Holi 2023: एक और आकाश- क्या हुआ था ज्योति के साथ

Holi 2023: ज्वालामुखी- रेनु को कैसे हुआ गलती का एहसास

‘‘विक्रम बेटा, खेलने बाद में जाना, पहले अस्पताल में टिफिन दे कर आओ,’’ मेनगेट की ओर जाते हुए विक्की को रेनू ने बेडरूम में से आवाज दी.

‘‘टिफिन तैयार है तो रुकता हूं, नहीं तो मैं आधे घंटे में आ कर ले जाता हूं,’’ विक्की को खेलने जाने की जल्दी थी.

‘‘तैयार है, बेटा, अभी ले कर जाओ,’’ तेज कदमों से चलती हुई रेनू किचन की तरफ बढ़ी और टिफिन अपने 14 वर्षीय बेटे के हाथ में थमा दिया.

अस्पताल में टिफिन देने का सिलसिला पिछले 10 दिनों से चला आ रहा है क्योंकि वहां पर 57 वर्षीय रेनू की सास सुमित्रा देवी दाखिल हैं. कुछ दिन पहले ही वह अपने आश्रम के स्नानगृह में फिसलन की वजह से गिर पड़ी थीं और उन के कूल्हे की हड्डी टूट गई थी. बहुत यातना से गुजर रही थीं बेचारी.

रेनू के पति राजीव प्रतिदिन सुबहशाम मां को देखने जाते थे और बेटा दोनों टाइम टिफिन पहुंचाता था और रात भर दादी के पास भी रहता था. अस्पताल घर के पिछवाड़े होने के बावजूद रेनू अभी तक सास को देखने नहीं गई थी. राजीव को इस व्यवहार से बेहद दुख पहुंचा था लेकिन सबकुछ उस के वश के बाहर था. वह रेनू के साथ जबरदस्ती कर के घर में किसी प्रकार की कलह नहीं चाहता था. यही वजह है कि 11 वर्ष पहले राजीव के पिताजी की मृत्यु के पश्चात 4 बेडरूम और हाल का फ्लैट होते हुए भी राजीव को अपनी मां को आश्रम में छोड़ना पड़ा क्योंकि वह नहीं चाहता था कि सासबहू दो अजनबियों की तरह एक छत के नीचे रहें. घुटन भरी जिंदगी न तो राजीव जीना चाहता था और न ही सुमित्रा देवी. हालांकि स्वयं सुमित्रा देवी ने ही वृद्धाश्रम में रहने का फैसला किया था लेकिन फिर भी घर छोड़ते वक्त उन्हें बेहद तकलीफ हुई थी.

बेटे के पास भी कोई चारा नहीं था क्योंकि सुमित्रा देवी का घर नागपुर में था जहां वह अपने पति के साथ रहती थीं और उन का इकलौता बेटा रहता था मुंबई में. बेटे के लिए रोजरोज आना मुश्किल था. वह मां को अकेले छोड़ नहीं सकता था. राजीव ने यही मुनासिब समझा कि मां जो कह रही हैं वही ठीक है. उस ने मां को मुंबई के ही ‘कोजी होम’ वृद्धाश्रम में भरती करवा दिया जहां वह पिछले 11 वर्षों से रह रही हैं और राजीव प्रत्येक रविवार का दिन अपनी मां के साथ गुजारता है. उन की जरूरत की चीजें पहुंचाता है, सुखदुख की बातें करता है और शाम को घर वापस चला आता है.

आज जब राजीव रात को अस्पताल से वापस आया तो उस ने रेनू से कोई बात नहीं की. स्नान किया और खाना खा कर चुपचाप अपने कमरे में जा कर लेट गया. उसे इस बात की बेहद तकलीफ हो रही थी कि 11 दिन से मां घर के पास वाले अस्पताल में हैं और उस की पत्नी औपचारिकतावश भी उन्हें देखने नहीं गई.

रेनू जब रसोई का काम निबटा कर शयनकक्ष में आई तो पति को दीवार की तरफ मुंह किए लेटे हुए पाया. यह आज की ही बात नहीं है यह तनाव पिछले 11 दिनों से घर में चल रहा है. रेनू भी दूसरी दीवार की तरफ मुंह घुमा कर लेट गई. नींद तो जैसे पंख लगा कर उड़ गई थी.

शादी के बाद के 5 बरस उस की आंखों के आगे से गुजरने लगे. शादी होते ही सासससुर की शिकायतें शुरू हो गई थीं हर छोटीबड़ी चीज को ले कर. न तो उन्हें रेनू के मायके से आई हुई कोई चीज पसंद थी न ही उस का बनाया हुआ खाना. रोज किसी न किसी चीज में नुक्स निकाल दिया जाता, यहां तक कि रेनू की आवाज में भी, कहते कि यह बोलती कैसे है.’

रेनू की आवाज बहुत ही बारीक और बच्चों जैसी सुनाई पड़ती थी. हालांकि यह सब किसी के वश की बात नहीं है लेकिन सासससुर को इस बात पर भी एतराज था, वे समझते थे कि रेनू बनावटी आवाज बना कर बात करती है.

रेनू की कोशिश रहती कि घर के सभी सदस्य खुश रहें मगर ऐसा हो न पाता. कभीकभी तंग आ कर पलट कर वह जवाब भी दे देती थी. जिस दिन जवाब देती उस से अगले ही दिन घर में अदालत लग जाती और उसे राजीव के दबाव में आ कर सासससुर से माफी मांगनी पड़ती. राजीव का कहना था कि अगर इस घर में रहना है तो इस घर की मिट्टी में मिल जाओ. रेनू के सुलगते हुए दिल में मुट्ठी भर राख और जमा हो जाती.

रेनू के पिताजी के खून में प्लेट- लेट्स काउंट बहुत कम हो गया था. उन की बीमारी बढ़ती ही जा रही थी. उस दिन जब फोन आया कि पिताजी की तबीयत बहुत खराब है, जल्दी आ जाओ तो रेनू ने अपने सासससुर से, अपने पिताजी से मिलने शिमला जाने की इजाजत मांगी तो ससुरजी ने हंसते हुए कहा, ‘बहू, यह कौन सी नई बात है, उन की तबीयत तो आएदिन खराब ही रहती है.’

‘पता नहीं क्या बीमारी है, बिस्तर पर एडि़यां रगड़ कर मरने से अच्छा है मृत्यु एक ही झटके में आ जाए,’ रेनू की सास सुमित्रा देवी बोली थीं.

यह बात उन्होंने अपने बारे में कही होती तो और बात थी मगर उन्होंने तो निशाना बनाया था रेनू के पिताजी को. सुन कर रेनू का दिमाग झन्ना उठा. उस ने वक्र दृष्टि से दोनों को निहारा.

सासससुर दोनों स्तब्ध रह गए. बैठक में बैठे राजीव ने भी सब देखासुना. किसी को भी जैसे काटो तो खून नहीं. कोई कुछ नहीं बोला.

2 दिन पश्चात रेनू के पिता की मृत्यु हो गई.

राजीव स्वयं रेनू को ले कर शिमला गया…लेकिन तब तक सबकुछ खत्म हो चुका था. पिता की मृत्यु ने राख में दबे ज्वालामुखी को और तेज कर दिया था. रेनू अब जिंदगी भर सासससुर की शक्ल भी नहीं देखना चाहती थी.

सुबह उठी तो रेनू की आंखें रात भर नींद न आने की वजह से लाल थीं. बेटा अस्पताल से आ कर स्कूल के लिए तैयार होने लगा. रेनू रसोई में चली गई. राजीव चुपचाप दाढ़ी बना रहा था. सभी के घर में मौजूद होते हुए भी एक चुप्पी व्याप्त थी.

वक्त गुजरता गया. सुमित्रा देवी के साथ हुई दुर्घटना को 8 महीने गुजर गए.

आज रेनू जब सो कर उठी और जैसे ही पैरों पर शरीर का भार पड़ा, वह असहनीय पीड़ा से कराह उठी. वह चलने में लगभग असमर्थ थी. फिर शुरू हुआ डाक्टरों, परीक्षणों और दवाइयों का सिलसिला. एक सप्ताह गुजर गया और रेनू बिलकुल भी उठने के काबिल न रही. डाक्टर ने रिपोर्ट देख कर बताया कि रीढ़ की हड्डी में नीचे वाली बोन घिस कर छोटी हो गई है. दवाइयां और कमर पर बांधने के लिए बैल्ट रेनू को दे दी गई. पूरे दिन भागभाग कर काम करने वाली रेनू का सारा वक्त बिस्तर पर गुजरने लगा. राजीव प्रतिदिन सुबह खाना बनाता, अपना और बेटे का टिफिन भरता तथा रेनू के लिए हौट केस में भर कर रख जाता. रेनू पूरा दिन कुछ न कुछ सोचती रहती. अंदर ही अंदर वह बुरी तरह डर गई थी. उसे लगने लगा कि वह किसी काम की नहीं रही है, पति पर बोझ बन गई है. अगर यह बीमारी ठीक न हुई तो वह जीते जी मर जाएगी.

अचानक सास का चेहरा उस की नजरों के सामने कौंध जाता, ‘कितनी तकलीफ हुई होगी मेरी सास को, कितना कष्ट उस ने अकेले सहा, 11 वर्ष तक अकेलेपन का संताप झेला, बेटाबहू होते हुए भी, परिवार होते हुए भी तकलीफ से अकेली जूझती रही. मैं ने जिंदगी में…सिर्फ खोया ही खोया है. जिन्हें मैं ने इतनी तकलीफ दी क्या कभी उन के दिल से मेरे लिए दुआ निकली होगी.

‘मैं सबकुछ भुला कर उन्हें अपना बना सकती थी लेकिन मैं ने कोशिश ही नहीं की. अगर सासससुर सही नहीं थे तो मैं भी तो गलत थी. इनसान को कभीकभी दूसरों को माफ भी कर देना चाहिए. कितने वर्षों से नफरत के ज्वालामुखी को परत दर परत अपने अंदर जमा करती आ रही हूं. मैं आज तक नहीं जान पाई कि यह ज्वालामुखी मुझे ही झुलसा कर खत्म किए जा रहा है. अब और नहीं. मैं बिना किसी बोझ के निर्मल जीवन जीना चाहती हूं.’ रेनू ने मन ही मन एक दृढ़निश्चय किया कि वह राजीव के साथ स्वयं जाएगी मांजी को लेने. बस, थोड़ी सी ठीक हो जाए. वह अगर आने के लिए नहीं मानेंगी तो भी वह पैर पकड़ कर, खुशामद कर के उन्हें मना लेगी. इन खयालों ने ही रेनू को बहुत हलका बना डाला. वह जल्दी ठीक होने का इंतजार करने लगी.

शाम को राजीव जब आफिस से वापस आया तो रेनू के चमकते चेहरे को देख उसे बहुत संतोष हुआ. जब रेनू ने अपना इरादा बताया तो राजीव कृतज्ञ हो गया. उस के मन में आया कि दुनिया भर की खुशियां रेनू पर न्योछावर कर दे, प्रकट में वह कुछ बोला नहीं. बस, प्यार से उस के बालों को सहलाने लगा और झुक कर उस का माथा चूम लिया.

अगर वह उसे माफ कर दे: भाग 2- पिता की मौत के बाद क्या हुआ ईशा के साथ

रेखा और ईशा ने एकदूसरे की तरफ देखा, दोनों का मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया. इतने में कमांडर पंत कहीं से कमरे में आए और टीवी का स्विच बंद करते हुए बोले, ‘‘क्यों सुन रहे हो यह खबर?’’ मगर समाचारवाचक का बोला वह वाक्य उन के कानों में पड़ ही गया, ‘‘कहा जा रहा है कि कमांडर शर्मा का रेशमा से 1 बच्चा भी है.’’

रेखा ने अपना सिर पकड़ लिया. पति की मौत की खबर ने उसे इतना अचंभित नहीं किया था जितना कि इस खबर ने कर दिया. रवि ने उसे धोखे में रखा, उस के साथ विश्वासघात किया, उस के रहते हुए किसी अन्य महिला से शारीरिक संबंध… इतना ही नहीं उस से बच्चा भी. रेखा को सभी कुछ अनजान व अजनबी प्रतीत हो रहा था. उसे खुद का वजूद भी एक भ्रम लग रहा था.

यह बात तो साफ थी कि रवि उग्रवादियों के साथ मुठभेड़ में नहीं मरा था और न ही वह देश के लिए शहीद हुआ था. उग्रवादी गुट ने आपसी रंजिश में उस की जान ली थी.

‘‘मेरे पापा के कोई और बच्चा नहीं है, सिर्फ मैं ही हूं,’’ कहते हुए ईशा बिस्तर पर फिर लुढ़क गई थी.

कमांडर पंत अब रेखा से नजरें चुराने लग गए थे. रवि की हरकतों ने संभवत: सी.आर.पी.एफ. के कर्मचारियों के चरित्र पर  धब्बा लगा दिया था.

रात करीब 12 बजे  एक वैन घर के आगे आ कर रुकी. रेखा की मां, भाई व उन की पत्नियां घबराए हुए से घर में घुसे और बौखलाई नजरों से सभी ने रेखा व ईशा को देखा. आफिस के लोगों ने उन तक सूचना पहुंचा दी थी. उन को देख कर रेखा की जान में जान आई. भाइयों की बीवियां ईशा की तरफ  बढ़ीं, भाई व मां रेखा की तरफ. मां रोते हुए बोलीं, ‘‘यह क्या हो गया, रेखा? मेरी तरह तू भी…’’

फिर एक दबी हुई खामोशी, एक असहजता भरा वातावरण, सभी लोग चकित. रेखा का बड़ा भाई विनोद चुप्पी तोड़ते हुए बोला, ‘‘हमें रवि के बारे में सब कुछ पता चल गया है. उस लड़की रेशमा से उस के संबंध… तुझे क्या कभी उस पर शक नहीं हुआ?’’ कहते हुए उन के चेहरे पर झुंझलाहट आ गई थी.

रेखा ने इनकार में गरदन भर हिलाई.

छोटा भाई राकेश बोला, ‘‘कुछ तो कभी…कालाइगांव से कभी कोई ऐसा फोन… या तू ने कभी वहां फोन किया हो तो किसी औरत का स्वर…?’’

रेखा को सहसा ध्यान आया कि वह कभी भी खुद रवि को फोन नहीं करती थी. हमेशा रवि ही उसे फोन करते थे. यह नियम उन के बीच हमेशा बना रहा था.

समय कैसा भी हो, बीत जाता है. रवि का गोली दगा शरीर दिल्ली पहुंचा. उस की अंत्येष्टि हुई, रेशमा से रवि के कैसे ही संबंध रहे हों मगर उन की कानूनन पत्नी रेखा थी इसलिए मौत का मुआवजा, पेंशन, संपत्ति आदि सभी पर रेखा का हक था. रवि के रेशमा से संबंधों की चर्चा उस के सभी परिचितों के बीच हो रही थी. उस के कालिज, जहां रेखा अर्थशास्त्र की लेक्चरार थी, के स्टाफ  के लोगों को भी पता चल गया था. सभी की बेधती खामोश नजरें उस से पूछ रही थीं कि क्या उसे अपने पति पर कभी शक नहीं हुआ?

रवि से हुई अंतिम मुलाकात को रेखा ने कई बार याद किया. उस सुबह वरदी पहने रवि ने बड़े सामान्य ढंग से उस से व ईशा से विदा ली थी और साथ में यह भी कहा था कि कालाइगांव में पोस्टिंग के सिर्र्फ कुछ ही दिन शेष बचे हैं. अगली पोस्टिंग वह दिल्ली की लेगा. ईशा का हाई स्कूल का बोर्ड है. वह उस के साथ घर पर रहना चाहता है. ईशा के जन्मदिन पर वह जरूर घर पहुंचेगा.

वह क्या वजहें थीं कि रवि ने किसी दूसरी औरत से गुप्त प्रेम संबंध बनाए? इस अफवाह में कितनी सचाई है? क्या रेशमा नामक कोई औरत वास्तव में अस्तित्व रखती है? इस तरह के कई सवाल रेखा के दिमाग में कोलाहल मचा रहे थे. चूंकि उस के तमाम सवालों का जवाब कालाइगांव में था. अत: उस ने वहां जा कर हकीकत को खुद जाननेसमझने का मन बनाया.

रेखा ने कमांडर पंत को फोन किया, ‘‘मैं कालाइगांव उस जगह जाना चाहती हूं जहां रवि रहते थे.’’

‘‘अरे, मैडम, आप किन चक्करों में…’’

‘‘नहीं,’’ रेखा ने कमांडर पंत को आगे कुछ कहने से रोकते हुए कहा, ‘‘मेरे लिए वहां जाना बहुत जरूरी है. नहीं तो मुझे चैन नहीं आएगा.’’

कमांडर पंत ने रेखा का जोरहाट तक एअर टिकट बुक करवा दिया. जोरहाट से बस द्वारा उसे कालाइगांव पहुंचना था, जहां अरबिंदा उसे लेने आने वाला था. रेखा जैसे ही बस से नीचे उतरी चपटी नाक वाला अरबिंदा उस के नाम का पोस्टर लिए उस की प्रतीक्षा में खड़ा था. वह चुपचाप आगे बढ़ी और जीप में बैठ कर सी.आर.पी.एफ. के गेस्टहाउस में आ गई.

रेखा  स्नान वगैरह कर के फे्रश हुई. मेस में जा कर थोड़ा खाना भी खाया. उस के बाद अरबिंदा से बोली, ‘‘मुझे रेशमा के घर ले चलो, जानते हो न उस का घर?’’

अरबिंदा ने सहमति में गरदन हिलाई और जीप में बैठने का इशारा किया.

जीप शहर की भीड़ से दूर किसी ग्रामीण इलाके  की सुनसान सड़क पर दौड़ने लगी थी. रेखा अपने विचारों की उधेड़बुन में थी कि एक सुंदर उपवन के बीच बनी काटेज के सामने अरबिंदा ने जीप रोक दी. रेखा ने काटेज को देखा, हरेभरे पेड़ों से घिरी छोटी सी काटेज सुंदरता का प्रतीक लग रही थी. एक अजनबीपन रेखा को डस गया. वह काटेज की तरफ बढ़ी तो अरबिंदा ने पूछा, ‘‘मैं जाऊं?’’

‘‘नहीं, तुम यहीं इंतजार करो,’’ वह बोली और आगे बढ़ गई.

दरवाजे के पास रेखा काफी देर तक खड़ी रही, हिम्मत ही नहीं हो रही थी खटखटाने की. अंदर से किसी शिशु के रोने की आवाज आ रही थी. इतनी दूर आ कर वह बिना रेशमा से मिले तो जाएगी नहीं, सोचते हुए उस ने हलके हाथों से दरवाजा थपथपाया. एक औरत गोदी में कुछ माह के शिशु को लिए आई और दरवाजा खोला. जैसे ही उस ने रेखा को देखा, वह एकाएक दरवाजा बंद करने लगी. रेखा ने तुरंत दरवाजा पकड़ लिया.

रेखा दरवाजा पीछे धकेल कर अंदर दाखिल हो गई. सामने दीवार पर उसे अपनी सास की बड़ी सी फोटो टंगी नजर आई. कमरे में दृष्टि दौड़ाई तो देखा लकड़ी के बड़े से केबिनेट पर रवि व रेशमा की प्रेम मुद्राओं में तसवीरें सजी थीं. एक फोटो में रवि, रेशमा और उन का बच्चा था. ईशा की फोटो भी लगी थी. वहां सभी की तसवीरें थीं, सिर्फ एक रेखा की छोड़ कर.

आगे पढ़ें- एक लंबी सांस भरते हुए रेखा ने…

सिर्फ कहना नहीं है

अलकाऔर संदीप को कोरोना से ठीक हुए 2 महीने हो चुके थे पर अजीब सी कमजोरी थी जो जाने का नाम ही नहीं ले रही थी. कहां तो रातदिन भागभाग कर पहली मंजिल से नीचे किचन की तरफ जाने के चक्कर कोई गिन ही नहीं सकता था पर अब तो अगर उतर जाती तो वापस ऊपर बैडरूम तक आने में नानी याद आ जाती.

संदीप ने तो ऊपर ही बैडरूम में अपना थोड़ाथोड़ा वर्क फ्रौम होम शुरू कर दिया था. थक जाते तो फिर आराम करने लगते. पर अलका क्या करे. हालत संभलते ही अपना चूल्हाचौका याद आने लगा था. अलका और संदीप एक हौस्पिटल में 15 दिन एडमिट रहे थे. बेटे सुजय का विवाह रश्मि से सालभर पहले ही हुआ था. दोनों अच्छी  कंपनी में थे. अब तो काफी दिनों से वर्क फ्रौम होम कर रहे थे. सुंदर सा खूब खुलाखुला सा घर था, नीचे किचन और लिविंगरूम था, 2 कमरे थे जिन में से एक सुजय और रश्मि का बैडरूम था और दूसरा रूम अकसर आनेजाने वालों के काम आ जाता. सुजय से बड़ी सीमा जब भी परिवार के साथ आती, उसी रूम में आराम से रह लेती. सीमा दिल्ली में अपनी ससुराल में जौइंट फैमिली में रहती थी और खुश थी. अब तक किचन की जिम्मेदारी पूरी तरह से अलका ने ही संभाल रखी थी. वह अभी तक स्वस्थ रहती तो उसे कोई परेशानी भी नहीं थी. मेड के साथ मिल कर सब ठीक से चल जाता.

आज बहुत दिन बाद अलका किचन में आई तो आहट सुन कर जल्दी से रश्मि भागती सी आई, ‘‘अरे मम्मी, आप क्यों नीचे उतर आई, कल भी आप को चक्कर आ गया था… पसीना पसीने हो गई थीं. मु?ो बताइए, क्या चाहिए आप को?’’

‘‘नहीं, कुछ चाहिए नहीं, बहुत आराम कर लिया, थोड़ा काम शुरू करती हूं,’’ कहतेकहते अलका की नजर चारों तरफ दौड़ी, उसे ऐसा लगा जैसे यह उस की किचन नहीं वह किसी और की किचन में खड़ी है.

अलका के चेहरे के भाव सम?ा गई रश्मि, बोली, ‘‘मम्मी, आप सब तो बहुत लंबे हो. मैं तो आप सब से लंबाई में बहुत छोटी हूं, मेरे हाथ ऊपर रखे डब्बों तक पहुंच ही नहीं पाते थे… और भी जो सैटिंग थी वह मु?ो सूट नहीं कर रही थी.  अत: मैं ने अपने हिसाब से किचन नए तरीके से सैट कर ली. गलत तो नहीं किया न?’’

क्या कहती अलका… शौक सा लगा उसे किचन का बदलाव देख कर… उस की सालों की व्यवस्था जैसे किसी ने अस्तव्यस्त कर दी… जहां जीवन का लंबा समय बीत गया, वह जगह जैसे एक पल में पराई सी लगी. मुंह से बोल ही न फूटा.

रश्मि ने दोबारा पूछा, ‘‘मम्मी, क्या

सोचने लगीं?’’

अकबका गई अलका. बस किसी तरह इतना ही कह पाई, ‘‘कुछ नहीं, तुम ने तो बहुत काम कर लिया सैटिंग का… तुम्हारे सिर तो खूब काम आया न.’’

‘‘आप दोनों ठीक हो गए… बस, काम का क्या है, हो ही जाता है.’’

अलका थोड़ी देर जा कर सोफे पर बैठी रही. रश्मि उस के पास ही अपना लैपटौप उठा लाई थी. थोड़ी बातें भी बीचबीच में करती जा रही थी.

अनमनी हो आई थी अलका, ‘‘जा कर थोड़ा लेटती हूं,’’ कह कर चुपचाप धीरेधीरे चलती हुई अपने बैडरूम में आ कर लेट गई.

उस का उतरा चेहरा देख संदीप चौंके,

‘‘क्या हुआ?’’

अलका ने गरदन हिला कर बस ‘कुछ नहीं’ का इशारा कर दिया पर अलका के चेहरे के भाव देख संदीप उस के पास आ कर बैठ गए, ‘‘थकान हो रही है न ऊपरनीचे आनेजाने में? अभी यह कमजोरी रहेगी कुछ दिन… अभी किसी काम के चक्कर में मत पड़ो. पहले पूरी तरह  से ठीक हो जाओ, काम तो सारी उम्र होते ही रहेंगे.’’

अलका ने कुछ नहीं कहा बस आंखें बंद कर चुपचाप लेट गई. लड़ाई?ागड़ा, चिल्लाना, गुस्सा करना उस के स्वभाव में न था. उस ने खुद संयुक्त परिवार में बहू बन कर सारे दायित्व खुशीखुशी संभाले थे और सब से निभाया था. पर एक ही ?ाटके में किचन का पूरी तरह बदल जाना उसे हिला गया था.

कोरोना के शिकार होने के दिन तक जिस किचन का सामान वह अंधेरे में भी ढूंढ़ सकती थी, वहां तो आज कुछ भी पहचाना हुआ नहीं था, कैसे चलेगा? उस समय तो संदीप और उस की तबीयत बहुत गंभीर थी, दोनों को लग रहा था कि बचना मुश्किल है, सुजय और रश्मि ने रातदिन एक कर दिए थे. जब से हौस्पिटल से घर आए हैं, दोनों रातदिन सेवा कर रहे हैं. संदीप को तो कपड़े पहनने में भी कमजोरी लग रही थी. सुजय ही हैल्प करता है उन की. शरीर का दर्द दोनों को कितना तोड़ गया है, वही जानते हैं.

हौस्पिटल में बैड पर लेटेलेटे भी अलका को घरगृहस्थी की चिंता सता रही थी कि क्या होगा, कैसे होगा, रश्मि को तो कुछ आता भी नहीं… यह सच था कि रश्मि को कुकिंग ठीक से नहीं आती थी पर इन दिनों गूगल पर, यू ट्यूब पर देखदेख कर उस ने सब कुछ बनाया था, उन की बीमारी में उन की डाइट का बहुत ज्यादा ध्यान रखा था. अलका की पसंद का खाना सीमा को फोन करकर के पूछपूछ कर बनाया था. सीमा उस समय आ नहीं पाई थी. वह परेशान होती तो रश्मि ही उसे तसल्ली देती, वीडियो कौल करवा देती.

अचानक विचारों ने एक करवट सी ली. आज किचन में जो बदलाव देख कर मन में टूटा सा था, अब जुड़ता सा लगा जब ध्यान आया कि जब रश्मि बहू बन कर आई तो उसे अलका ने और बाकी सब लोगों ने यही तो कहा था कि यह तुम्हारा घर है, इसे अपना घर सम?ा कर आराम से बिना संकोच के रहो तो वह तो अपना घर सम?ा कर ही तो पूरे मन से हर चीज कर रही है.

ये जो किचन में उस ने सारे बदलाव कर दिए, अपना घर ही तो सम?ा होगा न… किसी दूसरे की किचन में कोई इस तरह से अधिकार नहीं जमा सकता न… बहू को सिर्फ यह कहने से थोड़े ही काम चलता है कि यह तुम्हारा घर है, जो चाहे करो, उसे करने देने से रोकना नहीं है… यह उस का भी तो घर है… अलका सोच रही थी कि उसे कुछ परेशानी होगी, वह प्यार से अपनी परेशानी बता देगी, नहीं तो सब ऐसे ही चलने देगी जैसे रश्मि घर चला रही है. सिर्फ कहना नहीं है, उसे पूरा हक देना है अपनी मरजी से जीने का, घर को अपनी सहूलियतों के साथ चलाने का.

अचानक अलका के मन में न जाने कैसी ताकत सी महसूस हुई.

वह फिर नीचे जाने के लिए खड़ी हो गई कि जा कर अब आराम से देखती हूं कि कहां क्या सामान रख दिया है बहू रानी ने… नए हाथों में नई सी व्यवस्था देखने के लिए अब की बार वह मुसकराते हुए सीढि़यां उतर रही थी.

कालिमा: कैसे बेटे-बहू ने समझी अम्मां-बाबूजी की अहमियत

अगर वह उसे माफ कर दे: भाग 1- पिता की मौत के बाद क्या हुआ ईशा के साथ

मीठी नींद के झोंकों में रेखा ने सहसा महसूस किया कि दरवाजे की घंटी बज रही है. धीरे से आंखें खोलीं और सामने रखी घड़ी में समय देखा तो 5 बज रहे थे. इतनी सुबह कौन घंटी बजा रहा है? सोचते हुए वह अलसाई सी लेटी रही.

दरवाजे की घंटी लगातार बजती गई. आखिर वह बिस्तर से उठी और अपने कमरे से निकल कर गैलरी में आई. बगल के कमरे में झांका तो बेटी ईशा सो रही थी. असमंजस में वह दरवाजे की तरफ बढ़ी और ताला खोलने के बाद दोनों पट खोल दिए.

सामने सी.आर.पी.एफ. के 2 अधिकारी गंभीर भाव लिए खड़े थे. उन की टोपियां उन के हाथों में थीं. रेखा ने हैरत भरी नजरों से उन्हें देखा तो जवाब में उन की आंखों में आंसू छलक आए. उसे अचानक अपने पतिका ध्यान आ गया, ‘‘रवि…’’ वह बौखलाई सी बोली, ‘‘वह ठीक तो हैं न?’’

उन्होंने अपनी आंखें बंद कर लीं. आंसू बंद आंखों से बह कर गालों पर ढुलकने लगे. दर्द की कई रेखाएं उन के चेहरों पर उभर आईं.

‘‘क्या हुआ रवि को?’’ रेखा चिल्लाई.

कमांडर पंत आगे बढ़े और रेखा का कंधा पकड़ लिया. उन के साथ सुपरिंटेंडेंट कमांडर गुप्ता भी आगे बढ़ आए, ‘‘मैडम, रवि हमारे बीच नहीं रहे. कल रात बोडो उग्रवादियों ने उन को…’’

इस के आगे रेखा कुछ न सुन सकी. एक दर्दनाक चीख उस के कंठ से निकल गई. खुले मुंह पर हाथ चला गया. वह बेहोश सी होने लगी कि पंत व गुप्ता ने उसे संभाल लिया. इस के बाद तो रेखा की दबी आवाज वीभत्स चीखों में बदल गई. ईशा अपने कमरे से उठ कर आंखें मलते हुए ड्राइंगरूम में आई.

सी.आर.पी.एफ. के अधिकारियों के बीच अपनी मां को रोतेबिलखते देख एक पल के लिए उस का माथा ठनका. फिर उस ने भी पूछा, ‘‘क्या हुआ पापा को?’’

जवाब में रेखा की चीखें और तेज हो गईं. पंत और गुप्ता भी अपने आंसू पोंछने लगे.

‘‘नहीं…नहीं…’’ ईशा चिल्लाई, ‘‘पापा ने मेरे जन्मदिन पर आने का वादा किया था. वह मर नहीं सकते…’’ बुदबुदाते हुए वह नीचे फर्श पर लुढ़क गई.

अब रेखा को छोड़ कर पंत और गुप्ता ईशा को संभालने लगे. वह बेहोश हो गई थी. कमांडर पंत ने ईशा को उठा कर दीवान पर लिटाया और उस के मुंह पर ठंडे पानी के छींटे मारने लगे मगर उस की बेहोशी नहीं टूटी. डाक्टर को घर बुलाना पड़ा.

डाक्टर ने ईशा की नब्ज देखी, ब्लडप्रेशर चेक किया, एक इंजेक्शन लगाया और एक तरफ निर्लिप्त बैठी रेखा से बोला, ‘‘मैडम,  आप की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है. अपने गम को भुला कर बेटी को संभालिए. पिता की मौत का बहुत सदमा लगा है इसे. ऐसे में अगर आप ने भी इसे सहारा नहीं दिया तो…’’

चेहरे से हथेलियां हटा कर रेखा ने ईशा के सुंदर व मासूम चेहरे की तरफ देखा. बेटी गहरी बेहोशी में डूबी हुई थी. रवि से उसे बहुत लगाव था. 3 दिन बाद उस का 15वां जन्मदिन था और रवि ने घर पहुंचने का वादा किया था. रवि चाहे कितनी भी संवेदनशील पोस्टिंग में रहा हो, ईशा के जन्मदिन पर वह अवश्य घर पहुंचता था.

रेखा को अपनी बेटी पर तरस आने लगा. किशोरवय में ही उस ने पिता खो दिया. रेखा को अपनी किशोरावस्था के दिन सहसा याद आ गए. कहते हैं  इतिहास खुद को दोहराता है. वह भी सिर्फ 15 साल की थी कि उस के पिता की हार्ट अटैक से अकस्मात मौत हो गई थी. लेकिन उस के 2 बड़े भाई थे, जिन का साया उस के लिए उस के पिता से बढ़ कर था. ईशा का तो कोई भी नहीं, न भाई न बहन… यह सोच कर सिहरते हुए रेखा ने बेटी को भींच लिया. उस के खुद के लिए भी अब ईशा के सिवा कौन रह गया है? नहीं, उसे ईशा को संभालना है. पिता की असमय हुई मौत के गम से उसे उबारना है.

‘‘यहां दिल्ली में आप के कोई रिश्तेदार वगैरह रहते हैं?’’ कमांडर पंत ने पूछा.

‘‘मेरे भाई व मां यहीं बसंत कुंज में रहते हैं मगर इस समय वे सभी बदरीनाथ घूमने गए हैं. परसों तक पहुंच जाएंगे. परसों यहां रवि को भी पहुंचना था. 3 दिन बाद बेटी का जन्मदिन है,’’ हताशा में वह फिर से विलाप करने लगी.

पूरे दिन ईशा दीवान पर बेहोश लेटी रही. उसे ग्लूकोज चढ़ाना पड़ा. कितने ही लोग रेखा के पास अफसोस जाहिर करने आ रहे थे. किस ने उन्हें खबर दी, उसे नहीं मालूम. वह बस, लगातार ईशा की बगल में बैठी रवि के संग बिताए दिनों की यादों में खोेई रही.

शाम को जब ईशा की बेहोशी टूटी तो इन दुख भरे लमहों में भी खुशी की हलकी लकीरें उस के चेहरे पर छा गईं.

‘‘पापा?’’ ईशा बोली.

‘‘तेरे पापा एक वीर व साहसी इनसान थे. उन्होंने असम में बोडो उग्रवादियों का सामना करते हुए अपनी जान दी है. वे देश के लिए शहीद हुए हैं. हमें उन की कुर्बानी पर अफसोस नहीं, फख्र करना चाहिए,’’ कहते हुए रेखा उठी और रसोई में जा कर उस ने चाय बनाई. खुद भी पी और ईशा को भी पिलाई.

‘‘चल, नहाधो ले,’’ वह उसे पुचकारते हुए बोली, ‘‘तेरे पापा को सुस्ती कभी पसंद नहीं आती थी.’’

पापा का नाम सुन कर ईशा उठ गई. दोनों ने स्नान किया. अफसोस जाहिर करने वालों का प्रवाह थम गया था.

‘‘तेरे पापा का पूरे देश में गुणगान हो रहा होगा,’’ वह बेटी से बोली, ‘‘खबरों में भी उन की बहादुरी के बारे में बताया जा रहा होगा. गर्व कर अपने पापा पर, वह एक महान इनसान थे. तू उन जैसी बनने की कोशिश करना,’’ ईशा को प्रेरित करते हुए रेखा ने टीवी चला दिया.

अधिकतर खबरें हाल में हुए चुनाव पर थीं. फिर इधरउधर की कुछ अन्य सामान्य खबरें बताई गईं. अंत में समाचारवाचक ने कमांडर रवि शर्मा का नाम लिया तो रेखा व ईशा के दिलों की धड़कनें बढ़ गईं.

वह दोनों एकटक स्क्रीन पर नजरें टिकाए समाचार सुनने लगीं. रवि की वरदी पहनी तसवीर स्क्रीन पर उभरी तो रेखा व ईशा की रुलाई फूट पड़ी.

‘‘कमांडर रवि शर्मा की कल रात किन्हीं अज्ञात कारणों से बड़े रहस्यमय तरीके से हत्या हो गई है. कहा जाता है कि उन के बोडो संगठन की एक महिला उग्रवादी रेशमा से नाजायज संबंध थे. 2 साल से रेशमा कमांडर शर्मा की रखैल बन कर रह रही थी…’’

आगे पढ़ें- रेखा ने अपना सिर पकड़ लिया. पति…

एक और आकाश: भाग 3- क्या हुआ था ज्योति के साथ

शारीरिक भूख से अधिक महत्त्व- पूर्ण उस के अपने बच्चे प्रकाश का भविष्य था, जिसे संवारने के लिए वह अभी तक कई बार मरमर कर जी थी. अपने को उस सीमा तक व्यस्त कर चुकी थी, जहां उस को कुछ सोचने का अवकाश ही नहीं मिलता था.

ज्योति की कल्पना में अभी स्मृतियों का क्रम टूट नहीं पाया था. वह शाम आंखों में तिर गई थी, जब उस ने मां को सबकुछ साफसाफ कह दिया था. अपने प्रेम को भूल का नाम दे कर रोई थी, क्षमा की भीख मांग कर मां से याचना की थी कि वह गर्भ नष्ट करने के लिए उसे जाने दे.

मां ने उसे गर्भ नष्ट कराने का मौका न दे कर सबकुछ पिता को बता दिया था. फिर पहली बार पिता का वास्तविक रूप उस के सामने आया था. उन्होंने ज्योति को नफरत से देखते हुए दहाड़ कर कहा था, ‘‘खबरदार, जो तू ने मुझे आज के बाद पिता कहा. निकल जा, अभी…इसी वक्त इस घर से. तेरा काला मुंह मैं नहीं देखना चाहता. जाती है या नहीं?’’

अब उन्हीं पिता का पत्र उसे मिला था. क्षण भर के लिए मन तमाम कड़वाहटों से भर आया था. परंतु धीरेधीरे पिता के प्रति उदासीनता का भाव घटने लगा था. वह निर्णय ले चुकी थी कि अगर पिता ने उसे क्षमा नहीं किया तो कोई बात नहीं, वह अपने पिता को अवश्य क्षमा कर देगी.

उस दिन तो पिता की दहाड़ सुन कर कुछ क्षण ज्योति जड़वत खड़ी रही थी. फिर चल पड़ी थी बाहर की ओर. उसे विश्वास हो गया था कि उस का प्रेमी हो या पिता, पुरुष दोनों ही हैं और अपने- अपने स्तर पर दोनों ही समाज के उत्थान में बाधक हैं.

उस दिन ज्योति घर छोड़ कर चल पड़ी थी. किसी ने उस की राह नहीं रोकी थी. किसी की बांहें उस की ओर नहीं बढ़ी थीं. किसी आंचल ने उस के आंसू नहीं पोंछे थे. आंसू पोंछने वाला आंचल तो केवल मां का ही होता है. परंतु साथ ही उसे इस बात का पूरा एहसास था कि पिता के अंकुश तले दबी होंठों के भीतर अपनी सिसकियों को दबाए हुए उस की मां दरवाजे पर खड़ी जरूर थीं, पर उसे पांव आगे बढ़ाने की अनुमति नहीं थी. वह चली जा रही थी और समझ रही थी मां की विवशता को. आखिर वह भी तो नारी थीं उसी समाज की.

बच्चे को जन्म देने के बाद ज्योति ने उसे प्रकाश नाम दे कर अपने भीतर अभूतपूर्व शक्ति का अनुभव किया था. उसे वह गुलाब के फूल की तरह अनेक कांटों के बीच पालती रही थी.

अब ज्योति की आंखों में केवल एक ही स्वप्न शेष था. किस प्रकार वह समाज में अपना वही स्थान प्राप्त कर ले, जिस पर वह घर से निकाले जाने से पहले प्रतिष्ठित थी.

शायद इन्हीं भावनाओं ने ज्योति को प्रेरित किया था मां के नाम पत्र लिखने के लिए. डब्बे में रोशनी कम थी. फिर भी उस ने अपने पर्स को टटोल कर उस में से कुछ निकाला. आसपास के सारे यात्री सो रहे थे या ऊंघ रहे थे. ज्योति एक बार फिर उस पत्र को पढ़ रही थी जिसे उस ने केवल मां को भेजा था, केवल यह जानने के लिए कि कहीं भावावेश में किसी शब्द के माध्यम से उस का आत्मविश्वास डिग तो नहीं गया था.

‘‘मां, अपनी बेटी का प्रणाम स्वीकार करते हुए तुम्हें यह विश्वास तो हो गया है न कि ज्योति जीवित है.

‘‘मैं जीवन के युद्ध में एक सैनिक की भांति लड़ी हूं और अब तक हमेशा विजयी रही हूं प्रत्येक मोर्चे पर. परंतु मेरी विजय अधूरी रहेगी जब तक अंतिम मोर्चे को भी न जीत लूं. वह मोर्चा है, तुम्हारे समाज के बीच आ कर अपनी प्रतिष्ठा पुन: प्राप्त कर लेने का. मैं ने उस घर को अपना घर कहने का अधिकार तुम से छीन लेने के बाद भी छोड़ा नहीं. मैं उसी घर में आना चाहती हूं. परंतु मैं तभी आऊंगी जब तुम मुझे बुलाओगी. सचसच कहना, मां, क्या तुम में इतना साहस है कि तुम और पिताजी दोनों अपने समाज के सामने यह बात निसंकोच स्वीकार कर सको कि मैं तुम्हारी बेटी हूं और प्रकाश मेरा पुत्र है.

‘‘मेरी परीक्षा की अवधि बीत चुकी है. अब तुम दोनों की परीक्षा का अवसर है. मैं नहीं चाहती कि आप में से कोई मेरे पास ममतावश आए. मैं चाहूंगी कि आप सब कभी मुझे इस दया का पात्र न बनाएं. मैं छुट्टियों के कुछ दिन आप के पास बिता कर पुन: यहां वापस आ जाऊंगी. मेरे पुत्र या मुझे ले कर आप की प्रतिष्ठा पर जरा भी आंच आए, यह मेरी इच्छा नहीं है. मैं ऐसे में अंतिम श्वास तक आप के लिए उसी तरह मरी बनी रहने में अपनी खुशी समझूंगी जिस तरह अब तक थी. यदि मैं ने आप लोगों को अपनी याद दिला कर कोई गलती की है तो भी क्षमा चाहूंगी. शायद यही सोच कर मैं ने इस पत्र में केवल अपनी याद दिलाई है, अपना पता नहीं दिया.

-ज्योति.’’

ज्योति को यह सोच कर शांति मिली थी कि उस ने ऐसा कुछ नहीं लिखा था जिस से उन के मन में कोई दुर्बलता झांके. उस ने पत्र को पर्स में रखने के साथ दूसरा पत्र निकाला, जो उस के पिता का था. वह पत्र देखते ही उस की आंखें डबडबा आईं और उन आंसुओं में उतने बड़े कागज पर पिता के हाथ के लिखे केवल दो वाक्य तैरते रहे, ‘‘चली आ, बेटी. हम सब पलकें बिछाए हुए हैं तेरे लिए.’’

सुबह का उजाला उसे आह्लादित करने लगा था. अपनी जन्मभूमि का आकर्षण उसे बरबस अपनी ओर खींच रहा था. कल्पना की आंखों से वह सभी परिवारजनों की सूरत देखने लगी थी.

गाड़ी ज्योंज्यों धीमी होती गई, ज्योति की हृदयगति त्योंत्यों तीव्र होती गई. प्रकाश की उंगली थामे हुए वह डब्बे के दरवाजे पर खड़ी हो गई. कल्पना साकार होने लगी. गाड़ी रुकते ही कई गीली आंखें उन दोनों पर टिक गईं. कई बांहों ने एकसाथ उन का स्वागत किया. कई आंचल आंसुओं से भीगे और कई होंठ मुसकराते हुए कह बैठे, ‘‘कैसी हो गई है ज्योति, योगिनी जैसी.’’

ज्योति ने डबडबाई आंखों से भाई की ओर निहारा जो एक ओर चुपचाप खड़ा सहज आंखों से बहन को निहार रहा था. ज्योति ने अपने पर्स से पिछले 11 वर्षों की राखी के धागे निकाले और उस की कलाई पर बांधते हुए पूछा, ‘‘भाभी नहीं आईं, भैया?’’

‘‘नहीं, बेटी. तेरे बिना तेरे भैया ने शादी नहीं की. अब तू आ गई है तो इस की शादी भी होगी,’’ मां बोल उठी थीं.

घर की ओर जातेजाते ज्योति के मन में अपूर्व शांति थी. अपने भाई के प्रति मन स्नेह से भर गया था. उस का संघर्ष सार्थक हुआ था. उस के वियोग का मूल्य भाई ने भी चुकाया था. उस ने ऊपर की ओर ताका. मन के भीतर ही नहीं, ऊपर के आकाश को भी विस्तार मिल रहा था.

एक और आकाश: भाग 2- क्या हुआ था ज्योति के साथ

मां के सो जाने के बाद उन्होंने भी लुकछिप कर एक बार फिर उस के पत्र को ढूंढ़ कर पढ़ने की कोशिश की होगी. आंखें भर आई होंगी तो इधरउधर ताका होगा कि कहीं कोई उन्हें रोते हुए देख तो नहीं रहा. मां ने पिता की इस कमजोरी को पहचान कर पहले ही वह पत्र ऐसी जगह रखा होगा, जहां वह चोरीछिपे ढूंढ़ कर पढ़ सकें क्योंकि सब के सामने उस पत्र को बारबार पढ़ना उन की मानप्रतिष्ठा के विरुद्ध होता और इस बात का प्रमाण होता कि वह हार रहे हैं.

ज्योति अनमनी सी नित्य बच्चों को पढ़ाने स्कूल जाती थी. घर लौट कर देखती थी कि कहीं पत्र तो नहीं आया. धीरेधीरे 10 दिन बीत गए थे और आशा पर निराशा की छाया छाने लगी थी.

एक दिन रास्ते में वही हितैषी महेंद्र अचानक मिल गए थे. उन के हाथ में एक लिफाफा था. उस पर लिखी अपने पिता की लिखावट पहचानने में उसे एक पल भी न लगा था.

‘‘बेटी, डाक से यहां तक पहुंचने में देर लगती, इसलिए मैं खुद ही पत्र ले कर चला आया…खुश है न?’’ महेंद्र ने पत्र उसे थमाते हुए कहा.

स्वीकृति में सिर झुका दिया था ज्योति ने. होंठों से निकल गया था, ‘‘कोई मेरे बारे में पूछने घर से आया तो नहीं था?’’

‘‘नहीं, अभी तक तो नहीं आया. और आएगा भी तो तेरी बात मुझे याद है, घर के सब लोगों को भी बता दिया है. विश्वास रखना मुझ पर.’’

‘‘धन्यवाद, दादा.’’

महेंद्र ने ज्योति के सिर पर हाथ फेरा. बहुत सालों बाद उस स्पर्श में उसे अपने मातापिता के हाथों के स्पर्श जैसी आत्मीयता मिली. पत्र पाने की खुशी में यह भी भूल गई कि वह स्कूल की ओर जा रही थी. तुरंत घर की ओर लौट पड़ी.

लिफाफा ज्यों का त्यों बंद था. मां के हाथों की लिखावट होती तो अब तक पत्र खुल चुका होता. परंतु पिता के हाथ की लिखावट ने ज्योति के मन में कुछ और प्रश्न उठा दिए थे क्योंकि अब तक वह पिता के प्रति अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं ला सकी थी. उस की दृष्टि में उस के दुखों के लिए वह खुद तो जिम्मेदार थी ही, परंतु उस के पिता भी कम जिम्मेदार न थे.

तो क्या उन्हीं कठोर पिता का हृदय पिघल गया है? मन थरथरा उठा. कहीं पिता ने अपने कटु शब्दों को तो फिर से नहीं दोहरा दिया था?

कांपते हाथों से ज्योति ने लिफाफा फाड़ा. पत्र निकाला और पढ़ने लगी. एकएक शब्द के साथ मन की पीड़ा पिघलपिघल कर आंखों के रास्ते बहने लगी. वह भीगती रही उस ममता और प्यार की बरसात में, जिसे वह कभी की खो चुकी थी.

ज्योति अगले दिन की प्रतीक्षा नहीं कर सकी थी और उसी समय उठ कर स्कूल के लिए चल दी थी. छुट्टी का आवेदन देने के साथसाथ डाकघर में जा कर तार भी दे आई थी.

वह रात भी वैसी ही अंधियारी रात थी, जैसी रात में ज्योति ने 11 वर्ष पूर्व अकेले यात्रा की थी. मांबाप और समाज के शब्दों में, अपने गर्भ में वह किसी का पाप लिए हुए थी और अनजानी मंजिल की ओर चली जा रही थी एक तिरस्कृता के रूप में. और उसी पाप के प्रतिफल के रूप में जन्मे पुत्र के साथ वह वापस जा रही थी. उस रात जीवन एक अंधेरा बन कर उसे डस रहा था. इस रात वही जीवन सूरज बन कर उस के लिए नई सुबह लाने वाला था.

उस रात ज्योति अपने घर से ठुकरा दी गई थी. इस रात उस का अपने उसी घर में स्वागत होने वाला था. यह बात और थी कि उस स्वागत के लिए पहल स्वयं उस ने ही की थी क्योंकि उस ने अपना अतापता किसी को नहीं दिया था. अपने साहसी व्यक्तित्व के इस पहलू को वह केवल परिवारजनों के ही नहीं, पूरे समाज के सामने लाना चाहती थी, यानी इस तरह घर से ठुकराई गई बेटियां मरती नहीं, बल्कि जिंदा रहती हैं, पूरे आदरसम्मान और उज्ज्वल चरित्र के साथ.

ठुकराए जाने के बाद अपने पिता का घर छोड़ते समय के क्षण ज्योति को याद आए. मन में गहन पीड़ा और भय का समुद्र उफन रहा था. फिर भी उस ने निश्चय किया था कि वह मरेगी नहीं, वह जिएगी. वह अपने गर्भ में पल रहे भ्रूण को भी नष्ट नहीं करेगी. उसे जन्म देगी और पालपोस कर बड़ा करेगी. वह समाज के सामने खुद को लज्जित अनुभव कर के अपने बच्चे को हीन भावना का शिकार नहीं होने देगी. वह समाज के निकृष्ट पुरुष के चरित्रों के सामने इस बात का प्रमाण उपस्थित करेगी कि पुरुषों द्वारा छली गई युवतियों को भी उसी तरह का अधिकार है, जिस तरह कुंआरियों या विवाहिताओं को. वह यह भी न जानना चाहेगी कि उस का प्रेमी जीवित है या मर गया. वह स्वयं को विधवा मान चुकी थी, केवल विधवा. किस की विधवा इस से उसे कोई मतलब नहीं था.

इस मानसिकता ने उस नींव का काम किया था, जिस पर उस के दृढ़ चरित्र का भवन और बच्चे का भविष्य खड़ा था. उस ने घरघर नौकरी की. पढ़ाई आगे बढ़ाई. बच्चे को पालतीपोसती रही. जिस ने उस के शरीर को छूने की कोशिश की, उस पर उस ने अपने शब्दों के ही ऐसे प्रहार किए कि वह भाग निकला. आत्मविश्वास बढ़ता गया और उस ने कुछ भलेबुजुर्ग लोगों को आपबीती सुना कर स्कूल में नौकरी पा ली. एक घर ढूंढ़ लिया और अब अपने महल्ले की इज्जतदार महिलाओं में वह जानी जाती थी.

ज्योति का अब तक का एकाकी जीवन उस के भविष्य की तैयारी था. उस भविष्य की जिस के सहारे वह समाज के बीच रह सके और यह जता सके कि जिस समाज में उसे छलने वाले जैसे प्रेमी अपना मुंह छिपा कर रहते हैं, ग्लानि का बोझ सहने के बाद भी दुनिया के सामने हंसते हुए देखे जाते हैं, वहां उन के द्वारा ठुकराई हुई असफल प्रेमिकाएं भी अपने प्रेम के अनपेक्षित परिणाम पर आंसू न बहा कर उसे ऐसे वरदान का रूप दे सकती हैं, जो उन्हें तो स्वावलंबी बना ही देता है, साथ ही पुरुष को भी अपने चरित्र के उस घिनौने पक्ष के प्रति सोचने का मौका देता है.

उस एकाकीपन में ऐसे क्षण भी कम नहीं आए थे, जब ज्योति के लिए किसी पुरुष का साथ अपरिहार्य महसूस होने लगा था. कई बार उस ने सोचा भी था कि इस समाज के कीचड़ में कुछ ऐसे कमल भी होंगे, जो उसे अपना लेंगे. कुछ ऐसे व्यक्तित्व भी उसे मिलेंगे, जिन में उस जैसी ठुकराई हुई लड़कियों के लिए चाहत होगी.

परंतु उसी क्षण हृदय के किसी कोने में पुरुष के प्रति फूटा घृणा का अंकुर उसे फिर किसी पुरुष की ओर आकृष्ट होने से रोक देता. तब सचमुच उसे प्रत्येक युवक की सूरत में बस, वही सूरत नजर आती, जिस से उसे घृणा थी, जिसे वह भूल जाना चाहती थी. उस ने धीरेधीरे अपनी इच्छाओं, कामनाओं को केवल उसी सीमा तक बांधे रखा था, जहां तक उस की अपनी धरती थी, जहां तक उस का अपना आकाश था.

आगे पढ़ें- क्षण भर के लिए मन तमाम कड़वाहटों से भर आया था. परंतु…

कालिमा: भाग 1- कैसे बेटे-बहू ने समझी अम्मां-बाबूजी की अहमियत

बदरीनाथ का दिल बेहद परेशान था. एक ही प्रश्न रहरह कर उन को मथ रहा था. उम्र के इस पड़ाव पर वे दोनों, पतिपत्नी अकेले किस तरह रहेंगे? कौन भागदौड़ और सेवाटहल करेगा? फिर ब्याज व मकान किराए की सीमित आय. खर्चे कैसे पूरे होंगे? वृद्धावस्था में बीमारियां भी तो लग जाती हैं.

बहूबेटों का साथ छोड़ कर शायद उन्होंने ठीक नहीं किया. मगर वह भी क्या करते, तीनों बेटों में से एक भी उन्हें मन से रखना नहीं चाह रहा था. तीनों एकदूसरे पर डाल रहे थे. बातबात पर उन्हें जिल्लत झेलनी पड़ रही थी. उन के  लिए वहां एकएक पल काटना दूभर हो गया था.

जब इसी तरह उपेक्षा से रहना है तो अपने घर जा कर क्यों न रहें, जिसे उन्होंने अपने खूनपसीने से बनाया था. भले ही अकेले रह कर तकलीफें उठाएंगे, यह एहसास तो रहेगा कि अपने घर में रह रहे हैं.

घर की याद आते ही वे बेचैन हो उठे.

बड़ी मुश्किल से 17-18 घंटों का लंबा सफर तय हुआ. 27-28 वर्ष पूर्व, गृहप्रवेश के समय सुख की जो अनुभूति उन्हें हुई थी उस से हजार गुना ज्यादा इस वक्त हो रही थी.

उन का मकान दोमंजिला था. नीचे की मंजिल में वह स्वयं रहते थे, ऊपर वाला किराए पर उठा दिया था. उन के आने की खटरपटर सुन ऊपर छज्जे में से गुडि़या झांकने लगी. 5 साल की प्यारी सी नन्ही गुडि़या, उन के किराएदार श्रुति  और रंजन की बिटिया. उन्हें देखते ही खुशी से किलक कर वह तालियां पीटने लगी, ‘‘ओए होए, बाबा आ गए, अम्मां आ गईं.’’

वे जब तक आंगन में आते, नन्ही गुडि़या तेजी से भागती, सीढि़यां फलांगती नीचे उतरी और उन से आ कर लिपट गई. पीछेपीछे किलकता उस से छोटा चुन्नू भी था. बदरीनाथ और पारो उन दोनों को कस कर भींच बच्चों की मानिंद फूटफूट कर रो पडे़.

तब तक श्रुति व रंजन भी आ गए थे. दोनों की आंखों में आश्चर्य के भाव थे. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि बाबाअम्मां गए तो थे अपने बेटों के पास स्थायी रूप से रहने के लिए लेकिन इतनी जल्दी वापस क्यों आ गए…और वह भी बिना कोई सूचना दिए…अकेले…एकाएक…अपना पूरा सामान ले कर.

मगर बाबाअम्मां जिस तरह गुडि़याचुन्नू को चूमते हुए रो रहे थे, श्रुति  और रंजन कुछ न पूछ कर भी सब कुछ ताड़ गए. दोनों उन के समीप आ कर बैठ गए और उन के हालचाल पूछने लगे.

बदरीनाथ और पारो का जी हलका होने के बाद श्रुति और रंजन ने उन का सामान उठाया और ऊपर जीने में चढ़ाने लगे. बदरीनाथ ने सामान नीचे ही रखने का आग्रह किया पर श्रुति और रंजन ने स्नेहपूर्वक मना कर दिया कि इतने लंबे सफर के बाद थक गए होंगे. वैसे भी नीचे रसोई का पूरा सामान नहीं था.

वृद्ध दंपती का हृदय भर आया. वे सब ऊपर आ गए. चायनाश्ता करते हुए वे आपस में बतियाने लगे. सब से ज्यादा चहक रहे थे गुडि़या और चुन्नू. दोनों बदरीनाथ व पारो की गोद में इस तरह उछलकूद रहे थे जैसे अपने सगे दादादादी की गोद में हों.

वृद्ध दंपती को यह सब बेहद खुशगवार लग रहा था. पिछले ढाईतीन महीनों में उन्हें उन के अपनों ने जो घाव दिए थे, इन चंद मिनटों में ही उन की सारी कसक वे भूल गए.

मगर नियति ने शायद कुछ और सोच रखा था. इस से पहले कि वे आश्वस्त हो कर चैन की सांस लेते, तभी गुडि़या ने बातों के प्रवाह में अपनी यह

सूचना दे डाली कि उस के पापा ने एक घर खरीद लिया है, वे अब वहीं जा

कर रहेंगे.

सुनते ही बदरीनाथ और पारो जड़वत रह गए. एक पल को उन्हें सूझा ही नहीं कि इस शुभ उपलब्धि पर वे अपनी प्रतिक्रिया किस तरह व्यक्त करें. एक ओर सुख की अनुभूति हो रही थी कि उन के निश्छल सेवाभावी किराएदार का सपना पूरा होने जा रहा है, दूसरी ओर दिल भी बैठा जा रहा था कि जिन के सहारे वे अपनी जिंदगी का कुछ हिस्सा काटना चाहते थे वे ही उन्हें छोड़ कर चले जाएंगे.

उधर श्रुति और रंजन अजीब पसोपेश में पड़ गए थे. अपना घर खरीदने की उन्हें खुशी तो थी, यह जानकारी वे अपने वृद्ध मकान मालिक को देना भी

चाहते थे, मगर अपनों से ठुकरा कर आए इन वृद्धजनों की जो नाजुक मनोस्थिति इस वक्त थी उसे देखते हुए इस बात को वह 1-2 दिन और छिपाना चाहते थे.

श्रुति ने तो मन ही मन निश्चय कर लिया था कि भले ही 2-3 माह का किराया और देना पडे़, 4 दिन बाद होने वाला गृहप्रवेश वह आगे बढ़ा देगी. बाबाअम्मां का वह दिल से सम्मान करती थी. उस की दोनों प्रसूतियां अम्मांजी ने स्वयं इसी घर में करवाई थीं. हालांकि दोनों बार उस की सासूमां गांव से यथासमय आ गई थीं, मगर अम्मांजी ने उन के आने से पहले ही सारी तैयारियां करवा दी थीं. बाद में भी सगी दादी की तरह वह गुडि़या और चुन्नू की देखभाल करती रही थीं.

अब ऐसी स्नेहमयी अम्मां से वह भला एकदम कैसे कह देती कि हम 4 दिन बाद आप को छोड़ कर अपने मकान में जा रहे हैं.

उस की आंखों से बरबस आंसू ढुलक पडे़.

पथराई सी बैठी अम्मांजी ने जल्दी से अपने मनोभावों को नियंत्रित किया. गुडि़या के शुभ समाचार देने के साथ ही वह सोफे से उठीं और आगे बढ़ कर श्रुति को वात्सल्य से भींच लिया, ‘‘अरी पगली, ऐसी खुशखबरी ऐसे रोते हुए देते हैं,’’ साथ ही उन्होंने बटुवे से 100 का नोट निकाल उस के हाथों में जबरदस्ती ठूंस दिया.

बाबा ने भी रंजन व बच्चों को बधाई के रुपए दिए.

रंजन और श्रुति के गलेरुलाई से भर आए.

अगले दिन पौ फटने से पहले ही अम्मांजी उठ गईं. नीचे आ कर वह अपने बंद घर की साफसफाई करने लगीं. खटरपटर सुन कर रंजन व श्रुति भी आ गए और अम्मांजी के काम में हाथ बंटाने लगे. उन का यह अपनत्व देख अम्मांजी का हृदय भर आया.

अम्मांजी अपनी रसोई भी आरंभ करना चाह रही थीं मगर श्रुति ने अधिकारपूर्वक मना कर दिया. रसोई का लगभग सारा सामान बाजार से लाना था. बाबा तुरतफुरत अकेले इतनी भागदौड़ कैसे करेंगे? रंजन के सहयोग से 2-3 दिनों में सारा इंतजाम हो जाएगा. तब तक बाबाअम्मां उन्हीं के संग भोजन करें. वैसे भी अम्मांजी के हाथ का जायकेदार भोजन किए 3 महीने बीत गए थे. गुडि़या तो रोज मुंह फुलाती थी, ‘अम्मांजी जैसी सब्जी आप क्यों नहीं बनातीं, मम्मी?’

आखिर अम्मांजी को हार माननी पड़ी. दोपहर का भोजन कर बाबाअम्मां नीचे आराम करने चले गए. रंजन 10 बजे बैंक जा चुका था. गुडि़या भी स्कूल गई थी. चुन्नू को थपकी देती श्रुति सोच में डूब गई.

रहरह कर बाबाअम्मांजी के भावी जीवन की त्रासदी की कल्पना उसे झकझोर देती, ‘कैसे रहेंगे वे दोनों? क्या बीत रही होगी इस वक्त उन दोनों के दिलों पर? जिन बेटों को पालपोस कर इतना बड़ा किया वे ही पराए हो गए…उन के खर्चे कैसे चलेंगे? रिटायर होने के बाद उन की आय के साधन ही क्या थे? पी.एफ., ग्रेच्युटी का कुछ भाग वे पिछले वर्ष बड़ी पोती की शादी में खर्च कर चुके थे. शेष बचा फंड अन्य पोते- पोतियों के नाम कर दिया था. अपने लिए उन्होंने कुछ नहीं बचाया. मुश्किल से 70-80 हजार रुपयों की एफ.डी. थी बैंक में और था यह मकान. एफ.डी. के ब्याज और मकान के किराए से कैसे चलेगा उन का खर्च. हमारे जाने के बाद पता नहीं कैसे किराएदार आएं. यदि हमारी तरह घर जैसा समझने वाले न आए तब? बाबाअम्मां की बीमारी में सेवाटहल कौन करेगा?’

आगे पढ़ें- श्रुति की उड़ी रंगत देख वे..

कालिमा: भाग 4- कैसे बेटे-बहू ने समझी अम्मां-बाबूजी की अहमियत

सुनते ही श्लेषा का तनाव बढ़ गया. कल शाम से आई है यह मेघनी की बच्ची. पता नहीं कौनकौन सी पट्टी पढ़ा दी होगी इस ने अम्मांजी को? बाबाअम्मां शायद इसी वजह से कुछ खिंचेखिंचे से हैं. श्लेषा के लिए फिर एक पल ठहरना भी दुश्वार हो गया. वह देवरदेवरानी से मिलने का बहाना बना कर तुरंत किचन से बाहर आई.

उसे यूं एकाएक प्रगट हुआ देख अनंत और मेघा बुरी तरह सकपका गए.  भैयाभाभी कब आ गए. इन के आने के बारे में तो बाबाअम्मां ने कोई जिक्र ही नहीं किया था. कहीं बाबा से कोई सांठगांठ तो नहीं कर ली है भैया ने?

आशंका से अनंत की खोपड़ी में खतरे के सायरन बजने लगे. उसी समय सुमंत नहा धोकर कमरे से निकला. गलियारे में अपने छोटे भाई को देखते ही वह तनावग्रस्त हो गया. उफ, यह क्यों आ गया? मेरी योजना में कहीं पलीता न लगा दे.

दोनों भाई एकदूसरे के प्रतिद्वंद्वी बन गए. दोनों को एकदूसरे की उपस्थिति खलने लगी. अपने मन की दुर्भावनाओं को छिपा कर वे मुसकराते हुए मिले जरूर, मगर अंदर ही अंदर वे अपनेअपने जाल बुनने लगे.

दोपहर का 1 बज गया. वे सब भोजन करने बैठे. खाते हुए सुमंत का ध्यान बारबार घर की बदली हुई काया की ओर जाता. बाबा का स्टैंडर्ड काफी ऊंचा हो गया था. बेटों के घर जाने से पूर्व बाबा ने अपना फोन कटवा दिया था. बंद घर में फोन रख कर वह क्या करते? आज उन के पास 2-2 फोन थे, मोबाइल भी था. उन के फोन लगातार घनघना रहे थे.

बाबा के यहां ‘लंच पेक’ की सुविधा भी थी. अधिकांश फोन उसी के लिए आ रहे थे. खाना खाते हुए सुमंत मन ही मन हिसाब लगाने लगा. बाबा कम से कम हजार रुपया रोज छाप रहे थे.

खाना खाने के दौरान बाबा ने श्रुति को बैंक भेज दिया था. उस के साथ ऊपर छात्रावास में रहने वाला अशोक भी था.

जब तक इन का भोजन होता, श्रुति बैंक से 60 हजार रुपए ले कर आ गई. बाबा आफिस में आए. थोड़ी देर में 3 व्यापारी आ गए. बाबा ने पहले ही फोन कर दिया था.

श्रुति ने उन व्यापारियों का हिसाब निकाला. कोने की एक कुरसी पर बैठा सुमंत यह सब देख रहा था. घीतेल के व्यापारी को बाबा ने करीब 16 हजार रुपए का भुगतान किया. सुमंत फटीफटी आंखों से देखता रह गया. उस का वेतन 14 हजार रुपए माहवार था. यानी उस की पगार से ज्यादा रुपए का भुगतान बाबा एकएक व्यापारी को कर रहे थे. और यह भुगतान मात्र 19 दिनों की सप्लाई का था.

सुमंत का कंठ सूख गया. कितनी भारी तरक्की कर ली थी बाबा ने इस बुढ़ापे में.

उस ने चापलूसी करते हुए अपने पिता की तारीफ की. बाबा हौले से मुसकरा दिए, ‘‘सब दामादजी की कृपा है.’’

निखिल ने ही दिया था इस का आइडिया. निखिल का भतीजा पी.एम.टी. की तैयारी करने के लिए कोटा गया था. वहां वह एक परिवार में पेइंग गेस्ट बन कर रहा. कोटा में आजकल बहुत से मकानमालिक छात्रों को अपने घरों में रहने के साथसाथ भोजन की सुविधा भी देते हैं. घर जैसा माहौल, घर जैसा भोजन. छात्रों की पढ़ाई बहुत अच्छी तरह होती है.

निखिल ने बाबा को यही कार्य करने की सलाह दी. बाबाअम्मां हिचकिचाए कि भला इस बुढ़ापे में वे इतनी भागदौड़ कैसे करेंगे. निखिल ने मुसकराते हुए आश्वासन दिया कि सब हो जाएगा. आप बस मैनेजमेंट संभाल लेना.

निखिल पूरे 2 सप्ताह रहा. इधरउधर भाग दौड़ कर उस ने 12 कालिज छात्रों का चयन किया, यह छात्र अभी तक छोटेछोटे से एकएक कमरे में रह रहे थे. बाबा के घर उन्हें अच्छा खुला माहौल मिला. मनोरंजन के लिए नीचे बाबा के पास टी.वी. देखने आ जाते. बाबा के यहां उन्हें एक भारी फायदा और था. गांव से आने वाले उन के रिश्तेदार उन के साथ ठहर जाते. उन के होटल के खर्चे बच जाते.

छात्रों के चयन में निखिल ने विशेष ध्यान रखा. 4 छात्र मेडिकल के थे. जरूरत पड़ने पर वे बाबा और अम्मां को डाक्टरी सहायता भी तुरंत उपलब्ध करवा देते. कुछ छात्र कामर्स कालिज के थे, उन का कालिज सुबह रहने से घर में दिन भर चहलपहल रहती थी.

मेस के लिए निखिल ने 2 भोजन बनाने वाली बाइयों का इंतजाम कर दिया. अम्मां के हाथ की रसोई बहुत स्वादिष्ठ बनती थी. अम्मां सिर्फ मसाले निकालने व छौंक लगाने का काम करतीं, बाकी का सारा काम दोनों बाइयां संभालतीं.

शुरू में मेस सिर्फ उन 12 छात्रों के लिए प्रारंभ हुई थी लेकिन जब उन छात्रों के अन्य मित्रों ने भी वहां भोजन किया तो वे भी अम्मां के पास रोज गुहार करते, ‘‘दादी मां, हमें उधर होटल का खाना अच्छा नहीं लगता…पेट खराब हो रहा है…आप के यहां घर जैसा खाना मिलता है. प्लीज, दादी मां…’’

उन के अनुरोध के आगे बाबाअम्मां को झुकना पड़ा. छात्र बढ़ते गए, काम बढ़ता गया.

श्रुति इस बीच वहां से जा चुकी थी. कमरे में बाबा के अलावा और कोई नहीं था.

सुमंत असली मुद्दे पर आया. बातों की एक योजना बना उस ने अपनी नजरें बाबा के चेहरे पर गड़ा दीं, ‘‘अकेले इतना सारा काम संभालने में आप को दिक्कत आती होगी…’’

‘‘कोई दिक्कत नहीं,’’ बाबा ने बात पूरी होने के पूर्व ही काट दी. ऊपर रहने वाले सभी लड़के उन दोनों का बहुत ध्यान रखते थे. अपने दादादादी की तरह बाबाअम्मां की सेवा करते थे. उन लड़कों के कारण ही बाबा की मेस

का कारोबार बढ़ता गया था. बाबा अब उन से खानेरहने का आधा पैसा लेते. लड़के भी उन्हें दिलोजान से चाहने लगे थे. बाबाअम्मां को इस उम्र में और क्या चाहिए था.

सकपकाए सुमंत से कुछ कहते नहीं बना. थोड़ी देर की चुप्पी के बाद उस ने एक बार फिर गोटी फेंकी, ‘‘लेकिन बाबा, रुपयों का लेनदेन…हिसाबकिताब…इन कामों के लिए घर का व्यक्ति होना जरूरी है…’’

‘‘श्रुति है न, रंजन भी सहयोग करता है. मुझे देखने की जरूरत ही नहीं पड़ती.’’

‘‘क्या मतलब?’’ सुमंत ने शंका का तीर छोड़ा, ‘‘आप हिसाबकिताब कभी चेक ही नहीं करते?’’

‘‘क्या जरूरत है? रंजन स्वयं बैंक में बडे़बडे़ हिसाब देखता है…’’

‘‘फिर भी, बाबा. आखिरकार वह एक पराया…’’

‘‘कौन कहता है कि वह पराया है,’’ बाबा ने अपनी कठोर नजरें उस के चेहरे पर गड़ा दीं, ‘‘इस बुढ़ापे में मुझे किस ने सहारा दिया? उसी ने तो.’’

बाबा की आंखें सुलगने लगीं. 2-3 क्षणों की खामोशी के बाद उन्होंने रूखे स्वर में कहा, ‘‘तुम लोग क्या सोचते हो, यह सारा कारोबार मैं ने जमाया है? मैं ने मेहनत और भागदौड़ की है?’’

वे सुमंत को घूरते रहे, फिर उठ कर टहलने लगे, ‘‘सिर्फ स्कीम बना देने से कोई कारोबार सफल नहीं हो जाता, उस के लिए पूंजी लगती है, मेहनत और भागदौड़ करनी पड़ती है. मेरे पास पैसा बचा था क्या? इस उम्र में रसोई का इतना सारा सामान रोजरोज ले आता? रोज सवेरे सब्जी ले आता? काम वालों का इंतजाम कर लेता?’’

और बाबा ने निखिल की तारीफ करते हुए बताया कि उस ने जब रंजन को योजाना बताई तो रंजन तुरंत तैयार हो गया. वह बाबाअम्मां की सेवा जान दे कर भी करना चाहता था. बैंक से ताबड़तोड़ लोन दिलवा दिया. गांव से उस के बाबूजी ने 2 भोजन बनाने वाली बाइयां भेज दीं. रंजन के बैंक में सैकड़ों व्यापारियों के खाते थे. थोकव्यापारियों के यहां से घी, तेल, अनाज, मसाले…सब आ जाते. सब्जीमंडी के दलालों व व्यापारियों से भी रंजन की बहुत पहचान थी.

कारोबार जमाने के लिए रंजन ने 10-12 दिनों की छुट्टी ले ली. सारी मेहनत तो रंजनश्रुति की ही थी.

‘‘…फिर क्यों न विश्वास रखूं इन दोनों पर.’’

फिर कमरे से निकलतेनिकलते बाबा ने असली तीर छोड़ा, ‘‘तुम सगों ने तो हमें खाली हाथ अपनेअपने घरों से भगा दिया था. यह रंजन ही है, जिस

ने हमें संभाला. हमारा असली बेटा तो यही है…और हमारे कारोबार का आधा भागीदार भी.’’

सुमंत और अनंत सिर झुकाए बैठे रहे. अपनी खुदगर्जी के कारण जो अंधेरा उन्होंने अपने असहाय वृद्ध मातापिता के जीवन में कर दिया था, उस की कालिमा कलंक बन कर उन के ही चेहरों पर पुत गई थी.

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