सरहद पार से : अपने सपनों की रानी क्या कौस्तुभ को मिल पाई

‘इंडोपाक कल्चरल मिशन’ के लिए जिन 5 शिक्षकों का चयन हुआ है उन में एक नाम कौस्तुभ का भी है. अभी 2 साल पहले ही तो आई.आई.टी. कानपुर से एम. टेक. करने के बाद प्रवक्ता के पद पर सीधेसीधे यहीं आया था. स्टाफ रूम के खन्ना सर किसी न किसी बहाने लाहौर की चर्चा करते रहते हैं. वह आज तक इतने और ऐसे ढंग से किस्से सुनाते रहे हैं कि लाहौर और खासकर अनारकली बाजार की मन में पूरी तसवीर उतर गई है. इस चयन से कौस्तुभ के तो मन की मुराद पूरी हो गई.

सुनयनाजी बेटे कौस्तुभ की शादी के सपने देखने लगी हैं. ठीक भी है. सभी मातापिता की इच्छा होती है बेटे को सेहरा बांधे, घोड़ी पर चढ़ते देखने की. छमछम करती बहू घर में घूमती सब को अच्छी लगती है. सुबहसुबह चूडि़यां खनकाती जब वह हाथ में गरमागरम चाय का प्याला पकड़ाती है तो चाय का स्वाद ही बदल जाता है. फिर 2-3 साल में एक बच्चा लड़खड़ाते कदम रखता दादी पर गिर पड़े तो क्या कहने. बस, अब तो सुनयनाजी की यही तमन्ना है. उन्होंने तो अभी से नामों के लिए शब्दकोष भी देखना शुरू कर दिया है. उदयेशजी उन के इस बचकानेपन पर अकसर हंस पड़ते हैं, ‘क्या सुनयना, सूत न कपास जुलाहे से लट्ठमलट्ठा वाली कहावत तुम अभी से चरितार्थ कर रही हो. कहीं बात तक नहीं चली है, लड़का शादी को तैयार नहीं है और तुम ने उस के बच्चे का नाम भी ढूंढ़ना शुरू कर दिया. लाओ, चाय पिलाओ या वह भी बहू के हाथ से पिलवाने का इरादा है?’

‘आप तो मेरी हर बात ऐसे ही मजाक में उड़ा देते हैं. शादी तो आखिर होगी न. बच्चा भी होगा ही. तो नाम सोचने में बुराई क्या है?’

यह बोल कर सुनयना किचन में चली गईं और 2 कप चाय ले कर आईं. एक कप उन्हें पकड़ाया और दूसरा अपने सामने की तिपाई पर रखा. प्याला होंठों से लगाते हुए उदयेशजी ने फिर चुटकी ली, ‘अच्छा बताओ, क्या नाम सोचा है?’

‘अरे, इतनी जल्दी दिमाग में आता कहां है. वैसे भी मैं नाम रखने में इतनी तेज कहां हूं. तेज तो सुमेघा थी. उस ने तो मेरी शादी तय होते ही मेरे बेटे का नाम चुन लिया था. उसी का रखा हुआ तो है कौस्तुभ नाम.’

‘अच्छा, मुझे तो यह बात पता ही नहीं थी,’ उदयेशजी की आवाज में चुहल साफ थी, ‘हैं कहां आप की वह नामकर्णी सहेलीजी. आप ने तो हम से कभी मिलवाया ही नहीं.’

‘क्यों, मिलवाया क्यों नहीं, शादी के बाद उस के घर भी हो आए हैं आप. कितनी बढि़या तो दावत दी थी उस ने. भूल गए?’ उलाहना दिया सुनयनाजी ने.

‘अरे हां, वह लंबी, सुंदर सी, बड़ीबड़ी आंखों वाली? अब कहां है? कभी मिले नहीं न उस के बाद? न फोन न पत्र? बाकी सहेलियों से तो तुम मिल ही लेती हो. विदेश में कहीं है क्या?’ उदयेशजी अब गंभीर थे.

‘वह कहां है, इस की किसी को खबर नहीं.’

बचपन की सहेली का इस तरह गुम हो जाना सुनयनाजी की जिंदगी का एक बहुत ही दुखदायी अनुभव है. वह अकसर उन की फोटो देख कर रो पड़ती हैं.

कौस्तुभ समेत 5 शिक्षकों और 50 छात्रों का यह दल लाहौर पहुंच गया है. लाहौर मुंबई की तरह पूरी रात तो नहीं पर आधी रात तक तो जागता ही रहता है. शहर के बीचोबीच बहती रोशनी में नहाई नहर की लहरें इस शहर की खूबसूरती में चार चांद लगा देती हैं. एक रात मेहमानों का पूरा दल अलमहरा थिएटर में नाटक भी देख आया.

लाहौर घूम कर यह दल पाकिस्तान घूमने निकला. हड़प्पा देखने के बाद दल ननकाना साहब भी गया. गुजरांवाला की गलियां और कराची की हवेलियां भी देखी गईं. पाकिस्तान का पंजाब तो उन्हें भारत का पंजाब ही लगा. वही सरसों के लहलहाते खेत और तंदूर पर रोटी सेंकती, गाती हुई औरतें. वही बड़ा सा लस्सी भर गिलास और मक्के की रोटी पर बड़ी सी मक्खन की डली. 55 भारतीयों ने यही महसूस किया कि गुजरे हुए 55 सालों में राजनेताओं के दिलों में चाहे कितनी भी कड़वाहट आई हो, आम पाकिस्तानी अब भी अपने सपनों में अमृतसर के गलीकूचे घूम आता है और हिंदू दोस्तों की खैरखबर जानने को उत्सुक है.

कौस्तुभ की अगवाई में 10 छात्रों ने लाहौर इंजीनियरिंग कालिज के 25 चुने हुए छात्रों से मुलाकात की. भारतपाक विद्यार्थी आपस में जितने प्रेम से मिले और जिस अपनेपन से विचारों का आदान- प्रदान किया उसे देख कर यही लगा कि एक परिवार के 2 बिछुड़े हुए संबंधी अरसे बाद मिल रहे हों. और वह लड़की हाथ जोड़ सब को नमस्ते कर रही है. कौस्तुभ के पूछने पर उस ने अपना नाम केतकी बताया. गुलाबी सूट में लिपटी उस लंबी छरहरी गोरी युवती ने पहली नजर में ही कौस्तुभ का दिल जीत लिया था.

 

रात में कौस्तुभ बड़ी देर तक करवटें बदलता रहा. उस की यह बेचैनी जब डा. निरंजन किशोर से देखी नहीं गई तो वह बोल पड़े, ‘‘क्या बात है, कौस्तुभ, लगता है, कहीं दिल दे आए हो.’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं है पर न जाने क्यों उस लड़की के खयाल मात्र से मन बारबार उसी पर अटक रहा है. मैं खुद हैरान हूं.’’

‘‘देखो भाई, यह कोई अजीब बात नहीं है. तुम जवान हो. लड़की सुंदर और जहीन है. तुम कहो तो कल चल पड़ें उस के घर?’’ डा. किशोर हलके मूड में थे.

वह मन ही मन सोचने लगे कि ये तो इस लड़की को ले कर सीरियस है. चलो, कल देखते हैं. हालीडे इन में सभी पाकिस्तानी छात्रछात्राओं को इकट्ठा होना ही है.

डा. किशोर गंभीर हो गए. उन्होंने निश्चय कर लिया कि इस प्रकरण को किसी न किसी तरह अंजाम तक जरूर पहुंचाएंगे.

दूसरे दिन डा. किशोर तब सकते में आ गए जब कौस्तुभ ने उन्हें केतकी से सिर्फ मिलवाया ही नहीं बल्कि उस का पूरा पता लिखा परचा उन की हथेली पर रख दिया. डा. किशोर भी उस लड़की से मिल कर हैरान रह गए. उस की भाषा में शब्द हिंदी के थे. वह ‘एतराज’ नहीं ‘आपत्ति’ बोल रही थी. उन्होंने आग्रह किया कि वह उस के मातापिता से मिलना चाहेंगे.

अगले दिन वे दोनों केतकी के घर पहुंचे तो उस ने बताया कि पापा किसी काम से कराची गए हैं. हां, ममा आ रही हैं. मिलने तब तक नौकर सत्तू की कचौड़ी और चने की घुघनी ले कर आ चुका था.

लेखिका- उषा रानी

केतकी की ममा आईं तो उन को देख कर दोनों आश्चर्य में पड़ गए. सफेद सिल्क की चौड़े किनारे वाली साड़ी में उन का व्यक्तित्व किसी भारतीय महिला की तरह ही निखर रहा था. वह मंदमंद हंसती रहीं और एक तश्तरी में कचौड़ी- घुघनी रख कर उन्हें दी. उन्हें देख कर दोनों अभिभूत थे, जितनी सुंदर बेटी उतनी ही सुंदर मां.

‘‘देखिए मैडम, मेरे दोस्त को आप की केतकी बेहद पसंद है,’’ डा. किशोर बोले, ‘‘पता नहीं इस के घर वाले मानेंगे या नहीं, लेकिन आप लोगों को एतराज न हो तो मैं भारत पहुंच कर कोशिश करूं. आप कहें तो आप के पति से मिलने और इस बारे में बात करने के लिए दोबारा आ जाऊं?’’

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ केतकी की ममा बोलीं, ‘‘मुझे केतकी ने सबकुछ बता दिया है और हम दोनों को कोई एतराज नहीं, बल्कि मैं तो बहुत खुश होऊंगी अगर मेरी बेटी का ब्याह भारत में हो जाए.’’

‘‘क्यों? क्या आप लोग उधर से इधर आए हैं?’’ कौस्तुभ ने पूछा.

‘‘हां, हम बंटवारे के बहुत बाद में आए हैं. मेरे मातापिता तो अभी भी वहीं हैं.’’

‘‘अच्छा, कहां की हैं आप?’’

वह बहुत भावुक हो कर बोलीं, ‘‘पटना की.’’

डा. किशोर को लगा कि उन्हें अपने अतीत में गोता लगाने के लिए अकेले छोड़ देना ही ठीक होगा. अत: कौस्तुभ का हाथ पकड़ धीमे से नमस्ते कह कर वे वहां से चल दिए.

घर में पूरा हंगामा मच गया. एक मुसलमान और वह भी पाकिस्तानी लड़की से कौस्तुभ का प्रेम. सुनयना ने तो साफ मना कर दिया कि एक संस्कारी ब्राह्मण परिवार में ऐसी मिलावट कैसे हो सकती है? डा. किशोर की सारी दलीलें बेकार गईं.

‘‘आंटी, लड़की संस्कारी है,’’

डा. किशोर ने बताया, ‘‘उस की मां आप के पटना की हैं.’’

‘‘होगी. पटना में तो बहुत मुसलमान हैं. केवल इसलिए कि वह मेरे शहर की है, उस से मैं रिश्ता जोड़ लूं. संभव नहीं है.’’

डा. किशोर मन मार कर चले गए. सुनयनाजी ने यह सोच कर मन को सांत्वना दे ली कि वक्त के साथ हर जख्म भर जाता है, उस का भी भर जाएगा.

उस दिन शाम को उदयेशजी ने दरवाजा खोला तो उन के सामने एक अपरिचित सज्जन खड़े थे.

‘‘हां, कहिए, किस से मिलना है आप को?’’

‘‘आप से. आप कौस्तुभ दीक्षित के वालिद हैं न?’’ आने वाले सज्जन ने हाथ आगे बढ़ाया. उदयेशजी आंखों में अपरिचय का भाव लिए उन्हें हाथ मिलाते हुए अंदर ले आए.

‘‘मैं डा. अनवर अंसारी,’’  सोफे पर बैठते हुए आगंतुक ने अपना परिचय दिया, ‘‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फिजिक्स का प्रोफेसर हूं. दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित सेमिनार में सिर्फ इसलिए आ गया कि आप से मिल सकूं.’’

‘‘हां, कहिए. मैं आप के लिए क्या कर सकता हूं?’’ उदयेश बहुत हैरान थे.

‘‘मैं अपने चचेरे भाई अहमद की बेटी का रिश्ता ले कर आया हूं. ये रही उस की फोटो और बायोडाटा. मैं परसों फोन करूंगा. मेरा भाई डाक्टर है और उस की बीवी कैमिस्ट्री में रीडर. अच्छा खातापीता परिवार है. लड़की भी सुंदर है,’’ इतना कह कर उन्होंने लिफाफा आगे बढ़ा दिया.

नौकर मोहन तब तक चायनाश्ता ले कर आ चुका था. हक्केबक्के उदयेश को थोड़ा सहारा मिला. सामान्य व्यवहार कर सहज ढंग से बोले, ‘‘आप पहले चाय तो लीजिए.’’

‘‘तकल्लुफ के लिए शुक्रिया. बेटी का रिश्ता ले कर आया हूं तो आप के यहां खानापीना बेअदबी होगी, इजाजत दें,’’ कह कर वह उठ खड़े हुए और नमस्कार कर के चलते बने.

सुनयना भी आ गईं. उन्होंने लिफाफा खोला. अचानक ध्यान आया कि कहीं ये वही पाकिस्तान वाले लोग तो नहीं हैं. फिर सीधे सपाट स्वर में उदयेश से कहा, ‘‘उन का फोन आए तो मना कर दीजिएगा.’’

तभी कौस्तुभ आ गया और मेज पर चायनाश्ता देख कर पूछ बैठा, ‘‘पापा, कौन आया था?’’

‘‘तेरे रिश्ते के लिए आए थे,’’ उदयेशजी ने लिफाफा आगे बढ़ाया.

फोटो देख कर कौस्तुभ एकदम चौंका, ‘‘अरे, यह तो वही लाहौर वाली केतकी है. लाहौर से आए थे? कौन आया था?’’

‘‘नहीं, इलाहाबाद से उस के चाचा आए थे,’’ उदयेशजी बेटे की इस उत्कंठा से परेशान हुए.

‘‘अच्छा, वे लोग भी इधर के ही हैं. कुछ बताया नहीं उन्होंने?’’

‘‘बस, तू रहने दे,’’ सुनयना देवी बोलीं, ‘‘जिस गली जाना नहीं उधर झांकना क्या? जा, हाथमुंह धो. मैं नाश्ता भेजती हूं.’’

दिन बीतते रहे. दिनचर्या रोज के ढर्रे पर चलती रही, लेकिन 15वें दिन सुबहसुबह घंटी बजी. मोहन ने आने वाले को अंदर बिठाया. सुनयनाजी आईं और नीली साड़ी में लिपटी एक महिला को देख कर थोड़ी चौंकी. महिला ने उन पर भरपूर नजर डाली और बोली, ‘‘मैं केतकी की मां…’’

सुनयना ने देखा, अचानक दिमाग में कुछ कौंधा, ‘‘लेकिन आप…तु… तुम…सुमे…’’ और वह महिला उन से लिपट गई.

‘‘सुनयना, तू ने पहचान लिया.’’

‘‘लेकिन सुमेधा…केतकी…लाहौर… सुनयना जैसे आसमान से गिरीं. उन की बचपन की सहेली सामने है. कौस्तुभ की प्रेयसी की मां…लेकिन मुसलमान…सिर चकरा गया. अपने को मुश्किल से संभाला तो दोनों फूट कर रो पड़ीं. आंखों से झरते आंसुओं को रोकने की कोशिश करती हुई सुनयना उन्हें पकड़ कर बेडरूम में ले गईं.

‘‘बैठ आराम से. पहले पानी पी.’’

‘‘सुनयना, 25 साल हो गए. मन की बात नहीं कह पाई हूं किसी से, मांपापा से मिली ही नहीं तब से. बस, याद कर के रो लेती हूं.’’

‘‘अच्छाअच्छा, पहले तू शांत हो. कितना रोएगी? चल, किचन में चल. पकौड़े बनाते हैं तोरी वाले. आम के अचार के साथ खाएंगे.’’

सुमेधा ने अपनेआप को अब तक संभाल लिया था.

‘‘मुझे रो लेने दे. 25 साल में पहली बार रोने को किसी अपने का कंधा मिला है. रो लेने दे मुझे,’’ सुमेधा की हिचकियां बंधने लगीं. सुनयना भी उन्हें कंधे से लगाए बैठी रहीं. नयनों के कटोरे भर जाएंगे, तो फिर छलकेंगे ही. उन की आंखों से भी आंसू झरते रहे.

बड़ी देर बाद सुमेधाजी शांत  हुईं. मुसकराने की कोशिश की और बोलीं, ‘‘अच्छा, एक गिलास शरबत पिला.’’

दोनों ने शरबत पिया. फिर सुमेधा ने अपनेआप को संभाला. सुनयना ने पूछा, ‘‘लेकिन तू तो उस रमेश…’’

‘‘सुनयना, तू ने मुझे यही जाना? हम दोनों ने साथसाथ गुडि़या खेल कर बचपन विदा किया और छिपछिप कर रोमांटिक उपन्यास पढ़ कर यौवन की दहलीज लांघी. तुझे भी मैं उन्हीं लड़कियों में से एक लगी जो मांबाप के मुंह पर कालिख पोत कर पे्रमी के साथ भाग जाती हैं,’’ सुमेधा ने सुनयना की आंखों में सीधे झांका.

‘‘लेकिन वह आंटी ने भी यही…’’ सुनयना उन से नजर नहीं मिला पाईं.

‘‘सुन, मेरी हकीकत क्या है यह मैं तुझे बताती हूं. तुझे कुलसुम आपा याद हैं? हम से सीनियर थीं. स्कूल में ड्रामा डिबेट में हमेशा आगे…?’’

‘‘हां, वह जस्टिस अंसारी की बेटी,’’ सुनयना को जैसे कुछ याद आ गया, ‘‘पापा पहले उन्हीं के तो जूनियर थे.’’

‘‘और कुलसुम आपा का छोटा भाई?’’

‘‘वह लड्डन यानी अहमद न… हैंडसम सा लड़का?’’

‘‘हां वही,’’ सुमेधा बोलीं, ‘‘तू तो शादी कर के ससुराल आ गई. मैं ने कैमिस्ट्री में एम.एससी. की. तब तक वह लड्डन डाक्टर बन चुका था. कुलसुम आपा की शादी हो चुकी थी. उस दिन वह मुझे ट्रीट देने ले गईं. अंसारी अंकल की कार थी. अहमद चला रहा था. मैं पीछे बैठी थी. लौटते हुए कुलसुम आपा अचानक अपने बेटे को आइसक्रीम दिलाने नीचे उतरीं और अहमद ने गाड़ी भगा दी. मुझे तो चीखने तक का मौका नहीं दिया. एकदम एक दूसरी कार आ कर रुकी और अहमद ने मुझे खींच कर उस कार में डाल दिया. 2 आदमी आगे बैठे थे.’’

‘‘तू होश में थी?’’

‘‘होश था, तभी तो सबकुछ याद है. मुझे ज्यादा दुख तो तब हुआ जब पता चला कि सारा प्लान कुलसुम आपा का था. मैं शायद इसे अहमद की सफाई मान लेती लेकिन अंसारी अंकल ने खुद यह बात मुझे बताई. उन्हें अहमद का यहां का पता कुलसुम आपा ने ही दिया था. वह भागे आए थे और मुझे छाती से लगा लिया था.

‘‘यह सच है, अहमद मुझे पाना चाहता था पर उस में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह मुझे भगाता. एक औरत हो कर कुलसुम आपा ने मेरा जीवन नरक बना दिया. क्या बिगाड़ा था मैं ने उन का. हमेशा मैं ने सम्मान दिया उन्हें लेकिन…’’ और सुमेधा ऊपर देखने लगीं.

‘‘जज अंकल गए थे तेरे पास तो अहमद को क्या कहा उन्होंने?’’ बात की तह में जाने के लिए सुनयना ने पूछा.

‘‘उन्होंने पहले मुझ से पूछा कि अहमद ने मेरे साथ कोई बदतमीजी तो नहीं की. मेरे ‘न’ कहने पर वे बोले, ‘देखो बेटा, यह जीवन अल्लाह की दी हुई नेमत है. इसे गंवाने की कभी मत सोचना. इस के लिए सजा इस बूढ़े बाप को मत देना. तुम कहो तो मैं तुम्हें अपने साथ ले चलता हूं.’ लेकिन मैं ने मना कर दिया, सुनयना. मेरा तो जीवन इन भाईबहन ने बरबाद कर ही दिया था, अब मैं नवनीत, गरिमा और मम्मीपापा की जिंदगी क्यों नरक करती. ठीक किया न?’’ सुमेधा की आंखें एकदम सूखी थीं.

‘‘तो तू ने अहमद से समझौता कर लिया?’’

‘‘जज अंकल ने कहा कि बेटा, मैं तो इसे कभी माफ नहीं कर पाऊंगा, हो सके तो तू कर दे. उन्होंने अहमद से कहा, ‘देख, यह मेरी बेटी है. इसे अगर जरा भी तकलीफ हुई तो मैं तुम्हें दोनों मुल्कों में कहीं का नहीं छोड़ूंगा.’ दूसरी बार वह केतकी के जन्म पर आए थे, बहुत प्यार किया इसे. यह तो कई बार दादादादी के पास हो भी आई. दो बार तो अंसारी अंकल इसे मम्मी से भी मिलवा लाए.

‘‘जानती है सुनयना, अंसारी अंकल ने कुलसुम आपा को कभी माफ नहीं किया. आंटी उन से मिलने को तरसती मर गईं. आंटी को कभी वह लाहौर नहीं लाए. अंकल ने अपने ही बेटे को जायदाद से बेदखल कर दिया और जायदाद मेरे और केतकी के नाम कर दी. शायद आंटी भी अपने बेटेबेटी को कभी माफ नहीं कर सकीं. तभी तो मरते समय अपने सारे गहने मेरे पास भिजवा दिए.’’

सुमेधा की दुखभरी कहानी सुन कर सुनयना सोचती रहीं कि एक ही परिवार में अलगअलग लोग.

अंकल इतने शरीफ और बेटाबेटी ऐसे. कौन कहता है कि धर्म इनसान को अच्छा या बुरा बनाता है. इनसानियत का नाता किसी धर्म से नहीं, उस की अंतरात्मा की शक्ति से होता है.

‘‘लेकिन यह बता, तू ने अहमद को माफ कैसे कर दिया?’’

‘‘हां, मैं ने उसे माफ किया, उस के साथ निभाया. मुझे उस की शराफत ने, उस की दरियादिली ने, उस के सच्चे प्रेम ने, उस के पश्चात्ताप ने इस के लिए मजबूर किया था.’’

‘‘अहमद और शराफती?’’ सुनयना चौंक कर पूछ बैठीं.

‘‘हां सुनयना, उस ने 2 साल तक मुझे हाथ नहीं लगाया. मैं ने उसे समझने में बहुत देर लगाई. लेकिन फिर ठीक समझा. मैं समझ गई कि कुलसुम आपा इसे न उकसातीं, शह न देतीं तो वह कभी भी ऐसा घिनौना कदम नहीं उठाता. मैं ने उसे बिलखबिलख कर रोते देखा है.

‘‘अहमद ने एक नेक काम किया कि उस ने मेरा धर्म नहीं बदला. मैं आज भी हिंदू हूं. मेरी बेटी भी हिंदू है. हमारे घर में मांसाहारी भोजन नहीं बनता है. बस, केतकी के जन्म पर उस ने एक बात कही, वह भी मिन्नत कर के, कि मैं उस का नाम बिलकुल ऐसा न रखू जो वहां चल ही न पाए.’’

‘‘तू सच कह रही है? अहमद ऐसा है?’’ सुनयना को जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था.

‘‘हां, अहमद ऐसा ही है, सुनयना. वह तो उस पर जुनून सवार हो गया था. मैं ने उसे सचमुच माफ कर दिया है.’’

‘‘तो तू पटना क्यों नहीं गई? एक बार तो आंटी से मिल आ.’’

‘‘मुझ में साहस नहीं है. तू ले चले तो चलूं. मायके की देहली के दरस को तरस गई हूं. सुनयना, एक बार मम्मी से मिलवा दे. तेरे पैर पड़ती हूं,’’ कह कर सुमेधा सुनयना के पैरों पर गिर पड़ी.

‘‘क्या कर रही है…पागल हो गई है क्या…मैं तुझे ले चलूं. क्या मतलब?’’

‘‘देख, मम्मी ने कहा है कि अगर तू केतकी को अपनाने को तैयार हो गई तो वह अपने हाथों से कन्यादान करेंगी. बेटी न सही, बेटी की बेटी तो इज्जत से बिरादरी में चली जाए.’’

‘‘तू लाहौर से अकेली आई है?’’

‘‘नहीं, अहमद और केतकी भी हैं. मेरी हिम्मत नहीं हुई उन्हें यहां लाने की.’’

‘‘अच्छा, उदयेश को आने दे?’’ सुनयना बोलीं, ‘‘देखते हैं क्या होता है. तू कुछ खापी तो ले.’’

सुनयना ने उदयेश को फोन किया और सोचती रही कि क्या धर्म इतना कमजोर है कि दूसरे धर्म के साथ संयोग होते ही समाप्त हो जाए और फिर  क्या धार्मिक कट्टरता इनसानियत से बड़ी है? क्या धर्म आत्मा के स्नेह के बंधन से ज्यादा बड़ा है?

उदयेश आए, सारी बात सुनी. सब ने साथ में लंच किया. सुमेधा को उन्होंने कई बार देखा पर नमस्ते के अलावा बोले कुछ नहीं.

उदयेशजी ने गाड़ी निकाली और दोनों को साथ ले कर होटल पहुंचे. सब लोग बैठ गए. सभी चुप थे. अहमद ने कौफी मंगवाई और पांचों चुपचाप कौफी पीते रहे. आखिर कमरे के इस सन्नाटे को उदयेशजी ने तोड़ा :

‘‘एक बात बताइए डा. अंसारी, आप की सरकार, आप की बिरादरी कोई हंगामा तो खड़ा नहीं करेगी?’’

अहमद ने उदयेश का हाथ पकड़ा, ‘‘उदयेशजी, सरकार कुछ नहीं करेगी. बिरादरी हमारी कोई है नहीं. बस, इनसानियत है. आप मेरी बेटी को कुबूल कर लीजिए. मुझे उस पाप से नजात दिलाइए, जो मैं ने 25 साल पहले किया था.

‘‘सरहद पार से अपनी बेटी एक हिंदू को सौंपने आया हूं. प्लीज, सुनयनाजी, आप की सहेली 25 साल से जिस आग में जल रही है, उस से उसे बचा लीजिए,’’ कहते हुए वह वहीं फर्श पर उन के पैरों के आगे अपना माथा रगड़ने लगा.

उदयेश ने डा. अंसारी को उठाया और गले से लगा कर बोले, ‘‘आप सरहद पार से हमें इतना अच्छा तोहफा देने आए हैं और हम बारात ले कर पटना तक नहीं जा सकते? इतने भी हैवान नहीं हैं हम. जाइए, विवाह की तैयारियां कीजिए.’’

सुनयनाजी ने अपने हाथ का कंगन उतार कर केतकी की कलाई में डाल दिया.

जब ऐसा मिलन हो, दो सहेलियों का, दो प्रेमियों का, दो संस्कृतियों का, दो धर्मों का तो फिर सरहद पर कांटे क्यों? गोलियों की बौछारें क्यों?

मझली : रमुआ ने कैसे मालकिन को खुश किया

ठाकुर साहब के यहां मैं छोटी के बाद आई थी, लेकिन मझली मैं ही कहलाई. ठाकुर साहब के पास 20 गांवों की मालगुजारी थी. महलनुमा बड़ी हवेली के बीच में दालान और आगे ठाकुर साहब की बैठक थी. हवेली के दरवाजों पर चौबीसों घंटे लठैत हते थे.

हां, तो बड़ी ही ठाकुर साहब के सब से करीब थीं. जब ठाकुर साहब कहीं जाते, तब वे घोड़े पर कोड़ा लिए बराबरी से चलतीं. उन में दयाधरम नहीं था. पूरे गांवों पर उन की पकड़ थी. कहां से कितना पैसा आना है, किस के ऊपर कितना पैसा बकाया है, इस का पूरा हिसाब उन के पास था.

ठाकुर साहब 65 साल के आसपास हो चले थे और बड़ी 60 के करीब थीं. ठाकुर साहब को बस एक ही गम था कि उन के कोई औलाद नहीं थी.

इसी के चलते उन्होंने पहले छोटी से शादी की थी और 5 साल बाद अब मुझ से. छोटी को राजकाज से कोई मतलब नहीं था. दिनभर ऐशोआराम की जिंदगी गुजारना उस की आदत थी. वह 40 के आसपास हो चली थी, लेकिन उस के आने के बाद भी ठाकुर साहब का गम कम नहीं हुआ था.

कहते हैं कि उम्मीद पर दुनिया टिकी है, इसीलिए ठाकुर साहब ने मुझ से ब्याह रचाया था. मेरी उम्र यही कोई 20-22 साल के आसपास चल रही थी. मैं गरीब परिवार से थी.

एक बार धूमरी गांव में जब ठाकुर साहब आए थे, तब मैं बच्चों को इकट्ठा कर के पढ़ा रही थी. ठाकुर साहब ने मेरे इस काम की तारीफ की थी और वे मेरी खूबसूरती के दीवाने हो गए थे. और न जाने क्यों उन के दिल में आया कि शायद मेरी वजह से उन के घर में औलाद की खुशियां आ जाएंगी.

मेरी मां तो इस ब्याह के लिए तैयार नहीं थीं, लेकिन पिताजी की सोच थी कि इतने बड़े घर से रिश्ता जुड़ना इज्जत की बात है.

खैर, बहुत शानोशौकत के साथ ठाकुर साहब से मेरा ब्याह हुआ. जैसा कि दूसरी जगह होता है, सौतन आने पर पुरानी औरतें जलन करती हैं, लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं था. बड़ी ने ही मेरी नजर उतारी थी और छोटी मुझे ठाकुर साहब के कमरे तक ले गई थी.

मेरे लिए शादीब्याह की बातें एक सपने जैसी थीं, क्योंकि गरीब घर की लड़की की इज्जत से गांव में खेलने वाले तो बहुत थे, पर इज्जत देने वाले नहीं थे, इसलिए जब ठाकुर साहब के यहां से रिश्ते की बात आई, तब मैं ने भी नानुकर नहीं की.

अब बड़ी और छोटी के कोई औलाद नहीं थी, इसलिए आपसी तनातनी वाली कोई बात भी नहीं थी.

हां, तो मैं बता रही थी कि बड़ी ही ठाकुर साहब के साथ गांवगांव जाती थीं और वसूली करती थीं. ऐसे ही एक बार वे रंभाड़ी गांव गईं. वहां सब किसानों ने तो अपने कर्ज का हिस्सा ठाकुर साहब को भेंट कर दिया था, लेकिन सिर्फ रमुआ ही ऐसा था, जो खाली हाथ था.

वह हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘ठाकुरजी… ओले गिरने से फसल बरबाद हो गई. पिछले दिनों मेरे मांबाप भी गुजर गए. अब इस साल आप कर्ज माफ कर दें, तो अगले साल पूरा चुकता कर दूंगा.’’

लेकिन बड़ी कहां मानने वाली थीं. उन्होंने लठैतों से कहा, ‘‘बांध लो इसे. इस की सजा हवेली में तय होगी.’’

मैं जब ठाकुर साहब के यहां आई, तब पहलेपहल तो किसी बात पर अपनी सलाह नहीं दी थी, लेकिन ठाकुर साहब चाहते थे कि मैं भी इस हवेली से जुड़ूं और जिम्मेदारी उठाऊं.

धीरेधीरे मैं हवेली में रचबस गई और वक्तजरूरत पर सलाह देने के साथसाथ हवेली के कामकाज में हिस्सा लेने लगी.

रात हो चली थी कि तभी हवेली में हलचल हुई. पता करने पर मालूम हुआ कि ठाकुर साहब आ गए हैं. बड़ी ने अपना कोड़ा हवा में लहराया, तब मुझे एहसास हुआ कि आज भी किसी पर जुल्म ढहाया जाना है. अब मैं भी झरोखे में आ कर बैठ गई.

रमुआ को रस्सियों से बांध कर आंगन में डाल दिया गया था. अब बड़ी ठाकुर साहब के इशारे का इंतजार कर रही थी कि उस पर कोड़े बरसाना शुरू करे.

मैं ने अपनी नौकरानी से उस को मारने की वजह पूछी, तब उस ने बताया, ‘‘मझली ठकुराइन, यहां तो यह सब होता ही रहता है. अरे, कोई बकाया पैसा नहीं दिया होगा.’’ रमुआ थरथर कांप रहा था.

तभी मैं ने उस नौकरानी से ठाकुर साहब के पास खबर भिजवाई कि मैं उन से मिलना चाहती हूं और मैं झरोखे के पीछे चली गई.

तभी वहां ठाकुर साहब आए और उन्होंने मेरी तरफ देखा. मैं ने कहा, ‘‘ठाकुर साहब, यह रमुआ मुझे ईमानदार और मेहनती लगता है, इसलिए इसे यहीं पटक देते हैं. पड़ा रहेगा. हवेली, खेतखलिहान के काम तो करेगा ही, यह मजबूत लठैत भी है.’’

ठाकुर साहब को मेरी सलाह पसंद आई, लेकिन दूसरों पर अपना खौफ बनाए रखने के लिए उन्होंने रमुआ को 10 कोड़े की सजा देते हुए हवेली के पिछवाड़े की कोठरी में डलवा दिया.

एक दिन मैं ने नौकरानी से रमुआ को बुलवाया. हवेली में कोई भी मर्द औरतों से आमनेसामने बात नहीं कर सकता था, इसलिए बात करने के लिए बीच में परदा डाला जाता था. रमुआ ने परदे के दूसरी तरफ आ कर सिर झुका कर कहा, ‘‘मझली ठकुराइनजी आदेश…’’

झीने परदे में से मैं ने रमुआ को एक निगाह देखा. लंबा कद, गठा हुआ बदन. सांवले रंग पर पसीने की बूंदें एक अजीब सी कशिश पैदा कर रही थीं. उसे देखते ही मेरे तन की उमंगें और मन की तरंगें उछाल मारने लगीं.

मैं ने रमुआ पर रोब गांठते हुए कहा, ‘‘तो तू है रमुआ. अब क्या हवेली में बैठेबैठे ही खाएगा, यहां मुफ्त में कुछ नहीं मिलता है… समझा?’’

यह सुन कर रमुआ घबरा गया और बोला, ‘‘आदेश, मझली ठाकुराइन.’’

मैं ने कहा, ‘‘इधर आ… यह जो ठाकुरजी की बैठक है, उस के ऊपर मयान (पुराने मकानों में छत इन पर बनाई जाती थी) में हाथ से झलने वाला पंखा लगा है. उस की डोरी निकल गई है. जरा उसे अच्छी तरह से बांध दे.’’ मैं अब भी परदे के पीछे नौकरानी के साथ खड़ी थी.

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रमुआ बंदर की तरह दीवार पर चढ़ कर मयान तक पहुंच गया और उस ने पंखे की सभी डोरियां बांध दीं. इस के बाद बैठक को साफ कर अच्छी तरह जमा दिया.

दोपहर को ठाकुर साहब ने बैठक का इंतजाम देखा, तो उन्हें बहुत अच्छा लगा. जब उन्होंने इस बारे में नौकरानी से पूछा, तब उस ने मेरा नाम बताया. ठाकुर साहब की निगाह में मेरी इमेज अच्छी बनती जा रही थी.

एक दिन मैं ने ठाकुर साहब से कहा, ‘‘इस रमुआ को हवेली की हिफाजत के लिए रख लेते हैं और कहीं जाते समय मैं भी अपनी हिफाजत के लिए नौकरानी के साथ इसे भी रख लिया करूंगी.’’

ठाकुर साहब ने मेरी बात मान ली और मेरी हिफाजत की जिम्मेदारी रमुआ के ऊपर सौंप दी.

हवेली से कुछ ही दूरी पर खेत था. खेत में मकान बना था, जिस से हवेली का कोई आदमी वहां जाए, तो उसे कोई परेशानी न हो.

एक दिन मैं ने नौकरानी को बैलगाड़ी लगाने के लिए कहा. बैलगाड़ी के चारों डंडों पर चादर बांध दी गई थी, जिस से बाहर के किसी मर्द की निगाह हवेली की औरतों पर नहीं पडे़.

चूंकि बड़ी अब 60 के पार हो चुकी थीं, इसलिए ये सब बंदिशें उन पर तो नहीं थीं, छोटी पर कम और मेरे ऊपर सब से ज्यादा थीं.

खैर, हवेली के दरवाजे से बैलगाड़ी तक दोनों तरफ परदे लगा दिए गए और मैं उन परदों के बीच से हो कर बैलगाड़ी में बैठ गई और रमुआ बैलगाड़ी पर लाठी रख कर हांकने लगा.

खेत पर जा कर मैं ने रमुआ को मेड़ बांधने और पानी की ढाल ठीक करने के लिए कहा. थोड़ी देर में काली घटाएं उमड़घुमड़ कर बरसने लगीं. रमुआ अभी भी खेत पर काम कर रहा था.

नौकरानी को मैं ने ऊपर के कमरे में भेज दिया और कहा, ‘‘जब चलेंगे, तब बुला लूंगी,’’ और बाहर से कुंडी लगा दी.

बरसात तेज हो गई थी और रमुआ छपरे में खड़ा हो कर पानी से बच रहा था. मैं ने रमुआ को अंदर आने के लिए कहा, तभी जोर से बिजली कड़की और ऐसा लगा कि वह मकान पर ही गिर रही है. मैं ने डरते हुए रमुआ को जोर से जकड़ लिया. उस समय मैं रमुआ के लिए औरत और रमुआ मेरे लिए मर्द था.

थोड़ी देर में बरसात थम गई. मेरा मन सुख से भर गया था. रमुआ मुझ से आंखें नहीं मिला पा रहा था. मैं ने उसे फिर से खेत पर भेज दिया और ऊपर के कमरे में नौकरानी, जो अभी भी सो रही थी, को झिड़क कर उठाते हुए कहा, ‘‘क्या रात यहीं गुजारने का इरादा है?’’

नौकरानी हड़बड़ा कर उठी और बैलगाड़ी लगवाई.

वापस हवेली में आ कर मैं ने रमुआ को दालान में बुलवाया और बड़ी से कोड़ा ले कर रमुआ पर एक ही सांस में 10-20 कोड़े बरसा दिए.

मेरे इस बरताव की किसी को उम्मीद नहीं थी, लेकिन ठाकुर साहब और बड़ी खुश हो रहे थे कि मझली भी अब हवेली के रंगढंग में रचबस रही है. और उधर रमुआ अब भी यह नहीं समझ पाया कि आखिर मझली ठकुराइन ने उस पर कोड़े क्यों बरसाए?

पहली बात तो यह कि रमुआ को मैं ने एहसास दिलाया कि जो खेत पर हुआ है, उस के लिए उसे चुप रहना है, वरना… दूसरी, ठाकुर साहब और नौकरानी को यह एहसास दिलाना कि मुझे रमुआ से कोई लगाव नहीं है. तीसरी यह कि अगर हवेली में मेरे से वारिस आता है, तो उस के हक के लिए मैं कोडे़ भी बरसा सकती हूं.

इस के बाद मैं ने ठाकुर साहब को रात मेरे कमरे में गुजारने की गुजारिश इतनी अदाओं के साथ की कि वे मना नहीं कर सके.

मैं खुद नहीं समझ पा रही थी कि यह औरतों वाला तिरिया चरित्तर मुझ में कहां से आ गया, जिस के बल पर मैं अपने इरादे पूरे कर रही थी.

अगले दिन मैं पहले की तरह सामान्य थी. नौकरानी से रमुआ को बुला कर हवेली की साफसफाई कराई. वह अभी भी डरा और सहमा हुआ था.

समय अपनी रफ्तार से गुजर रहा था. आज ठाकुर साहब की खुशियों का पारावार नहीं था. हवेली दुलहन की तरह सजी हुई थी. दावतों, कव्वाली और नाचगानों का दौर चल रहा था. कब रात होती, कब सुबह, मालूम नहीं पड़ता. जो पैसा अब तक हवेली की तिजोरियों में पड़ा था, खुशियां मनाने में खर्च हो रहा था, जगहजगह लंगर चल रहे थे, दानधर्म चल रहा था और हो भी क्यों नहीं, ठाकुर साहब का वारिस जो आ गया था.

बड़ी और छोटी भी औरत थीं और इतने दिनों तक हवेली को वारिस नहीं देने की वजह वे जानती थीं, लेकिन इस के बावजूद वे यह समझ नहीं पा रही थीं कि मझली ने यह कारनामा कैसे कर दिया?

शायद: क्या शगुन के माता-पिता उसकी भावनाएं जान पाए?

लेखिका- शशि उप्पल

शगुन स्कूल बस से उतर कर कुछ क्षण स्टाप पर खड़ा धूल उड़ाती बस को देखता रहा. जब वह आंखों से ओझल हो गई, तब घर की ओर मुड़ा. दरवाजे की चाबी उस के बैग में ही थी. ताला खोल कर वह अपने कमरे में चला गया. दीवार घड़ी में 3 बज रहे थे.

शगुन ने अनुमान लगाया कि मां लगभग ढाई घंटे बाद आ जाएंगी और पिता 3 घंटे बाद. हाथमुंह धो कर वह रसोईघर में चला गया. मां आलूमटर की सब्जी बना कर रख गई थीं. उसे भूख तो बहुत लग रही थी, परंतु अधिक खाया नहीं गया. बचा हुआ खाना उस ने कागज में लपेट कर घर के पिछवाड़े फेंक दिया. खाना पूरा न खाने पर मां और पिता नाराज हो जाते थे.

फिर शीघ्र ही शगुन कमरे में जा कर सोने का प्रयत्न करने लगा. जब नींद नहीं आई तो वह उठ कर गृहकार्य करने लगा. हिंदी, अंगरेजी का काम तो कर लिया परंतु गणित के प्रश्न उसे कठिन लगे, ‘शाम को पिताजी से समझ लूंगा,’ उस ने सोचा और खिलौने निकाल कर खेलने बैठ गया.

शालिनी दफ्तर से आ कर सीधी बेटे के कमरे में गई. शगुन खिलौनों के बीच सो रहा था. उस ने उसे प्यार से उठा कर बिस्तर पर लिटा दिया.

समीर जब 6 बजे लौटा तो देखा कि मांबेटा दोनों ही सो रहे हैं. उस ने हौले से शालिनी को हिलाया, ‘‘इस समय सो रही हो, तबीयत तो ठीक है न ’’

शालिनी अलसाए स्वर में बोली, ‘‘आज दफ्तर में काम बहुत था.’’

‘‘पर अब तो आराम कर लिया न. अब जल्दी से उठ कर तैयार हो जाओ. सुरेश ने 2 पास भिजवाए हैं…किसी अच्छे नाटक के हैं.’’

‘‘कौन सा नाटक है ’’ शालिनी आंखें मूंदे हुए बोली, ‘‘आज कहीं जाने की इच्छा नहीं हो रही है.’’

‘‘अरे, ऐसा अवसर बारबार नहीं मिलता. सुना है, बहुत बढि़या नाटक है. अब जल्दी करो, हमें 7 बजे तक वहां पहुंचना है.’’

‘‘और शगुन को कहां छोड़ें  रोजरोज शैलेशजी को तकलीफ देना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘अरे भई, रोजरोज कहां  वैसे भी पड़ोसियों का कुछ तो लाभ होना चाहिए. मौका आने पर हम भी उन की सहायता कर देंगे,’’ समीर बोला.

जब शालिनी तैयार होने गई तो समीर शगुन के पास गया, ‘‘शगुन, उठो. यह क्या सोने का समय है ’’

शगुन में उठ कर बैठ गया. पिता को सामने पा कर उस के चेहरे पर मुसकराहट आ गई.

‘‘जल्दी से नाश्ता कर लो. मैं और तुम्हारी मां कहीं बाहर जा रहे हैं.’’

शगुन का चेहरा एकाएक बुझ गया. वह बोला, ‘‘पिताजी, मेरा गृहकार्य पूरा नहीं हुआ है. गणित के प्रश्न बहुत कठिन थे. आप…’’

‘‘आज मेरे पास बिलकुल समय नहीं है. कक्षा में क्यों नहीं ध्यान देता  ठीक है, शैलेशजी से पूछ लेना. अब जल्दी करो.’’

शगुन दूध पी कर शैलेशजी के घर चला गया. वह जानता था कि जब तक मां और पिताजी लौटेंगे, वह सो चुका होगा. सदा ऐसा ही होता था. शैलेशजी और उन की पत्नी टीवी देखते रहते थे और वह कुरसी पर बैठाबैठा ऊंघता रहता था. उन के बच्चे अलग कमरे में बैठ कर अपना काम करते रहते थे. आरंभ में उन्होंने शगुन से मित्रता करने की चेष्टा की थी परंतु जब शगुन ने ढंग से उन से बात तक न की तो उन्होंने भी उसे बुलाना बंद कर दिया था. अब भला वह बात करता भी तो कैसे  उसे यहां इस प्रकार आ कर बैठना अच्छा ही नहीं लगता था. जब वह शैलेशजी को अपने बच्चों के साथ खेलता देखता, उन्हें प्यार करते देखता तो उसे और भी गुस्सा आता.

शगुन अपनी गृहकार्य की कापी भी साथ लाया था, परंतु उस ने शैलेशजी से प्रश्न नहीं समझे और हमेशा की तरह कुरसी पर बैठाबैठा सो गया.

अगली सुबह जब वह उठा तो घर में सन्नाटा था. रविवार को उस के मातापिता आराम से ही उठते थे. वह चुपचाप जा कर बालकनी में बैठ कर कौमिक्स पढ़ने लगा. जब देर तक कोई नहीं उठा तो वह दरवाजा खटखटाने लगा.

‘‘क्यों सुबहसुबह परेशान कर रहे हो  जाओ, जा कर सो जाओ,’’ समीर झुंझलाते हुए बोला.

‘‘मां, भूख लगी है,’’ शगुन धीरे से बोला.

‘‘रसोई में से बिस्कुट ले लो. थोड़ी देर में नाश्ता बना दूंगी,’’ शालिनी ने उत्तर दिया.

शगुन चुपचाप जा कर अपने कमरे में बैठ गया. उस की कुछ भी खाने की इच्छा नहीं रह गई थी.

दोपहर के खाने के बाद समीर और शालिनी का किसी के यहां ताश खेलने का कार्यक्रम था, ‘‘वहां तुम्हारे मित्र नीरज और अंजलि भी होंगे,’’ शालिनी शगुन को तैयार करती हुई बोली.

‘‘मां, आज चिडि़याघर चलो न. आप ने पिछले सप्ताह भी वादा किया था,’’ शगुन मचलता हुआ बोला.

‘‘बेटा, आज वहां नहीं जा पाएंगे. गिरीशजी से कह रखा है. अगले रविवार अवश्य चिडि़याघर चलेंगे.’’

‘‘नहीं, आज ही,’’ शगुन हठ करने लगा, ‘‘पिछले रविवार भी आप ने वादा किया था. आप मुझ से झूठ बोलती हैं… मेरी बात भी नहीं मानतीं. मैं नहीं जाऊंगा गिरीश चाचा के यहां,’’ वह रोता हुआ बोला.

तभी समीर आ गया, ‘‘यह क्या रोना- धोना मचा रखा है. चुपचाप तैयार हो जा, चौथी कक्षा में आ गया है, पर आदतें अभी भी दूधपीते बच्चे जैसी हैं. जब देखो, रोता रहता है. इतने महंगे स्कूल में पढ़ा रहे हैं, बढि़या से बढि़या खिलौने ले कर देते हैं…’’

‘‘मैं गिरीश चाचा के घर नहीं जाऊंगा,’’ शगुन रोतेरोते बोला, ‘‘वहां नीरज, अंजलि मुझे मारते हैं. अपने साथ खेलाते भी नहीं. वे गंदे हैं. मेरे सारे खिलौने तोड़ देते हैं और अपने दिखाते तक नहीं. वे मूर्ख हैं. उन की मां भी मूर्ख हैं. वे भी मुझे ही डांटती हैं, अपने बच्चों को कुछ नहीं कहती हैं.’’

समीर ने खींच कर एक थप्पड़ शगुन के गाल पर जमाया, ‘‘बदतमीज, बड़ों के लिए ऐसा कहा जाता है. जितना लाड़प्यार दिखाते हैं उतना ही बिगड़ता जाता है. ठीक है, मत जा कहीं भी, बैठ चुपचाप घर पर. शालिनी, इसे कमरे में बंद कर के बाहर से ताला लगा दो. इसे बदतमीजी की सजा मिलनी ही चाहिए.’’

शालिनी लिपस्टिक लगा रही थी, बोली, ‘‘रहने दो न, बच्चा ही तो है. शगुन, अगले रविवार जहां कहोगे वहीं चलेंगे. अब जल्दी से पिताजी से माफी मांग लो.’’

शगुन कुछ क्षण पिता को घूरता रहा, फिर बोला, ‘‘नहीं मांगूंगा माफी. आप भी मूर्ख हैं, रोज मुझे मारती हैं.’’

समीर ने शगुन का कान उमेठा, ‘‘माफी मांगेगा या नहीं ’’

‘‘नहीं मांगूंगा,’’ वह चिल्लाया, ‘‘आप गंदे हैं. रोज मुझे शैलेश चाचा के घर छोड़ जाते हैं. कभी प्यार नहीं करते. चिडि़याघर भी नहीं ले जाते. नहीं मांगूंगा माफी…गंदे, थू…’’

समीर क्रोध में आपे से बाहर हो गया, ‘‘तुझे मैं ठीक करता हूं,’’ उस ने शगुन को कमरे में बंद कर के बाहर से ताला लगा दिया.

शगुन देर तक कमरे में सिसकता रहा. उस दिन से उस में एक अक्खड़पन आ गया. उस ने अपनी कोई भी इच्छा व्यक्त करनी बंद कर दी. जैसा मातापिता कहते, यंत्रवत कर लेता, पर जैसेजैसे बड़ा होता गया वह अंदर ही अंदर घुटने लगा. 10वीं कक्षा के बाद पिता के कहने से उसे विज्ञान के विषय लेने पड़े. पिता उसे डाक्टर बनाने पर तुले हुए थे. शगुन की इच्छाओं की किसे परवा थी और मां भी जो पिता कहते, उसे ही दोहरा देतीं.

एक दिन दफ्तर के लिए तैयार होती हुई शालिनी बोली, ‘‘शगुन का परीक्षाफल शायद आज घोषित होने वाला है…तुम जरा पता लगाना.’’

‘‘क्यों, क्या शगुन इतना भी नहीं कर सकता,’’ समीर नाश्ता करता हुआ बोला, ‘‘जब पढ़ाईलिखाई में रुचि ही नहीं ली तो परिणाम क्या होगा.’’

‘‘ओहो, वह तो मैं इसलिए कह रही थी ताकि कुछ जल्दी…’’ वह टिफिन बाक्स बंद करती हुई बोली.

