्ट मांग लिए थे.’’

‘‘पर उस से क्या अर्णव… ऐसा भी क्या टैडी से मोह जो उस के बगैर नहीं रह पाई… उस टैडी में कहीं तू तो नहीं दिखता था उसे?’’

‘‘अरे नहीं दीदी,’’ वह खिसिया कर बोला.

अदिति तुरंत उसे चिढ़ाती हुई कहने लगी, ‘‘फिर पक्का उस ने अपने दूसरे बौयफ्रैंड को टिका कर अपने पैसे बचाए होंगे… पर सच, तुम दोनों की बेवकूफी में मैं अच्छा फंसी.’’

‘‘अरे अब माफ भी कर दे न,’’ अर्णव प्यार से बोला.

‘‘किस बात की माफी मांगी जा रही है साले साहब?’’ अचानक ध्रुव की आवाज कानों में पड़ी. धु्रव को अचानक कमरे में आता देख दोनों संभल कर बैठ गए. अर्णव उठते हुए बोला, ‘‘कुछ नहीं जीजू, आज शाम को मैं देर से क्यों आया इस बात को ले कर आप की बीवी मुझे डांट रही है… अच्छा दीदीजीजू अब बाकी बातें कल करेंगे. थक गया हूं.’’ कह वह सोने चला गया.

दूसरे दिन सुबह सब सो रहे थे. लगातार बजती कौलबैल से अदिति की नींद खुली तो देखा दरवाजे पर अटैची के साथ खड़ी एक लड़की भाभी कहते हुए उस के गले लग गई. अदिति  को हैरानी से ताकते देख कर वह मुसकराई और फिर भीतर आते हुए बोली, ‘‘अरे भाभी, मैं नीलांजना… धु्रव भैया कहां हैं…?’’

अदिति को याद आई धु्रव की कजिन, जो शादी के एन मौके पर एमबीए करने के लिए आस्ट्रेलिया चली गई थी. अदिति से बात करते वह इधरउधर देखते हुए बड़े इत्मिनान और हक से भीतर आते बोली, ‘‘देखो भाभी, मुझ पर कबाब में हड्डी होने का आरोप न लगे, इसलिए मैं कल नहीं आई…’’

नीलांजना की बात पर अदिति कुछ कहती उस से पहले ही धु्रव की आवाज आ गई, ‘‘कबाब में हड्डी तो कल आ ही गई थी हमारे बीच तुम भी आ जाती तो कोई फर्क नहीं पड़ता.’’

धु्रव का इशारा अर्णव की तरफ है, यह समझ कर अदिति ने उसे घूरा तो गुस्ताखी माफ कहते हुए उस ने धीरे से कान पकड़ लिए.

‘‘क्या हुआ कोई और भी आया

है क्या?’’

नीला के पूछने पर अदिति ने कहा, ‘‘मेरा छोटा भाई आया है.’’

‘‘ओह, ग्रेट…’’ कहते हुए उस की नजर मेज पर बिखरे ढेर सारे गिफ्टों पर चली गई, ‘‘वाऊ, कितने सारे गिफ्ट हैं. अभी तक खोले नहीं… मेरा इंतजार कर रहे थे क्या? जानती हैं भाभी कि गिफ्ट खोलना मुझे बहुत अच्छा लगता है…’’ कहते हुए वह उत्साह से मेज की ओर बढ़ी तो अदिति ने उसे हैरानी से देखा. लगा ही नहीं कि वह नीलांजना से पहली बार मिल रही है.

धु्रव ने भी एक बार को उसे टोका, ‘‘अरे रुक जा…पहले कुछ खापी ले…’’

‘‘हांहां बस, चायबिस्कुट लूंगी. भाभी अगर आप बुरा न मानें तो क्या मैं गिफ्ट खोलू?’’ वह मेज के ऊपर रखे गिफ्ट उत्साह से देखती हुई बोली.

‘‘हांहां क्यों नहीं,’’ कहते हुए अदिति कुछ अजीब नजरों से उसे देख कर किचन में आ गई. चाय बना कर लाई तो देखा धु्रव के साथ बैठी नीला गिफ्ट देख कर उत्साहित हो रही थी. लगभग सभी गिफ्ट खुल चुके थे. सिर्फ एक बाकी था.

उसे अदिति की ओर बढ़ाते हुए नीला कहने लगी, ‘‘भाभी, इसे आप खोलो.’’

चाय की ट्रे रख कर अदिति ने उस गिफ्ट को चारों ओर से घुमा कर

देखा. उस पर किसी का नाम नहीं था. ‘‘किस का है, यह… कुछ पता ही नहीं चल रहा है,’’ कहते हुए अदिति ने उसे खोला तो हैरान रह गई. हूबहू वैसा ही टैडीबियर, जिसे वह इतने दिनों से ढूंढ़ती फिर रही थी…

धु्रव मुसकराते हुए बोल रहा था, ‘‘अच्छा तो यह अर्णव का सरप्राइज है,’’ धु्रव अदिति की तरफ देखते हुए बोला.

‘‘मुझे नहीं पता कहां से आया है यह… हाय, यह तो बिलकुल वैसा है,’’ अटपटाते हुए वह बोली. तभी अर्णव की आवाज आई, ‘‘वैसा ही नहीं, वही है दीदी,’’ कमरे में आते हुए अर्णव बोला. फिर वह हैरानी से कभी नीलांजना को तो कभी टैडी को देख रहा था.

दुनिया अगर मिल जाए तो क्या: भाग-2

‘‘बात ही ऐसी करती हैं मैम. आ जाएंगी अपनी दलित बस्ती को बीच में ले कर. कोई खबर आई नहीं कि उन्हें दुख होना शुरू हो जाता है.’’

सहर ने कहा, ‘‘तुम अपनी जाति को ले कर नहीं आते? कभी सोचा है कि इतनी बड़ी डिग्री लेने जाने वाला इंसान हिंदू राष्ट्र की बात करते हुए कैसा लगता होगा?’’ सहर के आगे तो ओनीर वैसे ही हारने लगता था, फिर भी बोला, ‘‘काफी दिनों से सोच रहा हूं कि तुम, सहर नौटियाल. यह सरनेम कम ही सुना है. मुंबई के तो नहीं हो तुम लोग?’’

‘‘तुम सचमुच जाति से बढ़ कर नहीं सोच सकते?’’

‘‘मुझे भविष्य में एक इतिहासकार बनना है, राजनीति में जाना है.’’

‘‘उस के लिए इतना पढ़ने की क्या जरूरत है?’’ सहर के इतना कहते ही सब हंस पड़े. सब के और्डर सर्व हो चुके थे, सब खानेपीने लगे. सब जानते थे कि ओनीर को सहर पसंद है पर सहर के पेरैंट्स में से कोई तो मुसलिम है, ओनीर इसलिए कुछ आगे नहीं बढ़ता है. बस, इतना ही पता था सब को. और यही सच भी था.

सहर ने नीबूपानी का एक घूंट भरते हुए कहा, ‘‘कोई हिंदू, कोई मुसलिम, कोई ईसाई है, सब ने इंसान न बनने की कसम खाई है.’’ सहर की गंभीर आवाज पर कुछ सैकंड्स के लिए सन्नाटा छा गया.

ओनीर ने जलीकटी टोन में कहा, ‘‘बस, इसी से सब चुप हो जाते हैं, तुम्हें पता है.’’

सहर ने कहा, ‘‘ओनीर, वैसे तो तुम्हारा अपना सोचने का ढंग है पर मेरे खयाल से एक दोस्त की हैसियत से यह जरूर कहना चाहूंगी कि हम आज जहां बैठे हैं, हमारे और उन नफरत फैलाने वाले लोगों में कुछ फर्क तो होना ही चाहिए न? तुम वही भाषा बोलते हो जो एक सम?ादार इंसान को नहीं बोलनी चाहिए.’’

‘‘जो दिख रहा है, वही तो बोलता हूं.’’

‘‘नहीं, जो दिख रहा है, वह ज्यादातर मनगढ़ंत है, सही नहीं है. दूसरे स्किल की तरह हमें अब फैक्ट चैकिंग की स्किल भी डैवलप करनी चाहिए. तलाशना होगा कि क्या सच है और क्या ?ाठ. मैं ने तो पढ़ा है कि फिनलैंड और कुछ देशों में तो स्कूली कोर्स में आजकल फैक्ट चीकिंग पढ़ाई जा रही है. हमारे यहां भी यह कोर्स शुरू होना चाहिए क्योंकि अब इनफौर्मेशन कई जगहों से आ रही है और उसे बीच में कोई चैक करने वाला नहीं है. पहले मीडिया हमारे लिए यह काम करता था पर अब तो बीच में मीडिया भी नहीं है.’’

‘‘यह सब तुम मुझे क्यों सुना रही हो?’’

‘‘तुम्हें ही तो इतिहासकार बनना है न,’’ सहर मुसकरा दी, आगे कहा, ‘‘इतिहास लिखोगे तो सारे तथ्य लिखना. सच सब से ज्यादा जरूरी होता है, याद रखना. इतिहासकार को सच ही लिखना चाहिए. उस से फायदा होगा या नुकसान, यह देखना इतिहासकार का काम नहीं होता है.’’

‘‘पर यह सब मुझे सुनाने से क्या होगा, क्या मैं बेवकूफ हूं?’’

सहर हंस पड़ी, बोली, ‘‘अच्छा सुनने की सलाहियत से अच्छा कहने का शऊर आता है.’’

‘‘एक तो तुम पता नहीं कैसी हिंदी बोलती हो, कभी उर्दू. मुझे तो तुम्हारी आधी बातें समझ ही नहीं आतीं. ठीक से इंग्लिश में ही बात क्यों नहीं कर लेतीं?’’

‘‘फिर कहोगे, हिंदू राष्ट्र में सब को हिंदी ही बोलनी है. अंगरेजों ने गुलाम बनाया था न, इसलिए उन की भाषा नहीं बोल रही.’’ उस की इस बात पर सब जोर से हंसे, ओनीर ?ोंप गया. सिर्फ सहर ही उसे चुप करवा सकती थी. नएनए प्रेम में पड़े इंसान के लिए सबकुछ इतना भी आसान नहीं होता और ओनीर तो सहर के प्रेम में बुरी तरह डूबा था.

‘‘बहुत दिनों से पूछना चाह रहा था, तुम लोग उत्तराखंड से हो न? नौटियाल सरनेम वहीं से है न?’’

‘‘वाह, मुझ पर भी रिसर्च हो रही है.’’

सब हंसने लगे, ओनीर चिढ़ा, ‘‘कुछ ठीक से बताओगी अपने बारे में? अब तो कालेज भी खत्म होने को आए.’’

‘‘हम नौटियाल लोग करीब 700 साल पहले टिहरी से आ कर तली चांदपुर में नौटी गांव में आ कर बस गए थे. नौटियाल चांदपुर गढ़ी के राजा कनकपाल के साथ संवत 945 में मालवा से आ कर यहां बसे, इन के बसने के स्थान का नाम गोदी था जो बाद में नौटी के नाम में बदल गया और नौटियाल जाति मशहूर हुई. यह सब मेरे

पापा ने मेरी मम्मी को बताया

था और मुझे मम्मी ने. और कुछ पूछना है?’’

सहर के बोलने के ढंग में कुछ ऐसी बात थी कि जब वह बोलती, कोई उसे बीच में न टोकता. वह चुप हुई तो ओनीर, जो उसे अपलक देख रहा था, बोला, ‘‘फिलहाल इतना ही. बस, एक बात और, बुरा मत मानना, तुम्हारे पेरैंट्स में से कौन मुसलिम है?’’

‘‘मम्मी.’’

‘‘वे कहां की हैं?’’

‘‘यहीं मुंबई की.’’

‘‘तो पापा उत्तराखंड से आए थे?’’

‘‘हां,’’ कहते हुए सहर का चेहरा कुछ उदास सा हुआ. सब ने यह नोट किया तो युवान ने बात बदली, ‘‘चलो, अब सब क्लास में.’’

