वसीयत: भाग 3- क्या अनिता को अनिरूद्ध का प्यार मिला?

इस में चेतना को सजग रखने की बात कही गई है. दृष्टि का केवल एक ही जीवन पर केंद्रित रहना किसी छलावे से कम नहीं है और इंसान ताउम्र यही दुराग्रह करता रहता है कि उस की मृत्यु एक अंत है. अनीता चाहे मृत्यु को कितना भी बौद्धिक दृष्टिकोण से देख रही थीं, लेकिन वे अंदर से सिहर जातीं, जब भी उन्हें खयाल आता कि यह सुंदर देह वाला उन का प्रेमी 2-3 महीने से ज्यादा का मेहमान नहीं है.

लेकिन अनीता सशक्त महिला थीं, किसी दूसरे को स्नेह और करुणा देने के लिए व्यक्ति को पहले अपने भीतर से शक्तिशाली होना पड़ता है और वे तो भावनात्मक तौर पर हर दिन मजबूत और परिपक्व हो रही थीं. अनिरुद्ध की हालत खस्ता थी लेकिन अनीता के साथ के कारण वह जीवंत था. पलपल करीब आती मृत्यु को साक्षी भाव से देख रहा था जैसा अनीता उसे उन दिनों सिखा रही थीं.

एक शाम सहसा अनिरुद्ध ने अनीता का हाथ पकड़ लिया और अपने पास बैठने को बोल दिया. यह कुछ अटपटा सा था क्योंकि उन दोनों के रिश्ते में कभी इतनी अंतरंगता नहीं थी.  ‘‘तुम अपना ध्यान रखना मेरे जाने के बाद,’’ कह वह बच्चे की तरह अनीता से लिपट गया. अनीता में वात्सल्य से ले कर रति तक के सब भाव उमड़ने लगे.

दोनों मौन में चले गए. उन के स्पर्श एकदूसरे में घुलते रहे. अंधेरा उतर आया था. अंधकार, मौन और प्रेम उन दोनों को अभिन्न कर रहा था. सभी विचार और तत्त्व विलीन हो रहे थे और केवल सजगता बची हुई थी. केंद्रित, शुद्ध, निर्दोष.

अगले दिन अनिरुद्ध की तबीयत काफी बिगड़ गई. उस के पिता और अनीता उस को फिर से अस्पताल ले गए. रास्तेभर अनीता अनिरुद्ध से अस्पष्ट और खंडित वार्त्तालाप करती रहीं, ‘‘जाना मत अनिरुद्ध. मेरे लिए रुक जाओ.’’ मगर हुआ वही जो होना तय था.

अनिरुद्ध चला गया. अगली सुबह अनिरुद्ध का अंतिम संस्कार कर दिया गया. अनीताजी का गला रुंधा हुआ था. अनिरुद्ध के पिता 4 साल पहले अपनी पत्नी को खो चुके थे और अब बेटा भी… 1 हफ्ता बीत चुका था. अनीता किसी से कुछ बोल नहीं पाईं और आंसू छिपाती हुईं उस कमरे में चली जातीं, जहां अनिरुद्ध रहता था.

उस की तसवीर के सामने खड़ी हो कर अनीता के सब्र का बांध टूट जाता और वे बेतहाशा रोने लगतीं.  एक सुबह अनीता शिमला वापस जाने की तैयारी कर रही थीं. इतने में अनिरुद्ध के पिता उन के कमरे में आ गए और बोले, ‘‘बेटी, सोच रहा हूं किसी युग में तुम ऋषिपुत्री या तिब्बती योगिनी रही होगी.

नारीमन की अंतरंग तरंगों में बहने के लिए संसार को विकास क्रम की एक लंबी यात्रा पूरी करनी है अभी, तुम स्त्रियां किस आयाम में रहतीं. संभव कर लेतीं तुम लोग असंभव को भी. इतनी बड़ी बीमारी के बावजूद मेरा बेटा बिना कष्ट के बहुत शांति से अपनी अगली यात्रा पर चला गया.

सम्यक ज्ञान का वह मानदंड जहां जाने वाले की अनुपस्थिति भी उपस्थिति बन जाती है और समस्त प्रयोजनों की स्वत: सिद्धि बन जाती… काश, मैं वक्त रहते समझ पाता तुम दोनों के अव्यक्त संवाद तो आज,’’ उन का गला भर आया. कुछ संभल कर वे फिर बोले, ‘‘तुम ने जो अनिरुद्ध के लिए किया वह कोई और नहीं कर सकता था.

कोई शब्द ऐसा नहीं जो धन्यवाद कर सकूं. मैं अपनी सारी संपत्ति तुम्हारे नाम कर रहा हूं. वकील साहब नई वसीयत ले कर नीचे आ गए हैं, उन से आ कर मिल लो.’’ अनीता सिसक उठीं. उन्हें किसी सांसारिक जीवन की वसीयत की जरूरत नहीं थी.

उन्हें अनिरुद्ध वसीयत में मिल चुका था, पूर्णरूप से अविभाज्य, पूरी तरह उपस्थित. उस का प्यार, उस की यादें अनीता की अंतर्जात पारदर्शी प्रभा को अवलोकित कर रही थीं. यह संपूर्ण प्राचुर्य का मामला था, जो द्वैत सीमाओं और अंतरिक्ष से भी विस्तृत था.

Father’s Day 2023: पापा की जीवनसंगिनी- भाग 2

पापा की बात सुन कर नानी और मौसी का मुंह जरा सा रह गया. पापा को इतनी गंभीर मुद्रा में उन्होंने पहली बार देखा था. चूंकि दोनों के घर दिल्ली में ही थे सो वे उसी समय भनभनाती हुई अपने घर चली गईं पर पापा की बात सुन कर मेरी आंखों में बिजली सी कौंध गई. आज मैं 21वर्ष की होने को आई थी पर मैं ने पापा का इतना रौद्ररूप कभी नहीं देखा था.

हमारे घर में बस मां और उस के परिवार वालों का ही बोलबाला था. मां कालेज में प्रोफैसर थीं और बहुत लोकप्रिय भी. नानी और मौसी के जाने के साथ ही पापा ने तेजी से भड़ाक की आवाज के साथ दरवाजा बंद कर दिया और मेरी ओर मुड़ कर बोले, ‘‘अरे पीहू तुम अभी यहीं बैठी हो, कुछ हलका बना लो भूख लगी है.’’

पापा की आवाज सुन कर मुझ कुछ होश आया और मैं वर्तमान में लौटी- फटाफट खिचड़ी बना कर अचार, पापड़ और दही के साथ डाइनिंगटेबल पर लगा कर आ कर बैठ गई.

पापा जैसे ही डाइनिंगरूम में आए तो सब से पहले मेरे सिर पर वात्सल्य से हाथ फेरा

और प्यार से बोले, ‘‘बेटा, तुम्हारी मां हमें अनायास छोड़ कर चली गई. 21 साल की उम्र विवाह की नहीं होती. मैं चाहता हूं कि तुम आत्मनिर्भर बनो ताकि जीवन में कभी भी खुद को आर्थिक रूप से कमजोर न समझ. एक स्त्री के लिए आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना बेहद आवश्यक है क्योंकि आर्थिक आत्मनिर्भरता से आत्मविश्वास आता है और आत्मविश्वास से विश्वास जो आप को किसी भी अनुचित कार्य का प्रतिरोध करने का साहस प्रदान करता है. कल से ही अपनी पढ़ाई शुरू कर दो क्योंकि 2 माह बाद ही तुम्हारी परीक्षा है और जीवन में कुछ बनो. क्यों ठीक कह रहा हूं न मैं?’’ मुझे चुप बैठा देख कर पापा ने कहा.

‘‘जी,’’ पापा की बातें मेरे कानों में पड़ जरूर रहीं थीं परंतु मैं तो पापा को ही देखे ही जा रही थी. उन का ऐसा व्यक्तित्व, ऐसे उत्तम विचारों से तो मेरा आज पहली बार ही परिचय हो रहा था. मैं ने जब से होश संभाला था घर में मम्मी के मायके वालों का ही आधिपत्य पाया था. पापा बहुत ही कम बोलते थे पर पापा जब आज इतना बोल रहे थे तो मम्मी के सामने क्यों नहीं बोलते थे, क्यों घर में नानीमौसी का इतना हस्तक्षेप था? क्यों मम्मी पापा की जगह नानी और मौसी को अधिक तरजीह देती थीं और उन के अनुसार ही चलती थीं? क्यों पापा की घर में कोई वैल्यू नहीं थी? इन यक्ष प्रश्नों के उत्तर जानना मेरे लिए अभी भी शेष था.

उस रात तो मैं सो गई थी पर फिर अगले दिन सुबह नाश्ते की टेबल पर मैं ने साहस जुटा कर पापा से दबे स्वर में पूछा, ‘‘पापा जहां तक मुझे पता है आप और मम्मी की लव मैरिज हुई थी फिर बाद में ऐसा क्या हुआ कि आप और मम्मी इतने दूर हो गए कि मम्मी ने सूसाइड करने की कोशिश की?’’

मेरी बात सुन कर पापा कुछ देर शांत रहे, फिर मानो मम्मी के खयालों में खो से गए. अपनी आंखों की कोरों में आए आंसुओं को पोंछ कर वे बोले, ‘‘हम तुम्हारी मां के घर में किराएदार थे. मेरे पापा यूनिवर्सिटी में क्लर्क थे तो उन के पापा उसी यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर. हम दोनों एक ही कालेज में पढ़ते थे. सो अकसर नोट्स का आदानप्रदान करते रहते थे. बस तभी नोट्स के साथ ही एकदूसरे को दिल दे बैठे हम दोनों. वह पढ़ने में होशियार थी और मैं बेहद औसत पर प्यार कहां बुद्धिमान, गरीब, अमीर, जातिपात और धर्म देखता है. प्यार तो बस प्यार है. एक सुखद एहसास है जिसे बयां नहीं किया जा सकता है बल्कि केवल महसूस किया जा सकता है और इस एहसास को हम दोनों ही बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहे थे. एमए करने के बाद तुम्हारी मम्मी पीएचडी कर के कालेज में प्रोफैसर बनी तो मैं बैंक में क्लर्क.

‘‘हम दोनों ही बड़े खुश थे. बस अब मातापिता की परमीशन से विवाह करना था पर जैसे ही हमारे परिवार वालों को पता चला तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया क्योंकि तुम्हारी मां सिंधी और मैं तमिल था. 3 साल तक हम दोनों ने अपनेअपने परिवार को मनाने की भरपूर कोशिश की पर जब दूरदूर तक बात बनते नहीं दिखाई दी तो एक दिन घर से भाग कर हम दोनों ने पहले कोर्ट और फिर मंदिर में शादी कर ली. तुम्हारी मम्मी के घर में एक अविवाहित बड़ी बहन और मां ही थी सो उन्होंने तो कुछ समय बाद ही हमें स्वीकार कर लिया पर मेरे घर वाले अत्यधिक जातिवादी और संकीर्ण मानसिकता के कट्टर धार्मिक थे इसलिए उन्होंने कभी माफ नहीं किया और शादी वाले दिन से ही हमेशा के लिए हम से सारे रिश्ते समाप्त कर लिए. उन्होंने अपना तबादला तमिलनाडु के ही रामेशवरम में करवा लिया और सदा के लिए यह शहर छोड़ कर चले गए.’’

‘‘इतने प्यार के बाद भी मम्मी…’’ पापा मानो मेरे अगले प्रश्न को सम?ा गए थे सो बोले, ‘‘विवाह के बाद जब तक हम भोपाल में थे तो सब कुछ ठीकठाक था. हम सुखपूर्वक अपना जीवनयापन कर रहे थे. उस समय तू 8 साल की थी जब तुम्हारी मम्मी का तबादला दिल्ली हुआ तो मैंने भी अपना ट्रांसफर करवा लिया. तुम्हारी मम्मी का मायका था दिल्ली सो वे बहुत खुश थीं. दिल्ली शिफ्ट होने के बाद तुम्हारी नानी और मौसी का आना जाना बहुत बढ गया था.

‘‘तुम्हारी मम्मी को उन पर बहुत भरोसा था. उन दोनों के जीने का तरीका एकदम भिन्न था. शापिंग करना, होटलिंग, किटी पार्टियां करना, बड़ेबड़े लोंगों से मेलजोल बढाना जैसे शाही शौक उन लोंगों ने पाल रखे थे. तुम्हारी मां बहुत भोली थी. वे कालेज में प्रोफैसर थी और मोटी तनख्वाह की मालकिन भी. इसीलिए ये दोनों उन्हें हमेशा अपने साथ रखतीं थी क्योंकि तुम्हारी मम्मी उनके सारे खर्चे उठाने में सक्षम थीं. एक बार जब मैं ने समझने का प्रयास किया.

