जो भी प्रकृति दे दे – भाग 2

‘‘सच पूछो तो मुझे विकास पर तरस आने लगा है. मैं ने तो अपना सब एक हादसे में खो दिया. जिसे कुदरत की मार समझ मैं ने समझौता कर लिया लेकिन विकास ने तो अपने हाथों से अपना घर जला लिया.’’

कहतेकहते न जाने कितना कुछ कह गए सोम. अपना सबकुछ खो देने के बाद जीवन के नए ही अर्थ उन के सामने भी चले आए हैं.

दूसरे दिन जांच में और भी सुधार नजर आया. डाक्टर ने बताया कि इस की पूरी आशा है कि निशा का एक और छोटा सा आपरेशन कर प्राकृतिक मल द्वार खोल दिया जाए और पेट पर लगी थैली से उस को छुटकारा मिल जाए. डाक्टर के मुंह से यह सुन कर निशा की आंखें झिलमिला उठी थीं.

‘‘देखा…मैं ने कहा था न कि एक दिन तुम नातीपोतों के साथ खेलोगी.’’

बस रोतेराते निशा इतना ही पूछ पाई थी, ‘‘खाली गोद में नातीपोते?’’

‘‘भरोसा रखो निशा, जीवन कभी ठहरता नहीं, सिर्फ इनसान की सोच ठहर जाती है. आने वाला कल अच्छा होगा, ऐसा सपना तो तुम देख ही सकती हो.’’

निशा पूरी तरह स्वस्थ हो गई. पेट पर बंधी थैली से उसे मुक्ति मिल गई. अब ढीलेढाले कपड़े ही उस का परिधान रह गए थे. उस दिन जब घर लौटने पर सोम ने सुंदर साड़ी भेंट में दी तो उस की आंखें भर आईं.

विकास नहीं आए जबकि फोन पर मैं ने उन्हें बताया था कि मेरा आपरेशन होने वाला है.

‘‘विकास के बेटी हुई है और गायत्री अस्पताल में है. मैं ने तुम्हारे बारे में विकास से बात की थी और वह मनु को लाना भी चाहता था. लेकिन मां नहीं मानीं तो मैं ने भी यह सोच कर जिद नहीं की कि अस्पताल में बच्चे को लाना वैसे भी स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा नहीं होता.’’

क्या कहती निशा. विकास का परिवार पूर्ण है तो वह क्यों उस के पास आता, अधूरी तो वह है, शायद इसीलिए सब को जोड़ कर या सब से जुड़ कर पूरा होने का प्रयास करती रहती है.

निशा की तड़प पलपल देखते रहते सोम. विकास का इंतजार, मनु की चाह. एक मां के लिए जिंदा संतान को सदा के लिए त्याग देना कितना जानलेवा है?

‘‘क्यों झूठी आस में जीती हो निशा,’’ सोम बोले, ‘‘सपने देखना अच्छी बात है, लेकिन इस सच को भी मान लो कि तुम्हारे पास कोई नहीं लौटेगा.’’

एक सुबह सोम की दी हुई साड़ी पहन निशा कार्यालय पहुंची तो सोम की आंखों में मीठी सी चमक उभर आई. कुछ कहा नहीं लेकिन ऐसा बहुत कुछ था जो बिना कहे ही कह दिया था सोम ने.

‘‘आज मेरी दिवंगत पत्नी विभा और गुड्डी का जन्मदिन है. आज शाम की चाय मेरे साथ पिओगी?’’ यह बताते समय सोम की आंखें झिलमिला रही थीं.

सोम उस शाम निशा को अपने घर ले आए थे. औरत के बिना घर कैसा श्मशान सा लगता है, वह साफ देख रही थी. विभा थी तो यही घर कितना सुंदर था.

‘‘घर में सब है निशा, आज अपने हाथ से कुछ भी बना कर खिला दो.’’

चाय का कप और डबलरोटी के टुकड़े ही सामने थे जिन्हें सेक निशा ने परोस दिया था. सहसा निशा के पेट को देख सोम चौंक से गए.

‘‘निशा, तुम्हें कोई तकलीफ है क्या, यह कपड़ों पर खून कैसा?’’

सोम के हाथ निशा के शरीर पर थे. पेटी की वजह से पेट पर गहरे घाव बन चुके थे. थैली वाली जगह खून से लथपथ थी.

‘‘आज आप के साथ आ गई, पेट पर की पट्टी नहीं बदल पाई इसीलिए. आप परेशान न हों. पट््टी बदलने का सामान मेरे बैग में है, मैं ने आज साड़ी पहनी है. शायद उस की वजह से ऐसा हो गया होगा.’’

सोम झट से बैग उठा लाए और मेज पर पलट दिया. पट्टी का पूरा सामान सामने था और साथ थी वही पुरानी पेटी और थैली.

सोम अपने हाथों से उस के घाव साफ करने लगे तो वह मना न कर पाई.

पहली बार किसी पुरुष के हाथ उस के पेट पर थे. उस के हाथ भी सोम ने हटा दिए थे.

‘‘यह घाव पेटी की वजह से हैं सोम, ठीक हो जाएंगे…आप बेकार अपने हाथ गंदे कर रहे हैं.’’

मरहमपट्टी के बाद सोम ने अलमारी से विभा के कपड़े निकाल कर निशा को दिए. वह साड़ी उतार कर सलवारसूट पहनने चली गई. लौट कर आई तो देखा सोम ने दालचावल बना लिए हैं.

हलके से हंस पड़ी निशा.

सोम चुपचाप उसे एकटक निहार रहे थे. निशा को याद आया कि एक दिन विकास ने उसे बंजर जमीन और कंदमूल कहा था. आधीअधूरी पत्नी उस के लिए बेकार वस्तु थी.

‘क्या मुझे शरीरिक भूख नहीं सताती, मैं अपनेआप को कब तक मारूं?’ चीखा था विकास. पता नहीं किस आवेग में सोम ने निशा से यही नितांत व्यक्तिगत प्रश्न पूछ लिया, तब निशा ने विकास के चीख कर कहे वाक्य खुल कर सोम से कह डाले.

हालांकि यह सवाल निशा के चेहरे की रंगत बदलने को काफी था. चावल अटक गए उस के हलक में. लपक कर सोम ने निशा को पानी का गिलास थमाया और देर तक उस की पीठ थपकते रहे.

‘‘मुझे क्षमा करना निशा, मैं वास्तव में यह जानना चाहता था कि आखिर विकास को तुम्हारे साथ रहने में परेशानी क्या थी?’’

सोम के प्रश्न का उत्तर न सूझा उसे.

‘‘मैं चलती हूं सोम, अब आप आराम करें,’’ कह कर उठ पड़ी थी निशा लेकिन सोम के हाथ सहसा उसे जाने से रोकने को फैल गए..

‘‘मैं तुम्हारा अपमान नहीं कर रहा हूं निशा, तुम क्या सोचती हो, मैं तमाशा बना कर बस तुम्हारी व्यक्तिगत जिंदगी का राज जान कर मजा लेना चाहता हूं.’’

रोने लगी थी निशा. क्या उत्तर दे वह? नहीं सोचा था कि कभी बंद कमरे की सचाई उसे किसी बाहर वाले पर भी खोलनी पड़ेगी.

‘‘निशा, विकास की बातों में कितनी सचाई है, मैं यह जानना चाहता हूं, तुम्हारा मन दुखाना नहीं चाहता.’’

‘‘विकास ने मेरे साथ रह कर कभी अपनेआप को मारा नहीं था…मेरे घाव और उन से रिसता खून भी कभी उस की किसी भी इच्छा में बाधक नहीं था.’’

उस शाम के बाद एक सहज निकटता दोनों के बीच उभर आई थी. बिना कुछ कहे कुछ अधिकार अपने और कुछ पराए हो गए थे.

‘‘दिल्ली चलोगी मेरे साथ…बहन के घर शादी है. वहां आयुर्विज्ञान संस्थान में एक बार फिर तुम्हारी पूरी जांच हो जाएगी और मन भी बहल जाएगा. मैं ने आरक्षण करा लिया है, बस, तुम्हें हां कहनी है.’’

‘‘शादी में मैं क्या करूंगी?’’

‘‘वहां मैं अपनी सखी को सब से मिलाना चाहता हूं…एक तुम ही तो हो जिस के साथ मैं मन की हर बात बांट लेता हूं.’’

‘‘कपड़े बारबार गंदे हो जाते हैं और ठीक से बैठा भी तो नहीं जाता…अपनी बेकार सी सखी को लोगों से मिला कर अपनी हंसी उड़ाना चाहते हैं क्या?’’

उस दिन सोम दिल्ली गए तो एक विचित्र भाव अपने पीछे छोड़ गए. हफ्ते भर की छुट्टी का एहसास देर तक निशा के मानस पटल पर छाया रहा.

बहन उन के लिए एक रिश्ता भी सुझा रही थी. हो सकता है वापस लौटें तो पत्नी साथ हो. कितने अकेले हैं सोम. घर बस जाएगा तो अकेले नहीं रहेंगे. हो सकता है उन की पत्नी से भी उस की दोस्ती हो जाए या सोम की दोस्ती भी छूट जाए.

2 दिन बीत चुके थे, निशा रात में सोने से पहले पेट का घाव साफ करने के लिए सामान निकाल रही थी. सहसा लगा उस के पीछे कोई है. पलट कर देखा तो सोम खड़े मुसकरा रहे थे.

हैरानी तो हुई ही कुछ अजीब सा भी लगा उसे. इतनी रात गए सोम उस के पास…घर की एक चाबी सदा सोम के पास रहती है न…और वह तो अभी आने वाले भी नहीं थे, फिर एकाएक चले कैसे आए?

‘‘जी नहीं लगा इसलिए जल्दी चला आया. गाड़ी ही देर से पहुंची और सुबह का इंतजार नहीं कर सकता था…मैं पट्टी बदल दूं?’’

Women’s Day: अकेली लड़की- कैसी थी महक की कहानी

” बेटे आप दोनों को गिफ्ट में क्या चाहिए? ” मुंबई जा रहे लोकनाथ ने अपनी बच्चियों पलक और महक से पूछा.

12 साल की पलक बोली,” पापा आप मेरे लिए एक दुपट्टे वाला सूट लाना.”

” मुझे किताबें पढ़नी हैं पापा. आप मेरे लिए फोटो वाली किताब लाना,” 7 साल की महक ने भी अपनी फरमाइश रखी.

“अच्छा ले आऊंगा. अब बताओ मेरे पीछे में मम्मी को परेशान तो नहीं करोगे ?”

“नहीं पापा मैं तो काम में मम्मी की हैल्प करूंगी.”

“मैं भी खूब सारी पेंटिंग बनाऊंगी. मम्मी को बिल्कुल तंग नहीं करूंगी. पापा मुझे भी ले चलो न, मुझे मुंबई देखना है,” मचलते हुए महक ने कहा.

” चुप कर मुंबई बहुत दूर है. क्या करना है जा कर? अपने बनारस से अच्छा कुछ नहीं,” पलक ने बहन को डांटा.

” नहीं मुझे तो पूरी दुनिया देखनी है,” महक ने जिद की.

” ठीक है मेरी बच्ची. अभी तू छोटी है न. बड़ी होगी तो खुद से देख लेना दुनिया,” लोकनाथ ने प्यार से महक के सर पर हाथ फिराते हुए कहा.

पलक और महक दोनों एक ही मां की कोख से पैदा हुई थीं मगर उन की सोच, जीवन को देखने का नजरिया और स्वभाव में जमीन आसमान का फर्क था. बड़ी बहन पलक जहां बेहद घरेलू और बातूनी थी और जो भी मिल गया उसी में संतुष्ट रहने वाली लड़की थी तो वहीं महक को नईनई बातें जानने का शौक था. वह कम बोलती और ज्यादा समझती थी.

पलक को बचपन से ही घर के काम करने पसंद थे. वह 6 साल की उम्र में मां की साड़ी लपेट कर किचन में घुस जाती और कलछी चलाती हुई कहती,” देखो छोटी मम्मी खाना बना रही है.”

तब उस के पिता उसे गोद में उठा कर बाहर निकालते हुए अपनी पत्नी से कहते,” लगता है हमें इस की शादी 18 साल से भी पहले ही करनी पड़ेगी. इसे घरघर खेलना ज्यादा ही पसंद है. ”

18 तो नहीं लेकिन 23 साल की होतेहोते पलक ने शादी की सहमति दे दी और एक बड़े बिजनेसमैन से उस की अरेंज मैरिज कर दी गई. इधर महक बड़ी बहन के बिलकुल विपरीत शादीब्याह के नाम से ही कोसों दूर भागती थी. उसे ज्ञानविज्ञान और तर्कवितर्क की बातों में आनंद मिलता. वह जीवन में दूसरों से अलग कुछ करना चाहती थी. जॉब कर के आत्मनिर्भर जीवन जीना चाहती थी.

जल्द ही उसे एक एडवरटाइजिंग कंपनी में कॉपी एडिटर की जॉब भी लग गई. वक्त गुजरता गया. पलक अब तक 32 साल की हो चुकी थी मगर जब भी घर वाले शादी की बात उठाते वह कोई न कोई बहाना बना देती. शादी में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाती. इस बीच एक एक्सीडेंट में उस के मम्मीपापा की मौत हो गई. यह वक्त महक के लिए बहुत कठिन गुजरा. अब उसे खुद को अकेले संभालना था. शुरू में तो कुछ समय तक वह पलक के घर में रही. पर बहन की ससुराल में ज्यादा लंबे समय तक रहना अजीब लगता है इसलिए वह अपने घर लौट आई और अकेली रहने लगी.

अकेले रहने की आदी न होने के कारण उसे शुरू में अच्छा नहीं लगता. रिश्तेदार बहुत से थे मगर सब अपने जीवन में व्यस्त थे. इसलिए समय के साथ उस ने ऐसे ही जीने की आदत डाल ली. मांबाप की मौत ने उस के अंदर गहरा खालीपन भर दिया था. यह ऐसा समय था जब वह खुद को अंदर से कमजोर महसूस करने लगी थी. ऐसे में उसे पलक का सहारा था. पलक उसे सपोर्ट देती थी मगर यह बात कहीं न कहीं पलक के घरवालों को अखरती थी.

उस के जीजा नवीन पलक से अक्सर कहा करते,” तुम्हारी बहन शादी क्यों नहीं करती? क्या जिंदगी भर तुम्हारा आंचल पकड़ कर चलेगी? समझाती क्यों नहीं कि बिना शादी के जीना बहुत कठिन है.”

तब पलक हंस कर कहती,” मैं ने उसे आंचल पकड़ाया ही कहां है? वैसे भी उसे जो करना होता है वही करती है. मेरे समझाने का कोई फर्क नहीं पड़ने वाला.”

अकेली लड़की की जिंदगी में परेशानियां कम नहीं आतीं. लोगों की बुरी नजरों से खुद को बचाते हुए अपने दम पर परिस्थितियों का सामना करना महक धीरेधीरे सीख रही थी.

उस दिन महक ऑफिस से घर लौटी तो तबीयत काफी खराब लग रही थी. बुखार नापा तो 102 डिग्री बुखार था. कुछ करने की हिम्मत नहीं हो रही थी. वह क्रोसिन खा कर सो गई. अगले दिन बुखार और भी ज्यादा बढ़ गया. उसे डॉक्टर के पास जाने की भी हिम्मत नहीं हो रही थी. तब उस ने पलक को फोन लगाया. पलक ने उसे अपने घर बुला लिया. घर के पास ही एक डॉक्टर से दवाइयां लिखवा दीं. महक को टाइफाइड था. ठीक होने में 10- 12 दिन लग गए. फिर जब तक महक पूरी तरह ठीक नहीं हो गई तब तक वह पलक के ही घर रही. पलक उस के खानेपीने का अच्छे से प्रबंध करती रही. महक की वजह से उस के काम काफी बढ़ गए थे. कई बार उस की वजह से पलक को पति की बात भी सुननी पड़ जाती. तब पलक उसे समझाती कि शादी कर ले।

ठीक होते ही महक अपने घर आ गई. एक दिन रात में 8 बजे महक ने पलक को फोन कर कहा,” मेरे घर के सामने दो अनजान युवक बहुत देर से खड़े बातें कर रहे हैं. मुझे उन की मंशा सही नहीं लग रही. बारबार मेरे ही घर की तरफ देख रहे हैं.”

” ऐसा कर तू सारी खिड़कियांदरवाजे बंद कर और लाइट ऑफ कर के सोने का नाटक कर. वे खुद चले जाएंगे ,” पलक ने सलाह दी.

उस दिन तो किसी तरह मामला निपट गया मगर अब यह रोज की दिनचर्या बन गई थी. लड़के उस के घर की तरफ ही देखते रहते. पलक को असहज महसूस होता. वह घर से निकलती तब भी वे लड़के उसे घूरते रहते.

कुछ समय से वह वर्क फ्रॉम होम कर रही थी मगर आसपड़ोस में काफी शोरगुल होता रहता था. इसलिए वह ठीक से काम नहीं कर पाती थी. उस के घर के ऊपरी फ्लोर पर नया परिवार आया था. ये लोग हर 2 -4 दिन के अंतर पर घर में कीर्तन रखवा देते. माइक लगा कर घंटों भजन गाए जाते. कीर्तन और घंटियों की आवाजें सुनसुन कर उस के दिमाग की नसें हिल जातीं. तब उस ने तय किया कि वह घर शिफ्ट कर लेगी मगर जल्दी ही उसे समझ आ गया कि अकेली लड़की के लिए अपनी पसंद का फ्लैट खोजना भी इतना आसान नहीं है. उस ने 2- 3 सोसाइटीज पसंद कीं जहां उस ने घर लेने की कोशिश की तो पता चला कि वहां बैचलर्स को घर नहीं दिया जाता. इस बात को ले कर महक कई दिनों तक परेशान रही.

उस की परेशानियों के मद्देनज़र उस के जीजा एक ही बात कहते,” शादी कर लो. जीवन में आ रही सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी.”

पलक भी उसे समझाती,” अकेले रहने में समस्याएं तो आएंगी ही. हम हर समय तुम्हारी मदद के लिए खड़े नहीं रह सकते. अपना परिवार बनाओ और चैन से रहो. देख मैं कितनी निश्चिन्त हूँ. जो भी चिंता करनी होती है वह तेरे जीजा करते हैं.”

यह बात तो महक को भी समझ आती थी मगर वह ऐसे ही किसी से शादी करने को तैयार नहीं थी. वह शादी तभी करना चाहती थी जब कोई उसे पसंद आए और उस के लायक हो. तब उस के लिए जीजा ने एक रिश्ता सुझाया और उस के साथ महक की मीटिंग फिक्स कर दी. वह लड़का महक के जीजा के पुराने जानपहचान का था इसलिए वह चाहते थे कि महक शादी के लिए हां कह दे. मगर महक को वह जरा भी पसंद नहीं आया. ठिगना कद और बारहवीं पास वह लड़का महक की सोच के आगे कहीं भी नहीं टिकता था.

भले ही उस लड़के के पास धनदौलत और शानोशौकत की कोई कमी नहीं थी. वह एक शानदार बंगले और कई गाड़ियों का मालिक भी था. मगर महक को जीवनसाथी के रूप में कोई अपने जैसा पढ़ालिखा और काबिल इंसान चाहिए था. महक उसे इंकार कर के चली आई. इस बात पर जीजा और भी ज्यादा भड़क गए.

पलक को सुनाते हुए बोले,” खबरदार जो अब महक के लिए कुछ भी किया या उस की मदद करने की कोशिश भी की. उसे खुद की काबिलियत और शिक्षा पर बहुत घमंड है न. देखता हूं, अकेली लड़की कितने समय तक अपने बल पर जी सकेगी. हर काम में तो उसे हमारी मदद चाहिए होती है. हमारे बिना 4 दिन भी रह ले तो बताना. ”

” यह तो सच है कि उसे हर समय हमारी मदद चाहिए होती है मगर जब कोई सलूशन बताओ तो मानती नहीं. मैं खुद उस से तंग आ गई हूं. ”

इस के बाद दोनों पतिपत्नी ने तय कर लिया कि वह महक को अपनी जिंदगी से दूर रखेंगे. इस बात को 4- 6 महीने बीत गए. पलक ने महक को खुद से दूर कर दिया था. महक सब समझ रही थी मगर उस ने हिम्मत नहीं हारी और अपनी जंग जारी रखी.

एक दिन पलक ने रोते हुए फोन किया,” महक तेरे जीजा जी का एक्सीडेंट हो गया है. वे छत से गिर गए हैं. सिर पर चोट आई है. खून बह रहा है. मुझे तो कुछ सूझ नहीं रहा कि क्या करूं. निक्कू भी एग्जाम देने गया हुआ है और गोकुल (नौकर) 2 दिन से आ ही नहीं रहा. घर में कोई नहीं है. पापा जी भी जानती ही है, पैरों में तकलीफ की वजह से चल नहीं सकते.”

” कोई नहीं पलक दी मैं आ रही हूं,” महक ने बहन को हिम्मत दी.

बिजली की सी फुर्ती से महक घर से निकली. रास्ते में ही उस ने एंबुलेंस वाले को फोन कर दिया था. आननफानन में उस ने एंबुलेंस में जीजा को हॉस्पिटल पहुंचाया. पलक से उस ने इंश्योरेंस के कागजात भी रखने को कह दिया था. हॉस्पिटल पहुँचते ही उस ने जीजा को एडमिट कराने की सारी प्रक्रिया फटाफट पूरी कराई और उन्हें एडमिट करा दिया. बड़े से बड़े डॉक्टरों से बात कर अच्छे इलाज का पूरा प्रबंध भी करा दिया. कुछ देर में जीजा को होश आ गया. माथे पर गहरी चोट लगी थी सो सर्जरी करनी पड़ी.

इस बीच पलक ने बताया कि इंश्योरेंस वालों ने किसी वजह से क्लेम कैंसिल कर दिया है. महक तुरंत सारे कागजात ले कर भागी और सब कुछ सही कर के ही वापस लौटी.

महक के प्रयासों से सब कुछ अच्छे से निबट गया. कुछ दिन हॉस्पिटल में रख कर जीजा को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई. जीजा इतने दिनों में महक को बाहरभीतर की सारी जिम्मेदारियां निभाते देख काफी प्रभावित हो गया था. पलक भी अपनी बहन की तारीफ किए बगैर नहीं रह सकी, ” सच महक अब मुझे यकीन हो गया है कि तू अकेले भी खुद को बहुत अच्छे से संभाल सकती है. अकेली हो कर भी तू कमजोर नहीं है. खुद में पूर्ण है. ”

” दीदी जिंदगी में एक पल ऐसा जरूर आता है जब कोई भी इंसान खुद को अकेला या कमजोर महसूस करता है. जैसे आप की जिंदगी में भले ही सब कुछ है. पति है, बेटा है, घरपरिवार है, मगर सोचिए जब पूरे दिन परिवार के लिए काम करने के बाद रात में जीजाजी आप को किसी कारण से बात सुना कर बाहर चले जाते हैं, निक्कू अपने मोबाइल में और अंकल टीवी में बिजी रहते हैं, तब क्या आप को नहीं लगता कि आप बहुत अकेली हो. इसी तरह मुझे भी कभीकभी लगता है कि मैं बहुत अकेली हूं. मगर जब चुनौतियों को हरा कर कुछ अच्छा करती हूं तो दिल का खालीपन भर जाता है. आखिर अपनी जिंदगी अपनी पसंद के अनुसार हम खुद चुनते हैं. इस में सही या गलत नहीं होता. बस परिस्थितियां ही सही या गलत होती हैं. ”

पलक ने बहन को गले लगाते हुए कहा,” मैं समझ गई हूं महक तू मेरे जैसी नहीं पर मुझ से कम भी नहीं. तेरी सोच अलग है मगर कमजोर नहीं. बहुत स्ट्रॉन्ग है तू. आज तेरा लोहा सिर्फ मैं ने ही नहीं तेरे जीजा ने भी मान लिया है. मेरी प्यारी बहन मुझे तुझ पर गर्व है, ” पलक से अपनी तारीफ सुन कर महक की आंखों में विश्वास भरी चमक उभर आई थी.

पछतावा-भाग 2: क्यूं परेशान थी सुधा

तन्वी दीदी के इस रवैए से हैरान थी. आखिर दीदी को उस फ्लैट में रहने वालों से क्या लेनादेना है, इतनी दिलचस्पी क्यों है. दीदी जैसे लोग ही सच्चीझूठी बातों में मिर्चमसाला लगा कर अफवाहें फैलाते हैं. दीदी का तो यह नया रूप देखने को मिल रहा था उस को. वह सोचने लगी कि अपने घर पर ध्यान देने के बदले दूसरों के घर में ताकझांक करना क्या दीदी को शोभा देता है…तन्वी अपने विचारों में खोई हुई थी कि तभी सुधा उस के पास आई और बोली, “तन्वी, नाश्ते के लिए शक्करपारे बना लेते हैं. चाय के साथ अच्छे लगते है खाने में.”

“हां दीदी, सही कह रही हो. तुम मुझे सब सामान दे दो. में शक्करपारे बनाने की तैयारी करती हूं.”

सुधा सब सामान तन्वी को दे रही थी, तभी किचन में पिंटू आया और बोला, “मम्मी, वह तोंदू का फ़ोन आया है, मैं ने फ़ोन होल्ड पर रखा है. जल्दी चलो बात करने.”

आटा गूंधतेगूंधते तन्वी पलटी और बोली, “ये तोंदू कौन है?”

“अरे, वही टकलू अंकल. उसी को तोंदू कहते हैं हम,” पिंटू ने कहा, “मम्मी, तुम जल्दी आओ,” यह कह कर वह चला गया.

 

तन्वी ने सुधा से पूछा, “दीदी, ये तोंदू, टकलू किस के नाम रखे हैं तुम ने?”

इस पर सुधा ने हंसते हुए कहा, “वही बुद्धूचरण, पाठक अंकल, रसिक बलमा.” और जोरजोर से वह हंसने लगी.

उस की बातें सुन कर तन्वी को भी हंसी आ गई. फिर वह बोली, “क्या दीदी, तुम ने अपने बौयफ्रेंड के क्याक्या फनी नाम रखे हैं.” यह सुनकर सुधा खिलखिला कर हंसने लगी और बोली, “आती हूं बात कर के.”

तन्वी अपने बेटे आयुष और बेटी पूर्वी से बात करना चाहती थी लेकिन टाइम ही नहीं मिल पा रहा था. पूरे दिन वह दीदी के साथ किचन में हाथ बंटाती थी, फिर कोई नाश्ता बनाना हो तो दीदी उस पर छोड़ कर चली जातीं और आधा घंटा, पौने घंटे के बाद आती. कभीकभी नहीं आती और सोफे पर आराम करती रहती.

वह अभी मोबाइल पर नंबर डायल कर रही थी, तभी उस ने देखा दीदी ने धीरे से पिंटू से कुछ कहा और पिंटू चप्पल पहन कर तेजी से घर से बाहर चला गया. दसबारह मिनट बाद वह वापस आया और दीदी को इशारे से कुछ कहा. जवाब में दीदी ने सिर हिलाया और ओके कहा.

दीदी के घर का माहौल तन्वी को अजीब लग रहा था. क्या खिचड़ी पक रही थी, उस की समझ के बाहर था. सच पूछो तो वह जानना भी नहीं चाहती थी. इतने दिनों से वह जो कुछ भी देख व सुन रही थी, जो कोई भी देखता या सुनता वह यही कहता कि दीदी के घर का माहौल बहुत ख़राब है, किसी चीज में अनुशासन नहीं था.

तन्वी आयुष को फ़ोन लगा रही थी लेकिन लग नहीं रहा था. शायद नैटवर्क की प्रौब्लम होगी, थोड़ी देर बाद फ़ोन लगाऊंगी, यह सोच कर तन्वी ने मोबाइल टेबल पर रख दिया. उस ने दीदी की तरफ देखा, वे अभी भी पाठक अंकल से बात करने में व्यस्त थीं. काफी देर तक उन की बातें चलती रहीं. पाठक अंकल से एकडेढ़ घंटा बात करने के बाद फाइनली दीदी ने बाय कहा. और तन्वी की तरफ देख कर मुसकरा दी.

तन्वी ने सुधा से पूछ लिया, “दीदी, इतनी देर तक क्याक्या बातें करती हो? चलो, थोड़ी तो रोमैंटिक बातें होती होंगी, मान लिया लेकिन और कौन सी बातें करते हो आप लोग? आप तो सुबह से ले कर रात के सोने तक बात करती हो. हर घंटे तुम चैटिंग करती हो. पूरे दिन में 5 से 6 बार फ़ोन पर बात होती है, इसीलिए पूछ रही हूं.”

इस पर सुधा बोली, “अरे, तू नहीं जानती इस बुद्धूचरण को, पता नहीं किसी और औरत से चक्कर न चला ले, इसलिए पूरे दिन इसी बहाने उस पर निगरानी रखती हूं. उस से घर की सब बातें पूछती रहती हूं. उस से उस की दिनभर की दिनचर्या का पता चल जाता है. वे भी मुझ से छोटी से छोटी बातें शेयर करते हैं- कितना बैंक बैलेंस है, उन की बहन को राखी पर क्या गिफ्ट दिया, वे कहां जाने वाले हैं, कब आएंगे… सब बातें मुझे मालूम होती हैं, यहां तक कि वे मुझ से सलाह भी लेते हैं.

“मैं ने अपनी उंगलियों पर उन को नचा रखा है. मैं फ़ोन करूं और वे फ़ोन न उठाएं, इतनी मजाल नहीं है उन की. इसीलिए उन की पलपल की खबर रखती हूं. वह कहते हैं न, बंदर बूढ़ा हो जाए तो क्या, गुलाटी खाना नहीं भूलता. उन को लगता है, मैं उन की कितनी परवा करती हूं, उन से कितना प्रेम करती हूं…”

“लेकिन यह तो एक दिखावा है तुम्हारा, है न दीदी?”   तन्वी तपाक से बोली.

“हूँ,” और सुधा ने सहमति में अपना सिर हिलाया.

तन्वी ने फिर पूछा, “उन की फैमिली नहीं है क्या?”

“उन की फैमिली है,” सुधा ने जवाब दिया, “2 बच्चे हैं, दोनों विदेश में रहते हैं. उन की वाइफ वेल एडुकेटेड हैं और दिखने में भी बहुत सूंदर हैं…”

सुधा पाठक अंकल के बारे में बता रही थी, तभी निशा कमरे में अपने मोबाइल का चार्जर ढूंढती हुई आ गई. उस को देखते ही सुधा ने निशा से पूछा, “अरे, तूने लिस्ट बना ली है न, तुझे बर्थडे पर क्याक्या चाहिए. थोड़ा महंगा ही पसंद किया है न, तूने? और सुन, पाठक अंकल को फ़ोन कर के लिस्ट का सामान लिखवा दे. या फिर व्हाट्सऐप पर लिस्ट भेज दे.”

इस पर निशा ने कहा, “यह आप जानें, कितनी बार मुझे बोल चुकी हो. मैं ने लिस्ट बना ली है, पाठक अंकल को ही फ़ोन करने जा रही थी. तभी पता चला मोबाइल में चार्जिंग ही नहीं है. मैं फ़ोन चार्ज होते ही उन को कौल कर लूंगी. तुम उस की चिंता मत करो.”

“हां, वह तो सब ठीक है लेकिन थोड़ी चिकनीचुपड़ी बातें करना उन से. थोड़ी लच्छेदार समझ, गईं न,” सुधा ने निशा से कहा.

निशा ने कहा, “हां मम्मी, सब मालूम है मुझे, कैसे बात करनी है उन से. हर बार तो बताती हो यह बोलना, वह बोलना. कोई पहली बार थोड़ी न लिस्ट दे रही हूं.

निशा और सुधा की बातें चल ही रही थीं, तभी सुधा के फ़ोन की रिंगटोन बज उठी. सुधा ने फ़ोन उठाया और बोली, “समीर, 5 मिनट रुको न, प्लीज, मैं थोड़ा बिज़ी हूं. आई कौल यू लैटर.” यह कह कर सुधा ने फ़ोन रख दिया. उस ने निशा को कुछ समझाया. फिर निशा चली गई. फिर सुधा ने समीर से करीब 45 मिनट बात की. बात करतेकरते बीच में हंस भी रही थी.

तन्वी सोच रही थी की यह भी कोई बौय फ्रैंड ही होगा दीदी का. तभी तो दूसरे कमरे में जा कर बात कर रही हैं, वह भी इतनी देर से.

समीर से बात कर के सुधा फिर से तन्वी के पास आ कर बैठ गई. बहुत खुश लग रही थी. तन्वी से रहा नहीं गया और उस ने सुधा से पूछ लिया, “समीर भी आप का बौयफ्रैंड है, दीदी?”

“हां रे, मुझ पर जान छिड़कता है. तुझे पता है, वह मेरे लिए ब्रैंडेड हैंडबैग ला रहा है. मुझ से पूछ रहा था कि किस कलर का लाऊं. और भी बहुत सारे गिफ्ट ला रहा है मेरे लिए. मैं ने उस से एक ब्रैंडेड टीशर्ट भी मंगवाई है जिस पर हार्ट बना हुआ हो. वह बोला ले कर आऊंगा,” ये बातें सुधा इतराइतरा कर बता रही थी जैसे उस ने कोई महान काम किया हो, जिस के लिए उस को पुरस्कार मिल रहा हो.

“कौन है ये समीर और क्या करता है?” तन्वी ने पूछा.

“हमारी ही बिल्डिंग में रहता है. मैनेजर की पोस्ट पर काम करता है. उस की सैलरी भी बहुत अच्छी है, दिल खोल कर खर्च करता है. मेरे बिना वह रह नहीं सकता,” सुधा ने कहा.

तन्वी ने पूछा, “विवाहित है या अविवाहित?”

 

इस पर सुधा ने कहा, “विवाहित है. उस के 2 बच्चे भी हैं. मेरे से दसग्यारह साल छोटा है.

 

“उस की वाइफ जौब करती है या हाउसवाइफ है?” तन्वी ने पूछा.

सुधा ने कहा, “वह हाउसवाइफ है, काव्या नाम है उस का. पढ़ीलिखी है. और तो और, सूंदर भी बहुत है, बहुत मौडर्न है.

तन्वी बोली, “अजीब इत्तफाक है न, दीदी. आप के दोनों बौयफ्रैंड की वाइफ पढ़ीलिखी और सुंदर हैं. समीर तुम से दसग्यारह साल छोटा है. उस की उम्र करीब 34 वर्ष है. जवान लड़का है. भले ही उस की शादी हो गई हो लेकिन उस में मैच्योरिटी की कमी है. इस उम्र के लड़के घूमनाफिरना और मौजमस्ती में विश्वास रखते हैं. ताज्जुब तो मुझे पाठक अंकल पर हो रहा है. उन की तकरीबन 35 साल की गृहस्थी है. अच्छा भरापूरा परिवार है. उन की पत्नी भी सूंदर और पढीलिखी हैं. आप दिखने में एकदम साधारण हो. उन की उम्र भी बड़ी है. जिंदगी का काफी अनुभव रहा होगा. काफी मईच्योर भी होंगे. फिर उन को तुम जैसी साधारण दिखने वाली लड़की से अफेयर करने की जरूरत क्यों पड़ी.

“जाहिर सी बात है कि उन की पत्नी सुशील और कुशल गृहिणी होंगी. अच्छी पत्नी न हो, तो इतनी लंबी शादी टिकना नामुमकिन है. मैं तुम से दावे के साथ कह सकती हूं कि पाठक अंकल की जिंदगी में आने वाली तुम पहली औरत नहीं हो. आप से पहले भी उन के कई अफेयर रहे होंगे. तभी तो सिर्फ दोतीन मुलाकातों में ही तुम्हारा अफेयर हो गया. जैसे वे तुम्हारे पहले बौयफ्रैंड नहीं हैं क्योंकि इस के पहले भी तुम्हारे कई बौयफ्रैंड रह चुके है, वैसे ही तुम उन की पहली प्रेमिका नहीं हो सकतीं.”

“यह तू क्या कह रही है?”   सुधा ने तमक के कहा.

इस पर तन्वी बोली, “मैं सही कह रही हूं, दीदी. दोनों की सुंदर पढ़ीलिखी पत्नी होने के बावजूद वर्षों से उन्होंने तुम्हारे साथ चक्कर चला रखा है, अपनी वाइफ को धोखा दे रहे हैं. समीर और पाठक अंकल चरित्रहीन पुरुष हैं या यों कहूं, ठरकी हैं, तो गलत नहीं होगा.”

“इस से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि न तो मुझे उन दोनों से प्रेम है और न ही मुझे शादी करनी है. इतना तो मैं भी जानती हूं की उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता. मुझे तो सिर्फ गिफ्ट और पैसों से मतलब है, इस से जयादा कुछ नहीं. मूवी देखने को मिल जाती है, बड़ेबड़े होटलों में डिनर, लंच करने को मिलता है, ब्रैंडेड कपड़े और जो चाहो वह मिल जाता है. मुझे ऐसी ही ऐशोआराम की जिंदगी चाहिए थी.

“इतना ही नहीं, मुझे जितने पैसे चाहिए, मेरे अकाउंट में आ जाते हैं, यहां तक कि जब मैं मम्मीपापा से मिलने आती हूं तो कैब के किराए से ले कर आनेजाने का टिकट भी अंकल कर के देते हैं. मैं सिर्फ एक बार बोलती हूं और सब काम हो जाता है. मेरी चिकनीचुपड़ी बातों में पाठक अंकल आ जाते हैं. थोड़ी झूठी तारीफ कर देती हूं, बस. तारीफ सुन कर वे सातवें आसमान पर पहुंच जाते हैं. मैं उन को आसानी से मूर्ख बना देती हूं. और मेरा काम हो जाता है. उन को लगता है कि सचमुच वे महान इंसान हैं,” यह सब कह कर सुधा हंसने लगी.

तन्वी और सुधा बातें कर रहे थे, तभी डोरबेल बजी. सुधा ने उठ कर दरवाजा खोला, सामने खड़ी लेडी ने जोरजोर से चिल्लाना शुरू किया, “यह सिखाया है तुम ने अपने बच्चों को कि किसी के भी साथ मारपीट करो. और बड़ों के साथ बदतमीजी से बात करो. उन की इंसल्ट करो.” वह औरत लगातार बोले जा रही थी.

सुधा और तन्वी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. तभी सुधा ने चिल्ला कर कहा, “एक मिनट चुप हो जाओ तुम. कौन हो तुम और मेरे यहां आ कर झगड़ा क्यों कर रही हो?”

इस पर वह महिला बोली, “ज्यादा अनजान बनने का नाटक मत करो. अपने बच्चों की करतूतें नहीं जानती हो क्या? यहां सब जानते हैं, सब के साथ वे झगड़ा करते हैं. अभी मेरे बच्चे के साथ मारपीट की है. उसे साइकिल से धक्का दे दिया. वह नीचे गिर गया. और उस के सिर से खून बहने लगा. मेरे पति उस को डाक्टर के पास ले कर गए हैं. तुम अपने बच्चों को संभालो, वरना अच्छा नहीं होगा. अगली बार उन्होंने ऐसा किया तो मैं उन की हड्डीपसली तोड़ दूंगी.”   सुधा गुस्से में बोली, “तुम्हारे बच्चे ने ही कुछ किया होगा. मेरे बच्चे ऐसे नहीं हैं. तुम झूठ बोल रही हो. हम लोग बहुत अच्छे घर से हैं, तुम्हारी तरह नहीं हैं.”

वह महिला गुस्से से आगबबूला हो गई, “हमारी तरह नहीं हो, इस का क्या मतलब है तुम्हारा? तू कैसी औरत है, पूरी सोसायटी जानती है. ज्यादा सतीसावित्री होने का ढोंग मत कर. और तेरे बच्चे कितनी बिगड़ैल औलादें हैं, पूरी दुनिया जानती है. तेरी जो शानोशौकत है, उस का पूरा राज भी मुझ को पता है, इसलिए मेरे मुंह लगने की गलती मत करना वरना पछताएगी.”

इतना सुनते ही सुधा अपना आपा खो बैठी. उस ने उस महिला को जोर से धक्का दिया. इस पर उस महिला ने सुधा के मुंह पर जोर से एक थप्पड़ मारा. और बाल पकड़ कर दीवार की तरफ धक्का दिया और जोर से एक लात मारी. सुधा और वह महिला लगातार मारामारी कर रही थीं. दोनों में से कोई भी रुकने का नाम नहीं ले रहा था. बिल्डिंग के बाकी लोग इन को रोकने के बजाय लड़ाई का मजा ले रहे थे. और, उस महिला को और सुधा को उकसा रहे थे. उन में से एक आंटी बोल रही थीं, ‘मार और मार. इस ने और इस के बच्चों ने नाटक मचा रखा है.’ तन्वी को समझ नहीं आ रहा था कि इन की लड़ाई कैसे रोके. बीचबचाव करते हुए यदि उस को एकाध थप्पड़ या लात पड़ गई तो? उन के बीच घमासान चालू था. उस ने वहीं खड़ी एक महिला को मदद के लिए इशारा किया. और बड़ी मुश्किल से उन का झगड़ा रोका.

जातेजाते वह महिला सुधा से बोली, “तेरे को तो मैं देख लूंगी. तेरे को इतनी आसानी से छोडूंगी नहीं मैं. तेरे घर मैं तेरे बच्चों की शिकायत ले कर आई थी. और तूने मेरे साथ मारपीट की. तेरी ईंट से ईंट बजा दूंगी. वह औरत सुधा को धमकी दे कर चली गई.

सुधा और तन्वी घर में आ गए. सुधा कुछ लंगड़ा कर चल रही थी. उस औरत ने लात जोर से मारी थी. उस को लंगड़ाता देख कर तन्वी बोली, “क्या हुआ, दीदी?”

सुधा ने कहा, “अरे, उस औरत ने लात बहुत जोर से मारी थी. इसलिए थोड़ा चलने में दिक्कत हो रही है, बस.”

वह औरत बहुत हट्टीकट्टी थी. लात तो जोर से ही पड़ी होगी. यह सोच कर न चाहते हुए भी तन्वी अपनी हंसी रोक न पाई. और हंस पड़ी. उस ने सुधा से कहा, “दीदी, यह लड़ाईझगड़ा, मारपीट करना क्या आप को शोभा देता है? आप के बच्चे आप का ही अनुसरण करेंगे.”

इतने में पिंटू और निशा घर पर आ गए. “कहां रह गए थे तुम लोग?” सुधा ने बच्चों से पूछा.

पिंटू बोला, “हम तो घर ही आ रहे थे लेकिन जब आप को उन आंटी के साथ मारपीट करते देखा तो हम लोग डर कर भाग गए. कहीं वे आंटी हमारी भी पिटाई न कर दें.”

“ऐसे डरने की जरूरत नहीं है. अगली बार वह झगड़ा करे तो उस की जम कर पिटाई करना. मैं देख लूंगी वह क्या करती है. अभी तुम हाथपैर धो कर कपड़े बदल लो,” सुधा बोली.

बच्चों ने स्वीकृति में सिर हिलाया और चले गए. अब तन्वी ने सुधा से कहा, “दीदी, यह क्या उलटासीधा पाठ बच्चों को सिखा रही हो? उन्हें लड़ाईझगड़ा करने से रोकने के बदले आप उन्हें उकसा रही हो. और वैसे भी, उन की हमेशा, चाहे स्कूल हो या तुम्हारी सोसायटी, शिकायतें आती ही रहती हैं. अभी तो वे बच्चे हैं लेकिन यह यदि उन की आदत ही बन गई तो बड़े होने के बाद भी उन का लड़ाईझगड़ा करना चालू रहेगा.”

इस पर सुधा बोली, “यह अपना ज्ञान अपने पास रख. मुझे मालूम है बच्चों की परवरिश कैसे करना है और उन को क्या सिखाना है और क्या नहीं.”

तन्वी सोचने लगी, अंधे के आगे रोना और अपने नैन खोना. इन को कुछ भी समझाना बेकार ही होगा. उस ने चुप रहना उचित समझा.

तन्वी को सुधा के घर पर अच्छा नहीं लग रहा था. उन के घर का वातावरण भी उसे ठीक नहीं लग रहा था. वह तो सुधा के पास यह सोच कर आई थी कि कुछ दिन दीदी के साथ रहेगी तो थोड़ा चेंज हो जाएगा. और फिर बच्चे भी घर पर नहीं थे. उस ने सोचा कि अब उसे अपने घर चले जाना चाहिए. वैसे भी, जब से वह आई है, दीदी औपचारिकता ही अपना रही है, अपनेपन का तो कोई नामोनिशान ही नजर नहीं आ रहा. उस को काम में बिजी कर देती है और फिर मोबाइल पर घंटों समीर, पाठक अंकल और न जाने किसकिस से बातें करती रहती है. और तो और, सुबह दूधब्रेड लेने जाती है तो किसी बाइक वाले पर फ़िदा हो गई. पता नहीं और कितने गुल खिलाएगी.

तन्वी ने अपना पहले वाला टिकट रद्द कर दिया. उस के हिसाब से उसे और 8 दिन रुकना पड़ता. वह जल्दी से जल्दी दीदी के घर से जाना चाहती थी. इसलिए अगले दिन के लिए टिकट बुक करने लगी. लेकिन अगले दिन का टिकट उपलब्ध नहीं था. इसलिए उस ने परसों का टिकट बुक कर लिया. और यह बताने के लिए वह सुधा के पास जा रही थी, तभी निशा ने सुधा को आवाज लगाई और कहा, “मम्मी, आप के लिए फ़ोन है.”

“किस का फ़ोन है?” सुधा ने बाथरूम के अंदर से ही पूछा.

“समीर अंकल का,” निशा ने कहा. इतने में मोबाइल पर गेम खेलते हुए पिंटू ने हंसते हुए कहा, “समीर हवा का झोंका” तो  निशा भी हंसने लगी. दोनों ने एकदूसरे के हाथ पर हाथ मारा और फिर और जोरजोर से हंसने लगे.

तन्वी खड़े रह कर यह सब चुपचाप देख रही थी. दीदी तो अब समीर से बात करेंगी, यह सोच कर वह अपने कमरे में जाने लगी. फिर उस को खयाल आया कि कल मार्केट भी जा कर बच्चों के लिए गिफ्ट लेने हैं, पैकिंग भी करनी है. दीदी को टिकट के बारे में बताना भी जरूरी है. उस को सामने देख कर दीदी समीर से जल्दी बात कर के भी फ़ोन रख सकती हैं, नहीं तो डेढ़दो घंटे करेंगी.

सुधा समीर से बात कर रही थी. तन्वी को उन की बातें सुनने में कोई रुचि नहीं थी. बेमन से वहां बैठी थी वह. तभी सुधा ने समीर से जो कुछ कहा वह सुन कर तन्वी चौँक गई. वह समीर से कह रही थी कि अभी हम मार्केट गए थे, व हां मैं ने तुम्हारी पत्नी काव्या को किसी अनजान आदमी से बातें करते देखा. उस के साथ हंसहंस कर बातें कर रही थी. हम ने साड़ी शौपिंग कर ली लेकिन फिर भी वह वहीं खड़े रह कर बातें करती रही. मेरी बहन भी साथ में थी, इसलिए ज्यादा देर मैं रुक न सकी. वे दोनों क्या बातें कर रहे थे, इस का पता नहीं चल सका. हम लोग घर आए, तब तक वह वहीं थी. अभी घर आई है कि नहीं, यह पता नहीं. जरूर उस का बौयफ्रैंड ही होगा. वह तो आज मैं ने इत्तफाक से देख लिया. पता नहीं और कितनी बार मिली होगी उस से.

Holi 2023: अगर वह उसे माफ कर दे

जो भी प्रकृति दे दे – भाग 1

कभीकभी निशा को ऐसा लगता है कि शायद वही पागल है जिसे रिश्तों को निभाने का शौक है जबकि हर कोई रिश्ते को झटक कर अलग हट जाता है. उस का मानना है कि किसी भी रिश्ते को बनाने में सदियों का समय लग जाता है और तोड़ने में एक पल भी नहीं लगता. जिस तरह विकास ने उस के अपने संबंधों को सिरे से नकार दिया है वह भी क्यों नहीं आपसी संबंधों को झटक कर अलग हट जाती.

निशा को तरस आता है स्वयं पर कि प्रकृति ने उस की ही रचना ऐसी क्यों कर दी जो उस के आसपास से मेल नहीं खाती. वह भी दूसरों की तरह बहाव में क्यों नहीं बह पाती कि जीवन आसान हो जाए.

‘‘क्या बात है निशा, आज घर नहीं चलना है क्या?’’ सोम के प्रश्न ने निशा को चौंकाया भी और जगाया भी. गरदन हिला कर उठ बैठी निशा.

‘‘मुझे कुछ देर लगेगी सोम, आप जाइए.’’

‘‘हां, तुम्हें डाक्टर द्वारा लगाई पेट पर की थैली बदलनी है न, तो जाओ, बदलो. मुझे अभी थोड़ा काम है. साथसाथ ही निकलते हैं,’’ सोम उस का कंधा थपक कर चले गए.

कुछ देर बाद दोनों साथ निकले तो निशा की खामोशी को तोड़ने के लिए सोम कहने लगे, ‘‘निशा, यह तो किसी के साथ भी हो सकता है. शरीर में उपजी किसी भी बीमारी पर इनसान का कोई बस तो नहीं है न, यह तो विज्ञान की बड़ी कृपा है जो तुम जिंदा हो और इस समय मेरे साथ हो…’’

‘‘यह जीना भी किस काम का है, सोम?’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो. अरे, जीवन तो कुदरत की अमूल्य भेंट है और जब तक हो सके इस से प्यार करो. तरस मत खाओ खुद पर…तुम अपने को देखो, बीमार हुई भी तो इलाज करा पाने में तुम सक्षम थीं. एक वह भी तो हैं जो बिना इलाज ही मर जाते हैं… कम से कम तुम उन से तो अच्छी हो न.’’

सोम की बातों का गहरा अर्थ अकसर निशा को जीवन की ओर मोड़ देता है.

‘‘आज लगता है किसी और ही चिंता में हो.’’

सोम ने पूछा तो सहसा निशा बोल पड़ी, ‘‘मौत को बेहद करीब से देखा है इसलिए जीवन यों खो देना अब मूर्खता लगता है. मेरे दोनों भाई आपस में बात नहीं करते. अनिमा से उन्हें समझाने को कहा तो उस ने बुरी तरह झिड़क दिया. वह कहती है कि सड़े हुए रिश्तों में से मात्र बदबू निकलती है. शरीर का जो हिस्सा सड़ जाए उसे तो भी काट दिया जाता है न. सोम, क्या इतना आसान है नजदीकी रिश्तों को काट कर फेंक देना?

‘‘विकास मुझ से मिलता नहीं और न ही मेरे बेटे को मुझ से मिलने देता है, तो भी वह मेरा बेटा है. इस सच से तो कोई इनकार नहीं कर सकता न कि मेरे बच्चे में मेरा खून है और वह मेरे ही शरीर से उपजा है. तो कैसे मैं अपना रिश्ता काट दूं. क्या इतना आसान है रिश्ता काट देना…वह मेरे सामने से निकल जाए और मुझे पहचाने भी न तो क्या हाल होगा मेरा, आप जानते हैं न…’’

‘‘मैं जानता हूं निशा, इसलिए यही चाहता हूं कि वह कभी तुम्हारे सामने से न गुजरे. मुझे डर है, वह तुम्हें शायद न पहचाने…तुम सह न पाओ इस से तो अच्छा है न कि वह तुम्हारे सामने कभी न आए…और इसी को कहते हैं सड़ा हुआ रिश्ता सिर्फ बदबू देता है, जो तुम्हें तड़पा दे, तुम्हें रुला दे वह खुशबू तो नहीं है न…गलत क्या कहा अनिमा ने, जरा सोचो. क्यों उस रास्ते से गुजरा जाए जहां से मात्र पीड़ा ही मिलने की आशा हो.’’

चुप रह गई निशा. शब्दों के माहिर सोम नपीतुली भाषा में उसे बता गए थे कि उस का बेटा मनु शायद अब उसे न पहचाने. जब निशा ने विकास का घर छोड़ा था तब मनु 2 साल का था. साल भर का ही था मनु जब उस के शरीर में रोग उभर आया था, मल त्यागने में रक्तस्राव होने लगता था. पूरी जांच कराने पर यह सच सामने आया था कि मलाशय का काफी भाग सड़ गया है.

आपरेशन हुआ, वह बच तो गई मगर कलौस्टोमी का सहारा लेना पड़ा. एक कृत्रिम रास्ता उस के पेट से निकाला गया जिस से मल बाहर आ सके और प्राकृतिक रास्ता, जख्म पूरी तरह भर जाने तक के लिए बंद कर दिया गया. जख्म पूरी तरह कब तक भरेगा, वह प्राकृतिक रास्ते से मल कब त्याग सकेगी, इस की कोई भी समय सीमा नहीं थी.

अब एक पेटी उस के पेट पर सदा के लिए बंध गई थी जिस के सहारे एक थैली में थोड़ाथोड़ा मल हर समय भरता रहता. दिन में 2-3 बार वह थैली बदल लेती.

आपरेशन के समय गर्भाशय भी सड़ा पाया गया था जिस का निकालना आवश्यक था. एक ही झटके में निशा आधीअधूरी औरत रह गई थी. कल तक वह एक बसीबसाई गृहस्थी की मालकिन थी जो आज घर में पड़ी बेकार वस्तु बन गई थी.

आपरेशन के 4 महीने भी नहीं बीते थे कि विकास और उस की मां का व्यवहार बदलने लगा था. शायद उस का आधाअधूरा शरीर उन की सहनशीलता से परे था. परिवार आगे नहीं बढ़ पाएगा, एक कारण यह भी था विकास की मां की नाराजगी का.

‘‘विकास की उम्र के लड़के तो अभी कुंआरे घूम रहे हैं और मेरी बहू ने तो शादी के 2 साल बाद ही सुख के सारे द्वार बंद कर दिए…मेरे बेटे का तो सत्यानाश हो गया. किस जन्म का बदला लिया है निशा ने हम से…’’

अपनी सास के शब्दों पर निशा हैरान रह जाती थी. उस ने क्या बदला लेना था, वह तो खुद मौत के मुंह से निकल कर आई थी. क्या निशा ने चाहा था कि वह आधीअधूरी रह जाए और उस के शरीर के साथ यह थैली सदा के लिए लग जाए. उस का रसोई में जाना भी नकार दिया था विकास ने, यह कह कर कि मां को घिन आती है तुम्हारे हाथ से… और मुझे भी.

थैली उस के शरीर पर थी तो क्या वह अछूत हो गई थी. मल तो हर पल हर मनुष्य के शरीर में होता है, तो क्या सब अछूत हैं? थैली तो उस का शरीर ही है अब, उसी के सहारे तो वह जी रही है. अनपढ़ इनसान की भाषा बोलने लग गया था विकास भी.

जीवन भर के लिए विकास ने जो हाथ पकड़ा था वह मुसीबत का जरा सा आवेग भी सह नहीं पाया था. उसी के सामने मां उस के दूसरे विवाह की चर्चा करने लगी थी.

एक दिन उस के सामने कागज बिछा दिए थे विकास ने. सोम भी पास ही थे. एक सोम ही थे जो विकास को समझाना चाहते थे.

‘‘रहने दीजिए सोम, हमारे रिश्ते में अब सुधार के कोई आसार नजर नहीं आते. मेरा क्या भरोसा कब मरूं या कब बीमारी से नाता छूटे… विकास को क्यों परेशान करूं. वह क्यों मेरी मौत का इंतजार करें. आप बारबार विकास पर जोर मत डालें.’’

और कागज के उस टुकड़े पर उस का उम्र भर का नाता समाप्त हो गया था.

‘‘अब क्या सोच रही हो निशा? कल डाक्टर के पास जाना है.’’

‘‘कब तक मेरी चिंता करते रहेंगे?’’

‘‘जब तक तुम अच्छी नहीं हो जातीं. दोस्त हूं इसलिए तुम्हारे सुखद जीवन तक या श्मशान तक जो भी निश्चित हो, अंतिम समय तक मैं तुम्हारा साथ छोड़ना नहीं चाहता.’’

‘‘जानते हैं न, विकास क्याक्या कहता है मुझे आप के बारे में. कल भी फोन पर धमका रहा था.’’

‘‘उस का क्या है, वह तो बेचारा है. जो स्वयं नहीं जानता कि उसे क्या चाहिए. दूसरी शादी कर ली है…और अब तो दूसरी संतान भी आने वाली है… अब तुम पर उस का भला क्या अधिकार है जो तलाक के बाद भी तुम्हारी चिंता है उसे. मजे की बात तो यह है कि तुम्हारा स्वस्थ हो जाना उस के गले से नीचे नहीं उतर रहा है.

part-2

‘‘सच पूछो तो मुझे विकास पर तरस आने लगा है. मैं ने तो अपना सब एक हादसे में खो दिया. जिसे कुदरत की मार समझ मैं ने समझौता कर लिया लेकिन विकास ने तो अपने हाथों से अपना घर जला लिया.’’

कहतेकहते न जाने कितना कुछ कह गए सोम. अपना सबकुछ खो देने के बाद जीवन के नए ही अर्थ उन के सामने भी चले आए हैं.

दूसरे दिन जांच में और भी सुधार नजर आया. डाक्टर ने बताया कि इस की पूरी आशा है कि निशा का एक और छोटा सा आपरेशन कर प्राकृतिक मल द्वार खोल दिया जाए और पेट पर लगी थैली से उस को छुटकारा मिल जाए. डाक्टर के मुंह से यह सुन कर निशा की आंखें झिलमिला उठी थीं.

‘‘देखा…मैं ने कहा था न कि एक दिन तुम नातीपोतों के साथ खेलोगी.’’

बस रोतेराते निशा इतना ही पूछ पाई थी, ‘‘खाली गोद में नातीपोते?’’

‘‘भरोसा रखो निशा, जीवन कभी ठहरता नहीं, सिर्फ इनसान की सोच ठहर जाती है. आने वाला कल अच्छा होगा, ऐसा सपना तो तुम देख ही सकती हो.’’

निशा पूरी तरह स्वस्थ हो गई. पेट पर बंधी थैली से उसे मुक्ति मिल गई. अब ढीलेढाले कपड़े ही उस का परिधान रह गए थे. उस दिन जब घर लौटने पर सोम ने सुंदर साड़ी भेंट में दी तो उस की आंखें भर आईं.

विकास नहीं आए जबकि फोन पर मैं ने उन्हें बताया था कि मेरा आपरेशन होने वाला है.

‘‘विकास के बेटी हुई है और गायत्री अस्पताल में है. मैं ने तुम्हारे बारे में विकास से बात की थी और वह मनु को लाना भी चाहता था. लेकिन मां नहीं मानीं तो मैं ने भी यह सोच कर जिद नहीं की कि अस्पताल में बच्चे को लाना वैसे भी स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा नहीं होता.’’

क्या कहती निशा. विकास का परिवार पूर्ण है तो वह क्यों उस के पास आता, अधूरी तो वह है, शायद इसीलिए सब को जोड़ कर या सब से जुड़ कर पूरा होने का प्रयास करती रहती है.

निशा की तड़प पलपल देखते रहते सोम. विकास का इंतजार, मनु की चाह. एक मां के लिए जिंदा संतान को सदा के लिए त्याग देना कितना जानलेवा है?

‘‘क्यों झूठी आस में जीती हो निशा,’’ सोम बोले, ‘‘सपने देखना अच्छी बात है, लेकिन इस सच को भी मान लो कि तुम्हारे पास कोई नहीं लौटेगा.’’

एक सुबह सोम की दी हुई साड़ी पहन निशा कार्यालय पहुंची तो सोम की आंखों में मीठी सी चमक उभर आई. कुछ कहा नहीं लेकिन ऐसा बहुत कुछ था जो बिना कहे ही कह दिया था सोम ने.

‘‘आज मेरी दिवंगत पत्नी विभा और गुड्डी का जन्मदिन है. आज शाम की चाय मेरे साथ पिओगी?’’ यह बताते समय सोम की आंखें झिलमिला रही थीं.

सोम उस शाम निशा को अपने घर ले आए थे. औरत के बिना घर कैसा श्मशान सा लगता है, वह साफ देख रही थी. विभा थी तो यही घर कितना सुंदर था.

‘‘घर में सब है निशा, आज अपने हाथ से कुछ भी बना कर खिला दो.’’

चाय का कप और डबलरोटी के टुकड़े ही सामने थे जिन्हें सेक निशा ने परोस दिया था. सहसा निशा के पेट को देख सोम चौंक से गए.

‘‘निशा, तुम्हें कोई तकलीफ है क्या, यह कपड़ों पर खून कैसा?’’

सोम के हाथ निशा के शरीर पर थे. पेटी की वजह से पेट पर गहरे घाव बन चुके थे. थैली वाली जगह खून से लथपथ थी.

‘‘आज आप के साथ आ गई, पेट पर की पट्टी नहीं बदल पाई इसीलिए. आप परेशान न हों. पट््टी बदलने का सामान मेरे बैग में है, मैं ने आज साड़ी पहनी है. शायद उस की वजह से ऐसा हो गया होगा.’’

सोम झट से बैग उठा लाए और मेज पर पलट दिया. पट्टी का पूरा सामान सामने था और साथ थी वही पुरानी पेटी और थैली.

सोम अपने हाथों से उस के घाव साफ करने लगे तो वह मना न कर पाई.

पहली बार किसी पुरुष के हाथ उस के पेट पर थे. उस के हाथ भी सोम ने हटा दिए थे.

‘‘यह घाव पेटी की वजह से हैं सोम, ठीक हो जाएंगे…आप बेकार अपने हाथ गंदे कर रहे हैं.’’

मरहमपट्टी के बाद सोम ने अलमारी से विभा के कपड़े निकाल कर निशा को दिए. वह साड़ी उतार कर सलवारसूट पहनने चली गई. लौट कर आई तो देखा सोम ने दालचावल बना लिए हैं.

हलके से हंस पड़ी निशा.

सोम चुपचाप उसे एकटक निहार रहे थे. निशा को याद आया कि एक दिन विकास ने उसे बंजर जमीन और कंदमूल कहा था. आधीअधूरी पत्नी उस के लिए बेकार वस्तु थी.

‘क्या मुझे शरीरिक भूख नहीं सताती, मैं अपनेआप को कब तक मारूं?’ चीखा था विकास. पता नहीं किस आवेग में सोम ने निशा से यही नितांत व्यक्तिगत प्रश्न पूछ लिया, तब निशा ने विकास के चीख कर कहे वाक्य खुल कर सोम से कह डाले.

हालांकि यह सवाल निशा के चेहरे की रंगत बदलने को काफी था. चावल अटक गए उस के हलक में. लपक कर सोम ने निशा को पानी का गिलास थमाया और देर तक उस की पीठ थपकते रहे.

‘‘मुझे क्षमा करना निशा, मैं वास्तव में यह जानना चाहता था कि आखिर विकास को तुम्हारे साथ रहने में परेशानी क्या थी?’’

सोम के प्रश्न का उत्तर न सूझा उसे.

‘‘मैं चलती हूं सोम, अब आप आराम करें,’’ कह कर उठ पड़ी थी निशा लेकिन सोम के हाथ सहसा उसे जाने से रोकने को फैल गए..

‘‘मैं तुम्हारा अपमान नहीं कर रहा हूं निशा, तुम क्या सोचती हो, मैं तमाशा बना कर बस तुम्हारी व्यक्तिगत जिंदगी का राज जान कर मजा लेना चाहता हूं.’’

रोने लगी थी निशा. क्या उत्तर दे वह? नहीं सोचा था कि कभी बंद कमरे की सचाई उसे किसी बाहर वाले पर भी खोलनी पड़ेगी.

‘‘निशा, विकास की बातों में कितनी सचाई है, मैं यह जानना चाहता हूं, तुम्हारा मन दुखाना नहीं चाहता.’’

‘‘विकास ने मेरे साथ रह कर कभी अपनेआप को मारा नहीं था…मेरे घाव और उन से रिसता खून भी कभी उस की किसी भी इच्छा में बाधक नहीं था.’’

उस शाम के बाद एक सहज निकटता दोनों के बीच उभर आई थी. बिना कुछ कहे कुछ अधिकार अपने और कुछ पराए हो गए थे.

‘‘दिल्ली चलोगी मेरे साथ…बहन के घर शादी है. वहां आयुर्विज्ञान संस्थान में एक बार फिर तुम्हारी पूरी जांच हो जाएगी और मन भी बहल जाएगा. मैं ने आरक्षण करा लिया है, बस, तुम्हें हां कहनी है.’’

‘‘शादी में मैं क्या करूंगी?’’

‘‘वहां मैं अपनी सखी को सब से मिलाना चाहता हूं…एक तुम ही तो हो जिस के साथ मैं मन की हर बात बांट लेता हूं.’’

‘‘कपड़े बारबार गंदे हो जाते हैं और ठीक से बैठा भी तो नहीं जाता…अपनी बेकार सी सखी को लोगों से मिला कर अपनी हंसी उड़ाना चाहते हैं क्या?’’

उस दिन सोम दिल्ली गए तो एक विचित्र भाव अपने पीछे छोड़ गए. हफ्ते भर की छुट्टी का एहसास देर तक निशा के मानस पटल पर छाया रहा.

बहन उन के लिए एक रिश्ता भी सुझा रही थी. हो सकता है वापस लौटें तो पत्नी साथ हो. कितने अकेले हैं सोम. घर बस जाएगा तो अकेले नहीं रहेंगे. हो सकता है उन की पत्नी से भी उस की दोस्ती हो जाए या सोम की दोस्ती भी छूट जाए.

2 दिन बीत चुके थे, निशा रात में सोने से पहले पेट का घाव साफ करने के लिए सामान निकाल रही थी. सहसा लगा उस के पीछे कोई है. पलट कर देखा तो सोम खड़े मुसकरा रहे थे.

हैरानी तो हुई ही कुछ अजीब सा भी लगा उसे. इतनी रात गए सोम उस के पास…घर की एक चाबी सदा सोम के पास रहती है न…और वह तो अभी आने वाले भी नहीं थे, फिर एकाएक चले कैसे आए?

‘‘जी नहीं लगा इसलिए जल्दी चला आया. गाड़ी ही देर से पहुंची और सुबह का इंतजार नहीं कर सकता था…मैं पट्टी बदल दूं?’’

part-3

‘‘मैं बदल लूंगी, आप जाइए, सोम. और घर की चाबी भी लौटा दीजिए.’’

सोम का चेहरा सफेद पड़ गया, शायद अपमान से. यह क्या हो गया है निशा को? क्या निशा स्वयं को उन के सामीप्य में असुरक्षित मानने लगी है? क्या उन्हें जानवर समझने लगी है?

एक सुबह जबरन सोम ने ही पहल कर ली और रास्ता रोक बात करनी चाही.

‘‘निशा, क्या हो गया है तुम्हें?’’

‘‘भविष्य में आप खुश रहें उस के लिए हमारी दोस्ती का समाप्त हो जाना ही अच्छा है.’’

‘‘सब के लिए खुशी का अर्थ एक जैसा नहीं होता निशा, मैं निभाने में विश्वास रखता हूं.’’

तभी दफ्तर में एक फोन आया और लोगों ने चर्चा शुरू कर दी कि बांद्रा शाखा के प्रबंधक विकास शर्मा की पत्नी और दोनों बच्चे एक दुर्घटना में चल बसे.

सकते में रह गए दोनों. विश्वास नहीं आया सोम को. निशा के पैरों तले जमीन ही खिसकने लगी, वह धम से वहीं बैठ गई.

सोम के पास विकास की बहन का फोन नंबर था. वहां पूछताछ की तो पता चला इस घटना को 2 दिन हो गए हैं.

भारी कदमों से निशा के पास आए सोम जो दीवार से टेक लगाए चुपचाप बैठी थी. आफिस के सहयोगी आगेपीछे घिर आए थे.

हाथ बढ़ा कर सोम ने निशा को पुकारा. बदहवास सी निशा कभी चारों तरफ देखती और कभी सोम के बढ़े हुए हाथों को. उस का बच्चा भी चला गया… एक आस थी कि शायद बड़ा हो कर वह अपनी मां से मिलने आएगा.

भावावेश में सोम से लिपट निशा चीखचीख कर रोने लगी. इतने लोगों में एक सोम ही अपने लगे थे उसे.

विकास दिल्ली वापस आ चुका था. पता चला तो दोस्ती का हक अदा करने सोम चले गए उस के यहां.

‘‘पता नहीं हमारे ही साथ ऐसा क्यों हो गया?’’ विकास ने उन के गले लग रोते हुए कहा.

वक्त की नजाकत देख सोम चुप ही बने रहे. उठने लगे तो विकास ने कह दिया, ‘‘निशा से कहना कि वह वापस चली आए… मैं उस के पास गया था. फोन भी किया था लेकिन उस ने कोई जवाब नहीं दिया,’’ विकास रोरो कर सोम को सुना रहा था.

उठ पड़े सोम. क्या कहते… जिस इनसान को अपनी पत्नी का रिसता घाव कभी नजर नहीं आया वह अपने घाव के लिए वही मरहम चाहता है जिसे मात्र बेकार कपड़ा समझ फेंक दिया था.

‘‘निशा तुम्हारी बात मानती है, तुम कहोगे तो इनकार नहीं करेगी सोम, तुम बात करना उस से…’’

‘‘वह मुझ से नाराज है,’’ सोम बोले, ‘‘बात भी नहीं करती मुझ से और फिर मैं कौन हूं उस का. देखो विकास, तुम ने अपना परिवार खोया है इसलिए इस वक्त मैं कुछ कड़वा कहना नहीं चाहता पर क्षमा करना मुझे, मैं तुम्हारीं कोई भी मदद नहीं कर सकता.’’

सोम आफिस पहुंचे तो पता चला कि निशा ने तबादला करा लिया. कार्यालय में यह बात आग की तरह फैल गई. निशा छुट्टी पर थी इसलिए वही उस का निर्देश ले कर घर पर गए. निर्देश पा कर निशा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई.

‘‘तबीयत कैसी है, निशा? घाव तो भर गया है न?’’

‘‘पता नहीं सोम, क्या भर गया और क्या छूट गया.’’

धीरे से हाथ पकड़ लिया सोम ने. ठंडी शिला सी लगी उन्हें निशा. मानो जीवन का कोई भी अंश शेष न हो. ठंडे हाथ को दोनों हाथों में कस कर बांध लिया सोम ने और विकास के बारे में क्या बात करें यही सोचने लगे.

‘‘मैं क्या करूं सोम? कहां जाऊँ? विकास वापस ले जाने आया था.’’

‘‘आज भी उस इनसान से प्यार करती हो तो जरूर लौट जाओ.’’

‘‘हूं तो मैं आज भी बंजर औरत, आज भी मेरा मूल्य बस वही है न जो 2 साल पहले विकास के लिए था…तब मैं मनु की मां थी…अब तो मां भी नहीं रही.’’

‘‘क्या मेरे पास नहीं आ सकतीं तुम?’’ निशा के समूल काया को मजबूत बंधन में बांध सोम ने फिर पूछा, ‘‘पीछे मुड़ कर क्यों देखती हो तुम…अब कौन सा धागा तुम्हें खींच रहा है?’’

किसी तरह सोम के हाथों को निशा ने हटाना चाहा तो टोक दिया सोम ने, ‘‘क्या नए सिरे से जीवन शुरू नहीं कर सकती हो तुम? सोचती होगी तुम कि मां नहीं बन सकती और जो मां बन पाई थी क्या वह काल से बच पाई? संतान का कैसा मोह? मैं भी कभी पिता था, तुम भी कभी मां थीं, विकास तो 2 बच्चों का पिता था… आज हम तीनों खाली हाथ हैं…’’

‘‘सोम, आप समझने की कोशिश करें.’’

‘‘बस निशा, अब कुछ भी समझना शेष नहीं बचा,’’ सस्नेह निशा का माथा चूम सोम ने पूर्ण आश्वासन की पुष्टि की.

‘‘देखो, तुम मेरी बच्ची बनना और मैं तुम्हारा बच्चा. हम प्रकृति से टक्कर नहीं ले सकते. हमें उसी में जीना है. तुम मेरी सब से अच्छी दोस्त हो और मैं तुम्हें खो नहीं सकता.’’

सोम को ऐसा लगा मानो निशा का विरोध कम हो गया है. उस की आंखें हर्षातिरेक से भर आईं. उस ने पूरी ताकत से निशा को अपने आगोश में भींच लिया. कल क्या होगा वह नहीं जानते परंतु आज उन्हें प्रकृति से जो भी मिला है उसे पूरी ईमानदारी और निष्ठा से स्वीकारने और निभाने की हिम्मत उन में है. आखिर इनसान को उसी में जीना पड़ता है जो भी प्रकृति दे.

Holi 2023: इतना बहुत है

घर के कामों से फारिग होने के बाद आराम से बैठ कर मैं ने नई पत्रिका के कुछ पन्ने ही पलटे थे कि मन सुखद आश्चर्य से पुलकित हो उठा. दरअसल, मेरी कहानी छपी थी. अब तक मेरी कई कहानियां  छप चुकी थीं, लेकिन आज भी पत्रिका में अपना नाम और कहानी देख कर मन उतना ही खुश होता है जितना पहली  रचना के छपने पर हुआ था.

अपने हाथ से लिखी, जानीपहचानी रचना को किसी पत्रिका में छपी हुई पढ़ने में क्या और कैसा अकथनीय सुख मिलता है, समझा नहीं पाऊंगी. हमेशा की तरह मेरा मन हुआ कि मेरे पति आलोक, औफिस से आ कर इसे पढ़ें और अपनी राय दें. घर से बाहर बहुत से लोग मेरी रचनाओं की तारीफ करते नहीं थकते, लेकिन मेरा मन और कान तो अपने जीवन के सब से महत्त्वपूर्ण व्यक्ति और रिश्ते के मुंह से तारीफ सुनने के लिए तरसते हैं.

पर आलोक को साहित्य में रुचि नहीं है. शुरू में कई बार मेरे आग्रह करने पर उन्होंने कभी कोई रचना पढ़ी भी है तो राय इतनी बचकानी दी कि मैं मन ही मन बहुत आहत हो कर झुंझलाई थी, मन हुआ था कि उन के हाथ से रचना छीन लूं और कहूं, ‘तुम रहने ही दो, साहित्य पढ़ना और समझना तुम्हारे वश के बाहर की बात है.’

यह जीवन की एक विडंबना ही तो है कि कभीकभी जो बात अपने नहीं समझ पाते, पराए लोग उसी बात को कितनी आसानी से समझ लेते हैं. मेरा साहित्यप्रेमी मन आलोक की इस साहित्य की समझ पर जबतब आहत होता रहा है और अब मैं इस विषय पर उन से कोई आशा नहीं रखती.

कौन्वैंट में पढ़ेलिखे मेरे युवा बच्चे तनु और राहुल की भी सोच कुछ अलग ही है. पर हां, तनु ने हमेशा मेरे लेखन को प्रोत्साहित किया है. कई बार उस ने कहानियां लिखने का आइडिया भी दिया है. शुरूशुरू में तनु मेरा लिखा पढ़ा करती थी पर अब व्यस्त है. राहुल का साफसाफ कहना है, ‘मौम, आप की हिंदी मुझे ज्यादा समझ नहीं आती. मुझे हिंदी पढ़ने में ज्यादा समय लगता है.’ मैं कहती हूं, ‘ठीक है, कोई बात नहीं,’ पर दिल में कुछ तो चुभता ही है न.

10 साल हो गए हैं लिखते हुए. कोरियर से आई, टेबल पर रखी हुई पत्रिका को देख कर ज्यादा से ज्यादा कभी कोई आतेजाते नजर डाल कर बस इतना ही पूछ लेता है, ‘कुछ छपा है क्या?’ मैं ‘हां’ में सिर हिलाती हूं. ‘गुड’ कह कर बात वहीं खत्म हो जाती है. आलोक को रुचि नहीं है, बच्चों को हिंदी मुश्किल लगती है. मैं किस मन से वह पत्रिका अपने बुकश्ैल्फ  में रखती हूं, किसे बताऊं. हर बार सोचती हूं उम्मीदें इंसान को दुखी ही तो करती हैं लेकिन अपनों की प्रतिक्रिया पर उदास होने का सिलसिला जारी है.

मैं ने पत्रिका पढ़ कर रखी ही थी कि याद आया, परसों मेरा जन्मदिन है. मैं हैरान हुई जब दिल में जरा भी उत्साह महसूस नहीं हुआ. ऐसा क्यों हुआ, मैं तो अपने जन्मदिन पर बच्चों की तरह खुश होती रहती हूं. अपने विचारों में डूबतीउतरती मैं फिर दैनिक कार्यों में व्यस्त हो गई. जन्मदिन भी आ गया और दिन इस बार रविवार ही था. सुबह तीनों ने मुझे बधाई दी. गिफ्ट्स दिए. फिर हम लंच करने बाहर गए. 3 बजे के करीब हम घर वापस आए. मैं जैसे ही कपड़े बदलने लगी, आलोक ने कहा, ‘‘अच्छी लग रही हो, अभी चेंज मत करो.’’

‘‘थोड़ा लेटने का मन है, शाम को फिर बदल लूंगी.’’

‘‘नहीं मौम, आज नो रैस्ट,’’ तनु और राहुल भी शुरू हो गए.

मैं ने कहा, ‘‘अच्छा ठीक है, फिर कौफी बना लेती हूं.’’

तनु ने फौरन कहा, ‘‘अभी तो लंच किया है मौम, थोड़ी देर बाद पीना.’’

मैं हैरान हुई. पर चुप रही. तनु और राहुल थोड़ा बिखरा हुआ घर ठीक करने लगे. मैं और हैरान हुई, पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’ कोई कुछ नहीं बोला. फिर दरवाजे की घंटी बजी तो राहुल ने कहा, ‘‘मौम, हम देख लेंगे, आप बैडरूम में जाओ प्लीज.’’

अब, मैं सरप्राइज का कुछ अंदाजा लगाते हुए बैडरूम में चली गई. आलोक आ कर कहने लगे, ‘‘अब इस रूम से तभी निकलना जब बच्चे आवाज दें.’’

मैं ‘अच्छा’ कह कर चुपचाप तकिए का सहारा ले कर अधलेटी सी अंदाजे लगाती रही. थोड़ीथोड़ी देर में दरवाजे की घंटी बजती रही. बाहर से कोई आवाज नहीं आ रही थी. 4 बजे बच्चों ने आवाज दी, ‘‘मौम, बाहर आ जाओ.’’

मैं ड्राइंगरूम में पहुंची. मेरी घनिष्ठ सहेलियां नीरा, मंजू, नेहा, प्रीति और अनीता सजीधजी चुपचाप सोफे पर बैठी मुसकरा रही थीं. सभी ने मुझे गले लगाते हुए बधाई दी. उन से गले मिलते हुए मेरी नजर डाइनिंग टेबल पर ट्रे में सजे नाश्ते की प्लेटों पर भी पड़ी.

‘‘अच्छा सरप्राइज है,’’ मेरे यह कहने पर तनु ने कहा, ‘‘मौम, सरप्राइज तो यह है’’ और मेरा चेहरा सैंटर टेबल पर रखे हुए केक की तरफ किया और अब तक के अपने जीवन के सब से खूबसूरत उपहार को देख कर मिश्रित भाव लिए मेरी आंखों से आंसू झरझर बहते चले गए. मेरे मुंह से कोई आवाज ही नहीं निकली. भावनाओं के अतिरेक से मेरा गला रुंध गया. मैं तनु के गले लग कर खुशी के मारे रो पड़ी.

केक पर एक तरफ 10 साल पहले छपी मेरी पहली कहानी और दूसरी तरफ लेटेस्ट कहानी का प्रिंट वाला फौंडेंट था, बीच में डायरी और पैन का फौंडेंट था. कहानी के शीर्षक और पन्ने में छपे अक्षर इतने स्पष्ट थे कि आंखें केक से हट ही नहीं रही थीं. मैं सुधबुध खो कर केक निहारने में व्यस्त थी. मेरी सहेलियां मेरे परिवार के इस भावपूर्ण उपहार को देख कर वाहवाह कर उठीं. प्रीति ने कहा भी, ‘‘कितनी मेहनत से तैयार करवाया है आप लोगों ने यह केक, मेरी फैमिली तो कभी यह सब सोच भी नहीं सकती.’’ सब ने खुलेदिल से तारीफ की, और केक कैसे, कहां बना, पूछती रहीं. फूडफूड चैनल के एक स्टार शैफ को और्डर दिया गया था.

मैं भर्राए गले से बोली, ‘‘यह मेरे जीवन का सब से खूबसूरत गिफ्ट है.’’  अनीता ने कहा, ‘‘अब आंसू पोंछो और केक काटो.’’

‘‘इस केक को काटने का तो मन ही नहीं हो रहा है, कैसे काटूं?’’

नीरा ने कहा, ‘‘रुको, पहले इस केक की फोटो ले लूं. घर में सब को दिखाना है. क्या पता मेरे बच्चे भी कुछ ऐसा आइडिया सोच लें.’’

सब हंसने लगे, जितनी फोटो केक की खींची गईं, उन से आधी ही लोगों की नहीं खींची गईं.

केक काट कर सब को खिलाते हुए मेरे मन में तो यही चल रहा था, कितना मुश्किल रहा होगा मेरी अलमारी से पहली और लेटेस्ट कहानी ढूंढ़ना? इस का मतलब तीनों को पता था कि सब से बाद में कौन सी पत्रिका आई थी. और पहली कहानी का नाम भी याद था. मेरे लिए तो यही बहुत बड़ी बात थी.

मैं क्यों कुछ दिनों से उलझीउलझी थी, अपराधबोध सा भर गया मेरे मन में. आज अपने पति और बच्चों का यह प्रयास मेरे दिल को छू गया था. क्या हुआ अगर घर में कोई मेरे शब्दों, कहानियों को नहीं समझ पाता पर तीनों मुझे प्यार तो करते हैं न. आज उन के इस उपहार की उष्मा ने मेरे मन में कई दिनों से छाई उदासी को दूर कर दिया था. तीनों मुझे समझते हैं, प्यार करते हैं, यही प्यारभरी सचाई है और मेरे लिए इतना बहुत है.

पछतावा-भाग 1: क्यूं परेशान थी सुधा

फ़ोन पर सुधा ने तन्वी से बात की और बड़बड़ाती हुई अपने कमरे में चली गई. तन्वी सुधा की छोटी बहन है. उस ने फ़ोन पर सुधा से कहा कि वह कुछ दिनों के लिए उस के घर आ रही है.

उस का आना सुधा को जरा भी पसंद नहीं आ रहा था. इसी फ्रस्ट्रेशन में वह सामान उठाउठा कर इधरउधर पटक रही थी.

उस को जब भी गुस्सा आता है, वह डस्टिंग करते समय इतनी जोरजोर से फटका मारती है कि पड़ोस के लोगों के घरों तक आवाज जाती है. फिर मोटा डंडा लाती है और गद्दों को पीटना शुरू करती है यानी की धूल झाड़ती है.

उस की बिल्डिंग के लोग इस का बहुत मजाक बनाते हैं. आंटी हमेशा कहती हैं,   इतना जोर से गद्दों की धूल तो गद्दे बनाने वाले, रुई पिजने वाले भी नहीं झाड़ते. इस का तो बहुत नाटक है बाबा. और इसीलिए सुधा का नाम   फटका वाली बाई रख दिया है बिल्डिंग के लोगों ने.

वह यह सब कर रही थी कि उस के दोनों बच्चे कमरे में आए और पूछने लगे, ‘किस का फ़ोन था, मम्मी?’

‘तुम्हारी तन्वी मासी का,’ सुधा ने जवाब दिया.

‘अच्छा,   कब आ रही हैं मासी,’   उस की बेटी निशा ने पूछा?

‘परसों सुबह आ रही है,’   सुधा ने खिन्न मन से कहा, ‘अब सब शैड्यूल डिस्टर्ब हो जाएगा.’ बच्चों ने सहमति में सिर हिलाया.

तन्वी को कैसे बिज़ी रखा जाए ताकि उस के बौयफ्रैंड की बातें उस की बहन को न पता चल सके. इसी उधेड़बुन में सुधा का एक दिन निकल गया. वह अंदर से उस के आने से खुश न थी. लेकिन वह यह बात जता भी नहीं सकती थी. अगले दिन तन्वी सुधा के घर पहुंच गई. वह अपने साथ बहुत सारा सामान ले कर आई थी. कुछ सामान उस का था और कुछ सुधा व उस के बच्चों के लिए. आते ही वह सुधा से गले लगती हुई बोली, “कैसी हो दीदी?”

“मैं ठीक हूं,” सुधा ने कहा, “चलो, सामान ले कर अंदर चलते हैं, बैठ कर बातें करेंगे.”

“हां, यह ठीक रहेगा,” तन्वी ने कहा.

“एक काम करो तन्वी, तुम अपना सामान निशा और पिंटू के रूम में रख दो. वह क्या है न, कि 2 बैडरूम हैं, एक मेरा और एक पिंटू व निशा का. इसलिए तुम को उन के साथ ऐडजस्ट करना पड़ेगा.”

“कोई बात नहीं, दीदी. मैं बच्चों के साथ रूम शेयर कर लूंगी. आप किसी भी तरह की चिंता मत करो,” तन्वी ने कहा, “अच्छा, मैं फ्रैश हो कर आती हूं.” और तन्वी बाथरूम में चली गई.

जब तक तन्वी फ्रैश हो कर आई, सुधा ने चाय बना ली. उस को पता था कि तन्वी को चाय बहुत पसंद है, दिन में कितनी बार भी चाय को पूछो, वह हां ही बोलेगी. उस के साथ उस ने बिस्कुट भी एक प्लेट में निकल लिए थे. नाश्ता बनाने के झंझट में वह पड़ना नहीं चाहती थी.

नाश्ता बनाने में काफी वक्त लग जाता और वह पाठक अंकल से बात न कर पाती. मिस्टर पाठक उस की कालोनी में ही रहते हैं. उस बिल्डिंग से दोतीन बिल्डिंग छोड़ कर उन का घर है. वे प्राइवेट कंपनी में काम करते थे. 6 महीने पहले उन का रिटायरमैंट हुआ है. वे काफी आशिकमिजाज हैं. अंकल कहने पर वे चिढ़ जाते हैं, इसलिए कालोनी के बच्चे उन का मजा लेते हैं और अब सभी लोग उन्हें अंकल कह कर ही बुलाते हैं. इस तरह उन का नाम पाठक अंकल ही पड़ गया.

वे अपने को अभी भी नवयुवक ही समझते हैं. एकदो बार एक किराने की दुकान पर उन की सुधा से मुलाकात हुई. जानपहचान बढ़ने लगी. फिर तो रोज किसी न किसी बहाने मिलने लगे. कभी वाकिंग के बहाने, सब्जीफ्रूट लाने के बहाने मुलाकातें होने लगीं.

सुधा साधरण नयननक्श की महिला थी. गोरा रंग, सामान्य कदकाठी लेकिन अपने को मिस वर्ल्ड ही समझती थी. पुरुषों को कैसे अपनी ओर आकर्षित करना है, इस में उस को महारत हासिल थी. उस के लटकेझटके और अंग प्रदर्शन करते कपड़े, उस के पहनावे के कारण पुरुष उस को घूरते थे.

पाठक अंकल तो वैसे भी रंगीनमिजाज थे. दोनों के बीच अफेयर हो गया. दोनों व्हाट्सऐप पर दिनभर चैटिंग करते. फ़ोन पर बातें होतीं, जैसे कि वो किशोरावस्था के प्रेमीप्रेमिका हों. पाठक अंकल भूल गए थे कि वे 60 वर्षीय अधेड़ हैं और जिस के प्रेम में पड़े हैं वह उन से 15 साल छोटी 2 बच्चों की मां है.

वहीं दूसरी ओर, सुधा सातवें आसमान पर थी. यथार्थ की दुनिया से बेखबर, समाज की परवा किए बिना. सही और गलत से उस का कोई लेनादेना नहीं था. उस की नजर में जो ठीक है, उसी को वह सही मानती थी. चाहे फिर वह गलत ही क्यों न हो.

तन्वी अपने साथ दीदी, जीजाजी और बच्चों के लिए जो सामान लाई थी, वो उस ने सुधा को दे दिया. सामान देख कर बच्चे और सुधा खुश हो गए. फिर अचार का डब्बा देते हुए तन्वी बोली, “आप को आम का अचार बहुत पसंद है न, इसलिए खास मैं आप के लिए बना कर लाई हूं.”

“अरे हां, अच्छा हुआ तू ले कर आ गई, मैं तुझ से बोलने वाली थी कि अचार लाना. तेरे हाथ के बने अचार की तारीफ तो तेरे जीजाजी भी करते हैं” सुधा बोली.

फिर तन्वी ने घर के सभी लोगों के बारे में बताना शुरू किया. मामाजी के पैर की हड्डी टूट गई थी. वे इंजैक्शन लगवाने से कैसे घबरा रहे थे. सब किस्से हंसहंस कर बता रही थी.

लेकिन सुधा का मन उस की बातों में जरा भी नहीं लग रहा था. उसे लग रहा था कि समीर का मैसेज आया होगा. अभी वह होटल पहुंच गया होगा. उस ने कहा था कि होटल पहुंचने के बाद मैसेज करेगा. मीटिंग ख़त्म होने के बाद कौल करेगा. फिर पाठक अंकल का भी मैसेज हो सकता है. लेकिन वह अभी तन्वी के सामने मैसेज कैसे चैक करे. इसी दुविधा में वह अनमने मन से उस की बातें सुन रही थी.

समीर सुधा की बिल्डिंग में ही रहता था. कई बार लिफ्ट में एकसाथ जानाआना होता था. और फिर एक ही बिल्डिंग में रहने के कारण जल्दी ही जानपहचान हो गई थी सुधा और समीर के बीच. यह जानपहचान जल्दी ही अफेयर में बदल गई. वह एक मल्टीनैशनल कंपनी में मैनेजर की पोस्ट पर कार्यरत था. उस की तनख्वाह अच्छी थी. लंबा कद, बड़ीबड़ी आंखें, फ्रैंचकट दाढ़ी, गोरा रंग…बहुत आकर्षक चेहरा था.

उस को पहली नजर में देखते ही सुधा उस पर फ़िदा हो गई थी. उस की बातचीत का तरीका भी बहुत प्रभावशाली था. आसानी से कोई भी उस से प्रभावित हो जाता था. शुरूशरू में तो उस ने सुधा पर कोई ज्यादा ध्यान नहीं दिया, लेकिन सुधा तो जैसे उस के पीछे हाथ धो कर पड़ गई थी. उस के सुबह औफिस जाने के समय वौकिंग के बहाने निकलती, उस को गुडमौर्निंग विश करती. रात को भी उस के औफिस के आने के समय नीचे पैसेज में बैठ कर उस का इंतजार करती. और बात करने के बहाने ढूंढती रहती.

समीर की पत्नी मायके गई तो जैसे सुधा के हाथ में खजाना लग गया. इसी मौके का उस ने फायदा उठाया. और समीर को अपने घर कौफ़ी पर इन्वाइट किया. फिर तो यह रोज का सिलसिला हो गया. उस को इंप्रैस करने के लिए और ये दिखाने के लिए कि वह कितनी मौर्डन है. वैस्टर्न औउटफिट पहनने लगी. हमेशा ऐसे कपड़े पहनती जिस में हद से ज्यादा अंग प्रदर्शन रहता.

समीर धीरेधीरे समझने लगा था कि सुधा उस पर फ़िदा है. वह क्या चाहती है, वह यह भी समझ रहा था. पुरुष तो आखिर पुरुष ही होते हैं. उन की प्रवृत्ति कभी नहीं बदलती. अगर औरत ही आगे हो कर पुरुष पर डोरे डाले, देह समर्पण करे तो पुरुष क्यों पीछे हटेगा. उन का यह अफेयर शारीरिक संबंधों में तबदील हो गया.

समर औफिस से जल्दी आता और अपने घर जाने के बदले सुधा के घर पर रुकता. एक तरफ समीर अपनी पत्नी काव्या को धोखा दे रहा था. वहीं दूसरी ओर, सुधा अपने पति को. दोनों ने बेशर्मी की सभी हदें पार कर दी थीं. न किसी बात की चिंता थी, न समाज की फ़िक्र. दोनों अपनी अलग ही दुनिया में खोए हुए थे. समीर जब सुबह औफिस जाता, तो बालकनी में आ कर उस को बाय करती और रस्सी पर टंगी टौवल के पीछे खड़ी रह कर उस को फ्लाइंग किस देती. शाम को बालकनी में खड़ी रह कर उस के आने का इंतजार करती. शाम के खाने की तैयारी 4 बजे से शुरू कर देती थी ताकि समीर के घर आने पर वह किचन के कार्यों से मुक्त हो सके.

धीरेधीरे उस की बिल्डिंग के लोगों को भी पता चलने लगा. वह कहते हैं न, इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. लोग सुधा को देखते ही खुसुरफुसुर शुरू कर देते. लेकिन सुधा पर इन सब बातों का कोई असर नहीं पड़ता था. तन्वी के आ जाने की वजह से वह समीर को बाय भी नहीं कर पा रही थी. दो-तीन दिन ऐसे ही निकल गए. समीर और पाठक अंकल के मैसेज आने पर उन का समय पर जवाब न दे पाती थी.

तन्वी के ऊपर किचन की जिमेदारी छोड़ कर वह उन से बात करती थी.  पाठक अंकल कितने चिपकू हैं और मूर्ख भी. मैं ने बोला है कि टाइम मिलने पर मैं खुद उन को कौल करूंगी, फिर भी मैसेज कर के, कौल कर के परेशान करते रहते हैं. उन को तो कोई कामधंधा नहीं हैं, रिटायर जो हैं वे. सुधा मन ही मन में झल्ला पड़ी.

उधर, तन्वी महसूस कर रही थी कि जब से वह आई है, दीदी कुछ उखड़ीउखड़ी रहती हैं, पता नहीं उस का आना दीदी को अच्छा लग रहा है या नहीं. सुधा पूरे दिन या तो चैटिंग करती या फ़ोन पर बात करती रहती. तन्वी को कुछ समझ नहीं आ रहा था.

सुधा के साथ जब वह खाना बनवाने में मदद कर रही थी, तभी उस ने सुधा से कहा, “दीदी, कल संडे है, जीजाजी भी घर पर ही रहेंगे, क्यों न हम मूवी देखने चलें. फिर डिनर भी किसी अच्छे होटल में कर के आएंगे…”

तन्वी अपनी बात खत्म करती, इस के पहले सुधा के पति किचन में आ गए, बोले, “क्या बातें हो रही हैं दोनों बहनों में, जरा हम भी तो सुनें.

तन्वी ने कहा, “कुछ नहीं जीजू, मैं दीदी से कल मूवी देखने की बात कर रही थी.”

“नेकी और पूछपूछ,” सुधा के पति ने कहा, “कल हम सब मूवी देखने जा रहे हैं और इस प्रोगाम के बारे में मैं पिंटू और निशा को भी बता कर आता हूं. दोनों यह सुन कर खुश हो जाएंगे.”   दूसरे दिन सब लोग मूवी देखने गए. उस के बाद डिनर किया. फिर पिंटू ने कहा, “पापा, आइसक्रीम भी है.” आइसक्रीम खातेखाते खूब गपें मारीं. बहुत एंजौय किया.

घर पर आने के बाद भी सुधा और तन्वी की बातें खत्म नहीं हुईं बल्कि और एक घंटा जारी रहीं. रात को बिस्तर पर लेटेलेटे तन्वी सोच रही थी कि कितनी अच्छी फैमिली है दीदी की. जीजाजी भी कितने अच्छे हैं, कितना खयाल रखते हैं वे जीजी और बच्चों का. हमारे यहां जब दीदी आती हैं तो उन्हें छोड़ने आते हैं और जब लेने आते हैं तो भी दसपंद्रह दिन रुकते हैं. हम सब खूब सैरसपाटा करते हैं. पीयूष भी दीदी-जीजाजी के आने पर छुट्टी ले लेते हैं. कितना मजा आता है.

दूसरे दिन जब तन्वी उठी तो देखा, टीवी पर प्रवचन चल रहे हैं. लेकिन दीदी का कोई अतापता नहीं है. उस ने सोचा, शायद बालकनी में होंगी. यह सोच कर वह बालकनी में गई लेकिन वहां वे नहीं थीं. फिर सोचा, सामान लेने नीचे गई होंगी. लेकिन दरवाजा तो अंदर से बंद है. इस का मतलब वे घर में ही हैं. फिर वह फ्रैश होने के लिए बाथरूम की ओर गई. वह बाथरूम के दरवाजे पर ही ठिठक कर रुक गई. दरवाजा थोड़ा सा खुला हुआ था. उस के अंदर से बात करने की आवाज आ रही थी.

वह दरवाजे के नजदीक पहुंची, तो दीदी किसी से कह रही थीं कि अरे, बहुत मुश्किल से टाइम मिला है बात करने का. अभी सब सो रहे हैं. दूसरी तरफ फ़ोन पर कौन था, तन्वी नहीं समझ पा रही थी.   क्या करूं मैं, मेरी बहन है वो. उस को आने के लिए मना नहीं कर सकी. उधर से किसी के पूछने पर दीदी बोलीं,   दसपंद्रह दिन तो रुकेगी, तन्वी. बस, थोड़े दिनों की बात है. थोड़ा तो आप को एडजस्ट करना पड़ेगा. मैं समय निकल कर आप को कौल करूंगी, ओके, बाय. यह सब कह कर सुधा ने फ़ोन रख दिया.

इतनी सुबह कौन दीदी को कौल कर रहा है, तन्वी को तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. सुधा बेफिक्र हो कर पाठक अंकल से बात कर रही थी. बाथरूम के दरवाजे के बाहर तन्वी खड़ी उन की बातें सुन रही है, इस का अंदाजा सुधा को नहीं था. वह जैसे ही बाहर आई, तन्वी को खड़ा देख सकपका गई.

“किस से बात कर रही थीं, दीदी?” तन्वी के अचानक पूछने पर सुधा हड़बड़ा गई.

“किसी से नहीं,”   सुधा ने नजरें चुराते हुए कहा.

“झूठ मत बोलो, दीदी. मैं ने खुद अपने कानों से सुना है. आप किसी से कह रही थीं कि उस को आने से मना नहीं कर सकी. आप यदि मना कर देतीं तो मैं न आती, दीदी. वैसे भी, मैंने नोटिस किया है कि आप को मेरा आना अच्छा नहीं लगा. और आप छिपछिप कर किस से बातें करती हैं? मुझे किचन में छोड़ कर आप बीचबीच में चली जाती हैं. फुरसत के समय भी आप मोबाइल पे चैटिंग करती रहती हैं. कुछ तो है जो आप छिपाने की कोशिश कर रही हैं? सच बताओ, दीदी? कहीं आप का कोई अफेयर तो नहीं चल रहा न किसी के साथ?” तन्वी ने सवालों की झड़ी लगा दी.

सुधा की पोल खुल चुकी थी. तन्वी से अब झूठ बोल कर कोई फायदा नहीं था. इसलिए उस को सच बताना ही सुधा को ठीक लगा. उस ने कहा, “मैं पाठक अंकल से बात कर रही थी. उन के साथ मेरा अफेयर चल रहा है. आठदस साल हो गए हैं.”

“यह क्या कह रही हो, दीदी?” तन्वी ने आश्चर्य से पूछा.

“मैं सच कह रही हूं, तन्वी,” सुधा ने कहा, “यह हैंडबैग देख रही हो न तुम, इसे उन्होंने ही दिलाया है ब्रैंडेड कपड़े, जूते, हैंडबैग, परफ्यूम, गौगल्स, मोबाइल और यहां तक की पिंटू और निशा के पास जो लैपटौप, मोबाइल, हैडफ़ोन, हैंडीकैम हैं वे भी उन्होंने ही दिलाए हैं, ब्रैंडेड टीशर्ट भी.

यह सुन कर तन्वी अवाक रह गई. “तुम्हारा सिर्फ अफेयर है या इस से भी ज्यादा कुछ और?” तन्वी ने पूछा.

“मेरे उन के साथ शारीरिक संबंध भी हैं. वे तो जैसे मेरे पर लट्टू हैं. मैं जिस चीज की भी डिमांड करती हूं, वह मुझे मिल जाती है. बहुत पैसा है उन के पास. और वे उस का दिखावा भी बहुत करते हैं. बस, इसी चीज का मैं फायदा उठाती हूं,” सुधा ने कहा, “तुझे विश्वास नहीं हो रहा होगा. अभी उन से मैं ने बात की है, अगर मैं उन को फिर मिसकौल देती हूं, दो मिनट में ही उन का फ़ोन आ जाएगा.”

और सचमुच एक मिनट में ही पाठक अंकल का फ़ोन आ गया. सुधा ने जल्दी से फ़ोन उठा कर कहा, “वह गलती से आप को लगा दिया फ़ोन. अच्छा डार्लिंग, मैं फ़ोन रखती हूं, थोड़ा बिज़ी हूं.” और फ़ोन कट कर दिया.

फ़ोन रखने के बाद सुधा जोरजोर से हंसने लगी. उस को यों हंसती देख तन्वी को बड़ा अचरज हुआ.  “दीदी, तुम अचानक हंस क्यों रही हो? इस पर सुधा ने कहा, “दुनिया में बेवकूफों की कमी नहीं है ग़ालिब, एक ढूंढो हजार मिलते हैं. उन को लगता है कि मैं उन से प्यार करती हूं.”

“तो क्या तुम उन से प्यार नहीं करतीं, दीदी?” तन्वी बोल पड़ी.

सुधा ने कहा, “नहीं, मैं उन के साथ प्यार का नाटक करती हूं. तुझे मालूम है, मुझे ऐशोआराम की जिंदगी पसंद है. महंगे कपडे, जूते, पर्स आदि जो तेरे जीजाजी नहीं दिला सकते. पाठक अंकल आशिकमिजाज हैं, लड़की देखी नहीं कि फिसल गए. बस, इसी का मैं ने फायदा उठाया और मेरे जाल में आसानी से वे फंस गए. प्यारव्यार कुछ नहीं है मुझ को उन से. बड़ा व बाहर को निकला हुआ पेट, गंजापन, बेडौल शरीर. मेरा उन के साथ कोई मेल नहीं है. मुझे तो महंगेमहंगे गिफ्ट से मतलब है जो वे मुझे दिलाते रहते हैं. वे भ्रम में जी रहे हैं और मै अपना मतलब सिद्ध कर रही हूं. सुधा ने सपाट लहजे में कहा.

उन की बातें सुन कर तन्वी आश्चर्य से भर गई. कितनी लालची और स्वार्थी है उस की बहन, मन ही मन सोचने लगी. वह कुछ बोलती, उस के पहले पिंटू और निशा कमरे में आ गए. फिर तन्वी नहाने चली गई.

तन्वी दोतीन दिन से नोटिस कर रही थी कि दीदी सुबह से ले कर रात के सोने तक उन के घर के सामने वाले फ्लैट की निगरानी करती हैं- कौन आ रहा है, कौन जा रहा है, यदि कोई आया है तो कितनी देर रुका है, यहां तक कि उन लोगों के बीच क्या बातचीत हो रही है, उस को भी सुनने की कोशिश करतीं. बातें सुनने के लिए वे जो भी काम कर रही होतीं उसे वैसे ही छोड़ बालकनी में जा कर खड़ी हो जातीं और बातें सुनतीं. अगर चाय भी पी रही हों तो वे ऐसे बैठतीं कि सामने वाले फ्लैट में हो रही गतिविधियां देखी जा सकें.

अगर वह उसे माफ कर दे: भाग 3- पिता की मौत के बाद क्या हुआ ईशा के साथ

रेशमा गोदी में अपना बच्चा पकड़े एक तरफ खड़ी थी. ‘‘बैठो,’’ रेखा ऐसे बोली जैसे वह उस का घर हो और रेशमा उस की मेहमान हो.

झिझकते हुए रेशमा उस के सामने केन की कुरसी पर बैठ गई. काले रेशमी बाल, गोरा रंग… वह एक जवान व सुंदर औरत थी, मुश्किल से उस की उम्र 25-26 की लग रही थी.

एक लंबी सांस भरते हुए रेखा ने पूछा, ‘‘तुम्हें मालूम है कि मैं कौन हूं?’’

‘‘हां, मैं ने आप की फोटो देखी हुई है,’’ वह सिर झुकाए हुए बोली.

उस की गोदी में बच्चा रोने लगा था तो रेखा ने पूछा, ‘‘यह लड़का है?’’

‘‘हां.’’

रेखा अनायास ही सोचने लगी कि वह और रवि हमेशा दूसरे बच्चे की चाह में रहते थे. कभी रवि की संवेदनशील पोस्टिंग की वजह से उन के बीच विछोह बना रहा तो कभी यों ही…समय बीतता चला गया. ईशा 14 साल की हो गई और वह 40 की, जहां औरत को गर्भधारण करने से पहले काफी सोचना पड़ता है.

रेशमा धीरे से बोली, ‘‘मुझे मालूम है कि आप यहां क्यों आई हैं… आप जानना चाहती हैं कि मेरे रवि से…’’ कहते हुए उस की आंखें भर आईं. रेखा को उस पल लगा कि रवि केवल रेशमा का ही मर्द था, उस का अपना कोई नहीं.

‘‘वह बहुत अच्छे थे,’’ वह रुंधे स्वर में बोली. फिर बड़े तटस्थ भाव से अपनी कहानी सुनाने लगी…

‘‘हमारा परिवार असम व नागालैंड की सीमा पर दीमापुर जिले का रहने वाला था. पुलिस को हम पर शक था कि हमारा संबंध डीएचडी (डीमा हलीम डोगा) उग्रवादी गिरोह से है जिन का लक्ष्य डीमासा जनजातियों के लिए एक अलग राज्य बनाने का है.

‘‘हम पहाड़ी गांव के लोग कहां से आतंक फैलाएंगे? उग्रवादी तो पाकिस्तान के आईएसआई के लोग हैं. पुलिस हम पर बेकार शक करती है.

‘‘एक शाम सुरक्षा बल के जवानों ने हमारे घर पर आक्रमण किया कि तुम ने अपने घर में उग्रवादियों को शरण दे रखी है. वे हमारे रिश्तेदार थे, मेरी बहन के ससुराल वाले.

‘‘केवल शक की बुनियाद पर सुरक्षाकर्मियों ने मेरे परिवार के सभी सदस्यों को मार दिया. एक केवल मेरी ही जान बच पाई थी, रवि की वजह से. जब तक सुरक्षा बल के कर्मचारी गोली मेरे सीने में उतारते रवि अपने दल का प्रतिनिधित्व करते हुए वहां पहुंच गए. उन्होंने मुझे बचाया व बाद में सुरक्षा प्रदान की. मेरा सारा परिवार मेरी आंखों के सामने खत्म हो गया था. दीमापुर में रहने से मेरा मन घबराने लगा था. मैं  अपनी सारी संपत्ति बेच कर कालाइगांव आ गई और यह काटेज ले कर रहने लगी. वह बहुत अच्छे थे.’’

रेखा को समझने में देर नहीं लगी कि रवि व उस के बीच मानवता का रिश्ता धीरधीरे प्रेम में बदल गया था.

कहानी खत्म होने के बाद उन के बीच एक गहरा सन्नाटा छा गया. रवि के प्रति रेखा को और वितृष्णा होने लगी. उस ने सिर्फ उसे ही धोखा नहीं दिया बल्कि रेशमा की मजबूरी का भी फायदा उठाया.

‘‘मैं आप के लिए कुछ पीने को लाती हूं,’’ रेशमा बोली और अपनी गोदी के शिशु को सोफे पर लिटा कर किचन में चली गई.

रेखा ने शिशु को देखा. शिशु बहुत सुंदर था. उसे देख कर कोई उसे बिना प्यार किए रह ही नहीं सकता. शिशु रोने लगा तो रेखा ने उसे गोद में उठा लिया. बच्चा खामोश हो कर अपनी गहरी काली आंखों से उसे घूरने लगा, जैसे कुछ मनन कर रहा हो. ऐसे ही गहन विचार रवि के चेहरे पर अकसर प्रकट हो जाते थे.

रेशमा चाय बना कर ले आई. रेखा की गोद में अपना बच्चा देख एक पल के लिए वह ठिठकी, फिर उस के चेहरे पर एक भीनी मुसकान तैर गई.

‘‘क्या नाम है इस का?’’ रेखा ने पूछा.

‘‘मनु. उन्होंने ही रखा था.’’

रेखा ने अपनी आंखों से सबकुछ देखसुन लिया था. अब वहां ठहरने का कोई मतलब नहीं था. उस ने रेशमा से बिदा ली और जीप में बैठ गई. न जाने क्यों रेशमा से मिल कर उसे एक हलकापन महसूस हो रहा था, जैसे सिर से कोई बोझ उतर गया हो.

दिल्ली लौट कर रेखा की ठहरी जिंदगी ने रफ्तार पकड़ ली. उस ने अपने कालिज जाना शुरू कर दिया था. ईशा भी अपनी पढ़ाई में तल्लीन हो गई थी. रवि मर गया था मगर वह केस थमा नहीं था. जांचपड़ताल चल रही थी. खबरों में कुछ न कुछ उस केस से संबंधित आता ही रहता. रवि के साथ उल्फा, डीएचडी उग्रवादी गिरोहों की चर्चा भी हो जाती. रेखा अपनी जिंदगी को इन सभी से बहुत दूर मानतीथी.

लेकिन 2 माह बाद, एक दिन रेशमा को टीवी के परदे पर देख कर रेखा चौंक गई. वह पुलिस हिरासत में थी. पुलिस के अनुसार वह पहले से ही डीमा हलीम डोगा  (डीएचडी) आतंकवादी गिरोह से संबंध रखती थी. फिर अभी हाल में उस ने रवि के हत्यारों से बदला लेने के लिए कइयों को मौत के घाट उतार दिया था. उस के बच्चे की चर्चा भी होती कि उसे देखने वाला कोई नहीं है. वह बच्चा फिलहाल किसी बाल कल्याण संस्था के हवाले है. बाद में सरकार फैसला करेगी कि उसे कहां भेजा जाए.

सहसा रेखा के सामने उस मासूम बच्चे का चेहरा तैर गया…मनु.

कुछ निर्णय लेते हुए रेखा ने कमांडर पंत को फोन मिलाया, ‘‘मुझे रवि के बच्चे की कस्टडी चाहिए,’’ वह दृढ़ स्वर में बोली.

कुछ पलों के लिए कमांडर पंत खामोश बने रहे, फिर बोले, ‘‘मिसेज शर्मा, आप महान हैं.’’

एक बार फिर रेखा उसी मार्ग से कालाइगांव पहुंची. रेशमा से मिलने जेल गई. इन 2 महीनों में वह एकदम पतली हो गई थी. मगर चेहरे पर वही कशिश अभी भी थी. इस बार रेखा ने उसे घूर कर देखा, ऐसा सुंदर व मासूम चेहरा मगर सिर में घातक जुनून. रेशमा बोली, ‘‘मुझे फांसी लगे या आजीवन सजा हो, मुझे चिंता नहीं. मुझे बस, इस बात का संतोष है कि मैं ने रवि को मारने वालों को मार गिराया है. बदला ले लिया है.’’

वह सहर्ष अपने बच्चे की जिम्मेदारी रेखा को देने के लिए तैयार हो गई बल्कि हलकी हंसी हंसते हुए बोली, ‘‘यह अच्छा होगा कि रवि के दोनों बच्चे एकसाथ पलेंगेबढ़ेंगे.’’

रेखा ने फिलहाल अपने कालिज से लंबी छुट्टी ले ली है. नई परिस्थितियां उत्पन्न हो गई हैं. घर में एक अबोध शिशु आ गया है. उसे अभी काफी व्यवस्थाएं करनी हैं. घर में बच्चे से संबंधित तमाम वस्तुएं बिखर गई हैं, पालना, दूध की बोतलें आदि.

ईशा छोटे भाई की देखरेख में रेखा का पूरा हाथ बंटाती. एक दिन रेखा मनु को बोतल से दूध पिला रही थी और ईशा बगल में बैठी उसे मंत्रमुग्ध निहार रही थी. पिता की मौत से जो अभाव उस की जिंदगी में आया था, मनु उस की पूर्ति कर रहा था. सहसा वह बोली, ‘‘मां, आप बहुत महान हो. आप में इतनी अधिक क्षमाशीलता है. मुझे आप की तरह ही बनना है.’’

Holi 2023: स्वप्न साकार हुआ- क्या हुआ बबली के साथ

रात में रसोई का काम समेट कर आरती सोने के लिए कमरे में आई तो देखा, उस के पति डा. विक्रम गहरी नींद में सो रहे थे. उन के बगल में बेटी तान्या सो रही थी. आरती ने सोने की कोशिश बहुत की लेकिन नींद जैसे आंखों से कोसों दूर थी. फिर पति के चेहरे पर नजर टिकाए आरती उन्हीं के बारे में सोचती रही.

डा. विक्रम सिंह कितने सरल और उदार स्वभाव के हैं. इन के साथ विवाह हुए 6 माह बीत चुके हैं और इन 6 महीनों में वह उन्हें अच्छी तरह पहचान गई है. कितना प्यार और अपनेपन के साथ उसे रखते हैं. उसे तो बस, ऐसा लगता है जैसे एक ही झटके में किसी ने उसे दलदल से निकाल कर किसी महफूज जगह पर ला कर खड़ा कर दिया है.

उस का अतीत क्या है? इस बारे में कुछ भी जानने की डा. विक्रम ने कोई जिज्ञासा जाहिर नहीं की और वह भी अभी कुछ कहां बता पाई है. लेकिन इस का मतलब यह भी नहीं कि वह उन को धोखे में रखना चाहती है. बस, उन्होंने कभी पूछा नहीं इसलिए उस ने बताया नहीं. लेकिन जिस दिन उन्होंने उस के अतीत के बारे में कुछ जानने की इच्छा जताई तो वह कुछ भी छिपाएगी नहीं, सबकुछ सचसच बता देगी.

इसी के साथ आरती का अतीत एक चलचित्र की तरह उस की बंद आंखों में उभरने लगा. वह कहांकहां छली गई और फिर कैसे भटकतेभटकते वह मुंबई की बार गर्ल से डा. विक्रम सिंह की पत्नी बन अब एक सफल घरेलू औरत का जीवन जी रही है.

आज की आरती अतीत में मुंबई की एक बार गर्ल बबली थी. बार बालाओं के काम पर कानूनन रोक लगते ही बबली ने समझ लिया था कि अब उस का मुंबई में रह कर कोई दूसरा काम कर के अपना पेट भरना संभव नहीं है.

मुंबई के एक छोर से दूसरे छोर तक, जिधर भी जाएगी, लोगों की पहचान से बाहर न होगी. अत: उस ने मुंबई छोड़ देने का फैसला किया. गुजरात के सूरत जिले में उस की सहेली चंदा रहती थी. उस ने उसी के पास जाने का मन बनाया और एक दिन कुछ जरूरी कपड़े तथा बचा के रखी पूंजी ले कर सूरत के लिए गाड़ी पकड़ ली.

सूरत पहुंचने से पहले ही बबली ने चंदा के यहां जाने का अपना विचार बदल दिया क्योंकि ताड़ से गिर कर वह खजूर पर अटकना नहीं चाहती थी. चंदा भी सूरत में उसी तरह के धंधे से जुड़ी थी.

बबली के लिए सूरत बिलकुल अजनबी व अपरिचित शहर था जहां वह अपने पुराने धंधे को छोड़ कर नया जीवन शुरू करना चाहती थी. इसीलिए शहर के मुख्य बाजार में स्थित होटल में एक कमरा किराए पर लिया और कुछ दिन वहीं रहना ठीक समझा ताकि इस शहर को जानसमझ सके.

बबली को जब कुछ अधिक समझ में नहीं आया तो कुकरी का 3 माह का कोर्स उस ने ज्वाइन कर लिया. इसी दौरान बबली सरकारी अस्पताल से कुछ दूरी पर संभ्रांत कालोनी में एक कमरा किराए पर ले कर रहने लगी. कोर्स सीखने के दौरान ही उस ने अपने मन में दृढ़ता से तय कर लिया कि अब एक सभ्य परिवार में कुक का काम करती हुई वह अपना आगे का जीवन ईमानदारी के साथ व्यतीत करेगी.

कुकरी की ट्रेनिंग के बाद बबली को अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी. जल्दी ही उसे एक मनमाफिक विज्ञापन मिल गया और पता पूछती हुई वह सीधे वहां पहुंची. दरवाजे की घंटी बजाई तो घर की मालकिन वसुधा ने द्वार खोला.

बबली ने अत्यंत शालीनता से नमस्कार करते हुए कहा, ‘आंटी, अखबार में आप का विज्ञापन पढ़ कर आई हूं. मेरा नाम बबली है.’

‘ठीक है, अंदर आओ,’ वसुधा ने उसे अंदर बुला कर इधरउधर की बातचीत की और अपने यहां काम पर रख लिया.

अगले दिन से बबली ने काम संभाल लिया. घर में कुल 3 सदस्य थे. घर के मालिक अरविंद सिंह, उन की पत्नी वसुधा और इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा बेटा राजन.

बबली के हाथ का बनाया खाना सब को पसंद आता और घर के सदस्य जब तारीफ करते तो उसे लगता कि उस की कुकरी की ट्रेनिंग सार्थक रही. दूसरी तरफ बबली का मन हर समय भयभीत भी रहता कि कहीं किसी हावभाव से उस के नाचनेगाने वाली होने का शक किसी को न हो जाए. यद्यपि इस मामले में वह बहुत सजग रहती फिर भी 5-6 सालों तक उसी वातावरण में रहने से उस का अपने पर से विश्वास उठ सा गया था.

एक दिन शाम के समय परिवार के तीनों सदस्य आपस में बातचीत कर रहे थे. बबली रसोई में खाना बनाने के साथसाथ कोई गीत भी गुनगुना रही थी कि राजन की आवाज कानों में पड़ी, ‘बबलीजी, एक गिलास पानी दे जाना.’

गाने में मगन बबली ने गिलास में पानी भरा और हाथ में लिए ही अटकतीमटकती चाल से राजन के पास पहुंची और उस के होंठों से गिलास लगाती हुई बोली, ‘पीजिए न बाबूजी.’

राजन अवाक् सा बबली को देखता रह गया. वसुधा और अरविंद को भी उस का यह आचरण अच्छा न लगा पर वे चुप रह गए. अचानक बबली जैसे सोते से जागी हो और नजरें नीची कर के झेंपती हुई वहां से हट गई. बाद में उस ने अपनी इस गलती के लिए वसुधा से माफी मांग ली थी.

आगे सबकुछ सामान्य रूप से चलता रहा. बबली को काम करते हुए लगभग 2 माह बीत चुके थे. एक दिन शाम को वसुधा क्लब जाने के लिए तैयार हो रही थीं कि पति अरविंद भी आफिस से आ गए. वसुधा ने बबली से चाय बनाने को कहा और अरविंद से बोली, ‘मुझे क्लब जाना है और घर में कोई सब्जी नहीं है. तुम ला देना.’

‘डार्लिंग, अभी तो मुझे जाना है. हां, 1 घंटे बाद जब वापस आऊंगा तो उधर से ही सब्जी लेता आऊंगा,’ अरविंद बोले.

‘लेकिन सब्जी तो इसी समय के लिए चाहिए,’ वसुधा बोली, ‘ऐसा कीजिए, बबली को अपने साथ लेते जाइए और सब्जी खरीद कर इसे ही दे दीजिएगा. यह लेती आएगी.’

चाय पीने के बाद अरविंद ने बबली से चलने को कहा तो वह दूसरी तरफ का आगे का दरवाजा खोल कर उन की बगल की सीट पर धम से बैठ गई और जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी, अचानक अरविंद के कंधे पर हाथ मार कर बबली बोली, ‘अपन को 1 सिगरेट चाहिए, है क्या?’

अरविंद चौंक से गए. यह कैसी लड़की है? फिर बबली की आवाज कानों में पड़ी, ‘लाओ न बाबूजी, सिगरेट है?’

अरविंद ने गाड़ी रोक दी और उस की तरफ देखते हुए जोर से बोले, ‘बबली, आज तू पागल हो गई है क्या? सिगरेट पीएगी?’

अरविंद की आवाज बबली के कानों में गरम लावे जैसी पड़ी. तंद्रा टूटते ही उसे लगा कि अतीत के दिनों की आदतें उस पर न चाहते हुए भी जबतब हावी हो जाती हैं. अपने को संभालती हुई बबली बोली, ‘अंकल, आज मैं बहुत थकी हुई थी. आप की गाड़ी में हवा लगी तो झपकी आ गई. उसी में पता नहीं कैसेकैसे सपने आने लगे. जैसे कोई सिगरेट पीने को मांग रहा हो. माफ कीजिए अंकल, गलती हो गई.’ हाथ जोड़ कर बबली गिड़गिड़ाई.

अरविंद को बबली की यह बात सच लगी और वह चुप हो गए. कार आगे बढ़ी. ढेर सारी सब्जियां खरीदवा कर अरविंद ने बबली को घर छोड़ा और अपने काम से चले गए.

अरविंद ने इस घटना का घर पर कोई जिक्र नहीं किया. वह अनुमान भी नहीं लगा सके कि बबली बार बाला है पर उस की कमजोरी को उन्होंने भांप लिया था.

बबली को अपनी इस फूहड़ता पर बड़ी ग्लानि हुई. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इतना सावधान रहने पर भी उस से बारबार गलती क्यों हो जाती है. उस ने दृढ़ निश्चय किया कि वह भविष्य में अपने पर नियंत्रण रखेगी ताकि उस का काला अतीत आगे के जीवन में अपनी कालिमा न फैला सके.

बीतते समय के साथ सबकुछ सामान्य हो गया. बबली अपने काम में इस कदर तल्लीन हो गई कि सिगरेट मांगने वाली घटना को भूल ही गई.

एक दिन वसुधा ने बबली को चाबी पकड़ाते हुए कहा, ‘मुझे दोपहर बाद एक सहेली के घर जन्मदिन पार्टी में जाना है, तुम समय से आ कर खाना बना देना. मुझे लौटने में देर हो सकती है. राजन तो आज होस्टल में रुक गया है लेकिन अरविंदजी को समय से खाना खिला देना.’

‘जी, आंटी, लेकिन अगर साहब को आने में देर होगी तो मैं मेज पर उन का खाना लगा कर चली जाऊंगी.’

‘ठीक है, चली जाना.’

शाम को जल्दी आने की जगह बबली कुछ देर से आई तो देखा दरवाजा अंदर से बंद है. उस ने दरवाजे की घंटी बजाई तो अरविंद ने दरवाजा खोला. उसे कुछ संकोच हुआ. फिर भी काम तो करना ही था. सो अंदर सीधे रसोई में जा कर अपने काम में लग गई.

बरतन व रसोई साफ करने के बाद बबली बैठ कर सब्जी काट रही थी कि अरविंद ने कौफी बनाने के लिए बबली से कहा.

कौफी बना कर बबली उसे देने के लिए उन के कमरे में गई तो देखा, वह पलंग पर लेटे हुए थे और उन्होंने इशारे से कौफी की ट्रे को पलंग की साइड टेबल पर रखने को कहा.

बबली ने अभी कौफी की ट्रे रखी ही थी कि उन्होंने उस का हाथ पकड़ कर खींच लिया. वह धम से उन के ऊपर गिर पड़ी. उसे अपनी बांहों में भरते हुए अरविंद ने कहा, ‘जानेमन, तुम ने तो कभी मौका नहीं दिया, लेकिन आज यह सुअवसर मेरे हाथ लगा है.’

बबली अपने को उन के बंधन से छुड़ाते हुए बोली, ‘छोडि़ए अंकल, क्या करते हैं?’

लेकिन अरविंद ने उसे छोड़ने की जगह अपनी बांहों में और भी शक्ति के साथ जकड़ लिया. अपने बचने का कोई रास्ता न देख कर बबली ने हिम्मत कर के एक जोरदार तमाचा अरविंद के गाल पर जड़ दिया. अप्रत्याशित रूप से पड़े इस तमाचे से अरविंद बौखला से गए.

‘दो कौड़ी की छोकरी, तेरी यह हिम्मत,’ कहते हुए अरविंद उस पर जानवरों जैसे टूट पड़े थे कि तभी दरवाजे की घंटी बज उठी और उन की पकड़ एकदम ढीली पड़ गई.

बबली को लगा कि जान में जान आई और भाग कर उस ने दरवाजा खोल दिया. सामने वसुधा खड़ी थी. उन से बिना कुछ कहे बबली रसोई में खाना बनाने चली गई.

खाना बनाने का काम समाप्त कर बबली जाने के लिए वसुधा से कहने आई. वसुधा ने देखा खानापीना सबकुछ तरीके से मेज पर सज गया था. उस की प्रशंसा करती हुई वसुधा ने कहा, ‘बबली, मुझे तुम्हारा काम बहुत पसंद आता है. मैं जल्दी ही तुम्हारे पैसे बढ़ा दूंगी.’

इतने समय में बबली ने निश्चय कर लिया कि अब वह इस घर में काम नहीं करेगी. अत: दुखी स्वर में बोली, ‘आंटी, इतने दिनों तक आप के साथ रह कर मैं ने बहुत कुछ सीखा है लेकिन कल से मैं आप के घर में काम नहीं करूंगी. मुझे क्षमा कीजिएगा…मेरा भी कोई आत्म- सम्मान है जिसे खो कर मुझे कहीं भी काम करना मंजूर नहीं है.’

‘अरे, यह तुझे क्या हो गया? मैं ने तो कभी भी तुझे कुछ कहा नहीं,’ वसुधा ने जानना चाहा.

‘आप ने तो कभी कुछ नहीं कहा आंटी, पर मैं…’ रुक गई बबली.

अब वसुधा का माथा ठनका. वह सीधे अरविंद के कमरे में पहुंचीं और बोलीं, ‘आज आप ने बबली को क्या कह दिया कि वह काम छोड़ कर जाने को तैयार है?’

अरविंद ने अपनी सफाई देते हुए कहा, ‘हां, थोड़ा डांट दिया था. कौफी पलंग पर गिरा दी थी. लेकिन कह दो, अब कभी कुछ नहीं कहूंगा.’

पति की बात को सच मान कर वसुधा ने बबली को बहुतेरा समझाया लेकिन वह काम करने को तैयार नहीं हुई.

घर आ कर पहले तो बबली की समझ में नहीं आया कि अब वह क्या करे. अगले दिन जब तनावरहित हो कर वह आगे के जीवन के बारे में सोच रही थी तो उसे पड़ोस में रहने वाली हमउम्र नर्स का ध्यान आया. बस, उस के मन में खयाल आया कि क्यों न वह भी नर्स की ट्रेनिंग ले कर नर्स बन जाए और अपने को मानव सेवा से जोड़ ले. इस से अच्छा कोई दूसरा कार्य नहीं हो सकता.

उस नर्स से मिल कर बबली ने पता कर के नर्स की ट्रेनिंग के लिए आवेदनपत्र भेज दिया और कुछ दिनों बाद उस का चयन भी हो गया. ट्रेनिंग पूरी करने के बाद उसे सरकारी अस्पताल में नर्स की नौकरी मिल गई. नर्स के सफेद लिबास में वह बड़ी सुंदर व आकर्षक दिखती थी.

अस्पताल में डा. विक्रम सिंह की पहचान अत्यंत शांत, स्वभाव के व्यवहारकुशल और आकर्षक व्यक्तित्व वाले डाक्टर के रूप में थी. बबली को उन्हीं के स्टाफ में जगह मिली, तो साथी नर्सों से पता चला कि डा. विक्रम विधुर हैं. 2 साल पहले प्रसव के दौरान उन की पत्नी का देहांत हो गया था. उन की 1 साढ़े 3 साल की बेटी भी है जो अपनी दादीमां के साथ रहती है. इस हादसे के बाद से ही डा. विक्रम शांत रहने लगे हैं.

उन के बारे में सबकुछ जान लेने के बाद बबली के मन में डाक्टर के प्रति गहरी सहानुभूति हो आई. बबली का हमेशा यही प्रयास रहता कि उस से कोई ऐसा काम न हो जाए जिस से डा. विक्रम को किसी परेशानी का सामना करना पड़े.

अब सुबहशाम मरीजों को देखते समय बबली डा. विक्रम के साथ रहती. इस तरह साथ रहने से वह डा. विक्रम के स्वभाव को अच्छी तरह से समझ गई थी और मन ही मन उन को चाहने भी लगी थी लेकिन उस में अपनी चाहत का इजहार करने की न तो हिम्मत थी और न हैसियत. वह जब कभी डाक्टर को ले कर अपने सुंदर भविष्य के बारे में सोचती तो उस का अतीत उस के वर्तमान और भविष्य पर काले बादल बन छाने लगता और वह हताश सी हो जाती.

एक दिन डा. विक्रम ने उसे अपने कमरे में बुलाया तो वह सहम गई. लगा, शायद किसी मरीज ने उस की कोई शिकायत की है. जब वह डरीसहमी डाक्टर के कमरे में दाखिल हुई तो वहां कोई नहीं था.

डा. विक्रम ने बेहद गंभीरता के साथ उसे कुरसी पर बैठने का इशारा किया. वह पहले तो हिचकिचाई पर डाक्टर के दोबारा आग्रह करने पर बैठ गई. कुछ इधरउधर की बातें करने के बाद

डा. विक्रम ने स्पष्ट शब्दों में पूछा, ‘मिस बबली, आप के परिवार में कौनकौन हैं?’

‘सर, मैं अकेली हूं.’

‘नौकरी क्यों करती हो? घर में क्या…’ इतना कहतेकहते डा. विक्रम रुक गए.

‘जी, आर्थिक ढंग से मैं बहुत कमजोर हूं,’ डाक्टर के सवाल का कुछ और जवाब समझ में नहीं आया तो बबली ने यही कह दिया.

डा. विक्रम बेहिचक बोले, ‘बबलीजी, आप को मेरी बात बुरी लगे तो महसूस न करना. दरअसल, मैं आप को 2 कारणों से पसंद करता हूं. एक तो आप मुझे सीधी, सरल स्वभाव की लड़की लगती हो. दूसरे, मैं अपनी बेटी के लिए आप जैसी मां के आंचल की छांव चाहता हूं. क्या आप मेरा साथ देने को तैयार हैं?’

बबली ने नजरें उठा कर डा. विक्रम की तरफ देखा और फिर शर्म से उस की पलकें झुक गईं. उसे लगा जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. लेकिन सामने वह खामोश ही रही.

उसे चुप देख कर डा. विक्रम ने फिर कहा, ‘मैं आप पर दबाव नहीं डालना चाहता बल्कि आप की इच्छा पर ही मेरा प्रस्ताव निर्भर करता है. सोच कर बताइएगा.’

बबली को लगा कहीं उस के मौन का डा. विक्रम गलत अर्थ न लगा लें. इसलिए संकोच भरे स्वर में वह बोली, ‘आप जैसे सर्वगुण संपन्न इनसान के प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए मुझे सोचना क्या है? लेकिन मेरा अपना कोई नहीं है, मैं अकेली हूं?’

बबली का हाथ अपने हाथों में ले कर अत्यंत सहज भाव से डा. विक्रम बोले, ‘कोई बात नहीं, हम कोर्ट मैरिज कर लेंगे.’

बबली अधिक बोल न सकी. बस, कृतज्ञ आंखों से डा. विक्रम की तरफ देख कर अपनी मौन स्वीकृति दे दी.

विवाह से पहले विक्रम ने बबली को अपनी मां से मिलवाना जरूरी समझा. बेटे की पसंद की मां ने सराहना की.

बबली से कोर्ट मैरिज के बाद डा. विक्रम ने एक शानदार रिसेप्शन का आयोजन किया, जिस में उन के सभी रिश्तेदार, पड़ोसी, दोस्त तथा अस्पताल के सभी डाक्टर, नर्स व कर्मचारी शामिल हुए. हां, रिसेप्शन के निमंत्रणपत्र पर डा. विक्रम सिंह ने बबली का नाम बदल कर अपनी दिवंगत पत्नी के नाम पर आरती रख दिया था.

उन्होंने बबली से कहा था, ‘मैं चाहता हूं कि तुम को बबली के स्थान पर आरती नाम से पुकारूं. तुम को कोई आपत्ति तो न होगी?’

बबली उन की आकांक्षा को पूरापूरा सम्मान देना चाहती थी इसलिए सहज भाव से बोली, ‘आप जैसा चाहते हैं मुझे सब स्वीकार है. आप की आरती बन कर आप की पीड़ा को कम कर सकूं और तान्या को अपनी ममता के आंचल में पूरा प्यार दे सकूं इस से बढ़ कर मेरे लिए और क्या हो सकता है?’ इस तरह वह बबली से आरती बन गई.

अचानक तान्या के रोने की आवाज सुन कर बबली की तंद्रा टूटी तो वह उठ कर बैठ गई. सुबह हो गई थी. विक्रम अभी सो रहे थे. तान्या को थपकी दे कर बबली ने चुप कराया और उस के लिए दूध की बोतल तैयार करने किचन की तरफ बढ़ गई.

विक्रम की सहृदयता और बड़प्पन के चलते आज सचमुच सम्मान के साथ जीने की उस की तमन्ना का स्वप्न साकार हो गया और वह अपनी मंजिल पाने में सफल हो गई.

Holi 2023: हनीमून- रश्मि और शेफाली के साथ क्या हुआ

ऊंचाई पर मौसम के तेवर कुछ और थे. घाटियों में धुंध की चादरें बिछी थीं. जब भी गाड़ी बादलों के गुबार के बीच से गुजरती तो मुन्नू की रोमांचभरी किलकारी छूट जाती.

ऊंची खड़ी चढ़ाई पर डब्बे खींचते इंजन का दम फूल जाता, रफ्तार बिलकुल रेंगती सी रह जाती. छुकछुक की ध्वनि भकभक में बदल जाती, तो मुन्नू बेचैन हो जाता और कहता, ‘‘मां, गाड़ी थक गई क्या?’’

कहींकहीं पर सड़क पटरी के साथसाथ सरक आती. ऐसी ही एक जगह पर जब सामने खिड़की पर बैठी सलोनी सी लड़की ने बाहर निहारा तो समानांतर सड़क पर दौड़ती कार से एक सरदारजी ने फिकरा उछाला, ‘‘ओए, साड्डे सपनों की रानी तो मिल गई जी.’’

सरदारजी के कहे गए शब्दों को सुन कर लड़की ने सिर खिड़की से अंदर कर लिया.

यद्यपि सर्दी में वहां भीड़भाड़ कम थी, लेकिन फिर भी सर्दी के दार्जिलिंग ने कुछ अलग अंदाज से ही स्वागत किया. ऐसा भी नहीं कि पूरा शहर बिलकुल ही बियावान पड़ा हो. ‘औफ सीजन’ की एकांतता का आनंद उठाने के इच्छुक एक नहीं, अनेक लोग थे.

माल रोड पर मनभावन चहलपहल थी. कहीं हाथों में हाथ, कहीं बांहों में बांहें तो कहीं दिल पर निगाहें. धुंध में डूबी घाटियों की ओर खिड़कियां खोले खड़ा चौक रोमांस की रंगीनी से सरोबार था.

‘‘लगता है, देशभर के नवविवाहित जोड़े हनीमून मनाने यहीं आ गए हैं,’’ रोहित रश्मि का हाथ दबा कर आंख से इशारा करते हुए बोला, ‘‘क्यों, हो जाए एक बार और?’’

‘‘क्या पापा?’’ मुन्ने के अचानक बोलने पर रश्मि कसमसाई और रोहित ने अपनी मस्तीभरी निगाहें रश्मि के चेहरे से हटा कर दूर पहाड़ों पर जमा दीं.

‘‘पापा, आप क्या कह रहे हैं,’’ मुन्ने ने हठ की तो रश्मि ने बात बनाई, ‘‘पापा कह रहे हैं कि वापसी में एक बार और ‘टौय ट्रेन’ में चढ़ेंगे.’’

‘‘सच पापा,’’ किलक कर मुन्नू पापा से लिपट गया. फिर कुछ समय बाद बोला, ‘‘पापा, हनीमून क्या होता है?’’

इस से पहले कि रोहित कुछ कहे, रश्मि बोल पड़ी, ‘‘बेटा, हनीमून का मतलब होता है शादी के बाद पतिपत्नी का घर से कहीं बाहर जा कर घूमना.’’

‘‘मम्मी, क्या आप ने भी कहीं बाहर जा कर हनीमून किया था?’’

‘‘हां, किया था बेटे, नैनीताल में,’’ इस बार जवाब रोहित ने सहज हो कर दिया था.

‘‘क्या आप ने पहाड़ पर चढ़ कर गाना भी गाया था टैलीविजन वाले आंटीअंकल की तरह?’’

‘‘ओह,’’ बेटे के सामान्य ज्ञान पर रश्मि ने सिर थाम लिया और बात को बदलने का प्रयत्न किया.

‘‘नहीं, सब लोग टैलीविजन वाले आंटीअंकल जैसे गाना थोड़े ही गा सकते हैं. चलो, अब हम रोपवे पर घूमेंगे.’’

एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ के बीच की गहरी घाटियों के ऊपर झूलती ट्रालियों में सैर करने की सोच से मुन्ना रोमांचित हो उठा तो रश्मि ने राहत की सांस ली.

पर कहां? मुन्नू को तो नवविवाहित जोड़ों की अच्छी पहचान सी हो गई थी.

उस दिन होटल के ढलान को पार करने के बाद पहला मोड़ घूमते ही पहाड़ी कटाव के छोर पर एक नवविवाहित युगल को देख मुन्नू चहका और पिता के कान में फुसफुसाया, ‘‘पापा, पापा… हनीमून.’’

‘‘हिस,’’ होंठों पर उंगली रख कर रश्मि झेंपी. रोहित ने बेटे को गोद में उठा कर ऊपर हवा में उछाला.

दुनिया से बेखबर, बांहों में बाहें डाले प्रेमीयुगल एकदूसरे को आइसक्रीम खिलाने में मगन थे. उन की देखादेखी मुन्नू भी मचला, ‘‘पापा, हम भी आइसक्रीम खाएंगे.’’

‘‘अरे, इतनी सर्दी में आइसक्रीम?’’ रोहित ने बेटे को समझाया.

‘‘वे आंटीअंकल तो खा रहे हैं, पापा?’’ उस ने युगल की ओर उंगली उठा कर इशारा किया.

‘‘वह…वे तो हनीमून मना रहे हैं,’’ मौजमस्ती के मूड में रोहित फिर बहक रहा था.

‘‘हनीमून पर सर्दी नहीं लगती, पापा?’’ मुन्ने ने आश्चर्य जताया.

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं,’’ रोहित ने शरारतभरा अट्टाहास किया और बेटे को उकसाया, ‘‘अपनी मां से पूछ लो.’’

गुस्से से रश्मि तिलमिला कर रह गई. उस समय तो किसी तरह बात को टाला, पर अवसर मिलते ही पति को लताड़ा, ‘‘तुम भी रोहित, बच्चे के सामने कुछ भी ऊटपटांग बोल देते हो.’’

‘‘शाश्वत तथ्यों का ज्ञान जरूरी नहीं क्या,’’ रोहित ने खींच कर पत्नी को पास बैठा लिया, पर रश्मि गंभीर ही बनी रही.

रश्मि की चुप्पी को तोड़ते हुए रोहित बोला, ‘‘तुम तो व्यर्थ में ही तिल का ताड़ बनाती रहती हो.’’

‘‘मैं तिल का ताड़ नहीं बना रही. तुम सांप को रस्सी समझ रहे हो. जब देखो, बेटे को बगल में बैठा कर टैलीविजन खोले रहते हो. ये छिछोरे गाने, ये अश्लील इशारे, हिंसा, मारधाड़ के नजारे. कभी सोचा है कि इन्हें देखदेख कर क्या कुछ सीखसमझ रहा है हमारा मुन्नू. और अब यहां हर समय का यह हनीमून पुराण के रूप में तुम्हारी ठिठोलबाजी मुझे जरा भी पसंद नहीं है.’’

‘‘अरे, हम छुट्टियां मना रहे हैं, मौजमस्ती का मूड तो बनेगा ही,’’ रोहित रश्मि को बांहों में बांधते हुए बोला.

दार्जिलिंग की वादियों में छुट्टियां बिता कर वापस लौटे तो रोहित कार्यालय के कामों में पहले से भी अधिक व्यस्त हो गया. चूंकि मुन्नू की कुछ छुट्टियां अभी बाकी थीं, इसलिए रश्मि मुन्नू को रचनात्मक रुचियों से जोड़ने के लिए रोज  नईनई चीजों के बारे में बताती. चित्रमय किताबें, रंगारंग, क्रेयंस, कहानियां, कविताएं, लूडो, स्क्रेंबल, कैरम और नहीं तो अपने बचपन की बातें और घटनाएं मुन्नू को बताती.

एक दिन रश्मि बोली, ‘‘पता है मुन्नू, जब हम छोटे थे तब यह टैलीविजन नहीं था. हम तो, बस, रेडियो पर ही प्रोग्राम सुना करते थे.’’

‘‘पर मां, फिर आप छुट्टियों में क्या करती थीं?’’ हैरान मुन्नू ने पूछा.

‘‘छुट्टियों में हम घर के आंगन में तरहतरह के खेल खेलते, घर के पिछवाड़े में साइकिल चलाते और नीम पर रस्सी डाल कर झूला झूलते.’’

मां की बातें सुन कर मुन्नू की हैरानी और बढ़ जाती, ‘‘पर मां, झूला तो पार्क में झूलते हैं और साइकिल तुम चलाने ही नहीं देतीं,’’ इतना कह कर मुन्नू को जैसे कुछ याद आ गया और कोने में पड़े अपने तिपहिया वाहन को हसरतभरी निगाह से देखने लगा.

‘‘मां, मां, कल मैं भी साइकिल चलाऊंगा. शैला के साथ रेस होगी. तुम, बस, मेरी साइकिल नीचे छोड़ कर चली जाना.’’

रश्मि ने बात को हंसी में टालने का यत्न किया. स्वर को रहस्यमय रखते हुए वह बोली, ‘‘और पता है, क्याक्या करते थे हम छुट्टियों में…’’

‘‘क्या मां? क्या?’’ मुन्नू उत्सुकता से उछला.

‘‘गुड्डेगुडि़यों का ब्याह रचाते थे. नाचगाना करते थे. पैसे जोड़ कर पार्टी भी देते थे. इस तरह खूब मजा आता.’’

पर मुन्नू को इस तरह की बातों में उलझाए रखना बड़ा मुश्किल था. चाहे जितना मरजी बहलाओ, फुसलाओ, लेकिन घूमफिर कर वह टैलीविजन पर वापस आ जाता.

‘‘मां, अब मैं टीवी देख लूं?’’

रश्मि मनमसोस कर हामी भरती. कार्टून चैनल चला देती. डिस्कवरी पर कोई कार्यक्रम लगा देती, पर थोड़ी देर बाद इधरउधर होती तो मुन्नू पलक झपकते ही चैनल बदल देता और कमरे में बंदूकों की धायंधायं के साथ मुन्नू की उन्मुक्त हंसी सुनाई देती.

‘नासमझ बच्चे के साथ आखिर कोई कितना कठोर हो सकता है,’ रश्मि सोचती, ‘टैलीविजन न चलाने दूं तो दिनभर दोस्तों के पास पड़ा रहेगा. यह तो और भी बुरा होगा.’ इसी सोच से रश्मि ढीली पड़ जाती और बेटे की बातों में आ जाती.

‘‘मां, हम लोग बुधवार को पिकनिक पर जा रहे हैं,’’ उस दिन शाम को खेल से लौटते ही मुन्नू ने घोषणा की तो रश्मि को बहुत अच्छा लगा.

‘‘पर बेटे, बुधवार को कैसे चलेंगे, उस दिन तो तुम्हारे पापा की छुट्टी नहीं है.’’

‘‘नहीं मां, आप नहीं, हम सब दोस्त मिल कर जाएंगे,’’ मुन्नू ने स्पष्ट शब्दों में मां से कहा.

‘‘रविवार को पिकनिक मनाने हम सब एकसाथ चलेंगे बेटे. तुम अकेले कहां जाओगे?’’

‘‘हम सब जानते थे, यही होगा इसलिए हम लोगों ने छत पर पिकनिक मनाने का प्रोग्राम बनाया है,’’ मुन्नू किसी वयस्क की तरह बोला.

‘‘ओह, छत पर,’’ रश्मि का विरोध उड़नछू हो गया. मन ही मन वह खुश थी.

‘‘मां…मां, हम लोग दिनभर पिकनिक मनाएंगे. सब दोस्त एकएक चीज ले कर आएंगे,’’ इतना कह कर मुन्नू मां के गले में बांहें डाल कर झूल गया.

‘‘पर तुम सब मिला कर कितने बच्चे हो?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘चिंटू, मिंटू, सोनल, मीनल, मेघा, विधा…’’ हाथ की उंगलियों पर मुन्नू पहले जल्दीजल्दी गिनता गया, फिर रुकरुक कर याद करने लगा, ‘‘सोनाक्षी, शैला, शालू वगैरह.’’

‘‘ऐसे नहीं,’’ रश्मि ने उसे टोका, ‘‘कागजपैंसिल ले कर याद कर के लिखते जाओ, फिर सब गिन कर बताओ.’’

काम उलझन से भरा था, पर मुन्नू फौरन मान गया.

‘‘सब दोस्त मिल कर बैठो, फिर जरूरी सामान की लिस्ट बना लो. इस से तुम्हें बारबार नीचे नहीं उतरना पड़ेगा,’’ रश्मि ने बेटे को समझाया.

अगले 3 दिन तैयारी और इंतजार में बीते. मुन्नू का मन टैलीविजन से हटा देख रश्मि भी रम गई. वह भी बच्चों के साथ नन्ही बच्ची बन गई. उस का बस चलता तो बच्चों के साथ वह भी पिकनिक पर पहुंच जाती, पर बच्चे बहुत चालाक थे. उन के पास बड़ों का प्रवेश वर्जित था.

नन्हेमुन्नों का उल्लास देखते ही बनता था. आखिर वादविवाद, शोरशराबेभरी तैयारियां पूरी हुईं. पिकनिक वाले दिन मुन्नू मां की एक आवाज पर जाग गया. दूध और नाश्ते का काम भी झट निबट गया. 9 भी नहीं बजे थे कि नहाने और बननेठनने की तैयारी शुरू हो गई.

नहाने के बाद मुन्नू बोला, ‘‘मां, मेरा कुरतापजामा निकालना और अचकन भी.’’

‘‘अरे, तू पिकनिक पर जा रहा है या किसी फैंसी ड्रैस शो में.’’

‘‘नहीं मां, आज तो मैं वही पहनूंगा…’’ स्वर की दृढ़ता से ही रश्मि समझ गई कि बहस की कोई गुंजाइश नहीं है.

‘मुझे क्या,’ वाले अंदाज में रश्मि ने कंधों को सिकोड़ा और नीचे दबे पड़े कुरतापजामा व अचकन को निकाल लाई और प्रैस कर उन की सलवटों को भी सीधा कर दिया.

अचकन का आखिरी बटन बंद कर के रश्मि ने बेटे को अनुराग से निहारा और दुलार से उस के गाल मसले तो बस, छोटे मियां तो एकदम ही लाड़ में आ कर बोले, ‘‘मां…मां, तुम्हें पता है, सिंह आंटी कितनी कंजूस हैं.’’

‘‘मुन्नू…, बुरी बात’’, मां ने टोका.

‘‘सच मां, सब दोस्त कह रहे थे, पता है अंकुश पिकनिक में सिर्फ बिछाने की दरी ला रहा है.’’

‘‘तो क्या? बिछाने की दरी भी तो जरूरी है. फिर सिंह आंटी तो काम

पर भी जाती हैं. कुछ बनाने का समय नहीं होगा.’’

‘‘नकुल की मम्मी औफिस नहीं जातीं क्या? वह भी तो केक और बिस्कुट ला रहा है.’’

‘‘अच्छा, चुप रहो. अंकुश से कुछ कहना नहीं. वह तुम्हारा दोस्त है, मिलजुल कर खेलना,’’ रश्मि बेटे को समझाते हुए बोली.

तभी सामान उठाए सजेधजे शोर मचाते बच्चों के झुंड ने प्रवेश किया. लहंगे, कोटी और गोटेकिनारी वाली चूनर में ठुमकती नन्ही सी विधा अलग ही चमक रही थी.

‘‘आज कितनी सुंदर लग रही है मेरी चुनमुन,’’ लाड़ में आ कर रश्मि ने उसे गोद में उठा लिया.

‘‘पता है आंटी, आज इस की…’’ शादाब कुछ बोलता, उस से पहले मनप्रीत ने उसे जोर से टोक दिया. कुछ बच्चे उंगली होंठों पर रख कर शादाब को चुप रहने का संकेत करने लगे.

रश्मि समझ गई कि जरूर कोई बात है, जो छिपाई जा रही है पर उस ने कुछ भी न कहा, क्योंकि वह जानती थी कि शाम तक इन के सारे भेद बिल्ंिडग का हर एक फ्लैट जान जाएगा. इन नन्हेमुन्नों के पेट में कोई बात आखिर पचेगी भी कब तक?

सभी बच्चे अपनीअपनी डलियाकंडिया उठाए खड़े थे. कुछ मोटामोटा सामान पहले ही छत पर पहुंचाया जा चुका था. रोल की हुई दरी उठाए खड़े 4 बच्चे चलोचलो का शोर मचा रहे थे. मुन्नू की टोकरी भी तैयार थी. लड्डू का डब्बा, मठरियों का डब्बा, पेपर प्लेट्स और पेपर नैपकिंस आदि सभी रखे थे. रश्मि ने टोकरी ऊपर तक पहुंचाने की पेशकश की, पर मुन्नू ने उसे बिलकुल ही नामंजूर कर दिया.

यद्यपि छत की बनावट इस प्रकार की थी कि कोई दुर्घटना न हो, फिर भी रश्मि ने बच्चों को हिदायतें दीं. सबक देना अभिभावकों का स्वभाव जो ठहरा.

‘‘दीवारों पर उचकना नहीं और न ही पानी की टंकी पर, न छत पर. पहुंचते ही लिफ्ट का दरवाजा और फैन बंद कर देना,’’ सुनीसुनाई हिदायतें बारबार सुन कर बच्चे परेशान हो गए थे.

‘‘हम सब देख लेंगे, आप चिंता न करो और आप ऊपर न आना.’’

बाहर बराबर लिफ्ट का दरवाजा धमाधम बज रहा था. ऊपर आनेजाने के चक्कर जारी थे. कुछ बच्चे अभी भी लिफ्ट के इंतजार में बाहर दरवाजे पर खड़े थे. मुन्नू भी उन में शामिल हो गया. तभी 10वीं मंजिल के रोशनजी ने सीढि़यों से उतरते हुए बच्चों को धमकाया, ‘‘क्या धमाचौकड़ी मचा रखी है. बंद करो यह तमाशा. कब से लिफ्ट के इंतजार में था, पर यहां तो तुम लोगों का आनाजाना ही बंद नहीं हो रहा है.’’

बच्चों को डांटते हुए रोशनजी सामने वाले अली साहब के फ्लैट में हो लिए. रश्मि दरवाजे की ओट में थी.

तभी लिफ्ट के वापस आते ही रेलपेल मच गई. वहां खड़े सभी बच्चे अपनीअपनी डलियाकंडिया संभाले लिफ्ट में समा गए.

‘बाय मां’, ‘बाय आंटी’ के स्वर के साथ रश्मि का स्वर भी उभरा, ‘‘बायबाय बच्चो, मजे करो.’’

लिफ्ट के सरकते ही सीढि़यों में सन्नाटा सा छा गया. फ्लैट का दरवाजा बंद करते ही ऊपर से आती आवाजों का आभास भी बंद हो गया.

‘छत कौन सी बहुत दूर है, दिन में कई बार तो चक्कर लगेंगे,’ सोचती हुई रश्मि गृहस्थी सहेजनेसमेटने में जुट गई. सुबह से ही मुन्नू के कार्यक्रम की वजह से घर तो यों फैला पड़ा था जैसे कोई आंधीअंधड़ गुजरा हो.

घर समेट कर रश्मि सुपर बाजार का चक्कर भी लगा आई. दाल, चावल, मिर्च, मसाले, कुछ फलसब्जियां सब खरीद ली. डेढ़ बजे तक सबकुछ साफ संजो कर जमा भी दिया. इस बीच किसी भी बच्चे ने एक बार भी मुंह न दिखाया तो रश्मि को कुछ खटका सा लगा. दबेपांव वह ऊपर जा पहुंची और चुपके से अंदर झांका.

पिकनिक पार्टी जोरों पर थी. सीडी प्लेयर पर ‘दिल तो पागल…’ पूरे जोरशोर से बज रहा था. कुछ बच्चे गाने की धुन पर खूब जोश में झूम रहे थे. अनुराग कैमरा संभाले फोटोग्राफर बना हुआ था. ज्यादातर बच्चे मुन्नू और विधा को घेर कर बैठे थे. कोई कुछ कह रहा था, कोई कुछ सुन रहा था. कुल मिला कर समां सुहाना था. अपनी उपस्थिति जता कर बच्चों की मौजमस्ती में विघ्न डालना रश्मि को उचित न लगा, वह प्रसन्न, निश्ंिचतमन के साथ वापस उतर आई और टैलीविजन पर ‘आंधी’ फिल्म देखने बैठ गई.

लगभग साढ़े 4 बजे के करीब फोन की घंटी ने फिल्म का तिलिस्म तोड़ा, ‘‘हैलो,’’ दूसरी तरफ दूसरी मंजिल की शेफाली थी. वह अपनी नन्ही सी बेटी विधा के लिए बहुत चिंतित थी.

‘‘रश्मि, प्लीज एक बार जा कर देख तो आ. बच्चे तो सुबह के चढ़े एक बार भी नहीं उतरे…’’

‘‘अरे, बताया न, मैं ऊपर गई थी. सब बच्चे मजे में हैं. विधा भी खेल रही थी. देखना कुछ ही देर में उतर आएंगे,’’ रश्मि का सारा ध्यान अपनी फिल्म पर था, पर शेफाली अड़ी रही.

‘‘बस, एक सीढ़ी ही तो ऊपर जाना है. एक बार झांक आ न, प्लीज. मैं ही चली जाती पर कुछ लोग आ गए हैं. विधा ने पता नहीं कुछ खाया भी है कि नहीं. मैं तो समझती हूं वह जरूर सो गई होगी.’’

‘‘अच्छा बाबा, जाती हूं,’’ यद्यपि रश्मि को यह व्यवधान बहुत अखरा था फिर भी टीवी बंद कर के चाबी उठा कर चल पड़ी.

दिनभर के खेल से बच्चे शायद थक चुके थे. ऊपर अपेक्षाकृत शांति थी. छोटेछोटे खेमों में बंटे बच्चे आपस में धीरेधीरे बोल रहे थे. रश्मि ने तलाशा पर विधा और मुन्नू कहीं न दिखे. रश्मि की दृष्टि छत का ओरछोर नाप आई, पर मुन्नू और विधा कहीं न दिखे.

तभी बच्चों की नजर उस पर पड़ी और वे उछलनेकूदने लगे.

‘‘अरे, वे दोनों कहां गए,’’ पलभर को उछलकूद बंद हो गई और एकदम खामोशी छा गई. कुछ बच्चे हंसे, कुछ खिलखिलाए कुछ केवल मुसकराए. अजब रहस्यमय समां बंध गया था. रश्मि को अचरज भी हुआ और मन में डर भी लगा. इस बार उस ने कुछ जोर से पूछा, ‘‘कहां हैं मुन्नू और विधा?’’

उस की उत्तेजना पर बच्चे कुछ सकपका से गए. तब सोनाली ने भेद खोल दिया, ‘‘आंटी, हम ने तो उन की शादी कर दी.’’

‘‘क्या?’’ कुतूहल से उस की ओर देखती हुई रश्मि ने पूछा.

‘‘हां आंटी, छोटे में जैसे आप गुड्डेगुडि़यों की शादी करते थे न, वैसे ही…’’ तनय ने बात को और अधिक स्पष्ट किया.

‘‘पार्टी भी हुई आंटी…’’ प्रियज नाश्ते की प्लेट सजा लाया.

‘‘चलो, बड़ा काम निबट गया,’’ रश्मि ने चैन की सांस ली और केक का टुकड़ा खाते हुए बोली, ‘‘वे दोनों हैं कहां?’’

‘‘वे दोनों तो हनीमून पर चले गए.’’

‘‘क्या?’’ केक गले में जा अटका. रश्मि को जोर की खांसी आ गई.

‘‘पर कहां?’’ सहमनेसकपकाने की बारी अब रश्मि की थी. क्या पूछे, शब्द उसे ढूंढ़े न मिल रहे थे कि तभी उस की नजर दूर पानी की टंकी के पार से झांकती दो जोड़ी नन्हीमुन्नी टांगों पर जा पड़ी.

‘‘हूं, नदी के किनारे नहीं तो पानी की टंकी के पार ही सही, पट्ठों ने क्या जगह चुनी है हनीमून के लिए. जरा देखूं तो सही…’’

बच्चों का इरादा भांपते देर न लगी. सभी एक स्वर में बोले, ‘‘आंटी, शेमशेम. आप उधर कैसे जाएंगी?’’ रश्मि भौचक रह गई.

अब इस वर्जना को चुनौती दे कर नए जोड़े की एकांतता में खलल डाल खलनायिका बनने का साहस रश्मि में न था. इसलिए उस ने सहज दिखने का यत्न किया.

‘‘ठीक है, जाती हूं,’’ कंधे उचका कर वह मुसकराई और वापस पलटी. अपनी जीत पर बच्चों ने जोर का हुल्लड़ किया.

बेटा बिना बताए ही हनीमून पर निकल जाए तो मां अपने दिल को

कैसे समझाए, रश्मि से भी रहा न

गया. रेलिंग के साथ लगी सीमेंट की जाली में से अंदर का दृश्य साफ दिखाई दे रहा था.

लहंगा इधर तो चूनर उधर. दुलहन नींद से निढाल थी, पर रोमांच की रंगीनी को कायम रखने के प्रयत्न में दूल्हे ने एकलौते साझे लौलीपौप को पहले खुद चाटा, फिर लुढ़कतीपुढ़कती दुलहन के मुंह में ठूंस दिया.

‘हाय, 21वीं सदी का यह लौलीपौप लव,’ रश्मि सिर पीट कर रह गई, ‘चलूं, शेफाली को उस की बेटी की करतूतें बता दूं तथा लगेहाथ उसे खुशखबरी भी सुना दूं कि अब हम समधिन बन गई हैं,’ यह सोच कर रश्मि शेफाली के घर चल दी.

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