सहर और ओनीर दोनों ही जानते थे कि समय के साथ उन के दिल में एकदूसरे के लिए वैसे भाव नहीं हैं जैसे साथ में रहने वाले और दोस्तों के लिए हैं. कई बार ऐसा भी तो होता है न कि प्यार करने वाले अपने मुंह से कुछ भी नहीं कह रहे हैं पर आसपास के लोग दोनों की निगाहों में बहुतकुछ पढ़ लेते हैं. आंखों का काम सिर्फ देखना थोड़े ही होता है. आंखें बहुतकुछ कहतीसुनती भी तो हैं. इस तरह आंखें कभीकभी तो जबां और कानों का भी काम कर रही होती हैं.

कुछ महीने और बीते, पीएचडी हो गई. दीक्षांत समारोह के दिन ओनीर ने सहर से पूछा, ‘‘थोड़ी देर जुहू चलोगी?’’

पूरे दिन के सैलिब्रेशन के बाद ओनीर और सहर समुद्र के किनारे टहल रहे थे. अचानक ओनीर ने कहा, ‘‘सहर, मैं तुम्हें प्यार करने लगा हूं. क्या तुम भी मेरे लिए कुछ ऐसा सोचती हो?’’

ऐसे पल जीवन में इतने आम नहीं होते जितने लगते हैं. ये पल हमेशा के लिए स्मृतियों में अपनी पैठ बना लेते हैं. सहर को दिल ही दिल में ऐसे पलों की उम्मीद थी, यह कुछ बड़ा सरप्राइज नहीं था पर फिर भी ठंडी सी एक फुहार उस के अंदर तक उतर गई. उस ने बस ‘हां’ में सिर हिला दिया, फिर कुछ रुक कर कहा, ‘‘पर तुम जिस तरह से सोचते हो, हमारा रास्ता कभी

एक हो नहीं सकता. थोड़ा प्रैक्टिकल हो कर कहूं तो तुम कास्ट को ज्यादा महत्त्व देते हो, इसलिए तुम्हारा दिमाग दिल पर हावी ही रहेगा, हम साथ चल नहीं पाएंगे.’’

लौटती बहारें: भाग 4- मीनू के मायके वालों में कैसे आया बदलाव

अचानक अम्मांजी की आवाज आई, ‘‘बहू, मेरा और नीलम का खाना मत बनाना. हमारा खाना वहीं होगा.’’ मैं आहत सी हो गई. मैं नईनवेली दुलहन पर मुझे तो कोई किसी योग्य समझता ही नहीं. मन मार कर काम में लग गई. तभी अचानक नीलम जीजी की जोरजोर से रोने की आवाजें आने लगीं. मैं डर गई कि क्या हुआ. कहीं राहुल को चोट तो नहीं लग गई. मैं आटे से सने हाथों को जल्दी से धो कर अंदर कमरे की ओर दौड़ी. अंदर जा कर देखा नीलम जीजी अपना सामान बिखराए रो रही थीं. अम्मांजी बैग खोल कर कुछ ढूंढ़ रही थीं. पूछने पर मालूम चला कि नीलम दीदी का एक बैग शायद जल्दबाजी में औटोरिकशा में ही छूट गया. उस में उन के जेवर भी थे.

यह सुन कर मुझे बहुत बुरा लगा. अब तो औटोचालक की ईमानदारी पर ही उम्मीद लगाई कि शायद पुलिस स्टेशन में जमा करा दे अथवा घर आ कर लौटा जाए. नीलम को न तो औटो का नंबर याद था और न ही चालक का चेहरा. इस से परेशानी और बढ़ गई. घर में गहरा तनाव छा गया था. पापाजी ने इन्हें भी औफिस से बुलवा लिया था. दोनों पुलिस स्टेशन रपट लिखवाने गए. पर वहां जा कर भी कोई ऐसी तसल्ली नहीं मिली जिस से तनाव कम हो जाता. बेटी का मायके आ कर जेवर खो देना मायके वालों के लिए बहुत बदनामी काकारण था. शेखर और रवि दोनों मिल कर जीजी को दिलासा दे रहे थे. नीलम जीजी एक ही प्रलाप किए जा रही थीं कि ससुराल जा कर क्या मुंह दिखाऊंगी. अम्मां औटो वाले को कोस रही थीं. मैं और पापाजी दोनों बेबस से खड़े थे.

उस दिन किसी ने खाना नहीं खाया. मैं ने बड़ी कठिनाई से राहुल को दूध व बिस्कुट खिलाए. अगले दिन शाम तक न पुलिस स्टेशन से कोई खबर आई और न ही औटोचालक का ही कुछ अतापता मिला. सभी निराश हो चले थे. मुझे नीलम जीजी की दशा देख कर बहुत दुख हो रहा था. कितने उत्साह से विवाह में शामिल होने आई थीं और किस परेशानी में घिर गईं. अगर कभी मायके जा कर मेरे साथ यह घटना हो जाती तो? यह सोच मैं मन ही मन कांप गई. मेरे मन में विचारों की उधेड़बुन चल रही थी कि कैसे नीलम जीजी की परेशानी दूर करूं.

अचानक दिमाग में बिजली कौंधी. मैं दृढ़ कदमों से अपने कमरे में गई और अपनी अलमारी से सारे जेवर निकाल लाई. जेवरों का डब्बा मैं ने नीलम जीजी को देते हुए कहा, ‘‘लो जीजी, ये जेवर आज से आप के हुए. मेरे तो फिर बन जाएंगे… अभी आप का जेवरों के कारण कोई अपमान नहीं होना चाहिए.’’

सभी हैरानी से मेरा मुंह देखने लगे मानो उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा हो. कुछ ही क्षणों बाद घर के सभी सदस्य गहने लेने से इनकार करने लगे तो मैं ने सधे स्वर में कहा, ‘‘मैं जेवर, नीलम जीजी को दे कर कोई एहसान नहीं कर रही हूं. आप सब मेरा परिवार हैं. आप के मानअपमान में मैं भी बराबर की हिस्सेदार हूं. आजकल आएदिन लूटपाट की खबरें आती रहती हैं. गहने तो अधिकतर लौकरों की शोभा ही बढ़ाते हैं,’’ यह कह मैं किचन की ओर चल दी.

तभी नीलम जीजी ने लपक कर मेरा हाथ पकड़ लिया और कहने लगीं, ‘‘नहींनहीं भाभी मैं अपनी लापरवाही की सजा आप को नहीं दे सकती,’’ और फिर से जेवर वापस करने लगीं. इस बार मैं ने उन्हें राहुल का वास्ता दे कर जेवर ले लेने को कहा. कोई चारा न देख कर उन्होंने जेवर ले लिए.

शेखर और रवि भैया मुझे प्रशंसाभरी नजरों से देख रहे थे. पापा ने मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘बहू, इस समय जो तुम ने हमारे लिए किया उसे हम जीवन भर नहीं भुला पाएंगे.’’

हर समय पराए घर की और पराया खून की रट लगाने वाली अम्मांजी लज्जित सी सिर झुकाए बैठी थीं. जेवरों का यों खो जाना कोई मामूली चोट न थी. फिर भी फिलहाल उस पर मरहम लगा दिया. सभी बेमन से थोड़ाबहुत खा कर सो गए.

नीलम जीजी जैसेतैसे सहेली की शादी निबटा कर चली गईं. ससुराल में जा कर बताया कि भाभी के जेवर नए डिजाइन के थे, इसलिए उन से बदल लिए. उन की ससुराल वाले खुले विचारों के लोग थे. अत: उन्होंने कोई पूछताछ नहीं की. इस घटना के बाद से सब का मेरे प्रति व्यवहार बदल गया. शेखर बाहर घुमाने भी ले जाने लगे. खाना बन जाने पर रवि भैया और शेखरजी डाइनिंगटेबल पर प्लेटें, डोंगे रखवाने

में मेरी मदद करते. खाने के समय सब मेरा इंतजार करते. एक दिन तो अम्मां ने यहां तक कह दिया, ‘‘बहू रोटियां बना कर कैसरोल में रख लिया करो. सब के साथ ही खाना खाया करो.’’

मैं मन ही मन इस बदलाव से खुश थी. पर मन में रेनू और राजू की चिंता, किसी फांस की तरह चुभती रहती. मैं ऊपर से सामान्य दिखने का प्रयत्न करती रहती. मुझे सहारनपुर से लौटे लगभग 2 महीने होने को आए थे.

पापा का 2-3 बार कुशलमंगल पूछने के लिए फोन आ चुका था. मम्मी से भी बात हो गई थी. रेनू और राजू से एक बार भी बात नहीं हो पाई. उन के बारे में जब भी पूछा, पापा ने घर पर नहीं हैं कह कर बहाना बना दिया. हो सकता है वे दोनों बात करना न चाहते हों. कल रात जब खाना बना रही थी तो सहारनपुर से पापा का फोन आया. घबराए हुए थे. उन्होंने कहा, ‘‘मीनू बेटी, तेरी मम्मी की तबीयत खराब है, उन्हें पीलिया हो गया है. तुम्हें बहुत याद कर रही हैं.’’

मैं समझ गई मम्मी की तबीयत ज्यादा ही खराब होगी. तभी पापा ने मुझे फोन किया वरना नहीं करते. मेरी आंखें भर आईं. मैं ने पापा को आने का आश्वासन दे कर फोन काट दिया. पीछे मुड़ी तो कमरे में अम्मां और पापाजी खड़े थे. मेरे चेहरे पर चिंता की रेखाएं देख कर पूछने लगे, ‘‘बहू, मायके में सब कुशलमंगल तो है?’’ मम्मी की तबीयत के बारे में बतातेबताते मैं रो पड़ी.

अम्मां ने मुझे सांत्वना दी. पापाजी ने कहा, ‘‘तुम सुबह ही शेखर को ले कर चली जाओ. मम्मी की देखभाल करो. शेखर के पास छुट्टियां कम हैं पर 1-2 दिन रह कर लौट आएगा. तुम जितने दिन चाहो रह लेना.’’ अगले दिन मैं और शेखर सहारनपुर जा पहुंचे. सारा घर अस्तव्यस्त हो रखा था. मैं ने मम्मी को देखा तो हैरान रह गई. वे बहुत कमजोर हो गई थीं. आंखों में बहुत पीलापन आ गया था.

इलाज तो चल ही रहा था, पर मुझे तसल्ली न हुई. मैं और शेखर मम्मी को दूसरे डाक्टर के पास ले गए. शहर में इन का अच्छे डाक्टरों में नाम आता था. मुआयना करने के बाद डाक्टर ने कहा कि मर्ज काफी बढ़ गया है, पर परहेज और आराम करने से सुधार आ सकता है. घर पहुंचने पर पाया रेनू और राजू भी आ गए थे. मुझे देख कर दोनों के चेहरे उतर गए, पर मैं भी उन से औपचारिक बातें ही करती.

चौथे दिन मम्मी के स्वास्थ्य में सुधार दिखने लगा. पापा के चेहरे पर भी रौनक लौट आई. यह देख बहुत अच्छा लगा. दोपहर को मैं मम्मी को खिचड़ी खिलाने लगी. घर में कोई नहीं था. मम्मी ने खिचड़ी खा कर प्लेट एक ओर रख कर मेरे दोनों हाथ पकड़ कर मुझे पलंग पर अपने पास ही बैठा लिया. उन की आंखों में आंसू थे. वे रोते हुए बोलीं, ‘‘मीनू, बेटी पिछली बार हम से तुम्हारा बड़ा अपमान हो गया था. मुझे माफ कर दे बेटी. मैं मजबूर हो गई थी,’’ और फिर मेरे सामने हाथ जोड़ने लगीं.

मुझे बहुत बुरा लगा. मैं ने उन के हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘मम्मी, आप यह क्या कर रही हैं? आप न तो पिछली बातें सोचेंगी और न ही कहेंगी. बस अपनी सेहत पर ध्यान दें.’’ धीरेधीरे मां खुलती गईं. अपनी मन की पीड़ा से मुझे अवगत कराने लगीं. उन्होंने बताया कि रेनू किस तरह घर के प्रति लापरवाह हो गई है. जब से बीमार हुईं हूं सवेरे ही कुछ बना कर डाइनिंगटेबल पर रख जाती है. शाम को भी यही हाल है. जल्दबाजी में कुछ भी कच्चापक्का बना कर दे देती है. कुछ कहो या पूछो तो गुस्सा हो जाती है.

