पीठ और कमर की देखभाल के लिए ज़रूरी टिप्स

लेखक- तोषी व्यास

पीठ, हमारे शरीर का अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा.  मगर परेशानी तब शुरू होती है जब इसी हिस्से के दर्द को शुरुवात में हल्के में लिया जाता है. रही सही कसर टीवी पर आने वाले  तरह-तरह के मरहम के विज्ञापन पूरी कर देते हैं.  कमर दर्द या पीठ का दर्द कई वजहों से हो सकता है जैसे रीढ़ की हड्डियों की कमजोरी या वहां पनप रही कोई समस्या, मांसपेशियों का मजबूत ना होना, किसी प्रकार की कोई नई अथवा पुरानी चोट आदि.

वजह छोटी हो या बड़ी जरूरी यह है कि बिना देर किए समय पर चिकित्सा सलाह लें.

कुछ छोटी-छोटी बातों को अगर ध्यान में रखेंगे तो कमर या पीठ की तकलीफ से बचा जा सकता है.

 पोश्चर – 

पोश्चर यानी आपके उठने, बैठने, सोने का सही तरीका.

अक्सर देखने में आता है जब भी हम किसी को सीधे बैठने के लिए कहते हैं  तो वो तन के बैठ जाते हैं और 5 से 10 मिनट बाद ही थक कर झुक जाते हैं, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आपकी मांसपेशियां तनी हुई होने के कारण ज्यादा काम कर रही होती हैं और जल्दी ही थक जाती हैं.  सीधे बैठने का अर्थ है सीधी पर आरामदायक अवस्था में पीठ का होना.

पिछले 1 साल में कमर दर्द के मरीजों में इजाफा हुआ है. कई लोग वर्क फ्रम होम होने के बाद से कमर दर्द से परेशान थे .

इसके पीछे सबसे बड़ा कारण पोश्चर का सही ना होना है. आप जब भी लंबे समय के लिए बैठे ध्यान  रखें कि आपकी कुर्सी आरामदायक हो. एर्गोनॉमिकली डिजाइन की गई कुर्सी आसानी से बाजार में उपलब्ध है, और अगर वह नहीं है तो बैठते वक्त एक तकिया आपकी कमर के पीछे लगाएं, ध्यान रखें कि तकिया ना तो बहुत कठोर हो ना ही मुलायम.  इसके अलावा एक टॉवल को रोल कर के अपनी गर्दन के पीछे रखें .

ये भी पढ़ें- Vegan Diet को हेल्दी बनाएंगे प्रोटीन से भरपूर ये 5 Food

पैरों को नीचे लटकाने की बजाय उन्हें किसी स्टूल या पटे पर रखें.  दोनों पैरों के बीच में कंधे जितनी  दूरी रखें.

 लिफ्टिंग पोश्चर –

जब भी आपको कोई सामान नीचे से उठाना हो चाहे छोटा सा हो या बड़ा, आप कभी भी कमर को ना झुकाएं.  झुकना कमर के लिए घातक हो सकता है, इसके बजाय दोनों घुटनों को मोड़कर  बैठते हुए फिर उठाएं.  यदि कोई सामान नीचे से उठाना है और घुटनों में तकलीफ है तो कोई छोटे बाथरूम स्टूल वगैरह का इस्तेमाल कर सकते हैं, उस पर बैठे और फिर उठाएं. झुक कर कभी भी कोई भी चीज ज़मीन से ना उठाएं.

फ्रिज के निचले हिस्से से बार बार कुछ निकालना हो तो भी छोटे स्टूल का इस्तेमाल करें.

एक्सरसाइज-

एरोबिक एक्सरसाइज जैसे तेज़ चलना, तैराकी, साइकिल चलाना आदि और मांसपेशियों को मजबूती प्रदान करने वाली यानी मसल्स स्ट्रैंथनिंग एक्सरसाइज,  दोनों ही प्रकार के व्यायाम आपकी पीठ के लिए जरूरी हैं. आप मसल स्ट्रैंथनिंग में केवल पीठ के व्यायाम ना करते हुए पीठ और पेट दोनों के  लिए व्यायाम करिए.  लचीलापन बना रहे इसलिए स्ट्रेचिंग ज़रूर करें.  ब्रीदिंग एक्सरसाइज को भी अपने रूटीन में  शामिल करें. एक्सरसाइज शुरू करने से पहले विशेषज्ञ की सलाह अवश्य लें.

 डायट- 

हाई प्रोटीन डाइट और हाई कैलशियम डायट का उपयोग करें . दही, मट्ठा, छाछ या अन्य डेयरी पदार्थ और प्रोटीन से भरपूर जैसे साबुत अनाज, अंडे आदि जरूर अपनी डाइट में शामिल करें.

स्लीपिंग पोश्चर –

6 से 8 घंटे की भरपूर नींद लें और ध्यान रखें सोते वक्त आपका गद्दा आरामदायक हो  और आपकी कमर को अच्छी तरह से सपोर्ट करता हों.  गद्दा ना बहुत मुलायम रखें ना ही बहुत कड़क.  जितना गद्दा फर्म होगा उतना ही आपकी कमर के लिए अच्छा है.

रूटीन मेडिकल चेकअप –

समय-समय पर अपना मेडिकल चेकअप ज़रूर  करवाते रहें और खासकर आपका सीरम कैल्शियम और विटामिन डी का टेस्ट समय समय पर जरूर करवाते रहें ताकि समय रहते आप किसी भी कमी को पूरा कर सकें.

ये भी पढ़ें- Asthma रोगियों को हो सकता है स्लीप एपनिया

नशे से दूरी बनाएं-

किसी भी तरह के नशे से दूर रहें. अल्कोहल या शराब, सिगरेट, तंबाकू आदि के नशे से जितना हो सके दूर रहें.

ध्यान रखें कि आपका शरीर एक ही अवस्था में लंबे समय तक ना रहे. यदि बैठ कर लंबे समय काम करते हैं तो छोटे छोटे ब्रेक लें जैसे हर 40 से 50 मिनिट पर अपनी कुर्सी से उठें, स्ट्रेचिंग करें, पानी पिएं और फिर काम शुरू करें.

ऊपर दी गई बातों को ध्यान में रखने के बाद भी यदि कमर दर्द होता है तो बिना देर किए विशेषज्ञ  की सलाह लें.

