दिखावा: अम्मा से आखिर क्यूं परेशान थे सब- भाग 2

दादी की इकलौती बची बहू ने तो शायद अपनी सास को न छूने का प्रण कर रखा था. घर से चलती तो कम से कम भारी साड़ी पहन कर. साथ में मेलखाता हुआ ब्लाउज. इस के ऊपर रूज, लिपस्टिक का मेकअप. अस्पताल में जा कर पुन: एक बार अपना मेकअप शीशे में देखना न भूलती ताकि राह में कोई गड़गड़ हुई हो तो ठीक की जा सके. उस उम्र में भी चाची का ठसका देखने वाला था. वह तो मु?ा तक से फ्लर्ट कर लिया करती थी.

मैं ने उस से एक दिन कह ही दिया, ‘‘चाची, आप का यह शृंगार यहां शोभा नहीं देता.’’

वह तपाक से बोली, ‘‘तुम क्या जानो. बहुत सारे डाक्टर यहां आते हैं. कुछेक उन के व दामादों के मित्र भी हैं. वे मित्र भी दादी को देखने आते ही हैं. मु?ो सादे कपड़ों में देखेंगे तो क्या कहेंगे. कितनी बेइज्जती होगी तुम्हारे चाचा की एक बड़े व्यापारी की पत्नी के नाते मु?ो यह सब पहनना पड़ता है. घर की इज्जत का सवाल जो है.’’

दादा के एकमात्र सुपुत्र और हमारे यहां मौजूद एक ही अदद चाचा साहब को तो बिजनैस से ही फुरसत नहीं मिलती थी. हां, रोज रात एक बार जरूर इधर से हो जाते थे. रात में ठहरने के नाम पर दुकान के नौकर को बैठा जाते थे, जो आधा सोता तो आधा ऊंघता था. रात में ग्लूकोस आदि चढ़ाते समय दादी के हाथ को पकड़े रहना पड़ता था क्योंकि अकसर वे हाथ को ?ाटक देती थीं. इसलिए रात में दीप्ति और मैं बारीबारी सोते व जागते थे.

घर में करीब 7वें रोज महामृत्युंजय का पाठ प्रारंभ हो गया था, दादी को मोक्ष दिलाने के लिए. साथ ही एक पंडित की नियुक्ति अस्पताल में अम्मांजी को भागवत पढ़ कर सुनाते के लिए कर दी गई थी. वह 1 घंटे के पूरे 200 रुपए लेता था. दादी के स्वस्थ रहते कोई उन्हें एक छोटा किस्सा भी नहीं सुनाता था, पर अब भागवत सुनाई जा रही थी. जब तक दादी ठीक थीं, किसी को उन की चिंता तक न थी, कोई खाने को नहीं पूछता था, लावारिस सी घर के कोने में पड़ी रहती थीं.

जब सुनता था तो इच्छा होती थी दादी को अपने पास ले आऊं पर दादी नहीं आतीं. कह देती थीं, ‘‘बेटा, कुछ ही दिन रह गए है. यहीं गुजार लेने दो.’’

करीब 8वें दिन सुबह दादी का अस्पताल में देहांत हो गया. चाचाचाची, मेरी चचेरी सालियां व उन के पति आ गए थे. उस दिन बच्चे घर ही पर रहने दिए गए.

आते ही सब दादी के शरीर से लिपट गए. (ऐसे वे मेरे सामने पहले कभी नहीं लिपटे थे). थोड़ी ही देर में पूरा कमरा दहाड़ें मार कर रोने की आवाजों से गूंज उठा. यों लगा जैसे एकसाथ कई लोग कत्ल कर दिए गए हों. 5 मिनट में ही सब शांत भी हो गए. किसी के चेहरे को देख कर नहीं लग रहा था कि उस की आंखों से आंसू का एक कतरा भी बहा हो. पूरा सीन मेरी आंखों के सामने नाटक के रिहर्सल की तरह निकल गया. मेरे अपने मातापिता जिंदा थे और दोनों ही मेरी तरह अकेले संतान थे. किसी को मरने के समय देखने का यह पहला मौका था.

दादी के शव को स्ट्रेचर पर डालने के वक्त चूंकि चाचा अकेले थे, मैं ने सोचा दादीको उठाने में मदद कर दूं. अभी हाथ बढ़ाया ही था कि बड़ी साली बोल उठी, ‘‘दिनेश, तुम हाथ न लगाना. तुम तो दामाद हो, तुम्हारा हाथ लग गया तो अम्मां को नर्क जाना होगा,’’ इस बहाने पति को भी हाथ लगाने से बचा लिया.

दादी के मरने तक तो मैं सेवा करता रहा. उस समय किसी को याद नहीं आया कि मैं घर का दामाद हूं. पर यह चूंकि दादी को मोक्ष मिलने की बात थी, अतएव मैं अपना हाथ लगा कर उन के मोक्ष के रास्ते का द्वार बंद नहीं करना चाहता था.

दादी को उठाना चाचाके अकेले के बस की बात नहीं थी. वे खुद 65 के थे. दादी 89 की थीं. फिर भी भाई साहब, मेरी श्रीमतीजी व भाभीजी दादी को उठा कर स्ट्रेचर पर लाने लगे. स्ट्रेचर मेरी दोनों सालियों ने पकड़ रखी थी. इस से पहले कि शव स्टे्रचर पर आ पाता, वह फर्श पर जा गिरा.

जमीन पर से किसी तरह फिर अर्दली की हैल्प से शव उठा कर स्ट्रेचर पर डाल लिया गया.

लाश घर पर ले जाई गई. आननफानन में रैफ्रीजरेटड ग्लास कौफिन गया था. करीब

20 किलोग्राम गुलाब के फूल, इतने ही मखाने मंगवा लिए गए थे. एक प्रतिष्ठित व्यवसायी की मां की शवयात्रा थी. उन की सारी प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी. कहीं कोई यह न कह दे, लड़के ने मां के लिए कुछ खर्च नहीं किया.

मेरा पत्ता चूंकि पहले ही कट गया था, इसलिए मैं ऐसी जगह बैठ गया था, जहां से समस्त क्रियाकलाप देखे जा सकें. मु?ो तो वैसे भी सब दामाद सम?ाते थे.

औरतें जत्थों में चली आ रही थीं. जैसे ही वे लाश के करीब आतीं, सब की सब एक सुर में दहाड़ मार कर रो पड़ती थीं. क्या गजब का सामंजस्य था. कुछ ही क्षणों में  फिर शांति छा जाती थी. पहले आई औरतें पीछे हट कर एक ओर खिसक जाती थीं, जहां वे आपस में मृतक अर्थात दादी के बारे में हर तरह की चर्चा प्रारंभ कर देती थीं. भले ही दादी के जीतेजी कभी कानी आंख भी वे सब इधर नहीं ?ांकी होंगी, पर अब कालोनी की तमाम स्त्रियों का हुजूम था.

थोड़ी देर बाद आवाजें आईं, ‘‘नाती कहां है. बुलवाओ, पैर तो छू लें. दादी को मोक्ष मिल जाएगा.’’

मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ था. मेरे छूने मात्र से दादी को नर्क मिल सकता था, पर मेरे लड़के के छूने से नहीं. जब वे बीमार थीं तो कोई उन्हें हाथ नहीं लगा रहा था.

मेरी दोनों सालियां व बहू अपनेअपने लड़कों को शव की तरफ हांकने लगीं. अंतत: सभी दादी के मृत शरीर का चरणस्पर्श कर चुके थे.

मैं ने सोचा, अच्छा हुआ मेरे दोनों साढू भाईर् नहीं आए वरना मेरी तरह तमाशा बनते व मूर्ति की तरह कोनों में बैठे होते.

एक फोटोग्राफर भी था. लाश पर कफन डाला जाने वाला ही था कि भाई साहब की निगाह शायद अम्मां के गले व हाथ की कलाई पर चली गई. सोने का हार व कंगन थे. कम से कम 4 तोला सोना. भाई साहब ने लपक कर निकाल लिया, गोया कोई ले कर भागने वाला था.

शव ऐंबुलैंस पर रखकर सभी लोग घाट की तरफ रवाना हो गए. घाट पर लकड़ी की चिता भी तैयार हो गईर् थी. लाश को चिता पर रखने से पहले नदी का गोता भी लगवाना था. पर अभी भाई साहब की खोपड़ी नहीं घुटी थी. तुरंत ही एक नाई भाई साहब के बाल मूंडने लगा. मुंडन संस्कार के बाद भाई साहब के तन पर श्वेत ?ाना वस्त्र था. सर्द हवा के कारण भाई साहब की कंपकंपी छूट चली थी.

रोशन गलियों का अंधेरा: नानी किस सोच में खो गई

“अरी ओ चंचल… सुन क्यों नहीं रही हो? कब से गला फाड़े जा रही हूं मैं और तुम हो कि चुप बैठी हो. आ कर खा लो न…” 60 साल की रमा अपनी 10 साल की नातिन चंचल को कब से खाने के लिए आवाज लगा रही थीं, लेकिन चंचल है कि जिद ठान कर बैठ गई है, नहीं खाना है तो बस नहीं खाना है.
“ऐ बिटिया, अब इस बुढ़ापे में मुझे क्यों सता रही हो? चल न… खा लें हम दोनों,” दरवाजे पर आम के पेड़ के नीचे मुंह फुला कर बैठी चंचल के पास आ कर नानी ने खुशामद की.
“नहीं, मुझे भूख नहीं है. तुम खा लो नानी,” कह कर चंचल ने मुंह फेर लिया.
“ऐसा भी हुआ है कभी? तुम भूखी रहो और मैं खा लूं?” कहते हुए नानी ने उसे पुचकारा.
“तो फिर मान लो न मेरी बात. मम्मी से बोलो, यहां आएं.”
“अच्छा, बोलूंगी मैं. चल, अब खा ले.”
“10 दिन से तो यही बोल कर बहला रही हो, लेकिन मम्मी से नहीं कहती हो. अभी फोन लगाओ और मेरी बात कराओ. मैं खुद ही बोलूंगी आने के लिए. बोलूंगी कि यहीं कोई काम कर लें. कोई जरूरत नहीं शहर में काम करने की.
“मुझे यहां छोड़ कर चली जाती हैं और 3-4 महीने में एक बार आती हैं, वह भी एक दिन के लिए. ऐसा भी होता है क्या? सब की मां तो साथ में रहती हैं. लगाओ न फोन…” चंचल मन की सारी भड़ास निकालने लगी.
“तुम जरा भी नहीं समझती हो बिटिया. मम्मी काम पर होगी न अभी. अभी फोन करेंगे तो उस का मालिक खूब बिगड़ेगा और पैसा भी काट लेगा. फिर तेरे स्कूल की फीस जमा न हो पाएगी इस महीने की. जब फुरसत होगी, तब वह खुद ही करेगी फोन,” नानी ने उसे समझाने की कोशिश की.
“ठीक है, मत करो. अब उन से बात ही नहीं करनी मुझे कभी. जब मन होता है बात करने का तो मैं कर ही नहीं सकती. वे जब भी करेंगी तो 4 बजे भोर में ही करेंगी. नींद में होती हूं तब में… आंख भी नहीं खुलती है ठीक से, तो बात कैसे कर पाऊंगी? तुम ही बताओ नानी, यह क्या बात हुई…”
“अच्छाअच्छा, ठीक है. इस बार आने दो उसे, जाने ही नहीं देंगे,” नानी ने उस का समर्थन किया.
“हां, अब यहीं रहना पड़ेगा उन्हें हमारे साथ. चलो नानी, अब खा लेते हैं… भूख लगी है जोरों की.”
“हांहां, मेरी लाडो रानी. 12 बज गए हैं, भूख तो लगेगी ही. चल…”
चंचल उछलतीकूदती नानी के साथ चली गई. दोनों साथसाथ खाने बैठीं. चंचल भूख के मारे दनादन दालभात के कौर मुंह में ठूंसती जा रही थी.
“ओह हो, शांति से खा न. ऐसे खाएगी तो हिचकी आ जाएगी,” नानी ने टोका.
लेकिन वह कहां सुनने वाली थी. मुंह में दालभात ठूंसती जा रही थी.
“आने दो हिचकी. पानी है, पी लूंगी,” चंचल लापरवाही से बोली.
नानी मुसकराईं और उसे देखते हुए पुरानी यादों में खो गईं…
बेचारी नन्ही सी जान. इसे क्या पता कि इस की मम्मी इस के लिए कैसे कलेजे पर पत्थर रख कर दूर रह रही है. आह, दिसंबर की वह सर्द रात… जब वह 8 दिन की इस परी को मेरी झोली में डाल गई थी.
पेट दर्द की न जाने कैसी बीमारी लगी थी मुझे. गांवघर के वैद्यहकीम से दवादारू कर के हार गई थी, लेकिन पेट दर्द जाने का नाम ही नहीं ले रहा था. रहरह कर दर्द उभर आता था.
कुछ पढ़ेलिखे लोगों ने कहा कि शहर में अच्छे डाक्टर से दिखा लो. दिखा तो लेती, लेकिन अकेली कैसे जाती? न पति, न कोई औलाद. बाप की एकलौती बेटी थी मैं. मां मेरे बचपन में ही गुजर गई थीं. मेरी शादी के 2 साल ही तो हुए थे और कोई बच्चा भी नहीं हुआ था. तीसरे साल में पति को जानलेवा बीमारी खा गई. बापू भी बूढ़े हो कर एक दिन परलोक सिधार गए.
रह गई मैं अकेली. दूसरी शादी भी नहीं की, मन ही उचट गया था. हाथ में हुनर था सिलाईबुनाई का तो कुछ काम मिल जाता और घर के पिछवाड़े 3 कट्ठा जमीन में सागसब्जी उगा लेती. जो आमदनी होती उसी से गुजरबसर होती रही.
पेट दर्द अब असहनीय होने लगा था. बड़ी खुशामद के बाद पड़ोसी सहदेव का बेटा मुरली तैयार हुआ साथ में शहर जाने के लिए. शहर तो चली गई, लेकिन मुरली के मन में न जाने कौन सा खोट पैदा हुआ कि मुझे डाक्टर के यहां छोड़ कर बहाने से भाग निकला.
वह तो अच्छा था कि मैं ने पैसा उस को नहीं थमाया था, वरना…
खैर, मैं ने डाक्टर को दिखा तो लिया, लेकिन जब परचे पर जांचपड़ताल के लिए कुछ लिख कर दिया तो अक्कबक्क कुछ न सूझ रहा था. भला हो उस कंपाउंडर बाबू का, जिस ने सब काम करा दिया.
रिपोर्ट 4 बजे के बाद मिलने वाली थी तो मैं वहीं बरामदे पर बैठ कर रिपोर्ट और मुरली दोनों का इंतजार करने लगी. सोचा कि किसी काम से इधरउधर गया होगा, आ जाएगा. लेकिन यह क्या… 4 बज गए, रिपोर्ट भी आ गई, लेकिन मुरली का कोई अतापता नहीं. मन में चिंता हुई कि ठंड का मौसम है, 4 बज गए मतलब अब कुछ ही देर में अंधेरा घिर आएगा. घर कैसे जाऊंगी?
तभी कंपाउंडर बाबू ने रिपोर्ट ले कर बुलाया, तो मैं झोला उठाए चल दी.
डाक्टर साहब ने बताया, “जांच में कुछ गंभीर नहीं निकला है. ठीक हो जाओगी अम्मां. चिंता की कोई बात नहीं. ये सब दवाएं ले लेना,” कह कर डाक्टर ने एक और परचा थमाया.
मन को शांति मिली. पास ही दवा की दुकान थी, वहीं से दवा ले ली. अब घर जाने की चिंता होने लगी. बसअड्डा किधर है? किस बस पर बैठूं? इतनी देर हो गई, अभी बस खुलेगी भी कि नहीं? कुछ समझ नहीं आ रहा था.
कुछ ही देर में अंधेरा घिर आया तो मैं ने वहीं बरामदे के एक कोने में अपने झोले से चादर निकाली और ओढ़ कर यह सोच कर बैठ गई कि रात यहीं गुजार लेती हूं किसी तरह. सुबह कुछ उपाय सोचूंगी.
घर से लाई हुई रोटी और आलू की भुजिया रखी ही थी. भूख भी लग रही थी तो निकाल कर खा ली. 8 बजे वहां मरीजों की आवाजाही सी खत्म हो गई.
तभी गार्ड बाबू आ कर कड़क कर बोला, “ऐ माई, इधर सब बंद होगा अब. चलो, निकलो यहां से.”
“बाबू, रातभर रहने दीजिए न. अकेली हूं और घर भी दूर है. सुबहसवेरे निकल जाऊंगी,” मैं न जाने कितना गिड़गिड़ाई, लेकिन पता नहीं किस मिट्टी का बना था वह. अड़ा रहा अपनी बात पर.
क्या करती मैं भी. झोला उठा कर ठिठुरते हुए सड़क पर निकल पड़ी. भटकती रही घंटों, पर कहीं कोई आसरा न मिला. ठंड भी इतनी कि सब लोगबाग घरों में दुबके थे.
चलतेचलते पैर थक गए तो एक मकान के छज्जे के नीचे सीढ़ी पर रात गुजारने की सोच कर झोला रखा ही था कि 2-4 कुत्ते एकसाथ टूट पड़े.
तभी अचानक से किसी ने जोर से मुझे अपनी तरफ खींचा और धर्रर… से एक ट्रक गुजरा. मुझे कुछ देर होश ही नहीं रहा. जब होश आया तो देखा कि मैं एक पेड़ के नीचे लेटी थी और 22-23 साल की एक खूबसूरत युवती, जिस की गोद में नवजात बच्चा था, मेरा सिर सहला रही थी. तब सब समझ में आ गया कि अगर यह मुझे नहीं खींचती तो ट्रक मेरा काम तमाम कर देता.
“ऐसे बेखबर चलती हो… पता भी है रात के 12 बज रहे हैं, ऊपर से इतनी ठंड. और तो और आंख बंद कर के सड़क पर चलती जा रही हो. अभी ट्रक के नीचे आती और सारा किस्सा खत्म…” वह युवती मुझ पर बरसती जा रही थी, लेकिन उस का बरसना मन को सुकून दे रहा था.
पलभर में हमारे बीच न जाने कौन सी डोर बंध गई कि हम ने एकदूसरे के सामने अपने दिल खोल के रख दिए. उस के दर्द को जान कर कलेजा कांप गया मेरा.
उस का नाम मनीषा था. उसे उस की सौतेली मां ने 14 साल की उम्र में ही एक दलाल के हाथों बेच दिया था और यह बात फैला दी कि वह किसी के साथ भाग गई है.
दलाल ने उसे एक कोठे पर पहुंचा दिया और उस का नाम मोहिनी रख दिया गया. वह न चाहते हुए भी मालिक के इशारे पर नाचती. हर रात अलगअलग मर्द उस के जिस्म से खेलते. कई बार भागने की भी कोशिश की, लेकिन हर बार वह पकड़ी जाती और फिर दोगुनी मार सहती.
एक बार तो वह घर भी पहुंच गई थी, लेकिन सब ने अपनाने से इनकार कर दिया. खूब जलीकटी सुनाई. समंदर भर का दर्द ले कर वह लौट आई फिर उसी अंधेरी गली में.
8 दिन पहले ही उस ने बेटी को जन्म दिया था. पेट से तो वह पहले भी 2 बार रही थी, लेकिन जैसे ही पता चलता कि पेट में लड़का है, फौरन पेट गिरा दिया जाता, क्योंकि लड़कों के जिस्म से कमाई नहीं होती न. इस बार लड़की थी तो उस का मालिक खुश था .
लेकिन मोहिनी हर हाल में अपनी बच्ची को इस दलदल से, इस अंधेरी दुनिया से बाहर निकालना चाहती थी. यही सोच कर वह आज छिपतेछिपाते बाहर निकली थी कि या तो कहीं भाग जाएगी या फिर बेटी के साथ नदी में कूद कर जान दे देगी.
“तुम जान देने की बात कैसे कर सकती हो बेटी, जबकि तुम ने मेरी जान बचाई है. नहींनहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकती,” मुझे जान देने की बात बिलकुल भी पसंद नहीं आई.
“तो फिर मैं क्या करूं अम्मां? तुम ही बताओ भाग कर कहां जाऊं? लोग न मुझे चैन से जीने देंगे, न इस नन्ही सी जान को. ऐसी जिल्लत भरी जिंदगी से अच्छा है कि हम दोनों मर ही जाएं.”
उस के मुंह से ‘अम्मा’ शब्द सुन कर मेरी छाती में ममता की धार फूट पड़ी.
“तुम ने मेरी जान बचाई है तो मेरी जिंदगी तुम्हारी हुई न. अभीअभी तुम ने अम्मां बुलाया मुझे और मैं ने तुम्हें बेटी… है कि नहीं? तो एक मां के रहते बेटी को किस बात की चिंता? मेरी बेटी और नातिन मेरे साथ रहेंगी, मेरे घर,” नन्ही सी बच्ची को चादर में लपेट कर अपनी छाती से लगा लिया था मैं ने.
“नहीं अम्मां, मैं तुम्हें किसी मुसीबत में नहीं डाल सकती,” मोहिनी ने एकदम से इनकार कर दिया.
“कैसी मुसीबत? बच्चे मां के लिए मुसीबत नहीं होते हैं. तू चल मेरे साथ. मेरा गांव शहर से दूर है, कोई खोज भी नहीं पाएगा,” मैं ने खूब मनुहार की.
लेकिन वह थी कि मान ही नहीं रही थी. सुबकसुबक कर कहने लगी, “अम्मा, तुझे कुछ नहीं पता… नहीं पता कि इन चकाचौंध वाली गलियों के सरदार की पहुंच कितनी दूर तक है. बड़ेबड़े नेता, मंत्री, अफसर और भी न जाने कितने रसूखदारों को अपनी सेवा देते हैं ये लोग. ऐसी कई हस्तियों के हाथों लुट चुकी हूं मैं भी. मोहिनी का नाम और चेहरा सब का जानपहचाना है. फौरन ढूंढ़ लेंगे ये भेड़िए…
“अम्मा… अब इस नरक की आदी हो चुकी हूं मैं. अब तक कोई मलाल नहीं था, लेकिन अब इस नन्ही जान के लिए कलेजा मुंह को आ जाता है. इसे किसी भी कीमत पर इस नरक में न झोंकने दूंगी उस जालिम को, चाहे जान ही क्यों न देनी पड़े.”
“तो क्या सोचा है तुम ने ?” मुझ से रहा नहीं गया.
“अम्मां, एक एहसान करोगी मुझ पर?” वह कातर स्वर में बोली.
“तू बोल तो सही,” मैं ने आश्वासन दिया तो वह बोली, “तू इसे रख ले अपने पास. पाल ले इसे. मैं खर्च भेजती रहूंगी. खूब पढ़ानालिखाना. और हां, मैं कभीकभी मिलने भी आती रहूंगी सब से छिप कर. लेकिन मेरी सचाई मत बताना कभी, वरना नफरत हो जाएगी इसे. जब पढ़लिख कर समझदार हो जाएगी तो सही समय पर सब सच बता देंगे. बोल अम्मां, तू करेगी यह एहसान मुझ पर?”
मैं ने उसे गले से लगा लिया और हामी भर दी.
“अम्मां, तुम्हारे गांव की तरफ जाने वाली पहली बस सुबह 5 बजे खुलती है. मैं बिठा दूंगी, तुम चली जाना. अभी तो 2 ही बज रहे हैं और ठंड भी इतनी है. चलो, कोई कोने वाली जगह ढूंढ़ लें, कम से कम ठंडी हवा से तो राहत मिले. नींद तो वैसे भी नहीं आएगी,” कह कर उस ने मेरा झोला उठाया और चल पड़ी.
बच्ची मेरी गोद में थी. थोड़ी दूर चलने पर बसअड्डा आ गया. यात्री ठहराव के लिए बने हालनुमा बरामदे पर एक खाली कोने में हम ने रात काटी. वह रातभर बच्ची को अपनी छाती से लगाए रही.
हम दोनों सुबह मुंह अंधेरे उठ गईं. उस ने चादर से मुंह ढक लिया और टिकट ले आई. मुझे बस में बिठा कर उस ने अपने कलेजे के टुकड़े को सौंप दिया.
इस के बाद उस ने मेरे गांव का नामपता एक कागज पर लिख लिया, फिर बोली, “अम्मां, किसी को कुछ पता नहीं चलना चाहिए. आज से यह तुम्हारी है. मैं वहां सब से कह दूंगी कि ठंड लगने से मर गई तो फेंक आई नदी में…” उस की आंखें नम थीं, लेकिन एक अलग ही चमक भी थी. बस खुलने ही वाली थी. वह बच्ची को चूम कर तेजी से नीचे उतर गई.
तब से यह मेरे साथ ही है. मोहिनी 2-4 महीने पर आ जाती है मिलने. अब तो फोन खरीद कर दे दिया है, तो जब मौका मिलता है बात भी कर लेती है…
“अरी ओ नानी, हाथ क्यों रुक गया तुम्हारा? खाओ न. मैं इतना सारा नहीं खा पाऊंगी न,” चंचल ने हाथ पकड़ कर अपनी नानी को झकझोरा तो वे वर्तमान में लौट आईं.
“अरे हां, खा ही तो रही हूं. हो गया तुम्हारा तो तुम उठ जाओ,” नानी हड़बड़ा कर बोलीं.
“तुम भी न नानी बैठेबैठे सो जाती हो,” चंचल हंसते हुए बोली और चांपाकल की ओर भागी.

अजादी: राधिका नीरज से शादी क्यों नहीं करना चाहती थी?

फैमिली कोर्ट की सीढि़यां उतरते हुए पीछे से आती हुई आवाज सुन कर वह ठिठक कर वहीं रुक गई. उस ने पीछे मुड़ कर देखा. वहां होते कोलाहल के बीच लोगों की भीड़ को चीरता हुआ नीरज उस की तरफ तेज कदमों से चला आ रहा था. ‘‘थैंक्स राधिका,’’ उस के नजदीक पहुंच नीरज ने अपने मुंह से जब आभार के दो शब्द निकाले तो राधिका का चेहरा एक अनचाही पीड़ा के दर्द से तन गया. उस ने नीरज के चेहरे पर नजर डाली. उस की आंखों में उसे मुक्ति की चमक दिखाई दे रही थी. अभी चंद मिनटों पहले ही तो एक साइन कर वह एक रिश्ते के भार को टेबल पर रखे कागज पर छोड़ आगे बढ़ गई थी.

‘‘थैंक्स राधिका टू डू फेवर. मु?ो तो डर था कि कहीं तुम सभी के सामने सचाई जाहिर कर मु?ो जीने लायक भी न छोड़ोगी,’’ राधिका को चुप पा कर नीरज ने आगे कहा. राधिका ने एक बार फिर ध्यान से नीरज के चेहरे को देखा और बिना कुछ कहे आगे बढ़ गई. फैमिली कोर्ट के बाहर से रिकशा ले कर वह सीधे औफिस ही पहुंच गई. उस के मन में था कि औफिस के कामों में अपने को व्यस्त रख कर मन में उठ रही टीस को वह कम कर पाएगी. लेकिन वहां पहुंच कर भी उस का मन किसी भी काम में नहीं लगा. उस ने घड़ी पर नजर डाली. एक बज रहा था. औफिस में आए उसे अभी एक घंटा ही हुआ था. अपनी तबीयत ठीक न होने का बहाना कर उस ने हाफडे लीव को फुल डे सिकलीव में कन्वर्ट करवा लिया और औफिस से निकल कर सीधे घर जाने के लिए रिकशा पकड़ लिया.

सोसाइटी कंपाउंड में प्रवेश कर उस ने लिफ्ट का बटन दबाया, पर सहसा याद आया कि आज सुबह से बिजली बंद है और शाम 5 बजे के बाद ही सप्लाई वापस चालू होगी. बु?ो मन से वह सीढि़यां चढ़ कर तीसरी मंजिल पर आई. फ्लैट नंबर सी-302 का ताला खोल कर अंदर से दरवाजा बंद कर वह सीधे जा कर बिस्तर पर पसर गई. कुछ देर पहले बरस कर थम चुकी बारिश की वजह से वातावरण में ठंडक छा गई थी. लेकिन उस का मन अंदर से एक आग की तपिश से जला जा रहा था. नेहा अपने बौस के साथ बिजनैस टूर पर गई हुई थी और कल सुबह से पहले नहीं आने वाली थी वरना मन में उठ रही टीस उस के संग बांट कर अपने को कुछ हलका कर लेती. बैडरूम में उसे घबराहट होने लगी, तो वह उठ कर हौल में आ कर सोफे पर सिर टिका कर बैठ गई. उस की आंखों के आगे जिंदगी के पिछले 4 साल घूमने लगे…

‘चलो अच्छा ही है 2 दोस्तों के बच्चे अब शादी की गांठ से बंध जाएंगे तो दोस्ती अब रिश्तेदारी में बदल कर और पक्की हो जाएगी,’ राधिका के नीरज से शादी के लिए हां कहते ही जैसे पूरे घर में खुशियां छा गई थीं. राधिका के पिता ने अपने दोस्त का मुंह मीठा करवाया और गले से लगा लिया.

राधिका ने अपने सामने बैठे नीरज को चोरीछिपे नजरें उठा कर देखा. वह शरमाता हुआ नीची नजरें किए हुए चुपचाप बैठा था. न्यूजर्सी से अपनी पढ़ाई पूरी कर अभी कुछ महीने पहले ही आया नीरज शायद यहां के माहौल में अपनेआप को फिर से पूरी तरह से एडजस्ट नहीं कर पाया. यही सोच कर राधिका उस वक्त उस के चेहरे के भाव नहीं पढ़ पाई. अपने पापा के दोस्त दीनानाथजी को वह बचपन से जानती थी लेकिन नीरज से उस की मुलाकात इस रिश्ते की नींव बनने से पहले कभीकभी ही हुई थी. 12वीं पास करने के बाद नीरज 5 साल के लिए स्टूडैंट वीजा पर न्यूजर्सी चला गया था और जब वापस आया तो पहली ही मुलाकात में चंद घंटों की बातों के बाद उन की शादी का फैसला हो गया.

‘‘नीरज, मैं तुम्हें पसंद तो हूं न?’’ बगीचे में नीरज का हाथ थाम कर चलती राधिका ने पूछा. ‘‘हां. लेकिन क्यों ऐसा पूछ रही हो?’’ उस की बात का जवाब देते हुए नीरज ने पूछा. ‘बस ऐसे ही. अगले महीने हमारी शादी होने वाली है. पर तुम्हारे चेहरे पर कोई उत्साह न देख कर मु?ो डर सा लगता है. कहीं तुम ने किसी दबाव में आ कर तो इस शादी के लिए हां नहीं की न?’ पास ही लगी बैंच पर बैठते हुए राधिका ने नीरज को देखा.

‘वैल. अपना बिजनैस सैट करने की थोड़ी टैंशन है. इसी उल?ान में रहता हूं कि कहीं शादी का यह फैसला जल्दी तो नहीं ले लिया,’ कहते हुए नीरज ने अपनी पैंट की जेब से रूमाल निकाला और माथे पर उभर आई पसीने की बूंदों को पोंछ डाला.‘इस में टैंशन लेने वाली बात ही क्या है? शादी तो समय पर हो ही जानी चाहिए. वैसे भी, जीने के लिए पैसा नहीं, अपने लोगों के पास होने की जरूरत होती है,’ कहती हुई राधिका ने नीरज के कंधे पर अपना सिर टिका दिया.

डर सा बना रहता है,’ नीरज ने अपने हाथ में अभी भी रूमाल पकड़ रखा था.‘छोड़ो भी अब यह डर और कोई रोमांटिक बात करो न मु?ा से,’ कहती हुई राधिका ने आसपास नजर दौड़ाई. बगीचे में अधिकांश जोड़े अपनी ही मस्ती में खोए हुए थे. सहसा राधिका नीरज के और करीब आ गई और उस के हाथ की उंगलियां उस की छाती पर हरकत करने लगीं.

‘यह क्या हरकत है राधिका?’ कहते हुए नीरज ने एक ?ाटके से राधिका को अपने से दूर कर दिया और अपनी जगह से खड़ा हो गया. राधिका के लिए नीरज का यह व्यवहार अप्रत्याशित था. वह नीरज की इस हरकत से सहम गई. तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. राधिका अपनी यादों से बाहर निकल कर खड़ी हुई और दरवाजा खोला. ‘‘नेहा प्रधान हैं?’’

दरवाजे पर कूरियर वाला खड़ा था. ‘‘जी, इस वक्त वह घर पर नहीं है. लाइए मैं साइन कर देती हूं,’’ राधिका ने पैकेट लेने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया. पैकेट दे कर कूरियर वाला चला गया. दरवाजा बंद करती हुई राधिका ने पैकेट को देख कर उस के अंदर कोई पुस्तक होने का अंदाजा लगाया. नेहा अकसर कोई न कोई पुस्तक मंगाती रहती थी. उस ने पैकेट टेबल पर रख दिया और वापस सोफे पर बैठ गई.

4 वर्षों का साथ आज यों ही एक ?ाटके में तो नहीं टूट गया था. उस के पीछे की भूमिका तो शायद शादी के पहले से ही बन चुकी थी. पर नीरज का मौन राधिका की जिंदगी भी दांव पर लगा गया. नीरज के बारे में और सोचते हुए उस का चेहरा तन गया. ‘नीरज,  तुम्हारे मन में आखिर चल क्या रहा है? हमारी शादी हुए एक महीने से ज्यादा हो गया और 10 दिनों के अच्छेखासे हनीमून के बाद भी तुम्हारे चेहरे पर नईनई शादी वाली खुशी नदारद सी है. बात क्या है? मु?ा से तो खुल कर कहो,’ पूरे हनीमून के दौरान राधिका ने महसूस किया कि नीरज हमेशा उस से एक सीमित अंतर बना कर रह रहा है. रात के हसीन पल भी उसे रोमांचित नहीं कर पा रहे थे. वह, बस, शादी के बाद की रातों को एक जिम्मेदारी मान कर जैसेतैसे निभा ही रहा था. हनीमून से लौट कर आने के बाद राधिका के चेहरे पर अतृप्ति के भाव छाए हुए थे.

‘कुछ नहीं राधिका. मु?ो लगता है हम ने शादी करने में जल्दबाजी कर दी है,’ राधिका की बात सुन कर नीरज इतना ही बोल पाया. ‘जनाब, अब ये सब बातें सोचने का समय बीत चुका है. बेहतर होगा हम मिल कर अपनी शादी का जश्न पूरे मन से मनाएं,’ राधिका ने नीरज की बात सुन कर कहा.

‘तुम नहीं सम?ा पाओगी राधिका और मैं तुम्हें अपनी समस्या सम?ा भी नहीं पाऊंगा,’ कह कर नीरज राधिका की प्रतिक्रिया की परवा किए बिना ही कमरे से बाहर चला गया. अकेले बैठी हुई राधिका का मन बारबार पिछली बातों में जा कर अटक रहा था. लाइट भी नहीं थी जो टीवी औन कर अपना मन बहला पाती. तभी उस के मन में कुछ कौंधा और उस ने नेहा के नाम से अभी आया पैकेट खोल लिया. उस के हाथों में किसी नवोदित लेखक की पुस्तक थी. पुस्तक के कवर पर एक स्त्री की एक पुरुष के साथ हाथों में हाथ डाले हुए मनमोहक छवि थी और उस के ऊपर पुस्तक का शीर्षक छपा हुआ था- ‘उस के हिस्से का प्यार’. कहानियों की इस पुस्तक की विषय सूची पर नजर डालते हुए उस ने एक के बाद एक कुछ कहानियां पढ़नी शुरू कर दीं. बच्चे के यौन उत्पीड़न और फिर उस को ले कर वैवाहिक जीवन में आने वाली समस्या को ले कर लिखी गई एक कहानी पढ़ कर वह फिर से नीरज की यादों में खो गई.

उस दिन नीरज बेहद खुश था. वह घर खाने पर अपने किसी विदेशी दोस्त को ले कर आया था. ‘राधिका, 2 दिनों पहले मैं अपने जिस दोस्त की बात कर रहा था वह यह माइक है. न्यूजर्सी में हम दोनों रूममेट थे और साथ ही पढ़ते थे,’ नीरज ने राधिका को माइक का परिचय देते हुए कहा.

राधिका ने अपने पति की बाजू में खड़े उस श्वेतवर्णी स्निग्ध त्वचा वाले लंबे व छरहरे युवक पर नजर डाली. राधिका को पहली ही नजर में नीरज का यह दोस्त बिलकुल पसंद नहीं आया. उस का क्लीनशेव्ड नाजुक चेहरा और उस पर सिर पर थोड़े लंबे बालों को बांध कर बनाई गई छोटी सी चोटी देख कर राधिका को आश्चर्य हो रहा था कि ऐसा लड़का नीरज का दोस्त कैसे हो सकता है. नीरज तो खुद अपने पहनावे और लुक को ले कर काफी कौन्शियस रहता है. उस वक्त इस बात को नजरअंदाज कर वह इस बात पर ज्यादा कुछ न सोचते हुए खाना बनाने में जुट गई.

उसी रात नीरज ने जब राधिका से सीधेसीधे तलाक लेने की बात छेड़ी तो राधिका के पैरोंतले जमीन खिसक गई. ‘लेकिन बात क्या हुई नीरज? न हमारे बीच कोई ?ागड़ा है न कोई परेशानी. सबकुछ तो बराबर चल रहा है. कहीं तुम्हारा किसी के संग अफेयर तो…’ रिश्तों को बांधे रखने की दुहाई देते हुए सहसा उस का मन एक आशंका से भर गया.

‘अफेयर ही सम?ा लो. अब तुम से मैं आगे कुछ और नहीं छिपाऊंगा,’ कहते हुए नीरज चुप हो गया. राधिका ने नीरज के चेहरे को देखते हुए उस की आंखों में अजीब सी मदहोशी महसूस की. ‘तुम कहना क्या चाहते हो नीरज?’ राधिका नीरज की अधूरी छोड़ी बात पूरी सुनना चाहती थी. उस के बाद नीरज ने जो कुछ उस से कहा, उन में से आधी बात तो वह ठीक से सुन ही नहीं पाई.

‘तुम्हारे संग मेरी शादी मेरे लिए एक जुआ ही थी. मैं अपनी सारी जिंदगी इसी तरह कशमकश में गुजार देता पर अब यह कुछ नामुमकिन सा लगता है राधिका. बेहतर होगा हम अपनेअपने रास्ते अलगअलग ही तय करें,’ नीरज से शादी टूटने से पहले कहे गए आखिरी वाक्य उस के दिमाग में बारबार कौंधने लगे.

राधिका ने कमरे की लाइट बंद कर दी और चुपचाप लेट कर सारी रात अपनी बरबादी पर आंसू बहाती रही.अब एक ही घर में नीरज के साथ रहते हुए वह अपनेआप को एक अजनबी महसूस कर रही थी. अपने मन की बात राधिका को जता कर जैसे नीरज के मन का भार हलका हो चुका था लेकिन राधिका जैसे मन पर एक अनचाहा भार ले कर जी रही थी. जब उस के मन का भार असहनीय हो गया तो वह नीरज के घर की दहलीज छोड़ कर अपने पिता के घर आ गई.

फिर जो हुआ वह आज के दिन में परिणत हो कर उस के सामने खड़ा था. कानूनी तौर पर वह भले ही नीरज से अलग हो चुकी थी लेकिन नीरज की सचाई और उस के द्वारा दी गई अनचाही पीड़ा अब भी उस के मन के कोने में कैद थी जिसे वह चाह कर भी किसी से बयान नहीं कर सकती थी. घर में बैठेबैठे अकेले घुटन होने से वह घर लौक कर बाहर निकल गई और एमजी रोड पर स्थित मौल में दिल बहलाने के लिए चक्कर लगाने लगी.

रात देर से नींद आने की वजह से सुबह उस की नींद देर से ही खुली. वैसे भी आज उस का वीकली औफ होने से औफिस जाने का कोई ?ां?ाट न था. उस ने उठ कर समाचार सुनने के लिए टीवी औन ही किया था कि डोरबेल बज उठी.

‘‘हाय राधिका. हाऊ आर यू?’’ दरवाजा खोलते ही नेहा राधिका से लिपट गई. ‘‘मैं ठीक हूं. तेरा टूर कैसा रहा?’’ राधिका के चेहरे पर एक फीकी सी मुसकान तैर गई. ‘‘बौस के साथ टूर हमेशा ही मजेदार रहता है. वैसे भी अब जिंदगी ऐसे मोड़ तक पहुंच गई है जहां से वापस लौटना संभव ही नहीं. यह टूर तो एक बहाना होता है एकांत पाने का,’’ कहती हुई नेहा सोफे पर पसर गई.

राधिका ने रिमोट उठा कर चुपचाप न्यूज चैनल शुरू कर दिया. ‘‘सुन, कल तेरी आखिरी सुनवाई थी न फैमिली कोर्ट में. क्या फैसला आया?’’ नेहा ने राधिका को अपने पास खींचते हुए उस से पूछा.

‘‘फैसला तो पहले से ही तय था. बस, साइन ही करने तो जाना था,’’ राधिका ने बु?ोमन से जवाब दिया. ‘‘लेकिन तू ने अभी तक नहीं बताया कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो तू ने नीरज से अलग होने का फैसला ले लिया?’’ पिछले एक साल से साथ रहने के बावजूद राधिका ने अपनी जिंदगी का एक अधूरा सच नेहा से अब तक छिपाए रखा था.

‘भारत की न्याय प्रणाली में एक ऐतिहासिक फैसला सैक्शन 377 के तहत अब गे और लैस्बियन संबंध वैध.’ तभी टीवी स्क्रीन पर आती ब्रैकिंग न्यूज देख कर राधिका असहज हो गई.

‘‘स्ट्रैंज,’’ नेहा ने न्यूज पर अपनी छोटी सी प्रतिक्रिया जताते हुए राधिका से फिर से पूछा, ‘‘तू ने बताया नहीं राधिका? कुछ कारण तो रहा होगा न?’’

‘‘बस, सम?ा ले कल उसे एक अनचाहे रिश्ते से कानूनीतौर पर मुक्ति मिली और आज उस मुक्ति की खुशी मनाने का मौका भी उसी कानून ने उसे दे दिया,’’ राधिका की नजरें अभी भी टीवी स्क्रीन पर जमी हुई थीं. लेकिन नेहा उस की नम हो चुकी आंखों में तैर रही खामोशी को पढ़ चुकी थी.

अनकहा रिश्ता: क्या अनकहा ही रहा ?

महेश कुमारजी को अपनी पत्नी के देहांत के बाद अपने बेटे बासु के साथ शहर आना पड़ा, क्योंकि पत्नी के जाने के बाद वे एकदम अकेले हो गए थे.

अब बेटा ही था, जिस के साथ वो रह सकते थे, और उन की इस उम्र में सही से देखभाल हो सकती थी. उन के बेटे ने शहर आ कर महेशजी को उन का कमरा और बालकनी दिखाई और कहा, “पापा, आप कुछ समय यहां बालकनी में सुकून के साथ बैठ सकते हैं, अखबार पढ़ सकते हैं, आप का मन लगा रहेगा. और देखो पापा, मन तो आप को लगाना ही पड़ेगा.”

महेशजी भी अपना मन लगाने की पूरी कोशिश करते, लेकिन बुढ़ापे का एकाकीपन उन्हें खाए जाता था. आसपास कोई बोलने वाला भी नहीं था. बेटा और बहू अपने काम में लगे रहते, कभीकभार पोते के साथ मन बहला लिया करते,
लेकिन वह भी अकसर स्कूल की पढ़ाई में लगा रहता था.

महेशजी की बालकनी के सामने वाले फ्लैट में भी शायद कोई नहीं रहता था, क्योंकि अकसर वो बंद ही रहती.

कुछ समय बाद उन के सामने वाली बालकनी में कोई रहने आ गया. उस में एक सभ्य व संभ्रांत महिला दिखाई दी, जो लगभग उन्हीं की उम्र की थी.

उन संभ्रांत महिला ने अपनी कामवाली को कुछ समझाया, कुछ पौधे लगवाए, कपड़ों के सुखाने के लिए रस्सी बधंवाई और एक आरामकुरसी और एक छोटा सी मेज लगवा दी. इस तरह वो वीरान सी दिखने वाली बालकनी अब सजीव हो उठी. किसी के होने का एहसास देने लगी.

महेशजी और उन संभ्रांत महिला का आपस में गरदन के इशारे से अभिवादन हुआ, क्योंकि दोनों बालकनी में दूरी ज्यादा थी, इसलिए इशारे से ही बातें हो सकती थीं, और यों भी तेज बोल कर बातें यहां शहरों में कहां हो पाती हैं. यहां तो हर इनसान अपनेआप में मगन है, आसपास की किसी को कोई खबर ही नहीं है.

अब तो महेशजी को अपनी बालकनी अच्छी लगने लगी. वे अब आराम से बैठ कर अखबार पढ़ते.

सामने वाली बालकनी में छाई हुई वीरानी अब वसंत का रूप ले चुकी थी, तुलसी का पौधा उन की आस्था को दर्शाता तो मनी प्लांट की बेल व छोटे फूलों के पौधे जिंदगी की सजीवता को दिखाते.

वैसे भी स्त्रियों को वरदान मिला है कि वे चाहे जहां घर बसा सकती हैं, उसे स्वर्ग का द्वार बना सकती हैं, वसंत ला सकती हैं, वीरानियां को बदल कर बगिया खिला सकती हैं. स्त्रियां घर के आसपास एक सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण करती हैं.

बस इस तरह उन दोनों का रोज आंखों से व गरदन के इशारे से आपस में अभिवादन होने लगा. संवाद कभी न होता. महेशजी अब फिर से जिंदगी को जीने लगे थे.

वे उन महिला को कभी वहां सब्जी साफ करते देखते, कभी पौधों में पानी देते हुए देखते, कभी अचार सुखाते, तो कभी स्वेटर बुनते, दोनों का आपस में कभी संवाद नहीं होता. बस एक एहसास होता है कि उन के आसपास भी कोई है…

उन महिला की एक प्यारी सी पोती भी थी, जिस से वो कभीकभी इशारों में ही महेशजी को नमस्ते करवाती, जिस से उन्हें और अपनापन महसूस होता.

बस इस तरह दोनों में एक प्यारा सा “अनकहा रिश्ता” बन गया.

यों ही कई महीने गुजर गए. एक दिन महेशजी ने देखा कि उन महिला ने न ही उस दिन दीप जलाया और न ही पौधौ को पानी दिया. बस, आ कर आरामकुरसी पर ऐसे ही बैठ गईं. महेशजी को लगा कि शायद तबीयत खराब है. उन्होंने इशारों से पूछा, “क्या हुआ…?”

उन्होंने भी इशारे से जवाब दिया, “सब ठीक है”, लेकिन दोचार दिन में उन महिला का बालकनी में आना भी कम होता गया.

कुछ दिन पश्चात, अब कई दिनों से वे महिला महेशजी को दिखाई नहीं दे रही थी, उन्हें लगा कि शायद कहीं बाहर गई होंगी, लेकिन जब कई दिन हुए वे नहीं दिखाई दी और उन के लगाए पौधे सूखने लगे, उन की लगाई मनीप्लांट की बेल सूखने लगी, तो वे चिंतित हो उठे, उन का मन बेचैन हो उठा.

लेकिन पूछें तो किस से पूछें? महेशजी को बहुत चिंता हुई, उन का अब मन किसी भी काम में नहीं लगता.

फिर एक दिन वही कामवाली बालकनी में दिखाई दी, जो पहले दिन उन महिला के साथ आई थी. वह आई और बालकनी की सफाई करने लगी. महेशजी से रहा नहीं गया, तो उन्होंने इशारे से पूछा कि, “वे कहां हैं?”

उस ने भी इशारों से हाथ ऊपर कर के जवाब दिया कि, “वे अब नहीं रहीं.”

महेशजी का दिल धक से रह गया. उन्होंने उस अकेली पड़ी आरामकुरसी की तरफ देखा और फिर एक बार वो अपनेआप को अकेला महसूस करने लगे.
उन का वो प्यारा सा “अनकहा रिश्ता” अनकहा ही रह गया…

दिखावा: अम्मा से आखिर क्यूं परेशान थे सब- भाग 1

दादीकी चिता में चाचा ने आग दी. ताऊ अपने 2 बच्चों के साथ अमेरिका जा कर बस गए थे. चिता धूधू कर जल उठी. गंगा के किनारे की तेज हवा ने आग में घी का काम किया. चिता की प्रचंड अग्नि ने सर्दी के उस मौसम में भी पास खड़े लोगों को काफी गरमाहट का अनुभव करा दिया.

करीब 50-60 लोगों की भीड़ में मैं भी शामिल था. मैं ने बड़े ही कुतूहल से दादी के अस्पताल जाने से ले कर उन के इलाज और उन के मरने तक की घटनाओं के अलावा उन्हें श्मशान घाट तक ले जाने में बरती गई तमाम पुरातनवादी रूढि़यों को देखा था, उन्हें सम?ाने का प्रयास किया था, पर मेरी सम?ा में यह नहीं आया था कि नियमों का पालन क्यों आवश्यक था या इन के न मानने से क्या नुकसान हो जाने वाला था? मैं ने पहली बार इस तरह की मौत को नजदीकी से देखा था.

अम्मांजी के 3 दामादों में मैं सब से छोटा दामाद हूं. अम्मांजी की शवयात्रा में शामिल होना मेरे लिए इस तरह का पहला अनुभव था.

10 दिसंबर की सुबह नहाते समय दादीजी स्नानगृह में ही गिर गई थीं. काफी खून निकला था. उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया था. डाक्टर का कहना था कि दिमाग की नस फट गईर् है.

मु?ा से जो करते बना, मैं ने किया. मेरी पत्नी तो अपनी दादी की सेवा के लिए रातदिन अस्पताल में ही रही. असल में वे मेरी दादी नहीं, मेरी पत्नी की दादी थी. मेरी पत्नी की मां थी. जल्दी मृत्यु होने के बाद दादी ने उस की देखभाल की थी. मेरी पत्नी के पिता कुछ साल पहले ही गुजरे थे. इसीलिए पूरे घर में मेरी और मेरी पत्नी की दादी से खूब बनती थी.

मेरी 2 बड़ी सालियां चाचा की बेटियां व अम्मांजी की एकमात्र बहू चाची बेटियों के अपने पूरे बच्चों सहित दोपहर को अस्पताल पहुंचती थीं. शाम तक पूरी टीम दादी के पास बैठने के बजाय बाहर मटरगश्ती ज्यादा करती थी. मैं जब भी कभी वहां पहुंचता अपनी चचेरी सालियों को कभी चाय तो कभी कौफी पीते हुए, तो कभी बाहर सड़क पर टहलते हुए पाता था. एक बार पूछा तो कहने लगीं, ‘‘यहां सर्दी काफी है. बच्चों को ठंड न लग जाए, इसलिए धूप का सेवन बेहद जरूरी है.’’

मैं सवाल करता, ‘‘फिर आप लोग बच्चों को यहां क्यों ला रहे हैं? कुछ लोग घर ठहर जाया करें. कुछ रात में आ जाया करें.’’

एक छूटती ही बोली थी, ‘‘मेरे बच्चे मेरे साथ ही आएंगे. मैं उन्हें किसी के भरोसे छोड़ कर क्यों आऊं? रात में बच्चों को यहां सुलाना ठीक नहीं, क्योंकि बच्चों को इन्फैक्शन हो जाता है. घर ही सब से सुरक्षित जगह है. मैं स्वयं इन्फैक्शन के डर से नहीं आना चाहती पर क्या करूं, मां कहती हैं तो आना पड़ता है. नहीं आऊंगी तो लोग क्या कहेंगे (गोया वह रिश्तेदारों के तानों के डर से यहां आ रही थीं) दूसरे दादी भी तो दीप्ति को ही मानती हैं, अब दीप्ति ही उन्हें देखे.’’

मैं इस जवाब से निरुत्तर हो गया था. वे दोनों बहनें व दीप्ति की चाची इस जवाब से प्रसन्न नजरा आ रही थीं. मैं सोचने लगा, ‘शायद मैं ही बेवकूफ हूं जो यहां पड़ा हूं.’

मगर तुरंत दूसरा विचार मन में आ गया, ‘दीदी हैं. सेवा करने में क्या हरज है. सब नालायक सही पर मैं तो नालायक नहीं.’ इन्हीं दादी की वजह से मेरी दीप्ति से शादी हो गई थी. चाचाताऊ तो उस की शादी में इंटरैस्ट ही नहीं ले रहे थे. मेरी शादी पर दादी ने ही बढ़चढ़ कर हम दोनों के प्रेम विवाह पर मुहर लगाई थी. चाचाचाचियां तो दीप्ति को किसी टीचर से बांध देना चाहते थे. मैं दक्षिणी भारतीय था और दादी  ने न जाति पूछी, न मेरे घरवालों के बारे में पूछा. उन्हें दीप्ति पर पूरा भरोसा था.

जब से दादी बूढ़ी होने लगी थीं, दीप्ति ही उन का सारा काम करती थी. काम यह उन का बचपन से करती आई थी पर मेरे साथ एमबीए करने के बाद उसी एनएनसी में काम करने के बाद भी उन के छोटेछोटे काम दीप्ति के हवाले थे. दीप्ति और मैं दोनों अनाथ से थे. मु?ो भी दादी ने वही प्यार दिया जो मु?ो कभी किसी से नहीं मिला इसलिए रातदिन उन की अस्पताल में सेवा करते हुए हम दोनों को खुशी ही हुई, दादी भला बो?ा कैसे हो सकती है? चाचाओंचाचियों की वे जानें.

पति नहीं सिर्फ दोस्त

3 दिन हो गए स्वाति का फोन नहीं आया तो मैं घबरा उठी. मन आशंकाओं से घिरने लगा. वह प्रतिदिन तो नहीं मगर हर दूसरे दिन फोन जरूर करती थी. मैं उसे फोन नहीं करती थी यह सोच कर कि शायद वह बिजी हो. कोई जरूरत होती तो मैसेज कर देती थी. मगर आज मुझ से नहीं रहा गया और शाम होतेहोते मैं ने स्वाति का नंबर डायल कर दिया. उधर से एक पुरुष स्वर सुन कर मैं चौंक गई. हालांकि फोन तुरंत स्वाति ने ले लिया मगर मैं उस से सवाल किए बिना नहीं रह सकी.

‘‘फोन किस ने उठाया था स्वाति?’’

‘‘मां, वह रोहन था… मेरा दोस्त’’, स्वाति ने बेहिचक जवाब दिया.

‘‘मगर तुम तो महिला छात्रावास में रहती हो ना. क्या वहां पुरुष मित्रों को भी आने की इजाजत है? वह भी इस वक्त?’’  मैं ने थोड़ा कड़े लहजे में पूछा.

‘‘मां अब मैं होस्टल में नहीं रहती. मैं रोहन के साथ रह रही हूं उस के फ्लैट में. रोहन मेरे साथ ही कालेज में पढ़ता है.’’

‘‘क्या? कहीं तुम ने हमें बताए बिना शादी तो नहीं कर ली?’’

‘‘नहीं मां, हम लिवइन रिलेशनशिप में रह रहे हैं.’’

‘‘स्वाति, तुम्हें पता है तुम क्या कर रही हो? अभी तुम्हारी उम्र अपना कैरियर बनाने की है. और तुम्हारी ही उम्र का रोहन…वह क्या तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी समझता है?’’

‘‘मां, हम दोनों सिर्फ दोस्त हैं.’’

‘‘लड़कालड़की दोस्त होने से पहले एक लड़की और लड़का होते हैं. कुछ नहीं तो कम से कम अपने और परिवार की मर्यादा का तो खयाल रखा होता. हम ने तुझे आधुनिक बनाया है, इस का मतलब यह तो नहीं कि तू हमें यह दिन दिखाए. लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे?’’ मैं पूरी तरह से तिलमिला गई थी.

‘‘मां, समाज और बिरादरी की बात न ही करो तो अच्छा है. वैसे भी आप की दी गई शिक्षा ने मुझे अच्छेबुरे का फर्क तो समझा ही दिया है.

‘‘रोहन उन छिछोरे लड़कों की तरह नहीं है जो सिर्फ मौजमस्ती के लिए लिवइन में रहते हैं और न ही मैं वैसी हूं. हम दोनों एकदूसरे की पढ़ाई में भी मदद करते हैं और कैरियर के प्रति भी हम पूरी तरह से जिम्मेदार हैं.’’

‘‘लेकिन बेटा, कल को अगर रोहन ने तुम्हें छोड़ दिया तो…तुम्हारी मानसिक स्थिति…’’ मैं अपनी बेटी के भविष्य को ले कर कोई सवाल नहीं छोड़ना चाहती थी.

‘‘मां, हम दोनों पतिपत्नी नहीं हैं, इसलिए ‘छोड़ने’ जैसा तो सवाल ही नहीं उठता. और अगर कभी हमारे बीच में कोई प्रौब्लम होगी तो हम एकदूसरे के साथ नहीं रहेंगे और उस के लिए हम दोनों मानसिक रूप से तैयार हैं,’’ स्वाति पूरे आत्मविश्वास से बोल रही थी.

‘‘और यदि तुम दोनों के बीच बने दैहिक संबंधों के कारण…’’ मैं ने हिचकते हुए सब से मुख्य सवाल भी पूछ ही लिया.

‘‘यह महानगर है, मां, तुम चिंता मत करो. मैं ने इस के लिए भी डाक्टर और काउंसलर दोनों से बात कर ली है.’’

‘‘अच्छा, तभी इतनी समझदारी की बात कर रही हो. ठीक है मैं भी जल्दी ही आती हूं तुम्हारे रोहन से मिलने.’’

‘‘सब से बड़ी समझदारी तो आप के संस्कारों और मेरे प्रति आप के विश्वास ने दी है मगर एक बात आप लोग भी याद रखिएगा, मां…कि आप उस से सिर्फ मेरा दोस्त समझ कर मिलिएगा, मेरा पति समझ कर नहीं.’’

स्वाति से बात कर मैं सोफे पर बैठ गई. स्वाति की बातें सुन यह महसूस हो रहा था कि बचपन से ही बच्चों की जड़ों में सुसंस्कारों और मर्यादित आचरण

का खादपानी देना हम मातापिता की जिम्मेदारी है. इन्हीं आदर्शों को स्वयं

में संचित कर ये बच्चे जब अपनी सोचसमझ से कोई निर्णय या अपनी इच्छा के अनुरूप चलना चाहते हैं, तब मातापिता का उन्हें अपना सहयोग देना समझदारी है.

स्वाति के चेहरे पर अब निश्ंिचतता के भाव थे.

श्यामा आंटी: सुगंधा की चापलूसी क्यूं काम नहीं आई?

फोनकी घंटी बजी. विदिशा ने फोन उठाया था. उधर वाचमैन था, ‘‘मैडम, आप को कामवाली की जरूरत है क्या? एक लेडी आई है. कह रही है कि आप ने उसे बुलाया है.’’

‘‘भेज दो.’’

विदिशा की कामवाली गांव गई हुई थी.

1 महीने से वे खाना बनाबना कर परेशान थीं. इसलिए वे अकसर सब से कहती रहती थीं कि कोई कामवाली बताओ. वे सोच रही थीं कि

जो भी होगी, उसे वह रख लेंगी, बाद में देखा जाएगा. तभी दरवाजे की घंटी बजी, ‘‘दीदी, जय बंसी वाले की…’’

तकरीबन 54-55 साल की पतलीछरहरी महिला, जिस का रंग गेहुंआ था, नैननक्श तीखे थे, साफसुथरी हलके रंग की साड़ी पहनी हुई थी. माथे पर चंदन का टीका लगाए हुई थी और गले में रुद्राक्ष की माला पहनी थी.

‘‘कैसे आई…’’

‘‘दीदी, हम नाम भूल रहे हैं, गेटकीपर

कहा था कि मैडम को खाना बनाने वाली की जरूरत है. हमें काम की जरूरत है, आप को कामवाली की.’’

 

विदिशा की मम्मीजी भी वहीं बैठी हुईर् थीं. उन्होंने मम्मीजी को उस से

बात करने के लिए इशारा किया.

‘‘पैसा कितना लोगी?’’

‘‘माताजी आप मेरा काम देख लो, फिर

जो ठीक लगे, वह दे देना. वैसे आप जो पहली को दे रही हो, उस से कम से कम क्व200 बढ़ा कर दे दो.’’

विदिशा उस की चतुराई पर मुसकरा उठी थी. वह उस की वाक कुशलता देख रही थी.

‘‘तुम अपना नाम तो बताओ?’’

‘‘हमारा नाम श्यामा है.’’

‘‘देखो, श्यामा, बुरा मत मानना, तुम कौन सी बिरादरी से हो?’’

‘‘हम बहुत ऊंचे कुल के ब्राह्मण हैं. प्रयागराज में ब्याह हुआ रहा. खूब चैनचौन रहा, लेकिन किस्मत फूट गई. एक दिन हमारे मालिक दुकान से आ रहे थे कि तभी उन की साइकिल में मोटर साइकिल वाले ने टक्कर मार दी और उन की सांस छूट गई. बस फिर तो सब की नजरें बदल गईं.

‘‘हम तो नौकरानी बन के भी खुश रहे, लेकिन एक रात हमारे ससुर रात को कमरे में आ गए. हम मुश्किल से अपनी इज्जत बचा पाए. अगले दिन 10 बरस की बिटिया का हाथ पकड़ कर घर से निकल आए. कुछ दिनों तक तो मायके में रही, लेकिन माताजी आप तो जानती हो कि जब अपना कोई नहीं तो सपना क्यों?’’

वह अपने पल्लू से अपने आसुंओं को पोंछ रही थी. मम्मीजी तो उस के आसुंओं को देख पिघल उठी थीं. बस, उसी क्षण से उन के घर में श्यामा आंटी का प्रवेश हो गया था.

‘‘जय बंसी वाले…’’ उन का तकिया कलाम था. वे आते और जाते समय जरूर बोलतीं. मम्मीजी की श्यामा आंटी से बहुत अच्छी बनती थी, यह भी उन के लिए बहुत खुशी की बात थी.

थोड़े दिनों में ही श्यामा आंटी ने अपनी पाककला और मीठीमीठी बातों से सब का दिल जीत लिया था. उन्हीं दिनों विदिशा की किट्टी की चिट निकल आई. अब तो श्यामा आंटी की पाककला, उन के लिए सोने में सुहागा की तरह था.

‘‘श्यामा आंटी, मेरे घर में किट्टी में 15-16 महिलाएं आएंगी. आप सब के लिए नाश्ता बना दीजिएगा.’’

‘‘अरे दीदी, आप चिंता न करें. आप जो भी कहेंगी हम सब बना देंगे. आप की सखियां उंगली चाटती हुई जाएंगी.’’

 

मौसम सुहावना हो रहा था. हलकीहलकी फुहारें पड़

रही थीं. ऐसे समय में विदिशाजी के यहां हरियाली तीज के उपलक्ष्य में ‘तीज मिलन’ की किट्टी थी. सभी महिलाएं हरेहरे परिधानों में सजी हुई थीं.

आज उन का घर हंसी के ठहाकों और खिलखिलाहट से गुंजायमान हो रहा था. आज विशेषरूप से हरियाली थीम रखी गई थी. विदिशाजी ने हरेहरे पत्तों और मोर पंखों के द्वारा सुंदर सजावट की थी.

स्टार्टअप में महिलाओं के सामने खस था. हराहरा शरबत और पालक की हरीहरी पकौडि़यां चटनी के साथ सब को बहुत पसंद आ रही थी. श्यामा आंटी पकौडि़यां सेंक भी रही थीं और ला कर दे भी रही थीं.

अंचल बोली, ‘‘विदिशा, यह नमूना तुम्हें कहां से मिला?’’

‘‘बस मिल गई.’’

‘‘कुछ भी कहो, आज जैसी पकौडि़यां और शरबत… मजा आ गया.’’

फिर तो अर्चना, गीता और पूनम सभी ईर्ष्या से विदिशा के भाग्य को सराहती हुईं लालची निगाहों से श्यामा आंटी की ओर देख रही थीं. पूनम बोली, ‘‘विदिशा, तुम्हारी श्यामा आंटी तो ऐसा लगता है कि किसी मंदिर से सीधा उठ कर आ गई हैं. पूरी मलिन लगती हैं.’’

‘‘धीरे बोलो, पूरी पंडिताइन हैं. प्याज

नहीं खातीं. जूठेमीठे का बहुत परहेज करती हैं और छुआछूत तो बस पूछो नहीं. डाइनिंग टेबल पर रखी कोई चीज नहीं खातीं. कई बार गुस्सा

भी जाती है, लेकिन यार, खाना बहुत टैस्टी

बनाती हैं.’’

‘हाउजी गेम’ पूरा हुआ ही था कि वे किचन से आ कर बोली थीं, ‘‘दीदी, नाश्ता डाइनिंग टेबल पर लगा दिया है. मैं पकौडि़यां सेंकने जा रही हूं.’’

 

सुगंधा हराहरा ढोकला चखते ही खुश हो कर बोली, ‘‘विदिशा, ढोकला क्या

हलदीराम से मंगाया है, बहुत सौफ्ट और टैस्टी है. वाहवाह… ऐसा लग रहा है, खाती जाऊं.’’

श्यामा आंटी ने सब की प्लेट में ढोकला रख दिया. तभी विदिशाजी ने उन की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘आज तो सारी चीजें श्यामा आंटी ने ही बनाई हैं…’’

सुगंधा तो चापलूसी कहते हुए बोली, ‘‘श्यामा आंटी, तुम्हारी कोई बहनवहन नहीं है क्या? मेरे लिए अपने गांव से ले आओ, उसे मुंहमांगे पैसे दूंगी. आशीष को तो खाने का

बहुत शौक है और संगीता तो कुछ अच्छा बनाती ही नहीं.’’

तभी विदिशा किचन से हरीहरी पूडि़यां और पालकपनीर की सब्जी सर्व करने लगी थी. वह अंदर पूडि़यां लेने गई थी तो श्यामा आंटी बोलीं, ‘‘दीदी, हाथ तो धो लेतीं, आप ने तो सब जूठा कर दिया. खैर मु?ो क्या? आप का घर है, जैसे चाहो वैसे करो,’’ वह तमतमा उठी थी लेकिन अपनेआप को कंट्रोल किया था.

उस की किट्टी अच्छी तरह संपन्न हुई इसलिए वह बहुत खुश थी. श्यामा आंटी के लजीज व्यंजनों के कारण आज उन की सखीसहेलियों के बीच उन का कद ऊंचा हो गया था.

‘‘दीदी, वीरवार को पीला कपड़ा पहना करो, ठाकुरजी का आशीर्वाद मिलता है. बंसीवाले, आप दोनों की जोड़ी बनाए रखें.’’

अखिल लंच के लिए आते तो वे घूंघट निकाल लेतीं और उन से घूंघट की ओट से

बात करतीं.

‘‘श्यामा, चावल का डोंगा रखना भूल गईर् हो, दे जाओ.’’

‘‘दीदी, आज एकादश है. इस दिन चावल नहीं खाना चाहिए.’’

अखिल को चावल बहुत पसंद थे, ‘‘सुनिए, हम लोग यह सब नहीं मानते… शाम को बना दीजिएगा.’’

‘‘भैया, एक दिन चावल न खाओगे तो क्या हो जाएगा?’’

उन की आंखों से टपटप आंसू बह रहे थे. वातावरण भारी हो गया था. उन्होंने पति को इशारे से चुप रहने को कहा था.

‘‘यह तुम्हारी श्यामा आंटी तो पूरी नाटक मंडली हैं.’’

एक दिन उन्होंने 1 बजा दिया. अखिल का आने का समय हो रहा था, इसलिए उन्होंने सब्जी छौंक दी थी, तभी वे आ गईं.

‘‘श्यामा आंटी, आज इतनी देर क्यों करा दी? भैया बस आने वाले ही होंगे.’’

‘‘दीदी, आज सावन का सोमवार है न, इसी वजह से हम आज उपासी हैं. मंदिर में भीड़ थी इसलिए देर हुई. हम तो दीदी, घर में मुंह में पानी भी नहीं डाले और भागे आए कि भैया को खाना में देर न हो जाए.’’

अब यदि श्यामा आंटी उपासी हैं, तो स्वाभाविक है कि उन की मालकिन विदिशा दीदी उन के लिए कुछ न कुछ फलाहार का इंतजाम तो करेंगी ही. उन्होंने फ्रिज से फल वगैरह निकाल कर रख दिए थे.

‘‘चलो मैं खाना बनाने में तुम्हारी हैल्प कर देती हूं.’’

‘‘नहीं दीदी, कोई बात नहीं है. हम बना लेते हैं. आप बिलकुल भी परेशान न हों.’’

वे उन्हें दिखादिखा कर फ्रिज से बारबार पानी निकाल कर पी रही थीं, ‘‘दीदी, आज गरमी बहुत है और उपासी भी है इसीलिए परेशान हैं.’’

‘‘जाओ, तुम अपने लिए जूस बना कर पी लो, तुम्हें आराम मिल जाएगा.’’

अब उन्होंने श्यामा आंटी से दूरी बना ली थी, ज्यादा बात नहीं करती थी. एक दिन वह काम में लगी थी, इसलिए अभी नहाई नहीं थी.

‘‘दीदी, बच के निकलो. हम नहाधो कर आए हैं. आप बासी कपड़ा पहने हो.’’

उन्हें गुस्सा तो बहुत जोर से आया पर अपनेआप को रोक लिया था. वह जितनी देर काम करतीं, कृष्णजी के पद गुनगुनाती रहतीं. उन्हें कभी उल?ान भी होती पर भगवान के नाम पर वे भला क्या बोलतीं.

‘‘दीदी, राधावल्लभ मंदिर में भागवत बैठी है. 5-6 दिन की बात है, हम जल्दी खाना बना दिए हैं. आप खाना गरम कर लेना.’’

वह संकोचवश मना नहीं कर पाई और श्यामा आंटी आराम से भागवतकथा का आनंद लेने चलती बनीं.

वे अकसर अपनी मीठीमीठी बातों के जाल में फंसा कर बेवकूफ बनाती रहतीं, ‘‘दीदी, आज रुक्मिणी विवाह है. पंडितजी कहते हैं कि साड़ी चढ़ाओ, सुहाग का समान चढ़ाओ. ठाकुरजी तुम्हारे सुहाग बनाए रखें. कोई मिलीजुली साड़ी रखी हो तो दे दो. हम तुम्हारे नाम से चढ़ा देंगे.’’

‘‘मेरे पास कहां रखी है कि मैं नई साड़ी दूं.’’

‘‘दीदी, क्व51 की सुहाग पिटरिया तो देखो, हम लाए हैं खरीद कर…’’

उस का मंतव्य सम?ाते हुए उन्होंने क्व500 का नोट निकाल कर दिया था, ‘‘लो, साड़ी खरीद लेना.’’

‘‘जय बंसी वाले की. आप दिल की बहुत बढि़या हैं…’’

उन्होंने गौर किया था कि जब से श्यामा आंटी ने काम करना शुरू किया था, शुरू में तो वे डरीडरी सी रहती थीं लेकिन जब साल बीत गया तो वे अपनी चालाकी दिखाने लगी थीं.

सोसायटी की मित्रमंडली में से अकसर ही कभी अनन्या तो कभी सुगंधा आ ही जाती फिर चाय पी कर जातीं लेकिन उन लोगों की निगाहें तो श्यामा आंटी पर ही लगी रहती, ‘‘आंटी, आप अपने गांव से अपनी जैसी औरत या लड़की मेरे लिए भी ले आइए.’’

वे भी बहुत तेज थी. हां में हां मिला कर कहतीं, ‘‘अपने गांव हम ने खबर कर दी है. रमा आ जाएगी.’’

अंचल तो लड़ पड़ी थी, ‘‘देखो विदिशा, तुम्हारे सामने की बात है, उसे तो मैं अपने घर में रखूंगी.’’

‘‘अरे यार, पहले आने तो दो,’’ कहते हुए उस दिन की सभा विसर्जित हुई थी.

सालभर के अंदर श्यामा आंटी पंडिताइन नाम से सोसायटी भर में मशहूर हो चुकी थीं. सोसायटी में उन्हें फुसलाने की होड़ लगी हुई थी.

पहले तो विदिशा के पास कभी पूनम तो कभी कल्पना का फोन आता, ‘‘दीदी, पंडिताइन को मेरे घर भेज देना. कुछ मनसा, पूजा का सामान रखा हुआ है.’’

रोजरोज के झमेलों से उन्हें उल?ान होने लगती थी. कभीकभी वह भुनभना भी उठती थी. उस ने गौर किया था कि श्यामा आंटी खूब घी, मसालेदार खाना बनाती थीं, जो स्वाद में तो सब को अच्छा लगता था मगर स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह था. वे अपनी पसंद का ही खाना बनातीं, चाहे कितना उन्हें बता कर आती लेकिन वे अपने हिसाब से अधिक बना लेतीं ताकि अपने घर खाना ले जा सकें.

घर के अंदर उन के सामने तो छुआछूत और जूठेमीठे का नाटक करतीं कि मैं कुछ भी नहीं खाऊंगी, आज पूर्णमाशी है, एकादशी है, आज मंगल का व्रत है. पर अब सम?ा में आने लगा था कि वह भरभर कर खाना अपने घर ले जाना चाहती हैं इसीलिए यहां खाने से मना कर देती थीं.

अब वह उन की होशियारी काफी कुछ पहचानने लगी थी. लेकिन सुगंधा, अर्चना, अंचल के घर से दानपुण्य के नाम पर रोज ?ोला भरभर कर सामान अपने साथ ले जाया करतीं.

अपनी पाककलाके बलबूते सोसायटी में कभी कहीं तो कभी कहीं नाश्ता बनाने की उन की बुकिंग रहती. अब नामचीन कुक के

साथसाथ पंडिताइन के लैबल के चलते उन की कमाई में चौगुनी बढ़ोत्तरी हो गई थी, साथ ही सब के मन में ब्राह्मणी के लिए आदर की भावना अलग से थी. महिलाएं उन के पैर छू कर उन से आशीर्वाद लेतीं.

सोसायटी में उन की जानपहचान की महिलाएं धार्मिक प्रवृत्ति की थीं. एकदूसरे को देख कर आपस में होड़ थी. यदि किसी ने साड़ी दी, तो आगेपीछे दूसरी भी साड़ी देगी.

अब श्यामा आंटी ने एक नया पैंतरा फैलाया था. वे अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए ज्ञान दिखातीं. अपने मीठे सुर में गा कर सब को सुनातीं.

जब कभी विदिशा नाराज होती तो वह धीरेधीरे गुनगुनाने लगती, ‘‘ऐसी बानी बोलिए मन का आपा खोए…’’

एक दिन मम्मीजी से पूछ रही थीं, ‘‘काहे माताजी तुम्हारे घर में महीना की छूट नहीं मानी जाती क्या?’’

अब वह देख रही थी कि श्यामा आंटी का खाना बनाने का काम सैकंडरी हो चुका था और सोसायटी में दूसरों के घरों में जा कर उन के काम करना प्राइमरी हो गया था.

उन्हीं दिनों पितृपक्ष शुरू हो गए थे. अब तो सभी महिलाओं को अपनेअपने पुरखों को खुश करने के लिए खाना बनाने के लिए भी पंडिताइन की जरूरत होती थी और खाना खाने के लिए पंडिताइन की आवश्यकता थी.

श्यामा आंटी की तो चांदी थी. रोज बढि़या खाना, नगद दक्षिणा और फलमिठाई… कहीं साड़ीकपड़ा तो कहीं बरतन. आदरसम्मान मुफ्त में.

अब वह उन के घर समयबेसमय आया करतीं और खाना भी आधाअधूरा या उलटासीधा बना कर, ‘‘आज जल्दी है कल कर दूंगी,’’ कह कर चल देती थीं.

चापलूसी करते हुए कहतीं, ‘‘दीदी, आप के घर काम तो कभी नहीं छोड़ूंगी. आप की वजह से ही तो हमें इतना काम मिला है.’’

मगर सचाई है कि रंगा हुआ सियार कभी न कभी असली रंग में आएगा ही.

एक दिन वे घर में खाना बना रही थीं कि तभी उन का पुराना इलैक्ट्रिशियन राहुल उन के घर आया. जैसे ही उस ने श्यामा आंटी को किचन में काम करते हुए देखा वह चौंक कर उसे देखता ही रह गया था.

उस समय विदिशा भी किचन में ही थी इसलिए श्यामा आंटी के चेहरे के उतारचढ़ाव को और साथ ही अपने होंठों पर उंगली रख कर उसे चुप रहने का इशारा करते हुए देख लिया था.

‘‘क्यों राहुल, तुम लोग एकदूसरे को जानते हो क्या?’’

वह कुछ जवाब दे पाता, इस के पहले ही श्यामा आंटी जोर से बोल पड़ी थीं, ‘‘नहीं न… इन को तो हम कभी देखे ही नहीं हैं…’’

लेकिन उन का उड़ा हुआ सफेद पड़ता चेहरा देख कर उन का शक पक्का हो गया था कि दाल में कुछ काला है.

‘‘क्यों रमा, तुम आंटी के किचन में कैसे घुस गईं?’’

‘‘कौन रमा, इस का नाम तो श्यामा है.’’

‘‘नहीं भाभी, इस का घर तो लालपुरा में है. मैं तो इन लोगों के पुरखों तक की जानकारी रखता हूं. भाभी, आप ने इस से खाना कैसे बनवाया? इस का पूरा परिवार ही यहीं रहता है और आएदिन आपस में सब लड़ते रहते हैं. इस की मां तो गांव के मंदिर के बाहर की सफाई करती थी.’’

इसी दौरान श्यामा आंटी जाने कब दबे पांव वहां से नौदो ग्यारह हो चुकी थीं. अगले दिन विदिशा लालपुरा की बस्ती में श्यामा के घर के आगे खड़ी थी. यह राज बस उन्हें ही मालूम रहेगा कि श्यामा आंटी कोई पंडिताइन नहीं, बल्कि रमा है और पूरे परिवार के साथ यहीं रहती हैं. काफी मानमनौव्वल और क्व100 बढ़वा कर ही श्यामा आंटी मानी थीं. अब हर रोज विदिशा को भी ‘जय बंसी वाले की’ बोलना पड़ता.

पछतावा-भाग 3: क्यूं परेशान थी सुधा

उधर से समीर ने क्या कहा, यह तो तन्वी सुन नहीं पाई. इस पर सुधा ने कहा. “आज घर पर आने के बाद पूछना उस से कि कौन था वह? जरा जोरदार आवाज में चिल्ला कर झगड़ा करना, अक्ल ठिकाने आ जाएगी उस की. चार लोग सुनेंगे तो उस का मजाक भी बनेगा. अच्छा, मैं फ़ोन रखती हूं. टाइम मिलने पर कौल करूंगी. बाय जानू.” और सुधा ने फ़ोन रख दिया. और तन्वी की तरफ देख कर बोली, “अब मजा आएगा. समीर घर जा कर काव्या से झगड़ा करेगा, गलियां देगा. और आसपास के लोग सुनेंगे. बड़ा मजा आएगा. सारी होशियारी धरी रह जाएगी उस की. बहुत सजसंवर कर घूमती है, अब पता चलेगा उस को.”

तन्वी ने सुधा से कहा, “दीदी, आप ने समीर से झूठ क्यों कहा, हम तो मार्केट गए ही नहीं. हम तो घर पर ही थे. आप ने ऐसा क्यों कहा?”

“तू नहीं समझेगी,” सुधा ने कहा, “उन दोनों के बीच झगड़े होते रहना चाहिए. तभी तो समीर मेरी मुट्ठी में रहेगा. झगडे होने से उन के बीच दूरियां बढ़ेंगी. जितना वे एकदूसरे से दूर होंगे, समीर उतना मेरे करीब होगा. उस की वाइफ, एक तो वह पढ़ीलिखी है, सुंदर भी है और मैं दिखने में साधारण हूं. इसलिए समीर को काव्या के खिलाफ भड़काती रहती हूं ताकि उन के बीच मनमुटाव चलता रहे. इस का मैं फायदा उठाती हूं. जो कहती हूं, समीर मानता है.”

“इस का मतलब, तुम काव्या से जलती हो. किसी की गृहस्थी क्यों बरबाद कर रही हो? समीर तो वैसे भी तुम्हारे जाल में फंसा हुआ है, जो थोड़ाबहुत रिश्ता उन दोनों के बीच बचा हुआ है, उसे भी क्यों ख़त्म कर देना चाहती हो? सच तो यह है, दीदी, तुम काव्य से जलती हो. तुम उस की बराबरी करने की कोशिश करती हो. इसलिए जैसे वह कपडे पहनती है, जिस रंग के पहनती है, उसी रंग और डिजाइन के कपड़े खरीदती हो, चाहे वो तुम पर फबे या न. चूंकि काव्या ने पहने है, इसलिए तुम्हें भी पहनना होता है. हर चीज में तुम उस की बराबरी करने की कोशिश करती हो यह दिखाने के लिए कि तुम उस से कम नहीं हो. लेकिन इस से सचाई बदल नहीं जाएगी और न ही तुम उस के जैसी बन पाओगी क्योंकि कुछ गुण व्यक्ति के जन्मजात होते है,” तन्वी ने कहा.

सुधा को तन्वी की बातें सुन कर गुस्सा आ गया. वह चिढ़ती हुई बोली, “तू मेरी बहन है कि उस की. तरफदारी तो ऐसे कर रही है जैसे उसे बरसों से जानती हो.”

“इस पर तन्वी बोली, “मैं तो सिर्फ सचाई बता रही हूं आप को. इस में बुरा मानने की क्या बात है. दीदी, एक बात मैं आप से और कहना चाहती थी. अपने बच्चों को लड़ाईझगड़ा करने के लिए बढ़ावा देना अच्छी बात नहीं है. अभी स्कूल में हैं, कालेज में जाएंगे. यह सब चलता रहा तो पिंटू गुंडागर्दी करने लगेगा. रोज इसी तरह शिकायतें आएंगी. उस वक्त क्या करोगी जब किसी दिन उस को जेल जाना पड़ जाएगा. बेहतरी इसी में है कि उसे अभी रोका जाए.”

“इतना सुनते ही सुधा गुस्से से बोली, “यह मेरे घर का मामला है, तू इस में अपनी टांग मत अड़ा. मैंतेरे से बड़ी हूं और मुझे अच्छे से पता है कि मुझे क्या करना है. तुझे सलाह देने की जरूरत नहीं है.”

तन्वी ने भी गुस्से से कहा, “दीदी, आप अभी समझ नहीं रही हो कि आप क्या कर रही हो. बच्चों को गलत शिक्षा दे रही हो. निशा को पराए आदमी को कैसे चिकनीचुपड़ी बातें कर के अपने जाल में फंसाना सिखा रही हो. सुबह से ले कर आधी रात तक सामने वाले फ्लैट की गतिविधियों पर नजर रखती हो. कुछ चलपहल दिखाई न दे तो तुरंत निशा और पिंटू को देखने भेजती हो. घर पर कोई है या ताला लगा है? उस दिन तुम ने यही देखने के लिए पिंटू को भेजा था. और आ कर उस ने इशारे से वही कहा था. मुझे बेवकूफ मत समझना, दीदी.”

“मैं तुम्हें बहुत अच्छे से जानती हूं और तुम्हारे हथकंडे भी पहचानती हूं,” तन्वी ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा, “छोटीमोटी ताकझांक करना, बातों को मिर्चमसाला लगा कर बताना तो औरतों की आदत होती है. तुम जो कर कर रही हो, वह एक अपराध है. और उस में तुम ने अपने बच्चों को भी शामिल कर रखा है. यह किसी की सुरक्षा का भी सवाल है. आखिर, तुम्हें उस फ्लैट में इतनी दिलचस्पी क्यों है? क्या जानना चाहती हो? या किसी और व्यक्ति ने तुम से निगरानी रखने के लिए कहा है जिस को तुम सब इन्फौर्मेशन देती हो. अगर किसी को पता चल गया कि तुम चौबीस घंटे निगरानी कर रही हो, तो तुम किसी मुसीबत में फंस सकती हो. तुम्हारे खिलाफ थाने में रिपोर्ट लिखाई जा सकती है. यह काफी गंभीर मामला है जिसे तुम मजाक समझ रही हो. दिनभर पता नहीं क्याक्या प्लानिंग, प्लौटिंग करती हो. एक षड्यंत्रकारी दिमाग है तुम्हारा.

“इतना ही नहीं, तुम्हारे बौयफ्रैंड यानी तुम्हारे प्रेमियों के बारे में भी तुम्हारे बच्चों को सब पता है. निशा 16 साल की है और तुम्हारा पाठक अंकल के साथ, समीर के साथ दसबारह साल से चक्कर चल रहा है. इस का मतलब निशा 6 या 7 साल की होगी और पिंटू 5 साल का. 5 और 6 साल के बच्चे कितने अबोध होते है. मातापिता की उंगली पकड़ कर चलते हैं. इतनी छोटी उम्र के बच्चों को पता है कि उन की मां के 2 बौयफ्रैंड हैं. शर्म नहीं आती, दीदी तुम को ये सब करते हुए.

“तुम्हारे स्कूल के बौयफ्रैंड अलग थे. 8वीं, 9वीं क्लास से तुम्हारे अफेयर शुरू हो गए थे. कालेज में अलग बौयफ्रैंड बनाए. इसी कारण तुम 2 बार फेल भी हुईं. पापा ने जैसेतैसे तुम को ग्रेजुएशन करवाया, ताकि शादी के लिए आए रिश्तों को बता सकें कि तुम ग्रेजुएट हो. शादी के समय मम्मीपापा ने कितना समझाया था कि नया जीवन शुरू करने जा रही हो, अब किसी पराए आदमी से अफेयर मत करना. शादी के पहले किए गए अफेयर को नादानी या भूल समझ कर माफ़ किया जा सकता है लेकिन शादी के बाद के अफेयर भूल नहीं कहलाते. और तुम ने तो अपने ऐशोआराम के लिए अफेयर किए हैं. और महंगे गिफ्ट के लिए तुम इतना नीचे गिर गईं कि समीर और पाठक अंकल के साथ तुम्हारे शारीरिक संबंध भी हैं. और तुम्हारे बच्चे सब जानते हैं. कितनी शर्म की बात है. मम्मीपापा को पता चलेगा तो उन पर क्या बीतेगी, कभी सोचा है तुम ने?

“तुम जब हमारे यहां आती थीं, तुम्हारे बच्चे कितना शोऔफ करते थे. आयुष और पूर्वी ने मुझ से कहा भी था कि   मम्मी, पिंटू और निशा दीदी बहुत शोऔफ करते हैं. कुछ भी सामान छूने नहीं देते. और कहते हैं, ‘हाथ मत लगाओ. बहुत महंगा है, फालतू की बातें करते हैं.’ भैयाभाभी ने भी शिकायत की थी कि   सुधा ने अपने बच्चों को तमीज नहीं सिखाई है. बड़ों से कैसे बात की जाती है, इस का उन को जरा भी तरीका नहीं है. अपने से बड़े लोगों का मजाक बनाते हैं वे. यह सब सही नहीं है. और तुम खुद भी तो शान बघारती रहती थीं. उन सब के पीछे का राज अब पता चला है. तुम्हारे महंगे कपड़े, जूते जीजाजी ने नहीं, तुम्हारे प्रेमी ने दिए हैं. दूसरों के दिए हुए सामान पर तुम और तुम्हारे बच्चे इतराते फिरते हैं.”

सुधा तन्वी की कड़वी बातें सुन कर एकाएक गुस्से में आ गई और चिल्ला कर बोली, “तू मुझ से जलती है, मेरे बच्चों से जलती है. इसीलिए अपने मन की भड़ास निकाल रही है. तुम नहीं ले सकतीं महंगा सामान, इसीलिए यह सब बोल रही हो. तेरे पति की इतनी इनकम नहीं है न.”   तन्वी ने कहा, “चिल्लाओ मत, दीदी. चिल्लाने से सचाई बदल नहीं जाएगी. तुम इन सामान के लिए किस हद तक गिरी हो, मुझे मालूम है. रही मेरी बात, तो मैं ने अपनी चादर से बाहर कभी पैर नहीं निकाले. जैसे मेरे पति ने मुझे रखा, मैं रही. जो खिलाया वह खाया. जो पहनाया वह पहना. तुम्हारे जैसे कीमती चीजों के लिए न तो कभी कोई अफेयर किया और न किसी से शारीरिक संबंध रखे.

“हर औरत को अपने पति की सैलरी के हिसाब से ही खर्च करना चाहिए. मैं उन लड़कियों जैसी नहीं हूं जो मायके से मांगमांग कर अपना घर भर लेती हैं. और न ही तुम्हारी तरह इतना नीचे गिर सकती हूं. मेरे साथ अपनी तुलना कभी मत करना क्योंकि मैं, मैं हूं और तुम, तुम जो पैसों के लिए कुछ भी कर सकती हो. तुम जैसी औरतों के कारण पुरुषों को लगता है कि औरतें पैसों की लालची होती हैं. और इसीलिए वे पैसों का दिखावा करते हैं. लेकिन यह सच नहीं है. हर औरत तुम्हारी तरह लालची और स्वार्थी नहीं होती है. पहले अपने गिरेबान में झांको कि तुम क्या हो, फिर मुझ पर इलजाम लगाना.”

“तन्वी, तुम अब अपनी हदें पार कर रही हो,” सुधा बौखलाती हुई बोली.

“हदें तो तुम ने पार की हैं, दीदी. मैं तो सिर्फ सचाई बता रही हूं,” तन्वी ने कहा, “इतना बुरा लग रहा है तो ऐसे काम करती क्यों हो. सुबह से ले कर रात तक मोबाइल से चिपकी रहती हो. न घर पर ध्यान है और न बच्चों पर. बस, पास हो जाते है वो. कम मार्क्स होने के कारण किसी भी अच्छे कालेज में उन को एडमिशन नहीं मिलेगा. एक तो हम ओपन कैटेगिरी में आते है. तुम्हारे बच्चे गूंगेबहरे भी नहीं हैं. उन के हाथपैर भी सहीसलामत हैं. इसलिए विकलांग कोटे में भी एडमिशन नहीं मिलेगा. डोनेशन के आधार पर यदि किसी कालेज में एडमिशन मिल भी गया तो करीब 5 से 6 लाख डोनेशन देना पड़ेगा. फिर एकडेढ़ लाख रुपए उस की फीस रहेगी. तो करीब सातआठ लाख रुपए में सिर्फ एडमिशन होगा. डाक्टर या इंजीनियरिंग का 4 या 5 साल का खर्चा 15 से 20 लाख रुपए होगा. तुम्हारे बच्चे पढ़ाई में एवरेज हैं. वे फेल भी हो सकते है. फिर तुम्हारा पैसा बरबाद हो जाएगा. तुम्हारे बौयफ्रैंड समीर और पाठक अंकल इतने बड़े बेवकूफ तो नहीं होंगे कि तुम्हारे बच्चों पर लाखों खर्च करें. तुम तो उन से ही मांगोगी यह दुहाई देते हुए कि   आप ने एडमिशन करवाया है, तो अब आप को ही देने पड़ेंगे. मेरे पास तो नहीं हैं इतने पैसे. तुम को मुफ्त में खाने की जो आदत है.”

सुधा गुस्से में आगबबूला हो गई. उस ने अपनी कमर पर हाथ रखा और तन्वी पर चिल्लाते हुए बोली, “शट अप, इस के आगे और एक शब्द बोली तो मैं तुम्हारी जबान खींच लूंगी.”

“यू शट अप,” तन्वी बोली, “मुझे चुप करा देने से दुनिया के मुंह पर ताला नहीं लगा सकोगी. उस दिन हमें देख कर तुम्हारी सोसायटी की औरतें कितना खुसुरफुसुर कर रही थीं. क्या शिक्षा दे रही हो तुम अपने बच्चों को. आदमियों को अपनी लच्छेदार बातों से अपने जाल में फंसाना, अपने बौयफ्रैंड के अजबोगरीब नाम रखना, दूसरों के घरों में ताकझांक करना, बड़ों का मजाक बनाना, बदतमीजी से बात करना, लड़ाईझगड़ा करना, घमंड दिखाना और तो और अपने बौयफ्रैंड से क्या चाहिए उस के लिए महंगे सामान की लिस्ट बनाना आदि. एक मां तो अपने बच्चे को गलत राह पर जाने से रोकती है. उस के लिए वह सख्ती भी बरतती है. और तुम, तुम उन को अंधी गलियों और दिशाहीन रास्ते की ओर धकेल रही हो. मां के नाम पर तुम   एक ब्लैक डौट हो.

“मिडिल क्लास परिवारों में कई बार सैक्रिफाइज करने पड़ते हैं. अपनी इच्छाओं का दमन कर के परिवारहित में सोचना पड़ता है. परिवार ही सर्वोपरि माना जाता है. हर औरत कीमती गहने, कपड़े पहनना चाहती है, घूमनाफिरना चाहती है. लेकिन पति की कम इनकम के कारण यह संभव नहीं हो पता है. अगर हर औरत तुम्हारी तरह सोचे और इतने अफेयर करे जिन की गिनती नहीं और तुम्हारी तरह सारी मर्यादाएनिमेशन लांघ जाए तो समाज किधर जाएगा. समाज को न तो तुम्हारे जैसे विचारों की जरूरत है और न ही तुम्हारे जैसे लोगों की. वह कहते हैं न,   एक मछली पूरे तालाब को गंदा करती है.   तुम्हारी जैसी औरते सिर्फ गंदगी ही फैलाने का काम करती हैं.

“अवैध संबंध न पहले कभी स्वीकारे गए थे, न आज स्वीकारे जाते हैं. और न ही आगे स्वीकारे जाएंगे. स्वीकारे जाना भी नहीं चाहिए क्योंकि इस में 2 परिवार टूटते हैं. बच्चों की कस्टडी को ले कर पेरैंट्स कोर्ट तक जाते हैं. उन के अवैध संबंधों का खमियाजा मासूम बच्चों को भुगतना पड़ता है. जिस के कारण वे डिप्रैशन का शिकार होते हैं. ऐसे में वे ड्रग्स का सेवन करने लगते हैं. वे एन्जायटी और फ्रस्ट्रेशन का शिकार होने लगते हैं. तुम जैसी औरतों को तो अपनी मौज़मस्ती से मतलब है. यदि जीजाजी किसी दूसरी औरत के साथ अफेयर कर लें और अपनी पूरी सैलरी उस पर लुटाएं, तुम को और बच्चों को निगलैक्ट करें, तो तुम्हें कैसा लगेगा?”

“सुधा तमतमा कर बोली, “ऐसा कैसे हो सकता है. मैं उन की बैंड बजा दूंगी.”

इस पर तन्वी बोली, “वाह दीदी, तुम को सुन कर इतना गुस्सा आ रहा है और दूसरे के पतियों को अपने स्वार्थ के लिए अपने जाल में फांस कर रखा है. उस के लिए क्या कहोगी. तुम्हारी यह जो ऐयाशी चालू है, क्या यह सही है?”

“ऐयाशी किस को कह रही है?” सुधा चिढ़ती हुई बोली.

“नहीं तो यह तुम्हारा धरमकरम कहा जाएगा क्या?” तन्वी भी गुस्से से बोली, “और अब यह नया नाटक क्या चालू किया है. सुबह से प्रवचन चालू कर देती हो टीवी पर. फिर दोतीन घंटे फुल वौल्यूम पर भजनकीर्तन चालू कर देती हो. हर आधे घंटे में तुम बालकनी में जाजा कर घंटी बजाती हो रात के सोने तक. पूजा भी सुबहशाम ही लोग करते हैं वह भी अपने भगवान के सामने, न कि बाहर बालकनी में घंटी बजाबजा कर? किस को नीचा दिखा रही हो. लोगों को नीचा दिखाने की तुम्हारी पुरानी आदत है. 2 महीने पहले तक तो तुम्हारा पूजापाठ से कोई लेनादेना नहीं था. अचानक तुम्हारे भीतर ईश्वर की इतनी गहरी भक्ति कैसे जाग गई. 2 महीने पहले, जब बूआजी के यहां हम मिले थे उन के यहां नए घर की वास्तुपूजा में, तुम को जरा भी रुचि नहीं थी पूजा में. पूरे समय फ़ोन पर चिपकी थीं. कितनी बार तुम को बुलाने के लिए बच्चों को भेजा था, तब आई थीं. और हम लोगों से कहा था कि ‘मुझे पूजापाठ में कोई इंट्रैस्ट नहीं है.  इसलिए, अपनी भक्ति का यह ढोंग बंद करो. अगर सही माने में तुम ने प्रवचन सुने होते तो आज तुम्हारी गाड़ी पटरी से न उतरी होती.”

“यह दिखावा, यह पाखंड किस के लिए, जबकि सब जानते हैं कि असलियत क्या है,” तन्वी ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “इतनी ही शुद्ध हदय की यदि तुम होतीं, तो छलकपट, प्रपंच, षड़यंत्र, लालच और स्वार्थ की पुड़िया न होतीं. झूठी बातें कह कर पतिपत्नी के बीच झगड़े न करतीं. यही सब यदि तुम्हारे साथ हो, तुम्हें कैसा लगेगा. आज निशा 16 साल की है. और 6-7  साल बाद तुम उस की शादी करोगी. यदि ससुराल ख़राब मिल गई, सास व ननद ने निशा के खिलाफ अपने बेटे के कान भरने शुरू कर दिए, ननद ने झूठ बोलबोल कर उन दोनों के बीच झगड़े कराए तो तुम्हारी लड़की की जिंदगी नरक बन जाएगी. और तुम्हारा दामाद चरित्रहीन निकला तो उस की जिंदगी तो बरबाद हो गई. मैं ठीक कह रही हूं न, दीदी.”

अभी तक सुधा, जो तन्वी की बातें सुन रही थी, चीखती हुई बोली, “तू मेरी बहन है कि दुश्मन, कब से अनापशनाप बके जा रही है. मैं कुछ बोल नहीं रही हूं, इस का मतलब यह नहीं कि जो मरजी आए, वह बोलती रहे.”

तन्वी ने अब चिल्ला कर कहा, “दीदी, तुम कुछ बोल भी नहीं सकतीं गलती जो कर रही हो. अपनी बेटी के लिए तुम से सुना नहीं जा रहा है. और जो समीर और पाठक अंकल की पत्नियों के साथ जो तुम कर रही हो, क्या वह सब उचित है. जो ताने तुम नहीं सुन सकतीं वे दूसरों के लिए क्यों? जो व्यवहार तुम्हें पसंद नहीं, दूसरों के साथ क्यों, जो बेवफाई तुम्हें पसंद नहीं, दूसरों के साथ क्यों? यह वह सचाई है जिसे तुम चाह कर भी झुठला नहीं सकतीं. तुम्हारा डबल स्टैंडर्ड मैं जान चुकी हूं. तुम जानबूझ कर समीर और पाठक अंकल का घर बरबाद कर रही हो. किसी की खुशियां छीन कर, किसी की आंखों में आंसू दे कर अपने लिए जिन खुशियों का महल खड़ा करना चाहती हो, vताश के पत्तों के भांति भरभरा कर गिर जाएंगी. और जो काम जानबूझ कर किए जाते हैं वे गलती नहीं,  गुनाह कहलाते हैं. और गुनाह की सजा मिलती है. घर तोड़ने जैसा पाप जो तुम कर रही हो, इस की सजा तो तुम्हें मिल कर रहेगी. दूसरों की जो तुम खुशियां छीन रही हो, तुम से भी तुम्हारी खुशियां एक दिन छीनी जाएंगी. और उस दिन   पछताने   के अलावा तुम्हारे पास कुछ नहीं रहेगा. याद रखना दीदी, नाटक कितना भी लंबा चले, परदा गिरता जरूर है. तुम जीजाजी, समीर और पाठक अंकल इन तीनों को एकसाथ धोखा दे रही हो.”

इस पर सुधा बोली, “चार किताबें क्या पढ़ लीं, अपने को बहुत होशियार समझने लगी है.”

“शुक्र है कि मुझे किताबों में लिखी शिक्षा और जीवन के नैतिक मूल्य आज भी याद हैं. वही चार किताबें तुम ने भी पढ़ी थीं. लेकिन तुम सबकुछ भूल गईं. इसलिए आज बरबादी के रास्ते पर चल पड़ी हो. एक भ्रम की दुनिया में जी रही हो. तुम सोचती हो कि समीर और पाठक अंकल को अपनी उंगलियों पर नचा रही हो. हो सकता है, वास्तविकता कुछ और ही हो. उन दोनों के लिए तुम एक   टाइमपास भी हो सकती हो. पाठक अंकल तो ठहरे रिटायर आदमी और समीर में लड़कपन है. उस में तो गंभीरता भी कम है. गलत चीजों को कभी भी त्यागा जा सकता है. बुराई के रास्ते से वापस लौटा जा सकता है. देर कभी भी किसी भी चीज के लिए नहीं होती है. लेकिन यह तभी संभव है जब तुम में गलत चीजों को छोड़ने का, बुराई को त्यागने का जज्बा पैदा हो. जब आंख खुले तब सवेरा.”

सुधा झटके से उठी और दनदनाती हुई बच्चों के कमरे में गई. वहां से तन्वी का सारा सामान उठा कर लाई और जमीन पर फेंकते हुए बोली, “मेरे ही घर में खड़े रह कर मुझे बातें सुना रही है. अपना बोरियाबिस्तर बांध और निकल जा मेरे घर से. और अब कभी मेरे घर मत आना. वैसे भी, तेरा आना मुझे खल रहा था. बड़ी आई मुझे सहीगलत बताने वाली. यह जो तेरा भाषण है, अपने बच्चों को सुनाना. उन के काम आएगा. मुझे और मेरे बच्चों को तेरी सलाह की जरूरत नहीं है.”

जमीन पर बिखरे सामान को समेटती हुई तन्वी बोली, “गलत चीजें होते हुए मैं नहीं देख सकती. और न ही गलत चीजों का समर्थन करती हूं. जहां सम्मान न मिले वहां मैं जाती भी नहीं. और ऐसे रिश्तों से जुड़े रहने का कोई फायदा भी नहीं. दिखावे के रिश्ते एक न एक दिन टूट ही जाते हैं बनावटी जो होते हैं. रिश्तों का लिहाज भी एक हद तक ही किया जाना चाहिए. ऐसे रिश्ते निभा कर भी क्या फायदा. सो, उन से दूर रहने में ही अपनी भलाई है. मैं तो खुद ही अपने घर जा रही थी. और यही बताने तुम्हारे पास आई थी.

“आज तुम होश में नहीं हो. आसमान में उड़ रही हो. लेकिन एक दिन जब तुम आसमान से नीचे जमीन पर गिरेगी, जिंदगी की वास्तविकता से जब तुम्हारा सामना होगा, तब तुम्हें पता चलेगा की यथार्थ का धरातल कितना खुरदुरा और सख्त होता है . जो बोया है वही काटोगी. इंसान को अपने कर्मो की सजा इसी दुनिया में भुगतनी पड़ती है. तुम ने लोगों की खुशियां छीनने का जो पाप किया है, उस के लिए तुम्हें माफ़ नहीं जाएगा. इस की सजा तो तुम्हें मिल कर रहेगी. आज के बाद मैं कभी तुम्हारे घर नहीं आऊंगी. आज इस रिश्ते को हमेशा के लिए मैं ख़त्म कर के जा रही हूं. मैं सबकुछ बरदाश्त कर सकती हूं, अपना अपमान बरदाश्त नहीं कर सकती.” यह कह कर तन्वी ने अपना ब्रीफकेस उठाया और सुधा की तरफ देखे बगैर तेजी से बाहर निकल गई.

ट्रेन में बैठी तन्वी सोच रही थी कि जहां आज कदमकदम पर धोखा और फरेब है वहीं पाठक अंकल और समीर जैसे पढ़ेलिखे, उच्च पदों पर कार्यरत लोग सुधा दीदी जैसी औरतों पर अंधा विश्वास कैसे कर सकते हैं. इन दस सालों में वे इतना तो समझ चुके होंगे कि सुधा दीदी कितनी लालची और स्वार्थी औरत है. हो सकता है जीजाजी भी दीदी के साथ मिल कर समीर और पाठक अंकल को बेवकूफ बना रहे हों. पैसा और प्रौपर्टी देख कर अच्छेअच्छों का ईमान डोल जात्ता है. नीयत ख़राब होने में कितनी देर लगती है. आएदिन अखबारों में हम इन्हीं धोखाधड़ी के किस्से पढ़ते हैं. कुछ भी कहा नहीं जा सकता. यह दुनिया है, कुछ भी हो सकता है. इतने सालों से दीदी के अफेयर चल रहे है, जीजाजी को कानोंकान खबर भी नहीं है, ऐसा कैसे हो सकता है. कभी दीदी पर शक भी नहीं हुआ? इतने महंगे मोबाइल, सामान दीदी और बच्चों के पास कहां से आ रहे हैं. जीजाजी गूंगेबहरे बन कर तमाशा क्यों देख रहे हैं. इन की क्या वजह हो सकती है. ऐसे कई सवाल तन्वी के दिमाग में घूम रहे थे जिन के जवाब उसे नहीं मिल पा रहे थे. तभी ट्रेन ने सीटी बजाई और चल पड़ी. धीरेधीरे प्लेटफौर्म छूटने लगा.

तन्वी ने आख़री बार प्लेटफौर्म पर एक सरसरी निगाह डाली, क्योंकि अब इस प्लेटफौर्म से उस का कोई वास्ता नहीं रह गया था. तन्वी ने अपने बैग से मोबाइल निकाला. आयुष और पूर्वी को मैसेज किया कि वह घर आ रही है.

इधर, पाठक अंकल किराना लेने गए थे, सोचा, पान भी लेते चलता हूं. पान की दुकान पर पहुंचे ही थे कि किसी की आवाज उन के कानों से टकराई. उन्होंने देखा, 2 आदमी पान की दुकान पर खड़े बात कर रहे थे. उन की शक्ल पाठक अंकल को जानीपहचानी लग रही थी. उन का नाम याद नहीं आ रहा था. इसी पान की दुकान पर उन दोनों को कई बार उन्होंने देखा था. उन में से एक कह रहा था,  “बहुत घूम रही है आजकल वह अपने आशिक के साथ.”

“किस की बात कर रहे हो, यार?” दूसरे ने पूछा.

“अरे वही, अपनी सोसायटी की अनारकली, पिंटू की मम्मी,” उस ने पान चबाते हुए कहा.

“अरे, क्या बात कर रहे हो, सक्सेनाजी, क्या सच में?”

“हां, मैं सच कह रहा हूं, मिश्राजी. समीर को तो जानते हो न आप. बस, उसी के साथ घूमती फिर रही है. दोचार बार तो मैं ने भी देखा है उस को,” सक्सेनाजी ने कहा.

इस पर मिश्राजी ने कहा, “मेरी मिसेस ने बताया था मेरे को उस के बारे में कि वह अच्छी औरत नहीं है. सोसाइटी में लोग उस के बारे में तरहतरह की बातें करते हैं. पर मैं ने इन बातों पर कभी ध्यान नहीं दिया.”

जैसे ही पाठक अंकल ने ये बातें सुनीं, उन के तो होश उड़ गए. सुधा का मेरे अलावा किसी और के साथ भी अफेयर है. और उस के साथ घूमफिर भी रही है. इस का मतलब वह मुझे बेवकूफ बना रही है. उन्होंने पान नहीं लिया. और घर की ओर चल पड़े. रास्तेभर वे यही सोच रहे थे कि आखिर उस ने समीर से चक्कर क्यों चलाया. हम दोनों को मूर्ख बना रही है. पैसा मेरा खाती है और गुलछर्रे उस समीर के साथ उड़ा रही है. शायद पैसों के लिए ही उस ने मेरे जैसे वरिष्ठ आदमी से रिश्ता जोड़ा. क्योंकि मैं तो उस से करीब 15 साल बड़ा हूं. समीर को तो मैं बहुत अच्छे से जानता होण. अच्छी कदकाठी है. दिखने में भी स्मार्ट है. यह सब सोचसोच कर उन का दिमाग भिन्नाने लगा.

वे जल्दी से जल्दी घर पहुंच कर सुधा से बात करना चाहते थे. उन्होंने रास्ते में ही उस को मैसेज कर दिया. और कहा कि मैं तुझ से मिलना चाहता हूं. आज शाम को उसी स्थान पर मिलना जहां हम वौकिंग के समय मिलते हैं.

जवाब में सुधा ने लिखा, “कल मिलती हूं आप से. आज मैं जरा बिजी हूं.”

कोई और दिन होता तो पाठक अंकल शायद मान जाते लेकिन समीर का खयाल आते ही उन्होंने कहा, “नहीं, मुझे आज ही मिलना है. मैं तुम्हारा वहीं पर इंतज़ार करूंगा.”

सुधा ने ‘ओके’ लिखा.

पाठक अंकल सोचने लगे हो सकता है, आज फिर समीर के साथ कहीं जाना होगा, इसलिए मुझ से झूठ बोल रही हो. नियत समय पर पाठक अंकल उस जगह पर पहुंच गए. थोड़ी देर में सुधा भी वहां पहुंच गई और पहुंचते ही पाठक अंकल पर बरस पड़ी, बोली, “इतनी भी क्या इमरजैंसी थी कि कल तक के लिए रुक नहीं सकते थे. मैं यदि न आना चाहती, तो आप आने के लिए मुझ पर दबाव क्यों डालते हो?”

पाठक अंकल ने बिना कुछ इस का जवाब दिए सुधा से पूछा, “यह समीर कौन है और इस के साथ तुम्हारा अफेयर कब से चल रहा है?”

पाठक अंकल का यों अचानक समीर के बारे में पूछने से सुधा सकपका गई. उस से कुछ बोलते न बना. वह सोचने लगी, इन को समीर के बारे में कैसे पता चला. फिर भी हकलाती हुई बोली, “कौन समीर? मैं उसे नहीं जानती.”

पाठक अंकल बोले, “उसे नहीं जानतीं या बताना नहीं चाहती हो? लेकिन मुझे सब पता चल गया है.”

इस पर चिढ़ती हुई सुधा ने कहा, “पता नहीं किस ने तुम्हारे कान मेरे खिलाफ भर दिए हैं जो आप ऊलजलूल बातें कर रहे हैं.”

अब पाठक अंकल को गुस्सा आ गया, चिल्लाते हुए बोले, “झूठ बोलते तुम को शर्म नहीं आती है. अपने से छोटी उम्र के लड़के के साथ मटरगश्ती करती फिर रही हो. और मुझे बेवकूफ बना रही हो.”

इतना सुनते ही सुधा को भी गुस्सा आ गया. उस ने भी ऊंची आवाज में कहा, “चिल्लाओ मत, अंकल. मैं तुम्हारी पत्नी नहीं हूं जो चुपचाप सबकुछ सुन लूंगी. अपनी पत्नी को तुम ने जूते की नोक पर रखा होगा. मैं तुम से दबने वाली नहीं हूं. ये तेवर अपनी पत्नी को दिखाना, मुझे नहीं. वह झेलती होगी तुम्हें और तुम्हारी ज्यादतियों को. अगली बार मुझ से ऊंची आवाज में बात करने की कोशिश भी मत करना. हां, है मेरा समीर के साथ अफेयर. इस से तुम्हें क्या? मेरी अपनी जिंदगी है और मैं अपने हिसाब से जीती हूं. किसी और की मरजी से नहीं.”

थी सुधा का यह रूप देख कर पाठक अंकल हैरान रह गए. उस के तो तेवर ही बदल गए थे. एक तो चोरी, ऊपर से सीनाजोरी. पाठक अंकल सोच में पड़ गए. सुधा के मन में जो आ रहा था, बोले जा रही थी. उस को बीच में ही रोकते हुए पाठक अंकल बोले, “तुम ने मेरे साथ प्यार का झूठा नाटक किया. तुम्हारा मेरे लिए प्यार एक सौदेबाजी था. हर महीने मुझ से कहती हो, मुझे शौपिंग कराओ. और लंबीचौड़ी लिस्ट थमा देती हो. मुझे तो तुम जैसी लालची और मतलबी औरत के जाल में फंसना ही नहीं था.

इस पर सुधा बोली, “आप कौन से दूध के धुले हुए हो. अपनी औरत को धोखा दे रहे हो. मैं तुम्हारी पत्नी को सब बता दूंगी. तुम्हारी पोल खोल कर रख दूंगी.”

इस के जवाब में पाठक अंकल बोले, “तुम क्या मेरी पोल खोलोगी, तुम्हारी सारी सचाई मेरे सामने आ गई है. तुम बहुत ही चालक औरत हो. मुझे ही तुम ने अपने घर बुलाया. तुम मेरे साथ शारीरिक संबंध रखना चाहती थी. संबंध हम दोनों की मरजी से बने हैं, इसलिए जितना दोषी मैं हूं, उतनी ही दोषी तुम भी हो. तुम्हारी उम्र इतनी छोटी भी नहीं है कि तुम्हें किसी ने बहलाफुसला लिया हो. तुम्हारी इस में पूरी रजामंदी शामिल थी. क्याक्या नहीं मांगा तुम ने. तुम्हारे और बच्चों के लिए लैपटौप, स्मार्टफ़ोन, हैंडीकैम, टेबलेट और यहां तक कि किचन के लिए ओवन, राइस कुकर, ग्राइंडर, कुकिंग रेंज, घर के लिए फर्नीचर, कर्टेन और जिस सोफे पर तुम पसरपसर कर बैठती हो उस की कीमत एक लाख रुपए है. कपडेजूते तो हर महीने तुम्हें और तुम्हारे बच्चों के लिए देता हूं. यही नहीं, कितनी बार झूठे बहाने बना कर मुझ से अपने अकाउंट में हजारों रुपये डलवाए हैं. तुम्हारे साथ रखे संबंधों की कीमत आज तक चूका रहा हूं मैं. और तुम मेरी पोल खोलने चली हो.  गलती मेरी ही है, मुझे तुम जैसी शातिर और मक्कार औरत के झांसे में आना ही न था. मैं अपनी राह से भटक गया था. लेकिन अब मैं अपनी भूल सुधारूंगा. रही मेरी पत्नी की बात, तो कहां वह और कहां तुम. उस के साथ तुम बराबरी नहीं कर सकतीं. और अपनी गंदी जबान से उस का नाम भी न लेना. वह तुम्हारी तरह नहीं है. जो औरत अपने पति को धोखा दे सकती है, वह किसी के भी प्रति वफादार नहीं हो सकती. चरित्र के साथसाथ तुम्हारी जबान भी गंदी है. आज इसी समय मैं तुम्हारे साथ अपना संबंध ख़त्म करता हूं. आज से मैं तुम्हारे लिए और तुम मेरे लिए अजनबी हो. मुझ से फिर कभी भी संपर्क करने की कोशिश मत करना.

Women’s Day 2023: आशियाना- अनामिका ने किसे चुना

“बहू कुछ दिनों के लिए रश्मि आ रही है. तुम्हें भी मायके गए कितने दिन हो गए, तुम भी शायद तब की ही गई हुई हो, जब पिछली दफा रश्मि आई थी. वैसे भी इस छोटे से घर में सब एकसाथ रहेंगे भी तो कैसे?

“तुम तो जानती हो न उस के शरारती बच्चों को…क्यों न कुछ दिन तुम भी अपने मायके हो आओ,” सासूमां बोलीं.

लेकिन गरीब परिवार में पलीबङी अनामिका के लिए यह स्थिति एक तरफ कुआं, तो दूसरी तरफ खाई जैसी ही होती. उसे न चाहते हुए भी अपने स्वाभिमान से समझौता करना पड़ता.

अनामिका आज भी नहीं भूली वे दिन जब शादी के 6-7 महीने बाद उस का पहली दफा इस स्थिति से सामना हुआ था.

तब मायके में कुछ दिन बिताने के बाद मां ने भी आखिर पूछ ही लिया,”बेटी, तुम्हारी ननद ससुराल गई कि नहीं? और शेखर ने कब कहा है आने को?” मां की बात सुन कर अनामिका मौन रही.

उसी शाम जब पति शेखर का फोन आया तो बोला,”अनामिका, कल सुबह 10 बजे की ट्रेन से रश्मि दीदी अपने घर जा रही हैं. मैं उन्हें स्टेशन छोड़ने जाऊंगा और आते वक्त तुम्हें भी लेता आऊंगा। तुम तैयार रहना, जरा भी देर मत करना. तुम्हें घर छोड़ कर मुझे औफिस भी तो जाना है.”

कुछ देर शेखर से बात करने के बाद जब वह पास पड़ी कुरसी पर बैठने लगी तो उस पर रखे सामान पर उस की नजर गई। उस ने झट से सामान उठा कर पास पड़ी टेबल पर रखा और कुरसी पर बैठ कर अपनी आंखें मूंद लीं.

कुछ देर शांत बैठी अनामिका अचानक से उठ खड़ी हुई. उस ने सामान फिर से कुरसी पर रखा और उसे देखती रही और फिर से वही सामान टेबल पर रख कर कुरसी पर बैठ गई.

इस छोटे से प्रयोग से अनामिका को यह समझने में जरा भी देर नहीं लगी कि कहीं वह भी इस सामान की तरह तो नहीं? कभी यहां तो कभी वहां…

अगले दिन जब वह शेखर के साथ ससुराल गई तो बातबात में उस ने कहीं छोटीमोटी जौब करने की इच्छा जताई तो शेखर ने साफ मना कर दिया.

लेकिन शेखर के ना चाहते हुए भी अनामिका ने कुछ ही दिनों में जौब ढूंढ़ ही ली. और जब अपनी पहली सैलरी ला कर उस में से कुछ रूपए अपनी सासूमां के हाथ में थमाए तो सास भी अपनी बहू की तरफदारी करते हुए शेखर को समझाने लगीं,”अनामिका पढ़ीलिखी है, अब जौब कर के 2 पैसे घर लाने लगी है तो इस में बुराई क्या है?”

अपनी मां से अनामिका की तारीफ सुनने के बाद शेखर के पास बोलने को जैसे कुछ नहीं बचा.

महीनों बाद जब घर में रुपयोंपैसों को ले कर सहुलत होने लगी तो शेखर को भी अनामिका का जौब करना रास आने लगा.

आज जब बेटी रश्मि का फोन आने के बाद सासूमां ने अनामिका को मायके जाने के लिए कहा तो हर बार की तरह मायूस होने की बजाय अनामिका पूरे उत्साह से बोली,”मांजी, मैं आज ही पैकिंग कर लेती हूं. कल शेखर के औफिस जाने के बाद चली जाऊंगी.”

एक बार तो आत्मविश्वास से लबरेज बहू का जबाव सुन कर सास झेंप सी गईं फिर सोचा कि बहुत दिनों बाद मायके जा रही है, शायद उसी की खुशी झलक रही है.

अगले दिन शेखर को औफिस के लिए विदा कर के अपना काम निबटा कर अनामिका ने मायके जाने के लिए इजाजत मांगी तो सास ने कहा,”मायके पहुंचते ही फोन करना मत भूलना.”

‘हां’ में गरदन हिलाते हुए अनामिका बाहर की ओर चल दी.

ससुराल से मायके का सफर टैक्सी में आधे घंटे से अधिक का नहीं था. लेकिन शाम के 4 बजने को आए थे, अनामिका का अब तक कोई फोन नहीं आया.

सासूमां ने उसे फोन किया तो आउट औफ कवरेज एरिया बता रहा था. फिर उस के मायके का नंबर मिलाया तो पता चला कि अनामिका अब तक वहां पहुंची ही नहीं.

सास के पांवों के नीचे से जमीन खिसकने लगी थी. झट से शेखर को फोन कर के इस बारे में बताया.

औफिस में बैठा शेखर भी घबरा गया। वह भी बारबार अनामिका के मोबाइल पर नंबर मिलाने के कोशिश करने लगा. और कुछ देर बाद जब रिंग गई तो…

“अनामिका, तुम ठीक तो हो न? तुम तो मेरे जाने के कुछ ही देर बाद मायके निकल गई थीं? लेकिन वहां पहुंची क्यों नहीं? घर पर मां परेशान हो रही हैं और तुम्हारी मम्मी भी इंतजार कर रही हैं. आखिर हो कहां तुम?” शेखर एक ही सांस में बोल गया.

“मैं अपने घर में हूं,” उधर से आवाज आई.

“लेकिन अभीअभी तुम्हारी मम्मी से मेरी बात हुई तो पता चला तुम वहां पहुंची ही नहीं.”

“मैं ने कहा… मैं अपने घर में हूं,”आशियाना अपार्टमैंट, तीसरा माला, सी-47,” जोर देते हुए अनामिका ने कहा.

“लेकिन वहां क्या कर रही हो तुम?” हैरानपरेशान शेखर ने आश्चर्य से पूछा.

“यहां नए फ्लैट पर चल रहे आखिरी चरण का काम देखने आई हूं.”

“नया फ्लैट? मैं कुछ समझा नहीं… लेकिन यह सब अचानक कैसे?”

“अचानक कुछ नहीं हुआ, शेखर। जब भी रश्मि दीदी सपरिवार हमारे यहां आती हैं, तो मुझे छोटे घर के कारण अपने मायके जाना पड़ता है. और जब मायके ज्यादा दिन ठहर जाती हूं तो मां पूछ बैठती हैं कि बेटी, और कितने दिन रहोगी?

“एक तो पहले से ही वहां भैयाभाभी और उन के बच्चे मां संग रह कर जैसेतैसे अपना गुजारा करती हैं, ऊपर से मैं भी वहां जा कर उन पर बोझ नहीं बनना चाहती.”

और फिर एक कान से दूसरे कान पर फोन लगाते हुए बोली,”औफिस में मेरे साथ जो डिसूजा मैम हैं उन्होंने ने भी 1 साल पहले इसी अपार्टमैंट में 1 फ्लैट खरीदा था.

“मैं ने उन से इस बारे में जानकारी जुटा कर फौर्म भर दिया और हर महीने अपनी सैलरी का एक बड़ा हिस्सा इस फ्लैट की ईएमआई भरने में लगाने लगी.

“तुम ने भी मेरी सैलरी और उस के खर्च को ले कर कभी कोई हस्तक्षेप नहीं किया, इसलिए इस में तुम्हारा भी बहुत बड़ा योगदान है.”

“अनामिका…अनामिका… प्लीज, ऐसा कह कर मुझे शर्मिंदा मत करो.”

“शर्मिंदा होने का समय गया शेखर… जब मैं किसी सामान की तरह जरूरत के मुताबिक यहां से वहां भेज दी जाती थी. लेकिन आज मैं अपने स्वाभिमान की बदौलत अपने आशियाने में हूं,” कहते हुए अनामिका भावुक हो गई.

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