राजू भी दिन भर बाहर रहता है. खानेपीने का कोई नियम नहीं. तेरे पापा ने चाय बनानी सीख ली है. चाय तो वे ही बना लेते हैं. ये सब सुन कर मन बेहद दुखी हुआ. मैं भी रेनू और राजू के बहकते कदमों के बारे में मम्मी को सतर्क करना चाहती थी पर उन के स्वास्थ्य को देखते हुए मैं ने इस विषय पर चुप्पी ही साध ली.

अगले दिन मैं ने अपनी सहेली चित्रा को फोन किया. वह मुझ से मिलने घर आ गई. विवाह के बाद मैं उसे मिल न पाई थी. चित्रा मेरी बचपन की एक मात्र अंतरंग सखी थी. वह एक धनी व्यवसायी की बेटी थी, परंतु घमंड से कोसों दूर थी. बेहद स्नेहमयी थी. इसीलिए वह हमेशा मेरे दिल के करीब रही. दोनों एकदूसरे के दुखसुख में भागीदार रहती थीं. चित्रा के आने पर मेरा मन खुश हो उठा. हम दोनों पहले मम्मी के पास बैठीं.

मम्मी बोलीं, ‘‘अरे चित्रा, आज तो तू मीनू को कहीं बाहर घुमा ला. जब से आई है मेरी सेवा में लगी है. अब मैं ठीक हूं.’’ चित्रा ने चलने का अनुरोध किया तो मैं मना न कर पाई. वह अपनी कार में आई थी. दोनों एक रेस्तरां में पहुंच गईं. चित्रा ने कौफी और सैंडविच का और्डर दिया. फिर दोनों बतियाने लगीं. चित्रा मुझ से मेरे विवाह और ससुराल के अनुभव सुनने के लिए बेताब थी. फिर अचानक चित्रा गंभीर हो गई. बोली, ‘‘मीनू, हम दोनों कितने समय बाद मिले हैं. मैं तेरा दिल दुखाना नहीं चाहती हूं पर इस विषय पर चुप्पी साध कर भी मैं तेरा और तेरे परिवार का नुकसान नहीं करना चाहती.’’

मैं ने उसे सब कुछ खुल कर बताने को कहा तो चित्रा ने कहा, ‘‘मीनू तू तो जानती है कि मेरा छोटा भाई रजत और राजू कालेज में एकसाथ ही हैं. रजत ने मुझे बताया कि राजू 3-4 महीनों से कालेज में बहुत कम दिखाई देता है. वह कुछ दादा टाइप लड़कों के साथ घूमता है. प्रोफैसर उसे कई बार चेतावनी दे चुके हैं. मुझे लगता है उसे अभी न रोका गया तो वह गलत रास्ते पर आगे बढ़ जाएगा, फिर वहां से लौटना कठिन हो जाएगा.’’ मैं ने चित्रा को शुक्रिया कहा और बोली, ‘‘तू ने सही समय पर मुझे सचेत कर दिया. राजू से आज ही बात करती हूं.’’

बात निकली तो मैं ने रेनू के बारे में भी चित्रा को सब बता दिया. मेरी बात सुन कर चित्रा कहने लगी, ‘‘वैसे तो इस उम्र में लड़कियों और लड़कों में आकर्षण आम बात है पर परेशानी तब होती है जब लड़के मासूम लड़कियों को बहलाफुसला कर उन से संबंध बना कर उन के आपत्तिजनक वीडियो बना कर ब्लैकमेल करने लगते हैं.’’ मैं ने कहा, ‘‘बस चित्रा मुझे यही चिंता खा रही है. रेनू सुनने को तैयार ही नहीं है. क्या करूं?’’

अभी हम बातें कर ही रही थीं कि एकाएक मेरी नजर सामने की टेबल पर पड़ी. वहां एक नवयुवक और एक नवयुवती हाथों में हाथ डाले जूस पी रहे थे. वे धीरेधीरे बातें कर रहे थे. मुझे लगा कि इस लड़के को कहीं देखा है. दिमाग पर जोर डाला और ध्यान से देखा तो याद आ गया. यह वही लड़का है, जिस के साथ रेनू बाइक पर घूमती है. बस अब मेरा दिमाग तेजी से काम करने लगा. इस फ्लर्टी लड़के के चक्कर में रेनू मेरा इतना अपमान कर रही थी. मैं ने झटपट एक प्लान बनाया और चित्रा को समझाया. चित्रा वाशरूम जाने के बहाने उन दोनों के पास जा कर रुकेगी और मैं समय नष्ट न करते हुए मोबाइल से उन का फोटो ले लूंगी. अगर वह जोड़ा सचेत हो जाता है, तो मैं कैमरे का रुख चित्रा की ओर कर के उसे पोज देने को कहने लगूंगी. मगर दोनों प्रेमी अपने आसपास की चहलपहल से बेखबर एक ही गिलास में जूस पीने में मस्त थे. मैं ने जल्दी से फोटो लिए और हम दोनों रेस्तरां से बाहर आ गईं.

घर पर रेनू और राजू भी आ चुके थे. राजू तो चित्रा को घर आया देख सकपका सा गया पर चित्रा को रेनू बहुत पसंद करती थी, इसलिए वह चित्रा से बहुत प्यार से मिली. एकदूसरे का हालचाल पूछ कर रेनू सब के लिए चाय बनाने चली गई. कुछ देर रुक राजू मौका देख कर कोचिंग क्लास के बहाने बाहर जाने लगा तो चित्रा ने लपक कर उस का हाथ पकड़ लिया और बोली, ‘‘क्यों मैं इतने दिनों बाद आई हूं, मुझ से बातचीत नहीं करोगे? मीनू के ससुराल जाने के बाद अब मैं ही तुम्हारी दीदी हूं. मुझ से अपने मन की बात कह सकते हो,’’ यह कहतेकहते वह राजू को अलग कमरे में ले गई.

चित्रा ने राजू को समझाया, ‘‘तुम्हारी हरकतों से तुम्हारा कैरियर तो खराब होगा ही, पूरे घर के मानसम्मान पर भी धब्बा लगेगा. तुम्हारे मातापिता तुम से कितनी उम्मीदें लगाए बैठे हैं.’’ राजू सब सिर झुकाए सुनता रहा.

चित्रा ने आगे कहा, ‘‘तुम कल से नियमित कालेज जाओ… उन लड़कों से मिलनाजुलना बंद करो. अगर इस में कोई भी समस्या सामने आती है, तो प्रोफैसर आदित्य के पास चले जाना. वे मेरे कजिन हैं. हर तरह से तुम्हारी मदद करेंगे. हां, अब तुम्हारी सारी गतिविधियों पर ध्यान भी रखा जाएगा. याद रहे तुम्हारी मीनू दीदी उसी कालेज में टौपर रह चुकी हैं.’’ राजू चित्रा का बहुत आदर करता था. अत: ये सब सुन कर रो पड़ा. उस ने चित्रा से वादा किया कि वह उन की बातों पर अमल करेगा. चित्रा ने प्यार से उस की पीठ थपथपाई. तभी रेनू चाय बना कर कर ले आई. उधर मैं ने भी अपना काम कर लिया. मैं ने रेस्तरां में खींचे गए फोटो वहीं रख दिए जहां टेबल पर रेनू ने चाय रखी थी. मैं वहां से उठ कर मम्मी के कमरे में चली गई. रेनू चाय के लिए सब को बुलाने लगी. हम सब हंसतेखिलाते चाय पीने लगे. तभी रेनू की नजर फोटो पर पड़ गई, ‘‘किस के फोटो हैं ये?’’ कह कर उन्हें उठा लिया.

चित्रा बोली, ‘‘ये मेरे फोटो खींच रही थी. मेरे तो खींच नहीं पाई. यह जोड़ा रेस्तरां में बैठा था, उस की खिंच गई. मीनू तू तो मोबाइल से भी फोटो नहीं खींच पाती.’’ फोटो देखते ही रेनू के चेहरे का रंग बदल गया. हम चुपचाप अनजान बने चाय पीते रहे.

रेनू चुपचाप वहां से चली गई. हम थोड़ी देर बाद रेनू के कमरे में जा पहुंचे. वह बिस्तर पर पड़ी रो रही थी. चित्रा ने उस से प्यार से रोने का कारण पूछा तो उस ने पहले तो बहाना किया पर उस का बहाना मेरे और चित्रा के सामने नहीं चला. मैं ने पुचकार कर पूछा तो उस ने उस लड़के के बारे में सब बता दिया. मैं ने और चित्रा ने उसे इस उम्र में होने वाली गलतियों से आगाह किया और पढ़ाईलिखाई में ध्यान देने को कहा.

रेनू रोतेरोते मेरे गले लग गई और बोली, ‘‘दीदी, मुझे डांटो, मैं बहुत खराब हूं.’’ तब मैं ने प्यार से समझाया, ‘‘सुबह का भूला अगर शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते. अब मम्मीपापा की देखभाल की पूरी जिम्मेदारी तुम्हारी है.’’

रेनू ने हां में सिर हिला दिया. राजू भी सिर झुकाए खड़ा था. वह भी मेरे गले लग गया. चित्रा जाते समय मम्मीपापा से मिलने गई तो हंस कर बोली, ‘‘अंकल जिस काम के लिए मैं यहां आई थी उसे तो भूल कर जा रही थी. दरअसल, पापा ने मुझे आप के पास इसलिए भेजा था कि पापा को अपने व्यवसाय के लिए एक अनुभवी अकाउंटैंट चाहिए. यदि आप यह कार्य संभाल लें तो उन की चिंता कम हो जाएगी.’’

पापा की खुशी की सीमा न रही. बोले, ‘‘नेकी और पूछपूछ. चित्रा बेटी तुम्हारा यह उपकार कभी नहीं भूलूंगा.’’ यह सुन कर चित्रा प्यार भरे गुस्से से बोली, ‘‘अंकल आप ऐसा कहेंगे तो मैं आप से बहुत नाराज हो जाऊंगी.’’

पापा ने मुसकरा कर अपने कान पकड़ लिए तो सभी जोर से हंस पड़े. सारा माहौल खुशगवार हो गया. मम्मी अब ठीक थीं. रेनू ने भी घर के कामकाज में ध्यान देना शुरू कर दिया था. मैं ने भी ससुराल लौटने की इच्छा जताई. इस बार

राजू मुझे ससुराल छोड़ने जा रहा था. अगले दिन मैं जाने से पहले मम्मीपापा के कमरे के पास से गुजर रही थी तो मुझे उन की बातचीत सुनाई पड़ी. मम्मी कह रही थीं, ‘‘देखो हम बेटियों को पराया धन, पराई अमानत कह कर दुखी करते हैं परंतु बेटियां पति के घर जा कर भी पिता की चिंता नहीं छोड़तीं.’’

पापा हंस कर बोले, ‘‘तुम ने वह कहावत नहीं सुनी है कि बेटे अपने तब तक रहते हैं जब तक न हो वाइफ और बेटियां तब तक साथ रहती हैं जब तक हो लाइफ.’’ यह सुन कर मैं भी मुसकरा दी. अगले दिन मैं मायके से विदा हो कर ससुराल आ गई. सभी मुझ से और राजू से बहुत प्यार से मिले. शेखर ने राजू को पूरी दिल्ली घुमाया. कई तोहफे दिए. नीलम जीजी भी राजू से मिलने आईं. राजू बहुत ही अच्छे मूड में विदा हुआ.

अम्मां के घुटनों के दर्द के लिए मैं एक तेल लाई थी. उस से मालिश कर के अम्मां और पापाजी के कमरे से निकली तो पापा की आवाज सुनाई दी, ‘‘बहुएं तो प्यार की भूखी होती हैं. जब तक उन्हें पराए घर की, पराए खून की कहते रहेंगे वे ससुराल में अपनी जगह कैसे बनाएंगी?’’ अम्मां बोलीं, ‘‘सच कह रहे हो शेखर के पापा… वे बेचारियां अपना मायके का सब कुछ छोड़ कर हमारे आसरे आती हैं और हम उन्हें अपनाने में पीछे हटते हैं.’’

‘‘ये नादानियां तुम्हीं ने सब से ज्यादा की हैं,’’ पापा ने कहा तो अम्मां ने शर्म से सिर झुका लिया.

टैडी बियर: भाग 1- क्या था अदिति का राज

 

‘‘सुनिए,मुझे टैडीबियर चाहिए, बिलकुल ऐसा…’’ मोबाइल पर एक फोटो दिखाते हुए अदिति ने एक बार फिर उम्मीदभरी नजर दुकानदार पर गड़ाई. मगर उस ने सरसरी नजर मोबाइल पर डालते हुए इनकार में सिर हिला दिया.