  डॉ. तोषी व्यास

  सीनियर फ़िज़ियोथैरेपिस्ट

  भोपाल

Asthma रोगियों को हो सकता है स्लीप एपनिया

रात को सांस लेने में तकलीफ के चलते बारबार आंख खुलने की समस्या से अगर आप परेशान हैं तो इस की वजह स्लीप एपनिया हो सकती है. इस बीमारी में रात को सोते समय ऊपरी एयरवेज ब्लौक होने से सांस लेने में परेशानी होने लगती है. इस बीमारी में सांस 10 से 20 सैकंड के बीच रुकती है. लेकिन समस्या यह है कि ऐसा रात में कई बार होता है और इस वजह से रोगी रातभर सो नहीं पाता.

रात को नींद न पूरी होने के कारण उसे दिनभर नींद की झपकियां आती रहती हैं और चिड़चिड़ाहट रहती है. इस बीमारी की वजह से दुर्घटना होने का खतरा भी बढ़ जाता है.

आंकड़ों के अनुसार, औब्सट्रैक्टिव स्लीप एपनिया यानी ओएसए से 5 में से 1 वयस्क पुरुष प्रभावित है. सांस से जुड़ी बीमारियों में अस्थमा के बाद यह दूसरी ऐसी बीमारी है जिस की सब से ज्यादा पहचान हुई है. जिन लोगों को यह बीमारी होती है उन की गरदन की मांसपेशियां सोते समय शिथिल हो जाती हैं जिस से एयरवेज सिकुड़ जाते हैं और सांस लेने में तकलीफ होने लगती है.

ओएसए से उपजी बीमारियां

ओएसए से रोगी को डायबिटीज, हाई ब्लडप्रैशर, दिल की बीमारियां, स्ट्रोक और वजन बढ़ने जैसी समस्याएं हो सकती हैं. ओएसए और ब्रोनकिल अस्थमा एकदूसरे से जुड़े हुए हैं.

हालिया कुछ अंतर्राष्ट्रीय अध्ययनों से पता चला है कि अस्थमा के रोगियों में ओएसए होने का खतरा ज्यादा रहता है. कई अस्थमा रोगियों को पता ही नहीं चलता कि वे ओएसए से पीडि़त हैं और इस वजह से वे ओएसए का इलाज नहीं कराते. इस कारण उन्हें बारबार अस्थमा का अटैक पड़ता है और लगातार दवाइयों की जरूरत रहती है. इसलिए, स्लीप एपनिया के बारे में जानना और इस का एडवांस तकनीकों से इलाज करा कर जिंदगी को बेहतर बनाना जरूरी है.

ये भी पढ़ें- जब फेल हो जाएं ओवरीज…

इलाज है जरूरी

अगर स्लीप एपनिया ज्यादा गंभीर नहीं है तो लाइफस्टाइल में बदलाव कर के ठीक किया जा सकता है. इस में वजन कम करना और सोने के तरीके को बदलने जैसे जीवनशैली से जुड़े बदलाव शामिल हैं. लेकिन गंभीर मामलों में, जहां ओएसए से डायबिटीज, हाई ब्लडप्रैशर और हार्ट अटैक जैसी बीमारियां जुड़ी हों, मैडिकल की नई तकनीकों की मदद से नजात पाया जा सकता है.

अब मैडिकल टैक्नोलौजी की सहायता से ओएसए का समय पर पता लगाया जा सकता है और इस का इलाज किया जा सकता है. मैडिकल की नई तकनीकों की मदद से स्लीप एपनिया के रोगियों की एयरवेज को खोला जाता है ताकि रोगी आसानी से सांस ले कर रातभर चैन की सांस ले सके.

उपयोगी उपकरण

सीपीएपी मशीन, मुंह के उपकरण और खासतौर पर तैयार किए गए तकियों की मदद से ओएसए को नियंत्रित किया जा सकता है. आमतौर पर मेनडीबुलर एडवांसमैंट डिवाइस यानी एमएडी का इस्तेमाल किया जाता है. इसे ऊपर व नीचे के दांतों में लगा दिया जाता है और निचले जबड़ों को आगे ला कर जीभ व तालू को स्थिर रखा जाता है, जिस से सोते समय आसानी से सांस ली जा सके.

कौंटीन्यूअस पौजिटिव एयरवे प्रैशर थेरैपी यानी सीपीएपी स्लीप एपनिया के इलाज में बेहद कारगर है. इस में नाक के ऊपर मास्क लगाया जाता है, जो नाक और मुंह में प्रैशर डालता है और इस से सोते समय सांस की नलियां खुली रहती हैं.

इस के अलावा, जीभ को स्थिर रखने का उपकरण भी इस्तेमाल किया जाता है, जो एयरवेज को खोलता है. कई तरह के तकिए भी डिजाइन किए गए हैं जिन्हें सीपीएपी मशीन के साथ या इस के बिना इस्तेमाल किया जा सकता है. जिन लोगों को सीपीएपी मशीन लगाने में मुश्किल होती है, उन के लिए कुछ नर्व स्टीमुलेशन उपकरण भी उपलब्ध हैं.

साल 2014 में शोधकर्ताओं ने नया इलाज ढूंढ़ा था जिस में जब शरीर को सांस लेने की जरूरत होगी तो सैंसर तंत्रिकाओं को स्टीमुलेट करेंगे और रोगी सांस लेने में सक्षम होगा.

सर्जरी भी है विकल्प

सर्जरी की मदद से भी ओएसए का इलाज किया जाता है. इस में ऊपरी एयरवेज, मुंह के ढांचे और मोटापे के रोगियों की बेरिएट्रिक सर्जरी कर के इलाज किया जाता है. सर्जरी रोगी की स्थिति के अनुसार ही की जाती है. हाल ही में हुई नई खोजों ने सर्जरी को काफी आसान व सुरक्षित कर दिया है जिस में लेजर एसिड युविलोपेलेटोप्लौस्टी, रेडियो फ्रिक्वैंसी एबलेशन, पेलेटल इंप्लांट और ऊपरी एयरवेज मांसपेशियों में इलैक्ट्रिकल स्टीमुलेशन शामिल हैं.

ये भी पढ़ें- इन आदतों से बढ़ता है किडनी फेल होने का खतरा, पढ़ें खबर

इस के अलावा, इंस्पायर नाम की थेरैपी में ब्रीदिंग सैंसर, स्टीमुलेशन लीड और छोटी बैटरी/कंप्यूटर प्रत्यारोपित किया जाता है. इस इलाज में भी काफी सफलता मिली है. सो, स्लीप एपनिया की बीमारी से जुड़े लक्षणों को पहचानें और एडवांस तकनीकों की मदद से इलाज करवाएं ताकि आप रात को चैन की नींद का लुत्फ सकें. अगर इसे सामान्य बीमारी समझ कर अनदेखा करेंगे तो बाद में यह लापरवाही बड़ी मुसीबत बन सकती है.

