फलक से टूटा इक तारा: काश सान्या को यह एहसास पहले हो जाता

Serial Story: फलक से टूटा इक तारा- भाग 1

‘‘मां तुम समझती क्यों नहीं, आजकल तो सभी मातापिता अपने बच्चों को छूट देते हैं, तुम क्यों नहीं मुंबई जाने देती मुझे?’’ सान्या जिद पर अड़ी थी और उस की मां 2 दिन से उसे समझा रही थी, ‘बेटी, हम मध्यवर्गीय लोग हैं, तुम पढ़ाई में इतनी अच्छी हो कि डाक्टर, इंजीनियर बन सकती हो, क्यों इस फालतू के डांस शो के लिए जिद पर अड़ी हो?’

‘‘नहीं मां, मैं जाऊंगी डांस शो में,’’ पैर पटकते हुए सान्या कमरे की तरफ बढ़ गई और जा कर पलंग पर औंधेमुंह लेट गई. उस की मां दरवाजे पर दस्तक देते हुए बोली, ‘‘बेटी, तुम बात समझने की कोशिश करो, मैं तुम्हारी दुश्मन नहीं, दरवाजा तो खोलो.’’

सान्या कहां सुनने वाली थी. उसे तो मुंबई जाना था डांस शो के लिए. वह तो मशहूर मौडल बनना चाहती थी. कहां पसंद था उसे यह साधारण लोगों की तरह जीना? वह तो खुले आसमान में उड़ जाना चाहती थी पंछियों की तरह, जहां कोई रोकटोक न हो, जितना चाहो उड़ो. दूरदूर तक खुला आसमान, न तो रीतिरिवाज की बंदिश न ही समाज के बंधन. उस की मां कैसे कह देती, ‘बेटी, तुम जाओ.’ वह बेचारी तो स्वयं संयुक्त परिवार के बंधनों में फंसी थी. यदि वह आज उसे छूट देगी तो यह इस के बाद मौडलिंग में जाने की जिद करेगी. और फिर, वह देवरजेठ समेत अन्य रिश्तेदारों को क्या जवाब देगी? देर तक सान्या की मां इसी उधेड़बुन में उलझी रही और फिर मन ही मन बोली, ‘सान्या के पिताजी घर आएं तो रात को उन से जरूर इस विषय में बात करूंगी.’

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रात को खाना खा कर परिवार के सभी सदस्य सोने के लिए अपने कमरे में चले गए और तभी सान्या की मां ने मौका पा कर उस के पिताजी से कहा, ‘‘सुनिए जी, बच्ची का बड़ा मन है डांस शो में जाने के लिए, वैसे हमें उसे रोकना नहीं चाहिए, कितना अच्छा डांस करती है हमारी सान्या. हर वर्ष स्कूल के सालाना कार्यक्रम में भाग लेती है और इनाम भी ले कर आती है हमारी बेटी. हां कह दीजिए न, एक बार मुंबई में डांस शो में जा कर आ जाएगी तो उस का दिल नहीं टूटेगा.’’

सान्या के पिताजी बोले, ‘‘एक बार जाने में तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन वह आगे मौडलिंग के लिए भी तो जिद करेगी, कैसे भेजेंगे उसे?’’

‘‘आप इस डांस शो के लिए तो हां कीजिए, फिर उसे मैं समझा दूंगी,’’ सान्या की मां ने मुसकराते हुए कहा.

अगले दिन जब सान्या की मां व पिताजी ने उसे डांस शो में जाने के लिए हामी भरी तो उसे एक बार को तो विश्वास ही नहीं हुआ. वह कहने लगी, ‘‘मांपिताजी, आप लोग मान गए? कहीं मैं सपना तो नहीं देख रही हूं?’’ मां बोली, ‘‘नहीं बेटी, यह हकीकत है. लेकिन इस के बाद तुम अपनी पढ़ाई में जुट जाओगी, मुझ से वादा करो.’’

‘‘हां मां, पक्का, फिर कभी जिद  नहीं करूंगी,’’ इतना कह सान्या अपनी मां से लिपट गई, ‘‘थैंक्यू मां, थैंक्यू पिताजी, आप दोनों कितने अच्छे हैं.’’ वह खुशी के मारे उछल पड़ी.

अगले ही दिन से डांस शो व मुंबई जाने की तैयारी शुरू हो गई. ऐसा करतेकरते शो का दिन भी आ गया और सान्या अपने मातापिता के साथ मुंबई डांस स्टूडियो में पहुंच गई. उस के मातापिता को दर्शकों में विशिष्ट अतिथि का स्थान मिला था. एकएक

कर सभी कंटैस्टैंट स्टेज पर आए. वे इतने बड़े स्टेज पर अपनी बेटी का डांस शो देखने को उत्सुक थे. स्टेज की साजसजावट, निर्णायक मंडल व दर्शकगण कुल मिला कर सभीकुछ बड़ा ही अच्छा लग रहा था. उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि बचपन में 2 चोटियां बना कर घूमने वाली सान्या बड़ी फिल्मी हस्तियों के सामने अपना नृत्य प्रस्तुत करेगी. 3 लोगों का डांस पूरा हुआ और चौथा नंबर सान्या का था.

जैसे ही स्टेज पर उस का नाम पुकारा गया, सान्या के पिताजी का सीना फूल कर चौड़ा हो गया और अगले ही पल सान्या झूम कर स्टेज पर आ पहुंची. उस की नाचने की अदा सब से अलग थी. सभी दर्शकों और निर्णायक मंडल के सदस्यों की तालियों की गड़गड़ाहट से हौल गूंज उठा था. सान्या की मां उस के पिताजी के पास सरक कर मुंह पर हाथ रख कर धीरे से फुसफुसाती हुईर् बोली, ‘‘देखना जी, हमारी सान्या ही प्रथम आएगी, इस का फाइनल्स के लिए जरूर सलैक्शन होगा.’’ जवाब में सान्या के पिताजी ने अपना सिर हामी भरते हुए हिला दिया था.

खैर, शो खत्म हुआ. उस के पिताजी शाम को उसे मुंबई घुमाने के लिए ले कर गए. मरीन ड्राइव पर समुद्र की आतीजाती लहरें सड़क पर ठंडी फुहारें फेंक रही थीं. और हैंगिंग गार्डन में बुड्ढी का जूता देख सान्या बहुत खुश हो गई. कई पुरानी फिल्मों को वहां फिल्माया गया है. सान्या तो अपने सपनों की नगरी में आ पहुंची थी. वह तो सदा के लिए यहां बस जाना चाहती थी. किंतु मांपिताजी तो चाहते हैं कि वह आगे पढ़ाई करे और इस चमकदमक की दुनिया से दूर रहे.

खैर, अगले 2 दिनों में छोटा कश्मीर, नैशनल पार्क, एस्सेल वर्ल्ड आदि सभी जगहों पर घूम कर सान्या अपने मातापिता के साथ घर आ गई. लेकिन आने के बाद वह मुंबई और वहां का बड़ा सा स्टेज ही देखती रही. वह तो चाहती ही न थी कि उस रात की कभी सुबह भी हो. कितनी अच्छी होती है न सपनों की दुनिया. जो सोचो वही हकीकत में रूपांतरित होता नजर आता है. काश, उस का यह सपना हकीकत बन जाए. तभी घड़ी का अलार्म बजा और घर्रघर्र की आवाज ने उसे सोने नहीं दिया. उस ने झट से बटन दबा कर अलार्म बंद कर दिया.

थोड़ी देर में मां की आवाज आई, ‘‘बेटी सान्या, उठो न, तुम्हें कालेज जाने में देर हो जाएगी.’’

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‘‘जी मां,’’ कहते हुए सान्या ने अलसाई आंखों से सूर्य को देखा. बाथरूम में जा ठंडे पानी के छींटे अपनी आंखों पर मारे और मां के पास रसोई में जा कर अपने लिए चाय ले कर आई. अखबार पढ़ने के साथ चाय की चुस्कियां लेते हुए सान्या पेज थ्री में फिल्मी हस्तियों के फोटो देख रहे थी. उन्हें देख वह तो रोज ही ख्वाब संजोने लगती कि उसे मुंबई से बुलावा आ रहा है. हर वक्त मुंबईमुंबई, बस मुंबई.

उस की मां उसे समझाती, ‘‘सान्या, हम साधारण लोग हैं, मुंबई में तो बड़बड़े लोग रहते हैं. यह जो फिल्मी दुनिया है न, वास्तविक दुनिया से बहुत अलग है.’’ जवाब में सान्या कहती, ‘‘पर मां, वहां भी तो इंसान ही बसते हैं न. बस, एक बार मैं वहां चली जाऊं, फिर देखना, पैसा, शोहरत सब है वहां. यहां इस छोटे से कसबे में क्या रखा है? आज पढ़ाई पूरी कर भी लूंगी तो कल किसी सरकारी नौकरी वाले डाक्टर, इंजीनियर से तुम मेरा ब्याह कर दोगी और फिर रोज वही चूल्हाचौका. जो जिंदगी तुम ने जी है, वही मुझे जीनी होगी. क्या फायदा मां ऐसी जिंदगी का? मां मैं बड़े शहर में जाना चाहती हूं, मुंबई जाना चाहती हूं, कुछ अलग करना चाहती हूं.’’ मां ने उसे टालते हुए कहा, ‘‘अच्छाअच्छा, अभी तो पहले पढ़ाई पूरी कर ले.’’ लेकिन सान्या का कहां पढ़नेलिखने में मन लगने वाला था. उसे तो फैशन वर्ल्ड अच्छा लगता था, वह तो जागते हुए भी डांस शो और मौडलिंग के सपने देखती थी.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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Serial Story: फलक से टूटा इक तारा- भाग 3

सान्या सोचने लगी, ‘कल तक जो देव मेरी हर बात का दीवाना हुआ करता था उसे आज अचानक से क्या हो गया है?’ यदि सान्या उस से बात करना भी चाहती तो वह मुंह फेर कर चल देता. अब सान्या मन ही मन बहुत परेशान रहने लगी थी. बारबार सोचती, कुछ तो है जो देव मुझ से छिपा रहा है. अब वह देव पर नजर रखने लगी थी और उसे मालूम हुआ कि देव का उस से पहले भी एक लड़की से प्रेमप्रसंग था और अब वह फिर से उस से मिलने लगा है.

सान्या सोचने लगी, ‘तो क्या देव, मुझे शादी के झूठे सपने दिखा रहा है.’ यदि अब वह देव से शादी के बारे में बात करती तो देव उसे किसी न किसी बहाने से टाल ही देता. और आज तो हद ही हो गई, जब सान्या ने देव से कहा, ‘‘हमारी शादी का दिन तय करो.’’ देव उस की यह बात सुन  मानो तिलमिला गया हो. वह कहने लगा, ‘‘तुम्हारा दिमाग तो ठिकाने है, आज हम शादी कर लें और कल बच्चे? इतना बड़ा पेट ले कर घूमोगी तो कौन से धारावाहिक वाले तुम्हें काम देंगे. तुम्हारे साथसाथ मेरा भी कैरियर चौपट जब सब को पता लगेगा कि मैं ने तुम से शादी कर ली है.’’

सान्या कानों से सब सुन रही थी लेकिन जो देव कह रहा था उस पर उसे विश्वास नहीं हो रहा था. उस की आंखों के सामने अंधेरा छा गया था. वह तो सोच भी नहीं सकती थी कि देव उस के साथ ऐसा व्यवहार करेगा. वह तो शादी के सपने संजोने लगी थी. उसे नहीं मालूम था कि देव उस के सपने इतनी आसानी से कुचल देगा. तो क्या देव सिर्फ उस का इस्तेमाल कर रहा था या उस के साथ टाइमपास कर रहा था. उस का प्यार क्या एक छलावा था. वह सोचने लगी कि ऐसी क्या कमी आ गई अचानक से मुझ में कि देव मुझ से कटने लगा है.

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कई धारावाहिकों में अपनी मनमोहक छवि और मुसकान के लिए सब का चहेता देव, क्या यही है उस की असलियत? जिस देव की न जाने कितनी लड़कियां दीवानी हैं क्या उस देव की असलियत इतनी घिनौनी है? वह मन ही मन अपने फैसले को कोस रही थी और अंदर ही अंदर टूटती जा रही थी, लेकिन उस ने सोच लिया था कि देव उस से इस तरह पीछा नहीं छुड़ा सकता. अगले दिन जब देव शूटिंग खत्म कर के घर जा रहा था, सान्या भी उस के साथ कार में आ कर बैठ गई और उस ने पूछा, ‘‘देव, क्या तुम किसी और से प्यार करते हो? मुझे सचसच बताओ क्या तुम मुझ से शादी नहीं करोगे?’’

आज देव के मुंह से कड़वा सच निकल ही गया, ‘‘क्यों तुम हाथ धो कर मेरे पीछे पड़ गई हो, सान्या? मेरा पीछा छोड़ो,’’ यह कह देव अपनी कार साइड में लगा कर वहां से पैदल चल दिया. लेकिन सान्या क्या करती? वह भी दौड़ कर उस के पीछे गई और कहने लगी, ‘‘मैं ने तुम से प्यार किया है, देव, क्या तुम ने मुझे सिर्फ टाइमपास समझा? नहीं देव, नहीं, तुम मुझे इस तरह नहीं छोड़ सकते. बहुत सपने संजोए हैं मैं ने तुम्हारे साथ. क्या तुम मुझे ठुकरा दोगे?’’

देव को सान्या की बातें बरदाश्त से बाहर लग रही थीं और उसी गुस्से में उस ने सान्या के गाल पर तमाचा जड़ते हुए कहा, ‘‘तुम मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ती?’’ सान्या वहां से उलटे कदम घर चली आई.

अब तो सान्या की रातों की नींद और दिन का चैन छिन गया था. न तो उस का शूटिंग में मन लगता था और न ही कहीं और. इतनी जानीमानी मौडल, इतने सारे नामी धारावाहिकों की हीरोइन की ऐसी दुर्दशा. यह हालत. वह तो इस सदमे से उबर ही नहीं पा रही थी. पिछले 4 दिनों से न तो वह शूटिंग पर गई और न ही किसी से फोन पर बात की. कई फोन आए पर उस ने किसी का भी जवाब नहीं दिया.

आज उस ने देव को फोन किया और कहा, ‘‘देव, क्या तुम मुझे मेरे अंतिम समय में भी नहीं मिलोगे? मैं इस दुनिया को छोड़ कर जा रही हूं, देव,’’ इतना कह फोन पर सान्या की अवाज रुंध गई. देव को तो कुछ समझ ही न आया कि वह क्या करे? वह झट से कार ले कर सान्या के घर पहुंचा. लिफ्ट न ले कर सीधे सीढि़यों से ही सान्या के फ्लैट पर पहुंचा.

दरवाजा अंदर से लौक नहीं था. वह सीधे अंदर गया, सान्या पंखे से झूल रही थी. उस ने झट से पड़ोसियों को बुलाया और सब मिल कर सान्या को अस्पताल ले कर गए. लेकिन वहां सान्या को मृत घोषित कर दिया गया.

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सान्या इस दुनिया से चली गई, उस दुनिया में जिस में उस ने सुनहरे ख्वाब देखे थे, वह दुनिया जिस में वह देव के साथ गृहस्थी बसाना चाहती थी, वह दुनिया जिस की चमकदमक में वह भूल गई कि फरेब भी एक शब्द होता है और देव से जीजान से मुहब्बत कर बैठी या फिर वह इस दुनिया के कड़वे एहसास से अनभिज्ञ थी. उसे लगता था कि ये बड़ीबड़ी हस्तियां, बडे़ स्टेज शो, पार्टियों में चमकीले कपड़े पहने लोग और बड़ी ही पौलिश्ड फर्राटेदार अंगरेजी बोलने वाले लोग सच में बहुत अच्छे होते हैं, लेकिन उसे यह नहीं मालूम था कि उस दुनिया और हम जैसे साधारण लोगों की दुनिया में कोई खास फर्क नहीं. हमारी दुनिया की जमीन पर खड़े हो जब हम आसमान में चमकते सितारे देखते हैं तो वे कितने सुंदर, टिमटिमाते हुए नजर आते हैं. किंतु उन्हीं सितारों को आसमान में जा कर तारों के धरातल पर खड़े हो कर जब हम देखें तो उन सितारों की चमक शून्य हो जाती है और वहां से हमारी धरती उतनी ही चमकती हुई दिखाई देती है जितनी कि धरती से आसमान के तारे. फिर क्यों हम उस ऊपरी चमक से प्रभावित होते हैं?

ये चमकदार कपड़े, सूटबूट सब ऊपरी दिखावा ही तो है दूसरों को रिझाने के लिए. तभी तो सान्या इन सब के मोहपाश में पड़ गई और देव से सच्चा प्यार कर बैठी. वह यह नहीं समझ पाई कि इंसान तो इंसान है, मुंबई के फिल्मी सितारों की दुनिया हो या छोटे से कसबे के साधारण लोगों की दुनिया, इंसानी फितरत तो एक सी ही होती है चाहे वह कितनी भी ऊंचाइयां क्यों न हासिल कर ले. लेकिन कहते हैं न, दूर के ढोल सुहावने. खैर, अब किया भी क्या जा सकता था.

लेकिन हां, हर पल मुसकराने वाली सान्या जातेजाते सब को दुखी कर गई और छोड़ गई कुछ अनबूझे सवाल. झूठे प्यार के लिए अपनी जान देने वाली सान्या अपनी जिंदगी को कोई दूसरा खूबसूरत मोड़ भी तो दे सकती थी. इतनी गुणी थी वह, अपने जीवन में बहुतकुछ कर सकती थी. सिर्फ जीवन के प्रति सकारात्मक सोच को जीवित रख लेती और देव को भूल जीवन में कुछ नया कर लेती. काश, वह समझ पाती इस दुनिया को. कितनी नायाब होती है उन सितारों की चमक जो चाहे दूर से ही, पर चमकते दिखाई तो देते हैं. सभी को तो नहीं हासिल होती वह चमक. तो फिर क्यों किसी बेवफा के पीछे उसे धूमिल कर देना. काश, समझ पाती सान्या. खैर, अब तो ऐसा महसूस हो रहा था जैसे फलक से एक चमकता तारा अचानक टूट गया हो.

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Serial Story: फलक से टूटा इक तारा- भाग 2

अभी एक महीना बीता था कि सान्या को मुंबई से डांस शो के फाइनल्स के लिए बुलावा आ गया. उस के पैर तो बिन घुंघरू के ही थिरकने लगे थे. वह तो एकएक दिन गिन रही थी फिर से मुंबई जाने के लिए. अब डांस फाइनल्स शो का भी दिन आ ही गया.

फिर से वही स्टेज की चमकदमक और उस के मातापिता दर्शकों की आगे की पंक्ति में बैठे थे और शो शुरू हुआ. नतीजा तो जैसे सान्या ने स्वयं ही लिख दिया था. उसे पूरा विश्वास था कि वही जीतेगी. और डांस शो की प्रथम विजेता भी सान्या ही बनेगी. फिर क्या था, सान्या का नाम व तसवीरें हर अखबार व मैग्जीन के मुखपृष्ठ पर थीं. अब उसे हिंदी धारावाहिकों के लिए प्रस्ताव आने लगे थे. सभी बड़े नामी उत्पादों की कंपनियां उसे अपने उत्पादों के विज्ञापन के लिए प्रस्ताव देने लगी थीं.

अब तो सान्या आसमान में उड़ने लगी थी. उस की मां व पिताजी उस से कहते, ‘‘बेटी, इस चमकदमक के पीछे न दौड़ो, पहले अपनी पढ़ाई पूरी कर लो.’’ लेकिन सान्या कहती, ‘‘पिताजी, ऐसे सुनहरे अवसर बारबार थोड़े ही मिलते हैं. मुझे मत रोकिए, पिताजी, उड़ जाने दीजिए मुझे आजाद परिंदे की तरह और कर लेने दीजिए मुझे अपने ख्वाब पूरे.’’

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मांपिताजी ने उसे बहुत समझाया, पिताजी तो कई बार नाराज भी हुए, उसे डांटाडपटा भी, लेकिन सान्या को तो मुंबई जाना ही था. सो, मातापिता की मरजी के खिलाफ जिद कर एक दिन उस ने मुंबई की ट्रेन पकड़ ली, लेकिन मातापिता अपनी बेटी को कैसे अकेले छोड़ते, सो हार कर उन्होंने भी उस की जिद मान ही ली. कुछ दिन तो मां उस के साथ एक किराए के फ्लैट में रही, लेकिन फिर वापस अपने घर आ गई. सान्या की छोटी बहन व पिता को भी तो संभालना था.

सान्या को तो एक के बाद एक औफर मिल रहे थे, कभी समय मिलता तो मां को उचकउचक कर फोन कर सब बात बता देती. मां भी अपनी बेटी को आगे बढ़ते देख फूली न समाती. एक बार मां 7 दिनों के लिए मुंबई आई. जगहजगह होर्डिंग्स लगे थे जिन पर सान्या की तसवीरें थीं. विभिन्न फिल्मी पत्रिकाओं में भी उस की तसवीरें आने लगी थीं. वह मां को अपने साथ शूटिंग पर भी ले कर गई. सभी डायरैक्टर्स उस का इंतजार करते और उसे मैडममैडम पुकारते.

मां बहुत खुश हुई, लेकिन मन ही मन डरती कि कहीं कुछ गलत न हो जाए, क्या करती आज की दुनिया है ही ऐसी. अपनी बेटी के बढ़ते कदमों को रोकना भी तो नहीं चाहती थी वह. पूरे 5 वर्ष बीत गए. रुपयों की तो मानो झमाझमा बारिश हो रही थी. इतनी शोहरत यानी कि सान्या की मेहनत और काबिलीयत अपना रंग दिखा रही थी. हीरा क्या कभी छिपा रहता है भला?

जब सान्या को किसी नए औफर का एडवांस मिलता तो वह रुपए अपने मांपिताजी के पास भेज देती. साथ ही साथ, उस ने मुंबई में भी अपने लिए एक फर्निश्ड फ्लैट खरीद लिया था. कहते हैं न, जब इंसान की मौलिक जरूरतें पूरी हो जाती हैं तो वह रुपया, पैसा, नाम, शोहरत, सम्मान आदि के लिए भागदौड़ करता है. तो बस, अब सबकुछ सान्या को हासिल हो गया तो उसे तलाश थी प्यार की.

वैसे तो हजारों लड़के सान्या पर जान छिड़कते थे किंतु उस की नजर में जो बसा था, वह था देव जो उसे फिल्मी पार्टी में मिला था और मौडलिंग कर रहा था. दोनों की नजरें मिलीं और प्यार हो गया.

कामयाबी दोनों के कदम चूम रही थी. जगहजगह उन के प्यार के चर्चे थे. आएदिन पत्रिकाओं में उन के नाम और फोटो सुर्खियों में होते. सान्या की मां कभीकभी उस से पूछती तो सान्या देव की तारीफ करती न थकती थी. मां सोचती कि अब सान्या की जिंदगी उस छोटे से कसबे के साधारण लोगों से बहुत ऊपर उठ चुकी है और वह तो कभी भी साधारण लोगों जैसी थी ही नहीं. सो, उस के मांपिताजी ने भी उसे छूट दे दी थी कि जैसे चाहे, अपनी जिंदगी वह जी सकती है. देव और सान्या एकदूसरे के बहुत करीब होते जा रहे थे.

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देव जबतब सान्या के घर आतेजाते दिखाई देता था. कभीकभी तो रात को भी वहीं रहता था. धीरेधीरे दोनों साथ ही रहने लगे थे और यह खबर सान्या की मां तक भी पहुंच चुकी थी. यह सुन कर उस की मां को तो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. जब मां ने सान्या से पूछा तो वह कहने लगी, ‘‘मां, यहां मुंबई में ऐसे ही रहने का चलन है, इसे लिवइन रिलेशन कहते हैं और यहां ऐसे रहने पर कोई रोकटोक नहीं. मेरे दूसरे दोस्त भी ऐसे ही रहते हैं और मां, मैं ने और देव ने शादी करने का फैसला भी कर लिया है.’’

मां ने जवाब में कहा, ‘‘अब जब फैसला कर ही लिया है तो झट से विवाह भी कर लो और साथ में रहो, वरना समाज क्या कहेगा?’’ सान्या बोली, ‘‘हां मां, तुम ठीक ही कहती हो, मैं देव से बात करती हूं और जल्द ही तुम्हें शादी की खुशखबरी देती हूं.’’

अगले दिन जैसे ही देव ने सान्या के मुंह से शादी की बात सुनी, वह कहने लगा, ‘‘हांहां, क्यों नहीं, शादी तो करनी ही है लेकिन इतनी जल्दी भी क्या है सान्या, थोड़ा हम दोनों और सैटल हो जाएं, फिर करते हैं शादी. तुम भी थोड़ा और नाम कमा लो और मैं भी. फिर बस शादी और बच्चे, हमारी अपनी गृहस्थी होगी.’’

देव की प्यारभरी बात सुन कर सान्या मन ही मन खुश हो गई और अगले ही पल वह उस की आगोश में आ गई. सान्या को पूरा भरोसा था अपनेआप पर और उस से भी ज्यादा भरोसा था देव पर. वह जानती थी कि देव पूरी तरह से उस का हो चुका है.

अब उन का मिलनाजुलना पहले से ज्यादा बढ़ गया था, कभी मौल में, तो कभी कैफे में दोनों हाथ में हाथ डाले घूमते नजर आ ही जाते थे. उन का प्यार परवान चढ़ने लगा था. सान्या तो तितली की तरह अपने हर पल को जीभर जी रही थी. यही जिंदगी तो चाहती थी वह, तभी तो उस छोटे से कसबे को छोड़ कर मुंबई आ गई थी और उस का सोचना गलत भी कहां था, शायद ही कोई विरला होगा जो मुंबई की चमकदमक और फिल्मी दुनिया की शानोशौकत वाली जिंदगी पसंद न करता हो.

अभी 2-3 महीने बीते थे और देव अब सान्या के फ्लैट में ही रहने लगा था. रातदिन दोनों साथ ही नजर आते थे. लेकिन यह क्या, देव अचानक से अब उखड़ाउखड़ा सा, बदलाबदला सा क्यों रहता है? सान्या देव से पूछती, ‘‘देव कोई परेशानी है तो मुझे बताओ, तुम्हारे व्यवहार में मुझे फर्क क्यों नजर आ रहा है? हर वक्त खोएखोए रहते हो. कुछ पूछती हूं तो खुल कर बात करने के बजाय मुझ पर झल्ला पड़ते हो.’’

देव ने जवाब में कहा, ‘‘कुछ नहीं, तुम ज्यादा पूछताछ न किया करो, मुझे अच्छा नहीं लगता है.’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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रागविराग: भाग 3- कैसे स्वामी उमाशंकर के जाल में फंस गई शालिनी

पिछला भाग- रागविराग: भाग-2

लोगों ने उसे समझाया कि शुरू से ही केयरिंग रहे तो जच्चाबच्चा ठीक रहते हैं, पर शालिनी भीतर से ही सहम गई थी. जब भी सुभाष उसे अंतरंग क्षणों में प्यार में बांधता उस का चेहरा पथरा सा जाता.

‘‘यह क्या हो जाता है, यार तुम्हें?’’ वह चौंक जाता. पर शालिनी जानती थी, कहीं कुछ है, जो भीतर से उसे सालता है.

फिर कभी वह सत्संग आश्रम नहीं गई. सुभाष बारबार कहता कि वहां अच्छे प्रवचन होते हैं, तुम भी चला करो. पर वह यह कह कर मना कर देती कि घर में बहुत काम है, नहीं जाना.

आज जब बेटी सुलभा ने कहा कि मैं तो शाम तक आऊंगी, पास में ही सत्संग आश्रम है, अच्छा पुस्तकालय भी है आप उधर हो आना, तो वह भी दोपहर में तैयार हो कर उधर आ गई.

घने वृक्षों के बीच वह आश्रम था. उस के भव्य भवन के दाहिनी ओर संत महात्माओं की मूर्तियां लगी हुई थीं ओर बायीं तरफ कार्यालय था. भीतर जाते ही बड़े से आंगन में यह भवन खुलता था. सामने बरामदे से अंदर कक्ष में कृष्ण की विशालकाय प्रतिमा थी, जहां भक्तगण नृत्य कर रहे थे. भोग लग चुका था, शयन की तैयारी थी, शाम को फिर दर्शन के लिए खुलना था.

तभी उस की निगाहें सामने लगे बोर्ड पर गईं. उस में विशाल सत्संग होने की सूचना थी. पूछने पर पता चला कि स्वामीजी महाराज संध्या को ही प्रवचन देते हैं. उस ने काउंटर पर बात की तो पता लगा कि सुनने के लिए पहले अनुमति लेनी पड़ती है.

‘‘क्या आप यहां की नहीं हैं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘क्या आप हमारे मिशन की कार्यकर्ता हैं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तो फिर आप फौर्म भर दीजिए. जब आप का नंबर आएगा, आप को सूचित कर देंगे. यहां हौल में श्रोताओं के लिए सीटें सीमित हैं. हौल फुल हो चुका है.’’

‘‘ठीक है,’’ वह लौटने लगी.

‘‘रुकिए,’’ भीतर से एक महिला ने आते हुए कहा.

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‘‘आप बाहर से आई हैं?’’

‘‘हां.’’

‘‘कितने लोग हैं?’’

‘‘हम 2 हैं, मैं और मेरी बेटी.’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘आप को हौल के अंत की लाइन में जगह मिल जाएगी. स्वामीजी पहले तो खुले में बोलते थे, जहां हजारों लोग आते थे, परअब तो हौल में ही बोलते हैं. आप का कोई प्रश्न हो तो लिख कर दे दें.’’

‘‘नहीं, कोई प्रश्न नहीं है.’’

वह चुपचाप अपने गैस्ट हाउस लौट आई. शाम को उस ने पहली बार सुलभा को भी

अपने साथ सत्संग भवन चलने को कहा.

‘‘मां, आप हो आईं?’’ वह चौंकी.

‘‘हां, तुम भी चलो, वहां प्रवचन है.’’

‘‘पर वहां तो जगह नहीं मिलती है.’’

‘‘मिल गई है, 2 सीटें मिल गई हैं, चलो.’’

मांबेटी वहां पहुंचे तो शालिनी ने देखा कि वहां पर उमाशंकरजी ही थे. वे मीरा के प्रेम पर प्रवचन दे रहे थे और उन्हें भक्तों का समूह मंत्रमुग्ध हो कर सुन रहा था. उन का शरीर अब और भी भर गया था पर आंखें उसी तरह चमक रही थीं. हां, सिर के बाल कुछ झड़ गए थे. मूछें भी सफेद हो आई थीं.

प्रवचन समाप्त हो गया तो प्रश्नोत्तर भी हुआ.

‘‘चल मिल लेते हैं,’’ शालिनी ने सुलभा से कहा.

‘‘मां, भीड़ बहुत है.’’

‘‘तो क्या हुआ, चल.’’

‘‘आप कहां चलीं?’’ उन के मंच के पास पहुंचने पर कार्यकर्ताओं ने टोका. जो लोग आगे बैठे थे, उन के पास सुनहरा बड़ा सा बैज था, पर इन के पास वह नहीं था.

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‘‘दर्शन करने.’’

‘‘पर आप…?’’

‘‘हटिए,’’ कह कर शालिनी, सुलभा का हाथ पकड़े हुए मंच पर पहुंच गई.

‘‘बेटी, प्रणाम करो,’’ उस ने भी प्रणाम करते हुए कहा.

उमाशंकरजी के चेहरे पर न जाने कितने व्यूह बनेबिगड़े. उन्होंने आंखें बंद कर लीं, मानो गहरे ध्यान में चले गए हों. भीतर हलचल मची थी, मानो तूफान आ गया हो. हलचल को शांत करते हुए चुप रहे.

‘‘स्वामीजी, मैं शालिनी हूं.’’

उमाशंकरजी ने उसे देखा. वर्षों बाद भी उन्होंने उस के साथ जो कुछ किया था उसे भूल जाना क्या मुमकिन था?

‘‘स्वामीजी, यह मेरी बेटी सुलभा है. इस ने यहीं से आईआईटी किया है और यहीं इस की नौकरी लगी है.’’

‘‘हूं,’’ कह कर उमाशंकरजी ने सुलभा की ओर देखा फिर उस के सिर पर हाथ रखा.

‘‘अभी नौकरी करोगी या आगे पढ़ोगी?’’

‘‘आगे पढ़ना तो चाहती हूं. न्यूयार्क में दाखिला भी हो गया है. वहां से एमबीए करने का इरादा है,’’ शालिनी ने कहा.

‘‘आप लोग कहां ठहरे हैं?’’

‘‘हम पास में ही सीएमजी का जो गैस्ट हाउस है, उस में फर्स्ट फ्लोर पर रूम नं. 101 में हैं.’’

‘‘अरे वह तो सुधांशुजी की बिल्डिंग है.’’

शालिनी चुप रही.

‘‘तुम ने यहीं से आईआईटी किया लेकिन तुम पहले इधर कभी नहीं आईं,’’ वे सुलभा से बोले.

‘‘नहीं, मां किसी सत्संग में नहीं जातीं, न जाने देती हैं. कहती हैं कि एक बार जाना हुआ था. वहां न धर्म था, न अध्यात्म. बस पाखंड ही पाखंड था. मैं ने ही सुबह इन से कहा था कि पास में ही सत्संग आश्रम है, अकेलापन लगे तो वहां हो आना.’’

‘‘हूं,’’ कह कर उमाशंकरजी ने देखा कि शालिनी की आंखों में कोई भाव नहीं था.

पता नहीं क्या चाहती है यह? पता नहीं क्यों आई है यहां? झील में अचानक पड़े पत्थर से उठी लहरों सा उमाशंकरजी का मन अशांत हो गया. कहीं यह डीएनए टैस्ट न करवा दे? आंखें कितनी जल रही हैं. यह चुप ही रहे तो ठीक है.

शालिनी की आंखें, उन के चेहरे पर कील की तरह चुभ रही थीं.

‘‘तो तुम न्यूयार्क नहीं जा रही हो?’’ उन्होंने सुलभा से पूछा.

‘‘नहीं, बैंक लोन तो मिल जाएगा, पर आगे मुश्किल है. सालदो साल रहने का खर्चा है. पापा तो कोशिश कर रहे हैं, पर…?’’

‘‘पर क्या, जाओ. जब इतनी लायक हो तो पढ़ो. तुम्हारी सब व्यवस्था आश्रम कर देगा. वहां ठहरने की, रहने की, सब. न्यूयार्क में भी हमारे भक्त हैं. पटेलजी का न्यू जर्सी में फ्लैट खाली रहता है. न्यू जर्सी पास ही है. वहां से ट्रेन जाती है. तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी. फ्लाइट तो बौंबे से ही होगी. तैयारी कर लो, वीजा ले आओ.’’

‘‘वाह, गुरुजी की कृपा हो तो ऐसी हो,’’ पास खड़े भक्तजन भावविभोर हो कर बोले.

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गुरुजी पुन: ध्यान में चले गए थे. उन से अब बाहर देखा नहीं जा रहा था.

शालिनी ने सुलभा के कंधे पर हाथ रखा. उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि ऐसा कुछ घट गया है. वह जानती थी, जिस का जो फर्ज है, वह उसे निभाना ही पड़ता है. पर उस की गलती, क्या वह कभी अपने को माफ कर पाएगी? यह तो उसे चुप रहने का पुरस्कार मिला है. इस पाखंडी ने कितनों को बरबाद किया होगा, किसे पता? आत्मापरमात्मा के नाम से सैकड़ों साल से यही हो रहा है. उसे पति की याद आई, जो इन पाखंडियों से कितना बेहतर है, पर समाज उन के पीछे पागल है. वह जितनी चुप हो गई थी, सुलभा उतनी ही चपल. अमेरिका की बात पर उस का मोबाइल तो बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा था. उधर सामने फुटपाथ पर अखबार कह रहा था कि वित्तमंत्री ने कहा है कि विकास की दर 10% हम पा कर ही रहेंगे. शालिनी अपनेआप से बारबार पूछ रही थी कि मेरे लिए क्या यही विकास का रास्ता बचा है?

Women’s Day Special: आधारशिला- किसने रखी थी श्वेता की सफलता की बुनियाद

Women’s Day Special: आधारशिला- भाग 2

मैं ने औटोरिकशा के बजाय बस से ही जाना ठीक समझा. एकांत से मुझे डर लग रहा था. बस  की भीड़ में शायद मेरा दुख अधिक तीव्रता धारण न कर पाए. मगर मेरा सोचना गलत था. भीड़भरी बस में भी मैं बिलकुल अकेली थी. मेरा दुख मेरे साथ कदम से कदम मिला कर चल रहा था.

‘बसस्टौप से धीरेधीरे कदम बढ़ाते हुए मैं घर पहुंची. मुझे देखते ही श्वेता दौड़ कर आई और मेरे गले लिपट गई, ‘ओह मां, कितनी देर लगा दी. मैं अकेली बैठी कब से बोर हो रही हूं.’

‘श्वेता, छोड़ो यह बचपना,’ मैं ने अपने गले से उस की बांहें हटाते हुए कहा.

मैं ने बेरुखी से उस के हाथ झटक तो दिए थे, पर तभी पुनीत की वह बात याद आई, ‘आप अपने व्यवहार से उसे किसी तरह का आभास न होने दें कि आप उस के बारे में सबकुछ जान चुकी हूं,’ सो, मैं ने सहज स्वर में कहा, ‘बेटे, जल्दी जा कर लेट जाओ, तुम्हें अभी भी बुखार है. थोड़ी देर में अंकित भी आता होगा, वह तुम्हें जरा भी आराम नहीं करने देगा.’

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श्वेता अपने कमरे में जा कर लेट गई. मैं एक पत्रिका ले कर पढ़ने बैठ गई, पर ध्यान पढ़ने में कहां था. मेरा मन तो किसी खुफिया अधिकारी की तरह श्वेता के पिछले व्यवहार की छानबीन करने लगा. वह अकसर पुनीत की प्रशंसा किया करती थी. सो, हम भी उन की योग्यता के कायल हो चुके थे, क्योंकि पिछले साल की अपेक्षा इस साल श्वेता को कैमेस्ट्री में काफी अच्छे अंक मिले थे.

जब पढ़ाने की तारीफ से आगे बढ़ कर उस ने उन के व्यक्तित्व की तारीफ शुरू की, तब भी मुझे कुछ अजीब नहीं लगा था. मैं सोचती, 14-15 वर्ष की उम्र यों भी सिर्फ योग्यता तोलने की नहीं होती. यदि वह उन्हें स्मार्ट कहा करती है  तो यह गलत नहीं. ऐसे ही शब्द तो इस उम्र में किसी के व्यक्तित्व को नापने का पैमाना होते हैं.

जब मैं उम्र के इस दौर से गुजर रही थी, मुझे भी अपनी शिक्षिका देविका कोई आसमानी परी मालूम होती थीं. मेरी मां और बाबूजी अकसर कहा करते थे, ‘इसे हमारी कोई बात समझ में ही नहीं आती, लेकिन वही बात अगर देविका कह दें तो तुरंत मान लेगी.’

यह तो बहुत बाद में समझ आया कि देविका भी औरों की तरह साधारण सी महिला थीं. मुझे महसूस होने वाला उन का पढ़ाने का जादुई ढंग उन के अपने बच्चों पर बेअसर रहा था. उन के दोनों बेटे क्लास में मुश्किल से ही पास होते थे.

बस, इसी तरह श्वेता का भी पुनीत का अतिरिक्त गुणगान करना मुझे जरा भी संदेहजनक नहीं लगा था.

दरवाजे की डोरबैल जोर से बज रही थी. शायद अंकित आ गया था. मैं ने भाग कर दरवाजा खोला.

अंकित को दूध का गिलास पकड़ा कर मैं रात के खाने की तैयारी में लग गई. श्वेता की समस्या ने मुझे भीतर तक हिला कर रख दिया था, मगर फिर भी सोच लिया था कि जैसे भी हो, यह बात मैं इन के कानों में नहीं पड़ने दूंगी. इन का प्यार भी असीम था और गुस्सा भी. इन्हें यदि इस पत्र के बारे में पता चल जाता, तो शायद श्वेता को सूली पर चढ़ा देते.

शाम को ये लगभग 8 बजे घर पहुंचे. श्वेता और अंकित में किसी बात पर झगड़ा हो रहा था. टीवी जोरजोर से चल रहा था. इन्होंने आते ही पहले टीवी औफ किया, फिर बच्चों को जोरदार आवाज में डांटा. जब कोलाहल बंद हुआ तब मुझे खयाल आया कि मैं अपने विचारों में किस कदर खोई हुईर् थी.

‘क्या बात है, कुछ परेशान सी लग रही हो, बच्चों को इन की शैतानियों के लिए डांट नहीं रही हो?’ इन्होंने पास आ कर पूछा.

‘लीजिए, अब डांटना ही हमारे स्वस्थ होने का परिचायक हो गया. क्या मैं चुपचाप बैठी आप को अच्छी नहीं लग रही?’ मैं ने शरारत से पूछा.

‘नहीं, बिलकुल अच्छी नहीं लग रही हो. बच्चों की आवाजें, टीवी का शोर और इन सब से ऊपर तुम्हारी आवाज हो, तभी मुझे लगता है कि मैं अपने घर आया हूं’, इन्होंने नहले पे दहला मारा.

खाना खाते समय श्वेता खामोश ही रही. उस के पास सुनाने के लिए कुछ नहीं था, क्योंकि वह स्कूल जो नहीं गई थी. फिर भी एकाध बार पुनीत की तारीफ करना नहीं भूली.

योजना के मुताबिक अगले दिन पुनीत हमारे घर आए. श्वेता उन्हें देख कर आश्चर्यचकित रह गई, ‘सर, आप? यहां कैसे? आप को कैसे पता चला कि मैं यहां रहती हूं? मैं बीमार थी, क्या इसीलिए मुझे देखने आए हैं?’ उस ने सवालों की झड़ी लगा दी.

पुनीत मुसकराते हुए बोले, ‘हां भई, मैं इस तरफ किसी काम से आया था, सोचा, तुम से भी मिलता चलूं. पता तो तुम ने ही मुझे दिया था.’

‘ओह, हां. मुझे तो याद ही नहीं रहा.’ श्वेता के चेहरे पर खुशी झलक रही थी. टीवी पर फिल्म चल रही थी. श्वेता फिल्म देखते हुए हमेशा अपनेआप को भी भूल जाती थी, मगर अब उसे फिल्म से भी कोई मतलब नहीं था. उस की दुनिया तो जैसे पुनीत में ही सिमट आई थी.

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‘सर, आप क्या खाएंगे?’ श्वेता इठला कर पूछ रही थी.

‘जो आप बना लाएं,’ उन्होंने शरारती स्वर में कहा.

‘जी, मैं तो सिर्फ चाय बना सकती हूं.’

‘जी हां, मैं तो भूल ही गया था, आप तो छोटी सी बच्ची हैं, आप को भला क्या बनाना आता होगा.’

श्वेता को हंसते देख उसे गुस्सा आ रहा था.

मैं रसोई में जा कर नमकीन, मठरी और गुलाबजामुन ले आई.

‘अरे, आप तो बहुत कुछ ले आईं,’ पुनीत शिष्टता से बोले.

‘कहां बहुत कुछ है सर, आप यह लीजिए. मैं आप के लिए पकौडि़यां तल कर लाती हूं.’

‘ नहीं भई, इतना काफी है,’ कहते हुए पुनीत अपने बारे में बताने लगे कि वे एक गरीब परिवार से हैं. पिता रिटायर्ड हैं, 2 छोटी बहनें और 1 भाई अभी पढ़ रहे हैं, जिन की जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर है.

हमारी योजना के मुताबिक ही वे अपने परिवार के हालात के बारे में जानबूझ कर बता रहे थे. यह वास्तविकता भी थी और कुछ बढ़ाचढ़ा कर भी बताई जा रही थी, ताकि इस कठोर धरातल की ओर बढ़ते हुए श्वेता के नाजुक पांव अपनेआप कांप उठें.

इस घटना के 2-3 दिनों बाद मैं पुनीत से मिलने स्कूल गई. इस बार हम ने स्कूल के बाहर एक स्थान और समय निश्चित कर लिया था. वे आए और मेरे हाथ में एक कागज का टुकड़ा पकड़ा कर चले गए. डर था कि कहीं श्वेता हमें न देख ले. पत्र कुछ इस प्रकार था :

आदरणीय सर,

\आप मेरे पत्रों के उत्तर क्यों नहीं देते? क्या मैं आप को सुंदर नहीं लगती या अपनी गरीबी की वजह से ही आप आगे बढ़ने में डर रहे हैं? सर, जब से मुझे आप की आर्थिक स्थिति का पता चला है, आप की कर्तव्यभावना देख कर मेरे मन में आप के प्रति सम्मान और अधिक बढ़ गया है. कृपया मुझे अपना लें. मैं आप का पूरापूरा साथ दूंगी. नमक के साथ सूखी रोटी खा कर भी दिन गुजार लूंगी. आप का परिवार मेरा परिवार है. हम मिलजुल कर यह जिम्मेदारी उठाएंगे.

आप की,

श्वेता.

पत्र पढ़ कर मैं ने सिर पीट लिया कि सारी योजना बेकार चली गई. नमक के साथ रोटी वाली बात पढ़ कर तो बेहद हंसी आई. खाने में पचासों नुक्स निकालने वाली श्वेता को मैं कल्पना में भी सूखी रोटी खाते हुए नहीं देख सकती थी. गरीबी उस के लिए सिर्फ फिल्मी अनुभव के समान थी. गरीबी का फिल्मीरूप जितना लुभावना होता है, असलियत उतनी ही जानलेवा. काश, श्वेता यह सब जान पाती.

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2-3 दिन श्वेता अनमनी सी रही, फिर कुछ सहज हो गई. 10-15 दिनों से पुनीत का भी कोई फोन नहीं आया था. हम ने तय कर लिया था कि श्वेता यदि उन्हें कोई पत्र लिखती है तो वे पहले मुझे फोन से खबर देंगे. मुझे लगने लगा कि पुनीत की बेरुखी या गरीबी की वजह से श्वेता अपनेआप ही संभल गई है.

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Women’s Day Special: आधारशिला- भाग 3

उस रात मैं कई दिनों बाद निश्चिंत हो कर सोई. सुबह उठी तो सब से पहले श्वेता के कमरे की ओर गई. श्वेता गहरी नींद में थी, लेकिन उस के गोरे गालों पर आंसुओं के निशान थे. लगता था, जैसे वह देररात तक रोती रही थी. मेज पर कैमेस्ट्री की कौपी रखी थी. मैं ने खोल कर देखा तो उस में से एक पत्र गिरा. सलीमअनारकली, हीररांझा आदि के उदाहरण सहित उस में अनेक फिल्मी बातें लिखी हुई थीं.

लेकिन उस पत्र की अंतिम पंक्ति मुझे धराशायी कर देने के लिए काफी थी. ‘सर, यदि आप ने मेरा प्यार स्वीकार न किया तो मैं आत्महत्या कर लूंगी.’

मैं भाग कर श्वेता के निकट पहुंची. उस की लयबद्ध सांसों ने मुझे आश्वस्त किया. फिर मैं ने उस की अलमारी की एकएक चीज की छानबीन की कि कहीं कोई जहर की शीशी तो उस ने छिपा कर नहीं रखी है, लेकिन ऐसी कोई चीज वहां नहीं मिली. मेरा धड़धड़ धड़कता हुआ कलेजा कुछ शांत हुआ. लेकिन चिंता अब भी थी.

मेरी नजरों के सामने अखबारी खबरें घूम गईं. एकतरफा प्रेम के कारण या प्रेम सफल न होने के कारण आत्महत्या की कितनी ही खबरें मैं ने तटस्थ मन से पढ़ी, सुनी थीं. लेकिन अब जब अपने ऊपर बीत रही थी, तभी उन खबरों का मर्मभेदी दुख अनुभव कर पा रही थी.

मुझे बरसों पहले की वह घटना याद आई जब कमरे में घुस आई एक नन्ही चिडि़या को उड़ाने के प्रयत्न में मैं पंखा बंद करना भूल गई थी. चिडि़या पंखे से टकरा कर मर गईर् थी. उस की क्षतविक्षत देह और कमरे में चारों ओर बिखरे कोमल पंख मुझे अकसर अतीत के गलियारों में खींच ले जाते, और तब मन में एक टीस पैदा होती.

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श्वेता के संदर्भ में उस चिडि़या का याद आना मुझे बड़ा अजीब लगा. मैं ने स्कूल में पुनीत को फोन किया. मेरी कंपकंपाहटभरी आवाज सुन कर शायद वे मेरी दुश्चिंता भांप गए और बोले, ‘धीरज रखिए, मैं आधे दिन की छुट्टी ले कर आप के घर आऊंगा.’

निश्चित समय पर पुनीत आए. मैं जितनी बेचैन थी, वे उतने ही शांत लग रहे थे.

मैं ने कहा, ‘आप को सुन कर अवश्य आश्चर्य होगा, पर मैं आज कुछ अलग ही तरह की बात कहने जा रही हूं,’ मैं ने अपनेआप को स्थिर कर के कहा, ‘आप श्वेता से शादी कर लीजिए, कहीं वह प्रेम में पागल हो कर आत्महत्या न कर ले.’ यह कहतेकहते फफकफफक कर रो पड़ी.

‘अपनेआप को संभालिए. श्वेता अभी बच्ची है मेरी छोटी बहन के समान. उस की उम्र अभी शादी की नहीं, सुनहरे भविष्य के निर्माण की है, जिस की आधारशिला हमें अपने हाथों से रखनी होगी.’

‘वह तो ठीक है, लेकिन आज उस ने पत्र लिखा है, जिस में…’

‘वह पत्र उस ने मुझे दिया है, आप घबराएं नहीं. जब तक मैं उसे नकारात्मक उत्तर नहीं दूंगा, तब तक कुछ नहीं होगा. अभी तक मैं ने उस के प्रेम को स्वीकारा नहीं है, तो नकारा भी नहीं है.’

‘लेकिन यह स्थिति कब तक कायम रहेगी?’ मैं ने पूछा.

‘अधिक दिन नहीं,’ वे बोले, ‘यह तो हम जान ही चुके हैं कि श्वेता का ऐसी हरकतें करना कुछ तो उस की किशोर उम्र का परिणाम है और कुछ फिल्मों का मायावी संसार उसे यह सबकुछ करने को उकसाता रहा है, क्योंकि वह फिल्में देखने की बहुत शौकीन है.’

‘जी हां, मगर फिल्म और वास्तविकता के बीच का फर्क उसे समझाएं तो कैसे. और समझ में आने पर भी क्या प्यार का भूत उस के सिर से उतर जाएगा?’

पुनीत कहीं और देख रहे थे, जैसे उन्होंने मेरा प्रश्न सुना ही न हो, फिर एकाएक बोल पड़े, ‘अब आप निश्चिंत रहिए. उस का यह फिल्मी तिलिस्म फिल्मी ढंग से ही टूटेगा.’ और वे चले गए.

मेरे मन में आया कि पति से इतनी गंभीर बात छिपा कर मैं कहीं गलती तो नहीं कर रही हूं. मगर जब औफिस से लौटने पर इन का थकाहारा चेहरा देखती तो बस, यही लगता कि इन के सामने ऐसी गंभीर समस्या न ही रखूं. यदि मैं अपने स्तर पर यह समस्या सुलझा सकूं तो बहुत अच्छा होगा और फिर पुनीत का पूरा साथ है ही. दूसरी बात, इन के गुस्से का भी क्या ठिकाना. यदि गुस्से में आ कर इन्होंने कोई कठोर कदम उठाया तो श्वेता न जाने क्या कर बैठे.

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गनीमत यही थी कि पुनीत बहुत चरित्रवान थे. यदि वे छिछोरे युवकों जैसे होते तो हम कहीं के न रहते.

अगले दिन पुनीत हमारे घर फिर आए. श्वेता हमेशा की तरह बेहद खुश हुई. अब वे अकसर ही हमारे घर आने लगे. शायद श्वेता को इस बात से विश्वास हो चला था कि वे भी उसे चाहते हैं.

जब भी वे आते, अपने बारे में कुछ न कुछ ऊलजलूल बोलते चले जाते.

श्वेता कहती, ‘सर, यह चश्मा आप पर बहुत फबता है,’ तो कहते, ‘जानती हो, इस का नंबर है माइनस फाइव. 35 की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते मैं अंधा हो जाऊंगा.’

श्वेता भी उन की बातों से कुछ ऊबती हुई नजर आती.

एक रोज वे घर पर आए. ठीक उसी वक्त फ्यूज उड़ जाने से   बिजली चली गई. श्वेता उन से बोली, ‘मैं फ्यूज वायर ला देती हूं, आप जोड़ दीजिए.’

‘मैं और फ्यूज?’ वे इस तरह घबराए, जैसे कोई अनोखी बात सुन ली हो, ‘श्वेता, फ्यूज तो दूर, मैं बिजली का मामूली से मामूली काम भी नहीं जानता. करंट लगने से मैं बेहद डरता हूं.’

श्वेता ने उन की ओर आश्चर्य से देखा, ‘सर, फ्यूज तो मैं भी जोड़ लेती हूं. बस, मीटर बोर्ड कुछ ऊंचा होने के कारण आप से कह रही हूं.’

श्वेता ने मेज पर स्टूल रखा और फ्यूज ठीक कर दिया. पुनीत यह सब खामोशी से देख रहे थे.

रात को खाना खाते समय श्वेता हंसतेहंसते यह घटना अपने पिताजी को सुना रही थी. इतना लंबाचौड़ा युवक और फ्यूज सुधारने जैसा साधारण काम नहीं कर सकता. उस की हीरो वाली छवि को इस घटना से बड़ा धक्का लगा था. पर उस रोज मैं न हंस पाई. मैं जानती थी कि पुनीत ने जानबूझ कर ऐसी हरकत की थी.

एक रोज उन्होंने एक और मनगढ़ंत घटना सुनाई कि जब वे कालेज में पढ़ते थे, एक चोर घर के अंदर घुस आया. वे चुपचाप सांस रोके लेटे रहे. चोर अलमारी में रखे 5-7 सौ रुपए ले कर भाग गया. श्वेता उन की ओर अविश्वास से ताकती रही, फिर बोली, ‘कुछ भी हो, आप को उसे पकड़ने की कोशिश तो करनी ही चाहिए थी. आप के साथसाथ समाज का भी कुछ भला हो जाता.’

‘समाज के लिए मरमिटूं, मैं ऐसा बेवकूफ नहीं हूं,’ वे बोले. फिर कुछ क्षण ठहर कर कहने लगे, ‘समाज हमारे लिए क्या करता है? यों तो लोग दहेज विरोधी बातें भी खूब करते हैं, पर मैं क्यों न लूं दहेज? क्या समाज मेरी बहनों की मुफ्त में शादी करवा देगा?’

श्वेता कुछ नहीं बोली, अपने सपनों के राजकुमार की खंडित प्रतिमा को वह किसी तरह जोड़ नहीं पा रही थी.

उस के कुछ दिन बड़ी मानसिक ऊहापोह में गुजरे. फिर एक रोज उस ने शायद अपने कमजोर मन पर विजय पा ही ली.

एक दिन वह बोली, ‘मां, कुछ लोग ऐसे क्यों होते हैं?’

‘कैसे?’ मैं उस के प्रश्न का रुख समझ रही थी, फिर भी पूछ लिया.

‘देखने में बड़े आदर्शवादी, समाज सुधारक और बड़ीबड़ी बातें करने वाले और अंदर से धोखेबाज, मक्कार और झूठे हैं. जैसे, जैसे पुनीत सर.’ आंसू छिपाती हुई वह अपने कमरे में चली गई. मुझे उस के दिए हुए ये विशेषण बिलकुल अच्छे नहीं लगे. मैं सोच रही थी कि मेरी बेटी को सही राह पर लाने वाला व्यक्ति सिर्फ महान, समझदार और व्यवहारकुशल हो सकता है और कुछ नहीं.

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मैं ने उसे समझाया, ‘बेटी, दुनिया में कई तरह के लोग होते हैं. सभी हमारी आकांक्षाओं के अनुरूप  नहीं होते. वे जैसे भी होते हैं, अपनी जगह पर सही होते हैं. इसलिए उन्हें बुराभला कहना ठीक नहीं.’

श्वेता ने मुझ से बहस नहीं की, पर धीरेधीरे उस का पुराना रूप लौटने लगा. मैं खुश थी.

एक दिन पुनीत का फोन आया कि श्वेता अब उन्हें पत्र नहीं लिखती, उन से दूसरी छात्राओं की तरह  ही पेश आती है. तब मैं ने उन्हें दिल से धन्यवाद दिया.

जिस तरह नाजुक हाथों से उलझे हुए रेशम को सुलझाया जाता है, उसी तरह नफासत से उन्होंने श्वेता के दिल की गुत्थी को सुलझाया था.

उस वर्ष वह जैसेतैसे द्वितीय श्रेणी ही पा सकी, जोकि स्वाभाविक ही था. लगभग पूरा वर्ष उस ने प्रेमवर्ष के रूप में ही तो मनाया था. पर उस के बाद वह पूरी तरह पढ़ाई में जुट गई. और अब उस का सपना भी पूरा हो गया.

श्वेता के डाक्टर बन जाने की खबर मैं पुनीत को देना चाहती थी, मगर देती कैसे? एक वर्ष पहले ही वे नौकरी छोड़ कर कहीं दूसरी जगह जा चुके थे. शायद महान व्यक्ति ऐसे ही होते हैं, किसी तरह के श्रेय या जयजयकार की कामना से दूर, खामोशी से हर कहीं सुगंध बिखेरने वाले.

Women’s Day Special: आधारशिला- भाग 1

चिकित्सा महाविद्यालय के दीक्षांत समारोह में एमबीबीएस की डिगरी और 2 विषयों में स्वर्णपदक लेती हुई श्वेता को देख कर खुशी से मेरी आंखें भर आईं. वह कितनी सुंदर लग रही थी. गोरा रंग, मोहक नैननक्श. उस पर आत्मविश्वास और बुद्धिमत्ता के तेज ने उस के चेहरे को हजारों में एक बना दिया था.

मैं उस की मां हूं, क्या इसीलिए अपनी बेटी में इतना सौंदर्य देख पाती हूं? मैं ने एक निगाह अपने इर्दगिर्द बैठी भीड़ पर डाली तो पाया कई जोड़ी आंखें श्वेता को एकटक निहार रही हैं.

श्वेता की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी. अपना लक्ष्य उस ने पा लिया था. मेरा मन गर्व से भर उठा. साथ ही एक चिंता ने हृदय के किसी कोने से हलके से सिर उठाया कि अब हमें उस के लिए वर की तलाश करनी होगी. सही समय पर सही काम होना ही चाहिए, यही सफल व्यक्ति की निशानी है.

बरसों पहले की बात याद आई. नन्ही श्वेता को पैरों पर झुलाते हुए मैं उसे रटाया करती, ‘वर्क व्हाइल यू वर्क, प्ले व्हाइल यू प्ले…’

श्वेता ने यह कविता अच्छी तरह रट ली थी. जब वह अपनी तोतली आवाज में इसे सुनाती तो मैं भावविभोर हो जाती. मगर क्या इस का सही अर्थ वह समझ पाई थी.

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10वीं कक्षा में पहुंचते ही वह पढ़ाई और कैरियर की नींव बनाने की उम्र में राह भटक गई थी. अनजाने प्रदेश की ओर बढ़ते हुए उस के क्रमश: दूर जाते हुए कदमों की पद्चाप को मैं मां हो कर भी पहचान नहीं पाई थी. यदि वह नेक व्यक्ति मुझे उस बात की सूचना न देता तो न जाने श्वेता का क्या होता, क्या होता हम सब का, यदि उस की जगह कोई और होता तो…

मुझे वह दिन याद आया, जब दोपहर की डाक से वह पत्र मिला था :

मीनाजी,

जितनी जल्दी संभव हो, स्कूल आ कर मुझ से मिल लें. कृपया इस बात को गुप्त रखें. श्वेता को भी इस बारे में कुछ न बताएं.

-पुनीत.

वह नाम मेरे लिए कतई अपरिचित नहीं था. 3-4 महीनों से श्वेता के मुख से वह नाम सुनतेसुनते हमें ही नहीं, शायद पड़ोसियों को भी रट गया था. मगर मैं सोचने लगी कि यह पत्र… इस का मजमून ऐसी कौन सी बात की ओर इशारा कर रहा है, जोकि बेहद गोपनीय है, और शायद गंभीर भी. मेरा हृदय कांप उठा.

‘जैसेतैसे साड़ी लपेट कर मैं ने बालों को ढीलेढाले जूड़े की शक्ल में बांध लिया. श्वेता को उस दिन बुखार था, इसलिए वह स्कूल नहीं जा पाई थी. यह बात मेरे पक्ष में थी. उसे बता कर कि आवश्यक काम से बाहर जा रही हूं, मैं निकल पड़ी.

श्वेता के स्कूल की छुट्टी 4 बजे होती थी. मैं साढ़े 3 बजे ही स्कूल पहुंच चुकी थी. अभी मुझे आधा घंटा इंतजार करना था. मैं प्रवेशद्वार के समीप ही बैंच पर बैठ गई. इस तरह चोरीछिपे इंतजार करना मुझे बड़ा अजीब लग रहा था, मगर करती भी क्या? बात कुछ समझ में नहीं आ रही थी. यदि वह श्वेता की पढ़ाई के संबंध में थी तो उस में गोपनीयता की क्या बात थी?

मासिक टैस्ट में उसे कैमेस्ट्री में अच्छे अंक मिलने लगे थे. हालांकि अन्य विषयों में वह कमजोर ही थी. 1-2 बार मैं ने इस बात के लिए उसे टोका भी था, मगर जोर दे कर कुछ नहीं कहा था. क्योंकि कैमेस्ट्री में उसे इंट्रैस्ट नहीं था, लेकिन अचानक इस वर्ष उस का इंट्रैस्ट देख कर मुझे मन ही मन बड़ा भला लगा था.

मेरी नींद पिछले महीने के टैस्ट के परिणाम के बाद भी नहीं खुली थी, अब अंगरेजी और फिजिक्स में उसे बहुत कम अंक मिले थे. उस समय भी मैं ने श्वेता को संबंधित विषयों में ध्यान देने की बस मामूली सी हिदायत ही दी थी.

हालांकि कुशाग्रबुद्धि श्वेता का अन्य विषयों में इतने कम अंक प्राप्त करना चिंता का विषय होना चाहिए था, परंतु मैं ने सोचा कि साल की शुरुआत ही है, धीरेधीरे वह सभी विषयों को गंभीरता से पढ़ने लगेगी. मैं सोचने लगी, क्या इन विषयों में कम अंक आने के कारण ही पुनीत ने मुझे बुलाया है? लेकिन भला उन्हें अन्य विषयों से क्या लेना? उन के विषय कैमेस्ट्री में तो श्वेता के बराबर ही अच्छे अंक आ रहे हैं.

‘विचारों के भंवर में मैं इस कदर डूब गई थी कि छुट्टी होने की घंटी भी मुझे सुनाई नहीं दी. जब क्लास से लड़कियों के झुंड बाहर निकलने लगे, तब मैं चौंकी. उसी समय देखा, सामने से एक युवक मेरी ओर चला आ रहा है.

‘क्या आप मीनाजी हैं?’ उस ने नम्रता से पूछा.

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मेरे हां कहने पर उस ने अपना परिचय दिया, ‘मैं, पुनीत हूं. आइए, हम पास वाले कौफीहाउस में कुछ देर बैठें. दरअसल, बात जरा नाजुक है, इस तरह सड़क पर बताना ठीक नहीं होगा.’

‘ठीक है,’ कहती हुई मैं उन के साथ चल दी. इस तरह अनजान व्यक्ति के साथ आना मुझे कुछ अजीब जरूर लग रहा था, पर गए बिना चारा भी नहीं था.

‘बगल में चलते हुए मैं ने पुनीत पर एक निगाह डाली. 6 फुट लंबा कद, गोरा रंग और आंखों पर चढ़ा चश्मा, जो उन के व्यक्तित्व को और भी अधिक प्रभावशाली बना रहा था. उन की आवाज धीर गंभीर थी.

शीघ्र ही हम कौफीहाउस पहुंच गए. कौफी का और्डर दे कर वे कुछ क्षणों के लिए चुप हो गए. चारों ओर नजर दौड़ा कर उन्होंने कमीज की जेब से एक कागज का टुकड़ा निकाल कर मेरी ओर बढ़ाया, ‘पत्र है, श्वेता का, मेरे नाम.’

मैं ने थरथराते हाथों से पत्र ले कर पढ़ा. क्या नहीं था उस में, जन्मजन्मांतर का अटूट संबंध, रातरात भर जागते रहने का इजहार, याद, इंतजार, आरजू और न जाने कैसेकैसे शब्दों से भरा हुआ था वह पत्र.

पत्र पढ़तेपढ़ते मेरे आंसू निकल आए. ऐसा लगा, श्वेता की उच्चशिक्षा संबंधी सारी महत्त्वाकांक्षाओं का अंत हो गया. मेरी स्थिति को पुनीत भांप गए थे. वे कहने लगे, ‘यदि आप होश खो बैठेंगी तो श्वेता का क्या होगा.’

मैं ने उन की ओर देखा कि कहीं उन के इस वाक्य में मेरे प्रति उपहास तो नहीं, लेकिन नहीं, इस वाक्य का सहीसही अर्थ ही उन के चेहरे पर लिखा हुआ था. वे आगे बोले, ‘इस उम्र में अकसर ऐसा हो जाता है. दरअसल, श्रद्धा और प्रेम का अंतर हमें इस उम्र में समझ में नहीं आता. इसलिए आप इसे गंभीर अपराध के रूप में न लें. इसीलिए मैं ने आप से ही इस बारे में बात करना ठीक समझा. आप उस की मां हैं, उस के हृदय को समझ सकती हैं.’

‘परंतु ऐसा पत्र, जी चाहता है, उसे जान से मार डालूं.’

‘नहीं, आप इस बात को श्वेता को महसूस भी न होने दें कि आप को इस पत्र के बारे में सबकुछ मालूम है. हम इस समस्या को शांति से सुलझाएंगे. आप तो जानती ही हैं कि यदि अनुकूल परिस्थितियों में यह उम्र हवा का शीतल झोंका होती है तो प्रतिकूल परिस्थितियों में गरजता हुआ तूफान बन जाती है.’

‘आप कह तो ठीक ही रहे हैं,’ मैं ने मन ही मन उन के मस्तिष्क की परिपक्वता की सराहना की.

पुनीत से की गई 15-20 मिनट की बातचीत ने मेरे मन के बोझ को आंशिक रूप से ही सही, पर कुछ कम अवश्य किया था.

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‘क्या आप ने मनोविज्ञान पढ़ा है?’ मैं ने पूछा तो वे हंस पड़े, ‘जी, बाकायदा तो नहीं, परंतु हजारों मजबूरियों से घिरा हुआ मध्यवर्गीय घर है हमारा. मैं 5 भाईबहनों में सब से बड़ा हूं. सब की अपनीअपनी समस्याएं, उन के सुखदुख का मैं गवाह बना. उन का राजदार, मार्गदर्शक, सभी कुछ. मातापिता ने परिस्थितियों से शांतिपूर्वक जूझने के संस्कार दिए और इस तरह मेरा घर ही मेरे लिए अनुभवों की पाठशाला बन गया.’

उन के गजब के संतुलित स्वर ने मेरे उबलते हुए मन को मानो ठंडक प्रदान की.

‘तो योजना के मुताबिक, आप कल हमारे घर आ रहे हैं?’ मैं ने कहा और उन से विदा ली.

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रागविराग: भाग 2- कैसे स्वामी उमाशंकर के जाल में फंस गई शालिनी

उस की आंखों में हलकी सी चमक आई.

‘‘उन के आशीर्वाद से ही तुम्हारा विवाह हो गया तथा जनार्दन का भी व्यवसाय संभल गया. मैं तो सब जगह से ही हार गया था,’’ पिता ने कहा.

एक दिन वह मां के साथ सत्संग आश्रम गई थी. वहां उमाशंकर भी आए हुए थे इसलिए बहुत भीड़ थी. सब को बाहर ही रोक दिया गया था. जब उन का नंबर आया तो वे अंदर गईं. भीतर का कक्ष बेहद ही सुव्यवस्थित था. सफेद मार्बल की टाइल्स पर सफेद गद्दे व चादरें थीं. मसनद भी सफेद खोलियों में थे. परदे भी सफेद सिल्क के थे. उमाशंकर मसनद के सहारे लेटे हुए थे. कुछ भक्त महिलाएं उन के पांव दबा रही थीं.

‘‘आप का स्वास्थ्य तो ठीक है?’’ मां ने पूछा.

‘‘अभी तो ठीक है, लेकिन क्या करूं भक्त मानते ही नहीं, इसलिए एक पांव विदेश में रहता है तो दूसरा यहां. विश्राम मिलता ही नहीं है.’’

शालिनी ने देखा कि उमाशंकरजी का सुंदर प्रभावशाली व्यक्तित्व कुछ अनकहा भी कह रहा था.

तभी सारंगदेव उधर आ गया.

‘‘तुम यहां कैसे? वहां ध्यान शिविर में सब ठीक तो चल रहा है न?’’

‘‘हां, गुरुजी.’’

‘‘ध्यान में लोग अधोवस्त्र ज्यादा कसे हुए न पहनें. इस से शिव क्रिया में बाधा पड़ती है. मैं तो कहता हूं, एक कुरता ही बहुत है. उस से शरीर ढका रहता है.’’

‘‘हां, गुरुजी मैं इधर कुरते ही लेने आया था. भक्त लोग बहुत प्रसन्न हैं. तांडव क्रिया में बहुत देर तक नृत्य रहा. मैं तो आप को सूचना ही देने आया था.’’

‘‘वाह,’’ गुरुजी बोले.

गुरुजी अचानक गहरे ध्यान में चले गए. उन के नेत्र मुंद से गए थे. होंठों पर थराथराहट थी. उन की गरदन टेढ़ी होती हुई लटक भी गई थी. हाथ अचानक ऊपर उठा. उंगलियां विशेष मुद्रा में स्थिर हो गईं.

‘‘यह तो शांभवी मुद्रा है,’’ सारंगदेव बोला. उस ने भावुकता में डूब कर उन के पैर छू लिए.

अचानक गुरुजी खिलखिला कर हंसे.

उन के पास बैठी महिलाओं ने उन से कुछ पूछना चाहा तो उन्होंने उन्हें संकेत से रोकते हुए कहा, ‘‘रहने दो, आराम आ गया है. मैं तो किसी प्रकार की सेवा इस शरीर के लिए नहीं चाहता. इस को मिट्टी में मिलना है, पर भक्त नहीं मानते.’’

‘‘पर हुआ क्या है?’’ मां को चैन नहीं था.

‘‘दाएं पांव की पिंडली खिसक गई है, इसलिए दर्द रहता है. कई बार तो चला भी नहीं जाता. शरीर है, ठीक हो जाएगा. सब प्रकृति की इच्छा है, हमारा क्या?’’

‘‘क्यों?’’ उन की निगाहें शालिनी के चेहरे पर ठहर गई थीं, ‘‘आजकल क्या करती हो?’’

‘‘जी घर पर ही हूं.’’

‘‘श्रीमानजी कहां हैं?’’

‘‘जी वे बौर्डर डिस्ट्रिक्ट में हैं, कोई अभियान चल रहा है.’’

‘‘तो कभीकभी यहां आ जाया करो.’’

‘‘क्यों नहीं, क्यों नहीं,’’ मां ने प्रसन्नता से कहा था. और फिर उस का सत्संग भवन में आना शुरू हो गया था.

उस दिन दोपहर में वह भोजन के बाद इधर ही चली आई थी. उसे गुरुजी ने अपने टीवी सैट पर लगे कैमरे से देखा तो मोबाइल उठाया और बाहर सहायिका को फोन किया, ‘‘तुम्हारे सामने शालिनी आई है, उसे भीतर भेज देना.’’

सहायिका ने अपनी कुरसी से उठते हुए सामने बरामदे में आती हुई शालिनी को देखा.

‘‘आप शालिनी हैं?’’

‘‘हां,’’ वह चौंक गई.

‘‘आप को गुरुजी ने याद किया है,’’ वह मुसकराते हुए बोली.

वह अंदर पहुंची तो देखा गुरुजी अकेले ही थे. उन की धोती घुटने तक चढ़ी हुई थी.

‘‘लो,’’ उन्होंने पास में रखी मेवा की तश्तरी से कुछ बड़े काजू, बादाम जितने मुट्ठी में आए, बुदबुदाते हुए उस की हथेली पर रख दिए.

‘‘और लो,’’ उन्होंने एक मुट्ठी और उस की हथेली पर रख दिए.

वह यंत्रवत सी उन के पास खिसकती चली आई. उसे लगा उस के भीतर कुछ उफन रहा है. एक तेज प्रवाह, मानो वह नदी में तैरती चली जाएगी. उन्होंने हाथ बढ़ाया तो वह खिंची हुई उन के पास चली आई. और उन के पांव दबाने लग गई. उन की आंखें एकटक उस के चेहरे पर स्थिर थीं और उसे लग रहा था कि उस का रक्त उफन रहा है.

तभी गुरुजी ने पास रखी घंटी को दबा दिया. इस से बाहर का लाल बल्ब जल उठा. उन की बड़ीबड़ी आंखें उस के चेहरे पर कुछ तलाश कर रही थीं.

‘‘शालू, वह माला तुम्हारी गोद में गिरी थी, जो मैं ने तुम्हें दी थी. वह तुम्हारा ही अधिकार है, जो प्रकृति ने तुम्हें सौंपा है,’’ वे बोले तो शालू खुलती चली गई. फिर उमाशंकरजी को उस ने खींचा या उन्होंने उसे, कुछ पता नहीं. पर उसे लगा उस दोपहर में वह पूरी तरह रस वर्षा से भीग गई है. उसे अपने भीतर मीठी सी पुलक महसूस हुई. वह चुपचाप उठी, बाथरूम जा कर व्यवस्थित हुई फिर पुस्तक ले कर कोने में पढ़ने बैठ गई.

सेवक भीतर आया. उस ने देखा गुरुजी विश्राम में हैं. उस ने बाहर जा कर बताया तो कुछ भक्त भीतर आए. तब शालिनी बाहर चली गई. सही या गलत प्रश्न का उत्तर उस के पास नहीं था, क्योंकि वह जानती थी कि गलती उस की ही थी. उसे अकेले वहां नहीं जाना चाहिए था. पर अब वह क्या कर सकती थी? चुप रहना ही नियति थी, क्योंकि वह उस की अपनी ही जलाई आग थी, जिस में वह जली थी. किस से कहती, क्या कहती? वही तो वहां खुद गई थी. विरोध करती पर क्यों नहीं कर पाई? उस प्रसाद में ऐसा क्या था? वह इस सवाल का उत्तर बरसों तलाश करती रही. पर उस दिन सुलभा ने ही बताया था कि मां, मुंबई की पार्टियों में कोल्डड्रिंक्स में ऐसा कुछ मिला देते हैं कि लड़कियां अपना होश खो देती हैं. वे बरबाद हो जाती हैं. मेरी कुछ सहेलियों के साथ भी ऐसा हुआ है. ये ‘वेव पार्टियां’ कहलाती हैं, तब वह चौंक गई थी. क्या उस के साथ भी ऐसा ही हुआ था? वह सोचने लगी कि कभीकभी वर्षा ऋतु न हो तो भी अचानक बादल कहीं से आ जाते हैं. वे गरजते और बरसते हैं, तो क्यारी में बोया बीज उगने लगता है.

फिर सब कुछ यथावत रहा. सुभाष भी जल्दी ही लौट आया. उसे आने के बाद सूचना मिली कि वह पिता बनने वाला है तो वह बहुत खुश हुआ और शालिनी को अस्पताल ले गया.

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