मायूस चेहरा लिए अदिति सौफ्ट टाएज की दुकान से बाहर निकली तो उस की कालेज की पुरानी सहेली देवांशी खीज कर बोली, ‘‘क्या हुआ है तुझे… मुझे सुबहसुबह फोन कर के बुला लिया कि जरूरी शौपिंग करनी है… 2 घंटे से कम से कम 6 दुकानों में टैडीबियर पूछ चुकी है… हम क्या टैडीबियर खरीदने आए है यहां?’’

देवांशी के खीजने पर अदिति ने मासूमियत से मुंह बनाते हुए हां कहा. तो देवांशी उसे हैरानी से देखती हुई बोली, ‘‘अच्छा दिखा मुझे कैसा टैडीबियर चाहिए तुझे,’’ कहते हुए उस के हाथ से मोबाइल छीन लिया. फिर ध्यान से वह फोटो देखा जिस में अदिति पिंक कलर की खूबसूरत ड्रैस में धु्रव और एक टैडीबियर के साथ दिखाई दे रही थी.

शादी से पहले खिंचाई इस तसवीर में टैडी को अदिति ने एक खास अंदाज में

पकड़ा था और अदिति को उसी पोज में धु्रव ने. यह फोटो सोशल साइट पर खूब वायरल हुआ था.

देवांशी जानती थी कि यह टैडीबियर अदिति का धु्रव को दिया पहला उपहार था और वह पिंक ड्रैस धु्रव का अदिति को दिया पहला उपहार. इस फोटो के साथ ही अदिति ने अपने सिंगल स्टेटस को इंगेज्ड में बदल दिया था. फोटो में दिखाई देने वाले टैडी जैसा एक और टैडीबियर खरीदने आई अदिति उस की समझ से परे थी.

देवांशी के चेहरे पर सवाल देख कर अदिति बोली, ‘‘उफ, बड़ी गलती हो गई… मुझे धु्रव से यह टैडी मांगना ही नहीं चाहिए था.’’

‘‘मांग लिया मतलब? तूने अपना दिया गिफ्ट वापस मांग लिया? क्या कह कर गिफ्ट वापस मांगा और क्यों?’’ देवांशी ने हैरानी से पूछा.

अदिति बोली, ‘‘यार मजबूरी में मांगना पड़ा. लंबी कहानी है तू नहीं समझेगी. सारा पेंच इसी में तो है. मैं तो शादी के बाद इस टैडी को भूल भी गई थी पर धु्रव नहीं भूला. अगले हफ्ते हमारी शादी की सालगिरह है. मेरा भाई अर्णव आ रहा है. बेवकूफ अर्णव ने धु्रव से पूछ लिया कि जीजू आप को दिल्ली से कुछ मंगवाना तो नहीं है. यह सुन कर धु्रव ने कह दिया कि वह टैडीबियर लेता आए जिसे मैं मायके में छोड़ आई हूं. अब अर्णव परेशान है कि जो टैडी अब घर में है ही नहीं, उसे कहां से लाए… मैं ने सोचा उस जैसा दूसरा ढूंढ़ कर उस की परेशानी हल कर दूं.’’

‘‘उस जैसा दूसरा… मतलब कि यह फोटोवाला टैडी तुम्हारे मायके से गुम हो गया है?’’ देवांशी ने अपनी समझ से अंदाजा लगाया.

तब अदिति ने खुलासा किया, ‘‘अरे यार हुआ यों कि धु्रव को दिया यह टैडीबियर अर्णव का ही था. अर्णव का भी नहीं था, बल्कि अर्णव को वह अपनी गर्लफ्रैंड से मिला था.  बाद में दोनों के बीच ब्रेकअप हो गया. उन दिनों मेरे और धु्रव के बीच में चक्कर चल रहा था सो उस खूबसूरत टैडी को मैं ने अर्णव से मिन्नतें कर के मांग लिया. और धु्रव को दे दिया.

‘‘एक दिन अर्णव का मूड खराब था. उस का मेरा झगड़ा हो गया… अब क्या जानती थी कि बेवकूफ अर्णव से मेरा झगड़ा इतना महंगा पड़ेगा कि वह गुस्से में भर कर अपना टैडीबियर मुझ से वापस मांग लेगा… तू तो मुझे जानती है कि मैं किसी की धौंस सहन नहीं करती हूं… मैं ने भी प्रैस्टिज इशू बना कर किसी तरह जोड़तोड़ कर के उस का टैडी धु्रव से वापस मांग कर उस के मुंह पर मार दिया…’’

‘‘हांहां, पर धु्रव से क्या कह कर वापस मांगा… मतलब टैडी मांगने के लिए क्या

जोड़तोड़ की?’’

देवांशी ने उत्सुकता से पूछा तो अदिति सीने पर हाथ रख कर स्वांग भरती कहने लगी, ‘‘अरे, उस समय तो धु्रव को यह कह कर बहला लिया कि इस टैडी में मुझे तुम दिखते हो. तुम तो हमेशा मेरे पास रहते नहीं हो, इसलिए इस टैडी को मैं सदा अपने पास रखना चाहती हूं ताकि तुम्हें मिस न करूं… धु्रव भावुक हो गया. ये सब सुन कर उस ने टैडी मुझे सौंप दिया और मैं ने उस ईडियट अर्णव को… और अर्णव ने अपनी बेवकूफ ऐक्स गर्लफ्रैंड को वापस कर दिया.’’

‘‘कैसा भाई है तेरा… और तू भी न… धु्रव को पहला गिफ्ट दिया वह भी भाई की गर्लफ्रैंड का जो उस ने तेरे भाई को दिया था.’’

‘‘अरे मैं ने सोचा फालतू पड़ा है… मतलब टैडी बड़ा क्यूट था… उन का तो ब्रेकअप हो ही चुका था. क्या करता अर्णव उस का सो दे दिया.’’

‘‘दे दिया नहीं ठिकाने लगा दिया.’’

देवांशी के यह कहने पर अदिति धीमे से बोली, ‘‘हां यार, यही गलती हो गई… पर अर्णव, जैसा भी है, है तो आखिर मेरा भाई… हालांकि उस ने झगड़े के बाद परेशान बहुत किया. जानती है, मैं तो तब डर ही गई थी, जब वह चिढ़ कर कहने लगा था कि मैं धु्रव को बता दूंगा कि जो टैडी तुम्हें अदिति ने दिया है दरअसल वह मेरी गर्लफ्रैंड ने मुझे दिया था. अब सोच, वह मुझे शर्मिंदा करे उस से पहले ही मैं ने तिकड़म कर मामला सुलटा लिया वरना पता नहीं क्या होता… अब क्या जानती थी कि धु्रव को अपनी पहली शादी की सालगिरह आतेआते पहली डेट की वह निशानी याद आ जाएगी…’’

अदिति की बात सुन कर देवांशी ने सिर पकड़ लिया. कुछ देर चुप रहने के बाद वह बोली, ‘‘तू ऐसा कर, ऐसा टैडी औनलाइन सर्च कर…’’

‘‘वह भी कर लिया नहीं मिला,’’

अदिति बोली.

देवांशी कुछ देर मौन रहने के बाद बोली, ‘‘अब एक ही रास्ता है… जैसे तुम ने मुझे सारी बात बताई वैसे ही उस की ब्रेकअप वाली फ्रैंड को बता दे. शायद वह तुम्हारी बेवकूफी को समझे और तरस खा कर वह टैडी वापस कर दे.’’

‘‘अर्णव ने यह भी सोचा था, पर पता चला अब वह इंडिया में नहीं है. उस से कोई कौंटैक्ट ही नहीं हो पा रहा है…’’

‘‘बेचारे अर्णव ने मेरी शादी से पहले अपनी इस हरकत के लिए मुझ से माफी मांग ली थी. मैं भी उस की इस बेवकूफी को भाईबहन की बेवकूफियां समझ कर भुला चुकी थी पर अब बता क्या करूं?’’

‘‘तू पागल है अदिति, बिलकुल पागल… शादी के पहले हम बहुत सी बेवकूफियां करते हैं, पर वे बेवकूफियां शादी के बाद भी जारी रहें यह सही नहीं है. सुन, मैं धु्रव को सब बता देती हूं,’’ देवांशी ने मोबाइल उठा लिया.

अदिति ने उस के हाथ से मोबाइल छीनते हुए कहा, ‘‘क्या कर रही है तू… किस मुंह से कहूंगी कि जानूं, मैं ने तुम्हें बेवकूफ बनाया… तुम्हें दिया हुआ पहला गिफ्ट मांगा हुआ था. और तो और, मैं ने तुम्हें बेवकूफ बना कर उसे तुम से वापस हासिल कर के अपने भाई को दे दिया और भाई ने अपनी ब्रेकअप वाली गर्लफ्रैंड को… देख देवांशी, मैं धु्रव को बहुत प्यार करती हूं और ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहती हूं, जिस से उसे मेरा वह प्यार, वे सारी फीलिंग्स छलावा लगें… वह मुझे तो क्या मेरी पूरी फैमिली को चालू समझेगा.’’

दुनिया अगर मिल जाए तो क्या: भाग-1

क्लासरूम में जैसे ही चैताली आई, ओनीर ने मुंह बना कर अपने साथी धवन को इशारा किया, आ गई. चैताली रोज से अलग कुछ अच्छे मूड में थी. बाकी स्टूडैंट्स ने चैताली को विश किया. ये सब मुंबई के इस कालेज में इतिहास में पीएचडी कर रहे स्टूडैंट्स थे. ओनीर ने यों ही एक नजर सहर पर भी डाली, मन में सोचा, हद है यह लड़की. इतना सुंदर कौन होता है, काश.

चैताली ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘जानती हूं, अब आप को बेसब्री से इंतजार होगा कि कब आप के नाम के आगे डाक्टर लगे. है न?’’ सब स्टूडैंट्स ने हंसते हुए ‘हां’ में गरदन हिला दी.

चैताली की आदत थी, वह एकदम से किसी मशीनी तरीके से लैक्चर की शुरुआत नहीं करती थी, पहले कुछ सामयिक मुद्दों पर थोड़ी बात करती थी, फिर काम की बातों पर आती थी. आज भी उस ने पूछ लिया, ‘‘पेपर पढ़ा आप लोगों ने या वह वीडियो देखा जिस में दलित मांबेटी को जिंदा जला दिया गया? पता नहीं, देश में यह हो क्या रहा है.

युवान सोशल मीडिया की सारी खबरों पर बात कर सकता था. उस के पास अथाह नौलेज थी. वैसे तो ये सारे स्टूडैंट्स इस समय शिक्षा के क्षेत्र में सब से ऊंची डिग्री लेने जा रहे थे. सभी खूब ज्ञानी थे. इतिहास यों भी पिछली घटनाओं, उन के परिणामों और आधुनिक समाज पर प्रभाव का अध्ययन है. युवान ने कहा, ‘‘मैम, हां, देखा, दुख होता है.’’

‘‘आप लोगों को भी लगता है कि पिछले कुछ समय में ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं?’’

ओनीर के संस्कार और परवरिश ने उसे हिंदू राष्ट्र का अंधसमर्थक बना दिया था. वह खड़ा हो गया. उसे जब भी गुस्सा आता, बैठ कर आराम से बात करना उस के हाथ में न रहता, यह अब तक सब जान गए थे. चैताली भी अनुभवी थी, समझ गई कि बात अब कहां जाएगी. ओनीर ने कहा, ‘‘क्यों मैम, इस से पहले देश में कभी किसी के साथ अन्याय हुआ ही नहीं था?’’

‘‘मैं वर्तमान की बात कर रही हूं.’’

‘‘मैं नहीं मानता.’’

‘‘तुम्हारे मानने, न मानने से कुछ बदलने वाला नहीं है. इतिहास के स्टूडैंट हो, तर्क और तथ्य के साथ बात किया करो. कल किसी कालेज में प्रोफैसर बनोगे, स्टूडैंट्स को सही पाठ पढ़ाना तुम्हारा फर्ज होगा, व्हाट्सऐप वाला ज्ञान उन के दिमाग से निकालना होगा.’’

ओनीर हमेशा उन की व्हाट्सऐप वाली बात पर बहुत चिढ़ता था, अब भी चिढ़ गया.

‘‘मैं प्रोफैसर नहीं बनना चाहता. मैं इतिहासकार या जर्नलिस्ट बनूंगा. इतिहास के वो पन्ने ढूंढ़ढूंढ़ कर सब के सामने रखूंगा कि लोग जानें कि मुगलों ने हिंदुओं पर कितने अन्याय किए हैं, एक राजनीतिक पार्टी जौइन करूंगा जो हिंदू राष्ट्र की समर्थक है. लोगों को दलितों पर हुए अन्याय दिखते हैं, जो इतिहास में हमारे साथ हुआ, उस की बात कोई नहीं करता. दलित लोग अपना तमाशा खुद ही ज्यादा बनाते रहते हैं. उन के दिलदिमाग में ही हीनभावना भरी रहती है.’’

‘‘तुम्हारे जैसे स्टूडैंट्स मेरी क्लास में हैं, दुख होता है. इतना पढ़लिख कर भी…

‘‘तो आप भी तो इतना पढ़लिख कर सिर्फ आज की न्यूज में किसी दलित की ही न्यूज लाईं, मैम. आप को भी तो अपनी जाति से सहानुभूति रहती है, मैं क्यों नहीं अपनी जाति पर गर्व कर सकता?’’

ओनीर चैताली के साथ अशिष्टता कर रहा था, सब को दिख रहा था. पर कोई कुछ बोला नहीं क्योंकि ओनीर सब पर एक अकड़ के साथ हावी रहता था पर जब सहर उठ कर खड़ी हुई, ओनीर के लिए फिर बस वहां हर तरफ सहर ही थी. वह सबकुछ भूल गया, अपलक सहर को देखने लगा. सहर उदार विचारों की लड़की थी, सब उसे पसंद करते. उस ने आहिस्ता से ओनीर को जैसे सोते से जगाया, ‘‘ओनीर, मैम से इस तरह आप का बात करना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा है. वे हमारी प्रोफैसर हैं, उन की रिस्पैक्ट करना हमारा फर्ज है.’’

ओनीर फिर चिढ़ा, ‘‘मैं गलत बात को गलत कह रहा हूं. मैम से मेरी कोई पर्सनल प्रौब्लम थोड़े ही है.’’

‘‘आप को पता है कि आप मैम से गलत तरह से बात कर रहे थे, इस तरह की जातिगत बहस हमारी क्लासरूम तक न ही पहुंचे तो अच्छा रहेगा. मैम, अब आप बताएं कि अगले प्रोजैक्ट के लिए क्या करना है, काफी टाइम वेस्ट हो गया है.’’

ओनीर ने सहर को देखा, वाइट कुरते, जीन्स में पतली, लंबी सी सुंदर सहर, हमेशा की तरह उस के दिल में उतर गई, फिर सोचा, काश…

सहर को बहुत सारे शेर, गजलें, गीत, याद रहते थे. वह बहुत अच्छा गाती भी थी. जब भी कोई शेर कहती, उस की जादुई आवाज में सामने वाले जैसे खुद को भूल जाते. वह अपनी इस शायरी के लिए पूरे कालेज में मशहूर थी. कोई भी फंक्शन होता, कुछ न कुछ जरूर गाती. इस समय भी उस ने चैताली को देख कर कहा, ‘‘मैम, यह आप के लिए, ‘‘जहर मीठा हो तो पीने में मजा आता है, बात सच कहिए मगर यूं कि हकीकत न लगे.’’

सब हंस पड़े. पढ़ाई शुरू हुई. उस के बाद सहर के चेहरे से ओनीर नजरें हटा न पाया.

चैताली ने आज क्लास को फिर गंभीर मुद्रा में ही नोट्स दिए. थोड़ी देर बाद सब अपनेअपने दोस्तों के साथ कौफी हाउस की तरफ चल दिए. वहां का स्टाफ सब को पहचानता ही था, सहर अपनी फ्रैंड्स नितारा और मिराया के साथ नीबू पानी का और्डर दे कर बैठ गई. बराबर में ही लड़के अपना और्डर दे कर बैठ गए. नितारा ने ओनीर को छेड़ दिया, ‘‘तुम आज कुछ कोल्डड्रिंक ले लो, दिमाग बहुत गरम है तुम्हारा.’’

रसोई: सुधीर ने विभा के सामने कौन-सी शर्त रख दी

‘‘विभा  चाय ले आओ बढि़या सी,’’ घर के अंदर घुसते ही सुधीर ने पत्नी को आवाज लगातार कहा और खुद पिता के निकट बैठ गया.

‘‘पापा, देखो 4 कमरे निकल आए हैं

और अलग स्पेस भी,’’ सुधीर ने उत्सुकता से पिता के सामने नक्शा बिछा कर कहा.

‘‘बढि़या, अच्छा यह बता कि ड्रांइगरूम का साइज क्या है? छोटा नहीं होना चाहिए. दिनभर वहीं बैठना होता है मुझे,’’ पिता ने नक्शे को देखते हुए कहा.

‘‘अरे पापा, यह देखो पूरे 15 बाई 15 का निकल रहा है. ध्यान से देखो न. 2 बैडरूम

14 बाई 12 के और एक 12 बाई 12 का,’’

सुधीर की आवाज में अलग खनक थी.

‘‘बस सब बढि़या हो गया. बस अब काम शुरू करवा दे प्लाट पर. इस दड़बे से निकलें बाहर,’’ पिता ने कहा.

‘‘रसोई का क्या साइज है?’’ विभा ने पूछा.

‘‘अरे यार तुम चाय रखो पहले. बहुत थक गया हूं,’’ सुधीर ने कहा.

सुधीर और ससुर को चाय पकड़ा विभा फिर नक्शे को देखने लगी.

‘‘8 बाई 8 की रसोई तो बहुत छोटी बनेगी,’’ विभा बोली.

‘‘आठ बाई 8 की रसोई छोटी नहीं होती और वैसे भी तुम्हें कौन सा रसोई में खाट बिछानी है, खाना ही तो बनाना है,’’ चाय का घूंट भरते हुए सुधीर बोला.

‘‘मेरा तो पूरा दिन वहीं बीतता है बस खाट ही नहीं बिछाती.

गरमी में कितनी घुटन हो जाती है तुम क्या जानो,’’ विभा के स्वर में उदासी थी.

‘‘अरे यार, मम्मी ने पूरी जिंदगी इस 6 बाई 6 की रसोई में बीता दी. उन्होंने तो कभी शिकायत नहीं की छोटी रसोई की,’’ सुधीर चिढ़ते हुए बोला.

‘‘कभी खड़े हो कर देखना जून की गरमी में. खुद पता चल जाएगा मैं शिकायत कर रही हूं या परेशानी बता रही हूं,’’ विभा बोली.

‘‘यार नौटंकी न करो. काम में विघ्न मत डालो. अब नक्शा बन गया है,’’ सुधीर झल्लाते हुए बोला.

‘‘तो ठीक करवा ले नक्शा. शिकायत नहीं की तो क्या मुझे दिक्कत नहीं थी? खूब परेशानी होती थी इस पिंजरे सी रसोई में खाना बनाने में.

पूरी जिंदगी सोचती रही कि अगर नया घर बना तो रसोई खूब खुली बनाऊंगी,’’ अब तक चुप बैठी सुधीर की मां बोल पड़ी.

‘‘सच में मां, मैं अपने बैडरूम से ज्यादा रसोई को खुला चाहती हूं ताकि 4 मेहमानों के आने पर खाना बनाने में दिक्कत न हो,’’ सास की बात से बल ले विभा बोली.

‘‘बिलकुल सही है. औरत की पूरी जिंदगी रसोई के धुंए में स्वाहा हो जाती है लेकिन किसी को इस का एहसास नहीं होता. सुधीर तू रसोई का साइज 2 फुट बढ़ा और देख रसोई में हवा और रोशनी बराबर हो,’’ मां ने आदेश दिया.

‘‘फिर तो ड्राइंगरूम छोटा करना होगा. पापा से पूछ लो पहले मां,’’ सुधीर ने पिता की ओर देख कर कहा.

‘‘तेरे पापा को बनाना पड़ता है क्या खाना?’’ मां ने चिढ़ते हुए कहा.

‘‘बेटा सुधीर, रोटियां चाहिए तो जो ये सासबहू कहें मान ले भई,’’ पिता ने पत्नी की ओर देख बेचारा बन कर कहा.

‘‘नहीं पापा, रहने दीजिए. यदि आप दोनों की सहमति नहीं है तो मैं कुछ नहीं कहूंगी,’’ विभा ने कहा.

‘‘अरे बेटा, मेरी सहमति तो सब की खुशी में है और सब की खुशी तो घर की लक्ष्मी से जुड़ी है. वह दुखी तो कैसी सहमति और फिर हम दोनों को यह बात समझनी चाहिए थी कि कैसे गरमी में एक औरत घर का पेट भरने के लिए गरमी में बिना शिकायत जलती रहती है.’’

ससुरजी की बात सुन विभा का चेहरा खिल उठा. उस ने सुधीर की ओर देखा.

‘‘ठीक है भई. बहुमत की जयजयकार है. कल ही रसोई के साइज और वैंटिलेशन को ले कर बात करता हूं. लेकिन एक शर्त पर,’’ सुधीर ने कहा.

‘‘कौन सी शर्त?’’ मां ने पूछा.

‘‘मुझे समोसे खाने हैं वह भी मां के हाथों के,’’ सुधीर चहकते हुए बोला.

‘‘तू नहीं सुधरेगा. अब भी मां को गरमी में मारेगा. बीवी को बोल अपनी,’’ मां ने नकली गुस्सा दिखाते हुए कहा.

‘‘नहीं मां, आप की बहू को कुछ नहीं कहूंगा क्योंकि जान गया हूं कि बहुमत उसी के पास है,’’ सुधीर ने विभा की ओर दोनों हाथ जोड़ कर कहा.

सुधीर की इस हरकत पर तीनों के चेहरे पर हंसी खिल गई जैसे वसंत की धूप आंगन में पसर गई.

मुलाकात: क्या आरती को मिला मदन का प्यार

आरती ने जब कार से उतरने के लिए पैर बाहर निकाला तो अचानक पूरे बदन में सिहरन सी हुई. उसे लगा कि वापस चली जाए और दावत को टाल दे, मगर फिर उस ने दोबारा कुछ सोचा और कार लौक कर के  फटाफट आयोजनस्थल की तरफ चल दी.

आरती को उस की एक परिचिता ने इस आयोजन का कार्ड दिया था. मगर अभीअभी उस की परिचिता ने फोन कर उसे बताया कि उसे अचानक शहर से बाहर जाना पड़ रहा है. मगर आरती तब तक तैयार हो कर घर से निकल चुकी थी. आयोजनस्थल में काफी रौनक थी. गेट पर

2 युवतियों ने स्वागत किया और आरती को गुलाब का एक ताजा फूल दिया. गेट से समारोहस्थल के हौल में भीतर आते ही 2 सेवक कुरसी ले कर उस के समीप आ गए. एक सेवक ट्रे में शीतल पेय ले आया और दूसरा सनैक्स.

आरती को यह आवभगत बेहद अचछी लगी. अब उस ने चारों तरफ नजर घुमा कर गौर से छानबीन की. कोई भी जानपहचान वाला नहीं दिखा यानी आरती को पूरा समय यहां बिलकुल अकेले ही बैठना था.

यह दावत किसी रियल स्टेट वालों ने अपनी फर्म की प्रमोशन के लिए रखी थी. बड़ीबड़ी स्क्रीन्स पर उन का प्रचार स्वत: हो रहा था. अब 2 गायक मंच पर आए और गीतसंगीत आरंभ हो गया. इसी गहमागहमी और मधुर संगीत के आनंद में सिर हिला कर सहज ?ामती हुई आरती की नजर अचानक किसी से टकराई. पहले कभी इस नैनमटक्का की आदत नहीं थी  सो आरती एकदम सकपका सी गई. वह घबरा कर अपनी जगह से उठी और फट से  बाहर आ गई. उस ने कार स्टार्ट की और घर चल दी. वैसे भी उसे वहां 1 घंटा हो ही गया था.