‘‘अनु हमारे घर में इन लोंगों का इतना हस्तक्षेप अच्छा नहीं है. ये घर मेरा और तुम्हारा है तो इसे हम ही अपने विवेक से चलाएंगे न कि दूसरों की राय से. पर मेरी बात सुन कर वह उलटे मुझ पर ही बरस पड़ी कि देखो सुदेश तुम्हारे अपने परिवार वालों ने तो हम से किनारा ही कर लिया है. अब मेरे घर वाले तो आएंगेजाएंगे ही ये ही लोग तो हमारा संबल हैं यहां. मैं अपनी मांबहन के खिलाफ एक शब्द नहीं सुन सकती. दीदी की शादी नहीं हुई है और मां को पापा की नाममात्र की पैंशन मिलती है अब तुम ही बताओ मैं उन के लिए नहीं करूंगी तो कौन करेगा?

Father’s Day 2023: पापा की जीवनसंगिनी, भाग- 3

‘‘अनु मैं करने या उन का ध्यान रखने को मना कब कर रहा हूं मैं तो बस इतना चाहता हूं कि अपने घर को हम अपने विवेक से, अपने अनुसार चलाएं… तुम तो अपना घर ही उन के अनुसार चलाती हो… मैं ने अनु को समझने की कोशिश की पर मेरी किसी भी बात पर ध्यान दिए बिना ही अनु तुनक कर दूसरे कमरे में सोने चली गई. मैं तो विचारशून्य ही हो गया था.

कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं. खैर, इसी ऊहापोह के मध्य हमारी गृहस्थी रेंग रही थी. तुम अब 8 साल की नाजुक उम्र में पहुंच चुकी थी… तुम्हें वह दिन याद है न जब मैं ने जबरदस्ती तुम्हें अपने दोस्त नवीन के यहां रात्रि में उस की बेटी सायशा के साथ भेज दिया था क्योंकि मुझे पता था कि अनु देर रात्रि नशे की हालत में घर आएगी और मैं नहीं चाहता था कि तुम अपनी मां को उस हालत में देखो और हमारी बहस की साक्षी बनो.’’

‘‘आप को कैसे पता था कि मां उस हालत में आएगी?’’ पीहू अचानक बोल पड़ी.

‘‘क्योंकि अब तक मैं तुम्हारी मौसी और नानी की देर रात तक चलने वाली पार्टियों का मतलब बहुत अच्छी तरह समझ चुका था और उस दिन शाम को जब मैं बैंक से निकल रहा था तो अनु का फोन आया था कि मैं कालेज से सीधी दीदी के यहां आ गई हूं. देर से घर आऊंगी. दीदी के यहां एक पार्टी है. तुम पीहू को देख लेना. उस दिन देर रात तुम्हारी मम्मी एकदम आधुनिक बदनदिखाऊ ड्रैस पहने नशे में गिरतीपड़ती घर आई थी. किसी तरह उसे सुलाया था मैं ने. जब दूसरे दिन रात के बारे में बात की तो बोली कि देखो वे लोग बहुत मौडर्न हैं. तुम्हारी तरह दकियानूसी सोच वाले नहीं हैं. पार्टियांशार्टियां और ऐसी ड्रैसेज यह तो मौडर्न कल्चर है पर तुम नहीं समझगे. कल क्या पार्टी थी. मजा ही आ गया. मैं तो कहती हूं तुम भी चला करो, ‘‘अनु को अपने बीते कल पर कोई अफसोस नहीं था यह देख कर मैं हैरान था.

‘‘उस की नजर में पार्टियां करना, मौडर्न कपड़े पहनना, बड़े लोगों के साथ

बैठना, उठना और उन से हर प्रकार के संबंध बनाना उच्छृंखलता नहीं आधुनिकता के पर्याय हैं. व्यक्ति आधुनिक अपनी मानसिकता और विचारों से होता है न कि बदनउघाड़ू कपड़े पहनने और शराब पी कर फूहड़ता से भरे नृत्य करने से.

‘‘मेरे बारबार समझने पर भी कुछ असर नहीं हो रहा था बल्कि रोज घर में कलह होने लगी तो मेरे पास आंखें मूंदने के अलावा और कोई चारा भी नहीं बचा था. तुम्हें वह न्यू ईयर याद है जिसे तुम ने सायशा के घर मनाया था और मैं ने खुद तुम्हें वहां तुम्हारी जरा सी जिद करने पर भेज दिया क्योंकि उस 31 दिसंबर को हम तीनों यानी मैं, तुम और तुम्हारी मम्मी ही एकसाथ मनाने वाले थे पर अचानक तुम्हारी नानी, मौसी ने अपनी पार्टी में चलने को तुम्हारी मम्मी को तैयार कर लिया और हमारा प्लान कैंसिल कर के मम्मी उन के साथ चली गई. जब मैं ने उस से कहा तो बोली कि पीहू तो यों भी सायशा के घर जाना चाहती है तो उसे भेज दो और तुम भी अपने दोस्तों के साथ कुछ प्लान कर लो.’’

‘‘तो उस दिन आप अकेले ही रहे थे?’’

‘‘हां वह न्यू ईअर मैं ने अकेले ही मनाया था और उस दिन तुम्हारी मम्मी से मेरी आखिरी बहस हुई थी क्योंकि उस दिन भी तुम्हारी मम्मी न्यू ईयर की पार्टी मनाने तुम्हारे दूर के मामाजी के फार्महाउस पर गई थी अपनी मां, बहन के साथ. रात्रि के 3 बजे घर लौटी थी नशे में मदहोश लड़खड़ाती हुई. सुबह जब मैं ने इस बावत बात करनी चाही तो वह फट पड़ी कि मेरी जिंदगी, मेरा पैसा, मेरा परिवार तुम्हारा तो कुछ नहीं ले रही हूं मैं, मैं कैसे भी जीऊं. जब मैं तुम से कोई अपेक्षा ही नहीं रखती तो तुम अपनी जिंदगी जीयो और मैं अपनी. तब मैं ने कहा कि अनु तुम भूल रही हो कि हमारी बेटी अब किशोर हो रही है और उसे अच्छा माहौल देना हम दोनों की ही जिम्मेदारी है. इस पर बोली कि अरे तो बेटी की परवरिश के नाम पर क्या मैं अपनी जिंदगी जीना छोड़ दूं? अपने शौक त्याग दूं. आदर्श भारतीय नारी की भांति घर में बैठ जाऊं? पल तो रही है किस चीज की कमी है उसे? मैं अपनी जीवनशैली में कोई बदलाव नहीं कर सकती. 2-2 मेड लगा रखी हैं, अच्छे कौंवेंट स्कूल में पढ़ रही है? अच्छी ट्यूशन लगा रखी है और क्या चाहिए उसे?’’

‘‘उस दिन मैं समझ गया था कि अब तुम्हारी मम्मी को नहीं सम?ाया जा सकता क्योंकि वह तो अपनी सोचनेसमझने की शक्ति ही खो चुकी थी. इसलिए मैं ने आंखें बंद कर के मौन धारण करना ही उचित समझ और उस दिन का इंतजार करने लगा जब तुम्हारी मम्मी अपने विवेक से कुछ सोचसमझ पाएं. जब अपना ही सिक्का खोटा था तो मैं तुम्हारी नानी और मौसी को क्या दोष देता. दरअसल, अति आधुनिकता के नाम पर उच्छृंखलता ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा था.

‘‘तुम्हारी मौसी और नानी ने उसे अपने अनुसार ढाल लिया था. उस के पैसे पर स्वयं ऐश करने लगी थीं क्योंकि उन्हें पता था कि तुम्हारी मां वही करेंगी जो वे कहेंगी. धीरेधीरे वे इस से पैसा ऐठने लगी थीं. कुछ समय पहले उसे शायद सब समझ में आने लगा था पर अब सब हाथ से रेत जैसे फिसल गया था.

अपनी मां, बहन को वह अपनी जिम्मेदारी समझ न तो छोड़ पा रही थी और न ही कुछ कह पा रही थी जिस से वह तनाव में रहने लगी थी. कुछ दिनों से वह चुप सी रहने लगी थी. पिछले कुछ समय से अनिद्रा की शिकार थी. मैं कुछ कर पाता उस से पहले ही उस ने नींद की गोलियां खा कर मौत को अपने गले लगा लिया और मेरा इंतजार अधूरा ही रह गया.

‘‘वह दिल की बुरी नहीं थी. बहुत भोली थी इसीलिए तो दूसरे की बातों पर सहज भरोसा कर लेती थी. अब शायद तुम्हें मेरे मौन का कारण समझ आ गया होगा. मैं बस इतना चाहता हूं कि तुम इस साल अपनी ग्रैजुएशन पूरी कर लो फिर कंपीटिशन लड़ो और आत्मनिर्भर बनो. उस के बाद ही मैं तुम्हारा विवाह करूंगा.’’

उस के बाद पापा ने मुझे पढ़ा कर आत्मनिर्भर बनाने में अपनी पूरी ताकत लगा दी थी. ग्रैजुएशन के बाद मैं ने बैंक का ऐग्जाम दिया और जब मेरा एकसाथ 2 बैंकों में चयन हुआ तो पापा की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था. पहली बार जब मैं अपनी छुट्टियों में घर आई थी तो पापा अपनी आंखों में आंसू भर कर बोले थे, ‘‘मेरी तपस्या पूरी हो गई बेटा अब बस तुम्हारा विवाह करना शेष है.’’

‘‘पापा मेरे बैंक में…’’

‘‘क्या कोई पसंद है तुम्हें… फिर तो मेरी सारी चिंता ही दूर हो गई… बताओ कौन है वह…’’ पापा खुशी और आश्चर्य से उछल पड़े.

‘‘हां पापा…पसंद तो है पर वह जाति… धर्म… आप को… परेशानी…’’ मेरे शब्द जैसे मुंह में ही बर्फ की भांति जमे से जा रहे थे.

‘‘नहीं बेटा मैं जातिधर्म को नहीं मानता. मेरी नजर में सिर्फ एक ही धर्म है और वह है इंसानियत का. ये जाति की दीवारें तो हम इंसानों ने खड़ी की है. तुम खुल कर अपनी पसंद बताओ मैं तुम्हारे द्वारा लिए गए हर फैसले में तुम्हारे साथ हूं,’’ पापा के इतना कहते ही मैं लिपट गई थी उन से और खुश होते हुए बोली, ‘‘मैं कल आप को उस से मिलवाऊंगी.’’

अगले दिन मैं अहमद के साथ पापा के सामने थी. अहमद से मिल कर पापा बहुत खुश हुए और कुछ ही दिनों में बिना कोई देर किए पापा ने हम दोनों को विवाह के पवित्र बंधन में बांध दिया. मु?ो आज भी विदाई के समय पापा के शब्द याद हैं.

‘‘बेटा बस यही आशीष दूंगा कि अपने घर को तुम दोनों अपने विवेक से मिलजुल कर चलाना… अपने घर में किसी का भी दखल बरदाश्त मत करना फिर चाहे वह मैं ही क्यों न होऊं.’’

‘‘उस के बाद घटनाक्रम कुछ ऐसा बदला कि हम दोनों का ट्रांसफर दिल्ली से आगरा हो गया और पापा रह गए दिल्ली में अकेले. अचानक अहमद की आवाज से पीहू चौंक गई.’’

‘‘पीहू दिल्ली आने वाला है गेट पर चलते हैं.’’

‘‘पीहू अहमद के पीछेपीछे चलने लगी. एम्स अस्पताल में आईसीयू में

तमाम नलियों में आबद्ध पापा को लेटे देख कर तो पीहू की रुलाई ही छूट गई. अहमद ने बड़ी मुश्किल से उसे संभाला. तभी उस के पड़ोस में रहने वाली मिशेल आंटी ने एक बैग के साथ प्रवेश किया.

वसीयत: भाग 2- क्या अनिता को अनिरूद्ध का प्यार मिला?

कोटिधारा अभिषेक स्वरूप, जिस में अनीताजी भीग रही थीं. कुछ प्रेम प्रार्थना के अजस्र स्रोत हो वे उसे गले लगाना चाहती थीं, लेकिन… ‘‘आप को कोई तकलीफ तो नहीं. आप सारी रात कुरसी पर बैठी रहीं?’’ वह बोला. ‘‘तकलीफ,’’ अनीताजी सोच में पड़ गईं. मन के असंभावित और गुप्त कोष्ठ में जाना कब आसान है. नारी मन की भावयात्रा ही तकलीफ का पर्याय है.

लेकिन अनीता कुछ बोल नहीं पाईं. बस इतना कहा, ‘‘मैं ठीक हूं,’’ और सहसा उन्होंने आंखें बंद कर लीं, कहीं अनिरुद्ध उन की भावनाएं न पढ़ ले. ‘‘एक अकेलापन, कुछ निर्जन सा समाया हुआ है तुम्हारे अंदर, जो बिलकुल निकलता नहीं, तुम्हें खुद को संभालना होगा,’’

वह बोला. अनीताजी स्तब्ध थीं. बिलकुल चुप रहने वाला अनिरुद्ध आज ये सब क्या बोल रहा है?  ‘‘अनिरुद्ध, कभी दूर मत जाना मुझ से, वरना…’’ अनिरुद्ध मुसकराया, ‘‘आप खतरनाक भी हैं.’’ दोनों हंसने लगे. हालांकि अनीताजी को आज अनिरुद्ध के अंदर अपने प्रति सम्मान ही नहीं कुछ और भी नजर आ रहा था, एक तरह का आकर्षण. उसी दिन अनिरुद्ध की रिपोर्ट डाक्टर ने अनीताजी को दी और पता चला कि उसे चौथी स्टेज का ब्लड कैंसर है.

दोनों चुपचाप डाक्टर को खामोशी से सुनते रहे. छुट्टी मिलने के बाद दोनों बुझे-बुझे से घर की ओर चल पड़े.  अगले 3 दिन अनिरुद्ध की बीमारी की पैरवी करते हुए अनीताजी ने ज्यादा  समय उसी के कमरे में बिताया. रात को जब वह सो जाता तो अनीताजी उसे देखती रहतीं. लौकडाउन खुल रहा था. कंपनियां अपने कर्मचारियों को वापस बुला रही थीं.

अनिरुद्ध को भी बुला लिया गया. अनिरुद्ध कुछ दुखी था. शिमला जैसी सुंदर जगह छोड़नी थी और अनीता को छोड़ कर जाना उस के लिए असंभव था. वह रुकना चाहता था लेकिन रुकने का कोई ठोस कारण भी तो नहीं था उस के पास.

अनीताजी जो चाहती थीं या वह जो सपने खुद देख रहा था, अब वह कुछ भी संभव नहीं था, बीमारी ही कुछ ऐसी थी कि वह उन का वर्तमान और भविष्य खराब नहीं करना चाहता था.  जब उस ने अनीताजी को वापस जाने की खबर दी तो वे कुछ नहीं बोलीं. एकदम चुप.

जैसे जब दर्द हद से ज्यादा बढ़ जाए तो एक नबंनैस आ जाती है, उन की वही स्थिति हो गई. जाते वक्तवह बाकी का किराया देने आया था जिस को लेने से अनीताजी ने मना कर दिया और जातेजाते उसे अपनी कविताओं की एक डायरी दे दी. उन्होंने उस को रुकने के लिए नहीं कहा. आखिर उस ने अपने दिल की बात उन से खुल कर कही भी तो नहीं थी.

अनीताजी उसे बेइंतहा प्यार देना चाहतीं थीं, लेकिन अनिरुद्ध के पास अब समय कम था.  जिस दिन अनिरुद्ध गया था उस सारा दिन अनीताजी बालकनी में बैठी रहीं. मैक्स  भी उन के पैरों के पास बैठा रहा. वे धीरेधीरे भग्न हृदय की मर्मांतक वेदना में गा रही थीं, ‘बैठ कर साया ए गुल में हम बहुत रोए वो जब याद आया, वो तेरी याद थी अब याद आया, दिल धड़कने का सबब याद आया…’

उन के गाने सिर्फ मैक्स सुनता था. नुकीले पश्चिमी भाग के पर्वत पर धुंधले से बादल, महान पर्वतीय शृंखलाएं सब नितांत अकेली. अनीताजी की तरह और पीछे का आकाश एकदम काला. शिमला की घाटी, स्याही जैसे रंग का तालाब लग रही थी. रात के सघन अंधेरे में केवल अनीताजी के अरमान जल रहे थे. सारी रात ऐसे ही बैठेबैठे बीत गई. क्या कोई इतना भी अकेला होता है.

प्रेममय होना बहुत श्रम चाहता है. मन पर काबू वैराग्य धारण करने के समान है और वह अनुशीलन का विषय है. न हो दैहिक संबंध. न की गई हों प्रेम भरी बातें. फिर भी जो स्थान किसी ने ले लिया वहां कोई और. नामुमकिन. शिमला जाग रहा था. गाडि़यों के हौर्न, लोगों की आवाजें. अनीताजी बेमन से उठीं और अंदर जा कर बिस्तर पर लेट गईं.

अनिरुद्ध नोएडा आ गया था, लेकिन शिमला से ज्यादा उसे अनीताजी याद आती रहीं. उस ने उन के बारे में बहुत सोचा. बहुत बार सोचा. लेकिन अब क्या हो सकता था, उस का शरीर भी अब उस का साथ छोड़ रहा था. उस ने बैग में से उन की लिखी डायरी निकाली और उन की कविताएं पढ़ने लगा. क्या कमाल का लिखती हैं अनीताजी.

सारी कविताओं में प्रेम और बिछोह के भाव सघन और संश्लिष्ट. नोएडा आ कर अनिरुद्ध ने थोड़े प्रयास किए और अंतत: एक ऐसी कंपनी मिली जो ‘वर्क फ्रौम होम’ के लिए राजी थी. शिमला छोड़े हुए 8 महीने हो चुके थे. अनीताजी से हफ्ते में 3-4 बार बात हो जाती थी लेकिन अनिरुद्ध ज्यादा बात नहीं करता था. ये मोह के बंधन बहुत कष्टकारी होते हैं, कल को जब वह न रहा तो ये बातें अनीताजी को और दुखी करेंगी, यही सोच कर वह बात करने से बचता.

एक दिन अनीता का फोन बजा. अनिरुद्ध के पिता बोल रहे थे. उन्होंने अनिरुद्ध को अनीता के स्केच बनाते देखा था और पूछने पर अनिरुद्ध ने सब बातें अपने पिता को बता दी थीं. उस के पिता अनीता को नोएडा बुला रहे थे ताकि आने वाले मुश्किल वक्त में वे अनिरुद्ध के साथ रह सकें.

अनीता ने कुछ नहीं सोचा और अगले ही दिन शिमला से नोएडा के लिए  निकल पड़ीं. लेकिन यह खबर वे अनिरुद्ध को नहीं देना चाहती थीं. यह सरप्राइज था. आज अनीताजी को भी नहीं पता था कि वे अनिरुद्ध के पास जाने के लिए इतनी बेचैन क्यों थीं… आज रास्ता कटते नहीं कट रहा था, सरप्राइज जो देना था उन्होंने. आखिर घुमावदार सड़कों से होते हुए शाम को अनीताजी नोएडा आ पहुंची.

ड्राइवर ने गाड़ी अनिरुद्ध के घर के बाहर पार्क की. गेट अनिरुद्ध के पिता ने खोला और अनीता ने उन के पैर छुए और अनिरुद्ध के कमरे की तरफ बढ़ गईं. अनिरुद्ध अचानक अनीता को देख कर चकित हो गया और उस के मुंह से एक शब्द नहीं निकला. वह पहले से काफी कमजोर और अपनी उम्र से बड़ा दिखाई दे रहा था.  ‘‘मिलीं भी तो किस मोड़ पर,’’ वह धीरे से बोला. ‘‘तुम्हें मेरी जरूरत है,’’ अनीता ने जवाब दिया. ‘‘अनीता मेरी बकाया जिंदगी अब सिवा दुख के तुम्हें कुछ नहीं दे सकती.’’ ‘‘मैं तुम से कुछ लेने नहीं देने आई हूं, अनिरुद्ध.’’ उस दिन के बाद से अनीता एक निष्ठावान और सच्चे साथी की तरह अनिरुद्ध की देखभाल में लग गईं.

वह ऊपर के फ्लोर पर अनिरुद्ध के साथ वाले कमरे में रहने लगीं. मैडिकल रिपोर्ट्स के हिसाब से अनिरुद्ध के पास 3 महीने से अधिक समय नहीं था. बारबार हौस्पिटल के चक्कर लगते रहते.  उन दिनों अनीता ‘जीवन और मरण की तिब्बती पुस्तक’ पढ़ रही थीं. वे न केवल  अनिरुद्ध के जीवन को संभाले हुए थीं बल्कि उस की आगे की यात्रा की भी तैयारी करवा रही थीं.

दोनों भावों के असीम सागर में डूबे रहते और उन के मृत्यु को ले कर संवाद चलते रहते.  अनीता उसे ‘बारदो’ के बारे में किताब से पढ़पढ़ कर बताती रहतीं. तिब्बती बुद्धिम में बारदो की अवस्था का वर्णन है जो मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच की अवस्था है.

अम्मां जैसा कोई नहीं

अस्पताल के शांत वातावरण में वह न जाने कब तक सोती रहती, अगर नर्स की मधुर आवाज कानों में न गूंजती, ‘‘मैडमजी, ब्रश कर लो, चाय लाई हूं.’’

वह ब्रश करने को उठी तो उसे हलका सा चक्कर आ गया.

‘‘अरेअरे, मैडमजी, आप को बैड से उतरने की जरूरत नहीं. यहां बैठेबैठे ही ब्रश कर लीजिए.’’

साथ लाई ट्रौली खिसका कर नर्स ने उसे ब्रश कराया, तौलिए से मुंह पोंछा, बैड को पीछे से ऊपर किया. सहारे से बैठा कर चायबिस्कुट दिए. चाय पी कर वह पूरी तरह से चैतन्य हो गई. नर्स ने अखबार पकड़ाते हुए कहा, ‘‘किसी चीज की जरूरत हो तो बैड के साथ लगा बटन दबा दीजिएगा, मैं आ जाऊंगी.’’

50 वर्ष की उस की जिंदगी के ये सब से सुखद क्षण थे. इतने इतमीनान से सुबह की चाय पी कर अखबार पढ़ना उसे एक सपना सा लग रहा था. जब तक अखबार खत्म हुआ, नर्स नाश्ता व दूध ले कर हाजिर हो गई. साथ ही, वह कोई दवा भी खिला गई. उस के बाद वह फिर सो गई और तब उठी जब नर्स उसे खाना खाने के लिए जगाने आई. खाने में 2 सब्जियां, दाल, सलाद, दही, चावल, चपातियां और मिक्स फ्रूट्स थे. घर में तो दिन भर की भागदौड़ से थकने के बाद किसी तरह एक फुलका गले के नीचे उतरता था, लेकिन यहां वह सारा खाना बड़े इतमीनान से खा गई थी.

नर्स ने खिड़कियों के परदे खींच दिए थे. कमरे में अंधेरा हो गया था. एसी चल रहा था. निश्ंिचतता से लेटी वह सोच रही थी काश, सारी उम्र अस्पताल के इसी कमरे में गुजर जाए. कितनी शांति व सुकून है यहां. किंतु तभी चिंतित पति व असहाय अम्मां का चेहरा उस की आंखों के सामने घूमने लगा. उसे अपनी सोच पर ग्लानि होने लगी कि घर पर अम्मां बीमार हैं. 2 महीने से वे बिस्तर पर ही हैं.

2 दिन पहले तक तो वही उन्हें हर तरह से संभालती थी. पति निश्ंिचत भाव से अपना व्यवसाय संभाल रहे थे. अब न जाने घर की क्या हालत होगी. अम्मां उस के यानी अनु के अलावा किसी और की बात नहीं मानतीं.

अम्मां चाय, दूध, जूस, नाश्ता, खाना सब उसी के हाथ से लेती थीं. किसी और से अम्मां अपना काम नहीं करवातीं. अम्मां की हलके हाथों से मालिश करना, उन्हें नहलानाधुलाना, उन के बाल बनाना सभी काम अनु ही करती थी. सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन अम्मां के साथसाथ आनेजाने वाले रिश्तेदारों की सुबह से ले कर रात तक खातिरदारी भी उसे ही करनी पड़ती थी. उसे हाई ब्लडप्रैशर था.

अम्मां और रिश्तेदारों के बीच चक्करघिन्नी बनी आखिर वह एक रात अत्यधिक घबराहट व ब्लडप्रैशर की वजह से फोर्टिस अस्पताल में पहुंच गई थी. आननफानन उसे औक्सीजन लगाई गई. 2 दिन बाद ऐंजियोग्राफी भी की गई, लेकिन सब ठीक निकला. आर्टरीज में कोई ब्लौकेज नहीं था.

जब स्ट्रैचर पर डाल कर उसे ऐंजियोग्राफी के लिए ले जा रहे थे तब फीकी मुसकान लिए पति उस के कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, ‘‘चिंता मत करना आजकल तो ब्लौकेज का इलाज दवाओं से हो जाता है.’’

वह मुसकरा दी थी, ‘‘आप व्यर्थ ही चिंता करते हैं. मुझे कुछ नहीं है.’’

उस की मजबूत इच्छाशक्ति के पीछे अम्मां का बहुत बड़ा योगदान रहा है.

अम्मां के बारे में सोचते हुए वह पुरानी यादों में घिरने लगी थी. उस की मां तो उसे जन्म देते ही चल बसी थीं. भैया उस से 15 साल बड़े थे. लड़की की चाह में बड़ी उम्र में मां ने डाक्टर के मना करने के बाद भी बच्ची पैदा करने का जोखिम उठाया था और उस के पैदा होते ही वह चल बसी थीं. पिताजी ने अनु की वजह से तलाकशुदा युवती से पुन: विवाह किया था, लेकिन परिस्थितियां ऐसी बनती गईं कि अंतत: नानानानी के घर ही उस का पालनपोषण हुआ था. भैया होस्टल में रह कर पलेबढ़े. सौतेली मां की वजह से पिता, भैया और वह एक ही परिवार के होते हुए भी 3 अलगअलग किनारे बन चुके थे.

वह 12वीं की परीक्षा दे रही थी कि तभी अचानक नानी गुजर गईं. नाना ने उसे अपने पास रखने में असमर्थता दिखा दी थी, ‘‘दामादजी, मैं अकेला अब अनु की देखभाल नहीं कर सकता. जवान बच्ची है, अब आप इसे अपने साथ ले जाओ. न चाहते हुए भी उसे पिता और दूसरी मां के साथ जाना पड़ा. दूसरी पत्नी से पिता की एक नकचढ़ी बेटी विभू हुई थी, जो उसे बहन के रूप में बिलकुल बरदाश्त नहीं कर पा रही थी. घर में तनाव का वातावरण बना रहता था, जिस का हल नई मां ने उस की शादी के रूप में निकालना चाहा. वह अभी पढ़ना चाहती थी, मगर उस की मरजी कब चल पाई थी.

बचपन में जब पिता के साथ रहना चाहती थी, तब जबरन नानानानी के घर रहना पड़ा और जब वहां के वातावरण में रचबस गई तो अजनबी हो गए पिता के घर वापस आना पड़ा था. उन्हीं दिनों बड़ी बूआ की बेटी के विवाह में उसे भागदौड़ के साथ काम करते देख बूआ की देवरानी को अपने इकलौते बेटे दिनेश के लिए वह भा गई थी. अकेले में उन्होंने उस के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा तथा आश्वासन भी दिया कि वे उस की पढ़ाई जारी रखेंगी. पिताजी ने चट मंगनी पट ब्याह कर अपने सिर का बोझ उतार फेंका.

अनु की पसंदनापसंद का तो सवाल ही नहीं था. विवाह के समय छोटी बहन विभू जीजाजी के जूते छिपाने की जुगत में लगी थी, लेकिन जूते ननद ने पहले से ही एक थैली में डाल कर अपने पास रख लिए थे. मंडप में बैठी अम्मां यह सब देख मंदमंद मुसकरा रही थीं. तभी ननद के बच्चे ने कपड़े खराब कर दिए और वह जूतों की थैली अम्मां को पकड़ा कर उस के कपड़े बदलवाने चली गई. लौट कर आई तो अम्मां से थैली ले कर वह फिर मंडप में ही डटी रही.

विवाह संपन्न होने के बाद जब विभू ने जीजाजी से जूते छिपाई का नेग मांगा तो ननद झट से बोल पड़ी, ‘‘जूते तो हमारे पास हैं नेग किस बात का?’’

इसी के साथ उन्होंने थैली खोल कर झाड़ दी. लेकिन यह क्या, उस में तो जूतों की जगह चप्पलें थीं और वे भी अम्मां की. यह दृश्य देख कर ननद रानी भौचक्की रह गईं. उन्होंने शिकायती नजरों से अपनी अम्मां की ओर देखा, तो अम्मां ने शरारती मुसकान के साथ कंधे उचका दिए.

‘‘यह सब कैसे हुआ मुझे नहीं पता, लेकिन बेटा नेग तो अब देना ही पड़ेगा.’’

तब विभू ने इठलाते हुए जूते पेश किए और जीजाजी से नेग का लिफाफा लिया. इतनी प्यारी सास पा कर अनु के साथसाथ वहां उपस्थित सभी लोग भी हैरान हो उठे थे.

ससुराल पहुंचते ही अनु का जोरशोर से स्वागत हुआ, लेकिन उसी रात उस के ससुर को अस्थमा का दौरा पड़ा. उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा. रिश्तेदार फुसफुसाने लगे कि बहू के कदम पड़ते ही ससुर को अस्पताल में भरती होना पड़ा. अम्मां के कानों में जब ये शब्द पड़े तो उन्होंने दिलेरी से सब को समझा दिया कि इस बदलते मौसम में हमेशा ही बाबूजी को अस्थमा का दौरा पड़ जाता है. अकसर उन्हें अस्पताल में भरती कराना पड़ता है. बहू के घर आने से इस का कोई सरोकार नहीं है. अम्मां की इस जवाबदेही पर अनु उन की कायल हो गई थी.

विवाह के 2 दिन बाद बाबूजी अस्पताल से ठीक हो कर घर आ गए थे और बहू से मीठा बनवाने की रस्म के तहत अनु ने खीर बनाई थी. खीर को ननद ने चखा तो एकदम चिल्ला दी, ‘‘यह क्या भाभी, आप तो खीर में मीठा डालना ही भूल गईं?’’

इस से पहले कि बात सभी रिश्तेदारों में फैलती, अम्मां ने खीर चखी और ननद को प्यार से झिड़कते हुए कहा, ‘‘बिट्टो, तुझे तो मीठा ज्यादा खाने की बीमारी हो गई है, खीर में तो बिलकुल सही मीठा डाला है.’’

ननद को बाहर भेज अम्मां ने तुरंत खीर में चीनी डाल कर उसे आंच पर चढ़ा दिया. सास के इस अपनेपन व समझदारी को देख कर अनु की आंखें नम हो आई थीं. किसी को कानोंकान खबर न हो पाई थी. अम्मां ने खीर की तारीफ में इतने पुल बांधे कि सभी रिश्तेदार भी अनु की तारीफ करने लगे थे.

विवाह को 2 माह ही बीते थे कि साथ रहने वाले पति के ताऊजी हृदयाघात से चल बसे. उन के अफसोस में शामिल होने आई मेरी मां फुसफुसा रही थीं, ‘‘इस के पैदा होते ही इस की मां चल बसी, यहां आते ही 2 माह में ताऊजी चल बसे. बड़ी अभागिन है ये.’’

तब अम्मां ने चंडी का सा रूप धर लिया था, ‘‘खबरदार समधनजी, मेरी बहू के लिए इस तरह की बातें कीं तो… आप पढ़ीलिखी हो कर किसी के जाने का दोष एक निर्दोष पर लगा रही हैं. भाई साहब (ताऊजी) हृदयरोग से पीडि़त थे, वे अपनी स्वाभाविक मौत मरे हैं. एक मां हो कर अपनी बेटी के लिए ऐसा कहना आप को शोभा नहीं देता.’’

दूसरी मां ने झगड़े की जो चिनगारी हमारे आंगन में गिरानी चाही थी, वह अम्मां की वजह से बारूद बन कर मांपिताजी के रिश्तों में फटी थी. पहली बार पिताजी ने मां को आड़े हाथों लिया था.

अम्मां के इसी तरह के स्पष्ट व निष्पक्ष विचार अनु के व्यक्तित्व का हिस्सा बनने लगे. ऐसी कई बातें थीं, जिन की वजह से अम्मां और उस का रिश्ता स्नेहप्रेम के अटूट बंधन में बंध गया. एक बहू को बेटी की तरह कालेज में भेज कर पढ़ाई कराना और क्याक्या नहीं किया उन्होंने. कभी लगा ही नहीं कि अम्मां ने उसे जन्म नहीं दिया या कि वे उस की सास हैं. एक के बाद दूसरी पोती होने पर भी अम्मां के चेहरे पर शिकन नहीं आई. धूमधाम से दोनों पोतियों के नामकरण किए व सभी नातेरिश्तेदारों को जबरन नेग दिए. बाद में दोनों बेटियां उच्च शिक्षा के लिए बाहर चली गई थीं. अम्मां हर सुखदुख में छाया की तरह अनु के साथ रहीं.

बाबूजी के गुजर जाने से अम्मां कुछ विचलित जरूर हुई थीं, लेकिन जल्द ही उन्होंने अपने को संभाल कर सब को खुश रहने की सलाह दे डाली थी. तब रिश्तेदार आपस में कह रहे थे, ‘‘अब अम्मां ज्यादा नहीं जिएंगी, हम ने देखा है, वृद्धावस्था में पतिपत्नी में से एक जना पहले चला जाए तो दूसरा ज्यादा दिन नहीं जी पाता.’’

सुन कर अनु सहम गई थी. लेकिन अम्मां ने दोनों पोतियों के साथ मिलजुल कर अपने घर में ही सुकून ढूंढ़ लिया था.

बाबूजी को गुजरे 10 साल बीत चुके थे. अम्मां बिलकुल स्वस्थ थीं. एक दिन गुसलखाने में नहातीं अम्मां का पैर फिसल गया और उन के पैरों में गहरे नील पड़ गए. जिंदगी में पहली बार अम्मां को इतना असहाय पाया था. दिन भर इधरउधर घूमने वाली अम्मां 24 घंटे बिस्तर पर लेटने को मजबूर हो गई थीं.

अम्मां को सांत्वना देती अनु ने कहा, ‘‘अम्मां चिंता मत करो, थोड़े दिनों में ठीक

हो जाओगी. यह शुक्र करो कि कोई हड्डी नहीं टूटी.’’

अम्मां ने सहमति में सिर हिला कर उसे सख्ती से कहा था, ‘‘बेटी, मेरी बीमारी की खबर कहीं मत करना, व्यर्थ ही दुनिया भर के रिश्तेदारों, मिलने वालों का आनाजाना शुरू हो जाएगा, तू खुद हाई ब्लडप्रैशर की मरीज है, सब को संभालना तेरे लिए मुश्किल हो जाएगा.’’

अम्मां की बात मान उस ने व दिनेश ने किसी रिश्तेदार को अम्मां के बारे में नहीं बताया. लेकिन एक दिन दूर के एक रिश्तेदार के घर आने पर उन के द्वारा बढ़ाचढ़ा कर अम्मां की बीमारी सभी जानकारों में ऐसी फैली कि आनेजाने वालों का तांता सा लग गया. फलस्वरूप, मेरा ध्यान अम्मां से ज्यादा रिश्तेदारों के चायनाश्ते व खाने पर जा अटका.

सभी बिना मांगी मुफ्त की रोग निवारण राय देते तो कभी अलगअलग डाक्टर से इलाज कराने के सुझाव देते. साथ ही, अम्मां के लिए नर्स रखने का सुझाव देते हुए कुछ जुमले उछालने लगे. मसलन, ‘‘अरी, तू क्यों मुसीबत मोल लेती है. किसी नर्स को इन की सेवा के लिए रख ले. तूने क्या जिंदगी भर का ठेका ले रखा है. फिर तेरा ब्लडप्रैशर इतना बढ़ा रहता है. अब इन की कितनी उम्र है, नर्स संभाल लेगी.’’

इधर अम्मां को भी न जाने क्या हो गया था. वे भी चिड़चिड़ी हो गई थीं. हर 5 मिनट में उसे आवाज दे दे कर बुलातीं. कभी कहतीं कि पंखा बंद कर दे, कभी कहतीं पंखा चला दे, कभी कहतीं पानी दे दे, कभी पौटी पर बैठाने की जिद करतीं. अकसर कहतीं कि मैं मर जाना चाहती हूं. अनु हैरान रह जाती.

रिश्तेदारों की खातिरदारी और अम्मां की बढ़ती जिद के बीच भागभाग कर वह परेशान हो गई थी. ब्लडप्रैशर इतना बढ़ गया कि उसे अस्पताल में भरती होना पड़ा.

3 दिन अस्पताल में रहने के बाद जब मैं घर आई तो देखा घर पर अम्मां की सेवा के लिए नर्स लगी हुई है. उस ने नर्स से पूछा, ‘‘अम्मां नाश्ताखाना आराम से खा रही हैं?’’

उस ने सहमति में सिर हिला दिया.

दोपहर को उस ने देखा कि अम्मां को परोसा गया खाना रसोई के डस्टबिन में पड़ा हुआ था.

नर्स से पूछा कि अम्मां ने खाना खा लिया है, तो उस ने स्वीकृति में सिर हिला दिया, यह देख कर वह परेशान हो उठी. इस का मतलब 3 दिन से अम्मां ने ढंग से खाना नहीं खाया है. नर्स को उस ने उस के कमरे में आराम करने भेज दिया और स्वयं अम्मां के पास चली गई.

अनु को देखते ही अम्मां की आंखों से आंसू बहने लगे. अवरुद्ध कंठ से वे बोलीं, ‘‘अनु बेटी, अगर मुझे नर्स के भरोसे छोड़ देगी तो रिश्तेदारों की कही बातें सच हो जाएंगी. मैं जल्द ही इस दुनिया से विदा हो जाऊंगी. वैसे ही सब रिश्तेदार कहते हैं कि अब मैं ज्यादा दिन नहीं जिऊंगी.’’

3 दिन में ही अम्मां की अस्तव्यस्त हालत देख कर अनु बेचैन हो उठी, ‘‘क्या कह रही हो अम्मां, आप से किस ने कहा? आप अभी खूब जिओगी. अभी दोनों बच्चों की शादी करनी है.’’

अम्मां बड़बड़ाईं, ‘‘क्या बताऊं बेटी, तेरे अस्पताल जाने के बाद आनेजाने वालों की सलाह व बातें सुन कर इतनी परेशान हो गई कि जिंदगी सच में एक बोझ सी लगने लगी. यह सब मेरी दी गई सलाह न मानने का नतीजा है. अब फिर से तुझ से वही कहती हूं, ध्यान से सुन…’’

अम्मां की बात सुन कर अनु ने उन के सिर पर स्नेह से हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘अम्मां, आप बिलकुल चिंता न करो, आप की सलाह मान कर अब मैं अपना व आप का खयाल रखूंगी.’’

उस के बाद अम्मां की दी गई सलाह पर अनु के पति ने रिश्तेदारों को समझा दिया कि डाक्टर ने अम्मां व अनु दोनों को ही पूर्ण आराम की सलाह दी है, इसलिए वे लोग बारबार यहां आ कर ज्यादा परेशानी न उठाएं. साथ ही, झूठी नर्स को भी निकाल बाहर किया.

इस का बुरा पक्ष यह रहा कि जो रिश्तेदार दिनेश व अनु से सहानुभूति रखते थे, अम्मां के लिए नर्स रखने की सलाह दिया करते थे, अब दिनेश को भलाबुरा कहने लगे थे, ‘‘कैसा बेटा है, बीमार मां के लिए नर्स तक नहीं रखी, हमारे आनेजाने पर भी रोक लगा दी.’’

लेकिन इस सब का उजला पक्ष यह रहा कि 2 महीने में ही अम्मां बिलकुल ठीक हो गईं और अनु का ब्लडप्रैशर भी छूमंतर हो गया. इस उम्र में भी आखिर, अम्मां की सलाह ही फायदेमंद साबित हुई थी. अनु सोच रही थी, सच मेरी अम्मां जैसा कोई नहीं.

Father’s Day 2023: पापा की जीवनसंगिनी- भाग 1

रात्रिके अंधेरे को चीरती हुई शताब्दी ऐक्सप्रैस अपनी तीव्र गति से बढ़ती जा रही थी. इसी के ए.सी. कोच ए वन में सफर कर रही पीहू के दिल की धड़कनें भी शताब्दी ऐक्सप्रैस की गति की तरह तेजी से चल रही थीं.

‘‘कैसे होंगे पापा? डाक्टरों ने क्या कहा होगा? मुझे पापा को अपने पास ही ले आना चाहिए था. पापा ने मुझे कभी क्यों नहीं बताया अपनी बीमारी के बारे में? पापा मेरी जिम्मेदारी हैं. मैं इतनी गैरजिम्मेदार कैसे हो गई? मैं क्यों स्वयं में ही इतना खो गई कि पापा के बारे में सोच ही नहीं पाईं,’’ सोचते वह बेचैन से खिड़की से बाहर झंकने लगी.

अहमद उसेबहुत अच्छी तरह जानता था सो उस के मानसिक अंतर्द्वंद्व को भांप कर उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘पीहू इस हालत में इतनी परेशान मत होओ हम सुबह तक पापा के पास होंगे. इस तरह तो तुम अपना बीपी ही बढ़ा लोगी और एक नई मुसीबत खड़ी हो जाएगी. फिर न तुम खुद को संभाल पाओगी और न ही पापा को, इसलिए स्वयं को थोड़ा सा शांत रखने की कोशिश करो.’’

‘‘हां तुम ठीक कह रहे हो,’’ कह कर पीहू ने सीट पर अपना सिर टिका कर आंखें बंद कर लीं. पर इंसान की फितरत होती है कि विषम परिस्थितियों में वह कितना भी शांत होने का प्रयास करे पर अशांति उस का पीछा नहीं छोड़ती. सो न चाहते हुए भी वह अपने प्यारे पापा के पास पहुंच गई. आखिर पापा उस के जीवन की सब से कीमती धरोहर हैं अगर उन्हें कुछ हो गया तो वह कैसे जी पाएगी. यों भी पापा का प्यार उसे बहुत समय के बाद मिला है. अभीअभी तो वह पापा के प्यार को महसूस करने लगी थी कि वे बीमार हो गए. कल ही तो उस के पड़ोस में रहने वाले अंकल ने फोन पर बताया, ‘‘बेटी पापा को बीमारी के चलते अस्पताल में भरती करवाया है.’’

सूचना मिलते ही वह पति अहमद के साथ दिल्ली के लिए निकल पड़ी थी. 10 साल पहले कैसे उस ने मम्मी की असामयिक मृत्यु के बाद अपने लिए पहली बार पापा की आवाज सुनी थी. उसे आज भी याद है मम्मी की 13वीं पर जब पहली बार घर में सभी एकत्रित हुए थे और शाम को जब सभी नातेरिश्तेदार चले गए थे तब मौसी ने नानी की ओर देखते हुए कहा था, ‘‘मां कुछ दिनों पहले पीहू के लिए एक बहुत अच्छा रिश्ता आया था. अनु को पसंद भी था पर जब तक वह कोई निर्णय ले पाती उस से पहले ही इस संसार से चली गई.’’

‘‘कहां से? कौन है? अगर जम गया तो मैं अगले शुभ मुहूर्त में ही इस के हाथ पीले कर दूंगी. मेरा क्या भरोसा कब ऊपर वाले के यहां का बुलावा आ जाए.

यह जिम्मेदारी पूरी कर दूं तो मैं शांति से मर तो पाऊंगी,’’ नानी ने मौसी की बात का उत्तर देते हुए कहा.

‘‘लड़का और उस का परिवार वर्षों से दुबई में रहता है. वहां उन का जमाजमाया बिजनैस है. अच्छेखासे पैसे वाले खानदानी परिवार का इकलौता लड़का है. बस उम्र अपनी पीहू से थोड़ी ज्यादा है. यहां उस की मौसी रहती हैं उन्हीं के जरीए यह रिश्ता मेरे पास आया है. उम्र देख लो यदि जम रही है तो इस से अच्छा रिश्ता नहीं हो सकता. अपनी पीहू 21 की है और लड़का 30 का है.’’

‘‘ठीक है 9-10 साल का अंतर तो चलता है. वैसे भी कम्मो सारी चीजें थोड़े ही मिलती हैं. हम ने कौन सी नौकरी करानी है जो उम्र के पीछे इतना अच्छा रिश्ता हाथ से जाने दें. इस के हाथ पीले हो जाएं तो मैं चैन से मर सकूंगी वरना मेरी लाड़ली तो कुंआरी ही रह जाएगी,’’ नानी ने पीहू के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘पीहू तू बोल, तुझे तो कोई परेशानी नहीं है न? अगर तेरी इस रिश्ते में रुचि है तो मैं बात आगे बढ़ाऊं?’’ मौसी ने मुझ से पूछा परंतु मैं कुछ बोल पाती उस से पहले ही पापा बोल उठे, ‘‘मुझे परेशानी है, मेरी बेटी कोई अनाथ नहीं है जो आप लोग उस के भविष्य का निर्धारण करेंगी. उस का पिता अभी जिंदा है. अभी उस की विवाह की नहीं कैरियर बनाने की उम्र है. आप सब से विनम्र अनुरोध है कि हमें अकेला छोड़ दें. आप ने हमारी बहुत मदद की उस के लिए शुक्रिया परंतु अब हमें आप की मदद की लेशमात्र भी आवश्यकता नहीं है,’’ पापा का अब तक का भरा हुआ गुबार मानो फूट पड़ा.

‘‘अरे देखो तो अनु के जाते ही इस की जवान निकल आई. आज तक इस के परिवार को संभाले रहे हम. अनु तो पिछले 1 माह से बीमार थी. हम सब अपना घरबार छोड़ कर यहां पड़े रहे और अब यह…’’ मौसी और नानी दोनों ने अपनी वाणी के तीखे वाणों से पापा पर कठोर प्रहार सा कर दिया.

मगर पापा बिना किसी की परवाह किए अनवरत बोलते जा रहे थे, ‘‘मेरे साथ तो आप ने आज तक कोई रिश्ता निभाया ही नहीं तो आगे क्या निभाएंगी. आप ने हमेशा अपनी बेटी से ही वास्ता रखा. अब आप की बेटी इस संसार से चली गई तो इस घर से भी आप का रिश्ता समाप्त. अपनी बेटी के रहते मेरा घरसंसार आप का ही था. मैं तो सिर्फ एक मेहमान था. अब यह घर और बेटी मेरी है. इस से जुड़े सभी फैसले अब सिर्फ मैं ही लूंगा. आप लोग भी अपनाअपना घर देखें. अपनी पत्नी से मैं बहुत प्यार करता था इसलिए आप को भी अपने घर में सहन कर रहा था.

वैसे भी आप ने तो मेरे गृहस्थ जीवन को बरबाद कर ही दिया. पैसे के लिए कोई कैसे अपनी बेटी और बहन की जिंदगी तबाह करता है यह मैं ने केवल पत्रपत्रिकाओं में पढ़ा और टीवी सीरियल्स में देखा ही था और हमेशा इसे अतिशयोक्ति मानता रहा परंतु आप लोगों को देख कर यकीन भी कर पाया कि सच में इस समाज में सबकुछ संभव है. अब आप लोग हमें हमारे हाल पर छोड़ दें,’’ कहतेकहते भावुक हो कर पापा ने मेरे सिर पर अपना हाथ फेरते हुए मुझे अपने सीने से लगा लिया.

वसीयत: भाग 1- क्या अनिता को अनिरूद्ध का प्यार मिला?

कभीकभी   प्यार जीवन में अप्रत्याशित रूप से दस्तक देता है, यह चंद्रमा समान है, जिस की शीतल चांदनी संसार की दग्ध अग्नि को शांत करती है. इस की बौछार के नीचे भीगने के लिए बस निरुपाय अंतर्भाव में रिक्त पात्र सहित खड़े रहना होता है. जिंदगी अनूठे, अप्रत्याशित स्वाद देती है और हम उन को कोई संज्ञा नहीं दे पाते. बाहरी तल पर हमें बारबार खो देना होता है एकदूसरे को लेकिन अंदर के तलों पर असंख्य कथाएं लिखी होती हैं.

अनंत यात्राओं की महागाथा के रूप में. अनीता के आसपास यही दुनिया थी, तिलिस्मी दुनिया, प्रेम की दुनिया. 48 वर्षीय संभ्रांत वर्ग की महिला, थिएटर से जुड़ी हुई. इस उम्र में भी बहुत दिलकश और हसीन, सूरज और चंद्रमा के बराबरबराबर हिस्सों से बनीं अनीताजी.

शिमला की एक शांत सी सड़क पर बड़ा सा उन का दोमंजिला घर, हरी छत वाला और सामने छोटीछोटी पहाडि़यां और पूर्व से पश्चिम की ओर विस्तारित होती हुई महान पर्वत शृंखला हिमालय.

यह वही क्षेत्र है जहां रहस्य कभी भी सर्वोच्च चोटियों को नहीं छोड़ता. अनीता अपने खयालों में गुम थीं कि मैक्स अलसाते हुए आगे आया और खुशी से गुर्राया. यह सफेद हस्की कुत्ता ही एकमात्र साथी था उन का. अनीताजी के जीवन में हस्की के अलावा कोई नहीं था.

नीचे का फ्लोर पिछले 1 साल से किराए पर दिया था, नोएडा से लड़का है अनिरुद्ध, लगभग 30 वर्ष का, वर्क फ्रौम होम करता है, यहीं शिमला में रह कर. लेकिन बिलकुल एकांत प्रेमी है, सिर्फ अपने काम से मतलब और जब खाली होता है तो बाहर बैठ कर सामने फैली हुई वृहत् शृंखलाओं को देखता रहता है डूब कर और कभीकभी पहाड़ों के स्कैच भी बनाता है.

आंखें एकदम शांत जैसे कोई ध्यान में बैठा हो, जैसे अपने दिमाग में सारे दृश्य, पहाड़, धुंध और रात का अंधकार समाहित कर रहा हो. अनीता उसे गौर से देखती रहतीं, उस से बात करने की कोशिश करतीं, लेकिन वह मतलब भर की बात कर के चला जाता.

आखिर ऐसा क्या था उस नवयुवक में जो उन्होंने कभी किसी की आंखों में  नहीं देखा था. कभीकभी वे उसे ऊपर वाले कमरे में बुला लेतीं, अपने हाथों से बनाया केक खिलाने और चाय के बहाने. अगर वह आ भी जाता तो एक अजीब से चुप्पी वहां छाई रहती और हवाएं बोझिल हो जातीं.

क्यों यह लड़का अनीताजी में बेचैनी और उत्सुकता पैदा कर रहा था? अनीता के मन की किताब के हर कोरे हिस्से पर नईनई कविताएं नाचती रहतीं. शून्य और सृष्टि जैसे एक हो रहे थे. उस के उठ के जाने के बाद अनीता कुहनियों को डाइनिंगटेबल पर टिकाए घंटों वह खाली कुरसी ताकती रहती थीं, जिस पर वह बैठ कर गया होता. फिर उस कप में चाय पीतीं, जिस में वह पी कर गया होता, शायद उस के होंठों का स्पर्श महसूसने की कोशिश करतीं.

इंसानी इश्क और जनूनी हसरतें क्या न करवा लें. उन्होंने उस पर कविताएं लिखीं. कभी भी सपनों के सच न हो पाने की लाचारी के बावजूद सहसा वे गुनगुनाने लगतीं, ‘अपनी आंखों के समंदर में उतर जाने दे, तेरा मुजरिम हूं मु?ो डूब कर मर जाने दे…’ अनीताजी अपने पिता की इकलौती संतान थीं और यह घर उन का पुश्तैनी था. मांबाप को गुजरे लगभग 10 साल हो चुके थे.

पूरा जीवन दिल्ली और मुंबई में थिएटर को दिया. ऐक्टिंग की, डाइरैक्शन की और इन सब के बीच जवानी के दिनों में प्यार में धोखा भी खाया और उस के बाद किसी और की नहीं हो पाईं, नतीजा आज वे बिलकुल अकेली थीं और अब इस उम्र में एक नवयुवक की तरफ आकर्षित हो रही थीं.

शायद वे इस लड़के के प्यार में थी. बेइंतहा प्यार में. अनीताजी खुद अपनी सोच से कभीकभी सहम जातीं कि नहीं अनीता, इस सफर की कोई मंजिल नहीं है, अपनी ही धज्जियां उड़ती हैं, कुछ भी शेष नहीं बचेगा क्यों उस की और अपनी जिंदगी के साथ खिलवाड़ करना.

अकसर अटपटी और अजनबी लय जिंदगी के किसी भी मोड़ पर संगीतमय हो कर हम में चली आती है. मन के अंतिम प्रकोष्ठ के वाद्ययंत्र तरंगित हो जाते हैं और एक देवमूर्ति जो बरसों से खंडहर में रखी होती है वह भक्त का स्पर्श पाने के लिए तरसने लगती है.

एक अस्पष्ट मंत्र सुनने को कान आकुल हो जाते हैं. कहीं दूर पखावज बजने लगते हैं. एक दिन अचानक अनिरुद्ध की तबीयत खराब हो गई, भयंकर खराब. उलटियां रुक नहीं रही थीं और वह निढाल हो कर बिस्तर पर लेटा रहा. आधी रात को फिर उलटी आई. लेकिन इतनी कमजोरी कि बिस्तर पर उलटी हो गई. उस ने अपना मोबाइल उठाया और अनीताजी को फोन लगाया लेकिन कुछ बोल नहीं पाया.

अनीताजी कुछ ही क्षणों में उस के कमरे में थीं और अनिरुद्ध को बस इतना ही याद रहा कि वह उस के सिर को गोद में रख कर सहला रही थीं और बेचैनी में किसी को फोन पर बुला रही थीं. बाद में क्या हुआ उसे कुछ याद नहीं. अगले दिन आंखें खुलीं तो वह शिमला सिटी हौस्पिटल के बिस्तर पर था. अनीताजी पास कुरसी पर बैठी सो रही थीं.

कमरे में खालीपन था और खालीपन में ही खूबसूरती समाती है. अनीताजी देखने में कितना खूबसूरत हैं… अनीताजी को एकटक देखते हुए अनिरुद्ध मायावी सपने देखता रहा. उन के स्पर्श को तरसता रहा. बाद में धीरे से सपनों की दुनिया से यथार्थ में आया. आकाशीय अभिलेखन का ब्रह्मांडीय ज्ञानरूपी सूर्य प्रकाश, पेड़ों की पत्तियों में से हो कर सामने की दीवार पर विभेदनयुक्त धब्बे बना रहा था. कमरे में धूप की चहलकदमी चालू थी. हिरण्यगर्भ से एक नई सृष्टि की उत्पत्ति हो रही थी, जिस में केवल 2 लोग थे- अनीता और अनिरुद्ध. अनिरुद्ध धीरे से बोला, ‘‘अनीता…’’

अनीताजी हड़बड़ा कर उठीं और उस की तरफ आ कर उस का हाथ पकड़ कर बैठ गईं. आज पहली बार उस ने इतनी आत्मीयता से उन्हें उन के नाम से पुकारा था. ‘‘तुम ठीक तो हो?’’ अनीताजी ने पूछा. अनिरुद्ध चुप रहा. वो उनके हाथ की नर्मी और गरमाहट महसूस करता रहा. घाटी की तलहटी पर बहती नदी की गूंज यहां तक आ रही थी. ऐसे पलों को पढ़ना ही नहीं होता, सहेजना भी होता है, इसलिए अनीताजी और अनिरुद्ध ने पढ़ना स्थगित रखा. अनीताजी को उस का स्पर्श सावन की अनुभूति करा गया. यह भावों से किया गया पावन अभिसिंचन था.

एक दूजे के वास्ते: क्या हुआ था तूलिका के साथ

‘‘शादी की सालगिरह मुबारक हो तूलिका दी,’’ मेरी भाभी ने मुझे फोन पर मुबारकबाद देते हुए कहा.

‘‘शादी की सालगिरह मुबारक हो बेटा. दामादजी कहां हैं?’’ पापा ने भी फोन पर मुबारकबाद देते हुए पूछा.

‘‘पापा, वे औफिस गए हैं.’’

‘‘ठीक है बेटा, मैं उन से बाद में बात कर लूंगा.’’

मेरी छोटी बहन कनिका और उस के पति परेश सब ने मुझे बधाई दी, पर मेरे पति रवि ने मुझ से ठीक से बात भी नहीं की. आज हमारी शादी की सालगिरह है और रवि को कोई उत्साह ही नहीं है. माना कि उन्हें औफिस में बहुत काम होता है और सुबह जल्दी निकलना पड़ता है, पर शादी की सालगिरह कौन सी रोजरोज आती है.’’

रवि कह कर गए थे, ‘‘तूलिका, आज मैं जल्दी आ जाऊंगा… हम बाहर ही खाना खाएंगे.’’

‘सुबह से शाम हो गई और शाम से रात. रवि अभी तक नहीं आए. हो सकता है मेरे लिए कोई उपहार खरीद रहे हों, इसलिए देरी हो रही है,’ मन ही मन मैं सोच रही थी.

‘‘मां भूख लगी है,’’ मेरी 5 साल की बेटी निया कहने लगी. वह सो न जाए, उस से पहले ही मैं ने उसे कुछ बना कर खिला दिया.

तभी दरवाजे की घंटी बजी. वे आते ही बोले, ‘‘बहुत थक गया हूं… तूलिका माफ करना लेट हो गया… अचानक मीटिंग हो गई. शादी की सालगिरह मुबारक हो मेरी जान… यह तुम्हारा उपहार… फूलों सी नाजुक बीवी के लिए गुलदस्ता… आज हमारी शादी को 6 साल हो गए और तुम अभी भी पहले जैसी ही लगती हो.’’

पर मैं ने उन की किसी भी बात पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और उन के लाए गुलदस्ते को एक तरफ रख दिया. फिर बोलने लगे, ‘‘आज होटल में बहुत भीड़ थी… तुम्हारी पसंद का सारा खाना पैक करवा लाया हूं. जल्दी से निकालो… जोर की भूख लगी है.’’

‘‘जोर की भूख लगी थी तो बाहर से ही खा कर आ जाते… यह खाना लाने की तकलीफ क्यों की और इस गुलदस्ते पर पैसे खर्च करने की क्या जरूरत थी? आप खा लीजिए… मेरी भूख मर गई… मैं सोने जा रही हूं.’’

‘‘माफी तो मांग ली अब क्या करूं? बौस ने अचानक मीटिंग रख दी तो क्या करता? मुझे भी बुरा लग रहा है… खाना खा लो तूलिका भूखी मत सो,’’ रवि बोले.

कितना कहा पर मैं नहीं मानी और भूखी सो गई. मैं रात भर रोतीसिसकती रही कि किस बेवकूफ से मेरी शादी हो गई… शादी के 6 साल पूरे हो गए पर आज तक कभी मुझे मनचाहा उपहार नहीं दिया. मैं ने सुबह से कितना इंतजार किया, कम से कम होटल में तो खिला ही सकते थे.

 

आज तक कौन सी बड़ी खुशी दी है मुझे… हर छोटी से छोटी चीज के लिए

तरसती आई हूं. एक मेरी बहन का पति है, जो उसे कितना प्यार करता है. भूख से नींद भी नहीं आ रही थी. सोचा कुछ खा लूं पर मेरा गुस्सा भूख से ज्यादा तेज था. एक गिलास ठंडा पानी पी कर मैं सोने की कोशिश करने लगी पर नींद नहीं आ रही थी. क्या कभी रवि को महसूस नहीं होता कि मैं क्या चाहती हूं? फिर पता नहीं कब मुझे नींद आ गई.

‘‘गुड मौर्निंग मेरी जान…’’ कह रवि ने मुझे पीछे से पकड़ लिया जैसा हमेशा करते हैं. आज रवि की पकड़ से मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मेरे बदन पर बिच्छू रेंग रहा हो.

मैं ने उन्हें धक्का देते हुए कहा, ‘‘झूठे प्यार का दिखावा करना बंद कीजिए… इतने भी सीधे और सरल नहीं हैं आप जितना दिखाने की कोशिश करते हैं.’’

‘‘अब जैसा भी हूं तुम्हारा ही हूं. हां, मुझे पता है कल मैं ने तुम्हारे साथ बहुत ज्यादती की पर मैं क्या करूं तूलिका नौकरी भी तो जरूरी है. अचानक मीटिंग रख दी बौस ने. अब बौस से जवाबतलब तो नहीं कर सकता न… इसी नौकरी पर तो रोजीरोटी चलती है हमारी,’’ रवि बोले.

‘‘कौन सा महीने का लाख रुपए देती है यह नौकरी? आज तक कौन सी बड़ी खुशी दी है आप ने मुझे? बस दो वक्त की रोटी, तन पर कपड़ा और यह घर. इस के अलावा कुछ भी तो नहीं दिया है,’’ मैं ने गुस्से में कहा.

‘‘बस इन्हीं 3 चीजों की तो जरूरत है हम सब की जिंदगी में… किसीकिसी को तो ये भी नहीं मिलती हैं तूलिका… जो भी हमारे पास है उसी में खुश रहना सीखो. अब छोड़ो यह गुस्सा.. गुस्से में तुम अच्छी नहीं लगती हो.

चलो आज कहीं बाहर घूमने चलेंगे और बाहर ही खाना खाएंगे… तुम कहो तो फिल्म भी देखेंगे… आज छुट्टी का दिन है… यार अब छोड़ो यह गुस्सा.’’

‘‘मुझे कहीं नहीं जाना है दोबारा बोलने की कोशिश भी मत कीजिएगा. पछता रही हूं आप से शादी कर के… पता नहीं क्या देखा था मेरे पापा ने आप में… कितना कुछ ले कर आई थी मैं… सभी कुछ आप के परिवार वालों ने रख लिया. कितने अरमान संजोए आई थी ससुराल में… सब चकनाचूर हो गया. अब मुझे जो भी जरूरत होगी अपने पापा से मांगूंगी. आप से उम्मीद करना ही बेकार है. आप जैसे आदमी को तो शादी ही नहीं करनी चाहिए,’’ जो मन में आया वह बोले जा रही थी.

‘‘मैं ने पहले ही तुम्हारे पापा से कहा था कि मुझे कुछ नहीं चाहिए. मेरे जीवन का एक संकल्प है, उद्देश्य है और बिना संकल्प जीवन और मृत्यु का भेद समाप्त हो जाता है. क्या बेईमानी से करोड़ों कमा कर या किसी से पैसे मांग कर मैं तुम्हें ज्यादा सुखी रख सकता हूं?

मैं अपने परिवार को अपने बलबूते पर रखना चाहता हूं. मुझे किसी का 1 रुपया भी नहीं लेना है. अपने पापा का भी नहीं. अब तुम्हारे पापा ने दिए औैर मेरे पापा ने लिए तो इस में मैं क्या कर सकता हूं? अभी हमारे घर का लोन कट रहा है इसलिए पैसे की थोड़ी किल्लत है. फिर सब ठीक हो जाएगा तूलिका… मुझे भरोसा है अपनेआप पर कि मैं सारी खुशियां दूंगा तुम्हें एक दिन,’’ रवि बोले.

रवि ने मुझे बहुत मनाने की कोशिश की पर मैं अपने गुस्से पर कायम थी. रविवार की छुट्टी ऐसे ही बीत गई. शाम को निया बाहर घूमने की जिद्द करने लगी. रवि उसे घुमाने ले गए. मुझे भी कितनी बार कहा रवि ने पर मैं

नहीं गई.

तभी भाभी का फोन आया. ‘‘भाभी प्रणाम.’’ ‘‘तूलिका, कैसी हैं? आप दोनों को परेशान तो नहीं किया न?’’

‘‘अरे नहीं भाभी.. कहिए न.’’

‘‘कनिका अपने पति के साथ आई हुई है तो पापा चाह रहे थे कि अगर कुछ दिनों के लिए आप सब भी आ जाते तो अच्छा लगता,’’ भाभी ने मुझ से कहा.

‘‘हां भाभी, देखती हूं. वैसे भी आप सब से मिलने का बहुत मन कर रहा है,’’ कह फोन काट कर मैं सोचने लगी कि कितनी खुशहाल है कनिका… कुछ दिन पहले ही सिंगापुर घूम कर आई है अपने पति के साथ और एक मैं…

मैं ने सोचा कि कुछ दिनों के लिए पापा के पास चली ही जाऊं. कम से कम कुछ दिनों के लिए इस घर के काम से दूर तो रहूंगी और फिर मुझे अपने पति को सबक भी सिखाना था, जो सिर्फ मुझे इस्तेमाल करना जानते हैं.

‘‘मां,’’ कह कर निया मुझ से लिपट गई. कहांकहां घूमी, क्याक्या खाया, सब बताया.

फिर बोली, ‘‘पापा आप के लिए भी आइसक्रीम लाए हैं.’’

‘‘मुझे नहीं खानी है… जाओ बोल दो अपने पापा को कि वही खा लें और यह भी बोलना कि तुम और मैं नाना के घर जाएंगे… टिकट करवा दें.’’

‘‘पापा, हमें नाना के घर जाना है. मां ने बोला है कि टिकट करवा दो,’’ निया बोली.

‘‘आप की मां आप के पापा से गुस्सा हैं, इसलिए पापा को छोड़ कर जाना चाहती हैं. ठीक है मैं टिकट करवा दूंगा,’’ रवि मेरी तरफ देखते हुए बोले.

रवि जब मुझे और निया को ट्रेन में बैठा कर अपना हाथ हिलाने लगे और ट्रेन भी अपनी गति पकड़ने लगी, तो निया पापा पापा कह कर चिल्लाने लगी. रवि का चेहरा उदास हो गया.

वे मुझे ही देखे जा रहे थे. तभी लगा कि आवेग में आ कर कहीं गलती तो नहीं कर रही हूं मायके जाने की? पर ट्रेन की रफ्तार तेज हो चुकी थी. पूरा रास्ता यही सोचती रही कि इतना नहीं बोलना चाहिए था मुझे… सुबह ही हम पटना पहुंच गए.

सब से मिल कर अच्छा लगा. पापा तो बहुत खुश हुए. सब रवि के बारे में पूछने लगे तो मैं ने कह दिया कि उन्हें काम था, इसलिए नहीं आ पाए.’’

यहां आए 4-5 दिन हो गए. रवि रोज सुबह शाम फोन करते. एक रोज कनिका ने पूछ ही लिया कि रवि ने सालगिरह पर मुझे क्या उपहार दिया तो मैं ने हंस कर टाल दिया.

कनिका और परेश हमेशा यही जताने की कोशिश करते कि दोनों में बहुत प्यार है. पापा ने ही दोनों के टिकट करवाए थे, सिंगापुर जाने के लिए. पापा ने रवि से भी पूछा था कि कहीं घूमने जाना हो तो टिकट करवा दूं पर मेरे पति तो राजा हरीशचंद हैं, उन्होंने मना कर दिया.

एक रात पापा और भाभी भैया किसी की शादी में गए थे. निया और मैं कमरे में टैलीविजन देख रहे थे.

‘‘दीदी, मैं ने खाना बना दिया है… मैं अपने घर जा रही हूं,’’ कामवाली कह कर चली गई.

थोड़ी देर बाद निया के खाने का वक्त हो गया. निया सो न जाए यह सोच कर मैं किचन मैं खाना लेने जाने लगी कि तभी कनिका के कमरे से हंसने की और अजीब सी आवाजें आने लगीं.

ये कनिका भी न… कम से कम कमरे का दरवाजा तो लगा लेती. मैं ने सोचा परेश के साथ अभी उसे समय मिला. मैं बुदबुदाई पर जैसे ही मैं किचन से खाना ले कर निकली तो मैं ने देखा कि कनिका तो बाहर से आ रही है.

‘‘कनिका तुम? तो तुम्हारे कमरे में कौन है? तुम कहीं बाहर गई थीं?’’ मैं ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘हां दीदी, मैं पड़ोस की स्वाति भाभी के घर गई थी. कब से बुला रही थीं… देखो न कितनी देर तक बैठा लिया.’’

‘‘कनिका, निया के लिए खाना ले कर मेरे कमरे में आओ न जरा कुछ बातें करनी हैं तुम से,’’ मैं ने हड़बड़ाते हुए कनिका के हाथ में खाने की प्लेट थामते हुए कहा. मुझे लगा कहीं कनिका कुछ ऐसावैसा देख न ले, पर कौन है कमरे में? जैसे ही मैं पलटी देख कर दंग रह गई. सोना अपने ब्लाउज का बटन लगाते हुए कनिका के कमरे से निकल रही थी. उस के  बाल औैर कपड़े अस्तव्यस्त थे. मुझे देखते ही सकपका गई और भाग गई.

परेश का शारीरिक संबंध एक नौकरानी के साथ… छि:…

‘‘ दीदी, निया का खाना ले आई… कुछ बातें करनी थीं आप को मुझ से?’’

उफ, दिमाग से निकल गया कि क्या बातें करनी थीं. सुबह कर लूंगी… अभी तू जा कर आराम कर.’’

‘‘ठीक है दीदी.’’ उफ, क्या समझा था मैं ने परेश को और वह क्या निकला… अब तो परेश से घिन्न आने लगी है… और यह कनिका अपने पति की बड़ाई करते नहीं थकती है.

रवि तो मेरी खुशी में ही अपनी खुशी देखते हैं और मैं ने कितना कुछ सुना दिया उन्हें. आज तक कभी उन्होंने पराई औरत की तरफ नजर उठा कर नहीं देखा… मुझे रवि की याद सताने लगी. मन हुआ कि अभी फोन लगा कर बात कर लूं.

सुबह जब रवि का फोन नहीं आया तो मैं ने ही फोन लगाया पर उन्होंने फोन नहीं उठाया. बारबार फोन लगा रही थी पर वे नहीं उठा रहे थे. मेरा मन बहुत बैचेन होने लगा. अब मुझे चिंता भी होने लगी, इसलिए मैं ने उन के औफिस में फोन किया तो रिसैप्शनिस्ट ने बताया कि  रवि आज औफिस नहीं आए और कल भी जल्दी चले गए थे. उन की तबीयत ठीक नहीं लग रही थी.

यह सुन कर मुझे और चिंता होने लगी.

‘‘पापा, रवि की तबीयत ठीक नहीं है. अभी औफिस से पता चला, इसलिए मैं कल की गाड़ी से चली जाऊंगी,’’ मैं ने पापा से कहा.

‘‘कोई चिंता की बात तो नहीं है न? मैं हवाईजहाज की टिकट करवा देता हूं,’’ पापा ने मुझ से कहा.

मैं ने सोचा कि जो बात मेरे पति को नहीं पसंद वह मैं नहीं करूंगी. अत: बोली, ‘‘नहीं पापा मैं ट्रेन से चली जाऊंगी. आप चिंता न करें. वैसे भी पटना से दिल्ली ज्यादा दूर नहीं है.’’

रास्ते भर मैं परेशान रही कि क्या हुआ होगा. ऐसा लग रहा था कि उड़ कर अपने घर पहुंच जाऊं. करीब 7 बजे सुबह हम अपने घर पहुंच गए. मैं बारबार दरवाजा खटखटा रही थी पर रवि दरवाजा नहीं खोल रहे थे. फिर मैं ने घर की दूसरी चाबी से दरवाजा खोला. अंदर गई तो देखा रवि बेसुध सोए थे. उन का बदन बुखार से तप रहा था. मैं ने तुरंत डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने रवि को इंजैक्शन दिया. धीरेधीरे उन का बुखार उतरने लगा.

जब उन की आंखें खुलीं तो चौंक कर बोले, ‘‘अरे तुम. मैं ने तुम्हें परेशान नहीं करना चाहा इसलिए बताया नहीं. माफ कर दो कि मायके से जल्दी आना पड़ा,’’ कहते हुए रवि रो पड़ा.

‘‘माफ आप मुझे कर दीजिए. मैं ही गलत थीं,’’ मेरी आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. फिर सोचने लगी कि मैं अपने अरमान उन पर लादती रही. कभी रवि के बारे में नहीं सोचा. कितने सौम्य, शालीन और सुव्यवस्थित किस्म के इनसान हैं मेरे पति. कितना प्यार और समर्पण दिया रवि ने मुझे पर मैं ही अपने पति को पहचान नहीं पाई.

‘‘अब कुछ मत सोचो तूलिका जो हुआ उसे भूल जाओ… हम दोनों एक हैं और कभी अलग नहीं होंगे, यह वादा रहा.’’

मैं ने भी हां में अपना सिर हिला दिया. सच में हम दोनों एकदूजे के वास्ते हैं.

जिंदगी का सफर: भाग 3- क्या शिवानी और राकेश की जिंदगी फिर से पटरी पर लौटी?

पहले अच्छे विद्यार्थियों में गिना जाने वाला मोहित अपनी शिक्षिकाओं के लिए अब समस्या बन गया था. वह चिड़चिड़ा और झगड़ालू हो गया था. पढ़ने और सीखने में उस की रुचि कम हो गई थी. अपने सहपाठियों की चीजें तोड़नेफोड़ने में उसे खूब मजा आता. उसे संभालना बहुत कठिन हो गया था.

‘‘मोहित की क्लासटीचर ने एक दिन उस से प्यार से बात करी तो मालूम पड़ा कि वह अपने पापा, दादादादी

नानानानी को बहुत याद करता है. उस का मन उन से मिलने को तड़पता है. अपनी टीचर से

बातें करते हुए वह भावुक हो कर कई बार रोया. मैं ने उस की बिगड़ी मानसिक स्थिति की चर्चा करने के लिए आप दोनों को बुलाया है. हम

सब की नासमझ और लापरवाही के कारण अगर उस मासूम का भविष्य खराब हो गया, तो हम सभी अफसोस करेंगे,’’ अनिता के इन शब्दों को सुन कर राकेश गंभीर व उदास सा और शिवानी उत्तेजित व भावुक नजर आने लगी.

प्रिंसिपल साहिबा के साथ उन की यह मुलाकात करीब 20 मिनट चली. इस दौरान शिवानी ने राकेश के ऊपर अपने साथ सहयोग न करने व अभद्र व्यवहार करने के आरोप को कई बार

ऊंची आवाज में दोहराया. तेज गुस्से के कारण उस की आवाज व शरीर दोनों कई बार कांपने लग जाते थे.

राकेश ने अनिता और शिवानी दोनों की बातें अधिकतर खामोश रह कर

सुनीं. उस ने न ज्यादा सफाई दी, और न ही शिवानी के खिलाफ बोला. जब भी मोहित के बिगड़े व्यवहार के बारे में प्रिंसिपल कोई जानकारी देती, उस की आंखों में दुख, चिंता और उदासी के मिलेजुले भाव और गहरा जाते.

उन दोनों को काफी समाझने के बाद अनिता ने अंत में कहा, ‘‘मुझे पूरा विश्वास है कि आप दोनों मोहित के सुखद भविष्य व समुचित विकास की खातिर साथसाथ रहना शुरू कर देंगे. अपने उत्तरदायित्वों को आपसी अहं के टकराव के कारण नजरअंदाज न करें. अपने बेटे को घर में हंसीखुशी का माहौल उपलब्ध कराना आप दोनों का ही फर्ज है.’’

प्रिंसिपल के कक्ष से बाहर आते ही राकेश ने अपना यह निर्णय शिवानी को सुनाया, ‘‘अतीत में जो भी हुआ है, उस का मुझे अफसोस है. मैं आज शाम ही तुम दोनों के पास रहने आ जाऊंगा.’’

राकेश ने अपना वचन निभाया. 2 सूटकेसों में अपना सामान भर कर उसी शाम फ्लैट में पहुंच गया. शिवानी ने उलझन भरी खुशी के साथ उस के निर्णय का स्वागत किया. मोहित तो इतना खुश हुआ कि पिता से लिपट गया.

राकेश के इस कदम से उन के आपसी संबंध सुधरने चाहिए थे, पर ऐसा नहीं हुआ. अतीत व भविष्य से जुड़ी अपनी सोचों को बदलना या रोकना इंसान के लिए आसान नहीं होता है.

पहले अपने अहं के टकराव के कारण दोनों लड़ते झगड़ते थे, पर अब अजीब सा खिंचाव दोनों के बीच बढ़ने लगा. एक ही छत के नीचे साथसाथ रहते हुए भी अजनबियों सा व्यवहार करते.

उन की आपस में बातचीत अधिकतर मोहित के बारे में होती. कभीकभी औपचारिक विषयों पर 2-4 वाक्य बोल लेते. दिल से दिल की बात कहनेसुनने का अवसर कभी आता भी, तो दोनों अजीब सी रुकावट महसूस करते हुए उस राह पर आगे बढ़ने की ताकत अपने अंदर नहीं पाते.

‘‘तुम इतना चुपचुप क्यों रहते हो?’’ कभीकभी शिवानी चिड़े से अंदाज में राकेश से पूछ भी लेती.

‘‘मैं ठीक हूं,’’ उदासीभरे अंदाज में कुछ ऐसा ही जवाब दे कर राकेश मोहित की तरफ ध्यान बंटा लेता था.

सच यह था कि दोनों रहने को सिर्फ साथ रहने लगे थे. उन की सोच व व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया था. मन की शिकायतों व नाराजगी के पूर्ववत बने रहने के कारण उन के आपसी संबंधों में सुधार नहीं हो रहा था.

राकेश अपने दिल की बात किसी से नहीं कहता था, पर शिवानी अपनी सहेली अंजलि से अपना सुखदुख बांट लेती थी.

‘‘शिवानी, तुम राकेश के बदलने का क्यों इंतजार कर रही हो. तुम खुद ही सहज हो कर उस से हंसनाबोलना क्यों नहीं शुरू देती हो?’’ अंजलि अकसर उस से कहती.

‘‘राकेश मुंह से कुछ न कहे, पर उस की आंखों में मैं अपने लिए लानतों, शिकायतों व नाराजगी के भावों को अब भी साफ पढ़ लेती हूं. तब मेरे अंदर कुछ भर सा जाता है, मन विद्रोह सा कर उठता है और मैं मीठा या अच्छा बोलने का अभिनय करने में खुद को पूरी तरह से असमर्थ पाती हूं,’’ ऐसा जवाब देते हुए शिवानी चिढ़ व गुस्से का शिकार बन जाती.

‘‘तुम दोनों शादी होने से पहले घंटों हंसबोल कर भी प्यासे से रह जाते थे. पता नहीं क्या हो गया तुम दोनों को,’’ दुख प्रकट करते हुए अंजलि की पलकें नम हो उठतीं.

अंजलि ने लाख कोशिश करी, पर वह शिवानी और राकेश को उन की

शादी की 7वी वर्षगांठ के मौके पर किसी पहाड़ी स्थल पर घूम आने को राजी नहीं कर पाई.

अंजलि के प्रयासों से ही उन के फ्लैट पर सालगिरह के दिन पार्टी का आयोजन हो पाया. शिवानी और राकेश दोनों ने इस पार्टी के प्रति जरा भी उत्साह नहीं दर्शाया.

वैसे पार्टी वाली शाम उन दोनों ने ही मेहमानों के सामने नकली मुसकान और खुशी जाहिर करने वाले मुखौटे ओढ़ लिए. उन्हें सब की खातिरदारी जोश के साथ करते देख कर कोई अनुमान नहीं लगा सकता था कि उन के बीच भारी मनमुटाव चल रहा है.

बनावटी व्यवहार इंसान के दिलोदिमाग को कहीं ज्यादा थका देता है. आखिरी मेहमान के विदा होने तक शिवानी का सिर दर्द से इतना फटने लगा कि उसे दर्दनिवारक गोली लेनी पड़ी. राकेश थकाहारा सा सोफे पर आंखें मूंद कर

लेट गया.

दोनों के मन में यह चाह मौजूद थी कि आज की विशेष रात वे एकदूसरे की बांहों में गुजारें, पर इस इच्छापूर्ति के लिए पहल करने से दोनों हिचकते रहे.

शिवानी घर संवारने लगी. राकेश मोहित से बातें करता रहा. दोनों के मन पर बेचैनी व तनाव का बोझ बढ़ता गया.

काम समाप्त कर शिवानी ने कपड़े बदले और डबल बैड पर लेट गई. राकेश आ

कर उसे प्यार से बातें करे इस की कामना करतेकरते उस की आंख ही लग गई.

बाहर ड्राइंगरूम में राकेश शिवानी के

अपने पास आ कर बैठने का इंतजार करते हुए नकारात्मक ऊर्जा से भरने लगा. आज की रात

भी अपनी पत्नी का घमंडी मन उसे बुरी तरह चुभने लगा.

मोहित कुछ देर बाद सो गया. उसे उठा कर राकेश बैडरूम में ले आया. वहां शिवानी को सोता देख कर उस को तेज धक्का लगा. उस के तनमन में दुख, पीड़ा व अकेलेपन का एहसास कराने वाली ऐसी तेज लहर उठी कि उस की आंखों में आंसू छलक आए.

मोहित को शिवानी के पास लिटा कर वह खुली खिड़की के पास आ खड़ा हुआ. आंखों में आंसू भरे होने के कारण उसे बाहर का दृश्य धुंधलाधुंधला सा नजर आ रहा था.

मोहित के हिलनेडुलने के कारण शिवानी की नींद उथली हो गई थी. फिर एक अजीब सी आवाज ने उस के कानों तक पहुंच कर उसे पूरी तरह जगा दिया.

वह आवाज राकेश के गले से निकली थी. शिवानी उठ कर उस के पास पहुंची तो अपने पति के गले से निकल रही सुबकियों की आवाज साफसाफ सुन ली.

‘‘राकेश. तुम हो रहे हो? क्यों?’’ घबराई शिवानी ने राकेश के कंधों को पकड़ कर उसे अपनी तरफ घुमा लिया.

उस पल तक शिवानी ने राकेश को यों किसी बच्चे की तरह आंसू बहाते कभी नहीं देखा था. उस के उदास चेहरे पर बहते आंसुओं का देख कर वह स्तब्ध रह गई.

‘‘क्या बात है?’’ यह पूछते हुए शिवानी की खुद की आंखें भी भर आईं.

राकेश के होंठ कुछ कहने को फड़फड़ाए, पर गले से बोल नहीं निकले. बस आंसुओं के बहने की रफ्तार व सिसकियों की आवाज ज्यादा तेज हो गई.

‘‘नो… प्लीज डौंट क्राई,’’ शिवानी ने हाथ बढ़ा कर अपने पति के गालों पर बह रहे आंसुओं को पोंछ डाला.

दोनों की नजरें आपस में मिलीं. शिवानी का दिल ऐसा भावुक हुआ कि वह भी रो पड़ी. राकेश के हाथ अपनेआप फैले और शिवानी बिना सोचेसमझे उस की छाती से लिपट गई.

‘‘जिंदगी ने हमें यह किस मोड़ पर ला खड़ा किया है, शिवानी? हमारे बीच प्रेम की जगह यह शिकायतें, यह नफरत, ये अजनबीपन कहां से आ गया?’’ रो रहे राकेश की आवाज में गहरी उदासी और अफसोस के भाव शिवानी को अंदर तक हिला गए.

एक ऐसा तूफान शिवानी के मन में उठा जिस ने उस के मन में दबी सारी नकारात्मक भावनाओं को आंसुओं की राह से बहाना शुरू कर दिया.

‘‘मैं तुम से दूर हो कर नहीं जीना चाहती हूं. मेरी अकड़… मेरे घमंड ने हमारी खुशियां तबाह कर दीं. मुझे माफ कर दो, राकेश. मुझे पहले की तरह अपने दिल की रानी बना लो,’’ सुबकती शिवानी ने राकेश के आंसू पोंछते हुए अपने दिल की इच्छा बयां करी.

‘‘तुम से बड़ा कुसूरवार मैं हूं, शिवानी,’’ राकेश रुंधे गले से बोला, ‘‘मेरे अहं ने हमारे प्रेम की जड़ों को कमजोर कर दिया. मैं… मुझे तुम्हारी तरक्की और सफलता ही बुरी लगने लगी. हर कदम पर साथ देने के बजाय मैं तुम्हारा विरोधी क्यों हो गया.’’

एक बार दोनों ने अपनेअपने दिल की गहराइयों में दबीछिपी बातों को जबान

पर लाना शुरू किया, तो जैसे कोई बांध सा टूट गया. दोनों देर तक एकदूसरे से सटे अतीत की बहुत सी घटनाओं व यादों को शब्द दे कर बांटने लगे.

जब वे सोने के लिए पलंग पर लिपट कर लेटे, तब तक उन के दिलोदिमाग पर

लंबे समय से बना रहने वाला चिंता, तनाव शिकायतों व नाराजगी का बोझ पूरी तरह से

उतर चुका था.

राकेश ने शिवानी का माथा प्यार से चूम कर कहा, ‘‘तुम आज मुझे पहले मिलन की रात से ज्यादा सुंदर लग रही हो क्योंकि मैं बहुतबहुत खुश हूं.’’

‘‘आज मैं तुम से एक पक्का वादा कर रही हूं,’’ शिवानी उस की आंखों में प्यार से झंकते हुए मुसकराई.

‘‘करो,’’ राकेश उस की जुल्फों से खेलने लगा.

‘‘भविष्य में हमारा दिनभर चाहे कितना भी झगड़ा हो, पर सोने से पहले मैं सिर्फ तुम्हारे प्यार की गरमाहट अपने रोमरोम में महसूस करना चाहूंगी. एकदूसरे के दिल की बात कहनेसुनने का सिलसिला अब हम कभी टूटने नहीं देंगे.’’

‘‘हमारी खुशियों व मोहित के इज्ज्वल भविष्य की खातिर मैं तुम्हारे साथ पूरा सहयोग करूंगा.’’

‘‘जिंदगी के सफर में आने वाली चुनौतियां तभी समस्याएं बनती हैं जब हम उन का बोझ अतीत व भविष्य की चिंताएं बना कर मन में ढोने लगते हैं. ऐसी मूर्खता करने से हम बचेंगे.’’

‘‘बिल्कुल. आओ इस समझैते पर मैं प्यार की मुहर लगा दूं,’’ राकेश ने गरदन  झका कर शिवानी के होंठों पर प्यार भरा चुंबन अंकित किया, तो वह नई दुलहन की तरह से शर्मा उठी.

सोने के वरक के पीछे छिपा भेड़िया

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