Serial Story: रुपहली चमक- भाग 1

उस दिन सुबह से ही आसमान पर बादल छाए हुए थे और सदा की भांति मुझे उदास कर गए थे, न जाने क्यों ये बादल मेरे मन के अंधेरों को और भी अधिक गहन कर देते हैं और तब आरंभ हो जाता है मेरे भीतर का द्वंद्व. इस अंतर्द्वंद्व में मैं कभी विजयी हुआ हूं तो कभी बुरी तरह पराजित भी हुआ हूं.

मैं आत्मविश्लेषण करते हुए कभी तो स्वयं को दोषी पाता हूं तो कभी बिलकुल निर्दोष. सोचता हूं, दुनिया में और भी तो लोग हैं. सब के सब बड़े संतुष्ट प्रतीत होते हैं या फिर यह मेरा भ्रम मात्र है अर्थात सब मेरी ही तरह सुखी होने का ढोंग रचाते होंगे. खैर, जो भी हो, मैं उस दिन उदास था. उस उदासी के दौर में मुझे अपनी ममताभरी मां बहुत याद आईं.

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर में मेरे घर में सभी सुखसुविधाएं मौजूद थीं. पिता अच्छे पद पर कार्यरत थे. मैं अपने मातापिता की एकमात्र संतान था. न जाने क्यों, कब और कैसे विदेश देखने तथा वहीं बसने की इच्छा मन में उत्पन्न हो गई. मित्रों के मुख से जब कभी अमेरिका, इंगलैंड में बसे हुए उन के संबंधियों के बारे में सुनता तो मेरी यह इच्छा प्रबल हो उठती थी. मां तो कभी भी नहीं चाहती थीं कि मैं विदेश जाऊं क्योंकि लेदे कर उन का एकमात्र चिराग मैं ही तो था.

एक दिन कालेज में मेरे साथ बी.एससी. में पढ़ने वाले मित्र सुरेश ने मुझे बताया कि उस के इंगलैंड में बसे हुए मौसाजी का पत्र आया है. वे अपनी एकमात्र पुत्री सुकेशनी के लिए भारत के किसी पढ़ेलिखे लड़के को इंगलैंड बुलाना चाहते हैं. वहां और मित्र भी बैठे हुए थे. मैं ने बात ही बात में पूछ लिया, ‘‘सुरेश, तुम्हारी बहन सुकेशनी है कैसी?’’

ये भी पढे़ं- Women’s Day Special: बोया पेड़ बबूल का…- शालिनी को कैसे हुआ छले जाने का आभास

सुनते ही सुरेश ठहाका लगाते हुए बोला, ‘‘क्यों, तू शादी करेगा उस से?’’

उस का यह कहना था कि सभी मित्र खिलखिला कर हंस पड़े. मैं झेंप कर पुस्तकालय की ओर बढ़ गया. उन सब के ठहाके वहां तक भी मेरा पीछा करते रहे.

उस के कुछ दिन पश्चात मैं किसी आवश्यक काम से सुरेश के घर गया हुआ था. उस के मातापिता भी घर पर थे. हम सभी ने एकसाथ चाय पी. तभी सुरेश के पिता ने पूछा, ‘‘विशेष, तुम बी.एससी. के बाद क्या रोगे?’’

‘‘जी, चाचाजी, मैं एम.एससी. में प्रवेश लूंगा. मेरे मातापिता भी यही चाहते हैं.’’

तभी सुरेश की मां ने मुसकराते हुए पूछ लिया, ‘‘सुरेश कह रहा था कि तुम विदेश जाने के बड़े इच्छुक हो. अपनी बहन की लड़की के लिए हमें अच्छा पढ़ालिखा लड़का चाहिए. तुम्हें व तुम्हारे परिवार को हम लोग भलीभांति जानते हैं, कहो तो तुम्हारे लिए बात चलाएं?’’

मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘जी, आप मेरे मातापिता से बात कर लें,’’ मैं उन्हें नमस्ते कह कर बाहर निकल गया.

अगले रविवार को सुरेश के माता- पिता हमारे घर आए. मैं ने मां को पहले ही सब बता दिया था. मां तो वैसे भी मेरी इस इच्छा को मेरा पागलपन ही समझती थीं लेकिन इस रिश्ते की बात सुन कर वे बौखला सी गईं जबकि पिताजी तटस्थ थे. न जाने क्यों? यह मुझे ज्ञात नहीं था. परंतु मां पर तो मानो वज्र ही गिर पड़ा. हम सभी ने एकसाथ नाश्ता किया. उन लोगों ने अपना प्रस्ताव रख दिया था.

सुन कर मां बोलीं, ‘‘बहनजी, एक ही तो बेटा है हमारा, वह भी हम से दूर चला जाएगा तो यह हम कैसे सह पाएंगे?’’

सुरेश की मां बोलीं, ‘‘बहनजी, सहने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. भाई साहब की अवकाशप्राप्ति के पश्चात आप लोग भी वहीं बस जाइएगा.’’

मैं ने पिताजी के चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुसकराहट सहज ही देख ली थी. वे बोले, ‘‘बहनजी, आप हमारी चिंता छोड़ दीजिए. आप बात चलाइए, मैं विशेष की एक फोटो आप को दे रहा हूं.’’

फोटो की बात चलने पर सुरेश की मां ने भी सुकेशनी की एक रंगीन फोटो हमारे सामने रख दी. लड़की बहुत सुंदर तो नहीं थी पर ऐसी अनाकर्षक भी नहीं थी. फिर मैं ने भला कब अपने लिए अद्वितीय सुंदरी की कामना की थी. मेरे लिए तो यह साधारण सी लड़की ही विश्वसुंदरी से कम न थी क्योंकि इसी की बदौलत तो मेरी वर्षों से सहेजी मनोकामना पूर्ण होने जा रही थी.

बात चलाई गई और सुरेश के मौसामौसी अपनी पुत्री सहित एक माह के उपरांत ही भारत आ गए. मुझे तो उन लोगों ने फोटो देख कर ही पसंद कर लिया था.

बड़ी धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ. सुकेशनी फोटो की अपेक्षा कुछ अच्छी थी, पर रिश्तेदार दबी जबान से कहते सुने गए कि राजकुमार जैसा सुंदर लड़का अपने जोड़ की पत्नी न पा सका.

ये भी पढे़ं- औपरेशन: आखिर किस के शिकार बने थे डाक्टर सारांश

पिताजी ने मेरा पारपत्र दौड़धूप कर के बनवा लिया था व वीजा के लिए प्रयत्न सुकेशनी के पिता अर्थात मेरे ससुर कर रहे थे. चूंकि सुकेशनी इंगलैंड में ही जन्मी थी, अत: वीजा मिलने में भी अधिक परेशानी नहीं हुई. शादी के 1 माह पश्चात ही मुझे सदा के लिए अपनी पत्नी के घर जाने हेतु विदा हो जाना था. लोग तो बेटी की विदाई पर आंसू बहाए जा रहे थे. मां बराबर रोए जा रही थीं परंतु अपनी जननी के आंसू भी मुझे विचलित न कर सके. निश्चित दिन मैं भारत से इंगलैंड के लिए रवाना हुआ.

हवाई जहाज में मेरे समीप बैठी मेरी पत्नी शरमाईसकुचाई ही रही परंतु जब हम लंदन स्थित अपने घर पहुंचे तो सुकेशनी ने साड़ी ऐसे उतार फेंकी, जैसे लोग केले का छिलका फेंकते हैं. मैं क्षण भर के लिए हतप्रभ रह गया. उस ने चिपकी हुई जींस व बिना बांहों वाला ब्लाउज पहना तो ऐसा लगा कि अब वह अपने वास्तविक रूप में वापस आई है, मानो अभी तक तो वह अभिनय ही कर रही थी. एक क्षण के लिए मेरे मन के अंदर यह विचार कौंध गया कि कहीं इस ने शादी को भी अभिनय ही तो नहीं समझ लिया है. पर बाद में लगा कि 22 वर्षीय युवती शादी को मजाक तो कदापि न समझेगी.

कान्वेंट स्कूल में आरंभ से ही पढ़े होने के कारण भाषा की समस्या तो मेरे लिए बिलकुल ही न थी. भारत में अटकअटक कर हिंदी बोलने वाली सुकेशनी, जिसे मैं प्यार से सुकू कहने लगा था, केवल अंगरेजी ही बोलती थी. यहां पर आधुनिक सुखसुविधाओं से संपन्न घर मुझे कुछ दिनों तक तो असीम सुख का एहसास दिलाता रहा. सुकु जब फर्राटेदार अंगरेजी बोलती हुई मेरे कंधों पर हाथ मारते हुए बेशरमी से हंसती तो मेरे सासससुर मानो निहाल हो जाते. परंतु मैं आखिरकार था तो भारतीय सभ्यता व संस्कृति की मिट्टी में ही उपजा पौधा, इसलिए मुझे यह सब बड़ा अजीब सा लगता था, पर विदेश में बसने की इच्छा के समक्ष मैं ने इन बातों को अधिक महत्त्व देना उचित न समझा.

आगे पढ़ें- हम दोनों बड़े ही उत्साहित और खुश थे. सुकु…

ये भी पढे़ं- टीनऐजर्स लव: अस्मिता ने क्या लांघ दी रिश्ते की सीमारेखा

Serial Story: चलो एक बार फिर से… – भाग 3

काव्या अब संतुष्ट थी कि उस ने मनन को पूरी तरह से पा लिया है. झूम उठती थी वह जब मनन उसे प्यार से सिरफिरी कहता था. मगर उस का यह खुमार भी जल्द ही उतर गया. 2-3 साल तो मनन के मन का भौंरा काव्या के तन के पराग पर मंडराता रहा, मगर फिर वही ढाक के तीन पात… मनन फिर से अपने काम की तरफ झुकने लगा और काव्या को नजरअंदाज करने लगा. अब काव्या के पास भी समर्पण के लिए कुछ नहीं बचा था. वह परेशानी में और भी अधिक दीवानी होने लगी. कहते हैं न कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपता… उन का रिश्ता भी पूरे विभाग में चर्चा का विषय बन गया. लोग सामने तो मनन की गरिमा का खयाल कर लेते थे, मगर पीठ पीछे उसे काव्या का भविष्य बरबाद करने के लिए जिम्मेदार ठहराते थे. हालांकि मनन तो अपनी तरफ से इस रिश्ते को नकारने की बहुत कोशिश करता था, मगर काव्या का दीवानापन उन के रिश्ते की हकीकत को बयां कर ही देता था, बल्कि वह तो खुद चाहती थी कि लोग उसे मनन के नाम से जानें.

बात उड़तेउड़ते दोनों के घर तक पहुंच गई. जहां काव्या की मां उस की शादी पर

जोर देने लगीं, वहीं प्रिया ने भी मनन से इस रिश्ते की सचाई के बारे में सवाल किए. प्रिया को तो मनन ने अपने शब्दों के जाल में उलझा लिया था, मगर विहान और विवान के सवालों के जवाब थे उन के पास… एक पिता भला अपने बच्चों से यह कैसे कह सकता है कि उन की मां की नाराजगी का कारण उस के नाजायज संबंध हैं. मनन काव्या से प्यार तो करता था, मगर एक पिता की जिम्मेदारियां भी बखूबी समझाता था. वह बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहता था.