इतना काफी था मगर वह अजनबी चेहरा और उस की नशीली आंखें… 1-2 दिन तक तो आरती उस अजनबी को भुला न सकी. हमेशा सोचती रहती कि एक अनजान सी जगह थी. सारे अजनबी थे. किसी से जानपहचान नहीं. मगर वह एक अपरिचित उसे एक नजर मिलते ही अपना सा लगा और वह तो भाग कर ही चली आई. उफ… पानी पीते यही सब सोचती आरती के गले में पानी की कुछ बूंदें अटक गईं. वह एक बार फिर घबरा गई.

3-4 दिन बाद आरती सुपरबाजार से राशन लेने गई थी तो किसी जानेपहचाने चेहरे को देख कर एकदम ठिठक गई, ‘उफ, यह तो वही है जो उस आयोजन में दिखाई दिया था,’ आरती मन ही मन में सोचने लगी.

सब्जी और राशन ले कर वह अपनी कार की तरफ जा ही रही थी कि किसी ने पीछे से टोका, ‘‘अजी सुनिए तो.’’

‘‘उफ, यह तो सिरफिरा है. औरतों का

पीछा करने वाला सनकी है,’’ आरती को मन ही मन झंझलाहट सी होने लगी. न जाने कैसेकैसे लोग हैं.

वह जवाब दिए बगैर चलती रही कि दोबारा आवाज आई, ‘‘अजी बगैर चाबी के कार

कैसे चलेगी… यह लीजिए.’’

‘‘आरती यह सुन कर सकपका गई. चाबी सचमुच उस के पास नहीं थी. अब उसे सहीसही याद आया कि वह सब्जी लेते समय कार की चाबी भूल आई थी.

‘‘ये लीजिए,’’ अब वे महाशय सामने आ गए थे.

‘‘शुक्रिया,’’ आरती ने लजा कर कहा.

‘‘मेरा नाम मदन है. और आप उस दिन भी मिली थीं, उस आयोजन में है न?’’

‘‘जीजी हां मैं वहां आई थी,’’ अब आरती ने सहज हो कर आराम से बिना घबराए और दोस्ताना अंदाज में जवाब दिया तो मदन की भी हिम्मत बढ़ी. बोला, ‘‘अगर ऐतराज न हो तो क्या हम कौफी पी सकते हैं.’’

‘‘अच्छा, ठीक है. मैं आती हूं,’’ कह कर आरती ने अपने हाथों में लटक रहे सब्जी के बैग व अन्य सामान को कार में रखा. फिर बोली, ‘‘चलें?’’

‘‘जी चलिए.’’

इस पर आरती हौले से हंस दी.

‘‘तो आप जमीन आदि खरीदने में रुचि रखती हैं,’’ मदन ने कौफी का सिप लेते हुए कहा.

‘‘जी नहीं बिलकुल नहीं. बस ऐसे ही.’’

‘‘ऐसे ही का मतलब?’’

‘‘मतलब मेरी एक परिचिता ने मुझे मनुहार कर के उस आयोजन में आने को कहा था.’’

‘‘ओह, क्या बात है. आप मनुहार तो मान ही लेती हैं.’’

‘‘अ,.. जी… जी,’’ आरती संकोच से बोली.

मदन ने मजाक किया, ‘‘बिलकुल मैं ने अनुरोध किया तो कौफी पीने भी आ गईं. है न.’’

‘‘अरे, मदनजी,’’ कह कर आरती इस बात पर फिर हंस दी. दोनों बातबात पर हंसते रहे.

उस दिन की यह मुलाकात बस इतनी सी

ही रही थी. मगर अब मदन और आरती 1-2 बार आगे भी  इसी तरह अनायास मिल गए. मगर दोनों ही बडी हैरत में थे कि न तो एकदूजे से

फोन नंबर लिया और न कोई पता मांगा. लेकिन यह मुलाकात है कि बारबार खुदबखुद हो ही

जाती है.

एक दिन ऐसी ही एक मुलाकात में मदन ने प्यार से कहा, ‘‘आरती, एक बात कहूं?’’

‘‘हां, कहो,’’ आरती ने उसे हौसला दिया, ‘‘बिलकुल कहो मदन,’’ आरती अब उस से जरा सी भी औपचारिक नहीं रही थी.

‘‘आरती बात यह है कि तुम भी अभी अविवाहित हो न?’’

‘‘हां तो?’’

‘‘आरती, मैं भी एक साथी ही खोज रहा हूं. तुम से साफसाफ पूछना चाहता हूं.’’

‘‘अरे, मदन इतनी जल्दी. अभी तो तुम मेरे विषय में कुछ भी नहीं जानते. तुम इतनी जल्दी यह फैसला कैसे ले रहे हो?’’ आरती को यह प्रस्ताव अच्छा भी लगा और अजीब भी.

‘‘बात यह है आरती कि मैं तुम्हें अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं्. तुम्हारे अतीत को नहीं मैं तुम से बहुत प्रभावित हूं आरती,’’ मदन ने रोमांटिक हो कर कहा तो आरती का दिल भी धड़कने लगा. वह बोली,’’ मगर मदन मेरा यह जीवन तो कांटों की सेज है.’’

‘‘ओह चलो, तो बताओ अपने बारे में.’’

मदन ने सुनने की ख्वाहिश की तो आरती ने बताया, ‘‘मदन मेरे माता पिता अब 62 साल के हैं,’’ और मेरा एक भाई है वह भारतीय प्रशासनिक सेवा में अफसर है.’’

‘‘ओह, ग्रेट,’’ मदन ने बात काटी.

आरती बोली, ‘‘मदन पूरी बात तो सुनो. वे अफसर थे पर अब वे जेल में हैं.’’

‘‘अरे, जेल में? पर कैसे?’’

‘‘यह लंबी कहानी है मदन. मेरे भाई के

पास मानव संसाधन मंत्रालय का बेहद गोपनीय विभाग था. 2 साल पहले जब पिता एक निजी कंपनी से रिटायर हुए तो उन के पास रोजगार

नहीं रहा. तब मैं खुद बीएड कर रही थी तो वे भाई से बोले कि कुछ मदद चाहिए बेटा इलाज कराना है. मगर भाई ने साफ मना कर दिया. उस के बाद मैं ने भी 2-3 बार फोन किया तो भाई मु?ा से बहस करने लगे कि मैं ने तो घर में छोटी होने का बस लाभ ही लाभ लिया है. मैं तो बैठ कर ऐश कर रही हूं. फिर मैं ने समझाया कि भैया अब घर में कोई आमदनी नहीं है. पापा को कोई पैंशन नही मिलेगी तो वे चीखने लगे कि पिता को अगर पैंशन नहीं मिलती तो पहले की बचत तो होगी? वे तो बस तेरे लिए ही रखी है आदिआदि.

‘‘बस इन ओछी बातों से आहत होने के बाद मैं ने भाई से संबंध काट लिए और इस घटना के कुछ हफ्ते बाद अखबार में पढ़ा कि एक सेवा संबंधी जरूरी भरती में बड़ा घोटाला हुआ है. उस में भाई के खिलाफ काफी सुबूत मिले और भाई जेल में डाल दिए गए हैं. भाभी ने भी कुछ दिन पहले ही उन से तलाक ले लिया. अब 32 साल के भाई अकेले हो गए हैं,’’ कह कर आरती खामोश हो गई.

‘‘ओह, यह तो दुख की बात है,’’ मदन ने गंभीर हो कर कहा.

आरती बोली, ‘‘भाई मुझ से 7 साल बडे़ हैं. पापा ने उन की पढ़ाई के लिए

मकान तक बेचा. हम लोग किराए के मकान में आ गए. मैं हमेशा सोफे पर ही सोती ताकि भैया जो अपने कमरे में सामान फैला कर पढ़ते थे परेशान न हों. मगर भैया ने सफलता मिलते ही अपनी बचपन की साथी से विवाह कर लिया और इस की सूचना हमें फोन पर दी. इस घटना से पापा पर क्या बीती थी. यह तो वही जानते हैं. मगर भाभी ने तो असुरक्षा में गलत कदम उठाया.’’

‘‘आरती यह क्या कह रही हो? गलत

कदम कैसे?’’

‘‘मदन मेरे भाभी और भैया बचपन के साथी रहे… भाभी के घर मे भी बहुत गरीबी थी. वे अपने छोटे भाईबहन आदि को विवाह के बाद भैया के बंगले में ले आई और हम लोगों को भैया से एकदम अलग कर दिया. मगर था तो भाई ही न, इसलिए एक बार तो मैं उन के विवाह के एक साल बाद राखी पर हिम्मत कर के भैया से मिलने गई भी पर मत पूछो कि क्या हुआ.’’

‘‘बताओ न आरती,’’ मदन जानना चाहता था.

‘‘मदन, मैं तो अपनी अच्छी भावना से ही गई थी. हम तो अपना गुजारा जैसेतैसे कर ही रहे थे और मातापिता को इसी बात की खुशी थी कि बेटा इतने बडे़ पद में आ गया. बाद में उन की यह नाराजगी भी खत्म हो गई कि भैया ने गुपचुप विवाह किया. मदन फिर यह हाल हो गया था कि समय का खेल मान कर हम तीनों लोग अपने हाल में जी रहे थे.’’

‘‘फिर क्या हुआ आरती?’’ मदन उत्सुक था.

‘‘मदन, जब मैं राखी ले कर गई उसी समय भाभी तथा उन के पीहर वाले सब के सब सजधज कर एक बहुत महंगी गाड़ी में कहीं जा रहे थे. बताया भी नहीं कि कहां जा रहे है. बस, मु?ो वहीं बैठा कर सब तुरंत चले गए. भैया तो शहर से बाहर थे…

‘‘भाभी ने तो मुझे अंधेरे में रखा, मैं बाहर बैठी 2 घंटे इतजार करतीकरती

लौट गई तो शायद उसी समय मेरे पीछे भैया भी आए होंगे और भाभी ने भाई को उलटा मेरे ही लिए न जाने कैसी गलत बातें कह दी और अगले दिन भाई ने मुझे फोन पर ही खूब लताड़ा. खैर, मैं तो उस पल ही वह रहासहा रिश्ता भी खत्म

कर के भाई को भूल कर बस अपने पढ़नेलिखने में रम गई.’’

‘‘अच्छा,’’ मदन ने एक बार फिर गहरी सांस ली, ‘‘आरती, तो अब तुम नौकरी कर रही हो न?’’ उस ने पूछा.

आरती बोली, ‘‘मदन अभी तो एक निजी स्कूल में हूं. आगे जो भी हो पर मातापिता को अकेले इस तरह छोड़ कर तो कदापि नहीं जा सकती.’’

‘‘आरती एक बात मेरी भी सुनो. मेरी कहानी भी ऐसी ही है.’’

‘‘अच्छा मदन बताओ न,’’ आरती उस का चेहरा ताकने लगी.

‘‘तो सुनो आरती, जब मैं ने होश संभाला तो रोज सुबहशाम बस यही पाया कि मेरी माताजी मेरे युवा चाचा की गोद में जबतब बैठी रहती. दोनों खिलखिलाते रहते और रहे मेरे पिता तो वे एक नंबर के जुआरी और शराबी थे. वे काम पर जाते थे पर सारा पैसा ऐसे ही उड़ा दिया करते थे. बड़ा होने लगा तो मैं अपनी माता और चाचा के इस अवैध प्रेम से परेशान नहीं था.

‘‘आरती मैं यह सच हौलेहौले सम?ा रहा था कि माता को असली प्यार चाचा ने दिया और रहे चाचा तो वे विवाह तक नहीं कर रहे थे यानी वे भी मेरी माता को बेहद चाहते थे. आरती अपने मातापिता की मैं अकेली संतान हूं. जब मैं 10वीं कक्षा में पढ़ता था तो मेरे पिता ने बीमार हो कर इस संसार से विदा ले ली और मेरी माताजी

1 महीने बाद ही मेरे चाचा के साथ भाग गई.’’

ओह, आरती का चेहरा सफेद पड़ गया.

‘‘दरअसल, आरती घर किराए का था. आसपास के

लोग उन पर आए दिन उंगली उठाने लगे थे. मुझे भी ले जा रहे थे. मैं भाग आया वापस.

मैं उन के साथ जानबूझ कर

नहीं गया.’’

‘‘फिर तुम कैसे रहे मदन?’’ आरती ने भरे गले से पूछा.

‘‘मेरा तो कोई रहा ही नहीं था आरती. मैं ने यही पर निर्धन छात्रावास में रह कर आगे की पढ़ाई की. फिर कालेज के दिनों में मोमबत्तियां बना कर बेचीं. आगे फिर बैंक से कर्ज लिया. मैं दिनरात काम करता रहा और आज हाल यह है कि मेरा मोमबत्तियां बनाने का कारखाना है. आरती मैं अपने पैरों पर खड़ा हूं.’’

आज यह कहानी सुन कर मैं तुम्हें पहले से भी अधिक चाहने लगी हूं,’’ आरती ने उस का हाथ पकड़ कर कहा.

मदन बोला, ‘‘आरती, मैं हमेशा तुम्हारा इंतजार करूंगा. तुम्हें पहली नजर में देख कर ही मेरा दिल धड़क उठा था. आरती मैं सचमुच तुम से दिल लगा बैठा हूं.’’

यह सुन कर आरती की आंखों से आंसू

बहने लगे. बोली, ‘‘चलो मदन, आज ही और अभी मैं तुम्हें मातापिता से मिलवाने ले चलती हूं.’’

आरती के मातापिता को मालूम था कि आरती की पसंद खराब हो ही नहीं सकती है. मदन उन्हें बेहद अच्छा लगा.

‘‘मैं आप का कोई खोया हुआ बेटा हूं यह मान लीजिए,’’ मदन ने कहा तो वे दोनों फफकफफक कर रोने लगे.

मदन ने उन के आंसू पोंछे और कहने लगा, ‘‘मेरा भी अपना कोई नहीं है और आप ने मु?ो अपना लिया. समय का यही न्याय है. हम 4 लोग एकसाथ रहेंगे. यह किराए का मकान खाली करवा कर मैं आप को कल ही लेने आ रहा हूं,’’ मदन ने उत्साह से कहा.

यह सुन कर आरती खुशी के मारे 7वें आसमान में थी. वह सोच रही थी कि अगर उस दिन कार में बैठ कर वापस लौट जाती तो उसे मदन जैसा जीवनसाथी नहीं मिलता.

पीले पत्ते: अनुभा का क्या था डा. प्रवीण के लिए फैसला

अनुभा ने डा. प्रवीण की ओर देखा. वे शांत और अनिर्विकार भाव से व्हीलचेयर पर पड़े हुए थे. किसी वृक्ष का पीला पत्ता कब उस से अलग हो जाएगा, कहा नहीं जा सकता, वैसे ही प्रवीण का जीवन भी पीला होता जा रहा था. वह अपने प्यार से बड़ी मुश्किल से थोड़ी सी हरीतिमा ला पाती थी. इन निष्क्रिय हाथपैरों में कब हलचल होगी? कब इन पथराई आंखों में चेतना जागेगी… ये विचार अनुभा के मन से एक पल को भी नहीं जा पाते थे.

‘‘मम्मी, मैं गिर पला,’’ तभी वेदांत रोते हुए वहां आया और अपनी छिली कुहनी दिखाने लगा.

‘‘अरे बेटा, तुझे तो सचमुच चोट लग गई है. ला, मैं दवाई लगा देती हूं,’’ अनुभा ने उसे पुचकारते हुए कहा.

अनुभा फर्स्टएड किट उठा लाई और डेटौल से नन्हें वेदांत की कुहनी का घाव साफ करने लगी.

‘‘मम्मी, आप डाक्तर हैं?’’ वेदांत अपनी तोतली जबान में पूछ रहा था.

वेदांत का सवाल अनुभा के हृदय को छू गया, बोली, ‘‘मैं नहीं बेटा, तेरे पापा डाक्टर हैं, बहुत बड़े डाक्टर.’’

‘‘डाक्तर हैं तो फिल बात क्यों नहीं कलते, मेला इलाज क्यों नहीं कलते.’’

‘‘बेटा, पापा की तबीयत अभी ठीक नहीं है. जैसे ही ठीक होगी, वे हम से बहुत सारी बातें करेंगे और तुम्हारी चोट का इलाज भी कर देंगे.’’

अस्पताल के लिए देर हो रही थी. वेदांत को नाश्ता करवा कर उसे आया को सौंपा और खुद डा. प्रवीण को फ्रैश कराने के लिए बाथरूम में ले गई. आज वह उन के पसंद के कपड़े स्काईब्लू शर्ट और ग्रे पैंट पहना रही थी. कभी जब वह ये कपड़े प्रवीण के हाथ में देती थी तो वे मुसकरा कर कहते थे,  ‘अनु, आज कौन सा खास दिन है, मेरे मनपसंद कपड़े निकाले हैं.’ पर अब तो होंठों पर स्पंदन भी नहीं आ रहे थे. डा. प्रवीण को तैयार करने के बाद उसे खुद भी तैयार होना था. वह विचारों पर रोक लगाते हुए हाथ शीघ्रता से चलाने लगी. यदि अस्पताल जाने में देर हो गईर् तो बड़ी अव्यवस्था हो जाएगी. डा. प्रवीण को तो उस ने कभी भी अस्पताल देरी से जाते नहीं देखा था, यहां तक कि वे कई बार जल्दी में टेबल पर रखा नाश्ता छोड़ कर भी चले जाते.

आज अस्पताल में ठीक 11 बजे हार्ट सर्जरी थी. डा. मोदी, सिंघानिया अस्पताल से इस विशेष सर्जरी को करने आने वाले थे. अनुभा डा. प्रवीण को ले कर अस्पताल रवाना हो गई. आज भी पहले मरीज को डा. प्रवीण ही हाथ लगाते हैं. यह अनुभा के मन की अंधश्रद्धा है या प्रवीण के प्रति मन में छिपा अथाह प्रेम, किसी भी कार्य का प्रारंभ करते हुए प्रवीण का हाथ जरूर लगवाती है. इस से उस के मन को समाधान मिलता है. आज भी डा. प्रवीण ने पेशेंट को छुआ और फिर वह औपरेशन थिएटर में दाखिल हुआ. अनुभा ने प्रबंधन से अस्पताल की अन्य व्यवस्थाओं के बारे में पूछा. सारा काम सही रीति से चल रहा था. अस्पताल के व्यवस्थापन में अनुभा ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी.

डा. प्रवीण के केबिन में बैठीबैठी अनुभा खयालों के गहरे अंधकार में डूबउतरा रही थी. गले में स्टेथोस्कोप डाले हुए डा. प्रवीण रहरह कर अनुभा की आंखों के सामने आ रहे थे. एक ऐक्सिडैंट मनुष्य के जीवन में क्याक्या परिवर्तन ला देता है, उस के जीवन की चौखट ही बदल कर रख देता है. आज भी अनुभा के समक्ष से वह दृश्य नहीं हटता जब उन की कार का ऐक्सिडैंट ट्रक से हुआ था. एक मैडिकल सैमिनार में भाग लेने के लिए डा. प्रवीण पुणे जा रहे थे. वह भी अपनी मौसी से मिल लेगी, यह सोच साथ हो ली थी. पर किसे पता था कि वह यात्रा उन पर बिजली बन कर टूट कर गिरने वाली थी. तेजी से आते हुए ट्रक ने उन की कार को जोरदार टक्कर मारी थी. नन्हा वेदांत छिटक कर दूर गिर गया था. अनुभा के हाथ और पैर दोनों में फ्रैक्चर हुए थे. डा. प्रवीण के सिर पर गहरी चोट लगी थी. करीब एक घंटे तक उन्हें कोई मदद नहीं मिल पाई थी. डा. प्रवीण बेहोश हो गए थे. कराहती पड़ी हुई अनुभा में इतनी हिम्मत न थी कि वह रोते हुए वेदांत को उठा सके. बस, पड़ेपड़े ही वह मदद के लिए पुकार रही थी.

2-3 वाहन तो उस की पुकार बिना सुने निकल गए. वह तो भला हो कालेज के उन विद्यार्थियों का जो बस से पिकनिक के लिए जा रहे थे, उन्होंने अनुभा और प्रवीण को उठाया और अपनी बस में ले जा कर अस्पताल में भरती करवाया. आज भी यह घटना अनुभा के मस्तिष्क में गुंजित हो, उसे शून्य कर देती है. अस्पताल में अनुभा स्वयं की चोटों की परवा न करते हुए बारबार प्रवीण का नाम ले रही थी. पर डा. प्रवीण तो संवेदनाशून्य हो गए थे. अनुभा की चीखें सुन कर भी वे सिर उठा कर भी नहीं देख रहे थे. डाक्टरों ने कहा था कि मस्तिष्क से शरीर को सूचना मिलनी ही बंद हो गई है, इसलिए पूरे शरीर में कोई हरकत हो ही नहीं सकती.

अनुभा प्रवीण को बड़े से बड़े डाक्टर के पास ले गई पर कोई फायदा नहीं हुआ. आज इस घटना को पूरे 2 वर्ष बीत गए हैं. डा. प्रवीण जिंदा लाश की तरह हैं. पर अनुभा के लिए तो उन का जीवित रहना ही सबकुछ है. डा. प्रवीण के मातापिता डाक्टर बेटे के लिए डाक्टर बहू ही चाहते थे. किंतु अनुभा के पिता का इलाज करतेकरते दोनों के मध्य प्रेमांकुर फूट गए थे और यही बाद में गहन प्रेम में परिवर्तित हो गया. कितने ही डाक्टर लड़कियों के रिश्ते उन्होंने ठुकरा दिए और एक दिन डा. प्रवीण अनुभा को पत्नी बना कर सीधे घर ले आए थे. शुरुआत में मांबाप का विरोध हुआ, किंतु धीरेधीरे सब ठीक हो ही रहा था कि यह ऐक्सिडैंट हो गया. डा. प्रवीण के मातापिता को एक बार फिर कहने का मौका मिल गया कि यदि डाक्टर लड़की से विवाह हुआ होता तो आज वह अस्पताल संभाल लेती.

इस घटना के करीब 6 महीने बाद तक वह इस तरह खोईखोई रहने लगी थी मानो डाक्टर प्रवीण के साथ वह भी संवेदनाशून्य हो गई हो. इस संसार में रह कर भी वह सब से दूर किसी अलग ही दुनिया में रहने लगी थी.  डा. प्रवीण का जीवनधारा प्राइवेट अस्पताल बंद हो चुका था. अनुभा के मातापिता ने उसे संभालने की बहुत कोशिश की पर सब व्यर्थ. इसी समय डा. प्रवीण के खास दोस्त डा. विनीत ने अनुभा का मार्गदर्शन किया. दर्द से खोखले पड़ गए उस के मनमस्तिष्क में आत्मविश्वासभरा, उसे समझाया कि वह अस्पताल अच्छे से चला सकती है.

अनुभा ने निराश स्वर में उत्तर दिया था, ‘पर मैं डाक्टर नहीं हूं.’ डा. विनीत ने उसे समझाया था कि वह डाक्टर नहीं है तो क्या हुआ, अच्छी व्यवस्थापक तो है. कुछ डाक्टरों को वेतन दे कर काम पर रखा जा सकता है और कुछ विशेषज्ञ डाक्टरों को समयसमय पर बुलाया जा सकता है. शुरूशुरू में उसे यह सब बड़ा कठिन लग रहा था, पर बाद में उसे लगा कि वह यह आसानी से कर सकती हैं. डा. प्रवीण के द्वारा की गई बचत इस समय काम आई. डा. विनीत ने जीजान से सहयोग दिया और बंद पड़े हुए जीवनधारा अस्पताल में नया जीवन आ गया.

अब तो अस्पताल में 4 डाक्टर, 8 नर्स और 8 वार्डबौय का अच्छाखासा समूह है और रोज ही अलगअलग क्षेत्रों के विशेषज्ञ डाक्टर आ कर अपनी सेवा देते हैं. वहां मरीजों की पीड़ा देख कर अनुभा अपने दुख भूलने लगी. जब व्यक्ति अपने से बढ़ कर दुख देख लेता है तो उसे अपना खुद का दुख कम लगने लगता है. डा. प्रवीण को भी इसी अस्पताल में नली के द्वारा तरल भोजन दिया जाने लगा. अनुभा ने प्रवीण की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. यहां तक कि हर दिन उन की  शेविंग भी की जाती, व्हीलचेयर पर बैठे डाक्टर प्रवीण इतने तरोताजा लगते कि अजनबी व्यक्ति आ कर उन से बात करने लगते थे. डा. प्रवीण आज भी अपने केबिन में अपनी कुरसी पर बैठते थे. अनुभा डा. प्रवीण के सम्मान में कहीं कोई कमी नहीं चाहती थी.