(लेखक नई दिल्ली स्थित नैशनल हार्ट इंस्टिट्यूट में सीनियर कंसल्टैंट हैं.)

इन आदतों से बढ़ता है किडनी फेल होने का खतरा, पढ़ें खबर

भारत में किडनी फेलियर के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं. अक्सर लोग डॉक्टर की सलाह लेने के बजाय सीधे मेडिकल स्टोर से सिरदर्द और पेट दर्द की दवाएं लेकर खा लेते हैं. इनसे किडनी को नुकसान पहुंचता है. आज हम उन आदतों के बारे में बता रहे हैं जो किडनी में प्रॉब्लम की वजह बन रही हैं.

1. ज्यादा नमक खाना

ज्यादा नमक खाने से किडनी खराब हो सकती हैं. नमक में मौजूद सोडियम ब्लड प्रेशर बढ़ाता है, जिससे किडनी पर बुरा असर पड़ता है.

2. ज्यादा नॉनवेज खाना

मीट में पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन होता है. ज्यादा मात्रा में प्रोटीन डाइट लेने से किडनी पर मेटाबॉलिक लोड बढ़ता है, जिससे किडनी स्टोन की समस्या हो सकती है.

3. बहुत ज्यादा दवाएं

छोटी-छोटी समस्या आने पर एंटीबायोटिक या ज्यादा पेनकिलर्स लेने की आदत किडनी पर बुरा असर डाल सकती है. डॉक्टर्स से पूछे बगैर ऐसी दवाएं न लें.

ये भी पढ़ें- अब मुमकिन है Fistula का आसान इलाज

4. शराब पीना

ज्यादा मात्रा में और नियमित अल्कोहल के सेवन से आपके लिवर और किडनी पर बहुत बुरा असर पड़ता है. ज्यादा कोल्ड ड्रिंक भी नुकसानदेह होती है.

5. सिगरेट या तंबाकू

सिगरेट या तंबाकू के सेवन से टॉक्सिंस जमा होने लगते हैं, जिससे किडनी डैमेज होने की समस्या हो सकती है. इससे बीपी भी बढ़ता है, जिसका असर किडनी पर पड़ता है.

6. यूरिन रोक कर रखना

यूरिन रोककर रखने पर ब्लैडर फुल हो जाता है. यूरिन रिफ्लैक्स की समस्या होने पर यूरिन ऊपर किडनी की ओर आ जाती है. इसके बैक्टीरिया के कारण किडनी इंफेक्शन हो सकता है.

7. पानी कम या ज्यादा पीना

रोज 8-10 गिलास पानी पीना जरूरी होता है. इससे कम पानी पीने पर शरीर में जमा टॉक्सिंस किडनी फंक्शन पर बुरा असर डालते हैं. ज्यादा पानी पीने पर भी किडनी पर प्रेशर बढ़ता है.

8. ओवर ईटिंग

सामान्य लोगों की तुलना में मोटे लोगों की किडनी डैमेज होने का खतरा कई गुना ज्यादा बढ़ जाता है. ओवर ईटिंग से वजन तेजी से बढ़ता है, इसलिए ज्यादा खाने से बचें.

9. पूरी नींद न लेना

स्टडी की मानें तो रोज 7-8 घंटे से कम सोने वालों को हाई ब्लड प्रेशर और हार्ट डिजीज का खतरा ज्यादा होता है. ऐसे में किडनी डिजीज की आशंका बढ़ जाती है.

ये भी पढ़ें- क्या आपको सुबह उठने पर थकान महसूस होती है?

अब मुमकिन है Fistula का आसान इलाज

जैसे-जैसे आधुनिकता बढ़ रही है वैसे-वैसे बीमारियों का प्रकोप भी तेजी से लोगों को अपनी चपेट में ले रहा है. अब कुछ बीमारियां तो इतनी आम हो गई हैं कि हर घर में आप को उन के मरीज मिल जाएंगे. ऐसी ही एक बीमारी है एनल फिस्टुला. इस रोग में एनल द्वार के आसपास एक छेद बन जाता है, जिस से पस निकलता है और रोगी काफी तेज दर्द महसूस करता है. समुचित इलाज न होने पर फोड़ा बन जाते हैं. यही नहीं फिस्टुलारूपी यह समस्या कालांतर में कैंसर और आंतों की टीबी का भी कारण बन सकती है.

लक्षण:

इस रोग के अंतर्गत मलत्याग करते वक्त बहुत अधिक पीड़ा होती है और मल के साथ पस अथवा रक्त बाहर आता है. इस रोग के कारण एनल क्षेत्र में तेज खुजली और जलन होती है. कुछ मरीजों को डायरिया और बुखार भी हो जाता है. इस का शिकार होने के बाद भूख नहीं लगती, पेट साफ नहीं रहता और रोगी का वजन भी घटता जाता है. फिस्टुला की भीतरी दीवारों पर फाइबर टिशूज तथा पेयोजेनिक मैंबे्रन विकसित हो जाते हैं जो घाव को स्वाभाविक रूप से सूखने नहीं देते. साथ ही एनल में तेज दर्द होता है. बैठने पर दर्द अधिक बढ़ जाता है और त्वचा लाल हो जाती है. वह फट भी सकती है.

कारण:

इस का कारण एनल कनाल की कोशिकाओं में होने वाला संक्रमण है. यह संक्रमण रैक्टम में सामान्य तौर पर पहले से ही मौजूद बैक्टीरिया के प्रसार के कारण होता है. अगर शुरुआती दौर में ही इस संक्रमण को खत्म करने का प्रयास किया जाए तो इसे विकसित होने से रोका जा सकता है. लेकिन समस्या यह है कि अकसर मरीज को इस का पता ही नहीं चलता और वह यह समझता है कि कब्ज की वजह से उसे मल त्याग करते वक्त दर्द हो रहा है. जब घाव गहरा हो जाता है और मलद्वार से रक्त और पस बाहर आने लगता है तब यह एहसास होता है कि मरीज एनल फिस्टुला का शिकार हो गया है.

ये भी पढ़ें- क्या आपको सुबह उठने पर थकान महसूस होती है?

जांच प्रक्रिया:

फिस्टुला की जांच के लिए गुदा परीक्षण किया जाता है, लेकिन कई रोगियों को इस के अलावा अन्य परीक्षणों की जरूरत भी पड़ सकती है जैसे फिस्टुलोग्राम और फिस्टुला के भाग को देखने के लिए एमआरआई जांच.

उपचार:

यह रोग की ऐसी स्थिति होती है जब सिर्फ औपरेशन ही इलाज का एक मात्र रास्ता रह जाता है.

परंपरागत सर्जरी:

फिस्टुला की परंपरागत सर्जरी को फिस्टुलैक्टोमी कहा जाता है. सर्जन इस सर्जरी के जरीए भीतरी मार्ग से ले कर बाहरी मार्ग तक की संपूर्ण फिस्टुला को निकाल देते हैं. इस सर्जरी में आमतौर पर टांके नहीं लगाए जाते हैं. जख्म को धीरेधीरे और प्राकृतिक तरीके से भरने दिया जाता है. इस उपचार विधि में दर्द होता है और उपचार के असफल होने की संभावना रहती है. अंदर के मार्ग और बगल में मल त्याग में दिक्कत होती है. फिस्टुला की सर्जरी से होने वाले जख्म को भरने में 6 सप्ताह से ले कर 3 माह तक का समय लग जाता है.

नवीनतम उपचार:

वीडियो असिस्टेड एनल फिस्टुला ट्रीटमैंट (वीएएएफटी) सुरक्षित और दर्द रहित उपचार है. यह डे केयर सर्जरी है यानी रोगी सुबह अस्पताल आता है और उसी दिन शाम को चला जाता है. यही नहीं, वीएएएफटी को दोबारा होने से रोकता है. इस सर्जरी में माइक्रो ऐंडोस्कोप का इस्तेमाल किया जाता है, जिसे पूरे फिस्टुला मार्ग में ले जाया जा सकता है. उस दौरान फिस्टुला को देखा जा सकता है. इस स्थिति में सर्जन को विशेष विद्युतीय करंट के जरीए फिस्टुला को नष्ट करने में मदद मिलती है.

ये भी पढ़ें- जानें क्या है हैटेरोटोपिक Pregnancy

सर्जन फिस्टुला के मार्ग को ठीक तरीके से बंद करने के लिए एक विशिष्ट फाइब्रिन ग्लू का इस्तेमाल करते हैं, जिस से कोई जख्म नहीं रहता है और इसीलिए अधिक दिनों तक ड्रैसिंग की जरूरत नहीं होती. इस कारण मलमूत्र को नियंत्रित करने वाली मांसपेशियों को किसी तरह की क्षति नहीं पहुंचती और मलमूत्र

त्यागने की क्रिया सामान्य बनी रहती है. लेकिन पारंपरिक ओपन सर्जरी में मांसपेशियों को नुकसान पहुंचने का खतरा बरकरार रहता है.

-डा. आशीष भनोत

अपोलो स्पैक्ट्रा हौस्पिटल्स, नई दिल्ली

जानें क्या है हैटेरोटोपिक Pregnancy

कुछ अरसा पहले गुड़गांव स्थित पारस अस्पताल में एक दुर्लभ मामला तब सामने आया जब 32 वर्षीय पूजा हांडा को पेट में तेज दर्द और योनि से अनियमित रक्तस्राव के चलते अस्पताल लाया गया. जांच करने पर उस में हैटेरोटोपिक प्रैगनैंसी का पता चला. इस समस्या की पहचान करने में 1 माह का समय लग गया. 1 महीना पहले उस की एमटीपी कराई गई. तब वह 7 सप्ताह की गर्भवती थी. एमटीपी के पहले ही उसे पैल्विक क्षेत्र में दर्द था और सर्जरी के द्वारा गर्भपात करने के बाद भी उसे दर्द रहता था. इस स्थिति में यूटरस और फैलोपियन ट्यूब में प्रैगनैंसी एकसाथ होती है. इसलिए संभवतया इस डायग्नोसिस के बारे में नहीं सोचा जाता है.

हैटेरोटोपिक प्रैगनैंसी है क्या

हैटेरोटोपिक प्रैगनैंसी एक असामान्य अवस्था है, जिस में 2 या 3 से अधिक गर्भधारण एक ही समय पर अलगअलग स्थानों यानी गर्भाशय के भीतर और बाहर दोनों जगह हो जाते हैं. हैटेरोटोपिक प्रैगनैंसी के मामले बहुत ही कम देखने को मिलते हैं. भारत में 10 से 30 हजार गर्भवती महिलाओं में से 1 को यह समस्या होती है. अमेरिका और पश्चिमी देशों में जरूर लगभग 2% महिलाओं में यह समस्या पाई जाती है. हाल ही में हुए कई अध्ययनों से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार इस प्रकार के मामले असिस्टेड रिप्रोडक्शन आईवीएफ में अधिक देखे गए हैं. आईवीएफ के दौरान हाइड्रोस्टैटिक प्रैशर उत्पन्न होता है, जिस से भू्रण को गर्भाशय में हस्तांतरित करने के दौरान खतरा और अधिक बढ़ने की आशंका बनी रहती है. पिछले कुछ वर्षों से हैटेरोटोपिक प्रैगनैंसी के मामलों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, क्योंकि गर्भधारण के लिए आईवीएफ और दूसरी असिस्टेड रिप्रोडक्टिव तकनीकों का उपयोग काफी बढ़ रहा है.

बढ़ जाता है मृत्यु का खतरा

आंकड़ों के अनुसार गर्भावस्था और प्रसूति के दौरान होने वाली कुल मौतों में से 10 से 15% का कारण हैटेरोटोपिक प्रैगनैंसी है. चूंकि इस का डायग्नोसिस कठिन होता है, इसलिए इस के कारण होने वाला रक्तस्राव घातक साबित होता है.

ये भी पढ़ें- 5 Tips: जब अक्ल दाढ़ का दर्द सताए…

कारण

हाल में हुए सर्वेक्षणों के अनुसार उन महिलाओं में हैटेरोटोपिक प्रैगनैंसी होने का खतरा 35% होता है, जिन में पहले भी यह समस्या हुई हो. 31% में श्रोणि सूजन की बीमारी पहले से हो सकती है. 33% महिलाओं में जिन की पहले पुनर्निर्माण ट्यूबल सर्जरी हुई होती है उन में भी इस की आशंका बढ़ जाती है. वैसे हैटेरोटोपिक प्रैगनैंसी के अधिकांश मामले असिस्टेड रिप्रोडक्टिव तकनीकों से ही संबंधित होते हैं. इस के अलावा उन महिलाओं में भी इस की आशंका बढ़ जाती है जो तंबाकू का सेवन करती हैं.

लक्षण

पेट के निचले भाग में दर्द हैटेरोटोपिक प्रैगनैंसी का सब से सामान्य लक्षण है. योनि से रक्तस्राव और पेट की बाईं ओर दर्द होना भी इस का लक्षण है. कई महिलाओं में हैटेरोटोपिक प्रैगनैंसी के कारण आंतरिक रक्तस्राव भी होता है.

रिस्क फैक्टर्स

निम्न परिस्थितियां हैटेरोटोपिक प्रैगनैंसी के खतरे को बढ़ा देती हैं:

  1. जिन महिलाओं में पहले भी हैटेरोटोपिक प्रैगनैंसी हुई हो.
  2. संक्रमण जिस के कारण फैलोपियन ट्यूब की सामान्य अवस्था गड़बड़ा जाती है. इस के कारण फैलोपियन ट्यूब्स क्षतिग्रस्त हो जाती हैं या उन में रुकावट आ जाती है, जिस से हैटेरोटोपिक प्रैगनैंसी का खतरा बढ़ जाता है.
  3. फैलोपियन ट्यूब्स का ट्यूमर भी महिलाओं में हैटेरोटोपिक प्रैगनैंसी का खतरा बढ़ा देता है.
  4. पैल्विक क्षेत्र का संक्रमण भी इस का खतरा बढ़ा देता है.
  5. कई लोगों से शारीरिक संबंध होने के कारण भी संक्रमण की आशंका बढ़ जाती है.
  6. गर्भधारण के समय में सिगरेट पीने से भी हैटेरोटोपिक प्रैगनैंसी की आशंका बढ़ जाती है.

डायग्नोसिस

हैटेरोटोपिक प्रैगनैंसी का डायग्नोसिस ब्लड हारमोन टैस्ट और पैल्विक अल्ट्रासाउंड के द्वारा किया जाता है. पैल्विक क्षेत्र में होने वाले दर्द और प्रजनन की उम्र में रक्तस्राव की कभी अनदेखी न करें. कोई भी गर्भवती चाहे वह प्राकृतिक रूप से गर्भवती हुई हो या असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टैक्नोलौजी के द्वारा, अगर वह पेट दर्द की शिकायत करती है तो जो विभिन्न डायग्नोसिस किए जाते हैं उन में हैटेरोटोपिक प्रैगनैंसी की संभावना का भी ध्यान रखना चाहिए.

ये भी पढ़ें- अगर आप सलाद नहीं खाती हैं तो…

उपचार

इस का उपचार सर्जरी और दवाओं दोनों के द्वारा किया जाता है. हैटेरोटोपिक प्रैगनैंसी के लिए पारंपरिक सर्जरी के बजाय लैप्रोस्कोपी सर्जरी ही डाक्टर और मरीज की प्राथमिकता होनी चाहिए, क्योंकि इस में रक्तस्राव और दर्द कम होता है. फिर अस्पताल में भी अधिक दिनों तक नहीं रहना पड़ता. ठीक होने में भी कम समय लगता है और खर्च भी अधिक नहीं आता.

-डा. नुपुर गुप्ता

कंसलटैंट ओब्स्टिट्रिशन ऐंड गाइनोकोलौजिस्ट, पारस अस्पताल, गुड़गांव

5 Tips: जब अक्ल दाढ़ का दर्द सताए…

अगर आपकी अक्ल दाढ़ आ चुकी है तो आपको इसके दर्द का अंदाजा होगा और अगर आपकी अक्ल दाढ़ अभी तक नहीं आई है तो आपको बता दें कि ये काफी दर्दभरा अनुभव होता है.

ज्यादातर लोगों की अक्ल दाढ़ (विज्डम टुथ) 17 से 25 साल के बीच में आ जाती है लेकिन कई लोगों में ये 25 के बाद भी आती है. ये हमारे मुंह के सबसे आखिरी, मजबूत दांत होते हैं और सबसे अंत में आते हैं.

सबसे पहले तो ये जानना जरूरी है कि विज्डम टुथ आने के पहले दर्द क्यों होता है. दरअसल, विज्डम टुथ सबसे अंत में आते हैं और इसके चलते उन्हें मुंह में पूरी जगह नहीं मिल पाती. इसकी वजह जब ये दांत आते हैं तो बाकी के दांतों को भी पुश करते हैं. इसके साथ ही मसूड़ों पर भी दवाब बनता है. इस वजह से दांतों में दर्द, मसूड़ों में सूजन और असहजता की शिकायत हो जाती है.

इस दौरान न केवल तेज दर्द होता है बल्क‍ि कई बार मुंह से दुर्गंध, खाने में तकलीफ और सिर दर्द की शिकायत भी हो जाती है. अक्ल दाढ़ का दर्द कभी भी हो सकता है और ये कम से कम एक या दो दिन तक तो रहता ही है. ऐसे में आप चाहें तो इन घरेलू उपायों को अपनाकर इस दर्द से राहत पा सकते हैं.

1. लौंग

दांत के दर्द के लिए हममें से ज्यादातर लोग लौंग का इस्तेमाल करते हैं. अक्ल दाढ़ निकलने के दौरान भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है. इसका anesthetic और analgesic गुण दर्द को शांत करने में मददगार होता है. इसके अलावा इसका एंटी-सेप्टिक और एंटी-बैक्टीरियल गुण भी इंफेक्शन नहीं होने देता है. आप चाहें तो कुछ लौंग मुंह में रख सकते हैं या फिर उसके तेल का भी इस्तेमाल कर सकते हैं.

ये भी पढ़ें- अगर आप सलाद नहीं खाती हैं तो…

2. नमक

दांत दर्द में नमक का इस्तेमाल करना भी बहुत फायदेमंद होता है. ये मसूड़ों की जलन को कम करने में मददगार है. इसके अलावा नमक के इस्तेमाल से इंफेक्शन का खतरा भी कम हो जाता है.

3. लहसुन

लहसुन में antioxidant, antibiotic, anti-inflammatory और दूसरे कई औषधीय गुण पाए जाते हैं जो अक्ल दाढ़ के दर्द को कम करने में मदद करते हैं. ये मुंह के बैक्टीरिया को भी पनपने नहीं देता.

4. प्याज

प्याज में एंटी-सेप्ट‍िक, एंटी-बैक्टीरियल और दूसरे कई गुण पाए जाते हैं. इसके इस्तेमाल से दांत दर्द में आराम मिलता है. ये मसूड़ों को भी इंफेक्शन से सुरक्षित रखने में मददगार है.

5. अमरूद की पत्त‍ियां

अमरूद की पत्तियां दांत दर्द में दवा की तरह काम करती हैं. अमरूद की पत्त‍ियों में anti-inflammatory और antimicrobial गुण भी पाया जाता है जो दांत दर्द में फायदेमंद है.

ये भी पढ़ें- इन 12 मसालों से स्वाद बढ़ाएं और बनाएं सेहत

अस्थमा में मुझे क्या करना चाहिए?

सवाल-

मेरी उम्र 28 वर्ष है. पिछले कुछ महीनों से मुझे सांस लेने में तकलीफ महसूस हो रही है. दवा लेने पर ठीक हो जाती है, लेकिन यह परेशानी बारबार हो जाती है. क्या मुझे अस्थमा है और मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब-

सांस लेने में तकलीफ होना अस्थमा का लक्षण हो सकता है परंतु अकेला एक लक्षण अस्थमा नहीं घोषित किया जा सकता है. अगर सांस लेने में तकलीफ है तो डाक्टर से अपनी जांच कराएं क्योंकि यह लक्षण आप के अन्य स्वास्थ्य कारणों से भी हो सकता है. अस्थमा में केवल सांस लेने में दिक्कत ही नहीं बल्कि खांसी, घबराहट तथा सीने में जकड़न भी होती है.

ये भी पढ़ें- मुझे फैटी लिवर की प्रौब्लम डाइग्नोज हुई है, मैं क्या करुं?

ये भी पढ़ें- 

अस्थमा की बीमारी एक सामान्य और लंबे समय तक रहने वाली बीमारी है. वेस्ट इंडिया के लोगों में ये बीमारी हर 10 में से एक व्यक्ति को प्रभावित करती है. एक शोध से पता चला है कि अस्थमा मोटे लोगों को ज्यादा होता है. यदि ठीक से व्यायाम किया जाए और रोज के खाने में प्रोटीन, फलों और सब्जियों का सेवन किया जाए तो अस्थमा के रोगियों की हालत में सुधार लाया जा सकता है.

अस्‍थमा या दमा फेफड़ो को प्रभावित करती है. यह एक ऐसी बीमारी है जिसमें फेफड़ो तक सही मात्रा में आक्सीजन नहीं पंहुच पाता और सांस लेने में तकलीफ बढ़ जाती है. आस्थमा अटैक कभी भी कहीं भी हो सकता है. आस्थमा अटैक तब होता है जब धूल के कण आक्सीजन ले जाने वाली नलियों को बंद कर देते हैं. आस्थमा के अटैक से बचने के लिए जितनी जल्‍दी हो सके दवाईयों या इन्‍हेलर का प्रयोग किया जाना चाहिए.

दमे के दौरान अपनाएं ये उपाय

दमे के मरीजों को चावल, तिल, शुगर और दही जैसे कफ या बलगम बनाने वाले पदार्थ, तले हुए खाद्य पदार्थ खाने से बचना चाहिए. ताजे फलों का रस दमे को रोगी के लिए बेहद फायदेमंद है. उन्हें हरी सब्जियां और अंकुरित चने जैसे खाद्य पदार्थ भरपूर मात्रा में ले और भूख से कम ही खाना खाये. दिनभर में कम से कम दस गिलास पानी पीये. तेज मसाले, मिर्च अचार, अधिक चाय-काफी के सेवन से बचें. मरीज को रोजाना योगासन और प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए. रोगी को एनीमा देकर उसकी आंतों की सफाई करनी चाहिए.

समय रहते करवाएं Alzheimer का इलाज

मुंबई की कांदिवली ईस्ट में स्टेशन के पास 70 साल का एक कमजोर बुजुर्ग आने-जाने वालों से कांपते हुए दोनों हाथ फैलाकर खाने के पैसे मांग रहा था, पर उसका पहनावा भिखारी जैसी नहीं थी, हल्के रंग की फुल शर्ट और डार्क ब्लू कलर की पेंट उसने पहन रखी थी. आने-जाने वाले सभी उसे कुछ पैसे देते रहे और वह उसे जोड़कर अपनी बैग में भर रहा था कि एक 15 साल का मवाली लड़का उसके पास आया और उससे पैसे छिनने लगा,बुजुर्ग व्यक्ति रोते हुए उसे ऐसा न करने के लिए कह रहा था. आने-जाने वाले लोग इसे देखकर हँसते हुए चले जा रहे थे. मुझे गुस्सा आया और मैंने उसे डांटकर भगाने की कोशिश की, पहले उसने मेरी बात सुनने से मना किया, पर कई और महिलाओं को शामिल होता देख भाग खड़ा हुआ. सभी के जाने के बाद उस रोते हुए बुजुर्ग से उसकी इस हालात के बारें में पूछने पर पता चला कि उसे उसका बेटा रोज यहाँ छोड़कर जाता है और शाम को ले जाता है. इसके अलावा वह कुछ नहीं बता पाया.

ये सही है कि अल्ज़ाइमर्स डिसीज़ मेंडिमेंशिया 60 से 70 प्रतिशतलोगों में होता है. असल में डिमेंशिया मस्तिष्क के कार्य जैसे मेमरी, भाषा, प्लानिंग, ऑर्गेनाइज़ेशन और बिहेवियर को प्रभावित करता है. उम्र के बढ़ने के साथ-साथ डिमेंशिया का खतरा अधिक होता है.इतना ही नहीं ऐसे व्यक्ति कुछ नयी सूचना को ग्रहण नहीं कर सकते मसलन टीवी की रिमोट का संचालन, मोबाइल चलाना या किचन की सामग्री को सही ढंग से प्रयोग करना आदि. यह बीमारी हर व्यक्ति को उम्र बढ़ने से नहीं होता. डिमेंशिया के कुछ मेटाबोलिक कारणों (विटामिन बी 12 की कमी, हाइपोथायरायडिज्म) को जल्दी इलाज करने पर इससे रिवर्स किया जा सकता है.

इस बारें में मुंबई की ग्लोबल हॉस्पिटल की मनोचिकित्सक डॉ संतोष बांगरअल्ज़ाइमर्स डे पर जागरूकता फ़ैलाने के उद्देश्य से कहते है कि लोग कई बार इस बीमारी को न समझ कर झाड़-फूंक या इस बीमारी से पीड़ित पेरेंट्स को बाहर छोड़ देते है, जो बहुत दुखदायी है और डॉक्टर के पास बहुत देर से आते है, जिससे उन्हें ठीक करना मुश्किल हो जाता है. इसके कुछ शुरूआती लक्षण निम्न है,

शुरूआती लक्षण

  • उम्र बढ़ने के साथ-साथ भाषा अस्पष्ट होना,
  • कम समय के लिए मेमोरी लॉस होना,
  • जीवन की महत्वपूर्ण बातों को भूल जाना
  • एक बात को बार-बार पूछना या याद करने की कोशिश करना
  • अपने परिवारजन को भूल जाना आदि है.

इसके अलावा कभी-कभी मानसिक स्वास्थ्य में बदलाव मसलन एंग्जायटी, डिप्रेशन, हैल्युसिनेशन, नींद की गड़बड़ी आदि जल्दी दिखने वाली विशेषता हो सकती है.

ये भी पढ़ें- स्लिप डिस्क से हैं परेशान? अपनाएं ये Tips

उपचार

इलाज के बारें में पूछने पर डॉ. संतोष कहते है कि अल्ज़ाइमर की बीमारी एक सदी से अधिक पुराना है, लेकिन इसका कोई सटीक इलाज नहीं है, लेकिन इस रोग को बढ़ने से रोका जा सकता है. एंटी-डिमेंशिया दवाओं को अल्ज़ाइमर, मिक्स्ड डिमेंशिया, लेवी बॉडी डिमेंशियाऔर पार्किंसन डिसीज़ डिमेंशिया के इलाज को सरकार की तरफ से वैध घोषित किया गया है, लेकिन एसिटाइलकोलाइनरसायन की कम आपूर्ति से रोगी को समय पर दवा नहीं मिल पाता. वास्क्युलर डिमेंशिया का इलाज उच्च बीपी, बढे हुए लिपिड, ब्रेन स्ट्रोक आदि की रोकथाम के लिए धूम्रपान बंद करने और नियमित व्यायाम करने से इसके रिस्क फैक्टर को कम किया जा सकता है. सामान्य उपाय मसलन हेल्दी फ़ूड , नियमित व्यायाम, पर्याप्त नींद, मेडिटेशन से स्ट्रेस मनेजमेंट, स्मरण थिरेपी,पेट्स थिरेपी, संगीत चिकित्सा सभी डिमेंशिया को कम करने में प्रभावशाली होते है. इसके अलावा क्रॉसवर्ड, सुडोकू, आर्ट थेरेपी जैसी व्यक्तिकेंद्रित गतिविधियों की मदद से कॉग्निटिव स्टिम्युलेशन थेरपी (सीएसटी) फायदेमंद हो सकती है.

डिमेंशिया और मानसिक स्वास्थ्य

डिमेंशिया के दौरान मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव सबसे अधिक होता है. डॉ. संतोष कहते है कि इसका इलाज दवा और मनोवैज्ञानिक थेरेपीको सम्मिलित कर किया जाना चाहिए. एक अच्छी रात की नींद इन मरीजों के लिए हो पाना मुश्किल होता है. अधिकतर इन्हेंसोने में कठिनाई, रात में बार-बार जागना,रात को भटकना, दिन में झपकी लेना या अत्यधिक नींद आना आदि है. वैज्ञानिक और शोधकर्ता आजतक पूरी तरह से निश्चित नहीं हो पाए है कि अल्ज़ाइमर डिसीज़ और अन्य डिमेंशिया वाले लोगों में नींद की समस्या का कारण क्या हो सकता है? असल में यह ब्रेन के अंदर परिवर्तन का होना है, जो शरीर की बॉडी क्लॉक में समस्या पैदा कर सकता है, जिससे यह जानना कठिन हो जाता है कि कब दिन और कब रात होते है. इसके अलावा, एक  उत्तेजक रसायन, एसिटाइलकोलाइन की कमी अत्यधिक नींद का कारण बन सकती है.

देखा जाय तो अधिकतर वृद्धों में कम नींद होती है और ये साधारण बात है, जिसके कारण वे अधिक बार जग जाते है. डिमेंशिया कई लोगों को वास्तविकता, पिछली यादों और सपनों को लेकर एक भ्रम फैला सकता है, ऐसा व्यक्ति सपने से जाग जाने पर उसको दिन मान लेते है.

चिकित्सीय समस्या

चिकित्सीय समस्या के बारें में डॉक्टर कहते है कि कुछ स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं और दवाएं नींद को प्रभावित कर सकती है. इनमें रेस्टलेस लेग्स सिंड्रोम, स्लीप एपनिया (जोरदार खर्राटे लेना और दिन में नींद आना) और आरईएम स्लीप बिहेवियर डिसऑर्डर (साफ़ख़राब सपने देखना और उसका अभिनय करना) शामिल है. अन्य कारणों के अंतर्गत गतिविधि की कमी, डिप्रेशन और बोरडम भी अत्यधिक नींद का कारण बन सकते है. इस समस्या से निपटने के सुझाव निम्न है,

ये भी पढ़ें- सिंगल वूमन के लिए जरूरी हैं ये 7 मैडिकल टैस्ट

  • सुनिश्चित करें कि सोने का वातावरण आरामदायक हो,
  • कमरे में ब्लाइंड्स या ब्लैकआउट पर्दे लगाने पर विचार करें, ताकि नीद से जागने पर अंधेरा देखे और फिर से सो जाय,
  • पलंग के बगल में घड़ी लगाएं,
  • सोने के समय के करीब आने पर कैफीन और शराब का सेवन न करें, क्योंकि इससे नींद में बाधा पड़ सकती है. अधिक मात्रा में भोजन और मीठा भोजन लेने से भी नींद आना कठिन हो सकता है,
  • बॉडी क्लॉक को नियंत्रित करने के लिए दिन के उजाले में अधिक समय तक जगे रहे,दिन की शुरुआत में हल्का व्यायाम नींद को प्रोत्साहित कर सकता है,
  • सोने से पहले आराम करें, गुनगुने पानी से नहाने की कोशिश करें, संगीत सुनें और उनके तकिये पर लैवेंडर की खुशबू लगायें, ताकि उन्हें अपने आसपास एक अच्छे माहौल का आभास हो.

स्लिप डिस्क से हैं परेशान? अपनाएं ये Tips

स्लिप डिस्क यानी कि कमर के निचले हिस्से, रीढ़ की हड्डी या फिर कमर के बीच होने वाला दर्द. ऐसे बहुत से लोग हैं जो स्लिप डिस्क की समस्या से परेशान हैं. इस समस्या में सबसे पहले रीढ की हड्डी पर दर्द होना शुरू होता है. कई बार कमर का निचला हिस्सा सुन्न भी पड़ जाता है. धीरे-धीरे नसों पर दवाब भी महसूस होना शुरू हो जाता है. परेशानी बढ़ने पर जरा सा झुकना भी मुश्किल हो जाता है. इससे धीरे-धीरे कमजोरी भी आनी शुरू हो जाती है. ऐसी स्थिति में ज्यादा देर तक खड़े रहना मुश्किल हो जाता है और बैठ कर उठने में भी परेशानी होती है. आज हम आपको स्लिप डिस्क में काम आने वाले घरेलू उपचार के बारे में बताने जा रहे हैं लेकिन इससे पहले आप जानिए स्लिप डिस्क के कारण.

ये हो सकते हैं स्लिप डिस्क के कारण

लोगों को होने वाली छोटी-छोटी परेशानी स्लिप डिस्क का कारण बन सकती है. मांसपेशियों में कमजोरी, शरीर में कैल्शियम की कमी, जरूरत से ज्यादा वजन उठाना, लगातार झुकरकर बैठना और गलत पोजीशन में बैठना भी स्लिप डिस्क के कारण हो सकते हैं. इसके अलावा अधिक समय तक कंप्यूटर या लैपटाप के आगे बैठना, जादा देर तक लेट कर या झुक कर कोई काम करना स्लिप डिस्क के कारण हैं. वहीं प्रेग्नेंसी के दौरान प्रेग्नेंट महिलाओं को कमर दर्द की शिकायत हो सकती है. गर्भ में बच्चे के बढ़ने से कमर पर दबाव बढ़ता है जिससे स्लिप डिस्क की शिकायत हो सकती है.

ये भी पढ़ें- सिंगल वूमन के लिए जरूरी हैं ये 7 मैडिकल टैस्ट

स्लिप डिस्क के लिए घरेलू उपचार

  • पांच लौंग और पांच काली मिर्च पीस लें और इसमें सुखी अदरक का पाउडर भी मिला लें. इस मिश्रण को चाय की तरह एक काढ़ा बना कर दिन में दो बार पिएं.
  • दो ग्राम दालचीनी पाउडर और एक चम्मच शहद मिला लें. दिन में दो बार इसका सेवन करें, इससे बैक पैन में राहत मिल सकेगी.
  • स्लिप डिस्क में भारी सामान बिल्कुल न उठाएं. कमर दर्द और स्लिप डिस्क की समस्या से बचने के लिए अपनी लाइफ स्टाइल में सुधार करें.
  • मांसपेशियां मजबूत करने और दर्द से छुटकारा पाने के लिए डाक्टर या आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह से कुछ दर्द निवारक दवा (मेडिसिन) ले सकते हैं.
  • मोटापा बढ़ने का असर भी रीढ़ की हड्डी पर पड़ता है इसलिए अपना वजन नियंत्रण में रखे और पेट की चर्बी ना बढ़ने दे.
  • बड़ी हिल्स के जूते या सैंडल पहनने से बचें.
  • सोने के लिए स्प्रिंग वाले और मुलायम गद्दे की बजाय सख्त गद्दा प्रयोग करें इससे कमर सीधा रहेगा और पूरी कमर पर एक जैसा दबाव पड़ेगा.
  • व्यायाम करने से शरीर की मांसपेशियां मजबूत होती हैं. जो लोग नियमित रूप से योगा या एक्सरसाइज करते हैं उन्हें स्लिप डिस्क में फायदा होता है.

ये भी पढ़ें- माइक्रोवेव में न रखें ये बर्तन, हो सकता है नुकसान

मुझे फैटी लिवर की प्रौब्लम डाइग्नोज हुई है, मैं क्या करुं?

सवाल-

मेरी उम्र 39 वर्ष है. मैं ने अपना यूसीजी कराया जिस में फैटी लिवर की प्रौब्लम डाइग्नोज हुई है. मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब-

फैटी लिवर एक मैडिकल कंडीशन है जिस में लिवर में फैट (जिसे हम चरबी कहते हैं) का जमाव हो जाता है. इस का कारण शराब का सेवन, अनावश्यक दवाइयों का सेवन और कुछ प्रकार के वायरस का इन्फैक्शन हो सकता है. आजकल के दौर में इस का एक प्रमुख कारण हमारी अनियंत्रित जीवनशैली और उस से जुड़ी बीमारियां भी हैं.

फैटी लिवर की समस्या दवा से ठीक हो सकती है. व्यक्ति को दवा के साथसाथ अपने वजन को नियंत्रित करना बेहद आवश्यक है. इस के लिए आप अच्छा हैल्दी भोजन करें, व्यायम करें, खूब पानी पीएं, चीनी का कम सेवन करें, कोलैस्ट्रौल और वजन कम रखें, ओमेगा-3 का सेवन करें. कौफी पीएं. शराब का सेवन न करें.

ये भी पढ़ें- 

शरीर के सब से महत्त्वपूर्ण अंगों में शुमार होता है लिवर. यह शरीर का सब से बड़ा भीतरी अंग है जो स्वस्थ शरीर के अस्तित्व के लिए जरूरी कई रासायनिक क्रियाओं के लिए जिम्मेदार है.

लिवर एक ग्रंथि भी है क्योंकि यह ऐसे रसायनों का स्राव भी करता है जिस का इस्तेमाल शरीर के अन्य अंग करते हैं. अपने अलग अलग तरह के कार्यों के कारण यह एक अंग और ग्रंथि दोनों में शुमार होता है. यह शरीर के सामान्य ढंग से काम करने के लिए जरूरी रसायनों का निर्माण करता है. यह शरीर में बनने वाले तत्त्वों को छोटेछोटे हिस्सों में तोड़ता है और जहरीले तत्त्वों को खत्म करता है. साथ ही, यह स्टोरेज यूनिट की तरह भी काम करता है.

हेप्टोसाइट्स (हेपट-लिवर+ साइट-सेल) शरीर में कई प्रकार के  प्रोटीन के  निर्माण के लिए जिम्मेदार होते हैं जिन की अलगअलग कार्यों के लिए जरूरत होती है. इन में ब्लड क्लौटिंग और एल्बुमिन शामिल हैं जिन की सर्कुलेशन सिस्टम  के भीतर फ्लुइड बनाए रखने के लिए जरूरत होती है.

लिवर कोलैस्ट्रौल और ट्रिग्लीसेराइड्स बनाने के लिए जिम्मेदार होते हैं. कार्बोहाइड्रेट्स का निर्माण भी लिवर में होता है और यह अंग ग्लूकोज को ग्लूकोजेन में बदलने के लिए जिम्मेदार है जिन्हें लिवर में और मांसपेशियों की कोशिकाओं में स्टोर किया जा सकता है.

लिवर बाइल भी बनाता है जो खाना पचाने में मदद करते हैं. लिवर शरीर में उपापचयी प्रक्रिया के सहउत्पाद अमोनिया को यूरिया में बदल कर शरीर को जहरीले तत्त्वों से मुक्त करने में अहम भूमिका निभाता है जिसे किडनी द्वारा पेशाब मार्ग से शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है. यह अल्कोहल समेत दवाओं को भी तोड़ता है और यह शरीर में इंसुलिन व दूसरे हार्मोंस को तोड़ने के लिए भी जिम्मेदार होता है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें