जब दिल की बीमारी में हो जाए Pregnancy

गंभीर मामले

1. यदि आप का हार्ट वाल्व दोषपूर्ण है या विकृत है या फिर आप को कृत्रिम वाल्व लगाया गया है तो आप को गर्भधारण के दौरान अधिक जोखिमपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ सकता है.

2. गर्भावस्था के दौरान रक्तप्रवाह स्वत: बढ़ जाता है, इसलिए आप के हार्ट वाल्व को इस बदले हालात से निबटने के लिए स्वस्थ रहने की जरूरत है अन्यथा बढ़े हुए रक्तप्रवाह को बरदाश्त करने में परेशानी भी उत्पन्न हो सकती है.

3. जरूरी सलाह यही है कि गर्भधारण से पहले संभावित खतरे की विस्तृत जांच करा ली जाए.

4. जिन महिलाओं को कृत्रिम वाल्व लगे हैं, उन्हें अकसर रक्त पतला करने वाली दवा भी दी जाती है जबकि कुछ दवाओं का इस्तेमाल गर्भावस्था के दौरान वर्जित माना जाता है.

5. यदि आप में जन्म से ही कोई हृदय संबंधी गड़बड़ी है, तो आप का गर्भधारण जोखिमपूर्ण हो सकता है, दिल की जन्मजात गड़बडि़यों से पीडि़त महिलाओं से जुड़े जोखिम मां और भ्रूण दोनों को प्रभावित कर सकते हैं और इस के परिणामस्वरूप मां तथा बच्चे की परेशानियां बढ़ सकती हैं.

2 साल पहले 32 वर्षीय समीरा की जांच से पता चला कि उसे ऐरिथमिया यानी अनियमित रूप से दिल धड़कने की बीमारी है. हालांकि उस की स्थिति बहुत ज्यादा गंभीर नहीं थी यानी उसे बड़े इलाज की जरूरत नहीं थी, लेकिन समीरा को चिंता थी कि इस बीमारी का असर कहीं उस के होने वाले बच्चे पर न पड़े. शिशुरोग विशेषज्ञ और कार्डियोलौजिस्ट से विचारविमर्श के बाद ही वह आश्वस्त हो पाई कि गर्भावस्था के दौरान उस के ऐरिथमिया को काबू में रखा जा सकता है और इस से उस के होने वाले बच्चे के स्वास्थ्य को कोई खतरा नहीं होगा. हमारे समाज में महिलाओं की स्वास्थ्य स्थितियों को ले कर अकसर गलत धारणा बनी रहती है कि महिला की किसी बीमारी का असर उस के होने वाले बच्चे पर पड़ेगा. कुछ लोग यह समझते हैं कि मां की बीमारी बच्चे में हस्तांतरित हो सकती है, जबकि कुछ लोगों की चिंता मां बनने जा रही महिला की सेहत को ले कर रहती है. ऐसा बहुत कम ही होता है कि गर्भावस्था के दौरान किसी मरीज की दिल की बीमारी पर काबू नहीं पाया जा सके. नियमित निगरानी और प्रबंधन से गर्भावस्था का वक्त बीमारी हस्तांतरित किए बगैर काटा जा सकता है.

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गर्भावस्था के दौरान सामान्य हालात में भी दिल पर बहुत ज्यादा अतिरिक्त दबाव पड़ता है. अपने शरीर में एक और जिंदगी को 9 महीने तक ढोते रहने के लिए महिला के हृदय और रक्तनलिकाओं में बहुत ज्यादा बदलाव आ जाता है. गर्भावस्था के दौरान रक्त की मात्रा 30 से 50% तक बढ़ जाती है और शरीर के सभी अंगों तक अधिक रक्तसंचार करने के लिए दिल को ज्यादा रक्त पंप करना पड़ता है. इस अतिरिक्त रक्तप्रवाह के कारण रक्तचाप कम हो जाता है.

डाक्टरी परामर्श जरूरी

स्वस्थ हृदय तो इन सभी परिवर्तनों को आसानी से झेल लेता है, लेकिन जब कोई महिला दिल के रोग से पीडि़त होती है, तो उस की गर्भावस्था को सुरक्षित तरीके से प्रबंधित करने के लिए बहुत ज्यादा देखभाल और सावधानी बरतने की जरूरत पड़ती है. ऐसे ज्यादातर मामलों में नियमित निगरानी तथा दवा निर्बाध गर्भधारण और स्वस्थ बच्चे को जन्म देना सुनिश्चित करती है. दिल की किसी बीमारी से पीडि़त महिला को मां बनने के बारे में सोचने से पहले डाक्टर से सलाह लेनी चाहिए. यदि संभव हो तो ऐसे डाक्टर के पास जाएं जो अत्यधिक जोखिमपूर्ण गर्भाधान मामलों में विशेषज्ञता रखता हो. जोखिमपूर्ण स्थितियों वाली किसी मरीज की स्थिति का निर्धारण करने का सब से आसान तरीका यह देखना है कि वह प्रतिदिन के सामान्य कार्य आसानी से पूरा कर सकती है या नहीं. यदि ऐसा संभव है तो महिला में निर्बाध गर्भधारण करने की संभावना प्रबल है, भले ही उसे दिल की कोई बीमारी ही क्यों न हो.

ऐरिथमिया एक आम बीमारी है और कई महिलाओं में तो इस बीमारी का पता भर नहीं चल पाता जब तक कि उन्हें बेहोशी या दिल के असहनीय स्थिति में धड़कनें जैसे लक्षणों से दोचार नहीं होना पड़े. ऐरिथमिया के ज्यादातर मामले हलकेफुलके होते हैं. इन में चिकित्सा सहायता की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन किसी महिला के गर्भधारण से पहले उसे और उस के डाक्टर को स्थिति का अंदाजा लगा लेना जरूरी है ताकि मरीज के जोखिम का स्तर पता चल सके और जरूरत पड़ने पर उचित उपाय किए जा सकें. ऐरिथमिया के कुछ मामले गर्भधारण के दौरान ज्यादा बिगड़ जाते हैं. जरूरत पड़ने पर ऐसी स्थिति पर काबू रखने के लिए कुछ दवाओं का इस्तेमाल सुरक्षित माना जाता है.

गर्भधारण के किसी भी मामले में दिल के धड़कने की गति में थोड़ीबहुत असामान्यता आ ही जाती है. इसे ले कर ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए. उच्च रक्तचाप एक बड़ी स्वास्थ्य समस्या है. अकसर यह समस्या गर्भधारण काल में बढ़ जाती है. इस समस्या का साइडइफैक्ट प्रीक्लैंपसिया के रूप में देखा जा सकता है यानी एक ऐसा डिसऔर्डर जिस में उच्च रक्तचाप रहता है और इस पर यदि नियंत्रण नहीं रखा गया तो इस से महिला के जोखिम का खतरा बढ़ सकता है और एक स्थिति के बाद महिला और बच्चे की मौत भी हो सकती है. ज्यादातर मामलों में अभी तक दवा और बैड रैस्ट से ही गर्भावस्था की स्थिति सामान्य हो जाती है. माइट्रल वाल्व प्रोलैप्स (एमवीपी) एक ऐसी स्थिति है, जिस में माइट्रल वाल्व के 2 वाल्व फ्लैप अच्छी तरह नहीं जुडे़ होते हैं और जब स्टैथोस्कोप से हार्टबीट की जांच की जाती है तो कई बार इस में भनभनाहट जैसी आवाज आती है.

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कुछ मामलों में वाल्व के जरीए प्रोलैप्स्ड वाल्व थोड़ी मात्रा में रक्तस्राव भी कर सकता है. ज्यादातर मामलों में यह स्थिति पूरी तरह नुकसानरहित रहती है और जब तक अचानक किसी स्थिति का पता नहीं चल जाता, इस ओर ध्यान भी नहीं दिया जाता है. ईको ड्रौप्लर की मदद से डाक्टर आप के एमवीपी से जुड़े खतरे की जांच कर सकते हैं. कुछ मामलों में ऐसी स्थिति के उपचार की जरूरत पड़ती है, लेकिन एमवीपी से ग्रस्त ज्यादातर गर्भवती महिलाओं का गर्भकाल सामान्य और बगैर किसी परेशानी के ही गुजरता है.