अनुभा की मेहनत और लगन देख कर उस के सासससुर भी उस क लोहा मान गए थे और अनुभा तो इसे अपना पुनर्जन्म मानती है. कहां पहले की सहमीसकुचाई सीधीसादी अनुभा और अब कहां आत्मविश्वास से भरी सुलझे विचारों वाली अनुभा. जिंदगी के कड़वे अनुभव इंसान को प्रौढ़ बना देते हैं, दुख इंसान को मांझ कर रख देता है और वक्त द्वारा ली गई परीक्षाओं में जो खरा उतरता है वह इंसान दूसरों के लिए आदर्श बन जाता है. आज अनुभा इसी दौर से गुजर रही थी. अब वह सबकुछ ठीक तरह से संभालने लगी थी. डा. प्रवीण जो सब की नजरों में संवेदनाशून्य हो गए थे, उस की नजरों में सुखदुख के साथी थे. कोई भी बात वह उन्हें ऐसे बताती जैसे वे सभीकुछ सुन रहे हों और अभी जवाब देंगे. निर्णय तो वह स्वयं लेती पर इस बात की तसल्ली होती कि उस ने डा. प्रवीण की राय ली.

सबकुछ ठीक चल रहा था पर आजकल अनुभा को कुछ परेशान कर रहा था, वह था डा. विनीत की आंखों का बदलता हुआ भाव. औरत को पुरुष की आंखों में बदलते भाव को पहचानने में देर नहीं लगती. जितनी आसानी से वह प्रेम की भावना पहचान लेती है, उतनी ही आसानी से आसक्ति और वासना की भी. पुरुषगंध से ही वह उस के भीतर छिपी भावना को पहचानने में समर्थ होती है. यह प्रकृति की दी हुई शक्ति है उस के पास और इसी शक्ति के जोर पर अनुभा ने डा. विनीत के मन की भावना पहचान ली. आतेजाते हुए डा. विनीत का मुसकरा कर उसे देखना, देर तक डा. प्रवीण के केबिन में आ कर  बैठना, उस से कुछ अधिक ही आत्मीयता जताना, वह सबकुछ समझ रही थी.

डा. विनीत के इस व्यवहार से वह अस्वस्थ हो रही थी. वह तो डा. विनीत को प्रवीण का सब से अच्छा दोस्त मानती थी, क्या मित्रता भी कीमत मांगती है? क्या व्यक्ति अपने एहसानों का मूल्य चाहता है? क्या मार्गदर्शक ही राह पर धुंध फैला देता है? वह इन सवालों में उलझ कर रह जाती थी. एक दिन अनुभा जब वेदांत को छोड़ने प्ले स्कूल जा रही थी, डा. विनीत ने उसे रोक लिया और कहा, ‘‘कब तक अपनी जिम्मेदारियों का बोझ अकेले उठाती रहोगी. अनुभा, अपना हाथ बंटाने को किसी को साथ क्यों नहीं ले लेती?’’ ‘‘ये सारी जिम्मेदारियां मेरी अपनी हैं और मुझे अकेले ही इन्हें उठाना है. फिर भी मैं अकेली नहीं हूं, मेरे साथ प्रवीण और वेदांत हैं,’’ अनुभा ने कुछ सख्ती से जवाब दिया.

किंचित उपहासनात्मक स्वर में डा. विनीत बोले, ‘‘प्रवीण और वेदांत, एक छोटा बच्चा जिस के बड़े होने तक तुम न जाने अपने कितने अरमान कुचल दोगी और दूसरी ओर एक ऐसी निष्चेतन देह से मोह जिस में प्राण नाममात्र के लिए अटके पड़े हैं.’’‘‘डा. विनीत, आप प्रवीण के लिए ऐसा कुछ भी नहीं कह सकते. वे जैसे भी हैं, मैं उन के अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती. जब तक उन का सहारा है, मैं हर मुश्किल पार कर लूंगी.’’

‘‘तुम निष्प्राण देह से सहारे की बात कर रही हो. अनुभा, तुम्हें अच्छी तरह मालूम है कि किस के सहारे तुम यहां तक आई हो,’’ डा. विनीत तल्खी से बोले.

अनुभा को यह बात गहरे तक चुभ गई, छटपटा कर बोली, ‘‘उपकार कर के जो व्यक्ति उस के बदले में कुछ मांगने लगे, उस का उपकार उपकार नहीं रह जाता, बल्कि बोझ बन जाता है. और मैं आप का यह बोझ जल्द ही उतार दूंगी,’’ भरे गले से किंतु दृढ़ निश्चय के साथ अनुभा ने कहा और वेदांत को ले कर आगे बढ़ गई. डा. विनीत मन मसोस कर रह गए.

इतनी समतल सी दिखने वाली जिंदगी ऐसे ऊबड़खाबड़ रास्तों पर ले जाएगी, अनुभा ने कभी सोचा भी न था. जिस जीवनयात्रा में प्रवीण और उसे साथसाथ चलना था, उस में प्रवीण बीच में ही थक कर उस से आज्ञा मांग रहे थे, नहीं, नहीं, वह इतनी सहजता से प्रवीण को जाने नहीं देगी. वह कुछ करेगी. मुंबई के तो सारे डाक्टरों ने जवाब दे दिया, क्या दुनिया के किसी कोने में कोई डाक्टर होगा जो उस के प्रवीण का इलाज कर देगा. वह अस्पताल में मैडिकल साइंस पर आधारित वैबसाइट पर सर्च करती हुई कंप्यूटर पर घंटों बैठी रहती, कहीं कोई तो सुराग मिले.

वह इन विषयों पर मैडिकल और रिसर्च से जुड़ी विभिन्न पत्रिकाएं मंगाने लगी. वह किसी भी हाल में डा. प्रवीण का इलाज कराना चाहती थी. एक दिन उस ने एक पत्रिका में अमेरिका के उच्च कोटि के न्यूरोसर्जन डा. पीटर एडबर्ग के बारे में पढ़ा. अच्छा यह रहा कि वे अगले महीने कुछ दिनों के लिए भारत आने वाले थे. अनुभा यह अवसर किसी हाल में हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी. वह प्रवीण को उन के पास ले कर गई. डाक्टर पीटर ने प्रवीण की अच्छी तरह जांच की, कुछ टैस्ट करवाए और आखिर में इस निर्णय पर पहुंचे कि यदि दिमाग की एक नस, जो पूरी तरह बंद हो गई है, औपरेशन के द्वारा खोल दी जाए तो रक्त का संचालन ठीक तरह से फिर प्रारंभ होगा और शायद मस्तिष्क अपने कार्य करने फिर प्रारंभ कर दे. पर अभी निश्चितरूप से कुछ कहा नहीं जा सकता.

औपरेशन यदि सफल नहीं हुआ तो डाक्टर प्रवीण की जान भी जा सकती थी. डाक्टर पीटर की एक शर्त और थी कि यह औपरेशन सिर्फ अमेरिका में हो सकता है, इसलिए पेशेंट को वहीं लाना पड़ेगा. अनुभा एक बार फिर पसोपेश में पड़ गई थी कि डा. प्रवीण का औपरेशन करवाए कि नहीं. यदि औपरेशन असफल हुआ तो वह उन की देह भी खो देगी. लेकिन निर्णय भी उस ने स्वयं लिया. वह डा. प्रवीण का विवश और पराश्रित रूप और नहीं देख सकती थी, धड़कते हृदय से उस ने औपरेशन के लिए हां कर दी. समय बहुत कम था और उसे ज्यादा से ज्यादा पैसे इकट्ठे करने थे. अपनी सारी जमापूंजी इकट्ठा करने के बाद भी इतना पैसा जमा नहीं हो पाया था कि अमेरिका में औपरेशन हो सके. अचानक अनुभा के ससुर को ये बातें किसी रिश्तेदार के द्वारा पता चलीं और अब तक उस का विरोध करने वाले ससुर उस की मदद करने को तत्पर हो गए. रुपयों का प्रबंध भी उन्होंने ही किया. अनुभा की प्रवीण को बचाने की इच्छा में वे भी सहयोग देना चाहते थे. वे अनुभा के साथ अमेरिका आ गए. वेदांत को अनुभा की मां के पास छोड़ दिया था.

अमेरिका पहुंचते ही डा. प्रवीण को अस्पताल में भरती करवा दिया जहां उस के कई प्रकार के टैस्ट हो रहे थे. डा. पीटर खासतौर से उन का खयाल रख रहे  थे. उन की टीम के अन्य डाक्टरों से भी अनुभा की पहचान हो गई थी. सभी पूरी मदद कर रहे थे. अस्पताल की व्यवस्थाओं में पेशेंट से घर के लोगों का मिलना मुश्किल था, सिर्फ औपरेशन थिएटर ले जाने के पहले 2 मिनट के लिए डा. प्रवीण से मुलाकात करवाई. उस समय अनुभा टकटकी लगाए उन्हें देख रही थी. यह चेहरा फिर मुसकराएगा या हमेशा के लिए खो जाएगा, सबकुछ अनिश्चित था.

करीब 7 घंटे तक औपरेशन चलने वाला था. अनुभा सुन्न सी बैठी अस्पताल की सफेद दीवारों को देख रही थी. इन दीवारों पर उस के जीवन से जुड़ी हुई न जाने कितनी मीठीकड़वी यादें चित्र बन कर सामने आ रही थीं, तभी अनुभा के ससुर ने उस की पीठ पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘धीरज रखो, बेटी, सब ठीक होगा.’’ निश्चित समय के बाद डा. पीटर ने बाहर आ कर कहा, ‘‘औपरेशन हो चुका है. अब हमें पेशेंट के होश में आने का इंतजार करना पड़ेगा.’’

अनुभा जानती थी कि यदि प्रवीण को होश नहीं आया तो वह उसे हमेशा के लिए खो देगी. वह मन ही मन सब को याद कर रही थी. उस की झोली दुखों के कांटों से तारतार है, फिर भी उस ने इतनी जगह सुरक्षित बचाई है जिस में वह प्रवीण के जीवनरूपी फूल को सहेज सके. लगभग 2 दिनों तक डा. प्रवीण की हालत नाजुक थी. उन्हें सांस देने के लिए औक्सीजन का इस्तेमाल करना पड़ रहा था. 2 दिनों के बाद जब उन की हालत कुछ स्थिर हुई तो अनुभा और उस के ससुर को उन से मिलने की अनुमति दी गई.

प्रवीण का सिर पट्टियों से बंधा हुआ था, होंठ और आंखें वैसे ही स्पंदनहीन थीं. अनुभा हिचकियों को रोक कर उसे देख रही थी. तभी नर्स ने उन्हें बाहर जाने का इशारा किया. ससुर बाहर निकल गए, अनुभा के पांव तो मानो जम गए थे, बाहर निकलना ही नहीं चाहते थे. नर्स ने फिर उसे आवाज दी. अनुभा मुड़ने को हुई, तभी उस का ध्यान गया कंबल में से बाहर निकले प्रवीण के दाहिने हाथ पर गया जिस में हरकत हुई थी. अनुभा आंसू पोंछ कर देखने लगी कि प्रवीण के हाथ का हिलना उस का भ्रम है या सच? पर यह सच था. सचमुच प्रवीण का हाथ हिला था. अचानक अस्पताल के सारे नियम भूल कर उस ने प्रवीण के हाथ पर अपना हाथ रख दिया और यह क्या, प्रवीण ने उस का हाथ कस कर पकड़ लिया और जैसे अंधेरी गुफा से आवाज आती है, वैसे ही प्रवीण के मुख से आवाज आई, अनुभा.

हां, यह प्रवीण की ही आवाज थी. कहीं कुछ अस्पष्ट नहीं था. सबकुछ स्वच्छ हो गया था. मार्ग पर छाई धुंध को हटा कर मानो सूरज की किरणें झिलमिला कर अनुभा की बरसती आंखों पर पड़ रही थीं. वह इस प्रकाश की अभ्यस्त न थी. सारे पीले पत्ते झर गए थे, नई कोंपले जीवन की उम्मीद ले कर जो आई थीं.

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