अंदाज: रूढ़िवादी ससुराल को क्या बदल पाई रंजना?

‘‘जब 6 बजे के करीब मोहित ड्राइंगरूम में पहुंचा तो उस ने अपने परिवार वालों का मूड एक बार फिर से खराब पाया…’’

अपने सहयोगियों के दबाव में आ कर रंजना ने अपने पति मोहित को फोन किया, ‘‘ये सब लोग कल पार्टी देने की मांग कर रहे हैं. मैं इन्हें क्या जवाब दूं?’’

‘‘मम्मीपापा की इजाजत के बगैर किसी को घर बुलाना ठीक नहीं रहेगा,’’ मोहित की आवाज में परेशानी के भाव साफ झलक रहे थे.

‘‘फिर इन की पार्टी कब होगी?’’

‘‘इस बारे में रात को बैठ कर फैसला करते हैं.’’

‘‘ओ.के.’’

रंजना ने फोन काट कर मोहित का फैसला बताया तो सब उस के पीछे पड़ गए, ‘‘अरे, हम मुफ्त में पार्टी नहीं खाएंगे. बाकायदा गिफ्ट ले कर आएंगे, यार.’’

‘‘अपनी सास से इतना डर कर तू कभी खुश नहीं रह पाएगी,’’ उन लोगों ने जब इस तरह का मजाक करते हुए रंजना की खिंचाई शुरू की तो उसे अजीब सा जोश आ गया. बोली, ‘‘मेरा सिर खाना बंद करो. मेरी बात ध्यान से सुनो. कल रविवार रात 8 बजे सागर रत्ना में तुम सब डिनर के लिए आमंत्रित हो. कोई भी गिफ्ट घर भूल कर न आए.’’

रंजना की इस घोषणा का सब ने तालियां बजा कर स्वागत किया था. कुछ देर बाद अकेले में संगीता मैडम ने उस से पूछा, ‘‘दावत देने का वादा कर के तुम ने अपनेआप को मुसीबत में तो नहीं फंसा लिया है?’’

‘‘अब जो होगा देखा जाएगा, दीदी,’’ रंजना ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘अगर घर में टैंशन ज्यादा बढ़ती लगे तो मुझे फोन कर देना. मैं सब को पार्टी कैंसल हो जाने की खबर दे दूंगी. कल के दिन बस तुम रोनाधोना बिलकुल मत करना, प्लीज.’’

‘‘जितने आंसू बहाने थे, मैं ने पिछले साल पहली वर्षगांठ पर बहा लिए थे दीदी. आप को तो सब मालूम ही है.’’

‘‘उसी दिन की यादें तो मुझे परेशान कर रही हैं, माई डियर.’’

‘‘आप मेरी चिंता न करें, क्योंकि मैं साल भर में बहुत बदल गई हूं.’’

‘‘सचमुच तुम बहुत बदल गई हो, रंजना? सास की नाराजगी, ससुर की डांट या ननद की दिल को छलनी करने वाली बातों की कल्पना कर के तुम आज कतई परेशान नजर नहीं आ रही हो.’’

‘‘टैंशन, चिंता और डर जैसे रोग अब मैं नहीं पालती हूं, दीदी. कल रात दावत जरूर होगी. आप जीजाजी और बच्चों के साथ वक्त से पहुंच जाना,’’ कह रंजना उन का कंधा प्यार से दबा कर अपनी सीट पर चली गई.

रंजना ने बिना इजाजत अपने सहयोगियों को पार्टी देने का फैसला किया है, इस खबर को सुन कर उस की सास गुस्से से फट पड़ीं, ‘‘हम से पूछे बिना ऐसा फैसला करने का तुम्हें कोई हक नहीं है, बहू. अगर यहां के कायदेकानून से नहीं चलना है, तो अपना अलग रहने का बंदोबस्त कर लो.’’

‘‘मम्मी, वे सब बुरी तरह पीछे पड़े थे. आप को बहुत बुरा लग रहा है, तो मैं फोन कर के सब को पार्टी कैंसल करने की खबर कर दूंगी,’’ शांत भाव से जवाब दे कर रंजना उन के सामने से हट कर रसोई में काम करने चली गई.

उस की सास ने उसे भलाबुरा कहना जारी रखा तो उन की बेटी महक ने उन्हें डांट दिया, ‘‘मम्मी, जब भाभी अपनी मनमरजी करने पर तुली हुई हैं, तो तुम बेकार में शोर मचा कर अपना और हम सब का दिमाग क्यों खराब कर रही हो? तुम यहां उन्हें डांट रही हो और उधर वे रसोई में गाना गुनगुना रही हैं. अपनी बेइज्जती कराने में तुम्हें क्या मजा आ रहा है?’’

अपनी बेटी की ऐसी गुस्सा बढ़ाने वाली बात सुन कर रंजना की सास का पारा और ज्यादा चढ़ गया और वे देर तक उस के खिलाफ बड़बड़ाती रहीं.

रंजना ने एक भी शब्द मुंह से नहीं निकाला. अपना काम समाप्त कर उस ने खाना मेज पर लगा दिया.

‘‘खाना तैयार है,’’ उस की ऊंची आवाज सुन कर सब डाइनिंगटेबल पर आ तो गए, पर उन के चेहरों पर नाराजगी के भाव साफ नजर आ रहे थे.

रंजना ने उस दिन एक फुलका ज्यादा खाया. उस के ससुरजी ने टैंशन खत्म करने के इरादे से हलकाफुलका वार्त्तालाप शुरू करने की कोशिश की तो उन की पत्नी ने उन्हें घूर कर चुप करा दिया.

रंजना की खामोशी ने झगड़े को बढ़ने नहीं दिया. उस की सास को अगर जरा सा मौका मिल जाता तो वे यकीनन भारी क्लेश जरूर करतीं.

महक की कड़वी बातों का जवाब उस ने हर बार मुसकराते हुए मीठी आवाज में दिया. शयनकक्ष में मोहित ने भी अपनी नाराजगी जाहिर की, ‘‘किसी और की न सही पर तुम्हें कोई भी फैसला करने से पहले मेरी इजाजत तो लेनी ही चाहिए थी. मैं कल तुम्हारे साथ पार्टी में शामिल नहीं होऊंगा.’’

‘‘तुम्हारी जैसी मरजी,’’ रंजना ने शरारती मुसकान होंठों पर सजा कर जवाब दिया और फिर एक चुंबन उस के गाल पर अंकित कर बाथरूम में घुस गई.

रात ठीक 12 बजे रंजना के मोबाइल के अलार्म से दोनों की नींद टूट गई.

‘‘यह अलार्म क्यों बज रहा है?’’ मोहित ने नाराजगी भरे स्वर में पूछा.

‘‘हैपी मैरिज ऐनिवर्सरी, स्वीट हार्ट,’’ उस के कान के पर होंठों ले जा कर रंजना ने रोमांटिक स्वर में अपने जीवनसाथी को शुभकामनाएं दीं.

रंजना के बदन से उठ रही सुगंध और महकती सांसों की गरमाहट ने चंद मिनटों में जादू सा असर किया और फिर अपनी नाराजगी भुला कर मोहित ने उसे अपनी बांहों के मजबूत बंधन में कैद कर लिया.

रंजना ने उसे ऐसे मस्त अंदाज में जी भर कर प्यार किया कि पूरी तरह से तृप्त नजर आ रहे मोहित को कहना ही पड़ा, ‘‘आज के लिए एक बेहतरीन तोहफा देने के लिए शुक्रिया, जानेमन.’’

‘‘आज चलोगे न मेरे साथ?’’ रंजना ने प्यार भरे स्वर में पूछा.

‘‘पार्टी में? मोहित ने सारा लाड़प्यार भुला कर माथे में बल डाल लिए.’’

‘‘मैं पार्क में जाने की बात कर रही हूं, जी.’’

‘‘वहां तो मैं जरूर चलूंगा.’’

‘‘आप कितने अच्छे हो,’’ रंजना ने उस से चिपक कर बड़े संतोष भरे अंदाज में आंखें मूंद लीं. रंजना सुबह 6 बजे उठ कर बड़े मन से तैयार हुई. आंखें खुलते ही मोहित ने उसे सजधज कर तैयार देखा तो उस का चेहरा खुशी से खिल उठा.

‘‘यू आर वैरी ब्यूटीफुल,’’ अपने जीवनसाथी के मुंह से ऐसी तारीफ सुन कर रंजना का मन खुशी से नाच उठा.

खुद को मस्ती के मूड में आ रहे मोहित की पकड़ से बचाते हुए रंजना हंसती हुई कमरे से बाहर निकल गई.

उस ने पहले किचन में जा कर सब के लिए चाय बनाई, फिर अपने सासससुर के कमरे में गई और दोनों के पैर छू कर आशीर्वाद लिया.

चाय का कप हाथ में पकड़ते हुए उस की सास ने चिढ़े से लहजे में पूछा, ‘‘क्या सुबहसुबह मायके जा रही हो, बहू?’’

‘‘हम तो पार्क जा रहे हैं मम्मी,’’ रंजना ने बड़ी मीठी आवाज में जवाब दिया.

सास के बोलने से पहले ही उस के ससुरजी बोल पड़े, ‘‘बिलकुल जाओ, बहू. सुबहसुबह घूमना अच्छा रहता है.’’

‘‘हम जाएं, मम्मी?’’

‘‘किसी काम को करने से पहले तुम ने मेरी इजाजत कब से लेनी शुरू कर दी, बहू?’’ सास नाराजगी जाहिर करने का यह मौका भी नहीं चूकीं.

‘‘आप नाराज न हुआ करो मुझ से, मम्मी. हम जल्दी लौट आएंगे,’’ किसी किशोरी की तरह रंजना अपनी सास के गले लगी और फिर प्रसन्न अंदाज में मुसकराती हुई अपने कमरे की तरफ चली गई.

वह मोहित के साथ पार्क गई जहां दोनों के बहुत से साथी सुबह का मजा ले रहे थे. फिर उस की फरमाइश पर मोहित ने उसे गोकुल हलवाई के यहां आलूकचौड़ी का नाश्ता कराया. दोनों की वापसी करीब 2 घंटे बाद हुई. सब के लिए वे आलूकचौड़ी का नाश्ता पैक करा लाए थे. लेकिन यह बात उस की सास और ननद की नाराजगी खत्म कराने में असफल रही थी. दोनों रंजना से सीधे मुंह बात नहीं कर रही थीं. ससुरजी की आंखों में भी कोई चिंता के भाव साफ पढ़ सकता था. उन्हें अपनी पत्नी और बेटी का व्यवहार जरा भी पसंद नहीं आ रहा था, पर चुप रहना उन की मजबूरी थी. वे अगर रंजना के पक्ष में 1 शब्द भी बोलते, तो मांबेटी दोनों हाथ धो कर उन के पीछे पड़ जातीं.

सजीधजी रंजना अपनी मस्ती में दोपहर का भोजन तैयार करने के लिए रसोई में चली आई. महक ने उसे कपड़े बदल आने की सलाह दी तो उस ने इतराते हुए जवाब दिया, ‘‘दीदी, आज तुम्हारे भैया ने मेरी सुंदरता की इतनी ज्यादा तारीफ की है कि अब तो मैं ये कपड़े रात को ही बदलूंगी.’’

‘‘कीमती साड़ी पर दागधब्बे लग जाने की चिंता नहीं है क्या तुम्हें?’’

‘‘ऐसी छोटीमोटी बातों की फिक्र करना अब छोड़ दिया है मैं ने, दीदी.’’

‘‘मेरी समझ से कोई बुद्धिहीन इनसान ही अपना नुकसान होने की चिंता नहीं करता है,’’ महक ने चिढ़ कर व्यंग्य किया.

‘‘मैं बुद्धिहीन तो नहीं पर तुम्हारे भैया के प्रेम में पागल जरूर हूं,’’ हंसती हुई रंजना ने अचानक महक को गले से लगा लिया तो वह भी मुसकराने को मजबूर हो गई.

रंजना ने कड़ाही पनीर की सब्जी बाजार से मंगवाई और बाकी सारा खाना घर पर तैयार किया.

‘‘आजकल की लड़कियों को फुजूलखर्ची की बहुत आदत होती है. जो लोग खराब वक्त के लिए पैसा जोड़ कर नहीं रखते हैं, उन्हें एक दिन पछताना पड़ता है, बहू,’’ अपनी सास की ऐसी सलाहों का जवाब रंजना मुसकराते हुए उन की हां में हां मिला कर देती रही.

उस दिन उपहार में रंजना को साड़ी और मोहित को कमीज मिली. बदले में उन्होंने महक को उस का मनपसंद सैंट, सास को साड़ी और ससुरजी को स्वैटर भेंट किया. उपहारों की अदलाबदली से घर का माहौल काफी खुशनुमा हो गया था. यह सब को पता था कि सागर रत्ना में औफिस वालों की पार्टी का समय रात 8 बजे का है. जब 6 बजे के करीब मोहित ड्राइंगरूम में पहुंचा तो उस ने अपने परिवार वालों का मूड एक बार फिर से खराब पाया.

‘‘तुम्हें पार्टी में जाना है तो हमारी इजाजत के बगैर जाओ,’’ उस की मां ने उस पर नजर पड़ते ही कठोर लहजे में अपना फैसला सुना दिया.

‘‘आज के दिन क्या हम सब का इकट्ठे घूमने जाना अच्छा नहीं रहता, भैया?’’ महक ने चुभते लहजे में पूछा.

‘‘रंजना ने पार्टी में जाने से इनकार कर दिया है,’’ मोहित के इस जवाब को सुन वे तीनों ही चौंक पड़े.

‘‘क्यों नहीं जाना चाहती है बहू पार्टी में?’’ उस के पिता ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘उस की जिद है कि अगर आप तीनों साथ नहीं चलोगे तो वह भी नहीं जाएगी.’’

‘‘आजकल ड्रामा करना बड़ी अच्छी तरह से आ गया है उसे,’’ मम्मी ने बुरा सा मुंह बना कर टिप्पणी की.

मोहित आंखें मूंद कर चुप बैठ गया. वे तीनों बहस में उलझ गए.

‘‘हमें बहू की बेइज्जती कराने का कोई अधिकार नहीं है. तुम दोनों साथ चलने के लिए फटाफट तैयार हो जाओ वरना मैं इस घर में खाना खाना छोड़ दूंगा,’’ ससुरजी की इस धमकी के बाद ही मांबेटी तैयार होने के लिए उठीं.

सभी लोग सही वक्त पर सागर रत्ना पहुंच गए. रंजना के सहयोगियों का स्वागत सभी ने मिलजुल कर किया. पूरे परिवार को यों साथसाथ हंसतेमुसकराते देख कर मेहमान मन ही मन हैरान हो उठे थे.

‘‘कैसे राजी कर लिया तुम ने इन सभी को पार्टी में शामिल होने के लिए?’’ संगीता मैडम ने एकांत में रंजना से अपनी उत्सुकता शांत करने को आखिर पूछ ही लिया. रंजना की आंखों में शरारती मुसकान की चमक उभरी और फिर उस ने धीमे स्वर में जवाब दिया, ‘‘दीदी, मैं आज आप को पिछले 1 साल में अपने अंदर आए बदलाव के बारे में बताती हूं. शादी की पहली सालगिरह के दिन मैं अपनी ससुराल वालों के रूखे व कठोर व्यवहार के कारण बहुत रोई थी, यह बात तो आप भी अच्छी तरह जानती हैं.’’

‘‘उस रात को पलंग पर लेटने के बाद एक बड़ी खास बात मेरी पकड़ में आई थी. मुझे आंसू बहाते देख कर उस दिन कोई मुसकरा तो नहीं रहा था, पर मुझे दुखी और परेशान देख कर मेरी सास और ननद की आंखों में अजीब सी संतुष्टि के भाव कोई भी पढ़ सकता था.

‘‘तब मेरी समझ में यह बात पहली बार आई कि किसी को रुला कर व घर में खास खुशी के मौकों पर क्लेश कर के भी कुछ लोग मन ही मन अच्छा महसूस करते हैं. इस समझ ने मुझे जबरदस्त झटका लगाया और मैं ने उसी रात फैसला कर लिया कि मैं ऐसे लोगों के हाथ की कठपुतली बन अपनी खुशियों व मन की शांति को भविष्य में कभी नष्ट नहीं होने दूंगी.

‘‘खुद से जुड़े लोगों को अब मैं ने 2 श्रेणियों में बांट रखा है. कुछ मुझे प्रसन्न और सुखी देख कर खुश होते हैं, तो कुछ नहीं. दूसरी श्रेणी के लोग मेरा कितना भी अहित करने की कोशिश करें, मैं अब उन से बिलकुल नहीं उलझती हूं.

‘‘औफिस में रितु मुझे जलाने की कितनी भी कोशिश करे, मैं बुरा नहीं मानती. ऐसे ही सुरेंद्र सर की डांट खत्म होते ही मुसकराने लगती हूं.’’

‘‘घर में मेरी सास और ननद अब मुझे गुस्सा दिलाने या रुलाने में सफल नहीं हो पातीं. मोहित से रूठ कर कईकई दिनों तक न बोलना अब अतीत की बात हो गई है.

‘‘जहां मैं पहले आंसू बहाती थी, वहीं अब मुसकराते रहने की कला में पारंगत हो गई हूं. अपनी खुशियों और मन की सुखशांति को अब मैं ने किसी के हाथों गिरवी नहीं रखा हुआ है.

‘‘जो मेरा अहित चाहते हैं, वे मुझे देख कर किलसते हैं और मेरे कुछ किए बिना ही हिसाब बराबर हो जाता है. जो मेरे शुभचिंतक हैं, मेरी खुशी उन की खुशियां बढ़ाने में सहायक होती हैं और यह सब के लिए अच्छा ही है.

‘‘अपने दोनों हाथों में लड्डू लिए मैं खुशी और मस्ती के साथ जी रही हूं, दीदी. मैं ने एक बात और भी नोट की है. मैं खुश रहती हूं तो मुझे नापसंद करने वालों के खुश होने की संभावना भी ज्यादा हो जाती है. मेरी सास और ननद की यहां उपस्थिति इसी कारण है और उन दोनों की मौजूदगी मेरी खुशी को निश्चित रूप से बढ़ा रही है.’’ संगीता मैडम ने प्यार से उस का माथा चूमा और फिर भावुक स्वर में बोलीं, ‘‘तुम सचमुच बहुत समझदार हो गई हो, रंजना. मेरी तो यही कामना है कि तुम जैसी बहू मुझे भी मिले.’’

‘‘आज के दिन इस से बढिया कौंप्लीमैंट मुझे शायद ही मिले, दीदी. थैंक्यू वैरी मच,’’ भावविभोर हो रंजना उन के गले लग गई. उस की आंखों से छलकने वाले आंसू खुशी के थे.

मां: क्या बच्चों के लिए ममता का सुख जान पाई गुड्डी

story in hindi

Diwali Special: अंतस के दीप- दीवाली में कैसे बदली पूजा और रागिनी की जिंदगी

‘‘अरे रागिनी, 2 बज गए, घर नहीं चलना क्या? 5 बजे वापस भी तो आना है स्पैशल ड्यूटी के लिए.’’ सहकर्मी नेहा की आवाज से रागिनी की तंद्रा टूटी. दीवाली पर स्पैशल ड्यूटी लगने का औफिस और्डर हाथ में दबाए रागिनी पिछली दीवाली की काली रात के अंधेरों में भटक रही थी जो उस के मन के भीतर के अंधेरे को और भी गहरा कर रहे थे. नफरत का एक काला साया उस के भीतर पसर गया जो देखते ही देखते त्योहार की सारी खुशी, सारा उत्साह लील गया. रागिनी बुझे मन से नेहा के साथ चैंबर से बाहर निकल आई.

ऐसा नहीं है कि उसे रोशनी से नफरत है. एक वक्त था जब उसे भी दीपों का यह त्योहार बेहद पसंद था. घर में सब से छोटी और लाड़ली रागिनी नवरात्र शुरू होने के साथ ही मां के साथ दीवाली की तैयारियों में जुट जाती थी. सारे घर में साफसफाई करना, पुराना कबाड़, सालभर से इस्तेमाल नहीं हुआ सामान, छोटे पड़ चुके कपड़े और रद्दी आदि की छंटाई करना व उस के बाद घर की सजावट का नया सामान खरीदना उस का शौक था. इन सारे कामों में तुलसीबाई और पूजा भी उस का हाथ बंटाती थीं और सारा काम मजेमजे में हो जाता था.

दीवाली के सफाई प्रोजैक्ट में कई बार स्टोर में से पुराने खिलौने और कपड़े ?निकलते थे जिन्हें रागिनी और पूजा पहनपहन कर देखतीं व मां को दिखातीं, कभी टूटे हुए खिलौनों से खेल कर बीते हुए दिनों को फिर से जीतीं…मां कभी खीझतीं, कभी मुसकरातीं. कुल मिला कर हंसीखुशी के साथ घर में दीवाली के स्वागत की तैयारियां की जाती थीं.

पूजा उन की घरेलू सहायिका तुलसीबाई की एकलौती बेटी थी और दोनों मांबेटी उन के घर में ही छत पर बने छोटे से कमरे में रहती थीं. पूजा के पिता की जहरीली शराब पीने से मौत हो गई थी. पति की मृत्यु के बाद जवान विधवा तुलसीबाई पर उन की झुग्गी बस्ती का हर पुरुष बुरी नजर रखने लगा तो उस ने रागिनी की मां शीला से उन के घर में रहने की इजाजत मांगी. शीला को वैसे भी एक फुलटाइम सहायक की जरूरत थी, सो, उन्होंने खुशीखुशी हामी भर दी. तब से इस पूरी दुनिया में रागिनी का परिवार ही उन का अपना था. पूजा रागिनी से लगभग 10 वर्ष छोटी थी. खूबसूरत गोलमटोल पूजा उसे गुडि़या सी लगती थी और गुडि़या की तरह ही सजाती, उस के बाल बनाती और उस के साथ खेला करती थी.

समय के साथ दोनों लड़कियां बड़ी हो रही थीं. रागिनी ने इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में बीटैक की डिगरी ली और एक कंपीटिशन एग्जाम पास कर बिजली विभाग की राजकीय सेवा में आ गई. रागिनी को पहली पोस्ंिटग जैसलमेर के पास एक छोटे से कसबे फलौदी में मिली. रागिनी के मम्मीपापा उसे अपने शहर जोधपुर से इतनी दूर अकेली भेजने में संकोच कर रहे थे. तभी तुलसीबाई ने उन की मुश्किल यह कह कर आसान कर दी कि दीदी, बुरा न मानें तो छोटे मुंह बड़ी बात कहूं? आप पूजा को रागिनी बेबी के साथ भेज दीजिए. यह उन का छोटामोटा काम कर देगी, दोनों का मन भी लगा रहेगा और आप बेफिक्र भी हो जाएंगी.

हालांकि यह खयाल शीला के दिल में भी आया था मगर वह यह सोच कर चुप रह गई कि पराई बेटी की सौ जिम्मेदारियां होती हैं, कल को कोई ऊंचनीच हो गई तो क्या जवाब दूंगी तुलसी को?

और फिर रागिनी जब अपने पूरे परिवार यानी मम्मीपापा, तुलसीबाई और पूजा के साथ अपनी नौकरी जौइन करने आई तो सब को एकसाथ देख कर रागिनी के अधिकारी मुसकरा उठे. 4 दिन रैस्टहाउस में रह कर स्टाफ की मदद से औफिस के पास ही 2 कमरों का एक छोटा सा फ्लैट किराए पर ले कर रागिनी और पूजा को वहां शिफ्ट कर दिया गया. अब मम्मीपापा रागिनी की तरफ से पूरी तरह बेफिक्र थे.

रागिनी की फील्ड की जौब थी. अकसर उसे साइट्स पर दूरदूर जाना पड़ता था. कई बार तो वापसी में रात भी हो जाती थी. मगर उस के अधिकारी और स्टाफ सभी अच्छे स्वभाव के थे, इसलिए उसे कोई परेशानी नहीं होती थी. घर आते ही पूजा गरमागरम खाना बना कर उस के इंतजार में बैठी मिलती. दोनों साथसाथ खाना खातीं, रागिनी दिनभर का हाल पूजा को सुनाती, उसे दिनभर में मिलने वाले तरहतरह के लोगों के बारे में बताती और दोनों खूब हंसतीं. कुल मिला कर सबकुछ ठीकठाक चल रहा था.

4 महीने बाद रागिनी का खास त्योहार दीवाली आया. वह त्योहार पर अपने घर नहीं जा सकती थी. जिस तरह पुलिस वालों की होली पर और पोस्टमैन की रक्षाबंधन पर स्पैशल ड्यूटी लगती है उसी तरह बिजली विभाग के इंजीनियर्स की दीवाली पर स्पैशल ड्यूटी लगाई जाती है, ताकि बिजली की व्यवस्था सुचारु बनी रहे और लोग बिना व्यवधान के यह त्योहार मना सकें.

रागिनी की धनतेरस से दीवाली तक 3 दिन शाम 5 बजे से रात 12 बजे तक स्पैशल ड्यूटी लगाई गई. पहले 2 दिनों की ड्यूटी आराम से निबट गई. रागिनी की असली परीक्षा तो आज यानी दीवाली के मुख्य त्योहार के दिन ही होनी थी. वह तय समय पर अपने सबस्टेशन पहुंच गई. शाम लगभग 7 बजे फीडरों पर बिजली का लोड बढ़ने लगा. 8 बजे तक लोड स्थिर हो गया और इस बीच किसी तरह की कोई ट्रिपिंग भी नहीं आई यानी सबकुछ सामान्य था.

‘अब लोड और नहीं बढ़ेगा, मुझे एरिया का एक राउंड ले लेना चाहिए,’ यह सोचते हुए रागिनी गाड़ी ले कर राउंड पर निकली. अपनी गली के पास से गुजरते हुए अचानक पूजा का खयाल आ गया तो सोचा, ‘आ ही गई हूं तो घर में दीयाबाती करती चलूं वरना पूजा रात 12 बजे तक घर में अंधेरा किए बैठी रहेगी.’

उसे देखते ही पूजा खुश हो गई. पहली बार दोनों ने घर में दीये जलाए और थोड़ा सा कुछ खा कर रागिनी फिर से निकल पड़ी अपनी ड्यूटी पर.

अब बस, इसी तरह का शेड्यूल बन गया था हर दीवाली पर रागिनी 5 बजे ड्यूटी पर जाती और 8 बजे फिर से ड्यूटी पर चली जाती, फिर दीवाली के दूसरे दिन सप्ताहभर की छुट्टी ले कर दोनों बहनें मम्मीपापा के पास जोधपुर चली जातीं त्योहार मनाने और सालभर की थकान उतारने…

पिछले 3 सालों में काफीकुछ बदल गया था रागिनी और पूजा की लाइफ में. 2 साल पहले अचानक हार्टअटैक से तुलसीबाई की मृत्यु हो गई. पूजा अनाथ हो गई. रागिनी के मम्मीपापा ने उसे विधिवत गोद ले कर अपनी बेटी बना लिया. रागिनी तो उसे हमेशा से ही अपनी छोटी बहन सा प्यार करती थी, अब इस रिश्ते पर सामाजिक मुहर भी लग गई.

सालभर पहले रागिनी की शादी विवेक से हो गई. विवेक भी उसी की तरह विद्युत विभाग में अधिकारी था. उस की पोस्टिंग जैसलमेर में थी. शादी के बाद यह उन की पहली दीवाली थी. मगर हमेशा की तरह दोनों की ही ड्यूटी अपनेअपने सबस्टेशन पर लगी थी. इसलिए दोनों को ही अपनी पहली दीवाली साथ नहीं मना पाने का दुख था. दीवाली के अगले दिन रागिनी विवेक के पास जैसलमेर और पूजा मांपापा के पास जोधपुर चली गई. पहली बार दोनों बहनें अलगअलग बसों में सवार हो कर गई थीं.

रागिनी और उस के घर वाले सभी अब चाह रहे थे कि विवेक और उस का ट्रांसफर एक ही जगह हो जाए तो वे रागिनी की चिंता से मुक्त हो कर पूजा की शादी के बारे में सोचें. दोनों परिवारों ने बहुत कोशिश की, कई नेताओं की सिफारिश लगवाई, सरकारी नियमों का हवाला दिया और लगभग सालभर की मेहनत के बाद आखिरकार रागिनी का ट्रांसफर फलौदी से जैसलमेर हो गया. रागिनी बहुत खुश थी. अब उसे विवेक की जुदाई नहीं सहनी पड़ेगी. अब उस का परिवार पूरा हो सकेगा और पूजा की भी शादी हो जाएगी. कई तरह के सपने देखने लगी थी रागिनी.

ट्रांसफर के बाद पूजा भी रागिनी के साथ जैसलमेर आ गई. यहां विवेक को बड़ा सा सरकारी क्वार्टर मिला हुआ था. एक सहायक भी था घर के काम में मदद करने के लिए, मगर वह सिर्फ बाहर के काम ही देखता था. घर के अंदर की सारी व्यवस्था पूजा ने संभाल ली थी.

अब रागिनी यही कोशिश करती थी कि उसे देर तक घर से बाहर न रहना पड़े. वह औफिस से जल्दी घर आ कर ज्यादा से ज्यादा टाइम विवेक के साथ बिताना चाहती थी. अकसर दोनों शाम को घूमने निकल जाते थे और देररात को लौटते थे. मगर चाहे कितनी भी देर हो जाए, रात का खाना वे पूजा के साथ ही खाते थे. छुट्टी के दिन रागिनी पूजा को भी अपने साथ ले कर जाती थी. कभी पटवों की हवेली, कभी सोनार किला, कभी गढ़ीसर लेक और कभी सम के धोरों पर. तीनों खूब मस्ती करते थे. पूजा भी अधिकार से विवेक को जीजूजीजू कह कर उस से मजाक करती रहती थी. पूरा घर तीनों की हंसी से गुलजार रहता था.

देखते ही देखते फिर से दीवाली आ गई. इस बार रागिनी पूरे उल्लास से यह त्योहार मनाने वाली थी. हमेशा की तरह दोनों बहनों ने मिल कर घर की साफसफाई की, कई तरह के नए सजावटी सामान खरीद कर घर को सजाया. 2 दिन पहले दोनों ने मिल कर कई तरह की मिठाइयां व नमकीन बनाईं. नए कपड़े खरीदे गए. पूरे घर पर रंगीन रोशनी की झालरें लगाई गईं. घर के मुख्यद्वार पर इस बार पूजा ने सुंदर सी रंगोली भी बनाई थी.

हमेशा की तरह शाम 5 बजे रागिनी अपनी ड्यूटी पर निकल गई और विवेक अपनी पर. धनतेरस और छोटी दीवाली बिना किसी अड़ंगे के निकल गई. आज दीवाली का मुख्य त्योहार था. रागिनी विवेक को सरप्राइज देना चाहती थी. वह लगभग 8 बजे औफिस से निकली और सीधे मार्केट गई. ज्वैलरी के शोरूम से विवेक के लिए सोने की चेन ली जो उस ने धनतेरस पर बुक करवाई थी और घर की तरफ गाड़ी घुमा ली.

घर पहुंचने से पहले ही न जाने क्यों किसी अनहोनी की आशंका से उस का दिल बैठने लगा. घर के बाहर शगुन का एक भी दीया नहीं जलाया था आज पूजा ने. घर का दरवाजा भी अंदर से बंद है. दीवाली के दिन तो पूजा घर का दरवाजा एक मिनट के लिए भी बंद नहीं करने देती थी. कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया…घबराई हुई रागिनी जोरजोर से दरवाजा पीटने लगी. दरवाजा कुछ देर में खुला. खुलते ही पूजा रोती हुई रागिनी से लिपट गई.

पूजा के आंसू और विवेक का हड़बड़ाहट में अपनी पैंट पहनते हुए घर से बाहर निकलना, वहां हुए हादसे को बयान करने के लिए काफी था. पत्थर हो गई रागिनी. उस ने तुरंत पूजा का हाथ थामा और निकल गई घर से. रात दोनों ने रोतेरोते विभाग के गैस्टहाउस में बिताई और सुबह होते ही दोनों जोधपुर के लिए निकल गईं.

पीछेपीछे विवेक भी आया था माफी मांगने, मगर रागिनी को अब ऐसे व्यक्ति का साथ कतई स्वीकार नहीं था जिस ने अपनी बहन जैसी साली पर बुरी नियत रखी. मम्मीपापा ने भी उस का ही साथ दिया और दोनों का रिश्ता बनने से पहले ही टूट गया.

आज उसे विशाल बहुत याद आ रहा था जो कालेज के समय से ही उसे बेहद पसंद करता था, उस से शादी करना चाहता था. धर्म के ठेकेदारों के हिसाब से वह छोटी जाति का था, इसलिए रागिनी की हिम्मत नहीं हुई थी उस का जिक्र अपने मम्मीपापा के सामने करने की. हां, पूजा जरूर सबकुछ जानती थी, विवेक से रिश्ता जुड़ने के बाद रागिनी अपने अनकहे प्यार को दिल के एक कोने में दफन कर के सिर्फ विवेक की हो कर रह गई थी.

एक ही विभाग और एक ही शहर होने के कारण रागिनी का विवेक से सामना होना लाजिमी था. उस ने फिर से कोशिश कर के अपना ट्रांसफर फलौदी करवा लिया. पूजा ने सारा कुसूर अपना मानते हुए कभी शादी न करने का रागिनी के साथ रहने की जिद पकड़ ली. मगर रागिनी नहीं चाहती थी कि उस की बहन की जिंदगी बरबाद हो. पिछले दिनों ही एक अच्छा सा लड़का देख मांपापा ने पूजा की शादी करवा दी.

इस दीवाली रागिनी बिलकुल अकेली थी. तन से भी और मन से भी…आज दीवाली का मुख्य त्योहार है. वह बुझे मन से अपनी ड्यूटी कर रही थी. हर बार की तरह आज भी रात 8 बजे वह एरिया के राउंड पर निकली तो अभ्यस्त सी गाड़ी खुदबखुद घर की तरफ मुड़ गई. यह क्या? घर के बाहर दीये किस ने जला दिए. घर का दरवाजा भी खुला हुआ था. दरवाजे पर खड़ी रागिनी पसोपेश में थी, तभी किसी ने पीछे से आ कर उसे बाहों में भर लिया, ‘‘दीवाली मुबारक हो, दीदी.’’

‘‘अरे, पूजा, तुम यहां? आने की खबर तो दी होती. मैं स्टेशन पर गाड़ी भेज देती.’’

‘‘तब यह खुशी कहां देखने को मिलती हमें, दीदी जो अभी आप के चेहरे पर दिखी है,’’ पूजा ने उस का चेहरा अपनी हथेलियों में थामते हुए कहा. पूजा के पति ने झुक कर रागिनी के पांव छू लिए.

‘‘और हां, हम सब ने तय किया है कि अब से आने वाली हर दीवाली हम सब साथसाथ मनाएंगे हमेशा की तरह, पूजा फिर से अपनी बहन से लिपट गई.’’

‘‘अरे भई, और भी बहुत से लोग आए हैं.’’ पीछे से मांपापा की आवाज आई तो रागिनी ने मुड़ कर देखा. मां के पीछे खड़ा विशाल शरारत से मुसकरा रहा था. मां ने रागिनी का हाथ विशाल के हाथ में थमाते हुए कहा, ‘‘हमें पूजा ने सबकुछ बता दिया है. तुम दोनों को दीवाली बहुतबहुत मुबारक हो.’’ यह सुन कर रागिनी की पलकें शर्म से झुक गईं.

घरों की मुंडेरों और छज्जों पर जगमगाते दीपकों के साथ रागिनी के भीतर भी खुशी की लौ झिलमिलाने लगी.

‘‘चलो, चलो, जल्दी से खाना लगा लें, फिर आतिशबाजी करेंगे. दीदी को वापस ड्यूटी पर भी तो जाना है,’’ पूजा ने कहा तो सब मुसकरा उठे. रागिनी मां के कंधे पर सिर टिकाए घर के भीतर चल दी. सब से पीछे चल रहे पापा ने सब की नजर बचा कर अपने आंसू पोंछ लिए.

नशा: क्या रेखा अपना जीवन संवार पाई

family story in hindi

यह कैसा प्रेम- भाग 1 : आलिया से क्यों प्यार करता था वह

वह मुझ से प्रेम करती थी, अगाध प्रेम. जैसा एक स्त्री एक पुरुष से करती है. और हम दोनों ही जानेअनजाने पगलाए रहते हैं. प्रेम में डूबे रहते हैं. सुधबुध सब खो बैठते हैं. दुनियाजहान से अलग कर लेते हैं. बिलकुल वैसा ही प्रेम वह मुझ से करती थी. उस के प्रेम में लेशमात्र भी बनावटीपन न था. न दिखावा, न आग्रह, न संकोच. बस, कभीकभार रूठ जाया करती उतनी देर, जब तक मैं जीभर लाड़मनुहार कर उसे मना न लूं. उस के बाद तो उस का प्रेम और परवान चढ़ जाया करता. जैसे कोई लता वृक्ष की आगोश में समा जाती है, बिलकुल वैसे ही उस की भावनाएं मुझ में समा जातीं.

वह खुद को मुझ में तलाशती और जब पा लेती तो चहक उठती. न पाने पर उदास हो जाती, यह सोचती कि मुझे उस की परवा नहीं.

मैं सब समझती रही और आनंद से अंतस को भिगोती रही. धीरेधीरे उस का मुझ में इस कदर आसक्त होना मुझे अच्छा लगने लगा था. उस की कमी खलने लगी थी. उस से मिलने को, बातें करने को मन करता और फिर फोन पर आवाज सुनते ही चंद मिनटों मे ही मन खिल जाता, ऐसा सब से पहले उस ने ही मुझे बताया था. उस के बाद मुझे भी वही लगने लगा.

धीरेधीरे ही सही, प्रगाढ़ता बढ़ती गई. इस प्रगाढ़ता का समय के साथ सुद्रढ़ हो जाना उसी तरह था जैसा दो लताओं का परस्पर आपस में एक हो जाना और जीवनपर्यंत उसी तरह से समाहित रहना. जलजला, विशालकाय वृक्षों को जड़ से उखाड़ फेंकता है, मगर लिपटी हुई लताओं को छू भी नहीं पाता.

भले ही आधुनिक युग में युवावर्ग कुछ तंग शब्द ले कर आया हो जिस में से लैसबियन जैसे शब्द हैं, जो प्रेम को अलग ही तरह से मापते हैं, जबकि उस समय इन शब्दों की, इन के मानों की कोई जगह न थी. दो व्यक्तियों का आत्मसात होना शुद्ध प्रेम का सूचक होता था.

वह हमेशा मुझे मरमिटने वाली शेरोशायरी से भरे खत लिखती. उन में उस की दिनचर्या का ब्योरा होता, जो उस की भीतरी विकलताओं की हलचल समेटे होता.  कुछ सवाल होते जो रोज ही पूछे जाते थे और फिर जवाब का इंतजार भी उसी शिद्दत से करती जैसे व्याकुलता की पोटली बगल में दबाए बैठी हो. मैं ने भी उस के सौम्य प्रेम को बड़े आदर से लिया और यह जताया भी कि मैं भी उस की परवा करती हूं, उसे याद करती हूं. नितांत शांत दिखने वाला मेरा व्यक्तित्व उस की उपेक्षा करने में असमर्थ था. मगर हां, मैं खत लिखने में थोड़ी ढीली जरूर थी. इस की शिकायत करने से वह कभी नहीं चूकती थी. तब मेरे मन के स्वर्णपुष्प कुम्हलाने लगते. मुझे एहसास होता कि अगर रोपे गए पौधे को खादपानी न दिया जाए तो वे मुरझा कर पीले पड़ जाते हैं और एक दिन टहनी से अलग हो कर झड़ जाते हैं.

फोन पर बात करना और खतों को पढ़ने का मिठैला एहसास,  इन दोनों ही चीजों का फर्क हम दोनों ही बखूबी समझते थे.

न जाने क्यों अपनी तारीफ सुन कर चहकने, इतराने के बजाय वह खामोशी अख्तियार कर लेती. बावजूद इस के, उस के खतों में ज्यादातर मेरी तारीफों के कसीदे गढ़े होते और यह भी ‘अगर ऐसा हो जाए तो कैसा रहे? वैसा हो जाए तो कैसा रहे?’ हम साथसाथ रहें?’  फिर वह संजीदा हो कर कह उठती- ‘बस, तुम दूर जाने की बात न किया करो, दी.’

दी, शब्द में एक अलग सा ठहराव होता है. एक ऐसा एहसास जो मुझ जैसी अंतर्मुखी, स्वभाव में सिमटी, तथाकथित दुर्लभ वस्तु की तरह मैं के लिए बड़ा ही खास था.

उस रोज़ लिखतेलिखते उस की याद काले, घटाघोर मेघों की तरह उमड़ पड़ी. तब मैं इतनी भावविभोर हो उठी कि मुझ से रहा न गया. आओ चलें प्रेमांजलिभर बगीचे की सैर कर लो, ह्रदय का आदेश था और  मैं ने तुरंत लैंडलाइन से फोन मिला लिया.

तब काले और बड़े वाले फोन हुआ करते थे जो अपनी जगह पर स्थाई रहा करते थे और एक जगह रखे रहते थे. उन्हें लगवाने के लिए लंबीलंबी तारें खिंचवाई जाती थीं. उस वक्त मोबाइल, इंटरनैट जैसी सुविधाएं थीं ही नहीं. फोन भी सीधे मिलाना संभव न था. पहले दूरसंचार विभाग को फोन मिलाओ, उसे  बताओ कौन सा नंबर चाहिए? फिर वह नंबर मिला कर देता था. तब जा कर बात हो पाती थी. उस पर भी एक भय, विभाग कर्मचारी उन की बातचीत को सुन न ले. शायद वह भी लाइन पर बन रहता था. ऐसा अनुमान था. फिर यह भी, वे लोग रोज हजारों फोन मिलाते होंगे, मुठठीभर कर्मचारी सब की बातें कहां तक और कब तक सुनेंगे?

जैसे ही मैं ने ‘हैलो’ कहा, उधर से मधुर आवाज कानों से टकराई. वह एक गीत गा रही थी जिस ने मेरे दिल को गहरे तक छू लिया. फिल्म ‘कभी-कभी’ का वह गीत आज भी मेरे जेहन में बिलकुल वैसा ही गूंजता है जैसा उस वक्त गूंजा था. गीत तो मुझे केंद्रित कर के गाया ही गया था, इस से ज्यादा महत्त्वपूर्ण था उस का डूब कर उस में विलीन हो जाना. वह गीत था- ‘दिल आने की बात है जब कोई लग जाए प्यारा, दिल पर किस का जोर है यारो, दिल के आगे हर कोई हारा…’ वह खो गई थी. वह चाहती थी मैं इसे सुनूं और जो वह कहना चाहती है, वह समझ सकूं. यह मजाक नहीं था. वह पहले हंसी, फिर अचानक भावुक हो कर रो पड़ी थी, अगले ही पल संभल गई और खूबसूरती से बात को भी संभाल लिया.

धीरेधीरे वह मुझ में शक्कर की तरह घुलती जा रही थी, जिस का पता मुझे बाद में लगा था.

मुझे नहीं पता था, यह गीत इतना सुंदर है. उस दिन के बाद से आज तक यह गीत मेरी प्रिय सूची में रहा है.

वह उम्र में मुझ से छोटी थी, इसलिए हमेशा कहती तो ‘दी’ थी मगर जान प्रेमियों जैसे दिया करती थी. शायद, वह मेरे लिए पहाड़ से भी कूद जाती. सवाल जो आज तक कौँधते हैं वे ये हैं कि क्यों करती थी वह इतना प्रेम एक स्त्री से? पुरुष से क्यों नहीं? उस ने मुझ में ऐसा क्या देखा होगा? क्या पाती है वह मुझ में? लेकिन फिर भी, मैं ने कभी उस से पूछा नहीं.

उस का नाम था आलिया. बेहद खूबसूरत और संजीदा किस्म की लड़की थी वह. यह बात मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि वह भावुक तो थी ही, ईमानदार भी थी, क्योंकि हमारी पहली मुलाकात का किस्सा इस बात का प्रमाण है. वह मुलाकात बेहद रोचक थी. मुझे लेखन का शौक था, इस के लिए मैं हमेशा एकांत और शांत जगह तलाशती थी जहां दूरदूर तक कोई न हो. भीड़भाड़ से कोसों दूर जहां, बस, पंक्षियों का कलरव हो, हवाओं का संगीत हो, जहां भावों को प्रकृति से जोड़ा जा सके, हरियाली से रस चुराया जा सके और अनुभूति स्पंदन कर सकें.

ऐसे में मैदानी इलाकों को छोड़, मैं अकसर छुट्टियां पहाड़ों पर बिताती. कईकई दिन अकेले रह कर जब वापस लौटती तब दिल में सुकून होता और कागज भरे हुए. उस वक्त आज की तरह लैपटौप या कंप्यूटर नहीं होते थे. इन भरे हुए कागजों में मेरी जान होती, मेरी अमानत होती जिन्हें बड़ा ही संभाल कर रखा जाता. कई उपन्यास, कहानी यों ही रची जाती रहीं.

बेशक शुरुआती दौर में वह मेरे लिए एक कहानी का मसाला भर थी, मगर वह विचार चंद दिन ही ठहर सका. उस के बाद तो हमारा रिश्ता एक फुलवारी की तरह महकने लगा था जिस में पूरा गुलशन समाया हुआ था. उस की बेपरवाह महक हमारे चाहने न चाहने की परवा किए बगैर हर समय हमारे इर्दगिर्द बनी रहती.

बात उन दिनों की है जब मैं शिमला के एक होटल में ठहरी हुई थी. उस रोज मौसम बड़ा खराब हो गया था. आमतौर पर उसे खराब ही माना जाएगा, तेज बारिश जो रुकने का नाम ही न ले रही थी. मेघों की गरज ऐसी कि कलेजा निकाल कर रख दे. दिन में रात जैसा अंधकार और रहरह कर आसमानी बिजली का कड़कना, निश्चिततौर पर भयभीत कर देने वाला था. मगर मेरे लिए वह ऊर्जा का स्रोत था. कुछ रचने का सुअवसर था. तमाम नई कोंपलें फूटने को उद्धत हो रही थीं. जब कोई अंकुर पल्लवित होता है तो बड़ा ही बेपरवाह होता है. सीमाओं से उनमुक्त होता है. धरती का सीना चीर कर रास्तें बना लेता है और फिर नवसृजना की महक से, मन हिलोरे मारता है. संतुष्टि पांव पसार लेती है. मन ही कहां, अंतस भी तो भीगता है. भीगने से मतलब उल्लास से है, जो हर्ष की अनुभूति देता है. ऐसी ही तृप्त ऋतु में  मैं डूबी हुई थी.

कल्पनाओं ने अपना तिलिस्म फैला लिया था एक खूबसूरत से ख्वाब की तरह जो मेरे इर्दगिर्द फैला हुआ था और उस में से तमाम शब्दों ने झांकना शुरू किया था और मैं कागजों में उलझी थी. यह उपन्यास नहीं, बल्कि प्रेमग्रंथ था मेरे लिए जिसे बड़ी तन्मयता से रचा जा रहा था. प्रेम चूंकि प्रेम है, उस पर जितना लिखा जाए कम है. कितने ही शायर, कवि और गीतकार हुए हैं जिन्होंने प्रेम को अपनेअपने तरीके से बयान किया है और अपने दिल को फाड़ती हुई मारक व तपती हुई नगमों से पत्थरों को भी पिघला दिया. मुर्दों मे भी जान फूंक दी और प्रेमियों की तो चांदी ही चांदीं. अकसर जब इजहार के लिए शब्द न हों तो गजलें और रोमांस से भरे गीत ही तो काम आते हैं.

फुल टाइम मेड: क्या काजोल के नखरे झेलने में कामयाब हुई सुमी ?

रितु यों मुझे कभी इतना इसरार कर के नहीं बुलाती थी. लेकिन आज उस ने ऐसा किया. मुझ से कहा कि शाम की चाय पर मैं उस के घर आ जाऊं, तो मुझे लगा कि कहीं नया एलसीडी टीवी तो नहीं खरीद लिया रितु ने या फिर नया फ्रिज, सोफा अथवा जरूर हीरे का सैट खरीदा होगा.

उस के घर पहुंची तो दरवाजा सलवारकमीज पहने एक युवती ने खोला.

मुझे देखते ही सिर झुका कर बोली,

‘‘गुड ईवनिंग.’’

मैं सकपकाई कि कौन हो सकती है यह बाला? रितु की बहन तो है नहीं, जहां तक मुझे पता है ननद भी नहीं है. इस से पहले कि मैं कुछ कहती, वह बड़े अदब से बोली, ‘‘प्लीज, कम इन, मैडम आप का वेट कर रही हैं.’’

मैं अपनेआप को संभालती कमरे में आई. मुझे देखते ही रितु उठ खड़ी हुई और गले लगाते हुए बोली, ‘‘क्या यार, बड़ी देर कर दी,’’ फिर बोली, ‘‘ममता, जल्दी से समोसे गरम कर ले आ. ब्रैडपकौड़े तल लेना और हां, 2 तरह की चटनी भी बना लेना.’’

मैं बेवकूफों की तरह उस का मुंह ताकने लगी. रितु ने हाथ पकड़ कर मुझे बैठाते हुए कहा, ‘‘सुमी, बड़ा आराम हो गया है, ममता के आने के बाद. ममता, मेरी फुल टाइम मेड, हर तरह का खाना बनाना जानती है. अपनी घरेलू बाइयों की तरह कोई खिटपिट नहीं. यहीं रहती है, जब चाहो, जो चाहो हाजिर.’’

और ममता मिनटों में समोसे और ब्रैडपकौड़े ले आई, तमीज से ट्रे में रख कर. साथ में एक मीठी चटनी और एक पुदीने की तीखी चटनी. इतनी स्वादिष्ठ कि मन हुआ ममता के हाथ चूम लूं. ‘तो यह थी वह नगीना, जिसे दिखाने के लिए रितु ने मुझे टी पार्टी पर बुलाया था,’ मैं ने मन ही मन सोचा.

समोसे का एक कौर खाने के बाद रितु मुझे विस्तार से जलाने लगी, ‘‘देख सुमी, अपनी काम वालियों से आप इसी बात की उम्मीद नहीं कर सकते कि वे मेहमानों की आवभगत करें. फिर स्टेटस की भी बात है.

मुझे घर का एक काम नहीं करना पड़ता. सुबहसवेरे बैड टी हाजिर. बाजार से सब्जी वगैरह लाने का काम भी यह कर देती है. हम तो भई सुबह बैड टी पी कर जिम जाते हैं. लौटते हैं तो गरमगरम नाश्ता तैयार होता है. दोपहर को लजीज खाना, शाम को चाय के साथ नाश्ता और रात को शाही डिनर. कभी चाइनीज, तो कभी मुगलई, कभी साउथ इंडियन तो कभी पंजाबी.’’

मैं रितु के उस नगीने पर से नजरें नहीं हटा पा रही थी. मुझे अपनी काम वाली की 100 कमियां सिरे से सताने लगीं. आज सुबह वह मुझ से पगार बढ़ाने की बात कह चुकी थी. हर सप्ताह 1 या 2 दिन गायब रहती. सुबह

6 बजे उस के 1 बार घंटी बजाने पर दरवाजा न खोलूं, तो वह तुरंत दूसरे घर चली जाती. फिर उस के दर्शन होते दोपहर बाद. अगर सिंक में कभी बरतनों की संख्या 2-4 अधिक हो जाए, तो वह कांच की एकाध आइटम तोड़ने के बाद भी बुदबुदाना जारी रखती मानो हमें बरतन की जगह पत्तलों में खाना चाहिए.

साफसफाई में अगर कभी कोई मीनमेख निकाल दो, तो झाड़ू वहीं पटक कर पूरा हिसाब देने बैठ जाती है कि उस से बेहतर काम कोई कर ही नहीं सकता.

रितु का भी महीने भर पहले तक कमोबेश यही हिसाब था, लेकिन आज उस की स्थिति ऐसी थी मानो वह जनरल मैनेजर हो और मैं उस की कंपनी में एक साधारण क्लर्क.

समोसे, ब्रैडपकौड़े और चाय गटकने के बाद मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘तुम यह नगीना कहां से लाई हो?’’

रितु ने भेद भरे अंदाज में कहा, ‘‘यों तो मैं किसी को बताती नहीं, पर तुम मेरी बैस्ट फ्रैंड हो, इसलिए बता रही हूं. शहर में मेड सप्लाई करने वाली कई एजेंसियां हैं, लेकिन इस एजेंसी की बात ही अलग है. सारी लड़कियां ट्रैंड हैं.’’

मैं मुद्दे पर आती हुई पूछ बैठी, ‘‘पैसा तो बहुत लेती होगी?’’

रितु ने मुझ पर बेचारगी से निगाह डाली, फिर बोली, ‘‘सुमी, तुम जाने दो. तुम एफोर्ड नहीं कर पाओगी. मेरी बात अलग है. हसबैंड का प्रमोशन हुआ है, फिर मुझे…’’

मैं खीज कर बोली, ‘‘अब बता भी दो.’’

रितु ने धीरे से कहा, ‘‘डिपैंड करता है कि तुम अपनी मेड से क्याक्या करवाना चाहती हो. सिर्फ इंडियन खाना बनाने वाली थोड़ा कम चार्ज करती है. अगर उसी से तुम घर का सारा काम भी करवाओगी तो कुछ ज्यादा खर्च करना होगा. अब मैं तुम्हें ममता का रेट तो नहीं बता सकती, एजेंसी वाले मना करते हैं. हां, तुम चाहो तो मैं तुम्हें एजेंसी का फोन नंबर दे सकती हूं, साथ भी चल सकती हूं.’’

रितु के घर से लौटते हुए मेरी आंखों के आगे बस ममता ही घूम रही थी. घर पहुंचतेपहुंचते मैं ने तय कर लिया कि चाहे जो हो जाए, मुझे फुलटाइम मेड चाहिए ही चाहिए. बस दिक्कत थी, अपने पतिदेव को पटाने की और उस काम में तो मैं माहिर थी ही.

रितु के साथ मैं एजेंसी पहुंच गई मेड लेने. मैं इस तरह तैयार हो कर गई थी मानो शादी में जा रही हूं. मेड और एजेंसी वालों पर इंप्रैशन जो जमाना था. एजेंसी क्या थी, पूरा फाइव स्टार होटल था. जाते ही हमारे सामने कोल्ड ड्रिंक आ गया. फिर हम एसी की हवा खाने लगे.

तभी हीरो जैसे दिखने वाले एक व्यक्ति ने मेरे सामने एक फार्म रखा और फिर बड़ी मीठी आवाज में शुद्ध अंगरेजी में मेरा इंटरव्यू लेने लगा. मैं कहां तक पढ़ी हूं, कितने कमरों के घर में रहती हूं, पति क्या करते हैं, ऊपरी आमदनी है या नहीं, घर अपना है या किराए का, हम दिन में कितनी दफा खाते हैं, सप्ताह में कितनी बार मेहमान आते हैं, मेहमान किस किस्म का खाना खाते हैं, घर में कोई पानतंबाकू खाने वाला तो नहीं है, सब्जीभाजी वाले से 5-10 रुपए के लिए चिकचिक तो नहीं करते. वगैरहवगैरह.

फिर उस ने रेट कार्ड देते हुए कहा,

‘‘यह रहा हमारा रेट कार्ड, इस में देख कर टिक लगा दीजिए.’’

भारतीय खाना पकवाने के 2 हजार रुपए, चाइनीज के ढाई हजार, अगर कभीकभार मुगलई या कौंटीनैंटल बनवाना हो तो 3 हजार रुपए, इस के अलावा नाश्ते की आइटम के लिए हजार रुपए अलग से.

मैं ने सकपका कर रितु की तरफ देखा. रितु ने फिर से कुहनी मारी, बोली, ‘‘सुमी, तुम सिर्फ इंडियन खाने के लिए रख लो. मुगलई और चाइनीज बनवा कर क्या करोगी?’’

मेरे अहम को इतना जबरदस्त धक्का लगा कि मैं ने तुरंत लपक कर मुगलई वाले में टिक लगा दिया. हीरो ने हिसाबकिताब लगाना शुरू किया और अब की बार थोड़ी विनम्रता से बोला, ‘‘मैडम, आप को हर महीने मेड को

4 हजार रुपए देने होंगे. हफ्ते में 1 दिन की पूरी छुट्टी. साल में 15 दिन की अतिरिक्त तनख्वाह और गांव आनेजाने का सैकंड एसी का किराया. इस के अलावा हमें आप 2 महीने की तनख्वाह डिपौजिट के रूप में देंगी. अगर बीच में कभी आप मेड को निकाल देंगी, तो हम यह पैसा वापस नहीं करेंगे. अगर यह खुद छोड़ कर चली जाएगी, तो डिपौजिट वापस हो जाएगा.’’

तो क्या हुआ, जो मुझे अपनी नई स्कूल की नौकरी में इस मेड के बराबर तनख्वाह मिलती है, स्टेटस भी तो कोई चीज है. मैं अपने साथ सिर्फ 5 हजार रुपए लाई थी, बाकी रितु से उधार ले कर उसे थमाए, तो उस ने मेरे सामने एक सांवली, दुबलीपतली लड़की पेश कर दी.

‘‘मैडम, यह हमारी खास मेड है. नाम है काजोल. एक बार इस के हाथ का पका खाना  खाएंगी, तो बारबार हमें याद करेंगी.’’

काजोल अपना सूटकेस ले कर आई, तो रितु ने धीरे से टोका, ‘‘इसे टैक्सी में आने के पैसे दो. यह तुम्हारे साथ टू व्हीलर पर कैसे जाएगी?’’

मैं ने पर्स से एक आखिरी बचा 100 का नोट निकाल कर काजोल को थमा दिया.

रितु को उस के घर छोड़ते हुए मैं काजोल के संग घर आ गई. मेरा घर देख कर काजोल खास खुश नहीं दिखी. घर देखने के बाद पूछा, ‘‘मैडमजी, मैं कहां रहूंगी?’’

मैं ने घर के बाहर बने कमरे की ओर इशारा किया तो उस ने नाकभौं सिकोड़ते हुए कहा, ‘‘मैडम, कुछ तो मेरी इज्जत का खयाल करो. ऐसे अंधेरे कमरे में मुझे नहीं रहना. मुझे अटैच्ड बाथरूम वाला कमरा दो.’’

उस की निगाहें मेरे कमरे पर थीं. मैं ने सकुचा कर कहा, ‘‘काजोल, ऐसा तो कोई कमरा है नहीं. वैसे दिन भर हम हसबैंडवाइफ तो बाहर ही रहेंगे. तुम ऐसा करो, ड्राइंगरूम में रह लेना. यहां तो कूलर भी है.’’

काजोल को बात पसंद तो नहीं आई, पर उस ने सामान ड्राइंगरूम के कोने में रख दिया. मुझे लगा कि आते ही वह रसोई देखना चाहेगी, पर वह देखना चाहती थी बाथरूम. मेरे बाथरूम में देर तक नहाने के बाद वह बोली, ‘‘मैडम, चाय पीने का मन हो रहा है. रसोई कहां है?’’

मैं खुश हो गई, ‘‘हांहां, चाय के साथ समोसे भी बना लो. हसबैंड भी घर लौटते होंगे.’’

उस का मुंह बन गया, ‘‘मैडम, आज सुबह की ट्रेन से आई हूं. आज चाय पी कर रेस्ट करूंगी. रात को खाने पर कुछ सिंपल बनवा लेना.’’

मुझे बोलने का मौका ही नहीं दिया उस ने. खैर, मुझ से पूछपूछ कर उस ने चाय बनाई. उसे चूंकि ज्यादा दूध वाली चाय पसंद थी, इसलिए वह चाय मुझे पीनी पड़ी. इस के बाद वह ड्राइंगरूम में एक चादर बिछा कर लेट

गई. मुझे हिदायत दे गई कि 8 बजे से पहले उसे न उठाऊं.

पतिदेव घर पर पधारे. जैसे ही ड्राइंगरूम में उन के चरण पड़े, मैं ने उन्हें रोक लिया और मेड की तरफ इशारा किया, ‘‘देखो, कौन आया है.’’

पतिदेव ने मेरी तरफ बेचारगी वाली निगाह डाली और कहा, ‘‘चाय मिलेगी?’’

अभी 8 नहीं बजे थे, इसलिए चाय मैं ने ही बनाई, यह कहते हुए कि रात से पूरा काम मेड करेगी.

8 बजे तक किसी तरह जज्ब किया अपने को. ठीक 8 बजे उसे उठाया तो वह कुनमुन करती उठी, ‘‘मैडम, यह क्या, इतना शोर मचा दिया. मेरा तो सिर दर्द करने लगा.’’

खैर, मेरे बाथरूम में हाथमुंह धो कर वह किचन में आई. तब तक मैं घर में बची सब्जियां, लौकी, तुरई और आलू निकाल चुकी थी.

काजोल ने जैसे ही सब्जियों की तरफ निगाह डाली, हिकारत से बोली, ‘‘मैडम, आप को एजेंसी वाले ने बताया नहीं कि मैं लौकी और तुरई जैसी सब्जियां न बनाती हूं, न खाती हूं?’’

मैं ने बात संभालते हुए कहा, ‘‘मैं आज सुबह से बिजी थी न, इसलिए दूसरी कोई सब्जी ला नहीं पाई. जाने दो, आज दालचावल खा लेंगे, वैसे भी सुबह का खाना रखा है फ्रिज में.’’

जब मैं पतिदेव को दिन का खाना माइक्रोवेव में गरम कर के खिलाने लगी, तो उन्होंने मेरी तरफ करुणा भाव से देखा और बोले, ‘‘सुमी, कोई बात नहीं. मुझे तो जो खिला दोगी, खा लूंगा.’’

मैं ने कुछ मनुहार से कहा, ‘‘बस, आज की बात है. कल से रोज तुम्हें चाइनीज, कौटीनैंटल और मुगलई खाना मिला करेगा.’’

कल के सपनों में खोई जो सोई, तो नींद दरवाजा खटखटाने की आवाज से भी नहीं खुली. पतिदेव जाग गए. दरवाजा खोला तो सामने काजोल खड़ी थी.

‘‘सर, मुझे जमीन पर लेट कर नींद नहीं आ रही, आप कहें तो सोफे पर सो जाऊं?’’

पतिदेव ने हां में सिर हिला दिया. करते भी क्या. सुबह उठी, तो ड्राइंगरूम में सोफे पर काजोल को सोया देख, पारा चढ़ने लगा. इस से पहले मैं कुछ कहती, पतिदेव ने मेरा हाथ दबा कर धीरे से कहा, ‘‘बेचारी को जमीन पर नींद नहीं आ रही थी, मुझ से पूछा तो मैं ने ही कहा कि…’’

मैं चुप रह गई. चाय का पानी चढ़ा कर काजोल को आवाज लगाई. सुबह का नाश्ता कौन बनाएगा?

काजोल की मरी सी आवाज आई, ‘‘मैडम, देखिए बुखार आ गया है मुझे.’’

स्कूल से लौटी, तो काजोल सुबह वाली अवस्था में मुंह ढांपे सो रही थी. मैं ने घर के अंदर कदम रखा, तो लगा पता नहीं किस के घर आई हूं. रात से गंदा पड़ा घर वैसा ही था. कमरे में कूड़ा, ड्राइंगरूम में अस्तव्यस्त मेड का बिस्तर, किचन में हर तरफ गंदगी, सिंक में जूठे बरतन.

मैं ने किसी तरह अपने को नियंत्रित कर मेड एजेंसी में फोन घुमाया. हीरो लाइन पर आया, तो उसे अपने मन की पीड़ा बताई कि यह क्या, मेड तो घर आते ही बीमार पड़ गई.

हीरो ने उत्तेजित आवाज में कहा,

‘‘मैडम, हम ने तो आप को मेड बिलकुल सहीसलामत दी थी. आप उसे जल्दी से अच्छा करिए. वैसे भी हम डिफैक्टिव पीस वापस नहीं लेते.’’

मैं भन्नाती हुई रसोई में पहुंची. काजोल लड़खड़ाती हुई उठी, ‘‘मैडम, सुबह से चक्कर आ रहे हैं. लगता है आप के घर का पानी मुझे सूट नहीं किया.’’

मैं उस के सामने बरतन साफ करने लगी. पर उस ने उफ तक नहीं की. मैं ने

मरता क्या न करता की शैली में अपनी कालोनी के डाक्टर को घर बुलवा लिया. डाक्टर पुराने थे, पर काजोल की बीमारी नई थी. वे थक कर बोले, ‘‘वैसे तो कोई बीमारी नहीं लगती, पर एहतियात के लिए 2-4 गोलियां लिख देता हूं.’’

दवा खाने के बाद वह फिर सो गई. शाम ढली और रात की बारी आ गई. मुगलई, चाइनीज के सपने देखती हुई मैं बुरी सी शक्ल बनाती हुई रितु ऐंड फैमिली की बाट जोहने लगी. अब बाहर से खाना मंगवाने के अलावा चारा क्या था?

ठीक समय पर मेहमान आए. घर की हालत देख रितु पहले तो चौंकी, फिर मुझे कोने में बुला कर आवाज को भरसक मुलायम बनाते हुए बोली, ‘‘सुमी, देखो कुछ लोग होते हैं, जो नौकरों से काम निकलवाते हैं और कुछ लोग नौकरों के लिए काम करते हैं.’’

मेरा चेहरा फक्क पड़ गया. मेरा हाथ दबा कर वह कुछ धीरज बंधाती हुई बोली, ‘‘तुम रहने दो सुमी. तुम से मेड नहीं पाली जाएगी. इस के चोंचलों में चोंच दोगी, तो जल्द ही यह तुम्हारे बैडरूम में सोने लगेगी और तुम इस के कपड़े धोती नजर आओगी.’’

मैं रोआंसी हो उठी. वाकई 2 दिन के जद्दोजहद के बाद मुझे यह समझ में आने लगा कि फुलटाइम मेड नामक बला से निबटना मुझे नहीं आएगा.

जातेजाते रितु मुझे जरूरी टिप दे गई, ‘‘देखो, अगर तुम इसे निकालोगी, तो तुम्हें डिपौजिट के पैसे नहीं मिलेंगे. कुछ ऐसा करो कि यह खुद छोड़ जाए.’’

बात मेरी समझ में आ गई. रात में मैं ने काजोल का बिस्तर बाहर वाले कमरे में डलवा दिया और कुछ सख्त स्वर में कहा, ‘‘डाक्टर कह रहे थे, तुम्हें छूत की बीमारी हो सकती है. तुम अलग रहो. खानापीना मैं तुम्हें कमरे में पहुंचा दूंगी.’’

रितु की तरकीब कामयाब रही. अगले ही दिन काजोल की तबीयत ठीक हो गई. न सिर्फ वापस उस ने ड्राइंगरूम में डेरा जमाना चाहा, बल्कि सुबह उठ कर नाश्ता बनाने को भी तैयार हो गई. मैं ने उस के हाथ का बना मंचूरियन और कोफ्ते खाए, तो लगा कि जल्द ही बिस्तर पर पड़ जाऊंगी.

मैं ने कमर कस ली कि डिपौजिट के पैसे तो वापस ले कर रहूंगी. अत: न मैं ने उसे ड्राइंगरूम में आने दिया, न उसे लौकी और तुरई के अलावा बनाने के लिए कोई तीसरी सब्जी दी. चौथे दिन एजेंसी से फोन आ गया, ‘‘मैडम, आप आ कर डिपौजिट के पैसे वापस ले जाइए. काजोल आप के यहां काम नहीं करना चाहती.’’

इस बार मेरा सीना कुछ चौड़ा हुआ. मैं ने काजोल को बस के पैसे दिए और टू व्हीलर से जा कर अपने डिपौजिट के पैसे वापस ले आई. लौटते हुए मैं ने अग्रवाल स्वीट हाउस से गरमगरम समोसे खरीद लिए. आखिर अपनी औकात पर तो आना ही था.

नास्तिक बहू: भाग 3- नैंसी के प्रति क्या बदली लोगों की सोच

नैंसी का बस इतना कहना था कि नलिनी ने प्रचंड रूप धारण कर लिया और कहने लगी,”प्रौब्लम यह है कि तुम चाहती ही नहीं हो कि हम तुम्हारे साथ रहें, मैं तुम्हें किसी बात पर रोकटोक करूं, तुम्हें साड़ी पहनने को कहूं, तुम्हें अपने संग भजनकीर्तन में भाग लेने को कहूं, तुम्हें कालोनी की दूसरी बहुओं की तरह संस्कारी बनाने की कोशिश करूं.”

नैंसी आवाक नलिनी को सुनती रही फिर बीच में ही उसे रोकती हुई बोली,”मम्मीजी, यह सब बेबुनियाद बेकार की बातें आप क्यों कह रही हैं?”

“अच्छा… बेबुनियाद बेकार की बातें? तुम कुछ दिन पहले ओल्ड‌ऐज होम ग‌ई थी और वहां से फौर्म भी ले कर आई हो, तुम हमें वृद्धाश्राम भेजना चाहती हो लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूंगी. हम अपने पुराने मकान में शिफ्ट हो जाएंगे. मैं ने किराएदार से मकान भी खाली करवा लिया है. हम वहीं जा रहे हैं यह उसी की तैयारी है,” नलिनी तमतमाती हुई बोली.

इतना सब सुनने के बाद नलिनी के पति सौरभ चिढ़ते हुए बोले,”यह क्या बकवास कर रही हो. नैंसी ओल्ड‌ऐज होम जरूर गई थी, वहां से वह फौर्म भी ले कर आई है लेकिन हमें ओल्ड‌ऐज होम भेजने के लिए नहीं. नैंसी हर महीने कुछ सेविंग करती है और जब उस के पास अच्छीखासी सेविंग हो जाती है तो वह उन रूपयों से जरूरतमंदों की मदद करती है. कभी किसी गरीब मजदूर बच्चे के स्कूल का फीस भर देती है तो कभी किसी अनाथालय में जा कर उन की सहायता करती है.

“इस बार मैं ने ही उस से कहा कि मेरे दोस्त को सहायता की जरूरत है. मेरे दोस्त के बच्चे उसे वृद्धाश्रम में छोड़ कर, उस से सारे नाते तोड़ कर चले ग‌ए हैं. वह बहुत बीमार है. उस के इलाज के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं इसलिए नैंसी वृद्धाश्रम गई थी और किसी संस्था में रूपए जमा करने के लिए उन की अपनी कुछ औपचारिकताएं होती हैं, उसी का फौर्म ले कर आई है नैंसी, जो तुम ने देखा होगा.”

यह सुनते ही नलिनी गुस्से में बोली,”अगर ऐसी ही बात है तो आप सब ने मुझे क्यों नहीं बताया?”

नलिनी के इस सवाल का जबाव नैंसी ने बड़े प्यार दिया, वह बोली,”मम्मीजी, क्योंकि मैं यह जानती थी कि अगर मैं आप से कहूंगी कि मेरे पास कुछ रूपए हैं और मैं उन्हें किसी अच्छे कामों में लगाना चाहती हूं तो आप कहतीं कि उसे हम मंदिर के किसी ट्रस्ट को दान दे देते हैं, भव्य भजन संध्या का आयोजन करते हैं या किसी मंदिर में अनुष्ठान करा लेते हैं लेकिन मैं ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहती थी, क्योंकि मैं उन पैसों से केवल जरूरतमंदों की सहायता करना चाहती थी और आगे भी यही करना चाहूंगी. और रही बात आप लोगों को वृद्धाश्रम भेजने की तो मैं यह अपने सपने में भी कभी नहीं सोच सकती. आप और पापाजी तो इस घर की शान हैं, इस घर की रौनक हैं. छोटों के सिर पर अपने बड़ों का हाथ होना ही दुनिया की सब से बड़ी दौलत होती है जिसे मैं किसी भी हाल में खोना नहीं चाहती हूं.”

तभी नलिनी का मोबाइल बजा और उस के फोन उठाते ही उस के चेहरे का उड़ता रंग इस बात की पुष्टि कर रहा था कि अवश्य कोई गंभीर बात है. नलिनी के फोन रखते ही सभी ने एक स्वर में कहा,”क्या हुआ?”

नलिनी ने कोई उत्तर नहीं दिया, बस वह नैंसी का हाथ पकड़ कर खींचती हुई बोली,”तू चल मेरे साथ मैं सब बताती हूं,” कहती हुई नलिनी अपनी सहेली सुषमा के घर नैंसी को ले कर पहुंची.

वहां पहुंच कर नैंसी ने जो दृश्य देखा उसे देख कर वह स्तब्ध रह गई. सुषमा और उस के पति का कुछ सामान जमीन पर बिखरे हुए थे. सुषमा रो रही थी, उन के पति खिड़की से बाहर की ओर देखते हुए मौन खड़े थे. बेटा हाथ में हाथ धरे यह सब देख रहा था और सुषमा की सुसंस्कारी बहू उन पर जोरजोर से चिल्ला रही थी.

नलिनी को देखते ही सुषमा भाग कर उस के पास आ गई और उसे गले लगा कर रोती हुई बोली,”नलिनी, देख न रमा क्या कह रही है. यह कह रही है कि हम इस घर को छोड़ कर कहीं और चले जाएं क्योंकि यह घर उस के पति के नाम पर है. इस घर को बनाने के लिए उस के पति ने लोन लिया है. अब तुम ही बताओ इस उम्र में हम अपना घर छोड़ कर कहां जाएंगे?”

यह सुन कर नलिनी ने रमा को बहुत समझाने की कोशिश की कि सासससुर मातापिता के समान होते हैं. यह घर जरूर तुम्हारे पति के नाम पर है लेकिन तुम्हारा पति इन का इकलौता बेटा है. लोन जरूर तुम्हारे पति ने ली है लेकिन इन्होंने भी अपना पुराना घर बेच कर कर इस घर में पैसे लगाया है. अपनी जमापूंजी भी इस घर में लगाई है लेकिन रमा कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी, उलटा वह नलिनी से बदतमीजी पर उतर आई. यह देख नैंसी की आंखें लाल हो गईं और वह रमा पर तनती हुई बोली,”तुम्हें बड़ों से बात करने की तमीज नहीं है यही है तुम्हारे संस्कार.”

नैंसी का इतना कहना था रमा अकड़ती हुई बोली,”तुम संस्कारों के बारे में कुछ जानती भी हो, तुम तो खुद अपने सासससुर को वृद्धाश्रम भेज रही हो और यहां मुझे संस्कारों के पाठ पढ़ाने आई हो.”

“तुम से किस ने कहा कि मैं अपने मम्मीपापा को वृद्धाश्रम भेज रही हूं. तुम जैसी छोटी सोच वाले ही ऐसा सोच सकते हैं और ऐसा कर सकते हैं. मातापिता तो बच्चों के लिए सुरक्षा कवच की तरह होते हैं और अपने सुरक्षा कवच को अपने से अलग नहीं किया जाता, लेकिन तुम्हें यह बात कहां से समझ आएगी, तुम्हारी आंखों पर तो पट्टी बंधी है. तुम एक बात अच्छी तरह से समझ लो कि तुम अंकलआंटी को इस घर से नहीं निकाल सकतीं,” नैंसी ने जोर डालते हुए कहा.

“क्यों? क्यों नहीं निकाल सकती और तुम कौन होती हो मुझे रोकने वाली…” रमा गुर्राती हुई बोली.

“मैं कोई नहीं होती तुम्हें रोकने वाली लेकिन कानून तुम्हें रोक सकता है. बस, एक पुलिस कंप्लैंट की जरूरत है, बेहतर होगा कि तुम अंकलआंटी को ऊपर वाले हिस्से में आराम से रहने दो और तुम अलग रहना चाहती हो तो नीचे के हिस्से में सुकून से रहो और इन्हें भी रहने दो,” नैंसी रमा की ओर उंगली दिखाती हुई बोली.

पुलिस कंप्लैंट की बात सुन कर रमा डर गई और सुषमा और उस के पति का मकान के ऊपरी हिस्से में रहने के लिए मान गई. रमा के मानते ही नैंसी जमीन पर बिखरे सुषमा और उस के पति का सामान उठा कर जमाने लगी. यह देख नलिनी और सुषमा को अपनी सोच पर आज पछतावा हो रहा था. नलिनी को हमेशा इस बात का मलाल था कि उस की बहू नैंसी संस्कारी नहीं है और न तो वह किसी पूजापाठ या भजनकीर्तन में शरीक होती और न ही कोई धर्मकर्म या पुण्य का कार्य करती है लेकिन आज वह समझ गई थी कि असली धर्मकर्म और पुण्य क्या होता है.

सुषमा नलिनी को गले लगाती हुई बोली,”तेरी बहू सच में सुसंस्कारी है, उसे समझने में भूल हम से ही हुई है.”

जीवनसाथी: भाग 3- विभोर को अपनी पत्नी वसु से नफरत क्यों हुई

अगले दिन वसु ने मां से बात की, ‘‘मांजी, कल जब विभोर ने चांटा मारा था आप ने कुछ कहा क्यों नहीं? क्या यह व्यवहार उचित था?’’

मां ने बड़ा सपाट उदासीन सा जवाब दिया, ‘‘वसु, मैं तो कभी किसी को कुछ नहीं कह पाती. इस के पिताजी थे, उन से भी कभी कुछ नहीं कहा.’’

शायद मां भी कभी न बोल पाई हों. अब वसु को खुद ही कुछ सोचना था. ऐसे तो जीवन जीना मुश्किल है.

‘‘मां, मैं कुछ दिनों के लिए मायके जा रही हूं. विभोर को बता देना.’’

‘‘बेटा तू ही बता दे विभोर को,’’ मां ने कहा तो वसु ने न चाहते हुए भी विभोर को फोन कर दिया. विभोर औफिस में था. एक बार नहीं उठाया तो दोबारा मिला दिया.

विभोर बिना कुछ सुने चिल्लाने लगा, ‘‘ऐसी क्या आफत आ गई  जो दोबारा फोन मिला दिया?’’

वसु ने बहुत शांत स्वर में इतना ही कहा, ‘‘मैं मायके जा रही हूं,’’ विभोर और कुछ कहता वसु ने फोन काट दिया. जानती थी वसु, विभोर आदतन चिल्लाएगा ही.

बिना प्रतिक्रिया दिए वसु मायके आ गई. विभोर के घर की व्यवस्था अब चरमराने लगी, जिसे वसु अब तक संभाले हुए थी.

‘‘विभोर मेरी दवाई खत्म हो गई है.’’

‘‘अच्छा मां.’’

‘‘और किचन का सामान, फल भी खत्म हो गए हैं,’’ मां ने धीमे से कहा. जानती थीं अब तक सारा वसु ही करती थी. जैसेतैसे कर इतने दिन बाई के सहारे निकल गए थे. वसु के जाने के बाद विभोर ने वसु को फोन नहीं किया था. अहमवश चाहता था खुद ही वापस आए. लेकिन वसु अब विभोर को सम?ाना चाह रही थी.

एक दिन औफिस से शाम को विभोर लौटा तो आते ही बिस्तर पर लेट गया. मां ने माथा छू कर देखा तो तेज बुखार था. उस का सारा शरीर बुखार में तप रहा था. उस की तबीयत खराब होने से मुश्किलें बढ़ने लगीं.

आज विभोर को वसु की बहुत याद आ रही थी. कितनी सेवा की थी जब पिछले बार विभोर बीमार हुआ था. उस का रातभर जागना, ताजा जूस देना. लेकिन उस ने कभी वसु का सम्मान ही नहीं किया. अब उसे खुद पर गुस्सा

आ रहा था. सभी कुछ उसे बेचैन किए जा रहा था. विभोर ने एक बार बात करने के फोन उठाया फिर उस का अहम सामने आ गया और बिना बात किए ही फोन रख दिया.

दूसरे दिन मां ने कहा, ‘‘बेटा, वसु को ले आ देख मैं भी अब तेरी देखभाल नहीं कर सकती हूं. उम्र हो गई है. गठिया मुझे परेशान करता है. वह तो वसु ही रोज लहसुन के तेल की मालिश करती थी तो चल पा रही थी.’’

विभोर कुछ नहीं बोल सिर झुकाए बैठा था. उस का मन भी वसु के प्रति अपने व्यवहार पर धिक्कार रहा था.

‘‘ऐसे सिर क्यों झुकाए बैठा है. आज सोच रही हूं मैं ने ही तुझे पहली बार रोका होता तो शायद ये दिन न देखने पड़ते,’’ मां ने थोड़ा तेज आवाज में कहा.

विभोर की आंखों के सामने वसु का मासूम चेहरा घूम रहा था. हमेशा हंसती रहने वाली वसु  मौन की चादर ओढ़ चुपचाप मायूस सी रहने लगी थी… उसे यह एहसास उस की अनुपस्थिति में हो रहा था.’’

‘‘चल उठ, अब बहुत हो गया, घर की लक्ष्मी को वापस ला. मुझे भी उस से माफी मांगनी है. मैं ने भी सही का साथ नहीं दिया,’’ मां ने कहा.

विभोर की आंखों में चमक आ गई. सही माने में आज वह अपनी जीवनसाथी को लेने जा रहा था. विभोर ने सोचा फोन किए बिना ही सरप्राइज देगा.

वसु मायके में औफिस से लौट गार्डन में चाय पी रही थी. गेट पर विभोर को खड़े देख

उस का मन प्रसन्न हो गया, किंतु आशंकाओं के बादल मन को डराने लगे कि यदि मुझे ले जा कर फिर पहले जैसा व्यवहार किया तो?

विभोर की आवाज से वसु की तंद्रा भंग हुई, ‘‘अंदर आने को नहीं कहोगी क्या वसु?’’ आज विभोर की आवाज में क्रोध नहीं अनुनय था.

‘‘हां, विभोर अंदर आओ.’’

अंदर आ कर विभोर ने वसु से कहा,

‘‘वसु, मैं प्रौमिस करता हूं, अब कभी तुम्हारा अपमान नहीं करूंगा, टीवी पर फालतू बातें अब नहीं देखता, वास्तव में तुम मेरी अद्धांगिनी हो, मेरी समकक्ष,’’ और विभोर ने वसु के सामने हाथ जोड़ दिए.

वसु ने गंभीर शांत स्वर में कहा, ‘‘मैं चलूंगी किंतु एक शर्त है.’’

‘‘हां, मुझे तुम्हारी हर शर्त मंज़ूर हैं,’’ विभोर ने अधीरता से कहा.

‘‘नहीं पहले सुनो. विभोर एक लड़की जब शादी कर ससुराल जाती है तो उस के लिए नए घर, नए परिवेश और सब के साथ तालमेल

बैठाना बहुत कठिन होता है… तुम्हें इस का अनुभव नहीं है, तो तुम 1 महीना मेरे मायके में रहो. हम दोनों यहीं से औफिस जाएंगे… फिर मैं तुम्हारे साथ चलूंगी.

विभोर ने स्वीकृति में सिर हिला दिया. आगामी जीवन की नींव की परिपक्वता होने को तैयार थी, आंगन का गंधराज हजारों फूलों की खुशबू बिखेर रहा था.

चिडि़या खुश है: नमिता दिखावटी जिंदगी क्यों जी रही थी

नमिता और अजय की आज शादी है. हमारे शहर के सब से बड़े उद्योगी परिवार का बेटा है अजय, जो अमेरिका से पढ़ाई पूरी कर के अपना कारोबार संभालने हिंदुस्तान आ गया है. अजय के बारे में अखबारों में बहुत कुछ पढ़ने को मिला था. उस की उद्योग विस्तार की योजना, उस की सोच, उस की दूरदृष्टि वगैरहवगैरह और नमिता, हमारे साथ पढ़ने वाली बेहद खूबसूरत लड़की. नमिता की खूबसूरती और उस के कमिश्नर पापा का समाज में रुतबा, इसी के बलबूते पर तो यह शादी तय हुई थी.

कला, काव्य, संगीत आदि सारे रचनात्मक क्षेत्रों में रुचि रखने वाली और पढ़ाई कर के कुछ बनने की चाह रखने वाली नमिता ने अजय जैसा अमीर और पढ़ालिखा वर पाने के लिए अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़ दी. रईस खानदान में शादी की तुलना में पढ़ाई का कोई महत्त्व नहीं रहा.

शादी में पानी की तरह पैसा बहाया गया. शादी के फोटो न केवल भारत में बल्कि विदेशी पत्रिकाओं में भी छपवाए गए. नमिता की खूबसूरती के बहुत चर्चे हुए. नवविवाहित जोड़ा हनीमून के लिए कहां गया, इस के भी चर्चे अखबारों में हुए. फिर आए दिन नमिता की तसवीरें गौसिप पत्रिकाओं में छपने लगीं. लोग उसे रईस कहने लगे और वह पेज 3 की सदस्य बन गई.

एक दिन उस्ताद जाकिर हुसैन का तबलावादन का कार्यक्रम हमारे शहर में था.

हम दोस्तों ने नमिता को फोन किया और पूछा, ‘‘चलोगी उस्ताद जाकिर हुसैन का तबला सुनने?’’

हंस कर वह बोली, ‘‘मैं तो कल शाम ही उन से मिलने होटल में गई थी. हमारे बिजनैस हाउस ने ही तो यह कार्यक्रम आयोजित किया है. आज रात उन का खाना हमारे घर पर है. अजय चाहते हैं घर की सजावट खास भारतीय ढंग से हो और व्यंजन भी लजीज हों. इसलिए आज मुझे घर पर रह कर सभी इंतजाम देखने होंगे. आप लोग तबलावादन सुन कर आओ न. हां, आप लोगों को फ्री पास चाहिए तो बताना, मैं इंतजाम कर दूंगी.’’

हम दोस्तों ने उस का आभार मानते हुए फोन रख दिया.

एक दिन पेज 3 पर हम ने उस की तसवीरें देखीं. बेशकीमती साड़ी पहने, मेकअप से सजीधजी गुडि़या जैसी नमिता अनाथालय के बच्चों को लड्डू बांट रही थी. ऐसे बच्चे, जो एक वक्त की रोटी के लिए किसी के एहसान के मुहताज हैं. उन के पास जाते हुए कीमती साड़ी व गहने पहन कर जाना कितना उचित था? वह चाहे गलत हो या सही, मगर बड़े उद्योगी परिवार की सोच शायद यही थी कि बहू की फोटो अनाथों के साथ छपेगी तो वह ऐसी ही दिखनी चाहिए.

उस के जन्मदिन पर बधाई देने के लिए हम ने उसे फोन मिलाना चाहा. काफी देर तक कोई जवाब नहीं मिला, तो हम ने सोचा नमिता अजय के साथ अपना जन्मदिन मना रही होगी. दोनों कहीं बाहर घूमने गए होंगे.

2 घंटे बाद उस का फोन आया, ‘‘मैं तो फलां मंत्रीजी की पत्नी के साथ चाय पार्टी में व्यस्त थी.’’

‘‘मगर उस मंत्री की बीवी के साथ तुम क्या कर रही थीं, वह भी आज के दिन? काफी देर तक तुम ने फोन नहीं उठाया, तो हमें लगा तुम और अजय कहीं घूमने गए होगे.’’

‘‘नहीं रे, अजय एक नई फैक्टरी शुरू करना चाहते हैं. कल उसी फैक्टरी के प्रोजैक्ट की फाइल मंत्रीजी के दफ्तर में जाने वाली है. सब काम सही ढंग से हो जाए, इस के लिए मंत्रीजी की पत्नी से मैं मिलने गई थी. जब पापा कमिश्नर थे, तब इन मंत्रीजी से थोड़ीबहुत जानपहचान थी. अजय कहते हैं, ऐसे निजी संबंध बड़े काम आते हैं.’’

‘‘फिर भी नमिता… शादी के बाद अजय के साथ यह तुम्हारा पहला जन्मदिन है?’’

‘‘अजय ने तो सवेरे ही मुझे सरप्राइज गिफ्ट दे कर मेरा जन्मदिन मनाया. पैरिस से मेरे लिए औरेंज कलर की साड़ी ले कर आए थे.’’

‘‘नमिता, औरेंज कलर तो तुम्हें बिलकुल पसंद नहीं है. क्या वाकई तुम्हें वह साड़ी अच्छी लगी?’’ हम ने पूछा.

‘‘अजय चाहते थे कि मैं औरेंज कलर के कपड़े पहन कर मंत्रीजी की पत्नी से मिलने जाऊं. मंत्रीजी बीजेपी के हैं न.’’

शादी को 1 साल हो गया, तो नमिता के बंगले के लौन में ही बड़ी सी पार्टी का आयोजन था. हम दोस्तों को भी नमिता ने न्योता भेजा, तो हम सारे दोस्त उसे बधाई देने उस के बंगले पर पहुंचे. बंगले के सामने ही बड़ी सी विदेशी 2 करोड़ की गाड़ी खड़ी थी.

नमिता ने चहकते हुए कहा, ‘‘डैडीजी, यानी ससुरजी ने यह कार हमें तोहफे में दी है.’’

‘‘नमिता, तुम्हें तो जंगल ट्रैक में ले जाने लायक ओपन जीप पसंद है.’’

‘‘हां, मगर अजय कहते हैं ऐसी जीप में घूमना फूहड़ लगता है. यह रंग और मौडल अजय ने पसंद किया और डैडी ने खरीद ली. अच्छी है न?’’

पार्टी में ढेरों फोटो खींचे जा रहे थे. गौसिप मैगजीन में अब चर्चे होंगे. नमिता ने किस डिजाइनर की साड़ी पहनी थी, कौन से मेक के जूते पहने थे, कौन से डायमंड हाउस से उस का हीरों का सैट बन कर आया था वगैरहवगैरह…

मम्मीडैडी की पसंद ऐसी है, अजय ऐसा चाहते हैं, अजय वैसा सोचते हैं, पार्टी का आयोजन कैसा होगा, मेन्यू क्या होगा, यह सब कुछ जैसा अजय चाहते हैं वैसा होता है, हम ने नमिता से सुना.

दया आई नमिता पर. नमिता, एक बार अपनेअंदर झांक कर तो देखो कि तुम क्या चाहती हो? तुम्हारा वजूद क्या है? तुम्हारी अपनी पहचान क्या है? तुम किस व्यक्तित्व की मलिका हो?

शादी के बाद मात्र एक दिखावटी गुडि़या बन कर रह गई हो. अच्छे कपड़े, भारी गहने, बेशकीमती गाडि़यों में घूमने वाली रईस. मंत्री की पत्नी तक पहुंचने का एक जरिया. यह सब जो तुम कर रही हो, इस में तुम्हारी सोच, चाहत, पसंदनापसंद कहां है? तुम तो एक नुमाइश की चीज बन कर रह गई हो.

फिर भी तुम खुश हो? इंसान पढ़लिख कर अपनी सोच से समाज में अपना स्थान, अपनी पहचान बनाना चाहता है. शादी के बाद अमीरी के साथसाथ समाज में रुतबा तो तुम्हें मिल गया. फिर अपने सोचविचारों से कुछ बनने की, अपना अस्तित्व, अपनी पहचान बनाने की तुम ने जरूरत ही नहीं समझी? दूसरों की सोच तुम्हारा दायरा बन कर रह गई. दूसरों का कहना व उन की पसंदनापसंद को मानते हुए तुम चारदीवारी में सिमट कर रह गईं.

चिडि़या जैसी चहकती हुई नमिता पार्टी में इधरउधर घूम रही थी. मोतियों का चारा पा कर यह चिडि़या बहुत खुश थी. चांदी की थाली में खाना खाते हुए उसे बड़ा आनंद आ रहा था.

अपनी उपलब्धि पर इतराती नमिता अपनेआप को बड़ी खुशकिस्मत समझती थी. नमिता को देख कर ऐसा लगता था, उस की खुशी व चहचहाना इसलिए है, क्योंकि वह समझ नहीं रही है कि वह सोने के पिंजरे की चिडि़या बन गई है. यहां उस के लिए अपनी सोच की उड़ान भरना नामुमकिन है.

अपनी पसंदनापसंद से जिंदगी जीने की उसे इजाजत नहीं है. खुद की जिंदगी पर वह अपने व्यक्तित्व की मुहर नहीं लगा सकती. अपनी जिंदगी पर उस का कोई अधिकार नहीं है.

सोने के पिंजरे में बंद वह बड़ी खुशहाल जिंदगी बिता रही है, लेकिन वह अपनी पहचान मिटा रही है. सोने के पिंजरे में यह चिडि़या इसलिए बहुत खुश है, क्योंकि इसे अपनी कैद का एहसास नहीं है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें