नास्तिक बहू: नैंसी के प्रति क्या बदली लोगों की सोच

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यह कैसा प्रेम- भाग 5 : आलिया से क्यों प्यार करता था वह

धीरेधीरे हर शामसुबह हम एकदूसरे से बात करने लगे थे.  या तो वह मुझे फोन कर लेती या मैं. शायद, हम एकदूसरे के आदी होने लगे थे. मुरझाई हुई बेल बारिश के आने पर जैसे हरे रंग से लिपट कर इठलाने लगती है वैसे ही आलिया भी लगने लगी थी. सूरज की पहली किरण से ले कर चंद्रमा की चांदनी तक का पूरा ब्योरा वह मेरे सामने जब तक न रख लेती उसे चैन ही न आता. आज मेरा बहुत मन किया कि संदेश से बात करूं और उसे आलिया के बारे में सब बताऊं, मगर मेरी यह चाहत गुनाह का रूप ले सकती थी. सो, खुद को समझा लिया. हां, आलिया से मैं ने एक बार संदेश का जिक्र जरूर किया था. तब वह अल्हड़ लड़की उतावली हो कर नाराजगी जताने लगी थी- ‘क्या जरूरत थी आप को दी इतना महान बनने की? आप ने अपने प्यार का गला अपने ही हाथों क्यों घोट दिया? क्या मिला आप को बदले में?’

‘संदेश आज भी मुझ से प्यार करता है. वह मुझे कभी नहीं भूल सकता. आलिया, बस, यही मेरे लिए काफी है.’

‘जाने दो, दी. मैं आप से कभी जीतना नहीं चाहूंगी, क्योंकि आप तो सुनोगी नहीं. आप तो त्याग की देवी हो,’ आलिया ने नाराजगी में शब्दों को थोड़ा सा गरम किया था.

माहौल को हलका करने के लिए हम दोनों ही फूहड़ता से ठहाका लगा दिए थे. हंसने के लिए मैं ने ही उसे बाध्य किया था, वरना वह तो जाने कब तक मुंह फुलाए रहती.

सूरत बगैर देखे ही भाव पढ़े जाते रहे थे. वह तो जादूगरनी थी यह तक बता देती कि मैं क्या सोच रही हूं. इस कदर परवा करती कि मुझे उस से डरना पड़ता था. विचारों को कैद करने वाला जादूगर कोई ऐसावैसा नहीं होता, कौन जाने रूठ कर मैं उलाहना देने लगूं और वह पढ़ ले. रोज वही गाना जब तक न सुना लेती, फोन कट न करती- ‘दिल आने की बात है जब कोई लग जाए प्यारा, दिल पर किस का जोर है यारो, दिल के आगे हर कोई हारा, हाय रे मेरे यारा…’

उस रोज उस ने बताया, ‘मैं आप से मिलने जबलपुर आ रही हूं. कल सुबह की ट्रेन से निकलूंगी, दी. मेरे लिए कुछ अच्छा सा पका कर रखना.’  मैं ने भी मजाक में कह दिया था, ‘न आलिया, मैं तो न बनाऊंगी कुछ भी, बस बैठ कर खाऊंगी तेरे हाथ का.’ वह भी पगली ठहरी, जिद पर अड़ गई कि- ‘न रे, भूखी ही मर जाऊंगी पर खाऊंगी तो आप से ही बनवा कर.’

हम दोनों सांझ ढले तक ठिठोली करते रहे. न वह हारी न मैं. वह मुझ पर अपना अधिकार जताती रही और मैं झूठमूठ का मुकरती रही. वह आज बेतहाशा हंस रही थी. बहुत ही खुश थी. उस ने अपने जीवन का हर पन्ना मेरे सामने खोल दिया था और कुछ हद तक मैं ने भी. इस के बाद मेरा मन उस से मिलने के लिए हवाओं सा उड़ने लगा.

बेसब्री में एक बार फिर वही गलती दोहरा दी. लिखे हुए कागजों को बगैर दबाए उठ बैठी. पंखा की हवा तो जैसे इसी ताक में थी. पूरे कमरे में कागज बिखर गए. समेटते हुए आलिया का चेहरा सामने आ गया. कैसे वह बारिश में संभाल कर लाई थी? अब इन्हें कौन संभालेगा? फिर मन फुसफुसाया- ‘पड़ा रहने दे इन्हें यों ही, शाम तक तो आई रही है न तेरी चहेती, वही सहेजेगी उस बारिश वाली रात की तरह. यह सोच कर मैं ढपली बजाती हुई डौल की तरह मुसकरा उठी, जो सामने ही टेबल पर खड़ीखड़ी हंस रही थी.

आने दो इस बार आलिया को, उस के दिल का एकएक कोना तलाशना है मुझे. दबाए हुए जख्मों को सुखा कर जीवंत अंकुरों का नवसंचार करना है ताकि वह जीवन से साकार रूप को ही यथार्थ मान कर सुख में डूबी जिंदगी को जिए. वह धारदार बंधनों के धागे सकारात्मक सोच से तोड़ सके. नवीन से जुड़े कसैले अनुभव वह उखाड़ फेंक दे और एक पाठ की तरह उसे याद रखे, बस. मुझ में उस की आसक्ति, दरअसल, विपरीतलिंगी कड़वाहट का परिणाम थी जो वह झेल चुकी थी. इसीलिए, उस ने मुझ में अपना प्रेम ढूंढ़ा और विश्वास की आंच में पकने दिया.

सुबह से शाम होने को आई. आलिया का फोन नहीं उठ रहा था. फिर याद आया, घर में तो कोई होगा ही नहीं, फिर भला फोन कौन उठाएगा. खुद पर झुंझला कर गुस्से से बड़बड़ाने लगी थी- इस लड़की को जरा भी परवा नहीं. अब तो ट्रेन का टाइम निकल चुका है. ट्रेन लेट हो सकती है या फिर स्टेशन से घर तक आने में ट्रैफिक मिला होगा? बस, आती ही होगी. यों अधीरता अच्छी नही. अरे, क्यों न होऊं मैं अधीर, उस की और मेरी दोस्ती कोई आम दोस्ती नहीं है. पाताल तक पहुंची होंगी हमारे रिश्ते की जड़ें. दुनिया का बिलकुल अनूठा रिश्ता था यह, जिस को कलेजा सहेजे हुए था, मैं नहीं. दिल तो उलाहना दे रहा था और दिमाग था कि चिंता में घुला जा रहा था.

पूरी रात भी बीत गई, मगर आलिया नहीं आई. सारी रात फोन की टेबल पर बैठे कटी थी और आंखें मेनगेट पर लगी पथराई हुई थीं. मैं ने स्टेशन पर फोन किया. काफी समय बाद फोन उठा, तो पता लगा कि ट्रेन तो कब की आ चुकी है. दिल धक्क से उछल पड़ा- ‘तो आलिया कहां गई?’ उस का लैंडलाइन भी ट्राई करकर थक गई थी मैं. अब मेरे पास रोने के अलावा चारा नहीं था. स्टेशन जा कर वेटिंगरूम चैक किया.  हर बैंच पर ढूंढ़ा. मगर वह कहीं नहीं थी. न जाने कितनी बार जान निकलने को हुई, मगर फिर भी एक उम्मीद थी जिस ने मुझे बचा लिया कि वह आएगी जरूर.

आज पूरे 5 बरस होने को आए, मगर आलिया नहीं आई. और न ही उस का फोन आया. मुझे उस का कुछ पता नहीं कि वह कहां है? किस हाल में है. है भी या नहीं? वह धोखेबाज निकली या कुदरत ने कोई नई चाल चली थी हमारे साथ, मुझे नहीं पता. इंतजार करतेकरते जिंदगी ने अपनी रफ्तार पकड़ ली है. उम्मीद भी लगभग टूट चुकी है. मगर फिर भी वह मुझे हर जगह नजर आती है, किताबों में, उस के लौटाए कागजों में, बारिश की दलदली मिटटी में, हवाओं में, लकड़ी की छेद वाली टेबल में, काले वाले लैंडलाइन फोन में, दिल की हूक में, हाथ की मुट्ठी में, नीचे गिरे कलम में, उस के हाथ से लिखे खतों में और उस गीत में जिसे मैं भजन की तरह रोज सुबहशाम सुनती हूं- दिल आने की बात है जब कोई लग जाए प्यारा, दिल पर किस का जोर है यारो, दिल के आगे हर कोई हारा, हाय रे मेरे यारा…

लौटती बहारें: भाग 2- मीनू के मायके वालों में कैसे आया बदलाव

इतना घटिया सामान खरीदा. फिर रवि को कुछ खिलानापिलाना तो दूर उलटे औटो तक के पैसे ले लिए. मैं शर्म से गड़ी जा रही थी. कैसे बताती अपनी पसंद के बारे में. कभीकभी इंसान हालात के हाथों मजबूर सा हो जाता है.

अगले दिन रवि भैया ने मुझे सहारनपुर जाने वाली बस में बैठा दिया. अम्मां ने एक मिठाई का डब्बा दे कर अपना कर्त्तव्य निभा दिया.

शादी के बाद पहली बार अकेली मायके जा रही थी. दिल खुशी से धड़क रहा था.

पिछली बार तो पगफेरे के समय वे साथ थे. मम्मीपापा, भाईबहन से ज्यादा बातें करने का अवसर ही नहीं मिला, क्योंकि शेखर हर समय साथ रहते थे. अगले दिन वापस भी आ गए थे.

मन रोमांचित हो रहा था कि इस बार अपनी प्यारी सहेली चित्रा से भी मिलूंगी. रेनू और राजू मेरे बाद कितने अकेले हो गए होंगे. उन दोनों की चाहे पढ़ाई से संबंधित समस्या हो या कोई और, हल अपनी मीनू दीदी से ही पूछते थे. मम्मी का भी दाहिना हाथ मैं ही थी. पापा मुझे देख गर्व से फूले न समाते. यही सोचतेसोचते समय कब बीत गया पता ही नहीं चला.

झटके से बस रूकी. मैं ने देखा सहारनपुर आ गया था. मैं पुलकित हो उठी. बस की खिड़की से झांका तो राजू तेज कदमों से बस की ओर आता दिखा. बस से उतरते ही राजू ने मेरा सूटकेस थाम लिया. उसे देख खुशी से मेरी आंखें भर आईं. 2 ही महीनों में राजू बहुत स्मार्ट हो गया था. नए स्टाइल में संवरे बाल, आंखों पर काला चश्मा लगा था.

घर पहुंचते ही ऐसे लगा मानो कोई खोई

हुई चीज अचानक मिल गई हो. मैं सब से टूट कर मिली. मम्मीपापा ने पीठ पर हाथ फेर कर दुलारा. मुझे लगा कि मैं इस प्यार के लिए कितना तरस गई थी. मेरा और ससुराल का हालचाल

पूछ मम्मी किचन में चली गईं. मैं पापा की सेहत और रेनू व राजू की पढ़ाई के बारे में पूछताछ करने लगी.

बड़े अच्छे माहौल में खाना खत्म हुआ. राजू और रेनू मेरी अटैची के आसपास घूमने लगे. बोले, ‘‘बताओ दीदी, दिल्ली से हमारे लिए क्या लाई हो?’’

मैं शर्म से गड़ी जा रही थी कि किस मुंह से उपहार दिखाऊं. मैं अनिच्छा से ही उठी और उन दोनों के पैकेट निकाल कर दे दिए. पैकेट खोलते ही रेनू और राजू के मुंह उतर गए. दोनों मेरी ओर देखने लगे.

रेनू बोली, ‘‘आप कमाल करती हैं दीदी… पूरी दिल्ली में यही घटिया चीजें आप को हमारे लिए मिलीं.’’

राजू भी बोल उठा, ‘‘दीदी, ऐसे चीप

कपड़े तो हमारी कामवाली बाई के बच्चे भी नहीं पहनते हैं.’’

शर्म और अपमान से मैं क्षुब्ध हो उठी. यह सही था. कपड़े उन के स्तर के नहीं थे, परंतु ऐसा व्यवहार तो मैं ने उन का पहली बार देखा था. दोनों पैकेटों को पलंग पर रख कमरे से बाहर निकल गए. मैं हैरानपरेशान उन्हें देखती रह गई.

जो भाईबहन मुझे इतना आदर और मान देते थे वही सस्ते से उपहारों के लिए इतना सुना गए. मन खिन्न हो उठा. बहुत थकी थी. वहीं पलंग पर लेट गई. न जाने कब आंख लग गई.

शाम को आंख खुली तो कानों में रेनू की आवाज सुनाई दी.

मैं ने बालकनी से नीचे देखा तो रेनू एक लड़के से बातें करती दिखाई दी. लड़का बाइक पर बैठा था. हावभाव और बातचीत से किसी निम्नवर्गीय परिवार का लग रहा था. अचानक उस ने बाइक स्टार्ट की और रेनू को फ्लाइंग किस देता हुआ तेज गति से चला गया.

यह सब देख मैं हैरान रह गई. अभी तो कालेज में रेनू का पहला वर्ष ही है. उस ने अपनी आयु के 18 वर्ष भी पूरे नहीं किए. अपरिपक्व है. अभी से यह किस रास्ते चल पड़ी? फिर मैं ने सोचा कि मौका देख कर बात करूंगी.

मम्मी कमरे में चाय ले कर आ गईं. मैं ने मम्मी का हाथ पकड़ कर, ‘‘मम्मी, आप यहीं बैठो,’’ कह कर मैं ने उन के लिए लाई साड़ी और पापा की शौल का पैकेट उन्हें पकड़ा दिया. मेरी आंखें शर्म से झुकी जा रही थीं.

उन्होंने साड़ी और शौल को उलटपुलट कर देखा, फिर बोलीं, ‘‘इस की क्या जरूरत थी. अभी तेरे पापा ने रिटायरमैंट के अवसर पर महंगी साडि़यां दिलवाई हैं,’’ और फिर पैकेट वहीं छोड़ किचन में चली गईं.

मैं शर्मिंदगी से उबर नहीं पा रही थी. मैं ने सारे तोहफे समेटे और अलमारी के कोने में

रख दिए.

बड़ा नौर्मल सा दिखने का अभिनय करते हुए मैं मम्मी के पास किचन में चली गई.

मुझे देखते ही मम्मी बोली, ‘‘अरे, तू कमरे में ही आराम कर यहां कहां चली आई. अब तो तू हमारी मेहमान है.’’

यह सुन कर मेरी आंखें भर आईं. मैं मुंह फेर कर बरतनों को उलटपलट कर रखने लगी. मुझे वे दिन याद आने लगे, जब मेरे किचन में जाने पर मम्मी आश्वस्त हो बाहर निकल जाती थीं. दो घड़ी आराम कर लेती थीं. कल तो मौसियां, चाची, बूआ सब मेहमान आ जाएंगे. फिर तो मम्मी को जरा सी भी फुरसत नहीं मिलेगी. बड़ा मन कर रहा था कि मां की गोद में सिर रख कर खूब रो लूं, मन हलका कर लूं पर मां तो लगातार काम करती जा रही थीं. बीचबीच में ससुराल के मेरे अनुभव भी पूछती जा रही थीं. मुझे जो भी सूझता जवाब देती जा रही थी.

मम्मी ने रसोई में पड़ा स्टूल मेरी तरफ खिसका दिया और बोलीं, ‘‘थक जाएगी, बैठ जा.’’

उन का यह मेहमानों वाला व्यवहार मेरे सीने में किसी कांटे की तरह चुभ रहा था.

अगले दिन बहुत चहलपहल रही. घर में खूब रौनक हो गई थी. सब की केंद्र बिंदु मैं थी. सभी ससुराल के अनुभव, पति, घर वालों के स्वभाव के बारे में पूछ रहे थे. मैं दिल में टीस छिपाए रटेरटाए उत्तर देती जा रही थी. कैसे बताती कि मैं पेड़ से टूटी शाखा और शाखा से

टूटे पत्ते जैसी जिंदगी गुजार रही हूं. अपनापन पाने की कई परीक्षाएं दे चुकी पर हर बार असफल होती रही.

पापा का सेवानिवृत्ति का आयोजन बहुत अच्छी तरह संपन्न हो गया. सभी लोगों

ने उन की ईमानदारी की खूब प्रशंसा की. मैं ने देखा पापा ने चेहरे पर कृतिम खुशी का जो मुखौटा लगा रखा था वह कई बार खिसक जाता तो चेहरे पर चिंता की रेखाएं दिखने लगतीं. मैं जानती थी कि ये चिंताएं रेनू और राजू को ले कर हैं, जो अभी कहीं सैटल नहीं हैं. उन की शिक्षा, विवाह, नौकरी सभी कुछ बाकी है. यह तो पापा की दूरदर्शिता थी कि समय पर यह मकान बनवा लिया था, जिस की छत्रछाया में उन का परिवार सुरक्षित था. अब तो फंड और पैंशन से गुजारा चलाना था.

अगले दिन पापा कैटरिंग वालों का हिसाब कर रहे थे. उधर मेहमानों की विदाई भी हो रही थी.

मेहमानों के जाते ही घर में सन्नाटा सा छा गया. सब थके हुए थे. दोपहर को थकान उतारने के लिए आराम करने लगे.

मैं ने इस आयोजन के दौरान एक बात और नोट की कि पूरे आयोजन में रेनू और राजू का सहयोग नगण्य था. रेनू काफी समय तो पार्लर में लगा आई बाकी समय मौसी, चाची और बूआ से गपशप करती रही. राजू भी मेहमानों के साथ मेहमान बना घूम रहा था. 1-2 बार तो मैं ने उसे बिलकुल पड़ोस वाली टीना, जो उस की ही हमउम्र थी, से इशारेबाजी करते भी देखा. देखने में ये बातें इस उम्र में नौर्मल होती है, परंतु इन्हें अपनी पढ़ाईलिखाई और जिम्मेदारी का पूरा ध्यान रखना चाहिए. उपहारों को ले कर किए इन दोनों के कटाक्ष एक बार फिर मेरी वेदना को बढ़ा गए. मन उचाट हो गया. मैं उठ कर अपने कमरे में चली गई.

रेनू और राजू घर पर नहीं थे. मम्मीपापा सोए हुए थे. मैं ने देखा पूरे कमरे की काया पलट हो चुकी थी. दीवारों पर आलिया भट्ट, वरुण धवन के पोस्टर लगे हुए थे.

फिर मैं ने अपनी अलमारी खोली. इस में मेरी बहुत सी यादें जुड़ी थी. अलमारी में रेनू के कपड़े और सामान रखा था. इधरउधर देखा, रेनू की अलमारी पर ताला लगा था. अचानक अलमारी के ऊपर रखी 2 गठरियां दिखाई दीं. उतार कर देखीं तो एक में मेरे कपड़े थे और एक में किताबें बंधी थीं. मैं उन्हें कहां रखूं, यह सोच ही रही थी कि रेनू के बाय कहने की आवाज आई.

बालकनी में जा कर देखा, रेनू उसी लड़के की बाइक से उतर कर

ऊपर आ रही थी. मुझे सामने पा कर चौंक गई. फिर नजरें बचा कर अंदर जाने लगी.

उसी समय राजू भी किसी से मोबाइल पर बातें करता ऊपर आ गया. मुझे देख मोबाइल छिपाते हुए अपने कमरे की ओर जाने लगा. मैं ने उसे आवाज दी तो वह अनसुना कर गया.

अब मेरा धैर्य भी जवाब देने लगा था.

फिर भी मैं ने यथासंभव खुद को सामान्य करते हुए बड़े प्यार से दोनों को पुकारा. रेनू तो अभी वहीं खड़ी थी. राजू मुंह फुलाए आकर खड़ा हो गया.

मैं ने बड़े प्यार से दोनों की पढ़ाईलिखाई के बारे में पूछा तो दोनों ने संक्षिप्त उत्तर दिए और जाने लगे.

मैं ने राजू से पूछा, ‘‘यह मोबाइल तुम ने नया खरीदा क्या?’’

‘‘पापा ने ले कर दिया?’’

राजू मुंह बना कर बोला ‘‘पापा क्या ले

कर देंगे, यह मुंबई वाली मौसी का बेटा रजत अपना पुराना मोबाइल दे गया. मैं ने अपनी सिम डलवा ली.’’

मैं ने कहा, ‘‘ऐसे एकदम किसी से कोई चीज नहीं लेते. कम से कम मुझ से ही एक बार पूछ लेते. पापा को तो तुम ने कहा ही नहीं होगा. वरना क्या वे मना कर देते.’’

यह सुन कर राजू ने बहुत अवज्ञा से मुंह बनाया. यह देख मुझे गुस्सा आया. मैं ने कहा, ‘‘देख रही हूं तुम दोनों 2 महीनों में ही बहुत बदल चुके हो,’’ कह मैं ने रेनू की ओर मुखातिब हो कर पूछा, ‘‘रेनू यह लड़का कौन है जिस की बाइक पर तुम आई थीं?’’

यह सुन कर रेनू गुस्से से फट पड़ी, ‘‘क्या हो गया दीदी… वह रोमी है. कालेज में मेरे साथ पढ़ता है… क्या हो गया अगर मुझे छोड़ने घर तक आ गया?’’

मैं ने उसे शांत करते हुए कहा, ‘‘रेनू, इन बातों के लिए तुम अभी बहुत छोटी हो, भोली हो, अभी तुम दोनों को अपनी पढ़ाईलिखाई पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए… राजू, रात मैं पानी पीने उठी तो तुम्हारे कमरे की लाइट जल रही थी. मैं ने सोचा तुम अभी तक पढ़ रहे होगे. लेकिन खिड़की से देखा तो पाया कि तुम रात को 1 बजे तक टीवी देख रहे थे. तुम दोनों जानते हो कि पापा को तुम दोनों से बहुत उम्मीदे हैं. उन्हें यह सब जान कर बुरा लगेगा. अभी पढ़ाई पर पूरा ध्यान लगाओ.’’

यह सुन कर राजू बोला, ‘‘दीदी, हम लोगों ने ऐसा क्या दुनिया से अलग कर दिया है जो तुम हमें ताने मार रही हो?’’

रेनू बोली, ‘‘हमें यह बेकार की रोकटोक पसंद नहीं… आप अपना बहनजीपन हम पर मत थोपो… अपनी ससुराल में जा कर यह रोब दिखाना.’’

मैं यह सब सुन कर सन्न रह गई कि क्या ये वही रेनू और राजू हैं, जो हर काम मेरे से पूछ कर करते थे? दोनों मैथ और अंगरेजी में कमजोर थे. मैं अपनी पढ़ाई खत्म कर दोनों को रात 1-2 बजे तक पढ़ाती थी. तब जा कर पास होने योग्य नंबर जुटा पाते थे. मैं इन का आदर्श थी.

हम सब की तेज अवाजें सुन मम्मी भागती हुई चली आईं. हम सब को आपस में उलझते देख हैरान रह गईं. मुझ से पूछने लगीं, ‘‘क्या बात हो गई?’’

मैं कुछ कहती, उस से पहले ही रेनू चिल्लाने लगी, ‘‘होना क्या है मम्मी… मीनू दीदी जब से आईं हैं हमारी जासूसी में लगी हैं कि कहां जाते हैं क्या पहनते हैं, हमारे कौनकौन दोस्त हैं… हमारी छोटीछोटी खुशियां इन से बरदाश्त नहीं हो रही है.’’

राजू बोला, ‘‘मम्मी, जमाना बदल रहा है. हम भी बदल रहे हैं. इन्हें हम से क्या परेशानी है, समझ नहीं आता.’’

मेरा इतना अपमान होते देख मम्मी बौखला गईं. मेरा हाथ खींचते हुए बोलीं, ‘‘तू चल यहां से… काहे को चौधराइन बन रही है… अब तू इन की चिंता छोड़ अपनी ससुराल देख.’’

मुझे किसी ने कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया. मैं अपमानित सी खड़ी थी. शोर सुन कर पापा भी आ गए. बिना कुछ पूछे धीरगंभीर पापा मेरा हाथ पकड़ कर अपने कमरे में ले गए. अपमान ने मेरे मुंह पर चुप्पी का ताला लगा दिया. पापा ने भी मुझे इस घटना से उबरने का मौका दिया. वे चुप रहे.

थोड़ी देर बाद मैं उठ कर लिविंग रूम के सोफे पर जा लेटी. कब आंख लग गई, पता ही न चला. रात को डिनर के लिए मम्मी और पापा बारीबारी से मुझे बुलाने आए पर मैं ने भूख नहीं है कह कर मना कर दिया. रेनू और राजू के अलावा किसी ने भी खाना नहीं खाया. मुझे रात भर नींद नहीं आई. यही सोचती रही कि यह मैं ने क्या किया? आई थी इन सब की खुशियों में शामिल होने पर सारे माहौल को तनावयुक्त कर दिया.

अगले दिन मैं जल्दी उठ कर नहा कर तैयार हो गई. मैं ने सब के लिए चाय बनाई. रेनू और राजू को आवाज दे कर उन के कमरे में चाय दे कर आई. मम्मी और पापा की चाय उन के कमरे में ले गई. होंठों पर नकली मुसकान लिए मैं ने बिलकुल नौर्मल दिखने का अभिनय किया. अपनी चाय पीतेपीते मैं अपनी ससुराल के बारे में बिना उन के पूछे बातें शेयर करने लगी. अपने देवर की शैतानियों के बारे में हंसहंस कर झूठी कहानियां सुनाने लगी.

मम्मीपापा भी मेरे द्वारा बनाए माहौल को बनाए रखने में मेरा साथ देने लगे. यह देख मैं सोचने लगी कि हम हिंदुस्तानी औरतों को घरगृहस्थी की गाड़ी सुचारु रूप से चलाने के लिए अभिनय घुट्टी में पिलाया जाता है. कभी मायके की इज्जत रखने को तो कभी ससुराल का मानसम्मान बनाए रखने के लिए अच्छा अभिनय कर जाती हैं?

तभी रेनू कालेज के लिए तैयार हो कर आ गई. उसे देख कर मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘अरे रेनू, आज इतनी जल्दी कालेज जा रही है… 5 मिनट रुक मैं मेरे लिए नाश्ता बना रही हूं… तुझे गोभी के परांठे पसंद हैं. वही बना देती हूं.’’ मगर रेनू मेरी बात अनसुनी कर मम्मी की ओर देखते हुए बोली, ‘‘मम्मी, आज कालेज में देर हो जाएगी,’’ और फिर सीढि़यां उतर गई.

मम्मी और मैं देखते रह गए. मैं ने बिना समय नष्ट किए जा कर किचन संभाली. सोचा रेनू तो बिना कुछ खाए निकल गई कहीं राजू भी भूखे पेट न निकल जाए. जल्दी सभी की पसंद ध्यान में रखते हुए नाश्ता बनाया और डाइनिंगटेबल पर लगा दिया.

नाश्ता तैयार है की आवाज लगा कर माहौल को तनावमुक्त करने की कोशिश की. मम्मीपापा तो तुरंत आ गए पर राजू अनमना सा थोड़ी देर बाद आया. उस ने किसी से बात नहीं की. जल्दीजल्दी खा कर खड़ा हो गया. बोला, ‘‘मम्मी, कालेज जा रहा हूं… आज दीदी को बस में बैठाने तो नहीं जाना?’’ और फिर जवाब का इंतजार किए बिना चला गया.

मैं रेनू और राजू के व्यवहार से मन ही मन क्षुब्ध हो रही थी. मैं दकियानूसी स्वभाव की बहन नहीं थी, परंतु इस कच्ची उम्र में हुई कुछ गलतियां सारी जिंदगी के लिए घातक हो जाती हैं. अपरिपक्व दिमाग, भोलेपन या नासमझी के चलते कुछ लोग गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं. फिर वहां से लौटना कठिन हो जाता है. बस इसी उलझन में पड़ गई थी. मेरे दिल में भाईबहन के लिए प्यार, ममता, सहानुभूति की भावनाएं प्रबलता से हिलोरें ले रही थीं, परंतु स्वाभिमान और फैला तनाव मुझे चुप रहने का संकेत दे रहा था.

मेड इन हैवन: गरिमा के साथ कौन-सी घटना घटी

फाइनली गरिमा और हेमंत की शादी हो ही गई. दोनों हनीमून ट्रिप पर स्विट्जरलैंड में ऐश कर रहे हैं. उन के घर वालों का तो पता नहीं परंतु मैं बहुत ख़ुश हूं क्योंकि अभी थोड़ी देर पहले ही गरिमा ने 2 मिनट के लिए स्विट्जरलैंड से बात की, ‘‘थैंक्स आंटी इतना अच्छा लाइफपार्टनर मिलवाने के लिए.’’

पीछे से हेमंत का भी स्वर उभरा, ‘‘डार्लिंग, मेरी तरफ से भी आंटी को थैंक्स बोल देना,’’ फिर दोनों की सम्मिलित हंसी का स्वर उभरा और फोन काट दिया गया.

गरिमा और हेमंत दोनों बहुत खुश लग रहे थे. मैं ने राहत की सांस ली क्योंकि दोनों को मिलवाने में मैं ने ही बीच की कड़ी का काम किया था. संयोगिक घटनाओं की विचित्रता को भला कौन सम?ा सकता है. मेरे मन में यादों की फाइल के पन्ने फड़फड़ाने लगे…

3 साल पहले गरिमा को मैं ने अपनी फ्रैंड विनीता के घर हुई किट्टी पार्टी में देखा था. लंबी, छरहरी गरिमा रूपलावण्य की धनी तो थी ही, नाम के अनुरूप व्यक्तित्व में संस्कारी छाप भी स्पष्ट दिखाई दे रही थी. उसे देखते ही लगा काश मेरा कोई बेटा होता तो मैं गरिमा का हाथ उस की मां से मांग लेती.

मु?ो गरिमा की तरफ ताकते देख विनीता ने मु?ा से उस का परिचय करवाया, ‘‘बेटे, ये कृष्णा आंटी हैं. हमारी किट्टी मैंबर.’’

गरिमा कुछ देर मेरे पास बैठी तो मैं ने उस की जौब के बारे में बातचीत की, फिर किट्टी के अन्य सदस्यों के आने पर वह उठ कर अपने कमरे में चली गई.

मेरी फ्रैंड सुमन ने भी जब गरिमा को देखा तो उस की नजरों से लग रहा था कि गरिमा के व्यक्तित्व ने सुमन को भी प्रभावित किया है. धीरेधीरे किट्टी के अन्य सदस्यों के आ जाने पर बातचीत का रुख बदल गया. कोई 2 हजार के नए नोट को अच्छा बता रही थी तो कोई इस से उपजी परेशानियां गिना रही थी.

किट्टी पार्टी पूरे शबाब पर थी. सब गपशप करने लगी थीं, साथ ही कनखियों से एकदूसरे की साड़ी और ज्वैलरी को निहारने का सिलसिला भी चल रहा था कि इस की साड़ी मेरी साड़ी से अच्छी क्यों है, किस का हार असली है और किस का नकली.

विनीता के घर से निकलने पर सुमन ने बातचीत शुरू की, ‘‘सच इस की बिटिया बहुत प्यारी है. तू कोई चक्कर चला न. मैं भी आजकल हेमंत की शादी को ले कर काफी चिंतित हूं. धीरेधीरे उम्र बढ़ती जा रही है मेरी भी और हेमंत की भी. कोई अच्छी लड़की मिल जाए तो इस का रिश्ता पक्का कर के मैं निश्चिंत हो जाऊं.’’

‘‘देख कृष्ण, जब तुम विनीता से बात करोगी, तो हेमंत के बारे में कुछ संक्षिप्त परिचय दे देना, हेमंत ने एमबीए किया है और आजकल एक एमएनसी में डाइरैक्टर के पद पर है. उस की लंबाई 6 फुट 3 इंच  है, तो वह चाहता है कि लड़की भी लंबी हो तो सोने में सुहागा. रही उम्र की बात तो 34 पूरे करने जा रहा है 2 महीने में. मेरे खयाल से गरिमा भी 30 से ऊपर की ही होगी. मु?ो तो सब से ज्यादा उस की लंबाई भा गई है. सुमन अपनी ही रौ में बोलती जा रही थी.

मैं ने उसे टोका, ‘‘देख, मैं विनीता से बात कर के देखती हूं, फिर जोडि़यां तो ऊपर वाले के यहां से ही बन कर आती हैं.’’

कुछ दिनों बाद जब मैं विनीता से मिलने उस के घर गई तो देखा वह किसी की जन्मकुंडली ले कर बैठी थी. लैपटौप सामने खुला पड़ा था. मुझे देख कर लैपटौप बंद करते हुए बोली, ‘‘आ बैठ. अभी चाय बना कर लाती हूं. फिर ठाट से गप्पें मारेंगे. जब विनीता चाय ले कर आई तो मैं ने पूछा, ‘‘आज किस का भाग्य संवारने में लगी है.’’

दरअसल, कुछ साल पहले विनीता ने ज्योतिषाचार्य का डिप्लोमा किया था. आजकल ऐसा डिप्लोमा देने वालों की बाढ़ आई हुई है क्योंकि धर्म प्रचार के साथ धर्म का व्यापार भी फलफूल रहा है. तभी से वह जन्मकुंडली देखने और मिलाने लगी थी. किट्टी पार्टी की 2-4 सखियों के बच्चों की कुंडलियां मिलाईं और उन के बच्चों की शादीशुदा लाइफ स्वाभाविक तौर पर खुशहाल गुजर रही थी. तभी से विनीता का कुंडली मिलाने में विश्वास कुछ अधिक गहरा हो चला था. गरिमा के रिश्ते की बात जहां भी चलती सब से पहले बिनीता कुंडली मिलाने बैठ जाती, बिना लड़के को मिले, देखे अब तक सैकड़ों लड़कों को रिजैक्ट कर चुकी थी और गरिमा की उम्र 32 पार करने को थी. उस कोर्स ने उस के तार्किक दिमाग को बंद कर दिया था. वह सब के लिए ग्रहों, नक्षत्रों में भरोसा करने लगी थी.

उम्र बढ़ने पर गरिमा के चेहरे की मुसकराहट धीरेधीरे गायब हो रही थी. स्वयं विनीता भी आजकल तनाव व चिड़चिड़ाहट के घेरे में आती जा रही थी.

गरिमा ने तो अपने मन की भड़ास निकालते हुए यहां तक कह दिया था कि यदि कुंडली मिलाने से सभी की शादी सफल होती तो आज तलाकों की संख्या लाखों तक नहीं पहुंचती. शादी में कुंडली नहीं स्वभाव, रुचियों व आदतों की साझेदारी बहुत माने रखती है. अब मैं अपने हिसाब से अपने लिए जीवनसाथी ढूंढ़ती हूं.

‘‘बेटा, भावावेश में आ कर कहीं कोई गलती न कर बैठना. आखिर मैं तुम्हारे सुखद भविष्य के लिए ही तो ये सब कर रही हूं.

‘‘उस सुखद भविष्य के इंतजार में चाहे मेरी उम्र ही क्यों न बढ़ती जाए और रही गलती की बात सो गलती से कुछ नहीं होता सबकुछ हमारे व्यवहार पर निर्भर है. किसी पर कमी को फुर्सत नहीं कि हर पेड़पौधों, जानवर, आदमीऔरत की कुंडली कम से बने,’’ गरिमा के शब्द सुन कर विनीता हक्कीबक्की रह गई.

अगले महीने की किट्टी पार्टी सुमन के घर थी. विनीता यह कह कर जल्दी घर लौट गई कि आज गरिमा का बर्थडे है सो घर सी गैटटुगैदर रखी है.

किट्टी की 1-2 मैंबर जो कुछ मुंहफट टाइप थीं ने तो यहां तक कह दिया कि कब तक गरिमा का बर्थडे अपने घर पर ही मनाती रहोगी. किसी दूसरे को भी तो मौका दो उस का बर्थडे मनाने का.

विनीता खिसियानी हंसी हस कर रह गई और फिर वहां से तुरंत निकल ली.

पिछले हफ्ते मार्केट में अचानक गरिमा मिल गई. मैं ने उसे हैप्पी बर्थडे विश किया तो उस ने थैंक्यू बोला.

‘‘गरिमा क्या चल रहा है लाइफ में.’’

‘‘कुछ खास नहीं आंटी. लाइफ कोर्ट से घर और घर से कोर्ट तक सिमट कर रह गई है. ऐक्चुअली आई नीड सम ग्रेट चेंज.’’

इस से उस का सीधा सा मतलब था कि अब वह शादी कर के घर बसाने को आतुर है.

‘‘कोर्ट में दूसरों के केस लड़तेलड़ते थक चुकी हूं. अब मैं अपना ख़ुद का केस सुलझना चाहती हूं,’’ गरिमा फीकी सी मुसकराहट बिखेरते हुए बोली.

एक दिन जब मैं विनीता से मिलने उस के घर गई और बातचीत के दौरान मैं ने गरिमा के रिश्ते के लिए हेमंत का नाम सुझाया तो विनीता चौंकती हुई मेरी तरफ देखने लगी. मेरी पूरी बात सुने बिना ही उस ने यह रिश्ता खोटे सिक्के सा ठुकरा दिया. उस का मानना था कि रिश्ता तो बराबर के लोगों के साथ ही जोड़ा जाता है. किट्टी मैंबर है तो इस का मतलब यह तो नहीं कि उस से रिश्ता जोड़ लूं. कहां उस का परिवार और कहां हम लोग.

दूसरे दिन सुबहसुबह सुमन ने फोन खटका दिया. स्वर में कुछ परेशानी सी झलक रही थी, ‘‘सुन तू मेरे घर थोड़ी देर को आ सकती है कुछ जरूरी सलाह लेनी है तुम से.’’

दरअसल, सुमन अकेली रहती है. बेटियां घर बसा कर अपनी ससुराल जा चुकी हैं और बेटा हेमंत आजकल बैंगलुरु में किसी बड़ी कंपनी में मार्केटिंग डाइरैक्टर के पद पर कार्यरत है. कुछ ही महीनों में विदेश की पोस्टिंग पर जाने की तैयारी चल रही है. इसी कारण सुमन चाहती है विदेश जाने से पहले अपना घर बसा ले तो अच्छा है. शायद इसी बाबत कुछ सलाह करने के लिए बुलाया होगा, मैं ने मन ही मन सोचा.

सुमन के घर पहुंचने पर उस से बातचीत करने पर पता चला कि उस के बेटे हेमंत के ऊपर किसी ने फ्रौड केस बना दिया है. जैसेजैसे उस के विदेश जाने की तारीख नजदीक आती जा रही है, उस की घबराहट बढ़ती जा रही है. जाने से पहले वह इस केस हर हाल में निबटाना चाहता है. सो यदि किसी अच्छे वकील को जानती है तो प्लीज मदद कर दो.

‘‘अरे, इस में इतना सोचने वाली क्या बात है? अपनी विनीता की बेटी गरिमा टौप क्लास की वकील है. वह किस दिन काम आएगी. उस का रिकौर्ड है कि आज तक जो भी केस हाथ में लिया जीत ही हासिल की है. तुम कहो तो मैं हेमंत को गरिमा का नंबर बता देती हूं. दोनों आपस में केस से संबंधित बातचीत ख़ुद ही कर लेंगे.’’

हेमंत ने फोन पर गरिमा को अपना संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने केस की सारी डिटेल बता दी. सारी डिटेल सुनने के बाद गरिमा हेमंत का केस लेने को तैयार हो गई. इतना ही नहीं गरिमा ने हेमंत को आश्वासन भी दिया, ‘‘डौंटवरी, केस हम ही जीतेंगे.’’

‘‘मुझे भी आप की काबिलीयत पर पूरा भरोसा है. कल कोर्ट में मिलते हैं,’’ हेमंत ने कहा.

कोर्ट शुरू होने से एक घंटा पहले ही दोनों कोर्ट परिसर में पहुंच चुके थे. कुछ औपचारिक  बातचीत के बाद दोनों ने केस शुरू होने से पहले 1-1 कप चाय पीने की एकसाथ इच्छा जाहिर की. कैंटीन में चाय पीतेपीते जब भी गरिमा ने हेमंत की तरफ देखा उसे कनखियों से अपनी तरफ देखते ही पाया और उस के कपोल लज्जा से लाल हो गए. आखिर दोनों हमउम्र ही तो थे.

कोर्ट शुरू होने का टाइम हो गया था सो दोनों कोर्ट रूम में पहुंचे. केस शुरू होने पर गरिमा ने अपनी धुआंधार दलीलों से प्रतिद्वंद्वी पक्ष के वकील को निरुत्तर कर दिया. फिर भी जज साहब ने कोई फैसला सुनाने से पहले अगली हियरिंग अगले हफ्ते होने की घोषणा की.

इस 1 हफ्ते के दौरान गरिमा व हेमंत केस की बाबत बातचीत करने के बहाने किसी न किसी रैस्टोरैंट में शाम इकट्ठा गुजारने लगे.

1 हफ्ते की मुलाकात में दोनों की साझेदारी कुछ इस तरह बढ़ी कि केस से हट कर वे दोनों एकदूसरे की रुचियों, स्वभाव व आदतों के बारे में भी बातचीत करने लगे. दोनों की एकदूसरे में दिलचस्पी बढ़ रही थी.

अगले हियरिंग में केस पूरी तरह सुलझ गया और फैसला हेमंत के पक्ष में आया. फैसला सुन कर गरिमा व हेमंत दोनों ही बहुत खुश थे.

‘‘इतनी बड़ी जीत पर अच्छी सी ट्रीट तो बनती ही है. क्या खयाल है तुम्हारा गरिमा?’’ हेमंत ने अपनी खुशी जाहिर करते हुए पूछा.

गरिमा को हेमंत का आप से तुम कहना अच्छा लगा, लेकिन खुश तो वह भी थी सो बोली, ‘‘हां, क्यों नहीं. कोर्ट से थोड़ी ही दूर एक रैस्टोरैंट है. वहां चल कर चाय और स्नैकस का आनंद लेते हैं और फिर जब तक स्नैक्स आते दोनों बातचीत में मशगूल हो गए.

‘‘तुम बुरा न मानो तो एक बात पूछूं?’’ हेमंत ने कहा.

‘‘हां पूछो.’’

‘‘तुम ने अभी तक शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘बस, अभी तक कोई मन भाता टकराया ही नहीं,’’ गरिमा ने हेमंत की आंखों में आंखें डालते हुए कहा.

गरिमा को इस तरह अपनी ओर देखते हेमंत कुछ ?ोंप सा गया. चाय की चुसकियों के साथ दोनों ने एकदूसरे से ढेर सारी व्यक्तिगत बातें कीं क्योंकि अब तक इन दोनों की दोस्ती गहरी हो चुकी थी और इन्हें साथ समय गुजारना रास आने लगा था.

चाय पीतेपीते मूसलाधार बारिश शुरू हो गई. ऐसे में घर के लिए निकलना नामुमकिन था सो बारिश के साथसाथ बातचीत का रेला भी बहने लगा. दोनों ही

हमउम्र थे. अत: बिना लागलपेट के हेमंत ने पूछा, ‘‘आखिर तुम्हें कैसा लाइफ़ पार्टनर चाहिए? शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं.’’

‘‘बिलकुल तुम्हारे जैसा,’’ गरिमा ने हेमंत की आंखों में आंखें डालते हुए शरारती मुसकान भर कर कहा.

हेमंत भी खुशी से उछल पड़ा.

‘‘रुको इतना खुश होने की जरूरत नहीं है. मैं पहले तुम्हें अपने मांबाप से मिलवाऊंगी. तभी बात आगे बढ़ेगी. आखिर जिंदगीभर का सवाल है. जिंदगी के अहम केस की 2-3 हियरिंग तो होनी ही चाहिए.’’

इस बीच बारिश बंद हो चुकी थी. जल्द ही दोबारा मिलने का वादा ले कर दोनों अपनेअपने घर चले गए.

रात को डिनर के लिए गरिमा अपने घर वालों के साथ बैठी तो उस ने चहकते हुए कहा,

‘‘पापा, आज मैं ने 2 केस एकसाथ जीते हैं. एक तो जो मैं ने आप को बताया था न हेमंत का और दूसरा मैं ने अपना जीवनसाथी चुन लिया है,’’ उस ने निर्णयात्मक स्वर में अपना फैसला सुनाते हुए कहा.

पापा ने उत्साह भरे स्वर में आश्चर्य से पूछा, ‘‘अच्छा, कौन है? कब मिलवा रही हो?’’

इतनी देर से बापबेटी की चुपचाप बातचीत सुन रही विनिता बोली, ‘‘ऐसे कैसे तुम अपना जीवनसाथी चुन सकती हो? आखिर जिंदगीभर का सवाल है… बिना जन्मकुंडली मिलाए शादी कैसे हो सकती है?’’

‘‘पापा हेमंत जिसे मैं ने अपना जीवनसाथी चुना है वह मम्मी की किट्टी पार्टी की सहेली सुमन आंटी का बेटा है. मम्मी उन के परिवार से अच्छी तरह परिचित है.’’

सुमन का नाम सुन कर मम्मी के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं.

मम्मी को नजरअंदाज करते हुए उस के पापा ने कहा, ‘‘तुम्हारी पसंद पर पूरा भरोसा है… हम सब को उस से मिलवाओ और फिर शादी की तारीख पक्की करते हैं.’’

गरिमा के पापा ने उस की पसंद पर अपनी मुहर लगाते हुए कहा, ‘‘आखिर हमारी बेटी इतने बड़ेबड़े केस हैंडल करती है तो यह तो उस की अपनी जिंदगी का मुकदमा है. इसे जरूर जीत हासिल होगी. तुम तो बस अपनी कुंडली मिलान का चक्कर छोड़ इस की शादी की तैयारी करो और अपनी शुभकामनाएं और आशीर्वाद देने को तैयार रहो.’’

विनिता सोच रही थी कि वह अपनी ज्योतिष की किताबों को रद्दी में डाल दे क्या? फिर उस ने सोचा लोगों को बेवकूफ बनाने का यह अच्छा अवसर तो दे रही है. बस उसे इस ज्योतिष को घर पर लागू नहीं करना. यह विधा दूसरों को बेवकूफ बनाने में बहुत कामयाब है और सदियों से समाज पर थोपी जा चुकी है. इस सोच उगलने वाले स्टंट को क्यों छोड़ा जाए. उस ने किताबें और सजा कर रख दीं.

हिमायती: अपने रास्ते के कांटे को सीमा ने कैसे हटाया

समीर तो औफिस की बातें घर में करते नहीं हैं, इसलिए उन के औफिस में यदाकदा होने वाली पार्टियों का मेरे लिए बहुत महत्त्व है. औफिस की चटपटी बातों की जानकारी मुझे वहीं मिलती है.

कोई भी पति अपनी कमजोर बात तो पत्नी को कभी नहीं बताता, लेकिन अपने सहयोगियों की बातें जरूर बता देता है. फिर वही रसीली बातें जब पत्नी पार्टी वगैरह में बाकी औरतों से शेयर करती है, तो बताने वाली की आंखों की चमक और सुनने वालियों की दिलचस्पी देखते ही बनती है.

पिछले हफ्ते जो पार्टी हुई उस में अपने पतिदेव के कारण महिलाओं के आकर्षण का केंद्र मैं रही.

‘‘तेरे समीर का अकाउंट सैक्शन वाली चुलबुली रितु से चक्कर चल रहा है. जरा होशियार हो जा,’’ सब के बीच अपमानित करने वाली यह खबर सब से पहले मुझे नीलम ने चटखारे ले कर सुनाई.

इस खबर की पुष्टि जब इंदु, कविता और शिखा ने भी कर दी, तो शक की कोई गुंजाइश बाकी नहीं बची. यह सच है कि इस खबर ने मुझे अंदर तक हिला दिया था पर मैं ऊपर से मुसकराती रही.

उन सब की सलाह और सहानुभूति से बचने और एकांत में सोचविचार करने की खातिर मैं प्रसाधन कक्ष में चली आई.

एक बात तो मेरी समझ में यह आई कि समीर से झगड़ा करने का कोई फायदा नहीं होगा. मैं ने कई मामलों में देखा था कि लड़ाईझगड़ा कर के कई नासमझ पत्नियों ने अपने पतियों को दूसरी औरत की तरफ धकेल दिया था.

ऐसा मामला समझाने और गिड़गिड़ाने से भी हल नहीं होता है, इस के भी मैं कई उदाहरण देख चुकी थी. वैसे भी मैं आंसू बहाने वाली औरतों में नहीं हूं.

उन दोनों के बीच चल रहे चक्कर की जड़ें कितनी मजबूत और गहरी हो गई हैं, इस का अंदाजा खुद लगाने के इरादे से मैं जल्दी ही बाथरूम से बाहर आ गई.

बाहर आते ही मेरी नजर में वे दोनों आ गए. हौल के एक कोने में खड़े दोनों हंसहंस कर बतिया रहे थे. अपने होंठों पर बनावटी मुसकान सजाए और लापरवाह सी चाल चलती मैं उन दोनों की तरफ बढ़ गई.

मुझे अचानक बगल में खड़ा देख वे दोनों सकपका गए. मेरी समझ से इस बात ने ही दोनों के मन में चोर होने की पुष्टि कर दी थी.

‘‘बहुत सुंदर लग रही हो, रितु. तुम्हारे सूट का रंग बहुत प्यारा है,’’ मैं ने यों ही प्रशंसा कर उसे मुसकराने को मजबूर कर दिया.

फिर मैं मुसकराते हुए उस से इधरउधर की बातें करने लगी. ये मेरे ही प्रयास का नतीजा था कि वह जल्दी ही सहज हो कर मुझ से खुल कर हंसनेबोलने लगी.

समीर को मेरे व्यवहार में कोई गड़बड़ी नजर नहीं आई तो वे हमें अकेला छोड़ कर अपने दूसरे दोस्तों के पास चले गए.

अपने मन की चिढ़ और किलस को नियंत्रण में रख मैं काफी देर तक रितु के साथ हंसतीबोलती रही. समीर को उस के साथ अकेले में बातें करने का मौका मैं ने उस रात उपलब्ध नहीं होने दिया.

विदा लेने से पहले मैं ने रितु को अपने घर आने का न्योता कई बार दिया. उस ने चलने से पहले बस एक बार मुझे अपने घर आने की दावत दी तो मैं खुशी से झूम उठी.

आने वाले दिनों में मेरा मन उदास सा रहा पर मैं ने रितु की कोई चर्चा समीर से नहीं छेड़ी. हफ्ते भर बाद मेरा जन्मदिन आया. घर के सारे लोग पार्टी में शामिल हुए पर मैं सब के साथ हंसनेबोलने का नाटक ही कर पाई.

मुझे यों उदास देख कर मेरी सास ने 2 दिनों तक मेरे पास रुकने का फैसला कर लिया. वे जबान की तेज पर बहुत समझदार महिला हैं.

हम दोनों ने 2 दिनों में ढेर सारी बातें कीं. जब वे लौटीं तब तक मेरे अंदर जीने का नया उत्साह भर चुका था.

आगामी शनिवार को समीर 3 दिनों के टूर पर शहर के बाहर चले गए और मैं रविवार की सुबह 10 बजे के करीब रितु के घर अकेली पहुंच गई. अपने 5 वर्षीय बेटे को मैं ने अपनी सास के पास छोड़ दिया.

रितु ने मेरा स्वागत मुसकरा कर किया पर मैं ने उस की आंखों में चिंता और उलझन के भावों को पैदा होते साफसाफ देखा.

‘‘तुम्हें तो पता है कि समीर टूर पर गए हुए हैं, मैं ने सोचा आज कुछ समय तुम्हारे साथ बिताया जाए,’’ मैं उस से किसी अच्छी सहेली की तरह बड़े अपनेपन से मिली.

‘‘आप का स्वागत है, सीमा दीदी. राहुल को साथ क्यों नहीं लाईं?’’ हाथ पकड़ कर ड्राइंग रूम की तरफ ले जाते हुए उस ने मेरे बेटे के बारे में पूछा.

‘‘मेरी ननद मायके आई हुई हैं. राहुल उन के दोनों बेटों के साथ खेलने गया है.’’

‘‘आप क्या लेंगी? चाय या कौफी?’’

‘‘चाय चलेगी. मैं जरा लेट लूं. लगता है, सीढि़यां चढ़ते हुए कमर झटका खा गई है.’’

वह फौरन मेरे लिए तकिया ले आई. मैं पलंग पर आराम से लेटी और वह चाय बनाने रसोई में चली गई.

हम दोनों ने साथसाथ चायनाश्ता लिया. हमारे बीच जल्दी ही खुल कर बातें होने लगीं. यों ही गपशप करते 1 घंटा बीतने का हमें पता ही नहीं चला. फिर जब मैं ने अचानक उस की शादी के बारे में सवाल पूछने शुरू किए तो वह घबरा सी उठी.

‘‘लव मैरिज करोगी या मम्मी ढूंढ़ेंगी तुम्हारा रिश्ता?’’

मेरे इस सवाल को सुन कर वह सकपका सी गई.

‘‘देखो क्या होता है,’’ उस की आवाज में हकलाहट पैदा हो गई.

‘‘तुम जैसी सुंदर, स्मार्ट और कमाऊ लड़की के आशिकों की क्या कमी होगी. किसी के साथ तुम्हारा चक्कर जरूर चल रहा होगा. बताओ न उस का नाम,’’ मैं उस के पीछे ही पड़ गई.

वह बेचारी कैसे बताती कि उस का चक्कर मेरे पति के साथ चल रहा था. मैं ने इसी विषय पर कुछ देर बातें कर के उस की बेचैनी और परेशानी का मन ही मन खूब आनंद लिया.

उस की खिंचाई का अंत तब हुआ, जब मेरे मोबाइल पर 2 फोन आए. पहला मेरी सास का था और दूसरा मेरी किट्टी फ्रैंड अनिता का. दोनों ही मेरा हालचाल पूछ रही थीं. अपनी कमर में आई मोच को ले कर मैं ने दोनों के साथ काफी देर तक बातें की.

अभी 1 घंटा भी नहीं बीता होगा कि मेरी सास, ननद नेहा और तीनों बच्चे रितु के घर आ धमके. बच्चे तो फौरन ही कार्टून चैनल देखने के लिए टीवी के सामने जम गए. मेरी सास और नेहा सोफे पर बैठ कर मेरी कमर दर्द के बारे में पूछने लगीं.

‘‘आप मेरी जरूरत से ज्यादा फिक्र करती हो मम्मी,’’ मेरा स्वर भावुक हो उठा था.

‘‘लेकिन तू तो एक नंबर की लापरवाह है. हजार बार तो तुझे समझाया ही होगा मैं ने कि वजन कम कर के अपने इस कमरे को कमर बना ले, पर तेरे कानों पर जूं तक नहीं रेंगती,’’ मेरी सास एकदम से भड़क उठीं तो मैं झेंपी सी रितु की तरफ देखने लगी.

रितु का मेरी सास से पहली बार आमनासामना हुआ था. उन की कड़क आवाज सुन कर उस की आंखों से डर झांक उठा था.

‘‘समीर भैया जब किसी सुंदर तितली के चक्कर में पड़ जाएंगे, तब ही भाभी की आंखें खुलेंगी,’’ नेहा दीदी की इस टिप्पणी को सुन कर मेरी सास और भड़क उठीं.

‘‘तेरे भैया की टांगें तोड़ने और उस तितली के पर काटने में मैं 1 मिनट भी नहीं लगाऊंगी.’’

‘‘मेरे छोटे से मजाक पर इतना गुस्सा होने की क्या जरूरत है?’’

‘‘ऐसी वाहियात बात तुम मुंह से निकाल ही क्यों रही हो?’’

नेहा दीदी बुरा सा मुंह बना कर चुप हो गईं. रितु फर्श की तरफ देखते हुए अपनी उंगलियां तोड़मरोड़ रही थी. मेरी सास से आंखें मिलाने की शायद उस की हिम्मत नहीं हो रही थी.

मेरी सास ने हम सब को लैक्चर देना शुरू कर दिया, ‘‘आजकल की लड़कियों में न समझ है और न सब्र है. अपनी गृहस्थी बसाने में उन की दिलचस्पी होती ही नहीं है. बस उलटेसीधे इश्क के चक्करों में उलझ कर बेकार की परेशानियों में फंस जाती हैं. जो रास्ता कहीं न पहुंचता हो, उस पर चलने का कोई फायदा होता है क्या, रितु बेटी?’’

‘‘जी नहीं,’’ रितु ने मरे से स्वर में जवाब दिया तो मेरे लिए अपनी हंसी रोकना मुश्किल हो गया.

‘‘तुम कब शादी कर रही हो?’’

‘‘जल्दी ही.’’

‘‘गुड. तुम्हारे मम्मीपापा कहां हैं?’’

‘‘पापा अब नहीं हैं और मम्मी मौसी के घर गई हैं.’’

‘‘कब तक लौटेंगी?’’

‘‘शाम तक.’’

‘‘मैं जरूर आऊंगी उन से मिलने. बहू, अब कमर दर्द कैसा है? क्या सारा दिन यही लेटे रहने का इरादा है?’’

‘‘दर्द तो बढ़ता जा रहा है, मम्मी,’’ मैं ने कराहते हुए जवाब दिया.

‘‘क्या डाक्टर को बुलाएं?’’

‘‘नहीं मम्मी. तुम्हारे पास आयोडैक्स

है, रितु?’’

‘‘मैं अभी लाई,’’ जान बचाने वाले अंदाज में उठ कर रितु अंदर वाले कमरे में चली गई.

रितु को ही मेरी कमर में आयोडैक्स लगानी पड़ी.

रितु को मेरी सास जिंदगी की ऊंचनीच समझाए जा रही थीं. नेहा दीदी उन से हर बात पर उलझने को तैयार थीं. मांबेटी के बीच चल रही जोरदार बहस को देख कर ऐसा लगता था कि इन के बीच कभी भी झगड़ा हो जाएगा. इन दोनों की तेजतर्रारी देख कर रितु की टैंशन बढ़ती जा रही थी.

तभी किसी ने बाहर से घंटी बजाई. नेहा दीदी दरवाजा खोलने गईं. वे लौटीं तो मेरी किट्टी पार्टी की सहेलियां अनिता, शालू और मेघा उन के साथ थीं.

ये तीनों बहुत ही बातूनी हैं. इन के आने से मांबेटी की बहस तो बंद हो गई पर कमरे के अंदर शोर बहुत बढ़ गया.

‘‘अपनी नई सहेली से बड़ी सेवा करा रही हो, सीमा,’’ मेघा ने आंख मटकाते हुए मजाक किया और फिर तीनों जोर से हंस पड़ीं.

‘‘सीमा का दिल जीत कर हमारा पत्ता साफ न कर देना, रितु. तुम हमारी भी अच्छी दोस्त बनो, प्लीज,’’ अनिता ने दोस्ताना अंदाज में रितु का कंधा दबाया और फिर मेरा हाथ पकड़ कर मेरे पास बैठ गई.

‘‘नई दोस्ती की नींव मजबूत करने के लिए हम गरमगरम समोसे और जलेबियां भी लाए हैं,’’ शालू ने अपनी बात ऐसे नाटकीय अंदाज में कही कि रितु हंसने को मजबूर हो गई.

अपनाअपना परिचय देने के बाद वे तीनों बेधड़क रसोई में चली गईं. जब तक रितु आयोडैक्स के हाथ धो कर वहां पहुंचती, तब तक उन्होंने चाय भी तैयार कर ली थी.

बच्चों के लिए नेहा दीदी ने फ्रिज में से जूस का डब्बा निकाल लिया. कुछ देर बाद हम सभी जलेबियों और समोसों का लुत्फ उठा रहे थे. इतना ज्यादा शोर रितु के फ्लैट में शायद ही कभी मचा होगा.

मेरी सहेलियां रितु का दिल जीतने में सफल रही थीं. वह उन के साथ खूब हंसबोल रही थी. ऐसा लग रहा था मानो हम सब उसे लंबे समय से जानते हों.

‘‘सीमा, रितु से दोस्ती कर के एक फायदा तो तुझे जरूर होगा,’’ मेघा की आंखों में शरारती चमक उभरी.

‘‘कैसा फायदा?’’ मैं ने उत्सुकता दर्शाई.

‘‘अब अगर तेरे समीर की औफिस की किसी लड़की में दिलचस्पी पैदा हुई, तो रितु तुझे फौरन खबर कर देगी.’’

‘‘बात तो तेरी ठीक है, मेघा. अपने औफिस में क्या तुम मेरी आंखें बनोगी, रितु?’’ रितु की तरफ देख कर मैं बड़े अपनेपन से मुसकराई.

रितु के गाल एकदम गुलाबी हो उठे थे. वह जवाब नहीं दे पाई. उस ने सिर्फ गरदन ऊपरनीचे हिलाई और फिर मेज पर रखी कपप्लेटें उठाने के काम में लग गई.

मेज की सफाई पूरी हुई ही थी कि मेरे ससुरजी मेरा हाल पूछने वहां आ गए. उन के आते ही सारा माहौल बिलकुल बदल गया.

वे बड़े रोबीले इंसान हैं. मेरी सब सहेलियों ने उन के पैर छुए. वे सब यों चुप हो गईं मानो मुंह में जबान ही न हो.

‘‘बहू, तुम घर चलने की हालत में हो या नहीं?’’ उन्होंने गंभीर लहजे में मुझ से पूछा.

‘‘चल लूंगी, जी,’’ मैं ने धीमे स्वर में जवाब दिया.

‘‘इंसान को संभल कर चलना चाहिए न?’’

‘‘जी.’’

‘‘डाक्टर खन्ना को मैं ने फोन कर दिया है. उन से दवा लिखवाते हुए घर जाएंगे.’’

‘‘जी.’’

‘‘यहां किसी खास काम से आई थीं?’’

‘‘रितु से मिलने आई थी, जी.’’

‘‘इस से नई जानपहचान हुई है?’’

‘‘जी हां, ये उन के औफिस में काम करती है.’’

‘‘रितु बेटी, क्या तुम यहां अकेली

रहती हो?’’

‘‘नहीं अंकल, मम्मी साथ रहती हैं. पापा को गुजरे 5 साल हो गए हैं,’’ उन की नजरों का केंद्र बनते ही रितु घबरा गई थी.

‘‘पापा नहीं रहे तो कोई बात नहीं. कभी कोई जरूरत पड़े तो हमें बताना. अब हम चलते हैं.’’

पापा खड़े हुए तो हम सब भी चलने की तैयारी करने लगे. पापा कमरे के बाहर चले गए तो मेरी सास ने चलते हुए रितु को सलाह दी, ‘‘बेटी, जल्दी से शादी कर लो. उम्र बढ़ जाने के बाद लड़कियों को अच्छे लड़के नहीं मिलते.’’

‘‘तुम्हें हम अपनी किट्टी पार्टी का मैंबर जरूर बनाएंगे. फोन करती हूं मैं तुम्हें बाद में,’’ अनिता के इस प्रस्ताव का हम सभी सहेलियों ने स्वागत किया.

तीनों बच्चे रितु आंटी को थैंक यू कह कर बाहर चले गए. सब से आखिर में मैं रितु का सहारा ले कर बाहर की तरफ चल पड़ी.

‘‘रितु, इन सब का बहुत ज्यादा खुल जाना तुम्हें बुरा तो नहीं लगा?’’ मैं ने मुसकराते हुए उस से सवाल किया.

‘‘नहीं सीमा दीदी, ये सब तो बहुत अच्छे लेग हैं.’’

ऐसा जवाब देते हुए वह सहज हो कर मुसकरा नहीं पाई थी.

‘‘ये अच्छे लोग इस दुनिया में मेरे लिए बड़े हिमायती हैं, रितु. मुझे अपने इन हिमायतियों का बड़ा सहारा है. इन के कारण ही मैं खुद को सदा सुरक्षित महसूस करती हूं. कोई मेरी गृहस्थी की खुशियों को अगर नष्ट करने की कोशिश करे, तो मेरे ये हिमायती मेरी ढाल बन जाएंगे. इन से पंगा लेना किसी को भी बड़ा महंगा पड़ेगा. मेरी राह का कांटा बनने वाला इंसान समाज में अपनी इज्जत को दांव पर लगाएगा. मैं ने तुम्हारी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया है. तुम मेरी विश्वसनीय सहेली बनो तो मेरे ये हिमायती तुम्हारी भी ताकत बन जाएंगे,’’ ढकेछिपे अंदाज में उसे चेतावनी देते हुए मैं ने अपना दायां हाथ उस की तरफ बढ़ा दिया.

वह पहले झिझकी पर फिर उस ने समझदारी दिखाते हुए मुझ से हाथ मिला

लिया. तब मैं ने खुश हो कर उसे प्यार से गले लगा लिया.

मेरे सारे हिमायती बाहर मेरा इंतजार कर रहे थे. रितु का सहारा छोड़ मैं आराम से चल कर उन के पास पहुंची. मेरी कमर को तो झटका लगा ही नहीं था. आज सब कुछ हमारी पहले से बनाई योजना के अनुरूप ही घटा था.

मैं ने दायां हाथ उठा कर 2 उंगलियों से विजयचिह्न बनाया तो मेरे सारे हिमायतियों के चेहरे खुशी से खिल उठे.

यह कैसा प्रेम- भाग 3 : आलिया से क्यों प्यार करता था वह

मैं, बस, अनायास ही उस की बात से मुसकरा उठी थी. उस का इस तरह मुझे खुद से जोड़ लेना मेरे लिए अदभुत था. फिर भी मैं बहुत ज्यादा गंभीर नहीं थी. मैं उस के बारे में पूरा जानना चाह रही थी. इस के लिए उस के साथ समय बिताना जरूरी था. मुझे भी कोई खास काम नहीं था. इसी मंशा से मैं ने सहमति दी और हम कहीं समय बिताने के लिए निकल पड़े.

दूसरी मुलाकात में एकदूसरे से इतना सहज हो जाना और साथ समय बिताने का आग्रह स्वीकार कर लेना बेशक अविश्वसनीय था, मगर चाशनी में डूबा हुआ था जो मुझे अच्छा लग रहा था और शायद उसे भी.

हम होटल से निकल पड़े और साथसाथ चल रहे थे, बातों का सिलसिला जारी था. इस बीच कई बार उस ने मेरे विचारों को बगैर समझे ही समर्थन दिया था. शायद यह उस की जल्दीबाजी थी या मुझ पर भरोसा जताने का तरीका, यह तो मैं नहीं समझ पाई मगर इतना जरूर समझ गई थी किह मुझ से प्रभावित है, इसलिए ऐसा कर रही है. और उस का ऐसा करना कहीं न कहीं मुझे उस से जोड़ रहा था.

चलतेचलते हम किसी रैस्टोरैंट जाने के बजाय एक छोटे से चाय के खोखे में बैठ गए जो पहाड़ी पंखडंडीनुमा रास्तों के बीच बांस की खपच्चियों से बनाया गया था. आम के तख्तों से बनी बैंच पर हम दोनों बैठ गए. बेतरतीब बनाई गई बैंच हमारे बैठते ही हिलने लगी, जिस से डरने के बजाय अनायास ही हमारी हंसी छूट पड़ी और मन बचपन की तरह शरारती हो उठा. फिर हम बिलकुल सधे हुए बैठे रहे.

सर्प सी लहराती हवाओं की अपनी ही संगीतमय ठसक थी. रात की बारिश से दलदली मिटटी और हवा की शीतलता से मचलते हुए मन के कहने पर मैं ने अपनी सैंडिल उतार कर एड़ियों को मिटटी में धंसा लिया.

2 प्याले मसाला चाय और आलू का पकौड़ा उस की तरफ से और्डर किया गया था. उस ने और्डर करने से पहले मुझ से मेरी पसंद के बारे में नहीं पूछा था. शायद इसलिए क्योंकि इस के अलावा वहां कुछ ऐसा था भी नहें जिसे मंगवाया जाता.

चाय आने तक समय जरा भी नहीं खला था.

देवदार के बड़े वृक्ष और जड़ीबूटियों के छोटेछोटे पौधे, दूरदूर तक फैली हरियाली, कहींकहीं ऊंची घास की हवा से अठखेलियां और चारों ओर फैला सन्नाटा, सूखे हुए पत्तों का ढेर जिस पर हमारे पैर पड़ने से खड़खड़ाने की आवाज सुनाई दे रही थी.

ठंडी हवाएं और प्रकृति का अवर्णनीय सौंदर्य देख कर हम दोनों ही अभिभूत थे. ऐसा मुझे इसलिए लगा क्योंकि उस ने अपनी दोनों हथेलियों को जोड़ कर घुटनों के बीच में छिपा लिया था और पलकों को बंद कर वह सुकून की मुद्रा में बैठी थी. मैं उसे देख कर मुसकरा उठी थी. उस की सौम्यता मुझे छू रही थी. न जाने क्यों उस का साथ मुझे नया सा नहीं लगा, शायद हमारी जड़ें बहुत गहरी जुड़ी थीं.

मुझे मेरी कहानी मिल रही थी और उसे मेरा साथ भा रहा था. क्या वह ऐसी ही है या मुझे देख कर ऐसा जता रही है? इन सवालों के कई जवाब मेरे दिमाग में इधर से उधर दौड़ लगा रहे थे.

अभी वह बात करने की मुद्रा में नहीं थी. खोई हुई थी. यह मैं ने उस के मौन से जान लिया था. एकसाथ 2 दुनियाओं में रहना आसान नहीं होता, ऐसा कुछ खास लोगों के हिस्से में ही होता है. मैं समझ चुकी थी, वह खास है और वह मुझे खास समझती रही, यह अलग बात है.

पकौड़े एकदम गरम थे, इतने कि उस की भाप और हमारी सांसों की भाप मिल कर एक हो गए थे. स्नेह का रस सूख न जाए, इसलिए चाय की चुस्की के साथ मैं ने ही चुप्पी को तोड़ा- ‘वाह, मजा आ गया. गरमागरम चायपकौड़ा आज वैसा ही मजा दे रहा है जैसा बचपन में दिया करता था.’

वह मुसकराई, फिर खिलखिला कर जाड़े की धूप सी गुनगुनी हंसी बिखेर दी. मेरा जिस्म उस गुनगुनी धूप की गरमाहट से भर उठा. हम दोनों ने ही उस गुनगुनाहट को खूब महसूस किया था.

उस ने एक घंटा वहां बैठ कर इतने सवाल कर डाले जो हमारी गहरी दोस्ती के लिए काफी थे. जिस में मुख्यतया हमारी पसंदनापसंद, शौक और विचार शामिल थे. परिवार को ले कर भी दोचार बुनियादी सवाल किए गए थे, मगर वे सिर्फ औपचारिक तौर पर, ज्यादा रुझान तो व्यक्तित्व पर केंद्रित था.

मैं ने उस के शोध को ले कर कुछ जिज्ञासा जरूर दिखाई थी वह भी लेखनिए मांग को ले कर वरना तो लखनऊ की आलिया और जबलपुर की आराधना की मित्रता तो किसी पुराने पेड़ की जड़ों जैसी गहरी जम रही थी.

इस बीच, हम एकएक चाय पूरी शिद्दत से और डकार चुके थे, फिर से कुछ पकौड़े भी. इस दौरान वह नाटा, छोटी आंखों वाला व खूबसूरत सा नौजवान हमारी बातों का आनंद उठा रहा था. उस का सिर झुका कर बेवजह का मुसकराना इस बात की गवाही थी. वही हमारी टेबल पर चाय और पकौड़े सर्व करने आया था. जिस टेबल पर लकड़ी की गांठों के कई बड़े होल थे. बातचीत के दौरान कई बार आलिया ने उन खाली छेदों में यों ही अपनी उंगली को घुमाया था बिलकुल किसी उतावले और चुलबुले बच्चे की तरह.

इस एक घंटे की मुलाकात के बाद जब हम उठे तो उस ने मेरा हाथ अपने दोनों हाथों से कस कर पकड़ रखा था. मैं ने हौले से ढील देने की कोशिश की तो उस के हाथ का दबाव और बढ़ गया. मैं समझ गई, वह मेरा हाथ पकड़े रहना चाहती है. इसलिए मैं ने उसे वैसे ही रहने दिया. हम यों ही साथसाथ बहुत दूर तक चलते रहे. पहाड़ी रास्तों से सटे सागौन के पेड़ और ढलानों पर फिसलती सी ऊंची घास से होते हुए हम काफी दूर निकल आए थे जहां से हमें अपना होटल किसी कैनवास पर बने चित्र की तरह दिखाई दे रहा था. उस ने इशारे से मुझे होटल दिखाया और बच्चों की तरह चहक कर बोली- ‘काश, मुझे पेंटिंग आती तो यह खूबसूरत नज़ारा कैद कर लिया होता.’

मैं मुसकरा उठी और मन ही मन कहने लगी, तुम वास्तव में चित्रकार हो जिस मन में प्रेम के, भावनाओं के और जिज्ञासा के चित्र खिंचते हुए देखे हैं मैं ने. उस ने जैसे मेरे मन की गति को पढ़ लिया हो, चिरपरिचित मुसकान बिखेर दी. एक बार को मुझे लगा कि कहीं शब्द मेरे मुंह से बाहर तो नहीं निकल गए थे, निकले तो नहीं, अगर निकलते तो अच्छा होता. कई बार शाब्दिक प्रभाव चुंबक की तरह होता है, जो परस्पर खिंचाव के लिए जरूरी भी होता है.

शाम ढल चुकी थी. पूरे दिन का हिसाबकिताब न मेरे पास था और न ही उस ने रखा होगा. बस, उस एक दिन में एक जन्म की बातों का आदानप्रदान हुआ, जो आज तक किसी से नहीं हुआ.

हमारे कदम वापस होटल की तरफ बढ़ने लगे.

‘दिल आने की बात है जब कोई लग जाए प्यारा, दिल पर किस का जोर है यारो, दिल के आगे हर कोई हारा…’  चलतेचलते मुझे देख कर उस का यह गीत गुनगुनाना, फिर हौले से मुसकरा देना बड़ा ही सुखद था.

उस रात मैं देर तक जागी. जब तक नींद नहीं आई, दिमाग में वही किसी खूबसूरत एहसास की तरह छाई रही. उस से मिल कर इतना तो जान ही लिया कि उस के पास उल्लास तो है पर रास्ता नहीं. वह अपनी सात्विकता, पवित्रता का प्रमाण देना चाहती है पर क्यों? भ्रम की स्थिति बढ़ने से पहले ही संकोच की परिधि को तोड़ना होगा. आंखें बंद कर मैं दूर पहाड़ी पर बज रहे गीत को सुनने लगी थी…’अजनबी कौन हो तुम, जब से तुम्हें देखा है, सारी दुनिया मेरी आंखों में सिमट आई है…’ मीठे एहसास और मधुर संगीत मिल कर एक हो गए थे और फिर पता नहीं कब मेरी आंख लग गई थी.

अगली सुबह अंगड़ाई ले कर जब मैं उठी तो 9 बज चुका था, ‘उफफफफफ, इतना लेट’  अभी सोच ही रही थी कि घड़ी की सुईयां मुंह चिढ़ा कर कहने लगीं- और देर तक जागो…हा-हा-हा…धूप चढ़ आई है…उठिए मैडम…या चाय मंगवा दूं पहले? हा-हा-हा…’ मैं ने उसे थप्पड़ दिखाया- चुप कर, अब आगे बोली न, तो पिटेगी.

मैं उस से झगड़ कर उठ तो बैठी मगर, आलिया के व्यक्तित्व से बाहर नहीं आ पाई थी. मैं ने मन ही मन निश्चय किया कि हम चाय साथ ही पिएंगे, इंटरकौम से रूमसर्विस पर फोन किया कि ‘रूम नंबर ट्रिपल वन से मिस आलिया को मेरे रूम में भेज दें.’  उधर से जवाब सुन कर मैं सन्न रह गई. दिल को गहरा आघात लगा. रिसैप्शन से पता लगा, आज सुबह 7 बजे ही उस ने होटल से चैकआउट कर लिया है.

‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. आलिया, यों अचानक… नहीं, वह मुझे बताए बगैर नहीं जा सकती…’ मैं दौड़ कर रिसैप्शन पर पहुंची शायद कोई मैसेज या खत छोड़ा हो उस ने. कुछ भी नहीं. न कोई संदेश न खत. मैं टूट सी रही थी. एक अनजान लड़की मेरे सारे शरीर की ताकत को खींच कर ले गई थी. भारी कदमों से अपने रूम की तरफ लौटने लगी. उस के बाद न तो चाय का और्डर किया गया और न ही कोई दूसरा काम. सारा दिन यों ही बिस्तर पर औंधी पड़ी रही. ‘वह कौन थी? क्यों आई थी एक दिन के लिए मेरे पास? ये ऐसे तमाम सवाल थे जो भीतर ही भीतर उबल रहे थे. अव्यवस्थित मनोस्थिति, अंतर्वेदना से कराह रही थी.

यह कैसा प्रेम- भाग 4 : आलिया से क्यों प्यार करता था वह

6 दिनों बाद उस का एक खत मिला, जो होटल के ही एक कर्मचारी ने ला कर दिया. खोलने पर मालूम पड़ा कि लिखावट आसुओ से धुंधली हो गई थी.

‘दी, माफ कर देना. यों आप को बगैर बताए आ जाना मेरी कठोरता नहीं, बल्कि मजबूरी थी. दरअसल, सुबहसुबह  (नवीन, मेरे पति) के अचानक गुजर जाने की खबर से मैं इतना आहत हो गई थी कि खुद पर नियंत्रण खो बैठी और आप को बगैर बताए लखनऊ आ गई. आज उन का तीजा है. मैं भले ही उन के साथ नहीं रहती थी मगर साथ में गुजारा हुआ एक बरस आज भी मेरे साथ है जिस में कुछ मीठी यादें भी हैं. उस मिठास की चिपकन इतनी मजबूत होगी, यह आज ही जाना.

‘रिश्ता जुड़ाव का मुहताज नहीं होता, दी. वह तो अलग रह कर भी पनप सकता है. अब न तो मैं उन से नफरत कर सकती और न ही प्रेम का प्रदर्शन. शादी के बाद के कड़वे अनुभव एकाएक मुंह फाड़ कर जिंदा हुए थे, फिर अगले ही पल उन की मृतदेह को देख कर धुंधला भी गए. कमजोर मानी जाने वाली औरत का दिल बड़ा ही कठोर होता है जहां सौ जख्मों का दर्द भी परपीड़ा के एहसासभर से मर जाता है और वह चिरनिद्रा से जागी हुई अबोध सी बन जाती है.

‘नवीन अब नही हैं, उन के दिए हुए सभी आघात भी नहीं रहे, मगर मैं अभी भी हूं, एकदम खाली सी. रिश्तों से डरने लगी हूं. नए रिश्ते बन कर टूटने की चरमराहट कानों में बजने लगी है. क्या टूटना जरूरी होता है, दी. दिमाग में खून के बजाय तमाम सवाल दौड़ रहे हैं. इस बार मिलने पर आप से सारी बातें करूंगी जो मैं ने आप को पहली मुलाकात में नही बताईं. कारण था, मैं खुल कर हंसना चाहती थी. जिंदगी को जीना चाहती थी. नहीं चाहती थी कि उन पर अतीत का ग्रहण लगे. और फिर उन से दूर भाग कर ही तो वहां आई थी.

‘मैं जानती हूं दी, आप की तलहटी सोच मुझे जरूर समझेगी. आप से मेरा रिश्ता अटूट है. जो कभी नहीं टूट सकता. हम दोबारा जरूर मिलेंगे. तब तक के लिए एक अल्पविराम.

‘आप की आलिया.’

काफी देर तक वह खत यों ही मुटठी में दबा रहा. धड़कन  जैसे थम सी गई. अब वह मुझ से कब मिलेगी? मिलेगी भी या नहीं? आखिर वह मुझ से मिली ही क्यों? अब अगर न मिली तो? क्यों वह मेरी परवा करे? मैं इतना क्यों सोच रही हूं उस के बारे में? जिंदगीभर आदमी रिश्तों की गोंद से चिपका रहता है और एक ही झटके में अलग हो जाता है. फिर, मैं ने तो एक दिन ही बिताया है बस, इतना आकर्षण? इतना लगाव?  यह खिंचाव चुंबकिया था जो विज्ञान के नियमों जैसा काम कर रहा था? इन सवालों ने आंखों को भिगो दिया. टप…टप…टप…कई बूंदें मेरी गोद में आ गिरीं. उन बूंदों में किसी अजनबी रिश्ते की गरमाहट थी जिसे मैं ने भीतर तक महसूस किया.

पूरा दिन उदासी से भीगा रहा. न लिखा गया न पढ़ा. दिनभर में खत को 40 बार पढ़ डाला. हर बार शब्द कुछ और कहते और दिल कुछ और. क्या हर औरत यों ही खाली सुराही की तरह होती है, जब तक भरी है, सब प्यास बुझाते रहे और फूटने पर बाहर फेंक दी जाती है. पर संदेश? वह तो आज भी मुझ से प्यार करता है, मेरा पहला प्यार, जो ताउम्र मेरे साथ रहेगा. भले ही हम शादी नहीं कर पाए. क्या शादी करना ही प्रेम का प्रमाण है? भले ही संदेश ने मुझे अपनी पत्नी का दर्जा नहीं दिया, वह उन की पारिवारिक मजबूरी थी जहां मेरी भावनाओं को स्थान नहीं दिया गया.

संदेश को अपने परिवार के खिलाफ जाने से मैं ने ही रोका था, वरना वह तो अड़ ही गया था कि मेरे बगैर नहीं रह पाएगा. मैं जानती थी, विशाल वृक्ष को भी उस की जड़ों से अलग कर दिया जाए, तो वह ज्यादा दिन जीवित नहीं रह सकता, जबकि फूलों और खुशबू के बगैर तो जिया जा सकता है. यही सोच कर ही तो मैं ने  बेवजह उग आई खरपतवार को उस वृक्ष की जड़ों से दूर उखाड़ कर फेंक दिया और आजीवन स्वतंत्र जीवन जीने का फैसला किया था. लेकिन यह भी सच है कि संदेश के दिल में आज भी सिर्फ मैं हूं. बस, यही एहसास सांसों की उड़ान के लिए काफी है. यह अपराध तो मैं जरूर कर रही हूं. उस की अर्धांगिनी की अपराधी हूं मैं. लेकिन क्या करूं? नींव के बगैर इमारत का खड़े रहना असंभव है. अंधा प्रेम, अंधा कानून…हा हा हा…. भीगी आंखों में न जाने कौन सी हंसी थी जो मैं बेवजह हंस दी.

खत में आलिया ने अपना फोन नंबर नहीं लिखा था. मैं ने हर बार पढ़ते वक्त उसे ढूंढा था. शायद उस के घर में लैडलाइन फोन हो ही न? नहीं, नहीं. उस ने जिक्र किया था फोन का…फिर? फिर क्यों नहीं लिखा उस ने नंबर?

उम्मीदें धरातल की तरफ धंस रही थीं. खालीपन मुंह चिढ़ाने लगा था. मन के बगैर ही उपन्यास पूरा करने बैठ गई. यही तरीका था सूनेपन से छुटकारा पाने का.

सभी लिखे हुए कागजों को फाड़ दिया गया था जो टेबल के नीचे रखे डस्टबिन में भर गए थे. मैं ने सबकुछ यों ही छोड़ कर  बालकनी में पड़ी आरामकुरसी का सहारा लिया और आंख बंद कर अधलेटी पड़ी रही. चेतना वापस तब लौटी जब दरवाजे को किसी ने नौक किया. मैं ने वहीं से भीतर आने की सहमति दे दी.

‘मैडम, रिसैप्शन पर आप का फोन होल्ड पर है.’

‘किस का फोन है?’

‘यह तो मैं नही जानता, मैम.’

‘ठीक है, आप चलिए, मैं आती हूं.’

दिल में हलचल लिए मैं सारी सीढ़ियां एक ही सांस में उतर गई. झट से काउंटर पर अलग से रखा रिसीवर उठा लिया.

‘हैलो दी, मैं.’ उधर से आवाज़ आई.

‘आलिया.’ मैं उस की आव़ाज को पहचान उतावली हो गई.

‘दी, जल्दीबाजी में मैं अपना नंबर लिखना भूल गई थी, आप नोट कर लो,’

‘कैसी है आलिया?’ मैं ने उस की सुनने के बजाय सवाल दागा जो मेरी स्थिति को नियंत्रित करने के लिए जरूरी था.

‘आप के बगैर रह पाना असंभव है, दी. बहुतकुछ आप को बताना चाहती हूं.’

‘क्या बात है आलिया, सब ठीक तो है न?’

‘ठीक है भी और नहीं भी, एक बात पूछनी है आप से?’

‘हां, बोलो मैं सुनने के लिए बेताब हूं, आलिया.’

‘क्या मैं शादीशुदा थी और अब विधवा? एक साल नवीन के साथ रह कर 2 साल अलग बिताए थे मैं ने, बिलकुल कुंआरा जीवन. तब वहां नवीन नहीं थे. उन का परिवार भी नहीं. सिर्फ मेरी पढ़ाई और मेरी रिसर्च थी. उस वक्त कोई नहीं था मेरे साथ. नवीन का होना न होना कोई माने नहीं रखता. फिर ये यादें खुरेच कर और विधवा का ठप्पा जड़ कर समाज कौन सी जीत चाहता है?’

‘आलिया, तुम भी तो नवीन को नही भूलीं?’

‘हां, नहीं भूली, यह मेरी मरजी है, दी. लोग कौन होते हैं मेरी भावनाओं की पहरेदारी करने वाले? तब सब कहां थे जब मैं हालात से जूझ रही थी. पूरे 2 बरस किसी को परवा नहीं, न उस के घरवालों को न मेरे घरवालों को. और अब इर्दगिर्द, हर वक्त, मेरी सांसों पर भी जैसे मेरा अधिकार नहीं रहा.’

‘कूल डाउन, आलिया. समाज का अंदरूनी हिस्सा बिलकुल मानव के शरीर जैसा है. अगर चमड़ी हटा दी जाए तो अंदर खून, मांस और लोथड़ो के सिवा कुछ नहीं मिलेगा.’

‘दी, आप से मिलने को मन तड़प रहा है, कब मिलेंगे हम?’

‘कल मैं वापस जबलपुर लौट जाऊंगी. तुम रस्मोंरिवाजों से निबट कर चाहो तो कुछ दिनों के लिए आ जाना मेरे पास.’

‘ठीक है दी, समय बहुत हुआ, अब फोन रखती हूं बाय.’

बातचीत के दौरान हथेली पर नोट किया गया उस का नंबर मैं ने आते ही डायरी में उतार लिया. हाथों से सामान की पैकिंग जरूर हो रही थी मगर दिल आलिया के आसपास ही था.

सुबह 7 बजे की ट्रेन थी. इस बार अपने शहर की वापसी हर बार से अलग थी. कभी लगता भरी हुई हूं तो कभी लगता खाली सी हूं. आज मैं ही यह गाना गुनगुना उठी थी- ‘अजनबी कौन हो तुम…जब से तुम्हें देखा है…सारी दुनिया मेरी आंखों में सिमट आई है…’

सारा सामान पैक हो चुका था. अब इंतजार था तो स्टेशन जाने का जिस के लिए औटो आने ही वाला था. मैं अपने शहर को रवाना भी हो गई.

जब से इस बार जबलपुर आई थी, कुछ अलग ही थी. हम लगभग रोज ही बात करने लगे थे खाने से ले कर पढ़नेलिखने, सोने तक का पूरा चिटठा. खुशी की बात तो यह थी, इस दौरान वह उदासियों के घेरे से बाहर आने लगी थी, मुसकराने और खिलखिलाने लगी थी. कुछ अपनी चाहतों का जिक्र भी करती, कुछ मेरी भी पूछती. मैं राहत महसूस कर रही थी. फिर तो हमारी फोन पर लंबी मुलाकातें होने लगीं. उस को चहकता देख कर यकीनन मुझे वही संतुष्टि मिलती जैसे एक मां को मिलती.

लौटती बहारें: भाग 1- मीनू के मायके वालों में कैसे आया बदलाव

अचानक शेखर को जल्दी घर आया देख मैं चौंक गई. साहब 8 बजे से पहले कभी पहुंचते नहीं हैं. औफिस से तो 6 बजे छुट्टी हो जाती है, पर घर पहुंचने में समय लग जाता है. मगर आज एक मित्र ने गाड़ी में लिफ्ट दे दी. अत: जल्दी आ गए. बड़ा हलकाफुलका महसूस कर रहे थे.

मैं जल्दी से 2 कप चाय ले कर अम्मांजी के कमरे में पहुंची. औफिस से आ कर शेखर की हाजिरी वहीं लगती है. पापा का ब्लडप्रैशर, रवि भैया का कालेज सभी की जानकारी लेने के बाद आखिर में मेरी खोजखबर ली जाती और वह भी रात के डिनर का मैन्यू पता करने के लिए. पापाजी भी शाम की सैर से आ गए थे. उन के लिए भी चाय ले कर गई. जल्दी में पोहे की प्लेट रसोई में ही रह गई. बस अम्मां झट से बोल उठीं, ‘‘बहू इन की पोहे की प्लेट कहां है?’’

मैं कुछ जवाब देती उस से पहले ही शेखर का भाषण शुरू हो गया, ‘‘मीनू, 2 महीने हो गए हमारे घर आए पर तुम अभी तक एक भी नियमकायदा नहीं सीख पाई हो. कल अम्मां का कमरा साफ नहीं हुआ था. उस से पहले रवि के कपड़े प्रैस करना भूल गई थी.’’

अम्मां ने जले पर नमक बुरकते हुए कहा, ‘‘पराए घर की लड़कियां हैं, ससुराल को अपना घर कहां समझती हैं.’’

मैं मन मसोस कर रह गई. कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया. मैं सुबह से ले कर देर रात तक इस घर में सब की फरमाइशें पूरी करने के लिए चक्करघिन्नी की तरह घूमती हूं, फिर भी पराया घर, पराया खून बस यही उपाधियां मिलती हैं.

मैं बोझिल कदमों से रसोई में आ कर रात के डिनर की तैयारी में जुट गई. खाना तैयार कर मैं दो घड़ी आराम करने के लिए अपने कमरे में जा रही थी तो अम्मांपापाजी को कमरे में अपने श्रवण कुमार बेटे शेखर से धीमे स्वर में बतियाते देखा तो कदम सुस्त हो गए.

ध्यान से सुनने पर पता चला शेखर 8 दिनों के लिए मुंबई टूअर पर जा रहे हैं. इसीलिए आज जल्दी घर आ गए थे. मन में टीस सी उठी कि जो खबर सब से पहले मुझे बतानी चाहिए थी, उसे अभी तक इस बात का पता ही नहीं.

अभी 2 महीने पहले ही आंखों में सपने लिए ससुराल आई थी, पर अपनापन कहीं दूरदूर तक दिखाई नहीं देता. सब ने एक बेगानेपन का नकाब सा ओढ़ रखा है. हां, रवि भैया को जब कोई काम होता है तो अपनापन दिखा कर करवा लेते हैं. शेखर के प्यार की बरसात तभी होती है जब रात को हमबिस्तर होते हैं.

मैं ने जल्दी से मसाले वाला गाउन बदल हाथमुंह धो कर साड़ी पहन ली. बाल खोल कर सुलझा रही थी कि शेखर सीटी बजाते हुए बड़े हलके मूड में कमरे में आ गए. मुझे तैयार होते देख मुसकराते हुए अपनी बांहों के घेरे में लेने लगे तो मैं ने पूछा, ‘‘आप ने जल्दी आने का कारण नहीं बताया?’’

शेखर बोले, ‘‘अरे, कुछ खास नहीं. 8 दिनों के लिए मुंबई टूअर पर जा रहा हूं.’’

मैं ने शरमाते हुए कहा, ‘‘मैं 8 दिन आप के बिना कैसे रहूंगी? मेरा मन नहीं लगेगा आप के बिना… मुझे भी साथ ले चलो न… वैसे भी शादी के बाद कहीं घूमने भी तो नहीं गए.’’

यह सुनते ही इन का सारा रोमांस काफूर हो गया. मुझे बांहों के बंधन से अलग करते हुए बोले, ‘‘मेरी गैरमौजूदगी में अम्मांपापा का खयाल रखने के बजाय घूमनेफिरने की बात कह रही हो… अम्मां सही कहती हैं कि बहुएं कभी अपनी नहीं होती… पराया खून पराया ही होता है.’’

यह सुन कर मैं ने चुप रहना ही ठीक समझा. शेखर भी अनमने से प्यारमुहब्बत का ऐपिसोड अधूरा छोड़ डिनर के लिए अम्मांपापा को बुलाने चले गए. रवि भैया भी आ पहुंचे थे. मैं पापा की पसंद के भरवां करेले और सब की पसंद की अरहर की दाल व चावल परोस कर गरमगरम रोटियां सेंकने लगी.

सब डिनर कर कुरसियां खिसका कर उठ खड़े हुए. मुझे न तो किसी ने खाना खाने के लिए कहा न कोई मेरे लिए खाना परोसने खड़ा हुआ. मैं ने भी लाजशर्म छोड़ जल्दी से हाथ धो कर अपनी थाली लगा ली. बचा खाना मेरी प्रतीक्षा में था. भूख ज्यादा लगी थी, इसलिए खाना कुछ जल्दी खा लिया.

अम्मां के कमरे के बाहर लगे वाशबेसिन में हाथ धो रही थी कि अम्मांजी की व्यंग्यात्मक आवाज कानों में पड़ी, ‘‘शेखर के पापा, देखा आप ने नई बहू वाली तो कोई बात ही नहीं है मीनू में… मैं जब आई थी तो सासननद से पूछे बिना कौर नहीं तोड़ती थी. यहां तो मामला ही अलग है.’’

यह सुन कर मन वितृष्णा से भर उठा कि यह क्या जाहिलपन है. नई बहू यह नहीं करती, पराए घर की, पराया खून बस यही सुनसुन कर कान पक गए.

अम्मां की बातों को दरकिनार कर मैं अपने कमरे में चली गई. वहां शेखर अपने कपड़े फैलाए बैठे थे. पास ही सूटकेस रखा था. समझ गई साहब जाने की तैयारी में लगे हैं. मैं बड़े प्यार से उन का हाथ पकड़ उन्हें उठाते हुए बोली, ‘‘हटिए, मैं आप का सूटकेस तैयार कर देती हूं…’’

‘‘अब आप को यह जहमत उठाने की जरूरत नहीं है,’’ शेखर ने हाथ झटकते हुए कहा, ‘‘अरे यार, कनफ्यूज न करो. तुम्हें मेरी पसंदनापसंद का कुछ पता भी है.’’

मैं चुप लगा कर बाहर बालकनी में आ कर खड़ी सड़क की रौनक देखने लगी. मन बहुत खिन्न था. पहली बार विवाह के बाद बाहर जा रहे हैं… अकेली कैसे रहूंगी… होने को भरापूरा घर है… ऐसा कोई कष्ट भी नहीं है, परंतु ससुराल में जो सब की अलगाव की भावना मुझे अंदर ही अंदर सालती थी.

मैं पेड़ से टूटी डाली की तरह एक ओर पड़ी थी. कुछ दिन पहले की ही बात है. इन की बहन नीलम जीजी आई थीं. मेरी हमउम्र भी थीं. मैं मन ही मन बहुत उत्साहित थी कि नीलम जीजी से खुल कर बातें करूंगी. इतने दिनों से लाज, संकोच ही पीछा नहीं छोड़ता था कि कहीं कुछ गलत न बोल जाऊं. नईनवेली थी. जबान खुलती ही न थी. मैं अल्पभाषी थी. मगर अब सोच लिया था कि नीलम जीजी को अपनी दहेज में मिली साडि़यों और उपहारों को दिखाऊंगी. वे कुछ लेना चाहेंगी तो उन्हें दे दूंगी. उन का उन की ससुराल में मान बढ़ेगा.

मैं ने बड़े चाव से रवि भैया से उन की खानेपीने की पसंद पूछ कर उन की पसंद का मटरपनीर, भरवां भिंडी, मेवे वाली खीर बना दी. मैं हलका सा मेकअप कर तैयार हो नीलम जीजी का बेकरारी से इंतजार करने लगी.

नीलम जीजी नन्हे राहुल को ले कर अकेली ही आई थीं. उन्हें देख कर मैं बहुत उत्साह से आगे बढ़ी और उन्हें गले लगा लिया. मुझे लगा जैसे मेरी कोई बचपन की सहेली हैं पर नीलम जीजी तुरंत मुझे स्वयं से अलग करते हुए एक औपचारिक सी मुसकान दे कर अम्मांअम्मां करते हुए कमरे में चली गईं.

मुझे ठेस सी लगी पर मैं सब कुछ भूल कर ननद की सेवा में जुट गई. मांबेटी को एकांत देने के लिए मैं रसोई में ही बनी रही.

छुट्टी का दिन था. सब घर में ही थे. अम्मां के घुटनों का दर्द बहुत बढ़ा हुआ था, इसलिए उन्होंने मुझे आदेश दिया, ‘‘बहू खाना मेरे कमरे में ही लगा दो.’’

एक अतिरिक्त टेबल रख कर मैं खाना रखने की व्यवस्था कर किचन में चली गई. किचन में जा कर मैं ने जल्दीजल्दी चपातियां बनाईं. अम्मां के कमरे में खुशनुमा महफिल जमी थी. ठहाकों की आवाजें आ रही थीं. मैं जैसे ही खाना ले कर कमरे में पहुंची सब चुप हो गए मानो कमरे में कोई अजनबी आ गया हो. हंसने वाले चुप हो गए, बोलने वालों ने बातों का रूख बदल दिया. खाना टेबल पर लगा कर मैं जल्दीजल्दी चपातियां देने लगी.

खाना खाने के बाद नीलम जीजी और रवि बरतन समेट कर रसोई में रखने आ गए. किचन से निकलते समय वे बिना मेरी ओर देखे बोले, ‘‘आप भी हमारे साथ खा लेतीं भाभी.’’

मैं कोई जवाब देती उस से पहले ही रवि व जीजी किचन से जा चुके थे. एक बार फिर महफिल जम गई. मैं शांता बाई के साथ मिल कर रसोई संभालने लगी. बड़ा मन कर रहा था कि मैं भी उन के साथ बैठूं, घर के और सदस्यों की तरह हंसीमजाक करूं, पर न मुझे किसी ने बुलाया और न ही मेरी हिम्मत हुई. शाम की चाय के बाद नीलम जीजी जाने को तैयार हो गईर्ं. रवि औटो ले आया. शेखर और पापाजी आंगन में खड़े जीजी से बतिया रहे थे. मैं भी वहीं पास जा कर खड़ी हो गई. औटो आते ही मैं लपक कर आगे बढ़ी पर जीजी सिर पर पल्ला लेते हुए ‘‘भाभी बाय’’ कह कर औटो में जा बैठीं. देखतेदेखते औटो चला गया. मैं ठगी सी वहीं खड़ी रही. अलगाव की पीड़ा ने मुझे बहुत उदास कर दिया था.

रवि की आवाज मुझे एक बार फिर वर्तमान में खींच लाई. रवि ने बताया कि आप के मायके से पापा का फोन आया है. मैं ने रवि से मोबाइल ले कर पापा से कुशलमंगल पूछा तो उन्होंने बताया कि 31 मार्च को उन का रिटायरमैंट का आयोजन है. मुझे सपरिवार आमंत्रित किया.

तब पापाजी (मेरे ससुरजी) ने, मेरे पापा से न आ पाने के लिए क्षमायाचना करते हुए मुझे भेजने की बात कही. तय हुआ कि रवि मुझे बस में बैठा देगा. वहां सहारनपुर बसअड्डा से राजू मुझे ले लेगा.

सहारनपुर अपने मायके जाने की बात सुन कर मुझे तो जैसे खुशियों के पंख लग गए. पगफेरे के बाद मैं पहली बार वहां अकेली रहने जा रही थी. मैं भी अपना सूटकेस तैयार करने के लिए उतावली हुई जा रही थी.

शेखर प्यार से छेड़ने लगे, ‘‘चलो, अब तो हमारी जुदाई का गम न झेलना पड़ेगा?’’

शेखर बहुत रोमांटिक मूड में थे. मैं भी फागुनी बयार की तरह बही जा रही थी. पूरे मन से शेखर की बांहों में समा गई. कब रात बीती पता ही नहीं चला.

पड़ोस के घर बजे शंख से नींद खुली. 5 बज गए थे. जल्दी से उठ कर नहा कर नाश्ते की तैयारी में जुट गई. इन्हें भी आज जाना था. मुझे कल सवेरे निकलना था. अत: जल्दीजल्दी काम निबटाने लगी. महीने भर का राशन आया पड़ा था. उसे जल्दीजल्दी डब्बों में भरने लगी. मैं सोच रही थी मेरे जाने के बाद किसी को सामान ढूंढ़ने में दिक्कत न हो.

तभी अम्मांजी किसी काम से किचन में आ गईं. मुझे ये सब करते देख बोलीं,

‘‘बहू, तुम यह सब रहने दो. मैं कामवाली शांता से कह कर भरवा दूंगी… तुम मां के यहां जाने

की खुशी में, सूजी में बेसन और अरहर में चना दाल मिला दोगी. यह काम तसल्ली से करने के होते हैं.’’

मेरे मन में जो खुशी नृत्य कर रही थी उसे विराम सा लगा. बिना कुछ कहे मैं उठ खड़ी हुई. मन में सोचने लगी कि अब तो यही मेरा घर है…कैसे इन सब को विश्वास दिलाऊं.

अपने कमरे में जा कर शेखर ने जो समान इधरउधर फैलाया था उसे यथास्थान रखने लगी. शेखर नहाने गए हुए थे.

अचानक दिमाग में आया कि पापा के रिटायरमैंट पर कोई उपहार देना बनता है. छोटी बहन रेनू और भाई राजू को भी बड़ी होने के नाते कुछ उपहार देना पड़ेगा. सोचा शेखर नहा कर आ जाएं तो उन से सलाह करती हूं. वैसे उन के जाने में 1 घंटा ही शेष था. वे मुझे उपहारों की शौपिंग के लिए अपना साथ तो दे नहीं पाएंगे, हां क्या देना है, इस की सलाह जरूर दे देंगे. मैं आतुरता से उन का इंतजार करने लगी.

शेखर नहा कर निकले तो बहुत जल्दीजल्दी तैयार होने लगे. उन की जल्दबाजी देख कर मुझे समझ नहीं आ रहा था अपनी बात कैसे शुरू करूं? जैसे ही वे तैयार हुए मैं ने झट से अपनी बात उन के सामने रखीं.

सुन कर झल्ला उठे. बोले, ‘‘अरे मीनू, तुम भी मेरे निकलने के समय किन पचड़ों में डाल रही हो? इस समय मैं उपहार देनेलेने की बातें सुनने के मूड में नहीं हूं. तुम जानो और तुम्हारे पापा का रिटायरमैंट,’’ कह कर अपना पल्ला झाड़ उठ खड़े हुए और अम्मां के कमरे में चले गए. जातेजाते अपना सूटकेस भी ले गए यानी वहीं से विदा हो जाएंगे.

मैं जल्दी से नाश्ता लगा कर ले गई. मेरे मन के उत्साह पर शेखर की बातों ने पानी सा डाल दिया था. मुझे लगा जाते समय शेखर मुझे कुछ रुपए अवश्य दे जाएंगे पर नाश्ता कर के हटे ही थे कि गाड़ी आ गई, ‘‘अच्छा, बाय मीनू,’’ कह कर गाड़ी में जा बैठे.

मैं देखती ही रह गई. परेशान सी खड़ी रह गई. सोचने लगी उपहारों के लिए पैसे कहां से लाऊं… जिस पर हक था वह तो अनदेखा कर चला गया. अम्मांपापाजी से रुपए मांगने में लज्जा और स्वाभिमान दीवार बन गया.

अचानक याद आया विदाई के समय कनाडा वाली बुआ ने कुछ नोट हाथ में थमाए थे, जिन्हें उस ने बिना देखे संदूक के नीचे तल में डाल दिए थे. जल्दी से कमरे में जा कर संदूक की तलाशी लेने लगी. एक साड़ी को झाड़ने पर कुछ नोट गिरे. ऐसे लगा कोई कुबेर का खजाना हाथ लग गया. लेकिन गिने तो फिर निराशा ने घेर लिया.

केवल 3000 रुपए ही थे. उन में अच्छे उपहार आना कठिन था. रवि भैया से हिम्मत कर के साथ चलने के लिए मिन्नत की तो वे मान तो गए पर बोले, ‘‘भाभी आप का बजट कितना है? उसी अनुसार दुकान पर ले चलता हूं.’’

मैं ने जब धीमी आवाज में बताया कि

3000 रुपए हैं तो रवि भैया ने व्यंग्य में मुसकरा कर कहा, ‘‘भाभी फिर तो आप पटरी वालों से ही खरीदारी कर लें.’’

मुझे कुछ पटरी वाले आवाज देने लगे तो मैं कुछ कपड़े देखने लगी. कपड़े वास्तव में कामचलाऊ थे. जींस, टौप वगैरह सभी कुछ था.

रेनू और छोटे भाई राजू के लिए सस्ते से कपड़े खरीद कर पापा और मम्मी के लिए कुछ ठीकठाक ही लेना चाहती थी. किसी तरह मां के लिए एक सस्ती सी साड़ी और पापा के लिए एक शौल ले कर घर लौट आई. औटो के पैसे रवि भैया ने ही दिए.

यह कैसा प्रेम- भाग 2 : आलिया से क्यों प्यार करता था वह

मैं एक विराम लेने के लिए उठी. कमर को सीधा किया और कागजों पर कलम को रख दिया. वाशरुम से वापस लौटी तो देखा टेबल खाली थी. भाव, व्यथाओं को संभालने में निपुण कलम नीचे जमीन पर बेसुध पड़ा था और सारे कागज नदारद थे. मेरा दिल धड़क उठा. अपने कमरे की बालकनी से नीचे झांका. दूरदूर तक सन्नाटा पसरा था. कहां गए मेरे सब कागज, अभी तो छोड़ा था सही सलामत, फिर? दरवाजे की चटखनी को जांचा, वह बंद था. कोई आया, न गया और इस वक्त… टेबल के नीचे फिर से झांका, बालकनी में भी देखा, पर एक भी कागज़ का नामोनिशान न था. क्या करूं? कहां ढूंढूं? उस एक पल में मैं ने एक सदी के दुख झेल लिए. यह दुख झेलने के बाद जैसे टूटता है व्यक्ति, ठीक  वैसे ही टूटने लगी. मैं ठगी गई थी मगर ठग का न पता न ठिकाना. मैं थोड़ी सी देर में थक चुकी थी. अकसर ऐसे मौकों पर सहने की क्षमता कम हो जाती है. फिर गलती तो मेरी ही थी, कौन भला यों कागजों में लिखा करता है? क्यों नहीं किसी फाइल में कायदे से रखा गया?

अब आंखों में पानी भी आ गया था एकदम गरम, जिस ने गालों से ले कर गरदन तक का हिस्सा जला दिया. निढाल सी बिस्तर पर बैठ गई. बिखर जाती इस से पहले ही मेरे कमरे के दरवाजे को किसी ने खटकाया. गले में पड़े स्टौल से आंसुओं को पोंछ कर दरवाजा खोला, यों जैसे कोई मेरे ही कागजों को ले कर आ गया होगा और कहेगा- ‘ये लीजिए हवा से उड़ कर मेरे पास आ गए थे, संभालिए अपनी अमानत.’

तेजी से दरवाजा खोला गया. सामने एक लड़की खड़ी थी. मैं ने जैसा सोचा था वही हुआ था. उस के हाथ में मेरे सभी कागज थे. मैं तो खुशी और आश्चर्य से हतप्रभ थी. संयम टूट गया. औपचारिक अभिवादन के बगैर ही उस के हाथ से लपक कर  सारे कागज़ लगभग छीन लिए और आश्वस्त हो जाने पर कि मेरे ही हैं, अपनी पीठ से सटा कर छिपा लिए. जैसे, वे मुझ से दोबारा छिन जाएंगे. वह मुझे लगातार देख रही थी. उस ने मुझे अधीर या पागल ही समझा जैसा मेरा अनुमान भी था और बिलकुल वही किया था मैं ने.

वह बगैर कुछ बोले, सुने वापस लौट गई. उस के जाने के बाद मेरा जमीर जागा. तब तक तो आभार का सेतु स्वार्थ के आवेगयुक्त बांध में बह चुका था. न तो वह लड़की थी और न ही शुक्रिया कहने के लिए वहां कोई.  मुझे शर्मिंदगी का एहसास हुआ और अपनी बेसब्र बेअदबी का भी. न जाने क्या समझा होगा उस ने मुझे? एक स्वार्थी और निष्ठुर ही न? पर वह थी कौन? इस पहाड़ी क्षेत्र की तो नहीं लगती. शायद, मेरी तरह ही कोई आगंतुक होगी और इसी होटल में ठहरी होगी? उस वक्त मनगढ़ंत कयास समय की मांग थे.

अब जो भी हो, खुद को ढांढस बंधाया और निश्चित किया, सुबह उस की खोजबीन की जाएगी, अभी तो सोया जाए. चरते हुए पशु की पीठ पर कौवे की भांति बैठ कर  मैं ने अपने कागजों को एक बार चूम कर टेबल पर रखने के बजाय तकिए के नीचे दबा लिया. बालकनी का स्लाइडिंग डोर बंद किया और नाइट बल्ब जला दिया, उस का अभिप्राय मेरा डर था जो मैं ने अभीअभी झेला था. बालकनी से हवा का झोंका पेपरवेट से भरोसा उठा सकता था. उस रात फिर मैं ने नहीं लिखा और जल्दी सो गई.

सुबह आदतन मैं देर से उठी. सूरज की लालिमा सुनहरी हो चुकी थी. आज मौसम साफ था. मन ही मन रात वाली घटना पर विचार करने लगी. वही प्रश्न एक बार फिर हलचल मचाने लगे-‘इतनी बारिश में कौन किस की मदद करता है? या यों कहें कि कौन बारिश में ठिठुरते हुए आएगा वह भी सिर्फ आप के चंद कागजों के लिए? होंगे आप के लिए कीमती, मगर सामने वाले के लिए तो रद्दी से बढ़ कर और क्या हो सकते हैं? जो भी हो, इस गुत्थी को आज सुलझाना ही है. यह सोच कर मैं झट से उठ खड़ी हुई.

वाशरूम से आने के बाद मैं ने इंटरकौम पर एक कौफी और्डर की और साथ में कुछ स्नैक्स भी. हैवी ब्रेकफास्ट लेने की आदत नहीं, उस के बाद सीधे लंच. मगर लंच से पहले रात वाली उस लड़की को खोजना बेहद जरूरी था.

कौफी आ गई थी और साथ में नानफायर सैंडविच भी जिसे मैं ने बालकनी में बैठ कर खाना पसंद किया. चूंकि बालकनी ही वह जगह थी जहां से पहाड़ों को, दूर तक फैली हरितमा को और नैसर्गिक सौंदर्य को आसानी से देखा जा सकता था.

दूर तक फैले देवदार, चनार और बांस के पेड़ों का घना जंगल जिन के पत्तों पर बारिश की मोती सी बूंदें और भीग कर गहरे काले से दिखने वाले तने, जिन पर बुलबुल, तोते, गौरैया और बहुत सारे पहाड़ी पंक्षियों का कोलाहल मन को इस दुनिया से खींच कर अनोखा सुख देने के लिए काफी था.

10 से 15 मिनट लगे थे मुझे काफी को खत्म करने में. इस के बाद मैं ने शावर लिया. लाइट ब्लू कलर का टौप और ब्लैक जींस को मैं ने चुना और पहन कर तैयार हो गई. मेकअप का कोई खास शौक नहीं था. होंठों पर एवरग्रीन पिंक लिपस्टिक और मैचिंग का नेलपेंट, इस के अलावा और कुछ ऐसा नहीं था जो मैं ने कभी किया हो, बस खास मौको को छोड़ कर.

झटपट तैयार हुई और सीधे रिसैप्शन पर पहुंच गई. अपने कमरे की चाबी काउंटर पर रखी ही थी कि अपने ठीक सामने उसे देख कर मैं ठिठक गई. वही रात वाली लड़की जिसे मैं ढूँढने के लिए निकली थी, सामने खड़ी थी. वह जैसी कल रात लग रही थी उस से बिलकुल अलग थी. इस वक्त वह हलके मेकअप में थी. उस ने फौरमल कपड़े पहने थे. फोम कलर का ट्राऊजर और ब्लैक टौप, मोटे सोल के स्पोर्टस शूज, शायद पहाड़ी क्षेत्रों के घुमावदार ऊबड़खाबड़ रास्तों के सहयोगी. कंधे पर बड़ा सा काले रंग का बैग था. ऐसा लग रहा था जैसे वह औफिस के लिए तैयार हुई हो. मैं ने मन ही मन अंदाजा लगाया ‘जरूर यह किसी जौब में है और तबादला हो कर यहां आई है. जब तक रहने की कोई उचित व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक होटल में ठहरी होगी.’ मन है कि सवालों के सिरे थामता है और जवाबों के सिरे छोड़ता जाता है.

बेशक उस ने मुझे देख लिया था. शायद रात वाली घटना से बात करने में सकुचा रही थी. इसलिए बोलने की पहल मुझे ही करनी थी. मैं ने उस के करीब जा कर मुसकरा कर उस का अभिवादन किया. उस ने जवाबी मुसकान बिखेर दी. भले ही वह बहुत खूबसूरत नहीं थी मगर उस का सांवला रूप उस के आत्मविश्वास का प्रेरक था, जिस ने उसे बेहद आकर्षक बना दिया था. वैसे भी व्यक्ति का चुनाव करते वक्त उस का रंग मेरे लिए कभी माने नहीं रखता था. उस की मुसकान का रस मेरे भीतर तक घुल गया था. मेरे पूछने से पहले ही उस ने कहा, ‘माईसैल्फ आलिया फ्रौम लखनऊ.’

‘मैं आराधना जबलपुर से.’

‘नाइस मीट.’

‘कौन सी, रात वाली?’ मैं ने मजाकिया लहजे में कहा. पहले वह हंसी, फिर हम दोनों ही इस बात पर ठहाका लगा कर हंस दिए. सहजता दोनों तरफ से बराबर थी. इस बार फिर मैं ने कहा- ‘रात आप का शुक्रिया अदा करना भूल ही गई. दरअसल…’

‘जाने दीजिए.’

‘जाने दिया,’ मैं ने अपनी पूरी मुसकान बिखेर दी.

‘कहीं बाहर जा रही हैं शायद?’

‘पहाड़ से कूदने के लिए चोटी तलाश रही हूं,’ मैं उपहास कर खुद ही हंस दी.

‘बहुत खूब.’

‘मरने की प्लानिंग खूबसूरत लगी आप को?’

‘मरने वाले कह कर मरा करते तो आज तक एक भी खुदकुशी न हुई होती.’

‘वाह, आप तो फिलौसफ़र निकलीं.’

हम दोनों की हंसी छूट पड़ी. हमारी बातों और ठहाकों से रिसैप्शन हाल गूंज उठा.

वह हैंडसम युवक, जो काउंटर पर जबरदस्ती की फाइलों में उलझा था, मुसकरा रहा था. शामिल होने के साहस की कोई वजह न थी. उस बात से इतर फिर उस लड़की आलिया ने थोड़ा ठहर कर कहा, ‘अगर आप फ्री हैं, तो चलिए कहीं बाहर चलते हैं. आराम से बैठ कर बात करेंगे.’ निसंकोच, मिश्री की ठली सा यों एकाएक आग्रह, मैं दंग थी. जवाब में मैं ने सवालिया प्रश्नचिन्ह लगाया, ‘आप शायद औफिस जा रही थीं?’

‘नहीं, मैं यहां  रिसर्च करने के लिए आई हूं. वुमैन साइकोलौजी में पीएचडी कर रही हूं. पहाड़ी महिलाओं का जीवनचक्र बड़ा ही कठिन होता है. वही जानने की जिज्ञासा यहां खींच लाई.’

‘वाह, बहुत सुंदर,’ मेरे शब्द औपचारिक थे. जबकि, मैं जानती थी कि सरलता यहां के रोमरोम में बसी है.

‘आप से ज्यादा नहीं.’ वह मुझे देख कर हंस दी और मैं उस की बात का आशय समझ कर झेंप सी गई.

‘आप मुझे जानती ही कितना हो क्या चेहरे की खूबसूरती को सुंदरता कह रही हो?’ मैं ने तह में जा कर सवाल दागा था.

‘हां, अभी तो चेहरे की ही तारीफ की है. वह भी सुंदर है.’

‘भी से मतलब?’

‘रात आप की इजाजत के बगैर आप के लिखे पन्नों को बखूबी पढ़ लिया था और इतना तो जान ही लिया कि शब्दों की खूबसूरती में आप का जवाब नहीं. कितनी मार्मिकता उड़ेली है आप ने उस स्त्री की कामयाबी के संघर्ष में. अपना स्वतंत्र जीवन जीना कितना चुनौतीपूर्ण होता है तब जब समाज का प्रधान वर्ग आप को मर्यादित गठरी में बांधने के लिए पूरा जोर लगा देता है और फिर आगे… बस, इतना ही पढ़ा था उन पन्नों के जरिए. आगे भी पढ़ना चाहूंगी. मेरे मन में जिज्ञासा की कोंपलें फूट पड़ी हैं. मैं आप को और पढ़ना चाहूंगी. आप लिखती हैं और बहुत अच्छा लिखती हैं, यह बात मैं कल रात ही जान गई थी, दीदी.’

‘दीदी…???’  मैं ने एक अपरिचित के मुंह से यह संबोधन सुना तो ह्रदय के तार झनझना उठे.

‘जी, दीदी, आप को रात पढ़ा था आप के लेखन के जरिए, आप के भीतर प्रवेश कर लिया और आज देख भी लिया, न जाने क्यों यह आवाज दिल से निकली है.’

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