प्रायश्चित्त

भाग-1

‘‘दीदी, मेरा तलाक हो गया,’’ नलिनी के कहे शब्द बारबार मेरे कानों में जोरजोर से गूंजने लगे. मैं अपने दोनों बच्चों के साथ कोलकाता से अहमदाबाद जाने वाली ट्रेन में बैठी थी. नागपुर आया तो स्टेशन के प्लेटफार्म पर नलिनी को खड़ा देख कर मुझे बड़ी खुशी हुई. लेकिन न मांग में सिंदूर न गले में मंगलसूत्र. उस का पहनावा देख कर मैं असमंजस में पड़ गई.

मेरे मन के भावों को पढ़ कर नलिनी ने खुद ही अपनी बात कह दी थी.

‘‘यह क्या कह रही हो, नलिनी? इतना सब सहने का अंत इतना बुरा हुआ? क्या उस पत्थर दिल आदमी का दिल नहीं पसीजा तुम्हारी कठोर तपस्या से?’’

‘‘शायद मेरी जिंदगी में यही लिखाबदा था, दीदी, जिसे मैं 8 साल से टालती आई थी. मैं हालात से लड़ने के बदले पहले ही हार मान लेती तो शायद मुझे उतनी मानसिक यातना नहीं झेलनी पड़ती,’’ नलिनी भावुक हो कर कह उठी. उस के साथ उस की चचेरी बहन भी थी जो गौर से हमारी बातें सुन रही थी.

नलिनी के साथ मेरा परिचय लगभग 10 साल पुराना है. बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत मेरे पति आशुतोष का तबादला अचानक ही कोलकाता से अहमदाबाद हो गया था. अहमदाबाद से जब हम किराए के  फ्लैट में रहने गए तो सामने के बंगले में रहने वाले कपड़े के व्यापारी दिनकर भाई ठक्कर की तीसरी बहू थी नलिनी.

नई जगह, नया माहौल…किसी से जानपहचान न होने के कारण मैं अकसर बोर होती रहती थी. इसलिए शाम होते ही बच्चों को ले कर घर के सामने बने एक छोटे से उद्यान में चली जाती थी. दिनकर भाई की पत्नी भानुमति बेन भी अपने पोतेपोतियों को ले कर आती थीं.

पहले बच्चों की एकदूसरे से दोस्ती हुई, फिर धीरेधीरे मेरा परिचय उन के संयुक्त परिवार के सभी सदस्यों से हुआ. भानुमति बेन, उन की बड़ी बहू सरला, मझली दिशा और छोटी नलिनी. भानुमति बेन की 2 बेटियां भी थीं. छोटी सेजन 12वीं कक्षा में पढ़ रही थी.

गुजरात में लोगों का स्वभाव इतना खुले दिल का और मिलनसार होता है कि कोई बाहरी व्यक्ति अपने को वहां के लोगों में अकेला नहीं महसूस करता. ठक्कर परिवार इस बात का अपवाद न था. मेरी भाषा बंगाली होने के कारण मुझे गुजराती तो दूर हिंदी भी टूटीफूटी ही आती थी. भानुमति बेन को गुजराती छोड़ कर कोई और भाषा नहीं आती थी. वह भी मुझ से टूटीफूटी हिंदी में बात करती थीं. धीरेधीरे हमारा एकदूसरे के घर आनाजाना शुरू हो गया था. घर में जब भी रसगुल्ले बनते तो सब से पहले ठक्कर परिवार में भेजे जाते और उन की तो बात ही क्या थी, आएदिन मेरे घर वे खमनढोकला और मालपुए ले कर आ जातीं.

ठक्कर परिवार में सब से ज्यादा नलिनी ही मिलनसार और हंसमुख स्वभाव की थी. गोरा रंग, बड़ीबड़ी आंखें, तीखे नाकनक्श, छरहरा बदन और कमर तक लटकती चोटी…कुल मिला कर नलिनी सुंदरता की परिभाषा थी. तभी तो उस का पति सुशांत उस का इतना दीवाना था. नलिनी घरेलू कामों में अपनी दोनों जेठानियों से ज्यादा दक्ष थी. सासससुर की चहेती बहू और दोनों ननदों की चहेती भाभी, किसी को भी पल भर में अपना बना लेने की अद्भुत क्षमता थी उस में.

20 जनवरी, 2001 को मैं सपरिवार अपनी छोटी बहन के विवाह में शामिल होेने कोलकाता चली गई. 26 जनवरी को मेरी छोटी बहन की अभी डोली भी नहीं उठी थी कि किसी ने आ कर बताया कि अहमदाबाद में भयंकर भूकंप आया है. सुन कर दिल दहल गया. मेरे परिवार के चारों सदस्य तो विवाह में कोलकाता आ कर सुरक्षित थे, पर टेलीविजन पर देखा कि प्रकृति ने अपना रौद्र रूप दिखा कर कहर बरपा दिया था और भीषण भूकंप के कारण पूरे गुजरात में त्राहित्राहि मची हुई थी.

अहमदाबाद में भूकंप आने के 10 दिन बाद हम वापस आ गए तो देखा हमारे अपार्टमेंट का एक छोटा हिस्सा ढह गया था, पर ज्यादातर फ्लैट थोड़ीबहुत मरम्मत से ठीक हो सकते थे.

अपने अपार्टमेंट का जायजा लेने के बाद ठक्कर निवास के सामने पहुंचते ही बंगले की दशा देख कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए. पुराने समय में बना विशालकाय बंगला भूकंप के झटकों से धराशायी हो चुका था. ठक्कर परिवार ने महल्ले के दूसरे घरों में शरण ली थी.

मुझे देखते ही भानुमति बेन मेरे गले लग कर फूटफूट कर रो पड़ीं. घर के मुखिया दिनकर भाई का शव बंगले के एक भारी मलबे के नीचे से मिला था. बड़ा बेटा कारोबार के सिलसिले में दिल्ली गया हुआ था. भूकंप का समाचार पा कर वह भी भागाभागा आ गया था. नलिनी का पति सुशांत गंभीर रूप से घायल हो कर सरकारी अस्पताल में भरती था. घर के बाकी सदस्य ठीकठाक थे.

सुशांत को देखने जब हम सरकारी अस्पताल पहुंचे तो वहां गंभीर रूप से घायल लोगों को देख कर कलेजा मुंह को आ गया. सुशांत आईसीयू में भरती था. बाहर बैंच पर संज्ञाशून्य नलिनी अपनी छोटी ननद के साथ बैठी हुई थी. नलिनी मुझे देखते ही आपा खो कर रोने लगी.

‘दीदी, क्या मेरी मांग का सिंदूर सलामत रहेगा? सुशांत के बचने की कोई उम्मीद नजर नहीं आती. काश, जो कुछ इन के साथ घटा है वह मेरे साथ घटा होता.’ कहते हुए नलिनी सुबक उठी. नलिनी के मातापिता और उस का भाई मायके से आए थे. दिमाग पर गहरी चोट लगने के कारण सुशांत कोमा में चला गया था. उस के दोनों हाथपैरों पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था.

देखतेदेखते 2 महीने बीत गए, पर सुशांत की हालत में कोई सुधार नहीं आया, अलबत्ता नलिनी की काया दिन पर दिन चिंता के मारे जरूर कमजोर होती जा रही थी. उस के मांबाप और भाई भी उसे दिलासा दे कर चले गए थे.

भानुमति बेन ने अपने वैधव्य को स्वीकार कर के हालात से समझौता कर लिया था. उन की पुरानी बड़ी हवेली की जगह अब एक साधारण सा मकान बनवाया जाने लगा. नीलिनी की दोनों जेठानियां अपनीअपनी गृहस्थी में मगन हो गईं.

एक दिन खबर मिली कि सुशांत का एक पैर घुटने से नीचे काट दिया गया, क्योंकि जख्मों का जहर पूरे शरीर में फैलने का खतरा था. मैं दौड़ीदौड़ी अस्पताल गई. आशा के विपरीत नलिनी का चेहरा शांत था. मुझे देखते ही वह बोली, ‘दीदी, पैर कट गया तो क्या हुआ, उन की जिंदगी तो बच गई न. अगर जहर पूरे शरीर में फैल जाता तो? मैं जीवन भर के लिए उन की बैसाखी बन जाऊंगी.’

मैं ने हामी भरते हुए उस के धैर्य की प्रशंसा की पर उस के ससुराल वालों को उस का धैर्य नागवार गुजरा.

उस की दोनों जेठानियां और ननदें आपस में एकदूसरे से बोल रही थीं, ‘देखो, पति का पैर कट गया तो भी कितनी सामान्य है, जैसे कुछ भी हुआ ही न हो. कितनी बेदर्द औरत है.’

उन के व्यंग्यबाण सुन कर हम आहत हो गए थे. नलिनी की आंखों में आंसू आ गए. वह बोली, ‘इन लोगों का व्यवहार तो मेरे प्रति उसी दिन से बदला है जब से सुशांत गंभीर रूप से घायल हुए हैं.’

जेठानियां तो पहले से ही नलिनी से मन ही मन जलती थीं, पर भानुमति बेन को भी जेठानियों के सुर में बोलते हुए देख कर मुझे बड़ी हैरत हुई. वह बोलीं, ‘सुशांत नलिनी को अपनी पसंद से ब्याह कर लाया था. शादी से पहले दोनों की कुंडलियां मिलाई गईं तो पाया गया कि नलिनी मांगलिक है. हम ने सुशांत को बहुत समझाया कि नलिनी से विवाह कर के उस का कोई हित न होगा. पर वह अपनी जिद पर अड़ा रहा कि अगर विवाह करेगा तो केवल नलिनी से वरना किसी से नहीं. अंत में हम ने बेटे की जिद के आगे हार मान ली. 2 साल तक नलिनी की गोद नहीं भरी. पर बाकी सब ठीक था. अब तो सुशांत शारीरिक रूप से अपंग हो गया है. वह कोमा से बाहर आएगा, इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है. यह तो पति के लिए अपने साथ दुर्भाग्य ले कर आई है. जोशी बाबा भी यही कह गए हैं.’

भानुमति बेन के घर में एक जोशी बाबा हर दूसरेतीसरे दिन चक्कर लगाते थे. उन के आते ही सारा घर उन के चारों ओर घूमने लगता. वह किसी की कुंडली देखते, किसी का हाथ. जोशी बाबा का कई परिवारों से संबंध था इसलिए उस के माध्यम से बहुत से सौदे हो जाते थे. जिसे जोशी बाबा ऊपर वाले की कृपा कहने पर अपनी दक्षिणा जरूर वसूलते थे.

नलिनी उन से सदा कतराती थी क्योंकि वह उसे सदा तीखी निगाहों से घूरते थे. दोनों जेठानियों को आशीर्वाद देते समय उन का हाथ कहीं भी फिसल जाए, वे उसे धन्यभाग समझती थीं पर नलिनी ने पहली ही बार में उन की नीयत भांप ली थी. वह हमेशा कटीकटी रहती थी. अब जोशी बाबा हर सुबह पंचामृत ले कर आते थे और डाक्टरों के विरोध के बावजूद एक बूंद सुशांत के मुंह में डाल ही जाते थे.

‘पर आंटीजी, भूकंप में तो जितने आदमियों की जानें गईं, क्या उन सब की बीवियां मांगलिक थीं? फिर अंकल भी तो नहीं रहे, क्या आप की कुंडली में कुछ दोष था? सुशांत फिर से पूर्ववत हो जाएगा, कम से कम मेरा दिल तो यही कहता है,’ मैं ने कहा.

‘बेटी, अंकल के साथ मेरे विवाह को 40 वर्ष से ऊपर हो चुके थे. मेरा और तुम्हारे अंकल का इतना लंबा साथ भी तो रहा है. औरोें के घरों का तो मैं नहीं जानती, पर नलिनी के ग्रह सुशांत पर जरूर भारी पड़े हैं.’

भानुमति बेन को अपनी बातों पर अड़ा जान कर मैं चुप हो गई.

भूकंप की तबाही को 8 महीने बीत चुके थे. एक दिन मेरा बेटा रिंकू बाहर से दौड़ते हुए घर में आया और कहने लगा, ‘मम्मी, सुशांत अंकल को होश आया है. उन के घर के सभी लोग अस्पताल गए हैं.’

रिंकू की बातें सुन कर मैं भी जाने के लिए निकली ही थी कि आशुतोष ने मुझे रोका, ‘पहले, उस के घर वालों को तो मिल लेने दो. कितने अरसे से तरस रहे थे कि सुशांत को होश आ जाए. जब सभी मिल लें, फिर कलपरसों जाना,’ मुझे आशुतोष की बात ठीक लगी.

2 दिन बाद जब मैं अस्पताल पहुंची तो माहौल खुशी का न था. बाकी सब पहले से ज्यादा गमगीन थे. सुशांत होश में तो आया था और घर के सभी लोगों को पहचान भी रहा था पर वह सामान्य रूप से बात करने में और हाथपैर हिलाने में असमर्थ था. उस की देखरेख गुजरात के जानेमाने न्यूरोलोजिस्ट डा. नवीन देसाई कर रहे थे. उन्होंने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि सिर पर लगी गंभीर चोट के कारण सुशांत धीरेधीरे ही सामान्य हो पाएगा.

नलिनी मुझे देखते ही मेरी ओर लपकी और बोली, ‘दीदी, आप ने जो कहा था अब सच हो गया है. सुशांत ठीक हो रहे हैं.’

‘देखना, सुशांत धीरेधीरे पूरी तरह ठीक हो जाएगा,’ मैं ने उत्तर दिया.

सुशांत के होश में आने से नलिनी का हौसला बुलंद हो गया था. अस्पताल में नर्सों के होते हुए भी उस ने अपनी खुशी से पति की देखरेख का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया. वह हर रोज उस की दाढ़ी बनाती, कपड़े बदलती. घर के बाकी सदस्य हर दूसरेतीसरे दिन अस्पताल आते और 5-10 मिनट सुशांत का हालचाल पूछने की खानापूर्ति कर के चले जाते.

करीब 2 महीने बाद सुशांत स्पष्ट रूप से बात करने लगा. हिलनेडुलने की आत्मनिर्भरता अब तक उस में नहीं आई थी, लेकिन उसे कुदरती तौर पर ही पता चल गया था कि उस की दाईं टांग घुटने तक आधी काट दी गई थी.

हुआ यों कि एक दिन वह कहने लगा, ‘नलिनी, मुझे ऐसा क्यों लग रहा है, कि मैं दाएं पैर की उंगलियों को हिला नहीं पा रहा हूं, जरा चादर तो उठाओ, मैं अपना पैर देखना चाहता हूं,’ बेचारी नलिनी क्या जवाब देती, वह सुशांत के आग्रह को टाल गई, तो सुशांत ने पास से गुजरती एक नर्स से अनुरोध कर के चादर हटाई तो अपने कटे हुए पैर को देख कर हतप्रभ रह गया.

उस की आंखों से बहते आंसुओं को पोंछ कर नलिनी ने उस का हाथ अपने हाथों में ले लिया. डा. देसाई ने सुशांत को समझाया कि किन हालात में उन्हें उस का पैर काटने का निर्णय लेना पड़ा. सुशांत ने ऐसी चुप्पी साध ली कि किसी से बात न करता. मैं ने नलिनी को समझाया, ‘तुम्हीं को धैर्य से काम लेना होगा. वह बच गया. 8 महीने कोमा में रहने के बाद होश में आया है…क्या इतना कम है. अभी तो उसे अपने पिता की मौत का सदमा भी बरदाश्त करना है. तुम्हें हर हाल में उस का साथ निभाना है.’

कुछ संभलने के बाद वह बारबार पिता के बारे में पूछता था तो उसे हर बार इधरउधर की कहानी बता कर बात टाल दी जाती, लेकिन जब झूठ बोल कर उसे टालना नामुमकिन हो गया तो एक दिन बड़े भैया ने उसे हकीकत से अवगत करा दिया.

अब सुशांत बारबार घर जाने की जिद करने लगा. हालांकि उस जैसे मरीज की अस्पताल में ही अच्छी देखभाल हो सकती थी पर पति की इच्छा को देखते हुए नलिनी ने सब को आश्वासन दिया कि वह घर में सुशांत की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ेगी बल्कि घर के माहौल में सुशांत जल्दी ठीक हो जाएगा. अंत में डाक्टरों ने उसे घर ले जाने की इजाजत दे दी.

घर पर सुशांत की देखरेख का सारा जिम्मा नलिनी के सिर पर डाल कर भानुमति बेन तो मुक्त हो गईं. घर पर ही फिजियोेथेरैपी चिकित्सा देने के लिए एक डाक्टर आते.

सुशांत की नौकरी तो छूट गई थी. दोनों भाइयों का कारोबार अच्छा चल रहा था. सुशांत और नलिनी का खर्च भी उन्हें ही वहन करना पड़ रहा था. प्रत्यक्षत: तो कोई कुछ न कहता, पर घर के ऊपरी काम करने के लिए जो महरी आती थी, उसे निकाल दिया गया था. सुशांत को नहलानेधुलाने, खिलानेपिलाने के बाद जो वक्त बचता था, वह नलिनी कपड़े धोने, बर्तन साफ करने, झाडूपोंछा करने और रसोई का काम करने में बिता देती. वह बेचारी दिन भर घर के कामों में लगी रहती.

मैं कभी उन के घर बैठने जाती तो मुझे नलिनी को देख कर तरस आता कि किस तरह यह समय की मार झेल रही है. दिनभर घर के कामों के साथ अपाहिज पति की देखभाल करती है पर चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं आती. मैं कभी आंटीजी से कहती तो वह खीज उठतीं, ‘इस के कर्मों का फल तो सुशांत भुगत रहा है. उस की सेवा कर के यह अपने पूर्व जन्म के पापों का प्रायश्चित्त ही कर रही है,’ मुझे उन की बातों का बुरा जरूर लगता पर मैं सोचती कि सुशांत वक्त के साथ ठीक होगा तो सब के मुंह अपनेआप बंद हो जाएंगे.

फिजियोथेरैपिस्ट और नलिनी की अथक मेहनत से सुशांत अब उठताबैठता, बैसाखी की मदद से चलता. अपने तमाम छोटेमोटे काम वह खुद ही करता. अब नलिनी उसे जयपुर फुट लगवाने की सलाह देने लगी. जब जयपुर फुट की मदद से सुशांत चलने का प्रयास करने लगा तो नलिनी को तो मानो सारे जहान की खुशियां  मिल गईं.

एक दिन मैं दोपहर के खाली समय में बैठी कोई पत्रिका पढ़ रही थी कि किसी ने दरवाजा खट- खटाया. दरवाजा खोलने पर सामने नलिनी को देख कर मैं खुश हो गई और बोली, ‘आओ, नलिनी, कितने दिनों बाद तुम घर से बाहर निकली हो. मैं कल आशुतोष से तुम्हारी ही बात कर रही थी. किस तरह तुम ने विपरीत परिस्थितियों में हार न मानी. मौत के मुंह से अपने पति को बाहर ले आईं. सच, सारे विश्व में एक हिंदुस्तानी नारी इसलिए ही पतिव्रता मानी जाती होगी.’

‘बस, दीदी, अब मेरी तारीफ करना छोडि़ए, मैं आप को यह बताने आई थी कि सुशांत ने फिर से नौकरी कर ली है. भूकंप में दुर्घटनाग्रस्त होने के पहले सुशांत जिस प्रेस में काम करते थे, उस के मालिक ने उन को फिर से काम पर बुलाया है. सुशांत को पहले भी घर के व्यापार में दिलचस्पी नहीं थी. प्रेस का प्रिय काम पा कर वह खुश हैं.’

‘यह तो बहुत अच्छी बात है, नलिनी…2-3 साल बहुत कष्ट सह लिए तुम ने, अब जल्दी से सुशांत को वह प्यारा तोहफा देने की तैयारी करो जिस के आने से जीवन में बहार आ जाती है. वैसे भी सुशांत को बच्चे बहुत पसंद हैं.’

मेरे यह कहते ही नलिनी की आंखों में आंसू भर आए, ‘दीदी, पति के जिस प्यार को पाने के लिए मैं ने इतने कष्ट सहे, वह तो आज तक मेरे हिस्से में नहीं आया. सुशांत काफी समय से मुझ से कटेकटे रहते थे. पहले तो मैं समझती थी कि दुर्घटना के कारण उन में बदलाव आया होगा. पर आजकल मुझ से बात करना तो दूर वह मेरी तरफ देखते तक नहीं हैं.

‘कल रात को मैं ने जब उन से इस बेरुखी की वजह पूछी तो वह मुझ पर बिफर उठे कि क्या बात करूं, मैं तुम से? अरे, तुम से शादी कर के तो अब मैं पछता रहा हूं. कैसी मनहूस पत्नी हो तुम? तुम्हारे मांगलिक होने के कारण मेरी तो जान ही जाने वाली थी. वह तो जोशी बाबा की पूजा, अम्मां की मन्नतें, घर वालों का प्यार ही था, जो मैं बच गया.

‘मुझे तो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. पहली बार पता चला कि सुशांत के दिल में मेरे लिए इतना जहर भरा है. मैं ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की. मैं ने यह भी कहा कि आप तो जन्मकुंडली मांगलिक अमांगलिक यह सब नहीं मानते थे.

‘मेरी बात सुनते ही सुशांत गुस्से में भड़क गए थे कि उसी का तो अंजाम भुगत रहा हूं. अम्मां और पिताजी तो तुम से शादी करने के पक्ष में ही नहीं थे. काश, उस वक्त मैं ने उन का और जोशी बाबा का कहा माना होता तो कम से कम मेरी जान पर तो न बन आती.

‘आप यह क्या कह रहे हैं? 2 साल मैं ने कितने जी जान से आप की सेवा की, इस उम्मीद में कि हम आप के ठीक होने के बाद, अपने प्यार की दुनिया बसाएंगे. अब आप ठीक हो गए तो अंधविश्वास को आधार बना कर मुझ से इतनी नफरत कर रहे हैं? मैं सबकुछ सह सकती हूं, पर आप की नफरत नहीं सह सकती.

‘वह बोले कि नहीं सह सकतीं तो चली जाओ अपने बाप के घर, रोका किस ने है? तुम से जितनी जल्दी पीछा छूटे, उसी में मेरी बेहतरी है और ऐसी क्या सेवा की है तुम ने? जो तुम ने किया है वह तो चंद पैसों के बदले कोई नर्स भी तुम से बेहतर कर सकती थी. यह कह सुशांत बिना कुछ खाए ही काम पर चले गए.’

इतना बता कर नलिनी फूटफूट कर रो पड़ी.

मिशन लव बर्ड्ज

ह  म ने अपने दरवाजे के सामने खड़े अजनबी युवक और युवती की ओर देखा. दोनों के सुंदर चेहरों पर परेशानी नाच रही थी. होंठ सूखे और आंखों में वीरानी थी.

‘‘कहिए?’’ हम ने पूछा.

‘‘जी, आप के पास पेन और कागज मिलेगा?’’ लड़के ने थूक निगल कर हम से पूछा.

‘‘हांहां, क्यों नहीं. मगर आप कुछ परेशान से लग रहे हैं. जो कुछ लिखना है अंदर आ कर आराम से बैठ कर लिखो,’’ हम ने कहा.

दोनों कमरे में आ कर मेज के पास सोफे पर बैठ गए.

‘‘सर, हम आत्महत्या करने जा रहे हैं और हमें आखिरी पत्र लिखना है ताकि हमारी मौत के लिए किसी को जिम्मेदार न ठहराया जाए,’’ लड़की ने निराशा भरे स्वर में बताया.

‘‘बड़ी समझदारी की बात है,’’ हमारे मुंह से निकला…फिर हम चौंक पडे़, ‘‘तुम दोनों आत्महत्या करने जा रहे हो… पर क्यों?’’

‘‘सर, हम आपस में प्रेम करते हैं और एकदूसरे के बिना जी नहीं सकते. मगर हमारे मातापिता हमारी शादी कराने पर किसी तरह राजी नहीं हैं,’’ लड़के ने बताया.

‘‘और इसीलिए हम यह कदम उठाने पर मजबूर हैं,’’ लड़की निगाह झुका कर  फुसफुसाई.

‘‘तुम दोनों एकदूसरे को इतना चाहते हो तो फिर ब्याह क्यों नहीं कर लेते? कुछ समय बाद तुम्हारे मांबाप भी इस रिश्ते को स्वीकार कर  लेंगे.’’

‘‘नहीं, सर, हमारे मातापिता को आप नहीं जानते. वे हम दोनों का जीवन भर मुंह न देखेंगे और यह भी हो सकता है कि हमें जान से ही मार डालें,’’ लड़के ने आह भरी.

‘‘हम अपनी जान दे देंगे मगर अपने मातापिता के नाम पर, अपने परिवार की इज्जत पर कीचड़ न उछलने देंगे,’’ लड़की की आंखों में आंसू झिलमिला उठे थे.

‘‘अच्छा, ऐसा करते हैं…मैं तुम दोनों के मातापिता से मिल कर उन्हें समझाऊंगा और मुझे भरोसा है कि इस मिशन में मैं जरूर कामयाब हो जाऊंगा. तुम मुझे अपनेअपने मांबाप का नामपता बताओ, मैं अभी आटो कर के उन के पास जाता हूं. तब तक तुम दोनों यहीं बैठो और वचन दो कि जब तक मैं लौट कर न आ जाऊं तुम दोनों आत्महत्या करने के विचार को पास न फटकने दोगे.’’

लड़के ने उस कागज पर अपने और अपनी प्रेमिका के पिता का नाम लिखा और पते नोट कर दिए.

हम ने कागज पर नाम पढ़े.

‘‘मेरे पिताजी का नाम ‘जी. प्रसाद’ यानी गंगा प्रसाद और इस के पिताजी ‘जे. प्रसाद’ यानी जमुना प्रसाद,’’ लड़के ने बताया.

‘‘और तुम्हारे नाम?’’ हम ने पूछा.

‘‘मैं राजेश और इस का नाम संगीता है.’’

राजेश ने अपनी जेब से पर्स निकाला और उस में से 500 का नोट निकाल कर हमारे हाथ पर रख दिया.

‘‘यह क्या है?’’ हम ने प्रश्न किया.

‘‘सर, यह आटो का भाड़ा.’’

‘‘नहींनहीं. रहने दो,’’ हम ने नोट लौटाते हुए कहा.

‘‘नहीं सर, यह नोट तो आप को लेना ही पड़ेगा. यही क्या कम है कि आप हमारे मम्मीडैडी से मिल कर उन्हें समझाबुझा कर राह पर लाएंगे,’’ लड़की यानी संगीता ने आशा भरी नजरों से हमारी आंखों में झांका.

हम ने नामपते वाला कागज व 500 रुपए का नोट जेब में रखा और घर के बाहर आ गए.

आटो में बैठेबैठे रास्ते भर हम राजेश और संगीता के मांबाप को समझाने का तानाबाना बुनते रहे थे.

उस कालोनी की एक गली में हमारा आटो धीरेधीरे बढ़ रहा था. सड़क के दोनों तरफ के मकानों पर लगी नेम प्लेटों और लेटर बाक्सों पर लिखे नाम हम पढ़ते जा रहे थे.

एक घर के दरवाजे पर ‘जी. प्रसाद’ की नेम प्लेट देख कर हम ने आटो रुकवाया.

‘‘जी. प्रसाद यानी गंगा प्रसाद… राजेश के डैडी का घर,’’ हम ने धीरे से कहा.

‘काल बैल’ के जवाब में एक 55-60 वर्ष के आदमी ने दरवाजा खोला. उन के पीछे रूखे बालों वाली एक स्त्री थी. दोनों काफी परेशान दिखाई दे रहे थे.

‘‘मैं आप लोगों से बहुत नाजुक मामले पर बात करने वाला हूं,’’ हम ने कहना शुरू किया, ‘‘क्या आप मुझे अंदर आने को नहीं कहेंगे?’’

दंपती ने एकदूसरे की ओर देखा, फिर हमें स्त्री ने अंदर आने का इशारा किया और मुड़ गई.

‘‘देखिए, श्रीमानजी, आप की सारी परेशानी की जड़ आप की हठधर्मी है,’’ हम ने कमरे में कदम रखते ही कहना शुरू किया, ‘‘अरे, अगर आप का बेटा राजेश अपनी इच्छा से किसी लड़की को जीवन साथी बनाना चाहता है तो आप उस के फटे में अपनी टांग क्यों अड़ा रहे हैं?’’

‘‘मगर मेरा बेटा…’’ अधेड़ व्यक्ति ने कहना चाहा.

‘‘आप यही कहेंगे न कि अगर आप का बेटा आप के कहे से बाहर गया तो आप उसे गोली मार देंगे,’’ हम ने बीच में उन्हें टोका, ‘‘आप को तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं. आप का बेटा और उस की प्रेमिका आत्महत्या कर के, खुद ही आप के मानसम्मान की पताका फहराने जा रहे हैं.’’

‘‘मगर भाई साहब, हमारा कोई बेटा नहीं है,’’ रूखे बालों वाली स्त्री ने रूखे स्वर में कहा.

‘‘मुझे मालूम है. आप गुस्से के कारण ऐसा बोल रही हैं,’’ हम ने महिला से कहा और फिर राजेश के डैडी की ओर मुखातिब हुए, ‘‘मगर जब आप अपने जवान बेटे की लाश को कंधा देंगे…’’

‘‘नहींनहीं, ऐसा हरगिज न होगा… मुझे मेरे बेटे के पास ले चलो.. मैं उस की हर बात मानूंगा,’’ अधेड़ आदमी ने हमारा हाथ पकड़ा, ‘‘मैं उस की शादी उस की पसंद की लड़की से करा दूंगा.’’

‘‘जरा रुकिए, मैं भी आप के साथ चलूंगी,’’ रूखे बालों वाली स्त्री बिलख पड़ी, ‘‘आप अंदर अपने कमरे में जा कर कपड़े बदल आएं.’’

पति ने वीरान नजरों से अपनी पत्नी की ओर देखा फिर दूसरे कमरे में चला गया.

पतिपत्नी पर अपने शब्दों का जादू देख कर हम मन ही मन झूम पड़े.

‘‘सुनिए भैयाजी,’’ महिला ने हम से कहा, ‘‘सच ही हमारा कोई बेटीबेटा नहीं है. 30 वर्षों के ब्याहता जीवन में हम संतान के सुख को तरसते रहे. हम ने अपनेअपने सगेसंबंधियों में से किसी के बच्चे को गोद लेना चाहा मगर सभी ने कन्नी काट ली. सभी का एक ही खयाल था कि हमारे घर पर किसी डायन का साया है जो हमारे आंगन से उठने वाली बच्चे की किलकारियों का गला घोंट देगी.’’

‘‘आप सच कह रही हैं? हमें विश्वास नहीं हो रहा था.’’

महिला ने सौगंध खाते हुए अपने गले को छुआ और बोली, ‘‘इस  सब से मेरे पति का दिमागी संतुलन गड़बड़ा गया है. पता नहीं कब किस को मारने दौड़ पड़ें.’’

उधर दूसरे कमरे से चीजों के उलटनेपलटने की आवाजें आने लगीं.

‘‘अरे, तुम  ने मेरा रिवाल्वर कहां छिपा दिया?’’ मर्द की दहाड़ सुनाई दी, ‘‘मुझ से मजाक करने आया है…जाने न देना…मैं इस बदमाश की खोपड़ी उड़ा दूंगा.’’

हम ने सिर पर पांव रखने के बजाय सिर पर दोनों हाथ रख बाहर के दरवाजे की ओर दौड़ लगाई और सड़क पर खड़े आटो की सीट पर आ गिरे.

आटो एक झटके से आगे बढ़ा. यह भी अच्छा ही हुआ कि हम ने आटोरिकशा को वापस न किया था.

दूसरी सड़क पर आटो धीमी गति से बढ़ रहा था.

एक मकान पर जे. प्रसाद की पट्टी देख हम ने आटो रुकवाया.

‘‘जमुना प्रसादजी?’’ हम ने काल बैल के जवाब में द्वार खोलने वाले लंबेतगड़े मर्द से पूछा. उस के होंठ पर तलवार मार्का मूंछें और लंबीलंबी कलमें थीं.

‘‘जी,’’ उस ने कहा और हां में सिर हिलाया.

‘‘आप की बेटी का नाम संगीता है?’’

‘‘हां जी, मगर बात क्या है?’’ मर्द ने बेचैनी से तलवार मार्का मूंछों क ो लहराया.

‘‘क्या आप गली में अपनी बदनामी के डंके बजवाना चाहते हैं? मुझे अंदर आने दीजिए.’’

‘‘आओ,’’ लंबातगड़ा मर्द मुड़ा.

ड्राइंगरूम में एक सोफे पर एक दुबलीपतली सुंदर महिला बैठी टेलीविजन देख रही थी. हमें आया देख उस ने टीवी की आवाज कम कर दी.

‘‘कहो,’’ वह सज्जन बोले.

हमें संगीता के पिता पर क्रोध आ रहा था. अत: तमक कर बोले, ‘‘अपनी बेटी के सुखों को आग दिखा कर खुश हो रहे हो? अरे, जब बेटी ही न रहेगी तो खानदान की मानमर्यादा को क्या शहद लगा कर चाटोगे?’’

‘‘क्या अनापशनाप बोले जा रहे हो,’’ उस स्त्री ने टीवी बंद कर दिया.

‘‘आप दोनों पतिपत्नी अपनी बेटी संगीता और राजेश के आपसी विवाह के खिलाफ क्यों हैं. वे एकदूसरे से प्यार करते हैं, दोनों जवान हैं, समझदार हैं फिर वे आप की इज्जत को बचाने के लिए अपनी जान न्योछावर करने को भी तैयार हैं.’’

‘‘ए… जबान को लगाम दो. हमारी बेटी के बारे में क्या अनापशनाप बके जा रहे हो?’’ मर्द चिल्लाया.

‘‘सच्ची बात कड़वी लगती है. मेरे घर में तुम्हारी बेटी संगीता अपने प्रेमी के कांधे पर सिर रखे सिसकियां भर रही है. अगर मैं न रोकता तो अभी तक उन दोनों की लाशें किसी रेलवे लाइन पर कुचली मिलतीं.’’

‘‘ओ…यू फूल…शटअप,’’ मर्द ने हमारा कालर पकड़ लिया.

‘‘हमारी बेटी घर में सो रही है,’’ उस महिला ने कहा.

‘‘हर मां अपनी औलाद के कारनामों पर परदा डालने की कोशिश करती है और पिता की आंखों में धूल झोंकती है. लाइए अपनी बेटी संगीता को, मैं भी तो देखूं,’’ हम ने अपना कालर छुड़ाया.

सुंदर स्त्री सोफे से उठ कर दूसरे कमरे में चली गई और फिर थोड़ी देर बाद एक 8-9 साल की बच्ची की बांह पकड़े ड्राइंगरूम में लौटी. बच्ची की अधखुली आंखें नींद से बोझिल हो रही थीं.

‘‘यह आप की बेटी संगीता है?’’ हम ने फंसेफंसे स्वर में पूछा.

‘‘हां,’’ तलवार मार्का मूंछें हम पर टूट पड़ने को तैयार थीं.

‘‘और आप के घर का दरवाजा?’’ हमारे मुंह से निकला.

‘‘यह,’’ इतना कह कर लंबेतगडे़ मर्द ने हमें दरवाजे की ओर इस जोर से धकेला कि हम बाहर सड़क पर खड़े आटो की पिछली सीट पर उड़ते हुए जा गिरे.

कालोनी की बाकी गलियां हम खंगालते रहे. कालोनी की आखिरी गली के आखिरी मकान पर गंगा प्रसाद की नेम प्लेट देख हम ने आटो रुकवाया.

‘‘किस से मिलना है?’’ 10-12 वर्ष के लड़के ने थोड़ा सा दरवाजा खोल हम से पूछा.

‘‘राजेश के मम्मीपापा से,’’ हम ने छोटा सा उत्तर दिया.

‘‘आओ,’’ लड़के ने कहा.

ड्राइंगरूम में 60-65 वर्ष का मर्द पैंटकमीज पहने एक सोफे पर बैठा था. एक दूसरे सोफे पर सूट पहने, टाई बांधे एक और सज्जन विराजमान थे. उन के पास रखे बड़े सोफे पर 20-22 साल की सुंदर लड़की सजीधजी बैठी थी. उस के बगल में एक अधेड़ स्त्री और दूसरी ओर  एक ब्याहता युवती बैठी थी. इन सभी के चेहरों पर खुशी की किरणें जगमगा रही थीं. सभी खूब सजेसंवरे थे.

पैंटकमीज वाले सज्जन के चेहरे पर गिलहरी की दुम जैसी मूंछें थीं. सभी हंसहंस कर बातें कर रहे थे, केवल वह सजीधजी लड़की ही पलकें झुकाए बैठी थी.

‘‘पापा, यह आप से मिलने आए हैं,’’ लड़के ने गिलहरी की दुम जैसी मूंछों वाले से कहा.

सामने दरवाजे से 50-55 साल की भद्र महिला हाथों में चायमिठाई की टे्र ले कर आई और उस ने सेंटर टेबल पर टे्र टिका दी.

‘‘आप राजेश के पापा हैं?’’

‘‘हां, और यह राजेश के होने वाले सासससुर और उन की बेटी, यानी राजेश की होने वाली पत्नी…हमारी होने वाली बहू और साथ में…’’ गिलहरी की दुम जैसी मूंछों तले लंबी मुसकराहट नाच रही थी.

‘‘आप राजेश के पापा नहीं… जल्लाद हैं,’’ राजेश की मंगनी की बात सुन कर हमारा खून खौल उठा, ‘‘यह जानते हुए कि राजेश किसी और लड़की को दिल से चाहता है, आप उस की शादी किसी और से करना चाहते हैं? आप राजेश के सिर पर सेहरा देखने के सपने संजो रहे हैं और वह सिर पर कफन लपेटे अपनी प्रेमिका संगीता के गले में बांहें डाले किसी टे्रन के नीचे कट मरने या नदी में कूद कर आत्महत्या करने जा रहा है.’’

‘‘क्या बक रहे हो?’’ राजेश के पापा का चेहरा क्रोध से काला पड़ गया.

‘‘जानबूझ कर अनजान मत बनो,’’ हम ने राजेश के पापा को कड़े शब्दों में जताया, ‘‘राजेश ने आप को सब बता रखा है कि वह संगीता से प्यार करता है और उस के सिवा किसी और लड़की को गले लगाने के बजाय मौत को गले लगा लेगा,’’ हम बिना रुके बोलते गए, ‘‘मगर आप की आंखों पर तो लाखों के दहेज की पट्टी बंधी हुई है.’’

हम थोड़ा दम लेने को रुके.

‘‘और आप,’’ हम राजेश के होने वाले ससुर की ओर पलटे, ‘‘धन का ढेर लगा कर क्या आप अपनी बेटी के लिए दूल्हा खरीदने आए हैं? आप की यह बेटी जिसे आप सुर्ख जोड़े और लाल चूड़े में देखने के सपने सजाए बैठे हैं, विधवा की सफेद साड़ी में लिपटी होगी.’’

‘‘भाई साहब, यह सब क्या है?’’ लड़की की मां ने राजेश के पापा से पूछा.

‘‘यह…यह…कोरी बकवास..कर रहा है,’’ राजेश के पापा ने होने वाली समधन से कहा.

‘‘हांहां… हमारा राजेश हरगिज ऐसा नहीं है…मैं अपने बेटे को अच्छी तरह जानती हूं,’’ चाय की टे्र लाने वाली महिला बोली, ‘‘यह आदमी झूठा है, मक्कार है.’’

‘‘आप लोग मेरे घर चल कर राजेश से स्वयं पूछ लें,’’ हम ने लड़की की मां से कहा फिर उस के पति की ओर देखा, ‘‘आप लोगों को पता चल जाएगा कि मैं झूठा हूं, मक्कार हूं या ये लोग रंगे सियार हैं.’’

‘‘राजेश तुम्हारे घर में है?’’ लड़की के डैडी ने पूछा.

‘‘जी हां,’’ हम ने गला साफ किया, ‘‘वह अपनी प्रेमिका संगीता के साथ आत्महत्या करने जा रहा था कि मैं ने उन्हें अपने घर में बिठा कर इन को समझाने चला आया.’’

‘‘मगर राजेश तो इस समय अपने कमरे में है,’’ राजेश के पिता ने अपने समधीसमधन को बताया.

‘‘बुलाइए…अभी दूध का दूध पानी का पानी हो जाता है,’’ हम ने राजेश के डैडी को चैलेंज किया.

‘‘राजेश,’’ राजेश के डैडी चिल्लाए.

‘‘और जोर से पुकारिए…आप की आवाज मेरे घर तक न पहुंच पाएगी,’’ हम ने व्यंग्य भरी आवाज में कहा.

‘‘क्या हुआ, डैडी?’’ पिछले दरवाजे की ओर से स्वर गूंजा.

एक 27-28 वर्ष का युवक, सूट पहने, एक जूता पांव में और दूसरा हाथ में ले कर भागता हुआ कमरे में आया.

‘‘आप इतने गुस्से में क्यों हैं, डैडी?’’ युवक ने पूछा.

‘‘राजेश, देखो यह बदमाश क्या बक रहा है?’’

‘‘क्या बात है?’’ नौजवान ने कड़े शब्दों में हम से पूछा.

‘‘त…तुम… राजेश?’’ हम ने हकला कर पूछा, ‘‘और यह तुम्हारे डैडी?’’

‘‘हां.’’

‘‘फिर उस राजेश के डैडी कौन हैं?’’  हमारे मुंह से निकला.

और फिर हम पलट कर बाहर वाले दरवाजे की ओर सरपट भागे.

‘‘पकड़ो इस बदमाश को,’’ राजेश के डैडी चिंघाड़े.

‘‘जाने न पाए,’’ राजेश के होने वाले ससुर ने अपने होने वाले दामाद को दुत्कारा.

राजेश एक पांव में जूता होने के कारण दुलकी चाल से हमारे पीछे लपका.

हम दरवाजे से सड़क पर कूदे और दूसरी छलांग में आटोरिकशा में थे.

आटो चालक शायद मामले को भांप गया था और दूसरे पल आटो धूल उड़ाता उस गली को पार कर रहा था.

अपने घर से कुछ दूर हम ने आटोरिकशा छोड़ दिया. हम ने 500 रुपए का नोट आटो ड्राइवर को दे दिया था. कुछ रुपए तो आटो के भाड़े में और बाकी की रकम 3 स्थानों पर जान पर आए खतरों से हमें बचाने का इनाम था.

हम भारी कदमों से अपने घर के दरवाजे पर पहुंचे. पूरा रास्ता हम राजेश और संगीता को अपने मिशन की नाकामी की दास्तान सुनाने के लिए उपयुक्त शब्द ढूंढ़ते आए थे. हमें डर था कि इतनी देर तक इंतजार की ताव न ला कर उन ‘लव बर्ड्ज’ ने आत्महत्या न कर ली हो.

धड़कते दिल से हम घर के बंद दरवाजे के सामने खड़े हो कर अंदर की आहट लेते रहे.

घर के अंदर से कोई आवाज नहीं आ रही थी. मौत की सी खामोशी थी. जरूर उन प्रेम पंछियों को हमारी असफलता का भरोसा हो गया था और उन्होंने मौत को गले लगा लिया होगा.

धड़कते दिल से काल बेल का बटन पुश करने के बाद भी जब दरवाजा नहीं खुला तो हम ने दरवाजे पर जोरदार टक्कर मारी और फिर औंधे मुंह हम कमरे में जा पड़े.

दरवाजा बंद न था.

हम ने उस प्रेमी जोड़े की तलाश में इधरउधर नजरें दौड़ाईं. मगर वे दोनों गायब थे. साथ ही गायब था हमारा नया टेलीविजन, वी.सी.आर. और म्यूजिक सिस्टम.

हम जल्दी से उठ खडे़ हुए और स्टील की अलमारी की ओर लपके. अलमारी का लाकर खुला हुआ था और उस में रखी हाउस लोन की पहली किस्त की पूरी रकम गायब थी…

हमारी आंखों तले अंधेरा छा गया. जरूर वह ठगठगनी जोड़ी बैंक से ही हमारे पीछे लग गई थी.

उस प्रेमी युगल की गृहस्थी बसातेबसाते हमें अपनी गृहस्थी उजड़ती नजर आ रही थी क्योंकि आज शाम की गाड़ी से हमारे नए मकान के निर्माण का सुपरविजन करवाने को लीना अपने बलदेव भैया को साथ ले कर आ रही थी.

अग्निपरीक्षा

भाग-1

स्मिता आज बहुत उदास थी. उस की पड़ोसिन कम्मो ने आज फिर उसे टोका था, ‘‘स्मिता, यह जो राज बाबू तुम्हारे घर रोजरोज आते हैं और तुम्हारे पास बैठ कर रात के 12-1 बजे घर जाते हैं, पड़ोस में इस बात की बहुत चर्चा हो रही है. कल रात सामने वाले वालियाजी इन से पूछ रहे थे, ‘यह स्मिता के घर रोज रात को जो आदमी आता है, उस का स्मिता से क्या रिश्ता है? अकेली औरत के पास वह 2-3 घंटे क्यों आ कर बैठता है? स्मिता उसे अपने घर रात में क्यों आने देती है? क्या उसे इतनी भी समझ नहीं कि पति की गैरहाजिरी में अकेले मर्द के साथ रात के 12 बजे तक बैठना गलत है.’ ’’

कम्मो के मुंह से यह सब सुन कर स्मिता का चेहरा उतर गया था. उफ, यह पासपड़ोस वाले, किसी के घर में कौन आताजाता है, सारी खोजखबर रखते हैं. उन्हें क्या मतलब अगर कोई उस के घर में आता भी है तो. क्या ये पासपड़ोस वाले उस का अकेलापन बांट सकते हैं? वे क्या जानें कि बिना एक मर्द के एक अकेली औरत कैसे अपने दिन और रात काटती है? फिर राज क्या उस के लिए पराया है? एक वक्त था जब राज के बिना जिंदगी काटना उस के लिए कल्पना हुआ करती थी और यह सब सोचतेसोचते स्मिता कब बीते दिनों की भूलभुलैया में उतर आई, उसे एहसास तक नहीं हुआ था.

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स्मिता की मां बचपन में ही चल बसी थी. उस के बड़े भाई उसे पिता के पास से अपने घर ले आए थे. तब वह 7 साल की थी और तभी से वह भाईभाभी के घर रह कर पली थी. भैयाभाभी के 2 बच्चे थे और वे अपने दोनों बच्चों को बहुत लाड़दुलार करते थे. उन के मुंह से निकली हर बात पूरी करते लेकिन स्मिता की हमेशा उपेक्षा करते. भाभी स्मिता के साथ दुर्व्यवहार तो नहीं करतीं, लेकिन कोई बहुत अच्छा व्यवहार भी नहीं करतीं. उन को यह एहसास न था कि स्मिता एक बिन मां की बच्ची है. इसलिए उसे भी लाड़प्यार की जरूरत है.

भाई भी स्मिता का कोई खास खयाल न रखते. भाई के बेटाबेटी स्मिता की ही उम्र के थे. अकसर कोई विवाद उठने पर भाईभाभी स्मिता की अवमानना कर अपने बच्चों का पक्ष ले बैठते. इस तरह निरंतर उपेक्षा और अवमानना भरा व्यवहार पा कर स्मिता बहुत अंतर्मुखी बन गई थी तथा उस में भावनात्मक असुरक्षा घर कर गई थी.

राज भाभी का भाई था जो अकसर बहन के घर आया करता. उसे शुरू से सांवलीसलोनी, अपनेआप में सिमटी, सकुचाई स्मिता बहुत अच्छी लगती थी और वह जितने दिन बहन के घर रहता, स्मिता के इर्दगिर्द बना रहता. उस की स्मिता से खूब पटती तथा अकसर वे दुनिया जहान की बातें किया करते.

स्मिता को जब भी कोई परेशानी होती वह राज के पास भागीभागी जाती और राज उसे उस की परेशानी का हल बताता. वक्त बीतने के साथ स्मिता व राज की मासूम दोस्ती प्यार में बदल गई थी तथा वे कब एकदूसरे को शिद्दत से चाहने लगे थे, वे खुद जान न पाए थे.

लगभग 3 साल तक तो उन के प्यार की खबर स्मिता के भैयाभाभी को नहीं लग पाई और वे गुपचुप प्यार की पेंग बढ़ाते रहे थे. अकसर वे अपने हसीन वैवाहिक जीवन की रूपरेखा बनाया करते. लेकिन न जाने कब और कैसे उन की गुपचुप मोहब्बत का खुलासा हो गया और भैयाभाभी ने राज के स्मिता से मिलने पर कड़ी पाबंदी लगा दी थी और स्मिता के लिए लड़का ढूंढ़ना शुरू कर दिया.

राज और स्मिता ने भैयाभाभी से लाख मिन्नतें कीं, उन की खुशामद की कि उन का साथ बहुत पुराना है, उन को एकदूसरे के साथ की आदत पड़ गई है और वे एकदूसरे के बिना जिंदगी काटने की कल्पना तक नहीं कर सकते, लेकिन इस का कोई अनुकूल असर भाई व भाभी पर नहीं पड़ा.

स्मिता की भाभी का परिवार शहर का जानामाना खानदानी रुतबे वाला अमीर परिवार था तथा भाभी सुरभि के मातापिता को राज के विवाह में अच्छे दानदहेज की उम्मीद थी. इसलिए उन्होंने सुरभि से साफ कह दिया था कि वे राज की शादी स्मिता से किसी हालत में नहीं करेंगे. इसलिए उन्हें स्मिता का विवाह जल्दी से जल्दी कोई सही लड़का ढूंढ़ कर कर देना चाहिए.

राज के मातापिता ने राज से साफ कह दिया था कि यदि उस ने स्मिता से अपनेआप शादी की तो वे उस को घर के कपड़े के पुराने व्यापार से बेदखल कर देंगे और उस से कोई संबंध भी नहीं रखेंगे. राज के परिवार की शहर के मुख्य बाजार में कपड़ों की 2 मशहूर दुकानें थीं. राज महज 12वीं पास युवक था और अगर वह मातापिता की इच्छा के विरुद्ध स्मिता से शादी करता तो कपड़ों की दुकान में हिस्सेदारी से बाहर हो जाता.

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इधर स्मिता के भैयाभाभी ने उस से साफ कह दिया था कि अगर उस ने अपनेआप शादी की तो वह न तो उस की शादी में एक फूटी कौड़ी लगाएंगे, न ही शादी में शामिल होंगे. इस तरह राज और स्मिता ने देखा था कि यदि वे घर वालों की इच्छा के विरुद्ध शादी कर लेते हैं तो उन का भविष्य अंधकारमय होगा.

स्मिता के पास भी कोई ऐसी शैक्षणिक योग्यता नहीं थी जिस के सहारे वह अपने परिवार का खर्च उठा पाती. अत: बहुत सोचसमझ कर वह दोनों अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि उन्हें अपने प्यार का गला घोंटना पड़ेगा तथा अपने रास्ते जुदा करने पड़ेंगे. उन के सामने बस, यही एक रास्ता था.

सुरभि स्मिता के लिए जोरशोर से लड़का ढूंढ़ने में लगी हुई थी. आखिरकार सुरभि की मेहनत रंग लाई. उसे स्मिता के लिए एक योग्य लड़का मिल गया था. लड़के का अपना स्वतंत्र जूट का व्यवसाय था तथा वह अच्छा कमा खा रहा था. लड़के का नाम भुवन था तथा उस ने पहली ही बार में स्मिता को देख कर पसंद कर लिया था. उन की शादी की तारीख 1 माह बाद ही निश्चित हुई थी.

शादी तय होने के बाद जब स्मिता राज से मिली तो उस के कंधों पर सिर रख कर फूटफूट कर रोई थी. उस ने राज से कहा था, ‘राज, 15 तारीख को तुम्हारी स्मिता पराई हो जाएगी. किसी गैर को मैं अपनेआप को कैसे सौंपूंगी? नहीं राज नहीं, मैं यह शादी हर्गिज नहीं करूंगी.’

राज ने स्मिता को समझाया था, ‘व्यावहारिक बनो स्मिता, यही जिंदगी की वास्तविकता है. क्या करें, हर किसी को अपनी मंजिल नहीं मिलती, यही सोच कर तसल्ली दो अपने मन को. मैं तुम्हें ताउम्र प्यार करता रहूंगा, कभी शादी नहीं करूंगा. तुम शांत मन से शादी करो, भुवन बहुत अच्छा लड़का है, अच्छा कमाता है, तुम्हें बहुत खुश रखेगा,’ यह कहते हुए डबडबाई आंखों से राज ने स्मिता का माथा चूमा था और चला गया था.

स्मिता की शादी की तैयारियां जोरशोर से चल रही थीं. सुरभि ने भाई से साफसाफ कह दिया था, ‘राज, मुझ से एक वादा करो, स्मिता की शादी तक तुम घर नहीं आओगे. स्मिता को अपने सामने देख तुम सामान्य नहीं रह पाओगे तथा बेकार में लोगों को बातें करने का मौका मिल जाएगा.’

‘दीदी, मेरे साथ इतना अन्याय मत करो,’ राज गिड़गिड़ाता हुआ बोला, ‘मैं कसम खाता हूं, शादी होने तक मैं किसी के सामने स्मिता से एक शब्द नहीं बोलूंगा. उस की शादी का काम कर के मुझे बहुत आत्मिक संतोष मिलेगा. प्लीज दीदी, तुम ने मुझ से सबकुछ तो छीन लिया, अब यह छोटा सा सुख तो मत छीनो.’

भाई की यह हालत देख सुरभि का मन पसीज उठा था. लेकिन वह भी परिस्थितियों के हाथों मजबूर थी. मुंह मोड़ कर भर आई आंखों को भाई से छिपाते हुए उस ने राज से कहा था, ‘ठीक है, तू शादी का काम संभाल ले, पर इस बात का ध्यान रखना कि स्मिता से कभी बोलेगा नहीं?’ और राज सिर हिलाते हुए वहां से चला गया था.

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आखिरकार स्मिता और भुवन की शादी हो गई थी. विदाई के समय रोते हुए राज को सामने देख कर स्मिता अपनेआप पर काबू नहीं रख पाई और बेहोश हो गई. होश आने पर उसे ऐसा महसूस हुआ था जैसे उस की दुनिया उजड़ गई हो.

खैर, टूटा हुआ दिल ले कर स्मिता भुवन के साथ अपनी ससुराल आ गई थी. सुहागरात को उस ने टूटे मन से रोते हुए भुवन के सामने समर्पण किया था. उन क्षणों में उस के अंतर्मन का सारा संताप उस के चेहरे पर आ गया था, जिसे भुवन ने संकोच और घबराहट समझा था.

भुवन एक बहुत ही अच्छे स्वभाव का, सज्जन युवक था. उस ने स्मिता को अपना पूरा प्यार दिया था, उसे टूट कर चाहा था.

शुरू में राज के बिना स्मिता बहुत बेचैन और उदास रही थी. जबजब भुवन उसे छूता, वह छटपटा उठती. लेकिन धीरेधीरे भुवन के सरल सहज बेशुमार प्यार की छांव में स्मिता सहज होने लगी, तथा उस के मन में भुवन के लिए चाहत पैदा होने लगी. वक्त गुजरने के साथ वह धीरेधीरे राज को भूलने भी लगी थी. हां, जब भी वह भैयाभाभी के घर आती, तो पुराने घाव हरे हो जाते.

भुवन के साथ रोतेहंसते कब 2 साल बीत गए, पता तक न चला था. स्मिता राज को एक हद तक भूल चुकी थी तथा भुवन के साथ अपनी नई जिंदगी में कुछकुछ रमने लगी थी.

राज की शादी भी उस की जाति की एक धनाढ्य परिवार की सुशिक्षित सुंदर लड़की से हो गई थी. राज अपनी शादी का कार्ड देने स्मिता के घर आया था. राज की शादी में जाने के लिए भुवन ने उस से कहा तो वह सिरदर्द का बहाना बना कर शादी में नहीं गई. उस दिन राज सारे दिन उसे बहुत याद आता रहा था तथा वह राज के साथ बिताए पलों को दोबारा जेहन में जीती रही थी. बाद में उस ने भाभी से सुना था कि राज ने यह शादी बहुत मुश्किल से की थी. उस की मां ने बहुत मिन्नतों- खुशामदों के बाद उसे शादी के लिए राजी किया था.

इधर कुछ दिनों से स्मिता कुछ परेशान चल रही थी. उस की शादी हुए 2 वर्ष हो चुके थे लेकिन उस की गोद भरने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे. उस की परेशानी देख कर भुवन उसे डाक्टर के पास ले गया था. पूरी जांच करने के बाद डाक्टर ने उसे बताया कि आप की पत्नी में गर्भधारण की क्षमता सामान्य से कुछ कम है, लेकिन सही उपचार के बाद वह गर्भधारण कर सकती है.

डाक्टर की इस बात ने भुवन और स्मिता को हिला कर रख दिया था. उस दिन स्मिता फूटफूट कर रोई थी. रोतेरोते उस ने भुवन से कहा था, ‘भुवन, मैं बहुत बदनसीब हूं. विधाता ने बचपन में ही मेरी मां छीन ली. जिंदगी भर मैं मांबाप के प्यार से वंचित रही और अब मुझे बच्चे का सुख नहीं दिया?’

स्मिता की गर्भधारण क्षमता में कमी की बात सुन कर भुवन भी बहुत मायूस हो गया था. खैर, स्मिता का उपचार शुरू हो गया. स्मिता की शादी को 4 वर्ष पूरे होने को आए लेकिन उस को मातृत्व का सुख मिलने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे.

बच्चों की कमी से उबरने के लिए भुवन ने अपनेआप को पूरी तरह अपने व्यापार में डुबो दिया था. बढ़ते व्यापार की वजह से वह स्मिता को बहुत कम वक्त देने लगा था. उन दोनों के बीच धीरेधीरे शून्य पसरता जा रहा था. इधर व्यापार के सिलसिले में वह अकसर नेपाल जाया करता और 2-2 महीने में वहां से वापस घर आया करता.

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उस दिन सुबह ही भुवन नेपाल चला गया तो स्मिता को समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे वह अपना वक्त काटे? शाम को यों ही वह भैयाभाभी से मिलने उन के घर चली गई थी. अचानक वहां राज भी आ गया. एक लंबे अर्से बाद राज और स्मिता में बातचीत हुई थी. लौटते वक्त राज ने स्मिता से कहा था, ‘चलो, गाड़ी से तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’

सुरभि भाभी ने भी राज से कहा था, ‘हांहां, तू इसे गाड़ी से इस के घर छोड़ दे. अकेली कहां जाएगी.’

स्मिता राज के साथ उस की गाड़ी में बैठ गई थी. अपने घर उतरते वक्त उस ने औपचारिकतावश राज को घर पर कौफी पीने का आमंत्रण दिया था, जिसे राज ने स्वीकार कर लिया था और वह स्मिता के घर आ गया था.

एक मुद्दत बाद राज और स्मिता एकांत में मिले थे. स्मिता की समझ में नहीं आ रहा था कि राज के साथ बात कहां से शुरू की जाए. तभी मौन तोड़ते हुए राज ने स्मिता से कहा था, ‘स्मिता, सुना है आजकल भुवन लंबे वक्त के लिए नेपाल जाया करते हैं. इस बार कितने दिनों के लिए नेपाल गए हैं?’

‘इस बार भी 2 महीने के लिए वह नेपाल गए हैं,’ स्मिता ने जवाब दिया था.

‘तो तुम 2 महीने यहां अकेली रहोगी?’

‘रहना ही पड़ेगा और कोई चारा भी तो नहीं है.’

‘स्मिता, तुम खुश तो हो?’

जवाब में स्मिता की आंखों से आंसू टपक पड़े थे, जिन्हें देख कर राज छटपटा उठा था और स्मिता के आंसू पोंछते हुए उस ने उस से कहा था, ‘बताओ स्मिता, क्या बात है? मेरा दिल बैठा जा रहा है. मैं सबकुछ देख सकता हूं लेकिन तुम्हारी आंखों में आंसू नहीं देख सकता. बताओ स्मिता, बताओ…’

जवाब में स्मिता ने उसे अपने गर्भधारण में अक्षमता, इस की वजह से भुवन का अपने व्यापार में ज्यादा से ज्यादा समय देने तथा उसे अकेला छोड़ कर नेपाल में महीनों रहने की बात सुनाई, जिसे सुन कर राज का जी कसक उठा और उस ने अचानक उठ कर स्मिता को अपनी बांहों में समेट लिया और बोला, ‘स्मिता, तो तुम भुवन के साथ सुखी नहीं हो. मैं भी शोभा के साथ बिलकुल सुकून नहीं महसूस करता. मैं उसे अपने जीवन में वह जगह नहीं दे पा रहा हूं जो कभी तुम्हारे लिए सुरक्षित थी. स्मिता, मैं अभी तक तुम्हें पूरी तरह भूल नहीं पाया हूं. क्या तुम मुझे भूल पाई हो? बोलो स्मिता, जवाब दो?’

यह कह कर राज ने स्मिता को जोर से अपने आलिंगन में भींच लिया था. राज की बांहों में स्मिता कसमसा उठी थी और उस ने राज की बांहों के बंधन से अपने को मुक्त करने का प्रयास करते हुए कहा था, ‘राज, यह तुम क्या कर रहे हो? यह गलत है राज, मैं शादीशुदा हूं. तुम भी शादीशुदा हो. राज, प्लीज, तुम चले जाओ यहां से.’ लेकिन राज ने स्मिता को अपनी बांहों के घेरे से मुक्त नहीं किया, उसे चूमता ही चला गया. भावुकता के उन क्षणों में स्मिता भी कमजोर पड़ गई थी. उस रात वे सारे बंधन तोड़ बैठे थे तथा कमजोरी के उन क्षणों में उस रात वह हो गया था जो नहीं होना चाहिए था. उस रात राज करीब 1 बजे अपने घर लौटा था.

राज के जाने के बाद स्मिता आत्मग्लानि से भर उठी थी. वह सोच रही थी, छि:छि:, वह यह क्या कर बैठी? उस ने भुवन जैसे सीधेसच्चे पति से विश्वासघात किया, नहींनहीं, अब वह दोबारा राज का मुंह तक नहीं देखेगी. उस प्रण ने उस के दिमाग को थोड़ा सुकून दिया था.

लेकिन अगले ही दिन रात को राज फिर उस के घर आया था. राज के आते ही स्मिता ने उस से कहा था, ‘राज, तुम अभी इसी वक्त अपने घर वापस चले जाओ. कल रात जो कुछ हुआ वह बहुत गलत था. हमें वापस अपनी गलती नहीं दोहरानी चाहिए.’

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वक्त बदल रहा है

पूर्व कथा

सुबह अखबार पढ़ कर लीना चौंक जाती है कि हरिनाक्षी ने जिला कलक्टर का पद ग्रहण कर लिया है. यह खबर पढ़ते हुए वह अतीत में खोने लगती है. दलित परिवार की हरिनाक्षी और उस के बीच कभी गहरी दोस्ती नहीं रही.

एक दिन हरिनाक्षी की सहेली अनुष्का का बलात्कार हो जाता है. प्रतिष्ठित व्यापारी का बिगड़ैल बेटा होने के कारण बलात्कारी सुबूतों के अभाव में जमानत पर छूट जाता  है. कालिज की राजनीतिक गतिविधियों से जुड़ी होने के कारण अनुष्का लीना के पास मदद के लिए जाती है, लेकिन वह मना कर देती है. उधर, अनुष्का आत्महत्या कर लेती है.

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अपने उत्तराधिकारी के रूप में लीना के पिता उसे राजनीति में उतारते हैं और उस की शादी ऊंचे व्यापारिक घराने में कर देते हैं. उस का देवर ही अनुष्का का बलात्कारी था इसी वजह से लीना इस रिश्ते को स्वीकार करने में हिचकिचाती है. अंतत: शादी कर लेती है.

आज लीना एक लोकप्रिय राजनीतिक पार्टी की सचिव है. वह अपने राजनीतिक रुतबे का इस्तेमाल पति कमलनाथ के एक बहुत बड़े प्रोजेक्ट के लिए करती है. इस प्रोजेक्ट के लिए उसे हरिनाक्षी की मदद की जरूरत पड़ती है.

शहर के व्यस्ततम इलाके के एक पुराने मकान को कमलनाथ खाली करवाना चाहते हैं लेकिन मकान मालिक शिवचरण खाली नहीं करता क्योंकि इस मकान से उस की बेटी अनुष्का की यादें जुड़ी हैं. कमलनाथ पुलिस विभाग में अपने रौबदाब की वजह से मकान खाली करवाना चाहते हैं लेकिन शिवचरण अपनी फरियाद ले कर जिला कलक्टर हरिनाक्षी के पास जाते हैं तो वह शिवचरण को पहचान लेती है. अनुष्का के पिता होने के नाते वह उन की मदद करने का आश्वासन देती है. वह एस.पी. को बुला कर पुलिस अधिकारियों की बैठक बुलाती है और बैठक को संबोधित करने लगती है. अब आगे…

अंतिम भाग

गतांक से आगे…

हरिनाक्षी मीटिंग पूरी कर के चली गई. वह जानती थी कि उस की बात अब लीना, कमलनाथ और निर्मलनाथ के कानों तक जरूर पहुंचेगी और वे लोग भागेभागे उस के पास आएंगे और ऐसा हुआ भी.

शिवचरण के इलाके का थानेदार लीना के घर हाजिरी लगाने पहुंच गया.

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‘‘क्या उस बुड्ढे का मकान खाली हो गया?’’ लीना ने पूछा.

‘‘मैडम, मकान खाली कराना तो दूर की बात है अब तो आप पर मुकदमा दर्ज करना होगा,’’ थानेदार ने घिघियाते हुए कहा.

‘‘क्या बकते हो?’’ लीना बुरी तरह भड़क गई.

‘‘हां, मैडम. मैं मजबूर हूं. आज कलक्टर साहिबा ने सारे पुलिस वालों की मीटिंग बुलाई और साफ शब्दों में आदेश दिया कि किसी भी फरियादी को थाने से खाली हाथ लौटने न दिया जाए. लिहाजा, हमें भी शिवचरण की शिकायत पर काररवाई करनी होगी,’’ थानेदार की आवाज थोड़ी डरी हुई थी.

कमलनाथ का चेहरा उतर गया.

लीना भी परेशान हो गई.

‘‘डी.एस.पी. साहब ने कुछ नहीं कहा,’’ कमलनाथ की आवाज में बेचैनी झलक रही थी.

‘‘कहां साहब, मैडम के सामने सब की बोलती बंद थी,’’ थानेदार ने कहा.

‘‘अब क्या होगा?’’ कमलनाथ ने लीना की तरफ देखते हुए कहा.

‘‘होगा क्या. चलो, मिलने चलते हैं. अपनी सहेली से और आप की साली साहिबा से,’’ लीना ने माहौल को हलका करने की कोशिश करते हुए कहा.

‘‘भाभी, मैं भी चलूंगा,’’ निर्मलनाथ ने कहा.

‘‘हां, हां, क्यों नहीं,’’ लीना बोली.

दूसरे ही दिन लीना, कमलनाथ और निर्मलनाथ कलक्टर साहिबा के बंगले पर पहुंच गए. मुलाकाती कक्ष में कई महिलापुरुष बैठे हुए थे. कई लोग लीना को पहचानते भी थे और सब की आंखों में एक सवाल भी था कि लीना जैसी हस्ती भी मिलने के लिए मुलाकाती कक्ष में बैठने पर मजबूर है.

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लीना ने अपना कार्ड चपरासी को देते हुए कहा, ‘‘मैडम को दे दो.’’

चपरासी कार्ड ले कर अंदर चला गया और फिर तुरंत बाहर आ कर अपनी जगह खड़ा हो गया.

‘‘मैडम ने क्या कहा?’’ वह पूछे बगैर न रह सकी.

‘‘कुछ नहीं,’’ चपरासी ने टका सा जवाब दिया.

लीना ठंडी पड़ गई. लीना के साथसाथ कमलनाथ और निर्मलनाथ भी परेशान दिखाई दे रहे थे. उन्हें अपनी बारी का इंतजार करते हुए 2 घंटे हो गए.

‘‘चलिए, मैडम ने आप लोगों को अंदर बुलाया है,’’ चपरासी ने कहा तो तीनों के चेहरे पर थोड़ी राहत नजर आने लगी.

तीनों ने अंदर कमरे में प्रवेश किया.

लीना देख रही थी कि हरिनाक्षी आज भी सुंदर दिखाई दे रही है जैसा कालिज के जमाने में दिखाई देती थी. ऊंचे पद की गरिमा ने उस की आंखों की चमक और बढ़ा दी है.

‘‘आइए, बैठिए,’’ कुरसियों की तरफ इशारा करते हुए हरिनाक्षी ने कहा.

‘‘हरिनाक्षीजी, पहचाना आप ने? मैं लीना सिंह. हम सब सेंट जेवियर्स कालिज में साथ पढ़ते थे,’’ लीना ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘अरे, आप को कैसे नहीं पहचान सकती…आप मुझ से सीनियर थीं और मुझ जैसी नई छात्राओं की बहुत मदद करती थीं,’’ हरिनाक्षी ने हंसते हुए उत्तर दिया.

लीना समेत सब की जान में जान आई.

‘‘आप के ही सहयोग के चलते मैं आज यहां पर बैठी हूं. खैर, बताइए क्या काम है?’’ हरिनाक्षी ने चुभते हुए स्वर में कहा.

‘‘यह मेरे पति हैं, कमलनाथ और साथ में इन के छोेटे भाई निर्मलनाथ हैं.’’

‘‘मैं इन्हें खूब पहचानती हूं. मेरी स्मरण शक्ति इतनी खराब नहीं है. बात क्या है? इस गरीब को कैसे याद किया?’’ हरिनाक्षी मुसकराई.

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‘‘कुछ दिन हुए, एक मकान का सौदा किया था और मकान मालिक को इन्होंने मकान की आधी कीमत चुकाई थी. मगर आज इस बात को मकान मालिक मानने को तैयार ही नहीं हो रहा है. उलटे इन्हें गुंडों से धमकी दिलवा रहा है,’’ लीना और भी कुछ कहने जा रही थी मगर हरिनाक्षी ने बीच में ही कहना शुरू किया, ‘‘वह आदमी आप लोगों से कहीं ज्यादा पहुंच और पैसे वाला होगा. है न? गुंडे भी वरदी वाले होंगे. खादी हो या खाकी वरदी, क्या फर्क पड़ता है,’’ हरिनाक्षी ने कटाक्ष करते हुए कहा.

तीनों के चहेरों का रंग उड़ गया. उन्हें धरती घूमती नजर आने लगी.

‘‘बात यह है कि …’’ कमलनाथ ने कुछ कहने की कोशिश की.

‘‘सारे शहर को मालूम है कि शिवचरण की हैसियत में और आप लोगों की औकात में जमीनआसमान का अंतर है. फिर भी अगर आप को शिकायत दर्ज करानी है तो अपने निकट के थाने में उस के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज करवाइए. प्रशासन से मदद चाहिए तो एक आवेदन- पत्र दीजिए. ध्यान रहे कि दस्तावेज पूरे होने चाहिए,’’ हरिनाक्षी ने ठंडे स्वर में कहा.

‘‘मैं तो यह सोच कर आई थी कि हमारी पुरानी दोस्ती का लिहाज करते हुए तुम हमारी मदद करोगी,’’ लीना ने अपने नेतागीरी वाले अंदाज में कहा.

‘‘हम कितने गहरे दोस्त थे यह बताने की शायद मुझे जरूरत नहीं. और मैं यह बता देना जरूरी समझती हूं कि मैं इस शहर में दोस्ती निभाने नहीं आई हूं. मेरा फर्ज यहां के आम नागरिकों के जानमाल की रक्षा करना है,’’ हरिनाक्षी ने बिना किसी लागलपेट के कहा.

लीना के अंदर छिपा हुआ राजनीतिज्ञ जोर मारने लगा. हरिनाक्षी से पहले आए जिला अधिकारियोें की नाक में दम कर देने वाली लीना अपनी खादी वरदी का असर देख चुकी थी.

‘यह हरिनाक्षी की बच्ची किस खेत की मूली है?’ लीना ने सोचा.

‘‘देखिए, हरिनाक्षीजी, अब तक हम सिर्फ एक आम नागरिक की तरह आप से प्रार्थना कर रहे थे, लेकिन ऐसा लगता है कि अफसरी की वरदी ने आप के खून में कुछ ज्यादा ही उबाल ला दिया है,’’ लीना के तेवर अचानक ही बदल गए.

हरिनाक्षी उत्तर देने को तत्पर हुई कि इस बीच कमलनाथ बोल पड़ा, ‘‘आप को शायद दौलत और ‘पहुंच’ की ताकत का अंदाज लगाने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ है,’’ कमलनाथ के बोलने का अंदाज शतप्रतिशत धमकी भरा था.

‘‘अब मालूम हुआ कि आप सब यहां केवल धमकी देने और अपनी ताकत का बखान करने आए हैं. खैर, मैं ने सुन लिया. अब मेरी भी एक बात ध्यान से सुन लीजिए कि राजनेता और पूंजीपति कभी मेरे प्रिय पात्रों में से नहीं रहे. इसलिए मुझे उन से न तो कभी दोस्ती निभाने की जरूरत पड़ी और न कभी डरने की जरूरत समझी. आप लोग जो भी कदम उठाना चाहें बडे़ शौक से उठा सकते हैं. अब आप लोग जा सकते हैं,’’ हरिनाक्षी ने गंभीरतापूर्वक कहा.

लीना के चेहरे का रंग उड़ गया. उसे अंदाजा नहीं था कि हरिनाक्षी उस के राजनीतिक रसूख की धज्जियां उड़ा कर रख देगी. वह पिटी हुई सूरत ले कर बाहर निकली. उधर कमलनाथ का चेहरा भी उतर गया था. बाहर निकलते ही लीना  पति व देवर को दिलासा देते हुए बोली, ‘‘तुम घबराओ मत. मैं इसे जब तक अपनी हैसियत और इस की औकात न बता दूंगी तब तक चैन से नहीं बैठूंगी.’’

इस के बाद लीना अपनी पार्टी के कई आला नेताओं से ले कर गृहमंत्री तक से मिली. आश्चर्यजनक था कि हर जगह उसे निराशा ही मिली.

चुनाव सामने आ रहे थे और कोई भी नेता इस समय किसी दलित अधिकारी को केवल किसी के कहने पर कुछ भी बोलने को तैयार नहीं था. सब को अपने दलित वोट बैंक का खाता खाली होने का डर सता रहा था.

लीना बुरी तरह निराश हो उठी. उसे अपने बुरे दिन नजदीक दिखाई देने लगे थे. वह अपने बंगले में बैठी आने वाले दिनों के बारे में सोच रही थी.

इधर हरिनाक्षी एक पत्रकार सम्मेलन को संबोधित कर रही थी.

‘‘मैडम, पुलिस और प्रशासन पर से जनता का विश्वास क्यों उठता जा रहा है?’’ एक बुजुर्ग पत्रकार ने पहला सवाल दागा.

‘‘दरअसल, लोगों को केवल अपनी पहुंच और पैसे पर भरोसा रह गया है और भरोसे का यह माध्यम हर वर्ग के लोगों पर अपनी पैठ कायम कर चुका है. कई बार यह महसूस कर काफी दुख होता है कि लोग पुलिस और कानून से बचना चाहते हैं. लोग सामने नहीं आते. इस में कोई दोराय नहीं कि ऐसी स्थिति के लिए हम भी कहीं न कहीं दोषी हैं. मैं पूरी कोशिश करूंगी कि लोगों का पुलिस और प्रशासन पर फिर से भरोसा कायम हो जाए,’’ हरिनाक्षी के स्वर में दृढ़ता थी.

‘‘इस शहर में महिलाएं भी खुद को असुरक्षित महसूस करती हैं. छेड़खानी, बलात्कार जैसी घटनाएं आएदिन होती ही रहती हैं. अभी भी कई सारे अपराधी आरोपी होने के बावजूद खुलेआम घूम रहे हैं क्योंकि उन के पास खादी और खाकी दोनों की ताकत है. ऐसे अपराधियों के लिए प्रशासन क्या कदम उठाने जा रहा है?’’ यह एक महिला पत्रकार का सवाल था.

‘‘ऐसे सारे मामलों की फाइल दोबारा खोली जाएगी. मैं मीडिया को विश्वास दिलाती हूं कि अपराधी चाहे कितना भी रसूख वाला हो. उसे बख्शा नहीं जाएगा,’’ हरिनाक्षी ने जवाब दिया.

‘‘क्या आप खादी की ताकत से नहीं घबरातीं?’’ एक पत्रकार ने व्यंग्यात्मक स्वर में पूछा.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ हरिनाक्षी ने दो शब्दों में जवाब दिया.

‘‘क्या अनुष्का को न्याय मिलेगा, हरिनाक्षीजी?’’ एक गंभीर और उदास आवाज गूंजी. अपना नाम लिए जाने पर हरिनाक्षी चौंक उठी और उस पत्रकार की तरफ देखा. वह रवि था, जो अनुष्का से प्यार करता था.

अनुष्का ने रवि से उसे एकदो बार मिलाया था. रवि उन दिनों दिल्ली में पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था जब अनुष्का के साथ वह दर्दनाक हादसा हुआ था.

‘‘रविजी, आप प्रशासन पर भरोसा रखें. आप के इस सवाल का जवाब बहुत जल्दी मिलेगा,’’ हरिनाक्षी ने गंभीरता से जवाब दिया.

‘‘मैं तो आप को देखते ही पहचान गया था. अब आप से उम्मीद लगा रहा हूं तो कुछ गलत तो नहीं कर रहा?’’ रवि ने पूछा.

‘‘नहीं. कतई नहीं,’’ हरिनाक्षी ने उत्तर दिया और पूछा, ‘‘अभी आप किस अखबार से जुडे़ हैं?’’

‘‘एक राष्ट्रीय अखबार ‘दैनिक प्रभात समाचार’ से जुड़ा हूं.’’

‘‘अनुष्का को आप अभी तक नहीं भूल पाए,’’ हरिनाक्षी ने जैसे रवि की दुखती रग पर हाथ रख दिया.

‘‘अनुष्का को मैं अपने मरने के बाद ही भूल पाऊंगा,’’ रवि का स्वर भीगा हुआ था.

‘‘क्षमा करें, मैं आप से व्यक्तिगत सवाल पूछ बैठी,’’ हरिनाक्षी अब धीरेधीरे औपचारिकता छोड़ रही थी.

‘‘आज आप को इस ओहदे पर देख कर मुझे कितनी खुशी हो रही है, आप अंदाजा नहीं लगा सकतीं,’’ रवि के स्वर में खुशी झलक रही थी. वह उठते हुए बोला, ‘‘आशा है, आप अनुष्का को इंसाफ जरूर दिलाएंगी.’’

‘‘हां, अनुष्का को भी और उस के पिता को भी. साथ ही शहर के उन सभी नागरिकों को जो चुप रहते हैं और शैतानों के डर से सामने नहीं आते.’’

उस के बाद हरिनाक्षी ने नंबर डायल करने शुरू किए.

दोचार दिनों के बाद शहर में जैसे एक हंगामा हुआ. नई जिलाधिकारी की चर्चा हर गलीचौराहों पर आम हो गई. स्थानीय अखबारों के साथसाथ राष्ट्रीय अखबारों में भी हरिनाक्षी सुर्खियों में छाने लगी. शहर के तमाम सफेदपोश परेशान हो उठे थे. उन के खाकी और खादी वरदी वाले दोस्त उन से दूरदूर रहने लगे थे.

पुरानी फाइलें खुल रही थीं. दोषियों को फौरन पकड़ा जा रहा था.

लीना भी बेहद परेशान थी. उसे ऐसा लग रहा था कि बस, पुलिस आज या कल उस के घर पर धावा बोलने ही वाली है. कमलनाथ और उन का बिगड़ा हुआ छोटा भाई निर्मलनाथ भी डरेडरे से रहते थे.

आज भी लीना अपने बंगले के लान में बैठी अखबार पलट रही थी. लगभग हर पन्ने में हरिनाक्षी का नाम पढ़ कर बुरी तरह चिढ़ रही थी.

उस ने सामने देखा तो घर का नौकर शंकर घबराया हुआ उन की तरफ दौड़ता आ रहा था.

‘‘मालकिन, पुलिस आई है. तिवारीजी आए हुए हैं,’’ शंकर की आवाज में अभी भी घबराहट थी.

इंस्पेक्टर तिवारी का नाम सुन कर लीना ने इत्मिनान की सांस ली, क्योंकि तिवारी तो उन का अपना आदमी था.

वह बरामदे में बैठे तिवारी के सामने पहुंची. उस के साथ 2-3 सिपाही भी बैठे थे.

‘‘क्या बात है, तिवारी?’’ लीला ने डरते हुए पूछा.

‘‘कमलबाबू और निर्मलबाबू के नाम से गिरफ्तारी वारंट है. शिवचरण ने इन दोनों के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज कराई है. कलक्टर साहिबा ने फौरन काररवाई करने का आदेश दिया है,’’ इंस्पेक्टर तिवारी ने भरे हुए स्वर में कहा.

‘‘तो फिर?’’ लीना के माथे पर बल पड़ गए.

‘‘इन्हें गिरफ्तार करना ही होगा,’’ इंस्पेक्टर तिवारी का स्वर थोड़ा बदला.

‘‘ठीक है,’’ लीना ठंडी पड़ गई.

फरार होने के बजाय दोनों भाई कमलनाथ व निर्मलनाथ नीचे आ गए तो इंस्पेक्टर तिवारी ने उन्हें हथकडि़यां पहना दीं.

कुछ ही पलों के बाद दोनों भाइयों को पुलिस जीप में बैठा कर थाने ले जाया गया. लीना यह सब बेबसी से देखती रही.

अब तो अदालत के चक्कर काटने होंगे. गवाह भी खुल कर सामने आएंगे. दोनों भाइयों को सजा होनी  निश्चित थी.

लीना को कालिज का वह जमाना याद आ रहा था जब वह हरिनाक्षी जैसी लड़कियों का खुल कर मजाक उड़ाया करती थी. हरिनाक्षी पर तो फुर्सत निकाल कर फिकरे कसने का दौर वह शुरू करती थी.

दलितों को कमजोर समझना एक भयंकर भूल होगी. देश भर के दलित अगर ऊंचे पदों पर बैठ गए तो ऊंची जाति वालों का क्या होगा?

उधर हरिनाक्षी को भी कमलनाथ और निर्मलनाथ की गिरफ्तारी की खबर मिली. उस ने संतोष की सांस ली. अब जब तक वह शहर में है. ऐसे लोगों को उन की औकात याद दिलाती रहेगी जो कानून और पुलिस को अपनी जेब में ले कर चलने का दावा करते हैं. चाहे वह किसी भी समुदाय से संबंध रखते हों. ऐसे सफेदपोशों को वह उन की सही जगह पहुंचाती रहेगी.

लीना अगर समझती है कि उस ने प्रतिशोध लिया है तो वह गलत समझती है. हां, उसे यह एहसास जरूर होना चाहिए कि वक्त बदल रहा है. अनुष्का जैसी मासूम लड़कियों को इनसाफ मिलना ही चाहिए.

शिवचरण जैसे असहाय बुजुर्गों या किसी भी नागरिक को उस के घर से बेदखल करने का किसी भूमाफिया को अधिकार नहीं है.

कमलनाथ और निर्मलनाथ की गिरफ्तारी की खबर से रवि की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा.

उस ने तुरंत अपने मोबाइल पर संदेश लिखना शुरू किया.

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‘‘इस शहर का चेहरा बदल रहा है और वक्त भी. अनुष्का और शिवचरण जैसे लोग सारे देश में फैले हुए हैं और इंसाफ की तलाश में भटक रहे हैं. उन्हें आप जैसे रहनुमा की खोज है.’’

हरिनाक्षी को यह संदेश मिला. वह सोच रही थी, ‘ऐसे लोग सामने आ रहे हैं. हमें आशावान होना चाहिए क्योंकि वक्त बदल रहा है.’ और यही संदेश उस ने अपने मोबाइल पर लिखना शुरू किया.

बगावत

महीने भर का राशन चुकने को हुआ तो सोचा, आज ही बाजार हो आऊं. आज और कहीं जाने का कार्यक्रम नहीं था और कोई खास काम भी करने के लिए नहीं था. यही सोच कर पर्स उठाया, पैसे रखे और बाजार चल दी.

दुकानदार को मैं अपने सौदे की सूची लिखवा रही थी कि अचानक पीछे से कंधे पर स्पर्श और आंखों पर हाथ रखने के साथसाथ ‘निंदी’ के उच्चारण ने उलझन में डाल दिया. यह तो मेरा मायके का घर का नाम है. कोई अपने शहर का निकट संबंधी ही होना चाहिए जो मेरे घर के नाम से वाकिफ हो. आंखों पर रखे हाथ को टटोल कर पहचानने में असमर्थ रही. आखिर उसे हटाते हुए बोली, ‘‘कौन?’’

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‘‘देख ले, नहीं पहचान पाई न.’’

‘‘उषा तू…तू यहां कैसे…’’ अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, कालिज में साथ पढ़ी अपनी प्यारी सखी उषा को सामने खड़ी देख कर. मुखमंडल पर खेलती वही चिरपरिचित मुसकान, सलवारकमीज पहने, 2 चोटियों में उषा आज भी कालिज की छात्रा प्रतीत हो रही थी.

‘‘क्यों, बड़ी हैरानी हो रही है न मुझे यहां देख कर? थोड़ा सब्र कर, अभी सब कुछ बता दूंगी,’’ उषा आदतन खिलखिलाई.

‘‘किस के साथ आई?’’ मैं ने कुतूहलवश पूछा.

‘‘उन के साथ और किस के साथ आऊंगी,’’ शरारत भरे अंदाज में उषा बोली.

‘‘तू ने शादी कब कर ली? मुझे तो पता ही नहीं लगा. न निमंत्रणपत्र मिला, न किसी ने चिट्ठी में ही कुछ लिखा,’’ मैं ने शिकायत की.

‘‘सब अचानक हो गया न इसलिए तुझे भी चिट्ठी नहीं डाल पाई.’’

‘‘अच्छा, जीजाजी क्या करते हैं?’’ मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी.

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‘‘वह टेलीफोन विभाग में आपरेटर हैं,’’ उषा ने संक्षिप्त उत्तर दिया.

‘‘क्या? टेलीफोन आपरेटर… तू डाक्टर और वह…’’ शब्द मेरे हलक में ही अटक गए.

‘‘अचंभा लग रहा है न?’’ उषा के मुख पर मधुर मुसकान थिरक रही थी.

‘‘लेकिन यह सब कैसे हो गया? तुझे अपने कैरियर की फिक्र नहीं रही?’’

‘‘बस कर. सबकुछ इसी राशन की दुकान पर ही पूछ लेगी क्या? चल, कहीं पास के रेस्तरां में कुछ देर बैठते हैं. वहीं आराम से सारी कहानी सुनाऊंगी.’’

‘‘रेस्तरां क्यों? घर पर ही चल न. और हां, जीजाजी कहां हैं?’’

‘‘वह विभाग के किसी कार्य के सिलसिले में कार्यालय गए हैं. उन्हीं के कार्य के लिए हम लोग यहां आए हैं. अचानक तेरे घर आ कर तुझे हैरान करना चाहते थे, पर तू यहीं मिल गई. हम लोग नीलम होटल में ठहरे हैं, कल ही आए हैं. 2 दिन रुकेंगे. मैं किसी काम से इस ओर आ रही थी कि अचानक तुझे देखा तो तेरा पीछा करती यहां आ गई,’’ उषा चहक रही थी.

कितनी निश्छल हंसी है इस की. पर एक टेलीफोन आपरेटर के साथ शादी इस ने किस आधार पर की, यह मेरी समझ से बाहर की बात थी.

‘‘हां, तेरे घर तो हम कल इकट्ठे आएंगे. अभी तो चल, किसी रेस्तरां में बैठते हैं,’’ लगभग मुझे पकड़ कर ले जाने सी उतावली वह दिखा रही थी.

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दुकानदार को सारा सामान पैक करने के लिए कह कर मैं ने बता दिया कि घंटे भर बाद आ कर ले जाऊंगी. उषा को ले कर निकट के ही राज रेस्तरां में पहुंची. समोसे और कौफी का आदेश दे कर उषा की ओर मुखातिब होते हुए मैं ने कहा, ‘‘हां, अब बता शादी वाली बात,’’ मेरी उत्सुकता बढ़ चली थी.

‘‘इस के लिए तो पूरा अतीत दोहराना पड़ेगा क्योंकि इस शादी का उस से बहुत गहरा संबंध है,’’ कुछ गंभीर हो कर उषा बोली.

‘‘अब यह दार्शनिकता छोड़, जल्दी बता न, डाक्टर हो कर टेलीफोन आपरेटर के चक्कर में कैसे पड़ गई?’’

3 भाइयों की अकेली बहन होने के कारण हम तो यही सोचते थे कि उषा मांबाप की लाड़ली व भाइयों की चहेती होगी, लेकिन इस के दूसरे पहलू से हम अनजान थे.

उषा ने अपनी कहानी आरंभ की.

बचपन के चुनिंदा वर्ष तो लाड़प्यार में कट गए थे लेकिन किशोरावस्था के साथसाथ भाइयों की तानाकशी, उपेक्षा, डांटफटकार भी वह पहचानने लगी थी. चूंकि पिताजी उसे बेटों से अधिक लाड़ करते थे अत: भाई उस से मन ही मन चिढ़ने लगे थे. पिता द्वारा फटकारे जाने पर वे अपने कोप का शिकार उषा को बनाते.

‘‘मां और पिताजी ने इसे हद से ज्यादा सिर पर चढ़ा रखा है. जो फरमाइशें करती है, आननफानन में पूरी हो जाती हैं,’’ मंझला भाई गुबार निकालता.

‘‘क्यों न हों, आखिर 3-3 मुस्टंडों की अकेली छोटी बहन जो ठहरी. मांबाप का वही सहारा बनेगी. उन्हें कमा कर खिलाएगी, हम तो ठहरे नालायक, तभी तो हर घड़ी डांटफटकार ही मिलती है,’’ बड़ा भाई अपनी खीज व आक्रोश प्रकट करता.

कुशाग्र बुद्धि की होने के कारण उषा पढ़ाई में हर बार अव्वल आती. चूंकि सभी भाई औसत ही थे, अत: हीनभावना के वशीभूत हो कर उस की सफलता पर ईर्ष्या करते, व्यंग्य के तीर छोड़ते.

‘‘उषा, सच बता, किस की नकल की थी?’’

‘‘जरूर इस की अध्यापिका ने उत्तर बताए होंगे. उस के लिए यह हमेशा फूल, गजरे जो ले कर जाती है.’’

उषा तड़प उठती. मां से शिकायत करती लेकिन मांबेटों को कुछ न कह पाती, अपने नारी सुलभ व्यवहार के इस अंश को वह नकार नहीं सकती थी कि उस का आकर्षण बेटी से अधिक बेटों के प्रति था. भले ही वे बेटी के मुकाबले उन्नीस ही हों.

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यौवनावस्था आतेआते वह भली प्रकार समझ चुकी थी कि उस के सभी भाई केवल स्नेह का दिखावा करते हैं. सच्चे दिल से कोई स्नेह नहीं करता, बल्कि वे ईर्ष्या भी करते हैं. हां, अवसर पड़ने पर गिरगिट की तरह रंग बदलना भी वे खूब जानते हैं.

‘‘उषा, मेरी बहन, जरा मेरी पैंट तो इस्तिरी कर दे. मुझे बाहर जाना है. मैं दूसरे काम में व्यस्त हूं,’’ खुशामद करता छोटा भाई कहता.

‘‘उषा, तेरी लिखाई बड़ी सुंदर है. कृपया मेरे ये थोड़े से प्रश्नोत्तर लिख दे न. सिर्फ उस कापी में से देख कर इस में लिखने हैं,’’ कापीकलम थमाते हुए बड़ा कहता.

भाइयों की मीठीमीठी बातों से वह कुछ देर के लिए उन के व्यंग्य, उलाहने, डांट भूल जाती और झटपट उन के कार्य कर देती. अगर कभी नानुकर करती तो मां कहतीं, ‘‘बेटी, ये छोटेमोटे झगड़े तो सभी भाईबहनों में होते हैं. तू उन की अकेली बहन है. इसलिए तुझे चिढ़ाने में उन्हें आनंद आता है.’’

भाइयों में से किसी को भी तकनीकी शिक्षा में दाखिला नहीं मिला था. बड़ा बी.काम. कर के दुकान पर जाने लगा और छोटा बी.ए. में प्रवेश ले कर समय काटने के साथसाथ पढ़ाई की खानापूर्ति करने लगा. इस बीच उषा ने हायर सेकंडरी प्रथम श्रेणी में विशेष योग्यता सहित उत्तीर्ण कर ली. कालिज में उस ने विज्ञान विषय ही लिया क्योंकि उस की महत्त्वाकांक्षा डाक्टर बनने की थी.

‘‘मां, इसे डाक्टर बना कर हमें क्या फायदा होगा? यह तो अपने घर चली जाएगी. बेकार इस की पढ़ाई पर इतना खर्च क्यों करें,’’ बड़े भाई ने अपनी राय दी.

तड़प उठी थी उषा, जैसे किसी बिच्छू ने डंक मार दिया हो. भाई अपनी असफलता की खीज अपनी छोटी बहन पर उतार रहा था. ‘आखिर उसे क्या अधिकार है उस की जिंदगी के फैसलों में हस्तक्षेप करने का? अभी तो मांबाप सहीसलामत हैं तो ये इतना रोब जमा रहे हैं. उन के न होने पर तो…’ सोच कर के ही वह सिहर उठी.

पिताजी ने अकसर उषा का ही पक्ष लिया था. इस बार भी वही हुआ. अगले वर्ष उसे मेडिकल कालिज में दाखिला मिल गया.

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डाक्टरी की पढ़ाई कोई मजाक नहीं. दिनरात किताबों में सिर खपाना पड़ता. एक आशंका भी मन में आ बैठी थी कि अगर कहीं पहले साल में अच्छे अंक नहीं आ सके तो भाइयों को उसे चिढ़ाने, अपनी कुढ़न निकालने और अपनी कुंठित मनोवृत्ति दर्शाने का एक और अवसर मिल जाएगा. वे तो इसी फिराक में रहते थे कि कब उस से थोड़ी सी चूक हो और उन्हें उसे डांटने- फटकारने, रोब जमाने का अवसर प्राप्त हो. अत: अधिकांश वक्त वह अपनी पढ़ाई में ही गुजार देती.

कालिज के प्रांगण के बाहर अमरूद, बेर तथा भुट्टे लिए ठेले वाले खड़े रहते थे. वे जानते थे कि कच्चेपक्के बेर, अमरूद तथा ताजे भुट्टों के लोभ का संवरण करना कालिज के विद्यार्थियों के लिए असंभव नहीं तो कम से कम मुश्किल तो है ही. उन का खयाल बेबुनियाद नहीं था क्योंकि शाम तक लगभग सभी ठेले खाली हो जाते थे.

अपनी सहेलियों के संग भुट्टों का आनंद लेती उषा उस दिन प्रांगण के बाहर गपशप में मशगूल थी. पीरियड खाली था. अत: हंसीमजाक के साथसाथ चहल- कदमी जारी थी. छोटा भाई उसी तरफ से कहीं जा रहा था. पूरा नजारा उस ने देखा. उषा के घर लौटते ही उस पर बरस पड़ा, ‘‘तुम कालिज पढ़ने जाती हो या मटरगश्ती करने?’’

उषा कुछ समझी नहीं. विस्मय से उस की ओर देखते हुए बोली, ‘‘क्यों, क्या हुआ? कैसी मटरगश्ती की मैं ने?’’

तब तक मां भी वहां आ चुकी थीं, ‘‘मां, तुम्हारी लाड़ली तो सहेलियों के साथ कालिज में भी पिकनिक मनाती है. मैं ने आज स्वयं देखा है इन सब को सड़कों पर मटरगश्ती करते हुए.’’

‘‘मां, इन से कहो, चुप हो जाएं वरना…’’ क्रोध से चीख पड़ी उषा, ‘‘हर समय मुझ पर झूठी तोहमत लगाते रहते हैं. शर्म नहीं आती इन को…पता नहीं क्यों मुझ से इतनी खार खाते हैं…’’ कहतेकहते उषा रो पड़ी.

‘‘चुप करो. क्या तमाशा बना रखा है. पता नहीं कब तुम लोगों को समझ आएगी? इतने बड़े हो गए हो पर लड़ते बच्चों की तरह हो. और तू भी तो उषा, छोटीछोटी बातों पर रोने लगती है,’’ मां खीज रही थीं.

तभी पिताजी ने घर में प्रवेश किया. भाई झट से अंदर खिसक गया. उषा की रोनी सूरत और पत्नी की क्रोधित मुखमुद्रा देख उन्हें आभास हो गया कि भाईबहन में खींचातानी हुई है. अकसर ऐसे मौकों पर उषा रो देती थी. फिर दोचार दिन उस भाई से कटीकटी रहती, बोलचाल बंद रहती. फिर धीरेधीरे सब सामान्य दिखने लगता, लेकिन अंदर ही अंदर उसे अपने तीनों भाइयों से स्नेह होने के बावजूद चिढ़ थी. उन्होंने उसे स्नेह के स्थान पर सदा व्यंग्य, रोब, डांटडपट और जलीकटी बातें ही सुनाई थीं. शायद पिताजी उस का पक्ष ले कर बेटों को नालायक की पदवी भी दे चुके थे. इस के प्रतिक्रियास्वरूप वे उषा को ही आड़े हाथों लेते थे.

‘‘क्या हुआ हमारी बेटी को? जरूर किसी नालायक से झगड़ा हुआ है,’’ पिताजी ने लाड़ दिखाना चाहा.

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‘‘कुछ नहीं. आप बीच में मत बोलिए. मैं जो हूं देखने के लिए. बच्चों के झगड़ों में आप क्यों दिलचस्पी लेते हैं?’’ मां बात को बीच में ही खत्म करते हुए बोलीं.

असहाय सी उषा मां का मुंह देखती रह गई. मां भी तो आखिर बेटों का ही पक्ष लेंगी न. जब कभी भी पिताजी ने उस का पक्ष लिया, बेटों को डांटाफटकारा तो मां को अच्छा नहीं लगा. उस समय तो वह कुछ नहीं कहतीं लेकिन मन के भाव तो चेहरे पर आ ही जाते हैं. बाद में मौका मिलने पर टोकतीं, ‘‘क्यों अपने बड़े भाइयों से उलझती रहती है?’’

उषा पूछती, ‘‘मां, मैं तो सदा उन का आदर करती हूं, उन के भले की कामना करती हूं लेकिन वे ही हमेशा मेरे पीछे पड़े रहते हैं. अगर मैं पढ़ाई में अच्छी हूं तो उन्हें ईर्ष्या क्यों होती है?’’

मां कहतीं, ‘‘चुप कर, ज्यादा नहीं बोलते बड़ों के सामने.’’

दोनों बड़े भाइयों का?स्नातक होने के बाद विवाह कर दिया गया. दोनों बहुओं ने भी घर के हालात देखे, समझे और अपना आधिपत्य जमा लिया. उषा तो भाइयों की ओर से पहले ही उपेक्षित थी. भाभियों के आने के बाद उन की ओर से भी वार होने लगे. इस बीच हृदय के जबरदस्त आघात से पिताजी चल बसे. घर का पूरा नियंत्रण बहुओं के हाथ में आ गया. मां तो पहले से ही बेटों की हमदर्द थीं, अब तो उन की गुलामी तक करने को तैयार थीं. पूरी तरह से बहूबेटों के अधीन हो गईं.

उषा का डाक्टरी का अंतिम वर्ष था. घर के उबाऊ व तनावग्रस्त माहौल से जितनी देर वह दूर रहती, उसे राहत का एहसास होता. अत: अधिक से अधिक वक्त वह पुस्तकालय में, सहेली के घर या कैंटीन में गुजार देती. सच्चे प्रेम, विश्वास, उचित मार्गदर्शन पर ही तो जिंदगी की नींव टिकी है, चाहे वह मांबाप, भाईबहन, पतिपत्नी किसी से भी प्राप्त हो. लेकिन उषा को बीते जीवन में किसी से कुछ भी प्राप्त नहीं हो रहा था. प्रेम, स्नेह के लिए वह तरस उठती थी. पिताजी से जो स्नेह, प्यार मिल रहा था वह भी अब छिन चुका था.

मेडिकल कालिज की कैंटीन शहर भर में दहीबड़े के लिए प्रसिद्ध थी. अचानक जरूरत पड़ने पर या मेहमानों के लिए विशेषतौर पर लोग वहां से दहीबड़े खरीदने आते थे. बाहर के लोगों के लिए भी कैंटीन में आना मना नहीं था. स्वयंसेवा की व्यवस्था थी. लोगों को स्वयं अपना नाश्ता, चाय, कौफी वगैरह अंदर के काउंटर से उठा कर लाना होता था. कालिज के साथ ही सरकारी अस्पताल होता था. रोगियों के संबंधी भी अकसर कालिज की कैंटीन से चायनाश्ता खरीद कर ले जाते थे.

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कैंटीन में अकेली बैठी उषा चाय पी रही थी. सामने की सीट खाली थी. अचानक एक नौजवान चाय का कप ले कर वहां आया, ‘‘मैं यहां बैठ सकता हूं?’’ उस की बातों व व्यवहार से शालीनता टपक रही थी.

‘‘हां, हां, क्यों नहीं,’’ कह कर उषा ने अपनी कुरसी थोड़ी पीछे खिसका ली.

‘‘मेरी मां अस्पताल में दाखिल हैं,’’ बातचीत शुरू करने के लहजे में वह नौजवान बोला.

‘‘अच्छा, क्या हुआ उन को? किस वार्ड में हैं?’’ सहज ही पूछ बैठी थी उषा.

‘‘5 नंबर में हैं. गुरदे में पथरी हो गई थी. आपरेशन हुआ है,’’ धीरे से युवक बोला.

शाम को घर लौटने से पहले उषा अपनी सहेली के साथ वार्ड नंबर 5 में गई तो वहां वही युवक अपनी मां के सिरहाने बैठा हुआ था. उषा को देखते ही उठ खड़ा हुआ, ‘‘आइए, डाक्टर साहब.’’

‘‘अभी तो मुझे डाक्टर बनने में 6 महीने बाकी हैं,’’ कहते हुए उषा के चेहरे पर मुसकान तैर गई.

उस युवक की मां ने पूछा, ‘‘शैलेंद्र, कौन है यह?’’

‘‘मेरा नाम उषा है. आज कैंटीन में इन से मुलाकात हुई तो आप की तबीयत पूछने आ गई. कैसी हैं आप?’’ शैलेंद्र को असमंजस में पड़ा देख कर उषा ने ही जवाब दे दिया.

‘‘अच्छी हूं, बेटी. तू तो डाक्टर है, सब जानती होगी. यह देखना जरा,’’ कहते हुए एक्सरे व अन्य रिपोर्टें शैलेंद्र की मां ने उषा के हाथ में दे दीं. शैलेंद्र हैरान सा मां को देखता रह गया. एक नितांत अनजान व्यक्ति पर इतना विश्वास?

बड़े ध्यान से उषा ने सारे कागजात, एक्सरे देखे और बोली, ‘‘अब आप बिलकुल ठीक हो जाएंगी. आप की सेहत का सुधार संतोषजनक रूप से हो रहा है.’’

मां के चेहरे पर तृप्ति के भाव आ गए. अगले सप्ताह उषा की शैलेंद्र के साथ अस्पताल में कई बार मुलाकात हुई. जब भी मां की तबीयत देखने वह गई, न जाने क्यों उन की बातों, व्यवहार से उसे एक सुकून सा मिलता था. शैलेंद्र के नम्र व्यवहार का भी अपना आकर्षण था.

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शैलेंद्र टेलीफोन विभाग में आपरेटर था. मां की अस्पताल से छुट्टी होने के बाद भी वह अकसर कैंटीन आने लगा और उषा से मुलाकातें होती रहीं. दोनों ही एकदूसरे की ओर आकर्षित होते चले गए और आखिर यह आकर्षण प्रेम में बदल गया. अपने घर के सदस्यों द्वारा उपेक्षित, प्रेम, स्नेह को तरस रही, अपनेपन को लालायित उषा शैलेंद्र के प्रेम को किसी कीमत पर खोना नहीं चाहती थी. वह सोचती, मां और भाई तो इस रिश्ते के लिए कदापि तैयार नहीं होंगे…अब वह क्या करे?

आखिर बात भाइयों तक पहुंच ही गई.

‘‘डाक्टर हो कर उस टुटपुंजिए टेलीफोन आपरेटर से शादी करेगी? तेरा दिमाग तो नहीं फिर गया?’’ सभी भाइयों के साथसाथ मां ने भी लताड़ा था.

‘‘हां, मुझे उस में इनसानियत नजर आई है. केवल पैसा ही सबकुछ नहीं होता,’’ उषा ने हिम्मत कर के जवाब दिया.

‘‘देख लिया अपनी लाड़ली बहन को? तुम्हें ही इनसानियत सिखा रही है.’’ भाभियों ने भी तीर छोड़ने में कोई कसर नहीं रखी.

‘‘अगर तू ने उस के साथ शादी की तो तेरे साथ हमारा संबंध हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा. अच्छी तरह सोच ले,’’ भाइयों ने चेतावनी दी.

जिंदगी में पहली बार किसी का सच्चा प्रेम, विश्वास, सहानुभूति प्राप्त हुई थी, उषा उसे खोना नहीं चाहती थी. पूरी वस्तुस्थिति उस ने शैलेंद्र के सामने स्पष्ट कर दी.

‘‘उषा, यह ठीक है कि मैं संपन्न परिवार से नहीं हूं. मेरी नौकरी भी मामूली सी है, आय भी अधिक नहीं. तुम मेरे मुकाबले काफी ऊंची हो. पद में भी, संपन्नता में भी. लेकिन इतना विश्वास दिलाता हूं कि मेरा प्रेम, विश्वास बहुत ऊंचा है. इस में तुम्हें कभी कंजूसी, धोखा, फरेब नहीं मिलेगा. जो तुम्हारी मरजी हो, चुन लो. तुम पद, प्रतिष्ठा, धन को अधिक महत्त्व देती हो या इनसानियत, सच्चे प्रेम, स्नेह, विश्वास को. यह निर्णय लेने का तुम्हें अधिकार है,’’ शैलेंद्र बोला.

‘‘और फिर परीक्षाएं होने के बाद हम ने कचहरी में जा कर शादी कर ली. मेरी मां, भाई, भाभी कोई भी शादी में हाजिर नहीं हुए. हां, शैलेंद्र के घर से काफी सदस्य शामिल हुए. तुझ से सच कहूं?’’ मेरी आंखों में झांकते हुए उषा आगे बोली, ‘‘मुझे अपने निर्णय पर गर्व है. सच मानो, मुझे अपने पति से इतना प्रेम, स्नेह, विश्वास प्राप्त हुआ है, जिस की मैं ने कल्पना भी नहीं की थी. अपनी मां, भाई, भाभियों से स्नेह, प्यार के लिए तरस रही मुझ बदनसीब को पति व उस के परिवार से इतना प्रेम स्नेह मिला है कि मैं अपना अतीत भूल सी गई हूं.

‘‘अगर मैं किसी बड़े डाक्टर या बड़े व्यवसायी से शादी करती तो धनदौलत व अपार वैभव पाने के साथसाथ मुझे पति का इतना प्रेम, स्नेह मिल पाता, मुझे इस में संदेह है. धनदौलत का तो मांबाप के घर में भी अभाव नहीं था लेकिन प्रेम व स्नेह से मैं वंचित रह गई थी.

‘‘धनदौलत की तुलना में प्रेम का स्थान ऊंचा है. व्यक्ति रूखीसूखी खा कर संतोष से रह सकता है, बशर्ते उसे अपनों का स्नेह, विश्वास, आत्मीयता, प्राप्त हो. लेकिन अत्यधिक संपन्नता और वैभव के बीच अगर प्रेम, सहिष्णुता, आपसी विश्वास न हो तो जिंदगी बोझिल हो जाती है. मैं बहुत खुश हूं, मुझे जीवन की असली मंजिल मिल गई है.

‘‘अब मैं अपना दवाखाना खोल लूंगी. पति के साथ मेरी आय मिल जाने से हमें आर्थिक तंगी नहीं हो पाएगी.’’

‘‘उषा, तू तो बड़ी साहसी निकली. हम तो यही समझते रहे कि 3-3 भाइयों की अकेली बहन कितनी लाड़ली व सुखी होगी, लेकिन तू ने तो अपनी व्यथा का भान ही नहीं होने दिया,’’ सारी कहानी सुन कर मैं ने कहा.

‘‘अपने दुखडे़ किसी के आगे रोने से क्या लाभ? फिर वैसे भी मेरा मेडिकल में दाखिला होने के बाद तुम से मुलाकातें भी तो कम हो गई थीं.’’

मुझे याद आया, उषा मेडिकल कालिज चली गई तो महीने में ही मुलाकात हो पाती थी. विज्ञान में स्नातक होने के पश्चात मेरी शादी हो गई और मैं यहां आ गई. कभीकभार उषा की चिट्ठी आ जाती थी, लेकिन उस ने कभी अपनी व्यथा के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा.

मायके जाने पर जब भी मैं उस से मिली, तब मैं यह अंदाज नहीं लगा सकती थी कि उषा अपने हृदय में तनावों, मानसिक पीड़ा का समंदर समेटे हुए है.

दूसरे दिन आने का वादा कर के वह चली गई. मैं बड़ी बेसब्री से दूसरे दिन का इंतजार कर रही थी ताकि उस व्यक्ति से मिलने का अवसर मिले जिस ने अपने साधारण से पद के बावजूद अपनी शख्सियत, अपने व्यवहार, मृदुस्वभाव व इनसानियत के गुणों के चुंबकीय आकर्षण से एक डाक्टर को जीवन भर के लिए अपनी जिंदगी की गांठ से बांध लिया था.

बहार: भाग 3- क्या पति की शराब की लत छुड़ाने में कामयाब हो पाई संगीता

लेखिका- रिचा बर्नवाल

पार्क में आरती ने संगीता को कुछ ऐक्सरसाइजें सिखाईं. लौटने के समय संगीता बहुत खुश थी.

‘‘मम्मी, शादी के बाद से मेरा वजन लगातार बढ़ता जा रहा है. क्या व्यायाम से मैं पतली हो जाऊंगी,’’ आंखों में आशा की चमक ला कर संगीता ने अपनी सास से पूछा.

‘‘इन के अलावा वजन कम करने का और क्या तरीका होगा? पर एक समस्या है,’’ आरती की आंखों में उलझन  के भाव पैदा हुए.

‘‘कैसी समस्या?’’

‘‘सुबह पार्क में आने की.’’

‘‘मैं जल्दी उठ जाया करूंगी.’’

अचानक आरती ताली बजाती हुई बोलीं, ‘‘मैं तुम्हारे ससुर को जोश दिलाती हूं कि वे

रवि को नाश्ते की चीजें बनाना सिखाएं. उन दोनों को रसोई में उलझ कर हम पार्क चली आया करेंगी.’’

‘‘बिलकुल ऐसा ही करेंगे, मम्मी. आम के आम और गुठलियों के दाम. मेरा वजन भी कम होने लगेगा और नाश्ता भी बनाबनाया मिल जाएगा,’’ संगीता प्रसन्न नजर आने लगी.

उधर रसोई में रमाकांत अपने बेटे को समझ रहे थे, ‘‘रवि, मैं ने कुछ चीजें तेरी मां

से बनानी सीखीं क्योंकि अब उस की तबीयत ज्यादा ठीक नहीं रहती. मैं ने देखा है कि तू भी अधिकतर डबलरोटी मक्खन खा कर औफिस जाता है. मैं तुझे ये 5-7 चीजें बनानी सिखा देता हूं. ढंग का नाश्ता घर में बनने लगेगा, तो तेरा और बहू दोनों का फायदा होगा.’’

‘‘पोहा बनाने में आप की सहायता करना मुझे अच्छा लगा, पापा. आप मुझे बाकी की चीजें भी जरूर सिखाना,’’ रवि खुश नजर आ रहा था.

‘‘अब ब्रश कर के आ. फिर हम दोनों साथ बैठ कर नाश्ता करेंगे.’’

‘‘मम्मी और संगीता के आने का इंतजार नहीं करेंगे क्या?’’

‘‘अरे, तेरी बहू जितनी ज्यादा देर घूमे अच्छा है. अपनी मां के साथ उसे रोज पार्क भेज दिया कर. उस का बढ़ता मोटापा उस की सेहत के लिए ठीक नहीं है.’’

रमाकांत की यह सलाह रवि के मन में बैठ गई. उस दिन ही नहीं बल्कि रोज उस ने सुबह उठ कर अपने पिता के मार्गदर्शन में कई नईर् चीजें नाश्ते में बनानी सीखीं.

आरती और संगीता रसोई में आतीं, तो बापबेटा उन्हें फौरन बाहर कर देते. तब आरती अपनी बहू को पार्क में ले जाती.

वहां से सैर और व्यायाम कर के दोनों लौटतीं, तो उन्हें नाश्ता तैयार मिलता. सब बैठ कर नाश्ते की खूबियों व कमियों पर बड़े उत्साह से चर्चा करते. सुबह की शुरुआत अच्छी होने से बाकी का दिन अच्छा गुजरने की संभावना बढ़ जाती.

संगीता अपने सासससुर के आने से अब सचमुच बड़ी प्रसन्न थी. सास के द्वारा काम में मदद करने से उसे बड़ी राहत मिलती. बहुत कुछ नया सीखने को मिला उसे आरती से.

रवि का मन बहुत होता अपने दोस्तों के साथ शराब पीने का, पर हिम्मत नहीं पड़ती. अपनी खराब लत के कारण वह अपने मातापिता को लड़तेझगड़ते नहीं देखना चाहता था.

धीरेधीरे शराब पीने की तलब उठनी बंद हो

गई उस के मन में. उस में आए इस बदलाव के कारण संगीता की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

सप्ताहभर तक नियमित रूप से पार्क जाने का परिणाम यह निकला कि संगीता के पेट का माप पूरा 1 इंच कम हो गया. उस ने यह खबर बड़े खुश अंदाज में सब को सुनाई.

‘‘आज पार्टी होगी मेरी बहू की इस सफलता की खुशी में और सारी चीजें संगीता और मैं घर में बनाएंगे,’’ आरती की इस घोषणा का बाकी तीनों ने तालियां बजा कर स्वागत किया.

उस रविवार के दिन के भोजन में मटरपनीर, दहीभल्ले, बैगन का भरता, सलाद, परांठे और मेवों से भरी खीर सबकुछ संगीता और आरती ने मिल कर तैयार किया.

खाना इतना स्वादिष्ठ बना था कि सभी उंगलियां चाटते रह गए. आरती ने इस का बड़ा श्रेय संगीता को दिया, तो वह फूली न समाई.

‘‘मैं कहता हूं कि किसी होटल में क्व2 हजार रुपए खर्च कर के भी ऐसा शानदार खाना नसीब नहीं हो सकता,’’ रवि ने संतुष्टि भरी डकार लेने के बाद घोषणा करी.

‘‘चाहे वह स्वादिष्ठ खाना हो या दिल को गुदगुदाने वाली खुशियां, इन्हें घर से बाहर ढूंढ़ना मूर्खता है,’’ बोलते

हुए आरती की आंखों में अचानक आंसू छलक आए.

‘‘मम्मी, आप की आंखों में आंसू क्यों आए हैं?’’ रवि

ने अपनी मां का कंधा छू कर भावुक लहजे में पूछा.

‘‘हम से कोई गलती हो गई क्या?’’ संगीता एकदम घबरा उठी.

‘‘नहीं, बहू,’’ आरती ने उस का गाल प्यार से थपथपाया, ‘‘सब को एकसाथ इतना खुश देख कर आंखें भर आईं.’’

‘‘यह तो आप दोनों के आने का आशीर्वाद है मम्मी,’’ संगीता ने उन का हाथ पकड़ कर प्यार से अपने गाल पर रख लिया.

रमाकांत ने गहरी सांस छोड़ कर कहा, ‘‘आज शाम को हम वापस जा रहे हैं. शायद इसीलिए पलकें नम हो उठीं.’’

‘‘यों अचानक जाने का फैसला क्यों कर लिया आप ने?’’ रवि ने उलझन भरे स्वर में पूछा.

‘‘नहीं, आप दोनों को मैं बिलकुल नहीं जाने दूंगी,’’ संगीता ने भरे गले से अपने दिल की इच्छा जाहिर करी.

‘‘हम दोनों तो आज के दिन ही लौटने का कार्यक्रम बना कर आए थे, बहू. तेरे जेठजेठानी व दोनों भतीजे बड़ी बेसब्री से हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं,’’ आरती ने मुसकराने की कोशिश करी, पर जब सफल नहीं हुईं तो उन्होंने संगीता को गले लगा लिया.

संगीता एकाएक सुबकने लगी. रवि की आंखों में भी आंसू ?िलमिलाने लगे.

‘‘मम्मीपापा, आप दोनों अभी मत जाइए. मेरे घर में आई खुशियों की बहार कहीं आप

दोनों के जाने से खो न जाए,’’ रवि उदास नजर आने लगा.

रमाकांत ने उस का माथा चूम कर समझया, ‘‘बेटा, अपने घर की

खुशियों, सुखशांति और मन के संतोष के लिए किसी पर भी निर्भर मत रहना. तुम दोनों समझदारी से काम लोगे, तो यह घर हमारे जाने के बाद भी खुशियों से महकता रहेगा.’’

‘‘बस, सदा हमारी एक ही बात याद रखो तुम दोनों,’’ आरती उन दोनों से प्यारभरे स्वर में बोलीं.

‘‘आपसी मनमुटाव से दिलोदिमाग पर बहुत सा कूड़ाकचड़ा जमा हो जाता है. इंसान को प्यार करने व लड़नेझगड़ने दोनों के लिए ऊर्जा खर्चनी पड़ती है. तुम दोनों चाहे लड़ो चाहे प्यार करो, पर सदा ध्यान रखना कि ऊर्जा के बहाव में दिलोदिमाग पर जमा वह कूड़ाकचरा जरूर बह जाए. बीते पलों की यादों को फालतू ढोने से इंसान कभी भी नए और ताजे जीवन का आनंद नहीं ले पाता.’’

रवि और संगीता ने उन की बात बड़े ध्यान से सुनी. जब उन दोनों की नजरें आपस में मिलीं, तो दोनों के दिलों में एकदूसरे के लिए प्र्रेम की ऊंची लहर उठी.

‘‘आप अगली बार आएंगे, तो मुझे पूरी तरह बदला हुआ पाएंगे,’’ संगीता ने फौरन अपने सासससुर से मजबूत स्वर में वादा किया

‘‘हमारी आंखें खोलने के लिए आप दोनों को धन्यवाद,’’ कह रवि ने अपने मातापिता के हाथों को चूमा.

‘‘मिल कर अपने बच्चों का शुभ सोचना हमारी एकमात्र इच्छा है. हमारे लड़नेझगड़ने को तो तुम दोनों नाटक समझना,’’ आरती बोलीं.

आरती के इस बचन को सुना कर रमाकांत रहस्यमयी अंदाज में मुसकराने लगे.

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खारा पानी

मुंबई की चाल में पैदा हुई शालिनी, बबलू मास्टर की देखरेख में शालिनी से डांसर शालू और फिर फिल्म स्टार बन गई. विदेशी डेविड को समीप से देखने का मौका मिला तो शालू उस की नीली आंखों में ऐसा खोई कि अपना सबकुछ भूल गई. शालू को क्या पता था कि जिसे वह अपना समझ रही है वह उसे नहीं उस की शोहरत और दौलत को चाहता है…

भाग-1

शालू को पता नहीं क्या हो गया था. 50वीं बार उस ने जिगनेश से किलक कर कहा, ‘‘अमेरिका जा कर सब से पहले डिजनीलैंड देखूंगी.’’

जिगनेश ने जवाब नहीं दिया. इस से पहले वे कई बार कह चुके थे, ‘‘हां, जरूर, उसी के लिए तो हम अमेरिका जा रहे हैं.’’

लेकिन शालू की अमेरिका जाने की वजह कुछ और थी. वह सालों बाद अपने बेटे बौबी और उस के परिवार से मिलने जा रही थी. पिछली बार कब मिली थी बौबी से? वह दिमाग पर जोर डाल कर सोचने लगी. शायद 8 साल पहले. बौबी अकेला ही मुंबई उस से मिलने आया था. बौबी के आने की वजह थी कि वह अमेरिका में एक घर खरीदना चाहता था और उस के पास पैसे नहीं थे. शालू ने अपने लाड़ले बेटे का माथा चूमते हुए तब कहा था, ‘तो क्या हुआ बौबी, मैं हूं न. एकदो धारावाहिक में ज्यादा काम कर लूंगी. तू अपने लिए घर ले, पैसे मैं दूंगी.’

बौबी खुश हो कर 2 दिन बाद ही वापस चला गया था. जिंदगी यों ही बीतती गई. महीने में एकाध बार मांबेटे से बात हो जाती, बस. महीना भर पहले जब शालू ने जिगनेश से शादी करने का निश्चय किया, तब फोन किया था बौबी को. उसे पता था कि उस के निर्णय से बौबी जरूर खुश होगा. बौबी ने उस का संघर्ष और अकेलापन देखा है.

बौबी ने उस से सिर्फ एक सवाल किया, ‘‘मां, तुम सोचसमझ कर शादी कर रही हो ना?’’

‘‘हां, बेटे, जिगनेश ने और मैं ने 3 धारावाहिकों में एकसाथ काम किया है. बहुत अच्छे आदमी हैं. खुले दिल के, हंसते रहते हैं और मेरा बहुत खयाल रखते हैं,’’ शालू उत्साह से बोली थी.

‘‘वह तो ठीक है मां, पर इस उम्र में? वे तुम से क्या चाहते हैं?’’

शालू हंसी थी, ‘‘अरे, पागल, वे मुझ से उम्र में 3 साल छोटे हैं. मुझ से क्या चाहेंगे? बस, हम दोनों एकदूसरे को चाहते हैं, साथ रहना चाहते हैं, बस.’’

उस समय शालू को यह कतई नहीं लगा था कि बौबी उस की शादी से नाखुश है. जब उस ने बताया कि वे दोनों उस से मिलने अमेरिका आ रहे हैं तो वह चौंका.

शालू प्यार से बोली, ‘‘बौबी, मैं ने तेरी बेटी को नहीं देखा. बहू से भी नहीं मिली. वहां आऊंगी तो सब से मिलना भी हो जाएगा और मेरा डिजनीलैंड देखने का सपना भी पूरा हो जाएगा. तू चिंता मत कर. मैं वीजा वगैरह यहीं से बनवा रही हूं. टिकट भी बुक करवा लिया है. बस, तुझे आने की तारीख और फ्लाइट के बारे में बता दूंगी. मैं तो पागल हो रही हूं तुझ से मिलने के लिए. तुझे यहां से क्याक्या चाहिए, बता दे. मैं सब ले आऊंगी.’’

और उत्साह से निकल पड़ी थी शालू अपने बेटे से मिलने अमेरिका.

शालू जब एअर इंडिया के विमान में पति जिगनेश की बगल में बैठी, तो उस की निगाह अपनेआप लगातार उसे घूरते हुए एक अधेड़ व्यक्ति पर पड़ गई. शालू ने निगाह बचानी चाही…बेवजह जिगनेश से बात करने की कोशिश करने लगी कि वह आदमी उठ कर उस के सामने ही आ गया.

उस ने विनीत भाव से कहना शुरू किया, ‘‘क्षमा कीजिए, आप शालू हैं न, फिल्म हीरोइन?’’

शालू नहीं चाहती थी कि उस की इस यात्रा में उसे कोई भी पहचाने, पर अब जवाब तो देना ही था. वह जरा सी हंसी और बोली, ‘‘काहे की हीरोइन? वह जमाना तो गया.’’

‘‘अरे, नहीं, आप क्या कहती हैं शालूजी? आप के कैबरे देखदेख कर तो हम जवां हुए हैं.’’

उस ने सीधे शालू के मर्म पर चोट कर दी. शालू चुप लगा गई. पर उस ने यह भी देख लिया था कि उस के 50 साल के पति जिगनेश को यह सुन कर अच्छा नहीं लगा.

‘‘मैं तो फिल्मों और टीवी में मां और दादी का रोल करती हूं. आप यह कहां की पुरानी बात ले बैठे. अच्छा, आप अपनी जगह जा कर बैठिए. एअर होस्टेस इशारा कर रही है.’’

वह आदमी बेमन से अपनी जगह चला गया. शालू ने नजरें फेर लीं और सोचने लगी कि क्या वाकई उस आदमी की नजरों ने 35 साल पहले की शालू को पहचान लिया था. शालू यानी शालिनी. साथ में कोई नाम नहीं. मुंबई की एक चाल में पैदा हुई थी शालिनी और उस की बहन कामिनी. दोनों गरीबी और अभावों में पलीं. पिता स्टेशन पर कुली का काम करते थे. शालिनी जब 7 साल की थी तो पिता चल बसे थे. मां के बस की बात नहीं थी कि 2 लड़कियों को अपने दम पर पालतीं. वे दोनों बच्चियों को ले कर अपने भाई के घर चली आईं.

बस, वहां पेट भरने लायक खाना मिल जाता था. स्कूल जाने का तो कभी सवाल ही नहीं उठा. 12 साल की शालिनी को मामा फिल्मों में ग्रुप डांस करवाने वाले बबलू मास्टर के पास ले कर गए. बबलू मास्टर 40 साल के अनुभवी व्यक्ति थे. डरीसहमी शालिनी में न जाने उन्होंने क्या देखा कि मामा को कह दिया, ‘इसे कल से मेरे पास भेज दो, कुछ बन जाएगी.’

बबलू मास्टर के पास शालिनी कथक सीखने लगी और साल भर बाद मास्टरजी उसे हीरोइन के पीछे खड़ा कर नचवाने लगे. शालिनी अपनी उम्र की दूसरी लड़कियों के मुकाबले लंबी थी. सलोना चेहरा. हमेशा चुप रहती. धीरेधीरे वह बबलू मास्टर की प्रिय शिष्या बन गई. जब हाथ में थोड़ा पैसा आने लगा तो उस ने अपनी छोटी बहन कामिनी को पढ़ने स्कूल भेज दिया. उसी के साथ बैठ कर थोड़ा पढ़ना भी सीख लिया.

शालिनी ने कभी नहीं सोचा था कि ग्रुप डांस करतेकरते एक दिन वह एक नायिका बन जाएगी. हालांकि उस के सामने ही ऐक्स्ट्रा की भूमिका निभाने वाली मुमताज नायिका बनी थीं लेकिन अपने लिए उस ने इतना सबकुछ सोचा ही नहीं था.

वह दूर से देखती थी चमचमाती गाडि़यों में सितारों को स्टूडियो आतेजाते. सेट पर उन के आते ही भगदड़ मच जाती थी. निर्मातानिर्देशक जोर से चिल्ला उठते, ‘अरे, कोई है? ठंडा लाओ, कुरसी लाओ.’

शालिनी को अच्छा लगता था दूर से यह सबकुछ देखना. बबलू मास्टर अकसर उसे नसीहतें देते, ‘बेटी, फिल्मी चकाचौंध से जितना दूर रहोगी उतना ही खुश रहोगी. यह कभी मत सोचना कि उन के पास सबकुछ है, तुम्हारे पास कुछ नहीं.’

शालिनी के साथ काम करने वाली दूसरी ग्रुप डांसर कभी किसी जूनियर आर्टिस्ट के साथ घूमने चल देती, तो कभी आगे बढ़ कर किसी हीरो से बात करने की कोशिश करती. बबलू मास्टर उसे समझाते कि इन सब से कुछ नहीं होगा. फिल्मी दुनिया में लड़कियों को संभल कर रहना चाहिए.

2 साल बतौर ग्रुप डांसर काम करने के बाद अचानक एक दिन उस की किस्मत ने पलटा खाया. एक नामी निर्माता की फिल्म में बबलू मास्टर डांस डायरेक्टर थे. फिल्म में एक कैबरे था जो बिंदु को करना था, लेकिन ऐनवक्त पर बिंदु बीमार पड़ गई. सैट लग चुका था, सारी तैयारी हो चुकी थी. निर्माता मुरली भाई परेशान हो उठे और उन्होंने बबलू मास्टर से कहा, ‘मास्टरजी, कुछ करो. बेशक किसी नई लड़की को ले आओ पर मुझे समय पर शूटिंग करनी है, नहीं तो बहुत नुकसान हो जाएगा.’

बबलू मास्टर ने रातोंरात शालिनी को इस कैबरे के लिए तैयार कर लिया. तब शालिनी 16 साल की नहीं हुई थी, लेकिन देहयष्टि कमनीय थी. चेहरा सुंदर था और नाचने में उस का कोई सानी नहीं था. मेकअप आदि के बाद जब मास्टरजी ने शालिनी को कैबरे की पोशाक दी तो छोटी पोशाक देख कर उस का चेहरा सन्न रह गया.

मास्टरजी ने जैसे उस के दिल की बात समझ ली, ‘बेटी, इस से अच्छा मौका तुझे नहीं मिलेगा. पोशाक में क्या रखा है? दिल साफ होना चाहिए.’

शालिनी ने सुनहरे रंग की पोशाक पहन ली. बालों पर सुनहरा ताज, पैरों में सुनहरी जूती. जब मुरली भाई ने उसे देखा तो एकदम से खुश हो गए, ‘वाह, यह लड़की तो गजब ढा देगी. पर इस का नाम ठीक नहीं है, बहुत बड़ा है. हम इसे शालू कहेंगे.’

उस दिन शालिनी से वह शालू बन गई. बबलू मास्टर के नृत्यनिर्देशन में किए गए उस के कैबरे बहुत लोकप्रिय हुए. इस के बाद उसे न जाने कितनी फिल्मों में कैबरे और डांस करने का मौका मिला. जब वह कमर लचकाती, तो लाखों दिल हिल जाते. देखतेदेखते उस की तसवीर फिल्मी पत्रिकाओं में छपने लगी, उस के पोस्टर बिकने लगे.

कभीकभी तो खुद को इस रूप में देख उसे शर्म आती पर धीरेधीरे वह आदी हो गई और उसे अपने काम में मजा आने लगा. बबलू मास्टर हर कदम पर उस के साथ थे. उन से पूछे बिना वह कोई फिल्म साइन नहीं करती थी. चाल से निकल कर वह फ्लैट में आई, छोटी सी गाड़ी भी ली. मामा और मामी भी उस के साथ रहने आ गए.

शालू को पहले तो एक हौरर फिल्म में हीरोइन की भूमिका करने को मिली. बबलू मास्टर नहीं चाहते थे, पर मामा की ख्वाहिश थी कि वह सिर्फ एक डांसर बन कर न रहे. अब मामा ही उस के रुपएपैसे का हिसाब देखने लगे थे. पहली 2-3 फिल्में उस की बी ग्रेड की थीं. एक में वह दस्यु सुंदरी बनी थी, दूसरी में तांत्रिक की बेटी और तीसरी में सरकस की कलाकार. इसी समय उस का परिचय कामेडियन नजाकत अली से हुआ.

नजाकत नामी हास्य अभिनेता थे और एक कामेडी फिल्म बना रहे थे. नायक के लिए उन्होंने एक नए चेहरे बृजेश को चुन लिया था. जब उन्होंने शालू को नायिका बनने का प्रस्ताव दिया तो उसे विश्वास नहीं हुआ. फिल्म बड़े बजट की थी. भूमिका भी अच्छी थी. पहली बार उसे फिल्म में साड़ी पहनने का मौका मिला. शालू ने दिल लगा कर काम किया. फिल्म खूब चली और शालू बन गई एक सफल नायिका. बृजेश के साथ उस की कई फिल्में आईं. उन दोनों की जोड़ी हिट मानी जाने लगी.

शालू को याद नहीं कि वे दिन इतनी जल्दी और कहां उड़ गए. खूब पैसा कमाती थी वह और हमेशा शूटिंग में व्यस्त रहती थी. मुंबई के बांद्रा इलाके में बड़ा सा फ्लैट ले लिया. मामा के लिए एक गाड़ी, कामिनी के लिए दूसरी. खुद वह इंपाला में आतीजाती. बबलू मास्टर से जब कभी मुलाकात होती, वे कहते, ‘बेटी, जरा धीरे चलो. इतना तेज भागोगी तो गिर जाओगी.’

शालू हंस देती, ‘दादा, अब गिरने से डर नहीं लगता.’

लेकिन गिर ही तो गई थी शालू. कहते हैं न, सिर पर जब इश्क का जनून सवार हो जाता है तो आदमी को फिर कुछ नजर नहीं आता. ऐसा ही कुछ हुआ शालू के साथ. डेविड स्वीडन से मुंबई आया था. यहां मायानगरी पर वह एक डाक्यूमैंट्री फिल्म बना रहा था. बबलू मास्टर के यहां ही डेविड से पहली बार मिली थी शालू. उसे देखते ही डेविड अपनी कुरसी से उठ खड़ा हुआ, ‘ओह, सो यू आर द ग्रेट डांसिंग क्वीन.’

शालू सकुचा गई. बबलू मास्टर के कहने पर उस ने डेविड की एक फिल्म में डांस कर लिया.

वह पहली मुलाकात ऐसी थी कि शालू की आंखों की नींद उड़ गई. उस ने जिंदगी में पहली बार किसी विदेशी पुरुष को इतने समीप से देखा था. उस की सांसों की गरमाहट, बात करने का बेतकल्लुफ अंदाज और लहीमशहीम कदकाठी… शालू उस की ओर खिंचती चली गई. डेविड ने न जाने क्या जादू कर दिया उस के ऊपर.

दूसरी मुलाकात के बाद डेविड ने प्रस्ताव रखा कि शालू उसे आगरा ले जाए. वह संसार का 7वां आश्चर्य शालू के संगसाथ खड़ा हो कर देखना चाहता है. शालू आगरा पहले भी जा चुकी थी. ताजमहल के ठीक सामने उस ने एक मुजरा किया था, लेकिन डेविड के साथ ताजमहल देखने का रोमांच वह छोड़ नहीं पाई.

मुंबई से दिल्ली तक विमान से और फिर वहां से टैक्सी ले कर दोनों आगरा पहुंचे थे. शालू डेविड के प्यार में डूब चुकी थी. डेविड का उसे प्यार से बेबी कह कर पुकारना, उस की हर जरूरत का खयाल रखना और सब से जरूरी उस का अतीत जानने के बाद भी उस का साथ देना, उसे भा गया.

आगरा मेें वे दोनों फाइव स्टार होटल में ठहरे. डेविड ने अपने दोनों के लिए अलगअलग कमरे बुक किए थे, लेकिन वहां वे दोनों रुके एक ही कमरे में और उसी दिन यह तय कर लिया कि मुंबई जाते ही दोनों कोर्ट में शादी कर लेंगे. डेविड को उस के फिल्मों में काम करने से आपत्ति नहीं थी बल्कि वह खुद भी मुंबई में ही रह कर कुछ काम करना चाहता था.

ताजमहल जहां प्रेम का आगाज होता है और परवान चढ़ता है. शालू ने मुग्ध भाव से सफेद संगमरमर की इमारत को रात के अंधेरे में चांदनी बन चमकते देखा. ‘वाह’, डेविड ने उस का हाथ पकड़ कर कहा था, ‘अमेजिंग.’

शालू को मतलब समझ में नहीं आया, लेकिन इतना एहसास हुआ कि वह ताजमहल की तारीफ कर रहा था. उस रात दोनों देर तक ताज के सामने बैठे रहे और डेविड बारबार उसे जतलाता रहा कि वह उस से कितनी मोहब्बत करता है.

शालू ने मुंबई लौटने के बाद जैसे ही मामा को बताया कि वह डेविड से शादी करने जा रही है, वे एकदम फट पड़े, ‘तेरा दिमाग तो नहीं खराब हो गया, शालिनी? एक गोरे से शादी कर रही है, वह भी कैरियर के इस मोड़ पर? शादीशुदा हीरोइनों को फिल्म लाइन में कोई नहीं पूछता. इस समय तुझे पूरा ध्यान फिल्मों में लगाना चाहिए. मैं नहीं करने दूंगा तुझे शादी.’

मां, मामी और कामिनी ने भी उसे काफी कुछ सुनाया. शालू एकदम से सकते में आ गई. इतने बरस तक उस ने जो कुछ किया कमाया, घरवालों के हाथ में रखा. कभी अपने पैसे का हिसाब नहीं पूछा और आज जब वह अपनी गृहस्थी बसाने की सोच रही है, कोई उसे उस की जिंदगी नहीं जीने देना चाहता. रात भर बिस्तर पर पड़ीपड़ी रोती रही शालू.

सुबह हुई. दर्द से आंखों के पपोटे दुखने लगे थे. मन हुआ कि एक कप चाय पी ले. उस ने अपने कमरे का दरवाजा खोलने की कोशिश की लेकिन वह तो बाहर से बंद था.

वह अपने ही घर में कैद कर ली गई थी. शालू के दिमाग ने जैसे सोचना- समझना बंद कर दिया. 10 बजे मां कमरे में आईं, चाय और नाश्ता ले कर और सीधे स्वर में बोलीं, ‘देख शालिनी, तुम्हारे मामा बहुत गुस्से में हैं, वह तो तुम पर उन का हाथ उठ जाता, पर मैं ने ही रोक लिया कि…’

शालू धीरे से बुदबुदाई, ‘सोने का अंडा देने वाली मुरगी को कैसे मारेंगे,  अम्मां?’

दोपहर को मामा उसे स्टूडियो छोड़ने आए. आज उसे एक गंभीर सीन करना था पर शालू हर बार गड़बड़ा जाती. एक बार तो सीन करतेकरते वह गिर पड़ी. उस का हाल देख कर शूटिंग कैंसिल कर दी गई. शालू कपडे़ बदलने के बहाने स्टूडियो के पिछले रास्ते से बाहर निकल एक आटो पकड़ कर सीधे डेविड के होटल पहुंच गई.

डेविड को जैसे उस का ही इंतजार था. तुरंत वे दोनों वहां से एक टैक्सी ले कर लोनावाला के लिए निकल गए. अगले दिन लोनावाला के एक मंदिर में माला बदल शादी कर ली और शालू ने एक पत्रकार को अपनी शादी की खबर बता दी.

अगले दिन सभी अखबारों में शालू की शादी की खबर छप गई. शादी के पहले कुछ दिन अच्छे गुजरे. 2 महीने बीततेबीतते डेविड ने उस पर दबाव डालना शुरू कर दिया कि वह मामा और मां से अपने पैसों का हिसाब ले. अपना घर होते हुए भी वह किराए के घर में क्यों रहती है? इस बीच शालू को एहसास हो गया कि वह मां बनने वाली है. उस के हाथ जो बचीखुची फिल्में थीं, वे भी निकलती चली गईं.

इधर डेविड के रोज के तानों से वह आजिज आती चली गई. शादी से पहले जिस व्यक्ति की रोमांटिक बातें, रूपरंग उसे लुभाते थे, अब उसी व्यक्ति का यह रूप उसे डराने लगा. हर समय वह पैसे की बात करता. डेविड ने मामा को कानूनी नोटिस भेज दिया कि वह शालू के पैसे और घर वापस करें, लेकिन मामा ने कुछ भी शालू के नाम नहीं किया था. घर उन के नाम था और सेविंग परिवार के दूसरे सदस्यों के नाम. ज्यादातर तो कामिनी और मामा के ही नाम पर था.

डेविड के हाथ कुछ न लगा. वह बौखला गया और शालू पर दबाव बनाने लगा कि वह गर्भपात करवा ले, जिस से उसे फिल्मों में काम मिल सके.

शालू के लिए बहुत मुश्किल भरे दिन थे. बस, एक अंतिम फिल्म थी उस के हाथ ‘जादूगरनी.’ इस में वह नायिका थी. सुबह उठने का जी नहीं करता. वह उलटियां करती हुई शूटिंग करने जाती. सूखा चेहरा, हाथपांवों में थकान और मन में उदासी. डेविड ने अल्टीमेटम दे दिया था कि वह इस सप्ताह गर्भपात करवा ले.

शालू की आंखों में हर समय तूफान भरा रहता. क्या इस दिन के लिए उस ने अपने परिवार वालों से लड़झगड़ कर शादी की थी? अपना कैरियर दांव पर लगाया था? जिस प्यार के लिए जिंदगी भर तरसी उस का यह हश्र?

यह तो उस के दुखों की शुरुआत भर थी. जैसे ही शालू ने गर्भपात कराने से इनकार किया, डेविड का व्यवहार ही बदल गया. अब शालू के सामने था एक क्रूर और स्वार्थी इनसान, जिसे मतलब था तो सिर्फ शालू की कमाई से. शालू दिन भर शूटिंग में उलझी रहती, शाम को थकीहारी घर आती. डेविड शराब के नशे में चूर उसे दुत्कारता, गालियां सुनाता. जिस दिन शालू ‘जादूगरनी’ की शूटिंग पूरी कर के घर आई, डेविड ने उसे यहां तक कह दिया कि वह कहीं से भी उसे कमा कर दे, अगर फिल्मों से नहीं कमाती तो अपना शरीर बेचे…

शालू ने अपने कानों पर हाथ रख लिया. अंदर तक छलनी कर दिया था डेविड ने उसे. मामा और परिवार के दूसरे सदस्यों के मुकाबले कहीं अधिक स्वार्थी निकला था उस का डेविड. उस रात बाथरूम में अपने को बंद कर रोती रही थी शालू. सुबह हुई तो उठ नहीं पाई. शरीर गरम तवे सा जल रहा था. लग रहा था मानो उस के अंदर एक ज्वालामुखी भर गया हो, जो किसी भी वक्त फट पड़ेगा. डेविड की चिल्लाने की आवाज लगातार आती रही पर इस समय शालू को न उस की आवाज से डर लग रहा था न उस के होने की दहशत.

शालू उठी, धीरे से दरवाजा खोला. दरवाजे के सामने ही डेविड बदहवास सोया पड़ा था. किसी तरह उस के शरीर को लांघ कर शालू बाहर सड़क पर आ गई और आटो पकड़ सीधे वह बबलू मास्टर के घर पहुंची.

दादर में एक पुरानी इमारत में दूसरे माले पर बबलू मास्टर रहते थे. लकड़ी की सीढि़यां पार कर शालू उन के घर के सामने खड़ी हुई. अंदर से बबलू मास्टर के खांसने की आवाज आ रही थी. दरवाजा खुला था. शालू को देख बबलू मास्टर की बहू ने पूछा, ‘कौन? क्या मांगता है?’

शालू किसी तरह दरवाजे की टेक लगाए इतना ही बोल पाई, ‘मैं, शालू.’

अस्तव्यस्त कपड़े, बिखरे बाल और बुखार से तपता शरीर, इस समय शालू एक फिल्म की तारिका नहीं, बल्कि किस्मत की मारी दुखियारी लग रही थी.

बबलू मास्टर के सामने शालू फूटफूट कर रो पड़ी. उन्होंने उस के सिर पर हाथ रख कर सिर्फ इतना ही कहा, ‘इस बूढ़े, बीमार आदमी की बात मान जाती बेटी तो…’

शालू बिलखने लगी, ‘दादा, मुझे बचा लो. वह आदमी मेरे बच्चे को मार डालेगा.’

बबलू मास्टर को धीरेधीरे शालू ने पूरी बात बताई. यह तो वे भी जानते थे कि शालू के हाथ कोई फिल्म नहीं रही. वैसे भी शादीशुदा नायिकाओं को कोई अपनी फिल्म में लेना पसंद नहीं करता है, वह भी ग्लैमरयुक्त भूमिकाओं में.

बबलू मास्टर की एक मौसी रत्नागिरी में रहती थीं. तय हुआ कि शाम की बस से उन की पत्नी और बहू के साथ शालू रत्नागिरी जाएगी और बच्चा होने तक वहीं रहेगी.

बबलू मास्टर ने शालू को समझाते हुए कहा, ‘देख बेटी, शूटिंग पूरी होने के बाद डबिंग होने में काफी समय लगता है. तब तक तो तू लौट आएगी. इस के बाद देखते हैं क्या करना है.’

शालू के पास इस के अलावा कोई रास्ता नहीं था. बस, इतना भर याद रहा कि रत्नागिरी पहुंचतेपहुंचते उस के तन में ताकत रही न मन में जीने की आशा. बबलू मास्टर की बहू तारा उस का खूब खयाल रखती. बच्चे की दुहाई दे कर खिलातीपिलाती. शालू का दिमाग कुंद पड़ता जा रहा था. अपने बच्चे को बचाने की खातिर वह सब से भाग कर यहां तो आ गई, पर आगे क्या करेगी? मुंबई में न उस का घर रहा न कोई काम, जिस के भरोसे बच्चे को पाल सके. फिर डेविड क्या उसे इतनी आसानी से छोड़ देगा? डेविड की याद आते ही पूरे शरीर में झुरझुरी सी आ जाती. कई बार उस का मन किया कि मां को फोन करे, कामिनी से बात करे पर वह रुक जाती. इन में से किसी ने उस का तब साथ नहीं दिया था जब वह डेविड से शादी करने जा रही थी. सब उसे बांध कर रखना चाहते थे, ताकि वह पैसा कमा कर उन्हें देती रहे. क्या अब उस का साथ देंगे? कहीं वे भी उस के बच्चे के पीछे तो नहीं पड़ जाएंगे?

दिन भर बिस्तर पर पड़ीपड़ी यही सब सोचती रहती शालू. शाम को तारा उसे जबरदस्ती बाहर अपने साथ घुमाने ले जाती. शालू ने यहां आने के बाद अपने हाथ और कानों का सोना बेच अपने लिए कुछ कपड़े खरीदे और बाकी पैसे बबलू मास्टर की पत्नी के हाथ में रख दिए. इस के अलावा उस के पास देने के लिए था ही क्या?

आखिर 5 महीने बाद शालू के मन की मुराद पूरी हुई. उसे बेटा हुआ, अपने बाप की तरह गोराचिट्टा, नीली आंखों वाला. उसे देखते ही शालू अपने सारे गम भूल गई.

तारा ने ही उस का नाम बौबी रखा. अपनी गोद में बच्चे को ले कर तारा चहकते हुए बोली, ‘देखो, शालू दीदी, यह बिलकुल बौबी फिल्म के हीरो ऋषि कपूर की तरह लगता है. इतना सुंदर बच्चा मैं ने कभी नहीं देखा. इस का नाम बौबी रखो, दीदी.’

शालू को बौबी का कोई काम नहीं करना पड़ा. दिनभर तारा उस की देखभाल करती. बबलू मास्टर की पत्नी उस की मालिश करती, नहलातीधुलाती.

बौबी 1 महीने का हुआ. अब मुंबई वापस जाने का समय आ गया था. इस कल्पना से ही शालू को दहशत होने लगी.

लौट कर सब बबलू मास्टर के ही घर आए. इस बीच बबलू मास्टर ने ‘जादूगरनी’ के निर्माता को बता दिया कि शालू बच्चे के जन्म के लिए बाहर गई है, लेकिन डेविड ने खूब तमाशा किया, कहांकहां नहीं ढूंढ़ा उसे. शालू के बारे में उसे कहीं से कोई खबर नहीं मिली.

बबलू मास्टर के घर एक दिन रुक कर अगले दिन शालू बौबी को ले कर अपने मामा के घर गई. वह घर, जिसे उस ने तिनकातिनका जोड़ कर संवारा था. मां उसे देखते ही रो पड़ीं, भाग कर बौबी को गोद में उठा लिया लेकिन मामा और कामिनी का बरताव बेहद रूखा था.

कामिनी की शादी होने वाली थी और मामा नहीं चाहते थे कि उस समय शालू वहां रहे भी. ‘तुम्हारी शादी की वजह से वैसे भी बहुत बदनामी हो चुकी है हमारी. तुम्हारा पति आएदिन यहां आ कर शोर मचाता रहता है. इस समय हमें कोई झमेला नहीं चाहिए,’ मामा इतना बोल कर चले गए थे.

शालू की आंखें भर आईं. उस से यह भी कहते नहीं बना कि ये शानोशौकत और घर उस की कमाई के हैं. वह अपने बच्चे को गोद में उठाए चलने को हुई, मां ने उस की बांह पकड़ ली, ‘शालू, कहां जा रही है? मैं भी चलूंगी तेरे साथ.’

शालू अपनी मां के साथ घर से बाहर निकल आई. इस के बाद शुरू हुआ संघर्ष का लंबा दौर. इस बीच डेविड न जाने कहां निकल गया था. किराए के घर में अपने दुधमुंहे बच्चे को मां के पास छोड़ कर शालू निर्मातानिर्देशकों के पास काम मांगने जाती लेकिन हर तरफ से निराशा मिलती. चंद महीने पहले की कामयाब और चर्चित नायिका को पूछने वाला कोई न था. उस की फिल्म ‘जादूगरनी’ भी बीच में ही अटक गई थी. कई निर्माताओं ने तो उस पर कटाक्ष भी कर दिया कि अब वह पहले की तरह सैक्सी नहीं दिखती. मां बन गई है तो मां की ही भूमिकाएं मिलेंगी उसे.

2 महीने बाद उसे एक फिल्म में छोटी सी भूमिका मिली. जिस नायक के साथ साल भर पहले वह मुख्य नायिका थी, आज उस की भाभी का किरदार कर रही थी शालू. लेकिन काम तो करना ही था. घर का किराया, बच्चे का खर्च इन सब की जिम्मेदारी उठानी थी उसे. 22 साल की उम्र में भाभी और बहन की भूमिकाएं निभाने के बाद वह मां की भी भूमिका निभाने लगी. काम वह दिल लगा कर करती, लेकिन जैसे हंसना ही भूल गई थी शालू. अपना काम निबटा कर घर आने की जल्दी होती उसे. बौबी बड़ा हो रहा था और अब तुतला कर बोलने लगा था.

हर समय उसे एक ही आशंका बनी रहती कि अगर किसी दिन डेविड लौट आया तो?

एक दिन उस की आशंका सही निकली. जिंदगी पटरी पर चलने लगी थी. वह फिल्मों में छोटीमोटी भूमिकाएं करने लगी. भूल चली थी कि एक समय वह इसी फिल्म इंडस्ट्री में नायिका हुआ करती थी. पुराने सारे तार काट डाले. मुश्किल था उस के लिए यह सब करना. अभी वह युवा थी, एक बच्चे की मां, और वह भी अकेली औरत. रोज ही उस के सामने लुभावने प्रस्ताव आते, कई निर्माता- निर्देशक तो साफ कहते कि अगर वह बेहतर रोल और पैसा चाहती है तो उसे समझौता करना होगा.

शालू का चेहरा कठोर हो चला था. वह बेहद विनम्रता से उन की बात ठुकरा देती. उसे कम पैसों में एक बार फिर जिंदगी चलाना आ गया.

इस बीच, मां बीमार रहने लगीं, बौबी की जरूरतें बढ़ने लगीं और एक दिन…

शाम की शिफ्ट थी. महबूब स्टूडियो में वह हीरो की मां का रोल कर रही थी. बालों में सफेद विग, सफेद साड़ी पहने और पूरी बांह का ब्लाउज. उस से उम्र में बस 1 साल छोटी निकिता फिल्म की नायिका थी. हाथ में चाय का गिलास लिए छोटीछोटी चुस्कियां भर रही थी शालू कि अचानक सामने डेविड नजर आ गया.

और शालू के हाथ से चाय का गिलास फिसल कर साड़ी पर बिखर गया. दिल जोरों से धड़कने लगा. हां, पूरे 4 साल बाद उसे देख कर उस की तरफ चला आया डेविड.

शालू को काटो तो खून नहीं. इतने में स्पौट बौय उस के पास आ कर उस की साड़ी साफ करने लगा.

डेविड आ कर सीधे उस के कदमों में बैठ गया. पहले से कहीं दुबलापतला, अधमरा, बढ़ी दाढ़ी, पिचके गाल और खिचड़ी बाल. जैसे ही उस ने शालू के कदमों पर अपना सिर रखा, वह चिहुंक कर उठ खड़ी हुई.

डेविड कुछ लरजता सा बोला, ‘शालू डार्लिंग, मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम्हारे साथ बहुत गलत किया है. तुम्हारी जिंदगी तबाह कर दी. प्लीज…मुझे अपना लो.’

शालू इस के लिए तैयार नहीं थी. उस ने हमेशा डेविड को गरजते, झगड़ते ही देखा था. डेविड का यह नया रूप था लेकिन उस की आंखें वही थीं. संशय से भरी आंखें. शालू ने धीरे से कहा, ‘मेरा पीछा छोड़ दो. मेरे पास अब तुम्हें देने के लिए कुछ नहीं है.’

डेविड चिरौरी करने लगा, रोने लगा, ‘शालू, मैं ने बहुत धक्के खाए हैं. अब कभी मैं तुम्हें तंग नहीं करूंगा. मुझे घर ले चलो.’

‘कौन सा घर?’ शालू के होंठों पर विद्रूप मुसकान तैर आई, ‘तुम ने मेरे लिए कुछ छोड़ा ही नहीं.’

वह उठी और लंबे डग भरती वहां से चली गई. शौट खत्म कर जब वह आई तो मन में हलचल मची थी कि कहीं डेविड बाहर उस का इंतजार तो नहीं कर रहा? किसी तरह उस ने मेकअप आर्टिस्ट लतिका को अपने साथ चलने के लिए राजी किया. स्टूडियो के बाहर से वह रोज घर जाने के लिए आटो लेती थी. उस ने लतिका से कहा कि वह आटो वाले को बुलाए, सिर पर आंचल रख कर शालू वहां से निकली और सीधे आटो में बैठ गई.

हिंदी व्याकरण में सियासत

मैं जब भी किसी नेता को यह कहते हुए सुनता हूं कि वे तो राजनीति छोड़ना चाहते हैं, पर राजनीति उन्हें नहीं छोड़ती, मुझे उस गरीब की याद आ जाती है जो घोर सर्दी में कहीं से एक कंबल पा गया था. उस से अगर कोई पूछता था, ‘‘बहुत सर्दी है क्या?’’ तो उस का जवाब होता था, ‘‘कतई नहीं.’’ अगला सवाल, ‘‘तो कंबल में यों ठिठुर क्यों रहे हो?’’ उस का जवाब होता, ‘‘मैं तो यह कंबल छोड़ना चाहता हूं पर यह कंबल मुझे नहीं छोड़ता.’’

उक्त प्रसंग का एक खास कारण है कि मेरी भी दशा उन नेताओं जैसी बरबस होती जा रही है. मैं कतई राजनीति नहीं पसंद करता. मैं आजीवन हिंदी लेखन का एक छात्र बना रहना चाहता हूं पर मुसीबत तो यह है कि यह राजनीति मेरे व्याकरण पर भी सवार हो चुकी है. अब क्योंकि हिंदी लेखन तो मैं छोड़ नहीं पाऊंगा लिहाजा, इस से भी पिंड छूटता नजर नहीं आता.

गौर कीजिए, जब देश के राष्ट्रपति के पद के लिए प्रतिभा देवीसिंह पाटिल के नाम का प्रस्ताव आया था तो राजनीतिक हलकों में एक बहस छिड़ गई थी कि अगर उस खास पद पर एक पुरुष हो तो राष्ट्रपति कहा जाना तर्कसंगत है पर जब उस पर कोई महिला हो तो क्या उसे राष्ट्रपत्नी कहा जाना चाहिए? भाई लोगों ने चटखारे लेले कर इस सियासती व्याकरण की खूब खिल्ली उड़ाई थी. प्रतिभा पाटिल के बहाने चली बहस में महात्मा गांधी को भी लपेट लिया गया था कि अगर वे राष्ट्रपिता थे तो क्या कस्तूरबा गांधी राष्ट्रमाता थीं. ऐसी बचकाना हरकत  इंदिरा गांधी के समय में भी एक बार उछाली गई थी. यह एक व्याकरणात्मक राजनीति थी.

अगर इसे आधार मान लिया जाए तो जवाहर लाल नेहरू क्योंकि चाचा नेहरू के नाम से मशहूर हो गए थे, तो क्या उन की पत्नी कमला नेहरू चाची कहलाई गईं?

हरियाणा के एक नेता देवीलाल ताऊ कहलाए जाने लगे थे तो क्या उन की पत्नी ताई कहलाई गईं?

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के एक नेता राजा भैया के नाम से मशहूर हैं. सवाल है कि क्या उन की पत्नी को राजा बहन कहा जाए या रानी भैया कहा जाए या रानी बहन कहा जाए? ये सभी मामले विशुद्ध व्याकरणात्मक राजनीति के हैं जिन से मेरा कोई लेनादेना नहीं है पर जब ये लिखने वाली भाषा के व्याकरण में आने लगते हैं तो मेरी तकलीफ नाजायज नहीं कही जाएगी.

अब गौर कीजिए साली का पुल्ंिलग, साला हुआ पर गाली का गाला नहीं हुआ. गठरी का गट्ठा तो हुआ लेकिन मठरी का मट्ठा नहीं हो सकता. लंगड़ी का लंगड़ा तो हुआ, पर गृहिणी का गृहणा नहीं हो सकता, पत्नी का पत्ना भी नहीं हो सकता. पुत्री का पुत्र तो होता है पर नेत्री का नेत्र नहीं हो सकता. खाली का खाला नहीं हो सकता और राजनीति का राजनीता भी नहीं हो सकता. इसी तरह कोयल का कोयला भी नहीं हो सकता.

चाचा का स्त्रीलिंग चाची तो होता है, मामा का मामी भी होता है पर बप्पा का बप्पी कतई नहीं होता. सरकारी कार्यालयों में जूता बोलता है, वह चाहे चांदी का हो या चमड़े का या फिर चाचा, दादा का, पर जूती कतई नहीं बोलती. जबकि दूसरी तरफ दबंग की तूती बोलती है, पर किसी का तूता बोलते आप ने कभी नहीं सुना होगा.

यह समस्या केवल पुल्ंिलग और स्त्रीलिंग में ही नहीं है, एकवचन और बहुवचन में भी है. गाड़ी का बहुवचन गाडि़यां होता है, साड़ी का साडि़यां होता है पर कबाड़ी का कबाडि़यां नहीं होता. बात का बातें तो होता है, लात का लातें भी होता है पर तात (पिता) का तातें नहीं हो सकता. पेड़ का बहुवचन भी पेड़ ही है. आप यह नहीं कह सकते कि इस बाग में 10 पेड़ें हैं, सही तो यही होगा कि इस बाग में 10 पेड़ हैं, ‘जंगल में मोर नाचा’ का बहुवचन होगा ‘जंगल में मोर नाचे’ न कि मोरें नाचे.

अब आप ही बताइए, जैसे दबंग सियासतदां कभी भी और कहीं भी अवैध कब्जों के लिए अलिखित अधिकार पाए हुए होते हैं इसी तरह यह सियासत भी कहीं भी अवैध कब्जा करने के लिए आजाद है. वह लेखन के क्षेत्र में ही नहीं, नदी, तालाब या पाताल तक भी जा सकती है. मामला लिंग का जो ठहरा, इस के पास सत्ता होती है. अब सत्ता का शब्द खुद ही पुल्ंिलग जैसा दिखता है, इस का पुल्ंिलग कैसे बनाया जा सकता है. यह एक व्याकरणात्मक समस्या है राजनीतिक नहीं.

कुछ ऐसा ही मामला विलोम शब्दों के साथ भी है. अंकुश का निरंकुश तो होता है पर माता का निर्माता नहीं हो सकता आदि.

बीमारी की बिसात

‘जोर लगा के हैया, पत्नी बीमार है मन लगा कर काम करो सैंया.’

पिछले एक सप्ताह से इस लाइन का मनन बेहद सत्यनिष्ठा के साथ कर रहा हूं, ठीक उसी तरह जैसे भक्त भगवान का करते हैं. इस लाइन को भूलना भी चाहूं तो बेचारे बिस्तर को 24 घंटे कष्ट दे रही हमारी श्रीमतीजी की गुब्बारे सी काया हमें भूलने नहीं देती है. इस लाइन को अभी से भूल गया तो आने वाले 3 सप्ताह का सामना कैसे करूंगा, क्योंकि डाक्टर ने कम से कम 4 सप्ताह तक उन्हें पूर्ण आराम की सलाह दी है और उन की संपूर्ण देखरेख की हिदायत मुझे दी है.

आप यह मत सोचिए कि उन्हें कोई गंभीर, खानपान से परहेज वाली बीमारी है. ऐसा बिलकुल नहीं है. उन्हें तो बस, काम से मुक्त आराम करने वाला प्रसाद के रूप में एक अचूक झुनझुना मिल गया है जिस का नाम है ‘स्लिप डिस्क.’

इस की प्राप्ति भी उन्हें कोई गृह कार्यों के बोझ तले दब कर नहीं हुई बल्कि अपनी ढोल सी काया को कमसिन बनाने के लिए की जा रही जीतोड़ उलटीसीधी एक्सरसाइज के कारण हुई है. वैसे तो इस प्रसाद को उन के साथसाथ मैं भी चख रहा हूं. लेकिन दोनों के स्वाद में जमीनआसमान का अंतर है. जहां श्रीमतीजी के सुखों का कारवां फैल कर दोगुना हो गया है वहीं हमारे घरेलू अधिकारों की अर्थी उठने के साथसाथ कर्तव्यों की फसलें सावन में हरियाली की तरह लहलहा रही हैं.

श्रीमतीजी अपनी रेपुटेशन एवं खुशनुमा दिनचर्या के लिए जिन्हें आधार मानती हैं वे मेरे लिए कर्तव्यों की फसल में खरपतवार के समान हैं. यानी उन का हालचाल पूछने व इधरउधर की सनसनीखेज खबरें बताने के लिए दिन भर थोक में आने वाली और श्रीमतीजी पर हम से कई गुना ज्यादा प्रेम बरसा कर हमदर्दी जताने वाली कोई और नहीं उन की प्रिय सहेलियां हैं.

बेमौसम सहेलियों की बाढ़ से घर की अर्थव्यवस्था निरंतर क्षतिग्रस्त होती जा रही है. मेरी समस्या असार्वजनिक होने के कारण दूरदूर तक मुआवजे की भी कोई उम्मीद नहीं है. कपप्लेट, गिलास और ट्रे के साथ मैं भी फुटबाल की तरह दिन भर इधर से उधर टप्पे खाता फिर रहा हूं.

फुटबाल के खेल में दोनों पक्ष गुत्थमगुत्था मेहनत करते हैं तब कहीं जा कर एक पक्ष को जीत नसीब होती है लेकिन यहां तो अंधेर नगरी चौपट राजा है, कमरतोड़ मेहनत भी हम करें और हारें भी हम ही. उधर हमारी श्रीमतीजी की पौबारह है. पांचों उंगली घी में और सिर कड़ाही में है. काम से परहेज किंतु कांवकांव से कोई परहेज नहीं.

अकेले में हलके से हिलना भी हो तो हमारी हाजरी लिफाफे पर टिकट की तरह बेहद जरूरी है. वहीं 4-6 ने आ कर जैसे ही बाहरी दुनिया का बखान शुरू किया नहीं कि यहांवहां की स्वादिष्ठ बातों का श्रवण कर बातबात पर स्ंिप्रग की भांति उन का उछलना तथा आहें भरभर कर प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए कभी खिसियाना या कभी खीसें निपोरना देखने लायक होता है.

‘‘कल किटी पार्टी में किस ने किस की आरती उतारी, किस ने अध्यक्षा को अपने कोमल हाथों से चरण पादुकाएं पहनाईं, किस ने किस को मक्खन लगाया, पकवानों में कौनकौन से दुर्गुण थे, चाय के नाम पर गरम पानी पिलाया आदि.’’

यह देख हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहता कि एक से बढ़ कर एक जहर से लिपटे शब्दबाण हमारी श्रीमतीजी को घायल करने के बजाय इतना स्फूर्तिदायक बना देते जैसे वह अमृत का प्याला हों. वाह रे खुदा, तेरी खुदाई देख कर लगता है कि इन महिलाओं के लिए निंदा रस से बढ़ कर और कोई मिठाई नहीं है. इन की महफिल से जो परिचिता गायब है, समझ लो वही इन सब के हृदय में निंदा रस प्रज्वलित करने का माध्यम है और इस निंदा रस में डुबकी लगा कर उन सभी के चेहरे एकदम तरोताजा गुलाब की तरह खिल जाते हैं.

निंदा रस के टौनिक से फलती- फूलती इन महिलाओं को लगता है आज किसी की नजर लग गई क्योंकि कमरे के अंदर से आते हुए सभी का सुर अचानक एकदम बदल गया है. ऐसा लग रहा था मानो हमारे बेडरूम में विधानसभा या संसद सत्र चल रहा हो.

हम ने भीगी बिल्ली की तरह चुपके से अंदर झांका तो सभी की भवें अर्जुन के धनुष सी तनी हुई थीं. माथे पर पसीने की बूंदें रेंगती हुई, जबान कौवे की सी कर्कश, चेहरा तपते सूरज सा गरम और हाथ अपनी स्वामिनी के पक्ष में कला- बाजियां खाते इधरउधर डोल रहे थे.

सभी नारियों के तीनइंची होंठ एकसाथ हिलने के कारण अपने कानों व दिमाग की पूर्ण सक्रियता के बावजूद यह समझ नहीं पाए कि इस विस्फोटक नजारे के पीछे किस माचिस की तीली का हाथ है. वह तो भला हो गरमी की छुट्टियों का जिस की वजह से फिलहाल अड़ोसपड़ोस के मकान खालीपन का दुख झेल रहे हैं.

कोई घंटे भर की चांवचांव के बाद लालपीली, शृंगारिकाएं एकएक कर बाहर का रास्ता नापने लगीं. जब श्रीमतीजी इकलौती बचीं तब हम ने उन से व्यंग्यात्मक लहजे में पूछा, ‘‘आज क्या सामूहिक रूप से तबीयत गरम होने का दिन था?’’

‘‘यह सब तुम्हारी वजह से हुआ है.’’

‘‘क्या?’’ हमारा मुंह खुला का खुला रह गया.

‘‘और नहीं तो क्या…तुम आ कर इतना भी नहीं बता सकते थे कि मधु मेरी तबीयत देखने के बहाने अंदर आ रही है. हम उसी की बात कर रहे थे और वह कमरे के बाहर कान लगा कर खड़ी हो गई. फिर क्या, ये सब तो होना ही था. अब कोईर् नहीं आएगा मेरा हालचाल पूछने, पड़ी रहूंगी अकेली दिन भर टूटे हुए पत्ते की तरह.’’

इतना कहतेकहते नयनों से झरना फूट पड़ा. ऊपरी मन से हम भी श्रीमतीजी के असह्य दुख में शामिल हो उन्हें सांत्वना देने लगे.

‘‘कोई नहीं आता है तो न आए, मैं तो हूं, सात जन्मों तक तुम्हारी सेवा करने के लिए. मेरे रहते क्यों इतनी दुखी होती हो, प्रिय.’’

लेकिन हमारी इस सांत्वना से बेअसर श्रीमतीजी का बोझिल मन उन के आंसुओं में लगातार इजाफा कर रहा था. हम ने श्रीमतीजी को वहीं, उसी हाल में छोड़ कर पुरानी पेटी से चवन्नी ढूंढ़ घर के देवता को सवा रुपया चढ़ा, उन की चरण वंदना करते हुए कहा, ‘‘हे कुल के देवता, तुझे लाखलाख प्रणाम, जो तुम ने मेरे घर को सहेलियों की बाढ़ से समय पर बचा लिया. अगर इस बाढ़ पर अब शीघ्र अंकुश नहीं लगता तो अनर्थ हो जाता. श्रीमतीजी तो थोड़ी देर में रोधो कर चुप हो जाएंगी लेकिन मैं जितने दिनों दुकान के कर्ज को भरता, रोता ही रहता.’’

कंप्यूटर से कटोरा

दीपिका ने घर आ कर सब से पहले अपने 2 साल के बेटे शंकुल को डिटौल के पानी से नहला कर दूध पिलाया और सुला दिया. फिर कंप्यूटर खोल कर अपनी कंपनी को ई-मेल से इस्तीफा भेजा और पति रवि को फोन कर जल्दी घर आने के लिए कहा. इतना करने के बाद वह सोफे पर बैठ गई तथा विचारों में खो गई.

लगभग 4 साल पहले उस ने तथा रवि ने इलाहाबाद से एम.टेक की डिगरी ली थी तथा कैंपस में ही दोनों का चयन हो गया था. गुड़गांव में अपना आफिस खोल कर भारत में काम करने वाली एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से दोनों को 5-5 लाख रुपए का पैकेज मिला था. नौकरी की शुरुआत करते हुए दोनों ने शादी का फैसला लिया तो उन के घर वाले इस अंतर्जातीय विवाह के लिए तैयार नहीं थे. आखिर दोनों ने अपने परिवार वालों से हमेशा के लिए संबंध तोड़ कर कोर्ट में शादी कर ली थी.

पतिपत्नी दोनों को अच्छा वेतन मिल रहा था, इसलिए उन के सामने किसी तरह की आर्थिक समस्या नहीं थी लेकिन समस्या समय की जरूर थी. उन के आफिस जाने का समय तो निश्चित था, लेकिन घर वापस आने का नहीं. कंपनी अच्छे वेतन के बदले उन से जम कर काम लेती थी. वह और रवि दोनों एक ही कंपनी के अलगअलग दफ्तरों में काम कर रहे थे. रवि अकसर टूर पर बाहर जाता था लेकिन वह केवल दफ्तर में कार्य करती और वापस घर आ जाती.

शादी के साल भर बाद ही उन्होंने एक फ्लैट खरीद लिया. जाहिर है हर पतिपत्नी का एक सपना होता है कि अपना घर हो, उन का सपना पूरा हो गया. फ्लैट खरीदा तो घर में काम आने वाली दूसरी वस्तुएं भी खरीद लीं. मकान व सामान के लिए उन्होंने बैंक से जो लोन लिया था वह दोनों के वेतन से कट जाता था.

रवि व उस का सोसाइटी के लोगों से मिलना कभीकभार ही होता था, क्योंकि दोनों काफी देर से आते थे और जल्दी घर से निकल जाते थे. उन का फ्लैट अकसर बंद ही रहता था. किसी रिश्तेदार के आने का सवाल ही नहीं था. दोस्त आदि तो आफिस की पार्टी में ही मिल लेते थे. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो उन का आफिस ही उन के लिए घर हो गया था, जहां लंच, डिनर आदि सबकुछ मिलता था. कईकई रात तो वे लोग फ्लैट पर आते ही नहीं थे. किसी सहकर्मी के यहां पार्टी के बाद वहीं रात बिता लेते थे. लेकिन सोसाइटी होने के कारण उन का फ्लैट सुरक्षित था.

शुरू में तो उस ने व रवि ने बच्चा पैदा न करने का फैसला लिया था लेकिन बाद में सहकर्मियों के परिवारों को देखते हुए उन्होंने एक बच्चा पैदा करने का फैसला कर लिया तथा एक साल के अंदर ही शंकुल उन के घर में नन्हा मेहमान बन कर आ गया.

कोई रिश्तेदार दिल्ली में था ही नहीं. क्रैच काफी दूर था और जो थे वे भी इतने छोटे बच्चे को रखने के लिए तैयार नहीं थे. अत: दीपिका को हर तरह की छुट्टी लेनी पड़ी, जिस में बिना वेतन अथवा आधा वेतन पर ली गई छुट्टियां भी शामिल थीं. लेकिन बच्चे के आने से घर में रौनक थी. रवि बच्चे को ले कर बहुत ही उत्साहित था. जब दीपिका खाना बनाती तब रवि बच्चे के साथ खेलता, उस को कंधे पर चढ़ा लेता, उछाल देता. दीपिका भी नौकरानी को घर का काम सौंप कर बच्चे के साथ खूब खेलती. दोनों का सपना,  शंकुल के भविष्य में नजर आता. वे दोनों अपनी तरह बच्चे को खूब पढ़ालिखा कर कंप्यूटर इंजीनियर बनाना चाहते थे, ताकि वह अमेरिका जा सके और उन का नाम रोशन कर सके. लेकिन एक साल के अंदर ही कंपनी का नोटिस आ गया कि शीघ्र नौकरी शुरू करो या त्यागपत्र भेजो.

घर में पार्टटाइम नौकरानी आती थी. दीपिका ने उस से पूरे दिन काम करने का प्रस्ताव रखा लेकिन उस ने मना कर दिया. अंत में उस ने प्लेसमेंट सर्विस से संपर्क किया. 2 महीने का अग्रिम कमीशन के रूप में ले कर लगभग 30 वर्षीय महिला की प्लेसमेंट वालों ने सेवा उपलब्ध करा दी. चूंकि दोनों की मजबूरी थी इसलिए एग्रीमेंट की कड़ी शर्तें भी उन्होंने मंजूर कर लीं. शर्तों के अनुसार 5 हजार रुपए प्रतिमाह वेतन, घर के सदस्यों की भांति भोजन, कपड़ा तथा वार्षिक छुट्टी आदि नौकरानी को देने थे.

अब दीपिका ने अपनी नौकरी फिर से शुरू कर दी, लेकिन अब उस को घर पहुंचने की जल्दी रहती थी. दोनों ने पार्टियां भी कम कर दी थीं. रवि भी पूरी कोशिश करता कि समय से घर पहुंच कर अपने बच्चे के साथ खेल सके. आखिर शंकुल पतिपत्नी दोनों का भविष्य था. दोनों ही अपनी भांति उस को भी कंप्यूटर इंजीनियर बनाना चाहते थे. दोनों सुबह काम पर जाने से पहले अपना कमरा बंद कर शंकुल को नौकरानी के हवाले कर के जाते. फ्लैट में एक कमरा नौकरानी का था लेकिन दिन में पूरे फ्लैट की जिम्मेदारी नौकरानी की ही थी. वह जो चाहती बना कर खा लेती तथा बच्चे को खिला देती.

इधर कुछ दिनों से नौकरानी फ्लैट बंद कर के शंकुल को साथ ले कर बाहर घूमने चली जाती थी. दोनों ही नौकरानी को अपने परिवार का सदस्य मानने लगे थे तथा जब भी बाहर घूमने जाते उस को भी अच्छे कपड़ों में साथ ले जाते थे.

इतने में दरवाजे की घंटी बजी, दीपिका अतीत से वर्तमान में लौट आई. दरवाजा खोला तो रवि खड़ा था. रवि ने आते ही जोर से कहना शुरू किया, ‘‘समझ में नहीं आता कि क्यों तुम ने त्यागपत्र भेजा और क्यों नौकरानी को निकाल दिया?’’

दीपिका एकदम शांत रही और सोए शंकुल के बालों में उंगलियां घुमाती रही. रवि का गुस्सा जब तक शांत हुआ तब तक शंकुल भी सो कर उठ गया था. पापा को आया देख कर वह उन की गोद में चला गया. रवि भी थकान, गुस्सा भूल कर बच्चे के साथ खेलने लगा. रवि बेटे से बातें किए जा रहा था कि बड़ा हो कर मेरा बेटा भी कंप्यूटर इंजीनियर बनेगा, अमेरिका जाएगा आदि. इतने में दीपिका नाश्ता ले आई. रवि ने उस से फिर पूछा, ‘‘प्लीज, दीपू, पूरी बात बताओ न.’’

दीपिका ने ठंडी सांस ले कर बोलना शुरू किया, ‘‘आज सुबह जब आफिस जाना था तो सिर में भयंकर दर्द था. मैं ने तुम्हें बताया नहीं और गोली खाने के बाद आफिस पहुंच गई. वहां जरमनी से एक डेलिगेशन को आना था. लेकिन आफिस में पहुंचने पर पता चला कि मीटिंग कैंसिल हो गई है क्योंकि डेलिगेशन भारत पहुंचा ही नहीं. अत: मैं ने छुट्टी ले कर आराम करने का फैसला किया.

‘‘तकरीबन 11 बजे मैं आफिस से निकल कर घर की ओर चल दी. टै्रफिक कम होने के कारण मैं जल्दी ही घर पहुंच गई. सोसाइटी से पहले वाले चौराहे पर मैं ने कुछ फल खरीद कर गाड़ी में रखे ही थे कि एक भिखारिन को गोद में बच्चा ले कर भीख के लिए एक महिला के सामने खड़ा देखा. मुझे वह भिखारिन कुछ जानीपहचानी सी लगी. मैं ने गाड़ी में बैठ कर उसे गौर से देखा तो मेरा दिल धक से रह गया. वह भिखारिन गाड़ी की तरफ आ रही थी और पास आई तो देखा भिखारिन और कोई नहीं हमारी नौकरानी थी और उस की गोद में हमारा शंकुल.

‘‘चौराहे पर बिना कोई ड्रामा किए मैं दोनों को घर ले आई तथा नौकरानी का सामान बाहर फेंक कर उसे हमेशा के लिए दफा किया. उस से पूछा तो पता चला कि हमारे आफिस जाने के बाद शंकुल को गंदे कपड़े पहना कर और खुद भी गंदे कपड़े पहन कर वह हर रोज 4-5 घंटे चौराहे पर भीख मांगा करती है. दोपहर के बाद घर आ कर बच्चे को नहलाधुला कर अच्छे कपड़े पहना कर खाना खिला कर सुला देती थी. वह तो अच्छा हुआ कि आज सचाई का खुद पता चल गया.’’

दीपिका की बातें सुन कर रवि ने गहरी सांस भरी और पास आ कर पत्नी व बेटे को चूम लिया और बोला, ‘‘तुम्हारा निर्णय ठीक है. हम तो अपने बच्चे को कंप्यूटर इंजीनियर बनाना चाहते हैं लेकिन इस नौकरानी ने तो हाथ में कटोरा पकड़ा दिया.’’

‘‘कंप्यूटर से कटोरा,’’ दीपिका ने मुस

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