‘‘तुम्हें जल्दी होगी जानने की…मुझे तो अभी से ही मालूम है, पर मैं फिर कहे देता हूं यदि यह मैडिकल में नहीं आया तो इस घर में इस के लिए कोई स्थान नहीं है.  जा कर करे कहीं चपरासीगीरी, मेरी बला से.’’

‘‘तुम भी हद करते हो. एक ही तो बेटा है, यदि दोचार होते तो…’’

‘‘मैं भी यही सोचता हूं. एक ही इतना सिरदर्द बना हुआ है. क्या नहीं दिया हम ने इसे  फिर भी कभी दो घड़ी पास बैठ कर बात नहीं करता. पता नहीं सारा समय कमरे में घुसा क्या करता रहता है ’’ एकाएक समीर उठ कर शगुन के कमरे में पहुंच गया.

शगुन अचानक पिता को सामने देख कर अचकचा गया. जल्दी से उस ने ब्रश तो छिपा लिया परंतु गीली पेंटिंग न छिपा सका. पेंटिंग को देखते ही समीर का पारा चढ़ गया. उस ने बिना एक नजर पेंटिंग पर डाले ही उस को फाड़ कर टुकड़ेटुकड़े कर दिया, ‘‘तो यह हो रही है मैडिकल की तैयारी. किसे बेवकूफ बना रहे हो, मुझे या स्वयं को  वहां महंगीमहंगी पुस्तकें पड़ी धूल चाट रही हैं और यह लाटसाहब बैठे चिडि़यातोते बनाने में समय गंवा रहे हैं. कुछ मालूम है, आज तुम्हारा नतीजा निकलने वाला है.’’

‘‘जी पिताजी. मनोज बता रहा था,’’ शगुन धीरे से बोला. उस की दृष्टि अब भी अपनी फटी हुई पेंटिंग पर थी.

‘‘मनोज के सिवा भी किसी को जानते हो क्या  जाने क्या करेगा आगे चल कर…’’ समीर बोलता चला जा रहा था.

शालिनी को दफ्तर के लिए देर हो रही थी. वह बोली, ‘‘शगुन, मुझे फोन अवश्य कर देना. तुम्हारा खाना रसोई में रखा है, खा लेना.’’

मातापिता के जाते ही शगुन एक बार फिर अकेला हो गया. बचपन से ही यह सिलसिला चला आ रहा था. स्कूल से आ कर खाली घर में प्रवेश करना, फिर मातापिता की प्रतीक्षा करना. उस के मित्र उन्हें पसंद नहीं आते थे. बचपन में वह जब भी किसी को घर बुलाता था तो मातापिता को यही शिकायत रहती थी कि घर गंदा कर जाते हैं. महंगे खिलौने खराब कर जाते हैं. अकेला कहीं वह आजा नहीं सकता था क्योंकि मातापिता को सदा किसी दुर्घटना का अंदेशा रहता था.

शगुन के कई मित्र स्कूटर, मोटर- साइकिल चलाने लगे थे, पर उस के पिता ने कड़ी मनाही कर रखी थी. बस जब देखो अपने घिसेपिटे संवाद दोहराते रहते थे, ‘हम तो 8 भाईबहन थे. पिताजी के पास इतने रुपए नहीं थे कि किसी को डाक्टर बना सकते. मेरी तो यह हसरत मन में ही रह गई, पर तेरे पास तो सबकुछ है,’ और मां सदा यही पूछती रहती थीं, ‘ट्यूटर चाहिए, पुस्तकें चाहिए, बोल क्या चाहिए ’

पर शगुन कभी नहीं बता पाया कि उसे क्या चाहिए. वह सोचता, ‘मातापिता जानते तो हैं कि मेरी रुचि कला में है, मैं सुंदरसुंदर चित्र बनाना चाहता हूं, रंगबिरंगे आकार कागज पर सजाना चाहता हूं. इस में इनाम जीतने पर भी डांट पड़ती है कि बेकार समय नष्ट कर रहा हूं. उन्होंने कभी मेरी कोई इच्छा पूरी नहीं की.’

तभी मनोज आ गया. शगुन उस से बोला, ‘‘यार, बहुत डर लग रहा है.’’

‘‘इस में डरने की क्या बात है. ‘फाइन आर्ट्स’ ही तो करना चाहता है न ’’

‘‘मेरे चाहने से क्या होता है,’’ शगुन कड़वाहट से बोला, ‘‘मेरे पिता को तो मानो मेरी इच्छाओं का गला घोंटने में मजा आता है.’’

मनोज उस को समझ नहीं पाता था. उसे अचरज होता था कि इतना सब होने पर भी शगुन उदास क्यों रहता है.

स्कूल पहुंचते ही दोनों ने नोटिस बोर्ड पर अपने अंक देखे. अपने 54 प्रतिशत अंक देख कर मनोज प्रसन्न हो गया, ‘‘चलो, पास हो गया, पर तू मुंह लटकाए क्यों खड़ा है, तेरे तो 65 प्रतिशत अंक हैं.’’

शगुन बिना कुछ बोले घर की ओर चल दिया. वह मातापिता पर होने वाली प्रतिक्रिया के विषय में सोच रहा था, ‘मां तो निराश हो कर रो लेंगी, परंतु पिताजी  वे तो पिछले 2 वर्षों से धमकियां दे रहे थे.’

उस ने मां को फोन किया. चुपचाप कमरे में जा कर बैठ गया. शगुन रेंगती हुई घड़ी की सूइयों को देख रहा था और सोच रहा था. जब 5 बज गए तो वह झट बिस्तर से उठा. उस ने अलमारी में से कुछ रुपए निकाले और घर से बाहर आ गया.

समीर जब दफ्तर से लौटा तो शालिनी पर बरसने लगा, ‘‘कहां है तुम्हारा लाड़ला  कितना समझाया था कि मेहनत कर ले…पर मैं तो केवल बकता हूं न.’’

शालिनी वैसे ही परेशान थी. बोली, ‘‘आज उस ने खाना भी नहीं खाया. कहां गया होगा. बिना बताए तो कहीं जाता ही नहीं है.’’

जब रात के 9 बजे तक भी शगुन नहीं लौटा तो मातापिता को चिंता होने लगी. 2-3 जगह फोन भी किए परंतु कुछ मालूम न हो सका. शगुन के कोई ऐसे खास मित्र भी नहीं थे, जहां इतनी रात तक बैठता.

11 बजे समीर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा आया. शालिनी ने सब अस्पतालों में भी फोन कर के पूछ लिया. सारी रात दोनों बेटे की प्रतीक्षा में बैठे रहे. लेकिन शगुन का कुछ पता न चला. शालिनी की तो रोरो कर आंखें दुखने लगी थीं और समीर तो मानो 10 दिन में ही 10 वर्ष बूढ़ा हो गया था.

एक दिन शगुन की अध्यापिका शालिनी से मिलने आईं तो अपने साथ एक डायरी भी ले आईं, ‘‘एक बार शगुन ने मुझे यह डायरी भेंट में दी थी. इस में उस की कविताएं हैं. बहुत ही सुंदर भाव हैं. आप यह रख लीजिए, पढ़ कर आप के मन को शांति मिलेगी.’’

शालिनी ने डायरी ले ली परंतु वह यही सोचती रही, ‘शगुन कविताएं कब लिखता था  मुझ से तो कभी कुछ नहीं कहा.’

शाम को जब समीर आया तो शालिनी अधीरता से बोली, ‘‘समीर, क्या तुम जानते हो कि शगुन न केवल सुंदर चित्र बनाता था बल्कि बहुत सुंदर कविताएं भी लिखता था. हम अपने बेटे को बिलकुल नहीं जानते थे. हम उसे केवल एक रेस का घोड़ा मान कर प्रशिक्षित करते रहे, पर इस प्रयास में हम यह भूल गए कि उस की अपनी भी कुछ इच्छाएं हैं, भावनाएं हैं. हम अपने सपने उस पर थोपते रहे और वह मासूम निरंतर उन के बोझ तले दबता रहा.’’

समीर ने शालिनी से डायरी ले ली और बोला, ‘‘आज मैं मनोज से भी मिला था.’’

‘‘वह तो तुम्हें कतई नापसंद था,’’ शालिनी ने विस्मित हो कर कहा.

‘‘बड़ा प्यारा लड़का है,’’ समीर शालिनी की बात अनसुनी करता हुआ बोला, ‘‘उस से मिल कर ऐसा लगा, मानो शगुन लौट आया हो. शालिनी, शगुन मुझे जान से भी प्यारा है. यदि वह लौट कर नहीं आया तो मैं जी नहीं पाऊंगा,’’ समीर की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

‘‘नहीं, समीर,’’ शालिनी दृढ़ता से बोली, ‘‘शगुन आत्महत्या नहीं कर सकता, जो इतने सुंदर चित्र बना सकता है, इतनी सुंदर कविताएं लिख सकता है, वह जीवन से मुंह नहीं मोड़ सकता.’’

‘‘हां, हम ने उसे समझने में जो भूल की, वह हमें उस की सजा देना चाहता है,’’ समीर भरे गले से बोला.

शालिनी शगुन की डायरी खोल कर एक कविता की पंक्तियां पढ़ कर सुनाने लगी,

‘खेल और खिलौने, आडंबर और अंबार हैं.

बांट लूं किसी के संग उस पल का इंतजार है.’

उस समय दोनों यही सोच रहे थे कि यदि शगुन की कोई बहन या भाई होता तो वह शायद स्वयं को इतना अकेला कभी भी महसूस न करता और तब शायद.

रागरागिनी: क्या रागिनी अधेड़ उम्र के अनुराग से अपना प्रेम राग छेड़ पाई?

आज सुबह से ही बारिश ने शहर को आ घेरा है. उमड़घुमड़ कर आते बादलों ने आकाश की नीली स्वच्छंदता को अपनी तरह श्यामल बना लिया है. लेकिन अगर ये बूंदें जिद्दी हैं तो रागिनी भी कम नहीं. रहरह कर बरसती इन बूंदों के कारण रागिनी का प्रण नहीं हारने वाला.

ग्रीन टी पीने के पश्चात रागिनी ट्रैक सूट और स्पोर्ट शूज में तैयार खड़ी है कि बारिश थमे और वह निकल पड़े अपनी मौर्निंग जौग के लिए.

कमर तक लहराते अपने केशों को उस ने हाई पोनी टेल में बांध लिया. एक बार जब वह कुछ ठान लेती है, तो फिर उसे डिगाना लगभग असंभव ही समझो.

पिछले कुछ समय से अपने काल सैंटर के बिजनेस को जमाने में रातदिन एक करने के कारण न तो उसे सोने का होश रहा और न ही खाने का. इसी कारण उस का वजन भी थोड़ा बढ़ गया. उसे जितना लगाव अपने बिजनेस से है, उतना ही अपनी परफेक्ट फिगर से भी. इसलिए उस ने मौर्निंग जौग शुरू कर दी, और कुछ ही समय में असर भी दिखने लगा.

लंबी छरहरी काया और श्वेतवर्ण बेंगनी ट्रैक सूट में उस का चेहरा और भी निखर रहा था. उस ने अपनी कार निकाली और चल पड़ी पास के जौगर्स पार्क की ओर.

यों तो रागिनी के परिवार की गिनती उस के शहर के संभ्रांत परिवारों में होती है. मगर उस का अपने पैरों पर खड़े होने का सपना इतना उग्र रहा कि उस ने केवल अपने दम पर एक बिजनेस खड़ा करने का बीड़ा उठाया. तभी तो एमबीए करते ही कोई नौकरी जौइन करने की जगह उस ने अपने आंत्रिप्रिन्यौर प्रोग्राम का लाभ उठाते हुए बिजनेस शुरू किया. बैंक से लोन लिया और एक काल सैंटर डालने का मन बनाया. उस का शहर इस के लिए उतना उचित नहीं था, जितना ये महानगर.

जब उस ने यहां अकेले रह कर काल सैंटर का बिजनेस करने का निर्णय अपने परिवार से साझा किया, तो मां ने भी साथ आने की जिद की.

“आप साथ रहोगी तो हर समय खाना खाया, आराम कर ले, आज संडे है, आज क्यों काम कर रही है, कितने बजे घर लौटेगी, और न जाने क्याक्या रटती रहोगी. इसलिए अच्छा यही रहेगा कि शुरू में मैं अकेले ही अपना काम सेट करूं,” उस ने भी हठ कर लिया. घर वालों को आखिर झुकना ही पड़ा.

इस महानगर में रहने के लिए उस ने एक वन बेडरूम का स्टूडियो अपार्टमेंट किराए पर ले लिया. हर दो हफ्तों में एकलौता बड़ा भाई आ कर उस का हालचाल देख जाता है और हर महीने वो भी घर हो आती है. इस व्यवस्था से घर वाले भी खुश हैं और वह भी.

पार्क के बाहर कार खड़ी कर के रागिनी ने आउटर बाउंडरी का एक चक्कर लगा कर वार्मअप किया, और फिर धीरेधीरे दौड़ना आरंभ कर दिया.

आज पार्क के जौगिंग ट्रैक पर भी कीचड़ हो रहा था. बारिश के कारण रागिनी संभल कर दौड़ने लगी. मगर इन बूंदों ने भी मानो आज उसे टक्कर देने का मन बना रखा था, फिर उतरने लगीं नभ से.

भीगने से बचने के लिए रागिनी ने अपनी स्पीड बढ़ाई और कुछ दूर स्थित एक शेल्टर के नीचे पहुंचने के लिए जैसे ही मुड़ी, उस का पैर भी मुड़ गया. शायद मोच आ गई.

“उई…” दर्द के मारे वह चीख पड़ी. अपने पांव के टखने को दबाते हुए उसे वहीं बैठना पड़ा. असहनीय पीड़ा ने उसे आ दबोचा. आसपास नजर दौड़ाई, किंतु आज के मौसम के कारण शायद कोई भी पार्क में नहीं आया था. अब वह कैसे उठेगी, कैसे पहुंचेगी अपने घर. वह सोच ही रही थी कि अचानक उसे एक मर्दाना स्वर सुनाई पड़ा, “कहां रहती हैं आप?”

आंसुओं से धुंधली उस की दृष्टि के कारण वह उस शख्स की शक्ल साफ नहीं देख पाई. वह कुछ कहने का प्रयास कर रही थी कि उस शख्स ने उसे अपनी बलिष्ठ बाजुओं में भर कर उठा लिया.

“मेरी कार पार्क के गेट पर खड़ी है. मैं पास ही में रहती हूं,” रागिनी इतना ही कह पाई.

रिमझिम होती बरसात, हर ओर हरियाली, सुहावना मौसम, शीतल ठंडी बयार और किसी की बांहों के घेरे में वह खुद – उसे लगने लगा जैसे मिल्स एंड बूंस के एक रोमांटिक उपन्यास का पन्ना फड़फड़ाता हुआ यहां आ गया हो. इतने दर्द में भी उस के अधरों पर स्मित की लकीर खिंच गई.

उस ने रागिनी को कार की साइड सीट पर बैठा दिया और स्वयं ड्राइव कर के चल दिया.

“आप को पहले नहीं देखा इस पार्क में,” उस शख्स ने बातचीत की शुरुआत की.

रागिनी ने देखा कि ये परिपक्व उम्र का आदमी है – साल्टपेपर बाल, कसा हुआ क्लीन शेव चेहरा, सुतवा नाक, अनुपम देहयष्टि, लुभावनी रंगत पर गंभीर मुख मुद्रा. बैठे हुए भी उस के लंबे कद का अंदाजा हो रहा था.

“अभी कुछ ही दिनों से मैं ने यहां आना आरंभ किया है. आप भी आसपास रहते हैं क्या?” रागिनी बोली. वह उस की भारी मर्दानी आवाज की कायल हुई जा रही थी.

“जी, मैं यहीं पास में सेल्फ फाइनेंस फ्लैट में रहता हूं. अभीअभी रिटायर हुआ हूं. अब तक काफी बचत की. उसी के सहारे अब जिंदगी की सेकंड इनिंग खेलने की तैयारी है,” उस के हंसते ही मोती सी दंतपंक्ति झलकी.

“उफ्फ, कौन कह सकता है कि ये रिटायर्ड हैं. इन का इतना टोंड बौडी, आकर्षक व्यक्तित्व, मनमोहक हंसी, और ये कातिलाना आवाज,” रागिनी सोचने पर विवश होने लगी.

“बस, पास ही है मेरा घर,” वह बोली. पार्क के इतना समीप घर लेने पर उसे कोफ्त होने लगी.

किंतु घर ले जाने की जगह पहले वे रागिनी को निकटतम अस्पताल ले चले, “पहले आप को अस्पताल में डाक्टर को दिखा लेते हैं.”

उन्होंने रागिनी को फिर अपनी भुजाओं में उठाया और बिना हांफे उसे अंदर तक ले गए. वहां कागजी कार्यवाही कर के उन्होंने डाक्टर से बात की और रागिनी का चेकअप करवाया. उस की जांच कर के बताया गया कि पैर की हड्डी चटक गई है. 4 हफ्ते के लिए प्लास्टर लगवाना होगा. सुन कर रागिनी कुछ उदास हो उठी.

“आप के परिवार वाले कहां रहते हैं? बताइए, मैं बुलवा लेता हूं,” उसे चिंताग्रस्त देख वे बोले.

“वे सब दूसरे शहर में रहते हैं. यहां मैं अकेली हूं.”

“मैं हूं आप के साथ, आप बिलकुल चिंता मत कीजिए,” कहते हुए वे रागिनी को ले कर उस के घर छोड़ने चल पड़े.

घर में प्रवेश करते ही एक थ्री सीटर सोफा और एक सैंटर टेबल रखी थी. टेबल पर कुछ बिजनेस मैगजीन और सोफे पर कुछ कपड़े बेतरतीब पड़े थे.

घर की हालत देख रागिनी झेंप गई, “माफ कीजिएगा, घर थोड़ा अस्तव्यस्त है. वो मैं सुबहसुबह जल्दी में निकली तो…”

सोफे पर रागिनी को बिठा कर वे चलने को हुए कि रागिनी ने रोक लिया, “ऐसे नहीं… चाय तो चलेगी. मौसम की भी यही डिमांड है आज.”

“पर, आप की हालत तो अभी उठने लायक नहीं है,” उन्होंने कहा.

“डोंट वरी, मैं पूरा रेस्ट करूंगी. रही चाय की बात… तो वह तो आप भी बना सकते हैं. बना सकते हैं न?” रागिनी की इस बात पर उस के साथसाथ वे भी हंस पड़े.

रागिनी ने किचन का रास्ता दिखा दिया और उन्होंने चाय बनाना शुरू किया. दोनों ने चाय पी और एकदूसरे का नाम जाना. चाय पी कर वे लौटने लगे.

“फिर आएंगे न आप?” रागिनी के स्वर में थोड़ी व्याकुलता घुल गई.

“बिलकुल, जल्दी आऊंगा आप का हालचाल पूछने.”

“मुझे सुबह 7 बजे चाय पीने की आदत है,” जीभ काटते हुए रागिनी बोल पड़ी.

“हाहाहा…” अनुराग की उन्मुक्त हंसी से रागिनी का घर गुंजायमान हो उठा. “जैसी आप की मरजी. कल सुबह पौने 7 बजे हाजिर हो जाऊंगा.”

अनुराग से मिल कर रागिनी जैसे खिल उठी. आज उस का मन शारीरिक पीड़ा होने के बाद भी प्रफुल्लित हो रहा था. ऐसा क्या था आज की मुलाकात में जिस ने उस के अंदर एक उजास भर दिया. उस का चेहरा गुलाबी आभा से दमकने लगा. पैर के दर्द को भुला कर वह गुनगुनाने लगी, “मैं रंग शरबतों का, तू मीठे घाट का पानी, मुझ से खुद में घोल दे तो मेरे यार बात बन जानी…”

अगली सुबह जब तक अनुराग आए, रागिनी नहाधो कर अपने गीले केश लहराती किचन के पास आरामकुरसी डाल कर बैठ चुकी थी. उस का एक मन अनुराग के आकर्षण में बंधा प्रतीक्षारत अवश्य था, परंतु दूसरा मन उन के निजी जीवन में उपस्थित लोगों के प्रति चिंताग्रस्त था. उन का अपना परिवार भी तो होगा, यही विचार रागिनी के उफनते उत्साह पर ठंडे पानी के छींटे का काम कर रहा था.

“तो आप अर्ली राइजर हैं,” उसे एकदम फ्रेश देख कर अनुराग बोले.

“बस, आप का इंतजार कर रही थी, इसलिए आज जल्दी नींद खुल गई,” रागिनी की आंखों में अलग सा आकर्षण उतर आया. उस की भावोद्वेलित दृष्टि देख अनुराग कुछ विचलित हो गए. आगे बात न करते हुए वे चाय बनाने लगे.

“तो तय रहा कि अगले एक महीने तक आप यों ही रोज मेरे लिए चाय बनाएंगे,” रागिनी कह तो गई, पर सामने से कोई प्रतिक्रिया न आने पर संशय से घिर गई, “आप के घर वाले… आई मीन… आप की वाइफ और बच्चे… कहीं उन्हें बुरा तो नहीं लगा आप का मेरे घर इतनी सुबह आना.”

कुछ क्षण मौन रहने के पश्चात अनुराग कहने लगे, “मेरे कोई बच्चा नहीं है. एक अदद बीवी थी, पर उस से तलाक हुए एक अरसा बीत चुका है. मैं यहां अकेला रहता हूं.”

“तो फिर कोई दिक्कत नहीं. आज से मौर्निंग टी हम दोनों साथ में पिएंगे. यही पक्का रहा…?” कहते हुए उस ने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया. अनुराग ने भी खुश हो कर उस से हाथ मिला लिया.

“आप की जेनेरेशन की यही बात मुझे बेहद पसंद है – नई चीजें, नए आयाम करने में आप लोग घबराते नहीं हैं. एक हम थे – बस लकीर के फकीर बने रहे ताउम्र,” रागिनी के बिजनेस के बारे में जान कर अनुराग बोले.

“चलिए, आप की जेनेरेशन का एक गाना सुनाती हूं,” कहते हुए रागिनी ने यूट्यूब पर एक गाना लगा दिया, “मैं तेरी, तू मेरा, दुनिया से क्या लेना…” उस का विचार था कि संगीत वातावरण को और भी रूमानी और खुशनुमा बनाता है.

“ये भी मेरे जमाने का गाना नहीं है,” कह कर अनुराग हंस पड़े, “अपने जमाने का गाना मैं सुनाता हूं,” और वे गाने लगे, “जीवन से भरी तेरी आंखें, मजबूर करें जीने के लिए…”

उन की मदहोश करने वाली आवाज में किशोर कुमार का ये अमर गीत जादू करने लगा. सभवतः रागिनी की नजरों में उठतेगिरते भावों को पढ़ने में अनुराग सक्षम थे. उन्होंने अपनी बात गीत के जरीए रागिनी तक पहुंचा दी. गीत के बोलों ने पूरे समां को रंगीन कर दिया. आज की सुबह का नशा रागिनी पर शाम तक बना रहा.

अगले दिन सवेरे जब अनुराग आए तो देखा, रागिनी का बड़ा भाई आया हुआ है. उस के प्लास्टर की बात सुन कर वह उस की खैरखबर लेने आ पहुंचा.

“ये हैं मेरे भैया… और ये हैं अनुरागजी, मेरे दोस्त,” रागिनी ने दोनों का परिचय करवाया.

“अंकलजी, अच्छा हुआ कि आप पास में रहते हैं. आप जैसे बुजुर्ग की छत्रछाया में रागू को छोड़ने में हमें भी इस की चिंता नहीं रहेगी,” भाई ने बोला, तो रागिनी का मुंह बन गया.

“अनुरागजी, बैठिए न. आज चाय बनाने की जिम्मेदारी मेरे भैया की. आप बस मेरे साथ चाय का लुत्फ उठाइए,” उस ने फौरन बीच में बोला.

अनुराग रागिनी की बात का मर्म समझ गए शायद, तभी तो मंदमंद मुसकराहट के साथ उस के पास ही बैठ गए.

चाय पीने के बाद इधरउधर की बातें कर रागिनी के भैया ने कहा, “अंकलजी, कल मैं लौट जाऊंगा. प्लीज, रागू का ध्यान रखिएगा.”

“क्या बारबार अनुरागजी को अंकलजी बोल रहे हो, भैया,” इस बार रागिनी से चुप नहीं रहा गया. उस के दिल का हाल भैया की समझ से परे था, सो बड़े शहरों के चोंचले समझ कर चुप रह गए.

प्लास्टर बंधे 2 हफ्ते बीत चुके थे. अनुराग हर सुबह रागिनी के घर आते, चाय बनाते, कभीकभी नाश्ता भी, और दोनों एक अच्छा समय साथ बिताते.

अनुराग की मदद से रागिनी अपने कई काम निबटा लेती. दोनों का सामीप्य काफी बढ़ गया था. दोनों एकदूसरे के गुणोंअवगुणों से वाकिफ होने लगे थे. एक रिश्ते को सुदृढ़ बनाने के लिए ये आवश्यक हो जाता है कि एकदूसरे की खूबियां और कमियां पहचानी जाएं और पूरक बन कर एकदूजे की दुर्बलताओं की पूर्ति की जाए. जिन कामों में रागिनी अक्षम थी जैसे अच्छा खाना पकाना, उसे अनुराग सिखाते. और जिन कामों में अनुराग पीछे थे जैसे आर्थिक संबलता के काम उन में वे रागिनी से सलाह लेने लगे थे. दोनों को एकदूसरे पर विश्वास होने लगा था.

प्लास्टर लगा होने के कारण रागिनी अपने काल सैंटर नहीं जा पा रही थी. बिजनेस पर इस का प्रभाव पड़ने लगा.

रागिनी की परेशानी अनुराग के अनुभव भरे जीवन के तजरबों ने दूर कर दी. बिना किसी नियुक्तिपत्र या वेतन के अनुराग ने रागिनी के काल सैंटर जाना आरंभ कर दिया. अब वे प्रतिदिन तकरीबन 5-6 घंटों के लिए उस के औफिस जाने लगे. मालिक के आने से मातहतों की उत्पादकता में फर्क आना वाजिब है. काल सैंटर का बिजनेस पहले से भी बेहतर चलने लगा.

“आप के अनुभव मेरे बहुत काम आ रहे हैं. इस के लिए आप को ट्रीट दूंगी,” रागिनी अपनी बैलेंस शीट देख कर उत्साहित थी.

“क्या ट्रीट दोगी? मुझे कोई भजन की सीडी दे देना.”

“व्हाट? भजन… मेरे पापा भी भजन नहीं सुनते हैं. खैर, वो आप से उम्र में छोटे भी तो हैं,” कह कर रागिनी ने कुटिलता से मुसकरा कर अनुराग की ओर देखा. फिर पेट पकड़ कर वह हंसते हुए कहने लगी, “आप की लेग पुलिंग करने में बड़ा मजा आता है. पर अगर आप सीरियस हैं तो मैं आप को बिग बैंग थ्योरी पर एक वीडियो शेयर करूंगी, ताकि आप की सारी गलतफहमी दूर हो जाए कि ये दुनिया कैसे बनी.” “मैं मजाक कर रहा हूं. जानता हूं कि दुनिया कैसे बनी. मैं तो बस तुम्हें अपनी उम्र याद दिलाना चाह रहा था,” अनुराग अब भी गंभीर थे. शायद मन में उठती भावनाओं को स्वीकारना उन के लिए कठिन हो रहा था. परंतु रागिनी की इस रिश्ते को ले कर सहजता, सुलभता और स्पष्टता उन्हें अकसर चकित कर देती.

एक दिन रागिनी ने अनुराग को अपने घर लंच पर न्योता दिया, “हर बार आप के हाथ का इंडियन खाना खाते हैं. आज मेरा हाथ का लेबनीज क्विजीन ट्राई कीजिए. वीडियो देख कर सीखा है मैं ने.”

“तुम खाना पकाओगी?” अनुराग ने रागिनी की खिंचाई की.

“मैं तो पका लूंगी, पर तुम को पच जाएगा कि नहीं, ये नहीं कह सकती,” आज रागिनी अनुराग को ‘आप’ संबोधन से ‘तुम’ पर ले आई. समीप आने के पायदान पर एक और सीढ़ी चढ़ते हुए.

“क्यों नहीं पचेगा? मुझे बुड्ढा समझा है?” अनुराग ने ठिठोली में आंखें तरेरीं. “अर्ज किया है – उम्र का बढ़ना तो दस्तूरेजहां है, महसूस न करें तो बढ़ती कहां है.”

“वाह… वाह… तो शायरी का भी शौक रखते हैं जनाब. आई मीन, माई ओल्ड मैन,” हंसते हुए रागिनी कम शब्दों में काफी कुछ कह गई.

“चलो, तुम कहती हो तो मान लेता हूं. हो सकता है कि मैं सच में बूढ़ा हो गया हूं. तुम्हारे बड़े भैया तो मुझे अंकलजी पुकारते हैं.”

“ऊंह… उन का तो दिमाग खराब है. तुम्हें पता है उन की एक गर्लफ्रेंड है – फिरंगी. फेसबुक पर मुलाकात हुई. फिर भैया उस से मिलने उस के देश हंगरी भी गए. पता चला, उसे भैया पर तभी विश्वास हुआ जब भैया ने प्रत्यक्ष रूप से उसे विश्वास दिलाया कि वे उस से प्यार करते हैं. इस का कारण – वह प्यार में 2 बार धोखा खा चुकी है. एक फिरंगी लड़की प्यार में धोखा खाए, इस का मतलब समझते हो न? उन के यहां शादी बाद में होती है, बच्चे पहले. तो फिर हुई न वो 2 बार शादीशुदा… लेकिन, मेरी फैमिली को कोई एतराज नहीं है. मुझे भी नहीं है. पर यही आजादी मुझे अपनी जिंदगी में भी चाहिए. मैं समाज का दोगलापन नहीं सह सकती. मैं हिपोक्रेट नहीं हूं. जो मुझे पसंद आएगा, उसे मेरे परिवार को भी पसंद करना पड़ेगा. उस समय कोई अगरमगर नहीं चलने दूंगी,” रागिनी बेसाख्ता कहती चली गई. अपने विचार प्रकट करने में वह निडर और बेबाक थी. अनुराग इशारा समझ चुके थे.

“वो क्या कहती है तुम्हारी जेनेरेशन… इस बात पर तुम्हें हग करने को जी चाह रहा है,” अनुराग ने माहौल को हलका बनाते हुए कहा.

“ऐज यू प्लीज,” कहते हुए रागिनी ने अनुराग को गले लगा लिया. स्पर्श में अजीब शक्ति होती है, उसे शब्दों की आवश्यकता नहीं रहती. आलिंगनबद्ध होते ही दोनों एकदूसरे की धड़कन सुनने के साथसाथ, एकदूसरे का भोवोद्वेलन भी समझ गए. बात आगे बढ़ती, इस से पहले अनुराग ने रागिनी को स्वयं से दूर कर दिया.

“दिन में सपने देख रही हो?” अनुराग ने पूछ लिया.

“दिन में सपने देखने को प्लानिंग कहते हैं… और, मैं अपनी लाइफ की हीरो हूं, इसलिए इस के सपने भी मैं ही डिसाइड करूंगी,” रागिनी का अपने दिल पर काबू नहीं था. उस की चाहतों की टोह लेते हुए अनुराग को वहां से चले जाने में ही समझदारी लगने लगी.

अगले दिन जब अनुराग आए तो रागिनी के घर का नक्शा बदला हुआ था. लिविंग रूम के बीचोंबीच रखी सैंटर टेबल पर लाल गुलाबों का बड़ा सा गुलदस्ता सजा था. आसपास लाल रिबन से बने हुए ‘बो’ रखे थे. सोफे के ऊपर वाली दीवार पर एक कोने से दूसरे कोने तक एक डोरी में रागिनी की तसवीरें टंगी हुई थीं, जिन में वह बेहद खूबसूरत लग रही थी.

अनुराग की नजर कभी किसी फोटो पर अटक जाती तो कभी दूसरी पर. हर तसवीर में एक से एक पोज में रागिनी की मनमोहक छटा सारे कक्ष को दीप्तिमान कर रही थी. आज कमरे के परदे खींच कर हलका अंधियारा किया हुआ था, जिन में दीवारों पर सजी फेयरी लाइट्स जगमगा रही थीं. पार्श्व में संगीत की धुन बज रही थी. शायद कोई रोमांटिक गीत का इंसट्रूमेंटल म्यूजिक चलाया हुआ था.

अनुराग अचकचा गए. आज ये घर कल से बिलकुल भिन्न था. “रागिनी,” उन्होंने पुकारा.

पिंडली तक की गुलाबी नाइटी में रागिनी अंदर से आई. उस के रक्ताभ कपोल, अधरों पर फैली मुसकान, आंखों में छाई मदहोशी, और खुले हुए गेसू – एक पल को अनुराग का दिल धक्क से रह गया. लगा जैसे वो उम्र के तीस वर्ष पीछे खिंचते चले गए हों. उन की नजर में भी एक शरारत उभर आई. नेह बंधन की कच्ची डोर ने दोनों को पहले से ही कस कर पकड़ना शुरू कर दिया था. आज के माहौल से आंदोलित हुई भावनाएं तभी थमीं, जब शरमोहया के सारे परदे खुल गए. आज जो गुजरा, उस के बारे में अनुराग ने सोचा न था. परंतु जो भी हुआ, दोनों को आनंदित कर गया.

अंगड़ाई लेते हुए रागिनी के मुंह से अस्फुट शब्द निकले, “आज सारे जोड़ खुले गए… कहीं कोई अड़चन नहीं बची.”

उसे प्रसन्न देख अनुराग भी प्रफुल्लित हो गए, “जानती हो रागिनी,” उस के बालों में उंगली फिराते हुए उन्होंने कहा, “मेरी शादी बहुत कड़वी रही. बहुत घुटन थी उस में. ऐसा तो नहीं हो सकता न कि हम सांस भी न लें और जिंदा भी रहें. खैर, मैं भी पता नहीं क्या बात ले बैठा… इस समय, तुम से… न जाने क्यों?”

“मुझे अच्छा लगा यह जान कर कि तुम ने मेरे समक्ष अपने दिल की परत खोली. प्रेम केवल अच्छी बातें, सुख और कामना नहीं. प्रेम में मन का कसेलापन भी शामिल होता है. प्रेम में हम दुखतकलीफें न बांट सकें तो फिर ये तकल्लुफ हुआ, प्यार नहीं,” रागिनी अनुराग के और निकट आ कर संतुष्ट हुई.

बाहर टिपटिप गिरती बूंदें एक राग सुनाने लगीं. कमरे के अंदर आती पवन चंपई गंध लिए थी. आज की खामोशी में एक संगीत लहरा रहा था. प्यार उम्र नहीं देखता, समर्पण चाहता है.

इस प्रकरण के बाद रागिनी और अनुराग के बीच एक अटूट रिश्ता बन गया. अब उन्हें बातों की आवश्यकता नहीं पड़ती. आंखों से संपर्क साधना सीख लिया था उन के रिश्ते ने. दोनों के बीच एक लहर प्रवाहित होती जो मौन में भी सबकुछ कह जाती. मन के सभी संशय मीठे अनुनाद में बदल चुके थे. यही तो सच्चा और अकूत प्रेम है.

जब रागिनी का प्लास्टर उतरा, तब वह पहली बार अनुराग के घर गई.

“तो यहां रहते हैं आप?” बिना किसी तसवीर या चित्रकारी के नीरस दीवारें, बेसिक सा सामान, पुराने बरतन, पुराना फर्नीचर. घर में कुछ भी आकर्षक नहीं था. लेकिन रागिनी चुप रही. हर किसी का जीने का अपना एक ढंग होता है. उस पर आक्रमण किसी को नहीं भाता. जो कुछ बदलाव लाएगी, वो धीरेधीरे.

“अपने फोटो एलबम दिखाइए,” रागिनी की डिमांड पर अनुराग कुछ एलबम ले आए. उन में अनुराग के बचपन की, जवानी की तसवीरें देख रागिनी हंसती रही.

“पहले मेरे बाल काफी काले थे,” अपने खिचड़ी बालों की वजह से सकुचाते हुए अनुराग बोले, “क्या फिर कलर कर लूं इन्हें?”

“नहीं, आप साल्ट एंड पेपर बालों में ही जंचते हैं. ये तो आजकल का फैशन है. मैच्यौर्ड लुक, यू सी,” रागिनी ने कहा. फिर मौके का फायदा उठाते हुए वह कहने लगी, “अगर कुछ चेंज करना ही है तो इस घर में थोड़े बदलाव कर दूं? यदि आप कहें?”

“मेरा सबकुछ तुम्हारा ही तो है. जो चाहो करो,” अनुराग से अनुमति पा कर रागिनी हर्षित हो उठी.

“ठीक है, तो कल से ही काम चालू,” कह कर रागिनी खिलखिला पड़ी.

अब रागिनी अकसर अनुराग के घर आती, और वो उस के. दोनों एकदूसरे के हो चुके थे – तन से भी, मन से भी और काम से भी. एक खुशहाल साथ बसर करते दोनों को कुछ हफ्ते बीत चुके थे कि एक दिन अनुराग कहने लगे, “ऐसे कब तक चलेगा, रागिनी? मेरा मतलब है कि बिना शादी किए हम यों ही…”

“क्यों, आप को कोई परेशानी है इस अरेंजमेंट से?”

“नहीं, मुझे गलत मत समझो रागिनी, तुम्हारे आने से मेरे मुरदा जीवन में जैसे प्राण आने लगे हैं. इस बेजान मकान को एक घर की सूरत मिलने लगी है. तुम ने इस की शक्ल बदल कर मुझ पर बड़ा एहसान किया है. पर तुम एक जवान लड़की हो, क्या तुम्हारे परिवार वाले मुझे स्वीकारेंगे?” अनुराग ने अपने मन में उठती शंकाओं के पट खोल दिए.

“शादी किसी रिश्ते को शक्ति व सामर्थ्य देने का ढंग है, बस. जब हम दोनों एकदूसरे के हो चुके हैं, तो फिर हमें किसी बाहरी ठप्पे की जरूरत नहीं है. हम जैसे हैं, खुश हैं.

“रही बात समाज की, तो समाज हम से ही बनता है. हमारी नीयत में जब खोट नहीं तो हम किसी से क्यों डरें?”

रागिनी के विचार सच में आज की पीढ़ी की बेबाक सोच प्रस्तुत कर रहे थे. जबकि अनुराग के विचार अपनी पीढ़ी के ‘लोग क्या कहेंगे’ की परिपाटी दर्शा रहे थे. यही तो फर्क है दोनों में. मगर जब सोच लिया कि साथ निभाना है तो फिर घबराना कैसा? मुश्किलों का आना तो पार्ट औफ लाइफ है. उन में से हंस कर बाहर आना, यही आर्ट औफ लाइफ है.

 

 

 

स्केअर क्रो: क्यों सुभाष को याद कर बिलख पड़ी थी मीनाक्षी

सुभाष की कंजूसी की आदत के चलते पत्नी मीनाक्षी ही नहीं, बल्कि रिश्तेदार भी नाराज रहते, लेकिन उन की आंख बंद होते ही मायकेससुराल के लोग उन के घर की परिक्रमा करने लगे. और तब मीनाक्षी, सुभाष को याद कर बिलख पड़ी थी.

सुभाषजी की आत्मा की शांति केलिए आयोजित श्रद्धांजलि समारोह में शास्त्रीजी का प्रवचन वहां बैठे सभी लोग ध्यान से सुन रहे थे. उन्होंने पौराणिक कथाओं को जोड़ कर अपने प्रवचन को काफी दिलचस्प बना दिया था.

मीनाक्षी चाह कर भी उस प्रवचन को ध्यान से नहीं सुन पा रही थी. अपने दिवंगत पति की माला पहनी तसवीर को देखतेदेखते उस का मन बारबार अतीत की यादों में खोता जा रहा था.

‘सुभाष की बहू चांद सी सुंदर और कितनी पढ़ीलिखी है. इस सिरफिरे की तो सचमुच लाटरी निकली है.’ लोगों के मुंह से निकली इस तरह की बातें मीनाक्षी के कानों में 32 साल पहले शादी के पंडाल में ही पड़ने लगी थीं.

लोग सुभाष को सिरफिरा क्यों बता रहे थे, इस का कारण मीनाक्षी की समझ में जल्दी ही आ गया था.

बढि़या पहनने और चटपटा खाने के अलावा उस के आरामपसंद पति को किसी अन्य बात में कोई दिलचस्पी नहीं थी. न तरक्की कर के आगे बढ़ने की चाह, न कोई सपना, न कोई महत्त्वा- कांक्षा. हां, अपने अच्छे नैननक्श व प्रभावशाली कदकाठी का घमंड होने के साथसाथ उस में पति होने की अकड़ जरूर बहुत ज्यादा थी.

वे अपनी नाक पर मक्खी नहीं बैठने देते थे. क्या मजाल जो घर में कोई काम उन की मरजी के खिलाफ हो जाए. क्लेश और झगड़ा कर के किसी की भी नाक में दम कर देना उन के बाएं हाथ का खेल था.

शादी के वक्त तो मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाली मीनाक्षी की तनख्वाह उन्हीं के बराबर थी. फिर सिर्फ वही तरक्की करती चली गई. हर 2-3 साल बाद उस का प्रमोशन हो जाता. दूसरी तरफ स्कूल मास्टर सुभाषजी को पगार में होने वाली सालाना बढ़ोतरी से ज्यादा कुछ और नहीं चाहिए था और न ही मिला.

‘मेरे सामने कभी ऊंचा बोलने की कोशिश मत करना. अगर कभी मेरे सिर के ऊपर से रास्ता बनाने की कोशिश की तो 1 मिनट में नौकरी छुड़वा कर घर बिठा दूंगा,’ इस तरह की धमकी अपने से ज्यादा कमाने वाली मीनाक्षी को वे आएदिन जरूर दे देते थे.

मीनाक्षी उन से ज्यादा कमा रही है, इस कारण सुभाषजी रिश्तेदारों व परिचितों के सामने पत्नी को कुछ ज्यादा ही दबा कर रखने की कोशिश करते. अगर खराब मूड में हों तो चार लोगों के बीच पत्नी को अपमानित करने का भी वे मौका नहीं चूकते थे. ऐसा करने से उन की हीनभावना ज्यादा उभर कर सामने आती है, यह उन की समझ में कभी नहीं आया.

कमाया तो उन्होंने ज्यादा नहीं, पर घर में आते 1-1 रुपए का हिसाब वे ही रखते. कहीं भी जरूरत से ज्यादा खर्च करने की बात सुन कर उन के तेवर चढ़ जाते. उन के कंजूस स्वभाव के कारण दोनों के सामूहिक खाते में रकम तो तेजी से बढ़ती गई, पर घर के सदस्यों को कभी कोई ज्यादा खुशी नहीं मिल पाई. घर में सुखसुविधाओं की चीजें बढ़ती गईं पर हर चीज को खरीदने से पहले क्लेश होना लाजिमी था.

उन की शादी के 2 साल बाद बड़ा बेटा संजीव आ गया. मीनाक्षी के न चाहते हुए भी 2 साल बाद राजीव पैदा हो गया. सुभाष परिवार नियोजन के लिए किसी भी किस्म की जहमत उठाने को तैयार नहीं थे, इसलिए मीनाक्षी ने राजीव के होने के समय अपनी ही नसबंदी करा ली थी.

हर प्रमोशन के साथ आफिस में मीनाक्षी की जिम्मेदारियां बढ़ती चली गईं. उसे देर तक दफ्तर में रुकना पड़ जाता था. उस के लिए घर और आफिस की जिम्मेदारियां संभालना बहुत कठिन हो जाता अगर सुभाष ने घर संभालने में उस का पूरा हाथ  न बटाया होता. अपने पति के इस इकलौते गुण की तारीफ मीनाक्षी हर आएगए के सामने दिल से करती थी.

सुभाष ने घरगृहस्थी के काम निबटाने में अच्छी कुशलता हासिल कर ली थी. सुबह बच्चों को स्कूल भेजने के लिए तैयार करने से ले कर उन्हें पढ़ाने, खाना खिलाने, कपड़े बदलवाने जैसे सभी काम वही करते थे. वे खाने के शौकीन तो थे ही, इसलिए धीरेधीरे उन्होंने कई स्वादिष्ठ चीजें बनाने में महारत हासिल कर ली थी.

बड़े हो रहे बच्चों को अनुशासन में रखने के लिए वे गुस्से का इस्तेमाल खूब करते. इस का यह फायदा तो जरूर हुआ कि दोनों बेटे हर परीक्षा में अधिकतर प्रथम आते, पर अपने पिता को देखते ही उन का सहम सा जाना मीनाक्षी को दुखी कर जाता था.

वह कभी इस बाबत सुभाष से कुछ कहती तो वे बड़े रूखे से लहजे में जवाब देते, ‘हम दोनों के खूनपसीने की कमाई को आजकल चल रही फैशन की अंधी दौड़ में बरबाद करने के सपने मैं अपने दोनों बेटों को कभी नहीं देखने दूंगा. तुम भी इस मामले में उन्हें किसी भी तरह की शह देने की कोशिश मत करना.’

संजीव और राजीव को छोटी उम्र में ही कुछ इस तरह के लैक्चर सुनने को मिलने लगे थे, ‘अगर तुम्हें कोई भी कीमती या खास चीज चाहिए तो पहले परीक्षा में बहुत अच्छे नंबर लाओ और जो भी काम करने को दिया जाता है उसे जिम्मेदारी से निभाओ. इस घर में तुम्हें मुफ्त में कुछ नहीं मिलेगा और न लाड़प्यार से बिगाड़ा जाएगा, ये अच्छी तरह से समझ लो तुम दोनों.

‘ज्यादा दिखावा करना मूर्खतापूर्ण होने के साथसाथ बच्चों के अंदर गलत आदतें और संस्कार डालना है. हम ज्यादा दिखावा करेंगे तो दुनिया भर के मंगते हमारे घर में जमा होना शुरू हो जाएंगे. अपनी गांठ में पैसा बचा कर रखना समझदारी है. तुम अपने आफिस को संभालो और घर व बच्चों की चिंता मुझे करने दो. दुनियादारी की समझ है नहीं और चली हैं मुझे समझाने.’ ऐसे मौकों पर सुभाष गुस्सा हो कर मीनाक्षी की बोलती बंद कर देते थे.

सुभाष की तीखी जबान और कंजूसी की आदत के चलते घर के लोग ही नहीं, बल्कि हर रिश्तेदार भी उन से नाराज रहता था. तगड़े बैंक बैलेंस ने उन के अंदर किसी से कोई भी उलट या अपमानजनक बात कह देने का दुस्साहस पैदा कर दिया था.

एक बार मीनाक्षी के बड़े भैया ने 50 हजार रुपए अपने जीजाजी से मांगे थे. मीनाक्षी अपने भाई की सहायता करना चाहती थी पर सुभाष ने साफ इनकार कर दिया.

अपने भाई के दबाव में आ कर मीनाक्षी ने जब इस विषय पर कहनासुनना जारी रखा, तो एक दिन सुभाष ने अपने साले को ससुराल में ही जा कर भलाबुरा कह दिया था.

‘साले साहब, अपनी बहन को मेरी पीठ पीछे अगर किसी तरह की उलटी पट्टी पढ़ा कर मेरा माल खींचने की कोशिश की तो ठीक नहीं होगा. मेरा इतना कहना आप के लिए काफी होना चाहिए कि दूसरों से अपनी इज्जत कराना इनसान के अपने हाथ में होता है,’ सुभाष की इस धमकी का यह असर हुआ कि उन के साले ने करीब 5 साल तक उन के घर की दहलीज नहीं लांघी थी.

सुभाष के अपने छोटे भाई का बिजनेस हमेशा घाटे में चलता था. उसे अपने बड़े भाई से कोई आर्थिक सहायता मिली भी तो कर्जे के रूप में मिली और उसे 1-1 पाई लौटानी पड़ी थी. हर महीने अगर वह तय राशि लौटाने नहीं आता था तो सुभाषजी उस के घर पहुंच कर उसे डांटने और झगड़ा करने से नहीं चूकते थे.

सुभाषजी की कंजूसी का यह फायदा हुआ कि उन्होंने बड़ी जल्दी 200 गज के प्लाट पर एकमंजिला मकान बनवा लिया था. मकान बनवाने के 2 साल बाद कार भी ले ली थी. अपने दोनों बेटों को इंजीनियर बनाने में किसी आर्थिक कठिनाई का सामना उन्हें नहीं करना पड़ा था.

मीनाक्षी मन मार कर उन के साथ जी रही थी. उस का घूमनेफिरने और लोगों से मिलनेजुलने का शौक अपने पति के आलसी व तीखे स्वभाव के कारण कभी पूरा नहीं हो सका था. उसे हमेशा लगता था कि वह अपने पति के अजीबोगरीब व्यक्तित्व के कारण अपनी सहेलियों व सहयोगियों के सामने शर्मिंदा होती है.

शास्त्रीजी ने जब पगड़ी की रस्म शुरू करने की घोषणा की तो मीनाक्षी झटके से अतीत की यादों से निकल आई थी.

कार्यक्रम समाप्त हो जाने के बाद कई औरतें विदा लेते हुए मीनाक्षी के गले लग कर रोईं, पर मीनाक्षी को एक बार भी दिल से रोना नहीं आया. जीवनसाथी हमेशा के लिए साथ छोड़ कर चला गया है, यह तथ्य उसे बहुत ज्यादा पीड़ा नहीं पहुंचा रहा था. उसे लग रहा था कि किसी के भी दिल में अपनी जगह न बना पाने वाला इनसान अपनी पत्नी के दिल से भी खुद को दूर रखने में सफल रहा था.

सब मेहमानों के चले जाने के बाद घर के करीबी लोग रह गए थे. रात 10 बजे के करीब वह अपने कमरे में आराम करने को लेटी ही थी कि उस के बड़े भैया मिलने आ पहुंचे.

‘‘मीनू, तुम्हें जो भी इकट्ठा मिला है या मिलेगा, उसे संभाल कर रखना जरूरी है. मैं अपने अकाउंटेंट को कल ही यहां भेज देता हूं. वह बैंक और बीमे आदि के सारे कागज देख लेगा,’’ बड़े भैया ने फौरन काम की बात करनी शुरू कर दी थी.

‘‘अभी मेरा दिमाग बिलकुल काम नहीं कर रहा है, भैया. उसे कुछ दिन बाद भेज देना,’’ थकी हुई मीनाक्षी को न जाने क्यों उन का इस वक्त रुपएपैसों की बात करना अच्छा नहीं लगा था.

‘‘वह रविवार को आ जाएगा. बड़े भाई के होते हुए तुम्हें किसी तरह की चिंता करने की जरूरत नहीं है,’’ बड़े भैया ने उस के सिर पर हाथ रख कर हौसला बंधाया और फिर कमरे से बाहर चले गए थे.

उन के जाते ही मीनाक्षी का देवर सचिन उस की इजाजत ले कर कमरे के अंदर आ गया.

सामने पड़ी कुरसी पर बैठने के बाद सचिन ने संजीदा लहजे में बोलना शुरू किया, ‘‘भाभी, अब इस घर में अकेले रहने में बहुत समस्याएं आएंगी. अगर रातबिरात किसी तरह की जरूरत पड़ी तो आप किसे पुकारोगी?’’

‘‘हमारे पड़ोसी अच्छे हैं और…’’

‘‘भाभी, पड़ोसी पड़ोसी होते हैं,’’ सचिन ने आवेश भरे लहजे में उसे टोक दिया, ‘‘वे अपनों की जगह कभी नहीं ले सकते हैं. आप मेरी एक सलाह मानोगी?’’

‘‘कैसी सलाह?’’

‘‘सीमा और मैं यहां आप के पास आ कर रहना शुरू कर देते हैं. संजीव और राजीव बाहर नौकरी कर रहे हैं और मुझे नहीं लगता कि वे कभी सैटल होने के लिए यहां लौटेंगे. मैं छत पर 2 कमरों का सैट अपने खर्चे से बनवा देता हूं. हमारे यहां आ कर साथ रहने से आप को सहारा हो जाएगा. हमारे बच्चों के स्कूल यहां से बहुत पास में हैं, सो यहां शिफ्ट करने में हमारा फायदा भी है.’’

‘‘मैं संजीव और राजीव से सलाह कर के तुम्हें जवाब देती हूं,’’ सिर में तेज दर्द शुरू हो जाने के कारण मीनाक्षी को बोलने में कठिनाई हो रही थी.

‘‘आप अपनों का सहारा मिलने की बात पर जोर दोगी, तो वे कमरे बनवाने की बात जरूर मान जाएंगे,’’ उन्हें ऐसी सलाह दे कर सचिन बाहर चला गया था.

सचिन चाचा के जाते ही उस के दोनों बेटे संजीव और राजीव एकसाथ कमरे में आ गए थे. दोनों ही टैंशन और हिचकिचाहट का शिकार बने नजर आ रहे थे.

‘‘तुम दोनों मुझ से कोई खास बात करने आए हो न?’’ मीनाक्षी ने यह सवाल पूछ कर उन्हें अपने मन की बात फौरन कह देने की सुविधा उपलब्ध करा दी थी.

‘‘मम्मी, अब आप के यहां अकेले रहने की कोई तुक नहीं है. हम दोनों को लगता है कि अब इस मकान को बेच कर आप को हमारे साथ रहना शुरू कर देना चाहिए,’’ कहते हुए राजीव भावुक हो उठा.

‘‘अब आफिस में और ज्यादा खटने की जरूरत भी नहीं है. आप जल्दी रिटायरमैंट लेने की अरजी दे डालो,’’ यह सलाह संजीव ने दी.

‘‘अभी तो मेरी सर्विस के 2 साल बचे हैं. शायद 1 और प्रमोशन भी मिल…’’

‘‘मम्मी, अब प्रमोशन के बदले आप को अपनी सेहत का ज्यादा ध्यान रखना चाहिए. पूना में मेरे घर के पीछे खाली जमीन पड़ी है. उस की देखभाल कर आप अपना बागबानी का शौक पूरा करो और अपना ब्लड प्रैशर भी ठीक रखो.’’

‘‘आप को यह जगह छोड़ कर अब हमारे पास रहना शुरू करना ही पड़ेगा,’’ संजीव ने जब दबाव बनाने को अपने मुंह से निकले हरेक शब्द पर बहुत जोर डाला तो मीनाक्षी मन ही मन खीज उठी थी.

कुछ पल सोचविचार में खोए रहने के बाद वह झटके से उठ खड़ी हुई और बोली, ‘‘चलो, ड्राइंगरूम में एकसाथ बैठ कर कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर फैसला कर लेते हैं.’’

वे दोनों बड़ी अनिच्छा से उस के पीछे ड्राइंगरूम की तरफ चल पड़े थे. मीनाक्षी ने ड्राइंगरूम की तरफ जाते हुए अपने भाई, देवर और देवरानी को भी साथ ले लिया था.

जब सब लोग बैठ गए तो मीनाक्षी ने खड़ेखड़े ही बोलना शुरू किया, ‘‘इस में कोई शक नहीं कि आप सब लोग मेरे करीबी भी हैं और शुभचिंतक भी, पर फिर भी मैं एक बात आप सभी से कहना चाहती हूं. यह अच्छी बात है कि आप सब को मेरे सुखदुख की चिंता है, पर यह भी समझ लें कि उन के जाने के बाद मैं कमजोर और असहाय नहीं हो गई हूं. जहां तक मेरा मार्गदर्शन करने की बात है तो जब मैं आंख बंद करती हूं तो वे मुझे हर उलझन को सुलझाने की सलाह देते नजर आने लगते हैं.

‘‘मेरे हित को ध्यान में रख कर आप सभी के द्वारा दी गई सारी सलाह और सुझावों के बारे में मैं एक ही बात कहना चाहूंगी. मुझ से कुछ कराने की सलाह देने से पहले आप सब यह जरूर सोचें कि अगर वे जिंदा होते तो आप की सलाह को ले कर उन की क्या प्रतिक्रिया होती.

‘‘मैं आप सब से साफसाफ कह देना चाहती हूं कि जो काम वे अपने सामने नहीं होने देते, उसे मेरे ऊपर दबाव डाल कर कराने की कोशिश न करें. वे किसी हालत में अपना पैसा किसी और को संभालने के लिए नहीं देते…न इस मकान के ऊपर 2 कमरों का सैट किसी को बनाने देते और न ही इस मकान को बेच कर अपने बेटों के पास रहने जाते.

‘‘अगर अब भी आप लोगों के पास मेरे हित का कोई ऐसा सुझाव बचता है जो उन्हें भी मान्य होता, तो कल सुबह उसे आप मुझे अवश्य बताएं. इस वक्त मैं बहुत थक गई हूं और सोना चाहती हूं. आप सब भी आराम करें. गुड नाइट.’’

एक नजर उन सभी करीबी लोगों के नाराज चेहरों पर डाल कर मीनाक्षी अपने कमरे की तरफ चल पड़ी थी. अपने दिवंगत पति के बारे में इस वक्त वह नए ढंग से सोच रही थी. उसे वे बहुत ज्यादा याद आ रहे थे.

मीनाक्षी के जेहन में एक चित्र जो बारबार उभर रहा था, वह खेतों में लगाए गए स्केअर क्रो का था. उस डरावनी सी शक्ल और बिना शरीर वाले पुतले को हवा से हिलताडुलता देख कर पक्षी खेत की फसल को नुकसान नहीं पहुंचा पाते हैं.

कमरे में पहुंचने के बाद अपने ‘स्केअर क्रो’ को याद कर वह पहली बार बिलखबिलख कर रो पड़ी थी.

बड़ी लकीर छोटी लकीर

ढोलककी थाप रह-रह कर मेरे कानों में चुभ रही थी. कल ही तो खबर आई थी कि मैं ने शेयर बाजार में जो पैसा लगाया है वह सारा डूब गया. कहां तो मैं एक बड़ी लकीर खींच कर एक लकीर को छोटा करना चाहता था और कहां मेरी लकीर और छोटी हो गई.

तभी शिखा मुसकराती हुई आई और मेरे हाथ में गुलाबजामुन की प्लेट पकड़ा कर बोली, ‘‘खाओ और बताओ कैसे बने हैं?’’

मैं उसे और बोलने का मौका नहीं देना चाहता था, इसलिए बेमन से खा कर बोला, ‘‘बहुत अच्छे.’’

मगर उसी दिन पता चला कि किसी भी व्यंजन का स्वाद उस के स्वाद पर नहीं उसे किस नीयत से खिलाया जाता है उस पर निर्भर करता है.

शिखा बोली, ‘‘अनिल जीजा और नीतू

दीदी की मुंबई के होटल की डील फाइनल हो

गई है. उन्होंने ही सब के लिए ये गुलाबजामुन मंगाए हैं.’’

सुनते ही मुंह का स्वाद कड़वा हो गया. यह लकीरों का खेल बहुत पहले से शुरू हो गया था, शायद मेरे विवाह के समय से ही. मेरा नाम सुमित है, शादी के वक्त में 24 वर्षीय नौजवान था, जिंदगी और प्यार से भरपूर. मेरी पत्नी शिखा बहुत प्यारी सी लड़की थी. उसे अपनी जिंदगी में पा कर मैं बहुत खुश था. सच तो यह था कि मुझे यकीन ही नहीं था कि इतनी सुंदर और सुलझी हुई लड़की मेरी पत्नी बनेगी. पर विवाह के कुछ माह बाद शुरू हो गया एक खेल. पता नहीं वह खेल मैं ही खेल रहा था या दूसरी तरफ से भी हिस्सेदारी थी.

मुझे आज भी वे दिन याद हैं जब मैं पहली बार ससुराल गया था. मेरी बड़ी साली के पति हैं अनिल. चारों तरफ उन का ही बोलबाला था.

‘‘अनिल अभी भी एकदम फिट है. इतना युवा लगता है कि घोड़ी पर बैठा दो,’’ यह शिखा की मौसी बोल रही थीं.

पता नहीं हरकोई क्यों बस बहू के बारे में ही कहानियां लिखता है. एक दामाद के दिल में भी धुकधुक रहती है कि कैसे वह अपने सासससुर और परिवार को यकीन दिलाए कि वह उन की राजकुमारी को खुश रखेगा और मेरे लिए तो यह और भी मुश्किल था, क्योंकि मुझे तो एक लकीर की माप में और बड़ी लकीर खींचनी थी. मेरा एक काबिल पति और दामाद बनने का मानदंड ही यह था कि मुझे अनिल से आगे नहीं तो कम से कम बराबरी पर आना है.

आप सोच रहे होंगे, कैसी पत्नी है मेरी या कैसी ससुराल है मेरी. नहीं दोस्तो कोई मुंह से कुछ नहीं बोलता पर आप को खुद ही यह महसूस होता है, जब आप हर समय बड़े दामाद यानी अनिल के यशगीत सुनते हो.

मैं पता नहीं क्यों इतनी कोशिशों के बाद भी वजन कम नहीं कर पा रहा था. उस दिन अनिल अपनी पत्नी के साथ हमारे घर आया था. मजाक करते हुए बोला, ‘‘सुमित, तुम थोड़ा कपड़ों पर ध्यान दो. यह वजन घटाना तुम्हारे बस की बात नहीं है.’’

उस की पत्नी नीतू भी मंदमंद मुसकरा रही थी और मेरी पत्नी शिखा को अपने हीरे के मोटेमोटे कड़े दिखा रही थी. मेरे अंदर उस रोज कहीं कुछ मर गया. शर्म आ रही थी मुझे. शिखा अपनी सब बहनों में सब से सुंदर और समझदार है पर मुझ से शादी कर के क्या सुख पाया. न मैं शक्ल में अच्छा हूं और न ही अक्ल में. फिर मैं ने लोन ले कर एक घर ले लिया. मेरी सास भी आईं पर जैसे मैं ने सोचा था उन्होंने वही किया.

शिखा के हाथों में उपहार देते हुए बोलीं, ‘‘सुमित, क्या अनिल से सलाह नहीं ले सकता था? कैसी सोसाइटी है और जगह भी कोई खास नहीं है.’’

शिखा के चेहरे पर वह उदासी देख कर अच्छा नहीं लगा. खुद को बहुत बौना महसूस कर रहा था. फिर शिखा की मम्मी पूरा दिन अनिल के बंगले का गुणगान करती रहीं. मुझे ऐसा लगा कि मैं तो शायद उस दौड़ में भाग लेने के भी काबिल नहीं हूं.

दिन बीतते गए और हफ्तों और महीनों में परिवर्तित होते गए. दोस्तो आप सोच रहे होंगे, गलती मेरी ही है, क्योंकि मैं इस तुलनात्मक खेल को खेल कर अपने और अपने परिवार को दुख दे रहा था. आप शायद सही बोल रहे होंगे पर तब कुछ समझ नहीं आ रहा था.

शिखा बहुत अच्छी पत्नी थी, कभी कुछ नहीं मांगती. मेरे परिवार के साथ घुलमिल कर रहती, पर उस का कोई भी शिकायत न करना मुझे अंदर ही अंदर तोड़ देता. ऐसा लगता मैं इस काबिल भी हूं…

आज मैं जब दफ्तर से आया तो शिखा बहुत खुश लग रही थी. आते ही उस ने मेरे हाथ में एक बच्चे की तसवीर पकड़ा दी. समझ आ गया, हम 2 से 3 होने वाले हैं. अनिल का फोन आया मेरे पास बधाई देने के लिए पर फोन रखते हुए मेरा मन कसैला हो उठा था. वह तमाम चीजें बता रहा था जो मेरी औकात के परे थीं. वह वास्तव में इतना भोला था या फिर हर बार मुझे नीचा दिखाता था, नहीं मालूम, मगर मैं जितनी भी अपनी लकीर को बड़ा करने की कोशिश करता वह उतनी ही छोटी रहती.

अनिल के पास शायद कोई पारस का पत्थर था. वह जो भी करता उस

में सफल ही होता और मैं चाह कर भी सफल नहीं हो पा रहा था.

जैसेजैसे शिखा का प्रसवकाल नजदीक आ रहा था मेरी भी घबराहट बढ़ती जा रही थी. मेरी मां तो हमारे साथ रहती ही थीं पर मैं ने खुद ही पहल कर के शिखा की मां को भी बुला लिया. मुझे लगा शिखा बिना झिझक के अपनी मां को सबकुछ बता सकेगी पर मुझे नहीं पता था यह उस के और मेरे रिश्ते के लिए ठीक नहीं है.

शिखा अपनी मां के आने से बहुत खुश थी. 1 हफ्ते बाद की डाक्टर ने डेट दी थी. शिखा की मां उस के साथ ही सोती थीं. पता नहीं वे रातभर मेरी शिखा से क्या बोलती रहती थीं कि सुबह शिखा का चेहरा लटका रहता. मैं गुस्से और हीनभावना का शिकार होता गया.

मुझे आज भी याद है अन्वी के जन्म से 2 रोज पहले शिखा बोली, ‘‘सुमित, हम भी एक नौकर रख लेंगे न बच्चे के लिए.’’

मैं ने हंस कर कहा, ‘‘क्यों शिखा, हमारे घर में तो इतने सारे लोग हैं.’’

शिखा मासूमियत से बोली, ‘‘अनिल जीजाजी ने भी रखा था, करिश्मा के जन्म के बाद.’’

खुद को नियंत्रित करते हुए मैं ने कहा, ‘‘शिखा वे अकेले रहते हैं पर हमारा पूरा परिवार है. तुम्हें किसी चीज की कमी नहीं होने दूंगा.’’

मगर अनिल का जिक्र मुझे बुरी तरह खल गया. शिखा कुछ और बोलती उस से पहले ही मैं बुरी तरह चिल्ला पड़ा. उस की मां दौड़ी चली आईं. शिखा की आंखों से झरझर आंसू बह रहे थे. मैं उसे कैसे मनाता, क्योंकि उस की मां ने उसे पूरी तरह घेर लिया था. मुझे बस यह सुनाई पड़ रहा था, ‘‘हमारे अनिल ने आज तक नीतू से ऊंची आवाज में बात नहीं करी.’’

मैं बिना कुछ खाएपीए दफ्तर चला गया. पूरा दिन मन शिखा में ही अटका रहा. घर आ कर जब तक उस के चेहरे पर मुसकान नहीं देखी तब तक चैन नहीं आया.

10 मई को शिखा और मेरे यहां एक प्यारी सी बेटी अन्वी हुई. शिखा का इमरजैंसी में औपरेशन हुआ था, इसलिए मैं चिंतित था पर शिखा की मां ने शिखा के आगे कुछ ऐसा बोला जैसे मुझे बेटी होने का दुख हुआ हो. कौन उन्हें समझाए अन्वी तो बाद में है, पहले तो शिखा ही मेरे लिए बहुत जरूरी है.

मैं हौस्पिटल में कमरे के बाहर ही बैठा था. तभी मेरे कानों में गरम सीसा डालती हुई एक आवाज आई, ‘‘हमारे अनिल ने तो करिश्मा के होने पर पूरे हौस्पिटल में मिठाई बांटी थी.’’

मैं खिड़की से साफ देख रहा था. शिखा के चेहरे पर एक ऐसी ही हीनभावना थी जो मुझे घेरे रहती थी. शिखा घर आ गई पर अब ऐसा लगने लगा था कि वह मेरी बीवी नहीं है, बस एक बेटी है. रातदिन अनिल का बखान और गुणगान, मेरे साथसाथ मेरे घर वाले भी पक गए और उन को भी लगने लगा शायद मैं नकारा ही हूं. घर के लोन की किस्तें और घर के खर्च, मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा था. फिर मैं ने कुछ ऐसा किया जहां से शुरू हुई मेरे पतन की कहानी…

मैं ने इधरउधर से क्व1 लाख उधार लिए और बहुत बड़ा जश्न किया. शिखा के लिए भी एक बहुत प्यारी नारंगी रंग की रेशम के काम की साड़ी ली. उस में शिखा का गेहुआं रंग और निखर रहा था. उस की आंखों में सितारे चमक रहे थे और मुझे अपने पर गर्व हो रहा था.

फिर किसी और से उधार ले कर मैं ने पहले व्यक्ति का उधार चुकाया और फिर यह धीरेधीरे मेरी आदत में शुमार हो गया.

मेरी देनदारी कभी मेरी मां तो कभी भाई चुका देते. शिखा और अन्वी से सब प्यार करते थे, इसलिए उन तक बात नहीं पहुंचती थी.

ऐसा नहीं था कि मैं इस जाल से बाहर नहीं निकलना चाहता था पर जब सब खाक हो जाता है तब लगता है काश मैं पहले शर्म न करता या शिखा से पहले बोल पाता. मैं एक काम कर के अपनी लकीर को थोड़ा बढ़ाता पर अनिल फिर उस लकीर को बढ़ा देता.

यह खेल चलता रहा और फिर धीरेधीरे मेरे और शिखा के रिश्ते में खटास आने लगी.

शिखा को खुश करने की कोशिश में मैं कुछ भी करता पर उस के चेहरे पर हंसी न ला पाता. शिखा के मन में एक अनजाना डर बैठ गया था. उसे लगने लगा था मैं कभी कुछ भी ठीक नहीं कर सकता या मुझे ऐसा लगने लगा था कि शिखा मेरे बारे में ऐसा सोचती है.

अन्वी 2 साल की हुई और शिखा ने एक दफ्तर में नौकरी आरंभ कर दी. मुझे काफी मदद मिल गई. मैं ने नौकरी छोड़ कर व्यापार की तरफ कदम बढ़ाए. शिखा ने अपनी सारी बचत से और मेरी मां ने भी मेरी मदद करी.

2-3 माह में थोड़ाथोड़ा मुनाफा होने लगा. उस दौड़ में पहला स्थान प्राप्त करने के चक्कर में मैं शायद सहीगलत में फर्क को नजरअंदाज करने लगा. थोड़ा सा पैसा आते ही दिलखोल कर खर्च करने लगा. अचानक एक दिन साइबर सैल से पुलिस आई जांच के लिए. पता चला कि मेरी कंपनी के द्वारा कुछ ऐसे पैसे का लेनदेन हुआ है जो कानून के दायरे में नहीं आता है. एक बार फिर से मैं हाशिए पर आ खड़ा हो गया. जितना कामयाब होने की कोशिश करता उतनी ही नाकामयाबी मेरे पीछेपीछे चली आती.

शिखा ने कहा कि मैं कभी भी उस के या अन्वी के बारे में नहीं सोचता. हमेशा सपनों की दुनिया में जीता हूं.

शायद वह अपनी जगह ठीक थी पर उसे यह नहीं मालूम था कि मैं सबकुछ उसे और अन्वी को एक बेहतर जिंदगी देने के लिए करता हूं. पर क्या करूं मैं ऊपर उठने की जितनी भी कोशिश करता उतना ही नीचे चला जाता हूं. हमारे रिश्ते की खाई गहरी होती गई. हम पतिपत्नी का प्यार अब न जाने कहां खोने लगा.

यह सोचता हुआ मैं वर्तमान में लौट आया हूं.

कल शिखा की छोटी बहन की शादी है. सभी रिश्तेदार एकत्रित हुए हैं. न जाने क्या सोच कर मैं शिखा के लिए अंगूठी खरीद ले आया. सब लोग शिखा की अंगूठी की तारीफ कर रहे थे और मैं खुशी महसूस कर रहा था. वह अलग बात है, मैं इन पैसों से पूरे महीने का खर्च चला सकता था.

तभी देखा कि नीतू सब को अपना कुंदन का सैट दिखा रही है जो उस ने खासतौर पर इस शादी में पहनने के लिए खरीदा था. मुझे अंदर से आज बहुत खालीखाली महसूस हो रहा था. मैं इन लकीरों के खेल में उलझ कर आज खुद को बौना महसूस कर रहा हूं.

बरात आ गई थी. चारों तरफ गहमागहमी का माहौल था. तभी अचानक पीछे से किसी ने आवाज लगाई. मुड़ कर देखा तो देखता ही रह गया.

मेरे सामने भावना खड़ी थी. भावना और मैं कालेज के समय बहुत अच्छे मित्र थे या यों कह सकते वह और मैं एकदूसरे के पूरक थे. प्यार जैसा कुछ था या नहीं, नहीं मालूम पर उस के विवाह के बाद बहुत खालीपन महसूस हुआ. भावना जरा भी नहीं बदली थी या यों कहूं पहले से भी ज्यादा खूबसूरत लग रही थी. वही बिंदासपन, बातबात पर खिलखिलाना.

मुझे देखते ही बोली, ‘‘सुमि, क्या हाल बना रखा है… तुम्हारी आंखों की चमक कहां गई?’’

मैं चुपचाप मंदमंद मुसकराते हुए उसे एकटक देख रहा था. मन में अचानक यह

खयाल आया कि काश मैं और वह मिल कर

हम बन जाते.

भावना चिल्लाई, ‘‘यह क्या मैं ही बोले जा रही हूं और तुम खोए हुए हो?’’

हम गुजरे जमाने में पहुंच गए. 3 घंटे 3 मिनट की तरह बीत गए. होश तब आया जब शिखा अन्वी को ले कर आई और शिकायती लहजे में बोली, ‘‘तुम्हें सब वहां ढूंढ़ रहे हैं.’’

मैं ने उन दोनों का परिचय कराया और फिर शिखा के साथ चला गया. पर मन वहीं भावना के पास अटका रह गया. जयमाला के बाद फिर से भावना से टकरा गया.

भावना निश्छल मन से शिखा से बोली, ‘‘शिखा, आज की रात तुम्हारे पति को चुरा रही हूं… हम दोनों बरसों बाद मिले हैं… फिर पता नहीं मिल पाएं या नहीं.’’

ये सब सुन कर मुझे पता लग गया था कि मैं अब भावना का अतीत ही हूं और शायद उस ने कभी मुझे मित्र से अधिक अहमियत नहीं दी थी. यह तो मैं ही हूं जो कोई गलतफहमी पाले बैठा था.

फिर भावना कौफी के 2 कप ले आई. मुसकराते हुए बोली, ‘‘चलो हो जाए कौफी

विद भावना.’’

मैं भी मुसकरा उठा. मैं ने औपचारिकतावश उस से उस के घरपरिवार के बारे में पूछा. उस से बातचीत कर के मुझे आभास हो गया था कि मेरी सब से प्यारी मित्र अपनी जिंदगी में बहुत खुश है पर यह क्या मुझे सच में बहुत खुशी हो रही थी?

भावना ने मुझ से पूछा, ‘‘और सुमि तुम्हारी कैसी कट रही है? बीवी तो तुम्हारी बहुत प्यारी है.’’

उस के आगे मैं कभी झूठ न बोल पाया था तो आज कैसे बोल पाता. अत: मैं ने उसे अपना दिल खोल कर दिखा दिया. मैं ने उस से कहा, ‘‘भावना, मैं क्या करूं… मैं हार गया यार… जितनी कोशिश करता हूं उतना ही नीचे चला जाता हूं.’’

भावना बोली, ‘‘सुमित, कभी शिखा से ऐसे बात की जैसे तुम ने आज मुझ से करी है?’’

मैं ने न में सिर हिलाया तो वह बोली, ‘‘फिर हर समय इन लकीरों के खेल में उलझे रहना… पति न जाने क्यों अपनी पत्नियों को बेइंतहा प्यार करने के बावजूद उन्हें अपने दर्द से रूबरू नहीं करा पाते हैं. तुम पहले इंसान नहीं हो जो ऐसा कर रहे हो और न ही तुम आखिरी हो, पर सुमित तुम खुद इस के जिम्मेदार हो… इन लकीरों के खेल में तुम खुद उलझे हो… अपना सब से प्यारा दोस्त समझ कर यह बता रही हूं कि अपनी तुलना अगर दूसरों से करोगे तो खुद को कमतर ही पाओगे. सुमि, बड़ी लकीर अवश्य खींचो पर अपनी ही अतीत की छोटी लकीर के अनुपात में… तुम्हें कभी निराशा नहीं होगी. जैसे मछली जमीन पर नहीं रह सकती वैसे ही पंछी भी पानी में नहीं रह पाते. सुमि, शायद तुम एक मछली हो जो उड़ने की कोशिश कर रहे हो.

‘‘फिर बोलो गलती किस की है, तुम्हारी, शिखा या अनिल की?

‘‘दूसरे तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इस से ज्यादा इस बात पर निर्भर करता है कि आप अपने बारे में कैसा महसूस करते हैं…

‘‘शिखा की मां हो या तुम्हारी सब अपनेअपने ढंग से चीजों को देखेंगे पर यह तुम्हारी जिम्मेदारी है कि तुम कैसे अपने रिश्ते निभाते हो.

‘‘जैसे एक बहू को शादी के बाद अपने नए परिवार में तालमेल बैठाना पड़ता है

वैसे ही एक पुरुष को भी शादी के बाद सब से तालमेल बैठाना पड़ता है पर इस बात को एक पति, दामाद अकसर नजरअंदाज कर देते हैं… अनिल से अपनी तुलना करने के बजाय उस से कुछ सीखो और मुझे यकीन है तुम्हारे अंदर भी ऐसे गुण होंगे जो अनिल ने तुम से सीखे होंगे. नकारात्मकता को अपने और शिखा के ऊपर हावी न होने दो. जैसे तुम खुद को देखोगे वैसे ही दूसरे लोग तुम्हें देखेंगे.

‘‘यह उम्मीद करती हूं कि अगली बार फिर कभी जीवन के किसी मोड़ पर टकरा गए तो फिर से अपने पुराने सुमि को देखना चाहूंगी,’’ कह भावना चली गई.

मैं चुपचाप उसे सुनता रहा और फिर मनन करने लगा कि शायद भावना सही बोल रही है. लकीरों के खेल में उलझ कर मैं खुद ही हीनभावना से ग्रस्त हो गया हूं. शायद अब समय आ गया है हमेशा के लिए इस खेल को खत्म करने का पर इस बार अपनी शिखा को साथ ले कर मैं अपनी जिंदगी की एक नई लकीर बनाऊंगा बिना किसी के साथ तुलना कर के और फिर कभी भावना से टकरा गया तो अपनी जिंदगी के नए सफर की कहानी सुनाऊंगा.

रोमांस के रंग, श्रीमतीजी के संग

फिल्मों में बरसात में झीने कपड़ों में भीगती, इठलाती, हीरो के साथ नाचतीगाती हीरोइन को देख कर हमारी श्रीमतीजी मचल उठती हैं और हमें भी मचलने को मजबूर कर देती हैं. यों तो हमारी श्रीमतीजी बहुत रंगीली हैं, लेकिन खासतौर पर जब मौसम हरियाला, बरसाती और रंगीला हो तब उन का रोमांटिक होना और भी बढ़ जाता है.

एक बार बरसात की रात को हमारी श्रीमतीजी मचल उठीं और हमें नींद से उठाते हुए बोलीं, ‘‘सुनो जी, मौसम में बहार है, मुझे तुम से प्यार है.’’

हम ने उनींदे स्वर में कहा, ‘‘तो?’’

श्रीमतीजी ने कहा, ‘‘ऐसे मौसम में भला किस को नींद आती है?’’

हम ने कहा, ‘‘कल औफिस जाना है, बहुत सारे काम निबटाने हैं.’’

श्रीमतीजी ने रोमांटिक होते हुए कहा, ‘‘कभी तो लिया करो, पिया प्यार का नाम.’’

हम ने थोड़ा परेशान होते हुए कहा, ‘‘प्यार से पेट तो भरता नहीं.’’

श्रीमतीजी ने इठलाते हुए कहा, ‘‘काम तो जिंदगी भर का है, पर ऐसा मौसम बारबार नहीं आता.’’

इस बार श्रीमतीजी की रोमांटिक अदा पर हम फिसल गए और श्रीमतीजी का हाथ पकड़ कर रात को 1 बजे बरसते पानी में घर की छत पर आ गए. चारों तरफ घोर अंधकार छाया हुआ था और पूरा शहर बरसात में नहाया हुआ था.

अब श्रीमतीजी गाना गाती जा रही थीं और हम से भी ऐक्टिंग करने को कह रही थीं. पहला गाना उन्होंने गाया :

आग लगी पानी में…

फिर

आज फिसल जाएं तो…

इस के बाद

जिंदगी भर नहीं भूलेगी ये बरसात

की रात…

हर गाने के बाद उन की आवाज तेज होती जा रही थी और वे फ्री ऐक्शन वाली होती जा रही थीं.

छत पर जब हम दोनों नाच रहे थे, तभी चौकीदार वहां से गुजरा. उसे लगा कि छत पर कोई चोर चढ़ा है, इसलिए उस ने छत पर टौर्च की रोशनी फेंकते हुए जोर से सीटी बजाई. हमें डर लगा कि कहीं कोई नया लफड़ा न हो जाए, इसलिए हम ने श्रीमतीजी से नीचे चलने के लिए कहा. लेकिन जब वे चलने को तैयार नहीं हुईं तब हम ने बरसते पानी में उन्हें नीचे बैठा लिया. थोड़ी देर बाद चौकीदार आगे निकल गया.

अब बरसात और तेज हो गई थी. श्रीमतीजी ने बैठेबैठे ही हमारे सीने पर अपना सिर रख दिया और बोलीं, ‘‘आज कुछ ऐसा हो कि यह वक्त यहीं ठहर जाए. पानी बरसता रहे और हम दोनों यों ही पानी में भीगते रहें,’’ इसी के साथ वे जोर से हंस दीं.

तभी पड़ोसी के घर की लाइट जली और उस ने चिल्लाते हुए कहा, ‘‘अरे, जो भी करना है चुपचाप करो, यह शरीफों का महल्ला है.’’

हम फिर सहम गए.

रात की झीनीझीनी रोशनी में झीनेझीने कपड़ों में भीगी श्रीमतीजी किसी हीरोइन से कम नहीं लग रही थीं. सच में हम ने उन को इतना सुंदर पहले कभी नहीं देखा था.

तभी एक बिल्ली कहीं से आ कर छत पर कूद गई और श्रीमतीजी डर कर हम से चिपकने के लिए भागीं तो उन के पैर में मोच आ गई. वे दर्द से तिलमिला गईं. इसी के साथ उन्हें 2-3 छींकें आ गईं.

अब उन से चलते भी नहीं बन रहा था. इसलिए पूरा रोमांस उड़ गया था. हम ने कहा कि हमारे कंधे पर हाथ रख दो और सहारा ले कर नीचे चलो.

लेकिन वे बोलीं, ‘‘जरा सी तकलीफ हुई तो दूर भागने लगे. पूरी जिंदगी क्या खाक साथ निभाओगे. अरे गोद में उठा कर नहीं ले जा सकते क्या?’’

हमें लगा कि रोमांटिक मूड को खराब नहीं किया जाए, इसलिए उन्हें गोद में उठाया और नीचे कमरे में ले आए. तब तक उन्हें 4-5 छींकें और आ गईं.

अब श्रीमतीजी फिल्मी स्टाइल में बोलीं, ‘‘थोड़ी आगवाग जलाओ, चाय का इंतजाम करो.’’

हमारे घर आग जलाना मुमकिन था नहीं, इसलिए हीटर जला दिया. तब तक श्रीमतीजी का पैर सूज कर डबलरोटी हो गया था और बुखार भी आ गया था.

सुबह जब डाक्टर ने निमोनिया बताया और लंबाचौड़ा इलाज करने की बात कही. हमें औफिस से छुट्टी लेनी पड़ी.

तभी कामवाली रमिया आई और बोली, ‘‘साहबजी आप की छत पर रात को 2 चोर चढ़े थे. चौकीदार आ कर बोला, तो मैं भी टौर्च ले कर पड़ोसी की छत पर चढ़ गई…’’

श्रीमतीजी ने जिज्ञासा से कहा, ‘‘फिर क्या हुआ, चोर पकड़े गए क्या?’’

रमिया ने शरमाते हुए कहा, ‘‘पर आप को और मेमसाहब को देख कर वापस लौट आई.’’

मैं ने बनते हुए आश्चर्य से कहा, ‘‘पर हम लोगों को तो कुछ मालूम ही नहीं हुआ कि क्या हुआ.’’

इस पर रमिया ने इठलाते हुए कहा, ‘‘अरे साहब क्यों अनजान बनते हो. अरे, मेमसाहब के पैर में मोच, सर्दी, बुखार यह सब क्या कम है. आप लोगों के छत पर फिल्मी स्टाइल में मस्ती करने पर हमारे इलाके के तो 8-10 लोग डंडे ले कर इकट्ठे हो गए थे. तब मैं ने उन्हें समझाया.’’

जब हम अंदर के कमरे में श्रीमतीजी के लिए पानी लेने गए, तब पीछेपीछे रमिया बाई भी आ गई और बोली, ‘‘सच बताना साहब, कैसा लगा बरसते पानी में छत पर? अरे, हम लोगों की झुग्गी में छत तो होती नहीं और झुग्गी के बाहर निकलो तो कुत्ते दम नहीं लेने देते.’’

मैं कुछ कहता इस के पहले ही श्रीमतीजी लंगड़ाते हुए आईं और बोलीं, ‘‘अरी ओ जासूस, तू काम से काम रख समझी न.’’

रमिया बाई ने भी गुस्से से कहा, ‘‘ओ मेमसाहब, एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी. अरे मैं ने तुम्हें बचाया, नहीं तो अभी तक एक पुलिस थाने में होतीं. और ये आंखें किसी और को दिखाना. अब रमिया बाई इस घर में काम नहीं करेगी.’’

श्रीमतीजी ने भी कह दिया, ‘‘हांहां जा, वैसे भी अभी तेरी जरूरत नहीं है. साहब छुट्टी पर हैं. वे सब काम कर लेंगे. जब महीने 2 महीने में तेरा गुस्सा उतर जाए तब आ जाना.’’

हम सोच रहे थे, श्रीमतीजी की तो चित भी मेरी और पट भी मेरी और जो कुछ भुगतना है वह हम भुगतें. हम घबरा गए. यानी अब श्रीमतीजी की सेवा के साथसाथ घर के काम भी निबटाने होंगे. यह सोच कर हमें भी बुखार आने लगा.

रमिया बाई श्रीमतीजी को आंखें दिखाते हुए घर से बाहर हो गई. लेकिन श्रीमतीजी बरसात के मौसम का आनंद लेते हुए अब खटिया पर पड़ेपड़े ही गाना गुनगुनाने लगीं- रिमझिम बरसे पानी…

और हम बरसात का लुत्फ श्रीमतीजी के संग उन की सेवा और घर के काम करते हुए उठा रहे थे.

रागविराग: कैसे स्वामी उमाशंकर के जाल में फंस गई शालिनी

विकास की दर क्या होती है, यह बात सुलभा की समझ से बाहर थी. वह मां से पूछ रही थी कि मां, विकास की दर बढ़ने से महंगाई क्यों बढ़ती है? मां, बेरोजगारी कम क्यों नहीं होती? मां यानी शालिनी चुप थी. उस का सिरदर्द यही था कि उस ने जब एम.ए. अर्थशास्त्र में किया था, तब इतनी चर्चा नहीं होती थी. बस किताबें पढ़ीं, परीक्षा दी और पास हो गए. बीएड किया और अध्यापक बन गए. वहां इस विकास दर का क्या काम? वह तो जब छठा वेतनमान मिला, तब पता लगा सचमुच विकास आ गया है. घर में 2 नए कमरे भी बनवा लिए. किराया भी आने लगा. पति सुभाष कहा करते थे कि एक फोरव्हीलर लेने का इरादा है, न जाने कब ले पाएंगे. पर दोनों पतिपत्नी को एरियर मिला तो कुछ बैंक से लोन ले लिया और कार ले आए. सचमुच विकास हो गया. पर शालिनी का मन अशांत रहता है, वह अपनेआप को माफ नहीं कर पाती है.

जब अकेली होती है, तब कुछ कांटा सा गड़ जाता है. सुभाष, धीरज की पढ़ाई और उस पर हो रहे कोचिंग के खर्च को देख कर कुछ कुढ़ से जाते हैं, ‘‘अरे, सुलभा की पढ़ाई पर तो इतना खर्च नहीं आया, पर इसे तो मुझे हर विषय की कोचिंग दिलानी पड़ रही है और फिर भी रिपोर्टकार्ड अच्छा नहीं है.’’

‘‘हां, पर इसे बीच में छोड़ भी तो नहीं सकते.’’

सुलभा पहले ही प्रयास में आईआईटी में आ गई थी. बस मां ने एक बार जी कड़ा कर के कंसल क्लासेज में दाखिला करा दिया था. पर धीरज को जब वह ले कर गई तो यही सुना, ‘‘क्या यह सुलभा का ही भाई है?’’

‘‘हां,’’ वह अटक कर बोली. लगा कुछ भीतर अटक गया.

‘‘मैडम, यह तो ऐंट्रैंस टैस्ट ही क्वालीफाई नहीं कर पाया है. इस के लिए तो आप को सर से खुद मिलना होगा.’’

सुभाषजी हैरान थे. भाईबहन में इतना अंतर क्यों आ गया है? हार कर उन्होंने उसे अलगअलग जगह कोचिंग के लिए भेजना शुरू किया. अरे, आईआईटी में नहीं तो और इतने प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज खुल गए हैं कि किसी न किसी में दाखिला तो हो ही जाएगा.

हां, सुलभा विकास दर की बात कर रही थी. वह बैंक में ऐजुकेशन लोन की बात करने गई थी. उस ने कैंपस इंटरव्यू भी दिया था, पर उस का मन अमेरिका से एमबीए करने का था. बड़ीबड़ी सफल महिलाओं के नाम उस के होस्टल में रोज गूंजते रहते थे. हर नाम एक सपना होता है, जो कदमों में चार पहिए लगा देता है. बैंक मैनेजर बता रहे थे कि लोन मिल जाएगा फिर भी लगभग क्व5 लाख तो खुद के भी होने चाहिए. ठीक है किस्तें तो पढ़ाई पूरी करने के बाद ही शुरू होंगी. फीस, टिकट का प्रबंध लोन में हो जाता है, वहां कैसे रहना है, आप तय कर लें.

रात को ही शालिनी ने सुभाष से बात की.

‘‘पर हमें धीरज के बारे में भी सोचना होगा,’’ सुभाष की राय थी, ‘‘उस पर खर्च अब शुरू होना है. अच्छी जगह जाएगा तो डोनेशन भी देना होगा, यह भी देखो.’’

रात में सुलभा के लिए फोन आया. फोन सुन कर वह खुशी से नाच उठी बोली, ‘‘कैंपस में इंटरव्यू दिया था, उस का रिजल्ट आ गया है, मुझे बुलाया है.’’

‘‘कहां?’’

‘‘मुंबई जाना होगा, कंपनी का गैस्टहाउस है.’’

 

‘‘कब जाना है?’’

‘‘इसी 20 को.’’

‘‘पर ट्रेन रिजर्वेशन?’’

‘‘एजेंट से बात करती हूं, मुझे एसी का किराया तो कंपनी देगी. मां आप भी साथ चलो.’’

‘‘पर तुम्हारे पापा?’’

‘‘वे भी चलें तो अच्छा होगा, पर आप तो चलो ही.’’

सुभाष खुश थे कि चलो अभी बैंक लोन की बात तो टल गई. फिर टिकट मिल गए तो जाने की तैयारी के साथ सुलभा बहुत खुश थी.

सुभाष तो नहीं गए पर शालिनी अपनी बेटी के साथ मुंबई गई. वहां कंपनी के गैस्टहाउस के पास ही विशाल सत्संग आश्रम था.

‘‘मां, मैं तो शाम तक आऊंगी. यहां आप का मन नहीं लगे तो, आप पास बने सत्संग आश्रम में हो आना. वहां पुस्तकालय भी है. कुछ चेंज हो जाएगा,’’ सुलभा ने कहा तो शालिनी सत्संग का नाम सुन कर चौंक गई. एक फीकी सी मुसकराहट उस के चेहरे पर आई और वह सोचने लगी कि वक्त कभी कुछ भूलने नहीं देता. हम जिस बात को भुलाना चाहते हैं, वह बात नए रूप धारण कर हमारे सामने आ जाती है.

उसे याद आने लगे वे पुराने दिन जब अध्यात्म में उस की गहरी रुचि थी. वह उस से जुड़े प्रोग्राम टीवी पर अकसर देखती रहती थी. उस के पिता बिजनैसमैन थे और एक वक्त ऐसा आया था जब बिजनैस में उन्हें जबरदस्त घाटा हुआ था. उन्होंने बिजनैस से मुंह मोड़ लिया था और बहुत अधिक भजनपूजन में डूब गए थे. उस के बड़े भाई जनार्दन ने बिजनैस संभाल लिया था. वहीं सुभाष से उन की मुलाकात और बात हुई. उस के विवाह की बात वे वहीं तय कर आए. उसे तो बस सूचना ही मिली थी.

तभी वह एक दिन पिता के साथ स्वामी उमाशंकर के सत्संग में गई थी. उन्हें देखा था तो उन से प्रभावित हुई थी. सुंदर सी बड़ीबड़ी आंखें, जिस पर ठहर जाती थीं, वह मुग्ध हो कर उन की ओर खिंच जाता था. सफेद सिल्क की वे धोती पहनते थे और कंधे तक आए काले बालों के बीच उन का चेहरा ऐसा लगता था जैसे काले बादलों को विकीर्ण करता हुआ चांद आकाश में उतर आया हो.

शालिनी के पिता उन के पुराने भक्त थे. इसलिए वे आगे बैठे थे. गुरुजी ने उस की ओर देखा तो उन की निगाहें उस पर आ कर ठहर गईं.

शालिनी का जब विवाह हुआ, तब उस के भीतर न खुशी थी, न गम. बस वह विवाह को तैयार हो गई थी. पिता यही कहते थे कि यह गुरुजी का आशीर्वाद है. विवाह के कुछ ही महीने हुए होंगे कि सुभाष को विशेष अभियान के तहत कार्य करने के लिए सीमावर्ती इलाके में भेजा गया. शालिनी मां के घर आ गई थी.

तभी पिता ने एक दिन कहा, ‘‘मैं सत्संग में गया था. वहां उमाशंकरजी आने वाले हैं. वे कुछ दिन यहां रहेंगे. वे तुम्हें याद करते ही रहते हैं.’’

उस की आंखों में हलकी सी चमक आई.

‘‘उन के आशीर्वाद से ही तुम्हारा विवाह हो गया तथा जनार्दन का भी व्यवसाय संभल गया. मैं तो सब जगह से ही हार गया था,’’ पिता ने कहा.

एक दिन वह मां के साथ सत्संग आश्रम गई थी. वहां उमाशंकर भी आए हुए थे इसलिए बहुत भीड़ थी. सब को बाहर ही रोक दिया गया था. जब उन का नंबर आया तो वे अंदर गईं. भीतर का कक्ष बेहद ही सुव्यवस्थित था. सफेद मार्बल की टाइल्स पर सफेद गद्दे व चादरें थीं. मसनद भी सफेद खोलियों में थे. परदे भी सफेद सिल्क के थे. उमाशंकर मसनद के सहारे लेटे हुए थे. कुछ भक्त महिलाएं उन के पांव दबा रही थीं.

‘‘आप का स्वास्थ्य तो ठीक है?’’ मां ने पूछा.

‘‘अभी तो ठीक है, लेकिन क्या करूं भक्त मानते ही नहीं, इसलिए एक पांव विदेश में रहता है तो दूसरा यहां. विश्राम मिलता ही नहीं है.’’

शालिनी ने देखा कि उमाशंकरजी का सुंदर प्रभावशाली व्यक्तित्व कुछ अनकहा भी कह रहा था.

तभी सारंगदेव उधर आ गया.

‘‘तुम यहां कैसे? वहां ध्यान शिविर में सब ठीक तो चल रहा है न?’’

‘‘हां, गुरुजी.’’

‘‘ध्यान में लोग अधोवस्त्र ज्यादा कसे हुए न पहनें. इस से शिव क्रिया में बाधा पड़ती है. मैं तो कहता हूं, एक कुरता ही बहुत है. उस से शरीर ढका रहता है.’’

‘‘हां, गुरुजी मैं इधर कुरते ही लेने आया था. भक्त लोग बहुत प्रसन्न हैं. तांडव क्रिया में बहुत देर तक नृत्य रहा. मैं तो आप को सूचना ही देने आया था.’’

‘‘वाह,’’ गुरुजी बोले.

गुरुजी अचानक गहरे ध्यान में चले गए. उन के नेत्र मुंद से गए थे. होंठों पर थराथराहट थी. उन की गरदन टेढ़ी होती हुई लटक भी गई थी. हाथ अचानक ऊपर उठा. उंगलियां विशेष मुद्रा में स्थिर हो गईं.

‘‘यह तो शांभवी मुद्रा है,’’ सारंगदेव बोला. उस ने भावुकता में डूब कर उन के पैर छू लिए.

अचानक गुरुजी खिलखिला कर हंसे.

उन के पास बैठी महिलाओं ने उन से कुछ पूछना चाहा तो उन्होंने उन्हें संकेत से रोकते हुए कहा, ‘‘रहने दो, आराम आ गया है. मैं तो किसी प्रकार की सेवा इस शरीर के लिए नहीं चाहता. इस को मिट्टी में मिलना है, पर भक्त नहीं मानते.’’

‘‘पर हुआ क्या है?’’ मां को चैन नहीं था.

‘‘दाएं पांव की पिंडली खिसक गई है, इसलिए दर्द रहता है. कई बार तो चला भी नहीं जाता. शरीर है, ठीक हो जाएगा. सब प्रकृति की इच्छा है, हमारा क्या?’’

‘‘क्यों?’’ उन की निगाहें शालिनी के चेहरे पर ठहर गई थीं, ‘‘आजकल क्या करती हो?’’

‘‘जी घर पर ही हूं.’’

‘‘श्रीमानजी कहां हैं?’’

‘‘जी वे बौर्डर डिस्ट्रिक्ट में हैं, कोई अभियान चल रहा है.’’

‘‘तो कभीकभी यहां आ जाया करो.’’

‘‘क्यों नहीं, क्यों नहीं,’’ मां ने प्रसन्नता से कहा था. और फिर उस का सत्संग भवन में आना शुरू हो गया था.

उस दिन दोपहर में वह भोजन के बाद इधर ही चली आई थी. उसे गुरुजी ने अपने टीवी सैट पर लगे कैमरे से देखा तो मोबाइल उठाया और बाहर सहायिका को फोन किया, ‘‘तुम्हारे सामने शालिनी आई है, उसे भीतर भेज देना.’’

सहायिका ने अपनी कुरसी से उठते हुए सामने बरामदे में आती हुई शालिनी को देखा.

‘‘आप शालिनी हैं?’’

‘‘हां,’’ वह चौंक गई.

‘‘आप को गुरुजी ने याद किया है,’’ वह मुसकराते हुए बोली.

वह अंदर पहुंची तो देखा गुरुजी अकेले ही थे. उन की धोती घुटने तक चढ़ी हुई थी.

‘‘लो,’’ उन्होंने पास में रखी मेवा की तश्तरी से कुछ बड़े काजू, बादाम जितने मुट्ठी में आए, बुदबुदाते हुए उस की हथेली पर रख दिए.

‘‘और लो,’’ उन्होंने एक मुट्ठी और उस की हथेली पर रख दिए.

वह यंत्रवत सी उन के पास खिसकती चली आई. उसे लगा उस के भीतर कुछ उफन रहा है. एक तेज प्रवाह, मानो वह नदी में तैरती चली जाएगी. उन्होंने हाथ बढ़ाया तो वह खिंची हुई उन के पास चली आई. और उन के पांव दबाने लग गई. उन की आंखें एकटक उस के चेहरे पर स्थिर थीं और उसे लग रहा था कि उस का रक्त उफन रहा है.

तभी गुरुजी ने पास रखी घंटी को दबा दिया. इस से बाहर का लाल बल्ब जल उठा. उन की बड़ीबड़ी आंखें उस के चेहरे पर कुछ तलाश कर रही थीं.

‘‘शालू, वह माला तुम्हारी गोद में गिरी थी, जो मैं ने तुम्हें दी थी. वह तुम्हारा ही अधिकार है, जो प्रकृति ने तुम्हें सौंपा है,’’ वे बोले तो शालू खुलती चली गई. फिर उमाशंकरजी को उस ने खींचा या उन्होंने उसे, कुछ पता नहीं. पर उसे लगा उस दोपहर में वह पूरी तरह रस वर्षा से भीग गई है. उसे अपने भीतर मीठी सी पुलक महसूस हुई. वह चुपचाप उठी, बाथरूम जा कर व्यवस्थित हुई फिर पुस्तक ले कर कोने में पढ़ने बैठ गई.

सेवक भीतर आया. उस ने देखा गुरुजी विश्राम में हैं. उस ने बाहर जा कर बताया तो कुछ भक्त भीतर आए. तब शालिनी बाहर चली गई. सही या गलत प्रश्न का उत्तर उस के पास नहीं था, क्योंकि वह जानती थी कि गलती उस की ही थी. उसे अकेले वहां नहीं जाना चाहिए था. पर अब वह क्या कर सकती थी? चुप रहना ही नियति थी, क्योंकि वह उस की अपनी ही जलाई आग थी, जिस में वह जली थी. किस से कहती, क्या कहती? वही तो वहां खुद गई थी. विरोध करती पर क्यों नहीं कर पाई? उस प्रसाद में ऐसा क्या था? वह इस सवाल का उत्तर बरसों तलाश करती रही. पर उस दिन सुलभा ने ही बताया था कि मां, मुंबई की पार्टियों में कोल्डड्रिंक्स में ऐसा कुछ मिला देते हैं कि लड़कियां अपना होश खो देती हैं. वे बरबाद हो जाती हैं. मेरी कुछ सहेलियों के साथ भी ऐसा हुआ है. ये ‘वेव पार्टियां’ कहलाती हैं, तब वह चौंक गई थी. क्या उस के साथ भी ऐसा ही हुआ था? वह सोचने लगी कि कभीकभी वर्षा ऋतु न हो तो भी अचानक बादल कहीं से आ जाते हैं. वे गरजते और बरसते हैं, तो क्यारी में बोया बीज उगने लगता है.

फिर सब कुछ यथावत रहा. सुभाष भी जल्दी ही लौट आया. उसे आने के बाद सूचना मिली कि वह पिता बनने वाला है तो वह बहुत खुश हुआ और शालिनी को अस्पताल ले गया.

 

लौट आओ मौली: एक गलतफहमी के कारण जब आई तलाक की नौबत

‘‘फिरसे 104…’’ मलय का माथा छूते हुए बड़ी बहन हिमानी ने थर्मामीटर एक ओर रख दिया, भीगे कपड़े की पट्टियां फिर से रखनी शुरू कर दीं.

‘‘पता नहीं इस का फीवर क्यों बढ़ रहा है… उतरने का नाम ही नहीं ले रहा. मलय भी इतना जिद्दी है कि डाक्टर के पास नहीं जाता,’’ हिमानी बड़बड़ा रही थी.

‘‘ठीक हो जाएगा न, करना ही क्या है…’’ मलय ने बहन हिमानी को धीरे से बोल कर समझाया.

‘‘देखी नहीं जा रही तेरी हालत. धंसीधंसी आंखें, एकदम कमजोर शरीर… मालूम है मौली का जाना तुझे सहन नहीं हो रहा. खुद ही तो कांड किया है बिना किसी को पूछे, बिना बताए तलाक तक ले डाला. पूरे 7 साल तुम दोनों साथ रहे. क्या हुआ जो मातापिता नहीं बन पाए, 2 बार गर्भपात हुआ था उस का. किसी बच्चे को गोद न लेने का भी निर्णय तुम्हारा ही था. मांपापा थे तब तक सब ठीक था. थोड़ीबहुत नोकझोंक होती थी. पर उन के जाते ही जाने क्या हो गया घर को…

‘‘मैं समझती नहीं क्या कि उस के साथ बोलनेबतियाने वाला कोई नहीं रह गया… तू तो वैसे भी कम बोलता है. बेचारी ने ऊब से बचने के लिए टीचिंग करनी शुरू कर दी और घर पर ट्यूशन लेना भी शुरू कर दिया. तुझे दोनों ही रास नहीं आए. तुझे लगा वह पैसों के लिए नौकरी कर रही है. तेरे अहं को ठेस लगी कि मैं भरपूर कमा कर देता नहीं. मैं तेरे दकियानूसी विचारों को जानती नहीं क्या?… मांबाप तेरे ही नहीं गए, उस ने भी दोबारा मातापिता का साया खोया. बहुत प्यार था उसे उन से.

‘‘तेरा गुस्सा भी अच्छी तरह जानती हूं. उस पर चिल्लाता होगा. अकेली,

पढ़ीलिखी, सोशल, संयुक्त परिवार की लड़की करती भी क्या? किसी से उस का मिलनाजुलना तुझे पसंद नहीं आ रहा था, न ही किसी का आनाजाना. अब जब वह चली गई तब भी चैन नहीं आ रहा. बीमार हो गया. उस का भी जाने क्या हाल होगा.’’

‘‘बस करो, सिर बहुत दुख रहा है. ऐसा कुछ भी नहीं…मुझे क्या परेशानी, वह जहां चाहे जिस के साथ चाहे रहे मेरी बला से. मुझ से जान तो छूटी उस की. कहती थी कि मरोगे तो कोई पूछने वाला भी न होगा. वह यही चाहती थी. आप उस की तरफदारी कर रही हो… मर ही तो जाऊंगा इस से ज्यादा क्या होगा.’’

‘‘तेरी जरा सी तबियत खराब होने पर कैसे टपटप आंसू गिरने लगते थे उस के. तुझे जरा सी चोट लगने पर उस का चेहरा सफेद पड़ जाता था. मां के आपरेशन के समय भी कितना रोई थी. बेहोश भी हो गई थी. फिर तो उन के पास ही चिपकी बैठी रही. उन का वह सारा काम किया जो हम भी मुश्किल से कर पाते. उस ने बिना नाकभौं सिकोड़े अपनेपन से किया… ऐसे कैसे छोड़ कर, सारे रिश्ते तोड़ कर चली गई…

‘‘कोई तो नंबर दे ताकि उस से बात हो सके… ऐसे कैसे सब ने नंबर ब्लौक कर दिया… उस की पक्की सहेली स्वरा से तो तू भी बात करता था. उस का तो नंबर होगा… दे,’’ हिमानी खुद ही उस के मोबाइल में मौली नंबर ढूंढ़ने लगी.

‘‘अब कोई फायदा नहीं दी, उसी ने बताया कि शशांक से शादी कर वह कनाडा चली गई,’’ उस की आंखें ढपी जा रहीं थीं.

2 साल ही तो बड़ी थी हिमानी. उस की शादी के 5 साल बाद मलय की शादी हुई थी. मौली घर में रचबस गई. सब खुश थे. अचानक एक दिन मां को हार्ट अटैक हुआ, इतना तीव्र था कि वह चल ही बसीं, पहले मां गईं फिर पापा, शुगर के मरीज थे. हम दोनों का बचपन इसी घर में बीता. पुराने प्यार करने वाले सब लोग चले गए. मलय यादों के साथ अकेला रह गया. मौली और मलय का स्वभाव एकदूसरे के विपरीत था.

मलय धीरगंभीर और मौली चुलबुली. एकदूसरे को पूरा समझने में वक्त तो लगता ही है, पर अवसाद भरे मलय के मन ने उसे मौका न दिया.

जहां मलय अंतर्मुखी था, वहीं मौली मस्तमौला और सब से मिलनेजुलने वाली. मांपापा के निर्देश पर घर का सारा काम निबटा कर थोड़ी देर को बाहर चली जाती. कुछ बाहर के काम भी कर आती. उस ने आसपास के सभी लोगों से दोस्ती कर ली थी. कभी उन के घर चली जाती तो कभी उन को बुला लेती. रिटायर्ड मांपापा उसे बेटी जैसी ही मानते. उन का दिल भी लगा रहता. पर मांपापा के जाने के बाद वही सब अब मलय को शोर लगने लगा था. वह चिढ़ने लगा था. मौली उस के जैसी अचानक तो नहीं हो जाती. कभी मां के जैसे खाने के स्वाद के लिए खीजता तो कभी खाली समय में उस के गप्पें मारने से उसे गुरेज होता.

बचपन का साथी शशांक एक दिन मौली से अचानक टकरा गया. चौथी कक्षा से 12वीं कक्षा तक उन्होंने साथ ही पढ़ाई की थी. पढ़ाई में बस ठीकठाक ही था, सब से मदद ले लेता. मौली से तो अकसर ही, क्योंकि मौली का काम हमेशा पूरा रहता. पर वह था एक नंबर का हंसोड़, चुटकलेबाज. क्लास में टीचर के आने के पहले और जाने के बाद शुरू हो जाता. आज भी वह बिलकुल बदला नहीं था. चेहरे पर वही शरारत, वही डीलडौल… बस एक फुट लंबा अवश्य हो गया था. फ्रैंच कट दाढ़ी भी रख ली थी. मौली को पहचानने में एक सैकंड ही लगा होगा…

‘‘अरे शशांक तुम यहां… पहचाना…?’’

‘‘अरे… तुम… मौली,’’ वैवाहिक स्त्री के रूप में सजी मौली को ऊपर से नीचे देखता हुआ वह हंस पड़ा.

‘‘मुझे तो स्कर्टब्लाउज, 2 चोटी वाला, रूमाल से नाक पोंछता रूप ही याद आ रहा है. हा हा… तो शादी कर ली तुम ने हा हा…’’

‘‘और तुम ने?’’

‘‘अरे नहीं यार, अभी आजाद पंछी हूं मस्त. इतनी मुश्किल से पढ़ाई की फिर बमुश्किल इतनी बढि़या नौकरी पाई. यों ही हलाल थोड़े ही हो जाऊंगा. कुछ साल तो चैन की सांस लूं. हा हा…’’ वह उसी चिरपरिचित ठहाके वाली हंसी फिर हंसा था.

वह अपनी नई चमकती बाइक की बैग में अपना खरीदा सामान रख कर मुसकराता खड़ा हो गया, ‘‘कुछ लेना है तुम्हें या चलें किसी रेस्तरां में? वहीं बैठ कर बात करेंगे…’’

‘‘नहीं बस… घर में दिन भर हो जाता है तो शाम को हवा खाने निकल पड़ती हैं. कुछ जरूरी हो तो सामान भी ले आती हूं,’’ वह मुसकराई.

‘‘क्यों तुम्हारे मियां को ताजा हवा अखरती है?’’ शशांक के प्रश्न पर एक उदास मलिन सी रेखा मौली के चेहरे पर उभर आई, जिसे उस ने बनावटी मुसकान से तुरंत छिपा लिया.

‘‘अब यहीं खड़ेखड़े सब जान लोगे या कहीं बैठोगे भी?’’

‘‘अरे तो तुम बाइक पर बैठो तभी तो… या वहां तक पैदल घसीटता हुआ अपनी ब्रैंड न्यू बाइक की तौहीन करूं… हा हा…’’

‘‘कुछ ही देर में शशांक के जोक्स से हंसतेहंसते मौली के पेट में बल पड़ गए. बहुत दिनों बाद वह खुल कर हंसी थी.’’

‘‘अब बस शशांक…’’ उस ने पेट पकड़ते हुए कहा, ‘‘सो रैग्युलेटेड, हाऊ

बोरिंग… न साथ में घूमना, न मूवी, न बाहर खाना, न किसी पार्टीफंक्शन में जाना. हद है यार, शादी करने की जरूरत ही क्या थी… अच्छा उन के लिए समोसे ले चलते हैं, कैसे नहीं खाएंगे देखता हूं. तुम झट अदरकइलायची वाली चाय बनाना, कौफी नहीं…’’ वह बिना संकोच किए मौली को घर छोड़ने को क्या मलय के साथ चाय भी पीने को तैयार था. मौली कैसे मना करे उसे, पता नहीं मलय क्या सोचे इसी उलझन में थी.

‘‘सोच क्या रही हो, बैठो मेरे इस घोड़े पर… अब देर नहीं हो रही?’’ अपनी बाइक की ओर इशारा कर के वह समोसे का थैला रख मुसकराते हुए फटाफट बाइक पर सवार हो गया.

घबरातेसकुचाते मौली को मलय से शशांक को मिलाना ही पड़ा. शशांक के बहुत जिद करने पर मलय ने समोसे का एक टुकड़ा तोड़ लिया था. चाय का एक सिप ले कर एक ओर रख दिया तो मौली झट उस के लिए कौफी बना लाई. शशांक ने कितनी ही मजेदार घटनाएं, जोक्स सुनाए पर मलय के गंभीर चेहरे पर कोई असर न हुआ. उस के लिए सब बचकानी बातें थीं. उस के अनुसार तो एक उम्र के बाद आदमी को धीरगंभीर हो जाना चाहिए. बड़ों को बड़ों जैसे ही बर्ताव करना चाहिए… कितनी बार मौली को उस से झाड़ पड़ चुकी थी इस बात के लिए.

मलय उकता कर उठने को हुआ तो शशांक भी उठ खड़ा हुआ, ‘‘मैं चलता हूं. काफी बोर किया आप को, मगर जल्दी ही फिर आऊंगा, तैयार रहिएगा.’’

गेट तक आ कर मौली को धीरे से बोला, ‘‘जल्दी हार मानने वाला नहीं. इन्हें इंसान बना कर ही रहूंगा. कैसे आदमी से ब्याह कर लिया तुम ने. मिलता हूं कल शाम को… बाय.’’

इस से पहले मौली कुछ कहती वह किक मार फटाफट निकल गया.

दूसरे दिन 5 ही बजे शशांक मौली के घर उपस्थित था, ‘‘जल्दी तैयार हो जाओ, खड़ूसजी कहां हैं? उन्हें भी कहो गैट रैडी फास्ट,’’ मौली को हैरानी से अपनी ओर देखते हुए देख उस ने हंसते हुए हवा में आसमानी रंग के मूवी टिकट लहराए, जैसे कोई जादू दिखा रहा हो.़

‘‘रोहित शेट्टी की नई फिल्म की 3 टिकटें हैं.’’

‘‘तुम्हें बताया था न, नहीं जाते हैं मूवीशूवी और ऐसी कौमेडी टाइप तो बिलकुल भी नहीं.’’

‘‘अरे बुलाओ तो उन्हें, ब्लैक कौफी वहीं पिलवा दूंगा और रात का डिनर भी

मेरी तरफ से. उन के जैसा सादा शुद्ध भोजन. ऐसे मत देखो, मैं यहां नया हूं यार. मेरा यहां कोई रिश्तेदार भी नहीं. वह तो अच्छा हुआ जो तुम मिल गईं…. चलोचलो जल्दी करो. कैब बुक कर दी है 20 मिनट में पहुंच जाएगी,’’ शशांक बेचैन हो रहा था.

मलय मना ही करता रह गया पर शशांक की जिद के आगे उस की एक न चली. जबरदस्ती मूवी देखनी पड़ी थी उसे. लौट कर हत्थे से उखड़ गया, खूब बरसा था मौली पर.

‘‘अपने दोस्त को समझा लो वरना मैं ही कुछ उलटा बोल दूंगा तो रोती फिरोगी कि मेरे दोस्त को ऐसावैसा बोल दिया. तुम को जाना है तो जाओ, उस के बेवकूफी भरे जोक्स तुम ही ऐंजौय करो. बहुत टाइम है न तुम्हारे पास फालतू…’’

मांपापा के जाने का दुख मौली को भी था पर मलय जितना नहीं होगा यह भी सही है पर जिंदगी तो चलानी ही है. कब तक यों ही मुंह लटकाए रहा जा सकता है. मौली याद करती जब अपने पापा को खोया था तो उस की उम्र 20 साल की रही होगी… कुछ दिनों तक लगता था कि सब खत्म हो गया पर जल्द ही खुद को संभाल लिया. फिर पूरे घर का माहौल खुशनुमा बना दिया था. अपनी पढ़ाई भी पूरी की. टीचिंग शुरू कर मां की घर चलाने में मदद भी करने लगी थी.

यहां मलय को खुश करने की सारी कोशिश बेकार थी. 2 साल हो गए थे मगर हर समय मायूसी छाई रहती. टीवी में भी उस की कोई दिलचस्पी न थी. मौली के पसंद के शोज को वह बकवास, बच्चों वाले, मैंटल के खिताब भी दे डालता. हार कर मौली ने पास ही में स्कूल जौइन कर लिया कि कुछ तो दिल लगेगा, घर पर भी ट्यूशंस लेने लगी. अब कुछ अच्छा लगने लगा था उसे. समय कैसे गुजर जाता पता ही नहीं चलता. काम के साथसाथ सब से हंसनाबोलना भी हो जाता. पर शनिवार को मलय घर होता, बच्चों का शोरगुल उसे कतई रास न आता. भुनभुन करता ही रहता. मौली कोशिश करती कि शनिवार को बच्चों को न बुलाए पर परीक्षा हो तो बुलाना ही पड़ता.

उस के व्यस्त रहने और कुछ मलय की बेरुखी समझने के कारण शशांक का घर आना कम हो गया था. पर शनिवार को वे अवश्य मिल लेते. मौली पेट भर हंस लेती जैसे हफ्ते भर का कोटा पूरा कर रही हो. इधर स्कूल का भी काम बढ़ने लगा था. बच्चों की परीक्षाएं आ गई थीं, मौली को अधिक समय देना पड़ता.

मौली ने खाना बनाने के लिए कामवाली रख ली. लाख कोशिशों के बाद भी मौली सास के बने खाने जैसा स्वाद नहीं ला सकी थी… मलय को चिड़चिड़ तो करनी ही थी, हो सकता है कामवाली के हाथ का खाना पसंद आ जाए.

मौली हरदम खुद को संवार के रखती कि इसी बहाने कभी तो प्यार के 2 मीठे बोल बोले, कुछ प्यारी सी टिप्पणी कर दे, पर वह कभी कुछ न बोलता. बात वह पहले भी कहां करता था. हंसीठिठोली उसे पसंद नहीं थी, यह सब उसे बचकानी हरकतें लगतीं. उस के खट्टेमीठे अनुभव में उस की कोई दिलचस्पी न थी.

एक दिन काम से लौटा तो मौली बच्चों के साथ हैप्पी बर्थडे गीत गा कर क्लैपिंग करवा रही थी. किसी बच्चे का जन्मदिन था. चौकलेट ले कर बच्चे बस घर जा ही रहे थे. उन को गेट तक छोड़ कर वह अंदर आ गई.

मलय बरस पड़ा, ‘‘मालूम है न मुझे काम से लौट कर आने पर शांति चाहिए.

ये सब ड्रामे पसंद नहीं. कल से बच्चे मेरे घर में पढ़ने नहीं आएंगे. ज्यादा शौक है तो कहीं और किराए पर रूम ले कर पढ़ाओ, मेरी खुशियों से तो तुम्हें कोई मतलब नहीं, बस अपने में ही लगी रहो…’’ वह बच्चों के सामने झल्लाता हुए अपने रूम में चला गया. मौली के दिल में खंजर की तरह बात घुस गई, मोटेमोटे आंसू गाल पर ढुलकने लगे. सब्र का बांध जैसे टूट चला था.

‘‘मेरा घर… मेरी खुशी… मैं तो अपना घर समझ ब्याह कर आई थी. मुफ्त की ड्यूटी बजाने के लिए नहीं. न ही नौकर की तरह बस तुम्हारे हुक्म की तामील करने. अपनी खुशी की बात करते हो, कभी पत्नी की खुशी सोची तुम ने?

‘‘नाजों से पली बेटी, अपना ऐशोआराम सब कुछ छोड़ पराए घर को अपना लेती है, सब की सेवा में जीजान से लगी रहती है, अपनी आदतों को दूसरों की आदतों में खुशीखुशी ढालने में हर पल प्रयासरत रहती है, खानपान, पहनावा, व्यवहार, खुशी, गम, मजबूरी सब को ही अपना लेती है और एक सैकंड में तुम ने बाहर का रास्ता दिखा दिया. ऐसी ही पत्नी चाहिए थी तो किसी गरीब, बेसहारा, अनपढ़ को ब्याह लाने की हिम्मत करते, जो तुम्हारी खैरात का एहसान मान कर हाथ जोड़े बैठी रहती. लेकिन नहीं. खानदानी और संस्कारी भी चाहिए और पढ़ीलिखी, रूपसी, इज्जतदार व अच्छे घर की भी…’’ गुस्से में कांपती मौली पहली बार एक सांस में इतना कुछ बोल गई, मलय भौंचक्का सा देखता रह गया.

मगर उस की मर्दानगी ललकार उठी, पलटवार से न चूका था.

‘‘तो तुम ने क्यों नहीं किसी भिखारी से शादी कर ली? इतनी काबिल थी तो किसी अमीर से शादी करती उस पर आराम से रोब झाड़ती और उस की मुफ्त में परवरिश भी कर देती. तुम्हें भी तो…

‘‘अपने टटपूंजिए दोस्त शशांक से क्यों नहीं कर ली थी शादी, जिस का सानिध्य पाने को आज तक लालायित फिरती हो. उस के पास पहले अच्छी जौब नहीं थी इसीलिए न?’’

‘‘अब एक लफ्ज भी मत बोलना मलय, तुम्हारी घटिया सोच पहले ही जाहिर हो चुकी है. ठीक है, मैं उसी के पास चली जाती हूं. तुम्हारे जैसी छोटी सोच का आदमी नहीं है वह. बहुत खुश रहूंगी,’’ उस ने गुस्से में शशांक को कौल मिला दी थी.

काम से लौटा तो शशांक मौली से किए प्रौमिस के अनुसार सीधा वहीं आया था. मौली को लाख समझाने की कोशिश की पर उस ने एक न सुनी. मलय से अनुनयविनय की पर वह भी टस से मस न हुआ.

‘‘अच्छा रुको, आंटी का नंबर दो उन से बात करता हूं, फिर उन के पास पहुंच जाना. प्रयाग की टिकट बुक करवा देता हूं. धीरज रखो,’’ शशांक ने समझाया.

‘‘नहीं, कुछ हो जाएगा उन्हें. सह नहीं पाएंगी,’’ मौली की आंखों से लगातार आंसू बहे जा रहे थे.

‘‘कुछ नहीं होगा. मैं बोलूंगा कुछ दिन के लिए मन बदलने जा रही हो. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. दोनों का गुस्सा भी शांत हो जाएगा,’’ उस ने त्योरियां चढ़ाए बैठे मलय की ओर देखा, तो वहां से उठ कर वह दूसरे कमरे में जा लेटा.

‘‘जाओ मौली, तुम भी आराम कर लो. अच्छे से सोच लो पहले. ठंडा पानी पीयो, मुझे भी पिलाओ. मैं वोल्वो बस की टिकट का इंतजाम कर के कल मिलता हूं तुम से.’’

‘‘ठीक है, प्रौमिस,’’ शशांक ने उस के हाथ पर हाथ रख दिया था. मौली जानती

थी वह झूठा प्रौमिस कभी नहीं करता.

मौली को अच्छी तरह समझाबुझा कर शशांक निकला ही था कि रास्ते में तेज आती ट्रक से इतनी जबरदस्त टक्कर हुई कि वह उड़ता हुआ दूर जा गिरा. सिर पर गहरी चोट लगी थी, पैर में भी फ्रैक्चर महसूस हुआ, मोबाइल सड़क पर टुकड़ों में पड़ा था.

‘‘अच्छा हुआ एक पाप करने से बच गया,’’ पीड़ा में भी राहत की मुसकान उस के खून रिसे होंठों पर आ गई, फिर पूरे होश गुम हो गए. लोगों और पुलिस ने उसे अस्पताल पहुंचाया. तब तक वह कोमा में जा चुका था.

जब दूसरे दिन भी न शशांक आया न उस का फोन तो मलय ने मजाक बनाना शुरू कर दिया, ‘‘इसी दोस्त के प्रौमिस का गुणगान कर रही थी, भाग गया पतली गली से,’’ वह व्यंग्य से हंसा था.

‘‘वह करे या कोई और तुम को क्या? कहीं इसी डर से तो तलाक नहीं दे रहे, सारा किस्सा ही खत्म हो जाता.’’

‘‘कौन डरता है, कल चलो.’’

‘‘ठीक है… मुकर मत जाना,’’ मौली रोष में आश्वस्त होना चाहती थी.

और सच में बात कहां से कहां पहुंच गई. अदालत में अर्जी फिर तलाक के बाद मौली हिम्मत कर के मायके पहुंची तो मां सदमे में थीं, पर मौली ने उन्हें संभाल लिया. लेकिन खुद को न संभाल सकी. महीने में ही दोनों का तलाक हो गया था. पर शरीर क्षीण होता ही जा रहा था उस का. उधर मलय भी इगो में भर कर तलाक लेने के बाद अब पछता रहा था. हर वक्त उस का दिल कचोटता रहता. उसे सब याद आता कि कितने दिलोजान से मौली ने मेरे बूढ़े, बीमार मांबाप की तीमारदारी की थी. इतना तो वह भी नहीं कर सका था. सभी का बातों से दिल जीत लेती, सभी उस से पूछते क्यों चली गई मौली, पर उसे कोई जवाब देते न बनता.

सब ने आना कम कर दिया. सूना सा घर सांयसांय करता. वही मलय जो जरा से शोर पर चिल्ला उठता वही आज एक आवाज को तरसता. पछतावे में खाट पकड़ ली थी उस ने. दिल कोसता हर वक्त पर ‘अब पछताए होत क्या जब चिडि़या चुग गई खेत.’ अब तो कोई पानी पूछने वाला भी नहीं था. अगर हिमानी दी को किसी ने खबर न दी होती तो यों ही दम तोड़ देता.

स्वरा का नंबर तो मिला, पर वह अब प्रयाग में नहीं दिल्ली में थी. उस ने सीधे कहा, ‘‘अब क्या फायदा उन का डिवोर्स भी हो गया. उस समय तो कोई आया भी नहीं. मलय ने तो उस की जिंदगी ही तबाह कर दी थी. उस की मम्मी भी उस के गम से चल बसीं. अब तो अपने पति शशांक के साथ कनाडा में बहुत खुश है. आप लोग उस की फिक्र न करें तो बेहतर होगा.’’

‘‘ऐसा नहीं हो सकता स्वरा.’’

‘‘डिवोर्स हो गया और क्या नहीं हो सकता?’’

‘‘वही तो, मैं हैरान हूं. मुझे मालूम है कि वह बहुत प्यार करती थी मलय से,

इस घर से, हम सब से. मेरी भाभी ही नहीं, वह मेरी सहेली भी थी. यकीन नहीं होता कि उस ने बिना कुछ बताए डिवोर्स भी ले लिया और दूसरी

शादी भी कर ली. दिल नहीं मानता. कह दो स्वरा यह झूठ है. मैं पति के साथ सालभर के लिए न्यूजीलैंड क्या गई इतना कुछ हो गया.तुम उस का नंबर तो दो, मैं उस से पूछूंगी

तभी विश्वास होगा. प्लीज स्वरा,’’ हिमानी ने रिक्वैस्ट की.

‘‘नहीं, उस ने किसी को भी नंबर देने के लिए मना किया है.

‘‘क्या करेंगी दी, मौली बस हड्डियों का ढांचा बन कर रह गई है. उस की हालत देखी नहीं जाती. उसी ने… कोई उस के बारे में पूछे तो यही सब कहने के लिए कहा था,’’ स्वरा फूटफूट कर रो पड़ी. हार कर दे ही दिया मौली का नया नंबर स्वरा ने.

‘‘यह तो इंडिया का ही है,’’ हिमानी आश्चर्यचकित थी.

‘‘दी, न वह कनाडा गई न ही शशांक से शादी हुई है उस की. शशांक तो मेरी बुआजी का ही लड़का है. 4 महीने कोमा में पड़ा था, भयानक दुर्घटना की चपेट में आ गया था, कुछ दिनों बाद पता चला था. बच ही गया. होश आने पर भी बहुत सारी प्रौब्लम थी उसे. दिल्ली ले कर आई थीं बुआ जी. एम्स में इलाज के बाद एक महीने पहले ही तो प्रयाग लौटा है. वही मौली का हालचाल देता रहता है.’’

हिमानी ने फटाफट नंबर डायल किया.

‘‘हैलो…’’ वही प्यारी पर आज बेजान सी आवाज मौली की ही थी.

‘‘मौली, मैं तुम्हारी हिमानी दी. एक पलमें पराया बना दिया… किसी को कुछ बताया क्यों नहीं? यह क्या कर डाला तुम दोनों ने, दोनों पागल हो?’’

‘‘उधर से बस सिसकी की आवाज आती रही.’’

‘‘मैं जानती हूं तुम दोनों को… जो हाल तुम्हारा है वही मलय का है. दोनों ने ही खाट पकड़ ली है. इतना प्यार पर इतना ईगो… उस ने गलत तो बहुत किया, सारे अपनों के चले जाने से वह बावला हो गया था. उसी बावलेपन में तुम्हें भी खो बैठा. अपने किए पर बहुत शर्मिंदगी महसूस कर रहा है. पश्चाताप में बस घुला ही जा रहा है. आज भी बहुत प्यार करता है तुम से. तुम्हें खोने के बाद उसे अपनी जिंदगी में तुम्हारे दर्जे का एहसास हुआ.’’

मौली की सिसकी फिर उभरी थी

‘‘ऐसे तो दोनों ही जीवित नहीं बचोगे.ऐसे डिवोर्स का क्या फायदा? तुम ने तो पूरी कोशिश की छिपाने की, पर स्वरा ने सब सच बता दिया.

‘‘लौट आओ मौली. मैं आ रही हूं. कान उमेठ कर लाऊंगी इसे. पहले माफी मांगेगा तुम से. अब कभी जो इस ने तुम्हारा दिल दुखाया, तुम्हें रुलाया तो मेरा मरा… पलंग से उठ कर जाने कैसे मलय ने हाथ से हिमानी को आगे बोलने से रोक लिया.

‘‘दी, ऐसा फिर कभी मत बोलना.’’

‘‘दोनों कान पकड़ अपने फिर,’’ हिमानी ने प्यार भरी फटकार लगाई.

‘‘एक लड़की जो सारे घर से सामंजस्य बैठा लेती है, सब को अपना बना लेती है

तू उस के साथ ऐडजस्ट नहीं कर पा रहा था. कुछ तेरी पसंद, आदतें हैं, संस्कार हैं माना, तो कुछ उस के भी होंगे… नहीं क्या? क्या ऐडजस्ट करने का सारा ठेका उसी ने ले रखा है? मैं ऐसी ही थी क्या पहले… कुछ बदली न खुद पति देवेन के लिए? देवेन ने भी मेरे लिए अपने को काफी चेंज किया, तभी हम आज अच्छे कपल हैं. तुझे भी तो कुछ त्याग करना पड़ेगा, बदलना पड़ेगा उस के लिए. अब करेगा? बदल सकेगा खुद को उस के लिए?’’

‘‘हां दी, आप जैसा कहोगी वैसा करूंगा,’’ हिमानी उस के चेहरे पर उभर आई आशा की किरण स्पष्ट देख पा रही थी.

‘‘ले बात कर, माफी मांग पहले उस से…’’ हिमानी जानबूझ कर दूसरे कमरे में चली गई.

‘‘किस मुंह से कहूं मौली मैं तुम्हारा गुनहगार हूं, मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम्हारे साथ बहुत गलत किया. शादी के बाद से ही तुम घर की जिम्मेदारियां

ही संभालती रहीं. हनीमून क्या कहीं और भी तो ले नहीं गया कभी घुमाने. अपनी ही इच्छाएं थोपता रहा तुम पर. अपने पिता का शोक तुम

ने कितने दिन मनाया था. हंसने ही तो लगी थी हमारे लिए और मैं अपने गम, अपने खुद के उसूलों में ही डूबा रहा. तुम्हारे साथ 2 कदम भी न चल सका.

‘‘बच्चा गोद लेना चाहती थी तुम, पर मैं ने सिरे से बात खारिज कर दी. तुम ने ट्यूशन पढ़ाना चाहा पर वह भी मुझे सख्त नागवार गुजरा. सख्ती से मना कर दिया. तुम्हारे दोस्त के लिए बुराभला कहा, तुम पर कीचड़ उछाला… कितना गिर गया था मैं. सब गलत किया, बहुत गलत किया मैं ने… तुम क्या कोई भी नहीं सहन करता… कुछ बोलोगी नहीं तुम, मैं जानता हूं मुझे माफ करना आसान न होगा…

‘‘बहुत ज्यादती की है तुम्हारे साथ. मुझे कस के झिड़को, डांटो न… कुछ बोलोगी नहीं, तो मैं आ जाऊंगा मौली.’’

पहले सिसकी उभरी फिर फूटफूट कर मौली के रुदन का स्वर मलय को अंदर तक झिंझोड़ गया.

‘‘मैं आ रहा हूं तुम्हारे पास. मुझे जी भर के मार लेना पर मेरी जिंदगी तुम हो, उसे लौटा दो मौली. मैं दी को देता हूं फोन.’’

‘‘चुप हो जा मौली अब. बस बहुत रो चुके तुम दोनों. मैं दोनों की हालत समझ रही हूं. तुम आने की तैयारी करना, कुछ दिनों में तुम्हारे मलय को फिट कर के लाती हूं.’’

सिसकियां आनी बंद हो गई थीं. वह मुसकरा उठी.

‘‘कुछ बोलोगी नहीं मौली…?’’

‘‘जी…’’ महीन स्वर उभरा था.

‘‘जल्दी सेहत सुधार लो अपनी, हम आ रहे हैं. फिर से ब्याह कर के तुम्हें वापस लाने के लिए… तैयार रहना… इस बार दीवाली साथ में मनाएंगे… तुम्हारे देवेन जीजू पहले जैसे तैयार मिलेंगे… तुम लोगों का बचकाना कांड सुन कर बहुत मायूस थे. मैं अभी उन्हें खुशखबरी सुनाती हूं. एक बार अपनी इस हिमानी दी का विश्वास करो. तुम्हारा घर तुम्हारी ही प्रतिक्षा कर रहा है. बस अपने घर लौट जाओ मौली…’’

‘‘ठीक है दी, जैसी आप सब की मरजी…’’ मौली की आवाज में जैसे जान आ गई थी. हिमानी ने सही ही महसूस किया था.

‘‘जल्दी तबियत ठीक कर ले, फिर चलते हैं प्रयाग. एक नए संगम के लिए,’’ हिमानी ने मुसकरा कर मलय के गाल थपथपाए और उस के माथे की गीली पट्टी बदल दी.

मौली का फोन कटते ही हिमानी ने खुशीखुशी पति देवेन को सूचना देने के लिए नंबर डायल कर दिया.

‘‘मौली को अच्छी तरह समझाबुझा कर शशांक निकला ही था कि रास्ते में तेज आती ट्रक से इतनी जबरदस्त टक्कर हुई कि वह उड़ता हुआ दूर जा गिरा…’’

 

कैसी है सीमा: अच्छे व्यवहार के बावजूद क्यों ससुरालवालों का दिल नहीं जीत पाई सीमा

 ‘‘आज जरा चेक पर दस्तखत कर देना,’’ प्रभात ने शहद घुली आवाज में कहा.

सीमा ने रोटी बेलतेबेलते पलट कर देखा, चेक पर दस्तखत करवाते समय प्रभात कितने बदल जाते हैं, ‘‘आप की तनख्वाह खत्म हो गई?’’ वह बोली.

‘‘गांव से पिताजी का पत्र आया था. वहां 400 रुपए भेजने पड़े. फिर लीला मौसी भी आई हुई हैं. घर में मेहमान हों तो खर्च बढ़ेगा ही न?’’

सीमा चुप रह गई.

‘‘पैसा नहीं देना है तो मत दो. किसी से उधार ले कर काम चला लूंगा. जब भी पैसों की जरूरत होती है, तुम इसी तरह अकड़ दिखाती हो.’’

‘‘अकड़ दिखाने की बात नहीं है. प्रश्न यह है कि रुपया देने वाली की कुछ कद्र तो हो.’’

‘‘मैं बीवी का गुलाम बन कर नहीं रह सकता, समझीं.’’

बीवी के गुलाम होने वाली सदियों पुरानी उक्ति पुरुष को आज भी याद है. किंतु स्त्रीधन का उपयोग न करने की गौरवशाली परंपरा को वह कैसे भूल गया?

बहस और कटु हो जाए, इस के पहले ही सीमा ने चेक पर हस्ताक्षर कर दिए.

शाम को प्रभात दफ्तर से लौटे तो लीला मौसी को 100 का नोट दे कर बोले, ‘‘मौसी, तुम पड़ोस वाली चाची के साथ जा कर आंखों की जांच करवा आना.’’

‘‘अरे, रहने दे भैया, मैं तो यों ही कह रही थी. अभी ऐसी जल्दी नहीं है. रायपुर जा कर जांच करा लूंगी.’’

‘‘नहीं मौसी, आंखों की बात है. जल्दी दिखा देना ही ठीक है.’’

मौसी मन ही मन गद्गद हो गईं.

प्रभात मौसी का बहुत खयाल रखते हैं. मौसी का ही क्यों, रिश्ते की बहनों, बूआओं, चाचाताउओं सभी का. कोई रिश्तेदार आ जाए तो प्रभात एकदम प्रसन्न हो उठते हैं. उस समय वह इतने उदार हो जाते हैं कि खर्च करते समय आगापीछा नहीं सोचते. मेहमानों की तीमारदारी के लिए ऐसे आकुलव्याकुल हो उठते हैं कि उन के आदेशों की धमक से सीमा का सिर घूमने लगता है.

‘‘सीमा, आज क्या सब्जी बनी?है?’’ प्रभात पूछ रहे थे.

‘‘बैगन की.’’

‘‘बैगन की. मौसी की आंखों में तकलीफ है. बैगन की सब्जी खाने से तकलीफ बढ़ेगी नहीं? उन के लिए परवल की सब्जी बना लो.’’

‘‘नहीं. मैं बैगन की सब्जी खा लूंगी, बेटा. बहू को एक और सब्जी बनाने में कष्ट होगा. कालिज से थक कर आई है.’’

‘‘इस उम्र में थकना क्या है, मौसी? वह तो इन के घर वालों ने काम की आदत नहीं डाली, इसी से थक जाती हैं.’’

‘‘हां, बेटा. आजकल लड़कियों को घरगृहस्थी संभालने की आदत ही नहीं रहती. हम लोग घर के सब काम कर के 10 किलो चना दल कर फेंक देते थे,’’ मौसी बोलीं.

बस, इसी बात से सीमा चिढ़ जाती है. उस के मायके वालों ने काम की आदत नहीं डाली तो क्या प्रभात ने उस के लिए नौकरों की फौज खड़ी कर दी? एक बरतनकपड़े साफ करने वाली के अलावा दूसरा कोई नौकर तो देखा ही नहीं इस घर में.

और लीला मौसी के जमाने में घरगृहस्थी ही तो संभालती थीं लड़कियां. न पढ़ाईलिखाई में सिर खपाना था और न नौकरी के पीछे मारेमारे घूमना था.

सीमा सोचने लगी, ‘लीला मौसी तो खैर अशिक्षित महिला हैं, परंतु प्रभात की समझ में यह बात क्यों नहीं आती?’

अभी पिछले सप्ताह भी ऐसा ही हुआ था. सीमा ने करेले की सब्जी बनाई थी. प्रभात ने देखा तो बोले, ‘‘करेले बनाए हैं? क्या मौसी को दुबला करने का विचार है? उन के लिए कुछ और बना लो.’’

सीमा एकदम हतप्रभ रह गई. मौसी हंसीं, ‘‘नहीं… नहीं, कुछ मत बनाओ, बहू. बस, दाल को तड़का दे दो. तब तक मैं टमाटर की चटनी पीस लेती हूं.’’

‘‘मौसी, बहू के रहते तुम्हें काम करने की क्या जरूरत है? आओ, उस कमरे में बैठें,’’ प्रभात बोले.

सीमा अकेली रसोई में खटती रही. उधर साथ वाले कमरे में मौसी प्रभात को झूठेसच्चे किस्से बताती रहीं, ‘‘तुम्हारे बड़े नानाजी खेत में पहुंचे तो देखा, सामने गांव के धोबी का भूत खड़ा है…’’

मौसी खूब अंधविश्वासी हैं. मनगढ़ंत किस्से खूब बताती हैं. भूतप्रेतों के, प्रभात के बड़े नाना, मझले नाना और छोटे नाना के, दूध सी सफेद छोटी नानी के, प्रभात की ननिहाल के जमींदार महेंद्रप्रताप सिंह और रूपा डाकू के भी. इन किस्सों के साथसाथ मौसी लोगों की मेहमाननवाजी और बढि़या भोजन को भी खूब याद करतीं. उन की व्यंजन चर्चा सुन कर श्रोताओं के मुंह में भी पानी भर आता.

मौसी मूंग के लड्डू, खस्ता, कचौरी, मेवे की गुझिया और खोए की पूरियों को याद किया करतीं.

प्रभात उन की हर फरमाइश पूरी करवाते. सीमा को कालिज जाने तक रसोई में जुटे रहना पड़ता. थकान के कारण खाना भी न खाया जाता. उस दिन भी ऐसा ही हुआ था. कालिज से लौट कर वह कुछ खाना ही चाहती थी कि प्रभात के मित्र आ गए. उस ने किसी तरह उन्हें चायनाश्ता करवाया. दूध का बरतन उठा कर अलमारी में रखने लगी तो सहसा चक्कर खा कर गिर पड़ी. सारे कमरे में दूध ही दूध फैल गया.

मौसी और प्रभात दौड़े आए. अपने निष्प्राण से शरीर को किसी तरह खींचती हुई सीमा पलंग पर जा लेटी. आंखें बंद कर के वह न जाने कितनी देर तक लेटी रही.

अचानक प्रभात ने धीरे से उसे उठाते हुए कहा, ‘‘सुनो, अब उठ कर जरा रसोई में देख लो. तब से मौसी ही लगी हुई हैं.’’

शरीर में उठने की शक्ति ही नहीं थी. ‘हूं’ कह कर सीमा ने दूसरी ओर करवट ले ली.

‘‘तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, यह मैं मानता हूं परंतु अपने घर का काम कोई और करे यह तो शोभा नहीं देता,’’ प्रभात धीरे से बोले.

सीमा का मन हुआ चीख कर कह दे, ‘मौसी के घर में बहूबेटी बीमार होती हैं, तब क्या वह हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती हैं? एक समय भोजन बना भी लेंगी तो ऐसी क्या प्रलय हो जाएगी?’ लेकिन कहा कुछ नहीं. आवाज कहीं गले में ही फंस कर रह गई. आंखों से आंसू बह निकले. उठ कर बचा हुआ काम निबटाया.

मौसी प्रभात की प्रशंसा करते नहीं थकतीं. उस दिन किसी से कह रही थीं, ‘‘हमारे परिवार में प्रभात हीरा है. सब के सुखदुख में साथ देता है. रुपएपैसे की परवाह नहीं करता. ऐसा आदरसम्मान करता है कि पूछो मत. बहू बड़े घर की लड़की?है, पर प्रभात का ऐसा शासन?है कि मजाल है बहू जरा भी गड़बड़ कर जाए.’’

यह प्रशंसा वह पहली बार नहीं सुन रही थी. ऐसी प्रशंसा प्रभात के परिवार के हर छोटेबड़े के मुख पर रहती है. ससुराल वालों को इतना आतिथ्यसत्कार तथा सेवा करने और बैंक के चेक फाड़फाड़ कर देने के बाद भी वह प्रभात के इस सुयश की भागीदार नहीं बन सकी. या यों कहा जाए कि प्रभात ने इस में उसे भागीदार बनाया ही नहीं बल्कि अपने लोगों के सामने उसे बौना बनाने में ही वह गर्व महसूस करते रहे. उस  की कमियों और गलतियों को वह बढ़ाचढ़ा कर सुनाया करते और सारा परिवार रस ले ले कर सुना करता.

इस संबंध में सीमा को अपनी देवरानी मंगला से ईर्ष्या होती है. देवर सुनील उस के सम्मान को बढ़ाने का एक भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते. हैदराबाद से वह साल में एक बार घर आते हैं. छोटेबड़े सभी के लिए कुछ न कुछ लाने का उन का नियम है, लेकिन लेनदेन का दायित्व उन्होंने मंगला को ही सौंप रखा है.

जब सारा परिवार मिल कर बैठता?है तब सुनील पत्नी को गौरवान्वित करते हुए कहते हैं, ‘‘मंगला, निकालो भई, सब चीजें. दिखाओ सब को, क्याक्या लाई हो तुम उन के लिए,’’ सब की नजरें मंगला पर टिक जाती?हैं. वह कितनी ऊंची हो जाती है सब की दृष्टि में.

मंगला की अनुपस्थिति में जब परिवार के लोग मिल बैठते हैं तो उस के लाए उपहारों की चर्चा होती?है. उस की दरियादिली की प्रशंसा होती है. परंतु सीमा की मेहनत की कमाई से भेजे गए मनीआर्डरों का कभी जिक्र नहीं होता. उस का सारा श्रेय प्रभात को जाता है. कभी बात चलती?है तो अम्मां उसे सुना कर साफ कह देती हैं, ‘‘सीमा की कमाई से हमें क्या मतलब? प्रभात घर का बड़ा बेटा है, उस की कमाई पर तो हमारा पूरा हक है.’’

कभीकभी सीमा सोचती है, ‘नेकी करते हुए भी किसी के हिस्से में यश और किसी के हिस्से में अपयश क्यों आता है?’ वैसे इस विषय में ज्यादा सोच कर वह अपना मन खराब नहीं करती. फिर भी उस का स्वास्थ्य ठीक नहीं रह पाता. पिछले दिनों डाक्टर ने बताया था, ‘‘पैर भारी हैं. थोड़ा आराम करना चाहिए.’’

इधर मौसी कहती थीं, ‘‘एक रोटी बनाने का ही तो काम है घर में. न चक्की पीसनी है, न कुएं से पानी खींच कर लाना है. खूब मेहनत करो और डट कर खाओ. तभी तो सेहत बनेगी.’’

और एक दिन सेहत बनाने के चक्कर में लड्डू बांधतेबांधते कालिज जाने का समय हो गया था. सीमा जल्दीजल्दी सीढि़यां उतरने लगी तो अचानक पैर फिसल गया. 3-4 सीढि़यां लांघती हुई वह नीचे जा गिरी. चोट तो उसे विशेष नहीं आई, पर पेट में दर्द होने लगा था.

‘‘इन के लिए बिस्तर पर आराम करना बहुत जरूरी है,’’ डाक्टर ने प्रभात से कहा था.

प्रभात ने लापरवाही के लिए सीमा को जी भर कर कोसा, किंतु इस परिस्थिति में डाक्टर की सलाह मानना आवश्यक हो गया.

झाड़ूपोंछा तो महरी करने लगी पर भोजन बनाने का भार मौसी पर आ पड़ा. वह नाश्ता और खाना बनाने में परेशान हो जातीं. अब वह बिना मसाले की सादी सब्जी से काम चला लेतीं. कहतीं, ‘‘अब उम्र हो गई. काम करने की पहले जैसी ताकत थोड़े ही रह गई है.’’

सीमा का मन होता, पूछे, मौसी, सिर्फ खाना ही तो बनाना?है. और खाना बनाना भी कोई काम है? तुम तो कहती थीं, दालचावल और सब्जीरोटी तो कैदियों का खाना है. तुम ऐसा खाना क्यों बना रही हो, मौसी?

किसी तरह सप्ताह बीता था कि मौसी का मन उखड़ने लगा. एक दिन प्रभात से बोलीं, ‘‘बेटा, तुम्हारे पास बहुत दिन रह ली. सुरेखा रोज सपने में दिखाई देती है. जाने क्या बात है. बहू जैसी ही उस की भी हालत है.’’

प्रभात सन्न रह गए, ‘‘मौसी, ऐसी कोई बात होती तो सुरेखा का पत्र जरूर आता. तुम चली जाओगी तो बड़ी मुसीबत होगी. अच्छा होता जो कुछ दिन और रुकजातीं.’’

पर मौसी नहीं मानीं. वह बेटी को याद कर के रोने लगीं. प्रभात निरुपाय हो गए. उन्होंने उसी दिन गांव पत्र लिखा.

सुशीला जीजी पिछले साल 2 माह रह कर गई थीं. उन्हें भी एक पत्र विस्तार से लिखा. कई दिनों बाद गांव से पत्र आया कि 15 दिनों बाद अम्मां स्वयं आएंगी. पर 15 दिनों के लिए दूसरी क्या व्यवस्था हो सकेगी?

प्रभात को याद आया कि मंगला की बीमारी का समाचार मिलते ही गांव के लोग किस तरह हैदराबाद तक दौड़े चले जाते हैं. फिर सीमा के लिए ऐसा क्यों? शायद इस का कारण वह स्वयं ही है. जिस तरह सुनील ने अपने परिजनों के हृदय में मंगला के लिए स्नेह और सम्मान के बीज बोए थे, वैसा सीमा के लिए कभी किया था उस ने?

15 दिन बाद अम्मां गांव से आ गईं. उन के आते ही प्रभात निश्चिंत हो गए. उन्हें विश्वास था कि अम्मां अब सब संभाल लेंगी. मार्च का महीना?था. वह अपने दफ्तर के कार्यों में व्यस्त हो गए. सुबह घर से जल्द निकलते और रात को देर से घर लौटते.

पिछले वर्ष जब मंगला को आपरेशन से बच्चा हुआ था, उस समय अम्मां हैदराबाद में ही थीं. उन्होंने उस की खूब सेवा की थी. उस की सेवा का औचित्य उन की समझ में आता था, लेकिन सीमा को क्या हुआ, यह उन की समझ में ही न आता. वह दिनभर काम करें और बहू आराम करे, यह उन के लिए असहाय था.

प्रभात के सामने तो अम्मांजी चुपचाप काम किए जातीं, परंतु उन के जाते ही व्यंग्य बाण उन के तरकस में कसमसाने लगते. कभी वह इधरउधर निकल जातीं.

महल्ले की स्त्रियां मजा लेने के लिए उन्हें छेड़तीं, ‘‘अम्मां, हो गया काम?’’

‘‘हां भई, काम तो करना ही है. पुराने जमाने में बहुएं सास की सेवा करती थीं, आज के जमाने में सास को बहुओं की सेवा करनी पड़ती?है.’’

सीमा सुनती तो संकोच से गड़ जाती. किस मजबूरी में वह उन की सेवा ग्रहण कर रही थी, इसे तो वही जानती थी.

उसी समय प्रभात को दफ्तर के काम से सूरत जाना पड़ा. उन के जाने की बात सुन कर सीमा विकल हो उठी थी. जाने के 2 दिन पहले उस ने प्रभात से कहा भी, ‘‘अम्मां से कार्य करवाना मुझे अच्छा नहीं लगता. उन की यहां रहने की इच्छा भी नहीं है. उन्हें जाने दीजिए. यहां जैसा होगा, देखा जाएगा.’’

‘‘परिवार से संबंध बनाना तुम जानती ही नहीं हो,’’ प्रभात ने उपेक्षा से कहा था.

प्रभात के जाते ही अम्मां मुक्त हो गई थीं. वह कभी मंदिर निकल जातीं, कभी अड़ोसपड़ोस में जा बैठतीं. सीमा को यह सब अच्छा ही लगता. उन की उपस्थिति में जाने क्यों उस का दम घुटता था.

उस दिन अम्मां सामने के घर में बैठी बतिया रही थीं. सीमा ने टंकी में से आधी बालटी पानी निकाला और उठाने ही जा रही थी कि देखा, अम्मां सामने खड़ी हैं. उसे याद आया अम्मां पीछे वाली पड़ोसिन से कह रही थीं, ‘‘प्रभात पेट में था, तब छोटी ननद की शादी पड़ी. हमें बड़ेबड़े बरतन उठाने पड़े,  पर कहीं कुछ नहीं हुआ. हमारी बहू तो 2-2 लोटा पानी ले कर बालटी भरती है, तब नहाती?है.’’

सीमा ने झेंप कर बालटी भरी और उठा कर स्नानघर तक पहुंची ही थी कि दर्द के कारण बैठ जाना पड़ा. जिस का भय था, वही हो गया. डाक्टर निरुपाय थे. गर्भपात कराना जरूरी हो गया.

अम्मां रोरो कर सब से कह रही थीं, ‘‘हम इतना काम करते थे तो भला क्या इन्हें बालटी भर पानी नहीं दे सकते थे. हमारे रहने का क्या फायदा हुआ?’’

उसी दिन शाम को प्रभात घर लौटे. अस्पताल पहुंचे तो डाक्टर गर्भपात कर के बाहर निकल रही थीं. उन्होंने दुख व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘बच्चा निकालना जरूरी हो गया था. लड़का था.’’

प्रभात हतबुद्धि से डाक्टर को देखते रह गए. फिर अचकचा कर पूछा, ‘‘सीमा कैसी है?’’

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