ये भी पढ़ें- टीनऐजर्स लव: अस्मिता ने क्या लांघ दी रिश्ते की सीमारेखा

इधर काव्या की दीवानगी भी मनन के लिए परेशानी का कारण बनने लगी थी. एक दिन काव्या ने मनन को अकेले में मिलने के लिए बुलाया. मनन को उस दिन प्रिया के साथ बच्चों के स्कूल पेरैंटटीचर मीटिंग में जाना था, इसलिए उस ने मना कर दिया. यही बात काव्या को नागवार गुजरी. वह लगातार मनन को फोन करने लगी, मगर मनन उस की मानसिकता अच्छी तरह समझता था. उस ने अपने मोबाइल को साइलैंट मोड पर डाल दिया. मीटिंग से फ्री हो कर मनन ने फोन देखा तो काव्या की 20 मिस्ड कौल देख कर उस का सिर चकरा गया. एक मैसेज भी था कि अगर मुझ से मिलने नहीं आए तो मुझे हमेशा के लिए खो दोगे. ‘‘सिरफिरी है, कुछ भी कर सकती है,’’ सोचते हुए मनन ने उसे फोन लगाया. सारी बात समझाने पर काव्या ने उसे घर आ कर सौरी बोलने की शर्त पर माफ किया. इतने दिनों बाद एकांत मिलने पर दोनों का बहकना तो स्वाभाविक ही था.

ज्वार उतरने के बाद काव्या ने कहा, ‘‘मनन, हमारे रिश्ते का भविष्य क्या है? सब लोग मुझ पर शादी करने का दबाव बना रहे हैं.’’ ‘‘सही ही तो कर रहे हैं सब. अब तुम्हें भी इस बारे में सोचना चाहिए,’’ मनन ने कपड़े पहनते हुए कहा.

‘‘शर्म नहीं आती तुम्हें मुझ से ऐसी बात करते हुए… क्या तुम मेरे साथ बिस्तर पर किसी और की कल्पना कर सकते हो?’’ काव्या तड़प उठी. ‘‘नहीं कर सकता… मगर हकीकत यही है कि मैं तुम्हें प्यार तो कर सकता हूं और करता भी हूं, मगर एक सुरक्षित भविष्य नहीं दे सकता,’’ मनन ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘मगर तुम्हारे बिना तो मेरा कोई भविष्य ही नहीं है,’’ काव्या के आंसू बहने लगे. मनन समझ नहीं पा रहा था कि इस सिरफिरी को कैसे समझाए. तभी मनन का कोई जरूरी कौल आ गई और वह काव्या को हैरानपरेशान छोड़ चला गया. काव्या ने अपनेआप से प्रश्न किया कि क्या मनन उस का इस्तेमाल कर रहा है… उसे धोखा दे रहा है?

नहीं, बिलकुल नहीं… मनन ने कभी उस से शादी का कोई झूठा वादा नहीं किया, बल्कि पहले दिन से ही अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी थी. प्यार की पहल खुद उसी ने की थी… उसी ने मनन को निमंत्रण दिया था अपने पास आने का…’’ काव्या को जवाब मिला. तो फिर क्यों वह मनन को जवाबदेह बनाना चाह रही है… क्यों वह अपनी इस स्थिति के लिए उसे जिम्मेदार ठहरा रही है… काव्या दोराहे पर खड़ी थी. एक तरफ मनन का प्यार था, मगर उस पर अधिकार नहीं था और दूसरी तरफ ऐसा भविष्य था जिस के सुखी होने की कोई गारंटी नहीं थी. क्या करे, क्या न करे… कहीं और शादी कर भी ले तो क्या मनन को भुला पाएगी? उस के इतना पास रह कर क्या किसी और को अपनी बगल में जगह दे पाएगी? प्रश्न बहुत से थे, मगर जवाब कहीं नहीं थे. इसी कशमकश में काव्या अपने लिए आने वाले हर रिश्ते को नकारती जा रही थी.

ये भी पढ़ें- सिल्वर जुबली गिफ्ट- क्यों गीली लकड़ी की तरह सुलगती रही सुगंधा

इसी बीच प्रमोशन के साथ ही मनन का ट्रांसफर दूसरे सैक्शन में हो गया. अब काव्या के लिए मनन को रोज देखना भी मुश्किल हो गया था. प्रमोशन के साथ ही उस की जिम्मेदारियां भी पहले से काफी बढ़ गई थीं. इधर विहान और विवान भी स्कूल से कालेज में आ गए थे. मनन को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा का भी ध्यान रखना पड़ता था. इस तरह काव्या से उस का संपर्क कम से कमतर होता गया. मनन की बेरुखी से काव्या डिप्रैशन में रहने लगी. वह दिन देखती न रात… बारबार मनन को फोन, मैसेज करने लगी तो मनन ने उस का मोबाइल नंबर ब्लौक कर दिया. एक दिन काव्या को कहीं से खबर मिली कि मनन विभाग की तरफ से किसी ट्रेनिंग के लिए चेन्नई जा रहा है और फिर वहीं 3 साल के लिए प्रतिनियुक्ति पर रहेगा. काव्या को सदमा सा लगा. वह सुबहसुबह उस के औफिस में पहुंच गई. मनन अभी तक आया नहीं था. वह वहीं बैठ कर उस का इंतजार करने लगी. जैसे ही मनन चैंबर में घुसा काव्या फूटफूट कर रोने लगी. रोतेरोते बोली, ‘‘इतनी बड़ी बात हो गई और तुम ने मुझे बताने लायक भी नहीं समझा?’’

मनन घबरा गया. उस ने फौरन चैंबर का गेट बंद किया और काव्या को पानी का गिलास थमाया. वह कुछ शांत हुई तो मनन बोला, ‘‘बता देता तो क्या तुम मुझे जाने देतीं?’’ ‘‘इतना अधिकार तो तुम ने मुझे कभी दिया ही नहीं कि मैं तुम्हें रोक सकूं,’’ काव्या ने गहरी निराशा से कहा.

‘‘काव्या, मैं जानबूझ कर तुम से दूर जाना चाहता हूं ताकि तुम अपने भविष्य के बारे में सोच सको, क्योंकि मैं जानता हूं कि जब तक मैं तुम्हारे आसपास हूं, तुम मेरे अलावा कुछ और सोच ही नहीं सकती. मैं इतना प्यार देने के लिए हमेशा तुम्हारा शुक्रगुजार रहूंगा…’’ ‘‘मैं अपने स्वार्थ की खातिर तुम्हारी जिंदगी बरबाद नहीं कर सकता. मुझे लगता है कि हमें अपने रिश्ते को यही छोड़ कर आगे बढ़ना चहिए. मैं ने तुम्हें हमेशा बिना शर्त प्यार किया है और करता रहूंगा. मगर मैं इसे सामाजिक मान्यता नहीं दे सकता… काश, तुम ने मुझे प्यार न किया होता… मैं तुम्हें प्यार करता हूं, इसीलिए चाहता हूं कि तुम हमेशा खुश रहो… हम चाहे कहीं भी रहें, तुम मेरे दिल में हमेशा रहोगी…’’

सुन कर काव्या को सदमा तो लगा, मगर मनन सच ही कह रहा था. अंधेरे में भटकने से बेहतर है कि उसे अब नया चिराग जला कर आगे बढ़ जाना चाहिए. काव्या ने अपने आंसू पोंछ, फिर से मुसकराई, फिर उठते हुए मनन से हाथ मिलाते हुए बोली, ‘‘नए प्रोजैक्ट के लिए औल द बैस्ट… चलो एक बार फिर से, अजनबी बन जाएं हम दोनों… और हां, मुझे पहले प्यार की अनुभूति देने के लिए शुक्रिया…’’ और फिर आत्मविश्वास के साथ चैंबर से बाहर निकल गई.

ये भी पढ़ें- मूव औन माई फुट: मिताली को देख क्या कर बैठा था विक्रम

Serial Story: चलो एक बार फिर से… – भाग 2

दोपहर में नमनजी ने एक मेल दिखाते हुए काव्या से उस का रिप्लाई बनाने को कहा. कंपनी सैक्रेटरी ने आज ही औफिस स्टाफ की कंप्लीट डिटेल मंगवाई थी. रिपोर्ट बनाते समय अचानक काव्या मुसकरा उठी जब मनन की डिटेल बनाते समय उसे पता चला कि अगले महीने ही मनन का जन्मदिन है. मन ही मन उस ने मनन के लिए सरप्राइज प्लान कर लिया. जन्मदिन वाले दिन सुबहसुबह काव्या ने मनन को फोन किया, ‘‘हैप्पी बर्थडे सर.’’

‘‘थैंकयू सो मच. मगर तुम्हें कैसे पता?’’ मनन ने पूछा. ‘‘यही तो अपनी खास बात है सर… जिसे यादों में रखते हैं उस की हर बात याद रखते हैं,’’ काव्या ने शायराना अंदाज में इठलाते हुए कहा.

मनन उस के बचपने पर मुसकरा उठा. ‘‘सिर्फ थैंकयू से काम नहीं चलेगा… ट्रीट तो बनती है…’’ काव्या ने अगला तीर छोड़ा.

‘‘औफकोर्स… बोलो कहां लोगी?’’ ‘‘जहां आप ले चलो… आप साथ होंगे तो कहीं भी चलेगा…’’ काव्या धीरेधीरे मुद्दे की तरफ आ रही थी. अंत में तय हुआ कि मनन उसे मैटिनी शो में फिल्म दिखाएगा. मनन के साथ 3 घंटे उस की बगल में बैठने की कल्पना कर के ही काव्या हवा में उड़ रही थी. उस ने मनन से कहा कि फिल्म के टिकट वह औनलाइन बुक करवा लेगी. अच्छी तरह चैक कर के काव्या ने लास्ट रौ की 2 कौर्नर सीट बुक करवा ली. अपनी पहली जीत पर उत्साह से भरी वह आधा घंटा पहले ही पहुंच कर हौल के बाहर मनन का इंतजार करने लगी. मगर मनन फिल्म शुरू होने पर ही आ पाया. उसे देखते ही काव्या ने मुसकरा कर एक बार फिर उसे बर्थडे विश किया और दोनों हौल में चले गए. चूंकि फिल्म स्टार्ट हो चुकी थी और हौल में अंधेरा था इसलिए काव्या ने धीरे से मनन का हाथ थाम लिया.

ये भी पढ़ें- वक्त के धमाके: जापान में क्या हुआ था रवि के साथ

फिल्म बहुत ही कौमेडी थी. काव्या हर पंच पर हंसहंस के दोहरी हुई जा रही थी. 1-2 बार तो वह मनन के कंधे से ही सट गई. इंटरवल के बाद एक डरावने से सीन को देख कर उस ने मनन का हाथ कस कर थाम लिया. एक बार हाथ थामा तो फिर उस ने पूरी फिल्म में उसे पकड़े रखा. मनन ने भी हाथ छुड़ाने की ज्यादा कोशिश नहीं की. फिल्म खत्म होते ही हौल खाली होने लगा. काव्या ने कहा, ‘‘2 मिनट रुक जाते हैं. अभी भीड़ बहुत है,’’ फिर अपने पर्स में कुछ टटोलने का नाटक करते हुए बोली, ‘‘यह लो… आप से ट्रीट तो ले ली और बर्थडे गिफ्ट दिया ही नहीं… आप अपनी आंखें बंद कीजिए…’’

मनन ने जैसे ही अपनी आंखें बंद कीं, काव्या ने एक गहरा चुंबन उस के होंठों पर जड़ दिया. मनन ने ऐसे सरप्राइज गिफ्ट की कोई कल्पना नहीं की थी. उस का दिल तेजी से धड़कने लगा और अनजाने ही उस के हाथ काव्या के इर्दगिर्द लिपट गए. काव्या के लिए यह एकदम अनछुआ एहसास था. उस का रोमरोम भीग गया. वह मनन के कान में धीरे से बुदबुदाई, ‘‘यह जन्मदिन आप को जिंदगी भर याद रहेगा.’’

मनन अभी भी असमंजस में था कि इस राह पर कदम आगे बढ़ाए या फिर यहीं रुक जाए… हिचकोले खाता यह रिश्ता धीरेधीरे आगे बढ़ रहा था. जब भी काव्या मनन के साथ होती तो मनन उसे एक समर्पित प्रेमी सा लगता और जब वह उस से दूर होती तो उसे यह महसूस होता जैसे कि मनन से उस का रिश्ता ही नहीं है… जहां काव्या हर वक्त उसी के खयालों में खोई रहती, वहीं मनन के लिए उस का काम उस की पहली प्राथमिकता थी और उस के बाद उस के बच्चे. कव्या औफिस से जाने के बाद भी मनन के संपर्क में रहना चाहती थी, मगर मनन औफिस के बाद न तो उस का फोन उठाता था और न ही किसी मैसेज का जवाब देता था. कुल मिला कर काव्या उस के लिए दीवानी हो चुकी थी. मगर मनन शायद अभी भी इस रिश्ते को ले कर गंभीर नहीं था.

एक दिन सुबहसुबह मनन ने काव्या को चैंबर में बुला कर कहा, ‘‘काव्या, मुझे घर पर मैसेज मत किया करो… घर जाने के बाद बच्चे मेरे मोबाइल में गेम खेलने लगते हैं… ऐसे में कभी तुम्हारा कोई मैसेज किसी के हाथ लग गया तो बवाल मच जाएगा.’’ ‘‘क्यों? क्या तुम डरते हो?’’ काव्या ने

उसे ललकारा. ‘‘बात डरने की नहीं है… यह हम दोनों का निजी रिश्ता है. इसे सार्वजनिक कर के इस का अपमान नहीं करना चाहिए… कहते हैं न कि खूबसूरती की लोगों की बुरी नजर लग जाती और मैं नहीं चाहता कि हमारे इस खूबसूरत रिश्ते को किसी की नजर लगे,’’ मनन ने काव्या को बातों के जाल में उलझा दिया, क्योंकि वह जानता था कि प्यार से न समझाया गया तो काव्या अभी यही रोनाधोना शुरू कर देगी.

ये भी पढ़ें- Women’s Day Special: बोया पेड़ बबूल का…- शालिनी को कैसे हुआ छले जाने का आभास

अपने पूरे समर्पण के बाद भी काव्या मनन को अपने लिए दीवाना नहीं बना पा रही थी. वह समझ नहीं पा रही थी कि वह ऐसा क्या करे जिस से मनन सिर्फ उस का हो कर रहे. वह मनन को कैसे जताए कि वह उस से कितना प्यार करती हैं… उस के लिए किस हद से गुजर सकती है… किसी से भी बगावत कर सकती है. आखिर काव्या को एक तरीका सूझ ही गया.

मनन अभी औफिस के लिए घर से निकला ही था कि काव्या का फोन आया. बेहद कमजोर सी आवाज में उस ने कहा, ‘‘मनन, मुझे तेज बुखार है और मां भी 2 दिन से नानी के घर गई हुई हैं. प्लीज, मुझे कोई दवा ला दो और हां मैं आज औफिस नहीं आ सकूंगी.’’

ममन ने घड़ी देखी. अभी आधा घंटा था उस के पास… उस ने रास्ते में एक मैडिकल स्टोर से बुखार की दवा ली और काव्या के घर पहुंचा. डोरबैल बजाई तो अंदर से आवाज आई, ‘‘दरवाला खुला है, आ जाओ.’’

मनन अंदर आ गया. आज पहली बार वह काव्या के घर आया था. काव्या बिस्तर पर लेटी हुई थी. मनन ने इधरउधर देखा, घर में उन दोनों के अलावा और कोई नहीं था. मनन ने प्यार से काव्या के सिर पर हाथ रखा तो चौंक उठा. बोला, ‘‘अरे, तुम्हें तो बुखार है ही नहीं.’’

वह उस से लिपट कर सिसक उठी. रोतेरोते बोली, ‘‘मनन, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती… मैं नहीं जानती कि मैं क्या करूं… तुम्हें कैसे अपने प्यार की गहराई दिखाऊं… तुम्हीं बताओ कि मैं ऐसा क्या करूं जिस से तुम्हें बांध सकूं… हमेशा के लिए अपना बना सकूं…’’ ‘‘मैं तो तुम्हारा ही हूं पगली… क्या तुम्हें अपने प्यार पर भरोसा नहीं है?’’ मनन ने उस के आंसू पोंछते हुए कहा.

‘‘भरोसा तो मुझे तुम पर अपनेआप से भी ज्यादा है,’’ कह कर काव्या उस से और भी कस कर लिपट गई. ‘‘बिलकुल सिरफिरी हो तुम,’’ कह कर मनन उस के बालों को सहलातासहलाता उस के आंसुओं के साथ बहने लगा. तनहाइयों ने उन का भरपूर साथ दिया और दोनों एकदूसरे में खोते चले गए. अपना मन तो काव्या पहले ही उसे दे चुकी थी आज अपना तन भी उस ने अपने प्रिय को सौंप दिया था. शादीशुदा मनन के लिए यह कोई अनोखी बात नहीं थी, मगर काव्या का कुंआरा तन पहली बार प्यार की सतरंगी फुहारों से तरबतर हुआ था. आज उस ने पहली बार कायनात का सब से वर्जित फल चखा था.

आगे पढें- प्रिया ने भी मनन से इस…

ये भी पढ़ें- औपरेशन: आखिर किस के शिकार बने थे डाक्टर सारांश

Serial Story: चलो एक बार फिर से… – भाग 1

‘‘काव्या,कल जो लैटर्स तुम्हें ड्राफ्टिंग के लिए दिए थे, वे हो गया क्या?’’ औफिस सुपरिंटेंडैंट नमनजी की आवाज सुन कर मोबाइल पर चैट करती काव्या की उंगलियां थम गईं. उस ने नमनजी को ‘गुड मौर्निंग’ कहा और फिर अपनी टेबल की दराज से कुछ रफ पेपर निकाल कर उन की तरफ बढ़ा दिए. देखते ही नमनजी का पारा चढ़ गया.

बोले, ‘‘यह क्या है? न तो इंग्लिश में स्पैलिंग सही हैं और न हिंदी में मात्राएं… यह होती है क्या ड्राफ्टिंग? आजकल तुम्हारा ध्यान काम पर

नहीं है.’’ ‘‘सर, आप चिंता न करें, कंप्यूटर सारी मिस्टेक्स सही कर देगा,’’ काव्या ने लापरवाही से कहा. नमनजी कुछ तीखा कहते उस से पहले ही काव्या का मोबाइल बज उठा. वह ‘ऐक्सक्यूज मी’ कहती हुई अपना मोबाइल ले कर रूम से बाहर निकल गई. आधा घंटा बतियाने के बाद चहकती हुई काव्या वापस आई तो देखा नमनजी कंप्यूटर पर उन्हीं लैटर्स को टाइप कर रहे थे. वह जानती है कि इन्हें कंप्यूटर पर काम करना नहीं आता. नमनजी को परेशान होता देख उसे कुछ अपराधबोध हुआ. मगर काव्या भी क्या करे? मनन का फोन या मैसेज देखते ही बावली सी हो उठती है. फिर उसे कुछ और दिखाई या सुनाई ही नहीं देता.

‘‘आप रहने दीजिए सर. मैं टाइप कर देती हूं,’’ काव्या ने उन के पास जा कर कहा. ‘‘साहब आते ही होंगे… लैटर्स तैयार नहीं मिले तो गुस्सा करेंगे…’’ नमनजी ने अपनी नाराजगी को पीते हुए कहा.

ये भी पढे़ं- संदेह के बादल: अपने ही बुने जाल में क्यों उलझती जा रही थी सुरभि

‘‘सर तो आज लंच के बाद आएंगे… बिग बौस के साथ मीटिंग में जा रहे हैं,’’ काव्या बोली. ‘‘तुम्हें कैसे पता?’’

‘‘यों ही… वह कल सर फोन पर बिग बौस से बात कर रहे थे. तब मैं ने सुना था,’’ काव्या को लगा मानो उस की चोरी पकड़ी गई हो. वह सकपका गई और फिर नमनजी से लैटर्स ले कर चुपचाप टाइप करने लगी. काव्या को इस औफिस में जौइन किए लगभग 4 साल हो गए थे. अपने पापा की मृत्यु के बाद सरकारी नियमानुसार उसे यहां क्लर्क की नौकरी मिल गई थी. नमनजी ने ही उसे औफिस का सारा काम सिखाया था. चूंकि वे काव्या के पापा के सहकर्मी थे, इस नाते भी वह उन्हें पिता सा सम्मान देती थी. शुरूशुरू में जब उस ने जौइन किया था तो कितना उत्साह था उस में हर नए काम को सीखने का. मगर जब से ये नए बौस मनन आए हैं, काव्या का मन तो बस उन के इर्दगिर्द ही घूमता रहता है.

काव्या का कुंआरा मन मनन को देखते ही दीवाना सा हो गया था. 5 फुट 8 इंच हाइट, हलका सांवला रंग और एकदम परफैक्ट कदकाठी… और बातचीत का अंदाज तो इतना लुभावना कि उसे शब्दों का जादूगर ही कहने का मन करता था. असंभव शब्द तो जैसे नैपोलियन की तरह उस की डिक्शनरी में भी नहीं था. हर मुश्किल का हल था उस के पास… काव्या को लगता था कि बस वे बोलते ही रहें और वह सुनती रहे… ऐसे ही जीवनसाथी की तो कल्पना की थी उस ने अपने लिए. मनन नई विचारधारा का हाईटैक औफिसर था. वह पेपरलैस वर्क का पक्षधर था. औफिस के सारे काम कंप्यूटर और मेल से करने पर जोर देता था. उस ने नमनजी जैसे रिटायरमैंट के करीब व्यक्ति को भी जब मेल करना सिखा दिया तो काव्या उस की फैन हो गई. सिर्फ काव्या ही नहीं, बल्कि औफिस का सारा स्टाफ ही मनन के व्यवहार का कायल था. वह अपने औफिस को भी परिवार ही समझता था. स्टाफ के हर सदस्य में पर्सनल टच रखता था. उस का मानना था कि हम दिन का एक अहम हिस्सा जिन के साथ बिताते हैं, उन के बारे में हमें पूरी जानकारी होनी चाहिए और उन से जुड़ी हर अच्छी और बुरी बात में हमें उन के साथ खड़े रहना चाहिए.

ये भी पढ़ें- बिन तुम्हारे: क्या था नीपा का फैसला

अपनी इस नीति के तहत हर दिन किसी एक व्यक्ति को अपने चैंबर में बुला कर चाय की चुसकियों के साथ मनन उन से व्यक्तिगत स्तर पर ढेर सी बातें करता था. इसी सिलसिले में काव्या को भी अपने साथ चाय पीने के लिए आमंत्रित करता था.