– डा. संजय मित्तल   कंसल्टैंट कार्डियोलौजी, कोलंबिया एशिया हौस्पिटल, गाजियाबाद

सेहत के लिए जरूरी हैं ये 10 अच्छी आदतें

हेल्दी लाइफ के लिए कुछ हेल्दी आदतें भी होना जरुरी है, जिससे आप एक हेल्दी लाइफ जी सकते हैं. इसीलिए आज हम आपको हेल्थ से जुड़ी 10 आदतों के बारे में बताएंगे, जिसे अपनाकर आप अच्छी लाइफ जी सकते हैं.

1. घर में सफाई पर खास ध्यान दें, विशेषकर रसोई तथा शौचालयों पर. पानी को कहीं भी इकट्ठा न होने दें. सिंक, वाश बेसिन आदि जैसी जगहों पर नियमित रूप से सफाई करें तथा फिनाइल, फ्लोर क्लीनर आदि का उपयोग करती रहें. खाने की किसी भी वस्तु को खुला न छोड़ें. कच्चे और पके हुए खाने को अलग-अलग रखें. खाना पकाने तथा खाने के लिए उपयोग में आने वाले बर्तनों, फ्रिज, ओवन आदि को भी साफ रखें. कभी भी गीले बर्तनों को रैक में नहीं रखें, न ही बिना सूखे डिब्बों आदि के ढक्कन लगाकर रखें.

2. ताजी सब्जियों-फलों का प्रयोग करें. उपयोग में आने वाले मसाले, अनाजों तथा अन्य सामग्री का भंडारण भी सही तरीके से करें तथा एक्सपायरी डेट वाली वस्तुओं पर तारीख देखने का ध्यान रखें.

3. बहुत ज्यादा तेल, मसालों से बने, बैक्ड तथा गरिष्ठ भोजन का उपयोग न करें. खाने को सही तापमान पर पकाएं और ज्यादा पकाकर सब्जियों आदि के पौष्टिक तत्व नष्ट न करें. साथ ही ओवन का प्रयोग करते समय तापमान का खास ध्यान रखें. भोज्य पदार्थों को हमेशा ढंककर रखें और ताजा भोजन खाएं.

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4. खाने में सलाद, दही, दूध, दलिया, हरी सब्जियों, साबुत दाल-अनाज आदि का प्रयोग अवश्य करें. कोशिश करें कि आपकी प्लेट में ‘वैरायटी आफ फूड’ शामिल हो. खाना पकाने तथा पीने के लिए साफ पानी का उपयोग करें. सब्जियों तथा फलों को अच्छी तरह धोकर प्रयोग में लाएं.

5. खाना पकाने के लिए अनसैचुरेटेड वेजिटेबल आइल (जैसे सोयाबीन, सनफ्लावर, मक्का या आलिव आइल) के प्रयोग को प्राथमिकता दें. खाने में शकर तथा नमक दोनों की मात्रा का प्रयोग कम से कम करें. जंकफूड, साफ्ट ड्रिंक तथा आर्टिफिशियल शकर से बने ज्यूस आदि का उपयोग न करें. कोशिश करें कि रात का खाना आठ बजे तक हो और यह भोजन हल्का-फुल्का हो.

6.  अपने विश्राम करने या सोने के कमरे को साफ-सुथरा, हवादार और खुला-खुला रखें. चादरें, तकियों के गिलाफ तथा पर्दों को बदलती रहें तथा मैट्रेस या गद्दों को भी समय-समय पर धूप दिखाकर झटकारें.

7. मेडिटेशन, योगा या ध्यान का प्रयोग एकाग्रता बढ़ाने तथा तनाव से दूर रहने के लिए करें.

8.  कोई भी एक व्यायाम रोज जरूर करें. इसके लिए रोजाना कम से कम आधा घंटा दें और व्यायाम के तरीके बदलते रहें, जैसे कभी एयरोबिक्स करें तो कभी सिर्फ तेज चलें. अगर किसी भी चीज के लिए वक्त नहीं निकाल पा रहे तो दफ्तर या घर की सीढ़ियां चढ़ने और तेज चलने का लक्ष्य रखें. कोशिश करें कि दफ्तर में भी आपको बहुत देर तक एक ही पोजीशन में न बैठा रहना पड़े.

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9. कहीं भी बाहर से घर आने के बाद, किसी बाहरी वस्तु को हाथ लगाने के बाद, खाना बनाने से पहले, खाने से पहले, खाने के बाद और बाथरूम का उपयोग करने के बाद हाथों को अच्छी तरह साबुन से धोएं. यदि आपके घर में कोई छोटा बच्चा है तब तो यह और भी जरूरी हो जाता है. उसे हाथ लगाने से पहले अपने हाथ अच्छे से जरूर धोएं.

10. 45 की उम्र के बाद अपना रूटीन चेकअप करवाते रहें और यदि डाक्टर आपको कोई औषधि देता है तो उसे नियमित लें. प्रकृति के करीब रहने का समय जरूर निकालें. बच्चों के साथ खेलें, अपने पालतू जानवर के साथ दौड़ें और परिवार के साथ हल्के-फुल्के मनोरंजन का भी समय निकालें.

इन 15 टिप्स से करें Diabetes को कंट्रोल

यूं तो डायबिटीज दुनिया भर में फैली है, मगर भारत आज उसका सबसे बड़ा गढ़ बना हुआ है. इसका सबसे बड़ा कारण 21वीं सदी की जीवनशैली है. लेकिन अगर समय रहते ही इस पर ध्‍यान दे दिया जाए और खान-पान में सुधार कर लिया जाए तो यह काफी हद तक कंट्रोल में रह सकती है.

करें यह उपाय

1. व्यायाम-स्‍टडी बताती है कि व्‍यायाम करने से शरीर में खून का दौरा सही रहता है और खून में शक्‍कर की मात्रा भी नियंत्रण में रहती है. रिजल्‍ट के तौर पर हाई मेटाबॉलिज्‍़म और मधुमेह का कम खतरा रहता है.

2. ना लें चीनी-आपको चीनी, गुड़, शहद, कोल्ड ड्रिंक्स आदि कम खानी चाहिये जिससे रक्त में शर्करा का स्तर बिल्‍कुल नियंत्रण में रहे. ज्‍यादा मीठी चीजे और मीठे पेय पदार्थों का सेवन इंसुलिन के लेवल को बढा सकता है.

3. फाइबर-खून में से शुगर को सोखने में फाइबर का महत्‍वपूर्ण योगदान होता है. इसलिये आपको गेहूं, ब्राउन राइस या वीट ब्रेड आदि खाना चाहिये जिससे शरीर में ब्‍लड शुगर का लेवल कंट्रोल रहेगा, जिससे मधुमेह का रिस्‍क कम होगा.

4. ताजे फल और सब्‍जियां-फलों में प्राकृतिक चीनी का मिश्रण होता है और यह शरीर को हर तरह का पोषण देते हैं. ताजे फलों में विटामिन ए और सी होता है जो कि खून और हड्डियों के स्‍वास्‍थ्‍य को मेंटेन करता है. इसके अलावा जिंक, पोटैशियम,आयरन का भी अच्‍छा मेल पाया जाता है. पालक, खोभी, करेला, अरबी, लौकी आदि मधुमेह में स्‍वास्‍थ्‍य वर्धक होती हैं. यह कैलोरी में कम और विटामिन सी, बीटा कैरोटीन और मैगनीशियम में ज्‍यादा होती हैं, जिससे मधुमेह ठीक होता है.

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5. ग्रीन टी-रोजाना बिना चीनी की ग्रीन टी पीजिये क्‍योंकि इसमें एंटी ऑक्‍सीडेंट होता है जो कि शरीर में फ्रीरैडिकल्‍स से लड्राई करता है और ब्‍लड शुगर लेवल को मेंटेन करता है.

6. कॉफी-ज्‍यादा कैफीन लेने से हृदय रोग की समस्‍या हो सकती है, लेकिन अगर यह हद में रह कर ली जाए तो काफी हद तक यह ब्‍लड शुगर लेवल को मेंटेन कर सकती है.

7.खाने का खास ख्‍याल-थोड़ी-थोड़ी देर पर खाना नहीं लेते रहने से हाइपोग्लाइसेमिया होने की आशंका काफी बढ़ जाती है जिसमें शुगर 70 से भी कम हो जाती है. खाना लगभग हर ढ़ाई घंटे बाद लेते रहें. दिन भर में तीन बार खाने के बजाय थोड़ा-थोड़ा छह-सात बार खाएं.

8. दालचीनी-रिसर्च बताती है कि दालचीनी, शरीर की सूजन को कम करता है तथा इंसुलिन लेवल को नियंत्रित करता है. इसको आप खाने, चाय या फिर गरम पानी में एक चुटकी दालचीनी पाउडर मिक्‍स कर पिएं.

9. तनाव कम करें-ऑक्‍सीटोसिन और सेरोटिन दोनों ही नसों की कार्यक्षता पर असर डालते हैं. तनाव के समय जब एड्रानलिन का रिसाव होता है तब यह डिस्‍टर्ब हो जाता है, जिससे डायबिटीज का हाई रिस्‍क पैदा होता है.

10. उच्‍च प्रोटीन डाइट-जो लोग नॉन वेज खाते हैं उन्‍हें अपनी डाइट में लील मीट शामिल करना चाहिये. उच्‍च प्रोटीन डाइट खाने से शरीर में ताकत बनी रहती है क्‍योंकि मधुमेह रोगियों को कार्बोहाइड्रेट और हाई फैट से दूर रहने के लिये कहा गया है.

11. फास्‍ट फूड को कहें ना-शरीर की बुरी हालत केवल जंक फूड खाने से ही होती है. इसमें ना केवल खूब सारा नमक होता है बल्कि शक्‍कर और कार्बोहाइड्रेट्स तेल के रूप में होता है. यह सब आपके ब्‍लड शुगर लेवल को बढाते हैं.

12. नमक पर रोक-नमक की सही सीमा आपको डायबिटीज को कंट्रोल करने मे मदद करेगा. ज्‍यादा नमक लेने से शरीर में हार्मोनल विसंगतियों का खतरा पैदा हो जाता है. इसके यह अलावा यह टाइप 2 डायबिटीज को बढा भी सकता है.

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13. खूब पानी पिएं-पानी खून में बढी शुगर को इकठ्ठा करता है जिस वजह से आपको 2.5 लीटर पानी रोजाना पीना चाहिये. इससे ना ही आपको हृदय रोग होगा और ना ही डायबिटीज.

14. सिरका-खून मे एकाग्र शुगर को सिरका खुद के साथ घोल कर हल्‍का कर देता है. स्‍टडी में बताया गया है कि भोजन करने के पहले दो चम्‍मच सिरका लेने से ग्‍लूकूज का फ्लो कम हो जाएगा.

15. सोया-डायबिटीज को कम करने के लिये सोया जादुई असर दिखाता है. इसमें मौजूद इसोफ्लावोन्‍स शुगर लेवल को कम कर के शरीर को प्रोषण पहुंचाता है.

लीवर में छाले, क्या है इलाज 

लीवर में छाले पड़ना यानि लीवर के कुछ भाग में पस जमा होने लगता है, जो काफी दर्दनाक होता है. अगर समय पर इसका इलाज नहीं करवाया जाता तो ये जख्म फूट सकते हैं और इससे निकलने वाली गंदगी रक्त प्रवाह के जरिए शरीर के अन्य हिस्सों में पहुंचकर उन्हें संक्रमित कर सकती है.  इस संबंध में बताते हैं मणिपाल होस्पिटल के लीवर ट्रांसप्लांटेशन सर्जन डाक्टर राजीव लोचन. साधारण तौर पर यह बीमारी दो प्रकार की होती है- एमिओबिक लीवर एब्सेस और पायोजेनिक लीवर एब्सेस .वैसे आपके लीवर में छाले पड़ने के कई कारण हो सकते हैं. बता दें कि एमिओबिक  लीवर एब्सेस का महत्वपूर्ण कारण यह है कि यह बीमारी एन्टामिबा हिस्टॉलिटिका  जैसे पेरेसाइट्स के चलते होती है. इसका मतलब यह है कि लीवर के मार्ग में इंफेक्शन के चलते  एमिबायासिस होता है. पायोजेनिक लीवर एब्सेस होने का प्रमुख कारण इंटेस्टाइन ट्रैक या मूत्र मार्ग का इंफेक्शन होना ही अकसर माना जाता है.

एब्सेस की बीमारी होने में उम्र भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है.  एमिओबिक  लीवर एब्सेस की बीमारी अधिकतर अधिक उम्र के लोगों में ज्यादा होती है. वयस्क लोग विशेष रूप से जिन्हें मधुमेह या जिनकी कीमोथेरेपी हुई होती है , उन्हें लीवर एब्सेस होने का खतरा सबसे अधिक होता है. या फिर ऐसे व्यक्ति जिनकी प्रतिकार क्षमता कम हो या जो वजन घटाने का कोई उपचार कर रहे हैं , उन्हें भी लीवर की बीमारियां होने का खतरा सबसे अधिक हो सकता है.

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क्या हैं लक्षण 

– पेट के निचले हिस्से में दर्द होना.

– डायरिया

– बेचैनी

– हलका बुखार

– खाने की इच्छा नहीं होना

– वजन कम होना आदि.

कौन से प्रकार का लीवर एब्सेस है, उसकी जांच करने के बाद ही उसका पता चलता है व उसके बाद ही उस का सही इलाज करना संभव होता है.

लीवर एब्सेस होने के कारण 

लीवर एब्सेस होने के निर्मलिखित कारण होते हैं , जो इस प्रकार से हैं-

–  पित्ताशय के मार्ग में बीमारी.

–   पित्ताशय  के मार्ग में कोई समस्या.

– यूरिनरी ट्रैक्ट इंफेक्शन

लीवर एब्सेस की रोकथाम कैसे करें 

इसके लिए पेट के निचले हिस्से में इंफेक्शन की जांच करना बहुत जरूरी होता है . क्योंकि लीवर एब्सेस होने का यह भी एक कारण हो सकता है, और इसकी रोकथाम के लिए ये जांच बहुत जरूरी होती है.  विशेष रूप से बुजुर्ग़ या जिन्हें डाईबिटिज़ जैसी कोई बीमारी है , ऐसे व्यक्तियों में इसका खतरा सबसे अधिक रहता है. ओब्सक्यूअर यूरिनरी ट्रैक इंफेक्शन और पेल्विक सेप्सिस भी लीवर एब्सेस होने के कारण  हो सकते हैं. लेकिन इसके लिए पहले सही कारण का पता लगाना बहुत जरूरी होता है, ताकि सही इलाज संभव हो सके.

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उपचार 

लीवर में अगर किसी तरह का पस नजर आता है, तो डाक्टर जरूरी जांच कर शुरुवात में एंटीबायोटिक दवाएं देते हैं , जिससे महीने भर के अंदर पस सूखने के साथ मरीज को आराम मिल जाता है. लेकिन अगर मरीज को ज्यादा दर्द व लक्षण ज्यादा गंभीर नजर आते हैं , तो किसी खास तरह की सिरिंज का इस्तेमाल करके पस को बाहर निकाला जाता है. लेकिन अगर स्तिथि ज्यादा गंभीर है और दवाओं से ही कंट्रोल करना संभव नहीं है तो सर्जरी की मदद लेकर लीवर का कुछ भाग निकालने की जरूरत होती है और फिर जल्दी घाव को भरने के लिए  मरीज को साथसाथ एंटीबायोटिक दवाएं दी जाती है. लेकिन ये ट्रीटमेंट मरीज की स्तिथि को देखकर दिया जाता है. इस बीमारी के इलाज के लिए एचबीपी सर्जन, मेडिकल गैस्ट्रोएंट्रोलोजिस्ट तथा डायगोनोस्टिक और इंटरवेशनल रेडियोलॉजिस्ट जैसे विशेषज्ञों की टीम द्वारा एक निर्णय लेना बहुत आवश्यक होता है.

पेट के कैंसर से कैसे बचें

पेट का कैंसर महिलाओं की तुलना में पुरूषों में अधिक होता है. आजकल पेट के कैंसर के मरीज़ों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. आमतौर पर शुरूआत में पेट का कैंसर लक्षणहीन होता है और इसका पता भी आखरी स्टेज में ही चलता है. पेट का कैंसर, पेट के अंदर असामान्य कोशिकाओं की होने वाली अनियं‍त्रि‍त वृ‍द्घि‍ को ही कहते हैं. समय से पहले किसी भी बिमारी में थोड़ी सी सावधानी बरतकर आप उसे बढ़ने से रोक सकते हैं. आइए जानते हैं पेट के कैंसर के कुछ खास कारणों, लक्षणों और उपायों के बारे में..

कारण एवं लक्षण:

पेट के कैंसर की संभावना आमतौर पर धूम्रपान और मादक पदार्थों का सेवन करने वालों में ज्यादा होती है. इसके अलावा वो लोग जो अत्यधिक मसालेदार भोजन करते हैं, उनमें भी पेट के कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है. पेट के कैंसर के कुछ कारणों में कोई पुराना विकार जैसे गैस्ट्राइटिस की समस्या लंबे समय तक होना, कभी पेट की किसी भी तरह  कोई सर्जरी होना भी हो सकता है.

कई बार आनुवांशिक कारणों से भी पेट का कैंसर होता है. पेट का कैंसर बहुत खतरनाक साबित होता है क्योंकि जब तक पेट का कैंसर बहुत अधिक बढ़ नहीं जाता, तब तक इसके लक्षणों का पता लगाना मुश्किल होता है. सामान्यत: पेट के कैंसर को मलाशय कैंसर के रूप में जाना जाता है. अन्य सभी कैंसर बिमारियों की तरह पेट के कैंसर में भी मृत्यु का जोखिम ज्यादा होता है. पेट का कैंसर बड़ी आंत का कैसर भी है जो पाचन तंत्र के सबसे निचले हिस्से में होता है. यह वो जगह है जहां भोजन से शरीर के लिए ऊर्जा पैदा की जाती है. साथ ही यह शरीर के ठोस अवशिष्ट पदार्थों को भी पचाता है.

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पेट का कैंसर भीतरी परत से शुरू होकर धीरे-धीरे बाहरी परतों पर फैलता है. इसीलिए यह बताना मुश्किल होता है कि कैंसर कितने भीतर तक फैला हुआ है. पेट के कैंसर के सटीक कारणों का पता लगाना मुश्किल है लेकिन कुछ ऐसे कारक हैं जो पेट के कैंसर के खतरे को बढ़ा सकते हैं जैसे आनुवांशिक कारण, आयु, व्यायाम न करना, धूम्रपान करना, संतुलित खान-पान न होना.

पेट के कैंसर के सटीक लक्षण क्या हैं ये कहना तो मुश्किल है, लेकिन

1. पेट में अकसर दर्द रहना

2. खाना खाने के बाद पेट फूल जाना

3. भूख न लगना

4. एनीमिया की शिकायत होना

5. अधिकतर समय उल्‍टी आना

6. कमजोरी और थकावट महसूस करना

7. तेजी के साथ वजन कम होना, आदि इसके लक्षण कहें जा सकते हैं.

उपाय:

पेट के कैंसर से बचना है तो अधिक से अधिक मात्रा में फलों और सब्जियों का सेवन करें. अगर आपके घर में पहले से ही किसी को कैंसर है तो समय-समय पर चेक अप करवाते रहें.न सिर्फ कैंसर के लिए बल्कि हर बिमारी के लिए डाक्टर से समय-समय पर परामर्श लेते रहना चाहिए.

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पेट के कैंसर के उपचार के लिए सर्जरी करवाई जा सकती है. इसके अलावा कीमोथेरेपी, रेडिएशन ट्रीटमेंट के माध्यम से पेट के कैंसर की चिकित्सा संभव हो सकती है. अपनी दिनचर्या में प्रतिदिन व्यायाम या योग को शामिल करके भी पेट के कैंसर के खतरे को कम किया जा सकता है.

पेट के कैंसर को कम करने के लिए जंकफूड छोड़कर, संतुलित भोजन खासकर तरल पदार्थ जूस, सूप, पानी इत्यादि की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए.

डेंचर से अपनी खूबसूरत मुस्कान वापस पाएं!

पिछले कुछ दशकों में दांतो का गिरना दुनिया में लोगों की एक बड़ी समस्या बना हुआ है. ओरल हैल्थ की स्थिति जानने के लिए इसे एक महत्वपूर्ण संकेत माना जाता है क्योंकि इससे मुंह की बीमारियों के प्रभाव, दांतों की हाईज़ीन के प्रति व्यक्ति के व्यवहार, डेंटल सेवाओं की उपलब्धता तथा ओरल हैल्थ के बारे में लोगों के विश्वास/सांस्कृतिक मूल्यों का पता चलता है.

दांतों का गिरना लोगों को सदमा देता है और इसे जीवन का एक बड़ा नुकसान माना जाता है, जिसके लिए सामाजिक व मनोवैज्ञानिक रूप से काफी समायोजन करने की जरूरत पड़ती है. दांतों का रिप्लेसमेंट एक कला है, जिसमें टूटे हुए दांत की जगह कृत्रिम दांत लगा दिया जाता है या डेंटल प्रोस्थेसिस किया जाता है. टूटे हुए दांत की जगह दूसरा दांत लगाना जरूरी क्यों है, इसके अनेक कारण हैंः

आपके मुंह में पूरे दांत होने से आपमें आत्मविश्वास आता है. आपको चिंता नहीं रहती कि आपका टूटा दांत लोगों की नजर में आएगा.

दांत टूटने पर जबड़े का वो हिस्सा, जिस पर दांत लगा होता है, उसका आकार कम हो जाता है. डेंटल इंप्लांट सपोटेर्ड प्रोस्थेसिस से हड्डी बचाए रखने और अपने जबड़े का आकार बनाए रखने में मदद मिलती है.

दांत टूटने से आपके बोलने के तरीके में परिवतर्न आ जाता है.

दांत टूटने से आपकी चबाने तथा विभिन्न तरह की खाद्य वस्तु को खाने की क्षमता बदल जाती है. ऐसा आम तौर पर देखा जाता है कि चबाना मुश्किल हो जाने से लोग कुछ चीजें खाने से परहेज करने लगते हैं, इसलिए जिन लोगों के दांत टूटे हुए होते हैं, उनका पोषण खराब होता है और उनके स्वास्थ्य पर असर पड़ता है.

दांतों के टूटने से आपके द्वारा काटने तथा आपके दांत किस प्रकार आपस में मिलते हैं, उसका तरीका बदल जाता है, जिससे जबड़े के जोड़ में समस्या पैदा हो सकती है.

यद्यपि डेंचर बाजार में उपलब्ध सबसे किफायती रिमूवेबल डेंटल प्रोस्थेसिस में से एक हैं. अधिकांश लोग अपने दांतों की जगह डेंचर लगवाना ही पसंद करते हैं. आज भारत में 45 साल से अधिक उम्र के हर 7 में से 1 व्यस्क डेंचर लगाता है. ये डेंचर संपूणर् या आंशिक हो सकते हैं.

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संपूर्ण डेंचर –

संपूर्ण डेंचर प्लास्टिक आधार के बने होते हैं, जो मसूढ़ों के रंग का होता है और प्लास्टिक या पोसेर्लीन के दांतों का पूरा सेट इस पर लगा होता है.

आंशिक डेंचर –

आंशिक डेंचर या तो प्लास्टिक बेस या फिर मैटल फ्रेमवकर् का बना होता है, जो रिप्लेस किए जाने वाले दांतों की संख्या को सपोटर् करता है. इसे मुंह के अंदर क्लैस्प एवं रेस्ट द्वारा लगाकर रखा जाता है, जो आपके प्राकृतिक दांतों के चारों ओर स्थित हो जाते हैं.

इंप्लांट सपोटेर्ड डेंचर –

इंप्लांट रिटेंड ओवरडेंचर एक रिमूवेबल डेंटल प्रोस्थेसिस है, जिसे बचे हुए ओरल टिश्यू सपोटर् करते हैं और इसे लगाए रखने के लिए डेंटल इंप्लांट किया जाता है.

डेंचर व्यक्ति का रूप बनाए रखते हैं. ये दिखाई नहीं देते. डेंचर फिक्सेटिव या एधेसिव डेंचर पहनने वालों को अच्छा फिट एवं आराम देता है. डेंचर फिक्सेटिव से निम्नलिखित आराम मिलता हैः

डेंचर का कम मूवमेंट एवं चबाने की क्रिया में सुधार.

बाईटिंग (काटने) के लिए सवार्धिक बल, रिटेंशन व स्थिरता.

डेंटल प्लाक कम या फिर बिल्कुल नहीं होने से डेंचर पहनने वालों की ओरल हाईज़ीन में सुधार.

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डेंचर बेस के नीचे खाने के कम अटकने के चलते म्यूकोसल इरीटेशन कम होना.

डेंचर पहनने वाले की मनोवैज्ञानिक सेहत में सुधार.

हालांकि दांतों का रिप्लेसमेंट तभी सफल होता है, जब मरीज उत्साहित हो एवं विभिन्न तरह के प्रोस्थेसिस, उनके उपयोग एवं मेंटेनेंस के बारे में जानता हो. ओरल हाईज़ीन, क्लीनिंग एवं डेंचर का सही उपयोग, डेंचर फिक्सेटिव/एधेसिव का उपयोग आजीवन चलने वाली प्रक्रियाएं हैं. शुरुआत में यह मुश्किल लग सकता है, लेकिन यह आपके चेहरे की मुस्कुराहट वापस लेकर आ जाएगा.

डॉ अनंत राज, मुंबई से बातचीत पर आधारित

Technology तरक्की के जरिए दर्द से राहत

दर्द की जटिलताओं की सच्चाई यही है कि सर्जरी या गोलियां लंबे समय तक सभी तरह के दर्द से निजात नहीं दिला सकतीं. हालांकि बिना जांच कराए या बिना इलाज कराए असह्य दर्द में जी रहे कुछ लोगों में अविश्वसनीय रूप से दर्द की वापसी होती है, जिसका हमारे शरीर पर कई हानिकारक प्रभाव पड़ता है. दर्द को जीवन और ढलती उम्र का हिस्सा मान लेने से लोग इलाज के आधुनिक तौर—तरीकों की जानकारी भी नहीं रखते और इसका नकारात्मक असर जीवन की गुणवत्ता पर पड़ता है. कुछ लोगों में दर्द का स्तर बहुत ज्यादा होता है और सच तो यह है कि दर्द में जीते पांच में से एक व्यक्ति सही इलाज कराए बिना लंबे समय तक इसे झेलते रहते हैं.

जागरूकता, जानकारी का अभाव और गलत जानकारी के कारण कई लोगों के लिए दर्द उस स्थिति में पहुंच जाता है जो इससे जुड़ी असली बीमारी से भी बदतर हो जाती है. सितंबर में अंतरराष्ट्रीय दर्द जागरूकता माह मनाया जाता है जिसका उद्देश्य सभी लोगों में इसे लेकर जागरूकता बढ़ाना है. वैश्विक स्तर पर  उम्रदराज लोगों की आबादी और बदलती जीवनशैली के कारण आज के समय में इन दो दशकों की अहमियत बढ़ गई है. अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी और विशेषज्ञ प्रशिक्षण की मदद से दुनिया के पेन मैनेजमेंट से जुड़े चिकित्सक हर तरह के दर्द से निजात दिलाने का प्रयास कर रहे हैं. चूंकि हर किसी के दर्द का अनुभव और स्तर अलग—अलग होता है इसलिए यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य है जिसमें व्यक्तिग आधारित, बहु—आयामी और कई मॉडल आधारित दर्द प्रबंधन इलाज की जरूरत पड़ती है.  मैक्स हॉस्पिटल में पेन मैनेजमेंट सर्विसेज के प्रमुख , डॉ. आमोद मनोचा, बताते हैं कि

आपके दर्द का इलाज संभव है

लगातार दर्द बने रहने से न सिर्फ जीवन की गुणवत्ता पर नकारात्मक असर पड़ता है, बल्कि कई बार मरीज भ्रमित हो जाते हैं या इस दर्द के लिए खुद को दोषी मानने लगते हैं. दर्द का कोई ठोस कारण जब पता नहीं चलता तो मरीज में इलाज का असंतुष्टि भाव, कुंठा, मूड खराब होने का भाव पनपता है और डॉक्टर—मरीज संबंध भी प्रभावित होता है.

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तकनीकी तरक्की और नई पारंपरिक तकनीकों की उपलब्धता हमारी सदियों पुरानी समस्याओं को देखने के तरीके को बदल रही है कि हम अपने रोगियों को दर्द से राहत दिलाने के लिए क्या उपाय करते हैं. ये नए विकल्प लंबे समय तक अस्पताल में रहने की जरूरत के बगैर न्यूनतम शल्यक्रिया और कम समय की प्रक्रियाओं के लाभ देते हैं और लंबे समय तक चलने वाले दर्द से राहत दिलाते हैं.

रेडियोफ्रिक्वेंसी एब्लेशन

यह न्यूनतम शल्यक्रिया तकनीक उन मरीजों के लिए उम्मीद की किरण बनी है जिन्हें गर्दन, कमर, कूल्हा, घुटना और कंधे जैसे जोड़ों में दर्द रहता है. इस पद्धति का फोकस दर्द का सिग्नल देने वाली नसों को निष्क्रिय करना होता है जिससे मरीज की कायर्यक्षमता बढ़ती है और दवाइयों की जरूरत भी कम पड़ती है. विकसित देशों में अपनाई जा रही इस सामान्य पद्धति के प्रति भारत के लोगों में भी जागरूकता बढ़ रही है. यह विकल्प सुरक्षित, प्रभावी, नॉन—सर्जिकल प्रक्रिया और ज्यादातर मामलों में उपचार के एक—दो साल में ही नसों की नई कोशिकाएं बनाने की पेशकश करता है जिस कारण जरूरत पड़ी तो यह पद्धति दोहराई भी जा सकती है.

क्रायोएब्लेशन

यह टेक्नोलॉजी पिछले कई वर्षों से अहम तरक्की कर चुकी है और इसे कैंसर के दर्द, घुटने, कूल्हे और कंधे, रीढ़ के जोड़, सैक्रोइलिक जोड़, नसों का दर्द, सर्जरी के बाद दर्द, पसलियां टूटने के बाद आदि जैसे बड़े जोड़ों की अर्थराइटिस समेत हर तरह के दर्द की स्थिति में इस्तेमाल किया जा सकता है. क्रायोब्लेशन इलाज का मुख्य लक्ष्य दर्द के सिग्नल देने वाली नसों को निष्क्रिय बनाना होता है और इसके लिए 80 डिग्री से भी कम तापमान में नियंत्रित तरीके से इन नसों को जमा दिया जाता है. इस इलाज पद्धति में कहीं कोई कट या चीरा लगाने की जरूरत नहीं पड़ती और तत्काल एवं लंबे समय तक दर्द से राहत मिलती है. कम दर्द होने से मरीज की कार्यक्षमता बढ़ती है, दर्दनिवारक दवाइयों की जरूरत कम होती है और मरीज में विकलांगता की नौबत भी कम होती है. इसके अलावा इसका कोई साइड इफेक्ट नहीं होने के कारण इसे दोहराया भी जा सकता है.

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पोर्टेबल हाई

डेफिनिशन अल्ट्रासाउंड, नई चिकित्सा पद्धतियों, इंट्राथेकल पंप इंप्लांट, स्पाइनल कॉर्ड स्टिमुलस आदि की उपलब्धता जैसी प्रौद्योगिकी तरक्की ने दर्द प्रबंधन संबंधी डायग्नोस्टिक और इलाज में आश्चर्यजनक सुधार लाया है और हमें मरीजों की अपेक्षाओं के अनुरूप इलाज करने में सक्षम बना रही है. जेनेटिक और मोलेकुलर टेस्ट हमारी समझ को बढ़ाने में मदद कर रहे हैं और उम्मीद है कि निकट भविष्य में दर्द से निजात दिलाने के लिए ये हमें नए लक्ष्य देंगे.

जानें क्या है HIV होने के 12 लक्षण

एच आई वी यानि ह्यूमन इम्‍युन डिफिशिएंशी वायरस एक विषाणु है जो बॉडी के इम्‍यून सिस्‍टम पर नकारात्‍मक प्रभाव ड़ालता है और व्‍यक्ति के शरीर में उसकी प्रतिरोधक क्षमता को दिनोंदिन कमजोर कर देता है.

भारत की बात करें तो यहां एड्स के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं. यहां सबसे ज्‍यादा एचआईवी एड्स के केस (13107) महाराष्‍ट्र में दर्ज हुए हैं. वहीं दूसरे नंबर पर आंध्र प्रदेश है.

अगर पिछले वर्षों से तुलना करें तो संख्‍या लगातार बढ़ रही है. 2009-10 में 246,627 केस पूरे देश में आये, जबकि 2010-11 में यह संख्‍या बढ़कर 320,114 रही.

सही तरीके से देखभाल न करने की दशा में यह बीमारी बढ़कर एड्स का रूप धारण कर लेती है. एक सर्वे के अनुसार, एच आई वी के शुरूआती स्‍टेज में इसका पता नहीं चल पाता है और व्‍यक्ति को इलाज करवाने में देर हो जाती है. इसीलिए आपको एच आई वी के शुरूआती 12 लक्षणों के बारे में पता होना जरूरी है.

1. बार-बार बुखार आना: हर दो तीन दिन में बुखार महसूस होना और कई बार तेजी से बुखार आना, एच आई वी का सबसे पहला लक्षण होता है.

2. थकान होना: पिछले कुछ दिनों से पहले से ज्‍यादा थकान होना या हर समय थकावट महसूस करना एच आई वी का शुरूआती लक्षण होता है.

3. मांसपेशियों में खिचावं: आपने किसी प्रकार का भी भारी काम नहीं किया या फिर आप शारीरिक मेहनत का कोई काम नहीं करते , फिर भी मांसपेशियों में हमेशा तनाव और अकड़न रहती है. यह भी एच आई वी का लक्षण होता है.

4. जोड़ों में दर्द व सूजन: ढ़लती उम्र से पहले ही अगर आपके जोड़ों में दर्द और सूजन हो जाती है तो आपको एच आई वी टेस्‍ट करवाने की जरूरत है.

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5. गला पकना: अक्‍सर कम पानी पीने की वजह से गला पकने की शिकायत होती है लेकिन अगर आप पानी पर्याप्‍त मात्रा में पीते हैं और फिर भी आपके गले में भयंकर खराश और पकन महसूस हो, तो यह लक्षण अच्‍छा नहीं

6. सिर में दर्द: सिर में हर समय हल्‍का – हल्‍का दर्द रहना, सुबह के समय दर्द में आराम और दिन के बढ़ने के साथ दर्द में भी बढ़ोत्‍तरी एच आई वी का सबसे बड़ा लक्षण है.

7. धीरे-धीरे वजन का कम होना: एच आई वी में मरीज का वजन एकदम से नहीं घटता है. हर दिन धीरे – धीरे बॉडी के सिस्‍टम पर प्रभाव पड़ता है और वजन में कमी होती है. अगर पिछले दो महीनों में बिना प्रयास के आपके वजन में गिरावट आई है तो चेक करवा लें.

8. स्‍कीन पर रेशैज होना: शरीर में हल्‍के लाल रंग के चक्‍त्‍ते पड़ना या रेशैज होना भी एच आई वी का लक्षण है.

9. बिना वजह के तनाव होना: आपके पास कोई प्रॉब्‍लम नहीं है लेकिन फिर भी आपको तनाव हो जाता है, बात-बात पर रोना आ जाता है तो नि:संदेह आपको एच आई वी की जांच करवाना जरूरी है.

10. मतली आना: हर समय मतली आना या फिर खाना खाने के तुरंत बाद उल्‍टी होना भी शरीर में एच आई वी के वायरस का होना इंडीकेट करते हैं.

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11. हमेशा जुकाम रहना: मौसम आपके बेहद अनुकूल है लेकिन उस हालत में भी नाक बहती रहती है. हर समय छींक आती है और रूमाल का साथ हमेशा चाहिए होता है.

12. ड्राई कफ: आपको भयंकर खांसी नहीं हुई थी लेकिन हमेशा कफ आता रहता है. कफ में कोई ब्‍लड़ नहीं आता. मुंह का जायका खराब रहता है. अगर आपको इनमें से अधिकाशत: लक्षण अपने शरीर में लगते हैं तो आप एच आई वी टेस्‍ट जरूर करवाएं.

समय पर करवाएं Uterus के कैंसर का इलाज

गर्भाशय (Uterus ) का Cancer आज देश में तेजी से महिलाओं में फैलती जा रही है. इसकी वजह पहले दिखाई नहीं पड़ती और महिलाएं खुद के बारें में इतना नहीं सोचती. भारत में गर्भाशय के कैंसर की घटना 3.8 से बढ़कर एक लाख में 5 महिलाओं को होता है. यह डेटा गर्भाशय के कैंसर को महिलाओं में 5वां सबसे आम कैंसर बताता है. इस बारें में चेन्नई की अपोलो प्रोटॉन कैंसर सेंटर की स्त्री रोग ऑन्कोलॉजिस्ट डॉ. कुमार गुब्बाला कहती है कि भारत में यह डेटा गर्भाशय के कैंसर की महिलाओं में 5वां सबसे आम कैंसर की श्रेणी में आता है. अधिकांश गर्भाशय के कैंसर के कारणोंका पता लगाना मुश्किल होता है, लेकिन कुछ ऐसे कारक है, जो इसे विकसित होने के जोखिम को बढ़ाते है.यह अंडाशय, फैलोपियन ट्यूब और पेरिटोनियम से उत्पन्न होने वाले कैंसर की एक बड़ी संख्या है. यह आमतौर पर 75 प्रतिशत रोगियों में विकसित अवस्था में दिखाई देता है, क्योंकि तब ये अन्य अंगो में भी फ़ैल गया होता है.

गर्भाशय के कैंसर बढ़ने की वजह

  • जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, गर्भाशय के कैंसर होने का खतरा बढ़ता जाता है. गर्भाशय के कैंसर के ज्यादातर मामले उन महिलाओं में होते है, जिनका मासिक धर्म आना बंद हो चुका होता है.
  • आनुवंशिक दोषपूर्ण जीनगर्भाशय के कैंसर के कारण होते है, जो एक महिला के जीवन के दौरान विकसित होते हैऔर विरासत में नहीं मिलते है, लेकिन 100 में से 5 से 15 गर्भाशय के कैंसर 5 से 15 प्रतिशतआनुवंशिक दोषपूर्ण जीन के कारण होते है. विरासत में मिले दोषपूर्ण जीन जो गर्भाशय के कैंसर के खतरे को बढ़ाते है, उनमें BRCA1 और BRCA2 शामिल है, ये जीन ब्रेस्ट कैंसर के खतरे को भी बढ़ाते है.
  • गर्भनिरोधक गोली लेना, बच्चे पैदा करना और स्तनपान कराना.

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प्रारंभिक लक्षण

अक्सर गर्भाशय के कैंसर के लक्षण अन्य बीमारियों की तरह दिखता है, लेकिन सूक्ष्म परिक्षण के द्वारा इसे पता लगाया जा सकता है.

सबसे आम लक्षण सूजन, पेट में दर्द, मासिक धर्म में बदलाव, दर्दनाक संभोग, खाने में परेशानी या जल्दी से पेट भरा हुआ महसूस करना, थकान आदि है, जिसे समय रहते किसी  स्त्री रोग विशेषज्ञ से सलाह ले और इलाज करवाएं.

गर्भाशय के कैंसर के प्रकार

एपिथेलियल गर्भाशय कैंसर सबसे आम प्रकार का कैंसर है. दुर्लभ प्रकारों में जर्म सेल ट्यूमर,स्ट्रोमल ट्यूमर और सार्कोमा शामिल है. प्राथमिक पेरिटोनियल कैंसर गर्भाशय के कैंसर की तरह होता है और उसी तरह से इलाज किया जाता है.

जांच

अल्ट्रा साउंड स्कैन, सीए 125 ब्लड टेस्ट, एमआरआई, सीटी या पैट सीटी स्कैन ये 4 प्रकार के टेस्ट से इस कैंसर का पता लगाया जा सकता है. दरअसल इसके ग्रोथ चार चरण में होता है,पहली चरण में अगर कैंसर अंडाशय तक सीमित है, चरण 2में पेट के निचले हिस्से में कैंसर होना,3 और 4होने पर कैंसर का पेट के अन्य अंगों में फैल जाना है.

गर्भाशय के कैंसर का इलाज

इसके आगे डॉ. कुमार गुब्बाला कहती है कि गर्भाशय के कैंसर के निदान और उपचार के लिए एक अनुशासनिक टीम की आवश्यकता होती है, जो मुख्य डॉक्टर के साथ मीटिंग कर उस टीम का साथ देती है. इसके अलावा उपचार इस बात पर निर्भर करता है कि कैंसर कहाँ, कितना बड़ा, शरीर में कहीं दूसरी जगह पर फैल गया है या नहीं और रोगी की सामान्य स्वास्थ्य पर उसका प्रभाव क्या है.

अगर गर्भाशय द्रव्यमान (mass) को हटाने और निदान के लिए, गर्भाशय के कैंसर के संदेह के लिए जो पेट के अन्य भागों में फैल चुका हो,जिसमें ओमेंटम, पेरिटोनियम, लिम्फ ग्रंथियों को हटाना शामिल होता है, तब ऑपरेशन की आवश्यकता होती है, जहाँ आंत के करीब या उसके पास काम करना पड़ सकता है.

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यदि कोई व्यापक बीमारी है या ऑपरेशन के बाद सर्जरी से पहले कभी-कभी कीमोथेरेपी का उपयोग किया जाता है. पहले कीमोथेरेपी का उपयोग करने की वजह कैंसर की मात्रा को कम करना है और ऑपरेशन के बाद कैंसर सेल की थोड़ी भी मात्रा शरीर में न रहे न रहे को न छोड़ने के इरादे से कम व्यापक ऑपरेशन करना संभव बनाना है.सही और समय पर इलाज से लगभग 90 प्रतिशतरोगी ठीक हो सकते है.

गर्भाशय के कैंसर का पता चलने के बाद लगभग 50 प्रतिशत महिलाएं कम से कम 5 साल तक बीमारी से जीवित रहती है. प्रारंभिक स्टेज में पता चलने पर20से 40 प्रतिशत महिलायें, जो एडवांस स्टेज में इलाज होने पर जीवित रहती है, जबकि थोड़ी देर में कैंसर का पता चलने पर एडवांस की तुलना में 90 प्रतिशत महिलाएं कम से कम 5 साल तक जीवित रहती है.

Drugs से कम नहीं दूध की लत

एक दशक पहले, जब सरकार ने शाकाहारी और मांसाहारी खाद्य पदार्थों के लिए क्रमश: हरे और लाल रंग के डौट्स लगाने का प्रावधान किया, तब दूध उद्योग और सैकड़ों पढ़े-लिखे लोगों ने जोर डाला कि दूध एक शाकाहारी उत्पाद है (हालांकि इस का स्रोत पशु है), इसलिए इस पर हरे रंग का डौट लगाया जाना चाहिए. हमें झुकना पड़ा.

वहीं ऐसे लोग जो विशुद्ध रूप से शाकाहारी हैं, अकसर वे भी मानते हैं कि चीज उन की कमजोरी है. कहते हैं चीज से किसी गंदे मोजे सी बदबू आती है, ऐसा क्यों? दरअसल, फैट सोडियम और कोलैस्ट्रौल होने के कारण चीज एक हाईकैलोरी दुग्ध उत्पाद है. एक आम चीज में 70 फीसदी फैट होता है और जिस तरह का फैट होता है, वह मुख्यतया सैचुरेटेड यानी खराब किस्म का फैट होता है. इस से दिल की बीमारी और डायबिटीज का खतरा होता है. पाश्चात्य डाइट में चीज सैचुरेटेड फैट का सब से बड़ा स्रोत है. अमेरिका में एकतिहाई वयस्क और 12.5 मिलियन बच्चे व किशोर मोटापे के शिकार हैं.

हमारे यहां बड़े पैमाने में लोग शाकाहारी हैं और हमारी रुचि घर के सेहतमंद खाने में है. इसीलिए हमें इन से काफी दूर होना चाहिए था. लेकिन हम भी मोटापा ग्रस्त देशों की सूची में शामिल हो चुके हैं. दिल संबंधी बीमारियों, डायबिटीज और कैंसर जैसी गंभीर बीमारी का कारण मोटापा ही है.

दूध में नशा

औसतन 12 इंच के चीज पिज्जा के एकचौथाई हिस्से में लगभग 6 ग्राम सैचुरेटेड फैट और 27 मिलीग्राम कोलैस्ट्रौल के साथ 13 ग्राम फैट होता है. एक आउंस चीज में 6 ग्राम सैचुरेटेड फैट समेत 9 ग्राम फैट होता है. आंशिक रूप से स्किम्ड दूध में फैट की मात्रा कम होती है.

लेकिन हम दूध पीना और चीज/पनीर खाना जारी रखेंगे. बहुत सालों के बाद मैं ने जाना कि लोग आखिर दूध क्यों पीते हैं या चीज व पनीर क्यों खाते हैं. इसलिए नहीं कि यह उन के लिए जरूरी है या इसलिए कि कृष्ण पीते थे. लोग यह इसलिए लेते हैं, क्योंकि इस में नशे का पुट हुआ करता है.

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पनीर के प्रति लोगों की कमजोरी होती है, इस का वैज्ञानिक कारण है. दूध हाजमे में सहायक होता है, क्योंकि इस में हलका सा मादक तत्त्व होता है, जो कैसोमौर्फिन कहलाता है. 1981 में एली हाजुम और उन के सहयोगियों ने वैलकम रिसर्च लैबोरेटरी में पाया कि दूध में रासायनिक मौर्फिन होता है, जो एक तरह का मादक पदार्थ है. कैसिन सभी स्तनधारियों के दूध में पाया जाने वाला प्रमुख प्रोटीन है. कैसोमौर्फिन की एक खासीयत यह है कि इस का मादक या नशीला असर होता है. दूसरे शब्दों में यह दुनिया सब से पुराने किस्म के ज्ञात ड्रग्स में से एक है. इस किस्म के नशीले पदार्थों में अच्छा महसूस करने और में एक तरह की खुशी के एहसास और शांतचित बनाने की क्षमता के साथ नींद से भी बोझिल हो जाने का एहसास जगाने की क्षमता होती है. इस की लत भी लग जाती है. अगर एकाएक इस का सेवन बंद कर दिया तो इस से दूसरों पर निर्भरता बढ़ जाती है और ‘विड्रौल सिंड्रोम’ का सामना करना पड़ता है.

चीज, पनीर, आइसक्रीम, मिल्क चौकलेट जैसे गाढ़े दुग्ध उत्पादों में सघन मात्रा में नशीला पदार्थ होता है. (डेयरी फ्री वीगन चीज में भी कभीकभी कैसोमौर्फिन मिलाया जाता है) लगभग 10 लिटर दूध से एक किलोग्राम चीज मिलता है. जब दूध चीज में तब्दील होता है, तो इस में निहित पानी अलग कर लिया जाता है और जो बचता है वह सघन फैट यानी वसा होता है. इसी कारण चीज जैसे डेयरी प्रोडक्ट ऊंचे दर्जे के नशीले पदार्थ माने जाते हैं. जाहिर है इस में जितनी बड़ी मात्रा में नशीला पदार्थ कैसिन होता है, उतना ही वह मन में अच्छा अहसास जगाता है. इसीलिए रात में सोने से पहले बहुत से लोग दूध पीते हैं.

जरा सोचिए, सुहागरात में नए-नवेले जोड़े के लिए दूध का गिलास क्यों रखा जाता है. अब सवाल है कि स्तनधारियों के दूध में आखिर नशीलापन क्यों होता है? इस बारे में फिजिशियन कमेटी फौर रिसपौंसिबल मैडिसिन के संस्थापक और अध्यक्ष डा. नील बर्नाड कहते हैं, ‘‘हो सकता है कि यह मां-बच्चे के बीच एक अनोखा संबंध स्थापित करने का एक उम्दा उपाय हो. मानसिक जुड़ाव हमेशा शारीरिक मजबूती प्रदान करता है. पसंद हो या न हो, मां का दूध नवजात के दिमाग में नशे की तरह काम करता है, जो मांबच्चे के बीच एक मजबूत संबंध स्थापित करता है. इसी कारण मां अपने बच्चे का पालनपोषण जीजान से करती है और नवजात बच्चे को मां की देखभाल की जरूरत भी होती है. हेरोइन या कोकीन की ही तरह कैसोमौर्फिन बहुत ही धीमी गति से आंतों में पहुंचता है और अतिसार को रोकने का काम करता है. दर्द निवारक दवाओं की तरह ही शायद चीज में निहित नशीला तत्त्व भी वयस्कों में कब्ज पैदा करता है.’’

क्या कहती है रिसर्च

बहुत सारे अध्ययनों और जनस्वास्थ्य को देखते हुए 2009 में द यूरोपियन फूड सैफ्टी एजेंसी ने वैज्ञानिक साहित्य की समीक्षा यह देखने के लिए की कि लत के लिए कैसोमौर्फिन आखिर किस हद तक जिम्मेदार होता है? साथ में यह भी कि कैसोमौर्फिन आंतों की दीवार को पार कर रक्तनालिकाओं से होते हुए दिमाग तक भी पहुंचता है या नहीं? क्या औटिज्म का कैसोमौर्फिन से कुछ लेनादेना है? अभी तक वे इन सवालों से जूझ रहे हैं, क्योंकि मानवदेह के लिए यह अच्छा है या नहीं, इस नतीजे तक वे अभी तक नहीं पहुंच पाए हैं.

बहरहाल, अभी तक हम यह जान गए हैं कि नशीले पदार्थ का और इस की मात्रा का हरेक इनसान पर अलगअलग असर होता है. साथ में सामान्य तौर पर यह स्वीकार भी किया जा चुका है कि किसी भी नशीले पदार्थ को हर रोज लेना हमारी सेहत के लिए अच्छा नहीं है, भले ही वह बहुत थोड़ी मात्रा में लिया जाए. फ्लोरिडा के वैज्ञानिक डा. रौबर्ट कैड ने ध्यान भटकाने वाले विकार के संभावित कारण के रूप में कैसोमौर्फिन की पहचान की है. डा. कैड ने सिजोफ्रेनिया और औटिज्म के मरीजों के रक्त और पेशाब में उच्च सघनता वाला बेटाकैसोमौर्फिन 7 नामक तत्त्व पाया है.

नार्वे के डा. कार्ल रिचेट द्वारा किए गए अध्ययन में पाया गया कि औटिस्टिक व्यवहार, सीलिएक बीमारी, मानसिक असंतुलन जैसे विकारों में दुग्ध उत्पाद का बहुत बड़ा हाथ होता है. अमेरिका के इलिनोइस के स्टेट विश्वविद्यालय के एक शोध पत्र के अनुसार, ‘‘कैसोमौर्फिन में ओपिओइड या नशाग्रस्त करने की क्षमता हाती है. ओपिओइड शब्द का इस्तेमाल मौर्फिन या अफीम जैसे नशीले पदार्थ के असर के लिए किया जाता है, जिस के असर से नशा होता है. यह सहनशक्ति की क्षमता को बढ़ा देता है, गहरी नींद सुला देता है, लेकिन अवसाद भी पैदा करता है.’’

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नवजात पर असर

हाल ही में जर्नल औफ पैडियाटिक गैस्ट्रोइंट्रोलौजी ऐंड न्यूट्रिशन में ‘काउज मिल्कइंड्यूज्ड इंफैट एपनिया विद इंक्रिज्ड सेरम कंटैंट औफ बोवाइन बेटाकैसोमौर्फिन 5’ नाम से प्रकाशित एक केस स्टडी में कहा गया है कि इंफैंट एपनिया उस स्थिति को कहते हैं जब कोई नवजात सांस लेना बंद कर देता है. शोधकर्ता ने रिपोर्ट में कहा है कि एक स्तनपान करने वाले नवजात में बारबार एपनिया का दौरा पड़ने के मामले में पाया गया कि मां हमेशा गाय का ताजा दूध पीने के बाद नवजात को स्तनपान कराती थी. प्रयोगशाला में हुई जांच में बच्चे के खून में बहुत अधिक मात्रा में कैसोमौर्फिन पाया गया. इस के बाद शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया कि इस ओपिओइड स्थिति का कारण स्नायुतंत्र में श्वसन केंद्र में दबाव हो सकता है. यह स्थिति मिल्क ओपिओइड कहलाती है.

शोधपत्र आगे यह भी कहता है कि इस हालिया रिपोर्ट का मकसद शोधकर्ताओं का ध्यान इस ओर खींचना है कि संभवतया गाय के दूध में पाए जाने वाले प्रोटीन के कारण नवजात शिशुओं में दैहिक प्रक्रिया के तौर पर एपनिया के लक्षण उभरते हैं. हम मानते हैं कि इस तरह की भावशून्य स्थिति कभीकभार ही देखने को मिलती है. हालांकि सही माने में नवजात शिशु के जीवन के लिए यह खतरा भी बन सकता है. जबकि एक बहुत ही सहज परहेजी उपाय डेयरीफ्री आहार, जोकि महंगा भी नहीं है, से इस स्थिति से बचा भी जा सकता है. हर 10 में से एक नवजात शिशु एपनिया का शिकार होता है और उसे बचाया नहीं जा सकता है. और वह सडन इंफैंट डैथ सिंड्रोम या (संक्षेप में एसआईडीएस) या नवजात शिशु की आकस्मिक मौत का मामला बन कर रह जाता है.

कैलिफोर्निया बेवर्ली हिल्स के इम्युनोसाइंस लैब के सीईओ और इम्युनोलौजिस्ट शोधकर्त्ता अरिस्टो वोजडानी का कहना है कि ग्लूटेन और डेयरी प्रोडक्ट बहुत सारे लोगों में किसी ड्रग की तरह काम करते हैं. जिस तरह हेरोइन या दर्द निवारक दवा की लत लग जाती है, उसी तरह ग्लूटेन या कैसिन से दूर जाने पर इन का तुरंत असर निर्लिप्तता के लक्षण विड्रौल सिमटम्स के रूप में सामने आता है. इस निर्लिप्तता में गुस्सा और अवसाद भी शामिल होता है.

वैसे कैसिन जब शरीर के अंदर पेट में जा कर रासायनिक क्रिया करता है तो यह हिस्टामाइन रिलीज करता है. हिस्टामाइन वह पदार्थ है, जो ऐलर्जी समेत रक्तवाहिकाओं के फैलने और इन की दीवारों को झीना यानी पतला करने में बड़ी भूमिका अदा करता है. हिस्टामाइन का स्राव तब होता है, जब ऐलर्जी पैदा करने वाले किसी बाहरी तत्त्व (मसलन सर्दीजुकाम की दवा, जिस में ऐंटीहिस्टामाइन होता है) की मौजूदगी होती है. इसी कारण दुनिया की 70% आबादी को डेयरी प्रोडक्ट से ऐलर्जी है.

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नवजात के लालनपालन का सुखद तरीका प्रकृति ने तय किया है. यही व्यवस्था दूध छुड़ाने में आड़े आती है. यही कारण है कि बहुत सारे वयस्क दूध की लत से अपना पीछा कभी नहीं छुड़ा पाते. क्या आप को भी इस की लत है?

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