जिस दिन मनन के साथ काव्या की औफिस डेट होती थी, वह बड़े ही मन से तैयार हो कर आती थी. कभीकभी अपने हाथ से बने स्नैक्स भी मनन को खिलाती थी. अपने स्वभाव के अनुसार वह उस की हर बात की तारीफ करती थी. काव्या को लगता था जैसे वह हर डेट के बाद मनन के और भी करीब आ जाती है. पता नहीं क्या था मनन की गहरी आंखों में कि उस ने एक बार झांका तो बस उन में डूबती ही चली गई.

मनन को शायद काव्या की मनोदशा का कुछकुछ अंदाजा हो गया था, इसलिए वह अब काव्या को अपने चैंबर में अकेले कम ही बुलाता था. एक बार बातोंबातों में मनन ने उस से अपनी पत्नी प्रिया और 2 बच्चों विहान और विवान का जिक्र भी किया था. बच्चों में तो काव्या ने दिलचस्पी दिखाई थी, मगर पत्नी का जिक्र आते ही उस का मुंह उतर गया, जिसे मनन की अनुभवी आंखों ने फौरन ताड़ लिया. पिछले साल मनन अपने बच्चों की गरमी की छुट्टियों में परिवार सहित शिमला घूमने गया था. उस की गैरमौजूदगी में काव्या को पहली बार यह एहसास हुआ कि मनन उस के लिए कितना जरूरी हो गया है. मनन का खाली चैंबर उसे काटने को दौड़ता था. दिल के हाथों मजबूर हो कर तीसरे दिन काव्या ने हिम्मत जुटा कर मनन को फोन लगाया. पूरा दिन उस का फोन नौट रीचेबल आता रहा. शायद पहाड़ी इलाके में नैटवर्क कमजोर था. आखिरकार उस ने व्हाट्सऐप पर मैसेज छोड़ दिया-

ये भी पढे़ं- Women’s Day Special: आधुनिक श्रवण कुमार- मीरा ने कैसे किया परिवार

‘‘मिसिंग यू… कम सून.’’ देर रात मैसेज देखने के बाद मनन ने रिप्लाई में सिर्फ 2 स्माइली भेजीं. मगर वे भी काव्या

के लिए अमृत की बूंदों के समान थीं. 1 हफ्ते बाद जब मनन औफिस आया तो उसे देखते ही काव्या खिल उठी. उस ने थोड़ी देर तो मनन के बुलावे का इंतजार किया, फिर खुद ही उस के चैंबर में जा कर उस के ट्रिप के बारे में पूछने लगी. मनन ने भी उत्साह से उसे अपने सारे अनुभव बताए. मनन महसूस कर रहा था कि जबजब भी प्रिया का जिक्र आता, काव्या कुछ बुझ सी जाती. कई दिनों के बाद दोनों ने साथ चाय पी थी. आज काव्या बहुत खुश थी.

आगे पढ़ें- मनन उस के बचपने पर…

Mother’s Day Special: मुक्ति-भाग 2

और उस के बाद तो अनेक परेशानियों का सिलसिला शुरू हो गया था. उधर, सुनील फोन पर लगातार हिदायतों पर हिदायतें देता जा रहा था और इधर शिवानी पर शामत आ रही थी. अपने पति पर घर छोड़ कर और एंबुलैंस पर मां को अकेले अपने दम पर पटना ले जाना, किसी विशेषज्ञ जिस का नाम सुनील ने ही बताया था उस से संपर्क करना और प्राइवेट वार्ड में रख कर मां का औपरेशन करवाना, नर्स के रहते भी दिनरात उन की सेवा करते रहना इत्यादि कितनी ही जहमतों का काम वह 3 हफ्तों तक करती रही थी. इस का एकमात्र पुरस्कार शिवानी को यह मिला था कि मां का प्यार उस के प्रति बढ़ गया था और अब वे उसी का नाम जपने लगी थीं.

सुनील के न चाहने पर भी मोबाइल की घंटी फिर बज उठी. एक झिझक के साथ सुनील ने मोबाइल उठाया. उधर शिवानी ही थी, जोर से बोल उठी, ‘‘अंकल, मैं शिवानी बोल रही हूं.’’

शिवानी के मुंह से अंकल शब्द सुन कर सुनील को ऐसा लगता था जैसे वह उस के कानों पर पत्थर मार रही हो. लाख याद दिलाने पर भी कि वह उस का मामा है, शिवानी उसे अंकल ही कहती थी. स्पष्ट था कि यह संबोधन उसे एक व्यावसायिक संबंध की ही याद दिलाता था, रिश्ते की नहीं.

‘‘हां, हां, मैं समझ गया, बोलो.’’

‘‘प्रणाम अंकल.’’

‘‘खुश रहो, बोलो, क्या बात है?’’

‘‘आप लोग कैसे हैं, अंकल?’’

सुनील जल्दी में था, इसलिए खीझ गया पर शांत स्वर में ही बोला, ‘‘हम लोग सब ठीक हैं, पर तुम बताओ मां कैसी हैं?’’

ये भी पढ़ें- बदलती दिशा: क्या गृहस्थी के लिए जया आधुनिक दुनिया में ढल पाई

‘‘नानीजी ने तो खानापीना सब छोड़ रखा है,’’ सुनील को लगा जैसे उस की छाती पर किसी ने हथौड़ा चला दिया हो. उसे चिंता हुई, ‘‘कब से?’’

‘‘कल रात से. कल रात कुछ नहीं खाया, आज भी न नाश्ता लिया और न दोपहर का खाना ही खाया.’’

‘‘अब रात का खाना उन्हें अवश्य खिलाओ. जो उन को पसंद आए वही बना कर दो. खाना थोड़ा गला कर देना ताकि उसे वे आसानी से निगल सकें. निगलने में दिक्कत होने से भी वे नहीं खाती होंगी.’’

‘‘हम ने तो कल खिचड़ी दी थी.’’

‘‘उसे भी जरा पतला कर के दो और घी वगैरह मिला दिया करो. मां को खिचड़ी अच्छी लगती है.’’

‘‘इसीलिए तो अंकल, लेकिन कहती हैं कि भूख नहीं है.’’

‘‘डाक्टर से पूछ कर देखो. भूख न लगने का भी इलाज हो सकता है.’’

‘‘वे कहती हैं, खाने की रुचि ही खत्म हो गई है. इस का क्या इलाज है? शायद मेरे हाथ से खाना ही नहीं चाहतीं.’’

उस लड़की की बात में सुनील को साफ व्यंग्य झलकता दिखाई पड़ा. ‘‘फिर भी, तुम डाक्टर से पूछो,’’ वह शांत स्वर में ही बोला.

‘‘जी अच्छा, अंकल.’’

‘‘फिर जैसा हो बताना. तुम चाहो तो व्हाट्सऐप कौल कर सकती हो.’’

‘‘नहीं अंकल, अब तो अमेरिका फोन करना सस्ता हो गया है. कोई बात नहीं. रात में फिर से कोशिश कर के देखती हूं.’’ वास्तव में शिवानी के पास पैसे की कोई कमी तो थी नहीं, फिर भी, उस की उदारता की उस ने जिस तरह उपेक्षा कर दी वह उसे अच्छा नहीं लगा.

‘‘जरूर.’’

‘‘अंकल, वहां अभी क्या समय हो रहा है?’’

‘‘यहां सुबह के 7 बज रहे हैं.’’

‘‘अच्छा, प्रणाम अंकल.’’

‘‘खुश रहो.’’

शिवानी सुनील के दूर के रिश्ते की बहन की बेटी थी. उस का घर तो भरापूरा था, उस का पति, 3 बेटे और 2 बेटियां. पर आय सीमित थी. हाईस्कूल कर के उस का पति किसी तरह कोई सिफारिश पहुंचा कर रांची के एंप्लौयमैंट एक्सचेंज औफिस में लोअर डिवीजन क्लर्क बन गया था.

सुनील जब किसी तरह मां को  अपने साथ अमेरिका में नहीं रख  सका तो वह भारत में एक ऐसा परिवार ढूंढ़ने लगा जो मां को अपने साथ रखे तथा उन की देखभाल करे, खर्च चाहे जो लगे. पर उसे ऐसा कोई परिवार जल्दी नहीं मिला. कोई इस तरह की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होता था. नजदीकी रिश्तेदारी में तो कोई मिला ही नहीं. किसी तरह उसे शिवानी का पता चला.

शिवानी को उस ने पहले देखा भी नहीं था, पर इस पारस्परिक रिश्ते को वे दोनों जानते थे. इस में संदेह नहीं था कि शिवानी को लगा कि सुनील की मां, जिसे वह नानी कहती थी, को रखने से उस की आर्थिक स्थिति में सुधार आ जाएगा. सुनील ने शुरू में ही उसे सबकुछ समझा दिया था. हफ्तों खोज करने के बाद उसे यह परिवार मिला था. सो वह उन पर ज्यादा ही निर्भर हो गया था. शिवानी को उस की मां को केवल पनाह देनी थी. काम करने के लिए उस ने अलग से एक नर्स रखने की अनुमति दे रखी थी. खर्च के लिए पैसे देने में उस ने कंजूसी नहीं की. मां को समझा दिया कि शिवानी के यहां उन्हें कोई तकलीफ नहीं होगी.

ये भी पढ़ें- Mother’s Day Special: सैल्फी- आखिर क्या था बेटी के लिए निशि का डर?

चलते समय मां की आंखें उसे वैसी ही लगीं जैसा बचपन में वह अपनी गाय को बछड़े से बिछुड़ते हुए देखा करता था. दुखभरी आवाज में मां ने पूछा, ‘आते तो रहोगे न, बेटा?’

सुनील ने तपाक से उत्तर दिया था, ‘जरूर मां, कुछ ही महीनों में यहां फिर आना है. और फिर मोबाइल तो है ही, मोबाइल पर जब कभी भी बात हो जाया करेगी.’

‘बेटा, मैं तो बहरी हो गई हूं, फोन पर क्या बात कर सकूंगी?’

‘मां, तुम नहीं, शिवानी तुम्हारा समाचार देती रहेगी. यह भी तो नतिनी ही हुई तुम्हारी. तुम्हें यह बहुत अच्छी तरह रखेगी.’

‘यह क्या रखेगी, तुम्हारा पैसा रखाएगा,’ मां ने धीरे से कहा.

बेटे ने चलते समय मां के पैर छुए, तो मां ने कहा, ‘जुगजुग जियो. अब हमारे लिए एक तुम्हीं रह गए हो, बेटा.’

सुनील अपनी सफाई में किसी तरह यही बोल पाया, ‘मां, अगर मैं तुम्हें अमेरिका में रख पाता तो जरूर रखता. तुम्हें कई बार बता चुका हूं. मैं तो वहां तुम्हारा इलाज भी नहीं करा सकता.’

‘तुम ने तो कहा था कि साल दो साल में तुम रिटायरमैंट ले लोगे और फिर भारत वापस आ जाओगे.’

ये भी पढ़ें- रसोई गैस: क्या काम आई मैनेजर ने तरकीब

सुनील की जैसे चोरी पकड़ी गई. इस बात की तसल्ली उस ने मां को बारबार दी थी कि वह उन्हें शिवानी के पास अधिक से अधिक 2 साल के लिए रख रहा था, जैसे ही वह रिटायर होगा, भारत आ जाएगा और उन्हें साथ रखेगा. उस घटना को 5 साल बीत गए थे. पर सुनील नहीं जा पाया था मां से मिलने.

आगे पढ़ें- कभी ऐसा जुगाड़ नहीं बन पाया कि वह मां से मिलने जाने की…

मेरी मां का नया प्रेमी: क्या जान गई थी श्वेता

Serial Story: मेरी मां का नया प्रेमी- भाग 1

श्वेता ने मां को फोन लगाया तो फोन पर किसी पुरुष की आवाज सुन कर वह चौंक गई…कौन हो सकता है? एक क्षण को उस के दिमाग में सवाल कौंधा. अमन अंकल तो होने से रहे. मां ने ही एक दिन बताया था, ‘तुम्हारे अमन अंकल को बे्रन स्ट्रोक हुआ था. अचानक ब्लडप्रेशर बहुत बढ़ गया था. आधे धड़ को लकवा मार गया. उन के लड़के आए थे, अपने साथ उन्हें हैदराबाद लिवा ले गए.’

‘‘हैलो…बोलिए, किस से बात करनी है आप को?’’ सहसा वह अपनी चेतना में वापस लौटी. संयत आवाज में पूछा, ‘‘आप…आप कौन? मां से बात करनी है. मैं उन की बेटी श्वेता बोल रही हूं.’’ स्थिति स्पष्ट कर दी.

‘‘पास के जनरल स्टोर तक गई हैं. कुछ जरूरी सामान लाना होगा. रोका था मैं ने…कहा भी कि लिख कर हमें दे दो, ले आएंगे. पर वह कोई स्पेशल डिश बनाना चाहती हैं शाम को. तुम्हें तो पता होगा, पास में ही सब्जी की दुकान है. वहां वह अपनी स्पेशल डिश के लिए कुछ सब्जियां लेने गई हैं…पर यह सब मैं तुम से बेकार कह रहा हूं. तुम मुझे जानती नहीं होगी. इस बीच कभी आई नहीं तुम जो मुझे देखतीं और हमारा परिचय होता… बस, इतना जान लो…मेरा नाम प्रभुनाथ है और तुम्हारी मां मुझे प्रभु कहती हैं. तुम चाहो तो प्रभु अंकल कह सकती हो.’’

ये भी पढ़ें- Serial Story: आई विल चेंज माईसेल्फ

‘‘प्रभु अंकल…जब मां आ जाएं, बता दीजिएगा…श्वेता का फोन था.’’ और इतना कह कर उस ने फोन काट दिया. न स्वयं कुछ और कहा, न उन्हें कहने का अवसर दिया.

श्वेता की बेचैनी उस फोन के बाद बहुत बढ़ गई. कौन हो सकते हैं यह महाशय? क्या अमन अंकल की तरह मां ने किसी नए…आगे सोचने से खुद हिचक गई श्वेता. कैसे सोचे? मां आखिर मां होती है. उन के बारे में हमेशा, हर बार, हर पुरुष को ले कर हर ऐसीवैसी बात कैसे सोची जा सकती है?

फिर भी यह सवाल तो है ही कि प्रभुनाथ अंकल कौन हैं? कैसे होंगे? कितनी उम्र होगी? मां से कब, कहां, कैसे, किन हालात में मिले होंगे और उन का संबंध मां से इतना गहरा कैसे बन गया कि मां अपना पूरा घर उन के भरोसे छोड़ कर पास के जनरल स्टोर तक चली गईं… सामान और स्पेशल डिश के लिए सब्जियां लेने…

इस का मतलब हुआ प्रभु अंकल मां के लिए कोई स्पेशल व्यक्ति हैं…लेकिन यह नाम पहले तो कभी मां से सुना नहीं. अचानक कहां से प्रकट हो गए यह अंकल? और इन का मां से क्या संबंध होगा…जिन के लिए मां स्पेशल डिश बनाती हैं…कह रहे थे कि जब वह आते हैं तो मां जरूर कोई न कोई स्पेशल डिश बनाती हैं…इस का मतलब हुआ यह महाशय वहां नहीं, कहीं और रहते हैं और कभीकभार ही मां के पास आते हैं.

अड़ोसपड़ोस के लोग अगर देखते होंगे तो मां के बारे में क्या सोचते होंगे? कसबाई शहर में इस तरह की बातें पड़ोसियों से कहां छिपती हैं? मां ने क्या कह कर उन का परिचय पड़ोसियों को दिया होगा? और उस परिचय पर क्या सब ने यकीन कर लिया होगा?

स्थिति पर श्वेता जितना सोचती जाती, उतने ही सवालों के घेरे में उलझती जाती. पिछली बार जब वह मां से मिलने गई थी तो उन की लिखनेपढ़ने की मेज पर एक नई डायरी रखी देखी थी. मां को डायरी लिखने का शौक है और महिला होने के नाते उन की वह डायरी अकसर पत्रपत्रिकाओं में छपती भी रहती है, अखबारों के साहित्य संस्करणों से ले कर साहित्यिक पत्रिकाओं तक में उन के अंश छपते हैं. चर्चा भी होती है. शहर में सब इसलिए भी उन्हें जानते हैं कि वहां के महाविद्यालय में हिंदी की प्रवक्ता थीं. लंबी नौकरी के बाद वहीं से रिटायर हुईं. मकान पिता ही बना गए थे. अवकाश प्राप्त जिंदगी आराम से वहीं गुजार रही हैं. भाई विदेश में है. श्वेता के पास आ कर वह रहना नहीं चाहतीं. बेटीदामाद के पास आ कर रहना उन्हें अपनी स्वतंत्रता में बाधक ही नहीं लगता बल्कि अनुचित भी लगता है.

इंतजार करती रही श्वेता कि मां अपनी तरफ से फोन करेंगी पर उन का फोन नहीं आया. मां की डायरी में एक अंगरेजी कवि का वाक्य शुरू में ही लिखा हुआ पढ़ा था ‘इन यू ऐट एव्री मोमेंट, लाइफ इज अबाउट टू हैपन.’ यानी आप के भीतर हर क्षण, जीवन का कुछ न कुछ घटता ही है…जीवन घटनाविहीन नहीं होता.

महाविद्यालय में पढ़ते समय भी श्वेता अपनी सहेलियों से मां की प्रशंसा सुनती थी. बहुत अच्छा बोलती हैं. उन की स्मृति गजब की है. ढेरों कविताओं के उदाहरण वह पढ़ाते समय देती चली जाती हैं. भाषा पर जबरदस्त अधिकार है. कालिज में शायद ही कोई उन जैसे शब्दों का चयन अपने व्याख्यान में करता है. पुरुष अध्यापक प्रशंसा में कह जाते हैं कि प्रो. कुमुदजी पता नहीं कहां से इतना वक्त निकाल लेती हैं यह सब पढ़नेलिखने का?

ये भी पढ़ें- बदली परिपाटी: मयंक को आखिर कैसी सजा मिली

कुछ मुंहफट जड़ देते कि पति रेलवे में स्टेशन मास्टर हैं. अकसर इस स्टेशन से उस स्टेशन पर फेंके जाते रहते हैं. बाहर रहते हैं और महीने में दोचार दिन के लिए ही आते हैं. इसलिए पति को ले कर उन्हें कोई व्यस्तता नहीं है. रहे बच्चे तो वे अब बड़े हो गए हैं. बेटा आई.आई.टी. में पढ़ने बाहर चला गया है. कल को वहां से निकलेगा तो विदेश के दरवाजे उसे खुले मिलेंगे. लड़की पढ़ रही है. योग्य वर मिलते ही उस की शादी कर देंगी. फुरसत ही फुरसत है उन्हें…पढ़ेंगीलिखेंगी नहीं तो क्या करेंगी?

श्वेता एम.ए. के बाद शोधकार्य करना चाहती थी पर पिता को अपने एक मित्र का उपयुक्त लड़का जंच गया. रिश्ता तय कर दिया और श्वेता की शादी कर दी. बी.एड. उस ने शादी के बाद किया और पति की कोशिशों से उसे दिल्ली में एक अच्छे पब्लिक स्कूल में नौकरी मिल गई. पति एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में उच्च पद पर थे. व्यस्तता के बावजूद श्वेता अपने संबंध और कार्य से खुश थी. छुट्टियों में जबतब मां के पास हो आती, कभी अकेली, कभी बच्चों के साथ, तो कभी पति भी साथ होते.

आई.आई.टी. के तुरंत बाद भाई अमेरिका चला गया था. इधर मंदी के चलते अमेरिका से भारत आना उस के लिए अब संभव न था. कहता है अगर नौकरी से महीने भर बाहर रहा तो कंपनी समझ लेगी कि बिना इस आदमी के काम चल सकता है तो क्यों व्यर्थ में एक आदमी की तनख्वाह दी जाए. वैसे भी अमेरिका में जौब की बहुत मारामारी चल रही है.

फिर भी भाई को पिता की एक हादसे में हुई मृत्यु के बाद आना पड़ा था और बहुत जल्दी क्रियाकर्म कर के वापस चला गया था. पिता उस दिन अपने नियुक्ति वाले स्टेशन से घर आ रहे थे लेकिन टे्रन को एक छोटे स्टेशन पर भीड़ ने आंदोलन के चलते रोक लिया था. टे्रन पर पत्थर फेंके गए तो कुछ दंगाइयों ने टे्रन में आग लगा दी. जिस डब्बे में पिताजी थे उस डब्बे को लोगों ने आग लगा दी थी. सवारियां उतर कर भागीं तो उन पर दंगाइयों ने ईंटपत्थर बरसाए.

पत्थर का एक बड़ा टुकड़ा पिता के सिर में आ कर लगा तो वह वहीं गिर पड़े. साथ चल रहे अमन अंकल ने उन्हें उठाया. सिर से खून बहुत तेजी से बह रहा था. लोगों ने उन्हें ले कर अस्पताल तक नहीं जाने दिया. रास्ता रोके रहे. हाथपांव जोड़ कर अमन अंकल ने किसी तरह पिताजी को कहीं सुरक्षित जगह ले जाने का प्रयास किया पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी और उन की मृत्यु हो गई थी.

भाई ने पिता के फंड, पेंशन आदि की सारी जिम्मेदारी अमन अंकल को ही सौंप दी थी, ‘‘अंकल आप ही निबटाइए ये सरकारी झमेले. आप तो जानते हैं, इन कामों को निबटाने में महीनों लगेंगे, अगर मैं यहां रुक कर यह सब करता रहा तो मेरी नौकरी चली जाएगी.’’

‘‘तुम चिंता न करो. अपनी नौकरी पर जाओ. यहां मैं सब संभाल लूंगा. इसी रेलवे विभाग में हूं. जानता हूं. ऊपर से नीचे तक लेटलतीफी का राज कायम है.’’

अमन अंकल ने ही फिर सब संभाला था. बाद में उन का ट्रांसफर वहीं हो गया तो काम को निबटाने में और अधिक सुविधा रही. तब से अमन अंकल का हमारे परिवार से संबंध जुड़ा. वह अरसे तक जारी रहा. उन का एक ही लड़का था जो आई.टी. इंजीनियर था. पहले बंगलौर में नौकरी पर लगा था. बाद में ऊंचे वेतन पर हैदराबाद चला गया.

अमन अंकल की पत्नी की मृत्यु कैंसर से हो गई थी. नौकरी शेष थी तो अमन अंकल वहीं रह कर नौकरी निभाते रहे. इस बीच उन का हमारे परिवार में आनाजाना जारी रहा. मां की उन्होंने बहुत देखरेख की. पिता की मृत्यु का सदमा वह उन्हीं के कारण सह सकीं. यह उन का हमारे परिवार पर उपकार ही रहा. बाकी मां से उन के क्या और कैसे संबंध रहे, वह अधिक नहीं जानती.

ये भी पढ़ें- Women’s Day Special: ममता के रंग- प्राची ने कुणाल की अम्मा की कैसी छवि बनाई थी

एक नई पहल: भाग 1- जब बुढा़पे में हुई एक नए रिश्ते की शुरुआत

भाग-1

‘‘भाभी…जल्दी आओ,प्लीज,’’ मेघा की आवाज सुन कर मैं दौड़ी चली आई.

‘‘क्या बात है, मेघा?’’ मैं ने प्रश्न- सूचक दृष्टि उस की तरफ डाली तो मेघा ने अपनी दोनों हथेलियों के बीच मेरा सिर पकड़ कर सड़क की ओर घुमा दिया, ‘‘मेरी तरफ नहीं भाभी, पार्क की तरफ देखो…वहां सामने बैंच पर लैला बैठी हैं.’’

‘‘अच्छा, तो उन आंटी का नाम लैला है…तुम जानती हो उन्हें?’’

‘‘क्या भाभी आप…’’ मेघा चिढ़ते हुए पैर पटकने लगी, ‘‘मैं नहीं जानती उन्हें, पर वह रोज यहां इसी समय इसी बैंच पर आ कर बैठती हैं और अपने मजनू का इंतजार करती हैं. भाभी, मजनूं बस, आता ही होगा…वह देखो…वह आ गया…अब देखो न इन दोनों के चेहरों की रंगत…पैर कब्र में लटके हैं और आशिकी परवान चढ़ रही है…’’

मैं ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा, ‘‘इस उम्र के लोगों का ऐसा मजाक उड़ाना अच्छी बात नहीं, मेघा.’’

‘‘भाभी, इस उम्र के लोगों को भी तो ऐसा काम नहीं करना चाहिए…पता नहीं कहां से आते हैं और यहां छिपछिप कर मिलते हैं. शर्म आनी चाहिए इन लोगों को.’’

‘‘क्यों मेघा, शर्म क्यों आनी चाहिए? क्या हमतुम दूसरों से बातें नहीं करते हैं?’’

‘‘हमारे बीच वह चक्कर थोड़े ही होता है.’’

ये भी पढ़ें- Mother’s Day Special: फैसला-बेटी के एक फैसले से टूटा मां का सपना

‘‘तुम्हें क्या पता कि इन के बीच क्या चक्कर है? क्या ये पार्क में बैठ कर अश्लील हरकतें करते हैं या आपस में लड़ाईझगड़ा करते हैं, मेरे हिसाब से तो यही 2 बातें हैं कि कोई तीसरा व्यक्तिउन का मजाक बनाए. फिर जब तुम उन्हें जानती ही नहीं हो तो उन के रिश्ते को कोई नाम क्यों देती हो.’’

‘‘रिश्ते को नाम कहां दिया है भाभी, मैं ने तो उन को नाम दिया है,’’ मेघा तुनक कर बोली, ‘‘मैं ने तो आप को यहां बुला कर ही गलती कर दी,’’ यह कहते हुए मेघा वहां से चल दी.

उस के जाने के बाद भी मैं कितनी देर यों ही बालकनी में बैठी उन दोनों बुजुर्गों को देखती रही और सोचती रही कि मांबाप अब समझदार हो गए हैं. लड़केलड़की की दोस्ती पर एतराज नहीं करते. समाज भी उन की दोस्ती को खुले दिल से स्वीकार रहा है, लेकिन 2 प्रौढ़ों की दोस्ती के लिए समाज आज भी वही है…उस की सोच आज भी वही है.

पार्क में बैठे अंकलआंटी को देख कर वर्षों पुरानी एक घटना मेरे मन में फिर से ताजा हो गई.

पुरानी दिल्ली की गलियों में मेरा बचपन बीता है. उस समय लड़के शाम को आमतौर पर गुल्लीडंडा या कबड्डी खेल लिया करते थे और लड़कियां छत पर स्टापू, रस्सी कूदना या कुछ बड़ी होने पर यों ही गप्पें मार लिया करती थीं. इस के साथसाथ गली में कौन आजा रहा है, किस का किस के साथ चक्कर है, किस ने किस को कब इशारा किया आदि की भी चर्चा होती रहती थी.

मैं भी अपनी सहेलियों के साथ शाम के वक्त छत पर खड़ी हो कर यह सब करती थी. एक दिन बात करतेकरते अचानक मेरी सहेली रेणु ने कहा, ‘देखदेख, वह चल दिए आरती के दादाजी…देख कैसे चबूतरे को पकड़- पकड़ कर जा रहे हैं.’

मैं ने पूछा, ‘कहां जा रहे हैं.’

‘अरे वहीं, देख सामने गुड्डन की दादी निकल आई हैं न अपने चबूतरे पर.’

और मैं ने देखा, दोनों बैठे मजे से बातें करने लगे. रेणु ने फिर कहा, ‘शर्म नहीं आती इन बुड्ढेबुढि़या को…पता है तुझे, सुबह और शाम ये दोनों ऐसे ही एकदूसरे के पास बैठे रहते हैं.’

‘तुझे कैसे पता? सुबह तू स्कूल नहीं जाती क्या…यही देखती रहती है?’

‘अरे नहीं, मम्मी बता रही थीं, और मम्मी ही क्या सारी गली के लोगों को पता है, बस नहीं पता है तो इन के घर वालों को.’

उस के बाद मैं ने भी यह बात नोट करनी शुरू कर दी थी.

कुनकुनी ठंड आ चुकी थी. रविवार का दिन था. मैं सिर धो कर छत पर धूप में बैठी थी. आदतन मेरी नजर उसी जगह पड़ गई. आरती के दादाजी अखबार पढ़ कर शायद गुड्डन की दादी को सुना रहे थे और दादी मूंगफली छीलछील कर उन्हें पकड़ा रही थीं. यह दृश्य मुझे इतना भाया कि मैं उसे हमेशा के लिए अपनी आंखों में भर लेना चाहती थी.

मुंडेर पर झुक कर अपनी ठुड्डी को हथेली का सहारा दिए मैं कितनी ही देर उन्हें देखती रही कि अचानक आरती दौड़ती हुई आई और अपने दादाजी से जाने क्या कहा और वह एकदम वहां से उठ कर चले गए. गुड्डन की दादी की निरीह आंखें और मौन जबान से निकले प्रश्नों का उत्तर देने के लिए भी उन्होंने वक्त जाया नहीं किया. ‘पता नहीं क्या हुआ होगा,’ सोचते- सोचते मैं भी छत पर बिछी दरी पर आ कर बैठ गई.

अभी पढ़ने के लिए अपनी किताब उठाई ही होगी कि गली में से बहुत जोरजोर से चिल्लाने की आवाज आने लगी. कुछ देर अनसुना करने के बाद भी जब आवाजें आनी बंद नहीं हुईं तो मैं खड़ी हो कर गली में देखने लगी.

देखा, गली में बहुत लोग खड़े हैं. औरतें और लड़कियां अपनेअपने छज्जों पर खड़ी हैं. शोर आरती के घर से आ रहा था. उस के पिताजी अपने पिताजी को बहुत जोरजोर से डांट रहे थे…‘शर्म नहीं आती इस उमर में औरतबाजी करते हुए…तुम्हें अपनी इज्जत का तो खयाल है नहीं, कम से कम मेरा तो सोचा होता…इस से तो अच्छा था कि जब मां मर गई थीं तभी दूसरी बिठा लेते…सारी गली हम पर थूथू कर रही है…अरे, रामचंदर ने तो अपनी मां को खुला छोड़ रखा है…पर तुम में अपनी अक्ल नहीं है क्या…खबरदार, जो आज के बाद गली में पैर रखा तो…’

ये भी पढ़ें- कीमती चीज: पैसों के लालच में सौतेले पिता ने क्या काम किया

जितनी चीखचीख कर ये बातें कही गई थीं उन से क्या उन के घर की बेइज्जती नहीं हुई पर यह कहने वाला और समझाने वाला आरती के पिताजी को कोई नहीं था. हां, ये आवाजें जैसे सब ने सुनीं वैसे ही सामने गुड्डन की दादी और उन के बाकी घर वालों ने भी सुनी होंगी.

कुछ देर बाद भीड़ छंट चुकी थी. उस दिन के बाद फिर कभी किसी ने दादी को चबूतरे पर बैठे नहीं देखा. बात सब के लिए आईगई हो चुकी थी.

अचानक एक रात को बहुत जोर से किसी के चीखने की आवाज आई. मेरी परीक्षा नजदीक थी इस कारण मैं देर तक जाग कर पढ़ाई कर रही थी. चीख सुन कर मैं डर गई. समय देखा, रात के डेढ़ बजे थे. कुछ देर बाद किसी के रोने की आवाज आई. खिड़की खोल कर बाहर झांका कि यह आवाज किस तरफ से आई है तो देखा आरती के घर के बाहर आज फिर लोग इकट्ठा होने शुरू हो गए हैं.

मेरे पिताजी भी घर से बाहर निकल चुके थे…कुछ लोग हमारे घर के बाहर चबूतरे पर बैठे धीरेधीरे बोल रहे थे, ‘बहुत बुरा हुआ यार, महेश को समझाना पड़ेगा, मुंह अंधेरे ही अपने पिताजी की अर्थी ले चले, नहीं तो उस के पिताजी ने जो पंखे से लटक कर आत्महत्या की है, यह बात सारे महल्ले में फैल जाएगी और पुलिस केस बन जाएगा. महेश बेचारा बिन मौत मारा जाएगा.’

मैं सुन कर सन्न रह गई. दादाजी ने आत्महत्या कर ली…सब लोग उस दिन की बात भूल गए पर दादाजी नहीं भूल पाए. कैसे भूल पाते, उस दिन उन का आत्मसम्मान उन के बेटे ने मार दिया था. आज उन की आत्महत्या पर कैसे फूटफूट कर रो रहा है.

एक कर्कश सी आवाज तभी मेरे कानों में पड़ी और मेरी तंद्रा भंग हुई. मानो मैं नींद से जागी थी. किसी ने दरवाजे की घंटी बजाई थी. मैं ने कितनी बार अपने पति को कहा है कि इस बेल की आवाज मुझे बिलकुल पसंद नहीं है और जब कोई इसे देर तक बजाता है तो मन करता है बेल उखाड़ कर फेंक दूं.

गुस्से से दरवाजा खोलने गई. बेटी कोचिंग कर के वापस आई थी.

‘‘मिट्ठी, कितनी बार कहा है न कि एक बार बेल बजा कर छोड़ दिया करो. मैं बहरी नहीं हूं. एक बार में ही सुन लेती हूं.’’

‘‘ममा, मैं 10 मिनट से दरवाजे पर खड़ी हूं, पर आप ने घंटी नहीं सुनी और आप जरा अपना फोन देखिए, कितनी मिस काल मैं ने दरवाजे पर खडे़खडे़ दी हैं, आप ने फोन नहीं उठाया और अपने ही किए फोन की घंटी मैं दरवाजे के बाहर खड़ीखड़ी सुनती रही, क्या सो गई थीं आप?’’

अगले दिन बेटी के कोचिंग जाने के बाद मैं ताला लगा कर पार्क की ओर चल दी और अपने बैठने के लिए मैं ने वही बैंच चुनी जिस पर आंटी अकेली बैठी थीं. पसीना पोंछ कर मैं ने उन की ओर देखा तो वह पूछ बैठीं, ‘‘पहली बार सैर करने आई हो शायद.’’

मैं ने ‘हां’ में गर्दन हिला दी.

‘‘2-4 दिन ऐसे ही थकान लगेगी, पसीना आएगा, फिर आदत पड़ जाएगी,’’ आंटी मानो मेरी थकान भरी सांसों को थामने की कोशिश कर रही थीं.

मैं ने भी बात को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से पूछा, ‘‘आप रोज आती हैं?’’

‘‘हां बेटी,’’ उन का छोटा सा उत्तर सुन कर मैं ने कहा, ‘‘मैं तो बहुत कोशिश करती हूं पर आंटी समय नहीं मिलता. आप कैसे नियमित रूप से आ जाती हैं.’’

‘‘तुम्हें समय नहीं मिलता और मेरे पास समय की कमी नहीं,’’ कहते हुए आंटी खिलखिला पड़ीं. तब तक मैं दोबारा सैर करने के लिए तैयार हो चुकी थी. मैं जैसे ही उठी, देखा सामने से अंकल आ रहे थे. यह सोच कर मैं वहां से चल दी कि आज के लिए इतना ही काफी है.

अब मेरा यह नियम ही हो गया था. रोज की मुलाकात व बातचीत में यह पता चला कि आंटी यानी मिसेज सुमेधा कंसल सरकारी स्कूल की रिटायर्ड प्रिंसिपल हैं. बच्चे अपनीअपनी गृहस्थी में मगन हैं. एक दिन मैं ने पूछा भी था, ‘‘आंटी, जब आप प्रिंसिपल रह चुकी हैं तो आप अपने नातीपोतों को पढ़ा सकती हैं, आप के समय का सदुपयोग भी हो जाएगा.’’

एक फीकी सी हंसी के साथ आंटी बोलीं, ‘‘बेटी दूसरे शहर में रहती है. बेटे के भी एक ही बेटा है और वह देहरादून में पढ़ता है. होस्टल में रहता है. बेटा और बहू दोनों ही मुझे हर सुखसुविधा देते हैं, मानसम्मान भी रखते हैं लेकिन अपने- अपने कैरियर की ऊंचाइयां पाने में व्यस्त हैं. घर पर मैं बस, अकेली…’’

‘‘तो आंटी कोई सोशल सर्विस या अन्य कोई ऐसा काम जो आप को रुचिकर लगे, क्यों नहीं करतीं?’’

‘‘मैं जैसी सोशल सर्विस करना चाहती हूं वह बच्चों को पसंद नहीं है और ऊंची शानशौकत वाली सोशल सर्विस मैं कर नहीं सकती. हां, मुझे कविता और कहानियां लिखना रुचिकर लगता है और वह मैं लिखती हूं. लेकिन यह शाम का समय घर में अकेले नहीं बीतता…कोई तो बात करने के लिए चाहिए…नहीं तो हम बोलना ही भूल जाएंगे और हमारी भाषा समाप्त हो जाएगी. हां, अगर तुम्हारे अंकलजी होते तो…’’

‘‘अभी अंकलजी आप को लेने नहीं आएंगे क्या?’’ मैं ने अनजान बनते हुए पूछा.

‘‘नहीं बेटा, जिन्हें तुम रोज मेरे साथ बात करते देखती हो वह भी मेरी ही तरह अकेले हैं. मेरे पति तो 20 वर्ष पहले ही गुजर चुके हैं. उन के जाने के बाद भी अकेलापन था लेकिन वह वक्त तो बच्चों को पालने और नौकरी करने में जैसेतैसे बीत गया और शर्माजी, जो अभी आने ही वाले होंगे, वह भी अपनी जीवन संगिनी को 7-8 वर्ष पहले खो चुके हैं.

ये भी पढ़ें- बीबीआई: क्या आसान है पत्नी की नजरों से बचना

‘‘शर्माजी तो मुझ से ज्यादा अकेले हैं. मेरी बहू जूही मेरे बहुत करीब है, फिर फोन पर हर तीसरे दिन बेटी से भी बात हो जाती है लेकिन वह तो मर्द हैं न, बहुओं से ज्यादा घुलमिल नहीं पाते, बेटों के पास फुर्सत नहीं है. ऐसा नहीं कि बहूबेटे उन का खयाल नहीं रखते लेकिन आज सब अपने में व्यस्त हैं. नौकरीपेशा बहुएं 24 घंटे तो हाथ बांधे नहीं खड़ी रह सकतीं न और नौकरीपेशा ही क्यों, घर में रहने वाली बहुएं भी ऐसा कहां कर सकती हैं…यद्यपि इनसान ऐसा करना चाहता है लेकिन वक्त है कि वह हम सब को अपनी उंगली पर नचाता रहता है.

‘‘जैसे बच्चे, बच्चों की संगत में, जवान, जवानों के साथ, ऐसे ही हम बूढे़ बूढ़ों की संगत में खुश रहते हैं. बच्चों के साथ कभी हमें बच्चा बनना पड़ता है, अच्छा लगता है, लेकिन मन की बात तो किसी हमउम्र से ही शेयर की जा सकती है. बस, शर्माजी हैं, आते हैं…साझा दुख साझा सुख…कुछ इधर की कुछ उधर की…और फिर अगले दिन मिलने की उम्मीद में पूरे 24 घंटे बीत जाते हैं.’’

तभी सामने से शर्माजी आते दिखाई दिए. मैं उठ कर चलने लगी. आज सुमेधाजी ने मुझे रोक लिया.

‘‘इन से मिलिए. ये हैं, मिसेज मालिनी अग्रवाल, यहीं सामने के फ्लैट में रहती हैं और बेटा, ये हैं मि. शर्मा… रिटायर्ड अंडर सेके्रटरी.’’ हम दोनों में नमस्ते का आदानप्रदान हुआ और मैं वहां से चल दी. -क्रमश:

Serial Story: मेरी मां का नया प्रेमी- भाग 2

कुछकुछ आभास श्वेता को उन की डायरी से ही हुआ था. एक बार उन की डायरी में कुछ कविताओं के अंश नोट किए हुए मिले थे.

‘तुम चले जाओगे पर थोड़ा सा यहां भी रह जाओगे, जैसे रह जाती है पहली बारिश के बाद हवा में धरती की सोंधी सी गंध.’

एक पृष्ठ पर लिखी ये पंक्तियां पढ़ कर तो श्वेता भौचक ही रह गई थी…सब कुछ बीत जाने के बाद भी बचा रह गया है प्रेम, प्रेम करने की भूख, केलि के बाद शैया में पड़ गई सलवटों सा… सबकुछ नष्ट हो जाने के बाद भी बचा रहेगा प्रेम, …दीपशिखा ही नहीं, उस की तो पूरी देह ही बन गई है दीपक, प्रेम में जलती हुई अविराम…

मम्मी अचानक ही आ गई थीं और डायरी पढ़ते देख एक क्षण को सिटपिटा गई थीं. बात को टालने और स्थिति को बिगड़ने से बचाने के लिए श्वेता खिसियायी सी हंस दी थी, ‘‘यह कवि आप को बहुत पसंद आने लगे हैं क्या, मम्मी?’’

‘‘नहीं, तुम गलत समझ रही हो,’’ मम्मी ने व्यर्थ हंसने का प्रयत्न किया था, ‘‘एक छात्रा को शोध करा रही हूं नए कवियों पर…उन में इस कवि की कविताएं भी हैं. उन की कुछ अच्छी पंक्तियां नोट कर ली हैं डायरी में. कभी कहीं भाषण देने या क्लास में पढ़ाने में काम आती हैं ऐसी उजली और दो टूक बात कहने वाली पंक्तियां.’’ फिर मां ने स्वयं एक पृष्ठ खोल कर दिखा दिया था, ‘‘यह देखो, एक और कवि की पंक्तियां भी नोट की हैं मैं ने…’’ वह बोली थीं.

ये भी पढ़ें- Short Story: हमें तुम से प्यार कितना

उस पृष्ठ को वह एक सांस में पढ़ गई थी, ‘‘धीरेधीरे जाना प्यार की बहुत सी भाषाएं होती हैं दुनिया में, देश में और विदेश में भी लेकिन कितनी विचित्र बात है प्यार की भाषा सब जगह एक ही है और यह भी जाना कि वर्जनाओं की भी भाषा एक ही होती है…प्यार की भाषा में शब्द नहीं होते सिर्फ अक्षर होते हैं और होती हैं कुछ अस्फुट ध्वनियां और उन्हीं को जोड़ कर बनती है प्यार की भाषा…’’

मां के उत्तर से वह न सहमत हुई थी, न संतुष्ट पर वह व्यर्थ उन से और इस मसले पर उलझना नहीं चाहती थी. शायद यह सोच कर चुप लगा गई थी कि मां भी आखिर हैं तो एक स्त्री ही और स्त्री में प्रेम पाने की भूख और आकांक्षा अगर आजीवन बनी रह जाए तो इस में आश्चर्य क्या है?

पिता के साथ मां ने एक लंबा वैवाहिक जीवन जिया था. उस दुर्घटना में वह अचानक मां को अकेला छोड़ कर चले गए थे. शरीर की कामनाएंइच्छाएं तो अतृप्त रह ही गई होंगी…55-56 साल की उम्र थी तब मम्मी की. इस उम्र में शरीर पूरी तरह मुरझाता नहीं है. फिर पिता महीने 2 महीने में ही घर आ पाते थे. पूरा जीवन तो मां ने एक अतृप्ति के साथ बियाबान रेगिस्तान में प्यासी हिरणी की तरह मृगतृष्णा में काटा होगा…आगे और आगे जल की तलाश में भटकी होंगी…और वह जल उन्हें मिला होगा अमन अंकल में या हो सकता है मिल रहा हो प्रभु अंकल में.

एक शहर के महाविद्यालय में किसी व्याख्यान माला में भाषण देने गई थीं मम्मी. उन के परिचय में जब वहां बताया गया कि साहित्य में उन का दखल एक डायरी लेखिका के रूप में भी है तो उन के भाषण के बाद एक सज्जन उन से मिलने उन के निकट आ गए, ‘‘आप ही

डा. कुमुदजी हैं जिन की डायरियों के कई अंश…’’ मम्मी उठ कर खड़ी हो गई थीं, ‘‘आप का परिचय?’’

‘‘यहां निकट ही एक नेशनल पार्क है… मैं उस में एक छोटामोटा अधिकारी हूं.’’ इसी बीच महाविद्यालय के एक प्राध्यापकजी टपक पड़े थे, ‘‘हां, कुमुदजी यह छोटे नहीं मोटे अधिकारी हैं. वन्य जीवों पर इन्होंने अनेक शोध कार्य किए हैं. हमारे जंतु विज्ञान विभाग में यह व्याख्यान देने आते रहते हैं. यह विद्यार्थियों को जानवरों से संबंधित बड़ी रोचक जानकारियां देते हैं. अगर आप के पास समय हो तो आप इन का नेशनल पार्क अवश्य देखने जाएं… आप को वहां कई नए अनुभव होंगे.’’

ये भी पढ़ें- बच्चों की भावना: अकी के बदले व्यवहार के पीछे क्या थी वजह

श्वेता को मां ने बताया था, ‘‘यह महाशय ही प्रभुनाथ हैं.’’

मां की डायरी में बाद में श्वेता ने पढ़ा था.

‘किसीकिसी आदमी का साथ कितना अपनत्व भरा होता है और उस के साथ कैसे एक औरत अपने को भीतर बाहर से भरीभरी अनुभव करती है. क्या सचमुच आदमी की उपस्थिति जीवन में इतनी जरूरी होती है? क्या इसी जरूरीपन के कारण ही औरत आदमी को आजीवन दुखों, परेशानियों के बावजूद सहती नहीं रहती?’

खालीपन और अकेलेपन, भीतर के रीतेपन को भरने के लिए जीवन में क्या सचमुच किसी पुरुष का होना नितांत आवश्यक नहीं है…कहीं कोई आदमी आप के जीवन में होता है तो आप को लगता रहता है कि कहीं कोई है जिसे आप की जरूरत है, जो आप की प्रतीक्षा करता है, जो आप को प्यार करता है…चाहता है, तन से भी, मन से भी और शायद आत्मा से भी…

प्रभुनाथ के साथ पूरे 7 दिन तक नेशनल पार्क के भीतर जंगल के बीच में बने आरामदेय शानदार हट में रही… तरहतरह के जंगली जंतु तो प्रभुनाथ ने अपनी जीप में बैठा कर दिखाए ही, थारू जनजाति के गांवों में भी ले गए और उन के बारे में अनेक रोचक और विचित्र जानकारियां दीं, जिन से अब तक मैं परिचित नहीं थी.

‘दुनिया में कितना कुछ है जिसे हम नहीं जानते. दुनिया तो बहुत बड़ी है, हम अपने देश को ही ठीक से नहीं जानते. इस से पहले हम ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि यह नेशनल पार्क…यह मनोरम जंगल, जंगल में जानवरों, पेड़पौधों की एक भरीपूरी विचित्र और अद्भुत आनंद देने वाली एक दुनिया भी होती है, जिसे हर आदमी को जीवन में जरूर देखना और समझना चाहिए.’

प्रभुनाथ ने चपरासी को मोटर- साइकिल से भेज कर भोजन वहीं उसी आलीशान हट में मंगा लिया था. साथ बैठ कर खाया. खाने के बाद प्रभुनाथ उठे और बोले, ‘‘तो ठीक है मैडम…आप यहां रातभर आराम करें. हम अपने क्वार्टर में जा कर रहेंगे.’’

‘‘नहीं. मैं अकेली हरगिज इस जंगल में नहीं रहूंगी,’’ मैं हड़बड़ा गई थी, ‘‘रात हो आई है और जानवरों की कैसी डरावनीभयावह आवाजें रहरह कर आ रही हैं. कहीं कोई आदमखोर यहां आ गया और उस ने इस हट के दरवाजे को तोड़ कर मुझ पर हमला कर दिया तो?’’

‘‘क्या आप को इस हट का कोई दरवाजा टूटा या कमजोर नजर आता है? हर तरह से इसे सुरक्षित बनाया गया है. इस में देश और प्रदेश के मंत्री, सचिव और आला अफसर, उन के परिवार आ कर रहते हैं. मैडम, आप चिंता न करें. बस रात को कोई जानवर या आदमी दरवाजे को धक्का दे, पंजों से खरोंचे तो आप दरवाजा न खोलें. यहां आप को पीने के लिए पानी बाथरूम में मिलेगा. चाय-कौफी बनाना चाहेंगी तो उस के लिए गैसस्टोव और सारी जरूरी क्राकरी व सामग्री किचन में मिलेगी. बिस्तर आरामदेय है. हां, रात में सर्दी जरूर लगेगी तो उस के लिए 2 कंबल रखे हुए हैं.’’

ये भी पढ़ें- Short Story: साधु बने स्वादु

‘‘वह सब ठीक है प्रभु…पर मैं यहां अकेली नहीं रहूंगी या तो आप साथ रहें या फिर हमें भी अपने क्वार्टर की तरफ के किसी क्वार्टर में रखें.’’

‘‘नहीं मैडम,’’ वह मुसकराए, ‘‘आप डायरी लेखिका हैं. हिंदी की अच्छी वक्ता और प्रवक्ता हैं. हम चाहते हैं कि आप यहां के वातावरण को अपने भीतर तक अनुभव करें. देखें कि कैसा लगता है. बिलकुल नया सुख, नया थ्रिल, नया अनुभव होगा…और वह नया थ्रिल आप अकेले ही महसूस कर पाएंगी…किसी के साथ होने पर नहीं.

‘‘आप देखेंगी, जीवन जब खतरों से घिरा होता है…तो कैसाकैसा अनुभव होता है…जान बचे, इस के लिए ऐसेऐसे देवता आप को मनाने पड़ते हैं जिन की याद भी शायद आप को अब तक कभी न आई हो…बहुत से लेखक इस अनुभव के लिए ही यहां इस हट में आ कर रहना पसंद करते हैं.’’

Serial Story: मेरी मां का नया प्रेमी- भाग 3

‘‘वह तो सब ठीक है…पर आप को मैं यहां से जाने नहीं दूंगी.’’ फिर कुछ सोच कर पूछ बैठीं, ‘‘बाहर गेट के क्वार्टरों में आप की प्रतीक्षा पत्नीबच्चे भी तो कर रहे होंगे? अगर ऐसा है तो आप जाएं पर हमें भी वहीं किसी क्वार्टर में रखें.’’

गंभीर बने रहे काफी देर तक प्रभुनाथ. फिर एक लंबी सांस छोड़ते हुए बोले, ‘‘अपने बारे में किसी को मैं कम ही बताता हूं. यहां बाईं तरफ जो छोटा कक्ष है उस में एक अलमारी में जहां वन्य जीवजंतुओं से संबंधित पुस्तकें हैं वहीं मेरे द्वारा लिखी गई और शोध के रूप में तैयार पुस्तक भी है. अकसर यहां मंत्री लोग और अफसर अपनी किसी न किसी महिला मित्र को ले कर आते हैं और 2-3 दिन तक उस का जम कर देह सुख लेते हैं. उन के लिए हम लोग यहां हर सुविधा जुटा कर रखते हैं. क्या करें, नौकरी करनी है तो यह सब भी इंतजाम करने पड़ते हैं…’’

झेंप गईं डा. कुमुद, ‘‘खैर, वह सब छोडि़ए. आप अपने परिवार के बारे में बताइए.’’

‘‘एक बार हम पिकनिक मनाने यहां इसी हट पर अपने परिवार के साथ आए हुए थे. अधिक रात होने पर पता नहीं पत्नी को क्या महसूस हुआ कि बोली, ‘यहां से चलिए, बाहर के क्वार्टरों में ही रहेंगे. यहां न जाने क्यों आज अजीब सा भय लग रहा है.’ हम जीप में बैठ कर वापस बाहर की तरफ चल दिए. पत्नी, लड़की और लड़का. हमारे 2 ही बच्चे थे. अभी कुछ ही दूर चले होंगे कि खतरे का आभास हो गया. एक शेर बेतहाशा घबराया हुआ भागता हमारे सामने से गुजरा. पीछे कुछ बदमाश, जिन्हें हम लोग पोचर्स कहते हैं. जंगली जानवरों का चोरीछिपे शिकार करने वाले उन पोचरों से हमारा सामना हो गया.’’

ये भी पढ़ें- दूध की धुली: क्यों घर से भाग गए पृथ्वी और संगीता

‘‘निहत्थे नहीं थे हम. एक बंदूक साथ थी और साहसी तो मैं शुरू से रहा हूं इसीलिए यह नौकरी कर रहा हूं. बदमाशों को ललकारा कि अगर किसी जानवर को तुम लोगों ने गोली मारी तो हम आप को गोली मार देंगे. जीप को चारों ओर घुमा कर हम ने उस की रोशनी में बदमाशों की पोजीशन जाननी चाही कि तभी उन्होंने हम पर अपने आधुनिक हथियारों से हमला बोल दिया. हम संभल तक नहीं पाए… पत्नी और बेटी की मौत गोली लगने से हो गई. लड़का बच गया क्योंकि वह जीप के नीचे घुस गया था.

‘‘मैं उन्हें ललकारता हुआ अपनी बंदूक से फायर करने लगा. गोलियों की आवाज ने गार्डों को सावधान कर दिया और वे बड़ीबड़ी टार्चों और दूसरी गाडि़यों को ले कर तेजी से इधर की तरफ हल्ला बोलते आए तो बदमाश नदी में उतर कर अंधेरे का लाभ उठा कर भाग गए.’’

‘‘फिर दूसरी शादी नहीं की,’’ उन्होंने पूछा.

‘‘लड़के को हमारी ससुराल वालों ने इस खतरे से दूर अपने पास रख कर पाला…साली से मेरी शादी उन लोगों ने तय की पर एकांत में साली ने मुझ से कहा कि वह किसी और को चाहती है और उसी से शादी भी करना चाहती है. मैं बीच में न आऊं तो ही अच्छा है. मैं ने शादी से इनकार कर दिया…’’

‘‘लड़का कहां है आजकल?’’

डा. कुमुद ने पूछा.

‘‘बस्तर के जंगलों में अफसर है. उस की शादी कर दी है. अपनी पत्नी के साथ वहीं रहता है.’’

‘‘मैं ने तो सुना है कि बस्तर में अफसर अपनी पत्नी को ले कर नहीं जाते. एक तो नक्सलियों का खतरा, दूसरे आदिवासियों की तीरंदाजी का डर… तीसरे वहां आदमी को बहुत कम पैसों में औरत रात भर के लिए मिल जाती है.’’ इतना कह कर डा. कुमुद मुसकरा दीं.

‘‘जेब में पैसा हो तो औरत सब जगह उपलब्ध है…यहां भी और कहीं भी… इसलिए मैं ने शादी नहीं की. जरूरत पड़ने पर कहीं भी चला जाता हूं.’’ प्रभु मुसकराए.

ये भी पढ़ें- Valentine Special: धड़कनें तेरी मेरी- क्या अपना प्यार वापस पा सकी पाखी?

‘‘हां, पुरुष होने के ये फायदे तो हैं ही कि आप लोग बेखटके, बिना किसी शर्म के, बिना लोकलाज की परवा किए, कहीं भी देहसुख के लिए जा सकते हैं…पैसों की कमी होती नहीं है आप जैसे बड़े अफसरों को…अच्छी से अच्छी देह आप प्राप्त कर सकते हैं. मुश्किल तो हम संकोचशील औरतों की है. हमें अगर देह- सुख की जरूरत पड़े तो हम बेशर्मी लाद कर कहां जाएं? किस से कहें?’’

‘‘वक्त बहुत बदल गया है कुमुदजी…अब औरतें भी कम नहीं हैं. वह बशीर बद्र का शेर है न… ‘जी तो बहुत चाहता है कि सच बोलें पर क्या करें हौसला नहीं होता, रात का इंतजार कौन करे आजकल दिन में क्या नहीं होता.’’’

मुसकराती रहीं कुमुद देर तक, ‘‘बड़े दिलचस्प इनसान हैं आप भी, प्रभुनाथजी.’’

ये भी पढ़ें- Women’s Day Special: प्यार की जीत- क्या सोमनाथ के अंधेरों में नई सुबह लेकर आई थी निशा

श्वेता डायरी के अगले पृष्ठ को पढ़ कर अपने धड़कते दिल को मुश्किल से काबू में कर पाई थी…

मां ने लिख रखा था… ‘7 दिन रही उस नेशनल पार्क में और जो देहसुख उन 7 दिनों में प्राप्त किया शायद अगले 7 जन्मों में प्राप्त न हो सके. आदमी का सुख वास्तव में अवर्णनीय, अव्याख्य और अव्यक्त होता है…इस सुख को सिर्फ देह ही महसूस कर सकती है…उम्र और पदप्रतिष्ठा से बहुत दूर और बहुत अलग…’.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें